History Best Short Points
भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण तिथियाँ
ईसा पूर्व (बी.सी.) Before Christ
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लगभग 2500 ई.पू. हड़प्पा संस्कृति.
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इसके प्रमुख केन्द्र थे- मोहनजोदडो तथा हडप्पा, लोथल, कालीबंगान, आलमगीरपुर
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1500 ई.पू. ऋग्वैदिक सभ्यता का आरम्भ
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800 ई.पू. – लोहे का प्रयोग, आर्य सभ्यता का प्रसार
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567 ई. पू. – लुम्बनी में महात्मा बुद्ध का जन्म
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519 ई.पू. – ईरान के सम्राट साइरस द्वारा पश्चिमोत्तर भारत के प्रदेशों की विजय
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493 ई.पू. मगध के अजातशत्रु का राज्यारोहण
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486 ई. पू. – महात्मा गौतम बुद्ध को कुशी-नगर नामक स्थान पर मोक्ष प्राप्त
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468 ई.पू. महावीर स्वामी को राजगिरी के निकट पावापुरी नामक स्थान पर निर्वाण प्राप्त
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413 ई. पू. – शिशुनाग राजवंश की मगध में स्थापना
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362-21 ई.पू. – नन्दवंश का शासकाल
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327-25 ई. पू. – यूनान के सिकन्दर महान् का भारत पर आक्रमण
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321 ई. पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण
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305 ई.पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा सेल्यूकस की पराजय
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269-232 ई.पू. – अशोक का शासनकाल
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261 ई. पू. – अशोक की कलिंग पर विजय
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250 ई. पू. – पाटलीपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति
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185 ई.पू. अन्तिम मौर्य सम्राट ब्रहद्रथ का वध मौर्य वंश का शासन समाप्त शुंग वंश का उदय
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180-165 ई.पू. – इण्डो-ग्रीक दिमीत्रियस द्वितीय का उत्तर-पश्चिम भारत पर शासन
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155-130 ई. पू. मेनान्डर का शासन-
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73 ई. पू. शुंग वंश के अन्तिम सम्राट देवभूति का वासुदेव कण्व द्वारा वध
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73-28 ई.पू. – कण्व वंश का शासनकाल
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58 ई.पू. विक्रम संवत् का प्रारम्भ
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50 ई.पू. कलिंग का राजा खारवेल
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28 ई.पू. 225 ई.पू. आन्ध्र व सातवाहन वंश का शासनकाल
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ईसवी सन् (ए.डी.) Anno Domini
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50 ईसवी सन्त थॉमस का भारत आगमन
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78 ईसवी- शक संवत् का प्रारम्भ
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78-101 ईसवी कुषाण वंश के प्रतापी शासक कनिष्क का शासनकाल कुछ के अनुसार (78-125 ईसवी)
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86-114 ईसवी- गौतमीपुत्र शतकर्णी का शासनकाल
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130-150 ईसवी- शक शासक रुद्र दमन प्रथम का पश्चिमी भारत पर शासन
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319-320 ईसवी-गुप्त वंश का प्रारम्भ. गुप्त संवत्, चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्यारोहण
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335 ईसवी समुद्रगुप्त सिंहासन पर आसीन हुआ
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375-415 ईसवी- चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल
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388-409 ईसवी के मध्य – चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शक सत्ता का अन्त
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405-411 ईसवी – चीनी यात्री फाह्यान की भारत यात्रा.
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415 ईसवी- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का पुत्र – कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर आसीन हुआ
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455-67 ईसवी-हुणों का आक्रमण
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455-67 ईसवी स्कन्दगुप्त का शासन-
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476 ईसवी – महान् वैज्ञानिकों व ज्योतिर्विद काल आर्यभट्ट का जन्म
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570 ईसवी – पैगम्बर मोहम्मद का जन्म
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606-647 ईसवी- हर्षवर्धन का शासन.
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622 ईसवी हिजरी संवत् का प्रारम्भ
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628-34 ईसवी के मध्य-पुलकेशिन द्वितीय द्वारा हर्षवर्धन को पराजित करना
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629-645 ईसवी – चीनी यात्री ह्वेनसाग की भारत यात्रा
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642 ईसवी-महान् पल्लव शासक नरसिंह वर्मन प्रथम द्वारा पुलकेशिन द्वितीय की पराजय
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पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु
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671-685 ईसवी – चीनी विद्वान् इत्सिंग का भारत के लिए प्रस्थान भारत में निवास का समय
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712-13 ईसवी- मुहम्मद बिन कासिम द्वारा भारत पर आक्रमण तथा सिन्ध तट पर अधिकार 736 ईसवी दिल्ली के प्रथम नगर की स्थापना
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740 ईसवी चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा पल्लव वंश का अन्त
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750 ईसवी बंगाल में पाल वंश के शासन का आरम्भ
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757 ईसवी दन्ति दुर्ग धारा चालुक्यों से अपनी स्वतन्त्रता घोषित तथा राष्ट्रकुल वंश का
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शक्तिशाली वंश के रूप में उदय
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793 ईसवी- राष्ट्रकूट वंश के गोविन्द तृतीय का राज्याभिषेक
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814-880 ईसवी राष्ट्रकूट शासक अमोघ- वर्ष प्रथम का शासनकाल
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836-92 ईसवी -प्रतिहार वंश के महान् शासक भोज कन्नौज के सिंहासन पर आसीन, पूर्वी चालुक्य वंश के भीम प्रथम का राज्याभिषेक 897 ईसवी-चोल राजा द्वारा अन्तिम पल्लव शासक की पराजय काँची के पल्लवों का अन्त
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915 ईसवी- राष्ट्रकूट शासक द्वारा बंगाल के शासक महीपाल की पराजय राष्ट्रकूट वंश का मध्य भारत में शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में अभ्युदय
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949 ईसवी कृष्ण तृतीय द्वारा चोलवंशीय परान्तक प्रथम की पराजय 985 ईसवी – राजराज चोल प्रथम का राज्याभिषेक
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1001 ईसवी-महमूद गजनी द्वारा पेशावर और पंजाब के हिन्दूशाही शासक जयपाल की पराजय 1008 ईसवी-पेशावर के समीप वेहिन्द पर महमूद गजनी द्वारा आक्रमण, आनंदपाल की पराजय
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1010 ईसवी – भोज परमार शासक बना
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1014 ईसवी-राजेन्द्र प्रथम चोल वंश का शासक बना
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1017-1137 ईसवी दार्शनिक रामानुज 1019 ईसवी-महमूद गजनवी का मथुरा व कन्नौज पर आक्रमण
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1022 ईसवी-महमूद गजनवी का कालिजर पर आक्रमण व ग्वालियर पर आक्रमण
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1025 ईसवी महमूद गजनवी ईसवी-महमूद द्वारा सोमनाथ पर आक्रमण लूटपाट तथा मन्दिर तोड़ना
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1030 ईसवी- अल्बरूनी भारत में
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1030 ईसवी- राजेन्द्र चोल का उत्तरी. भारत का अभियान
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1175 ईसवी- मुहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण व मुल्तान दुर्ग पर कब्जा
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1178 ईसवी -मुहम्मद गौरी का गुजरात पर आक्रमण तथा पराजय
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1191 ईसवी तराइन का प्रथम युद्ध पृथ्वीराज चौहान द्वारा मुहम्मद गौरी की पराजय
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1192 ईसवी तराइन का द्वितीय युद्ध पृथ्वीराज चौहान की मुहम्मद गौरी द्वारा पराजय
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1194 ईसवी- मुहम्मद गौरी द्वारा चन्द्रावर के युद्ध में कन्नौज के शासक जयचन्द की पराजय
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1206 ईसवी कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली के सिहासन पर आसीन मुस्लिम राज्य की स्थापना. मुहम्मद गौरी की हत्या
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1210 ईसवी दिल्ली सुल्तान कुतुबुदीन ऐबक की मृत्यु 1211 ईसवी इल्तुतमिश का शासनकाल आरम्भ
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1221 ईसवी- मंगोलों के सरदार चगेज खाँ का खारिज्म के शाह पर आक्रमण
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1236 ईसवी- शेख निजामुद्दीन औलिया का जन्म इल्तुतमिश की पुत्री रजिया आसीन
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1236 ईसवी दिल्ली के सुल्तान पद पर
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1240 ईसवी रजिया सुल्तान का वध
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1246 ईसवी – नासिरूद्दीन औलिया का जन्म
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1266 86 ईसवी- गयासुद्दीन बलबन का शासनकाल
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1288 ईसवी-मार्क पोलो का भारत आगमन
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1290 ईसवी दासवंश का अंत जलालुद्दीन खलजी द्वारा दिल्ली पर अधिकार. 1294 ईसवी- अलाउद्दीन खलजी द्वारा देवगिरी पर विजय.
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1296 ईसवी- जलालुद्दीन खलजी का अलाउद्दीन खलजी द्वारा वध, अलाउद्दीन का राज्यारोहण
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1297-1305 ईसवी अलाउद्दीन की उ भारत में विजयों का काल
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1306-1313 ईसवी दक्षिण भारत में अलाउद्दीन का विजय अभियान,
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1316 ईसवी- अलाउद्दीन खलजी की मृत्यु.
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1324-26 ईसवी-मोहम्मद बिन तुगलक
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1328 ईसवी – मोहम्मद बिन तुगलक द्वारा का राज्यारोहण.राजधानी परिवर्तन
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1329-32 ईसवी-मुहम्मद तुगलक द्वारा सांकेतिक मुद्रा का चलन
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1333-34 ईसवी- इब्नबतूता का आगमन
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1336 ईसवी दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना
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1347 ईसवी- अलाउद्दीन हसन बहमन शाह द्वारा दक्षिण भारत में बहमनी राज्य की स्थापना
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1351 ईसवी-फिरोज तुगलक का राज्या-रोहण
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1398 ईसवी भारत पर तैमूरलंग का आक्रमण व दिल्ली लूट
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1451 ईसवी- लोदी वंश की स्थापना
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1469 ईसवी- गुरुनानक का पाकिस्तान स्थित तलबडी नामक स्थान में जन्म
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1498 ईसवी- वास्कोडिगामा का आगमन भारत
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1509 ईसवी कृष्णदेव राय का राज्या-रोहण, मेवाड़ में राणा सांगा का राज्यारोहण
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1510 ईसवी – पुर्तगालियों ने बीजापुर से गोआ छीना.
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1517 ईसवी – सिकन्दर लोदी की मृत्यु व इब्राहीम लोदी उत्तराधिकार नियुक्त.
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1520 ईसवी कृष्णदेव राय द्वारा बीजापुर के शासक की पराजय तथा गोलकुण्डा पर अधिकार 1525 ईसवी – बाबर द्वारा पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोदी पराजित व पंजाब पर अधिकार
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1526 ईसवी – पानीपत का प्रथम युद्ध, इब्राहीम लोदी व बाबर के बीच इब्राहीम लोदी की पराजय भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना
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1527 ईसवी खानवा का युद्ध, बाबर तथा राणा सांगा के मध्य, राणा सांगा की पराजय.
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1528 ईसवी चंदेरी का युद्ध बाबर तथा मेदिनीराय के मध्य बाबर की विजय
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1529 ईसवी – घाघरा का युद्ध. बाबर द्वारा अफगानों पर विजय प्राप्त करना..
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1530 ईसवी – बाबर की मृत्यु हुमायूँ का आगरे में राज्यारोहण, विजयनगर साम्राज्य के महानतम शासक राणा कृष्णदेव राय की मृत्यु तथा उत्तराधिकार युद्ध.
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1532 ईसवी- हुमायूँ द्वारा दौर्रा के युद्ध में अफगानों की पराजय तथा चुनार का घेरा.
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1533 ईसवी-गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ जीता.
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1535 ईसवी- हुमायूँ द्वारा बहादुरशाह की पराजय तथा गुजरात व मालवा पर अधिकार..
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1538 ईसवी- हुमायूँ द्वारा शेरखान से चुनारगढ़ का किला छीनना…
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1539 ईसवी चौसा का युद्ध, शेरखान द्वारा बंगाल अभियान से लौटते हुए हुमायूँ को चौसा नामक स्थान पर पराजित करना
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1540 ईसवी – बिलग्राम अथवा कन्नौज का युद्ध, शेरखान द्वारा हुमायूँ तथा उसकी सेना की निर्णायक पराजय तथा हुमायूँ का पलायन, शेरशाह द्वारा दिल्ली में सूर साम्राज्य की स्थापना.
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1542 ईसवी-15 अक्टूबर को अमरकोट में राणा वीरसाल के महल में अकबर का जन्म
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1544 ईसवी- सामेल का युद्ध, शेरशाह म द्वारा मारवाड़ के शासक मालदेव की पराजय.
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1545 ईसवी- शेरशाह द्वारा बुन्देलखण्ड स्थित कालिंजर किले का घेरा किले पर विजय, किन्तु बारूद फट जाने के कारण शेरशाह की मृत्यु, इस्लामशाह का राज्यारोहण.
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1533 ईसवी-सूर वंश के दूसरे शासक इस्लामशाह की मृत्यु तथा सूर साम्राज्य का
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1555 ईसवी मच्छीवाड़ा का युद्ध हुमायूँ द्वारा अफगानों को पराजित कर दिल्ली तथा आगरे पर अधिकार
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1556 ईसवी – दीनपनाह महल की सीढ़ियों से लुढककर हुमायूँ की मृत्यु अकबर का पंजाब में स्थित कालानोर नामक स्थान पर सिंहासनारोहण, चुनार के सूर शासक मोहम्मद आदिलशाह के हिन्दू सेनापति हेमू द्वारा आगरा तथा दिल्ली पर अधिकार, 5 नवम्बर पानीपत का दूसरा युद्ध अकबर द्वारा हेमू की पराजय तथा वध
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1560 ईसवी बैरम खाँ का विद्रोह, अकबर द्वारा दमन तथा मक्का जाने का आदेश, किन्तु र मार्ग में ही पाटन नामक स्थान पर उसका वध
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1563-64 ईसवी— अकबर द्वारा हिन्दुओं पर लगाए हुए जजिया कर तथा तीर्थ यात्रा कर की समाप्ति.
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1565 ईसवी तालीकोटा का युद्ध-बीजापुर, अहमदनगर तथा गोलकुण्डा की संयुक्त सेनाओं द्वारा तालीकोटा के निकट बन्नीहट्टी नामक स्थान पर विजयनगर की सेना को निर्णायक रूप से पराजित करना तथा विजयनगर को लूटकर ध्वस्त करना.
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1567 ईसवी-अकबर द्वारा मेवाड़ के राणा उदयसिंह को पराजित कर चित्तौड़ के किले पर
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1572 ईसवी – राणा उदयसिंह की मृत्यु राणा प्रताप का राज्यारोहण.
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1573 ईसवी-अकबर द्वारा गुजरात विजय.
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1575 ईसवी- अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में इबादत खाने की स्थापना..
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1576 ईसवी – बंगाल व बिहार के अन्तिम अफगान शासक दाउद खाँ की पराजय तथा बंगाल एवं बिहार का मुगल साम्राज्य में विलय,हल्दी घाटी का युद्ध मुगल सेना के सेनापति राजा मानसिंह द्वारा राणा प्रताप की पराजय
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1577 ईसवी-अकबर द्वारा मनसबदारी प्रथा का प्रारम्भ
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1579 ईसवी- अकबर के पक्ष में महजर की घोषणा
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1582 ईसवी-अकबर द्वारा मिर्जा हकीम – की पराजय तथा काबुल पर अधिकार, अकबर द्वारा तौहीद-ए-इलाही अथवा दीन-ए-इलाही नामक नवीन धर्म की स्थापना…
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1591 ईसवी अकबर द्वारा सिंध पर विजय,
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1592 ईसवी-अकबर द्वारा उड़ीसा का मुगल साम्राज्य में विलय करना.
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1595 ईसवी कांधार पर मुगलों का अधिकार.
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1596 ईसवी – अहमदनगर की शासिका चाँद बीबी द्वारा मुगलों की अधीनता स्वीकार करना तथा बरार प्रदेश मुगलों को देना.
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1597 ईसवी मुगल सेना द्वारा बीजापुर गोलकुण्डा अहमदनगर की संयुक्त सेनाओं को पराजित करना, राणाप्रताप की मृत्यु.
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1600 ईसवी 31 दिसम्बर ईस्ट इण्डिया कम्पनी की इगलैण्ड में स्थापना
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1601 ईसवी डच व्यापारिक कम्पनी की स्थापना
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1602 ईसवी अबुल फजल की हत्या
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1605 ईसवी- अकबर महान् की मृत्यु तथा जहाँगीर का राज्यारोहण
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1606 ईसवी खुसरो का विद्रोह
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1608 ईसवी भारत स्थित सूरत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रथम कारखाने की स्थापना 1609 ईसवी कैप्टिन हॉकिन्स का आगरा में जहाँगीर के दरबार में आगमन
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1610 ईसवी मलिक अम्बर द्वारा दक्षिण राज्यों को संगठित कर मुगलों को वहाँ से निष्कासित करना
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1611 ईसवी-जहाँगीर का महरुन्निसा (नूरजहाँ से विवाह, ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा दक्षिण भारत में अपना पहला कारखाना मसूलीपट्टनम स्थान पर खोला जाना
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1612 ईसवी- खुर्रम (शाहजहाँ) का मुमताजमहल से विवाह
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1615 ईसवी जहाँगीर द्वारा मेवाड के राणा अमरसिंह से सम्मानपूर्वक समझौता तथा अमरसिंह के पुत्र को मुगल सेवा में रखना
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1616 ईसवी-अंग्रेजी राजदूत सर टॉमस रो का मुगल दरबार में आगमन तथा सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य में व्यापार करने तथा कारखाने स्थापित करने की छूट का शाही फरमान प्राप्त करना
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1622 ईसवी-शाहजहाँ का विद्रोह तथा कन्धार का मुगलों के हाथ से निकलना
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1626 ईसवी-मलिक अम्बर की मृत्यु
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1627 ईसवी-शिवाजी का जन्म लाहौर के निकट जहाँगीर की मृत्यु
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1628 ईसवी- शाहजहाँ का राज्यारोहण
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1631 ईसवी-मुमताज महल की मृत्यु
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1632 ईसवी मलिक अम्बर के पुत्र फतेह खाँ द्वारा मुगलों को अहमदनगर समर्पित करना
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1633 ईसवी-मुगल सेनापति महावत खाँ द्वारा दौलतबाद पर अधिकार तथा अहमद नगर के निजामशाही वंश की समाप्ति करना
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1639 ईसवी-अंग्रेजों द्वारा मदास को पट्टे पर लेना तथा वहाँ सेन्ट जॉर्ज किले का निर्माण कराना
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1651 ईसवी-अंग्रेजी कम्पनी द्वारा बंगाल के नवाब से हुगली में व्यापार करने का आदेश प्राप्त करना
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1653 ईसवी – शाहजहाँ द्वारा ताजमहल का निर्माण
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1657 ईसवी – शाहजहाँ की बीमारी तथा
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उत्तराधिकार युद्ध का आरम्भ
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1658-59 ईसवी- सामूगढ़ का युद्ध औरंगजेब द्वारा दाराशिकोह को पराजित करना, आगरे के किले पर विजय तथा शाहजहाँ को बन्दी बनाना शिवाजी द्वारा बीजापुर के सेनापति अफजल खाँ का वध
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1662 ईसवी- पुर्तगालियों द्वारा इगलैण्ड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय के पुर्तगाली राजकुमारी से विवाह के उपलक्ष्य में मुम्बई द्वीप दहेज स्वरूप देना
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1663 ईसवी शिवाजी का पूना में मुगल सेनापति शाइस्ता खाँ पर रात्रि में आक्रमण
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1664 ईसवी फ्रांसीसी मंत्री कोबार्ट द्वारा – फ्रेन्च ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना, शिवाजी द्वारा सूरत की लूट
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1665 ईसवी औरंगजेब द्वारा नवनिर्मित मंदिरों को तोडने के आदेश, मुगल सेनापति राजा जयसिंह द्वारा शिवाजी को पराजित करना तथा पुरन्दर की संधि के लिए बाध्य करना
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1666 ईसवी – शिवाजी का आगरा में मुगल दरबार में आगमन तथा बन्दी बनाया जाना, किन्तु फलों के टोकरे में छुपकर कैद से भाग जाना
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1668 ईसवी ब्रिटिश सम्राट द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को मुम्बई द्वीप प्रदान करना सूरत में फ्रांसीसियों की प्रथम फैक्ट्री की स्थापना
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1669 ईसवी गोकुल के नेतृत्व में जाटों का विद्रोह तथा मुगल सरकार द्वारा कठोरता से दमन
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1670 ईसवी शिवाजी द्वारा दूसरी बार ने सूरत के किले पर आक्रमण तथा लूट तथा पुरन्दर की संधि द्वारा मुगलों को दिए गए अधिकांश किलों पर पुन अधिकार
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1672 ईसवी-नारनौल के सतनामियों का विद्रोह तथा मुगलों द्वारा दमन
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1674 ईसवी – शिवाजी का रायगढ़ नामक स्थान पर सिंहासनारोहण तथा छत्रपति की उपाधि धारण करना, फ्रांसीसी कम्पनी द्वारा पाण्डिचेरी की स्थापना
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1675 ईसवी सिखों के नवें गुरु तेगबहादुर का औरंगजेब द्वारा वध
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1679 ईसवी औरगजेब का मारवाड़ पर आक्रमण, जजिया कर पुनः लागू करना
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1680 ईसवी- छत्रपति शिवाजी की मृत्यु
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1685 ईसवी – राजाराम तथा चूडामणि के नेतृत्व में जाटों का दूसरा विद्रोह 1686 ईसवी हुगली में मुगलों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा तथा मुगलों द्वारा बीजापुर पर अधिकार
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1687 ईसवी मुगलों का गोलकुण्डा पर अधिकार
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1689 ईसवी-औरगजेब द्वारा शम्भाजी का – वध तथा राजाराम द्वारा मराठों का नेतृत्व
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1691 ईसवी-मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा अंग्रेजों को बंगाल में बिना किसी कर के व्यापार
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करने की अनुमति प्रदान करना
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1698 ईसवी-एक नई अंग्रेज कम्पनी की स्थापना, सुतनाती, गोविन्दपुर व कलकत्ता की ■ जमीदारी अंग्रेजों को मिलना
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1699 ईसवी सिखों के 10वें तथा अन्तिम गुरु गोविन्द सिंह द्वारा आनन्दपुर नामक स्थान पर खालसा पथ का गठन
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1702 ईसवी अग्रेज कम्पनियों का एकी
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1706 ईसवी सिखों तथा मुगलों में मित्रता करण तथा गुरु गोविन्दसिंह जी का औरंगजेब से मिलन दक्षिण जाना, औरंगजेब द्वारा सभी मराठा
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दुर्ग विजित करने के अभियान में असफल
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1707 ईसवी औरगाबाद में औरगजेब की मृत्यु तथा वहादुरशाह प्रथम का दिल्ली में सिहासनारोहण
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1708 ईसवी गुरुगोविन्द सिंह द्वारा मुगल सम्राट बहादुरशाह प्रथम के अधीन मनसबदारी प्राप्त करना तथा एक अफगान सैनिक द्वारा उनका धोखे से वध कर देना
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1712 ईसवी बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु तथा उत्तराधिकार का युद्ध
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1713 ईसवी-सैयद बन्धुओं की सहायता से फर्रुखसियर का मुगल सम्राट बनना
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1713-14 ईसवी-मराठा छत्रपति शाहू के पेशवा बालाजी विश्वनाथ द्वारा पेशवा दश की स्थापना
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1719 ईसवी – पेशवा बालाजी विश्वनाथ द्वारा सैयद मोहम्मद को मुगल सम्राट फर्रुखसियर को पदच्युत करने में सहायता प्रदान करना, मुहम्मदशाह का मुगल सम्राट बनना
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1720 ईसवी- पेशवा बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु तथा बाजीराव प्रथम पेशवा पद पर आसीन
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1722 ईसवी-सादात खाँ का अवध का सूबेदार नियुक्त होना तथा बाद में उसके द्वारा अवध की स्वतन्त्रता तथा वहाँ नवाबियत की स्थापना करना
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1724 ईसवी मुगल साम्राज्य के वजीर निजामुल मुल्क द्वारा पद त्याग तथा दक्षिण में हैदराबाद राज्य की स्थापना करना
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1739 ईसवी- नादिरशाह का आक्रमण करनाल के युद्ध में नादिरशाह द्वारा मुगल सम्राट मुहम्मदशाह की पराजय दिल्ली में भयकर लूटपाट
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1740 ईसवी – बाजीराव प्रथम की मृत्यु तथा बालाजी बाजीराव द्वारा उत्तराधिकार प्राप्त करना, अलीवर्दी खों द्वारा मुर्शीद कुली खाँ के दामाद को गद्दी से हटाकर बंगाल का नवाब बनना
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1742 ईसवी मराठों का बंगाल पर आक्रमण
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1744-48 ईसवी-प्रथम कर्नाटक का युद्ध अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों के मध्य
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1746 ईसवी- फ्रासीसियों ने मदास जीता
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1748 ईसवी-मुगल सम्राट मोहम्मदशाह की मृत्यु
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1749 ईसवी छत्रपति शाहू की मृत्यु, ■ पेशवा बालाजी बाजीराव द्वारा मराठा राज्य की राजधानी सतारा से पूना स्थानातरित करना।
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1751 ईसवी क्लाइव द्वारा अर्काट की प्रतिरक्षा
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1754 ईसवी आलमगीर द्वितीय का दिल्ली में सिंहासनारोहण.
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1756 ईसवी अलीवर्दी खाँ की मृत्यु, सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना
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1556-63 ईसवी यूरोप में इंगलैण्ड तथा फ्रांस के मध्य छिड़े सप्तवर्षीय युद्ध के परिणामस्वरूप भारत में अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों के मध्य तृतीय कर्नाटक युद्ध. सूरजमल जाट के नेतृत्व में जाटों द्वारा दिल्ली के आसपास एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना.
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1757 ईसवी-23 जून को प्लासी का युद्ध.. बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला तथा अंग्रेजों के मध्य युद्ध, नवाब की पराजय तथा मीरजाफर का अंग्रेजों की सहायता से नवाब बनना.
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1760 ईसवी – वांडीवाश का युद्ध-अंग्रेजों द्वारा फ्रांसीसियों को निर्णायक रूप से पराजित करना, अंग्रेजों द्वारा मीरजाफर को गद्दी से हटाकर उसके दामाद मीरकासिम को बंगाल का नवाब बनाना.
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1761 ईसवी – पानीपत का तृतीय युद्ध- सदाशिव भाऊ के नेतृत्व में मराठा सेनाओं को अफगान सरदार अहमदशाह अब्दाली द्वारा रुहेलखण्ड के नवाब नजीबउद्दौला तथा अवध के नवाब शुजाउद्दौला की सहायता से पराजित करना, अलीगौहर शाहआलम द्वितीय के नाम से अहमदशाह अब्दाली द्वारा दिल्ली का सम्राट नियुक्त, पेशवा बालाजी वाजीराव द्वितीय की मृत्यु तथा माधवराव द्वारा उत्तराधिकार प्राप्त करना, हैदरअली द्वारा मैसूर के हिन्दू राजा को हटाकर स्वयं सत्ता सँभालना.
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1764 ईसवी- बक्सर का युद्ध-अंग्रेजों द्वारा बंगाल के नवाब मीरकासिम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेनाओं की पराजय
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1765 ईसवी- मीरजाफर की बंगाल में मृत्यु, बंगाल के गवर्नर क्लाइव द्वारा बंगाल में द्वैध शासन प्रणाली प्रारम्भ करना.
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1767-69 ईसवी- प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध हैदर अली तथा अंग्रेजों के मध्य.
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1770 ईसवी बंगाल का भीषण अकाल, जिसमें बंगाल की एक तिहाई जनता का समाप्त होना…
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1771 ईसवी-मराठों द्वारा सम्राट शाह- आलम द्वितीय को इलाहाबाद से लाकर पुनः दिल्ली के सिहासन पर आसीन करना..
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1772-74 ईसवी वारेन हेस्टिंग्ज बंगाल का गवर्नर
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1772 ईसवी-बंगाल में द्वैध शासन की समाप्ति तथा कम्पनी द्वारा बंगाल में प्रत्यक्ष रूप से शासन, पेशवा माधव राव की मृत्यु तथा गृहयुद्ध.
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1773 ईसवी रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित.
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1774 ईसवी-रूहेला युद्ध, वारेन हेस्टिंग्ज गवर्नर जनरल, सुप्रीम कोर्ट कलकत्ता में स्थापित.
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1775-82 ईसवी- प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध. ने
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1780-84 ईसवी – द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध.
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1782 ईसवी हैदरअली की मृत्यु, टीपू सुल्तान का मैसूर के सिंहासन पर बैठना, सालबाई की संधि
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1784 ईसवी-पिट का इण्डिया एक्ट पारित, मंगलौर की संधि.
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1786 ईसवी कार्नवालिस का गवर्नर जनरल बनना.
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1790-92 ईसवी तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध. – श्रीरंगपट्टम् की संधि.
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1793 ईसवी कार्नवालिस द्वारा बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त लागू करना.
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1795 ईसवी- निजाम तथा मराठों के बीच खर्दा का युद्ध
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1798 ईसवी- अहमदशाह अब्दाली के पोते जमानशाह अब्दाली का भारत पर आक्रमण..
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1798 ईसवी- लॉर्ड वेलेजली भारत का गवर्नर जनरल.
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1799 ईसवी – चतुर्थ मैसूर युद्ध. टीपू सुल्तान की मृत्यु, रणजीतसिंह ने लाहौर जीता.
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1800 ईसवी-नाना फड़नवीस की मृत्यु.
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1801 ईसवी- लॉर्ड वेलेजली का कर्नाटक पर अधिकार
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1802 ईसवी – बेसीन की संधि, पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा वेलेजली के मध्य.
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1803-05 ईसवी – द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध.
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1806 ईसवी – वेलूर का सैनिक विद्रोह तथा अंग्रेजों द्वारा कठोरता से दमन.
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1809 ईसवी-अंग्रेज तथा रणजीत सिंह के मध्य अमृतसर की संधि.
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1813 ईसवी चार्टर अधिनियम पारित. ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत से व्यापार करने का एकाधिकार समाप्त.
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1814-16 ईसवी- आंग्ल गोरखा युद्ध.
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1817-18 ईसवी – पिण्डारियों के विरुद्ध अंग्रेजों का अभियान, तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध.
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1819 ईसवी – मुम्बई में एलफिस्टन गवर्नर बने.
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1820 ईसवी- मुनरो मद्रास के गवर्नर बने.
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1824-26 ईसवी-प्रथम आंग्ल बर्मा युद्ध..
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1828 ईसवी – ब्रह्म समाज की स्थापना, विलियम बैंटिंक भारत के गवर्नर जनरल बने.
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1829 ईसवी – सतीप्रथा का अन्त
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1833 ईसवी राजा राममोहन राय की इंगलैण्ड में मृत्यु, नवाँ चार्टर पारित.
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1834 ईसवी-कुर्ग पर अंग्रेजी अधिकार.
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1835 ईसवी-अंग्रेजी भाषा भारतीय प्रशासन की सरकारी भाषा बनी.
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1838 ईसवी-ईस्ट इण्डिया कम्पनी, रणजीत सिंह तथा शाह शुजा के बीच त्रिदलीय संधि.
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1839 ईसवी – रणजीत सिंह की मृत्यु.
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1839-42 ईसवी- प्रथम आंग्ल अफगान युद्ध
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1843 ईसवी- सिन्ध की विजय पू 1845-46 ईसवी- प्रथम आंग्ल सिख युद्ध
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1848 ईसवी- डलहौजी की गवर्नर जनरल के रूप में नियुक्ति
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1848-49 ईसवी द्वितीय आंग्ल सिख युद्ध तथा पंजाब का विलय
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1852 ईसवी द्वितीय आंग्ल वर्मा युद्ध
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1853 ईसवी भारत में बम्बई से थाणे तक प्रथम रेलवे की स्थापना.में
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1854 ईसवी- सर चार्ल्स बुड का शिक्षा नीति पर पत्र, झाँसी का विलय,
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1857 ईसवी- भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का प्रारम्भ.
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1858 ईसवी- प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की समाप्ति, विक्टोरिया भारत की साम्राज्ञी घोषित की गई.
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1859 ईसवी बंगाल में नील विद्रोह 1861 ईसवी भारतीय परिषद नियम फौजदारी और दीवान कार्य संहिता तथा भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम पारित..
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1863 ईसवी- अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मुहम्मद की मृत्यु.
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1872 ईसवी-पंजाब में कूका विद्रोह
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1876 ईसवी- साम्राज्ञी विक्टोरिया कैसर-हिन्द घोषित.
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1877 ईसवी-लॉर्ड लिटन द्वारा दिल्ली दरबार आयोजित..
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1878 ईसवी-समाचार-पत्र अधिनियम.
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1878-80 ईसवी द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध
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1881 ईसवी-प्रथम फैक्टरी अधिनियम,
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1882 ईसवी- हंटर कमीशन, स्थानीय स्व- शासन का आरम्भ.
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1885 ईसवी – मुम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन, बंगाल कृषक अधिनियम पारित तीसरा आंग्ल-बर्मा युद्ध.
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1892 ईसवी-अंग्रेजी संसद द्वारा भारतीय परिषद् अधिनियम पारित
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1893 ईसवी- मुस्लिम ऐंग्लो-ओरिएण्टल डिफेन्स एसोसिएशन ऑफ अपर इण्डिया का गठन.
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1895 ईसवी तिलक ने शिवाजी उत्सव मनाया.
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1896-97 ईसवी-भीषण अकाल. 1897 ईसवी-चापेकर बन्धुओं द्वारा पूना में दो अंग्रेजों की हत्या.
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1899-1905 ईसवी- वाइसराय लॉर्ड कर्जन का कार्यकाल
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1904 ईसवी- भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित, यंग हस्बैंड का तिब्बत मिशन.
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1905 ईसवी बंगाल विभाजन, भारत लोक सेवक संघ की स्थापना
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1906 ईसवी लॉर्ड मिन्टो शिमला में मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल से मिले, मुस्लिम लीग व का गठन.
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1908 ईसवी खुदीराम बोस को फाँसी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को 6 वर्ष का कारावास, समाचार पत्र कानून
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1909 ईसवी – भारतीय परिषद् अधिनियम
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1911 ईसवी- दिल्ली दरबार, विभाजन रद्द
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1912 ईसवी कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली राजधानी बनाई गई. लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंका गया
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1913 ईसवी- गांधी का दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह सफल, सेनफ्रांसिस्को में भारतीय गदर दल का गठन.
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1914 ईसवी- प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ.
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1915 ईसवी- गोपालकृष्ण गोखले एवं फिरोजशाह मेहता की मृत्यु, मिसेज ऐनी बीसेण्ट द्वारा होमरूल लीग का गठन.
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1916 ईसवी-लखनऊ पैक्ट के रूप में कांग्रेस लीग समझौता, बनारस हिन्दू-विश्व- विद्यालय की स्थापना, बालगंगाधर तिलक द्वारा पूना में होमरूल लीग की स्थापना.
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1917 ईसवी – महात्मा गांधी द्वारा चम्पारन में आंदोलन किया गया.
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1919 ईसवी- (6 अप्रैल) रौलेट एक्ट के विरुद्ध हड़ताल का आह्वान, (13 अप्रैल) जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड, मॉण्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार अधिनियम पारित
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1920 ईसवी – भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन, अलीगढ़ मुस्लिम विश्व-
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विद्यालय की स्थापना, एम. एन. राय द्वारा ताशकन्द में भारतीय साम्यवादी दल का गठन
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1922 ईसवी-5 फरवरी चौरी-चौरा काण्ड तथा महात्मा गांधी का आन्दोलन वापस लेना, मोपला विद्रोह.
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1923 ईसवी-नवगठित स्वराज पार्टी का परिषदों के चुनाव में हिस्सा लेना..
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1925 ईसवी-सी. आर. दास की मृत्यु. कानपुर में साम्यवादी दल का गठन
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1927 ईसवी- साइमन आयोग की नियुक्ति,
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1928 ईसवी- साइमन कमीशन का भारत आगमन, कांग्रेस द्वारा बहिष्कार लाला लाजपत राय की मृत्यु, सर्वदल सम्मेलन..
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1929 ईसवी-भगतसिंह द्वारा केन्द्रीय असेम्बली भवन में बम विस्फोट.
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1929 ईसवी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य की माँग, शारदा एक्ट: मेरठ षड्यंत्र केस
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1930 ईसवी- प्रथम गोलमेज परिषद् नमक सत्याग्रह से सविनय आन्दोलन आरम्भ.
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1931 ईसवी- गांधी-इरविन समझौता, द्वितीय भारतीय गोलमेज सम्मेलन,
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1932 ईसवी-द्वितीय गोलमेज परिषद्, साम्प्रदायिक पंचाट (कम्यूनल अवार्ड), पूना पैक्ट,
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1935 ईसवी- भारत सरकार अधिनियम पारित (अगस्त)
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1937 ईसवी-प्रान्तीय स्वायत्तता का सूत्र- पात, सात प्रान्तों में कांग्रेस के मन्त्रिमण्डल
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1939 ईसवी – द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ, कांग्रेस सरकारों द्वारा त्यागपत्र मुस्लिम लीग शि द्वारा मुक्ति दिवस मनाना (दिसम्बर 12).
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1940 ईसवी- मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया. वाइसराय का अगस्त प्रस्ताव
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1941 ईसवी- रबीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु.सुभाष चन्द्र बोस का भारत छोड़ना
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1942 ईसवी क्रिप्स मिशन, कांग्रेस द्वारा ‘भारत छोडो‘ प्रस्ताव पारित करना.
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1943 ईसवी – सुभाष चन्द्र बोस द्वारा सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज का गठन..
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1945 ईसवी वेवल ने शिमला में कान्फ्रेन्स बुलाई. आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा…
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1946 ईसवी भारत में अन्तरिम सरकार की स्थापना, फरवरी में मुम्बई में नौसेना विद्रोह, जुलाई में संविधान सभा के चुनाव कैबिनेट मिशन
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1947 ईसवी-क्लीमेंट ऐटली द्वारा जून 1948 से पूर्व भारत छोड़ने की घोषणा (फरवरी) 15 अगस्त को भारत स्वतन्त्र हुआ.
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1948 ईसवी – महात्मा गांधी की हत्या (30 जनवरी). कश्मीर का भारत में विलय.
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1948-50 ईसवी देशी रियासतों का भारत में विलय, राजगोपालाचारी का गवर्नर जनरल बनना.
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1949 ईसवी- भारतीय संविधान को सभा द्वारा स्वीकृति (26 नवम्बर).
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1950 ईसवी – भारतीय गणतन्त्र का नया संविधान लागू डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने
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1951 ईसवी- प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रारम्भ
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1952 ईसवी- प्रथम आम चुनाव.
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1953 ईसवी- प्रथम बार माउण्ट एवरेस्ट पर शेरपा आन्ध्र प्रदेश का निर्माण तेनसिंह और ई. पी. हिलेरी द्वारा पहुँचना,
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1956 ईसवी – फ्रांस द्वारा भारत में अपनी बस्तियों का भारत को हस्तांतरण.
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1957 ईसवी-द्वितीय आम चुनाव. 1961 ईसवी-गोआ, दमन, दीव की मुक्ति तथा भारत में विलय
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1962 ईसवी तृतीय आम चुनाव भारत पर चीन का आक्रमण.
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1963 ईसवी-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की मृत्यु, नगालैण्ड का राज्य बनना.
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1964 ईसवी- जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु (27 मई)
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1965 ईसवी- भारत-पाक युद्ध. 1966 ईसवी भारत-पाक ताशकंद समझौता (10 जनवरी), लाल बहादुर शास्त्री का निधन (11 जनवरी).
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1969 ईसवी-डॉ. जाकिर हुसैन की मृत्यु (3 मई). वी.वी. गिरि का राष्ट्रपति बनना, कांग्रेस का विभाजन, 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण.
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1970 ईसवी मेघालय का निर्माण (2 अप्रैल), राजाओं की मान्यता की समाप्ति
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1971 ईसवी – हिमाचल प्रदेश का निर्माण (25 जन), भारत-रूस संधि भारत पाक युद्ध
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1972 ईसवी राजगोपालाचारी का निधन शिमला समझौता मेघालय, मणिपुर, त्रिपु पूर्ण राज्य बनना अरु प्रदेश और मिजोरम का केन्द्रशासित प्रदेश बनना PIN Code प्रणाली शुरू
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1974 ईसवी भारत का आदि शक्ति बनना
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1975 ईसवी- सिक्किम का राज्य बनना (16 मई) देश में आपात स्थिति की घोषणा (26 जून)
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1977 ईसवी राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का निधन 1978 ईसवी काग्रेस (आई) का गठन,
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1979 ईसवी- मोरारजी देसाई का प्रधान मंत्री पद इस्तीफा (15 जुलाई), जय प्रकाश नारायण का निधन (8 अक्टूबर)
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1982 ईसवी आचार्य कृपलानी का निधन (10 मार्च) तीन बीघा क्षेत्र बाग्लादेश को दिया
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1983 ईसवी तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन (28-30 अक्टूबर)
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1984 ईसवी स्वर्ण मंदिर में ऑपरेशन ब्लू स्टार (6-8 जून), इंदिरा गांधी की हत्या (31 अक्टूबर) 1987 ईसवी चौधरी चरण सिंह की मृत्य (29 मई)
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1988 ईसवी- खान अब्दुल गफ्फार खाँ की मृत्यु (20 जून)
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1989 ईसवी अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास (10 नवम्बर)
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1990 ईसवी बी आर. अम्बेडकर (मरणोपरान्त) और नेल्सन मंडेला ‘भारतरत्न‘ से सम्मानित:
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1991 ईसवी राजीव गांधी (मरणोपरान्त) और मोरारजी देसाई भारतरत्न‘ से सम्मानित
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1993 ईसवी महाराष्ट्र में भूकम्प से 50,000 से अधिक मृत डकल प्रस्ताव स्वीकारा गया. बनी,
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1994 ईसवी – सुष्मिता सेन मिस यूनीवर्स
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1995 ईसवी उग्रवादियों ने चरार-ए-शरीफ जताया
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1996 ईसवी जियाग जेमिन की भारत यात्रा
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1997 ईसवी मदर टेरेसा की मृत्यु (5 सितम्बर)
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1998 ईसवी भारत द्वारा पाँच परमाणु परीक्षण (11 एवं 13 मई),
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1999 ईसवी अटल बिहारी वाजपेयी की ऐतिहासिक बस यात्रा (20 फरवरी), कारगिल युद्ध
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2000 ईसवी- अमरीकी राष्ट्रपति दिल क्लिटन का भारत आगमन (19-20 मार्च), छत्तीसगढ़ (1 नवम्बर), उत्तराचल (9 नवम्बर) ‘और झारखण्ड (15 नवम्बर) नए राज्य बने
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2001 ईसवी – भारत में ही विकसित लाइट कम्बाट एयरक्राफ्ट (LCA) की सफल परीक्षण उड़ान (4 जन ), गुजरात में भीषण भूकम्प, कई हजार मरे (26 जन), जे. एम. लिंगदोह भारत के नए मुख्य चुनाव आयुक्त बने (14 जून),
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2002 ईसवी – इन्सैट 3सी का सफल प्रक्षेपण (24 जन ), लोक सभा स्पीकर जी एम सी बालयोगी की हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु (3 मार्च), डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम भारत के राष्ट्रपति निर्वाचित घोषित (18 जुलाई), उपराष्ट्रपति कृष्णकान्त का निधन (27 जुलाई), भैरोंसिंह शेखावत उपराष्ट्रपति निर्वाचित (12 अगस्त),
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2003 ईसवी – निर्मल चन्द बिज बने नए सेनाध्यक्ष (1 जन.), मुलायम सिंह यादव उ. प्र. के नए मुख्यमंत्री बने (29 अगस्त), भारत ने पहली बार एशिया कप हॉकी चैम्पियनशिप जीती (28 सित), एफ्रो-एशियाई खेलों का हैदराबाद में समापन (1 नवम्बर)
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2004 ईसवी – भारत का स्वदेश में तैयार किया गया T-90 मुख्य युद्धक टैंक ‘भीष्म‘ सेना को सौंपा गया (7 जन ), 13वीं लोक सभा भंग
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(6 फर) 14वीं लोक सभा के चुनाव (20) अप्रैल-10 मई), डॉ मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली (22 मई), लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के अध्यक्ष चुने गये (18 अक्टू ).
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ऑपरेशन ककून के तहत चन्दन तस्कर वीरप्पन विशेष कार्यबल (T.F.) के साथ मुठभेड़ में मारा गया (18 अक्टू) बूटा सिंह द्वारा बिहार के राज्यपाल के रूप में कार्यभार ग्रहण (5 नव), दक्षिण भारत, अण्डमान निकोबार द्वीप, इण्डोनेशिया, थाइलैण्ड, श्रीलंका आदि हिन्द महासागर की सुनामी लहरों से प्रभावित, कई हजार मरे (26 दिस)
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2005 ईसवी एम. के. नारायणन देश के नए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नियुक्त (27 जन), जनरल जे जे सिंह द्वारा नए थलसेनाध्यक्ष के रूप में कार्यभार ग्रहण (31 जन), गोआ में राष्ट्रपति शासन लागू (4 मार्च), सूचना के अधिकार का अधिनियम लागू (12 अक्टू )
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2006 ईसवी – राजनाथ सिंह ने बीजेपी के अध्यक्ष पद का कार्यभार सँभाला (2 जन), महात्मा 1 गांधी के सत्याग्रह के 100 वर्ष पूर्ण (11 सित) 2007 ईसवी-उत्तरांचल का नाम अब उत्तराखण्ड (1 जन.), उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्व में बसपा की स्पष्ट बहुमत वाली नई सरकार (13 मई), प्रतिभा पाटिल ने भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति के रूप में पदभार ग्रहण किया (25 जुलाई).
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2008 ईसवी आदिवासियों एवं परम्परागत वनवासियों को वन सम्पत्ति में अधिकार दिलाने वाला वनाधिकार कानून लागू (1 जन), गंगा नदी राष्ट्रीय नदी घोषित (4 नव) मुम्बई देश में सबसे बड़े आतंकी हमले का शिकार (26 नव). राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यपालों के वेतन बढ़ोत्तरी की संसद द्वारा मंजूरी (15 दिस).
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2009 ईसवी – राष्ट्रीय जाँच एजेंसी का गठन (1 जन.), टाटा मोटर्स ने अपनी बहू- प्रतीक्षित नैनो कार को बिक्री के लिए लांच की (23 मार्च), दिल्ली हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला समलैंगिकता अपराध नहीं (2 जुलाई). हेलीकॉप्टर दुर्घटना में आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी का निधन (2 सितम्बर). के. राधाकृष्णन ‘इसरो‘ के नए अध्यक्ष बनाए गए (31 अक्टूबर)
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2010 ईसवी – पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु का निधन (17 जन.). सर्वोच्च न्यायालय ने देश के सभी राज्यों को छह सप्ताह के भीतर बाल अपराध न्याय बोर्ड, बाल कल्याण समिति एवं विशेष पुलिस बल गठित करने का निर्देश जारी (20 जन ). राजस्थान की राज्यपाल प्रभा राव का निधन (26 अप्रैल), भारतीय नौसेना में पहला स्टेल्थ युद्धपोत आईएनएस शिवालिक शामिल (29 अप्रैल), एस वाई कुरैशी भारत के नए मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त (30 जुलाई), बैंक ऑफ राजस्थान का विलय आईसीआईसीआई बैंक में हुआ (13 अगस्त)
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2011 ईसवी – श्रीकृष्ण कमेटी ने तेलंगाना पर रिपोर्ट सौंपी (1 जन), भारत ने क्रिकेट का विश्व कप जीता (2 अप्रैल), अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री दोरजी खाण्डू की हेलीकॉप्टर दुर्घटना मै मृत्यु (30 अप्रैल), ममता बनर्जी प बंगाल की नमंत्री पहली महिला मुख्यमंत्री बन (20 मई), मुम्बई में बम धमाका (13 जुलाई), केरल के पद्मनाभस् ब) मन्दिर में स्वर्ण का विशाल भण्डार (21 जुलाई) बंगलोर में मेट्रो रेल का उद्घाटन (21 अक्टू), ड में भारत में एफ-1 कार रेस (30 अक्टूबर), बिहार निर्माता, निर्देशक, अभिनेता देवानन्द का निधन (4 दिसम्बर ).
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2012 ईसवी गुजरातियों के लिए हिन्दी विदेशी भाषा गुजरात हाईकोर्ट (1 जन). मानवरहित विमान का गणतन्त्र दिवस परेड में प्रदर्शन (27 जन) भारत ने पहला महिला के कबड्डी का विश्व कप जीता (3 मार्च), कब (27 को फांसी (21 नवम्बर), नरेन्द्र मोदी तीसरी बार गुजरात चुनाव जीते (21 दिसम्बर).
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2013 ईसवी – रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डॉ. वाई वी रेड्डी की अध्यक्षता में 14वें वित्त आयोग का गठन (3 जनवरी), सितारवादक प रविशंकर सांस्कृतिक सद्भावना के लिए प्रथम टैगोर पुरस्कार से सम्मानित (8 मार्च), फिल्म अभिनेता प्राण को 60वाँ दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया (12 अप्रैल), आंध्र प्रदेश का विघटन कर पृथक राज्य तेलंगाना बनाने का सरकार द्वारा निर्णय (30 जुलाई). की सचिन तेंदुलकर एवं सी. एन. एन. राव को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न‘ प्रदान करने की घोषणा (16 नवम्बर)
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2014 ईसवी देश का प्रथम राष्ट्रीय ने स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरूआत (7 जनवरी). दी किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता में प्रदान की गयी (15 अप्रैल), 20वें राष्ट्रमंडल खेल ग्लासगो में सम्पन्न, भारत ने 15 स्वर्ण न पदक, 30 रजत एवं 19 कांस्य पदकों सहित 64 पदक जीते (23 जुलाई-3 अगस्त, 2014). केन्द्र सरकार द्वारा पूर्वोत्तर के लिए ऊर्जा राजमार्ग की घोषणा (25 अगस्त), प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर स्वच्छ भारत मिशन कार्यक्रम की शुरूआत की (2 अक्टूबर) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते‘ योजना का आरम्भ किया (16 अक्टूबर), गुजरात में निकाय चुनावों में अनिवार्य मतदान का प्रावधान किया (11 नवम्बर). भारत ने पाकिस्तान को हराकर 2014 का दृष्टिहीन क्रिकेट विश्वकप जीता (8 दिसम्बर)
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2015 ईसवी योजना आयोग की जगह नीति आयोग की स्थापना (1 जनवरी). नागरिकता (संशोधन) अध्यादेश 2015 को लागू किया गया (6 जनवरी). महाराष्ट्र सरकार ने लंदन स्थित बी आर अम्बेडकर के घर को खरीदने का फैसला किया. (24 जनवरी) काठमांडू और वाराणसी के बीच सीधी बस सेवा प्रारम्भ (5 मार्च), सर्वोच्च न्यायालय ने आइ टी एक्ट की धारा 66 A निरस्त की चंद्रशेखर की समाधि का नया नाम जननायक स्थल रखा गया (22) अप्रैल), वेटिकन ने फिलिस्तीन को राज्य के रूप में मान्यता प्रदान की (13 मई). वाटरलू युद्ध की 200वीं वर्षगाठ मनाई गयी (20 जून), मिशनरीज ऑफ चैरिटी की पूर्व प्रमुख सिस्टर निर्मला का निधन (22 जून)
नोट्स
प्राचीन भारत का इतिहास
अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्राफी) कहा जाता है।
सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिन्सेप को अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता मिली। भारत से बाहर सर्वाधिक प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के बोंगजकोई नामक स्थान से लगभग 1400 ई. पू. के मिले हैं, जिसमें इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य आदि वैदिक देवताओं के नाम मिलते हैं। सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (न्यूमिस्मेटिक्स) कहा जाता है।
भारत के प्राचीनतम सिक्के आहत सिक्के या पंचमार्क्स सिक्के कहलाते हैं। सर्वप्रथम हिन्द-यूनानियों ने स्वर्ण मुद्राएँ जारी की। सर्वाधिक शुद्ध स्वर्ण मुद्राएँ कुषाणों ने तथा सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएँ गुप्तों ने जारी कीं।
चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद) को सम्मिलित रूप से संहिता कहा जाता है।
ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं की स्तुतियाँ तथा यजुर्वेद में यज्ञों के नियम एवं विधि-विधानों का संकलन है।
सामवेद में यज्ञों के अवसर पर गाए जाने वाले मन्त्रों का संग्रह तथा अथर्ववेद में धर्म, औषधि प्रयोग, रोग निवारण, तन्त्र-मन्त्र, जादू-टोना जैसे अनेक विषयों का वर्णन है।
उपनिषदों में अध्यात्म तथा दर्शन के गूढ़ रहस्यों का विवेचन हुआ है। वेदों का अन्तिम भाग होने के कारण इसे वेदान्त भी कहा जाता है।
सबसे प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ पाली भाषा में लिखित त्रिपिटक हैं। ये हैं-सुत्तपिटक, विनयपिटक एवं अभिधम्मपिटका बुद्ध के पूर्वजन्म की कथा जातक से सम्बन्धित है।
जैन साहित्य को आगम कहा जाता है, इनकी रचना प्राकृत भाषा में हुई है।
हेरोडोटस को इतिहास का पिता कहा जाता है, जिनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिस्टोरिका’ है।
अज्ञात लेखक की रचना ‘पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ में भारतीय बन्दरगाहों तथा वाणिज्यिक गतिविधियों का विवरण मिलता है।
फाह्यान की प्रसिद्ध रचना ‘फो-क्यो की’ अथवा ‘ए रिकॉर्ड ऑफ द बुद्धिस्ट कण्ट्रीज’ है।
ह्वेनसांग का यात्रा वृत्तान्त सी-यू-की अथवा एस्से ऑन वेस्टर्न वर्ल्ड है।
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अलबरूनी की रचना ‘तहकीक-ए-हिन्द’ (किताब-उल-हिन्द) में पूर्व मध्यकालीन समाज का विविधतापूर्ण विवरण मिलता है।
प्रागतिहासिक संस्कृतियाँ
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मानव धरती पर प्लाइस्टोसीन काल के आरम्भ में पैदा हुआ। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में आदिमानव का कोई जीवाश्म (फॉसिल) नहीं मिला है। पशुपालन का प्रारम्भिक साक्ष्य मध्य पाषाणकाल में मध्य प्रदेश के आदमगढ़ तथा . राजस्थान के बागोर से प्राप्त होता है।
मेहरगढ़ से कृषि का प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त होता है। यहीं से जी तथा गेहूँ के साक्ष्य मिले हैं।
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अलबरूनी ने भारतीय गणित, भौतिकी, ज्योतिष, भूगोल, दर्शन, धार्मिक क्रियाओं, रीति-रिवाजों और सामाजिक विचारधारा का भी महत्त्वपूर्ण वर्णन किया है।
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चावल का प्राचीनतम साक्ष्य कोल्डीहवा (उत्तर प्रदेश) से, चित्रकारी का प्रारम्भिक साक्ष्य भीमबेटका (मध्य प्रदेश) से प्राप्त हुआ है। चौपानी माण्डो से मृद्भाण्ड का प्राचीनतम साक्ष्य मिला है। – मानव द्वारा प्रयुक्त सर्वप्रथम अनाज जौ तथा धातु तौबा थी।
– नवपाषाणकालीन स्थल बुर्जहोम से गर्त निवास तथा कब्रों में मालिक के साथ पालतू कुत्ते दफनाए जाने का साक्ष्य मिलता है। • पिक्लीहल (कर्नाटक) से राख के ढेर एवं निवास स्थल दोनों मिले हैं।
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ताम्र पाषाणकाल के लोग गेहूं, धान और दाल की खेती करते थे, जो नवदाटोली (महाराष्ट्र) से प्राप्त हुए हैं। चित्रित मृद्भाण्डों का प्रयोग सर्वप्रथम ताम्र पाषाणिक लोगों ने ही किया। • अहाड़ का प्राचीन नाम ताम्बवती था। यहाँ के लोग पत्थर के बने घरों में रहते थे।
प्राचीन भारतीय
प्राचीन भारतीय इतिहास का अभी तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो सका है अनेक तथ्यों को लेकर इतिहासविद् एकमत नहीं हैं, किन्तु फिर भी अपने सतत् प्रयासों से उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास को क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जिसमें उन्हें कुछ हद तक सफलता भी प्राप्त हुई है अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने (इतिहासविदों ने) कुछ आधारों का निर्धारण किया है, जिन्हें हम स्रोतों की संज्ञा दे सकते हैं अध्ययन सुविधा की दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) प्राचीन भारतीय इतिहास के आन्तरिक स्रोत
(2) प्राचीन भारतीय इतिहास के विदेशी सोत
प्राचीन भारतीय इतिहास के आन्तरिक स्रोत
आन्तरिक स्रोतों के अन्तर्गत प्राचीन वैदिक साहित्य यथा – हिन्दू धार्मिक साहित्य.. धर्म बौद्ध धार्मिक साहित्य, जैन धार्मिक साहित्य, धर्म निरपेक्ष साहित्य यथा- ऐतिहासिक ग्रन्थ नाटक. राजनीतिक एवं व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ, पुरातत्व सम्बन्धी स्रोत यथा-अभिलेख, सिक्के. पुरातत्व सम्बन्धी सामग्री, स्मारक आदि को रखा जाता है
वैदिक साहित्य
वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, रामायण, महाभारत, पुराण आदि हिन्दू धार्मिक साहित्य हैं, जिनसे हमें प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने में बहुत सहायता मिलती है. वेद चार हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ऋग्वेद में 10 मण्डल 1,028 सूक्त तथा 10.580 ऋचाएं है. इस ग्रन्थ से धर्म के साथ-साथ तत्कालीन भारत की सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है यजुर्वेद में 40 अध्याय तथा लगभग दो हजार मन्त्र हैं. इस ग्रन्थ से तत्कालीन भारत का सामाजिक एवं धार्मिक ज्ञान प्राप्त होता है. सामवेद में 1549 अथवा 1.810 श्लोक हैं. इन श्लोकों को यज्ञ के 7 अवसर पर गाया जाता था यह ग्रन्थ दि तत्कालीन भारत की गायन विद्या का श्रेष्ठ पु उदाहरण है अथर्ववेद में 20 मण्डल, 731 ऋचाएं तथा 5.839 मन्त्र हैं इस ग्रन्थ से उत्तर वैदिककालीन भारत की पारिवारिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन की विशद जानकारी प्राप्त होती है. इन वेदों के एक- एक उपवेद हैं. आयुर्वेद ऋग्वेद का धनुर्वेद यजुर्वेद का गन्धर्ववेद सामवेद का तथा शिल्पवेद अथर्ववेद का उपवेद है.
ब्राह्मण ग्रन्थ
ऋषियों द्वारा गद्य में वेदों की, की गई सरल व्याख्या को ब्राह्मण ग्रन्थ कहा जाता है. प्रत्येक वेद के अपने ब्राह्मण ग्रन्थ हैं. कौशीतकी तथा एतरेय ॠग्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ हैं. एतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ में विभिन्न प्रकार के राज्याभिषेक उत्सव तथा वैदिक काल के कुछ राजाओं का विवरण दिया हुआ है, तैतरीय कृष्ण यजुर्वेद का शतपथ, शुक्ल यजुर्वेद का, ताण्डव, पंचविश तथा जैमनीय सामवेद का तथा गोपथ अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ है. इन ब्राह्मण ग्रन्थों से तत्कालीन लोगों की सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक जीवन की विशद जानकारी प्राप्त होती है आरण्यक ये भी एक प्रकर के ग्रन्थ हैं, जिनकी रचना बाद में की गई. इनमें आत्मा मृत्यु तथा जीवन सम्बन्धी विषयों का वर्णान किया गया है. इनका पठन-पाठन वानप्रस्थी, मुनि तथा वनवासियों द्वारा वन में किया जाता था, इसलिए इन ग्रन्थों का नाम आरण्यक पड़ गया. कौशीतकी और एतरेय ॠग्वेद के. तैतरीय कृष्ण यजुर्वेद के आरण्यक हैं सामवेद तथा अथर्ववेद के कोई आरण्यक नहीं हैं.
रामायण तथा महाभारत
महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण तथा वेदव्यास द्वारा लिखित महाभारत हिन्दुओं के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं. दोनों ही
– ग्रन्थ राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक जीवन की विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं
– पुराण
ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त करने के लिए पुराण एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं इन पुराणों से राजवंशों तथा उनके कार्यकलापों का ज्ञान प्राप्त होता है. हालांकि वह पूर्णत विश्वसनीय नहीं हैं पुराणों की कुल संख्या 18 है जिनमें ब्रह्म मत्स्य, विष्णु भागवत अग्नि, वायु, मार्कण्डेय तथा गरूड़ पुराण ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं बौद्ध साहित्य हिन्दू साहित्य की भाँति ही बौद्ध साहित्य भी प्राचीन भारतीय इतिहास पर समुचित प्रकाश डालता है. बौद्ध साहित्य के तीन प्रमुख अंग हैं जातक पिटक एवं निकाय, जातक कथाओं का ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व है. ये कथाएं महात्मा बुद्ध के पूर्व भारत की सामाजिक स्थिति के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान करती हैं. त्रिपिटक हैं (1) विनयपिटक (2) सुत्तपिटक, (3) अभिधम्मपिटक विनयपिटक में भिक्षुओं के आचरण सम्बन्धी सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेश तथा अभिधम्मपिटक में बौद्ध धर्म के दर्शन का वर्णन किया गया है. इन पिटकों को पाली भाषा में लिखा गया है. इन पिटकों में महात्मा बुद्ध के समकालीन शासकों तथा तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी वर्णित की गई है.
महावंश एवं दीपवंश पाली भाषा में लिखित अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं. इनसे श्रीलंका के राजवंशों का ऐतिहासिक वर्णन प्राप्त होता है. कनिष्क के शासनकाल में अश्वघोष द्वारा लिखित ‘बुद्धचरित मिलिन्दपन्हो महाविभाव तथा संस्कृत भाषा में लिखित ‘ललित विस्तार’ से भी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है. दिव्यावदान, वैपुल्य सूत्र तथा मंजुश्री मूलकल्प अन्य प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ हैं जैन साहित्य
प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में अनेक ऐसे तथ्यों का वर्णन प्राकृत भाषा में लिखित जैन साहित्य में मिलता है, जिनका वर्णन ब्राह्मण एवं बौद्ध साहित्य में या तो किया ही नहीं गया है या फिर बहुत कम किया गया है. परिशिष्ट पर्व, भद्रबाहुचरित, त्रिलोक प्रजटित, कथाकोष, लोक विभाग, आराधना कथाकोष, स्थविरावलि, आवश्यक- सूत्र, कल्पसूत्र तथा भगवतीसूत्र आदि जैन साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं. जैन साहित्य को बारह भागों में विभाजित किया गया है. जैन साहित्य से हमें 24 तीर्थंकरों तथा महावीर स्वामी के काल में उत्तर प्रदेश एवं बिहार राज्य की राजनीतिक एवं ऐतिहासिक जान- कारी प्राप्त होती है
आश्रम
आश्रम से आशय जीवन के उस भाग से, जिसमें मनुष्य कुछ समय रहकर श्रम करता है. आश्रमों की संख्या चार थी. मनुष्य के जीवन की आयु 100 मानकर प्रत्येक आश्रम का काल 25 वर्ष निर्धारित किया गया था
ब्रह्मचर्य आश्रम-विषय वासनाओं से दूर रहकर विद्या ग्रहण करना, भिक्षावृत्ति कर जीवनयापन करना, गुरु की आज्ञा का पालन करना तथा उनका सम्मान करना आदि विद्यार्थी का कर्तव्य होता था
गृहस्थ आश्रम-विद्याध्ययन की समाप्ति के पश्चात् इस आश्रम का प्रारम्भ होता था. इस आश्रम में विवाह कर व्यक्ति प्रविष्ट होता था. इस आश्रम के अन्तर्गत मनुष्य को सन्तानोत्पत्ति, अग्निहोत्र, तर्पण, अतिथि सेवा तथा पंच महायज्ञों को करना अनिवार्य होता था.
वानप्रस्थ- गृहस्थ जीवन में संतान, धन एवं यज्ञ कामना की पूर्ति के पश्चात् मनुष्य अपने घर का त्याग कर वन की ओर गमन करता था तथा वन में ही रहकर तप करता था
संन्यास आश्रम – इस आश्रम में मनुष्य सांसारिक इच्छाओं को त्यागकर भिक्षावृत्ति कर जीवनयापन करता था तथा मृत्युपर्यन्त इस आश्रम में निवास करता था. पुरुषार्थ
यह शब्द पुरुष एवं अर्थ शब्दों से मिलकर बना है, यहाँ पुरुष का अर्थ जीवात्मा तथा अर्थ शब्द का अर्थ उद्देश्य है. इस प्रकार पुरुषार्थ का अर्थ जीवात्मा का उद्देश्य है. प्राचीनकालीन भारतीय समाज में जीवात्मा का उद्देश्य परमात्मा में विलीन होना इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्रत्येक मनुष्य को पुरुषार्थ का पालन करना होता था. ये पुरुषार्थ थे – (1) धर्म (2) अर्थ, (3) काम, (4) मोक्ष.
धर्म-धर्म को कर्तव्य का पर्यायवाची माना गया है. कर्तव्य एवं सदाचरण का पालन करना ही धर्म है, प्राचीन मनीषियों का विश्वास था कि धर्म से न केवल व्यक्ति एवं समाज की उन्नति होती है बल्कि राष्ट्र का उत्कर्ष भी. अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करना चाहिए.
अर्थ-जीवन की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति अर्थ अर्थात् धन द्वारा होती है. प्राचीन मनीषियों का मत था कि प्रत्येक व्यक्ति को यथोचित तरीके से धन अर्जन कर अपनी भौतिक उन्नति करनी चाहिए.
काम – इस पुरुषार्थ के अन्तर्गत मनुष्य को गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट हो सन्तानोत्पत्ति कर पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त करना था. मोक्ष-सांसारिक तीन प्रकार के दुख- दैहिक दुख, दैविक दुख तथा आध्यात्मिक दुःख से मुक्ति पाना ही मोक्ष है.
संस्कार
संस्कारों का प्रारम्भ वैदिक काल में ही प्रारम्भ हो चुका था. तत्कालीन समाज में प्रत्येक व्यक्ति इन संस्कारों को करना अपना सामाजिक कर्तव्य समझता था. प्रमुख, संस्कारों की संख्या-16 थी.
संस्कार
गर्भाधान
कर्णवेधन
पुंसवन
विद्यारम्भ
सीमन्तोन्नयन
उपनयन
वेदारम्भ
जातकर्म
समापवर्तन
नामकरण
(6) निष्क्रमण
विवाह
वानप्रस्थ
अन्नप्राशन
अन्त्येष्टि
चूड़ाकर्म
गर्भाधान संस्कार- इस संस्कार के अन्तर्गत पुरुष स्त्री में अपना बीजारोपण करता था. इस संस्कार के लिए रात्रि तथा उचित नक्षत्र का ध्यान रखना परम आवश्यक होता था.
हिन्दू विवाह के प्रकार मनुस्मृति में विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जिसमें प्रथम चार विवाह प्रशंसित तथा शेष चार निदनीय: जाते हैं. मान प्रशंसनीय विवाह
(1) ब्रह्म-कन्या के वयस्क होने पर उसके माता-पिता द्वारा योग्य वर खोजकर उससे अपनी कन्या का विवाह करना
(2) दैव-यज्ञ करने वाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह.
(3) आर्ष-कन्या के पिता द्वारा यज्ञ कार्य हेतु एक अथवा दो गाय के बदले में अपनी कन्या का विवाह करना.
(4) प्रजापत्य-वर स्वयं कन्या के पिता से कन्या माँगकर विवाह करता था. निंदनीय विवाह
(5) आसुर कन्या के पिता द्वारा धन के बदले में कन्या का विक्रय.
(6) गंधर्व कन्या तथा वर प्रेम अथवा कामुकता के वशीभूत होकर करते थे.
(7) पैशाच सोई हुई अथवा पागल कन्या के साथ सहवास कर विवाह करना..
(8) राक्षस-बलपूर्वक कन्या को छीनकर उससे विवाह करना.
पुंसवन संस्कार – पुत्र प्राप्ति तथा गर्भ की रक्षा हेतु गर्भ के तीसरे माह में यह संस्कार किया जाता था. इसमें स्त्री-पुरुष दोनों प्रतिज्ञा करते थे कि वे कोई ऐसा काम नहीं करेंगे, जिससे गर्भ को हानि पहुँचे..
सीमन्तोन्नयन संस्कार यह संस्कार गर्भस्थ शिशु की मानसिक वृद्धि हेतु गर्म के सातवें या आठवें माह में किया जाता था.. जातकर्म संस्कार- इस संस्कार में पिता उत्पन्न शिशु का स्पर्श करके उसे आशीर्वाद देता था तथा अपनी उंगली से बच्चे को मधु अथवा शहद चटाता तथा शिशु के कान में मेघा जनन का मंत्र उच्चारित करता था.
नामकरण संस्कार- शिशु के जन्म के ग्यारहवें दिन शिशु का नामकरण कर यह संस्कार किया जाता था.
निष्क्रमण संस्कार – यह संस्कार बच्चे को घर से बाहर निकालने के अवसर पर किया जाता था. इसमें शिशु को जन्म के 12वें दिन आकर्षक वस्त्र पहनाकर पिता अथवा मामा के साथ घर के बाहर लाया जाता था.
अन्नप्राशन संस्कार- इसमें शिशु को छठवें महीने में अन्नादि सामग्री चटाई जाती थी. चूड़ाकर्म संस्कार यह संस्कार जन्म के तीसरे वर्ष में किया जाता था. इसमें शिशु के केशों को मूड़ा जाता था.
कर्णवेधन संस्कार यह संस्कार तीसरे अथवा पाँचवें वर्ष में किया जाता था. इसमें शिशु के कानों को छेदा जाता था.. विद्यारम्भ संस्कार शिशु के जन्म के पाँचवें वर्ष में किसी शुभ दिन गुरु के पास ले जाकर शिशु को अक्षर ज्ञान कराया जाता था. इस अवसर पर सरस्वती की पूजा की जाती थी.
उपनयन संस्कार बालक यज्ञोपवीत धारण कर ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रविष्ट होता था. यह संस्कार ब्राह्मण शिशु के जन्म के आठवें वर्ष में क्षत्रिय शिशु के जन्म के ग्यारहवें वर्ष में तथा वैश्य शिशु के जन्म के बारहवें वर्ष में किया जाता था. शूद्रों को इस संस्कार से वंचित रखा गया था.
वेदारम्भ संस्कार व्यास स्मृति में इस संस्कार का उल्लेख है. उपनयन संस्कार के अगले दिन अथवा एक वर्ष के अन्दर यह संस्कार किया जाता था.
समावर्तन संस्कार- ब्रह्मचारी बालक गुरु की अनुमति से स्नान कर मेघचर्म, दण्ड आदि को जल में फेंक कर गुरुकुल से घर की ओर प्रस्थान करता था.
विवाह संस्कार-स्त्री-पुरुष का विवाह
कर सन्तानोत्पत्ति के उद्देश्य उन्हें गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट कराया जाता था
वानप्रस्थ संस्कार- 50 वर्ष की अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् जब पुत्र के पुत्र हो जाता था तब साँसारिकता से दूर रहने के लिए यह संस्कार किया जाता था.
अन्त्येष्टि संस्कार यह मनुष्य का अन्तिम संस्कार था. इसमें मृतक को लकड़ी की चिता पर रखकर अग्नि को समर्पित कर दिया जाता था. अबोध मृतक शिशु को जमीन में गाढ़ दिया जाता था. विवाह
यह एक पवित्र संस्कार था. तत्कालीन समाज में आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे, ब्रह्म- सर्वोत्तम प्रकार के इस विवाह में कन्या के वयस्क होने पर उसके माता-पिता योग्य वर खोज कर अपनी कन्या का विवाह करते थे, दैव-यज्ञ करने वाले पुरोहित को कन्यादान में दे दी जाती थी.
आर्ष-कन्या के पिता वर से यज्ञ कार्य हेतु एक अथवा दो गाय लेता था. गान्धर्व कन्या तथा वर प्रेम अथवा कामुकता के वशीभूत होकर करते थे.
प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्त
कपिल सांख्य दर्शन पतंजलि योग सूत्र) योग दर्शन गौतम (न्याय सूत्र) न्याय दर्शन वैशेषिक दर्शन कणद या उलूक जैमिनी पूर्व मीमांसा दर्शन उत्तर मीमांसा (वेदान्त) दर्शन बादरायण (ब्रहा सूत्र) लोकायत (भौतिकवादी) दर्शन चार्वाक आसुर-वर कन्या के सम्बन्धियों को यथा – शक्ति धन देकर कन्या से विवाह करता था.
राक्षस-वर बलपूर्वक कन्या को उसके सम्बन्धियों से छीनकर विवाह करता था.
प्रजापत्य-वर स्वयं कन्या के पिता से कन्या माँगकर विवाह करता था.
पैशाच- सोई हुई कन्या के साथ सहवास करना पैशाच विवाह कहलाता था.
दस यम
मनुस्मृति में उल्लेख है कि बुद्धिमान व्यक्ति को दस यमों का पालन करना चाहिए. ये यम हैं-
(1) ब्रह्मचर्य, (2) दया, (3) क्षमा, (4) ध्यान, (5) सत्य, (6) नम्रता, (7) अहिंसा, (8) चोरी न करना, (9) मधुर स्वभाव, (10) इन्द्रिय दमन.
जाति
अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह के परिणाम- स्वरूप अनेक जातियों का उद्भव हुआ कुछ जातियों का उद्भव पेशों के आधार पर हुआ.
प्रमुख जाति
अम्बष्ठ, आयोगण, उग्र, निषाद, मागध रथकार, वैदेहक, सूत, वेण, पुक्कस, क्षता, पारशव, आभीर, धिग्वण, धीवर, कुम्कुटक श्वपाक, चाण्डाल, सैरिन्ध्र, मैत्रेयक, किरात, शैलूष, भिल्ल, डोम, शूलिक, तन्तुवाय, तच्चक आदि प्राचीन भारतीय समाज में प्रमुख जातियाँ अस्तित्व में थीं.
सूत्र साहित्य
सूत्र संक्षेप में निश्चित भाषा में व्यक्त शिक्षा/ उपदेश की पुस्तिका है.
सूत्र साहित्य में यक्ष का निरुक्त, पाणिनी की अष्टाधायी, स्रोत सूत्र, गृह सूत्र तथा धर्म सूत्र सम्मिलित हैं.
इस साहित्य का निर्माण काल सातवीं शताब्दी ई. पू. से द्वितीय शताब्दी ई.पू. माना गया है.
वेदांग 6 हैं-कल्प, शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छन्द एवं ज्योतिष. पाणिनी की अष्टाध्यायी संस्कृत की व्याकरण है.
स्रोत सूत्र- इसमें पुरोहितों द्वारा किए गए समारोहों का वर्णन है.
गृह सूत्र-गृहस्थों द्वारा किए जाने वाला यज्ञ व क्रिया काण्ड से सम्बन्धित है.
धर्म सूत्र – प्रचलित धार्मिक नियम व उनका व्यावहारिक रूप है.
सिकन्दर यूनान स्थित मकदूनिया के राजा फिलिप का पुत्र था. उसका जन्म 356 ई.पू. में हुआ था. 20 वर्ष की अवस्था में वह सिंहासन पर आसीन हुआ और शीघ्र ही उसने अपनी महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत हो विश्व – विजय अभियान प्रारम्भ कर दिया. ईरान, अफगानिस्तान तथा बैक्ट्रिया को विजित करता हुआ भारत की ओर बढ़ा.
भारत पर आक्रमण
इस समय उत्तर पश्चिमी भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था. यहाँ के शासकों में आपसी फूट थी. अतः 327-26 ई.पू. में सिकन्दर ने हिन्दुकुश पार कर भारत में प्रवेश किया और शीघ्र ही सीमांत प्रदेश के कुछ राज्यों पर बिना युद्ध किए ही अधिकार कर लिया तथा कुछ प्रदेशों से उसे युद्ध करना पड़ा.
अस्पसिओई जाति से युद्ध
सिकन्दर ने सर्वप्रथम अलिसांगे-कुदार घाटी में निवास करने वाली अस्पसिओई अथवा अश्वक जाति को परास्त किया.
नीसा पर आक्रमण
नीसा राज्य पर अभिजात वर्ग का अधिकार था. यहाँ के शासक अकूफिस ने हल्के संघर्ष में पराजय के बाद सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली.
मस्सग पर आक्रमण
यह नगर गोरी नदी के पूर्व में स्थित था. यहाँ का दुर्ग अभेद्य था. युद्ध में राजा अस्सकेनस के मर जाने के बाद यहाँ की स्त्रियों ने सिकन्दर से लोहा लेकर शौर्यता का परिचय दिया, किन्तु अंत में विजय सिकन्दर को ही प्राप्त हुई.
आम्भी
आम्भी तक्षशिला का शासक था उसने सिकन्दर से युद्ध के स्थान पर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली.
अभिसार पर अधिकार
झेलम तथा चिनाव नदी के बीच स्थित इस पर्वतीय प्रदेश तथा अन्य छोटे-छोटे राज्यों ने सिकन्दर के समक्ष हथियार डालकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली. पोरस से युद्ध पोरस चिनाव तथा झेलम नदियों के मध्यवर्ती प्रदेश का शासक था सिकन्दर को इस वीर शासक को परास्त करने में सर्वाधिक शक्ति व बुद्धि का प्रयोग करना पड़ा. सिकन्दर पोरस की वीरता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसके राज्य को वापस कर उससे मित्रता कर ली तथा आगे के अभियान में उसका सहयोग लिया.
ग्लोगनिकाई, कठोई व सौभूति इन्हें पराजित करने में सिकन्दर को मेहनत करनी पड़ी. कठोई को तो पोरस की मदद के बाद ही पराजित किया जा सका. सिकन्दर की सेना में विद्रोह सौभूति पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् जैसे ही सिकन्दर व्यास नदी के तट पर पहुंचा तभी उसकी सेना ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया. सिकन्दर के लाख समझाने पर भी सेना नहीं मानी तो उसने स्वदेश लौटने का निश्चय किया लौटते समय भी उसने अनेक जातियों यथा अगलस्स, क्षुद्रक, शौद्र तथा ब्राह्मण आदि को पदाक्रान्त किया.
वापसी तथा मृत्यु
325 ई.पू. में सिकन्दर ने अपने देश की ओर प्रस्थान किया. उसने अपनी सेना को दो भागों में बाँट दिया. निथारकस की अध्यक्षता में सेना का एक भाग जलमार्ग द्वारा तथा दूसरा भाग सिकन्दर के नेतृत्व में थल मार्ग से वापस हुआ. स्वदेश पहुँचने से पूर्व ही 325 ई. पू. में उसकी मृत्यु हो गई.
सिकन्दर के आक्रमण का प्रभाव
सिकन्दर के आक्रमण के प्रभाव के विषय में इतिहासकार एक मत नहीं हैं. कुछ इतिहासकारों का मत है कि सिकन्दर भारत में आँधी की तरह आया और शीघ्र ही यहाँ से वापस भी चला गया. अतः उसके आक्रमण का भारत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, किन्तु कुछ इतिहासकारों का मत है। कि सिकन्दर के आक्रमण का भारत पर प्रभाव पड़ा. वास्तव में यह प्रभाव अनेक क्षेत्रों में दर्शित भी होता है.
राजनीतिक महत्व इतिहास की तिथि निर्धारण में न सहायक इस आक्रमण से तिथिवार इतिहास को प्रस्तुत करने में सहायता प्राप्त हुई. राजनीतिक एकता का प्रारम्भ तत्कालीन उत्तरी भारत के अनेक छोटे-छोटे राज्यों का विलय पोरस तथा आम्भी के राज्यों में हो गया. अपेक्षाकृत उ राज्य विस्तृत तथा राजनीतिक दृष्टि से एकजुट होने लगे.
यूनानी राज्यों की स्थापना
पश्चिमी पंजाब, सिन्ध आदि सीमावर्ती प्रान्तों में यूनानी राज्यों की स्थापना हुई.
दोषपूर्ण युद्ध विधि का ज्ञान भारतीयों को सिकन्दर के विरुद्ध युद्ध करने से अपनी युद्ध विधि के दोषों का भली-भाँति ज्ञान हुआ, जिसे उन्होंने भविष्य में दूर भी किया.
आर्थिक प्रभाव नए मार्गों का ज्ञान
यद्यपि भारत के यूनान से पहले से ही सम्बन्ध स्थापित थे, किन्तु इस आक्रमण से यूनान, अन्य व्यापारिक मार्ग खुल गए. मार्गों में एक जलमार्ग तथा तीन स्थल मार्ग भारत, ईरान आदि पश्चिमी देशों के मध्य थे. काबुल, बलूचिस्तान में सुल्तान दर्रा तथा जोडोशिया से होकर जाने वाला स्थल मार्ग भविष्य में व्यापारिक दृष्टि से अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुआ.
व्यापार को प्रोत्साहन
भारत और यूनान के मध्य व्यापारिक सम्बन्ध घनिष्ठ हुए. भारत गर्म मसाले, हाथी दाँत आदि वस्तु का निर्यात तथा यूनान से कन्याओं का आयात होने लगा.
सांस्कृतिक प्रभाव
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सिकन्दर की भारत विजय के फलस्वरूप किन्तु कला, भाषा, साहित्य, ज्योतिष, चिकित्सा आदि के क्षेत्र में यूनानी प्रभाव पड़ा, यह मत सही नहीं है, यह प्रभाव परवर्ती यूनानी सम्पर्क का था.
पाषाण काल
*जिस काल का कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता है, उसे ‘प्रागैतिहासिक काल’ कहते हैं। ‘आद्य ऐतिहासिक काल’ में लिपि के साक्ष्य तो हैं किंतु उनके अपठ्य या दुर्बोध होने के कारण उनसे कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। जब से लिखित विवरण मिलते हैं यह ‘ऐतिहासिक काल’ है। * प्रागैतिहास के अंतर्गत पाषाण कालीन सभ्यता तथा आद्य-इतिहास के अंतर्गत सिंधु घाटी सभ्यता एवं ताम्र सभ्यता (अहाड़, जोर्वे आदि) आती हैं, जबकि छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास से ऐतिहासिक काल का आरंभ होता है। * सर्वप्रथम 1863 ई. में भारत में पाषाण कालीन सभ्यता का अनुसंधान प्रारंभ हुआ। पाषाण निर्मित उपकरणों की अधिकता के कारण संपूर्ण पाषाण युगीन संस्कृति को तीन मुख्य चरणों में विभाजित किया गया। *ये हैं-पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल और नवपाषाण काल। * उपकरणों की मिन्नता के आधार पर पुरापाषाण काल को भी तीन कालों में विभाजित किया जाता है।
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पूर्व पुरापाषाण काल-क्रोड उपकरण (हस्तकुठार, खंडक एवं विदारिणी),
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मध्य पुरापाषाण काल फलक उपकरण तथा
3 उच्च पुरापाषाण काल-तक्षिणी एवं खुरचनी उपकरण
* सर्वप्रथम पंजाब की सोहन नदी घाटी (पाकिस्तान) से चापर-चापिंग पेबुल संस्कृति के उपकरण प्राप्त हुए। * सर्वप्रथम मद्रास के समीप बदमदुरै तथा अत्तिरमपक्कम से हैंडऐक्स संस्कृति के उपकरण प्राप्त किए गए। * इस संस्कृति के अन्य उपकरण क्लीवर, स्क्रेपर आदि हैं। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (Indian Geological Servey) के वैज्ञानिक रॉबर्ट ब्रूस फुट ब्रिटिश भूगर्भ वैज्ञानिक और पुरातत्वविद थे। 1863 ई. में रॉबर्ट ब्रूस फुट ने मद्रास के पास ‘पल्लवरम’ नामक स्थान से पहला हैंडऐक्स प्राप्त किया था। उनके मित्र विलियम किंग ने अत्तिरमपक्कम से पूर्व पाषाण काल के उपकरण खोज निकाले। * वर्ष 1935 में डी. टेरा के नेतृत्व में एल कैम्ब्रिज अभियान दल ने सोहन घाटी में सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान किए। *बेलन घाटी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जी.आर. शर्मा के निर्देशन में अनुसंधान किया गया। पूर्व पुरापाषाण काल से संबंधित यहां 44 पुरास्थल प्राप्त हुए हैं। *उपकरणों के अतिरिक्त बेलन के लोहदा नाला क्षेत्र से इस काल की अस्थि निर्मित मातृदेवी की एक प्रतिमा मिली है, जो संप्रति कौशाम्बी संग्रहालय में सुरक्षित है।
* फलकों की अधिकता के कारण मध्य पुरापाषाण काल को ‘फलक संस्कृति’ भी कहा जाता है। इन सामान्य उपकरणों का निर्माण क्वाइट पत्थरों से किया गया है। पुरापाषाण कालीन मानव का जीवन पूर्णतया प्राकृतिक था। प्रधान शिकार पर निर्भर रहते थे तथा उनका भोजन मांस अथवा कंदमूल हुआ करता था। * अग्नि के प्रयोग से अपरिचित रहने के कारण वे कच्चा मांस खाते थे। इस युग का मानव शिकारी एवं खाद्य संग्राहक था।
इस काल के मानव को पशुपालन तथा कृषि का ज्ञान नहीं था। भारत में मध्यपाषाण काल के विषय में जानकारी सर्वप्रथम 1867- 68 ई. में हुई जब आर्कीवाल्ड कार्लाइल ने किंव्य क्षेत्र से शैल चित्र (Rock 7 Painting) खोज निकाले। मध्यपाषाण काल के विशिष्ट औजार सूक्ष्म पाषाण या पत्थर के बहुत छोटे औजार हैं। भारत में मानव अस्थिपंजर सर्वप्रथम मध्यपाषाण काल से ही प्राप्त होने लगता है। *गुजरात स्थित लंघनाज सबसे महत्वपूर्ण पुरास्थल है। यहां से लघु पाषाणोपकरणों के अतिरिक्त पशुओं की हड्डियां, कब्रिस्तान तथा कुछ मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ से 14 मानव कंकाल भी मिले हैं।
* मध्यपाषाण कालीन महदहा (प्रतापगढ़, उ.प्र.) से हड्डी एवं सींग निर्मित उपकरण प्राप्त हुए हैं। जी. आर. शर्मा ने महदहा के तीन क्षेत्रों का उल्लेख किया है, जो झील क्षेत्र, बूचड़खाना संकुल क्षेत्र एवं कब्रिस्तान निवास क्षेत्र में बंटा था। बूचड़खाना संकुल क्षेत्र से ही हड्डी एवं सींग निर्मित उपकरण एवं आभूषण बड़े पैमाने पर पाए गए हैं। *डॉ. जयनारायण पाण्डेय द्वारा लिखित पुस्तक ‘पुरातत्व विमर्श में महदहा, सराय नाहर राय एवं दमदमा तीनों ही स्थलों से हड्डी के उपकरण एवं आभूषण पाए जाने का उल्लेख है।
*दमदमा में किए गए उत्खनन के फलस्वरूप पश्चिमी तथा मध्यवर्ती क्षेत्रों से कुल मिलाकर 41 मानव शवाधान ज्ञात हुए हैं। *इन शवाधानों में से 5 शवाधान युग्म शवाधान हैं और एक शवाधान में मानव कंकाल एक साथ दफनाए हुए मिले हैं। शेष शवाधानों में एक-एक कंकाल मिले हैं। इस प्रकार कुल 48 मानव कंकाल प्राप्त हुए हैं। सराय नाहर राय से ऐसी समाधि मिली है, जिसमें चार मानव कंकाल एक साथ दफनाए गए थे। * यहां की कब्रें (समाधियां) आवास क्षेत्र के अंदर स्थितः थीं। कब्रें छिछली तथा अंडाकार थीं। *विंध्य क्षेत्र के लेखहिया के शिलाश्रय संख्या 1 से मध्यपाषाणिक लघु पाषाण उपकरणों के अतिरिक्त 17 मानव कंकाल प्राप्त हुए हैं, जिनमें से कुछ सुरक्षित हालत में हैं तथा अधिकांश क्षत-विक्षत अवस्था में हैं।
* अमेरिका के ओरेगॉन विश्वविद्यालय के जॉन आर. लुकास के अनुसार, लेखहिया में कुल 27 मानव कंकालों की अस्थियां मिली हैं। *पशुपालन का प्रारंभ मध्यपाषाण काल में हुआ। *पशुपालन के साक्ष्य भारत में आदमगढ़ (होशंगाबाद, म.प्र.) तथा बागोर (भीलवाड़ा, राजस्थान) से प्राप्त हुए हैं। * मध्यपाषाण काल के मानव शिकार करके मछली पकड़कर और खाद्य वस्तुओं का संग्रह कर पेट भरते थे। *मध्य और अन्य अध्ययन भारतीय इतिहास हू
प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका प्रागैतिहासिक शैल चित्रकला का श्रेष्ठ उदाहरण है। *भारत में सर्वाधिक 700 से अधिक शिलाश्रय प्राप्त हुए है, जिसमें से 243 को क्रमांक दिया गया है, इसमें से 133 शिलाश्रयों चित्रकारी प्राप्त हुई है। यूनेस्को ने भीमबेटका शैल चित्रों को विश्व दिराका सूची में सम्मिलित किया है।
*सर्वप्रथम खाद्यान्नों का उत्पादन नवपाषाण काल में प्रारंभ हुआ। इसी काल में गेहूं की कृषि प्रारंभ हुई। नवीनतम खोजों के आधार पर भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीनतम कृषि साक्ष्य वाला स्थल उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जिले में स्थित लहुरादेव है। * यहां से 9000 ई.पू. से 7000 ई.पू. माय के चावल के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। उल्लेखनीय है कि इस नवीनतम खोज के पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप का प्राचीनतम कृषि साक्ष्य वाला स्थल मेहरगढ़ (पाकिस्तान के बलूचिस्तान में स्थित यहां से 7000 ई.पू. के गेहूं के साक्ष्य मिले हैं), जबकि प्राचीनतम चावल के साक्ष्य वाला स्थल कोलडिहवा (इलाहाबाद जिले में बेलन नदी के तट पर स्थित यहां से 6500 ई.पू. के चावल की भूसी के साक्ष्य मिले हैं) माना जाता था। चीन के यांग्त्जी नदी घाटी क्षेत्र में लगभग 7000 ई.पू. चावल उगाया गया। मक्का (लगभग 6000 ई.पू.) का प्रथम साक्ष्य मेक्सिको में पाया गया। *बाजरा 5500 ई.पू. चीन में, सोरघम 5000 ई.पू. पूर्वी अफ्रीका में राई 5000 ई. पू. में दक्षिण-पूर्व एशिया में तथा जई 2300 ई.पू. में यूरोप में सर्वप्रथम उगाया गया।
* मेहरगढ़ से पाषाण संस्कृति से लेकर हड़प्पा सभ्यता तक के सांस्कृतिक अवशेष प्राप्त हुए हैं। *मानव कंकाल के साथ कुत्ते का कंकाल बुर्जहोम (जम्मू-कश्मीर) से प्राप्त हुआ। गर्त आवास के साक्ष्य भी यहीं से प्राप्त हुए। * इस पुरास्थल की खोज वर्ष 1935 में डी. टेरा एवं पीटरसन ने की थी। * गुफकराल कश्मीर में स्थित नवपाषाणिक स्थल है। *गुफकराल का अर्थ होता है कुलाल अर्थात कुम्हार की गुहा *यहां के लोग कृषि एवं पशुपालन का कार्य करते थे। * चिरांद बिहार के सारण जिले में स्थित है। यहां से नवपाषाणिक अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां से हड्डी के अनेक उपकरण प्राप्त हुए हैं। यहां से प्राप्त उपकरण हिरण के सींगों से निर्मित है। नवपाषाण युगीन दक्षिण भारत में मृतक को दफनाने के स्थल के रूप में वृहत्पाषाण स्मारकों की पहचान की गई। *नवपाषाण कालीन पुरास्थल से ‘राख के टीले’ कर्नाटक में मैसूर के पास बेल्लारी जनपद में स्थित संगनकल्लू नामक स्थान से प्राप्त हुए। *पिकलीहल, उतनूर आदि स्थलों से भी राख
के टीले मिले हैं। ये राख के टीले नवपाषाण युगीन पशुपालक समुदायों के
मौसमी शिविरों के जले अवशेष है। * आग का उपयोग नवपाषाण काल की
महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।
* धातुओं में सबसे पहले तांबे का प्रयोग हुआ। इस चरण में पत्थर एवं तांबे के उपकरणों का साथ-साथ प्रयोग जारी रहा। इसी कारण इसे ताम्रपाषाणिक संस्कृति (कल्कोलिथिक कल्चर) कहा जाता है। * ताम्रपाषाणिक का अर्थ है- पत्थर एवं तांबे के प्रयोग की अवस्था। *भारत में ताम्रपाषाण युग की बस्तियां दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण-पूर्वी भारत में पाई गई है।
* दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में अनेक पुरास्थलों की खुदाई हुई है, – बालाल, बागोर, ओजियाना एवं गिलुंद। ये पुरास्थल बनास घाटी में स्थित हैं। *बनास घाटी में स्थित होने के कारण इसे बनास संस्कृति भी कहते हैं।
*अहाड़ का प्राचीन नाम तांबवती अर्थात तांबा वाली जगह है। *गिलुद बालावल, ओजियाना में घरो को चाहरदीवारी से घेरा गया है। *अहाड़ के पास गिलुंद में मिट्टी की इमारत बनी है, किंतु कहीं-कहीं पक्की ईंट भीलगी है।
*गिलुंद में तांबे के टुकड़े मिले हैं। * अहाड़ संस्कृति (2100-1500 ई.पू.) अन्य ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों से भिन्न है क्योंकि जहां दूसरे केंद्रों में लाल व काले लेप के मृदभांड बने हैं, वहीं यहां पर इस लेप के ऊपर सफेद रंग से चित्रकारी को गई कृष्ण लोहित मृदभांड परंपरा विशिष्ट रही है। * पश्चिमी मध्य प्रदेश में मालवा, कायथा, एरण और नवदाटोली प्रमुख स्थल हैं। * नवदाटोली, मध्य प्रदेश का एक महत्वपूर्ण ताम्रपाषाणिक पुरास्थल है, जो खारगोन जिले में स्थित है। इसका उत्खनन एच.डी. संकालिया ने कराया था। यहां से मिट्टी, बांस एवं फूस के बने चौकोर एवं वृत्ताकार घर मिले हैं। यहां के मूल मृद्भांड लाल-काले रंग के हैं, जिन पर ज्यामितीय आरेख उत्कीर्ण है।
* कायथा संस्कृति जो हड़प्पा संस्कृति की कनिष्ठ समकालीन है. इसके मृद्मांडों में कुछ प्राक् हड़प्पीय लक्षण दिखाई देते है, साथ ही इन पर हड़प्पाई प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई देता है। * इस संस्कृति की लगभग 40 बस्तियां मालवा क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं, जो अत्यंत छोटी-छोटी हैं। *मालवा संस्कृति अपनी मृद्मांडों की उत्कृष्टता के लिए जानी जाती है। * मध्य प्रदेश में कायथा और एरण की तथा पश्चिमी महाराष्ट्र में इनामगांव की बस्तियां किलाबंद है। * पश्चिमी महाराष्ट्र के प्रमुख पुरास्थल हैं-अहमदनगर जिले में जोर्वे, नेवासा और दैमाबाद, पुणे जिले में चंदोली, सोनगांव, इनामगांव, प्रकाश और नासिक। * ये सभी पुरास्थल जोर्वे संस्कृति (1400-700 ई.पू.) के हैं। * अब तक ज्ञात 200 जोर्वे स्थलों में गोदावरी का दैमाबाद सबसे बड़ा है। *यह लगभग 20 हेक्टेयर में फैला है, जिसमें लगभग 4000 लोग रह सकते थे। * नेवासा (जोर्वे संस्कृति स्थल) से पटसन का साक्ष्य प्राप्त हुआ है। टोटीदार पात्र परंपरा जोर्वे संस्कृति की विशिष्ट पहचान है।
*महाराष्ट्र की ताम्रपाषाण कालीन संस्कृति (जोर्वे संस्कृति) के नेवासा, दैमाबाद, चंदोली, इनामगांव आदि पुरास्थलों में मृतकों को अस्थि कलश में रखकर उत्तर से दक्षिण दिशा में घरों के फर्श के नीचे दफनाए जाने के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। आरंभिक ताम्रपाषाण अवस्था के इनामगांव स्थल पर चूल्हों सहित बड़े-बड़े कच्ची मिट्टी के मकान और गोलाकार गड्ढों वाले मकान मिले हैं। * पश्चात की अवस्था ( 1300-1000 ई.पू.) में पांच कमरों वाला एक मकान मिला है जिसमें चार कमरे आयताकार हैं और एक वृत्ताकार । * इनामगांव में 130 से अधिक घर (NCERT के अनुसार 100 से अधिक) और अनेक कब्रें पा गई हैं। * यह बस्ती किलाबंद है और खाई से घिरी हुई है। * यहां शिल
या पंसारी लोग पश्चिम छोर पर रहते थे, जबकि सरदार प्राय: केंद्र स्थल में रहता था। यहां से अन्नागार भी मिला है। *पूर्वी भारत में गंगा तटवर्ती चिरांद के अलावा, पश्चिम बंगाल के जिले के पांडु राजर डिवि और बीरभूम जिले में महिषदल उल्लेखनीय समकालीन है। कुछ अन्य पुरास्थल जहां खुदाई हुई, ये है बिहार में सेनुवार, सोनपुर और ताराडीह तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में खैराबीह और नरहना
*बिहार, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में रहने वाले लोग टोटी वाले जलपात्र, गोडीदार तश्तरिया और गोडीदार कटोरे बनाते थे। *दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र और अन्यत्र रहने वाले ताम्रपाषाण युग के लोग मवेशी पालन और कृषि करते गाय, भेड़, बकरी और मेस रखते थे और हिरण का शिकार भी करते थे। * यहा से ऊंट के अवशेष प्राप्त हुए है। * मुख्य अनाज गेहूं और चावल के अतिरिक्त वे बाजरे की भी खेती करते थे।
ताम्रपाषाण युग के लोग शिल्प-कर्म मे निःसंदेह बड़े दक्ष थे और पत्थर का काम भी अच्छा करते थे। वे कानैलियन स्टेटाइट और क्वार्ट्ज क्रिस्टल जैसे अच्छे पत्थरों के मनके या गुटिकाएं भी बनाते थे। *वे लोग कताई और बुनाई जानते थे क्योंकि मालवा में चरखे और तकलियां मिली हैं। * महाराष्ट्र में कपास, सन और सेमल की रूई के बने धागे भी मिले हैं। * इनामगांव में कुंभकार, धातुकार, हाथी दांत के शिल्पी, चूना बनाने वाले और खिलौने की मिट्टी की मूर्ति (टेराकोटा) बनाने वाले कारीगर भी दिखाई देते हैं। * इनामगांव में मातृ-देवी की प्रतिमा मिली है, जो पश्चिमी एशिया में पाई जाने वाली ऐसी प्रतिमा की प्रतिरूप है। *मालवा और राजस्थान में मिली रूढ़ शैली से बनी मिट्टी की वृषभ मूर्तिकाएं यह सूचित करती है कि वृषभ (सांड) धार्मिक पंथ का प्रतीक था।
* पश्चिमी महाराष्ट्र की चंदोली और नेवासा बस्तियों में कुछ बच्चों के गलों में तांबे के मनकों का हार पहनाकर उन्हें दफनाया गया है, जबकि अन्य बच्चों की कब्रों में सामान के तौर पर कुछ बर्तन मात्र हैं। * महाराष्ट्र में मृतक को उत्तर-दक्षिण की दिशा में रखा जाता था किंतु दक्षिण भारत में पूर्व-पश्चिम की दिशा में पश्चिमी भारत में लगभग संपूर्ण शवाधान (एक्सटेंडेड बरिअल) प्रचलित था, जबकि पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान (फ्रैक्शनल रिअल) चलता था। * सबसे बड़ी निधि मध्य प्रदेश के गुगेरिया से प्राप्त हुई है। * इसमें 424 तांबे के औजार एवं हथियार तथा 102 चांदी के पतले पत्तर हैं।
* कायथा के एक घर में तांबे के 28 कंगन और दो अद्वितीय ढंग की कुल्हाड़ियां पाई गई हैं। इसी स्थान में स्टेटाइट और कार्नेलियन जैसे कीमती पत्थरों की गोलियों के हार पात्रों में जमा पाए गए हैं। * गणेश्वर स्थल राजस्थान में खेत्री ताम्र-पट्टी के सीकर-झुंझनू क्षेत्र के तांबे की समृद्ध खानों के निकट पड़ता है। * दक्षिण भारत में ब्रह्मगिरि, पिकलीहल, संगलनकल्लू, मस्की, हल्लूर आदि से ताम्रपाषाण युगीन बस्तियों के साक्ष्य मिले हैं। दक्षिण भारत में कृषक की अपेक्षा चरवाहा संस्कृति का अधिक प्रमाण मिला है।
भारत में सर्वप्रथम 1861 ई. में अलेक्जेंडर कनिंघम को पुरातत्व सर्वेक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। *1871 ई. में पुरातत्व सर्वेक्षण को सरकार के एक विभाग के रूप में गठित किया गया था। वर्ष 1901 में लॉर्ड कर्जन के समय में इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के रूप में केंद्रीकृत कर जॉन मार्शल को इसका प्रथम महानिदेशक बनाया गया था। वर्ष 1902 में जॉन मार्शल ने कार्यभार ग्रहण किया।
सैंधव सभ्यता एवं संस्कृति
नोट्स
*सैंधव सभ्यता के लिए साधारणतः तीन नामों का प्रयोग होता है- ‘सिंघ-सभ्यता’, ‘सिंधु घाटी की सभ्यता’ और ‘हड़प्पा सभ्यता’। *हड़प्पा सभ्यता की खोज वर्ष 1921 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक सर जॉन मार्शल के निर्देशन में रायबहादुर दयाराम साहनी ने किया था। हड़प्पा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मांटगोमरी जिले (वर्तमान शाहीवाल) में स्थित है, जबकि मोहनजोदड़ो सिंघ के लरकाना जिले में स्थित है। *पिग्गट महोदय ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो को ‘एक विस्तृत साम्राज्य की जुड़वां राजधानियां’ कहा है। * हड़प्पा रावी नदी के बाएं तट पर जबकि मोहनजोदड़ो सिंधु नदी के दाहिने तट पर स्थित है। * जॉन मार्शल ने सर्वप्रथम इस सभ्यता को सिंधु सभ्यता का नाम दिया। * रेडियो कार्बन-14 (C-14) जैसी नवीन विश्लेषण पद्धति के द्वारा हड़प्पा सभ्यता की तिथि 2300 ई.पू.-1700 ई.पू. मानी गई है, जो सर्वाधिक मान्य है। *लगभग 2300 ई.पू. से 1900 ई.पू. तक यह सभ्यता अपने विकास की पराकाष्ठा पर थी। *यह सभ्यता मेसोपोटामिया तथा मिस्र की सभ्यताओं की समकालीन थी।
* अब तक इस सभ्यता के अवशेष पाकिस्तान में पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और भारत में पंजाब, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उ.प्र., जम्मू कश्मीर, पश्चिमी महाराष्ट्र में पाए जा चुके हैं। * इस सभ्यता का सर्वाधिक पश्चिमी पुरास्थल सुत्कागेनडोर (बलूचिस्तान), पूर्वी पुरास्थल आलमगीरपुर (पश्चिमी उ.प्र.), उत्तरी पुरास्थल मांडा (जम्मू कश्मीर) तथा दक्षिणी पुरास्थल दैमाबाद (महाराष्ट्र) है। * इसका आकार त्रिभुजाकार है तथा वर्तमान में लगभग 13 लाख वर्ग किमी. क्षेत्रफल में विस्तृत है।
*प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मोहनजोदड़ों की जनसंख्या एक मिश्रित प्रजाति की थी जिसमें कम-से-कम चार प्रजातियां थीं। 1. प्रोटो ऑस्ट्रेलायड (काकेशियन), 2, भूमध्य सागरीय 3. अल्पाइन और 4. मंगोलायड *मोहनजोदड़ो के निवासी अधिकांशतः भूमध्य सागरीय थे।
नगर को अनेक वर्गाकार खड़ी विभाजित करती सड़कों के एक-दूसरे को पर काटने को ऑक्सफोर्ड सर्कस नाम दिया गया है। मोदी के पश्चिमी भाग में स्थित दुर्ग टीले को स्तूपटीला भी कहा जाता है क्योंकि यहां परमाण शासकों ने एक स्तूप का निर्माण करवाया था जो से प्राप्त अन्य अवशेषों में कांसे की बनी नृत्यरत नारी की मूर्ति, पुजारी (बागी) की मूर्ति मुद्रा पर अंकित पशुपतिनाथ (शिव) की मूर्तिकारों के छ कपड़ा, हाथी का कपाल खंड, गले हुए तांबे के ढेर, सीपी की बनी हुई पटरी, अंतिम स्तर पर बिखरे हुए एवं कुए से प्राप्त नर कंकाल घोड़े के दांव एवं गीली मिट्टी पर कपड़े के साक्ष्य मिले हैं।
*मोहनजोदड़ो से 130 किमी, दक्षिण-पूर्व में स्थित चन्द्रददों की खोज सर्वप्रथम वर्ष 1931 में एम. जी. मजूमदार ने की थी। वर्ष 1935-36 में इसका उत्खनन मैके ने किया। यहां संघय संस्कृति के अतिरिक्त प्राकृ संस्कृति जिसे झुकर और झांगर संस्कृति कहते हैं, के अवशेष मिले हैं। * संभवतः यह एक औद्योगिक केंद्र था जहां मणिकारी, मुहर बनाने, भार- माप के बटखरे बनाने का काम होता था। *मके को यहां से मनका बनाने का कारखाना (Bead Factory) तथा भट्ठी प्राप्त हुई थी। यहां से प्राप्त अवशेषों में प्रमुख हैं- अलंकृत हाथी, खिलौना एवं कुत्ते के बिल्ली का पीछा करते हुए पद-चिह्न, सौंदर्य प्रसाधनों में प्रयुक्त लिपस्टिक आदि। चन्हूदड़ो एकमात्र पुरास्थल है जहाँ से वक्राकार ईंटें मिली है। *यहां किसी दुर्ग कर अवशेष नहीं मिला है।
*गुजरात में अहमदाबाद जिले में भोगवा नदी के तट पर स्थित लोथल की खोज सर्वप्रथम डॉ. एस. आर. राव ने की थी। सागर तट पर स्थित यह स्थल पश्चिमी एशिया से व्यापार के लिए एक प्रमुख बंदरगाह था। निगर ● योजना तथा अन्य भौतिक वस्तुओं के आधार पर लोबल एक लघु हड़प्पा या ‘लघु मोहनजोदड़ो’ नगर प्रतीत होता है। *यहां से फारस की मुद्रा 1 सील और पक्के रंग में रंगे हुए पात्र प्राप्त हुए हैं। *लोयल में गढ़ी तथा नगर दोनों एक रक्षा प्राचीर से घिरे है। लोथल की सबसे प्रमुख विशेषता ‘जहाजों की गोदी (डॉकयार्ड) है। * यहाँ से प्राप्त अन्य महत्वपूर्ण अवशेष 1 है- धान (चावल) और बाजरे का साक्ष्य फारस की मुहर, घोड़े की लघु मृण्मूर्ति, तीन युगल समाधिया आदि।
* कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ (पूर्व में हनुमानगढ़ जिला, गंगानगर का भाग था) जिले में स्थित है। इस स्थल की खोज अमलानंद 2. घोष ने की थी। * वर्ष 1961 में बी. बी. लाल एवं बी. के. थापर ने उत्खनन में आरंभ किया। यहां पूर्वी और पश्चिमी टीला अलग-अलग सुरक्षा प्राचीर से घिरे थे। यहां पर पश्चिम दिशा में स्थित दुर्ग वाले टीले पर सैंधव सभ्यता के नीचे प्राक्-सैंधव संस्कृति के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। *मोहनजोदड़ों के भवन पक्की ईंटों के बने थे, जबकि कालीबंगा के भवन कच्ची ईंटों के बने
ईंट को नालियों कुछ एवं स्नानागार बनाने में ही किया गया है। यहां से जुड़े हुए खेत के मिले है, जिसकी जुलाई आड़ी-तिरी की गई है। मोहनजोदो एवं ड़या के समान यहाँ से दो टीले मिले है, जो सुरक्षा दीवारों से घिरे हैं। पूर्व की ओर स्थित दीला बड़ा जबकि पश्चिम की तरफ स्थित टीला छोटा था। पश्चिमी टीले को ‘कालीबंगा प्रथम नाम दिया गया है। यहां से भूकंप का साक्ष्य *दुर्ग या गढ़ी वाले टीले के दक्षिणी अर्धभाग में पांच या छ कच्ची ईंटों के चबूतरे बने थे। एक चबूतरे पर अग्निकुड, कुआं तथा पक्की ईंटों का बना एक आयताकार गर्न था, जिसमें पशुओं की हड्डियों थी। दूसरे चबूतरे पर सात अग्निकुंड या वेदिकाएं एक पंक्ति में बनी थीं।
* यहां से सेलखड़ी तथा मिट्टी की मुहरें एवं मृदभांड के टुकड़े मिले हैं। *चौलावीरा गुजरात के कच्छ के रन में अवस्थित है। *सर्वप्रथम वर्ष 1967-68 में इसकी खोज जे. पी. जोशी ने की। वर्ष 1990-91 के दौरान आर. एस. बिष्ट द्वारा व्यापक पैमाने पर उत्खनन कार्य प्रारंभ किया गया। * यह नगर आयताकार बना था। * इस नगर को तीन भागों किला, मध्य नगर तथा निचला नगर में विभाजित किया गया था। यहां से एक विशाल जलाशय मिला है। यहां के निवासी एक उन्नत जल प्रबंधन व्यवस्था से परिचित थे। यहां से हड़प्या लिपि के बड़े आकार के 10 चिह्नों वाला एक शिलालेख मिला है।
* सुरकोटडा गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है। यह नगर दो दुर्गीकृत भागों-गढ़ी तथा आवास क्षेत्र में विभाजित था। * यहां के कब्रिस्तान से कलश शवाधान के साक्ष्य मिले हैं। यहां घोड़े की कुछ हड्डियों के साक्ष्य मिले हैं।
* दैमाबाद महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में प्रवरा नदी के बाएं किनारे पर स्थित है। * यह सैंधव सभ्यता का सबसे दक्षिणी स्थल है। यहां से रथ चलाते हुए मनुष्य, साड़, गैंडे की आकृतियां प्राप्त हुई हैं। यहां से कुछ मृदभांड, संचय लिपि की एक मुहर, तश्तरी प्याले आदि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। *राखीगढ़ी हरियाणा के हिसार जिले में घग्गर नदी के किनारेस्थित है। * इस स्थल की खोज वर्ष 1969 में सूरजभान ने की थी।
*यह नवीनतम शोधों के अनुसार सबसे बड़ा सैंधव स्थल है।
* रोपड़ (पंजाब) सतलज नदी के बाएं तट पर स्थित है। इसका आधुनिक नाम रूपनगर है। वर्ष 1950 में इसकी खोज बी. बी. लाल ने तथा वर्ष 1953-55 के दौरान यज्ञदत्त शर्मा ने इसकी खुदाई करवाई। यहां से मृदभांड, सेलखड़ी की मुहर, चर्ट के बटखरे, एक छुरा, तांबे के बाणाग्र तथा कुल्हाड़ी आदि प्राप्त हुए हैं। *यहां से मनुष्य के साथ पालतू कुत्ता के दफनाए जाने का साक्ष्य मिला है।
रंगपुर गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में है। * यहां से प्राक् हड़प्पा, हड़प्पा और उत्तर हड़प्पाकालीन सभ्यता के साक्ष्य मिले हैं। * यहां से प्राप्त वनस्पति अवशेष के आधार पर कहा जा सकता है कि वे लोग चावल, बाजरा एवं ज्वार की खेती करते थे।
सैंधव सभ्यता के प्रमुख स्थल एवं उनसे संबंधित नदी
हड़प्पा – रावी
मोहनजोदड़ो – सिंधु
कालीबंगा घग्गर
लोथल भोगवा
रोपड़ सतलज
आलमगीरपुर हिंडन
सुत्कागेनडोर दास्त/दाश्क
“आलमगीरपुर उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में हिंडन नदी के किनारे स्थित है। *यहां से खुदाई में मृदभांड एवं मनके मिले हैं। * कुछ बर्तन पर त्रिभुज, मोर, गिलहरी आदि की चित्रकारियां मिलती हैं।
* हुलास उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में स्थित है। *यहां से कांचली मिट्टी के मनके, चूड़ियां, खिलौना-गाड़ी आदि मिले हैं। * संघट लिपियुक्त एक ठप्पा का भी साक्ष्य मिला है। * देसलपुर से एक रक्षा प्राचीर मिला है।
* सुत्कागेनडोर स्थल दक्षिण बलूचिस्तान में दस्त / दाश्क नदी के किनारे स्थित है। *इसकी खोज वर्ष 1927 में आरेल स्टीन ने की थी। *इसका दुर्ग एक प्राकृतिक चट्टान के ऊपर स्थित था। * यहां से मृद्भाङ एक ताम्रनिर्मित बाणाग्र, ताम्र निर्मित ब्लेड के टुकड़े, तिकोने ठीकरे तथ
मिट्टी की चूड़ियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
सोत्काकोह सुत्कागेनडोर के पूर्व में स्थित है। * वर्ष 1962 में इसकी खोज डेल्स द्वारा की गई। * यहां से दो टीले मिले हैं, जिसके आकार सुत्कागेनडोर जैसे ही हैं।
* बलूचिस्तान के दक्षिण तटवर्ती पट्टी पर स्थित बालाकोट एक बंदरगाह के रूप में कार्य करता था। * यहां से हड़प्पा पूर्व एवं हड़प्पाकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। *इसकी नगर योजना सुनियोजित थी। * भवनों के निर्माण में कच्ची ईंटों का जबकि नालियों के निर्माण में पक्की ईंटों क
प्रयोग किया जाता था। * यहां का सबसे समृद्ध उद्योग सीप उद्योग था *यहां से हजारों की संख्या में सीप से बनी चूड़ियों के टुकड़े मिले हैं।। * बनावली हरियाणा के फतेहाबाद ( पूर्व में हिसार का भाग था
जिले में स्थित है। * वर्ष 1973-74 में आर. एस. बिष्ट द्वारा इस स्थल क उत्खनन करवाया गया। * यहां से संस्कृति के तीन स्तर प्रकाश में आ हैं- प्राक् सैंधव, विकसित सैंधव एवं उत्तर सैंधव । * यहां की सड़कें नगर को तारांकित (Star Shaped) भागों में विभाजित करती हैं। *यहां मुहरें, बटखरे, लाजवर्द तथा कार्नेलियन के मनके, हल की आकृति दे
खिलौने, तांबे के बाणाग्र आदि के साक्ष्य मिले हैं। * भगवानपुरा हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में सरस्वती नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। जे. पी. जोशी ने इसका उत्खनन करवाया था। * यहां के प्रमुख अवशेषों में सफेद, काले तथा आसमानी रंग की कांच की चूड़ियां, तांबे की चूड़ियां, कांच की मिट्टी के चित्रित मनके आदि हैं।
मांडा जम्मू एवं कश्मीर में चेनाब नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। * वर्ष 1982 में इसका उत्खनन जे.पी. जोशी तथा मधुबाला द्वारा करवाया गया था। * उत्खनन से यहां तीन सांस्कृतिक स्तर प्राप्त हुए है- प्राकू सैंधव, विकसित सैंधव एवं उत्तर कालीन सैंधव *यहां से मिट्टी के ठीकरे, हड्डी के नुकीले बाणाग्र, चर्ट ब्लेड, कांस्य निर्मित पेंचदार पिन तथा एक आधी-अधूरी मुहर आदि के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में बारोट तहसील के सनौली नामक हड़प्पन पुरास्थल से क्रमबद्ध रूप से 125 मानव शवाधान प्राप्त हुए हैं, जिनकी दिशा उत्तर से दक्षिण है। * मिस्र की सभ्यता का विकास नील नदी की द्रोणी में हुआ। * मिस्र को नील नदी का उपहार कहा जाता है क्योंकि इस नदी के अभाव में यह भू भाग रेगिस्तान होता। * सुमेरिया सभ्यता के लोग
प्राचीन विश्व के प्रथम लिपि आविष्कर्ता थे।
* खुदाई से प्राप्त बहुसंख्यक नारी मूर्तियों से अनुमान लगाया जाता है कि सैंधव सभ्यता मातृसत्तात्मक थी। * सैंधव लोग शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। उनके वस्त्र ऊनी और सूती दोनों प्रकार के होते थे। *कंठहार, कर्णफूल, कड़ा, भुजबंद, अंगूठी, हसुली करघनी आदि आभूषण पहने जाते थे। *नौसारो से स्त्रियों के मांग में सिंदूर के प्रमाण मिले हैं, जो हिंदू धर्म में सुहाग का प्रतीक है।
* सैंधव काल में पासा प्रमुख खेल था।
* सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों के मुख्य खाद्यान्न गेहूं और जौ थे। * रंगपुर से धान की भूसी तथा लोथल से चावल के अवशेष मिले हैं। लोथल से वृत्ताकार चक्की के दो पाट मिले हैं। * सूती वस्त्रों के अवशेष से यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि यहां के निवासी कपास उगाना जानते थे। * सर्वप्रथम सैंधव निवासियों ने कपास की खेती प्रारंभ किया था। * भारत से कपास यूनान गई, जिसे यूनानी हिंडन के नाम से पुकारते थे। * भारत में कपास की खेती का प्रारंभ 3000 ई.पू. में किया गया, जबकि मिस्र में इसकी खेती 2500 ई.पू. के लगभग शुरू की गई। *हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगन, सुरकोटडा के स्थलों से कूबड़दार ऊंट का जीवाश्म मिला है। *सुरकोटडा, लोथल, कालीबंगा से घोड़े की मृण्मूर्तियां, हड्डियां, जबड़े आदि के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
* सिंधु सभ्यता का प्रमुख उद्योग वस्त्र उद्योग था । * मोहनजोदड़ो से तांबे के दो उपकरणों से लिपटा हुआ सूती धागा एवं कपड़ा प्राप्त हुआ है। * लोथल तथा चन्हूदड़ो में मनके बनाने का कार्य होता था। * लोथल तथा बालाकोट सीप उद्योग के लिए प्रसिद्ध था।
* संघव निवासियों का आंतरिक एवं बाह्य व्यापार उन्नत अवस्था में था। *सिक्कों का प्रचलन नहीं था तथा क्रय-विक्रय वस्तु-विनिमय द्वारा किया जाता था। * लोथल एवं मोहनजोदड़ो से हाथी दांत के बने तराजू के पलड़े मिले हैं। उनके बाट मुख्यतः घनाकार होते थे। *कुछ बाट बेलनाकार, • ढोलाकार, वर्तुलाकार प्रकार के भी मिले हैं। * सारगोन युगीन सुमेरियन लेख से ज्ञात होता है कि मेलुहा, दिलमुन तथा मगन के साथ मेसोपोटामिया 1 के साथ व्यापारिक संबंध थे। *मेलुहा’ की पहचान सिंघ क्षेत्र से की गई है। * दिलमुन’ की पहचान फारस की खाड़ी के बहरीन से की गई है। * सुमेरी अभिलेखों में दिलमुन को साफ-सुथरे नगरों का स्थान’ या ‘सूर्योदय का क्षेत्र’ और ‘हाथियों का देश’ कहा गया है। *मिस्र के साथ व्यापारिक संबंध का पता लोथल से प्राप्त ‘ममी’ की एक आकृति से चलता है।
* सैंधव सभ्यता में मूर्तिकला, वास्तुकला, उत्कीर्ण कला, मृदभांड कला आदि के उन्नत होने का प्रमाण मिलता है। * मोहनजोदड़ो से एक संयुक्त पशुमूर्ति प्राप्त हुई है जिसमें शरीर भेड़ का तथा मस्तक सूडदार हाथी का है। *हड़प्पा की पाषाण मूर्तियों में दो सिर रहित मानव मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। * धातु मूर्तियां लुप्त मोम या मधूच्छिष्ट विधि (Lost Wax) से बनाई जाती थीं। * मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की कांस्य मूर्ति अत्यंत प्रसिद्ध है। * लोथल से कुत्ते तथा कालीबंगन से ताम्र मूर्ति प्राप्त हुई है। *चन्हूदड़ो से प्राप्त इक्का गाड़ी एवं बैलगाड़ी की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। *मृण्मूर्तिया पुरुषों, स्त्रियों और पशु-पक्षियों की प्राप्त हुई हैं। * मानव मूर्तियां अधिकतर स्त्रियों की हैं। *सर्वाधिक मृण्मूर्तियां पशु-पक्षियों की प्राप्त हुई हैं।
* सैंधव काल में सर्वाधिक मुहरें सेलखड़ी की बनी हैं। * इसके अतिरिक्त कांचली मिट्टी, चर्ट, गोमेद, मिट्टी आदि की बनी मुहरें भी हैं। * अधिकांश मुहरें वर्गाकार या चौकोर हैं किंतु कुछ मुहरें घनाकार, गोलाकार अथवा बेलनाकार भी हैं। * सिंधु सभ्यता की मुहरों पर सर्वाधिक अंकन एक श्रृंगी बैलों का है, उसके बाद कूबड़ वाले बैल का है। *पशुपति शिव का प्रमाण मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर है जिस पर योगी की आकृति बनी है।
दाई और बाघ और हाथी तथा बाई ओर गैंडा एवं भैंसा चित्रित किए गए हैं। दो हिरन भी बने हैं। योगी के सिर पर एक त्रिशूल जैसा आभूषण है तथा इसके तीन मुख है। मार्शल महोदय ने इसे रूद्र शिव से संबंधित किया है। *मुख्यतया लाल या गुलाबी रंग के हैं। कुछ मृदभांडों
को लाल रंग से रंगकर काली रेखाओं से चित्र बनाए गए हैं। कुछ बर्तनों पर मोर, हिरण, कछुआ, मछली, गाय, बकरा, पीपल, नीम, खजूर, केला आदि का अंकन है। संधव मृदभांडों में मर्तबान, कटोरे, ततरियां एवं थालियाँ प्रमुख हैं। * स्त्री-पुरुष दोनों आभूषण पहनते थे। *सोने-चांदी के अतिरिक्त हाथी दांत, शंख आदि के भी आभूषण तैयार किए जाते थे। सैंधव सभ्यता में मातृदेवी की पूजा प्रमुख थी। *हड़प्पा से प्राप्त एक स्त्री की मूर्ति में उसके गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है। संभवतः यह देवी धरती की मूर्ति थी, जिसे लोग उर्वरता की देवी समझते थे तथा इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस प्रकार मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस की। *मातृदेवी एवं शिव की पूजा के अतिरिक्त संघव निवासी पशुओं, पक्षियों, वृक्षों आदि की उपासना करते थे। *लोथल, कालीबंगा एवं बनावली के पुरास्थलों से अग्निकुंड अथवा यज्ञ वेदियों के साक्ष्य मिलते हैं। *उत्तर-दक्षिण दिशा में शव दफनाने की प्रथा प्रचलित थी किंतु इसके अपवाद भी मिलते हैं। कालीबंगा में शव दक्षिण-उत्तर, रोपड़ में पश्चिम-पूर्व तथा लोथल में पूर्व-पश्चिम दिशा में प्राप्त हुए हैं। *आंशिक समाधिकरण के उदाहरण बहावलपुर से मिले हैं।
समानान्तर चतुर्भुज के आकार का हडप्पा का दुर्ग 460 गज लम्बा (उद) 215 गज चौड़ा (पूप) तथा 15-17 गज ऊँचा था • सिन्धु सभ्यता की लिपि चित्र-लिपि थी जिसमें 600 से अधिक चित्र अक्षर तथा 60 मूल अक्षर है
चन्हूदड़ो नामक नगर की खुदाई सन् 1925 ई. में अर्नेस्ट मेके के नेतृत्व में की गई थी इस नगर में दुर्ग नहीं है नाल डाबरकोट, राखी गढ़ी, बणावली, रंगपुर. लोथल, आमरी कुल्ली, रानाघुण्डई, अजीरा, गुमला, देस मोरासी घुण्डई, मुण्डीगाक डीप्लवंगा, सहर-ए-सोख्ता बामपुर एवं क्वेटा आदि महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है जहाँ सिन्धुकालीन एवं सिन्धुकालीन के पूर्व सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए है
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डाबरकोट, पेरियाना, घुण्डई कुल्ली मही चन्हुदड़ो अमरी लोहुमजोदडो, अलीमुराद रोपड़, रंगपुर, सुल्कगेण्डर आदि प्रमुख सिन्धुकालीन स्थल हैं। राजस्थान स्थित कालीबंगा नामक ऐतिहासिक स्थल का उत्खनन कार्य सन् 1961 ई में श्री बी बी लाल एवं बी के थापड के निर्देशन में हुआ उत्खनन में निचली सतह से पूर्व सिन्धु सभ्यता और ऊपरी सतह से सिन्धु- सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं यहाँ की गढ़ी और नगर दोनों ही चहारदीवारी से घिरे हुए थे
गुजरात स्थित रंगपुर नामक सिन्धुकालीन स्थल का उत्खनन कार्य सन् 1953-54 ई में श्री रंगनाथ राव के निर्देशन में हुआ उत्खनन में कच्ची ईंटों के दुर्ग, नालियों, मृद्भाण्ड बाँट, पत्थर के फलक आदि मिले हैं. किन्तु मातृ देवी की मूर्तियाँ एवं मुद्राएँ प्राप्त नहीं हुए हैं
प्राचीनकाल में लोथल समुद्र के निकट स्थित था. उत्खनन में एक ‘गोदी’ (Dockyard) के अवशेष प्राप्त हुए है जिससे ज्ञात होता है. कि लोथल से सिन्धु-निवासी पश्चिमी एशिया के साथ व्यापार करते थे
गुजरात राज्य के कच्छ जिले में अदेसर से 12 किमी उत्तर-पूर्व में स्थित सुरकोटडा नामक स्थल की खोज एवं उत्खनन कार्य सन् 1964 ई में श्री जगतपति जोशी के निर्देशन में किया गया
सिन्धु सभ्यता के उत्खनन में एक विशाल भवन प्राप्त हुआ है, जिसकी लम्बाई 242 फीट चौड़ाई 112 फीट तथा दीवारों की मोटाई 5 फीट है.
सिन्धु घाटी के उत्खनन में कुछ मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनके मध्य में सूर्य का गोल चित्र तथा उसके चारों ओर 6 देवों के चित्र इस प्रकार निर्मित हैं जो सूर्य की किरण जैसे लगते हैं जिससे ज्ञात होता है कि इस काल में सूर्य पूजा भी प्रचलन में थी. ● भारत में मनुष्य जैसे प्राणी के अस्तित्व के प्रमाण 1 करोड़ 20 लाख से 90 लाख वर्ष तक पुराने हैं
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भारत की जनसंख्या के चार मूल प्रजातीय उपभेद हैं. यह है नीग्रिटो, आद्य आस्ट्रेलियाई काकेशसी तथा मंगोलॉइड्स
। भारत में शारीरिक प्ररूप (कंकाल) इलाहाबाद के समीप स्थित सराय नाहर राय, बालाईखोर तथा लेखानिया में प्राप्त हुए हैं, ऊँचे कद, चपटी नाक व चौड़े मुँह के यह कंकाल मध्य पाषाणकाल के हैं.
पुरापाषाणयुगीन सभ्यता का पता सिन्धु की सहायक सोहन नदी के क्षेत्र में हुआ है. अतः इसे सोहन सभ्यता कहा जाता है गंडासे व खंडक के रूप में प्राप्त बटिकापूम इसके मुख्य उपकरण थे
हड़प्पा संस्कृति में धरती की पूजा देवी रूप में थी इसका अनुमान उस मूर्ति से लगाया गया जिसमें स्त्री के गर्भ से पौधा निकलता दिखाया गया हाथी, गैंडा, भैंस, बाघ व हिरण के साथ एक मुहर उत्कीर्ण योगी का चित्र हड़प्पाकाल में शिव पूजा की पुष्टि करता है. इस देवता के तीन सिर और सींग हैं तथा उसका एक पैर दूसरे पैर पर रखा हुआ है
बड़ी तादाद में मिले ताबीजों से अनुमान होता है कि इस संस्कृति में भूत-प्रेत पर विश्वास किया जाता था यह ताबीज ताँबे से निर्मित पट्टे के रूप में थे
हड़प्पा संस्कृति में तौल के बाँट 16 अथवा इसके गुणज भार के हैं कुत्ता, बिल्ली हड़प्पा संस्कृति के पालतू पशुओं में थे उनके पैरों के चिह्न प्राप्त हुए हैं घोड़े के अवशेष सुरकोतड़ा स्थान से मिले हैं. मोहनजोदड़ो की ऊपरी सतह से तथा लोथल की लघु मृण्मूर्ति से उसके बारे में जानकारी प्राप्त होती है
लोथल के लोग 1800 ई. पू. में चावल का इस्तेमाल करते थे • चूँकि सिन्ध कपास पैदा करने वाले क्षेत्रों में सबसे पुरानों में एक था अतः यूनानियों ने इसे सिडोन नाम दिया
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हड़प्पा संस्कृति में चाँदी अफगानिस्तान ईरान, द भारत तथा अरब से मँगाई जाती थी बलूचिस्तान से भी उसे प्राप्त किया जाता था. स्वर्ण अफगानिस्तान व फारस से लाया जाता था • भवन निर्माण में इस्तेमाल के लिए लाजबर्द बदख्शां से फिरोजा ईरान से जबुमणि महाराष्ट्र से मूंगा और लाल सौराष्ट्र व प भारत से तथा कीमती हरा पत्थर मध्य एशिया से मँगाया जाता था
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अहाड़ संस्कृति (राजस्थान) ताम्रयुगीन थी गारे व पत्थर के मकान, चावल की खेती तथा ताम्र धातु कर्म का अधिक प्रचलन 2000 ई. पू. की इस संस्कृति की मुख्य विशेषता थी
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मालवा पाषाण ताम्रकालीन संस्कृति के चिह्न नवदातोली में प्राप्त हुए हैं मिट्टी, बाँस और फूस के चौकोर तथा वृत्ताकार मकान, लाल- काले रंग के मृद्भाड, अनेक प्रकार की गेहूँ, अलसी, मसूर, हरा व काले चना की खेती 1600-1300 ई पू सभ्यता की विशेषता हैं
वैदिक काल
नोट्स
वैदिक संस्कृति
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ऋग्वेद में आर्य शब्द का 36 बार उल्लेख है। ऋग्वेद की अनेक बातें अवेस्ता से मिलती हैं, जो ईरानी भाषा का प्राचीनतम ग्रन्थ है। सिन्धु नदी की ऋग्वेद में सर्वाधिक चर्चा की गई है।
ऋग्वेद में सरस्वती को नदीतमा (पवित्र नदी) कहा गया है। ऋग्वेद में गंगा की एक बार एवं यमुना की तीन बार चर्चा की गई है। .
