HISTORY OF INDIA UP to 300 A.D

HISTORY OF INDIA UP to 300 A.D.

 

 

भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण तिथियाँ

 

 

ईसा पूर्व (बी.सी.) Before Christ

 

 

लगभग 2500 ई.पू. हड़प्पा संस्कृति.
 
इसके प्रमुख केन्द्र थे- मोहनजोदडो तथा हडप्पा, लोथल, कालीबंगान, आलमगीरपुर
 
1500 ई.पू. ऋग्वैदिक सभ्यता का आरम्भ
 
800 ई.पू. – लोहे का प्रयोग, आर्य सभ्यता का प्रसार
 
567 ई. पू. – लुम्बनी में महात्मा बुद्ध का जन्म
 
519 ई.पू. – ईरान के सम्राट साइरस द्वारा पश्चिमोत्तर भारत के प्रदेशों की विजय
 
493 ई.पू. मगध के अजातशत्रु का राज्यारोहण
 
486 ई. पू. – महात्मा गौतम बुद्ध को कुशी-नगर नामक स्थान पर मोक्ष प्राप्त
 
468 ई.पू. महावीर स्वामी को राजगिरी के निकट पावापुरी नामक स्थान पर निर्वाण प्राप्त
413 ई. पू. – शिशुनाग राजवंश की मगध में स्थापना
 
362-21 ई.पू. – नन्दवंश का शासकाल
 
327-25 ई. पू. – यूनान के सिकन्दर महान् का भारत पर आक्रमण
 
321 ई. पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण
 
305 ई.पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा सेल्यूकस की पराजय
 
269-232 ई.पू. – अशोक का शासनकाल
 
261 ई. पू. – अशोक की कलिंग पर विजय
 
250 ई. पू. – पाटलीपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति
 
185 ई.पू. अन्तिम मौर्य सम्राट ब्रहद्रथ का वध मौर्य वंश का शासन समाप्त शुंग वंश का उदय
 
180-165 ई.पू. – इण्डो-ग्रीक दिमीत्रियस द्वितीय का उत्तर-पश्चिम भारत पर शासन
 
155-130 ई. पू. मेनान्डर का शासन-
 
73 ई. पू. शुंग वंश के अन्तिम सम्राट  देवभूति का वासुदेव कण्व द्वारा वध
 
73-28 ई.पू. – कण्व वंश का शासनकाल
 
58 ई.पू. विक्रम संवत् का प्रारम्भ
 
50 ई.पू. कलिंग का राजा खारवेल
 
28 ई.पू. 225 ई.पू. आन्ध्र व सातवाहन वंश का शासनकाल
 
 
 
ईसवी सन् (ए.डी.) Anno Domini
 
 
50 ईसवी सन्त थॉमस का भारत आगमन
 
78 ईसवी- शक संवत् का प्रारम्भ
 
78-101 ईसवी कुषाण वंश के प्रतापी शासक कनिष्क का शासनकाल कुछ के अनुसार (78-125 ईसवी)
 
 86-114 ईसवी- गौतमीपुत्र शतकर्णी का शासनकाल
 
130-150 ईसवी- शक शासक रुद्र दमन प्रथम का पश्चिमी भारत पर शासन
 
319-320 ईसवी-गुप्त वंश का प्रारम्भ. गुप्त संवत्, चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्यारोहण
 
335 ईसवी समुद्रगुप्त सिंहासन पर आसीन हुआ
 
375-415 ईसवी- चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल
 
388-409 ईसवी के मध्य – चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शक सत्ता का अन्त
 
405-411 ईसवी – चीनी यात्री फाह्यान की भारत यात्रा.
 
415 ईसवी- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का पुत्रकुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर आसीन हुआ
 
455-67 ईसवी-हुणों का आक्रमण
 
455-67 ईसवी स्कन्दगुप्त का शासन-
 
476 ईसवी – महान् वैज्ञानिकों व ज्योतिर्विद काल आर्यभट्ट का जन्म
 
570 ईसवी – पैगम्बर मोहम्मद का जन्म
 
606-647 ईसवी- हर्षवर्धन का शासन.
 
622 ईसवी हिजरी संवत् का प्रारम्भ
 
628-34 ईसवी के मध्य-पुलकेशिन द्वितीय द्वारा हर्षवर्धन को पराजित करना
 
629-645 ईसवी – चीनी यात्री ह्वेनसाग की भारत यात्रा
 
642 ईसवी-महान् पल्लव शासक नरसिंह वर्मन प्रथम द्वारा पुलकेशिन द्वितीय की पराजय
 
पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु
 
671-685 ईसवी – चीनी विद्वान् इत्सिंग का भारत के लिए प्रस्थान भारत में निवास का समय
 
712-13 ईसवी- मुहम्मद बिन कासिम द्वारा भारत पर आक्रमण तथा सिन्ध तट पर अधिकार 736 ईसवी दिल्ली के प्रथम नगर की स्थापना
 
 740 ईसवी चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा पल्लव वंश का अन्त
 
 
750 ईसवी बंगाल में पाल वंश के शासन का आरम्भ
 
757 ईसवी दन्ति दुर्ग धारा चालुक्यों से अपनी स्वतन्त्रता घोषित तथा राष्ट्रकुल वंश का
 
शक्तिशाली वंश के रूप में उदय
 
793 ईसवी- राष्ट्रकूट वंश के गोविन्द तृतीय का राज्याभिषेक
 
814-880 ईसवी राष्ट्रकूट शासक अमोघ- वर्ष प्रथम का शासनकाल
 
836-92 ईसवी -प्रतिहार वंश के महान् शासक भोज कन्नौज के सिंहासन पर आसीन, पूर्वी चालुक्य वंश के भीम प्रथम का राज्याभिषेक 897 ईसवी-चोल राजा द्वारा अन्तिम पल्लव शासक की पराजय काँची के पल्लवों का अन्त
 
915 ईसवी- राष्ट्रकूट शासक द्वारा बंगाल के शासक महीपाल की पराजय राष्ट्रकूट वंश का मध्य भारत में शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में अभ्युदय
 
949 ईसवी कृष्ण तृतीय द्वारा चोलवंशीय परान्तक प्रथम की पराजय 985 ईसवी – राजराज चोल प्रथम का राज्याभिषेक
 
1001 ईसवी-महमूद गजनी द्वारा पेशावर और पंजाब के हिन्दूशाही शासक जयपाल की पराजय 1008 ईसवी-पेशावर के समीप वेहिन्द पर महमूद गजनी द्वारा आक्रमण, आनंदपाल की पराजय
 
1010 ईसवी – भोज परमार शासक बना
 
1014 ईसवी-राजेन्द्र प्रथम चोल वंश का शासक बना
 
1017-1137 ईसवी दार्शनिक रामानुज 1019 ईसवी-महमूद गजनवी का मथुरा व कन्नौज पर आक्रमण
 
1022 ईसवी-महमूद गजनवी का कालिजर पर आक्रमण व ग्वालियर पर आक्रमण
 
1025 ईसवी महमूद गजनवी ईसवी-महमूद द्वारा सोमनाथ पर आक्रमण लूटपाट तथा मन्दिर तोड़ना
 
1030 ईसवी- अल्बरूनी भारत में
 
1030 ईसवी- राजेन्द्र चोल का उत्तरी. भारत का अभियान
 
1175 ईसवी- मुहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण व मुल्तान दुर्ग पर कब्जा
 
 1178 ईसवी -मुहम्मद गौरी का गुजरात पर आक्रमण तथा पराजय
 
1191 ईसवी तराइन का प्रथम युद्ध पृथ्वीराज चौहान द्वारा मुहम्मद गौरी की पराजय
 
1192 ईसवी तराइन का द्वितीय युद्ध पृथ्वीराज चौहान की मुहम्मद गौरी द्वारा पराजय
 
1194 ईसवी- मुहम्मद गौरी द्वारा चन्द्रावर के युद्ध में कन्नौज के शासक जयचन्द की पराजय
 
1206 ईसवी कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली के सिहासन पर आसीन मुस्लिम राज्य की स्थापना. मुहम्मद गौरी की हत्या
 
 
 
 

 

 

 

  1. इतिहास का अर्थ, परिभाषा और क्षेत्र ,Meaning  of History and Scope

(अर्थ, परिभाषा और इतिहास का दायरा ]

 

  1. इतिहास के योग

 

[इतिहास का स्रोत]

 

  1. प्रागैतिहासिक युग

 

[पूर्वऐतिहासिक काल]

 

पूर्व ऐतिहासिक युगपा सभ्यता

 

4.

 

[Proto-Historic Period-Harappa Civilization] भारत में लोह युगीन सभ्यतायें 5.

 

[भारत में लौह युग की संस्कृति]

 

  1. क्षेत्रीय राज्यों का उदयवैदिक और महाजनपद [Rise of Territorial States – Vedic and Mahajanpada]

 

7.

 

मगध साम्राज्य का उत्थान

 

[मगध साम्राज्य का उदय]

 

  1. मौर्य : राज्य और प्रशासन [Maurya : State and Administration]

 

9 परवर्ती मौर्य युगशुंग, पश्चिमी छत्रप, सातवाहन तथा कुषाण [ Post Mauryan Period- Sungas, Western Kshatrapas Satvahans and Kushans]

 

  1. सुदूर दक्षिण के चेर, चोल और पाण्ड्य

 

[सुदूर दक्षिण में चेरा, चोल और पांड्य)

 

 

 

 

इतिहास का अर्थ, परिभाषा और क्षेत्र

Meaning, definition and scope of history

 

 

इतिहास अतीत काल में जो कुछ घटित हो चुका है, उसका अभिलेख है.

 

यह प्रत्येक घटना का अभिलेख है, जो अतीत काल में घटित हुयी। वे चाहे बहुत पहले घटित हुयी हों अथवा हाल ही में घटी हो।जी० के० क्लार्क “History is the story of deeds and achievements of men livingin societies,”

 -Henery Pirenne

 

इतिहास की परिभाषा दीजिये और इसका क्षेत्र बताइये।

 

या

 

Define History and discuss its scope. “इतिहास एक कहानी है।इस कथन की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिये imper “History is the story.” Critically examine this statement.

 

इतिहास अंग्रेजी शब्द ‘History’ का हिन्दी रूपान्तर है। History यूनानी संज्ञालोरोप्ला” (Loropla) से लिया गया है, जिसका अर्थ है, सीखना कालान्तर में इतिहास के लिये Scientia नामक लैटिन शब्द प्रयुक्त किया जाने लगा। हिन्दी में इतिहास शब्द की व्युत्पत्तिइतिआसइन तीन शब्दों से मानी गयी है, जिसका अर्थ हैनिश्चित

 

रूप से ऐसा हुआ आधुनिक काल में इतिहास की व्युत्पत्ति जर्मन शब्दगेस्विचटे‘ (Geschichte) से मानी जाती है, जिसका अर्थ है-‘घटित होना। इस प्रकार इतिहास का अर्थ है, विगत घटनाओं का विशेष एवं बोधगम्य विवरण

 

सर्वप्रथम हेरोडोटस ने इतिहास के लियेहिस्ट्री‘ (History) शब्द का प्रयोग किया।हिस्ट्रीशब्दहिस्टोरेसे बना है। ग्रीक शब्दहिस्टोरेशब्द इतिहासकार के लिये प्रयुक्त होता है, जो वादविवाद का निर्णय करने में समर्थ होता था अर्थात् वह विषय का अच्छा ज्ञाता होता था। एक लम्बे समय तक माना जाता रहा कि इतिहास का अर्थ इतिहासकार द्वारा तथ्यों का संकलन करके अतीत की घटनाओं को लिपिबद्ध करना है। लेकिन तथ्य स्वयं नहीं बोलते, इतिहासकार तथ्यों को एकत्रित करके उनको एक निश्चित घटनाक्रम के रूप में प्रस्तुत करता है। कालान्तर में जर्मन इतिहासकारों ने इतिहास में दर्शन का समावेश करके उसे वैज्ञानिक रूप प्रदान किया।

 

इतिहास की परिभाषा

 

(Definition of History) इतिहास की परिभाषा के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। फिर भी इतिहास की विभिन्न परिभाषायें प्रस्तुत की गयी हैं। कुछ प्रमुख परिभाषायें इस प्रकार हैं

 

 

 

(1) हेनरी पिरेन के अनुसार – “इतिहास समाज में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों और

 

उपलब्धियों की कहानी है।

 

__(2) ट्रैवेलियन के अनुसार—” इतिहास अपने परिवर्तनीय अंश में एक कहानी है।

 

3) दुइजिंग के अनुसारइतिहास अतीत की घटनाओं का विवरण है।

 

उल्लेख है।

 

रनियर के अनुसार– “इतिहास सभ्य समाज में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों

 

(5) चार्ल्स फर्थ के अनुसार — “इतिहास मानवीय सामाजिक जीवन का वर्णन है। का इसका उद्देश्य सामाजिक परिवर्तनों को प्रभावित करने वाले उन सक्रिय विचारों का अन्वेषण है, जो समाज के विकास में बाधक अथवा सहायक सिद्ध हुये हैं। इन सभी तथ्यों उल्लेख इतिहास में होना चाहिये।” (6) कालिंगवुड के अनुसार – “इतिहास एक अद्वितीय प्रकार का ज्ञान है तथा यह

 

मानव के सम्पूर्ण ज्ञान का स्रोत है।

 

(2) डिल्वे के अनुसार – “इतिहास वर्तमान में अतीत कालीन ज्ञान का अध्ययन है।

 

कोंचे के अनुसार – ” सम्पूर्ण इतिहास समसामयिक इतिहास होता है।” () जी० आर० एल्टन के अनुसार – “इतिहासकार जिसे लिखता है, वही इतिहास है।

 

(10) ई० एक० कार के अनुसार – “वस्तुतः इतिहास इतिहासकार तथा तथ्यों के बीच अन्तःक्रिया की अविच्छिन्न प्रक्रिया तथा वर्तमान और अतीत के बीच अनवरत परिसंवाद है।

 

(11) गेरोन्सकी के अनुसार – “इतिहास विगत मानवीय समाज का मानवतावादी एवं व्याख्यात्मक अध्ययन है, जिनका उद्देश्य वर्तमान के बारे में अन्तर्दृष्टि प्राप्त करना तथा अनुकूल भविष्य को प्रभावित करने की आशा जाग्रत करना है।

 

(12) लार्ड एक्टन के अनुसार – “इतिहास मनुष्यों के व्यक्तिगत कार्यों का सामान्यीकृत लेखाजोखा है, जो किन्ही सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये एक निकाय में एकीकृत होते हैं।उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर इतिहास के सम्बन्ध में निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं

 

(1) इतिहास मौलिक रूप से एक मानवीय अध्ययन है। (2) इतिहास व्यक्ति और समाज दोनों का अध्ययन है।

 

(3) इतिहास मार्गदर्शक है। जो लोग इतिहास को सुनना जानते हैं, उनके लिये इतिहास एक प्रकार से पूर्व की चेतावनी का कार्य करता है (4) इतिहास व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों प्रकार के मानवीय अनुभवों की विलक्षणता

 

पर बल देता है। (5) इतिहास अतीत का अध्ययन है। इतिहास का विशेष दायित्व अतीत करना, पुनर्मूल्यांकन करना एवं उसकी पुनः व्याख्या करना है।

 

 

(6) साहित्य, दर्शन एवं कला की अपेक्षा इतिहास चयन तथा निर्णय अधिक करता है। यह बारबार मानवीय संस्कृति को बदल देता है। (7) इतिहास अतीत की घटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या है।

 

 

 

Scope of History

 

इतिहास का क्षेत्र निरन्तर परिवर्तनशील रहा है। इतिहास के विकसित क्षेत्र का एकमात्र आधार विभिन्न युगों के ऐतिहासिकसामाजिक मूल्य तथा उनको सामाजिक आवश्यकतायें रही हैं। आरम्भ में इतिहास लेखन अनुप्त ज्ञान पिपासा की पूर्ति करने के लिये हुआ। प्राचीन इतिहासकारों ने इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर इतिहास का अध्ययन किया।इतिहास के जनक‘ (Father of History) हेरोडोटस ने अतीत के मानवीय कार्यों को वर्तमान तथा भविष्य के लिये सुरक्षित करने के उद्देश्य से अध्ययन किया। इस प्रकार उसने मानवीय कार्यों तथा उपलब्धियों की कहानी प्रस्तुत की। सभी इतिहासकारों ने प्रत्येक युग में इतिहास लेखन की आवश्यकता को स्वीकार किया है। उनका एकमात्र लक्ष्य सामाजिक मूल्यों तथा आवश्यकता के अनुसार इतिहास को लिपिबद्ध करना था। मध्य युग में जब धर्म की प्रधानता को मान्यता मिली, सन्त आगस्टाइन ने सम्पूर्ण विश्व कोईश्वर के नगर के रूप में चित्रित किया। इसी प्रकार वैज्ञानिक युग की सामाजिक आवश्यकता ने इतिहास को विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया।

 

इतिहास के खोत

 

साहित्य

 

 

 

साहित्य के अन्तर्गत देशी और विदेशी साहित्य सम्मिलित है। बी० डी० महाजन ने

 

जाति सम्बन्धी किंवदन्तियाँ भी साहित्य में शामिल की हैं।

 

देशी साहित्य

 

(H) अनैतिहासिक या धार्मिक

 

(A) ब्राह्मण– (1) वेदवेदों में ऋग्वेद सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद आते हैं। ऋग्वेद से हमें आर्यों के प्रसार, उनके भीतरी और बाहरी संघर्ष, उनके राजनीतिक, सामाजिक 1 तथा धार्मिक जीवन आदि के बारे में काफी जानकारी मिलती है। सामवेद गान प्रधान है। पुरोहित (उद्गाता यज्ञों के समय देवताओं की स्तुति करते समय इसके मन्त्रों को गाया करते हैं। यजुर्वेद विभिन्न यज्ञ विधियों का संग्रह है

 

(2) ब्राह्मण ग्रन्थइन्हें वेदों की टीका कहा जा सकता है। उत्तर वैदिक आर्यों की सभ्यता पर इनसे महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। प्रत्येक ब्राह्मण एक वेद या संहिता से सम्बन्धित है। ऐतरेय और कापीतकी ब्राह्मण ऋग्वेद से, शतपथ यजुर्वेद से, पंचविश सामवेद से, तथा गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद से सम्बन्धित है। ब्राह्मण ग्रन्थ आर्यों के राजनीतिक जीवन के अतिरिक्त सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन की झाँकी प्रस्तुत करते हैं।

 

(3) आरण्यकब्राह्मण ग्रन्थ का ही भाग आरण्यक भी है। ये मन्य अरण्यों (वनों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्गदर्शन के लिये लिखे गये थे। इनमें यज्ञों एवं धार्मिक अनुष्ठानों के अतिरिक्त दार्शनिक प्रश्नों की भी चर्चा की गयी है, जो भारतीय दर्शन का ज्ञान उपलब्ध कराते हैं। प्रमुख आरण्यकों में ऐतरेय, तैत्तरीय, मैत्रयाणी आरण्यकों का उल्लेख किया जा सकता है।

 

(4) उपनिषदआरण्यकों में जिस दार्शनिक विचारधारा का प्रारम्भ हम पाते हैं, उन्हीं का विस्तृत स्वरूप हमें उपनिषदों में देखने को मिलता है। इनमें जीव, आत्मा, परमात्मा, ब्रह्मा, कर्म, सृष्टि सम्बन्धी दार्शनिक एवं रहस्यात्मक प्रश्नों की विवेचना की गयी है। इनमें धार्मिक कर्मकाण्डों, यज्ञों, बलि इत्यादि की तीखी आलोचना भी की गयी है। प्रमुख उपनिषदों में ईश, केन, कठ, छान्दोग्य इत्यादि का उल्लेख किया जा सकता है। उपनिषदों से राजनीतिक इतिहास का भी पता चलता है। इनसे परीक्षित, उसके पुत्र जन्मेजय, उसके उत्तराधिकारी तथा विदेह के राजा जनक की ओर भी संकेत हैं। ब्लूमफिल्ड ने ठीक ही लिखा है कि, “हिन्दू धर्म का कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण विषय नहीं है जिसकी जड़ उपनिषदों में आरोपित हो।इनकी रचना लगभग 800-500 ई० पू० के मध्य मानी जाती है।

 

(5) वेदांगवेदांग वेद के अन्तिम भाग माने जाते हैं। वैदिक अध्ययन के लिये विद्या की विशिष्ट शाखाओं का जन्म हुआ जो वेदांग के रूप में विख्यात हुये और जिनका उल्लेख मुण्डक उपनिषद में है। वेदांग संख्या में 6 हैंशिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष

 

(6) सूत्र साहित्यवेदांगों के एक भाग का नाम हैकल्प (अनुष्ठान) कल्प सूत्रों में विभाजित हैश्रीत (यज्ञ सम्बन्धी नियम), गृह (मानव जीवन के कार्यकलापों से सम्बन्धित संस्कार, नियम, इत्यादि), धर्म (सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक नियम), शत्व (पत्र, हवन कुण्डों से सम्बन्धित नियमों का संकलन) कल्प के अलावा जैसा कि ऊपर लिखा गया है, अन्य वेदांग हैंशिक्षा (उच्चारण विज्ञान), व्याकरण, निरुक्त (व्युत्पत्ति विज्ञान), छन्द और ज्योतिष

 

 

(ii) हिकेटियस मिलेटसइसने भी स्काइलेक्स का ही आश्रय लेकरभूगोल नामक धन्य लिखा जो स्काइलेक्स की ही भाँति सिन्धु नदी की घाटी तक सीमित है। (iii) हेरोडोटस – ‘इतिहास के जनकहेरोडोटस ने अपने अन्य हिस्टोरिका में ईरानी

 

और यूनानी आक्रमणों तथा इण्डोईरानी सम्बन्धों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। वह हमें अपने समय के उत्तरपश्चिमी भारत की सांस्कृतिक जानकारी तथा राजनीतिक स्थिति का ज्ञान प्रदान करता है। उसका मत है कि उत्तरी भारत का भूक्षेत्र द्वारा (डेरियस) के साम्राज्य का एक अंग था। यह भूक्षेत्र उसके साम्राज्य का 200 प्रान्त था।

 

(iv) टेसियस (Ctesias) – टेसियस यूनानी राजवैद्य था तथा पारसीक सम्राट अजिग्जीन के दरबार में रहता था। उसने पूर्वी देशों से लौटकर आये हुये यात्रियों के मुंह से सुनसुन कर भारत के सम्बन्ध में अद्भुत कहानियों का संग्रह किया था।पर्शिकाउसका प्रमुख प्रन्थ है, जो अब उपलब्ध नहीं (?) उद्धरण अवश्य मिल जाते हैं जिनसे कुछ सहायता मिल जाती है। किन्तु प्रामाणिकता की दृष्टि से उसकी अधिकांश सामग्री सन्देहास्पद है। (2) सिकन्दर के समकालीन (1) निअर्कस यह सिकन्दर के जहाजी बेड़े का एडमिरल

 

(अध्यक्ष) था। इसके लेखों के उद्धरण स्ट्रेबो तथा एरियन के लेखों में मिलते हैं।

 

(ii) ऐरिस्टोवलसइसनेहिस्ट्री दी वामें अपने निजी अनुभवों का वर्णन किया है। एरियन और प्लुटार्क भी इस ग्रन्थ से लाभान्वित हुये थे। (iii) आनेसिक्रिटसयह सिकन्दर के जहाजी बेड़े का पाइलट था। इसनेसिकन्दर की जीवनीलिखो।

 

(3) सिकन्दर के परवर्ती— (i) मेगस्थनीजयह यूनानी शासक सेल्यूकस के राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार (पाटलिपुत्र) में आया था। भारत की तत्कालीन सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थिति के विषय में बहुत कुछ लिखा है। यद्यपि उसकी मूल पुस्तकइण्डिकाउपलब्ध नहीं है, किन्तु अन्य ग्रन्थों में इसके उद्धरण प्राप्त होते हैं जिससे पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री मिलती है। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र नगर की संरचना, चन्द्रगुप्त के व्यक्तिगत जीवन तथा उसके शासनप्रबन्ध के लिये बनी समितियों एवं उसके सैनिक प्रवन के विषय में विस्तार के साथ लिखा है। उसने भारतीय संस्थाओं, भूगोल एवं वनस्पति के

 

सम्बन्ध में भी लिखा है। (ii) डायमेकसयह बिन्दुसार के दरबार में राजदूत बनकर आया था। इसका लि हुआ मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। स्ट्रेबो ने अपने लेखों में एकदो बार डायमेक्स के कपों के उद्धरण दिये हैं।

 

(iii) डायोनिसियसइसे मिस्र के राजा टॉलेमी ने अपना राजदूत बनाकर भारत था। वह मौर्य नरेश बिन्दुसार की राजसभा में यूनानी राजदूत के रूप में रहा था। उसक मूल ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है, परन्तु उसका उपयोग बाद के लेखकों ने अपने ग्रन्थों किया है।

 

(iv) एरियनयह एक प्रसिद्ध यूनानी इतिहासकार था उसनेइण्डि

 

एनोबेसिसअर्थात् सिकन्दर के अभियान का इतिहास नामक दो ग्रन्थ लिखे। ये दोनों घर

 

सिकन्दर के समकालीन लेखकों और मेगस्थनीज के विवरणों पर आश्रित थे। विमल

 

पाण्डेय के अनुसार, “सम्पूर्ण विवरण को देखते हुये मानना पड़ेगा कि उसकी अधिक

 

बातें सत्य हैं।

 

(v) स्ट्रेबोयह एक प्रसिद्ध इतिहासकार एवं भूगोलवेत्ता था। इसने देशविदेश भ्रमण करके भारी अनुभव प्राप्त किया। इसका प्रन्थभूगोलइतिहास में अपना बड़ा रखता है। भौगोलिक अवस्थाओं के अतिरिक्त इसमें सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक

 

 

शीर्ष अथवा अधोभाग पर अनेक लेख उत्कीर्ण मिले हैं जिनसे प्राचीन इतिहास के निर्माण में बहुत सहायता मिलती है। इनसे मन्दिरों के निर्माण या मूर्तियों के प्रतिष्ठापन का समय ज्ञात होता है। इनसे वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास पर भी प्रभाव पड़ता है। ये भाषाओं के विकास पर प्रभाव डालते हैं। उदाहरणस्वरूप, गुप्तकाल से पहले के अधिकार अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं और उनमें ब्राह्मगोत्तर धार्मिक सम्प्रदायों जैसे बौद्ध और जैन धर्म का उल्लेख है। गुप्तोत्तर काल के अधिकतर अभिलेख संस्कृत में हैं और उनमें विशेष रूप से ब्राह्मण धर्म का उल्लेख है।

 

(e) प्राकार लेखप्राय: प्राचीन मन्दिरों तथा स्तूपों के चारों ओर प्राकार अथवा चार दीवारों का निर्माण किया जाता है। इन प्राचीरों पर भी उत्कीर्ण अभिलेख प्राप्त हुये हैं। इस प्रकार के अभिलेखों में भरहुत का प्राकार अभिलेख बड़ा महत्त्वपूर्ण है जिससे पता चलता है कि इसका निर्माण शुंग राजाओं के काल में हुआ था। (1) पाषाण पत्र लेखमध्य प्रदेश में धार में उपलब्ध पाषाण पत्रों पर नाटकों के

 

अंश उल्लिखित हैं। (g) पात्र लेखप्राचीनकाल के मृदपात्रों तथा धातु पात्रों पर भी उत्कीर्ण लेख प्राप्त हुये हैं। सिन्धु घाटी की खुदाई में इस प्रकार के अनेक अभिलेख मिले हैं जिनसे तत्कालीन दशा का पर्याप्त परिचय मिल सकता है, परन्तु अभी तक वे पढ़े नहीं जा सके हैं। पात्र लेखों में पिपरहवा कलश लेख उल्लेखनीय है।

 

(h) ताम्र पत्र लेखप्राचीन काल में जब सम्राट लोग प्रसन्न होकर किसी व्यक्ति को भूमि अथवा सम्पत्ति दान में देते थे तो उसे ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करा कर प्रमाणपत्र के रूप में दे दिया करते थे। इनमें उपहार अथवा दान देने वाले सम्राट का नाम, वंश तथा क्रियाकलापों का उल्लेख रहता था। सौहगोरा पत्र से तत्कालीन शासन व्यवस्था की जानकारी मिलती है।

 

(i) मुहर अभिलेखइस प्रकार के लेख मिट्टी तथा धातु दोनों ही प्रकार की बनी मुहरों (Scan) पर उत्कीर्ण किये जाते थे। इन मुद्राओ अथवा मुहरों पर राजकीय पदाधिकारियों अथवा व्यक्ति विशेष के नाम अथवा हस्ताक्षर उत्कीर्ण मिले हैं जो इतिहास के निर्माण में पर्याप्त सहायक हैं। वैशाली से बहुतसी मुहरें मिली हैं जिनमें ध्रुवस्वामिनी की मुद्रा मुख्य है। मुहरों के महत्त्व के बारे में एक विद्वान् ने लिखा है– “मुहरों के भिन्नभिन्न रूपों के द्वारा हमें प्रान्तीय और स्थानीय प्रशासन के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। हमें बड़े और छोटे दोनों ही प्रकार के अधिकारियों की मुहरें प्राप्त हुयी हैं।

 

(4) काल के आधार पर – (a) अशोक के पूर्ववर्ती अभिलेखकतिपय विद्वानों की यह धारणा है कि अभिलेखों के उत्कीर्ण कराने की परम्परा का प्रादुर्भाव अशोक के पूर्व हो चुका था। अपने मत के समर्थन में इन विद्वानों ने बस्ती से प्राप्त पिपरहवा कलश लेख एवं अजमेर में प्राप्त बडली अभिलेखों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। परन्तु अभिलेखों के उत्कीर्ण करने का स्वर्ण काल अशोक के ही समय से आरम्भ होता है।

 

(b) अशोक के समय के अभिलेखअनेक विद्वान् अशोक को ही अभिलेखों का जन्मदाता स्वीकार करते हैं। अशोक ने अपने सम्पूर्ण राज्य में शिलाओं तथा स्तम्भों पर लेख लिखवाये थे। ये लेख अशोक के जीवन तथा व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने के साथ ही तत्कालीन इतिहास पर भी प्रकाश डालते हैं।

