HISTORY OF INDIA 300 AD to 1200 A.D.
1. भारत का इतिहास (300 ई. से 1200 ई.) पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
- इस समय भारत में प्रमुख राजवंशों का अस्तित्व था, जैसे गुप्त, हूण, पाल, चोल, और राघुकुल।
- गुप्त साम्राज्य (300 ई. – 550 ई.) का उत्थान हुआ, जिसे ‘स्वर्ण युग’ के रूप में जाना जाता है।
- हूणों का आक्रमण (5वीं सदी) गुप्त साम्राज्य के पतन का कारण बना।
- पाल वंश (750 ई. – 1174 ई.) ने बंगाल और बिहार में सत्ता स्थापित की और बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
- दक्षिण भारत में चोल वंश ने अपनी सत्ता स्थापित की और समुद्री मार्गों के माध्यम से व्यापार को बढ़ावा दिया।
- मुस्लिम आक्रमण (11वीं सदी) के कारण भारत में नई सामाजिक और राजनीतिक हलचल शुरू हुई।
- 1200 ई. के आसपास दिल्ली सुलतानत की नींव रखी गई, जो भारत में मुस्लिम शासन की शुरुआत थी।
2. गुप्त साम्राज्य का ऐतिहासिक महत्व क्या था?
उत्तर:
- गुप्त साम्राज्य का आरंभ चंद्रगुप्त प्रथम (c. 320-335 ई.) ने किया था।
- इसे भारत का ‘स्वर्ण युग’ माना जाता है, जिसमें कला, साहित्य और विज्ञान में अत्यधिक प्रगति हुई।
- कालिदास, वराहमिहिर, और आर्यभट्ट जैसे महान विद्वान इस समय में उत्पन्न हुए।
- सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ के शासनकाल में साम्राज्य ने अपना चरमोत्कर्ष प्राप्त किया।
- व्यापार और संस्कृति के प्रसार में गुप्त साम्राज्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म दोनों के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाई गई।
- गुप्त साम्राज्य का पतन हूणों के आक्रमण के कारण हुआ था।
3. हूणों का आक्रमण और उसका भारतीय समाज पर प्रभाव क्या था?
उत्तर:
- हूणों के आक्रमण की शुरुआत किवाद (400 ई.) के समय हुई थी।
- हूणों ने गुप्त साम्राज्य की शक्तियों को कमजोर किया, जिससे साम्राज्य का पतन हुआ।
- वे बर्बर और विध्वंसक आक्रमणकारी थे, जिन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों में तबाही मचाई।
- हूणों के हमलों के कारण सामाजिक असंतुलन और आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ।
- गुप्त साम्राज्य के बाद भारत में विभिन्न छोटे-छोटे राज्य बने।
- हूणों का प्रभाव उत्तर भारत में अधिक था, लेकिन दक्षिण भारत पर उनका असर कम पड़ा।
- हूणों के आक्रमण ने भारतीय राजनीति और समाज को नए रूप में ढालने की दिशा में योगदान किया।
4. पाल वंश के योगदान पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
- पाल वंश की स्थापना गोपाल ने 750 ई. में की थी।
- इस वंश ने बौद्ध धर्म को प्रोत्साहित किया और इसे राज्य धर्म के रूप में अपनाया।
- महेन्द्रपाल और धर्मपाल जैसे सम्राटों ने बौद्ध संस्कृति और शिक्षा का प्रचार किया।
- बोधगया में महात्मा बुद्ध का स्थान विकसित किया गया, जो बौद्धों के लिए एक प्रमुख तीर्थस्थल बन गया।
- पाल साम्राज्य के समय बंगाल और बिहार क्षेत्र में शांति और समृद्धि आई।
- कला और साहित्य में उल्लेखनीय योगदान हुआ, जैसे कि धम्मपाल के समय में बौद्ध साहित्य का संवर्धन।
- पाल साम्राज्य का पतन 1174 ई. में हुआ, जब इसे चंद्रपाल ने पराजित किया।
5. दक्षिण भारत में चोल वंश का इतिहास और योगदान क्या था?
उत्तर:
- चोल वंश की सत्ता दक्षिण भारत के प्रमुख साम्राज्य के रूप में स्थापित हुई थी।
- राजा राजेंद्र चोल (1014-1044 ई.) के समय चोल साम्राज्य ने अपने शिखर को छुआ।
- चोलों ने समुद्री व्यापार को बढ़ावा दिया और श्रीविजय और चंपा जैसे देशों से रिश्ते बनाए।
- चोल साम्राज्य ने विशाल मंदिरों का निर्माण किया, जैसे कि तंजावुर में ब्रहदीश्वर मंदिर।
- चोल वंश के सम्राटों ने दक्षिण भारत में वैदिक धर्म का प्रचार किया और बौद्ध धर्म के विरोधी थे।
- उनके शासनकाल में सांस्कृतिक और आर्थिक समृद्धि का दौर आया।
- चोल साम्राज्य का पतन 13वीं सदी में हुआ, जब मुस्लिम आक्रमणकारियों ने आक्रमण किया।
6. भारत में मुस्लिम आक्रमणों का इतिहास क्या था?
उत्तर:
- 11वीं सदी के आसपास भारत में मुस्लिम आक्रमणों की शुरुआत हुई।
- महमूद गजनवी (971-1030 ई.) ने 17 बार भारत पर आक्रमण किया और सोमनाथ मंदिर को लूटा।
- मोहम्मद गोरी ने 1192 ई. में पृथ्वीराज चौहान को हराकर दिल्ली सल्तनत की नींव रखी।
- मुस्लिम आक्रमणों के कारण भारतीय समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक संघर्ष बढ़ा।
- मुस्लिम सुलतानतों ने भारत में इस्लाम धर्म का प्रचार किया, साथ ही संस्कृत और भारतीय कला में भी कुछ बदलाव किए।
- दिल्ली सुलतानत ने भारतीय राजनीति और प्रशासन में कई सुधार किए।
- मुस्लिम आक्रमणों ने भारतीय समाज की राजनीतिक और सांस्कृतिक दिशा को प्रभावित किया, और इसके परिणामस्वरूप कई नए सांस्कृतिक और राजनीतिक रूपों का जन्म हुआ।
7. भारत में भारतीय-बद्ध शास्त्रों का योगदान क्या था?
उत्तर:
- इस समय में भारतीय समाज में धर्म, संस्कृति और राजनीति के मामले में भारतीय-बद्ध शास्त्रों का योगदान महत्वपूर्ण था।
- धर्मशास्त्रों और न्यायशास्त्रों में विशेष ध्यान दिया गया था।
- धर्म और शासन के लिए महाभारत और रामायण को आदर्श माना गया।
- कालिदास ने संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में गहरी छाप छोड़ी, जिसमें ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ और ‘रघुवंश’ प्रमुख रचनाएँ थीं।
- जैन और बौद्ध धर्म के शास्त्रों ने भारतीय समाज में शांति और अहिंसा का संदेश दिया।
- आर्यभट्ट ने गणित और खगोलशास्त्र में महत्वपूर्ण कार्य किए।
- भारतीय-बद्ध शास्त्रों ने भारतीय समाज की आस्थाओं, विश्वासों और व्यवहारों को व्यवस्थित किया।
8. हर्षवर्धन के शासनकाल के बारे में विवरण दीजिए।
उत्तर:
- हर्षवर्धन का शासनकाल (606-647 ई.) उत्तर भारत के प्रमुख सम्राटों में से एक था।
- हर्षवर्धन ने उत्तरी भारत के अधिकांश हिस्सों पर शासन किया और गुर्जर प्रतिहार और पलवा से संघर्ष किया।
- हर्षवर्धन ने बौद्ध धर्म का संरक्षण किया, लेकिन उसने हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म दोनों के बीच समन्वय स्थापित किया।
- उनके शासन में नालंदा विश्वविद्यालय का विकास हुआ, जो विश्वभर में प्रसिद्ध था।
- हर्षवर्धन ने काव्य रचनाओं में भी योगदान दिया, जैसे कि ‘नागानंद’ और ‘रत्नावली’।
- हर्षवर्धन का राज्य प्रशासन बहुत ही कुशल था, और उन्होंने अनेक सामाजिक सुधार किए।
- उनका राज्य बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्रों में से एक बन गया और उनका योगदान भारतीय संस्कृति में स्थायी रूप से अंकित हुआ।
9. चंद्रगुप्त मौर्य का शासन और योगदान पर विस्तृत रूप से चर्चा करें।
उत्तर:
- चंद्रगुप्त मौर्य ने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की और उसे भारत में सबसे विशाल साम्राज्य बनाया।
- उनके शासनकाल में संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्से मौर्य साम्राज्य के अधीन थे।
- चंद्रगुप्त ने कूटनीतिक और सैन्य सुधारों को लागू किया और अपने साम्राज्य को मजबूत किया।
- उनके प्रधानमंत्री चाणक्य ने मौर्य साम्राज्य के प्रशासन को सुव्यवस्थित किया और ‘अर्थशास्त्र’ के माध्यम से शासन के आदर्श प्रस्तुत किए।
- चंद्रगुप्त मौर्य ने बिंदुसार के माध्यम से साम्राज्य का विस्तार किया।
- उनका साम्राज्य विशेष रूप से न्याय, प्रशासन, और व्यापार में व्यवस्थित था।
- चंद्रगुप्त म
ौर्य के शासन के बाद उनके पुत्र बिंदुसार और फिर अशोक मौर्य ने मौर्य साम्राज्य को और समृद्ध किया।
10. भारत में धर्म, संस्कृति और कला के क्षेत्र में क्या विकास हुए थे?
उत्तर:
- इस समय में भारत में कला, साहित्य, और संस्कृति का अद्वितीय विकास हुआ।
- गुप्त काल में कला और साहित्य के क्षेत्र में बडे परिवर्तन आए। काव्य, संगीत और नाटक को महत्व दिया गया।
- गुप्त साम्राज्य के समय संस्कृत साहित्य का विकास हुआ, और महान कवि जैसे कालिदास ने अपनी काव्य रचनाएँ दीं।
- धर्म के क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ा, जबकि हिंदू धर्म ने फिर से पुनर्निर्माण किया।
- इस समय मंदिरों और स्थापत्य कला में भी विकास हुआ, जैसे तंजावुर के ब्रहदीश्वर मंदिर।
- बौद्ध धर्म के कलाकारों ने दीवार चित्रकला और मूर्तिकला में योगदान दिया।
- संस्कृति में धार्मिक सहिष्णुता की नीति को अपनाया गया, जिससे कई धर्मों और संस्कृतियों का मिलाजुला असर भारत में पड़ा।
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11. गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों पर चर्चा करें।
उत्तर:
- गुप्त साम्राज्य का पतन मुख्य रूप से हूणों के आक्रमण के कारण हुआ, जिन्होंने उत्तर भारत में व्यापक तबाही मचाई।
- हूणों के हमलों के कारण गुप्त साम्राज्य की आर्थिक और सैन्य शक्ति कमजोर हो गई।
- गुप्त साम्राज्य का प्रशासनिक ढांचा कमजोर हुआ, जिससे प्रादेशिक नेतृत्व का अभाव हुआ।
- साम्राज्य के कुछ हिस्सों में स्थानीय शासकों द्वारा स्वतंत्रता की ओर रुझान बढ़ा।
- गुप्त साम्राज्य में सत्ता के कमजोर होने से सामाजिक असंतुलन भी उत्पन्न हुआ।
- गुप्त साम्राज्य का विस्तार नहीं हो पाया, जिससे साम्राज्य में राजनीतिक अस्थिरता आई।
- इसके बाद भारत में विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ, जिन्होंने गुप्त साम्राज्य की जगह ली।
12. पाल वंश का शाही संरक्षण किस प्रकार था?
उत्तर:
- पाल वंश ने बौद्ध धर्म को प्रमुख धर्म के रूप में अपनाया और इसके संरक्षण में सक्रिय रूप से काम किया।
- पाला शासकों ने बौद्ध मठों और विश्वविद्यालयों की स्थापना की, जैसे कि नालंदा विश्वविद्यालय।
- धर्मपाल और महेन्द्रपाल के समय में बौद्ध साहित्य और कला का विस्तार हुआ।
- पाल शासकों ने बौद्ध धर्म के जटिल सिद्धांतों को सरल करने की कोशिश की।
- बौद्ध धर्म के अलावा, पाल वंश ने हिंदू धर्म को भी संरक्षण दिया।
- पाल वंश के शासकों ने अपनी राजधानी मुआल का निर्माण किया और इसे एक महान शहरी केंद्र बनाया।
- पाल शासकों का शासन भारत में सांस्कृतिक, धार्मिक और वैज्ञानिक प्रगति का कारण बना।
13. हर्षवर्धन और उनके समकालीन शासकों के बीच संबंधों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
- हर्षवर्धन के समकालीन शासक शशांक (बंगाल) और पुलकेशिन II (दक्षिण भारत) थे।
- शशांक और हर्षवर्धन के बीच द्वंद्व युद्ध हुआ था, जिसमें हर्षवर्धन ने बंगाल को अपने साम्राज्य में समाहित किया।
- पुलकेशिन II और हर्षवर्धन के बीच संबंधों में संघर्ष था, लेकिन कुछ समय के लिए पुलकेशिन II ने दक्षिण भारत में हर्षवर्धन के आक्रमणों को रोकने में सफलता पाई।
- हर्षवर्धन ने भारत के विभिन्न हिस्सों में अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए कूटनीति का इस्तेमाल किया।
- सम्राटों के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक आदान-प्रदान हुआ, जिससे भारत के विविध धर्मों का संरक्षण हुआ।
- हर्षवर्धन ने दक्षिण भारत के शासकों से सहयोग और व्यापारिक रिश्ते स्थापित किए।
- उनके शासनकाल में धार्मिक यात्राओं और संगठनों को बढ़ावा मिला।
14. भारत में मुस्लिम आक्रमणों का प्रारंभ किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
- भारत में मुस्लिम आक्रमणों की शुरुआत महमूद गजनवी (971-1030 ई.) से हुई थी।
- महमूद गजनवी ने 17 बार भारत पर आक्रमण किया, सबसे प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का लूटना था।
- गजनवी के आक्रमणों का उद्देश्य भारतीय धन-सम्पत्ति को लूटना और इस्लाम धर्म का प्रचार करना था।
- गजनवी ने अपनी सेना के साथ भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी क्षेत्रों पर आक्रमण किया, लेकिन उत्तर भारत में उसका प्रभाव सीमित था।
- गजनवी ने अपने आक्रमणों में बौद्ध और हिंदू धार्मिक स्थल को नष्ट किया, जिससे भारतीय समाज में घबराहट फैली।
- गजनवी के बाद महमूद गोरी (1175-1206 ई.) ने भारत में एक नई मुस्लिम सुलतानत की नींव रखी।
- गोरी के आक्रमणों ने भारतीय इतिहास में एक नया मोड़ दिया, जिसके परिणामस्वरूप दिल्ली सुलतानत का प्रारंभ हुआ।
15. महमूद गजनवी का भारत पर प्रभाव क्या था?
उत्तर:
- महमूद गजनवी के आक्रमण ने भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर सामाजिक और धार्मिक असंतुलन उत्पन्न किया।
- गजनवी ने प्रमुख हिंदू मंदिरों को लूटा, जिसमें सोमनाथ मंदिर का लूटना प्रमुख था।
- गजनवी के आक्रमणों से भारत में हिंदू-मुस्लिम संघर्षों का प्रारंभ हुआ।
- उसने भारतीय समृद्धि को चुराकर अफगानिस्तान और मध्य एशिया में अपनी शक्ति बढ़ाई।
- गजनवी ने भारतीय धर्म, संस्कृति और समाज पर हमले किए, लेकिन भारतीय राजनीतिक ढांचा लंबे समय तक स्थिर रहा।
- गजनवी के हमले के बावजूद भारत के धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण हुआ, जैसे बौद्ध मठों का संरक्षण।
- गजनवी के आक्रमणों से भारत में मुस्लिम आक्रमणों के लिए एक मार्ग खुला, जिससे बाद में दिल्ली सुलतानत का शासन स्थापित हुआ।
16. मोहम्मद गोरी के आक्रमण और दिल्ली सुलतानत की स्थापना के बारे में बताइए।
उत्तर:
- मोहम्मद गोरी ने 1191-1192 ई. में भारत पर आक्रमण किया और पानीपत की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हराया।
- गोरी ने दिल्ली में अपना सुलतानत स्थापित किया, जो दिल्ली सुलतानत के रूप में इतिहास में दर्ज हुआ।
- गोरी का उद्देश्य भारत में मुस्लिम शासन की नींव रखना था और भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम धर्म को फैलाना था।
- गोरी के बाद, उसके गुलामों ने दिल्ली सुलतानत की सत्ता संभाली, जो 1206 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा स्थापित की गई।
- दिल्ली सुलतानत का पहला शासक कुतुबुद्दीन ऐबक था, जो गोरी का गुलाम था।
- दिल्ली सुलतानत के तहत प्रशासनिक और न्यायिक संरचनाओं का नया रूप आया।
- गोरी के आक्रमणों ने भारतीय समाज में धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक बदलाव की शुरुआत की।
17. भारत में व्यापार और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में क्या विकास हुआ था?
उत्तर:
- गुप्त साम्राज्य में व्यापार और अर्थव्यवस्था का विकास हुआ था, विशेष रूप से समुद्री व्यापार में।
- गुप्त काल में भारत के व्यापारिक संबंध रोम, ईरान, और दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैले थे।
- सिल्क मार्ग और समुद्री मार्गों के माध्यम से भारत के व्यापार में वृद्धि हुई।
- गुप्त साम्राज्य के समय में सिक्कों का व्यापक उपयोग हुआ, जो भारतीय व्यापारिक नेटवर्क को व्यवस्थित करने में मददगार साबित हुआ।
- पाल और चोल साम्राज्य के समय में भी व्यापार और कृषि में सुधार हुआ।
- भारत में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के साथ-साथ हस्तशिल्प और कारीगरी भी महत्वपूर्ण थी।
- मुस्लिम आक्रमणों के बावजूद, भारत में व्यापार और शिल्प उद्योग फलते-फूलते रहे।
18. सामाजिक जीवन और संरचना में गुप्त काल में क्या परिवर्तन हुए?
उत्तर:
- गुप्त काल में वर्ण व्यवस्था को मजबूती मिली, और समाज में उच्च और निम्न जातियों का भेद बढ़ा।
- हिंदू धर्म में पुरोहितों का प्रभुत्व बढ़ा और धार्मिक अनुष्ठानों का महत्त्व बढ़ा।
- महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार हुआ, लेकिन वे मुख्य रूप से घरों में ही सीमित रहीं।
- बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायी भी समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते थे।
- व्यापारी और शिल्पकार वर्ग की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ।
- शिक्षा के क्षेत्र में गुप्त काल में महत्वपूर्ण कार्य हुए, जैसे कि नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना।
- गुप्त साम्राज्य में सड़ी-गली संस्कृति और पारिवारिक जीवन को महत्व दिया गया।
19. भारत में शिक्षा और विद्या के क्षेत्र में गुप्त साम्राज्य का योगदान क्या था?
उत्तर:
- गुप्त साम्राज्य के समय में शिक्षा का बहुत महत्व था, और कई विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई।
- नालंदा विश्वविद्यालय इस समय का सबसे प्रमुख शैक्षिक केंद्र था।
- संस्कृत भाषा और साहित्य का विस्तार हुआ और महान कवि, लेखक और वैज्ञानिक उत्पन्न हुए।
- आर्यभट्ट ने गणित और खगोलशास्त्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- गुप्त काल में चिकित्सा विज्ञान में भी महत्वपूर्ण प्रगति हुई।
- गुप्त साम्राज्य के
समय में विज्ञान, गणित और साहित्य के क्षेत्र में कई उपलब्धियाँ दर्ज की गईं। 7. शिक्षा में बौद्ध धर्म के मठों का भी योगदान था, जो ज्ञान के केंद्र बने थे।
20. कृषि में गुप्त काल के दौरान क्या प्रमुख विकास हुए?
उत्तर:
- गुप्त काल में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का महत्व बढ़ा और किसानों की स्थिति में सुधार हुआ।
- सिंचाई की नई विधियाँ विकसित की गईं, जिससे कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई।
- व्यापारिक और घरेलू उपभोक्ताओं के लिए कृषि उत्पादों की भारी मांग हुई।
- चावल, गेंहू, जौ और दालों की खेती में विस्तार हुआ।
- कृषि उपकरणों का सुधार किया गया, जिससे उत्पादन में वृद्धि हुई।
- भूमि करों की प्रणाली को व्यवस्थित किया गया, जिससे कृषि विकास को बढ़ावा मिला।
- गुप्त साम्राज्य में कृषि उत्पादों का निर्यात भी हुआ, जिससे भारत की अर्थव्यवस्था को लाभ हुआ।
21. भारत में धर्म, संस्कृति और कला के क्षेत्र में कौन-कौन से प्रमुख परिवर्तन हुए थे?
उत्तर:
- गुप्त काल में हिंदू धर्म का पुनर्निर्माण हुआ और कई नए मंदिरों की स्थापना हुई।
- बौद्ध धर्म ने भी इस समय में अपने प्रभाव को कायम रखा, विशेषकर पूर्वी और मध्य भारत में।
- कला और स्थापत्य कला में भी विकास हुआ, मंदिरों का निर्माण बढ़ा।
- मूर्तिकला और चित्रकला के क्षेत्र में भारतीय शैली ने उत्कर्ष को प्राप्त किया।
- संस्कृत साहित्य में महाकाव्य और नाटक की रचनाएँ हुईं।
- धर्म और संस्कृति के बीच सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व का माहौल बना।
- कला और संस्कृति का यह समृद्ध समय भारतीय समाज के लिए एक सुनहरा युग साबित हुआ।
22. भारत में जैन धर्म का प्रसार कैसे हुआ?
उत्तर:
- जैन धर्म का प्रसार विशेष रूप से गुप्त काल में हुआ, जब जैन तीर्थंकरों ने अपने उपदेशों से समाज को प्रभावित किया।
- जैन धर्म के अनुयायी अहिंसा, सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य के सिद्धांतों का पालन करते थे।
- जैन धर्म का प्रभाव व्यापारियों और शिल्पकारों पर अधिक पड़ा, क्योंकि वे इसे अपने जीवन की नैतिक व्यवस्था के रूप में अपनाते थे।
- जैन धर्म के मंदिरों का निर्माण बड़े पैमाने पर हुआ, जैसे राजस्थान और गुजरात में।
- जैन धर्म ने समाज में जातिवाद के खिलाफ जागरूकता फैलाने में मदद की।
- जैन धर्म के अनुयायी समाज में शिक्षा और कला के क्षेत्र में सक्रिय थे।
- जैन धर्म का प्रभाव दक्षिण भारत और राजस्थान तक फैल गया।
23. भारत में कला और स्थापत्य कला का विकास किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
- गुप्त काल में स्थापत्य कला में महत्वपूर्ण विकास हुआ, विशेष रूप से मंदिरों और शिल्पकला में।
- गुप्त काल के मंदिरों में वास्तुकला की उत्कृष्टता देखने को मिलती है, जैसे कि कांचीपुरम के मंदिर।
- भारतीय मूर्तिकला में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाई गईं, जो बहुत ही सुंदर और आदर्श थीं।
- चित्रकला में भी गुप्त काल में विकास हुआ, और बौद्ध और हिंदू कला के मिश्रण से चित्रकला के नए रूप सामने आए।
- जैन धर्म के प्रभाव से जैन मठों और मंदिरों की वास्तुकला भी विकासशील हुई।
- कला के क्षेत्र में मौर्य और गुप्त काल के बाद, धार्मिक चित्रकला और मूर्तिकला का प्रभाव बढ़ा।
- स्थापत्य कला के विकास के कारण भारतीय संस्कृति की छवि समृद्ध हुई, जो आज भी काफ़ी प्रभावशाली है।
24. भारत में मुस्लिम शासन के प्रभाव पर चर्चा करें।
उत्तर:
- मुस्लिम शासन के दौरान भारतीय राजनीति और प्रशासन में बड़े बदलाव हुए।
- दिल्ली सुलतानत और मुग़ल साम्राज्य के साथ भारत में इस्लामी संस्कृति का प्रभाव बढ़ा।
- मुसलमानों के आगमन से भारतीय समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक बदलाव हुए।
- शिक्षा, विज्ञान, और कला के क्षेत्र में इस्लामिक प्रभाव बढ़ा, जैसे मस्जिदों और मदरसों का निर्माण।
- मुसलमानों ने भारतीय समाज में विभिन्न सामाजिक और प्रशासनिक सुधार किए।
- मुस्लिम शासन के दौरान व्यापार और संस्कृति का समृद्धि हुई, जिससे भारतीय समाज को लाभ हुआ।
- मुस्लिम शासकों के शासन से भारतीय वास्तुकला में एक नया आयाम मिला, जैसे कुतुब मीनार, ताज महल आदि।
25. भारत में सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समरसता के प्रयासों पर चर्चा करें।
उत्तर:
- भारत में विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक समुदायों का सह-अस्तित्व महत्वपूर्ण रहा।
- गुप्त काल में धर्म की विविधता को बढ़ावा दिया गया, जिससे सामाजिक समरसता का माहौल बना।
- बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के बीच सहिष्णुता के प्रयास किए गए।
- मौर्य काल में सम्राट अशोक ने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया और बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
- मुस्लिम आक्रमणों के बावजूद भारत में सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता कायम रही।
- राजाओं और साम्राज्यों ने धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सहयोग को बढ़ावा दिया।
- भारत की सांस्कृतिक समरसता ने उसे एक अद्वितीय समाज बना दिया, जो विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों को सम्मान देता था।
भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण तिथियाँ
ईसा पूर्व (बी.सी.) Before Christ
लगभग 2500 ई.पू. हड़प्पा संस्कृति.
इसके प्रमुख केन्द्र थे- मोहनजोदडो तथा हडप्पा, लोथल, कालीबंगान, आलमगीरपुर
1500 ई.पू. ऋग्वैदिक सभ्यता का आरम्भ
800 ई.पू. – लोहे का प्रयोग, आर्य सभ्यता का प्रसार
567 ई. पू. – लुम्बनी में महात्मा बुद्ध का जन्म
519 ई.पू. – ईरान के सम्राट साइरस द्वारा पश्चिमोत्तर भारत के प्रदेशों की विजय
493 ई.पू. मगध के अजातशत्रु का राज्यारोहण
486 ई. पू. – महात्मा गौतम बुद्ध को कुशी-नगर नामक स्थान पर मोक्ष प्राप्त
468 ई.पू. महावीर स्वामी को राजगिरी के निकट पावापुरी नामक स्थान पर निर्वाण प्राप्त
413 ई. पू. – शिशुनाग राजवंश की मगध में स्थापना
362-21 ई.पू. – नन्दवंश का शासकाल
327-25 ई. पू. – यूनान के सिकन्दर महान् का भारत पर आक्रमण
321 ई. पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण
305 ई.पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा सेल्यूकस की पराजय
269-232 ई.पू. – अशोक का शासनकाल
261 ई. पू. – अशोक की कलिंग पर विजय
250 ई. पू. – पाटलीपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति
185 ई.पू. अन्तिम मौर्य सम्राट ब्रहद्रथ का वध मौर्य वंश का शासन समाप्त शुंग वंश का उदय
180-165 ई.पू. – इण्डो-ग्रीक दिमीत्रियस द्वितीय का उत्तर-पश्चिम भारत पर शासन
155-130 ई. पू. मेनान्डर का शासन-
73 ई. पू. शुंग वंश के अन्तिम सम्राट देवभूति का वासुदेव कण्व द्वारा वध
73-28 ई.पू. – कण्व वंश का शासनकाल
58 ई.पू. विक्रम संवत् का प्रारम्भ
50 ई.पू. कलिंग का राजा खारवेल
28 ई.पू. 225 ई.पू. आन्ध्र व सातवाहन वंश का शासनकाल
ईसवी सन् (ए.डी.) Anno Domini
50 ईसवी सन्त थॉमस का भारत आगमन
78 ईसवी- शक संवत् का प्रारम्भ
78-101 ईसवी कुषाण वंश के प्रतापी शासक कनिष्क का शासनकाल कुछ के अनुसार (78-125 ईसवी)
86-114 ईसवी- गौतमीपुत्र शतकर्णी का शासनकाल
130-150 ईसवी- शक शासक रुद्र दमन प्रथम का पश्चिमी भारत पर शासन
319-320 ईसवी-गुप्त वंश का प्रारम्भ. गुप्त संवत्, चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्यारोहण
335 ईसवी समुद्रगुप्त सिंहासन पर आसीन हुआ
375-415 ईसवी- चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल
388-409 ईसवी के मध्य – चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शक सत्ता का अन्त
405-411 ईसवी – चीनी यात्री फाह्यान की भारत यात्रा.
415 ईसवी- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का पुत्र – कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर आसीन हुआ
455-67 ईसवी-हुणों का आक्रमण
455-67 ईसवी स्कन्दगुप्त का शासन-
476 ईसवी – महान् वैज्ञानिकों व ज्योतिर्विद काल आर्यभट्ट का जन्म
570 ईसवी – पैगम्बर मोहम्मद का जन्म
606-647 ईसवी- हर्षवर्धन का शासन.
622 ईसवी हिजरी संवत् का प्रारम्भ
628-34 ईसवी के मध्य-पुलकेशिन द्वितीय द्वारा हर्षवर्धन को पराजित करना
629-645 ईसवी – चीनी यात्री ह्वेनसाग की भारत यात्रा
642 ईसवी-महान् पल्लव शासक नरसिंह वर्मन प्रथम द्वारा पुलकेशिन द्वितीय की पराजय
पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु
671-685 ईसवी – चीनी विद्वान् इत्सिंग का भारत के लिए प्रस्थान भारत में निवास का समय
712-13 ईसवी- मुहम्मद बिन कासिम द्वारा भारत पर आक्रमण तथा सिन्ध तट पर अधिकार 736 ईसवी दिल्ली के प्रथम नगर की स्थापना
740 ईसवी चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा पल्लव वंश का अन्त
750 ईसवी बंगाल में पाल वंश के शासन का आरम्भ
757 ईसवी दन्ति दुर्ग धारा चालुक्यों से अपनी स्वतन्त्रता घोषित तथा राष्ट्रकुल वंश का
शक्तिशाली वंश के रूप में उदय
793 ईसवी- राष्ट्रकूट वंश के गोविन्द तृतीय का राज्याभिषेक
814-880 ईसवी राष्ट्रकूट शासक अमोघ- वर्ष प्रथम का शासनकाल
836-92 ईसवी -प्रतिहार वंश के महान् शासक भोज कन्नौज के सिंहासन पर आसीन, पूर्वी चालुक्य वंश के भीम प्रथम का राज्याभिषेक 897 ईसवी-चोल राजा द्वारा अन्तिम पल्लव शासक की पराजय काँची के पल्लवों का अन्त
915 ईसवी- राष्ट्रकूट शासक द्वारा बंगाल के शासक महीपाल की पराजय राष्ट्रकूट वंश का मध्य भारत में शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में अभ्युदय
949 ईसवी कृष्ण तृतीय द्वारा चोलवंशीय परान्तक प्रथम की पराजय 985 ईसवी – राजराज चोल प्रथम का राज्याभिषेक
1001 ईसवी-महमूद गजनी द्वारा पेशावर और पंजाब के हिन्दूशाही शासक जयपाल की पराजय 1008 ईसवी-पेशावर के समीप वेहिन्द पर महमूद गजनी द्वारा आक्रमण, आनंदपाल की पराजय
1010 ईसवी – भोज परमार शासक बना
1014 ईसवी-राजेन्द्र प्रथम चोल वंश का शासक बना
1017-1137 ईसवी दार्शनिक रामानुज 1019 ईसवी-महमूद गजनवी का मथुरा व कन्नौज पर आक्रमण
1022 ईसवी-महमूद गजनवी का कालिजर पर आक्रमण व ग्वालियर पर आक्रमण
1025 ईसवी महमूद गजनवी ईसवी-महमूद द्वारा सोमनाथ पर आक्रमण लूटपाट तथा मन्दिर तोड़ना
1030 ईसवी- अल्बरूनी भारत में
1030 ईसवी- राजेन्द्र चोल का उत्तरी. भारत का अभियान
1175 ईसवी- मुहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण व मुल्तान दुर्ग पर कब्जा
1178 ईसवी -मुहम्मद गौरी का गुजरात पर आक्रमण तथा पराजय
1191 ईसवी तराइन का प्रथम युद्ध पृथ्वीराज चौहान द्वारा मुहम्मद गौरी की पराजय
1192 ईसवी तराइन का द्वितीय युद्ध पृथ्वीराज चौहान की मुहम्मद गौरी द्वारा पराजय
1194 ईसवी- मुहम्मद गौरी द्वारा चन्द्रावर के युद्ध में कन्नौज के शासक जयचन्द की पराजय
1206 ईसवी कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली के सिहासन पर आसीन मुस्लिम राज्य की स्थापना. मुहम्मद गौरी की हत्या
कुषाण कौन थे ? इस वंश के सबसे महत्वपूर्ण शासक के जीवन तथा उपलब्धियां का वर्णन कीजिये।
Who were the Kushanas ? Sketch the career and achievements of the most notable ruler of the dynasty. कनिष्क की उपलब्धियों और विजयों के बारे में आप क्या जानते हैं ? या
या
“कनिष्क युद्ध में भी उतना ही महान था जितना कि शान्तिकाल में इस कथन
की व्याख्या कीजिये।
“Kanishka was as great in war as in Peace.” Elucidate. या | भारत में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये कनिष्क की सेवाओं का मूल्यांकन कीजिये Evaluate the services of Kanishka for the propagation of Buddhism in India.
उत्तर-
कनिष्क (Kanishka)
भारत के कुपाणवंशी शासकों में कनिष्क तीसरा और सबसे अधिक प्रतापी, शक्तिशाली, प्रभावशाली एवं महत्त्वपूर्ण शासक था। कनिष्क का सिंहासनारोहण 78 ई० में हुआ था। पश्चिमी भारत के उसके समकालीन शक राजाओं द्वारा दीर्घकाल तक इसके प्रयुक्त होने के कारण यह संवत् शक संवत् कहलाने लगा था और वर्तमान में हमारा राष्ट्रीय संवत् भी यही है।
कनिष्क की राजनीतिक उपलब्धियाँ या विजयें
(Political Achievements or Conquests of Kanishka) (1) भारत — (i) पूर्व में कनिष्क के अभिलेख मथुरा, कौशाम्बी और सारनाथ से प्राप्त हुये हैं। ये सभी अभिलेख उसके द्वारा चालू किये गये संवत् में लिखे गये हैं। उसके सिक्के हमें वैशाली, जुन्नर तथा पाटलिपुत्र से प्राप्त हुये हैं। तिब्बती और चीनी स्रोत भी उसकी साकेत और पाटलिपुत्र के राजा के साथ हुयी मुठभेड़ को सन्दर्भित करते हैं। ‘श्रीधर्मपिटक निधानसूत्र’ से भी हमें यह पता चलता है कि उसने पाटलिपुत्र के शासक को हराया था और उसने युद्धक्षति प्राप्त की थी। बौद्ध परम्परा के अनुसार, जब उसने पाटलिपुत्र पर अधिकार कर लिया तो महान् बौद्ध दार्शनिक अश्वघोष भी उसके हाथों में आ गया और उसे अपने साथ ही ले गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अश्वघोष कनिष्क के दरबार को सुशोभित करता था। इससे अनुमान लगाया गया है कि कनिष्क ने मगध के कुछ भाग को विजित किया होगा। इस मत की पुष्टि इस बात से होती है कि कनिष्क के सिक्के बहुत बड़ी संख्या में गाजीपुर तथा गोरखपुर से पाये गये हैं। पुराणों में भी मगध के असभ्य शासकों का जिक्र आया है जिनके शारीरिक गुण कुषाणों के से थे। ‘कल्पनामुद्रिका’ में भी कनिष्क की पूर्वी भारत पर चढ़ाई का जिक्र आया है। इन सभी प्रमाणों से पता चलता है। कि कनिष्क ने भारत के लम्बे पूर्वी भाग पर अधिकार कर रखा था। इसमें उत्तर प्रदेश और
बिहार के भाग भी सम्मिलित थे। (II) पश्चिम में कनिष्क ने पश्चिम में अपने साम्राज्य के विस्तार हेतु मालवा तथा उज्जैन के शक क्षत्रपों के विरुद्ध भी युद्ध किया। अत्यधिक सम्भावना यही है कि कनिष्क
कशास पेटको पराजित किया और फो स्वीकार कर मालवा का कुछ भाग भी दे दिया। कमिष्न के एक शिलालेख के अनुसार उसने अपने शासनकाल के 11वर्ष में उन्हें उसकी बारे में हमें पेशावर स्नूप से प्राप्त मंजूषा तथा विहार (भागलपुर राज्य अभिलेख से पता (iii) उत्तर में ऐसा पता चलता है कि उसने काश्मीर को अपने साम्राज्य में मिला चलता है। लिया था और वहाँ अनेक स्मारक बनवाये तथा चौथी बौद्ध संगीति का आयोजन किया
तथा श्रीनगर के निकट कनिष्कपुर (आधुनिक बारामूला के समीप वर्तमान कनीस्पोर-
Kanispore ग्राम) नामक नगर भी बसाया। (2) बाहर- (1) पार्थिया पार्थिया और कुषाण साम्राज्य की सीमायें एक-दूसरे से मिली हुयी थी। पार्थियों का एरियान प्रदेश इस समय कुषाणों के अधिकार में था। स्वाभाविक है कि पार्थिया अपने इस प्रदेश को पुनः अपने अधिकार में लेना चाहता था। इसके अतिरिक्त बैक्ट्रिया पर कनिष्क का अधिकार था तथा यहां से जाने वाले व्यापारिक मार्गो पर भी उसका प्रभाव था। परन्तु पार्थिया अपनी समृद्धि के लिये मध्य एशिया के व्यापारिक मार्गो पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहता था। इन दोनों कारणों से पार्थिया और कनिष्क का युद्ध हुआ। (ii) चीन चीन के विरुद्ध भी वह अभियान ले गया था। इसके पूर्व कटफिश II
ने चीन पर चीन के सम्राट को वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया था। कनिष्क इस पराजय का बदला लेना चाहता था। जब वह राजा बना तो उसने देवपुत्र (Son of Heaven) को उपाधि धारण कर ली और चीन नरेश होती को कर देना बन्द कर दिया। उधर चीन के सम्राट का सेनापति पान चाओ (Pan Chao) जब अपनी विजय यात्रा में पश्चिम की ओर बढ़ा तो कनिष्क ने उसके पास दूत द्वारा चीन की राजकुमारी से अपने विवाह का प्रस्ताव भेजा। पान चाओ ने इस प्रस्ताव को अपने सम्राट के लिये अपमानजनक समझा और उसने दूत या केंद कर लिया। इस पर कनिष्क ने क्रोध में आकर 70,000 घुड़सवारों की एक सेना पामीर के पार चीन से मोर्चा लेने के लिये भेजी। दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ, दुर्भाग्यवश पामीर को लांघने में इस सेना की इतनी क्षति हुयी कि कनिष्क को पराजय का सामना करना पड़ा और उसे मजबूर होकर चीन के सम्राट को कर देना पड़ा। पर चीनी इतिहासकार इसका जिक्र नहीं करते। शायद इसलिये नहीं कि बाद में चीन की पराजय हुयी। थी या फिर जिक्र न होना महज एक इत्तेफाक भी हो सकता है।
कनिष्क अपनी प्रथम पराजय से हतोत्साहित नहीं हुआ था, अपनी हार का बदला लेने के लिये उसने फिर से सैनिक तैयारियाँ कीं। इस बार उसने अपनी सेना का नेतृत्व स्वयं किया, उधर पान चाओ की मृत्यु के बाद चीनी सेनापति पान-चियांग बन गया था, जो अपने पूर्वाधिकारी की भाँति योग्य व बलवान नहीं था। परिणामस्वरूप कनिष्क ने चीनियों को हराकर न केवल अपने घर को कर के भार से मुक्त कर लिया, बल्कि काशगर, खोतान और यारकन्द को भी अपने साम्राज्य में मिला लिया। कहा जाता है कि इस युद्ध के बाद वह चीन के किसी करद राज्य के राजकुमारों को बन्धक (Hostages) के रूप में आया। इन राजकुमारों के साथ कनिष्क ने बड़ा अच्छा व्यवहार किया। इन राजकुमारों ने भारत में सर्वप्रथम आडू और नाशपाती के पौधे लगाये, और कई सौ वर्ष बाद सांग भारत आया तो उसे ज्ञात हुआ कि उन्होंने एक विहार के लिये, जिसमें वे रहे थे, प्रचुर धन दिया था। स्मिथ के अनुसार, विजेता के रूप से कनिष्क की यह सबसे महान् तथा सराहनीय सफलता थी ।
100) रोम से इस गेम का पार्थिकेाज्य से मनोमालिन्य का हाथ का भी पा से अच्छा समय था, इस प्रकार पार्थिया रोमन साम्राज्य के साथ-साथ कनिका भी था, ऐसी स्थिति में का रोमन सम्राट में पूर्ण होने को थी क्योंकि जिनके उभयनिष्ठ होते है उनमें बड़ी ही सरलता से मैत्रीपूर्ण सम्वन्ध स्थापित हो जाता है। कनिष्ठ ने इस सुअवसर से लाभ उठाया। उसने रोमन साम्राज्य के साथ व्यापारिक तथा कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित कर लिया और राजदूतों का आदान-प्रदान किया।
साम्राज्य विस्तार
(Expansion of Empire) यारकन्द, खोतान और काशगर तक
(1) मध्य एशिया यहाँ कनिष्क का साम्राज्य विस्तृत था। ह्वेनसाग इस बात की पुष्टि करता है।
(2) बैक्ट्रिया वैक्ट्रिया कुजुल कदफिस के समय से ही कुषाण साम्राज्य के अन्तर्गत था। अतः कनिष्क ने उसे उत्तराधिकार के रूप में विम से प्राप्त किया था। इस बात की पुष्टि खोतान से प्राप्त एक पाण्डुलिपि से भी होती है, जिसमें ‘चन्द्र कनिष्क’ को सन्दर्भित
किया गया है।
(3) अफगानिस्तान – वैदिक (काबुल) अभिलेख से ज्ञात होता है कि अफगानिस्तान
के कम से कम कुछ भाग पर हुविष्क का अधिकार था। अनुमान है कि अफगानिस्तान की
विजय स्वयं हुविष्क ने नहीं की होगी, अपितु यह प्रदेश कनिष्क के समय से ही कुषाण साम्राज्य में चला आ रहा था। (4) उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त इस प्रदेश पर कनिष्क का आधिपत्य था, इसी प्रदेश में स्थित नगर पुरुषपुर (पेशावर) कनिष्क के साम्राज्य के इस हिस्से की राजधानी थी।
(5) गान्धार-चीनी प्रन्थों और ह्वेनसाग के विवरण के अनुसार, गान्वार कनिष्क के अधीन था, यह उस समय कला का प्रख्यात केन्द्र था । ((6) काश्मीर – राजतरंगिणी से सिद्ध होता है कि काश्मीर कनिष्क के साम्राज्य में था ।
(7) पंजाब, सिन्ध-जेदा अभिलेख (डंड के समीप), मणिक्याल (रावलपिंडी के पास)
अभिलेख से पंजाब तथा सुई बिहार (बहावलपुर) अभिलेख से सिन्ध पर कनिष्क के आधिपत्य
का प्रमाण मिलता है। टॉलमी जिस कुषाण शासक के पूर्वी पंजाब पर आधिपत्य का वर्णन
करता है, विद्वानों के अनुसार वह कनिष्क ही था।
(8) उत्तर प्रदेश-तिब्बती ग्रन्थों में वर्णित कनिष्क के साकेत आक्रमण, उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ और गोरखपुर से प्राप्त कनिष्क की मुद्राओं, कौशाम्बी, मधुरा, सारनाथ, श्रीवास्ती आदि स्थानों से प्राप्त मूर्तियों एवं अभिलेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के भी कुछ भाग पर कनिष्क का आधिपत्य था। कनिष्क के सारनाथ अभिलेख से अब यह निर्विवाद हो गया है कि उसका साम्राज्य उत्तर प्रदेश में सारनाथ तक व्याप्त था।
(9) बिहार- उड़ीसा – धर्मपटिक सम्प्रदाय निदान सूत्र से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र के राजा (?) को पराजित करके इससे एक लाख स्वर्ण मुद्रायें माँगी थीं राजा ने मुद्राओं के अभाव में बुद्ध का भिक्षापात्र ही कनिष्क को समर्पित कर दिया था। इस कथानक तथा बिहार में पाटलिपुत्र बक्सर, चिरांद और बक्सर की खुदाइयों से प्राप्त कतिपय मुद्राओं के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि बिहार पर भी कनिष्क ने विजय
प्राप्त की थी और उसे अपने साम्राज्य के अन्तर्गत कर लिया था। कतिपय मुद्राओं के आधार पर उड़ीसा पर भी कनिष्क के आधिपत्य का अनुमान लगाया जाता है, किन्तु मुद्राओं की प्राप्ति का साक्ष्य अत्यन्त संदिग्ध माना जाता है, क्योंकि इसे यात्री या व्यापारी भी स्थानान्तरित कर सकते हैं।
* (10) मध्य प्रदेश-बिलासपुर तथा साँची (जो कि पूर्वी मालता की प्राचीन काल की थी) में कनिष्क तथा उसके उत्तराधिकारियों की मुद्रायें प्राप्त हुयी है।
राजधानी (11) पश्चिमी भारत – श्रीनेत्र पाण्डेय ने लिखा है कि पश्चिमी भारत में शकों के आधिपत्य में शकों की जो शासन व्यवस्था थी उस पर भी कुषाणों का प्रभुत्व था और कि. यदि गुजरात, काठियावाड़ पर कनिष्क शासन नहीं तो अप्रत्यक्ष शासन और राजनीतिक प्रभुत्व
अवश्य था। कनिष्क (12) दक्षिण भारत और बंगाल – कुछ विद्वान् दक्षिण भारत और बंगाल पर भी का आधिपत्य स्वीकार करते हैं, परन्तु इसके लिये स्पष्ट प्रमाप उपलब्ध नहीं है।
कनिष्क की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
(1) साहित्य-कनिष्क के शासनकाल में साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय उन्नति हुयी । अश्वघोष उसके समय का सबसे महान् साहित्यिक व्यक्ति था, उसने ‘बुद्धचरित’ और ‘सूत्रालकार’ की रचना की। बुद्धचरित में बुद्ध की जीवन कथा संस्कृत पद्य में प्रस्तुत की गयी है। इसे बौद्ध महाकाव्य कहा जाता है और इसकी तुलना बाल्मीकिकृत ‘रामायण’ से की जाती है। इस समय का द्वितीय प्रसिद्ध विद्वान् नागार्जुन था, जिसकी तुलना मार्टिन लूथर (Martin Luther) से की जाती है और जिसे ह्वेनसांग ने संसार की 4 मार्गदर्शक शक्तियों में से एक कहा है, उसने शून्यवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। वह केवल दार्शनिक ही नहीं, वैज्ञानिक भी था। उसने अपनी पुस्तक ‘माध्यमिक सूत्र’ में सृष्टि सिद्धान्त या सापेक्षवाद (Theory of Relativity) को प्रस्तुत किया और इसीलिये उसे भारतीय आइन्सटीन (Indian Einstein) कहा गया है। जैन धर्म में यह सिद्धान्त महावीर के समय में ही प्रस्तुत किया जा चुका था, आर्यदेव एक अन्य विद्वान् था। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में चरक का अपना नाम है। वसुमित्र भी कनिष्क के दरबार के रत्नों में था। उसने महाविभाषसूत्र की रचना की जो बौद्ध धर्म के त्रिपिटक पर टीका थी। इसे बौद्ध धर्म का विश्वकोष कहा गया है। पार्श्व और संघरक्ष भी इसी युग के प्रसिद्ध विद्वान् थे।
(2) कला कनिष्क ने अनेक भवनों, स्मारकों, राजासादों मठों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया। उसने अनेक नगर भी बसाये। काश्मीर में कनिष्कपुर तथा तक्षशिला में सिरकप नामक नगर कनिष्क द्वारा ही बसाये गये थे। इसके अतिरिक्त उसने अपनी राजधानी पेशावर को अनेक सुन्दर इमारतों, स्मारकों आदि से सुशोभित किया। उसने एक यूनानी अभियन्ता (इन्जीनियर), अजेसिलास (Agesilaus) द्वारा अपनी राजधानी पेशावर में एक स्मारक बुर्ज, ‘सहजी की देहरी’ बनवाया। यह नगर के सिंहद्वार पर स्थित 120 मी० ऊंचा स्तूप एवं मठ है, इसमें 13 मंजिलें थीं। इसके ऊपर लोहे का एक बड़ा छत्र स्थापित किया गया। इस स्तूप को स्तूप निर्माण कला में क्रान्ति का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। स्तूप के समीप ही एक सुन्दर बौद्ध विहार (महाविहार) का निर्माण भी किया गया था। अन्यत्र भी उसने कई विहार और स्तूप बनवाये। फाह्यान ने उसके द्वारा गंधार में बनवाये गये विहारों और स्तूपों का जिक्र किया है। ह्वेनसांग ने 178 विहारों और स्तूपों का वर्णन किया है।
उद्यमों और संबंधित गतिविधियों करके शासनकाल में मूर्तिकला का विकास भी हुआ। गान्धार शैली एक मायने कालिका का है। इस शैली के विषय तो भारतीय थे, परन्तु सजावट आदि यूनानी पद्धति पर की जाती थी। मथुरा कनिष्क के समय का एक अन्य मूर्तिकला केन्द्र था। यहाँ पूर्ण रूप से भारतीय शैली की मूर्तियां बनी। इन्हें मथुरा शैली की मूर्तियों कहा
जाता है।
(3) वर्ष कनिष्क के सिक्कों पर यूनानी, ईरानी, हिन्दू तथा बौद्ध धर्म के देवताओं के चित्र अंकित हैं, जिनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि कनिष्क का धार्मिक दृष्टिकोण सहिष्णुतापूर्ण था और वह सभी धर्मों का आदर करता था। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं बी था। ऐसा प्रतीत होता है कि पाटलिपुत्र की विजय के पश्चात् वह अश्वघोष के सम्पर्क में आने से बौद्ध धर्म के प्रति विशेष आकर्षित हुआ और बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया (वरना पहले शायद वह यूनानी धर्म का अनुयायी था, बाद में पारसीक धर्म का अनुयायी हुआ और अन्त में बौद्ध धर्म का। वैसे उसके मूल धर्म के बारे में कोई निश्चयात्मकता नहीं है)। सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य, तारानाथ, ह्वेनसांग, पेशावर, कास्केट अभिलेख एवं कल्हण की राजतरंगिणी से हमें उसके बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के प्रमाण मिलते हैं। म० प्र० के धार जिले के राजगढ़ स्थान से कनिष्क की एक स्वर्ण मुद्रा पर बोडो लिखा मिला है, जिससे भी उसके बौद्ध होने का प्रमाण मिलता है।
कनिष्क की सेवाओं का मूल्यांकन
(1) बौद्ध धर्म का प्रसार हेमचन्द्र राय चौधरी का कथन है कि कनिष्क की ख्याति उसकी विजयों पर उतनी आधारित नहीं है जितनी शाक्य मुनि के धर्म को संरक्षण प्रदान करने के कारण हैं। कनिष्क ने बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के बाद अशोक की भाँति बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये अथक प्रयास किये जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्नांकित है—-
(i) कनिष्क ने बौद्ध धर्म के लिये अनेक मठों, विहारों आदि का निर्माण करवाया और पुराने विहारों की मरम्मत करवायी। (ii) बौद्ध भिक्षुओं के जीवनयापन के लिये उन्हें बहुत-सा धन दिया गया। (iii) उसने अपने साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों में अनेक स्तूपों, विहारों, स्मारकों
आदि का निर्माण करवाया, उसने भगवान बुद्ध की स्मृति में असंख्य मूर्तियों का निर्माण करवाया।
(iv) उसने विदेशों में अनेक धर्म प्रचारक भेजे, इन्हीं प्रचारकों के प्रयत्नों से बौद्ध
धर्म चीन, जापान, तिब्बत और मध्य एशिया में फैल गया।
(iv) कनिष्क ने चौथी बौद्ध संगीति का आयोजन किया जिसमें लगभग 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया। यह सभा काश्मीर में कुण्डलवन नामक स्थान पर आयोजित की गयी। सभा की अध्यक्षता करने का गौरव वसुमित्र को मिला तथा उपाध्यक्ष का गौरव अश्वघोष को। सभा का अधिवेशन 6 माह तक होता रहा। इसी सभा में महायान धर्म स्वीकार किया गया।
कनिष्क का मूल्यांकन
(Estimate of Kanishka) (1) महान् विजेता- कनिष्क बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था और सिंहासन पर बैठते ही उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण करना आरम्भ किया और जीवन पर्यन्त अपने
साम्राज्य को वृद्धि करने में हार के एशिया के एक बहुत बड़े भाग गया था। उसमें लेकर दक्षिण में सौराष्ट्र तक और पूर्व में बंगाल तक फैला हुआ था। पश्चिम में आने पार्थिया के राजा के साथ सफलतापूर्वक युद्ध किया. उसने काशगर खोताना सरक को भी जीत लिया था। उसकी इस विजय को प्रशंसा करते हुवे ने लिख की सबसे अधिक आकर्षक सैनिक सफलता उसकी काशगर, पारकन्द तथाकी
विजय थी।” यही नहीं, उसने चीन के शासक को भी नतमस्तक किया था। (2) महान् शासक-प्रशासकीय दृष्टि से भी कनिष्क को ऊंचा स्थान प्रदान किया जाना चाहिये। अशोक की मृत्यु के उपरान्त उत्तरी भारत में जो कुव्यवस्था तथा अराजकता फैली थी, उसे दूर करने में वह सफल रहा। इतने विशाल साम्राज्य को सुसंगठित तथा सुरक्षित रखना ही इस बात का प्रमाण है कि वह अत्यन्त कुशल शासक था। अपने क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों को नियन्त्रित रखने में वह पूर्ण सफल रहा, उसने अपने साम्राज्य को आन्तरिक उपद्रवों तथा विद्रोहों से मुक्त रखा। उसकी मुद्राओं, स्तूपों तथा विहारों से यह पता चलता है कि उसका साम्राज्य धन-धान्यपूर्ण था और प्रजा बड़ी सुखी थी। विदेशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण भारत के उद्योग-धन्धों तथा व्यापार में बड़ी उन्नति हुयी होगी।
(3) महान् धर्म तत्त्ववेत्ता- कनिष्क में उच्च कोटि की धर्मपरायणता थी। उसने बौद्ध धर्म की उसी प्रकार से सेवा की जिस प्रकार अशोक ने की थी। अशोक की भाँति ही उसने भी अनेक स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया और बौद्ध धर्म, भिक्षुओं तथा आचायाँ की सहायता की थी। उसने चतुर्थ बौद्ध संगीति को बुलाकर बौद्ध धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर किया और बौद्ध धर्म पर टीकायें तथा भाष्य लिखवाये, बौद्ध को अवतार मान लिया गया। रॉबिन्सन के अनुसार, कनिष्क की बौद्ध परिषद् बौद्ध धर्म के इतिहास में नवीन युग की जन्मदात्री है। महायान सम्प्रदाय को मान्यता देकर उसे राजधर्म बनाकर और विदेशों में उसका प्रचार करवाकर उसने उस सम्प्रदाय की बहुत बड़ी सेवा की और कम से कम विदेशों में उसने उसे अमर बना दिया। एन० एस० घोष ने ठीक ही लिखा है कि, “महायान सम्प्रदाय के आश्रयदाता तथा समर्थक के रूप में उसे उतना ही ऊँचा स्थान प्राप्त है जितना कि अशोक को हीनयान सम्प्रदाय के संरक्षक तथा समर्थक के रूप में प्राप्त होता था।” हाल ही में मध्य प्रदेश के धार जिले के रायगढ़ नामक स्थान से कनिष्क की एक दुर्लभ स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुयी है। इसमें इसे यज्ञकुण्ड में आहुति देते दर्शाया गया है। मुद्रा के पृष्ठ भाग में बुद्ध की खड़ी मुद्रा में है तथा बुद्ध के लिये बोडो (Boddo) लिखा है। इससे उनके बौद्ध होने का प्रमाण मिलता है।
पर, कनिष्क के धार्मिक विचार संकीर्ण न थे, वह कट्टरपन्थी भी न था। उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी और वह अशोक की भाँति सभी धर्मों को आदर की दृष्टि से देखता था। उसकी मुद्राओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह यूनानी, ईरानी तथा ब्राह्मण धर्म का भी सम्मान करता था।
(4) महान् निर्माता – यद्यपि कनिष्क का सम्पूर्ण जीवन युद्ध करने तथा अपने साम्राज्य को सुरक्षित तथा सुसंगठित रखने में व्यतीत हुआ, उसने शान्तिकालीन कार्यों की ओर भी समुचित ध्यान दिया। ऐसा कहा जाता है कि काश्मीर का कनिष्कपुर नामक नगर उसी के द्वारा बसाया हुआ था। अपनी राजधानी पुरुषपुर के समीप उसने एक-दूसरे नगर का निर्माण करवाया था। अपनी राजधानी में तथा राज्य के अन्य भागों में उसने बहुत-से स्तूपों तथा विहारों का भी निर्माण करवाया था। अपनी राजधानी में उसने जो लकड़ी का स्तम्भ बनवाया था वह लगभग 120 मी० ऊँचा था। एक निर्माता के रूप में उसकी प्रशंसा करते हुये स्मिथ
ने लिखा है-स्थापत्य कला को उसकी सहायक शिकला के साथ कनिष्क का उदार
संरक्षण प्राप्त था जो अशोक की भाँति एक महान निर्माता था।” हाल ही में मुर्ख कोतल
(उत्तरी अफगानिस्तान) में कनिष्क के राज्यकाल का एक बड़ा वाख्खी लिपि (यूनानी लिपि के आधार पर निकाली गयी लिपि जिसे सारे राज्य में अपना लिया गया) का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसमें एक देवालय के निर्माण का वर्णन है, सम्भव है कि यह कुपाणवंशीय कोट का गर्भगृह रहा हो। (5) साहित्य तथा कला का महान् प्रेमी-कनिष्क को यह श्रेय प्राप्त है कि उसने बड़े-बड़े विद्वानों, लेखकों तथा धर्माचायों को अपना आश्रय प्रदान किया था। अपने काल के अत्यन्त धुरन्धर धर्माचार्यों वसुमित्र तथा अश्वघोष को चतुर्थ बौद्ध संगीति का अध्यक्ष
एवं उपाध्यक्ष बनवाकर उसने उन्हें सम्मानित किया था। दूसरे बौद्ध आचार्य पार्श्व की शिष्यता ग्रहण कर कनिष्क ने उसे प्रतिष्ठित किया था। यह कनिष्क के लिये बड़े गौरव की बात है कि नागार्जुन जैसा महायान धर्म का आचार्य उसके सम्पर्क में था। यह श्रेय भी कनिष्क को प्राप्त है कि गान्धार शैली की प्रतिष्ठा उसके समय हुयी। (6) महान व्यक्तित्व – सिक्कों पर वह सिर पर राजमुकुट और शरीर पर लम्बा कंचुक पहने हुये, वेदी में आहुति डालता हुआ दिखाया गया है। इन चित्रों से ज्ञात होता है कि
वह एक भव्य आकृति वाला मनुष्य था और लम्बी दाढ़ी रखता था। उसे उच्च उपाधियों का शौक था और उसने केवल भारतीय उपाधि महाराजा एवं राजाधिराज ही नहीं, अपितु ईरानी उपाधि भी धारण की थी। स्मिथ के अनुसार- “कुषाण सम्राटों में केवल वही ऐसा नाम छोड़ गया है जो भारत की सीमाओं के सुदूर बाहर भी विश्रुत था और जिसकी समता के लिये लोग लालायित रहते आये हैं।”
कुषाण कौन थे ? इस वंश के सबसे महत्वपूर्ण शासक के जीवन तथा उपलब्धियां का वर्णन कीजिये।
Who were the Kushanas ? Sketch the career and achievements of the most notable ruler of the dynasty. कनिष्क की उपलब्धियों और विजयों के बारे में आप क्या जानते हैं ? या
या
“कनिष्क युद्ध में भी उतना ही महान था जितना कि शान्तिकाल में इस कथन
की व्याख्या कीजिये।
“Kanishka was as great in war as in Peace.” Elucidate. या | भारत में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये कनिष्क की सेवाओं का मूल्यांकन कीजिये Evaluate the services of Kanishka for the propagation of Buddhism in India.