दसराश युद्ध भरत वंश के राजा सुदास तथा अन्य दस राजाओं के बीच परुष्णी नदी (रावी) के तट पर हुआ था, जिसमें सुदास की विजय हुई थी।
ऋग्वेद में सभा समिति तथा विद्ध की चर्चा की गई है। सभा कबीले के वृद्धजनों की संस्था थी, जबकि समिति आम लोगों की संस्था थी।
ऋग्वैदिक काल में राजा को जनस्य गोपा, विशपति, गणपति एवं गोपति कहा जाता था।
ऋग्वैदिककालीन प्रशासन में सबसे प्रमुख, पुरोहित था। वह जन प्रशासन की सर्वोच्च इकाई थी। सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मण्डल में वर्णित पुरुष सूक्त में चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। सोम नामक पदार्थ की चर्चा ऋग्वेद के नौवें मण्डल में है।
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अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, विश्ववारा, सिक्ता को वैदिक ऋचाओं को लिखने का श्रेय दिया जाता है।
ऋग्वैदिक काल में बाल विवाह, तलाक, सती प्रथा, पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।
ऋग्वैदिक काल में विधवा विवाह एवं नियोग प्रथा का प्रचलन था।
ऋग्वैदिक आर्यो का मुख्य पेशा पशुचारण था। ऋग्वेद में कृषि का उल्लेख 24 बार हुआ है।
ऋग्वैदिक आर्यों को पाँच ऋतुओं का ज्ञान था। ऋग्वेद में मुद्रा के रूप में निष्क और शतमान की चर्चा मिलती है।
ऋग्वैदिक काल के सबसे महत्त्वपूर्ण देवता इन्द्र को पुरन्दर कहा गया है। दूसरे महत्त्वपूर्ण देवता अग्नि, जो देवताओं और मनुष्यों के बीच मध्यस्थ थे। ऋग्वेद में वरुण देवता को नैतिक नियमों का संरक्षक बताया गया है।
ऋग्वैदिक धर्म की दृष्टि मानवीय तथा इहलौकिक थी।
*वैदिक शब्द ‘वेद’ से बना है। वेद का अर्थ ज्ञान होता है। *भारत में सैंधव संस्कृति के पश्चात जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ, उसे वैदिक सभ्यता या आर्य सभ्यता के नाम से जाना जाता है। * आर्य’ शब्द भाषा सूचक है जिसका अर्थ है श्रेष्ठ या कुलीना क्लासिकीय संस्कृति में ‘आर्य’ शब्द का अर्थ है- एक उत्तम व्यक्ति। *आर्यों का इतिहास मुख्यतः वेदों से ज्ञात होता है। * सामान्यतः वैदिक साहित्य की रचना का श्रेय आर्यों को दिया जाता है। * आर्यों के मूल निवास स्थान को लेकर मतभेद है। प्रमुख इतिहासकारों ने इस पर अलग-अलग विचार व्यक्त किए हैं।
उत्तर वैदिक *वैदिक काल को दो भागों में विभाजित किया जाता है ऋग्वेद अथवा पूर्ववैदिक काल (1500 ई.पू. 1000 ई.पू.)। (1000 ई.पू. 600 ई.पू.) * ऋग्वैदिक काल का इतिहास पूर्णतया ऋग्वेद से ज्ञात होता हो में लोहे का उल्लेख नहीं है। उत्तर वैदिक ग्रंथों में लोहे का उल्लेख है।
* ऋग्वेद के नदी सूक्त में 21 नदियों का वर्णन है, जिसमें सबसे पश्चिम कुभा तथा सबसे पूर्व में गंगा है। ऋग्वेद में अफगानिस्तान की चार नदिए 1 कुमु. कुभा, गोमती और सुवास्तु का उल्लेख मिलता है। सैंधव प्रदेश की सात नदियों का उल्लेख मिलता है। ये नदियां है-सरस्वती सद विपासा, परुष्णी, वितस्ता, सिंधु, शुतुद्री तथा अस्किनी। *ॠग्वेद में यमुन नदी का तीन बार जबकि गंगा नदी का एक बार उल्लेख हुआ है। इसमें कश्मीर की एक नदी मरुवृधा का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में सिंधु नदी का सर्वाधिक बार उल्लेख हुआ है, जबकि ऋग्वैदिक आर्यों की सबसे पवित्र नदी सरस्वती थी जिसे ‘मातेतमा,’ ‘देवीतमा’ एवं ‘नदीतमा’ (नदिय में प्रमुख) कहा गया है। सिंधु नदी को उसके आर्थिक महत्व के कारण। ‘हिरण्यनी’ कहा गया है तथा इसके गिरने की जगह ‘परावत’ अर्थात अस सागर बताई गई है। गंगा-यमुना के दोआब एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्रों को आयो ने ‘ब्रह्मर्षि देश’ कहा। आर्यों ने हिमालय और विंध्याचल पर्वतों के बीच का नाम ‘मध्य देश’ रखा। कालांतर में आर्यों ने संपूर्ण उत्तर भारत । * में अपना विस्तार कर लिया, जिसे ‘आर्यावर्त कहा जाता था। 1400३. पू के बोगजकोई (एशिया माइनर) के अभिलेख में ऋग्वैदिक काल के देवताओ (इंद्र, वरुण, मित्र तथा नासत्य) का उल्लेख मिलता है।
*वैदिक साहित्य को ‘श्रुति’ भी कहा जाता है। * श्रुति का शाब्दिक अर्थ सुना गया। * भारतीय साहित्य में वेद सबसे प्राचीन है। चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद। * ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद को ‘वेदत्रयी’ या ‘त्रयी’ कहा जाता है। * प्रत्येक वेद के भारतीय इतिह
भाग होते हैं-संहिता, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद ऋग्वेद में कुल 10 मंडल तथा 1028 सूक्त और 10552 ऋचाएं हैं। * 1017 सूक्त साकल में तथा 11 सूक्त बालखिल्य में हैं। ऋग्वेद के 2 से 7 तक के मंडल प्राचीन माने जाते हैं।
* ऋग्वेद के तृतीय मंडल में ‘गायत्री मंत्र’ का उल्लेख है। इसके रचनाकार विश्वामित्र हैं। *यह सविता (सूर्य देवता) को समर्पित है। * ऋग्वेद के नौवें मंडल के सभी 114 सूक्त ‘सोम’ को समर्पित हैं। * प्रारंभ में हम तीन वर्णों का उल्लेख पाते हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य। * शूद्र’ शब्द का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में हुआ है। * ऋग्वेद के मंत्रों का उच्चारण करके यज्ञ संपन्न कराने वाले पुरोहित को ‘होता’ कहा जाता था। *ऐतरेय तथा कौषीतकि ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रंथ है। * पतंजलि के अनुसार, ऋग्वेद की 21 शाखाएं हैं। *ऐतरेय ब्राह्मण में शुनःशेप आख्यान का वर्णन मिलता है।
* यजुर्वेद में स्तोत्र एवं कर्मकांड वर्णित हैं। * यह वेद गद्य एवं पद्य दोनों में है। यजुर्वेद के कर्मकांडों को संपन्न कराने वाले पुरोहित को ‘अध्वर्यु’ कहा जाता था। * यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद जो पद्य और गद्य दोनों में है और शुक्ल यजुर्वेद जो केवल पद्य में है। यजुर्वेद का अंतिम भाग ‘ईशोपनिषद’ है, जिसका संबंध याज्ञिक अनुष्ठान से न होकर आध्यात्मिक चिंतन से है। *शुक्ल यजुर्वेद की मुख्य शाखाएं काण्व तथा माध्यन्दिन हैं। *शुक्ल यजुर्वेद की संहिताओं को ‘वाजसनेय’ भी कहा गया है, क्योंकि वाजसनी के पुत्र याज्ञवल्क्य इसके द्रष्टा थे। * कृष्ण यजुर्वेद की मुख्य शाखाएं हैं- तैत्तिरीय, काठक, मैत्रायणी तथा कपिष्ठल। *शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रंथ है। *इसमें पुनर्जन्म का सिद्धांत, जल-प्लावन कथा पुरुरवा उर्वशी आख्यान तथा पुरुषमेध का वर्णन है। *’साम’ का अर्थ ‘संगीत’ अथवा ‘गान’ होता है। *सामवेद में यज्ञों के अवसर पर गाए जाने वाले मंत्रों का संग्रह है। जो व्यक्ति इन मंत्रों को गाता था उसे ‘उद्गाता’ कहा जाता था। *सामवेद में कुल 1875 ऋचाएं हैं, जिनमें से 75 जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार 99 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में भी उपलब्ध हैं।
* सामवेद की प्रमुख शाखाएं हैं-कौथुमीय, राणायनीय एवं जैमिनीय अवेद में 20 कांड 731 सूक्त तथा 5987 मंत्र हैं। इसमें 1200 ● मंत्र वेद के हैं। * अथर्ववेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाले पुरोहित को ‘ब्रह्मा’ कहा जाता था। अथर्ववेद में मगध तथा अंग दोनों को दूरस्थ प्रदेश कहा गया है। *इसमें सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रिया कहा गया है। * इसमें सामान्य मनुष्य के विचारों, विश्वासों तथा अंधविश्वासों का विवरण मिलता है। अथर्ववेद की दो शाखाएं उपलब्ध हैं-पिप्पलाद तथा शौनका *याज्ञवल्क्य गार्गी के प्रसिद्ध संवाद का उल्लेख गृहदारण्यक उपनिषद में है। *कठोपनिषद में यम और नचिकेता का संवाद उल्लिखित है। *”कठोपनिषद’ कृष्ण यजुर्वेद का उपनिषद है। “सत्यमेव जयते’ शब्द मुंडकोपनिषद से लिया गया है। * अथर्ववेद का एकमात्र ब्राह्मण गोपथ ब्राह्मण है। इसका कोई आरण्यक नहीं है। उपनिषद दर्शन पर आधारित पुस्तकें हैं। इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। उपनिषद का अर्थ शिष्य द्वारा ज्ञान प्राप्ति हेतु गुरु के समीप बैठना है। उपनिषद में प्रथम बार मोक्ष की चर्चा मिलती है। यह शब्द श्वेताश्वर उपनिषद में पहली बार आया है। * वेदांग की संख्या छ है, ये हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष। * शुल्व सूत्र में यज्ञीय वेदियों को मापने, उनके स्थान चयन तथा निर्माण आदि का वर्णन है।
* पुराणों की संख्या 18 है। *ये हैं- (1) मत्स्य, (2) मार्कडेय, (3) भविष्य, (4) भागवत, (5) ब्रह्मांड, (6) ब्रह्मवैवर्त, (7) ब्रह्म, (8) वामन, (9) वराह (10) विष्णु, (11) वायु, (12) अग्नि, (13) नारद (14) पदम (15) लिंग, (16) गरुड़, (17) कूर्म तथा (18) स्कंद पुराण *इनकी रचना लोमहर्ष ऋषि तथा उनके पुत्र उग्रश्रवा द्वारा की गई थी। * इनमें भविष्यत काल शैली में कलियुग के राजाओं का विवरण मिलता है। *हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन हेतु मथानी के रूप में मंद्राचल पर्वत तथा रस्सी के रूप में सर्पों के राजा वासुकी का प्रयोग किया गया था। * इसमें विष्णु ने कूर्मावतार धारण कर मंद्राचल पर्वत को अपने ऊपर रखा था। अनु, द्रुह्य, पुरु, यदु तथा तुर्वस को ‘पंचजन’ कहा गया है। जन के अधिपति को ‘राजा’ कहा जाता था। *कुलप परिवार का स्वामी, पिता अथवा बड़ा भाई होता था। ‘ग्राम का मुखिया ‘ग्रामणी’ तथा विश का प्रमुख “विशपति’ कहलाता था। * दशराज्ञ युद्ध का उल्लेख ऋग्वेद के 7वें मंडल में मिलता है। *इस युद्ध में प्रत्येक पक्ष में आर्य एवं अनार्य थे। *यह युद्ध परुष्णी नदी (आधुनिक रावी नदी) के तट पर लड़ा गया था। * दशराज्ञ युद्ध भरतों के राजा सुदास (त्रित्सु राजवंश) तथा दस राजाओं के एक संघ (इसमें पंचजन तथा पांच लघु जनजातियों-अलिन, पक्थ, भलान शिव तथा विषाणिन के राजा सम्मिलित) के मध्य हुआ था। * इस युद्ध में । सुदास की विजय हुई। *सुदास के पुरोहित वशिष्ठ थे। * ऋग्वैदिक युग में राजा भूमि का स्वामी नहीं था। वह प्रधानतः युद्ध में जन का नेता में होता था। *विदथ आर्यों की प्राचीन संस्था थी। *ऋग्वेद में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी का उल्लेख मिलता है। *पुरोहित, युद्ध के समय राजा के साथ जाता था। * स्पश (गुप्तचर) तथा दूत नामक कर्मचारियों का भी उल्लेख मिलता है।
* ऋग्वैदिक समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार या कुल होती थी। * ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक समाज था। * वरुण सूक्त के शुनःशेप आख्यान से ज्ञात होता है कि पिता अपनी संतान को बेच सकता था।
*पीदिक कालीन समाज प्रारंभ में वर्ग विभेद से रहित था। में वर्ण शब्द रंग के अर्थ में तथा कहीं कहीं सायमन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में सर्वप्रथम ‘शूद्र शब्द मिलता है। इसमें विराट पुरुष के विभिन्न अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति बताई गई है। विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से राजन्य (क्षत्रिय), उरु (अंचा) भांग से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। * शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में हुआ था गोत्र शब्द का मूल अर्थ है-गोष्ठ अथवा वह स्थान जहाँ समूचे कुल का गोधन पाला जाता था परंतु बाद में इसका अर्थ एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया। * गोत्र प्रथा की स्थापना उत्तरवैदिक काल में हुई थी। आर्यों द्वारा अनाय को दिए गए विभिन्न नाम है- अब्रह्मन (वेदों को न मानने वाले), अयज्वन् (यज्ञ न करने वाले), अनासः (बिना नाक वाले), अदेवयु (देवताओं को न मानने वाले), अडत (वैदिक व्रतों का पालन न करने वाले) तथा मृथवा (कटु पाणी वाले)।
*शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को पति की अर्धांगिनी कहा गया है। वेद
में ‘जायेदस्तम’ अर्थात पत्नी ही गृह है, कहकर उसके महत्व को स्वीकार
किया गया है। कन्या के विदाई के समय
उपहार एवं द्रव्य दिए जाते थे
उसे ‘वहतु’ कहा जाता था। “स्त्रियों में पुनर्विवाह एवं नियोग प्रथा प्रचलित थी। *नियोग प्रथा से उत्पन्न संतान ‘क्षेत्रज’ कहलाती थी। *समाज में सती प्रथा के प्रचलन का उदाहरण नहीं मिलता है। जो कन्याए जीवन भर कुंवारी रहती थीं, उन्हें ‘अमानू’ कहा जाता था। ऋग्वेद में घोषा लोपामुद्रा, विश्ववारा, अपाला आदि स्त्रियां शिक्षित थीं तथा जिन्होंने कुछ मंत्रों की रचना भी की थी। लोपामुद्रा अगस्ता ऋषि की पत्नी थीं। *आर्य मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। भोजन में दूध, घी, दही आदि का विशेष महत्व था। * दूध में पकी हुई खीर
(क्षीरपाकादन) का उल्लेख मिलता है। जो के सतू को दही में मिलाकर
‘करंम’ नामक खाद्य पदार्थ बनाया जाता था। ऋग्वैदिक काल में तीन
प्रकार के परिधान प्रचलित थे। नीवी, वास एवं अधिवाससा स्त्री एवं पुरुष
आभूषण पहनते थे। * ऋग्वैदिक आर्य आमोद-प्रमोद का जीवन व्यतीत करते थे। * रथदौड़, घुड़दौड़ तथा पासा खेल उनके मनोरंजन के साधन थे। वाथों में झांझ-मजीरे, दुंदुभि, कर्तरि, वीणा, बांसुरी आदि का उल्लेख मिलता है। * आर्यों की संस्कृति मूलतः ग्रामीण थी। कृषि और पशुपालन उनके
आर्थिक जीवन का मूल आधार था। ऋग्वेद में पशुपालन की तुलना में कृषि का उल्लेख बहुत कम मिलता है। ऋग्वेद के मात्र 24 मंत्रों में ही कृषि का उल्लेख प्राप्त होता है। * उर्वरा’ या ‘क्षेत्र’ कृषि योग्य भूमि को कहा जाता था। *बुजाई, कटाई, मड़ाई जादि क्रियाओं से लोग परिचित थे। * ऋग्वेद में कुल्या (नहर), कूप तथा अवट (खोदकर बने हुए गड्डे), अश्मचक्र (रहट की चरखी) आदि का उल्लेख है। * ऋग्वैदिक समाज में व्यवसाय आनुवंशिक (Hereditary) नहीं थे। ऋग्वेद में तक्षा (बढ़ई), स्वर्णकार, चर्मकार, वाय (जुलाहे), कर्मा (धातु कर्म करने वाले), कुंभकार आदि का उल्लेख मिलता है। * कताई-बुनाई का कार्य स्त्री-पुरुष दोनों करते थे। ऋग्वेद से पता
* विनिमय के माध्यम चलता है कि सिंघ तथा गांधार प्रदेश सुंदर ऊनी वस्त्रों के लिए विख्यात *व्यापार अदल-बदल प्रणाली पर आधारित था। रूप में ‘निष्क’ का उल्लेख हुआ है। व्यापार वाणिज्य प्रधानतः ‘पणि के लोग करते थे। ऋग्वैदिक आर्य लोहे से परिचित नहीं थे।
*वैदिक साहित्य में ऋग्वेद प्राचीनतम ग्रंथ है जिसमें हमें सर्वप्रथ बहुदेववाद के दर्शन प्राप्त होते हैं। यास्क के निरुक्त के अनुसार, ऋग्वैदि देवताओं की संख्या मात्र 3 बताई गई है। ऋग्वेद में एक अन्य स्थल प प्रत्येक लोक में 11 देवताओं का निवास मानकर उनकी संख्या 33 बताई है। ऋग्वैदिक देवताओं का वर्गीकरण तीन वर्गों में किया गया है- पूर्व के देवता पृथ्वी, अग्नि, बृहस्पति, सोम आदि। आकाश के देवता-वरुण सूर्य, मित्र, पूषन, विष्णु, अश्विन आदि।
*अंतरिक्ष के देवता-इंद्र, पर्जन रुद्र, आप, वायु, वात आदि। *इंद्र को विश्व का स्वामी कहा गया है। पुरंदर अर्थात ‘किलों को तोड़ने वाला’ कहा गया है। ॠग्वेद में सर्वाधिद सूक्त (250) इंद्र को समर्पित है। इंद्र को आर्यों का युद्ध नेता तथा का देवता माना जाता है। *ऋग्वेद में अग्नि को 200 सूक्त समर्पित हैं है * वह इस काल के दूसरे सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवता है। ऋग्वैदिक देवता में सोम को तीसरा स्थान प्राप्त था। * वरुण को समुद्र का देवता एवं का नियामक माना जाता है। * वरुण को वैदिक सभ्यता में नैतिक व्यवस्थ का प्रधान माना जाता था। इसी कारण उन्हें ‘ऋतस्यगोपा’ भी कहा जा था। ‘ईरान में वरुण को ‘अहुरमज्दा’ तथा यूनान में ‘ओरनोज’ क से जाना जाता है। * ऋग्वेद के नौवें मंडल के सभी 114 मंत्र ‘सोम’ के समर्पित हैं। * वनस्पतियों एवं औषधियों का देवता पूषन है। इनके रथ ह बकरे द्वारा खींचते हुए प्रदर्शित किया गया है। * जंगल की देवी ‘अरण्यान जबकि ज्ञान की देवी ‘सरस्वती’ थीं।
*उत्तर वैदिक काल में अनु, द्रुह्य, तुर्वश, क्रिवि, पुरु तथा भरत आि जनों का लोप हो गया। *शतपथ ब्राह्मण में कुरु और पांचाल को वैदिर सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि बताया गया है। * छांदोग्योपनिषद से इ होता है कि कुरु जनपद में कभी ओले नहीं पड़े और न ही टिड्डियाँ उपद्रव के कारण अकाल ही पड़ा। * उत्तर वैदिक काल में काशी, कोशल कुरु, पांचाल, विदेह, मगध, अंग आदि प्रमुख राज्य थे। * उपनिषद में कु क्षत्रिय राजाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं। *विदेह के जनक, पांचाल । राजा प्रवाहणजाबालि केकय के राजा अश्वपति और काशी के रा अजातशत्रु प्रमुख थे।
*ऐतरेय ब्राह्मण में सर्वप्रथम राजा की उत्पत्ति का सिद्धांत मिलता है। *ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि “समुद्रपर्यंत पृथ्वी का शासक एकराट होता है। * अथर्ववेद में एकराट सर्वोच्च शासक को कहा गया है। * अथर्ववेद
में परीक्षित को ‘मृत्युलोक का देवता कहा गया है। *छांदोग्योपनिषद और बृहदारण्यक उपनिषद में उद्दालक आरुणि एवं उनके पुत्र श्वेतकेतु के बीच ब्रह्म एवं आत्मा की अभिन्नता के विषय में संवाद है। * अथववेद में समा और समिति को ‘प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है। *वैदिक काल में सभा एवं समिति नामक दो संस्थाएं राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं। संभवतः समा कुलीन या वृद्ध मनुष्यों की संस्था थी. जिसमें उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति ही भाग ले सकते थे। इसके विपरीत समिति सर्वसाधारण की सभा थी, जिसमें जनों के सभी व्यक्ति अथवा परिवारों के प्रमुख भाग ले सकते थे। * सभा का ऋग्वेद में 8 बार उल्लेख मिलता है। *ग्वेद में समिति का 6 बार उल्लेख मिलता है। *उत्तर वैदिक काल
में सभा में महिलाओं की भागीदारी बंद कर दी गई। *संहिता एवं ब्राह्मण काल तक समिति का प्रभाव कम हो गया और यह केवल परामर्शदायिनी परिषद ही रह गई। राजसूय यज्ञ में रत्न हविस् उत्सव के समय राजा रचिन के घर जाता था। अलग-अलग ग्रंथों में रत्निनों की संख्या अलग-अलग प्राप्त होती है। * शतपथ ब्राह्मण में सर्वाधिक 12 रत्निनों का उल्लेख है।
*शतपथ ब्राह्मण तथा काठक संहिता में गोविकर्तन (गवाध्यक्ष), तक्षा (बढ़ई) तथा रथकार (रथ बनाने वाला) का नाम भी रत्नियों की सूची में मिलता है। *शतपथ ब्राह्मण में राजसूय यज्ञ का विस्तृत वर्णन है। *राजसूय यज्ञ में राजा का अभिषेक 17 प्रकार के जल से किया जाता था।
* पारिवारिक जीवन ऋग्वैदिक काल के समान था। *समाज पितृसत्तात्मक) था। *ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि अजीत ने अपने पुत्र शुनःशेप को 100 गायें लेकर बलि के लिए बेच दिया था। उत्तर वैदिक काल में समाज चार वर्णों में विभक्त या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रा ऐतरेय ब्राह्मण में चारों वर्णों के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है। क्षत्रिय या राजा भूमि का स्वामी होता था। * वैश्य दूसरे को कर देते थे (अन्यस्थवलित) * को तीनों वर्णों का सेवक (अन्यस्य प्रेष्य) कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में कन्या को चिंता का कारण माना गया है। मैत्रायणी सहिता में स्त्री को पासा तथा सुरा के साथ तीन प्रमुख बुराइयों में गिनाया गया है। वृहदारण्यक उपनिषद में वाइवत्वव- गार्गी संवाद का उल्लेख है। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आई।
* छांदोग्योपनिषद में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है, जबकि सर्वप्रथम चारों आश्रमों का उल्लेख जाबालोपनिषद में मिलता है। ये थे ब्रह्मचर्य (25 वर्ष), गृहस्थ (25-50 वर्ष) वानप्रस्थ (50-75 वर्ष) तथा संन्यास (75-100 वर्ष) । *मनुष्य की आयु 100 वर्ष मानकर प्रत्येक आश्रम के लिए 25-25 वर्ष आयु निर्धारित की गई। * बौधायन धर्मसूत्र के अनुसार, गायत्री मंत्र द्वारा ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार, वसंत ऋतु में 8 वर्ष की अवस्था में किया जाता था। * त्रिष्टुप मंत्र द्वारा क्षत्रिय बालक का उपनयन संस्कार ग्रीष्म ऋतु में 11 वर्ष की अवस्था में होता था। जगती मंत्र द्वारा वैश्य बालक का उपनयन संस्कार शरद ऋतु में 12 वर्ष की अवस्था में होता था। * वैदिक काल में जीविकोपार्जन हेतु वेद-वेदांग पढ़ाने वाला अध्यापक उपाध्याय कहलाता था। * ब्रह्मवादिनी वे कन्याएं थीं, जो जीवन भर आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करती थीं। * जबकि साद्योवधू विवाह पूर्व तक शिक्षा प्राप्त करने वाली कन्याएं थीं। * गृहस्थ आश्रम में मनुष्य को 5 महायज्ञ का अनुष्ठान करना पड़ता था। ये पंच महायज्ञ हैं- *ब्रह्म यज्ञ-प्राचीन ऋषियों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना। *देव यज्ञ-देवताओं का सम्मान। *भूत यज्ञ-सभी प्राणियों के कल्याणार्थ * पितृ यज्ञ-पितरों के तर्पण हेतु। मनुष्य यज्ञ-मानव मात्र के कल्याण हेतु ।
*शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं का उल्लेख हुआ है। ये है- जुताई, बुवाई, कटाई तथा मड़ाई। * काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा हलो को खींचने का उल्लेख मिलता है। *उत्तर वैदिक काल में उत्तर भारत में लोहे का प्रचार हुआ। *उत्तर वैदिक साहित्य में लोहे को ‘कृष्ण अयस’ कहा गया है। *तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिए ‘कुसीद तथा शतपथ ब्राह्मण में उधार देने वाले के लिए ‘कुसीदिन’ शब्द मिलता है। *माप की विभिन्न इकाइयां थीं निष्क, शतमान, कृष्णल, पाद आदि। * कृष्णल’ संभवतः बाट की मूलभूत इकाई थी। * गुंजा तथा रत्तिका भी उसी के समान थे। * रत्तिका को साहित्य में ‘तुलाबीज’ कहा गया है। *शतपथ ब्राह्मण में पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रों का उल्लेख हुआ है। * वाजसनेयी संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण में विभिन्न व्यवसायों की लंबी सूची मिलती है। *इनमें प्रमुख हैं-रथकार, स्वर्णकार, लुहार, सूत, कुंभकार, चर्मकार, रज्जुकार आदि। * स्त्रियां रंगाई, सुईकारी आदि में निपुण थीं। * उत्तर वैदिक काल में व्यापार वस्तु-विनिमय पर आधारित था।
*उत्तर वैदिक काल में धर्म और दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। *ऋग्वैदिक काल के वरुण, इंद्र आदि का स्थान प्रजापति, विष्णु एवं रुद्र-शिव ने ले लिया। *यज्ञों में पशुबलि को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य आहुतियां गौण होने लगीं। *राजसूय, अश्वमेध तथा वाजपेय जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान किया जाने लगा। *अग्निष्टोम यज्ञ सात दिनों तक चलता था। *पहली बार शतपथ ब्राह्मण में पुनर्जन्म के सिद्धांत का उल्लेख मिलता है। *उपनिषदों में ब्रह्म एवं आत्मा के संबंधों की व्याख्या की गई। *पुरुषार्थ की संख्या चार है–धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। *धर्म, अर्थ तथा काम को त्रिवर्ग कहा गया है। *गृह्य सूत्रों में 16 प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। *ये हैं-गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन संस्कार, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह एवं अंत्येष्टि । * गृह्य सूत्र में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है। *ये हैं–ब्रह्मा, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, गंधर्व, असुर, राक्षस एवं पैशाच विवाह।
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गृत्समद विश्वामित्र वामदेव भारद्वाज, अत्रि, एवं वशिष्ठ आदि ऋषियों ने सूक्त अथवा मंत्रों की रचना की थी • लोपामुद्रा, घोषा, शची एवं पौलोमी प्रमुख ऋषणियाँ थीं
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सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है-
(1) कौथुम
(2) राणायनीय
(3) जैमिनीय
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आचार्य अश्वनी कुमार धन्वन्तरि बाणभट्ट सुश्रुत माधव जीवन एवं लोलिम्बराज आदि आयुर्वेद के प्रमुख रचनाकार हुए हैं
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आयुर्वेद ऋग्वेद का धनुर्वेद यजुर्वेद का गन्धर्व वेद सामवेद का तथा शिल्पवेद अथर्ववेद का उपवेद है
ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं-ऐतरेय एवं कौशीतकी • कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तरीय तथा शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण है। • ताण्डव, पंचविश सदविश एव छान्दोग्य सामवेद के ब्राह्मण हैं
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आरण्यकों में आत्मा, मृत्यु और जीवन आदि विषयों का वर्णन है. इनका अध्ययन एकान्त वनों में किया जाता था
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ऐतरेय एवं कौशीतकी ऋग्वेद के आरण्यक हैं ऐतरेय आरण्यक के रचयिता महिदास ऐतरेय हैं. • तैत्तरीय आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद का है.
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सामवेद एवं अथर्ववेद के आरण्यक नहीं हैं.
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ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य,
तेत्तरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य वृहदारण्यक श्वेताश्वतर, कौशीतकी महानारायण आदि प्रमुख उपनिषद है
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ऋग्वैदिककाल में गले में ‘निष्क’ कान में कर्णशोभन तथा शीश पर कुम्ब नामक आभूषण पहना जाता था.
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ऋग्वैदिककाल में गाय, भैंस अजा (बकरी). घोड़ा हाथी एवं ऊँट आदि पशुओं को आर्य पालते थे ‘भीषज’ का कार्य चिकित्सा करना था. • ऋग्वैदिककालीन आर्य सूर्य की सविता, मित्र, पूषन तथा विष्णु आदि के रूप में उपासना करते थे सूर्य को देवताओं का नेत्र तथा अग्नि को देवताओं का मुख कहा गया है. अग्नि को आर्यों का पुरोहित माना गया है. उनका विचार था कि यज्ञ की आहुति अग्नि ही देवताओं के पास पहुँचता है. वरुण को आकाशीय देवता के रूप में पूजा जाता था.
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उषा, सीता, पृथ्वी अरण्यानी रात्रि वाक् की आराधना ऋग्वेद में देवी रूप में की गई है. • कृषि से सम्बन्धित देवी के रूप में सीता का उल्लेख ऋग्वेद के अतिरिक्त गोमिल गृह्य सूत्र तथा परस्पर गृह्य सूत्र में हुआ है. • गणपति या गणेश की प्राचीन मूर्तियों में उनके मुख्य आयुध पाश तथा अंकुश दिखाए गए
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ऋग्वैदिककाल में व्यापार करने वाले व्यापारियों को ‘पणि’ कहा जाता था. यह आयों के मवेशी भी चुरा लेते थे. पाणि लोगों से भी ज्यादा घृणित के रूप में दास अथवा दस्यु का उल्लेख हुआ है. यह काली चमडी वाले, अमंगलकारी यज्ञ विरोधी तथा शिश्नदेव के पूजक थे.
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ऋग्वैदिककाल में गाय अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी अतः उसे अधन्या, युद्ध को गलिण्टि, अतिथि को मोहन व पुत्री को दुहिती कहा गया. एक ऋक में भेड़पालन का भी उल्लेख है.
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विश्वामित्र के स्थान पर सुदास के पुरोहित का पद ग्रहण करने वाले वशिष्ठ को ऋग्वेद में ‘उर्वशी का मानसपुत्र’ मित्र तथा वरुण’ के वीर्य से उत्पन्न तथा एक घड़े से पैदा हुआ कहा गया. अगस्त्य को भी घड़े से उत्पन्न बताया जाता है.
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बल्बूभ तथा तरुक्ष द्वास सरदार थे तथा पुरोहितों को उदारतापूर्वक दान देकर उन्होंने आर्य समाज में सम्मान व उच्च स्थान प्राप्त किया.
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‘सावित्री’ का उल्लेख प्रसिद्ध गायत्री मंत्र में मिलता है वैसे ऋग्वेद में सर्वाधिक उल्लेख इन्द्र का तथा उसके उपरान्त वरुण का है. वरुण तथा मरुत गणों का उल्लेख प्राचीन ऋचाओं में हुआ है त्वष्टा वैदिक देवता था. • प्रजापति का उल्लेख आदि पुरुष के रूप में हुआ. देवता उसकी ही संतान थे.
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ऋग्वेद में राजा का उल्लेख कबीले के संरक्षक ‘गोप्ता जनस्य के रूप में किया गया है इसमें सभा समिति, गण तथा विदश जैसी कबीलाई परिषदों का उल्लेख मिलता है. ऋग्वैदिककाल में अधिकारीतंत्र का विकास नहीं हुआ था. किन्तु गोचर भूमि के अधिकारी ‘व्राजपति’ ग्राम का सैन्य अधिकारी ग्रामणी’ तथा परिवार के मुखिया ‘कुलप’ का उल्लेख मिलता है.
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व्रात, गण, ग्राम तथा शर्ध शब्द का प्रयोग सैनिक समूह को बताने के लिए भी किया गया है.
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ऋग्वेद में जन शब्द 275 बार विश शब्द 170 बार प्रयुक्त हुआ है. गाँवों के पारस्परिक युद्ध के लिए ‘संग्राम’ शब्द आया है. • सोम वनस्पति का देवता था तथा एक मादक पेय भी जिसे तैयार करने की विधि का उल्लेख ऋग्वेद में किया गया.
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उत्तर वैदिककालीन साहित्य 1100-600 ई. पू. में रचा गया. इस काल में चित्रित धूसर भाण्ड (मिट्टी के चित्रित व भूरे कटोरे व थालियाँ) व लोहे के औजारों का इस्तेमाल हुआ. 102
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उत्तर वैदिककाल की मुख्य उपज जौ न रहकर धान और गेहूँ हो गई.
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उत्तर वैदिककाल में विदाथा नष्ट हो गए किन्तु सभा और समिति मौजूद थे. इस काल में राजा दिव्य शक्ति की इच्छा से राजसूय यज्ञ, राज्य विस्तार हेतु अश्वमेध यज्ञ तथा संगोत्रीय बंधुओं के साथ रथ दौड़ के लिए वाजपेय यज्ञ का अनुष्ठान करने लगे.
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उत्तर-वैदिककाल में गोत्र व्यवस्था एवं गोत्र के बाहर विवाह की परम्परा आरम्भ हुई.
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उत्तर वैदिककाल के साहित्य में प्रथम तीन आश्रमों का उल्लेख मिलता है, संन्यास आश्रम की स्पष्ट स्थापना नहीं हुई. तीन आश्रम थे- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ.
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उत्तर वैदिककाल में ‘सोम’ का पौधा मुश्किल से मिलने के कारण ही अन्य पेय पदार्थों का प्रयोग किया जाने लगा था.
उत्तर- वैदिककाल में स्वर्ण एवं रजत का प्रयोग मुख्यतया आभूषण एवं बर्तन बनाने के लिए तथा अन्य धातुओं का प्रयोग उपकरण बनाने के लिए किया जाता था. • उत्तर-वैदिककाल में व्यापारियों ने अपने संघ बना लिये थे. आर्यों द्वारा सामुद्रिक व्यापार भी किया जाता था. व्यापार में निष्क शतमान कृष्णाल आदि मुदाओं का प्रयोग किया जाने लगा था
उत्तर- वैदिककाल में ऋग्वैदिककाल की तुलना में धर्म का स्वरूप अत्यधिक जटिल हो गया था. यज्ञ बलि तथा पुरोहितों का महत्व बढ गया था, विभिन्न प्रकार के यक्ष किए जाने लगे थे
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शतपत ब्राह्मण में खेती की जुताई, बुवाई, लवनी एवं मडनी चारों प्रक्रियाओं का वर्णन मिलता है.
संगम साहित्य आठ ग्रन्थों में समाहित ये ग्रन्थ है
(1) नट्रिणे, (2) कुरगदो (3) ऐगुरुनुस, (4) पाटट्रिफ्तु (5) परिपाल (6) कलित्तोगे,
(7) अहनागुरु (8) पुरनानुरु
बौद्ध धर्म
नोट्स
*गौतम बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में 563 ई.पू. में हुआ था। *उनके पिता शुद्धोधन शाक्यगण के प्रधान थे तथा माता माया देवी अथवा महामाया कोलिय गणराज्य (कोलिय वंश) की कन्या थीं।
*गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। * इनके जन्म के कुछ दिनों बाद इनकी माता का देहांत हो गया। अतः इनका लालन-पालन इनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया था। * इनका विवाह 16 वर्ष की अल्पायु में शाक्य कुल की कन्या यशोधरा के साथ हुआ। *उत्तरकालीन बौद्ध ग्रंथों में यशोधरा के अन्य नाम गोपा, बिम्बा, भद्कच्छना आदि मिलते हैं।
* इनके पुत्र का नाम राहुल था। * बुद्ध के जीवन में चार दृश्यों का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। ये थे – वृद्ध व्यक्ति, बीमार व्यक्ति, मृतक तथा प्रसन्नचित्त संन्यासी । *सिद्धार्थ ने पत्नी एवं बच्चों को सोते हुए छोड़कर गृह त्याग दिया। *गृह त्याग के समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी। बौद्ध ग्रंथों में गृह त्याग को ‘महाभिनिष्क्रमण’ की संज्ञा दी गई है। * सांख्य दर्शन के आचार्य आलार कालाम से वैशाली के समीप उनकी मुलाकात हुई। यहां से सिद्धार्थ राजगृह के समीप निवास करने वाले रुद्रक रामपुत्त नामक एक दूसरे धर्माचार्य के पास पहुंचे। * इसके पश्चात सिद्धार्थ उरुवेला (बोधगया पहुंचे। छः वर्षों की कठिन साधना के पश्चात 35 वर्ष की अवस्था में वैशाख पूर्णिमा की रात्रि को एक पीपल के वृक्ष के नीचे गौतम को ज्ञान प्राप्त हुआ। *ज्ञान प्राप्ति के बाद वह ‘बुद्ध’ कहलाए। * बुद्ध का एक अन्य नाम ‘तथागत’ मिलता है, जिसका अर्थ है-सत्य है ज्ञान जिसका । * शाक्य कुल में जन्म लेने के कारण इन्हें ‘शाक्यमुनि’ कहा गया।
तम
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात गौतम बुद्ध ने अपने मत का प्रचार प्रारंभ * उरुवेला से वे सबसे पहले ऋषिपत्तन (वर्तमान सारनाथ, वाराणसी) *यहां उन्होंने पांच ब्राह्मण संन्यासियों को प्रथम उपदेश दिया। उ इस
‘उपदेश को ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ कहा जाता है।
किया। राजगृह में उन्होंने द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ वर्षा * मगध के राजा बिम्बिसार ने उनके निवास के लिए ‘वैणुक नामक महाविहार बनवाया।
* राजगृह से चलकर बुद्ध लिच्छवियों की राजधानी वैशाली पहुंचा उन्होंने पांचवां वर्षाकाल व्यतीत किया। *लिच्छवियों ने उनके निवास के महावन में प्रसिद्ध ‘कुटाग्रशाला’ का निर्माण करवाया। वैशाली की प्र नगर-वधू आम्रपाली उनकी शिष्या बनी तथा भिक्षु संघ के निवास के अपनी आम्रवाटिका प्रदान कर दी। *ज्ञान प्राप्ति के 8वें वर्ष गीतम वैशाली में अपने प्रिय शिष्य आनंद के कहने पर महिलाओं को संघ में की अनुमति दी। * बुद्ध की मौसी तथा विमाता संघ में प्रवेश करने वाली महिला थीं। *देवदत्त, बुद्ध का चचेरा भाई था। *यह पहले उनका अ बना और फिर उनका विरोधी बन गया। वह बौद्ध संघ से बुद्ध का हटाक स्वयं संघ का प्रधान बनना चाहता था, किंतु उसे इसमें सफलता नहीं मिल
– * बौद्ध धर्म का सर्वाधिक प्रचार कोशल राज्य में हुआ। इक्कीस वास किए। कोशल राज्य के अनाथपिण्डक नामक धनी व्यापारी उनकी शिष्यता ग्रहण की तथा संघ के लिए ‘जेतवन’ विहार प्रदान कि * भरहुत से प्राप्त एक शिल्प के ऊपर इस दान का उल्लेख है। इस ‘जेतवन अनाथपेन्डिकों देति कोटिसम्थतेनकेता’ लेख उत्कीर्ण मिलता * कोशल नरेश प्रसेनजित ने भी अपने परिवार के साथ बुद्ध की शिष् ब्रहण की तथा संघ के लिए ‘पुब्बाराम (पूर्वा-राम) नामक विहारबा *बुद्ध ने अपने जीवन की अंतिम वर्षा ऋतु वैशाली में बिताई थी। मत का प्रचार करते हुए वे मल्लों की राजधानी पावा पहुंचे, जहां वे कु नामक लुहार की आम्रवाटिका में ठहरे। उसने बुद्ध को सूकरा सूकरमद्दव को दिया. इससे उन्हें ‘रक्तातिसार’ हो गया। *फिर वे पावा से चले गए और यहीं पर सुमद्द को उन्होंने अपना अंतिम उपदेश दिए
*कुशीनारा मल्ल गणराज्य की राजधानी) में 483 ई.पू. में 80 वर्ष अवस्था में उन्होंने शरीर त्याग दिया। *बौद्ध ग्रंथों में इसे “महापरिनि कहा जाता है। *महापरिनिर्वाण सूत्र में बुद्ध की शरीर धातु के दावेदा व * यहां बुद्ध के नाम हैं- मगध नरेश अजातशत्रु, वैशाली के लिवानी, पावा के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, रामग्राम के कोलिय, अलकण के बुलि, पिलियन के मोरिय तथा वेद्वीप के ब्राह्मणा *बुद्ध के प्रथम उपदेश को ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ की संज्ञा दी जाती है। उनका यह उपदेश दुःख, दुःख के कारण तथा उसके समाधान से संबंधित था। इसे चार आर्य सत्य कहा जाता है। ये हैं दु:ख, दुःख समुदय, दु:ख निरोध तथा दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा। बुद्ध के अनुसार, दुःख का मूल कारण अविद्या के विनाश का उपाय अष्टांगिक मार्ग है।
* अष्टांगिक मार्ग आठ है, जो इस प्रकार है- सम्यक् दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक कर्मात सम्यक आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति एवं सम्यक् समाधि। * बुद्ध अपने मत को मायमा प्रतिपदा’ या मध्यम मार्ग कहते हैं। *बौद्ध धर्म के अनुयायी दो वर्गों में बंटे हुए थे- भिक्षु/भिक्षुणी तथा उपासक/उपासिकाएं। * सामान्य मनुष्यों के लिए बुक ने जिस धर्म का उपदेश दिया उसे ‘उपासक धर्म’ कहा गया। *बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं-बुद्ध, धम्म एवं संघा
*परंपरागत नियम में आस्था रखने वालों का संप्रदाय स्थविर’ या ‘येरावादी’ कहलाया। *इनका नेतृत्व महाकच्चायन ने किया। *परिवर्तन के साथ नियम को स्वीकार करने वालों का संप्रदाय ‘महासांघिक’ कहलाया। इनका नेतृत्व महाकस्सप ने किया। * चतुर्थ बौद्ध संगीति में महासांधिकों का बोलबाला था।
* चतुर्थ बौद्ध संगीति के समय में बौद्धों ने भाषा के रूप में संस्कृत को अपनाया। * इस संगीति के समय बौद्ध धर्म स्पष्ट रूप से हीनयान और महायान नामक दो संप्रदायों में विभाजित हो गया।
* सर्वास्तिवाद आगे चलकर वैभाषिक और सौत्रांतिक में विभाजित हुआ। वैभाषिक मत की उत्पत्ति मुख्य रूप से कश्मीर में हुई। * वैभाषिक मत के प्रमुख आचार्य हैं-धर्मत्रात, घोषक, बुद्धदेव, वसुमित्र आदि। *सौत्रांतिक संप्रदाय सुत्तपिटक पर आधारित है।
*शून्यवाद (माध्यमिक) के प्रवर्तक नागार्जुन हैं, जिसकी प्रसिद्ध रचना ‘माध्यमिककारिका’ है। *नागार्जुन के अतिरिक्त इस मत के अन्य विद्वान थे- चंद्रकीर्ति, शांतिदेव, शांतिरक्षित, आर्यदेव आदि। * नागार्जुन की तुलना ‘मार्टिन लूथर’ से की जाती है। * ह्वेनसांग ने उसे ‘संसार की चार
मार्गदर्शक शक्तियों में से एक कहा है। उसे ‘भारत का आइंस्टीन भी कहा जाता है। चीनी मान्यता के अनुसार, नागार्जुन ने चीन की यात्रा कर वहाँ शिक्षा प्रदान की थी। *विज्ञानवाद अथवा योगाचार संप्रदाय की स्थापना मैत्रेय अथवा मैत्रेय ने किया था। थाने इसका विकास दिया। *वान का सर्वाधिक विकास आदी शताब्दी में हुआ इसके सिद्धांत आर्य मंजुश्रीमूलकल्प तथा गुहासमाज नामक ग्रंथों में मिलते हैं। इसने भारत में बौद्ध धर्म के पतन का मार्ग प्रशस्त किया। बौद्ध दर्शन में दाणिकवाद को स्वीकार किया गया है। बुद्ध ने स्वयं अनित्यवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। * मैत्रेय को बौद्ध परंपरा में ‘भावी कुछ कहा गया है। “अवलोकितेश्वर प्रधान दोसिल हैं। इन्हें ‘पद्मपाणि’ (हाथ में कमल लिए हुए) भी कहते हैं। इनका प्रधान गुण दया है। मंजुश्री के एक हाथ में खड़ग तथा दूसरे हाथ में
पुस्तक रहती है। इनका मुख्य कार्य बुद्धि को प्रखर करना है। *बौद्ध धर्म के आरंभिक ग्रंथों को ‘त्रिपिटक’ कहा जाता है। यह पाली भाषा में रचित है। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात उनकी शिक्षाओं को संकलित कर तीन भागों में बांटा गया, इन्हीं को त्रिपिटक कहते हैं। * यह हैं-विनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक’ *विनयपिटक में संघ संबंधी नियम तथा दैनिक जीवन संबंधी आचार-विचारों, विधि-निषेधों आदि का संग्रह है।
*सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है। ‘अभिधम्मपिटक में बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धांतों का संग्रह मिलता है। * अट्ठ कथाएं त्रिपिटकों के भाष्य के रूप में लिखी गई हैं। * सुत्तपिटक की अट्ठकथा ‘महा अद्रुक’ तथा विनयपिटक की अट्ट कथा ‘कुरुन्दी’ है। * अभिधम्मपिटक की अट्ठ कथा मूल रूप से सिंहली भाषा में महा पच्चरी’ है। *बौद्धों का वह धर्म ग्रंथ, जिसमें गौतम बुद्ध के पूर्ववर्ती जन्म की कथाए संकलित हैं, जातक कहलाता है। *यह पालि भाषा में है।
*बुद्ध की ‘भूमिस्पर्श मुद्रा’ से तात्पर्य अपने तप की शुचिता और निरंतरता को बनाए रखने से है। *भूमिस्पर्श मुद्रा की सारनाथ मूर्ति गुप्तकाल से संबंधित है।
* प्राचीन काल में बौद्ध शिक्षा के तीन प्रमुख केंद्र थे (1) नालंदा, – (2) वल्लभी और (3) विक्रमशिला । * नालंदा महायान बौद्ध धर्म की तथा वल्लभी हीनयान बौद्ध धर्म की शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। * विक्रमशिला न महाविहार की स्थापना पाल नरेश धर्मपाल ने की थी। उसने यहां मंदिर ब तथा मठ भी बनवाए थे। *पांचवीं शताब्दी के मध्य, गुप्तों के समय में नालंदा
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विश्वविद्यालय अस्तित्व में आया। *सर्वप्रथम कुमारगुप्त-1 ने नालंदा बौद्ध विहार को दान दिया और बाद में बुधगुप्त, तथागतगुप्त तथा बालादित्य नामक गुप्त शासकों ने भी इस विहार को दान दिए। * नव नालंदा महाविहार’ बौद्ध अध्ययन का आधुनिक केंद्र है, जिसे बिहार सरकार ने वर्ष 1951 में नालंदा में स्थापित किया था।
* चैत्य’ का शाब्दिक अर्थ है चिता संबंधी। *शवदाह के पश्चात बचे हुए अवशेषों को भूमि में गाड़कर उनके ऊपर जो समाधियां बनाई। – गई, उन्हीं को प्रारंभ में चैत्य या स्तूप कहा गया। *इन समाधियों में महापुरुषों के धातु अवशेष सुरक्षित थे, अतः चैत्य उपासना के केंद्र बन गए। *चैत्यगृहों के समीप ही भिक्षुओं के रहने के लिए आवास बनाए गए, जिन्हें विहार कहा गया।
*सर्वप्रथम ‘स्तूप’ शब्द का वर्णन ऋग्वेद में प्राप्त होता है। * इसके अतिरिक्त अथर्ववेद, वाजसनेयी संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण संहिता, पंचविश ब्राह्मण आदि ग्रंथों से ‘स्तूप’ के संबंध में जानकारी मिलती है। *स्तूप का शाब्दिक अर्थ है-‘किसी वस्तु का ढेर । * स्तूप का विकास ही संभवतः मिट्टी
के ऐसे चबूतरे से हुआ जिसका निर्माण मृतक की चिता के ऊपर मृतक की चुनी हुई अस्थियों के रखने के लिए किया जाता था।’ में बौद्धों ने इसे अपनी संघ-पद्धति में अपना लिया। * इन स्तूपों में अथवा उनके प्रमुख शिष्यों की धातु रखी जाती थी, अतः व बौद्धों की और उपासना के प्रमुख केंद्र बन गए। स्तूप के 4 भेद है- 1. शारी स्तूप, 2. पारिभौगिक स्तूप, 3. उद्देशिका स्तूप तथा 4. पूजार्थक
* गौतम बुद्ध को ‘एशिया के ज्योति पुंज’ के तौर पर जाना है। *गौतम बुद्ध के जीवन पर एडविन अर्नाल्ड ने ‘Light of Asia काव्य पुस्तक की रचना की थी। * महापरिनिर्वाण मंदिर’ उत्तर प्रदे कुशीनगर जिले में स्थित है। *मंदिर में स्थापित भगवान बुद्ध की 1876 ई. में उत्खनन के द्वारा प्राप्त की गई थी। इस मंदिर में बुद्ध की 6.10 मीटर ऊंची मूर्ति लेटी हुई मुद्रा में रखी है। काल को दर्शाती है, जब 80 वर्ष की आयु में भगवान बुद्ध ने अपने शरीर छोड़ दिया और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो गए अर्थात की प्राप्ति हो गई।
हीनयान और महायान में अंतर
हीनयान
हीनयान का शाब्दिक अर्थ है- निम्न मार्ग।
इसमें महात्मा बुद्ध को एक महापुरुष माना जाता है।
यह व्यक्तिवादी धर्म है। इसके अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।
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यह मूर्तिपूजा एवं भक्ति में विश्वास नहीं करता है।
इसकी साधना पद्धति अत्यंत कठोर है तथा यह भिक्षु जीवन
का समर्थक है।
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इसका आदर्श ‘अर्हत्’ पद को प्राप्त करना है।
इसके प्रमुख संप्रदाय हैं-वैभाषिक तथा सौत्रांतिक
महायान
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महायान का शाब्दिक अर्थ है- उत्कृष्ट मार्ग।
इसमें उन्हें देवता माना जाता है।
इसमें परोपकार एवं परसेवा पर बल दिया गया। इसका उ समस्त मानव जाति का कल्याण है।
यह आत्मा एवं पुनर्जन्म में विश्वास करता है।
इनके सिद्धांत सरल एवं सर्वसाधारण के लिए सुलभ हैं।
भिक्षु के साथ-साथ सामान्य उपासकों को भी महत्व दिया ग
इसका आदर्श ‘बोधिसत्व’ है।
इसके प्रमुख संप्रदाय हैं-शून्यवाद (माध्यमिक) तथा (योगाचार)।
जैन धर्म
नोट्स
*जैन शब्द संस्कृत के ‘जिन’ शब्द से बना है जिसका अर्थ क है। *जैन संस्थापकों को ‘तीर्थकर’ जबकि जैन ग्रंथों को ‘निग्रंथ गया।
* जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर माने जाते हैं, जिन पर जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया जाता है। *ये हैं -1. ऋषभदेव या आदिनाथ अजितनाथ, 3. संभावितनाथ, 4. अभिनंदन, 5. सुमतिनाथ, 6. पद्मप्र सुपार्श्वनाथ 8. इंद्रप्रम, 9. पुष्पदत (सुविधिनाथ), 10. शीतलनाथ श्रेयांसनाथ 12 वासुज्य, 13. विमलनाथ, 14. अनंतनाथ, 15. शांतिनाथ , 17. कुंथुनाथ, 18. अर्नाथ, 19. मल्लीनाथ, 20. मुनि-सुबत नमिनाथ, 22. नेमिनाथ या अरिष्टनेमि, 23. पारजनाथ एवं 24. महावीर
* जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे। इनके अन्य नाम ऋष आदिनाथ साथ भी हैं। ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि का उल्लेख में मिलता है। पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थकर माने का जन्म काशी (वाराणसी) में हुआ था। इनके पिता अश्वसेन काशी के रच थे। *पार्श्वनाथ को वाराणसी के करीब आश्रमपथ पार्क में हुआ था और उनके परिनिर्वाण सम्मेतशिखर (सम्मेद पर्वत) पर हुआ ज्ञान* नाथ ने अपनी सीढ़ियों को चतुर्यान शिक्षा का पालन किया था। *ये चार शिक्षाएं थीं-सत्य, अहिंसा, अस्तेय एवं अपरिग्रह।
*महावीर स्वामी का जन्म वैशाली के निकट कु में लगभग 599 ई.पू. में हुआ था। इनके पिता सिद्धार्थ के संघ के प्रधान थे। इनकी माता त्रिशला अथवा विदे के लिकवी गणराज्य के प्रमुख चेटक की बहन थीं। *महावीर बचपन का नाम वर्द्धमान था। *इनकी पत्नी का नाम यशोदा ( गोत्र की कन्या) था। *इससे उन्हें अणोज्जा (प्रियदर्शना) नामक उत्पन्न हुई। *इसका विवाह जमालि के साथ हुआ था। ज्ञातृक स्वाम
* जैन धर्म में पूर्ण ज्ञान’ के लिए ‘कैवल्य’ शब्द का प्रयोग गया है। महावीर स्वामी को 12 वर्षों की कठोर तपस्या तथा पश्चात ‘जृम्भिकाग्राम’ के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे कैवल्य (पूर्ण ज्ञान) प्राप्त हुआ था। *ज्ञान प्राप्ति के पा वे केवलिन, अर्हत (योग्य), जिन (विजेता) तथा निर्ग्रथ (बंधन सं कहलाए। * कैवल्य प्राप्ति के पश्चात महावीर स्वामी ने अपने सि का प्रचार प्रारंभ किया। *वैशाली के लिच्छवी सरदार चेटक जो मामा थे, जैन धर्म के प्रचार में मुख्य योगदान दिया। महावीर को उनके प्रथम शिष्य जमालि से मतभेद हो गया, मतभेद का क्रियमाणकृत सिद्धांत (कार्य करते ही पूर्ण हो जाना) था। * इस म के कारण जमालि ने संघ छोड़ दिया और एक नए सिद्धांत हु (कार्य पूर्ण होने पर ही पूर्ण माना जाएगा) का प्रतिपादन किया।
धर्म में दूसरा विद्रोह जमालि के विद्रोह के दो वर्ष बाद तीसगुप्त ने किया था। * मक्खलिगोसाल ने आजीवक संप्रदाय की स्थापना की। इनका है। मत ‘नियतिवाद’ कहा जाता है। इसके अनुसार, संसार की प्रत्येक वस्तु वी भाग्य द्वारा पूर्व नियंत्रित एवं संचालित होती है। *527 ई.पू. के लगभग 72 वर्ष की आयु में राजगृह (राजगीर) के समीप स्थित पावापुरी नामक स्थान पर महावीर स्वामी ने शरीर त्याग दिया।
*महावीर स्वामी ने पंच महाव्रत की शिक्षा दी जो है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य। *प्रथम चार व्रत पार्श्वनाथ के समय से ही प्रचलित थे। महावीर ने इसमें पांचवां व्रत ब्रह्मचर्य को जोड़ा था। * जैन धर्म में गृहस्थों के लिए पंच महाव्रत अणुव्रत के रूप में व्यवहृत हुआ है, क्योंकि संसार में रहते हुए इन महाव्रतों का पूर्णतः पालन करना संभव -नहीं, इसलिए आंशिक रूप से इनके पालन के लिए कहा गया। ये पंच अयुक्त है-हंत सत्यागुक्त, अस्तेयामुक्त और अपरिग्रहाणुव्रत महावीर स्वामी ने वेदों की अपौरुषेयता स्वीकार करने से इंकार किया तथा धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों एवं पाखंडों का विरोध किया। उन्होंने आत्मवादियों तथा नास्तिकों के एकांतिक मतों को छोड़कर बीच का मार्ग अपनाया, जिसे ‘अनेकांतवाद’ अथवा ‘स्यादवाद’ कहा गया।
स्यादवाद’ को सप्तभंगी नय के नाम से भी जाना जाता है। यह ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है। महावीर स्वामी पुनर्जन्म एवं कर्मवाद में विश्वास करते थे, किंतु ईश्वर के अस्तित्व में उनका विश्वास नहीं था।
* अज्ञान के कारण कर्म जीव की ओर आकर्षित होने लगता है, जिसे ‘आसव’ कहते हैं। क्रोध, लोभ, मान, माया आदि कुप्रवृत्तियां (कषाय) हैं. जो अज्ञान के कारण उत्पन्न होती हैं। जैन धर्म में मोक्ष के लिए तीन २ साधन आवश्यक बताए गए हैं। *ये हैं-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र *इन तीनों को जैन धर्म में ‘त्रिरत्न’ की संज्ञा दी गई है। *त्रिरत्नों का अनुसरण करने से कर्मों का जीव की ओर प्रवाह रुक जाता है, जिसे ‘संवर’ कहते हैं। इसके बाद जीव में पहले से व्याप्त कर्म समाप्त होने लगते हैं, इसे ‘निर्जरा’ कहा गया है।
*जब जीव में कर्म का अवशेष पूर्ण समाप्त हो जाता है, तब यह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। “जैन धर्म में अनंत चतुष्ट्य है-अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य तथा अनंत सुखा
‘महावीर स्वामी ने अपने जीवनकाल में एक संघ की स्थापना की। * इस संघ में 11 प्रमुख अनुयायी सम्मिलित थे। ये ‘गणधर कहे गए। * इनके नाम है-इंद्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति (तीनों भाई), आर्य व्यक्त सुधर्मन, मंडित, मौर्यपुत्र, अकपित, अचलनाता, मेतार्य तथा प्रभास * महावीर की मृत्यु के पश्चात सुधर्मन जैन संघ का प्रथम अध्यक्ष बना। *सुधर्मन की मृत्यु के पश्चात जम्बू 44 वर्षों तक संघ का अध्यक्ष रहा।
*अंतिम नंद राजा के समय सम्भूतविजय तथा भद्रबाहु संघ के अध्यक्ष थे। महावीर द्वारा प्रदत्त 14 पूथ्वो (पूर्वी) (प्राचीनतम जैन ग्रंथों) के विषय में जानने वाले ये दोनों अंतिम व्यक्ति थे। * कालांतर में जैन संप्रदाय दो संप्रदायों में विभक्त हो गया। “ये संप्रदाय थे-श्वेतांबर एवं दिगंबर * स्थूलभद्र के अनुयायी ‘श्वेतांबर’ कहलाए, जबकि मद्रबाहु के अनुयायी ‘दिगंबर’ कहलाए। * यापनीय’ जैन धर्म का एक संप्रदाय है।
* प्रथम जैन सभा 310 ई. पू. में पाटलिपुत्र में स्थूलभद्र की अध्यक्षता में संपन्न हुई। * इस सभा में जैन धर्म के 12 अंगों का संकलन किया गया। * इसमें भद्रबाहु के अनुयायियों ने भाग नहीं लिया। *द्वितीय जैन सभा छठीं शताब्दी 512 ई. में वल्लभी (गुजरात) में देवर्धिगण या क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में संपन्न हुई। द्वितीय जैन सभा के समय 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, अनुयोग सूत्र का संकलन हुआ। *जैन साहित्य को ‘आगम’ (सिद्धांत) कहा जाता है। * इसके अंतर्गत 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, 10 प्रकीर्णसूत्र और 2 चूलिकासूत्र की गणना की जाती है। *जैन आगम में बारह अंगों का प्रमुख स्थान है। *ये हैं-आयारंग-सुत्त (आचारांग सूत्र), सूयगदंग (सूत्रकृतांग), थाणंग (स्थानांग). समवायंग (समवायाग), भगवई वियाहपन्नति (भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति), णयाधम्म- कहाओ (ज्ञात्रधर्मकथा). उवासगदसाओ (उपासकदशा), अंतगददसाओं (अंतकर्दशा), अणुत्तरोक् वाइयदसाओं (अनुत्तरउपपातिकदाशा), पण्हावागरनाइ (प्रश्नव्याकरण). विवागसूदन (विकासुत) और दिदिवा (दृष्टिवाद)। बारह अंगों से संबंधित एक-एक ‘उपांग’ ग्रंथ हैं। इनमें ब्रह्मांड का वर्णन, प्राणियों का वर्गीकरण, खगोल विद्या, काल विभाजन, मरणोत्तर जीवन का वर्णन आदि का उल्लेख प्राप्त होता है। *बारह उपांग हैं-उववाइय (औपपातिक), रायपसेणइज्जा (राजप्रश्नीय) जीवाजीवाभिगम, पण्णवणा (प्रज्ञापना), सूरियपति (सूर्यप्रज्ञप्ति) जम्बुयापति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), चंदपण्णति (चन्द्रज्ञप्ति), निश्यावली कमावदसिआओ (कल्पावसिका) पुहिआओ (पुष्पिका) पुष्पबूलिआओ (पुष्पबूलिया और पदाओं (वृष्णिदशा)। ** दस प्रकीर्ण’ प्रमुख ग्रंथों के परिशिष्ट हैं। * ये हैं-चउसरण (चत: शरण), आउरपच्चक्प्वाण (आतुरप्रत्याख्यान), भत्तपरिण्णा (भक्तपरिज्ञा), संथार (संस्तारक), तंदुलवेयलिय (तदुलवैचारिक), चंदाविज्य (चन्द्रवेध्यक), देविदत्थय (देवेन्द्रस्तव), गणिविज्जा (गणिविद्या), महापच्चक्खाग
महाप्रत्याख्यान) और वीरत्थय (वीरस्तव)। छेदसूत्र’ की संख्या छ है। *इसमें जैन भिक्षुओं के लिए विधि नियमों का संकलन है। *छ: छेदसूत्र है आयारदसाओ (आचारदरंग), बिहाकम्प (बृहत्कल्प), ववहाद (व्यवहार), निसीह (निशीथ), महानिसीह ( महानिशीथ) और जीयकल्प (जीतकल्प)
*मूलसूत्र की संख्या चार है। इनमें जैन धर्म के उपदेश, बिहार के जीवन, भिक्षुओं के कर्तव्य, यम-नियम आदि का वर्णन है।
*चार मूलसूत्र है- दसवेयालिय (दशवेकालिक), उत्तरज्झयण (उत्तराध्ययन), आवस्य (आवश्यक) और पिंडानिज्जुत्ति (पिंडानिर्युक्ति)। *दो चूलिकासूत्र हैं- नदी- सुतम] (नदी सूत्र) और अणुओगद्दारा अनुयोगद्वारसूत्र जो एक प्रकार का विश्वकोश है। *इनमें भिक्षुओं के लिए आचरणीय बातें लिखी गई। है। *उपर्युक्त सभी ग्रंथ श्वेतांबर संप्रदाय के लिए हैं। * दिगंबर संप्रदाय के अनुयायी इनकी प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते।
श्वेतांबर
इस संप्रदाय के लोग श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।
इस मत के अनुसार, स्त्री के लिए मोक्ष प्राप्ति संभव है।
इस संप्रदाय के लोग ज्ञान प्राप्ति के बाद भोजन ग्रहण करने में विश्वास करते हैं।
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इस मत के अनुसार, महावीर स्वामी विवाहित थे। इस मत के अनुसार, 19 वें तीर्थकर मल्लिनाथ स्त्री थे।
*जैन साहित्य में अशोक के पौत्र संप्रति को जैन मत का जिसके कारण * जैनियों का दूसरा प्रमुख बताया गया है। *वह उज्जैन में शासन करता था, जैन धर्म का एक प्रमुख केंद्र बन गया। मथुरा था। *यहां से अनेक मंदिर, प्रतिमाएं, अभिलेख आदि प्राप्त उ * कलिंग का चेदि शासक खारवेल जैन धर्म का महान संरक्षक था। भुवनेश्वर के नजदीक उदयगिरि तथा खंडगिरि की पहाड़ियों को अ कर जैन भिक्षुओं के निवास के लिए गुहा विहार बनवाए थे। * राजाओं के शासनकाल (9वीं शताब्दी) में गुजरात एवं राजस्थान धर्म 11वीं तथा 12वीं शताब्दियों में अधिक लोकप्रिय रहा मंदिर हिंदू धर्म और जैन धर्म से संबंधित है। माउंट आबू के द जैन मंदिर संगमरमर के बने हैं। * इनका निर्माण गुजरात के (सोलंकी) शासक भीमदेव प्रथम के सामंत विमलशाह ने करवाय • श्रवणबेलगोला कर्नाटक राज्य में स्थित है। यहां गंग शासक चतुर्थ (पंचमल्ल) के शासनकाल में चामुंडराय नामक मंत्री ने 981 ई. में बाहुबली (गोमतेश्वर) की विशालकाय जैन मूर्तिका कराया। बाहुबली, प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र हैं। *महामस्तकाभिषेक, जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण उत्सव है, वर्ष के अंतराल पर कर्नाटक राज्य के श्रवणबेलगोला में आया किया जाता है।
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इस संप्रदाय के लोग पूर्णतया नग्न रहकर तपस्या करते हैं सू इस मत के अनुसार, • दिगंबर मत के स्त्री के लिए मोक्ष संभव नहीं है। अनुसार आदर्श साधु भोजन नहीं ग्रहण कर महावीर स्वामी अविवाहित थे।
तमिल व्याकरण पर तौलकापियम’ नामक विस्तृत ग्रन्थ की रचना संगम युग में हुई थी. गायकों के गान के साथ नर्तकियाँ नृत्य करती थीं इन्हें ‘पाणर’ तथा ‘विडेलियर’ कहा जाता. था “पेदिनेकिलकन्कू संगम साहित्य की प्रसिद्ध रचना है संगम शब्द संस्कृत भाषा का है, जिसका अर्थ है, गोष्ठी अथवा परिषद् संगम साहित्य का मुख्य विषय श्रृंगार तथा ‘वीरगाथा’ है ‘ श्रृंगार को अहम् व ‘वीरगाथा’ को पुरम् कहा गया है.
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प्रथम संगम का आयोजन ‘मदुरा में ऋषि अगस्त्य की अध्यक्षता में किया गया था. द्वितीय संगम का आयोजन कपाटपुरम नगर में ऋषि अगस्त्य की अध्यक्षता में किया गया था
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तृतीय संगम का आयोजन मदुरा में किया गया. इस संगम के सभापति नक्कीरर थे,
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‘अवे’ संगमकालीन परिवार था जिसका अर्थ है. सभा ‘पंचवारम’ संगमकालीन राजा के परामर्श-
दाताओं की सभा को कहते थे ‘उर’ नाम की संस्था नगर प्रशासन की व्यवस्था करती थी
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आरिकमेहूँ की खुदाई से अनुमान होता है। कि किसी समय यहाँ रोमन व्यापारियों की
छावनियों अस्तित्व में रही होगी.
संगमकाल में शिक्षक को कणक्काटर कहा जाता था. संगमकाल में विद्यार्थी को भाण्वन अथवा • पिल्लै कहा जाता था
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पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं के चतुव्रतों की व्यवस्था की थी ये व्रत इस प्रकार थे (1) में जीवित प्राणियों की हिंसा नहीं करूँगा, (2) मे सदा सत्य भाषण करूंगा. (3) में चोरी नहीं करूंगा, (4) मैं कोई सम्पत्ति नहीं रखूँगा
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बौद्ध साहित्य में महावीर स्वामी को निगष्ट नातपुत्र अथवा निग्रन्थ सातपुत्र भी कहा गया है
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महावीर स्वामी को बिहार स्थित पटना जिले के समीप पावापुरी नामक स्थान पर निर्वाण प्राप्त हुआ.
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जैन धर्म में वर्णित त्रिरत्न हैं-सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् आचरण
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जैन धर्म के अनुसार आत्मा को भौतिक तत्वों से मुक्त कर देना ही निर्वाण है.
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महावीर स्वामी ने सर्वसाधारण के लिए पाँच नियम बताये हैं जिन्हें पंचमहाव्रत कहते हैं, ये
व्रत है सत्य, अहिंसा अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य इन्हीं पंचमहाव्रतों में आगे चलकर
रात्रि का भोजन न करना भी सम्मिलित कर दिया गया.
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कैवल्य- यह पूर्ण ज्ञान है जो निर्ग्रन्थों को प्राप्त होता है.
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महात्मा बुद्ध का जन्म नेपाल की तराई में कपिलवस्तु से 14 किमी दूर लुम्बनी वन में
हुआ था.
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कौण्डिन्य महात्मा बुद्ध के समय का ब्राह्मण भविष्यवेत्ता था. गौतम को गया में ज्ञान प्राप्त हुआ था. इसलिए वह स्थान बौद्ध गया कहलाया.
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महात्मा बुद्ध का प्रथम उपदेश धर्म चक्र प्रवर्तन कहलाता है..
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महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश ऋषिपत्तन (सारनाथ) में दिया था. • महात्मा बुद्ध के अनुयायी 4 भागों में विभक्त थे (1) भिक्षु (2) भिक्षुणी. (3) उपासक, (4) उपासिका
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45 वर्ष तक अनवरत धर्मोपदेश देकर 80 वर्ष की अवस्था में कुशीनगर में महात्मा बुद्ध को महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ था. • त्रिपिटक हैं- (1) विनय पिटक (2) सुत्तपिटक, (3) अभिधम्म पिटक
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विनय पिटक के तीन भाग हैं- (1) सुत्त विभंग. (2) खन्धक (3) परिवार. • दीघनिकाय, मज्झिम निकाय, अंगुत्तर निकाय, संयुक्त निकाय, खुद्दक निकाय सुत्त पिटक के निकाय हैं.
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अभिधम्म पिटक में दार्शनिक और आध्यात्मिक चिन्तन किया गया है.
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अभिधम्मपिटक के सात ग्रन्थ है-(1) धम्म- संगीति, (2) विभंग, (3) धातुकथा, (4) पुग्गल पञ्जति, (5) कथावस्तु (6) यमक, (7)
पट्ठान, अष्टांगिक मार्ग हैं- (1) सम्यक् दृष्टि, (2) सम्यक् संकल्प, (3) सम्यक् वाणी, (4) सम्यक् कर्मान्त, (5) सम्यक् आजीव, (6) सम्यक व्यायाम, (7) सम्यक् स्मृति, (8) सम्यक् समाधि.
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बौद्ध धर्म में अष्टांगिक मार्ग तीन प्रकार से श्रेणीबद्ध किया गया है- (1) प्रजा स्कन्ध, (2) शील स्कन्ध, (3) समाधि स्कन्ध. • सम्यक् दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक् वाणी, प्रजा स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं।
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सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, शील स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं. • सम्यक व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि, समाधि स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं.
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महात्मा बुद्ध अनात्मवादी थे, आत्मा के अस्तित्व में उनका कोई विश्वास नहीं था. • महात्मा बुद्ध की मृत्यु के कुछ समय पश्चात् महाकस्सप की अध्यक्षता में राजगृह के निकट सप्तपर्णा गुहा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ था. • द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन वैशाली में हुआ था.
■ तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन पाटलिपुत्र में अशोक के काल में हुआ था. → चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन कश्मीर में कनिष्क के समय में हुआ था. → पुराणों की कुल संख्या अठारह मानी गई जिसमें भागवत नाम का एक प्रसिद्ध पुराण है.
शव भागवत धर्म
नोट्स
* भागवत धर्म से वैष्णव धर्म का विकास हुआ। *परंपरानुसार इसके प्रवर्तक वृष्णि (सात्वत) वंशी कृष्ण थे। *छांदोग्य उपनिषद् और तैत्तिरीय आरण्यक के अंतिम अंश में उन्हें देवकी पुत्र कहा गया है। * इन्हें घोर अंगिरस का शिष्य बताया गया है। कृष्ण के अनुयायी उन्हें ‘भगवत्’ पूज्य कहते थे। इस कारण उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म की संज्ञा भागवत हो गई।
* ऋग्वेद में विष्णु का उल्लेख आकाश के देवता के रूप में हुआ है। * उत्तर वैदिक काल में तीन प्रमुख देवता-प्रजापति, रुद्र एवं विष्णु थे। *विष्णु को लोग पालक एवं रक्षक मानने लगे। *पतंजलि ने वासुदेव को विष्णु का रूप बताया * विष्णु पुराण में भी वासुदेव को विष्णु का एक नाम बताया गया है। *इस प्रकार जब कृष्ण-विष्णु का तादात्म्य नारायण से स्थापित हुआ,
भगवान विष्णु राजा करने के लिए रूप धारण किया तथा उसके चंगुल से धरती को ऐसी कल्पना की गई है कि भगवान विष्णु हाथ में तलवार लेकर पर सवार होकर पृथ्वी पर अवतरित हो
भागवत अथवा पांचरात्र धर्म वासुदेव (कृष्णकी उपासना के साथ ही तीन अन्य व्यक्तियों की उपासना की जाती थी। इनके नाम है- (1) संकर्षण (बलराम वसुदेव और रोहिणी से उत्पन्न (ii) और रुक्मिणी से उत्पन्न पुत्र (iii) अनिरुद्ध प्रद्युम्न के पुत्र इन चारों को ‘चतुर्व्यूह’ की संज्ञा दी जाती है। वायु पुराण में इन चारों के साथ ‘साम्ब (कृष्ण और जाम्बवती से उत्पन्न पुत्र) को मिलाकर पंचवी कहा गया है। *भागवत संप्रदाय में नवधा भक्ति का विशेष महत्व है। * धर्म के प्रमुख आचार्य है-रामानुज, मध्य, बल्लम, चैतन्य आदि। वैष्णव धर्म से संबंधित प्रमुख मंदिर
जगन्नाथ मंदिर
दशावतार मंदिर
विष्णु मंदिर
विष्णु मंदिर द्वारिकाधीश मंदिर द्वारिकाधीश मंदिर
* शिव से संबंधित धर्म को ‘शैव धर्म’ कहा जाता है। *शिव के उपासक को ‘शैव’ कहा जाता है। *शैव धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म है। इसका संबंध प्रागैतिहासिक युग तक है। सिंधु घाटी के लोग शिव की पूजा करते थे। इसका प्रमाण मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा है, जिस पर योगी की आकृति बनी है। *योगी के सिर पर एक त्रिशुल जैसा आभूषण है तथा इसके तीन मुख हैं। * मार्शल महोदय ने इसे शिव से संबंधित किया है। *ॠग्वेद में शिव को ‘रुद्र’ कहा गया है, जो अपनी उग्रता के लिए प्रसिद्ध हैं। रुद्र को समस्त लोकों का स्वामी वाजसनेयी संहिता के शतरुद्रीय मंत्र में कहा गया है।
* अथर्ववेद में उन्हें पशुपति, भव, शर्व, भूपति आदि कहा गया है। *पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि दूसरी सदी ईसा पूर्व में शिव की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती थी। *महाभाष्य में शिव के विभिन्न नामों का उल्लेख मिलता है। *ये प्रमुख नाम हैं-रुद्र, महादेव, गिरीश, भव, सर्व, त्र्यम्बक आदि। कुषाण शासकों के सिक्कों पर शिव, वृषभ और त्रिशूल की आकृतियां मिलती हैं। * उदयगिरि गुहालेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय के प्रधानमंत्री वीरसेन ने उदयगिरि पहाड़ी पर एक शैव गुफा का निर्माण करवाया था। * कुमारगुप्त के समय में खोह तथा करमदंडा में शिवलिंग की स्थापना करवाई गई थी। * गुप्त काल में नचनाकुठार में पार्वती मंदिर तथा भूमरा में शिव मंदिर का निर्माण करवाया गया था। * कालिदास ने कुमारसम्भवम् में शिव की महिमा का गुणगान किया है। चंदेल शासकों द्वारा खजुराहो का प्रसिद्ध कंदारिया महादेव मंदिर
निर्मित कराया गया था राष्ट्रकूटों के समय में एलोरा का प्रसिद्ध कैलाश ● मंदिर निर्मत कराया गया काल में धर्म का प्रचारप्रसार दक्षिण भारत में जयनारी द्वारा किया गया था यारों की संख्या है। तिरुज्ञान, सुंदर मूर्ति सम्बन्दर, अणार आदि का नाम उल्लेखनीय है। इनके गित को एक साथ देवारभ’ में संकलित किया गया है। भारत में चोल शासक शिव के अन्य शासक राजराज प्रथम ने वर मंदिर निर्मित करवाया था। *राजराज प्रथम ने बृहदीस अथवा राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था। कुलोतुंग प्रथम एक कथा इस शिव के प्रति अतिशय श्रद्धा के कारण चिदंबरम मंदिर में स्थापित विष्णु की प्रतिमा को उखाड़ कर समुद्र में फेंक दिया था। धर्म से संबंधित देश के विभिन्न भागों में स्थित द्वादश ज्योतिर्लिंग है-सोमनाथ, नागेश्वर (द्वारका के समीप), केदारनाथ, विश्वनाथ (काशी), वैद्यनाथ, महाकालेश्वर (उज्जैन), ओंकारेश्वर (म.प्र.), मीमेश्वर (नासिक), त्र्यम्बकेश्वर (नासिक), घुश्मेश्वर प्रदेश * वामन पुराण में शैव संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है। ये
है- शैव, पाशुपत, कापालिक एवं कालामुख * पाशुपत संप्रदाय की उत्पत्ति ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में हुई थी। * पुराणों के अनुसार, इस संप्रदाय की स्थापना लकुलीश अथवा लकुली नामक ब्रह्मचारी ने की थी। इस संप्रदाय के अनुयायी लकुलीश को शिव का अवतार मानते हैं। कापालिक संप्रदाय के उपासक भैरव को शिव का अवतार मानकर उनकी उपासना करते थे। इस मत के अनुवायी सुरा का सेवन करते हैं एवं मांस खाते हैं, शरीर पर श्मशान की भस्म लगाते हैं तथा हाथ में नरमुंड धारण करते हैं।
* भवभूति के ‘मालतीमाधव’ नाटक से पता चलता है कि ‘श्रीशैल’ नामक स्थान कापालिकों का प्रमुख केंद्र था। कालामुख संप्रदाय अतिमार्गी होने के कारण शिवपुराण में इसके अनुयायियों को महाव्रतचर कहा गया है। शैव धर्म का ही एक संप्रदाय लिंगायत अथवा वीर शैव था। इसका प्रचार बारहवी शताब्दी में दक्षिण भारत में व्यापक रूप से हुआ। वसव को इस संप्रदाय का संस्थापक माना जाता है। * शेव धर्म का एक नया संप्रदाय कश्मीर में विकसित हुआ। यह संप्रदाय शुद्ध रूप से दार्शनिक या ज्ञानमार्गी था। नाथपंथ संप्रदाय दसवीं सदी के अंत में मत्स्येंद्रनाथ ने चलाया। इसमें शिव को आदिनाथ मानते हुए नौ नाथो को दिव्य पुरुष के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। बाबा गोरखनाथ न दसवी – ग्यारहवीं शताब्दी में इस मत का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार किया।
शैव धर्म से संबंधित
मंदिर राजराजेश्वर मंदिर
शिव मंदिर
नटराज मंदिर विरुपाक्ष मंदिर
विश्वनाथ मंदिर
जैन वैष्णव धर्म की एक संज्ञा ‘पांचरात्र धर्म’ हो गया। वासुदेव की पूजा का उल्लेख महर्षि पाणिनि ने किया है। उन्होंने ‘हेराक्लीज’ के उपासकों को ‘वासुदेवक’ कहा है। *यह धर्म प्रारंभ में मथुरा एवं आस-पास के क्षेत्रों में प्रचलित था। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज के शूरसेन (मथुरा) के लोग ‘हेराक्लीज’ के उपासक थे। वासुदेव कृष्ण से ही है। मथुरा से इस धर्म का प्रसार धीरे-धीरे भारत के भागों में हुआ। * भागवत धर्म से संबद्ध प्रथम उपलब्ध प्रस्तर स्मारक (बेसनगर) का गरुड़ स्तंभ है। इससे पता चलता है कि तक्षशिला के राजदूत हेलियोडोरस ने भागवत धर्म ग्रहण किया तथा इस स्तंभ की करवाकर उसकी पूजा की थी। *इस पर उत्कीर्ण लेख में हेलियोडोरस ‘भागवत’ तथा वासुदेव को ‘देवदेवस’ अर्थात देवताओं था। अपोलोडोटस के सिक्कों पर सबसे पहले भागवत धर्म के चिह्न मिलत कहा| * महाक्षत्रप शोडासकालीन मोरा (मथुरा) पाषाण लेख में पंचवीरों ( वासुदेव, प्रद्युम्न, साम्ब तथा अनिरुद्ध) की पाषाण प्रतिमाओं को मंदिर में नसे किए जाने का उल्लेख मिलता है।
। गुप्त नरेश वैष्णव मतानुयायी थे तथा उन्होंने इसे अपना राजध था। * अधिकांश गुप्त शासक ‘परमभागवत’ की उपाधि धारण करते थे। 19 का वाहन ‘गरुड़ गुप्त शासकों का राजचिह्न था। महरौली स्तंम लेख उल्लेख मिलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने विष्णुपद पर्वत पर विष्णु ध्य करवाई थी। स्कंदगुप्त के मितरी स्तंभ लेख (गाजीपुर) मे मूर्ति स्थापित किए जाने का उल्लेख है। जूनागढ़ लेख से होता है। तिने सुदर्शन झील के तट पर विष्णु की मूर्ति स्था देवगढ़ की मूर्ति में विष्णु को शेषशादी पर विश्राम करते हुए है। * अमरसिंह ने अपने ग्रंथ अमरकोश में विष्णु के 42 नामों का वर्णन कि है। के पूर्वी चालुक्य शासक वैष्णव मतानुबाई थे। गुप्ती के समान उनका राज गरुड़ा राष्ट्रकूट नरेश दरिदुर्ग ने एलोरा में का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया था। इस मंदिर में विष्णु के दस अवतारों कथा मूर्तियों में अंकित है। *क्षेमेंद्र रचित ‘दशावतार चरित’ में विष्णु के ? अवतारों का वर्णन मिलता है। अलवार संतों द्वारा दक्षिण भारत में वैष्णव का प्रचार-प्रसार किया गया। *अलवार’ शब्द का अर्थ होता है-ज्ञानी व्यति * अलवार संतों की संख्या 12 बताई गई है। * इनमें विशेष रूप से उल्लेखनी हैं- पोयगई, पूडम, पेय, तिरुमंगई, आण्डाल, नम्मालवार आदि। * अलवा संतों में एकमात्र महिला साध्वी आण्डाल थी।
* चोल काल में वैष्णव धर्म प्रचार का कार्य अलवारों के स्थान पर आचार्यों ने किया। * आचार्य परंपरा प्रथम नाम नाथमुनि का लिया जाता है। इन्हें मधुरकवि का शिष्य बताय है। *इन्होंने ‘न्यायतत्व’ की रचना की। *पुराणों में विष्णु के दस अवतारों विवरण प्राप्त होता है। वे हैं -मत्स्य, कूर्म अथवा कच्छप, वराह, नृसिंह, वामर परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध एवं कल्कि (कलि) कल्कि अवतार भविष्य में
शाक्त संप्रदाय के लोग शक्ति को इष्टदेवी मानकर पूजा करते थे। * शैव धर्म के साथ शाक्त धर्म का घनिष्ठ संबंध रहा है। शाक्त धर्म की प्राचीनता भी शैव धर्म के समान प्रागैतिहासिक युग तक जाती है। * मातृदेवी की बहुसंख्यक मूर्तियां खुदाई में प्राप्त हुई हैं। *वैदिक साहित्य * सैंधव सभ्यता में मातृदेवी की उपासना व्यापक रूप से प्रचलित थी। से सरस्वती, अदिति, उषा, लक्ष्मी आदि देवियों के विषय में सूचना मिलती है। *देवी महात्म्य का विस्तृत वर्णन महाभारत तथा पुराणों में प्राप्त होता है। *देवी की उपासना तीन रूपों में की जाती थी। *ये रूप है-शांत या सौम्य रूप, उम्र या प्रचंड रूप और काम प्रधान रूप। सौम्य रूप की प्रतीक उमा, पार्वती, लक्ष्मी आदि हैं। * उग्र रूप की प्रतीक चंडी, दुर्गा, भैरवी, कपाली आदि हैं। * कापालिक एवं कालमुख संप्रदाय के लोग देवी के उग्र रूप की आराधना करते हैं। *वैष्णो देवी का मंदिर देवी के सौम्य रूप का मंदिर है। * कोलकाता स्थित काली मंदिर देवी के उग्र रूप का प्रतिनिधित्व करता है। *असम का कामाख्या मंदिर देवी के काम प्रधान रूप का प्रतिनिधित्व करता है। *प्रतिहार शासक महेंद्रपाल के लेखों में दुर्गा की महिषासुरमर्दिनी, कांचनदेवी, अम्बा आदि नामों की स्तुति मिलती है। *राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष महालक्ष्मी का अनन्य भक्त था। *संजन लेख से ज्ञात होता है कि उसने एक बार अपने बाएं हाथ की अंगुलि काटकर देवी को चढ़ा दिया था। * श्रीहर्ष ने अपने ग्रंथ ‘नैषधीयचरित’ में सरस्वती मंत्र की महत्ता का प्रतिपादन किया। *संप्रति शाक्त उपासना के तीन प्रमुख केंद्र हैं। * ये हैं-कश्मीर, कांची तथा असम स्थित कामाख्या । *असम स्थित कामाख्या कौल मत का प्रसिद्ध केंद्र है।
शाक्त धर्म से संबंधित प्रमुख मंदिर
वैष्णो देवी का मंदिर विंध्यवासिनी देवी का मंदिर चौसठ योगिनी का मंदिर पार्वती मंदिर कामाख्या मंदिर
दक्षिणेश्वर काली मंदिर
विंध्याचल
भेड़ाघाट (म.प्र.)
असम
स्थान जम्मू नाचना कुठार (म.प्र.)
कोलकाता
छठी शती ई.पू.-राजनीतिक दशा
नोट्स
*बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तरनिकाय से ज्ञात होता है कि गौतम बुद्ध के जन्म के पूर्व समस्त उत्तर भारत 16 बड़े राज्यों में विभाजित था। * इन्हें ‘सोलह (पोडश) महाजनपद’ कहा गया है। *इन सोलह महाजनपदों के नाम हैं-कोशल, काशी, मगध, अंग, वज्जि, चेदि, मल्ल, वत्स, कुरु, पांचाल, मत्स्य, शूरसेन, कम्बोज, अवंति, अस्सक (अश्मक) तथा गांधार। *जैन ग्रंथ ‘भगवतीसूत्र’ में मी इन 16 महाजनपदों के नाम मिलते हैं, किंतु इसमें कुछ नाम भिन्न दिए गए हैं।
* वैशाली बुद्ध काल का सबसे बड़ा तथा शक्तिशाली गणराज्य * पुराणों के अनुसार, मगध पर शासन करने वाला पहला राजवंश वंश था। *इस वंश के पहले राजा बृहद्रथ का पुत्र जरासंघ था, जि गिरिव्रज (राजगृह) को अपनी राजधानी बनाया।
राजगृह को जरासा की राजाके अनुसार, का प्रथम प्रतापी शासक विवारा यह हर्यक वंश से संबंधित था
*काशी का सबसे शक्तिशाली शासक था इसने कोशल पर विजय प्राप्त की थी। अंततोगत्या कोशल के राजा कसने काशी को जीतकर अपने राज्य में शामिल कर लिया। प्रसेनजित के समय कोशल का काशी के अतिरिक्त कपिलवस्तु के शाक्य, केशपुरा के कालाम, रामगाम के कोलिय पाया और कुशीनाश के मल्ल, पिप्पलिन के मोरिस आदि गणराज्यों पर भी अधिकार था “संयुक्त निकाय के अनुसार, प्रसेनजित “पांच राजाओं के एक गुट का नेतृत्व करता था। रामायणकालीन कोशल राज्य की राजधानी अयोध्या थी। *कोशल के प्रमुख नगर श्रावस्ती और अयोध्या थे। बुद्ध काल में कोशल के दो भाग हो गए थे। उत्तरी भाग की राजधानी बावस्ती तथा दक्षिणी भाग की राजधानी साकेत थी।
* उत्खननों के आधार पर ज्ञात हुआ है कि प्राचीन श्रावस्ती का नगर विन्यास अर्द्धचंद्राकार था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में मल्ल महाजनपद स्थित था। इसके दो भाग थे-एक की राजधानी पावा (पडरौना) तथा दूसरे की कुशीनारा (कसया) थी। छठी शताब्दी ई.पू. में आधुनिक बुंदेलखंड के पूर्वी तथा उसके समीपवर्ती भागों में चेदि महाजनपद स्थित था। *इसकी राजधानी ‘सोत्यिवती’ थी, जिसकी पहचान महाभारत में शुक्तिमती से की जाती है। *महाभारत काल में चेदि का शासक शिशुपाल था जिसका वध कृष्ण द्वारा किया गया था। *प्रयागराज के आस-पास के क्षेत्रों में वत्स महाजनपद स्थित था। *विष्णु पुराण से ज्ञात होता है कि हस्तिनापुर के राजा निवक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा के प्रवाह में बह जाने के बाद कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाई थी। *बुद्ध काल में यहां पौरव वंश का शासन था। *यहां का शासक उदयन था। *बौद्ध भिक्षु पिण्डोला ने उदयन को बौद्ध मत में दीक्षित किया था। उदयन- वासवदत्ता की दंतकथा उज्जैन से संबंधित है। इस कथा को महाकवि भास ने अपने नाटक स्वप्नवासवदत्तम् में वर्णित किया है।
*कुरु महाजनपद मेरठ, दिल्ली तथा थानेश्वर के भू-भागों में स्थित था। *महाभारतकालीन हस्तिनापुर नगर इसी राज्य में स्थित था। बुद्ध के समय यहां का राजा कोरव्य था। *पांचाल महाजनपद आधुनिक रुहेलखंड के बरेली, बदायूँ तथा फर्रुखाबाद के जिलों से मिलकर बनता था। *प्रारंभ में इसके दो भाग थे-उत्तरी पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र तथा दक्षिणी पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी। *पांचाल महाजनपद के अंतर्गत कान्यकुब्ज का प्रसिद्ध नगर स्थित था। *पांचाल जनपद की सीमाए हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में चंबल नदी तक तथा पूर्व में कोसल तथा पश्चिम में कुरु जनपद को स्पर्श करती थी। *पांचाल मूलतः एक राजतंत्र था, किंतु ऐसा प्रतीत होता है। कि कौटिल्य के समय तक वह एक गणराज्य हो गया था। * मत्स्य महाजनपद राजस्थान के जयपुर क्षेत्र में बसा हुआ था। इसके अंतर्गत वर्तमान अलवर एवं भरतपुर का एक भाग भी सम्मिलित था। *इसकी राजधानी ‘विराट’ की स्थापना विराट नामक राजा द्वारा की गई थी।
की बहन महा उसके देश की राजकुमारी के साथ करके का सहयोग केकर अपने राज्य में मिला लिय है कि इसने एवं प्रदान दिन से होता है कि सरक कहाँ की संपूर्ण आमदनी दान में दे दिया विविसार को अपने द्वारा बंदी बनाकर सरागार में डालने का उल्लेख एवं मिलता है। विसारी492 ई. के लगभग हो गई। विसार के पुत्र (492-460 ई.पू.) का शासक हुआ। यह अपने पिता के समान ही साम्राज्यवादी था। इसके शासन के प्रारंभिक वर्षों एवं राज्य के बीच संघर्ष शुरू हो गया। किंतु बाद में भग के शासक तथा कोशल के शासक प्रसेनजित के बीच सधि हो गई। प्रसेनजित ने अपने पुत्री वाजरा का विवाह से कर दिया तथा पुनः काशी के ऊपर उसका अधिकार स्वीकार कर लिया। पाटलिपुत्र की स्थापना अजातशत्रु के उत्तराधिकारी उदयिन ने गंगा और सोन नदी के संगम पर एक किला बनाकर की थी। इसने मगध साम्राज्य की
राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र स्थानांतरित की। “शिशुनाग वंश की स्थापना शिशुनाग द्वारा की गई थी। *महावंश टीका में शिशुनाग को एक लिच्छवी राजा की वेश्या पत्नी से उत्पन्न कहा गया है। * पुराणों के अनुसार वह क्षत्रिय था। अवंति की विजय शिशुनाग के लिए लाभदायक सिद्ध हुई। इससे मगध साम्राज्य की पश्चिमी सीमा मालवा तक पहुंच गई। “इस विजय के पश्चात शिशुनाग का वत्स के ऊपर भी अधिकार क हो गया, क्योंकि वह अवंति के अधीन था। *अवंति और वत्स पर अधिकार हो उ जाने से पश्चिमी विश्व के साथ पाटलिपुत्र को व्यापार-वाणिज्य के लिए एक प नया मार्ग प्राप्त हो गया। * शिशुनाग ने गिरिव्रज के अतिरिक्त वैशाली नगर को अ अपनी दूसरी राजधानी बनाई थी, जो बाद में उसकी प्रधान राजधानी बन गई। व * शिशुनाग ने लगभग 412-394 ई.पू. तक शासन किया। *महावंश के अनुसार, वा शिशुनाग की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र कालाशोक राजा बना। पुराणों में त कालाशोक को ‘काकवर्ण’ कहा गया है। कालाशोक ने अपनी राजधानी पुनः अ पाटलिपुत्र स्थानांतरित कर दिया। इसके शासनकाल में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन वैशाली में हुआ। *इस संगीति में बौद्ध संघ दो संप्रदायों स्थविर ने तथा महासंधिक में विभाजित हो गए। * बाणभट्ट के हर्षचरित से ज्ञात होता च है कि राजधानी के समीप घूमते किसी व्यक्ति ने कालाशोक की हत्या कर दी। सं * महाबोधि वंश के अनुसार, कालाशोक के 10 पुत्रों ने सम्मिलित रूप से लगभग द्वा 22 वर्षों तक शासन किया। कालाशोक के उत्तराधिकारियों का शासन 344 क ई.पू. के लगभग समाप्त हो गया।
* शिशुनाग वंश का अंत कर नंद वंश की स्थापना जिस व्यक्ति ने की, चंद्र वह निम्न वर्ण से संबंधित था। विभिन्न ग्रंथों में उसका नाम भिन्न-भिन्न दिया अं B-86
में उसे ‘महापद्म’ जबकि महाबोधि वंश में उसे
पुराणों के अनुसार, महापद्मनंद शिशुनाग देश के
महानदिन की शुद्र के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। जैन परि नापित (भाई) पिता और वेश्या माता का पुत्र था। होने के कारण उन्हें नवनंद’ कहा जाता है। महा के अनुसार, इनके नाम है-उग्रसेन, पण्डुक, पण्डुगति, भूतपाल, गोविषाणक, दशसिद्धक, घनानंद
महापद्म नंद (उग्रसेन) 344-321
(344-321 ई.पू.) तथा उसके आठ पुत्र
*महापद्मनंद को ‘कलि का अंश’ सभी क्षत्रियों का नाश वाला, ‘दूसरे परशुराम का अवतार’ कहा गया। की स्थापना की तथा ‘एकराट्’ की उपाधि ग्रहण की। इसके उन्मूलित राजवंशों के जो नाम मिलते हैं, वे है-इक्ष्वाकु, कालग पांचाल, काय, कुरु, मैथिल, शूरसेन, वीतिहोत्रा मत्स्यपुरा अनुसार, इक्ष्वाकु ने चौबीस वर्ष, कलिंग ने बत्तीस वर्ष, अश्मक ने वर्ष, पांचाल ने सत्ताइस वर्ष, काशी ने चौबीस वर्ष, हैहय ने वर्ग, कुरु ने छत्तीस वर्ष, मैथिल ने अट्ठाइस वर्ष, शूरसेन ने तेईस तथा वीतिहोत्र ने बीस वर्ष तक शासन किया। * खारवेल के हाथी अभिलेख से उसके कलिंग विजय की सूचना प्राप्त होती है। *नंद वंश अंतिम राजा धनानंद था, जो सिकंदर का समकालीन था। * यूनानी लेख ने उसे ‘अग्रमीज’ (उग्रसेन का पुत्र) कहा है। जेनोफोन ने इसे धनाढ्य व्यक्ति बताया है। *तमिल और सिंहली ग्रंथों से भी उसकी जा संपत्ति की सूचना मिलती है। *भद्दशाल उसका सेनापति था। घ द्वारा जनता से बलपूर्वक धन वसूलने तथा छोटी-छोटी वस्तुओं पर कर लगाने के कारण जनता इसके विरुद्ध हो गई और चारों ओर कृ एवं असंतोष का वातावरण व्याप्त हो गया। * इस स्थिति का लाभ उठाक चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य के सहयोग से धनानंद की हत्या कर नंद वंशा अंत कर दिया। व्याकरणाचार्य पाणिनि महापद्मनंद के मित्र थे। * * उसने एकछत्र प्र
उपवर्ष, वररुचि, कात्यायन जैसे विद्वानों का जन्म नंद काल में ही हुआ था। *नंद शासक जैन मत के पोषक थे। * कल्पक नामक व्यक्ति जैन था, इसकी सहायता से महापद्मनंद ने समस्त क्षत्रियों का विनाश कर डाला था। *धनानंद के जैन अमात्य शकटाल तथा स्थूलभद्र थे। *मुद्राराक्षस से भी नंदों के जैन मतानुयायी होने की सूचना मिलती है।
दो अन्य रचनाओं का भी उल्लेख प्राप्त होता है- (1) व ‘तथा सोमदेव कृत ‘कथासरित्सागर’ देवीचंद्रगुप्तम् तथा (2) अभिसारिका वंचितक या अभिसारिका बघितक में (अप्राप्य)। क्षेमेंद्र कृत ‘बृहत्कथामंजरी’ चंद्रगुप्त के शूद्र उत्पत्ति के विषय में विवरण मिलता है। बौद्ध ग्रंथ महाबोधिवंश के अनुसार, चंद्रगुप्त राजकुल से संबंधित था तथा वह मोरिय नगर में उत्पन्न हुआ था। हेमचंद्र के परिशिष्टपर्वन में चंद्रगुप्त को मयूर पोषकों के ग्राम के मुखिया के पुत्री का पुत्र बताया गया है।
* विलियम जोंस पहले विद्वान थे, जिन्होंने ‘सैड्रोकोट्स’ की पहचान मौर्य शासक चंद्रगुप्त मौर्य से की। *एरियन तथा प्लूटार्क ने चंद्रगुप्त मौर्य को एंड्रोकोट्स के रूप में वर्णित किया है। जस्टिन ने ‘सैंड्रोकोट्स’ (चंद्रगुप्त मौर्य) और सिकंदर महान की भेंट का उल्लेख किया है। ऋषि चणक ने अपने पुत्र का नाम चाणक्य रखा था। अर्थशास्त्र’ के
लेखक के रूप में इसी पुस्तक में उल्लिखित ‘कौटिल्य’ तथा एक पद्यखंड में उल्लिखित ‘विष्णुगुप्त’ नाम की साम्यता चाणक्य से की जाती है। पुराणों में उसे ‘द्विजर्षम’ (श्रेष्ठ ब्राह्मण) कहा गया है। कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा मौर्य 1 में रचित अर्थशास्त्र, शासन के सिद्धांतों की पुस्तक है। इसमें राज्य काल के सप्तांग सिद्धांत राजा, आमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दंड एवं मित्र की व्याख्या मिलती है। कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है अपितु * राजनीति शास्त्र का एक अद्वितीय ग्रंथ है। इसकी तुलना ‘मैक्यावेली’ के ‘प्रिंस’ से की जाती है।
*चंद्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत की विजय प्राप्त की थी। *जैन एवं तमिल साक्ष्य भी चंद्रगुप्त मौर्य की दक्षिण विजय की पुष्टि करते हैं। नेतृत्व *राजनैतिक तौर पर समस्त भारत का एकीकरण चंद्रगुप्त मौर्य के में संभव हुआ। *प्रारंभिक विजयों के फलस्वरूप चंद्रगुप्त का साम्राज्य व्यास नदी से लेकर सिंधु नदी तक के प्रदेश पर हो गया। * रुद्रदामन के अभिलेख से पश्चिमी भारत पर उसका अधिकार प्रमाणित होता है। जैन ग्रंथों के अनुसार, सौराष्ट्र के साथ-साथ अवंति पर भी चंद्रगुप्त मौर्य का • अधिकार था। *उसकी मृत्यु के समय उसके साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में हिंदुकुश पर्वत से पूरव में बंगाल की खाड़ी तक तथा उत्तर में हिमालय की श्रृंखलाओं से दक्षिण में मैसूर तक था।
*150 ई. के रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख में आनर्त और सौराष्ट्र (गुजरात) प्रदेश में चंद्रगुप्त मौर्य के प्रांतीय राज्यपाल ‘पुष्यगुप्त’ द्वारा सिंचाई के बंध के निर्माण का उल्लेख मिलता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि पश्चिम भारत का यह भाग मौर्य साम्राज्य में शामिल था। *चंद्रगुप्त मौर्य ने सिकंदर के साम्राज्य के पूर्वी भाग के शासक सेल्यूकस की आक्रमणकारी सेना को 305 ई.पू. में परास्त किया था।
* यूनानी लेखकों ने बिंदुसार को अमित्रोकेडीज कहा है। विद्वानों के अनुसार अमित्रोकेडीज का संस्कृत रूप है अमित्रघात (शत्रुओं का नाश करने वाला)। *जैन ग्रंथ उसे ‘सिंहसेन’ कहते हैं। *जैन ग्रंथ में बिंदुसार की माता
का नाम ‘दुर्धरा’ मिलता है। दिव्यावदान के अनुसार, बिंदुसार के समय में राक्षशिला में विद्रोह हुआ था, जिसको दबाने के लिए उसने अपने पुत्र अशोक को भेजा था। *स्ट्रैबो के अनुसार, बिंदुसार के समय में मिस्र के राजा एटियोक्स ने डाइमेक्स नामक राजदूत भेजा। • प्लिनी के अनुसार, मौर्य राजदरबार में मिस्र के राजा टालमी द्वितीय फिलाडेल्फस ने डायनोसिस नामक राजदूत भेजा। *विदुसार ने सीरिया के शासक एटियोकस से तीन वस्तुओं की मांग की। *ये वस्तुएं थीं मीठी मंदिरा, सूखी अंजीर तथा दार्शनिका एटियोकस ने दार्शनिक को छोड़कर शेष सभी वस्तुएं बिंदुसार के पास भेजवा दिया। *बौद्ध साक्ष्यों के अनुसार, अशोक अपने पिता के शासनकाल में अवंति (उज्जयिनी) का उपराजा (वायसराय) था। *असम और सुदूर दक्षिण को छोड़कर संपूर्ण भारतवर्ष अशोक के साम्राज्य के अंतर्गत था। *अशोक ने अपनी प्रजा के विशाल समूह को ध्यान में रखकर ही एक ऐसे व्यावहारिक ‘धम्म’ का प्रतिपादन किया, जिसका पालन आसानी से सभी कर सकें। सहिष्णुता, उदारता एवं करुणा उसके त्रिविध आयाम थे। * अशोक 273 ई.पू. के लगभग मगध का राजा बना तथा लगभग 4 वर्ष बाद 269 ई.पू. में उसका राज्याभिषेक हुआ था। उसके अभिलेखों में सर्वत्र उसे ‘देवनामपिय’, ‘देवानांपियदसि’ कहा गया है जिसका अर्थ है-देवताओं
का प्रिय या देखने में सुंदर पुराणों में उसे ‘अशोकवर्द्धन’ कहा गया है। दशरथ भी अशोक की तरह ‘देवानामपिय’ की उपाधि धारण करता था। * सिंहली अनुश्रुतियों-दीपवंश तथा महावंश के अनुसार, अशोक के राज्यकाल में ‘पाटलिपुत्र’ में बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति हुई । * इसकी
अध्यक्षता ‘मोग्गलिपुत्त तिस्स’ नामक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु ने की थी। * दीपवंश एवं महावंश के अनुसार, अशोक को उसके शासन के चौथे वर्ष ‘निग्रोध’ नामक भिक्षु ने बौद्ध मत में दीक्षित किया। तत्पश्चात मोग्गलिपुत्त तिस्स के प्रभाव में वह पूर्णरूपेण बौद्ध हो गया। *दिव्यावदान के अनुसार, अशोक को उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु ने बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। * मौर्य शासकों में अशोक और उसका पौत्र दशरथ बौद्ध धर्म के अनुयायी थे।
* अशोक के अभिलेखों में ‘रज्जुक’ नामक अधिकारी का उल्लेख मिलता है। * रज्जुकों की स्थिति आधुनिक जिलाधिकारी जैसी थी, जिसे राजस्व तथा न्याय दोनों क्षेत्रों में अधिकार प्राप्त थे। * अग्रोनोमोई जिले के अधिकारी को कहा जाता था। * मौर्यकाल में व्यापारिक काफिलों (कारवां) के मुखिया को सार्थवाह की संज्ञा दी गई थी। *बौद्ध धर्म ग्रहण करने के उपरांत अशोक ने आखेट तथा विहार यात्राएं रोक दी तथा उनके स्थान पर धर्म यात्राएं प्रारंभ की। *राज्याभिषेक के 10 वर्ष बाद (आठवां शिलालेख) संबोधि (बोध गया) तथा 20 वर्ष बाद (रुम्मिनदेई अभिलेख) रुम्मिनदेई गया तथा उनकी पूजा की। इतिहासकार विसेट आर्थर स्मिथ ने अपनी पुस्तक इंडियन लीजेंड ऑफ अशोक में साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर उपगुप्त के साथ अशोक की धम्म यात्राओं का क्रम इस प्रकार दिया है-लुम्बिनी, कपिलवस्तु, बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर और श्रावस्ती। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के दसवें
वर्ष बोधगया की यात्रा की। बीसवें वर्ष लुम्बिनी की यात्रा की तथा वहाँ एक शिलास्तंभ स्थापित किया। बुद्ध की जन्मभूमि होने के कारण लुम्बिनी ग्राम का भोग कर माफ कर दिया तथा भू-राजस्व 1/6 से घटाकर 1/8 कर दिया। *कालसी, गिरनार और मेरठ के अभिलेख ब्राह्मी लिपि में है। “अशोक का इतिहास हमे मुख्यतः उसके अभिलेखों से ही ज्ञात होता.
है। उसके अभिलेखों का विभाजन 3 वर्गों में किया जा सकता है- (1) शिलालेख, (2) स्तंभलेख तथा (3) गुहालेख। शिलालेख 14 विभिन्न लेखों का एक समूह है, जो आठ भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त किए गए हैं। ये स्थान है-( 1 ) शाहबाजगढ़ी, (2) मानसेहरा, (3) कालसी, (4) गिरनार, (5) धौली, (6) जौगढ़, (7) एर्रागुडी तथा (8) सोपारा। *अशोक के अधिकांश अभिलेख प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी लिपि में लिखे गए है, केवल दो अभिलेखों- शाहबाजगढ़ी एवं मानसेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है। *तक्षशिला से आरमेइक लिपि में लिखा गया एक मग्न अभिलेख, शरेकुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमेइक लिपियों में लिखा गया द्विभाषीय यूनानी एवं सीरियाई भाषा अभिलेख तथा लंघमान नामक स्थान से आरमेइक लिपि में लिखा गया अशोक का अभिलेख प्राप्त हुआ है। ब्राह्मी लिपि का प्रथम उद्ववाचन पत्थर की पट्टियों (शिलालेखों) पर उत्कीर्ण अक्षरों से किया गया था। * इस कार्य को संपादित करने वाले प्रथम विद्वान सर ‘जेम्स प्रिंसेप’ थे जिन्होंने अशोक के अभिलेखों को पढ़ने का श्रेय हासिल किया। डी. आर. भंडारकर ने मात्र अभिलेखों के आधार पर अशोक का इतिहास लिखने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। प्राक् अशोक ब्राह्मी लिपि का पता श्रीलंका स्थित अनुराधापुर से चला। कुछ और स्थानों के अभिलेखों से इस प्रकार की लिपि का साक्ष्य मिला है, जिनके नाम इस प्रकार हैं-पिपरहवां, सोहगौरा और महास्थान।। *प्राचीन भारत में खरोष्ठी लिपि दाएं से बाएं लिखी जाती थी। * इसे पढ़ने का श्रेय मैसन, प्रिंसेप, नोरिस, लैसेन, कनिंघम आदि विद्वानों को है। * यह मुख्यतः उत्तर-पश्चिम भारत की लिपि थी। *अशोक का नामोल्लेख करने वाला गुजर्रा लघु शिलालेख मध्य प्रदेश के दतिया जिले में स्थित है। * मास्की,
नेत्तूर एवं उडेगोलम के लेखों में भी अशोक का व्यक्तिगत नाम मिलता है। * भाजू (बैराट) स्तंभ लेख में अशोक ने स्वयं को मगध का सम्राट बताया है। * यही अभिलेख अशोक को बौद्ध धर्मावलंबी प्रमाणित करता है। * अशोक के प्रथम शिलालेख में पशु बलि निषेध के संदर्भ में लेख इस प्रकार
है- “यहां कोई जीव मारकर बलि न दिया जाए और न कोई उत्सव किया जाए। *पहले ‘प्रियदर्शी राजा की पाकशाला में प्रतिदिन सैकड़ों जीव मांस के लिए मारे जाते थे, लेकिन अब इस अभिलेख के लिखे जाने तक सिर्फ तीन पशु प्रतिदिन मारे जाते हैं- दो मोर एवं एक मृग, इसमें भी मृग हमेशा नहीं मारा जाता। *ये तीनों भी भविष्य में नहीं मारे जाएंगे। *” पांचवें स्तंभ लेख में भी अशोक द्वारा राज्याभिषेक के 26वें वर्ष बाद विभिन्न प्रकार के
प्राणियों के वध को वर्जित करने का स्पष्ट उल्लेख है।
* अशोक के राज्यकाल की पहली बड़ी घटना कलिंग युद्ध और इसमें अशोक की विजय थी। *अशोक के तेरहवें (XIII) शिलालेख से इस युद्ध
के के संदर्भ में स्पष्ट साक्ष्य मिलते है। यह घटना अशोक के 8 वर्ष बाद अर्थात 261 ई. पू. में घटित हुई। कलिंग युद्ध से हुई पीड़ा पर अपना दुःख और पश्चाताप व्यक्त * अशोक के दीर्घ शिलालेख XII में सभी संप्रदायों के सार की की कामना की गई है तथा धार्मिक सहिष्णुता हेतु पालनीय गए हैं। * अशोक के दूसरे (II) एवं तेरहवें (XIII) शिलालेख , उपाय, राज्यों पाण्ड्य सतियपुत्त एवं केरलयुक्त सहित सूचना मिलती है। *भीर्य शासक अशोक के तेरहवे शिलालेख होता है कि अशोक के पांच यवन राजाओं के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध अंतियोक (एंटियोकस-II थियोस- सीरिया का शासक) तुरमय या मेसीडोनिया या मकदूनिया का राजा), मग (साइरीन का शासक) सुंदर (एलेक्जेंडर – एपाइरस या एपीरस का राजा)। * इस / शासनक शिलालेख कर सं
गोरखपुर जिले से प्राप्त सोहगौरा ताम्रपत्र अभिलेख के बोगरा जिले से प्राप्त महास्थान अभिलेख की रचना अशोककालीन भाषा में हुई और उन्हें ईसा पूर्व तीसरी सदी की ब्राह्मी लिपि में लिखा * ये अभिलेख अकाल के समय किए जाने वाले * इस अकाल की पुष्टि जैन खोतों से होती है। राहत कार्यों के कि हो के
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मौर्य साम्राज्य
मौर्य कौन थे ?
स्पूनर के अनुसार मौर्य पारसीक थे, क्योंकि अनेक मौर्यकालीन प्रथाएं पारसीक प्रथाओं से मिलती-जुलती हैं.
ब्राह्मण साहित्य, विष्णु पुराण, मुद्रा राक्षस, कथा सरित सागर, वृहत्कथा मंजरी के अनुसार मौर्य शूद्र थे.
बौद्ध परम्पराओं के अनुसार मौर्य क्षत्रिय थे तथा गोरखपुर क्षेत्र के निवासी थे. ग्रीक लेखक जस्टिन तथा जैन परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त निम्न जाति का था. महावंश टीका के अनुसार वह क्षत्रिय था. चाणक्य के अर्थशास्त्र में एक स्थान पर लिखा है कि वह शूद्र नंदवंश का विनाश करना चाहता था. अतः वह स्वयं एक शूद्र को शासक नहीं बना सकता था. अतः वह ‘मोरेय’ नामक क्षत्रिय कुल का था. डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी भी इसका समर्थन करते हैं.
मौर्य काल
मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य था। चन्द्रगुप्त ने कौटिल्य की सहायता से मगध के नन्द वंशी शासक धनानन्द को पराजित कर मगध पर अधिकार कर लिया था।
धनानन्द के विरुद्ध चन्द्रगुप्त की पर्वतक नामक राजा ने सहायता की थी।
305 ई.पू. में सिन्धु नदी के किनारे ग्रीक क्षत्रप सेल्यूकस निकेटर और चन्द्रगुप्त के बीच युद्ध हुआ।
युद्ध के बाद हुई सन्धि के अनुसार सेल्यू अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया।
सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को एरिया, अराकोसिया, पेरिपेनिसदई तथा जेड्रोसिया सौंप दिया। चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी दिए।
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रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से चन्द्रगुप्त की पश्चिमी भारत की विजय का पता चलता है, जहाँ उसने पुष्यगुप्त को गवर्नर नियुक्त किया, जिसने सुदर्शन झील का निर्माण कराया।
चन्द्रगुप्त अपने शासनकाल के अन्तिम समय में जैन साधु भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला चला गया, जहाँ चन्द्रगिरि पर्वत पर तपस्या करके पद्धति से अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी। स्ट्रेबो एरियन एवं जस्टिन ने चन्द्रगुप्त को सैण्ड्रोकोटस तथा एप्ि एवं प्लूटार्क ने एण्ड्रोकोटस कहा है। सर्वप्रथम सर विलियम जोन्सने नामों का समीकरण चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ किया। यूनानी लेखकों ने बिन्दुसार को अमित्रचेट्स या अमित्रघात कहा है, अर्थ है शत्रुओं का नाश करने वाला। इसका अन्य नाम सिंहसेन एवं भद्रसार भी था।
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सीरिया के शासक एण्टियोकस प्रथम ने अपने दूत डायमेक्स को तथा मिस्र के शासक टॉलेमी द्वितीय ने डायनिसस को बिन्दुसार के दरवार में भेजा था।
बिन्दुसार ने सीरिया के शासक से शराब, मीठा अंजीर तथा दार्शनिक की भाँग की थी। इनमें दार्शनिक नहीं भेजा गया था। अशोक को उसके अभिलेखों में सामान्यतः देवानांप्रिय कहकर सम्बोधित
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किया गया है। भाबू शिलालेख में अशोक ने अपने को ‘बुद्धशाक्य तथा गौतम बुद्ध को ‘भगवान’ कहकर सम्बोधित किया है।
प्रयाग स्तम्भ लेख में अशोक की पत्नी कारुवाकी तथा पुत्र तीवर का उल्लेख मिलता है।
इस स्तम्म अभिलेख पर समुद्रगुप्त और जहाँगीर के अभिलेख भी मिलते हैं।
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 9वें वर्ष (261 ई. पू.) में कलिंग विजय की, जिसका उल्लेख उसके 13वें शिलालेख में मिलता है। राजतरंगिणी के अनुसार अशोक ने कश्मीर में श्रीनगर तथा नेपाल में
देवपत्तन नामक नगर बसाया। दूसरे शिलालेख से पता चलता है कि बोल, चेर, पाण्ड्य तथा सतीयपुत्र उसकी राज्य की सीमा से बाहर थे।
अशोक ने अपने बड़े भाई सुमन के पुत्र निग्रोध के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म अपना लिया। अन्य मत के अनुसार ऐसा उसने मोगलिपुत्त तिस्स के प्रभाव में किया।
अशोक ने शासन के 10वें वर्ष बोधगया, 12वें वर्ष निगालीसागर तथा 20वें वर्ष लुम्बिनी की यात्रा की। लुम्बिनी में धार्मिक कर को माफ कर दिया तथा भूमिकर घटाकर 1/8 भाग कर दिया।
अशोक के धम्म की परिभाषा राहुलोवादसुत्त से ली गई है। अशोक के अभिलेख ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरमाइक एवं यूनानी में प्राप्त होते हैं। अशोक का शहबाजगढ़ी एवं मनसेहरा अभिलेख खरोष्ठी लिपि में तथा तक्षशिला एवं लधमान (काबुल) अभिलेख अरमाइक लिपि में है। शर-ए-कुना (कन्धार) अभिलेख अरमाइक एवं यूनानी भाषा में है।
प्रथम पृथक शिलालेख (धौली) में अशोक सभी मनुष्यों को अपनी सन्तान बताता है। साँची, कौशाम्बी और सारनाथ लघु स्तम्भलेख में संघ में फूट • डालने के विरुद्ध आदेश है।
अशोक ने बराबर की पहाड़ियों में आजीवक संन्यासियों के लिए सुदामा गुफा, कर्ण चौपड़ तथा विश्व झोपड़ी का निर्माण करवाया।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजनीति विषय पर लिखी गई पुस्तक है।
अर्थशास्त्र में सबसे उच्च अधिकारियों को तीर्थ कहा गया है, जिनकी संख्या 18 थी।
इसके अतिरिक्त 26 अध्यक्षों की भी चर्चा मिलती है।
मौर्यकाल में दीवानी न्यायालय धर्मस्थीय तथा फौजदारी न्यायालय कण्टकशोधन कहलाते थे। गुप्तचरों को गूढपुरुष तथा इसके प्रमुख अधिकारी को सर्पमहामात्य कहा गया है। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों-संस्था एवं संचार का वर्णन है।
कृषि योग्य भूमि पर उपज का एक-चौथाई (1/4) या छठा भाग ( 1/6) भूराजस्व या लगान के रूप में वसूल किया जाता था। राजकीय भूमि सीता कहलाती थी तथा इस पर उत्पादन कार्य के लिए सीताध्यक्ष नामक अधिकारी को नियुक्त किया जाता था। बिना वर्षा की खेती वाली भूमि को अदेवमातृक कहा जाता था।
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इस काल में ताम्रलिप्ति पूर्वी तट का महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था। पश्चिमी तट पर भड़ौच तथा सोपारा प्रमुख बन्दरगाह थे।
मेगास्थनीज के अनुसार, भारतीय समाज सात जातियों में विभाजित था-
दार्शनिक, किसान, शिकारी एवं पशुपालक, शिल्पी एवं कारीगर, योद्धा, निरीक्षक एवं गुप्तचर तथा अमात्य एवं सभासद।
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कौटिल्य ने नौ प्रकार के दासों की चर्चा की है, जबकि मेगास्थनीज के अनुसार भारत में दास प्रथा प्रचलित नहीं थी। स्वतन्त्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियाँ ‘रूपाजीवा’ कहलाती थीं, जिनसे राज्य को आय होती थी।
– मेगास्थनीज ने धार्मिक व्यवस्था में डायोनिसस एवं हेराक्लीज की चर्चा की है. जिसकी पहचान क्रमशः शिव और कृष्ण से की गई है।
मौर्योत्तर काल
हाल प्राकृत भाषा में गाथा सप्तशती नामक पुस्तक की रचना की, जिसमें उसको प्रेमगाथाओं का वर्णन है। गोरानी कली के मासिक अभिलेख के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णी के घोड़े तीनों समुद्रों का पानी पीते थे। इसने शक शासक महपान को पराजित किया था। सातवाहन शासक वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी, शक शासक रुद्रदामन से दो बार पराजित हुआ। पुलुमावी को दक्षिणापलेश्वर भी कहा गया है। यहश्री शातकर्णी के सिक्के पर नाव का चित्र अंकित है।
इसवाकु वंश का संस्थापक श्री शान्तमूल था, जिसने अश्वमेध यज्ञ किया था। जैन लोगों को ग्राम दान में दिए जाने का उल्लेख हाथीगुम्फा अभिलेख से प्राप्त होता है। इस अभिलेख के अनुसार खारवेल ने दक्षिण के तीन राज्यों-चोल चेर एवं पाण्ड्य को पराजित किया था।
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सबसे पहला यवन आक्रमणकारी डेमेट्रियस प्रथम था, जिसने पंजाब के एक बड़े भाग को जीतकर साकल को अपनी राजधानी बनाया। डेमेट्रियस ने भारतीय राजाओं की उपाधि धारण की और यूनानी तथा खरोष्ठी दोनों लिपियों वाले सिक्के चलाए।
मिनाण्डर एक महत्त्वपूर्ण इण्डो-ग्रीक शासक था, जो बौद्ध भिक्षु नागसेन के प्रमाद में बौद्ध हो गया था। नागसेन के साथ वाद-विवाद की चर्चा मिलिन्दपन्हो में संकलित है।
सर्वप्रथम हिन्द-यवन शासकों ने ही भारत में सोने के सिक्के चलाए। सिक्कों पर पहले यूनानी लिपि तथा बाद में खरोष्ठी एवं ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया। उज्जैन के शकों में रुद्रदामन सबसे प्रसिद्ध था, इसका जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत का पहला बड़ा अभिलेख है।
इसमें चन्द्रगुप्त मौर्य एवं अशोक के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है। जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि इस समय यहाँ के राज्यपाल सुविशाख ने सुदर्शन झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवाया था।
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भारत में पार्थियन साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मिथेडेट्स प्रथम था तथा सबसे प्रसिद्ध शासक गोन्दोफर्निस था।
तख्तेबही अभिलेख, गोन्दोफर्निस से सम्बन्धित है. इसके शासनकाल में सेण्ट थॉमस ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए भारत आया था।
भारत का प्रथम कुषाण शासक कुजुल कडफिसस था, जिसने पश्चिमोत्तर प्रदेश पर आक्रमण कर ताँबे के सिक्के चलवाए।
विम कडफिसस को भारत में कुषाण शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
कनिष्क सर्वाधिक विख्यात कुषाण शासक था, जिसने 78 ई. में एक सम्वत् चलाया, जो शक संवत् कहलाता है। कनिष्क ने कश्मीर को जीतकर वहाँ कनिष्कपुर नामक नगर बसाया। इसे द्वितीय अशोक भी कहा जाता है। कनिष्क के समय कुण्डलवन (कश्मीर) में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन
हुआ, जिसमें बौद्ध धर्म हीनयान एवं महायान में विभाजित हो गया।
संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र तथा उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। सातवाहनों ने शीशे के सिक्के चलवाए। सातवाहन वंश का सबसे महान् शासक गौतमी पुत्रा कनिष्क कला एवं संस्कृत साहित्य का महान संरक्षक था। इसके दरका पार्श्वे, वसुमित्र, अश्वघोष, नागार्जुन तथा चरक विद्यमान वनस्पतिशास्त्र एवं रसायनशास्त्र का विवेचन क्रमशः रक नागार्जुन ने किया है।
कुषाणों की राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) एवं मथुरा थी। पेशावर से क ने एक मठ और विशाल स्तूप का निर्माण कराया था। कुषाणों ने सर्वाधिक शुद्ध स्वर्ण सिक्के जारी किए। इन्हें सिक्के चलाने का श्रेय भी प्राप्त है। कनिष्क के विपर मिलता है।
पतंजलि के अनुसार मथुरा में शाटक नामक एक विशेष वस्त्रका होता था। उरैयूर एवं अरिकामेडु से ईंटों के बने रंगाई के प्राप्त • ईसा की पहली सदी में हिप्पोलस नामक ग्रीक नाविक द्वारा मानसून खोज से मौर्योत्तरकालीन व्यापार को काफी बल मिला।
रोमन वस्तुएँ बंगाल के तामलुक, पाण्डिचेरी के निकट अरि दक्षिण भारत के कई स्थानों से खुदाई में मिली हैं। \
अरिकामे कर में पेडूक कहा गया है। आन्ध्र प्रदेश में नागार्जुनकोण्डा और अमरावती बौद्ध कला के महान केन्द्र थे।
बौद्ध धर्म से सम्बन्धित सबसे पुराने पट्टचित्र गया, सोची और म में पाए गए हैं।
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बुद्धचरित, सौन्दरानन्द, कामसूत्र, स्वप्नवासवदत्ता, विभाष माध्यमिक सूत्र इस काल की प्रमुख रचनाएं है। इस काल में यूनानियों के सम्पर्क से खगोल और ज्योतिषशास्त्र के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई।
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शकों और कुषाणों ने पगड़ी, ट्यूनिक (कुरती), पजामा और भारी त कोट चलाए, इन्होंने बड़े पैमाने पर उत्तम अश्वारोही सेना और की परम्परा चलाई।
मौर्यवंशीय इतिहास के स्रोत
(1) कौटिल्य का अर्थशास्त्र,
(2) विशाखदत्त का मुद्राराक्षस,
(3) अभिलेख,
(4) ब्राह्मण साहित्य,
(5) जैन साहित्य,
(6) बौद्ध साहित्य,
(7) कलावशेष,
(8) यूनानी लेखकों के वृत्तांत.
चन्द्रगुप्त मौर्य
चन्द्रगुप्त भारतीय इतिहास में पहला महान् सम्राट था. उसने अपने गुरु एवं मंत्री विष्णुगुप्त जिसे इतिहास में चाणक्य के नाम से जाना जाता है की सहायता से भारत को यूनानी शक्तियों से मुक्त कराया. इसके पश्चात् मगध के नंदवंशीय राजा धनानन्द को सिंहासन से उतारकर मगध राज्य छीन लिया. 305 ई.पू. में सीरिया के यूनानी शासक सेल्यूकस को पराजित कर संधि के लिए मजबूर किया. संधि की शर्तें निम्न- लिखित थीं-
(1) संधि के अनुसार सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को एरिया (हिरात), परोपनिसदी (काबुल), अराकोशिया (कंदहार), जेड्रोशिया (बलूचिस्तान) चार प्रान्त दे दिए..
(2) सेल्यूकस की पुत्री हेलन से चन्द्रगुप्त मौर्य का विवाह सम्पन्न हुआ.
(3) सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त के दरबार में मैगस्थनीज को राजदूत के रूप में भेजा,
(4) चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस को उपहार स्वरूप 500 हाथी प्रदान किए. चन्द्रगुप्त मौर्य की विजयें
(1) पंजाब विजय, (2) मगध विजय, (3) मल्यकेतु के विद्रोह का दमन, (4) सेल्युकस पर विजय, (5) पश्चिमी भारत की विजय, (6) दक्षिण भारत की विजय.
साम्राज्य विस्तार चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक विस्तृत राज्य की स्थापना की थी. उसने उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मैसूर, पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर-पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत तथा पश्चिम में अरब सागर तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया. पाटलिपुत्र उसकी राजधानी थी. अन्तिम दिन बौद्ध साहित्य के अनुसार मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग 24 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन किया. जैन साहित्य के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम दिनों में चन्द्रगुप्त मौर्य ने राजकाज अपने पुत्र को सौंप दिया और जैन धर्म स्वीकार कर जैन भिक्षु भद्रबाहु के साथ मैसूर चला गया. वहीं सन्यासियों का जीवन व्यतीत करते हुए 298 ई.पू. के लगभग उसकी मृत्यु हो गई. शासन प्रबन्ध
(1) केन्द्रीय शासन (2) प्रांतीय शासन
(3) नगर शासन (4) ग्राम शासन
केन्द्रीय शासन
शासन प्रणाली राजतन्त्रात्मक थी. राजा समस्त शक्तियों का स्रोत था. यद्यपि उसकी शक्तियाँ एवं अधिकार असीमित थे, किन्तु फिर भी वह पूर्णरूपेण निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी नहीं बन सकता था. वह प्रधान सेनापति, प्रधान न्यायाधीश तथा प्रधान दण्डाधिकारी होता था.
मंत्रिपरिषद्
राजा की सहायता हेतु एक मंत्रिपरिषद् की व्यवस्था की गई थी. इसमें बारह से लेकर बीस तक मंत्री रहते थे. मंत्रिपरिषद् के प्रत्येक सदस्य को 12,000 पण वार्षिक वेतन दिया जाता था. मंत्री परिषद् का उस पर अंकुश रहता था. निर्णय बहुमत द्वारा लिए जाते थे. बैठकें गुप्त रूप से होती थीं. राजा मंत्रिपरिषद् के निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं था.
आमात्य मण्डल
केन्द्रीय शासन को सुविधा की दृष्टि से कई भागों में विभक्त कर दिया गया था. जिनको ‘तीर्थ’ कहा जाता था. प्रत्येक विभाग के अध्यक्ष को आमात्य कहा जाता था. कुल मिलाकर आमात्यों की संख्या अठारह थी. ये आमात्य निम्नलिखित थे- (1) पुरोहित, (2) मंत्री, (3) सेनाध्यक्ष, (4) दण्डपाल, (5) दौवारिक अर्थात् द्वारपाल, (6) युवराज, (7) दुर्गापाल, (8) अंतपाल 7 अर्थात् सीमारक्षाधिकारी, (9) अन्तःपुर रक्षाधिकारी (10) प्रशात्र अर्थात् कारागार का अधिकारी, (11) सन्निधात्री अर्थात् राजकोष अस्त्रागार तथा कोष्ठागार का अधिकारी (12) नायक अर्थात् नगर का रक्षक, (13) समाहर्ता अर्थात् राज्य की सम्पत्ति एवं आयुव्यय का अधिकारी (14) प्रदेष्टा (15) व्यावहारिक अर्थात् प्रधान न्यायाधीश (16) पौर अर्थात् कोतवाल, (17) मंत्री मण्डलाध्यक्ष (18) कार्मान्तरिक अर्थात् खान एवं कारखानों का अधिकारी. प्रांतीय शासन समस्त साम्राज्य को चार प्रान्तों में विभक्त कर दिया गया था, ये प्रान्त थे- पूर्वी प्रांत इसमें आधुनिक उत्तर-प्रदेश, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा सम्मिलित थे.
उत्तर पश्चिमी प्रांत वर्तमान पंजाब, सिंध, कश्मीर, बलूचिस्तान तथा अफगानिस्तान सम्मिलित थे.
पश्चिमी प्रांत
मालवा, गुजरात, काठियावाड़ तथा राजस्थान प्रदेश सम्मिलित थे. दक्षिणी प्रांत विन्ध्यांचल पर्वत से लेकर मैसूर तक के प्रदेश सम्मिलित थे.
नगर शासन
नगर का प्रधान नगराध्यक्ष कहलाता था. मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र की व्यवस्था का जो वर्णन किया उसके अनुसार नगर शासन में समितियों का महत्वपूर्ण योगदान था, इनकी संख्या 6 थी :
(1) शिल्पकला समिति, (2) वैदेशिक समिति, (3) जनसंख्या समिति, (4) वाणिज्य व्यवसाय समिति, (5) वस्तु निरीक्षक समिति, (6) कर समिति..
ग्राम शासन
ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी. ग्राम का मुखिया ‘ग्रामिक’ अथवा ग्रामिणी कहलाता था. प्रत्येक गाँव में एक सरकारी कर्मचारी होता था, जो ग्राम भोजक कहलाता था. 5 से 10 गाँवों की व्यवस्था ‘गोप’ नामक अधिकारी करता था. इसके ऊपर ‘स्थानिक’ होता था जो जनपद के चौथाई भाग का प्रबन्ध करता था. अर्थव्यवस्था भूमिकर भूमिकर उपज का 1/6 भाग अथवा 1/4 भाग लिया जाता था.
आय के साधन सेतुकर, वनकर, पशुकर, सीमा शुल्क, धर्मस्थल पर कर आदि आय के मुख्य साधन थे.
न्याय व्यवस्था
जनपद संधि इस न्यायालय में दो गाँव के आपसी झगड़ों का फैसला होता था. दोण मुख
चार सौ गांव के ऊपर यह न्यायालय होता था.
राजुक
राजुक जनपद के न्यायालय का न्याया- धीश होता था. व्यावहारिक महापात्र व्यावहारिक महामात्र नगर का न्याया- धीश होता था.
न्यायालय
रत न्यायालय दो प्रकार के होते थे- (1) धर्मस्थलीय न्यायालय इसमें दीवानी सम्बन्धी मामलों का निर्णय होता था, (2) कण्टक शोधन न्यायालय- इसमें फौजदारी सम्बन्धी मामलों का निर्णय होता था. सेना प्रबन्ध था
सेना का प्रबन्ध 6 भागों में विभक्त था. प्रत्येक विभाग का प्रबन्ध पाँच-पाँच सदस्यों की समिति के हाथ में रहता था. सेना के विभाग थे-
नौ-सेना विभाग
इस विभाग के अध्यक्ष को नवाध्यक्ष कहा जाता था.
मैगस्थनीज द्वारा वर्णित सात जातियाँ
मैगस्थनीज ने तत्कालीन भारतीय समाज अर्थात् चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में निम्नलिखित सात जातियों का विवरण दिया है-
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ब्राह्मण तथा दार्शनिक
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कृषक वर्ग
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ग्वाले तथा आखेटक शिल्पी,
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व्यापारी तथा श्रमजीव कारीगर एवं
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योद्धा अथवा सैनिक
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निरीक्षक तथा गुप्तचर
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मंत्री एवं परामर्शदाता, सभासद.. सैनिक यातायात विभाग
यह विभाग युद्धकाल में सैनिकों को ग्वा युद्ध हथियार, भोजन सामग्री पशुओं के लिए भेजने का प्रबन्ध करता है.
पैदल सेना विभाग
यह विभाग पैदल सेना सम्बन्धी प्रबन्ध करता था. अश्व सेना विभाग इस विभाग के अध्यक्ष को अश्वाध्यक्ष कहते थे हस्तिसेना विभाग इस विभाग के अध्यक्ष को हस्ताध्यक्ष कहते थे.
रथ सेना विभाग यह विभाग रथ सेना का प्रबन्ध करता था. इस विभाग के अध्यक्ष को रथाध्यक्ष कहते थे.
गुप्तचर प्रणाली
गुप्तचर प्रणाली अत्यन्त ही सुव्यवस्थित एवं संगठित थी. कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार गुप्तचरों के दो वर्ग थे
(1) संस्थान, (2) संचारण.
इस वर्ग के गुप्तचरों को कापटीक, गृहपतिक तापस, वैदेहक आदि नामों से पुकारा जाता था. ये एक ही स्थान पर रहते थे.
संचारण इस वर्ग के गुप्तचर ज्योतिष, साधु आदि के भेष में घूम-घूमकर गोपनीय सूचनाओं को सम्राट तक पहुँचाते थे. बिन्दुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बिन्दुसार ‘अमित्रघाक’ उपाधि धारण कर 297 ई.पू. में सिंहासन पर आसीन हुआ. यूनानी लेखकों ने उसे अमित्रोचेडस अलित्रोचेडस आदि नाम से पुकारा है. पिता से प्राप्त से प्राप्त साम्राज्य को बिन्दुसार ने सुव्यवस्थित एवं संगठित बनाए रखा, उसके दरबार में सेल्युकस के उत्तराधिकारी एण्टीको अस का दूत ‘डेईमेकस’ तथा मिस्र के शासक टोलेमी का दूत ‘डायोनीसियस’ रहता था. उसके काल में, तक्षशिला में विद्रोह हुआ था जिसका दमन अशोक ने किया था. कुछ विद्वानों का मत है कि दक्षिण भारत को बिन्दुसार ने ही विजित किया था, परन्तु अधिकांश विद्वान् इस मत से सहमत नहीं हैं. 272 ई. पू. में बिन्दुसार की मृत्यु हुई. इसके पश्चात् अशोक उसका उत्तराधिकारी बना
शासक मौर्यवंश शासनकाल
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चन्द्रगुप्त मौर्य
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बिन्दुसार
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अशोक
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अशोक के उत्तराधिकारी 332-185 ई.पू. जालौक, सम्प्रति, दशरथ बृहस्पति (शालि शूक)
अशोक
अशोक विश्व के महानतम् सम्राटों में से एक था 296 ई.पू. में वह सिंहासन पर आसीन हुआ उसके अभिलेखों में उसे ‘देवानाम्प्रिय’ तथा ‘प्रियदर्शी’ कहा गया है. कलिंग युद्ध इसके शासनकाल की महान् घटना थी. कलिंग युद्ध में भीषण नरसंहार देखकर अशोक द्रवित हो उठा. उसने प्रतिज्ञा की वह अब कभी युद्ध नहीं करेगा, उसने ब्राह्मण धर्म के स्थान पर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया उसने 232 ई.पू. तक शासन किया. बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया. लोक कल्याणकारी कार्य किए धर्म प्रचार के लिए अशोक ने निम्नलिखित उपाय किए-
(1) धम्म नीति का पालन किया.
(2) मठों का निर्माण तथा उनको उदारतापूर्वक अनुदान.
(3) धर्म यात्राएं.
(4) पशु-वध निषेध.
(5) धर्म महामात्रों की नियुक्ति.
(6) तीसरी बौद्ध संगीति का आयोजन.
(7) धर्म प्रचारकों द्वारा विदेश में प्रचार.
(8) दान व्यवस्था,
(9) शिलालेखों द्वारा धर्म प्रचार.
(10) लोक-कल्याणकारी कार्य.
(11) धार्मिक पथ प्रदर्शन.
(12) सत्य आचरण पर बल
अशोक के अभिलेख
अशोक के अभिलेखों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है-
(1) शिलालेख,
(2) स्तम्भ लेख
(3) गुहा लेख, बी. ए. स्मिथ के अनुसार इन लेखों को आठ भागों में बाँटा गया है- दो लघु शिलालेख
दोनों लघु शिलालेखों को 258 ई.पू. में खुदवाया गया था. प्रथम प्रकार के शिलालेख से अशोक के व्यक्तिगत जीवन की तथा द्वितीय प्रकार के शिलालेख से धर्म के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है. प्रथम प्रकार के शिलालेख सहसराम (बिहार), बैराट (राजस्थान), मस्की गवीमठ, पल्कीगुंडू चेरागुड़ी में तथा द्वितीय प्रकार का शिलालेख सिद्धपुर (मैसूर), जतिंग, रामेश्वर तथा ब्रह्मगिरि में पाया गया है. भट्ट शिलालेख
यह राजस्थान स्थित बैराट नामक स्थान से उपलब्ध हुआ है. इसमें अशोक के बौद्ध धर्म के अनुयायी होने का स्पष्ट प्रमाण है. चौदह शिलालेख इनमें तेरहवाँ शिलालेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. इसमें अशोक के हृदय परिवर्तन का उल्लेख मिलता है.
गुफा लेख
अंकित गुफा लेखों की संख्या तीन है. ये लेख बिहार स्थित गया के समीप ‘बराबर की पहाड़ियों में स्थित चार गुफाओं में से तीन की दीवारों पर अंकित हैं. इन लेखों से धार्मिक सहिष्णुता की जानकारी प्राप्त होती है. तराई स्तम्भ लेख इनकी संख्या दो है. ये लेख नेपाल की तराई में स्थित रूम्भिन देई’ तथा निग्लीवा में पाए गए हैं. इनसे ज्ञात होता है कि अशोक ने बुद्ध के जीवन सम्बन्धित पवित्र स्थानों की यात्रा की थी.
सात स्तम्भ लेख
ये लेख भारत के 6 स्थानों से प्राप्त हुए हैं-ये प्राप्त लेख हैं-
(1) दिल्ली टोपरा स्तम्भ लेख (2) मेरठ- दिल्ली स्तम्भ लेख (3) इलाहाबाद स्तम्भ लेख (4) लौरिया अरराज स्तम्भ लेख, (5) लौरिया-नंदनगढ़ स्तम्भ लेख (6) रामपुरवा स्तम्भ लेख. लघु स्तम्भ लेख
ये लेख एक प्रकार के राज्यादेश हैं. इनमें से दो सांची एवं सारनाथ के स्तम्भों पर खुदे हुए हैं तथा दो प्रयाग में हैं.
अशोक का धम्म- मूलभूत सिद्धान्त 1. संयम अथवा इन्द्रियों पर नियंत्रण 2. भावशुद्धि अथवा विचारों की पवित्रता 3. कृतज्ञता 4. दृढ भक्ति 5. दया 6. शौच अथवा पवित्रता 7. सत्य 8. सुश्रुता सेवा 9. दान
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सम्प्रत्तिपत्ति अथवा सहायता करना 11. अपिचित्ति अथवा आदर
सुशर्मा कण्व के सेनापति सिमुक ने 27 ई.पू. में सुशर्मा कण्व का वध कर सातवाहन वंश की नींव डाली. पुराणों के अनुसार सातवाहन और आंध्र एक ही थे. प्रारम्भ में वे दक्षिण के निवासी थे कुछ विद्वानों के अनुसार इनका मूल स्थान बेलोरी जिले के आसपास था. बाद में इन्होंने आंध्र प्रदेश को विजित किया. चूँकि उनका अपने मूल निवास पर से अधिकार समाप्त हो गया. अतः वे अपने को आंध्र कहने लगे. नासिक लेख से ज्ञात होता है कि ये लोग भी ब्राह्मण वंश के थे सिमुक, शातकर्णी, गोमती पुत्र शातकर्णी, वसिष्ठीपुत्र, पुलुमावी तथा यज्ञश्री शातकर्णी इस वंश के प्रमुख शासक हुए जिन्होंने लगभग 250 ई. तक शासन किया
अशोक की मृत्यु के पश्चात् मौर्य साम्राज्य में अनेक शासक हुए, किन्तु कोई भी शासक योग्य नहीं था परिणामस्वरूप मौर्य साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया. शुंग वंश पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य सम्राट ब्रहद्रथ की हत्या कर शुंग वंश की नींव डाली. पुष्यमित्र के शासनकाल की प्रमुख घटना विदर्भ से युद्ध था. विदर्भ के शासक यज्ञसेन ने युद्ध में पराजित होने के पश्चात् आत्मसमर्पण कर पुष्यमित्र की अधीनता स्वीकार कर ली. विदर्भ राज्य यज्ञसेन और माधवसेन को बाँट दिया गया. पुष्यमित्र ने अपने शासनकाल में यवनों के आक्रमण का सामना किया और उनको मध्य देश से निकालकर सिन्धु के किनारे तक खदेड़ दिया. अयोध्या अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने अपने शासनकाल में दो अश्वमेध यज्ञ किए तथा 36 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन किया. ब्राह्मण धर्म की उन्नति की. कला को संरक्षण प्रदान किया. साहित्य का विकास किया. रामायण, महाभारत, मनुस्मृति की रचना इसी काल में हुई. पुष्यमित्र के पश्चात् शुंग शासकों ने लगभग 75 वर्ष तक शासन किया.
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मौर्य साम्राज्य की स्थापना में विष्णुगुप्त अथवा चाणक्य, जोकि जाति से ब्राह्मण था, का अभूतपूर्व योगदान था. • चन्द्रगुप्त मौर्य को यूनानी लेखों में ‘सैण्ड्रोकोटस’ (Sandrocottus) कहा गया है.
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एपिअन और प्लूटार्क ने चन्द्रगुप्त मौर्य को ने ऐण्ड्रोकोटस (Androcottus) कहा है. • विशाखदत्तकृत मुद्रा राक्षस में चन्द्रगुप्त मौर्य को चन्द्रसिरि अथवा चन्द्रश्री कहा गया है. • बौद्ध साहित्य में महावंश टीका ग्रन्थ चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी पर सर्वाधिक प्रकाश डालता है,
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‘इण्डिका’ मैगस्थनीज द्वारा लिखी गयी थी. • बौद्ध साहित्य के महावंश ग्रन्थ में चन्द्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय जाति का बताया गया है. • युद्ध में पराजित होने के पश्चात् सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को गडरोसिया (बिलोचिस्तान). अंर्कोसिया (कन्धार), एरिया (हिरात) तथा हिंदुकुश का कुछ भाग प्रदान किया. • जूनागढ़ स्थित सुदर्शन झील का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य ने कराया था.
महास्थान अभिलेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का बंगाल पर आधिपत्य था.
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रुद्रदमन के गिरनार अभिलेख से प्रमाणित होता है कि सौराष्ट्र का प्रदेश चन्द्रगुप्त मौर्य के अधिकार में था. • जैन ग्रन्थों के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम दिनों में चन्द्रगुप्त मौर्य जैन धर्म स्वीकार कर जैन भिक्षु भद्रबाहु के साथ मैसूर चला गया था.
चन्द्रगुप्त मौर्य की साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मैसूर तक पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में हिरात, काबुल, कधार, बलूचिस्तान तक विस्तृत था, पंजाब, सिन्ध कश्मीर, गंगा-यमुना का दोआब, मगध, बंगाल, मालवा, सौराष्ट्र तथा दक्षिणी भारत में मैसूर का भू-भाग सम्मिलित था
चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन प्रणाली राज तन्त्रात्मक थी. शासनतन्त्र को सुचारु रूप से चलाने के लिए चन्द्रगुप्त ने एक मंत्रिपरिषद् नियुक्त की थी.
व्यापार सम्बन्धी करों को एकत्र करने वाले व्यक्ति को मौर्य काल में ‘शुल्काध्यक्ष’ कहा जाता था.
* मौर्य काल में न्यायालय मुख्यतः दो प्रकार के थे धर्मस्वी कंटकशोधना धर्मस्थीय ‘दीवानी’ तथा कटकशोधन ‘फौजदारी थे। * गुप्तचरों को अर्थशास्त्र में ‘गूढ़ पुरुष’ कहा गया है। * अर्थ दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख मिलता है- ‘संस्था’ अर्थात पर रहने वाले तथा ‘संचरा’ अर्थात प्रत्येक स्थान पर भ्रमण करने एक ही। (वा (वेश आव था,
*मेगस्थनीज की ‘इंडिका’ में पाटलिपुत्र के नगर प्रशासन क मिलता है। इसके अनुसार, पाटलिपुत्र नगर का प्रशासन 30 सदस्य समितियों द्वारा होता था। * इसकी कुल 6 समितियां होती थीं तथा (धा अनु समिति में 5 सदस्य होते थे। तीसरी समिति जनगणना का हिस बहु थी। वर्तमान में भी यह कार्य नगरपालिका प्रशासन द्वारा किया * छठीं समिति का कार्य बिक्री कर वसूल करना था। * विक्रय कर दसवें भाग के रूप में वसूल किया जाता था। करों की चोरी क को मृत्युदंड दिया जाता था। *वह नगर के पदाधिकारियों को एस्टि K कहता है। 户
उ
बन
*मेगस्थनीज, सेल्यूकस निकेटर’ द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य की। सभा में भेजा गया यूनानी राजदूत था, * मौर्य युग में नगरों का पा नगरपालिकाओं द्वारा चलाया जाता था। जिसका प्रमुख ‘नागरक’ या पुर था। * मेगस्थनीज ने तत्कालीन भारतीय समाज को सात श्रेणियों में कि किया है, जो इस प्रकार हैं- (1) दार्शनिक, (2) कृषक, (3) पशुपाल कारीगर, (5) योद्धा, (6) निरीक्षक एवं (7) मंत्री। *मेगस्थनीज म समाज में दास प्रथा के प्रचलित होने का उल्लेख नहीं करता है।’
अनुसार, मौर्य काल में कोई भी व्यतितो अपनी जाति से बाहर विवाह भन् कर सकता था और न ही उससे भिन्न पेशा ही अपना सकता था। *इतिहासकार स्मिथ के अनुसार, हिंदुकुश पर्वत भारत की वैज्ञानिक है सीमा थी। अशोक के अभिलेखों में मौर्य साम्राज्य के 5 प्रांतो के नाम मिलते हैं-
प्रांत
उत्तरापथ
अवतिर
राजधानी तक्षशिला
तोसली
कलिंग दक्षिणापथ
सुवर्णगिरि
पाटलिपुत्र
*भाग एवं बलि प्राचीन भारत में राजस्व के स्रोत थे। अर्थशास्त्र से ज्ञात
प्राच्य या पूर्वी प्रदेश
होता है कि राजा भूमि का मालिक होता था, वह भूमि से उत्पन्न उत्पादन के एक भाग का अधिकारी था। इस कर को ‘भाग’ कहते थे। इसी प्रकार ‘बलि’ भी राजस्व का स्रोत था।
* मौर्य मंत्रिपरिषद में राजस्व एकत्र करने का कार्य समाहर्ता के द्वारा
किया जाता था। * अंतपाल सीमा रक्षक या सीमावर्ती दुर्गों की देखभाल करता
था, जबकि प्रदेष्टा विषयों या कमिशनरियों का प्रशासक था।
* उपर्युक्त पदाधिकारियों के अतिरिक्त अन्य पदाधिकारी है- पण्याध्यक्ष (वाणिज्य का अध्यक्ष), सुराध्यक्ष, सूनाध्यक्ष (बूचड़खाने का अध्यक्ष), गणिकाध्यक्ष ( वेश्याओं का निरीक्षक ), सीताध्यक्ष (राजकीय कृषि विभाग का अध्यक्ष ). आकाराध्यक्ष (खानों का अध्यक्ष), लक्षणाध्यक्ष (छापे खाने का अध्यक्ष), लोहाध्यक्ष (धातु विभाग का अध्यक्ष) तथा नवाध्यक्ष (जहाजरानी विभाग का अध्यक्ष ) । * अर्थशास्त्र में पति द्वारा परित्यक्त पत्नी के लिए विवाह-विच्छेद की
अनुमति दी गई है। * मौर्यकालीन समाज में तलाक की प्रथा थी। * पति के
बहुत समय तक विदेश में रहने या उसके शरीर में दोष होने पर पत्नी
उसका त्याग कर सकती थी। इसी प्रकार पत्नी के व्याभिचारिणी होने या
बन्ध्या होने जैसी दशाओं में पति उसका त्याग कर सकने का अधिकारी था।
* विदेशियों को भारतीय समाज में मनु द्वारा व्रात्य क्षत्रिय (Fallen Kshatriyas) का सामाजिक स्तर दिया गया था। * सारनाथ स्तंभ का निर्माण अशोक ने कराया था। * इस स्तंभ के शीर्ष पर सिंह की आकृति बनी है, जो शक्ति का प्रतीक है। *इस प्रतिकृति को भारत सरकार ने अपने प्रतीक चिह्न के रूप में लिया है। *मौर्ययुगीन सभी स्तंभ चुनार के बलुआ पत्थरों से निर्मित हैं।
* स्थापत्य कला के दृष्टिकोण से सांची के स्तूप को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। *सांची म.प्र. के रायसेन जिले में स्थित है। *इसका निर्माण अशोक ने कराया था। * इस स्तूप का आरंभिक काल तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व था * जबकि भरहुत का स्तूप म.प्र. के सतना जिले में स्थित है। *सांची तथ
भरहुत के स्तूपों की खोज एलेक्जेंडर कनिंघम ने की थी। * अमरावती का स्तूप आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में कृष्णा नदी के दाहिने तट पर स्थित है, कर्नल कॉलिन मैकेंजी ने 1797 ई. में इस स्तूप का पता लगाया था। * सारनाथ का धमेख स्तूप गुप्तकालीन है, जो बिना आधार के समतल भूमि पर बनाया गया है।
* बिहार में पटना (पाटलिपुत्र) के समीप बुलंदीबाग एवं कुग्रहार में की गई खुदाई से मौर्य काल के लकड़ी के विशाल भवनों के अवशेष प्रकाश में आए हैं। * इन्हें प्रकाश में लाने का श्रेय स्पूनर महोदय को है। *बुलंदीबाग से नगर के परकोटे के अवशेष तथा कुप्रहार से राजप्रासाद के अवशेष प्राप्त हुए हैं। * बुलंदीबाग, पाटलिपुत्र का प्राचीन स्थान था। *जिस महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने 184 ई. पू. में अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या करके शुंग राजवंश की स्थापना की, वह इतिहास में पुष्यमित्र शुंग के नाम से विख्यात है।
* ई.पू. की कुछ शताब्दियों में चंद्रगुप्त मौर्य एवं अशोक ने गिरनार क्षेत्र में जल संसाधन व्यवस्था की ओर ध्यान दिया। *उस क्षेत्र में चंद्रगुप्त मौर्य ने सुदर्शन झील खुदवाई तथा अशोक ने ई.पू. तीसरी शताब्दी में इससे नहरें निकाली। *शक क्षत्रप रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में इन दोनों के कार्यों का वर्णन है। * जूनागढ़ के शासक रुद्रदामन ने इस झील की मरम्मत कराई थी।
महाभारत के भीष्म पर्व में सर्वप्रथम भागवत धर्म का उल्लेख किया गया है, • द्रविड़ वैष्णव भक्तों को अलवार कहा जाता है.