 

(c) अशोक के परवर्ती अभिलेखअशोक के बाद के लेखों को हम राजकीय तथा अराजकीय दो भागों में बाँट सकते हैं। राजकीय लेख प्रधानतः प्रशस्तियों अथवा भूमि दानों के रूप में पाये जाते हैं। प्रशस्तियां राजकवियों द्वारा सम्राटों की प्रशंसा में लिखी गयी है।

 

 

 

  1. A) देशी स्मारकदेशी स्मारकों में प्रधान निम्नांकित हैं

 

(1) सारनाथ का घंटाकार स्तम्भइस घंटाकार स्तम्भ मस्तक के बारे में जे० मार्शल ने लिखा है कि यह भारतवर्ष की सर्वोच्च नक्काशी है और प्राचीन विश्व में इसकी क्षमता की कोई दूसरी वस्तु नहीं थी। (2) झाँसी तथा कानपुर के मन्दिरझाँसी जिले में देवगढ़ का पत्थर का दशवतार मन्दिर तथा कानपुर जिले में भीतरी गाँव का ईंटों का मन्दिर प्राचीन भारत की भवननिर्माण

एवं वास्तुकला की महानता के द्योतक हैं।

 

(3) अजन्ता तथा एलोरा की चित्रकारीअजन्ता तथा एलोरा की गुफाओं में जो चित्रकारी मिलती है उससे प्राचीन भारत की चित्रकला का कुशलता से बोध हो जाता है। (4) प्राचीन मूर्तियां प्राचीन मूर्तियों से भारतीय मूर्तिकला तथा मूर्ति निर्माण की कुशलता का बोध हो जाता है। गुप्तकालीन मूर्तियों से यह पता चलता है कि उस समय वैष्णव, शैव तथा बौद्ध धर्मों का प्रचलन था एवं उनमें धार्मिक सहिष्णुता थी

 

(5) उत्खनन में प्राप्त सामग्रीपुरातत्त्व विभाग द्वारा कई स्थानों में उत्खनन कार्य किया जा रहा है। प्राचीन नगरों में या नदियों के तटों पर टीलों, गुफाओं, खण्डहरों, दुर्गों आदि में खुदाई करने पर प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है। इससे प्राण एवं प्राक् काल के इतिहास, तथा बाद के समय की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है।

 

(B) विदेशी स्मारकजावा, कम्बोज, मलाया, बाली, बोर्नियो, चीनी, तुर्किस्तान, बलुचिस्तान आदि स्थानों में जो स्मारक उपलब्ध हुये हैं उनसे यह प्रतिविम्बित होता है कि प्राचीन काल में भारतीय धर्म और संस्कृति की ज्योति वहाँ विकीर्ण हो गयी भग्नावशेषों में आज भी देदीप्यमान है। रमाशंकर त्रिपाठी के अनुसार, “विदेशों के प्राचीन स्मारकीय भग्नावशेष प्राचीन भारत के अज्ञात गौरव का नवीन प्रकरण हमारे सामने खोलते हैं।इनसे ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतीय धर्म एवं संस्कृति का वहाँ प्रचार था

 

कलाकृतियाँ एवं मिट्टी के बर्तनविभिन्न स्थानों पर किये गये उत्खननों से मिट्टी की बनी हुयी अनेक मूर्तियाँ वर्तन प्राप्त होते हैं। इन बर्तनों मूर्तियों का भी अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि इनसे तत्कालीन लोक कला धर्म सामाजिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। यह बर्तन मूर्तियाँ विभिन्न रंगों आकारों से मिलते हैं। चित्रकलाप्रागऐतिहासिक काल की चित्रकला से यह पता चलता है कि मानव किस

 

प्रकार अपने भावों की अभिव्यक्ति रेखांकन द्वारा करता था। चित्रकला से ही हमें पता

 

चलता है कि गुप्त युग तक आतेआते मानव ने चित्रकला क्षेत्र में कितनी प्रगति कर ली थी। उपरोक्त विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय इतिहास की जानकारी के विविध साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक स्रोत हैं। प्रत्येक प्रकार के स्रोत का अपना अलग महत्त्व है। इनमें से किसी भी स्लोत पर विशेष बल देने एवं दूसरे की अपेक्षा करने पर इतिहास की सही जानकारी नहीं हो सकती। तुलनात्मक दृष्टि से पुरातात्विक प्रमाण ज्यादा प्रामाणिक होने के बावजूद अपने में पूर्ण नहीं हैं। इसलिये दोनों प्रकार के स्रोतों के उचित प्रयोग के आधार पर ही निरषेध इतिहास की रचना की जा सकती है। यद्यपि विभिन्न युगों में विविध सम्वतों का प्रचलन तिथियों का ज्ञान होना आदि अनेक समस्यायें रास्ते में आती है, किन्तु इन समस्याओं को अतिक्रमण करके प्राचीन भारत के क्रमिक वैज्ञानिक इतिहास का निर्माण करना असम्भव कार्य नहीं है।

 

प्रतिपादन एवं अन्य मतमतान्तरों के खण्डन के साथसाथ छठी सदी ई० पृ०. के मामों, नगरों, जनपदों, राज्यों एवं गणराज्यों का उल्लेख भी मिलता है। युद्ध के उपदेशों का निरूपण मिलता है। संयुक्त इससे भी बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों के साथसाथ छटी ई० पू० की समाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर काफी प्रकाश पड़ता है।

 

(iii) अंगुत्तरइसमें 11 निपात हैं और जो 6 ई० पू० के महाजनपदों एवं अन्य ऐतिहासिक महत्त्व की बात बतलाते हैं।

 

(iv) खुदकइसके खुहक पाठ, धम्मपद उदान, इतिवृत्तक, सुन निपात, विमान वत्यु, पेट वत्थु थेरगाथा, थेरीगाथा, निस, पतिस्म्मिदाग, अपादान, बुद्धवंश चरिया पिटक आदि पंथ आते हैं।

 

(v) अभिधम्म पिटकइसमें बौद्ध धर्म के दार्शनिक पक्ष का विवेचन मिलता है 1 इसके अन्तर्गत धम्मसंगणि, विभंग, धातुकथा, पुग्गल पंजति, कथा वत्यु, यमक एवं पठान नामक ग्रन्थ आते हैं। बौद्ध धर्म तथा तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के अध्ययन में इन ग्रन्थों का काफी महत्त्व है। रतिभानुसिंह नाहर के अनुसार – “त्रिपिटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये बौद्ध ग्रन्थ के संगठन का पूर्ण विवरण उपस्थित करते है। साथ ही तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का भी बोध कराते हैं।

 

(2) जातकजातकों का भी अपना महत्त्व है। इनकी संख्या 549 है। विटरनिट्ज

 

के अनुसार, “जातक केवल इसलिये ही अमूल्य नहीं कि उनके साहित्य और उनकी कला

 

का प्रकाशन वैसा है। अपितु 3 ई० पू० की सभ्यता के इतिहास की दृष्टि से भी उनका

 

ऊँचा मान है।जातकों से तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक

 

अवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता

 

(3) अन्य बौद्ध ग्रन्थ अन्य ग्रन्थों में पाली ग्रन्थ मिलिन्द्रपन्हो, दीपवंश, महावंश तथा चूलवंश उल्लेखनीय हैं। मिलिन्दपन्हो से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक अवस्थाओं के अतिरिक्त आर्थिक अवस्था का भी पूर्ण विवरण प्राप्त होता है। दीपवंश से मौर्य वंश के इतिहास निर्माण में सहायता ली जाती है। यद्यपि इसमें कपोलकल्पित एवं अतिरिक्त उल्लेखों की भरमार है। इसका रचनाकाल 5 ई० पू० स्वीकार किया गया है। महावंश से भी मौर्य साम्राज्य की जानकारी मिलती है, यद्यपि इसमें भी कपोल कल्पित कथाओं का समावेश है। चूलवंश से प्रभाकर के शासनकाल तक का वर्णन मिलता है। इसका रचनाकाल भी 5 ई० पू० माना जाता है। इन प्रन्थों के अतिरिक्त महावस्तु का भी अपना महत्त्व है। यह प्रथ मिश्रित संस्कृत में करीब 2-1 ई० पू० में लिखा गया। इससे जातक कलाओं तथा महाजनपदों की जानकारी मिलती है। ललितविस्तर भी मिश्रित संस्कृत में है। इसमें बुद्ध लीलाओं का वर्णन तो है ही, परन्तु साथ ही धार्मिक तथा सामाजिक अवस्थाओं का भी वर्णन है। बुद्धचरित् सदरा (दोनों अश्वघोषकृत एवं विशुद्ध से भी भारतीय इतिहास के निर्माण में पर्याप्त सहायता मिलती है। मंजुश्री मूलकल्प में मौर्य के पूर्व से लेकर हर्ष तक के युग की राजनीतिक घटनाओं का यत्रतत्र वर्णन है। दिव्यावदान भी अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। अशोकावदान तथा कुणालावदान से मौर्यवंश के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त नागार्जुन के माध्यमिक सूत्र शतसहस्मिका वसुबन्धु के धर्मबन्धु के धर्मकोष का भी अपना महत्त्व है। वैपुल्य सूत्र भी एक महत्त्वपूर्ण बौद्ध ग्रन्थ है। (C) जैन साहित्यजैन धर्म के ग्रन्थ आगम अथवा सिद्धान्त के नाम से ज्ञात हैं।

 

आगम साहित्य के अन्तर्गत ये आते हैंबारह अंगआचारंग सूत्र, सूयगडंग, ठाणंग, समवायंग, भगवतीसूत्र, नायाधम्मकहासूत्र, उवासगदसाओ, अन्तगडदसाओ, अपुत्तरो ववाइयदसाओ, पन्हावागरणाइन, विवागसुयम, तथा दिष्ठीवाय

 

 

 

बारह उपांगउपवाय, रायपसेणैज्ज, जीवाभिगम, पन्नवण, सुरपन्नति, जम्बुद्दीपन्नति चन्दपन्नति, निर्यावली, कप्प, वडसी समरूप, पुष्आयो, पुष्कचलियाओ तथा दिशाओ। दस प्रकीर्ण चौसरण, ओरपच्य करवाण, भट परिन्ना, संघर, तंदुलने वालिय चालू

 

विज्झम, देविन्दत्यव, गणिविद्या, महापच्चकवाण, वीरत्थ। छःच्छेदिससूत्रनिसीह, महानिसीह, क्वाहार, आयारदसाओं, कप्प, पंचकल्प। चार मूल सूत्र उत्तराय, अवस्थ्य, दस वेयाल पिण्डनिति।

 

(11) लौकिक साहित्य

 

लौकिक साहित्य, जैसेपाणिनि कृत अष्टाध्यायी (जिसमें आधुनिक शोधों के अनुसार कम्प्यूटर के प्रोप्रामिंग की जानकारी भी है और जो रूप और सार तत्त्व में कम्प्यूटर की कोबाल और फोटान की भाषा की तरह है) पतंजलि कृत महामाय से हमें मौर्य एवं मुंग काल के इतिहास की जानकारी मिलती है। इन पदों से तत्कालीन गणराज्यों की जानकारी मिलती है तथा भारत पर होने वाले यूनानी आक्रमण की भी नीतिसार नीतिवाक्यात ये हमें तत्कालीन राजकीय मशीनरी के बारे में जानकारी मिलती है। गार्गीसहित (1 कामसूत्र पू० ?” से यूनानियों के आक्रमण एवं शासन पर प्रकाश पड़ता है। विशाखदत्त के मुद्राराक्षस से नन्दों और मौर्यो के इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। कालिदास के अभिज्ञानशकुन्तलम् मालविकाग्निमित्रम् रघुवंशम् मे शुक के पृच्छकटिक, वात्स्यायन के काम दण्डिन के दशकुमारचरित आदि से तत्कालीन सभ्यता एवं संस्कृति का पता चलता है। सम्राट हर्ष द्वारा रचित तथाकथित ग्रन्थ नाग नन्द, रत्नावली और प्रियदर्शिका से भी तत्कालीन इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इसके अतिरिक्त बाण के हर्षचरित और कादम्बरी से हर्षवर्धन के राज्य को जानकारी मिलती है। रामचरित (सन्ध्याकरनन्दी), भोजप्रबन्ध (करनाल) 2 लालचरित (आनन्द भट्ट) पृथ्वीराज विजय (जयानक), पृथ्वीराजरासो (चन्द्रवरदायी अच्युतराजभ्युदय (राजराज), हमीरपईन (जयसिंह सूरी), प्रबन्धविन्तामणी (मेरुतुंग), वृहत गुणलोक्यसून्दरी (रुद्र), मनोवती (धवल) वररुचि की चारुवती सुमनोत्तरी भाग विन्दुमती विलासपती तथा प्राकृत भाषा की तरंगवती आदि सुन्दर कथाओं से भी प्राचीन इतिहास के अमूल्य संकेत प्राप्त होते हैं। सोमदेव के कथाचरित सागर, अरिमित सुकृतसंकीर्तण, राजेश्वर के प्रबन्धकोष से गुप्तकालीन इतिहास की अच्छी जानकारी मिलती है। इसके अलावा कुमारपालचरित (हेमचन्द्र), हमीर काव्य (जयचन्द्र), वल्लभी विक्रमांकदेवचरित (बिल्हण) नवसाहशांकचरित (परिमणगुप्त या पद्मगुप्त), कामन्दकीय नीतिशास्त्र (कामन्दक), बार्हस्पत्य, अर्थशास्त्र (बृहस्पति) बृहतकथामंजरी (क्षेमेन्द्र) आदि ग्रन्थों से भी विपुल ऐतिहासिक जानकारी मिलती है। भवभूति के ग्रन्थों का भी अपना महत्त्व है। भास कृत स्वप्नवासवदत्ता और प्रतिज्ञायोगंधरायण से हमें प्रद्योत कालीन भारत

 

की राजनीतिक स्थिति का पता चलता है। यद्यपि उपरोक्त सभी प्रधानतः साहित्यिक रचनायें हैं, और इनमें कल्पना की उड़ान तथा रूपकों का प्रचुर समावेश है, परन्तु सावधानी तथा सतर्कता से समीक्षा करने पर इनमें

 

पर्याप्त ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हो जाते (IIT) ऐतिहासिक

 

यद्यपि प्राचीन भारत का कोई ऐसा मन्य नहीं है जिसे विशुद्ध रूप से ऐतिहासिक कहा जा सके और जो इतिहास की कसौटी पर खरा उतर सके, क्योंकि (लगभग सभी , पर साहित्य दर्शन, धर्म आदि का प्रलेप चढ़ा हुआ है, तथापि कुछ ग्रन्थ ऐसे अवश्य। जिन्हें इतिहास की परिधि के अन्तर्गत रखा जा सकता है। इसमें से मुख्य अग्र हैं-.

 

(1) कौटिल्य का अर्थशास्त्र -15 का कोटा (41) राजनीतिशास्त्र और प्रशासन प्रणाली का सबसे महत्वपूर्ण है। राज्यको उसका संगठन, उसकी सुरक्षा के उपाय राजा के अधिकार और कर्तव्य मंत्रियों और अधिकारियों की नियुक्ति के नियम, सामाजिक संस्थाओं, आर्थिक क्रियाकलापों इत्यादि विषयों का विशद विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसमें राजा आमात्य राज्य कर्मचारी माम नगर, राज्य कर, वाणिज्य, न्याय, विवाह, स्त्री, धन, उत्तराधिकार, कटकशोधन, राज्य कर्मचारियों के आधार की परीक्षा मण्डल विधान, व्यसन, आक्रमण, युद्धश्रेणीसमूह कूटनीति दुर्गा पर आधिपत्य और गुप्तचर कार्य आदि विषयों का विवेचन बड़ी मार्मिकता से किया गया है। भोटे रूप में यह मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था, विशेषतया चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन की अच्छी जानकारी देता है।

 

(2) महाकाव्य रामायण तथा महाभारत (जिनमें अब कुल सवा लाख श्लोक है) हमारे देश के दो महाकाव्य हैं। रामायण मोटे रूप से राजा राम की कहानी है। परन्तु इससे तत्कालीन पारिवारिक जीवन, वर्णाश्रम व्यवस्था, धर्म, आर्थिक उन्नति, राजकीय व्यवस्था की जानकारी भी मिलती है। इसके अलावा, इससे हमें जनपदों की उत्पत्ति तथा विकास का भी ज्ञान होता है। इससे हमें हिन्दुओं तथा यवनों (यूनानियों) और शकों (सीथियनों) के संघर्ष का पता चलता है। महाभारत लगभग 950 ई० पू० हुये भारत युद्ध का ही विस्तृत रूप है। यह सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिविम्व है। इससे यह पता चलता है कि उस समय हिन्दू धर्म की स्थिति क्या थी। इसमें हिन्दू राजतन्त्र का अच्छा वर्णन है।

 

(3) कल्हण की राजतरंगिणीराजतरंगिणी की रचना कल्हण ने 1149-50 में की। आर० सी० मजूमदार का मत है कि राजतरंगिणी ही प्राचीन भारतीय साहित्य का एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसे यथार्थ रूप में प्राचीन भारत का ऐतिहासिक पन्थ कहा जा सकता है। इसमें प्राचीन काल से लेकर 12वीं सदी तक का कश्मीर का इतिहास दिया हुआ है। 7वीं सदी से पूर्व का भाग विश्वसनीय नहीं है, परन्तु आगे का भाग विश्वसनीय है। लेखक ने कालक्रमानुसार प्रत्येक राजा का विस्तृत परिचय दिया है। (4) वाक्पति का गौडवहोवाक्पति द्वारा प्राकृत में रचित गौडवहो का अपना महत्त्व

 

है। इस ग्रन्थ से कन्नौज के राजा यशोवर्मन के शासनकाल की अनेक घटनाओं का ज्ञान

 

प्राप्त होता है।

 

(5) तमिलसंगम साहित्यतमिल भाषा में लिखे प्रन्थ हमें दक्षिण भारत के इतिहास की बहुतसी घटनाओं का परिचय देते हैं। संगम काल का साहित्य ईसा की पहली सदियों के राज्यों और समाज पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। एक राजकवि ने अपनी पुस्तक नन्दिक्कलम्बकम् में पल्लव राजा नन्दिवर्मन III का वर्णन किया है। कलिगतुप्परणि में राजा कुलोन्तुंग द्वारा कलिंग देश पर किये गये आक्रमण का वर्णन है। ओकूतन नामक लेखक वे अपने 3 अन्यों में मणिमेकलाई लिपदिकारमतिर ?) तीन पोल राजाओंविक्रम चोल, कुलोतुंग II और राजराज II का वर्णन किया है।

 

(6) अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थउपरोक्त के अलावा, शुक्राचार्य द्वारा रचित शुक्रनीतिसार सोमेश्वर प्रणीत और रासमाला और कीर्ति कौमुदी का भी अपना महत्त्व है। इसी प्रकार नेपाल के स्थानीय इतिहास भी हैं, किन्तु उनके तथ्यों को ठीक प्रकार एकत्रित नहीं किया गया है।

 

विदेशी साहित्य

 

(1) ईरानी यूनानी एवं रोपनसिकन्दर के पूर्ववर्ती (1) स्काइलेक्स स्काइलेक्स फारस के सम्राट डेरियस का यूनानी सैनिक था। वह सिन्धु घाटी प्रदेश के अध्ययन हेतु आया था, और उसने उसके विषय पर लिखा।

 

 

राजनीतिक अवस्थाओं का भी उल्लेख है। भारतवर्ष के विषय में इसमें पर्याप्त उल्लेख मिलता है।

 

(vi) कर्टियस पर रोमन सम्राट क्याडियस (41-54 0) का समकालीन था। इसकी पुस्तक से भी सिकन्दर के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है। (vi) डायोडोरस यह यूनान का प्रसिद्ध इतिहासकार था। इसने अनेक वर्षों के कठिन परिश्रम के पश्चाद अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ बिलिओका हिस्टोरिका की रचना की। इस ग्रन्थ से सिकन्दर के भारत अभियान और भारत के विषय में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध

 

होती है। (viii) जस्टिनयह एक रोमन इतिहासकार था। इसके अन्य से सिकन्दर के अतिरिक्त अन्य यूनानी शासकों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

 

(ix) प्लिनी यह एक रोमन इतिहासकार था। इसने नेचुरल हिस्टरीलिखा जिसमें भारत के पशुओं, पौधों और खनिज पदार्थों का वर्णन है।

 

(x) पेट्रोक्लीज यह यूनानी नरेश सेल्यूकस और एण्टी आकस प्रथम (281-261 ई०

 

पू०) के किसी पूर्वी प्रान्त का एक पदाधिकारी थी। इसने पूर्वी देशों का भूगोल ग्रन्थ लिखा

 

इसमें भारतवर्ष का भी वर्णन है। स्ट्रेबो ने पेट्रोक्लीज के वर्णन को सत्य माना है। (xi) पेरिप्लस मारिस अरिथीए-80 ई० पू० के एक अज्ञात यूनानी लेखक ने पेरिप्लस मारिस अरिथीए (लाल सागर परभ्रमण) नामक पुस्तक लिखी। इस ग्रन्थ में उसने भारत के तटों, बन्दरगाहों एवं उनसे होने वाले व्यापार का जिक्र किया है।

 

(xii. xiii) टॉलेमी और इण्डकोप्लुस्टसइन्होंने क्रमशःभूगोलऔरक्रिश्चियन

 

ऑफ यूनिवर्स ग्रन्थ लिखे। ये ग्रन्थ भारत के भौगोलिक विस्तार और सांस्कृतिक इतिहास को दृष्टि से उपयोगी हैं

 

((4) चीनी — (i) सुयाचीनचीनी इतिहास के जन्मदाताकहे जाने वाले सुयाचीन ने लगभग 100 ई० पू० में एक ग्रन्थ लिखा था जिससे भारत के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता हैं 1

 

(ii, iii) पान कू तथा हनयेइसके द्वारा लिखित ग्रन्थों से कुषाण शासकों कडफिसिस और विम कडफिसिस के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। कुजुल

 

(iv) फाह्वानयह 399 ई० में भारत आया था। वह करीब 14-16 वर्ष तक भारत

 

में रहा। चीन वापस लौटकर उसने अपनीट्रेवेल्सलिखी। इससे गुप्तकालीन इतिहास,

 

सभ्यता और संस्कृति की अच्छी जानकारी मिलती है। यद्यपि फाहान के विवरण में वैज्ञानिकता

 

का अभाव है।

 

(v) ह्वेनसांग — ‘चीनी यात्रियों का सम्राटह्वेनसांग या युवानच्युआंग हर्ष के शासनकाल में 629 ई० में भारत आया था। नालन्दा में वह पढ़ा भी। करीब 13-15 वर्ष रहकर उसने दक्षिण भारत को छोड़कर करीब सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। उसनेरेक इस आद वेस्टल वल्डमें 7वीं सदी के भारतीय इतिहास और संस्कृति, विशेषकर हर्षवर्धन की जीवनी, उसके कार्यकलापों, प्रशासनिक, धार्मिक, शैक्षणिक व्यवस्था का अच्छा जिक्र किया है। ह्वेनसांग के लेख वास्तव मेंसूचनाओं के भण्डारहैं जो भारत के प्राचीन इतिहास की भिन्नभिन्न कड़ियों को जोड़ने में अमूल्य सहायता प्रदान करते हैं।

 

(vi) हूवलीयह ह्वेनसांग का मित्र था। उसने उसकी जीवनी (The Life of Huien Tsang) लिखी। इससे भी 7वीं सदी के भारतीय इतिहास की जानकारी मिलती है। (vii) इत्सिंगयह 7वीं सदी के अन्त में भारत आया था। नालन्दा तथा विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों में वह बहुत दिनों तक रहा। उसके विवरण से विश्वविद्यालयों के सम्बन्ध

 

 

 

प्रागैतिहासिक युग
Prehistoric era
 

 

 

पुरापाषाण युग मानव सभ्यता का ऊषा काल था। इस काल उपलब्धि आग की खोज थी।

 

 पुराया युग पर एक संक्षिप्त विन्धलिखिये। Write a short essay on Lower Palacolithic Age. (Lower Palaeolithic Age)

 

उत्तर

 

पूर्व पाषाण युग

 

जीवन की शुरुआत क्रमशः आजीव चट्टान युग-Azoic Age (पृथ्वी पर इस समय कोई प्राणी या जीवन नहीं था), प्रारम्भिक जीव युग Palacozoic Age- इस समय अंगहीन, अस्थिहीन, रीढ़हीन जीव हुये। इनमें से बाद में रीढ़ की हड्डियों वाले जीव उत्पन्न हुये, जीधीरे ये रेंगकर भूमि पर आने लगे। इसी बीच पृथ्वी पर पेड़पौधे और वनस्पतियों नहुष), मध्य जीव युग Mesozoic Age (इस समय सन्तानोत्पत्ति करने वाले जानवरों का विकास हुआ, पेड़ों पर कूदने और फुदकने वाले जीव भी इसी समय हुये), नव जीव Cainozoic (इस समय कई नवीन जातियों का विकास हुआ, स्तनधारी सन्तान उत्पन्न होने वाले जीवों में कुछ ने तो पशु का रूप ले लिया और कुछ ने पृथ्वी पर घूमनेफिरने वाले शरीरधारी जीवों का रूप ले लिया) तथा हिमनद युग Glacial Age-इसमें मानव सम प्राणी होमोनिड का जन्म हुआ जो अन्त में हीमो सेपियंस में विकसित हुआ।

 

भारत में आदि मानव का जीवन द्वितीय अन्त ग्लेशियल (Second Inter-glacial Age) में अर्थात् करीब डेढ़दो लाख वर्ष पूर्व शुरू हुआ और यही युग प्रागैतिहासिक (Pre-historic) युग कहलाया। इस काल को 2 भागों में विभाजित किया गया है-(1) पाषाण युग, और (2) धातु युग। पाषाण युग को पुरापाषाण, मध्यपाषाण और नवपाषाण काल में विभक्त किया जाता है। पुरापाषाण काल को पुनः निम्न या पूर्व पुरापाषाण काल (Early or Lower Palaeolithic Age), मध्य पुरापाषाण काल (Middle Palaeolithic Age) तथा उत्तर पुरापाषाण काल (Upper Palaeolithic Age) में विभक्त किया गया है। फिलहाल हमारा सम्बन्ध निम्न या पूर्व पुरापाषाण काल से है।
 
पूर्व पुरापाषाणकालीन संस्कृति के स्थल (Place of Palaeolithic Culture) पूर्व पुरापाषाणयुगीन प्रस्तर उपकरण देश के कई भागों में खोजे गये हैं। पूर्व पुरापाषाण संस्कृति के दो केन्द्र एकदूसरे से स्वतन्त्र रूप से उभर कर सामने आते हैंउत्तर में सोन या सोहन संस्कृति (वर्तमान पाकिस्तान में सोहन नदी के किनारे) या पेबल चापिंग संस्कृति और दक्षिण में, दवान में तथाकथित मद्रास संस्कृति या हेड एक्स क्लीवर संस्कृति ये पुरापाषाण स्थलियाँ नदियों की घाटियों में थीं जो आदि मानव को जो जंगलों से दूर रहता था क्योंकि वह अपने पत्थरों के हथियारों से उनको साफ करने में कठिनाई अनुभव करता होगा) पानी उपलब्ध कराती थी: अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध कराती थी। इनमें से पहली स्थली 1863 में मद्रास में खोजी गयी थी और इसी कारण दक्षिण भारत में मिले पूर्व पुरापाषाण युग के लाक्षणिक प्रस्तर उपकरण हस्तकुठार या हस्तकुदाली (Hand (axe) मद्रास कुठारों के नाम से विख्यात हुये। देश के उत्तरी भागों की पुरापाषाण स्थलियों में बिल्कुल दूसरी तरह के उपकरणवटिकाश्म कर्तन उपकरणमिले थे जो खंडक या गंडासे (Choppers) कहलाते हैं पुरापाषाण उपकरण देश के अन्य भागों में भी मिले हैंमध्य तथा पश्चिमी भारत मेंजहाँ मानो सोहन और मद्रास परम्पराओं का अन्तर्गथन होता है। नये अनुसन्धानों ने दिखलाया है कि दक्षिण में मद्रास कुठारों का प्राधान्य है, और जैसेजैसे हम उत्तर की ओर बढ़ते हैं। वैसेवैसे सोहन उपकरणों की संख्या बढ़ती जाती है।
 
इन दोनों प्रकार के उपकरणों में अन्तर का सबसे मुख्य कारण प्राकृतिक परिस्थितियों की भिन्नता, उपकरण निर्माण करने के लिये उपयुक्त पत्थर की उपलभ्यता है। यह कोई सांयोगिक बात ही नहीं है कि सबसे अधिक स्थलिया दकन की नदी घाटियों में स्थित गुफाओं में और उत्तरी भारत के पहाड़ों की ताइयों में खोजी गयी है। इन इलाकों में जलवायु अधिक अनुकूल है और जीवनजन्तुओं का बाहुल्य है। उपरोक्त वर्णित औजारों के अलावा आन्तरक या कोर (Cores) फलक या पृथक (Flakes) और विदारणियाँ (Cleavers) भी मिले हैं। सभी औजार भद्दे आकार के होते थे। जो भी हो, इनका आविष्कार एवं उपयोग इस युग की एक क्रान्तिकारी घटना थी और इस बात को पुष्ट करने वाली भी थी कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है।

 

पूर्व पाषाण युग में जीवन

 

(निम्न पुरापाषाण युग में जीवन)

 

(1) औजार और आविष्कारअधिकतर औजार चमकीले पत्थर (Quartzite) या बिल्लौरी पत्थर के बने हैं। इसलिये इस युग के मानव को चमकीले पत्थर का मानव (Quartzite Man) या बिल्लौरी युग का मानव कहा जाता है। टी० टी० पेटरसन, एफ० ३० जाइनर कबानी एव० डी० [सांकलिया के अनुसार, औजारों का उपयोग काटने, खाँचा करने, भेदने, वेघने, छेद करने, कूटने, टुकड़े करने, रेतने, खाल निकालने, निवृन्त करने, उखाड़ने, खोदने आदि के काम आते थे। इन औजारों की साम्यता तत्कालीन अफ्रीका, जावा, बर्मा, चीन के औजारों से है। लगता है मूलतः इस मानव का सम्बन्ध इन स्थानों से रहा होगा। कतिपय विद्वानों की धारणा है कि ये लोग अण्डमान द्वीप में निवास करने वाले लोगों की भाँति ही जाति के थे।

 

(2) जीवजन्तु, पेड़पौधेबन्दर, जंगली हाथी, जंगली घोड़े, जंगली बैल आदि के अवशेष प्राप्त हुये हैं। (3) पारिस्थितिकीपारिस्थितिकी के बारे में निर्णयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। यह जरूर कहा जा सकता है कि ठण्डे और गर्म मौसम ने अलगअलग प्रकार के

 

जीवजन्तु, पेड़पौधों को जन्म दिया।

 

(4) जनजीवन उस समय के जनजीवन की झांकी हमें उस समय के अनगढ़ और अपरिष्कृत औजारों से तथा गुफाओं से मिलती है। पता चलता है कि मानव उस समय बर्बर अवस्था में था, कृषि, पशुपालन नहीं जानता था, और पूर्ण रूप से प्रकृति जीवी था और उसका जीवन अस्थिर था। इस युग में मनुष्य अपने उद्योग से वस्तुयें उत्पन्न नहीं करता था, वरन वह प्रकृति की देन पर ही निर्भर रहता था। प्रकृति प्रदत्त पदार्थों का ही वह उपयोग करता था। वन्य पशुओं का आखे इनका एक उद्यम था इसलिये कुछ कोआखेट युगकी संज्ञा दी है। यह स्वाभाविक ही था कि जब के लोग आखेट करते थे तो उन लोगों ने आखेट की सुविधा के लिये पशु अध्ययन अवश्य किया होगा और सरलतापूर्वक उनकी हत्या करने के लिये उपयुक्त जका जान अवश्य प्राप्त किया होगा। (5) आग की खोजपूर्व पुरापाषाणकालीन आदमी अग्नि का प्रयोग जानता था या

 

इस बात पर विद्वानों में बड़ा मतभेद है। अलबत्ता कर की गुफाओं में अग्नि के चिन्न अस्तित्व तथा लुप्त पशुओं के चिन्ह तथा मिट्टी के बर्तन के अलावा मिले है। लगता है, शुरू में तो यह मानव अग्नि से अनभिज्ञ रहा होगा, और बाद में इसका उपयोग सीख लिया होगा। (6) मृतक संस्कार इस समय के मानव की, जिसकी औसत आयु 15 और 400 वर्ष के बीच रही होगी, कब नहीं मिली है। ऐसा मालूम होता है कि सम्भवतः मृतकों को प्राकृतिक से नष्ट हो जाने के लिये या तो खुला ही छोड़ दिया जाता था या उसे जंगली पशु O

 

 मध्य पुरापाषाण काल पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिये। Write a short essay on the Middle Palacolithic Age.