उत्तर-
चोल वंश सुदूर दक्षिण का एक अत्यन्त प्राचीन वंश है। इसका उल्लेख महाभारत इण्डिका और कॉटिल्य के प्रन्थ अर्थशास्त्र में हुआ है। टॉलमी तथा afra भी इनकी प्राचीनता का समर्थन करते है प्रश्न 1 चरा पर एक संक्षिप्त नाट लिखिय। – श्री निवास चारी
Write a short note on the Cheras. चेरों का इतिहास
उत्तर-
(चेरों का इतिहास)
कुछ विद्वान् केरों या चेरों का सम्बन्ध दूतियों से जोड़ते हैं। उनके साम्राज्य में आधुनिक मालाबार, कोचीन, त्रावनकोर के प्रान्त सम्मिलित थे। उनके समय का प्रमुख बन्दरगाह मुजरिस (आधुनिक कंगनूर) था। इस बन्दरगाह ने रोभी के व्यापारियों को आकर्षित किया।
अथन ||
अथन II चेर साम्राज्य का प्रथम महान और शक्तिशाली शासक था। वह करिकाल बोल का दामाद था। उसने कपिलार नामक कवि को राज्याश्रय प्रदान किया था। इसके पूर्व के शासक पेरूनर और इलानजेतसमी के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती। सेनवन
सेनगुत्तुवन इस वंश का एक महान् शासक था। कहा जाता है कि उसने कई पड़ोसी राज्यों पर विजय प्राप्त की। वह साहित्यानुरागी था और साहित्यकारों को राज्याश्रय देता था। उसके उत्तराधिकारियों के समय में चेर वंश का पतन प्रारम्भ हो गया। फिर भी चेर राज्य ने अपनी आन्तरिक स्वतन्त्रता को 10वीं सदी तक बनाये रखा। फिर राजराज चोल ने बेर भास्कर रविवर्मन को परास्त किया। 12वीं सदी तक चोलों ने चेर राज्य पर अपना अधिकार रखा। 12वीं सदी में वीर केरल के नेतृत्व में चेर राज्य स्वतन्त्र हो गया। किन्तु 13वीं सदी में एक बार फिर पाण्ड्यों के उदय से चेरों को धक्का लगा। मलिक कफूर के आक्रमण से पाण्ड्य राज्य में फैली गड़बड़ी का लाभ उठाकर रविवर्मन कुलशेखर ने चेर शक्ति को पुनः संगठित किया। पर बाद में यह राज्य अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया।
चोलों के उत्थान और पतन का इतिहास लिखिये
पाण्ड्यों के इतिहास का संक्षिप्त विवरण दीजिये। Sketch a short history of the Pandyas.”
Describe the achievements of Jatavarman Sundra Pandya
पाण्ड्य वंश का इतिहास (History of Pandyas)
उत्पत्ति-कुछ लोगों के अनुसार पाण्ड्य कोरकर्ड उन तीन काल्पनिक भाइयों के जिन्होंने दय बोल और मेर साम्राज्य की नींव डाली। कुछ अनुभूतियों
उन्हें पाण्डवों या चन्द्रमा से सम्बन्धित करती है। (2) पाण्ड्य साम्राज्य पाण्ड्यों ने पूर्वी तट पर भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिण छोर पर राज्य किया। उनका साम्राज्य शासकों की शक्ति एवं कमजोरी के अनुसार घटता-बढ़ता रहा है। 1. सामान्य रूप से पाण्ड्य साम्राज्य में मदुरा, रमनद और तिनीवेली जिले सम्मिलित थे। उनको राजधानी मथुरा (मदुरा थी।
(3) पादय सन्दर्भ कात्यायन का ‘अष्टाध्यायी’ वाल्मिकी की ‘रामायण’, ‘महावंश’ कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’, ‘मेगस्थनीज’, अशोक के शिलालेख 2 और 13 खारवेल का हाथी- गुम्फा अभिलेख, स्ट्रेबो, पेरिप्लस तथा तालेमी पाण्ड्यों को सन्दर्भित करते हैं। ‘शिलापदिकारम’ और मणिकलम आदि संगम कृतियों में कुछ पाण्ड्य शासकों के नाम आये हैं, परन्तु उनकी वंशावली तथा उनकी उपलब्धियों आदि के बारे में कुछ जानकारी नहीं मिलती। लगता है, पल्लवों और कलधों की वजह से ये लोग अन्धकार में चले गये और करीब छठी सदी के
अन्त में या सातवीं सदी के शुरू में पुनः इनका उत्थान हुआ। (4) कडुनगोन—कडुनगोन द्वारा पाण्ड्य साम्राज्य का पुनरुत्थान शुरू किया गया। उनके बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती।
(5) मारवर्मन अवनि शुलामणि कडुनगोन के बाद मारवर्मन अवनि शुलामणि हुआ। (6) अरिकेशरी मारवर्मन-मारवर्मन अवनि शुलामणि के बाद अरिकेशरी मारवर्मन हुआ, जिसका समीकरण नेडुमरन या पौराणिक कुन दक्षिण से भी किया जाता है जिसे संबदार नामक शैव सन्त ने अपने मत में दीक्षित किया था। ह्वेनसांग ने सम्भवतः उसी के समय दक्षिण भारत का पर्यटन किया था।
(7) कोच्चडयन रणधीर और मारवर्मन राजसिंह – अरिकेशरी मारवर्मन के बाद
क्रमशः कोच्चडयन रणधीर और मारवर्मन राजसिंह | हुये। (8)याण दुयन, जिसे मारब्जयन, परान्तक, अतिल – या जतिलवर्मन और वरगुण I के नाम से भी जाना जाता है, एक महत्त्वपूर्ण शासक था। उसने करीब 765 ई० से 815 ई० तक राज्य किया। एक अभिलेख से पता चलता है कि उसने तंजौर के पास पेण्णगडम में काडव (पल्लवों) पर विजय प्राप्त की और तिरुनेलवेली और त्रावनकोर के बीच शासन कर रहे मुखियों को भी हराया। लगता है, उसने कलओं को भी हराया। मद्रास संग्रहालय के उसके शासनकाल के सतरहवें वर्ष के पत्रों से पता चलता है कि उसने तगडुर (धर्मपुरी, सलेम) के आदि गमानों को हराया तथा कोंगदेश (कोयम्बटूर) को अपने अधिकार में किया। उसने विलीनाम जीतने के बाद बेनाड़ या दक्षिण त्रावनकोर को अपने साम्राज्य में मिलाया। उसकी विजयों ने उसे तंजौर, तिरुचिरापल्ली, सलेम, कोयम्बटूर जिलों तथा दक्षिण त्रावनकोर का स्वामी बना दिया। उसने कई शैव और वैष्णव मन्दिर बनवायें।
कोयम्बटूर जिले के पेरूर स्थान में स्थित विष्णु मन्दिर सबसे अधिक उल्लेखनीय है । (9) श्रीमार श्रीवल्लभ नेडुज्ञड्डियन के बाद श्रीमार श्रीवल्लभ (815 ई०-862 ई०) को हुआ। लेखों से उसकी कई विजयों का पता चलता है। कहा जाता है कि उसने विलिनाम
परवर्ती मौर्य युग- शुंग, पश्चिमी छत्रप
सातवाहन तथा कुषाण
[POST MAURYAN PERIOD-SUNGAS, WESTERN KSHATRAPAS, SATVAHANS AND KUSHANS
पुष्यमित्र शुगबाह्मणतन्त्र का अधिनायक था तथा उसका उद्देश्य उन याज्ञिक
कर्मकाण्डों तथा हिन्दू संस्कारों का पुनरुद्धार करना था और इसीलिये उसने अश्वमेघ यज्ञ आयोजित किये। शुंग काल में हिंसा को धर्मविहित माना गया था।” -डॉ० नरेन्द्र घोष “शकों तथा पहलों ने भारतीय इतिहास के रंगमंच में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। इनमें रुद्रापन का नाम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।” – डी० सी० सरकार
“पुराणों में वर्णित आन्ध्र वंश के शासकों के नाम ही सातवाहन शासकों के
नाम हैं। इसलिये आन्ध्र वंश ही सातवाहन है।” श्रीनिवास चारी एवं आयंगर
“कुषाण युग भारत के इतिहास में एक युग प्रवर्तक काल है। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद पहली बार एक महान् साम्राज्य बना। भारत बाहर की दुनिया -डी० सी० सरकार के साथ घनिष्ठ सम्पर्क में आया। इस युग में धर्म, साहित्य और मूर्तिकला का भी महत्वपूर्ण विकास हुआ।”
शुंग कौन थे ? पुष्यमित्र के शुंग के शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का वर्णन
कीजिये।
सुंग कौन थे? के शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का वर्णन कीजिए
Pushyamitra Shunga.
शुंग कौन थे ? अति संक्षिप्त विवरण दीजिये।
शुंग कौन थे ? बहुत संक्षिप्त विवरण दें।
उत्तर-
शुंगों का परिचय
दिव्यावदान के अनुसार, पुष्यमित्र शुंग मौर्य वंशीय शासक था, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ के लेखक ने भूल से पुष्यमित्र शुंग को मौर्य वंशी सम्राटों की सूची के अन्तर्गत रख दिया है और अब दिव्यावदान के आधार पर शुंगों को मौर्य वंशीय मानने के लिये इतिहासकार उद्यत नहीं हैं।
हरप्रसाद शास्त्री ने यह मत प्रकट किया है कि पुष्यमित्र तथा उसके वंशज, जिनके नाम के अन्त में ‘मित्र’ शब्द जुड़ा हुआ है पारसीक अथवा ईरानी थे क्योंकि मित्र की उपाधि के लोग महण करते थे जो मित्र (पारसीक देवता मि-सूर्य) की उपासना करते थे। चूँकि ईरान में मित्र की पूजा का अत्यधिक प्रचलन था। अतएव शास्त्री ने यह धारणा बना कि शुंग लोग पारसीक थे, परन्तु कालान्तर में उन्होंने स्वयं अपने इस विचार को त्याग दिया
बेबिक वंशीय
मालविकाग्निमित्र के अनुसार, पुष्यमित्र शुंग का पुत्र अग्निमित्र वैम्बूक वंश का था। कतिपय विद्वानों ने वैम्बिक वंश का समीकरण विम्बिक के वंश से किया है जो क्षत्रिय वंश का था, परन्तु विश्वसनीय साक्ष्यों के अभाव में इस सिद्धान्त को स्वीकार करना समीचीन नहीं प्रतीत होता ।
ब्राह्मण
बौधायन श्रौतसूत्र के अनुसार, शुंग लोग कश्यप गोत्र के और यह गौत्र ब्राह्मणों का था। हरिवंश पुराण में यह उल्लेख है कि कश्यप गौत्र का एक ‘आदिभिन्न’ (हीन अवस्था से अकस्मात उत्कर्ष करने वाला) सेनापति कलियुग में अश्वमेघ यज्ञ का उद्धार करेगा। जायसवाल के अनुसार, यह उल्लेख सेनानी पुष्यमित्र का है, यह मत तर्कसंगत जान पड़ता है।
अन्य साक्ष्यों से भी यही सिद्ध होता है कि शुंग लोग ब्राह्मण वंशीय थे। पाणिनि के अनुसार, शुंग लोग भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण थे। पतंजलि पुष्यमित्र का राज पुरोहित था। उसने एक जगह लिखा है कि ब्राह्मण राज्य सर्वोत्तम होता है। यदि शुंग वंश का संस्थापक पुष्यमित्र ब्राह्मण न होता तो वह ऐसा लिखने की हिम्मत नहीं कर सकता था। मनुस्मृति से भी यही ध्वनित होता है कि शुंग ब्राह्मण वंशीय थे, मनु ने जो सम्भवतः पुष्यमित्र का समकालीन था, अपनी मनुस्मृति में एक स्थान पर लिखा है कि वेद और शास्त्र का ज्ञाता ही सेनापतित्व, राज्य, दण्ड, नेतृत्व और सर्वलोकाधिपत्य के योग्य होता है। इस प्रकार का उल्लेख करते समय सम्भवतः मनु का संकेत ब्राह्मण सेनापति एवं सम्राट पुष्यमित्र
शुंग की ही ओर था। पुराणों में पुष्यमित्र को शुंग वंशीय बतलाया गया है। हर्षचरित में भी एक अनुवर्ती शुंग वंशीय कहा गया है। इस प्रकार पुष्यमित्र तथा उसके वंशज शुंग सिद्ध होते हैं और मैकडोनल तथा कीथ ने आश्वालयन श्रौत सूत्र के आधार पर यह मत प्रतिपादित किया है कि शुंग आचार्य होते थे। बृहदारण्यक उपनिषद् में शौंगी पुत्र आचार्य का उल्लेख मिलता है। शौंगी पुत्र का अर्थ लगाया जाता है कि शुंग वंश की बेटी का पुत्र । इस साक्ष्य के अनुसार शुंग लोग आचार्य हुआ करते थे जो कि प्रायः प्राचीन काल में ब्राह्मण ही होते थे अस्तु, इस साक्ष्य के अनुसार भी शुंग लोग ब्राह्मण वंशीय ठहरते हैं। तारानाथ ने भी पुष्यमित्र को ब्राह्मण वंशीय स्वीकार किया है। निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न साक्ष्यों से जो तथ्य उपलब्ध हैं। उनके आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि शुंग लोग भारद्वाज गौत्र के ब्राह्मण वंशीय थे। यह अब लगभग निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गया है कि शुंग लोग ब्राह्मण वंश के थे।
पुष्यमित्र शुंग
(Pushyamitra Sunga)
अन्तिममा की हत्या करने के बाद पुष्यमित्र शुंग ने शासन को
सम्भाली और की हत्या के विरोध में कोई भी आवाज नहीं उठी। इससे
मौर्य शासक की निष्कृष्ट स्थिति का पता चलता है जिसने उसकी हत्या को समय की क्रूर आवश्यकता बना दिया था। पुराणों में मौर्य वंश का शासनकाल 137 वर्ष का माना गया है। चन्द्रगुप्त मौर्य के सिंहासनारोहण की तिथि 322 ई० पू० मानी जाती है। इस हिसाब से 185 ई० पू० के आस-पास मौर्य वंश का अन्त तथा पुष्यमित्र शुंग का राज्यारोहण होना चाहिये। वायु पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण में पुष्यमित्र के 60 वर्ष तक शासन करने का उल्लेख है, पर यह गलत
लगता है।
पुष्यमित्र की उपलब्धियाँ
(पुष्यमित्र की उपलब्धियां)
पुष्यमित्र शुंग ने रक्त से अपना राज्य प्रारम्भ किया था तथा रक्त से ही उसने उसे कायम रखा। उसके सभी कार्य, सभी उपलब्धियाँ रक्तिम हैं। यही कारण है कि भगवतशरण उपाध्याय ने लिखा है- “ब्राह्मण (पुष्यमित्र) का इतिहास रक्तरंजित है।” उसके मुख्य कार्य या सैन्य या राजनीतिक उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं-
(1) मगध साम्राज्य का संगठन बृहद्रथ की हत्या करने के पश्चात् पुष्यमित्र मगध राज्य का स्वामी तो बन गया, परन्तु उसके राज्य की स्थिति अभी बड़ी डावांडोल थी। मगध के हाथों से सीमान्त के प्रान्तों के निकल जाने से इसकी शक्ति खोखली हो गयी थी और पड़ोसी राज्यों की बढ़ती हुयी शक्ति मगध राज्य के लिये एक सबल चुनौती थी। राजवली पाण्डेय का कथन है कि, “इसलिये मगध साम्राज्य के बचे हुये भाग को सम्भालना और यदि सम्भव हो तो इसका विस्तार करना पुष्यमित्र के सामने मुख्य समस्या थी।” यूनानियों (इण्डोबेक्ट्रियनों) का खतरा भी बढ़ रहा था। अतः मगध पर अधिकार जमा लेने के बाद पुष्यमित्र ने सबसे पहले अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने की ओर ध्यान दिया। उसने प्राची, कोसल, वत्स, आकर, अवन्ति आदि प्रदेशों को संगठित किया। पश्चिम के प्रान्तों पर पूरा अधिकार रखने के लिये उसने आकर प्रान्त के प्रमुख नगर विदिशा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। विदिशा में उसने अपने दूसरे पुत्र अग्निमित्र को राज्य के प्रतिनिधि के रूप में रखा। इसके पश्चात् पुष्यमित्र ने अपना ध्यान साम्राज्य विस्तार की ओर दिया।
(2) विदर्भ के विरुद्ध अभियान ‘मालविकाग्निमित्र’ से हमें पता चलता है कि पुष्यमित्र ने विदिशा (पूर्वी मालवा) में अपने पुत्र अग्निमित्र को गवर्नर (गोप्ता अथवा उपराजा) नियुक्त किया था। अग्निमित्र को विदर्भ या बरार (विदिशा के दक्षिण में) के शासक यज्ञसेन, जो कि हाल में ही स्वतन्त्र हुआ था, के साथ युद्ध करना पड़ा। कहा जाता है कि यज्ञसेन मौर्य मन्त्री का रिश्तेदार था और इसलिये पुष्यमित्र का प्राकृतिक शत्रु पुष्यमित्र ने जब मगध साम्राज्य को पुनः सुसंगठित और विस्तृत करने का निश्चय किया तो उसने यज्ञसेन को आत्मसमर्पण करने को कहा, पर यज्ञसेन ने साफ इन्कार कर दिया, तब यज्ञसेन के चचेरे भाई माधवसेन को पुष्यमित्र ने अपनी ओर मिला लिया। यह माधवसेन जब विदिशा की ओर जा रहा था तब यज्ञसेन के सिपाहियों (अन्तपालों) ने उसे गिरफ्तार कर लिया। अग्निमित्र ने यज्ञसेन को उसे रिहा करने के लिये कहा। यज्ञसेन ने इस शर्त पर माधवसेन को छोड़ना
स्वीकार किया कि प्रथम अग्निमित्र को केंद्र में मौर्य मन्त्री को छोड़ दिया जाये। इस पर अग्निमित्र अप्रसन्न हो गया और उसने वीरसेन को विदर्भ पर चढ़ाई करने की आशा दी। वीरसेन ने यज्ञसेन को हराकर माधवसेन को कासमुक्त किया। अन्त में विदर्भ का राज्य दो भागों में बाँट दिया गया जिन पर पुष्यमित्र की अधीनता में यज्ञसेन और माधवसेन शासन करने लगे। वरा नदी दोनों राज्यों की सीमा रेखा थी।
(3) खारवेल से युद्ध-पद्यपि अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त कर ली थी, परन्तु परवर्ती मौर्य शासकों के समय में कलिंग स्वतंत्र हो गया था और बड़ा ही शक्तिशाली राज्य बन गया था। हाथी गुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि कलिग नरेश खारवेल ने मगध पर आक्रमण कर बृहस्पतिमित्र को पराजित किया था। स्मिथ ने शायद बृहस्पतिमित्र को ही पुष्यमित्र माना है और इसलिये उनका कहना है कि कलिंग नरेश खारवेल ने पुष्यमित्र के शासनकाल में दो बार मगध पर आक्रमण किया। प्रथम आक्रमण लगभग 165 ई० पू० हुआ था और इस समय खारवेल पाटलिपुत्र के सन्निकट आ गया था। पुष्यमित्र कूटनीतिक चाल चला और वह मथुरा तक पीछे हट गया। ऐसी स्थिति में खारवेल ने आगे बढ़ना उचित नहीं समझा और वह पीछे हट गया। खारवेल का दूसरा आक्रमण 161 ई० पू० हुआ और इस बार पुष्यमित्र पराजित हुआ और उसे खारवेल से सन्धि करनी पड़ी। विजेता के हाथ मगध की प्रभूत सम्पत्ति लगी।
जायसवाल ने भी बृहस्पतिमित्र का समीकरण पुष्यमित्र के साथ किया है। अपने मत की परिपुष्टि में वे कहते हैं कि ज्योतिष शास्त्र में बृहस्पति को पुष्य (Zodiacal Asterism) का नक्षत्राधिपति माना जाता है। अतः बृहस्पतिमित्र पुष्यमित्र का ही पर्यायवाची है, परन्तु इस प्रकार के मत को मानने में अनेक आपत्तियाँ हैं और एच० सी० राय चौधरी, आर० पी० चन्द्रा, बी० एम० बरुआ, आर० एस० त्रिपाठी आदि इस मत का खण्डन करते हैं। इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि पुष्यमित्र का नाम बृहस्पतिमित्र था। (4) यवन आक्रमण – यद्यपि चन्द्रगुप्त मौर्य ने यवनों अर्थात् यूनानियों को भारत से
निष्कासित कर दिया था, परन्तु उन्होंने भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर बैक्ट्रिया में अपना स्थायी राज्य स्थापित कर लिया था। ये लोग बाबी-यूनानी के नाम से प्रसिद्ध हुये। ये लोग सदैव अपनी लुब्ध दृष्टि भारत पर लगाये रहते थे, किन्तु अशोक के शासनकाल तक इनका दुस्साहस भारत पर आक्रमण करने का न हुआ, किन्तु जब अशोक के दुर्बल उत्तराधिकारियों के समय में राजनीतिक विश्रृंखलता आरम्भ हुयी और अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हो गयी तब यूनानियों ने फिर इस स्वर्णगर्भा वसुन्धरा पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का दुस्साहस किया। विभिन्न साक्ष्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि शुंग काल में ‘पश्चिमी प्रश्न या समस्या सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक समस्या बन गयी, शायद 19वीं सदी को ‘पूर्वी समस्या’ (टर्की के सन्दर्भ में) सी।
पतंजलि ने ‘अरुणद यवनः साकेतम्’ में ‘अरुणद यवनः मध्यमिकाम्’ का उल्लेख किया है। इसका मतलब यह होता है कि यवनों ने साकेत (अयोध्या) और मध्यिका (राजस्थान में चित्तचौर के पास नगरी) पर घोटा डाला। गार्गी संहिता के युग पुराण से भी पता चलता है कि यवनों ने साकेत, पांचाल और मूर्छित आक्रमण किया और तदुपरान्त वे कुसुमध्वज अर्थात् पाटलिपुत्र तक पहुँचे। एन0 एन0 घोष के अनुसार, यह यवनों का प्रथम आक्रमण था और उनके नेता डमित्रियस (दिमित था, पर डिमिट्रियस की मुद्रायें उत्तरी भारत में नहीं मिलते। डिमित्रियस की केवल एक ही मुद्रा मिली है और वह भी तक्षशिला से और जो संभवतः डिमिटियस II की हो हो सकता है या फिर यह व्यापार या यात्रा से संबंध है और चूंकि डिमिट्रियस की मुद्राएं व्यास की पश्चिम की ओर ही हैं
का उल्लेख है। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार, 72वें वर्ष में शकों का शासन था। कुछ इतिहासकार माओज का राज्यकाल 78 वि० सं० अर्थात् 200 ई० पू० मानते हैं, रेप्सन का विचार है कि 78वाँ वर्ष मिडेटस प्रथम के शकस्तान विजय की तिथि से सम्बन्धित जो 150 ई० पू० में हुयी थी। इस गणना से माओज काल 72 ३० पू० बैठता है। डॉ० घोष के विचार से चाहे संवत् कोई हो, तक्षशिला ताम्रपटिका की तिथि 72 ई० पू० माओ के राज्य में स्वीकार करने से कोई तिथि व्यतिक्रम नहीं होता। माओज ने राजातिराज की उपाधि 88 ई० पू० में धारण की होगी। तक्षशिला रजत अभिलेख के अनुसार, उसके उत्तराधिकारी एजेंस प्रथम की तिथि 56 ई० पू० बैठती है। अतः माओज का शासनकाल 8 ई० पू० से 58 ई० पू० तक निर्धारित किया जा सकता है।
(2) एजेंस प्रथम-माओज के पश्चात् एजेस प्रथम शक राज्य का राजा बना। उसने ‘माओज’ शैली की मुद्राओं के अतिरिक्त कुछ अन्य मुद्रायें भी प्रसारित की जो यवन सम्राट एपोलोडोटस और मिनाण्डर की मुद्राओं की शैली की थीं। इससे प्रतीत होता है कि उसने यवन शासक हिपोस्ट्रेटस से पूर्वी पंजाब छीन कर यवनों की शक्ति बिल्कुल नष्ट कर दी। साकुल सम्भवतः उसके राज्य का अंग बन गया। हिपोस्ट्रेटस और गजेस की मुद्राओं पर वर्गाकार व गोल आकृतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। मुद्रा साक्ष्यों से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि ये मुद्रायें 41) ई० पू० की नहीं हैं तथा हिपोस्ट्रेटस एजेस प्रथम का समकालीन था। एजेस प्रथम ने 40 ई० पू० के लगभग इसके राज्य पर अधिकार कर ये सिक्के प्रसारित किये। कहा जाता है कि एजेस प्रथम का राज्य मथुरा तक विस्तृत हो गया था।
(3) एजलिसिज कुछ मुद्रायें एजलिसिज के नाम की भी प्राप्त हुयी हैं। इसके दो प्रकार के सिक्के प्राप्त हुये हैं। एक प्रकार के सिक्कों पर सामने की तरफ एजेस प्रथम का नाम यूनानी लिपि में है तथा पीछे की तरफ एजलिसिज का नाम खरोष्ठी लिपि में है। इससे प्रतीत होता है कि एजलिसिज एजेस प्रथम के अधीन था। दूसरे सिक्के में सामने की तरफ एजलिसिज का नाम यूनानी लिपि में है और एड्रेस प्रथम का नाम पीछे की तरफ खरोष्ठी लिपि में है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि दूसरे प्रकार के सिक्के एजेंस प्रथम की मृत्यु के बाद एजलिसिज के राजा बनने पर प्रसारित किये गये थे। इन मुद्राओं के द्वारा यह तथ्य भी उजागर होता है कि एजेस नाम के दो राजा थे।
(4) एजेस द्वितीय- एजेस द्वितीय अन्तिम शक राजा था। पहले तो एजलिसिज के
अधीन शासक के रूप में रहा तथा उसके बाद वह स्वतन्त्र शासक हो गया। इसका साक्ष्य
एजेस प्रथम व एजलिसिज जैसी मुद्राओं की प्राप्ति है। एजेस द्वितीय के राज्यकाल में पहलवों
की शक्ति बढ़ गयी। पहलव शासक गोंडोफर्नीज ने एड्रेस द्वितीय के राज्य पर अधिकार
कर लिया। इसका राज्य 19 ई० पू० के लगभग समाप्त हुआ।
(II) उत्तर-पश्चिम के क्षत्रप
(Kshatraps of North-West) शकों ने पश्चिमोत्तर प्रान्त में स्थापित होने के बाद भारत के विभिन्न भागों में क्षत्रपी, स्थापित की। ‘क्षत्रप’ शब्द ईरानी शब्द ‘क्षत्रपावन’ का अर्थ ‘प्रान्त का शासक होता है। इस अर्थ में क्षत्रप सम्राट का प्रतिनिधि होता था जो प्रान्त के शासन का भार वहन करता था। प्रत्येक प्रान्त में 2 क्षत्रप होते थे—एक महाक्षत्रप व दूसरा क्षत्रप जो प्रायः महाक्षत्रप का
ही पुत्र एवं उत्तराधिकारी होता था। उत्कीर्ण अभिलेखों के आधार पर उत्तर-पश्चिम के क्षत्रपों को तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
(1) कापिसी, पुष्पपुर, और अभिसारप्रस्थ के (3) मथुरा के क्षत्रप ।
(2) पश्चिमी पंजाब के प और
(1) कापिसी, पुष्पपुर और अभिसारप्रस्थ के क्षत्रप-मणिक्वाल अभिलेख से पता चलता है कि कापिसि का क्षत्रप गणव्यहक का पुत्र था। इसके अलावा कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती। काबुल संग्रहालय के एक पाषाण अभिलेख से ज्ञात होता है कि पुष्पपुर में शिवंहणं (तिरर्ण २) नामक क्षत्रप राज्य करता था।
पंजाब से प्राप्त ताँबे की एक सील से अभिसारप्रस्थ नगर के क्षत्रप शिवसेन का पता
चलता है
इन तीनों स्थानों के क्षत्रपों की राज्य सीमा में, दोन गान्धार और काम्बोज सम्मिलित रहे होंगे जिनका उल्लेख हमें अशोक के अभिलेख में प्राप्त होता है। (2) पश्चिमी पंजाब के क्षत्रप-राय चौधरी ने यहाँ के क्षत्रपों का अध्ययन निम्नांकित तीन कुलों में विभक्त कर दिया है-
(i) कुसुलक कुल-इस कुल के क्षत्रप लियाक (Liaka) तथा पतिक (Patika) थे। इनका शासन चिक्षु (तक्षशिला का उत्तर-पश्चिम का प्रदेश) जिले में था। फ्लीट के अनुसार, पतिक दो थे, परन्तु मार्शल के अनुसार, पतिक नामक क्षत्रप एक ही था। इस वंश के क्षत्रपों का मथुरा के क्षत्रपों से निकट का सम्बन्ध था। लियाक कुमुलक के सिक्के इस बात को सूचित करते हैं कि पूर्वी गान्धार प्रदेश यूक्रेटाइडीज के वंशजों के हाथ से निकलकर शकों के अधीन हो गया था। तक्षशिला के एक ताम्रपत्र से हमें पता चलता है कि लियाक माउस का क्षत्रप था और पतिक ‘महादानपति था।
(ii) मनिगल और जिहोणिक का कुल मुद्राओं से ज्ञात होता है कि मनिगल (Manigul) तथा जिहोणिक (Jihonik) नामक क्षत्रप एजेस द्वितीय के शासनकाल में पुष्कलावती के क्षत्रप थे, परन्तु तक्षशिला के सिलवर वेस इंसक्रिप्शन से पता चलता है कि जिहोणिनिक तक्षशिला के निकट चिक्षु (या चुक्षा) का क्षत्रप था।
(iii) इन्द्रवर्मन का कुल – तीसरा कुल इन्द्रवर्मन का था। इन्द्रवर्मन के उपरान्त उसका पुत्र इस्पवर्मन क्षत्रप हुआ। इस्पवर्मन ने एजेस द्वितीय और गोडोफर्नीज (पहलव) दोनों के राज्य प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया था। इस्पवर्मन के पश्चात् उसके भतीजे सस (Szsa) ने राज्य प्रतिनिधि का कार्य किया था। यह गोंडोफर्नीज तथा पेकोरीज (दोनों पहलव) का उपशासक था।
इस्पवर्मन और सस क्षत्रपों के उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि क्षत्रप व्यवस्था का तत्कालीन शासन पद्धति में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान था, क्योंकि शकों का राज्य जब नष्ट हो गया और उनका स्थान पहलवों ने ले लिया तब भी यह व्यवस्था प्रचलित रही और पहलवों ने क्षत्रपों को उनके पदों से च्युत करना भी अनुचित समझा। यह सम्भव है कि क्षत्रप उस समय की शासन-प्रणाली के मेरुदण्ड स्वरूप थे, जिनको सहसा बदल देने से राज्य की केन्द्रीय सरकार को धक्का पहुँच सकता था, इसलिये इस्पवर्मन को प्रतापी पहलव नरेश गोंडोफर्नीज ने क्षत्रप के पद से अलग नहीं किया। क्षत्रप व्यवस्था का महत्त्व हम और अच्छी तरह तभी समझ सकते हैं, जब आगे आने वाले कुषाणों की शासन पद्धति का अध्ययन करें। कुषाणों ने पहलवों का ध्वंस करके राज्य हस्तगत किया था, किन्तु उन्होंने अपने विजितों से क्षत्रप व्यवस्था ग्रहण कर ली, जिस प्रकार कुछ समय पूर्व शकों की राजसत्ता का उन्मूलन
करनेवाले ने अपने जियों की व्यवस्था को ग्रहण किया था। इतना ही
नहीं का विनाश हो जाने पर भी सपों का राज्य बना रहा। डी० सी० सरकार से लिखा है कि पश्चिमी भारत के शक क्षत्रप, जो कुषाणों की अधीनता स्वीकार करते थे, उन भागों में भारत में कुषाणों की साम्राज्य सेवा के पतन के बाद भी काफी लम्बे समय तक शासन करते रहे।
(111) मथुरा के क्षत्रप (Kshatrap of Mathura).
(1,2) हमान और हगामश-मथुरा के क्षत्रप वंश के बरि में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। मुद्राओं से पता चलता है कि हगान और हगामश प्रथम दो क्षत्रप थे। कुछ की मान्यता है कि इन दोनों ने पृथक रूप से शासन किया तथा कुछ के अनुसार इन्होंने सम्मिलित रूप से शासन किया।
(3) गजल-हगान और हगामश के पश्चात् राजुबुल मथुरा का क्षत्रप बना। इसे मथुरा अभिलेख में महाक्षत्रप कहा गया है। इनकी कुछ मुद्रायें पंजाब व मथुरा में प्राप्त हुयी है, जिनमें उसका अप्रतिहित चक्र क्षत्रप’ के नाम से उल्लेख हुआ है। इसकी मुद्रायें पंजाब से प्राप्त हुयी हैं तथा उनमें स्ट्रेटी | और 11 की मुद्राओं से साम्य । इसलिये कुछ की धारणा है कि उसने यवनों से (डिमिट्रियस के यूथेडीमस पराने के) पूर्वी पंजाब छीन लिया था। मथुरा के सिंह मस्तक वाले अभिलेख से यह पता चलता है कि वह उस समय अप था जबकि पतिक (कुमुलक कुल) महाक्षत्रप था। इस प्रकार हम दोनों की ससामयिकता मान सकते हैं। कनियम का विचार है कि मुद्राओं के प्राप्ति स्थानों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राजबुल का राज्य पूर्वी पंजाब से लेकर मथुरा तक विस्तृत था।
(4) खरोष्ट-मथुरा लायन कैपिटल पर युवराज खरोष्ट का नाम मिलता है। स्टेनकोनोन ने इसे राजुबुल का श्वसुर माना है और कहा है कि माओज के पश्चात् ‘राजराज’ के पद का यही उत्तराधिकारी था। फ्लीट के अनुसार, वह राजबुल की पुत्री का पुत्र था। परन्तु कुछ विद्वान इसे राजुबुल का पुत्र भी मानते हैं। कुछ दिन क्षत्रप रहने के पश्चात् सम्भवतः राजुबुल के जीवनकाल में ही उसकी मृत्यु हो गयी थी, अतः उसके अभाव में राजुबुल का दूसरा पुत्र सोडास क्रमशः क्षत्रप और महाक्षत्रप बना।
(5) सोडास- राजुबुल के बाद सोडास मथुरा का शासक हुआ। उसे अभिलेखों में क्षत्रप एवं महाक्षत्रप कहा गया है। सोडास के जीवनकाल के एक अभिलेख में 72 वर्ष का उल्लेख है जिसको विद्वान् 72 वि० सं० मानते हैं। इस गणना से सोडास का काल ई० के लगभग होना चाहिये। इसकी मुद्रायें पूर्वी पंजाब में नहीं मिलतीं। इससे प्रकट होता है कि उसका राज्य उस प्रदेश में नहीं था। उसकी मुद्रायें और अभिलेख मथुरा में प्राप्त हुये हैं जिससे प्रकट होता है कि सोडास का राज्य मथुरा प्रदेश तक ही सीमित था। 1979 में मथुरा के पुरातत्त्व संग्रहालय को सोडास के समय का एक अभिलेख मिला है। इसमें यह बतलाया गया है कि कौशिकी नामक महिला ने एक तालाब खुदवाया, बगीचा बनवाया, एक स्तम्भ निर्मित करवाया और लक्ष्मी देवी की मूर्ति स्थापित की। तालाब तो मथुरा के निकट ग्राम में था, परन्तु लक्ष्मी की जगह शिव मन्दिर ने ले ली। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि लोगों को धार्मिक स्वतन्त्रता थी।
पतन सोडास के बाद के क्षत्रपों के बारे में कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं होती। लगता है कुषाणों के आक्रमण के कारण मथुरा के शक क्षत्रपों का पतन हुआ।
मथुरा के क्षत्रपों का धर्म- -मथुरा के सिंह लेख से पता चलता है कि मथुरा के क्षत्रप कपिसा तथा तक्षशिला के क्षत्रपों की भाँति बौद्ध धर्मावलम्बी थे, क्योंकि इसमें लिखा
परवतीर्य युग-पश्चिमी छ सातवाहन कु है कि राजल की पटरानी ने वृद्ध की अस्थियों पर एक स्तूप बनवाया था। नाहर के अनुसार, कुछ ने जैन धर्म भी स्वीकार किया था।
(IV) महाराष्ट्र के क्षहरात शक क्षत्रप (महाराष्ट्र का शाहरात क्षत्रप)
महाराष्ट्र के क्षत्रप शहरात क्षेत्र कहलाते थे। इनका भारत में प्रवेश बलूचिस्तान, सिन्धु, गुजरात आदि में होकर महाराष्ट्र तक हुआ था, वे बड़े बीर और बुद्धकुशल थे। इन्होंने सातवाहनों से महाराष्ट्र का विस्तृत प्रदेश छीनकर वहाँ अपनी सत्ता स्थापित की। (1) अर्ट-अर्ट शहरात वंश का प्राचीनतम सदस्य जान पड़ता है जिसने क्षत्रप की उपाधि धारण की थी। शायद वह भूमक का पूर्ववर्ती (Predecessor) था। उसके अभी तक प्रकाशित दो सिक्कों के अग्रभाग पर स्वम्भ का शीर्ष है जिस पर सिंह और चक्र है। और जिस पर ब्राह्मी आख्यान है ‘शहरतम क्षतपस अनस पिछले भाग पर नाइक (Nike) की आकृति है जिसके दोनों हाथों में माला है और यूनानी आख्यान है। प्रतीत होता है कि वह कुषाणों का वाइसराय था। अर्ट की जानकारी उसके पुत्र खरोष्ट या खरोष्ट के सिक्कों से भी होती है।
(2) भूमक क्षहरात वंश का दूसरा क्षत्रप भूमक था अर्ट से उसके क्या सम्बन्ध थे कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती। हाँ, अर्ट के सिक्कों के चिह्न उसके सिक्कों पर भी मिलते हैं। इस आधार पर कई विद्वानों ने उसका (और इसलिये स्वाभाविक रूप से अर्ट का भी) सम्बन्ध मथुरा के क्षत्रपों से जोड़ा है, क्योंकि अपने एक बौद्ध स्मारक के सिंह मस्तक के लिये विख्यात हैं। ऐसा भी लगता है कि कनिष्क के कुषाण घराने के साम्राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग का वह क्षत्रप था। उसके सिक्के मालवा में उज्जैन और भिलसा से प्राप्त हुये हैं। उसके सिक्के गुजरात और काठियावाड़ के तटीय प्रान्तों से, राजस्थान के अजमेर क्षेत्र से भी प्राप्त हुये हैं। उनके सिक्कों पर बाह्मी और खरोष्ठी लिपि के प्रयोग से यह सिद्ध होता है कि क्षत्रपों का क्षेत्र मालवा, गुजरात और काठियावाड़ तक नहीं फैला था जहाँ ब्राह्मी लिपि प्रचलन में थी, वरन् पश्चिमी राजस्थान और सिन्ध तक भी, जहाँ खरोष्ठी का प्रचलन था, परन्तु एन० एन० घोष का मत है कि पांडुसेन (नासिक) में जितने अभिलेख मिले हैं, उनमें से किसी में भी भूमक का नाम नहीं आया है, जबकि उसके उत्तराधिकारी नहपान और उसके (नहपान) के दामाद ऋषभदत्त के सिक्के व लेख महाराष्ट्र में मिले हैं। अतः लगता है कि भूमक महाराष्ट्र पर शासन सत्ता नहीं जमा पाया था। नहपान ने प्रथम बार (और कहा जाये कि अन्तिम बार ऐसा किया था। भूमक के शासन की कोई विस्तृत जानकारी नहीं मिलती। यह भी निश्चित नहीं है कि उसने कनिष्क प्रथम के जीवनकाल में सिक्के प्रसारित किये या उसकी मृत्यु के बाद जब बहिर्वति (Oullying) या दूरस्थ प्रान्तों पर कुषाणों की पकड़ ढीली पड़ रही थी।
(3) नहपान—भूमक की मुद्राओं में सामने की तरफ भूमक का नाम है और पीछे की तरफ नहपान का। इस कारण रेप्सन के कथन में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि नहपान भूमक का उत्तराधिकारी था। पर दोनों के बीच सम्बन्धों की स्पष्ट जानकारी नहीं है और न ही नहपान की राजधानी मिन्ननगर का अभी तक ठीक से समीकरण हो पाया है। भण्डारकर ने इसे मंदसौर माना है और जायसवाल ने भड़ाँच। कुछ के अनुसार, नहपान की राजधानी दक्षिण अथवा पश्चिम भारत में नहीं वरन् उत्तर भारत में थी। उसने ‘राजन’ की उपाधि धारण की थी और उसके किसी अधिपति का नाम भी (उसके रिकार्ड से) पता नहीं चलता। इसलिये लगता है कि उसने एक स्वतन्त्र शासक के रूप में ही शासन किया होगा।
नहपान के बाद-महाराष्ट्र के शहरात शक क्षत्रपों की उसके बाद कोई जानकारी नहीं मिलती। उसके दामाद ऋषभदन के क्षेत्रप बनने के प्रमाण नहीं मिलते। सम्भवतः गौतमीपुत्र शातकर्णी ने इस घराने का सर्वनाश हो कर दिया था। एक प्रशस्ति में गौतमीपुत्र को ‘शहरात जाति का उच्छेद करने वाला कहा गया है।
(V) उज्जयिनी के क्षत्रप (उज्जयिनी का क्षत्रप)
यदि कहा जाये कि शकों के राजकुल में सबसे अधिक महत्त्व उज्जयिनी के क्षत्रपों का था तो सम्भवतः अतियुक्ति न होगी। चूंकि इस वंश का राज्य प्रमुखतया उज्जैन और
काठियावाड़ में था इसे उज्जैन-काठियावाड का शक वंश भी कहा गया है।
(1) यसोमतिक- उज्जैन के क्षत्रप राजवंश का संस्थापक यसोमतिक (अथवा जामोतिक) था जो चेष्टन का पिता था। यसोमतिक का नाम सीथिमन उत्पत्ति का है। उसके वंश को जो चन्द्रगुप्त || द्वारा मारा गया, बाण ने अपने हर्षचरित में शक राजा कहा है। इसलिये विद्वान इस बात को मानते हैं कि उज्जैन का क्षत्रप कुल शक जाति का ही था। इस वंश का ठीक-ठीक नाम नहीं मालूम। रेप्सन का कथन है कि यह नाम कार्दमक हो सकता है। 1 रुद्रदामन की पुत्री इस बात पर गर्व प्रकट करती है कि उसका जन्म कार्दमक वंश के नरेशों के परिवार में हुआ है, परन्तु यह सम्भव है कि इस बात के लिये वह अपनी माता की ऋणी रही हो । स्पष्टतया कार्दमक नरेशों के नाम का उद्भव फारस की एक नदी कर्दम से हुआ है।
(2) वेष्टन चेष्टन उज्जैन का प्रथम शक शासक था। उसके पिता ने उसके वंश की प्रतिष्ठापना अवश्य की थी, परन्तु उज्जैन में अपने वंश का शासन प्रारम्भ करने वाला चेष्टन ही था। नाहर ने लिखा है कि चेप्टन ने सम्भवतः कुषाणों के एक सामन्त के रूप में सिन्ध पर शासन किया था। नहपान की मृत्यु के बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि दक्षिणी-पश्चिमी भागों का उपशासक कुषाणों ने चेष्टन को ही नियुक्त कर दिया और उसे सातवाहनों से अपने शासनान्तर्गत उन भागों को पुनः अधिकार में करने का आदेश भी दिया जो नहपान के समय में गौतमीपुत्र शातकर्णी ने जीत लिये थे। परन्तु उसके अभिलेखों से यह ज्ञात नहीं होता कि वह किसी कुषाण अधिपति के अधीन था। कच्छ से अन्धक अभिलेख, जो संवत् 52 (130-31 ई०) का है, में उसे ‘राजा’ कहा गया है। इससे उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का पता चलता है।
(3) जयदामन – एक मत के अनुसार जयदामन सिर्फ क्षत्रप ही रहा। हो सकता है
कि सातवाहनों द्वारा उसके वंश को क्षति पहुँची हो और शायद इसीलिये उसके सिक्के भी
ताँबे के हैं।
दूसरा मत यह है कि उसने चेष्टन के साथ मालवा पर राज्य किया तथा वह गौतमी- पुत्र शातकर्णी के औपचारिक अधीन रहा और इसलिये उसने क्षत्रप की उपाधि धारण की, की जानकारी हमें हाल में ही शाजापुर से 16 किमी0 दूर सतखेड़ी से एक दुर्लभ शिलालेख (जो इस क्षेत्र की ऐतिहासिक सम्बद्धता को मौर्यकालीन सन्धिकाल से जोड़ता है) से होती है।
(4) रुद्रदामन – लगता है जयदामन की मृत्यु जल्दी हो गयी थी। शक वर्ष 52 के अन्धऊ अभिलेख से पता चलता है कि चेष्टन अपने प्रपौत्र रुद्रदामन के साथ संयुक्त रूप
से शासन कर रहा था। लगता है, चेष्टन इस समय महाक्षत्रप था और रुद्रदामन क्षत्रप । क्षत्रप के रूप में ऐसा प्रमाण है कि अपने दादा चेष्टन के अधीन क्षत्रप रुद्रदामन ने सातवाहन शासक को हराकर उसके साम्राज्य के उत्तरी जिलों (जिनको नहपान हार चुका
था) को पुनः प्राप्त किया। उसके ही जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि उसने पुत्र
चित्रिणी से आएं अवन्ति, अनूप, अपांतर, सौराष्ट्र और आनरत जीते। इससे आगे रुद्रदामन
का यह दावा है कि उसने दक्षिणपथ के शातकर्णी को दुबारा हराया, परन्तु नष्ट नहीं किया, क्योंकि वह उसका सम्बन्धी या कान्हेरी अभिलेख से हमें पता चलता है कि वाशिष्ठीपुत्र रुद्रदामन का दामाद था। लगता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा हराये गये नहपान के सामन्तों को रुद्रदामन ने पुनर्स्थापित किया। महाक्षत्रप के रूप में 130-131 ई. के कुछ समय बाद रुद्रदामन महाक्षत्रप हुआ। उसके सभी ज्ञात सिक्के उस समय के है जब वह महाक्षत्रप था। महाक्षत्रप के प्रान्तों में मालवा, काठियावाड़, गुजरात, उत्तरी कोंकण और माहिष्मति सम्मिलित थे। बाद में उसमें कच्छ, श्वभ (साबरमती घाटी), मरु (मारवाड़ क्षेत्र), सिन्धु (निचली सिन्धु घाटी का पश्चिमी
भाग), सोवीर (निचली सिन्धु घाटी का पूर्वी भाग) और निषाद (पूर्वी विन्ध्य और अरावली
श्रृंखला) सम्मिलित हो गये। इस प्रकार प्रतीत होता है कि नासिक और पूना जिलों को
छोड़कर रुद्रदामन ने क्षहरात्र साम्राज्य के संपूर्ण अंशों पर राज्य किया। रुद्रदामन का यह
दावा है कि ये सब प्रान्त उसने शौर्य से जीते।
ऐसा भी जाना गया है कि रुद्रदामन ने यौधेयों (जो उस समय दक्षिणी पंजाब और आस-पास के क्षेत्रों में थे) को अपने कुषाण स्वामी की ओर से हराया (यद्यपि उनकी हार क्षणिक थी), परन्तु उसके समय के ज्ञात प्रमाणों में कुषाणों को कहीं भी सन्दर्भित नहीं किया गया है और फिर उसने स्वयं महाक्षत्रप की उपाधि धारण की थी, इसलिये पता चलता है कि वह स्वतन्त्र शासक ही था।
मूल्यांकन शासक के रूप में 150 ई० में स्वर्णाशिक्ता, पलाशिनी तथा उरजयत पर्वत की नदियों की बाढ़ से सुदर्शन झील (जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने बनवाया था और जिसकी मरम्मत अशोक ने करवायी थी) फिर टूट गयी। तब रुद्रदामन ने अपनी निजी आय (क्योंकि आर्थिक कारणों से आमात्यों ने उसका विरोध किया था) से इसकी मरम्मत करायी। इसके लिये रुद्रदामन ने प्रजा से कोई अतिरिक्त कर नहीं लिया। इस समय सौराष्ट्र में रुद्रदामन का आमात्य एक पहलव था, जिसका नाम सुविशाख था। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके अन्य प्रान्त भी राज्यपालों के हाथ में होंगे। रुद्रदामन के 2 प्रकार के मन्त्री थे। सम्मति देने वाले मन्त्रियों को ‘मति सचिव’ कहा जाता था और कार्यपालिका के अध्यक्षों को कर्म सचिव, ‘कर्म सचिव’ राजा के निश्चयों को क्रियान्वित करते थे। इस प्रकार वह मन्त्रिपरिषद् की सहायता से कार्य करता था। उसकी मन्त्रिपरिषद् ‘अमात्यण सयुक्ता’ थी अर्थात् मन्त्रिपरिषद् में सभी गुण थे। उसने पौर तथा जनपद को हर प्रकार की सुविधा देने के लिये शासक नियुक्त कर रखे थे। उसके कर्मचारी प्रजा के हित के लिये धर्म, अर्थ तथा व्यवहार सम्बन्धी कार्यों में सदैव तत्पर रहते थे। उसने अपनी प्रजा पर कोई अनुचित कर नहीं लगाया। इस समय बलि, भाग और शुल्क उचित कर समझे जाते थे और कर (Tax), विष्टिन (बेगार) और प्रणय (प्रीतिदान) अनुचित । रुद्रदामन ने अपनी प्रजा से बलि, भाग और शुल्क ही वसूल किये। उसने न प्रजा से बेगार ली और न उपहार लिये जिनको देने में प्रजा को आपत्ति हो सकती थी। इससे स्पष्ट होता है कि रुद्रदामन परोपकारी राजा था जो प्रजा के हित का पूर्ण ध्यान रखता था।
व्यक्ति के रूप-रुद्रदामन को व्यक्तिगत रुचियाँ भी बड़ी सुन्दर और सौम्य थीं । वह व्याकरण, राजनीति, संगीत और न्याय (तर्कशास्त्र) का अच्छा ज्ञाता था। गद्य और पद्य काव्यों में वह प्रवीण था। संस्कृत भाषा और साहित्य का वह आश्रयदाता था। उसका जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में है और इससे उस समय के संस्कृत साहित्य के विकास का
भारत का इतिहास से 1200 ई० तक अनुमान होता है। अर्थशास्त्र का ज्ञान उसे अच्छा था। धर्म में उसकी बड़ी अभिरुचि थी वह अपना धर्मकीर्ति फैलाने का प्रयत्न करता था और गो-ब्राह्मणों की रक्षा करता था। व्यर्थ के करता था, अतः उसने प्रतिज्ञा की थी कि युद्ध के अतिरिक्त पर मनुष्य का वध नहीं करेगा। इस योग्य, उदार और कुशल शासक के राज्यकाल में उसकी राजधानी उज्जैनी विद्या और वैभव से पूर्ण हो गयी।
ऐसा भी पता चलता है कि रुद्रदामन कई स्वयंवरों में उपस्थित हुआ था और कई राजकुमारियों से ब्याह किया था यह कि रुद्रदामन वास्तव में एक महान शासक था। इस तथ्य की पुष्टि 5 ईषद्वारा रचित तीन कृतियों से होती है। इन कृतियों से उन वित्तीय शब्दावली का आभास होता है जो रुद्रदामन के नाम से रखी गयीं और जिसके दरबार में कालिदास रहा हो। यह स्मरणीय बात है कि करीब 300 वर्ष बाद भी बुद्धघोष के समय में रुद्रदामन याद किया जाता रहा। वेष्टन की तरह रुद्रदामन का भी विदेशी साहित्य में नाम है।
(5) दया दामजद श्री दामपसद या दामजद श्री ने 170 ई० में महाक्षत्रप की उपाधि धारण की। उसके सिक्के दंगवाड़ा से भी प्राप्त हुये हैं। शायद 175 ई० तक ही उसका शासन रहा। लगता है, उसके समय साम्राज्य में कोई खलबली नहीं हुयी।
(6) जीवनदामन और रुद्रसिंह दामजद श्री के बाद जीवनदामन हुआ। वह करीब 175 ई० में महाक्षत्रप हुआ। इसके भी सिक्के दंगवाड़ा से मिले हैं। इसका चाचा रुद्रसिंह बड़ा महत्वाकांक्षी था। गुंड अभिलेख से पता चलता है कि शायद उसने आभीरों की सहायता से अपने भतीजे को हटा दिया और 181 ई० में स्वयं महाक्षत्रप बन बैठा, अन्यथा वह अपने भतीजे के अधीन क्षत्रप था, परन्तु आभीर सेनापति (ईश्वरदत्त) ने उसे हटा दिया और लगभग 188 ई० पूर्व में स्वयं महाक्षत्रप हो गया और उसने अपने नाम के सिक्के भी चलाये। रुद्रसिंह शायद उसके अधीन क्षत्रप हो गया। लगता है ईश्वरदत्त को रुद्रसिंह को हटाने में सातवाहन यज्ञ शातकर्णी से सहायता मिली थी। यज्ञ शातकर्णी ने भी शकों की कीमत पर साम्राज्य का विस्तार किया। सम्भवतः ईश्वरदन और यज्ञ शातकर्णी दोनों ने मिलकर जीवनदामन और रुद्रसिंह के बीच की संघर्षपूर्ण परिस्थिति का लाभ उठाया। जो भी हो, 191 ई० के लगभग रुद्रसिंह ईश्वरदत्त को हटाने में सफल हो गया और पुनः महाक्षत्रप बन गया। करीब 197 ई० तक वह रहा और उसके बाद जीवनदामन ने पुनः सत्ता सम्भाल ली। यह निश्चित नहीं है कि दोनों के बीच समझौता हो गया था या भतीजे ने चाचा को हरा दिया था। अधिक सम्भावना समझौते की लगती है, क्योंकि रुद्रसिंह का लड़का रुद्रसेन जीवनदामन का क्षत्रप हो गया था।
(7) रुद्रसेन I- फिर रुद्रसेन | हुआ। उसने लगभग 220 से 222 ई० तक राज्य किया। संघदामन और दामसेन उसके 2 भाई थे तथा पृथ्वीसेन और दामजद II दो लड़के । इसके समय मालवा, गुजरात, कॉठियावाड़ और पश्चिमी राजपूताना शकों के अधिकार में बने रहे और उज्जैन राजधानी बनी रही।
(8) संघदामन और दामसेन- रुद्रसेन । के बाद ताज संघदामन के पास चला गया। उसने सिर्फ करीब 14 वर्ष ही शासन किया और फिर 223 ई० के करीब उसका छोटा भाई महाक्षत्रप हो गया। शायद संघदामन की असामयिक मृत्यु हो गयी हो। ए० एस० अल्लेकर का मत है कि शायद वह अजमेर-उदयपुर क्षेत्र के मालवों के (जो स्वतन्त्र होने का प्रयास कर रहे थे) विरुद्ध संघर्ष में मारा गया होगा। श्रीसोम या नन्दीसोम नामक एक मालव मुखिया ने उदयपुर के पास नान्दसा में देश की स्वतन्त्रता की खुशी में यज्ञ किया था। मालवा की स्वतन्त्रता का पता हमें 226 ई० के एक अभिलेख से होता है।
दामसेन ने करीब 237 राज्य उसके राज्य के प्रथम 1 सकेको कार्य किया, पर
उसके अन्तिम 4 वर्षों में उसका पुत्र बीरदासन अप होगा। (७) दाम | और स्टोन IV-दामन का पुत्र वीरान शायद मृत्यु को जल्दी प्राप्त हो गया और इसलिये दामसेन के बाद यशोदामन महाक्षत्रप हुआ यह भी असामयिक रूप से एक ही वर्ष के अन्दर मौत को प्राप्त हुआ (24839 ६०) । लगता है इस समय कुछ राजनीतिक गड़बड़ चल रही थी। फिर विजय हुआ जिसने करीब 12 (230.51 (6) शान्तिपूर्वक राज्य किया और जिसके सिक्के गुजरात और काठियावाड़ से काफी तादाद में मिले हैं। हाल ही में गुजरात में राजकोट के पास कोरेलागाँव में 32 चाँदी के सिक्के मिले हैं, जिन पर विजयसेन रायो महाक्षत्रप राजा सुपुत्र ख़ुदा हुआ है। विजयसेन के बाद उसका छोटा भाई दामजद तृतीय हुआ, करीब 2500 ई० में फिर करीब 255 ई० में उसके सबसे बड़े भाई वीरदामन के लड़के रुद्रसेन द्वितीय ने उसका स्थान लिया। उसने करीब 25 वर्ष राज्य किया। 239 और 275 ई० के मध्य किसी भी राजकुमार के शासन कर रहे शासक के साथ होने का पता नहीं चलता है। लगता है, यह पद खत्म कर दिया गया था जिसे रुद्रसेन 11 ने अपने शासन के अन्तिम समय में पुनर्जीवित किया। उसकी मृत्यु के कुछ समय पूर्व उसके लड़के विश्वसिंह ने कुछ समय के लिये क्षत्रप का कार्य किया था। कुछ का मत है कि इस समय वाकाटक विन्ध्यशक्ति ने पूर्वी मालवा का कुछ हिस्सा अपने साम्राज्य में मिला लिया था, परन्तु यह मत सही प्रतीत नहीं होता, क्योंकि एरन से सिक्कों के करीब 24 मौल्ड्स (Moulds) अर्थात् साँचे एवं क्षत्रप सिंहसेन और उसके पिता ईश्वरमित्र के नाम की एक मिट्टी की सील प्राप्त हुयी है।
(10) विश्वसिंह और भतृदामन-रुद्रसेन द्वितीय के बाद करीब 279 ई० में उसके पुत्र विश्वसिंह ने उसका स्थान लिया। लगता है उसने केवल 3 वर्ष ही राज्य किया, क्योंकि हमें 282 ई० में उसके भाई भतृदामन के महाक्षत्रप होने का पता चलता है, चूंकि भतृदामन और विश्वसेन के क्रमशः महाक्षत्रप और क्षत्रप की हैसियत से प्रसारित अनेक सिक्के प्राप्त हुये हैं, इसलिये ऐसा माना जा सकता है कि ये दोनों अपने कुटुम्ब के भाग्य को काफी हद तक पुनर्जीवित करने में सफल हुये। चेष्टन घराने से सम्बन्धित अन्तिम क्षत्रप विश्वसेन था । लगता है भतृदामन और विश्वसेन को ससेनियनों (Sassanians) ने उखाड़ फेंका था, पर इस मत के बारे में विवाद है।
– सातवाहन वंश के विषय में आप क्या जानते हैं ?