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राजकीय व्यवसायों के विभाग के अध्यक्ष को मौर्यकाल में ‘सूत्राध्यक्ष’ के नाम से जाना जाता था.
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माप-तौल के देखरेख करने वाले माप-तौल विभाग के अधिकारी को मौर्यकाल में पीतवाध्यक्ष के नाम से जाना जाता था.
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मौर्यकाल में शराब के निर्माण, क्रय-विक्रय, प्रयोग आदि पर नियन्त्रण रखने वाले अधिकारी को सुराध्यक्ष कहा जाता था.
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मौर्य काल में कृषि विभाग के अध्यक्ष को सीताध्यक्ष कहा जाता था. गणिकाध्यक्ष, मुद्राध्यक्ष, नावाध्यक्ष, अश्वाध्यक्ष, देवताध्यक्ष आदि अनेक मौर्यकालीन अधिकारी थे.
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राज्य की आय-व्यय का सम्पूर्ण ब्यौरा रखने वाले तथा राज्य की आर्थिक नीति का निर्धारण करने वाले अधिकारी को ‘सन्निधाता’ कहा जाता था. कोषाध्यक्ष तथा शुल्काध्यक्ष पदाधिकारी इसके अधीन होते थे. आदि मौर्यकाल में कारखानों तथा खानों के मंत्री को ‘कार्मान्तिरक’ कहा जाता था, इसका मुख्य कार्य खानों से धातु निकलवाना तथा कारखानों की देखभाल करना था. मौर्यकाल में फौजदारी न्यायालय के आमात्य को ‘प्रदेष्टा’ कहा जाता था.
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दीवानी न्यायालयों के आमात्य को व्यावहारिक कहा जाता था.
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यूनानी लेखकों ने आमात्य का वर्णन सातवीं जाति के रूप में किया है.
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अधिकांश पुराणों तथा सिंहली बौद्धग्रन्थ दीपवंश तथा महावंश में चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी को बिन्दुसार के नाम से ही पुकारा गया, वायु पुराण में इसका नाम ‘भद्रासार मिलता है. कुछ पुराणों में इसे “वारिसार’ कहकर भी पुकारा गया है, चीनी ग्रन्थ फा- युएन चु-लिन में इसे ‘बिन्दुपाल’ कहा गया है, राजवलिकथा में चन्द्रगुप्त मौर्य के उत्तराधिकारी पुत्र का नाम सिंहासेन दिया है.
मिस के शासक ‘टालेमी’ ने ‘डायोनियस’ (Dionysios) को अपना राजदूत बनाकर बिन्दुसार के दरबार में भेजा था चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में नगर का मुखिया ‘नगराध्यक्ष’ कहलाता था. जो आधुनिक जिलाधीश की भाँति कार्य करता था.
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शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम था. इसका मुखिया ग्रामिक’ अथवा ‘ग्रामणी कहलाता था. ‘ग्रामाणी का चुनाव ग्राम की जनता द्वारा किया जाता था प्रत्येक गाँव में एक अधिकारी होता था, जिसे ‘ग्राम भोजक’ कहते थे. चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध में गुप्तचर विभाग पूर्णतः संगठित एवं व्यवस्थित था
कौटिल्य के अनुसार गुप्तचरों के दो वर्ग थे- (1) संस्थान, (2) संचारण.
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अभिलेखों में अशोक को ‘देवनाम्प्रिय’ तथा ‘प्रियदर्शी’ कहा गया है.
सिहली ग्रन्थ दीपवंश में उसे प्रियदर्शन तथा ‘प्रियदर्शी कहा गया है अनेक विद्वानों का मत है कि ‘प्रियदर्शन’ तथा ‘प्रियदर्शी’ अशोक की उपाधियाँ थीं.
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अशोक ने साम्राज्य के प्रत्येक जिले तथा नगर में ‘महामात्रों’ की नियुक्ति की थी. अशोक ने अपने शासन के तेरहवें वर्ष में पहली बार अपनी प्रजा की सुख-शान्ति के लिए धर्ममहामात्र तथा धर्मयुक्तों की नियुक्ति की थी.
‘उपगुप्त’ मथुरा का एक बौद्ध भिक्षु था.. जिसके प्रभाव से अशोक का धर्म परिवर्तित हुआ.
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अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए अपने पुत्र महेन्द्र’ तथा पुत्री ‘संघमित्रा’ को श्रीलंका भेजा.
लघु शिलालेख में अशोक ने अपने को ‘बुद्ध शाक्य कहा है.
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अशोक ने मज्झान्तिक को कश्मीर एवं गांधार में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए भेजा था.
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1750 में टीफेन्लर (Teffenthaler) ने सर्वप्रथम दिल्ली में अशोक स्तम्भ का पता लगाया था.
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अशोक के अन्तिम शिलालेख की खोज बीडन महोदय (Beadon) ने सन् 1915 ई. में मास्की में की थी.
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अशोक के लघु शिलालेख दो प्रकार के हैं. डॉ. स्मिथ के अनुसार ये 259-232 ई. पू. में लिखे गये थे. अशोक के प्रथम प्रकार के लघु शिलालेख रूपनाथ (जबलपुर जिला म. प्र.), सहसराम (बिहार राज्य का शाहबाद जिला), मस्की (रायचूर जिला) बैराट (राजस्थान) में उपलब्ध हैं.
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अशोक के द्वितीय प्रकार के लघु शिलालेख र सिद्धपुर (चित्रलहुग मैसूर) जतिग, रामेश्वर और ब्रह्मगिरि नामक स्थानों पर पाए गए हैं • भबू शिलालेख राजस्थान में जयपुर के क निकट बैराठ अथवा वैराट नामक स्थान से उपलब्ध हुआ है. इस शिलालेख में बौद्ध धर्म के सात ऐसे उदाहरण दिए गए हैं जो अशोक को बहुत प्रिय थे और वह चाहता था कि प्रजा उनको पढ़कर उनके अनुसार आचरण करे यह शिलालेख कोलकाता संग्रहालय में सुरक्षित है. दो कलिंग शिलालेख धौली एवं जौगढ़ नामक स्थानों पर स्थापित किए गए थे. इसमें उन सिद्धान्तों की चर्चा की गई है, जिनके अनुसार कलिंग एवं अन्य सीमान्त प्रदेशों के लोगों के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए. ● अशोक के लघु शिला लेख लगभग 15 स्थानों से प्राप्त हुए हैं.
मौर्योत्तर काल
नोट्स
* रुद्रदामन (130-150 ई.) का जूनागढ़ अभिलेख गुजरात में गिरनार पर्वत पर प्राप्त हुआ है। * ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण संस्कृत भाषा का यह अभिलेख अब तक प्राप्त संस्कृत अभिलेखों में सर्वाधिक प्राचीन है। * इस अभिलेख में संस्कृत ‘काव्य शैली’ का प्राचीनतम नमूना प्राप्त होता है। * इसमें रुद्रदामन की वंशावली, विजयों, शासन, व्यक्तित्व आदि पर सुंदर प्रकाश डाला गया है। * इस अभिलेख का मुख्य उद्देश्य सुदर्शन झील के बांध के पुनर्निर्माण का विवरण सुरक्षित रखना था। स
* कुजुल कडफिसेस (लगभग 45-85 ई.) ने भारत में सर्वप्रथम पश्चिमोत्तर प्रदेश पर अधिकार कर लिया। *इसने केवल तांबे के सिक्के जारी किए। उसके सिक्कों पर ‘धर्मथिदस’ तथा ‘धर्मथित’ (धर्म में स्थित ) उत्कीर्ण हैं। *सर्वप्रथम विम कडफिसेस के काल में ही भारत में कुषाण सत्ता स्थापित हुई थी। विम कडफिसेस ने स्वर्ण एवं तांबे के सिक्के चलाए थे। *शिव, त्रिशूल तथा नंदी की आकृति इसके सिक्कों पर मिलती हैं। * इसने ‘महेश्वर’ नामक उपाधि धारण की थी ।
* उत्तर-पश्चिम भारत में स्वर्ण सिक्कों का प्रचलन इंडो-ग्रीक (हिंदयवन) राजाओं ने करवाया था। *जबकि इन्हें नियमित एवं पूर्णरूप से प्रचलित करवाने का श्रेय कुषाण शासकों को जाता है। *कुषाण शासकों ने स्वर्ण एवं ताम्र दोनों ही प्रकार के सिक्कों को व्यापक पैमाने पर प्रचलित किया था। *कुषाण शासकों में विम कडफिसेस ने सर्वप्रथम सोने के सिक्के जारी किए थे।
* कुषाण शासक कनिष्क के सिक्कों पर बुद्ध का अंकन मिलता है। * यौधेयों का प्रमाण पुराण, अष्टाध्यायी तथा वृहत्संहिता इत्यादि ग्रंथों से प्राप्त होता है। * इनका साम्राज्य दक्षिण-पूर्वी पंजाब तथा राजस्थान के बीच था। * इनके सिक्कों पर कार्तिकेय का अंकन मिलता है।
*कनिष्क के सारनाथ बौद्ध अभिलेख की तिथि 81 ई है। यह प्रतिमा मथुरा से लाकर कनिष्क के राज्यारोहण (78 ई.) के तीसरे वर्ष सारनाथ में स्थापित की गई थी। कनिष्क के रबतक अभिलेख में चार शहरों के नाम का उल्लेख मिलता है। *ये हैं- साकेत, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र तथा चम्पा *जैन ग्रंथों के अनुसार, विक्रमादित्य (57 ई.पू.) के उत्तराधिकारी को 135 विक्रम संवत् में शकों ने पराजित कर इसके उपलक्ष्य में शक संवत् चलाया था। इस प्रकार इसकी प्रारंभिक तिथि 1355778 ई. आती। अधिकांश इतिहासकारों ने कुषाण शासक कनिष्क को इसका प्रवर्तक माना है।
*वर्तमान में तिथि एवं वर्ष के लिए प्रेगेरियन कैलेंडर का प्रयोग किया जाता है, जो विश्वव्यापी है। वर्तमान कैलेंडर से 57 जोड़ देने पर विक्रम संवत् (प्रारंभ 57 ई.पू.) तथा 78 घटा देने पर शक संवत् (प्रारंभ 78 ई.) प्राप्त होता है। चैत्र भारतीय राष्ट्रीय पंचांग का प्रथम माह होता है। *विक्रम संवत् के दो अन्य नाम भी मिलते हैं-कृत संवत् तथा मालव संवत्
* भारत में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में शक संवत् को अपनाया गया है। * अश्वघोष कनिष्क के राजकवि थे। *सौंदरानंद, बुद्धचरित तथा सारिपुत्रप्रकरण उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। “वसुमित्र भी कनिष्क के आश्रित विद्वान थे, इन्होंने चतुर्थ बौद्ध संगीति की अध्यक्षता भी की थी। अश्वघोष, नागार्जुन, पार्श्व तथा चरक ये चारों ही कनिष्क के दरबार से संबंधित थे। *पतंजलि ने पाणिनी की अष्टाध्यायी पर महामाध्य की रचना की थी।
* महर्षि पतंजलि शुंगकालीन विद्वान थे तथा इन्होंने ऐसे लोगों को शिष्य
बनाया था, जो बिना किसी अध्ययन के ही संस्कृत बोल लेते थे।
* कुषाण वंश के साम्राज्य की सीमाएं भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर तक फैली थीं। इस वंश का महान शासक कनिष्क था, जिसकी सीमाएं उत्तर में चीन के तुरफान एवं कश्मीर से लेकर दक्षिण में विध्य पर्वत तथा पश्चिम में उत्तरी अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में पूर्वी उ.प्र. एवं बिहार तक विस्तृत थीं।
* पेरीप्लस ऑफ द एरीथ्रियन सी और अरिकामेडु में हुई खुदाई से ऐसे अनेक बंदरगाहों और व्यापारिक केंद्रों की उपस्थिति के साक्ष्य मिले हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि कुषाणों का व्यापार पश्चिमी विश्व ● से फारस की खाड़ी और लाल सागर के जलमार्ग से होता था। *इन सभी साक्ष्यों में किसी में भी कुषाणों की सशक्त नौसेना की उपस्थिति का उल्लेख नहीं मिलता है।
कुषाण शासक कनिष्क के काल में कला क्षेत्र में दो स्वतंत्र शैलियों का विकास हुआ – (1) गांधार शैली एवं (2) मथुरा शैली। भारतीय और यूनानी आकृति की सम्मिश्रण शैली गांधार शैली है। इस कला शैली के प्रमुख संरक्षक शक एवं कुषाण थे। इस कला का विषय मात्र बौद्ध होने के के कारण इसे ‘यूनानी-बौद्ध’ (Greeco Buddhist ), इंडो-ग्रीक (Indo- Greek) या ग्रीको-रोमन (Greeco Roman) भी कहा जाता है। गांधार ना कला में सदैव हरित स्तरित या शिस्ट चट्टान का प्रयोग ही मूर्तियां बनाने के में लिए किया जाता था। * अफगानिस्तान का बामियान, पहाड़ियों को काटकर म बनवाई गई बुद्ध प्रतिमाओं के लिए प्रसिद्ध था लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान शासन ने इन बुद्ध प्रतिमाओं को नष्ट करवा दिया। * कुषाणकाल ( प्रथम शती ई.) में बाल विवाह की प्रथा प्रारंभ हुई को थी।
*स्त्रियों में उपनयन की समाप्ति तथा बाल विवाह के प्रचलन ने उसे ती समाज में अत्यंत निम्न स्थिति में ला दिया।
*भारत में बाह्य आक्रामक के काल काम है-यूनानी
(326 ई.पू. सिकंदर महान), शक (प्रथम शताब्दी ई.पू.) कुषाण (पहली शताब्दी ई.)। ईरानी शासक डेरियस प्रथम (522-486 ई. पू.) ने सर्वप्रथम भारत कुछ भाग को अपने अधीन किया था। ‘हेरोडोटस के अनुसार, डेरियस प्रथम के साम्राज्य में संपूर्ण सिंधु घाटी का प्रदेश शामिल था तथा पूर्व की और इसका विस्तार राजपूताना के रेगिस्तान तक था। *मिनाण्डर तथा उसके पुत्र स्टैटो प्रथम के सिक्के मथुरा से मिले है।
स्ट्रैटो ॥ ने सीसे के सिक्के जारी किए थे। इस हिंद-यवन शासक का शासन 25 ई.पू. से 10 ईस्वी तक माना जाता है। *184 ई.पू. | पुष्यमित्र शुंग ने अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या करके शुंग राजवंश की स्थापना की। पुराणों के अनुसार, पुष्यमित्र ने 36 वर्षो तक शासन किया। महर्षि पाणिनी ने ‘शुंग वंश को भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मण बताया है। अयोध्या के लेख से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र ने दो अश्वमेध यज्ञ किए थे। पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे। शुग वंश का 9वां शासक भागवत अथवा भागभद्र था। इसके शासनकाल मे तक्षशिला के यवन नरेश एटियालकीड्स का राजदूत हेलियोडोरस उसके विदिशा राजदरबार में उपस्थित हुआ था। *हेलियोडोरस ने भागवत धर्म ग्रहण किया तथा विदिशा (बेसनगर) मे गरुड़-स्तंभ की स्थापना कर भागवत विष्णु की पूजा की।
*शुंग वंश का अंतिम राजा देवभूति (देवभूमि) अपने आमात्य वासुदेव के षड्यंत्रों द्वारा मार डाला गया। *वासुदेव ने जिस नवीन राजवंश की नींव डाली, वह ‘कण्व’ या ‘कण्वायन’ नाम से जाना जाता है। * मौर्योों के बाद दक्षिण भारत में सबसे प्रभावशाली राज्य सातवाहनों का था।
* पुराणों में इस वंश के संस्थापक का नाम सिंधुक, सिमुक या शिप्रक दिया गया है, जिसने कण्व वंश के राजा सुशर्मा का वध करके अपना शासन स्थापित किया था।
* पुराणों में कुल तीस या इकतीस सातवाहन राजाओं के नाम मिलते हैं, जिनमें से सबसे लंबी सूची मत्स्य पुराण में 29 राजाओं की मिलती है। * सातवाहनों की वास्तविक राजधानी प्रतिष्ठान या पैठन में अवस्थित थी। * पुराणों में इस राजवंश को आंध्रभृत्य या आंध्र जातीय कहा गया है। *उनकी आरंभिक राजधानी अमरावती मानी जाती है। पुराणों के अनुसार, कृष्ण का पुत्र एवं उत्तराधिकारी शातकर्णि प्रथम सातवाहन वंश का शातकर्णि उपाधि धारण करने वाला प्रथम राजा था। * इसके शासन के बारे में हमें नागनिका के नानाघाट अभिलेख से महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
* सातवाहन शासक गौतमीपुत्र शातकर्णि ने कहा है कि उसने विछिन्न होते चातुर्वर्ण्य (चार वर्णों वाली व्यवस्था) को फिर से स्थापित किया और वर्णसंकर (वर्णों और जातियों के सम्मिश्रण) को रोका। * इसी कारण इसे वर्ण-व्यवस्था का रक्षक कहा जाता है।
*गौतमीपुत्र शातकर्णि को नासिक अभिलेख में अद्वितीय ब्राह्मण’ (एक ब्राह्मण) तथा ‘वेदों का आश्रय’ कहा गया है तथा ‘खतीय दप मनमदा’ अर्थात क्षत्रियों के दर्प का मर्दन वाला कहा गया है। *वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी को ‘दक्षिणापथेश्वर’ है। दो पतवारों वाले जहाज’ का चित्र उसके कुछ सिक्कों है। *इस वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक यज्ञ श्री शातकीण था। पर बना * कलिंग के चेदि वंश का संस्थापक महामेघवाहन था।
चेदिवंशीय शासक खारवेल प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम में से एक था। * उड़ीसा (ओडिशा) प्रांत के भुवनेश्वर से तीन मील क पर स्थित उदयगिरि पहाड़ी की ‘हाथीगुम्फा’ से उसका एक बिना ि अभिलेख प्राप्त हुआ है। *इसमें खारवेल के बचपन, शिक्षा, राज्याभिषे राजा होने के बाद से तेरह वर्षों तक के शासनकाल की घटनाओं विवरण दिया हुआ है। *यह अभिलेख खारवेल का इतिहास जानने का एक का स्रोत है। * इस अभिलेख से पता चलता है कि खारवेल ने दक्षिण राज्यों चोल, चेर एवं पाण्ड्यों को पराजित किया था। * पाण्ड्य उसने गधे से हल चलवाया था। *इसका जैन धर्म के प्रति भारी * पूर्वी रोमन शासक जस्टिनियन को सर्वाधिक प्रसिद्धि उसके झुकात संबंधी सुधारों से मिली। * जस्टिनियन रोमन कानून के संपूर्ण संशोधन लिए उत्तरदायी था।
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एर्रगुडी शिलालेख आंध्र प्रदेश के कर्नूल जिले के एरंगुडी नामक स्थान से प्राप्त हुआ है. • मास्की लघु शिलालेख आंध्र प्रदेश के रायचूर जिले में मास्की नाम के एक गाँव से प्राप्त हुआ है. इसमें ‘अशोक’ के नाम का उल्लेख मिलता है. इसकी खोज बीडन ने 1915 में की थी
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राजुल मण्डगिरि शिलालेख आंध्र प्रदेश में कर्नूल जिले में एर्रगुडी से लगभग 20 मील की दूरी पर एक टीले पर प्राप्त हुआ है.
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गुर्जरा शिलालेख मध्य प्रदेश के दतिया जिले में स्थित गुर्जरा नामक गाँव से प्राप्त हुआ है. इसमें भी अशोक के नाम का उल्लेख मिलता है.
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अहरौरा शिलालेख उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित अहरौरा गाँव की एक पहाड़ी है… पर प्राप्त हुआ है.
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पानगोरारिया शिलालेख सन् 1975 ई. में प्राप्त हुआ है.
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सन्नति शिलालेख कर्नाटक राज्य के गुलबर्ग जिले में स्थित सन्नति नामक गाँव से प्राप्त हुआ है.
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गुहालेखों की संख्या तीन है यह बिहार राज्य स्थित गया नगर के निकट ‘बाराबर’ नामक पहाड़ी में हैं इसमें सम्राट द्वारा आजीविकों को दिए गए दान का उल्लेख है. • कन्धार शिलालेख की भाषा यूनानी एवं अरमाइक है.
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टोपरा स्तम्भ लेख हरियाणा के टोपरा नामक गाँव में स्थापित किया गया था. कालान्तर में फिरोज तुगलक इसे दिल्ली ले आया. आज भी यह फिरोजशाह कोटला में स्थित है. • रुमिन्देई लघु स्तम्भ लेख नेपाल की तराई से प्राप्त हुआ है…
अशोक के अधिकांश अभिलेखों की भाषा प्राकृत है.
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गुप्तकाल में नाव एवं जहाजों का बहुतायत में निर्माण किया जाता था. गुजरात, बंगाल
एवं तमिलनाडु वस्त्र व्यवसाय के प्रमुख केन्द्र थे.
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गुप्तकाल से पूर्व द्वितीय शताब्दी में भारत का चीन के साथ सामुद्रिक व्यापार होता था
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भारत के पूर्वी देशों से व्यापारिक सम्बन्ध थे इन देशों को स्वर्ण भूमि भी कहा जाता है. • पेशावर, भड़ौच, उज्जयनी, वाराणसी, प्रयाग, पाटलिपुत्र, मथुरा, वैशाली एवं ताम्रलिप्ति आदि प्रमुख बन्दरगाह थे. • पश्चिम में भड़ौच एवं पूर्व में ताम्रलिप्ति आदि प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे.
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सोना, चाँदी, ताँबा, टिन, रेशम, कपूर, खजूर एवं घोडे आदि का आयात किया जाता था
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उद्योगों में काम करने वाले लोगों के सामूहिक निगम को ‘कुलिक कहा जाता था. • कुलिक निगम और श्रेष्ठी निगम सम्पन्न व्यवसायियों के व्यापारिक संघ होते थे. कुलिक निगम की अपनी मुहर होती थी. वह पत्र-व्यवहार और व्यापारिक माल पर लगाई जाती थी. • गुप्तकाल में भारत के अरब से भी व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित थे. घोड़ों का अरब एवं ईरान से आयात किया जाता था. • कुलिक निगम की मुहरें इलाहाबाद के निकट मीटा नामक स्थान से प्राप्त हुई हैं.
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वैशाली में श्रेष्ठी सार्थवाह कुलिक निगम की 274 मुहरें प्राप्त हुई हैं, जो इस बात को प्रमाणित करती हैं कि यह गुप्त युग की एक बडी व्यापारिक संस्था थी
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ताम्रलिप्ति बंदरगाह से चीन जावा एवं सुमात्रा से व्यापार होता था.
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गुप्तकाल में भूमि कर को उदंग कहा जाता था. • कदूर, चरपाल, आंध्र प्रदेश के बंदरगाह थे.
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कावेरीपत्तनम तोन्दर चोल प्रदेश के बंदरगाह थे.
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कोकई, सलिपुर पाण्ड्य प्रदेश के बंदरगाह थे.
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कोत्रयम, मुजिरिस, मालाबा के बंदरगाह थे.
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सिन्धु, ओरहोथ, कल्याण, मिबोर आदि अन्य प्रमुख बंदरगाह थे जिनसे व्यापार किया जाता था.
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नकद भुगतान के रूप में अदा किए जाने वाले कर को ‘हिरण्य’ कहा जाता था. विदेशों से आयात की गई वस्तुओं पर लगाये जाने वाले कर को भूतावात प्रत्याय कर कहा जाता था.
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जुती हुई भूमि पर दिए जाने वाले कर को ‘हाल दण्ड’ कहा जाता था. • खेती में प्रयुक्त होने वाली जमीन से पैदावार का निश्चित भाग राज्य कर के रूप में लिया जाता था. इसे भाग कर कहते थे यह प्रायः पैदावार के रूप में ही लिया जाता था.
गुप्तकाल में केवल ब्राह्मणों को भूमि दान में दी जाती थी जिन ब्राह्मणों का गाँवों पर अधिकार होता था उन्हें बह्मदेया’ कहा जाता था.
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ब्राह्मणों के कर मुक्त गाँव को ‘अग्रहारा कहा जाता था
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गुप्तकाल में ग्राम परिषदे सरकार के नियन्त्रण से मुक्त स्वायत्तशासी थी
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जिस भूमि पर खेती नहीं की जाती थी उस पर राजा का अधिकार होता था.
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जीवनपर्यन्त अध्ययनरत् रहने वाली अविवा हित महिलाओं को ‘ब्रह्मवादिनी’ कहा जाता था
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मौर्य काल में तक्षशिला, काशी तथा उज्जैन प्रमुख शिक्षा के केन्द्र थे
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गुप्तकालीन समाज में अन्तर्जातीय विवाह प्रचलित थे.
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गुप्तकाल में दास प्रथा प्रचलित थी. गुप्तकालीन समाज में संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी
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गुप्तकालीन समाज में स्त्रियों की दशा वैदिक काल की तुलना में तो श्रेष्ठ नहीं थी, किन्तु फिर भी उन्हें समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था
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शीलभट्टारिका गुप्तकाल की शिक्षित एव योग्य महिला थी.
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गुप्तकाल में विधवा-विवाह का भी प्रचलन था, किन्तु अनेक स्थलों पर इसके विरोध के भी वर्णन मिलते हैं चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने भाई रामगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा ध्रुव स्वामिनी के साथ विवाह किया था
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नृत्य एवं संगीत में निपुण तथा कामशास्त्र में पारंगत सार्वजनिक महिलाओं को गणिका कहा जाता था • गुप्तकाल में व्यापारियों एवं व्यवसायियों की अपनी श्रेणियाँ थीं, पटकार तैलिक (तेली) पाषाण-कोडक (पत्थर काटने वाले) आदि प्रमुख श्रेणियाँ थी
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स्वप्नवासवदत्ता का रचयिता सुबन्धु गुप्तकाल का प्रसिद्ध गद्य लेखक था
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भट्टिकाव्य अथवा रावण वध के रचयिता भट्टि गुप्तकाल के प्रसिद्ध कवि थे • भर्तृहरि द्वार लिखित ‘नीतिशतक’, ‘श्रृंगार शतक एवं वैराग्यशतक प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं कुछ विद्वानों का मत है कि भर्तृहरि भट्टि
का ही दूसरा नाम है
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‘कुन्तलेश्वरदौत्यमृ’ नामक नाटक कालिदास को गुप्तयुगीन सिद्ध करता था • महर्षि वात्स्यायन’ द्वारा लिखित ‘कामसूत्र’ गुप्तकाल का कामशास्त्र सम्बन्धी प्रसिद्ध ग्रन्थ है
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वैभाषिक’ तथा ‘सघभद्र’ नामक गुप्तयुगीन आचार्य वैभाषिक सम्प्रदाय के साहित्यिक ग्रन्थ के रचयिता थे
कण्व वंश
अन्तिम शुंग शासक देवभूति की हत्या कर 73 ई.पू. में वसुदेव ने कण्व वंश की स्थापना की. पुराणों के अनुसार कण्व वंश के चार राजाओं ने लगभग 45 वर्ष तक शासन किया. ये शासक थे-वसुदेव कण्व, भूमिमित्र कण्व, नारायण कण्व तथा सुशर्मा कण्व. सातवाहन वंश के संस्थापक सिमुक को सिन्धुक व सिप्तक भी कहा गया है. शक सिमुक के प्रबल प्रतिद्वन्द्वी थे. शकों ने एक समय सिमुक के महाराष्ट्र एवं पश्चिमी भारतीय साम्राज्य पर अधिकार कर लिया था, किन्तु नासिक लेख से ज्ञात होता है, गौतमी पुत्र शातकर्णी ने राजवंश की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया. गौतमी पुत्र शातकर्णी तथा उसके बाद के शासकों से शकों का संघर्ष चलता रहा यक्ष श्री शातकर्णी सातवाहन वंश का अति महत्वपूर्ण शासक था इसके पश्चात् कोई भी ऐसा योग्य शासक नहीं हुआ, जो अपने साम्राज्य को सुरक्षित रख सके सातवाहनों के शासनकाल में समाज परम्परागत चार वर्णों में विभाजित था वैष्णव व शैव धर्म का महत्व था कृषि के अतिरिक्त अन्य उद्योगों का प्रचलन था व्यवसायियों ने अपनी श्रेणियों अथवा गिल्ड बना ली थी आमात्य महामात्र तथा भण्डारगारिक इस शासनकाल के अधिकारी गम अर्थात् व्यापारी सार्थवाह अर्थात् व्यापारियों के काफिले का प्रमुख श्रेष्तिन अर्थात् व्यापार निगम का प्रमुख आदि गैर- सरकारी कर्मचारी थे यज्ञों का प्रचलन था शातकर्णी ने दो अश्वमेध यज्ञ तथा एक राजसूय यज्ञ किया साहित्य का इस युग में विकास हुआ सातवाहन काल प्राकृत भाषा के विकास का काल था ‘गाथा सप्तशतक का रचयिता ‘हाल’ इस वंश का महान् कवि एवं साहित्यकार था इसके अतिरिक्त ‘गुनाढ्य नामक कवि इस युग का महान् कवि था जिसने प्राकृत भाषा में ‘वृहत कथा’ नामक पुस्तक लिखी थी
कलिंग राज खारवेल’
प्राचीन भारतीय इतिहस में कलिंग राज्य का अपना अलग ही महत्व है. अशोक के दुर्बल उत्तराधिकारियों के समय कलिंग पर चेदि वंश का अधिकार हो गया था. चेदिवश के तीन शासकों में महामेघवाहन, खारवेल तथा कुदेप थे. इनमें खारवेल का नाम प्रमुख है, जिसके विषय में उदयगिरि की हाथी गुम्फा नामक गुफा शिलालेख से जानकारी प्राप्त होती है. जब खारवेल 15 वर्ष का था, तब उसे युवराज तथा जब वह 28 वर्ष का था. तब उसे राजा बनाया गया खारवेल चेदि वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक था. सम्राट बनते ही उसने विजय अभियान प्रारम्भ किया हाथी गुम्फा शिलालेख के अनुसार, प्रथम वर्ष में उसने अपनी राजधानी की मरम्मत कराई द्वितीय वर्ष में मूषिको की राजधानी ‘असिक नगर को नष्ट कर दिया. तृतीय वर्ष में नृत्य संगीत कार्यक्रमों का आयोजन कर जनता को प्रसन्न किया. पाँचवें वर्ष में अनेक सार्वजनिक कार्य किए. छठे वर्ष में पौर (नगर) तथा जनपद (राज्य) को विशेष अधिकार प्रदान किए सातवें वर्ष में उसने ‘मसूलीपट्म को विजित किया आठवें वर्ष में उसने गया के निकट बारबर की पहाड़ी में स्थित ‘गोरठगिरि के किले को नष्ट किया तथा राजग्रह पर आक्रमण किया ग्यारहवें वर्ष में पिघुद नामक शहर को नष्ट किया तेरहवें वर्ष में उसने कुमारी पहाड़ियों पर अनेक स्तम्भ बनवाए. इसके बाद का विवरण ज्ञात नहीं है, खारवेल जैन धर्म का न अनुयायी था मगध तथा अंगराज्य को 5 विजित करने के पश्चात वह वहीं से प्रथम नद राजा पहले कलिंग से ले गया था खारवेल ने जैन भिक्षुओं के लिए अनेक जैन तीर्थंकर की मूर्ति को वापस लाया जिसे गुफाओं का निर्माण कराया
मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् भारत की राजनैतिक एकता समाप्त हो गई भी यहाँ की राजनीतिक एकता समाप्त होने का पूरा पूरा लाभ विदेशी शक्तियों ने भी पुनः उठाया इन विदेशी शक्तियों में बैक्ट्रिया के यवन, पय, शक तथा कुषाण प्रमुख थे इनमें से कुछ विदेशी शक्तियों ने भारत में अपना विस्तृत साम्राज्य स्थापित कर वर्षों तक शासन किया. वास्तव में मौर्यकाल के पतन से लेकर गुप्तकाल के उदय होने तक भारत का इतिहास मुख्यतः भारत में विदेशी शासकों की साम्राज्यवादिता का इतिहास है.
बैक्ट्रिया के शासक सेल्यूकस द्वारा स्थापित पश्चिमी तथा मध्य एशिया के विशाल साम्राज्य को उसके उत्तराधिकारी ऐन्टिओकस प्रथम ने अक्षुण बनाए रखा, किन्तु इसके पश्चात् ऐन्टिओकस द्वितीय शासक बना, जोकि अत्यन्त ही अयोग्य था, परिणामस्वरूप विद्रोह हुए और अनेक प्रांत स्वतन्त्र हो गए इनमें बैक्ट्रिया तथा पार्थिया साम्राज्य प्रमुख थे बैक्ट्रिया के विद्रोह का नेतृत्व डियोडोट्स प्रथम ने किया था. डियोडोट्स प्रथम के पश्चात् डियोडोट्स द्वितीय सिंहासन पर आसीन हुआ, इसके पश्चात् यूथिडेमस डेमिट्रियस, मिनेण्डर, यूक्रेटाइडस एण्टी आलकीडस तथा हर्मिक्स शासक हुए
यूनानी सम्राटों में डेमिट्रियस ने 190 ई.पू. में भारत पर आक्रमण कर अफगानि स्तान, पंजाब तथा सिंध के अधिकांश भाग पर अधिकार कर लिया. इसके पश्चात् 160 ई.पू. से 140 ई.पू. तक मिनेण्डर ने शासन किया. बौद्ध धर्म में अपार विश्वास रखने के कारण वह भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध रहा मिलिन्दपन्हो नामक पाली ग्रन्थ में उसे महान् दार्शनिक बताया गया है. मिनेण्डर के पश्चात् आयोग्य उत्तराधिकारियों ने भारत पर शासन किया परिणामस्वरूप धीरे-धीरे इनका प्रभाव कम होने लगा और शकों का प्रभाव बढ़ने लगा पार्थिया के शासक
बैक्ट्रिया के शासकों द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने के पश्चात् पार्थिया के शासकों ने भारत पर आक्रमण कर यहाँ के विशाल-भू-भाग पर अधिकार कर लिया गोंडाफरनीज पार्थिया का अन्तिम महान्
तक राज्य किया, अनेक विद्वानों का मत है। ई कि उसके शासनकाल में सेन्ट टामस ईसाई ने धर्म का प्रचार करने के लिए भारत आया। था, किन्तु बी.ए. स्मिथ ने इस मत को स्वीकार नहीं किया है. गोडोफरनीज की मृत्यु के साथ ही भारत में पार्थिया साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया. कालान्तर में कुषाण वंश के शासकों ने लगातार इन पर आक्रमण कर इनकी शक्ति को छिन्न-भिन्न कर समाप्त कर दिया
शक शासक
शक मूलतः मध्य एशिया की एक पर्यटनशील जाति थी, जो सर नदी के उत्तरी प्रदेश में निवास करती थी. इसी समय हूणों द्वारा पराजित पश्चिमी चीन की = यूची जाति ने यहाँ से शकों को खदेड़ दिया। अपनी जन्मभूमि को छोड़ने के पश्चात् शक लोग अनेक नए प्रदेशों में जाकर बस गए शकों ने बैक्ट्रिया के यूनानी साम्राज्य को नष्ट किया और पश्चिम की ओर बढ़कर हिरात व सीस्तान पर अपना अधिकार कर • लिया, किन्तु कुछ समय पश्चात् पचवों ने शकों को यहाँ से भी खदेड़ दिया अब शक कान्धार तथा बलूचिस्तान से बोलन दर्रे से होते हुए सिन्ध प्रदेश में जाकर बस गए इस स्थान को अब ‘शक द्वीप’ कहा जाने लगा. भूगोल के यूनानी विद्वानों ने इसे ‘इण्डोसाइथिया’ का नाम दिया है. सिन्धु को अपनी शक्ति का केन्द्र बनाकर शकों ने भारत के अन्य भागों पंजाब कठियावाड सौराष्ट्र, उज्जयिनी मथुरा पर अपना अधिकार कर लिया तथा क्षत्रप एवं महाक्षत्रप की उपाधि धारण की विभिन्न प्रदेशों में अनेक शक क्षत्रप राजवंश थे यथा- पंजाब के क्षत्रप, मथुरा के क्षेत्रप महाराष्ट्र के क्षत्रप, उज्जैन के क्षत्रप पंजाब के क्षत्रप पंजाब में तीन वंश के क्षत्रप हुए ये तीन वंश थे –
(1) कुसुलुक वंश,
(2) जिहोनिक वंश.
(3) इन्द्रवर्मन वंश
कुसुलुक वंश – लियक तथा पतिक इस वंश के दो प्रमुख शासक थे. जिहोनिक वंश-मनिगुल तथा जिहोनिक इस वंश के प्रमुख शासक थे।
इन्द्रवर्मन वंश – इस वंश के इन्द्रवर्मन तथा अस्पवर्मन प्रमुख थे
मथुरा के क्षत्रप
हगान तथा हगामस मथुरा के प्रथम शक क्षत्रप थे इनके बाद रज्जुबल तथा शोडास क्षत्रप हुए मोरा अभिलेख में रज्जुबल को महाक्षत्रप कहा गया है। महाराष्ट्र के क्षत्रप ‘भूमिक’ महाराष्ट्र में क्षहरात वशीय क्षत्रपों के राज्य का संस्थापक माना जाता है, किन्तु इस वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध क्षत्रप नहपन’ था इसने सातवाहन वंश के राजा पर आक्रमण करके महाराष्ट्र का विस्तृत क्षेत्र प्राप्त किया था नासिक गुफा अभिलेख के अनुसार उसने महाराष्ट्र पर 6 वर्ष तक शासन किया उज्जैन के क्षत्रप चेष्टन उज्जैन का प्रथम शक शासक था चेष्टन के पश्चात् जयदामन उत्तराधिकारी हुआ. उसने कोई विशेष प्रतिभा का परिचय नहीं दिया. जयदामन के पश्चात् रुद्रदामन महाक्षत्रप बना रुद्रदामन सर्वाधिक प्रसिद्ध शक शासक प्रा था. उसने सुदर्शन झील के टूटे हुए बाँध अ को बनवाया था वह व्याकरण, संगीत, ध अर्थशास्त्र व न्याय का ज्ञाता था मालवा, श सौराष्ट्र, कच्छ, सिंध, उत्तरी कोंकण, मान्धाता च आदि प्रदेश उसके साम्राज्य में सम्मिलित स थे. उसने अपने बाहुबल से पश्चिमी भारत उ के विशाल भू-भाग पर अधिकार किया तथा दक्षिण नरेश शातकर्णी को दो बार परास्त कर जीवनदान दिया. उसके शासनकाल में प्रजा बहुत सुखी थी. रुद्रदामन के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी अयोग्य सिद्ध हुए तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में आभीरों ने शकों की शक्ति को बहुत अधिक क्षीण कर दिया और चौथी शताब्दी ई. के अन्त में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने मालवा और काठियावाड को विजित कर शकों की सत्ता को समाप्त ही कर दिया
व कुषाण
यवन, पह्नव एवं शक जाति की भाँति कुषाण भी एक विदेशी जाति थी जो चीन के पश्चिमोत्तर प्रदेश में निवास करती थी. इस जाति का सम्बन्ध चीन की यू.ची जाति की शाखा से था. भारत में आने वाली विदेशी जातियों में कुषाण जाति के लोग सर्वाधिक प्रभावशाली रहे. कदफिसीस प्रथम अथवा कुजुल कदफिसीस कुषाण वंश का प्रथम शासक था इसके अतिरिक्त वीम- कदफिसीस, कनिष्क, वासिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव आदि अन्य प्रमुख शासक थे कुषाणों ने ईसा की पहली शती के उत्तरार्द्ध तथा दूसरी शती में उत्तर-पश्चिमी भारत में शासन किया.
कनिष्क कुषाण वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक था ओल्डनबर्ग, फरगुसन आदि विद्वानों के अनुसार वह 78 ई में सिंहासन पर आसीन हुआ उसका साम्राज्य मध्य एशिया, अफगानिस्तान तथा पश्चिमोत्तर भारत में विस्तृत था. अतः पुरुषपुर (पेशावर) को उसने अपनी राजधानी बनाया पंजाब, सिन्ध, कश्मीर, उत्तर प्रदेश, पूर्व तथा दक्षिण के कुछ प्रदेशों को विजित किया. भारत के अतिरिक्त अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, गान्धार, बैक्ट्रिया, ताशकंद खोतान, हिरात, गजनी तथा सिस्तान आदि प्रान्त कनिष्क के साम्राज्य में सम्मिलित थे. कनिष्क के धर्म के सम्बन्ध में जानकारी उसकी मुद्राओं से प्राप्त होती है उसके काल की तीन प्रकार की प्राप्त मुद्राओं में से प्रथम प्रकार की मुद्रा पर यूनानी देवता, सूर्य, चन्द्रमा के चित्र मिले हैं. अतः वह यूनानी धर्म का अनुयायी था द्वितीय प्रकार की मुद्रा में ईरानी देवता अग्नि के चित्र मिले हैं, अतः वह ईरानी धर्म का अनुयायी था तृतीय प्रकार की मुद्रा में बुद्ध के चित्र मिले हैं, अतः वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था. ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी रहा हो, किन्तु अन्त में वह बौद्ध धर्म का प्रबल समर्थक हो गया. इसके शासनकाल में कश्मीर के कुण्डलवन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ इस संगीति के वसुमित्र सभापति तथा अश्वघोष उपसभापति थे. संगीति के पश्चात् बौद्ध धर्म हीनयान तथा महायान दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया. बुद्ध चरित का रचयिता अश्वघोष कनिष्क का दरबारी कवि था वसुमित्र, नागार्जुन इसके काल के अन्य विद्वान् थे. आयुर्वेद का महापंडित ‘चरक’ कनिष्क का राजवैद्य था.
कनिष्क कला का संरक्षक था. उसके शासनकाल में चित्रकला तथा मूर्तिकला कला की नवीन गांधार शैली का विकास हुआ. सारनाथ, मथुरा, गान्धार तथा अमरावती कला के प्रमुख केन्द्र थे. गान्धार शैली में असंख्य बौद्ध मूर्तियों का निर्माण हुआ. मठ, विहार तथा स्तूप निर्मित हुए कनिष्कपुर तथा सिरमुख नगरों की स्थापना हुई भारतीय इतिहास में अनेक इतिहासकारों ने कनिष्क को द्वितीय अशोक की संज्ञा भी दी है, एक मत के अनुसार 101 ई में कनिष्क की मृत्यु हो गई दूसरा मत 123 ई को अन्तिम तिथि मानता है
| कनिष्क की सिंहासनारोहण की तिथि
कनिष्क की सिंहासनारोहण तिथि के सम्बन्ध में विद्वानों के निम्नलिखित मत है (1) डॉ. फ्लीट, कनिंघम, कैनेडी, डोसन व फ्रैंक के अनुसार 58 ई.पू.
(2) रेप्सन, फरगुसन, ओल्डनवर्ग, आर. डी. बैनर्जी व डॉ. रायचौधरी के अनुसार 78 ई.
(3) सर जॉन मार्शल, स्टेनकोनों व स्मिथ के अनुसार 120 ई., 125 ई. अथवा 144 ई.
(4) आर. सी. मजूमदार के अनुसार 248
(5) डॉ. आर. जी. भण्डारकर के अनुसार 278 ई.
सर्वाधिक मान्य तिथि कनिष्क की सिंहासनारोहण की सर्वाधिक मान्य तिथि 78 ई. है.
विदेशी प्रभाव
मौर्य काल के उपरान्त भारत में आए विदेशियों, विशेषकर यूनानियों ने भारतीय संस्कृति व जनजीवन को सम्पन्न बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया पहला योगदान हमें मुद्रा के क्षेत्र में दिखाई देता है. यूनानी द्रम्म को दाम के रूप में भारतीय भाषाओं में अपनाया गया तथा आहत सिक्कों के स्थान पर अधिक कलात्मक सिक्के, जिन पर एक ओर राजा की आकृति तथा दूसरी ओर देवता की आकृति या अन्य चिह्न अंकित किए जाते थे. ढाले जाने लगे.
ज्योतिष के क्षेत्र में नक्षत्रों के आधार पर भविष्य बताने की कला यूनानियों से सीखी गई, साथ ही रोमक व पोलिस सिद्धान्त भी उन्हीं से लिए गए. इस क्षेत्र में यूनान के योगदान को गार्गी संहिता तथा वाराहमिहिर दोनों ने स्वीकार किया.
कला के क्षेत्र में विदेशी प्रभाव सबसे अधिक मूर्तिकला के क्षेत्र में दिखाई देता है. ‘यूनानी बौद्ध कला’ अथवा ‘इण्डो-ग्रीक कला’ के नाम से विख्यात गांधार शैली के बुद्ध व बोधिसत्व की मूर्तियाँ गौतमबुद्ध की कम ‘अपोलो’ की मूर्ति ज्यादा प्रतीत होती है. यह कला कनिष्क काल में अपने विकास के चरम बिन्दु पर थी.
साहित्य के क्षेत्र में विदेशी प्रभाव नगण्य-सा है. हाँ, महाभारत की मूल कथा में बाद में जो आख्यान जोड़े गए उनमें से कुछ में बाह्य प्रभाव की छाया मिलती है, भारतीय नाट्य कला पर यूनानी प्रभाव की बात करना तर्कसगत नहीं है.
अन्त में यह रेखांकित करना आवश्यक है कि केवल भारतीय यूनानियों व विदेशियों से सीखते ही नहीं रहे, धर्म व दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने विदेशियों को बहुत कुछ सिखाया भी.
गुप्त साम्राज्य की स्थापना तृतीय शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी में हुआ. चूँकि इस काल में भारत ने प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की, इसीलिए भारतीय इतिहास में यह काल ‘स्वर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है. इस काल में गुप्त शासकों ने भारत के बड़े भू-भाग को अपने अधिकार में ले लिया. गुप्त काल के प्रमुख शासक थे- चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, विक्रमादित्य कुमार गुप्त, स्कन्दगुप्त, बुद्ध गुप्त.
श्रीगुप्त (240-280 ई.)
श्रीगुप्त इस वंश का संस्थापक था. 240-280 ई. तक उसने शासन किया. महाराज की उपाधि धारण की. डॉ. के.पी. जायसवाल के मतानुसार श्रीगुप्त भारशिवो के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था.
घटोत्कच (280-320 ई.)
श्रीगुप्त के पुत्र घटोत्कच ने 280 ई. से 320 ई. तक शासन किया. महाराज की उपाधि धारण की एलन के मतानुसार घटोत्कच के साम्राज्य में पाटलिपुत्र तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश आते थे.
चन्द्रगुप्त प्रथम (320-335 ई.)
घटोत्कच का उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त प्रथम स्वतन्त्र शासक बना. उसने महाराजा- धिराज की उपाधि धारण की और लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमार देवी से विवाह कर अपनी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ बनाया. बाद में उसने लिच्छवि साम्राज्य को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया. उसने 320 ई. से 335 ई. तक शासन किया तथा समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया.
समुद्रगुप्त (335-375 ई.)
चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् समुद्रगुप्त राज सिंहासन पर आसीन हुआ. हरिषेण समुद्रगुप्त का मंत्री एवं दरबारी कवि था. इसके द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजयों, साम्राज्य ग विस्तार आदि के विषय में उपयोगी जानकारी प्राप्त होती है. वह महान् विजेता था. उसने हो महाराजाधिराज की उपाधि धारण की व कला तथा साहित्य की उन्नति में अपूर्व स योगदान दिया. उसने 335 ई. से 380 ई. तक सफलतापूर्वक शासन किया.
समुद्रगुप्त की विजयें
उत्तरी भारत की विजय इलाहाबाद प्रशस्ति के अनुसार समुद्र- गुप्त ने उत्तरी भारत पर दो बार आक्रमण किया. प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि अपने प्रथम आक्रमण में उसने उत्तरी भारत के तीन शासकों (1) अच्युत, (2) नागसेन, (3) कोट कुल से सम्बन्धित एक शासक को पराजित किया. प्रशस्ति की 21वीं पंक्ति के अनुसार अपने द्वितीय आक्रमण में उसने 9 शासकों- (1) रुद्रदेव, (2) मतिल, (3) नागदत्त, (4) चन्द्रवर्मन, (5) गणपति नाग, (6) नागसेन, (7) अच्युत, (8) नंदिन, (9) बलवर्मन को परास्त कर उनके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया. आटविक राज्य की विजय
जबलपुर तथा छोटा नागपुर के समीप आटविकों के 18 राज्य थे. वहाँ जंगल तथा पहाड़ी प्रदेश थे. आटविकों को परास्त कर समुद्रगुप्त ने उन्हें अपना सेवक बना लिया. दक्षिण की विजयों में समुद्रगुप्त को इन राज्यों से सहयोग प्राप्त हुआ.
दक्षिण भारत की विजय दक्षिण विजय अभियान में उसने 12 राज्य के राजाओं को परास्त कर उनसे वार्षिक कर वसूल किया. दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया, बल्कि उन्हें अपने अधीनस्थ रखा इन पराजित राजाओं ने भी समुद्रगुप्त को अपना राजाधिराज स्वीकार कर लिया. समुद्रगुप्त द्वारा पराजित राज्यों तथा राजाओ के नाम इस प्रकार थे-
(1) कौशल का शासक महेन्द्र, (2) महाकान्तर का व्याघ्रराज, (3) कोशल का मन्तराज, (4) पिष्टपुर का महेन्द्रगिरि, (5) कोट्टूर का स्वामीदत्त (6) विजिगापट्टम का दमन, (7) काँची का विष्णुगोप, (8) अवमुक्त का नीलराज, (9) वेंगी का हस्तिवर्मन (10) पालक्क का उग्रसेन, (11) देवराष्ट्र का कुवेर, (12) कुस्थलपुर का धनञ्जय सीमांत राज्यों की विजय
सीमान्त राज्यों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली. सीमान्त राज्य निम्नलिखित थे- (1) समतट, (2) दवाक (3) कामरूप, (4) नेपाल (5) कर्तृपुर. गणराज्यों पर विजय
समुद्रगुप्त की विजयों से भयभीत होकर गणराज्य जिनकी संख्या 9 थी. ने बिना युद्ध किए ही समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली. ये गणराज्य थे
मालव
(2) अर्जुनायन,
(3) योद्धेय
(4) मद्रक,
(5) आभीर,
(6) प्रार्जुन
(7) सनकानीक,
(8) काक,
(9) खरपटिक.
समुद्रगुप्त का धर्म
समुद्रगुप्त हिन्दु धर्म में विश्वास रखता था, किन्तु दूसरे धर्मों के प्रति भी सहिष्णु था. वह विष्णु का उपासक था. साम्राज्य समुद्रगुप्त का साम्राज्य उत्तर में हिमालय की तलहटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पूर्व में हुगली से पश्चिम में यमुना व चम्बल तक विस्तृत था. रामगुप्त समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त मगध सिंहासन पर आसीन हुआ. वह अत्यन्त ही भीरू प्रकृति का व्यक्ति था. चन्द्रगुप्त द्वितीय अपने भाई रामगुप्त की हत्या कर मगध सिंहासन पर आसीन हो गया.
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (लगभग 380-414 ई.)
इतिहास में इसे विक्रमादित्य के नाम से जाना जाता है. गुप्तवंश इसके राज्य उन्नति की चरम सीमा पर था. इसने शक में राज्य का अन्त किया तथा बाल्हीक प्रदेश तक विजय प्राप्त की. चीनी यात्री फाह्यान इसी के शासनकाल में भारत आया था. विक्रमादित्य कला, साहित्य व संस्कृति का संरक्षक तथा प्रेमी था इसके दरबार के नवरत्नों में कालिदास, जो कवि तथा नाटककार थे, प्रसिद्ध हैं.
कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य (414-455 ई.)
यह चन्द्रगुप्त द्वितीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था. यह कार्तिकेय का उपासक तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था. इसने अपने पूर्वजों से प्राप्त विशाल साम्राज्य को सुरक्षित तथा संगठित बनाए रखा. इसका शासन शांति तथा समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है. 455 ई. तक कुमारगुप्त ने शासन किया.
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (455-467 ई.)
कुमारगुप्त की मृत्यु के पश्चात् मगध सिंहासन पर स्कन्दगुप्त आसीन हुआ. यह गुप्त वंश का अन्तिम योग्य सम्राट था. इसके शासनकाल में हूणों ने भारत पर आक्रमण किए. स्कन्दगुप्त ने हूणों का मुकाबला बुद्धिमानी तथा वीरतापूर्वक किया. हुणों को परास्त कर ‘क्रमादित्य’ अथवा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की वह विष्णु का उपासक था.
स्कन्दगुप्त के उपरान्त का पराभव आरम्भ हो गया. पुरूगुप्त गुप्त वंश (467-69), कुमारगुप्त द्वितीय (473-76), बुधगुप्त (476-500), वैन्यगुप्त व भानुगुप्त, नरसिंहगुप्त बालादित्य, कुमारगुप्त तृतीय तथा विष्णुगुप्त ने सौ वर्ष तक और राज्य किया, किन्तु उनमें से कोई भी इतना सामर्थ्यवान नहीं निकला जो हूणों का सफल सामना करता तथा राज्य को विखण्डित होने से रोकता
गुप्त युग शांति, समृद्धि एवं चतुर्मुखी इ विकास का युग था. कुछ इतिहासविदों ने इस युग की ‘आंगस्टन युग’ तथा ‘पैरिक्लयन युग’ से तुलना की है. भारतीय इतिहास में इस युग को ‘स्वर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है. इस युग में कला, विज्ञान, साहित्य, वास्तुकला आदि के क्षेत्र में आशातीत विकास हुआ. उच्चकोटि की शासन व्यवस्था स्थापित हुई. व्यापार, उद्योग, कृषि की उन्नति हुई.
प्रशासन
राजा शासन का अध्यक्ष होता था, वह मंत्रियों की सहायता से राज्य धर्म के अनुसार शासन करता था. महामंत्री, महाबलाधिकृत, महादण्डनायक महाप्रतिहार, संधि विग्रहिका, कुमारामात्था नामक प्रमुख अधिकारी होते थे. भू-राजस्व राज्य की आय का प्रमुख साधन था. करों की कुल संख्या 18 थी.
सम्पूर्ण राज्य प्रान्तों में विभक्त था, जिनके अधिकारी उपरिक कहलाते थे. प्रान्त विषय, मण्डल एवं भोग में विभक्त थे, ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी. विषय का अधिकारी विषयपति होता था, जिसकी सहायता कुमारमात्य व आयुक्त करते थे, जिले के शासक की सहायता दण्डिक, दण्डपासिक, कुलक आदि करते थे. ग्राम का अधिकार ग्रामिक एवं भोजक होते थे। प्रान्तीय जिला व ग्राम के शासन में जनता के प्रतिनिधियों का महत्वपूर्ण स्थान था.
सैन्य विभाग
केन्द्र में मुख्य विभाग सैन्य था. संधि विग्रहिक सेना का मुख्य अधिकारी होता था
स्कृतिक विकास
इसे संधि और युद्ध करने का अधिकार प्राप्त था. उसके अधीनस्थ सैन्य अधिकारी थे-महासेनापति अथवा महादण्डनायक, बलाधिकृत अर्थात् सैनिकों की नियुक्ति करने वाला, रणभाण्डागारिक अर्थात् सैनिक सामानों का अधिकारी, भटश्वपति अर्थात् पैदल एवं घुड़सवारों का अध्यक्ष आदि ‘बलाधिकरण’ सेना के कार्यालय को कहते हैं.
गुप्त वंश
शासक का नाम चन्द्रगुप्त प्रथम समुद्रगुप्त 320-335.
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रामगुप्त 375-380..
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य 413-540 ई.
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य उत्तराधिकारी
गुप्त महेन्द्रादित्य 415-455 ई.
बाद के गुप्त शासक- पुरुगुप्त, नरसिंह गुप्त, बालादित्य, कुमार गुप्त द्वितीय, बुद्ध गुप्त, भानु गुप्त, हर्ष गुप्त, दामोदर गुप्त, महासेन गुप्त आदि
न्याय-विभाग
न्याय व्यवस्था श्रेष्ठ थी. दण्डव्यवस्थ कठोर नहीं थी. किसी को भी मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था. देशद्रोही अथवा चो अपराधी का हाथ काट दिया जाता था सम्राट न्याय विभाग का सर्वोच्च अधिका होता था. उसका निर्णय अंतिम माना जा था. नारद स्मृति के अनुसार गुप्तयुग में चार प्रकार के न्यायालय थे
(1) कुल न्यायालय
(2) श्रेणी न्यायालय,
(3) गुण न्यायालय,
(4) राजकीय न्यायालय. इनमें प्रथम तीन जनता के तथा चौथा सरकारी न्यायालय होता था.
उद्योग-धन्धे
उद्योग धंधों की स्थिति इस युग में संतोषजनक थी. लौह उद्योग, स्वर्ण उद्योग, वस्त्र उद्योग प्रचलित थे गुजरात, बंगाल | तथा तमिल देश वस्त्र उद्योग के प्रमुख केन्द्र थे. दिल्ली के पास स्थित उत्कृष्ट लोह कला के सर्वोत्तम उदाहरण लोह स्तम्भ इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि लोह उद्योग अत्यधिक उन्नत था जहाज और नावों का निर्माण भी इस युग में होता था. व्यापार इस युग में व्यापार उन्नत अवस्था में था राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों प्रकार के व्यापार प्रचलन में थे व्यापार जल एवं थल दोनों मार्गों से होता था पेशावर, भडोच, उज्जयिनी, वाराणसी, प्रयाग, पाटलिपुत्र मथुरा, ताम्रलिप्ति तथा वैशाली आदि व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे. पश्चिमी एशिया, चीन तथा तिब्बत के साथ स्थल मार्ग तथा मिस्र, रोम, फारस व यूनान आदि के साथ जल मार्ग द्वारा व्यापार होता था. भड़ौच तथा ताम्रलिप्ति इस युग के प्रमुख बंदरगाह थे. व्यापार में बहुमूल्य रत्न सूती वस्त्र, मसाले, सुगन्धित तेल, उबटन, पाउडर, इत्र, आभूषण आदि का निर्यात तथा सोना, चाँदी, ताँबा, टिन, रेशम कपूर, खजूर तथा अश्वों आदि का आयात किया जाता था. गुप्त युग में सिक्कों का प्रचलन हो गया था विभिन्न प्रकार के सोने, ताँबे तथा चाँदी के सिक्कों का व्यापार में प्रयोग किया जाता था. साथ ही वस्तु विनिमय के माध्यम से व्यापार होता था. जल तथा स्थल दोनों ही व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा की पूर्व व्यवस्था की गई थी.
कृषि
इस युग में कृषि क्षेत्र में भी उन्नति हो रही थी. गेहूँ, चावल, ज्वार, बाजरा, कपास, सुपारी, नील. जूट, तिलहन, फल, तरकारी तथा विभिन्न प्रकार के मसालों आदि की खेती की जाती थी.
कला
गुप्त युग में विविध प्रकार की कलाओं यथा मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला, संगीत नाव नाट्य कला तथा मुद्रा कला के क्षेत्र में आशातीत उन्नति हुई.
मूर्तिकला
इस युग में गान्धार प्रभाव से मुक्त हो भारतीय कला अपने विशुद्ध रूप में प्रकट हुई, बहुतायत में देवताओं की मूर्तियों का निर्माण हुआ. मूर्तियों में विष्णु, शिव, पार्वती, ब्रह्मा, बुद्ध तथा जैन तीर्थंकर की मूर्तियों का निर्माण हुआ. देव मूर्तियों में अलंकृत प्रभामंडल, झीने वस्त्र, मुद्रा तथा आसन कला की दृष्टि से प्रशंसनीय है. सारनाथ की बुद्धमूर्ति, मथुरा की वर्धमान महावीर की मूर्ति विदिशा की वराह अवतार की मूर्ति, झाँसी की शेषशायी विष्णु की मूर्ति, काशी की गोवर्धनधारी कृष्ण की मूर्ति आदि इस युग की मूर्तिकला के प्रमुख उदाहरण हैं.
चित्रकला
चित्रकला विकास की चरम सीमा को प्राप्त कर चुकी थी. स्वाभाविकता, लावण्य, सजीवता आदि इस युग की चित्रकला के प्रमुख गुण थे. अजन्ता की गुफाओं के चित्र इस युग की चित्रकला के सर्वोत्तम उदाहरण हैं. चित्रों के विषय तीन प्रकार के हैं. प्रथम प्रकार में पशु-पक्षियों के चित्र, पेड़, फूल- पत्तियाँ आदि द्वितीय प्रकार में मनुष्यों के तथा तीसरे प्रकार के विषय में जातकों की कहानियों का उत्कृष्ट चित्रण है.
वास्तुकला
वास्तुकला के अन्तर्गत इस युग में विभिन्न मंदिर, गुफा, चैत्य, बिहार, स्तूप तथा अट्टालिकाओं से युक्त वैभवशाली नगरों का निर्माण हुआ. इनके बनाने में पत्थरों तथा पकी ईंटों का प्रयोग किया गया. झाँसी स्थित देवगढ़ का दशावतार का मंदिर कानपुर स्थित भीतरगाँव का मंदिर, नागौर स्थित भूमरा का शिव मंदिर आदि युग की वास्तुकला के कुछ श्रेष्ठ उदाहरण हैं.
संगीत एवं नाट्यकला
संगीत एवं नाट्यकला का पर्याप्त विकास हुआ. गुप्त शासकों ने संगीत, नृत्य व अभिनय को प्रोत्साहन दिया था. ललित कलाओं में महिलाओं को प्रशिक्षण दिया जाता था. देवदासी व नगर वधुओं को इन कलाओं में श्रेष्ठ प्रशिक्षण दिया जाता था. –
गुप्तकालीन मुद्राएं
गुप्त युग में मुद्रा का पर्याप्त विकास हुआ. निर्मित मुद्राएं बहुमूल्य धातुओं की तथा आकर्षक थी. मुद्राओं पर अंकित मूर्ति तत्कालीन सम्राटों की मनोवृत्ति को स्पष्ट करती थीं. इस युग में सोने व चाँदी की मुद्राओं का निर्माण हुआ. चन्द्रगुप्त प्रथम के सिक्कों पर चन्द्रगुप्त व कुमार देवी के चित्र व नाम हैं तथा दूसरी ओर सिंह पर आसीन-दुर्गा है. समुद्र गुप्त के अश्व, व्याघ्र प्रकार के सिक्के तत्कालीन मुद्राकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं. विज्ञान गुप्त युग में गणित पदार्थ विज्ञान, धातुविज्ञान, रसायन विज्ञान ज्योतिष विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान की बहुत उन्नति हुई दशमलव तथा भिन्न का अन्वेषण इसी युग में हुआ. आर्यभट्ट इस युग के प्रख्यात ज्योतिषी थे, इन्होंने ‘आर्यभट्टीयम’ नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें अंकगणित, बीजगणित तथा रेखागणित की विवेचना की गई है. आर्यभट्ट ने यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है. इसी काल में लाट, प्रद्युम्न, उदयनंदिन व वाराहमिहिर ने आर्यभट्ट के कार्य को चरम उत्कर्ष पर पहुँचाया वाराहमिहिर की वृत्तसंहिता तो ज्ञान का भण्डार है, ब्रह्मगुप्त का ब्रह्म सिद्धान्त भी खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है शप्त पंचसिका, वशिष्ठ सिद्धान्त उच्चकोटि के ग्रन्थ इसी युग में रचे गए.
वैधक की इस युग में बहुत उन्नति हुई धनवन्तरि तथा सुश्रुत इस युग के प्रख्यात वैद्य थे. नवनीतकम् इस युग की प्रसिद्ध चिकित्सा पुस्तक है. हस्त्यायुर्वेद व अश्वशास्त्र पशु चिकित्सा सम्बन्धी पुस्तकें हैं. प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य धनवन्तरि इसी युग में हुआ था. उसने अनेक नवीन औषधियों की खोज की, ‘रसचिकित्सा’ नामक पुस्तक की रचना की. उसने सिद्ध किया कि सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा आदि धातुओं में रोग निवारण की शक्ति विद्यमान है. साहित्य गुप्त युग में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति हुई काशी, मथुरा, नासिक पद्यावती, उज्जयिनी, अवरपुर, बल्लभी पाटलिपुत्र तथा काँची आदि गुप्त युग के प्रमुख शैक्षिक केन्द्र थे शिक्षा संचालन में समृद्ध व्यक्तियों की दान की गई धनराशि का उपयोग किया जाता था. हिन्दू, बौद्ध तथा जैन साहित्य इस युग में लिखा गया रामायण व महाभारत का वर्तमान स्वरूप इसी युग में प्राप्त हुआ. वात्स्यायन का कामसूत्र, विष्णु शर्मा का पंचतन्त्र की रचना हुई. पुराणों, नारद व वृहस्पति स्मृतियाँ व अन्य धर्मशास्त्र इसी युग में रचे गए. ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका की रचना की.
संस्कृत साहित्य में कालिदास ने कुमारसम्भव, मेघदूत, अभिज्ञानशाकुन्तलम तथ मालविकाग्निमित्र की रचना की. संस्कृति इस युग में राष्ट्रभाषा बन गई थी. इस युग में लौकिक साहित्य की रचना भी प्रचुर मात्रा में हुई. विशाखदत्त की मुद्रा- राक्षस, देवी चन्द्रगुप्तम भट्टी का रावण वध शूद्रक का मृच्छकटिकम् सुबन्धु की वासवदत्ता, दण्डी की दसकुमार चरित इसी युग में लिखे गए.
हरिषेण. वीरसेन, कालिदास तथा विशाखदत्त आदि इस युग के प्रसिद्ध विद्वान थे. इनमें हरिषेण महान् कवि, वीरसेन व्याकरणाविद थे. बौद्ध विद्वानों में असंग वसुबन्धु दिगनाग तथा धर्मपाल, जैन विद्वानों में उपेशवती, सिद्धसेन तथा भद्रबाहु द्वितीय इसी युग में हुए. धर्म गुप्त युग धार्मिक विकास के लिए भी विख्यात है. वर्तमान में प्रचलित हिन्दू धर्म के स्वरूप का निर्माण इसी युग में हुआ. इस युग में सम्राट हिन्दू धर्म के अनुयायी थे. विष्णु इनके इष्ट देव थे. वैष्णव, शैव धर्म ■ का अत्यधिक प्रचार-प्रसार हुआ साथ ही बौद्ध एवं जैन धर्म भी अपने अस्तित्व में रहे.
स्त्रियों की दशा
गुप्त युग में स्त्रियों की स्थिति श्रेष्ठ नहीं थी उन्हें सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त नहीं था. बाल विवाह प्रथा को बढ़ावा मिला था. यद्यपि ‘स्त्री-शिक्षक’ का विवरण मिलता है, तथापि यह कहा जा सकता है कि स्त्री- शिक्षा की औपचारिक व्यवस्था नहीं थी. उच्चकोटि की शिक्षक, दार्शनिक, चिकित्सक स्त्रियों की संख्या सीमित थी विधवा विवाह का प्रचलन बन्द हो गया था विधवाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वह ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शेष जीवन व्यतीत करें, सती प्रथा भी प्रारम्भ हो चुकी थी सती प्रथा उच्च वंशीय लोगों तक सीमित थी उन्हें ‘स्त्रीधन’ के अतिरिक्त सम्पत्ति में भाग नहीं मिलता था स्त्रियों का स्वतंत्र जीवन नहीं था उन्हें सदैव संरक्षण की आवश्यकता थी अतः यह कहा जा सकता है कि स्त्रियों की स्थिति पहले की अपेक्षाकृत निम्न हो गई थी.
गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ ही अनेक स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ इन राज्यों में वर्धन वंश के थानेश्वर राज्य ने अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की थानेश्वर राज्य के शासकों का वर्णन मधुवन प्रशस्ति में प्राप्त होता है. हर्ष वर्धन के अभिलेखों में उसके केवल चार पूर्वजों-नर वर्धन राज्य वर्धन, आदित्य वर्धन तथा प्रभाकर वर्धन का उल्लेख मिलता है. प्रभाकर वर्धन तथा हर्ष वर्धन वंश के प्रमुख शक्तिशाली एवं प्रसिद्ध शासक थे. प्रभाकर वर्धन प्रभाकर वर्धन अपने वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक था उसने महाराजा- धिराज तथा परमभट्टारक की उपाधि धारण की. प्रभाकर वर्धन के दो पुत्र राज्य वर्धन. हर्षवर्धन तथा एक कन्या राज्यश्री थी. उसने मौखरी वंश के ग्रह वर्मन से अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह कर मौखरी वंश से मैत्री सम्बन्ध स्थापित किए. राज्य वर्धन प्रभाकर वर्धन की मृत्यु के उपरान्त राज्य वर्धन थानेश्वर का राजा बना शासक बनते ही उसे अपने बहनोई के हन्ता मालवा व बंगाल के शासकों से युद्ध करना पड़ा. यद्यपि युद्ध में राज्य वर्धन को विजय प्राप्त हुई, किन्तु शशांक ने उसे धोखे से मरवा दिया. उसके बाद उसका छोटा भाई हर्ष वर्धन राजा बना हर्ष वर्धन हर्ष वर्धन का जन्म 590 ई. में हुआ था. अपने बहनोई ग्रहवर्मन तथा भाई राज्य वर्धन की आकस्मिक मृत्यु से कन्नौज और थानेश्वर राज्य के शासन की जिम्मेदारी उसके ऊपर आ पड़ी, जिसे उसने कुशलता से निभाया. वह एक वीर साहसी तथा दानप्रिय व्यक्ति था. उसमें समुद्रगुप्त के समान वीरता तथा अशोक महान् के समान सहिष्णुता के गुण विद्यमान थे. वह एक महान् साहित्यकार भी था. उसने नागानंद, रत्नावली तथा प्रियदर्शिका ग्रन्थ की रचना की थी. राजकवि बाण, दिवाकर तथा मयूर आदि उसके शासनकाल में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में आशातीत उन्नति हुई वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था. चीनी यात्री ह्वेनसांग इसी के शासनकाल में भारत आया था उसने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया. हर्ष ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया हर्ष के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी के साधन ह्वेनसांग का वर्णन तथा बाण का हर्षचरित है हर्ष ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी. उसका साम्राज्य पूर्व में पश्चिमी बंगाल, मगध, उडीसा तथा गंजम तक उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में नर्मदा तक विस्तृत था. पश्चिमी पंजाब, सिन्ध, कश्मीर, कामरूप, गुजरात, सौराष्ट्र, राजपूताना तथा दक्षिण भारत के कुछ प्रदेश उसके साम्राज्य में सम्मिलित थे. हर्ष की विजय
पंच नद प्रदेश की विजय
चीनी यात्री ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि हर्ष ने पंच नदी प्रदेश अर्थात् पंजाब, कान्यकुब्ज, गौड़ (बंगाल), मिथिला (बिहार) तथा उड़ीसा पर विजय प्राप्त की थी.
बल्लभी की विजय
हर्ष ने बल्लभी के शासक ध्रुवसेन द्वितीय पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया. ध्रुवसेन द्वितीय ने भागकर भड़ौच के राजा दछा के यहाँ शरण ली और कुछ समय पश्चात् हर्ष ने बुद्धिमत्तापूर्ण ध्रुवसेन द्वितीय से अपनी पुत्री का विवाह कर मित्रता कर ली. ध्रुवसेन द्वितीय ने हर्ष को अपना अधीश्वर स्वीकार कर लिया. गौड की विजय हर्ष को शशांक के विरुद्ध कोई सफलता नहीं मिली, किन्तु शशांक की मृत्यु के पश्चात् हर्ष ने गौड़ प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया था.
पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध
ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि हर्ष का चालुक्य वंश के शक्तिशाली सम्राट पुलकेशिन द्वितीय से संघर्ष हुआ जिससे हर्ष को अपार क्षति पहुँची हर्ष पराजित हुआ, उसे पीछे हटना पड़ा नर्मदा नदी दोनों शासकों के राज्य की सीमा बन गई
सिन्ध की विजय
बाण के हर्षचरित से ज्ञात होता है कि हर्ष ने सिन्ध के शासक को नतमस्तक किया, किन्तु हेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि सिन्धु एक स्वतन्त्र राज्य था. डॉ. मजूमदार का मत है कि हर्ष को सिन्ध के विरुद्ध कोई खास सफलता प्राप्त नहीं हुई होगी
अन्य विजय
उपर्युक्त विजयों के अतिरिक्त हर्ष वर्धन ने पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् गजाम प्रदेश पर भी अपना अधिकार कर लिया था
राजा की स्थिति
राजा शासन प्रबन्ध का सर्वोच्च अधिकारी था. यह मुख्य न्यायाधीश तथा युद्ध में सेना का नेतृत्वकर्ता होता था. राज्य के उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति करता था. उसने परम भट्टारक परमेश्वर, परम देवता’ ‘महाराजाधिराज आदि की उपाधियाँ धारण कीं.
केन्द्रीय शासन
राजा राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था. केन्द्रीय शासन अनेक भागों में विभक्त था. इन विभागों को अध्यक्षों एवं मंत्रियों का संरक्षण प्राप्त था राजा के निजी अधिकारी [ इस प्रकार थे- T प्रतिहार (राज्य सभा का मुख्य संरक्षक) विनयानुसार (आगन्तुकों को राज्य सभा में ले जाने वाला और उनके आगमन की घोषणा करने वाला) स्थापित (रनिवास के कर्मचारियों का निरीक्षक)
मंत्रिपरिषद्
हर्ष के शासन प्रबन्ध में मंत्रिपरिषद् थी अथवा नहीं ठीक-ठीक प्रकार से ज्ञात नहीं है, परन्तु इतना तो निश्चित है कि हर्ष के शासनकाल में अनेक मंत्री थे, जिनके सहयोग से हर्ष शासन करता था हर्ष चरित के अनुसार ‘अवन्ति’ हर्ष का प्रधानमंत्री था. मंत्रियों में संधिविग्रहिक अर्थात् संधि और युद्ध करने का अधिकारी, अक्षपटलाधिकृत जिसके हाथ में सरकारी कागज पत्र रहते थे अर्थ विभाग का मंत्री तथा न्याय विभाग के मंत्री मुख्य थे. प्रान्तीय शासन समस्त साम्राज्य की भूमि को राज्य. राष्ट्र, देश अथवा मण्डल कहा जाता था. इसे कई प्रांतों जिन्हें भुक्ति अथवा प्रदेश कहते थे में विभक्त कर दिया गया था. अहिच्छत्र, श्रावस्ती कौशाम्बी इस काल के मुख्य मुक्ति थे मुक्ति को विषयों (जिलों) में विभक्त किया गया था प्रान्तों के अधिकारी उपरिक महाराज भोगपति, राष्ट्रपति कहलाते थे विषयपति विषय का शासन होता था इसकी नियुक्ति प्रान्तपति द्वारा की जाती थी प्रत्येक विषय को ‘पथकों में विभक्त किया गया था, जो आधुनिक तहसील की भाँति थे.
ग्राम शासन
‘पथकों को गाँवों में बाँट दिया गया था. गाँव शासन की सबसे छोटी इकाई थी गाँव के सभी मामलों की देखभाल महत्तर’ नामक पदाधिकारी करता था ग्रामिक, भ्रष्ट कुलाधिकरण अक्षपटलिक गाँव के अन्य महत्वपूर्ण अधिकारी होते थे दण्ड विधान हर्ष के शासनकाल में दण्डविधान अत्यन्त ही कठोर था घोर अपराध के लिए मृत्यु दण्ड, सामाजिक नैतिकता के उल्लंघन करने वाले को अंगभग, राजद्रोहियों को आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाता था कुछ अन्य अपराधों के लिए अपराधी को नगर अथवा गाँव से निष्कासन का दण्ड देकर जंगलों में भेज दिया जाता था सैन्य प्रबन्ध हर्ष का सैन्य प्रबन्ध अत्यन्त सुदृढ़ था. सेना के लिए सिन्ध, अफगानिस्तान तथा ईरान से उच्चकोटि के घोड़ों का क्रय किया जाता था सैनिकों की भर्ती उन्हें वेतन बताकर एक सार्वजनिक घोषणा द्वारा की जाती थी ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की सेना में पैदल फौजों के अतिरिक्त साठ हजार हाथी तथा एक लाख अश्वारोही थे आय-व्यय के साधन हर्ष के शासनकाल में आय के मुख्य साधन कर थे, किन्तु हर्ष ने अपनी प्रजा पर बहुत कम कर लगाया था भूमिकर आय का प्रमुख साधन था, जो उपज का 1/6 भाग था इसके अतिरिक्त दूध, फल, चरागाह तथा खनिजों पर लगाए कर आय के मुख्य साधन थे.
राज्य की आय को मुख्यतः चार मदों पर व्यय किया जाता था-
(1) राजकीय व्यय तथा अनुष्ठानों पर धार्मिक
(2) उच्च राजकीय पदाधिकारियों की धन सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए
(3) विद्वानों को पुरस्कृत करने हेतु
(4) विभिन्न सम्प्रदायों को दान तथा सार्वजनिक निर्माण हेतु
विन्ध्याचल के दक्षिण में तुंगभद्रा तक के विशाल विस्तृत प्रदेश में वाकाटकों का राज्य स्थापित था. प्राचीनकाल में यह प्रदेश दक्षिणापथ के नाम से जाना जाता था. वाकाटकों के पतन के पश्चात् छठी शताब्दी में यहाँ चालुक्यों का आधिपत्य हो गया. दक्षिण के प्रमुख राज्यों में हम यहाँ चालुक्य, चोल, राष्ट्रकूट एवं पल्लवों का अध्ययन करेंगे.
चालुक्य वंश
दक्षिण के विशाल भू-भाग पर चालुक्यों ने वर्षों तक शासन कर इस क्षेत्र की राजनीति को प्रभावित किया. चालुक्य वंश की तीन प्रमुख शाखाएं थीं-
(1) कल्याणी के चालुक्य,
(2) वातापी के चालुक्य,
(3) वेंगी के चालुक्य.
कल्याणी के चालुक्य
जिन चालुक्यवंशी नरेशों ने हैदराबाद राज्य स्थित कल्याण अथवा कल्याणपुर को राजधानी बनाया, वे कल्याणी के चालुक्य के नाम से प्रसिद्ध हुए तैलप प्रथम, तैलप द्वितीय, सत्याश्रय, विक्रमादित्य षष्ट, सोमेश्वर तृतीय तथा तैलप तृतीय आदि इस वंश के मुख्य शासक थे. कल्याणी के चालुक्य नरेश कला प्रेमी थे उनके शासनकाल में निर्मित भवनों में चिकने काले पत्थर का बहुतायत में प्रयोग किया गया है.
धखर जिले में लकुण्डी का काशी विश्वेश्वर का मंदिर तथा इत्तगी में महादेव का मंदिर कला के कुछ सुन्दर उदाहरण हैं।
विक्रमादित्य षष्ठ इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक था. सफल विजेता होने के साथ ही यह विद्वानों, कवियों का संरक्षक एवं आश्रयदाता था इसके शासनकाल में शिक्षा एवं साहित्य की अपार उन्नति हुई प्रसिद्ध कश्मीर कवि बिल्हण इसी के दरबार का अमूल्य रत्न था, जिसने विक्रमांक चरित्र नामक ग्रन्थ लिखकर विक्रमादित्य षष्ट की कीर्ति एवं यश को सर्वत्र फैलाया था. इसी समय विज्ञानेश्वर ने हिन्दू कानून की प्रसिद्ध पुस्तक ‘मिताक्षरा’ की रचना की थी, तैलप तृतीय कल्याणी के चालुक्य वंश का अन्तिम शासक था
वातापी के चालुक्य जिन चालुक्यों ने बीजापुर स्थित वातापी को अपनी राजधानी बनाया, वे वातापी के चालुक्य कहलाए जयसिंह नामक शासक ने इस वंश की नींव डाली. रणराज, पुलकेशिन प्रथम, कीर्तिवर्मन, पुलकेशिन द्वितीय, विक्रमादित्य, विनयदित्य, विजयादित्य आदि इस वंश के प्रमुख शासक हुए इनके शासनकाल में कला एवं धर्म की आशातीत उन्नति हुई. वातापी स्थित मंगलेश का मंदिर इस काल की कला का उत्कृष्ट उदाहरण है. इसके अतिरिक्त मेंगुती का शिव मंदिर तथा एहोल का विष्णु मंदिर तो अविस्मरणीय हैं. इस काल के शासक ब्राह्मण हिन्दू धर्म के अनुयायी थे, रवि कीर्ति जैन चालुक्यों के दरबार का महान् कवि था
पुलकेशिन द्वितीय इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था. सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् उसने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया तथा पृथ्वीवल्लभ- सत्याश्रय की उपाधि धारण की उत्तरी भारत के सम्राट हर्ष को नर्मदा के तट पर बुरी तरह पराजित किया उसका संघर्ष दक्षिण के पल्लव वंश से भी होता रहा तथा नरसिंहवर्मन ने उसे पराजित कर युद्ध में मार डाला (642 ई.) पुलकेशिन द्वितीय के उत्तराधिकारी अयोग्य थे, अतः परिस्थितियों का लाभ उठाकर राष्ट्रकूटों ने इस राजवंश का अन्त कर दिया. वेंगी के चालुक्य जिन चालुक्यों ने आन्ध्र प्रदेश स्थित वेंगी को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया, वे देगी के चालुक्य कहलाए. विष्णु वर्धन इस राजवंश का संस्थापक था. जयसिंह प्रथम, इन्द्र वर्धन विष्णु वर्धन द्वितीय, मंगि युवराज, जयसिंह द्वितीय. कोकिल, विष्णु वर्धन तृतीय आदि इस वंश के प्रमुख शासक हुए. विजयादित्य इस वंश का सर्वाधिक
शक्तिशाली शासक था, सिंहासन पर आसीन होते ही उसने पल्लवों को पराजित कर नेल्युर नगर पर तथा नोलम्ब राज्य के राज गांगी को परास्त कर उस पर भी अपना अधिकार कर लिया. राष्ट्रकूट वंश चालुक्यों के पतन के पश्चात् आठवीं शताब्दी के अन्त में राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर मालखेड़ अथवा मान्यखेट को अपनी राजधानी बनाया.
कृष्ण प्रथम, धुवधारावर्ष गोविन्द द्वितीय. गोविन्द तृतीय तथा अमोघवर्ष प्रथम आदि
इस वंश के प्रमुख शासक हुए. गोविन्द तृतीय इस वंश के प्रमुख शासकों में से एक था जिसने विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की दक्षिण भारत में उसने गंगों, चोलों, पाण्ड्यों तथा केरलों की बुरी तरह परास्त किया. अपने पिता ध्रुव की तरह उसने भी उत्तरी भारत पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की. कृष्ण तृतीय इस वंश का अंतिम महान् शासक था. 973 ई. में चालुक्य राजा तैलप द्वितीय ने राष्ट्रकूटों के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया. राष्ट्रकूट कालीन संस्कृति साहित्य राष्ट्रकूटों के शासनकाल में साहित्य की अपार उन्नति हुई. अमोघवर्ष प्रथम द्वारा प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय
लिखित ‘कविराज मार्ग’ तथा ‘रत्नमालिका’ जिनसेन द्वारा लिखित ‘पाश्र्वभयुदय’ इसके अतिरिक्त इसी काल की अमोधवृत्ति मुख्य साहित्य कृति हैं. जिनसेन, शाक्तायन, वीराचार्य, पोन्न, पाम्पा, रन्ना आदि इस काल के उच्चकोटि के लेखक कवि एवं दार्शनिक थे। शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रगति हुई ‘कन्हेरी’ का बौद्ध बिहार इस काल का शिक्षा एवं विद्या का प्रसिद्ध केन्द्र था इसके अतिरिक्त मंदिर तथा ब्राह्मणों के घर भी शिक्षा के केन्द्र थे कला
इस कला में स्थापत्य कला, चित्रकला तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ कृष्ण प्रथम के समय में निर्मित ऐलोरा का कैलाश मंदिर जोकि चट्टानों को काटकर बनाया गया था. इस काल की स्थापत्य कला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है धर्म राष्ट्रकूटों के काल में दक्षिण में पौराणिक हिन्दू धर्म उन्नति पर था पूजा हेतु अनेक मूर्ति तथा मंदिरों का निर्माण हुआ, जिनमें विष्णु तथा शिव की पूजा की जाती थी.. यज्ञों का प्रचलन था दन्तिदुर्ग ने उज्जयिनी में हिरण्यगर्भ यज्ञ तुलादान भी दिया था. पल्लव वंश किया था. साथ ही
कृष्ण नदी के दक्षिण के प्रदेश पर पल्लवों का आधिपत्य था. कांची पल्लवों की राजधानी थी. बप्पादेव इस वंश का संस्थापक तथा प्रथम शासक था. महेन्द्र वर्मन, नरसिंह वर्मन प्रथम, महेन्द्र वर्मन द्वितीय परमेश्वर वर्मन प्रथम, नरसिंह वर्मन द्वितीय, दन्ति वर्मन आदि इस वंश के प्रमुख शासक हुए. पल्लव कालीन संस्कृति साहित्य पल्लवों के शासनकाल में साहित्य की अपार उन्नति हुई पल्लवों ने तमिल भाषा के स्थान पर संस्कृत भाषा को प्रोत्साहन दिया पल्लवों की राजधानी कांची साहित्य का प्रमुख केन्द्र था कवि सम्राट भारवि. अलंकार के रचयिता दण्डिन, प्रसिद्ध विद्वान् मातृदत्त आदि साहित्य सम्राट थे महेन्द्र वर्मन द्वारा रचित ‘मत्तविलास प्रहसन’ पल्लव कालीन साहित्य की अनुपम कृतियों में से एक है शिक्षा
इस काल में शिक्षा का अत्यधिक प्रचार- प्रसार हुआ. वेद अध्ययन तथा संस्कृत भाषा की शिक्षा का अधिक प्रचार था. राजकीय आज्ञाएं भी संस्कृत में लिखी जाती थी.
काची का विश्वविद्यालय शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था, जहाँ सभी धर्मशास्त्रों तथा ज्ञान विज्ञान की शिक्षा का उचित प्रबन्ध था कला
इस काल में स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला का आशातीत विकास हुआ मंदिर स्थापत्य की चार शैलियाँ (1) महेन्द्र शैली- जिसका प्रवर्तक महेन्द्र वर्मन (2) मामल्ल शैली जिसका प्रवर्तक नरसिंह वर्मन प्रथम (3) राजसिंह शैली, (4) अपराजित शैली विकसित हुई धर्म
पल्लव कालीन शासक वैष्णव एवं शेव धर्म के अनुयायी थे विभिन्न शैव सम्प्रदायों का जन्म इसी काल में हुआ इस युग में शैव धर्म की प्रधानता बढी सत अय्यर एव तिरुज्ञान सम्बन्दर ने शैव धर्म का प्रचार- प्रसार किया चोल वंश
चोल वंश का इतिहास बहुत पुराना है. तीसरी व चौथी शताब्दी में पाण्डय तथा चेर वंशीय शासकों के उत्कर्ष के कारण इनका पतन हो गया और नवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक इनका प्रभाव न के बराबर रहा. किन्तु नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पल्लवों की शक्ति क्षीण हो गई, अतः एक बार पुनः चोल वंश की स्थापना का श्रेय विजयालय को जाता है, इसके पश्चात् आदित्य प्रथम, परान्तक प्रथम, राजराज प्रथम, राजाधिराज प्रथम, राजेन्द्र द्वितीय, वीर राजेन्द्र कोलोत्तुंग आदि प्रमुख चोल नरेश हुए.
विजयालय ने तंजौर को अपनी राजधानी बनाकर शासन आरम्भ किया राजराज प्रथम चोल वंश के शक्तिशाली नरेशों में एक था इसने मैसूर के गंगों, पाड्यों तथा वेंगी के चालुक्यों को पराजित मदुरा के कर साम्राज्य विस्तार किया तथा तंजौर में शिव का एक विशाल मंदिर निर्मित कराया. जो कालान्तर में ‘राजराजेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ चोल साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार राजेन्द्र प्रथम के काल में हुआ उसने पांड्य तथा केरल राजाओं को परास्त किया. राजेन्द्र ने लंका पर विजय प्राप्त की. पूर्वी द्वीपों पर सफल नाविक आक्रमण किया तथा बंगाल के महिपाल को भी युद्ध में हराया. उसने अपनी राजधानी ‘गगेकोण्ड चोलपुरम’ में एक विशाल मंदिर तथा एक राजप्रासाद का निर्माण कराया इस वंश के अंतिम शासक राजेन्द्र तृतीय को पाण्ड्य शासकों ने पराजित कर चोल वंश का अंत कर दिया
चोल कालीन संस्कृति
साहित्य- चोल शासकों के शासन काल में साहित्य की अपार उन्नति हुई जीवक चिन्तामणि शूलमणि, गत्तुप्पीर्ण, कुण्डलकेशि. कल्लदम, रसोलियम, नलबेम्ब ‘दण्डिय- लंगारम’ आदि इस काल की मुख्य साहित्य कृति हैं, जैन पंडित तिरूत्क्कदेवर, तोला- मोक्ति (दोनों लेखक), जयन्गोन्दार, कम्बन, कल्लदनर (कवि) आदि इस काल में महान् विद्वान थे.
शिक्षा
इस काल में शिक्षा का विकास हुआ मंदिर शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे पुजारी छात्रों को शिक्षा प्रदान करते थे. शिक्षा का शुल्क निश्चित नहीं था
कला
कला के क्षेत्र में अपूर्व उन्नति हुई तजौर का राजराजेश्वर मंदिर, ब्रह्मदेशम का तिरूपालीशरम मंदिर ऐरापतेश्वर मंदिर, कम्परेश्वर मंदिर इस काल की कला के कुछ सुन्दर उदाहरण हैं। इनमें तंजौर का राजराजेश्वर का मंदिर जोकि तेरह मंजिल ऊँचा था, जिसके शिखर का वजन 20 टन था सर्वाधिक प्रसिद्ध है
धर्म
चोलकालीन शासक शैव धर्म के अनुयायी थे शैव मत के अतिरिक्त वैष्णव, बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय भी प्रचलित थे
राजा
राजा समस्त शासन तंत्र का प्रमुख संचालक था. वह मंत्रिपरिषद के सहयोग से शासन संचालन करता था राज्याधिकारियों की नियुक्ति वह स्वयं करता था. इन्हें भूमि के रूप में वेतन दिया जाता था नकद नहीं प्रान्त शासन सुविधा की दृष्टि से समस्त साम्राज्य को 6 प्रान्तों में बाँट दिया गया था. इन प्रान्तों को ‘मण्डलम’ कहा जाता था जिसका शासन वायसराय करता था
कोट्टम
मण्डलम को कई कोट्टम अथवा वलनाडु मैं बाँट दिया गया था।
नाडू
कोट्टम में अनेक नाडू अथवा जिल सम्मिलित होते थे कुर्रम नाडू के अन्तर्गत अनेक ग्राम संघ होते थे, जिन्हें कुर्रम कहा जाता था, ग्राम सभा प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होती थी ग्रामों को स्वायत्त शासन प्राप्त था
सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हर्ष वर्द्धन कि की मृत्यु होते ही अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र प्र राज्यों का उदय हुआ इन विभिन्न स्वतन्त्र राज्यों के शासक राजपूत थे, जिन्होंने भा 1200 ई. तक लगभग साढ़े पाँच सौ वर्ष इन शासन किया. इस काल को इतिहास में से ‘राजपूत युग’ के नाम से जाना जाता है, भी
राजपूत उत्पत्ति के सिद्धान्त
राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया ये प्रतिपादित सिद्धान्त इस प्रकार थे-
प्राचीन क्षत्रियों से उत्पत्ति गौरीशंकर ओझा ने राजपूतों की उत्पत्ति प्राचीन क्षत्रिय जाति से मानी है. कुछ विद्वानों का विचार है कि क्षत्रिय सामंतों अथवा जागीरदारों की अवैध संतान ‘राजपुत्र’ कहलाती थी. ये ही बाद में राजपूत नाम से प्रसिद्ध हुए. अग्नि-कुण्ड से उत्पत्ति चन्दबरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ वर्णित एक अनुश्रुति के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति एक अग्निकुण्ड से हुई थी इस अनुश्रुति का वर्णन ‘सिसाणा’ अभिलेख में भी मिलता है. कथा का सारांश इस प्रकार है “जब पृथ्वी राक्षसों से क्लांत हो उठी तब महर्षि वशिष्ठ ने इन राक्षसों का दमन करने के लिए अग्निकुण्ड का निर्माण करके यज्ञ किया इस अग्निकुण्ड से चार वीर योद्धा प्रतिहार, चालुक्य, परमार तथा चाह्यान उत्पन्न हुए इन्होंने वैदिक धर्म की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया भारत के राजपूत इन्हीं चार योद्धाओं की संतान है। अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने के कारण इन्हें अग्निवंशीय भी कहा गया.”
ब्राह्मणों से उत्पत्ति
दशरथ शर्मा, विशम्भरशरण पाठक आदि विद्वान् इस मत के समर्थक हैं कि राजपूतों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से हुई है. बिजोलिया शिलालेख’ में चाह्यान वासुदेव के उत्तराधिकारी सामन्त को ‘वत्स गोत्रीय ब्राह्मण कहा गया है. कायम खाँ रासो में भी चाह्मानों की उत्पत्ति वत्स से बतलाई गई है. सी.वी. वैद्य और गौरीशंकर ओझा इस सिद्धांत को नहीं मानते हैं.
विदेशियों से उत्पत्ति
कर्नल टॉड, भण्डारकर तथा ईश्वरी प्रसाद इस सिद्धान्त के समर्थक हैं. राजस्थान का इतिहास के प्रणेता कर्नल टॉड ने राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी जाति से मानी है. वे इन्हें शक अथवा सीथियन्स जाति का वंशज बताते हैं विलियम ब्रुक ने भी टॉड का समर्थन किया है. उसने गुर्जरों तक को विदेशी कहा है, किन्तु गौरीशंकर ओझा ने इस मत का खण्डन किया है.
मिश्रित उत्पत्ति बी ए स्मिथ का मत है कि कुछ राजपूत प्राचीन आर्य क्षत्रियों के तथा कुछ शक व कुषाणों के वंशज हैं ये विदेशी जातियाँ भारतीय जातियों में घुल-मिल गई इनसे उत्पन्न जाति, जिसने तत्कालीन भारत में शासन किया, वे राजपूत कहलाए इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजपूतों की उत्पत्ति देशी एवं अनेक विदेशी जातियों के मिश्रण से हुई थी यही सिद्धान्त सर्वाधिक मान्य भी है.
उत्तरी भारत के प्रमुख राजपूत वंश एवं राज्य गुर्जर-प्रतिहार वंश आठवीं शताब्दी में नागभट्ट प्रथम ने मालवा में गुर्जर प्रतिहार वंश के प्रथम शासक के रूप में शासन किया देवराज वत्सराज तथा नागभट्ट द्वितीय इस वंश के अन्य प्रसिद्ध शासक हुए चन्द्र प्रभा सूर कृत ‘वप्पाभरिचरित्र’ से ज्ञात होता है कि मिहिरभोज प्रतिहार वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रतापी सम्राट था उसने अपने पिता को मारकर सिंहासन हस्तगत किया था, इसने अपने शासनकाल में कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया महेन्द्रपाल तथा महिपाल इस वंश के अन्य शासक हुए. महिपाल की मृत्यु होने पर इस वंश का पतन हो गया. गहड़वाल वंश ‘चन्द्र देव’ इस वंश का संस्थापक था. इसने वाराणसी को अपनी राजधानी बनाया और शीघ्र ही उसने प्रतिहारों का अंत कर कन्नौज पर भी अपना अधिकार कर लिया. गोविन्द चन्द्र इस वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं प्रतापी शासक था. उसने मगध के पश्चिमी भाग तथा मालवा के पूर्वी भाग पर अधिकार कर अपने यश एवं कीर्ति में वृद्धि की वह कला एवं साहित्य का भी संरक्षक था. उसके शासनकाल में ‘लक्ष्मीधर ने ‘कल्पद्रुम’ नामक विधि ग्रन्थ की रचना की जयचन्द्र जोकि पृथ्वीराज चौहान क समकालीन एवं प्रतिद्वन्द्वी था. इस वंश क. अन्तिम शक्तिशाली शासक था. चौहान वंश
दिल्ली तथा अजमेर का राज्य उत्तरी भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य था. इस पर चौहान वंश का अधिकार था. विग्रहराज द्वितीय, अजयराज विग्रहराज चतुर्थ, बीसलदेव, पृथ्वीराज द्वितीय था. पृथ्वीराज तृतीय इस वंश के प्रमुख शासक थे. पृथ्वीराज चौहान इस वंश का वीर, प्रतापी एवं अन्तिम शासक था, जिसका मुहम्मद गौरी के साथ तराइन का प्रथम एवं प्रतियोगिता द्वितीय युद्ध हुआ द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान परास्त हुआ और उत्तरी भारत में पहली बार मुसलमानों का राज्य स्थापित हुआ चंदेल वंश
यशोवर्मन इस वंश का प्रथम प्रतापी एवं स्वतन्त्र शासक था. जिसने बुंदेलखण्ड का राज्य कन्नौज के प्रतिहारों की दुर्बलता का लाभ उठाकर प्राप्त किया था उसने कालिंजर के दुर्ग को विजित कर महोबा को अपनी राजधानी बनाया धंग, गण्ड, कीर्तिवर्मन, मदनवर्मन तथा परमाल इस वंश के अन्य शासक हुए कीर्तिवर्मन कला एवं साहित्य का प्रेमी था. उसने महोबा के समीप ‘कीर्ति सागर’ नामक जलाशय का निर्माण कराया. परमाल अथवा परमर्दन चंदेल इस वंश का अंतिम शासक था. इसके शासनकाल में तुर्कों ने चंदेल राज्य पर आक्रमण कर उसे जीता और यहीं से चंदेल वंश का पतन प्रारम्भ हो गया. 16वीं शताब्दी तक बुंदेलखण्ड के कुछ भाग पर दुर्बल शक्ति होने के बाद भी चंदेलों का शासन रहा. किन्तु अंत में मुसलमानों ने पूर्णरूपेण इस राज्य पर अपना अधिकार कर लिया परमार वंश ‘उपेन्द्र’ इस वंश का संस्थापक था. मालवा इसका शासन प्रदेश था श्री हर्ष वाक्पतिमुंज, सिंधुराज भोज, जयसिंह. उदयादित्य इस वंश के अन्य शासक हुए. श्री हर्ष इस वंश का प्रथम स्वतंत्र शक्तिशाली शासक था, जिसने राष्ट्रकूटों को पराजित किया राजा भोज अपनी दानशीलता, कला एवं विद्यानुराग के कारण इस वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा था. उसने चिकित्सा, गणित, व्याकरण आदि पर अनेक ग्रन्थ लिखे 1297 ई. में अलाउद्दीन खलजी के सेनापति नसरत खाँ तथा उलूग खाँ ने इस साम्राज्य पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया पाल वंश हर्ष की मृत्यु के पश्चात् सम्पूर्ण बंगाल अव्यवस्था फैल चुकी थी. अतः में परिस्थितियों का लाभ उठाकर ‘गोपाल’ नामक व्यक्ति ने बंगाल में एक नवीन वंश की स्थापना की. चूँकि इस वंश के शासकों के नाम के अंत में पाल शब्द जुड़ा रहता था. अतः यह वंश ‘पाल’ वंश के नाम से जाना जाता है. धर्मपाल, देवपाल, नारायण- पाल, महिपाल, नयपाल, रामपाल आदि इस वंश के कुछ प्रमुख शासक हुए, जिन्होंने ‘परमभट्टारक’, ‘महाराजाधिराज’, ‘परमेश्वर आदि की उपाधियाँ धारण कीं.
‘देवपाल’ इस वंश का सर्वाधिक शक्ति- शाली शासक था, जिसने कामरूप (वर्तमान असम) तथा कलिंग पर अपना अधिकार कर लिया था. अंत में बारहवी शताब्दी में सेन वंश के शासकों ने पाल वंश का अत कर दिया कन्नौज पर अधिकार तथा उ भारत की प्रभुता के लिए पाल वंश का प्रतिहारों से दीर्घकालीन संघर्ष हुआ सेन वंश सामत सेन, सेन वंश का संस्थापक था विजय सेन, बल्लाल सेन, लक्ष्मण सेन इस वंश के अन्य शासक हुए, जिन्होंने बंगाल व बिहार पर शासन किया, विजय सेन इस वंश का महत्वाकांक्षी शासक हुआ उसने अपनी विजयों से सेन वंश के यश और कीर्ति में वृद्धि की ‘देवपारा’ अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने नेपाल और मिथिला के शासकों पर विजय प्राप्त की थी. वह शैव धर्म का अनुयायी था. देवपारा में उसने एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया, जो ‘प्रधुमनेश्वर’ के नाम से जाना जाता है. देवपारा में ही उसने झील का निर्माण भी कराया बल्लाल सेन भी इस वंश का उच्चकोटि का शासक विद्वान् तथा प्रसिद्ध लेखक था इसने ‘दान सागर’ लिखा तथा र अद्भुत सागर’ का लेखन प्रारम्भ किया
लक्ष्मण सेन इस वंश का अन्तिम प्रसिद्ध शासक था, जिसने वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन किया. हलायुद्ध’ इसका मंत्री तथा न्यायाधीश था, गीतगोविन्द का रचयिता ‘जयदेव’ इसका दरबारी कवि था यह वैष्णव धर्म का अनुयायी तथा प्रसिद्ध विद्वान् था. उसने अपने पिता द्वारा प्रारम्भ किए गए ग्रन्थ अद्भुत सागर’ को पूरा किया था.
गुजरात के चालुक्य
गुजरात में इस वंश का संस्थापक ‘मूलराज प्रथम’ था वह शैव धर्म का अनुयायी तथा कला का आश्रयदाता था. उसने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया भीम प्रथम कर्ण जयसिंह सिद्धराज कुमारपाल, भीम द्वितीय इस वंश के अन्य शासक हुए इस वंश के शासक भीम प्रथम के शासनकाल में महमूद गजनवी ने सोमनाथ के मंदिर पर आक्रमण किया था.
जयसिंह सिद्धराज इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं कुमारपाल इस वंश के अंतिम शासकों में से था इसकी मृत्यु के पश्चात् ही इस वंश का पतन प्रारम्भ हो गया अन्तिम शासक निर्बल एवं अयोग्य थे 1197 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुजरात पर आक्रमण कर वहाँ की राजधानी अन्हिलवाड़ को खूब लूटा
कलचुरी वंश
इस वंश का संस्थापक कोकल्ल था. इसने त्रिपुरी’ को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया. इस वंश की दो शाखाएं थीं. दूसरी शाखा की राजधानी ‘रत्नपुर’ थी.
कोकल्स को समस्त पृथ्वी का विजेता कहा गया है लक्ष्मण राज, गांगेयदेव, लक्ष्मीकोण इस वंश के अन्य शासक हुए
गांगेय देव इस वंश का शक्तिशाली शासक था उसने प्रयाग, काशी तथा तिरहुत के प्रदेश को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया तथा विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की लक्ष्मीकीर्ण के पश्चात् र इस वंश का पतन होना प्रारम्भ हो गया 13वीं शताब्दी में इस वंश की शक्ति अत्यन्त क्षीण हो गई 15वीं शताब्दी के आरम्भ में गौड़ों ने इनकी रही बची शक्ति को नष्ट कर दिया
सिसोदिया वंश
इस वंश के शासक अपने को सूर्यवशी कहते थे इनका मेवाड़ पर शासन था. चित्तौड़ इनकी राजधानी थी राणाकुम्भा, राणा संग्राम सिंह तथा महाराणा प्रताप इस वंश के प्रतापी तथा प्रसिद्ध राजा हुए जिन्होंने अनेक युद्धों में शत्रुओं के दाँत खट्टे कर दिए राणा कुम्भा ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में विजय स्तम्भ का निर्माण कराया यह उसकी वीरता का सबल प्रमाण है.
राजपूतकालीन सभ्यता एवं संस्कृति प्रशासन
राजपूत काल में राजतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था विद्यमान थी राजा निरंकुश होता था राज्य की समस्त शक्तियाँ उसी के हाथ में होती थीं राजा प्रजावत्सल होते थे. वे सभी धर्मावलम्बियों के साथ समानता और सहिष्णुता का व्यवहार करते थे.
दैवी अधिकारों में विश्वास राजपूत काल में जनता का विश्वास था कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है स्वयं
राजा भी अपने में ईश्वरीय अंश मानते थे.
सामन्तशाही
इस काल में सामन्तशाही अर्थात् जागीरदारी प्रथा विद्यमान थी सामन्तों का पद परम्परागत होता था इनकी नियुक्ति का मुख्य आधार उच्च कुल था
सैन्य संगठन
सैन्य संगठन पुरानी पद्धतियों पर आधारित था राजा सामन्त की सेनाओं पर निर्भर होता था यद्यपि राजा एवं सैनिक बड़े वीर होते थे, किन्तु उनके कुशल एवं नियमित प्रशिक्षण की उत्तम व्यवस्था नहीं थी सेना के मुख्यत: तीन अंग थे – (1) पैदल. (2) हाथी. (3) अश्व सेना
वित्त व्यवस्था अपराध के लिए किए जुर्माने व्यापार तथा उद्योग-धन्धों पर लगाए गए करों से राज्य को पर्याप्त आय प्राप्त होती थी भूमिकर राज्य की आय का मुख्य स्रोत था राजा को सामंत भी वार्षिक कर एवं उपहार प्रदान करते थे आय का अधिकांश भाग युद्धों पर व्यय किया जाता था प्रांतीय शासन
शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए राज्य को प्रातों में बाँट दिया जाता था, जिन्हें ‘भुक्ति’ कहा जाता था भुक्ति के शासक को ‘उपरिक’ के नाम से जाना जाता था भुक्ति को अनेक ‘विषयों’ अर्थात् जिले में विभक्त किया जाता था. विषय के शासक को विषयपति’ कहा जाता था विषय को कई गाँवों में विभक्त किया जाता था. गाँव के अधिकारी को ग्रामिणी कहा जाता था
वर्ण व्यवस्था
राजपूत काल में वर्ण व्यवस्था अस्त- व्यस्त हो चुकी थी वर्णों के स्थान पर अनेक नई जातियों तथा उपजातियों का प्रार्दुभाव हो गया था नई जातियों का मुख्य आधार प्रांतीय सीमाए. उद्योग-धन्धे तथा व्यवसाय आदि थे व्यवसाय के आधार पर ‘कायस्थ’ नामक नई जाति का उद्भव इसी काल में हुआ
राजपूतों में जौहर प्रथा
राजपूतों में जौहर प्रथा का प्रचलन था. इस प्रथा में राज्य के समस्त सैनिक मारे जाने राजा के मारे जाने या बंदी बनाए जाने की दशा में जब विजय प्राप्त होने की जरा भी आशा नहीं रहती थी, तब राजपूत महिलाएं अपने सतीत्व की रक्षा हेतु सामूहिक रूप से अग्नि में भस्म हो जाया करती थीं.
स्त्रियों की दशा
राजपूतकालीन समाज में स्त्रियों का आदर होता था स्त्रियों का चरित्र उच्चकोटि का होता था पतिभक्ति उनके जीवन का परम लक्ष्य था. इस काल में अनेक विदुषी स्त्रियाँ हुईं ‘इंद्रलेखा’, ‘मोरिका’, ‘सुभद्रा’, ‘पद्मश्री’, ‘मदालसा’ इस काल की प्रसिद्ध संस्कृत साहित्य की कवयित्रियाँ थीं नृत्य. संगीत एवं चित्रकला में स्त्रियाँ विशेष प्रशिक्षण लेती थीं. पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था, किन्तु बाल-विवाह एवं सती प्रथा का अत्यधिक प्रचार था धर्म राजपूत काल में हिन्दू धर्म का खूब प्रचार-प्रसार हुआ. अनेक समाज सुधारक एवं विद्वान् यथा कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य. रामानुज आदि ने हिन्दू धर्म को पुनर्गठित कर, सरल, सहज तथा लोकप्रिय बनाया इसी काल में हिन्दू धर्म वैष्णव व शेव में विभाजित हो गया यह युग बौद्ध तथा जैन धर्म के अवसान का काल था शिक्षा राजपूत काल में प्राचीन शिक्षा प्रणाली ही प्रचलित थी गुरुकुल, बौद्ध विहार तथा मंदिर शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे नालंदा इस काल का प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था राजपूतों में बंगाल के पाल शासकों ने शिक्षा का बहुत अधिक प्रचार-प्रसार किया ओंदतपुरी (बिहार), सोमपुरी (बंगाल), विक्रमशील (पूर्वी बिहार), विक्रमपुर (पूर्वी बंगाल), जगदल (उत्तरी बंगाल) इस काल के अन्य प्रसिद्ध शिक्षा के केन्द्र थे. भाषाओं की प्रगति
यह युग विभिन्न भाषाओं की प्रगति का युग था. सर्वाधिक प्रगति संस्कृत भाषा की हुई. इसके अतिरिक्त अनेक प्रादेशिक भाषाएं यथा सूरसैनी, मागधी, हिन्दी (अपभ्रंश) बंगाली, गुजराती, मराठी आदि का भी खूब विकास हुआ
साहित्य
राजपूत सम्राटों ने विद्वानों तथा लेखकों को पुरस्कार एवं आश्रय प्रदान कर साहित्य की उन्नति में अपना अपूर्व योगदान दिया भवभूति, कल्हण विल्हण, राजशेखर, जयदेव, श्री हर्ष हलायुध, भारवि माद्य, भट्टी, पदमगुप्त, आनन्दवर्धन, भट्ट नारायण, मुरारी, जयनाथ, क्षेमेन्द्र, जयादित्य, भर्तृहरि, कोक पण्डित, हेमचन्द्र, विज्ञानेश्वर आदि इस काल के प्रमुख विद्वान् थे
राजशेखर की ‘काव्य मीमांसा’ तथा ‘कर्पूर मंजरी, भवभूति की मालती माधव’. ‘महावीरचरित’ तथा ‘उत्तररामचरित’, कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ विल्हण की ‘विक्रमांक चरितम् जयनाथ की पृथ्वीराज विजयम् चन्दबरदाई की ‘पृथ्वीराज रासो’, भट्टी का ‘रावण वध’, कोक पण्डित की ‘कोकशास्त्र’, विज्ञानेश्वर की ‘मिताक्षरा’, माधवकर की ‘माधव निदान’ जयदेव का ‘गीतगोविन्द आदि इस काल की उच्चकोटि की साहित्यिक रचनाएं हैं. मूर्तिकला
राजपूत काल में मूर्तिकला उन्नति तथा विकास की ओर अग्रसर थी. इस काल में मिट्टी पत्थर तथा धातु की मूर्तियाँ निर्मित की गई. दुर्गा, शिव, विष्णु, सूर्य, गणेश, चण्डी, काली, सरस्वती, कामातुरा आदि अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियों का निर्माण किया गया. ऐलीफेन्टा गुफा स्थित शिव की मूर्ति इस युग की श्रेष्ठ मूर्तियों में से है
चित्रकला
यद्यपि वर्तमान में तत्कालीन चित्रकला के नमूने अधिकांशतः नष्ट हो गए, किन्तु तत्कालीन साहित्य से ज्ञात होता है कि इस काल में चित्रकला उन्नत रही होगी क्योंकि आज भी मन्दिरों की दीवारों पर पशु-पक्षी. वृक्ष. लता, पुष्प आदि के चित्र यत्र-तत्र मिलते हैं. इस काल में चित्रशालाएं भी अपने अस्तित्व में थीं.
संगीतकला
इस काल में संगीत, वादन, नृत्यकला का भी विकास हुआ. संगीत सभी वर्गों के लिए मनोरंजन का उत्तम साधन था राजपूत नरेश समय-समय पर गायन वादन एवं नृत्य का रसास्वादन करते थे.
वास्तुकला
इस काल में वास्तुकला के क्षेत्र में आशातीत प्रगति हुई. अनेक राजप्रासाद दुर्ग तथा मंदिरों का निर्माण हुआ जो वर्तमान में भी अपने कलात्मक आकर्षण को अक्षुण्ण बनाए हुए हैं. राजप्रासादों में उदयपुर की ‘पिछोला झील के राजप्रासाद, ग्वालियर का ‘गूजरी महल’ तथा ‘मान मंदिर’ व जयपुर के राजप्रासाद, दुर्गों में रणथम्भौर, ग्वालियर, चित्तौड़ तथा मांडू के दुर्ग कला के अविस्मरणीय उदाहरण हैं
मंदिरों में उड़ीसा में भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर, खजुराहो का महादेव मंदिर, आबू का जैन मंदिर इस काल की वास्तुकला के आकर्षक उदाहरण हैं. इस काल के मंदिरों में तीन प्रकार की शैलियाँ दर्शित होती हैं- (1) नागर शैली, (2) द्रविड़ शैली , (3) चालुक्य शैली (बेसर शैली) सातवीं शताब्दी के मध्य में अरबवासियों ने भारत में घुसने का असफल प्रयास किया. इसके पश्चात् पुनः 711-712 ई. में हज्जाज के भतीजे एवं दामद मुहम्मद-बिन- कासिम ने भारत पर आक्रमण कर सिन्ध तथा मुल्तान को विजित किया, किन्तु मुहम्मद-बिन-कासिम की मृत्यु के कारण भारत में अरबवासियों का राज्य स्थायित्व को प्राप्त नहीं कर सका भारत पर अरबवासियों के आक्रमण करने का मुख्य उद्देश्य यहाँ की सम्पत्ति को लूटना तथा यहाँ इस्लाम धर्म का प्रचार करना था किन्तु इस आक्रमण का भारत के राजनीतिक क्षेत्र में कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा लेनपूल के अनुसार, “सिन्धु की विजय एक घटना मात्र है. इसका कोई स्थायी प्रभाव नहीं हुआ”, किन्तु इतना तो अवश्य है कि भविष्य में भारत पर आक्रमण करने वालों को प्रोत्साहन जरूर प्राप्त हुआ.
इसके पश्चात् 11वीं शताब्दी के प्रारम्भ में महमूद गजनवी ने तथा 12वीं शताब्दी में मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण किया. इन आक्रमणों में महमूद गजनवी के आक्रमण का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा. वह यहाँ की केवल सम्पत्ति लूटने तथा धर्मस्थलों को नष्ट करने में ही सफल हुआ, किन्तु मुहम्मद गौरी के आक्रमण का भारत के राजनीतिक क्षेत्र में बहुत अधिक प्रभाव पड़ा. इस आक्रमण के परिणामस्वरूप ही भारत में तुर्क राज्य की स्थापना हुई. बाद में तुर्कों के अनेक वंशों ने भारत पर सैकड़ों वर्ष तक शासन किया.
महमूद गजनवी तथा उसके भारत पर आक्रमण
महमूद गजनवी गजनी के शासक सुबुत्तगीन का पुत्र था उसका जन्म 1 नवम्बर सन् 971 ई. में हुआ था. 27 वर्ष की अवस्था में सन् 998 ई. में महमूद गजनवी सिंहासन पर आसीन हुआ. बगदाद के खलीफा अल कादिर बिल्लाह ने महमूद गजनवी के पद को मान्यता प्रदान कर उसे -मिल्लाह ‘यमीन-उद-दौला’ तथा यमीन-उल-1 की उपाधियों से विभूषित किया. महमूद बड़ा ही महत्वाकांक्षी था. उसने प्रतिज्ञा की थी कि यह प्रति वर्ष भारत के काफिरों पर आक्रमण करेगा उसके भारत पर किए गए कुछ प्रमुख आक्रमण इस प्रकार थे-
सीमावर्ती प्रदेशों पर आक्रमण 1000 ई. में महमूद गजनवी ने भारत के सीमावर्ती प्रदेशों पर आक्रमण करके वहाँ स्थित दुर्गों तथा नगरों को विजित कर वहाँ की धन सम्पदा को लूटा.
जयपाल पर आक्रमण
1001 ई. में महमूद ने जयपाल पर आक्रमण कर दिया. पेशावर के निकट युद्ध में जयपाल पराजित हुआ. जयपाल स्वाभिमानी था. वह इस पराजय को झेल न सका, अतः उसने चिता में जलकर आत्महत्या कर ली.
मुल्तान पर आक्रमण
1006 ई. में महमूद ने मुल्तान पर आक्रमण कर फतेह दाउद को परास्त किया और मुल्तान पर अधिकार कर लिया. आनन्दपाल पर आक्रमण आनन्दपाल जयपाल का पुत्र तथा लाहौर का शासक था 1008 ई में ने आनन्दपाल पर आक्रमण कर दिया वैहिन्द के युद्ध में महमूद को अप्रत्याशित विजय प्राप्त हुई. महमूद नगरकोट पर आक्रमण नगरकोट हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान था यहाँ उस समय प्रसिद्ध ज्वालामुखी मंदिर विद्यमान था. महमूद ने सन् 1009 में नगरकोट पर आक्रमण कर दिया वहाँ के मंदिर तथा धन सम्पदा को खूब लूटा थानेश्वर पर आक्रमण नगरकोट को लूटने के पश्चात् महमूद ने 1014 ई. में थानेश्वर पर आक्रमण करके यहाँ स्थित अनेक मंदिरों तथा नगर को लूटा
मथुरा पर आक्रमण
एक बार पुन: महमूद सन् 1018 ई. में भारत पर आक्रमण हेतु गजनी से चला इस बार उसके आक्रमण का शिकार बुलंदशहर, मथुरा तथा कन्नौज नगर हुए मथुरा उस समय उत्तरी भारत का सर्वाधिक समृद्धशाली नगर था अतः महमूद ने मथुरा को जी भरकर लूटा. कन्नौज पर आक्रमण मथुरा को लूटने के पश्चात् महमूद कन्नौज की ओर बढ़ा यहाँ प्रतिहार राजा राज्यपाल बिना युद्ध किए ही भाग गया महमूद ने दुर्ग पर अधिकार करके नगर को जी भरकर लूटा और गजनी वापस चला गया.
कालिंजर पर आक्रमण सन् 1019 ई. में कालिंजर पर आक्रमण कर दिया, वहाँ का राजा गण्ड डर कर भाग गया. इस आक्रमण से भी भी महमूद को बहुत धन प्राप्त हुआ धन प्राप्त करने के पश्चात् वह गजनी लौट गया. सोमनाथ पर आक्रमण काठियावाड़ तत्कालीन भारत का एक अत्यन्त ही समृद्धशाली नगर था. यहाँ का मन्दिर भी सर्वत्र प्रसिद्ध था. काठियावाड़ के तट पर स्थित इस मंदिर पर सन् 1025 ई. में महमूद ने आक्रमण कर दिया. आक्रमण का समाचार पाते ही अनेक हिन्दू राजा सोमनाथ की रक्षा हेतु एकत्र हो गए और एक बार तो महमूद को पराजय के द्वार पर पहुँचा दिया, किन्तु अन्त में विजय महमूद की ही हुई. सोमनाथ की मूर्ति तोड़ दी गई तथा मंदिर की समस्त सम्पत्ति महमूद हाथ लगी और वह गजनी लौट गया. के आक्रमण के प्रभाव राजनीतिक प्रभाव
महमूद के आक्रमण से पंजाब तुकों के अधिकार में चला गया. भारत की राजनीतिक दुर्बलता का सर्वत्र प्रचार हो गया परिणामस्वरूप भारत पर तुकों के अन्य आक्रमण हुए और तुर्कों के राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ
धार्मिक प्रभाव
तुर्कों की लूट-खसोट व खून-खराबे की नीति से भारतीयों के हृदय में घोर घृणा उत्पन्न हो गई कलाकृतियों की क्षति महमूद के भारत पर किए गए आक्रमणों के परिणामस्वरूप भारतीय कला, सभ्यता एवं संस्कृति को अपार क्षति पहुँची. इस आक्रमण में अनेक भव्य मंदिरों तथा देवी- देवताओं की मूर्तियों का विध्वंस किया गया अनेक समृद्धशाली नगर यथा-नगरकोट, कन्नौज, मथुरा को लूटा गया, वहाँ की जनता पर अमानुषिक अत्याचार किए गए आर्थिक प्रभाव महमूद के आक्रमण से जन-धन की अपार क्षति हुई भारत की अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई. भारत की अतुलनीय सम्पत्ति गजनी पहुँच गई इससे गजनी के सौन्दर्यीकरण में सहायता मिली.
मुहम्मद गौरी और उसका भारत पर आक्रमण
बारहवीं शताब्दी में गजनी तथा हिरात के मध्य ‘गोर’ नाम का एक छोटा-सा राज्य था. महमूद गजनवी ने ‘गोर’ पर अनेक आक्रमण किए, किन्तु वह इस राज्य को कभी भी पूर्णरूपेण अपने राज्य में न मिला सका. इस प्रकार दोनों राज्यों में संघर्ष जारी रहा. बाद में गौरी के शासक ‘ग्यासुद्दीन-बिन-गोर’ ने गजनी के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया और अपने भाई मुईजुद्दीन को मुहम्मद गौरी के नाम से गजनी का शासक नियुक्त किया
जिस समय मुहम्मद गौरी ‘गजनी एवं गोर प्रदेश का शासक था, उस समय भारत की राजनीतिक दशा दयनीय थी. भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था. मुहम्मद गौरी की महत्वाकांक्षाओं ने उसे भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया. मुहम्मद गौरी को यह भी भली-भाँति ज्ञात था कि महमूद द्वारा भारत की सम्पत्ति लूटे जाने के बाद भी अभी यहाँ अपार सम्पत्ति भण्डार है. इधर पंजाब में इस समय महमूद गजनवी के वंश का शासन था, जिससे मुहम्मद गौरी को हमेशा भय बना रहता था कि यह राज्य कहीं उस पर आक्रमण न कर दे वह मुल्तान के इस्माइलिया शियाओं से भी शकित रहता था अतः अपने साम्राज्य की सुरक्षा तथा सम्पत्ति वृद्धि करने के उद्देश्य से उसने भारत पर आक्रमण कर दिया मुहम्मद गौरी ने भारत पर निम्नलिखित आक्रमण किए-
मुल्तान पर आक्रमण मुहम्मद गौरी ने 1175 ई. में मुल्तान पर आक्रमण कर मुल्तान को विजित किया
उच्छ के दुर्ग के आक्रमण मुल्तान विजित करने के पश्चात् मुहम्मद गौरी ने उच्छ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया
गुजरात पर आक्रमण
इस आक्रमण में मुहम्मद गौरी का अत्यन्त ही वीर एवं कुशल योद्धा मूलराज द्वितीय से आमना-सामना हुआ घमासान युद्ध में मुहम्मद गौरी पराजित हुआ उसे अपार जन एवं धन की हानि हुई भारत में मुहम्मद गौरी की यह पहली बड़ी हार थी
लाहौर पर आक्रमण व पंजाब विजय सन् 1181 ई. में मुहम्मद गौरी ने लाहौर पर आक्रमण किया उस समय वहाँ खुसरो मलिक का शासन था उसने बिना युद्ध किए ही मुहम्मद गौरी के समक्ष आत्म- समर्पण कर उसे अनेक उपहार प्रदान किए मुहम्मद गौरी ने 1186 ई में पुनः खुसरो पर आक्रमण कर उसे हरा दिया और बंदी बना लिया और सम्पूर्ण पंजाब पर उसका अधिकार हो गया
तराइन का प्रथम युद्ध
सिन्ध तथा पंजाब विजय के पश्चात् मुहम्मद गौरी ने सीमावर्ती नगर सरहिन्द, भटिण्डा पर आक्रमण कर इन्हें हस्तगत कर लिया अब गौरी के राज्य की सीमाएँ दिल्ली तथा अजमेर को स्पर्श करने लगीं 1191 में गौरी व पृथ्वीराज के मध्य तराइन के मैदान में भयंकर युद्ध हुआ इस युद्ध में मुहम्मद गौरी की अपार क्षति हुई उसकी भारत में यह एक अन्य बड़ी पराजय थी.
तराइन का द्वितीय युद्ध
मुहम्मद गौरी ने गजनी पहुँचते ही राजपूतों से अपनी पराजय का बदला लेने के लिए युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ कर दी सन् 1192 ई. में एक बार पुनः तराइन के मैदान में घोर संग्राम हुआ, किन्तु इस युद्ध में मुहम्मद गौरी विजित हुआ इस विजय ने उत्तरी भारत में तुर्क सत्ता की स्थापना की प्रक्रिया आरम्भ कर दी
कन्नौज पर आक्रमण
1194 में गौरी ने कन्नौज पर आक्रमण किया कन्नौज और इटावा के मध्य स्थित चन्दवार नामक स्थान पर दोनों सेनाओं के मध्य घोर युद्ध हुआ. युद्ध में राजपूत पराजित हुए तथा जयचन्द मारा गया
अन्य विजयें
मुहम्मद गौरी के गजनी लौट जाने के पश्चात् उसके प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक ने बयाना, ग्वालियर, धौलपुर, अजमेर तथा बुंदेलखण्ड आदि प्रदेशों पर तथा गौरी के एक अन्य सेनापति मुहम्मद-बिन-बख्तियार खिलजी ने बंगाल व बिहार के सेन वंशीय शासकों को पराजित कर उनके साम्राज्य पर अधिकार कर लिया 1206 ई. में मुहम्मद गौरी की मृत्यु के उपरान्त भारत में कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वयं को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और इस प्रकार भारत में दास वंश का शासन आरम्भ हुआ.