 

 

नेवासा संस्कृति पर एक नोट लिखिये। Write a note on Nevasa Culture. फलक संस्कृति पर एक नोट लिखिये। Write a note on Flake Culture.

 

उत्तर

 

मध्य पुरापाषाण काल

 

(मध्य पुरापाषाण युग)

 

मध्य पुरापाषाणकालीन सभ्यता को पुरापाषाणकाल की मध्यकालीन सभ्यता कहते हैं और चूंकि सर्वप्रथम इस युग की संस्कृति के अवशेष नेवासा (महाराष्ट्र) से प्राप्त हुये, इसलिये इसे नेवासा सभ्यता भी कहते हैं। इस समय के अवशेष बाद में कर्नाटक (मेसूर, कृष्णा बाटो) आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश (बेलन घाटी), मध्य प्रदेश (घसान, बेतवा तथा सोन घाटी), बिहार, उड़ोसा, गुजरात, सौराष्ट्र सिन्ध, राजस्थान, तमिलनाडु (मद्रास) और कश्मीर तथा पाकिस्तान से भी प्राप्त हुये

 

(1) विशेषतायेंइस काल में मनुष्य ने अपने उपकरणों को तुलनात्मक रूप से ज्यादा सुन्दर एवं उपयोगी बनाया। अब क्वार्टजाइट की जगह पर गोमेद (अकीक), सूर्यकान्त (Josper), चालसीडनी (Chalcedony), चर्ट (Chert) आदि की सहायता से फलक (Flakes) हथियार ही बनाये गये। इसलिये प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता एच० डी० सांकलिया ने पाषाणकालीन संस्कृति को फलक संस्कृति (Flake Culture) का नाम दिया। इस काल में फलकों की सहायता से मुख्यतः वेधक (Borers), खुरचनी (Scrapers), वेधनियाँ (Points) इत्यादि बनाये गये। कुछ औजार ऐसे भी मिले हैं जो तीरकमान के अविष्कार को इंगित करते हैं और जिनका उपयोग शिकार के लिये होता था।

 

(2) निवासइस युग का मानव सामान्यतः पादगिरि (तलहटी) में रहता था। (3) जीवजन्तु पीये बास (बोस) और रतिफस (एलीफस) आम जानवर थे।

 

वे ही मानव का भोजन थे। पेड़पौधों में कोई विशेष तबदीली नहीं हुयी होगी।

 

(4) जनजीवनइस युग के मानव का सामाजिक जीवन तथा उसकी आर्थिक व्यवस्था करीबकरीब पूर्व सी ही थी। वह भोजन संग्राहक (Food gatherer) अब भी था। हाँ, अब उसने गुफाओं और कन्दराओं में वास करना अधिक उपयुक्त समझा। कामेश्वर प्रसाद के अनुसार, अब अग्नि का व्यवहार बड़े पैमाने पर होने लगा, एवं मृतक संस्कार की परिपाटी भी निकल गयी।

 

 

समयकरीब 50,000 और 20,000 ई० पू० के मध्य माना जाता है।

 

 

 

उत्तर पुरापाषाण काल पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिये। Write a short essay on the upper Palacolithic Age.

 

 

उत्तर

 

उत्तर पुरापाषाण काल (Upper Palaeolithic Age)

 

उत्तर पुरापाषाण काल में होमोसेपियंस (ज्ञानी मानव) का उदय हुआ। इस काल में मानव विकास की प्रक्रिया और भी अधिक तीव्र हुयी। पाषाणोपकरण बनाने में ज्यादा दक्षता हासिल हुयी। इस समय के अवशेष आन्ध्र प्रदेश (रेनीगुटा, पेर्टगोण्डपलेम, मुच्छलता, चिन्तामनुगावी, बेटमचेली), कर्नाटक (शोरापुर, दोआब, बीजापुर), बिहार (सिंहभूम), उत्तर प्रदेश (बेलन घाटी), महाराष्ट्र (पटने, इनामगाँव) और गुजरात (विसादी) से प्राप्त हुये हैं। प्राप्त औजारों से ब्लेड्स (पत्थर के फलक) और ब्युरिन्स मुख्य हैं। इनका विभाजन क्लासिकल और सबक्लासिकल (Classical and Sub-classical) में किया गया है। प्रथम प्रकार के ब्लेड्स (Blades) तथा ब्युरिन्स (Burins) अर्थात् तक्षणियाँ लम्बे, कोमल, मजबूत तथा रीटचिंग (Retouching) किये गये होते हैं। ये यूरोपीय किस्म के हैं। द्वितीय प्रकार के सुन्दर नहीं हैं और यूरोपीय किस्म के भी नहीं हैं औजार इस समय हड्डी एवं हाथीदाँत के भी बने।

 

जनजीवनवैज्ञानिकों के अनुसार इस काल में नीग्रोसम प्रजाति के प्रतिनिधियों का प्राधान्य था। इस समय मानव जीवन में कुछ विशेष परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। यद्यपि अब भी मनुष्य की जीविका का मुख्य साधन शिकार ही था, परन्तु गोत्र (Clan) समुदाय के परिणामस्वरूप सामूहिक संगठन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये। सामुदायिक जीवन का विकास इस समय ज्यादा सुदृढ़ हुआ। अनेक लोग झुण्डों या कुलों में रहते थे जिसने आगे चलकर परिवार को जन्म दिया। यद्यपि सामाजिक असमानताओं एवं व्यक्तिगत सम्पत्ति की भावना का उदय अभी नहीं हुआ था, परन्तु मोटे तौर पर पुरुषों एवं महिलाओं में श्रम विभाजन प्रारम्भ हो चुका था। पुरुष भोजन संग्राहक का कार्य करता था और महिलायें घर की देखभाल करती थीं। निवास के लिये गुफाओं के अतिरिक्त सम्भवतः झोपड़ियाँ भी बनायी जाती थीं। हड्डी से बनी हुयी सुइयों की सहायता से जानवरों के चमड़े को वस्त्र के रूप में बनाकर पहना जाता था। कला एवं धर्म के प्रति भी लोगों की अभिरुचि बढ़ी। भीमबेटका की गुफाओं में इस काल के चित्र मिले हैं। ये चित्र ऐसी अन्धेरी गुफाओं में पाये गये हैं जहाँ प्रकाश पहुँचना कठिन है। कुछ चित्रों को बनाते समय तो कलाकार को बैठने में भी कष्ट उठाना पड़ा होगा। इसलिये अनेक विद्वानों की धारणा है कि चित्रित गुफायें मन्दिरों के सदृश थीं एवं इन्हें बनाने वाले एक विशेष वर्ग के व्यक्ति जादूगर पुरोहित (Magic Priests) थे जो पशुओं को वश में करने का उपाय करते थे। अगर ऐसी बात रही होगी तो इसी समय से सामाजिक विभेद का भी आरम्भ मानना चाहिये, क्योंकि एक वर्ग विशेष का प्रभाव इससे परिलक्षित होता है। यह वर्ग बिना परिश्रम के ही (भोजन एकत्र करने) जादू के बल पर भोजन प्राप्त करता था। बाद में इसी कारण समाज में पुरोहितों का प्रभाव बढ़ गया। चित्रकला के अतिरिक्त नक्काशी करने, मूर्ति बनाने की कला भी विकसित हुयी हड्डी से बने उपकरणों पर सुन्दर नक्काशी की जाने लगी अस्थियों एवं हाथी दांत से सुन्दर मूर्तियाँ भी बनने लगीं, जिनका कुछ धार्मिक महत्त्व भी था। उत्तर प्रदेश के बेलन

 

पाटी से हड़ी की बनी मा देवी (Mother Goddess) की एक सुन्दर मूर्ति मिली है। भारत में ऐसी मूर्ति अन्य किसी भी स्थान से प्राप्त नहीं है। आभूषण भी बनाये गये (अस्थियों एवं जानवरों के दाँतों से) इतनी प्रगति के बावजूद मानव अभी सभ्य नहीं बना था उसे असभ्य, वर और जंगली कहा गया है, परन्तु सभ्यता की सीढ़ी परज्ञानी मानवआगे बढ़ चुका था।

 

 

 

 

समय–30,000 और 10,000 बी० पी० (Before Present) माना जाता

 

  • मध्यपाषाण युग पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिये। Write a short essay on the Middle Stone Age. मेसोलिथिक युग का संक्षेप में वर्णन कीजिये।
 
मध्यपाषाण युग का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
 

उत्तर

 

मध्यपाषाण युग (Middle Stone Age)

 

पुरापाषाण युग के बाद की संस्कृति को मध्यपाषाण युग या मेसोलिथिक युग कहा गया है। चूंकि यह काल पूर्व पाषाण काल तथा उत्तर पाषाण काल के मध्य कड़ी का कार्य करता है, अतएव यह अपने पार्श्ववर्ती दोनों ही कालों को कुछ कुछ विशेषताओं को अपने में सन्निहित करता है। इस समय के जलवायवीय परिवर्तनों ने तत्कालीन संस्कृति के विकास को प्रभावित किया। इस समय बर्फ की जगह घास से भरे मैदान एवं जंगल उगने आरम्भ हो गये, पुराने मौसमी जलस्त्रोत सूख गये, नये प्रकार के जानवरों एवं वनस्पति का प्रादुर्भाव हुआ। ठण्ड में रहने वाले विशालकाय जानवरों (मैमथ रेनडियर इत्यादि) की जगह पर घास खाकर जीवित रहने वाले छोटे जानवर खरगोश, हिरण, बकरी आदि पैदा हुये। छोटे पशुओं के आखेट के लिये छोटे हथियारों की आवश्यकता पड़ी अतः मानव ने अब लघुपाषाणोपकरण या सूक्ष्म (Microliths), पौन इन्च तक के छोटे, बनाना आरम्भ किया, और उस युग को माइक्रोलिथिक युग का जामा पहना दिया। ये हथियार छोटे होते हुये भी ज्यादा उपयोगी एवं सांघातिक शक्ति से बने होते थे। इन हथियारों को व्यवहार में लाने के लिये इन्हीं लकड़ी या हड्डी के हत्थों में नियत किया गया।

 

(1) सामग्री प्रकार औजार बहुधा फलसीडी (Chalcedony) और सिलिकेट पत्थरों जैसे जैस्पर, चर्ट और ब्लड स्टोन (पतोनिया) के बने होते थे।इन औजार का वर्गीकरण मुख्यतः दो प्रकार का हैअज्यामितिक लघुपाषाणोपकरण तथा ज्यामितिक लघुपाषाणोपकरण। इसी समय प्रक्षेपास्त्र तकनीक (तीर धनुष) का भी विकास हुआ। इस समय के हथियारों में प्रमुख थेइकधार फलक (Backed Blade), वेधनी (Points), अर्द्धचन्द्राकार (Lunate), त्रिकोण (Triangle), समलम्ब (Trapeze), सूआ (Awl), और बोरर्स (Borers) इस युग के औजारों में कुछ छोटी हाथ को कुल्हाड़ियाँ भी मिली हैं। पत्ते के आकार के नुकीले पृथक बड़ी संख्या में मिले हैं, खुरचने के अनेक प्रकार हैं। कुछ अवतल कुछ उत्तल और कुछ सरल हैं। सम्भवतः अस्त्र के रूप में फेंकने के लिये गोलियाँ लकड़ी या हड्डी की बनायी जाती थीं, क्योंकि दक्षिणपूर्वी एशिया में आज तक भी खणा (Arrow-heads) और चाकू बांस के बनाये जाते हैं।

 

(2) प्राप्ति स्थलकुछ प्रमुख मध्यपाषाणकालीन स्थल ये हैंवीरभानपुर (पश्चिम बंगाल), लंघनाज (गुजरात), टेरी समूह (तमिलनाडु), आदमगढ़ (मध्य प्रदेश), बागोर (राजस्थान), मोरहना पहाड़, सराय नाहर राय, महादाहा (उत्तर प्रदेश) इत्यादि। मोटे रूप से यह कहा जा सकता है कि असम, गंगा की घाटी तथा केरल को छोड़कर प्राय: सम्पूर्ण भारत में Microliths प्राप्त होते हैं।

 

 

 

 

(3) निवासजो साक्ष्य उपलब्ध है उनसे पता चलता है कि इस युग का मानव प्रायः पहाड़ी आश्रय स्थलों में (सुरक्षा की दृष्टि से उपयुक्त), समुद्र तथा नदी के किनारे एवं रेतीले क्षेत्रों में रहता था। सराय नाहर राय और महादाहा से स्थायी झोपड़ियां बनाकर रहने का अन्दाज लगता है।

 

(4) जनजीवनपूर्वजों की भांति मध्यपाषाणकालीन लोगों का प्रमुख उद्यम आखेट (शिकार) ही था सरिताओं, सरोवरों तथा जलाशयों से ये लोग अपनी प्यास बुझा लिया करते थे तथा उनसे प्राप्त मछलियों को खा लिया करते थे, अन्य पशुओं का मांस तो खाने ही थे। फलफूल तथा कन्दमूल भी उनकी जीविका के साधन थे। कृषि विज्ञान से ये लोग अनभिज्ञ थे, परन्तु गुजरात में मध्यपाषाण काल के लोगों ने एक प्रकार की घास को उत्पन्न करना आरम्भ कर दिया था जिसका प्रयोग वे भोजन के रूप में किया करते थे। यदि यह सत्य है तो मध्यपाषाणकाल में कृषि विज्ञान का बीजारोपण हो गया था। भारतीय इतिहास के रूसी विद्वानों, अन्तोनोवा, लेविन कोतोवोस्की का कहना है कि दक्षिण के लोग शिकार करते थे, जबकि उत्तर में, सिन्ध में, कृषि पर आधारित समुदाय तेजी से जड़ें जमाने लग गये थे।

 

इससे भारत के भिन्नभिन्न प्रदेशों में विकास के असमान क्रम का बोध होता है। शायद इस काल के मानव को अग्नि का ज्ञान भी हो गया था। कामेश्वर प्रसाद ने लिखा है कि भोजन बनाने के लिये चूल्हे बनाये जाते थे, मिट्टी के बर्तन भी। लंघनाज के हाथ द्वारा बनाये गये मिट्टी के बर्तन भी मिले हैं। पुरातत्त्वज्ञों ने भाण्डों के आधार पर लंघनाज के इतिहास को दो पृथक् कालों में विभक्त किया है। पहले काल के अन्त में हस्तनिर्मित मुभान्ड प्रकट हुये, जबकि दूसरे काल के पूर्व नवपाषाणकालीन मृदभान्ड चाक पर बनाये गये है और अलंकृत हैं।

 

 

नवपाषाण युग पर एक निबन्ध लिखिये। Write an essay on the Neolithic Age. “नवपाषाण युग में आधुनिक सभ्यता के कई अंग बीज रूप में विद्यमान थे।इस कथन की व्याख्या कीजिये।

 

उत्तर

 

नवपाषाण युग

 

(नवपाषाण युग)

 

मानव सभ्यता के विकास का तीसरा सोपान नवपाषाण काल के नाम से जाना जाता है। नवपाषाण युग, जिसकी शुरूआत वस्तुतः मनुष्य के भोजन संग्राहक से भोजन उत्पादक होने के समय से मानी जाती है, की जलवायु मानवजीवन के लिये अधिक उपयुक्त हो गयी। उसमें तो शीतलता का आधिक्य था, और ही आर्द्रता का, वरन् वह सामान्य थी। इस अनुकूल जलवायु में केवल जनसंख्या में वृद्धि हुयी, वरन् मनुष्य के ज्ञान तथा उसकी प्रतिभा का भी विकास हुआ। अपने अध्यवसाय तथा अनुभव से लाभ उठाकर नवपाषाणकालीन मनुष्य ने अपने जीवन को और अधिक उच्चतर और सभ्य बनाने का प्रयत्न किया।

 

(1) प्राप्ति स्थलभारत में अनेक नवपाषणिक वस्तियों के प्रमाण मिले हैं। उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त में बलूचिस्तान, रानी कुन्डाई (पूर्वी क्लूचिस्तान), सिन्ध, किली गुल मोहम्मद (क्वेटा घाटी पाकिस्तान), दंब सद्दात (किली गुलमोहम्मद के निकट), सराय खोला (रावलपिंडी, पाकिस्तान), पश्चिम में गुजरात, उत्तर में श्रीनगर के पास बुर्जहोम, दक्षिण में बेलारी के पास संगनकल्लू, पिकलीहाल उनूर, पेयामपल्ली, पूर्व में बिहार, उड़ीसा और असम, राजस्थान में कालीबंगा, उत्तर प्रदेश में कोलडी हवा मध्यभारत मध्यप्रान्त बुन्देलखण्ड छोटा नागपुर तथा मेघालय से इस काल के अवशेष प्राप्त हुये हैं।

 

 

 

(2) आजारों की सामग्री तथा प्रकारयद्यपि इस समय धातु के हथियार नहीं बनने थे, तथापि पत्थर के ही हथियार पहले की अपेक्षा अधिक उपयोगी, सुडौल और ओपयुक्त (Polished) बनाये गये पत्थर के औजारों में मुख्य रूप से महीन दानेदार गहरे हरे रंग के ट्रैप का इस्तेमाल मिलता है यदाकदा डायोराइट, बसाल्ट, स्लेट, क्लोराइट, सिस्ट, नाइस, बलुए पत्थर और स्फटिक का भी इस्तेमाल हुआ है। पाषाण के अलावा काष्ठ, हाथी दांत तथा अस्थियों का भी प्रचुरता से उपयोग होने लगा। धनुष बाण, बर्फी, हत्थेदार कुल्हाड़ी (Celts), तलवार, चाकू आदि के अतिरिक्त ये लोग, हंसिया, पहिया, घिरनी, सीढ़ी, डोंगी, तकली, करघे आदि भी बनाने लगे थे। पहिये का आविष्कार इस युग को क्रान्तिकारी घटना थी पहिये का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर मनुष्य सामान ढोने तथा सवारी के लिये बेलगाड़ियों (स्वतन्त्र रूप से पशुओं का भी) का उपयोग करने लगा।

 

(3) जनजीवनस्थायी जीवन प्रणाली और कृषि की शुरूआतअब आदमी ने यायावार रहनसहन त्याग कर स्थायी जीवनप्रणाली को अपना लिया क्योंकि व्यक्ति अब भोजनसंग्राहक के स्थान पर भोजनउत्पादक बन गया था। कृषि की उसने शुरूआत कर दी थी। सम्भवतः इस युग में मनुष्य हल तथा बैल की सहायता से कृषि करता था। इस काल की एक पाषाण शिला पर दो बैलों की सहायता से हल चलाते हुये एक कृषक का चित्र उपलब्ध हुआ है, परन्तु अभी दुर्भाग्य से उत्खनन में किसी हल या उसके अवशेषों की प्राप्ति नहीं हुयी है। सम्भव है कि काष्ठ के बने होने के कारण ये विनष्ट हो गये हो।

 

(4) पशुपालनइस काल में मनुष्य ने पशुओं को पालना आरम्भ कर दिया। उनूर में पशुओं के खुर मिले हैं। मनुष्य ने सम्भवतः अपनी बुद्धि बल से इस बात का अनुभव किया कि यदि पशुओं की हत्या करने के स्थान पर उनका पालन किया जाये तो वे अधिक उपयोगी सिद्ध होंगे। फलतः इन लोगों ने गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, बिल्ली, कुत्ता, घोडा आदि पालना आरम्भ किया। परन्तु कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि नवपाषाण काल में वर्षा का अत्यन्त अभाव हो गया, जिससे जलवायु अत्यधिक शुष्क हो गयी। इसके फलस्वरूप पशुओं ने वनों को त्याग दिया और अपनी उदर पूर्ति के लिये मानवस्थानों के सन्निकट गये। इस प्रकार मनुष्यों तथा पशुओं का सामीप्य स्थापित हो गया और अि पशुपालन की क्रिया आरम्भ हो गयी। पशुपालन की क्रिया के आरम्भ का कुछ भी कारण रहा हो, जब मनुष्य ने कृषि कर्म करना आरम्भ किया तब पशुपालन अनिवार्य हो गया, क्योंकि कृषि तथा पशुपालन में अविच्छिन्न सम्बन्ध है।

 

(5) मिट्टी के वर्तन का निर्माण एवं अग्नि का अस्तित्व कृषि कर्म तथा पशुपालन का प्रादुर्भाव हो जाने के कारण मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का आविर्भाव अनिवार्य हो गया। कृषि कर्म तथा पशुपालन के फलस्वरूप मनुष्य की खाद्य सामग्री में वृद्धि हो गयी। इस सामग्री को संग्रह करने के लिये बर्तनों की आवश्यकता पड़ी। फलतः खाद्य सामग्री को एकत्रित करने के लिये मिट्टी के बर्तनों का निर्माण आरम्भ हो गया। पहले ये बर्तन या झांड हस्तनिर्मित और अनगढ़ होते थे, परन्तु कालान्तर में सम्भव है कुम्हार के चाक का आविष्कार हुआ और उस पर ये बर्तन बनाये जाने लगे। शायद पकाये भी जाने लगे। उत्खननों से अनेक पाकझांड भी प्राप्त हुये हैं जिससे अग्नि का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। अग्नि से उस काल का मानव केवल खाना पकाता था, परन्तु अग्नि जलाकर वह शीत से अपनी रक्षा भी करता था। अन्धकार में अग्नि जलाकर वह प्रकाश प्राप्त कर लेता था और अपनी वस्तुओं का अन्वेषण कर लेता था। हिंसक पशुओं से भी अग्नि द्वारा वह अपनी रक्षा कर सकता था।

 

(6) श्रम विभाजनइस काल में श्रम विभाजन सिद्धान्त स्थापित हो गया। जुलाहे, बढ़ई, कुम्हार, नाविक, लुहार, सुनार, रंगरेज, आदि शिल्पियों की पृथक् श्रेणियों का निर्माण आरम्भ हो गया। इस प्रकार से इस युग में व्यावसायिक विशेषीकरण का बीजारोपण हुआ।

 

 

 

 

(7) व्यापार में वृद्धिश्रमविभाजन के फलस्वरूप विनिमय की व्यवस्था स्थापित हो गयी। एक ग्राम में रहने वाले लोग अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये वस्तुओं का विनिमय कर लिया करते थे। कुछ विशिष्ट वस्तुओं का व्यापार शायद सुदूरवती ग्रामों से भी होता था।

 

(8) व्यवसाय कृषि और पशुपालन मुख्य व्यवसाय थे। सम्भवतः उस काल की उत्पादित सामग्री में गेहूं, जौ, बाजरा, मक्का, मृग, मसूर, चावल, शाकसब्जी, फल और कपास रहे हों। मछली पकड़ना भी एक व्यवसाय था। बर्तन बनाना, पहिये बनाना, नाव बनाना और रंगाई करना कुछ अन्य व्यवसाय थे। वस्त्र निर्माण का व्यवसाय भी महत्त्वपूर्ण था। शुरू में पौधों के रेशों तथा ऊन के धागों से वस्त्र बनाये जाने लगे। वृक्षों के द्रव्यों तथा धातु रसों की सहायता से वस्त्रों की रंगाई भी की जाती थी।

 

स्थायी, (9) सामाजिक जीवनविभिन्न प्रकार के उपयोगी उपकरणों, अग्नि के प्रयोग कृषि कर्म, पशुपालन, अन्य व्यवसायों और धन्धों से मनुष्य का सामाजिक जीवन अधिक व्यवस्थित और सुखद हो गया था। अब जीवन एकाकी रहा। संगठित समुदाय और सामाजिक जीवन की शुरुआत से गयी पारस्पारिक सहयोग और सहकारिता की जागृत हुयी। कुल चिन्हों (Totems) के आधार पर मनुष्य अब कबीलों और परिवारों में रहने लगा। यहीं से समाज का अंकुरण हुआ। कृषि, अन्नसंचय, पशुपालन, निवासगृह (जिसकी दीवारें लट्ठों तथा नरकुलों की होती थीं, जिन पर मिट्टी का लेप लगा दिया जाता था, जिनकी छतें लकड़ी, पत्ती, छाल आदि की बनी होती थीं और जिनके फर्श कच्चे मिट्टी के बने होते थे निर्मित मिट्टी अथवा कच्ची ईंटों के इक्केदुक्के आवास मिले हैं। मकान के चारों ओर बांगड़ भी लगी होती थीं। आंगन लिपे होते थे), परिवार आदि ने सम्पत्ति की भावना जागृत की। सम्पत्ति के साथसाथ धनाढ्यता और निर्धनता आने लगी। आर्थिक असमानता उत्पन्न होने लगी। इसके साथसाथ विभिन्न व्यवसायों के आधार पर समाज में वर्ग करने लगे। वर्ग के संचालन हेतु मुखिया या नेता और परिवार के संचालन हेतु पिता की महत्ता मानी जाने लगी। कौटुम्बिक व्यवस्था कहीं मातृसत्तात्मक थी तो कहीं तथा

 

पितृसत्तात्मक (10) खानपानअब शायद कच्चे माँस का सेवन त्याग दिया गया था। अब अनाज, पका माँस, कन्दमूल, फल, गिरियाँ, जंगली दालें, दूध, दही, मक्खन का उपयोग होने लगा। सम्भव है कि अब लोग विभिन्न प्रकार के पेड़ों और पौधों से निकले हुये रसो को पीने लगे हों।

 

(11) वस्त्राभूषणसूती तथा कन्नी दोनों प्रकारों के वस्त्रों का प्रचलन था। कई वर को सुन्दर आकर्षक ढंग से रंगा भी जाता था। पीले, हरे, नीले और लाल रंग का ज्ञान था। वस्त्र पहनने का ढंग बड़ा सादा था। वस्त्र का आधा भाग लपेट लिया जाता था और शेष को कन्धे पर डाल दिया जाता था। शायद सिले हुये वस्त्र भी पहने जाते रहे होंगे, क्योंकि बुर्जोम सूइयां मिली है। स्त्रियों घुटनों तक लहंगा पहनती थीं। लोग आभूषण हो गये थे वे कोड़ी, सींग, सीप, शंख, हड्डी के आभूषण बनाते और एहनते थे। पाला वाली वृन्दे अंगूठियाँ चूड़ियाँ वाद आदि मुख्य आभूषण थे। बाल काटने की कंधियों तथा गुलुबन्द से ऐसा आभास होता है कि साजश्रृंगार की भावना भी उदय हो गयी थी (12) ललित कलाइस मानव को ललित कला का बोध हो गया था। पके मिट्टी के बर्तनों और आयुधों के निर्माण से उस काल की कला झलकती है। होशंगाबाद, पंचमढ़ी, भीमबेटका सिंघनपुर, मिर्जापुर मानिकपुर आदि स्थानों में पर्वतों की कन्दराओं में इस युग के कई रेखाचित्र उपलब्ध हुये हैं। इनमें मनुष्यों, पशुओं और आखेट के चित्र है। धनुषधारी, करवालधारी और अश्वारोही के चित्र भी हैं। इससे पता चलता है कि युद्ध का प्रकोप बढ्

गया था और जिससे रक्षा हेतु परिखा और दुर्ग का निर्माण होने लगा होगा। अस्त्र पाषाण के ही होते थे। जो हो, चित्रों में रंगों का विशेषकर लाल का प्रयोग होता था। चित्रों में आकार की सजीवता और भावों का प्रत्यक्षीकरण है। ये प्रकृति और मनुष्य की सानिध्यता प्रकट करते हैं।

 

(13) धार्मिक भावनायें और विधियों इस युग में धर्म, अनुष्ठान और अन्धविश्वास की भावनाओं का उदय हो गया। इस युग के मनुष्य वृक्ष और चट्टानों में देवी शक्ति या देवता का निवास समझने लगे थे। इस युग के ध्वंसावशेषों में मिट्टी तथा पत्थर की बनी अनेक नारी मूर्तियां मिली है, जिन्हें कयों ने मातृ देवियाँ माना है। शायद लिंग पूजा भी प्रचलित थी। अनेक विद्वानों का मत है कि देवता को सन्तुष्ट रखने के लिये बली की प्रथा भी इस युग में आरम्भ हो गयी थी। इन लोगों को ऐसा विश्वास हो गया था कि वलि देने से पृथ्वी माता प्रसन्न होती है और पशु तथा कृषि में वृद्धि होती है। कुछ स्थानों पर इस युग के विशाल भवनों के भग्नावशेष उपलब्ध हुये हैं। कुछ विद्वानों की धारणा है कि ये उस काल के मन्दिर हैं। इसके अतिरिक्त उत्खनन में कुछ विशेष प्रकार के पाषाणखण्ड प्राप्त हुये हैं जिनके सम्बन्ध में यह अनुमान लगाया गया है कि ये उस काल की वेदिकायें हैं। परन्तु विश्वस्त साक्ष्य के अभाव के कारण इन अनुमानों की सत्यता पर अभी सन्देह ही किया जाता है।

 

अब लोग भौतिक पदार्थ में जीवन शक्ति का अनुभव करने लगे थे और पदार्थों में जीवात्मा की सत्ता मानने लगे थे। ऐसा प्रतीत होता है कि जीवन की आधिव्याधि और नश्वरता का अनुभव कर उन्होंने दानवी और दैविक शक्तियों की कल्पना की होगी और शायद इसीलिये जादूगरों का समाज एवं धर्म पर प्रभाव बढ़ गया था। सम्भव है, मृत्यु के पश्चात् लोकोत्तर जीवन के विषय में भी इस युग के मानव की कुछ धारणायें रही होंगी। उत्खनन में प्राप्त मृत शरीरों की अस्थियाँ रखने के लिये अस्थिपात्रों, शव भस्म के पात्रों – Urns (अण्डाकार, एक टांग वाले और बिना टांग वाले) तथा शवों के साथ रखे हथियार, और अन्य सामग्री और शवों पर निर्मित समाधियों से ऐसा प्रकट होता है कि इस युग के मनुष्य जीवन, श्रृंगार और पुनर्जन्म में विश्वास करते थे। कभीकभी शव को कब्रिस्तान में गाड़ने के स्थान पर घर के भीतर ही अथवा समीप ही गाड़ दिया जाता था। कभीकभी शव को काटकर मिट्टी के बर्तनों में भरकर गाड़ने की प्रथा भी थी। शवों के साथ उनकी आवश्यकता की वस्तुयें रखने के पीछे मूलतः दो कारण थे। प्रथम, मृतक फसलों के विकास में सहायक थे। अतः उन्हें प्रसन्न रखना आवश्यक था। द्वितीय, मृत्यु के बाद के जीवन में भी उन्हें इन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ सकती थी। यूरोप और दक्षिण भारत के कुछ कब्रगाहों में मृतकों के प्रति सम्मान प्रकट करने के उद्देश्य से बड़ेबड़े पत्थर लगा दिये जाते थे जो महापाषाण (Megaliths ) के नाम से जाने जाते हैं। इस काल में पितृ पूजा प्रचलित हो गयी थी। पितृपूजा और प्रस्तर खण्डों की पूजा में विविध प्रकार के चढ़ावे अन्न, दूध, दही, माँस आदि पदार्थ अर्पित किये जाते थे।

 

 

 

 

 

 

 

  

 

हड़प्पा सभ्यता

PROTO-HISTORIC PERIOD-HARAPPA

 

 

 
हड़प्पा सभ्यता सभी प्राचीन सभ्यताओं में सर्वश्रेष्ठ थी।गार्डन चाइल्ड
 
प्रश्न 1- सिन्धु घाटी सभ्यता की खोज, उसके नाम, विस्तार, समय तथा निर्माताओं पर
 
प्रकाश डालिये। सिंधु घाटी सभ्यता की खोज, नाम, विस्तार, समय और लेखकों के बारे में आप क्या जानते हैं?
 