What do you know about the Satavahana Dynasty? या गौतमीपुत्र शातकर्णी कौन था ? क्या आप उसे सातवाहन राजवंश का प्रमुख शासक मानेंगे ? Who was Gautamiputra ? Can you regard him as the most important Satavahana ruler ?
उत्तर-
सातवाहनों का परिचय
(सातवाहनों का परिचय)
अधिकांशतः सातवाहनों के शासनकाल का प्रारम्भ 27 ई० पू० से माना जाता है। उनकी जाति एवं मूल निवास के बारे में मतभेद हैं।
(1) अनार्य-आयंगर आदि का विचार है कि सातवाहन अनार्य थे, क्योंकि- (i) अनेक राजाओं के नाम अनार्थ थे, जैसे- सिमुक हाल पुलोपावी।
(ii) सातवाहनों ने अनायों के समान अपने नाम अपनी माताओं के नाम पर जैसे गौतमीपुत्र वाशिष्ठीपुत्र आदि। (iii) सातवाहनों ने अनायों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित किये। (iv) पुराणों में सातवाहनों को आवंशीय कहा गया है और आन्ध्र जाति अनार्य थी।
किन्तु (1) दक्षिण भारत का आर्थीकरण देरी से हुआ, इस कारण सातवाहनों के पर अनार्य प्रभाव दिखायी देता है।
(ii) उपरोक्त तर्क हो माँ के नाम पर अपने नाम रखने के विषय में भी लागू होता है, अन्यथा सातवाहनकालीन समाज मातृ प्रधान न था । (iii) जहाँ तक अनाथों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने की बात है, अन्तर्जातीय
विवाह प्रत्येक काल में हुये हैं। कहा जाता है, चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानी राजकुमारी से विवाह
किया था, पर इस आधार पर उसे यूनानी नहीं माना जा सकता। अकबर ने हिन्दू स्त्रियों से
विवाह किया था पर उसे हिन्दू नहीं कहा जाता।
(iv) यदि पुराणों में सातवाहनों को आन्ध्र कहा गया है तो इसका तात्पर्य उनकी जाति से नहीं, उनके निवास स्थान से है। चूँकि वे गोदावरी और कृष्णा नदी के मध्य आन्ध्र प्रदेश में रहते थे, अतः पुराणों में उन्हें उनके निवास स्थान के आधार पर आन्ध्र कहा गया। इस प्रकार उनको आन्ध्र कहा जाना उनकी जाति का नहीं, वरन् उनके निवास स्थान का सूचक है। फिर उनके किसी भी अभिलेख में उन्हें आन्ध्र जाति का नहीं कहा गया है।
(2) आर्य-अधिकांश विद्वानों का विचार है कि सातवाहन आर्य थे, किन्तु वे ब्राह्मण थे या नहीं, इस बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। जो विद्वान सातवाहनों को ब्राह्मण नहीं मानते उनमें गोपालाचारी और भण्डारकर आदि मुख्य हैं। ये कहते हैं कि-
नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णी की तुलना राम, अर्जुन तथा भीम से की गयी है, अतः वह क्षत्रिय रहा होगा किन्तु इस आधार पर सातवाहनों को क्षत्रिय स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि
तुलना का आधार उनकी जाति नहीं, वरन् वीरता एवं साहस था।
(3) ब्राह्मण-सेनाई, व्हलर एवं त्रिपाठी आदि विद्वानों का विचार है कि सातवाहन
ब्राह्मण थे। राय चौधरी भी उन्हें ब्राह्मण ही मानते हैं, परन्तु उनका विचार है कि सातवाहनों
में नाग (वंश) के रक्त का भी मिश्रण था। सातवाहनों को ब्राह्मण स्वीकार करने वाले विद्वान् अपने मत के समर्थन में ये तर्क देते हैं- (i) नासिक लेख में गौतमीपुत्र को ‘परशुराम सा पराक्रमी ब्राह्मण’ कहा गया है।
(ii) नासिक लेख में ही उसे ‘खतियदपमानमदनस’ (क्षत्रियों का दर्प और मान चूर करने वाला) कहा गया है। अतः स्पष्ट है कि वह क्षत्रिय न था, ऐसी स्थिति में वह ब्राह्मण ही रहा होगा।
(iii) गौमतीपुत्र व वाशिष्ठीपुत्र नाम ब्राह्मण गोत्र गौतम व वाशिष्ठी पर आधारित है। किन्तु भण्डारकर और कु० भ्रमर घोष ने एक तर्क के आधार पर सातवाहनों को अब्राह्मण माना है। उनके मतानुसार गौतमीवल्लभी के लिये ‘राजर्षि वधू’ का प्रयोग किया गया है जिससे स्पष्ट होता है कि वे ब्राह्मण नहीं थे अन्यथा ‘ब्रह्मर्षिवधू’ शब्द प्रयुक्त किया गया होता।
खण्डन- यदि गौतमीवल्लभी के लिये ‘राजर्षि वधू’ का प्रयोग किया गया है तो उससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह एक अब्राह्मण कुल की वधू थी। राय चौधरी ने भी यह सिद्ध किया है कि, ‘राजर्षि’ शब्द का प्रयोग हमेशा ही अब्राह्मणों के लिये प्रयुक्त नहीं हुआ है,
परत मौर्य युग वाहन तथ अरिक भारतीय साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें को भी ही कहा गया है। इसके अतिरिक्त सातवाहन नरेशों के लिये का प्रयोग उपहारपद होता, क्योंकि उन्होंने अपने हाथों में शस्त्र ग्रहण कर लिया था। अतः स्पष्ट है कि सातवाहन ब्राह्मण रहे होंगे।
मूल स्थान
वी० वी० मिराशी का विचार है कि सातवाहनों का मूल स्थान वरार (विदर्भ) था. क्योंकि वहाँ उनकी मुद्रायें मिली हैं, पर गौतमीपुत्र से पहले की नहीं, अतः यह मत उचित प्रतीत नहीं होता।
जायसवाल वाट आदि ने आन्ध्र प्रदेश को सातवाहनों का मूल निवास स्थान माना है, किन्तु वाशिष्ठीपुत्र पुलमावी पूर्व किसी सातवाहन राजा के यहाँ शासन करने के प्रमाण नहीं मिलते, अतः स्पष्ट है कि वहाँ के बाद में पहुंचे होंगे। सुक्थंकर के मत में सातवाहन वेलरी (चेन्नई) में रहते थे, किन्तु वहाँ से सातवाहनों
के लेखों व मुद्राओं का न मिलना इस मत को भी अस्वीकार करने के लिये विवश करता है।
अधिकांश विद्वानों का विचार है कि सातवाहन मूलतः महाराष्ट्र के निवासी थे, किन्तु
शकों द्वारा परास्त किये जाने पर वे कृष्णा और गोदावरी के मध्य आन्ध्र देश में बस गये।
थे। इसी कारण इन्हें आन्ध्र भी कहा जाने लगा।
संस्थापक एवं अन्य शासक
(1) कृष्ण-सिमुक के बाद उसका अनुज कृष्ण या कान्ह सिंहासन पर बैठा। उसने अपने साम्राज्य का विस्तार करने का प्रयत्न किया। नासिक लेख से ज्ञात होता है कि उसके शासनकाल में नासिक में एक गुहा का निर्माण हुआ। इससे पता चलता है कि उसने नासिक तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था।
(2) शातकर्णी I – कृष्ण के पश्चात् शातकर्णी 1 शासक बना। यह एक शक्तिशाली एवं पराक्रमी शासक था। इसने मगध राज्य के संस्थापक बिम्बिसार की भाँति सैन्य विजय और वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा अपनी स्थिति सुदृढ़ करने की ओर ध्यान दिया। उसे “सिमुक सिमुक सातवाहनस वंशधनस” (सिमुक के वंश का धन) कहा गया है। उसने महाराष्ट्र की महारथी की कन्या से विवाह करके अपने राजनीतिक प्रभाव में अभिवृद्धि की। इस प्रकार वह लगभग सम्पूर्ण दक्षिणापथ का अधिकारी हो गया। नानाघाट अभिलेख में उसे ‘अप्रतिहत दक्षिणापथपति’ कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने पूर्वी मालवा पर भी अपना नियन्त्रण स्थापित किया। पुष्यमित्र शुंग की भाँति उसने भी दो बार अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया और ब्राह्मण धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित की। नानाघाट का अभिलेख ही इस विषय में साक्ष्य प्रस्तुत करता है जिसमें उसके लिये “अश्वमेघ यज्ञ द्वितीय इष्टं” कहा गया है। एच० सी० राय चौधरी का कहना है कि, “शातकर्णी प्रथम राजा था जिसने सातवाहनों को विन्ध्य पार भारत के सर्वसत्ताधारक सम्राटों की स्थिति तक उठाया। इस प्रकार गोदावरी की घाटी में पहले महान् साम्राज्य का उत्थान हुआ जो विस्तार तथा शक्ति में गंगा की घाटी के संग
साम्राज्य और पंचनद प्रदेश के यूनानी साम्राज्य की बराबरी करता था।” इस शक्तिशाली नरेश को भी अपने एक समकालीन नरेश से लोहा लेना पड़ा। कलिंग नरेश खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख से यह प्रमाण मिलता है कि शातकर्णी की
भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक) न समझते हुये उसने अपने शासन के द्वितीय वर्ष में सुपि नगर पर
शक्ति को कुछ भी अक्रमण कर दिया और सातवाहन नरेश से पैर ठान लिया। परन्तु इस और से सातवाहन वंश के गौरव को कुछ भी धक्का नहीं लगने पाया। खारवेल की शक्ति स्थायी नहीं हो पाय और शातकणों का गौरव पूर्ववत ही बना रहा। पर खारवेल- शातकर्णी संघर्ष पर विवाद है। जो भी हो, शातकर्णी ने केवल 9 वर्ष शासन किया। उसके शासनकाल में व्यापार
उन्नत दशा में प्रतीत होता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, कल्याण व्यापार का महत्त्वपूर्ण
केन्द्र था। उसने अपने राज्यकाल में मुद्रा भी प्रसारित की थी। जिन पर ‘सिरि सात और
‘सातकर्णी’ नाम अंकित है। इन मुद्राओं की शैली से कुछ इतिहासकार यह अनुमान लगाने
हैं कि शातकर्णी । के राज्य में पश्चिम का कुछ भाग भी सम्मिलित था।
शातकर्णी 1 ने एक विशाल राज्य की स्थापना की थी, जिसमें महाराष्ट्र, कोंकण तथा
मालवा प्रदेश सम्मिलित थे। वह सातवाहन वंश का प्रथम प्रतापी सम्राट था जिसने विन्ध्यप्रदेश
मे सार्वभौम सत्ता स्थापित की, जिससे गोदावरी घाटी में प्रथम महान् साम्राज्य का उदय हुआ जिसने शक्ति और विस्तार में शंग साम्राज्य और पंचनन्द के यवन राज्य को मात दी। शातकर्णी । के बाद से गौतमीपुत्र शातकर्णी तक- शातकर्णी की मृत्यु के समय उसके दोनों पुत्र—शक्ति श्री (पुलोमावी 1) व वेदश्री अल्पवयस्क थे, अतः उनकी माता नागनिका ने उनके संरक्षक के रूप में कार्य करते हुये शासन किया। इसके बाद कुछ वर्षो का सातवाहन वंश का इतिहास अन्धकार में विलुप्त है। पुराणों में यद्यपि इस काल के राजाओं की सूची है, किन्तु वह प्रामाणिक नहीं है। फिर भी इतना निश्चित है कि यह सातवाहन वंश की अवनति का समय था।
गौतमीपुत्र शातकर्णी – गौतमीपुत्र शातकर्णी, जिसका समय 106 ई० से 130 ई० या 137 ई० माना जाता है, अपने वंश का सबसे पराक्रमी, प्रतापी राजा था। उसने अपने वंश की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित कर अपने आपको उस वंश के महानतम् राजाओं में से एक सिद्ध किया। उसने अपने शासनकाल में सातवाहन वंश को गौरव के शिखर पर पहुँचा दिया। अपने शासनकाल में उसने विदेशी आक्रमणकारियों को मातृभूमि से खदेड़ दिया और अनेक समकालीन राजाओं से लोहा लेकर उन्हें पराजित किया।
विजयें एवं साम्राज्य विस्तार-नासिका गुहा लेख से पता चलता है कि गौतमीपुत्र ने शक, यवन, पहलव नरेशों को हराया और क्षहरात जाति का नाश किया और अपने वंश की कीर्ति पुनः स्थापित की। क्षहरात नहपान सातवाहनों का प्रबल शत्रु था। गौतमीपुत्र ने उसको युद्ध में परास्त कर उसके द्वारा हथियाये प्रदेशों को वापस ले लिया। इसके बाद क्षहरात वंश का अन्त हो गया। नासिक अभिलेख के अनुसार गौतमीपुत्र शत्रुओं का मानमर्दन करने वाला कहलाता था। इससे प्रतीत होता है कि उसने कुछ क्षत्रिय राजाओं को परास्त किया होगा। धहरातों के अन्त के बाद गौतमीपुत्र ने नहपान की मुद्राओं को अपने नाम से प्रचलित किया।
सारांशतः अपनी विजयों के फलस्वरूप उसके राज्य की सीमा उत्तर में मालवा (अवन्ति) और काठियावाड़ से दक्षिण में गोदावरी नदी तक तथा पूर्व से विदर्भ में पश्चिम में कोंकण तक उसके राज्य की सीमा थी। इस प्रकार उसका राज्य ‘त्रि-समुद्र’ पर्यन्त अर्थात् अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत था। नासिक अभिलेख में उसे ‘खातिय दपमान मदस्म’ अर्थात् क्षत्रियों का मान मर्दन करने वाला कहा गया है। अनेक विद्वानों का मत है कि अपनी मृत्यु से पहले गौतमीपुत्र को शकों के हाथ पराजित होना पड़ा और उसके राज्य
का बहुत-सा भाग जगा काहार का सांत या वह विद्वान एवं धर्मशार क विभिन्न सोतों से होता है कि वह एक योग्य, कुशल एवं दूरदेशी शासक होने के साथ जनता में लोकप्रिय एवं आदर का पात्र थारूपवान एवं प्रभावशाली व्यक्तिका वालिष्ठ शरीर एवं लम्बी भुजाओं वाला व्यक्ति था एक दवा एवं आदर्श शासक था। वह अपने कुबियों को उन्नति करने वाला था अपन के प्रति सद्भाव रखता था। रक्तपिपासू नहीं था वह दानशील भी था नामक अभिलेख से उसके द्वारा दिये गये दानों के विषय में पता चलता है।
गौतमीपुत्र एक प्रजावत्सल शासक था और उसी के अनुरूप यह कार्य करता था। प्रजा पर आवश्यकता से अधिक कर नहीं लगाता था। प्रजा की ख़ुशी के लिये चट उत्सव एवं समाज भी करवाता था। अपराधियों के साथ नरमी का व्यवहार करता था। उत्कीर्ण लेखों और पुराणों से गौतमीपुत्र की शासन पद्धति का सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिलता। माना जाता है कि याज्ञवल्क्यस्मृति इसी काल में लिखी गयी, अतः सातवाहन शासन पद्धति की इस पर पूरी छाप है। इससे ज्ञात होता है कि राज्य का केन्द्रीय शासन सुदद्द था और न्याय व्यवस्था बहुत अच्छी तरह से संगठित थी।
गौतमीपुत्र ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था तथा उसके विकास के लिये उसने प्रयत्न भी किये। उसने न केवल वैदिक अनुष्ठानों को स्वीकार करके उन्हें प्रधानता ही दो, अपित ब्राह्मण धर्म के लिये जो तत्त्व घातक थे उनके उन्मूलन का भी प्रयत्न किया, परन्तु वह असहिष्णु नहीं था। बौद्ध धर्म के प्रभाव और विदेशियों के सम्पर्क के कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – इन चारों वर्णों में परस्पर जो वर्णशंकरता उत्पन्न हो गयी थी, उसको गौतमीपुत्र शातकर्णी ने दूर किया।
गौतमीपुत्र शातकर्णी के बाद के शासक एवं सातवाहनों का पतन – गौतमीपुत्र शातकर्णी के बाद उसका पुत्र वाशिष्ठीपुत्र श्री पुलोमावी II सिंहासन पर बैठा। वह भी अपने पिता की भाँति एक शक्तिशाली एवं योग्य राजा सिद्ध हुआ, जिसने महाराष्ट्र और आन्ध्र दोनों देशों पर शासन किया। कहा जाता है कि उसने कृष्णा नदी के मुहाने का प्रदेश तथा बेल्लारी जिले को जीतकर सातवाहन साम्राज्य में मिलाया। उसने शक क्षत्रप रुद्रदामन की पुत्री से विवाह किया लेकिन उसे अपने श्वसुर से लम्बे समय तक युद्ध करना पड़ा जिसमें उसकी दो बार पराजय हुयी जिससे उसे अपने कुछ उत्तरी प्रदेश खोने पड़े। यह दामाद-श्वसुर के मध्य संघर्ष का एक ऐतिहासिक उदाहरण हैं। पुलोमावी के बाद शिवश्री शातकर्णी और शिवस्कन्द शातकर्णी यज्ञश्री शातकर्णी हुये,
परन्तु इनके बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती।
तद्पश्चात् सातवाहन वंश का अन्तिम महान् राजा यज्ञश्री शातकर्णी गद्दी पर बैठा। उपलब्ध अभिलेखों और सिक्कों से पता चलता है कि उसका साम्राज्य अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक फैला हुआ था। उसने शकों द्वारा जीते हुये अधिकांश प्रदेश छीन लिये। यह भी अनुमान है कि उसने स्वयं मध्य प्रदेश की सातवाहन शाखा का भी अन्त कर दिया। उसके शासकों को पश्चिमी भारत और नर्मदा की खाड़ी से खदेड़ दिया। उसने एक निराले ढंग की मुद्रा चलायी जिस पर जहाज की आकृति बनी है। इससे प्रकट होता है कि उसका राज्य सागर तट तक फैला हुआ था।
कुषाण कौन थे ? इस वंश के सबसे महत्वपूर्ण शासक के जीवन तथा उपलब्धियां का वर्णन कीजिये।
Who were the Kushanas ? Sketch the career and achievements of the most notable ruler of the dynasty. कनिष्क की उपलब्धियों और विजयों के बारे में आप क्या जानते हैं ? या
आप उपलब्धियों या विजय के बारे में क्या जानते हैं
या
“कनिष्क युद्ध में भी उतना ही महान था जितना कि शान्तिकाल में इस कथन
की व्याख्या कीजिये।
“Kanishka was as great in war as in Peace.” Elucidate. या | भारत में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये कनिष्क की सेवाओं का मूल्यांकन कीजिये Evaluate the services of Kanishka for the propagation of Buddhism in India.
उत्तर-
कनिष्क (Kanishka)
भारत के कुपाणवंशी शासकों में कनिष्क तीसरा और सबसे अधिक प्रतापी, शक्तिशाली, प्रभावशाली एवं महत्त्वपूर्ण शासक था। कनिष्क का सिंहासनारोहण 78 ई० में हुआ था। पश्चिमी भारत के उसके समकालीन शक राजाओं द्वारा दीर्घकाल तक इसके प्रयुक्त होने के कारण यह संवत् शक संवत् कहलाने लगा था और वर्तमान में हमारा राष्ट्रीय संवत् भी यही है।
कनिष्क की राजनीतिक उपलब्धियाँ या विजयें
(Political Achievements or Conquests of Kanishka) (1) भारत — (i) पूर्व में कनिष्क के अभिलेख मथुरा, कौशाम्बी और सारनाथ से प्राप्त हुये हैं। ये सभी अभिलेख उसके द्वारा चालू किये गये संवत् में लिखे गये हैं। उसके सिक्के हमें वैशाली, जुन्नर तथा पाटलिपुत्र से प्राप्त हुये हैं। तिब्बती और चीनी स्रोत भी उसकी साकेत और पाटलिपुत्र के राजा के साथ हुयी मुठभेड़ को सन्दर्भित करते हैं। ‘श्रीधर्मपिटक निधानसूत्र’ से भी हमें यह पता चलता है कि उसने पाटलिपुत्र के शासक को हराया था और उसने युद्धक्षति प्राप्त की थी। बौद्ध परम्परा के अनुसार, जब उसने पाटलिपुत्र पर अधिकार कर लिया तो महान् बौद्ध दार्शनिक अश्वघोष भी उसके हाथों में आ गया और उसे अपने साथ ही ले गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अश्वघोष कनिष्क के दरबार को सुशोभित करता था। इससे अनुमान लगाया गया है कि कनिष्क ने मगध के कुछ भाग को विजित किया होगा। इस मत की पुष्टि इस बात से होती है कि कनिष्क के सिक्के बहुत बड़ी संख्या में गाजीपुर तथा गोरखपुर से पाये गये हैं। पुराणों में भी मगध के असभ्य शासकों का जिक्र आया है जिनके शारीरिक गुण कुषाणों के से थे। ‘कल्पनामुद्रिका’ में भी कनिष्क की पूर्वी भारत पर चढ़ाई का जिक्र आया है। इन सभी प्रमाणों से पता चलता है। कि कनिष्क ने भारत के लम्बे पूर्वी भाग पर अधिकार कर रखा था। इसमें उत्तर प्रदेश और
बिहार के भाग भी सम्मिलित थे। (II) पश्चिम में कनिष्क ने पश्चिम में अपने साम्राज्य के विस्तार हेतु मालवा तथा उज्जैन के शक क्षत्रपों के विरुद्ध भी युद्ध किया। अत्यधिक सम्भावना यही है कि कनिष्क
परवर्ती गुप्त युग – पल्लव और चालुक्य
[ POST GUPTA PERIOD UPTO 750 A.D. – PALLAVAS AND CHALUKAYAS]
न तो विदेशी थे, न द्रविड़ वरन उत्तर के बाद के अभिजात कुलीन ब्राह्मण थे, जिन्होंने सैनिक वृत्ति अपना ली थी और वाकाटकों की एक शाखा के रूप में थे।” के० पी० जायसवाल “पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का सबसे प्रसिद्ध एवं प्रतिभाशाली सम्राट था। यह बड़ा ही महत्वाकांक्षी विजेता एवं वीर सेनानी था। उसमें उच्चकोटि की सैनिक प्रतिभा के साथ-साथ एक उच्चकोटि के राजनीतिज्ञ के गुण भी थे।”
प्रश्न 1- पल्लव कोन थे ? उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न मतों एवं उनके मूल निवास स्थान के बारे में बतलाते हुये उनके उत्थान एवं पतन का वर्णन कीजिये।
या महेन्द्रवर्मन प्रथम से परमेश्वरवर्धन प्रथम तक के पल्लव इतिहास का वर्णन कीजिये। Trace the history of Pallavas from Mahendraverman 1 to
Parmeshvarverman.
उत्तर-
पल्लवों का परिचय (Introduction of Pallavas)
पल्लव कौन थे ? यह एक विवादास्पद विषय है। कुछ इतिहासकारों ने पल्लवों को पहलवों, नागों तथा वाकाटकों से सम्बन्धित किया है जिसका जिक्र नीचे किया जा रहा है-
(1) पल्लवों से सम्बन्ध-पल्लव और पहलव शब्दों में एकरूपता होने के कारण अनेक इतिहासकार पल्लवों की उत्पत्ति पहलवों से मानते हैं। वेनकैया का ऐसा ही मत है। पर शब्दों की साम्यता उनकी उत्पत्ति का द्योतक नहीं। फिर ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं मिलता कि पल्लव कभी दक्षिण पथ अथवा पश्चिम भारत से सुदूर दक्षिण में जाकर बसे ।
बी० एल० राइस तथा दुर्बीया ने भी पल्लवों का सम्बन्ध पहलवों से जोड़ा है। राइस अपने मत के समर्थन में कहते हैं कि नामों में साम्य होने के अतिरिक्त कांची के एक मन्दिर में पल्लव नरेश नन्दवर्मन द्वितीय के सिंहासनारोहण की एक मूर्ति है जिसमें वह डोमिट्रियस की भाँति अपने सिर पर गजशीष धारण किये हुये है। दुर्बीया के अनुसार, रुद्रदामने के पहलव मन्त्री सुविशाख ने कांची के पल्लव वंश की स्थापना की थी।
राम और दया के विचार तर्कसंगत प्रतीत नहीं होते, क्योंकि पल्लव वंश के किसी भी लेख में पहलों का उल्लेख नहीं है। इसके अतिरिक्त सर्वविदित है कि पल्लवी ने अश्वमे यत्र किया था, यदि वे पल्लवों से सम्बन्धित होते तो वह कदापि ऐसा नहीं करते।
(2) चोल एवं नागों से सम्बन्ध-मुदालियर सी० रसनगम सी० एस० निवासवारी तथा आयंगर का मत है कि पल्लव चोल तथा नागों से सम्बन्धित थे। रसनयगम ने लिखा है कि लंका के एक चोल राजा किल्लवलवन ने मनीपल्लवम के नाग राजा की कन्या के साथ विवाह किया था। इनसे उत्पन्न पुत्र का नाम टोण्डैमन ईलन्तिरयन रखा गया। यह पुत्र टोण्डैमंडलम् का राजा हुआ तथा इसकी राजधानी कांची थी। नाग कन्या के निवास प्रदेश मनी पल्लवम के नाम पर इस राजकुमार के वंश का नाम पल्लव वंश पड़ा। इस प्रकार पल्लव चोलों एवं नागों का सम्मिश्रण है। इस मत का खण्डन आर० गोपालन ने प्रत्योत्पादक तर्कों के द्वारा किया है।
(3) वाकाटकों से सम्बन्ध-के० पी० जायसवाल पल्लवों को वाकाटकों की एक शाखा मानते हैं। सर्वविदित है कि वाकाटक ब्राह्मण थे, किन्तु पल्लवों को तालगुण्ड अभिलेख में क्षत्रिय कहा गया है। अतः डॉ० जायसवाल के मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
पल्लवों का इतिहास (History of Pallavas)
(1) प्राकृत काल-पल्लवों का प्रारम्भिक काल प्राकृत काल कहलाता है, क्योंकि इस समय के इनके पत्र प्राकृत में हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार पल्लव आरम्भ में सातवाहनों के सामन्त थे और उन्हीं की अधीनता में शासन करते थे। सातवाहन साम्राज्य के पतन के समय जब अन्य सामन्तों ने अपने को स्वतन्त्र करना आरम्भ किया उसी समय पल्लवों ने भी अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया और अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया।
(2) बप्पादेव – ईसा की तीसरी शताब्दी के प्राकृत में लिखे हुये तीन ताम्रपत्रों से पता चलता है कि इस वंश का पहला राजा वप्पादेव था जिसने जंगलों को काट कर तथा सिंचाई की सुविधा करके इस प्रदेश को रहने योग्य बना दिया। बप्पादेव ने तेलगू आन्ध्रपथ तथा तमिल टोण्डैमंडलम् पर अपनी प्रभुता स्थापित कर ली। तेलगू आन्ध्रपथ का प्रधान नगर धान्यकट अर्थात् धरणांका था और तमिल मंडल को अ कांजीवरम् थी।
(3) शिवस्कन्दवर्मन – बप्पादेव के उपरान्त उसका पुत्र शिवस्कन्दवर्मन राजा हुआ। प्रारम्भिक पल्लव नरेशों में उसका नाम अप्रगण्य है। वह एक शक्तिशाली नरेश प्रतीत होता है। उसने धर्म महाराज की उपाधि धारण की थी। उसने अश्वमेघ तथा बाजपेय यज्ञ भी किये थे जिससे यह आभासित होता है कि वह एक विजयी तथा शक्तिशाली नरेश एवं ब्राह्मण धर्म का अनुयायी रहा होगा। उसका राज्य उत्तर में कृष्णा नदी तक और पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत था। उसका शासनकाल 275 ई० के आस-पास रखा गया है।
(4) विष्णुगोप- शिवस्कन्दवर्धन के उपरान्त का पल्लवों का बहुत दिनों का इतिहास -अन्धकारमय है। इस अन्धकारमय युग के पश्चात् सर्वप्रथम हमें समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में पल्लवों का उल्लेख मिलता है। इस प्रशस्ति के अनुसार जिस समय समुद्रगुप्त अपना दक्षिण विजय का अभियान चला रहा था उस समय कांची में पल्लव नरेश विष्णुगोप शासन कर रहा था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि विष्णुगोप को अपने पास पड़ोस के नरेशों का संघ बनाकर समुद्रगुप्त का सामना करना पड़ा था, किन्तु अन्त में वह पराजित हो गया था। इस काल में पल्लवों के घोषणा-पत्र प्राकृत में प्रकाशित होते थे।
(5) संस्कृत घोषणा-पत्रों का काल-पल्लवों के विकास का दूसरा काल वह था जिसमें उनके घोषणा-पत्र संस्कृत भाषा में निकाले जाते थे। इस काल के राजाओं ने चौथी सदी से छठी के अन्त तक शासन किया था। इस काल के दान-पत्रों से तत्कालीन राजनीतिक दशा पर कुछ प्रकाश नहीं पड़ता। अतएव इस युग का पल्लव इतिहास अन्धकारपूर्ण है।
परवर्ती गुप्त युग पालव और चालुक्य
(6) वरीकु सिंहवर्मन तथा कुमारविष्णु इस काल का प्रथम राजा वरीकुर्य माना जाता है जिसने नागवंश की राजकुमारी के साथ विवाह करके अपने वंश के महत्व को बढ़ा दिया था। दानपत्रों से इस समय के एक अन्य राजा सिंहवर्मन का नाम प्राप्त होता है। यह लगभग 434 ई० में सिंहासन पर बैठा था, यह बौद्ध धर्मावलम्बी था। इस समय पलव को चोलों से निष्फल संघर्ष करना पड़ा और काँची उनके हाथ से निकल गया था। अनुमान कि उन्हें विवश होकर नेल्लोर की ओर जाना पड़ा। एक अभिलेख से ऐसा लगता है कि कुमार विष्णु के काल में पल्लवों ने कांची पर फिर अपना अधिकार जमा लिया था। (7) महान् पल्लवों का काल-पल्लवों के विकास का तीसरा काल महान पल्लवों
का काल कहलाता है। यह काल छठी सदी के अन्तिम भाग से आरम्भ होता है।
(8) सिंहविष्णु अवनिसिंह इस वंश की स्थापना सिंहविष्णु ने की थी। वह बड़ा ही वीर तथा प्रतापी शासक था। सिंहविष्णु ने दक्षिण की शक्तिशाली कलन को पराजित किया तथा सम्पूर्ण चोलमंडल की विजय कर अपने राज्य का कावेरी तक विस्तार किया। इसने पाण्ड्य नरेश तथा सिंहल नरेश से भी युद्ध किये। अपने शूर कार्यों के कारण ही उसने ‘अवनिसिंह’ की उपाधि धारण की।
सिंहविष्णु के राज्यारोहण से काँची के इतिहास का एक नवीन युग प्रारम्भ हुआ। इस वंश के शासकों ने पल्लव राज्य की राजनीतिक शक्ति को अत्यधिक विकसित किया। इसी युग में शैव तथा वैष्णव सम्प्रदायों के अनेक प्रसिद्ध सन्तों का प्रादुर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त इसी युग में तमिल प्रदेश के निवासियों ने मन्दिर तथा अन्य इमारतों के निर्माणार्थ लकड़ी तथा ईंट के स्थान पर पत्थर का प्रयोग प्रारम्भ किया। महान् कवि एवं काव्यशास्वाविद भारवि तथा दण्डिन जो ‘किरातार्जुनीय’ तथा ‘काव्यादर्श’ के प्रणेता थे, इसी युग में कांची की राजसभा को समलंकृत करते थे
सिंहविष्णु की धार्मिक अभिरुचि वैष्णव मत की ओर थी, जैसा कि उसके नाम से भी स्पष्ट है। महाबलिपुरम में उसके तथा उसकी रानियों के उवांकित चित्र (Relief) मिलते हैं।
(9) महेन्द्रवर्मन प्रथम (600 ई0 से 630 ई०) – सिंहविष्णु के पश्चात् महेन्द्रवर्मन पल्लव वंश का शासक बना। महेन्द्रवर्मन अपने पिता के समान वीर, योग्य एवं साहसी था। महेन्द्रवर्मन का शासनकाल अनेक प्रमुख बातों के लिये उल्लेखनीय है। महेन्द्रवर्मन ही ऐसा पहला शासक था जिसने पाषाण खण्डों को काटकर मन्दिर बनवाने की कला का प्रचार किया। इसके अतिरिक्त महेन्द्रवर्मन के शासनकाल में ही अप्पर नामक सन्त ने अपने धर्म का प्रचार किया तथा संस्कृत के महाकवि भारवि ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य ‘किरातार्जुनीय’ की रचना की। शासन-प्रबन्ध के दृष्टिकोण से भी उसने जनता को निरुपद्रविता का वातावरण प्रदान किया। जिससे वह उद्योग व्यवसाय के शान्तिपूर्ण कार्यों में प्रवृत्त हो सकी। उल्लेखनीय है कि महेन्द्र से पूर्व अपने शासकों के युद्धों का भार जनता को वहन करना होता था । सैनिक दृष्टिकोण से भी महेन्द्र का शासनकाल महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि उसी समय से पल्लव-चालुक्य और पल्लव-पाण्ड्य संघर्षो का आविर्भाव हुआ, जो लगभग डेढ़ शताब्दी तक चलते रहे। संयोग की बात है कि महेन्द्रवर्धन के दो समकालीन शासक पुलकेशिन द्वितीय तथा सम्राट हर्षवर्धन उसी के समान कलानुरागी तथा संस्कृति के सम्पोषक थे। यह भारत का सौभाग्य था कि वहाँ एक साथ तीन शक्तिशाली तथा संस्कृति प्रेमी सम्राट हुये जिन्होंने अपनी शक्ति से देश की राजनीतिक स्थिति को दृढ़ता प्रदान की तथा अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रख सके। इस समय नाटक, संगीत (कुटुको राज्य में
संगीत से सम्बन्धित अभिलेख है, वह शायद महेन्द्रवर्मन के कहने पर लिखा गया है)। चित्रकला और अन्य कलाओं के लिये भी महेन्द्रवर्मन के समय कई प्रकार के प्रोत्साहन दिये गये। महेन्द्रवर्मन एक कुशल लेखक भी था, उसने ‘मत्तविलास प्रहसन’ नामक ग्रन्थ को
रचना की थी। उसने संगीत पर भी एक पुस्तक लिखी थी। महेन्द्रवर्मन ने अनेक उपाधियाँ भी धारण की जिसने ‘अविभाजन शक्ल, गुणाभार, विन आदि प्रमुख हैं। (10) नरसिंहवर्मन प्रथम (630 ई0-668 ई०) – महेन्द्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात उसका
पुत्र नरसिंहवर्मन राजगद्दी पर बैठा। नरसिंहवर्मन पल्लव वंश का सर्वाधिक प्रतापी राजा
प्रमाणित हुआ। नरसिंहवर्मन प्रथम के समय में भी चालुक्यों और पल्लवों की शत्रुता चलती रही। चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लव राज्य पर आक्रमण किया, परन्तु नरसिंहवर्मन प्रथम ने सिंहल के राजकुमार मानवर्मा की सहायता से पुलकेशिन को पराजित किया। तत्पश्चात् पुलकेशिन के राज्य पर आक्रमण करने के उद्देश्य से नरसिंहवर्मन ने एक शक्तिशाली सेना संगठित की। तत्पश्चात् उसने चालुक्यों पर आक्रमण किया। भयंकर युद्ध के पश्चात् पुलकेशी द्वितीय मारा गया तथा चालुक्यों की राजधानी बादामी पर नरसिंहवर्मन ने अधिकार कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में नरसिंहवर्मन ने ‘वातापिकोड’ की उपाधि धारण की। बादामी पर पल्लवों का अधिक समय तक अधिकार न रह सका, क्योंकि पुलकेशिन के पुत्र विक्रमादित्य ने अपने नाना गंग नरेश दुर्विनीत की सहायता से नरसिंहवर्मन को परास्त किया
और पुनः अपने पैतृक राज्य पर अधिकार किया। नरसिंहवर्मन ने एक जहाजी बेड़ा लंका भी भेजा। अपने और मित्र राजकुमार मानवर्मा को वहाँ का राजा बनाने में अपने द्वितीय प्रयास में सफल रहा। नरसिंहवर्मन ने चेरों, चोलो, कलनों और पाण्ड्यों आदि से भी युद्ध कर उन्हें परास्त किया।
आर० गोपालन के अनुसार, नरसिंहवर्मन अपने पिता के समान महान् निर्माता था। त्रिचनापल्ली जिले तथा पुहुकोटा रियासत में उसने चट्टान को खुदवाकर मन्दिरों का निर्माण कराया था। इन मन्दिरों का साधारण नक्शा भी महेन्द्रवर्मन प्रथम द्वारा निर्मित मन्दिरों से मिलता है। उसने महाबलिपुरम नामक नगर भी बसाया ।
(11) महेन्द्रवर्मन द्वितीय (668 ई०-670 ई०) नरसिंहवर्मन के पश्चात् उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन राजगद्दी पर बैठा। उसने केवल दो वर्षों तक राज्य किया। उसके शासनकाल में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं हुयी। 670 ई० में महेन्द्रवर्मन की मृत्यु रुवी
(12) परमेश्वरवर्मन प्रथम (670 ई०-680 ई०) – महेन्द्रवर्मन के पश्चात् उसका पुत्र परमेश्वरवर्मन पल्लव राज्य का राजा बना। उसके राजगद्दी पर बैठते ही चालुक्य नरेश विक्रमादित्य ने पाण्ड्य नरेश मारवर्मन प्रथम की सहायता से परमेश्वरवर्मन पर आक्रमण किया। परमेश्वरवर्मन को इस युद्ध में पराजय का मुख देखना पड़ा और कांची पर चालुक्यों का अधिकार हो गया, परन्तु इस कठिन समय में महान् धैर्य और साहस का परिचय देते हुये विक्रमादित्य का ध्यान बँटाने के लिये एक सेना चालुक्य राज्य पर आक्रमण करने के लिये भेजी। इस सेना ने विक्रमादित्य के पुत्र विनयादित्य और पोत्र विजयादित्य को परास्त किया। परमेश्वरवर्मन ने स्वयं भी विक्रमादित्य को पेरवलनल्लूर के युद्ध में परास्त किया। फलतः विक्रमादित्य पल्लव राज्य पर से अपना अधिकार समाप्त करने के लिये विवश हुआ।
नश्वरवर्मन शैव मतावलम्बी था, वे मामल्लपुरम में मन्दिर बनवाये। कांच के निकट करम में भी। उन्होंने ‘चित्रमाय’, ‘गुणभाजन’, ‘श्रीमार’, ‘रणजय’, ‘विद्याविनीत’ जैसी डिग्री की डिग्री कीं ।
(13) नरसिंहवर्मन द्वितीय (680 ई०-720 ई०) परमेश्वरवर्मन की मृत्यु के पश्चात् सिंहासन पर उसका पुत्र नरसिंहवर्मन बैठा। गोपालन के अनुसार, नरसिंहवर्मन का शासनकाल शान्तिमय एवं बाह्य आक्रमणों से मुक्त रहा। यही कारण है कि उसने अपने राज्य में अनेक मन्दिर बनवाये, जिनमें काँची का कैलाशनाथ मन्दिर, महाबलिपुरम का ‘शोर’, काँची का ऐरावतेश्वर मन्दिर पनामलई आदि प्रमुख हैं। इन सभी मन्दिरों में नरसिंहवर्मन के अभिलेख मिलते हैं 1
नरसिंहवर्मन द्वितीय का शासनकाल एक उत्कृष्ट साहित्यिक क्रियाशीलता का युग था। सम्भवतः इसी की राज्यसभा में संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान् दण्डिन रहता था। नरसिंहवर्मन द्वितीय ने ‘आगमप्रिय’ उपाधि धारण की जिससे उसका विद्या प्रेम स्पष्ट होता है। इसके अतिरिक्त उसने ‘राजसिंह’ तथा ‘शंकरभक्त’ की भी उपाधि धारण की। ‘वाद्यद्यविद्याधर’, ‘शिवचूड़ामणी’ उसकी अन्य उपाधियाँ थीं। नरसिंहवर्मन ने चीन भी अपना एक दूत-मण्डल भेजा था। उसके शासनकाल में अत्यधिक व्यापार उन्नति हुयी।
(14) परमेश्वरवर्मन द्वितीय (720 ई०-731 ई०) नरसिंहवर्मन के पश्चात् उसका पुत्र परमेश्वरवर्मन सिंहासनारूढ़ हुआ। परमेश्वरवर्मन नरसिंहवर्मन का द्वितीय पुत्र था। परमेश्वरवर्मन द्वितीय को चालुक्यों के विरोध को सहना पड़ा। चालुक्य युवराज विक्रमादित्य द्वितीय और गंग राजकुमार ‘एरेयप्प’ ने सम्मिलित रूप से उसकी राजधानी कांची पर आक्रमण किया और उसे परास्त किया। इस युद्ध का प्रतिशोध लेने के लिये परमेश्वरवर्मन ने 730 ई० के लगभग गंग-नरेश श्रीपुरुष पर आक्रमण किया, किन्तु वह पुनः परास्त हुआ और इसी युद्ध के दौरान उसकी मृत्यु हो गयी।
परमेश्वरवर्मन द्वितीय भी शैव धर्मावलम्बी था। निर्माण कार्य में भी उसकी पर्याप्त रुचि थी। तिरुवडि में एक शिव मन्दिर बनवाने का उसे श्रेय प्राप्त है। (15) नन्दिवर्मन ( 731 ई0-795 ई०) – परमेश्वरवर्मन के कोई पुत्र न था । अतएव
राज्याधिकारियों ने इसी वंश के एक राजकुमार नन्दिवर्मन को राजा बनाया। नन्दिवर्मन के समय में चालुक्य- पल्लव संघर्ष पुनर्जीवित हुआ। उल्लेखनीय है कि नरसिंहवर्मन प्रथम महामल्ल के समय से चालुक्यों और पल्लवों का संघर्ष शान्त हो गया था, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वरवर्मन की मृत्यु के बाद गृहकलह उत्पन्न हो जाने के कारण चालुक्यों ने इस अवसर का लाभ उठाना चाहा होगा। 740 ई० में चालुक्य नरेश विक्रमादित्य ने नन्दिवर्मन पर आक्रमण किया। कहा जाता है कि विक्रमादित्य ने कुछ समय के लिये काँची को अपने अधिकार में रखा, किन्तु शीघ्र ही नन्दिवर्मन ने विक्रमादित्य से अपने राज्य को मुक्त करा लिया। अपने शासन के अन्तिम चरण में विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लव राज्य पर आक्रमण हेतु अपने पुत्र कीर्तिवर्मन को भेजा। इस आक्रमण में चालुक्यों की विजय हुथी तथा कीर्तिवर्मन बहुसंख्यक हाथी और अपार धन-सम्पत्ति के साथ अपने राज्य वापस लौटा।
पाण्ड्य नरेश मारवर्मन नरसिंह प्रथम ने भी नन्दिवर्मन पर आक्रमण किया, किन्तु नन्दिवर्मन के सेनापति उदयचन्द ने आक्रमणकारियों को पराजित करके चित्रमाय की हत्या कर दी। तत्पश्चात् उदयचन्द्र ने विरोधी शबर और निषाद जातियों को भी परास्त किया। नन्दिवर्मन को गंगों के विरुद्ध सफलता मिली। उसने गंग नरेश श्रीपुरुष पर आक्रमण
किया और उसे परास्त कर प्रभूत सम्पत्ति प्राप्त की ।
पाण्ड्य नरेश राजसिंह प्रथम को परास्त करने के उद्देश्य से नन्दिवर्मन ने निकटवर्ती छोटी-छोटी जातियों के साथ मिलकर एक संघ का निर्माण किया। इस संघ ने राजसिंह पर आक्रमण किया, किन्तु राजसिंह, जो एक अत्यन्त वीर शासक था, ने संघ को परास्त किया। नन्दिवर्मन पर राष्ट्रकों ने भी आक्रमण किया, परन्तु इस आक्रमण के पश्चात् दोनों शक्तियों में सुलह हो गयी । राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग ने अपनी पुत्री रेवा का विवाह नन्दिवर्मन
के साथ कर दिया।
गोपालन के अनुसार, यद्यपि नन्दिवर्मन का शासनकाल सैन्यकार्यों, चढ़ाइयों, आक्रमण तथा प्रत्याक्रमणों से परिपूर्ण था तथापि उसने निर्माण कार्यों के प्रति अपनी रुचि प्रदर्शि की। यह वैष्णव मतावलम्बी था तथा उसने अपनी राजधानी कांची में मुक्तेश्वर के मन्दिर को बनवाया। कांची में वैकुण्ठपेरुमल मन्दिर भी उसी के द्वारा निर्मित बताया जाता है। नन्दिवर्मन के राज्य में ही प्रसिद्ध वैष्णव संत और विद्वान् तिरुमनाई आलावार हुये जिनकी रचनायें “नालायिर प्रबन्धम्” में संग्रहित हैं।
(16) दंतिवर्धन ( 795 ई0 -815 ई0) – नंदिवर्मन के पत्रकार उनके पुत्र दन्तिवर्मन सिंहारूढ़ हुआ। उनके राज में राष्ट्रकूट नरेश गोविंद तृतीय का आक्रमण हुआ। गोविंद तृतीय ने दंतिवर्मन को हराया। पाण्ड्य नरेश वरगुण प्रथम और श्रीमार ने क्रमशः आक्रमण किया और पल्लव राज्य के कुछ दक्षिण प्रदेश पाण्ड्यों के हाथ आ गए। (17) नन्दी ( 845 ई0-866 ई0) – दन्तिवर्मन के उपनाम उनके पुत्र नन्दी शासक बने। उसने गैंगों, चोलों और राष्ट्रकूटों के सहयोग से पाण्ड्य नरेश श्रीमार को परास्त किया, प्रश्न कुछ ही समय में झमिल श्रीमार ने नन्दी और उनके साथियों को परास्त किया। नंदी के पास एक जहाजी बेड़ा भी था। इसकी सहायता से उसने वृहत्तर भारत से भी संपर्क स्थापित कर रखा था। स्याम के एक अभिलेख में नंदी का उल्लेख है।
(18) पल्लव राज्य का अंत-नंदी का उत्तराधिकारी नृपतुंगवर्मन था। 866 ई0 में
राजा बनने से पूर्व उसने 11 वर्षों तक युवराज के रूप में कार्य किया। नृपतुंगवर्मन ने पाण्ड्य नरेश श्रीमार को परास्त किया। नृपतुंगवर्मन ने 866 ई० से 896 ई० तक राज्य किया। नृपतुंग के पश्चात् अपराजित राजा बना। अपराजित नृपतुंगवर्मन का पुत्र था तथा राजा बनने से पूर्व 879 ई० से युवराज के रूप में कार्य कर रहा था। चोल शासक आदित्य I ने अपराजित पर आक्रमण किया और उसे मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार अपराजित की मृत्यु के साथ ही पल्लव राज्य का अन्त हो गया और उस पर चोलों का अधिकार छा गया। कहा गया है कि 12वीं सदी के आरम्भ में चोल राजा विक्रय के सामन्तों में पल्लव राजाओं को प्रथम स्थान प्राप्त था। पल्लव शासक 13वीं सदी में भी देखने को मिलते हैं। 17वीं सदी के पश्चात् पृथक् जाति या कवीले के रूप में पल्लवों का अस्तित्व समाप्त हो गया ।
बादामी के पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्यों का वर्णन कीजिये। Describe the early Western Chalukyas of Badami.