गुप्त एवं गुप्तोत्तर युग
(नोट्स
* गुप्त वंश ने लगभग 275-550 ई. तक शासन किया। *इस वंश की स्थापना लगभग 275 ई. में महाराज श्रीगुप्त द्वारा की गई थी, किंतु गुप्त वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक चंद्रगुप्त I था, जिसने 319-335 ई. तक शासन किया। * इसने अपनी महत्ता सूचित करने के लिए अपने पूर्वजों के विपरीत ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। *गुप्त संवत् का प्रवर्तक चंद्रगुप्त प्रथम था। * इसकी प्रारंभ तिथि 319 ई. है।
* इतिहासकार विसेंट स्मिथ ने अपनी रचना ‘अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में समुद्रगुप्त की वीरता एवं विजयों पर मुग्ध होकर उसे ‘भारतीय नेपोलियन’ की संज्ञा दी है।
* इलाहाबाद का अशोक स्तंभ अभिलेख समुद्रगुप्त (335-375 ई.) के शासन के बारे में सूचना प्रदान करता है। * इस स्तंभ पर समुद्रगुप्त के संधि- विग्रहिक हरिषेण ने संस्कृत भाषा में प्रशंसात्मक वर्णन प्रस्तुत किया है, जिसे ‘प्रयाग प्रशस्ति’ कहा गया है। * इसमें समुद्रगुप्त की विजयों का उल्लेख है। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के कुछ प्रशासनिक पदाधिकारियो के नाम मिलते है। ये हैं सन्धिविग्रहक, खाद्यटपार्किक, कुमारामात्य तथा महादण्डनायका अशोक निर्मित यह स्तंभ मूलतः कौशाम्बी में स्थित था, जिसे अकबर ने इलाहाबाद में स्थापित करवाया था। इस स्तंभ पर जहांगीर के आदेश है तथा बीरबल का भी उल्लेख है।
गुप्त शासक चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (375-415 ई.) का एक अन्य नाम देवगुप्त मिलता है। इसका प्रमाण सांधी एवं वाकाटक अभिलेखों से मिलता है। उसके अन्य नाम देवराज तथा देवश्री भी मिलते हैं। मेहरौली लेख के अनुसार, चंद्र ( चंद्रगुप्त द्वितीय) ने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्व की स्थापना कराई थी। *दिल्ली में मेहरौली नामक स्थान से ‘मेहरौली लौह स्तंभ लेख प्राप्त हुआ है, जो वर्तमान में कुतुबमीनार के समीप है। * इसमें ‘चंद्र’ नामक किसी राजा की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है, जिसका समीकरण गुप्तवंशीय शासक चंद्रगुप्त द्वितीय से किया जाता है। *गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य को ‘शक विजेता’ कहा गया. है।
*पश्चिम भारत के अंतिम शक राजा रुद्रसिंह III को चंद्रगुप्त द्वितीय “विक्रमादित्य ने पांचवीं सदी के प्रथम दशक में परास्त कर पश्चिमी भारत में शक सत्ता का उन्मूलन किया था। शकों को हराने के कारण चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की एक अन्य उपाधि ‘शकारि’ भी है। उसने इस उपलक्ष्य में अ चांदी के सिक्के भी चलाए। *चांदी के सिक्कों को गुप्त काल में ‘रुप्यक’ (रूपक) कहा जाता था।
* चंद्रगुप्त द्वित्तीय विक्रमादित्य के कुशल शासन की प्रशंसा चीनी यात्री फाह्यान ने भी की है। इनके नवरत्नों की प्रसिद्धि सर्वकालिक रही है। नवरत्नों में सर्वोत्कृष्ट महाकवि कालिदास थे। *अगले क्रम पर महान चिकित्सक (Great Physician) धन्वंतरि थे। तीसरे खगोल विज्ञानी (Astronomer) वराहमिहिर, चौथे कोशकार (Lexicographer • डिक्शनरी निर्माणकर्ता) अमर सिंह, पांचवें वास्तुकार (Architect) शंकु तथा छठवें रत्न फलित ज्योतिषी (Astrologer) क्षपणक थे। * इसी इस प्रकार सातवें विद्वान वैयाकरण (व्याकरण) वरुचि, आठवें जादूगर (Magician) बेतालभट्ट तथा नौवें रत्न घटकर्पर महान कूटनीतिज्ञ थे। *कुमारगुप्त प्रथम ‘महेंद्रादित्य’ (लगभग 415-455 ई.) चंद्रगुप्त द्वितीय की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न बड़ा पुत्र था। इसके समय के गुप्तकालीन सर्वाधिक अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनकी संख्या लगभग 18 है। *बिलसड अभिलेख में कुमारगुप्त प्रथम तक गुप्तों की वंशावली प्राप्त होती है। * बंगाल) के तीन स्थानों से कुमारगुप्तकालीन ताम्रपत्र प्राप्त होते हैं। *ये हैं- धनदेह ताम्रपत्र, दामोदरपुर ताम्रपत्र तथा वैग्राम ताम्रपत्र। *कुमारगुप्त की स्वर्ण,
रजत तथा ताम्र मुद्राएं प्राप्त होती हैं। मुद्राओं पर उसकी उपाधियां महेंद्रादित्य, श्रीमहेंद्र, महेंद्रसिंह, अश्वमेध महेंद्र आदि उत्कीर्ण मिलती हैं। * स्कंदगुप्त ‘क्रमादित्य’ (लगभग 455-467 ई.) के स्वर्ण सिक्कों के ( मुख भाग पर धनुष-बाण लिए हुए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर थे द्मासन में विराजमान लक्ष्मी के साथ-साथ ‘श्रीस्कंदगुप्त’ उत्कीर्ण है।
रियों सिक्कों के ऊपर गरुड़ध्वज तथा उसकी उपाधि ‘क्रमादित था मितरी स्तम लेख में पुष्यमित्र और हूणों के साथ स्कंदगुप्त
वर्णन मिलता है। हूणों का पहला भारतीय आक्रमण गुप्त के शासनकाल में हुआ तथा स्कंदगुप्त के हाथों वे बुरी तरह
*ईसा की तीसरी सदी से जब हूण आक्रमण से रोमन साम्राज हो गया, तो भारतीय दक्षिण-पूर्व एशियाई व्यापार पर अधिक नि
*तौरमाण भारत पर दूसरे हूण आक्रमण का नेता था। 5 एरण नामक स्थान से वाराह प्रतिमा पर खुदा हुआ उसका है, जिससे पता चलता है कि धन्यविष्णु उसके शासनकाल के में उसका सामंत था। *मिहिरकुल हूण शासक तोरमाण का उत्तराधिकारी था। *मिहिरकुल अत्यंत क्रूर एवं अत्याचारी शा *चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा मंदसौर लेख के साक्ष्य से ज्ञात हो सर्वप्रथम गुप्त नरेश नरसिंह गुप्त बालादित्य ने लगभग 528 ई. स्रोतों के अनुसार 495 ई. में तत्पश्चात मालव नरेश यशोधन मिहिरकुल को बुरी तरह पराजित किया गया था।
* गुप्तकाल में बंगाल में ताम्रलिप्ति एक प्रमुख बंदरगाह था, जहां त भारतीय व्यापार एवं साथ ही दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, लंका, जावा. आदि देशों के साथ व्यापार होता था। *पश्चिमी भारत का प्रमुख मृगुकच्छ (भड़ौच) था जहां से पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार होत * प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था में श्रेणियों का विशेष महत्व थ नी संगठन व्यापारियों के द्वारा उनके व्यापार के समुचित संचालन के 5 स्थापित किए जाते थे। * श्रेणियों का अपने सदस्यों पर न्यायिक अधि होता था तथा श्रेणियों के द्वारा ही सदस्यों के वेतन, काम करन नियमों, मानकों एवं कीमतों का निर्धारण किया जाता था। *प्रत्येक का अपना एक प्रमुख होता था। *राजा का श्रेणियों के संचालन में हस्तक्षेप नहीं होता था, श्रेणियां अपने नियम स्वयं बनाती थीं। * गुप्तकाल में गुजरात, बंगाल, दक्कन एवं तमिलनाडु वस्त्र उत्पाके लिए प्रसिद्ध थे। * वस्त्रोद्योग, गुप्तकाल का प्रमुख उद्योग था। *गुप्तक
में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के प्रमुख केंद्र थे-ताम्रलिप्ति, भृगुकच्छ, अरिकामे कावेरीपत्तनम, मुजिरिस, प्रतिष्ठान, सोपारा, बारबेरिकम।
* आयुर्वेद तथा चिकित्सा के क्षेत्र में प्राचीन भारत की चरम परिणा चरक एवं सुश्रुत में मिलती है। * धन्वंतरि चंद्रगुप्त II विक्रमादित्य ल नवरत्नों में से एक थे, ये आयुर्वेद शास्त्र के प्रकांड पंडित थे। * भास्कराचा देह प्रख्यात खगोलज्ञ एवं गणितज्ञ थे। उन्होंने ‘सिद्धांत शिरोमणि’ तथ र्ण, ‘लीलावती’ नामक ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में गणित तथा खगोल
यां विज्ञान संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। * 5वीं शती ई. तक भारत में त्रिकोणमिति में ज्या (Sine), कोज्या के (Cosine) और उत्क्रम ज्या (Inverse Sine ) के सिद्धांत ज्ञात हो चुके थे। *”सूर्य सिद्धांत’ और ‘आर्यमट्टीय’ में इनका उल्लेख है। *सातवीं शती ई. में ब्रह्मगुप्त द्वारा के सिद्धांत का वर्णन मिलता है। •
की कुल • समुद्रगुप्त 8 प्रकार की स्वर्ण मुद्राएं हमें प्राप्त होती है। ये है गरुड़, धनुधारी, चंद्रगुप्त । प्रकार, चक्र प्रकार, परशु, अश्वमेध तथा वीणावादन प्रकार। गुप्तकाल में स्वर्ण मुद्रा को दीनार जाता था। चीनी यात्री फाह्यान के अनुसार, लोग दैनिक क्रय-विक्रय का प्रयोग करते थे। गुप्त शासकों के सिक्के उत्तर प्रदेश, कौड़ियों का बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा (ओडिशा) में पाए गए हैं। “सिक्को का सबसे प्रसिद्ध प्राप्ति स्थल राजस्थान का भरतपुर बिहार बयाना है। * इनके द्वारा जारी किए गए चांदी के सिक्के रूपक कहलाते “गुप्त शासकों में चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा सर्वप्रथम सिक्के जारी किए गए। सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य एरण से प्राप्त हुआ है। * यह 510 ई. का है, जिसमें गोपराज नामक सेनापति की स्त्री के
ती होने का उल्लेख है। गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण थे – हूण आक्रमण, प्रशासन का ढांचा आदि। गुप्तकाल में नगर क्रमिक पतन की ओर अग्रसर हुए संपूर्ण गंगा घाटी में जो शहर पहले अत्यंत समृद्ध अवस्था में थे, से अधिकांश की गुप्तकाल में या तो त्याग दिया गया या वहां के न में पर्याप्त विघटन हुआ। * पाटलिपुत्र जैसा प्रमुख नगर ह्वेनसांग * के आगमन तक गांव बन गया था। मथुरा जैसा प्रमुख नगर एवं कुप्रहार, आवासन सोहगौरा और उत्तर प्रदेश में गंगा घाटी के अनेक महत्वपूर्ण केंद्र इस काल में हास के ही प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
गुप्तकाल में कला एवं साहित्य में हुई प्रगति के आधार पर इस की प्राचीन भारत का ‘स्वर्ण युग’ कहा जाता है। अजंता की तीन चैत्य है। गुफाएं (16वी, 17वीं तथा 19वीं) गुप्तकालीन मानी जाती हैं। * इनमें 16वी था 17वा गुफाएं विहार तथा उन्नीसवीं गुफा
*गुप्त अनुदान वंश के शासकों ने मंदिरों एवं ब्राह्मणों को सबसे अधिक ग्राम में दिए थे। गुप्तकाल में जो लोग राजकीय भूमि पर कृषि करते. उन्हें अपनी उपज का एक भाग राजा को कर के रूप में देना पड़ता था, जो सामान्यतः षष्ठांश तक होता था। गुप्त अभिलेखों में भूमि कर को उद्रंग कर कहा गया है। प्रायः सभी धर्मशास्त्रों में भू-राजस्व की दर 1 उपज का छठा भाग थी। *प्राचीन भारत में सिंचाई कर को अथवा उदकभाग कहा गया है। हिरण्य मौर्यकाल में लिया। वाला नकद कर था। गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में रेशम के लिए कौशेय’ शब्द का प्रयोग होता था। *तीसरी शताब्दी में वारंगल लोहे के पिकरणों हेतु प्रसिद्ध था।
* गुप्तकाल में लिखित संस्कृत नाटकों में स्त्री और शूद्र प्राकृत भाषा हांसे थे, जबकि उच्च वर्ण के लोग संस्कृत भाषा बोलते थे। * शूद्रक पृच्छकटिकम्’ नामक रचना से गुप्तकालीन शासन व्यवस्था एवं जीवन के विषय में रोचक सामग्री मिलती है। * इस ग्रंथ में चारुदत्त नार सनक ब्राह्मण सार्थवाह एवं एक गणिका की पुत्री वसंतसेना की प्रेम गाथा शब्दों का रूप दिया गया है।
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गुप्त साम्राज्य की शासन व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। मौर्य शासकों के विपरीत शासक अपनी दैवीय उत्पत्ति में विश्वास करते थे। गुप्त शासकों ने भूमिदान की परंपरा को विस्तारित किया। गुप्त प्रशासन का स्वरूप केंद्रीकृत न होकर संघात्मक था, गुप्त राजा अनेक छोटे राजाओं का राजा होता था। सात तथा प्रातीय शासक अपने-अपने क्षेत्रों में नितांत स्वतंत्रता का अनुभव करते थे।
* शतरंज का खेल भारत में गुप्तकाल के दौरान उदभूत हुआ था
जहाँ इसे ‘चतुरंग’ के नाम से जाना जाता था। *भारत से यह ईरान एवं
तत्पश्चात यूरोप में पहुंचा। * प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई.) वाकाटक वंश का एकमात्र शासक था, जिसने सम्राट’ की उपाधि धारण की थी। वाकाटक शासक प्रवरसेन प्रथम ने चार अश्वमेध यज्ञों का संपादन किया। इसके साथ ही उसने अनेक वैदिक यज्ञ भी किए। * इसी वंश के शासक प्रवरसेन द्वितीय की रुचि साहित्य में थी, उसने ‘सेतुबंध’ नामक ग्रंथ की रचना की।
* महर्षि कपिल ने सांख्य दर्शन का प्रतिपादन किया था। *सांख्य पुनर्जन्म अथवा आत्मा के आवागमन के सिद्धांत को स्वीकार करता है। सांख्य दर्शन में अज्ञानता को ही दुःखों का कारण तथा विवेक ज्ञान को उनसे मुक्ति का एकमात्र उपाय बताया गया है। * महर्षि पतंजलि को योग दर्शन का प्रतिष्ठापक आचार्य माना जाता है। *सर्वप्रथम महर्षि पतंजलि ने ही सुसंबद्ध दार्शनिक सिद्धांत के रूप में योग का विवेचन किया। इसीलिए इसे ‘पतंजलि दर्शन’ भी कहा जाता है।
*नव्य-न्याय संप्रदाय का प्रवर्तन मिथिला के आचार्य गंगेश उपाध्याय की युग-प्रवर्तक कृति ‘तत्वचिंतामणि’ से हुआ एवं इसके संवर्धन के लिए बंगाल के नवद्वीप के नैयायिक वासुदेव सार्वभौम, दीघितिकार रघुनाथ शिरोमणि तथा मथुरानाथ, जगदीश एवं गदाधर भट्टाचार्य सुप्रसिद्ध हैं। * भारतीय दर्शन में चार्वाक दर्शन जड़वादी या भौतिकवादी विचारधारा का पोषक है। * इस दर्शन का आदर्श है-
“यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः । ” “जब तक जीवित रहें, सुख से जीवित रहें, ऋण लेकर घी पियें, क्योंकि देह के भस्म हो जाने के बाद पुन: प्राप्त नहीं होता है।”
* न्याय दर्शन का प्रवर्तन गौतम ने किया जिन्हें अक्षपाद भी कहा जाता है। * न्याय का शाब्दिक अर्थ तर्क या निर्णय होता है। * न्याय दर्शन में 16 पदार्थों या तत्वों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। * न्याय दर्शन का मूल ग्रंथ गौतम कृत ‘न्यायसूत्र है।
कर्म का सिद्धांत मीमांसा दर्शन से संबंधित है। इसे पूर्व मीमांसा, कर्म मीमांसा या धर्म मीमांसा भी कहते हैं। *जैमिनी ने पूर्व मीमांसा का प्रतिपादन किया था। * मीमांसा के प्रखर एवं उद्भट आचार्य कुमारिल भट्ट को, जिनकी गणना भारतीय दर्शन के मूर्धन्य आचायों में की जाती है और जिन्होंने अपने प्रमुख तर्कों से बौद्ध धर्म तथा दर्शन का खंडन करके वैदिक धर्म तथा दर्शन की पुनः प्रतिष्ठा की, पूर्व मीमांसा और वेदांत के बीच की श्रृंखला माना जा
सकता है। मीमांसा दर्शन वेद को शाश्वत सत्य मानता है। पूर्वमीमांसा दर्शन में वेद के कर्मकांड भाग पर विचार किया गया है और उत्तर मीमांसा में वेद के ज्ञानकांड भाग पर विचार किया गया है। मीमांसा और वेदांत न्याय और वैशेषिक तथा सांख्य और योग भारतीय षडदर्शन के भाग है। * वेदों को मान्यता देने के कारण ही सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा
और वेदांत (उत्तर मीमांसा) पड्दर्शन ‘आस्तिक दर्शन’ कहे जाते हैं। इनके प्रणेता क्रमश: कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनी तथा बादरायण थे। *वेदांत दर्शन को भारतीय विचारधारा की पराकाष्ठा माना जाता है। *वेदांत का शाब्दिक अर्थ है- वेद का अंत’ या ‘वैदिक विचाराधारा की पराकाष्ठा वेदांत दर्शन के तीन आधार है-उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता। *इन्हें वेदांत दर्शन की प्रस्थानत्रयी’ कहा जाता है। कई सूक्ष्म भेदों के आधार पर इसके कई उपसंप्रदाय एवं इसके प्रवर्तक है, जैसे- शंकराचार्य का अद्वैतवाद, रामानुज का विशिष्टाद्वैत, मध्वाचार्य का द्वैतवाद | * पुराणों के अनुसार, चंद्रवंश (या सोमवंश) क्षत्रिय वर्ण के तीन मूल वंशों (अन्य दो सूर्यवंश एवं अग्निवंश) में से एक था। चंद्रवंशीय शासकों का मूल स्थान त्रेतायुग में प्रयाग था परंतु प्रलय के पश्चात द्वापर युग चंद्रवंशीय संवारन ने प्रतिष्ठानपुर (वर्तमान झूसी, इलाहाबाद) में राजधानी की स्थापना की थी।
* अग्निकुल के राजपूतों का सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रतिहार वंश था। * गुर्जरों की शाखा से संबंधित होने के कारण इतिहास में इसे गुर्जर-प्रतिहार वंश के नाम से जाना जाता है। * गुर्जर जाति का प्रथम उल्लेख पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल लेख में हुआ है। *बाणभट्ट के हर्षचरित में भी गुर्जरों का उल्लेख मिलता है। *गुर्जर-प्रतिहार वंश का संस्थापक नागमट्ट प्रथम (730-756 ई.) था। * ग्वालियर अभिलेख से पता चलता है कि उसने म्लेच्छ शासक की विशाल सेना को नष्ट कर दिया था, जो संभवतः सिंघ का अरब शासक था। *इस प्रकार नागभट्ट ने अरबों के आक्रमण से पश्चिम भारत की रक्षा भी की थी। * राष्ट्रकूट वंश की स्थापना 736 ई. में दंतिदुर्ग ने की। उसने मान्यखेट
अपनी राजधानी बनाई। *दंतिदुर्ग के संबंध में कहा जाता है कि उज्जयिनी में उसने हिरण्यगर्भ (महादान) यज्ञ करवाया था। *राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष । का जन्म 800 ई. में नर्मदा नदी के किनारे श्रीभावन नामक स्थान पर सैनिक छावनी में हुआ था। * इस समय इसके पिता राष्ट्रकूट राजा गोविंद III, उत्तर भारत के सफल अभियानों के बाद वापस लौट रहे थे।
* मौखरि गुप्तों के सामंत थे, जो मूलतः गया के निवासी थे। * मौखरि वंश के शासकों ने अपनी राजधानी कन्नौज बनाई। *इस वंश के
प्रमुख शासक हरिवर्मा, आदित्यवर्मा, ईशानवर्मा, सर्ववर्मा एवं ग्रहवर्मा थे। * हर्ष के समय की विस्तृत सूचना इसके दरबारी कवि बाणभट्ट की कृति हर्षचरित से प्राप्त होती है। इससे जुड़ी कुछ सूचनाएं कल्हण कृति राजतरंगिणी में भी मिलती हैं। चीनी स्रोतों से पता चलता है कि हर्ष एवं राज्यश्री दोनों साथ कन्नौज के राजसिंहासन पर बैठते थे।
* हर्ष ने अपनी राजधानी थानेश्वर से कन्नौज स्थानांतरित की, HT को प्रशासनिक कार्यों में पूरी सहायता प्रदान कर सके। महायान की उत्कृष्टता सिद्ध करने के लिए हर्ष ने कन्नौज में विभिन्न एवं संप्रदायों के आचायों की एक विशाल सभा बुलवाई। अनुसार इस सभा में बीस देशों के राजा अपने देशों के प्रसिद्ध: श्रमणों, सैनिकों, राजपुरुषों आदि के साथ उपस्थित हुए थे। की अध्यक्षता हेनसांग ने की थी। साथ ही हर्ष के समय प्रति प्रयाग के संगम क्षेत्र में एक समारोह का आयोजन किया जाता था की ‘महामोक्ष परिषद’ कहा गया है। हेनसांग स्वयं छठे समारोह में था। * इसमें 18 देशों के राजा सम्मिलित हुए थे।
हर्ष की विजयों के फलस्वरूप उसके राज्य की पश्चिमी सीमा पर्य नदी तक पहुंच गई। इधर पुलकेशिन II भी उत्तर की और राज्य का हित करना चाहता था, ऐसी स्थिति में दोनों के बीच युद्ध अवश्यंभावी * फलतः नर्मदा के तट पर दोनों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें पुलकेशिन ॥ हर्ष को किया। “पुलकेशिन II की ऐहोल प्रशस्ति एवं विवरण इस युद्ध के साक्ष्य हैं।
* हर्षवर्धन के समय की सर्वप्रमुख घटना चीनी यात्री ह्वेनसांग के आगमन की है। *उसने तांग शासकों की राजधानी चंगन (चीन) से के लिए 629 ई. में प्रस्थान किया। * अपनी भारत यात्रा के ऊपर उसने ग्रंथ लिखा, जिसे ‘सी-यू-की’ कहा जाता है। इसने भीनमाल की यात्रा की * इसे ‘यात्रियों का राजकुमार’ कहा जाता है। * ह्वेनसांग के अनुसार, स पर आवागमन पूर्णतया सुरक्षित नहीं था। *अपराध अथवा निर्दोष सिद्ध कर 5.) के लिए अग्नि, जल, विष आदि द्वारा दिव्य परीक्षाएं ली जाती थी। उस ल अनुसार व्यापारिक मार्गों, घाटों, बिक्री की वस्तुओं आदि पर भी कर लगत स थे, जिससे राज्य को पर्याप्त धन प्राप्त होता था।
* ह्वेनसांग चीन के तांग वंशी 1 शासक ताई सुंग का समकालीन तथा इसी के राज्य का नागरिक था। * 637 ई. में ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय गया। * इस समय यहां के कुलपति आचार्य शीलभद्र थे। * ह्वेनसांग के अनुसार, मथुरा उस समय सूती वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था जबकि वाराणसी रेशमी वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था। * ह्वेनसांग बताता है कि थानेश्वर की समृद्धि का प्रधान कारण वहां का व्यापार ही था। *बाग ने थानेश्वर नगरी को अतिथियों के लिए ‘चिंतामणि भूमि’ तथा व्यापारियों के लिए ‘लाल भूमि’ बताया है।
* हर्ष की मृत्यु के बाद कन्नौज विभिन्न शक्तियों के आकर्षण का केंद्र बन गया। * इसे ‘महोदया’, ‘महोदयाश्री’ आदि नामों से अभिव्यक्त किया गया है। * अतः इस पर अधिकार करने के लिए आठवीं सदी की तीन बड़ी शक्तियों-पाल, गुर्जर-प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट के बीच त्रिकोणीय संघर्ष प्रारंभ हो गया, जो आठवीं-नवीं शताब्दी के उत्तर भारत के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। * इस संघर्ष में अंततः प्रतिहारों को सफलता मिली।
* चीनी यात्री इत्सिंग ने 671 या 672 ई. में, जब वह युवक था, अपने 37 बौद्ध सहयोगियों के साथ बौद्ध धर्म के अवशेषों को देखने की इच्छा से पाश्चात्य विश्व का भ्रमण करने का निश्चय किया। * वह दक्षिण के समुद्री मार्ग से होकर भारत आया। * 693-94 ई. के लगभग सुमात्रा होते हुए वह चीन वापस लौट गया।
* प्राचीनकाल के चीनी लेखकों ने भारत का उल्लेख ‘यिन-तु’ (Yin-tu) तथा ‘थिआन-तु’ (Thian-tu) नाम से किया है।
* नालंदा विश्वविद्यालय बख्तियार खिलजी के अधीन तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा 1193 ई. में नष्ट किया गया था। * यह भारत में बौद्ध मत के पतन के लिए अंतिम प्रहार के रूप में देखा जाता है। * विक्रमशिला के प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना बंगाल के पाल वंशीय शासक धर्मपाल द्वारा की गई थी।
* शंकराचार्य को शंकर, श्री शंकराचार्य आदि नामों से भी जाना जाता है। * 8वीं शताब्दी में इनका जन्म केरल के एक छोटे से गांव कलाडी में हुआ था। * उनके दर्शन को ‘अद्वैत वेदांत’ के नाम से जाना जाता है। * शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठ वर्तमान में भी हिंदू धर्म के पथ-प्रदर्शक माने जाते हैं। *इनका विवरण इस प्रकार है- (1) शृंगेरी (कर्नाटक)–दक्षिण में, (2) द्वारका (गुजरात)-पश्चिम में, (3) पुरी (ओडिशा) – पूर्व में तथा (4) ज्योतिर्मठ (जोशीमठ, उत्तराखंड) – उत्तर में। *चारधाम में बद्रीनाथ, द्वारका, पुरी तथा रामेश्वरम् आते हैं, जबकि छोटा चारधाम में उत्तराखंड में स्थित गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ तथा बद्रीनाथ आते हैं।
*अजंता की गुफाएं वाकाटकों के अधीन राजसी संरक्षण और जागीरदारों द्वारा निर्मित करवाई गई थीं। अजंता की गुफा संख्या 16 में उत्कीर्ण मरणासन्न राजकुमारी का चित्र प्रशंसनीय है। इस चित्र की प्रशंसा करते हुए ग्रिफिथ्य, वर्गेस एवं फर्गुसन ने कहा, “करुणा, भाव एवं अपनी कथा को स्पष्ट ढंग से कहने की दृष्टि से यह चित्रकला के इतिहास में अनतिक्रमणीय है। गुफा संख्या 16 को वाकाटक शासक हरिषेण (475-500 ई.) के मंत्री वराहदेव ने बौद्ध संघ को दान में दिया था। “अजंता के चित्र तकनीकी दृष्टि से विश्व में प्रथम स्थान रखते हैं। *इन गुफाओं में अनेक प्रकार के फूल-पत्तियों, वृक्षों तथा पशु आकृतियों की सजावट तथा बुद्ध एवं बोधिसत्वों की प्रतिमाओं के चित्रण मे जातक ग्रंथों से ली गई कहानियों का वर्णनात्मक दृश्य में प्रयोग हुआ है। *ये चित्र अधिकतर जातक कथाओं को दर्शाते है। के रूप
*पुरी स्थित कोणार्क का विशाल सूर्यदेव का मंदिर नरसिंह देववर्मन प्रथम चोडगंग ने बनवाया था। *यह मंदिर 13वीं शताब्दी का है तथा यह अपनी विशिष्ट शैली के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर का आधार एक विशाल चबूतरा है। *इसके चारों ओर पत्थर के तराशे हुए बारह पहिए लगाए गए हैं। और सूर्य के रथ का पूरा आभास देने के लिए चबूतरे के सामने जो सीढ़ियां हैं, उनमें सात अश्वों की स्वतंत्र मूर्तियां लगी हैं, मानो कि ये सातों अश्व रथ को खींच रहे हों। *कोणार्क के सूर्य मंदिर को ‘काला पैगोडा’ (Black Pagoda) भी कहा जाता है। इसे यूनेस्को द्वारा 1984 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया।
*लिंगराज मंदिर उड़ीसा के भुवनेश्वर में स्थित है। * इस मंदिर की शैली नागर है। *यह नागर शैली का सर्वोत्तम मंदिर है। *लिंगराज मंदिर का सबसे आकर्षक भाग इसका शिखर है, जिसकी ऊंचाई 180 फीट है। *जगन्नाथ मंदिर उड़ीसा राज्य के पुरी जिले में स्थित है। * यह मंदिर नागर शैली में बना है। *मोढेरा का सूर्य मंदिर गुजरात में स्थित है। * इसका निर्माण 11 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में सोलंकी वंश के राजा भीमदेव प्रथम द्वारा कराया गया था।
* अंकोरवाट मंदिर समूह का निर्माण कंपूचिया (वर्तमान कंबोडिया) के शासक सूर्यवर्मन II द्वारा 12वीं शताब्दी के प्रारंभ में अपनी राजधानी यशोधरपुर (वर्तमान अंगकोर) में कराया गया था। *विष्णु को समर्पित द्रविड़ शैली का यह मंदिर विश्व का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर समूह है। बोरोबुदुर का प्रख्यात स्तूप इंडोनेशिया के जावा द्वीप पर स्थित है। *यह यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त एक ‘विश्व विरासत स्थल’ (World Heritage Site) है।
*पाण्ड्यों के राज्यकाल में द्रविड़ शैली में मंदिरों का निर्माण हुआ। *इस काल में मंदिर छोटे होते थे, किंतु उनके प्रांगण के चारों ओर अनेक प्राचीर बनाए जाते थे। वे प्राचीर तो सामान्य होते थे, किंतु इनके प्रवेश द्वार, जिन्हें ‘गोपुरम’ कहा जाता था, भव्य एवं विशाल और प्रचुर मात्रा में शिल्पकारिता से अलंकृत होते थे।
* मामल्ल शैली (640-674 ई.) का विकास नरसिंह वर्मन प्रथम महामल्ल के काल में हुआ। * इसके अंतर्गत दो प्रकार के स्मारक बने – मण्डप तथा एकाश्मक मंदिर, जिन्हें ‘रथ’ कहा गया है। *पल्लव कला की राजसिंह
शैली, जिसका प्रारंभ नरसिंह वर्मन द्वितीय ‘राजसिंह’ ने किया था। र्ण मंदिर महाबलीपुरम से प्राप्त होते हैं- शोर मंदिर (तटीय शिव मंदिर ते मंदिर तथा मुकुंद मंदिर। *शोर मंदिर इस शैली का प्रथम को महाबलीपुरम में रथ मंदिरों का निर्माण पल्लव शासको द्वारा था। ये मंदिर एकाश्म पत्थर से निर्मित हैं। *पल्लवकालीन मामल जी बने रथो या एकाश्मक मंदिरों में धर्मराज रथ सबसे बड़ा एवं सबसे छोटा है। इसमें किसी प्रकार का अलंकरण नहीं मिलता तथा एवं हाथी जैसे पशुओं के आधार पर टिका हुआ है।
प काल *श्रीनिवासननल्लूर का कोरंगनाथ मंदिर चोल शासक परांतक में निर्मित हुआ था। * तंजौर में राजराजेश्वर अथवा बृहदीश्वर का निर्माण राजराज प्रथम के काल में निर्मित हुआ था। इसके न ग्रेनाइट पत्थरों का प्रयोग किया गया है। * राजराज शासनकाल मे गंगैकोंडचोलपुरम् में मंदिर का निर्माण हुआ।
दिगंबर जैनियों का पवित्र स्थान है। सोनगिरि के चारों ओर जैन मंदिर स्थापित हैं। वर्तमान में यहां 77 जैन मंदिर पहाड़ी पर गांव में स्थित हैं। इस प्रकार इनकी कुल संख्या 103 है। *पहाड़ी प 57वां मंदिर मुख्य मंदिर है, जो भगवान चंद्रप्रभु से संबंधित है। * विरूपाक्ष मंदिर कर्नाटक राज्य के हम्पी (Hampi) जिले में है। * यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है, जो यहां विरूपाक्ष के ने जाने जाते हैं।
*नागर, द्रविड़ तथा बेसर भारतीय मंदिर वास्तु की तीन मुख्य हैं। * नागर शैली समस्त उत्तरी भारत में प्रचलित है। *उड़ीसा के मंदिर रूप से इसी शैली के हैं। द्रविड़ शैली का प्रसार दक्षिण भारत विशे कृष्णा नदी एवं कुमारी अंतरीप के मध्य (तमिलनाडु) में था। बेसर का विकास, नागर एवं द्रविड़ शैलियों के मिश्रण से हुआ। कन्नड़ प्रदे * अंतिम चालुक्य शासकों के द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इस शैली का शैली भी कहते हैं।
*पंचायतन शब्द मंदिर रचना-शैली को निर्दिष्ट करता है। ब कपूर द्वारा रचित बृहत प्रामाणिक हिंदी कोश’ (मूल संपादक – रामचंद्र वर्मा) के अनुसार, पंचायतन एक पुल्लिंग शब्द है, जो किसी और उसके साथ के चार देवताओं की मूर्तियों के समूह के लिए प्रयुक्त है, जैसे शिव पंचायतन, राम-पंचायतना बदरीनाथ मंदिर में पांच जो बदरी पंचायतन के नाम से प्रसिद्ध हैं। * राजस्थान के उदयपुर में जगदीश मंदिर शिल्पकला की दृष्टि से अनोखा है। *यह मंदिर प शैली का है। चार लघु मंदिरों से परिवृत्त होने के कारण इसे ‘पंचायत गया है। 70201
*प्रसिद्ध नैमिषारण्य तीर्थ उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में नि *यहां महर्षि दधीचि ने देवताओं को अपनी अस्थियां दान दी थी निर्मित वज्र द्वारा देवराज इंद्र ने दैत्यों का वध किया था।
दक्षिण भारत (चोल, चालुक्य, राजाओं के संरक्षण में तीन संगम आयोजित किए गए थे-
* दक्षिण भारत के आर्यकरण का श्रेय महर्षि अगस्त्य को दिया जाता है। * इन्हें तमिल साहित्य के जनक के रूप में जाना जाता है। *तोल्कापियम द्वितीय संगम का एकमात्र अवशिष्ट ही नहीं, प्रत्युत अद्यतन उपलब्ध तमिल साहित्य का प्राचीनतम ग्रंथ है। इसके प्रणयनकर्ता तोल्काप्पियर ऋषि अगस्त्य के बारह योग्य शिष्यों में से एक थे। यह एक व्याकरण ग्रंथ है। * इसकी रचना सूत्र शैली में की गई है। व्याकरण के साथ-साथ यह काव्य शास्त्र का भी एक उच्चकोटि का ग्रंथ है। “शिलप्पादिकारम’ का लेखक इलंगो आडिगल था। यह संगम साहित्य का महत्वपूर्ण महाकाव्य है।
* इसका लेखक चोल नरेश करिकाल का पौत्र था। इस ग्रंथ में पुहार या कावेरीपट्टनम के एक धनाढ्य व्यापारी के पुत्र कोवलन एवं उसकी अति सुंदर किंतु दुर्भाग्यशालिनी पत्नी कन्नगी से संबंधित दुःखद एवं मार्मिक कथा का वर्णन है। तिरुक्कुरल तमिल भाषा में रचित काव्य रचना है, जिसमें नीतिशास्त्र का वर्णन है। इसके रचयिता तिरुवल्लुवर हैं। तोल्काप्पियम तमिल भाषा के व्याकरण की पुस्तक है। *कुरल तमिल साहित्य का बाइबिल तथा लघुवेद माना जाता है। * इसे मुप्पाल भी कहा जाता है। * इसकी रचना सुप्रसिद्ध कवि तिरुवल्लुवर ने की थी। अनुश्रुतियों के अनुसार तिरुवल्लुवर ब्रह्मा के अवतार थे।
*पल्लव शासक सिंहविष्णु (575-600 ई.) ने ‘अवनिसिंह’ की उपाधि धारण की थी। “कशाकुडी दान पत्र से ज्ञात होता है कि सिंहविष्णु ने चोल, पाण्ड्य सिंहल तथा कलम्र के राजाओं को पराजित किया। *नरसिंहवर्मन प्रथम (630-668 ई.) ने ‘महामल्ल’ की उपाधि धारण की थी। *परमेश्वरवर्मन प्रथम (लगभग 670-700 ई.) ने लोकादित्य, एकमल्ल, रणंजय, अत्यन्तकाम, उग्रदंड, गुणभाजन आदि उपाधियां ग्रहण की महेंद्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.) ने ‘मत्तविलासप्रहसन’ नामक हास्य ग्रंथ की रचना की थी।
* संगम साहित्य में केवल चोल, चेर एवं पाण्ड्य राजाओं के उद्भव और विकास का विवरण प्राप्त होता है। *चोल स्थापत्य के उत्कृष्ट नमूने जौर के शैव मंदिर, जो राजराजेश्वर या वृहदीश्वर नाम से प्रसिद्ध – का निर्माण राजराज-1 के काल में हुआ था। *भारत के मंदिरों में न्यसे बड़ा तथा लंबा यह मंदिर द्रविड़ शैली का सर्वोत्तम नमूना माना सकता है। * इस मंदिर के बहिर्भाग में नंदी की एकाश्म विशाल मूर्ति है, जिसे भारत की विशालतम नंदी मूर्ति माना जाता है।
पल्लव एवं संगम युग
नोटस
* संगम कालीन साहित्य में ‘कोन’, ‘को’ एवं ‘मन्नन’ शब्द राजा के लिए प्रयुक्त होते थे। * संगम या संघम प्राचीन तमिल शब्द है, जिसे सामान्यतया ‘गोष्ठी परिषद’ के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। इस रूप में संगम तमिल कवियों एवं विद्वानों की परिषदें’ थीं। * इन संगमों में कवियों द्वारा रचा गया साहित्य ‘संगम साहित्य’ कहलाता है। * संगम साहित्य, तमिल साहित्य का सबसे प्राचीन उपलब्ध अंश है। * संगम युग में दक्षिण भारत पाण्ड्य
*कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों से लेकर कुमारी अंतरीप भू-भाग प्राचीन काल में तमिल प्रदेश का निर्माण करता था। *इसमे को तट तथा दक्कन के कुछ भाग यथा-उरैयूर, कावेरीपट्टनम, ” , तंजावुर
चोलों के अधिकार में थे। में चोली *परांतक-1 के अंतिम दिनों में राष्ट्रकूट शासक कृष्णा | गंगों (बुग II) की सहायता से तक्कोलम के युद्ध किया और तंजौर पर अधिकार कर लिया। *कृष्ण III ने इस उप ‘ड’ की उपाधि धारण की थी। को
*पोलों की राजधानी थी। इसके अतिरिक्त परांतक भी चोलों की राजधानी बनी थी। *संगम काल में चोलों की राजधानी थी। * द्रविड़ देश में चोल आधिपत्य की स्थापना वस्तुतः थी। उसने मदुरा के पाण्ड्य राजा राज सिंह द्वितीय को हराकर मदुर ‘उपाधि’ धारण की। *राजराज ने सर्वप्रथम चेर राज्य को (केरल) में परास्त किया। राजराज । एवं उसके पुत्र राजेंद्र ने दक्षिणी-पूर्वी ए के शैलेंद्र साम्राज्य के विरुद्ध सैन्य चढ़ाई की तथा कुछ क्षेत्रों को जीत लि *चोल शासक राजराज I ने सिंहल (श्रीलंका) पर आक्रमण उत्तरी सिंहल को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। विजित क्षेत्र प्रथम ने राजराज ने अनुराधापुर को नष्ट कर पोलोन्नरुव को इस क्षेत्र की राज बनाया और इसका नाम ‘जननाथ मंगलम्’ रखा।
*राजराजन की मृत्यु के बाद उसका योग्यतम पुत्र राजेंद्र – सम बना। उसने अपने पिता की साम्राज्यवादी नीति को आगे बढ़ाया। राजेद्र का काल चोल शक्ति का चरमोत्कर्ष काल था। राजेंद्र-1 के बारे में कहा ग है कि उसने बंगाल की खाड़ी को ‘चोल झील’ का स्वरूप प्रदान कर दिय *उसने संपूर्ण सिंहल द्वीप (बीलंका) को जीत लिया तथा वह सिं राजा महेंद्र पंचम को बंदी बनाकर चोल राज्य में लाया। *उसने पवित्र गंग जल लाने के उद्देश्य से उत्तर-पूर्वी भारत (गंगा घाटी) पर आक्रमण किय तथा पाल शासक महीपाल को पराजित किया। * इस विजय के उपलब्ध में उसने गंगैकोंड की उपाधि ग्रहण की तथा गंगैकोंडचोलपुरम् नामक नई राजधानी की स्थापना की। *नवीन राजधानी के निकट ही उसने सिंचाई के लिए चोलगंगम नामक विशाल तालाब का भी निर्माण कराया।
*कुलोत्तुंग-1 के समय में श्रीलंका के राजा विजयबाहु ने अपनी स्वतंत्रता घोषित की। कुलोत्तुंग-1 ने श्रीलंका में चोल प्रभाव की समाप्ति के प्रति किसी कटुता का प्रदर्शन नहीं किया तथा उसने अपनी पुत्री का विवाह श्रीलंका के राजकुमार वीरप्पेरुमाल के साथ कर दिया।
* चोल शासक कुलोत्तुंग-1 के शासनकाल में 1077 ई. में 72 सौदागरों का एक चोल दूत मंडल चीन भेजा गया था। *कुलोत्तुंग-I को चोल लेखों में ‘शुंगम तविर्त’ अर्थात करों को हटाने वाला कहा गया है। * चोल साम्राज्य को प्रशासन की सुविधा के लिए छः प्रांतों में विभाजित
किया गया था। * प्रांत को ‘मंडलम्’ कहा जाता था। प्रांत का विभाजन नामक चीनी यात्री ने चालु केली एवं का विवरण दिया है। * भारतीय काली मिर्च यूनानियों एवं वासियों को बहुत इसलिए प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में इसे यवनकिया है।
*अरिकामे पूर्वी तट पर पांडिचेरी (पुदुचेरी) से 3 किमी द उष्णकटिबंधीय कोरोमंडल तट पर स्थित है। पेरिप्लस में इसे “पोके गया है। यहां ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में रोमन बस्ती की अवस्थिति मानी जाती है। यहां से प्राप्त अवशेषों में कई रोमन वस्तुएं प्राप्त हुई है. जिनमें शराब के दो हत्थे कलश, रोमन लैम्प, रोमन ग्लास आदि प्रमुख है।
*एम्फोरा जार एक लंबी एवं संकीर्ण गर्दन वाला और दोनों तरफ हत्थेदार जार है। प्राचीन काल में इसका प्रयोग तेल या शराब को रखने के लिए किया जाता था। *कंबन ने 12वीं शती ई. में तमिल रामायणम या रामावतारम की रचना तमिल भाषा में की थी।
* दक्षिण भारत में नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे, जैसे-मणिग्रामम्, वलंजीवर आदि। इनका कार्य व्यापार-व्यवसाय को प्रोत्साहन देना था।
* तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में कावेरी नदी के तट पर अवस्थित उरैयूर संगम कालीन महत्वपूर्ण नगर था। *संगम युग में उरैयूर सूती वस्त्रों का बहुत बड़ा केंद्र था। इसका विवरण पेरिप्लस ऑफ दी एरीशियन सी में मिलता है।
* पाण्ड्य राज्य की जीवन रेखा वेंगी नदी थी। *पाण्ड्य राज्य कावेरी के दक्षिण में स्थित था। *इसमें आधुनिक मदुरा तथा तिन्नेवेल्ली के जिले और त्रावणकोर का कुछ भाग शामिल था। * इसकी राजधानी मदुरा थी।
* वेंगी नदी वाला प्रदेश अपनी उर्वरता के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध था। *चेर राज्य पर विजय के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक जयंतवर्मन ने ‘वानवन’ की उपाधि धारण की। *पल्लवों के विरुद्ध सफलता के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक मारवर्मन राजसिंह प्रथम ने पल्लव भंजन’ की उपाधि धारण की।
“दक्षिण भारत के पाण्ड्य वंश के राजा ने रोम राज्य में एक दूत 26 ई.पू. में भेजा था। * मीनाक्षी मंदिर का निर्माण पाण्ड्यों ने अपनी राजधानी मदुरई में करवाया था।
*एक अज्ञात ग्रीक नाविक द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक ‘पेरिप्लस ऑफ दी एरीशियन सी’ में प्राचीन काल के विभिन्न बंदरगाहों की सूची मिलती है। * इसमें नौरा, तोंडी, मुशिरी और नेलिसंडा पश्चिमी तट के प्रमुख बंदरगाह थे।
*कदंब राजाओं की राजधानी वनवासी थी। इस राजवंश (कदंब ) की
स्थापना मयूरशर्मन ने की थी। कदंब राज्य को पुलकेशिन द्वितीय ने अपने राज्य में मिला लिया था।
कोवलन हुआ था। कित्येक मे ”हो “जिजा की रिकनगरों में नगरम् नामक व्यापारियों की होती थी। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होती थी।लों के अधीन ग्राम प्रशासन सभा की कार्यकारिणी समितियों की कार्यप्रणाली का विस्तृत विवरण हमार कर से प्राप्त लेखों के माध्यम से प्राप्त करते है। बोलकालीन गायों के गतिविधियों की देख-रेख एक कार्यकारिणी समिति करती थी, जिसे मान कहा जाता था। उद्यान प्रशासन का कार्य देखने वाली समितिको वारियम् कहा जाता है, जबकि संवत्सर वारियम् (वार्षिक समिति), वारियम् (तालाब समिति) तथा पोन वारियम् (स्वर्ण समिति ) थी। व्यापारियों तथा शिल्पियों की सभा को श्रेणी अथवा पूग कहा जाता था।
चोल कलाकारो ने तक्षण कला में भी सफलता प्राप्त की है। उन्होंने पत्थर तथा धातु की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण किया। *पाषाण मूर्तियों से भी अधिक धातु (कांस्य) मूर्तियों का निर्माण हुआ। सर्वाधिक सुंदर मूर्तिया नटराज (शिव) की हैं, जो बड़ी संख्या में मिली है। इन्हें विश्व की श्रेष्ठतम प्रतिमा-रचनाओं में शामिल किया जाता है। ये मूर्तियां प्रायः चतुर्भुज है। *शिव की ‘दक्षिणामूर्ति’ प्रतिमा उन्हें गुरु (शिक्षक) के रूप में प्रदर्शित करती है। उ “इस रूप में शिव अपने भक्तों को सभी प्रकार का ज्ञान प्रदान करते हुए माने गए हैं। इस रूप में शिव की दक्षिण दिशा में मुख किए हुए प्रतिमा स्थापित की गई है।
चोल राजाओं ने एक विशाल संगठित सेना का निर्माण किया था। *बोलों के पास अश्व, गज एवं पैदल सैनिकों के साथ-ही-साथ एक अत्यंत शक्तिशाली नौसेना भी थी। इसी नौसेना की सहायता से उन्होंने श्रीविजय, सिंहल, मालदीव आदि द्वीपों की विजय की थी। चोल काल के सम्राट प्रायः अपने जीवनकाल में ही युवराज का चुनाव कर लेते थे, जो उसके बाद उसका उत्तराधिकारी बनता था।
*तगर प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था, यह कल्याण
तथा वेंगी के मध्य स्थित था। *बीजापुर (कर्नाटक) जिले के वातापी नामक प्राचीन नगर का आधुनिक नाम बादामी है। *छठी-सातवीं शताब्दी ई. में यह चालुक्यों की राजधानी थी।
*वातापी के चालुक्य राजवंश का वास्तविक संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था। #पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश के शासकों में सर्वाधिक योग्य तथा शक्तिशाली था, उसने 610 ई. से 642 ई. तक शासन किया। *उसकी उपलब्धियों का विवरण हमें ऐहोल अभिलेख से प्राप्त होता है। *इस लेख की रचना सने की थी। *चालुक्यों के शासनकाल में प्रायः महिलाओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। *विजयादित्य प्रथम के भाई चंद्रादित्य की रानी विजय भट्टारिका ने अपने नाम से दो ताम्रपत्र लिखवाए थे।
नामक चीनी यात्रा के शासनकाल में एवं भारत के का विवरण दिया है।
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भारतीय काली मिर्च यूनानियों एवं रोमवासियों को बहुत भी इसलिए प्राचीन संस्कृत में इसे कहा गया है। * अरिकामे पूर्वी तट पर पांडिचेरी (पुरी) से 3 किमी. दक्षिण में उष्णकटिबंधीय कोरोमंडल तट पर स्थित है। पेरिप्लस में इसे कहा गया है। यहाँ ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में रोमन बस्ती की अवस्थिति
मानी जाती है। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में कई रोमन वस्तुएं प्राप्त हुई है. जिनमें शराब के दो हत्थे कलश, रोगन लैम्प, रोमन ग्लास आदि प्रमुख हैं। * एम्फोरा जार एक लंबी एवं संकीर्ण गर्दन वाला और दोनों तरफ हत्थेदार जार है। प्राचीन काल में इसका प्रयोग तेल या शराब को रखने के लिए किया जाता था। *कंबन ने 12वीं शती ई. में तमिल रामायणम या रामावतारम की रचना तमिल भाषा में की थी।
* दक्षिण भारत में नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे, जैसे मणिग्रामम्, वलंजीयर आदि। इनका कार्य व्यापार-व्यवसाय को प्रोत्साहन
देना था।
* तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में कावेरी नदी के तट पर अवस्थित उरैयूर संगम कालीन महत्वपूर्ण नगर था। * संगम युग में उरैयूर सूती वस्त्रों का बहुत बड़ा केंद्र था। इसका विवरण पेरिप्लस ऑफ दी एरीशियन सी में मिलता है।
* पाण्ड्य राज्य की जीवन रेखा वेंगी नदी थी। *पाण्ड्य राज्य कावेरी के दक्षिण में स्थित था। * इसमें आधुनिक मदुरा तथा तिन्नेवेल्ली के जिले और त्रावणकोर का कुछ भाग शामिल था। * इसकी राजधानी मदुरा थी।
* वेंगी नदी वाला प्रदेश अपनी उर्वरता के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध था।
*चेर राज्य पर विजय के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक जयंतवर्मन ने ‘वानवन’ की उपाधि धारण की। *पल्लवों के विरुद्ध सफलता के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक मारवर्मन राजसिंह प्रथम ने ‘पल्लव भंजन’ की उपाधि धारण की।
* दक्षिण भारत के पाण्ड्य वंश के राजा ने रोम राज्य में एक दूत 26 ई.पू. में भेजा था। * मीनाक्षी मंदिर का निर्माण पाण्ड्यों ने अपनी राजधानी • मदुरई में करवाया था।
* एक अज्ञात ग्रीक नाविक द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक ‘पेरिप्लस ऑफ दी एरीशियन सी’ में प्राचीन काल के विभिन्न बंदरगाहों की सूची मिलती है। *इसमें गौरा, तोंडी, मुशिरी और लिसंडा पश्चिमी तट के प्रमुख बंदरगाह 7 थे।
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* कदंब राजाओं की राजधानी वनवासी थी। *इस राजवंश (कदंब ) की स्थापना मयूरशर्मन ने की थी। कदंब राज्य को पुलकेशिन द्वितीय ने अपने राज्य में मिला लिया था।
नामक चीनी यात्री ने चालुक्यों के शासनकाल में चीन एवं भारत के का विवरण दिया है। * भारतीय काली मिर्च यूनानियों एवं रामवासियों को बहुत प्रिय थी. इसलिए प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में इसे यवनप्रिय’ कहा गया है। * अरिकामे पूर्वी तट पर पांडिचेरी (मुडुचेरी) से 3 किमी. दक्षिण में 1 उष्णकटिबंधीय कोरोमंडल तट पर स्थित है। *पेरिप्लस में इसे “पोटुके” कहा गया है। यहाँ ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में रोमन बस्ती की अवस्थिति मानी जाती है। यहां से प्राप्त अवशेषों में कई रोमन वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, 7 जिनमें शराब के दो हत्थे कलश, रोमन लैम्प, रोमन ग्लास आदि प्रमुख है।
* एम्फोरा जार एक लंबी एवं संकीर्ण गर्दन वाला और दोनों तरफ । हत्थेदार जार है। प्राचीन काल में इसका प्रयोग तेल या शराब को रखने 7 के लिए किया जाता था।
*कंबन ने 12वीं शती ई. में तमिल रामायणम या रामावतारम की रचना तमिल भाषा में की थी।
* दक्षिण भारत में नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे, जैसे- मणिग्रामम्, वलंजीवर आदि। इनका कार्य व्यापार-व्यवसाय को प्रोत्साहन देना था।
*तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में कावेरी नदी के तट पर अवस्थित । उरैयूर संगम कालीन महत्वपूर्ण नगर था। संगम युग में उरेयूर सूती वस्त्रों 2 का बहुत बड़ा केंद्र था। *इसका विवरण पेरिप्लस ऑफ दी एरीशियन सी मे मिलता है।
पाण्ड्य राज्य की जीवन रेखा वेंगी नदी थी। पाण्ड्य राज्य कावेरी के दक्षिण में स्थित था। इसमें आधुनिक मदुरा तथा तिन्नेवेल्ली के जिले और त्रावणकोर का कुछ भाग शामिल था। इसकी राजधानी मदुरा थी।
* वेंगी नदी वाला प्रदेश अपनी उर्वरता के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध था। *चेर राज्य पर विजय के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक जयंतवर्मन ने ‘वानवन’ की उपाधि धारण की। *पल्लवों के विरुद्ध सफलता के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक मारवर्मन राजसिंह प्रथम ने ‘पल्लव भंजन’ की उपाधि धारण की। * दक्षिण भारत के पाण्ड्य वंश के राजा ने रोम राज्य में एक दूत 26 ई.पू. में भेजा था। मीनाक्षी मंदिर का निर्माण पाण्ड्यों ने अपनी राजधानी मदुरई में करवाया था।
1 *एक अज्ञात ग्रीक नाविक द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक ‘पेरिप्लस ऑफ दी एशियन सी में प्राचीन काल के विभिन्न बंदरगाहों की सूची मिलती है। इसमें नौरा, सॉडी मुशिरी और नेलिसंडा पश्चिमी तट के प्रमुख बंदरगाह थे।
“कदंब राजाओं की राजधानी बनवासी थी इस राजवंश (कदंब) की स्थापना मयूरशर्मन ने की थी। कदंब राज्य को पुलकेशिन द्वितीय ने अपने राज्य में मिला लिया था।
प्राचीन साहित्य एवं साहित्यकार
नोट्स
*यूनानी लेखक हेरोडोटस (5वीं शदी ई.पू.) को ‘इतिहास का पिता’ कहा जाता है। *’हिस्टोरिका’ उसकी प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसमें 5वीं शदी ई.पू. के भारत-फारस संबंधों का विवरण (अनुश्रुतियों के आधार पर) मिलता है।
* मुद्राराक्षस की रचना विशाखदत्त ने की थी। * इस ग्रंथ से मौर्य इतिहास, मुख्यतः चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन पर प्रकाश पड़ता है। * इसमें चंद्रगुप्त मौर्य को ‘वृषल’ तथा ‘कुलहीन’ कहा गया है। *धुंडिराज ने मुद्राराक्षस पर टीका लिखी है। לין
*व्याकरणाचार्य पाणिनि नंद शासक महापद्मनंद के मित्र थे, अष्टाध्यायी उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। *वाराहमिहिर गुप्तयुगीन खगोल शास्त्र थे। * बृहज्जातक, पंचसिद्धांतिका, बृहत्संहिता आदि इनके प्रमुख ग्रंथ हैं। इनकी पंचसिद्धांतिका
यूनाधिपरा
की की है।
(प्राचीन भारत के प्रसिद्ध गणित बताया कि सूर्य र पृथ्वी घूमती है।उन्होंने एवं सूर्य के कारण पृथ्वी की परिधि का लग दशमलव स्थानिक मान की खोज की बौद्ध भिक्षु नागसेन द्वारा लिखित न
एवं हिंदू यवन शासक मिनोर के बीच वार्तालाप का वर्णन है। • कालिदास चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबारी कवि इन्होंने ऋतुसंहार, मेघदूत, रघुवंश, कुमारसंभवम् अभिज्ञानशाकुन्तलम् आदि की रचना की। इनके द्वारा रचित ‘मालविकाग्निमित्रम पांच अंको का नाटक है,
जिसमें मालविका और अग्निमित्र की प्रणय कथा वर्णित है। अग्निमित्र शुंग
शासक पुष्यमित्र शुंग का पुत्र था।
*कश्मीर के हिंदू राज्य का इतिहास हमें कल्हण की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है। राजतरंगिणी में कुल आठ तरंग एवं आठ हजार के लगभग श्लोक है। इस ग्रंथ की रचना कल्हण ने राजा जय सिंह (1128-1149 ई.) के शासनकाल में की थी। कश्मीर के शासक जैनुल आबदीन द्वारा संरक्षित दो विद्वानों जोनराज एवं उनके शिष्य श्रीवर ने कल्हण की राजतरंगिणी का आगे विस्तार किया।
* अश्वघोष कुषाण शासक कनिष्क के राजकवि थे। * इनकी तुलना मिल्टन, गेटे, कांट तथा वाल्टेयर से की जाती है। *उनकी रचनाओं में तीन प्रमुख है- (1) बुद्धचरित (2) सौंदरानंद तथा (3) सारिपुत्र प्रकरण। * इनमें प्रथम दो महाकाव्य तथा अंतिम नाटक ग्रंथ है। सौंदरानंद में बुद्ध के सौतेले भाई सुंदर नंद के बौद्ध धर्म ग्रहण करने का वर्णन है। इसमें 18 सर्ग है।
* हर्ष को संस्कृत के तीन नाटक ग्रंथों का रचयिता माना जाता है- प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानंद *प्रियदर्शिका चार अंको का नाटक है, जिसमें वत्सराज उदयन के अंतःपुर की प्रणय कथा का वर्णन हुआ है। * रत्नावली में भी चार अंक हैं तथा यह नाटक वत्सराज उदयन और उसकी रानी वासवदत्ता की परिचारिका नागरिका की प्रणय कथा का बड़ा ही रोचक वर्णन करता है। * नागानंद बौद्ध धर्म से प्रभावित रचना है, इसमें पांच अंक है।
* जयदेव ने हर्ष को भास, कालिदास, बाण, मूर आदि कवियों की समानता
में रखते हुए उसे कविताकामिनी का साक्षात हर्ष निरूपित किया है। * महाकवि भास के नाम से 13 नाटक उपलब्ध हुए हैं, जिन्हें टी. गणपति शास्त्री ने ट्रावनकोर राज्य से प्राप्त किया था। * इन नाटकों के नाम हैं- (1) प्रतिज्ञायौगंधरायण, (2) स्वप्नवासवदत्ता, (3) उरुभंग, (4) दूतवाक्य, (5) पंचरात्र, (6) बालचरित. (7) दूतघटोत्कच, (8) कर्णभार (9) मध्यमव्यायोग,
(10) प्रतिमा नाटक, (11) अभिषेक नाटक, (12) अविमारक और (13) चारुदत्त * गीत गोविंद के रचयिता, जयदेव बंगाल के अंतिम सेन शासक लक्ष्मणसेन के आश्रित महाकवि थे। *अतः जयदेव ने बारहवीं शताब्दी में गीत गोविंद की रचना की है। * इसे गीतिकाव्य कहना उचित होगा। * इसमें 12 सर्ग हैं तथा प्रत्येक सर्ग गीतों से समन्वित है।
* प्राचीन भारतीय पुस्तक पंचतंत्र (मूलतः संस्कृत में रचित) का पंद्रह भारतीय और चालीस विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ। * इसके मूल लेखक विष्णु
शर्मा माने जाते हैं। रूडगर्टन के अनुसार, पंचतंत्र के 50 से अधिक भाषाओं में 200 से अधिक स्वरूप उपलब्ध हैं। * यह भारत की सर्वाधिक बार अनुवादि साहित्यिक पुस्तक मानी जाती है। *मुगल काल में पंचतंत्र का फारसी अनुवाद | ‘आयर-ए-दानिश’ (अबुल फजल द्वारा) शीर्षक के तहत कराया गया था। * आचार्य सर्ववर्मा (Acharya Sarvavarma) ने पांच खंडों में कातंत्र व्याकरम (Katantra Vyakaram) नामक पुस्तक हिंदी एवं संस्कृत में लिखी थी। *12वी शताब्दी के गणितज्ञ भास्कर (भास्कर II या भास्कराचार्य) ने बीजगणित के क्षेत्र में विशेष योगदान दिया। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘सिद्धांत शिरोमणि’ चार भागों-लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित और गोलाध्याय में विभाजित है। * 12वीं शताब्दी में ‘मिताक्षरा’ (Mitakshara) की रचना विज्ञानेश्वर ने की थी। * इसका पहला अंग्रेजी अनुवाद हेनरी टॉमस कोलब्रुक के द्वारा 19वीं शताब्दी में किया गया। * इसमें हिंदू नियमों का उल्लेख है।
“मत्त विलास प्रहसन’ एक संस्कृत नाटक है। इसके लेखक पल्लव नरेश महेंद्र वर्मन हैं। * यह एक परिहास नाटक है, जिसमें धार्मिक आडंबरों पर कटाक्ष किया गया है। *दंडी ने ‘दशकुमारचरित’ एवं ‘काव्यादर्श’ की रचना की। *”मनुस्मृति’, जिसमें कुल 18 स्मृतियां सम्मिलित हैं, की रचना मनु द्वारा की गई मानी जाती है। *मनुस्मृति प्राचीन भारतीय समाज-व्यवस्था तथा हिंदू विधि से संबंधित है। *मनु को प्राचीन भारत का प्रथम एवं महान धर्मा माना जाता है। *शूद्रक ने प्रसिद्ध नाटक मृच्छकटिकम की रचना की। * इस नाटक में ब्राह्मण चारूदत्त तथा उज्जयिनी की प्रसिद्ध गणिका बसंतसेना के आदर्श प्रेम की कहानी वर्णित है।
* शून्य का आविष्कार ईसा पूर्व दूसरी शती में किसी अज्ञात भारतीय ने किया था। *अरबों ने इसे भारत से सीखा और यूरोप में फैलाया। *अरब देश में शून्य का प्रयोग सबसे पहले 873 ई. में पाया जाता है। *प्रमुख रचनाकारों की प्रमुख रचनाएं हैं-सूरदास – सूरसागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी तुलसीदास – रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली। राजशेखर- काव्यमीमांसा, बाल रामायण, बाल भारत, विशालभाजि
पूर्व मध्यकाल (800-1200 ई.
नोट्स
दिल्ली सल्तनत
कुतुबुद्दीन ऐबक, जो गौरी के भारतीय क्षेत्रों का ‘वली अहद था, 1206 ई. में लाहौर में गद्दीनशीन हुआ।
गजनी के शासक महमूद ने ऐबक को दास्य मुक्ति-पत्र दिया।
ऐबक को कुरान खाँ कहा जाता था, क्योंकि वह कुरान का सुरीला पाठ करता था। अपनी उदारता के कारण ऐबक को लाख बख्श कहा गया है।
ऐबक ने अजमेर में अढ़ाई दिन का झोपड़ा बनवाया तथा दिल्ली में कुव्वत उत्त-इस्लाम मस्जिद का निर्माण करवाया। ऐबक ने कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम पर कुतुबमीनार बनवानी प्रारम्भ की हसन निजामी तथा फल-ए-मुदब्बिर को ऐबक का संरक्षण प्राप्त था। लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते हुए 1210 ई. में घोड़े से गिरकर ऐबक की मृत्यु हो गई। ऐबक के पश्चात् कुछ समय के लिए आरामशाह शासक बना।
इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक कहलाता है इल्तुतमिश ऐबक का दास था, ऐबक की मृत्यु के समय वह बदायूँ का सूबेदार था। उसे यल्दूज ने दास्य मुक्ति-पत्र दिया। उसने लाहौर के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाया। चंगेज खाँ की चेतावनी के कारण इल्तुतमिश ने ख्वारिज्म शहजाद जलालुद्दीन मंगबरनी को शरण देने से मना कर दिया।
इल्तुतमिश प्रथम तुर्क शासक था, जिसने शुद्ध अरबी चाँदी का टंका तथा तांबे का जीतल उसी ने प्रारम्भ किए, सिक्कों पर टकसाल का नाम लिखना प्रारम्भ किया।
इल्तुतमिश ने चालीसा दल (तुर्कानेचहलगानी) का गठन किया था।
इल्तुतमिश ने कुतुबमीनार को पूर्ण करवाया। इल्तुतमिश ने गौरी की स्मृति में मदरसा-ए-मुइज्जी तथा अपने पुत्र नासिरुद्दीन की नासिरी मदरसा बनवाया। समकालीन साहित्य में दिल्ली को हजरत-ए-दिल्ली कहा गया है। इल्तुतमिश के बाद रुकनुद्दीन फिरोजशाह गद्दी पर बैठा वास्तविक सत्ता उसकी माता शाह तुकोन के हाथ में थी।
जनसमूह द्वारा इसे अपदस्थ कर रजिया को सुल्तान बनाया गया। रजिया ने न्याय के प्रतीक लाल वस्त्र पहन कर जनता से न्याय की अपील की तथा जनसमर्थन से ही वह गद्दी पर बैठ पाई। रजिया ने दिया तथा कुबा (कोट) एवं कुलाह (टोपी) पहन कर दरबार लगाया।
रजिया ने अबीसीनियाई अमीर याकूत को अमीर-ए-आखुर बनाया। रजिया ने सरहिन्द के सूबेदार अल्लूनिया से विवाह किया।
मुइजुद्दीन बहराम शाह के वक्त ही नायब-ए-मुमलकत नामक महत्त्वपूर्ण पद की स्थापना हुई। प्रथम ‘नायब-ए-मुमलकत’ एतगीन था। बहरामशाह के शासनकाल में ही मंगोलों का प्रथम आक्रमण (1241 ई.) हुआ था।
नासिरुद्दीन महमूद अत्यन्त धार्मिक स्वभाव का सुल्तान था। मिनहाज की तबकाते नासिरी उसे ही समर्पित है। महमूद द्वारा ही बलबन को ‘उलूग खाँ’ की उपाधि प्रदान की गई तथा ‘नायब-ए-मुमलकत का पद प्रदान किया गया।
बलबन चालीसा दल का सदस्य था तथा झाँसी एवं नागौर का इक्तादार रहा था। इसे रेवाड़ी की जागीर प्रदान की गई थी। बलबन ने सीमा विस्तार की नीति नहीं अपनाई थी।
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बलबन ने राजत्व के ईरानी सिद्धान्तों को अपनाया तथा सिजदा (लेटना), पैबोस (पैर चूमना) जैसी प्रथाएँ प्रारम्भ करवाई। बलबन ने दरबार में ईरानी त्यौहार नौरोज मनाने की प्रथा प्रारम्भ की। बलबन के काल में तुगरिल खाँ ने बंगाल में विद्रोह करके सुन मुगीसुद्दीन की उपाधि ली। बलबन ने मंगोलों को रोकने में सफलता पाई।
यद्यपि शाहजादा मोहम्मद मंगोलों के हाथों मारा गया। • खिलजी वंश की स्थापना खिलजी क्रान्ति के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तुर्की अमीर वर्ग का सत्ता पर एकाधिकार और तुर्की लोगों की जातीय तानाशाही समाप्त हो गई।
– दक्षिण भारत पर प्रथम आक्रमण अलाउद्दीन खिलजी द्वारा जलालु के समय में किया गया था। उसने 1296 ई. में देवगिरि पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन के दक्षिणी अभियानों में मलिक काफूर की प्रत भूमिका रही। दक्षिण में देवगिरि के यादव शासक रामचन्द्र, वारंगल के काकतीय शासक प्रताप रुद्र देव तथा द्वार-समुद्र के होयसल शासक बल्लाल ने अलाउद्दीन का आधिपत्य स्वीकार किया। अलाउद्दी रामचन्द्र देव को राय रायान की उपाधि दी तथा नौसारी जिला भेंट किया।
अलाउद्दीन खिलजी ने दशमलव प्रणाली के आधार पर सेना का गठन किया था। अलाउद्दीन भू-राजस्व निर्धारण हेतु पैमाइश को आधार बनाने वाला पहला सुल्तान था। भू-राजस्व निर्धारण हेतु बिस्वा को मानक इकाई बनाया गया तथा भू-राजस्व की दर 50% तय की गई। अलाउद्दीन खिलजी ने भू-राजस्व व्यवस्था में सुधार हेतु दीवान-ए-मुस्तखराज की स्थापना की। अलाउद्दीन के बाजार सुधारों का विस्तृत वर्णन बरनी ने किया है। बाजार सुधारों के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने तीन बाजारों की स्थापना की खाद्यान्न बाजार, वस्त्र एवं अन्य कीमती वस्तुओं का बाजार तथा दास, मवेशियों एवं घोड़ों का बाजार अलाउद्दीन ने कुतुबमीनार से दोगुनी ऊँचाई की मीनार बनाने की योजना बनाई, परन्तु उसकी मृत्यु के कारण यह मीनार अपूर्ण रह गई। अलाउद्दीन ने एक नया धर्म चलाने की योजना बनाई थी, परन्तु अलाउल्लमुल्क की सलाह पर उसने यह योजना छोड़ दी। अलाउद्दीन ने सिकन्दर सानी (द्वितीय सिकन्दर) की उपाधि धारण की। अमीर खुसरो सर्वप्रथम अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में ही दरबारी रहे थे।
गयासुद्दीन तुगलक ने कठोरता एवं नरमी के बीच का मध्य मार्ग अपनाया, जिसे रस्म-ए-मियाना कहा गया है।
इसने भू-राजस्व को बँटाई के आधार पर निर्धारित किया तथा इसे थोड़ा-थोड़ा (1/11. 1/10) करके बढ़ाने के निर्देश दिए। सल्तनत काल में नहर बनवाने वाला पहला शासक गयासुद्दीन तुगलक ही था।
शेख निजामुद्दीन औलिया ने गयासुद्दीन तुगलक के सन्दर्भ में कहा था ‘हनूज दिल्ली दूर अस्त’ (अभी दिल्ली दूर है)।
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मुहम्मद-बिन-तुगलक का वास्तविक नाम जौना खाँ था। मुहम्मद-बिन-तुगलक को अन्तर्विरोधों का मिश्रण, रक्त पिपासु, पागल आदि कहा गया है।
मुहम्मद-बिन-तुगलक ने पैमाइश को भू-राजस्व निर्धारण का आधार बनाया। कृषि में सुधार एवं विस्तार हेतु मुहम्मद-बिन-तुगलक ने दीवान-ए-अमीर कोही (कृषि विभाग) नामक विभाग की स्थापना की। इनके द्वारा अकाल राहत संहिता भी तैयार कराई गई।
दोआब में हुए विद्रोह के पश्चात् मुहम्मद-बिन-तुगलक स्वर्गद्वार नामक स्थान पर चला गया। मुहम्मद-बिन-तुगलक के शासनकाल में (1333 ई.) में अफ्रीकी यात्री इब्नबतूता भारत आया। सुल्तान ने उसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया।
सुल्तान ने जैन विद्वान् जिनप्रभु सूरि और राजशेखर का स्वागत किया। शेख निजामुद्दीन चिराग-ए-दिल्ली सुल्तान के विरोधियों में से एक था।
मुहम्मद बिन तुगलक के समय सबसे अधिक (चौंतीस) विद्रोह हुए, जिसमें
सत्ताइस विद्रोह अकेले दक्षिण भारत में हुए। मुहम्मद-बिन-तुगलक के काल के प्रमुख विद्रोह हैं-दक्षिण में बहाउद्दीन गुरशस्प, मुल्तान में बहराम किश्लू तथा बंगाल में गयासुद्दीन आदि।
फिरोजशाह तुगलक ने प्रचलित कम-से-कम तेईस करों को समाप्त करके इस्लामी शरीयत कानून द्वारा अनुमति प्राप्त केवल चार करों-खराज, जकात, जजिया और खुम्स को आरोपित किया। ख्वाजा हिसामुद्दीन के हिसाब के अनुसार फिरोज सरकार की वार्षिक आय छः करोड़ पचहत्तर लाख टका थी। .
तुगलक वंश के अन्तिम शासक नासिरुद्दीन महमूद (1394-1412 ई.) के शासन काल में मध्य एशिया के मंगोल सेनानायक तैमूर ने 1398 ई. में भारत पर आक्रमण किया। सैयद वंश (1414-51 ई.) के संस्थापक खिज्र खाँ ने मंगोल आक्रमणकारी तैमूर को सहयोग प्रदान किया था।
उसने तैमूर के पुत्र शाहरुख के प्रतिनिधि के रूप में शासन किया।
बहलोल लोदी (हजरत आला) के पश्चात् लोदी वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक सिकन्दर लोदी गद्दी पर बैठा, उसने 1504 ई. में आगरा नगर की स्थापना की तथा बादलगढ़ का किला बनवाया। सिकन्दर लोदी द्वारा नाप के लिए एक पैमाना ‘गजे सिकन्दरी’ प्रारम्भ किया गया। यह प्रायः 30 इंच का होता था ।
सल्तनत काल में सबसे ज्यादा नहर बनवाने वाला शासक फिरोजशाह तुगलक था।
सल्तनतकालीन प्रशासन, अर्थव्यवस्था समाज एवं संस्कृति सुल्तान की उपाधि तुर्क शासकों ने प्रारम्भ की। सुल्तान स्वयं को खलीफा का नाइन मानता था
सत्तनतकालीन भारत में प्रशासनिक संरचना मुख्यतः पारसी अरबी पद्धति पर आधारित थी, किन्तु सैन्य संगठन तुर्क मंगोल पद्धति पर आधारित था।
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सल्तनतकालीन इस्लामी कानून शरीयत कुरान व हदीस पर आधारित था। शरीयत की व्याख्या उलेमा’ करते थे। राज्य का प्रधानमन्त्री वजीर कहलाता था, उसका कार्यालय दीवान-ए-विजारत था।
काजी-उल-कुजात न्याय विभाग का प्रमुख होता तथा सद्र-उस-सुदूर धार्मिक विभाग का प्रधान था।
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आमिल राजस्व प्रशासन में राजस्व वसूली के प्रभारी (राजस्व अधिकारी) को आमिल कहा जाता था। यह परगना स्तर पर एक महत्त्वपूर्ण अधिकारी होता था
. दीवान-ए-अर्ज सैन्य विभाग था. इसकी स्थापना बलबन द्वारा की गई थी। अलाउद्दीन ने इस विभाग को और अधिक व्यवस्थित किया, उसने दाग तथा चेहरा प्रथाएँ प्रारम्भ की।
दीवान-ए-इंशा सूचना, पत्र-व्यवहार आदि से सम्बन्धित विभाग था। इसका प्रमुख अधिकारी दबीर-ए-खास या दबीर-ए-मुमालिक कहलाता था।
दीवान-ए-वकूफ जलालुद्दीन खिलजी द्वारा व्यय के कागजात की देखभाल हेतु स्थापित किया गया था। ‘दीवान-ए-मुस्तखराज अलाउद्दीन खिलजी ने बकाया राजस्व की जाँच एवं वसूली के लिए स्थापित किया।
दिल्ली सल्तनत में ही भारत में रेशम के कीड़े पालने की प्रथा शुरू हुई।
इसी काल में फिरोज तुगलक द्वारा समय सूचक यन्त्रों के प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं।
सल्तनतकाल में 5 प्रकार के कर थे
(1) उग्र मुसलमानों से लिया जाने वाला भूमि कर
(2) खराज गैर मुसलमानों पर भूमि कर
(3) खुम्स लूट, खानों व भूमि में गड़े खजानों पर
(4) जकात मुसलमानों पर धार्मिक कर
(5) जजिया गैर मुसलमानों पर लगाया जाने वाला धार्मिक कर तुर्क अपने साथ चरखा लेकर आए, यह सम्भवतः 12वीं सदी में ईरान में विकसित हुआ। भारत में इसका प्रथम उल्लेख 14वीं सदी में ही मिलता है। रहट के प्रयोग के संकेत पूर्व मध्यकालीन ग्रन्थों में अरघट्ट, घटी यन्त्र आदि शब्दों के प्रयोग से मिलते हैं, परन्तु इसका प्रथम विस्तृत विवरण बाबरनामा में मिलता है।
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कागज का प्रचलन सल्तनत काल में प्रारम्भ हुआ। भारत में कागज की प्राचीनतम पाण्डुलिपि 1223-24 ई. की है, जो गुजरात से मिली है। अलाउद्दीन खिलजी तथा मुहम्मद-बिन-तुगलक ने भू-राजस्व निर्धारण के लिए भूमि की पैमाइश कराई। – अमीर खुसरो को तोता-ए-हिन्द (तूती-ए-हिन्द ) की उपाधि दी गई थी। इनकी प्रमुख रचनाएँ-किरान-उस-सादेन, आशिका, नूह-सिपेहर, तुगलकनामा आदि हैं। भारत में अमीर खुसरो ने कव्वाली गायन शैली प्रचलित की, इन्हें सितार व तबले का भी आविष्कारक माना जाता है। अमीर खुसरो ने उर्दू को ‘हिन्दवी’ अथवा ‘देहलवी’ कहा। इसकी लिपि फारसी में है।
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मोहम्मद गेसूदराज को उर्दू गद्य का जन्मदाता कहा जाता है। इब्राहिम आदिलशाह पहला शासक था, जिसने उर्दू को राजभाषा बनाया। ‘शम्स-ए-सिराज अफीफ तथा जियाउद्दीन बरनी दोनों ने ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ नाम से पुस्तक लिखी।
प्रान्तीय राजवंश
1202 ई. में बख्तियार खिलजी ने लक्ष्मण सेन को परास्त कर बंगाल में तुर्क सत्ता स्थापित की, जबकि अलाउद्दीन अलीशाह ने मुहम्मद तुगलक काल (1338 ई.) में स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया था।
सिकन्दर शाह ने 1386 ई. में पण्डुआ में अदीना मस्जिद बनवाई, मालाघर बसु को गुणराज खान, उसके पुत्र को सत्यराज खान की उपाधि दी। मालाधर बसु ने श्रीकृष्ण विजय तथा सिकन्दरशाह के ही काल में कृत्तिवास ने बंगाली भाषा में रामायण की रचना की।
अलाउद्दीन हुसैन शाह ने खलीफतुल्लाह की उपाधि धारण की। सत्यपीर नामक आन्दोलन को प्रारम्भ किया तथा बड़ी संख्या में हिन्दुओं को प्रशासन में स्थान दिया। अपनी उदारता के कारण उसे नृपति तिलक, कृष्ण का अवतार तथा जगत भूषण आदि उपाधियाँ दी गई।
नुसरतशाह (1519-32 ई.) ने गौड़ में बड़ा सोना मस्जिद तथा कदम रसूल मस्जिद बनवाई एवं इसी के काल में ‘महाभारत’ का बांग्ला भाषा में अनुवाद काशीराम ने किया। फिरोज तुगलक द्वारा जौना खाँ (मुहम्मद तुगलक) की स्मृति में स्थापित जौनपुर में 1394 ई. में मलिक सरवर (ख्वाजा जहाँ) ने स्वतन्त्र शर्क राज्य की स्थापना की। इब्राहिम शाह शर्की (1401-1440 ई.) ने जौनपुर को कला, संस्कृति, इस्लामी विद्या का केन्द्र बना दिया तथा उसको शर्की/जौनपुर शैली का जन्मदाता माना जाता है। इसी के काल में अटाला मस्जिद पूर्ण हुई। इब्राहिम शाह शर्की को सिराज-ए-हिन्द तथा जौनपुर को भारत का सिराज कहा गया। दुर्लभवर्द्धन ने कश्मीर कार्कोट वंश की नींव डाली। ललितादित्य मुक्तापीड़ (72460 ई.) इस वंश का महानतम शासक था, जिसने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया, प्रसिद्ध सूर्य मन्दिर (मार्तण्ड मन्दिर) बनवाया। • उत्पल वंश का संस्थापक अवन्तिवर्मन (855-83 ई.) था। इसके मन्त्री सुय्य ने नहरों का निर्माण करवाया तथा अवन्तिपुर नामक नगर की स्थापना की। क्षेमेन्द्रगुप्त का विवाह दिदा से हुआ, जोकि एक महत्त्वाकांक्षी महिला थी। दिद्दा ने लगभग पचास वर्षों तक व्यावहारिक रूप से सत्ता पर पकड़ बनाए रखी, इसका नाम सिक्कों पर भी मिलता है। हर्ष को कश्मीर का नीरो कहा जाता है। इसने कल्हण को संरक्षण दिया। कल्हण ने राजतरंगिणी की रचना की, जिससे कश्मीर का इतिहास ज्ञात होता है राजतरंगिणी, जयसिंह (112759 ई.) के काल में पूर्ण हुई। सिकन्दर (1389-1413 ई.) अत्यधिक धर्मान्ध शासक था। उसने बुतशिकन (मूर्ति तोड़ने वाला) की उपाधि ली थी तथा उसे तुरुष्क सूहा भी कहा जाता था। सिकन्दर का पुत्र जैनुलआबिदीन अपनी उदारता के कारण कश्मीर का अकबर कहलाता है। उसे वडशाह (महान शासक) कहा जाता था। उसने अपने पुत्र से दुःखी होकर शिकायतनामा’ नामक ग्रन्थ की रचना की।
जफर खाँ ने गुजरात में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना 1407 ई. में की, जबकि अहमदशाह (1411-42 ई.) को गुजरात राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। अहमदशाह ने प्राचीन नगर आसवाल के स्थान पर अहमदाबाद नगर की स्थापना की। महमूद बेगड़ा (1459-1511 ई.) ने मुहम्मदाबाद, मुस्तफाबाद नामक नगर बसाए तथा गिरनार के निकट बाग-ए-फिरदौस की स्थापना की।
महमूद खिलजी (1436-69 ई.) ने मालवा में खिलजी वंश की स्थापना की। इसके मेवाड़ के शासक राणा कुम्भा से निरन्तर युद्ध हुए, जिसमें दोनों पक्षों ने विजय के दावे किए। परिणामस्वरूप राणा कुम्भा ने चित्तौड़ में विजयस्तम्भ तथा महमूद खिलजी ने माण्डू में विजय स्मृति स्थापित की। • राणा कुम्भा ने विजयस्तम्भ लेख के रचयिता अत्रि तथा महेश को संरक्षण दिया।
गीत गोविन्द पर रसिकप्रिया नामक टीका लिखी, एकलिंग महात्म्य के अन्तिम भाग की रचना की। वे एक कुशल वीणा वादक तथा महान् संगीतकार थे। राणा सांगा ने घटोली (खतौली) के युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त किया, परन्तु खानवा के युद्ध में बाबर से उनकी हार हुई। उनके सरदारों ने विष देकर उनकी हत्या कर दी।
मध्यकालीन भारत
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रिवीजन फैक्ट्स विजयनगर साम्राज्य 1336 ई. में हरिहर एवं बुक्का ने वेदों के भाष्यकार सायण की प्रेरणा से तुंगभद्रा के तट पर विजयनगर राज्य की स्थापना की। हरिहर एवं बुक्का के पिता के नाम पर विजयनगर पर शासन करने वाला प्रथम वंश संगम वंश (1336-1485 ई.) कहलाया। इसके अतिरिक्त विजयनगर पर सालुव वंश (1485-1505 ई., संस्थापक नरसिंह सालुव), सुलुव वंश (1505-70 ई. संस्थापक वीर नरसिं तथा अरवी वंश (1570-1650 ई.. संस्थापक तिरुमल) ने भी विजयनगर
पर शासन किया। बुक्का प्रथम (1356-77 ई.) ने वेद मार्ग प्रतिष्ठापक की उपाधि ली इसकी मदुरा विजय का वर्णन गंगा देवी कृतं मदुरा विजयम् नामक कृति में है। देवराय प्रथम (1406-22 ई.) ने तुंगभद्रा नदी पर ह नामक बाँध बनवाया तथा हरविलासम नामक ग्रन्थ के रचयिता श्रीनाथ
को संरक्षण दिया। इटली के यात्री निकोलो कोण्टी ने इनके समय विजयनगर की यात्रा की। देवराय द्वितीय (1422-46 ई.) को इम्माडि देवराय, प्रौद देवराय तथ गजबेटकर (हाथियों का शिकारी) कहा जाता था। इसने भी श्रीनाथ को संरक्षण दिया, इसने स्वयं ब्रह्मसूत्र’ पर टीका तथा महानाटक ‘सुधानिधि’ नामक ग्रन्थों की रचना की। इनके काल में ईरान का अब्दुर्रज्जाक विजयनगर आया विरुपाक्ष द्वितीय (1465-85 ई.) संगम वंश का अन्तिम शासक था।
कृष्णदेव राय (1509-29 ई.) तुलुव वंश से सम्बन्धित थे। ये एक महान शासक थे। इन्होंने बहमनी शासक महमूदशाह को पुनः बीदर की गद्दी पर स्थापित किया तथा यवनराज स्थापनाचार्य का विरुद धारण किया। 1510 ई. में अल्बुकर्क ने फादर लुई को दूत बनाकर कृष्णदेव राय के पास भेजा। पुर्तगाली यात्री डोमिंगोपायस तथा डुआर्ट बारबोलसा ने भी इनके समय विजयनगर की यात्रा की।
कृष्णदेव राय ने विद्वानों को संरक्षण दिया तथा इनके दरबार में तेलुगू के आठ महान् विद्वान् अष्टदिग्गज कहलाते थे।
अष्टदिग्गजों में पेड्डाना सर्वप्रमुख थे। कृष्णदेव राय ने आमुक्त माल्यद (तेलुगू), उषा परिणय (संस्कृत), जाम्बवती कल्याणम (संस्कृत) नामक ग्रन्थों की रचना की। कृष्णदेव राय ने हजारा मन्दिर, विट्ठल स्वामी मन्दिर (हम्पी में) विरुपाक्ष मन्दिर, चिदम्बरम मन्दिर आदि का निर्माण करवाया।
विजयनगर साम्राज्य के मन्दिर वास्तुकला में ‘कल्याण मण्डप’ एक प्रमुख रचना थी, जो गर्भगृह के समीप में खुला प्रांगण होता था, जहाँ देवी-देवताओं से सम्बन्धित समारोह एवं विवाहोत्सव आयोजित किए जाते थे। • सदाशिवराय (1542-70 ई.) के काल में वास्तविक सत्ता रामराय के हाथ में थी। इसी के काल में (1565 ई.) रक्षसी-तंगड़ी अथवा तालीकोटा या बन्नी हट्टी का युद्ध हुआ। सीजर फ्रेडरिक तथा सेवेल (ए फॉरगॉटन एम्पायर का रचयिता) ने तालीकोटा युद्ध के विनाश का वर्णन किया है।
वेंकट द्वितीय (1586-1614 ई.) अरवीद वंश का महानतम् शासक था। इसने चन्द्रगिरि को मुख्यालय बनाया। इसने स्पेन के शासक फिलिप द्वितीय से पत्र-व्यवहार किया।
विजयनगर में मन्त्रिपरिषद् राज्य संचालन की सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था थी, जिसमें लगभग बीस सदस्य होते थे तथा अध्यक्ष, सभानायक एवं प्रमुख अधिकारी महाप्रधानी कहलाता था। इसकी बैठक वेंकट विलास मण्डप में होती थी। केन्द्रीय सचिवालय के प्रमुख अधिकारी थे- मानेय प्रधान (गृहमन्त्री), रायसम (सचिव), कर्णिकम (लेखाधिकारी), मुद्राकर्ता (शाही मुद्राधारक) आदि।
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रिवीजन फैक्ट्स प्रान्त को राज्य अथवा मण्डपम, जिले को कोट्टम अथवा वलनाडु, उपजिला (तहसील) को नाडु, 50 गाँवों के समूह को मेलाग्राम और गाँव को उर कहते थे। गाँव का प्रशासन सभा/महासभा द्वारा किया जाता था। ब्रह्मदेय गाँव की सभा चतुर्वेदि मंगलम, जबकि अन्य गाँवों की सभा उर कहलाती थी। नायंकार व्यवस्था के अन्तर्गत भूखण्ड प्रदान किए जाते थे, जो अमरम कहलाते
थे तथा इन्हें पाने वाला सामन्त अमरनायक कहलाता था। राज्य के प्रत्यक्ष नियन्त्रण में आने वाले ग्राम भण्डारवाद ग्राम कहलाते थे। इसी तरह ब्रह्मदेय (ब्राह्मणों को), देवदेय ( मन्दिर को), मठापुर (मठ को दी गई कर मुक्त भूमि थी। विजयनगर राज्य में दास प्रथा विद्यमान थी एवं मनुष्यों का क्रय-विक्रय वेसवग कहलाता था। सदाशिवराय ने नाइयों को कर मुक्त कर दिया था, जबकि कृष्णदेव राय ने विधवा विवाह को विवाह कर से मुक्त करके विधवा विवाह को बढ़ावा देने का प्रयास किया।
शिष्ट नामक भूमिकर विजयनगर की आय का मुख्य स्रोत था। भू-राजस्व विभाग को ‘अथावना’ या ‘अठानवे ‘ कहा जाता था। किसान तथा भू-स्वामी के बीच उपज की हिस्सेदारी की व्यवस्था वारम कहलाती थी। भू-राजस्व का निर्धारण भूमि की उत्पादकता के आधार पर होता था। पॉलीगार जमीदार थे तथा कुदिते कृषि मजदूर थे, जो भूमि के साथ ही स्थानान्तरित हो जाते थे। नकद राजस्व सिद्धदाय कहलाता था। वीर पंचाल दस्तकार थे।
बहमनी साम्राज्य
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हसन गंगू (जफर खाँ) ने मोहम्मद बिन तुगलक के शासन के अन्तिम दिनों में अलाउद्दीन हसन बहमन शाह की उपाधि धारण करके बहमनी साम्राज्य की स्थापना (1347 ई.) की हसन ने बहमनी साम्राज्य को चतुर्दिक, गुलबर्गा ( बीजापुर सम्मिलित), बरार, बीदर एवं दौलताबाद में बाँटा ।
शिहाबुद्दीन अहमद (1422-36 ई.) न्याय एवं धर्मनिष्ठा के कारण सन्त या वली कहलाता था।
अलाउद्दीन हुमायूँ को अपनी क्रूरता के कारण जालिम तथा आलस्य के कारण दक्कन का नीरो कहा जाता था।
शम्सुद्दीन मोहम्मद तृतीय (1463-83 ई.) के काल में रूसी यात्री निकितिन ने बहमनी राज्य की यात्रा की। महमूद गवाँ ने गोवा पर अधिकार प्राप्त किया तथा रौजत-उल-इंशा तथा दीवान-ए-अक्ष नामक ग्रन्थों की रचना की। इसे मोहम्मद तृतीय ने राजद्रोह के आरोप में मृत्युदण्ड दे दिया। बरार की स्थापना फतहुल्लाह इमादशाह ने की। बहमनी साम्राज्य से पृथक् होने वाला पहला राज्य बरार ही था। बीजापुर की स्थापना यूसुफ आदिलशाह ने 1489-90 ई. में की थी। इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय (1580-1627 ई.) ने दक्कनी उर्दू (हिन्दवी) को अपनी राजभाषा बनाया। इसे अपने उदार दृष्टिकोण के कारण जगद्गुरु कहा जाता था तथा निर्धनों की सहायता करने के कारण उसे अबला बाबा कहा जाता था. इसने किताब-ए-नौरस की रचना की।
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मलिक अहमद ने 1490 ई. में अहमदनगर को स्वतन्त्र घोषित कर निजामशाही वंश के शासन की स्थापना की। सैयद अली तबताई ने निजामवंशी शासकों का इतिहास बुरहान-ए-नासिर नाम से लिखा। मलिक अम्बर ने छापामार युद्ध पद्धति अपनाई, जिसे कालान्तर में मराठों ने अपना लिया। उसने रैयतवाड़ी पर आधारित भू-राजस्व व्यवस्था लागू की। स्वतन्त्र गोलकुण्डा राज्य की स्थापना तुर्कीदास कुलीशाह ने 1512 ई. में की थी।
इसने कुतुबशाह की उपाधि धारण करके कुतुबशाही वंश की स्थापना की। गोलकुण्डा राज्य को साहित्यकारों का बौद्धिक क्रीडास्थल माना जाता है। मोहम्मद आदिलशाह ने अपना मकबरा गोलगुम्बद बनवाया, जिसका गुम्बद संसार के विशालतम गुम्बदों में से एक है। मोहम्मद कुली (1580-1612 ई.) हैदराबाद नगर की स्थापना की तथा चारमीनार का निर्माण करवाया।
भक्ति एवं सूफी आन्दोलन
भक्ति आन्दोलन का उदय दक्षिण में तमिल प्रदेश में सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के मध्य में पल्लव क्षेत्र में हुआ।
यह सुधारवादी प्रवृत्ति का था, इसका प्रमुख उद्देश्य सभी धर्मों के मध्य समानता स्थापित करना था। इस आन्दोलन के प्रथम प्रचारक शंकराचार्य माने जाते हैं। शंकराचार्य ( 788-820 ई.) ने अद्वैतवाद का प्रवर्तन किया तथा ज्ञान को मोक्ष का मार्ग माना। विष्णु भक्ति सन्त अलवार कहलाते थे, इनकी संख्या 12 तथा इनमें एक महिला सन्त आण्डाल भी थी, जबकि शिव भक्त सन्त नयनार अथवा
अड्यार कहलाते थे, इनकी संख्या 63 थी।
नयनार सन्तों के शिव भक्ति गीत देवारम नाम से संकलित है। इन गीतों को नम्बि अण्डार नम्बि ने व्यवस्थित रूप दिया। प्रमुख नयनार सन्त हैं-
तिरुनावुक्कसु (अप्पर) तिरुज्ञानसम्बन्दर सुन्दरमूर्ति (तम्बिरान तोलन), मणिक्कवाचकर आदि ।
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शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन के अन्तर्गत अद्वैत मत की स्थापना की। इन्होंने अनेक उपनिषदों पर भाष्य लिखा तथा वैदिक धर्म का पुनरुत्थान किया।
रामानुजाचार्य (1017-1137 ई.) ने विशिष्टाद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया। इनका सम्प्रदाय श्री सम्प्रदाय कहलाता है। इन्होंने वेदान्तसार, ब्रह्मसूत्र भाष्य (श्री भाष्य), न्याय कुलिश आदि की रचना की। निम्बार्काचार्य (12वीं शताब्दी) ने द्वैताद्वैतवाद का प्रतिपादन किया इनका सम्प्रदाय सनक अथवा सनकादि कहलाता है। मध्वाचार्य ( 1199-1278 ई.) का दर्शन द्वैतवाद कहलाता था। ये अवतार माने जाते थे। इनका सम्प्रदाय ब्रह्म सम्प्रदाय था तथा इनके कन्नड़ भाषी उपदेश सूत्रभाष्य में संकलित हैं।
वायु के नामदेव (1270-1350 ई.) जन्म से दर्जी तथा प्रारम्भ में डाकू थे, इनके कुछ पद गुरु ग्रन्थ साहिब में मिलते हैं।
ज्ञानेश्वर अथवा ज्ञानदेव (1271-96 ई.) महाराष्ट्र के भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक थे, इन्होंने भगवद्गीता पर मराठी भाषा में ज्ञानेश्वरी भावार्थ दीपिका नामक टीका लिखी।
रामानन्द (1400-1476 ई.) इन्होंने विष्णु अवतार राम की पूजा को लोकप्रिय बनाया। ये श्री सम्प्रदाय, वैरागी सम्प्रदाय तथा रामावत सम्प्रदाय से सम्बद्ध थे।
कबीर (1398-1494 ई.) गृहस्थ सन्त थे, जिन्होंने जाति, धर्म आधारित असमानता, छुआछूत, कर्मकाण्ड आदि का विरोध किया। इनके प्रमुख शिष्य दादू एवं मलूकदास थे। धर्मदास ने इनके सिद्धान्तों को बीजक में संकलित किया।
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गुरुनानक (1469-1539 ई.) का जन्म तलवण्डी (पंजाब) में हुआ, इन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देते हुए आडम्बरों का विरोध किया। इनके एक पुत्र श्री चन्द ने उदासी सम्प्रदाय की स्थापना की। इन पर चिश्ती सन्त बाबा फरीद का प्रभाव था। • वल्लभाचार्य (1479-1531 ई.) ने पुष्टिमार्ग का प्रवर्तन किया। इनका दर्शन शुद्धाद्वैतवाद कहलाता है।
चैतन्य (1486-1533 ई.) गौरांग महाप्रभु के नाम से प्रसिद्ध थे, इन्होंने कीर्तन द्वारा ईश्वर भक्ति का प्रारम्भ किया। ये कृष्ण भक्त थे। सूरदास (1478-1573 ई.) को पुष्टिमार्ग का जहाज कहते हैं. इनकी प्रमुख रचनाएँ थीं सूरसागर, सूरसारावली तथा साहित्यलहरी ये अकबर के समकालीन थे।
– मीराबाई (1498-1547 ई.) मेड़ता के रतन सिंह राठौर की पुत्री तथा राणा सांगा के पुत्र भोजराज की पत्नी थी. इनकी रचनाएँ पदावली कहलाती हैं। इन्होंने गीतगोविन्द पर टीका लिखी।
शंकरदेव (1449-1506 ई.) असम के सबसे महत्त्वपूर्ण भक्ति सन्त ये क्या के एकमात्र ऐसे कृष्ण मका सन्त ने मूर्तिपूजा का विरोध किया। इनका कहा जाता है। तुलसीदास (1532-1623 ई.) का जन्म बाजापुर (बोदा, उत्तर प्रदेश) में इनके गुरु का नाम नरहरिदास था। इन्होंने अवधी भाषा में रामचरितमानस की रचना की। इसके अतिरिक्त कवितावली, गीतावली, विनयपत्रिका आदि की भी रचना इन्होंने की। • एकनाथ (1533-29 ई.) ने रामायण तथा भक्ति पुराण के ग्यारहवे भाग पर टीका लिखी। दादू दयाल (1544-1603 ई.) का मूल नाम महाबली था। इन्होंने असाम्प्रदायिक मार्ग (निपख) का उपदेश दिया। रज्जब (1567-1683 ई.) का कहना था कि यह संसार वेद है तथा यह सृष्टि कुरान है। रज्जब दादू के शिष्य थे।
गाँधीजी के प्रिय भजन वैष्णव जन की रचना नरसी मेहता (15वीं सदी) ने की थी। रामदास (1608-81 ई.) ने परमार्थ सम्प्रदाय की स्थापना की तथा दशबोध नामक ग्रन्थ की रचना की। सूफी शब्द सफर (पवित्र) अथवा सूफ (ऊन) से व्युत्पन्न माना जाता है। राविया महिला सूफी सन्त थी।
मंसूर-बिन-हल्लाज को अनल हक (मैं ही सत्य ईश्वर हूँ) की घोषणा करने के कारण मृत्यु दण्ड दिया गया। भारत में चिश्ती सिलसिले की स्थापना मुइनुद्दीन चिश्ती (1146-1236 ई.) ने की। ये मोहम्मद गौरी के साथ भारत आए थे, इन्होंने चौहानों की राजधानी अजमेर को अपना केन्द्र बनाया।
मुहम्मद तुगलक ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की मजार पर जाने वाला प्रथम सुल्तान था। मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने इनकी मजार पर मकबरे गुम्बद का निर्माण कराया। शेख निजामुद्दीन औलिया (1236-1325 ई.) दिल्ली के सर्वाधिक लोकप्रिय चिश्ती सन्त थे। ये एकमात्र अविवाहित चिश्ती सन्त थे। इन्होंने सात सुल्तानों का काल देखा था। इनको सुल्तान-उल-औलिया, महबूब-ए-इलाही, योगी सिद्ध की उपाधि मिली हुई थी।
मुगल बादशाह अकबर शेख सलीम चिश्ती का भक्त था तथा इनके आशीर्वाद से उत्पन्न पुत्र का नाम इन्हीं के नाम पर सलीम पड़ा। इनका मकबरा फतेहपुर सीकरी में है। दक्षिण में चिश्ती सिलसिले की नींव शेख बुरहानुद्दीन गरीब ने रखी।
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भारत में सुहरावर्दी सिलसिले का प्रारम्भ शेख बहाउद्दीन जकारिया ने किया। नक्शबन्दी सिलसिला भारत का सबसे कट्टर सिलसिला था।
भारत में इसका प्रचार-प्रसार बाकी बिल्लाह ने किया था। शेख अहमद सरहिन्दी ने बदत-उल-वजूद के सिद्धान्त तथा अकबर की आलोचना की। इनको मुजाद्दिद अलिफसानी भी कहा जाता था। सैयद मुर्तजा ने योग कलन्दर की रचना की। शेख नूरुद्दीन ने कश्मीर में ऋषि आन्दोलन का प्रवर्तन किया।
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गुरु अमरदास से मिलने अकबर गोइन्दवाल आए थे। गुरु रामदास ने अकबर की दी हुई 500 बीघे जमीन पर रामदासपुर नामक नगर बसाया, जो अमृतसर कहलाया।
गुरु अर्जुन देव के समय से गुरु पद पैतृक हो गया। इन्होंने अमृतसर तालाब के मध्य हरमन्दिर साहिब (स्वर्ण मन्दिर) का निर्माण करवाया, जिसकी नींव मियाँ मीर ने रखी। इन्होंने आदि ग्रन्थ की रचना की। जहाँगीर ने इन्हें खुसरो को आशीर्वाद देने के आरोप में मृत्युदण्ड दिया।
गुरु गोविन्द सिंह (सिखों के 10वें गुरु का जन्म पटना में हुआ। गुरु गोविन्द सिंह ने केशगढ़ में खालसा पन्थ की स्थापना की। इन्होंने आदिग्रन्थ का पुर संकलन करवाया, जिसके कारण इसे दशमपादशाह का ग्रन्थ भी कहते है इन्होंने आदि ग्रन्थ को ही गुरु मानने का निर्देश दिया। इनकी आत्मकथा का नाम विचित्र नाटक है। इन्होंने कृष्णावतार तथा चन्डी दी वार नामक प्रथ की रचना की। नान्देड़ में अजीम खान ने चाकू मारकर इनको घायल कर दिया, जिससे इनकी मृत्यु हो गई।
बाबर
बाबर का जन्म 14 फरवरी, 1483 को मावराउन्नहर की एक रियासत फरगना में हुआ था। बाबर पितृ पक्ष (उमर शेख मिर्जा) की ओर से तैमूर का पाँचवाँ वंशज तथा मातृ पक्ष (कुतलुग निगार खाँ) की ओर से चंगेज खाँ का चौदहवाँ वंशज था।
बाबर द्वारा तुर्की चगताई वंश की नींव डाली गई। उजबेक सरदार शैबानी खाँ से बार-बार पराजय तथा शक्तिशाली सफवी वंश तथा उस्मानी वंश के भय से बाबर ने भारत की ओर कूच किया तथा पहला आक्रमण 1519 ई. में बाजौर पर किया। इसी युद्ध में बारूद (तोपखाने) का सर्वप्रथम प्रयोग किया गया।
पानीपत के प्रथम युद्ध (1526 ई.) में, उजवेगों से ग्रहण तुलगमा युद्ध पद्धति तथा तोपों को सजाने की उस्मानी विधि (रूमीविधि) के प्रयोग द्वारा बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया। इसी विजय के उपलक्ष्य में उसने काबुल के प्रत्येक निवासी को एक-एक चाँदी का सिक्का दिया और ‘कलन्दर’
कहलाया।
खानवा का युद्ध (1527 ई.) बाबर तथा राणा सांगा के मध्य लड़ा गया, जिसमें बाबर ने ‘जिहाद’ का नारा दिया, इस युद्ध में बाबर की विजय हुई। युद्ध के पश्चात् बाबर द्वारा गाजी की उपाधि धारण की गई।
1528 ई. में बाबर द्वारा चन्देरी पर अधिकार हेतु मेदिनी राय पर आक्रमण किया गया। 1529 ई. में ‘घाघरा के युद्ध में बाबर ने बिहार तथा बंगाल की संयुक्त अफगान सेना को पराजित किया। बाबर द्वारा तुर्की भाषा में रचित तुजुक-ए-बावरी (बाबरनामा) का अब्दुर्ररहीम खानखाना द्वारा फारसी में तथा श्रीमती बेवरेज द्वारा अंग्रेजी में अनुवाद किया गया। बाबर ने इसमें कृष्णदेव राय को सर्वाधिक शक्तिशाली राजा बताया है।
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अपने को सुल्तान कहकर ही पुकारते थे। बाबर ने एक काव्य संग्रह ‘दीवान’ (तुर्की में) का संकलन कराया, साथ ही ‘मुबइयान’ नामक एक पद्य शैली का भी विकास किया, उसने ‘रिसाल-ए- उसज’ (खत-ए-बाबरी) की रचना भी की।
– बाबर के चाँदी के सिक्कों पर एक ओर कलमा और चारों खलीफाओं का नाम तथा दूसरी ओर बाबर का नाम एवं उपाधि अंकित थी। बाबर ने चाँदी का शाहरुख तथा कन्धार में ‘बाबरी’ नाम का सिक्का चलाया। काबुल बाबर द्वारा पानीपत के निकट काबुली बाग में एक मस्जिद, रुहेलखण्ड के सम्भल में एक मस्जिद (जामी मस्जिद) तथा आगरा में लोदी किले के अन्दर एक मस्जिद बनवाई गई।
ज्यामितीय विधि पर आधारित एक उद्यान नूर अफगान’ आगरा में लगवाया, जिसे वर्तमान में आरामबाग कहा जाता है।
हुमायूँ
हुमायूँ का जन्म 6 मार्च, 1508 ई. को काबुल में हुआ था। • 30 दिसम्बर, 1530 को सिंहासन पर बैठने के बाद हुमायूँ ने साम्राज्य का बँटवारा अपने भाइयों में कर दिया। जिसमें कामरान को काबुल एवं कन्चार अस्करी को सम्मल तथा हिन्दाल को अलवर की जागीर दी तथा चचेरे भाई सुलेमान मिर्जा को बदख्शों की जागीर दी। हुमायूँ का प्रथम आक्रमण कालिंजर के शासक प्रताप रुद्र देव पर हुआ। अफगानों से पहला मुकाबला 1532 ई. में दोहरिया नामक स्थान पर हुआ। गुजरात का शासक बहादुर शाह हुमायूँ का एक प्रमुख विरोधी था, उसने टर्की के प्रसिद्ध तोपची रूमी खाँ की सहायता से अच्छा तोपखाना तैयार कर लिया था।
1538 ई. में हुमायूँ गौड़ पहुंचा, उसने इसका नाम जन्नताबाद रखा। बंगाल से लौटते समय हुमायूँ व शेर खों के मध्य चौसा का युद्ध हुआ, जिसमें हुमायूँ की पराजय हुई। विजय के उपलक्ष्य में शेर खों ने शेरशाह की उपाधि धारण की।
1540 ई. की कन्नौज अथवा बिलग्राम के युद्ध में हुमायूँ पुनः शेरशाह द्वारा पराजित हुआ। चौसा का युद्ध कर्मनाशा नदी के तट पर लड़ा गया था। हुमायूँ द्वारा पुनः राज्य प्राप्ति के क्रम में मच्छीवारा के युद्ध में अफगान सरदार नसीब खाँ एवं तातार खाँ को पराजित कर पंजाब पर अधिकार किया गया। अन्तिम रूप से सरहिन्द के युद्ध में विजय के फलस्वरूप मुगलों को पुनः दिल्ली का सिंहासन मिला. इस युद्ध में अफगानों का नेतृत्व सिकन्दर सूर तथा मुगलों का नेतृत्व ‘बैरम खाँ’ ने किया।
हुमायूँ ने 1533 ई. में दिल्ली में दीनपनाह नामक नगर का निर्माण कराया, जो अब पुराने किले के नाम से प्रसिद्ध है। हुमायूँ का मकबरा दोहरी गुम्बद वाला भारत का पहला मकबरा है, जिसका निर्माण 1565 ई. में हुमायूँ की विधवा हाजी बेगम ने कराया। 23 जुलाई, 1556 को हुमायूँ एक बार फिर से दिल्ली के तख्त पर बैठा, किन्तु वह अधिक समय तक जीवित नहीं रह सका और दीनपनाह भवन स्थित
पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरकर उनकी मृत्यु हो गई। इसी सन्दर्भ में लेनपूल का प्रसिद्ध कथन कि “हुमायूँ जीवनभर लड़खड़ाता रहा और लड़खड़ाते हुए अपनी जान दे दी।
मुगल चित्रकला की नींव हुमायूँ के शासनकाल में पड़ी। उसने मीर सैय्यद अली और अब्दुस्समद नामक दो फारसी चित्रकारों की सेवाएँ प्राप्त की। हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम द्वारा लिखित हुमायूँनामा के एक खण्ड में बाबर का इतिहास तथा दूसरे खण्ड में हुमायूँ का इतिहास मिलता है।
हुमायूँकालीन एक अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘मिर्जा हैदर दोगलत’ द्वारा लिखित तारीखे रशीदी है।
हुमायूँ सप्ताह के सातों दिन अलग-अलग रंग के कपड़े पहनता शेरशाह (सूर वंश) था।
इनका जन्म 1472 ई. को बेजवाड़ा (होशियारपुर) में हुआ। इनके पिता का नाम हसन खाँ (जौनपुर). इनके बचपन का नाम फरीद था। दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खाँ लोहानी ने उसे एक शेर मारने के उपलक्ष्य में शेर खाँ की उपाधि दी। बहार खाँ लोहानी की मृत्यु के बाद उसकी विधवा दूदू दिवाह किया।
बेगम से शेरशाह ने चन्देरी के युद्ध में मुगलों की ओर से भाग लिया। घाघरा के युद्ध में महमूद लोदी की ओर से भाग लिया। 1529 ई. में बंगाल के नुसरत शाह को पराजित करके हजरते आला की उपाधि ग्रहण की। 1532 ई. में दोहरिया के युद्ध में महमूद लोदी का साथ दिया।
चौसा का युद्ध (1539 ई.) तथा कन्नौज (बिलग्राम) के युद्ध के उपरान्त (1540 ई.) उत्तर भारत में सूर वंश अथवा द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की।
उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के लिए रोहतासगढ़ नामक एक किला बनवाया। 1544 ई. में मारवाड़ के शासक मालदेव पर आक्रमण किया। .
– शेरशाह ने भूमि माप के लिए सिकन्दरी गज’ एवं ‘सन की दी का प्रयोग किया था।
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शेरशाह ने मारवाड़ युद्ध के बाद ही कहा था- मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए लगभग हिन्दुस्तान का साम्राज्य खो चुका था।
कालिंजर पर अन्तिम अभियान के दौरान उनका नामक आग्नेय शास्त्र चलाते समय उसकी मृत्यु हो गई।
– सम्पूर्ण बंगाल को सरकारों में बांटकर प्रत्येक को एक शिकदार के नियन्त्रण में दे दिया। शिकदारों की देखभाल के लिए एक असैनिक अधिकारी अमीन-ए-बंगला अथवा अमीर-ए-बंगाल को नियुक्त किया। सर्वप्रथम काजी फजीलात इस पद पर आसीन हुआ। – शेरशाह ने चाँदी का रुपया सर्वप्रथम चलवाया था। चाँदी के रुपये एवं जॉब के दाम का अनुपात 64 1 था। इसके काल में सिक्का ढालने की 23 टकसाले थीं।
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शेरशाह के काल में मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत की रचना की थी।
शेरशाह ने अपना मकबरा सहसराम में बनवाया तथा पाटलिपुत्र को पटना नाम दिया।
अकबर
अकबर का जन्म अमरकोट के राणा वीरसाल के महल में 15 अक्टूबर, 1542 को हुआ था। अकबर का राज्याभिषेक बैरम खाँ की देखरेख में पंजाब के गुरुदासपुर जिले के कलानौर नामक स्थान पर 14 फरवरी, 1556 को मिर्जा अबुल कासिम ने किया था। – अकबर 1556 से 1560 ई. तक बैरम खाँ के संरक्षण में रहा। 1560-62 ई. तक शासन में महिलाओं के प्रभावी रहने के कारण इसे पेटीकोट सरकार
मी कहा जाता है।
साम्राज्य विस्तार के सन्दर्भ में अकबर ने सबसे पहला आक्रमण 1561 ई. में मालवा के शासक बाजबहादुर के ऊपर किया। बाजबहादुर की रानी रूपमती ने जहर खाकर प्राण दे दिए। रूपमती की समाधि उज्जैन में है। 1564 ई. में अकबर ने गोण्डवाना के गढ़कटंगा राज्य को जीता, जिसकी शासिका महोबा की चन्देल राजकुमारी दुर्गावती थी।
अकबर के समय में पहला विद्रोह 1564 ई. में उजबेकों द्वारा किया गया। 1586 ई. में अफगान बलूचियों के विद्रोह के दौरान बीरबल की मृत्यु हुई थी।
1567 ई. में अकबर द्वारा चित्तौड़गढ़ के किले का घेरा डाला गया। इसी की रक्षा में संलग्न जयमल और फत्ता की वीरता से अकबर प्रभावित हुआ और आगरे के किले के मुख्य द्वार पर इनकी प्रतिमा स्थापित कराई। चित्तौड़ विजय के उपलक्ष्य में फतहनामा जारी किया था। • मनसबदारी व्यवस्था 1567 ई. में अकबर द्वारा प्रारम्भ की गई थी तथा ये मंगोलों के दशमलव वर्गीकरण से प्रेरित थी। अबुल फजल ने मनसबदारों की 33 कोटियों का वर्णन किया है। अकबर द्वारा जमीन की पैमाइश हेतु
गजे सिकन्दरी ( 32 इंच) के स्थान पर गज-ए-इलाही (33.5 इंच) का प्रयोगकिया गया तथा बीघा को क्षेत्रफल की इकाई माना।
अकबर ने दक्षिण के राज्यों में खानदेश, अहमदनगर एवं असीरगढ़ को जीता था। असीरगढ़ का किला (1601 ई.) जीतना अकबर का अन्तिम अभियान था। अकबर ने असीरगढ़ का किला सोने की कुंजियों से (रिश्वत देकर) खोला था।
अकबर द्वारा एक नया पद दीवान-ए-वजारत-ए-कुल की स्थापना की गई। अकबर द्वारा ही वकील के एकाधिकार को समाप्त कर उसके अधिकारों को दीवान मीर बख्शी तथा मीर सामन और सद्र उस सुदूर में बाँट दिया गया। खालसा भूमि सीधे केन्द्र के नियन्त्रण में रहती थी, जबकि वक्फ धार्मिक कार्यों के लिए दी जाने वाली भूमि एवं सम्पत्ति थी। पोलज वो जमीन थी. जहाँ हर वर्ष खेती होती थी। इस पर पूरा राजस्व वसूला जाता था। दहशाला प्रणाली में भू-राजस्व, स्थानीय उत्पादकता तथा कीमतों पर आधारित था। इसे टोडरमल बन्दोबस्त भी कहते थे। इसे शाह मंसूर ने लागू किया था।
अकबर ने अपने शासन के 18वें वर्ष गुजरात, बिहार व बंगाल को छोड़कर सम्पूर्ण उत्तर भारत में एक करोड़ मूल्य आय वाले परगनों की मालगुजारी वसूलने के लिए आमिल (करोड़ी) को नियुक्त किया।
अकबर ने शंसब, मुहर, इलाही नामक सोने के सिक्के जारी किए। अकबर ने रुपया एवं जलाली नामक चाँदी के सिक्के जारी किए। अकबर के नवरत्नों में बीरबल भी एक था, जिसका मूल नाम महेशदास था। इसे अकबर ने ‘कविराज’ एवं ‘राजा’ की उपाधि दी थी।
अकबर ने फैजी की अध्यक्षता में एक अनुवाद विभाग स्थापित कराया। महाभारत का फारसी अनुवाद रज्मनामा के नाम से जाना जाता है। अबुल फजल ने पंचतन्त्र का अनुवाद अनवर-ए-सुहेली के नाम से व कालिया दमन का अनुवाद यार-ए-दानिश के नाम से किया।
अकबर ने भारत में दरबारी इतिहास लेखन की परम्परा की शुरुआत की। अबुल फजल द्वारा 7 वर्षों में लिखी गई अकबरनामा तीन जिल्दों में बेटी है। इसकी आखिरी जिल्द ही आइन-ए-अकबरी है। इसके अन्तिम भाग में अबुल फजल की जीवनी वर्णित है।
अकबरकालीन इमारतों में मेहराबी और शहतीरी शैली का समान अनुपात में प्रयोग मिलता है। फतेहपुर सीकरी के भवनों की मुख्य विशेषता – चापाकार एवं धरणिक शैलियों का समन्वय है। गुजरात विजय की स्मृति में निर्मित 134 फीट ऊंचा लाल बलुआ पत्थर से निर्मित बुलन्द दरवाजा ईरान से ली गई अर्द्ध-गुम्बदीय शैली में बना है।
अकबर ने 1562 ई. में दास बनाने पर रोक लगाई, 1563 ई. में तीर्थयात्रा कर समाप्त किया तथा 1564 ई. में जजियाकर को समाप्त कर दिया। अकबर के काल में 1575 ई. में इबादतखाना की स्थापना हुई,
1579 ई. .में महजर की घोषणा हुई तथा 1582 ई. में दीन-ए-इलाही चलाया गया।
जहाँगीर
सलीम (जहाँगीर) का जन्म 1569 ई. को फतेहपुर सीकरी में स्थित शेख सलीम चिश्ती की कुटिया में मरियम उज्जमानी के गर्भ से हुआ था। • सलीम का मुख्य शिक्षक अब्दुर्ररहीम खानखाना था। जहाँगीर का विवाह भगवान दास (आमेर) की पुत्री और मानसिंह की बहन मानबाई से हुआ था। गद्दी पर बैठते ही जहाँगीर को अर्जुन देव समर्थित खुसरो के विद्रोह का सामना करना पड़ा। जहाँगीर द्वारा गुरु अर्जुन देव को फाँसी दी गई। जहाँगीर ने गद्दी पर बैठते ही न्याय की प्रसिद्ध जंजीर लगवाई तथा बारह घोषणाएँ प्रकाशित कराई।
मुगलों की दक्षिण विजय की सबसे बड़ी बाधा अहमदनगर का वजीर मलिक अम्बर था। 1617 ई. में शहजादा खुर्रम को अहमद नगर अभियान पर भेजा। अहमद नगर और मुगलों में सन्धि हो गई, जिसके फलस्वरूप खुर्रम को शाहजहाँ की उपाधि दी गई। जहाँगीर धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु था। वह रक्षाबन्धन का त्योहार मनाता था। ब्राह्मणों एवं मन्दिरों को दान देने सम्बन्धी पुष्टि वृन्दावन के चैतन्य सम्प्रदाय के मन्दिरों में उपलब्ध प्रलेखों से होती है। उसने श्रीकान्त नामक एक हिन्दू को हिन्दुओं का जज नियुक्त किया।
. जहाँगीर के शासनकाल में कैप्टन हॉकिन्स (कम्पनी प्रतिनिधि) और सर टॉमस रो (सम्राट जेम्स का दूत) भारत आए थे। जहाँगीर द्वारा हॉकिन्स को 400 का मनसब दिया गया था।
मेहरुन्निशा (नूरजहाँ) द्वारा बनाए गए जुण्टा गुट में उसका पिता ऐतमादुद्दौला (ग्यासबेग), माता अस्मत बेगम, भाई आसफ खाँ तथा शहजादा खुर्रम सम्मिलित थे। अस्मत बेगम ने इत्र बनाने की विधि का आविष्कार किया था।
जहाँगीरकालीन सर्वाधिक उल्लेखनीय इमारत आगरा में बना मकबरा है। यह चतुर्भुजाकार मकबरा बेदाग संगमरमर से निर्मित है। इसी भवन का पहली बार पित्रादुरा (फूलों वाली आकृतियों में कीमती पतारों एवं क जड़ावट) का प्रयोग मिलता है।
जहाँगीर द्वारा हेरात के प्रसिद्ध चित्रकार आकारिजा के नेतृत्व में आगरा में चित्रणशाला की स्थापना की। जहाँगीरकालीन सर्वोत्कृष्ट चित्रकार उस्ताद मंसूर (नादिर-उल-असर) और अबुल हसन (नादिर-उद्-जमा) थे। मंसूर पक्षी विशेषज्ञ तथा अबुल हसन व्यक्ति चित्रों में सिद्धहस्त थे।
शाहजहाँ
शाहजहाँ का जन्म लाहौर में मारवाड़ के मोटा राजा उदय सिंह की पुत्री जगत गोसाई के गर्भ से हुआ था। जहाँगीर की मृत्यु के समय वह दक्षिण में था। शाहजहाँ का विवाह 1612 ई. में आसफ खाँ की पुत्री अर्जुमन्द बानो बेगम (मुमताज महल) से हुआ था।
शाहजहाँकालीन विद्रोहों में जुझार सिंह (बुन्देला), खाने- जहाँ लोदी (अफगान) गुरु हरगोविन्द (सिख गुरु, बाजप्रकरण) आदि के विद्रोह उल्लेखनीय थे। शाहजहाँ द्वारा अहमदनगर पर आक्रमण कर उसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। गोलकुण्डा के वजीर मुहम्मद सैयद (मीर जुमला) ने शाहजहाँ को कोहिनूर हीरा भेंट किया था।
. गंगालहरी और रस गंगाधर के लेखक पण्डित जगन्नाथ उसके राजकवि थे। इसके अतिरिक्त चिन्तामणि कवीन्द्राचार्य और सुन्दरदास आदि अनेक हिन्दू लेखक भी उसके दरबार में थे।
शाहजहाँकालीन वास्तुकला का चरम दृष्टान्त ताजमहल है, जो 22 वर्षों में 9 करोड़ रुपये की लागत से बनकर तैयार हुआ, इसका मुख्य स्थापत्यकार उस्ताद अहमद लाहौरी था, जिसे शाहजहाँ ने नादिर-उल-अस्र की उपाधि प्रदान की थी। इसका प्रधान मिस्त्री अथवा निर्माता उस्ताद ईसा था।
औरंगजेब
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औरंगजेब का जन्म 1618 ई. में दोहद नामक स्थान पर हुआ था। औरंगजेब का विवाह फारस राजघराने की राजकुमारी दिलरास बानो बेगम से हुआ था।
औरंगजेब ने प्रथम राज्याभिषेक दिल्ली में 1658 ई. को कराया और अबुल मुजफ्फर आलमगीर की उपाधि धारण की।
खंजवा और देवराई के युद्ध में क्रमशः शुजा और दारा को अन्तिम रूप से परास्त करने के बाद पुनः 5 जून, 1659 को दिल्ली में अपना औपचारिक राज्याभिषेक कराया। औरंगजेब द्वारा मीर जुमला को बंगाल का गवर्नर बनाया गया। 1663 ई. में मीर जुमला की मृत्यु के पश्चात् शाइस्ता खाँ को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया।
औरंगजेब ने 1665 ई. में जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध भेजा। जयसिंह ने उसे पराजित कर पुरन्दर की सन्धि करने के लिए विवश किया। औरंगजेब द्वारा शासन के 11वें वर्ष में झरोखा दर्शन एवं 12वें वर्ष में तुलादान प्रथा को समाप्त कर दिया गया। 1679 ई. में हिन्दुओं पर पुनः जजिया कर लगा दिया गया तथा दक्कन से यह कर उठा लेना पड़ा। 1669 ई. में मथुरा क्षेत्र के जाटों ने स्थानीय जमींदार गोकुला के नेतृत्व में दूसरा जाट विद्रोह किया। राजाराम द्वारा सिकन्दरा स्थित अकबर का मकबरा लूटा गया।
राजाराम के बाद उसके भतीजे चूड़ामन ने विद्रोह किया, अन्त में भरतपुर नामक स्वतन्त्र राज्य की नींव डाली।
औरंगजेब द्वारा बीजापुर (1686 ई.) एवं गोलकुण्डा (1687 ई.) को जीतकर साम्राज्य में मिलाने से सूबों की संख्या बढ़कर 20 हो गई। औरंगजेब द्वारा सिक्कों पर कलमा अंकन की प्रथा को बन्द करा दिया गया। उसके अन्तिम समय के कुछ सिक्कों पर मीर अब्दुल बकी शाहबाई द्वारा रचि एक पद्य अंकित कराया। मुगलकाल में सर्वाधिक रुपये की ढलाई औरंगजेब के काल में हुई। औरंगजेब के समय मनसबदारों की संख्या में इतनी वृद्धि हुई कि उन्हें देने के लिए जागीर नहीं बची, इसी को जागीरदारी संकट कहा गया।
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औरंगजेब द्वारा राजकीय धर्मनिरपेक्ष कानून जारी किए गए, उसके आदेशों को जबावित-ए-आलमगीरि में संगृहीत किया गया है। दाराशिकोह का जन्म भी मुमताज महल के गर्भ से ही हुआ था। दारा सूफियों की कादिरी परम्परा से बहुत अधिक प्रभावित था, दारा द्वारा ‘वेदों का संकलन’ किया गया तथा बावन उपनिषदों का सिर्र-ए-अकबर नाम से फारसी में अनुवाद कराया।
मुगलकाल में राजस्व व्यवस्था मुख्य रूप से टोडरमल द्वारा निर्मित दहसाला प्रणाली पर आधारित थी। इस प्रणाली में अलग-अलग फसलों के पिछले 10 वर्ष के उत्पादन और उसी समय के उनके प्रचलित मूल्यों का औसत निकालकर उसका 1/3 राजस्व के रूप में वसूला जाता था।
सूती वस्त्र उद्योग इस काल का सबसे उन्नत उद्योग था। रेशमी वस्त्र विदेशों से आयात किया जाता था, जिसे पटोला कहते थे। आइन-ए-अकबरी में रबी की 16 तथा खरीफ की 25 फसलों का उल्लेख है। आगरा के निकट बयाना तथा गुजरात में सरखेज उत्तम किस्म की नील के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध थे।
मुगल काल को बहुआयामी सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण भारतीय इतिहास का द्वितीय शास्त्रीय युग कहा जाता है।
1533 ई. में हुमायूँ ने दिल्ली में दीनपनाह नामक नया नगर बसाया। अकबर कालीन इमारतों में सबसे विख्यात हुमायूँ का मकबरा, फतेहपुर सीकरी आदि प्रमुख हैं, जबकि जहाँगीर के काल में चित्रकला का अधिक विकास हुआ। शाहजहाँ का काल मुगल स्थापत्य का स्वर्णकाल था। लेनपूल ने दारा को ‘छोटा अकबर’ कहा है।
मुगलकालीन प्रशासन, अर्थव्यवस्था समाज एवं संस्कृति मुगलों का राजत्व सिद्धान्त शरीयत पर आधारित था। यह सल्तनत से इस आधार पर भिन्न था कि जहाँ सल्तनत में सुल्तान स्वयं को इस्लामी खलीफा का नायब मानता था वहीं मुगल बादशाह स्वयं को सम्प्रभु मानते थे। वे खलीफा की सर्वोच्चता को स्वीकार नहीं करते थे।
मुगल प्रशासन एक प्रकार की सैन्य नौकरशाही थी, जो नियन्त्रण एवं सन्तुलन पर आधारित थी। इसमें भारतीय एवं गैर-भारतीय तत्त्वों का समावेश था।
. वजीर साम्राज्य का प्रधानमन्त्री होता था, इसे सैन्य व असैन्य दोनों मामलों में असीमित अधिकार प्राप्त थे।
दीवान पद की स्थापना अकबर ने की थी। यह वित्त एवं राजस्व का सर्वोच्च अधिकारी था।
दीवान-ए-खालिसा शाही भूमि की देखभाल करने वाला अधिकारी था, जबि मीर बख्शी सैन्य विभाग का सर्वोच्च अधिकारी था। सद्र-उस-सुदूर धार्मिक कार्यों में बादशाह का सलाहकार होता था। प्रान्तीय प्रशासन का प्रमुख अधिकारी सूबेदार होता था, जिसका स्थानान्तरण किया जा सकता था। इसे सैन्य व असैन्य दोनों अधिकार प्राप्त थे। दरोगा-ए-डाक गुप्तचर विभाग का प्रमुख तथा पत्र-व्यवहार का प्रभारी।
मराठा राज्य और संघ
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शिवाजी का जन्म 1627 ई. में शिवनेर के किले में हुआ तथा शिवनेरी देवी के नाम पर इनका नाम शिवाजी रखा गया। इनके पिता शाहजी भोंसले तथा माता जीजाबाई थीं। दादाजी कोण्डदेव शिवाजी के संरक्षक थे तथा घरकरी सम्प्रदाय के संस्थापक रामदास इनके आध्यात्मिक गुरु थे।
शिवाजी ने अपने पहले अभियान के तहत 1643 ई. में बीजापुर से सिंहगढ़ किला छीन लिया। 1657 ई. में अहमदनगर एवं जुन्नार पर आक्रमण के समय इन्होंने पहली बार मुगलों (औरंगजेब) का सामना किया।
बीजापुर के सरदार अफजल खाँ ने दिसम्बर, 1659 में शिवाजी की छल से हत्या करने की योजना बनाई, परन्तु शिवाजी ने उसका वध कर दिया। अफजल खाँ के अंगरक्षकों में प्रख्यात तलवार बाज सैयद बान्दा भी था। शिवाजी के अंगरक्षक जीवमहल तथा शम्भूजी कावजी थे। 1663 ई. में औरंगजेब ने शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार बना कर भेजा। 15 अप्रैल, 1663 को शिवाजी ने शाइस्ता खाँ के पूना शिविर पर रात्रि में आक्रमण किया, जिसमें शाइस्ता खाँ घायल होकर भाग गया तथा उसका पुत्र फतह खाँ मारा गया।
16 जून, 1674 को रायगढ़ किले में शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ। इनका राज्याभिषेक काशी के प्रसिद्ध विद्वान् विश्वेश्वर भट्ट (गंगा भट्ट) ने किया। गंगा भट्ट ने ‘कायस्थ धर्म प्रतीप’ की रचना की। इस अवसर पर हेनरी ऑक्साइडन भी उपस्थित था। इस अवसर पर शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ली।
1656 ई. में शिवाजी ने रायगढ़ को अपनी राजधानी बनाया था। 1678 ई. में शिवाजी ने जिन्जी को जीत कर अपने साम्राज्य की दक्षिणी राजधानी बनाया। यह उनकी अन्तिम विजय थी।
शिवाजी को सलाह देने के लिए आठ मन्त्रियों का समूह था, जो अष्टप्रधान कहलाता था। ये सलाहकार मात्र थे तथा राजा सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न निरंकुश शासक था। शिवाजी की भू-राजस्व व्यवस्था मलिक अम्बर की भू-राजस्व व्यवस्था पर आधारित थी। यह रैयतवाड़ी व्यवस्था जैसी थी। यद्यपि देशमुखी (जमींदारी) व्यवस्था समाप्त नहीं हुई थी। शिवाजी ने उपज का 33% भू-राजस्व वसूला, जो बाद में 40% हो गया, जब अन्य कर समाप्त कर दिए गए।
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शिवाजी ने पड़ोसी राज्यों से चौथ (मराठा आक्रमण से सुरक्षा के लिए) तथा सरदेशमुखी (क्षेत्र का सबसे बड़ा देशमुख होने के नाते) वसूला। चौथ राज्यों की आय का चौथाई तथा सरदेशमुखी राज्य की आय का दसवाँ हिस्सा था।
राजाराम (1689-1700 ई.) ने सदैव स्वयं को शम्भाजी के पुत्र शाहू का प्रतिनिधि ही माना तथा कभी राजसिंहासन पर नहीं बैठा। इसने जिन्जी को राजधानी बनाया। शिवाजी द्वितीय (1700-1707 ई.) तथा शाहू के बीच सत्ता को लेकर संघर्ष हुआ। शाहू को 1707 ई. में जुल्फिकार खाँ के कहने पर शाह आलम ( बहादुरशाह) ने रिहा कर दिया था।
शाहू (1707-49 ई.) ने बालाजी विश्वनाथ को 1708 ई. में सेनाकर्ते (सैन्य व्यवस्थापक) तथा 1713 ई. में पेशवा बना दिया। सतारा की सन्धि (1731 ई.) में मराठों का आन्तरिक संघर्ष समाप्त हुआ तथा कोल्हापुर के शम्भूजी ने शाहू की अधीनता स्वीकार कर ली संगोला की सन्धि (1750 ई.) से पेशवा मराठा संघ का वास्तविक प्रधान बन गया।
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1761 ई. में पानीपत के तृतीय युद्ध में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध मराठों की करारी हार हुई। इस युद्ध में अवध के शुजाउद्दौला, रुहेला सरदार हाफिज खाँ तथा रहमत खाँ ने अब्दाली का साथ दिया।
माधव नारायण राव (1774-96 ई.) के अल्पायु होने के कारण बाराभाई नामक 12 सदस्यीय परिषद् राज्य का प्रबन्ध करती थी। इस परिषद् में नाना फड़नवीस, महादजी सिन्धिया आदि थे। 1775 ई. में रघुनाथ राव का अंग्रेजों से सूरत की प्रथम सन्धि के परिणामस्वरूप प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ। सालबाई की सन्धि (1782 ई.) (महादजी सिन्धिया तथा अंग्रेजों के बीच) से प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध समाप्त हुआ।
बाजीराव द्वितीय माधवराव द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् पेशवा बना। 31 दिसम्बर, 1802 को अंग्रेजों का संरक्षण स्वीकारते हुए पेशवा बाजीराव द्वितीय ने बसीन की सन्धि की, जिसका विरोध मराठा सरदारों (भोंसले, सिन्धिया आदि) ने किया।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-18 ई.) लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा मराठा राज्य को अंग्रेजी राज्य में विलय करने के परिणामस्वरूप हुआ। पिण्डारियों के दमन के दौरान अंग्रेजों ने सिन्धिया से ग्वालियर की सन्धि (1817 ई.) की।
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आधुनि उत्तर मुगल काल एवं प्रान्तीय स्थापत्य राज्य 3 मार्च, 1707 को अहमदनगर में औरंगजेब की मृत्यु के बाद के काल को “उत्तर मुगलकाल के नाम से जाना जाता है। सतीशचन्द्र, इरफान हबीब
आदि ने मनसबदारी व्यवस्था की खामियों और जागीरदारी संकट को मुगल साम्राज्य के पतन का कारण माना है। औरंगजेब की मृत्यु के समय मुगल साम्राज्य में कुल 21 सूबे थे, जिसमें मुअज्जम काबुल, आजम गुजरात और कामबख्श बीजापुर का सूबेदार था।
1707 ई. में मोहम्मद मुअज्जम (बहादुरशाह की उपाधि) जजाऊ के युद्ध में गुजरात के सूबेदार आजमशाह को पराजित कर दिल्ली के तख्त पर बैठा बहादुरशाह को शाहे बेखबर भी कहा जाता है। बुन्देला सरदार चूड़ामन ने बन्दा बहादुर (सिख नेता) के विरुद्ध बहादुरशाह का साथ दिया। बहादुरशाह के चार पुत्रों- जहाँदारशाह, अजीम-उस-शान, रफी-उस शान और जहाँनशाह के बीच हुए उत्तराधिकार के युद्ध में अमीर जुल्फिकार खान की सहायता से जहाँदारशाह विजयी हुआ। जहाँदार के समय में मराठों को दक्कन में ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार इस शर्त पर मिला कि इसकी वसूली मुगल अधिकारी करेंगे। • सैयद भाइयों में अब्दुल्ला खाँ को वजीर एवं कुतबुल मुल्क की उपाधि तथा हुसैन अली को मीर बख्शी एवं अमीर-उल-उमरा की उपाधि मिली थी।
फर्रुखसियर ने हिन्दुओं पर से जजिया समाप्त कर दिया और जयसिंह को सवाई की उपाधि दी (जयसिंह को ‘मिर्जा राजा’ की उपाधि पहले जहाँदारशाह ने दी थी। फर्रुखसियर के काल में ‘बन्दाबहादुर’ गुरुदासपुर में पकड़ा गया और 1716 ई. में मारा गया। फर्रुखसियर ने 1717 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को व्यापारिक अधिकार प्रदान किए।
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राजपूत अजीतसिंह की पुत्री का विवाह मुगल सम्राट फर्रुखसियर से हुआ।
सवाई राजा मिर्जा जयसिंह ने जयपुर की स्थापना की। जयसिंह महान् खगोलशास्त्री थे, उन्होंने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा एवं वाराणसी में खगोलशालाएं बनवाई। ‘जिजमुहम्मदशाही’ खगोलशास्त्र सम्बन्धी पुस्तक है।
सैयद बन्धुओं में हुसैन अली खाँ ने पेशवा बालाजी विश्वनाथ से दिल्ली की सन्धि करके और उनसे सैन्य सहयोग लेकर फर्रुखसियर को अपदस्थ कर अन्धा कर दिया और फिर हत्या करवा दी।
सैयद बन्धुओं के सहयोग से फर्रुखसियर रफी उद् दरजात, रफी-उद्दौला एवं मोहम्मदशाह सम्राट बने। सबसे कम समय तक शासन करने वाला मुगल शासक रफी-उद्-दरजात था, जिसकी मृत्यु क्षयरोग (टीबी) से हुई।
रफी-उद-दरजात के समय में एकमात्र विद्रोह निकूसियर का हुआ।
रफी-उद-दौला को अपने जीवनकाल में केवल एक बार आगरा प्रस्थान के लिए महल से निकलने दिया गया। रफी-उद्-दौला ने शाहजहाँ द्वितीय की उपाधि धारण की। वह अफीम का नशेड़ी था। रौशन अख्तर का ही दूसरा नाम या उपाधि मोहम्मदशाह थी, जो 1719 ई. में मुगल सम्राट बना।
मोहम्मदशाह ऐश्वर्य वस्तुओं का भोगी होने के कारण रंगीला भी कहा जाता था। मोहम्मदशाह के काल में सैयद बन्धुओं का अन्त हुआ, जिसमें तूरानी गुट का हाथ था।
मोहम्मदशाह ने चिनकिलिच खौ निजामुलमुल्क को अपना प्रधानमन्त्री बनाया, जिसने 1724 ई. में दक्कन में स्वतन्त्र हैदराबाद राज्य की स्थापना की। मोहम्मदशाह मे निजामुलमुल्क की स्वतन्त्रता को मान्यता देते हुए उसे आसफजाह की उपाधि प्रदान की। मोहम्मदशाह के काल में ही सआदत खाँ ने अवध में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। इसी समय बंगाल, बिहार, उड़ीसा भी स्वतन्त्र हो गए।
मोहम्मदशाह (1719-1748 ई.) के काल में 1738-39 ई. में ‘ईरान का नेपोलियन’ नाम से प्रसिद्ध नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया।
नादिरशाह ने 13 फरवरी, 1739 को हुए करनाल के युद्ध में मुगल सेना को पराजित किया और दिल्ली में कुल 57 दिन रहा। नादिरशाह अपने साथ मुगल राजसिंहासन तख़्त-ए-ताऊस, कोहिनूर हीरा और मोहम्मदशाह द्वारा तैयार करवाई गई हिन्दू संगीत के चित्रित फारसी पाण्डुलिपि को ले गया। अवध के नवाब सआदत खाँ ने नादिरशाह को 20 करोड़ रुपये की राशि न दे पाने पर विष खाकर आत्महत्या कर ली।
– मोहम्मदशाह के शासनकाल में ही दुरें- दुर्रानी (युग का मोती) नाम से प्रसिद्ध अहमदशाह अब्दाली का प्रथम आक्रमण 1748 ई. में हुआ। मोहम्मदशाह के बाद अहमदशाह (1748-54 ई.) गद्दी पर बैठा जिसका जन्म एक नर्तकी से हुआ था। अहमदशाह ने हिजड़ों के सरदार जावेद खाँ को नवाब बहादुर की उपाधि दी और सफदरजंग को अपना वजीर बनाया। – अहमदशाह के शासन में राजकीय कामकाज राजमाता ऊधमबाई (उपाधि किबला-ए-आलम) देखती थी।
– अहमदशाह के वजीर इमादुलमुल्क ने उसे अपदस्थ करके उसकी आँखें निकलवाकर सलीमगढ़ की जेल में डाल दिया। अहमदशाह के काल में अहमदशाह अब्दाली ने 5 बार आक्रमण किए।
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‘अलीगौहर’ शाहआलम द्वितीय की उपाधि के साथ गद्दी पर 1759 ई. में बैठा और 1806 ई. तक सम्राट रहा।
– शाहआलम द्वितीय के समय में पानीपत का तृतीय युद्ध (1761 ई.) तथा बक्सर का युद्ध (1764 ई.) हुआ।
1765 ई. में शाहआलम द्वितीय को ईस्ट इण्डिया कम्पनी से इलाहाबाद की सन्धि करनी पड़ी, परिणामस्वरूप उसे इलाहाबाद में अंग्रेजों का पेंशनयाफ्ता बनकर रहना पड़ा।
1772 ई. में मराठों के संरक्षण में दिल्ली की गद्दी पर शाहआलम द्वितीय बैठा। 1803 में अंग्रेजों का संरक्षण उसे स्वीकारना पड़ा। गुलाम कादिर ने 1788 ई. में शाहआलम द्वितीय को अन्धा बना दिया और 1806 ई. में शाहआलम द्वितीय की हत्या कर दी गई। अकबर द्वितीय (1806-37 ई.) अंग्रेजों के संरक्षण में शासक बनने वाला प्रथम मुगल बादशाह था। अकबर द्वितीय ने राजा राममोहन राय को ‘राजा’ की उपाधि दी। अकबर द्वितीय के समय में (1835 ई.) मुगलों के सिक्के ढलने बन्द हो गए।
बहादुरशाह द्वितीय ‘जफर’ (1837-62 ई.) अन्तिम मुगल सम्राट थे, जिन्हें अंग्रेजों ने 1857 ई. में गिरफ्तार कर रंगून निर्वासित कर दिया, जहाँ 1862 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।
हैदराबाद में स्वतन्त्र आसफजाही वंश की स्थापना मुहम्मदशाह (मुगल बादशाह) द्वारा दक्कन में नियुक्त सूबेदार चिनकिलिच खाँ (निजामुलमुल्क) ने 1724 ई. में की। निजामुलमुल्क सूकरखेड़ा के युद्ध में दक्कन के वायसराय मुबारिज खाँ को हराकर स्वयं दक्कन का स्वामी बना। सहायक सन्धि स्वीकार करने वाला प्रथम भारतीय राज्य हैदराबाद था। अवध के स्वतन्त्र राज्य का संस्थापक सआदत खान बुरहान-उल मुल्क (172239 ई.) था।
सफदरजंग (अबुल मंसूर खान) को 1744 ई. में मुगल सम्राट मोहम्मदशाह ने अपना वजीर बनाया, जिसे 1753 ई. में अहमदशाह ने बर्खास्त कर दिया। शुजाउद्दौला 1754 ई. में अवध का नवाब व मुगल साम्राज्य का वजीर बना। उसने बक्सर के युद्ध में भाग लिया। शुजाउद्दौला ने 1774 ई. में रुहेलों को
पराजित कर रुहेलखण्ड पर अधिकार कर लिया। पानीपत के तृतीय युद्ध (1761 ई.) में शुजाउद्दौला ने अहमदशाह अब्दाली का साथ दिया। नवाब आसफउद्दौला ने अपनी राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानान्तरित की। वाजिद अली शाह अवध का अन्तिम शासक था जिसे फरवरी, 1856 में लॉर्ड डलहौजी द्वारा अवध पर कुशासन के आरोप में अधिकार कर लेने के बाद कलकत्ता भेज दिया गया।
सादतुल्लाह द्वारा 1720 ई. में कर्नाटक में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की गई, जिसकी राजधानी ‘अरकाट’ में बनाई गई। चूड़ामन ने भरतपुर (जाट) राज्य की स्थापना की और अन्त में आत्महत्या कर ली थी। भरतपुर के जाटों का प्रथम विद्रोह 1669 ई. में तिलपत के गोकुल के नेतृत्व में औरंगजेब की नीतियों के विरुद्ध हुआ। सूरजमल को जाटों का अफलातून या प्लेटो कहा जाता है।
वीर दाऊद और अली खाँ ने रुहेलखण्ड में स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया।
मोहम्मद खाँ बंगश ने 1714 ई. में फर्रुखाबाद के आस-पास बंगश पठानों का राज्य स्थापित किया।
हैदरअली ने फ्रांसीसियों की सहायता से हिण्डीगुल में आधुनिक शस्त्रागार की स्थापना की (1755 ई.)। मद्रास की सन्धि 4 अप्रैल, 1769 को हैदरअली और अंग्रेजों के बीच हुई थी।
1782 ई. में द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध के दौरान हैदरअली की मृत्यु हो गई।
मंगलौर की सन्धि लॉर्ड मैकार्टनी और टीपू के बीच मार्च, 1784 में हुई।
टीपू सुल्तान ने श्रीरंगपट्टनम में स्वतन्त्रता का वृक्ष लगाया। थॉमस मुनरो ने टीपू के लिए कहा था कि टीपू नई रीति चलाने वाली अशान्त आत्मा है।
” टीपू ने नए कैलेण्डर तथा सिक्का ढलाई की नई प्रणाली को लागू किया।
टीपू ने शृंगेरी के जगद्गुरु शंकराचार्य के सम्मान में मन्दिरों के पुनर्निर्माण हेतु धन दान किया।