उत्तर
 

हड़प्पा सभ्यता की खोज

 

(हड़प्पा सभ्यता की खोज)

 

1921-22 तक यही माना जाता था कि भारत की प्राचीन सभ्यता आर्य सभ्यता है। परन्तु 1921-22 में जब जे० मार्शल, आर० डी० बनर्जी, डी० आर० साहनी ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो (जिला लरकाना, सिन्ध, पाकिस्तान) में प्राचीन नगर अनावृत किये तो एक अनजानी सभ्यता बेपरदा हुयी और जिसने आर्यों की सभ्यता की प्राचीनता को हिला दिया और विश्व में सनसनी फैला दी। फिर बहावलपुर, चन्हुदाड़ो, अली मुरीद, जुडेरजोदड़ो, अमरी, डाबरकोट, सुतकार्गेडोर, सोतकाबोह, बालाकोट, नाल और गुमला में भी उत्खनन किये गये। चूँकि सर्वप्रथम इस सभ्यता के अवशेष सिन्धु घाटी क्षेत्र से ही मिले इसलिये इसे सिन्धु या सैन्धव्य सभ्यता या सिन्धु की घाटी सभ्यता कहा गया। परन्तु बाद में उत्खननों और अनुसन्धानों के आधार पर यह सिद्ध हो गया कि यह सभ्यता सिन्धु घाटी के पार राजस्थान (कालीबंगा), गुजरात (लोथल, रंगपुर, मालवण, सुरकोटडा, रोजदी), हरियाणा (मित्ताथाल बनवाली) पूर्वी पंजाब (रूपड़, संघोल), उत्तर प्रदेश (आलमगिरपुर, इलाम), जम्मू (मांदा) और महाराष्ट्र (दैमाबाद) तक फैली हुयी थी। तब इस सभ्यता के विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र की पहचान के लिये इसे हड़प्पा सभ्यता कहा गया, क्योंकि प्रारम्भ में इस सभ्यता की खोज हड़प्पा में ही हुयी और वहीं पहले इसकी जानकारी प्राप्त हुयी। हड़प्पा सभ्यता नगरीय सभ्यता थी। नगर उद्योगधन्धों तथा व्यापार के केन्द्र होने के साथ प्रशासनिक केन्द्र भी थे। ये नगर कांसा युगीन नगर (Bronze Age Cities) थे। यद्यपि इस समय तक धातु का प्रयोग आरम्भ हो चुका था, परन्तु पत्थर का भी उपयोग होता रहा इसलिये इस सभ्यता को धातु प्रस्तर युग या ताम्रपाषाण या ताम्रास्म युग की सभ्यता भी कह सकते हैं।

 

हड़प्पा सभ्यता के निर्माता

 

(Makers of Harappa Civilization) इस सभ्यता के निर्माता के बारे में विद्वानों में मतभेद है

 

 

 

 

) अधिकतर विद्वान यह मानते है कि इस सभ्यता के निर्माता इसे क्योंकि यह सभ्यता इविडों से काफी साम्यता रखती है। परन्तु सभ्यता तो व्यापारिक एवं आकस्मिक कारणों से भी हो सकती है।

 

(2) आर्य कई विद्वान आर्यों को सिन्धु घाटी सभ्यता का निर्माता मानते हैं। परन्तु आय और सिन्धु घाटी सभ्यता में इतनी असमानताये है कि आर्यों को सिन्धु घाटी सभ्यता का निर्माता मान ही नहीं सकते। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सेमिटी (शमशान) एवं उन आर्यों की मानी जाती है, जिन्होंने सिन्धु घाटी के लोगों पर हमला किया था हमलावर

 

इस संस्कृति के सृजन करने वाले कैसे हो सकते हैं? (3) सुमेरियनकतिपय विद्वान सुमेर निवासियों को सिन्धु घाटी का निर्माता मानते हैं। परन्तु उनकी उत्पत्ति अज्ञात ही है। मनुष्य शरीर रचना शास्त्र के अनुसार भी ये लोग इस सभ्यता के निर्माता नहीं हो सकते।

 

(4) ईरानीकुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि सभ्यता के निर्माता ईरानी थे, क्योंकि कुछ एक पात्रों पर ईरानी प्रभाव दिखायी देता है परन्तु यह प्रभाव अन्य कारणों से भी सम्भव था। (5) पणी, असुर, वाहलिक, दास, दस्यु नागकुछ विद्वान् पक्षी या असुर या वाहलिक या दास या दस्यु या नाग को सिन्धु घाटी सभ्यता के निर्माता मानते हैं। परन्तु

 

इस पक्ष में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलते।

 

(6) विभिन्न प्रजातियों कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि इस सभ्यता के निर्माता किसी एक प्रजाति के नहीं थे, जो 26 अस्थिपंजर प्राप्त हुये हैं वे चार प्रजातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं— (i) प्रोटो आस्ट्रेलायड्स (Proto-Australoids) | (ii) मेडिटेरिनियन (Mediterr- aneans) | (iii) मंगोलायड्स (Mongoloids) | (iv) अल्पाइन (Alpine) (7) सोठी, आहर तथा लोथल सभ्यता के लोग कई विद्वानों के अनुसार सिन्धु

 

घाटी के निर्माता सोठी, आहर तथा लोथल सभ्यता के लोग थे।

 

परन्तु अभी भी सिन्धु घाटी सभ्यता के निर्माताओं के विषय में स्पष्ट निर्णय नहीं निकाला जा सकता

 

 

 

 

 

 

 

(सभ्यता की अवधि)

 

जे० मार्शल ने सिन्धु घाटी सभ्यता का काल 3250-2750 ई० पू० निर्धारित किया था। बाद में प्राचीन मेसोपोटामिया के नगरों में उत्खननों के दौरान सिन्धु घाटी किस्म की मुद्राओं के पाये जाने पर यह पता चला कि उनमें से अधिकांश सरगोन (2316-2261 ई० पू०) के शासनकाल और इसीनकाल (2017-1794 ई० पू०) तथा लार्सा काल (2025-1763 ई० पू०) से भी सम्बद्ध थीं।

 

कार्बन 14 तिथि निर्धारण ने इस कालक्रम में कुछ संशोधन आवश्यक कर दिये हैं। इसकी सहायता से विद्वानों ने यह निर्धारित किया है कि कालीबंगा में हड़प्पा संस्कृति के प्रारम्भिक स्तरों की तिथि 22वीं सदी ई० पू० है और अन्तिम स्तर को अब 18वीं तथा 17वीं ई० पू० को बताया जाता है। मोहनजोदड़ो में खोजें भी समान कालक्रम की ओर ही इंगित करती हैंइस सभ्यता का चरमोत्कर्ष काल 22वीं और 19वीं ई० पू० के बीच था, और सम्भवतः वह 18वीं सदी ई० पू० तक विद्यमान रही थीं। वास्तव में देखा जाये तो हड़प्पा संस्कृति कभी भी अपने आप साम्राज्य नहीं थी बल्कि एक खिसकती हुयी प्रतिभास

 

थी। महानगर में इसका अन्त करीब 2000 ई० पू० हुआ, और प्रान्तीय क्षेत्रों में यह करीब D 1700 ई० पू० तक चलती रही।

 

 

 

सिन्धु घाटी सभ्यता पर्याप्त विकसित देशों की सभ्यता थी।इस कथन की
 
“The Indus Valley Civilization was the civilization of the sufficiently developed country.” Prove this statement. या सिन्धु घाटी की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक दशा, नगर नियोजन और कला के बारे में आप क्या जानते हैं ? What do you know about the political, social, economic, religious condition, town planning and the art of the Indus valley
 

 

 

 

उत्तर

 

सिंधु सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता की विशेषताएं (सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता की विशेषताएं)

 

राजनीतिक दशा (1) शासन पद्धतिसैन्धव सभ्यता के लोगों में राजनीतिक उत्तेजना, विप्लव और क्रान्ति की भावना नहीं थी। उनका राजनीतिक जीवन सुख और शान्तिपूर्ण था। आक्रमण, हिंसा, संघर्ष और युद्ध की भावना उनमें नहीं थी। वहाँ उल्खनन में गदा, कटार, फरसा, वर्धी, गोफन, भाला आदि प्राप्त हुये हैं; ढाल, तलवार, कवच, शिरस्त्राण जैसे हथियार नहीं मिले हैं। इससे प्रमाणित होता है कि सिन्धु सभ्यता के लोग आक्रमण और युद्ध प्रेमी नहीं थे।

 

हन्टर के अनुसार, मोहनजोदड़ो का शासन जनतन्त्रात्मक था, और सत्ता किसी राजा के हाथ में केन्द्रित होकर जनप्रतिनिधियों के हाथ में थी। मैके का मत है कि वहाँ का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथ में था। ए० वीलर तथा अन्य विद्वानों ने यह मानते हुये इसके राजनीतिक संगठन की प्राचीन सुमेर और अक्काद (मेसोपोटामिया जिसकी सभ्यता के अन्य स्थल थेबाबुल और असीरिया) से तुलना की है कि सिन्धु घाटी में भी सत्ता पुरोहितों (और उनके प्रतिनिधियों) के हाथ में थी जिनका सारी जमीन पर कब्जा था। भारतीय पुरातत्त्वज्ञों द्वारा कालीबंगन में उत्खननों के परिणामस्वरूप रोचक तथ्य प्रकाश में आये हैं। गढ़ी से नहीं बल्कि निचली बस्ती भी दीवार से घिरी ही थी और किलेबन्द श्री कालीबंगन में गढ़ी के 2 भाग थेउत्तरी और दक्षिणी उत्तरी भारत में रिहायशी मकान थे, लेकिन दक्षिणी भाग में कोई मकान नहीं था, जहाँ कच्ची ईंट के बने अनेक चबूतरे मिले हैं। इनमें एक चबूतरे के शिखर पर वेदियों के अवशेष मिले थे। इसके आधार पर बी० बी० लाल आदि विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि गढ़ी का दक्षिणी भाग विशेष धार्मिक भवन समूह था, कि किसी शासक का निवास। इस प्रसंग में यह सम्भव है कि गढ़ के उत्तरी भाग के रिहायशी मकान पुरोहितों के आवास रहे हों। और यह भी सम्भव है कि हड़प्पायी नगरों में सत्ता का रूप अल्पतन्त्रीय गणतन्त्र का रहा हो। मत वैभिन्य के कारण निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि सिन्धु सभ्यता की शासन व्यवस्था का स्वरूप क्या था, प्रधान सत्ता मिस्र के फराह के समान राजा के हाथ में थी या जन प्रतिनिधियों के हाथ में, अथवा पुरोहित वर्ग के हाथ में। फिर भी कॉलेजिएट या सार्वजनिक इमारत के आधार पर यह सिद्ध होता है कि शासन व्यवस्था लोकात्पक थी, और समष्टिवाहिनी थी तथा नगर के सभी लोगों को शासन कार्य में हस्तक्षेप करने की इजाजत थी। वी० सी० पाण्डेय का कहना है कि सम्भवः केन्द्रीय सत्ता का विकेन्द्रीकरण कर दिया गया था, और केन्द्रीय शासन की ओर से अनेक पदाधिकारी भिन्नभिन्न नगरों में शासन करते थे।

 

(2) सत्ता का विकेन्द्रीकरण उत्खनन से प्राप्त अवशेषों से सिन्धु सभ्यता के नगरों की उत्तम सफाई व्यवस्था का ज्ञान होता है। इससे अनुमान लगाया गया है कि उस समय सिन्धु प्रदेश के विभिन्न नगरों में नगरपालिकाओं या परिषदों जैसी व्यवस्था रही होगी, अर्थात् स्थानीय शासनप्रणाली किसी किसी रूप में अवश्य विद्यमान भी यह सम्भव कि इस परिषद के सदस्यों की बैठकें मोहनजोदड़ो की स्थली पर मिले तथाकथित सभा कक्ष में ही होती हो। विशाल भवनों और दुर्ग के खण्डहरों से अनुमान लगाया जाता है कि नगरों में रक्षकों की भी व्यवस्था थी। विशाल भवनों में सम्भवतः उच्च पदाधिकारी रहते होंगे। अनेक सहकों के कोनों पर एकएक भवन के जो खण्डहर मिले हैं उनसे अनुमान होता है कि सम्भवतः ये पुलिस अथवा शान्ति रक्षकों के नाके थे। चूंकि सिन्धु सभ्यता शान्तिप्रिय थी, अतः पुलिस अथवा शान्ति रक्षकों की संख्या बहुत ही कम रही होगी और उनका मुख्य कार्य सार्वजनिक कार्यों की देखभाल और व्यवस्था ही होगा। सामाजिक दशा

 

हड़प्पा समय में नगरीय जीवन का आविर्भाव सामाजिक दशा का वैशिष्ट है। जीवनयापन के कई धन्धे शुरू हुये, जिन्होंने विभिन्न वर्गों को जन्म दिया। बड़े पैमाने पर उत्पादन ने लोगों को अधिक सुविधायें प्रदान कीं, आमोदप्रमोद भी (1) जनसंख्याउत्खनन से पता चलता है कि जनसंख्या शहरी थी। हड़प्पा और

 

मोहनजोदडो (जिनकी जनसंख्या करीब 23,554 और 41,250 के बीच थी) महानगरीय केन्द्र थे, और कालीबंगन, चन्हुदाड़ो, लोथल (जिसकी जनसंख्या करीब 10-15 हजार थी जो ताम्र पाषाणकालीन नगर के लिये काफी है) रंगपुर आदि अन्य शहरी केन्द्र थे। बड़े पैमाने पर उत्पादन, आवागमन को मुगम करने के लिये नदियों की उपस्थिति, सिचाई, व्यापार आदि ने इन नगरों को जन्म दिया। यहाँ की जनसंख्या सर्वदेशीय थी, ऐसा प्राप्त अस्थिपंजरों के आधार पर पता चलता है। परन्तु, डी० सी० सरकार का मत है कि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और लोथल के लोग आज के पंजाब, सिन्ध और गुजरात के लोग जैसे ही थे अर्थात् हड़प्पा संस्कृति अलगअलग स्थानों पर स्थानीय लोगों द्वारा अपनायी गयी, और हड़प्पा उपनिवेश का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

 

(2) परिवारसम्भवतः परिवार समाज की इकाई थी। शायद परिवार संयुक्तात्मक होते थे, और उक्त सम्बन्धों पर आधारित थे। इसके अलावा उनके मातृसत्तात्मक होने की सम्भावना लगती है।

 

(3) विभिन्न वर्गों का निर्माण या सामाजिक संरचना या सामाजिक वर्गीकरणउत्पादन में वृद्धि की वजह से लोगों ने अलगअलग पेशे अपनाये और बाद में उन्होंने अपनेअपने वर्ग बना लिये। मोहनजोदड़ो के अवशेषों से 4 प्रकार के वर्गों का पता चलता है— (i) शिक्षित, (ii) योद्धा, (iii) व्यवसायी या व्यापारी और कारीगर, और (iv) शारीरिक श्रम करने वाले या श्रमजीवी शिक्षित वर्ग में पुरोहित, वैद्य, जादूटूटोना वाले लोग आते थे। मोहनजोदड़ो के महल के अवशेष से क्षत्रिय (शासक) वर्ग का पता चलता है। व्यापारी, शिल्पी, जैसेलुहार, सुनार, सीप का काम करने वाले, टोकरी बनाने वाले और राजगीर तृतीय वर्ग में आते थे और चमड़े का काम करने वाले, टोकरी बनाने वाले, किसान, मछुए आदि चतुर्थ वर्ग में आते थे

 

(4) स्त्रियों का सम्मानसमाज में स्त्रियों का आदर था। स्त्री को मातृदेवी के रूप में माना जाता था। पर्दा प्रथा नहीं थी। धार्मिक और सामाजिक उत्सवों में नरनारी समान

 

 

भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक)

 

रूप से भाग लेते थे। स्त्रियों का कार्य बच्चों का लालनपालन और फालतू समय में सूत कावना था। (5) खानपानगेहूं, जौ, चावल, दूधदही आदि मुख्य भोजन था। अनाज चक्की

 

में पीसा जाता था। रोटी चकलों पर बनायी जाती थी। कुछ घरों से जानवरों की अधजली हड्डियां प्राप्त हुयी है। सो पता चलता है कि जानवरों का (गाय, सुअर, घड़ियाल, कछुआ, भेड़, बकरी आदि) का माँस खाया जाता था। फलों में अनार, तरबूज, खरबूजा, नारियल, खजूर, नींबू तथा कुछ अन्य फल प्रयोग में लाये जाते थे। खुदाई में तश्तरियाँ, प्याले, थाली, चम्मच आदि वर्तन बड़ी संख्या में मिले हैं जिनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि त्यौहार आदि के अवसर पर दावतें होती थीं। मिठाई बनाने के साँचे भी मिले हैं। सैन्धव लोगों में मद्यपान की प्रथा थी अथवा नहीं यह कहना कठिन है, क्योंकि इस सम्बन्ध में अभी तक ठोस प्रमाण नहीं मिले हैं। कुछ बरतनों से अलबत्ता ऐसा पता चलता है कि उनका प्रयोग मद्य खींचने के लिये होता होगा।

 

V (6) पशुअस्थिपंजरों, बर्तनों, मृण्मूर्तियों आदि से हमें उस समय के पालतू जानवर जैसेभेड़, बकरा, बकरी, बिल्ली, कुत्ता, सूअर, कूबड़ बैल, गाय, मुर्गा, भैंस, हाथी और ऊँट, तथा जंगली जानवर जैसे बन्दर, भालू, शेर, बाघ, गैंडा और हिरण का पता चलता है। मोर, बतख खरगोश की भी लोगों को जानकारी थी। तथाकथित घोड़े की हड्डी मिली है। लोथल की मृण्मूर्ति पर भी घोड़ा नजर आता है। परन्तु उसके अस्तित्व के बारे में अभी ठीकठीक नहीं कहा जा सकता।

 

(7) पहनावाएक सेलखड़ी (Alabaster) की मूर्ति से पता चलता है कि शाल और धोती के समान दो कपड़े पहने जाते थे। ऊनी और सूती वस्त्रों का प्रचलन था मोहनजोदड़ो से बुने हुये कपड़े का टुकड़ा मिला है। लोथल की सीलों पर कपड़े की छाप है। पक्की मिट्टी को काटने की चकरियाँ कई स्थानों से प्राप्त हुयी हैं। स्त्रियाँ घाघरे का प्रयोग करती थीं। वे सिर पर विशेष प्रकार का वस्त्र धारण करती थीं जो पंखे की तरह उठा रहता था। बांहों और कंधों को ढकने के लिये वे ढीला वस्त्र चुनती थीं, लेकिन स्तनों को आवृत करने के लिये नहीं कपड़े सिले जाते होंगे क्योंकि सुइयां भी प्राप्त हुयी हैं, कैंचियाँ भी मिली हैं।

 

(8) केश विन्यासआदमी और औरतों की जो लघु मूर्तियां मिली हैं उनसे पता चलता है कि उनके केश विन्यास के कई तरीके थे। बालों को संवारने के लिये दर्पण एवं कंधी का उपयोग किया जाता था, शायद सुगन्धित तेल का भी अनेक मूर्तियों को देखने से पता चलता है कि पुरुष लम्बे बाल रखते थे और पीछे की ओर या बीच में सुमेरियन ढंग पर जुड़े की तरह बाँध लेते थे। एक मूर्ति के बाल आधुनिक ढंग के कटे हुये बालों की तरह हैं। कुछ अपना चेहरा साफ रखते थे (उस्तरे की सहायता से), तो कुछ दाढ़ी रखते थे। दाड़ियाँ या तो अच्छी तरह काटछाँट कर छोटी बनाकर रखी जाती थीं (आधुनिक कादियानी फैशन) या बड़ी एवं पीछे की ओर मुड़ी हुयी होती थीं या मौलवी फैशन की यानी चेहरे के बाकी बाल काट दिये जाते थे। नृत्य करती हुयी कांस्य मूर्तियों से यह पता चलता है कि लड़कियाँ बाल अपने बायें कान से सीधे कन्धे की तरफ गिराया करती थीं। कुछ टोपियाँ भी मिली हैं।

 

(9) आभूषणआभूषणों में कण्ठी, कतल, बाजूबन्द, अंगूठी, कर्णफूल मुख्य थे। औरतें विशेषकर कमरबन्द या मेखला या करपनी, नथुनी पायल या पाजेब या नुपूर, चूड़ियाँ आदि पहनती थीं। पुरुष मुख्यतः अंगूठी और नेकलेस पहनते थे गहने सोने, चांदी, हाथी 33 दाँत या अर्थमूल्यवान पत्थर के होते थे। गरीबों के गहने सीप, हड्डी, ताँबे और पक्की मिट्टी के होते थे। कारनीलियन (Carnelian), अर्थात् अकीक, किया पत्थर सेलखड़ी (Stcatite). यशव या गोमेद या अकीद (Agate), मरकत (सब्जा), लाजवर्द, चाल्सीडनी (Chalcedony); जैस्पर (Jasper) अर्थात् सूर्य कान्त के कई सुन्दर मणिके (Beads) भी मिले हैं जो मणिकारों की तकनीकी दक्षता के प्रमाण हैं। मनके सोने के भी बनते थे।

 

(10) प्रसाधन या श्रृंगार और अंगराग या क्रान्तिवर्द्धकएक श्रृंगार बक्स (जिसकी तुलना कर तथा किश से प्राप्त श्रृंगार बक्स से की जाती है) हड़प्पा से मिला है। ऐसा पता चलता है कि मोहनजोदड़ो की औरतें अंजन या काजल या सुरमा लगाती थी मुखप्रप (Face Paint) और अन्य अंगरागों का उपयोग भी होता था। चन्हुदाड़ों से रंजनशलाका (Lipstick) और सीसे की अंगारक तुल्य वस्तुयें मिली हैं।

 

(11) आमोदप्रमोदगोलियाँ, गंदे, पासे प्राप्त हुये हैं। ये खेल के काम आते थे। लगता है, शतरंज या शतरंज सा खेल लोकप्रिय था। कुछ ताबीजों से पता चलता है कि लोग मृगया (शिकार) के शौकीन थे। पक्षी पाले जाते थे, मुर्गों, तीतरों, बटेरों आदि पक्षियों की लड़ाई भी आमोदप्रमोद का एक साधन था। बैलों की लड़ाई भी होती थी। फन्दा डालना, मछली पकड़ना भी लोकप्रिय था। शायद द्यूत भी मनोरंजन का साधन था। मिट्टी के खिलौने बच्चे बनाया करते थे। मिट्टी की गाड़ियों तथा भेड़ें बच्चों के खेल का प्रमुख साधन थीं। पक्षियों के ऐसे खिलौने भी बनाये जाते थे जिनको बजाने के वास्ते उनमें तूती लगी हुयी हो। तूतियों से सीटी बजती थी। बच्चों के लिये झुनझुने, भोंपू भी बनते थे। चिड़ियों के खिलौने भी बनते थे। चिड़ियों में अलग से टाँगेंजोड़ दी जाती थीं। लगता है, या तो अलगअलग अंग बनाने की कला की एक प्रथा थी या कि Mass Production का सैन्धव लोगों को भान था। कांसे की नर्तकी से पता चलता है कि नाच भी आमोदप्रमोद का साधन था। कुछ ऐसी भी उत्कीर्ण आकृतियाँ खुदाई में मिली हैं जिनसे अनुमान लगाया जाता है कि सिन्धु निवासी तबला या ढोल से परिचित थे और नृत्य के अवसरों पर इनका

 

प्रयोग करते थे। कुछ मुद्राओं पर तुरही, वीणा आदि वाद्यों के चित्र भी उत्कीर्ण हैं। (12) अयुध या शस्त्र या हथियार, औजार और उपकरणकई शस्त्र, उपकरण और औजार भी प्राप्त हुये हैं। सभी ताँबे और कांसे के हैं। अलगअलग उद्देश्य के अलगअलग उपकरण मिले हैं जो सिन्धु घाटी के लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी से सम्बन्धित हैं।

 

(13) घरेलू पदार्थघरेलू बर्तनों में अपर्ण आधार (Offering stands), जाम या पानपात्र, टोंटीदार पात्र, कटोरा, चिलमची या प्याला या कुंडी, रकाबी, तवा या कड़ाह, मरतबान आधार (Jar Stands), भण्डार मरतबान आदि मुख्य थे, ये मिट्टी के होते थे। कुर्सी, स्टूल, तख्त, पलंग, नरकुल की चटाई आदि से कमरों की सजावट की जाती थी। ताँबे, सीप और , कुम्हारी मिट्टी के दीप या चिराग होते थे। बत्तीदान या शमादान का उपयोग घर में उजाले के लिये किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि मोमबत्ती का प्रयोग भी करते थे।

 

(14) औषधि शिलाजीत के समान एक पदार्थ मिला है, भांडे में मछली की हड़ियाँ मिली हैं, कुरंग, हिरण के सींग भी मिले हैं। इनका उपयोग दवाई में होता होगा। प्रवाल और नीम की पतियों का उपयोग भी औषधि में होता था। लगता है. भारतीय आयुर्वेदिक का मूल सिन्धु सभ्यता में छिपा था। कालीबंगन और लोथल से प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि कपाल छेदन की प्रथा मौजूद थी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि कपाल छेदन से सिर दर्द, स्तनाकार और मस्तिष्क सूजन दूर होती थी।

 

(15) लिपिशहरों के सुसंगठित सामाजिक जीवन ने लेखन की आवश्यकता को कबूल किया होगा। हड़प्पा, कालीबंगन, कोटदीजी, रोजदी, रंगपुर आदि से प्राप्त मोहरों (Seals) पर कुछ चिन्ह अभिलेख में हैं। कुछ विद्वान इसे चित्रलिपि और कुछ भावलिपि मानते हैं। कुछ स्वोफेदन (Boustrophedon) इसी प्रकार की सीलें और सुमेर इलाम से भी मिली है। भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक)