पुलकेशिन की उपलब्धियों का वर्णन कीजिये। Describe the achievements of Pulakeshin II.
उत्तर-
बादामी के चालुक्य
(बादामी के चालुक्य)
बादामी के चालुक्यों की इस शाखा के प्रारम्भिक राजाओं में जयसिंह और उसके पुत्र रणराज का उल्लेख मिलता है। परन्तु, इन राजाओं के विषय में अत्यन्त अल्प जानकारी उपलब्ध है। बस इतना ही पता चलता है कि प्रथम ने राष्ट्रकूटों से महाराष्ट्र छीन लिया था।
1) पुलकेशिन – रणराज के बाद उसका पुत्र पुलकेशिन हुआ। इसे ही दी के चालुक्य राजवंश की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। फ्लीट के अनुसार, पुलकेशिन का आधा नाम कन्नड़ है और आधा संस्कृत जिसका अर्थ ‘बाप के से बालों वाला’ होता है। मोनियर विलियम्स के अनुसार, पुलकेशिन नाम का पहला आधा भी संस्कृत है। यह ‘पुल’ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है-महान होना यदि इसकी यह व्युत्पत्ति मान ली जाये तो नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार फिर इससे नाम के दोनों रूपों पुलकेशिन और पोलकेशिन का खुलासा हो जाता है। ‘केशिन’ का अर्थ ‘सिंह’ है। इस प्रकार इस नाम का अर्थ हुआ ‘महान् सिंह ।
पुलकेशिन । ने बीजापुर जिले में अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा की और वही वादामी ( तातापी के किले का निर्माण किया) । अपनी शक्ति को प्रदर्शित करते हुये पुलकेशिन ने अश्वमेघ, वाजपेय, हिरण्यगर्भ और अन्य स्रोत यज्ञों का अनुष्ठान किया और ‘सत्याश्रय’, ‘रणविक्रम’, ‘श्रीपृथ्वीवल्लभ’ आदि की उपाधियाँ धारण कीं। इसे किसी राज्य के विजय करने का श्रेय तो नहीं दिया जाता पर यज्ञों एवं उपाधियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि वह एक बड़ा ही शक्तिशाली तथा वीर विजेता रहा होगा। यही कारण है कि वीरता में उसकी तुलना ययाति तथा दिलीप से की गयी है।
पुलकेशिन 1 न केवल एक वीर विजेता सम्राट था, वरन वह विद्यानुरागी भी था।
कहा जाता है कि उसे मानवधर्म, पुराणों, रामायण, महाभारत और इतिहास का अच्छा ज्ञान
था। इसका समय लगभग 535 ई० से 566 ई० माना जाता है। (2) कीर्तिवर्मन – अपने पिता की मृत्यु के बाद करीब 566-267 ई० में कीर्तिवर्मन राजगद्दी पर बैठा। पुलकेशिन II के लेख में उसे बादामी का प्रथम निर्माता और नलों, मौयों और कदम्बों के लिये कालरात्रि कहा गया है। यद्यपि चालुक्यों की राजधानी बादामी पुलकेशिन | के समय में ही बन चुकी थी तथापि उसको विभिन्न तरीकों से सजाने के अतिरिक्त मन्दिरों के निर्माण का कार्य कीर्तिवर्मन ने ही किया। नव स्थापित राज्य के विस्तार के विषय में नलों, मौर्यो और कदम्बों की विजयों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा होगा। वास्तव में, इन तीनों शक्तियों में कदम्ब ही प्रमुख थे जिन पर कीर्तिवर्मन ने आक्रमण किया था। अभिलेखों का वर्णन है कि उसने अपनी शक्ति के वनवासी और शत्रुओं के अन्य मण्डलों पर अधिकार कर लिया था। कीर्तिवर्मन द्वारा पराजित कदम्ब शासक सम्भवतः अजवर्मन था। नल उस समय नलवाड़ी के शासक थे। मौर्य कोंकण के शासक थे। उनकी राजधानी पुरी थी। कीर्तिवर्मन की उपरोक्त विजयों से स्पष्ट है कि उसने राज्य का चतुर्दिक विस्तार किया। उसने ‘अग्निष्टोम’ और ‘सुवर्ण’ यज्ञ किये थे और ‘पुरुरणपराक्रम’ को उपाधि धारण की थी। महाकूट स्तम्भलेख के अनुसार उसने बंग, अंग, कलिंग, वत्तूर, मगध,
मइक, केरल, गंग, मूषक, प्रमिल, घोलिय, आलुक वैजयंती आदि देशों के राजाओं को परास्त
किया था। इसका समय लगभग 598 ई० तक था। (3) मंगलेश-लगभग 598 ई० में कीर्तिवर्मन के बाद उसका छोटा भाई (सम्भवतः सौतेला) मंगलेश हुआ। उस समय तक कलपरि वंश का शासक बुद्धराज बहुत शक्तिशाली हो गया था। गुजरात, खानदेश और मालवा के प्रदेश उसके अधीन थे। अतः मंगलेश के साथ लम्बे समय तक उसका युद्ध चला। अन्त में मंगलेश विजयी हुआ और उसने कलचुरि वंश से खानदेश और उसके निकटवर्ती प्रदेश छीन लिये। इस रेवतीद्वीप (पश्चिम अथवा अरब सागर अथवा गोआ ?) में स्वामीराज राज्य कर रहा था। उसने सम्भवतः मंगलेश के विरुद्ध आवाज उठायी। मंगलेश ने उस पर आक्रमण कर उसे परास्त किया तथा उसकी हत्या कर दी। फिर वहाँ उसने बप्रवंश के इन्द्रवर्मन को नियुक्त किया। मंगलेश एक निर्माणकर्त्ता भी था। उसके काल में बादामी विष्णु के एक गुहा मन्दिर का निर्माण हुआ था।
तक) (4) पुलकेशिन 11- एहोल अभिलेख से पता चलता है कि मंगलेश ने अपने को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। इस पर कीर्तिवर्मन का पुत्र मंगलेश का पुलकेशिन ।। क्रुद्ध हो उठा। पुलकेशिन || ने मंगलेश के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर और युद्ध में मंगलेश को मार डाला। तदुपरान्त लगभग 610 ई० में वह राजगद्दी पर हुआ। विद्रोह में पुलकेशिन । के सहयोगी कौन थे ?-इस विषय में ठीक से पता नहीं।
ठीक से यह जरूर पता चलता है कि पुलकेशिन के राजगद्दी पर बैठते समय समस्याओं के समाधान के लिये भारी सैनिक योग्यता की आवश्यकता थी। मंगलेश के राज्य है अन्तिम वर्षों में जो गृह-युद्ध हुआ था उससे चालुक्य साम्राज्य की जड़ें हिल गयी थी। एहोल प्रशस्ति के लेखक रविकीर्ति के अनुसार जब मंगलेश का राज्य समाप्त हुआ तो संसार अरिकुल के अन्धकार से आच्छादित हो गया, अतः शासक बनने के पश्चात् पुलकेशी को साम्राज्य का पुनर्निर्माण करना था। उसने उस महान् उत्तरदायित्व के लिये अपने को सर्वा समर्थ सिद्ध किया। उसने उस प्रभात का निर्माण कर दिया जो समूचे चालुक्य इतिहास में सबसे दैदीप्यमान था। निःसन्देह पुलकेशिन ।। इस वंश का सबसे प्रताप प्रसिद्ध सम्राट था। एक मायने में बादामी के चालुक्य वंश का आदि और अन्त उसे ही कहा जा सकता है। उसने कई उपाधियाँ धारण की, उनमें से एक ‘सत्याश्रय’ थी। उसके समय की मुख्य घटनायें अथवा उपलब्धियाँ निम्न थीं- (1) गोविन्द तथा अष्पायिक से सामना उसके समय अप्पायिक और गोविन्द ने
भैभर्थी (भीमा) तक बढ़कर उसके घर प्रान्त को घुड़काया। पुलकेशिन ने भेद डालकर शासन
करने वाली नीति अपनायी और गोविन्द से भेज कर अध्याधिक को मार भगाया।
(2) विजय अभियान (2) दक्षिण में (1) कयों के विरुद्ध अभियान उसने क शासक (कृष्णवर्मन || ?) की राजधानी बनवायो को पेरा और श्रीनेत्र पाण्डेय के अनुसार उस पर अपना अधिकार स्थापित किया। (ii) अलूपों और गंगों के विरुद्ध अभियान फिर उसने दक्षिण मैसूर के गंगों और मैसूर के शिमोगा जिलों के हुमचा में शासन कर रहे अलुपों को समर्पण करने के लिये
बाध्य किया क्योंकि वे कदम्बों के मित्र थे। गंग राजा दुर्विनीत ने तो अपनी पुत्री का विवाह
पुलकेशिन से कर दिया था।
(ii) कोंकण के मौयों पर आक्रमण और फिर अब पुलकेशिन ने उत्तरी कोकण के मौयों की राजधानी पुरी पर आक्रमण कर दिया और उन्हें परास्त कर अपने अधीन कर लिया। पुरी सम्भवतः मुम्बई के एलिफेंटा के द्वीप पर बसी थी फिर पश्चिम समुद्र की लक्ष्मीपुरी पर सैकड़ों नौ यानों के साथ आक्रमण किया।
(b) उत्तर में (iv) लाटों, मालवों और कुर्जरों के विरुद्ध अभियान इन दिनों क के हर्ष की शक्ति बढ़ रही थी, सो उससे आतंकित हो लाटों, मालवों, गुर्जरों ने पुलकेशिन की अधीनता स्वीकार कर ली। कुछ की मान्यता है कि पुलकेशिन ने इनका दमन किया। गुजरात में तो उसने चालुक्य वाइसराय भी नियुक्त किया था।
(v) हर्ष पर विजय पुलकेशिन तथा हर्ष दोनों ही महत्त्वाकांक्षी तथा साम्राज्यवादी सम्राट थे और दोनों ही अपने साम्राज्य के विस्तार में संलग्न थे। पुलकेशिन दक्षिण से उत्तर की ओर व हर्ष उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ रहा था। दोनों ही पश्चिमी भारत के आनर्त लिये वल्लभी पर आक्रमण किया। वल्लभी नरेश ध्रुवसेन || परास्त हो गया और पलायन
कर गुर्जर नरेश दह ।। की शरण में चला गया। ऐसा लगता है कि दह ने पुलकेशिन || के प्रभाव में होने की वजह से हर्ष के विरुद्ध ध्रुवसेन ।। की सहायता करने का दुस्साहस किया था। इस प्रकार हर्ष को पुलकेशिन 11 से लोहा लेने और अपनी दक्षिण दिग्विजय की योजना को कार्यान्वित करने का बहाना मिल गया। पर कहते हैं उसके विरुद्ध लाटी, मालवों ने भी दर्द और पुलकेशिन का साथ दिया। शायद बंगाल का शशांक भी पुलकेशिन की तरफ हो गया हो ? बहरहाल हर्ष को एक प्रबल शक्ति का रेवा अथवा नर्मदा के तट पर सामना करना पड़ा जिसने हर्ष के हर्ष को (जो भी रहा हो) अहशं परिवर्तित कर दिया। दोनों के बीच युद्ध के समय को 612 ई० और 634 ई० के मध्य रखा जाता है।
(c) पूर्वी दक्खन में (vi) कोशलों, कलिगों के विरुद्ध अभियान एहोल अभिलेख
से पता चलता है कि उसने कोशलों (दक्षिण पथ के पांडुवंशी १) तथा कलिंगों (गंगों ?) पर विजय प्राप्त की थी। वस्तुतः यहाँ के नरेश उससे इतने भयभीत हो गये थे कि बिना लड़े ही उन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। (vii) पिष्टपुर तथा कुन्तल पर आक्रमण उसने समुद्री मार्ग द्वारा पिष्टपुर (पीठापुर,
गोदावरी जिला) तथा कुन्तल पर अधिकार किया। पिष्टपुर में उसने अपने भाई विष्णुवर्धन को नियुक्त किया जिसने पूर्वी चालुक्य वंश (वेंगी के चालुक्य) की नींव डाली। (viii) एल्लोर क्षेत्र के विरुद्ध अभियान- एल्लोर में विष्णुकुण्डिन विक्रम देववर्मन III ने अपने क्षेत्र को बचाने की कोशिश की, परन्तु उसकी कोशिश निष्फल रही और वह हारा।
(ix) कांची के विरुद्ध अभियान इन दिनों पल्लव महेन्द्रवर्मन शासन कर रहा था जो बड़ा ही शक्तिशाली हो गया था और दक्षिण में पुलकेशिन II का सबसे बड़ा प्रतिद्वन्द्वी बन गया था। पुलकेशिन ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसके साम्राज्य में प्रवेश कर पुल्ललूर तक पहुँच गया। यद्यपि वह पल्लवों की राजधानी कांची (कांजीवरम) को न ले सका, किन्तु उनके साम्राज्य के उत्तरी भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। अपनी स्थिति को मुड बनाने के लिये उसने चोलों, पाण्ड्यों (मैसूर) और केरलों (मालाबार) से मित्रता की।
महेन्द्रवर्मन I के काल में पल्लवी के साथ पुलकेशिन का जो संघर्ष आरम्भ हुआ वह उसकी मृत्युपरान्त भी चलता रहा। 630 ई० में महेन्द्रवर्मन । की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र नरसिंहवर्मन महामल्ल पल्लव नरेश हुआ। पुलकेशिन ने उस पर भी आक्रमण किया (कांची को लेने के लिये), पर नरसिंह ने लंका के राजकुमार मानवर्मा की सहायता से न केवल पुलकेशिन को अपने साम्राज्य से मार भगाया, किन्तु वह पुलकेशिन के साम्राज्य में भी प्रवेश कर गया और उसकी राजधानी बादामी पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। युद्ध में पुलकेशिन मारा गया और नरसिंह ने ‘वातापी-काण्ड’ की उपाधि धारण की।
साम्राज्य विस्तार पुलकेशिन II के सुविशाल साम्राज्य की सीमायें उत्तर के विन्ध्यपर्वत श्रेणी और महानदी तक, दक्षिण में मैसूर के पार तक और आसिन्धु-सिन्धु पर्यन्त फैली थीं। पुलकेशिन का मूल्यांकन- पुलकेशिन 11 बादामी के चालुक्य वंश का सिरमौर था। जिस समय वह सिंहासनारूढ़ हुआ उस समय उसका साम्राज्य बड़ी संकटापन्न स्थिति में था, किन्तु उसने बड़े धैर्य तथा साहस के साथ अपनी विषम परिस्थितियों का सामना किया
और अपने विरोधियों का दमन कर अपने साम्राज्य में अमन-चैन कायम किया । वह एक वीर विजेता तथा कुशल सेनानायक था। उसकी सेना विशाल थी जो युद्ध में नशा चढ़ा लेती थी। उसने इसी की बदौलत दिग्विजय की योजना बनायी अर्थात् वह आयोजक (Planner) भी थी।
वर्धन
[VARDHANA]
“एक महान विजेता व कूटनीतिज्ञ होने के साथ-साथ महान विद्या प्रेमी भी था। वह एक सम्राट के अलावा महान् साहित्यकार भी था।” -पनीकर Harsha was certainly the paramount niler of the entire North
जिन्होंने अपने समय के सबसे बड़े साम्राज्य पर शासन किया।”
Baijnath Sharma
राज्यवर्धन तक पुष्यभूति अथवा वर्धन वंश के इतिहास का वर्णन कीजिये । Describe the history of the Pushyabhutis or Vardhana dynasty upto Rajyavardhana II. प्रभाकर की उपलब्धियों का वर्णन कीजिये।
या
प्रभाकर वर्धन की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
वर्धन वंश के प्रथम सार्वभौम स्वतन्त्र राजा के रूप में प्रभाकरवर्धन का मूल्यांकन कीजिये।
उत्तर-
पुष्यभूति या वर्धन वंश
जैसा कि विदित ही है कि गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् भारत में छोटे-बड़े स्वतन्त्र राज्य स्थापित हो गये थे। इनमें थानेश्वर (पंजाब प्रदेश के अम्बाला जिले में स्थित थानेश्वर या स्थाण्वीश्वर) उल्लेखनीय था। यहाँ पुष्यभूति नाम का एक राजा हुआ जिसने एक नये राजवंश को जन्म दिया जिसे पुष्यभूति वंश की संज्ञा दी गयी। पर चूंकि इस वंश में जो भी ज्ञात राजा हुये उनके नाम के अन्त में ‘वर्धन’ शब्द आया अतः यह वंश प्रायः वर्धन वंश के नाम से भी विख्यात है। खोत (Sources)
(I) साहित्यिक हर्षचरित, कादम्बरी (दोनों बाणभट्ट के ग्रन्थ), हर्षचरित टीका (शकर),
हर्षचरित नाटक (सम्राट हर्ष ?) आर्यमंजुश्रीमूलकल्प द्वेनसांग का विवरण और ह्वेनसांग की
जीवनी (हाली) इस वंश की जानकारी के प्रमुख साहित्यिक स्रोत हैं। (11) पुरातात्विक (1) अभिलेख – मधुबन पत्र अभिलेख, सोनीपत अभिलेख, बांसखेड़ा अभिलेख और गमने का अभिलेख प्रमुख अभिलेखीय स्त्रोत है-
(2) मीट्रिक मौट्रिक स्रोतों में मुख्य है- (i) कनियम द्वारा 1894 में प्रकाशित मुद्रा,
(ii) भोटोरा मुद्रा भाण्ड, और (iii) हर्ष की स्वर्ण मुद्रा
माण के हर्षचरित से हमें ज्ञात होता है कि इस वंश का आदि पुरुष पुष्यभूति पर हर्ष के अभिलेखों में कहीं पर भी इसका नाम उल्लिखित नहीं। अतएव यह रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह ऐतिहासिक पुरुष था या नहीं। इसी प्रकार इस के उद्गम के सम्बन्ध में अनेक प्रमाण होते हुये भी कोई निश्चित मत स्थिर करना कठिन प्रतीत होता है। हर्षचरित के रचयिता वाण ने पुष्यभूतियों और मौखरियों की तुलना और सूर्य से की है। इस कथन से यह प्रतीति पुष्यभूति क्षत्रिय थे, परन्तु मंजुश्री के अनुसार पुष्यभूति वंश मूलतः वैश्य का था। बेनसांग भी अपने यात्रा वर्णन में कान्यकुन दे राजा को फी-शे (वैश्य) लिखता है। परन्तु कनियम का कहना है कि चीनी यात्री ने और ‘बेस’ शब्दों को समझने में भूल की है। कनिंघम के विचार में हर्ष राजपूत था। कनियम के इस मत पर अपने विचार प्रकट करते हुये वार्टस ने भी यही लिखा है दि यह सम्भव है कि कनिधम का मत सही हो, परन्तु वास ने आगे लिखा है कि यह आ का विषय अवश्य है। बुहरर ने ‘फी-शे’ का अर्थ वैश्य नहीं किया और कहा था। हर्ष के वैवाहिक सम्बन्धों के आधार पर भी यही कहा जा सकता है। पर चूंकि इस वंश के शासकों के नाम के आगे भूति तथा वर्धन शब्द प्रयुक्त मिलता है, अतएव इससे उनका वैश्य वंशीय होना सिद्ध होता है, क्योंकि भूति तथा वर्धन दोनों ही धन सम्पन्न तथा वैभव के द्योतक हैं जो वैश्यों का ही जातीय गुण होता था। बहरहाल इस वंश की जाति पर अन्तिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। प्रारम्भिक सामन्त शासक (Early Rulers)
इस वंश के शासक नरवर्धन, राजवर्धन 1, आदित्यवर्धन ने ‘महाराज’ को
(2) राज्यवर्धन | – नरवर्धन के बाद राज्यवर्धन गद्दी पर बैठा। वह भी सूर्य क
धारण की थी जिससे उनके सामन्तीय स्तर (Feudal Status) का पता चलता है। उपाधि (1) नरवर्धन—चूँकि पुष्यभूति का नाम किसी भी अभिलेख में उपलब्ध नहीं है, अतएव नरवर्धन को इस वंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक माना जाता है। यह सूर्य का उपासक था और शायद उसने गुप्त साम्राज्य के ह्रास का लाभ उठाकर अपनी कीर्ति बढ़ायी थो इसकी पत्नी का नाम वज्रिणीदेवी था। उसके सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती।
उपासक था, ऐसा पता चलता है। इससे अधिक और कुछ नहीं। (3) आदित्यवर्धन राजवर्धन का उत्तराधिकारी आदित्यवर्धन हुआ। यह भी सूर्यव उपासक था। इसने परवर्ती गुप्त महासेनगुप्ता से विवाह कर अपनी विदेश नीति को मुहा कर लिया था और परवर्ती गुप्तों के साथ मधुर सम्बन्ध स्थापित कर लिया था। इस विवाह से उसे अपनी शक्ति बढ़ाने में भी सहायता मिली होगी।
प्रथम दो स्वतन्त्र शासक (First Two Independent Rulers)
(1) प्रभाकरवर्धन वर्धन वंश राजाओं में प्रभाकरवर्धन ने प्रथम बार महाराज ‘परमभट्टारक’ की उपाधियों धारण की जिससे उसके स्वतन्त्र शासक होने का पता चलत है। फैजाबाद के भिटौरा नामक स्थान में प्राप्त एक मुद्राभांड में प्रतापशील नामक राजा क मुद्रायें उपलब्ध हुयी हैं। कुछ को यह धारणा है कि यह प्रभाकर की एक उपाधि थी। ‘हर्षचरित’ में भी प्रतापशील उसका दूसरा नाम बतलाया गया। पी० एल० भार्गव के अनुसार अपना प्रताप दिखलाने के लिये प्रभाकर ने अपना दूसरा नाम प्रतापशील रखा। शायद उससे सिन्ध, गांधार, गुर्जर प्रदेश (राजपूताना ? गुजरात ? या पंजाब ?) पर या तो अपना स्थायी प्रभाव जमा रखा था या वहाँ अपना आतंक कायम कर रखा था।
उसकी पत्नी का नाम यशोमति था जो यशोधर्मन विक्रमादित्य की पुत्री थी। वह सूर्योपासक था और उसके तीन सन्तानें थी राज्यवर्धन ॥ दर्षवर्धन और राज्यश्री प्रभाकर ने अपने दोनों पुत्रों- राज्य और हर्ष को सैनिक शिक्षा में प्रशिक्षित किया और अपनी इकलौती पुत्र राज्य का शायद 11 वर्ष की अल्पायु में ही कन्नोद के मौखरी नरेश गृहवर्मा के साथ विवाह कर दिया था।
राज्यची के विवाह का महत्त्व तथा परिणाम (1) वर्धन तथा मौखरी वंश में मंत्री
स्थापना- इस विवाह से दोनों ही वंश एक-दूसरे के शुभचिन्तक बन गये और इस प्रकार दो
अत्यन्त शक्तिशाली राजवंशों में गठबन्धन की सम्भावना स्थापित हो गयी।
(2) परवर्ती गुप्तों तथा वर्धनों में शत्रुता का बीजारोपण- इस विवाह के पूर्व इन दोनों राजवंशों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो गया था, क्योंकि वर्धन वंश के शासक आदित्यवर्धन का विवाह परवर्ती गुप्तवंशीय महासेनगुप्ता के साथ हो गया था। इसके विपरीत परवर्ती गुप्त वंश तथा मौखरी वंश में कुमारगुप्त तथा ईशानवर्मा के शासनकाल से ही वंशानुगत शत्रुता चल रही थी और दोनों के ही सम्बन्ध बिगड़ते जा रहे थे। अस्तु, जब राज्यश्री के विवाह के फलस्वरूप वर्धन तथा मौखरी वंश में मित्रता स्थापित हो गयी तब परवर्ती गुप्त वंश वर्धन वंश का शत्रु बन गया। इस प्रकार दोनों राजवंशों में वैमनस्य तथा शत्रुता का बीजारोपण हो गया।
(3) गांड वंश तथा परवर्ती गुप्त वंश का गठबन्धन-राज्यश्री के विवाह के फलस्वरूप परवर्ती गुप्तों के दो प्रबल शत्रु हो गये। एक थानेश्वर का शासक प्रभाकर और दूसरा कन्नौज का शासक गृहवर्मन इनके संयुक्त मोर्चे से तत्कालीन परवर्ती गुप्त आतंकित हो उठा और उसने बंगाल के गौड शासक शशांक से गठबन्धन कर लिया। बंगाल के गौड वंश की मौखरियों के साथ पुरानी शत्रुता थी, क्योंकि मौखरी ईशानवर्मा ने गौडों को परास्त किया था।
(4) विरोधी मोर्चा की स्थापना यह राज्यश्री के विवाह का ही परिणाम था कि वर्धन वंश तथा मौखरी वंश का एक बड़ा ही प्रबल संयुक्त मोर्चा बन गया। इसी विवाह के परिणामस्वरूप ही परवर्ती गुप्त वंश तथा गौड वंश के एक प्रतिरोधी मोर्चे का निर्माण हो गया। इस प्रकार तत्कालीन चार प्रबल शक्तियों के दो विरोधी मोर्चे तैयार हो गये थे जिनमें बड़े ही विध्वंसात्मक तथा विनाशकारी संघर्ष की सम्भावनायें उत्पन्न हो गयी थीं। सैनिक दृष्टिकोण से इन प्रतिरोधी मोर्चों का यह महत्त्व था कि वर्धन तथा मौखरी वंश का मोर्चा अपनी अप तथा पृष्ठ दोनों ही दिशाओं से परवर्ती गुप्तों तथा गौडों के मोर्चे से घिर गया था और किसी भी समय विपरीत दिशाओं से प्रहार की सम्भावना हो गयी थी।
(5) हूणों का आक्रमण – प्रभाकर को ‘हूण-हरिण-केशरी’ कहा गया है। लगता है, वह हूणों पर विजय पाने में अवश्य ही सफल रहा होगा और उससे पराजित होने के बाद वे गंधार और साकल के आस-पास के प्रदेशों में बस गये होंगे और उसके जीवन के अन्तिम चरण में उन्होंने करीब 604 ई० में पुनः उसके राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा पर आक्रमण कर दिया। इस संकट का सामना करने के लिये प्रभाकर ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन (II) को भेज दिया। उसके साथ उसका छोटा भाई हर्ष भी था, परन्तु मार्ग में आखेट में व्यस्त हो जाने के कारण वह पीछे ही रह गया और राज्यवर्धन को अकेले ही शत्रुओं का सामना करना पड़ा। (6) प्रभाकरवर्धन की बीमारी तथा मृत्यु-इसी बीच प्रभाकर बीमार पड़ गया। चूंकि
अपनी युद्ध यात्रा के मार्ग में ही हर्ष को अपने पिता के रोगग्रस्त हो जाने का समाचार
भारत का इतिहास से 1200 के लिये न कर दिया। प्रभाकर का रोग मानक सिद्ध हुआ कि पोधार गया और उसकी रानी यशोमती सती होगी। इतना
(7)विस्तार एवं मूल्यांकन के अनुसार, समस्त उत्तरी भारत में भान की शक्ति फैली हुयी थी। वह रूपी हिरण के लिये सिंह, सिन्धुराज के लिये तीन गुजरात के शासक की निको भंग करने वाला गान्धार सम्राट के लिये महामारी की अशान्ति का कारण तथा मालवा की शक्ति को काटने वाला था। अभिलेख के अनुसार वह एक ऐसा था जिसकी कीर्ति समस्त सागरों के पार फैली हुयी थी। इसके प्रताप रूपी अनुराग ने अन्य राजाओं के यश को तिरस्कृत कर दिया थाम के व्यवस्थापन में लगा रहता था। वहा के कष्टों को दूर करने वाला तथा आदित्य का था। सी० पी० वैद्य तथा अन्य विद्वानों का कथन है। कि प्रभाकर का आधिपत्य पंजाब के हूणों, राजपूताना के गुर्जरों, गुजरात के लाटो, सिन्धु गान्धार और मालवा के शासकों पर था परन्तु ये कथन अतिश्योक्तिपूर्ण है। हाल के अनुसार, प्रभाकर का राज्य केवल थानेश्वर तक ही सीमित था। कनियम का कथन है कि बानेश्वर के अन्तर्गत केवल दक्षिणी पंजाब और पूर्वी राजपूताना सम्मिलित थे।
जो भी हो, इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि पुष्यभूति वंश अथवा वर्धन वंश के वर्ष पूर्व राजाओं में प्रभाकरवर्धन सबसे महत्त्वाकांक्षी और प्रतापी राजा हुआ जिसने अपने समय में एक शक्तिशाली स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की और उसे ही इस वंश के प्रथम सार्वभौम स्वतन्त्र राजा के रूप में माना जायेगा।
(11) राज्यवर्धन 11 प्रभाकर की मृत्यु के बाद राज्यवर्धन || 605 ई० में सिंहासन पर बैठा, किन्तु तभी उसे उसके बहनोई गृहवर्मन की मौत और उसकी बहिन राज्यश्री कान्यकुब्ज के कारागार में डाले जाने के समाचार तथा थानेश्वर पर मालवा के नरेश देवगुप्त द्वारा कब्जा किये जाने के इरादे की सूचना मिली। इस समाचार को सुनते ही राज्यवर्धन अपने पिता की अपने शत्रु मृत्यु के दुःख को भूल गया और एक सीमित सेना लेकर भंडी के साथ की ओर बढ़ा और हर्ष को पीछे साम्राज्य रक्षार्थ छोड़ गया। युद्ध में उसने देवगुप्त को मार डाला, किन्तु अन्ततोगत्वा राज्यवर्धन मारा गया। उसकी मौत रहस्यमयी है क्योंकि तीनों साहित्यिक सोड़ों-हर्षचरित हर्षचरित की टीका और ह्वेनसांग का वर्णन पहयन्त्र का आभास प्रतीत होता है। पर यह आभास निर्णयात्मक नहीं है। विद्वानों में राज्यवर्धन की मौत के बारे में मतभेद है।
(1) राज्यवर्धन की मौत पराजयोपरान्त ऐसा माना जाता है कि देवगुप्त की मौत का बदला उसके गौड मित्र शशांक ने राज्यवर्धन की मौत से लिया। परन्तु क्या शशांक ने राज्यवर्धन को पराजय के बाद मौत के घाट उतारा या विश्वासघात द्वारा ? मजूमदार तथा अन्य कतिपय विद्वानों ने इस मत का प्रतिपादन किया है कि गौडाधिपति ने राज्य को परास्त करने के बाद उसकी हत्या की थी। अपने मत के अनुमोदन में वे निम्नांकित तर्क प्रस्तुत करते हैं-
(1) बाग तथा ह्वेनसांग का बचन अविश्वसनीय वाण तथा ह्वेनसांग के अनुसार राज्य की हत्या विश्वासघात द्वारा हुयी, परन्तु इन दोनों विद्वानों का कथन है कि चूंकि ने इन दोनों को आश्रय दिया था। इसलिये अपने आश्रयदाता के ज्येष्ठ भ्राता की पराजय पर पर्दा डालने के लिये इन्होंने विश्वासघात की कथा को गढ़ा।
1. शायद शिलादित्व (यशेोधर्मन का पुत्र) या कलचुरि बुद्धराज भी हो सकता है जिसका साथी शशांक गुप्त या देवमुप्त शशांक था।
2. करके रानी पति अली कुलीखों की मौत भी रहस्यमये।
(11) पराजय की सम्भावनामा नरेश और राज्य के बीच जो भीषण संग्राम हुआ उससे राज्यवर्धन को सेना अत्यन्त हो गयी थी। ऐसी स्थिति में गीडाभि से अपने मित्र को सहायता करने तथा उसको पराजय का बदला लेने के लिये राज्यवर्धन से युद्ध किया होगा और उसे बन्दी बनाने के उपरान्त उसकी हत्या कर दी होगी।
परन्तु ये तर्क निर्बल हैं और कोरे अनुमान पर ही अवलम्बित हैं। न तो बाण और ह्वेनसांग के कथन पर अविश्वास करने का और न ही गौड नरेश द्वारा राज्यवर्धन को युद्ध में परास्त करने का कोई साक्ष्य उपस्थित किया है। वरन जितने साक्ष्य उपलब्ध है उनमें से किसी में भी गोडाधिपति द्वारा राज्य के पराजित किये जाने का उल्लेख नहीं मिलता।
(2) राज्यवर्धन की मौत विश्वासघात द्वारा-गौडाधिपति द्वारा विश्वासघात का सहारा ले राज्यवर्धन की हत्या किये जाने के सबल प्रमाण हैं। कुछ प्रमुख ये हैं- (i) हर्षचरित का साक्ष्य हर्षचरित’ में लिखा है कि गीडाधिपति ने मिथ्योपचार से
उसके हृदय में विश्वास उत्पन्न करके अपने भवन में उसे एकांकी और निशस्त्र पाकर उसकी हत्या कर दी। (ii) हर्षचरित का टीका का साक्ष्य-हर्षचरित’ के टीकाकार शंकर के अनुसार,
गौडाधिपति ने अपना दूत भेजकर राज्यवर्धन को अपनी कन्या देने का प्रलोभन दिया। अस्तु, विश्वास करके राज्यवर्धन उसके भवन में घुस गया, परन्तु जब वह अपने अनुचर के साथ उसके भवन में भोजन कर रहा था तब उसने धोखे से उसे मार डाला।
(iii) ह्वेनसांग का साक्ष्य ह्वेनसांग का कहना है कि हर्ष का पूर्वगामी सम्राट राज्यवर्धन कर्णस्वर्ण अर्थात् गौड़ के राजा द्वारा धोखे से मार डाला गया। (iv) वांसखेड़ा लेख का साक्ष्य इस लेख से भी यही ज्ञात होता है कि राज्यवर्धन
ने सत्यानुरोध से शत्रु भवन में अपने प्राण खो दिये। (v) वाण तथा ह्वेनसांग पर आरोप निराधार इन दोनों पर यह आरोप लगाना कि उन्होंने अपने आश्रयदाता हर्ष को प्रसन्न करने के लिये उसके बड़े भाई की पराजय पर परिधान डाल दिया है, बिल्कुल निर्मूल तथा निराधार और कोरी कल्पना तथा अनुमान पर
आधारित है।
(3) राज्यवर्धन की सीधी लड़ाई गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर ऐसा भी
लग सकता है कि न तो उसे राज्योपरान्त मारा गया, न विश्वासघात द्वारा। उसके पास वैसे
ही सीमित सेना थी और इसलिये आश्चर्य नहीं कि वह शशांक से सीधी लड़ाई में ही मारा ㅁ
गया और कन्नौज पर शशांक का अधिकार हो गया।
हर्ष की विजयों की विवेचना करते हुये उसके साम्राज्य की सीमायें निर्धारित कीजिये और वर्धन साम्राज्य के पतन के कारणों पर प्रकाश डालिये। Describing the conquests of Harsha, fix up the limits of his empire and also throw light on the decline of the Vardhana
या
empire. हर्ष की राजनीतिक उपलब्धियों पर प्रकाश डालिये। Throw light on the political achievements of Harsha.
या
हर्ष और चालुक्य पुलकेशिन के संघर्ष का वर्णन कीजिये और बताइये कि इसमें
हर्ष की पराजय के क्या कारण थे ? समकालीन शक्तियों के साथ हर्ष के राजनीतिक सम्बन्धों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर-
हर्षवर्धन की उपलब्धियाँ
(Achievements of Harshavardhan) राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद मत्रियों के कहने पर अत्यन्त ही भारी हृदय से ई० में सिर्फ 16 वर्ष की उम्र में शासन की बागडोर सम्भाली। इसी सिहासनारोहण के समय हर्ष संवत्का भी हुआ।’ अपनी बहन को बन्दीगृह से छुड़ाना तथा श से अपने भाई का बदला लेना, गौड का अस्तित्व मिटा देना, सम्पूर्ण भारत को एकछत्र के नीचे लाना, देश में शान्ति स्थापित करना उसके उद्देश्य थे
(1) राज्यश्री की प्राप्ति तथा शशांक के विरुद्ध अभियान-राज्यश्री को प्राप्त करने के लिये तथा शशांक से बदला लेने हेतु, बिना समय गंवाये तथा विशाल सेना का संगठन कर हर्ष अभियान पर निकला। रास्ते में उसे नामरूप के शासक भास्करवर्मन का विश्वसनीय दूत हंसवेग मिला जो असंख्य कीमती उपकरणों के साथ सन्धि का प्रस्ताव लेकर उसके पास आया था। इस सन्धि प्रस्ताव के भेजने का कारण यह था कि भास्करवर्मन भी अपने पड़ोसी शशांक की बढ़ती हुयी शक्ति से आतंकित हो उठा था और अपनी सुरक्षा के लिये हर्ष से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने के लिये आतुर था। इस सन्धि में हर्ष का भी स्वार्थ चा क्योंकि शशांक को दण्डित करने में उसे अपेक्षित सहायता मिल सकती थी। सो, हर्ष ने हर्षपूर्वक यह सन्धि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उसके बाद वह आगे बढ़ा। शीघ्र ही उसे अपने ममेरे भाई भण्डी (जो राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद उसकी सेना का संचालन कर रहा था) से पता चला कि राज्यश्री छोड़ दी गयी है, परन्तु वह विन्ध्य जंगलों में कहीं चली गयी। है। सो, कुछ समय के लिये हर्ष गोड के शासक के विरुद्ध अपना अभियान टाल माघवगुन तथा अन्य सहायक राजाओं के साथ राज्यश्री की खोज में निकल गया। संयोगवश उसे भिक्षु दिवाकर मित्र मिला जिसकी सहायता से वह राज्यश्री को प्राप्त करने में सफल हुआ। उसके बाद उसने शशांक के विरुद्ध टाले अभियान को पुनः प्रारम्भ किया। बुद्धिमानीपूर्वक हर्ष से सीधा मुकाबला करने की बजाय कन्नोज छोड़ भाग गया। ‘हर्षचरित मैं भी दोनों के बीच हुये मुकावले का कोई जिक्र नहीं है। संजन ताम्रपत्रों से भी पता चलता। है कि 619 ई० तक शशांक गौरवता से एक स्वतन्त्र शासक के रूप में शासन कर रहा था। ‘मंजूश्रीमूलकल्प’ से पता चलता है कि सोम (शशांक) को होकर (हर्ष) ने पूरनवर्ष स्थान पर घेरा था, और कि हर्ष ने उसके साम्राज्य पर राज्य की छूट दे दी। झारखण्डे बिना किसी विश्वस्त और अकाट्य प्रमाण के आधार पर यह मत प्रतिपादित किया शशांक ने अपनी पुत्री का विवाह हर्ष के साथ कर दिया था और इस प्रकार दोनों में सम्बन्ध स्थापित हो गया था। जो भी हो, शशांक की मृत्यु के बाद ही हर्ष ने गौड पर अधिकार किया होगा।
(2) कन्नौज की प्राप्ति – कन्नौज में चूँकि कोई शासक नहीं था, इसलिये बाह्य एवं आन्तरिक गड़बड़ी वहाँ व्याप्त हो गयी थी राज्यश्री शासन भार वहन करना चाहती ह नहीं। मन्त्रीगण कन्नौज की बागडोर हर्ष को सौंपना चाहते थे। हर्ष ने शुरू में तो संकोच किया, परन्तु बोधिसत्व अवलोकितेश्वर की सलाह से मान गया। (i) थानेश्वर का स्वा
1. आर० सी० मजूमदार का कहना है कि हर्ष ने कोई संवत् नहीं चलाया।
तो था ही और कन्नौजका गया। इस प्रकार वह उत्तरी भारत के दो शक्तिशाली साम्राज्यों का शासक बना। अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद उसने सफलतापूर्वक राज्य चलाने हेतु कन्नौज के भौगोलिक एवं राजनीतिक महत्त्व को ध्यान में रखते हुये अपनी राजधानी उसे (कन्नौज) बनाया। यहाँ से उसने अपना प्रभाव बढ़ाया।
(3) कामरूप निहाररंजन रे, और आर० के० मुकर्जी ने कामरूप (असम) को हर्ष के साम्राज्य में माना है और निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं- (i) कामरूप नरेश भास्करवर्मन हर्ष की कन्नौज सभा और प्रयाग के दानोत्सव में सम्मिलित होने आया था। सम्भवतः वह हर्ष के अधीन था।
(ii) भास्करवर्मन ने अपना दूत भेजकर स्वयं हर्ष से मित्रता करने का प्रस्ताव किया था। हर्ष ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, तभी से भास्कर हर्ष का अधीनस्थ मित्र था। (iii) ‘जीवनी’ का कथन है कि ह्वेनसांग कामरूप नरेश की राज-सभा में था। हर्ष ने उसे अपनी सभा में उपस्थित होने के लिये सन्देश भेजा। भास्करवर्मन ने कहला भेजा कि हर्ष उसका शीश ले सकते हैं, परन्तु वह ह्वेनसांग को नहीं भेज सकता। इससे उर्ष क्रुद्ध हो गया और उसने भास्कर को शीश भिजवा देने की सूचना भेजी। इससे वह भयभीत हो गया और तत्काल हेनसांग को अपने साथ लिये हर्ष से मिलने पहुँच गया। अतः इस घटना से प्रमाणित होता है कि भास्करवर्मन हर्ष के अधीन था।
(4) वल्लभी पर आक्रमण – हर्षवर्धन के समय वल्लभी (सौराष्ट्र) एक शक्तिशाली स्वतन्त्र साम्राज्य था। हर्ष महत्त्वाकांक्षी होने की वजह से दक्षिण भारत पर आक्रमण करने का विचार कर रहा था, किन्तु अपने साम्राज्य के दक्षिण में स्थित वल्लभी पर बिना अपना प्रभुत्व स्थापित किये वह अपने दक्षिण के युद्ध अभियान को क्रियान्वित नहीं कर सकता था। लगता है, इन परिस्थितियों में हर्ष ने 29 और 640 ई० के बीच में वल्लभी नरेश ध्रुवसेन II या ध्रुवभट्ट पर आक्रमण कर दिया जिसका ज्ञान हमें भड़ौच के गुर्जर नरेश दद्द | के नौसारी दान-पत्र से प्राप्त होता है जिसमें लिखा है- “श्री हर्ष देव द्वारा पराजित वल्लभी नरेश की रक्षा करने के कारण श्री दद्द को जो यश प्राप्त हुआ उसका वितान उसके ऊपर बराबर झूलता रहता था।” इस लेख से हमें 4 बातों का परिज्ञान प्राप्त होता है-
(i) हर्ष ने वल्लभी पर आक्रमण किया।
(ii) वल्लभी नरेश परास्त हो गया।
(iii) वल्लभी नरेश को गुर्जर नरेश के यहाँ शरण मिली। (iv) वल्लभी नरेश को संरक्षण प्रदान करने तथा उसकी सहायता करने से दर को बहुत बड़ा यश प्राप्त हुआ। अब प्रश्न यह है कि हर्ष के विरुद्ध दद्द ने ध्रुवसेन की मदद क्यों की ? कारण 2:
(i) दर स्वयं इतना शक्तिशाली था कि वह हर्ष को शान्ति से भयभीत न था (ii) वह
दक्षिण के अत्यन्त शक्तिशाली और हर्ष के प्रतिद्वन्द्वी चालुक्य नरेश पुलकेशिन II के प्रभाव
में था और उसे पूर्ण विश्वास था कि उसे हर्ष के विरुद्ध सहायता प्राप्त हो सकेगी।
ऐसा प्रतीत होता है कि गुर्जर नरेश की सहायता से वल्लभी नरेश ने पुनः अपने खोये हुये राज्य पर विजय प्राप्त कर ली और अपने राज्य को सुदृढ़ तथा सुसंगठित बना लिया। हर्ष ने फिर उससे युद्ध करना उचित न समझा बल्कि कूटनीतिज्ञता का परिचय देते हुये उसने अपनी लड़की का ब्याह उससे कर दिया इस प्रकार उसे अपना मित्र तथा सहायक बना लिया।
(5) विद्रोह का दमन-चीनी इतिहासकार मात्वानलिन के अनुसार 618 ई० से लेकर
627 ई० तक का काल हर्ष के लिये विपत्तियों का काल था। उस समय अनेक विद्रोह हुये
भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० और हर्ष ने उनका दमन किया। इसका वर्णन चीनी इतिहासकार ने इस प्रकार किया ग वंश के वृतो के शासनकाल (618-627 ई०) में भारत में भयंकर विद्रोह हुये। राजा शिलादित्य ने एक विशाल सेना एकात की और वह बड़ी वीरता से लड़ा। उसने के चारों भागों में राजाओं को दण्डित किया जिससे उनके मुख उत्तर की ओर घूम गये और भारत उन्होंने उसकी आधीनता स्वीकार की। ” (6) ॥ वंश के अभिलेखों से पता चलता है कि तक)
का संघर्ष दक्षिण के केश के साथ हुआ था। पुलकाशन || वंश का सबसे अधिक शक्तिशाली सम्राट था और सम्पूर्ण दक्षिण में उसकी धाक स्थापित हो गयी थी। जिस प्रकार हर्ष उत्तर भारत का सर्वशक्तिमान सम्राट था उसी प्रकार पुलकेशिन ॥ दक्षिण भारत का सर्वशक्तिमान राजा था। ये दोनों ही बड़े महत्त्वाकांक्षी तथा सम्राट थे और अपने राज्य के विस्तार में संलग्न थे। फिर गुजर दर II ने पुलकेशिन ॥ के प्रभाव में होने की वजह से हर्ष के विरुद्ध वल्लभी के मंत्रक शासक ध्रुवसेन II की सहायता करने का दुस्साहस किया था। इसलिये भी वह पुलकाशन | से खार खाये थ सो हर्ष को पुलकेशिन ।। से लोहा लेने और अपनी दक्षिण दिग्विजय की योजना को कार्यान्वित करने का बहाना मिल गया। उसने 630 और 634 ई० के मध्य रेवा अथवा नर्मदा नदी के उस पार पुलकेशिन पर धावा बोल दिया जिसमें उसकी पराजय हुयी जिसक कुछ कारण ये हो सकते है(i) कुछ लोगों का कहना है कि लाटों मालवी गुर्जरी ओर मैत्रकों (यद्यपि ध्रुवसेन ने मित्रता तो कर ली थी, परन्तु वह उससे आतंकित अवश्य रहता होगा) ने हर्ष से तंग आकर उससे बदला लेने के लिये अपने आपको पुलकेशिन || के हवाले कर दिया था (ii) पुलकेशिन स्वयं अपने आप में शक्तिशाली था उसे उसकी शक्ति का अन्दाज न था चालुक्य नरेश पुलकेशिन ने दक्षिणी गुजरात पर अपना आधिपत्य स्थापित कर अपने राज्य की उत्तर सीमाओं को दृढ़ कर लिया था। (iii) हर्ष की रणनीति पुलकेशिन II की तुलना में दोषपूर्ण रही होगी।
(7) सिन्ध-कुछ विद्वानों का मत है कि, “हर्ष ने सिन्ध पर भी विजय प्राप्त की थी। बाण के ‘चरित’ से ज्ञात होता है कि हर्ष ने सिन्धुराज को नष्ट किया और उसकी सम्पन पर अधिकार कर लिया।” इस आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि हर्ष ने सि पर आक्रमण करके अपने शत्रु को परास्त कर दिया था, परन्तु यह कथन संदिग्ध है ! चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि उसकी यात्रा के समय सिन्ध एक स्वतन्त्र और शक्तिशाली राज्य था। आर० सी० मजूमदार का मत है कि हर्ष को सिन्ध के विरुद्ध विशेष सफलता नहीं मिली होगी। अतः यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि हर्ष ने सिन्ध पर विजय प्राप्त की थी।
(8) काश्मीर- राधाकुमुद मुकर्जी का मत है कि काश्मीर हर्ष के अधीन था। हेनसांग की जीवनी से प्रकट होता है कि हर्षवर्धन ने भगवान बुद्ध के दाँत को प्राप्त करने के लिये कश्मीर की यात्रा की और कश्मीर नरेश ने हर्ष की सैनिक शक्ति से भयभीत होकर वह दाँत हर्ष को भेंट कर दिया। इस घटना से मुकर्जी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि काश्मीर हर्ष के प्रभाव क्षेत्र के अन्तर्गत था। राजबली पाण्डेय का मत है कि, “हर्ष ने यद्यपि कोई आक्रमण नहीं किया और न काश्मीर प्रदेश को अपने राज्य में मिलाया, परन्तु काश्मीर का यह प्रदेश निश्चय ही हर्ष के प्रभाव क्षेत्र में आ गया था।”
(१) नेपाल- भगवानलाल इन्द्रजी तथा कूलर जैसे विद्वानों का मत है कि नेपाल हुई के राज्य में शामिल था। उनके मत इस तथ्य पर आधारित हैं कि हर्ष का सम्वत् नेपाल में भी लिखा जाता था। इसके अतिरिक्त नेपाली वंशावलियों का कथन है कि विक्रमादित्य
समीकरण हर्ष से किया है। राजवली पाण्डेय का मत है कि वंशावली के अनुसार अंशुवर्मा के राज्यारोहण के पूर्व विक्रमादित्य नामक राजा ने नेपाल की यात्रा की थी और अपना सम्वत् स्थापित किया था। यह विक्रमादित्य कौन था, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, परन्तु हर्ष के अतिरिक्त ऐसा कोई भारतीय सम्राट उस समय नहीं था, जिसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की हो। अतएव यह सम्भावना युक्तिसंगत प्रतीत होती है। कि विक्रमादित्य हर्ष की उपाधि रही होगी। वी० ए० स्मिथ तथा फ्लीट भी नेपाल को वर्ष के हो अधीन मानते हैं। परन्तु विमलचन्द्र पाण्डेय, सिलविन लेवी आदि अनेक विद्वान् नेपाल को हर्ष के साम्राज्य के अन्तर्गत नहीं मानते। सिलविन लेवी का कथन है कि उस समय नेपाल तिब्बत के अधीन राज्य था, न कि हर्ष के।
(10) पूर्वी तथा दक्षिण पूर्वी भारत की विजय-चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि 637-38 ई० के लगभग उसने मगध की यात्रा की थी। इसी समय उसे ज्ञात हुआ कि बंगाल- नरेश शशांक ने गया के बोद्धि वृक्ष को काट दिया था और उसके शीघ्र बाद ही उसकी मृत्यु हो गयी थी। इससे प्रतीत होता है कि मगध पर हर्षवर्धन का आधिपत्य स्थापित था। एक अन्य चीनी यात्री मात्वानालिन के अनुसार, हर्ष ने 641 ई० में मगध सम्राट की उपाधि धारण की थी। अतः इन चीनी लेखकों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हर्ष ने शशांक की मृत्यु के पश्चात् ही 637-641 के बीच किसी समय मगध पर अधिकार कर लिया था जिसका शासक सम्भवतः पूर्णवर्मा था।
(11) सुदूर दक्षिणी-हर्ष के दरबारी कवि मयूरभट्ट की एक प्रशस्ति में तथा केरल राज्य के शिमोगा जिले में स्थित गद्धेमने नामक स्थान से प्राप्त एक अभिलेख के आधार पर शास्त्री, रे और बनर्जी ने यह माना है कि हर्ष ने सुदूर दक्षिण में विजय प्राप्त की थी। परन्तु ऐसा मानने के लिये पर्याप्त प्रमाण नहीं है, क्योंकि हर्ष तो उत्तरापथ को दक्षिणी सीमा नर्मदा नदी को ही सम्भवतः पार नहीं कर सका था।
हर्ष का साम्राज्य विस्तार (Expansion of Empire of Harsha) यद्यपि हर्ष के साम्राज्य विस्तार के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है, परन्तु उसकी विजयों का अध्ययन करने के उपरान्त उसके राज्य विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है। यह तो निश्चित ही है कि हर्ष कन्नौज तथा थानेश्वर का राजा था। थानेश्वर का राज्य पूर्वी पंजाब में और कन्नोज गंगा के दोआब में स्थित था। प्रयाग, आवस्ती तथा अहिच्छत्र के प्रान्त भी उसके राज्य के अन्तर्गत थे। potom हर्षवर्धन की शासन व्यवस्था का वर्णन कीजिये।
हर्षवर्धन के प्रशासन का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
हर्ष का शासन प्रबन्ध (Administration of Harsha)
उत्तर-
हर्ष एक ऐसा ही व्यक्ति था। वह न केवल एक महान विजेता ही था, अपितु एक सुयोग्य शासक भी था। आर० सी० मजूमदार ने हर्ष की प्रशासकीय प्रतिभा की प्रशंसा करते हुये लिखा है- “इसमें सन्देह नहीं कि वह भारत के महानतम सम्राटों में एक था। एक उथल-पुथल के काल में उसे दो विखलित राज्यों का शासन करना पड़ा। वह उत्तरी भारत के एक विशाल क्षेत्र के एक बहुत बड़े अंश पर शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा।” हर्ष ने एक सुसंगठित शासन व्यवस्था का निर्माण किया।
उसका सम्मान करने के लिये उसके चारों ओर एकत्रित हुआ करते थे। मेरी होते थे और अपने-अपने पदानुसार राज्यप्तासम राज्य के सभी अवसरों पर राजा की सेवा में तत्पर रहते थे। करते थे और प्राय: राज्य के उच्च पदों पर कार्य किया करते थे लोग बड़े
(क) प्रलेख विभाग-केन्द्रीय शासन का एक महत्वपूर्ण के कथनानुसार तक उनके सम्याउ अलग-अलग निरीक्षण होते थे। सरकारी तथा पास होता था उनमें भले तथा उल्लेख किया और आपति तथा अकाल का लेखा विस्तारपूर्वक किया जाता ‘वाले को ‘अक्षपटलाधिकृत’ कहा जाता था। मधुवन ताम्रपत्र में ईश्वरगुप्त को और खेड़ा ताम्रपत्र में भानु को रिकॉर्ड संरक्षक कहा गया है। प्रान्तीय शासन
शासन की सुविधा की दृष्टि से समस्त साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभाजित था। प्रान्तों को भक्ति या देश कहा जाता था। अच्छी शाम्बी आदि प्रमुख प्रान्त थे। प्रान्तीय शासक को उपरिक महाराज गोप्ता राजधानी राष्ट्रीय आदि कहते थे। प्रान्तीय शासकों की नियुक्ति स्वयं सम्राट करता था। प्रत्येक प्रान्त विषयों में और विषय पथकों (तहसीलों) में विभक्त थे। विषय के शासक विषयपति कहलाते थे। विषयपति के केन्द्र अधिष्ठानों में होते थे जहाँ उसके अधिकरण (न्यायालय और कार्यालय) होते थे। प्रान्त और विषय के शासकों की सहायतार्थ दाण्डिक चोरोद्धरणिक दण्डपाशिक आदि पुलिस कर्मचारी होते थे। ग्राम शासन या स्थानीय शासन
शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम या गाँव होता था। गाँव का मुख्य अधिकारी महत्तर या धामीक या ग्रामक्षपटलिक कहलाता था। बाण ने आपहारिक नामक अधिकारी का उल्लेख किया है जो सम्भवतः दान में दी गयी भूमि का प्रबन्ध करता था। इसके अतिरिक्त अष्टकुलाधिकरण (आठ कुलों का निरीक्षक), शौल्किक (चुंगी वसूल करने वाला अधिकारी), गोल्मिक (वन, उपवन आदि का निरीक्षक), धुवाधिकरण (भूमि-कर अध्यक्ष), भाण्डागाराधिकृत (भण्डार का अध्यक्ष), तलवाटक (गाँव का लेखा रखने वाला), अक्षपटलिक (कागज-पत्र का संरक्षक जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है, पुस्तपाल (लेखा रखने वाला), उखेटमित (कर वसूल करने वाला), लेखक, करणिन (रजिस्ट्रार) आदि के उल्लेख पाये जाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि ग्रामीण शासन सरकारी तौर से बहुत अच्छी तरह संगठित था और गाँव के शासन में गैर-सरकारी, स्थानीय लोगों का भी काफी हाथ होता था। ग्राम परिषदों का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु यह पूरी सम्भावना है कि ऐसी संस्थायें भी थीं। सेना
हर्ष ने एक विशाल स्थायी तथा अनुशासित सेना का भी गठन किया। ह्वेनसांग के अनुसार, हर्ष की सेना में 60 हजार हाथी, एक लाख घुड़सवार थे। ऊंट भी काफी संख्या में थे। सामन्तों और मित्र राजाओं द्वारा भी सैनिक दल राज्य को प्राप्त होते रहते थे। हर्ष की सेना के तीन प्रमुख अंग थे- (i) पैदल, (i) अश्वारोही तथा (ii) गजारोही। रथ का प्रयोग शायद इस समय नहीं होता था। उत्कीर्ण लेखों में नौ-सेना का भी उल्लेख पाया
210 जाता है और सैनिक पड़ानों का उल्लेख मिलता है। अच्छे पोड़े ईरान प्रदेश आदि से मंगाये जाते थे। सैनिक द्वारा प्रयोग किये जाने वाले हथियारों में वाला, कवच, लोहे की टोपी आदि उल्लेखनीय थे। धनुष
सेना विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी महासन्धिविग्रहिक होता था। वह युद सन्धि सम्बन्धी मामलों में सम्राट का मुख्य परामर्शदाता था। सैन्य संचालन का महा नामक अधिकारी, शायद सम्राट के नेतृत्व में करता था। उसके नीचे बलाधिकृतल का मुख्य अधिकारी), सेनापति (सेना का प्रमुख अधिकारी), वृद्धाश्वर (अश्वारोही सेना अधिकारी), भटाश्वपति (पैदल यात्रा का प्रधान), कटुक (हाथियों की देखभाल करने अधिकारी), पाति (सैनिकों के निवास स्थान के निरीक्षक) आदि होते थे। साधारण को चाट और भाट कहा जाता था।
पुलिस एवं गुप्तचर विभाग
आन्तरिक सुरक्षा और शान्ति की दृष्टि से पुलिस और गुप्तचर विभाग का भी मंग किया गया था। पुलिस विभाग में दण्डपाशिक (डंडे और रस्सी रखने वाले सिपा), दि केवल इंडे वाले) चोरोद्धारणिक चोरों का पता लगाने वाले रात्रि में पह चल रही आदि अधिकारी व कर्मचारी होते थे। राज्य में गुप्तचरा (दुका) की अच्छी व्यवस्था थी जो गुप्त रूप से अपराधियों का पता लगाते थे और न्याय तथा स में सहायता पहुंचाते थे। अत्यन्त आवश्यक कार्य के लिये भेजे जाने वाले दूत को दी कहते थे। स्वगतः नामक एक अफसर गुप्त विभाग का सदस्य होता था।
न्याय विभाग एवं दण्ड विधान
सम्राट हर्ष स्वयं सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में न्याय करता था और उसका नि अन्तिम माना जाता था। अपराधों की भली-भांति जांच-पड़ताल की जाती थी और सिद्ध होने पर अपराधी को कठोर दण्ड दिया जाता था। न्यायाधीश को सम्भवतः मीमाद कहा जाता था। हर्ष के समय दण्ड व्यवस्था कठोर थी। राजद्रोह को भयंकर अपराध म जाता था और उसके लिये आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाता था।
सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने माता-पिता के साथ अनुचित व्यवहार करें तथा विश्वासघात करने पर अंगच्छेद का दण्ड दिया जाता था। फौजदारी अपराधों के लिये कठोर दण्ड मिलता था और कारावास में बन्दियों के साथ कड़ाई का व्यवहार किया था। ह्वेनसांग के अनुसार, अपराध का पता लगाने के लिये जल, अग्नि, विष और तुल वजन से परीक्षा ली जाती थी। पर इस प्रकार की परीक्षाओं का उल्लेख किसी अन्य पर और अभिलेखीय साक्ष्यों में नहीं है। वैज्ञानिक आधार पर भी ये परीक्षायें ठीक नहीं वैसे अग्नि परीक्षा के अनेक प्रमाण साहित्य में हैं। ईरान में भी अग्नि परीक्षा के उदहार पाये जाते हैं।
अपराधियों को समाज से अलग रखा जाता था और इसके लिये कारागार की व्यवस्थ थी। कभी-कभी बन्दियों को कारागर तक लाने के लिये हथकड़ी का भी प्रयोग किया जा था। कभी-कभी कैदियों को सजा की छूट भी मिलती थी। बाण के अनुसार, उल्लास और विजय के अवसरों पर और सम्राट के दिग्विजय अभियान के समय अनेक कैदी कारागार से मुक्त किये गये थे। ‘हर्षचरित’ से ज्ञात होता है कि हर्ष के अभिषेक के अवसर पर क उसके दिग्विजय अभियान के समय अनेक कैदी कारागार से मुक्त किये गये थे।
कठोर दण्ड व्यवस्था के कारण अपराधियों की संख्या बहुत कम थी। ह्वेनसांग लिया है क्योंकि शासन ईमानदारी से होता है और प्रजा का पारस्परिक सम्बन्ध अ
इसलिये अपराधी वर्ग बहुत छोटा है। फिर भी सड़कें तथा जलमार्ग पूर्ण रूप से सुरक्ष 1 और चार- डाकुओं का आतंक पूर्णरूप से समाप्त नहीं हुआ था। स्वयं ट्रेनसांग डाक ओ द्वारा लूट लिया गया था। परन्तु आमतौर पर साम्राज्य में शान्ति तथा व्यवस्था स्थापित थी। राजस्व/ आय
हर्ष ने राजस्व विभाग को भी सुव्यवस्थित किया और तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप राजस्व नीति अपनायी। मिलने वालों से प्राप्त भेट राजकीय आय का एक साधन था। वाण के अनुसार, वन भी राजकीय आय के महत्त्वपूर्ण स्रोत थे। व्यापार और उद्योग पर लगाये गये जुमानों से भी राज्य को आमदनी होती थी। विक्री कर (Sales Tax) भी लगता था। इसके अतिरिक्त दूध, फलों, चरागाह, घाटों, नावों, नदियों, झीलों आदि पर भी कर लगाया जाता था। राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमि कर था जो उपज का 1/6 भाग होता था। सारी भूमि का पर्यवेक्षण और माप होता था। पर्यवेक्षण विभाग के मुख्य अधिकारी को प्रभाता कहते थे। भूमि की सिचाई के लिये सरकारी प्रबन्ध होता था। मोटे रूप से आय के प्रमुख साधन ये थे-
(1) उद्रग (भूमि शुल्क)।
(2) उपरिकर (यह कर उन कृषकों से लिया जाता था जिनकी भूमि पर स्वाम्य नहीं
होता था)। (3) धान्य (वह शुल्क कुछ विशेष अनाजों के ऊपर लगाया जाता था)।
(4) हिरण्य (यह वह शुल्क था जो खनिज पदार्थों पर लगाया जाता था)। (5) शारीरिक श्रम (जो व्यक्ति राजकीय कर नहीं दे पाते थे उनसे कर के बदले निश्चित ढंग से शारीरिक श्रम लिया जाता था)।
(6) न्यायालय शुल्क (न्यायालयों के शुल्क से भी आमदनी होती थी।
(7) अर्थ दण्ड (अभियुक्तों से दण्ड के रूप में जो रकम वसूल होती थी।
कुल मिलाकर हर्ष की कर सम्बन्धी नीति कठोर एवं संकुचित नहीं थी, बल्कि व्यावहारिक आधार पर आधारित थी और उदार थी। प्रजा को कर रूपी रोलर (Roller) से दबाया नहीं गया था।
व्यय
राजकीय आय बड़ी उदारता के साथ खर्च की जाती थी। कला, संस्कृति और धार्मिक कृत्यों पर अपार राशि खर्च होती थी। राज्य कार्य, युद्ध और प्रशासकीय व्यय भी बहुत अधिक था। ह्वेनसांग के अनुसार, राजकीय आय के चार भाग थे—एक भाग धार्मिक तथा सरकारी कार्यों में खर्च होता था। दूसरा भाग बड़े-बड़े सार्वजनिक कार्यों पर खर्च होता था। तीसरा भाग विद्वानों को पुरस्कार देने के लिये था और चौथा भाग विभिन्न सम्प्रदायों को दान देने के निमित्त था। अधिकारियों/कर्मचारियों का भुगतान
ह्वेनसांग ने लिखा है कि- “राज्य के मन्त्री तथा साधारण कर्मचारी सभी के पास अपनी-अपनी भूमि है और उनके निर्वाह का भार उन नगरों पर है जिनमें उन्हें नियुक्त किया जाता है। प्रतीत होता है कि राज्य के छोटे कर्मचारियों को उनके कार्य के अनुसार नकद या भूमि के रूप में वेतन दिये जाते थे। वेतन नियमित था। यह कहा जा सकता है कि हर्ष की प्रशासन प्रणाली देश की सामन्त प्रणाली की अप्रगामी थी।”
जनकल्याण सम्बन्धी कार्य
हर्षवर्धन के प्रशासन का उद्देश्य इसे लोकहितकारी बनाना था। अतः सम्राट जनहितोपयोगी कार्यों में भी पूरी दिलचस्पी लेता था। उसने आवागमन की सुविधा के लिये सड़कों का निर्माण करवाया तथा उसकी सुरक्षा की व्यवस्था की। उसने चेत्यों, विहारों मन्दिरों तथा सरायों का निर्माण करवाया। शिक्षा और साहित्य के विकास में उसकी गहरी अभिरुचि थी। अतः विद्वानों को दान दिये गये एवं उन्हें पुरस्कृत किया गया। शिक्षण संस्थाओं, ब्राह्मणों एवं गरीबों को दान दिये गये। नालन्दा विश्वविद्यालय भी उसके से लाभान्वित हुआ। दान
हर्ष का सम्पूर्ण प्रशासनिक ढाँचा मानवीय आधार पर आधारित था। वह अपनी प्रजा को अपनी सन्तान के समान समझता था और उसकी नैतिक तथा भौतिक उन्नति के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता था। समूचा शासन सूत्र लोक कल्याण की भावना से संचालित होता था। परिवार को पंजीकृत करवाने का नियम नहीं था और लोगों से बेगार नहीं ली जाती थी। स्वतन्त्र वातावरण में अपनी परिस्थिति के अनुकूल प्रजा का विकास होता था। नसांग ने हर्ष के प्रशासन को श्रद्धांजलि अर्पित की है। परन्तु एक सामान्य निर्णय दे देना चीनी यात्री के लिये उचित न था। अल्तेकर के अनुसार हर्ष का प्रशासन कार्यकुशलता की दृष्टि से गुप्त प्रशासन के तुल्य नहीं था और न ही अपने कार्यों के बहुमुखी विस्तार की दृष्टि मौर्य प्रशासन के तुल्य था।
हर्ष का मूल्यांकन करें।
Give an estimate of Harsha. सम्राट हर्ष को अन्तिम भारतीय सम्राट क्यों माना जाता है ?