टीपू सुल्तान पहला शासक था, जिसने विदेशों में दूतावास बनवाया था। मेटकॉफ और रणजीत सिंह के मध्य अमृतसर की सन्धि 25 अप्रैल, 1809 को हुई। इस सन्धि की शर्तों के अनुसार सतलुज नदी दोनों राज्यों की सीमा मान ली गई।
* विग्रहराज चतुर्थ (1153-1163 ई.) की सबसे प्रमुख विजय दिल की थी। * इसने परमभट्टारक, परमेश्वर, महाराजाधिराज जैसी उपाधिद धारण कीं। * जयानक उसे ‘कविबान्धव’ तथा सोमदेव ने उसे “विद्वाना सर्वप्रथम’ कहा है। *सोमदेव ने ‘ललित विग्रहराज’ नामक ग्रंथ की रह की। *अजमेर का शासक पृथ्वीराज तृतीय (1177-1192 ई.) ही ‘पृथ्वीराज चौहान’ के नाम से प्रसिद्ध है, जिसने 1191 ई. में तराइन के प्रथम युद्ध मुहम्मद गोरी को पराजित किया था परंतु 1192 ई. में युद्ध में उसकी पराजय हुई थी। तराइन के द्वितीर
*पाल वंश का संस्थापक गोपाल था। * धर्मपाल के खालीमपुर लेख कहा गया है कि ‘मत्स्यन्याय से छुटकारा पाने के लिए प्रकृतियों (सामान जनता) ने गोपाल को लक्ष्मी की बांह ग्रहण कराई।’ *नालंदा में इसने एक विहार का निर्माण करवाया था। *धर्मपाल (770-810 ई.) एक उत्साही बौद्ध था। उसके लेखों में उसे ‘परमसौगत’ कहा गया है। उसने विक्रमशिल तथा सोमपुरी (पहाड़पुर) में प्रसिद्ध विहारों की स्थापना की थी।
1203 ई. के मध्य में बख्तियार खिलजी ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय को कर दिया। *पालवंशी शासक देवपाल (810-850 ई.) बौद्ध मतानुयायी था। उसने जावा के शैलेंद्रवंशी शासक बालपुत्रदेव के अनुरोध पर उसे नालंदा में एक बौद्ध विहार बनवाने के लिए पांच गांव दान में दिए थे। *गोविदचंद्र गहड़वाल की रानी कुमारदेवी बौद्ध मतानुयायी थीं।
उन्होंने सारनाथ में धर्मचक्र-जिन विहार बनवाया था। गोविंदचंद्र का मंत्री लक्ष्मीचर ने ‘कृत्यकल्पतरु’ नामक ग्रंथ की रचना की। इसमें चौबीस अध्याय है। • गहड़वाल वंश का अंतिम शासक जयचंद्र था। यहम्मीर महाकाव्य में चौहानों को सूर्यवंशी बताया गया है। *हम्मीर महाकाव्य और पृथ्वीराज विजय के अनुसार, चौहान सूर्य के पुत्र
ब्राहमान नामक अपने पूर्वज के वंशज थे। वे चार अग्निकुलों में से एक थे। *आल्हा ऊदल महोबा से संबंधित थे। *ये चंदेल शासक परमार्दिदेव 1165-1203 ई.) के सेनानायक थे, जो 1182 ई. में पृथ्वीराज चौहान के आक्रमण का डटकर सामना करने के बाद वीरगति को प्राप्त हुए। *चंदेलो एवं चौहानों के इस संघर्ष का वर्णन चंदबरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ एवं जगनिक कृत ‘परमाल रासो’ के ‘आल्हाखंड’ से प्राप्त होता है।
“*जेजाकभुक्ति बुंदेलखंड का प्राचीन नाम था। *चंदेल वंश के संस्थाप के पौत्र जय सिंह या जैजा के नाम पर यह प्रदेश जेजाकभुक्ति नलुक कहलाया। खजुराहो लेख में शासक हर्ष को ‘परमभट्टारक’ कहा गया है। शासक धंग ने महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। उसने प्रयाग के संगम में जल समाधि द्वारा प्राण त्याग दिया।
प्राचीन काल में पुंवर्धन मुक्ति उत्तर बंगाल के क्षेत्र में अवस्थित थी। *पाल, चंद्र एवं सेन राजवंशों के युग में इसके क्षेत्राधिकार का विस्तार उत्तर बंगाल के बाहर भी था।
गुर्जर प्रतिहार वंश का संस्थापक नागभट्ट प्रथम (730-756 ई.) था। देश के शासक नागभट्ट द्वितीय ने ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर की उपाधि धारण की। मिहिरभोज प्रथम वैष्णव धर्मानुयायी या इसने आदिवाराह’ तथा ‘प्रभास’ उपाधियाँ धारण की। प्रतिहार वंश का महानतम शासक मिहिरभोज था। * इसका शासनकाल 836-885 ई थी। इसके बाद महेंद्रपाल प्रतिहार शासक हुआ, इसका शासनकाल 885-910 ई. तक रहा।
*महान जैन विद्वान हेमचंद्र ने सोलंकी वंश के जयसिंह सिद्धराज (1093-1143 ई.) के समय में प्रमुखता प्राप्त की थी, तथापि वे उसके उत्तराधिकारी कुमारपाल (1143-1172 ई.) के सलाहकार के रूप में उसकी सभा को अलंकृत करते थे।
* सेनवंश के लेखों से ज्ञात होता है कि वे चंद्रवंशी क्षत्रिय थे तथा उनका आदि पुरुष वीरसेन था। * सेनवंश के शासक बल्लालसेन ने परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परममाहेश्वर, निःशंक शंकर आदि उपाधियां धारण की। * इसने ‘दानसागर’ नामक ग्रंथ की रचना की। *लक्ष्मण सेन (1178-1206 ई.) सेन वंश के शासक थे। * इन्होंने 28 वर्षों तक शासन किया इनके द्वारा एक नए संवत् ‘लक्ष्मण संवत् का प्रारंभ किया गया।
* विज्ञानेश्वर, हिमाद्री एवं जीमूतवाहन मध्यकाल भारत के प्रसिद्ध विधिवेत्ता थे। विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर ‘मिताक्षरा’ शीर्षक से
टीकाग्रंथ लिखा। जीमूतवाहन ने ‘दायमाग’ नामक ग्रंथ की रचना की। हेमाद्रि 13वीं शताब्दी में कर्नाटक के विद्वान थे। इन्होंने आयुर्वेद के ग्रंथ अष्टांग हृदय पर टीका लिखी है। इसके अलावा इन्होंने चतुवर्ग चिन्तामणि नामक पुस्तक लिखी तथा राज कार्यों के लिए नियमों पर भी पुस्तक लिखी है, अतः यह भी मध्यकालीन विधिवेत्ता थे। राजशेखर गुर्जर-प्रतिहार शासक महेंद्रपाल प्रथम एवं उसके पुत्र महीपाल के दरबार में रहते थे, इन्होंने कर्पूर मंजरी, काव्यमीमांसा, विद्धशालभंजिका, बालरामायण, भुवनकोश, हरविलास जैसे ग्रंथों की रचना की।
*गुजरात का चालुक्य शासक जयसिंह सिद्धराज एक धर्म सहिष्णु शासक था। * मुस्लिम लेखक मुहम्मद औफी का कहना है कि खम्मात में कुछ मस्जिदों हेतु उसने एक लाख बालोम (मुद्राएं) दान में दी थीं।
* परमार शासक वाक्यपति मुंज ने ‘मुंजसागर’ नामक तालाब बनवाया था। उसने श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ, अमोघवर्ष आदि उपाधियां धारण कीं । * उसके छोटे भाई सिंधुराज ने कुमारनारायण तथा साहसांक जैसी उपाधियां धारण कीं। *राजा भोज परमार शासक था, परमारों का पहले शासन केंद्र उज्जैन था तत्पश्चात राजधानी धार में स्थानांतरित कर दी गई। * राजा भोज ने धार से शासन किया। *इनके द्वारा कृत्रिम वैज्ञानिक उपकरणों पर लिखी गई प्रसिद्ध पुस्तक ‘समरांगणसूत्राधार’ है। *यह वास्तुशास्त्र से संबंधित ग्रंथ है। इस ग्रंथ में 83 अध्याय हैं। इसके 31 वें अध्याय (यंत्रविधान) में अनेक यंत्रों का वर्णन है। * सरस्वती कंठाभरण’, ‘सिद्धांत संग्रह’, ‘योग सूत्र वृत्ति’, ‘राजमार्तंड’, ‘विद्या विनोद’, ‘युक्ति कल्पतरु’ तथा ‘चारुचर्या’ इनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएं हैं। *भोजशाला मंदिर म.प्र. के धार जिले में स्थित है। * यहां पर वाग्देवी (भगवती सरस्वती देवी) अधिष्ठात्री (स्थापित) हैं। * भोजशाला का निर्माण परमार शासक राजा भोज ने संस्कृत पाठशाला के रूप में करवाया था। *अब भोजशाला कमाल मौला मस्जिद परिसर में स्थित है।
“गौडवहो’ कन्नौज के राजा यशोवर्मन के राजाश्रित कवि वाक्पति की रचना है।
मध्यकालीन भारत पर मुस्लिम आक्रमण
नोट्स
मक्का’ सऊदी अरब में स्थित है, वहीं पर 570 ई. में इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद का जन्म हुआ था। इसी कारण यह स्थान मुस्लिम अनुयायियो का पवित्र तीर्थ स्थल है। इनकी मृत्यु 632 ई. में हुई थी। ग्वेद में उल्लिखित ‘भरत’ कबीले के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। परंपरानुसार दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा है। कुछ विद्वानों के अनुसार, ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा है। ईरानियों ने इस देश को ‘हिंदुस्तान’ कहकर संबोधित किया है तथा यूनानियों ने इसे ‘इंडिया’ कहा है। *हिंद (भारत) की जनता के संदर्भ में हिंदू’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अरबों द्वारा किया गया था। *भारत पर पहला सफल मुस्लिम आक्रमण 712 ई. में अरब आक्रमणकारी मुहम्मद-बिन-कासिम के नेतृत्व में हुआ था। *मुहम्मद-बिन-कासिम से पूर्व उबैदुल्लाह के नेतृत्व में एक अभियान दल भेजा गया, परंतु वह पराजित हुआ और मारा गया। इराक के हाकिम अल-हज्जाज ने मुहम्मद-बिन-कासिम के नेतृत्व में अरबों को सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा। भारी संघर्ष के बाद अरबों ने 712 ई. में सिंध पर विजय प्राप्त कर ली। *उस समय सिंध पर दाहिर का शासन था। *फारसी ग्रंथ ‘चचनामा’ से अरबों द्वारा सिंध विजय की जानकारी मिलती है। में
*गजनी वंश का संस्थापक अल्पतगीन था। *गजनी वंश का अन्य नाम यामीनी वंश भी है। *अल्पतगीन ने गजनी को अपनी राजधानी बनाया। *998 ई. में महमूद गजनी का शासक बना। * सर हेनरी इलियट के अनुसार, महमूद ने भारत पर 17 बार आक्रमण किए। * भीमदेव प्रथम (1022-63 ई.) के शासनकाल में महमूद गजनवी ने 1026 ई. में सोमनाथ के मंदिर को लूटा।
*महमूद गजनवी का चंदेलों पर प्रथम आक्रमण 1019-20 ई. में । *उस समय चंदेल वंश का शासक विद्याधर था, जो अपने वंश हुआ। का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। *यह अकेला ऐसा हिंदू शासक था, जिसने मुसलमानों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया।
*999 से 1027 ई. के बीच महमूद गजनी (या गजनवी) ने भारत पर 17 बार आक्रमण किए, परंतु इन आक्रमणों का उद्देश्य भारत में स्थायी मुस्लिम शासन की स्थापना करना नहीं था, बल्कि मात्र लूट-पाट
करना था। बगदाद के खलीफा अल कादिर बिल्लाह ने महमूद गजनवी को यमीन-उद्-दौला’ तथा ‘ आमीन-उल-मिल्लाह’ की उपाधि प्रदान की। *महमूद गजनवी शिक्षित एवं सुसभ्य था। यह विद्वानों एवं का सम्मान करता था। उसने अपने समय के महान विद्वानों को गजनी में एकत्रित किया था। *उसका दरबारी इतिहासकार उत्बी था। उसने ‘किताब-उल- यामिनी’ अथवा ‘तारीख-ए-यामिनी’ नामक ग्रंथ की रचना की। इसके अतिरिक्त उसके दरबार में दर्शन, ज्योतिष और संस्कृत का उच्चकोटि का विद्वान अलबरूनी, ‘तारीख-ए-सुबुक्तगीन’ का लेखक वैहाकी, जिसे इतिहासकार लेनपूल ने ‘पूर्वी पेप्स’ की उपाधि दी थी, फारस का कवि उजारी, खुरासानी विद्वान तुसी एवं उन्सुरी, विद्वान अरुनदी और फार्रुखी प्रमुख व्यक्ति थे।
* शाहनामा का लेखक फिरदौसी है। यह महमूद गजनवी के दरबार का प्रसिद्ध विद्वान कवि था। इसे पूर्व के होमर की उपाधि दी जाती है। * फरिश्ता (1560-1620 ई.) ने तारीख-ए-फरिश्ता या गुलशन-ए-इब्राहिमी नामक किताब लिखी है। * इसका पूरा नाम मुहम्मद कासिम हिंदू शाह था। * इसकी किताब तारीख-ए-फरिश्ता बीजापुर के शासक इब्राहिम आदिल शाह को समर्पित थी।
* महमूद गजनी के साथ प्रसिद्ध इतिहासकार अलबरूनी 11वीं सदी में भारत आया था। उसकी पुस्तक ‘किताब-उल-हिंद’ से तत्कालीन भारत की सामाजिक सांस्कृतिक स्थिति की जानकारी मिलती है। पुराणों का अध्ययन करने वाला प्रथम मुसलमान अलवरूनी था। उसका जन्म 973 ई. में हुआ था। * वह खीवा (प्राचीन ख्वारिज्म) देश का रहने वाला था। * अलबरूनी मात्र इतिहासकार ही नहीं था, उसके ज्ञान और रुचियों की व्याप्ति जीवन के अन्य क्षेत्रों तक थी, जैसे-खगोलविज्ञान, भूगोल, तर्कशास्त्र, ओषधि-विज्ञान, गणित तथा धर्म और धर्मशास्त्र उसने संस्कृत का अध्ययन किया और अनेक संस्कृत रचनाओं का उपयोग किया जिसमें ब्रह्मगुप्त, बलभद्र तथा वाराहमिहिर की रचनाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उसने जगह-जगह भगवद्गीता, विष्णु पुराण तथा वायु पुराण को उद्धृत किया है। * अलबरूनी ने अरवी भाषा में ‘तहकीक-ए-हिंद’ की रचना की थी। * सर्वप्रथम एडवर्ड साची ने अरबी भाषा से इस ग्रंथा
का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में किया। *इसका अनुवाद हिंदी में रजनीकांत शर्मा द्वारा किया गया। *संस्कृत मुद्रालेख के साथ चांदी के सिक्के महमूद गजनवी ने जारी
किए थे। * महमूद गजनवी द्वारा जारी चांदी के सिक्कों के दोनों तरफ
दो अलग-अलग भाषाओं में मुद्रालेख अंकित थे। * ऊपरी भाग पर अंकित
मुख अरबी भाषा में था तथा दूसरी तरफ अंकित लेख संस्कृत भाषा देवनागरी लिपि में सिक्के के मध्य भाग में संस्कृत भाषा में लिखा था अवयक्तमेकम मुहम्मद अवतार नुरूपति महमूद।”
*मध्य एशिया के शासक शिहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने 1192 ई. में उत्तर भारत को जीता। शिहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी का प्रथम आक्रमण 1175 ई. में मुल्तान पर हुआ और 1205 ई. तक यह बराबर साम्राज्य विस्तार अथवा पूर्वविजित राज्य की रक्षा के लिए भारत पर चढ़ाई करता रहा
*1178 ई. में मुहम्मद गोरी ने गुजरात पर आक्रमण किया, किंतु मूलराज || या भीम | देवी के नेतृत्व में आबू पर्वत के निकट गोरी का मुकाबला किया और उसे अपनी योग्य एवं साहसी विश्वा मां नायिका परास्त कर दिया। यह गौरी की भारत में पहली पराजय थी। *1191 ई. में पृथ्वीराज चौहान और गोरी के मध्य तराइन का प्रथम युद्ध हुआ। *इस युद्ध में मुहम्मद गोरी की पराजय हुई। *1192 ई. में तराइन के द्वितीय युद्ध में मोहम्मद गोरी द्वारा पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद भारत में मुस्लिम शक्ति की स्थापना हुई। यह युद्ध भारतीय इतिहास में अत्यधिक महत्वपूर्ण था। * 1194 ई. में चंदावर के युद्ध में मुहम्मद गोरी ने कन्नौज के गहड़वाल राजा जयचंद को पराजित किया था। चंदावर वर्तमान फिरोजाबाद जिले में यमुना तट पर स्थित है। *मुहम्मद गोरी के सिक्कों पर देवी लक्ष्मी की आकृति बनी है और दूसरे तरफ कलना
(अरबी में ख़ुदा हुआ है। * गोरी की विजयों के बाद शीघ्र ही उत्तर भारत में इक्ता प्रथा स्थापित हो गईं। *1192 ई. में तराइन के द्वितीय युद्ध में कुतुबुद्दीन ऐबक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वस्तुतः 1192-1206 ई. तक उसने गौरी के प्रतिनिधि के रूप में उत्तरी भारत के विजित भागों का प्रशासन संभाला। * इस अवधि में ऐबक ने उत्तरी भारत में तुर्की शक्ति का विस्तार भी किया।
बिहार और उत्तरी बंगाल की विजय के बारे में गोरी अथवा ऐबक ने सोचा भी न था। इस कार्य को गोरी के एक साधारण दास इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने किया। उसने 1193 से 1202 ई. के मध्य में बिहार की विजय की तथा नालंदा एवं विक्रमशिला को तहस-नहस कर राजधानी उदन्तपुर पर कब्जा कर लिया। उसने 1198 से 1203 ई. के मध्य बंगाल पर आक्रमण किया। उस समय वहां का शासक लक्ष्मणसेन था। *वह बिना युद्ध किए ही भाग निकला। तुर्की सेना ने राजधानी नदिया में प्रवेश कर बुरी तरह लूट-पाट की। *राजा की अनुपस्थिति में नगर ने आत्मसमर्पण कर दिया। *लक्ष्मणसेन ने भाग कर पूर्वी बंगाल में शरण ली और वही कुछ समय तक शासन करता रहा। * इख्तियारुद्दीन ने भी संपूर्ण बंगाल को जीतने का प्रयत्न नहीं किया। * इख्तियारुद्दीन ने लखनौती को अपनी राजधानी बनाया। *प्रो. हबीब के अनुसार, तुर्की द्वारा उत्तर-पश्चिम की विजय ने क्रमशः ‘शहरी क्रांति’ और ‘ग्रामीण क्रांति को जन्म दिया।
दिल्ली सल्तनत : गुलाम वंश
नोट्स
*1206 से 1290 ई. तक दिल्ली सल्तनत के सुल्तान गुलाम वंश के सुल्तानों के नाम से विख्यात हुए, जिसका संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक था। * यद्यपि वे एक वंश के नहीं थे, वे सभी तुर्क थे तथा उनके वंश पृथक-पृथक थे। साथ ही, वे स्वतंत्र माता-पिता की संतान थे। अतः इन सुल्तानों को गुलाम वंश के सुल्तान कहने के स्थान पर प्रारंभिक तुर्क सुल्तान या दिल्ली के ममलूक सुल्तान कहना अधिक उपयुक्त है।
* भारत में गुलाम वंश का प्रथम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-10 ई.) था। * वह ऐबक नामक तुर्क जनजाति का था। * बचपन में उसे निशापुर के काजी फखरुद्दीन अब्दुल अजीज कूफी ने एक दास के रूप में खरीदा था।
* बचपन से ही अति सुरीले स्वर में कुरान पढ़ता था, जिस कारण वह कुरान वां (कुरान का पाठ करने वाला) के नाम से प्रसिद्ध हो गया। *बाद में वह निशापुर से गजनी लाया गया, जहां उसे गोरी ने खरीद लिया। *अपनी प्रतिभा, लगन और ईमानदारी के बल पर शीघ्र ही ऐबक ने गोरी का विश्वास प्राप्त कर लिया। *गोरी ने उसे अमीर-ए-आखूर के पद पर प्रोन्नत कर दिया। उसने अपना राज्याभिषेक गोरी के मृत्यु के तीन माह पश्चात जून, 1206 ई. में कराया था। *ऐबक की राजधानी लाहौर थी। *ऐबक ने कभी ‘सुल्तान’ की उपाधि धारण नहीं की। * उसने केवल ‘मलिक’ और ‘सिपहसालार की पदवियों से ही अपने को संतुष्ट रखा। * गोरी के उत्तराधिकारी गियासुद्दीन महमूद से मुक्ति-पत्र प्राप्त करने के बाद 1208 ई. में ऐबक को दासता से मुक्ति मिली।
* अपनी उदारता के कारण कुतुबुद्दीन ऐबक इतना अधिक दान करता था कि उसे ‘लाख बख्श’ (लाखों को देने वाला) के नाम से * ऐबक ने दिल्ली में ‘कुव्वत-उल-इस्लाम’ और अजमेर में ‘ढाई दिन का पुकारा गया। झोपड़ा’ नामक मस्जिदों का निर्माण कराया था। उसने दिल्ली में स्थित ‘कुतुबमीनार का निर्माण कार्य प्रारंभ किया, जिसे इल्तुतमिश ने पूरा
करवाया। फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में इसकी चौथी मंजिल को काफी हानि पहुंची थी, जिस पर फिरोज ने चौथी मंजिल के स्थान पर दो और मंजिलों का भी निर्माण करवाया। कुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु चौगान के खेल (आधुनिक पोलो की भांति का एक खेल में घोड़े से गिरने (
के दौरान 1210 ई. में हुई थी। उसे लाहौर में दफनाया गया। *दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान इल्तुतमिश था। उसने सुल्तान के पद की स्वीकृति खलीफा से प्राप्त की। खलीफा ने इल्तुतमिश के शासन की पुष्टि उस सारे क्षेत्र में कर दी, जो उसने विजित किया और
उसे ‘सुल्तान-ए-आजम’ की उपाधि प्रदान की। “गुलाम का गुलाम [ऐबक (जो स्वयं गुलाम था) का गुलाम ] इल्तुतमिश को कहा जाता था। * इल्तुतमिश ‘इत्यरी’ जनजाति का तुर्क देखा। “सुल्तान बनने से पहले वह बदायूँ का सूबेदार था। *1205-1206 ई. में खोक्खर जाति के विद्रोह को दबाने के लिए किए गए अभियान में वह मुहम्मद गोरी और ऐबक के साथ था। *युद्ध में उसने साहस और कौशल का परिचय दिया, जिससे प्रभावित होकर गोरी ने ऐबक को दासता से मुक्त करने का आदेश दिया।
मंगोल नेता चंगेज खां भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर इल्तुतमिश के शासनकाल में आया था। चंगेज खां के प्रकोप से रक्षार्थ ख्वारिज्म शाह का पुत्र जलालुद्दीन भंगबरनी सिंधु घाटी पहुंचा। *संभवतः चंगेज खां ने इल्ततुमिश के पास अपने दूत भेजे थे कि वह मंगबरनी की सहायता न करे, अतः इल्तुतमिश ने उसकी कोई सहायता न की और जब मंगवरनी 1224 ई. में भारत से चला गया, तो इस समस्या का समाधान हो गया।
* इल्तुतमिश ने बिहार शरीफ एवं बाद पर अधिकार कर राजमहल की पहाड़ियों में तेलियागढ़ी के समीप हिसामुद्दीन ऐवाज को पराजित किया। *ऐवाज ने इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार कर ली। इल्तुतमिश
ने ऐवाज के स्थान पर मलिक जानी को बिहार का सूबेदार नियुक्त किया। * इल्तुतमिश ने ही भारत में सल्तनत काल में सर्वप्रथम शुद्ध अरबी सिक्के चलाए थे। *सल्तनत युग के दो महत्वपूर्ण सिक्के चांदी का टंका (175 ग्रेन) और तांबे का जीतल उसी ने आरंभ किए तथा सिक्कों पर टकसाल का नाम लिखवाने की परंपरा शुरू की। *1229 ई. में इल्तुतमिश को बगदाद के खलीफा से खिलअत’ का प्रमाण-पत्र प्राप्त हुआ, जिससे इल्तुतमिश वैध सुल्तान और दिल्ली सल्तनत स्वतंत्र राज्य बन गया।
* इब्नबतूता के वर्णन से ज्ञात होता है कि इल्तुतमिश ने अपने महल के सामने संगमरमर की दो शेरों की मूर्तियां स्थापित कराई थी, जिनके गले में दो घंटियां लटकी हुई थीं, जिनको बजाकर कोई भी व्यक्ति सुल्तान से न्याय की मांग कर सकता था। इल्तुतमिश ने सभी शहरों में काजी और अमीरदाद नामक अधिकारी नियुक्त किए थे। *डॉ. आर. पी. त्रिपाठी के अनुसार, भारत में मुस्लिम संप्रभुता का इतिहास इल्तुतमिश से आरंभ होता है। *सर वूल्जले हेग के अनुसार, इल्तुतमिश गुलाम शासकों में सबसे
ल महान था। *डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, इल्तुतमिश, निस्संदेह वंश का वास्तविक संस्थापक था। *मध्यकालीन भारत की प्रथम महिला शासिका रजिया
रने (1236-40) थी। *व्यक्तिगत दृष्टि से उसने भारत में पहली संबंध में इस्लाम की परंपराओं का उल्लंघन किया और राजनीतिक बार न उसने राज्य की शक्ति को सरदारों अथवा सूबेदारों में विभाजित के स्थान पर सुल्तान के हाथों में केंद्रित करने पर बल दिया तथा इस करम र उसने इल्तुतमिश के संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न राजतंत्र के सिद्धांत का समर्थन जो उस समय की परिस्थितियों में तुर्की राज्य के हित में था। न] को सत्ताच्युत करने में तुर्कों का हाथ था। *उन्होंने भटिंडा के गवर्नर क अल्तूनिया के नेतृत्व में रजिया के विरुद्ध विद्रोह कर उसे सत्ता से था। *सुल्तान बलबन का पूरा नाम गयासुद्दीन बलबन था। * बलबन में में से 1286 ई. तक सुल्तान के रूप में सल्तनत की बागडोर संभाली। उलूग खां के नाम से भी जाना जाता है। उसका वास्तविक नाम बहा ा था। *इल्तुतमिश की भांति वह भी इल्बरी तुर्क था। *बलवन बचपन में मंगोलों द्वारा पकड़ लिया गया था, जिन्होंने उसे गजनी में बसरा के नि ख्वाजा जमालुद्दीन के हाथों बेच दिया। अनंतर 1232 ई. में उसे लाया गया, जहां इल्तुतमिश ने 1233 ई. में ग्वालियर विजय के न उसे खरीदा। *उसकी योग्यता से प्रभावित होकर इल्तुतमिश ने उसे का पद दिया। *रजिया के काल में वह अमीर-ए-शिकार के पद पर प खसदार 12 * रजिया)
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गया। *रजिया के विरुद्ध षड्यंत्र में उसने तुर्कीी सरदारी का साथ दि फलस्वरूप बहरामशाह सुल्तान बनने के बाद उसे अमीर-ए-आखूर पद मिला। *बदरुद्दीन रूमी की कृपा से उसे रेवाड़ी की जागीर ि *मसूदशाह को सुल्तान बनाने में उसने तुकी अमीरी का साथ दिया फलस्वरूप उसे हांसी की सूबेदारी दी गई। *1249 ई. में बलबन ने पुत्री का विवाह सुल्तान नासिरुद्दीन से किया। इस अवसर पर उस खां’ की उपाधि और नायब-ए-ममलिकात का पद दिया गया। *1266 में बलबन दिल्ली की राजगद्दी पर आसीन हुआ था। अपने
*बलबन के विषय में कहा गया है कि उसने रक्त और लौह नीति अपनाई थी। * बलबन के राजत्व सिद्धांत की दो मुख्य विशेषताएं थीं- प्रथम, सुल्तान का पद ईश्वर के द्वारा प्रदत्त होता है और द्वितीय सुल्तान का निरंकुश होना आवश्यक है।
* बलबन ने फारस के लोक-प्रचलित वीरों से प्रेरणा लेकर अम राजनीतिक आदर्श निर्मित किया था। *उनका अनुकरण करते हुए उन उसने राजत्व की प्रतिष्ठा को उच्च सम्मान दिलाने का प्रयत्न किया। *राजा को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि ‘नियामत-ए-खुदाई’ माना गया। *उसो अनुसार मान-मर्यादा में वह केवल पैगंबर के बाद है। *राजा ‘जिल्ले अल्लाह’ या ‘जिल्ले इलाही’ अर्थात ‘ईश्वर का प्रतिबिंब’ है। *वह दिल्ली • प्रथम सुल्तान था, जिसने राजत्व संबंधी सिद्धांतों की स्थापना की। उसने अपने पुत्र बुगरा खां से कहा था- “सुल्तान का पद निरंकुशता सजीव प्रतीक है।”
*बलबन ने ईरानी बादशाहों के कई परंपराओं को अपने दरबार में रंभ किया। उसने सिजदा (भूमि पर लेटकर अभिवादन करना) और बोस (सुल्तान के चरणों को चूमना) की रीतियां आरंभ की। उसने अपने 1 रबार में प्रति वर्ष फारसी त्यौहार ‘नौरोज’ बड़ी शानो-शौकत के साथ नाने की प्रथा आरंभ की।
*मंगोलों से मुकाबला करने के लिए बलबन ने एक सैन्य विभाग दीवान-ए-अर्ज’ की स्थापना की थी। * बलबन ने अपना सेना मंत्री दीवान-ए-अर्ज) इमाद-उल-मुल्क को बनाया था, जो अत्यंत ईमानदार र परिश्रमी व्यक्ति था। *बलबन ने उसे वजीर के आर्थिक नियंत्रण से क्त रखा ताकि उसे धन की कमी न हो।
खिलजी वंश
नोट्स
*जलालुद्दीन खिलजी ने 1290 ई. में खिलजी वंश की स्थापना की। * इसने अपना राज्याभिषेक 1290 ई. में कैकुबाद द्वारा बनवाए गए अपूर्ण किलोखरी (कीलूगढ़ी) के महल में करवाया था। *डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव के अनुसार, जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली का प्रथम तुर्की सुल्तान था, जिसने उदार निरंकुशवाद के आदर्श को अपने सामने रखा। *जलालुद्दीन जब दिल्ली का सुल्तान बना, तब उसने अलाउद्दीन को ‘अमीर-ए-तुजुक’ का पद दिया तथा अपनी पुत्री का विवाह अलाउद्दीन से किया। * मलिक छज्जू के विद्रोह को दबाने में महत्वपूर्ण भूमिका के कारण अलाउद्दीन खिलजी को कड़ा-मानिकपुर की सूबेदारी प्राप्त हुई। * अलाउद्दीन दिल्ली का पहला सुल्तान था, जिसने धर्म पर राज्य का नियंत्रण स्थापित किया। * उसने अपने आपको ‘यामिन-उल-खिलाफत नासिरी अमीर-उल-मुमनिन’ बताया। * वह उलेमा वर्ग के प्रभाव से मुक्त रहा। *अलाउद्दीन खिलजी एक महत्वाकांक्षी सुल्तान था। * उसने ‘सिकंदर द्वितीय सानी’ की उपाधि
धारण की और उसे अपने सिक्को पर अंकित करवाया अलादीन का प्रसिद्ध सेनापति जफर खां मंगोलों के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया, जो अपने समय का श्रेष्ठ और साहसी सेनापति था। पद्मिनी राणा रतन सिंह की पत्नी थी, अलाउद्दीन खिलजी के मेवाड़ की राजधानी वित्ती पर आक्रमण के दौरान राणा रतन सिंह की मृत्यु हो जाने के कारण रानी पदमिनी ने जौहर कर लिया था। पद्मिनी की कहानी का आधार 1540-
ई. में मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा लिखित काव्य-पुस्तक ‘पद्मावत’ है। *अलाउदीन के शासनकाल के प्रारंभ में कुछ विद्रोह हुए। इन विद्रोह के कारणों पर विचार करके अलाउद्दीन खिलजी ने इसे समाप्त करने के लिए चार आध्यादेश जारी किए। पहले अध्यादेश के द्वारा उपहार पेंशन, दान में प्राप्त भूमि आदि व्यक्तियों से वापस ले ली गई तथा सरकारी अधिकारियों को सभी व्यक्तियों से अधिकाधिक कर लेने का आदेश दिए गए। दूसरे अध्यादेश के अनुसार, गुप्तचर विभाग का संगठन किया। * तीसरे अध्यादेश के अनुसार, मादक द्रव्यों (शराब, भाग आदि) का प्रयोग तथा जुआ खेलने पर रोक लगा दी गई। चौथे अध्यादेश द्वारा
सरदारों एवं अमीरों की दावतों, विवाह संबंधों पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
* अलाउद्दीन के आक्रमण के समय देवगिरि का शासक रामचंद्रदेव था। *1296 ई. में देवगिरि के शासक रामचंद्रदेव ने अलाउद्दीन के सफल आक्रमण से बाध्य होकर उसे प्रति वर्ष एलियपुर की आय भेजने का वायदा किया था, परंतु 1305 ई. अथवा 1306 ई. में उसने उस कर को दिल्ली नहीं भेजा। *जिस कारण 1307 ई. में अलाउद्दीन ने मलिक काफूर के नेतृत्व में एक सेना देवगिरि पर आक्रमण करने के लिए भेजी। * राजा रामचंद्रदेव युद्ध में पराजित हुआ और उसने आत्मसमर्पण कर दिया। *अलाउद्दीन ने रामचंद्रदेव के प्रति सम्मानपूर्ण व्यवहार किया तथा उसे ‘राय रायन’ की उपाधि दी। छः माह पश्चात उसे एक लाख सोने का टंका और नवसारी का जिला देकर उसके राज्य वापस भेज दिया गया। * 1312 ई. में मलिक काफूर ने रामचंद्र के पुत्र शंकरदेव के विरुद्ध भी एक अभियान का नेतृत्व किया था। *मलिक काफूर को अलाउद्दीन ने अपनी गुजरात विजय के दौरान प्राप्त किया था। *इसे ‘हजार-दीनारी’
भी कहा जाता था। * अलाउद्दीन पहला सुल्तान था, जिसने भूमि की पैमाइश करा कर
लगान वसूल करना आरंभ किया। *अपनी व्यवस्था को लागू करने के लिए 1 अलाउद्दीन ने एक पृथक विभाग “दीवान-ए-मुस्तखराज की स्थापना की। * अलाउद्दीन ने परंपरागत लगान अधिकारियों (खुत्त, मुकद्दम एवं चौधरी) से लगान वसूल करने का अधिकार छीन लिया था। उनके सारे विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए। उनकी भूमि पर से कर लिया जाने लगा और बाकी अन्य सभी कर भी लिए गए, जिसके कारण खुत्त (जमींदार) और बलाहार (साधारण किसान) में कोई अंतर नहीं रहा। * अलाउद्दीन की राजस्व और
लगान व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य एक शक्तिशाली और निरंकुश राज्य स्थापना करना था। *उसने उन सभी व्यक्तियों से भूमि छीन ली वह मिल्क (राज्य द्वारा प्रदत्त संपत्ति, ईनाम, इंदरात, पेशन) तथा (धर्मार्थ प्राप्त हुई भूमि) आदि के रूप में मिली थी, फलतः खाशित भ अधिक पैमाने पर विकसित हुई। *अलाउद्दीन खिलजी ने उपज का 500 भूमिकर (खराज) के रूप में निश्चित किया। *अलाउद्दीन खिलजी का प्रथम मुस्लिम शासक था, जिसने भूमि की वास्तविक आय पर निश्चित किया था।
* अलाउद्दीन ने बाजार नियंत्रण या मूल्य नियंत्रण की नाति लागू *अलाउद्दीन ने अपने बाजार नियंत्रण की सफलता के लिए कुशल कर्म नियुक्त किए। उसने मलिक कबूल को शहना या बाजार का अधीक्षक नि किया। बरनी इन बाजार सुधारों का उद्देश्य मंगोलों के विरुद्ध एक सेना तैयार करना तथा हिंदुओं में विद्रोह के विचार न पनपने देना है। सल्तनतकालीन शासक अलाउद्दीन खिलजी ने ‘सार्वजनिक ि प्रणाली’ प्रारंभ की थी। * अलाउद्दीन खिलजी द्वारा लगाए गए दो नवीन कर थे- ‘घरी कर’ जो कि घरों एवं झोपड़ियों पर लगाया जाता था त ‘चराई कर’, जो कि दुधारू पशुओं पर लगाया जाता था। बता
*1306 ई. के बाद अलाउद्दीन खिलजी के समय में दिल्ली एवं मंगोलों के बीच सीमा रावी नदी थी। *सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के समय में शिर मुगल के नेतृत्व में (1325 ई.) मंगोल सेना ने सिंधु के अवश्य पार किया था, लेकिन समाना के सूबेदार मलिक शादी मे हरा दिया था। मुबारक खिलजी ने स्वयं को खलीफा घोषित किया * ‘अल-इमाम’, ‘उल-इमाम’, ‘खलाफत उल-लह’ आदि उपाधियां धारण की 7 इसने अपने नाम का जिनके वह सर्वथा अयोग्य था। * नासिरुद्दीन खुसरवशाह (15 अप्रैल से सितंबर, 1320) हिंदू से परिवर्तित मुसलमान था। * खुतबा पढ़वाया तथा ‘पैगम्बर का सेनापति’ की उपाधि ग्रहण की। * इसके विरोधियों ने इसे ‘इस्लाम का शत्रु’ और ‘इस्लाम खतरे में है’ का नाम • दिया।
तुगलक वंश
नोट्स
* अलाउद्दीन के सेनापतियों में गयासुद्दीन तुगलक या गाजी मलिक तुगलक वंश का प्रथम शासक था। *उसने तुगलक वंश की स्थापना की। * उसकी माता हिंदू जाट महिला थी तथा पिता एक करौना तुर्क था, जो बलबन का दास था। *गयासुद्दीन तुगलक अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में कई महत्वपूर्ण अभियानों का अध्यक्ष था तथा उसे दीपालपुर का राज्यपाल
नियुक्त किया गया था। *29 अवसरों पर उसने मंगोलों के विरुद्ध युद्ध किया, उन्हें भारत से बाहर खदेड़ा, इसलिए वह ‘मलिक-उल-गाजी’ के नाम से नसिद्ध हुआ। खुसरो शाह को समाप्त करके उसने दिल्ली के सिंहासन पर अधिकार कर लिया तथा 8 सितंबर, 1320 ई. को सुल्तान बना। * इसका एक नाम गाजी वेग तुगलक या गाजी तुगलक भी था, इसी कारण इतिहास में उसके उत्तराधिकारियों को भी ‘तुगलक’ पुकारा जाने लगा और उसका वंश तुगलक वंश कहलाया।
गयासुद्दीन तुगलक के समय में लगान किसानों से पहले की तरह पैदावार का 1/5 से 1/3 भाग वसूल किया जाने लगा। *आवश्यकतानुसार – अकाल की स्थिति में भूमि कर को माफ किया जा सकेगा। राजस्व वसूली में सरकारी कर्मचारियों को हिस्सा न देकर कर मुक्त जागीरें दी गई। * गयासुद्दीन तुगलक के समय ‘नस्ल’ एवं ‘बटाई’ की प्रथा प्रचलन में रही। * अलाउद्दीन के समय की कठोर दण्ड व्यवस्था समाप्त कर दी गई, परंतु कर न देने वालों, सरकारी धन की बेईमानी करने वालों और चोरों को कठोर दण्ड दिए गए। * बरनी के अनुसार, तुगलकशाह के न्याय से भेड़िए को भी इस बात का साहस नहीं होता था कि वह किसी भेड़ की ओर देखे।
* दिल्ली सल्तनत के सभी सुल्तानों में मुहम्मद बिन तुगलक (1325- 1351 ई.) सर्वाधिक विद्वान एवं शिक्षित शासक था। *वह खगोलशास्त्र, गणित एवं आयुर्विज्ञान सहित अनेक विधाओं में निपुण था ।
* मुहम्मद बिन तुगलक ने कृषि की उन्नति के लिए एक नए विभाग ‘दीवान-ए-अमीर-ए-कोही’ की स्थापना की। * इस विभाग का मुख्य कार्य कृषकों को प्रत्यक्ष सहायता देकर अधिक भूमि कृषि कार्य के अधीन लाना था। * 60 वर्ग मील की भूमि का एक लंबा टुकड़ा इस कार्य के लिए चुना गया। *भूमि पर कृषि सुधार किए गए और फसल चक्र के अनुरूप हेर-फेर के साथ विभिन्न फसलों की खेती की गई।
* मुहम्मद तुगलक के प्रयोगों में एक सबसे महत्वपूर्ण था, राजधानी दिल्ली से दौलताबाद (देवगिरि) ले जाना। ‘इब्नबतूता के अनुसार, सुल्तान को दिल्ली के नागरिक असम्मानपूर्ण पत्र लिखते थे, इसलिए उन्हें दण्ड देने के लिए उसने देवगिरि को राजधानी बनाने का निर्णय लिया। *डॉ. के.ए. निजामी के अनुसार, सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी ने देवगिरि का नाम कुतबाबाद रखा तथा मुहम्मद तुगलक ने दौलताबाद। *देवगिरि को कुव्वत-उल इस्लाम भी कहा गया।
*मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने सिक्कों पर अल सुल्तान जिल्ली अल्लाह’ (सुल्तान ईश्वर की छाया है), ‘ईश्वर सुल्तान का समर्थक है’ आदि वाक्य अंकित करवाया। * मुहम्मद बिन तुगलक के द्वारा जारी स्वर्ण सिक्कों को इब्नबतूता द्वारा ‘दीनार’ की संज्ञा दी गई थी। *बरनी, मुहम्मद तुगल की पांच मुख्य योजनाओं का विशेष रूप से उल्लेख करता है- (1) दोआब कर की वृद्धि. (2) देवगिरि को राजधानी बनाना, (3) सांकेतिक मुद्रा जा करना, (4) खुरासान पर आक्रमण और (5) कराचिल की ओर अभिया
*इनबतूता 1333-1347) मोरक्को मूल का अफ्रीकी यात्री था * मुहम्मद बिन तुगलक के कार्यकाल (1325-51) में भारत आया। *मुहम्मद बिन तुगलक ने इसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया था। बाद में 1342 ई. में उसे सुल्तान का राजदूत बनाकर चीन भेजा गया। इब्नबतूता ने किताब उत-रेहला नामक अपनी पुस्तक में अपनी यात्रा का विवरण प्रस्तुत किया है। सल्तनत काल में डाक व्यवस्था का विस्तृत विवरण
हमें इब्नबतूता के यात्रा वृत्तांत द्वारा प्राप्त होता है। *दिल्ली के सुल्तानों में मुहम्मद बिन तुगलक प्रथम सुल्तान था, जो हिंदुओं के त्यौहारों, मुख्यतया होली में भाग लेता था। उसने गैर-तुर्की और भारतीय मुसलमानों को भी सरकारी पदों पर नियुक्त किया था। “जिसके कारण बरनी ने उसकी कटु आलोचना की और ऐसे व्यक्तियों को छिछोरा, माली, जुलाहा, नाई, रसोइया आदि कहा। *20 मार्च, 1351 को मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु हो गई। उसके निधन पर बदायूंनी ने लिखा है, “सुल्तान को उसकी प्रजा से और प्रजा को अपने सुल्तान से मुक्ति मिल गई।”
* फिरोज शाह तुगलक ने सामान्य लोगों की भलाई के लिए कुछ उपकार के कार्य किए। *नियुक्ति के लिए एक दफ्तर (रोजगार दफ्तर) खोलकर तथा प्रत्येक मनुष्य के गुण एवं योग्यता की पूरी जांच-पड़ताल के बाद यथासंभव अधिक-से-अधिक लोगों को नियुक्ति देकर उसने बेकारी (बेरोजगरी) की समस्या को हल करने का प्रयास किया। फिरोज शाह प्र तुगलक संतों एवं धार्मिक व्यक्तियों को जागीर एवं संपत्ति दान करता था। उसने एक विभाग ‘दीवान-ए-खैरात’ स्थापित किया था, जो गरीब मुसलमानों, अनाथ स्त्रियों एवं विधवाओं को आर्थिक सहायता देता था और निर्धन मुसलमान लड़कियों के विवाह की व्यवस्था करता था। *राज्य के खर्च पर हज की व्यवस्था करने वाला पहला भारतीय शासक फिरोज तुगलक था। उसने ‘दारुलशफा’ नामक एक खैराती अस्पताल की स्थापना भी की और उसमें कुशल हकीम रखे। फिरोज शाह तुगलक ( को दासों का बहुत शौक था। उसके दासों की संख्या संभवतः एक लाख अस्सी हजार तक पहुंच गई थी। उनकी देखभाल के लिए एक पृथक व विभाग (‘दीवान-ए-बंदगान) का गठन किया गया था।
* सल्तनत काल में सर्वप्रथम फिरोज शाह तुगलक ने ही लोक निर्माण विभाग की स्थापना की थी। कहा जाता है कि फिरोज ने 300 नवीन नगरों का निर्माण कराया। उसके द्वारा बसाए नगरों में फतेहाबाद, हिसार, फिरोजपुर, जौनपुर और फिरोजाबाद प्रमुख थे। *फरिश्ता के अ अनुसार फिरोज ने 40 मस्जिदें, 30 विद्यालय, 20 महल, 100 सराएं, 200 नगर, 100 अस्पताल, 5 मकबरे, 100 सार्वजनिक स्नानगृह, 10 स्तंभ और 150 पुलों का निर्माण कराया था। * अपने बंगाल अभियान के दौरान उसने इकदला का नया नाम आजादपुर तथा पंडुआ का नया नाम दि
फिरोजाबाद रखा। उसके राज्य का मुख्य वास्तुकार (Architect) गाजी शहना था। *प्रत्येक भवन की योजना को उसके साथ ‘दीवान-ए-विजारत’ के सम्मुख रखा जाता था तभी 7 स्वीकार किया जा सकता था। का शासनकाल भारत में नहरों के व्यय अनुमान
* फिरोज तुगलक जाल का निर्माण करने के कारण प्रसिद्ध रहा। लिए उसने पांच बड़ी नहरों का निर्माण कराया। (i) प्रथम नहर 150 मील लंबी थी, जो यमुना नदी का पानी तक ले जाती थी। * सिंचाई की
(ii) दूसरी 96 मील लंबी थी, जो सतलज से घाघरा तक ज (iii) तीसरी सिरमौर की पहाड़ियों से निकल कर हांसी तक (iv) चौथी घाघरा से फिरोजाबाद तक थी।
(v) पांचवीं यमुना नदी से फिरोजाबाद तक थी। * फिरोज तुगलक ने सिंचाई और यात्रियों की सुविधा के लिए 19 कुए भी खुदवाए। फरिश्ता के अनुसार, फिरोज ने सिंचाई की सुविधा के – विभिन्न स्थानों पर 50 बांधों और 30 झीलों अथवा जल को संग्रह करने है • लिए तालाबों का निर्माण करवाया। *फिरोज तुगलक उलेमा वर्ग की न के पश्चात ‘हक्क-ए-शर्व’ नामक सिंचाई कर लगाने वाला दिल्ली ■ सुल्तान था। उन किसानों को, जो सिंचाई के लिए शाही नहरों का प्रयोग में लाते थे, अपनी पैदावार का 1/10 भाग सरकार को देना पड़ता थ *फिरोज तुगलक द्वारा ब्राह्मणों पर भी जजिया लगाया गया * उल्लेखनीय है कि उस समय तक ब्राह्मण इस कर से मुक्त रखे गए थे।
* फिरोज शाह तुगलक ने बागवानी में अपनी अभिरुचि के कारण दिलं
के निकट 1200 नए फलों के बाग लगाए। *उसने अपने बागों में फलों के ■ गुणवत्ता सुधारने के भी उपाय किए थे। *फिरोज शाह तुगलक द्वारा अशोक के दो स्तंभों को मेरठ एवं टोपरा = (अब अम्बाला जिले में) से दिल्ली लाया गया। *टोपरा वाले स्तंभ को महत ■ तथा फिरोजाबाद की मस्जिद के निकट पुनः स्थापित कराया गया। * मेरठ
-
वाले स्तंभ को दिल्ली के वर्तमान बाड़ा हिंदू राव अस्पताल के निकट एक टीले
करके शिकार या आखेट -स्थान के पास पुनः स्थापित कराया गया।
* दिल्ली के सुल्तान फिरोज तुगलक ने इस उद्देश्य से एक अनुवाद विभाग’ की स्थापना की थी कि उससे हिंदू एवं मुस्लिम दोनों संप्रदायों के लोगों में एक-दूसरे के विचारों की समझ बेहतर हो सके। *उसने कुछ संस्कृत ग्रंथों का फारसी में अनुवाद भी करवाया।
* नासिरुद्दीन महमूद (1394-1412 ई.) तुगलक वंश का अंतिम शासक था। * इसके शासनकाल में खाजा जहां ने जौनपुर के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। पंजाब का सूबेदार खिज्र खां स्वतंत्र होकर दिल्ली को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करने लगा। *फिरोज के एक अन्य पुत्र नुसरत शाह ने nasruddin
को चुनौती दी। * फलस्वरूप तुगलक वंश दो भागों में विभाजित हो गया और दोनों शासकों ने एक ही साथ दिल्ली के छोटे से राज्य पर शासन किया। *नासिरुद्दीन दिल्ली में रहा और नुसरत शाह फिरोजाबाद में। * नासिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में मध्य एशिया के महान मंगोल सेनानायक तैमूर ने भारत पर आक्रमण (1398 ई.) किया। *यह कथन इसी शासक के लिए प्रचलित था-‘शहंशाह की सल्तनत दिल्ली से पालम तक फैली हुई है।’ * तैमूर के आक्रमण (1398 ई.) ने दिल्ली सल्तनत एवं तुगलक वंश दोनों को ही नष्ट कर दिया। *1412 ई. में नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु ही तुगलक वंश का अंत हो गया। * 1413 ई. में सरदारों ने दौलत खां को के साथ दिल्ली का सुल्तान चुना। *परंतु उसे खिज्र खां ने पराजित कर दिया। * वह तैमूर द्वारा नियुक्त लाहौर का सूबेदार था। * तैमूर के आक्रमण के बाद 1414 ई. में उसने दिल्ली पर अधिकार कर एक नए वंश सैयद वंश की नींव डाली।
विजयनगर साम्राज्य
नोट्स
*विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर तथा बुक्का ने 1336 ई. में की थी। उनके पिता संगम के नाम पर उनका वंश संगम वंश कहलाया। *हरिहर और बुक्का काम्पिली राज्य में मंत्री थे। * मुहम्मद तुगलक ने जब काम्पिली को विजित किया तब हरिहर और बुक्का को बंदी बना लिया। इन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। बाद में उन्हें तुगलक सेनापति के रूप में दक्षिण भेजने का निश्चय किया। हरिहर और बुक्का तुगलक सेना के साथ काम्पिली आए और उन्होंने काम्पिली विद्रोह का दमन किया। अंत में एक संत विद्यारण्य के प्रभाव में आकर पुनः हिंदू बन गए। विजयनगर को संस्थापित करने के लिए हरिहर एवं बुक्का ने अपने गुरु विद्यारण्य तथा वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार सायण से शिक्षा ली थी। इस साम्राज्य के चार राजवंशों संगम वंश (1336-1485), सालुय वंश (1485-1505), तुलुव वंश (1505-1570) एवं अरावीड वंश ने लगभग 300 वर्षों तक शासन किया। विजयनगर साम्राज्य की राजधानिया क्रमशः अनेगोंडी, विजयनगर, वेनुगोंडा तथा चंद्रगिरि थीं।
*1352-53 ई. में हरिहर-1 ने मदुरा विजय हेतु दो सेनाएं भेजी एक कुमार सबल के नेतृत्व में तथा दूसरी कुमार कंपन के नेतृत्व में। *कुमार कंपन अडयार ने मदुरा को जीतकर उसे विजयनगर में शामिल कर लिया। उसकी पत्नी गंगादेवी ने अपने पति की विजय का अपने ग्रंथ ‘मदुरा विजयम्’ में सजीव वर्णन किया है। *कुमार कंपन बुक्का राय प्रथम का पुत्र था। *1377 ई. में बुक्का की मृत्यु के बाद उसका पुत्र हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.) सिंहासन पर बैठा। उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। उसने कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, कांची आदि प्रदेशों को जीता और श्रीलंका के राजा से राजस्व वसूल किया। हरिहर द्वितीय की सबसे बड़ी सफलता पश्चिम में बहमनी राज्य से बेलगांव और गोवा छीनना था। * वह शिव के विरुपाक्ष रूप का उपासक था।
* चंद्रगिरि के सामत नरसिंह सालुव ने संगम वंश के अंतिम शासक प्रौढ़ देवराय को पदच्युत करके 1485 ई. में सिंहासन पर अधिकार कर लिया एवं एक नवीन राजवंश सालुव वंश की स्थापना की। वीर नरसिंह ने नरसिंह सालुव के पुत्र (इम्माडि नरसिंह, सालुव वंश का अंतिम शासक) को पदच्युत करके सिंहासन पर अधिकार कर लिया एवं तुलुव वंश की नींव डाली। * 1509 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका अनुज कृष्णदेव राय (1509-29 ई.) सिंहासनासीन हुआ। *कृष्णदेव राय का उत्तराधिकारी उसका
भाई अच्युतदेव राय हुआ, जिसने 1529 से 1542 ई. तक शासन किया। * विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय ने गोलकुंडा का युद्ध गोलकुंडा के सुल्तान कुली कुतुबशाह के साथ लड़ा था। जिसमें कुतुबशाही सेना पराजित हुई। कृष्णदेव राय का शासनकाल विजयनगर में साहित्य का स
क्लासिकी युग माना जाता है। उसके दरबार को तेलुगू के विद्वान एवं कवि (जिन्हें अष्ट दिग्गज कहा जाता है) सुशोभित * इसलिए इसके शासनकाल को तेलुगू साहित्य का स्वर्ण युग भी है। कृष्णदेव राय ने ‘आंध्र भोज’ की उपाधि धारण की थी। * स्वयं एक उत्कृष्ट कवि और लेखक थे। उनकी प्रमुख रचना-3 थी, जो तेलुगू भाषा के पांच महाकाव्यों में से एक है। उसने नामक नगर की स्थापना की। उसने हजारा एवं विदुलस्वामी मंदिर का निर्माण भी करवाया था। *उसके समय में पुर्तगाली यात्री पायस’ ने विजयनगर साम्राज्य की यात्रा की। बाबर ने अपनी आत्म कृष्णदेव राय को भारत का सबसे शक्तिशाली शासक बताया है।। राजदूत अब्दुल रज्जाक संगम वंश के सबसे प्रतापी शासक देवरा के शासनकाल में विजयनगर आया था। महाभारत के तेलुगू अनुवाद कार्य 11वीं शताब्दी में नन्नय ने प्रारंभ किया था, जिसे 13वीं शताब्दी टिक्कन द्वारा तथा फिर 14वीं शताब्दी में येन द्वारा पूरा किया *ये तीनों तेलुगू साहित्य के कवित्रय के रूप में विख्यात है। वैदिक के भाष्यकार सायण को विजयनगर राजाओं का आश्रय मिला। जनवरी 1565 ई. में तालीकोटा के प्रसिद्ध युद्ध में बीजापुर, अहमदनगर, ग और बीदर की संयुक्त सेनाओं ने विजयनगर को पराजित किया।। संयुक्त सेना में केवल बरार शामिल नहीं था। *फरिश्ता के अनुसार युद्ध तालीकोटा में लड़ा गया किंतु युद्ध का वास्तविक क्षेत्र राक्षसी तंगड़ी नामक दो ग्रामों के बीच स्थित था। *तालीकोटा के युद्ध के सम स्थापन विजयनगर का शासक सदाशिव राय (1542-1570 ई.) था, किंतु वास्तविक शक्ति उसके मंत्री रामराय के हाथों में थी। *अरावीडु वंश की 1570 के लगभग तिरुमल ने सदाशिव को अपदस्थ कर पेनुकोंडा में थी। * इसका उत्तराधिकारी रंग प्रथम हुआ। *रंग प्रथम के बाद वेंकट द्वितीय शासक हुआ। उसने चंद्रगिरि को अपना मुख्यालय बनाया। *विजयनगर के महान शासकों की श्रृंखला में यह अंतिम वंश था। *वेंकट II राजा वोडियार का समकालीन था, जिन्होंने 1612 ई. में मैसूर राज्य की स्थापना की थी। * विजयनगर राज्य में राजस्व का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत भूमि का था। *भूमि का भली-भांति सर्वेक्षण किया जाता था। सामान्यतः भू-राजद की दर उपज के 1/3 अंश से 1/6 अंश तक थी। इसका निर्धारण भूमि की श्रेणी और फसल की उत्कृष्टता के आधार पर किया जाता था। * शिष्ट (राय-रेखा) नामक कर राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। *केंद्रीय राजस्व विभाग को ‘अठावने’ (अस्थवन या अथवन) कहा जाता था। R
* हम्पी के खंडहर (वर्तमान उत्तरी कर्नाटक में अवस्थित) विजयनगर साम्राज्य की प्राचीन राजधानी का प्रतिनिधित्व करते हैं। *विजयनगर काल में बना विरुपाक्ष मंदिर यहीं पर अवस्थित है। हम्पी यूनेस्को की विश्व विरासत स्थलों की सूची में भी सम्मिलित है। *विट्ठल मंदिर (हम्पी) का निर्माण विजयनगर साम्राज्य के तुलुव वंश के महाप्रतापी राजा कृष्णदेव राय (1509-29 ई.) ने करवाया था। *इस मंदिर में स्थित 56 तक्षित स्तंभ संगीतमय स्वर निकालते हैं।
दिल्ली सल्तनत प्रशासन :
नोट्स
* गुलाम वंश के सुल्तानों ने 1206 से 1290 ई. तक शासन किया। * खिलजी वंश ने 1290 से 1320 ई. तक शासन किया। *तुगलक वंश के शासकों ने 1320 से 1412 ई. तक शासन किया। सैयद वंश ने 1414 से 1451 ई. तक शासन किया था। लोदी वंश के शासकों ने 1451 से 1526 ई. तक शासन किया। *इसमें तुगलक वंश का शासन सबसे दीर्घकालिक था।
* सल्तनत काल के अधिकांश अमीर एवं सुल्तान तुर्क वर्ग के थे। * सुल्तान केंद्रीय शासन का प्रधान था। * इसी तरह सल्तनत काल में प्रायः सभी प्रभावशाली पदों पर नियुक्त व्यक्तियों को अमीर की संज्ञा दी जाती थी। * इन अमीरों का प्रभाव उस समय अधिक होता था, जब सुल्तान अयोग्य और निर्बल अथवा अल्पवयस्क होता था।
* प्रशासनिक विभाग एवं इसे प्रारंभ करने वाले शासक निम्न हैं- दीवान-ए-मुस्तखराज (राजस्व विभाग)- अलाउद्दीन खिलजी दीवान-ए-रियासत (बाजार नियंत्रण विभाग)- अलाउद्दीन खिलजी दीवान-ए-अमीरकोही (कृषि विभाग )- मुहम्मद बिन तुगलक दीवान-ए-खैरात (दान विभाग)- फिरोज तुगलक दीवान-ए-बंदगान- फिरोज तुगलक विभाग एवं उनकी कार्यविधियां निम्न है –
दीवानेर्ज अ दीवाने रिसालत
सेना विभाग से संबंधित
धार्मिक मुद्दों से संबंधित / विदेशी मामलों की देख-रेख से संबंधित
दीवाने दीवाने बजारत
सरकारी पत्रव्यवहार से संबंधित
*विजारत एक ऐसी संस्था थी, जिसे इस्लामी संविधान में मान्यता दी विभाग गई थी। जिन गैर-अरबी संस्थाओं को अंतर्मुक्त किया गया तथा मुस्लिम सम्राटों के अधीन मंत्रिपरिषद के लिए जो नाम व्यवहार में लाए गए थे, उन्हें विजारत की संज्ञा दी गई थी। विजारत को एक संस्था के रूप में अपनाने की प्रेरणा अब्बासी खलीफाओं ने फारस से ली थी। महमूद गजनवी के राज्यकाल में अब्बास फजल-बिन-अहमद प्रथम वजीर हुए, जो शासन व्यवस्था चलाने में निपुण थे। राज्य का प्रधानमंत्री वजीर कहलाता था। *वजीर मुख्यतया राजस्व विभाग (दीवान-ए-वजारत) का प्रधान होता था। इस दृष्टि से वह लगान कर व्यवस्था, दान तथा सैनिक व्यय आदि सभी की देखभाल करता था। “तुगलक काल मुस्लिम भारतीय विजारत का स्वर्ण काल था। फिरोज तुगलक के समय वजीर का पद अपने चरमोत्कर्ष पर जा पहुंचा।
* दशमलव प्रणाली के आधार पर सेना का संगठन और पदों का विभाजन किया गया था। * घुड़सवारों की टुकड़ी का प्रधान ‘सरेखेल’ कहलाता था। दस सरेखेल के ऊपर एक ‘सिपहसालार दस सिपहसालारों के ऊपर एक ‘अमीर’, दस अमीरों के ऊपर एक ‘मलिक’ और दस मलिकों के ऊपर एक ‘खान’ होता था। * सुल्तान सेना का मुख्य सेनापति होता था। * फिरोज तुगलक ने कुरान के नियमों को दृष्टि में रखकर कर निर्धारण किया। उसने कुरान में अनुमोदित चार कर लगाने की अनुमति दी खराज, जजिया, खुम्स एवं जकात। *खुम्स लूट का धन था। *जो युद्ध में शत्रु राज्य की जनता से लूट में प्राप्त होता था। *इस लूट का 4/5 भाग सैनिकों में बांट दिया जाता था और शेष 1/5 भाग राजकोष में जमा होता था, किंतु अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद बिन तुगलक ने 4/5 भाग राजकोष में रखा और शेष 1/5 भाग सैनिकों में बांटा। *सिकंदर लोदी ने गड़े हुए खजाने से कोई हिस्सा नहीं लिया। *सल्तनत काल में शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी, जो स्वशासन तथा पैतृक अधिकारियों की व्यवस्था के अंतर्गत थी।। * ग्राम स्तर पर चौधरी भू-राजस्व का सर्वोच्च अधिकारी था।
* सल्तनत कालीन दो प्रमुख मुद्राएं हैं-जीतल एवं टंका। * इल्तुतमिश पहला तुर्क शासक था, जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलाए। उसी ने दो प्रमुख सिक्के अर्थात चांदी का टंका और तांबे का जीतल प्रचलित किया। टंका एवं जीतल का अनुपात 1 48 का था। *अलाउद्दीन मसूद शाह (1242-46 ई.) के सिक्के पर सर्वप्रथम बगदाद के अंतिम खलीफा का नाम अंकित हुआ था। * बगदाद के अंतिम खलीफा-अल-मुस्तसीम थे। * यह 1242-58 ई. तक खलीफा रहे। * इल्तुतमिश के सिक्के पर खलीफा अल मुस्तनसीर का नाम उल्लिखित था, जो 1226-42 ई. तक खलीफा रहे। *हदीस एक इस्लामिक कानून है, जबकि जवाबित राज्य कानून से संबंधित है।
भक्ति और सूफी आंदोलन
नोट्स
* भक्ति आंदोलन का उदय सर्वप्रथम द्रविड़ देश में हुआ तथा वहां से उसका प्रचार उत्तर में किया गया। * भागवत पुराण में कहा गया है कि भक्ति द्रविड़ देश में जन्मीं, कर्नाटक में विकसित हुई तथा कुछ काल तक महाराष्ट्र में रहने के बाद गुजरात में पहुंच कर जीर्ण हो गई। * भक्ति आंदोलन का सूत्रपात दक्षिण में 8वीं सदी में महान दार्शनिक शंकराचार्य के उदय के साथ हुआ था, जिन्होंने विशुद्ध अद्वैतवाद का प्रचार किया। * भक्ति आंदोलन को दक्षिण के वैष्णव आलवार संतों और शैव नयनार संतों ने प्रसारित किया था। *भक्ति आंदोलन का पुनर्जन्म पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी ई. में हुआ, जब इसके नेतृत्व की बागडोर कबीर, नानक, तुलसी, सूर एवं मीराबाई ने संभाली।
* मध्यकालीन भारत में सूफियों के उद्भव से समाज में समरसता फैलाने में मदद मिली। *ये सूफी ध्यान साधना और कठोर श्वास- नियमन जैसी यौगिक क्रियाओं को किया करते थे। वे एकांत में कठोर यौगिक व्यायाम करते थे तथा समाज में एकता और सौहार्द फैलाने तथा श्रोताओं में आध्यात्मिक हर्षोन्माद उत्पन्न करने के लिए गीतों एवं संगीत का सहारा लेते थे।
* कामरूप जो असम राज्य में स्थित है, वहां पर लोकप्रिय बनाने का कार्य शंकरदेव ने किया था। एकेश्वरवाद मूल उद्देश्य था। * विष्णु या उनके अवतार कृष्ण को अपना थे। उन्होंने एकशरण संप्रदाय की स्थापना की। वे कर्मकांड दोनों के विरोधी थे। *ये असम के चैतन्य के रूप में प्रसिद्ध *श्री वल्लभाचार्य, सोमयाजी कुल के तेलुगू ब्राह्मणश्री पुत्र थे। परंपरानुसार इन्होंने रूद्र संप्रदाय के प्रवर्तक विष्णुस्म
का चेज़ और विकास द्वारा अपना शुद्धाद्वैत
जाग्रत प्रतिष्ठित। *ये अग्नि के अवतार माने जाते हैं। * वल्लभाचार्य जी द्वारा रचित महत्वपूर्ण ग्रंथ-ब्रह्मसूत्र का और ‘वृहद भाष्य’, भागवत की ‘सुबोधिनी’ टीका, भागवत तत्व दीप में मीमांसा भाष्य, गायत्री भाष्य, पत्रावलंबन, दशम स्कंधिका 5 नामावली आदि हैं। दैतवाद के प्रवर्तक मध्वाचार्य है। * यथा दै रामानुजाचार्य और द्वैतद्वैतवाद के प्रवर्तक निम्बार्काचार्य हैं, जो संप्रदाय से संबंधित हैं। उत्तर भारत में रामानंद भक्ति आंदोलन प्रवर्तक थे, सत्य जन्म 1299 ई। में प्रयाग (इलाहाबाद/प्रयागरा कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ये सगुण ईश्वर में विश्वास थे। ये सर्वप्रथम अपने संदेश का प्रचार हिंदी भाषा में किया। (1398-1518 ई.) रामानंद के 12 शिष्यों में से प्रमुख थे। लोक प अनुसार , उनका जन्म किसी विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था तथा पालन-भ्रम एक जुलाहा दंपत्ति नीरू और नीमा ने किय *”बीजक’ संत कबीर के उपदेशों का संकलन है, जो कबीरपंथी के पूर्वाग्रहियों का पवित्र ग्रंथ है। *’सबद’ , ‘साखी’ एवं ‘रमानी’ रचनाएं हैं, लेकिन धर्मदास के साथ उनके संवादों का संकलन शीर्षक के अंतर्गत प्राप्त होता है। क *गुरु घासीदास का जन्म दिसंबर, 1756 में छत्तीसगढ़ में रायपुर के गिरौदपुरी गांव में हुआ था। उनके पिता महंगूदास और माता। बाई थीं। *भगवान शिव की प्रतिष्ठा में भारत के विभिन्न घटकों में ज्योतिर्लिंगों की स्थापना की गई है। * ये हैं। -केदारनाथ, विश्वनाथ, वैद्यना 1. महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर, नागेश्वर, सोमनाथ, त्र्यंबकेश्वर, उपयुक्त • भीमाशंकर, मल्लिकार्जुन स्वामी और रा मेश्वरमा *गुरुनानक का जन्म ई। में तलवंडी नामक स्थान पर था। अब यह ‘ननकाना सापसंद है। * यह पंजाब (पाकिस्तान) के नानकाना साहिब जिले में है। *गुरुनानक की मृत्यु 1539 ई. में दराबाबा (करतारपुर, पाविन नामक स्थान पर हुई थी। * गुरुनानक (1469-1539 ई.) ने सिक्ख पैंठ सिकंदर लोदी (1489-1517 ई.) के समय में की थी। 7 एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे और निर्गुण ब्रह्म की पूजा देते थे। * गुरुनानक का कहना है, “ईश्वर व्यक्ति के गुणों को
* सूफीमत की स्थापना अफगानिस्तान के विश्व में अबू इस्हाक समीचिश्ती और उनके शिष्य खाना अबू अहमद अब्दाल ने की थी, किंतु भारत में सर्वप्रथम इसका प्रचार ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के द्वारा हुआ था। *ठे 12वीं शताब्दी में मुहम्मद गोरी की सेना के साथ भारत आए थे। उन्होंने अजमेर (राजस्थान) में अपना निवास स्थान बनाया। * 1236 ई. में इनकी मृत्यु हो गई। “कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी इनके प्रमुख शिष्य थे। *निशापुर के हारोन में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, ख्वाजा उस्मान चिश्ती हरुनी के शिष्य बने।
*शेख फरीदुद्दीन-गंज-ए-शकर चिश्ती सिलसिले के सूफी संत थे. जो बाबा फरीद के नाम से प्रसिद्ध थे। इन्हीं के प्रयत्नों के फलस्वरूप चिश्तिया सिलसिले को भारत में लोकप्रियता मिली। इनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान वे रचनाएं हैं, जो गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित है। *ये बलबन के दामाद थे। “शेख निजामुद्दीन औलिया के आध्यात्मिक गुरु हजरत बाबा फरीदुद्दीन मसूद गंजशकर (Hazarat Baba Fariduddin Masood Ganjshakar) थे, जिन्हें बाबा फरीद (Baba Farid) के नाम से भी जाना जाता है। * इनके अन्य प्रमुख शिष्य अलाउद्दीन साबिर कलियारी और नसीरुद्दीन चिराग-ए-देहलवी थे। *शेख निजामुद्दीन औलिया की दरगाह दिल्ली में स्थित है। * 1325 ई. में निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु हुई। उन्हें गियासपुर (दिल्ली) में दफनाया गया था। शेख निजामुद्दीन औलिया ने सात सुल्तानों का राज्य देखा, जो कि एक के बाद एक सत्तासीन होते रहे, किंतु वे कभी भी किसी के दरबार में नहीं गए। जब अलाउदीन ने उनसे मिलने की आज्ञा मांगी तो शेख ने उत्तर दिया कि ‘मेरे मकान के दो दरवाजे हैं, यदि सुल्तान एक के द्वारा आएगा, तो मैं दूसरे के द्वारा बाहर चला जाऊंगा। इस प्रकार उन्होंने अलाउद्दीन से मिलने से इंकार कर दिया था। वे महबूब-ए-इलाही और ‘सुल्तान-उल-औलिया’ (संतों का राजा) के नाम से प्रसिद्ध थे।
* चिश्ती शाखा के अंतिम सूफियों में शेख सलीम चिश्ती का नाम विशेष उल्लेखनीय है। * इनके पिता का नाम शेख बहाउद्दीन था। * ये बहुत दिनों तक अरब में रहे और वहां उन्हें ‘शेख-उल-हिंद’ की उपाधि से विभूषित किया गया। * तत्पश्चात वे भारत लौट आए और आगरा से 36 किमी. की दूरी पर स्थित सीकरी नामक स्थान पर रहने लगे, जिसे अकबर ने अपने प्रसिद्ध नगर फतेहपुर सीकरी का रूप प्रदान किया। * कहा जाता है कि जहांगीर का जन्म शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से हुआ था।
* चिश्ती सिलसिले का प्रभाव क्षेत्र दिल्ली एवं आस-पास के क्षेत्रों में था. जबकि सुहरावर्दी सिलसिले का प्रभाव क्षेत्र सिंघ के क्षेत्र में था। *फिरदौसी सिलसिला चिश्ती सिलसिले का ही भाग था, जिसका प्रभाव क्षेत्र बिहार में था। * कादरी शाखा के सर्वप्रथम संस्थापक बगदाद के शेख मुहीउद्दीन कादिर जिलानी थे, जिनकी गणना इस्लाम के महान संतों में की जाती है।
*शेख अब्दुल कादिर जिलानी की प्रमुख उपाधियां थीं. ‘महबूब ए-सुमानी’
यह उसकी जाति के बारे में नहीं पूछता, क्योंकि दूसरे लोक में जाति नहीं है।गुरुनानक ने गुरु का लंगर नाम से मुक्त सामुदायिक की शुरुआत की। उनके अनुयायी किसी की भी जाति पर ध्यान बिना एक साथ भोजन करते थे। *मीराबाई मेड़ता के रतन सिंह की इकलौती पुत्री थी। इनका जन्म 1498 ई. में मेड़ता के कुदकी गक ग्राम में हुआ था। इनका विवाह उदयपुर के प्रसिद्ध शासक राणा साना के ज्येष्ठ *महाराष्ट्र पुत्र युवराज भोजराज से हुआ था। में भक्ति आंदोलन को लोकप्रिय बनाने में नामदेव की
पूर्ण भूमिका थी। इनका जन्म 1270 ई. में पंढरपुर में हुआ था। मृनके गुरु ज्ञानेश्वर थे। *नामदेव वारकरी संप्रदाय से संबंधित थे। जो विठोबा खेचड़ अथवा खेचर नाथ नामक एक नाथपंथी कनफटे ने चि रहस्यवादी जीवन की दीक्षा दी तथा ईश्वर के सर्वव्यापी स्वरूप से यो परिचय कराया। * नामदेव ने कहा था “एक पत्थर की पूजा होती है, तो के दुसरे को पैरों तले रौदा जाता है यदि एक भगवान है, तो दूसरा भी वान है।” “इनके कुछ गुकाराम गीतात्मक पद्य गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। 1 का काल 1608 से 1649 ई. के मध्य माना जाता है। *ऐसी मान्यता है कि 1608 ई. में जन्में संत तुकाराम 1649 ई. में अदृश्य हो यह वरकरी संप्रदाय से संबंधित थे।
जी
#दादू दयाल का समय 1544 ई. से 1603 ई. के मध्य था। भयागराज का समय 1767 ई. से 1847 ई. तक था। यह भक्ति मार्गी ऋषि एवं कर्नाटक संगीत के महान संगीतज्ञ थे।
*भक्ति आंदोलन के प्रसिद्ध संत महाप्रभु चैतन्य (1486-1534 ई.) का जन्म बंगाल के नदिया जिले में एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार में हुआ *उनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र तथा माता का नाम शची देवी *चैतन्य के बचपन का नाम निमाई था। *चैतन्य ने आराध्य बनाया तथा उन्हीं की भक्ति का प्रचार किया। कृष्ण को अपना
*सुप्रसिद्ध भक्त/संत कवि गोस्वामी तुलसीदास अकबर तथा र के समकालीन थे। *तुलसीदास ने अनेक ग्रंथ लिखे, जिनमें ‘रामचरितमानस’ तथा ‘विनयपत्रिका’ सर्वोत्तम हैं। * रामचरितमानस’
गोस्वामी तुलसीदास (1532-1623) ने अवधी भाषा में की थी।
* सूफी मत का जन्म भले ही विदेशी धरती पर हुआ हो, किंतु उसका
प्रेषक तत्व भारतीय वेदांत वाद है।
*सूफी प्रेम काव्य कोमल हृदय की सुंदर एवं सरस अभिव्यक्ति है। विद्वानों के अनुसार, सूफी मत पर चार दार्शनिक प्रभाव हैं- 1. आय का अद्वैतवाद एवं विशिष्टाद्वैतवाद
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नव आफलातूनी मत
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स्वातंत्र्य पर विचार करें
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इस्लाम की गुह्य विद्या
*चिश्तिया सूफी मत की स्थापना अफगानिस्तान के विश्व में अनू इस्हाक शमी चिश्ती और उनके शिष्य ख्वाजा अबू अहमद अब्दाल ने की थी, किंतु भारत में सर्वप्रथम इसका प्रचार स्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के द्वारा हुआ था। वे 12वीं शताब्दी में मुहम्मद गोरी की सेना के साथ भारत आए थे। उन्होंने अजमेर (राजस्थान) में अपना निवास स्थान बनाया। *1236 ई. में इनकी मृत्यु हो गई। कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी इनके प्रमुख शिष्य थे। “निशापुर के हारोन में खाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, ख्वाजा उस्मान चिश्ती हरुनी के शिष्य बने।
* शेख फरीदुद्दीन-गंज-ए-शकर चिश्ती सिलसिले के सूफी संत थे. जो बाबा फरीद के नाम से प्रसिद्ध थे। * इन्हीं के प्रयत्नों के फलस्वरूप चिश्तिया सिलसिले को भारत में लोकप्रियता मिली। इनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान वे रचनाएं हैं, जो गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित है। *ये बलबन के दामाद थे। “शेख निजामुद्दीन औलिया के आध्यात्मिक गुरु हजरत बाबा फरीदुद्दीन मसूद गंजशकर (Hazarat Baba Fariduddin Masood Ganjshakar) थे, जिन्हें बाबा फरीद (Baba Farid) के नाम से भी जाना जाता है। *इनके अन्य प्रमुख शिष्य अलाउद्दीन साबिर कलियारी और नसीरुद्दीन चिराग-ए-देहलवी थे। शेख निजामुद्दीन औलिया की दरगाह दिल्ली में स्थित है। * 1325 ई. में निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु हुई। * उन्हें गियासपुर (दिल्ली) में दफनाया गया था। *शेख निजामुद्दीन औलिया ने सात सुल्तानों का राज्य देखा, जो कि एक के बाद एक सत्तासीन होते रहे, किंतु वे कभी भी किसी के दरबार में नहीं गए। जब अलाउद्दीन ने उनसे मिलने की आज्ञा मांगी तो शेख ने उत्तर दिया कि ‘मेरे मकान के दो दरवाजे हैं, यदि सुल्तान एक के द्वारा आएगा, तो मैं दूसरे के द्वारा बाहर चला जाऊंगा।’ इस प्रकार उन्होंने अलाउद्दीन से मिलने से इंकार कर दिया था। वे महबूब-ए-इलाही और ‘सुल्तान-उल-औलिया’ (सतों
का राजा) के नाम से प्रसिद्ध थे। * चिश्ती शाखा के अंतिम सूफियों में शेख सलीम चिश्ती का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इनके पिता का नाम शेख बहाउद्दीन था। *ये बहुत दिनों तक अरब में रहे और वहां उन्हें ‘शेख-उल-हिंद’ की उपाधि से विभूषित किया गया। तत्पश्चात वे भारत लौट आए और आगरा से 36 किमी. की दूरी पर स्थित सीकरी नामक स्थान पर रहने लगे, जिसे अकबर ने अपने प्रसिद्ध नगर फतेहपुर सीकरी का रूप प्रदान किया। * कहा जाता है कि जहांगीर का जन्म शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से हुआ था।
* चिश्ती सिलसिले का प्रभाव क्षेत्र दिल्ली एवं आस-पास के क्षेत्रों में था, जबकि सुहरावर्दी सिलसिले का प्रभाव क्षेत्र सिंघ के क्षेत्र में था। *फिरदौसी सिलसिला चिश्ती सिलसिले का ही भाग था, जिसका प्रभाव क्षेत्र बिहार में था। * कादरी शाखा के सर्वप्रथम संस्थापक बगदाद के शेख मुहीउद्दीन कादिर जिलानी थे, जिनकी गणना इस्लाम के महान संतों में की जाती है।
* शेख अब्दुल कादिर जिलानी की प्रमुख उपाधियां थीं- ‘महबूब-ए-सुमानी’
(ईश्वर का प्रेमी), पीरान-ए-पीर (संतों के प्रधान), ‘पीर-ए-दस्तगीर’ अ (मददगार संत) आदि। भारत में सर्वप्रथम इस शाखा का प्रचार शाह नियामतुल्ला और मखदूम जिलानी ने 15वीं सदी में किया। मखदूम पर जिलानी ने उच्छ को अपना शिक्षा केंद्र बनाया था। *नक्शबंदी सिलसिले की स्थापना 14वीं सदी में ख्वाजा बहाउद्दीन क्षे
नक्शबंद ने की थी। *ख्याजा ख्याद महमूद इस शाखा के एक प्रमुख संत थे, जो भारत आए एवं कश्मीर को अपना केंद्र बनाया किंतु भारत में इस शाखा का मुख्यतः प्रचार 17वीं सदी के लगभग ख्वाजा बाकी बिल्लाह द्वारा हुआ, जो अपने गुरु की आज्ञा से काबुल से आए थे। *शेख अहमद सरहिंदी इनके प्रमुख शिष्य थे, जो ‘मुजदिद’ अर्थात इस्लाम धर्म के सुधारक के नाम से भी प्रख्यात है। उन्होंने ‘वजहत-उल-शुहूद’ (प्रत्यक्षवादी दर्शन) का प्रतिपादन किया। *यह सिलसिला समा (संगीत) के विरुद्ध था। *सूफियों में यह सबसे अधिक कट्टरवादी सिलसिला था। *इन्होंने अकबर की उदार नीतियों का विरोध किया। *औरंगजेब इसी सूफी सिलसिले का अनुयायी था। सूफी संत शाह मोहम्मद गौस ने कृष्ण को औलिया के रूप में स्वीकार किया है। वह सतारी सिलसिले के सबसे प्रसिद्ध संत थे। *मुगल बादशाह हुमायूँ तथा तानसेन से उनका घनिष्ठ संबंध था। *मुहम्मद गौस की प्रसिद्ध रचना ‘जवाहिर-ए-खम्स’ है, जिसमें उन्होंने अपनी आध्यात्मिक खोज को अभिव्यक्त किया है। उन्होंने हठयोग की एक पुस्तक ‘अमृतकुंड’ का अनुवाद ‘बहर-उल-हयात’ (फारसी एवं अरबी भाषा में) के नाम से किया।
* सूफी संतों के निवास स्थान को ‘खानकाह’ कहते हैं। *”समा एक सूफी संगीत समारोह का नाम है। शेख सूफीवाद में शिक्षण और मार्गदर्शन के लिए अधिकृत व्यक्ति को कहते हैं। * इस्लाम के धार्मिक कानूनों
के विद्वानों को ‘उलेमा’ कहा जाता है। *”प्रेमवाटिका’ काव्यग्रंथ की रचना रसखान ने की थी। इसमें इन्होंने कृष्ण के जीवन को पंक्तिबद्ध किया है। *”सुजान रसखान भी इनकी प्रसिद्ध रचना है। *रसखान की भाषा विशुद्ध ब्रजभाषा है।
*बारहमासा’ की रचना मलिक मोहम्मद जायसी ने की।
जायसी की ‘पद्मावत’, ‘अखरावट’ तथा ‘आखिरी कलाम’ में से ‘पद्मावत’ का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। *बारहमासा, पद्मावत का ही एक भाग है। * उत्तर प्रदेश में बाराबंकी से लगभग 12 किमी. दूर स्थित देवा शरीफ में प्रसिद्ध सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की मजार स्थित है।
* ईसा मसीह (जीसस क्राइस्ट) का जन्म लगभग 4 ई. पू. में यहूदिया प्रांत के बेथलेहम नामक नगर में हुआ था। * ईसाई मान्यता के अनुसार, ईसा मसीह सूली पर चढ़ाए जाने के तीसरे दिन पुनर्जीवित हुए थे, इसी की याद में ईस्टर त्यौहार मनाया जाता है। *गुड फ्राइडे ईसा मसीह के शहीदी दिवस के रूप में ईसाइयों द्वारा मनाया जाता है। *बाइबिल के
अनुसार, ईसा मसीह को शुक्रवार (Friday) के दिन ही सूलीद * असीसी के संत फ्रांसिस (1181-1226 ई.) ऐसे पशु-पक्षियों से प्रेम के लिए विख्यात हैं। ईसाई
* वेटिकन इटली में स्थित स्थलरुद्ध संप्रभु देश है। * क्षेत्रफल मात्र 44 हेक्टेयर है, जो विश्व का सबसे छोटा (जनसं क्षेत्रफल दोनों में) स्वतंत्र देश है। * यह रोम के पादरी ( Rome), जिन्हें पोप भी कहा जाता है, के द्वारा शासित कैथोलिक चर्च की राजधानी के रूप में भी जाना जाता है। (Bislee है।’
*मदीना (Medina) पश्चिमी सऊदी अरब के हेजाज क्षेत्र Region) में स्थित शहर है। * यह मक्का के बाद इस्लाम धर्म क पवित्रतम शहर है।
ही फाँसी दी गई थी।
मुगल वंश : बाबर
नोट्स
“मुगल शासक वास्तव में तुर्कों की चगताई नामक शाखा के थे। इस शाखा का नाम प्रसिद्ध मंगोल नेता चंगेज खां के द्वितीय पुत्र के नाम पर पड़ा था, जिसके अधिकार में मध्य एशिया तथा तुर्की का देश तुर्किस्तान थे। * बाबर का पूरा नाम जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर था, इसका जन्म 14 फरवरी, 1483 को फरगना में उमर शेख मिर्जा एवं कुतलुग निगारखानम के घर हुआ था। *पिता की मृत्यु के बाद लगभग ग्यारह वर्ष की अल्पायु में जून, 1494 में वह फरगना के सिंहासन पर बैठा। शैबानी खां ने 1501 ई. में सर-ए-पुल युद्ध में बाबर को पराजित कर मध्य एशिया से खदेड़ दिया। * इस युद्ध के में उजबेगों की युद्ध नीति ‘तुलुगमा’ पद्धति का प्रयोग शैबानी खां ने बाबर के विरुद्ध किया था। *1504 ई. में काबुल विजय की एवं 1506 ई. या 1507 ई. में बाबर ने अपने पूर्वजों द्वारा धारण की गई उपाधि ‘मिर्जा’ का त्याग कर नई उपाधि पादशाह’ धारण की।
* आलम खां, इब्राहिम लोदी का चाचा था। उसने दिल्ली के राजसिंहासन पर अपना अधिकार जताते हुए बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया। *1524 ई. में बाबर के चौथी बार भारत अभियान के दौरान दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी तथा पंजाब के गवर्नर दौलत खां के मध्य कटु संबंध हो गए थे। * सुल्तान इब्राहिम लोदी ने दौलत खां को राजधानी आने का आदेश दिया था, जिसका दौलत खां ने उल्लंघन किया था। *दौलत खां ने अपने पुत्र दिलावर खां को बाबर के पास इस संदेश के साथ भेजा कि वह सुल्तान इब्राहिम लोदी को दिल्ली के सिंहासन से अपदस्थ कर उसके स्थान पर उसके चाचा आलम खां को पदस्थ करने में सहायता करे। * बाबर के लिए यह स्वर्णिम अवसर था. क्योंकि उसे मेवाड़ के राजा राणा सांगा का भी निमंत्रण प्राप्त हो चुका था। * अतः बाबर को यह विश्वास हो गया कि भारत विजय का अवसर आ गया है। * पानीपत का प्रथम युद्ध 21 अप्रैल, 1526 को बाबर तथा इब्राहिम लोदी
के बीच हुआ। * बाबर के पास विशिष्ट सुविधाएं थीं। *उसके तोपखाने ने इस युद्ध में आश्चर्यजनक कार्य किया। * इब्राहिम लोदी की सेना संख्या में अधिक होते हुए मी पराजित हुई और इब्राहिम लोदी रणक्षेत्र में मारा गया। फलस्वरूप दिल्ली और आगरा पर बाबर का अधिकार हो गया। * 27 अप्रैल, 1526 को बाबर ने अपने आप को बादशाह घोषित कर भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डाली। *बाबर ने लुगमा युद्ध नीति का प्रयोग पानीपत के प्रथम युद्ध में ही किया था। B-272
युद्ध में बाबर की सफलता का सबसे मुख्य कारण उसका था, जिसका नेतृत्व उस्ताद अली कुली नामक व्यक्ति कर मुस्तफा कर रहा था। बाबर की उदारता के कारण म ‘कलंदर’ की उपाधि प्रदान की। *वर्तमान भारत में सर्वश्यमान लड़ाई में तोपों का प्रयोग किया गया।
“बाबर ने खानवा के युद्ध में जेहाद की घोषणा की थी। युद्ध 16 मार्च, 1527 को बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध में राणा सांगा पराजित हुआ। *इसी युद्ध -इस बाबर ने ‘गाजी’ (काफिरों को मारने वाला) की उपाधि धारण की। *1528 ई. में बाबर ने चंदेरी के किले पर अधिकारक बर *युद्ध में मेदनीराय मारा गया। *घाघरा का युद्ध 5 मई, हुआ था में विजयश्री मिलने के
पड़ा
283 बाबर और महमूद लोदी के मध्य हुआ था। इस युद्ध में बाबर
1529
था। हुआ। बाबर का यह अंतिम युद्ध था। • अपने इस विशाल साम्राज्य की शासन व्यवस्था की सही के चलाने के लिए बाबर ने एक प्रदेश से दूसरे में अलग-अलग व्यव में थी। भारत से बाहर बदख्शां का शासन हुमायू, र के तथा मिर्जा सुलेमान को प्रदान किया गया। कामरान को 37 एवं मुल्तान का प्रशासन दिया गया। *मीर यूसुफ अली को ज ग गवर्नर नियुक्त किया गया, जिसके नियंत्रण में भीरा, लाहौर, दीप सियालकोट, सरहिंद तथा हिसार-फिरोजा सम्मिलित थे। हिसार-फि न से लेकर बलिया तक के प्रदेश तथा बयाना, चंदेरी एवं ग्वालियर न्त के प्रदेशों में बाबर ने एक नवीन शासन व्यवस्था कार्यान्वित की प्रकार बाबर का साम्राज्य बदख्शां से बिहार तक फैला था, किंतु आयु राजस्थान का क्षेत्र उसके साम्राज्य में सम्मिलित नहीं था। यह क्षेत्र 7 समय विभिन्न राजपूत शासकों के शासनांतर्गत था। काबुल, द
*भुगल साम्राज्य की आधारशिला रखने वाले जहीरुद्दीन मुहम् # बाबर ने अपने जीवन संबंधी घटनाओं को एक ग्रंथ में स्वयं ही लिखा। ‘तुजुक-ए-बाबरी’ या ‘बाबरनामा’ कहते हैं। *बाबर ने अपनी आत्मक में जिन दो हिंदू राज्यों का उल्लेख किया है उनमें एक विजयनगर त दूसरा मेवाड़ है। * तुर्की भाषा में बाबर द्वारा लिखित यह ग्रंथ संस की श्रेष्ठतम आत्मकथाओं में स्थान रखता है। *अकबर ने अब्दुल रह खानखाना द्वारा ‘बाबरनामा’ का फारसी भाषा में रूपांतरण करवा * इसके अतिरिक्त बाबर द्वारा पद्य रचनाओं का संकलन ‘दीवान’ में ि गया, जो तुर्की पद्य में श्रेष्ठ स्थान रखता है। *पद्य में उसने एक न शैली में ‘मुबइयान’ लिखा, जो मुस्लिम कानून की पुस्तक है। एक रचना ‘रिसाल-ए- उसज’ (खत-ए-बाबरी) थी, जिसकी शैली मानी गई थी। *मुगल बादशाह बाबर के सेनानायक मीर बाकी ने अ में बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया था।
हुमायूं और शेरशाह
नोट्स
हुमायूं, कामरान, अस्करी एवं हिन्दाल बाबर के पुत्र थे। * बाबर का ज्येष्ठ पुत्र था। हुमायूँ 1508 ई. में काबुल में पैदा *उसकी मां माहम बेगम शिया संप्रदाय से संबंधित थीं। कामरान अस्करी की मां गुलरुख बेगम तथा हिन्दाल की मां दिलदार
बेगमी ● हुमायूँ ने चुनार दुर्ग पर प्रथम बार आक्रमण 1532 ई. में * इस किले को उसने चार महीने तक घेरे रखा, जिसके बाद शेर खा हुमायूं की अधीनता स्वीकार कर ली। * इसके अतिरिक्त 1531 ई. में उ कालिंजर पर आक्रमण किया और 1532 ई. में रायसीन के महत्व किले को जीत लिया। उसने
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हुमायूँ द्वारा लड़े गए चार प्रमुख युद्धों का क्रम इस प्रकार है-दे चौसा, कन्नौज एवं सरहिंद। *1532 ई. में उसने गोमती के तट पर ि दौराह (देवरा) नामक स्थान पर अफगान विद्रोहियों को परास्त किय * 26 जून, 1539 को चौसा के युद्ध में हुमायूं को शेरशाह से पराजित होना पड़ा, इसी युद्ध में निजाम नामक भिश्ती ने हुमायूं की जान बच थी। हुमायूँ के विरुद्ध चौसा की इस विजय से शेर खां (शेरशाह की शक्ति एवं प्रतिष्ठा दोनों में वृद्धि हुई। उसने शेरशाह की पदवी धारण क अपने नाम का खुतबा पढ़वाया तथा सिक्के पर भी अंकित करवाया।। *17 नई, 1540 को कन्नौज या बिलग्राम के युद्ध में भी हुमायूं को शेरशाह से राजित होना पड़ा और विवश होकर एक निर्वासित की भांति इधर-उधर टकना पड़ा। *22 जून, 1555 को सरहिंद युद्ध की विजय ने हुमायूँ। एक बार पुनः उसका खोया राज्य वापस दिला दिया।
*फरीद, जो बाद में शेरशाह सूरी बना, ने अपनी शिक्षा जौनपुर प्राप्त की थी। *1494 ई. में फरीद ने घर छोड़ दिया तथा विद्याध्ययन लिए जौनपुर चला आया, जो ‘पूर्व के सिराज’ नाम से प्रसिद्ध था।
शेरशाह सूरी द्वारा किए गए सुधारों में राजस्व सुधार प्रशासनिक सैनिक सुधार, करेंसी प्रणाली में सुधार सम्मिलित थे। शाह ने को सरकारी (जिलों) में बांट दिया। इनमें से प्रत्येक को एक छोटी के साथ शिकदारों के नियंत्रण में दे दिया। आमीन-ए-बंगला अथवा बंगाल’ नामक असैनिक अधिकारी को शिकदारों की देखभाल लिए किया *सर्वप्रथम काजी फजीलत नामक व्यक्ति को इस पर नियुक्त किया गया।
ने पुराने घिसे-पिटे सिक्कों के स्थान पर शुद्ध सोने, चांदी एवं सिक्कों का प्रचलन किया। उसने शुद्ध चांदी का रुपया (178 ग्रेन) तथा तांबे का दाम (380 ग्रेन चलाया। *रुपया और दाम की विनिमय दर 1:64 थी। इसके समय में 23 टकसाले थीं। ● दिल्ली सल्तनत के पराभव के उपरांत हुमायू द्वारा सर्वप्रथम स्वर्ण
मुद्रा का प्रचलन किया गया था। “हाजी बेगम ने अपने पति हुमायूँ के मकबरे का निर्माण दिल्ली (दीन पनाह में 1560 के दशक में करवाया था। इस मकबरे का नक्शा मीरक बिज गियास (ईरानी वास्तुकार) ने तैयार किया था। * श्वेत संगमरमर से बना यह भारत का प्रथम दोहरा गुंबद वाला मकबरा है।
*कालिंजर विजय (1545 ई.) के दौरान, जब शेरशाह के सैनिक गोले फेंकने में व्यस्त थे, तो बारूद से भरा हुआ एक गोला दुर्ग की दीवार से टकरा कर वहां गिरा जहां बारूद से भरे हुए बहुत से गोले रखे हुए थे, जिससे गोलों में आग लग गई और वे फट-फट कर सभी दिशाओं में विध्वंस करने लगे। शेरशाह वहां से अधजला बाहर निकला, यद्यपि दुर्ग जीत लिया गया किंतु यही जीत शेरशाह के लिए अंतिम हो *22 मई, 1545 को वह (कालिंजर में ही मर गया। कालिंजर का अभियान शेरशाह का अंतिम अभियान था। उस समय वहां का राजा कीरत सिंह था। *शेरशाह सूरी ने मारवाड़ के युद्ध में राजपूतों के शौर्य पराक्रम से प्रभावित होकर कहा कि “मात्र एक मुट्टी बाजरे के चक्कर मैं मैंने अपना साम्राज्य खो दिया होता।”
* शेरशाह का मकबरा, बिहार के सासाराम नामक स्थान पर एक 1 के बीच ऊंचे चबूतरे पर बना है। *दिल्ली स्थित पुराना किला के तालाब भवनों का निर्माण शेरशाह सूरी ने करवाया था। *यहां किला-ए-कुहना मस्जिद, शेर मंडल आदि भवन शेरशाह द्वारा बनवाए गए थे।
* कृषकों की मदद के लिए शेरशाह ने ‘पट्टा’ एवं ‘कबूलियत’ की व्यवस्था प्रारंभ की थी। * किसानों को सरकार की ओर से ‘पट्टे’ दिए जाते थे, जिनमें स्पष्ट किया गया होता था कि उस वर्ष उन्हें कितना लगान देना है। *किसान ‘कबूलियत-पत्र’ के द्वारा इन्हें स्वीकार करते थे।
जहांगीर
नोट्स
* जहांगीर का जन्म 30 अगस्त, 1569 को हुआ था। *इसका पहला विवाह अम्बर (जयपुर) के राजा भगवानदास की पुत्री और राजा मानसिंह की बहन मानबाई से 1585 ई. में हुआ था। खुसरो मानबाई की संतान था। *1586 ई. में सलीम का दूसरा विवाह उदयसिंह की पुत्री जगलगोसाई से हुआ था। शाहजादा खुर्रम इसी का पुत्र था।
*आगरा के किले में 1605 ई. में जहांगीर का राज्याभिषेक हुआ और उसने ‘नूरुद्दीन मुहम्मद जहांगीर बादशाह गाजी’ की उपाधि धारण की। जहांगीर ने अपने पक्ष के सरदारों को उच्च पद प्रदान किए, जिनमें से एक अबुल फजल का हत्यारा राजा वीरसिंह बुंदेला भी था। “अकबर की परंपरा को स्थापित रखते हुए जहांगीर ने अपना शासन उदारता से आरंभ किया और गद्दी पर बैठते ही उसने विभिन्न लोकहितकारी आदेश दिए ।
*दो अस्पा एवं सिंह अस्पा प्रथा जहांगीर ने चलाई थी। इसके अंतर्गत बिना जात पद बढ़ाए ही मनसबदारों को अधिक सेना रखनी पड़ती थी। (i) दो अस्था- इसमें मनसबदारों को अपने ‘सवार पद के दोगुने
घोड़े रखने पड़ते थे। (ii) सिंह अस्पा- इसमें मनसबदारों को अपने सवार पद के तीन गुने
घोड़े रखने होते थे।
*1615 ई. में राणा अमर सिंह तथा मुगल बादशाह जहांगीर के मध्य चित्तौड़गढ़ की संधि हुई। इसमें राणा ने मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार कर ली तथा बादशाह जहांगीर ने राणा को चित्तौड़ (दुर्ग की किलाबंदी न करने की शर्त के साथ) समेत समस्त भू-भाग वापस कर दिया, जो अकबर के समय से मुगल आधिपत्य में था ।
* जहांगीर से विवाह के बाद नूरजहां ने (जुन्ता दल) का निर्माण किया। *इस गुट के प्रमुख सदस्य थे- एत्मादुद्दौला या मिर्ज़ा गियास बेग ( नूरजहां का पिता) अस्मत बेगम (नूरजहां की मां), आसफ खां (नूरजहां का भाई) एवं शाहजादा खुर्रम (बाद में शाहजहां)। इस गुट का प्रभाव 1627 ई. तक रहा। *नूरजहां से प्रभावित जहांगीर के शासनकाल को दो भागों में बांटा जा सकता है 1611-1622 ई. तक और 1622-1627 ई. तक। * प्रथम काल में खुर्रम नूरजहां गुट का सदस्य था, लेकिन दूसरे काल में खुर्रम इस गुट से अलग हो गया था।
*विलियम हॉकिंस (1608-1611 ई.) जहांगीर के दरबार में भेजा जाने वाला ईस्ट इंडिया कंपनी का राजदूत तथा ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधि के रूप में मुगल दरबार में उपस्थित होने वाला पहला अंग्रेज था। जहांगीर ने हॉकिंस को ‘इंग्लिश खां’ की उपाधि देकर आर्मीनिया की एक स्त्री से उसका विवाह कर दिया। जहांगीर के दरबार में आने
वाले दूसरे शिष्टमंडल का नेतृत्वकर्ता सर थॉमस रो थे। सर थॉमस रो (1615-1619 ई.) ब्रिटेन के राजा जेम्स प्रथम के दूत के रूप में 18 सितंबर, 1615 को सूरत पहुंचा। जनवरी, 1616 में वह अजमेर में जहांगीर के दरबार में उपस्थित हुआ। उसे बादशाह के साथ मांडू, अहमदाबाद तथा अजमेर जैसे अनेक स्थानों पर जाने का अवसर मिला। *वह बादशाह के साथ शिकार खेलने भी गया। * वह आगरा में एक वर्ष तक रहा था।
*पीटर मुंडी ब्रिटेन का यात्री था, जो शाहजहां के समय आया था। * फ्रांसिस्को पेलसर्ट डच पर्यटक था, जो जहांगीर के समय भारत आया, इसने अपनी पुस्तक “रिमान्स्ट्रेटी” में जहांगीर के समय का अद्भुत विवरण लिखा है।
*मुगल चित्रकला जहांगीर के शासनकाल में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई। पहले चित्रकारी हस्तलिखित ग्रंथ की विषय-वस्तु से संबद्ध होती थी। *जहांगीर ने उसे इस बंधन से मुक्त कर दिया। जहांगीर के समय के सर्वोत्कृष्ट चित्रकार उस्ताद मंसूर और अबुल हसन थे। * सम्राट जहांगीर ने उन दोनों को क्रमशः नादिर-उल-अय (उस्ताद मंसूर) तथा नादिर-उज-जमां (अबुल हसन) की उपाधि प्रदान की थी। उस्ताद मंसूर प्रसिद्ध पक्षी विशेषज्ञ चित्रकार था, जबकि अबुल हसन को व्यक्ति चित्र में महारत हासिल थी।
*जहांगीर एक उच्चकोटि का लेखक तथा समालोचक था। * उसने अपनी आत्मकथा फारसी भाषा में लिखी और उसका नाम ‘तुजुक ए-जहांगीरी’ रखा।
* जहांगीर के सबसे बड़े पुत्र खुसरो ने जहांगीर के गद्दी पर बैठने के शीघ्र बाद विद्रोह किया था, जो कि 1606 ई. में पराजित हुआ। * 1623 ई. में शहजादे खुर्रम के विद्रोह का महाबत खां के नेतृत्व वाली मुगल सेना ने दमन किया था। *1626 ई. में महाबत खां ने जहांगीर के विरुद्ध विद्रोह किया था।
* मुगल बादशाह बाबर एवं जहांगीर के मकबरे क्रमश: काबुल एवं शाहदरा (लाहौर) में स्थित हैं। ये क्रमशः अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान में स्थित हैं। एत्मादुद्दौला का मकबरा नूरजहां ने 1622-28 ई. के मध्य में अपने पिता मिर्जा गियास बेग की याद में बनवाया था। यह पहली कृति है, जो पूर्णतया संगमरमर में बनाई गई। इसमें गुदाई एवं संगमरमर के अलावा पित्रादुरा (Pietradura) का प्रयोग सजावट हेतु पहली बार किया गया।
*गोविंद महल (Govind Palace) मध्य प्रदेश के दतिया में स्थित 7 मंजिला महल है। इसका निर्माण 1614 ई. में राजा बीर सिंह देव (Raja Bir Singh Deo) द्वारा पत्थरों से करवाया गया था।
शाहजहां
नोट्स
*1592 ई. में लाहौर में शहजादा खुर्रम का जन्म हुआ था। उसकी
माता मारवाड़ के शासक सिंह की पुत्री जगतगोसाई थे। * 1612 ई
में आसफ खां की पुत्री अर्जुमंद बानो बेगम से उसका विवाह हुआ, ज
बाद में इतिहास में ‘मुमताज महल’ के नाम से विख्यात हुई। * 1628 ई.
में शाहजहां ‘अबुल मुजफ्फर शहाबुद्दीन मुहम्मद साहिब किरन-ए-सानी’
की उपाधि धारण कर गद्दी पर बैठा। आगरा में उसका राज्याभिषेक
हुआ। *इसी ने राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरित की।
* अहमदनगर को 1633 ई. में मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। * यहां के अंतिम शासक हुसैनशाह को ग्वालियर के किले में कैद कर दिया गया। * निजामशाही सरदार शाहजी भोसले ने एक बच्चे (मुर्तजा तृतीय) के नाम से मुगलों से संघर्ष जारी रखा। * अंत में 1636 ई. में मुगलों द्वारा शाहजी को चुनार के किले में घेर लिया गया। शाहज ने बहुत से किले तथा मुर्तजा तृतीय को मुगलों को सौंप दिया। मुर्तज * तृतीय को भी ग्वालियर के किले में कैद कर दिया गया तथा शाहजी ने बीजापुर राज्य की सेवा स्वीकार कर ली। शाहजहां के समय गोलकुंड और बीजापुर ने मुगलों से संधि कर ली।
* शाहजहां के शासनकाल में औरंगजेब पहले 1636-44 ई. तक दक्कन का सूबेदार रहा था तथा 1652 ई. में उसे पुन: इस पद पर
नियुक्त किया गया था, जिस पर वह उत्तराधिकार के युद्ध में विजय और
मुगल बादशाह बनने तक रहा। ●कार राज्य ईरान के शाह और मुगलों के बीच संघर्ष की जड़ था, क्योंकि कंधार को अपने हाथों में रखना मुगल शासक तथा ईरान के शाह के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन गया था। शाहजहां के शासनकाल में 1649 ई. में कंधार पर पुनः ईरानी अधिकार हो जाने से मुगल साम्राज्य को सामरिक 1 के केंद्र के दृष्टिकोण से एक बड़ा धक्का पहुंचा क्योकि, कंचार के बिना उत्तर-पश्चिमी सीमा पर मुगलों की स्थिति अपेक्षाकृत दुर्बल थी। * शाहजहां महत्व
के समय में कंधार अंतिम रूप से मुगलों के अधिकार से निकल गया। बल्ख *शाहजहां के बल्ख अभियान का उद्देश्य काबुल की सीमा से सटे 1 और बदख्शां में एक मित्र शासक को लाना था, ताकि वे ईरान और मुगल साम्राज्य के बीच बफर राज्य बन सके।
*शाहजहां का काल मुगल काल का स्वर्ण काल माना जाता है, इसके समय में कला, साहित्य, शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त विकास हुआ। * साहित्य के क्षेत्र में शाहजहां के शासनकाल में विशेष उन्नति हुई। इस काल में फारसी भाषा में दो शैलियां प्रचलित थीं। * प्रथम भारतीय फारसी तथा दूसरी ईरानी फारसी भारतीय फारसी शैली के विद्वानों में अब्दुल हमीद लाहौरी, मोहम्मद वारिस व चंद्रभान ब्राह्मण आदि थे। * ईरानी। फारसी शैली के विद्वानों अमीनाई क़ज़वीनी तथा जलालुद्दीन तबातबाई *ईरानी पद्य शैली का इस समय अधिक बोलबाला था। * शाहजहां ने ईरानी फारसी पद्य शैली के कवि कलीम को ‘राजकवि भी नियुक्त किया। * कलीम के अतिरिक्त फारसी कवियों में ‘सईदाई गीलानी, कुदसी, हम्मद काशी, सायब, सलीम, मसीह, रफी, फारुख, मुनीर, शोदा, चंद्रमान ब्राह्मण, हाजिक, दिलेरी आदि थे।
* कवीद्राचार्य शाह जहां के संबंध में कवि थे, उनकी भाषा में ब्रज एवं अवधी का उत्कृष्ट समन्वय है। * कवींद्र कल्पलता’ वे शाह जहां की परिपथ में प्रणीत की थी। *”सरस्वती’ डिग्री धारक यह विद्वान संस्कृत का मर्मज्ञ था, इसके बाद शाह से निवेदन कर तीर्थ यात्रा कर रहा था।
* ताजमहल के निर्माण के लिए शाहजहां ने भारत, ईरान एवं मध्य
डिजाइनरों, इंजीनियरों एवं वास्तुकारों को एकत्र किया था।
*जमहल की वास्तुकला में भारतीय, ईरानी एवं मध्य एशियाई वास्तुकला
का संतुलित समन्वय दिखाई पड़ता है।
*दिल्ली की जामा मस्जिद का निर्माण शाहजहां ने करवाया था। द्वारा निर्मित इमारतों में दीवाने आम, दीवाने खास, शीशमहल, ती मस्जिद, खास महल, मुसम्मन बुर्ज, नगीना मस्जिद, जामा मस्जिद, ताजमहल तथा लाल किला प्रमुख हैं।
*अकबर के फतेहपुर सीकरी की भांति शाहजहां ने दिल्ली में अपने नाम पर ‘शाहजहांनाबाद’ नामक एक नगर की स्थापना की तथा वहां अनेक सुंदर एवं वैभवपूर्ण भवनों का निर्माण कर उसे सुसज्जित करने का प्रयास किया। * शाहजहांनाबाद के भवनों में लाल किला प्रमुख है।
किले के पश्चिमी द्वार का नाम- लाहौरी दरवाजा एवं दक्षिणी द्वार का नाम दिल्ली दरवाजा है। यह सुंदरता तथा शोभा में अनोखा है।
* उपनिषदों का फारसी अनुवाद शाहजहां के शासनकाल में शहजादे दारा शिकोह ने ‘सिर्र-ए-अकबर’ शीर्षक के तहत किया। इसमें 52 उपनिषदों का अनुवाद किया गया है। *दारा को उसकी सहिष्णुता एवं उदारता के लिए लेनपूल ने “लघु अकबर” की संज्ञा दी है। * यही नहीं शाहजहां ने भी दारा को “शाह बुलंद इकबाल” की उपाधि प्रदान की 1 थी। *”मज्म-उल-बहरीन” दारा की मूल रचना है।
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* शाहजहां के चारों पुत्रों में ज्येष्ठ दारा शिकोह सर्वाधिक सुशिक्षित,
अध्येता तथा लेखक था। उसने अनेक हिंदू धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया
एवं उपनिषदों, योग वशिष्ठ, भगवद्गीता आदि हिंदू धर्म ग्रंथों का फारसी में अनुवाद कराया। *मुगल बादशाह शाहजहां ने बलबन द्वारा प्रारंभ ईरानी दरबारी रिवाज ‘सिजदा’ समाप्त कर दिया था। *1636-37 ई. में सिजदा प्रथा
का अंत कर दिया गया। *जमीनबोस की प्रथा भी खत्म कर दी गई और
पगड़ी में बादशाह की तस्वीर पहनने की मनाही कर दी गई। * डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक ‘मुगलकालीन भारत’ में। लिखा है कि शाहजहां का शासनकाल भारत में मध्यकालीन इतिहास में स्वर्ण युग के नाम से प्रसिद्ध है। * तथापि यह केवल कला और कला में भी वास्तुकला की दृष्टि से ही सत्य माना जा सकता है। * एल्फिन्सटन ने शाहजहाँ के काल के बारे में लिखा है कि ” शाहजहां का काल भारतीय इतिहास में सर्वाधिक समृद्धि का काल था।
औरंगजेब
नोट्स
* मुगल गद्दी पर शाहजहां का उत्तराधिकारी औरंगजेब हुआ, किंतु ज्येष्ठ पुत्र के उत्तराधिकार के नियम से नहीं अपितु तलवार के बल से। * मुगलकाल में तलवार ही सत्ता का प्रतीक थी। * तलवार के बल पर ही उत्तराधिकार का निर्णय होता था।
*मुगल बादशाह औरंगजेब का राज्याभिषेक दो बार हुआ था। उसका पहला राज्याभिषेक दिल्ली में 31 जुलाई, 1658 को हुआ था। उसका दूसरा राज्याभिषेक दिल्ली में ही 15 जून, 1659 को हुआ तथा ‘अब्दुल मुजफ्फर मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब बहादुर आलमगीर पादशाह गाजी’ की उपाधि धारण कर वह मुगल बादशाह के सिंहासन पर आसीन हुआ।
* मध्य प्रदेश में स्थित उज्जैन के निकट धरमत नामक स्थान पर 15 अप्रैल, 1658 को औरंगजेब तथा दारा शिकोह के मध्य युद्ध हुआ था। * इस युद्ध में जोधपुर के राजा जसवंत सिंह ने दारा शिकोह की तरफ से तथा मुराद ने औरंगजेब की तरफ से भाग लिया था।
* सामूगढ़ का युद्ध 29 मई, 1658 को औरंगजेब और मुराद की संयुक्त सेनाओं एवं दारा शिकोह के मध्य हुआ था, जिसमें दारा शिकोह पराजित हुआ था।
* उत्तराधिकार के युद्ध में औरंगजेब से पराजित दारा शिकोह के पुत्र शहजादे सुलेमान शिकोह ने श्रीनगर गढ़वाल के शासक पृथ्वीसिंह के यहाँ शरण ली थी। *किंतु उसके उत्तराधिकारी मेदिनीसिंह ने उसे औरंगजेब को सौंप दिया। सुलेमान शिकोह को ग्वालियर के किले में बंद कर दिया गया और वहां उसको अफीम खिलाकर मार डाला गया।
* 1665 ई. के आरंभ में औरंगजेब ने राजा जयसिंह के नेतृत्व में विशाल सेना शिवाजी का दमन करने के लिए भेजी। *जयसिंह कछवाहा शासक थे जो कि युद्ध और शांति, दोनों कलाओं में निपुण थे। * वह चतुर कूटनीतिज्ञ थे और उसने समझ लिया कि बीजापुर को जीतने के लिए भारतीय इतिहा
शिवाजी से मैत्री करना आ है। पुरंदर के किले पर की विजय और राजराव की उन्होंने शिवसे की दर की यह संधि जून 1665 में हुई।
* औरंगजेब के पुत्र सुहम्मद अकबर ने 1681 ई. में विद्रोह राजपूतों के विरुद्ध अपने पिता की स्थिति दुर्बल कर दी थी। राजपूतों के विरुद्ध आहे जाने वाले युद्ध से निराश हो गया था। *उसे अपने पिता की नीति की सफलता में विश्वास न था तथा विचारों से यह उदार था उसी अवसर पर मेवाड़ के राजा राजसिंह और राठौर नेता मारवाह के दुर्गादास ने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि यदि वह अपने को भारत का बादशाह घोषित कर दे, तो मेवाड़ और मारवाह दोनों की सेनाएं उसकी सहायता करेंगी।
*औरंगजेब जो कुछ दूसरों पर लागू करना चाहता था, उसका यह स्वयं अभ्यास करता था। उसके व्यक्तिगत जीवन का नैतिक स्तर ऊँचा था तथा वह अपने युग के प्रचलित पापों से दृढ़तापूर्वक अलग रहता. इस प्रकार उसके समकालीन उसे ‘शाही दरवेश’ समझते थे तथा मुसलमान उसे ‘जिंदा पीर के रूप में मानते थे।
*1652 ई. में जब औरंगजेब दूसरी बार दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया गया तो उसने गोलकुंडा एवं बीजापुर के विरुद्ध आक्रामक नीति अपनाई थी, संभवतः उसने इन दोनों राज्यों का विध्वंस भी कर दिया होता, किंतु दारा शिकोह के परामर्श पर शाहजहां द्वारा भेजे आदेश के अनुसार 1656 ई. में गोलकुंडा एवं 1657 ई. में बीजापुर के विरुद्ध उसे युद्ध स्थगित कर संधि करनी पड़ी थी। बादशाह बनने के बाद उसने अपनी इस पूरी योजना को पूरा किया और बीजापुर (1686) एवं गोलकुंडा (1687) पर आधिपत्य स्थापित किया। *औरंगजेब के शासनकाल के दौरान मुगल सेना में सर्वाधिक हिंदू सेनापति थे। * उसके शासनकाल के उत्तरार्द्ध में कुल सेनापतियों में 31.6 प्रतिशत हिंदू थे, जिसमें मराठों की संख्या आधे से अधिक थी। * अकबर के काल में यह अनुपात 22.5 प्रतिशत तथा शाहजहां के काल में 22.4 प्रतिशत था।
* अकबर महान ने अपने साम्राज्य से ‘जजिया कर’ की समाप्ति की घोषणा की थी, किंतु औरंगजेब ने उसे 1679 ई. में पुनर्जीवित कर दिया। इस कर के लिए हिंदुओं को तीन वर्गों में बांटा गया- (i) जिनकी आय 200 दिरहम प्रतिवर्ष से कम थी, उनको 12 दिरहम
प्रतिवर्ष देना था।
(ii) जिनकी आय 200 से 10,000 दिरहम प्रतिवर्ष थी, उनको 24 दिरहम प्रतिवर्ष देना था।
(iii) जिनकी आय 10,000 दिरहम प्रतिवर्ष के ऊपर थी, उनको 48 दिरहम प्रतिवर्ष देना पड़ता था।
स्त्रियां, गुलाम, 14 वर्ष की आयु से कम के बच्चे, आय रहित व्यक्ति इस कर से मुक्त थे। अधीनस्थ हिंदू को भी इसे देने के लिए बाध्य किया गया। * औरंगजेब सर्वोपरि एक उत्साही सुन्नी मुसलमान
धार्मिक नीति सांसारिक लाभ के किसी विचार से प्रभावित नहीं दारा के विरुद्ध गुन्नी कट्टरता के समर्थक के रूप में राजामहा करने वाले की हैसियत से उसने कुरान के कानून को कठोर करने का प्रयत्न किया। इस कानून के अनुसार, । को ‘अल्लाह की राह में मेहनत करनी चाहिए’ या दूसरे शब्दों में गैर-मुसलमानी देशों (दारूल-हर्व) के विरुद्ध धर्म-युद्ध (जिहाद चाहिए, जब तक कि वे इस्लाम के राज्य (दारूल-इस्लाम) के प्रत्येक धार्मिक मुक
परिवर्तित नहीं हो जाते। * औरंगजेब ने सिक्कों पर कलमा खुदवाना, नौरोज का मनाना, तुलादान तथा झरोखा दर्शन बंद कर दिया। उसने अकबर प्रारंभ हिंदू राजाओं के माथे पर अपने हाथ से तिलक लगाना बंद दिया। वेश्याओं को शादी करने अथवा देश छोड़ने का आदेश दिया * दरबार में बसंत, होली, दीवाली आदि त्योहार मनाने बंद कर दिए
* औरंगजेब ने औरंगाबाद में अपनी प्रिय पत्नी राबिया-उद-दौरान के मकबरे का निर्माण (1651-61) में कराया था। इसे ‘बीबी का मकबरा भी कहा जाता है। * इसकी स्थापत्य कला शैली सुप्रसिद्ध ‘ताजमहल’ पर आधारित थी। * अतः इसे ‘द्वितीय ताजमहल’ भी कहा जाता है। दिल्ली के लाल किले में औरंगजेब ने मोती मस्जिद का निर्माण करवाया।
* मेहरुन्निसा औरंगजेब की पुत्री थी। * इसके अतिरिक्त जहाँबा रोशन आरा तथा गौहर आरा औरंगजेब की बहन तथा शाहजहाँ पुत्रियां थीं। * औरंगजेब की अन्य पुत्रियां थीं-जेबुन्निसा, जीनतुन्निसा बदरुन्निसा तथा जुबदतुन्निसा । *औरंगजेब ने जहांआरा को ‘साहिबात उज़-ज़मानी’ की उपाधि प्रदान की थी।
*संत अथवा समर्थ रामदास महाराष्ट्र के महान संत ने
संघ मराठा राज्य और baहादुर
मोट्स
“शिवाजी का जन्म 6 अप्रैल, 1627 या 19 फरवरी, 1630 में शिवनेर के दुर्ग में हुआ था। *शिवाजी ने 1674 ई. में राज्याभिषेक के बाद छत्रपति उपाधि धारण की। रायगढ़ को अपनी राजधानी बनाया। उस युग के महान विद्वान बनारस के पंडित विश्वेश्वर उर्फ ‘गंगाभट्ट’ ने उन्हें यि घोषित करते हुए उनका राज्याभिषेक कराया। *53 या 50 वर्ष की आयु में 1680 ई. में शिवाजी की मृत्यु हो गई।
*मराठा शक्ति का उत्कर्ष किसी एक व्यक्ति या विशेष व्यक्ति समूह का कार्य न था और न किसी विशेष समय में उत्पन्न हुई अस्थायी परिस्थितियों का ही परिणाम था। * मराठा शक्ति के उदय का आधार महाराष्ट्र के संपूर्ण निवासी थे, जिन्होंने जाति, भाषा, धर्म, साहित्य और निवास स्थान की एकता के आधार पर राष्ट्रीयता की भावना को जन्म दिया और उस राष्ट्रीयता को संगठित करने के लिए एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की इच्छा व्यक्त की। * महाराष्ट्र की भौगोलिक परिस्थितियां मी मराठा शक्ति के उत्कर्ष में सहायक थीं। * शिवाजी और अन्य मराठा नेताओं की उच्च नेतृत्व क्षमता भी इसमें भागीदार थी।
श्रीजापुर के सुल्तान ने 1659 ई. में अफजल खाँ नामक अनुभवी एवं विश्वस्त सेनानायक को शिवाजी की महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने के लिए भेजा था, किंतु कूटनीतिज्ञ शिवाजी ने उसका वध कर दिया।
*1665 ई. में शिवाजी और जयसिंह के मध्य पुरंदर की संधि हुई।
“शिवाजी को औरंगजेब ने आगरा में 1666 ई. में कैद कर दिया था।। शिवाजी मुगलों की कैद से भागने के समय आगरा नगर के जयपुर में कैद (नजरबंद) थे। *शिवाजी ने राज्य के प्रशासन के लिए केंद्रीय स्तर पर ‘अष्ट प्रधान’ की व्यवस्था की थी, जिसके अंतर्गत आठ मंत्रियों को नियुक्त किया गया था। * इसमें पेशवा, अमात्य, मंत्री, सचिव, सुमंत पति पंडित राव एवं न्यायाधीश शामिल थे। *ये निम्न प्रकार थे- (i) पेशवा-राजा का प्रधान मंत्री ।
(ii) अमात्य अथवा मजमुआदार- वित्त एवं राजस्व मंत्री
(i) वाकिया नवीस या मंत्री राजा के दैनिक कार्यों तथा दरबार की
प्रतिदिन की कार्यवाहियों का विवरण रखता था।
दिल्ली सल्तनत
1206 ई. से 1526 ई. तक काल भारतीय इतिहास में सल्तनत काल के नाम से जाना जाता है
गुलाम अथवा दास वंश
1206 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत के साम्राज्य को गजनी के नियंत्रण से मुक्त कर स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना की उसने दास अथवा गुलाम वंश की नींव डाली गुलाम वंश के अन्तर्गत विभिन्न वंश के व्यक्तियों ने शासन किया. अध्ययन सुविधा की दृष्टि से विद्वानों ने गुलाम वंश के अन्तर्गत इन वंश के व्यक्तियों को रखा है
कुतुबुद्दीन ऐबक
तुर्किस्तान निवासी कुतुबुद्दीन ऐबक मुहम्मद गौरी का गुलाम था. उसमें एक वीर सैनिक के गुण विद्यमान थे. इसी कारण मुहम्मद गौरी ने उसे अपना सेनापति नियुक्त किया था. मुहम्मद गौरी द्वारा किए गए भारत आक्रमण में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. भारत में मुहम्मद गौरी के गवर्नर के रूप में उसने अत्यधिक ख्याति अर्जित की. मुहम्मद गौरी के भारत से गजनी लौट जाने के पश्चात् कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत स्थित मेरठ, कालिजर, महोबा, कोइल, रणथम्भौर, कन्नौज आदि को विजित कर तुर्की साम्राज्य की सीमा का विस्तार किया. मुहम्मद गौरी की मृत्यु के पश्चात् ऐबक ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया सुल्तान के रूप में उसने 1206 ई. से 1210 ई. तक शासन किया 1210 ई में पोलो खेलते समय घोड़े से गिरकर उसकी मृत्यु हो गई. ऐबक की समस्याएं सुल्तान बनने के समय ऐबक के सम्मुख अनेक समस्याएं थीं-
(1) मुहम्मद गौरी की मृत्यु होते ही गजनी में यल्दौज, मुल्तान में कुवाचा तथा लखनौती में अलीमदोनरुद्दीन ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया.
(2) पराजित भारतीय राजपूत नरेशों की शक्ति में पुनः वृद्धि होने लगी.
(3) भारत में शासन व्यवस्था की पूरी तरह स्थापना नहीं हो पाई थी. कुतुबुद्दीन ऐबक ने सभी समस्याओं का दृढ़तापूर्वक सामना कर उन पर विजय प्राप्त की.
ऐबक की विजय
ऐबक ने पंजाब पर आक्रमण कर गजनी के शासकों की सत्ता को समाप्त कर दिया और पंजाब को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया 1209 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने यल्दौज पर आक्रमण कर गजनी पर अल्पकाल के लिए अधिकार कर लिया. आरामशाह कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के पश्चात् लाहौर के अफसरों ने उसके पुत्र आरामशाह को गद्दी पर बैठाया. दिल्ली के नागरिक कुतुबुद्दीन ऐबक के दामाद इल्तुतमिश को सिंहासन पर बैठाने के पक्ष में थे. सिंहासन के लिए इल्तुतमिश व आरामशाह के बीच संघर्ष हुआ, जिसमें आरामशाह पराजित हुआ और सम्भवतः मारा गया.
इल्तुतमिश
इल्तुतमिश कुतुबुद्दीन ऐबक की तरह ही एक गुलाम था. वह तुर्किस्तान के इल्बरी तुर्क कबीले का था देखने में वह सुन्दर एवं आकर्षक व्यक्तित्व वाला था. उसके पिता का नाम इलाम खाँ था. इल्तुतमिश के अनेक गुणों से प्रभावित होकर कुतुबुद्दीन ऐबक ने उसे अपने शासनकाल में उसे खरीद कर उच्च पदों पर आसीन किया तथा अपनी पुत्री से विवाह कर अपना दामाद बना लिया. अपनी प्रतिभा के बल पर ही वह अमीर-ए-शिकार’ के पद पर पहुँच सका ग्वालियर को विजित करने के पश्चात् उसे वहाँ का किलेदार बनाया गया. तत्पश्चात् उसे बुलंदशहर का इक्ता तथा अन्त में दिल्ली राज्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण
बदायूँ का इक्ता सौंपा गया. मुहम्मद गौरी तथा खोखर जाति के मध्य 1205-1206 ई. में हुए संघर्ष में इल्तुतमिश ने साहस और कौशल का परिचय दिया. कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के पश्चात् 1211 ई. में आरामशाह का वध करके दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हुआ उसने 1236 ई. तक सफलता- पूर्वक शासन किया अपने शासन के दौरान उसने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए गुलाम-ए-चालीसा इल्तुतमिश ने क्रय किए गए गुलामों का संगठन बनाया गुलामों की संख्या चालीस थी यह संगठन ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ के नाम से प्रख्यात हुआ इल्तुतमिश ‘कुतुबी’ और ‘मुइज्जी सरदारों की अपेक्षा अपने गुलाम सरदारों पर अधिक विश्वास करता था. उसने गुलाम सरदारों को राज्य में उच्च पदों पर नियुक्त किया. अरबी सिक्के इल्तुतमिश पहला ऐसा तुर्क सुल्तान था, जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलाए उसके
द्वारा चलाए गए चाँदी के टका का वजन 175 ग्रेन था. रयल्दौज का दमन यल्दौज इल्तुतमिश का प्रबल प्रतिद्वन्द्वी दि था. इल्तुतमिश ने 1216 ई. में तराइन के मैदान में यल्दौज को पराजित कर उसका दमन किया.
कुबाचा का दमन
कुबाचा ने लाहौर पर अधिकार कर रखा था, इल्तुतमिश ने कुबाचा पर आक्रमण किया, कुबाचा ने भागकर भक्कर में शरण ली. इल्तुतमिश ने 1227-28 में भक्कर पर आक्रमण कर कुबाचा का अन्त कर दिया. – बंगाल के विद्रोहियों का दमन गयासुद्दीन खलजी का बंगाल एवं बिहार पर शासन था, उसने इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार नहीं की. अतः 1225 ई. में इल्तुतमिश ने आक्रमण कर गयासुद्दीन का दमन कर दिया.
राजपूतों पर विजय
इल्तुतमिश ने रणथम्भौर, ग्वालियर, बयाना थानागिरि, अजमेर, सम्भल तथा नागौर पर अधिकार किया.
मंगोलों के आक्रमण से सुरक्षा इल्तुतमिश ने मंगोलों के आक्रमण से भारत को सुरक्षित रखा. दोआब की पुनर्विजय इल्तुतमिश ने दोआब में कन्नौज, वाराणसी, बहराइच एवं अवध को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया.
खलीफा द्वारा सुल्तान स्वीकृति
पद की इल्तुतमिश ने फरवरी 1229 ई. में बगदाद के खलीफ से सुल्तान पद की वैधानिक स्वीकृति प्राप्त की. अब से उसका पद कानूनी बन गया. कुतुबमीनार का निर्माण दिल्ली स्थित कुतुबमीनार का निर्माण कार्य पूरा कराया, जिसका प्रारम्भ कुतुबुद्दीन – ऐबक द्वारा कराया गया था अजमेर में ढाई दिन का झोपड़ा मस्जिद बनवाई इल्तुतमिश की मृत्यु अप्रैल 1236 ई. में उसकी मृत्यु हो गई.
रुकनुद्दीन फीरोजशाह
विरोधी सरदारों ने इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् रुकनुद्दीन फिरोजशाह को सुल्तान घोषित कर दिया. इसके सुल्तान बनते ही दिल्ली के समीकरण बदल गए साम्राज्य में अनेक स्थानों पर विद्रोह होने लगे. बंगाल तथा बदायूँ स्वतन्त्र हो गए. यद्यपि फीरोज ने विद्रोह दबाने का प्रयास किया, किन्तु उसके अधिकांश सैनिकों ने भी विद्रोह कर दिया. परिणामस्वरूप वह विद्रोह नहीं दबा सका. जब वह दिल्ली से बाहर हुए विद्रोह को दबाने का असफल प्रयास कर रहा था. तभी उसकी अनुपस्थिति में रजिया के समर्थक अमीरों ने रजिया को दिल्ली के सिंहासन पर आसीन कर दिया. बाद में फीरोजशाह की षड्यंत्रकारी माँ शाह तुर्कान को कारागार में डाल दिया गया तथा रुकनुद्दीन फीरोजशाह का वध करा दिया गया. रजिया सुल्तान रजिया बेगम दिल्ली सल्तनत की प्रथम महिला सुल्तान थी. उसने कुल मिलाकर तीन वर्ष छः माह और छः दिन शासन किया 1236 से 1240 ई. के मध्य अपने शासन के दौरान रजिया का मुख्य लक्ष्य शासन से तुर्की गुलाम सरदारों के प्रभाव को समाप्त कर उन्हें सिंहासन के अधीन बनाना रहा. इसीलिए उसने जमालुद्दीन याकूत नामक एक हब्शी को घोड़ों का सर्वोच्च अधिकारी नियुक्त किया. सुल्तान की शक्ति और सम्मान में वृद्धि करने के उद्देश्य से पर्दा त्याग दिया तथा जनता के सम्मुख खुले आम मर्दाने वस्त्र पहनकर आने लगी. मंगोलों के आक्रमण से अपने राज्य की रक्षा की. रजिया की शासन नीति का विरोध तुर्की सरदारों ने किया, जिनमें निजामुल मुल्क जुनैदी, मलिक अलाउद्दीन जानी, मलिक सैफुद्दीन कूची, मलिक इंज्जद्दीन कबीर खाँ अयाज और मलिक ईज्जद्दीन सलारी प्रमुख थे. इन तुर्की सरदारों के विद्रोह को दबाने में रजिया को सफलता मिली किन्तु 1240 ई. में भटिण्डा के सूबेदार इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया जिसे रजिया ने ही सूबेदार नियुक्त किया था, ने रजिया के साथ विश्वासघात कर विद्रोह कर दिया. अल्तूनिया को दिल्ली के कुछ अमीरों का समर्थन प्राप्त था. इस विद्रोह में याकूत का वध हुआ तथा रजिया को बंदी बनाकर दिल्ली में मुईजुद्दीन बहराम शाह को सिंहासन पर बैठा दिया गया. अल्तूनिया से विवाह करके रजिया ने एक बार पुनः शासन सत्ता प्राप्त करने का प्रयास किया, किन्तु असफल रही अन्त में 13 अक्टूबर 1240 ई. के दिन कैथल के समीप जब रजिया व अल्तूनिया एक वृक्ष के नीचे आराम कर रहे थे. तब कुछ हिन्दू डाकुओं ने उनका वध कर दिया.मुईजुद्दीन बहरामशाह को दिल्ली के सिंहासन पर बैठाने के साथ ही तुर्की सरदारों ने एक नवीन पद ‘नाइब’ अर्थात् ‘नाइब-ए-मामलिकात’ का सृजन किया और शासन के सम्पूर्ण अधिकार उस अधिकारी को सौंप दिए मई 1242 ई. में बहरामशाह का वध कर दिया गया. फिरोजशाह के पुत्र अलाउद्दीन मसूदशाह को दिल्ली का सुल्तान बनाया गया. अलाउद्दीन मसूदशाह अलाउद्दीन मसूदशाह ने 1242 ई. से 1246 ई. तक शासन किया. उसके शासन के दौरान बलबन ने अपनी शक्ति में वृद्धि की और शीघ्र ‘अमीर-ए-हाजिब’ का पद तथा तुर्की का नेतृत्व प्राप्त कर लिया बलबन ने इल्तुतमिश के पौत्र नासिरुद्दीन और उसकी माँ के साथ मिलकर एक षड्यंत्र द्वारा 1246 ई. में अलाउद्दीन मसूद को सुल्तान पद से हटा दिया और नासिरुद्दीन महमूद को दिल्ली का सुल्तान बना दिया.
नासिरुद्दीन महमूद
नासिरुद्दीन महमूद ने 1246 ई. से 1266 ई. तक शासन किया नासिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में कुछ समय को छोडकर शासन सत्ता बलबन के हाथ में ही रही. 1253 ई. में कुछ समय के लिए सत्ता का नियंत्रण बलबन के हाथ से निकलकर भारतीय मुस्लिम रैहान के हाथ में पहुँच गया. किन्तु तुर्क अमीरों के संयुक्त विरोध के आगे झुककर नासिरुद्दीन ने पुनः बलबन को बज़ीर बना दिया. 1266 ई. में नासिरुद्दीन महमूद की अकस्मात मृत्यु हो गई. ‘तारीख- ए-मुबारकशाही’ के अनुसार उसकी मृत्यु बीमारी से तथा इतिहासकार इसामी के अनुसार उसकी मृत्यु बलबन द्वारा जहर दिए जाने के कारण हुई.
बलवन
1266 ई. में नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के पश्चात् बलबन, जिसका पहले से ही दिल्ली सल्तनत राज सत्ता पर अधिकार था. गयासुद्दीन बलन के नाम से सिंहासन पर आसीन हुआ उसने मंगोलों से देश की रक्षा करने हेतु सैन्य विभाग ‘दीवान-ए-अर्ज’ का पुनर्गठन किया तथा अयोग्य सैनिकों को पेंशन देकर कार्य मुक्त कर दिया. सुल्तान की निरंकुशता में बाधक ‘चेहलगान’ (चालीस तुर्की गुलामों के दल) का विनाश किया तथा पावोस अर्थात् सम्राट के झुककर पैर छूना एवं सिजदा प्रथा का अपने दरबार में प्रचलन किया. उत्तम गुप्तचर विभाग की स्थापना की हिन्दू और मुसलमान विद्रोहियों का दमन किया सेना का पुनर्गठन किया. उसने एक अत्यन्त ही योग्य सैनिक अधिकारी ‘इमाद-उल-मुल्क’ को दीवाए-ए-आरिज’ के पद पर नियुक्त किया शत्रुओं के प्रति ‘लौह एवं रक्त की नीति का अनुसरण किया, जिसके अन्तर्गत पुरुषों को कत्ल कर दिया जाता था तथा स्त्री व बच्चों को दास बना लिया जाता था. बलबन का राजत्व सिद्धान्त बलबन दिल्ली सल्तनत का ऐसा प्रथम सुल्तान था जिसने सुल्तान के पद एवं अधिकारों के विषय में अपने विस्तृत विचार प्रकट किए उसके राजत्व-सिद्धान्त की दो प्रमुख विशेषताएँ थीं पहली सुल्तान का पद ईश्वर के द्वारा प्राप्त होता है, दूसरी सुल्तान पर किसी का अंकुश नहीं होना चाहिए अर्थात् उसे निरंकुश होना चाहिए बलबन की दृष्टि में सुल्तान पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि होता है. उसके राजत्व का आधार स्तम्भ शक्ति प्रतिष्ठा तथा न्याय के सिद्धान्त थे ईरानी दरबार की अनेक परम्पराएँ उसने अपने यहाँ आरम्भ कीं बलबन ने अपना पूर्ण जीवन बिगड़ी हुई कानून व्यवस्था को सुधारने तथा सल्तनत को सुदृढ़ बनाने में लगा दिया 1287 ई. में बलबन की मृत्यु हो गई. कैकुबाद और शम्सुद्दीन कयूमर्स बलबन की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार स्वीकार नहीं किया तथा बुगरा खाँ के पुत्र कैकुबाद को सुल्तान बनाया गया. उसका शासन मात्र 3 वर्ष तक रहा और उसके तीन वर्षीय पुत्र कयूमर्स को शम्सुद्दीन के नाम से सिंहासन पर बिठाया गया ‘खलजी’ वंश के जलालुद्दीन फीरोज खलजी ने बलबन के उत्तराधिकारियों का अन्त करके दिल्ली सल्तनत पर अपना अधिकार कर लिया.
खलजी वंश गुलाम वंश के पश्चात् दिल्ली सल्तनत पर खलजी वंश के शासकों का अधिकार हो
गया इस वंश के निम्नलिखित शासकों ने शासन किया- जलालुद्दीन फीरोज खलजी जलालुद्दीन फीरोज खलजी, ‘खलजी’ वंश का संस्थापक था वह जून 1290 ई. में सुल्तान बना जलालुद्दीन को मंगोलों के आक्रमण का सामना करना पड़ा 1292 ई में इस संघर्ष में मंगोलों की पराजय हुई जब जलालुद्दीन फीरोज खलजी का भतीजा अलाउद्दीन खलजी मिलसा, चंदेरी और देवगिरि को विजित कर अपार धन सहित लौट रहा था, तब जलालुद्दीन अपने भतीजे अलाउद्दीन से मिलने कड़ा गया, जहाँ धोख से अलाउद्दीन खलजी ने 20 जुलाई 1296 ई. को उसका वध करा दिया.
अलाउद्दीन खलजी सुल्तान बनते ही अलाउद्दीन खलजी ने दिल्ली की सीमाओं में विस्तार करना प्रारम्भ किया. उसने उत्तर एवं दक्षिण के अन्य राज्यों को विजित कर साम्राज्य की सीमाओं में विस्तार किया शासन प्रबन्ध को संगठित किया राजनीति में मुल्ला, मौलवियों के हस्तक्षेप का विरोध किया. सिक्कों पर अपना उल्लेख ‘द्वितीय सिकन्दर के रूप में किया खलीफा की सत्ता को मान्यता प्रदान की तथा यस्मिन-उल-खिलाफत नासिरी-अमीर- उल-मुमिनिन’ की उपाधि धारण की अपने साम्राज्य में हुए विद्रोहों का दमन किया. स्वयं शराब पीना छोड़ दिया तथा दिल्ली में अमीरों के मद्यपान पर प्रतिबंध लगा दिया. अमीरों के सामाजिक समारोह, उत्सवों एवं परस्पर मिलने पर पाबंदी लगा दी खालसा भूमि को कृषि योग्य बनाकर राजस्व में वृद्धि की अमीरों की सम्पत्ति को जब्त कर लिया. पुलिस एवं गुप्तचर प्रणाली को और अधिक प्रभावी एवं कुशल बनाया स्थायी सेना की स्थापना की जो हर वक्त दिल्ली में रहती थी इस सेना में 4 लाख 75 हजार सैनिक थे सैनिकों को नकद वेतन देने की व्यवस्था थी सैनिकों का वेतन 238 टका वार्षिक निश्चित किया इससे पूर्व सैनिकों को वेतन के स्थान पर भूमि दी जाती थी. सैनिकों की हुलिया लिखने का नियम बनाया ब वह प्रथम सुल्तान था जिसने घोड़ों पर दाग लगवाने की प्रथा प्रारम्भ की नवीन दुर्गों का निर्माण करवाया डाक व्यवस्था को उत्तम 5 बनाया. उत्तर भारत की विजय अलाउद्दीन ने उत्तर भारत में गुजरात, रणथम्भौर चित्तौड मालवा जालौर तथा मारवाड़ को विजित कर साम्राज्य की सीमाओं में विस्तार किया गुजरात पर विजय गुजरात पर बघेलराय कर्ण का शासन था. 1298 ई. में अलाउद्दीन ने उलूग खाँ
तथा नुसरत खी को गुजरात पर आक्रमण के लिए भेजा गुजरात में ही नुसरत विजय से पूर्व मार्ग में ही जैसलमेर को भी विजित किया गया
रणथम्भौर पर विजय
रणथम्भौर पर हम्मीर देव का शासन था कई माह तक घेरा डालने के पश्चात् अंत में जुलाई 1301 ई. में अलाउद्दीन ने रणथम्भौर के किले पर अधिकार कर लिया चित्तौड़ पर विजय उस समय चित्तौड़ पर राणा रतन सिंह का शासन था जनवरी 1303 ई. में अलाउद्दीन खलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया सात माह के युद्ध के पश्चात् अलाउद्दीन का चित्तौड़ के किले पर अधिकार हो गया
मालवा पर विजय
मालवा का शासक महलक देव था 1305 ई. में आईन-उल-मुल्क ने मालवा को विजित किया युद्ध में महलक देव एवं हरनंद मारे गए.
मारवाड़ पर विजय
मारवाड़ पर परमार राजपूत शीतलदेव का शासन था अलाउद्दीन खलजी ने 1308 ई में आक्रमण कर दिया. बाध्य होकर शीतलदेव को अलाउद्दीन से संधि करनी पड़ी.
दक्षिण भारत की विजय
अलाउद्दीन बहुत ही महत्वाकाक्षी शासक था उत्तर भारत की विजय के साथ ही उसने दक्षिण भारत को विजित करने की योजना बनाई उस समय दक्षिण में चार शक्तिशाली राज्य थे- (1) यादवों का देवगिरि राज्य (2) तेलंगाना का काकतीय राज्य, (3) द्वारसमुद्र का होयसल राज्य (4) सुदूर दक्षिण में पाण्ड्य राज्य
देवगिरि की विजय
देवगिरि के राजा रामचन्द्र ने 1294 ई. में एलिचपुर का प्रान्त अलाउद्दीन खलजी को दे दिया था, किन्तु तीन वर्ष से उसने कर चुकाना बंद कर दिया था. अतः अलाउद्दीन ने 1306-1307 ई. में मलिक काफूर को एक विशाल सेना सहित देवगिरि पर आक्रमण करने हेतु भेजा रामचन्द्र देव न आत्मसमर्पण कर दिया. काफूर विपुल सम्पत्ति एवं रामचन्द्र को दिल्ली ले गया. वहाँ अलाउद्दीन ने उसके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार किया तथा उसे ‘राय रायान’ की उपाधि प्रदान की 1312 ई. में रामचन्द्र देव की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र शंकरदेव शासक बना शासक बनते ही उसने दिल्ली से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया अतः 1313 ई. में अलाउद्दीन ने पुनः मलिक काफूर को देवगिरि पर आक्रमण के लिए भेजा युद्ध में शंकर देव मारा गया अब देवगिरि के अधिकांश भाग को सल्तनत में सम्मिलित कर लिया गया तेलंगाना की विजय तेलंगाना पर प्रताप रुद्रदेव का शासन था उसकी राजधानी वारंगल थी. यह राज्य अत्यन्त ही समृद्ध था. अलाउद्दीन ने नवम्बर 1309 ई. में मलिक काफूर को तेलंगाना विजित करने भेजा वह 1310 ई. जनवरी में वारंगल पहुंचा यहाँ हुए युद्ध में प्रताप रुद्रदेव ने आत्मसमर्पण कर संधि कर ली तथा काफूर को 100 हाथी, 700 घोड़े व अपार धनराशि प्रदान की तथा अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार कर ली विपुल धनराशि सहित काफूर मार्च 1310 ई. में दिल्ली लौट आया
होयसल की विजय होयसल राज्य पर वीर बल्लाल का शासन था. इस राज्य की राजधानी द्वारसमुद्र थी तेलंगाना की विजय के पश्चात् 1310 ई. में मलिक काफूर ने अलाउद्दीन के आदेश पर द्वारसमुद्र पर आक्रमण कर दिया. सतर्क न होने के कारण बल्लाल युद्ध में पराजित हुआ. उसने अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार कर ली तथा विजेता को – विपुल धनराशि भेंट की. पाण्ड्य राज्य की विजय
इस राज्य की राजधानी मदुरा थी. यहाँ के राज्य सिंहासन प्राप्त करने के लिए वीर पांड्य तथा सुन्दर पाड्य भाइयों के व बीच संघर्ष चल रहा था. संघर्ष में पराजित म सुंदर पाण्ड्य के आग्रह पर 1311 ई. में वि • मलिक काफूर ने अलाउद्दीन के आदेशानुसार म पांड्य राज्य की ओर कूच कर दिया. वहाँ उसने मंदिरों को खूब लूटा तथा नष्ट-भ्रष्ट किया तथा विपुल धनराशि सहित अप्रैल 1311 ई. में दिल्ली वापस आ गया.
बाजार नियंत्रण अलाउद्दीन एक सफल विजेता होने के र साथ ही एक कुशल प्रशासक भी था उसने न नई आर्थिक नीति का संचालन किया. इसके अन्तर्गत बाजार नियंत्रण उसका सराहनीय र कदम था जिससे सरकार व जनता दोनों को ही लाभ हुआ उसने वस्तुओं के मूल्य निश्चित कर दिए बाजारों की उत्तम प्रबन्ध व्यवस्था हेतु उसने मालगुजारी अनाज के रूप में लेना प्रारम्भ कर दिया बाजारों पर नियंत्रण हेतु अनेक नवीन पदों का सृजन चकिया- 1. दीवान-ए-रियासत यह व्यापारियों – पर नियंत्रण रखता था. 2. शहना-ए- मण्डी यह बाजार का दरोगा होता था. 3. – 3 मुहतासिब यह नाम-तौल का निरीक्षण किया करता था. अलाउद्दीन ने कालाबाजारी और मुनाफाखोरी पर पूर्णरूप से प्रतिबंध लगा दिया राशन व्यवस्था का प्रारम्भ किया गुप्त अलाउद्दीन ने कपड़े और अनाज के लिए दुकानों की व्यवस्था की बाजार की सूचना प्राप्त करने हेतु मुन्हीचान की नियुक्ति की इन्हें बाजार के कर्मचारियों को दण्ड देने के कुछ अधिकार भी प्रदान किए अलाउद्दीन की राजस्व नीति राज्य की आय बढ़ाने के उद्देश्य से उसने राजस्व नीति निर्धारण में निम्नलिखित बातों पर विशेष बल दिया- 1. भूमि की नाप कराई तथा यह पता लगवाया कि कितनी भूमि पर खेती होती है।
तथा उससे राज्य को कितनी आय होती है 2. ऐसी भूमि जिस पर भूमि मालिक कर नहीं देते थे, को जब्त कर लिया गया। 3. राजस्व वसूली में मदद करने वाले मध्यस्थों-खूत, मुकद्दम चौधरी को प्राप्त सभी विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए. 4. माल गुजारी की दर में वृद्धि कर दी गई.