 

अवशेष प्राप्त हुये हैं उनसे पता चलता है कि मृतक संस्कार तीन प्रकार से किये जाते (16) अत्येष्टि प्रथा मोहनजोदड़ो हड़प्पा, कालीबंगन, रूपढ़ और लोबल से (i) मृतक शरीर को पृथ्वी में गाड़ दिया जाता था। धनी सामन्तों के शव के साथ आराम को समस्त वस्तुयें भी गाड़ दी जाती थीं। (ii) मृतक शरीर को पक्षियों को खाने के पृथ्वी में गाढ़ दिया जाता था। (iii) मृतक शरीर को जला दिया जाता था। ऐसा अनुमान किया जाता था कि शव गाढ़ने की प्रथा कम होने लगी थी और जलाने की प्रथा का अधिक प्रचार हो गया था। लोथल से युगल के अस्थिपंजर मिले हैं। यह प्रथा सती प्रथा की ओर इशारा करती है।

 

आर्थिक दशा

 

(1) खेतीखेती मुख्य व्यवसाय था, यद्यपि खेती करने के औजार प्राप्त नहीं हैं। गेहूं, जौ, मुख्य अन्न थे। अनार, नारियल, नींबू, खजूर, तिल, दालें वगैरहा भी होती थी। लोथल और रंगपुर से चावल का भूसा मिला है। शायद ज्वारबाजरे की खेती भी होती थी (2) पशुपालनखेती के बाद पशुपालन का नम्बर आता है। जानवरों के अस्थिपंजरों, सीलों तथा मिट्टी के खिलौने पर बनी आकृतियों से पता चलता है कि कूबड़ वाला बैल, भैंस, भेड़, हाथी, खरगोश, बत्तख, तोता, सूअर, कँट पाले जाते थे। ये विभिन्न आर्थिक उद्देश्यों को पूरा करते थे। उनसे दूध और गोश्त मिलता था। उन भी मिलती थी। वे आवागमन के साधन भी थे। मधुवाही (Fishing) भी होती थी।

 

(3) उद्योगधन्धेहड़प्पा स्थलों के सुनियोजित मकान, सड़कों आदि से लगता है कि मकान बनाना एक पेशा था। कुंभकारी प्रचलित थी, बागवानी भी धातुकर्म (Meallurgy) भी प्रचलित था। ताँबे के कई उपकरण मिले हैं। युद्ध के शस्त्र भी मिले हैं। सोने की कई चीजें मिली हैं। चाँदी का प्राचीनतम आविर्भाव या प्रकटन सिन्धु घाटी में हुआ। सैन्धवों को सोना और चाँदी के मिश्रण से बनी इलेक्ट्रम नामक धातु का भी ज्ञान था। ताँबे में रांगा मिलाकर कांसा नामक मिश्रित धातु का निर्माण किया जाता था। हाथी दाँत, सीप का जड़ाऊ काम आदि कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कौशल थे। पात्र और मणके बनाने का व्यवसाय भी अच्छा विकसित था। सूती उद्योग मुख्य था। किसी पात्र पर नाव बनी हुयी दिखायी गयी है। वर्तन निर्माण का भी उद्योग था औजार हथियार, मलाई डलाई और गढ़ाई आदि के धन्धे भी प्रचलित थे।

 

(4) व्यापार, वाणिज्यखेती और उद्योग के विकास से उत्पादन काफी बढ़ा। हड़प्पा व्यापारी अपने माल देश में और बाहर ले जाते थे। सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता था। स्थल व्यापार गाड़ी और जानवरों की सहायता से होता था। गाड़ी के रास्ते हड़प्पा शहर की सड़कों पर मिले हैं। समुद्र से भी व्यापार होता था। बिना मस्तूल का जहाज एक सील पर दर्शाया गया है। सोकता खो और सुक्कजेंडोर के बन्दरगाह और सोमल का गोदीवाड़ा इसी बात को प्रमाणित करता है।

 

हड़प्पा लोग सोना मैसूर से, चांदी अफगानिस्तान और ईरान से, तांबा राजस्थान, बलूचिस्तान और अरेबिया से, सोसा दक्षिण से लाजवर्द या रायट अफगानिस्तान से, भीरोजा ईरान से सेलखड़ी पूर्व और पश्चिम के कई स्थानों से जम्बुमणि (Amethyst) महाराष्ट्र से, लकड़ी और बाहरसिंगा कश्मीर से, अकीक चालसीडनी और कारनीलिअन सौराष्ट्र और पश्चिम भारत से, संगयशब (Jade) मध्य एशिया से प्राप्त करते थे

 

 

 

मापतौलव्यापार, व्यवसाय, वाणिज्य और जीवन में गणना तथा नाप तौल का विशेष महत्त्व होता है। उस समय भी ये विशिष्ट रूप से महत्त्वपूर्ण थे। खुदाइयों के दौरान पत्थर और सीपों के बटखरे मिले हैं। ये विभिन्न आकारप्रकार और वजन के हैं। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि विभिन्न स्थलों से प्राप्त होने पर भी इनमें एकरूपता देखने को मिलती है। तौलने की इकाई के रूप में 16 या उसके गुणक अंक का प्रयोग किया जाता था। चूँकि बाट दशमलव तक प्राप्त हुये हैं, इसलिये यह माना जा सकता है कि हड़प्पाई लोगों को दशमलव प्रणाली का ज्ञान था और कि भारत ने ही यूरोप तथा अन्य महाद्वीपों को दशमलव पद्धति का ज्ञान कराया। धार्मिक दशा

 

लिपि की गूढ़ता की वजह से सिन्धु घाटी सभ्यता के धर्म के बारे में कुछ निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता उत्खनन से प्राप्त सील, लघु मूर्तियाँ और पत्थर मूर्तियाँ उस समय के धर्म पर कुछ प्रकाश फेंकती हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक इमारत (जिसमें से मूर्तियाँ भी प्राप्त हुयी हैं) को मन्दिर माना गया है। यह भी अनुमान लगाया गया है कि सामान्यतया मन्दिर लकड़ी के होते थे। कुछ नारी मूर्तियों के आधार पर जे० मार्शल ने यह अनुमान लगाया है कि ये सारी मूर्तियाँ मन्दिर की उपासिकाओं की हैं। नग्न रूप से नृत्य करती हुयी नर्तकी की मूर्ति को विद्वान् देवदासी समझते हैं। यह भी प्रतीत होता है कि सिन्धु घाटी के निवासियों ने अपने देवताओं का मानवीकरण कर दिया था और उन्हें मनुष्य के रूप में देखते थे। मानवीय गुणों की प्रतिष्ठा के कारण ही मुहरों तथा प्रतिमाओं में उनके देवीदेवता मानव आकृति में प्रस्थापित किये गये थे। बहुत से चौकोर और आयताकार ताबीज भी पाये गये हैं। इन ताबीजों पर देवीदेवताओं की प्रतिमायें और नीचे कुछ मन्त्र अंकित हैं। ये ताबीज मिट्टी, ताँबा आदि के बने हुये हैं। इससे यह प्रकट होता है कि उनके धर्म में अन्धविश्वास, जादूटोना, और ताबीज को भी प्रमुख स्थान प्राप्त होगा। भूतप्रेत अथवा वैसी शक्तियों में उन लोगों का विश्वास था और उनसे बचने के लिये ही वे लोग जादूटोना का व्यवहार करते थे। एक प्रतिमा में एक देवता के समक्ष एक स्त्री नाचती दिखायी गयी है। इससे यह सिद्ध होता है कि ये लोग अपने देवीदेवताओं के समक्ष उन्हें रिझाने के लिये नृत्य भी करते थे। पशुबलि, देवी पूजा का एक अंग समझी जाती थी। कला

 

स्थापत्यनगर नियोजनस्थापत्य कला में सैन्धव नगर नियोजन का विशेष महत्त्व है। हड़प्पा काल में सिन्धु घाटी के मैदान और पंजाब में रहने वालों ने ऐसे सुनियोजित शहर बनाये कि उन जैसे ईरान, मिल या पश्चिमी एशिया में भी नहीं दिखायी देते। ऐसे , शहरों में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा का विशेष महत्त्व है, क्योंकि वे महानगर थे। कम महत्त्व कालीबंगन, चन्दाड़ो, काटदीजी लोथल, रंगपुर, सुक्तजेन्डोर, सोटका कोह का भी नहीं। इन स्थानों पर जो पुरातात्त्विक उत्खनन हुये उनसे उस समय के नगर नियोजन एवं स्थापत्य के बारे में पता चलता है। नगर नियोजन की एकरूपता शहरों, गलियों, इमारतों, ईंटों का आकार नालियों आदि के अभिन्यास या विन्यास या खाके से पता चलती है। यह एकरूपता उत्पादन में केन्द्रीयकरण और चुस्त प्रशासन का नतीजा है। उस समय का नगर नियोजन तत्कालीन योजनाबद्ध इन्जीनियरी का प्रमाण है सारा नगर विन्यास ऐसा था कि एक गली से दूसरी गली तक सरलता से बिना किसी चक्करों के पहुंचा जा सकता था।

 

(1) मोर्चाबन्द (Fortified) शहरअधिकतर शहर आयतीय (Rectangular) थे दुर्गे का परकोटा या प्राकार या फासील ऊंचा होता था, उसकी नींव मिट्टी की और बौद होती थी, उसके दरवाजे होते थे। खाई या परीखा या खन्दक (Moat) भी होती थी। की दीवारों में बीचबीच में बुर्ज होते थे। हड़प्पा के दुर्ग की योजना समानान्तर चतुर्भी वाली है। अन्दर की इमारतें मिट्टी और मिट्टी की ईंटों के चबूतरों पर बनी थीं और सभी तरह सुरक्षा के प्रबन्ध में बाद में इनमें टेक (Buttesses) भी दिये गये प्रवेश दरवाजे उत्तर पश्चिम में होते थे। मोहनजोदड़ो का नगर दुर्ग बन्द (Bund) या पुरता से सुरक्षित था। कालीबंगा में प्रवेश उत्तर दक्षिण में होते थे। लोथल में भी परकोटा मिला है। रंगपुर में ईटों की किलेबन्दी है। हरियाणा में बनवली में अलगअलग हिस्से थेएक दुर्ग का दूसरा रहवास का। कच्छा के सुरकोटड़ा में भी मोर्चाबन्दी मिली है। सूक्तजेडोर में दुर्ग प्राकृतिक पहाड़ी पर बना है।

 

(2) गलियाँ और लेन्स हडप्पा शहर कई बड़ी गलियों में विभाजित था। गलियाँ शहर को कई ब्लॉक में बाँटती थी। मोहनजोदड़ो में उसकी चौड़ाई 9 से 34 फुट तक थी। ये कभीकभी आधे मील तक सीधी चली जाती थीं। वे समकोण पर काटती थीं और शहर को चौकोर या आयताकार ब्लॉक में बाँटती थीं। इन ब्लॉकों का क्षेत्र फिर अनेक छोटी लेन्स (Lancy) से काटता था। लेन में मकान होते थे। प्रत्येक लाइन में सार्वजनिक कुआँ होता था। सुमेर की भाँति कहीं भी कोई भी इमारत सार्वजनिक पथ पर अतिक्रमण करती थी छोटे उपभागों के कोण लहू पशुओं से रगड़े प्रतीत होते हैं और कहींकहीं कुछ इमारतों के कोने गोल कर दिये जाते थे। बनी के खम्भे मिले हैं जिनसे प्रतीत होता है कि गलियों में प्रकाश व्यवस्था थी। मोहनजोदड़ो और काली गंगा की पक्की सड़कें मिट्टी की बनी थी। प्रत्येक बड़ी सड़क 1 किमी. तक सीधी चली जाती थी और 10 मी० तक चौड़ी होती थी। सड़कों का विन्यास (Layout) कुछ इस प्रकार से था कि हवा स्वयं ही सड़कों को साफ करती थी। सड़कों की सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाता था। लगता है, सेनिटरी इन्जीनियरी सरीखी कोई चीज थी। कूड़ा फेंकने के लिये सड़कों के किनारे गड्ढे थे। पानी का जमाव रोकने के लिये सड़कें ढलुआ बनायी जाती थीं। मकानों को क्षति पहुँचे, इसलिये गलियों के कोने पर लकड़ी के जंगले लगा दिये जाते थे। लोथल से 4 गलियाँ मिली हैं, दो उत्तर दक्षिण दौड़ती थी और दो पूर्व पश्चिम दोनों तरफ लेनें थी। गली के एक तरफ 12 मकानों की कतार मिली है। छोटे मकान शायद दुकानों के काम आते थे।

 

(3) इमारतें – (i) निवास घरखुदाई से प्राप्त निवास घरों के अवशेषों से मकानों के आकार में विभिन्नता का पता चलता है। छोटे मकानों में दो से अधिक कमरे नहीं होते थे। कमरों में दीवारों के साथ अलमारी बनाने की प्रथा थी। सामान्यतया घरों में कई कमरे, एक रसाईघर, आँगन (सहन), गुसलखाना और एक मन्जिल ऊपर होती थी। खुला प्रांगण विशेषता थी। सीढ़ियाँ (लकड़ी, पत्थर) अन्दर के प्रांगण या चौक से ऊपर की मन्जिल पर जाती थीं। ऐसा भी पता चलता है कि कुछ स्थान चौकीदार के लिये होते थे। दरवाजे शायद लकड़ी के होते थे और दीवारों के अन्त में लगाये जाते थे कि मध्य में। प्रायः दरवाजों की माप 3′ 4” से 7′ 10′ तक की होती थी। घरों की बाहरी दीवारों में बहुधा खिड़कियाँ नहीं होती थीं। जालियों ही खिड़कियों और हवादानों का काम करती थी। दरवाजे और खिड़कियों आंगन की ओर खुलते थे। उन चौरस होती थी और शायद बांस, चटाई और लकड़ी की बनी होती थी ताकि तापमान संवत रहे। दीवार के सन्धि स्थानों पर लकड़ी के खम्भे होते थे जो छत को सहारा देते थे। कालीबंगा के मकानों के फर्श कुटाई पर बनाये गये थे। कभीकभी ऊपर मिट्टी की ईंटों का भी उपयोग किया जाता था। एक स्थान पर खपरैल भी मिली है। कालीबंगा के मकानों में अग्नि स्थान भी मिले हैं। शायद हवन में काम आते होंगे। हड़प्पा में और मोहनजोदड़ो में अलग पन्थों वाले लोगों के अलगअलग मकान होते थे। एक बात और मकानों में पक्की ईंटों का उपयोग यहाँ होता था, विश्व में अन्य कहीं नहीं। ईंटें 52″ ×22 ” ×22″ से 18×7-2″ +3,” के माप की 10 ऐतिहासिक युग होती थीं। सभी मकान ऊँचे चबूतरे पर बनाये जाते थे, शायद सैलाब (बाद) के विरुद्ध

 

एहतियात (Precaution) बरतने के लिये। कुछ मकानों में तलघर भी मिले हैं। (i) सार्वजनिक[सर्वाजनिक इमारतों में मोहनजोदड़ो की वह इमारत मुख्य है जिसे मैके ने कालेज कहा है। आमतौर पर यह माना जाता है कि इसमें शायद कोई उच्चाधिकारी, पुरोहित निवास करते थे। 80′ चौकोर स्तम्भों के हाल में लम्बे गलियारे थे, बेचे थीं। शायद सार्वजनिक सभा के समय बेंचों का उपयोग बैठने के लिये होता था। सीटें भी थीं, परिधीय (Peripheral) बुर्ज भी थे। एक 250′ लम्बे राजमहल के अवशेष भी प्राप्त हुये हैं। पास में वृत्ताकार या वर्तुल गड्ढे पाये गये हैं, उन पर मिट्टी लगी हुयी है। एक 87×54-5′ की इमारत को रेस्तरां माना गया है। एक बहुत ही महत्त्व की इमारत वह है जो 52′ x40′ है और जिसकी दीवारें मोटी हैं। इसके साथ ही दाढ़ी वाले आदमी 4 की मूर्ति मिली है। एम वीलर इस इमारत को मन्दिर समझता है। एक मजबूत बनावट का अन्न भण्डार भी मिला है। इसमें माल लादने और उतारने के लिये प्लेटफार्म बने हैं। इसका उपयोग शायद फसलों की दवनी (Threshing) के लिये भी किया जाता होगा। बड़ेबड़े अन्न भण्डार मिस्र और मेसोपोटामिया में भी मिले हैं, परन्तु हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के अन्न भण्डारों से उनकी तुलना नहीं की जा सकती। इनका अपना विशेष डिजाइन है। हड़प्पा का अन्न भण्डार या धन्यागार (Granary) अत्यन्त असाधारण है, बहुत लम्बा है। यह लोथल में भी गोदाम या अन्न भण्डार मिला है। वह 12 ऊँचे मिट्टी के चबूतरे पर खड़ा है। यह 165’x145′ का है और इसमें कोठरी वाले 12 खण्ड हैं। मोहनजोदड़ो में 39′ ×23’×8′ का महान स्नानागार (Great Bath), जल चिकित्सा सम्बन्धी प्रतिष्ठान (180×108′) का एक भाग था। इसमें जाने के लिये सीढ़ियाँ थीं, कई दो मन्जिल कमरे बने हुये थे। इसमें पास ही के कुर्य से ताजा पानी भरा जाता था। इसके फर्श और दीवारों को जलरोधी (Watertight) बनाया गया था, चारों ओर तीनतीन दीवारें बनायी गयीं थीं। सीलन से बचने के लिये राल (Bitumen) का उपयोग किया गया था। निकास कोने में दिया गया था जो बड़ी नाली में जाकर मिल जाता था। स्नानागार के छज्जे पर विशाल गलियारा था और उसमें तीन तरफ कमरे और दीर्घायें (Gallaries) बनी हुयी थीं जो एक प्रकार से अमानती सामान घर (Cloak Rooms) की तरह उपयोग में आते थे। स्नानागार के दक्षिणपश्चिम छोर की ओर एक हमाम था। लगता है, लोग हायपोकस्ट (Hypocast) स्नान का महत्त्व समझते थे। कुछ विद्वानों ने इसे पवित्र स्थान माना है। उनके अनुसार उत्सवों या पर्वो पर लोग यहाँ स्नान करते थे। के० डी० वाजपेयी ने इसे सार्वजनिक स्नानागार माना है। एक और स्नानागार प्रतिष्ठान था जिसमें स्नानागारों की दो पंक्तियाँ थीं जो एक संकीर्ण गलियारे से अलग होती थीं, प्रत्येक स्नानागार में सीढ़ियां थीं दरवाजे थे, अच्छा फर्श था। सीधी सतर ईंटों को रगड़कर साफ किया जाता था ताकि फर्श में पानी की बूंद तक समा सके। अंग्रेजी भाषा में ‘L’ के आकार की ईंटों का कभीकभी कोण बनाने के लिये प्रयोग किया जाता था। येके ने स्नानागारों को पुरोहितों के लिये प्रक्षालन के स्थान माना है और यह माना है कि बड़ा स्नानागार आम जनता के उपयोग के लिये था कार्लटन ने विशाल स्नानागार की तुलना समुद्र तट पर स्थित आधुनिक होटल से की है। जो भी हो स्नानागार के तलस्तर और फिनिशिंग हेतु सफेद रंग के सीमेंट का प्रयोग हुआ है। यह सीमेंट महीन रेत, चिरोड़ी तथा चूना मिलाकर बनाया गया था। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के बीच एक दुर्ग था जो परकोटे से सुरक्षित था। कालीबंगा, रंगपुर बनावली और सूतकोटडा से भी दुर्ग के अवशेष मिले हैं।

 

 

 

 

भारत में लौह युगीन सभ्यतायें [IRON AGE CULTURES IN INDIA]

 

भारत में लोहा चित्रित धूसर मुद्माण्ड संस्कृति और कांसा और लाल पत्र संस्कृति दोनों ही प्रारम्भिक लौह युग की विशिष्ट संस्कृतियाँ थी. जिनकी विशेषताये विशिष्ट थी। ये संस्कृतियों ग्रामीण से नगरीय जीवन की सांस्कृतिक
 
अवस्थाओं की द्योतक है।” 1-पातकालीन संस्कृति पर एक वृहद निवन्ध लिखिये
 
या
 
Write a detailed essay on the culture of the metal age. निम्न शीर्षकों में धातु काल का अध्ययन कीजिये– (1) ताम्रस्म या ताम्र पाषाण युग। (2) कांस्य युग (3) लौह युग
 
या
 

निम्नांकित पर नोट लिखिये– (1) चित्रित धूसर मृद्भाण्ड (Painted Gray Ware Culture) (2) महापाषणिक संस्कृति (Megolithic Culture)

 

 

 

 

उत्तर

 

ताम्रास्म या ताम्र पाषाण युग ताम्र पाषाण युग में काफी परिवर्तन हुये। ताँबे के आविष्कार (करीब 5,000 से 4,000 वर्ष पूर्व मेसोपोटेमिया में) ने उत्पादन में वृद्धि ला दी। हल, बैल और जुए (Yoke), पहिये (Wheel), नाव, मुहर के ज्ञान से उत्पादन बढ़ा, विनिमय का प्रसार हुआ एवं व्यक्तिगत स्वामित्व की भावना विकसित हुयी। कबीले दो राज्य की तरफ बढ़ने की प्रक्रिया भी आरम्भ हुयी। अन्ततः ताम्रयुगीन माम्य संस्कृतियों ने कांस्ययुगीन शहरी सभ्यता की पृष्ठभूमि तैयार

 

कर दी। भारत के विभिन्न भागों से अनेक ताम्र पाषणिक स्थल प्रकाश में आये हैं जहाँ असमान रूप से विकसित ग्राम्य सभ्यता के साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में आहा गिलन्द से इस समय की बस्तियों के प्रमाण मिले हैं। मकान मिट्टी और पत्थर के बने हुये और थे, कच्ची ईंटों के साथ पक्की ईंटों के प्रयोग की जानकारी भी मिलती है। मकान में तन्दूर (Qvens) भी मिले हैं। मिट्टी के बर्तन काले रंग के हैं जिन पर सफेद रंग से रेखाचित्र बने हुये हैं। चम्मच, प्याले भी मिले हैं। पत्थर के छोटे उपकरणों के साथ ताम्र उपकरण भी बहुतायत से पायें गये। ताम्रखानों से ताँबा प्राप्त कर उसे गलाया जाता था और उससे विभिन्न उपकरण और आभूषण बनाये जाते थे (अँगूठी, चूड़ी, चाकू, कुल्हाड़ी इत्यादि) ताँबे के उपकरण यहाँ से सम्भवतः मध्य प्रदेश एवं दक्षिण भारत में भेजे जाते थे। कृषि, पशुपालन, मृण्मूर्तियां, मनके मुहरे, हले, खेत के भी प्रमाण मिले हैं।

 

मध्य प्रदेश में कायथा, एरण और नवदतोली सबसे प्रमुख स्थल हैं। कायथा से प्राप्त महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक साक्ष्यों में चाक की सहायता से बनाये गये मिट्टी के बर्तन, ताँबे की कुल्हाड़ियों, चूड़ियाँ, पत्थर के सूक्ष्म हथियार और मनके हैं। इसी प्रकार नवदतोली से सुनियोजित वस्ती, लालकाले रंगों के मृद्भाण्ड, तांबे के उपकरण तथा गेहूं, मसूर, मटर, चना, खेसारी और चावल की कृषि के प्रमाण मिलते हैं।

 

महाराष्ट्र में नासिक, नेवासा, जोयें, दयमाबाद, चन्दोली, सोनगांव से कई दिलचस्प प्रमाण मिले हैं। चाक निर्मित मृदभाण्ड (विशिष्ट नमूना टोटीदार वर्तन) सूक्ष्म पाषाणांपकरण. ताम्रनिर्मित उपकरण यहाँ से मिले। गाय, बेड़, बकरी, सूअर, भैंस, मोड़ा के पालने और चावल, गेहूं, धान, जौ, मसूर, मटर, बेर, पटसन की कृषि के प्रमाण मिलते हैं। सम्भवतः बाजरा की भी खेती होती थी। कच्ची ईंट और फूस से वर्गाकार, आयताकार या वृत्ताकार पर बनाये जाते थे। घर काफी बड़े होते थे। इससे अन्दाज लगता है कि परिवार विशाल होते थे, संयुक्त होते थे। घरों में मिट्टी का लेप होता था। झोपड़ियों कभीकभी लकड़ी की भी बनायी जाती थीं घरों में चूल्हा और तन्दूर भी बना रहता था। कहींकहीं पर घरों की घेरावन्दी भी की जाती थी। सूत कातने एवं वस्त्र बुनने की कला भी ज्ञात थी। अर्ध बहुमूल्य पत्थर के मनके भी बनते थे। मातृदेवी की मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं। शवाधान कलशों में मिट्टी के बर्तन एवं तांबे की वस्तुयें भी रख दी जाती थीं। नेवासा, चन्दोसी और कायथा से कुछ शवों के साथ तांबे और पत्थर के आभूषण भी रखे पाये गये हैं (गले का हार एवं

 

चूड़ियाँ) इससे सामाजिक विभेद या असमानता का पता चलता है। दक्षिण भारत के कुछ स्थलों (ब्रह्मगिरि भास्की) पूर्वी भारत में उत्तर प्रदेश (इलाहाबाद के पास), बिहार (चिरन्द), पश्चिम बंगाल (पान्डु राजर ढिब्बी) से भी ताम्र पाषणिक संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। चिरन्द के काले और लाल मृद्भाण्ड पश्चिम तथा मध्य भारत के ताम्र पाषाणयुगीन मृद्भाण्डों के समान हैं।

 

समयअलगअलग स्थानों की सभ्यता का समय अलगअलग रहा है। परन्तु

 

सम्मिलित रूप से इस सभ्यता का समय 2000 और 800 ई० पू० के मध्य रखा जा सकता

 

है। कुल मिलाकर नवपाषाण तथा ताम्र पाषाण कालों में व्याप्त सजातीय और वैभिन्य और असमान विकास ने देश के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक विकास के आगामी क्रम पर सुस्पष्ट प्रभाव डाला। निर्माताबहुत से विद्वान् यह मानते हैं कि इस सभ्यता के निर्माता आर्य थे। परन्तु सी० 14 के विश्लेषण के आधार पर यह मान्यता गलत सिद्ध हो गयी। कुछ यह मानते हैं कि इस सभ्यता के निर्माता नाग, सबर, पुलिन्द आदि होने चाहियें। परन्तु पुराण बाद के हैं, इसलिये इन पर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता और पुरातात्त्विक प्रमाण कोई मिला नहीं है, जो भी हो, ज्ञात आधार पर इसके निर्माता भारतीय मान लेना चाहिये। पात्रों

 

पर ईरानी प्रभाव अवश्य है, परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि इसके निर्माता पश्चिम एशिया

 

के लोग हैं। कुछ इस सभ्यता का उद्गम सिन्धु सभ्यता से मानते हैं। परन्तु दोनों के बीच

 

कोई सभ्यता नहीं है। एक शहरी है तो दूसरी ग्राम्य संस्कृति का स्वरूपताम्रास्म युगीन संस्कृति का स्वरूप काफी विकसित था। मोटे रूप से यह कहा जा सकता है कि ये लोग खेती करते थे, पशु पालते थे। इनके औजारों में पट्टे, पिन, रेजर, चाकू आदि मुख्य है। कला के भी कई नमूने प्राप्त हुये हैं। गहने भी मिले हैं। मुर्दों को गाड़ दिया जाता था और उनके साथ ही उनके सामान को भी अर्थात् वे पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। धर्म के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि वे गाय और बैल के उपासक थे। यज्ञादि में विश्वास करते थे। तान युग

 

ताम्र पाषणिक संस्कृति के अतिरिक्त भारत से ऊपरी गंगा घाटी और गंगायमुना दोआब क्षेत्र के कुछ स्थलों से ताम्र उपकरण प्राप्त हुये हैं जिनका सम्बन्ध निश्चित तौर पर किसी भी ज्ञात संस्कृति से सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। ये ताम्र उपकरण सबसे अधिक गंगा यमुना श्रेणी (दो आव) क्षेत्र में मिले हैं। प्राप्त उपकरणों में प्रमुख हैंहाथ की कुल्हाड़ियाँ, मत्स्य भाले (Harpoons), भाले, कटारे, गिन्ना युक्त तलवारें (Swords with Antcanae), अंगूठियाँ, तथा मानवतारूपी मूर्तियाँ (Anthorpomorphic figures) इन उपकरणों को गंगा घाटी ताम्र निधि (Gangetic valley Copper Hoards) के नाम से पुकारा जाता है। कुछ इस संस्कृति का सम्बन्ध हड़प्पा संस्कृति से जोड़ते हैं पर आर० हाईने गेल्टनर के अनुसार इस संस्कृति के संस्थापक आर्य गण थे। जो भी हो उपकरणों के साथसाथ गेरु वर्ण मुद्भाण्ड (Ochre Coloured Pottery- O.C.P.) एवं मिट्टी के आवास स्थल भी मिले हैं। इनसे गंगायमुना दोआब में पहली बार स्थायी जीवन, कृषि और शिल्प का प्रमाण मिला है। ताम्र उपकरणों का प्रयोग करने वाले प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उन्नत थे। राजस्थान और बिहार में भी कुछ ताम्र उपकरण (Cells) पाये गये हैं। गंगा घाटी की ताम्र निधि सम्भवतः 2000-1800 ई० पूर्व के मध्य विकसित हुयी।

 

पुणे के इनाम गाँव से भी ताम्रयुगीन संस्कृति का पता चला है। यहाँ किये गये उत्खनन कार्य से यह जानकारी मिली है कि ताम्र युग के लोग अच्छे किसान थे और सुनियोजित ढंग से बस्तियाँ बनाकर रहते थे।

 

पुरातत्त्वविद एम० के० दावलिकर के अनुसार ये ताम्रयुगीन लोग ईसा से 1000 से सेकर 100 वर्ष पूर्व तक इस इलाके में रहते थे जिनकी अर्थव्यवस्था कृषि, अन्न संग्रह, शिकार और मछली मारने पर आधारित थी।