हर्ष को अंतिम भारतीय शासक क्यों माना जाता है ?
उत्तर-
हर्ष का मूल्यांकन
(1) महान् कुटुम्ब प्रेमी-हर्ष में अपार कौटुम्बिक प्रेम था, विशेषकर अपनी माता में उसकी अनन्य अद्धा तथा भक्ति थी। उसको पितृ भक्ति भी अद्वितीय थी। अपने भाई तथा बहिन के प्रति भी उसका प्रगाढ़ प्रेम था।
(2) महान् विरागी-हर्ष वैराग्य प्रवृत्ति का व्यक्ति था कन्नौज का राजमुकुट धारण करते वक्त उसने बड़ा संकोच किया था और ह्वेनसांग के अनुसार, उसने अपने आपको कभी महाराजा नहीं कहा और न ही राजसिंहासन पर चरण रखा। एक विरागी के स्वाभावानुसार वह देवताओं तथा ब्राह्मणों को बड़े आदर तथा श्रद्धा की दृष्टि से देखता था। संसार त्यागी विरक्त पुरुषों में उसकी अटल श्रद्धा थी।
(3) महान् संकटमोचन – हर्ष बड़ी ही संकटापन्न स्थिति में थानेश्वर के सिंहासन पर बैठा था। वर्ष उस समय केवल 16 वर्ष का नवयुवक था। परन्तु उसने बड़े धैर्य तथा सान के साथ काम लिया और न केवल इन आपत्तियों का उसने सफलतापूर्वक सामना किया करन थानेश्वर के छोटे से राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया।
(4) महान विजेता तथा साम्राज्य निर्माता की दिग्विजय के महान कार्य का वर्णन करते हुये लिखा एक युद्ध ने अशोक की रक्त पिपासा को शान्त कर दि हर्ष अपने वार को में रखने के लिये सन्तुष्ट हुआ जब
जनकल्याण सम्बन्धी कार्य
हर्षवर्धन के प्रशासन का उद्देश्य इसे लोकहितकारी बनाना था। अतः सम्राट जनहितोपयोगी कार्यों में भी पूरी दिलचस्पी लेता था। उसने आवागमन की सुविधा के लिये सड़कों का निर्माण करवाया तथा उसकी सुरक्षा की व्यवस्था की। उसने चेत्यों, विहारों मन्दिरों तथा सरायों का निर्माण करवाया। शिक्षा और साहित्य के विकास में उसकी गहरी अभिरुचि थी। अतः विद्वानों को दान दिये गये एवं उन्हें पुरस्कृत किया गया। शिक्षण संस्थाओं, ब्राह्मणों एवं गरीबों को दान दिये गये। नालन्दा विश्वविद्यालय भी उसके से लाभान्वित हुआ। दान
हर्ष का सम्पूर्ण प्रशासनिक ढाँचा मानवीय आधार पर आधारित था। वह अपनी प्रजा को अपनी सन्तान के समान समझता था और उसकी नैतिक तथा भौतिक उन्नति के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता था। समूचा शासन सूत्र लोक कल्याण की भावना से संचालित होता था। परिवार को पंजीकृत करवाने का नियम नहीं था और लोगों से बेगार नहीं ली जाती थी। स्वतन्त्र वातावरण में अपनी परिस्थिति के अनुकूल प्रजा का विकास होता था। नसांग ने हर्ष के प्रशासन को श्रद्धांजलि अर्पित की है। परन्तु एक सामान्य निर्णय दे देना चीनी यात्री के लिये उचित न था। अल्तेकर के अनुसार हर्ष का प्रशासन कार्यकुशलता की दृष्टि से गुप्त प्रशासन के तुल्य नहीं था और न ही अपने कार्यों के बहुमुखी विस्तार की दृष्टि मौर्य प्रशासन के तुल्य था
हर्ष का मूल्यांकन करें।
Give an estimate of Harsha. सम्राट हर्ष को अन्तिम भारतीय सम्राट क्यों माना जाता है ?
हर्ष को अंतिम भारतीय शासक क्यों माना जाता है ?
उत्तर-
हर्ष का मूल्यांकन
(1) महान् कुटुम्ब प्रेमी-हर्ष में अपार कौटुम्बिक प्रेम था, विशेषकर अपनी माता में उसकी अनन्य अद्धा तथा भक्ति थी। उसको पितृ भक्ति भी अद्वितीय थी। अपने भाई तथा बहिन के प्रति भी उसका प्रगाढ़ प्रेम था।
(2) महान् विरागी-हर्ष वैराग्य प्रवृत्ति का व्यक्ति था कन्नौज का राजमुकुट धारण करते वक्त उसने बड़ा संकोच किया था और ह्वेनसांग के अनुसार, उसने अपने आपको कभी महाराजा नहीं कहा और न ही राजसिंहासन पर चरण रखा। एक विरागी के स्वाभावानुसार वह देवताओं तथा ब्राह्मणों को बड़े आदर तथा श्रद्धा की दृष्टि से देखता था। संसार त्यागी विरक्त पुरुषों में उसकी अटल श्रद्धा थी।
(3) महान् संकटमोचन – हर्ष बड़ी ही संकटापन्न स्थिति में थानेश्वर के सिंहासन पर बैठा था। वर्ष उस समय केवल 16 वर्ष का नवयुवक था। परन्तु उसने बड़े धैर्य तथा सान के साथ काम लिया और न केवल इन आपत्तियों का उसने सफलतापूर्वक सामना किया करन थानेश्वर के छोटे से राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया।
(4) महान विजेता तथा साम्राज्य निर्माता की दिग्विजय के महान कार्य का वर्णन करते हुये लिखा एक युद्ध ने अशोक की रक्त पिपासा को शान्त कर दि हर्ष अपने वार को में रखने के लिये सन्तुष्ट हुआ जब उसने
करने और रखने के लिये पृथक अधिकारियों के निर्देशन में अभिलेखागा (11) महान दानी-हर्ष महान दानी भी था। वह दीन-दुखियों, अनाथ, असहाय खी थी। आदि को उदारतापूर्वक दान दिया करता था। प्रयाग मेले में सैनिक सामग्री को छोड़कर अपनी समस्त पूंजी लोगों में बांट दिया करता था। दानी के रूप में उसकी तुलना क
की जा सकती है. (12) महान कला प्रेमी-हर्ष कला का महान संरक्षक था। कुछ कहते हैं कि उसके शासनकाल में गुप्ताला की उन्नति हुयी। उसके समय में अनेक बिहार, मठ, स्तूप और मन्दिरों का निर्माण हुआ था। शाहबाद जिले में मुण्डेश्वरी का अष्टकोणिक मन्दिर, रायपुर जिले का राम-लक्ष्मण का मन्दिर, कन्नोज का संधाराम आदि उसी काल की स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। देवी-देवताओं तथा बुद्ध का संगमरमर, स्वर्ण, तांबे आदि की प्रतिमायें उस काल की मूर्ति कला की कुशलता और प्रवीणता का स्पष्ट परिचय प्रदान करती हैं जिन्हें देखकर उस काल की कला के उत्कर्ष का कुछ
मिलता है। (13) महान् विद्यानुरागी-हर्ष महान् विद्या प्रेमी था। कुछ की मान्यता है कि स्वयं उच्च कोटि का विद्वान था। स्वयं लिखता था। हवल के अनुसार, हम कलम के प्रयोग में उतना ही निपुण था जितना कि तलवार के प्रयोग में बाण उसकी काव्य-कुशलता की तारीफ करता है। जयदेव, कालिदास और भास की भाँति उसे भी महाकवि माना है। ‘रत्नावली’, ‘नागानन्द’ तथा ‘प्रियदर्शिका’ की साख उसे दी जाती है। परन्तु इस बारे में विद्वानों में मतैक्यता नहीं है।
वर्षायों और साहित्यकारों का आश्रयदाता था- इसमें कोई दे नहीं। मुकर्जी का कथन है कि, “विद्वानों के अपने उदारतापूर्ण प्रोत्साहन के द्वारा हर्ष ने उस समय के महानतम विद्वानों को अपनी सभा में आकर्षित कर लिया था।”
संस्कृति का महान् सेवक
हर्ष ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के पोषण तथा प्रचार का भी अथक प्रयास किया था। उसके शासनकाल में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का विदेशों में खूब प्रचार हुआ। तिब्बत, चीन तथा मध्य एशिया के साथ इस काल में भारत का बड़ा घनिष्ठ सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित हो गया था और इन देशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के दृष्टिकोण से भी वर्ष का शासनकाल बड़ा ही गौरवपूर्ण था। अतएव हर्ष को भारतीय सम्राटों में उ स्थान प्रदान करना तथ्य संगत है।
स्पष्ट त्रुटियों के होते हुये भी हर्ष निःसन्देह उदार शासक था। भारत के महान् शासकों में उसका नाम गिना जाना चाहिये। पणिक्कर ने लिखा है-यह हर्ष का गव वह चन्द्रगुप्त मौर्य से शुरू होने वाली उन हिन्दू शासकों की लम्बी पंक्ति का अन्तिम शासक समय में संचार ने भारत को एक प्राचीन तथा महान् सभ्यता ही नहीं बल्कि मानवता की उन्नति के लिये कार्यशील एक सुव्यवस्थित और शक्तिशाली राज्य के रूप में देखा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि शासक, कवि, धार्मिक समुत्साही के रूप में हर्ष को भारतीय इतिहास में उच्च स्थान प्राप्त होगा।” स्मिथ, केनेडी, भटनागर आदि विद्वानों ने भी उसे हिन्दुओं का अन्तिम सम्राट माना है।
उत्तरी भारत- गुर्जर प्रतिहार, पाल और सेन
[NORTH INDIA GURJARA PRATIHARS, PALAS AND SENS]
“यह कहना बहुत बड़ी पूर्खता होगी कि राजपूत लोग प्राचीन वैदिक काल के क्षत्रियों की शुद्ध सन्तान हैं। ऐसा सोचकर हम मिध्याभिमान कर सकते हैं. परन्तु यह प्रायः तथ्य से दूर होता है। पाँच-छः शती में भी विदेशी भारत में
-डॉ० ईश्वरी प्रसाद “मिहिरभोज प्रतिहार शासकों में सर्वश्रेष्ठ था। उसने अपने पौरुष के बल पर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। वह प्रतिहार वंश का एक प्रतिभाशाली और महानतम् शासक था।” -आर० पी० त्रिपाठी
“धर्मपाल एक महान शासक था। उसने अपने विरोधियों को नतमस्तक करके
अपने साम्राज्य का विस्तार करने का प्रयास किया। उसकी असफलताओं में
ही उसकी सफलता निहित थी।”
-डी० सी० गांगुली
“सेन वंश के राजाओं में लालसेन और लक्ष्मणसेन का नाम उल्लेखनीय है। लेकिन इन दोनों शासकों को महानतम् शासक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इन्हें राजनीतिक दृष्टिकोण से कोई उल्लेखनीय उपलब्धियाँ नहीं प्राप्त हुयी थीं।”
-आर० के० मुकर्जी
राजपूतों की उत्पत्ति की विवेचना कीजिये।
Discuss the origin of the Rajputs. राजपूत युग से क्या तात्पर्य है ? भारतीय इतिहास में राजपूत युग का
या
राजपूत युग का झुकाव क्या है? क्या महत्व है
भारतीय इतिहास में राजपूत युग का?
या
राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न मतों की विवेचना कीजिये। Discuss the various theories of origin of the Rajputs. राजपूत कौन थे ? उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं ? Who were the Rajputs ? What do you know about their origin ? या
या “तथाकथित सूर्य तथा चन्द्र वंश हमारे मत से आर्यों के दो दल थे जो मध्य एशिया से भारत आये (जे० एन० आसोपा) उपरोक्त कथन की समीक्षा कीजिये ।
या
राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति सम्बन्धी कौन से मत है ? इनकी पुष्टि में दिये गये तर्कों से आप कहाँ तक सहमत हैं ? सकारण उत्तर दीजिये। What are the theories of the foreign origin of Rajputs?
उत्तर-
राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्त (Various Theories of Origin of Rajputs)
राजपूत युग की एक जटिल एवं महत्वपूर्ण गुत्थी यह है कि राजपूत कौन थे विद्वानों में इनके बारे में मतभेद है। कुछ इन्हें क्षत्रिय मानते हैं तो कुछ ब्राह्मण, कुछ उन्हें अग्निकुण्ड से उत्पन्न बतलाते हैं, तो कुछ उनको उत्पत्ति विदेशियों और अनाथों से बतलाते है ओर कुछ मिश्रित उत्पत्ति का मानते हैं। इन सब मतों का आलोचनात्मक निरूपण युक्तिसंगत होगा न कि सिर्फ अपनी पसन्द के मत की विवेचना करना क्योंकि इतिहास में पसन्द और नापसन्द के लिये कोई स्थान नहीं होता। इतिहास व्यक्तिगत भावों का निगम द्वार नहीं होता। इसलिये अगले पृष्ठों में प्रत्येक मत की अलग-अलग आलोचनात्मक व्याख्या को जा रही है। करना
अप्रिय उत्पत्ति का सिद्धान्त
ज० एक०सी० पी० वं आदि राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रियों से मानते है। और अपने मत के समर्थन में निम्नांकित तर्क प्रस्तुत करते हैं- (1) अनुभूतियों तथा परम्परा के अनुसार राजपूत क्षत्रिय राजपूत लोग प्राचीन
क्षत्रियों के वंशज थे जिन्होंने अपने को सूर्य तथा चन्द्रवंशी माना । अनुश्रुतियों से हमें पता चलता है कि प्राचीन क्षत्रिय समाज 2 भागों में विभक्त था। इनमें से एक सूर्यवंशी और दूसरा चन्द्रवंशी कहलाता था। कालान्तर में इनकी तीसरी शाखा उत्पन्न हो गयी जो यदुवंशी कहलाने लगी। इन्हीं 3 शाखाओं के अन्तर्गत सभी क्षत्रिय आ जाते थे जिनका मुख्य व्यवसाय शासन करना तथा आक्रमणकारियों से देश की रक्षा करना था। क्षत्रियों का यह कार्य भारतीय जाति व्यवस्था के अनुकूल था। कालान्तर में कुल के महान ऐश्वर्यशाली व्यक्तियों के नाम पर भी वंश के नाम पड़ने लगे। इसके क्षत्रियों की अनेक उपजातियाँ बन गयीं। हर्ष की मृत्यु के उपरान्त क्षत्रियों की इन्हीं विभिन्न शाखाओं ने भारत के विभिन्न भागों में अपना राज्य स्थापित कर लिया और राजपूत के नाम से प्रसिद्ध हुये ।
(2) राजपूतों के रीति-रिवाज तथा आदर्श प्राचीन क्षत्रियों के से राजपूतों को प्राचीन क्षत्रियों के वंशज सिद्ध करने में एक बड़ा ही सबल तर्क यह उपस्थित किया जाता है कि आजकल भी राजपूतों के विभिन्न परिवारों में कुछ ऐसे रीति-रिवाज प्रचलित हैं जो चीन क्षत्रियों की विशेषतायें थीं।
(3) साहित्यिक साझानुसार राजपूत क्षत्रिय के प्राचीन पन्थों से हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध हो जाता है कि ‘राजपूत’ अथवा ‘राजपुत्र’ शब्द का प्रयोग न क्षत्रियों के लिये किया गया है। उदाहरणार्थ, महाभारत में द्रौपदी को राजपुत्री बतलाया गया। है। इसी प्रकार भवभूति ने कौशल्या को राजपुत्री बतलाया है। पाणिनि ने भी राजपूत शब्द का प्रयोग उच्चकुल के अर्थ में किया है, अस्तु राजपूत, जो राजपुत्र का अपभ्रंश है, प्राचीन क्षत्रियों का ही द्योतक है और इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया गया है।
(4) शारीरिक रचना – राजपूतों की शारीरिक रचना (गौर वर्ण, शारीरिक गठन, लम्बी
नाक आदि) से भी यही आभासित होता है कि वे प्राचीन क्षत्रियों की सन्तान थे। (5) अपार देश-प्रेम-जिस अदम्य, उत्साह, वीरता तथा साहस के साथ राजपूतों ने अपनी मातृभूमि की स्वतन्त्रता तथा अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिये विदेशी
उत्तरी भारत गुर्जर प्रतिहार, पाल और सेन आक्रमणकारियों से युद्ध किया और मातृभूमि की वेदी पर अपना सर्वस्व निछावर कर दिया
उससे भी यही आभासित होता है कि वे प्राचीन क्षत्रियों की सन्तान थे। (6) तथाकथित विदेशी राजपूत वंश के क्षत्रिय थे-प्रतिहार, बन्देल, चालुक्य, चाहमान परमार आदि राजवंश, जिन्हें विदेशियों की सन्तान कहा गया है, वस्तुतः प्राचीन क्षत्रियों की सन्तान न थे, जिसके निम्नलिखित प्रमाण है-
(1) प्रतिहार सूर्यवंशीय क्षत्रिय थे–प्रतिहारों ने अपने अभिलेखों में अपने को इक्ष्वाकु
अथवा सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा है। उदाहरणार्थ, भोज के ग्वालियर अभिलेख तथा बाठक के जोधपुर अभिलेख में प्रतिहारों ने अपने को राम के भाई लक्ष्मण की सन्तान बतलाया है (ii) चन्देल चन्द्रवंशीय क्षत्रिय थे एक अनुश्रुति के अनुसार चन्देलों की उत्पत्ति चन्द्रमा तथा एक ब्राह्मण गन्धर्व कुमारी से हुयी थी। उत्कीर्ण लेखों में दी गयी परम्परा के अनुसार नन्दुक नामक चन्देल नेता, जिसने 9वीं सदी के प्रारम्भ में बुन्देलखण्ड के दक्षिण में अपनी प्रभुता स्थापित कर ली थी, चन्द्रात्रेय का वंशज था, जो चन्द्रवंशी था।
(iii) चालुक्य क्षत्रिय थे—एक अनुश्रुति के अनुसार चालुक्यों की उत्पत्ति हारीत के कमण्डल से हुयी थी। चालुक्यवंशी नरेश पुलकेशिन || को ह्वेनसांग ने क्षत्रिय बतलाया है। ओझा ने इस बात को अनुश्रुतियों के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि मेवाड़ के चालुक्य तथा सिसोदिया वंश जो अपने को सबसे अधिक श्रेष्ठ बतलाते हैं, अपने को राम का वंशज बतलाते हैं।
(iv) चाहमान सूर्यवंशी क्षत्रिय थे-हमीर महाकाव्य पृथ्वीराज विजय और सुजानचरित के अनुसार चाहमान अथवा चौहान राजपूत सूर्यपुत्र अर्थात् सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। (v) परमार क्षत्रिय थे-परमार वंश के एक अत्यन्त प्राचीन हरसोल अभिलेख में इस वंश को राष्ट्र कुलोत्पन्न कहा गया है, क्योंकि राष्ट्रकूट वंश प्राचीन क्षत्रिय वंश था, अतएव परमार भी क्षत्रियों की सन्तान सिद्ध हो जाते हैं।
(vi) सभी 36 राजकुल सूर्य, चन्द्र अथवा यदुवंशी थे-चन्दवरदाई के ‘पृथ्वीराजरासो’
में राजपूतों के जिन 36 वंशों का उल्लेख किया गया है उनमें से सभी सूर्य, चन्द्र अथवा
यदुवंशी बतलाये गये हैं जिनसे प्राचीन क्षत्रिय अपनी उत्पत्ति मानते हैं।
क्षत्रिय उत्पत्ति के सिद्धान्त की आलोचना परन्तु, उपर्युक्त सभी तर्क निर्णयात्मक हो सो बात नहीं। सूर्य और चन्द्र से मानव की उत्पत्ति आज का मानव नहीं मानता। सूर्य और चन्द्र से मानव की उत्पत्ति का सिद्धान्त एक परम्परा है। मिस्र के शासक (वाराही) स्वयं को ‘रा’ का पुत्र कहते हैं। पीरू के इंक वंशी (Incas of Peru) और जापान के मिकादो वंशी (Mikado of Japan) भी ऐसा ही दावा करते हैं। जयनारायण असोपा ने सूर्य तथा चन्द्र वंशी को मिथक (Mythk) माना है और इस मिथक का विश्लेषण करते हुये असोपा ने यह मान्यता प्रकट की है कि सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी मूलतः आर्यों के 2 दल थे जो भारत आये। पहला दल मध्य एशिया की Jaxartes तथा दूसरा दल उसी प्रदेश की Jli नदियों से चलकर आया। मध्य एशिया में जेक्ट (Jascartes) नदी से आने वाले इन आर्यों ने भारत में कुरुक्षेत्र प्रदेश की नदी का नाम भी जेक्सार्टीज का भारतीय रूप इक्षुमति रख दिया तथा स्वयं इक्ष्वाकु कहलाये । इनका शासक इक्ष्वाकु मनु वैवस्वत (सूर्य) का पुत्र था। इसके कारण ही सूर्यवंशी मत का प्रचलन हुआ। इसी नदी से भारत आने वाली दूसरी शाखा के आर्य ‘आइल’ थे जो चन्द्रवंशी कहलाये। रूस में उत्खनन द्वारा भी आयों के अवशेष इस इली नदी के तट पर मिले हैं। मध्य एशिया की यू-बी आति इली नदी के तट पर बस गयी थी। चीनी खोतों से विदित
भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० होता है कि यह चन्द्रग इली नदी के तट पर बसे थे। इससे प्रतीत होता तक) लोग भारत आये तो स्वयं को चन्द्रवंशी कहने लगे।
ब्राह्मण उत्पत्ति का सिद्धान्त
दशरथ शर्मा विश्वभरशरण पाठक जैसे अनेक विद्वानों ने राजपूत जाति की उत्पत्ति ब्राह्मणों से मानी है। बिजोलिया शिलालेख में चाहमान वासुदेव के उत्तराधिकारी सामन्त को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण कहा गया है। राजशेखर ब्राह्मण का विवाह चाहमान राजकुमारी अवन्तिसुन्दरी से होना भी चाहमानों का ब्राह्मण वंशीय होना प्रकट करता है। ‘कायम रासो में भी चाहमानों की उत्पत्ति वत्स से बतलायी गयी है जो जमदग्नि गोत्र में था। इस तथ्य का साक्ष्य सुपडा तथा आबू अभिलेख हैं और गुहिलों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मण बतलायी गयी है। कुछ राजपूतों के लिये ‘दिन’ और ‘वि’ शब्दों का प्रयोग
किया गया केतको आलोचना पर ओझा और वे इस बात को करते हुये कहते हैं कि ‘दिन’, ‘बी’, ‘वि’ आदि शब्दों का प्रयोग राजपूत की जाति की उत्पत्ति के लिये हुआ न कि ब्राह्मण जाति के लिये। कुछ को ब्राह्मणक्षत्र इसलिये कहा गया कि ब्राह्मण संज्ञा से उन्हें क्षत्रीत्व प्राप्त हुआ।
अग्निगुण्ड से उत्पत्ति का सिद्धान्त कृत में अनुभूति के आधार पर एक ऐसा कथा का
उपलब्ध है जिसके आधार पर इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुयी थी। इस कथा का सारांश इस प्रकार है- “जब पृथ्वी के छ के अत्याचारों में इतनी वृद्धि हो गयी कि वे असा हो गये तब उन अत्याचारिया का करने के लिये महर्षि वशिष्ठ ने आबू पर्वत पर एक अग्निकुण्ड का निर्माण करके य किया। इस अग्निकुण्ड से चार योद्धा अर्थात् प्रतिहार, चालुक्य परमार तथा निकले। भारत के राजपूत इन्हीं चारों की सन्तान है। चूंकि इन चारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड “जिस अनुश्रुति के आधार पर ‘पृथ्वीराजरासो’ में अग्निकुण्ड की कथा का उल्लेख
मिलता है उसके विद्वानों ने निम्नांकित 3 अर्थ निकाले हैं-
(i) अग्नि से उत्पत्ति-जब परशुराम ने क्षत्रियों का विनाश कर दिया तब समाज में बड़ी गड़बड़ी फैल गयी, लोग कर्तव्य भ्रष्ट हो गये। इससे देवता लोग बड़े दुखी हुये क एक नये यज्ञ गुट आबू पर्वत पर एकत्रित हुये जहाँ पर एक विशाल अग्निकुण्ड था। इस अग्निकुण्ड से देवताओं ने प्रतिहारों, चालुक्यों, परमारों और (कुछ के अनुसार बाद में से) चाहमानों को उत्पन्न किया। अस्तु ये अग्निवंशीय कहलाये ।
(ii) अग्नि के समक्ष शपथ- कतिपय विद्वानों की यह धारणा है कि प्रतिहारों, चालुक्यों, परमारों तथा चाहमानों ने अग्नि के समक्ष यह शपथ ग्रहण की थी कि वे अरबों तथा से देश की रक्षा करेंगे और इसी अग्नि शपथ के कारण उन्हें अग्निवंशीय कहा गया।
(iii) विदेशियों की अग्नि द्वारा शुद्धि-कुछ अन्य इतिहासकारों की धारणा है कि ब्राह्मणों ने यज्ञ द्वारा जिन विदेशियों की शुद्धि कर ली थी और क्षत्रिय समाज में समाविष् कर लिया था वही ‘अग्निवंश राजपूत’ कहलाये।
अग्नि से उत्पत्ति के सिद्धान्त की आलोचना-‘पृथ्वीराजरासो’ की कथा के आधार प् जिन विद्वानों ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है कि राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से से
1. वह कथा तथा सिमाना अभिलेख में भी मिलती है।
हुयी है अथवा अग्नि के समक्ष उन्होंने शपथ ग्रहण किया है या अग्नि से विदेशियों की शुद्धि की गयी है उसकी अनेक विद्वानों ने तीव्र आलोचना की है। जिन तर्कों के आधार पर इन विद्वानों ने अग्निकुण्ड के सिद्धान्त का खण्डन किया है उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-
(i) पृथ्वीराजरासो की कथा कपोल कल्पित-चूंकि ‘पृथ्वीराजरासो’ अनेक प्रकार की काल्पनिक कथाओं से परिपूर्ण है, अतएव इसकी कथा पर सहसा विश्वास करना समीचीन नहीं प्रतीत होता। इसमें कई असंगतियाँ हैं। एक स्थल पर तो इसी ग्रन्थ में राजपूतों को रवि शशि जाधव वंशी कहा गया है और फिर ‘पृथ्वीराजरासों’ की प्राचीन प्रतिलिपि जो बीकानेर पुस्तकालय में है, में अग्निकुण्ड से उत्पत्नि के सिद्धान्त का कहीं जिक्र ही नहीं लगता है, यह बाद की कूट रचना है जो रामायण और महाभारत पर आधारित है। | शायद किसी अज्ञात चारण ने राजपूतों के अरबों और तुकों के विरुद्ध शायं प्रदर्शित करने के निमित्त यह क्षेपक (16वी सदी के आस-पास) पृथ्वीराजरासो में जोड़ दिया। यदि यह सिद्धान्त सही होता तो उनके अभिलेखों में कहीं न कहीं जिक्र तो अवश्य होता ।
(ii) चारों वंशों के पूर्वास्तित्व की भावना इस बात की बहुत बड़ी सम्भावना है कि आबू पर्वत पर किये गये यज्ञ के पूर्व उन चारों राजवंशों का अस्तित्व रहा हो जिनकी उत्पत्ति अग्नि कुण्ड से बतलायी गयी है।
(iii) शुद्धिकरण की कोरी कल्पना-जिन विद्वानों ने विदेशियों को अग्नि के द्वारा शुद्धिकरण की कल्पना की है वह निर्मूल तथा निराधार है, क्योंकि विदेशियों के शुद्धिकरण का कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। असोपा ने शुद्धिकरण की बात को स्वीकार किया है, परन्तु विदेशियों के शुद्धिकरण की नहीं, बल्कि उन राजपूत वंशों (प्रतिहार, परमार, चालुक्य, चाहमान) जो ब्राह्मण से क्षत्रिय बने थे। ये ब्राह्मण अपनी प्राचीन आग्नेय उत्पत्ति को बनाये रखने के लिये अग्निवंशी राजपूत कहलाये।
(iv) शपथ ग्रहण करने की कथा निराधार-जिन विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है। कि चारों योद्धाओं ने अग्नि के समक्ष तुर्कों तथा अरबों के विरुद्ध देश की रक्षा करने की शपथ ली थी वह भी कोरी कल्पना पर आधारित है और उसका कोई अभिलेख अथवा साहित्यिक प्रमाण नहीं है।
(v) क्षत्रियों के विनाश की धारणा कोरी कल्पना-जिन विद्वानों की यह धारणा है कि जब परशुराम ने क्षत्रियों का विनाश कर दिया था तब सर्वत्र अराजकता फैल गयी और उसे दूर करने के लिये अग्नि से 4 वंशों की उत्पत्ति की गयी थी। यह कोरी कल्पना पर आधारित और अविश्वसनीय है।
(vi) 36 राजवंशों में अग्नि वंश का उल्लेख नहीं- ‘पृथ्वीराजरासो’ में चन्दवरदायी
ने जिन 36 राजपूत वंशों का उल्लेख किया है उनमें कोई भी अग्नि वंशीय नहीं कहा
गया है।
(vii) ब्राह्मण तथा चारणों की मनगढ़न्त कथा – राजपूतों की राज सभा में ब्राह्मण तथा चारण रहते थे जिन्होंने अपने-अपने राजाओं को राम, कृष्ण तथा अन्य लोकनायकों का वंशज सिद्ध करने के लिये कल्पित कथायें गढ़ ली थीं।
(viii) राजपूतों का हिन्दू धर्म में अडिग विश्वास-यदि राजपूत विदेशी होते तो हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिये वे मुसलमानों के साथ अदम्य उत्साह तथा अमतिहत साहस के साथ संघर्ष न कर सके होते और अपना सर्वस्व निछावर करने के लिये उद्यत न हुये होते। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर आलोचकों ने अग्निकुण्ड से राजपूतों की उत्पत्ति की
कहानी को निराधार तथा निर्मूल सिद्ध कर दिया है, और उसे ब्राह्मणां तथा चारणों के मस्तिष्क
की उपज मात्र बतलाया है जिस पर विश्वास करना उचित नहीं है। आज का वैज्ञानिक मानव इस प्रकार के तर्क को स्वीकार नहीं कर सकता। गोपीनाथ शर्मा ने चन्दबरदाई के ‘पृथ्वीराजरासो’ में वर्णित अग्निकुण्ड से उत्पन्न 4 राजपूत वंशों के प्रकरण को मात्र कवि की कल्पना माना है। भाटो नेणसी और सूर्यमल्ल ने इस मत का काफी प्रचार किया, किन्तु 10वीं सदी के अभिलेखों व साहित्यिक प्रन्थों से यह प्रमाणित होता है कि इन चार राजवंशों में से तीन प्रतिहार, चौहान व परमार सूर्यवंशी तथा चालुक्य (सोलकी) चन्द्रवंशी थे। दशरथ शर्मा ने भी अग्निवंशी मत को भाटों की कल्पना की एक उपज मात्र बतलाया है। ईश्वरी प्रसाद ने इसे तथ्य रहित बतलाते हुये लिखा कि यह ब्राह्मणों का एक प्रतिष्ठित जाति की उत्पत्ति की महत्ता निर्धारित करने का प्रयास मात्र है।
विदेशियों तथा अनायों से उत्पत्ति
अनेक विद्वान् राजपूतों की उत्पत्ति विदेशियों तथा अनायों से बतलाते हैं। इनमें टाइ स्मिथ कुक तथा भण्डारकर के नाम अग्रगण्य हैं।
(1) टाड का मत टाड ने अग्निकुण्ड से उत्पत्ति के सिद्धान्त के आधार पर यह मत प्रतिपादित किया कि राजपूत मध्य एशिया की शक अथवा सीथियन जाति की सन्तान है जिन्होंने 6ठी सदी में भारत में प्रवेश किया था। उसकी इस धारणा का मूलाधार यह है कि राजपूतों के कई रीति-रिवाज, जैसे- अश्व पूजा, सूर्य पूजा, अश्वमेघ यज्ञ, अस्त्र-शिक्षा एवं पूजा, शस्त्र संस्कार, सुरा-प्रेम, युद्ध-प्रेम, स्त्री-सम्मान और जौहर, सती, भविष्यवाणी, आदि अन्धविश्वासों में शकों के रीति-रिवाजों से मिलते-जुलते हैं। इस सादृश के आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि शक जब भारत के निवासी बन गये तब वे हिन्दू समाज में समाविष्ट हो गये और ब्राह्मणों ने उनकी शुद्धि करके उन्हें हिन्दू जाति व्यवस्था में स्थान प्रदान कर दिया। चूँकि जाति का निर्धारण व्यवसाय के अनुसार होता था, और शक शासक वर्ग में आते थे, अतएव हिन्दू समाज में उन्हें क्षत्रियों का स्थान प्राप्त हो गया और राजपूत कहलाये। शकुन
(2) स्मिथ का मत-स्मिथ के अनुसार — (i) भारत में प्रविष्ट जिन विदेशियों का भारतीयकरण हो गया वे राजपूत कहलाये। यही नहीं, विभिन्न राजवंशों के नाम विदेशी जातियों के नाम पर पड़ गये जैसे गुर्जर प्रतिहार गुर्जर विदेशी थे। (ii) कतिपय राज वंश अनायों की सन्तान थे। विदेशियों की भांति दक्षिण की अनेक जातियाँ राठोर चन्दल तथा गाहड़वाल आदि राजपूत वंश इन्हीं भारतीयकृत अनार्य जातियों की सन्तान हैं। (iii) विभिन्न राजपूत वंशों के रीति-रिवाजों में जो वैषम्य दृष्टिगोचर होता है उससे भी इसी तथ्य की सम्पुष्टि होती है कि राजपूत लोग विभिन्न जातियों के वंशज थे। इस प्रकार जो राजपुर सूर्योपासक हैं वे विदेशी हैं और जो नागोपासक हैं वे मूल निवासियों अर्थात् अनायें के वंशज माने जाते हैं। (iv) जिन विदेशी तथा अनार्य राजवंशों का उदय हुआ उन्होंने अपने प्रतिष्ठा और गौरव में वृद्धि करने के लिये और अपनी विदेशी तथा अनायें जाति से उत्प पर आवरण डालने के लिये अपने को सूर्य तथा चन्द्रवंशी कहने लगे।
(3) कुक का पत-कुछ के अनुसार, राजपूतों की उत्पत्ति शकों, कुषाणों, पहल हूणों तथा गुर्जरों के अक्रमण के समय से हुयी है। गुर्जर जाति विशेष रूप से हूणों में सम्बन्धित थी। कालान्तर में गुर्जरों तथा अन्य विदेशी आक्रमणकारियों ने हिन्दू धर्म को स्वीकार कर लिया और हिन्दू समाज के एक अंग बन गये। इन्हीं विदेशियों के वंशव जिनका भारतीयकरण हो गया था राजपूत कहलाये ।
(4) भण्डारकर का मत—भण्डारकर ने कुछ राजपूत वंशों की उत्पत्ति हैड्यों औ हूणों से बतलायी है ओर हूप विदेशी थे हो इसमें कोई शक नहीं तथा पुराणों में ह
उत्तरी भारत गुर्जर प्रतिहार, पाल और सेन का उल्लेख शकों और यवनों के साथ किया गया है, इसलिये हैहय भी विदेशी थे। इसके अलावा निम्नांकितों को भण्डारकर ने गुर्जर बतलाया है जो विदेशी थे और खिजर जाति की सन्तान थे (i) प्रतिहार भण्डारकर ने प्रतिहारों को गुर्जर सिद्ध करने के लिये 2 प्रमाण उपस्थित
किये हैं पहला तो यह कि जयपुर की प्रतिहार शाखा अपने को गुर्जर प्रतिहार कहती है और
दूसरा यह कि अरबों और राष्ट्रकूटों ने भी कन्नौज के प्रतिहारों को गुर्जर कहा है।
(ii) चालुक्य- चालुक्यों को गुर्जर सिद्ध करने के लिये भण्डारकर ने यह तर्क उपस्थित किया है कि गुजरात का प्राचीन नाम लाट था, किन्तु जब चालुक्यों का उस पर अधिकार हो गया तब वह गुजरात कहलाने लगा। चूंकि चालुक्य गुर्जर जाति के थे, अतएव उनकी विजय के उपरान्त उनके द्वारा विजित लाट प्रदेश का नाम गुजरात पड़ गया।
(iii) परमार—परमारों को गुर्जर सिद्ध करने के लिये भण्डारकर ने कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपस्थित नहीं किया है, वरन् उसे केवल नैतिकता के आधार पर सही मान लिया है। (iv) चाहमान – ‘पृथ्वीराजरासो’ में वासुदेव को चाहमान वंश का संस्थापक बतलाया है। कुछ मुद्राओं पर ‘श्री वाहमान’ अंकित मिला है। भण्डारकर ने इन मुद्राओं के ‘वाहमान’ को ‘चाहमान’ पढ़ा है। भण्डारकर के विचार में इन मुद्राओं को चलाने वाला वासुदेव वाहमान खिजर जाति का था और खिजर विदेशी थे।
(5) कुछ अन्य मत — (i) ‘राजपूत’ शब्द के प्रयोग का अभाव – चूंकि ‘राजपूत’ शब्द का प्रयोग नवीं सदी के पूर्व कभी नहीं हुआ था, अतएव उनके क्षत्रिय होने की कोई सम्भावना नहीं है। (ii) ‘राजपूत’ शब्द क्षत्रिय का पर्याय नही-अमरकोष’ में ‘राजपूत’ शब्द को क्षत्रिय
का पर्यायवाची नहीं कहा गया है। अस्तु, ये क्षत्रियों की सन्तान नहीं हो सकते।
(iii) निम्न स्तरीय स्त्रियों की सन्तान-भारत के कुछ भाग में राजपूत शब्द का प्रयोग
क्षत्रिय, सामन्तों अथवा जागीरदारों की अवैध सन्तान के लिये किया जाता है जो सम्भवतः निम्न स्तरीय स्त्रियों से उत्पन्न हुये हैं। अतएव ये शुद्ध क्षत्रियों के रक्त से उत्पन्न नहीं कहे जा सकते हैं। ये या तो विदेशी अथवा अनार्य स्त्रियों से उत्पन्न हुये होंगे। (iv) कलियुग में केवल 2 वर्णों का अस्तित्व-कुछ पुराणों में यह कहा गया है कि कलियुग में केवल 2 ही वर्ण रहेंगे-अर्थात् ब्राह्मण और शूद्र। अतएव राजपूतों के क्षत्रिय
होने की सम्भावना नहीं है। ये ब्राह्मण वर्ग व्यवस्था के बाहर भी कोई जाति रहे होंगे।
(v) पाराशर स्मृति के अनुसार शूद्र पाराशर स्मृति में राजपूतों को वैश्य अम्बस्ट कन्या की सन्तान बतलाया गया है, अतएव वे शूद्र रहे होंगे। नहीं है। पुरुष और (vi) वंशावली में निरन्तरता का न होना-राजपूतों की वंशावली में निरन्तरता भी
विदेशियों तथा अनायों से उत्पत्ति के सिद्धान्त की आलोचना
(1) टाड के मत का खण्डन- (i) ‘पृथ्वीराजरासो’ की कथा कपोल कल्पित-टाड ने ‘पृथ्वीराजरासो’ में वर्णित अग्निकुण्ड से राजपूतों की उत्पत्ति की जिस कथा का आश्रय लेकर विदेशियों की शुद्धि तथा उनके भारतीयकरण की कल्पना कर ली है वह कपोल कल्पित है, अनुमान मात्र है।
(ii) राजपूतों के रीति-रिवाज प्राचीन क्षत्रियों के हैं-टाड का यह तर्क कि राजपूतों के रीति-रिवाज शंकों अथवा सीथियनों से साम्य रखते हैं समीचीन नहीं प्रतीत होता । वास्तविकता तो यह है कि ये रीति-रिवाज प्राचीन क्षत्रियों के अंग तथा आदर्श रहे हैं और
उनका जिक प्राचीन भारतीय साहित्य (वैदिक पौराणिक) में है। और फिर यह बात भी है कि विदेशी शक, कुषाण, सिथियन, हूण पर्याप्त समय तक भारत में स्थायी रूप से रहे और वे भारतीय समाज में विलीन हो गये, तथा उन्होंने भारतीय धर्म और प्रणालिया ह ती सम्भव है, उनके रीति-रिवाजों का प्रभाव तत्कालीन भारतीयों पर कुछ अंशों में हो (ठीक वैसे ही जैसे भारतीयों का विदेशियों पर पड़ा करीब-करीब हर युग म वह प्राचीन हो, मध्य हो या अर्वाचीन) और उन्होंने उन प्रथाओं का कुछ अंशों में महण कर लिया हो। पड़ा
(2) स्मिथ तथा क्रक के मत का खण्डन- (i) प्राचीन क्षत्रियों का उन्मूलन असम्भवदि स्मिथ के इस मत को मान लिया जाये कि सभी राजपूत भारतीय कृत विदेशी तथा अनाय को सन्तान थे जिसका समर्थन कुछ ने भी किया है तो सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि भारत के प्राचीन क्षत्रियों का क्या हुआ ? वे कहाँ लुप्त हो गये ? और यदि लुप्त हो तो कब और कैसे ? जबकि ओझा ने अभिलेखों के आधार पर यह बतलाया है कि मा नन्द वंश के पतन के बाद भी (7वीं सदी तक) क्षत्रियों का अस्तित्व था। दूसरी ई० । के खारवेल के उदयगिरि लेख में सब जाति के क्षत्रियों का उल्लेख है। इसी अवधि नासिक पाण्डव गुहा लेख में ‘उत्तमभाद्र’ क्षत्रियों का वर्णन है। गिरनार पर्वत लेख में को क्षत्रिय कहा गया है और तीसरी सदी के नागार्जुनीकोड लेख में इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं का जिक्र है।
(1) रीति-रिवाजों में वैषम्य का आधार वंश निर्णायक तत्व नहीं राजपूतों में प्रचलित कुछ रीति-रिवाजों के वैषम्य के आधार पर उन्हें विदेशी और भिन्न-भिन्न जातियों का कहना उचित नहीं है, क्योंकि उन दिनों का समाज बड़ा ही उदार तथा व्यापक दृष्टिकोण वाला था और विदेशियों को आत्मसात करने की उसमें पूर्ण क्षमता थी। इसके अतिरिक्त समाज में कोई स्थिर व्यवस्था नहीं है वरन् देश काल तथा पात्र के अनुसार उसम परिवर्तन होते रहते हैं (समाजशास्त्री इसे मानेंगे और मानते हैं) । अस्तु, यदि भारत के विभिन्न भागों में निवास करने वाले राजपूतों में रीति-रिवाजों में कुछ वैषम्य आ गया तो उसे स्थान (दिशा) काल तथा पात्र के प्रभाव का प्रतिफल समझना चाहिये।
(3) भण्डारकर के मत का खण्डन- (i) गुर्जर विदेशी नहीं जिस गुर्जर शब्द का प्रयोग प्रतिहारों तथा अन्य राजपूतों के नाम से आगे किया है और जिसके आधार पर भण्डारकर ने उन्हें विदेशियों को सन्तान बतलाया है वह किसी जाति का नहीं वरन् राज के एक भू-भाग का द्योतक है जो ‘गुर्जरवा’ कहलाता था और इसलिये वहाँ के रहने वालों को गुर्जर कहा गया (जैसे बंगाल के रहने वाले बंगाली, पंजाब के पंजाबी, निमाड़ के निमाड़ी, मालवा के मालवी, मद्रास के मद्रासी) ताकि अन्य राजवंशों से उनका अस्तित्व पृथक किया जा सके। इसलिये जयपुर की प्रतिहार शाखा ने अपने नाम के साथ गुर्जर जोड़ दिया। चूंकि अरब लोग अपने पड़ौस गुर्जरत्रा के निवासियों को गुर्जर के नाम से पुकारते थे, अतएव कन्नौज के प्रतिहारों को भी उन्होंने गुर्जर के सो, गुर्जरों को खिजरों से जोड़ना उपयुक्त नहीं। दोनों की परम्पराओं में भी विशाल अन्तर है। खिजर जाति स्थायी रूप से एक स्थान पर निवास करने वाली थी, जबकि गुर्जर जाति नाम से पुकारा है। और भ्रमणशील थी। ‘गुर्जर’ और ‘खजर’ या ‘खीजर’ में उच्चारण की दूर की साम्यता में कुछ नहीं भरा।
(ii) गुजरात का नाम गुर्जर के आधार पर नहीं-भण्डारकर का यह कथन भी ठीक नहीं है कि गुर्जर चालुक्यों का लाट प्रदेश पर अधिकार होने के उपरान्त ही उनका राम गुजरात पड़ा। क्या वहाँ गुजराती भाषा का प्रयोग होने की वजह से उसका नाम गुजरात
नहीं है, न ही उन्हें कहीं क्षत्रिय कहा गया है और जिस प्रकार गुर्जर ब्राह्मणों के कई सन्दर्भ
उत्तरी भारत- गुर्जर प्रतिहार, पाल और सेन नहीं पड़ सकता था ? इसके अतिरिक्त पहले लाट सम्पूर्ण गुजरात प्रदेश का नाम नहीं था वरन उसके केवल दक्षिण भाग का नाम था। (iii) हूणों से राजपूतों का कोई सम्बन्ध नहीं 36 राजवंशों में दूणों का उल्लेख
6ठी सदी में मिलते हैं उस प्रकार हूण ब्राह्मणों के नहीं मिलते (iv) हैहय चन्द्रवंशी थे-पुराण में स्पष्ट रूप में हैहयों को चन्द्रवंशी कहा गया है (1) परमार गुर्जर नहीं भण्डारकर ने परमारों को गुर्जर सिद्ध करने के लिये कोई प्रमाण नहीं दिया है। नैतिकता के आधार पर ऐसा मान लिया है और इतिहास में ऐसे
आधार माने नहीं रखते।
(vi) श्री वासुदेव को खिजर कहना अप्रामाणिक जिन मुद्राओं पर श्री वासुदेव वाहमान लिखा है उस वासुदेव को खिजर कहकर जो निष्कर्ष भण्डारकर ने निकाला है वह काल्पनिक है, क्योंकि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि वासुदेव खिजर जाति का था। कनिंघम ने इस वासुदेव को हूण और रेप्सन ने ससेनियन माना है। इस प्रकार जब उसकी जाति के बारे में इतना मतभेद है तब उसकी मुद्रा के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत नहीं है।
और इस सबके अलावा, भण्डारकर स्वयं ने सभी राजपूतों को विदेशी नहीं माना ।
उसी के अनुसार गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से हुयी थी (4) अन्य मतों का खण्डन- (i) ‘राजपूत’ शब्द के प्रयोग का अभाव नहीं यह तर्क कि नवीं सदी के पूर्व ‘राजपूत’ शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है तथ्य संगत नहीं है, क्योंकि ‘राजपूत’ जिस ‘राजपुत्र’ शब्द का अपभ्रंश है. उसका प्रयोग अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा था। नवीं सदी में ‘राजपुत्र’ का रूपान्तर दो कारण से हो गया। पहला तो यह कि मुसलमान उच्चारण की कठिनाई के कारण ‘राजपुत्र’ को ‘राजपूत’ कहने लगे और दूसरा कारण यह है कि बौद्ध धर्म के प्रचार के कारण राजपूताना के बाहर के क्षत्रिय धर्म भ्रष्ट हो गये थे। अस्तु, राजपूताना के क्षत्रिय अपनी शुद्धता को बनाये रखने और बाहर के क्षत्रियों से अपने को अलग करने के लिये आपस में ही विवाह सम्बन्ध स्थापित करने लगे। इस प्रकार उनकी एक अलग इकाई वन गयी और राजपुत्र होने के कारण वे राजपूत कहलाये ।
अस्तु, ‘राजपूत’ शब्द के आधार पर उन्हें विदेशी कहना ठीक नहीं है। (ii) अमरकोष सर्वव्यापक नहीं इस आधार पर कि ‘अमरकोष’ में ‘राजपूत’ को क्षत्रिय का पर्यायवाची नहीं कहा गया है। राजपूतों को विदेशी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ‘अमरकोष’ इतना सर्वव्यापक नहीं है कि उसमें सभी शब्द आ जायें।
(iii) ‘राजपूत’ का वास्तविक मानना अवैध सन्तान नहीं-यदि ‘राजपूत’ शब्द का प्रयोग यदाकदा राजपूत सामन्तों की अवैध सन्तान के अर्थ में किया गया है तो इस राजपूत शब्द का वास्तविक अर्थ उसी प्रकार नहीं समझना चाहिये जिस प्रकार ब्राह्मण का प्रयोग जब रसोइया के अर्थ में किया जाता है तो उसे ब्राह्मण का वास्तविक अर्थ नहीं समझना चाहिये। ईश्वरी प्रसाद का यह कथन विचारणीय है कि ‘राजपूताना’ के कुछ राज्यों में साधारण बोलचाल में राजपूत शब्द का प्रयोग क्षत्रिय सामन्त या जागीरदार के अवैध पुत्रों को सूचित करने के लिये किया जाता है, परन्तु वास्तव में यह संस्कृत के ‘राजपुत्र शब्द का विकृत स्वरूप है जिसका अर्थ होता है राजवंश की सन्तान ।
(iv) कलियुग में दो वर्णों के अस्तित्व का कथन निराधार पुराणों का यह कथन कि कलियुग में केवल 2 ही वर्ण, अर्थात् ब्राह्मण तथा शूद्र ही रहेंगे सत्य नहीं प्रतीत होता है, क्योंकि ह्वेनसांग ने अपने विवरण में क्षत्रिय राजवंशों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार
‘पाराशर स्मृति’ में क्षत्रियों के लिये अनेक प्रकार के नियमों का उल्लेख है। अस्तु कलियुग में ब्राह्मणों तथा शूद्रों के अतिरिक्त क्षत्रिय विद्यमान थे। (v) पाराशर स्मृति का कथन प्रक्षेपपाराशर स्मृति का यह कथन कि राजदूत द्र थे प्रक्षेप प्रतीत होता है जो कालान्तर में जोड़ा गया है।
(vi) वंशावली में निरन्तरता के न होने की वजह-जहा तक उनकी वंशावली में निरन्तरता नहीं होने का प्रश्न है उसके बारे में यह कहा जा सकता है कि कुछ परिस्थितियों वंश राजपूतों को बाहर जाना पड़ा होगा और इस वजह से उनका निर्धारित स्थान से सम्मा टूटना स्वाभाविक था और फलस्वरूप उनकी वंशावली में टूटन भी।
राजपूत विदेशी न थे, वरन् वे भारतीय थे और प्राचीन क्षत्रियों की सन्तान थे। यदि वे विदेशी होते तो ये भारत को मातृभूमि की तरह समझकर उसकी रक्षा हेतु मुसलमानों से इस कदर ब लोहा क्यों लेते जिस कदर का उन्होंने लिया। कोई भी विदेशी कहीं अन्य कितनी ही गहराई से स्थापित हो जाये, परन्तु वे अपने उस स्थान को मातृभूमि नहीं समझते। अंग्रेज हमारे यहाँ करीब 250-300 वर्षों से कम नहीं रहे। पर क्या उन्होंने इस देश को मातृभूमि समझा ?