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चरागाह, भवनों पर भी कर लगा दिया. अलाउद्दीन खलजी की इस राजस्व नीति के परिणामस्वरूप राज्य की आय में वृद्धि हुई अलाउद्दीन खलजी ने 1296 ई से 1316 ई. तक शासन किया. जनवरी 1316 ई. को उसकी मृत्यु हो गई. शहाबुद्दीन उमर अलाउद्दीन की मृत्यु के उपरान्त अल्प- वयस्क शहाबुद्दीन उमर को सुल्तान बना मलिक काफूर वास्तविक शासक बन बैठा,
■ किन्तु शीघ्र ही अलाउद्दीन के एक अन्य पुत्र मुबारक खाँ ने लगभग 35 दिन बाद ही मलिक काफूर का वध करवा दिया और स्वयं शहाबुद्दीन उमर का संरक्षक बन बैठा कुतुबुद्दीन मुबारक खलजी अन्त में उमर को हटा वह अप्रैल 1316 ई. को कुतुबुद्दीन मुबारक के नाम से दिल्ली का सुल्तान बना. उसने 1320 ई तक शासन किया. अंत में उसके वजीर खुसरो ने 15 अप्रैल, 1320 ई. को उसका वध करवा दिया. नासिरुद्दीन खुसरोशाह खुसरोशाह एक भारतीय मुसलमान था। उसने अमीरों तथा अपने पदाधिकारियों के न पदों को स्थायी कर दिया तथा विरोधी न सरदारों का वध करवा दिया खिज्र खाँ की पत्नी देवल देवी से विवाह किया तथा — मुबारक के मंत्री बाहिदुद्दीन कुरैशी को – ताज-उल-मुल्क की उपाधि प्रदान की चूँकि ना वह हिन्दू मुसलमान था, इसलिए तुर्क सरदार उसके विरोधी थे अंत में 5 सितम्बर 23 बावली भी नक्काशियों से पूर्ण तथा अत्यन्त सुन्दर हैं.
गुजरात के स्थानीय शासकों ने सल्तनत- न काल में कुछ अन्य भवनों का निर्माण भी करवाया जिनमें चम्पानेर की जामा मस्जिद, न नगीना मस्जिद सैयद उस्मान का रोजा, मियाँ खाँ चिश्ती की मस्जिद, कुतुब आलम का मकबरा आदि है. गुजरात की स्थापत्य कला शैली में मुस्लिम स्थापत्य शैली तथा जैन शैली का समन्वय दृष्टिगोचर होता है, बंगाल में यद्यपि सल्तनतकाल में बंगाल धन- धान्य से परिपूर्ण था, किन्तु स्थानीय शासकों की स्थापत्य के प्रति उदासीनता के फलस्वरूप इस क्षेत्र में इसका कोई विशेष विकास नहीं हो पाया, परन्तु कुछ इमारतों के निर्माण अवश्य करवाए गए. बंगाल में इस अवधि में बनी इमारतों में अधिकतर ईंटों का प्रयोग मिलता है.
बंगाल के स्थानीय शासकों द्वारा निर्मित करवाए गए भवनों में पाण्डुआ की अदीना मस्जिद विशेष प्रसिद्ध है. इसका निर्माण सिकन्दरशाह के शासनकाल (1358-1389 ई.) में किया गया. पाण्डुआ में ही सुल्तान जलालुद्दीन मोहम्मदशाह के शासनकाल (1414-1431 ई.) में निर्मित ‘इकलाखी मकबरा भी काफी प्रसिद्ध है. यह भवन अधिकांशतया हिन्दू भवनों की ईंटों से ही बना है. इनके अतिरिक्त बंगाल के शासकों ने कुछ अन्य भवनों के भी निर्माण करवाए जिनमें दाखिल दरवाजा (1465 ई.). दरसवारी मस्जिद (1480 ई.), लोटन मस्जिद (1480 ई.). छोटा सोना मस्जिद (1510 ई.) बड़ा सोना मस्जिद (1526 ई.) आदि उल्लेखनीय हैं. बंगाल में पत्थर सरलता से उपलब्ध नहीं हो पाते थे जिसके फलस्वरूप इमारतों के निर्माण में ईंटों का प्रयोग किया गया है. अतः उनमें सुदृढ़ता का अभाव पाया जाता है.
कश्मीर
कश्मीर के स्थानीय शासकों ने भी सल्तनतकाल में स्थापत्य कला के विकास में विशेष योगदान दिया. यहाँ की वास्तुकला में काष्ठ (लकड़ी) का सुन्दर प्रयोग मिलता है मार्शल के अनुसार, “कश्मीर के भवन हिन्दू-मुस्लिम कला के सम्मिश्रण के परिचायक हैं.” शासकों ने यहाँ मस्जिद तथा मकबरे बनवाए. शाह हमदान की मस्जिद जामा मस्जिद, जैन उल आबेदीन की माँ का — मकबरा आदि स्थानीय शासकों द्वारा निर्मित करवाए गए प्रसिद्ध भवन हैं. इनके अतिरिक्त कश्मीर के महानतम शासक जैन -उल- आबेदीन के शासनकाल (1420-70) में अनेक हिन्दू मन्दिरों के जीर्णोद्धार करवाए गए. सुल्तान ने इमारतों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में बाँध तथा पुल के भी निर्माण करवाए. वूलर झील स्थित जैना लंका उसके काल की अभियांत्रिकी की उन्नति का उत्कृष्ट उदाहरण है. मेवाड़ राणा कुम्भा (1433-68 ई.) ने अपने शासनकाल में कई महल बनवाए तथा उसके शासनकाल में बने कुछ मन्दिर इस बात के प्रमाण हैं कि उस समय भी पत्थर काटने तथा मूर्तिकला का स्तर काफी ऊँचा था उसके द्वारा बनवाई गई इमारतों में सर्वाधिक प्रसिद्ध चित्तौड़ स्थित विजयस्तम्भ अथवा कीर्तिस्तम्भ के खण्डहर उसकी स्थापत्य कला के प्रति उत्साह के प्रमाण हैं. बहमनी राज्य बहमनी शासक कला, विज्ञान तथा विद्या के उदार संरक्षक थे. स्थानीय शासकों ने अपनी राजधानी गुलबर्गा तथा बीदर को सुन्दर भवनों से सुसज्जित किया. शासकों द्वारा निर्मित कराए गए अधिकांश भवनों में हिन्दू मन्दिरों की सामग्रियों का भरपूर प्रयोग मिलता है. जिससे उनमें हिन्दू प्रभाव स्पष्ट रूप से पता चलता है. बहमनी शासकों ने अनेक दुर्ग तथा का भी निर्माण कराया. इनमें नाल दुर्ग, बीदर का दुर्ग, वारंगल, रायचूर के किले आदि विशेष प्रसिद्ध हैं. बीदर के किले की दीवार 50 फुट ऊँची है तथा उसकी परिधि 3 मील है. इस किले में तोपों से हमले के लिए कई छिद्र बने हैं. गुलबर्गा में शाही मकबरे का निर्माण किया गया था. बहमनशाह का मकबरा दिल्ली की तुगलक शैली का उदाहरण है. सुल्तान फिरोजशाह (1398-1422 ई.) का मकबरा एक शानदार इमारत है जो बाहर से 153 फुट लम्बा तथा 76 फुट चौड़ा है. इस मकबरे में हिन्दू तथा ईरानी प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है. गुलबर्गा में मुहम्मदशाह द्वारा दो मस्जिदें बनवाई गई. इनमें पहली शाह बाजार मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध है. यह वस्तुतः तुगलक वास्तुकला की नकल है. दूसरी प्रसिद्ध मस्जिद 1367 ई. में बनी यह ईरानी शैली को दर्शाती है. इसके आँगन की बनावट काफी सुन्दर है. यह विशाल भवन 216 फीट लम्बा तथा 176 फीट चौड़ा है, इसके चारों कोनों पर गुम्बद बने हैं. कुल मिलाकर यह भवन भव्य और सुन्दर है।
इस काल में निर्मित महमूद गवाँ का मदरसा (1472 ई.) एक विशिष्ट भवन है. यह 205 फीट लम्बी तथा 180 फीट चौड़ी भूमि में निर्मित है. यह एक तीन मंजिली इमारत है जिसमें काफी ऊँची मीनारें हैं. इसके विस्तृत आँगन में एक मस्जिद, एक पुस्तकालय, व्याख्यान कक्ष, छात्रों के आवास तथा अध्यापकों के आवास की व्यवस्था थी.
यह भव्य भवन काफी सुन्दर है इसमें ईरानी शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है। बहमनी शासकों ने कुछ अन्य छोटी-बड़ी इमारतों के भी निर्माण करवाए वास्तव में बहमनी शासकों ने एक विशेष प्रकार की शैली को जन्म दिया जो भारतीय, तुर्की, मिसी ईरानी आदि शैलियों का सम्मिश्रण थी
विजयनगर विजयनगर के सल्तनकालीन शासक भी महान भवन निर्माता थे इस क्षेत्र के स्थानीय शासकों ने स्थापत्य कला को विशेष प्रोत्साहन दिया यहाँ स्तम्भयुक्त हॉलो. मण्डपों तथा अन्य सहायक ढाँचों में वृद्धि द्वारा पुराने मन्दिरों को विस्तृत किया गया. विजयनगर शैली में निर्मित भवन तुंगभदा से दक्षिण के सम्पूर्ण प्रदेश में विस्तृत रूप से कैले हुए हैं. विट्ठल तथा हजारा मन्दिर यहाँ की सर्वाधिक प्रसिद्ध इमारतों में हैं। जिन्हें सल्तनत काल में बनवाया गया था.
विट्ठल मन्दिर का निर्माण देवराय द्वितीय के शासनकाल में प्रारम्भ किया गया. जो अच्युतराम के काल में भी जारी रहा. इस मन्दिर की दीवारों पर राम कथा खुदवाई गई थी. यह भव्य मन्दिर 500 फीट लम्बे तथा 310 फीट चौड़े एक समकोण चतुर्भुजाकार चहारदीवारी से घिरा हुआ है. इस मन्दिर में गोपुरों से युक्त तीन प्रवेश द्वार बने हैं
राजा कृष्णदेव राय के उड़ीसा – विजय के उपलक्ष्य में बने विजय भवन तथा दरबार हॉल जो किले के अन्दर निर्मित है. धर्मोत्तर भवन हैं. दरबार हॉल में 100 स्तम्भ निर्मित थे. हॉल का निचला भाग विशिष्ट अलंकरणों से युक्त था. इस काल में कुछ अन्य भवनों के निर्माण कार्य भी स्थानीय शासकों द्वारा सम्पन्न किए गए
अरब यात्री अब्दुल रज्जाक 1443 ई. में देवराय द्वितीय के शासनकाल में विजयनगर आया था उसने लिखा है “बीजानगर एक ऐसा नगर है कि आँख के तारे ने ऐसा स्थान कभी नहीं देखा और बुद्धि के कानों ने यह नहीं सुना कि संसार में इसकी तुलना किसी अन्य नगर से की जा सकती है. इसका निर्माण इस तरह हुआ है कि सात परकोटे और उतनी ही दीवारें एक-दूसरे से घिरी हैं. “
इस प्रकार स्पष्ट है कि सल्तनतकाल में दिल्ली के महान सुल्तानों के साथ-साथ उनके नियंत्रण से स्वतंत्र स्थानीय शासकों ने भी कला तथा कलाकारों को संरक्षण प्रदान कर स्थापत्य कला के विकास में विशेष योगदान दिया इस काल में निर्मित लगभग सभी प्रकार के भवनों में हिन्दू- मुस्लिम कला-शैली का अद्भुत समन्वय मिलता है जिनसे तत्कालीन शासकों की अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता तथा उदार भावना व्यक्त होती है वास्तव में शासकों ने विभिन्न वैभवशाली इमारतों के निर्माण कर अपने को इतिहास के पन्नों पर बना लिया इस सन्दर्भ में स्लीमेन का कथन अक्षरश सत्य प्रतीत होता है कि, “जिस मनुष्य ने मन्दिर, पुल, जलाशय, कारावास. सराय तथा अन्य जनोपयोगी इमारतों का निर्माण किया है, वह इतिहास के पृष्ठों पर अमर है इस काल की स्थापत्य कला की कई सही-सलामत इमारतें आज भी मुक्त कंठ से सराहना के लिए बाध्य कर देती हैं
साहित्य
सल्तनतकालीन सुल्तानों ने साहित्य की उन्नति हेतु विशेष कदम उठाए सुल्तान द्वारा विद्वानों के लिए गोष्ठियों का आयोजन किया जाता था जहाँ विचारों का आदान- प्रदान होता था
फारसी साहित्य
फारसी तथा अरबी साहित्य की इस काल में विशेष उन्नति हुई सुल्तानों ने फारवी भाषा एवं साहित्य के विकास के लिए अनेकानेक मकतबों का निर्माण कराया जहाँ फारसी भाषा की विधिवत् शिक्षा प्रदान की जाती थी. अलबरूनी की तहकीक-ए-हिन्द, हसन निजामी की ताजुलमासिर, मिनहाजुद्दीन सिराज की तबकाते नासिरी, जियाउद्दीन बरनी की तारीख-ए-फीरोजशाही तथा फतवा- ए-जहाँगीरी, याहियाबिन अहमद सरहिन्दी की तारीख-ए-मुबारकशाही तथा इसामी की ‘फुतुह-उस-सलातीन’ आदि इस काल की प्रसिद्ध फारसी कृतियाँ हैं. इसके अतिरिक्त अनेक लेखक तथा कवि यथा अमीर खुसरों, मीर हसन देहलवी, एनुल मुल्क मुल्तानी आदि हुए, जिन्होंने फारसी में अनेक काव्य रचनाएं कीं अमीर खुसरो इस काल के महानतम् कवि थे, जिन्होंने लगभग चार लाख छन्दों की रचना की अनेक संस्कृत ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद भी इसी काल में हुआ
संस्कृत साहित्य
सल्तनतकाल में संस्कृत भाषा तथा साहित्य की भी बहुत उन्नति हुई इस काल में संस्कृतसाहित्य को मुख्यतः हिन्दू शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ हम्मीर देव, कुभकर्ण, प्रताप रुद्रदेव, बसंतराज, वेमभूपाल, कात्यवेम, विरूपाक्ष, नरसिंह, कृष्णदेवराय, भूपाल आदि अनेक हिन्दू शासकों ने संस्कृत साहित्य की उन्नति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई प्रसिद्ध विद्वान् अगस्त्य, जोकि प्रताप रुद्रदेव के दरबार में हुए, ने प्रताप रुद्रदेव यशोभूषन एवं कृष्ण चरित आदि ग्रन्थों की रचना की वामन भट्ट वाण ने अनेक काव्य, नाटक तथा चरित आदि की रचना की ‘विद्यापति’ की ‘दुर्गाभक्त तरंगिनी’ ‘विद्या- रण्य’ की ‘शंकर विजय’, ‘जयचन्द्र’ की ‘हम्मीर काव्य’, कृष्णदेवराय की ‘जाम्बवती कल्याण रामानुज की ब्रह्मसूत्र पर टीका ‘पार्थसारथी की कर्ममीमासा जय सिंह सूरी की ‘हम्मीर मद मर्दन’, गंगाधर की गंगादास प्रताप विलास, विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा’ तथा कल्हण की राजतरंगिणी आदि की रचना इसी काल में हुई. रवि वर्मन, विश्वनाथ तथा भास्कराचार्य आदि इसी काल के महान् विद्वान् थे, जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की.
हिन्दी साहित्य
इस काल में हिन्दी साहित्य का भी विकास हुआ चन्द्रवरदाई की ‘पृथ्वीराज रासो’ सारंगधर की ‘हम्मीर रासो’ तथा ‘हम्मीर काव्य’ जगनक की ‘आल्हखण्ड’, जिसमें महोबा के चंदेल नरेश परमर्दीदेव के आल्हा तथा ‘ऊदल’ नामक दो महान योद्धाओं के वीरतापूर्ण कार्यों का ओजपूर्ण भाषा में वर्णन किया गया है इस काल की महान् कृतियाँ हैं विद्यापति ठाकुर, रघुनंदन मिश्र तथा जयदेव आदि इस काल के महान् लेखक हुए, जिन्होंने हिन्दी साहित्य के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया विद्यापति ठाकुर ने मैथली, नामदेव ने मराठी, गुरूनानक ने पंजाबी तथा मीराबाई ने राजस्थानी साहित्य का सृजन इसी काल में किया
उर्दू साहित्य
हिन्दू और मुसलमानों के एक-दूसरे के सम्पर्क में आने के कारण एक नई भाषा उर्दू का जन्म हुआ. इस भाषा का प्रयोग हिन्दू तथा मुसलमान बोलचाल में किया करते थे, बाद में इस भाषा के साहित्य का विकास हुआ. अमीर खुसरो तथा मीर हसन देहलवी ने उर्दू साहित्य के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया जायसी, कबीर तथा नानक ने अपनी रचनाओं में अनेक स्थान पर उर्दू शब्दों का प्रयोग किया, किन्तु सल्तनतकालीन सुल्तानों ने इस भाषा को विशेष प्रोत्साहन नहीं दिया.
मुहम्मद-बिन-तुगलक के शासन के अंतिम दिनों में सर्वत्र अस्थिरता व्याप्त हो गई थी. जगह-जगह विद्रोह आरम्भ हो गए. दूरस्थ प्रांत के अनेक शासकों ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी और अनेक प्रांत पृथक् राज्य बन गए. ऐसी स्थिति में दक्षिण में संगम के पाँच पुत्रों में से दो हरिहर और बुक्का, जोकि आरम्भ में होयसल राजा वीर बल्लाल तृतीय के यहाँ नौकर थे, ने 1336 ई. में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की, विजयनगर साम्राज्य की स्थापना का मुख्य उद्देश्य दक्षिण में हिन्दुओं के प्रभुत्व को स्थापित करना था साम्राज्य का विस्तार कृष्णा से कावेरी तथा बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक था. विजयनगर साम्राज्य में चार वंश-संगम वंश, सालुब वंश, तुलव वंश तथा अंडविदु वंश के शासकों ने शासन किया
संगम वंश
संगम वंश के शासकों में हरिहर, बुक्का, हरिहर द्वितीय, देवराय द्वितीय, मल्लिकार्जुन, विरुपाक्ष ने 1336 ई. से 1486 ई. तक शासन किया. हरिहर ‘संगम’ का पुत्र था. उसके – द्वारा स्थापित राज्य को आरम्भ में मदुरई तथा मैसूर के शासकों का सामना करना पड़ा. होयसल राज्य का पतन होते ही हरिहर एवं उसके भाई बुक्का ने अवसर का लाभ उठाकर अपने सम्राज्य का विस्तार किया और शीघ्र ही होयसल के समस्त राज्य पर अपना अधिकार कर लिया.
बुक्का, जोकि हरिहर का भाई था, ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया 1354 ई. में अपने भाई हरिहर का उत्तराधिकारी बना उसने 1377 ई. तक शासन किया अपने शासन के दौरान उसने साम्राज्य की सीमा में और अधिक विस्तार किया. अब उसके साम्राज्य की सीमा के अंतर्गत दक्षिण भारत रामेश्वरम् तमिल व चेर प्रदेश आ गए हरिहर द्वितीय बुक्का की मृत्यु के पश्चात् हरिहर द्वितीय विजयनगर साम्राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ, उसने 1406 ई. तक शासन किया 1398 ई में हरिहर द्वितीय व बुक्का द्वितीय ने कृष्णा और तुंगभद्रा के मध्य स्थित रायचूर दोआब पर अपना अधिकार करने के लिए बहमनी राज्य पर आक्रमण कर दिया. किन्तु फिरोजशाह बहमनी द्वारा वे पराजित हुए अपने शासन के दौरान हरिहर द्वितीय ने अपने शासन का विस्तार किया और अब मैसूर, चिंगलपुर, त्रिचनापल्ली तथा कांजीवरम पर उसका अधिकार हो गया अगस्त 1406 ई. में हरिहर द्वितीय की हो गई. देवराय प्रथम मृत्यु
हरिहर द्वितीय के पश्चात् उसका पुत्र देवराय प्रथम 1406 ई. में विजयनगर साम्राज्य का शासक नियुक्त हुआ सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् बहमनी सुल्तानों से उसका युद्ध हुआ, जिसमें अनेक बार उसे पराजय का सामना करना पड़ा 1422 ई. में उसकी मृत्यु हो गई. इस काल में इटालियन निकोला कोण्टी ने यात्रा की देवराय द्वितीय देवराय प्रथम की मृत्यु के पश्चात् विजय बुक्का अथवा वीर विजय सम्राट बना कुछ समय शासन करने के उपरान्त ही उसकी मृत्यु हो गई. उसके पश्चात् देवराज द्वितीय 1422 ई. में विजय नगर साम्राजय के सिंहासन पर आसीन हुआ उसने शासन व्यवस्था को पुनर्गठित किया बहमनी राज्य का सामना करने के लिए उसने अपनी सेना में मुसलमानों की भर्ती प्रारम्भ की सामुद्रिक व्यापार का निरीक्षण करने के लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की 1446 ई. में उसकी मृत्यु हो गई ईरान का अब्दुर रज्जाक इसी के शासनकाल में भारत भ्रमण पर आया था. इसके पश्चात् उसके उत्तराधिकारी जिन्होंने शासन किया. दुर्बल एवं अयोग्य साबित हुए. परिणामस्वरूप विजयनगर साम्राज्य पतोन्नमुख हो चला. मल्लिकार्जुन देवराय द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र मल्लिकार्जुन विजयनगर साम्राज्य का शासक बना इसके शासनकाल में बहमनी सुल्तान तथा उड़ीसा के राजा ने पूर्वी प्रान्तों पर आक्रमण किया, किन्तु गर के शक्तिशाली सालु वशीय सामन्त नरसिंह ने इन आक्रमणों का प्रतिरोध किया विरूपाक्ष मल्लिकार्जुन का उत्तराधिकारी विरूपाक्ष द्वितीय हुआ, जोकि अत्यंत ही अयोग्य शासक साबित हुआ.
सालव वंश
नरसिंह सालुव नरसिंह सालुव, विरूपाक्ष द्वितीय को पदच्युत करके विजयनगर साम्राज्य के शासन पर अधिकार कर लिया. विजयनगर साम्राज्य के इतिहास में यह घटना प्रथम अपहरण’ के नाम से जानी जाती है. नरसिंह अत्यन्त ही योग्य एवं न्यायप्रिय शासक था.. उसने कुल मिलाकर 6 वर्ष तक शासन किया. अपने शासन के दौरान उसने अनेक प्रांतों को पुनः विजित करके साम्राज्य की सीमाओं को पुनस्थापित किया. इसके शासन में राज्यशक्ति उसके सेनापति नरसनायक के हाथों में केन्द्रित रही 1505 ई. में नरसनायक की मृत्यु हो गई. इसके पश्चात् उसके महत्वाकांक्षी पुत्र वीर नरसिंह ने नरसिंह सालुव के अयोग्य पुत्र को पदच्युत कर विजयनगर साम्राज्य पर अपना अधिकार कर लिया. विजयनगर साम्राज्य के इतिहास यह घटना ‘द्वितीय अपहरण’ के नाम से जानी जाती है.
तुलुव वंश
वीर नरसिंह
वीर नरसिंह तुलुव वंश का संस्थापक था. उसने 1505 ई. से 1509 ई. तक विजयनगर साम्राज्य पर सफलतापूर्वक शासन किया. कृष्णदेव राय 1509 ई. में वीर नरसिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका छोटा भाई कृष्णदेव राय विजयनगर का शासक बना उसकी गणना विजयनगर साम्राज्य के श्रेष्ठ शासकों में की जाती है. अपने शासन के दौरान उसने 1513 ई. में उड़ीसा के राजा गजपति प्रतापरुद्र को परास्त किया. 1514 ई. में उदयगिरि के किले पर अधिकार किया. इसके पश्चात् कोडबिन्दु तथा कोडपल्ली पर अधिकार किया. 1520 ई. में बीजापुर को विजित किया तथा गुलबर्गा के किले को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया. पुर्तगाली शासक अलबुकर्क के अनुरोध पर उसे भटकल में दुर्ग निर्माण की अनुमति प्राप्त हुई पुर्तगाली | यात्री ‘डोमिंगोस पेइज’ ने उसके व्यक्तित्व | तथा शासन की भूरि-भूरि प्रशंसा की है कृष्णदेव राय ने अपने साम्राज्य का अधिकाधिक विस्तार किया उसका साम्राज्य पश्चिम में दक्षिणी कोंकण, पूर्व विजगापट्टम तथा दक्षिण में प्रायद्वीप की में सुदूरवर्ती सीमा तक विस्तृत था 1529 ई. में उसकी मृत्यु हो गई
वैष्णव धर्मावलम्बी कृष्णदेव राय न केवल महान शासक था अपितु महान् विद्वान् एवं विद्या को संरक्षण प्रदान करने वाला था तेलुगु राजनीति पर लिखी गई पुस्तक ‘अमुक्तामाल्याद’ तथा संस्कृत नाटक ‘जाबवंती कल्याणम् उसके द्वारा लिखित प्रमुख ग्रन्थ हैं कृषि को उन्नत बनाने के लिए अनेक तालाबों एवं नहरों का निर्माण कराया बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के प्रयास किए. अनेक लोकप्रिय करों यथा- विवाह कर आदि को समाप्त कर दिया उसके शासनकाल में तेलुगु साहित्य की अत्यधिक उन्नति हुई उसके दरबार में विद्यमान आठ विद्वानों को ‘अष्ट दिग्गज’ तथा स्वयं को आंध्र भोज’ कहा जाता था. अच्युतदेव राय कृष्णदेव राय की मृत्यु के पश्चात् अच्युतदेव राय 1529 ई में विजयनगर साम्राज्य का शासक बना वह अत्यन्त ही दुर्बल एवं अयोग्य शासक था 1542 ई. में उसकी मृत्यु हो गई. वेंकटादि प्रथम अच्युतदेव की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र वेंकटादि प्रथम शासक हुआ उसने मात्र छः माह तक ही शासन किया. इसके उपरान्त शासन सत्ता पर अच्युतदेव राय के भतीजे सदाशिव का अधिकार हो गयासदाशिव नाममात्र का ही शासक रहा. उसके शासनकाल में राज्य की वास्तविक शक्ति उसके प्रधानमंत्री रामराय’ के हाथों में ही रही.
रामराय
रामराय ने विजयनगर साम्राज्य को पुनः शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया उसने दक्षिण स्थित मुसलमानों के राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप किया उसकी यही नीति उसके लिए घातक सिद्ध हुई उसने सर्वप्रथम 1543 ई. में बीजापुर के विरुद्ध गोलकुण्डा तथा अहमदनगर राज्य से मित्रता की और कुछ समय बाद ही अहमदनगर के विरुद्ध बीजापुर व गोलकुण्डा का साथ दिया तथा अहमदनगर पर आक्रमण के समय मस्जिदों को तोड़ा तथा कुरान का अपमान किया, परिणामस्वरूप दक्षिण के सुल्तानों ने उसके विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बना लिया.
1320 ई को दिल्ली के निकट गाजी मलिक व खुसरोशाह के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें खुसरोशाह वीरता से लड़ा, किन्तु पराजित हुआ और मारा गया तुगलक वंश गयासुद्दीन तुगलक गयासुद्दीन का नाम गाजी मलिक अथवा गाजी बेग तुगलक था. सितम्बर 1320 ई. में उसने खुसरोशाह को दिल्ली के निकट हुए युद्ध में परास्त किया गयासुद्दीन तुगलक के नाम से दिल्ली का सुल्तान बना. यही कारण है कि उसे तुगलक वंश का संस्थापक माना जाता है. सुल्तान बनते ही उसे अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा अनेक प्रान्तों में जगह-जगह विद्रोह हो रहे थे शाही खजाना रिक्त हो चुका था. उसने समस्याओं का धैर्यता से सामना किया. उसने उदार तथा कठोर नीति का अनुसरण कर तत्कालीन सरदारों और नागरिकों को सन्तुष्ट किया वह 1325 ई. तक सुल्तान पद पर रहा. अपने शासनकाल में उसने कृषकों की भलाई के उद्देश्य से पूर्व की भौति पैदावार का 1/5 भाग लगान वसूल करना प्रारम्भ किया तथा अकाल की स्थिति में भूमि कर को माफ करने की व्यवस्था की, यातायात एवं डाक व्यवस्था में सुधार किया. सरकारी कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि की रिक्त शाही खजाने को भरा लगान अधिकारियों को अनेक सुविधाएँ प्रदान कीं. इसके साथ ही अपने साम्राज्य की सीमाओं में विस्तार किया. उसने उत्तर भारत के साथ ही दक्षिण भारत को भी अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया जब वह अपने अंतिम सैनिक अभियान में बंगाल विद्रोह का दमन कर दिल्ली वापस आ रहा था तब वह दिल्ली के निकट अफगानपुर नामक स्थान पर एक लकड़ी निर्मित महल में आयोजित समारोह में सम्मिलित हुआ हाथियों की परेड के दौरान महल धराशायी हो गया और इसी में दबकर 1325 ई. में गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु हो गई. अनेक इतिहासकारों का मत है कि लकड़ी के महल का निर्माण जूना खाँ का पूर्व नियोजित षड्यंत्र था
मुहम्मद-बिन-तुगलक
गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु के पश्चात् 1325 ई. में उसका पुत्र जूना खाँ मुहम्मद- बिन तुगलक के नाम से दिल्ली का सुल्तान बना उसने 1351 ई. तक शासन किया. अपने शासन के दौरान उसने अनेक अच्छे एवं बुरे कार्य किए. उसने अपनी आय में वृद्धि करने के उद्देश्य से दोआब में कर की मात्रा में वृद्धि की, किन्तु तभी दोआब में अकाल पड़ गया और सरकारी कर्मचारियों ने कर वसूली में सख्ती दिखाई, परिणामस्वरूप चारों तरफ लूट-पाट मच गई अंतत उसकी यह योजना असफल हो गई. उसने कृषि विभाग का निर्माण किया जिसका नाम ‘दीवाने कोही’ रखा गया. उसने दिल्ली के स्थान पर देवगिरि को अपनी राजधानी बनाया तथा इस नयी राजधानी का नाम परिवर्तित कर दौलताबाद रखा तथा लोगों को दिल्ली से दौलताबाद जाने के लिए मजबूर किया भारतीय इतिहास में मुहम्मद- बिन तुगलक को मुद्रा बनाने वालों का राजा कहा गया है उसने सांकेतिक मुद्रा का चलन आरम्भ किया. यद्यपि नवीन सिक्के कलात्मक डिजाइनों से परिपूर्ण थे किन्तु इन सिक्कों पर राजकीय टकसाल का कोई चिन्ह अंकित नहीं था परिणामस्वरूप व्यापारियों ने इन सिक्कों को स्वीकार करने से मना कर दिया. बहुतायत में जाली सिक्कों का प्रचलन हो गया तथा चाँदी के सिक्के बाजार से गायब हो गए, अंत में आर्थिक व्यवस्था इतनी अव्यवस्थित हो गई कि मजबूर होकर सुल्तान को सांकेतिक मुद्रा का चलन बंद करना पड़ा. इस प्रकार इसकी यह योजना भी असफल रही. यद्यपि वह अपनी योजनाओं में असफल रहा, किन्तु फिर भी उसमें अनेक गुण विद्यमान थे. उसकी बुद्धि कुशाग्र, स्मरण शक्ति तीव्र, ज्ञान पिपासा अद्भुत थी. वह दर्शन, गणित, ज्योतिष तथा फारसी साहित्य और काव्य का महान् विद्वान् था उसे संगीत एवं कला से भी विशेष अनुराग था. इब्बनतूता नामक यात्री इसी के शासनकाल में भारत आया. सुल्तान ने उसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया. अपने शासन के दौरान गुजरात में विद्रोह का दमन कर जब सिन्ध के विद्रोह को दबाने के लिए गया, मार्ग में ही अस्वस्थ हो गया और थट्टा के निकट 20 मार्च, 1351 ई. को उसकी मृत्यु हो गई.
फिरोजशाह तुगलक
फिरोजशाह तुगलक मुहम्मद तुगलक का चचेरा भाई था. मार्च 1351 ई. में थट्टा के निकट उसका राज्याभिषेक हुआ वह एक आदर्श मुसलमान शासक था वह स्वभाव से दयालु, न्याय प्रिय शिष्ट तथा ईश्वर से डरने वाला शासक था. उसने प्रजा कल्याण हेतु सभी उपाय किए, किन्तु सैनिक दृष्टि से वह अयोग्य था. यही कारण रहा कि उसके शासनकाल में अनेक प्रदेश दिल्ली से स्वतन्त्र हो गए. सैनिक पद को अनुवांशिक बनाने के परिणामस्वरूप सैनिक संगठन कमजोर हो गया. अलाउद्दीन खलजी द्वारा समाप्त की गई जागीर प्रथा को उसने पुनः चलाया, जिससे सैनिकों में भ्रष्टाचार फैल गया. उसने सैनिकों के पद के साथ ही सरकारी पदों को भी वंशानुगत बना दिया. भवन निर्माण कला को उसके शासन में विशेष प्रोत्साहन मिला हिसार, फिरोजपुर फिरोजाबाद तथा जौनपुर आदि नगरों की स्थापना इसी के काल में हुई इसी के शासनकाल में मेरठ तथा टोपरा से अशोक स्तम्भ दिल्ली लाए गए गरीब मुसलमानों की कन्याओं के विवाह प्रबन्ध हेतु उसने ‘दीवान-ए-खैरात’ विभाग की स्थापना की इस विभाग से विधवा तथा अनाथों को भी सहायता मिलती थी फिरोज ने लगभग 24 करों को समाप्त कर दिया केवल चार कर ‘खराज’, ‘जकात’, ‘खम्स तथा जजिया’ प्रचलन में रहे पानी की उत्तम व्यवस्था हेतु कुओं तथा नहरों का निर्माण कराया, जिनमें से एक नहर यमुना से हिसार तक 250 किमी लम्बी थी दूसरी सतलज से घग्घर तक तथा तीसरी सिमूर की पहाडियों में हाँसी तक जाती थी उसने कुरान के नियमों पर आधारित न्याय व्यवस्था की स्थापना की अंग-भंग तथा शारीरिक दण्ड देना बंद कर दिया गया शिक्षा एवं साहित्य की उन्नति की ओर विशेष ध्यान दिया शिक्षा प्रसार हेतु उसने ‘मदरसे’ तथा ‘मकतबों’ की स्थापना की जनता की सुविधा की दृष्टि से कम मूल्य के अद्धा तथा बिख’ नामक सिक्के चलाए गुलामों की शिक्षा तथा रोजगार का प्रबन्ध किया गैर-मुस्लिमों को बलात् मुसलमान बनाने का प्रयास किया हिन्दुओं से कठोरता से ‘जजिया कर वसूल किया. इन्हीं दुःखों से पीडित फिरोज तुगलक की सितम्बर 1388 ई. में मृत्यु हो गई.
तुगलक शाह
फिरोजशाह तुगलक की मृत्यु के पश्चात् तुगलक शाह गयासुद्दीन तुगलक द्वितीय के नाम से सितम्बर 1388 ई. में दिल्ली का सुल्तान बना उसने लगभग 5 माह तक ही शासन किया उसके असंतुष्ट सरदारों ने अबू बक्र को फरवरी 1389 ई में दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया
शहजादा मुहम्मद
शहजादा मुहम्मद कुछ शक्तिशाली अमीरों की सहायता से अप्रैल 1389 ई. में ‘समाना’ में स्वयं को सुल्तान घोषित कर दिया परिणामत: शहजादा मुहम्मद एवं अबू बक्र के मध्य संघर्ष हुआ जिसमें अबू बक्र को सिंहासन छोड़ना पड़ा, किन्तु शहजादा मुहम्मद भी अधिक समय तक शासन न कर सका जनवरी 1394 ई. में उसकी हो गई. मृत्यु शहजादा मुहम्मद की मृत्यु के पश्चात् र उसका पुत्र हुमायूँ अलाउद्दीन सिकन्दर न शाह के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर 7 आसीन हुआ, किन्तु छ सप्ताह के उपरान्त न ही उसकी मृत्यु हो गई.
नासिरुद्दीन महमूद
‘अलाउद्दीन सिकन्दर की मृत्यु के उपरान्त उसका छोटा भाई नासिरुद्दीन महमूद शाह दिल्ली के सिहासन पर आसीन हुआ यही तुगलक वंश का अंतिम सुन था यद्यपि इसने 1390 से 1412 ई तक शासन किया. किन्तु इसके शासनकाल में तुगलक वंश का पतन ही होता रहा साम्राज्य सीमाएं संकुचित हो गई. दक्षिण भारत, खानदेश, बंगाल, गुजरात, मालवा राजस्थान, बुंदेलखण्ड आदि सूबे उसके हाथ से निकल गए. जौनपुर स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित हुआ फिरोजबाद भी स्वतंत्र हो गया. 1412 ई में नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के साथ ही तुगलक वंश का अंत हो गया
तैमूर का आक्रमण
तैमूर लंग एक महत्वाकांक्षी सम्राट था 1369 ई. में वह समरकंद (मध्य एशिया) के सिहासन पर आसीन हुआ ईरान, अफगानिस्तान एवं मेसोपोटामिया को विजित करने के पश्चात् उसकी दृष्टि भारत की अतुलनीय सम्पत्ति की ओर गई. अतः 1398 ई. में तैमूर ने भारत पर आक्रमण कर दिया तथा झेलम, रावी आदि को पार करता हुआ मुल्तान, दियालपुर, पाक, पटन, भटनेर, सिरसा तथा कैथल को लूटता हुआ दिल्ली आ पहुँचा यहाँ यह लगभग 15 दिन तक ठहरा दिल्ली को मनमाने तरीके से लूट लिया तथा कत्लेआम किया गया 1399 ई. में वह फिरोजाबाद मेरठ, हरिद्वार, कांगड़ा तथा जम्मू को लूटता हुआ समरकंद चला गया जाने से पहले उसने सैयद वंशीय खिज खाँ को मुल्तान, लाहौर तथा दिपालपुर की जागीर सौंप दी.
सैयद वंश खिज खाँ
भारत से वापस जाते समय तैमूर खिज खाँ को मुल्तान, लाहौर तथा दिपालपुर का शासक नियुक्त कर गया था 1414 ई. में खिज खाँ ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया. उसने 1421 ई. तक शासन किया अपने शासन के दौरान उसे कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई
मुबारकशाह
खिज खाँ की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र मुबारक खाँ 1421 ई. में दिल्ली सिंहासन पर बैठा उसने मुबारकशाह की उपाधि धारण की 1421 ई. से 1434 ई. तक के अपने तेरह वर्ष के शासन में वह अपने पिता की भाँति ही अपने राज्य के विदेशी शत्रुओं और आंतरिक विद्रोहियों से संघर्ष करता रहा
मुहम्मद-बिन-फरीद खाँ
मुबारकशाह की मृत्यु के पश्चात् उसके भाई का पुत्र मुहम्मद-बिन-फरीद खाँ 1434 ई. में मुहम्मदशाह के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हुआ. 1445 ई. में मुहम्मदशाह की मृत्यु हो गई.
अलाउद्दीन आलमशाह
मुहम्मदशाह की मृत्यु के पश्चात् अला- उद्दीन, ‘अलाउद्दीन आलमशाह’ के नाम से 1445 ई. में दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हुआ वह बड़ा ही अयोग्य सुल्तान था. उसके शासनकाल में बहलोल लोदी ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और हमीद खाँ को अपने रास्ते से हटा दिया. अलाउद्दीन आलमशाह ने भी बहलोल लोदी का विरोध नहीं किया. वह जीवनपर्यन्त एक अमीर के रूप में बदायूँ ही रहा, वहीं उसकी मृत्यु हो गई.
लोदी वंश
बहलोल लोदी, लोदी वंश का संस्थापक था उसका सम्बन्ध अफगानों की एक महत्वपूर्ण शाखा ‘शाहूरवेल’ से था. अप्रैल 1451 ई. को वह बहलोल शाह गाजी के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हुआ उसने मेवात्, सम्भल, कोल, खरी, भोगाँव, इटावा एवं ग्वालियर के जागीरदारों पर आक्रमण कर अपना प्रभुत्व स्थापित किया. जौनपुर के राज्य को दिल्ली में सम्मिलित किया. बहलोल ने अपने जीवन 80 के अंतिम दिनों में ग्वालियर के राज मानसिंह पर आक्रमण किया और उससे । लाख टका प्राप्त किए. यहाँ से लौटते समय यह बीमार पड़ गया और जुलाई 1489 उसकी मृत्यु हो गई. सिकन्दर लोदी बहलोल लोदी की मृत्यु के पश्चात उसका दूसरा पुत्र निजाम शाह 17 जुलाई, 1489 ई. को दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हुआ उसने सिकन्दर शाह की उपाधि धारण की यह उदार, न्यायि शासक था अपने साम्राज्य की सीमाओं का बहुत विस्तार किया भूमि की नाप कराई उसने एक प्रामाणिक गज चलाया, जोकि लम्बे समय तक ‘सिकन्दरी गज’ के नाम से प्रचलित रहा 1504 में आगरा नगर का निर्माण कराया. वह कवि भी था और ‘गुलरुखी’ के नाम से कविताएँ लिखा करता था. उसके शासनकाल में एक आयुर्वेद ग्रन्थ का फारसी में अनुवाद कराया गया जो ‘फरहंगे सिकन्दरी’ के नाम से प्रख्यात हुआ हिन्दू धर्म को कुचलने तथा इस्लाम का उत्थान करने के लिए हर सम्भव प्रयास किए. उसके जीवन के अंतिम दिन ग्वालियर धौलपुर, नरवर आदि के हिन्दू शासकों से संघर्ष में ही बीते 21 नवम्बर, 1517 ई. को आगरा में उसकी मृत्यु हो गई. इब्राहीम लोदी सिकन्दर लोदी की मृत्यु के पश्चात् उसका पड़ा पुत्र इब्राहीम 21 नवम्बर, 1517 ई. में आगरा के सिंहासन पर आसीन हुआ उसने इब्राहीम शाह की उपाधि धारण की सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् उसने आजम हुमायूँ शेरवानी को ग्वालियर पर आक्रमण करने के लिए भेजा. आक्रमण में ग्वालियर के राजा विक्रमाजीत (मानसिंह का पुत्र) को हथियार डालने पड़े वह इब्राहीम का अधीनस्थ सामंत हो गया साम्राज्य सीमा की वृद्धि के उद्देश्य से इब्राहीम ने मेवाड़ के शासक राणा सांगा पर आक्रमण किया. इस युद्ध में राजस्थान स्थित बकरोल के निकट इब्राहीम की पराजय हुई इब्राहीम के तत्कालीन अमीरों से सम्बन्ध अच्छे नहीं थे. उसकी पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ से अनबन हो गई थी. अतः दौलत खाँ ने • काबुल के शासक बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया. उसके आमंत्रण पर बाबर ने भारत पर आक्रमण कर दिया. 21 अप्रैल, 1526 ई ■ को पानीपत के मैदान में बाबर व इब्राहीम की सेना के मध्य भयंकर युद्ध हुआ. इस युद्ध में इब्राहीम लोदी की पराजय हुई और इस प्रकार दिल्ली सल्तनत काल समाप्त हो में गया और भारत में एक नवीन वंश ‘मुगल न वंश की स्थापना हुई.
सल्तनतकाली
सुल्तानों ने भारत में जिस राज्य को सु स्थापित किया वह शीघ्र ही एक शक्तिशाली केन्द्रीभूत शासन की इकाई में विकसित हो गया. यह सही है कि कुछ सुल्तानों ने खलीफा के नाम का खुतवा पढ़वाया तथा स अपने को खलीफा का सहायक व सेनापति प्र घोषित किया, किन्तु इसने भारत में खलीफा की प्रभुसत्ता की स्थापना नहीं की इसका तो केवल यह अर्थ था कि सल्तनत अपने को इस्लामी विश्व से अलग न करके इसके एक अंग के रूप में देखती थी..
सुल्तान का पद सल्तनत में केन्द्रीय पद था. सारी राजनीतिक सैनिक व कानूनी सत्ता उसी में निहित थी वह राज्य का सर्वोच्च प्रशासक, सेनापति तथा न्यायधीश था. उसकी नियुक्ति व उत्तराधिकार का कोई सुनिश्चित नियम सल्तनतकाल में प्रचलित नहीं था. सैन्य क्षमता के बल पर कोई भी सुल्तान बन सकता था.
सल्तनतकालीन प्रशासन दो भागों में विभक्त था – (1) केन्द्रीय शासन (2) प्रान्तीय शासन केन्द्रीय शासन शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए अनेक मंत्री होते थे, इन मंत्रियों की नियुक्ति सुल्तान अपनी इच्छानुसार करता था. ये मंत्री सुल्तान को शासन में अपना सहयोग प्रदान करते थे. इन मंत्रियों की संख्या में समय-समय पर कमी या वृद्धि होती रहती थी..
दास युग में इस परिषद् के चार मुख्य प्रमुख मंत्री थे. बाद में इनकी संख्या बढ़कर छः हो गई थी. ये मंत्री इस प्रकार थे-
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वजीर
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आरिज-ए-मुमालिक
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दीवान-ए-रसालत
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दीवान-ए-इंशा
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सद्र-उस- सुदूर
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दीवान-ए-कजा नाइब
इस पद का सृजन बहरामशाह के शासनकाल में उसके सरदारों द्वारा किया गया था. दुर्बल सुल्तानों के काल में इस पद का अत्यधिक महत्व रहा. नाइब का पद सुल्तान के पश्चात् तथा वजीर से श्रेष्ठ माना जाता था. वजीर लगान कर व्यवस्था, दान, सैनिक व्यवस्था आदि की देख-रेख करने वाला
नीन प्रशासन
सुल्तान का प्रधानमंत्री वजीर कहलाता था. उसका विभाग ‘दीवान-ए-वजारत’ कहलाता था. वह अपने विभाग का प्रमुख था. उसकी सहायता के लिए ‘नाइब वजीर’ होता था. सुल्तान की अनुपस्थिति में वजीर ही शासन प्रबन्ध करता था.
मुशरिफ-ए-मुमालिक (महालेखाकार) यह प्रान्तों तथा अन्य विभागों से प्राप्त होने वाली आय व्यय का लेखा-जोखा रखता था, किन्तु फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में यह केवल आय का हिसाब- किताब रखने लगा इसकी सहायता के लिए स एक नाजिर होता था.
मुस्तौफी-ए-मुमालिक ( महालेखा परीक्षक)
यह मुशरिफ-ए-मुमालिक के लेखों-जोखों की जाँच करने वाला अधिकारी था इसकी सहायता के लिए भी कुछ पदाधिकारियों तथा लिपिकों की व्यवस्था की गई थी, जो विशालकाय कार्यालयों में काम किया करते थे.
दीवाने वक्फ इस विभाग की स्थापना जलालुद्दीन खलजी द्वारा की गई थी. यह विभाग व्यय के कागजातों की देख-रेख किया करता था.
दीवाने मुस्तखराज
इस विभाग की स्थाना अलाउद्दीन खलजी द्वारा की गई थी. यह विभाग वित्त विभाग के अधीन था. इस विभाग का मुख्य कार्य अधिक मात्रा में आयकरों का हिसाब- किताब रखना था. दीवाने अमीर कोही
इस विभाग की स्थापना मुहम्मद-बिन- तुगलक द्वारा की गई थी. इस विभाग की स्थापना का मुख्य उद्देश्य कृषि क्षेत्र को उन्नत बनाना था. इस विभाग का मुख्य कार्य भूमि को खेती योग्य बनाना होता था. आरिजे मुमालिक यह सैन्य विभाग, जिसे दीवाने अर्ज अथवा दीवाने आरिज के नाम से जाना जाता था, का प्रधान होता था. इसका प्रमुख कार्य सैनिकों की भर्ती करना उनकी हुलिया का लेखा-जोखा रखना, घोडों पर दाग लगाने की व्यवस्था तथा फौजों का निरीक्षण करना होता था. इस विभाग की स्थापना बलबन द्वारा की गई थी..
दीवाने ईशा
यह पत्र व्यवहार करने वाला विभाग था इसके प्रधान को दबीर-ए-खास कहा जाता था इसका मुख्य कार्य शाही घोषणाओं और पत्रों के मसविदे तैयार करना होता था. इसकी सहायता के लिए अनेक लेखक होते थे. जिन्हें दबीर के नाम से जाना जाता था. सुल्तान के सभी फरमानों को इसी विभाग – के द्वारा जारी किया जाता था.
दीवाने-रसालत
यह विदेश विभाग था. विदेशों से पत्र- व्यवहार तथा विदेशी राजदूतों की व्यवस्था करने का उत्तरदायित्व इसी विभाग का था. विदेशों में राजदूत नियुक्त करने में इस विभाग की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी
यह धर्म विभाग तथा राजकीय दान विभाग का सर्वोच्च पदाधिकारी होता था. इसका मुख्य कार्य इस्लामी नियमों तथा उपनियमों को लागू करना तथा इस बात का विशेष ध्यान रखना कि जनता इन नियमों का पालन कर रही है अथवा नहीं, मस्जिदों, मकबरों, मदरसों, मकतबों आदि के निर्माण के लिए धन की व्यवस्था करना आदि होता था
काजी-उल्-कजात
यह न्याय विभाग का सर्वोच्च अधिकारी न होता था. प्रायः यह पद सद- उस सुदूर को ही दे दिया जाता था इसके न्यायालय से बड़ा सुल्तान का न्यायालय होता था, किन्तु राज्य का मुख्य काजी होने के नाते वह मुकदमों की सुनवाई तथा निर्णय दिया करता था, उसमें निर्णयों पर पुनर्विचार भी किया जा सकता था.
बरीद-ए-मुमालिक
यह सूचना एवं गुप्तचर विभाग का अध्यक्ष होता था विभिन्न गुप्तचर, संदेशवाहक एवं डाक चौकी इसी के अधीन होती थीं.
दरबार एवं राजमहल से सम्बन्धित अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति सुल्तान द्वारा की जाती थी. ये कर्मचारी इस प्रकार थे-
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वकील-ए-दरमहल,
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बारबक,
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अमीर-ए-हाजिब
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अमीर-ए-शिकार,
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अमीर-ए-मजलिस
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सर-ए-जहाँदारण वकील-ए-दरमहल – इस पद पर विश्व- 7 सनीय व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी इसका मुख्य कार्य राजमहल एवं सुल्तानों 7 की व्यक्तिगत सेवाओं का प्रबन्ध करना होता था शाही आदेशों का प्रसार तथा क्रियान्वयन इसी के माध्यम से किया जाता था. न बारबक यह शाही दरबार की शान- शौकत व मर्यादाओं की रक्षा करता था
अमीर-ए-हाजिब
यह शाही दरबार में सु आने वालों की जाँच-पड़ताल कर दरबार के से नियमानुसार उन्हें सुल्तान के समक्ष पेश करता था
अमीर-ए-शिकार यह शाही शिकार का प्रबन्ध करने वाला अधिकारी होता था अमीर-ए-मजलिस यह राज दरबार में होने वाले उत्सवों तथा दावतों का प्रबन्ध करता था
सर-ए-जहाँदार सुल्तान के व्यक्तिगत अंगरक्षक इसी के अधीन होते थे। अमीर-ए-आखूर यह अश्वशाला का अध्यक्ष होता था शाहना-ए-पील- यह हस्तिशाला कार अध्यक्ष होता था इसकी देख-रेख में हस्ति शाला का प्रबन्ध किया जाता था दीवान-ए-बंदगान यह गुलामों का विभाग था जिसकी स्थापना फिरोज तुगलक द्वारा की गई थी
सैनिक संगठन
सुल्तान सैन्य संगठन पर विशेष ध्यान देते थे प्राय: सेना के चार वर्ग होते थे प्रथम वर्ग में वे सैनिक आते थे जिनकी भर्ती नियमानुसार सुल्तान की सेना के लिए की जाती थी. शाही अंगरक्षक, शाही गुलाम. इसी प्रकार के सैनिक वर्ग में आते थे द्वितीय वर्ग में वे सैनिक आते थे, जिनकी भर्ती दरबार के सूबेदारों और प्रान्तीय इक्तादारों द्वारा की जाती थी इस वर्ग क सैनिकों के प्रशिक्षण एवं वेतन के भुगतान का पूर्ण उत्तरदायित्व प्रान्तीय इक्तादारों का ही होता था. तृतीय वर्ग में वे सैनिक आते थे, जिनकी भर्ती युद्ध के समय अस्थायी रूप से की जाती थी चतुर्थ वर्ग में वे सैनिक आते थे, जो स्वेच्छा से युद्ध करने के उद्देश्य से सेना में भर्ती होते थे इस वर्ग के सैनिकों को युद्ध में लूटी हुई सम्पत्ति में से हिस्सा दिया जाता था.
दीवान-ए-आरिज का प्रधान ‘आरिज-ए- मुमालिक सेना का प्रधान होता था प्रान्तों में प्रान्तीय आरिज सेना के प्रधान होते थे. सैन्य संगठन, संचालन, अनुशासन एव नियंत्रण करना इन पदाधिकारियों का मुख्य कर्तव्य होता था सैनिक तथा घोड़ों की हुलिया का लेखा-जोखा रखा जाता था, प्राय: सैनिक अधिकारियों को वेतन के रूप में जागीर तथा सैनिकों को नकद वेतन दिया जाता था.
सेना के तीन भाग होते थे-प्रथम, घुड़सवार सेना यह सेना का मुख्य आधार थी घुड़सवार दो प्रकार के हुआ करते थे, प्रथमसवार, जिनके पास एक घोड़ा होता था. द्वितीय दो अस्पा, जिनके पास दो घोड़े हुआ करते थे द्वितीय हरित सेना-भारत में स्थापित होने के पश्चात् सल्तनतकालीन सुल्तानों ने भारतीय शासकों की तरह हस्ति सेना का प्रयोग प्रारम्भ कर दिया था तृतीय – पैदल सेना, जिसके सैनिकों को पायक के नाम से जाना जाता था. सल्तनतकालीन सेना द्वारा युद्ध में तोपों का प्रयोग कभी नहीं किया गया कुछ विद्वानों का मत है कि सुल्तानों के पास तोपें थीं, किन्तु उनका प्रयोग बारूद गोले फेंकने के स्थान पर लोहे के गोले, जलने वाले पदार्थ, पत्थर तथा जहरीले साँप फेंकने के लिए किया जाता था बरछा, कटार, धनुष-बाण, ढाल, तलवार आदि सल्तनतकालीन सेना के प्रमुख हथियार थे नावों का प्रयोग सैन्य विभाग द्वारा बोझा ढोने के लिए किया जाता था. युद्ध के समय सेना को चार भागों में विभाजित किया जाता था केन्द्र, वाम पक्ष, दक्षिण पक्ष और सुरक्षित दल
न्याय विभाग
कुरान, हदीस, इजमा एवं कयास मुस्लिम कानून के चार स्रोत हैं, जिनके आधार पर न्याय किया जाता था
कुरान- यह मुस्लिम कानून का प्रमुख स्रोत है, इसकी सहायता से प्रशासकीय समस्याओं का समाधान किया जाता था. हदीस- इसमें पैगम्बर के कथनों एवं कार्यों का उल्लेख किया गया है. जब कुरान द्वारा किसी समस्या का समाधान नहीं होता था, तब हदीस का सहारा लिया जाता था. इजमा- मुस्लिम कानूनों की व्याख्या करने वाले को मुजतहिद कहा जाता था तथा इनके कानूनों को अल्लाह की इच्छा
के रूप में माना जाता था कानून के इस स्रोत को ‘इजमा’ कहते हैं.
कयास तर्क के आधार पर विश्लेषित कानून को कयास’ कहा जाता था. सल्तनतकाल में कानून को लागू करने के ढंग निम्नलिखित प्रकार थे-
सामान्य कानून
व्यापार आदि के सम्बन्ध में ये कानून मुस्लिम तथा गैर-मुस्लिम दोनों पर ही लागू होते थे, किन्तु इसके अतिरिक्त साधारणतः ये कानून केवल मुस्लिमों के लिए ही थे. देश का कानून सल्तनतकालीन सुल्तानों द्वारा शासित देश के स्थानीय कानून का आदर किया जाता था.
फौजदारी कानून
यह हिन्दू तथा मुसलमान दोनों पर ही समान रूप से लागू होता था. र-मुसलमानों का धार्मिक तथा
गैर- व्यक्तिगत कानून दिल्ली सल्तनत हिन्दुओं के सामाजिक मामलों में कम-से-कम हस्तक्षेप करती थी..
हिन्दुओं के सामाजिक मामलों सम्बन्धी एव व्य मुकदमों का निर्णय पंचायत में विद्वान पंडितों व ब्राह्मणों द्वारा किया जाता था दिल्ली सल्तनत के मुकदमों का निर्णय काजी डी मुफ्तियों की सहायता से सुल्तान करता था सुल्तान का निर्णय अन्तिम तथा सर्वमान्य होता था. सुल्तान सप्ताह के दो दिन न्यायालय में बैठता था. धार्मिक मामलों में ना सुल्तान सद और काजी का सहयोग लेता था दण्ड विधान सल्तनत काल में दण्ड विधान कठोर था अपराध के अनुसार अग-विच्छेद, मृत्यु दण्ड तथा सम्पत्ति का अपहरण दण्ड के रूप में दिया जाता था दीवाने-कज़ा सल्तनतकालीन न्याय विभाग को न दीवाने-कजा कहा जाता था मुख्य काजी र इस विभाग का नाममात्र का अध्यक्ष होता था और वास्तविक अध्यक्ष सुल्तान मुख्य काजी राजधानी में ही रहता था तथा मुफ्ती की सहायता से कचहरी करता था. अमीरे-दाद न यह पदाधिकारी बड़े-बड़े नगरों में हुआ करते थे. इनका मुख्य कार्य अपराधियों को गिरफ्तार करना तथा काजी की सहायता से मुकदमों का फैसला करना होता था 7 प्रांतीय शासन शासन सुविधा की दृष्टि से सल्तनत को अक्ता में विभक्त कर दिया गया था अवध, बिहार, बंगाल, बदायूँ. लाहौर आदि उस समय के प्रमुख अक्ता थे अक्ता का अधिकारी मुक्ती, नाजिम, नाइब सुल्तान अथवा नायक कहा जाता था शिक ‘जिले’ अथवा ‘शिक’ के अधिकारी को शिकदार कहा जाता था. सम्भवतः शिकदार एक सैनिक पदाधिकारी होता था. इसके अधीन अनेक शासकीय कर्मचारी होते थे वह अपने जिले में कानून तथा व्यवस्था बनाए रखता था. शिकों को अपने परगनों में विभक्त कर दिया गया था परगना न अनेक गाँवों को मिलाकर एक परगने का निर्माण किया जाता था अफीफ के अनुसार, फिरोज तुगलक के समय दोआब में कुल मिलाकर पचपन परगने थे परगने का मुख्य अधिकारी आमिल होता था. एक अन्य अधिकारी जो लगान को निश्चित करता था. उसे ‘मुशरिफ’ कहा जाता था – परगने को शासन की महत्वपूर्ण इकाई माना जाता था.
गाँव
गाँव प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी. गाँव की अपनी अलग शासन व्यवस्था थी. गाँव के झगड़ों का निर्णय ग्राम पंचायत द्वारा किया जाता था. चौकीदार, पटवारी, चौधरी, खूत, मुकद्दम आदि गाँव के अधिकारी होते थे, जो गाँव की शासन व्यवस्था को चलाते थे. गाँव के शासन में सुल्तान जरा भी हस्तक्षेप नहीं करता था.
प्रांतीय न्यायपालिका
प्रांतों की न्यायपालिका के अन्तर्गत चार प्रकार के न्यायालय अपने अस्तित्व में थे, जो इस प्रकार थे-
वली अथवा गवर्नर का न्यायालय यह प्रांत का सर्वोच्च न्यायालय होता था. इस न्यायालय में सभी न्यायालयों की अपीलें पेश की जा सकती थीं वली अथवा गवर्नर के निर्णयों के विरुद्ध सीधे केन्द्र में अपील की जा सकती थी. गवर्नर मुकदमों के सम्बन्ध में काजी-ए-सूबा की सहायता लेता था.
काजी-ए-सूबा का न्यायालय काजी-ए-सूबा की नियुक्ति सुल्तान द्वारा मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर करता था. चूँकि गवर्नर प्रशासकीय एवं सैन्य सम्बन्धी मामलों में अत्यधिक व्यस्त रहता था. अतः न्याय सम्बन्धी मामलों का वहन काजी-ए-सूबा ही करता था. वह दीवानी एवं फौजदारी सम्बन्धी मुकदमों की सुनवाई करता था. प्रांत के सभी काजियों की देख-रेख तथा परगनों के काजियों के पद पर नियुक्ति हेतु व्यक्तियों की सिफारिश भी यही करता था. दीवान-ए-सूबा का न्यायालय इसका क्षेत्राधिकार अत्यन्त ही सीमित था. यह केवल भूमि राजस्व सम्बन्धी मामलों की सुनवाई तथा निर्णय करता था. इसके निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकती थी. सद्रे-सूबा का न्यायालय दीवाने सूबा की भाँति इस न्यायालय का अधिकार क्षेत्र भी अत्यन्त सीमित था.
केन्द्र की तरह प्रांत में भी अनेक पदाधिकारी यथा-मुफ्ती, मुहतसिब और दादबक होते थे. काजी, फौजदार आमिल , कोतवाल और ग्राम पंचायतें प्रांतों के न्यायिक उप-विभागों में शामिल थीं.
अक्ता
यह एक विशेष प्रकार की भूमि थी जो सैनिक एवं सैनिक अधिकारियों को दी जाती थी. इसके पाने वाले भूमि के लगान का उपभोग तो कर सकते थे, किन्तु वे उसके मालिक नहीं होते थे. जिन्हें इस प्रकार की भूमि दी जाती थी, उन्हें मुक्ता, अमीर कहा जाता था.
खालसा
वह भूमि, जिसका प्रबन्ध सुल्तान द्वारा किया जाता था, उसे खालसा भूमि कहते थे. इस भूमि पर प्रत्यक्ष रूप से केन्द्र का नियन्त्रण होता था.
अनुदान
वह भूमि जो पुरस्कार, उपहार, सेवानिवृत्त एवं धार्मिक अनुदान के रूप में दी जाती थी. उसे अनुदान भूमि कहा जाता था. इस प्रकार की भूमि पर कोई कर नहीं लगाया जाता था.
चौथे प्रकार भूमि के अन्तर्गत ऐसी भूमि आती थी, जो परम्परागत राजाओं और जमींदारों की हुआ करती थी. इस भूमि से सुल्तानों को वार्षिक कर मिलता था.
राजस्व (कर) व्यवस्था
सल्तनतकाल में मुख्य रूप से पाँच ब प्रकार के कर प्रचलित थे, जोकि इस प्रकार थे- 1. उश्र, 2. खराज, 3. खम्स, 4. जकात, 5. जजिया… उश्र मुसलमानों से वसूल किए जाने वाले भूमिकर को उश्र कर कहा जाता था, जोकि भूमि की उपज पर लगाया जाता था. इस कर की वसूल करने की दर 10% एवं 5% थी. प्राकृतिक साधनों से सींची जाने वाली भूमि पर 10% एवं मनुष्यकृत साधनों से सींची जाने वाली भूमि से उपज का 5% कर वसूल किया जाता था.
खराज
वह कर जो गैर-मुसलमानों से वसूल में किया जाता था, उसे खराज कहते थे, अगर खराज देने वाली भूमि को मुसलमान जोतता हों था, तो उससे भी खराज वसूल किया जाता था. कर के वसूल करने की दर 2/3 से अधिक तथा 1/3 भाग से कम नहीं होती थी. र खम्स ने यह लूट में प्राप्त धन अथवा भूमि में गढ़े हुए खजानों से प्राप्त धन पर वसूल किया जाता था. यह कर सम्पति का 1/S भाग था इस पर सुल्तान का अधिकार था तथा शेष 4/5 भाग को सैनिक अधिकारियों में बाँट दिया जाता था किन्तु अलाउद्दीन खलजी एवं मुहम्मद तुगलक ने 4/5 भाग राजकोष में जमाकर दिया तथा 1/5 भाग सैनिकों में बाँट दिया था. जकात यह धार्मिक कर था जोकि केवल धनवान मुसलमानों से वसूल किया जाता था. यह आय का 2.5% होता था. वसूल किए गए इस कर को मुसलमानों के लाभार्थ हेतु व्यय किया जाता था. 1 जजिया यह कर गैर-मुसलमानों, जिन्हें जिम्मी कहा जाता था. से वसूल किया जाता था. इसके बदले में सरकार जिम्मियों की सम्पत्ति आदि की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर लेती थी जिम्मियों को तीन वर्गों में रखा गया था. इन वर्गों को क्रमशः 12, 24 एवं 48 दिरहम कर के रूप में देने पड़ते थे ब्राह्मण, स्त्रियाँ, बच्चे, भिखारी, लंगड़े, अंधे, साधु, पुजारी तथा वृद्धजनों से यह कर नहीं लिया जाता था. ऐसे व्यक्ति जिनकी आय का कोई साधन नहीं था, को भी इस कर से मुक्त रखा गया था. फिरोजशाह तुगलक ने दिल्ली के ब्राह्मणों पर भी यह कर लगाया था. इस कर को सुल्तानों ने इस भय से कि कहीं बहुसंख्यक हिन्दू जनता विरोध न कर दे कठोरता से वसूल नहीं किया.
लगान व्यवस्था
बटाई
बटाई अर्थात कृषक की उपज को अथवा उसके मूल्य को बटाना. यह लगान निर्धारण की एक प्रणाली थी, जोकि सल्तनतकाल में प्रचलित थी.
बटाई तीन प्रकार की होती थी-
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खेत बटाई,
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लंक बटाई
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रास बटाई
खेत बटाई
तैयार फसल अथवा फसल बोने के तुरन्त बाद ही सरकार का हिस्सा निर्धारित हो जाता था. लंक बटाई
भूसे से अलग किए बिना ही कटी हुई फसल का कृषक व सरकार के मध्य बंटवारा किया जाता था. रास बटाई इस प्रकार की बटाई में अनाज को भूसे से अलग करने के पश्चात् अनाज का हिस्सा निर्धारित किया जाता था
बटाई प्रणाली को अधिकांश उसी क्षेत्र में लगू किया जाता था. जिस क्षेत्र पर सल्तनत का प्रत्यक्ष शासन होता था.
मुक्ताई
सल्तनतकाल में लगान निर्धारित करने की मिश्रित प्रणाली को ‘मुक्ताई’ के नाम से जाना जाता था.
नाप-जोख कर निर्धारण का यह एक अन्य तरीका था, जिसके अन्तर्गत भूमि के क्षेत्रफल के आधार पर उपज और उस पर कर निर्धारित किया जाता था. इस प्रणाली को सल्तनतकाल में अलाउद्दीन खलजी ने लागू किया. सल्तनतकाल में इस प्रणाली को ‘मसाहत’ के नाम से जाना जाता था.
उक्त वर्णित राजस्व एवं लगान व्यवस्था का निर्धारण सुल्तानों द्वारा इस प्रकार करने का प्रयास किया गया था कि कृषि की उन्नति हो तथा कृषक व राज्य के मध्य सामंजस्य बना रहे. अलाउद्दीन खलजी ने भू-राजस्व से सम्बन्धित पटवारियों के अभिलेखों को जाँचने की पद्धति प्रारम्भ की. उसने मूल्य नियंत्रण के सफल क्रियान्वयन हेतु अनाज के रूप में भू-राजस्व लेने को प्राथमिकता दी. फिरोज तुगलक ने कृषि को उन्नत बनाने के लिए सराहनीय प्रयास किए. उसने भूमि के गुणात्मक सुधारों की ओर विशेष ध्यान दिया. उसने भूमि की सिंचाई हेतु ‘फिरोजरज्या’, ‘अलुधखनी’ नामक दो नहरों का निर्माण कराया. बड़े-बड़े उद्यान लगवाए.
सल्तनतकाल में सामान्यतः उपज का 33% भू-राजस्व के रूप में वसूल किया जाता था, किन्तु अलाउद्दीन खलजी और मुहम्मद तुगलक ने उपज का 50% भू- राजस्व के रूप में वसूल किया. फिरोज तुगलक ने भूमि कर के साथ सिंचाई कर लगाया. जिसकी दर उपज का 1/20 भाग थी. इस कर को वे किसान देते थे, जो सिंचाई हेतु नहरों का पानी प्रयोग में लाते थे
सल्तनतकालीन सुल्तानों ने भारत के आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास की ओर ध्यान दिया.
आर्थिक दशा
सल्तनतकाल में भारत आर्थिक दृष्टि से उन्नतशील था. विदेशों से आयात एवं निर्यात होता था. इस काल में अनेक व्यापारिक केन्द्र थे, जहाँ से व्यापार किया जाता था.
व्यापार
व्यापारी अपनी सुरक्षा की दृष्टि से काफिले बनाकर व्यापार किया करते थे. इन व्यापारियों को अनेक मंडियों की कीमतों आदि का विशेष ज्ञान रहता था. कुछ व्यापारी दलाली करके भी मुनाफा कमाते थे. व्यापार जल एवं थल दोनों मार्गों द्वारा किया जाता था. सल्तनतकाल में विभिन्न वस्तुओं का आयात एवं निर्यात किया जाता था. आयात सल्तनतकाल में भारत को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था. इस काल में अश्व, अस्त्र-शस्त्र, दास, मेवे, फल आदि का आयात किया जाता था. घोड़ों को अरब देशों, तुर्किस्तान, ईरान, खाड़ी के देशों से, अस्त्र-शस्त्रों को ईरान व ट्रांस आक्सियाना से, दासों को, किपचाक, ईरान एवं चीन से, वस्त्रों को चीन, इराक से व अंगूर को ईरान से तथा तरबूज को भी विदेशों से आयात किया जाता था.
निर्यात
सल्तनतकाल में आयात के साथ ही निर्यात भी किया जाता था. निर्यात में लोहा, हथियार, सूती वस्त्र, अनाज, शक्कर, जड़ी बूटी, मसाले, फल, शक्कर एवं नील आदि मुख्य वस्तुएं थीं.
व्यापारियों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, सुल्तान व्यापारियों को समुचित सुविधाएँ प्रदान करने का प्रयास करते थे. यह उन्हीं के प्रयासों का फल था कि अनेक केन्द्र व्यापारिक दृष्टि से इस काल में प्रख्यात रहे..
दिल्ली
दिल्ली सल्तनतकाल में भारत की राजधानी तथा व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नगर था. यह नगर देश के अन्य भागों से जुड़ा हुआ था. यहाँ घोड़ों का बाजार सदैव लगा रहता था. यह नगर विदेशी व्यापारियों का प्रमुख केन्द्र था. थट्टा यह सिंधु नदी के बीच स्थित एक टापू था. जहाँ बड़े-बड़े बाजार एवं यात्रियों के ठहरने के लिए उत्तम सराएँ थीं. यह नगर जल मार्ग द्वारा मुल्तान से जुड़ा हुआ था. यहाँ से अरब एवं इराक के व्यापारी व्यापार करते थे.
देवल
यह अन्तर्राष्ट्रीय बंदरगाह के रूप में कार्य करता था. यहाँ के लोग अपने प्रकार की बहुमूल्य देशी एवं विदेशी वस्तुओं को इकट्ठा करने के बाद उनका व्यापार करते
सरसुती
आन्तरिक व्यापार की दृष्टि से यह प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था. यहाँ सर्वोत्तम प्रकार का चावल पैदा होता था. यहीं से समस्त भारत में विशेषकर दिल्ली चावल भेजा जाता था. अन्हिलवाड़ व्यापारिक दृष्टि से यह नगर व्यापारिय के लिए तीर्थ स्थल के समान था. यहाँ बहुतायत में मुस्लिम व्यापारी रहते
व्यापार करते थे. मालवा एवं उज्जैन भी अन्य प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र थे.
सतगाँव यह नगर पूर्वी भारत का महत्वपूर्ण व्यापारिक नगर था. यहाँ से रेशमी रजाइयों का व्यापार होता था. उड़ीसा, तेलंगाना, श्रीलंका, महाराष्ट्र एवं गुजरात के व्यापारी यहाँ व्यापार हेतु आते थे. सोनार गाँव बंगाल स्थिति यह प्रमुख निर्यात का केन्द्र था. यहाँ से लंका, मलक्का, सुमात्रा आदि देशों को सूती कपड़े का निर्यात किया जाता था. गोड़, पडुवानगर, श्रीपुर आदि अन्य बंगाल के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे आगरा लोदी वंश के शासकों के काल में आगरा व्यापारिक केन्द्र था. चूँकि यह नगर यमुना नदी पर स्थित था, अतः जल-मार्ग द्वारा भी अनेक नगरों से जुड़ा हुआ था. यह नगर नील उत्पादन के लिए प्रख्यात था.
वाराणसी
यहाँ प्रत्येक प्रकार वस्तुएँ उपलब्ध रहती थीं. मुख्यतः यह नगर सोना, चाँदी एवं जरी के काम के लिए प्रख्यात था. यहाँ से सोने चाँदी की बार्डर वाली एक खास किस्म की पगड़ी तुर्की तथा फारस आदि देशों को भेजी जाती थी. लाहौर रावी तट पर स्थित होने के कारण यह नगर जलमार्ग द्वारा मुल्तान, थट्टा तथा भक्खर आदि व्यापारिक स्थलों से जुड़ा हुआ था.
उक्त नगरों के अतिरिक्त पटना, कड़ा, मानिकपुर, कन्नौज, कोल (अलीगढ़), ग्वालियर चंदेरी सम्भल, बयाना तथा धौलपुर आदि अन्य प्रसिद्ध सल्तनतकालीन व्यापारिक केन्द्र थे, जिनमें बयाना से नील, कन्नौज से इत्र व शक्कर, कड़ा, मानिकपुर से चावल, गेहूँ एवं शक्कर आदि के व्यापार के लिए प्रसिद्ध थे.
आवागमन के साधन
व्यापारी अपना सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए बैलगाड़ी, खच्चर तथा ऊँट का प्रयोग किया करते थे. इक्के, चार पहिए वाले रथ तथा नौकाओं का भी आवागमन के साधनों के रूप में प्रयोग किया जाता था.
सांस्कृतिक दशा स्थापत्य कला
भारत के इतिहास में सल्तनतकाल की स्थापना से वास्तुकला के क्षेत्र में एक नए युग का सूत्रपात हुआ. सल्तनतकालीन वास्तुकला के विकास का विभाजन तीन भागों में किया जा सकता है-
(i) गुलाम तथा खलजीकालीन वास्तु- कला.
(ii) तुगलककालीन वास्तुकला, एवं
(iii) सैयद तथा लोदी कालीन वास्तु- वंशकालीन वास्तुकला कला.
गुलाम
गुलाम वंश का काल मध्ययुगीन वास्तुकला के विकास का प्रारम्भिक चरण था. मुहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद 24 जून, 1206 ई. को कुतुबुद्दीन ऐबक भारत में उसका राजनीतिक उत्तराधिकारी हुआ. इस वंश में ऐबक के अतिरिक्त इल्तुतमिश भी कला का महान संरक्षक तथा निर्माता था. इस वंश के शासकों के संरक्षण में निर्मित प्रमुख इमारतों के संक्षिप्त विवरण निम्नवत् हैं-
कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद-यह भारत में तुर्क शासकों द्वारा निर्मित कराए गए भवनों में सर्वप्रथम है, जो दिल्ली से 12 मील दूर महरौली में अवस्थित है. कुतुबुद्दीन ऐबक ने प्रसिद्ध कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण करवाया. यह मस्जिद 212 फीट लम्बे तथा 150 फीट चौड़े समकोणनुमा चबूतरे पर स्थित है. इमारत के मध्य में सहन भी है जो 141 फीट लम्बा तथा 105 फीट चौड़ा है. इसके स्तम्भ अद्वितीय सुन्दर हैं इस मस्जिद के पश्चिमी भाग में स्थित पूजा गृह पर स्तम्भों पर किए गए कार्य अति विशिष्ट हैं.
इल्तुतमिश के काल में कुव्वत-उल- इस्लाम मस्जिद में कुछ सुधार किए गए. सर जॉन मार्शल के अनुसार इल्तुतमिश के कार्यों पर इस्लामी शैली का अधिक प्रभाव दिखाई देता है. इल्तुतमिश के अतिरिक्त अलाउद्दीन खलजी ने भी इस मस्जिद को कुछ विस्तृत करवाया
कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद भारत में स्लिम स्थापत्य कला का सर्वप्रथम भवन 6. जिसमें हिन्दू प्रभाव परिलक्षित होता है. वस्तुतः इस मस्जिद के तोरण, स्तम्भ, छत आदि हिन्दू शैली में निर्मित है. यह इमारत हिन्दू और मुस्लिम कला के समन्वय के फलस्वरूप उत्पन्न मिश्रित कला का उदाहरण है. डॉ. ताराचन्द का भी विचार है- हिन्दू और मुस्लिम तत्वों के समन्वय ने एक नए स्थापत्य की उत्पत्ति की “
कुतुबमीनार 12वीं सदी के अन्तिम वर्षों में इसके निर्माण कार्य का प्रारम्भ कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा करवाया गया, जो अन्ततः इल्तुतमिश के काल में पूरी तरह बनकर तैयार हो सकी. यह इमारत भी दिल्ली से 12 किमी दूर महरौली में अवस्थित है. इमारत की ऊपरी मंजिलें क्रमश छोटी हैं. सबसे ऊपरी मंजिल एक वृत्ताकार छतरी की तरह है तथा एक गुम्बद के आकार द्वारा पूरी इमारत ढकी हुई है. मीनार की पूरी योजना वृत्ताकार है तथा इसकी रचना का व्यास 46 फीट है एवं इसके शिखर की चौड़ाई 10 फीट है. कुतुबमीनार की चारों मंजिलों की बनावट तथा आकृति में भी अन्तर है. इसकी प्रथम मंजिल सितारों की आकृति की भाँति है तथा यह गोल और बाँसुरीनुमा है. मीनार की दूसरी मंजिल वृत्ताकार है. इसकी तीसरी मंजिल पूरी तरह सितारेनुमा है और चौथी मंजिल गोलाकार है इसमें प्रवेश के लिए उत्तर दिशा में एक दरवाजा निर्मित है, जहाँ से प्रवेश कर सीढ़ियों से विभिन्न अलिन्द (बरामदा) में जाया जा सकता है. कुतुबमीनार में कुल 375 सीढ़ियाँ हैं. मीनार की अधिकांश मंजिलों के निर्माण में लाल पत्थरों का अधिकाधिक प्रयोग किया गया है. सभी मंजिलों की आकृति तथा नक्काशी सुन्दर है.
कुतुबमीनार में प्रयुक्त लाल पत्थर के स्पष्ट रंग, ऊपर की ओर पतली होती हुई मंजिलों की बनावट, दीवारों पर उत्कीर्ण लेखों की धारियाँ, पत्थरों की विशिष्ट कारीगरी, उत्कृष्ट पच्चीकारी आदि इसमें चार चाँद लगा देते हैं. इसकी प्रशंसा करते हुए पर्सी ब्राउन ने लिखा है, “किसी भी दृष्टिकोण से देखने पर कुतुबमीनार एक अत्यधिक प्रभावशाली इमारत है. इसके लाल पत्थरों के विभिन्न रंग उसकी बाँसुरीनुमा मंजिलों की बदलती हुई जाली और उस पर एक-दूसरे पर चढ़े हुए उल्लेख साधारण कारीगरी और उत्कृष्ट पत्थरों के कटाव की तुलना छज्जों के नीचे हिलती-डुलती छाया. सभी अत्यन्त प्रभावशाली हैं. वास्तव में यह इमारत मानव द्वारा अपनी कृति को शाश्वत बनाने का सराहनीय प्रयास है.
अढाई दिन का झोंपड़ा यह इमारत वास्तव में एक मस्जिद है. सर जौन मार्शल का विचार है कि, “इस मस्जिद का निर्माण ढाई दिन में हुआ था अतः इसे अढाई दिन का झोंपड़ा कहते हैं. इस मस्जिद का निर्माण 1200 ई. में किया गया मस्जिद में पाँच मेहराबदार दरवाजे हैं तथा मुख्य दरवाजा अधिक ऊँचा है. मस्जिद के हर कोने में बाँसुरीनुमा मीनारें हैं. इल्तुतमिश ने भी इस इमारत को आवरण (पद) की योजना द्वारा अलंकृत कराया. मार्शल ने इसकी प्रशंसा करते हुए कहा है, “सौन्दर्य की दृष्टि से कुछ कमी होते हुए भी. तकनीक ज्ञान तथा गणित की सूक्ष्मता की दृष्टि से यह मस्जिद उच्चकोटि की है.”
नासिरुद्दीन का मकबरा – इस मकबरे के निर्माण के साथ ही भारतीय वास्तुकला के इतिहास में एक नवीन अध्याय आरम्भ होता है. यह इमारत सुल्तानगढ़ी के नाम से भी प्रसिद्ध है. इसके मध्य भाग में 66 फीट का आँगन है एवं अष्टकोणीय चबूतरा नीचे की मंजिल के लिए छत का काम करता है. इमारत का बाहरी भाग भूरे रंग के पत्थर का बना है, जिसमें वृत्ताकार उभरे हुए भाग हैं, जो फौजी दृश्य उपस्थित करते है. मकबरे के प्रमुख प्रार्थना स्थल पर एक गुम्बदनुमा मेहराब है. इसकी मेहराबें इस्लामी कला को दर्शाती हैं. जबकि पूजा स्थान और पूजा-स्थान गुम्बदनुमा छत हिन्दू कला की द्योतक हैं इसकी बाँसुरीनुमा स्तम्भ तथा तोड़े भी हिन्दू कला को ही दर्शाते हैं. इस प्रकार कला की दृष्टि से यह इमारत हिन्दू-मुस्लिम शैली का एक अद्भुत संगम है.
इल्तुतमिश का मकबरा – कुव्वत-उल- इस्लाम मस्जिद के निकट स्थित इल्तुतमिश पी के मकबरे का निर्माण कार्य 1235 ई. से र कुछ पूर्व प्रारम्भ किया गया. इस पर कुरान की आयतें सुन्दर ढंग से उत्कीर्ण की गई 5 हैं. इसकी गुम्बद काफी आकर्षक है जिसमें ई घुमावदार पत्थर प्रयुक्त किए गए हैं. गुम्बद में प्रयुक्त इस शैली को स्क्रीच कहा जाता है. इस शैली का प्रयोग चौकोर कोने में गोलाईपन लाने के लिए किया जाता है. इल्तुतमिश का मकबरा गुम्बद के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है. इस मकबरे में सर्वप्रथम हिन्दू प्रभाव को त्यागने का प्रयास किया गया था. परन्तु ऐसा सम्भव नहीं हो सका
इस इमारत के अतिरिक्त कुछ अन्य इमारते भी इन द्वारा बनवाई गई मानी जाती है जिनमें हौज-ए-शम्सी, शम्सी ईदगाह जामा मस्जिद आदि प्रसिद्ध है. इस काल की एक अन्य प्रसिद्ध इमारत राजस्थान के नागौर जिले में है, जिसे लगभग 1230 ई. में बनवाया गया था यह भवन अतारकिन के दरवाजे के नाम से प्रसिद्ध है इस काल में कुछ दूसरे भवन भी बने जिनमें श्वेत भवन, तुर्क महल, हरा भवन तथा कुछ राजकीय भवन प्रसिद्ध है. खलजीकालीन वास्तुकला इल्तुतमिश की मृत्यु 1236 ई. में हुई.. एक लम्बे अर्से के पश्चात् अलाउद्दीन खलजी के काल में विभिन्न इमारतों के निर्माण प्रारम्भ हुए खलजी शासन के साथ वास्तुकला एक नया मोड़ लेती है. इस काल के निर्मित भवनों में निर्माण तथा अलंकरण की विधि में परिवर्तन हुए. अलंकरण में बेल, पुष्प आदि विषयों को स्थापत्य कला का एक अभिन्न अंग बना लिया गया.
अलाई दरवाजा यह इमारत अलाउद्दीन खलजी के सर्वश्रेष्ठ एवं भव्य भवनों में से एक है, जिसे उसने 1311 ई. में पूर्ण कराया अलाई दरवाजा, कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के चार प्रवेश द्वारों में से एक के रूप में बनवाया गया था. सर जॉन मार्शल के अनुसार, “अलाई दरवाजा इस्लामी वास्तुकला की अमूल्य निधि है. पर्सी ब्राउन के अनुसार, “इसकी निर्माण योजना से यह ज्ञात होता है कि यह दरवाजा किसी वास्तुकला के ज्ञाता के संरक्षण में बनवाया गया था.’
अलाई दरवाजा ऊँचे चबूतरे पर निर्मित एक चौकोर इमारत है. इसकी छतें चपटे गुम्बद की भाँति हैं दरवाजे के बाहरी भाग की सुन्दरता इसके मेहराबों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है. इसकी बीच वाली मेहराब अपने सुन्दर मोड़, चौड़ाई एवं ऊँचाई के अनुपात एवं विशिष्ट सजावट के कारण इस्लामी स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है. मेहराबों के ऊपरी भाग पर बनी झालरों से इसकी सुन्दरता और भी बढ़ जाती है. अलाई दरवाजा अति सुन्दर अलंकरणों से सुसज्जित है. अलंकरण की गहनता इतनी घनी है एक इंच भी स्थान खाली नहीं दिखता है. इसके द्वारों के अन्दर एक पुष्पमालानुमा झालर है जो विशेष रूप से सुन्दर है. इसमें लाल पत्थर के अन्दर सफेद पत्थर जड़े हैं जिससे इसकी सुन्दरता और भी निखर उठी है. दरवाजे की दीवरों पर रेखाबद्ध प्रतिरूप, अरबी रेखाचित्र और तुगरा लेख बड़े सुन्दर ढंग से उत्कीर्ण किए गए हैं. अलाई दरवाजे का आंतरिक भाग साधारण ढंग का है इसकी गुम्बदनुमा छत के निर्माण में कुशल कारीगरी का प्रयोग किया गया है. इसके गुम्बद के निर्माण में वृत्तनुमा गुम्बद को पहले अष्टभुजी क्षेत्र को तत्पश्चात् आयत में परिवर्तित कर दिया गया है तथा गुम्बद के भार को वैज्ञानिक ढंग से पृथ्वी तक उतारा गया है. कमरों में पत्थर की जालीदार खिड़कियाँ निर्मित हैं तथा दीवारें सुन्दर पच्चीकारी से युक्त हैं. वास्तव में यह इमारत मुस्लिम स्थापत्यकला के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखती है. पर्सी ब्राउन ने इसके सम्बन्ध में लिखा है, “अलाई दरवाजा एक परिमित आकार का भवन है, इसके मेहराबों का आकार तथा अलंकरण इसके स्वरूप तथा सौन्दर्य को प्रकट करता है.”
जमातखाना मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण खिज खाँ द्वारा करवाया गया था. यह कुतुबुमीनार से छः मील दूर स्थित है. यह पहली मस्जिद है जो पूर्ण रूप से मुस्लिम शैली में निर्मित है. यद्यपि यह इमारत पूर्णरूप से मुस्लिम शैली को दर्शाती है, परन्तु इसके डाटों के कोहनों में कमलपुष्प अलंकृत हैं जिससे हिन्दू कला का प्रभाव भी परिलक्षित होता है. इस मस्जिद की दीवारें भी काफी हद तक उसी प्रकार से घिरी हुई हैं, जिस प्रकार अलाई दरवाजा में स्थान घिरा हुआ है. दोनों के निर्माण में मूलतः एक के ही ढंग प्रयोग में लाया गया है. जमातखाना मस्जिद के निर्माण की योजना मूलतः आयताकार है. मस्जिद में मेहराबें भी सुन्दर ढंग से बनी हैं.
तुगलककालीन वास्तुकला तुगलक वंश के तीन सुल्तानों ने निर्माण कार्य में विशेष रुचि दिखलाई. इस काल की इमारतों में सादगी और विशालता पर अधिक बल दिया गया. इस काल की इमारतों में निम्नलिखित प्रमुख हैं-
तुगलकाबाद- तुगलक वंश का संस्था- पक, गयासुद्दीन तुगलक, कला से अगाध प्रेम रखता था. उसने दिल्ली के पास ऊँची पहाड़ियों पर एक नगर बसाया, जो दिल्ली के सात नगरों में से एक है. उसके द्वारा वहाँ एक दुर्ग का भी निर्माण करवाया गया. यह दुर्ग छप्पन कोट के नाम से भी जाना जाता है. फर्ग्युसन के अनुसार “इसकी ढालू दीवारें मिस्र के पिरामिडों की सी सुदृढ़ता लिए हुए हैं.”
सुल्तान गयासुद्दीन का मकबरा- तुगलक शैली का एक उल्लेखनीय उदाहरण तुगलकाबाद में निर्मित तुगलकशाह का मकबरा है. यह मकबरा मिस्री पिरामिडों की भाँति अन्दर की ओर झुका हुआ है, जो
75 कोणीय है, मकबरा एक चतुभुजाकार आधार पर स्थित है. इसकी ऊचाई आठ फीट है. पूरी इमारत लाल पत्थरों से बनी है। तथा इसकी दीवारों में सफेद संगमरमर जड़े हुए है. इस मकबरे का गुम्बद सफेद संगमरमर का बना है तथा ऊपरी हिस्से में आमलक एवं कलश का प्रयोग हिन्दू मन्दिर की भाँति किया गया है, जिससे हिन्दू प्रभाव स्पष्ट है. यह मकबरा कुल मिलाकर भव्य और सुन्दर है. सर जॉन मार्शल के अनुसार, “कुछ त्रुटियों के बावजूद यह मकबरा एक नवीन शैली की ओर संकेत करता है
विजयमण्डल- मुहम्मद तुगलक द्वारा निर्मित कराए गए भवनों में से एक प्रसिद्ध भवन विजयमण्डल है. यह ऊंची पहाड़ी पर निर्मित एक लम्बा स्तम्भनुमा है. इसकी बाहरी दीवारों के निर्माण में पत्थरों का कुशल प्रयोग किया गया है. इसके ऊपरी हिस्से में अष्टभुजाकार छत है. इसकी एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें पदम पत्राकार डाटें खलजी काल में अपनाई गई शैली से मिलती-जुलती हैं.
आदिलशाह का किला इस इमारत का निर्माण भी मुहम्मद तुगलक द्वारा कराया गया. यह तुगलकाबाद के समीप स्थित है. आज यह खण्डहर के रूप में प्राप्य है. शेख निजामुद्दीन औलिया का मकबरा- तुगलककालीन स्थापत्य कला के नमूनों में यह मकबरा विशेष महत्व रखता है. श्वेत संगमरमर से घिरे शेख निजामुद्दीन औलिया के मकबरे में काले संगमरमर का अलंकरण इसकी सुन्दरता को और भी बढ़ा देता है मकबरे के चारों कोनों पर गुम्बद निर्मित है इसमें एक दरवाजा तथा कुछ खिड़कियाँ भी हैं जो लाल पत्थरों से जुड़ी हैं. इसके निर्माण में भी हिन्दू कलाकारों का योगदान मिलता है.
बारहखम्भा – तुगलककाल की धर्मनिर पेक्ष इमारतों में बारहखम्भा का विशिष्ट स्थान है. इस इमारत को आवास के रूप में प्रयोग किया जाता था. यह काफी सुरक्षित स्थान था. व्यक्तिगत निवास का यह महत्वपूर्ण उदाहरण है.
फिरोजशाह कोटला सुल्तान फिरोज- शाह तुगलक ने दिल्ली में एक दुर्ग का निर्माण करवाया था जो फिरोजशाह कोटला के नाम से प्रसिद्ध है. इस दुर्ग के चारों ओर एक दीवार निर्मित थी जिसके सहन में राजकीय भवन थे. इसमें पहुँचने के लिए प्रवेश द्वार पश्चिम में बना है. इस दुर्ग में एक अशोक स्तम्भ भी है, जिसे सुल्तान ने अम्बाला जिले के तोबरा गाँव से मँगवाकर स्थापित करवाया था. इसी दुर्ग के निर्माण के आधार पर अकबर ने बाद में आगरा, ■ लाहौर एवं इलाहाबाद के दुर्गा का निर्माण करवाया था. फिरोजशाह कोटला दुर्ग क अन्दर एक बड़ी जामा मस्जिद भी थी. इस मस्जिद की विशालता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें लगभग 10 हजार व्यक्ति नमाज अदा कर सकते थे दुर्ग में कुछ अन्य इमारतें भी थी जिनमें काली मस्जिद, बेगमपुरी मस्जिद, दरगाह-ए- शाह आलम, जहाँपनाह में खिड़की मस्जिद आदि प्रसिद्ध थी
फिरोज तुगलक का मकबरा यह मकबरा दिल्ली में हौज-ए-खास के निकट है, जिसे फिरोज तुगलक ने बनवाया था. यह इमारत वर्गाकार है, जिसका मुख्य द्वार दक्षिण की ओर है. मकबरे की दीवारें सफेद सीमेंट की बनी है तथा दीवार के ऊपर अठपहलू ड्रम है. इसके एक भाग में छोटा- सा चबूतरा निर्मित है, जो पत्थर के कटघरे से घिरा है. मकबरे के अन्दर एक वर्गाकार कमरा भी है जिसके चारों कोनों में कोनिहाई डाटी का प्रयोग किया गया है. इसकी दीवारे दृढ तथा सुसज्जित है. सजावट के लिए रंग भी प्रयोग में लाए गए हैं. मकबरे में एक संकीर्ण गैलरी बनी हुई है जो हिन्दू मन्दिर के समान प्रतीत होती है. सिकन्दर लोदी ने भी इस मकबरे में कुछ सुधार करवाए. इस मकबरे को देखने से स्पष्ट होता है कि इस समय तक हिन्दू-मुस्लिम शैली का पूरा स विकास हो चुका था
खान-ए-जहाँ तेलंगानी का मकबरा- सुल्तान फिरोज तुगलक के प्रधानमंत्री खान- जहाँ तेलंगानी की स्मृति में उसके पुत्र जूनाशाह द्वारा यह मकबरा बनवाया गया था. यह इमारत शेख निजामुद्दीन औलिया के मकबरे के निकट है. परन्तु अन्य मकबरों की भाँति चौकोर न होकर यह अष्टभुजी है. इसके आठों बरामदों के प्रत्येक और तीन ट्यूडरकालीन वृत्तखंड हैं जिनके ऊपर चौड़े छज्जे निर्मित हैं. मकबरे के निर्माण में लाल और सफेद संगमरमर का प्रयोग किया गया है. इस मकबरे की समानता जेरुसलेम में निर्मित उमर की मस्जिद से की जाती है.
कबीरउद्दीन औलिया का मकबरा – यह मकबरा गयासुद्दीन द्वितीय (1388-89) के काल में बना, परन्तु नासिरउद्दीन मुहम्मद के काल में (1392 में) पूरी तरह बनकर तैयार हुआ. इसे लाल गुम्बद के नाम से भी जाना जाता है. इसे मकबरे में खलजीकालीन अलंकरण मिलते हैं. डिजाइन के दृष्टिकोण से यह तुगलककालीन इमारतों से पूर्णतः भिन्न है इस आयताकार इमारत में लाल पत्थर एवं सफेद संगमरमर का सुन्दर सम्मिश्रण देखने को मिलता है.
सैयद एवं लोदीकालीन इमारतें इस काल के निर्मित भवनों में सुन्दरता का अभाव मिलता है. तैमूर के आक्रमण से कला के विकास को विशेष क्षति पहुँची. इस काल में प्रायः अशान्ति एवं अराजकता
विद्यमान थी सैयद तथा लोदी वंशीय सुल्तानों की आर्थिक स्थिति भी अच्छी न थी अत: आर्थिक साधनों व राजनीतिक स्थिति के ठीक न हो पाने के कारण इन वंशों के शासक उच्चकोटि के भवनों का निर्माण कार्य सम्पन्न नहीं करा सके इस दृष्टिकोण से इन वंशों के काल को स्थापत्य कला के पतन का युग भी कहा जा सकता है. परन्तु इस अवधि को भी कलाशून्य नहीं कहा जा सकता. कुछ इमारतें अवश्य निर्मित हुई
मुबारकशाह सैयद का मकबरा – इस मकबरे का निर्माण अलाउद्दीन आलम द्वारा कराया गया था.
मुबारक शाह का मकबरा एक लम्बे आँगन के मध्य में स्थित है. यह पत्थर की छिद्रयुक्त दीवारों से घिरा है तथा इसमें चार विचित्र ढंग के स्तम्भ हैं जिनसे छत को सहारा मिलता है. इस अष्ट भुजाकार मकबरे के निर्माण में लाल पत्थरों का प्रयोग किया गया है.
बहलोल लोदी का मकबरा लोदी शासकों द्वारा निर्मित कराए गए भवनों में सर्वप्रथम बहलोल लोदी के मकबरे का स्थान आता है. इस मकबरे को 1448 ई. में सिकन्दर लोदी ने बनवाया था. मकबरे में तीन मेहराब एवं द्वार स्तम्भ हैं. इसके निर्माण में भी लाल पत्थरों का प्रयोग किया गया है. मकबरे में पाँच गुम्बद हैं तथा मध्य भाग में स्थित गुम्बद सर्वाधिक ऊँचा है.
सिकन्दर लोदी का मकबरा – इस इमारत को इब्राहिम लोदी ने बनवाया था. मकबरे के गुम्बद के चारों ओर आठ खम्भे बने हैं जो एक वृहत् चहारदीवारी के प्रांगण में निर्मित हैं. इसके चारों किनारों पर लम्बे- लम्बे बुर्ज बने हैं. इस मकबरे में अष्टभुजीय मकबरे के दोषों से बचने का प्रयास किया गया है. बाद में मुगल शैली के विकास में इससे प्रेरणा मिली. सु मोठ की मस्जिद-लोदी शासकों द्वारा जाँ निर्मित करवाए गए भवनों में मोठ की मस्जिद का महत्वपूर्ण स्थान है. सर सैयद श अहमद ने इसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है. यह लोदी स्थापत्य आकार में सुन्दर ब उपहार कृति थी. सर जॉन मार्शल ने भी मोठ की मस्जिद की प्रशंसा की है, “लोदियों की स्थापत्य कला में जो कुछ सबसे सुन्दर है, इसका संक्षिप्त रूप मोठ की मस्जिद में विद्यमान है. इस मस्जिद का निर्माण सिकन्दर लोदी के शासनकाल में हुआ था. बड़े खाँ तथा छोटे खाँ का मकबरा- इन मकबरों का निर्माण सिकन्दर लोदी के द्वारा करवाया गया था. इन दोनों मकबरों के अतिरिक्त उसने मोती मस्जिद भी निर्मित करवाई जो एक उल्लेखनीय इमारत है इस काल में जामा मस्जिद, बड़ा गुम्बद दादी का गुम्बद पौली का गुम्बद शीश गुम्बद ताज खाँ का गुम्बद आदि प्रसिद्ध भवनों के निर्माण भी सम्पन्न किए गए ये सभी दिल्ली के आस-पास ही बनवाए गए थे
वस्तुतः सैयद और लोदी कालों में बने भवनों में खलजीकालीन स्थापत्य कला की नकल की गई है शासकों ने खलजीकालीन स्थापत्य कला में अपनाए गए ओज एवं लालित्य को पुनर्जीवित करने का पर्याप्त सीमा तक प्रयास किया है. परन्तु उन्हें इसमें पूरी सफलता नहीं मिल पाई पर्सी ब्राउन ने इस युग को ‘मकबरों के युग के नाम से सम्बोधित किया है.
प्रान्तीय स्थापत्य कला
जौनपुर
1394 ई. में मलिक सरवर द्वारा जौनपुर राज्य की नींव डाली गई शर्की शासकों ने जौनपुर को स्थापत्य कला के क्षेत्र में अत्यधिक समुन्नतशील बनाया स्थानीय शासकों द्वारा निर्मित कराए गए भवनों में हिन्दू-मुस्लिम कला शैलियों का सुन्दर समन्वय मिलता है. डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने शर्की शासकों की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “जौनपुर के सम्राट कला और विद्या के महान संरक्षक थे. जिन भवनों का निर्माण इन शासकों ने कराया है. वे उनकी स्थापत्य कला की अभिरुचि के प्रमाण हैं, वे भवन सुदृढ प्रभावयुक्त तथा सुन्दर हैं उनमें हिन्दू मुस्लिम निर्माण कला शैली के विचारों का वास्तविक एवं प्रारम्भिक समन्वय है. “वास्तव में शर्की शासकों के एक सौ वर्षों के शासनकाल में जौनपुर में अनेक भव्य, सुन्दर तथा कलात्मक भवनों के निर्माण कार्य सम्पन्न किए गए, जिनके संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं-
अटाला देवी की मस्जिद-अपनी सुन्दरता के लिए भारत में विख्यात तथा जौनपुर नगर की सर्वश्रेष्ठ इमारतों में अटाला देवी की मस्जिद की गणना होती है. शर्की वंश के महान् शासक इब्राहिमशाह ने 1408 ई. में इस उल्लेखनीय मस्जिद को बनवाया था. इस इमारत की सजावट उच्चकोटि की है. यह मस्जिद 122 फीट ऊँची है. फर्ग्युसन ने इस इमारत के सम्बन्ध में लिखा है, “यह अत्यधिक सुसज्जित एवं सुन्दर कृति है.”
डॉ. स्मिथ लिखते हैं, अटाला मस्जिद ” के प्रवेश मार्ग तथा बड़े कमरे (हॉल) पूर्णतः मुस्लिम आकार के हैं जिनमें ज्योतिर्मय मेहराबों तथा गुम्बदों का प्रयोग है, चौड़े स्तम्भों का भी प्रयोग दर्शनीय है, जो प्रायः हिन्दू देवालयों (मन्दिरों) से लिए गए हैं और निर्माण हिन्दू-शैली में है. डॉ. मथुरालाल
शर्मा ने इस इमारत की प्रशंसा करते हुए लिखा है जीनपुर के भवनों हिन्दू मुस्लिम तत्व समान रूप से है और यहाँ मिश्रित कला का उदय हुआ जौनपुर शैली की सबसे सुन्दर इमारत अटाला मस्जिद
जामा मस्जिद इस इमारत का जिसे बड़ी मस्जिद के नाम से भी जाना जाता है. निर्माण हुसैनशाह ने 1478 ई में करवाया था इस भवन में भी नक्काशी और सुन्दर अलंकरण मिलते है हेवेल महोदय के अनुसार, ‘अटाला मस्जिद जामा मस्जिद दोनों ही श्रेष्ठ भवन हिन्दू शैली को स्पष्ट करते हैं. यद्यपि बाहरी मेहराब का मध्य प्रस्तर पीपल के पत्ते की बनावट की भाँति नहीं है। वास्तव में जामा मस्जिद भी स्थापत्य कला के क्षेत्र में हिन्दू मुस्लिम शैलियों के समन्वय का एक अच्छा उदाहरण झंझरी मस्जिद जौनपुर की झंझरी मस्जिद एक उल्लेखनीय इमारत है जिसका निर्माण इब्राहिमशाह ने सैयद अजमली के नाम पर 1430 ई में करवाया था इस विशाल इमारत की सुन्दरता अद्वितीय है. झंझरी मस्जिद की मेहराबें तथा अलकरण उच्चकोटि के हैं. इस मस्जिद में भी हिन्दू- मुस्लिम कला शैली का सम्मिश्रण देखने को मिलता है.
शर्की शासकों ने उपर्युक्त बड़ी-बड़ी मस्जिदों के अतिरिक्त जौनपुर में कुछ अन्य इमारतों के निर्माण भी करवाए जिनमें किले. मकबरे, ईदगाह आदि थे. मालवा सल्तनतकालीन स्थापत्य कला की प्रान्तीय शैलियों में मालवा को विशिष्ट स्थान प्राप्त है. पर्सी ब्राउन के शब्दों में धार तथा माडू की स्थापत्य कृतियों की सबसे प्रभावशाली विशेषता सजावट की योजना है और जैसाकि रंग के तत्व स्थापत्य योजनाओं के प्रमुख भाग होते हैं, लाल रेतीले पत्थरों का पर्याप्त प्रयोग यहाँ की इमारतों में दृष्टिगत होता है. अलंकृत रूप प्रदान करने के निमित्त रंग-बिरंगे पाषाणों का उपयोग भी मिलता है.”
दिल्ली के सुल्तानों के नियंत्रण से स्वाधीन मालवा प्रान्त में पाँच प्रमुख शासक हुए-हुसंगशाह (1406-1435 ई.), महमूद खलजी प्रथम (1436-1469 ई.). गयासुद्दीन (1469-1500 ई). नासिरुद्दीन (1500- 1511 ई.) तथा महमूद द्वितीय ( 1511- 1531 ई.). इन शासकों द्वारा मांडू, धार तथा चंदेरी में अनेक भवन निर्मित कराए गए जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है-
कमाल मौला की मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण मालवा की प्राचीन राजधानी धार में 1400 ई. में किया गया. हिन्दू-मुस्लिम वास्तुकला शैली का समन्वय इस इमारत में भी देखने को मिलता है. दिलावर खाँ की मस्जिद दिलावर खाँ ने इसे 1405 ई. में बनवाया था. यह इमारत मांडू की प्रारम्भिक वास्तुकला कृति है. दिलावर खाँ की मस्जिद में हिन्दू शैली के 5. प्रभाव की स्पष्ट झलक मिलती है.
मलिक मुगीस की मस्जिद यह इमारत मांडू में स्थित है. इसका निर्माण 1452 ई. में किया गया यह एक ऊँचे चबूतरे पर निर्मित है, जो 150 फीट लम्बी तथा 132 फीट चौड़ी है. पर्सी ब्राउन के अनुसार, “यह प्रमुख मस्जिद इस युग की भव्य एवं अपने आकार की अद्भुत है रूपमती का महल – इस काल में निर्मित एक अन्य प्रमुख इमारत रूपमती का महल है. इमारत की छत के ऊपरी हिस्से के दो कोनों पर गुम्बदनुमा मण्डपों की योजना है, जिससे यह अत्यधिक आकर्षक एवं सुन्दर दिखता है.
होशंगाबाद का मकबरा – इस मकबरे के निर्माण कार्य का प्रारम्भ होशंगशाह के काल में मांडू में हुआ था, परन्तु इसे 1440 ई. में महमूद प्रथम ने पूर्ण करवाया. यह इमारत आकार में काफी बड़ी है. इसकी दीवारें 30 फीट ऊँची हैं. यह मकबरा पूर्णरूपेण संगमरमर से निर्मित है. इसे विभिन्न रंगों के पाषाण खण्डों तथा अलंकरण के द्वारा सुसज्जित किया गया है. इस इमारत में भी हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य शैलियों के सम्मिश्रण के दर्शन होते हैं.
जामा मस्जिद- इस मस्जिद को होशंगशाह ने निर्मित कराना शुरू किया था, जिसके अधूरे कार्यों को महमूद प्रथम ने इ 1440 ई. में पूर्ण कराया मांडू की यह प्र इमारत विशाल है. इस मस्जिद में भी इ विभिन्न रंगों के पत्थरों का प्रयोग मिलता है.
हिंडोला महल इस महल को 1425 ई. में निर्मित किया गया. इस इमारत की क दीवारें सुन्दर हैं तथा बरामदों की योजना व भी प्रशंसनीय है. पर्सी ब्राउन के अनुसार, ‘इसका आकार अंग्रेजी वर्णमाला में ‘T’ अक्षर की तरह है. महल में मेहराबदार प्रवेश द्वार हैं.”
जहाज महल इस विशालकाय महल का निर्माण पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में होशंगशाह के उत्तराधिकारी महमूद प्रथम द्वारा सम्पन्न करवाया गया. डॉ. राधाकमल मुखर्जी ने मांडू स्थित हिंडोला महल तथा जहाज महल की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “मांडू के हिंडोला महल व जहाज महल मध्ययुगीन भारतीय वास्तुकला के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं. इनमें इस्लामी प्रभावजन्य संरचनात्मक आधार की भव्यता व अति विशालता तथा हिन्दू अलंकरण मोटिफ और तरहों की सुन्दरता, परिष्कृत व सूक्ष्मता का विवेकपूर्ण समन्वय है. मालवा के स्थानीय शासकों ने इस अवधि में कुछ अन्य इमारतें भी बनवाई जिनमें बाज बहादुर का महल, अशरफी महल, दरिया ख का मकबरा, नीलकण्ट महल आदि प्रसिद्ध हैं. गुजरात प्रान्तीय स्थापत्य कला शैलियों में गुजरात की शैली अद्वितीय है. गुजरात की शैली को सर्वाधिक स्थानीय भारतीय शैली माना जाता है. डॉ. बर्गेस ने गुजरात की वास्तुशैली की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उसमें देश की कला के सौन्दर्य तथा पूर्णता के साथ-साथ उस ओज का शैली सम्मिश्रण है जिसका देशी शैली में अभाव है. वस्तुतः स्थापत्य कला की गुजरात महान् थी. यहाँ के शासकों की विभिन्न इमारतों के निर्माण कार्य में विशेष अभिरुचि थी. अहमदशाही वंश के सुल्तानों ने दिल्ली साम्राज्य से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की इस अवधि में गुजरात के स्थानीय शासकों द्वारा बनवाई गई प्रमुख इमारतों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-
शेख फरीद का मकबरा- मुस्लिम शासन के प्रारम्भिक वर्षों में गुजरात में कुछ प्राचीन इमारतों को परिवर्तित कर नए भवनों के निर्माण किए गए शेख फरीद का मकबरा ऐसे उदाहरणों में से एक है. इस प्रकार की एक अन्य इमारत अदीना मस्जिद है इन भवनों में प्राचीन इमारतों की सामग्रियों का अधिकाधिक उपयोग किया गया है. भड़ौच की जामा मस्जिद- इसे 1300 ई. में बनवाया गया था. इस मस्जिद में तीन प्रवेश मार्ग हैं तथा एक विस्तृत आँगन है। इस इमारत का निर्माण कार्य स्थानीय कारीगरों द्वारा सम्पन्न किया गया. खम्भात की जामा मस्जिद- इस इमारत का निर्माण 1325 ई. में सम्पन्न हुआ. खम्भात की जामा खलजी शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है. यह मस्जिद अपनी सुन्दरता तथा डिजाइन के लिए प्रसिद्ध है.
टंका मस्जिद यह इमारत भी धौलका में निर्मित की गई. 1361 ई. में बनी इस न मस्जिद पर हिन्दू शैली की छाप स्पष्ट रूप ने से दृष्टिगोचर होती है. इस मस्जिद के स्तम्भ बड़े सुसज्जित तथा अलंकृत हैं.
न अहमदाबाद की इमारतें – अहमदशाह 7 ने नई राजधानी अहमदाबाद की स्थापना 1411 ई. में की अहमदाबाद अपनी स्थापत्य ल कला सम्बन्धी वैभव के लिए विख्यात था यहाँ अनेक मकबरों के अतिरिक्त 50 से अधिक छोटी-बड़ी इमारतों के निर्माण किए गए.
दिल्ली
कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद- इसका | निर्माण 1191-96 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने | आका मुहम्मद-बिन-साम के आदेश पर करवाया था. जमातखाना मस्जिद- इसका निर्माण अलाउद्दीन खलजी के शासनकाल में हुआ था.
कलां मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण 1387 ई. में सुल्तान फिरोज तुगलक के प्रधानमंत्री जूनाशाह खान-ए-जहाँ ने करवाया खिड़की मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण क फिरोज तुगलक के प्रधानमंत्री
जूनाशाह खान- ए-जहाँ ने करवाया था. बेगमपुरी मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण बेगमपुर में खान-ए-जहाँ ने करवाया था बड़ी गुम्मद मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण 1494 में आबू अमजद नामक व्यक्ति ने करवाया था.
मोठ मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण सम्राट सिकन्दर लोदी के प्रधानमंत्री मियां भुवा ने करवाया था.
कला-ए-कुहना मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण 1541 में सम्राट शेरशाह सूरी ने करवाया था.
जामा मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण 1650-56 के मध्य शाहजहाँ ने दिल्ली में करवाया था.
मोती मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण औरंगजेब ने करवाया था.
उत्तर प्रदेश
अटाला मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण इब्राहीम शिर्की के राज्यकाल में 1377 से
1408 के मध्य जौनपुर में हुआ था.
जामी मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण जौनपुर में शरकी सुल्तान हुसैनशाह (1458- 79) के शासनकाल में हुआ था. लाल दरवाजा मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण जौनपुर में सुल्तान महमूदशाह की मलिका बीबी राजी द्वारा 1450 में करवाया गया था.
आलमगीरी मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण जौनपुर में अवध के नवाब सुल्तान अली ने औरंगजेब के शासन में करवाया था. मोती मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण आगरा के लाल किले में शाहजहाँ द्वारा करवाया था.
जामी मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण आगरा जिले में स्थित फतेहपुर सीकरी में अकबर द्वारा करवाया गया था. ज्ञानवापी मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण वाराणसी में औरंगजेब ने करवाया था.
भारत की प्रसिद्ध मस्जिदें
जामी मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण लखनऊ में मुहम्मद आदिलशाह ने प्रारम्भ करवाया था तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् उसकी बेगम मलिकजहाँ ने पूर्ण करवाया था. मध्य प्रदेश जामी मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण भोपाल में 1837 में बेगम कुदसिया ने करवाया था. मोती मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण भोपाल में 1860 में बेगम सिकन्दरजहाँ ने करवाया था.
तल-उल-मस्जिद-भोपाल स्थित यह भारत की सर्वाधिक विशाल, किन्तु अपूर्ण मस्जिद है.
राजस्थान
अढ़ाई दिन का झोपड़ा इस मस्जिद का निर्माण अजमेर में 1199 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने कराया था.
ऊषा मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण बयाना में कुतुबुद्दीन मुबारकशाह खलजी ने
करवाया था.
अकबर की मस्जिद-यह मस्जिद जालौर में स्थित है. इकमीनार मस्जिद-यह मस्जिद जोधपुर में स्थित है.
ईदगाह – यह मस्जिद जयपुर में स्थित है.
बिहार
सैफखान की मस्जिद- चिमनीघाट की मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध इस मस्जिद का निर्माण शाहजहाँ के पुत्र शाहजादा परवेज द्वारा करवाया गया था. प. बंगाल अदीना मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण 1369 में सुल्तान सिकन्दरशाह द्वारा पाण्डुआ में करवाया गया था.
तेतीपारा मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण 1480 में मीरसाद खान नामक व्यक्ति ने करवाया था.
चमकट्टी मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हुआ था. छोटी सोना मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण राजा अलाउद्दीन (1493-1519) के शासन में वली मुहम्मद द्वारा गौड़ में करवाया गया था.
बड़ी सोना मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण 1526 में राजा नुसरतशाह द्वारा गौड़ में करवाया गया था.
नखोद मस्जिद – यह मस्जिद कलकत्ता में स्थित है.
गुजरात जामी मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण मंगरौल में 1384 में फिरोज तुगलक के शासनकाल में इजाजुद्दीन नामक एक अधिकारी द्वारा करवाया गया था
जामी मस्जिद-अहमदाबाद स्थित जामी मस्जिद का निर्माण 1424 ई में सुल्तान अहमदशाह प्रथम ने करवाया था.
आण्डू मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण बीजापुर में 1608 में इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय के मंत्री इतिवार खान ने करवाया था.
गुलबर्गा की मस्जिद-गुलबर्गा किले में स्थित इस मस्जिद का निर्माण 1367 में मुहम्मद शाह बहमनी के शासनकाल में हुआ था. रानी सबराई की मस्जिद इस मस्जिद का निर्माण 1514 ई. में सुल्तान महमूद की विधवा रानी सबराई ने करवाया था
रानी रूपमती की मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण 1560 में बाज बहादुर की बेगम रानी रूपमती ने करवाया था.
रानी सीपरी की मस्जिद- मस्जिद-ए- नगीना’ के नाम से प्रसिद्ध इस मस्जिद का निर्माण महमूद बगादों की बेगम ने करवाया था.
सीदी सैयद की मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण 1572-73 में सुल्तान मुजफ्फर तृतीय के दरबारी उच्चाधिकारी शेख सैयद सुल्तानी द्वारा करवाया गया था. यह मस्जिद छोटी, अपूर्ण किन्तु भव्य है.
आन्ध्र प्रदेश
मक्का मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण 1627 में मुहम्मद कुतुबशाह के शासनकाल में प्रारम्भ तथा 1693 में औरंगजेब के शासनकाल में पूर्ण हुआ.
तोली मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण अब्दुल्ला कुतुबशाह के अधिकारी मूसाखान ने 1671 ई. में करवाया था.
कश्मीर
हजरतबल मस्जिद- वर्तमान में चर्चित रही यह मस्जिद डल झील के पश्चिमी किनारे पर श्रीनगर से 7 किमी की दूरी पर स्थित है.
जामी मस्जिद-श्रीनगर स्थित इस मस्जिद का निर्माण सुल्तान सिकन्दरशाह ने प्रारम्भ करवाया तथा जैन-उल-अबीदीन ने पूर्ण करवाया. कर्नाटक मस्जिदें आला इस मस्जिद का निर्माण श्रीरंगपट्टनम में 1786-87 में टीपू सुल्तान ने करवाया था.
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जामा मस्जिद इसे अहमदा ई. में बनवाया था यह मस्जिद चौकोर भू 1423 भाग पर बनी है तथा इसकी मेहराबे आकर्षक है मस्जिद में 260 स्तम्भ है जिन पर पनी खुदाई की गई है जामा मस्जिद का गुम्बद हिन्दू आकार का है पसी ब्राउन ने इस मस्जिद की प्रशंसा में लिखा है, यदि समस्त देश में नहीं तो कम से कम पश्चिमी भारत में मस्जिद निर्माण कला का यह श्रेष्ठ उपकरण है”
गुजरात के सुल्तान अहमदशाह के शासनकाल के आरम्भिक समय में ऊपर वर्णित जामा मस्जिद के अतिरिक्त अन्य उल्लेखनीय मस्जिदों के निर्माण भी किए गए इनमें पहली मस्जिद अहमदशाह की है यह किले के अन्दर निर्मित है दूसरी हेत खाँ की तथा तीसरी सैयद आलम की मस्जिद है. ये सारी मस्जिदें 15वीं सदी के प्रथम 25 वर्षों के अन्दर ही निर्मित हुई गुजरात के स्थानीय शासकों द्वारा निर्मित कराए गए अधिकाश भवनों में नुकीले मेहराब के प्रयोग मिलते हैं. ऐसे मेहराब भारतवर्ष में अन्यत्र कुछ ही स्थानों पर पाए गए हैं.
अहमदशाह का मकबरा मुहम्मदशाह के शासनकाल में जामा मस्जिद के पूर्वी द्वार के सम्मुख इस मकबरे का निर्माण किया गया इस वर्गाकार मकबरे के प्रत्येक भाग की ओर दालानों की सुन्दर व्यवस्था है. मकबरे में प्रवेश हेतु दक्षिण की ओर से द्वार निर्मित है. यह विशेष आकार में निर्मित गुजरात का पहला मकबरा है. मकबरे के ऊपर एक बड़ा गुम्बद बना हुआ है.
मुबारक सैयद का मकबरा यह मकबरा अहमदाबाद से लगभग सत्रह मील दूर निर्मित है इस मकबरे में धनुषाकार डिजाइन के दर्शन होते हैं. इस इमारत में मेहराबों की योजना प्रशंसनीय है.
मुहाफिज खाँ की मस्जिद यह वास्तु- कला के सुन्दर उदाहरणों में से एक है. इस इमारत का निर्माण 1492 ई. में किया गया.
सीदी सैयद की मस्जिद-गुजरात के उल्लेखनीय भवनों में यह मस्जिद भवन निर्माण शैली में अन्तिम इमारत है. मस्जिद की दीवारें सुन्दर जालीदार पत्थर के पदों से बनी हैं. इसका निर्माण सोलहवीं सदी के आरम्भिक वर्षों में हुआ.
बावलियाँ-यह वस्तुतः एक कृत्रिम झील म है जिसे महमूद बीगड़ ने अपने शासनकाल (1458-1511 ई.) में बनवाया था. इस झील क के किनारे राजकीय निवास स्थान भी क बनवाए गए थे. गुजरात प्रान्त में बनी इस अ झील को कलाकारों ने विशेष कलात्मक ढंग अ से निर्मित किया है.
तालीकोट का युद्ध
मोर्चा जिसमें बीजापुर, अहमदनगर. गोलकुण्डा तथा बीदर सम्मिलित थे, ने 25 जनवरी, 1565 को विजयनगर साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया इतिहास में यह युद्ध ‘तालीकोट का युद्ध’ के नाम से जाना जाता है. इस युद्ध में संयुक्त मोर्चे को विजय प्राप्त हुई तथा रामराय का वध कर दिया गया विजेताओं ने विजयनगर साम्राज्य को जोकि एक सम्पन्न साम्राज्य था. लूटकर सर्वनाश कर दिया. विजयनगर साम्राज्य के छिन्न-भिन्न होने के साथ ही दक्षिण में हिन्दू सर्वोच्चता का अंत हो गया आरवी वंश
1570 ई. में तिरूमाल ने आरवीड अथवा अंडविदु वंश के शासन को स्थापित किया उसने वेनगौडा को अपने राज्य की राजधानी बनाया अडविदु वंश ने इतिहास में कोई महत्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं की इस वंश के अन्य शासक थे रंग द्वितीय, वेंकट तथा रंग तृतीय जो अन्तिम शासक रहा 1614 में उसकी मृत्यु हो गई
प्रशासन
केन्द्रीय शासन
शासन की सम्पूर्ण शक्ति, यथा- सैनिक, असैनिक, न्यायिक आदि राजा में ही निहित होती थी उसकी इच्छा ही कानून थी. यद्यपि राजा निरंकुश होता था, किन्तु अत्याचारी नहीं राजा को ‘राय’ कहा जाता था राजा विभिन्न मामलों में राज्य परिषद्’ की सलाह लिया करता था इसी परिषद् के द्वारा राजा का अभिषेक किया जाता था. राजा को परामर्श देने के लिए एक ‘मंत्रिपरिषद भी होती थी इसके मुख्य अधिकारी को प्रधानी अथवा महाप्रधानी कहा जाता था. इस परिषद् में 20 सदस्य होते थे, जोकि अनेक विभागों के अध्यक्ष, मंत्री तथा राजा के निकट सम्बन्धी होते थे. राजा के पश्चात् ‘युवराज’ का पद अत्यन्त ही महत्व का था साधारणतः राजा का पुत्र ‘युवराज’ होता था, किन्तु पुत्र के अभाव में किसी अन्य व्यक्ति को भी ‘युवराज’ बनाया जा सकता था.
प्रान्तीय शासन
शासन सुविधा की दृष्टि से समस्त साम्राज्य को प्रांतों में विभाजित कर दिया गया था उस समय विभाजित प्रांतों की संख्या 6 थी प्रान्त सम्बन्धी समस्त सैनिक असैनिक तथा न्यायिक शक्ति सूबेदार के हाथों में निहित होती थी आवश्यकता पड़ने पर सूबेदार राजा को सैनिक सहायता प्रदान करता था. यद्यपि सूबेदार अपने प्रांतों में अपनी विस्तृत शक्तियों का उपभोग करते थे, किन्तु उन पर राजा का नियंत्रण होता था स्थानीय शासन प्रांत को मंडल तथा मंडल को जिलों में विभाजित किया गया था, जिन्हें ‘वलनाडु स्थल अथवा कोट्टम’ कहा जाता था कोट्टम नाडुओं में तथा नाडु मेलग्रामों में विभाजित थे गाँव प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी गाँव के अधिकारियों के पद पैतृक थे ये अधिकारी थे-सेनटेयवा’ गाँव की आय व्यय की देखभाल करने वाला, ‘तलस’ गाँव की चौकीदारी करने वाला तथा ‘बेगरा’ गाँव में बेगार अथवा मजदूरी की ि देखभाल करने वाला होता था इन्हीं अधिकारियों के द्वारा गाँव का शासन प्रबन्ध किया जाता था
नाडू गाँव की बड़ी राजानीतिक इकाई ‘नाडू’ होती थी. इसकी सभा भी ‘नाडू’ के नाम से जानी जाती थी ‘नाडू’ के सदस्यों को नात्तवर कहा जाता था इनका अधिकार क्षेत्र अत्यन्त ही विस्तृत था आयगार
प्रशासन को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में बारह प्रशासकीय अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी. इनको सामूहिक रूप से ‘आयगार’ कहा जाता था ये अवैतनिक होते थे. इन्हें सेवाओं के बदले राज्य के करों से पूर्णतः मुक्त रखा जाता था इनके पद आनुवंशिक होते थे ये अपने पदों को किसी अन्य व्यक्ति को बेचने अथवा गिरवी रखने के लिए स्वतन्त्र थे. वित्त व्यवस्था
विजयनगर साम्राज्य की वित्त व्यवस्था सुदृढ़ थी सिंचाई कर लगान, चरागाह.. उद्यान तथा व्यापारिक कर, आय के साधन थे राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि कर था जोकि उपज का 1/5 भाग था
सैनिक व्यवस्था
साम्राज्य की सुरक्षा हेतु एक संगठित सेना की व्यवस्था की गई थी, जिसमें पैदल अश्वारोही हाथी तथा ऊँट शामिल थे सैन्य विभाग को कन्दाचार के नाम से जाना जाता था. यह विभाग ‘दण्डनायक’ अथवा ‘सेनापति’ के अधीन रहता था. सेना दो प्रकार की होती थी. एक सम्राट की सेना दूसरी प्रान्त पतियों की सेना आवश्यकता पड़ने पर प्रान्तपति को अपनी सेना सम्राट की सहायता हेतु भेजनी पड़ती थी. न्याय व्यवस्था विजय नगर साम्राज्य की न्याय व्यवस्था हिन्दू धर्मानुसार निष्पक्ष एवं कठोर थी. राजा प्रधान न्यायाधीश होता था भीषण अपराधों थे, किन्तु उन पर राजा का नियंत्रण होता था स्थानीय शासन प्रांत को मंडल तथा मंडल को जिलों में विभाजित किया गया था, जिन्हें ‘वलनाडु स्थल अथवा कोट्टम’ कहा जाता था कोट्टम नाडुओं में तथा नाडु मेलग्रामों में विभाजित थे गाँव प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी गाँव के अधिकारियों के पद पैतृक थे ये अधिकारी थे-सेनटेयवा’ गाँव की आय व्यय की देखभाल करने वाला, ‘तलस’ गाँव की चौकीदारी करने वाला तथा ‘बेगरा’ गाँव में बेगार अथवा मजदूरी की ि देखभाल करने वाला होता था इन्हीं अधिकारियों के द्वारा गाँव का शासन प्रबन्ध किया जाता था
नाडू गाँव की बड़ी राजानीतिक इकाई ‘नाडू’ होती थी. इसकी सभा भी ‘नाडू’ के नाम से जानी जाती थी ‘नाडू’ के सदस्यों को नात्तवर कहा जाता था इनका अधिकार क्षेत्र अत्यन्त ही विस्तृत था आयगार
प्रशासन को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में बारह प्रशासकीय अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी. इनको सामूहिक रूप से ‘आयगार’ कहा जाता था ये अवैतनिक होते थे. इन्हें सेवाओं के बदले राज्य के करों से पूर्णतः मुक्त रखा जाता था इनके पद आनुवंशिक होते थे ये अपने पदों को किसी अन्य व्यक्ति को बेचने अथवा गिरवी रखने के लिए स्वतन्त्र थे. वित्त व्यवस्था
विजयनगर साम्राज्य की वित्त व्यवस्था सुदृढ़ थी सिंचाई कर लगान, चरागाह.. उद्यान तथा व्यापारिक कर, आय के साधन थे राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि कर था जोकि उपज का 1/5 भाग था
सैनिक व्यवस्था
साम्राज्य की सुरक्षा हेतु एक संगठित सेना की व्यवस्था की गई थी, जिसमें पैदल अश्वारोही हाथी तथा ऊँट शामिल थे सैन्य विभाग को कन्दाचार के नाम से जाना जाता था. यह विभाग ‘दण्डनायक’ अथवा ‘सेनापति’ के अधीन रहता था. सेना दो प्रकार की होती थी. एक सम्राट की सेना दूसरी प्रान्त पतियों की सेना आवश्यकता पड़ने पर प्रान्तपति को अपनी सेना सम्राट की सहायता हेतु भेजनी पड़ती थी
. न्याय व्यवस्था
विजय नगर साम्राज्य की न्याय व्यवस्था
हिन्दू धर्मानुसार निष्पक्ष एवं कठोर थी. राजा प्रधान न्यायाधीश होता था भीषण अपराधों प्रतियोगिता
थे, किन्तु उन पर राजा का नियंत्रण होता था स्थानीय शासन प्रांत को मंडल तथा मंडल को जिलों में विभाजित किया गया था, जिन्हें ‘वलनाडु स्थल अथवा कोट्टम’ कहा जाता था कोट्टम नाडुओं में तथा नाडु मेलग्रामों में विभाजित थे गाँव प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी गाँव के अधिकारियों के पद पैतृक थे ये अधिकारी थे-सेनटेयवा’ गाँव की आय व्यय की देखभाल करने वाला, ‘तलस’ गाँव की चौकीदारी करने वाला तथा ‘बेगरा’ गाँव में बेगार अथवा मजदूरी की ि देखभाल करने वाला होता था इन्हीं अधिकारियों के द्वारा गाँव का शासन प्रबन्ध किया जाता था
नाडू गाँव की बड़ी राजानीतिक इकाई ‘नाडू’ होती थी. इसकी सभा भी ‘नाडू’ के नाम से जानी जाती थी ‘नाडू’ के सदस्यों को नात्तवर कहा जाता था इनका अधिकार क्षेत्र अत्यन्त ही विस्तृत था आयगार
प्रशासन को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में बारह प्रशासकीय अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी. इनको सामूहिक रूप से ‘आयगार’ कहा जाता था ये अवैतनिक होते थे. इन्हें सेवाओं के बदले राज्य के करों से पूर्णतः मुक्त रखा जाता था इनके पद आनुवंशिक होते थे ये अपने पदों को किसी अन्य व्यक्ति को बेचने अथवा गिरवी रखने के लिए स्वतन्त्र थे. वित्त व्यवस्था
विजयनगर साम्राज्य की वित्त व्यवस्था सुदृढ़ थी सिंचाई कर लगान, चरागाह.. उद्यान तथा व्यापारिक कर, आय के साधन थे राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि कर था जोकि उपज का 1/5 भाग था
सैनिक व्यवस्था
साम्राज्य की सुरक्षा हेतु एक संगठित सेना की व्यवस्था की गई थी, जिसमें पैदल अश्वारोही हाथी तथा ऊँट शामिल थे सैन्य विभाग को कन्दाचार के नाम से जाना जाता था. यह विभाग ‘दण्डनायक’ अथवा ‘सेनापति’ के अधीन रहता था. सेना दो प्रकार की होती थी. एक सम्राट की सेना दूसरी प्रान्त पतियों की सेना आवश्यकता पड़ने पर प्रान्तपति को अपनी सेना सम्राट की सहायता हेतु भेजनी पड़ती थी
. न्याय व्यवस्था
विजय नगर साम्राज्य की न्याय व्यवस्था
हिन्दू धर्मानुसार निष्पक्ष एवं कठोर थी. राजा प्रधान न्यायाधीश होता था भीषण अपराधों प्रतियोगिता
कृषि अधिकांश जनता कृषि पर आश्रित थी. कृषि दशा उन्नत थी यहाँ गेहूं, चावल, जौ, दाल आदि विभिन्न प्रकार के खाद्यान्नों की खेती बड़े पैमाने पर होती थी। व्यापार उन्नत था यहाँ के निवासी मुख्यत हीरो का व्यापार करते थे साथ ही कृषि व्यापार भी अपने अस्तित्व में था कृषि योग्य भूमि तथा सिंचाई के साधनों की उत्तम व्यवस्था की गई थी. विजयनगर साम्राज्य का व्यापार मुख्यतः मलाया, बर्मा चीन, अरब, ईरान, अफ्रीका. अबीसीनिया एवं पुर्तगाल से होता था. व्यापार जल एवं थल दोनों ही मार्गो से होता था आयात व्यापार के अन्तर्गत अश्व, मोती, ताँबा, कोयला, पारा, रेशम आदि का विदेशों से आयात किया जाता था
निर्यात
कपड़ा, चावल, शोरा, चीनी, मसाले, इत्र आदि का विजयनगर से विभिन्न देशों को निर्यात किया जाता था. व्यापार एव उद्योगों की देखभाल के लिए अनेक संघों का निर्माण किया गया था. भूमि विजयनगर साम्राज्य में भूमि को अनेक श्रेणियों में रखा गया था. अनेक प्रकार की भूमि अपने अस्तित्व में थी कुट्टगि भूमि वह भूमि, जिसे ब्राह्मण मंदिर एवं बड़े भू-स्वामी किसान को खेती हेतु पट्टे पर देते
थे. कुट्टगि भूमि कहा जाता था
मठारपुर भूमि
वह भूमि, जिसे राज्य द्वारा विशेष धार्मिक सेवाओं के बदले ब्राह्मण मन्दिर एवं मठों को दानस्वरूप प्रदान करता था उसे ‘मठारपुर’ अथवा ‘देवदेय’ कहा जाता था उबलि भूमि गाँव में दी जाने वाली वह भूमि जिसे लगान मुक्त रखा जाता था. उबलि भूमि कहलाती थी. यह विशेष सेवाओं के बदले में प्रदान की जाती थी.
अमरम भूमि वह भूमि, जिसे राज्य द्वारा सैनिक एवं असैनिक अधिकारियों को उनकी उल्लेखनीय सेवाओं के बदले में प्रदान किया जाता था, अमरम भूमि कहलाती थी. इसके प्राप्तकर्ता भूमि की आय का कुछ अंश राज्य को प्रदान करते थे.
रतकोडगे भूमि
वह भूमि, जिसे राज्य द्वारा युद्ध में वीरता प्रदर्शित करने वाले को दी जाती थी. उसे ‘रतकोडगे’ भूमि कहा जाता था
कला एवं साहित्य
कला
विभिन्न प्रकार की कला, यथा-चित्र- कला, नाट्यकला, संगीतकला तथा स्थापत्य- कला को राजाओं ने विशेष प्रोत्साहन दिया संगीतकला, नृत्यकला एवं नाट्यकला पर अनेक ग्रन्थों की रचना हुई स्थापत्यकला की उन्नति की ओर विशेष ध्यान दिया गया
कृष्णदेव राय का ‘हजारा मन्दिर तथा ‘विट्ठलस्वामी’ का मंदिर इस काल की स्थापत्यकला के कुछ प्रसिद्ध उदाहरण हैं
साहित्य
विजयनगर साम्राज्य में साहित्य के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति हुई राजाओं ने विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया, परिणामस्वरूप संस्कृत, तेलुगु, तमिल तथा कन्नड़ भाषाओं में साहित्य लिखा गया. सायण, माधव, नचन सोम तथा कृष्णदेव राय स्वयं विजयनगर के महान् विद्वान् हुए, जिन्होंने नृत्यकला, व्याकरण, दर्शन, धर्म आदि सभी पर ग्रन्थ लिखे मुहम्मद तुगलक (1325-51 ई.) के शासनकाल में दक्षिण भारत के अनेक अमीरों ने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह किया. इस विद्रोह का फायदा मुहम्मद तुगलक के एक अधिकारी हसन, जो कि फारस के सुल्तान बहमनदीन इस्कन्दियार का वंशज था, ने उठाया और 1347 ई. में एक नवीन बहमनी साम्राज्य की स्थापना की सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् उसने गुलबर्गा’ को अपनी राजधानी बनाया तथा अब-ए- मुजफ्फर अलाउद्दीन बहमनशाह की उपाधि धारण की हसन बहुत ही उदार प्रवृत्ति का शासक था. उसने अपने समस्त साम्राज्य को चार प्रांतों में विभक्त किया. ये प्रांत थे- (1) दौलताबाद, (2) बरार, (3) बीदर, (4) गुलबर्गा प्रत्येक प्रांत में एक-एक प्रांतपति की नियुक्ति की तथा उन्हें स्वतन्त्र रूप से शासन चलाने का अधिकार प्रदान किया. फरवरी 1358 ई. में अलाउद्दीनशाह की मृत्यु हो गईं हसन के पश्चात् मुहम्मद शाह प्रथम मुजाहिदशाह मुहम्मदशाह द्वितीय, ताजुद्दीन फिरोजशाह अहमदशाह. अलाउद्दीन द्वितीय हुमायूँ. निजामशाह. मुहम्मदशाह तृतीय इस वंश के अन्य सुल्तान हुए कलीमुल्लाशाह इस वंश का अन्तिम सुल्तान था. इसी के काल में बहमनी राज्य का पतन हो गया. बहमनी साम्राज्य के पतन के साथ ही इसका स्थान पाँच स्वतन्त्र राज्यों ने ले लिया. ये राज्य थे- (1) बीजापुर, (2) गोलकुण्डा, (3) अहमदनगर, (4) बीदर, (5) बरार अ वा
शक्षक
प्रशासन
सुल्तान
शासन की समस्त शक्ति सुल्तान में ही निहित थी. उसके अधिकार अनियमित थे.
वह अपने आपको ईश्वर का प्रतिनिधि’ समझता था निरंकुश होते हुए भी सुल्तान अत्याचारी नहीं होते थे शासन में सहयोग प्रदान करने के लिए अनेक मंत्रियों की नियुक्ति की जाती थी. जिनकी सहायता से सुल्तान शासन करता था कुछ प्रमुख मंत्री इस प्रकार थे.
वकील-उस-सुल्तनत
सुल्तान के प्रधानमंत्री को वकील-उस- सुल्तनत के नाम से जाना जाता था सुल्तान के पश्चात् प्रशासन में इसी का महत्वपूर्ण स्थान था
अमीर-ए-जुमला
वित्त सम्बन्धी मामलों के मंत्री को अमीर ए जुमला कहा जाता था
वजीर-ए-अशरफ
विदेश समबन्धी मामलों के मंत्री को ‘वजीर-ए-अशरफ कहा जाता था वजीर-ए-कुलल एवं पेशवा
इन मंत्रियों के कार्य का विवरण प्राप्त नहीं होता है. खास-खेल सुल्तान के अंगरक्षक को ‘खास खेल’ के नाम से जाना जाता था.
प्रांत शासन सुविधा की दृष्टि से समस्त बहमनी साम्राज्य को चार प्रांतों में विभक्त किया गया था. इन प्रांतों को अतरफ कहा जाता था. अतरफ के शासन को चलाने के लिए प्रांतपति की नियुक्ति की जाती थी. जिसे ‘तर्फदार’ के नाम से जाना जाता था. इसकी नियुक्ति सुल्तान ही करता था
कभी-कभी ‘तर्फदारों’ की नियुक्ति विभिन्न मंत्री के पदों पर भी कर दी जाती थी “तर्फदार’ को सुल्तान द्वारा विस्तृत अधिकार प्रदान किए गए थे वह अपने अतरफ (प्रांत) में लगान वसूल करता था. सैनिक व असैनिक अधिकारियों की नियुक्ति करता था. साथ ही सेना का भी संगठन करता था.
सरकार
शासन सुविधा की दृष्टि से अतरफों’ (प्रातों) को सरकारों में विभाजित कर दिया गया था. परगना सरकार को कई ‘परगानों में विभाजित कर दिया गया था.