 

पशुपालन भी उनका एक व्यवसाय था, और वे भेड़ और सूअर पालते थे। मुख्य रूप से सूखी खेत पर आश्रित उस समाज ने सिंचाई की भी व्यवस्था की थी। पुरातत्त्वविदों ने उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर सम्पूर्ण अवधि को तीन कालों में विभाजित किया है

 

मालवा संस्कृति (1600-1400 ई० पू०), पूर्व जोर्वे (1400-1000 ई० पू०), और उत्तर जोवें संस्कृति (1000-700 ई० पू०)

 

उत्खनन में इन तीनों कालों की बस्तियों के अवशेष मिले हैं। इन अवशेषों से इनके सुनियोजित निर्माण का पता चलता है। मकान मिट्टी की दीवारों के और पंक्तिबद्ध बनाये जाते थे। मकानों की दो पंक्तियों के बीच डेढ़ मीटर गहरा रास्ता होता था, और घरों के भीतर आग जलाने की जगह अलग से होती थी। शिल्पियों और अच्छे किसानों की रिहाइश बस्ती के पश्चिम क्षेत्र में और गाँव के प्रमुख बस्ती के बीच रहते थे। कांस्य युग

 

विश्व स्तर पर करीब 3000 ई० पू० के आसपास कांस्य युग का आरम्भ होता है। इस युग में ताम्र उपकरणों के स्थान पर कांस्य का व्यवहार आरम्भ हुआ जो ताँबे की अपेक्षा ज्यादा टिकाऊ और कठोर था। इस समय से मिस्र, मेसोपोटामिया, क्रीट (यूनान) और सिन्धु घाटी में कांसे के उपकरण ही मुख्यतः व्यवहार में लाये जाने लगे। इसी से यह युग कांस्य युग (Bronze Age) के नाम से विख्यात है। इस युग की संस्कृतियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्होंने ताम्रयुगीन ग्राम्य संस्कृतियों के स्थान पर कांस्य युगीन शहरों की स्थापना कर दी। कांसे के उपकरणों की सहायता से अतिरिक्त उत्पादन (Surplus Production) बढ़ा जिसके आधार पर अनेक शिल्पों, व्यवसायों तथा व्यापार वाणिज्य का विकास हुआ। व्यक्ति सम्पत्ति की भावना, श्रम विभाजन, सुरक्षा की आवश्यकता, सामाजिक संस्थाओं को नियन्त्रित करने के लिये कानून बनाने, नहरों, बाँधों का निर्माण करवाने इत्यादि

 

 

 

संगनकल्ल से, चिंगलपट जिले के कुन्नदुर और उत्तरी आरकाट जिले के पेयमपल्ली से प्राप्त

 

हुआ है। पेंटेड मे वेअर संस्कृति के लोगों का समाज कृषि प्रधान था। पशुपालन और कृषि

 

लोगों का मुख्य व्यवसाय था। लोग निरामिषभोजी या शाकाहारी और अमिषभोजी या.. माँसाहारी दोनों ही थे। शाकाहारी लोगों का मुख्य आहार चावल और गेहूं था, माँसाहारी लोगों का मुख्य आहार गोमॉस, सूअर का गोस्त, भेड़ का माँस और मृग माँस मुख्य था। पालतू जानवरों में गाय, लोमड़ी, भैंस, सूअर, बकरा, भेड़ और घोड़ा मुख्य थे। लोग कण्ठी, लटकन या जुगनूँ, कर्णफूल, चूड़ियां आदि आभूषण (अल्पमूल्य पत्थर के) पहनते थे। सूती धोती आदमी और औरत दोनों पहनते थे। वी० बी० लाल के अनुसार पेंटेड ग्रे वेअर लोग आर्य थे। ए० घोष के अनुसार अभी ऐसा मानना ठीक नहीं।

 

मेगालिथ संस्कृति के लोग भी प्रधानतः कृषक थे। चावल इनका मुख्य भोजन था शिकार भी किया जाता था। भेड़, बकरा, मुर्गी आदि का माँस प्रचलित था। घोड़े, बैल और अन्य जानवर पाले जाते थे। इन लोगों के भाण्डे लाल और काले के नाम से जाने जाते हैं। ये लोग शवसंस्कार अपने रहने के स्थान और जोतने योग्य भूमि से दूर करते थे शव पूर्वपश्चिम दिशा में दफनाये जाते थे। इसका धार्मिक महत्त्व भी था। ये लोग सूर्य उपासक थे। मुद्दों के साथ उनका माल असबाब भी मेगेलिथ्स में रख दिया जाता था मूसल, बच्चों के खिलौने आदि मिले हैं। आभूषण, पत्थर, सोना, ताँबा, कांस्य और सीप के होते थे।

 

मानवशास्त्र के आधार पर कहा जा सकता है कि ये लोग लघुशिरस्क (Brachyce- phalic) होते थे। जिन्दगी इनकी दिलचस्प होती थी और मृतकों के प्रति ये आदर रखते थे संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि पेंटेड ग्रे वेअर और मेगेलिथ दोनों ही प्रारम्भिक लौह युग की विशिष्ट संस्कृतियाँ थीं जिनका वैशिष्ट्य विशिष्ट था। ये संस्कृतियाँ ग्रामीण से शहरी जीवन की सांक्रान्तिक अवस्थाओं (Transitional Stages) की द्योतक हैं। इनके निर्माताओं के बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। इनका समय करीब 1100 से 600 ई० पू० का माना जाता है।

 

 

महाराष्ट्र में नासिक, नेवासा, जोयें, दयमाबाद, चन्दोली, सोनगांव से कई दिलचस्प प्रमाण मिले हैं। चाक निर्मित मृदभाण्ड (विशिष्ट नमूना टोटीदार वर्तन) सूक्ष्म पाषाणांपकरण. ताम्रनिर्मित उपकरण यहाँ से मिले। गाय, बेड़, बकरी, सूअर, भैंस, मोड़ा के पालने और चावल, गेहूं, धान, जौ, मसूर, मटर, बेर, पटसन की कृषि के प्रमाण मिलते हैं। सम्भवतः बाजरा की भी खेती होती थी। कच्ची ईंट और फूस से वर्गाकार, आयताकार या वृत्ताकार पर बनाये जाते थे। घर काफी बड़े होते थे। इससे अन्दाज लगता है कि परिवार विशाल होते थे, संयुक्त होते थे। घरों में मिट्टी का लेप होता था। झोपड़ियों कभीकभी लकड़ी की भी बनायी जाती थीं घरों में चूल्हा और तन्दूर भी बना रहता था। कहींकहीं पर घरों की घेरावन्दी भी की जाती थी। सूत कातने एवं वस्त्र बुनने की कला भी ज्ञात थी। अर्ध बहुमूल्य पत्थर के मनके भी बनते थे। मातृदेवी की मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं। शवाधान कलशों में मिट्टी के बर्तन एवं तांबे की वस्तुयें भी रख दी जाती थीं। नेवासा, चन्दोसी और कायथा से कुछ शवों के साथ तांबे और पत्थर के आभूषण भी रखे पाये गये हैं (गले का हार एवं

 

चूड़ियाँ) इससे सामाजिक विभेद या असमानता का पता चलता है। दक्षिण भारत के कुछ स्थलों (ब्रह्मगिरि भास्की) पूर्वी भारत में उत्तर प्रदेश (इलाहाबाद के पास), बिहार (चिरन्द), पश्चिम बंगाल (पान्डु राजर ढिब्बी) से भी ताम्र पाषणिक संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। चिरन्द के काले और लाल मृद्भाण्ड पश्चिम तथा मध्य भारत के ताम्र पाषाणयुगीन मृद्भाण्डों के समान हैं।

 

समयअलगअलग स्थानों की सभ्यता का समय अलगअलग रहा है। परन्तु

 

सम्मिलित रूप से इस सभ्यता का समय 2000 और 800 ई० पू० के मध्य रखा जा सकता

 

है। कुल मिलाकर नवपाषाण तथा ताम्र पाषाण कालों में व्याप्त सजातीय और वैभिन्य और असमान विकास ने देश के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक विकास के आगामी क्रम पर सुस्पष्ट प्रभाव डाला। निर्माताबहुत से विद्वान् यह मानते हैं कि इस सभ्यता के निर्माता आर्य थे। परन्तु सी० 14 के विश्लेषण के आधार पर यह मान्यता गलत सिद्ध हो गयी। कुछ यह मानते हैं कि इस सभ्यता के निर्माता नाग, सबर, पुलिन्द आदि होने चाहियें। परन्तु पुराण बाद के हैं, इसलिये इन पर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता और पुरातात्त्विक प्रमाण कोई मिला नहीं है, जो भी हो, ज्ञात आधार पर इसके निर्माता भारतीय मान लेना चाहिये। पात्रों

 

पर ईरानी प्रभाव अवश्य है, परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि इसके निर्माता पश्चिम एशिया

 

के लोग हैं। कुछ इस सभ्यता का उद्गम सिन्धु सभ्यता से मानते हैं। परन्तु दोनों के बीच

 

कोई सभ्यता नहीं है। एक शहरी है तो दूसरी ग्राम्य संस्कृति का स्वरूपताम्रास्म युगीन संस्कृति का स्वरूप काफी विकसित था। मोटे रूप से यह कहा जा सकता है कि ये लोग खेती करते थे, पशु पालते थे। इनके औजारों में पट्टे, पिन, रेजर, चाकू आदि मुख्य है। कला के भी कई नमूने प्राप्त हुये हैं। गहने भी मिले हैं। मुर्दों को गाड़ दिया जाता था और उनके साथ ही उनके सामान को भी अर्थात् वे पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। धर्म के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि वे गाय और बैल के उपासक थे। यज्ञादि में विश्वास करते थे। तान युग

 

ताम्र पाषणिक संस्कृति के अतिरिक्त भारत से ऊपरी गंगा घाटी और गंगायमुना दोआब क्षेत्र के कुछ स्थलों से ताम्र उपकरण प्राप्त हुये हैं जिनका सम्बन्ध निश्चित तौर पर किसी भी ज्ञात संस्कृति से सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। ये ताम्र उपकरण सबसे अधिक

 

 

 

क्षेत्रीय राज्यों का उदयवैदिक और महाजनपद

RISE OF TERRITORIAL STATES-VEDIC AND MAHAJANPADA

 
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत में सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति का अभाव था। वैदिक काल से लेकर अब तक भारत अनेक राज्यों का ऐसा समूह था .जिन पर राजाओं तथा राजाध्यक्षों का शासन था और वे अपनी सर्वोच्चता विद्याधर महाजन क्यों?
 
लिये परस्पर संघर्षरत रहते थे।
प्रश्न 1- आर्य कौन थे ? उनके मूल निवास स्थान के बारे में कौनकौन से मत प्रचलित हैं ? आपके विचार में कौनसा मत विश्वसनीय है, और क्यों ? Who were the Aryans? What views are prevalent about their original home? In your view, which view is more reliable .

 

 

 

 

उत्तर

 

आर्यों का मूल निवास स्थान

 

 

 

(1) भारत मूल निवास स्थान

 

अविनाशचन्द्र दास और सम्पूर्णानन्द ने सप्त सैन्धव (वर्तमान पंजाब और सीमान्त), वी० एस० वाकणकर ने सरस्वती तट क्षेत्र, गंगानाथ झा ने ब्रह्मर्षि प्रदेश (पूर्वी राजस्थान, गंगायमुना दोआब, पश्चिमवर्ती प्रदेश), राजवली पाण्डे ने मध्यदेश (वर्तमान उत्तर प्रदेश और बिहार), एल० डी० काला ने कश्मीर, डी० एस० त्रिवेदी ने मुलतान में देविका क्षेत्र को आर्यों का मूल निवास स्थान माना है। कुछ ने पुराणों के आधार पर गंगा के मैदान को आयों का आदि देश माना है। पुराणों में देवासुर संग्राम का उल्लेख है। इसमें देवताओं को विजय प्राप्त हुयी और असुर लोग खदेड़ दिये गये थे। अवेस्ता में भी ईरानियों के पैगम्बर विलपन करते हैं कि वे अपनी मातृभूमि से खदेड़ दिये गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि देवासुर संग्राम केवल प्राचीन आर्यों तथा ईरानियों का युद्ध था और आर्यों ने ईरानियों को भारत से खदेड़ दिया था। इससे यह प्रमाणित होता है कि आर्य भारत से बाहर गये थे और बाहर से यहाँ नहीं आये थे। जिन्होंने भारत को आयों का आदि देश माना है उन्होंने अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं

 

(1) ऋग्वेद में विवरण भौगोलिक स्थिति सप्त सिंधु प्रदेश को ही खाता करता है। यदि आर्य बाहर से आते हैं तो उनके आदि प्रान्त में कुछ कुछ उल्लेख अवश्य होता है।

 

(2) आर्यों ने सप्तसिन्धु को देवनिर्मित देश या देवकृत योनि की संज्ञा इसलिए दी क्योंकि वे इसे अपनी मातृभाषा मानते थे।

 

 

(3) आर्य साहित्य से यह स्पष्ट है कि आर्य लोग गेहूँ तथा जो का प्रचुरता से प्रयोग

 

करते थे और यही उनका प्रधान खाधान्न था। पंजाब में इन दोनों अन्नों का बाहुल्य इस मतको पुष्टि करता है कि पंजाब या सप्त सिन्धु ही आयों का आदि देश था।

 

(4) संहिताओं के संकलन के पहले बलि देने की प्रथा या यज्ञादि अनुष्ठानों का विकास हो चुका था जिनमें सोमपान किया जाता था, और चूंकि सोम उत्तरी पंजाब को जयंत तथा मुजवंत पहाड़ियों से उपलब्ध होता था, इससे स्पष्ट है कि बलि प्रथा का प्रारम्भ

 

या यज्ञादि का विकास पंजाब में ही हुआ था।

 

(5) वैदिक संस्कृत में कई शब्द आयों की भाषाओं के शब्दों के समान हैं। यदि आर्य बाहर से आये होते तो वहाँ की भाषा में उनके शब्द मिलने चाहिये थे।

 

(6) वेदों में केवल आर्यों की भाषा सुरक्षित है, परन्तु उनका धर्म, संस्कृति आदि।

 

सभी सुरक्षित हैं। यदि वेदों की रचना कहीं और हुयी होती तो किसी दूरस्थ स्थान पर भाषा को उसके विशुद्ध रूप में बनाये रखना सम्भव नहीं होता।

 

 (7) एक दिलचस्प बात यह है कि लटविया और इस्टोनिया (वाटिक तट पर स्थित ) के प्राचीन महाकाव्यों में इस बात का उल्लेख आता है कि उन देशों के लोग भारत से उस

 

समय गये थे जब देवता और मनुष्य मिलकर साथसाथ रहते थे। जब बाटिक के तट तक

 

भारतीय पहुँच गये थे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आर्य जत्थे अन्य देशों

 

में भी जाते रहे होंगे।

 (8) वेद, पुराण और हिन्दुओं के किसी भी ऐतिहासिक ग्रन्थ में आर्यों के बाहर से आने का किचित मात्र भी उल्लेख नहीं मिलता। भारतीय अनुश्रुति या जनश्रुति में कहीं इस बात की गन्ध भी नहीं मिलती कि भारतीय आर्यों की पितृभूमि या कर्म भूमि इस देश के कहीं बाहर थी।

 

(9) आर्य भाषा के कुटुम्ब में लिथुनिआ सबसे आद्य है। इसलिये यह माना जाता

 

है कि जहाँ आज लिथुनिआ पायी जाती है वह क्षेत्र आर्यों का मूल निवास स्थान होना चाहिये

 

आलोचनाभारत को आर्यों का मूल निवास स्थान मानने वाले विद्वानों के तर्क

 

 

 

प्रकार हैं– (1) गाइल्स का कहना है कि वे सब वनस्पति तथा पशु भारत में नहीं पाये जाते जिनका अनुमान भाषाओं की समानता के आधार पर आर्यों के आदि देश में किया जाता है।

 

बड़ (2) वे वस्तुयें, जिनसे आर्य परिचित थे, भारतीय नहीं थे। वे भूर्ज (Birch), शीशम, और बबूल से परिचित थे, और ये भारत में उत्पन्न नहीं होते थे। चावल, बाघ, हाथी का तथा केले के वृक्ष का ज्ञान नहीं था। वे हाथी को एक विचित्र जानवर समझते थे और उसे हस्तिन (सूंड) वाला मृग (हिरन) कहते थे। यदि आर्य भारत के मूल निवासी होते तो वे इन पशुओं से अनभिज्ञ कैसे रहते।

 

(3) गाइल्स का यह तर्क भी है कि ऐतिहासिक काल में भिन्न जातियों का प्रवेश विदेशों से भारत में हुआ है। भारत से कोई जाति बाहर को नहीं गयी है।

 

(4) यदि भारत आदि देश होता तो वे सर्वप्रथम अपने देश का आर्यीकरण करते, और सभी जगह आर्य भाषायें बोली जातीं। परन्तु, सम्पूर्ण दक्षिण भारत और बलूचिस्तान तथा उत्तर भारत का कुछ अंग आज भी भाषा की दृष्टि से अनार्य हैं। (5) यदि आर्य भारतीय होते तो उन्हें भारत का पूर्ण ज्ञान अवश्य होना चाहिये था।

 

परन्तु ऐसा था नहीं इसके विपरीत, ईरान, अफगानिस्तान आदि देशों के बारे में उनका

 

भौगोलिक ज्ञान अपेक्षकृत कहीं अधिक था।

 

 

(6) संस्कृत भाषा को मूर्धन्य (Cerebral) ध्वनि इण्डोयूरोपियन परिवार की किसी भाषा में नहीं मिलती। आयों के बाहर से आने पर मूल निवासी अनार्यों से सम्पर्क हुआ जिसके परिणामस्वरूप ही उनकी भाषा में यह ध्वनि सम्बन्धी विशेषता आयी।

 

(7) सिन्धु सभ्यता निश्चित रूप से वैदिक सभ्यता से अधिक प्राचीन थी, अतः भारत को उन अनायों का हो देश कहा जा सकता है। (8) इस बात का हमें ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है कि कोई जाति अपने विस्तृत उर्वर देश को त्यागकर अनुर्वर प्रदेशों तथा कम स्वागत वाले स्थानों को गयी हो जहाँ

 

तथा

 

पर जीवन की सुविधायें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों।

 

(9) आयों ने सिन्धुवासियों को स्वयं दस्यु या दास कहकर पुकारा है। अगर

 

सिन्धुवासी आर्य रहते तो उन्हें ऐसे कुख्यात विशेषणों से सम्बोधित नहीं किया जाता।

 

(10) और, इस सबके आलावा भारतीय मत को तब स्वीकार किया जा सकता है।

 

जबकि सिंधु घाटी की भाषा संस्कृत सिद्ध हो जाए। लेकिन यह भी संभव नहीं है।

 

 

उत्तरी ध्रुव मूल निवास स्थान

 

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के अनुसार, प्रारम्भ में आर्य लोग उत्तरी ध्रुव प्रदेश में निवास करते थे। कालान्तर में जलवायु में परिवर्तन हो जाने के कारण इन्हें अपनी मातृभूमि त्यागनी पड़ी और ये अन्य देशों में चले गये। अपने इस मत का प्रतिपादन तिलक नै मुख्यतः ऋग्वेद, महाभारत और अवेस्ता के आधार पर किया है।

 

(1) तिलक का कहना है कि ऋग्वेद के निर्माण के समय आर्य लोग सप्तसैन्धव में गये थे, परन्तु अपनी जन्म भूमि की स्मृति अभी उन्हें बनी थी। ऋग्वेद में शिशिर एवं शरद का वर्णन है, ग्रीष्म का नहीं। आगे, ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर छः महीने के लम्बे अहर्निश (दिन रात) का वर्णन है। एक स्थल पर उषा के विभिन्न रूपों और उनकी अर्चना के लिये भिन्नभिन्न प्रकार के स्तवन का जिक्र आया है, परन्तु यह भारत की क्षणिक या अल्पकालीन उषा नहीं है, वरन् यह दीर्घकालीन उषा है, जहाँ प्रभात होता ही नहीं है। 6 मास की रात्रि तथा 6 मास का दिन और दीर्घकालीन उपा उत्तरी ध्रुव प्रदेश में ही होती है।

 

(2) ऋग्वेद के अतिरिक्त महाभारत से भी यह प्रमाणित हो जाता है कि उत्तरी ध्रुव

 

प्रदेश ही आर्यों का आदि देश था। महाभारत के सुमेरु पर्वत का वर्णन मिलता है। इस

 

प्रदेश में एक वर्ष की अहोरात्रि होती थी, और यहाँ पर वनस्पतियाँ तथा औषधियाँ उत्पन्न

 

होती थीं। जिस पर्वत के क्षेत्र में एक वर्ष की अहोरात्र होती रही होगी वह निश्चित ही

 

उत्तरी ध्रुव प्रदेश में स्थित रहा होगा। हिन्दुओं का पारम्परिक स्वर्ग उत्तर का मेरू ही है।

 

(3) ईरानियों के पवित्र ग्रन्थ अवेस्ता में भी प्रमाण मिलते हैं जिससे इस बात का अनुमोदन हो जाता है कि उत्तरी ध्रुव प्रदेश ही आयों का आदि देश था। अवेस्ता में लिखा है कि ईरानियों के देवता अहुरमज्द ने सबसे पहिलेएर्य्यन बेइजोका निर्माण किया। इस प्रदेश में शीत के 10 महीने और गर्मी के 2 महीने थे।

 

आलोचना – (1) देशान्तरगमन के कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। (2) तिलक ने जिन ऋग्वैदिक वर्णनों को उत्तरी ध्रुव विषयक समझा है वे बड़े ही संदिग्ध हैं। ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से उत्तरी ध्रुव का वर्णन नहीं किया गया है। सिर्फ हिमपात के उल्लेख के आधार पर आर्यों के आदि निवास की समस्या को हल नहीं किया जा सकता। (3) यदि आर्य लोग उत्तरी ध्रुव को अपनी मातृभूमि समझते होते तो सप्त सैन्यव

 

को कदाचित देवकृत योनि के नाम से पुकारते। फिर आर्यों का ज्ञान अपने ही प्रदेश

 

तक सीमित रहा होमान लेना युक्ति संगत नहीं

 

 

 

(4) भारतीय साहित्य में कहीं पर भी उत्तरी ध्रुव प्रदेश को आर्यों का आदि देश नहीं बतलाया गया है।

 

(5) यदि वास्तव में अपनी मातृभूमि अर्थात् उत्तरी ध्रुव प्रदेश की मधुर स्मृति की याद बेचैन किये होती तो वे कहीं कहीं इसका स्पष्ट उल्लेख अवश्य किये होते। (6) उत्तरी ध्रुव जैसी रहस्यपूर्ण जलवायु आर्य जाति सी कुशल, उत्साही, कृषक एवं कल्पनाशील जाति नहीं पैदा कर सकती थी।

 

(7) अविनाशचन्द्र दास का कहना है कि सृष्टि के आरम्भ में हिम युग, अन्तः हिम युग और उत्तर हिम युग में भूपटल पर इतने महान परिवर्तन हुये हैं, तथा पृथ्वी की जलवायु, वनस्पति आदि में इतने हेरफेर हुये हैं कि जिनके कारण सृष्टि के आदि मानवों के विभिन्न जनसमूहों को अपनी जन्म भूमि बारम्बार त्याग कर अन्यत्र शरण लेनी पड़ती थी। अतः यह कहना कि कौनसा जनसमूह आरम्भ में कहाँ रहता था तथा किस जनसमूह का मूल स्थान कौनसा था, अत्यन्त कठिन एवं असम्भव सा ही

 

आर्यों के मूल स्थान अथवा उनके पूर्वजों द्वारा आबाद इलाके को कुछ विद्वान्, जैसेजे० जी० रोड, इलीगल, पाट, पिक्टेट और मेक्समूलर, मध्य एशिया मानते हैं। इन विद्वानों का कहना है कि आर्य जाति, उनकी सभ्यता तथा संस्कृति का ज्ञान हमें वेदों तथा अवेस्ता से प्राप्त होता है। इन विद्वानों और उनके समर्थकों द्वारा अपने पक्ष में जो युक्तियाँ दी गयी हैं, वे मुख्यतः इस भाँति हैं

 

(1) आयों द्वारा वर्णित भौगोलिक अवस्था, प्राकृतिक वातावरण, पशुपक्षी और वनस्पतियाँ मध्य देश में ही पायी जाती हैं।

 

(2) मध्य एशिया सभ्य जीवन का प्राचीनतम केन्द्र रहा है। यहीं आर्यों की शाखा दक्षिण पूर्व की ओर हो गयी, और आगे चलकर ईरानी तथा भारतीय आर्यों के रूप में दो उपशाखाओं में विभक्त हो गयीं।

 

(3) जेन्द अवेस्ता तथा ऋग्वेद की भाषा में काफी साम्य है (सैल्टिक – Celtic में

 

सबसे अधिक परिवर्तन हुआ है) स्पष्ट है कि ईरानियों और वैदिक आर्यों के पूर्वज एक

 

ही रहे होंगे तथा वे किसी भी ऐसे प्रदेश से आये होंगे जो इन दोनों देशों के निकटस्थ

 

रहा हो। अतः यह प्रदेश कहीं मध्य एशिया में होगा। (4) आर्य लोग कृषि करते थे और पशु पालते थे। अतएव ये एक लम्बे मैदान में रहते होंगे। ये लोग अपने वर्ष की गणना हिम से करते थे जिससे स्पष्ट है कि यह प्रदेश शीत प्रधान रहा होगा। कालान्तर में ये लोग वर्ष की गणना शरद से करने लगे। इसका तात्पर्य है कि ये लोग कालान्तर में दक्षिण की ओर चलते गये जहाँ कम सर्दी पड़ती थी, और सुहाना बसन्त सा रहता था। इन लोगों के पास नावें भी होती थीं। अतएव वहाँ पर नदियाँ तथा झीलें अवश्य रही होंगी। ये लोग घोड़े भी रखते थे जिन पर वे सवारी भी करते थे और जिन्हें रथों में जोतते थे। इन्हें पीपल के वृक्ष का भी ज्ञान था, परन्तु बरगद तथा आम के वृक्ष से ये लोग परिचित थे। ऐसी परिस्थिति मध्य एशिया में थी। अतः यह अनुमान लगाया जाता है कि आर्य मध्य एशिया के ही निवासी थे।

 

(5) विद्वानों का, विशेषकर पिक्टेट का यह भी कहना है कि बाद में यूपी, शक, कुषाण, हूण आदि जातियाँ यहीं से भारत आयी थीं। इसके अतिरिक्त मध्य एशिया से ईरान, यूरोप तथा भारत तीनों जगह जाना सम्भव तथा सरल भी है। जनसंख्या की वृद्धि, भोजन

 

क्षेत्रीय राज्यों का उदयवैदिक और महाजनपद के अभाव, प्राकृतिक परिवर्तन अथवा किसी अन्य जाति द्वारा निष्कासित कर दिये जाने के

 

फलस्वरूप इन्हें अपनी जन्म भूमि त्यागनी पड़ी होगी।

 

(6) वी० डी० महाजन का कहना है कि अवेस्ता में एक अनुभूति है कि मनुष्य की प्रथम उत्पत्ति आर्याना बीजो (Aryana Vocjo) में हुयी और वहाँ से ईरानी लोग ईरान आये। आर्याना बीजो से सम्बन्धित अधिकांश स्थान मध्य एशिया या उसके निकट स्थित है आलोचना – (1) मध्य एशिया की भूमि उपजाऊ नहीं है और वहाँ पानी का भी अभाव है। अतः आर्यों जैसी कृषि और पशुपालन प्रधान सभ्यता का वह आदि देश नहीं हो सकता। यह कहना निरर्थक है कि अनुर्वरता और जलाभाव आर्या के वहाँ से जाने के बाद भौगोलिक परिवर्तन के कारण हुयी।

 

(2) भारतीय आर्यों के वैदिक साहित्य में कहीं भी मध्य एशिया का संकेत नहीं मिलता। (3) आधुनिक मध्य एशिया के लोगों में प्राचीन आर्य सभ्यता एवं संस्कृति के कोई लक्षण परिलक्षित नहीं होते। यदि सभ्यता मध्य एशिया से ही प्रसारित हुयी थी तो मध्य एशिया में उसका कुछ तो प्रभाव अवशिष्ट होना चाहिये था। आर्यों के कोई वंशज भी मध्य एशिया में नहीं पाये जाते।

 

(4) भाषा विज्ञान बहुत कुछ अनुमान एवं कल्पना पर आश्रित है, और उसके अनेक निष्कर्ष विवादास्पद हैं। अतः उसके आधार पर यूरोपीय गोरांगों के साथ भारतीय आर्यों को जोड़ना उचित नहीं

 

(5) किसी भी हालत में मध्य एशिया सा शुष्क, अनुर्वर, ऊबड़खाबड़ और अनाकर्षक स्थान आर्यों का देश नहीं हो सकता। (6) आर्यों की घुड़सवारी के वैशिष्ट को मध्य एशिया में खोजना नादानी ही होगी।

 

(7) भोज पत्र का यहाँ पाया जाना उनके मूल निवास स्थान पर प्रकाश नहीं डालता। (8) यूची, शक और हूण आदि जातियाँ यदि वहा रहीं, और वहीं से उन्होंने देशान्तरगमन किया तो यह जरूरी नहीं कि आर्य भी वहीं रहे हों और वहीं से उन्होंने देशान्तरगमन किया हो।

 

(9) इस सबके अतिरिक्त मध्य एशिया के लोग उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं

 

करते जिसका सम्बन्ध आयों से था।

 

 

 

(4) यूरोप मूल निवास स्थान

 

भाषा तथा संस्कृति की समानता के आधार पर गाइल्स, लाथम, वेफ्री, गियरगर, कुल के स्मिथ बुडाला पेकर पोकानों आदि विद्वानों ने यूरोप को आयों का आदि देश बतलाया है। उनके तर्क इस प्रकार हैं– (1) भारत की संस्कृत और यूरोपीय भाषाओं का साम्य यह सिद्ध करता है कि

 