ऐसा लगता है कि राजपूत जन-जाति के लोग थे जो काफी समय तक अन्धकार में रहे और जिन्हें पुराणों में ‘अरबुदों’ के नाम से भी जाना गया है। जब शौर्य एवं शक्ति प्रदर्शन की महत्त्वाकांक्षा जागी तो वे प्रकाश में आये और अपने साम्राज्य स्थापित किये। यदि वे विदेशी होते तो उनका युद्ध यहाँ के निवासियों से अवश्य हुआ होता। मिश्रित उत्पत्ति का सिद्धान्त
राजपूत क्षत्रियों का जो वर्ग आज है उसका मूलाधार व्यवसाय है। उनमें विभिन्न जाति के लोग सम्मिलित हैं और यह लोग ऐसे हैं जिन्होंने राज्य के कार्यों को अपना लिया था और राज्य के निर्माण में बड़ी सहायता पहुंचायी थी। धीरे-धीरे इनमें सादृश तथा समानता आती गयी। अन्त में विवाहों तथा समान रीति-रिवाजों ने इनकी विषमता को धीरे-धीरे दूर कर दिया, और सम्पूर्ण राजपूत जाति धीरे-धीरे जातीयता के सूत्र में बंध गयी। जो विदेशी सामरिक प्रवृत्ति के थे और क्षात्र धर्म को स्वीकार कर लिया था वे भारत के प्राचीन क्षत्रियों में समाविष्ट हो गये। इस प्रकार राजपूतों में देशी तथा विदेशी दोनों रक्त का सम्म प्राप्त होता है। ईश्वरी प्रसाद का कथन है- यह कहना बहुत बड़ी मूर्खता होगी कि राज लोग प्राचीन वैदिक काल के क्षत्रियों की शुद्ध सन्तान हैं। ऐसा सोचकर हम मिथ्याभिमान कर सकते हैं, परन्तु यह प्रायः तथ्य से दूर होता है। 5-6 सदी में भी विदेशी भारत में आये और वे यहाँ के क्षत्रियों में घुल-मिल गये।”
– प्रतिहार मिहिरभोज की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिये। Examine the achievements of Pratihara Mihirbhoj. उत्तरी भारत में गुर्जर प्रतिहार के उत्थान और विस्तार का क्रमिक
या
प्रतिहार सम्राटों की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिये। Describing the gradual rise and fall of the Gurjara Pratihara of North India, evaluate the chief achivements of the Pratihara rulers.
कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों का संक्षेप में वर्णन कीजिये। Describe in brief the Gurjara Pratiharas of Kannauj.
उत्तर-
प्रतिहार वंश का परिचय
‘प्रतिहार’ का शाब्दिक अर्थ होता है-पदाधिकारी, जिसका कार्य राजा के बैठने के स्थान अथवा उसके प्रासाद के द्वार पर उसकी रक्षार्थ उपस्थित रहना था। वस्तुतः वह राजा का अंग-रक्षक होता था। वर्ण अथवा जाति का विचार करके राजा के अत्यन्त विश्वासपात्र लोग ही इस पद पर नियुक्त किये जाते थे। यही कारण है कि अभिलेखों में ब्राह्मण प्रतिहार तथा क्षत्रिय प्रतिहार का उल्लेख मिलता है
ऐसा प्रतीत होता है कि अपने उदय के पूर्व प्रतिहार वंश के राजा भी पहले किसी अन्य राजा के प्रतिहार रह चुके थे। ऐसा कहा जाता है कि चूंकि आठवीं सदी के मध्य में कुछ गुर्जर सामन्तों ने राष्ट्रकूट वंश के सम्राट के यज्ञ में, जो उज्जैन में किया गया था, प्रतिहार का कार्य किया था, अतएव उस वंश का नाम गुर्जर प्रतिहार पड़ा।
प्रतिहार शासक
नागभट | (730 ई0 – 760 ई०)
(Pratihar Rulers)
नागभट । इस वंश का संस्थापक था। उसने म्लेच्छ राजा को हराकर अपने वंश की साख स्थापित की । म्लेच्छ राजा या तो अरब वंश का जुनैद या तमिन हो सकता है। जो भी हो, म्लेच्छों को हराने के बाद उसने ‘नारायण’ की उपाधि धारण की और राष्ट्रनायक बन गया। फिर उसने भीनमाल के यान साम्राज्य तथा नन्दीनुर (भड़ौंच, गुजरात) के गुर्जर साम्राज्य पर अधिकार किया। कुछ स्रोतों से पता चलता है कि राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग द्वारा उसकी हार हुयी थी। परन्तु इस सम्बन्ध में कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है। लगता है, दन्तिदुर्ग की विजय अस्थायी थी। उसके साम्राज्य में कुछ निश्चित नहीं है। राजपूताना और गुजरात शामिल थे। मालवा के बारे में
कक्कुक और देवराज (760 ई0-775 ई०)
नागभट के बाद क्रमशः कक्कुक और देवराज हुये। कक्कुक अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के
लिये प्रसिद्ध था। देवराज को शायद अपने सामन्तों से युद्ध करना पड़ा था। देवराज के बारे में विद्वानों में मतभेद है।
वत्सराज (775 ई0-192 ई०)
देवराज के बाद वत्सराज हुआ। उसने भण्डियों को हराया जिसका जिक्र ओसिया और दौलतपुर अभिलेखों में भी है। दशरथ शर्मा के अनुसार, भण्डी का एकीकरण पाल शासक धर्मपाल से होना चाहिये। राष्ट्रकूटों के रधनपुर ताम्रपत्रों में भी यह वर्णन है कि वत्सराज ने धर्मपाल को उसके दो श्वेत आत पत्रों (छतरों) से मेहरूम कर दिया था। पृथ्वीराज विजय महाकाव्य में भी वर्णन है कि उसके चाहमान सामन्त दुर्लभराज ने गंगा और समुद्र के संगम पर अपनी तलवार धोयी और गौड़ भूमि का आनन्द लिया। जब वत्सराज बंगाल से लौट रहा था तब राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने उस पर हमला कर उसे राजस्थान के जंगलों में शरण लेने के लिये मजबूर किया। धर्मपाल ने परिस्थिति का फायदा उठाकर उसके कन्नौज के सामन्त इन्द्रायुद्ध को हराकर अपने उपजीवी (अधीनस्थ) चक्रायुद्ध को वहां बैठाया। ऐसा पता चलता है कि वत्सराज ने कन्नौज में महावीर स्वामी का एक विशाल मन्दिर 1. ले. जनरल (अव) एस० के० सिन्हा के अनुसार जुनैद शासिका थी। सन्दर्भ, धर्मयुग, 18 अगस्त 1985 |
भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 बनवाया ग्वालियर में महावीर की मूर्ति स्थापित की थी उसके 1 (stery) में भी एक जैन मन्दिर का निर्माण हुआ था। नागभट द्वितीय (792 ई०-8.33 ई०) रामय ि
वत्सराज के बाद नागभट द्वितीय हुआ। वह अपने वंश का एक योग्यता शासक था। उसके पास शौर्य था, उसमें सेनापतित्व था, तथा उद्देश्य की मजबूती। पास राष्ट्रकूटों तथा पालों की अपेक्षा साधन कम थे, फिर भी उसने अपने साम्राज्य मजबूत बनाया। ग्वालियर प्रशस्ति से पता चलता है कि आन्ध्र, कलिंग, सैन्धव और (भोज) के राजाओं ने समर्पण कर दिया था। इसके अलावा हमें यह भी पता चलता है उसने चक्रायुद्ध तथा वंश के राजा को हराया और आनर्त (उत्तरी काठियावाड़), तुरुस्क (अरब), किरात (हिमालय क्षेत्र), वत्स (कोशाम्बी) तथा राजगिरी के किलों पर कब्जा किया मालवा, म
राष्ट्रकूटों की सीमाओं के नजदीक नागभट के हमले ने गोविन्द तृतीय को उप आक्रमण करने के लिये बाध्य किया होगा। धर्मपाल ने भी नागभट के विरुद्ध गोवि समक्ष अपने आपको समर्पित कर दिया होगा। नागभट गोविन्द तथा धर्मपाल दोनों सम्मिलित शक्ति के सामने टिक नहीं पाया और इसलिये उसकी हार हुयी। ऐसा लग है कि उसने सिर्फ नये विजित प्रदेशों को खोया और जिन पर केन्द्र से नियन्त्रण रखन कठिन था।
गोविन्द के लौट जाने के बाद 802 ३० और 812 ई० के बीच नागभट ने अपने शक्ति बढ़ाकर उत्तर प्रान्तों में चाहमान मुखिया गुवक और चालुक्य शासक सहायता से अभियान निकाले और अपनी स्थिति ठोस की। इसके बाद वह पूर्व की मुड़ा और गौड के शासक को उसने सामन्तों की सहायता से हराया, जैसा कि बालादिग्द के चाट्सु अभिलेख, बाऊक के जोधपुर अभिलेख तथा अवन्ति वर्मा के ऊना पत्र चलता है। ग्वालियर लेख से भी पता चलता है। इस घटना का समय करीब 8123 सकता है, क्योंकि लाट के कर्मराज द्वितीय के 812 ई० के बड़ोदा पत्रों में इस बतलाया गया है। सफलता प्राप्त कर लेने के बाद उसकी इज्जत बढ़ गयी और परमभट्टारक महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की, जैसा कि उसके बुचकला पता चलता है। ऐसी मान्यता है कि उसने जैन धर्म अपना लिया था। कुछ कहते हैं वो भगवती देवी का उपासक था और कि उसने अनेक यज्ञ व दान कर डीडवाना तथा कालिक मण्डल के लोगों को सन्तुष्ट किया। ओझा के अनुसार, वह अपने वंश का सबसे योग्य तथा सफल शासकों में से एक था। न्यून साधनों के बावजूद भी वह एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने में सफल हुआ। मनराल, मित्तल तथा मजूमदार ने भी कुछ ऐसा माना है। चन्द्रप्रभा सूरी कृत ‘प्रभावक चरित’ से पता चलता है कि 833 ई० में उसने पवित्र गंगा में जलसमाधि द्वारा अपनी जीवनलीला समाप्त की थी।
रामभद्र (833 ई0-836 ई०)
नागभट द्वितीय के बाद रामभद्र हुआ। उसका समय संकटग्रस्त था। यह कहना कठिन है कि उसके शत्रु कौन थे ? आर० सी० मजूमदार के अनुसार वे बंगाल के प थे। उसके शासनकाल में कई अनुदान बन्द कर दिये गये थे। इससे उसके कमजोर श का पता चलता है। 1
मिहिर भोज (836 ई0-800 ई०)
चन्द्रप्रभा सूरी कृत ‘वप्पाभरिवारित्र’ से पता चलता है कि मिहिरभोज ने अपने ि को मार कर सिंहासन प्राप्त किया। परन्तु, इसमें सन्देह नहीं कि वह अपने वंश का एक
पराक्रमी सम्राट था। उसने अपने पूर्वजों के राज्य को फिर से संगठित और शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न किया। मिहिरभोज की जानकारों के मुख्य स्रोत ये हैं-वराह लेख, दौलतपुर लेख, देवगढ़ लेख, ग्वालियर लेख (875 और 876 ई०) पढेवा लेख, ग्वालियर की सागर वाल प्रशस्ति, देहली फ्रेगमेंटरी अभिलेख, भावनगर फ्रेगमेंटरी लेख, ऊणा व चाटसू लेख, ‘राजतरंगिणी’ व सुलेमान का विवरण।
उपलब्धियाँ – (1) पालों पर आक्रमण मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति के 18वें पद्म में यह लिखा है कि भाग्य की देवी लक्ष्मी ने देवपाल को छोड़कर भोज को अपना स्वामी चुना। गरुड़ स्वम्भ अभिलेखों में यह लिखा है कि देवपाल ने गुर्जरों के अहं को नष्ट किया। चूँकि दोनों ही पक्षों द्वारा विजय का जिक्र है। अतः ऐसा लगता है कि आक्रमण का नतीजा ‘निर्णायात्मक’ नहीं रहा होगा। पालों को हराने के बाद, मिहिरभोज की इज्जत बढ़ गयी। देवपाल के उत्तराधिकारियों
के शासनकाल में भोज को मौका मिला। इस कार्य में उसे सामन्तों से सहायता मिली। मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति में कहा गया कि उसके कलचुरि सामन्त गुणमबोधिदेव ने भोज से भूमि प्राप्त की, क्योंकि उसने उसके लिये गौड से राजकीय सम्पत्ति प्राप्त की थी। इसी प्रकार गुहिल हर्षराज ने भी पूर्व के शासकों से अपने प्रतिहार स्वामी भोज के लिये उपहार प्राप्त किये। इससे यह भी पता चलता है कि कलचुरी और गुहिल उसके अधीन ही थे। भोज की पूर्व में सफलता की पुष्टि पाल अभिलेखों से भी मिलती है।
(2) उत्तर में अभियान उसने उत्तर में भी गुहिल हर्षराज की सहायता से विजय प्राप्त की। ऐसा लगता है कि उसके शत्रु सिन्ध और मुलतान के अरव थे। सुलेमान से भी यह पता चलता है कि भोज भारत में अरबों का कट्टर शत्रु था। भोज ने सिक्के चलाये जिस पर आदिवराह का आख्यान है। आदिवराह उपाधि से पता चलता है कि उसने देश की संस्कृति की भक्षकों से रक्षा की। सागर तला अभिलेख से पता चलता है कि भोज ने अपनी सैनिक योग्यता से असुरों पर विजय प्राप्त की। ये संस्कृति के भक्षक या असुर अरब ही थे। 3) देहली–पुराना किला से प्राप्त एक खण्डित अभिलेख से पता चलता है कि
देहली भी उसके साम्राज्य में सम्मिलित था। (4) पंजाब का प्रान्त-ऐसा प्रतीत होता है कि उसने थक्कीय वंश से पंजाब के प्रान्त लिये थे। ण की राजतरंगिणी से भी यह स्पष्ट होता है।
(5) राष्ट्रकूटों का अभियान – सर्वप्रथम उनको ओर से कोई भी कष्ट नहीं हुआ, क्योंकि अमोघवर्ष, चालुक्यों और गुजरात के राष्ट्रकूटों के साथ व्यस्त था। इससे भोज को मालवा और सौराष्ट्र में भी अपना साम्राज्य विस्तार करने का मौका मिला। ध्रुव द्वितीय द्वारा वह रोका गया। भोज ने शीघ्र ही इसका बदला लिया।
(6) लाट विजय उसने शासन के अन्त में लाट को जीता और गुजरात के राष्ट्रकूटों का अन्त किया। इसके अलावा कुछ ऐसा भी लगता है कि चाहमान और कलचुरि भी उसके अधीन थे। शायद हरियाणा पर भी उसका अधिकार था। पश्चिम भारत और दक्षिणी उ० प्र० व म० प्र० पर भी उसका अधिकार बतलाया जाता था।
साम्राज्य विस्तार उसके साम्राज्य में यू० पी० मध्य भारत, मालवा, राजस्थान, पंजाब, बिहार तथा गुजरात भी सम्मिलित थे। आर० वी० त्रिपाठी का कहना है कि उसका राज्य उo प्रo में सतलज, उत्तर में हिमालय की तलहटी, पूर्व में पाल साम्राज्य की पश्चिम सीमा, दक्षिण पूर्व में बुन्देलखण्ड व वास की सीमा द० प० में सौराष्ट्र तथा उत्तर में राजपूताना के अधिकांश भाग पर फैला हुआ था।
पराक्रमी सम्राट था। उसने अपने पूर्वजों के राज्य को फिर से संगठित और शक्तिशाली
बनाने का प्रयत्न किया। मिहिरभोज की जानकारी के मुख्य स्रोत ये हैं-वराह लेख, दौलतपुर
लेख, देवगढ़ लेख, ग्वालियर लेख (875 और 876 ई०) पटेवा लेख, ग्वालियर की सागर ताल प्रशस्ति, देहली फ्रेगमेंटरी अभिलेख, भावनगर फ्रेगमेंटरी लेख, ऊणा व चाट्सु लेख, ‘राजतरंगिणी’ व सुलेमान का विवरण। उपलब्धियां (1) पालों पर आक्रमण मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति के 18वें पद्म में यह लिखा है कि भाग्य की देवी लक्ष्मी ने देवपाल को छोड़कर भोज को अपना स्वामी चुना। गरुड़ स्तम्भ अभिलेखों में यह लिखा है कि देवपाल ने गुर्जरों के अहं को नष्ट किया। चूँकि दोनों ही पक्षों द्वारा विजय का जिक्र है। अतः ऐसा लगता है कि आक्रमण
का नतीजा ‘निर्णायात्मक’ नहीं रहा होगा। पालों को हराने के बाद, मिहिरभोज की इज्जत बढ़ गयी। देवपाल के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में भोज को मौका मिला। इस कार्य में उसे सामन्तों से सहायता मिली।
मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति में कहा गया कि उसके कलचुरि सामन्त गुणमबोधिदेव ने भोज से भूमि प्राप्त की, क्योंकि उसने उसके लिये गौड से राजकीय सम्पत्ति प्राप्त की थी। इसी प्रकार गुहिल हर्पराज ने भी पूर्व के शासकों से अपने प्रतिहार स्वामी भोज के लिये उपहार प्राप्त किये। इससे यह भी पता चलता है कि कलचुरी और गुहिल उसके अधीन ही थे। भोज की पूर्व में सफलता की पुष्टि पाल अभिलेखों से भी मिलती है।
(2) उत्तर में अभियान —उसने उत्तर में भी गुहिल हर्षराज की सहायता से विजय प्राप्त की। ऐसा लगता है कि उसके शत्रु सिन्ध और मुलतान के अरब थे। सुलेमान से भी यह पता चलता है कि भोज भारत में अरबों का कट्टर शत्रु था। भोज ने सिक्के चलाये जिस पर आदिवराह का आख्यान है। आदिवराह उपाधि से पता चलता है कि उसने देश की संस्कृति की भक्षकों से रक्षा की। सागर तला अभिलेख से पता चलता है कि भोज ने अपनी सैनिक योग्यता से असुरों पर विजय प्राप्त की। ये संस्कृति के भक्षक या असुर अरब ही थे।
(3) देहली- पुराना किला से प्राप्त एक खण्डित अभिलेख से पता चलता है कि देहली भी उसके साम्राज्य में सम्मिलित था।
(4) पंजाब का प्रान्त-ऐसा प्रतीत होता है कि उसने चक्कीय वंश से पंजाब के प्रान्त छीन लिये थे। कल्हण की राजतरंगिणी से भी यह स्पष्ट होता है।
(5) राष्ट्रकूटों का अभियान सर्वप्रथम उनकी ओर से कोई भी कष्ट नहीं हुआ, क्योंकि अमोघवर्ष, चालुक्यों और गुजरात के राष्ट्रकूटों के साथ व्यस्त था। इससे भोज को मालवा और सौराष्ट्र में भी अपना साम्राज्य विस्तार करने का मौका मिला। ध्रुव द्वितीय द्वारा वह रोका गया। भोज ने शीघ्र ही इसका बदला लिया।
(6) लाट विजय उसने शासन के अन्त में लाट को जीता और गुजरात के राष्ट्रकूटों का अन्त किया। इसके अलावा कुछ ऐसा भी लगता है कि चाहमान और कलचुरि भी उसके अधीन थे। शायद हरियाणा पर भी उसका अधिकार था। पश्चिम भारत और दक्षिणी उ० प्र० व म० प्र० पर भी उसका अधिकार बतलाया जाता था ।
साम्राज्य विस्तार-उसके साम्राज्य में यू० पी०, मध्य भारत, मालवा, राजस्थान, पंजाब, बिहार तथा गुजरात भी सम्मिलित थे। आर० बी० त्रिपाठी का कहना है कि उसका राज्य उ० प्र० में सतलज, उत्तर में हिमालय की तलहटी, पूर्व में पाल साम्राज्य की पश्चिम सीमा, दक्षिण पूर्व में बुन्देलखण्ड व वास की सीमा द० प० में सौराष्ट्र तथा उत्तर में राजपूताना के अधिकांश भाग पर फैला हुआ था।
मूल्यांकन उपरोक्त वर्णन से पता चलता है कि मिहिरभोज न्यायतः प्रतिहार वंश का एक प्रतिभाशाली नहीं, महानतम शासक था, कि उसमें सैनिक योग्यता थी। उसके समय प्रतिहार साम्राज्य अपने उच्च शिखर पर था। उसकी सैनिक योग्यता तथा वीरता की प्रशंसा अरब यात्री सुलेमान ने भी की है। इसकी शासन व्यवस्था उत्तम थी तथा प्रजा सुखी और हाकुओं से सुरक्षित थी। उसके अभिलेख तथा सिक्कों से हमें उसके वैष्णव मतावलम्बी होने का पता चलता है। ऐसा भी पता चलता है कि उसने जैन धर्म को संरक्षण दिया था। उसकी मुद्राओं से उसके समय की आर्थिक दशा का न्यूनाधिक बोध भी हो जाता है। उसकी मुद्रा चाँदी की हैं और मिश्रित धातु की बनी हुयी हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि युद्धों की वजह से उसका कोप रिक्त हो गया था और उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी न थी।
महेंद्रपोल (390 ई0-910 ई0)
मिहिरभोजभोज प्रथम के बाद महेन्द्रपाल हुआ। उसके अभिलेख गया राजाशाही (बंगाल), ऊना (काठियावाड़, सौराष्ट्र) से प्राप्त हुये हैं। इससे पता चलता है कि उसने अपने पूर्वजों के साम्राज्य को संरक्षित रखा। राजतरंगिणी से हमें पता चलता है कि पंजाब उसके हाथ से जाता रहा था। पर, हरियाणा के एक भाग पर उसका अधिकार था। उसका साम्राज्य ‘सौराष्ट्र’ के ऊणा से लेकर उत्तर बंगाल के पहाड़पुर तक तथा नेपाली तराई के वलयिका विषय से म० भ० के सिदयोणी और तेहरी क्षेत्रों तक विस्तृत माना जाता है। हैं बाल या कि उसका साम्राज्य उत्तर से लेकर दक्षिण में बुन्देलखण्ड और पश्चिम में हरियाणा से लेकर कम से कम कुछ समय तक बंगाल-बिहार तक था । काठियावाड़ और ग्वालियर भी उसी के अधिकार में थे। वह साहित्यानुरागी या तथा उसके दरबार में संस्कृत साहित्य के विद्वान् राजशेखर ने आश्रय लिया था तथा उसने अपने ग्रन्थ ‘कर्पूर मंजरी’ में महेन्द्रपाल के साहित्यानुराग का वर्णन किया। ‘कर्पूर मंजरी’ के अलावा उसके प्रसिद्ध ग्रन्थ रामायण’, ‘बाल भारत’ तथा ‘काव्य मीमांसा’ ।
भोज द्वितीय (910 ई०-912 ई०)
महेन्द्रपाल के बाद शासक भोज द्वितीय हुआ, जिसे शीघ्र ही महिपाल ने सिंहासन से च्युत कर दिया।
महिपाल (912 ई० -944 ई०)
भोज द्वितीय के बाद महिपाल हुआ। अलपसूटी ने उसको शक्तिशाली शासक कहा है। राजशेखर ने उसे ‘रघुकुलतिलक कहा है। ऐसा लगता है कि शुरू में राष्ट्रकूटों द्वारा उसकी हार हुयी, परन्तु बाद में उसने चन्देल हर्ष की सहायता से अपना राष्ट्रकूटों का खोवा हुआ साम्राज्य पुनः प्राप्त किया। परन्तु शायद शासनकाल के अन्त में पुनः राष्ट्रकूटों ने प्रतिहार साम्राज्य को धक्का पहुंचाया। पर राजशेखर की यह मान्यता है कि उसने मुरल (नर्मदा या केरल की कोई जाति), मेकलों (अमरकंटक), कलिंगों (उड़ीसा), केरलों (प० घाट) (०२०) (द० प० भाग) और रमठों (हरियाणा) को पराजित किया था। पर यह मान्यता अतिरंजित लगती है या यह भी हो सकता है कि महिपाल ने राष्ट्रकूटों की निर्बलता का फायदा उठाया हो। कर्नाट और त्रिपुरा के बारे में तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जो भी हो यह तय है कि उसके साम्राज्य की सीमा पालों के अधीन बिहार की सीमा को छूती थी। और,वर्तमान यू० पी० उसके अधीन था। उज्जैन, सौराष्ट्र, बुन्देलखण्ड भी ।
महिपाल के उत्तराधिकारी
महिपाल के उत्तराधिकारी कमजोर थे। प्रतिहार वंश का अन्तिम शासक यशपाल था जिसे 1036 ई० के अभिलेख में सन्दर्भित किया गया है।
प्रतिहार वंश का पतन (Downfall of Pratihar)
प्रतिहार वंश के पतन के कारणों में निर्बल शासक, सामन्तों की स्वतन्त्रता, आपसी फूट, राष्ट्रकूट, पाल और अरबों से निरन्तर संघर्ष, सैन्य मशीनरी के निर्वाह की अधिक कीमत, भाड़े पर काम करने वाले सैनिक आदि घटक मुख्य थे। इस सबके अलावा, मुसलमानों का आक्रमण एक सबसे बड़ा कारण था। शाही वंश की स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना भी एक कारण था।
पालों के उत्थान और पतन के बारे में आप क्या जानते है ?
या
धर्मपाल की उपलब्धियों का समालोचनात्मक वर्णन कीजिये।
धर्मपाल की उपलब्धियों का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।
उत्तर-
पालों की उत्पत्ति
(पलास की उत्पत्ति)
(1) खड़गों से एन० पी० शास्त्री के अनुसार, पालों की उत्पत्ति खड़गों से हुयी। उनका मत धर्मपाल के काल में हरिभद्र द्वारा रचित ‘अष्टसहस्रिका प्रबन्ध कारमिता’ के उस अंश में जिसमें धर्मपाल को ‘राजभट्टादि वश पैतिता’ कहा गया है, पर आधारित है। तदनुसार शास्त्री का कहना है कि वह किसी सेनापति का पुत्र था। नगेन्द्र वसु ने इसे समतट के राजा का व्यक्तिगत नाम माना है, राजभट्ट का समीकरण देवखड़ग के उत्तराधिकारी से किया है। किन्तु इस मत को मानने में यह बाधा है कि ‘पतिता’ का अर्थ ‘पतित’ या ‘गिरा हुआ’ या निम्न कोटि का माना जाये तो यह किसी राजवंश से सम्बद्ध नहीं हो सकता।
(2) सूर्य से कमौली अभिलेख में विग्रहपाल को सूर्यवंशी माना गया है। पातु यह लेख बाद का होने से विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। (3) समुद्र से ‘रामचरित’ को टीका में धर्मपाल को समुद्र कुलदीप कहा गया है तारानाथ का कथन है कि गोपाल के बाद उसका पुत्र नागराज सगरपाल गद्दी पर बैठा। अन्य साक्ष्यों से पुष्टि नहीं होने की वजह से इस मत की मान्यता में दिक्कत है।
(4) निम्नकुल से- ‘आर्यमंजूश्रीमूलकल्प’ में गोपाल को दासकुल का व्यक्ति होना बतलाया गया है। तिब्बती जनश्रुतियों में भी पालों की उत्पत्ति किसी वृक्ष देवता अथवा नाम से जोड़ी गयी है। ‘बल्लालचरित’ ग्रन्थ के व्यास पुराण में पालों को सबसे हीन क्षत्रिय माना गया है।
(5) क्षत्रियों से रामचरित’ पन्थ की टीका में पालों को क्षत्रिय राजा की सन्तान भी बतलाया गया है। तारानाथ ने भी गोपाल को क्षत्रिय माता से उत्पन्न माना है। बुस्तीन भी इस मत की पुष्टि करता है। पाठक का मत है कि किसी उच्च कुल से सम्बन्धित न होने के कारण पाल शासक बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख हुये होंगे. …. और बाद में जब वे एक शक्तिशाली और विस्तृत भू-भाग के स्वामी बन गये तो उन्हें क्षत्रिय मान लिया गया और राष्ट्रकूट तथा हैहय जैसे तत्कालीन शक्तिशाली और ख्याति प्राप्त राजपरिवारों से उनके विवाह सम्बन्ध हैं। मजूमदार की मान्यता है कि पालों के अभिलेखों में उनकी उत्पत्ति का
नहीं है क्योंकि बौद्ध धर्मावलम्बी थे। मनराल और मिनल और सरका यह मत है कि पाल क्षत्रियों से उत्पन्न थे, किन्तु बोद्ध होने के कारण उल्लेख अपने अभिलेखों में नहीं करते थे। 1200 fo वे अपनी
पाल वंश के शासक (Rulers of Pala Dynasty)
गोपाल प्रथम
गोपाल प्रथम इस वंश का प्रथम महत्त्वपूर्ण शासक माना गया है, उस इतिहास के बारे में विशेष जानकारी तो नहीं मिलती परन्तु यह निश्चित है कि उसने शासक और सैनिक के रूप में नाम कमाया था। उसके साम्राज्य में शान्ति थी। था। तारानाथ के अनुसार, उसने आदन्तपुरी (बिहार) में एक विहार बनवाया था। । वह समय 750 ई० और 770 ई० के मध्य रखा जा सकता है।
धर्मपाल राम
गोपाल के बाद उसका लड़का धर्मपाल करीब 770 ई० में सिंहासनारूढ़ हुआ। फल साम्राज्य की शक्ति और कीर्ति को बहुत ऊंचा उठा दिया था। उसके समय में ओमधील तुषार उतार में प्रतिहारों का बोलबाला था। पूर्व में पाल स्वयंचे भवि शक्तियाँ अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहती थीं। अतः उन तीनों में शक्ति पा होना जरूरी थी। धर्मपाल ने भी अनेक युद्ध किये। उपलब्धियों (1) कन्नोज के विरुद्ध अभियान -प्रतिहार वत्सराज की बढ़त
ना शक्ति देखकर धर्मपाल को ईर्ष्या हुयी। अतः दोनों के बीच कन्नोज हथियाने के लिये हुआ। राष्ट्रकूट अभिलेख से पता चलता है कि धर्मपाल की इस युद्ध में हार हुवा घटना के कुछ समय बाद राष्ट्रकूट ध्रुव द्वारा भी उसे पराजित होना पड़ा। राष्ट्रकूट वत्सराज को भी हराकर उसे राजस्थान के मरुस्थल में शरण लेने के लिये बाध्य कर दिय था। धर्मपाल अपनी हार से टूटा नहीं। ध्रुव के लौट जाने के बाद उसने अपनी बड़ी शक्ति के साथ अपना अभियान पुनः चालू किया। नारायणपाल के भागलपुर के पर्ने है पता चलता है कि धर्मपाल ने इन्द्रराज (इन्द्रायुद्ध) तथा दूसरे शत्रुओं को हराकर महोदय में कब्जा किया और वाकायदा शिष्टाचारपूर्वक उसे अपने परजीवी चक्रायुद्ध के सुपुर्द किया। इस शिष्टाचार में भोज (बरार का हिस्सा ?), मत्स्य (अलवर), मद्र (मध्य पंजाब), कुरु (पूर्व पंजाब (सिहपुर पंजाब ?), पवन (अरब ?), अवन्ति (मालवा), गांधार (पश्चिम प और कोर के मुखियों ने भाग लिया था। इन स्थानों के शासकों की स्थिति के बो मतभेद है। शायद ये लोग धर्मपाल के अधीन थे। ऐसा लगता है कि उसने इन स प्रदेशों पर विजय प्राप्त करने के बाद अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया। सिर्फ उनसे सीख सहायता एवं उपहार लेकर हो वह सन्तुष्ट था। यदि वह उन्हें अपने साम्राज्य में मिला ह तो केन्द्र से उन पर नियन्त्रण करना शायद मुश्किल होता। इस प्रकार उसने समुद्रगुप्त नीति का अनुसरण किया।
मूल्यांकन- धर्मपाल एक महान शासक था। उसने विरोधों के विरुद्ध भी अपने साम्राज्य को बढ़ाने की कोशिश की। असफलतायें उसे डिगा नहीं सकीं, बल्कि वे उसके लिये सफलता के लिये स्तम्भ सिद्ध हुयीं। वह यह भली-भांति जानता था कि कब करना और कब समझौता करना है।
उसने महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक आदि उपाधियाँ धारण की थीं। उसने बंगाल के साम्राज्य को चर्मोत्कर्ष पर पहुँचा दिया।
देवपाल
उत्तरी भारत गुर्जर प्रतिहार, पाल और सेन
धर्मपाल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र देवपाल सिंहासनारूढ़ हुआ। वह अपने पिता से भी अधिक प्रतापी तथा शक्तिशाली सिद्ध हुआ। वह बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी तथा साम्राज्यवादी सम्राट था। सिहासन पर बैठने के उपरान्त ही उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और अपने पूर्वजों से प्राप्त साम्राज्य को विकसित करना आरम्भ कर दिया विजये या उपलब्धियों-देवपाल की विजयों का वर्णन हमें प्रमुखतया बदल अभिलेख में मिलता है। इस अभिलेख के अनुसार उसने हिमालय से लेकर विन्ध्याचल तक तथा
पश्चिम में समुद्र तट से लेकर पूर्वी समुद्र तट से कर वसूल किया। इसी अभिलेख से हमें
यह भी ज्ञात होता है कि उसने उत्कलों, हूणों, द्रविड़ों, गुर्जरों को परास्त किया। अब उसको
इन विजयों का अलग-अलग संक्षिप्त परिचय दिया जायेगा— (1) प्रतिहारों से युद्ध-देवपाल के दीर्घकालीन शासन की अवधि में नाटभट्ट | रामभद्र तथा मिहिरभोज हुये। बदल अभिलेख में रामभद्र से संघर्ष होने का उल्लेख है जिसमें देवपाल की विजय अंकित है। किन्तु शायद वह विजय स्थायी नहीं थी। ग्वालियर अभिलेख में रामभद्र के सामन्तों द्वारा शत्रुओं को पराजित होना दर्शाया गया है। मिहिरभोज के समय भी पाल प्रतिहार संघर्ष चलता रहा। बदल अभिलेख से पता चलता है मिहिर के सामन्त गुणमबोधिदेव ने देवपाल को पराजित किया। ग्वालियर अभिलेख से भी इस बात की पुष्टि होती है।
(2) हूणों से संघर्ष-मजूमदार का मत है कि देवपाल ने हिमालय के निकट उत्तरापथ के हूण राज्य पर आक्रमण किया। हूणों को जीतने के बाद देव ने उत्तर-पश्चिमी दिशा में स्थित कम्बोज तथा गन्धार राज्यों को पराजित किया। ये राज्य पाल साम्राज्य की उत्तरी तथा पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित थे। मनराल तथा मित्तल के अनुसार, बदल अभिलेख में वर्णित हूण मालवा के निकट बसने वाले हूण प्रतीत होते हैं। उत्तर में हिमालय और पूर्वपयोधि से पश्चिमपयोधि तक देवपाल की सेनाओं का अभियान कोरी प्रशंसा मात्र है। मुंगेर अभिलेख में वर्णित कम्बोज का तात्पर्य तिब्बत है, किन्तु यह अनुमान किसी साक्ष्य से पुष्ट नहीं होता है। अतः मजूमदार का मत मान्य होना चाहिये।
(3) दक्षिण अभियान-बदल अभिलेख से यह भी पता चलता है कि उसने द्रविड़
नरेश का दर्प नष्ट किया। चूंकि द्रविड़ का अर्थ सामान्यतः दक्षिण से होता है, अतः यह अनुमान हो सकता है कि देव ने किसी राष्ट्रकूट नरेश को पराजित किया होगा, किन्तु राष्ट्रकूट अपने को द्रविड़ नहीं मानते। बी० पी० सिन्हा ने द्रविड़ों की पहचान पल्लवों से की है। मजूमदार के अनुसार, देवपाल ने द्रविड़ पाण्डेय श्रीमार श्रीवल्लभ को पराजित किया होगा। किन्तु अन्य साक्ष्यों के अभाव में सुदूर दक्षिण की विजय सम्भावित प्रतीत नहीं होती। (4) उत्कल विजय-यह भी पता चलता है कि देवपाल ने उत्कल अर्थात् उड़ीसा पर विजय प्राप्त की थी। तारानाथ ने उत्कल में करवंश के राजा शिवकर के राज्य करने
की बात कही है। लगता है, देवपाल ने उत्कल को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया था।
(5) प्राग्ज्योतिष का आत्मसमर्पण – इस सबके अलावा, ऐसा भी पता चलता है कि देवपाल के भाई तथा सेनापति जयपाल के आदेशानुसार प्राग्ज्योतिष के राजा हरराज या उसके पिता प्रालम्भ ने आत्मसमर्पण कर देवपाल की अधीनता स्वीकार कर ली जिसके कारण उस पर आक्रमण नहीं किया गया। प्राग्ज्योतिष ब्रह्मपुर घाटी में स्थित है जो कामरूप के नाम से भी पुकारा जाता है और जिसमें, ह्वेनसांग के अनुसार, समस्त असम का क्षेत्र सम्मिलित माना गया है।
इसके अलावा मुंगेर अभिलेख से पता चलता है कि देवपाल ने कम्बोज की की थी। कम्बोज का समीकरण तिब्बत से किया जाता है। तिब्बती साक्ष्यों से है कि उनके राजा और एक पुत्र ने भारत पर आक्रमण किया था और धर्मपाल को हराया। सम्भव है देवपाल के समय भी तिब्बतियों का युद्ध हुआ हो और वे हारे हो ।
धर्म-देवपाल की भांति वह भी बौद्ध धर्मावलम्बी था। उसने के एक प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान को नालन्दा विहार का अध्यक्ष नियुक्त किया। मलाया के शैलेन्द्रवंशीय राजा वालपुत्रदेव ने अपना एक राजदूत देवपाल की राजसभा में भेजा था और नालन्दा में एक विहार को 5 गाँव (राजगृह, बिहार का वर्तमान राजगिर व गया में नदिनक मणिवाटक, नटिका ग्राम, हस्तिग्राम व पालमक) दान देने का अनुरोध किया था जिसे उसने स्वीकार कर लिया था। देव ने विक्रमाशिला के विहार की प्रगति में भी योगदान दिया। तारानाथ ने उसे ‘बौद्ध धर्म का पुनर्स्थापक’ कहा है। नगरहार जलाल
मृत्यु-लगभग 40 वर्ष शासन करने के बाद 850 ई० में उसकी मृत्यु हो गयी। मूल्यांकन- देवपाल एक योग्य पिता का योग्य पुत्र था। उसने न केवल अपने पे राज्य को ही अक्षुण्ण रखा वरन् वह उसके विस्तार के लिये भी प्रयत्नशील रहा। रामभद्र पर विजय प्राप्त करके उसने अल्पकाल के लिये पाल वंश को उत्तरी भारत का सर्वप्रमुख राजवंश बनवा दिया। निःसन्देह वह मिहिर भोज के विरुद्ध सफल नहीं हो तो भी उसने राज्य को अक्षय रखा।
विग्रहपाल |
उसकी उत्कल विजय से उसकी वीरता तथा महत्त्वाकांक्षा का ही पता चलता है। अबर यात्री सुलेमान ने भी उसकी सैनिक शक्ति को सर्वोत्कृष्ट माना है। सैनिक अभियानों तथा साम्राज्य विस्तार से जिस कुशलता का परिचय उसने दिया।
उसी के साथ वह एक धर्मनिष्ठ शासक भी था। बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण वह विदेशों
में विख्यात था। मजूमदार ने उचित ही कहा है कि, “धर्मपाल तथा देवपाल की शाम
अवधि बंगाल के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है।”
देवपाल के बाद विग्रहपाल | हुआ बदल अभिलेख में विमहपाल का दूसरा नाम सुपाल भी मिलता है। चाट लेख के अनुसार प्रतिहार मिहिर भोज ने अपने सामन दिल की सहायता से गौड़ नरेश को पराजित किया था। पुरी के अनुसार, वह गोड विमहपाल था। उसने बहुत ही कम शासन किया और धार्मिक क्रियाओं तथा संन्यास के निहित गद्दी त्याग कर अपने पुत्र नारायणपाल को सौंप दी। नारायणपाल
विग्रह के बाद नारायणपाल हुआ। मजूमदार का मत है कि राष्ट्रकूट अमोघवर्ष ने नारायणपाल पर विजय प्राप्त की थी। पर अन्य साक्ष्यों के अभाव में इसे विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। हाँ, अमोध के बाद कृष्ण 11 ने उस पर आक्रमण किया होगा (जैसा कि पियापुरम, अभिलेख से पता चलता है ऐसा भी विदित होता है कि प्रतिहार महेन्द्रपाल ने नारायणको पराजित किया। महेन्द्र के शिलालेख गया जिले के गुनरिया नामक स्थान बिहार शरीफ, हजारीबाग़ जिले में इतखोरी व नालन्दा से प्राप्त हुये हैं जो यह प्रकट करते हैं कि सम्पूर्ण बिहार और छोटा नागपुर प्रतिहारों ने पालों से अधिकृत कर लिये थे। पर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अपने शासन के अन्तिम दिनों उसने मगध और बंगाल में पुर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। जो भी हो, उसके कुछ सामन्तों ने उसकी कठिनाइयों..