गाँव परगनों को कई गाँवों में बाँट दिया गया था, गाँव प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी. सद्र-ए-जाहर
राज्य के मुख्य न्यायाधीश को सद-ए- जाहर कहा जाता था न्याय सम्बन्धी मामलों के साथ ही यह धार्मिक कार्यों एवं राज्य के द्वारा प्रदान किए गए दान की भी व्यवस्था करता था. सेना साम्राज्य की सुरक्षा हेतु एक संगठित सेना की व्यवस्था की गई थी सेना के प्रमुख अंग थे अश्वारोही, हाथी, पैदल एवं तोपखाना मनसबदारी प्रथा अपने अस्तित्व में थी इसका प्रारम्भ शिहाबुद्दीन अहमद प्रथम ने किया था. इस प्रथा के अन्तर्गत सैनिक अधिकारियों को उनके मनसब के अनुसार जागीर प्रदान की जाती थी. किलेदार किले के अधिकारी को ‘किलेदार’ कहा जाता था. यह प्रत्यक्ष रूप से केन्द्र के प्रति
उत्तरदायी होता था
स्वतन्त्र राज्य बीजापुर
बहमनी साम्राज्य के पतन के उपरान्त पाँच स्वतंत्र नव उदित राज्यों में बीजापुर का महत्वपूर्ण स्थान था. बीजापुर स्वतन्त्र राज्य में आदिलशाही वंश की स्थापना 1489 ई. में युसुफ आदिलशाह ने की थी. अपनी योग्यता के बल पर वह महमूद गव की सेना में उच्च पद पर पहुँच गया था. बहमनी राज्य के पतन के पश्चात् वह बीजापुर का स्वतन्त्र शासक बन गया. वह बड़ा ही उदार एवं न्यायप्रिय शासक था उसने अपने दरबार में हिन्दुओं को अनेक महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया उसके दरबार में समय-समय पर ईरान, तुर्किस्तान तथा मध्य एशियाई देशों के विद्वान् आते रहते थे. इस्माइल, मल्लू, इब्राहीम प्रथम, अली इब्राहीम द्वितीय, मुहम्मद अली द्वितीय आदि इस वंश के अन्य सुल्तान हुए. मीडोज टेलर के अनुसार, ‘आदिलशाह द्वितीय’ इस वंश का सर्वाधिक सहिष्णु एवं बुद्धिमान शासक था. इसी वंश के महमूद आदिलशाह का मुगल सम्राट शाहजहाँ से संघर्ष हुआ था. 1686 ई. में मुगल सम्राट् औरंगजेब द्वारा बीजापुर को मुगल साम्राज्य में विलीन कर लिया गया आदिलशाही वंश के सुल्तानों को इमारतें बनवाने का बहुत शौक था. बीजापुर की खास मस्जिद, गगन महल, इब्राहीम द्वितीय का मकबरा इस स्वतन्त्र राज्य की कुछ प्रमुख इमारतें हैं. इसी वंश के शासकों के संरक्षण में रहकर मुहम्मद कासिम, जोकि फरिश्ता के नाम से प्रख्यात है, ने प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ तारीख-ए- फरिश्ता की रचना की थी. गोलकुण्डा महमूदशाह बहमनी के शासनकाल में तैलंगाना के एक तुर्की अफसर कुतुबशाह ने बहमनी राज्य के पतन के साथ ही अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और गोलकुण्डा का स्वतन्त्र शासक बन बैठा उसने लगभग 1543 ई. तक शासन किया. उसके पश्चात् उसका पुत्र जमशेद बना. इब्राहीम गोलकुण्डा का तीसरा सुल्तान था. इसके शासनकाल में गोलकुण्डा का विजयनगर साम्राज्य से संघर्ष हुआ. इब्राहीम के पश्चात् कोई ऐसा योग्य सुल्तान नहीं हुआ जो गोलकुण्डा के शासन को कुशलतापूर्वक चला पाता, अतः गोलकुण्डा का यह स्वतंत्र राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा. 1687 ई. में औरंगजेब ने इस स्वतंत्र राज्य पर अपना अधिकार कर लिया. बीदर
1526-27 ई. में अमीर अलीबरीद ने बमनी सुल्तान को, जोकि नाममात्र का शासक था, अपदस्थ करके अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी और बीदर में बरीदशाही वंश की स्थापना की विजयनगर साम्राज्य के विरुद्ध हुए तालीकोटा के युद्ध में इस राज्य ने बीजापुर, गोलकुण्डा व अहमदनगर की सम्मिलित सेनाओं के साथ भाग लिया तथा संयुक्त रूप से विजयश्री का वरण किया. 1618-19 ई. में यह स्वतन्त्र राज्य बीजापुर में मिला लिया गया बरार बहमनी राज्य के पतन के साथ ही फतेहउल्लाह इमादशाह ने 1490 ई. में बरार में स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया उसका वंश बरार के इमादशाही के नाम से प्रख्यात हुआ. 1574 ई. तक इस वंश के लोगों का बरार पर शासन रहा. 1574 ई. में अहमदनगर के सुल्तान ने बरार को विजित कर अहमदनगर राज्य में मिला लिया 1596 ई. में अकबर ने इस स्वतन्त्र राज्य पर अधिकार करके इसे एक अलग सूबा बना दिया
अहमदनगर
1490 ई. में निजामशाही वंश का मलिक अहमद चुनार का सूबेदार था. बहमनी साम्राज्य का पतन होते देखकर उसने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी और इसी वर्ष उसने अहमदनगर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बना लिया तथा 1499 ई. में उसने दौलताबाद पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया उसने 1508 ई. तक स्वतन्त्र शासक के रूप में शासन किया उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बुरहाने निजामशाह शासक बना हुसैनशाह इस वंश का तीसरा शासक था, जिसने विजयनगर के विरुद्ध संघ में भाग लिया था. हुसैनशाह की मृत्यु के पश्चात् दुर्बल शासक हुए, जिससे राज्य की शासन व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई, परिणामस्वरूप 1600 ई. में सम्राट् अकबर ने इस राज्य पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की और यहाँ के शासक को अपना सामंत बना लिया 1636 ई. में इस राज्य को पूर्णरूपेण मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।
भारत पर मुस्लिम आक्रमण का भारतीय समाज पर अत्यधिक प्रभाव पडा . वास्तविकता तो यह है कि हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही एक-दूसरे से प्रभावित हुए. यद्यपि पन्द्रहवीं एवं सोलहवीं शताब्दी में प्रमुख रूप से दो ही धर्म – 1. हिन्दू, 2. इस्लाम अपने अस्तित्व में थे, किन्तु हिन्दू एवं मुसलमानों के पारस्परिक संसर्ग के परिणामस्वरूप कुछ अन्य धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हुआ जो हिन्दू-मुस्लिम भेद को समाप्त करने के इच्छुक थे. इन धार्मिक सम्प्रदायों के प्रयासों के परिणामस्वरूप तत्कालीन भारतीय समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ तथा कुछ हद तक हिन्दू तथा मुसलमानों के बीच भेद भी कम हुआ इसे ही धार्मिक आंदोलन के नाम से जाना जाता है. छठी शताब्दी के बाद होने वाला यह सर्वाधिक व्यापक धार्मिक आदोलन था इसे भक्ति आंदोलन भी कहा जाता है भक्ति आंदोलन हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए है ज्ञान, कर्म एवं भक्ति सल्तनतकाल में अनेक ऐसे हिन्दू धार्मिक विचारक हुए, जिन्होंने भक्ति को अत्यधिक महत्व दिया और धर्म सुधार का एक आंदोलन प्रारम्भ किया जो भक्ति आंदोलन के नाम से प्रख्यात हुआ. मध्ययुगीन विचारको ने मोक्ष प्राप्ति के तीसरे मार्ग- भक्ति पर अत्यधिक बल दिया. उन्होंने भक्ति द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने का उपदेश दिया इस आंदोलन के निम्नलिखित कारण थे-
(1) मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दू धर्म पर किए गए अत्याचारों से हिन्दू जनता त्रस्त हो गई परिणामस्वरूप उसका भक्ति की ओर झुकाव हुआ
(2) सूफी संतों की उदारता एव सहिष्णुता ने जनता को प्रभावित किया.
(3) हिन्दू एवं मुसलमानों के पारस्परिक संसर्ग ने इस आंदोलन के उदय में महत्व- पूर्ण भूमिका निभाई. भक्ति आंदोलन की प्रमुख विशेषताएँ
(1) भक्ति आंदोलन के समर्थक ईश्वर की एकता (एकेश्वरवाद) में विश्वास करते थे.
(2) भक्ति आंदोलन के अनुयायी कर्मकाण्ड तथा आडम्बर के घोर विरोधी थे..
(3) इन्होंने चरित्र की शुद्धता पर अत्यधिक बल दिया
(4) जाति प्रथा का विरोध.
(5) भगवान की भक्ति द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति
(6) मोक्ष प्राप्ति हेतु संन्यास की आव श्यकता नहीं है.
(7) ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं.
(8) सामाजिक कुरीतियों का विरोध
(9) गुरु के महत्व पर विशेष बल
(10) समर्पण की भावना.
शापित पीठ भक्ति आंदोलन का प्रभाव (1) जनसाधारण की भाषा में सत्त द्वारा पद लिखे जाने के कारण प्रान्तीय भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ (2) भारतीय जनता में सहिष्णुता की भावना का उदय हुआ (3) हिन्दू एवं मुसलमानों के मध्य वैमनस्यता कम हुई (4) सामाजिक कुरीतियों एवं अथ
विश्वासों पर करारी चोट (5) हिन्दुओं के आत्मबल में वृद्धि हुई
भक्ति आंदोलन का स्वरूप
भक्ति आंदोलन की दो धाराएं थीं- (1) निर्गुण (2) सगुण निर्गुण- अर्थात् निराकार पारब्रह्म की उपासना, निर्गुण धारा की भी दो शाखाएं थीं (1) ज्ञानाश्रयी (2) प्रेमाश्रयी सगुण-अर्थात् राम कृष्ण की उपासना, सगुण की भी दो शाखाएं थीं-
(1) रामभक्ति, (2) कृष्ण भक्ति
भक्ति आंदोलन के मुख्य संचालक
आचार्य रामानुज
भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक रामानुज का आविर्भाव बारहवीं शताब्दी में तमिलनाडु में हुआ आपने विशिष्ट अद्वैतवाद का प्रचार किया. सगुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया. – मूर्तिपूजा एवं जाति भेद-भाव का विरोध किया शूद्रों को भी मंदिर में प्रवेश की आज्ञा दे दी. स्त्रियों के लिए भक्ति के द्वार खोल दिए. उनका विचार था कि सच्चे हृदय से ईश्वर की भक्ति करना ही मुक्ति का मार्ग है. उनकी शिक्षाएं दक्षिण में अत्यन्त ही प्रभावी रहीं.
निम्बार्काचार्य
निम्बार्काचार्य राधा तथा कृष्ण के उपासक तथा रामानुज के समकालीन थे. आपने द्वैताद्वैतवाद सिद्धान्त का प्रचार किया. इनके अनुसार कृष्ण की भक्ति ही एकमात्र मोक्ष का साधन है.
मध्वाचार्य
मध्वाचार्य विष्णु के उपासक थे. उनका मत था कि ज्ञान से भक्ति प्राप्त होती है और भक्ति से मोक्ष इन्होंने द्वेतवाद का प्रतिपादन किया.
रामानंद
इलाहाबाद में कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में जन्मे रामानंद उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन के प्रमुख संचालक थे भगवान राम के उपासक रामानंद ने शुद्ध आचरण एवं उन्होंने शेति-रिवाज, धार्मिक उत्सव आदि के स्थान दर प्रेम तथा भक्ति पर बल दिया जात चीत के के घोर विरोधी थे. उनका कहना या जाति पाति पूछे न कोई हरिको भजे सो हरि का होई कबीर काशी में एक जुलाहे परिवार में जन्मे कबीर भक्ति आंदोलन के मुख्य संचालकों में से एक थे वे रामानंद के शिष्य तथा निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वास, साम्प्रदायिकता तथा छुआछूत के घोर विरोधी थे उन्होंने हिन्दू मुसलमानों के मध्य एकता स्थापित करने के लिए सराहनीय प्रयास किए उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप कबीरपंथ सम्प्रदाय की स्थापना हुई, जिसके अनुयायी ‘कबीरपंथी कहलाए कबीरदास जी की प्रमुख रचनाए थीं- (1) साखी, (2) सबद (3) रमैनी
वल्लभाचार्य
ये कृष्ण के उपासक थे उनका मत था कि गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है उनके अनुसार ब्रह्म तथा आत्मा में कोई अंतर नहीं है भक्ति के द्वारा आत्मा अपने बंधनों से छुटकारा पाकर मोक्ष प्राप्त कर सकती है.
ये मेड़ता के राठौर रत्नसिंह की पुत्री तथा राणा सांगा की पत्नी थीं वे कृष्ण की उपासिका थीं. उन्होंने घूम-घूमकर सर्वत्र कृष्ण भक्ति का प्रचार-प्रसार किया.
चैतन्य
बंगाल में जन्मे चैतन्य कृष्ण के उपासक थे. उन्होंने कर्मकाण्ड, बाह्य आडम्बर का विरोध किया तथा प्रेम एवं भक्ति पर विशेष बल दिया, जाति-पांति तथा ऊँच-नीच का विरोध किया. चैतन्य अनुयायी उन्हें विष्णु का अवतार मानते थे.
गुरु नानक
र गुरु नानक का जन्म पाकिस्तान स्थित त तलवंडी नामक गाँव में 1469 ई. में हुआ न था. इस गाँव को अब ननकाना के नाम से ण जाना जाता है. उन्होंने एकेश्वरवाद तथा
उसकी भक्ति का उपदेश दिया उन्होंने धार्मिक बाह्य आडम्बर, जाति पाँति, भेद भाव तथा कर्मकाण्डों का घोर विरोध किया उन्होंने सिख धर्म चलाया हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही जाति के लोग उनके शिष्य थे रैदास कबीरदासजी के समकालीन रैदास निर्गुण धारा के समर्थक संत थे उनका पुनर्जन्म में विश्वास था उनका मत था कि मोक्ष प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भक्ति है दादू 1544 में अहमदाबाद में जन्मे दादू भक्ति आंदोलन के मुख्य संचालक थे उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य प्रेम और मैत्री स्थापित करने के उद्देश्य से ब्रह्म सम्प्रदाय की स्थापना की
प्रमुख मत एवं उनके प्रवर्तक
मत प्रवर्तक
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अद्वैतवाद शंकराचार्य
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विशिष्टताद
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द्वैताद्वैतवाद रामानुजाचार्य निम्बार्काचार्य
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शुद्धाद्वैतवाद बल्लभाचार्य मध्वाचार्य
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द्वैतवाद
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भेदाभेदवाद
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शैव विशिष्टाद्वैत भास्कराचार्य श्रीकठ
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अचिन्त्य भेदाभेदवाद
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वीर शेव विशिष्टाद्वैत
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अविभागाद्वैत बलदेव श्रीपति नामदेव
विज्ञान भिक्षु
महाराष्ट्र में धार्मिक आंदोलन के प्रमुख नामदेव जाति प्रथा बाह्य आडम्बर एवं अंध- विश्वास के कट्टर विरोधी थे वे उपवास, तीर्थयात्रा आदि में भी विश्वास नहीं करते थे
एकनाथ
एकनाथ की गणना महाराष्ट्र के महान् विद्वान् तथा समाज सुधारक के रूप में की जाती है. आपने श्रेष्ठ चरित्र पर विशेष बल दिया
उपर्युक्त भक्ति आंदोलन के मुख्य संचालकों के अतिरिक्त बंगाल में जयदेव महाराष्ट्र में दासोपंत, तुकाराम, ज्ञानेश्वर. रामदास, उत्तर भारत में तुलसीदास सूरदास आदि मुख्य संत हुए, जिन्होंने भक्ति आंदोलन को गति प्रदान की
सूफी धर्म
भारत में इस्लाम धर्म के साथ ही सूफी धर्म का प्रवेश हुआ सूफी शब्द का निर्माण अरबी भाषा के ‘सफा’ शब्द से हुआ है जिसका अर्थ है-पवित्रता’ अर्थात् वे संत जो आचार-विचार से पवित्र थे, सूफी कहलाए सूफी मत में कर्मकाण्डों का घोर विरोध किया गया है. सूफी मत के अनुयायी एक ईश्वर में विश्वास करते थे तथा भौतिक जीवन के त्याग पर विशेष बल देते थे शांति, अहिंसा, धार्मिक सहिष्णुता एवं मानवमात्र के प्रति प्रेम की भावना में भी उनका अटूट विश्वास था. सूफियों के मत एवं विचारों से हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही अत्यधिक प्रभावित हुए यही कारण रहा कि पन्द्रहवीं एवं सोलहवीं शताब्दी में भारत में सूफी धर्म का अत्यधिक प्रचार-प्रसार हुआ ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, हमदुद्दीन नागौरी, कुतुबुद्दीन बख्तियार काली, फरीदुद्दीन गंज- ए-शकर, निजामुद्दीन औलिया आदि प्रमुख सूफी संत हुए सूफी धर्म प्रचार-प्रसार से पूर्व ही बारहवीं शताब्दी में बारह सिलसिलों अर्थात् वर्गों में विभक्त हो गया था, जिनमें चिश्ती, सुहरावर्दी, कादिरी, सत्तारी, फिरदौसी एवं नक्शबंदी आदि प्रमुख सिलसिले थे. ये सिलसिले भी दो वर्गों में विभाजित थे- (1) ‘बा-शरा’, अर्थात् इस्लामी विधि (शरा) का अनुकरण करने वाले, (2) ‘बे-शरा’, अर्थात् जो इस्लामी विधि से बँधे हुए नहीं थे वे अधिकाशंत घुमक्कड़ प्रवृत्ति के होते थे
चिश्ती सिलसिला
चिश्ती सिलसिला भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ इसकी स्थापना अजमेर में बारहवीं शताब्दी के अंत में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने की थी. कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, निजामुद्दीन औलिया, बाबा फरीद आदि चिश्ती सिलसिले के अन्य प्रमुख सूफी संत हुए. इस सिलसिले के संत एवं अनुयायी शासक वर्ग से अलग रहते थे तथा संगीत एवं योग क्रियाओं में विश्वास रखते थे. इस सिलसिले के संतों का व्यक्तित्व अत्यन्त ही आकर्षक था, इन्होंने अनेक प्रचलित भारतीय रीति- रिवाजों को अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था
सुहरावर्दी सिलसिला
घुमक्कड़ प्रवृत्ति के शहाबीन सुहरावर्दी एवं हमीदउद्दीन नागैरी इस सिलसिले के प्रमुख संत हुए इनका शासक वर्ग से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा पंजाब एवं मुल्तान इस सिलसले के संतों का प्रमुख कार्यक्षेत्र रहा
कादिरी सिलसिला
कादिरी सिलसिले की स्थापना का श्रेय इराक के संत ‘अब्दुल कादिर-अल-जिलानी’ को जाता है. इस सिलसिले के संत उदार एवं रूढ़िवादी दोनों ही प्रवृत्ति के थे
नक्शबंदी सिलसिला
इस सिलसिले के संस्थापक अहमद आता यास्वी थे. बाकी बिल्लाह, शेख अहमद सर-हिन्दी आदि इसके प्रमुख संत थे
फिरदौसी सिलसिला
मध्य एशिया के ‘सैफुद्दीन बखरजी’ इस सिलसिले के संस्थापक तथा बदुद्दीन समरगजी, अहमद इब्न याह्या मनैरी आदि प्रमुख संत थे.
सत्तारी सिलसिला
‘अबूयजीद अल-बिस्तामी ने इस सिलसिले की स्थापना की थी. शेख अब्दुल्ला इस सिलसिले के प्रमुख संत थे.
कल्हण
कल्हण कश्मीर के इतिहास के लिए जाना जाता है. उसने 12वीं शताब्दी तक के कश्मीर के इतिहास का वर्णन अपनी पुस्तक ‘राजतरंगिणी’ में किया है. कल्हण कश्मीर के राजा हर्ष के मंत्री कल्पक का पुत्र था. जिस समय कल्हण ने संस्कृत भाषा में राजतरंगिणी’ की रचना की उस समय कश्मीर का शासक जयसिंह था.
अलबेरूनी
अलबेरूनी का पूरा नाम मोहम्मद इब्न अहमद अलबेरूनी था उसके साथी उसे अबू रहीम पुकारते थे. महमूद गजनवी ने जब 1025 ई. में सोमनाथ पर आक्रमण किया था तब अलबेरूनी उसके साथ आया
था, तब अलबेरूनी ने भारत के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और भारतीय संस्कृति 5 को जाना अलबेरूनी की पुस्तक ‘तहकीक- ए- हिन्दी भारत का सचित्र वर्णन करती है. द अलबेरूनी ने इस पुस्तक में एक वैज्ञानिक की भाँति अवलोकन करके भारत की धार्मिक, साहित्यिक, सामाजिक स्थिति का वर्णन किया है. इस पुस्तक में आठ अध्याय हैं.
अल इदरीसी (ग्यारहवीं शताब्दी)
इस अरब यात्री ने भारत भ्रमण कर अपने ग्रन्थ ‘नुज्हजुल – मुश्ताक में राष्ट्रकूट, चोल एवं चालुक्य आदि राजपूत राज्यों का वर्णन किया है. इसकी कुछ बातें असत्य या मनगणन्त प्रतीत होती हैं, जैसे कि गुजरात में पुरुष अपनी अविवाहित पुत्रियों एवं बहनों के साथ अवैध सम्बन्ध रख सकते थे वह सैनिक, कृषक, भारतीय समाज को सात वर्णों में विभाजित परि बताता है-कुलीन ब्राह्मण, शिल्पी, गायक एवं मनोरंजनकर्ता, अल इदरीसी भारत के चीन एवं फारस के साथ व्यापारिक सम्बन्धों पर महत्वपूर्ण जानकारी देता है बहरी (ग्यारहवीं शताब्दी अल इस अरब विद्वान् ने अपने ग्रन्थ ‘तारीखे मसूदी’ में राजपूतकालीन समाज धार्मिक विश्वासों एवं परम्पराओं एवं व्यापार तथा वाणिज्य सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी दी है. उमरी (बारहवीं शिहाबुद्दीन अल शताब्दी) दमिश्क से भारत यात्रा पर आए इस अरब यात्री ने अपने ग्रन्थ ‘मसालिक-अल- आबसार – ममालिक-उल-अमसार’ में तत्कालीन हिन्दू समाज की सामाजिक एवं आर्थिक अवस्था का महत्वपूर्ण वर्णन किया है। मिनहज उस शिराज मिनहज उस शिराज ने तबाकत-ए- नासिरी पुस्तक खलजी काल के प्रारम्भिक वर्षों में लिखी इसमें उसने राजनीतिक इतिहास का वर्णन किया है यह पुस्तक तेईस तबाकतो (जीवनियों) में विभाजित है। जिसमें क्रमानुसार राजवंशों का वर्णन किया गया है. आईन-उल-मुल्क मुल्तानी आईन-उल-मुल्क ने खलजी दरबार में सेवा की. अलाउद्दीन खलजी ने उसे मालवा का सूबेदार बनाया. मोहम्मद-बिन-तुगलक ने उसे मुल्तान का इक्ता दिया उसने अपनी पुस्तक ‘इशा-ए-गाहरू’ में 133 पत्र विभिन्न महत्वपूर्ण व्यक्तियों को लिखे हैं, जो विभिन्न विषयों से सम्बन्धित है. इस पुस्तक में अनेक दस्तावेज भी संगृहीत हैं तुगलक काल के इतिहास के लिए यह महत्वपूर्ण पुस्तक है.
जियाउद्दीन बरनी
बरनी का जन्म 1286 ई. में हुआ था बरनी खलजी सुल्तानों और मोहम्मद-बिन- तुगलक के शासनकाल में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हुआ. उसकी प्रमुख कृतियाँ हैं- तारीख-ए-फिरोजशाही और फतहा-ए- जहाँदारी उसकी पुस्तक में बलबन से लेकर फिरोजशाह तुगलक के प्रारम्भिक छ वर्षों तक का वर्णन है अमीर खुसरो का जन्म उत्तर प्रदेश के एटा जिले के पटियाली में 1252 ई. में हुआ था उसका पूरा नाम अबुल हसन यामिन उद्दीन है
खुसरो था. अमीर खुसरो प्रसिद्ध सूफी संत निजामुद्दीन ओलिया का शिष्य था उसकी प्रसिद्ध ऐतिहासिक कृतियाँ निम्नलिखित हैं- (1) कुरान उस सादिन इसकी रचना 1289 ई. में हुई इसमें बंगाल के सूबेदार बुगरा खाँ और उसके पुत्र दिल्ली के सुल्तान केकूबाद की मुलाकात का वर्णन है. (2) मिफ्ता उल फुतूह- इसमें जलालुद्दीन खलजी के सैन्य अभियानों और विजयों का वर्णन है
(3) आशिक इसमें अलाउद्दीन खलजी के पुत्र खिज खाँ और देवता देवी का वर्णन है
(4) नूर सिपर इसमें तत्कालीन सामा- जिक और सांस्कृतिक दशा का वर्णन है, (5) तुगलकनामा- इसमें गयासुद्दीन
तुगलक के कार्यकाल का वर्णन है ख्वाजा अब्द मलिक इसामी
इसामी का जन्म 1311 ई. में हुआ, बाद में वह दौलताबाद में बस गया उसकी पुस्तक फुतुह उस-सलातीन में महमूद गजनवी से लेकर मोहम्मद बिन तुगलक तक के शासनकाल का वर्णन है।
शेख फक अबू अब्दुल्लाह मोहम्मद
बिन बतूता इब्नबतूता का जन्म 1304 ई में मोरक्को, अफ्रीका में हुआ था वह भारत में 14 वर्ष (1334-47 ई.) रहा उसकी पुस्तक ‘रेहला’ में सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल का वर्णन है. उसने इस पुस्तक में समाज के सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला है.
सुल्तान फिरोजशाह तुगलक
फिरोजशाह तुगलक ने मात्र 32 पृष्ठों की आत्मकथा ‘फुतुहात-ए-फिरोजशाही लिखी है. फुतुहात-ए-फिरोजशाही का अर्थ है- फिरोजशाह की विजय’ इस पुस्तक से फिरोजशाह की मनोभावनाओं का पता
चलता है. ह्या बिन अहमद बिन अब्दुल्लाह सरहिन्दी या बिन अहमद सरहिन्दी दिल्ली के सैयद सुल्तानों का समकालीन था उसने अपनी पुस्तक ‘तारीख-ए-मुबारकशाही’ लिखने के लिए कई पुस्तकों को आधार बनाया. इस पुस्तक में उसने मुख्यतः सुल्तान मुबारक शाह के शासनकाल के विषय में लिखा है.
रफीउद्दीन शिराज
इसकी पुस्तक ‘ताजकिरात-उल-मुलुक बीजापुर के आदिलशाही शासकों से सम्बन्धित है. इसमें दक्कन के समकालीन राजवंशों का भी वर्णन किया गया है
दीवान अली मोहम्मद बिन खान
दीवान अली मोहम्मद बिन खान की कृति ‘गिरात-ए-अहमदी मुस्लिम शासन के तहत गुजरात के इतिहास का प्रमुख स्रोत है
सैयद अली तबतबा
सैयद अली तबतबा 1580 ई में भारत आए और गोलकुण्डा के सुल्तान की सेवा में भर्ती हो गए और उसके पश्चात् बरहान निजाम शाह द्वितीय की सेवा में चले गए. वहीं उन्होंने बरहान-ए-मासिर पुस्तक लिखी इस पुस्तक में गुलबर्गा, बीदर और अहमदनगर के राजवंशों पर प्रकाश डाला गया है सिकन्दर बिन मोहम्मद मंजु सिकन्दर बिन मोहम्मद मंजु गुजरात के सूबेदार मिर्जा अजीज कोका की सेवा में था इसके बाद वह जहाँगीर की सेवा में आया 1611 ई में उसने मिराज-ए- सिकन्दरी’ लिखी जिसमें अकबर द्वारा गुजरात विजय का वर्णन है
अबुल फजल
अबुल फजल को अकबर का संरक्षण प्राप्त था 1574 ई. में वह अकबर का मनसबदार बना अबुल फजल ने 1589 ई में अकबरनामा लिखना शुरू किया अकबरनामा तीन भागों में लिखा गया है. तीसरे भाग को ही आइने अकबरी कहा जाता है जिसमें अकबरकालीन मुगल प्रशासन, सामाजिक और आर्थिक दशा का वर्णन है अबुल फजल का 1602 ई. में बीरसिंह बुन्देला ने कत्ल कर दिया था.
बार्थोलोम्यू दियाज (1502-1509 ई.)
इटली का यह यात्री केप ऑफ गुड होप का चक्कर लगाकर भारत पहुँचा एवं आठ वर्ष तक दक्षिण-पश्चिम भारत में भ्रमण करता रहा वह भारतीय भाषा का जानने वाला एकमात्र विदेशी यात्री था उसने विजयनगर, कालीकट, सूरत, भड़ौच आदि अनेक नगर एवं बन्दरगाहों की यात्रा करके उनका विस्तृत वर्णन अपने यात्रा वृत्तान्त में दिया है
बाबर
बाबर ने अपनी मातृभाषा तुर्की में अपनी आत्मकथा बाबरनामा या तुजुक ए बाबरी लिखी यह भी तीन भागों में विभाजित है इसका अन्तिम भाग भारत से सम्बन्धित है
गुलबदन बेगम बाबर की पुत्री
गुलबदन बेगम ने भी हुमायूँ का इतिहास लिखा है, उसने बाबर त की प्रार्थना पर हुमायूँनामा की रचना की. का इसमें बाबर का संक्षिप्त और हुमायूँ का विस्तार से विवरण है.
(16वीं शताब्दी) बौद्ध भिक्षु एवं विद्वान लामा तारानाथ ने तिब्बत का इतिहास लिखा है.
इस तिब्बती यात्री ने पूर्वी भारत का भ्रमण करके अपनी पुस्तक में बंगाल एवं बिहार की आठवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक दशा का चित्रण किया है. उसके विवरण से कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती है. जैसे कि वह बताता है कि बंगाल में गोपाल को नेता एवं सरक्षक के रूप में स्थानीय नेताओं द्वारा चुना गया था
एंथोनी मांसेरात (1578-1582 ई.)
पुर्तगाली यात्री फादर मासेरात अकबर के दरबार में आया था. अकबर ने उसे शहजादा मुराद का शिक्षक नियुक्त किया था उसने अपने यात्रा वृत्तान्त में सूरत. मांडू, ग्वालियर, दिल्ली, लाहौर, सरहिन्द आदि नगरों, मुगल दरबार एवं अकबर के चरित्र तथा व्यक्तित्व, धार्मिक अवस्था एवं शिक्षा व्यवस्था, सैनिक अभियानों तथा जन- सामान्य के रहन-सहन आदि से सम्बन्धित बातें विस्तार से लिखी हैं. वह तत्कालीन समाज में प्रचलित सती प्रथा का नृशंस हत्या के रूप में उल्लेख करता है.
अब्बास खाँ सखनी
शेरशाह का एकमात्र प्रसिद्ध इतिहासकार अब्बास खाँ सखनी था जिसे शेरशाह सूरी का संरक्षण प्राप्त था सखनी अकबर के दरबार में रहा, उसने शेरशाह के लिए तारीख-ए-शेरशाही और अकबर के लिए तारीख-ए-अकबरशाही पुस्तक लिखी. तारीख-ए-शेरशाही में 1539 ई. से 1555 ई. तक का वर्णन है.
अब्दुल कादिर बदायूँनी
बदायूँनी का जन्म 1540 ई. में टोडा में हुआ था. अकबर ने उसको 1589 ई. में बदायूँ में एक हजार बीघा जमीन दी और अपने दरबार में नियुक्त किया. वह संगीत और ज्योतिष विद्या में निपुण था उसने किताबुल अहदिश, तारीख-ए-अल्फी, मुन्तखाल उल त्वारीख, तारीख-ए-बदायूँनी आदि पुस्तकें लिखी जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं.
ख्वन्द मीर
गयासुद्दीन मोहम्मद जिसे ख्वन्द मीर कहा जाता है का जन्म 1775 ई. में हुआ था. उसने अपनी पुस्तक हुमायूँनामा या कानून-ए-हुमायूँनी में हुमायूँ द्वारा बनाए गए कानूनों का और इमारतों का उल्लेख किया है.
जहाँगीर
जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा तुजुक स ए जहाँगीर में अपना पूर्ण विवरण दिया है. के इसे अन्य कई नामों से भी जाना जाता है. अब्दुल हमीद लाहोरी शाहजहाँकालीन अब्दुल हमीद लाहोरी मि से प्रसिद्ध इतिहासकार था. इसने पादशाहनामा से पुस्तक लिखी इसमें शाहजहाँ का उसके बचपन से सचित्र वर्णन है. शाहजहाँ के समय में ही दो अन्य पादशाहनामा लिखे गए. एक मोहम्मद अमीर खान कायज्मी द्वारा और दूसरा मोहम्मद वारिस शाह द्वारा मोहम्मद साकी मुस्तैद खाँ मोहम्मद साकी मुस्तैद खाँ औरंगजेब सेकी सेवा में चालीस वर्ष रहा. वह औरंगजेब- कालीन अनेक घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी रहा. जिनको उसने लिपिबद्ध किया. मासिर-ए- आलमगीरी की रचना औरंगजेब की मृत्यु के बाद की गई. इसमें 51 वर्ष के इतिहास का वर्णन है.
मोहम्मद हाशिम खाफी खाँ
खाफी खाँ ने मुंतखाल-उल-लबाब न मुहम्मद शाही पुस्तक लिखी. इसे तारीख-ए- खाफी खान भी कहा जाता है. इसमें तुर्कों म द्वारा भारत विजय से लेकर 1733 ई. तक का वर्णन है. खाफी खाँ की इस पुस्तक में शाहजहाँ का महत्वपूर्ण वर्णन किया गया है.
ख्वाजा निजामुद्दीन अहमद हरवी
ख्वाजा निजामुद्दीन अहमद ने हुमायूँ को राजगद्दी दिलवाने में उसकी मदद की. उसने अकबर के शासनकाल में तबाकत-ए- अकबरी की रचना की जो 1593 ई. में पूरी हुई. इसमें 1593 ई. तक के भारत में मुसलमानों के इतिहास का वर्णन है. यह सैयद और लोदी काल के लिए महत्वपूर्ण पुस्तक है. वाक्यात-ए-मुश्तकी में उसने लोदी और सून शासकों की रोचक कहानियों और घटनाओं का वर्णन किया है.
मुहम्मद कासिम हिन्दूशाह अस्तरावादी इन्हें फरिश्ता के नाम से जाना जाता है. ये पहले ( 1565-88 ई.) में अहमदनगर के सुल्तान मुर्तजा निजामशाह की सेवा में गए. उसके बाद बीजापुर पहुँच गए फरिश्ता ने गुलशान-ए-इब्राहिमी जिसे तारीख-ए- फरिश्ता कहा जाता है लिखी यह पुस्तक इब्राहीम आदिलशाह को भेंट की गई तब इसे तारीख-ए-नोरसनामा कहा गया यह दक्खन के सुल्तानों के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण पुस्तक है. इनायत खाँ
यह शाहजहाँ के दरबार का उच्चाधिकारी था. इसने शाहजहाँनामा के नाम से शाहजहा की जीवनी लिखी, जिसमें उसके प्रारम्भिक 13 वर्ष के शासनकाल का वर्णन है शाहजहाँनामा के नाम से दूसरी पुस्तक मोहम्मद सादिक खाँ ने लिखी इसने शाहजहाँ के सम्पूर्ण शासनकाल की घटनाओं को लिपिबद्ध किया है
मिर्जा मोहम्मद
काजिम मिर्जा मोहम्मद काजिम को औरंगजेब ने मुशी नियुक्त किया था इसकी पुस्तक माहसिर-ए-आलमगीरी में औरंगजेब के इतिहास का वर्णन है.
ईश्वरदास नागर
ईश्वरदास नागर एक मुगल प्रशासनिक अधिकारी था. वह जोधपुर में नियुक्त था उसने 1698 ई. तक की औरंगजेब के शासनकाल की घटनाओं का विवरण फुतुहात-ए-आलमगीरी में दिया है. इसमें राजपूताना और मालवा की घटनाओं का भी वर्णन है.
अल मसूदी
अल मसूदी अरब यात्री था, जिसने अपनी पुस्तक मुकजुल जहाब में अपनी भारत यात्रा और भारतीय भौगोलिक दशा का वर्णन किया है उसकी यह पुस्तक मुख्यतः पश्चिमी भारत से सम्बन्धित है चाऊ जू कुआ यह चीनी व्यापारी और यात्री था उसने चुआ-फान-ची नाम से पुस्तक लिखी इसमें उसने 12वीं व 13वीं शताब्दी के चीन यूँ और अरब व्यापार का विस्तृत वर्णन किया है. उसने चीन और दक्षिण भारत के व्यापारिक सम्बन्धों पर प्रकाश डाला मार्कोपोलो
यह वेनिस का यात्री था. उसने 1292- 93 ई. में दक्षिण भारत की यात्रा की वह कुबलाई राजकुमारी के साथ उसकी सुरक्षा के लिए चीन से ईरान गया था. मार्कोपोलो ने दक्षिण भारत का आश्चर्यजनक वर्णन किया है. उसने अपनी यात्राओं का वर्णन Book of Sir Marco Polo में किया गया है जिसमें तत्कालीन भारत की आर्थिक दशा का वर्णन किया गया है.
इब्नबतूता
इब्नबतूता एक अरब व्यक्ति था और मोरक्को का निवासी था. अनेक देशों की यात्रा करने के बाद मोहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में वह भारत पहुँचा. मोहम्मद- बिन तुगलक ने उसे दिल्ली का काजी – नियुक्त किया इस पद पर वह आठ वर्ष तक रहा. 1345 ई. में वह मदुरई के सुल्तान के दरबार में गया. इसके पश्चात् 1353 ई. में वह मोरक्को लौट गया. इब्नबतूता ने अपनी यात्राओं का विवरण
रेहला में दिया है रेहला में मोहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल का विस्तृत विवरण है निकोलो कोण्टी
निकोली कोण्टी इटली का निवासी था जिसने विजयनगर साम्राज्य की यात्रा की वह विजयनगर देवराय प्रथम के शासनकाल 1420-21 में उसने अपनी के विवरणों को लेटिन भाषा में लिखा मूल विवरण खो चुके है उसने विजयनगर साम्राज्य के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी दी अब्दुर्रज्जाक
यह ईरान के शाह का राजदूत बनकर कालीकट के जेमोरीन के पास आया था. अब्दुर्रज्जाक ने 1443 ई में विजयनगर साम्राज्य की यात्रा की विजयनगर की विशालता देखकर यह अचम्भित हुआ. इस शहर की विशालता के सम्बन्ध में उसने टिप्पणी दी कि इतना विशाल शहर न पहले कभी उसने देखा न सुना, उसका कहना था कि पृथ्वी पर इतना विशाल दूसरा नगर था ही नहीं यह नगर एक के बाद एक सात दीवारों से सुरक्षित था. उसने विजयनगर की प्रशासन व्यवस्था और सामाजिक जीवन का भी चित्रण किया है
अथनेसियस निकितिन
निकितिन रूस का घोड़ों का सौदागर था. वह व्यापार के सिलसिले में दक्षिण भारत आया और बहमनी साम्राज्य में कुछ वर्ष रहा. उसने लम्बे समय तक बीदर में निवास किया, उसने बहमनी राज्य की सेना और सामाजिक दशा का वर्णन किया.
बारबोसा
बारबोसा पुर्तगाली अफसर था जो भारत में पुर्तगाली सरकार की सेवा में 1500 ई. से 1516 ई. तक रहा. 1518 ई. में वह वापस चला गया और पुर्तगाल जाकर उसने विजयनगर साम्राज्य के विषय में लिखा उसकी पुस्तक का नाम था The Book of Durate Barbora. लुडोविको डी वर्थेमा वर्थेमा प्रसिद्ध सैनिक और यात्री था. जिसे पुर्तगालियों ने नाइट की उपाधि से दि विभूषित किया. उसने भारत की यात्रा की और मुख्यतः विजयनगर साम्राज्य के विषय में लिखा. उसकी यात्रा के विवरण उसकी पुस्तक The Itinerary of Ludovico di Varthema में दिए गए हैं.
डोमिंगो पायस वह महान् पुर्तगाली यात्री था जिसने कृष्णदेव राय के शासनकाल में विजयनगर की यात्रा की पायस विजयनगर की विशालता और प्रसिद्धि का प्रत्यक्ष गवाह था उसने अपनी आँखों से जो देखा Narrative of Domingo Pacs में लिख दिया पायस ने लिखा ‘विजयनगर रोम के बराबर बड़ा शहर है विश्व में इससे अधिक खूबसूरत कोई दूसरा शहर नहीं है
निज पुर्तगाल का घोड़ों का व्यापारी था जो तीन वर्ष (1535-37 ई.) विजयनगर साम्राज्य में रहा उसने विजयनगर की स्थापना से लेकर अच्युत देवराय के अन्त तक का वर्णन किया है रॉबर्ट सीवेल ने अपनी पुस्तक A Forgotten Empire में निज के लेखों का विवरण दिया है सीजर फ्रेडरिक
पुर्तगाली यात्री सीजर ने तालीकोटा के युद्ध (1565 ई.) के बाद विजयनगर की यात्रा की और वहाँ की दुर्दशा का वर्णन किया
राल्फ फिच
राल्फ फिच पहला ब्रिटिश यात्री था जिसने आगरा और फतेहपुर सीकरी की यात्रा की उसने सोलहवीं शताब्दी में भारत की व्यापारिक दशा का वर्णन किया है विलियम फिच (1608-1612 ई.)
फिच हाकिन्स के साथ ही 1608 ई. में सूरत बन्दरगाह पर उतरा था उसने 17वीं शताब्दी के भारत के व्यापारिक मार्गों, सूरत, बुरहारनपुर, उज्जैन फतेहपुर सीकरी जैसे विख्यात नगरों, दुर्गों एवं जेलों, उद्योग- धन्धों, जानवरों, पौधों, पुलों एवं धार्मिक परम्पराओं आदि का विस्तृत वर्णन किया है वह बुलन्द दरवाजे को ‘विश्व का सबसे ऊँचा दरवाजा’ एवं लाहौर को ‘पूर्व का सबसे बड़ा शहर बताता है सलीम एवं अनारकली की प्रेमकथा का उल्लेख करने वाला वह एकमात्र विदेशी यात्री था
जोन जुरदां (1608-1617 ई.)
इसने भारत के लगभग सभी तत्कालीन बन्दरगाहों की यात्राएं कीं तथा इनके विषय में लिखा वह आगरा को दुनिया के सबसे बड़े नगरों में से एक मानता है उसने देश के व्यापारिक केन्द्रों एवं उद्योगों का विश्लेषणात्मक वर्णन किया है।
निकोलस डाउंटन (1608-1615 ई.) यह ब्रिटिश जहाजी बेड़े का कप्तान था, जो इंगलैण्ड के सम्राट् जेम्स द्वितीय का मुगल बादशाह जहाँगीर के नाम संदेश लेकर भारत आया था. यद्यपि गुजरात के गवर्नर से अनबन हो जाने के कारण वह मुगल दरबार में प्रस्तुत नहीं हो सका, फिर भी अपने यात्रा वृतान्त में उसने मुगलों की अर्थव्यवस्था की प्रामाणिक जानकारी दी है.
उसका भारत वर्णन मुख्य गुजरात और उसमें भी सूरत से ही सम्बन्ध के व्यापारी वर्ग एवं मुस्लिमों के रहन सहन का विशेष रूप से उल्लेख करता है निकोलस विथिंगटन (1612-1616 ई.)
यह ईस्ट इण्डिया कम्पनीका कर्मचारी बनकर सूरत आया था उसे आगरा जाने का भी अवसर मिला था उसका यात्रा विवरण ‘ट्रेक्टेट’ नाम से 100 वर्ष बाद लन्दन में प्रकाशित हुआ था उसने गुजरात के अतिरिक्त राजस्थान की सभ्यता एवं संस्कृति पर भी प्रकाश डाला है राजपूतों में प्रचलित सती प्रथा की वह प्रशंसा करता है टामस कोर्येट (1612-1617 ई.) अंग्रेज यात्री कोर्बेट भारत में छ वर्ष तक रहा सर टामस रो के साथ उसे भी ● मुगल सम्राट् जहाँगीर से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था उसने जहाँगीर के दैनिक क्रियाकलाप, मनोरंजन के साधनों, तुलादान उत्सव, मीना बाजार, झरोखा दर्शन आदि का रोचक एवं सजीव वर्णन किया है पाल केनिंग (1615-1625 ई.) यह ब्रिटिश यात्री, जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी का कर्मचारी भी था. जहाँगीर के समय में भारत आया था इसने उत्तरी एव पश्चिम भारत के अनेक नगरों की यात्रा की इसकी यात्रा डायरी से तत्कालीन मुगल साम्राज्य की आर्थिक व्यवस्था विशेषकर कारखानों, बन्दरगाहों एवं विदेशी व्यापार के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। एडवर्ड टेरी (1616-1619 ई.)
यह सर टामस रो का पादरी था भारत में उसका निवास मांडू एवं अहमदाबाद में रहा था. अपने यात्रा वृत्तान्त में उसने मालवा एवं गुजरात के बारे में विस्तार से लिखा है. मांडू में उसको जहाँगीर से मिलने का अवसर मिला उसके यात्रा विवरण में जहाँगीर के व्यक्तित्व, मुद्रा प्रणाली, मुगल छावनी, पहनावा एवं आचार-व्यवहार, भाषा… आवास, खानपान, उद्योग-धन्धों एवं व्यापार आदि विषयक महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है
फ्रांसिस्को पेलसर्ट (1620-1627 ई.)
पेलसर्ट एक डच गुमाश्ता था, जो जहाँगीर के समय में भारत आया था. उसने अपनी यात्रा डायरी में तत्कालीन भारतीय नगरों में विकसित उद्योग-धन्धों एवं व्यापारिक कार्य-कलापों विशेषकर गरम मसाले एवं नील व्यवसाय का विस्तार से वर्णन किया है.
जान लायट (1626-1633 ई.)
इस डच यात्री ने 17वीं सदी के पूर्वार्द्ध के भारत की व्यापार एवं वाणिज्य सम्बन्धी जान फिरियर (1627-1681 ई.) यह अंग्रेज यात्री 50 से अधिक वर्ष तक भारत में रहा इसके यात्रा विवरण से मुगलकालीन आर्थिक अर्थव्यवस्था के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
जान लिंककोटन
यह अंग्रेज यात्री था. उसने अपनी यात्राओं का विवरण The Voyage of John Hughen Von Linschotten to the East Indiese में दिया है. इसमें उसने 16वीं शताब्दी की दक्षिण भारत की आर्थिक
दशा का विवरण दिया है.
विलियम हाकिंस
विलियम हाकिस इंगलैण्ड के राजा जेम्स प्रथम का भेजा गया राजदूत था जो 1608 ई. में जहाँगीर के दरबार में पहुँचा वह 1611 ई. तक जहाँगीर के दरबार में रहा उसने जहाँगीर के शासनकाल की महत्वपूर्ण जानकारी दी है। थामस रो ब्रिटिश दूत था जो 1615 ई में जहाँगीर के साथ मांडू और अहमदाबाद की यात्रा की उसने मुगल साम्राज्य और अपनी यात्रा का विवरण अपनी पुस्तक A Voyage to East Indiese में दिया है. उसने मुगल दरबार में होने वाले षड्यंत्रों और भ्रष्टाचार के विषय में लिखा है
पीट्रो डेला वाले
पीट्रो इटली का यात्री था, जो 1623 ई. में सूरत पहुंचा उसने तटवर्ती क्षेत्रों की यात्रा की उसने अपने विवरण में तत्कालीन भारतीय सामाजिक दशा एवं प्रथाओं पर प्रकाश डाला.
बर्नियर (1658-1668 ई.)
यह फ्रेंच यात्री जो पेशे से चिकित्सक था, औरंगजेब के शासनकाल में भारत आया था. इसने लगभग पूरे भारत की यात्रा की थी. इसने अपने ग्रन्थ ‘ट्रेवल्स इन द मुगल एम्पायर में उत्तराधिकार के युद्ध. तत्कालीन हिन्दू-मुस्लिम समाज के तौर- तरीकों एवं रस्म-रिवाजों तथा व्यापार एवं वाणिज्य आदि का सजीव एवं तथ्यपूर्ण विवरण लिखा है यह औरंगजेब के साथ कश्मीर यात्रा पर भी गया था.
जीन थिननाट (1666-1668 ई.) यह फ्रेंच यात्री औरंगजेब के समय में भारत आया था. इसने पश्चिम भारत के वाणिज्य एवं व्यापार के अलावा सर्वप्रथम ‘एलोरा गुफा’ का वर्णन अपने यात्रा वृत्तान्त में किया
गेमेल्ली कैररी (1695-1696 ई.) यह इटालियन यात्री बीजापुर की यात्रा पर आया था. उसने अपने यात्रा वृत्तान्त में दक्षिण भारत की तत्कालीन राजनीतिक पृष्ठभूमि एवं अर्थव्यवस्था का दिलचस्प वर्णन किया है. जॉन सरमन (1715-1717 ई.) ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारिक प्रतिनिधिमण्डल के नेतृत्वकर्ता के रूप में जॉन सरमन मुगल सम्राट् फर्रुखसियर के दरबार में आया था. उसने तत्कालीन भारत की आर्थिक दशा के विषय में महत्वपूर्ण फुटनोट लिखे हैं. स्टेवो रिसन (18वीं शताब्दी)
यह डच यात्री 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध म में बंगाल एवं बिहार की यात्रा पर आया था. उसने बंगाल में उद्योग एवं वाणिज्य की तत्कालीन स्थिति पर महत्वपूर्ण विवरण लिखा है, उसका यह कथन अत्यन्त प्रसिद्ध है-‘बीस गज से अधिक मलमल का वस्त्र जेब में रखने वाली तम्बाकू की डिबिया में आ सकता था.
विलियम बोल्ट्स (1767-1772 ई.) अंग्रेज यात्री बोल्ट्स ने बंगाल में कृषि एवं उद्योग-धन्धों तथा व्यापार के पतन, बुनकरों की दुर्दशा और 1770 ई. के दुर्भिक्ष का निष्पक्ष एवं साहसिक ढंग से वर्णन किया है तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन की आलोचना की है.
डो (1770 ई.) इस अंग्रेज यात्री ने बंगाल की यात्रा कर वहाँ के उद्योग एवं व्यापार की अवनति का उल्लेख अपने यात्रा वृत्तान्त में किया उसने वहाँ की दुर्दशा के लिए रॉबर्ट क्लाइव की नीतियों को दोषी माना है.
पीटर मुण्डी
पीटर मुण्डी शाहजहाँ के शासनकाल में भारत की यात्रा करने वाला इटली का यात्री था उसने तत्कालीन समाज का चित्र खींचा है
जीन बैप्टिस ट्रेवरनियर
ट्रेवरनियर ने 1638-1663 ई. के मध्य छः बार भारत की यात्रा की. उसने अपनी यात्राओं का विवरण 1676 ई. में Travel in India में दिया है. उसके विवरणों से समुद्री मार्ग, सड़क मार्ग, सिक्कों, बाँटों, निर्यात परिवहन के साधनों की जानकारी मिलती है ट्रेवरनियर मुख्यतः हीरों का व्यापारी था.
मनूची
मनूची मात्र 14 वर्ष की आयु में वेनिस से भागकर भारत आया और 1653 ई. में दाराशिकोह की सेना में भर्ती हो गया. दारा की पराजय के पश्चात् उसने चिकित्सक का पेशा अपना लिया और 1708 ई. तक भारत में रहा. उसने Storio Dor Mogar में अपने अनुभवों को लिखा है. उसने दक्षिण भारत और भारत और भारत के उद्योगों की महत्वपूर्ण जानकारी दी है. उसके विवरण तत्कालीन भारतीय आर्थिक दशा का सही चित्रण करते हैं.
बर्नियर
बर्नियर शाहजहाँ के दरबार में फ्रांसीसी चिकित्सक था. वह उत्तराधिकार के युद्ध का गवाह था जिसका वर्णन उसने History of the late rebellion in the states of the Great Mughal में किया है. बाद में वह – मद्रास चला गया और 1717 ई. में उसकी मृत्यु हो गई.
बाबर (1526–30)
बाबर का वास्तविक नाम जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर था. उसका जन्म 1483 को मध्य एशिया स्थित एक छोटे-से राज्य फरगना में हुआ था. पिता उमर शेख की मृत्यु के पश्चात् 11 वर्ष 4 माह की अल्पायु मैं उसे फरगना का शासक बना दिया गया.. शासक बनने के तीन वर्ष पश्चात् ही उसने समरकंद पर अधिकार कर लिया, किन्तु समरकंद एवं फरगना शीघ्र उसके हाथ से निकल गए. 1504 ई. में काबुल को विजित किया. महत्वाकांक्षी होने के कारण उसका ध्यान भारत की ओर गया. भारत में उस
समय अनेकानेक छोटे-छोटे राज्य आपस में संघर्षरत् थे. लोदी वंश पतन की ओर अग्रसर था. इस समय महत्वपूर्ण राज्य दिल्ली, बंगाल, गुजरात, मालवा, बहमनी, विजयनगर एवं मेवाड़ मुख्य थे. यहाँ की आपसी वैमनस्यता का लाभ उठाने के उद्देश्य से बाबर ने भारत की ओर कूच कर दिया. उसने भारत पर पाँच बार आक्रमण किया. सर्वप्रथम उसने भेरा पर अपना अधिकार किया. अप्रैल 1526 में वह पानीपत पहुँचा जहाँ उसका इब्राहीम लोदी से युद्ध हुआ पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहीम
लोदी को पराजित कर बाबर ने भारत में एक नवीन वश ‘मुगल वंश की नींव डाली. बाबर ने भारत में चार वर्ष शासन किया इस दौरान वह • अधिकांशत युद्धरत् ही रहा पानीपत का प्रथम युद्ध (1526)
21 अप्रैल 1526 को पानीपत के प्रसिद्ध मैदान में इब्राहीम लोदी एवं बाबर की सेनाओं के मध्य युद्ध हुआ यद्यपि इब्राहीम लोदी की सेना अत्यधिक थी, किन्तु उसकी सेना न तो सुशिक्षित थी और न ही व्यवस्थित बाबर ने इस युद्ध में प्रथम बार तोपखाने का प्रयोग किया तोपखाने का प्रयोग और अपनी तुलगमा रणनीति के कारण बाबर का युद्ध में सफलता मिली. इब्राहीम लोदी इस युद्ध में मारा गया. युद्ध में विजय प्राप्त करने के साथ ही बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना कर दी.
खानवा का युद्ध (1527)
पानीपत के प्रथम युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात् बाबर के साहस में अत्यधिक वृद्धि हुई अत उसने भारत में साम्राज्य विस्तार की दृष्टि से आगरा से लगभग 35 किमी दूर फतेहपुर सीकरी की ओर प्रस्थान कर दिया. 16 मार्च, 1527 को फतेहपुर सीकरी के निकट खानवा के मैदान 1 में पहुंचा, जहाँ उसका राणा सांगा से युद्ध हुआ. युद्ध के प्रारम्भ में तो मुगल सेना के हौसले पस्त हो गए, किन्तु बाबर के ओजस्वी भाषण से सेना में उत्साह का संचार हुआ. 20 घंटे के भीषण युद्ध के उपरान्त बाबर को विजय प्राप्त हुई राणा सांगा युद्ध में घायल हुआ. इस युद्ध से बाबर की भारत विजय का द्वार खुल गया. युद्ध में विजयी होने के बाद बाबर ने ‘गाजी’ की उपाधि धारण की तथ्य एक दृष्टि में पुर्तगाली प्रभुत्व के विरुद्ध
भारत पर तुर्की आक्रमण
1529 ई. सुलेमान रईस
1538 ई. सुलेमान पाशा
1551 ई. पेरी रईस
1554 ई. अली रईस
गुजरात के तट पर दीव पर ओरभुज पर पश्चिमी समुद्र तट | पर मस्कट एव
चंदेरी का युद्ध (1528)
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चंदेरी पर मेदनीराय शासन कर रहा था. अतः बाबर ने 20 जनवरी, 1528 को चंदेरी पर आक्रमण कर दिया. भीषण युद्ध के पश्चात् बाबर को सफलता प्राप्त हुई. अनेक राजपूत, स्त्रियों ने जौहर किया.
घाघरा का युद्ध (1529)
6 मई, 1529 को बाबर का अफगानों से घाघरा का युद्ध हुआ बाबर ने युद्ध में विजय प्राप्त कर बिहार पर अपना अधिकार कर लिया 26 दिसम्बर, 1530 को बाबर की मृत्यु हो गई एक महान विजेता के रूप में तो बाबर था ही. परन्तु इसके अतिरिक्त एक रचनात्मक गुण भी उसके अंदर इतनी अधिक मात्रा में था कि इस क्षेत्र में भी उसने महान् उपलब्धि हासिल की और वह क्षेत्र था- साहित्य का क्षेत्र बाबर द्वारा रचित तुजुक ए बाबरी साहित्य एवं इतिहास के क्षेत्र में बाबर की महान् उपलब्धि है, बाबर ने तुजुक ए बाबरी को तुर्की भाषा में लिखा बाद में अब्दुर्रहीम खानखाना ने इसे फारसी में अनुवादित किया.
बाबर के भारत पर प्रारम्भिक आक्रमण 1518-19 बाजौर एवं भीरा पेशावर बाजौर, भीरा एवं स्यालकोट ने 1524 लाहौर दीपालपुर एवं सुल्तानपुर
हुमायूँ (1530-40 व 1555-56)
हुमायूँ का जन्म 6 मार्च, 1508 ई. को काबुल में हुआ था उसके पिता का नाम बाबर तथा माता का नाम ‘माहम सुल्ताना’ था. हुमायूँ बाबर की मृत्यु के बाद दिल्ली र सिंहासन पर आसीन हुआ उसने अपने ने पिता की आज्ञानुसार विशाल मुगल साम्राज्य को अपने भाइयों कामरान अस्करी और हिन्दाल में बाँट दिया, जो राज्य हुमायूँ को प्राप्त हुआ था, वह फूलों की सेज न होकर काँटों की सेज सिद्ध हुआ उसे अपने भाइयों तथा शत्रुओं से जीवनभर संघर्ष करना पड़ा. अपने दस वर्ष के शासन के पश्चात् ही उसे लगभग 15 वर्ष तक निष्कासित जीवन व्यतीत करना पड़ा. 1555 ई. में उसने पुनः भारत में मुगल साम्राज्य को स्थापित किया. अभी वह अपने पुनर्स्थापित मुगल साम्राज्य की सुरक्षा का प्रबन्ध भी न कर सका था कि एकदिन जब वह ‘दीनपनाह’ के पुस्तकालय की सीढियों से उतर रहा था कि उसका पैर फिसल गया और वह लुढककर नीचे जा गिरा. सिर में गंभीर चोट लगने कारण 27 जनवरी, 1556 ई. को उसकी मृत्यु हो गई. उसके शासनकाल की प्रमुख घटनाएँ इस प्रकार थीं-
कालिंजर विजय (1531)
कालिंजर का शासक प्रताप रुद्रदेव ई था. उसकी अफगानों के प्रति सहानुभूति थी. अफगान हुमायूँ के प्रबल शत्रु थे. इस मिलकर उसके लिए समस्या न उत्पन्न कर दै. हुमायूँ को कालिंजर पर आक्रमण की आवश्यकता महसूस हुई यद्यपि कालिंजर का दुर्ग अमेश था. किन्तु 1531 में हुमायूँ ने कालिंजर पर आक्रमण किया राजपूत वीरता से लड़े, किन्तु पराजित हुए इसी समय हुमायूँ को सूचना मिली की महमूद लोदी के नेतृत्व में अफगान बिहार से जौनपुर की तरफ बढ़ रहे हैं अतः हुमायूँ कालिंजर के राजा से अपने पक्ष में संधि कर वापस आ गया
दोहरिया का युद्ध (1532)
महमूद लोदी के नेतृत्व में अफगानों ने जौनपुर तक अपना अधिकार कर लिया और अवध में शक्ति सुदृढ करने लगे हुमायूँ अफगानों से निपटने के लिए सेना सहित आगे बढ़ा दोहरिया नामक स्थान पर हुमायूँ व अफगानों की सेना में युद्ध हुआ अफगान इस युद्ध में पराजित हुए शेर खाँ महमूद लोदी से अलग हो गया चुनार का प्रथम घेरा (1532) चुनारगढ़ के किले पर शेर खाँ ने अपना अधिकार कर लिया था. चूँकि यह किला अत्यन्त ही महत्व का था अत: हुमायूँ ने 1532 में किले पर घेरा डाल दिया वह चार माह तक घेरा डाले रहा. उसे अभी सफलता प्राप्त नहीं हुई थी कि इसी बीच राजस्थान पर गुजरात के शासक बहादुरशाह ने अपना दबाव बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया, तो हुमायूँ शेर खाँ से समझौता कर वापस आगरा आ गया. दोनों के मध्य हुए समझौते में शेर खाँ ने मुगल आधिपत्य को स्वीकार कर लिया
बहादुरशाह से संघर्ष (1535-36)
गुजरात के शासक बहादुरशाह ने अपने साम्राज्य की सीमाओं को बढ़ाया तो हुमायूँ के समक्ष खतरा उत्पन्न हो गया अतः बहादुरशाह की शक्ति का दमन करने के लिए वह चल दिया इस समय बहादुरशाह चित्तौड़ के किले का घेरा डाले हुआ था मालवा प्रदेश में बहादुरशाह व हुमायूँ के मध्य संघर्ष हुआ, जिसमें हुमायूँ को सफलता मिली हुमायूँ ने मांडू और चम्पानेर के किलों को विजित किया. यद्यपि हुमायूँ की ये विजयें महान थीं. किन्तु स्थायी नहीं.
चौसा का युद्ध (1539)
जब हुमायूँ बहादुरशाह से संघर्षरत् था, तब तक शेर खाँ ने अपनी शक्ति में बहुत अधिक विस्तार कर लिया था जब हुमायूँ व शेर खाँ का दमन करने बंगाल पहुँचा, तब तक शेर खाँ ने बंगाल को लूट लिया था बंगाल से लौटती हुई मुगल सेना पर शेर खाँ ने आक्रमण कर दिया गंगा नदी के तट पर शेर खाँ और हुमायूँ के मध्य युद्ध हुआ. इस युद्ध में मुगल सेना पराजित हुई हुमायूँ अपने प्राणों को बचाने के लिए गंगा नदी में कूद पड़ा वह डूबने ही वाला था कि एक भिश्ती ने उसे बचा लिया चौसा के युद्ध में पराजित होने के कारण हुमायूँ की प्रतिष्ठा को बहुत आघात पहुँचा
(1540) कन्नौज अथवा बिलग्राम का युद्ध
यह युद्ध कन्नौज के निकट हुमायूँ तथा शेर खाँ की सेना के मध्य हुआ 15 मई, 1540 को घनघोर वर्षा होने के कारण मुगल खेमे में पानी भर गया 17 मई को मुगल सेना हुमायूँ के आदेश पर ऊँची भूमि की ओर बढ़ रही थी तभी अफगानों ने आक्रमण कर दिया इस युद्ध में मुगल सेना अपने तोपखाने का प्रयोग नहीं कर पाई और परास्त हुई हुमायूँ आगरा की तरफ भागा, यहाँ उसने अपने भाइयों से सहायता माँगी. लेकिन उसके भाइयों ने उसे सहायता न देकर धोखा ही दिया. शेर खां हुमायूँ का पीछा करता हुआ आगरा आ पहुँचा अतः हुमायूँ यहाँ से भी भाग निकला शेर खाँ ने दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार कर लिया
हुमायूँ का पलायन
कन्नौज युद्ध के पश्चात् हुमायूँ भारत में इधर-उधर भागता रहा, किन्तु शेर खाँ ने उसका पीछा किया हुमायूँ को अपने किसी मित्र अथवा सम्बन्धी से कोई सहायता नहीं मिली. अतः उसे भारत छोड़ने को बाध्य होना पड़ा भारत छोड़कर वह ईरान चला गया. 1540 से 1555 तक लगभग 15 वर्ष उसने निष्कासित जीवन व्यतीत किया.
भारत पर पुनः अधिकार
शेरशाह के उत्तराधिकारी इस्लामशाह मृत्यु हो जाने के पश्चात् अफगानों में की फूट पड़ गई जब यह बात हुमायूँ को पता लगी तो उसने पुनः भारत विजय की योजना बनाई और शीघ्र ही उसे क्रियान्वित किया. नवम्बर 1554 में पेशावर की ओर प्रस्थान किया. 1555 के आरम्भ में ही उसने लाहौर प्रदेश पर अधिकार कर लिया 15 मई. 1555 में मच्छीवारा के युद्ध में विजय प्राप्त कर पंजाब पर अधिकार कर लिया 22 जून, 1555 के सरहिन्द के युद्ध में हुमायूँ ने सिकन्दर सूर को परास्त कर अफगानों की सत्ता को भारत से सदैव के लिए उखाड़ फेंका. आगे बढ़कर हुमायूँ ने जुलाई 1555 में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया. लेकिन दुर्भाग्यवश वह अधिक दिन तक शासन न कर सका जनवरी 1556 में उसकी ‘दीन पनाह’ के पुस्तकालय से गिर जाने के कारण मृत्यु हो गई.
– शेरशाह (1540-1555) शेरशाह के बचपन का नाम फरीद था. उसका जन्म 1486 ई. में नरमौल परगने में हुआ था. सूरवंशीय शेरशाह अपने वंश में सर्वोत्तम शासक माना जाता है. हुमायूँ को परास्त कर उसने भारत में मुगल शक्ति को जड़ से उखाड़ फेंका और अफगानों की शक्ति में वृद्धि की यद्यपि उसने केवल 5 वर्ष ही शासन किया, किन्तु अपने अल्पशासन के दौरान उसने भारत को ऐसी शासन व्यवस्था प्रदान की, जिसका कि आगे आने वाले अनेक सम्राटों ने अनुसरण किया. उसकी शासन व्यवस्था कुछ इस प्रकार थी-
सुल्तान
सुल्तान शासन का सर्वेसर्वा होता था. शासन की समस्त शक्तियाँ उसी में निहित थीं शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए मंत्रियों की भी व्यवस्था की जाती थी, किन्तु इन मंत्रियों के अधिकार अत्यन्त ही सीमित थे. मंत्री शेरशाह ने यद्यपि मंत्रियों को विस्तृत अधिकार प्रदान नहीं किए थे किन्तु फिर भी शासन सुविधा की दृष्टि से शेरशाह ने सल्तनत शासन व्यवस्था के आधार पर चार मंत्री विभाग निर्मित किए.
(i) दीवान-ए-वजारत-यह अर्थव्यवस्था और लगान का प्रधान था. इसका मुख्य काम राज्य की आय और व्यय की देखभाल करना था
(ii) दीवान-ए-आरिज सेना का संगठन, भर्ती, रसद्, शिक्षा और नियन्त्रण की देखभाल करने वाले मंत्री को दीवान-ए-आरिज अथवा आरित-ए-मुमालिक कहा जाता था. यद्यपि यह मंत्री सेना की पूर्ण व्यवस्था करता था. किन्तु वह सेना का सेनापति नहीं होता था.
(iii) दीवान-ए-रसालत – विदेश सम्बन्धी सभी मामलों का उत्तरदायित्व इसी मंत्री का होता था. कभी-कभी यह राज्य की ओर दिए गए दान की भी देखभाल करता था..
(iv) दीवान-ए-इंशा – यह सुल्तान के आदेशों की घोषणा, उनको लिखना तथा लेखा रखता था. राज्य के विभिन्न भागों से पत्र-व्यवहार करना इसी मंत्री का कार्य था. डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव के अनुसार, दीवान-ए-वरीद एवं दीवान-ए-कजा दो अन्य मंत्री होते थे.
दीवान-ए-वरीद यह राज्य की डाक व्यवस्था एवं गुप्तचर विभाग की देखभाल किया करता था.
दीवान-ए-कजा-सुल्तान के पश्चात् यह राज्य के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य करता था.
प्रान्तीय शासन सूबा या इक्ता
शेरशाह के प्रान्तीय शासन के सम्बन्ध में अति अल्प जानकारी प्राप्त होती है. सूबा या इक्ता के सम्बन्ध में विद्वानों के अलग- अलग मत हैं. डॉ. ए. बी. पाण्डेय के अनुसार, जिन राज्यों को शासन करने के लिए स्वतन्त्रता दे दी थी, उन्हें सूबा या इक्ता कहा जाता था. सूबे का प्रधान हाकिम, अमीन अथवा फौजदार होता था पंजाब के हाकिम हैबत खाँ को मन-सद-ए- आलम’ की उपाधि दी गई थी सरकार शासन सुविधा की दृष्टि से प्रत्येक ‘इक्ता’ अथवा ‘सूबे’ को सरकारों में बाँटा जाता था. सरकार के दो प्रमुख अधिकारी होते थे- (1) शिकदार-ए-शिकदारा-यह सैन्य अधिकारी होता था. इसका मुख्य कार्य शान्ति स्थापित करना तथा अधीन शिकदारों के कार्य की देखभाल करना था (2) मुन्सिफ -ए-मुन्सिफा इसका मुख्य कार्य दीवानी मुकदमों का फैसला करना तथा अधीन मुन्सिफों के कार्यों की देखभाल करना था. परगना सरकार कई परगनों में विभाजित होती थी. परगने का शासन एक शिकदार, एक मुन्सिफ एक फोतदार (खजांची) एवं दो कारकून (लिपिक) की सहायता से किया जाता था.
गाँव
गाँव शासन की सबसे छोटी इकाई थी. गाँव का शासन वहाँ के प्रधान पटवारी आदि की सहायता से चलाया जाता था. गाँव में एक पंचायत होती थी, जो गाँव की सुरक्षा, चिकित्सा, शिक्षा एवं सफाई आदि का प्रबन्ध रखती थी. गाँव के प्रत्येक अधिकारी अपने कर्तव्यों का पालन करते थे कर्तव्य पालन न करने अथवा अपने काम के प्रति लापरवाही बरतने के लिए दण्डित किया जाता था.
शेरशाह ने एक शक्तिशाली एवं अनुशासित सेना की व्यवस्था की थी. उसकी सेना में अधिकतर अफगान सैनिक होते थे. उसने सैनिक शिक्षा की समुचित व्यवस्था की थी. सेना का प्रत्येक भाग एक फौजदार के अधीन होता था. शेरशाह ने न घोड़े दागने की प्रथा को पुनः चलाया साधारणत: शेरशाह सैनिकों से उदार व्यवहार ह करता था, किन्तु अनुशासन भंग किए जाने र्च पर वह उन्हें कठोर दण्ड भी दिया करता था.
पुलिस एवं गुप्तचर विभाग शेरशाह ने आन्तरिक शांति स्थापित करने के उद्देश्य से एक सुव्यवस्थित पुलिस विभाग की स्थापना की शान्ति व्यवस्था का उत्तरदायित्व शिकों में प्रधान शिकदार, शिकदार तथा गाँवों में मुकदम कात्रों से बचने तथा राज्य की प्रत्येक जानकारी के लिए उसने अत्यन्त सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित गुप्तचर विभाग की स्थापना की थी न्याय व्यवस्था शेरशाह की न्याय व्यवस्था उच्चकोटि थी. अपराधी चाहे जिस वर्ग का हो उसे अपराध के अनुसार ही दण्ड दिया जाता था. फौजदारी मुकदमों का फैसला शिकदारे शिकदारा तथा दीवानी सम्बन्धी मुकदमों का फैसला मुसिफे मुसिफा’ द्वारा किया जाता था शेरशाह स्वयं भी मुकदमों की सुनवाई तथा फैसला करता था। मुदा में सुधार
शेरशाह ने सोने, चाँदी तथा ताँबे की अत्यन्त ही सुन्दर मुद्राएं चलाई, जिनका अनुकरण मुगल सम्राटों द्वारा किया गया. अपनी मुद्राओं पर उसने हिन्दू व फारसी दोनों भाषाओं में बादशाह का नाम खुदवाया. मुद्रा को आवश्यकतानुसार ढालने के लिए। 23 टकसालों की स्थापना की, जबकि हुमायूँ के काल में केवल 7 टकसालें थी. उसके द्वारा प्रचलित की गई ताँबे की मुद्रा कालान्तर में ‘दाम’ के नाम से प्रसिद्ध हुई. भूमि व्यवस्था शेरशाह द्वारा स्थापित भूमि व्यवस्था अत्यन्त ही उच्चकोटि की थी. अनेक इतिहासकारों का मत है कि इसकी भूमि व्यवस्था का अनुकरण अनेक मुगल सम्राटों द्वारा किया गया भूमि व्यवस्था में उसने अनेक सुधार किए. भूमि का उत्पादकता के आधार पर उत्तम. मध्यम व निकृष्ट श्रेणी में वर्गीकरण किया भूमि की नाप कराई भूमि को बीधों में विभक्त किया. उपज का तिहाई भाग भूमि कर निश्चित किया. अनाज तथा नकद दोनों रूप में कर लेने की व्यवस्था की. भूमि को पट्टे पर देने की व्यवस्था की पट्टों पर मालगुजारी की दर लिखने की व्यवस्था की, ताकि सरकारी कर्मचारी कृषकों को लूट न सकें किसानों को सुविधा प्रदान की कि वह भूमिकर स्वयं भी राजकोष में जमा कर सकते हैं. सड़कों एवं सरायों का निर्माण शेरशाह ने व्यापार यातायात एवं डाक सुविधा की दृष्टि से अनेक सड़कों एवं सरायों का निर्माण कराया. सड़कों की सुरक्षा की व्यवस्था की दोनों ओर छायादार वृक्ष लगवाए प्राचीन सड़कों की मरम्मत कराई उसके द्वारा कराई गई निर्मित सड़के इस प्रकार थीं- 1. बंगाल से सिन्ध तक जाने वाली
1.ग्रान्ट ट्रक रोड
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आगरा से बुरहानपुर
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आगरा से मारवाड
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लाहौर से मुल्तान तक शेरशाह ने लगभग 1,700 सरायों का निर्माण कराया,
जिनमें हिन्दू तथा मुसलमानो के ठहरने का अलग-अलग तथा उत्तम प्रबन्ध था. इन सरायों की देखभाल शिकदार द्वारा की जाती थी.
शिक्षा की व्यवस्था
अनेक पाठशालाओं को आर्थिक सहायता प्रदान की प्रत्येक मस्जिद में उसने मकतबों की स्थापना कराई. उच्च शिक्षा को प्रोत्साहन दिया. निर्धन छात्रों के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था की मकतबों में मौलवी द्वारा बच्चों को अरबी एवं भाषा की शिक्षा दी जाती थी. दानशाला एवं औषधालय उसने अनेक दानशालाओं एवं औषधालयों का निर्माण कराया. उसके काल में सरकारी भोजनालय का प्रतिदिन का व्यय 500 अशर्फी था साहित्य, कला एवं भवन शेरशाह के शासनकाल में विद्या, साहित्य, कला एवं भवन निर्माण के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई. इसी के शासनकाल में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावत् की रचना की अनेक इमारतों का यथा- रोहतासगढ़ का दुर्ग, सहसराम का मकबरा आदि उसकी श्रेष्ठ इमारतें थीं उसने कन्नौज नगर को बर्बाद करके शेरसूर नामक नगर की स्थापना की
अकबर (1556-1605) जब हुमायूँ निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहा था, उसी समय 15 अक्टूबर, 1542 ई. को अमरकोट के राजा वीरसाल के यहाँ अकबर का जन्म हुआ. जिस समय हुमायूँ की मृत्यु हुई, उस समय अकबर लगभग 13 वर्ष 3 माह का था. 14 फरवरी 1556 को पंजाब स्थित गुरुदासपुर जिले के निकट कलानौर नामक स्थान पर अकबर को मुगल बादशाह घोषित कर बैरम खाँ को उसका संरक्षक नियुक्त किया गया…
बैरम खाँ की संरक्षकता (1556-1560) अकबर ने अपने संरक्षक बैरम खाँ को वजीर के पद पर नियुक्त किया तथा उसे ‘खान-ए-खाना’ की उपाधि से विभूषित किया. अकबर के संरक्षक के रूप में बैरम खाँ ने चार वर्ष तक मुगल शासन की बागडोर अपने हाथ में रखी.
पानीपत का द्वितीय युद्ध (1556)
यह युद्ध अकबर तथा हेमू की सेना के बीच 9 नवम्बर, 1556 को हुआ था युद्ध के आरम्भ में हेमू को सफलता मिली, किन्तु अचानक उसकी आँख में तीर लग गया परिणामस्वरूप उसकी सेना में भगदड़ मच गई और मोर्चा मुगलों ने ले लिया हेमू पकड़ा गया बाद में अकबर और बैरम खाँ ने मिलकर उसका वध कर दिया.
पेटीकोट शासन (1560-1564)
बैरम खाँ के पतन के पश्चात् लगभग चार वर्ष तक अकबर के सम्बन्धियों तथा हरम की स्त्रियों का शासन में बहुत अधिक प्रभाव रहा. इसी शासनकाल को अनेक इतिहासकारों ने पेटीकोट शासन की संज्ञा दी है
अकबर का विजय अभियान
पानीपत के द्वितीय युद्ध में विजय पाकर अकबर ने आगरा तथा दिल्ली पर अधिकार कर लिया. इसके पश्चात् उसने मालवा, गोंडवाना, चित्तौड़, रणथम्भौर, कालिंजर, गुजरात, बिहार, बंगाल, काबुल. कान्धार, कश्मीर, सिंध, उड़ीसा, अहमदनगर, बलूचिस्तान व खानदेश पर विजय प्राप्त की और अपने साम्राज्य का विस्तार किया अकबर की धार्मिक नीति अकबर के धार्मिक विचार अत्यन्त ही उच्चकोटि के थे. वह सभी धर्मों का आदर करता था. उसने हिन्दू और मुसलमानों के मतभेदों को समाप्त करने के प्रयास किए. हिन्दुओं को जजिया कर से मुक्त कर दिया. वह स्वयं भी हिन्दू धर्म की कुछ बातों को मानता था. धार्मिक वाद-विवाद एवं सत्य की खोज हेतु उसने फतेहपुर सीकरी में इबादत खाना की स्थापना कराई जहाँ प्रत्येक बृहस्पतिवार को धार्मिक विषयों पर वाद- विवाद हुआ करता था 1578 में महजर के द्वारा उसने मतभेद की स्थिति में धार्मिक प्रश्नों पर निर्णय देने का अधिकार प्राप्त किया 1581 में उसने सभी धर्मों के अच्छे सिद्धान्तों को ग्रहण कर एक नवीन धर्म ‘दीन-ए-इलाही’ का प्रतिपादन किया अकबर की राजपूत नीति
अकबर इस बात से भली-भाँति परिचित था कि राजपूत एक शक्तिशाली जाति है उनके सहयोग के बिना भारत जैसे विशाल देश पर शासन करना दुष्कर है अतः उसने राजपूतों के प्रति मित्रता की नीति अपनाई राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया उनकी धार्मिक भावनाओं का आदर कर उनके साथ उदार व्यवहार किया भगवान दास, मानसिंह, भीमसेन तथा उदयसिंह आदि राजपूत अकबर के दरबार में उच्च पद पर आसीन थे उसने राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए शत्रु राजपूतों के प्रति आक्रामक नीति अपनाई उन्हें अनेक युद्ध में परास्त कर उनके साम्राज्य पर अपना अधिकार कर लिया सामाजिक सुधार
उसने अनेक समाज सुधार किए उदाहरणार्थ दास प्रथा तथा सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया. विधवा विवाह को वैधानिक घोषित कर दिया विवाह हेतु बालक की उम्र 16 वर्ष तथा बालिका की उम्र 14 वर्ष घोषित की. इससे कम उम्र के बालक-बालिकाओं का विवाह नहीं हो सकता था.
अकबर यद्यपि अशिक्षित था, किन्तु उसने विद्वानों व शिक्षितों को आश्रय प्रदान किए उसके दरबार के नौरत्न इस प्रकार थे मुल्ला दो प्याजा, हकीम हुमाम अब्दुर्रहीम खानखाना अबुल फजल. तानसेन, राजा मानसिंह, राजा टोडरमल. फैजी एवं बीरबल
जहाँगीर (1605-1627)
जहाँगीर की माता आमेर की राजकुमारी तथा पिता का नाम अकबर था उसका जन्म 30 अगस्त 1569 को हुआ था. उसके बचपन का नाम सलीम था अकबर ने अब्दुर्रहीम खानखाना को सलीम का शिक्षक नियुक्त किया था सलीम का विवाह आमेर के राजा भगवानदास की पुत्री ‘मानबाई’ के साथ हुआ था अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् सलीम 1605 में सलीम नूरउद्दीन मुहम्मद जहाँगीर के नाम से मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ अपने शासनकाल खोज हेतु उसने फतेहपुर सीकरी में इबादत खाना की स्थापना कराई जहाँ प्रत्येक बृहस्पतिवार को धार्मिक विषयों पर वाद- विवाद हुआ करता था 1578 में महजर के द्वारा उसने मतभेद की स्थिति में धार्मिक प्रश्नों पर निर्णय देने का अधिकार प्राप्त किया 1581 में उसने सभी धर्मों के अच्छे सिद्धान्तों को ग्रहण कर एक नवीन धर्म ‘दीन-ए-इलाही’ का प्रतिपादन किया अकबर की राजपूत नीति
अकबर इस बात से भली-भाँति परिचित था कि राजपूत एक शक्तिशाली जाति है उनके सहयोग के बिना भारत जैसे विशाल देश पर शासन करना दुष्कर है अतः उसने राजपूतों के प्रति मित्रता की नीति अपनाई राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया उनकी धार्मिक भावनाओं का आदर कर उनके साथ उदार व्यवहार किया भगवान दास, मानसिंह, भीमसेन तथा उदयसिंह आदि राजपूत अकबर के दरबार में उच्च पद पर आसीन थे उसने राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए शत्रु राजपूतों के प्रति आक्रामक नीति अपनाई उन्हें अनेक युद्ध में परास्त कर उनके साम्राज्य पर अपना अधिकार कर लिया सामाजिक सुधार
उसने अनेक समाज सुधार किए उदाहरणार्थ दास प्रथा तथा सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया. विधवा विवाह को वैधानिक घोषित कर दिया विवाह हेतु बालक की उम्र 16 वर्ष तथा बालिका की उम्र 14 वर्ष घोषित की. इससे कम उम्र के बालक-बालिकाओं का विवाह नहीं हो सकता था.
अकबर यद्यपि अशिक्षित था, किन्तु उसने विद्वानों व शिक्षितों को आश्रय प्रदान किए उसके दरबार के नौरत्न इस प्रकार थे मुल्ला दो प्याजा, हकीम हुमाम अब्दुर्रहीम खानखाना अबुल फजल. तानसेन, राजा मानसिंह, राजा टोडरमल. फैजी एवं बीरबल
जहाँगीर (1605-1627)
जहाँगीर की माता आमेर की राजकुमारी तथा पिता का नाम अकबर था उसका जन्म 30 अगस्त 1569 को हुआ था. उसके बचपन का नाम सलीम था अकबर ने अब्दुर्रहीम खानखाना को सलीम का शिक्षक नियुक्त किया था सलीम का विवाह आमेर के राजा भगवानदास की पुत्री ‘मानबाई’ के साथ हुआ था अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् सलीम 1605 में सलीम नूरउद्दीन मुहम्मद जहाँगीर के नाम से मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ अपने शासनकाल
जुझार सिंह के नेतृत्व में 1628 में 27 बुंदेलों ने शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह किया किन्तु जुझार सिंह को 1629 ई. में आत्म- समर्पण करना पड़ा शाहजहाँ ने उसे माफ कर दिया इसके पश्चात् जुझार सिंह ने 5 वर्ष तक शाहजहाँ की वफादारी से सेवा की खानेजहाँ लोदी का विद्रो
बीजापुर
बीजापुर का आदिलशाही वंश मुगलों के विरुद्ध अहमदनगर की सहायता करता था अतः अहमदनगर के पतन के उपरान्त बीजापुर की ओर ध्यान दिया गया. 1636 में पराजित बीजापुर ने मुगलों के साथ सन्धि कर उनकी अधीनता मान ली तथा वार्षिक कर देना स्वीकार किया
गोलकुण्डा
गोलकुण्डा के शिया शासकों ने मुगलों का आधिपत्य स्वीकार नहीं किया. 1626 ई में 11 वर्षीय अब्दुल्ला कुतुबशाह शासक बना उसके समय गोलकुण्डा की स्थिति दुर्बल थी स्थिति का लाभ उठाकर शाहजहाँ से धन माँगा किन्तु गोलकुण्ड वैसे इकार कर दिया, लेकिन शाहजही दबाव डालता रहा अंत में 1636 अब्दुल्ला कुतुबशाह ने भयभीत होकर सेचि कर उनका आधिपत्य स्वीकार कर लिया
औरंगजेब को सूबेदारी गोलकुण्डा से संधि के शाहजहाँ ने अपने पुत्र औरंगजेब को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया और स्वयं दिल्ली गया वह पहली बार 1636 से 1644 तक दक्षिण का सूबेदार रहा उसने दक्षिण में औरंगाबाद को मुगलों की राजधानी बनाया तथा दक्षिण भारत को चार भागों में विभाजित किया-1. खानदेश, जिसकी राजधानी बुरहानपुर थी. 2. बरार जिसकी राजधानी इलिचपुर थी. 3. तेलगाना. जिसकी राजधानी नन्दर थी. 4. अहमदनगर औरंगजेब को 1652 में पुनः दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया गया अपनी द्वितीय सुबेदारी में वह 1652 से 1657 तक दक्षिण का सूबेदार रहा स्थिति शोचनीय रही इस समय दक्षिण की उत्तराधिकार का युद्ध पश्चात् दाराशिकोह शाहशुजा. औरंगजेब तथा शाहजहाँ के चार पुत्र थे मुरादबक्श सितम्बर 1657 में शाहजहाँ बीमार पड़ गया और राजनीति से ऊबने लगा अतः उसके पुत्रों में गद्दी प्राप्त करने के लिए उत्तराधिकार का युद्ध हुआ, जिसमें औरंगजेब विजित हुआ उसने अपने पिता शाहजहाँ को आगरा के किले में कैद कर दिया जहाँ 1666 में उसकी मृत्यु हो गई औरंगजेब (1658-1707) औरंगजेब के पिता का नाम शाहजहाँ मुमताजमहल था
उसका जन्म 3 नवम्बर 1618 को उज्जैन के निकट दोहद नामक स्थान पर हुआ उसका पूरा नाम उद्दीन मुहम्मद औरंगजे था शाहजहाँ के बीमार पड जाने पर उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध हुआ, जिसमें औरंगजेब विजयी हुआ उसने अपने भाइयों का वध कर दिया अपने पिता शाहको आगरा किले में नजरबंद कर दिया 31 जुलाई 1658 ई को वह मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ सम्राट बनने से पूर्व वह दक्षिण में गवर्नर रह चुका था उसने लोगों को बलात् मुसलमान बनाने का प्रयत्न किया सिखों के नवें गुरु गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्दसिंह के दो पुत्रों की इसीलिए हत्या करवा दी. क्योंकि उन्होंने इस्लाम स्वीकार करने से इनकार कर दिया था उसने हिन्दू मंदिरों, पाठशालाओं को ध्वस्त करा दिया तथा 1678 में हिन्दुओं पर पुनः ‘जजिया कर लगा दिया आधुनिक शोध एवं प्राप्त फरमान इसका प्रमाण देते हैं कि औरंगजेब ने हिन्दू धर्मस्थलों की जमीन भी दान में दी उसे कट्टर हिन्दू विरोधी के रूप में पेश करना अतिरंजना है उसने अपने शासन का अधिकांश समय दक्षिण में ही व्यतीत किया मराठों से वह अत्यधिक परेशान रहा 1668 में गोकुल चन्द्र के नेतृत्व में जाटों का विद्रोह तथा 1672 में सतनामियों का विद्रोह इसके शासनकाल की महत्वपूर्ण घटनाएँ थी औरंगजेब संगीत का विरोधी था उसने झरोखा दर्शन व संगीत पर प्रतिबंध लगा दिया था लगातार युद्धरत रहने के कारण उसका स्वास्थ्य गिरने लगा मार्च 1707 में उसकी मृत्यु हो गई. मृत्यु के उपरान्त उसे दौलताबाद से 4 मील दूर शेख जैम-उल-हक की मजार के निकट दफना दिया गया इसकी मृत्यु के साथ ही मुगल साम्राज्य का पतन हो गया
भारत में मुगल वंश के प्रारम्भ के साथ ही स्थापत्य कला का विकास हुआ नवीन शैली यथा मुगल स्थापत्य कला शैली का प्रादुर्भाव हुआ. इस काल में साहित्य के क्षेत्र में भी अत्यधिक उन्नति हुई
बाबर
बाबर ग्वालियर की स्थापत्य कला शैली से अत्यधिक प्रभावित हुआ था उसने पानीपत स्थित काबुली बाग तथा रुहेलखण्ड स्थित सम्भल में ‘जाम-ए-मस्जिद’ का निर्माण कराया. इसके अतिरिक्त दिल्ली का आराम- बाग एवं धौलपुर में ‘चौखटी बाबली’ का निर्माण भी बाबर ने ही कराया था बाबर के आदेश पर अब्दुल बाकी ने अयोध्या में एक मस्जिद का निर्माण कराया था
हुमायूँ
दिल्ली स्थित ‘दीन पनाह’ नामक भवन का निर्माण हुमायूँ ने करवाया था इसके अतिरिक्त हुमायूँ ने आगरा तथा हिसार जिले के फतेहाबाद में दो मस्जिदों का निर्माण करवाया था
अकबर
इसके शासनकाल में स्थापत्य कला का अद्भुत विकास हुआ अकबर के द्वारा प्रयोग करवाया ग (1565) जर (wmm (1583) wewww (1581). फतेहपुर सीकरी (1569) इसके अनेक भवन यथा दीवाने अगदी खास आदि का निर्माण कराया फतेहपुर सीकरी में ही अपनी दक्षिण विजय के उप 1602 में बुलन्द दरवाजा इमारत का निर्माण कराया यह संसार की प्रसिद्ध इमारतों में से एक है इसका प्रवेश द्वार पृथ्वी की सतह से 176 फीट तथा चबूतरे से 134 फीट ऊंचा है यह इमारत 42 फीट ऊँचे एक यूतरे पर बनाई गई है इसके अतिरिक्त अकबर ने फतेहपुर सीकरी में अनेक छोटे-बड़े भवन यथा इयादतखाना शिफाखाना, जनाना बाग जनाना रास्ता मीना बाजार नौबत खाना, हवा महल टोडरमल का महल हिरन मीनार आदि अनेक भवनों का निर्माण कराया
जहाँगीर
जहाँगीर का स्थापत्य कला की तुलना में चित्रकला में अधिक रुझान था यही कारण है कि इसके शासनकाल में बहुत कम भवनों का निर्माण हुआ आगरा से 5 मील दूर सिकन्दरा नामक गाँव में जहाँगीर ने अकबर का मकबरा बनवाया इस इमारत की नींव सम्भवत अकबर के काल में ही रख दी गई थी इस इमारत का निर्माण एक 339 वर्ग फुट ऊँचे चबूतरे पर किया गया था इमारत के अंदर 13 फुट लम्बे और 8 फुट चौड़े चबूतरे पर सम्राट अकबर की कब्र बनी हुई है, जोकि सादा एव सजावट- हीन है सिकन्दरे से 2 फर्लांग की दूरी पर एक और मकबरे का निर्माण कराया था, जो सम्भवत अकबर की बेगम का मकबरा है. किन्तु अनेक विद्वानों का मत है कि यह इमारत सिकन्दर लोदी की बारादरी श्री
नूरजहाँ
जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ का जहाँगीर के शासनकाल में अत्यधिक प्रभाव रहा. चूंकि वह भी कला की पारखी एवं प्रेमी थी उसने भी कुछ भवनों का निर्माण करवाया एत्मादुद्दौला का मकबरा उसके द्वारा निर्मित प्रमुख इमारत है इस भवन का निर्माण ईरानी शैली पर किया गया इस भवन के निर्माण में लाल पत्थर तथा सगमरमर दोनो का प्रयोग किया गया इसके अतिरिक्त नूरजहाँ ने लाहौर में जहाँगीर के मकबरे का निर्माण कराया था
शाहजहाँ
मुगल सम्राटों में शाहजहाँ ने स्थापत्य कला को सर्वाधिक प्रोत्साहन दिया. उसने अनेकानेक इमारतों यथा-दिल्ली का लाल किला, जामा मस्जिद, ताजमहल, आगरा में स्थित लाल किला में दीवाने आम, दीवाने खास, मोती मस्जिद आदि कलात्मक इमारतों का निर्माण कराया. शाहजहाँ को संगमरमर विशेष प्रिय था. यही कारण है कि उसकी इमारतों में लाल पत्थर के साथ संगमरमर पत्थर का अधिकाधिक प्रयोग हुआ शाहजहाँ काल की इमारतों में आगरा स्थित ताजमहल विश्व प्रसिद्ध इमारत है इसका निर्माण शाहजहाँ ने अपनी प्रिय पत्नी मुमताज महल की स्मृति में कराया था. इस इमारत का निर्माण शिल्पकार ‘उस्ताद ईशा खाँ’ के निर्देशन में हुआ. 1631 में आरम्भ होकर 1648 में इस इमारत का निर्माण समाप्त हुआ. इमारत के निर्माण में मकराना के सफेद संगमरमर पत्थर का अधिकाधिक प्रयोग किया गया. दिल्ली स्थित लाल किला जोकि शाहजहाँ की प्रसिद्ध इमारतों में से एक है, जिसकी लम्बाई 3200 फुट तथा चौड़ाई 1600 फुट है. इसमें तीन प्रवेश द्वार हैं. मुख्य द्वार कला की दृष्टि से सर्वोत्तम है इस किले के अंदर ‘नौबत खाना’, ‘रंग महल’, दीवाने आम तथा दीवाने खास आदि , अन्य प्रख्यात भवन हैं.
औरंगजेब
यद्यपि औरंगजेब ने भी कुछ इमारतों का निर्माण कराया, किन्तु उसके शासनकाल में स्थापत्य कला में कोई विशेष उन्नति नहीं हुई. दिल्ली के लाल किले में स्थित मोती मस्जिद, औरंगाबाद स्थित राबिया -उद- दौरानी का मकबरा तथा लाहौर में स्थित एक मस्जिद का निर्माण औरंगजेब द्वारा कराया गया था. चित्रकला मुगलकालीन सम्राटों की चित्रकला ५ विशेष रुचि थी बाबर, हुमायूँ अकबर जहाँगीर को चित्रकला से विशेष प्रेम था जहाँगीर के काल में चित्रकला अपने चरम शिखर पर पहुँच चुकी थी. शाहजहाँ के काल में चित्रकला में अवनति प्रारम्भ हुई और औरंगजेब के काल में लगभग चित्रकला समाप्त हो गई. अकबर ने तो चित्रकला से सम्बन्धित एक विशेष विभाग की स्थापना की. अकबर के शासनकाल में अब्दुस्समद फर्रुखवेग, खुनरू, कुली, जमशेद मुस्लिम तथा दसवन्त, बसावन, ताराचन्द्र जगन्नाथ हिन्दू चित्रकार हुए मीर हाशिम अनूप आदि शाहजहाँ के काल के प्रसिद्ध चित्रकार थे अकबर के काल में पोथीचित्र भीड- भाड़ के चित्र, व्यक्ति तथा पशु-पक्षियों के चित्र अधिक संख्या में बने जहाँगीर का काल चित्रकला की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट काल था. इसके काल में पशु-पक्षी, शिकार तथा प्रकृति के चित्र अधिक निर्मित हुए. शाहजहाँ के काल में चित्र निर्माण में चमकदार रंगों का प्रयोग होने लगा. परिणामस्वरूप चित्रकला में सजीवता कम होने लगी. मुगल चित्रकला समन्वयवादी कला थी। जिसमें ईरानी, चीनी, जापानी, यूरोपियन तुर्की व भारतीय कला शैलियों का प्रभाव परिलक्षित होता है.
मूर्तिकला
मुगलकाल में मूर्तिकला के क्षेत्र में कोई विशेष उन्नति नहीं हुई. मुगल सम्राटों ने कुछ ही मूर्तियों का निर्माण कराया अकबर ने चित्तौड़ के जयमल की हाथी पर सवार मूर्ति का निर्माण कराया अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में दो विशालकाय हाथ की मूर्तियों का निर्माण कराया गया, जिनके अब कुछ अवशेष ही उपलब्ध हैं. जहाँगीर ने उदयपुर के राणा अमर सिंह और उसके पुत्र कर्णसिंह की मूर्तियों का निर्माण कराया बाद के मुगल शासकों ने मूर्तिकला की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया संगीत कला
मुगलकाल में संगीत कला का अत्यधिक विकास हुआ. सम्राट अकबर ने अनेक
गायकी की प्रश्रय प्रदान किया तानसेन, बाजबहादुर, बाबा रामदास तथा बैजूबावरा आदि अकबर के शासनकाल के प्रमुख गायक थे. जहाँगीर एवं शाहजहाँ को संगीत से विशेष लगाव था. शाहजहाँ तो स्वयं एक उच्चकोटि का गायक था. एक बार कविराज जगन्नाथ को उनके अच्छे गायन से प्रभावित होकर शाहजहाँ ने उन्हें सोने से तुलवाया और सोना उन्हें दान में दे दिया औरंगजेब ने संगीत को प्रश्रय प्रदान नहीं किया साहित्य मुगलकाल में साहित्य के क्षेत्र में सर्वाधिक उन्नति हुई. अनेक हिन्दू एवं मुसलमान साहित्यकारों का प्रादुर्भाव हुआ. कारसी साहित्य का विकास अधिक हुआ. हुमायूनामा, अकबरनामा आइने अकबरी मुन्तखबुतवारीख, तारीख-ए-शेरशाही, तुजके जहाँगीरी, तबाकत-ए-अकबरी, आलमगीरनामा आदि मुगलकाल की प्रमुख साहित्यिक रचनाएँ थीं.
गुलबदन बेगम, अबुल फजल, अब्दुल कादिर बदायूँनी अब्बास खाँ सरवानी, निजामुद्दीन बक्शी, खफी खाँ, मुगलकाल के प्रमुख मुस्लिम विद्वान थे. मुगलकाल में हिन्दी साहित्य का भी विकास हुआ. तुलसीदास, कबीर दास, सूरदास, बीरबल आदि मुगल काल के कुछ प्रमुख हिन्दू विद्वान थे. मुगलकालीन आर्थिक दशा मुगलकाल में आर्थिक क्षेत्र में भी अत्यधिक उन्नति हुई. अनेक उद्योगों का विकास हुआ. कृषि उन्नत दशा में थी कृषि की दृष्टि से उस समय भारत आत्मनिर्भर था. लगान की व्यवस्था भी उच्चकोटि की श्री उद्योग उन्नत थे. आगरा, वाराणसी, जौनपुर, पटना, बुरहानपुर, लखनऊ, मुर्शिदाबाद आदि सूती वस्त्र उद्योग के प्रमुख केन्द्र थे. रंगाई तथा जरी का उद्योग उन्नत था. ढाका की मलमल विश्व विख्यात थी. फतेहपुर सीकरी. जौनपुर, अलवर प्रसिद्ध कालीन उद्योग के केन्द्र थे. भारत में श्रीलंका, वर्मा, चीन, जापान, इण्डोनेशिया, नेपाल, ईरान, मध्य एशिया, अरब तथा अफ्रीका आदि देशों से व्यापारिक सम्बन्ध थे डच, फ्रांसीसी तथा ब्रिटिश व्यापारी भारत का माल यूरोपीय बाजारों में पहुँचाते थे. सूरत, भड़ौच, गोआ, कालीकट, कोचीन, मछलीपट्टम प्रसिद्ध मुगलकालीन बन्दरगाह थे. निर्यात व्यापार उन्नत था. सूती, ऊनी, रेशमी कपड़ा, नील, शोरा, मसाले, चीनी. नमक आदि का निर्यात किया जाता था. कागज तथा इत्र उद्योग भी उन्नत था. मजदूरी कम थी.
मुगल प्रशास
सम्राट
मुगल सम्राटों ने निरकुश राजतन्त्रात्मक शासन प्रणाली को लागू किया था. राज्य का सर्वेसर्वा सम्राट अथवा बादशाह हुआ करता था सम्राट निरंकुश होते थे किन्तु स्वेच्छाचारी नहीं सम्राट प्रजावत्सल. खलीफाओं से स्वतन्त्र तथा न्यायप्रिय एवं प्रधान सेनापति हुआ करते थे केन्द्रीय अधिकारी
शासन सुविधा की दृष्टि से सम्राट अनेक विभाग व अधिकारियों की व्यवस्था करते थे सम्राट इन अधिकारियों की सहायता से शासन करता था. सम्बन्धित अधिकारी अपने विभाग की देख-रेख किया करते थे. प्रमुख अधिकारी इस प्रकार थे-
वकील (वकील-ए-मुतलक) वकील, बादशाह के पश्चात् शासन का सबसे बड़ा अधिकारी होता था बाद में यही अधिकारी वजीर के नाम से जाना जाने लगा सम्राट की अनुपस्थिति में यही शासनिक उत्तर- दायित्व संभालता था. इसे अन्य मंत्रियों को नियुक्त करने अथवा पदच्युत करने का अधिक प्राप्त था किन्तु बाद में उसके ये अधिकार समाप्त कर दिए गए अकबर ने इस पद को समाप्त कर दिया था, किन्तु फिर भी यह सम्राट और अन्य अधिकारियों के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी था.
मीर बख्शी – यह सैन्य विभाग का अध्यक्ष होता था तथा सेना पर नियंत्रण किए रहता था बड़े-बड़े मनसबदारों को वेतन देना, सैनिक तथा घोड़ों की हुलिया का लेखा-जोखा रखना इसके प्रमुख कार्य थे. सैनिकों की सैन्य शिक्षा की व्यवस्था भी यही अधिकारी करता था.
दीवान यह शाही कोष का प्रबंध तथा उसका हिसाब-किताब देखता था. कर वसूली की मात्रा भी यही अधिकारी निश्चित करता था.
सद्र-उस- सुदूर – यह धार्मिक विषयों में सम्राट को सलाह देने वाला अधिकारी था. इस्लामिक नियमों के पालन की व्यवस्था. दान, पुण्य एवं धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था करना इसके प्रमुख कर्तव्य थे. सूबों के सद्र की नियुक्ति में सम्राट इसकी सलाह लिया करता था. अकबर के शासनकाल में इस पद का महत्व कम हो गया था
मुख्य काजी- राज्य का सबसे बड़ा न्यायाधीश सम्राट होता था. वह प्रत्येक बुधवार को न्याय करता था, किन्तु सभी मुकदमों का निर्णय बादशाह नहीं करता था।
अतः उसकी सहायता के लिए मुख्य न्याया- धीश होता था, जिसे मुख्य काजी के नाम से जाना जाता था. यह इस्लामिक कानून के आधार पर न्याय करता था ‘मुफ्ती’ नामक पदाधिकारी इसके सहायक होते थे
मुहतसिव- प्रजा मुस्लिम कानूनों का आचरण कर रही है या नहीं, इसका पता यही अधिकारी रखता था मादक द्रव्य, जुआ. स्त्री-पुरुषों के अनैतिक सम्बन्धों को रोकना इसके कुछ प्रमुख कर्तव्य थे कभी- कभी यह नाप-तौल तथा वस्तुओं के मूल्य निश्चित करने का कार्य करता था
खानेसामा अकबर के शासनकाल के पश्चात् इस पद का सृजन हुआ यह सम्राट के परिवार तथा उसकी व्यक्तिगत दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था. इसके साथ ही वह शाही कारखाने की भी देखभाल करता था वजीर पद के पश्चात् यह महत्वपूर्ण पद था
मीर आतिश-यह पद अत्यन्त ही महत्व का था शाही तोपखाना इसी के अधीन रहता था यह तोपों, बन्दूकों का निर्माण कराता था तथा किले की व्यवस्था करता था
दरोगा-ए-डाक चौकी – यह गुप्तचर विभाग का प्रधान होता था यह राज्य की प्रत्येक सूचनाओं को सम्राट के पास पहुँचाता था.
प्रान्तीय शासन
मुगलकालीन शासकों ने शासन सुविधा की दृष्टि से अपने साम्राज्य को अनेक प्रान्तों में बाँट दिया था. इन प्रान्तों को सूबा कहा जाता था अकबर के शासनकाल में सूबों की संख्या 15 थी, जोकि जहाँगीर के शासनकाल में बढ़कर 17 तथा औरंगजेब के शासनकाल में बढ़कर 21 हो गई थी. ये सूबे थे-आगरा, अवध, अजमेर, अहमदाबाद, इलाहाबाद, दिल्ली, बिहार, बंगाल, काबुल, लाहौर, मुल्तान, बरार, खानदेश, अहमदनगर, मालवा, गुजरात कश्मीर, उड़ीसा, थट्टा. औरंगाबाद, बीदर, बीजापुर एवं हैदराबाद केन्द्र के समान प्रान्तों में भी अनेक अधिकारियों की नियुक्ति की गई प्रमुख अधिकारी इस प्रकार थे-
सूबेदार – इसे शासन और सेना दोनों के अधिकार प्राप्त थे इसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी उसे दरबार • लगाने का अधिकार प्राप्त था वह बिना • सम्राट की आज्ञा के किसी से युद्ध एवं संधि नहीं कर सकता था, सेना की सहायता से
वह प्रान्त अथवा सूबे में शान्ति स्थापित करता था. अकबर के काल में सूबेदार को सिपहसालार के नाम से जाना जाता था. जमींदारों के विद्रोह किए जाने पर वह उन्हें दण्डित भी कर सकता था
दीवान सूबेदार के पश्चात् दीवान का पद अत्यन्त ही महत्व का था. यह अधिकारी सूबेदार का प्रतिद्वन्द्वी व्यक्ति बनाया जाता था ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि सूबेदार विद्रोह करने का प्रयास न कर सके वित्त विभाग भी इसी के अधीन रहता था
प्रांतीय बक्शी यह सिपहसालार के अन्तर्गत सेना की भर्ती नियंत्रण का उत्तरदायित्व पूर्ण करता था इसकी नियुक्ति मीर बक्शी की सलाह पर की जाती थी.
सदर काजी यह न्याय विभाग का अध्यक्ष होता था प्रांत में न्यायिक कार्य सम्पन्न करता था इसकी नियुक्ति केन्द्रीय काजी के द्वारा की जाती थी. कोतवाल यह प्रांत में आंतरिक शांति एवं सुरक्षा की सम्पूर्ण व्यवस्था करता था.
जिले का शासन
शासन सुविधा की दृष्टि से सूबों को अनेक जिलों अथवा सरकारों में विभाजित कर दिया गया था तथा जिला स्तर पर अनेक अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी
फौजदार यह सेना अधिकारी होता था जिले में शांति बनाए रखना तथा विद्रोहियों को दण्ड देना इसके प्रमुख कार्य थे अमलगुजार-जिले की मालगुजारी वसूल करने वाले इस अधिकारी को कृषकों को कर्जा बाँटने तथा वसूल करने के अधिकार प्राप्त थे आमिल – यह अमलगुजार के समान ही मालगुजारी वसूल करता था. इसका गाँव के काश्तकारों से सीधा सम्बन्ध था. इसे मुन्सिफ के नाम से भी जाना जाता था.
बितिकची – यह अमलगुजार का सहायक होता था कृषि सम्बन्धी कागज व आँकड़े तैयार करना इसके प्रमुख कार्य थे यह पटवारी के रिकार्डों का निरीक्षण भी करता था
शिकदार यह परगने का प्रमुख अधि कारी होता था यह सम्बन्धित परगने में शांति तथा सुव्यवस्था की स्थापना करता था फोतदार परगने के खजांची को फोतदार के नाम से जाना जाता था.
कारकून- यह आधुनिक क्लर्क के रूप में काम करते थे
कानूनगो-यह पटवारी का अधिकारी होता था यह परगने की पैदावार एवं मालगुजारी का लेखा-जोखा रखता था
मनसबदारी प्रथा
अकबर की सैनिक व्यवस्था मनसबदारी कहलाती थी मनसब अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ‘पद’ होता है. इसलिए सैनिक अधिकारी मनसबदार कहलाते थे सबसे छोटा मनसब 10 और सबसे बड़ा 10 हजार का होता था 5 हजार से अधिक का मनसब राजकुमार को ही मिलता था, किन्तु बाद में राजा मानसिंह को 7 हजार का मनसब मिला. मनसबदार स्वयं अपनी सेना की भर्ती किया करते थे. साधारणतः ये अपनी जाति के सैनिक भर्ती करते थे. मनसबदारों के घोड़ों को दागा जाता था. प्रत्येक घोड़े के दाए पुट्ठे पर सरकारी निशान तथा बाएं पुट्ठे पर मनसबदार का निशान लगाया जाता था मनसबदारों को शाही खजाने से वेतन दिया जाता था. जब्ती प्रथा यह वह प्रथा थी, जिसके द्वारा मृतक मनसबदार की सम्पत्ति पर उनके पुत्रों अथवा सम्बन्धियों के स्था पर राज्य का अधिकार माना जाता था. इस प्रथा के प्रचलन के कारण मनसबदारों की विलासिता जात में अत्यधिक वृद्धि हुई
जात और सवार नवीन पदों का सृजन अकबर ने किया था ब्लाकमेन के अनुसार जात पद के बराबर पैदल सैनिक तथा सवार पद के बराबर मनसबदारों को घुड़सवार रखने पड़ते थे. अहदी सैनिक ये सम्राट के व्यक्तिगत सैनिक हुआ करते थे. इनकी नियुक्ति सम्राट किसी मनसबदार की सेना में भी कर सकता था. सम्राट ही इनके वेतन, शिक्षा, वस्त्र, घोड़े आदि की व्यवस्था करता था एक अहदी सैनिक को 500 रुपए तक वेतन दिया जाता था. ये सम्राट के प्रति वफादार होते थे. इनकी संख्या अनिश्चित होती थी. अकबर के काल में इनकी संख्या लगभग 12 हजार थी.
दाखिली सैनिक
इस प्रकार के सैनिकों की नियुक्ति सम्राट ही करता था. इन्हें मनसबदारों की सेवा में रखा जाता था सेना मुगल शासकों की बहुत बड़ी एवं शक्तिशाली सेना हुआ करती थी. इस सेना के बल पर ही मुगल सम्राट भारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर सके, जो दीर्घकाल तक कायम रहा. सेना मुख्यतः निम्नलिखित भागों में विभाजित थी.
घुड़सवार सेना यह सेना का श्रेष्ठतम भाग था मुख्यतः दो प्रकार के घुड़सवार सैनिक होते थे- (i) बरगीर – इस प्रकार के सैनिकों को राज्य की ओर से अस्त्र-शस्त्र एवं घोड़े दिए जाते थे, (ii) सिलेदार इस प्रकार के सैनिक अस्त्र-शस्त्र एवं घोड़ों की स्वयं व्यवस्था करते थे. पैदल सेना
पैदल सैनिक भी दो प्रकार के होते थे- (i) बन्दूक ची, (ii) शमशीर बाज (तलवार बाज). इसके अतिरिक्त सेना में दास, सेवक तथा पानी भरने वाले भी हुआ करते थे. हाथी सेना
मुगल सम्राट हाथी सेना भी रखते थे अकबर के समय में हाथियों की संख्या लगभग 50 हजार थी. तोपखाना बाबर ने सर्वप्रथम तोपखाने का प्रयोग किया था. अकबर ने इतनी छोटी तोपों का निर्माण कराया, जो एक हाथी अथवा ऊँट की पीठ पर ले जाई जा सकती थी. तोपखाना मुगल सेना का सर्वाधिक प्रमुख एवं शक्तिशाली अंग था. नौ सेना मुगलों की नौसेना अत्यन्त ही दुर्बल थी. अकबर के पश्चात् किसी भी मुगल सम्राट ने नौसेना की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उनका मूलतया स्थल साम्राज्य था.
मराठों का राजनीतिक उदय जहाँगीर के काल से आरम्भ होता है. मुगल सम्राट औरंगजेब के शासनकाल में भारत में मराठा शक्ति का उत्कर्ष हुआ. यद्यपि औरंगजेब ने मराठा शक्ति के दमन का पूर्ण प्रयास किया, किन्तु मराठा शक्ति क्रमशः उत्कर्षित होती चली गई. मराठाओं के इस उत्कर्ष में किसी एक व्यक्ति का योगदान नहीं था, वरन् अनेक मराठाओं का योगदान था.
छत्रपति शिवाजी
शिवाजी का जन्म 20 अप्रैल, 1627 को शिवनेर के दुर्ग में हुआ था. उनके पिता का नाम शाहजी भोंसले तथा माता का नाम जीजाबाई था. उन्होंने अपने जीवन के प्रथम नौ वर्ष शिवनेर बैंजपुर, शिवपुर आदि में व्यतीत किए वे पढे-लिखे नहीं थे, किन्तु उन्होंने सैनिक शिक्षा ग्रहण की तथा उसमें महारथ हासिल किया और बड़े होकर मुगल शक्ति के विरुद्ध संघर्ष किया. 1647 ई. में उनके सरक्षक दादाजी कोंडदेव की मृत्यु हो गई अब वे पूर्ण स्वतंत्र हो गए. उन्होंने अपनी जागीर का विस्तार करना प्रारम् किया तथा अपने प्रयासों से मराठा शक्ति को संगठित करना आरम्भ किया जावली की विजय सतारा के उत्तर-पश्चिम में स्थित जावली के किले पर कूटनीति व सैनिक बल का सहारा लेकर शिवाजी ने लगभग 1656 ई. में अपना अधिकार कर लिया कोंकण विजय जावली को विजित करने के पश्चात् शिवाजी ने रायगढ़ के दुर्ग का निर्माण कराया. शिवाजी ने कोकण प्रदेश पर आक्रमण कर दिया और शीघ्र ही उसने मिवण्डी, कल्याण, चौलतले राचमन्ची. लोहगढ़, कंगोरी, तुग तिकौना आदि पर अपना अधिकार कर लिया. 1657 ई. के अंत तक लगभग सम्पूर्ण कोकण प्रदेश पर शिवाजी का अधिकार हो गया. बीजापुर से संघर्ष बीजापुर ने शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए अफजल खाँ को भेजा. अफजल खाँ ने शिवाजी से संधि की और छल से उस पर अधिकार करना चाहा किन्तु किसी तरह शिवाजी को उसकी योजना का पता चल गया और शिवाजी ने अफजल खा का वध कर दिया. बाद में युद्ध हुआ, जिसमें शिवाजी को विजय मिली. अब दोनों पक्षों के मध्य संधि हो गई. बीजापुर के विजित किलों पर शिवाजी का अधिकार स्वीकार कर लिया गया. शाइस्ता खाँ से संघर्ष शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति क
रोकने के लिए औरंगजेब ने शाइस्ता खाँ को शिवाजी के विरुद्ध भेजा. दोनों के मध्य लगभग दो वर्ष तक संघर्ष हुआ. प्रारम्भ में शाइस्ता खाँ ने शिवाजी के कई किलों पर अधिकार कर लिया, किन्तु शिवाजी ने एक रात सोते हुए मुगलों पर आक्रमण कर दिया. मुगल सेना में भगदड़ मच गई. इस
कार्यवाही में शाइस्ता खाँ का अँगूठा कट गया और वह भाग गया. इस प्रकार मुगलों के विरुद्ध शिवाजी को सफलता मिली सूरत की लूट शाइस्ता खाँ को परास्त करने के पश्चात् शिवाजी के उत्साह में और अधिक वृद्धि हो गई. अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से शिवाजी ने सूरत, जोकि आर्थिक स्थिति से सम्पन्न था, पर 1664 ई. में धावा बोल दिया. इस धावे में शिवाजी ने 10 करोड़ रुपए से भी अधिक की लूट की.
जयसिंह एवं शिवाजी सूरत की लूट से औरंगजेब अत्यंत क्रोधित हुआ अतः उसने जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध भेजा जयसिंह के.. प्रयासों के परिणामस्वरूप 1665 ई. में दोनों के मध्य पुरंदर की संधि हुई, जिसके अनुसार शिवाजी ने 23 दुर्ग औरंगजेब को देना स्वीकार कर लिया बदले में शिवाजी. को कोंकण, बीजापुर तथा बालाघाट की कुछ भूमि देना तय हुआ जयसिंह ने शिवाजी को मुगल दरबार में जाने के लिए तैयार कर लिया आगरा की घटना शिवाजी जब मुगल दरबार में पहुँचे तो औरंगजेब ने उनका सम्मान नहीं किया. बल्कि उन्हें तथा उनके पुत्र शम्भाजी को जेल में डाल दिया गया. किन्तु शिवाजी किसी तरह भेष बदलकर आगरा से भाग निकले और मथुरा होते हुए पुनः 1666 ई. में महाराष्ट्र पहुँचे. शिवाजी का राज्याभिषेक
1674 ई. में रायगढ़ के किले में शिवाजी का बड़ी धूमधाम से राज्याभिषेक हुआ. उन्होंने छत्रपति की उपाधि धारण की तथा भगवा ध्वज को अपना झण्डा बनाया 1680 ई. में शिवाजी की मृत्यु हो गई। शिवाजी के अष्ट प्रधान
मुख्य प्रधान- यह राज्य के सभी मामलों की देखभाल करता था. इसे ‘पेशवा’ के नाम से जाना जाता था. अमात्य – यह राज्य की आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता था.
मंत्री मंत्री राजा का व्यक्तिगत सहायक होता था. यह राजा के प्रत्येक कार्य को लिखता था. सामंत यह मुख्य रूप से युद्ध एवं संधि सम्बन्धी मामलों का निर्णय करता था…
सचिव-यह परगनों की आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता था.
सेनापति सेना की भर्ती करना, उनके – लिए वर्दी की व्यवस्था तथा शिक्षा, शस्त्र एवं रसद की व्यवस्था आदि का कार्य सेनापति करता था.
न्यायाधीश – यह न्याय विभाग का प्रधान होता था. यह न्याय सम्बन्धी मामलों का निष्पक्ष रूप से निपटारा करता था.
दानाध्यक्ष – शिवाजी के अष्ट प्रधान में दानाध्यक्ष का पद अत्यंत ही महत्व का था. यह दान विभाग का अध्यक्ष होता था. दान का प्रबन्ध तथा धार्मिक कार्यों की जाँच करना इसका मुख्य कार्य था. शम्भाजी
शिवाजी की मृत्यु के पश्चात् शम्भाजी सिंहासन पर आसीन हो गया. 1686 ई. में जयसिंह एवं शिवाजी सूरत की लूट से औरंगजेब अत्यंत क्रोधित हुआ अतः उसने जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध भेजा जयसिंह के.. प्रयासों के परिणामस्वरूप 1665 ई. में दोनों के मध्य पुरंदर की संधि हुई, जिसके अनुसार शिवाजी ने 23 दुर्ग औरंगजेब को देना स्वीकार कर लिया बदले में शिवाजी. को कोंकण, बीजापुर तथा बालाघाट की कुछ भूमि देना तय हुआ जयसिंह ने शिवाजी को मुगल दरबार में जाने के लिए तैयार कर लिया आगरा की घटना शिवाजी जब मुगल दरबार में पहुँचे तो औरंगजेब ने उनका सम्मान नहीं किया. बल्कि उन्हें तथा उनके पुत्र शम्भाजी को जेल में डाल दिया गया. किन्तु शिवाजी किसी तरह भेष बदलकर आगरा से भाग निकले और मथुरा होते हुए पुनः 1666 ई. में महाराष्ट्र पहुँचे. शिवाजी का राज्याभिषेक
1674 ई. में रायगढ़ के किले में शिवाजी का बड़ी धूमधाम से राज्याभिषेक हुआ. उन्होंने छत्रपति की उपाधि धारण की तथा भगवा ध्वज को अपना झण्डा बनाया 1680 ई. में शिवाजी की मृत्यु हो गई। शिवाजी के अष्ट प्रधान मुख्य प्रधान- यह राज्य के सभी मामलों की देखभाल करता था. इसे ‘पेशवा’ के नाम से जाना जाता था. अमात्य – यह राज्य की आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता था.
मंत्री मंत्री राजा का व्यक्तिगत सहायक होता था. यह राजा के प्रत्येक कार्य को लिखता था. सामंत यह मुख्य रूप से युद्ध एवं संधि सम्बन्धी मामलों का निर्णय करता था…
सचिव-यह परगनों की आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता था.
सेनापति सेना की भर्ती करना, उनके – लिए वर्दी की व्यवस्था तथा शिक्षा, शस्त्र एवं रसद की व्यवस्था आदि का कार्य सेनापति करता था.
न्यायाधीश – यह न्याय विभाग का प्रधान होता था. यह न्याय सम्बन्धी मामलों का निष्पक्ष रूप से निपटारा करता था.
दानाध्यक्ष – शिवाजी के अष्ट प्रधान में दानाध्यक्ष का पद अत्यंत ही महत्व का था. यह दान विभाग का अध्यक्ष होता था. दान का प्रबन्ध तथा धार्मिक कार्यों की जाँच करना इसका मुख्य कार्य था. शम्भाजी
शिवाजी की मृत्यु के पश्चात् शम्भाजी सिंहासन पर आसीन हो गया. 1686 ई. में औरंगजेब ने मुगल साम्राज्य का विस्तार किया सम्पूर्ण भारत में मुगलों की पताका फहराने लगी यह कहना भी अयुक्तिपूर्ण नहीं होगा कि मुगल साम्राज्य के पतन के लिए भी औरंगजेब ही उत्तरदायी है वास्तव में उसका राज्यकाल मुगल साम्राज्य का संध्याकाल था उसकी राजपूत नीति, धार्मिक नीति, दक्षिण की विजय उत्तरी भारत की अधिक उपेक्षा आदि ऐसे कारण थे कि साम्राज्य में विद्रोह होने लगे थे. इतने विशाल साम्राज्य को अविश्वास की पृष्ठभूमि में एक ही केन्द्र एवं एक ही व्यक्ति द्वारा नियन्त्रित करना अत्यंत ही दुष्कर कार्य था. औरंगजेब ने अपने पुत्र को अंतिम पत्र लिखा था, जिसमें उसकी निराशा स्पष्ट दिखाई देती है. औरंगजेब अपने साम्राज्य को अपने पुत्रों में विभाजित कर देना चाहता था. उसका उद्देश्य उत्तराधिकार के युद्ध की पुनरावृत्ति को रोकना था. उसकी इच्छा पूर्ण न हो सकी. सिंहासन के लिए युद्ध की परम्परा जो पूर्वजों ने डाली थी, वह चलती रही उसके तीन पुत्र मुहम्मद मुअज्जम, मुहम्मद आजम तथा कामबक्श के मध्य उत्तराधिकार का युद्ध हुआ. युद्ध में उसका बड़ा पुत्र शाहजादा मुअज्जम विजयी हुआ. उसने अपने भाई मुहम्मद आजम को 18 जून, 1707 ई. को जाजऊ नामक स्थान पर तथा कामबक्श को हैदराबाद में जनवरी 1709 ई. में मार डाला
बहादुरशाह प्रथम (1707-1712)
उत्तराधिकार के युद्ध में विजय प्राप्त करने के उपरान्त औरंगजेब का बड़ा पुत्र मुअज्जम बहादुरशाह के नाम से मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ. सिंहासन पर आसीन होने के समय उसकी आयु 63 वर्ष की थी वह उदार प्रकृति का था उसने कूटनीति का प्रश्रय लिया तथा साहू को मुक्त कर मराठों में फूट के बीज बो दिए, साथ ही अपनी उदारता का भी परिचय दिया मराठों को दक्षिण में 6 राज्यों से चौथ व सरदेशमुखी एकत्रित करने का अधिकार भी दिया. उसने राजपूतों के प्रति उदारनीति अपनाई युद्ध में पराजित करके भी उन्हें अपमानित नहीं किया. वृद्ध होने के कारण वह लम्बे समय तक शासन न कर सका. 5 वर्ष तक शासन करने के उपरान्त 1712 ई. में उसकी मृत्यु हो गई.
जहाँदरशाह (1712-1713)
बहादुरशाह की मृत्यु के उपरांत उसके चार पुत्रों के मध्य उत्तराधिकार का युद्ध हुआ, जिसमें उसका बड़ा पुत्र उनीज-उद्दीन विजयी हुआ अपने भाइयों को मारकर जुल्फिकार की सहायता से वह जहाँदारशाह के नाम से मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ, चूँकि वह एक अयोग्य एवं लोभी शासक था अतः वह दीर्घकाल तक शासन न कर सका. 1713 में उसके भांजे फर्रुखसियर ने सैयद बंधुओं के सहयोग से जहाँदारशाह का वध करवा दिया.
फर्रुखसियर (1713-1719) यह केवल नाममात्र का शासक था.
उसके शासनकाल में वास्तविक सत्ता उसके प्रधानमंत्री अब्दुल्ला खाँ तथा प्रधान सेनापति सैयद अली खाँ के हाथ में रही. उसके शासन काल में जाटों के नेता ‘चूड़ामण’ ने मुगलों के विरुद्ध विद्रोह किया. मारवाड़ के शासक अजीत सिंह ने मुगलों के कुछ प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया सिखों तथा मुगलों के बीच संघर्ष हुआ पंजाब में बंदा बैरागी तथा उसके अनुयायियों को गिरफ्तार ि कर बंदा बैरागी का वध कर दिया गया. सैयद बंधुओं की शक्ति में लगातार वृद्धि होती गई. अंत में उन्होंने मराठों के सहयोग से 1719 ई. में फर्रुखसियर का वध करवा दिया तथा उसके स्थान पर रफी-उद- दरजात को मुगल सिंहासन पर बिठाया, पर शीघ्र ही इसकी मृत्यु हो गई. इसके पश्चात् रफी-उद-दौला को मुगल सिंहासन पर बिठाया गया. दुर्भाग्य से इसकी भी शीघ्र ही मृत्यु हो गई.
मुहम्मदशाह (1719-1748) 1719 ई. में सैयद बंधुओं ने रोशन को मुहम्मदशाह के नाम से मुगल गद्दी पर बिठाया. यद्यपि मुहम्मदशाह, सैयद बंधु, जिन्हें राजाओं का निर्माता कहा जाता था. के सहयोग से शासक बना था, किन्तु वह सैयद बंधुओं के बढ़ते हुए हस्तक्षेप से तंग आ गया था. अतः उसने सैयद बंधुओं की शक्ति पर रोक लगाने के लिए एक दल का गठन किया, जिसका नेतृत्व चिनकिलिचखाँ तथा सादात खान ने किया चिनकिलिच खाँ ने विद्रोह कर दिया विद्रोह को दबाने के लिए सैयद हुसैन अली गया, किन्तु उसे धोखे से मार डाला. इसके उपरांत सैयद अली को भी गिरफ्तार कर मार दिया गया. इस प्रकार सैयद बंधुओं की बढ़ती हुई शक्ति का अंत हो गया. मुहम्मदशाह के शासनकाल में निजामुलमुल्क (चिनकिलिच खाँ) ने हैदराबाद के 6 सूबों पर अधिकार कर स्वतंत्र राज्य की स्थापना की. इस राज्य को निजामशाही के नाम से जाना जाता है. इसके अतिरिक्त अलीवर्दी खाँ ने बंगाल, जाटों ने भरतपुर, सआदत खाँ अथवा सादात खान से अवध, दाउद खाँ ने रुहेलखण्ड में स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की इसी के शासनकाल में फारस के शासक नादिरशाह ने 1739 ई. में भारत पर आक्रमण कर दिया कहा जाता है कि उसने तैमूर से भी अधिक दिल्ली में रक्तपात किया. उसने भारत की अतुल सम्पत्ति को लूटा स्वदेश जाते समय वह अपने साथ अपार धन सम्पत्ति, मयूर सिंहासन व हीरा भी ले गया
अहमदशाह (1748-1754) मुगल मुहम्मदशाह की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अहमदशाह 1748 ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ. वह बहुत ही अयोग्य शासक था उसके शासनकाल में मुगल साम्राज्य और अधिक जर्जर हो गया अतः मुगल दरबार में वजीर गाजीउद्दीन ने अपने प्रभाव में वृद्धि की और अवसर पाकर उसने अहमदशाह को बंदी बनाकर मौत के घाट उतार दिया. अब उसने आलमगीर द्वितीय को मुगल सिंहासन पर आसीन किया.
आलमगीर द्वितीय (1754-1758)
मुगल शासक आलमगीर द्वितीय नाममात्र का शासक था शासन की वास्तविक शक्ति वजीर गाजीउद्दीन फिरोजजंग के हाथ में रही. आलमगीर द्वितीय ने शासन की वास्तविक शक्ति अपने हाथ में लेने का प्रयास भी किया, किन्तु गाजीउद्दीन फिरोज जंग ने उसे गद्दी से उतारकर उसका वध करवा दिया. आलमगीर द्वितीय के शासनकाल में अहमदशाह अब्दाली का तीसरा आक्रमण हुआ. इसने दिल्ली व मथुरा को खूब लूटा शाहआलम द्वितीय (1758-1806)
1758 ई. में आलमगीर द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अलीगौहर, शाह आलम द्वितीय के नाम से सिंहासन पर आसीन हुआ. वह केवल नाममात्र का शासक था. शासन की वास्तविक शक्ति ‘गाजीउद्दीन फिरोज जंग के हाथ में थी. इसके शासनकाल में दिल्ली में दो दल बन गए एक दल था – गाजीउद्दीन फिरोज जंग का दूसरा दल था उसके विरोधी मुसलमान, जिसका नेतृत्वकर्ता अहमदशाह अब्दाली था अपने शत्रुओं का मुकाबला करने के लिए उसने मराठों का सहयोग लिया पानीपत का तृतीय युद्ध, दक्षिण में अकाल तथा अंग्रेजों के विरुद्ध बक्सर का युद्ध इसके शासनकाल की मुख्य घटनाएँ थीं. बक्सर युद्ध में शाहआलम परास्त हुआ तथा शाहआलम द अंग्रेजों के मध्य संधि हुई, जिसे ‘इलाहाबाद संधि के नाम से जाना जाता है इस संधि के अनुसार शाहआलम ने अंग्रेजों को बंगाल बिहार की दीवानी प्रदान कर दी बदले में शाह आलम को 26 लाख रुपए वार्षिक एवं पेंशन तथा कड़ा प्रदेश देना तय हुआ, किन्तु मराठों का साथ देने के कारण अंग्रेजों ने उसकी पेंशन बंद कर दी 1806 ई में गुलाम कादिर खाँ ने शाहआलम द्वितीय की हत्या करवा दी अकबर द्वितीय (1806-1837) शाह आलम द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अकबर द्वितीय मुगल गद्दी पर आसीन हुआ, जोकि एक नाममात्र का शासक था. इसके शासनकाल में अंग्रेजों की शक्ति में तीव्र गति से वृद्धि हुई. 1837 ई. में अकबर द्वितीय की मृत्यु हो गई. बहादुरशाह द्वितीय जफर (1837-1857) अकबर द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बहादुरशाह द्वितीय ( बहादुरशाह जफर) मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ. यह अंतिम मुगल सम्राट था. इसके शासनकाल में अंग्रेजों की शक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई. 1857 ई. का विद्रोह अथवा क्रांति इसके शासनकाल की मुख्य घटना थी. इस क्रांति का नेतृत्व बहादुरशाह जफर ने ही किया, अंग्रेजों द्वारा इस विद्रोह का दमन कर दिया गया तथा बहादुरशाह जफर को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया गया, जहाँ 1862 ई. में उसकी मृत्यु हो गई इसकी मृत्यु के साथ ही भारत में मुगल साम्राज्य का पूर्णरूपेण अंत हो गया.
मुगल साम्राज्य के पतन के कारण औरंगजेब की धार्मिक नीति औरंगजेब ने हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया. हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बनाने का प्रयत्न किया परिणामस्वरूप हिन्दू उसके विरुद्ध हो गए. उसके शासनकाल में बुंदेलों, सिखों, जाटों, मराठों, राजपूतों ने विद्रोह किए और मुगल साम्राज्य को अपार क्षति पहुँचाई. औरंगजेब की दक्षिण नीति औरंगजेब ने लगभग 50 वर्ष तक शासन किया. उसने अपने शासन के 25 वर्ष दक्षिण में ही व्यतीत किए दक्षिण में हुए विद्रोह के दमन में अपार धनराशि व्यय हुई. दक्षिण में लगातार रहने के कारण वह उत्तर भारत की ओर ध्यान न दे सका.. परिणामस्वरूप दरबार षड्यन्त्रों का केन्द्र बनकर रह गया और कुचक्र एक नियम औरंगजेब को जीवनपर्यन्त मराठा शक्ति का सामना करना पड़ा. अथक प्रयासों के बाद भी वह कभी भी मराठा शक्ति को पूर्णतः दबा नहीं पाया लगातार युद्धरत रहने के कारण उसका साम्राज्य आर्थिक समस्याओं से घिर गया. प्रशासन छिन्न भिन्न हो गया ऐसी स्थिति में साम्राज्य का पतनोन्मुख होना अवश्यंभावी था
औरंगजेब के पश्चात् जितने भी सम्राट हुए. वे अयोग्य थे. वे अपनी आपसी समस्याओं से ही इतने घिरे रहते थे कि अन्यत्र कहीं ध्यान ही नहीं दे पाते थे. उत्तराधिकार का नियम न होना मुगल सम्राटों के लिए सिरदर्द बना रहा
उत्तराधिकार के नियम का अभाव
उत्तराधिकार के नियम के अभाव के कारण सम्राट की मृत्यु के पश्चात् पुत्रों के मध्य गद्दी प्राप्त करने के लिए गृहयुद्ध होता था पारस्परिक संघर्ष के कारण मुगल साम्राज्य की अत्यधिक क्षति होती रही और मुगल साम्राज्य पतनोन्मुख हो चला साम्राज्य की विशालता मुगल सम्राटों ने लगातार मुगल साम्राज्य का विस्तार किया. औरंगजेब के शासनकाल तक साम्राज्य इतना विशाल हो गया था कि उस पर व्यवस्थित तरीके से शासन करना अत्यंत ही दुष्कर था. औरंगजेब के पश्चात् कोई भी मुगल सम्राट इस विशाल साम्राज्य की सुरक्षा न कर सका
मराठों का उत्थान
शिवाजी के नेतृत्व में मराठा शक्ति का उत्थान हुआ. इस बढ़ती हुई शक्ति को औरंगजेब अथक् प्रयासों के बावजूद भी न दबा सका मराठे जीवनपर्यन्त औरंगजेब के लिए सिरदर्द बने रहे. औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् तो मराठों की शक्ति को दबाना मुगल सम्राटों के लिए असम्भव हो गया.
सैयद बंधुओं का उत्थान
सैयद बंधुओं के प्रभाव में अत्यधिक वृद्धि हो जाने के कारण मुगल सम्राट उनके हाथों की कठपुतली मात्र बनकर रह गए थे इससे मुगल सम्राट के सम्मान को अत्यधिक ठेस पहुँची और उनकी शक्ति क्षीण होने लगी
औरंगजेब अपने शासनकाल あ अधिकाश वर्षों में युद्धरत् रहा परिणामस्वरूप साम्राज्य की आर्थिक व्यवस्था जर्जर हो गई, जिसे आगे आने वाले मुगल सम्राट संभाल न सके
निरंकुश शासन मुगल सम्राट निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी थे विलासिता ग्रस्त और स्वार्थ लिप्त रहने के कारण प्रजा का शोषण हुआ. परिणामस्वरूप प्रजा उनके विरुद्ध हो गई. ऐसी स्थिति में साम्राज्य का पतन होना अवश्यसम्भावी था.
विदेशी आक्रमण नादिरशाह एवं अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों से मुगल साम्राज्य को अपार क्षति हुई. साम्राज्य जर्जर हो पतनोन्मुख हो चला अंग्रेजों का उत्कर्ष उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक अंग्रेजों का भारत में बहुत अधिक प्रभाव बढ़ चुका था. इस समय मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय था जोकि अत्यंत ही वृद्ध था. 1857 ई. की क्रान्ति का दमन करके अंग्रेजों ने मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया, वहीं उसकी मृत्यु हो गई. बहादुरशाह की मृत्यु के साथ ही सदा के लिए मुगल साम्राज्य का अंत हो गया.