भारतयूरोपीय भाषाओं का एक स्रोत था; अथवा भारतयूरोपीय भाषाभाषी प्राचीन काल

 

में कभी कहीं एक स्थान पर रहे होंगे, अथवा भारतयूरोपीय भाषाभाषी एक ही जाति के

 

रहे होंगे। भारतीय आर्य तथा यूनानी, इटली, फ्रांस, जर्मनी और रूस के तथा अन्य यूरोपीय

 

जातियों के पूर्वज एक ही परिवार के थे। (2) समस्त इण्डोयूरोपीय भाषा परिवार के जितने शब्द तथा मुहावरे यूरोप की भाषाओं में पाये जाते हैं उतने एशिया की भाषाओं में नहीं पाये जाते। इससे यही अनुमान लगाया जाता है कि सम्भवतः यूरोप का ही कोई प्रदेश आर्यों का आदि देश रहा होगा, एशिया

 

 (3) समस्त इण्डोयूरोपीय भाषा परिवार में यूरोप की लिथुनियन भाषा ही अपने को मूल में तथा अपरिष्कृत रखे हैं कि संस्कृत अथवा उसकी शाखायें प्रभाषायें। अतएव यूरोप ही आदि देश हो सकता है।

 

(4) चूंकि यूरोप के आर्यों की संख्या एशिया के आर्यों से अधिक है, अतएव यह

 

सम्भव है कि आर्य लोग पश्चिम से पूर्व की ओर गये हों।

 

(5), इस प्रदेश में अभेद्य सपनवन, मरुभूमि अथवा पर्वत मालायें नहीं हैं अतएव वहाँ से पूर्व की ओर जाना सरल भी है। (6) इस सिद्धान्त के समर्थकों का यह भी कहना है कि पर्यटन प्रायः पश्चिम से पूर्व की ओर हुआ है, पूर्व से पश्चिम की ओर नहीं।

 

अव प्रश्न यह उठता है कि यूरोप का वह कौनसा प्रदेश है जो आर्यों का आदि देश माना जा सकता है। विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि यूरोप के निम्नांकित स्थान आय

 

के आदि देश हो सकते हैं

 

पिया वायू नदी का प्रदेश इण्डोयूरोपीय भाषाओं की समानता के आधार पर गाइल्स ने यह निष्कर्ष निकाला है कि इन भाषाओं के बोलने वाले बहुत दिनों तक एक निश्चित क्षेत्र में रहते रहे होंगे। इन भाषाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन आर्य गाय, बैल, घोडा, भेड़, कुत्ता, सुअर, हिरण आदि पशुओं से भलीभाँति परिचित थे, और गेहूँ तथा जो की खेती करते थे। ये सभी पशु तथा वनस्पति शीतोष्ण कटिबन्ध में पाये जाते है। गाइल्स का कहना है कि हंगरी, बोहेमिया आस्ट्रिया अथवा डेन्यूब नदी का प्रदेश ही ऐसा स्थान है जहाँ ये सब बातें पायी जाती हैं।

 

आलोचना-(1) देशान्तरगमन के कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। (2) डेन्यूब घाटी के तौरतरीके आर्य संस्कृति के सादृश्य नहीं हैं।

 

(3) पहाड़ी प्रदेश घोड़ों के लिये अनुपयुक्त था। (4) तीर की अनुपस्थिति और मातृदेवी की उपस्थिति आर्य संस्कृति के विपरीत

 

जाती है (5) यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि सहस्रों वर्ष पूर्व हंगरी की भौगोलिक तथा वानस्पतिक अवस्था वैसी ही थी जैसी आज है। (6) आयों के आदि देश के निश्चित करने की समस्या ऐसी विवादग्रस्त है कि

 

केवल भाषा विज्ञान के आधार पर उसका निश्चित करना ठीक नहीं।

 

जर्मनी प्रदेश (स्कैण्डिनेविया बाल्टिक सागर) – पेन्का के नेतृत्व में कुछ विद्वानों ने, जर्मन प्रदेश को आर्यों का आदि देश बतलाया है। इन लोगों का कहना है कि प्राचीनतम आर्यों की सर्वप्रमुख जातीय विशेषता यह थी कि उनके बाल भूरे होते थे। यह विशेषता अब भी जर्मन जाति में पायी जाती है। अतः सम्भवतः प्राचीन आर्य जर्मनी के ही निवासी थे। पेन्का की धारणा है कि भूरे बालों के अतिरिक्त जो अन्य शारीरिक विशेषतायें प्राचीन आर्यों में पायी जाती थीं वे सब विशेषतायें जर्मन प्रदेश के स्कैण्डिनेविया के निवासियों में

 

पायी जाती हैं। अतएव स्कैण्डिनेविया ही आर्यों का आदि देश रहा होगा। हर्ट ने भाषा के आधार पर स्कैण्डिनेविया को आर्यों का आदि देश बतलाया है। उसका कहना है कि इस प्रदेश के लोगों ने सदैव इण्डोयूरोपीय भाषा का प्रयोग किया है। अतएव इण्डोयूरोपीय भाषा की उत्पत्ति इसी प्रदेश में हुयी थी और यही आय का आदि देश रहा होगा। पेनका के आधुनिक समर्थकों ने पुरातत्त्वों के आधार पर पश्चिम बाल्टिक समुद्र तट को आर्यों का मूल निवास स्थान बतलाया है। इनका कहना है कि पूर्व पाषाणकाल के

 

 

उपरान्त जो काल आरम्भ होता है उस समय की प्राचीनतम वस्तुयें तथा पत्थर के बढ़िया औजार इस प्रदेश में प्राप्त हुये हैं। अतएव यही आर्यों का आदि देश रहा होगा। मध्य जर्मनी में प्राग ऐतिहासिक काल के ऐसे पात्र प्राप्त हुये हैं जिनके ज्यामितिक रेखाचित्र इण्डोयूरोपीय प्रतीत होते हैं। अतएव यह अनुमान लगाया है कि जर्मनी ही आयों का आदि देश रहा होगा।

 

 

 

 

 ऋग्वैदिक आर्यो की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं कला की का वर्णन कीजिये। live an account of the political, social, economic, religious and
 

art condition of the Rigvedic Aryans. याऋग्वैदिक काल में राजनीतिक तथा सामाजिक संगठन का आधार पैतृक परिवार था। इस कथन की विवेचना कीजिये।

 

 

 

 

उत्तर

 

ऋग्वैदिक सभ्यता

 

(ऋग्वैदिक सभ्यता)

 

ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक काल से आशय उस समय से है जबकि आर्य पंजाब तथा गंगा घाटी के उत्तर भाग में फैले हुये थे। ऋग्वेद आयों का प्राचीनतम साहित्य है और उससे उनकी सभ्यता के बारे में जानकारी मिलती है। ऋग्वेद उस समय के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है। यद्यपि इसमें निरन्तरता टूट गयी है, परन्तु प्रकाश, चाहे अप्रत्यक्ष ही क्यों हो, तो इससे पड़ता ही है।

 

राजनीतिक दशा

 

राज्य का स्वरूप– (1) राजतन्त्रवैदिक काल में राजतन्त्र राज्य का मुख्य स्वरूप था। ऋग्वेद में वर्णित कई कबीले राजा के अधीन थे। ऋग्वेद में राजा के लियेराजनशब्द का उपयोग हुआ है। ऐसा लगता है कि राजा का पद पैतृक हो गया था और इसमें ज्येष्ठाधिकार का सिद्धान्त लागू होता था

 

(2) कबीली प्रजातन्त्ररामशरण शर्मा ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि ऋग्वैदिक काल में कबीली प्रजातन्त्र था। गणतन्त्र के लिये तकनीकी शब्दगणका प्रयोग ऋग्वेद में 46 बार हुआ है। एक जगह गण के प्रधान कोगणपतिया ज्येष्ठ कहा गया है। एक स्थान परराजनभी लगता है, गणपति के बाद में राजा का स्थान ले लिया हो। गणपति का चुनाव गण के सदस्यों द्वारा होता थाइसके बारे में कोई सन्दर्भ नहीं है। गण का आर्थिक आधार कृषि और पशुपालन था। गण में नाचगाना होता था, ऐसी जानकारी भी नहीं मिलती, ऋग्वैदिक काल के अन्त में कबीलीगण अलग प्रकार के होने लगे थे। ऋग्वेद की एक सूक्ति से पता चलता है कि 5 गणों के संघ ने राजा सुदास पर आक्रम

 

 

 

किया था। इससे अनुमान लगाया जाता है कि इस काल में सहयोगात्मक अथवा संघात्मक

 

संगठन भी होगा।

 

(3) राजत्वराजत्व के उद्गम और प्रकृति के बारे में विभिन्न मत हैं। शुरू में, समाज के पितृसत्तात्मक वातावरण ने राजत्व को जन्म दिया। एच० जिमर और ए० एस० अल्तेकर का ऐसा ही मत है। ऋग्वैदिक काल में कुटुम्ब का मुखिया, ‘कुलपतिबड़ा महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता था उसका हुक्म सब मानते थे। कई कुल या कुटुम्ब को मिलाकर ग्राम बनता या जिसका प्रधान ग्रामीण कहलाता था। कई ग्राम मिलकरविशहुये और विश का मुखियाविशपति कई विश सेजनबना और उसका मुखिया जनपति कहलाया। विशपति या

 

 

जनपति अपने विश और जन के लोगों पर विचारणीय अधिकार रखते थे। फिर आने वाले समय में वे राजा हो गये। राजा का पद सर्वोपरि होता था। वह भव्य वस्त्र पहनता था और भव्य प्रासाद में निवास करता था।राजनकी उपाधि धारण करता था राजा की गतिविधियों (Movements) कौं तुलना देवताओं से की जाती थी। दानस्तुतियों से हमें पता चलता है कि राजा के दाम

 

भी होते थे।

 

राजा का मुख्य कार्य प्रजा की रक्षा करना था। वह बड़ा नाजुक समय था। आयों और दासों या कि आयों में ही आपस में युद्ध चला करते थे। छोटे कबीले अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करते थे। राजा को युद्ध में सेना संचालन करना होता था। आर्य अब घुमक्कड़ जीवन छोड़कर कृषि करना एवं पशुपालन करना चाहते थे और उसके लिये राजा

 

की ओर से संरक्षण आवश्यक था।

 

प्रशासनऋग्वेद में वरुण और अन्य देवताओं के जासूसों का जिक्र आया है। इससे शायद राजा के द्वारा फौजदारी न्याय के सन्दर्भ में उसके एजेण्टों पर प्रतिबिम्ब पड़ता है। ऋग्वेद मेंमध्यमशीऔरजीवगृब‘ – इन दो उपाधियों का जिक्र भी हुआ है। कुछ विद्वानों ने इनका तात्पर्य क्रमशः न्याय और पुलिस अफसरों से लिया है। परन्तु यह मत सर्वसम्मति से स्वीकार नहीं किया गया है। मध्यमशी शायद मध्यस्थ होता था।

 

ऋग्वेद में वित्तीय प्रशासन की शुरुआत की जानकारी भी मिलती है। ऐसा पता चलता है कि प्रजा सेबलि‘ (कर) वसूल किया जाता था। पराजितों से भीबलिवसूल किया जाता था। राजस्व प्राप्ति के लिये राजा ने कुछ एजेण्ट्स नियुक्त किये होंगे। सैनिक प्रशासन के सन्दर्भ मेंसेनापतिऔरपुरपतिका जिक्र आया है। ग्रामिणी पहले तो सैन्य दल या टोलीअगुआ हुआ करता था, परन्तु बाद में गाँव का मुखिया हो

 

गया था।

 

राजा के रिटेनरस (Retainers) के लियेइभायाइभ्यका प्रयोग हुआ है। राजा

 

के जो आश्रित होते थे वे उपस्तिस या स्तिस कहलाते थे। प्रशासनिक पदाधिकारियों में

 

सेनानी, पुरोहित तथा ग्रामीण के अतिरिक्त सूत, रथकार तथा कर्मार भी होते थे जिन्हें रली

 

कहा जाता था और जिनका स्थान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। पुस, स्पश और दूत अन्य

 

पदाधिकारी थे।

 

लोकप्रिय वैदिक साहित्य में (i) ‘विदर्थ‘ (ii) ‘सभा‘ (iii) ‘समितिका

 

जिक्र हुआ है। (1) विदयआर० शेठ के अनुसर विदय ऐडिक, धार्मिक एवं सैन्य कार्यों से सम्बन्धित असेम्बली थी। इस संस्था में बुजुर्ग व्यक्तियों को विशेष सम्मान प्राप्त था। इसका कोई नेता अवश्य हुआ करता होगा। पुरोहित तथा अन्य पदाधिकारी भी थे जिनके निर्वाचन का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है।विदथशब्द संस्कृत कीविदधातु से बना प्रतीत होता है। सो लगता है, विदथ में विद्वानों को ही सम्मिलित किया जाता था। इसमें औरतें भी सदस्य होती थीं। यशा केविदथमें जाने का जिक्र आया है। मुख्य रूप सेविदथकबीले के लिये कानून बनाती थी। शायद एक युद्धमुखिया के नेतृत्व में यह सैन्य कार्य भी करती थी।

 

(ii) सभाए० हिलब्रन्ड्ट के अनुसारसभाऔरसमितिदोनों ही एक थीं परन्तु अथर्ववेद मेंसभाऔरसमितिको स्पष्ट रूप से प्रजाति की दो पुत्रियों कहा गया है। एक जिपर के अनुसार वह कोई गाँव की कौसिल थी और प्रामिणी इनकी अध्यक्षता करता था। परन्तु शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि इसमें गणमान्य आते थे, इसलिय यह गाँव

 

 

की कौंसिल नहीं हो सकती थी। एम० ब्लूमफिल्ड के अनुसार, यह असेम्बली थी ही नहीं,

 

इसका प्रयोग सिर्फ घरेलू प्रयोजन से होता था। ए० लुडविग के अनुसार इसमें केवल ब्राह्मण

 

क्षेत्रीय राज्यों का उदयवैदिक और महाजनपद

 

और मेघवान (धनी) होते थे, सभी लोग नहीं। ए० मैकडोनेल तथा ए० बी० कीथ के अनुसार, सभा महज एक हॉल थी जिसमें जुए के अलावा कई प्रकार के जन कार्यों का सम्पादन होता था। इसमें औरतें नहीं होती थी। के० पी० जायसवाल के अनुसार, यह समिति के तहत एक अचल संस्था थी। (iii) समितिकुछ ने समिति की तुलना यूरोप की आरम्भिक लोकसभाओं से की हे। एच० जिमर, के० पी० जायसवाल और यू० एन० घोपाल के अनुसार, समिति एक

 

राष्ट्रीय असेम्बली थी। ए० एस० अल्नेकर के अनुसार गाँव की लोकप्रिय असेम्बली सभा

 

कहलाती थी और राजधानी की केन्द्रीय असेम्बली होती थी जिसे समिति कहा जाता था। युद्ध व्यवस्थाऋग्वेद काल में राजनीतिक व्यवस्था में युद्ध का महत्त्वपूर्ण स्थान था आर्य लोग आदिवासियों से ही लड़ते थे, अपितु परस्पर युद्ध भी करते थे। उस समय कोई स्थायी या निश्चित सेना नहीं थी। आवश्यकता पड़ने पर जनसाधारण से ही सेना तैयार कर ली जाती थी। सेना तीन प्रकार की होती थी— (i) पैदल सेना, (ii) घुड़सवार सेना, तथा (iii) रथी सेना। तब युद्ध में हाथी नहीं प्रयुक्त होते थे। सैनिक अपनी रक्षा हेतु कवच, धातु निर्मित शिरस्त्राण तथा ढाल का प्रयोग करते थे। इनके अस्त्रशस्त्रों में धनुष, बाण, तलवार, भाला, बर्धी (Charpoons) तथा गोफन मुख्य थे। बाण दो प्रकार के होते थे। एक प्रकार के बाण विषाक्त होते थे जिनका अग्र भाग सींग का बना होता था। दूसरे प्रकार के बाण ताँबे अथवा लोहे के मुख वाले (आपोमुखम) होते थे।

 

आर्य लोग युद्ध में पताकाओं का भी प्रयोग करते थे। युद्धों में बाजे भी बजाये जाते थे जिनमें ढोल, तुरुही तथा दुंदुभियाँ प्रमुख थे। युद्ध के लिये चलते समय आर्य लोग अपने देवताओं की उपासना करते थे। युद्ध में वृद्धों तथा स्त्रीबच्चों को नहीं मारा जाता था। शरण में आये हुये शत्रु को भी नहीं मारा जाता था। वे लोग शत्रु को धोखे से कभी नहीं मारते थे। निःशस्त्र, घायल एवं मूच्छित शत्रु को भी नहीं मारा जाता था। युद्ध प्रायः नदी तट पर लड़े जाते थे।

 

न्याय व्यवस्थाउस युग में प्रचलित न्याय व्यवस्था के बारे में हमें पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती। परन्तु ऐसा पता चलता है कि राजा सर्वोच्च न्यायाधिकारी होता था। ऋग्वेद से दण्डनीय अपराधों का उल्लेख मिलता है, जिनमें मुख्य हैचोरी, डकैती, ऋण चुकाना आदि। अपराधों के लिये राज्य की ओर से क्या दण्ड दिया जाता था इस सम्बन्ध में भी थोड़े बहुत उदाहरण मिलते हैं। मृत्यु दण्ड की सजा प्रचलित थी, परन्तु बहुत कम अवसरों पर वह सजा दी जाती थी। विद्वानों के अनुसार, मारे गये लोगों के सम्बन्धियों को धन देकर समझौता किया जा सकता था, अर्थात् प्राणघात के लिये द्रव्य देने की प्रथा थी। गेल्डनर और लुडविग का मत है कि अपराधियों की अग्नि परीक्षा अथवा सन्तप्त परथुपरीक्षा ली जाती थी। ऋण अदा करने वाले लोगों को दास बनाने की प्रथा भी प्रचलित थी। दण्ड के रूप में जुर्माना लेने की प्रथा भी थी गाँवों में अपराधों के मामलों को निपटाने हेतु पंच मध्यस्थ बनकर फैसला करते थे। अपराधों का पता लगाने के लिये जीवधन, उप (पुलिस) होते थे। राजा अदण्ड्य होता था

 

सामाजिक दशा

 

(1) कौटुम्बिक जीवन कौटुम्बिक जीवन का आधार पितृसत्तात्मक था। ऋग्वेद कई ऐसे सन्दर्भ आये हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि पिता का बच्चों पूरा नियन्त्रण होता था। पिता पुत्र को बेच भी सकता था राजा हरिश्चन्द्र ने सुन क्षेप

 

 

 

से प्राप्त किया था। एक यह भी कहा है कि सृजराजस्य को उसके पिता ने कर दिया था क्योंकि उसने 100 भेड़ियों को एक भेड़ से खिलवा दिया था। जुआरी को पिता और भाई साहूकार को दे देते थे। एक विशेषता यह थी कि आतिथ्य सत्कार पर जोर दिया जाता था। आतिथ्य सत्कार भी पक्ष महात्रों में से एक था।

 

(2) विवाहकौटुम्बिक जीवन का आधार विवाद था। ब्रह्म विवाह का विशेष प्रचलन था। वैसे गान्धर्व, राक्षस, क्षात्र और आसुर विवाह के संकेत मिलते हैं। बाल विवाह अज्ञात X 18.8 से ऐसा आभास होता है कि विधवा मृतक पति के भाई के साथ शादी कर लेती थी। साधारणतया एक पत्नी रखने की प्रथा थी। परन्तु, पुरुष एक से अधिक विवाह भी कर लेता था, क्योंकि सोतिया डाह का उल्लेख मिलता है। उपपत्नी का उल्लेख भी हुआ है। नियोग होता था। वेश्या प्रथा प्रचलन के कुछ संकेत मिलते हैं। भाईबहन में शायद आपस में यौन सम्बन्ध होते थे। सन्दर्भ, यमयमी अन्तर्जातीय विवाह (अनुलोम) तथा प्रतिलोम) के भी उदाहरण मिलते हैं।

 

(3) स्त्री दशा स्त्री दशा अच्छी थी। उनका भी उपनयन होता था। लोपमुद्रा, घोषा, विश्वारा, सिकतानिवावरी आदि विदुषियों थीं औरतें यज्ञ भी करती थीं। विवाह के समय उन्हें प्राप्त सम्पत्ति (वस्तु) पर उनका अधिकार होता था। यही नहीं, विदथ जैसी परिषद् की वे सदस्या भी होती थीं। पतिव्रता नारी को सम्मान मिलता था और कुलटा की निन्दा की जाती थी।

 

(4) दास प्रथाऋग्वैदिक युग में दास प्रथा विद्यमान थी। सम्भवतः उन लोगों को जिन पर ऋग्वेद ने आधिपत्य स्थापित किया था दास और दासी बनाकर रखा जाता था। (5) शिक्षालड़के और लड़कों की शिक्षा उपनयन संस्कार से चालू होती थी। वेदाध्ययन के लिये बच्चों को विशेष गुरुओं के पास जाना होता था। शिक्षा मुखाम दी जाती थी। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य चरित्र विकास होता था। लेखन कला का प्रादुर्भाव हुआ था या नहींठीक से नहीं कहा जा सकता

 

(6) आमोदप्रमोदआमोदप्रमोद में रथ दौड़ प्रमुख थी। इसके अलावा जुआ, शिकार, शतरंज, नाच, गाना आदि अन्य आमोदप्रमोद के साधन थे। ढोल, दुंदुभी, करकरी, वीणा, सारंगी, बांसुरी आदि उस समय के प्रमुख वाद्य थे। संगीत आनन्दमय होता था ऋग्वेद मेंसमनशब्द आया है। समन शायद वह संस्था थी जो आमोदप्रमोद की व्यवस्था करती थी। जलक्रीड़ा में भी आर्यों की रुचि थी।

 

(7) खानपानभोजन में गेहूँ और जौ की बनी रोटी तथा दूध और उससे बनी वस्तुयें मुख्य थीं। चावल, धान, मूँग, फल, सब्जी, मक्खन, घी, दूध, दही आदि का भी प्रचलन था। व्यंजनों में हलवा, मालपुए (?) का भी स्थान था। कुछ के अनुसार यह कहना कठिन है कि आटे का प्रयोग किस प्रकार होता था। अमिष भोजन भी व्यवहार में आता था। साधारणतः बैलों, भेड़ों तथा अजा का माँस भक्षण किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि घोड़ों का माँस अश्वमेध यज्ञ के समय खाया जाता था। अभी तक कई विद्वानों द्वारा माना जाता रहा है कि गाय अवध्य थी और उसका आदर किया जाता था। परन्तु, गौमाँस भक्षण का उल्लेख ऋग्वेद में आया है। ऐसा प्रतीत होता है कि केवल यज्ञ में ही गाय की बलि दी जाती थी और वह भी बन्ध्या गायों की।

 

() वस्त्राभूषणपोषाक में वास या परिधान (चादर या शाल की भाँति कमर के नीचे ओड़े जाने वाला वस्त्र, अधिवास (कमर के ऊपर ओड़े जाने वाला वस्त्र), नीवी (कंचुकी,

 

 

कटि में प्रदेश पहनने के लिये), अटक, द्वापी का वर्णन भी आया है। पगड़ी भी पहनी जाती थी। इस युग के वस्त्र सूत ऊन और मृग चर्म के होते थे। रस काटने और सीने की कला ज्ञात थी। पूर्वो आदि विशेष अवसरों पर नये वस्त्र पहनने का रिवाज था। धनी लोग रंगबिरंगे और सोने का काम किये हुये वस्त्र पहनते थे। गहनों में शकुन्याची खादी, निष्क, मणि, रुक्म आदि का प्रचलन था। स्वर्णभूषणों तथा पुष्पाहारों का प्रयोग विशेष उत्सवों पर अधिक होता था। स्त्रियों को वेणियों का शौक था। विवाह के समय एक

 

विशेष वस्त्र धारण करती थी जिसे वय कहते थे। () बाल संवारना वालों में तेल डाला जाता था और चोटी ती थी। आदमी या तो कधी करते थे या चोटी करते थे या कुंडली के आकार में रखते थे। कुछ लोग उस्तरे से दाढ़ी भी बनाते थे, किन्तु मूंछ रखने का आम रिवाज था।

 

(10) मकानऋग्वैदिक काल के आयों के मकान में ईंटों का प्रयोग अज्ञात था मकान लकड़ी, मिट्टी और फूस के बने होते थे। किन्तु वे बड़े स्वच्छ, खुले और हवादार थे। आर्य अपने घर प्रायः फलफूलों से घिरी ऊँची भूमि पर और नदियों के निकट और खेतों के आसपास बनाते थे। साथ ही वे प्रत्येक घर के पास इतनी भूमि छोड़ देते थे। जिससे एक परिवार के लिये पर्याप्त अन्न, चारे की व्यवस्था हो सके। प्रत्येक घर में अग्निशाला की व्यवस्था रहती थी: प्रत्येक घर में एक बैठक और स्त्रियों के लिये अलग कक्ष होता था। घरों में हविर्धान (भण्डारगृह), आवसथ (अतिथिशाला) होते थे।

 

(11) औषधि ज्ञान वैद्यों को आदर दिया जाता था। अश्विनी कई बीमारियाँ ठीक कर देते थे। X : 97 की ऋचा औषधियों का जिक्र करती है। रोगों में यक्ष्मा का प्रायः उल्लेख मिलता है। घोषा के कुष्ठ रोग निवारण का जिक्र हुआ है। शल्य चिकित्सा का ज्ञान था। एक राजा की पत्नी विश्पला की जाँघ टूट जाने पर अश्विनी कुमारों ने उसके नकली जांघ जोड़ दी थी। बीमारियों से छुटकारा पाने के लिये टूटोने का सहारा भी जादूलिया जाता था। दीर्घायु बनाने के लिये प्रार्थना का आश्रय भी लिया जाता था

 

(12) गणित एवं विज्ञानऋग्वैदिक आर्य गणित विज्ञान से भी परिचित थे ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 149 वें मन्त्र से प्रकट होता है कि आर्य लोग इस तथ्य से परिचित थे कि पृथ्वी सूर्य के आकर्षण से बँधी है। अर्थात् गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त उन्हें ज्ञात था उनको नक्षत्रों का भी ज्ञान था। ऋग्वेद में 60 हजार तक की संख्या का उल्लेख है। शून्य का प्रयोग भी आर्यों को विदिन था। ऊर्जा और पुंज और सेंटर सिद्धान्त से आर्य वाकिफ थे अन्तरिक्ष विज्ञान भी उन्हें आता था। पर्यावरण का भी उन्हें ज्ञान था

 

(13) कलाकौशलऋग्वेद से काव्य कला तथा आर्यों के मकानों से उनकी वास्तुकला जो कि सादी परन्तु उपयोगी थी, का पता चलता है। पत्थर के किलों के वर्णन से दुर्ग निर्माण कला का पता चलता है। ऋग्वेद में यत्रवेदियों हवन कुंडों, यहशालाओं, पाषाण प्रासादों, सहस्य स्तम्भों और हार वाले भवनों आदि का उल्लेख है। इन्द्र का मूर्ति का भी उल्लेख है। पर मूर्तिपूजा के बारे में मतभेद है। लेखन कला के बारे में भी मतभेद है। संगीत, नृत्यकला का जिक्र किया ही जा चुका है। रंगमंच भी रहे होंगे। लोगों को बताई बुनाई, रंगादि की कलायें भी आती थीं। आर्य लोग युद्ध के लिये सुन्दर रथों का निर्माण कर लेते थे। उन्हें लोहे का ज्ञान हो गया था तथा वे अन्य धातुओं के अतिरिक्त लोहे के हथियार अन्य उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते थे।

 

(14) नैतिकताआर्यों में नैतिकता की श्रेष्ठ भावना थी। उन्होंने उन व्यक्तियों की निन्दा और भर्त्सना भी की जो सम्पन्न होते हुये भी कठोर हृदय के थे और उनकी प्रशंसा

 

की है जो निर्धनों और निसहायों की सहायता करते थे। उन्होंने चोरी डाकुओं और दुष्टों के नाश के लिये प्रार्थना की। उन्होंने अतिथि सत्कार को एक पवित्र कर्तव्य बतलाया। उन्होंने जीवन को स्वस्थ, मौज और मस्ती का तथा नैतिकतापूर्ण माना

 

(15) अन्य सामाजिक प्रथायें ऋग्वेद से उस समय की अन्त्येष्टि क्रिया के बारे में भी पता चलता है। जलाने की प्रथा आम थी। गाड़ना भी प्रचलन में था। सती प्रथा के पक्ष में प्रत्यक्ष उदाहरण नहीं मिलते। हाँ, प्रग्वेद की ऋचा 10, 18, 7 में यह अवश्य बताया गया है कि विधवाओं को विधवा रहकर जीवन बिताने का अधिकार था। आर्थिक दशा

 

(1) खेती खेती लोगों का मुख्य व्यवसाय था। हर गृहस्थ उपजाऊ जमीन के मालिक होने की चाह रखता था। हल जोतने के लिये बैलों का उपयोग होता था। खेतों में बीज डालने, दात्र से अन्न काटने, जमीन पर अन्न एकत्रित करने, उसे कूटने, चलना देने आदि के भी सन्दर्भ ऋग्वेद में आये हैं। कृत्रिम नहरों (कुल्या या खनित्रिमा अपह) का वर्णन भी आया है। सिंचाई कुओं से भी होती थी। व्यवधान खेती होती थी। मुद्ग (मूंग), माप (उड़द और गेहूं मुख्य खाद्यान्न थे।

 

(2) पशु पालनआर्य मूलतः कृषक थे और वे बैल, गाय, घोड़ा, बकरी तथा ऊँट

 