अपनी वाकर दीया मे और ने अपनी स्वतन्त्र स्थापित कर ली और दर्जन स्थापित किया। 908 ई० में नपा का देहान्द हुआ। उसके उपरान्त गोपाल
।। और वहा ।। ये तीनों की शासन करी वर्ग (o) थी अवधि में पाल साम्राज्य की अवनति हुयी। आन्तरिक विपन अवनति के कारण थे। इस समय प्रतिहार राष्ट्रकूटी से पराजित हो दुर्बल हो गये और कोई भी (विशेषकर महीपाल के बाद) पाल साम्राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं जुटा सकता था। राष्ट्रकूट वंश भी पवन की और अपसर था। कोई ऐसा साध्य नहीं मिलता जिसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि पालवंशीय नरेश राज्यपाल गोपाल 11- और विग्रहपाल || के शासनकाल में राष्ट्रकूटों ने पूर्वी भारत पर कोई आक्रमण किया हो। हाँ वैवाहिक सम्बन्धों के कारण वे भी पालों के मित्र बन गये थे। किन्तु अन्य दो शक्तियाँ—चन्देल और कलचुरि उत्तरी भारत में प्रबल हो रही थीं। महीपाल
अब ऐसा प्रतीत होने लगा था शेष पाल राज्य भी शीघ्र ही समाप्त हो जायेगा। सौभाग्य से इसी समय पाल वंश में एक अत्यन्त पराक्रमी एवं महाप्रतापी नरेश का उदय हुआ, जिसने अपने शौर्य और प्रताप से मृतप्राय पाल साम्राज्य को अनुत्राणित कर दिया और उसमें ऐसी नूतन शक्ति उत्पन्न कर दी कि वह पुन: संजीव, सुसंगठित तथा सुविस्तृत हो गया। यह प्रतिभाशाली नरेश था महीपाल | जिसने अपने धैर्य, साहस और पराक्रम से अपने पैतृक प्रदेश पर पुनः अधिकार करने में सफलता पायी और यूँ पाल साम्राज्य का पुनसंस्थापक या द्वितीय पाल साम्राज्य का संस्थापक होने की ख्याति अर्जित की। 1988 में अपने पिता विग्रहपाल 11 की मृत्यु के बाद जब वह गद्दी पर बैठा तब उसके वंश का भविष्य अत्यन्त निराशाजनक था। परन्तु उसने अपने बीमारी या कमजोर साम्राज्य को करीब 175 वर्ष (गोविन्दपाल तक का समय) की दीर्घायु प्रदान की और इतना शक्तिशाली बना दिया कि उसकी कीर्ति दिगदिगन्त में फैल गयी। उसके शासनकाल की प्रमुख घटनायें ये हैं-
नयनपाल
महीपाल | के बाद नयनपाल हुआ। रीवा और भेड़ाघाट अभिलेखों के अनुसार वह 1 कलचुरि लक्ष्मीकर्ण से पराजित हुआ। तारानाथ उसके विजय की बात बोलता है हो सकता है प्रथम विजय लक्ष्मीकर्ण की रही हो और बाद में नयन ने विजय प्राप्त कर ली हो।
विग्रहपाल 111
1055 में विमहपाल हुआ। कलचुरि नरेश कर्ण ने उस पर आक्रमण किया। कर्ण के पैकोर अभिलेख से विमहपाल पर उसकी विजय का पता चलता है। हेमचन्द्रसूरिका ‘काव्य’ भी यही बोलता है। अनेक विद्वान यह मानते हैं कि विग्रह ने कर्ण को हराया। यह भी सच हो सकता है, क्योंकि ‘रामचरित’ में (लक्ष्मी) कर्ण की पुत्री यौवनश्री का विवाह विपड़ से होना बतलाया गया है। ऐसा इसलिये हुआ होगा कि कलचुरियों की शक्ति अब क्षीण हो गयी होगी और बाध्य हो उन्हें वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा विग्रह से सन्धि करनी पड़ी हो। जो हो, ऐसा पता चलता है कि विग्रह चालुक्य विक्रमादित्य ? IV से हारा था । पर विग्रह के राज्य को कोई विशेष क्षति नहीं पहुंची, क्योंकि अभिलेखों से मगध और गौड
ययाति और उद्योत केसरी नामक राजाओं ने गोड़ों पर आक्रमण किया जिसका सामना विमपाल ने टूढ़ता से किया। महीपाल || पाल || की 1070 में मृत्यु के बाद उसका पुत्र महापाल || शासक बना। उसके दो भाइयों— शुरपाल तथा रामपाल के समय उत्तराधिकार का युद्ध हुआ, किन्तु महीपाल ने दोनों भाइयों को कारागृह में बन्दी कर लिया। किन्तु उसके सामन्तों ने विद्रोह किया। इस आन्तरिक संघर्ष का लाभ उठा कर केवल जाति के एक पदाधिकारी दिव्य ने महीपाल की हत्या कर वरेन्द्री (उत्तरी बंगाल) पर अधिकार कर लिया। सामन्तों ने उसके भाई शुरपाल और रामपाल को बन्दीगृह से मुक्त कर दिया था या वे स्वयं बाहर आ गये थे।
शूरपाल
आन्तरिक विद्रोह के कारण लगभग समस्त बंगाल पालों के हाथों से निकल गया था। शूरपाल ने महीपाल II की हत्या के बाद केवल उत्तर तथा मध्य बिहार में 2 वर्ष तथा शासन किया।
रामपाल रामपाल ने 1077 में गद्दी ग्रहण की। उसके समय की मुख्य घटनायें निम्न प्रकार हैं- (1) वरेन्द्री (उत्तरी बंगाल) पर विजय-इन दिनों उत्तरी बंगाल (वरेन्द्री) में दिव्य का भाई भीम राज्य कर रहा था। रामपाल ने भीम पर आक्रमण कर उसकी सपरिवार हत्या कर दी और इस प्रकार उत्तरी बंगाल में अपना अधिकार जमा लिया।
(2) पूर्वी बंगाल पर प्रभुत्व स्थापना – यादव वंशीय हरिवर्मन इस समय पूर्वी बंगाल
का शासक था। रामपाल ने उस पर अभियान किया और उसने घबरा कर आत्मसमर्पण
कर दिया।
(3) असम (कामरूप) पर अधिकार- ‘रामचरित’ से कामरूप अथवा असम पर भी रामपाल के आक्रमण का पता चलता है। रामपाल ने उस पर विजय प्राप्त कर उसे अपने अधीन कर लिया।
(4) उड़ीसा (उत्कल पर अभियान-उत्कल में इस समय गृह-युद्ध चल रहा था। रामपाल ने एक प्रतिद्वन्द्वी का पक्ष ले उसे वहाँ का राजा बना दिया। उड़ीसा में वह कलिंग तक बढ़ा। शिलालेखों से विदित होता है कि उड़ीसा में एक दूसरे विरोधी राजकुमार कर्ण केसरी ने गंग वंश के राजा अनन्तवर्मन चोड गंग की सहायता से गद्दी पर अधिकार कर लिया। अतः उत्कल के लिये पाल-गंग संघर्ष चालू हो गया।
(5) गाहडवालों से संघर्ष-गाहडवाल नरेश चन्द्रदेव ने पूर्व की ओर पाल राज्य पर आक्रमण किया, किन्तु ‘रामचरित’ के अनुसार रामपाल के सामन्त भीमयश ने गाहडवाल नरेश चन्द्रदेव को पराजित कर दिया। रामपाल ने कान्य कुब्ज (कन्नौज) पर अभियान किया, किन्तु गाहडवाल नरेश मदनवर्मन के राजकुमार गोविन्दचन्द ने रामपाल को वापस लौटने
पर विवश कर दिया। इस तथ्य की पुष्टि रहन शिलालेख तथा ‘कृत्यकल्पतरु’ से होती है। मृत्यु- रामपाल अपने मामा राष्ट्रकूट मथनदेव की मौत (1120) से इतना निराश हुआ कि उसने मुंगेर गंगा में डूब कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी।
रामपाल की मृत्यु के बाद शायद उत्तराधिकार का संघर्ष हुआ जिसमें कुमारपाल सफल रहा। उसके समय कमोली ताम्रपत्र के अनुसार कामरूप के अधीनस्थ शासक निम्यदेव विद्रोह किया। कुमार के मन्त्री वैद्यदेव ने इसका दमन कर दिया, किन्तु उसने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी। कुमार ने कामरूप जाकर वैद्यदेव को अपने अधीन किया। बेला ताम्रपत्र से पूर्वी बंगाल के स्वतन्त्र होने का पता चलता है। अतिरिक्त इसके गंगवंशीय अनन्तवर्मन ने दक्षिणी और पश्चिमी बंगाल के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। मगध में परापाल और वर्णभाग स्वतन्त्र हो गये। इसी प्रकार गाहडवाल गोविन्दचन्द ने पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार किया। मानेर शिलालेख से ज्ञात होता है कि 1126 में गाडवालों ये इस स्थान पर अधिकार कर लिया था। कहा जाता है कि मिथिला के शासक मान्यदेव (वत्यदेव) ने उस पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया था।
गोपाल ||| गोपाल III के समय पाल साम्राज्य का विघटन तीव्र गति से
हो
मदनपाल
गोपाल III के बाद उसका चाचा (कुमारपाल का भाई) मदनपाल 1144 में गद्दी पर बैठा। 1146 के लार अभिलेख से उसके द्वारा मुगिरि (मुंगेर) से दिये गये दान का पता चलता है। पर बाद में गोविन्दचन्द ने मुंगेर उससे छीन लिया। ‘रामचरित’ से ज्ञात होता है कि मदन ने शत्रु सेना को कालिंदी के पीछे तक धकेल दिया तथा उसने गोवर्धन को पराजित कर उसे गद्दी से उतारा। किन्तु शत्रु तथा गोवर्धन की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। ऐसा भी पता चलता है कि मदन पूर्वी बंगाल के सेन शासक विजय सेन से पराजित हुआ और बंगाल पर सेनों का अधिकार हो गया। मदन की राज्य सीमा केवल बिहार के मध्य तथा पूर्वी भागों तक संकुचित रह गयी। उसकी अन्तिम ज्ञात तारीख 1161 है। गोविन्दपाल
मदनपाल की मृत्यु के बाद एक गोविन्दपाल का पता चलता है जो एक प्रादेशिक शासक की भाँति गया के निकटवर्ती क्षेत्र में शासन करता था। इसके बाद पाल वंश के शासकों का कोई विवरण नहीं मिलता। पाल वंश की महान् परम्परा का अन्त हो गया।
पाल वंश का अन्त
पाल शासकों ने लगभग चार सदियों तक शासन किया तथा बंगाल एवं भारतीय संस्कृति को उन्होंने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आर० के० मुखर्जी के अनुसार, “अतः चार शताब्दियों के सम्बे समय के बाद पालों का इतिहास समाप्त हुआ लेकिन इस दौरान संस्कृति एवं ज्ञान के क्षेत्र में पालों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।” बाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते पाल साम्राज्य का पतन हो गया। O
सेनों पर एक संक्षिप्त नोट लिखिये।
Write a brief note on the Senas
उत्तर-
भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक)
सेनों का परिचय (Introduction of Senas)
जिन सेनो ने बंगाल के पालों को सांघातिक प्रहार दिया वे शायद दक्षिण उत्पत्ति के थे। कहा जाता है कि उन्होंने अपना राज्य राढ़ (पश्चिमी बंगाल) में स्थापित किया। एक यह भी सम्भावना है कि सेन विदेशी आक्रमणों के साथ पुरोहितों के रूप में आये हो और चिचित प्रदेशों में स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने के बाद क्षत्रिय हो गये हो। पर यह म समोचीन प्रतीत नहीं होता.
11वीं सदी में जब कल्याणी के चालुक्यवंशीय नरेश विक्रमादित्य ने बंगाल पर आक्रमण किया तो उसके सेनापति ने बंगाल पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इस सेनापति का नाम सामन्तदेव था। इसने ही सेन वंश की स्थापना की थी। यह चन्द्रकुल में वीरसेन का वंशज था। इसने काशीपुरी नामक एक नगर की भी स्थापना की थी। एक लेख से ज्ञात होता है कि वह कर्णक क्षत्री था। उसे ब्रह्म क्षत्री भी कहा जाता है। यह उसके ब्राह्मण होने का सूचक है। परन्तु उसके वंशजों ने अपने को केवल क्षत्रिय ही कहा। इस सम्बन्ध में मुकर्जी का कथन है-“ब्रह्म क्षत्रीय” उपाधि से ज्ञात होता है कि सामन्तसेन ब्राह्मण था परन्तु उनके वंशज अपने आपको केवल क्षत्रिय ही कहते थे। यथार्थ में सेन वंशज क्षत्रिय ही थे और सम्भवतः ब्राह्मण धर्म का संरक्षक होने के नाते ही सामन्तदेव को ब्राह्मण क्षत्रिय कहा गया है। श्रीनेत्र पाण्डेय ने कबूल किया है कि सेन पहले ब्राह्मण में
परन्तु क्षत्रिय वृत्ति स्वीकार कर लेने से क्षत्रिय वर्ण में आ गये थे। ऐसा भी माना जाता है। कि सामन्तसेन तो ब्राह्मण था, परन्तु उसके उत्तराधिकारी अपने आप को क्षत्रिय कहते थे सामन्तसेन ने स्वयं कहा है कि वह कर्नाटक विद्रोहियों से लड़ा और बाद में स्वयं
सन्त हो गया।
सेन वंश के शासक (Rulers of Sen Dynasty)
हेमन्तसेन
सामन्तसेन की मृत्यु के पश्चात् हेमन्तसेन हुआ। उसके विषय में इतिहास कोई विशेष जानकारी नहीं देता है। किन्तु यह कहा जाता है कि वह एक योग्य व्यक्ति था और उसने एक छोटा सा राज्य उस समय बना लिया था जब विक्रमादित्य चालुक्य के आक्रमण के उपरान्त बंगाल में गड़बड़ फैल गयी थी। वह राज्य राध या राड़ अर्थात् पश्चिमी बंगाल में स्थापित हुआ था।
विजयसेन
हेमनसेन के बाद उसका पुत्र विजयसेन उसका उत्तराधिकारी बना। उसने 1094-95 से 1158 तक शासन किया। वह सामरिक प्रवृत्ति का एक वीर, प्रतापी, शक्तिशाली और महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने अपनी विजयों से सेन वंश के यश को बढ़ाया। उसका विवाह एक सूर्य राजकुमारी से हुआ था।
पता चलता है कि, उसने तिरहुत के नान्यदेव को हराया। देवपारा अभिलेख के अनुसार उसने नेपाल और मिथिला के शासकों पर विजय प्राप्त की थी। उसने कलिंग पर विजय प्राप्त की और कामरूप के राजा राघव अथवा कार्माजन (कामार्णव) पर भी यथार्थ 1 में पूर्व में सेन वंशीय नरेश और कलिंग नरेश आपस में मित्र थे। बाद में विजयसेन ने कलिंग नरेश पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की।
उत्तरी भारत गुर्जर प्रतिहार, पाल और सेन
विजयसेन के एक अभिलेख और भारत के नाट्यसूत्र की एक टीका (पुमिका) के अनुसार उसने गौड नरेश (मदनपाल) पर भी विजय प्राप्त की और फिर वह पूर्व की ओर अपसर हुआ और विक्रमपुर को अपनी राजधानी बनाया। देवपारा लेख से यह भी ज्ञात होता है कि उसका बेड़ा पश्चिम के राज्यों की उसकी विजय लीला में गंगा की धारा से होकर गया।
इसमें किचित सन्देह नहीं कि विजयसेन एक वीर राजा था और उसके लम्बे शासनकाल के 63-64 वर्षों में से अधिकांश समय शायद उसने युद्धों में ही व्यतीत किया। वह शव था और श्रोत्रियों का आश्रयदाता था। देवपारा में उसने एक शिव मन्दिर बनवाया जिसे प्रदुद्युन्नेश्वर (पद्युम्नेश्वर) के नाम से पुकारा जाता है। उसने अपनी प्रजा हित के लिये अनेक कार्य किये और देवपारा में एक या एक से अधिक झीलों का निर्माण कराया।
बल्लालसेन
विजयसेन के उपरान्त उसका पुत्र बल्लालसेन हुआ जिसका समय 1158 से 1179 तक माना जाता है। उसकी माता विलासदेवी बंगाल के शूरवंश को राजकुमारी थी। सम्भवतः पाल वंश का अन्त तथा उत्तरी बंगाल की विजय को उसने ही पूर्ण किया था । यद्यपि अनुश्रुतियों के अनुसार उसने मगध पर भी आक्रमण किया था, परन्तु अभिलेखों से इसकी पुष्टि नहीं होती। उसने विजयें की हों या न की हों, पर यह तय सा है कि उसने अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखा।
वह एक उच्च कोटि का विद्वान् तथा प्रसिद्ध लेखक था। ‘दानसागर’ उसने लिखा, और शायद ‘अद्भुत सागर’ की शुरुआत उसने की और अन्त उसके पुत्र ने बल्लाल ने बहुत से सामाजिक सुधार भी किये। बंगाल में उसने जाति प्रथा का पुनर्संगठन किया। उसने शैव सम्प्रदाय के प्रचार की ओर भी ध्यान दिया। कुछ विद्वानों के अनुसार वृद्धावस्था में उसने प्रयाग जाकर गंगा में डूबकर आत्महत्या कर ली थी। लक्ष्मणसेन
बल्लाल के बाद लक्ष्मणसेन उसका उत्तराधिकारी हुआ जिसने 1179 से 1205 तक राज्य किया। कहा जाता है, उसने कामरूप और कलिंग के राज्यों को जीता था और इस विजय के उपलक्ष में उसने प्रयाग और काशी में विजय स्तम्भ स्थापित किये थे। यदि यह सच है तो उसे एक प्रभुत्वशाली सम्राट मानना चाहिये। पर कुछ का कहना है कि उसकी विजय की बात तर्क संगत नहीं क्योंकि गाहडवाल जयचन्द उसका समकालीन था जिसका राज्य गया तक फैला हुआ था और इसलिये मुकर्जी ने उसे कमजोर शासक बतलाया है। परन्तु यह भी तो हो सकता है कि पहले उसने विजय प्राप्त कर विजय स्तम्भ स्थापित कर दिये हों, परन्तु बाद में गाहडवालों ने पुनः अपना खोया प्रदेश प्राप्त कर लिया हो।
ऐसा भी कहा जाता है कि उसके शासनकाल के अन्तिम भाग में आन्तरिक उपद्रव आरम्भ हो गये और दक्षिण तथा पूर्वी बंगाल में छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये। इख्तियारुदीन मुहम्मदविन बख्तियार खिलजी के आक्रमण ने सेन वंश की जड़ें हिला दीं। कुछ के अनुसार यह आक्रमण उसके समय नहीं हुआ था।
जो हो, लक्ष्मणसेन परम वैष्णव था। जयदेव जो सबसे बड़ा वैष्णव कवि था उसकी राज-सभा में रहा करता था। उसने ‘गीतगोविन्द’ की रचना की थी। ‘पवनदूत’ के रचयिता धोयी (धोमिक) तथा गोवर्द्धन को भी उसका श्रेय प्राप्त था। हलायुध जो बहुत बड़ा विद्वान् था उसका मन्त्री तथा न्यायाधीश था। लक्ष्मणसेन स्वयं एक अच्छा लेखक था। उसने अपने
पिता द्वारा आरम्भ किये गये ‘अदभुत सागर’ नामक ग्रन्थ का पूरा किया था। मोटे रूप दे उसके समय में सांस्कृतिक उन्नति हुयी। सिराज के अनुसार, अन्य हिन्दू राजा उसके श को बहुत महत्त्व देते थे और वंशावरण की दृष्टि से उसे मानो खलीफा मानते थे।
लक्ष्मणसेन के उत्तराधिकारी और सेन वंश का पतन
कुछ कहते हैं कि लक्ष्मणसेन का उत्तराधिकारी माधवसेन था और उसी के सम मोहम्मद बिन वख्तियार खिलजी ने बंगाल पर आक्रमण किया था। बिहार विजय के बख्तियार खिलजी ने अनेक बौद्ध भिक्षुओं की हत्या कर दी, तथा नालन्दा, ओदन्तपुर आदि विद्यालयों और अनेक विहारों को उसने तोड़-फोड़ डाला। श्रीनेत्र पाण्डेय के अनुसार लक्ष्मणसेन के बाद उसके दो पुत्र विश्वरूपसेन तथा केशवसेन क्रमशः सिहासनारू और मुसलमानों से युद्ध करते रहे। लगभग 1260 में सेन वंश के राज्य का मुसलमानों ने अन्त कर दिया। सेन वंश में कुछ योग्य तथा शक्तिशाली शासक हुये जिनके काल में हिन्दू धर्म, साहित्य तथा संस्कृति की अभिवृद्धि हुयी। शेव धर्म विशेष रूप से पल्लवित हुआ। काफी अर्धनारीश्वर मूर्तियाँ बनीं। शासकों ने अपनी मुहरों पर 10 हाथ वाले सदाशिव की मूर्ति रचित करवायी ।
पिता द्वारा आरम्भ किये गये ‘अदभुत सागर’ नामक ग्रन्थ का पूरा किया था। मोटे रूप दे उसके समय में सांस्कृतिक उन्नति हुयी। सिराज के अनुसार, अन्य हिन्दू राजा उसके श को बहुत महत्त्व देते थे और वंशावरण की दृष्टि से उसे मानो खलीफा मानते थे।
लक्ष्मणसेन के उत्तराधिकारी और सेन वंश का पतन
कुछ कहते हैं कि लक्ष्मणसेन का उत्तराधिकारी माधवसेन था और उसी के सम मोहम्मद बिन वख्तियार खिलजी ने बंगाल पर आक्रमण किया था। बिहार विजय के बख्तियार खिलजी ने अनेक बौद्ध भिक्षुओं की हत्या कर दी, तथा नालन्दा, ओदन्तपुर आदि विद्यालयों और अनेक विहारों को उसने तोड़-फोड़ डाला। श्रीनेत्र पाण्डेय के अनुसार लक्ष्मणसेन के बाद उसके दो पुत्र विश्वरूपसेन तथा केशवसेन क्रमशः सिहासनारू और मुसलमानों से युद्ध करते रहे। लगभग 1260 में सेन वंश के राज्य का मुसलमानों ने अन्त कर दिया। सेन वंश में कुछ योग्य तथा शक्तिशाली शासक हुये जिनके काल में हिन्दू धर्म, साहित्य तथा संस्कृति की अभिवृद्धि हुयी। शेव धर्म विशेष रूप से पल्लवित हुआ। काफी अर्धनारीश्वर मूर्तियाँ बनीं। शासकों ने अपनी मुहरों पर 10 हाथ वाले सदाशिव की मूर्ति रचित करवायी ।
दक्षिण- राष्ट्रकूट और उनके समकालीन
[DECCAN-RASHTRAKUTAS AND THEIR CONTEMPORARIES]
“निःसंदेह गोविन्द तृतीय राष्ट्रकूट शासकों में योग्यतम था। साहस, रणकौशल,
राजकौशल एव सैन्य कार्यों में वह अतुलनीय था।”
प्रश्न 1- राष्ट्रकूट कौन थे ? उनके उत्थान एवं पतन का वर्णन कीजिये। -ए० एस० अनेकर
Who were the Rashtrakutas? Describe their rise and fall. राष्ट्रकूट ध्रुव की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिये। Throw Light on the achievements of the Rashtrakuta Dhruva.
या
गोविन्द III की उपलब्धियों का वर्णन कीजिये ।
गोविंदा III की उपलब्धि का वर्णन करें।
उत्तर-
राष्ट्रकूटों का परिचय
(Introduction of Rashtrakuta) दक्षिण में जिन राजवंशों का उदय हुआ उनमें राष्ट्रकूट वंश महत्त्वपूर्ण था। इन्होंने लगभग 225 वर्षों तक शासन किया। ये राष्ट्रकूट कौन थे ? इस विषय में विभिन्न मत प्रकट किये गये हैं। कुछ निम्न प्रकार हैं-
यदुवंशी थे- राष्ट्रकूट शासकों को उनके अभिलेखों में यदुवंशी कहा गया है, किन्तु ये अभिलेख बाद के हैं।
तेलगू थे-बल के अनुसार, राष्ट्रकूट तेलगू थे और उसी जाति के थे जिसके आन्ध्र प्रदेश के रेड्री लोग हैं। किन्तु अल्लेकर का कहना है कि राष्ट्रकूटों का कार्य क्षेत्र आन्ध प्रदेश नहीं था तथा उनकी भाषा तेलगू नहीं वरन् कन्नड़ थी। इसके अलावा रेड्डी लोग सामरिक प्रवृत्ति के नहीं थे और उन्होंने क्षात्र धर्म को नहीं स्वीकार किया था। वे सदैव व्यापार तथा कृषि करते आये हैं। फिर ‘राष्ट्र’ का तेलगू के रेड्डी’ शब्द में परिवर्तित हो जाना सम्भव नहीं और राजनीतिक शक्ति के रूप में उनका उदय 15वीं सदी में हुआ, उससे पूर्व नहीं ।
तुंग की सन्तान थे-भण्डारकर ने राष्ट्रकूटों को तुंग नामक राजा के वंशज बतलाया है। तुंग के पुत्र का नाम रह था और रह के नाम पर ही इसका नाम राष्ट्रकूट पड़ा। इसी प्रकार देवली और कर्हद ताम्रपत्रों में राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण III को तुंग राजा का वंशज बतलाया गया है, किन्तु इस मत के स्वीकार करने में बड़ी कठिनाई यह थी कि तुंग नामक कोई ऐतिहासिक नरेश न था, वरन् यह कल्पित नाम प्रतीत होता है और यदि इस नाम का कोई राजा था भी तो उसके जाति, वंश आदि का कुछ पता नहीं है।
भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० ठरकी सन्तान पलीट के अनुसार, राष्ट्रकूट’ शब्द ‘राठौर’ से निकला है जो
राजपूताना (राजस्थान) में शासन करते थे। अतएव राष्ट्रकूट इन्हीं के वंशज रहे होंगे।
अनेकर का कहना है कि दक्षिण का राष्ट्रकूट वंश उत्तर के राठौरों से अधिक प्राचीन है। अतएव राष्ट्रकूट राठोरों के वंशज नहीं कहे जा सकते। राष्ट्रकूट राजा ध्रुव । गोविन्द III, इन्द्र ।।। तथा कृष्ण III के उत्तरी आक्रमण के समय जो राष्ट्रकूट उत्तर में रह गये थे वहीं राठौर कहलाने लगे। अस्तु, राठौरों को तो राष्ट्रकूटों का वंशज कहा जा सकता है, किन्तु राष्ट्रकूटों को राठौरों का नहीं। मराठों के पूर्वज थे-वेदय के विचार में राष्ट्रकूट मराठी बोलते थे और आजकल के मराठों के पूर्वज थे। किन्तु अत्नेकर ने इस मत का खण्डन किया है, क्योंकि राष्ट्रकूटों की मातृभाषा कन्नड़ थी, न कि मराठी और फिर मराठे स्वयं भी तो अपने को राष्ट्रकूटों की
सन्तति नहीं मानते।
रठिकों की सन्तान थे सबसे अधिक तर्क तथा तथ्य संगत मत अल्तेकर का प्रतीत होता है। उनके मतानुसार, राष्ट्रकूट अथवा राष्ट्रिकों की सन्तान थे। अशोक के अभिलेखों में भी रठिकों का उल्लेख मिलता है। इन्हीं रठिकों को नानाघाट के अभिलेख में महारठी के नाम से सम्बोधित किया गया है। खारवेल के खण्डगिरि अभिलेख में भी रठिक जाति का उल्लेख मिलता है।
यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सम्भवतः इस जाति के लोग महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में बहुत दिनों तक सामन्त के रूप में शासन कर रहे थे और राष्ट्रकूटों की उत्पत्ति इन्हीं महारठियों तथा रठियों अथवा रेड्डियों से हुयी थी।
मान्यखेट के राष्ट्रकूट
(1) इन्द्र 1-मान्यखेट शाखा को स्थायित्व प्रदान करने वाला सर्वप्रथम राष्ट्रकूट
शासक इन्द्र | था। इसके पूर्वज सामन्त के शासन करते थे, किन्तु अपने वंश की सत्ता सुदृढ़ बनाने का श्रेय इन्द्र । को ही है। कुछ की धारणा है कि यह गुर्जर चालुक्य मगलरस का सामन्त था। संजन ताम्रपत्रों से पता चलता है कि उसने अपने स्वामी चालुक्य नरेश की पुत्री भवनागा के साथ राक्षस विवाह कर लिया था।
(2) दन्तिदुर्ग 1 – इन्द्र 1 की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र दन्तिदुर्ग राजगद्दी पर आसीन हुआ। दन्तिदुर्ग अत्यन्त वीर एवं महत्त्वाकांक्षी शासक था। राष्ट्रकूट साम्राज्य को शक्तिशाली बनाने एवं प्रदान कराने का श्रेय दन्तिदुर्ग को ही है। दन्तिदुर्ग अत्यन्त दूरदर्शी भी था। उसने अपने चाचाओं व कृष्ण और ननराज का विश्वास प्राप्त किया तथा भतीजे क द्वितीय को अपना समर्थक बनाया। अल्तेकर ने उसकी अत्यन्त प्रशंसा की है।
दन्तिदुर्ग पराक्रमी होने के साथ-साथ कूटनीतिज्ञ भी था। दन्तिदुर्ग ने शासक बनते ही तत्कालीन राजनीतिक स्थिति का अध्ययन किया तथा उसके अनुरूप ही योजना बनायी। योजना बताने समय दन्तिदुर्ग ने इस बात का ध्यान रखा कि उसके राज्य का विस्तार इस प्रकार से हो कि उसके स्वामी चालुक्य राजा से उसका कम से कम प्रतिवाद हो । अतः उसने पूर्व एवं पश्चिम में अपने साम्राज्य का विस्तार करने का प्रयत्न किया।
दन्तिदुर्ग ने अपने शासनकाल में अनेक स्थानों पर विजय प्राप्त की। दन्तिदुर्ग की विजयों का उल्लेख समगंद प्लेट तथा एलोरा की दशावतार गुफा के अभिलेखों में मिलता । प्रारम्भ में दन्तिदुर्ग चालुक्य शासक का सामन्त था। 742 ई० के एलोरा अभिलेख में उसे महासामन्ताधिपति कहा गया है। 747 ई० में चालुक्य राज विक्रमादित्य द्वितीय की
क्योंकि 754 ई० के समगद प्लेट में उसे महाराजाधिराज कहा गया है। अतः दन्तिदुर्ग की
दक्षिण- राष्ट्रकूट और उनके समकालीन मृत्यु के पश्चात् किसी समय दन्तिदुर्ग ने राष्ट्रकूटों के स्वतन्त्र राज्य की घोषणा की होगी,
विभिन्न विजयों में कुछ उसने चालुक्यों के सामन्त के रूप में तथा शेष स्वतन्त्र शासक के रूप में प्राप्त की होगी। (3) कृष्ण 1- दन्तिदुर्ग की मृत्यु के पश्चात् उसका चाचा प्रथम राजसिंहासन पर आसीन हुआ। कुछ इतिहासकारों का मत है कि कृष्ण प्रथम अपने भतीजे दन्तिदुर्ग की हत्या करके शासक बना था, किन्तु ऐसा मानना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।
कृष्ण प्रथम ने गंग शासक श्रीपुरुष पर आक्रमण करके उसे परास्त किया। कृष्ण ने वेंगी के चालुक्य शासक विष्णुवर्धन पर आक्रमण करने युवराज गोविन्द को भेजा। युवराज गोविन्द ने विष्णुवर्धन को परास्त करके हैदराबाद के विस्तृत भू-भाग पर अधिकार कर लिया। कृष्ण प्रथम ने कोंकण पर भी विजय प्राप्त करके अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। कृष्ण प्रथम एक विजेता ही नहीं, एक बड़ा निर्माता भी था। कृष्ण प्रथम ने ब्राह्मणों को दान देने के अतिरिक्त विशाल एवं सुन्दर मन्दिरों का निर्माण करवाया। कृष्ण प्रथम ने ही एलोरा में गुफा काटकर कैलाश मन्दिर का निर्माण कराया। स्मिथ ने इस मन्दिर की अत्यन्त प्रशंसा की है। एलोरा से केवल 01 किमी. दूर वेरुल गाँव में घृणेश्वर मन्दिर (जिसमें ज्योतिलिंग स्थापित है) भी इसी ने बनवाया था। 773 ई० में कृष्ण प्रथम की मृत्यु
हो गयी।
(4) गोविन्द II – कृष्ण प्रथम की मृत्यु के पश्चात् कृष्ण प्रथम के द्वारा ही घोषित युवराज गोविन्द शासक बना। अपने राज्याभिषेक के समय उसने ‘प्रतापावलोक’, विक्रमावलोक तथा प्रभूतवर्ष आदि उपाधियों धारण की। यद्यपि युवराज के रूप में गोविन्द द्वितीय ने वेंगी के शासक को परास्त करके यश अर्जित किया था, किन्तु शासक बनने के उपरान्त वह भोगविलास में व्यस्त हो गया तथा शासन कार्य का भार अपने भाई ध्रुव पर छोड़ दिया । ध्रुव ने इस अवसर से लाभ उठाते हुये गोविन्द द्वितीय के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया।
(5) ध्रुव-अपने भाई गोविन्द द्वितीय को शक्ति से हटाकर लगभग 780 ई० में
ध्रुव राजसिंहासन पर आसीन हुआ। अपने राज्याभिषेक के अवसर पर ध्रुव ने ‘धारावर्ष’
तथा ‘निरूपम’ आदि विरुद धारण किये। बाद में अनेक विजयों के कारण उसे ‘कलिवल्लभ’
भी कहा गया है। ध्रुव अत्यन्त पराक्रमी शासक था। उसने अपने राज्याभिषेक के पश्चात् अनेकों युद्ध लड़े तथा विजयें प्राप्त कीं।
(6) गोविन्द III- ध्रुव के चार पुत्र थे-कर्क, स्तम्भ, गोविन्द तथा इन्द्र ध्रुव के समक्ष सबसे बड़ी समस्या अपना उत्तराधिकारी चुनने की थी। कर्क की तो ध्रुव के शासनकाल में मृत्यु हो गयी। अतः स्तम्भ ही सबसे बड़ा राजकुमार था किन्तु ध्रुव गोविन्द की क्षमता तथा सैन्य कुशलता से अधिक प्रभावित था। अतः उसने अपने जीवनकाल में ही गोविन्द तृतीय को युवराज घोषित कर दिया। उत्तराधिकार के लिये संघर्ष को रोकने के
उद्देश्य से ध्रुव ने अपने बड़े पुत्र को गंगवाड़ी का स्वतन्त्र राजा बना दिया। 793 ई० में गोविन्द तृतीय का राज्याभिषेक हुआ। राज्याभिषेक के अवसर पर गोविन्द तृतीय ने ‘प्रभूतवर्ष’ तथा ‘जगत्तुंग’ विरुद धारण किये।
(i) उत्तराधिकार का युद्ध-यद्यपि ध्रुव ने इस बात का प्रयत्न किया था कि उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्रों में सिंहासन पर अधिकार करने हेतु युद्ध न हो, किन्तु उसके प्रयत्न असफल प्रमाणित हुये। ध्रुव का बड़ा पुत्र इस बात को सहन न कर सका कि उसका
छोटा भाई गोविन्द राष्ट्रकूट साम्राज्य का शासक बने। अत: स्तम्भ ने अपने बारह पड़ोसी
राजाओं का एक संघ बनाया। स्तम्भ की इस योजना की सूचना गोविन्द को प्राप्त हो गयी
गोविन्द तृतीय ने गंगवाड़ी के राजकुमार शिवमार (जिसे ध्रुव ने कैद किया था) को मुक्त कर दिया ताकि उसे गंगवाड़ी के सिहासन पर नियुक्त कर सके, किन्तु शिवमार भी स्तम्भ के साथ मिल गया। गोविन्द अत्यन्त वीर एवं कुशल सेनापति था। वह इस स्थिति से भयभीत न हुआ तथा उसने शासन का कार्य अपने छोटे भाई इन्द्र को सौंप कर तेजी से स्तम्भ पर आक्रमण किया। इससे पूर्व कि स्तम्भ अपने मित्रों से सहायता ले पाता गोविन्द ने उसे परास्त कर
बन्दी बना लिया। गोविन्द ने स्तम्भ के प्रति दया तथा सहानुभूति प्रदर्शित करते हुये पुनः
गंगवाड़ी का राजा बना दिया।
इसके पश्चात् गोविन्द ने उन राजाओं पर आक्रमण किये जिन्होंने स्तम्भ को सहायता देने का प्रयत्न किया था। शिवमार को पुनः बन्दी बना लिया गया। शिवमार के भाई विनयादित्य ने संघर्ष जारी रखने का प्रयत्न किया, किन्तु वह असफल रहा। गोविन्द तृतीय ने इसके पश्चात्, नोलंबबाड़ी के शासक चरुपोन्नेर पर आक्रमण किया। वरूपोन्नेर ने आत्मसमर्पण कर दिया। तत्पश्चात् राष्ट्रकूट सेनाओं ने कांची के पल्लव
शासक दर्निंग पर आक्रमण किया तथा उसे भी परास्त किया।
(ii) उत्तर भारत का अभियान- दक्षिण के इस विजय अभियान के परिणामस्वरूप गोविन्द तृतीय दक्षिण का सम्राट वन गया। दक्षिण भारत पर अधिकार करने के पश्चात् गोविन्द तृतीय ने अपने पिता ध्रुव के समान उत्तर भारत की ओर ध्यान दिया। गोविन्द तृतीय के समकालीन प्रतिहार तथा पाल शासक नागभट्ट द्वितीय तथा धर्मपाल थे। इस समय तक नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया था। नागभट्ट इस समय तक अत्यन्त शक्तिशाली हो चुका था तथा राष्ट्रकूटों के प्रभाव
क्षेत्र गुजरात और मालवा पर अधिकार करने का स्वप्न देख रहा था, इसलिए गोविंद तृतीय ने
शीघ्र ही उस पर आक्रमण किया। संजन ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि गोविन्द ने “नागभट्ट
युद्ध में हर लिया।” राधनपुर अभिलेख में भी नागभट्ट द्वितीय की गोविन्द
तृतीय से पराजय का उल्लेख है। गोविन्द तृतीय ने नागभट्ट को सम्भवतः 802 ई0 के
लगभग परास्त किया था।
इसके पश्चात् गोविन्द तृतीय ने धर्मपाल पर आक्रमण किया, किन्तु धर्मपाल ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस पर गोविन्द तृतीय नागभट्ट को पराजित कर, चक्रायुद्ध तथा धर्मपाल को आत्मसमर्पण के लिये विवश कर अपने राज्य लौट गया। गोविन्द तृतीय के उत्तर भारत के अभियान का उद्देश्य भूमि-विस्तार नहीं वरन् यश-विस्तार था। उसका यह अभियान एक तरफ से दिग्विजय के समान था।
(ii) मध्य भारत पर विजय-मंजन लेख से ज्ञात होता है कि गोविन्द तृतीय ने उत्तर से लौटते समय मध्य भारत के अनेक राजाओं पर भी विजय प्राप्त की। संजन लेख के अनुसार उसने (गोविन्द तृतीय) नर्मदा के तट के साथ-साथ आते हुये मालवा, कोशल, बंग
अथवा वेंगी, दाहल तथा ओद्रक इत्यादि प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। (iv) दक्षिणी राज्य के संघ पर विजय गोविन्द तृतीय उत्तरी भारत पर आक्रमण के समय दीर्घकाल तक दकन से बाहर रहा था। गोविन्द तृतीय की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर दक्षिणी भारतीय शासकों ने उसके विरुद्ध एक संघ बनाया। इस संघ में पल्लव,
केरल, पाण्ड्य तथा गंग आदि शासक सम्मिलित थे। इस संघ ने शीघ्र ही राष्ट्रकूट साम्राज्य
और उसके सा
कर दिया। गोविन्द को जब इस आक्रमण की सूचना मिली तो वह शीघ्र अपने को लोटा तथा उसने इसकी सम्मिलित सेना को 802 ई० अथवा 803 किया हो उसने आगे बढ़ते हुवे काभी पर भी अधिकार कर लिया। (1) लंका पर गोविन्द तृतीय की निरन्तर बढ़ती हुयी शक्ति तथा विजय से होकर लंका के शासक ने गोविन्द तृतीय का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। लंका के शासक गोविन्द तृतीय को दो मूतियों भेंट के रूप में दीं।
गोविन्द तृतीय के शासनकाल में राष्ट्रकूट साम्राज्य सफलता की पराकाष्ठा तक पहुँच था की अदभुत सफलता का मुख्य कारण उसमें निहित संगठन की अपूर्व क्षमता तथा उसका एक पराक्रमी योद्धा, कुशल सेनापति तथा कूटनीतिज्ञ होना था। जिस प्रकार अपने बड़े भाई स्तम्भ को अपनी ओर मिलाया वही उसकी सफल कूटनीतिका योतक है। गोविन्द तृतीय सदैव सक्रिय रहने में विश्वास रखता था तथा विपत्तियों की चिन्ता न करते हुये सीधे युद्ध में कूदना उसका स्वभाव था। इन्हीं कारणों से उसकी तुलना राष्ट्रकूट अभिलेखों में अर्जुन से की गयी है। गोविन्द तृतीय ने सम्पूर्ण भारत में विभिन्न स्थानों पर युद्धों में अनेक शक्तिशाली शासकों को परास्त कर स्वयं को राष्ट्रकूट वंश का सबसे प्रतापी एवं शक्तिशाली शासक प्रमाणित किया। ए० एस० अल्लेकर गोविन्द के विषय में लिखा है, “निसन्देह गोविन्द तृतीय राष्ट्रकूट शासकों में योग्यतम था। साहस, रणकौशल, राजकौशल एवं सैन्य कार्यों में अतुलनीय था। उसकी अजेय सेवाओं ने कन्नौज से कुमारी अन्तरीप तथा बनारस एवं भड़ोंच पर विजय प्राप्त की बोगी पर उसके द्वारा मनोनीत व्यक्ति ही राज्य कर रहा था। सुदूर दक्षिण के द्रविड़ शासकों की शक्ति पूर्णतः नष्ट हो चुकी थी। यहाँ तक कि लंका का राजा भी भयभीत होकर आत्मसमर्पण के लिये उद्यत हो गया था। उसके बाद राष्ट्रकूट साम्राज्य की प्रतिष्ठा कभी इतने उच्च शिखर तक नहीं पहुंची।”
गोविन्द तृतीय की 814 में मृत्यु हो गयी। (7) अमोघवर्ष 1- गोविन्द तृतीय की मृत्यु के पश्चात् उसका अल्पवयस्क पुत्र शर्व राजसिंहासन पर आसीन हुआ। अपने राज्याभिषेक के समय उसने ‘अमोघवर्ष’ की उपाधि धारण की। वह अपने नाम (शर्व) से अधिक अमोघवर्ष के नाम से प्रसिद्ध है। अल्पवस्क होने के कारण उसके पिता गोविन्द तृतीय ने उसके चचेरे भाई कर्क को उसका अभिभावक नियुक्त किया था।
(i) गंगवाड़ी स्वतन्त्र – अमोघवर्ष के अल्पवयस्क होने से प्रोत्साहित होकर शीघ्र ही सम्पूर्ण राष्ट्रकूट- साम्राज्य में विद्वाह होने लगे। गंगवाड़ी (मैसूर) के शासक ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दो। अमोघवर्ष इसे पुनः अपने अधीन करने में असफल रहा। अमोघवर्ष ने अपनी पुत्री का विवाह गंगवाड़ी के एक राजकुमार के साथ करके गंगवाड़ी के शासक से मित्रता कर ली।
(i) वेगी राज्य झारा विद्रोही के शासक विक्रमादित्य ने भी राष्ट्रकूट नरेश पर आक्रमण किया तथा अमोघवर्ष को पराजित किया। अमोघवर्ष को विवश होकर अपना राज्य छोड़कर भागना पड़ा। भागना तो हुमायूँ को भी पड़ा था और इंग्लैण्ड के चार्ल्स ।। को भी पर इन्होंने अपनी तब्दीर से पुनः राज्य प्राप्त किया। इसी प्रकार 821 ई0 के लगभग अमोघवर्ष ने भी अपना साम्राज्य पुनः अपने अधिकार में ले लिया। तत्पश्चात् अमोघवर्ष ने अपने साम्राज्य को शक्तिशाली बनाया तथा वेंगी के चालुक्य शासक को उसने परास्त किया। डॉ० आकर का विचार है कि अमोघवर्ष को यह सफलता 860 ई० में प्राप्त हुयी थी।
(ii) प्रतिहारों का आक्रमण अमोघवर्ष की दुर्बलता तथा उसके निरन्तर बुद्धों में व्यस्त होने से लाभ उठाकर प्रतिहार वंश के प्रतापी शासक मिहिरभोज ने उज्जैन प्रदेश पर
अधिकार कर लिया, किन्तु भोज की यह विजय स्थायी नहीं थी। राष्ट्रकूटों के सामन्त ध्रुव ने शीघ्र हो भोज को परास्त किया। इसकी पुष्टि वगुमरा लेख से होती है। (iv) अन्य विजये-सिरूर लेख से ज्ञात होता है कि अंग, वंग, मगध तथा मालवा के राजा अमोघवर्ष के अधीन थे, किन्तु निश्चित प्रमाणों के अभाव में इसे विश्वसनीय नहीं
माना जा सकता।
अमोघवर्ष के शासनकाल की प्रमुख घटना मान्यखेट नामक नगर की स्थापना थी। अमोघवर्ष ने अपनी राजधानी भी मान्यखेट को ही बनाया।
इस प्रकार स्पष्ट है कि अमोघवर्ष का शासनकाल सैनिक दृष्टिकोण से सफल न था किन्तु अमोघवर्ष एक शासक के रूप में सफल रहा। अल्तेकर ने लिखा है, “राज्य में शान्ति और व्यवस्था के पुनः संस्थापक, कला और साहित्य के प्रेरक, अपने सिद्धान्त पर चलने वाले और जनहित के लिये वलिदान में अपने शरीर का एक अंग देने से भी न चूकने वाले शासक के रूप में अमोघवर्ष का नाम सदैव याद रहेगा।”
अमोघवर्ष सम्भवतः जैन मतावलम्बी था। वह दूसरे धर्मों के प्रति उदार था। वह
स्वयं उच्च कोटि का विद्वान् तथा लेखक था। ‘कविराजमार्ग’ उसकी रचना है। जिनसेन,
महावीराचार्य, शकटासेन आदि ने उसके दरबार को सुशोभित किया था। 878 ई० में
अमोघवर्ष की मृत्यु हो गयी। (8) कष्ण II – अमोघवर्ष के पश्चात् उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय शासक बना। अपने
राज्याभिषेक के समय उसने ‘अकालवर्ष’ तथा ‘शुभतुंग’ उपाधियाँ धारण कीं । राष्ट्रकूट अभिलेखों में कृष्ण द्वितीय को महान् विजेता बताया गया है। राष्ट्रकूट अभिलेखों के अनुसार, ‘उसकी आज्ञाओं का पालन अंग, वंश, कलिंग, गंग तथा कोशल के शासक करते थे।’ राष्ट्रकूट अभिलेखों का यह उल्लेख अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होता है।
कृष्ण द्वितीय को अपने राज्यकाल में निरन्तर युद्धों में व्यस्त रहना पड़ा था। उत्तर में उसने
प्रतिहारों तथा गुजरात के राष्ट्रकूटों तथा दक्षिण में गंगों, नीलम्बों, पूर्व में वेंगी के चालुक्यों
से युद्ध लड़े। वारतों-संग्रहालय के एक खण्डित अभिलेख से ज्ञात होता है कि भोज ने कृष्ण
द्वितीय को परास्त किया था। कृष्ण द्वितीय के शासनकाल में ही पूर्वी चालुक्य शासक
विजयादित्य तृतीय एवं भीम प्रथम ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी थी। कृष्ण द्वितीय
गंगवाड़ी (मैसूर) राज्य को भी पुनः राष्ट्रकूट साम्राज्य में मिलाने में असफल रहा। कृष्ण द्वितीय भी सैनिक दृष्टि से एक सफल शासक न था, यद्यपि उसके श्वसुर चेदि शासक कोक्कल ने उसे समय-समय पर बहुत सहायता दी थी। अल्लेकर ने ठीक ही लिखा है कि वह अपने पिता की भाँति योग्य तथा प्रतिभा सम्पन्न शासक न था ।
कृष्ण द्वितीय भी जैन धर्मावलम्बी था। उसका गुरु गुणभद्र था। उसकी मृत्यु 914 ई० में हुयी। (9) इन्द्र III – कृष्ण द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पौत्र इन्द्र तृतीय राष्ट्रकूट
राजसिंहासन पर आसीन हुआ। राज्याभिषेक के अवसर पर उसने ‘नित्यवर्ष’ की उपाधि
धारण की। इन्द्र तृतीय अत्यन्त सुन्दर था, अतः उसे ‘रट्टकंदर्प’ भी कहते थे। इन्द्र तृतीय एक अत्यन्त पराक्रमी योद्धा था। इन्द्र तृतीय ने प्रतिहार शासक महीपाल प्रथम पर आक्रमण किया। गोविन्द चतुर्थ के खम्भात अभिलेख के अनुसार, “मदस्रावी हाथियों के दांतों की चपेट से कालप्रिय (उज्जैन के महाकाल) मन्दिर का मण्डल क्षेत्र ऊबड़-खाबड़ हो गया। उसके घोड़ों ने ‘सिन्धु प्रतिस्पर्द्धिनी’ और तलहीन यमुना नदी को पार किया और उसके कुशस्थल नाम से प्रसिद्ध नगर (कन्नौज) को समूल उखाड़ फेंका।
दक्षिण-राष्ट्रकूट और उनके समकालीन
कालय मन्दिर के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि इन्द्र ने उज्जैन होते हुये प्रतिहार साम्राज्य पर आक्रमण किया था, किन्तु अधिकांश विद्वानों का विचार है कि इन्द्र तृतीय के आक्रमण का मार्ग उज्जैन होकर नहीं वरन् भोपाल, झाँसी तथा कालपी से होकर था तथा कालप्रिय देवता की पहचान उज्जैन के महाकाल से न करके कालपी के सूर्य (कालप्रिय) मन्दिर से। करनी चाहिये। इन्द्र तृतीय का प्रतिहारों पर यह आक्रमण 915 ई०-918 ई० में मध्य हुआ। इन्द्र तृतीय के एक सेनापति श्रीविजय ने दक्षिण में भी कुछ स्थानों पर विजय प्राप्त
की थी। इन्द्र एक अल्पकालीन था। अतः वह राष्ट्रकूट साम्राज्य को पुनः सशक्त न बना सका। इन्द्र की मृत्यु 928 ई० में हुयी।
* (10) अमोघवर्ष II – इन्द्र तृतीय के पश्चात् उसका पुत्र अमोघवर्ष द्वितीय शासक बना अधिकांश राष्ट्रकूट अभिलेखों में इस बात का उल्लेख है कि अमोघवर्ष द्वितीय को अपने पिता से अत्यधिक प्रेम था। इन्द्र तृतीय की मृत्यु के सदमे को अमोघवर्ष सहन न अप सका तथा पिता की मृत्यु के लगभग एक वर्ष बाद उसकी भी मृत्यु हो गयी। कुछ कहते हैं कि उसके छोटे भाई गोविन्द IV ने उसकी हत्या की थी अथवा उसे पदच्युत कर दिया था। सच जो भी हो, उसके शासनकाल में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं हुयी ।
(11) गोविन्द IV – अमोघवर्ष की मृत्यु के पश्चात् उसका भाई गोविन्द चतुर्थ शासक बना। उसने राज्याभिषेक के समय ‘प्रभूतवर्ष’ की उपाधि धारण की। बहु अत्यन्त विलासी शासक प्रमाणित हुआ। उसने राष्ट्रकूट साम्राज्य की सुरक्षा की ओर कोई ध्यान न दिया। प्रतिहार शासकों ने पुनः कन्नौज पर अधिकार कर लिया। विवश होकर राष्ट्रकूट साम्राज्य * मन्त्रियों तथा सामन्तों ने उसका विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। इसी समय चालुक्य सामन्त अरिकेसरिन से गोविन्द चतुर्थ का युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में गोविन्द पराजित हुआ। अरिकेसरिन ने राष्ट्रकूट-साम्राज्य गोविन्द के चाचा अमोघवर्ष को सौंप दिया।
(12) अमोघवर्ष 11 – अमोघवर्ष 936 ई० में राष्ट्रकूट-साम्राज्य का शासक बना। अमोघवर्ष का वास्तविक नाम बड्डेग था किन्तु वह अमोघवर्ष के नाम से ही अधिक प्रख्यात है। अमोघवर्ष अत्यन्त धार्मिक व्यक्ति था तथा सारा समय आध्यात्मिक चिन्तन में ही व्यतीत करता था। अमोघवर्ष का पुत्र कृष्ण ही राज्य का समस्त कार्य देखता था। राजकीय कार्यों की देखभाल में कृष्ण की उसके भाई जगतुंग ने बहुत सहायता की।
कृष्ण की वहिन का विवाह गंग-वंश के एक राजकुमार बूग से हुआ था। कृष्ण ने गंग शासक राजमल्ल को हटाकर अपने बहनोई बटुग को राजगद्दी पर बैठाने के उद्देश्य से गंग साम्राज्य पर आक्रमण किया तथा राजमल्ल की हत्या करके बूटुग को 937 ई० में गंग का शासक बनाया।
1938 ई० में कृष्ण ने चेदियों पर आक्रमण किया तथा उन्हें परास्त किया।
इसके पश्चात् कृष्ण ने गुर्जर प्रतिहारों पर आक्रमण करके कालिंजर तथा चित्रकूट के किलों पर अधिकार कर लिया। अमोघवर्ष की 939 ई० में मृत्यु हुयी। (13) कृष्ण III – अमोघवर्ष की मृत्यु के पश्चात् 939 ई० में राजसिंहासन पर बैठा।
अपने पिता के शासनकाल में युवराज के रूप में प्राप्त की गयी विजयों से उसने अपार
सम्मान प्राप्त किया था। कृष्ण तृतीय ने वंश की परम्परा के अनुसार राज्याभिषेक अवसर
पर ‘अकालवर्ष’ की उपाधि धारण की।
(i) चोलों पर विजय कृष्ण तृतीय ने अपने बहनोई गंगवाड़ी के राजा के साथ मिलकर 943 ई० में चोल साम्राज्य पर आक्रमण किया तथा कांची तथा तंजौर पर अधिकार
कर लिया। कुछ वर्षों के पश्चात् चोल शासक परान्तक ने युवराज राजादित्य के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना राष्ट्रकूटों पर आक्रमण हेतु भेजी। दोनों सेनाओं का सामना तक्कोलम नामक स्थान पर हुआ। गंगवाड़ी के शासक बूटुग ने भी इस युद्ध में कृष्ण तृतीय की सहायतार्थ भाग लिया। बुदुग ने युद्ध में राजादित्य को मार दिया था। युवराज राजादित्य की मृत्यु से चोल सेना में भगदड़ मच गयी तथा राष्ट्रकूटों की विजय हुयी।
(ii) केरल तथा पाण्ड्यों पर विजय तथा लंका को भयभीत करना- चोलों पर प्राप्त विजय से उत्साहित होकर कृष्ण तृतीय ने केरल तथा पाण्ड्य शासकों को भी परास्त किया। उसने रामेश्वरम् पर भी अधिकार कर लिया। लंका का राजा भी भयभीत होकर उसके समक्ष नतमस्तक हो गया। (iii) कलचुरि नरेश से बुद्ध कहते हैं उसने कलचुरि युवराज प्रथम को हराया था।
पर युवराज ने अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया था।
(iv) उत्तर भारत में विद्रोह – कृष्ण तृतीय को दक्षिण भारत में व्यस्त देखकर बुन्देलखण्ड के चन्देल शासकों ने कालिंजर तथा चित्रकूट के किलों पर अधिकार कर लिया। मालवा के परमार शासक सीयक ने भी अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी, किन्तु कृष्ण ने उस पर आक्रमण किया।
(v) वेंगी पर विजय कृष्ण ने उस पर आक्रमण किया तथा उसे परास्त किया तथा बाडप को वहाँ राष्ट्रकूटों के सामन्त के रूप में नियुक्त किया। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि कृष्ण एक योग्य एवं पराक्रमी शासक था । तथापि
उत्तरी भारत में उसे इतनी सफलता नहीं मिली किन्तु सम्पूर्ण दक्षिण भारत पर उसने अपना
आधिपत्य स्थापित किया। अनेकर ने उसे राष्ट्रकूट वंश का अन्तिम योग्य सम्राट कहा है।
967 ई० में कृष्ण तृतीय की मृत्यु हो गयी। (14) खोट्टिग – कृष्ण तृतीय की मृत्यु के पश्चात् राष्ट्रकूट साम्राज्य का शासक कृष्ण तृतीय का भाई खोड़िग बना। अपने राज्याभिषेक के अवसर पर उसने ‘नित्यवर्ष’ की उपाधि धारण की।
खोडिग के शासनकाल के प्रारम्भिक वर्ष तो शान्तिपूर्वक बीते, किन्तु शीघ्र ही परमार
शासक सीयक ने राष्ट्रकूटों पर आक्रमण किया। 927 ई० में सीयक ने राष्ट्रकूट शासक को
परास्त करके राजधानी मान्यखेट को लूटा। खोट्टिग को इस पराजय से अत्यधिक अपमान
का सामना करना पड़ा था। शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गयी। (15) कर्क 11 – खोडिग के पश्चात् उसका भतीजा कर्क सितम्बर 972 ई० में शासक बना। कर्क द्वितीय ने अभिषेक के समय ‘अमोघवर्ष’ उपाधि धारण की।
कवर्क का सिर्फ एक ही अभिलेख प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख में कहा गया है कि हूण और गुर्जर उससे भयभीत थे तथा कर्क ने पाण्ड्यों और चोलों के गर्व को चूर किया था। इस अभिलेख का उपरोक्त वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि जिस समय यह अभिलेख लिखा गया था तब कर्क को राजगद्दी पर बैठे सम्भवतः एक माह ही हुआ था। कर्क के शासनकाल में राष्ट्रकूट राज्य शक्तिहीन हो चुका था जिसका लाभ उठाते राष्ट्रकूटों के ही सामन्त चालुक्य तैलप द्वितीय ने कर्क को परास्त कर राष्ट्रकूट साम्राज्य पर अधिकार कर लिया।