नोट्स
भारत में यूरोपीय कम्पनियों का आगमन
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पुर्तगाली यात्री वास्कोडिगामा अब्दुल मनीक नामक गुजराती पथ–प्रदर्शक की सहायता से 1498 ई. में कालीकट (भारत) के समुद्र तट पर उतरा। अल्फांसो–डी–अल्बुकर्क को भारत में पुर्तगीज शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
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1503 ई. में फ्रांसिस्को डी अल्मीडा ने तुर्की, गुजरात, मिस्र की संयुक्त सेना को पराजित कर दीव पर अधिकार किया। अल्बुकर्क ने पुर्तगालियों को भारतीय महिलाओं से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया।
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पुर्तगाल अधिगृहीत क्षेत्रों में व्यापार के लिए अकबर को भी एक निःशुल्क कार्ट्ज प्राप्त करना पड़ा था। पुर्तगाली अपने को सागर स्वामी कहते थे।
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पुर्तगाली राजकुमार हेनरी द नेविगेटर ने लम्बी समुद्री यात्राओं को सम्भव बनाने के लिए दिक् सूचक यन्त्र तथा नक्षत्र यन्त्र के द्वारा गणनाएँ करने वाली तालिकाएँ और सारणियों का निर्माण कराया, जिससे समुद्र की लम्बी यात्राएँ सम्भव हुई।
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भारत में गोथिक स्थापत्य कला पुर्तगालियों की देन है। भारत में प्रथम प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना पुर्तगालियों द्वारा 1556 ई. में गोवा में हुई। तम्बाकू की खेती भी पुर्तगालियों ने ही शुरू की। डचों की व्यापारिक व्यवस्था सहकारिता पर आधारित थी। इस व्यवस्था का उल्लेख 1722 ई. के दस्तावेजों में किया गया है।
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1599 ई. में इंग्लैण्ड में मर्चेण्ट एडवेंचर्स नामक दल ने अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी अथवा द गवर्नर एण्ड कम्पनी ऑफ मर्चेण्ट्स ऑफ ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इण्डीज की स्थापना की।
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1605 ई. में डचों ने पुर्तगीजों से अम्बायना ले लिया तथा धीरे–धीरे मसाला द्वीप पुंज (इण्डोनेशिया) में उनको हराकर अपना प्रभाव स्थापित किया।
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डचों ने 1605 ई. में मसूलीपत्तनम में प्रथम डच कारखाने की स्थापना की।
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डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी का सर्वाधिक लाभ कमाने वाला प्रतिष्ठान सूरत स्थित डच व्यापार निदेशालय था।
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सर टॉमस से 1615 ई. में जेम्स प्रथम के राजदूत के रूप में जहाँगीर के दरबार में आए।
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शाहजहाँ ने पुर्तगालियों से नाराज होकर बंगाल में अंग्रेजों को सीमित क्षेत्र में बाजार की अनुमति प्रदान की। सेरामपुर एक प्रमुख डेनिश व्यापारिक केन्द्र था।
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फ्रांस के सम्राट लुई चौदहवें के मन्त्री कॉलबर्ट द्वारा 1664 ई. में फ्रेंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई। सेण्टथो का युद्ध फ्रांसीसी सेना एवं नवाब अनवरुद्दीन की सेना के बीच लड़ा गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी और बंगाल के नवाब
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मुगल सम्राट द्वारा स्वतंत्र रूप से नियुक्त बंगाल का अंतिम गवर्नर मुर्शीद कुली खान (1717-1727 ई.) था। इसने अपनी राजधानी ढाका से मकसूदाबाद बनाया और नगर का नाम मुर्शिदाबाद रख दिया।
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इसने भूमि बंदोबस्त में इजारा व्यवस्था आरंभ की।
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अलीवर्दी खां (1740-1756 ई.) में यूरोपियों की तुलना मधुमक्खियों से की तथा कहा कि यदि उन्हें न छेड़ा जाए तो ये शहद देंगी और यदि छेड़ा जाए तो वे काट–काट कर मार डालेंगी। * इसकी मृत्यु के पश्चात उसका दौहित्र सिराजुदौला उत्तराधिकारी बना। ब्लैक होल की कथित घटना 20 जून, 1756 को सिराजुदौला के समय में हुई थी। जे.जेड, हॉलवेल, जो शेष जीवित रहने वालों में से एक था. अनुसार 18 फीट लंबे तथा 14 फीट 10 इंच चौड़े कक्ष में 146 अंग्रेज बंदी बंद कर दिए गए और अगले दिन उनमें से केवल 23 व्यक्ति ही बच पाए। यह घटना ब्लैक होल के नाम से प्रसिद्ध है।
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समकालीन मुस्लिम इतिहासकार गुलाम हुसैन ने अपनी पुस्तक सिवार–उल–मुत्खैरीन में इसका कोई उल्लेख नहीं किया है।
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भारतवर्ष में ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक लॉर्ड रॉबर्ट क्लाइव को माना जाता है, जिसने प्लासी के युद्ध (23 जून, 1757) में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को पराजित कर पहली बार भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व की नींव रखी थी।
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प्लासी (वर्तमान नाम पलाशी) का युद्ध मैदान प. बंगाल राज्य के नदिया जिले में भागीरथी नदी के किनारे स्थित है। *क्लाइव भारत में बंगाल के गवर्नर के पद पर 1757-60 ई. तथा 1765-1767 ई. तक रहा। *इस दौरान उसने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ इलाहाबाद की संधि की।
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अंग्रेज सैनिकों का एक श्वेत विद्रोह उसके समय में हुआ था। * क्लाइव द्वारा बंगाल में सफलतापूर्वक एक ‘लुटेरा राज्य‘ की स्थापना की गई। * क्लाइव एक सैनिक के रूप में जननेता था।
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विलियम पिट का यह कथन है कि “वह स्वर्ग से उत्पन्न सेनानायक (A Heaven Born General) था।” * अलीवर्दी खां के उत्तराधिकारी नवाबों में मीर कासिम (1760-63 ई.) सबसे योग्य था। * पूर्णिया तथा रंगपुर के फौजदार के रूप में वह अपनी योग्यता पहले ही दर्शा चुका था। *वह अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर ले गया, संभवत: वह मुर्शिदाबाद के षड्यंत्रमय वातावरण तथा कलकत्ता से दूर रहना चाहता था, ताकि अंग्रेजों का हस्तक्षेप अधिक न हो।
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मीर कासिम ने सेना का गठन यूरोपीय पद्धति पर करने का निश्चय किया। * इसके द्वारा मुंगेर में तोपें तथा तोड़ेदार बंदूकें (Matchlock Gun) बनाने की व्यवस्था की गई। इसके अतिरिक्त मीर कासिम राज्य की आर्थिक स्थिति को भी सुधारने के लिए प्रयत्नशील रहा। जिन अधिकारियों ने गबन किया था उन पर बड़े–बड़े जुर्माने लगाए गए, कुछ नए कर भी उसने लगाए।
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22 अक्टूबर, 1764 को अंग्रेजों ने मीर कासिम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा दिल्ली के मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय की सम्मिलित सेना को बक्सर के युद्ध में परास्त किया। * इस युद्ध में अंग्रेजों की कमान मेजर हेक्टर मुनरो के हाथ में थी। इस युद्ध
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के समय वेन्सिटार्ट बंगाल का गवर्नर था। * इस युद्ध के प्लासी के निर्णयों पर मुहर लगा दी, भारत में अब अंग्रेजों को परिणाम * देने वाला कोई दूसरा नहीं था। * इलाहाबाद तक का प्रदेश अंग्रेजी के अधिकार में आ गया तथा दिल्ली विजय का मार्ग खुल गया। का युद्ध भारतीय इतिहास में निर्णायक सिद्ध हुआ। बक्सर के युद्ध समय बंगाल का नवाब मीरजाफर तथा दिल्ली का शासक शाहाल द्वितीय था।
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इलाहाबाद की दूसरी संधि (अगस्त, 1765) के अनुसार शाहआलम को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया गया तथा उसे रखा गया। * इलाहाबाद तथा कड़ा के जो क्षेत्र नवाब ने छोड़ दिए, ६, इलाहाबाद शाहआलम को मिले।
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12 अगस्त, 1765 के अपने फरमान द्वारा मु बादशाह शाहआलम द्वितीय ने कंपनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ी की दीवानी स्थायी रूप से दे दी, जिसके बदले कंपनी द्वारा सम्राट 26 लाख रुपये दिया जाना था तथा निजामत व्यय के लिए कंपनी 53 लाख रुपये देना था। इस समय रॉबर्ट क्लाइव ईस्ट इंडिया कंपनी * का बंगाल का गवर्नर था। इसी समय बंगाल में द्वैध शासन की हुई। * कंपनी ने दीवानी कार्य के लिए दो उप–दीवान, बंगाल के लिए शुरुआत मुहम्मद रजा खान तथा बिहार के लिए राजा शिताब राय की नियुक्ति की।
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शाहआलम द्वितीय का संपूर्ण जीवन आपदाओं से ग्रस्त रहा उसे अंधा कर दिया गया। *शाहआलम द्वितीय के समय में 1803 1 में दिल्ली पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया। *शाहआलम द्वितीय उसके दो उत्तराधिकारी अकबर द्वितीय (1806-37 ई.) और : द्वितीय (1837-57 ई.) ईस्ट इंडिया कंपनी के पेंशनभोगी मात्र बनकर रहे
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1765 ई. में अंग्रेजों द्वारा सिलहट की दीवानी प्राप्त की गई तथा बर्म युद्ध के बाद स्काट द्वारा सिलहट को जयंतिया तथा गारो पहाड़ी क्षे से जोड़ने के लिए सड़कों का निर्माण किया जाने लगा, जिसके विरोध स्वरूप इन पहाड़ियों पर रहने वाली खासी जनजाति के लोगों ने अपन नेता तीरत सिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया था।
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के. एम. पन्निकर कहा है कि 1765 से 1772 ई. तक कंपनी ने बंगाल में ‘डाकुओं काराज स्थापित कर दिया।
गवर्नर, गवर्नर जनरल एवं वायसराय
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हेस्टिंग्स के समय में रेग्युलेटिंग एक्ट के तहत 1774 ई. में कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई। हेस्टिंग्स के काल में सर विलियम जोन्स द्वारा 1784 ई. में दक्षिण एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की स्थापना की गई।
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भगवद्गीता के अंग्रेजी अनुवादक चार्ल्स विल्किन्स को वारेन हेस्टिंग्स ने आश्रय प्रदान किया। 1791 ई. जोनाथन डंकन ने बनारस में संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। सर जॉन शोर के समय में ही निजाम और मराठों के बीच 1795 ई. में खुर्दा का युद्ध लड़ा गया।
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सर जॉन मैकफरसन ने भारत में अस्थायी नियुक्ति पर मात्र एक वर्ष कार्य किया। कार्नवालिस कोड शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित था, जिसके तहत न्याय प्रशासन तथा कर को पृथक कर दिया गया। कार्नवालिस को भारत में नागरिक सेवा का जन्मदाता माना जाता है। प्रारम्भ में सिविल सेवा का आयोजन इंग्लैण्ड में ही होता था। 1823 ई. से– यह भारत में होने लगी थी।
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कार्नवालिस ने व्यापारिक सुधारों के तहत ठेकेदारों के स्थान पर गुमाश्तों तथा व्यापारिक प्रतिनिधियों द्वारा माल लेने की व्यवस्था बना दी तथा निजी व्यापार को समाप्त कर दिया।
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फ्रांसीसियों के भय को समाप्त करने तथा अंग्रेजी सत्ता की श्रेष्ठता स्थापित करने के उद्देश्य से वेलेजली ने भारत में सहायक सन्धि प्रणाली को प्रचलित किया। – नागरिक सेवा में भर्ती किए गए युवकों को प्रशिक्षित करने के लिए 1800- ई. में लॉर्ड वेलेजली ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की।
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कार्नवालिस ने 1793 ई. में स्थायी बन्दोबस्त प्रणाली का आरम्भ किया।
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भारत को भारतीय वस्त्रों के निर्यात का केन्द्र बनाने का श्रेय डचों को जाता है।
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1700 ई. में वा का युद्ध अंग्रेजों एवं फ्रांसीसियों के बीच हुआ, जिसमें की जीत हुई। 1816 ई. की सगौली की सन्धि के अनुसार गढ़वाल, कुमाऊँ, शिमला, रानीखेत एवं नैनीताल अंग्रेजों के अधिकार में आ गए तथा गोरखों ने काठमाण्डू में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार किया। लॉर्ड एमहर्स्ट के समय की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना वर्मा का प्रथम युद्ध तथा भरतपुर का उत्तराधिकार युद्ध है।
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लॉर्ड विलियम बैण्टिक को भारत का प्रथम गवर्नर जनरल का पद सुशोभित करने का गौरव प्राप्त है। बैण्टिक ने सती प्रथा के खिलाफ कानून बनाकर दिसम्बर, 1829 में धारा XVII द्वारा विधवाओं के सती होने को अवैध घोषित किया। ठगी प्रथा एवं नरबलि प्रथा का भी अन्त किया। बैण्टिक ने कार्नवालिस द्वारा स्थापित प्रान्तीय अपीलीय तथा सर्किट न्यायालयों को बन्द करवा कर इसका कार्य मजिस्ट्रेट तथा कलेक्टरों में बाँट दिया। मात्र एक वर्ष तक भारत के गवर्नर जनरल के पद पर कार्य करने वाले चार्ल्स मेटकॉफ को प्रेस पर से नियन्त्रण हटाने के लिए प्रेस का मुक्तिदाता के रूप में याद किया जाता है।
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लॉर्ड ऑकलैण्ड के शासनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना प्रथम अफगान युद्ध था। 1839 ई. में ऑकलैण्ड ने कलकत्ता से दिल्ली तक जी टी रोड का निर्माण शुरू करवाया तथा इसी के समय में ‘शेरशाह सूरी मार्ग का नाम बदल कर जी टी रोड रख दिया गया।
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एलनबरो के समय में सर चार्ल्स नेपियर के नेतृत्व में 1843 ई. में सिन्ध का विलय किया गया। एलनबरो का कार्यकाल कुशल अकर्मण्यता की नीति का काल कहा जाता है। एलनबरो ने 1843 ई. के अधिनियम, द्वारा दास प्रथा का अन्त कर दिया। गोण्ड जनजाति एवं मध्य भारत में मानव बलि प्रथा का दमन तथा शिशु हत्या पर रोक लॉर्ड हार्डिंग के काल की महत्त्वपूर्ण घटना है।
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द्वितीय आंग्ल–सिख युद्ध (1848 ई.) डलहौजी के समय में हुआ। डलहौजी का शासनकाल व्यपगत सिद्धान्त के कई मामलों को लागू करने के लिए प्रसिद्ध है।
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डलहौजी ने प्रशासनिक सुधारों के अन्तर्गत भारत के गवर्नर जनरल के कार्यभार को कम करने के लिए बंगाल में एक लेफ्टिनेण्ट गवर्नर की नियुक्ति की व्यवस्था की। डलहौजी ने सैन्य सुधारों के अन्तर्गत कलकत्ता में स्थित तोपखाने का कार्यालय मेरठ में तथा सेना का मुख्य कार्यालय शिमला में स्थापित किया।
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डलहौजी के समय भारतीय सेना एवं अंग्रेजी सेना का अनुपात 61 था।
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1854 ई. का चार्ल्स वुड का डिस्पैच जो शिक्षा से सम्बन्धित था, डलहौजी के समय में पारित हुआ।
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डलहौजी के काल में भारत में 1853 ई. में प्रथम रेलवे लाइन बम्बई से थाणे दूसरी रेलवे लाइन 1854 ई. में कलकत्ता से रानीगंज के बीच बिछाई गई। डलहौजी के काल में प्रथम विद्युत तार सेवा कलकत्ता से आगरा के बीच प्रारम्भ हुई। डलहौजी ने डाक विभाग में सुधार करते हुए 1854 ई. में नया पोस्ट ऑफिस एक्ट पास किया। वाणिज्यिक सुधार के अन्तर्गत डलहौजी ने खुले व्यापार की नीति का
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अनुसरण किया तथा भारत के बन्दरगाहों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए खोल दिया। सन्थाल विद्रोह तथा विधवा पुनर्विवाह विधेयक डलहौजी के काल की महत्वपूर्ण घटनाएं हैं।
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लॉर्ड कैनिंग अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अन्तिम गवर्नर जनरल तथा सम्राट के अधीन प्रथम वायसराय था कैनिंग के समय में 1857 का महत्वपूर्ण विद्रोह हुआ
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कैनिंग के काल में बिहार, आगरा तथा मध्य प्रान्त में 1859 ई. का किराया अधिनियम लागू हुआ तथा अधिकृत हाईकोर्ट की स्थापना हुई। वि पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 में व भारतीय दण्ड संहिता की स्थापना 1861 ई. में कैनिंग के समय में हुई।
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लॉर्ड एल्गिन ने बनारस, कानपुर, आगरा तथा अम्बाला में अनेक दरबार किए। इन दरबारों का उद्देश्य भारतीय रियासतों को ब्रिटिश सरकार के समीप लाना था।
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सर जॉन लॉरेन्स को ‘भारत का रक्षक‘ तथा ‘विजय का संचालक‘ कहा जाता है। लॉरेन्स के काल में 1868 ई. में पंजाब तथा अवध के काश्तकारी अधिनियम पारित हुए थे। लॉरेन्स के काल में 1865 ई. में भारत एवं यूरोप के बीच प्रथम समुद्री टेलीग्राफ सेवा आरम्भ हुई।
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1872 ई. में लॉर्ड मेयो के शासनकाल में प्रायोगिक जनगणना करवाई गई।
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ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के द्वितीय पुत्र ड्यूक ऑफ एडिनबरा ने लॉर्ड मेयो के काल में 1869 ई. में भारत यात्रा की।
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लॉर्ड मेयो ने भारतीय नरेशों के बालकों की शिक्षा के लिए अजमेर में मेयो कॉलेज की स्थापना की। लॉर्ड नॉर्थबुक के समय में पंजाब का प्रसिद्ध कूका आन्दोलन हुआ। लॉर्ड नॉर्थबुक के समय प्रिन्स ऑफ वेल्स (किंग एडवर्ड सप्तम) भारत आए। लॉर्ड लिटन एक महान लेखक तथा प्रतिभावान वक्ता था। साहित्य जगत में वह ओवन मैरिडिथ नाम से प्रसिद्ध था।
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1876-78 ई. में मद्रास, बम्बई, मैसूर, हैदराबाद, पंजाब तथा मध्य भारत के कुछ भागों में भारी अकाल पड़ा। लिटन ने अकाल के कारण की जाँच के लिए रिचर्ड स्ट्रेची की अध्यक्षता में अकाल आयोग की स्थापना की। लॉर्ड लिटन के काल में अंग्रेजी संसद ने महारानी विक्टोरिया को कैसर–ए–हिन्द की उपाधि देने के लिए राज उपाधि अधिनियम, 1876 पारित किया था।
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मार्च, 1878 में लॉर्ड लिटन के समय में किसी भारतीय के लिए बिना लाइसेन्स शस्त्र रखना अथवा व्यापार करना एक दण्डनीय अपराध मान लिया गया।
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लॉर्ड लिटन भारतीय सिविल सेवा में भारतीयों के प्रवेश को प्रतिबन्धित करना चाहता था, परन्तु भारत सचिव की सहमति न होने पर उसने परीक्षा की अधिकतम आयु को 21 से घटाकर 19 वर्ष कर दिया। लिटन ने अलीगढ़ में एक मुस्लिम–एंग्लो प्राच्य महाविद्यालय की स्थापना की। लॉर्ड रिपन के सुधार कार्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य स्थानीय स्वशासन की शुरुआत थी। प्रथम फैक्ट्री अधिनियम लॉर्ड रिपन के समय में 1881 ई. में पारित हुआ। लॉर्ड रिपन ने शैक्षिक सुधारों के अन्तर्गत 1882 ई. में विलियम हण्टर के नेतृत्व में हण्टर कमीशन का गठन किया। डफरिन के काल की महत्त्वपूर्ण घटना तृतीय आंग्ल–बर्मा युद्ध था। इसी के काल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई।
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डफरिन के काल में लेडी डफरिन फण्ड व 1887 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।
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लॉर्ड लैंसडाउन के काल में कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह द्वारा राजगद्दी का परित्याग एवं प्रिन्स ऑफ वेल्स का दूसरी बार भारत आगमन हुआ। लैंसडाउन के समय में ‘मुस्लिम एंग्लो ओरिएण्टल डिफेन्स एसोसिएशन ऑफ इण्डिया‘ की स्थापना की गई। लॉर्ड एल्गिन द्वितीय के काल में स्वामी विवेकानन्द द्वारा वेल्लूर में रामकृष्ण मिशन और मठ की स्थापना हुई।
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एल्गिन ने भारत के विषय में कहा था कि “भारत को तलवार के बल पर विजित किया गया है और तलवार के बल पर ही इसकी रक्षा की जाएगी।” • लॉर्ड कर्जन स्वयं फॉरवर्ड स्कूल का समर्थक था. फिर भी उसने न तो फॉरवर्ड पॉलिसी को अपनाया तथा न ही ‘सिन्ध की ओर लौटो‘ वाली नीति का अनुसरण किया।
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लॉर्ड कर्जन ने सर थॉमस ऐले के अधीन 1902 ई. में विश्वविद्यालयों में आवश्यक सुधारों हेतु सुझाव देने के लिए एक आयोग का गठन किया। लॉर्ड कर्जन ने भारत में रेलों की पद्धति के सम्बन्ध में रिपोर्ट करने के लिए सर थॉमस रॉबर्टसन को नियुक्त किया।
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उफरिन के काल में ही बंगाल कृषक अधिनियम पारित हुआ था।
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लॉर्ड एल्गिन के काल में मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश पंजाब में भयानक अकाल पड़ा था एवं लायल कमीशन का गठन हुआ था।
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प्राचीन स्मारकों की रक्षा हेतु कर्जन ने 1904 ई. में एक अधिनियम पारित किया और भारत में प्राचीन स्मारकों की मरम्मत के लिए 50 हजार पौण्ड निश्चित किए।
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. राष्ट्रीय आन्दोलन को दबाने व कमजोर करने के उद्देश्य से कर्जन ने 1905 ई. में बंगाल को दो भागों में बाँट दिया। कर्जन का यह विभाजन ‘फूट डालो और राज करो‘ की नीति पर आधारित था।
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1916 ई. में लॉर्ड हार्डिंग द्वितीय को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का कुलाधिपति नियुक्त किया गया।
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. भारत सरकार के 1935 के अधिनियम का ढाँचा बनाने में लॉर्ड लिनलिथगो का महत्त्वपूर्ण योगदान था। द्वितीय विश्वयुद्ध लॉर्ड वेवेल के काल में सफलतापूर्वक लॉर्ड माउण्टबेटन ने मार्च, 1947 में लॉर्ड वेवेल के स्थान समाप्त हुआ। स्वतन्त्रता के बाद लॉर्ड‘ माउण्टबेटन को स्वतन्त्र भारत का प्रथम गवर्नर–जनरल बनाया गया।
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सी राजगोपालाचारी प्रथम भारतीय एवं अन्तिम गवर्नर जनरल थे।
नोट्स
1857 का विद्रोह
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*दिसंबर, 1856 में सरकार ने पुराने लोहे वाली बंदूक ब्राउन बेस (Brown Bess) के स्थान पर नवीन एनफील्ड राइफल (New Enfield Rifle) के प्रयोग का निर्णय लिया। *इसका प्रशिक्षण डम–डम, अम्बाला और स्यालकोट में दिया जाना था। * इस नई राइफल में कारतूस के ऊपरी भाग को मुंह से काटना पड़ता था। जनवरी, 1857 में बंगाल सेना में यह अफवाह फैल गई कि चर्बी वाले कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी है।
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सैनिक अधिकारियों ने इस अफवाह की जांच किए बिना तुरंत इसका खंडन कर दिया। *किंतु सैनिकों को विश्वास हो गया कि चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग उनके धर्म को भ्रष्ट करने का एक निश्चित प्रयत्न है। *यही भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण बना।
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29 मार्च, 1857 को ‘बैरकपुर‘ में सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इंकार कर दिया और एक सैनिक मंगल पांडेय ने अपने एजुडेंट पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी। *अंग्रेजों द्वारा 34वीं एन. आई. रेजीमेंट भंग कर दी गई और अपराधियों को दंड दिया गया।
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1857 ई. के विद्रोह का तात्कालिक कारण ब्राउन बेस के स्थान पर नई इनफील्ड रायफल का प्रयोग था, जिसकी गोली के खोल में गाय तथा सूअर की चर्बी लगी होती थी तथा कारतूसों को प्रयोग से पहले दाँत से खींचना पड़ता था। इस कारण धार्मिक भावना आहत हुई।
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34वीं नेटिव इन्फेण्ट्री के सिपाही मंगल पाण्डे ने 29 मार्च, 1857 को अंग्रेज अधिकारी सार्जेण्ट ह्यूरसन को गोली मार दी तथा लेफ्टिनेण्ट बाग की हत्या कर दी, जिसके कारण 8 अप्रैल 1857 को उन्हें फाँसी दे दी गई।
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10 मई, 1857 को मेरठ में भारतीय सैनिक जेल से अपने साथियों को छुड़ाकर दिल्ली पहुँचे तथा 12 मई, 1857 को दिल्ली पर अधिकार कर मुगल शासक बहादुर शाह.. द्वितीय को अपना नेता बना दिया। दिल्ली पर अधिकार के बाद बख्त खान को सैन्य समिति का प्रमुख बनाया गया।
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लखनऊ में 4 जून को प्रारम्भ हुए विद्रोह का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया, विद्रोहियों ने वहाँ के चीफ कमिश्नर हेनरी लॉरेन्स को मार दिया। 5 जून को कानपुर में शुरू हुए विद्रोह का नेतृत्व नाना साहब (धोन्धू पन्त) ने किया, जिसमें तात्या टोपे ने उनका साथ दिया।
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झाँसी में विद्रोह का नेतृत्व गंगाधर राव की विधवा लक्ष्मीबाई ने किया अधिकारी यूरोज से लड़ते हुए 17 जून, 1856 को लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई।
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1857 ई. के विद्रोह का नेतृत्व इलाहाबाद में लियाकत अली, जगदीशपुर में सिंह फैजाबाद में मौलवी अहमदउल्ला तथा बरेली में खान बहादुर खाँ ने किया।
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डलहौजी ने व्यपगत सिद्धान्त के तहत सतारा (1848), जैतपुर एवं सम्भलपुर (1849), बघाट (1850), उदयपुर (1852) झांसी (1853) तथा नागपुर (1854) रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया था।
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1857 के विद्रोह को लॉरेन्स, सीले मालेसन, ट्रेविलियन तथा होम्ज से पूर्णतः सिपाही विद्रोह आउट्रम एवं टेलर ने अंग्रेजों के विरुद्ध हिन्दू–मुस्लिम षड्यन्त्र, टी आर होज नेता एवं सभ्यता के बीच युद्ध व डिजरेली ने सुनियोजित राष्ट्रीय विद्रोह कहा। वीडी सावरकर ने इसे प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम माना।
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1856 के धार्मिक अधिनियम द्वारा ईसाई धर्म ग्रहण करने वालों को पैतृक सम्पत्ति का हकदार माना जाता था तथा उन्हें ही नौकरियों में सुविधा मिलती थी।
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उड़ीसा में संबलपुर के राजकुमार सुरेन्द्र शाही और उज्ज्वल शाही ने विद्रोह किया गंजाम में
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सावरों ने राधाकृष्ण दण्डसेन के नेतृत्व में पराल की मेडी में विद्रोह किया।
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1857 के विद्रोह के पश्चात् भारत शासन अधिनियम, 1858 पारित किया गया, जिसके अनुसार भारत का शासन ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से भारत के राज्य सचिव को चलाना था। भारत राज्य सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों की भारत परिषद् या इण्डिया काउन्सिल का गठन किया गया। विद्रोह के पश्चात् सेना के पुनर्गठन के लिए पील कमीशन का गठन किया गया, जिसके सुझावों के आधार पर सेना में यूरोपीय तथा भारतीय सैनिकों का अनुपात 1 2 कर दिया गया। बम्बई तथा मद्रास में यह अनुपात 13 रखा गया।
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. विद्रोह के बाद 1858 में महारानी विक्टोरिया द्वारा जारी घोषणा पत्र में कहा गया कि ब्रिटिश सरकार भारतीय रियासतों को साम्राज्य में नहीं मिलाएगी तथा पूर्व के समझौतों का सम्मान करेगी। गोद लेने की प्रथा को स्वीकृति प्रदान की गई।
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1857 के विद्रोह को प्रसिद्ध उर्दू कवि गालिब ने देखा था। इनकी मृत्यु 1860 ई. में हुई थी।
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1857 की क्रांति का प्रमुख कारण ब्रिटिश साम्राज्य की घिनौनी नीतियां थीं, जिनसे तंग आकर अंततः विद्रोह का ज्वालामुखी फट पड़ा।
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एंग्लो–इंडियन इतिहासकारों ने सैनिक असंतोषों तथा चर्बी वाले कारतूसों को ही 1857 के महान विद्रोह का सबसे मुख्य तथा महत्वपूर्ण कारण बताया है। परंतु आधुनिक भारतीय इतिहासकारों ने यह सिद्ध कर दिया है कि चर्बी वाले कारतूस ही इस विद्रोह का एकमात्र कारण अथवा सबसे प्रमुख कारण नहीं थे। चर्बी वाले कारतूस और सैनिको का विद्रोह तो केवल एक चिंगारी थी, जिसने उन समस्त विस्फोटक पदार्थों में, जो राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक कारणों से एकत्रित हुए थे, आग लगा दी और जिसने दावानल का रूप धारण कर लिया।
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1857 की क्रांति का प्रारंभ 10 मई को मेरठ से हुआ था। यहां की तीसरी कैवेलरी रेजीमेंट के सैनिकों ने चर्बीयुक्त कारतूसों को छूने से इंकार कर दिया तथा खुलेआम बगावत कर दी। अपने अधिकारियों पर गोली चलाई तथा अपने साथियों को मुक्त करवा कर वे लोग दिल्ली की ओर चल पड़े। *जनरल हेविट (General Hewitt) के पास 2200 यूरोपीय सैनिक थे, परंतु उसने इस तूफान को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। *विद्रोहियों ने 12 मई, 1857 को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार सैनिकों का दिल्ली के लाल किले पर पहुंचना पहली घटना थी। *1857 के स्वाधीनता संग्राम का प्रतीक कमल और रोटी था।
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“बरेली में रुहेलखंड के भूतपूर्व शासक के उत्तराधिकारी खान बहादुर ने 1857 के विद्रोह की रहनुमाई की। मुगल सम्राट बहादुर शाह द्वितीय ने उन्हें वायसराय के पद पर नियुक्त किया था। रानी लक्ष्मीबाई (मूल नाम मनिकर्णिका) का जन्म 19 नवंबर, 1835 को गोलघर में हुआ था जो वर्तमान में वाराणसी में है। उनके पिता मोरोपंत झांसी के महाराजा गंगाधर राव के दरबार में गए। उस समय लक्ष्मीबाई की उम्र 13 वर्ष थी। *14 वर्ष की उम्र में उनका विवाह झांसी के महाराजा गंगाधर राव के साथ हुआ।
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इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। *ग्वालियर में ही महारानी लक्ष्मीबाई की समाधि स्थित है। रानी लक्ष्मीबाई झांसी के अंतिम मराठा राजा गंगाधर राव की विधवा थीं। जब किसी उत्तराधिकारी के अभाव में राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई, तो डलहौजी ने व्यपगत सिद्धांत के अंतर्गत 1853 में झांसी का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया। झांसी में जून, 1857 में रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में विद्रोह का श्रीगणेश हुआ।
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अंग्रेज जनरल ह्यूरोज से लड़ते हुए 17 जून, 1858 को वे वीरगति को प्राप्त हुई। रानी की मृत्यु पर ह्यूरोज ने कहा– भारतीय विद्रोहियों में यहां सोई हुई औरत अकेली मर्द है।‘
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लखनऊ (अवध) में विद्रोह का प्रारंभ 30 मई, 1857 में हुआ। *विद्रोह का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया। उन्होंने अपने अल्पवयस्क बेटे बिरजिस कादिर को नवाब घोषित किया तथा प्रशासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। *अंत में 21 मार्च, 1858 को कैम्पबेल ने गोरखा । रेजीमेंट की सहायता से लखनऊ पर पुनः अधिकार कर लिया। *कानपुर में 5 जून, 1857 को नाना साहब (नाना धोंदो पंत) को पेशवा मानकर स्वतंत्रता की घोषणा की गई। नाना साहब को सेनापति (कमांडर–इन चीफ) तात्या टोपे से बहुत सहायता मिली थी। *अजीमुल्ला खां नाना साहब के सलाहकार थे। *इन्होंने नाना साहब के सचिव के रूप में भी कार्य किया था। इन्हें ‘क्रांतिदूत‘ के नाम से भी जाना जाता है। “तात्या टोपे (1814-1859) को रामचंद्र पांडुरंग के नाम से भी जाना जाता है।
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1857 के भारतीय विद्रोह के प्रमुख नेता थे। इनका जन्म महाराष्ट्र येओला (Yeola) गांव में हुआ था। उनके एक विश्वसनीय मित्र मान ने उन्हें धोखा देकर उस समय पकड़वा दिया जब पा में अपने कैंप में शयन कर रहे थे। यहां से उन्हें पकड़कर शिवपु लाया गया और सैनिक अदालत में 18 अप्रैल, 1859 को फांसी दे दी गई। *1857 में जगदीशपुर में विद्रोह की अगुवाई करने वाले सिंह बिहार के तत्कालीन शाहाबाद जिले (वर्तमान भोजपुर जगदीशपुर से संबंधित थे।
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*असम में 1857 की क्रांति के समय वहां के दीवान मनिराम ने वहां के अंतिम राजा के पौत्र कंदपेश्वर सिंह को राजा घोषित कर विद्रोह की शुरुआत की, परंतु शीघ्र ही विद्रोह का दमन करके मनिराम फांसी दे दी गई। *आउवा के ठाकुर कुशल सिंह ने 1857 ई. की क्रांति में अंग्रेजों और जोधपुर की संयुक्त सेना को पराजित किया था।
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मौलवी अहमदुल्लाह शाह ने फैजाबाद में 1857 के विद्रोह को अपना नेतृत्व प्रदान किया। *ये अंग्रेजों के सबसे कट्टर दुश्मन थे। वह मूलतः तमिलनाडु में अ के रहने वाले थे, पर वह फैजाबाद में आकर बस गए थे। उन्होंने भारत के विभिन्न धर्मानुयायियों का आह्वान करते हुए कहा कि “सारे लोग काफिर अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े हो जाओ और उन्हें भारत से बाहर खदेड़ दो *इनके बारे में अंग्रेजों ने कहा कि, ‘वह अदम्य साहस के गुणों से परिपूर्ण और दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति तथा विद्रोहियों में सर्वोत्तम सैनिक है। इनकी गिरफ्तारी के लिए ब्रिटिश सरकार ने 50,000 रु. का इनाम रखा था।
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1857 के विद्रोह को मिर्जा गालिब ने स्वयं अपनी आंखों से देखा था। इनका जन्म 27 दिसंबर, 1797 को आगरा में और मृत्यु 15 फरवरी, 1869 को दिल्ली में हुई थी। *1857 के स्वतंत्रता संघर्ष में ग्वालियर के सिंधिया ने अंग्रेजों की सर्वाधिक सहायता की। *यूरोपीय इतिहासकारों ने ग्वालियर के मंत्री सर दिनकर राव और हैदराबाद के मंत्री सालारजंग की राजभक्ति की बहुत सराहना की है। *संकट के समय कैनिंग ने कहा था, “यदि सिंधिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाए तो मुझे कल ही बिस्तर गोल करना होगा।” *1857 का विद्रोह बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था और इसे जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त था। फिर भी पूरे देश को या भारतीय समाज के सभी अंगों तथा वर्गों को यह अपनी लपेट में नहीं ले सका।
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यह दक्षिणी भारत तथा पूर्वी और पश्चिमी भारत के अधिकांश भागों में नहीं फैल सका। ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, हैदराबाद के निजाम, जोधपुर के राजा, भोपाल के नवाब, पटियाला, नामा और जींद के सिख शासक एवं पंजाब के दूसरे सिख सरदार, कश्मीर के महाराजा तथा दूसरे अनेक सरदारों और बड़े जमींदारों ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों की सक्रिय सहायता की। गवर्नर जनरल कैनिंग ने बाद में टिप्पणी की कि इन शासकों तथा सरदारों ने “तूफान के आगे बांध (तरंग रोधक) की तरह काम किया, वर्ना यह तूफान एक ही लहर में हमें बहा ले जाता ” * 1857 के विद्रोह में शिक्षित वर्ग ने कोई रुचि नहीं ली, जो इस महासमर की असफलता के प्रमुख कारणों में से एक है
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1857 के विद्रोह के समय भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड Se (1856-62) था। *विद्रोह के समय लॉर्ड कैनिंग ने इलाहाबाद को कालीन मुख्यालय बनाया था। *लॉर्ड कैनिंग भारत में कंपनी द्वारा नियुक्त अंतिम गवर्नर जनरल तथा ब्रिटिश सम्राट के अधीन नियुक्त भारत सं पहला वायसराय था। *न्यायिक सुधारों के अंतर्गत कैनिंग ने ‘इंडियन मह हाईकोर्ट एक्ट द्वारा बबई, कलकत्ता तथा मद्रास में एक–एक उच्च न्यायालय को की स्थापना की। सामाजिक सुधारों के अंतर्गत विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 11856 में कैनिंग के समय में ही पारित हुआ था।
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1857 के सिपाही विद्रोह (Sepoy mutiny) को भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम से स ब्रिटेन में इंडियन म्यूटिनी (Indian mutiny) के नाम से अभिहित क किया जाता है। *1857 के विद्रोह के समय बैरकपुर में लेफ्टिनेंट जनरल सर जॉन बेनेट हैरसे (John Bennet Hearsey) कमांडिंग ऑफिसर थे। गंजेस समय भारत में 1857 की क्रांति हुई, विस्कॉन्ट पामर्स्टन ब्रिटेन के मंत्री थे। इनका कार्यकाल 1855-1858 ई. तथा 1859-1865 ई. तक था।
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1857 के विद्रोह की असफलता का मुख्य कारण किसी सामान्य योजना एवं केंद्रीय संगठन की कमी था। विद्रोहियों के नेताओं में कोई संगठन की भावना देखने में नहीं आई। उनके पास किसी सुनियोजित कार्यक्रम का पूर्ण अभाव था। *उनमें अनुशासन की कमी भी थी। कभी– कभी तो वे अनुशासित सेना के बजाए दंगाई भीड़ की तरह व्यवहार करते थे। उनके पास एक भविष्योन्मुख कार्यक्रम, सुसंगत विचारधारा, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य या भावी समाज और अर्थव्यवस्था के प्रति एक स्पष्ट का अभाव था।
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*14 सितंबर, 1857 को अंग्रेजों द्वारा दिल्ली पर अधिकार करने के क्रम में जनरल जॉन निकलसन घायल हुआ और 23 सितंबर, 1857 को उसकी मृत्यु हुई थी। लखनऊ में 1857 के विद्रोह के दौरान अंग्रेज रेजीडेंसी की रक्षा करते हुए सर हेनरी लॉरेंस, मेजर जनरल हैवलॉक तथा जनरल नील की मृत्यु हुई। सर जेम्स आउट्रम एवं डब्ल्यू. टेलर ने 1857 के विद्रोह को हिंदू–मुस्लिम षड्यंत्र का परिणाम बताया है।
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आउट्रम का विचार था कि “यह मुस्लिम षड्यंत्र था जिसमें हिंदू शिकायतों का लाभ उठाया गया।” “जॉन लॉरेंस और सीले के अनुसार यह केवल ‘सैनिक विद्रोह‘ था। टी. आर. होम्स के अनुसार, यह बर्बरता और सभ्यता के बीच युद्ध था। *वी. डी. सावरकर ने अपनी पुस्तक “ The Indian war of Independence 1857 में इस विद्रोह को सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी। उन्होंने इसे स्वतंत्रता की पहली लड़ाई कहा था। *1857 के भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के सरकारी इतिहासकार सुरेंद्र नाथ सेन (एस.एन. सेन) थे जिनकी पुस्तक ‘एट्टीन फिफ्टी सेवन‘ 1957 में प्रकाशित हुई थी। *सर सैयद अहमद खां द्वारा लिखित पुस्तक ‘असबाब–ए–बगावत–ए–हिंद‘ 1859 ई. में प्रकाशित हुई थी, जिसमें 1857 के विद्रोह के कारणों की चर्चा की गई थी। *भारत सरकार द्वारा आर. सौ. मजूमदार को 1857 के विद्रोह का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त ” किया गया था। *परंतु सरकारी समिति से अनबन होने के कारण उन्होंने यह कार्य करने से इंकार कर दिया तथा अपनी पुस्तक “The भारतीय इतिहास Sepoy Mutiny and the Rebellion of 1857″ को स्वतंत्र रूप से वर्ष 1957 में प्रकाशित किया। *मजूमदार ने ही 1857 के विद्रोह को “तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम न प्रथम, न राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता संग्राम था” कहा था।
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1857 के विद्रोह का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम महारानी विक्टोरिया की उद्घोषणा थी। *यह उद्घोषणा 1 नवंबर, 1858 को इलाहाबाद में हुए दरबार में लॉर्ड कैनिंग द्वारा उद्घोषित की गई। *इसमें भारत में कंपनी के शासन को समाप्त कर भारत का शासन सीधे क्राउन के अधीन कर दिया गया। *इस उद्घोषणा में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार पर रोक, लोगों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, एकसमान कानूनी सुरक्षा सबको उपलब्ध कराना आदि शामिल थे। * भारतीय रजवाड़ों के प्रति विजय और विलय की नीति का परित्याग कर दिया गया और सरकार ने राजाओं को गोद लेने की अनुमति प्रदान की तथापि अन्य आश्वासन ब्रिटिश शासन द्वारा पूरे नहीं किए जा सके।
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1857 के विद्रोह के दमन के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीय फौज के ‘नव गठन‘ के लिए जुलाई, 1858 में मेजर जनरल जोनाथन पील की अध्यक्षता में एक रॉयल कमीशन (पील आयोग) का गठन किया, जिसने सेना के रेजीमेंटों को जाति, समुदाय और धर्म के आधार पर विभाजित किया।
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यूरोपीय सैनिकों की संख्या जो 1857 से पूर्व 45,000 थी अब 65,000 कर दी गई तथा भारतीय सैनिकों की संख्या 2,38,000 से घटाकर 1,40,000 कर दी गई। *बंगाल में यूरोपीय सैनिकों का भारतीय सैनिकों से 1 : 2 का अनुपात रखा गया, जबकि मद्रास तथा बंबई में यह अनुपात 1 3 का रखा गया। *1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने सिपाहियों का चयन गोरखा, सिख एवं पंजाब के उत्तर प्रांत से किया।
नोट्स
अन्य आंदोलन
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*1857 के विद्रोह के ठीक बाद बंगाल में नील विद्रोह -1859-60 हुआ। संन्यासी विद्रोह-1763-1800 में; संथाल विद्रोह -1855-56 में तथा पावना उपद्रव-1873-76 में हुआ। नील विद्रोह की शुरुआत बंगाल के नदिया जिले के गोविंदपुर गांव से हुई। *एक नील उत्पादक के दो भूतपूर्व कर्मचारियों–दिगंबर विश्वास तथा विष्णु विश्वास के नेतृत्व में वहां के किसान एकजुट हुए तथा उन्होंने नील की खेती बंद कर दी।
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*1860 तक नील आंदोलन नदिया, पाबना, खुलना, ढाका, मालदा, दीनाजपुर आदि क्षेत्रों में फैल गया। *बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग ने अखबारों में अपने लेखों द्वारा तथा जन सभाओं के माध्यम से इस विद्रोह के प्रति अपने समर्थन को व्यक्त किया। *इसमें ‘हिंदू पैट्रियाट‘ के संपादक हरिश्चंद्र मुखर्जी की विशेष भूमिका रही। *नील बागान मालिकों के अत्याचारों का खुला चित्रण दीनबंधु मित्र ने अपने नाटक ‘नील दर्पण‘ में किया है। “वंदे मातरम‘ गीत बंकिमचंद्र चटर्जी की प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ‘ से लिया गया है। * इस उपन्यास का कथानक संन्यासी विद्रोह पर आधारित है।
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*1896 ई. में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में ‘वंदेमातरम‘ को पहली बार गाया गया था। *अंग्रेजी प्रभुसत्ता को सबसे सुनियोजित तथा गंभीर चुनौती वहाबी आंदोलन से मिली, जो 19वीं शताब्दी के चौथे दशक से सातवें दशक तक चलता रहा। *रायबरेली के सैयद अहमद बरेलवी भारत में इस आंदोलन के प्रवर्तक थे। *वह अरब के अब्दुल वहाब से प्रभावित हुए, परंतु अधिक प्रभाव दिल्ली के एक संत शाह वलीउल्लाह काथा सैयद अहमद बरेलवी के प्रयत्नों से इस आंदोलन की विचारधारा शीघ्र ही काल, उत्तर–पश्चिमी सीमा प्रांत, बंगाल, बिहार, मध्य प्रांत आदि में फैल गई। कुछ समय के लिए इन्होंने 1830 ई. में पेशावर पर कना कर लिया और अपने नाम के सिक्के डलवाए, किंतु अगले ही वर्ष यह बालाकोट की लड़ाई में मारे गए।
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सैयद अहमद बरेलवी की मृत्यु के बाद पटना इस आंदोलन का केंद्र बना। इस अवधि में आंदोलन का नेतृत्व मौलवी कासिम, विलायत अली, इनायत अली, अहमदुल्ला आदि ने किया। पटना के अतिरिक्त हैदराबाद, मद्रास, बंगाल, यू.पी. तथा बंबई में भी इस आंदोलन की शाखाएं स्थापित की गई। मिलता–जुलता*कूका आंदोलन वहाबी आंदोलन से बहुत कुछ था। दोनो धार्मिक आंदोलन के रूप में आरंभ हुए, किंतु बाद में ये राजनीतिक आंदोलन के रूप में परिवर्तित हो गए, जिसका सामान्य उद्देश्य अंग्रेजों को देश से बाहर निकालना था।
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पश्चिमी पंजाब में कूका आंदोलन की शुरुआत 1840 ई. में भगत जवाहरमल द्वारा की गई, जिन्हें मुख्यत: सियान साहब के नाम से पुकारा जाता था। *इनका उद्देश्य सिख धर्म में प्रचलित बुराइयों और अंधविश्वासों को दूर कर इस धर्म को शुद्ध करना था। *1872 ई. में इस आंदोलन के नेता राम सिंह को रंगून निर्वासित कर दिया गया, जहां इनकी 1885 ई. में मृत्यु हो गई। पागलपंथ एक अर्द्ध–धार्मिक संप्रदाय था, जिसे उत्तरी बंगाल के करमशाह ने चलाया था। करमशाह के पुत्र तथा उत्तराधिकारी टीपू, धार्मिक तथा राजनैतिक उद्देश्यों से प्रेरित थे। *उसने जमीदारों के द्वारा मुजारों (Tenants) पर किए गए अत्याचारों के विरुद्ध आंदोलन किया।
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*1825 ई. में टीपू ने शेरपुर पर अधिकार कर लिया तथा राजा बन बैठा। *वह इतना शक्तिशाली हो गया कि स्वतंत्र सत्ता का प्रयोग करने लगा और प्रशासन को चलाने के लिए उसने एक न्यायाधीश, एक मजिस्ट्रेट और एक कलेक्टर नियुक्त किया। *फराजी लोग बंगाल के फरीदपुर के हाजी शरीयतुल्ला द्वारा चलाए गए संप्रदाय के अनुयायी थे। *ये लोग अनेक धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक आमूल परिवर्तनों का प्रतिपादन करते थे। *शरीयतुल्ला के पुत्र दादू मियां ने बंगाल से अंग्रेजों को निकालने की योजना बनाई। यह विद्रोह 1838-1860 के दौरान चलता रहा, अंत में इस संप्रदाय के अनुयायी वहाबी दल में सम्मिलित हो गए। *
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1805 ई. में वेलेजली ने ट्रावनकोर (केरल) के महाराजा को सहायक संधि करने पर विवश किया। *महाराजा संधि की शर्तों से अप्रसन्न था और इसलिए उसने सहायक संधि संबंधी कर देने में आनाकानी की। *अंग्रेज रेजीडेंट का व्यवहार भी बहुत धृष्टतापूर्ण था, जिसके फलस्वरूप दीवान वेलु थम्पी ने विद्रोह कर दिया, जिसमें नायर बटालियन ने उसका समर्थन किया। “प्रारंभिक भारतीय क्रांतिकारियों में अग्रगण्य वासुदेव बलवंत फड़के (1845-83) ने बंबई प्रेसीडेंसी के रामोसी जनजाति के लोगों को संगठित करके उन्हें प्रशिक्षित लड़ाकू बल में परिवर्तित किया और रामोसी कृषक जत्था की स्थापना की थी।
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गडकरी लोग मराठों के किलों में काम करने वाले उनके वंशानुगत कर्मचारी थे। उन्होंने मनमाने ढंग से भू–राजस्व की वसूली, मराठा सेना से उन्हें सेवा मुक्त किए जाने और उनकी जमीनों को मामलतदारों की देख–रेख के अधीन धारा कर दिए जाने के विरुद्ध 1844 ई. में कोल्हापुर में विद्रोहक था *खोंद जनजाति के लोग तमिलनाडु से लेकर बंगाल और तक फैले विस्तृत पहाड़ी क्षेत्रों में रहते थे और पहाड़ी क्षेत्र होने कारण वे वस्तुतः स्वतंत्र थे। इन्होंने 1837 से 1856 ई. विरुद्ध विद्रोह किया। इस आंदोलन का नेतृत्व युवा राजा के नाम चक्र विसोई ने किया। इस विद्रोह के मुख्य कारण ब्रिटिश सरकार द मानव बलि (मरिहा) को प्रतिबंधित करने के प्रयास, अंग्रेजीद्वारा का आरोपण और अनेक क्षेत्रों में जमींदारों तथा साहूकारों के संबंधित थे, जिनके कारण आदिवासियों को अनेक कष्टों का सामना ता पड़ा। अंग्रेजों ने एक ‘मरिहा एजेंसी‘ गठित की जिसके विरुद्ध ये विद्रोह किया। छोटानागपुर क्षेत्र में कोल विद्रोह का नेतृत्व 1831-3 में ई. में बुद्ध या बुद्ध भगत ने किया था। “यह विद्रोह रुक–रुक कर ई. तक चलता रहा तथा अंतत: इसे सरकार द्वारा कुचल दिया द्वारा बघेरा विद्रोह 1818 ई. में बड़ौदा में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध किया था। *1857 के पूर्व के प्रमुख विद्रोहों का क्रम इस प्रकार है– (1) का सिपाही विद्रोह (1764 ई.), जिसमें हेक्टर मुनरो की एक बटालियन बक्सर की रणभूमि से मीर कासिम से जा मिली थी; (ii) वेल्लोर क सिपाही विद्रोह (1806 ई.); (iii) कच्छ का विद्रोह (1819-31 ई.), (iv) कोल विद्रोह (1831-32 ई.) एवं (v) संथाल विद्रोह (1855-56 ई.)
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*1855-56 का संथाल विद्रोह एक प्रसिद्ध आदिवासी विद्रोह था, जिसमे मूलभूत आदिवासी आवेग और ब्रिटिश शासन के पूर्ण तिरस्कार जैसी भावनाएं देखने को मिलती है। *भागलपुर से राजमहन के बीच का क्षेत्र जो कि दामन–ए–कोह के नाम से जाना जाता है में यह विद्रोह मूलतः आर्थिक कारणों से हुआ। *साहूकारों तथा औपनिवेशिक प्रशासक दोनों ही उनका शोषण कर रहे थे।
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दिकुओं (बाहरी लोगों) एवं व्यापारियों ने संथालों द्वारा लिए गए ऋणों पर 50 से लेकर 500 ए प्रतिशत ब्याज वसूल किया। इस विद्रोह के नेता सिद्धू, कान्हू, चांद एवं भैरव नामक 4 भाई थे। *सिद्धू ने अधिकारियों से कहा था कि, “ठाकुर जी ने मुझे आदेश देते समय कहा कि यह देश साहबों का क । नहीं है। ठाकुर जी खुद हमारी तरफ से लड़ेंगे। इस तरह आप साहब लोग और सिपाही लोग खुद ठाकुर जी से लड़ोगे।” *यह आंदोलन 1856 ई. तक जारी रहा और अंततः विद्रोही नेताओं को पकड़ने के बाद आंदोलन को भारी दमन के साथ कुचल दिया गया।
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1855 ई. में संथालों ने भागलपुर क्षेत्र के भगनीडीह ताल्लुके में विद्रोह कर दिया था। *संथाल विद्रोह को दबाने के लिए मेजर बारो के नेतृत्व में एक सेना भेजी गई जिसे संथालों ने हरा दिया था। *अंततः भागलपुर के कमिश्नर ब्राउन और मेजर जनरल लॉयड ने क्रूरतापूर्वक संथाल विद्रोह का दमन किया था।
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भील विद्रोह – भीलों की आदिम जाति पश्चिमी तट के खानदेश में रहती थी। *1818-31 तक इन लोगों ने अपने नए स्वामी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। कंपनी के अधिकारियों का कथन था कि इस विद्रोह को पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा उसके प्रतिनिधि त्र्यंबकजी दांगलिया ने प्रोत्साहित किया था। वास्तव में कृषि संबंधी कष्ट तथा नई सरकार का भय ही इस विद्रोह का कारण था। *1825 ई. में सेवरम के नेतृत्व में इन लोगों ने विद्रोह किया।
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विद्रोह—आंध्र प्रदेश के गोदावरी जिले के उत्तर में पहाड़ी क्षेत्र में हुआ। आदिवासियों का यह विद्रोह साहूकारो और कानूनों के विरुद्ध हुआ। *19वीं सदी के उत्तरार्ध में एवं गोविंद गुरु नामक समाज सुधारको ने राजस्थान की पुर, बासवाड़ा, प्रतापगढ़, सिरोही, पाली इत्यादि रियासतो भील जनजाति में सामाजिक सुधारों के प्रयास किए। गोविंद सोड़िया भी कहा जाता है) ने भीलों को संगठित करने के 11883 ई. में सभ्य सभा‘ की स्थापना की थी। गोविंद गुरु या आंदोलन का प्रवर्तक माना जाता है। मुंडा आदिवासियों 1899-1900 के बीच हुआ, इसका नेतृत्व बिरसा मुंडा ने ” जाति में सामूहिक खेती का प्रचलन था, लेकिन जागीरदारो
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बनियों और सूदखोरों ने सामूहिक खेती की परंपरा पर हमला सरदार 30 वर्ष तक सामूहिक खेती के लिए लड़ते रहे। यह विद्रोह ‘सरदारी लड़ाई‘ के नाम से भी जाना जाता है। ई. में बिरसा ने अपने आपको ‘भगवान का दूत‘ घोषित किया विद्रोह की उलगुलान (महान हलचल) के नाम से जाना यह विद्रोह इस अवधि का सर्वाधिक प्रसिद्ध आदिवासी विद्रोह की पारंपरिक सामूहिक खेती वाली भूमि व्यवस्था खूटकट्टी मुरी के जमींदारी या व्यक्तिगत भू–स्वामित्व वाली भूमि व्यवस्था परिवर्तन के विरुद्ध मुंडा विद्रोह की शुरुआत हुई। लेकिन कालांतर बिरसा ने इसे धार्मिक, राजनीतिक आंदोलन का रूप प्रदान किया। जगत पिता‘ या ‘धरती आबा कहा जाता था। उसने कहा गैर–आदिवासियों) से हमारी लड़ाई होगी और उनके जमान इस तरह लाल होगी जैसे लाल झंडा।” 3 मार्च, 1000 का चक्रधरपुर के जामकोपई जंगल में सोते समय बिरसा को रफ्तार कर लिया गया और 9 जून, 1900 को वह जेल में मर गया। मुंडा का कार्यक्षेत्र रांची से लेकर भागलपुर तक था। *बिरसा बाँगा की पूजा को छोड़कर अपने अनुयायियों से ईश्वर (सिंग बोंगा) की पूजा करने का आह्वान किया।
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ठक्कर थापा ने जनजातीय लोगों के संबंध में ‘आदिवासी‘ र का प्रयोग किया था। *ये हरिजन सेवक संघ के महासचिव थे। (हो) विद्रोह 1820-21 ई. में हुआ था, जिसका केंद्र बिहार का चाल परगना था। *खैरवार आदिवासी आंदोलन भागीरथ मांझी के 1874 ई. में हुआ था। *संभलपुर की गद्दी के दावेदार सुरेंद्र ब्रिटिशविरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया।
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*1862 ई. में उसने समर्पण कर दिया था। *मोपला विद्रोह केरल के मालाबार क्षेत्र of 1921 में हुआ था। * यहां पर काश्तकार अधिकतर बटाईदार जमींदार अधिकतर हिंदू थे *यह आंदोलन जमींदारों शोषण के खिलाफ था। *अहोम विद्रोह 1828 ई. में प्रारंभ हुआ था। नेता गोमधर कुंवर थे। *ताना भगत आंदोलन का प्रारंभ उरांव आदिवासियों के मध्य वर्ष 1914 में छोटानागपुर में हुआ था। * इस दोलन के नेतृत्वकर्ता जतरा भगत, बलराम भगत तथा देवमेनिया आदि थे।
नोट्स
सामाजिक–धार्मिक सुधार आन्दोलन
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यंग बंगाल आन्दोलन का प्रवर्तक हेनरी विवियन डेरोजियो था। इस आन्दोलन की शुरुआत 1826-31 ई. के मध्य बंगाल में हुई थी। डेरोजियो को सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने बंगाल में आधुनिक सभ्यता का अग्रदूत एवं अपनी जाति के पिता के रूप में मान्यता दी थी।
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ब्रह्म समाज की स्थापना 20 अगस्त, 1828 को कलकत्ता में राजा राममोहन राय ने की थी। राजा राममोहन राय के प्रयासों से लॉर्ड विलियम बैण्टिंक ने 1829 ई. में एक कानून बनाकर सती प्रथा को प्रतिबन्धित कर दिया।
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1814 ई. में आत्मीय सभा का गठन राजा राममोहन राय ने किया था।
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1817 में कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना राजा राममोहन राय ने डेविड हेयर के साथ की थी। 1825 ई. में वेदान्त कॉलेज की स्थापना भी राजा राममोहन राय ने ही की थी। प्रार्थना समाज की स्थापना 1867 ई. में आत्माराम पाण्डुरंग ने बम्बई में केशवचन्द्र सेन की सहायता से की थी।
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अहमदिया आन्दोलन की शुरुआत 1889 ई. में पंजाब के कादियान नामक स्थान पर मिर्जा गुलाम अहमद ने की थी।
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आर्य समाज की स्थापना 1875 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने बम्बई में की थी। दयानन्द सरस्वती के बचपन का नाम मूलशंकर था। महादेव गोविन्द रानाडे ने 1884 ई. में दक्कन एजुकेशन सोसायटी तथा
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1891 ई. में महाराष्ट्र में विडो रिमैरिज एसोसिएशन की स्थापना की थी।
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सुभाषचन्द्र बोस ने स्वामी विवेकानन्द को आधुनिक राष्ट्रीय आन्दोलन का आध्यात्मिक पिता‘ कहा था।
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रामकृष्ण मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1897 ई. में बेलूर (कलकत्ता) में की थी। 1930 ई. में बाल विवाह को रोकने के लिए शारदा अधिनियम पारित किया गया, जिसमें विवाह की आयु बालिकाओं के लिए 14 वर्ष तथा बालकों के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गई थी।
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अलीगढ़ आन्दोलन का प्रवर्तन सर सैयद अहमद खाँ ने किया था। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य मुसलमानों में पाश्चात्य शिक्षा एवं वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना था। सिखों के धर्म सुधार आन्दोलन के अग्रदूत दयालदास थे। उन्होंने सिखों में हिन्दू रीति–रिवाजों के विरुद्ध उपदेश दिया था। स्वामी विवेकानन्द का बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था।
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महादेव गोविन्द रानाडे को पश्चिम भारत का ‘सुकरात‘ कहा जाता है।
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1867 ई. में देवबन्द आन्दोलन उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में शुरू हुआ था जिसका नेतृत्व मोहम्मद कासिम ननौतवी एवं रशीद अह गंगोही ने किया था। पाश्चात्य शिक्षा के लाभों को सिख समाज तक पहुँचाने के लिए वर्ष 1892 में अमृतसर में खालसा कॉलेज की स्थापना की गई थी, जो आगे चलकर गुरुनानक विश्वविद्यालय बना।
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थियोसोफिकल सोसायटी एवं होमरूल लीग आन्दोलन ने भारत में सामाजिक सुधार, शिक्षा के विकास तथा राष्ट्रीय चेतना जगाने में विशेष भूमिका निभाई स्वामी दयानन्द सरस्वती के किए गए परिवर्तनों एवं सुधारों के कारण ही उन्हें भारत का मार्टिन लूथर किंग कहा जाता है। प्रो. डी के कर्वे ने पूना में विधवा आश्रम तथा 1906 ई. में बम्बई में इण्डियन वोमेन्स यूनिवर्सिटी की स्थापना की थी। देशभक्त एसोसिएशन की स्थापना बनारस के राजा शिवप्रसाद के साथ सर सैयद अहमद खाँ ने की थी।
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पारसियों की सामाजिक स्थिति में सुधार हेतु 1851 ई. में नौरोजी फरदोनजी दादाभाई नौरोजी तथा एस एस बंगाली ने रहनु मजदायसन सभा गठित की थी।
नोट्स
किसान आन्दोलन
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नील आन्दोलन की शुरुआत सितम्बर, 1859 में बंगाल के नादिया जिला के गोविन्दपुर गाँव से हुई। नील बागान मालिकों के अत्याचार का विवरण दीनबन्धु मित्र ने अपने नाटक नील दर्पण में किया। नील आन्दोलन के प्रमुख नेता दिगम्बर विश्वास और विष्णु विश्वास थे। रैयतों को दखल से वंचित करने के कारण जमींदारों के विरुद्ध 1870-1885 ई. तक पावना किसान आन्दोलन चला। ईशान चन्द्र राय,शम्भूपाल, खोदी मल्लाह इस आन्दोलन के प्रमुख नेता थे।
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1867 ई. में भू–राजस्व की दरों में 50% की वृद्धि के फलस्वरूप 1874-75 ई. में दक्कन का विद्रोह हुआ। उच्चजातीय हिन्दू नम्बूदरी एवं नायर भू–स्वामियों की शक्ति को ब्रिटिश सरकार द्वारा बढ़ा दिए जाने के विरोध में मोपलाओं ने 1836-85 ई. के मध्य विद्रोह किए।
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महाराष्ट्र में 1879 ई. में वासुदेव बलवन्त फड़के ने 60 किसानों संगठित कर डाका डालकर धन एकत्र किया तथा संचार व्यवस्था को ठप किया।
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1927 ई. में कपास के मूल्य में गिरावट आने के बावजूद सरकार ने बारदोली में 30% राजस्व दर बढ़ा दिया, जिसके कारण 1928 ई. में वल्लभभाई पटेल, कंवरजी मेहता, दयालजी देसाई के नेतृत्व में बा सत्याग्रह हुआ।
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11 अप्रैल, 1936 में स्वामी सहजानन्द सरस्वती तथा एनजी रंगा ने अखिल भारतीय किसान सभा की लखनऊ में स्थापना की। तालुकदारी और बड़े जमीदारों द्वारा अवध के किसानों के शोषण के परिणामस्वरूप एका आन्दोलन हुआ, जिसकी शुरुआत मदारी पासी ने की। बैटाइदारों द्वारा जोतदारों के विरुद्ध 1946 ई. में तेभागा आन्दोलन चलाया गया, जिसमे बंगाल किसान सभा‘ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसमें बँटाइदारों द्वारा फसल के दो–तिहाई भाग की माँग की गई।
नोट्स
जनजातीय आन्दोलन
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संन्यासी विद्रोह 1760 ई. से लेकर 1800 ई. के मध्य बंगाल में हुआ। विद्रोह में शामिल संन्यासी गिरि सम्प्रदाय से सम्बन्धित थे। संन्यासी विद्रोह के प्रमुख नेतृत्वकर्ता केना सरकार एवं द्विजनारायण थे। इस
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विद्रोह का वर्णन वन्दे मातरम के रचयिता बंकिमचन्द्र चटर्जी ने अपने उपन्यास आनन्द मठ में किया।
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फकीर विद्रोह 1776 ई. में बंगाल में मजनूशाह एवं चिराग अली शाह के नेतृत्व चुआर विद्रोह 1798 ई. में दुर्जन सिंह तथा जगन्नाथ के नेतृत्व में बंगाल के में हुआ था।
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कोल विद्रोह 1831 ई. में छोटानागपुर क्षेत्र में हुआ था। इस विद्रोह का प्रमुख कारण कोल आदिवासियों की जमीन छीनकर मुस्लिम एवं सिख कृषकों को देना था।
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सिद्धू एवं कान्हू के नेतृत्व में भागलपुर एवं राजमहल क्षेत्र के सन्थाल आदिवासियों ने 1855 ई. में जमींदारों, साहूकारों के अत्याचार एवं भूमिकर अधिकारियों के दमनात्मक व्यवहार के प्रति विद्रोह किया।
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भील विद्रोह का प्रारम्भ 1818 ई. में पश्चिमी घाट क्षेत्र में हुआ था। इस विद्रोह का प्रमुख कारण कृषि सम्बन्धी परेशानियाँ थीं, जो अंग्रेजों द्वारा पैदा की गई थीं। रामोसी विद्रोह पश्चिमी घाट प्रदेश में रहने वाली रामोसी जनजाति के द्वारा सरदार चित्तुर सिंह के नेतृत्व (1822 ई.) में किया गया था।
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गडकरी विद्रोह महाराष्ट्र के कोल्हापुर में 1844 ई. में हुआ था। इस विद्रोह का मुख्य कारण गड़करी जाति के विस्थापित मराठा सेना के सैनिक थे। किट्टूर विद्रोह का नेतृत्व किट्टूर के स्थानीय शासक की विधवा रानी चेन्नमा ने किया था।
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ब्रिटिश सरकार ने तमिलनाडु क्षेत्र में नई भूमिकर व्यवस्था को लागू किया था, जिसके विरोध में 1801 ई. में स्थानीय पॉलीगारों ने वीपी काट्टायम्मन नेतृत्व में विद्रोह किया था। के वहाबी आन्दोलन 1830 से 1860 ई. के बीच रायबरेली के सैयद अहमद के नेतृत्व में हुआ था। 1840 ई. में भगत जवाहरमल ने पश्चिमी पंजाब में कूका विद्रोह की शुरुआत की थी। अंग्रेजों द्वारा नमक कर में 50 पैसे की वृद्धि करने के विरोध में 1844 ई. में सूरत के स्थानीय लोगों ने विद्रोह किया था।
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पाइक विद्रोह उड़ीसा में पाइक जनजाति द्वारा किया गया था। इस विद्रोह का नेतृत्व बख्शी जगबन्धु ने किया था। युआन विद्रोह 1867 ई. में रन्न नायक के नेतृत्व में क्योंझर राज्य में हुआ था।
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रम्पा विद्रोह 1879 ई. में आन्ध्र प्रदेश के तटवर्ती क्षेत्रों में हुआ था। इसका प्रमुख नेता राजू रम्पा था। – नागा विद्रोह रोगमई नेता जदोनांग के नेतृत्व में नागालैण्ड में हुआ था।
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खोण्डा– डोरा विद्रोह 1900 ई. में विशाखापत्तनम के डाबर क्षेत्र की खोण्डा–डोरा जनजाति द्वारा किया गया था।
नोट्स
मजदूर आन्दोलन
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1870 ई. में बंगाल के शशिपाद बनर्जी ने मजदूरों के लिए एक क्लब स्थापित किया तथा भारत श्रमजीवी पत्रिका का प्रकाशन किया।
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एन एम एस लोखण्डे ने 1890 ई. में बम्बई मिल हैण्ड्स एसोसिएशन की स्थापना की, जिसे भारत का पहला मजदूर संघ माना जाता है। श्रमिकों के काम करने की परिस्थितियों का अध्ययन करने हेतु लंकाशायर के उद्योगपतियों की माँग पर 1875 ई. में प्रथम फैक्ट्री आयोग (बम्बई में) स्थापित हुआ।
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‘लॉर्ड रिपन के कार्यकाल में 1881 ई. में प्रथम कारखाना अधिनियम बना जिसमें 7 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के काम पर प्रतिबन्ध लगाया गया तथा महीने में 4 दिनों के अवकाश का प्रावधान किया गया। इसमें स्त्री श्रमिक के मुद्दे को छोड़ दिया गया।
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लॉर्ड लैन्सडाउन के कार्यकाल में 1891 ई. में दूसरा कारखाना अधिनियम बना।
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तिलक को दिए गए कारावास दण्ड के विरुद्ध 22 जुलाई, 1908 को बम्बई के कपड़ा मिल मजदूरों ने हड़ताल की जो मजदूरों की पहली राजनीतिक हड़ताल थी।
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बालगंगाधर तिलक द्वारा निकाला गया समाचार–पत्र मराठा मिल मजदूरों की रियायतों के लिए वकालत करता था।
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1911 के कारखाना अधिनियम में (लॉर्ड हार्डिंग के काल में) पुरुषों की कार्यावधि 12 घण्टे निश्चित की गई। 1918 ई. में वीपी वाडिया द्वारा गठित मद्रास मजदूर संघ भारत का पहला
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आधुनिक मजदूर संगठन था। 1918 ई. में गाँधीजी ने अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन की स्थापना की।
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1920 ई. में एन एम जोशी, जोसेफ बैप्टिस्ट तथा लाला लाजपत राय ने अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) की स्थापना की। “अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष (1920 में) लाला लाजपत राय बने, यह सम्मेलन बम्बई में हुआ था। दीवान चमनलाल इसके महामन्त्री थे।
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1922 ई. के कारखाना अधिनियम में (लॉर्ड रीडिंग के काल में) बच्चों की कार्यावधि 7 घण्टे निश्चित की गई तथा 12 से 15 वर्ष की आयु के बच्चों को कारखानों में काम करने की अनुमति मिली। 1922 ई. में टाटा आयरन एण्ड स्टील प्लाण्ट, जमशेदपुर की हड़ताल के समाधान में सुभाषचन्द्र बोस ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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1925-26 ई. में बंगाल में लेबर स्वराज पार्टी मुजफ्फर अहमद, नजरूल इस्लाम द्वारा स्थापित की गई, जिसका बाद में नाम बदलकर ‘बंगाल कृषक एवं श्रमिक दल‘ रखा गया।
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अखिल भारतीय मजदूर किसान पार्टी की स्थापना 1928 ई. में सोहन सिंह जोशी तथा आरएस निम्बकर ने की। 1928 ई. में टेक्सटाइल मिल में चली (छः महीने तक) हड़ताल भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी हड़ताल थी। 1929 ई. में जॉन हेनरी डिटले की अध्यक्षता में शाही आयोग स्थापित किया गया, जिसका कार्य भारतीय उद्योगों तथा बागानों में मजदूरों की स्थिति की जाँच करना था।
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टिले आयोग में (11 सदस्यीय) 6 भारतीय सदस्य थे–एनएम जोशी, जीडी बिड़ला, श्रीनिवास एस शास्त्री, डॉ. चमनलाल, इब्राहिम रहमतुल्ला, कबीरुद्दीन अहमद। ‘लाँगल‘ लेबर स्वराज पार्टी का मुख–पत्र था। ‘क्रान्ति‘ मजदूर किसान पार्टी का मुख–पत्र था।
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मजदूर और किसान, कांग्रेस के हाथ–पाँव है यह नारा कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय दिया।
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कांग्रेस के समाजवादी गुट ने ‘हिन्द मजदूर सभा की स्थापना की।
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1944 ई. के कारखाना अधिनियम में नियमित कारखानों में श्रमिकों की कार्यावधि 9 घण्टे तथा कैण्टीन की व्यवस्था की गई।
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भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन : प्रथम चरण (1885-1915) कांग्रेस के गठन से पूर्व लैण्ड होल्डर्स सोसायटी (1838), बंगाल ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन (1843). ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन (1851), ईस्ट इण्डिया एसोसिएशन (1866) विद्यमान थी। इसके अतिरिक्त इण्डियन लीग (1875), इण्डियन एसोसिएशन (1876), पूना सार्वजनिक सभा (1870), मद्रास महाजन सभा (1884), बॉम्बे प्रेसीडेन्सी एसोसिएशन (1885) इत्यादि राजनैतिक संस्थाएँ भी विद्यमान थीं।
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लॉर्ड रिपन ने इल्बर्ट बिल (1883) के द्वारा भारतीय मजिस्ट्रेटों को यूरोपीय अधिकारियों के मुकदमे का निर्णय करने का अधिकार देना चाहा, किन्तु यूरोपियों की प्रतिक्रिया (श्वेत विद्रोह) के कारण यह अधिनियम बदलना पड़ा।
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दिसम्बर, 1883 में इण्डियन एसोसिएशन के प्रयत्नों से इण्डियन नेशनल कॉन्फ्रेन्स का प्रथम सम्मेलन कलकत्ता में हुआ, जिसके अध्यक्ष राम तनु लाहिड़ी तथा सचिव आनन्द मोहन बोस थे।
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ए ओ ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय संघ की स्थापना की, जिसका प्रथम अधिवेशन 28 दिसम्बर, 1885 को बम्बई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत विद्यालय में आयोजित हुआ। इसी सम्मेलन में दादाभाई नौरोजी के सुझाव पर इसका नाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर दिया गया।
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कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में 72 लोगों ने भाग लिया। इसके प्रथम सचिव ह्यूम तथा प्रथम अध्यक्ष व्योमेश चन्द्र बनर्जी थे। इसका प्रथम सम्मेलन पूना में होना था, किन्तु हैजा फैल जाने के कारण आयोजन स्थल बदल दिया गया था। कांग्रेस के प्रथम मुस्लिम अध्यक्ष बदरुद्दीन तैयबजी (मद्रास 1887) प्रथम अंग्रेज अध्यक्ष जॉर्ज यूले (इलाहाबाद-1888) तथा प्रथम महिला अध्यक्ष ऐनी बेसेण्ट (कलकत्ता 1917 ई.) थीं।
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1887 ई. में नौरोजी ने इंग्लैण्ड में भारतीय सुधार समिति तथा 1888 ई. में इण्डियन एजेन्सी‘ (डिग्बी की अध्यक्षता में) की स्थापना की।
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1889 ई. में कांग्रेस की ‘ब्रिटिश समिति‘ बनी, जिसने इण्डिया नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया।
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उग्र विचारधारा के उदय के लिए भारतीय दण्ड संहिता में दमनकारी कानून (124-ए, 156-ए) जोड़ना, बंगाल विभाजन (1905). 1896 ई. में इथियोपिया द्वारा इटली की पराजय, 1905 ई. में जापान द्वारा रूस की पराजय आदि कारण जिम्मेदार थे।
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कांग्रेस ने स्वयं स्वराज प्रस्ताव 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में पारित किया था। इसका उद्देश्य स्वशासन सुनिश्चित करना था।
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हिन्दुओं तथा मुसलमानों को पृथक करने के उद्देश्य से 19 जुलाई, 1905 को बंगाल के विभाजन की घोषणा की गई। पृथक् किए गए प्रान्त को ‘पूर्वी बंगाल एवं असम‘ नाम दिया गया।
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16 अक्टूबर (बंगाल विभाजन लागू) को पूरे बंगाल में शोक दिवस मनाया गया तथा 1906 ई. में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘आमार सोनार बांगला‘ गीत लिखा, जो 1972 ई. में बांग्लादेश का ‘राष्ट्रगान‘ बना।
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बंगाल विभाजन के विरोध में स्वदेशी एवं बहिष्कार आन्दोलन को जनसाधारण तक पहुँचाने में स्वदेशी बान्धव समिति ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसकी स्थापना अश्विनी कुमार दत्त ने की थी।
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टैगोर के शान्ति निकेतन की तर्ज पर ‘बंगाल नेशनल कॉलेज की 14 अगस्त, 1906 को स्थापना की गई तथा अरविन्द घोष को इसका प्राचार्य बनाया गया। देशी उद्योगों के विकास के लिए बनारस में 1905 ई. में भारतीय औद्योगिक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसके अध्यक्ष रमेश चन्द्र दत्त थे।
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30 दिसम्बर, 1906 को ढाका में सम्पन्न एक बैठक में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग नामक राजनैतिक संगठन स्थापित करने का निर्णय लिया गया। इसके पहले अध्यक्ष वकार–उल–मुल्क 1906 ई. में कलकता के कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष पद को लेकर दोनों दल विभाजन के कगार पर आ गए, किन्तु दादाभाई नौरोजी के अध्यक्ष बन जाने से यह सम्भावना टल गई।
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1907 ई. में ताप्ती नदी के किनारे कांग्रेस का सूरत अधिवेशन हुआ, जिसके अध्यक्ष रासबिहारी घोष थे। इस अधिवेशन में कांग्रेस का विभाजन हो गया।
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दिसम्बर, 1908 में 9 नेताओं को देश से बाहर निकाल दिया गया, जिसमें कृष्ण कुमार मित्र तथा अश्विनी कुमार दत्त भी शामिल थे। देशव्यापी विरोध के परिणामस्वरूप 1911 ई. में बंगाल विभाजन रद्द कर दिया गया तथा भाषा के आधार पर बिहार एवं उड़ीसा को बंगाल से पृथक कर दिया। गया और असम को एक नया प्रान्त बनाया गया। राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानान्तरित किया गया।
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12 दिसम्बर, 1911 को ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम तथा क्वीन मैरी के आगमन पर दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया। इसी दरबार में बंगाल विभाजन को रद्द किया गया।
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देश में यह दरबार तीन बार आयोजित किया गया-1877, 1903 तथा 1911 में। इन दरबारों में ब्रिटेन के राजा एवं रानी का राज्याभिषेक होता था। राजधानी स्थानान्तरण के अवसर पर हार्डिंग अपने परिवार के साथ दिल्ली में प्रवेश कर रहे थे, उसी समय रास बिहारी बोस ने उन पर बम फेंका।
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भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन: द्वितीय चरण (1915-1935) प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान 1916 ई. में चेम्सफोर्ड भारत के वायसराय बनकर आए तथा उन्होंने घोषणा की कि भारत में ब्रिटिश शासन का लक्ष्य स्वशासन की स्थापना करना है। 1916 ई. में लखनऊ में कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के दोनों पक्ष पुनः एक हो गए तथा कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के मध्य समझौता हो गया। इस हेतु तिलक और ऐनी बेसेण्ट ने महत्वपूर्ण प्रयास किए। लखनऊ सम्मेलन में कांग्रेस एवं लीग के मध्य समझौता हुआ, जिसमें भारत के भावी शासन और स्वराज के बारे में दोनों संगठनों की कमेटियों ने मिलकर
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योजना तैयार की।
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केन्द्रीय व्यवस्थापिका में कुल निर्वाचित भारतीय सदस्यों का 1/9 भाग मुसलमानों के लिए आरक्षित किया गया।
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28 अप्रैल, 1916 को तिलक ने पूना (बेलगाँव) में होमरूल लीग तथा ऐनी बेसेण्ट ने सितम्बर, 1916 में मद्रास में अखिल भारतीय होमरूल लीग की स्थापना की। होमरूल लीग का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहते हुए संवैधानिक तरीके से स्वशासन प्राप्त करना था।
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. तिलक द्वारा स्थापित होमरूल लीग का प्रभाव कर्नाटक, महाराष्ट्र (बम्बई छोड़कर), मध्य प्रान्त तथा बरार तक था। इस लीग के प्रथम अध्यक्ष जोसेफ बैपटिस्टा थे।
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ऐनी बेसेण्ट के होमरूल लीग के सचिव जॉर्ज अरुण्डेल थे। मोतीलाल नेहरू, तेजबहादुर सपू बी पी वाडिया जैसे नेता इस लीग से जुड़े थे।
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7 जून, 1916 को लन्दन में इण्डियन होमरूल लीग की स्थापना की गई, जिसके महासचिव ग्राहम पॉल बने। लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में अमेरिका में होमरूल लीग की स्थापना की गई थी। रॉलेट एक्ट (1919) कानून द्वारा किसी को भी बिना मुकदमा चलाए दो वर्षो तक बन्दी रखने का प्रावधान किया गया था। केन्द्रीय विधानमण्डल के सदस्यों के विरोध के बावजूद इसे पारित कर दिया गया।
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इस कानून को अमृत बाजार पत्रिका ने ‘भारी भूल‘ न्यू इण्डिया ने “पैशाचिक पंजाबी ने ‘निर्लज्ज प्रयास‘ तथा बॉम्बे क्रॉनिकल ने ‘दमन का चरम रूप‘ कहा। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड पंजाब के अमृतसर में 13 अप्रैल, 1919 को हुआ था। जलियाँवाला बाग में लोग अपने लोकप्रिय नेता डॉ. सत्यपाल एवं डॉ. सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के विरोध में इकट्ठा हुए थे।
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जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड में ब्रिटिश सेना का नेतृत्व जनरल रेजीनाल्ड डायर ने किया था। इस हत्याकाण्ड के समय, पंजाब प्रान्त का गवर्नर माइकल ओ डायर था, जिसने इस हत्याकाण्ड को उचित
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ठहराया।
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जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के विरोध में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की गई नाइटहुड की उपाधि को वापस कर दिया। गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद् के सदस्य ‘शंकरन नायर‘ ने अपनी सदस्यता से त्याग–पत्र दे दिया।
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इस हत्याकाण्ड की जाँच के लिए ब्रिटिश सरकार ने 19 अक्टूबर, 1919 को लॉर्ड विलियम हण्टर की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। – जलियाँवाला हत्याकाण्ड की जाँच के लिए कांग्रेस ने मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक समिति गठित की, जिसमें मोतीलाल नेहरू, महात्मा गाँधी, सी आर दास, बदरुद्दीन तैयबजी तथा जयकर को सदस्य बनाया गया।
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जनरल डायर को ‘स्वार्ड ऑफ ऑनर‘ (Sword of Honour) के साथ–साथ 2600 पौण्ड की राशि प्रदान की गई। बाद के दिनों में उधम सिंह ने लन्दन में इसकी हत्या कर दी थी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद तुर्की के साथ हुए अन्याय के विरोध में भारतीय मुसलमानों ने नाराजगी व्यक्त करते हुए खिलाफत आन्दोलन की शुरुआत की।
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सितम्बर, 1919 में एक खिलाफत कमेटी गठित की गई 17 अक्टूबर, 1919 को खिलाफत दिवस मनाने की घोषणा की गई तथा 23 नवम्बर को इसका पहला सम्मेलन गाँधी जी की अध्यक्षता में दिल्ली में आयोजित किया गया।
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1915 ई. में गाँधी जी भारत लौटे। दक्षिण अफ्रीका में अपने कार्यों से वे भारत में काफी प्रसिद्ध हो चुके थे।
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महात्मा गाँधी ने गिरमिटिया प्रथा के उन्मूलन में योगदान दिया था।
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भारत से मजदूरों को अनुबन्ध के तहत विदेश ले जाया जाता था। इसे ही लोग गिरमिटिया (इण्डेचर्ड लेबर) के नाम से पुकारते थे। राजकुमार शुक्ल ने 1917 ई. में गाँधीजी को चम्पारण आने के लिए आमन्त्रित किया था। ‘तिनकठिया‘ पद्धति से जुड़े मामले की जाँच के लिए चम्पारण पहुँचने वाले मुख्य नेता थे–गाँधीजी, राजेन्द्र प्रसाद, बृजकिशोर, मजहर–उल–हक, महादेव देसाई, नरहरि पारिख तथा जे बी कृपलानी ।
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चम्पारण आन्दोलन के दौरान गाँधीजी के कुशल नेतृत्व के कारण रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें महात्मा की उपाधि प्रदान की। अहमदाबाद मिल हड़ताल में प्लेग बोनस को लेकर विवाद था। मिल मालिक मजदूरों को 20% बोनस देना चाहते थे, किन्तु उनकी माँग 35% बोनस की थी।
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इस आन्दोलन के दौरान गाँधीजी के उद्योगपति मित्र अम्बालाल साराभाई की बहन अनुसुइया बेन ने गाँधीजी का साथ दिया। 1918 ई. में गुजरात के खेड़ा जिले में भयंकर अकाल पड़ा, किन्तु सरकार ने मालगुजारी माफ करने के बजाय इसमें 23% की वृद्धि कर दी। गाँधीजी ने लोगों को लगान अदा न करने तथा ब्रिटिश सरकार की नीतियों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया।
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गाँधीजी के साथ खेड़ा गाँव का दौरा करने वाले मुख्य नेताओं में थे–वल्लभभाई पटेल, महादेव देसाई तथा इन्दुलाल याज्ञिका खेड़ा सत्याग्रह के दौरान सबसे पहले लगान न चुकाने का नारा स्थानीय नेता मोहन लाल पाण्ड्या ने दिया था। . नवम्बर, 1919 में खिलाफत सम्मेलन में गाँधीजी को विशेष अतिथि के रूप में बुलाया गया, जिसमें गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन छेड़ने की सलाह दी जिसे 4 जून, 1920 को इलाहाबाद में खिलाफत कमेटी ने स्वीकार कर लिया।
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सितम्बर, 1920 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कलकत्ता कांग्रेस का विशेष अधिवेशन हुआ, जिसमें असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ करने की मंजूरी दी गई। सी आर दास जैसे कई वरिष्ठ नेताओं ने प्रारम्भ में असहयोग आन्दोलन का विरोध किया। उनका विरोध विधानपरिषदों के बहिष्कार को लेकर था।
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1920 ई. में हुए कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में असहयोग आन्दोलन सम्बन्धी निर्णय की पुष्टि की गई। 1920 ई. के नागपुर अधिवेशन में एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संविधान में संशोधन करना था। कांग्रेस के विजयवाड़ा अधिवेशन में तिलक स्वराज कोष के लिए एक करोड़ रुपये एकत्रित करने का लक्ष्य रखा गया तथा भारतीय घरों में 20 लाख चरखों के वितरण की योजना बनाई गई। विजयवाड़ा अधिवेशन में ही पिंगली वैंकया ने गाँधीजी को तिरंगा झण्डा प्रस्तुत किया था।
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कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा गाँधीजी को सविनय अवज्ञा का लक्ष्य, समय तथा भावी रणनीति तय करने का पूरा अधिकार दे दिया गया। इसमें 18 साल से ऊपर सभी व्यक्तियों से स्वयं सेवक बनने की अपील की गई।
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1919 ई. के भारतीय शासन अधिनियम द्वारा स्थापित केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधानमण्डलों का कांग्रेस ने गाँधीजी के निर्देशानुसार बहिष्कार किया था और 1920 ई. के चुनावों में भाग नहीं लिया था। 1920 ई. में कुछ व्यापारियों द्वारा असहयोग आन्दोलन विरोधी सभा की स्थापना की गई। इसके अध्यक्ष पुरुषोत्तम ठाकुरदास थे।
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असहयोग आन्दोलन को व्यापारी वर्ग का समर्थन देखकर ब्रिटिश सरकार ने 1921 ई. में भारतीय प्रतिनिधियों वाले एक वित्तीय आयोग का गठन किया, जिसका कार्य भारतीय उद्योगों में शुल्क पद्धति को सुरक्षित रखने के प्रश्न!! पर विचार करना था। असहयोग आन्दोलन में शिक्षा के क्षेत्र में बहिष्कार के फलस्वरूप पूरे देश में राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों की स्थापना की गई।
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सुभाषचन्द्र बोस को नेशनल कॉलेज कलकत्ता का प्रधानाचार्य बनाया गया। बनारस में काशी विद्यापीठ की स्थापना की गई। देश के कई प्रख्यात वकीलों ने अपनी वकालत छोड़ दी। महात्मा गाँधी में अपना कैसर–ए–हिन्द का पदक लौटा दिया। जमनालाल बजाज ने अपनी “रायबहादुर‘ की उपाधि वापस कर दी।
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पंजाब में लाला लाजपत राय की प्रेरणा से लाहौर में विद्यार्थियों द्वारा विद्यालयों का सफल बहिष्कार किया गया। अकाली आन्दोलन, जोकि धार्मिक सुधारवादी आन्दोलन था कुछ समय लिए असहयोग आन्दोलन से एकरूप हो गया।
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1921-22 ई. में मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में भील आन्दोलन हुआ। प्रख्यात साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द ने गोरखपुर के एक सरकारी विद्यालय त्याग–पत्र दे दिया तथा उन्होंने काशी विद्यापीठ के लिए कार्य किया।
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1 फरवरी, 1922 को गाँधीजी ने वायसराय को एक पत्रक यदि एक हफ्ते के अन्दर सरकार की उत्पीड़नकारी नहीं गई, तो व्यापक सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हो यह आन्दोलन सूरत के बारदोली तालुक से प्रारम्भ होने लेकिन इससे पूर्व ही उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में स्थित चौरी–चौरा में हिंसा की कुछ घटनाएँ हो गई। जिसके पश्चात् गोपीने योग आन्दोलन वापस ले लिया। फरवरी, 1922 में बारदोली में स कार्यसमिति की बैठक हुई। इसमें एक प्रस्ताव पारित कर ऐसी सभी गतिविधियों पर रोक लगा दी गई, जिनसे कानून का उल्लंघन होता था। 10 मार्च, 1922 को गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। उनको 6 साल की सजा हुई। यद्यपि दो सालों के पश्चात ही आँतों के ऑपरेशन के लिए उन्हें फरवरी, 1924 में रिहा कर दिया गया।
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विभिन्न राष्ट्रवादियों यथा सी आर दास, मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, लाला लाजपत राय ने आन्दोलन वापस लेने का विरोध किया। असहयोग आन्दोलन के दौरान गाँधीजी ने जुलू युद्ध पदक और बोअर पदक वापस कर दिया था। विजयवाड़ा कांग्रेस अधिवेशन के पश्चात् गाँधीजी ने सिर्फ लंगोटी पहनने का निश्चय किया।
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परिवर्तनवादी गुट वाले असहयोग आन्दोलन के बाद की लड़ाई को विधानपरिषद् में ले जाना चाहते थे। दूसरे वह थे, जो विधानपरिषद् में प्रवेश के विरोधी थे तथा गाँधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम को आगे बढ़ाना चाहते थे।
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दिसम्बर, 1922 के गया अधिवेशन में सी आर दास ने अपने अध्यक्षीय भाषण में विधानपरिषद् में प्रवेश का प्रस्ताव रखा। सी आर दास की जोरदार वकालत के बावजूद गया अधिवेशन में यह प्रस्ताव 890 बनाम 1740 वोटों से हार गया। विपक्षी गुट का नेतृत्व सी. राजगोपालाचारी ने किया था।
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प्रस्ताव पारित न होने पर सी आर दास तथा मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस से त्याग पत्र दे दिया तथा मार्च, 1923 में इलाहाबाद में स्वराज पार्टी बनाई।
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स्वराज पार्टी का पूर्व में नाम कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी था। स्वराज पार्टी के सदस्यों को प्रोचेंजर्स तथा विरोधियों (कांग्रेस) को नोचेंजर्स कहा जाता था।
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1923 ई. के चुनावों में भाग लेने के मुद्दे पर कांग्रेस दो विचारधारा वाले समूहों में बैट गई परिवर्तनवादी तथा अपरिवर्तनवादी अपरिवर्तनवादियों ने रचनात्मक कार्य के अन्तर्गत 1923 ई. में नागपुर सत्याग्रह चलाया, जिसमें झण्डा फहराकर सविनय अवज्ञा करनी थी।
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गाँधीजी विधानपरिषद् का सदस्य बनने तथा उसकी कार्यवाही में बाधा पहुँचाने की नीति के विरोधी थे। उनके अनुसार यह नीति अहिंसक असहयोग आन्दोलन की नीतियों से मेल नहीं खाती थी।
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6 नवम्बर, 1924 को स्वराजियों तथा उनके विरोधियों के मध्य मेल करते हुए गाँधीजी, सी आर दास, मोतीलाल नेहरू ने एक संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर किए जिसमें कहा गया था कि स्वराजी नेता कांग्रेस के अभिन्न अंग के रूप में काम करते रहेंगे। बेलगाँव अधिवेशन में इसे मान्यता दे दी गई।
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1925 ई. में विट्ठलभाई पटेल केन्द्रीय विधानमण्डल के अध्यक्ष चुने गए।
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मोतीलाल नेहरू ने सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक को भारतीय गुलामी विधेयक नम्बर 1 की संज्ञा दी।
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1919 ई. के भारत शासन अधिनियम में 10 वर्ष पश्चात् इस अधिनियम की समीक्षा के लिए एक आयोग की नियुक्ति का प्रावधान था। इसी सन्दर्भ में साइमन कमीशन की नियुक्ति की गई।
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सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में गठित साइमन आयोग में कुल सात सदस्य थे, चूँकि इसके सभी सदस्य अंग्रेज थे, इसलिए कांग्रेसियों ने इसे श्वेत कमीशन कहा। कांग्रेस ने एम ए अंसारी की अध्यक्षता में हुए मद्रास अधिवेशन में साइमन कमीशन के बहिष्कार का निर्णय लिया।
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मोहम्मद अली जिन्ना ने साइमन कमीशन का बहिष्कार किया। बी आर अम्बेडकर के नेतृत्व में संचालित डिप्रेस्ड क्लास एसोसिएशन और हरिजनों के कुछ संगठनों ने साइमन कमीशन का समर्थन किया।
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लाहौर में साइमन कमीशन विरोधी जुलूस का नेतृत्व करते समय लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय गम्भीर रूप से घायल हो गए तथा उनकी मृत्यु हो गई। साइमन आयोग की नियुक्ति के समय ही लॉर्ड बर्कनहेड ने भारतीयों के समक्ष एक चुनौती रखी कि वे एक ऐसा संविधान तैयार करें, जो सामान्यतः भारत के सभी लोगों को मान्य हो।
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1927 के मद्रास अधिवेशन में यह तय किया गया कि अन्य राजनैतिक दलों की सहमति से स्वतन्त्र भारत के लिए संविधान का मसौदा बनाया जाए। डॉ. अंसारी की अध्यक्षता में बम्बई में हुए सर्वदलीय सम्मेलन में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की गई। इसका उद्देश्य 1 जुलाई, 1928 तक भारत के संविधान का एक मसौदा तैयार करना था।
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. मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने नेहरू रिपोर्ट को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि इसमें पृथक निर्वाचक मण्डल का प्रावधान नहीं था। नेहरू रिपोर्ट में डोमिनियन स्टेट्स की माँग पर सुभाषचन्द्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू ने इण्डिपेण्डेन्स फॉर इण्डिया लीग नाम से कांग्रेस के .
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अन्दर एक दबाव समूह का निर्माण किया।
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कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में ब्रिटिश सरकार को यह चेतावनी दे दी गई थी कि यदि वह एक वर्ष के अन्दर नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार नहीं करती तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज से कम किसी भी प्रस्ताव पर समझौता नहीं करेगी। 31 दिसम्बर, 1929 की मध्यरात्रि में लाहौर में रावी नदी के किनारे जवाहरलाल नेहरू ने तिरंगा झण्डा फहराया तथा स्वतन्त्रता की घोषणा का प्रस्ताव पढ़ा। 26 जनवरी, 1930 को पूर्ण स्वाधीनता दिवस मनाने का निर्णय लिया गया।
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लाहौर अधिवेशन के बाद गाँधीजी ने यंग इण्डिया में एक लेख के माध्यम से सरकार के सामने–रुपये की विनिमय दर घटाकर 1 शिलिंग 4 पेन्स करने, लगान में 50% की कमी करने तथा साथ ही, सिविल सर्विस की तनख्वाह आधी करने, रक्षात्मक शुल्क लगाने, आत्मरक्षा हेतु भारतीयों को अस्त्र रखने, नमक टैक्स खत्म करने, नशीली वस्तुओं की बिक्री बन्द करने आदि शर्तें रखी तथा इसके लिए 31 जनवरी, 1930 तक का समय दिया।
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. सरकार ने उक्त माँगें नहीं मानी। अतः फरवरी, 1930 में साबरमती में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में गाँधीजी को आन्दोलन का नेतृत्व करने का दायित्व सौंपा गया। गाँधीजी ने इस आन्दोलन का मुद्दा नमक को बनाया. क्योंकि यह समाज के प्रत्येक वर्ग को प्रभावित करता था।
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गाँधीजी ने 12 मार्च, 1930 को साबरमती आश्रम से अपने 78 समर्थकों के साथ दाण्डी तक 240 मील की यात्रा (24 दिनों में) की तथा 6 अप्रैल को नमक बनाकर कानून तोड़ा। इसके साथ ही सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। उड़ीसा में गोपचन्द्र बन्धु चौधरी के नेतृत्व में बालासोर, कटक और पुरी में तथा असम में सत्याग्रहियों द्वारा नोआखली में नमक कानून तोड़ा गया। नमक कानून तोड़ने पर 14 अप्रैल को जवाहरलाल नेहरू को तथा 4 मई, 1930 को गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। गाँधीजी ने घोषणा की थी कि वह धरसाणा नामक कारखाने पर धावा बोलेंगे।
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गाँधीजी की गिरफ्तारी के विरुद्ध व्यापक विरोध–प्रदर्शन हुए। शोलापुर में मिल मजदूरों ने हड़ताल की चटगाँव में सूर्यसेन के नेतृत्व में क्रान्तिकारी विप्लव हुआ। इसी समय उत्तर–पश्चिम सीमा प्रान्त के कबाइलियों ने गाँधीजी को मलंग बाबा कहा।
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घरसाणा में नमक सत्याग्रह का नेतृत्व सरोजिनी नायडू, इमाम साहब तथा गाँधीजी के पुत्र मणिलाल ने किया, किन्तु इस आन्दोलन का सरकार ने क्रूरता से दमन किया। इस क्रूरता के भयानक रूप का उल्लेख अमेरिका के न्यू फ्रीमैन‘ अखबार के पत्रकार मिलर ने किया।
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मिलर ने कहा संवाददाता के रूप में 18 वर्षों में असंख्य नागरिक विदे हैं। दंगे, गली कूचों में मार–काट एवं विद्रोह के दृश्य देखे हैं, लेकिन घरसाणा जैसा भयानक दृश्य मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा। – गुजरात में खेड़ा के आनन्द, बोरसद एवं नादिवाद, सूरत के बारदोली मोच के जम्बूसर में कर न देने को लेकर आन्दोलन हुआ। भड़ौच – मणिपुर में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का नेतृत्व नागा महिला गौडिने किया, जो मात्र 13 वर्ष की थी।
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1932 में उन्हें गिरफ्तार कर आजीवन कारावास की सजा दी गई तथा इम्फाल जेल में रखा गया। जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें रानी की उपाधि दी तथा उन्हें नागालैण्ड की जॉन ऑफ आर्क कहा गया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन में गाँधीजी के आह्वान पर महिलाएं शामिल हुई तथा उन्होंने विदेशी कपड़े की दुकानों, शराब की दुकानों और अफीम के ठेके पर धरने दिए। सविनय अवज्ञा को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रभात फेरिस निकाली गईं, जादुई लालटेन का प्रयोग किया गया, बच्चों ने ‘वानर सेना‘ तथा लड़कियों ने ‘मंजरी सेना‘ का गठन किया। प्रथम गोलमेज सम्मेलन 12 नवम्बर, 1930 से 10 जनवरी, 1931 तक चला, जिसमें कुल 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसकी अध्यक्षता रेम्जे मैक्डोनाल तथा उद्घाटन ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम ने किया।
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5 मार्च, 1931 को गाँधीजी और इरविन के मध्य एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार हिंसात्मक अपराधियों के अतिरिक्त सभी राजनैतिक कैदी रिहा होंगे, अपहरण की गई सम्पत्ति वापस कर दी जाएगी, तट की एक सीमा के भीतर नमक तैयार करने की अनुमति मिलेगी, शान्तिपूर्वक विरोध प्रदर्शन की
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अनुमति दी जाएगी आदि बातें तय हुई। गाँधी–इरविन समझौते को स्वीकृति देने हेतु 29 मार्च, 1931 को कराची अधिवेशन हुआ। इसके 6 दिन पूर्व ही 23 मार्च, 1931 को भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दी गई थी। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 7 सितम्बर, 1931 से 1 दिसम्बर, 1931 तक चला।
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इसमें कांग्रेस की ओर से गाँधीजी ने एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में हिस्स लिया। गाँधीजी एस राजपूताना जहाज से इंग्लैण्ड पहुँचे। साम्प्रदायिक मसले पर कोई निर्णय न होने के कारण द्वितीय गोलमेज सम्मेलन बिना किस परिणाम के समाप्त हो गया। 1 जनवरी, 1932 को कांग्रेस कार्य समिति ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को ने दुबारा शुरू करने का निर्णय लिया। इसी समय 1932 ई. में शेख अब्दुल्ला ‘नेशनल कॉन्फ्रेन्स‘ की स्थापना की।
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ब्रिटिश प्रधानमन्त्री रैम्जे मैक्डोनाल्ड ने 16 अगस्त, 1932 को विभिन्न सम्प्रदायों के प्रतिनिधित्व के विषय पर एक पंचाट जारी किया, जि साम्प्रदायिक पंचाट (कम्युनल अवॉर्ड) कहा गया। 16 अगस्त, 1932 को मैक्डोनाल्ड की साम्प्रदायिक घोषणा के विरुद्ध गाँधीजी ने माँग की कि दलित वर्ग के प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर आम निर्वाचक मण्डल के माध्यम से होना चाहिए।
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मदन मोहन मालवीय, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पुरुषोत्तम दास, सी राजगोपालाचारी आदि के प्रयत्नों से 26 सितम्बर, 1932 को गाँधीजी औ दलित नेता अम्बेडकर में पूना समझौता हुआ।
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पूना समझौते में निम्न बातें शामिल थीं–दलित वर्ग के लिए पृथक् निर्वाचन मण्डल समाप्त हुआ, प्रान्तीय विधानमण्डल में दलितों के लिए सुरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 148 कर दी गई तथा केन्द्रीय विधानमण्डल में दलित वर्गों के लिए सुरक्षित सीटों की संख्या में 18% वृद्धि कर दी गई।
82. 17 नवम्बर, 1932 को लन्दन में तृतीय गोलमेज सम्मेलन हुआ, जिसका कांग्रेस ने बहिष्कार किया। इसमें 46 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें भारत सरकार अधिनियम, 1935 हेतु योजना को पेश किया गया। 7 सितम्बर, 1933 को गाँधीजी ने हरिजन यात्रा प्रारम्भ की। इस दौ उन्होंने 20,000 किमी की यात्रा की।
नोट्स
रौलेट एक्ट और जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919)
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*भारत में बढ़ रही क्रांतिकारी गतिविधियों को कुचलने के लिए सरकार ने वर्ष 1917 में न्यायाधीश सिडनी रौलेट की अध्यक्षता में एक समिति गठित की, जिसका उद्देश्य आतंकवाद को कुचलने के लिए एक प्रभावी योजना का निर्माण करना था। इसके सुझावों पर मार्च, 1919 में पारित विधेयक रौलेट एक्ट के नाम से जाना गया। रौलेट अधिनियम के द्वारा अंग्रेजी सरकार जिसको चाहे जब तक चाहे, बिना मुकदमा चलाए जेल में बंद रख सकती थी, इसलिए इस कानून को ‘बिना वकील, बिना अपील तथा बिना दलील का कानून‘ कहा गया।
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लॉर्ड चेम्सफोर्ड (1916-1921) के कार्यकाल में वर्ष 1919 में रौलेट एक्ट पारित हुआ था। * अखिल भारतीय राजनीति में गांधी का पहला साहसिक कदम रौलेट एक्ट के विरुद्ध वर्ष 1919 में प्रारंभ सत्याग्रह था।
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गांधीजी ने रौलेट सत्याग्रह के लिए तीन राजनीतिक मंचों का उपयोग किया था होमरूल लीग, खिलाफत एवं सत्याग्रह सभा “पंजाब के दो लोकप्रिय नेताओं डॉ. सैफुदीन किचलू और डॉ. सत्यपाल की गिरफ्तारी और ब्रिटिश दमन का विरोध करने के लिए 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा बुलाई गई थी, जहां जनरल रेगिनैल्ड एडवर्ड हैरी डायर (R.E.H. Dyer) ने निहत्थी शांतिपूर्ण भीड़ पर गोलियां चलवाकर लगभग 1,000 लोगों की हत्या कराई। 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार की हृदय विदारक घटना के बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की गई ‘नाइट‘ की उपाधि लौटा दी।
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जलियांवाल बाग हत्याकांड के विरोध में शंकरन नायर ने वायसराय की कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया था। जलियांवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल, 1919) की जांच हेतु ब्रिटिश सरकार ने हंटर कमीशन का गठन किया था। इस कमीशन में सी.एच. सीतलवाड़, पंडित जगत नारायण एवं सुल्तान अहमद खान भारतीय सदस्य थे।
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कमीशन ने वर्ष 1920 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें इस दुर्घटना के लिए सरकार को दोषी नहीं बताया गया। * कहा गया कि उपद्रव क्रांति का रूप ग्रहण कर लेते हैं। *अतः मार्शल लॉ अनिवार्य था तथा भीड़ की अधिकता को देखते हुए गोली चलाना पूर्णतः न्यायोचित था। * साथ ही हंटर कमीशन ने डायर के इस कार्य को केवल निर्णय लेने की भूल बताया।
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जनरल डायर को उसके अपराध के लिए नौकरी से हटना पड़ा किंतु ब्रितानी अखबारों ने उसे ‘ब्रिटिश साम्राज्य का रक्षक‘ एवं ब्रितानी लॉर्ड सभा ने उसे ‘ब्रिटिश साम्राज्य का शेर‘ कहा। * सरकार ने उसकी सेवाओं के लिए उसे “मान की तलवार” की उपाधि दी। * मार्च, 1940 में पंजाब के क्रांतिकारी नेता ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग के नरसंहार का बदला लेने के लिए इस हत्याकांड के समय पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर रहे सर माइकल ओ डायर (Michael O’ Dwyer) की लंदन में हत्या कर दी थी, जिसके लिए उन्हें गिरफ्तार कर मृत्युदंड दे दिया गया।
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जलियांवाला बाग नरसंहार (13 अप्रैल, 1919) पर कांग्रेस जांच समिति की रिपोर्ट के प्रारूप को लिखने का कार्य महात्मा गांधी को सौंपा गया था। *जलियांवाला बाग नरसंहार को मॉन्टेग्यू ने ‘निवारक हत्या‘ की संज्ञा दी। * दीनबंधु सी. एफ. एन्ड्रज ने इस हत्याकांड को जान–बूझ कर की गई क्रूर हत्या कहा था।
नोट्स
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन
तृतीय चरण (1935-1947)
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1936-37 ई में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लखनऊ और फैजपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में चुनाव में भागीदारी का निर्णय लिया गया। 1937 ई. में 11 प्रान्तों में हुए चुनावों में कांग्रेस ने 1161 में से 716 स्थानों पर चुनाव लड़े। कांग्रेस ने 5 प्रान्तों मद्रास, संयुक्त प्रान्त, मध्य प्रान्त, बिहार, उड़ीसा में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया।
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बम्बई, असम, उत्तर–पश्चिम सीमा प्रान्त में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। बंगाल, पंजाब तथा सिन्ध में वह बहुमत से वंचित रही। 482 मुस्लिम सीटों में से कांग्रेस ने 58 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें उसे 26 पर विजय प्राप्त हुई।पंजाब में मुस्लिम लीग तथा यूनियनिस्ट पार्टी ने संयुक्त सरकार बनाई।
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बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी तथा मुस्लिम लीग ने संयुक्त सरकार बनाई। सिन्ध में सिन्ध यूनाइटेड पार्टी के अधीन संयुक्त सरकार का गठन हुआ। 1937 ई. के चुनावों में कांग्रेस ने कुल 8 राज्यों में सरकार बनाई। अपने 28 माह के संक्षिप्त शासनकाल में भारतीय सरकारों ने न केवल जनसंघर्षो में जनता का नेतृत्व किया, बल्कि उनके हित में राजसत्ता का उपयोग भी किया।
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द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने भारतीय जनता से विचार–विमर्श किए बिना भारत को जर्मनी के विरुद्ध ‘युद्धरत राष्ट्र घोषित कर दिया।
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10-14 सितम्बर, 1939 में कांग्रेस कार्य समिति की वर्धा बैठक में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि भारत ऐसे युद्ध में शामिल नहीं हो सकता जो प्रत्यक्षतः लोकतान्त्रिक स्वतन्त्रता के लिए लड़ा जा रहा हो, जबकि खुद इसे ही स्वतन्त्रता से वंचित रखा गया हो।
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23 अक्टूबर, 1939 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में युद्ध का समर्थन न करने का निर्णय लिया गया तथा कांग्रेस की प्रान्तीय सरकारों को त्याग–पत्र देने का आदेश दिया गया।
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लॉर्ड लिनलिथगो ने युद्ध में कांग्रेस का सहयोग पाने के लिए 8 अगस्त, 1940 को (अगस्त प्रस्ताव ) एक प्रस्ताव रखा। अगस्त प्रस्ताव में युद्ध के बाद प्रतिनिधिमूलक संविधान निर्मात्री संस्था का गठन, वर्तमान वायसराय की कार्यकारिणी की संख्या में वृद्धि, एक युद्ध सलाहकार परिषद् का गठन, अल्पसंख्यकों को बिना विश्वास में लिए किसी संवैधानिक परिवर्तन को लागू नहीं किया जाना आदि आश्वासन दिए गए। साथ ही भारत के लिए डोमिनियन स्टेट्स मुख्य लक्ष्य घोषित किया गया। कांग्रेस ने इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। सर्वोदय शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग महात्मा गाँधी ने किया था। इसके अन्तर्गत समुदाय का सर्वांगीण विकास, अहिंसा पर आधारित कार्यक्रमों के अन्तर्गत किया जाना था।
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17 अक्टूबर, 1940 को व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ तथा विनोबा भावे पहले और जवाहरलाल नेहरू दूसरे सत्याग्रही बने कांग्रेस कार्यसमिति ने इस शर्त पर भारत की रक्षा हेतु सरकार का साथ देने की पेशकश की कि युद्ध के पश्चात् भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता दी जाएगी तथा . ब्रिटेन तुरन्त भारत के राजनैतिक गतिरोध को दूर करने के उद्देश्य से ब्रिटिश प्रधानमन्त्री चर्चिल ने स्टैफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में मार्च, 1942 में एक मिशन भारत भेजा।
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कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने क्रिप्स प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गाँधी ने इसे एक डूबते हुए बैंक के नाम का उत्तर दिनांकित चेक कहा था।
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वर्धा में 7-14 जुलाई, 1942 की बैठक में गाँधीजी ने संघर्ष के निर्णय की पुष्टि कर दी तथा भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रस्ताव पास किया गया। ठोस रूप में सत्ता हस्तान्तरण करे।
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भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू को अल्मोड़ा जेल में डाला गया था।
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7 अगस्त, 1942 को मौलाना अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में बम्बई के ग्वालिया टैंक में कांग्रेस की बैठक में वर्धा प्रस्ताव की पुष्टि कर दी गई। गाँधीजी ने अपने ऐतिहासिक सम्बोधन में करो या मरो का नारा दिया।
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9 अगस्त, 1942 को भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू होते ही गाँधीजी, मौलाना आजाद सहित कांग्रेस के सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। गाँधीजी तथा सरोजिनी नायडू को आगा खाँ पैलेस में रखा गया। राममनोहर लोहिया, बी एम खाकर, नादिमन अव्रवाद प्रिण्टर, ऊषा मेहता आदि ने कांग्रेस रेडियो की व्यवस्था की बम्बई व नासिक से कांग्रेस रेडियो का प्रसारण होता था।
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इस आन्दोलन का सर्वाधिक प्रभाव बंगाल, बिहार, बम्बई, उत्तर प्रदेश और मद्रास में रहा। सरकार की दमनात्मक नीति के विरुद्ध गाँधीजी ने आगा खाँ पैलेस में 10 फरवरी, 1943 को 21 दिन के उपवास की घोषणा की। मुस्लिम लीग, उदार साम्यवादियों ने भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध किया था। अक्टूबर, 1945 में लिनलिथगो की जगह वेवेल वायसराय बने।
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उन्होंने 4 जून, 1945 को एक योजना रखी वेवेल प्लान। – वेवेल प्लान में मुख्य बातें थीं–केन्द्र में नई कार्यकारी परिषद् का गठन किया जाएगा, जिसमें सैन्य प्रमुख के अतिरिक्त शेष सभी सदस्य भारतीय होंगे तथा प्रतिरक्षा वायसराय के अधीन होगा। मुसलमानों की संख्या सवर्ण हिन्दुओं के बराबर होगी। गवर्नर जनरल बिना कारण निषेधाधिकार का प्रयोग नहीं करेगा। प्रतिरक्षा को छोड़ सभी विभाग भारतीयों को सौंप दिये जाएँगे।
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1945-46 के आम चुनावों में कांग्रेस को सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में3% मत मिले तथा प्रान्तीय विधानमण्डल में उसे बम्बई, मद्रास, संयुक्त प्रान्त, बिहार, उड़ीसा तथा मध्य प्रान्त में पूर्ण बहुमत मिला। उत्तर–पश्चिम सीमा प्रान्त में कांग्रेस ने 30 सीटें जीतीं, जिसमें 19 मुस्लिम सीटें भी थीं। केन्द्रीय विधायिका में कांग्रेस को 57 सीटें मिलीं। प्रान्तों में कांग्रेस को 1937 के चुनावों में जहाँ 714 सीटें मिली थीं. वहीं 1945-46 के चुनावों में 923 सीटें मिलीं।
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मुस्लिम लीग ने केन्द्रीय विधानसभा में सभी मुस्लिम सीटें जीत लीं। बंगाल तथा सिन्ध में लीग को पूर्ण बहुमत मिला। उत्तरी–पश्चिमी प्रान्त में लीग को केवल 17 सीटें मिलीं। पंजाब में लीग सबसे बड़े दल के रूप में उभरी, किन्तु हिन्दू, सिख तथा यूनियनिस्ट दलों ने मिलकर साझा सरकार बनाई।
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18 फरवरी, 1946 को रॉयल इण्डियन नेवी के सिगनल्स प्रशिक्षण संस्थान एच एम आई एस तलवार के गैर–कमीशण्ड अधिकारियों एवं सैनिकों जिन्हें रेटिंग्ज कहा जाता था, ने नस्लीय भेदभाव तथा खराब भोजन के प्रतिवाद में हड़ताल कर दी।
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विद्रोहियों के दमन के लिए सरकार ने एडमिरल गाडफ्रे को भेजा सरकार के इस रुख को देखते हुए वल्लभभाई पटेल तथा जिन्ना ने रेटिंग्ज कॉ आत्मसमर्पण करने के लिए कहा। फरवरी, 1946 में ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री क्लीमेण्ट एटली ने भारत में एक तीन सदस्यीय उच्चस्तरीय शिष्टमण्डल भेजने की घोषणा की। इनका कार्य भारत को शान्तिपूर्ण सत्ता हस्तान्तरण के लिए उपायों एवं सम्भावनाओं श्री तलाशना था।
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29 मार्च, 1946 को कैबिनेट मिशन भारत आया। सर पैथिक लॉरेन्स को इसका अध्यक्ष बनाया गया था, इसके अन्य सदस्य सर स्टैफोर्ड क्रिप्स एवं ए वी एलेक्जेण्डर थे।
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कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार प्रान्तों को पृथक–पृष् कार्यपालिका और विधायिका के साथ ग्रुप बनाने का अधिकार दिया गया तथा प्रत्येक ग्रुप को अपने अधीन विषयों के निर्णय का अधिकार दिया गया।
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प्रान्तों को तीन श्रेणियों–समूह क मद्रास, बम्बई, मध्य प्रान्त, संयुक्त प्रान्त, बिहार, उड़ीसा, समूह ख पंजाब, उत्तर प्रदेश सीमा प्रान्त एवं सिन्ध तथा समूह ग बंगाल एवं असम में बाँटा गया।
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कैबिनेट मिशन ने पाकिस्तान की माँग को अस्वीकार कर दिया। मिशन के अनुसार ब्रिटिश भारत तथा भारतीय राजाओं को मिलाकर भारतीय संघ का निर्माण किया जाएगा, जिसके पास विदेश, रक्षा और संचार विभाग होंगे। मिशन के अनुसार, संविधान के निर्माण के लिए प्रत्येक 10 लाख लोगों के लिए एक प्रतिनिधि को चुना जाना था।
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6 जून, 1946 को लीग तथा 24 जून, 1946 को कांग्रेस ने इसे स्वीकृत कर लिया, किन्तु 29 जुलाई, 1946 को लीग ने अपनी स्वीकृति वापस ले ली तथा पाकिस्तान के लिए सीधी कार्यवाही शुरू की। 6 अगस्त, 1946 को जवाहरलाल नेहरू को अन्तरिम सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया गया। जिन्ना द्वारा इनकार करने के बाद 2 सितम्बर को 12 सदस्यीय अन्तरिम सरकार का गठन किया गया। बाद में लॉर्ड वेवेल के प्रयासों से मुस्लिम लीग सरकार में शामिल हुई। लीग के सरकार में शामिल होने के बाद मन्त्रिमण्डल के सदस्य और उनके विभाग निम्न प्रकार थे–जवाहरलाल नेहरू (कार्यकारी परिषद् के उपाध्यक्ष तथा विदेश एवं राष्ट्रमण्डल सम्बन्ध), वल्लभभाई पटेल (गृह, सूचना एवं प्रसारण), बलदेव सिंह (रक्षा), लियाकत अली खाँ (वित्त), जॉन मथाई (उद्योग एवं आपूर्ति), गजनफर अली खान (स्वास्थ्य), राजेन्द्र प्रसाद (खाद्य एवं कृषि), जोगिन्दर नाथ मण्डल (कानून), सी एच भाभा (निर्माण, खान, विद्युत), जगजीवन राम (श्रम), टी टी चुन्दरीगर (वाणिज्य), अब्दुर रब नश्तर (संचार), आसफ अली (रेलवे), राजगोपालाचारी (शिक्षा) 20 फरवरी, 1947 को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एटली ने हाउस ऑफ कॉमन्स में बयान दिया कि जून, 1948 तक भारतीयों को सत्ता सौंपकर अंग्रेज भारत छोड़ देंगे।
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3 जून को माउण्टबेटन ने भारत के विभाजन के साथ सत्ता हस्तान्तरण की योजना प्रस्तुत की, जिसके अन्तर्गत 15 अगस्त, 1947 से भारत में दो अधिराज्यों की स्थापना हो जाएगी। साथ ही सिन्ध, उत्तर–पूर्वी सीमा प्रान्त, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल, बलूचिस्तान और असम के सिलहट जिले को छोड़कर सभी प्रान्त भारत में शामिल होने थे।
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भारतीय राजाओं को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने की इजाजत दी गई, उन्हें स्वतन्त्र रहने का विकल्प नहीं दिया गया। उत्तर–पश्चिम सीमा प्रान्त तथा असम के सिलहट जिले में जनमत संग्रह द्वारा पता लगाना था कि वे किसके साथ रहना चाहते हैं।
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माउण्टबेटन योजना के आधार पर 4 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश संसद में भारतीय स्वतन्त्रता विधेयक प्रस्तुत किया गया। 15 जुलाई को यह बिना किसी संशोधन के हाउस ऑफ कॉमन्स द्वारा पास हो गया तथा 16 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश सम्राट ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए।
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इस अधिनियम द्वारा 14 अगस्त को पाकिस्तान तथा 15 अगस्त को भारत स्वतन्त्र हो गया। जिन्ना पाकिस्तान के गवर्नर जनरल तथा लियाकत अली प्रधानमन्त्री बने। भारत में लॉर्ड माउण्टबेटन गवर्नर जनरल तथा जवाहरलाल नेहरू प्रधानमन्त्री बनें!
नोट्स
भारत का विभाजन एवं स्वतंत्रता
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*भारत की स्वतंत्रता के समय क्लीमेंट आर. एटली ब्रिटिश प्रधानमंत्री थे। * उनका कार्यकाल वर्ष 1945-1951 था। * : इस दौरान ब्रिटेन में लेबर पार्टी सत्ता में थी। *ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने 20 फरवरी, 1947 को हाउस ऑफ कॉमन्स में यह घोषणा की कि अंग्रेज जून, 1948 के पहले ही उत्तरदायी लोगों को सत्ता हस्तांतरित करने के उपरांत भारत छोड़ देंगे। * उन्होंने ही कहा था “ब्रिटिश सरकार भारत के विभाजन के लिए उत्तरदायी नहीं है।‘ ”
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एटली ने वेवेल के स्थान पर लॉर्ड माउंटबेटन को वायसराय नियुक्त किया, जिन्होंने 24 मार्च, 1947 को वायसराय का पद ग्रहण कर शीघ्र ही सत्ता हस्तांतरण के लिए पहल शुरू कर दी। * उन्हें सत्ता के हस्तांतरण के साथ यथासंभव भारत को संयुक्त रखने की विशेष हिदायत दी गई थी तथापि उन्हें इस बात के लिए भी अधिकृत किया गया था कि वे भारत की परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप निर्णय ले सकते हैं ताकि ब्रिटेन सम्मानजनक रूप से न्यूनतम हानि के साथ भारत से हट सके।
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माउंटबेटन शीघ्र ही सत्ता हस्तांतरण संबंधी वार्ताओं के दौरान इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे कि भारत का बंटवारा तथा पाकिस्तान की स्थापना आवश्यक हो गई है। * उन्होंने एटली के वक्तव्य के दायरे में भारत विभाजन की एक योजना तैयार की, जिसे ‘माउंटबेटन योजना‘ के नाम से जाना जाता है। *माउंटबेटन योजना (3 जून, 1947) के अनुरूप ब्रिटिश संसद द्वारा जुलाई, 1947 में ‘भारतीय
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अधिनियम (एक्ट) पारित किया गया, जिसमे [ और पाकिस्तान नामक दोनों की स्थापना के लिए 15 1947 की तिथि निश्चित की गई। भारतीय तंत्र 1947 को ब्रिटिश क्लीमेंट एटली द्वारा ‘हाउस ऑफ में पेश किया गया था। 15 जुलाई, 1947 को हाउस ऑफ द्वारा तथा इसके अगले दिन (16 जुलाई, 1947 को ) हा इस द्वारा इस विधेयक को पारित कर दिया गया। तत्पश्चात को राजकीय स्वीकृति 18 जुलाई, 1947 को प्राप्त हुई थी। 24 मार्च से 6 मई, 1947 के बीच भारतीय नेताओं के साथ की तीव्र श्रृंखला के बाद माउंटबेटन ने तय किया कि कैबिनेट की रूपरेखा अव्यावहारिक हो चुकी है। तब उन्होंने एक वैकल्पिक बनाई, जिसे ‘बाल्कन प्लान‘ का गुप्त नाम दिया गया।
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ब्रिटिश केवायसराय लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा भारत और पाकिस्तान के और बंगाल में सीमाओं के निर्धारण के लिए 30 जून, 1947 सीमा आयोग और बंगाल सीमा आयोग नाम से दो आयोग N किए गए। सिरिल रेडक्लिफ को इन दोनों ही आयोगों का अध्यक्ष गया। इन आयोगों का कार्य पंजाब और बंगाल के मुस्लिम और म आबादी के आधार पर दो भागों में बांटने हेतु सीमा निर्धारण इस कार्य में इन्हें और भी कारकों का ध्यान रखना था। आयोग में 4 सदस्य थे, जिनमें से दो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस मुस्लिम लीग से थे। गांधीजी की प्रथम मुलाकात माउंटबेटन जिससे 31 मार्च, 1947 को हुई।
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गांधीजी का यह सुझाव था कि अंतरिम रूप से लीग के नेता जिन्ना के हाथों सौंप दी जाए. 1 में सांप्रदायिक दंगों को रोका जा सके। परंतु गांधीजी का यह बंटवारे कांग्रेस नेताओं तथा वर्किंग कमेटी को मान्य नहीं था। में गांधीजी ने कहा था कि-” अगर कांग्रेस बंटवारा करेगी तो मेरी लाश के ऊपर करना पड़ेगा। जब तक मैं जिंदा हूं भारत के * के लिए कभी राजी नहीं होऊंगा और अगर मेरा वश चला तो को भी इसे मंजूर करने की इजाजत नहीं दूंगा।” 15 जून, 1947 को जिस समय कांग्रेस महासमिति ने दिल्ली के विभाजन का प्रस्ताव स्वीकृत किया उस समय कांग्रेस के
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आचार्य जे. बी. कृपलानी थे। * इस प्रस्ताव को गोविंद वल्लभ पंत किया था तथा मौलाना अबुल कलाम आजाद ने इसका समर्थन किया। * नवंबर, 1947 में जे. बी. कृपलानी ने कांग्रेस की से त्यागपत्र दे दिया। कृपलानी के त्यागपत्र के बाद डॉ. राजेंद्र के अध्यक्ष बने थे। * वर्ष 1948 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन
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सीतारमैया कांग्रेस के अगले अध्यक्ष बने। वर्ष 1950 में कांग्रेस अधिवेशन में पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस के नए अध्यक्ष बने।
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वर्ष 1951 से 1954 तक कांग्रेस के अध्यक्ष पं. जवाहरलाल
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और प्रधानमंत्री तथा पार्टी का नेतृत्व एक ही व्यक्ति द्वारा किए
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परपरा प्रारंभ हुई।
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*14-15 जून, 1947 को संपन्न अखिल कांग्रेस कमेटी की बैठक में भारत विभाजन के विपक्ष में खान
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वक्षार खां (सीमांत गांधी) ने मतदान किया था।
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डॉ. सैफुद्दीन
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1947 में कांग्रेस कमेटी की बैठक द्वारा विभाजन के प्रस्ताव
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होको ‘राष्ट्रवाद का संप्रदायवाद के पक्ष में समर्पण‘ के रूप
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अमृत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भाग लिया था। इन्होंने मांटेग्यू–चेम्सफोर्ड | सुधारा के तहत होने वाले विधायिका के चुनाव के बहिष्कार करने की महात्मा गांधी की नीति का विरोध किया था। तिलक ने ‘उत्तरदायी | सहयोग (Responsive Co-peration) की नीति को अपनाने की सलाह दी थी। 1 अगस्त, 1920 को तिलक का देहान्त हो गया था।
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*भारत में राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा को महात्मा गांधी के पदार्पण पूर्व इटली–अबीसीनिया युद्ध (जिसमें इटली की औपनिवेशिक शक्ति हुई), 1899 1901 ई. के दौरान चीन में साम्राज्यवादियों के विरुद्ध बलाए गए बॉक्सर आंदोलन तथा रूस पर जापान की विजय, इन सबने किया, किंतु इनमें वर्ष 1905 में जापान की रूस पर विजय का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। जापान ने वर्ष 1905 में जारशाही रूस को हराकर को सैनिक दृष्टि से एक शक्तिशाली यूरोपीय देश से श्रेष्ठ सिद्ध कर . लोग अजेय हैं। *कांग्रेस के नरम दल के नेताओं की आंदोलन की पद्धति राजवांमबध्य आंदोलन (Constitutional Agitation) अर्थात में भारतीयों की भागीदारी की मांग तथा जनता में राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न करना था। वही गरम दल के नेताओं की शासन प्रविघटन मुख्य मांगें (Passive Resistance) पद्धति की थीं। *वर्ष 1907 प्रेस के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस नरमपंथी और गरमपंथी दो गुटों में विभक्त हो गई। उदारवादी राजनीति या राजनीतिक के में अधिकांश नरमपंथी नेता यथा – दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, दिनशा वाचा, व्योमेश बनर्जी और सुरेंद्रनाथ बनर्जी शहरी क्षेत्रों से संबद्ध थे। इस काल में कांग्रेस पर समृद्धशाली
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तारगाँव बुद्धिजीवियों का जिनमें वकील आडॉक्टर, इंजीनियर, पत्रकार व्यक्ति सम्मिलित थे, का अधिकार था। उपाधियां और बड़े पद इन लोगों के लिए आकर्षण रखते थे। * कांग्रेस में आने वाले बड़े–बड़े नगरों से आते थे तथा जनसाधारण से इनका कोई | नहीं था। फिरोजशाह मेहता ने स्वयं कहा था-“कांग्रेस की आवाज की आवाज नहीं है, परंतु उनके साथ रहने वाले अन्य देशवासियों यह कर्तव्य है कि वे इनकी भावनाओं को समझें और उन्हें व्यक्त करें और उनके उपचार का प्रयत्न करे।” *गोपाल कृष्ण गोखले उदारवादी संबद्ध थे। वह समभाव और मृद् न्यायप्रियता में विश्वास करते उन्हें पूर्ण विश्वास था कि देश का पुनरुद्धार उत्तेजना के बवंडरों हो सकता। वे साधन और साध्य दोनों की पवित्रता में विश्वास करते थे। इन्हीं विचारों से प्रभावित होकर गांधीजी उनके शिष्य बन गए। 1889 के इलाहाबाद कांग्रेस अधिवेशन के मंच से राजनीति में भाग लिया। 1897 ई. में उन्हें और वाचा को भारतीय व्यय नियुक्त वेल्बी आयोग के सम्मुख साक्ष्य देने को कहा गया।
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1902 में वह बंबई संविधान परिषद के लिए और कालांतर में Imperial Legislative Council के लिए चुने गए। वर्ष 1906 के बाद भारतीय राजनीति में कांग्रेस के अंदर उग्रवादी दल के उदय के साथ–साथ देश में क्रांतिकारी उग्रवादी दलों का आविर्भाव हुआ।
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उग्रवादी विचारधारा के चार प्रमुख नेता थे–बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल तथा अरविंद घोषा इन नेताओं ने स्वराज्य प्राप्ति को ही अपना लक्ष्य बनाया। उन्हें उदारवादी नेताओं की तरह संवैधानिक दायरे के अंदर अपनी मांगें मनवाने में विश्वास नहीं था। तिलक ने कहा कि “हमारा उद्देश्य आत्मनिर्भरता है, भिक्षावृत्ति नहीं।” उन्होंने कांग्रेस पर प्रार्थना, याचना तथा विरोध की राजनीति करने का आरोप लगाया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस की प्रार्थना और याचना की नीति समाप्त हो गई।
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जहाँ उदारवादी दल संवैधानिक आंदोलन में अंग्रेजों की न्यायप्रियता में, वार्षिक सम्मेलनों में, भाषण देने में, प्रस्ताव पारित करने में और इंग्लैंड में शिष्टमंडल भेजने में विश्वास करता था वहीं दूसरी ओर उग्रवादी दल आक्रामक प्रतिरोध में सामूहिक आंदोलन में तथा आत्म– बलिदान के लिए दृढ़ निश्चय में विश्वास करता था। इनके लिए स्वराज का अर्थ ‘विदेशी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्रता था, जबकि उदारवादी दल के स्वराज का अर्थ ‘साम्राज्य के अंदर औपनिवेशिक स्वशासन था । ‘
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लाला लाजपत राय ‘शेर–ए–पंजाब‘ के नाम से भी जाने जाते थे। * ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गरम दल के नेता तथा पूरे पंजाब के प्रतिनिधि थे। * इन्हें ‘पंजाब केसरी‘ भी कहा जाता है। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक तथा बिपिन चंद्र पाल को ‘लाल–बाल–पाल‘ के नाम से भी जाना जाता है। * ‘साइमन कमीशन‘ का विरोध करते समय हुए लाठीचार्ज से लाला लाजपत राय घायल हुए, जिसके कारण 17 नवंबर, 1928 को इनकी मृत्यु हो गई। *लाला लाजपत राय ने इटली के क्रांतिकारी (राष्ट्रपिता) मैजिनी के जीवनवृत्त को पढ़ने के बाद उन्हें अपना राजनीतिक गुरु माना तथा बाद में उन्होंने मैजिनी की उत्कृष्ट रचना ‘ड्यूटीज ऑफ मैन‘ का उर्दू में अनुवाद भी किया। बंगाल के विभाजन के विरोध में चलाए गए ‘स्वदेशी आंदोलन‘ के अरबिंद घोष प्रमुख नेता थे।
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इस आंदोलन के अन्य प्रमुख नेता लाला लाजपत राय (पंजाब), बाल गंगाधर तिलक (महाराष्ट्र) तथा विपिन चंद्र पाल (बंगाल) थे। *तिलक सेवा और बलिदान में विश्वास करते थे और उनमें सरकार की सत्ता को चुनौती देने का साहस था। * सर वैलेंटाइन शिरोल ने उन्हें भारत में ‘अशांति का जन्मदाता‘ कहा था। * बाल गंगाधर तिलक को सजा सुनाए जाने के पश्चात प्रसिद्ध विद्वान मैक्स मुलर ने दया की वकालत करते हुए यह कहा था कि “संस्कृत के एक विद्वान के रूप में तिलक में मेरी दिलचस्पी है“। *
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वर्ष 1908 में बाल गंगाधर तिलक को ‘केसरी‘ में प्रकाशित लेखों के आधार पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर 6 वर्ष के कारावास की सजा देकर मांडले जेल (बर्मा) भेज दिया गया था। * तिलक को हुई इस सजा के विरोधस्वरूप बंबई के कपड़ा मिल मजदूरों ने देश में पहली राजनीतिक हड़ताल की थी। * ‘मांडले जेल‘ में ही इन्होंने ‘गीता रहस्य‘ नामक पुस्तक लिखी थी। *तिलक सांप्रदायिकतावादी नहीं थे। *वे प्रथम राष्ट्रवादी नेता थे, जिन्होंने जनता से निकट का संबंध स्थापित करने का
नोट्स
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
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एलन आक्टेवियन ह्यूम (ए.ओ. ह्यूम ) भारतीय सिविल सेवा के सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारी थे। * ये शिमला में बस गए थे। * 1884 ई. में इन्होंने भारतीय राष्ट्रीय संघ (Indian National Union) की स्थापना की, जो कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अग्रदूत था। * भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 ई. में ए. ओ. ह्यूम द्वारा की गई थी इसका पहला अधिवेशन 28 दिसंबर, 1885 को बंबई स्थित गोकुलदास तेजपाल संस्कृत विद्यालय में आयोजित किया गया। इसी सम्मेलन में दादाभाई नौरोजी के सुझाव पर भारतीय राष्ट्रीय संघ का नाम बदलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर दिया गया।
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इसमें कुल 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। * भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी (डब्ल्यू.सी. बनर्जी) ने की थी तथा इसके प्रथम महासचिव स्वयं ए.ओ. ह्यूम थे। * भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885 ई.) के समय भारत का वायसराय लॉर्ड डफरिन (कार्यकाल 1884-1888 ई.) था। *उसने कांग्रेस का यह कहकर मजाक उड़ाया था कि यह ‘सूक्ष्मदर्शी अल्पसंख्यकों की संस्था‘ है। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1886 ई. में कलकत्ता में हुआ। *इसकी अध्यक्षता दादाभाई नौरोजी ने की। * इसके अतिरिक्त दादाभाई नौरोजी ने 1893 ई. में लाहौर अधिवेशन तथा वर्ष 1906 में कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्षता की थी। * भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सर्वप्रथम मुस्लिम अध्यक्ष होने का गौरव बदरुद्दीन तैयबजी
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को है, भारतीय राष्ट्रीय 27-30 दिसंबर, 1887 हुए तीसरे के लिए इस में कुल 6007 लिया इसी सम्मेलन में पहली बार संचालनकारी एक कमेटी के हाथों में सौपा गया। यह आगे चलकर विषय निर समिति कहलाई। भारतीय राष्ट्रीय निर्वाचित यूरो इसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इलाहाबाद में संपन्न चतुर्थ अधिवेशन (18KR) की लिए समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से जुलाई, 1880 में हिंदी की अध्यक्षता में ब्रिटिश कमेटी ऑफ इंडिया‘ की स्थापना की गई। यह इंडियन नेशनल की एक समिति थी। इस समिति . से भारतीय मामलों से अंग्रेजों को अवगत कराने के उद्देश्य से ‘इंडिया‘ नामक साप्ताहिक पत्र निकाला।
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“लाला लाजपत राय, जिन्हें लोग प्राय: ‘शेरे पंजाब (पंजाब का सिंह) कहते थे, वर्ष 1920 में कलकता के विशेष अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने, इस अधिवेशन में असहयोग का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। श्रीमती एनी बेसेंट अग्लि आयरलैंड कुल से वर्ष 1907 से 1933 तक थियोसोफिकल सोसाइटी की प्रधान रहीं, वर्ष 1916 में होमरूल लीग का गठन किया तथा वर्ष 1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 27वां अधिवेशन दिसंबर, 1912 में बांकीपुर (बिहार) में संपन्न हुआ।
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*इस अधिवेशन की अध्यक्षता आर. एन. मुघोलकर ने की। इसी अधिवेशन में ए.ओ. ह्यूम को ‘कांग्रेस का पिता‘ कहा गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने वर्ष 1916 में लखनऊ में अधिवेशन किया। * तदनुसार, कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच लखनऊ समझौता हुआ जो कांग्रेस लीग योजना तथा ‘लखनऊ पैक्ट‘ के नाम से जाना जाता है। इसी अधिवेशन में उग्रपंथियों को जिन्हें पिछले नौ वर्ष से कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया था पुनः कांग्रेस में शामिल किया गया। • कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता अंबिका चरण मजूमदार ने की थी।
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*भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन, 1916 में बाल गंगाधर तिलक ने कहा था, “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं उसे लेकर रहूंगा। 1888 ई. में सर सैयद अहमद खां ने एक संयुक्त भारतीय राजभक्त सभा (United Indian Patriotic Association) बनाई, जिसका उद्देश्य कांग्रेस के प्रचार को निष्फल करना था और लोगों को कांग्रेस से दूर रखना था। वर्ष 1900 में कर्जन ने कहा था– “कांग्रेस अब लड़खड़ा रही है और जल्द ही गिरने वाली है। मेरा सबसे बड़ा मकसद भी यही है कि मेरे भारत प्रवास के दौरान ही इस पार्टी का अंत हो जाए।”
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*भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महात्मा गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को समाप्त करने का सुझाव दिया था। लॉर्ड विलिंगटन ने कांग्रेस के 30वें अधिवेशन में भाग लिया था। * इस दौरान वह बंबई का गवर्नर था। *यह अधिवेशन बंबई में वर्ष 1915 में आयोजित किया गया। *महात्मा गांधी ने केवल एक बार 1924 के बेलगांव अधिवेशन की अध्यक्षता की थी। *सरोजिनी नायडू (1879-1949 ई.) प्रख्यात कवयित्री और राष्ट्रवादी नेत्री थीं। वर्ष 1925 में कानपुर में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 40वें वार्षिक अधिवेशन में वह कांग्रेस की प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनी।
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*1947-49 में यह उत्तर प्रदेश की राज्यपाल भी रहीं। ‘जवाहरलाल नेहरू ने वर्ष 1929 में लाहौर, अप्रैल 1936 में लखनऊ तथा दिसंबर, 1936 में फलपुर अधिवेशन की अध्यक्षता की। कांग्रेस का इक्यावनया अधिवेशन 19-21 फरवरी, 1938 के दौरान गुजरात के हरिपुरा में संपन्न हुआ था। इस अधिवेशन की अध्यता सुभाष चंद्र बोस ने की थी। *इस अधिवेशन में राष्ट्रीय नियोजन समिति का गठन किया गया तथा पं. जवाहरलाल नेहरू को इसका अध्यक्ष बनाया गया।
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वर्ष 1940-1946 तक अबुल कलाम आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। *जे. बी. कृपलानी को कांग्रेस के चौवनवें अधिवेशन (नवंबर, 1946, मेरठ) का अध्यक्ष ना गया था तथा वे आजादी के समय भी अध्यक्ष रहे। कांग्रेस के पचपन अधिवेशन (दिसंबर, 1948, जयपुर) की अध्यक्षता डॉ. पट्टाभि सीतारमैय की थी। ‘रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा मूल रूप से बंगला में रचित और संगीतबद्ध ‘जन–गण–मन‘ के हिंदी संस्करण को संविधान सभा ने भारत है राष्ट्रगान के रूप में 24 जनवरी, 1950 को अपनाया था। यह सर्वप्रथ 27 दिसंबर, 1911 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन गाया गया था। *बाल गंगाधर तिलक ने अंतिम रूप से भारतीय राष्ट्री कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन, 1919 में भाग लिया था।
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पुस्तकें और उनके लेखक
एनी बेसेंट ने 1898 ई. सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की तथा वर्ष 1907 में इन्हें थियोसोफिकल सोसायटी का अध्यक्ष चुना गया। * वर्ष 1914 में इन्होंने ‘कॉमनवील‘ तथा ‘न्यू इंडिया‘ पत्रों का प्रकाशन शुरू किया। अपनी पुस्तक ‘एनल्स एंड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान‘ में कर्नल जेम्स टॉड ने राजस्थान की सामंतवादी व्यवस्था के बारे में विस्तार से लिखा है।
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* श्यामजी कृष्ण वर्मा भारतीय क्रांतिकारी अधिवक्ता एवं पत्रकार थे, जिन्होंने लंदन में ‘दी इंडियन सोशियोलॉजिस्ट‘ नामक प्रकाशन की स्थापना की थी। * आमार सोनार बांगला‘ गीत की रचना वर्ष 1905 में बंग–भंग आंदोलन के दौरान रबींद्रनाथ टैगोर ने की थी । * इस गीत का संगीत गगन हरकारा के गीत ‘अमी कोढे पाबो तारे‘ से प्रेरित है। इस गीत की प्रथम 10 पंक्तियों को वर्ष 1972 में बांग्लादेश * ने राष्ट्रगान (National Anthem) के रूप में अपना लिया है। *. इस का अंग्रेजी अनुवाद सईद अली अहसान ने किया है। उल्लेखनीय है कि रबींद्रनाथ टैगोर ने भारत के राष्ट्रगान ‘जन–गण–मन‘ की भी रचना की है। * ये विश्व के एकमात्र ऐसे कवि हैं, जिनकी रचनाएं दो देशों ने राष्ट्रगान के रूप में अपनाए हैं। *गीतांजलि का मूल बांग्ला संस्करण 14 अगस्त, 1910 को प्रकाशित हुआ।
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गीतांजलि का अंग्रेजी संस्करण नवंबर, 1912 में पहली बार प्रकाशित हुआ। *गीतांजलि के लिए ही वर्ष 1913 में इन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था। *विचारात्मक पुस्तक ‘हिंद स्वराज‘ महात्मा गांधी ने मूल रूप से गुजराती भाषा में वर्ष 1909 में एक समुद्री जहाज के डेक पर उस समय लिखी जब वे लंदन से दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन के लिए वापसी यात्रा पर थे। * जिस पर ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया था। * इसके बाद प्रतिबंधसेब के लिए अपनी पुस्तक ‘हिंद और कहा है। महात्मा गांधी द्वारा की इसका प्रथम फरवरी 1955 कार्यप्रणाली पर की गई थी। गुरु के लेखक एम. के गांधी है। में अहमदाबाद से किया गया।
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ईश्वरचंद्र विद्यासागर (1820-10 उन्नीसवी शताब्दी के एक महान शिक्षाशास्त्री एवं समाजसुधारक उन्हीं के प्रयासों से विवाह अधिनियम, 1856 पारित किया गया। इन्होंने ‘बहुविवाहबाहेर नामक पुस्तकें भी लिखीं। डी.के. कर्वे ने पूना में आश्रम की स्थापना की *दास कैपिटल‘ (Das Kapital) जर्मन भाषा में प्रख्यात समाजवाद कार्ल मार्क्स द्वारा लिखित (1867 में प्रकाशित) पुस्तक है, जिसके कुछ भाग का संपादन फ्रेडरिक एंजेल्स ने किया था। इस पुस्तक में मावस ने पूंजीवाद के सिद्धांत की तीखी आलोचना करते हुए अपना विशिष्ट समाजवादी सिद्धांत प्रस्तुत किया है, जिसे ‘मार्क्सवाद‘ के नाम से जाना जाता है। इस पुस्तक के प्रथम खंड का प्रकाशन मार्क्स के जीवनकाल में हुआ तथा द्वितीय एवं तृतीय खंड का संपादन तथा प्रकाशन उनके मित्र एवं सहयोगी फ्रेडरिक एंजेल्स द्वारा किया गया। बंकिमचंद्र चटर्जी का उपन्यास ‘आनंदमठ‘ बंगाली देशभक्ति की बाइबिल माना जाता है। इस पुस्तक का कथानक संन्यासी विद्रोह (1763-1800) पर आवृत है। *केसरी सिंह बारहठ राजस्थान के कवि तथा स्वतंत्रता सेनानी थे। * इन्होंने वर्ष 1903 में 13 कविताओं की चेतावनी–रा–चुंगढ़या लिखी थी।
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“भारत भारती‘ के लेखक हिंदी के प्रसिद्ध कवि तथा राष्ट्रकवि की *. उपाधि से विभूषित मैथिलीशरण गुप्त हैं। * इनकी अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं–पंचवटी, साकेत, यशोधरा, जयद्रथ वध आदि । *’ऐ मेरे वतन के लोगों‘ एक हिंदी देशभक्ति गीत है, जिसके रचयिता कवि प्रदीप हैं। उज्जैन में जन्में कवि प्रदीप का मूल नाम रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी था। * इन्होंने 1962 के भारत–चीन युद्ध के दौरान शहीद हुए सैनिकों की श्रद्धांजलि में ये गीत लिखा था।
मोहम्मद इकबाल का जन्म 9 नवंबर, 1877 को ब्रिटिश भारत के पंजाब के सियालकोट (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उर्दू के प्रख्यात शायर तथा पेशे से वकील इकबाल प्रारंभ में महान राष्ट्रवादी थे। * ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा‘ गीत इन्होंने ही लिखा था, किंतु बाद में ये मुस्लिम लीग से संबद्ध हो गए। *”मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” मुहम्मद इकबाल द्वारा रचित प्रसिद्ध गीत ‘सारे जहां से अच्छा‘ का भाग है। * लैंडमार्क्स इन इंडियन कॉन्स्टीट्यूशनल एंड नेशनल डेवलपमेंट‘ नामक पुस्तक के लेखक गुरुमुख निहाल सिंह हैं। * यह वर्ष 1956 से 1962 तक राजस्थान राज्य के प्रथम राज्यपाल रहे थे। * कांग्रेस प्रेजिडेंशियल ऐड्रेसेज‘ (1935) के संपादक जी.ए. नटेशन (G.A. Natesan) थे। * यह पुस्तक दो भागों (Volumes) में प्रकाशित हुई थी, जिसके पहले भाग में 1885 से 1910 तक तथा दूसरे भाग में वर्ष 1911 से 1934 तक के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्षीय भाषण संकलित थे।
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*पं. जवाहरलाल नेहरू ने वर्ष 1942-1945 में अपने कारावास के दौरान अहमदनगर फोर्ट जेल में ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया‘ नामक पुस्तक
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