आदि पालते थे। उनकी सम्पत्ति इससे आँकी जाती थी कि उनके पास कितने पशु हैं। बैलों से खेती होती थी, गाय से दूध मिलता था, घोड़े लड़ने के काम आते थे। जानवरों का उपयोग आवागमन के साधनों के रूप में भी होता था। (3) अन्य उद्योगधन्धेबदलते समय के साथ समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ऋग्वैदिक आर्यों ने श्रम विभाजन के सिद्धान्त को अपना लिया। धन्धों के अनुसार 4 वर्ग हो गये। ब्राह्मण लोग यज्ञ करने और शिक्षा देने का कार्य करने लगे, क्षत्रिय लड़ाई का काम करने लगे, वैश्य खेती, पशुपालन और दूसरी कलाओं से सम्बन्ध रखने लगे। शूद्र निम्न प्रकार का कार्य करने लगे। इसके अलावा जिन लोगों ने बुनाई का पेशा अपनाया वे बुनकर कहलाने लगे। जो लोग रथ, वेगन (अनस) तथा बोट (नाव) आदि बनाते थे वे बढ़ई

 

कहलाने लगे। कर्मकार युद्ध और खेती में काम आने वाले औजार बनाने लगे। इसके

 

अलावा सोने का काम करने वाले हिरण्यकार कहलाने लगे। कुम्हार, नाई (वपत्री), वैद्य आदि

 

के भी अपने वर्ग हो गये। (4) व्यापार एवं वाणिज्यकृषि और उद्योग के आधिक्य या अतिरेक माल ने आन्तरिक और बाह्य व्यापार को प्रोत्साहित किया। पणी लोगों ने व्यापारी वर्ग बनाया। वे जरूरतमन्द लोगों को अधिक व्याज दर पर कर्ज देते थे। बाजार में मोल भाव होता था। व्यापार समुद्री मार्ग से होता था या नहीं, इस बारे में विवाद है। धार्मिक दशा

 

(1) प्राकृतिवाद और मानवीकरण आर्य लोग प्रकृति के अजूबों से काफी प्रभावित थे। उन्हें उसमें कुछ पराशक्ति नजर आयी। सो वे प्राकृतिक चीजों से मानव रूप में पूजने लगे उन्हें अमर मानने लगे।

 

(2) बहुदेववाद और एकैकाधिवादऋग्वैदिक धर्म बहुदेववादी था क्योंकि ऋग्वेद में कई देवों का वर्णन आया है।देवका मतलब देने वाला। सूरज, चाँद देव हैं क्योंकि ये सभी को प्रकाश देते हैं। पान्तु विशिष्ट धार्मिक विचार के सन्दर्भ में बहुदेववादी सिद्धान्त शंकास्पद है। अनेक देवों में प्रत्येक की जब स्तुति की जाती है तो उसे सर्वोपरि माना जाता है, विश्व सृष्टा माना जाता है।

 

(3) एकेश्वरवादयदि प्रकृति के विभिन्न प्रतिभासों ने अनेक देवियों की मांग की तो प्रकृति को एकता ने एक ईश्वर को माँग को, जिसमें सभी चीजें सम्मिलित थी लोग एक सच्चाई के बारे में सोचने लगे। देवों की बहुतायत प्रश्नवाचक हो गयी। विश्व एक ही देव का सृजन माना जाने लगा और इसने अना में जाकर एकेश्वरवाद को जन्म दिया। (4) कोई मूर्ति पूजा नहीं ऋग्वैदिक धर्म मूर्ति पूजा वाला धर्म नहीं था। कोई मन्दिर, कोई मूर्ति नहीं मिली है। अलबत्ता इन्द्र की मूर्ति का उल्लेख है, परन्तु कुषाण युग से पहले को कोई भी मूर्ति अभी तक प्राप्त नहीं हुयी है। बिना किसी मध्यस्थ के आदमी ईश्वर से

 

सीधा सम्पर्क करता था। देवता और मनुष्य में व्यक्तिगत सम्बन्ध था (5) देवों का वर्गीकरणआयों के 33 देवता थे जिन्हें तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है— (i) आकाशस्थ, (ii) पार्थिव, और (ii) स्वर्गस्थ प्रथम श्रेणी के देवताओं में इन्द्र, रुद्र तथा मारुत का महत्वपूर्ण स्थान था। दूसरी श्रेणी के देवताओं में अग्नि तथा सोम मुख्य थे। तृतीय श्रेणी में दयूस, वरुण, अदिति, अश्विन तथा उपा आदि सम्मिलित थे। इसके अतिरिक्त धातु, विश्वकर्मा, रिभुस, अप्सरा, गन्धर्वस आदि छोटेछोटे देवताओं का भी जिक्र हुआ है।

 

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस युग में आर्यपापके प्रति सजग एवं आशावादी थे। पुनर्जन्म में इनका विश्वास नहीं था। फिर भी आर्यों को यह विश्वास था कि मृत्यु के बाद जीवन का अन्त नहीं होता। मनुष्य में एक ऐसा तत्त्व है जो मरणोपरान्त भी विद्यमान रहता है। इस लोक को छोड़कर मनुष्य रामलोक या पितृलोक में जाता है। इस यात्रा और इन लोगों का सजीव चित्र ऋग्वेद से मिलता है। मुक्ति की चिन्ता आयों में नहीं दीख दिर पड़ती। ऋग्वेद में टोटम या पशु पूजा का उल्लेख नहीं मिलता। साधारण जनता में जादूटोना का प्रचलन रहा होगा।

 

 
प्रश्न छठी शताब्दी ईसा पूर्व में उत्तरी भारत की राजनीतिक दशा पर प्रकाश डालिये। Throw light on the political condition of Northern India during Sixth Century B.C.
 

 

 

उत्तर

 

उत्तरी भारत के षोडश महाजनपद (Sixteen Mahajanpadas of Northern India)

 

बुद्ध के उदय के पूर्व प्रमुख महाजनपद 16 थे जिनकी जानकारी हमें बौद्ध साहित्य

 

से मिलती है, जो निम्नानुसार है– (1) अंगअंग राज्य बिहार के उत्तर पूर्वी भाग में स्थित था। उसकी राजधानी आधुनिक भागलपुर के पास चम्पा थी। वह व्यापार वाणिज्य का केन्द्र थी। प्रारम्भ में इस जनपद के राजाओं ने बह्मदत्त के सहयोग से मगध के कुछ राजाओं को पराजित भी किया था किन्तु कालान्तर में इनकी शक्ति क्षीण हो गयी और इन्हें मगध से पराजित होना पड़ा।

 

(2) मगधआधुनिक पटना तथा गया जिला इसमें सम्मिलित थे। बुद्ध के पूर्व बृहद्रथ तथा जरासन्ध यहाँ के प्रसिद्ध राजा हुये। बुद्ध के समय में बिम्बिसार मगध में शासन कर रहा था। वह बड़ा वीर, साहसी तथा महत्त्वाकांक्षी था। उसके शासनकाल में मगध के गौरव तथा साम्राज्य में वृद्धि होने लगी। उसने कई पड़ौसी राज्यों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जिससे मगध की प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि हो गयी। बिम्बिसार ने अंग पर विजय प्राप्त कर उसे अपने राज्य में मिला लिया। उसने जैन तथा बौद्ध दोनों ही धर्मों को प्रोत्साद दिया था और दोनों ही उसे अपना अनुयायी मानते थे। बिम्बिसार के अन्तिम दिन दुःख के बीते उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे बन्दीगृह में डाल दिया और वहीं उसकी

 

 भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक) हो गयी या करवा दी गयी। एतदर्श, मध्य युग की ऐसी परम्परा का बीजारोपण यहाँ देखा जा सकता है।

 

अजातशत्रु मगध के सिहासन पर बैठा। वह अपने पिता से भी अधिक महत्त्वाकांक्षी तथा साम्राज्यवादी था। उसने बज्जि तथा मल्ल के संघराज्यों (Federated States) पर आक्रमण कर उन्हें परास्त किया और अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया। अपने पिता की भाँति अजातशत्रु की भी नीति बड़ी उदार थी। पहले वह जैन धर्म का अनुयायी था, परन्तु बाद में बौद्ध धर्म का हो गया। अजातशत्रु के पुत्र उदायी ने पड्यन्त्र रचकर अपने पिता की जीवन लीला समाप्त कर दी अर्थात् भारत में पितृ हत्या का सिलसिला इस समय से शुरू हो गया था। अजातशत्रु के उत्तराधिकारियों ने अपनी निर्बलता की वजह

 

से शिशुनागों और नन्दों को स्थान दिया और नन्दों को समाप्त कर मौर्य स्थापित हुये। (3) काशीइस महाजनपद की राजधानी वाराणसी थी जो अपने ज्ञान, व्यापार तथा शिल्प के लिये प्रसिद्ध थी। जैनियों के 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पिता अश्वसेन किसी समय यहाँ राज्य कर चुके थे। इस राज्य की कौशल, अंग तथा मगध के साथ समयसमय पर स्पर्द्धा चलती रहती थी। छठी ई० पू० के आरम्भ में कौशल नरेश ने काशी को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था।

 

(4) कौशलइस जनपद में आधुनिक अवध का प्रदेश सम्मिलित था। उसके उत्तरी भाग की राजधानी सावत्थी (श्रावस्ती) थी जिसके खण्डहर आज भी गोंडा जिले के सहेतमहेत गाँव में पाये जाते हैं। इसके दक्षिण भाग की राजधानी कुशावती थी। अयोध्या और साकेत कौशल के महत्त्वपूर्ण नगर थे। इस काल के प्रारम्भ में कौशल के राजा कंस ने काशी को भी जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। कंस के बाद उसका पुत्र महाकौशल गद्दी पर बैठा। उसने अपनी पुत्री महाकोशला का विवाह मगध के राजा बिम्बिसार के साथ कर दिया था। महाकौशल का पुत्र प्रसेनजीत अपने समय का शक्तिशाली शासक था।

 

(5) वज्जि संघ यह 8 और 9 जनपदों का संघ था। इनमें वज्जि, विदेह, ज्ञात्रिक और लिच्छवि सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण थे। वैशाली (आधुनिक मुजफ्फरपुर जिले में बसाढ़) लिच्छवि जनपद तथा पूरे वज्जि संघ की राजधानी थी। वैशाली सुन्दर और समृद्ध नगरी थी। विदेह (आधुनिक तिरहुत) किसी समय शक्तिशाली राजतन्त्रीय जनपद था।

 

यद्यपि यह संघ बहुत शक्तिशाली था, किन्तु पड़ौसियों की ईर्ष्या के कारण उसका शीघ्र ही नाश हो गया। कोशल के प्रसेनजीत और मल्लों के साथ तो वज्जि संघ के सम्बन्ध अच्छे थे, किन्तु मगध के साथ लिच्छवियों की गहरी प्रतिस्पर्द्धा थी।

 

(6) मल्लमल्लों का महाजनपद वज्जि संघ के उत्तर में स्थित था। इसमें भी नौ जनपद सम्मिलित थे। बुद्ध के समय में इनमें से दो जनपद महत्त्वपूर्ण थे। एक की राजधानी कुशीनारा (आधुनिक गोरखपुर जिले में) और दूसरे की पावा आधुनिक पडरौना (महावीर भगवान की मोक्षस्थली थी। आरम्भ में मल्ल जनपद का शासन राजतन्त्रीय था, किन्तु बाद में उन्होंने भी गणतन्त्रीय व्यवस्था अपनी ली थी। बुद्ध की मृत्यु के कुछ समय बाद

 

मल्लों के राज्यों को मगध के शासकों ने जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। (7) वेदि इसमें आधुनिक बुन्देलखण्ड तथा आसपास के प्रदेश सम्मिलित थे। उसकी राजधानी शक्तिमति या सान्थिवति थी। इस काल में इस वंश की एक शाखा कलिंग में स्थापित हुवी और जिससे खारवेल सम्वन्धित रहा।

 

(8) वत्सवत्सों का राज्य चेदि राज्य के पूर्व में यमुना के किनारे स्थित था। इसकी राजधानी कौशाम्बी (इलाहाबाद से  किमी. दूर थी यहाँ का राजा उदयन बुद्ध का समकालीन था

 

 

9) कुरु कुरु महाजनपद दिल्ली के पड़ोस में स्थानी श्री तक आते ओं को मिती बुद्ध नादेश पर शासन करता था। कु पांचालों के साथ विवाह सम्बन्ध थे। जातकों में जय नाम के राजा का उल्लेख आता है और जिसे पुधिष्ठिर का राज कहा गया है। आगे चलकर कुरु देश में प्रणाली समाप्त हो गयी और गणतंत्र की स्थापना की गयी।

 

(10) पांचाल इस जनपद में अधुनिकखण्ड तथा गंगा यमुना दोआब का कुछ भाग सम्मिलित था। कोशल और अवन्ति की तरह इसके भी दो भागउत्तर पाचाल और दक्षिण पांचाल उत्तर पांचाल की राजधानी अक्षिम (बरेली जिले में स्थित आधुनिक रामनगर), और दक्षिण पांचाल के एक राजा दुम्मुख (दुर्मुख) ने दूरदूर तक विजय प्राप्त की। कहा जाता है, दक्षिण पांचाल अधिक शक्तिशाली था और कि यहाँ भी गणराज्य की स्थापना हो गयी थी।

 

(11)] मत्स्य यह राज्य यमुना के पश्चिम में कुरु महाजनपद के दक्षिण में स्थित

 

था आधुनिक जयपुर, भरतपुर, अलवर आदि इसमें सम्मिलित थे। उसकी राजधानी विराटनगर

 

(आधुनिक जयपुर से बैराट) थी। राजधानी का यह नाम उसके शासक विराट के नाम पर

 

पड़ा था। महाभारत से ज्ञात होता है कि शहाज नामक शासक ने मत्स्यों और चेदियों पर

 

समान रूप से शासन किया। इससे अन्दाज लगता है कि मत्स्य पर वेदियों का नियन्त्रण था।

 

(12) शूरसेनयह राज्य आधुनिक मथुरा के निकटवर्ती प्रदेश पर फैला हुआ था।

 

उसका विस्तार प्रायः वर्तमान वजमण्डल के बराबर था। मथुरा उसकी राजधानी श्री। पहले यहाँ गणराज्य था बाद में यहाँ राजतन्त्र स्थापित हो गया। अन्त में यह मौर्य साम्राज्य का अंग हो गया। (13) अस्मक अथवा अश्यकअश्मकों का निवास स्थान गोदावरी नदी के तट पर कहीं था। उसकी राजधानी पोतन अथवा पोतलि थी। इसका अवन्ति से संघर्ष चलता

 

रहता था।

 

(14) अवन्तिइसमें पश्चिम मालवा तथा मध्य प्रदेश के कुछ भाग सम्मिलित थे।

 

इसके भी (कौशल और पांचाल की तरह) दो भाग थे। उत्तर भाग की राजधानी उज्जयिनी

 

थी, जहाँ जैसा कि माना जाता है, कभी हैहयों ने राज्य किया था और जिसे अच्युतगामी

 

शिल्पी ने बनाया था। दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी। अवन्ति में बुद्ध के समय

 

में चण्ड प्रद्योत शासन करता था।

 

(15) गान्धारइस महाजनपद में आधुनिक पेशावर तथा रावलपिण्डी के जिले और कश्मीर का कुछ भाग सम्मिलित था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी। तक्षशिला व्यापार, व्यवसाय, विद्या तथा शिक्षा का केन्द्र था। दूरदूर के विद्यार्थी वहाँ पढ़ने जाते थे। छठी ई० पू० के मध्य में पुष्करसारिन गान्धार का शासक था। वह मगध नरेश बिम्बिसार का समकालीन था। उसने मगध के दरबार में एक दूत मण्डला भी भेजा था। उसने अवन्ति के प्रद्योत को भी हराया था। एच० सी० राय चौधरी के अनुसार, छठी ई० पू० के उत्तरार्द्ध पर फारस (ईरान) का अधिकार हो गया था।

 

(16) कम्बोजकम्बोज राज्य गान्धार का पड़ौसी था। इनमें कभी निकट सम्बन्ध

 

रहा होगा, क्योंकि गान्धारकम्बोज अनेक स्थलों पर साथसाथ उल्लिखित हैं। सम्भवतः

 

राजपुर उसकी राजधानी थी, द्वारका इसका प्रमुख नगर था। सिन्हा सहाय ने इसकी राजधानी

 

हाटक बतलायी है। जो भी हो, कालान्तर में यहाँ गणतन्त्र स्थापित हो गया था।

 

 

 

Giving a brief account of Republican states of the 6th century B.C, discuss their administration. प्राचीन भारत के बुजयुगीन गणतन्त्रों का वर्णन कीजिये तथा उनकी प्रशासकीय विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।

 

उत्तर

 

बुद्ध गणतन्त्र

 

(Republics of Buddhist Period) छठी ई० पू० जो अराजतान्त्रिक राज्य या गणराज्य थे, उनका वर्णन इस प्रकार है

 

(1) कपिलवस्तु के शाक्य शाक्य अपने को इक्ष्वाकु वंश का मानते थे। इसी वंश में और इसकी राजधानी कपिलवस्तु में युद्ध का जन्म हुआ था। कपिलवस्तु के खण्डहर नेपाल की तराई में तिलौराकोट में हैं। यह गणतन्त्र काफी उन्नत था। रोज डेविड्स के अनुसार, इस गण में 80,000 कुटुम्ब (लगभग 5 लाख मनुष्य) थे। शाक्यों में विद्या एवं कला के प्रति विशेष अनुराग था। कपिलवस्तु उस समय शिक्षा एवं संस्कृति का केन्द्र माना जाता था। बुद्ध ने यही विभिन्न प्रकार की कलाओं का अध्ययन किया था जिसके फलस्वरूप 500 शाक्यों को प्रतियोगिता में पराजित करके ही वे यशोधरा को ग्रहण कर पाये थे। शाक्यों को अपनी कला एवं संस्कृति पर गर्व था कि उसे स्थायित्व देना तथा उसमें किसी प्रकार का सम्मिश्रण होने देने के अभिप्राय से ही अपने इतरवर्ग वाले क्षत्रियों से वैवाहिक सम्बन्ध नहीं करना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होंने कौशल नरेश प्रसेनजीत को शाक्य कन्या देकर एक दासी से उसका विवाह कर दिया।

 

(2), अल्लकप्प के बुली– –इनका राज्य मल्लों के राज्य के पूर्व में आधुनिक आरा या शाहबाद और मुजफ्फरपुर (बिहार) में स्थित था। उनका वेथदीप (बेतिया) के राजा से निकट का सम्बन्ध था। (3) केसपुत्त के कालामइनका निश्चित स्थान बतलाना कठिन है। संकेतों से मालूम

 

होता है कि इनका सम्बन्ध पांचालों से था। शतपथ ब्राह्मण में पांचालों के साथ इनका उल्लेख है। बुद्ध के गुरु आलारकालाम इसी कुल के थे। (4) संसुमारगिरि के भागये ऐतरेय ब्राह्मण के प्राचीन वर्ग थे। के० पी० जायसवाल

 

के अनुसार, इसकी भूमि में मिर्जापुर तथा उसका समीपवर्ती भूभाग सम्मिलित था (5) रामगाम के कोलीयइनका निवास शाक्यों के पूर्व में था। दोनों गणराज्यों के बीच रोहिणी नदी थी। सिंचाई के लिये रोहिणी के जल के प्रश्न पर दोनों गणराज्यों में

 

संघर्ष हो जाया करते थे (जैसे कावेरी जल के उपयोग को लेकर आज भारत और बांग्लादेश में विवाद है) इसी पारस्परिक कलह की शान्ति के लिये ही सम्भवतः बुद्ध के पिता शुद्धोदन ने कोलियों की दो कन्याओं से ब्याह किया था। बुद्ध को भी इसी प्रकार की एक कलह

 

को शान्त करना पड़ा था जिसका उल्लेख जातक में किया गया था। (6) पावा के मल्लये वशिष्ट गोत्र के क्षत्रिय थे। ये सम्भवतः आधुनित पडरौना में बसे थे। कनिंघम ने फाजिलपुर को पावा माना है।

 

(7) कुशीनारा के मल्लयह मल्लों की दूसरी शाखा थी। आधुनिक कसिया ही कुशीनारा (गोरखपुर जिला) नाम से विख्यात था। यहीं बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ था जिसका प्रमाण कसिया में प्राप्त बुद्ध की परिनिर्वाण मुद्रा में सोई हुयी एक विशाल मूर्ति है। मज्झिमनिकाय में मल्लों के राज्य कोसंघ राज्यकहा गया है। मल्लों में भी

 

शाक्यों की भाँति शिक्षा एवं कला में विशेष रुचि थी। सुदूर तक्षशिला को मल्लों के एक

 

 

क्षेत्रीय राज्यों का उदयवैदिक और महाजनपद प्रमुख ने अपने पुत्र बन्धुल को विद्याध्ययन के लिये भेजा था। दर्शन के क्षेत्र में भी दे

 

काफी आगे बढ़े थे और इनका एक नगर उरवेलकम्प तो दार्शनिक वादविवाद के लिये

 

प्रसिद्ध था। धर्म के प्रति इनको विशेष रुचि थी। बौद्ध धर्म के उत्थान में इनकी प्रशंसनीय

 

देन है। अवरुद्ध, आनन्द, उपालि आदि के नाम एवं कार्य इस क्षेत्र में विशेष उल्लेखनीय है।

 

(8) पिप्पलिवन के मोरिय महावंश टीका से ज्ञात होता है कि मारिय पहले शाक्य थे. पर कालान्तर में विट्ठन की क्रूरता से ऊबकर स्थानान्तरण करके हिमालय के पर्वतीय भाग में चले आये जहां उन्होंने पिप्पलिवन नगर का निर्माण किया। इन्हें मोरिय की संज्ञा इसलिये दी गयी थी कि इनकी नगरी सर्वदा मोरो की आवाज से गुजरत रहती थी। मगध साम्राज्य के निर्माता चन्द्रगुप्त (मार्य) को इसी वंश का माना जाता 1

 

(9) मिथिला का विदेह मिथिला इनकी राजधानी थी। जातक से ज्ञात होता है कि यह बहुत ही प्रसिद्ध व्यापारिक नगर था और दूरदूर के व्यापारी यहाँ व्यापार करने आते थे। (10) वैशाली के लिच्छवीशुद्धोदन ने इनकी कन्या से विवाह किया था। बुद्ध के

 

भस्मावशेष के भी ये अधिकारी हुये थे। वैशाली इनकी राजधानी थी। महावस्तु महावग्ग महापरिनिर्वाण सुत्त आदि से ज्ञात होता है कि बुद्ध के काल में इन्होंने आशातीत उन्नति कर ली थी। इनके नगर अत्यधिक सुसज्जित एवं समृद्धशाली थे। नगर में चारों ओर अनेक चैत्य, विहार तथा राजप्रासाद थे। राजप्रासाद विभिन्न कुलीन सरदारों के थे। इनका शासन सुव्यवस्थित था। इस गणराज्य में मतैक्य, सौहार्द, आदर दृढ़ता आदि की भावना बलवती थी। इन गुणों के अतिरिक्त उनमें एक सर्वश्रेष्ठ गुण थाराष्ट्रीयता की भावना बुद्ध ने लिच्छवियों की सहिष्णुता की काफी प्रशंसा की है। अनेक लिच्छवी राजकुमारों ने धार्मिक क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य किये।

 

गणराज्यों की शासन पद्धति

 

 

 

(1) विधानछठी ई० पू० के या बौद्धकालीन गणराज्यों का विधान अथवा राजनीतिक संगठन लोकतान्त्रिक था। इनमें जनता द्वारा चुने हुये लोग शासन करते थे। शासन के लिये चुने हुये सदस्यों कोराजाकहते थे। राजा राज्य का स्वामी नहीं बल्कि सेवक था। राजा का क्षेत्र काफी मर्यादित हो गया था। अतः वह प्रजा पर निरंकुश शासन नहीं कर सकता था। जन के सभी लोगों की सहमति से अपने पद पर आसीन होने के कारण राजा कोमहासम्पतकहा जाता था। प्रजा का रक्षक होने के नाते उसे क्षत्रियकहा जाता था। सदस्यों से बनी हुयी संस्थापरिषद्कहलाती थी जिसके भवन को संस्थागारकहते थे जहाँ बैठकर राज्य के राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सामाजिक प्रश्नों पर विचार किया जाता था। परिषद् के सभापति अथवा गणमुख्य को भी राजा कहते थे जो एक निश्चित अवधि के लिये चुना जाता था। गण के दूसरे मुख्य अधिकारीउपराजा‘ (उपसभापति या उपगणमुख्य), ‘सेनापतिऔरभण्डागारिक‘ (कोषाध्यक्ष) थे। इसके अतिरिक्त शासन में परामर्श देने के लियेअष्टकुलमनाम की एक संस्था थी जिसमें गण के प्रमुख 8 कुलों के प्रतिनिधि भाग लेते थे। कई गणों के मिलने से संघ बनता था। मल्लों और वज्जियों के दो बड़े संघ थे। कभीकभी बाहरी आक्रमण के समय मल्लों और वज्जियों का एक सामरिक संघ भी बन जाता था। संघ के सभी सदस्यों के स्थान और अधिकार बराबर होते थे (2) शासनगणराज्यों की प्रशानिक व्यवस्था के सम्बन्ध मेंपरिषद्के निर्णय

 

महत्वपूर्ण होते हैं। गणमुख्य काउंसिल के निश्चय के अनुसार अपने अधिकारियों की सहायता से 1. कुछ अन्य गणराज्य ये थे मालव, क्षुद्रक, कठ, अष्टक, अश्वक, सौभूति, अग्रक्षेणी, क्षत्रिय, बसाति,

 

शासन चलाता था। सेना अर्थ एवं न्याय शासन के मुख्य विभाग थे। गणों की सैनिक शक्ति काफी अमल थी। प्रायः प्रत्येक सैनिक का काम जानता था। सैन्य विभाग का प्रमुख अधिकारीसेनापतिकहलाता था। सेनापति का शासन के मामलों में काफी प्रभाव होता था सैन्य संचालन के साथ ही यह एक मन्त्री के रूप में भी कार्य करता था। अपने पद को गम्भीरता के कारण वह सम्पूर्ण आमात्यों में प्रमुख कहा जा सकता है। अर्थविभाग के मुख्य कोभण्डागारिककहते थे। जो जन का कोई बड़ा समृद्धशाली व्यक्ति होता था। reat को fararमात्यकहते थे। वह केवल अभियोगों का निर्णय करता था बल्कि राजा को धार्मिक एवं कानूनी मामलों में सलाह भी देता था। इन कर्मचारियों के अतिरिक्तहिरण्यक‘, ‘सारथीआदि अन्य कर्मचारियों का उल्लेख भी जातक साहित्य में मिलता है।

 

नगर की व्यवस्था का भारनगर गुन्तिक‘ (नगररक्षक) के ऊपर था। नगर में शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिये वह उत्तरदायी होता था। उसे अपने कार्य के स्वरूप के कारणरात्रि का राजानामक संज्ञा से पुकारा जाता था। आज की भाषा में उसेपुलिसकहा जा सकता है। इसका मुख्य काम कानून व्यवस्था को बनाये रखना था। वह अपराधियों को पकड़ती थी। तत्कालीन साहित्य से पता चलता है कि वर्तमान पुलिस की भाँति उस युग की पुलिस भी कभीकभी लोगों से पैसा ऐंठती थी।

 

ग्राम शासन व्यवस्था भी सुनिश्चित, सुगठित एवं व्यवस्थित थी। सम्पूर्ण जनपद के शासन की इकाई ग्राम था। ग्राम के शासक को ग्राम भोजक कहते थे। ग्राम भोजक का पद बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। ग्राम सम्बन्धी सभी मामलों को सुलझाने का कार्य ग्राम भोजक के ऊपर था। वह ग्राम के अभियोगों का निर्णय भी करता था। मद्यपान, जुआ, पशुहिंसा जैसी दूषित प्रवृत्तियों को निषिद्ध करने का अधिकार ग्राम भोजक को प्राप्त था। मादक वस्तुओं का क्रयविक्रय ग्राम भोजक की आज्ञा या अनुमति पर ही सम्भव था, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि ग्राम भोजक अपने क्षेत्र में स्वेच्छाचारी शासक बन बैठता था। उसके कार्यों के विरुद्ध राजा के पास अपील की जा सकती थी। राजा को आवश्यकतानुसार ग्राम शासन में संशोधन करने तथा ग्राम भोजक को अपदस्थ करने का अधिकार था। कृषि और व्यापार दोनों पर काफी ध्यान दिया जाता था।

 

(3) कर आयव्ययगणराज्य का शासन चलाने के लिये सारे गण के लोगों को कर देना पड़ता था कृषि, व्यापारव्यवस्था आदि से भी कर लिये जाते थे। जुर्माना तथा राष्ट्रपति को मिलने वाली भेंट भी गणराज्य की आय मानी जाती थी। वनों, खदानों एवं अन्य कर साधनों से भी गणराज्य की आमदनी होती थी। शासन गणपति, मन्त्रिपरिषद्, सेना, पुलिस आदि पर रकम खर्च की जाती थी। (4) न्याय व्यवस्थान्याय व्यवस्था अति उत्तम थी। प्रशासनिक अभियोग न्यायालय

 

के समक्ष प्रायः नहीं आते थे। समता और स्वतन्त्रता न्याय के दो आधारभूत स्तम्भ थे। जब तक सेनापति, राजा, उपराजा सभी एक मत हों तब तक कोई अकेला अधिकारी किसी को दोषी ठहराकर दण्ड नहीं दे सकता था। अधिकारी अभियुक्त को बरी अवश्य कर सकता था। न्याय करने के लिये कई प्रकार के न्यायालय स्थापित थे। एक न्यायालय विनिश्चयमहामात्यों का था जिसमे फौजदारी और कभीकभी दीवानी के अभियोग का निर्णय होता था। दूसरा न्यायालय व्यवहारिकों का था जिसमें रुपयों का लेनदेन और दूसरे दीवानी के अभियोगों का निर्णय होता था। तीसरा सुधार और चौथा मुख्य न्यायालय अटकुलों का था। सेनापति राजा और उपराजा के क्रमशः 3 और न्यायालय थे। क्रमशः नीचे के न्यायालयों के निर्णय के विरोध में ऊपर के न्यायालयों का अपना नियमित कार्यकाल होता था। लेखक प्रत्येक अभियोग का ब्यौरा न्यायालय के निर्णय के प्रति सुरक्षित रखते थे

 

 

(5) गण परिषद की कार्यवाहीजभवन में परिषद का अधिवेशन होता था उसे धागा कहते थे।<