इस प्रकार कर्क द्वितीय के पतन के साथ ही राष्ट्रकूट वंश का पतन हो गया।
दक्षिण भारत-चोल और उनके समकालीन
[SOUTH INDIA-CHOLA AND THEIR CONTEMPORARIES]
“राजराज चोल दक्षिण भारत के महानतम सम्राटों में से एक था। यह एक विख्यात विजेता तथा साम्राज्य निर्माता था।” सथिया नाथियर “कुल के राज्याभिषेक से चोल साम्राज्य के इतिहास में एक नया युग प्रारम्भ होता है।” -नीलकण्ठ शास्त्री
प्रश्न – चोल वंश के उत्थान व पतन का वर्णन कीजिये।
Describe the rise and fall of the Chola dynasty,
उत्तर-
चोल शासक (Chola Rulers)
(1) विजयालय नवीं शताब्दी के मध्य में चोलों का पुनः उदय तथा उनका शक्तिशाली अस्ता दक्षिण भारत के इतिहास की एक प्रमुख घटना है। चोलवंशीय विद्यालय जो कि उस समय पल्लवों का सामन्त था, ने चोलों के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। विजयालय ने पल्लव व पाण्डयों के मध्य हो रहे युद्ध से लाभ उठाया तथा तंजौर पर अधिकार कर लिया। विजयालय ने तंजौर में दुर्गा के एक मन्दिर का निर्माण कराया। विजयालय की 871 ई० में मृत्यु हो गयी।
(2) आदित्य 1-विजयालय के पश्चात् उसका पुत्र आदित्य प्रथम शासक बना। सिंहासनारोहण के समय आदित्य भी पल्लवों का ही सामान्त था।
आदित्य प्रथम के शासनकाल में ही पाण्ड्य शासक वरगुणवर्मन द्वितीय ने पल्लव साम्राज्य पर आक्रमण किया, किन्तु पल्लव व गंग शासकों के साथ मिलकर आदित्य प्रथम ने पाण्ड्यों को परास्त किया। पल्लव शासक ने आदित्य प्रथम से प्रसन्न होकर उसे अनेक प्रदेश उपहारस्वरूप प्रदान किये।
आदित्य प्रथम इतने से सन्तुष्ट न हुआ। वह एक शक्तिशाली एवं महत्त्वाकांक्षी शासक था। वह एक स्वतन्त्र चोल साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था, अतः उसने पल्लवों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया व पल्लव शासक अपराजित को परास्त कर उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार आदित्य प्रथम न केवल स्वयं स्वतन्त्र हो गया वरन् उसने सम्पूर्ण पल्लव-साम्राज्य पर अधिकार कर अपने राज्य की सीमाओं का राष्ट्रकूटों की सीमाओं तक विस्तार किया। लव राज्य पर आदित्य प्रथम ने सम्भवतः 8900 ई० में अधिकार किया।
पल्लवों के विरुद्ध इस अभियान में गंग शासक ने आदित्य प्रथम की सहायता की थी। इस विजय के पश्चात् गंग शासक ने आदित्य प्रथम की आधीनता स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् आदित्य प्रथम ने पाण्ड्य नरेश परान्तक वीरनारायण पर आक्रमण किया तथा कोंगू
प्रदेश पर अधिकार कर लिया। कोंगू पर अधिकार करने के पश्चात् आदित्य प्रथम ने। के साथ मित्रता की और अपने पुत्र का विवाह र राजकुमारी के साथ किया। प्रथम ने अनेक मन्दिरों का भी निर्माण कराया। वह शेव धर्मावलम्बी था। आदित्य, की मृत्यु 907 ई० में हुई। (3) परान्तक – आदित्य प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र परान्तक प्रथम राज्य पर बैठा। अपने पिता के समान परान्तक प्रथम भी अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी शासक था। शासनकाल के प्रारम्भ में राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय ने अपने नाती कन्नरदेवको
सिंहासन पर बैठाने की कोशिश की थी किन्तु परान्तक ने उसे विफल कर दिया। (i) पाण्ड्यों से युद्ध-अपने साम्राज्य के विस्तार के उद्देश्यों से परान्तक प्रथम सर्वप्रथम पाण्ड्यों पर आक्रमण किया व पाण्ड्य शासक राजसिंह द्वितीय को परास्त ‘मदुर्रकोण’ (मदुरे का विजेता) की उपाधि धारण की। पाण्ड्य शासक ने परान्तक के लंका के शासक कस्सप पंचम से सहायता मांगी। कस्सप पंचम ने राजसिंह द्वितीय सहायतार्थ सेना भेजी, परन्तु परान्तक प्रथम ने दोनों की सम्मिलित सेनाओं को वेलूर के युद में परास्त किया। वह युद्ध सम्भवतः 915 ई० के लगभग हुआ था। राजसिंह पाण्ड्य राज्य छोड़कर लंका भाग गया। पाण्ड्य राज्य पर परान्तक प्रथम ने अधिकार कर लिया। परान्तक प्रथम व जयसिंह के मध्य हुये इस युद्ध का विस्तृत वर्णन महावंश में मिलता है।।
(ii) लंका पर आक्रमण पाण्ड्य राज्य पर अधिकार करने के कुछ वर्षों: परान्तक प्रथम ने लंका पर आक्रमण किया। उस समय लंका का शासक उदय चतु इस आक्रमण में परान्तक को सफलता न प्राप्त हुयी। (i) वाणों पर विजय परान्तक के नवें राज्यवर्ष को सोलिंगर उपरान
से परान्तक की बाणों व वैदुम्बों पर विजय का पता चलता है।
(iv) राष्ट्रकूटों से युद्ध-परान्तक प्रथम के शासन के प्रारम्भिक वर्षों में कृष्ण द्वितीय ने चोल-साम्राज्य पर आक्रमण किया था, किन्तु कृष्ण द्वितीय असफल रहा था, किन्तु 94 ई० के लगभग कृष्ण तृतीय ने परान्तक पर आक्रमण किया तथा तक्कोलम नामक स्थान पर दोनों का सामना हुआ। इस युद्ध में गंग शासक बूतुग ने भी कृष्ण का साथ दिया था। भीषण युद्ध के पश्चात् परान्तक प्रथम पराजित हुआ व उसका पुत्र राजादित्य मारा गया। इस पराजय से चोल साम्राज्य को अत्यधिक हानि हुयी बोल-साम्राज्य समाप्त हो गय परान्तक प्रथम की 955 ई० में मृत्यु हो गयी।
परान्तक प्रथम की मृत्यु के दस्तावेज व राजराज प्रथम के सिंहासनारोहण के बीच का समय चोल साम्राज्य के पतन का काल था। इस काल में चोल साम्राज्य का निरंतार हम हुआ। परान्तक प्रथम के पुत्र उनके पुत्र गदरादित्य और तत्पश्चात् क्रमशः अरिजेय परान्तक II (957 ई0-973 ई0), उत्तम चोल आदि शासकों ने शासन किया। उत्तम वाणी तथापि अपने साम्राज्य का विस्तार करने का प्रयास किया, चालुक्य तैलप द्वितीय के कारण वह सफल न हो सका।
(4) राजराज 1- करीब 985 ई० में राजराज, जिसका प्रारम्भिक नाम अरुमतिर्मन सिंहासनारूद हुआ। सिंहासनारूढ़ होने पर उसने ‘राज’ की उपाधि धारण की। इसके सिंहासनारूढ़ होते ही चोल वंश का अति भव्य युग आरम्भ हुआ। वह बड़ा ही प्रतापी पराक्रमी और महान् विजेता था। उसके राज्याभिषेक के समय चोल शक्ति छिन्न-भिन्न और दुरावस्था युक्त थी। उसने राजा बनते ही आक्रामक साम्राज्यवादी नीति अपनायी और त साम्राज्य को सुदृढ़ तथा विस्तृत बनाने का प्रयास कर चोल वंश का पुनरुद्धार किया उसे गौरव प्रदान किया। तथा
विजय भारत-बोल और उनके समकालीन राजवंश ने शासन सूत्र सम्हालते ही अपनी स्थल तथा जल सेना को सुसंगठित करके अभियान आरम्भ किया। उपलब्धियां या घटनायें (1) चरों से संघर्ष-सर्वप्रथम
से हुआ। राजराज राजराज का संघर्ष र राजा ने चेरों के जहाजी बेड़े को कन्दलूर ने नष्ट कर दिया। (2) पाण्ड्यों पर आक्रमण-राजराज ने चेरों के बाद पाण्डयों पर आक्रमण कर अमर भुजंग को बन्दी बनाया। पर भी आक्रमण कर दिया और
उन पर विजय प्राप्त की। तथा कुर्ग (4) लंका पर आक्रमण-लंका नरेश पाण्ड्यों का मित्र था सो राजराज ने लंका (कुडमल) नरेश महेन्द्र V पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया। महेन्द्र अपनी राजधानी अनुराधपुर छोड़कर दक्षिण-पूर्वी लंका की ओर भाग गया। चोलों की सेना ने अनुराधपुर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और उत्तरी लंका पर अपना अधिकार कर लिया। राजराज ने पोलोन्नरुव को अपने अधिकृत प्रदेश अर्थात् उत्तरी लंका को राजधानी बना लिया। (5) गणराज्यों से युद्ध-लंका विजय के उपरान्त राजराज ने गणराज्य के तीन प्रदेशों
गंगवा नोलवाड और प्रिटिगाडि पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया और इस प्रकार मैसूर का बहुत बड़ा भाग उसके अधिकार में आ गया। (6) गी के पूर्वी चालुक्यों से मंत्री चालुक्यों की पूर्वी शाखा पूर्वी दक्षिणापथ में शासन कर रही थी और वेंगी उसकी राजधानी थी। 976 ई० में एक तेलगू जटाचोड भीम ने वेंगी के दानार्णव पर आक्रमण करके उसे युद्ध में मार डाला। दानार्णव के पुत्रों ने भाग केर राजराज चोल के यहाँ शरण ली। राजराज ने इन राजकुमारों का स्वागत किया और उनकी सहायता करने तथा उनका खोया हुआ राज्य उन्हें पुनः दिलाने का वचन दिया। उसने दानार्णव के छोटे राजकुमार विमलादित्य के साथ अपनी पुत्री कुन्दवई का विवाह कर दिया और बड़े राजकुमार शक्ति वर्मन को वेंगी के सिंहासन पर बैठने का वचन दिया। अपने वचन को पूरा करने के लिये राजराज ने वेंगी पर आक्रमण कर दिया। उसने जटाचोड भीम को मार कर वेंगी से मार भगाया और शक्तिवर्मन को वेंगी का राजा बना दिया। इस प्रकार राजराज का वेंगी के चालुक्य राज्य पर प्रभुत्व स्थापित हो गया।
(7) पश्चिमी चालुक्यों से संघर्ष-पश्चिमी चालुक्यों के राज्य के अन्तर्गत नर्मदा तथा तुंगभद्रा नदियों के बीच का भाग सम्मिलित था और मान्यखेट इस राज्य की राजधानी थी। चालुक्य सत्याश्रय यहाँ का राजा था। वह बड़ा ही प्रतिभाशाली, महत्त्वाकांक्षी एवं शक्तिशाली नरेश था। वेंगी के चालुक्यों के राज्य में बोल राजराज के बढ़ते हुये प्रभाव को वह सहन न कर सका। उसने 1006 में वेंगी पर आक्रमण कर दिया, और उसके कुछ प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। राजराज भी चुप न बैठा। वेंगी राज्य को सत्याश्रय के चंगुल से मुक्त करने के लिये उसने उसके राज्य के पश्चिमी भाग पर आक्रमण करने का निश्चय किया, और इसस कार्य को सम्पन्न करने के लिये उसने अपने पुत्र राजेन्द्र चोल को भेजा। राजेन्द्र सफल हुआ और सत्याश्रय को वेंगी छोड़ अपने राज्य को वापस लौट आना पड़ा। (8) कलिंग पर आक्रमण – राजराज ने कलिंग राज्य पर भी आक्रमण किया और
वहाँ के नरेश को परास्त कर कलिंग को अपने राज्य में मिला लिया। (9) द्वीपों पर अधिकार-राजराज ने अपनी नौसेना की सहायता से मालद्वीप तथा कुछ अन्य द्वीपों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि राजराज एक कुशल तथा योग्य
सेनानायक एवं साम्राज्यवादी नरेश था। उसका 30 वर्षीय शासन चोल साम्राज्यवाद के
निर्माण का काल था। उसके सिंहासनारोहण के समय जो अपेक्षाकृत एक छोटा राज्य था, जो राष्ट्रकूटों के आक्रमणों के प्रभाव से कठिनता से संभल पाया था, वह उसके शासनकाल में एक विशाल तथा सुसंगठित साम्राज्य में परिवर्तित हो गया जो बड़ा ही सुसंगठित तथा सुशासित था, जिसके साधन बड़े प्रचुर थे और जिसके अधिकार में ऐसी स्थायी सेना और सामुद्रिक सेना थी जिसकी भली-भाँति परीक्षा हो चुकी थी और जो महानतम साहसिक कार्यों के योग्य थी। कार्यों का मूल्यांकन- राजराज की गणना चोल वंश के महान सम्राटों में की जाती
है। अपने पूर्वजों के मरणासन्न राज्य को अनुप्राणित करने तथा उसके विनिष्ट गौरव को पुनस्थापित करने का श्रेय उसे ही है। उसने अपनी प्रजा के जीवन को शान्तिमय तथा सुखी बनाने के लिये समुचित व्यवस्था की थी। उसने स्थानीय शासन के महत्त्व को समझा और इसकी स्थापना के लिये
उसने विकेन्द्रीयकरण को नीति अपनायी ।
वह दुरदर्शी भी था। उसने उत्तराधिकार की समस्या के समाधान के लिये अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र राजेन्द्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।
वह स्वयं शैव था, पर धार्मिक सहिष्णुता भी उसमें थी। संथिया नाथियर (Sathia Nathier) के अनुसार—“राजराज दक्षिण भारत के महानतम सम्राटों में से एक था। वह एक सुप्रसिद्ध विजेता तथा साम्राज्य निर्माता था। वह एक योग्यतापूर्ण शासक एक पवित्र तथा सहिष्णु व्यक्ति, साहित्य तथा कला का आश्रयदाता और इन सबके अतिरिक्त वह
एक मधुर स्वभाव वाला व्यक्ति था।” (5) राजेन्द्र प्रथम गंगईकोण्ड – राजराज प्रथम की मृत्यु के बाद राजेन्द्र प्रथम शासक हुआ। उसके अभिलेख उसको वीरता का मनोरंजक वर्णन करते हैं, आज भी वे इतिहास की कहानी सुनाने को तत्पर हैं। उसकी उपाधियाँ, जैसे— ‘मुदिकोण्ड’, ‘गंगईकोण्ड’, ‘कदरमगोण्ड’ तथा ‘पण्डित बोल’ भी उसकी उपलब्धियों की द्योतक है।
उपलब्धियाँ-(1) आन्तरिक : युवक के रूप में : इडुतुराईनाडु बनवासी,
कोल्लीप्पाक्कई, मष्णैक कड़क्कम पर विजय-राजेन्द्र प्रथम ने जब वह युवराज था तब ही
इडुतुरईनाडु (रायचूर जिला), बनवासी (उत्तरी कनारा) कोल्लीप्पाक्कई (कुलपक) तथा मक्कडस्कम (मान्यखेत ?) पर अधिकार कर लिया था। (2) राजा के रूप में लंका को साम्राज्य में मिलाना-राजा बनने के बाद (करीब 1017 ई० में) उसने सम्पूर्ण लंका को अपने साम्राज्य में मिला लिया था।
(3) केरल पाण्ड्य देश पर प्रभुत्व जमाना लंका अपने साम्राज्य में सम्मिलित करने
के बाद उसने केरल, पाण्ड्य देश पर भी प्रभुत्व जमाया और वहाँ अपने पुत्र जाटवर्मन सुन्दर चोल को नियुक्त किया। (4) प्रायद्वीपों पर नियन्त्रण-उसने पुराने प्रायद्वीपों (लक्षद्वीप और मालद्वीप) पर
नियन्त्रण कायम रखा।
(5) जयसिंह द्वितीय, जगदेकमल्ल से मुठभेड़-राजेन्द्र प्रथम की मुठभेड़ पश्चिम चालुक्य जयसिंह द्वितीय से हुयी। मुठभेड़ के परिणाम के बारे में कुछ निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता।
(6) गंगा और महीपाल के प्रान्तों तक सेना ले जाना, आइडविषण कोसलईनाए बुद्ध तक्कनलाइम बंगाल देश और उत्तरी लाइम का दमन-उत्तर में वह गंगा तथा महीपाल के प्रान्तों तक सेना ले गया। तिरुमलई (पोलूर, उत्तरी अर्काट जिला) अभिलेख से हमें पता चलता है कि उसने ओदुविषय (उड़ीसा), कोसलईनाडु (दक्षिण कोसल), तण्डबुटि (दण्डभुति, बलसोर और मिदनपुर का हिस्सा) के धर्मपाल, तक्कनडलम् (दक्षिण राड़) के रणपूर, बंगाल देश (पूर्वी बंगाल) के गोविन्द चन्द्र पाल महिपाल तथा उत्तरी लाइम (उत्तर राढ़) का दमन किया। यह घटना 1012 ई० और 1025 ई० के मध्य हुयी होगी। यह निःसन्देह एक बड़ी उपलब्धि थी जिसे चिरस्थायी बनाने के लिये उसने ‘गंगईकोड’ की उपाधि धारण की।
(7) बाह्य संग्राम विजयोतुंगवर्मन को हराना – राजेन्द्र प्रथम ने बेड़े की सहायता से देश के बाहर भी विजय पताका फहरायी। ऐसा कहा जाता है कि उसने श्रीविजय के संग्राम जर्मन को हराया।
जाता (8) कटाह या कदराम और वृहत्तर भारत में अन्य स्थानों पर विजयें- ऐसा भी कहा है कि राजेन्द्र प्रथम ने कटाह या कदराम (मलाया प्रायद्वीप के 30 प० में वर्तमान केडा) और बृहत्तर भारत में अन्य स्थानों पर भी विजयें प्राप्त की। कुछ स्थान ये थे : पण्णुई (सुमात्रा के पूर्व में पेनई), मलैयूर (आधुनिक जांबी), मायिरुडिङ्गम (मलाया के मध्य में), इलगिशोगम् (सम्भवतः लिगोर के डमरुमध्य अथवा जोहोर में), मामपालम् (क्रा० डमरुमध्य के पश्चिम में), मोर्वेलिंगम (लिगोर के डमरुमध्य में कर्मरंग), बलैप्पदूर (पांडुरंग), तलैतक्कोल (तकुआ का बन्दरगाह), मादमलिगम् (मलाया के पूर्व में), इलामूशिम (४० मात्र मे), नक्कवरम् (निकोबार)।
देश के बाहर के अभियान का उद्देश्य व्यापारिक हो सकता है, राजनीतिक भी ऐसा करने से मलय प्रायद्वीप और दक्षिण भारत में सम्बन्ध बढ़े। (9) शासनकाल के अन्तिम दिन लगता है कि उसके शासनकाल के अन्तिम दिन निष्कण्टक नहीं थे। बलवे हुये, यद्यपि उन्हें युवराज राजाधिराज ने दबा दिया था।
विद्यानुराग-राजेन्द्र विद्यानुरागी तथा साहित्य प्रेमी भी था। अपनी विद्वता और पांडित्य के अनुकूल ही उसने ‘पण्डितचोल’ की उपाधि धारण की। शिक्षा के प्रसार में वह बड़ी अभिरुचि लेता था। उसने वैदिक कॉलिज की स्थापना की जिसमें 14 शिक्षक और 300 विद्यार्थी थे। इस विद्यालय के व्यय के लिये राज्य द्वारा भूमि दान में दी गयी थी।
रचनात्मक कार्य-उसने गंगईकोंड चौलपुरम अपनी राजधानी बनायी और उसे सुन्दर बनाने तथा विद्या तथा ज्ञान के प्रसार का प्रयत्न किया। नगर की शोभा बढ़ाने के लिये उसने एक विशाल भवन तथा एक मन्दिर का निर्माण करवाया था। राजधानी के निकट उसने एक कृत्रिम जलकुण्ड की भी रचना करवायी थी। 1044 में उसकी मृत्यु हो गयी। (6) राजाधिराज 1- राजेन्द्र I के बाद उसका पुत्र राजाधिराज । सिंहासन पर बैठा।
उसके समय लंका में विद्रोह का उसने सफलतापूर्वक दमन किया। उसने चालुक्य सोमेश्वर को परास्त किया। फिर उसकी सेना ने कम्पिलि के चालुक्य राजप्रासाद को खूब लूटा, और पुंडुर के युद्ध में चालुक्यों को पुनः पराजित किया। चोलों ने चालुक्यों की राजधानी कल्याण पर भी प्रभुत्व स्थापित कर लिया। पर सोमेश्वर शान्त न रहा। अतः सोमेश्वर और राजाधिराज में कोप्पम में पुनः युद्ध हुआ और राजाधिराज अन्त में वीरगति को प्राप्त हुआ।
(7) राजेन्द्र II- राजाधिराज । के बाद उसका छोटा भाई राजेन्द्र II हुआ। उसने सोमेश्वर से युद्ध जारी रखा और अन्ततोगत्वा उसे बुरी तरह परास्त किया। उसने लंका में हो रहे विद्रोह का भी दमन किया।
(8) राजमहेन्द्र वीर राजेन्द्र-राजेन्द्र ।। के बाद क्रमशः राजमहेन्द्र और वीर राजेन्द्र तक) हुये वीर राजेन्द्र को भी चालुक्य सोमेश्वर का सामना करना पड़ा और 1066 में गभद्रा नदी के तीर पर उसे बुरी तरह परास्त किया। दूसरा संघर्ष कुडलगम नामक स्थान पर हुआ और विजय वीर की ही हुयी और विजय के उपलक्ष में विजय स्तम्भ स्थापित किया। फिर तीसरा संघर्ष बैजवाड़ा नामक स्थान पर हुआ जिसमें भी वीर ही विजयी रहा। फिर दोनों में कलिंग में युद्ध हुआ परन्तु अब सोमेश्वर ने तुंगभद्रा में डूबकर आत्महत्या कर ली।
सोमेश्वर के बाद सोमेश्वर ।। हुआ। वीर राजेन्द्र ने कम्पिलि पर आक्रमण कर दिया। सोमेश्वर ।। को इसी समय आन्तरिक विद्रोह का सामना करना पड़ा। उसके छोटे भाई विक्रमादित्य ने उसके विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। उसने विभीषण का कार्य किया और वौर राजेन्द्र से जा मिला। वीर राजेन्द्र ने मौके का फायदा उठाया, अपनी पुत्री विक्रमादित्य को व्याह दी और अपने दामाद की चालुक्य साम्राज्य के दक्षिणी प्रदेश का राजा घोषित कर दिया। वेंगी के विजयादित्य ने भी उसकी अधीनता कबूल कर ली। इस प्रकार चालुक्यों की पश्चिमी तथा पूर्वी दोनों ही शाखाओं के राज्यों में वीर राजेन्द्र को सफलता प्राप्त हुयी।
वीर राजेन्द्र ने बड़ी कठोरता से साथ लंका के विद्रोही विजयवाहु का भी दमन किया और पाण्ड्यों और चेरों के विद्रोह का भी राजेन्द्र की भांति उसने भी कडारम अर्थात् 1 श्रीविजय पर आक्रमण कर वहाँ अपनी जय-ध्वजा फहरायी और अपने प्रत्याशी को वहाँ के सिहासन पर बैठाया। लगता है, उसके समय कडारम ने पुनः स्वतन्त्रता हासिल कर ली थी और इसी वजह से उसे ऐसा करना पड़ा हो।
(9) अधिराजेन्द्र-1070 में वीर राजेन्द्र की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अधिराजेन्द्र शासक बना। किन्तु, इसी समय अधिराजेन्द्र के विरुद्ध पूर्वी चालुक्य राजा राजराज प्रथम के पुत्र राजेन्द्र, द्वितीय ने विद्रोह कर दिया। राजेन्द्र द्वितीय की मां चोल शासक राजराज प्रथम की पुत्री थी। अतः राजेन्द्र द्वितीय चोल सिंहासन पर अपना अधिकार समझता था। जनता ने भी सम्भवतः राजेन्द्र द्वितीय का साथ दिया। अधिराजेन्द्र की हत्या कर दी गयी। इस प्रकार अधिराजेन्द्र बहुत थोड़े समय तक ही राज्य कर सका।
(10) कुलतुंग अधिराजेन्द्र के विरुद्ध विद्रोह करके 1070 में राजेन्द्र द्वितीय ‘कुलोत्तुंग प्रथम’ के नाम से चोल साम्राज्य व वेंगी का शासक बना। कुलोत्तुंग प्रथम एक वीर एवं महत्त्वाकांक्षी शासक था। कुलोत्तुंग I के शासनकाल का चोल इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है
कुलोत्तुंग । उत्तराधिकारी एवं चोल वंश का पतन कुलोतुंग के प्रायः अर्द्ध शताब्दी के सुदीर्घ शासनकाल में चोल साम्राज्य की स्थिति सन्तोषप्रद रही, किन्तु उसकी मृत्यु के बाद चोल वंश की शक्ति घटने लगी। परन्तु जहाँ तक सांस्कृतिक कार्यों का प्रश्न है, उसमें कमी नहीं आने पायी। कुलोत्तुंग I का उत्तराधिकारी विक्रम चोल 1120 में चोल साम्राज्य का अधिपति हुआ। 1127 में कल्याणी के नरेश विक्रमादित्य VI की मृत्यु हो जाने पर विक्रम चोल ने वेंगी पर बोल सत्ता पुनः जमा चालुक्य ली। उसने गंगवाड़ी का कुछ प्रदेश भी विजित किया। 1128 में विक्रम चोल ने अपने कुल देवता नटराज की सेवा में राज्य के एक वर्ष के कर का अधिकांश समर्पित कर दिया। विक्रम चोल के अभिलेखों से इस बात का स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि वह अपने साम्राज्य के विभिन्न भागों का दौरा किया करता था। नीलकण्ठ शास्त्री का कथन है कि राजा द्वारा
भारत-बोल और उनके समकालीन
प्रकार का कुशल शासन के निमित्त राज्य का दौरा करने की नीति मया के निरं राज्य के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थी और इस कार्य के द्वारा नियन् के बोल शासकों की नियमित नीति का अनुगमन कर रहा था। विक्रम चोल ने ‘त्याग ‘ और ‘अकलंक’ के विरुद धारण किये थे । कुलाग ॥ ने 1135 में अपने पिता विक्रम चोल की मृत्यु के बाद शासन सूत्र अपने हाथों में ग्रहण किया। चिदम्बरम के नटराज मन्दिर की सेवा में उसने भी उपहार भेंट तमिल साहित्य के इतिहास में कुलोत्तुंग || का शासन उल्लेखनीय है, क्योंकि उसने
और उसके सामन्तों ने ओट्टकुत्तम् तथा कम्बन आदि कवियों को राज्याश्रय प्रदान किया था। कुलालुंग || के पश्चात् राजराज || राजा हुआ। राजराज || तथा राजाधिराज || शासक थे जिनके समय में चोल शक्ति का दिनों दिन पतन होता गया। उत्तर में कतीय वंश के शासकों ने चोलों पर वार करना आरम्भ कर दिया। गणपति और रुद्राम्बा में काकतीय वंश की शक्ति प्रवल हो उठी और उन्होंने चोल साम्राज्य की उत्तरी हं के कुछ भूभाग पर अपना अधिकार जमा लिया। दक्षिण में पाण्डयों ने मारवमेन सुन्दर के समय जटावर्मन सुन्दर पाण्ड्य के अधीन अपनी शक्ति का विकास करके कोल के अधीनस्थ भागों को अपने अधिकार में कर लिया। पश्चिम में यही कार्य तथा ने किया। लंका के राजा पराक्रमाने बोलों से संघर्ष किया। लोग य में चोल वंश का एक पराक्रमी शासक हुआ और उसने कुछ अंश तक अपने सफलतापूर्वक सामना किया। उसने अपने सैन्य-गुणों के द्वारा बोल साम्राज्यको 1 इस काल उसे नष्ट होने से बचाया, किन्तु कुलोत्तुंग तृतीय के उत्तराधिकारी राजराज तृतीय ने अपने को दुर्बल प्रमाणित किया। राजराज तृतीय अपने सामन्तों को भी वश में न रख सका। उसके समय में पल्लव जाति के सरदार कोम्पेरु जिंग ने विद्रोह करके उसे बन्दी बना लिया । । ऐसी संकटापन्न स्थिति में चोल नरेश राजराज तृतीय की रक्षा उसके श्वसुर नरसिंह नरेश ने अपनी एक सेना भेजकर को इस सेना ने राजराज तृतीय को मुक्त था। इसके पूर्व 1216 ई० में होयसल राज नरसिंह ने राजराज तृतीय को मारवर्मन सुन्दर के आक्रमण से बचाया था, जो तंजौर तक बढ़ आया था। पेरुन्विगन ने बोल राज्य के कुछ भागों, जैसे— सेन्दमगलम् (दक्षिणी अरकाट जिला) में अपनी स्वतन्त्र राजसत्ता प्रतिष्ठित कर ली। अगले होयसल राजा सोमेश्वर को भी जटावर्मन सुन्दर पाण्ड्य के विरुद्ध पति की रक्षा करनी पड़ी। किन्तु चोल साम्राज्य के उत्कर्ष के दिन अब समाप्त हो दले थे। पाण्ड्यों की शक्ति काफी बढ़ चुकी थी। राजेन्द्र तृतीय को जटावर्मन सुन्दर पाण्ड्य ने पराजित कर दिया और कांची पर, जहाँ चोल-शक्ति का प्रमुख केन्द्र था, अधिकार जमा लिया और राजेन्द्र III को अपना सामन्त बना लिया। जटावर्मन सुन्दर पाण्ड्य के उत्तराधिकारी वर्मन कुलशेखर ने चोल राज्य को रौंद डाला। चोल साम्राज्य के उत्तरी जिले तेलगू सदार के नेतृत्व में स्वतन्त्र हो गये। ये तेलगू सरदार अपने को करिकाल चोल का वंशज नाते थे। कावेरी नदी के मैदान में रहने वाले चोलों का अस्तित्व स्थानीय सरदारों के रूप कुछ और समय तक बना रहा। चौदहवीं शताब्दी में विजयनगर के राजाओं ने चोलों के को भी पूर्णरूपेण नष्ट कर दिया।
दक्षिणी पूर्वी एशिया से सम्बन्ध
[RELATIONS WITH SOUTH EAST ASIA]
“एशिया के विभिन्न देशों और विशेषकर दक्षिण-पूर्व एशिया के निवासियों की संस्कृति पर सामान्य रूप से ध्यान देने से यह प्रतीत होता है कि हम वर्मा, स्याम अथवा इण्डोनेशिया में जो कुछ देखते हैं, वह सभी कुछ भारतीय संस्कृति का विस्तार है तथा उन्हें वृहत्तर भारत का रूप समझा जा सकता है।”
-बी0 जी0 गोखले
वृहत्तर भारत से आप क्या समझते हैं ? प्राचीन काल में भारत के अन्य देशों के साथ व्यापारिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्धों पर प्रकाश डालिये।
What do you understand by the term Greater India? Highlight on the relations of India commercial a cultural with other countries in Ancient India,
उत्तर-
(Meaning of Greater India) बहुत से विद्वानों का यह मत है कि प्राचीन काल में भारत का अन्य देशों से कोई महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध या सम्पर्क नहीं था। परन्तु आधुनिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है। कि यह धारणा उचित नहीं है। अनुसन्धानों के आधार पर यह स्वीकार किया जाना चाहिये कि प्राचीन काल में भारतवासी अपने देश की भौगोलिक सीमाओं में ही सीमित नहीं रहे वरन उन्होंने पर्वतों व समुद्रों को पार कर विदेशों में व्यापारिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक केन्द्रों की स्थापना की। भारतीयों ने अन्य बर्बर जातियों को सभ्य बनाया। तात्पर्य यह है कि ‘वृहत्तर भारत’ से तात्पर्य भारत के बाहर उस विस्तृत भूखण्ड से है जहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार तथा जिसमें प्राचीन भारतीयों ने अपने उपनिवेशों की स्थापना की। जैसे यूरोप को मध्य बनाने का श्रेय रोम और यूनान को है उसी प्रकार समस्त एशिया को सभ्य बनाने का श्रेय भारत और चीन को है। इसी भाँति भारतीयों ने विदेशों में जाकर वहाँ ऐसे उपनिवेशों की स्थापना की जहाँ बहुत समय तक भारतीय शासक ही राज्य करते रहे । वृहत्तर भारत के अन्तर्गत वह समस्त भू-भाग आ जाता है। जहाँ-जहाँ भारतीय पहुँचे वहाँ-वहाँ उन्होंने उपनिवेश राज्यों की स्थापना की और वहाँ से सांस्कृतिक एवं व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किया।
प्राचीन काल में भारत की सभ्यता और संस्कृति का प्रचार सूदूर देशों में हुआ था। मध्य एशिया, मलाया, पूर्वी द्वीप समूह आदि में भारतीय निवास करते थे। भारतीयों ने साम्राज्यवाद की भावना से प्रभावित होकर इन उपनिवेशों की स्थापना नहीं की थी, बल्कि उनका उद्देश्य उन स्थानों के लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा उठाना एवं कला साहित्य की उन्नति करना था । यहाँ हम इस तथ्य पर विचार करेंगे कि भारत ने किन स्थानों पर अपने उपनिवेश स्थापित किये और किन स्थानों से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किये।
(Indian Colonies of South East Asia) प्राचीन युग में एशिया का दक्षिणी पूर्वी भाग भारत का ही अंग था। जावा, सुमात्रा, मलाया, बोर्नियो, अनाम और कम्बोडिया आदि देशों में भारतीय सभ्यता के चिन्ह अत्यधिक मात्रा में प्राप्त हुये हैं। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में इस तथ्य का उल्लेख है कि भारतीय व्यापारी, राजकुमार और धर्मोपदेशक, स्वर्ण भूमि को जाया करते थे। प्राचीन युग में वह विश्वास था कि बह्या, जावा और सुमात्रा आदि में सोने की खानें हैं इसलिये उन स्थानों को स्वर्ण भूमि के नाम से पुकारा जाता था। सभ्यता की दृष्टि से इन स्थानों के लोग भारतीयों से बहुत पिछड़े हुये थे और यही कारण था कि भारतीय व्यापार एवं संस्कृति का प्रचार करने के उद्देश्य से इन स्थानों पर बस गये और उन्होंने वहाँ पर अपने उपनिवेश स्थापित किये।
(1) कम्बोडिया वर्तमान हिन्दू चीन में भारतीयों ने 2 उपनिवेशों की स्थापना कम्बोडिया और अनाम नामक स्थानों पर की थी। उन्होंने यह कार्य पहली शताब्दी के लगभग किया। कम्बोडिया और अनाम में जंगली जातियाँ निवास करती थीं। जब भारत के ब्राह्मण वहाँ जाकर बस गये तो वहाँ के लोग भी कुछ सभ्य बने । सर्वप्रथम अनाम में हिन्दू राज्य स्थापित हुआ और उसके बाद कम्बुज में। कम्बुज राज्य की राजधानी मशोधरपुर थी और वहाँ इन्द्रवमी, सूर्यवर्मा, यशोवर्मा और अन्यवर्मा आदि राजा प्रसिद्ध हुये।
कम्बोडिया के दोनों राज्यों में भारत के शैव धर्म का बहुत तेजी से प्रसार हुआ इसके साथ ही वैष्णव और बौद्ध धर्म भी इन स्थानों पर पहुंचा। प्राचीन युग में इन स्थानों पर भारत की तरह ही संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जाता था। कम्बोडिया के राजा यशोवर्मा ने पतंजलि के महाभाष्य पर एक टीका लिखी थी। कम्बोडिया में भारतीय कला के भी सुन्दर नमूने प्राप्त हुये हैं। गुप्तकाल के आदर्श पर यहाँ सुन्दर इमारतों व मन्दिरों का निर्माण हुआ।
(2) चम्पा – भारतीयों ने हिन्द-चीन में चम्पा नामक राज्य की स्थापना की थी। जहाँ आजकल अनाम है वहीं पहले चम्पा का राज्य था और वह बिहार के अन्तर्गत था। इस राज्य की राजधानी अमरावती थी। चम्पा के प्रारम्भिक राजाओं के विषय में विशेष जानकारी नहीं है, परन्तु यह अवश्य ज्ञात होता है कि वहाँ के राजाओं ने मुगलों के आक्रमणों का बड़ी वीरता से सामना किया और अन्त में मुगलों के आक्रमण के फलस्वरूप ही उनका राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो गया। इस्लाम धर्म के प्रचार के फलस्वरूप वहाँ से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के चिन्ह समाप्त होते गये और वहाँ के निवासियों ने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया।
(3) मलाया- भारतीयों का मलाया से अत्यन्त प्राचीन काल से ही सम्बन्ध था।
पाँचवीं या छठी शताब्दी में शैलेन्द्र नामक एक व्यक्ति ने मलाया में भारतीय राजवंश की
स्थापना की और धीरे-धीरे उनके राज्य का विस्तार होता गया तथा सुमात्रा, जावा, बाली,
बोर्नियो आदि मलाया के राज्य में सम्मिलित हो गये। शैलेन्द्र के उत्तराधिकारियों ने विजयनगर
को अपनी राजधानी घोषित किया और ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ समय तक उन्होंने चम्पा
और कम्बुद
राज्यों पर शासन किया। शैलेन्द्र के साम्राज्य के वैभव का वर्णन एक अरब
व्यापारी ने अतीव सुन्दरता से किया है। उनका मत है कि शैलेन्द्र शासक ‘महाराज’ कहे
जाते थे। उनकी आय बहुत अधिक थी। वे बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और महायान सम्प्रदाय
के सिद्धान्तों को मानते थे। चीन और भारत के राजा उसका आदर करते थे। कहा जाता
है कि मलाया के राजा बालपुत्र देव शैलेन्द्र ने बंगाल के राजा देवपाल के पास एक दूत
भेजकर यह प्रार्थना थी कि वह उसके द्वारा बनवाये हुये विहार के लिये पाँच गाँव दान दें।
देवपाल ने इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया था। 13वीं शताब्दी में इस वंश के शासन
भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक) का पतन प्रारम्भ हुआ। कहा जाता है कि चोल वंश के शासक राजेन्द्र चोल ने उनके पर आक्रमण किया और कई प्रदेशों पर अधिकार कर लिया 13वीं शताब्दी तक इस वंश का वैभव समाप्त हो गया। 15वीं शताब्दी में यहां के राजा ने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया। राज्य
माया में पहले वैष्णव व शैव धर्म का प्रचार हुआ था, परन्तु 7वीं शताब्दी में प बौद्ध धर्म का बहुत तेजी से प्रचार हुआ। शैलेन्द्र वंश के राजा ने महायानी बौद्ध धर्म की स्वीकार करके अपने स्तूपों, विहारों और बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण करवाया। शैलेन्द्र राजाओं को स्थापत्य कला से विशेष प्रेम था। उन्होंने नालन्दा में तारा देवी का एक भव्य मन्दिर बनवाया था। वोरोवुदर के विशाल एवं प्रसिद्ध स्तूप को बनवाने का श्रेय भी शैलेन्द्र शासकों को है।
(4) जावा – चौथी शताब्दी में भारतीयों ने जावा में एक हिन्दू राज्य की स्थापना की। फाह्यान का मत है कि जावा और सुमात्रा में 5वीं शताब्दी तक हिन्दू धर्म का काफी प्रसार हुआ था। शैलेन्द्र राजाओं के उत्थान के साथ जावा उनके अधिकार में आ गया, परन्तु 9वीं शताब्दी में जावा ने पुनः स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली। 13वीं शताब्दी में यहाँ एक नवीन राजवंश का उदय हुआ जिसने विश्व को अपनी राजधानी बनाया। 15वीं शताब्दी में अरबों द्वारा इस राज्य का पतन हुआ।
जावा में अनेक ऐसे भव्य भवनों के अवशेष प्राप्त हुये हैं जो भारतीय शैली से मिलते-जुलते हैं। भारतीय ग्रन्थों की अनेक पांडुलिपियाँ भी यहाँ प्राप्त हुयी हैं और यहाँ के निवासी रामायण और महाभारत को बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं।
(5) बाली और वोर्नियो- वाली और बोर्नियो द्वीपों में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृतियों का बहुत अधिक प्रसार हुआ और आज भी बहुत अंशों में यहाँ भारतीय संस्कृति के चिन स्पष्ट होते हैं। इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता कि भारतीयों ने कब यहाँ अपना राज्य स्थापित किया था, परन्तु यह अवश्य सत्य है कि वहाँ छठी शताब्दी में हिन्दू राज्य विद्यमान था। इन स्थानों पर बौद्ध धर्म का भी काफी प्रचार हुआ। यहाँ की स्थापत्य और मूर्तिकला का आधार भारतीय कला है।
(6) श्याम – आरम्भ में श्याम कम्बोडिया के हिन्दू राजाओं के अधिकार में और बहुत समय तक वह उन्हीं के अधिकार में बना रहा 11 वीं शताब्दी में यहाँ भाई नामक जाति के आगमन के फलस्वरूप बौद्ध धर्म का काफी प्रचार हुआ। ये लोग महायान सम्प्रदाय को मानने वाले थे। जब सिंहल के बौद्ध भिक्षु यहाँ आये तो यहाँ हीनयान सम्प्रदाय का प्रचार हुआ। आज भी श्याम में बौद्ध धर्म की प्रधानता है और वहाँ की जनता की कला, लिपि और भाषा पर भारतीयता को छाप है।
(7) ब्रह्मा- भारत और ब्रह्मा के मध्य सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन है। अशोक ने ब्रह्मा में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये धर्म-प्रचारकों को भेजा था। उसके प्रयत्नों के फलस्वरूप यहाँ बौद्ध धर्म का अधिक प्रचार हुआ और इसके साथ ही भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का भी विस्तार हुआ। दक्षिणी वर्मा में हीनयान सम्प्रदाय का प्रचार हुआ। आज भी ब्रह्मा (बर्मा) के अधिकांश निवासी बौद्ध हैं और उनकी लिपि, भाषा एवं धर्म पर भारतीयता की स्पष्ट छाप है।
(8) लंका-लंका और भारत के सम्बन्ध अति प्राचीन हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र ने लंका के राक्षस राजा रावण को युद्ध में पराजित किया था। छठी शताब्दी ई० पूर्व में काठियावाड़ के एक राजकुमार विजय के नेतृत्व में भारतीयों ने लंका में प्रवेश किया और उसे अपना निवास बनाया। सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को
पूर्वीयसे
स धर्म के प्रचार के लिये था और उनके प्रयत्नों से ही यहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ। आज भी धर्म का राजधर्म है। बौद्ध धर्म के प्रभाव के परिणामस्वरूप को भाषा और लिपि पर भी भारतीयों का प्रभाव पड़ा। यहाँ के साहित्य, कला और धर्म आदि पर भी भारतीयताको झलक पड़ी है।
अन्य देशों से भारत का सम्बन्ध
(Relations of India & Other Countries) ऊपर हमने उन देशों का उल्लेख किया है जहाँ भारतीयों ने अपने उपनिवेशों की
स्थापना की थी। यहाँ हम उन देशों का वर्णन कर रहे हैं जहाँ भारतीयों के उपनिवेश तो
नहीं परन्तु इन देशों से भारतीयों ने अपने व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किये थे- (1) यूनान एवं रोम-भारत और यूनान के व्यापारिक सम्बन्ध अति प्राचीन हैं। सिकन्दर के भारतीय आक्रमण के समय से यह सम्बन्ध और अधिक दृढ़ हो गये। इसके साथ ही दोनों देशों के मध्य दृढ़ सांस्कृतिक सम्बन्धों को स्थापना भी हुयी। पहली शताब्दी में मिला देश में रहने वाला एक यूनानी नाविक लाल सागर को पार कर भारत आया। उसके विवरण से ज्ञात होता है कि भारत के मिल यूनान और रोम से घनिष्ठ सम्बन्ध थे। भारत में मसाले और सूती तथा रेशमी वस्त्र इन देशों को जाते थे। प्लिनी का मत है विलास को सामग्री के बदले में रोम का अतुल धन भारत आया था। रोम को सोने की मुद्रायें भारत से प्राप्त हुयी हैं। कुछ भारतीय राजाओं ने रोम के राजाओं के यहाँ अपने राजदूत भी भेजे थे। 26 ई० पूर्व के लगभग पाँडु देश के राजा ने रोमन सम्राट आगस्टस की सभा में अपना एक राजदूत भेजा था। अरबों के उत्थान तक भारत के उन देशों से सम्बन्ध बहुत अच्छे रहे। इन व्यापारिक सम्बन्धों के फलस्वरूप सांस्कृतिक आदान-प्रदान ने भी हुआ। भारतीय धर्म और दर्शन ने उन देशों के धर्म और दर्शन को प्रभावित किया। भारतीय कला और मुद्राओं पर यूनानी कला एवं मुद्राओं का प्रभाव पड़ा। ज्योतिषशास्त्र के विषय में भारतीयों ने यूनानियों से सीखा, परन्तु ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भारत की यूनान को महान् देन है।
(2) चीन-प्राचीन काल में चीन की गणना संसार के उन्नत देशों में थी। चीन के विषय में भारतीयों को ज्ञान था, क्योंकि ‘मनुस्मृति’ में चीन का स्पष्ट उल्लेख भी मिलता है। यह माना जाता है कि चीन देश का नाम चीन में ‘चिनवंश’ की स्थापना के बाद हुआ। अतः भारत और चीन का सम्पर्क तृतीय शताब्दी में ही हुआ होगा। चीन के भारत से व्यापारिक एवं सास्कृतिक सम्बन्ध थे। चीन में बौद्ध धर्म के प्रचार के परिणामस्वरूप भारत और चीन के सम्बन्ध और दृढ़ हो गये। चीन में बौद्ध धर्म के प्रचारकों में काश्यप, मतिंग, धर्म आदि के नाम उल्लेखनीय है। इन धर्म-प्रचारकों ने बौद्ध धर्म का प्रचार इस प्रकार किया कि आज भी चीन की जनता का बहुत बड़ा भाग बौद्ध धर्म का ही अनुयायी है। चीन के सम्राट मिगिटी के शासनकाल में बौद्ध धर्म को राज-धर्म के पद पर आसीन कर दिया गया अनेक भारतीय पुस्तकों का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ। चीनी यात्री बौद्ध धर्म के प्रन्थों की खोज करने भारत आये। इन यात्रियों में फाह्यान, ह्वेनसांग, इत्सिंग के नाम उल्लेखनीय है। इन यात्रियों के भारत में आगमन के फलस्वरूप दोनों देशों के मध्य अत्यन्त धनिष्ठ सम्बन्धों की स्थापना हुयी और जल एवं स्थल दोनों ही मार्गों से भारत और चीन के बीच का व्यापार प्रारम्भ हुआ।
(3) कोरिया एवं जापान-चीन के बाद बौद्ध धर्म कोरिया एवं जापान में भी प्रचलित हुआ चौथी शताब्दी में इन स्थानों पर बौद्ध धर्म के प्रचार का कार्य प्रारम्भ हुआ और पांचवीं शताब्दी के अन्त तक सम्पूर्ण कोरिया में बौद्ध धर्म के अनुयायी बहुत अधिक संख्या में हो गये। इस धर्म को राजधर्म के पद पर आसीन किया गया। कोरिया के बाद यह धर्म
जापान में भी बहुत अधिक प्रचलित हुआ। छठी शताब्दी में कोरिया के राजा की जापान के राजा से घनिष्ठ मित्रता थी और उसने जापान के राजा को कुछ बौद्ध की पुस्तकें एवं मूर्तियां भेजी थीं। कोरिया के राजा ने जापान के राजा से बौद्ध धर्म को स्वीकार करने के लिये भी कहा। आरम्भ में जापान का राजा इससे सहमत न हुआ परन्तु बाद में उसने इस धर्म को स्वीकार कर लिया। राज्य संरक्षण मिल जाने के फलस्वरूप इस धर्म का जापान में
बहुत अधिक प्रचार हुआ। कोरिया में बौद्ध धर्म के प्रचार के फलस्वरूप भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का प्रसार होना स्वाभाविक ही था। इन देशों के मध्य पनिष्ठ सम्बन्ध बने रहे। आज भी इन देशों के बीच अत्यन्त दृढ़ सम्बन्ध स्थापित है।
(4) तिब्बत-तिब्बत भारत के उत्तर में निकटतम पड़ौसी राज्य था और प्राचीन काल से ही दोनों के मध्य व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित थे। इन व्यापारिक सम्बन्धों के परिणामस्वरूप भारतीय सभ्यता का तिब्बतवासियों पर प्रभाव पड़ा था। तिब्बत का प्राचीन इतिहास अन्धकारपूर्ण है, इतिहास इसके विषय में मौन है। सबसे पहले सातवीं शताब्दी में तिब्बत के विषय में संसार को ज्ञान हुआ। उस समय तिब्बत में सांग-सैपगैम्पों नाम का एक सम्राट हुआ। उसने अपनी पत्नियों के प्रभाव में आकर समस्त तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। तिब्बत में भारतीय लिपि के प्रचलित करने का श्रेय भी उसे प्राप्त है। उसके प्रयत्नों से तिब्बत में एक नवीन सभ्यता एवं संस्कृति का उदय हुआ जो भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से बहुत हद तक मिलती-जुलती थी। अनेक बौद्ध भिक्षु तिब्बत से भारत आये और उन्होंने यहाँ आकर बौद्ध धर्म के प्रन्थों का अध्ययन तथा उनका अनुवाद किया। इन ग्रन्थों में ‘वजूर’ तथा ‘कंजूर’ के नाम प्रसिद्ध हैं। अनेक भारतीय विद्वान् भी तिब्बत गये और परिणामस्वरूप तिब्बत में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रसार हुआ।
(5) अफगानिस्तान – भौगोलिक दृष्टि से अफगानिस्तान भारत का ही एक अंग है, परन्तु राजनीतिक दृष्टि से वह उससे अलग हो गया। इस्लाम धर्म का प्रचार होने से पहले अफगानिस्तान में बौद्ध धर्म का प्रचलन था। चीनी यात्री फाह्यान और ह्वेनसांग ने इस बात का उल्लेख किया है कि अफगानिस्तान में बौद्ध धर्म का अधिक प्रसार हुआ था और वहाँ के निवासियों का जीवन भारतीयों के जीवन से बहुत कुछ मिलता-जुलता था। वास्तव में, इस्लाम धर्म के आगमन के पूर्व अफगानिस्तान में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की धूम मची हुयी थी। वहाँ संस्कृत भाषा का अत्यधिक प्रचार था और लोगों का रहन-सहन भारतीयों की तरह का ही था :
(6) फारस – फारस से भी भारतीयों के अत्यन्त दृढ़ सम्बन्ध थे। वहाँ पहलवी भाषा का प्रचलन था जो संस्कृत भाषा के अधिक निकट थी फारस के निवासी हिन्दुओं की भाँति ही अग्नि की पूजा करते थे। फारस में इस्लाम के प्रचार के फलस्वरूप भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रचार को बहुत बड़ा धक्का लगा।
निष्कर्ष उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रसार सुदूर देशों में हुआ था। विभिन्न देशों के निवासियों ने भारतीयों के सामाजिक और धार्मिक विश्वासों को अपना लिया था। विभिन्न देशों के साहित्य, भाषा और कला पर भी भारतीय साहित्य, भाषा और कला की छाप देखने को मिलती है।
अरब, गजनवी तथा गौरी के आक्रमण तथा
उनके प्रभाव
[अरबों, गजनवीदों और गौरीदों का आक्रमण और उनका प्रभाव]
“अरबों की सिन्ध विजय भारत के इतिहास की एक निर्णायक घटना थी, परन्तु इसके परिणाम दूरगामी न हुये।” -लेनपूल “तुकों के आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक दशा बड़ी शोचनीय थी। उत्तरी भारत में अनेक छोटे तथा स्वतन्त्र राज्य थे, जिनमें चाहमान वंश का राज्य सबसे अधिक शक्तिशाली था।” -डॉ० ईश्वरी प्रसाद
सिन्ध पर अरब आक्रमण का संक्षिप्त विवरण दीजिये।
prescribe briefly the Arab’s Invasion on Sindh. सिन्ध पर अरब आक्रमण का उल्लेख कीजिये। Describe the Arab’s Invasion on Sindh.
या
मुहम्मद बिन कासिम की सिन्ध के ऊपर अपेक्षाकृत सरल विजय के कारणों का उल्लेख कीजिये। उसके उत्तराधिकारी समीपवर्ती प्रदेशों पर अपना अधिकार जमाने ?
या
Account for the comparatively easy conquest of Sindh by Muhammad-bin-Kasim and for the failure of his successors to extend their sway over the adjacent territories. मुहम्मद बिन कासिम के सिन्ध आक्रमण तथा उसकी सफलता के कारणों का वर्णन कीजिये।
मुहम्मद-बिन-कासिम के सिंध आक्रमण का विवरण दीजिए तथा उसकी सफलता के कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
अरबों की सिन्ध विजयों का वर्णन कीजिये। मुहम्मद बिन कासिम की सफलता के क्या कारण थे ?
सिंध पर अरबों की विजय का विवरण दीजिए। क्या थे
मुहम्मद-बिन-कासिम की सफलता के कारण?
या अरव निवासियों की सिन्ध विजय का वर्णन कीजिये आप स्टेनलीपूल के इस
कथन से कहाँ तक सहमत है-“भारत व इस्लाम के इतिहास में अरबों की सिन्ध
विजय केवल घटना मात्र थी जिसका कोई प्रभाव भी नहीं।” Give an account of Arab conquest of Sindh. How far do you agree with this remark of Stanley Pool-“It was an episode in the history of India and Islam, a triump without result.”
उत्तर-
अरब आक्रमण के कारण
(अरब आक्रमण के कारण)
अरबों के आक्रमण के कुछ कारण निम्नांकित भी थे—*
(1) अरवों की महत्त्वाकांक्षा-अरबों की महत्त्वाकांक्षा ने सिन्ध आक्रमण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उनकी महत्त्वाकांक्षा की वजह से उन्होंने सोरिया, मेसोपोटेमिया, आर्मिनिया, ईरान, बलूचिस्तान, अफ्रीका का सम्पूर्ण उत्तरी तट, ऊपरी और निचला मिस्र, स्पेन, पुर्तगाल
और दक्षिण फ्रांस का हिस्सा अपने अधिकार में कर लिया था। (2) भारत का धन-धान्य- व्यापार की वजह से अरब भारत के सम्पर्क में तो थे ही। अत: भारत की धन सम्पत्ति से वे अच्छी तरह वाकिफ थे। भारत के धन-धान्य ने उन्हें दिवाना बना दिया।
(3) धार्मिक उत्साह-धार्मिक उत्साह की वजह से भी अरबों ने सिन्ध पर आक्रमण किया। सिन्ध आक्रमण की पृष्ठभूमि में इस्लाम का बड़ा हाथ रहा है, यद्यपि कई विद्वानों ने इस तथ्य से नजर चुरायी है।
बिन्दु 2 और 3 से सम्बन्धित लेनपूल ने एक वजनदार मत दिया है जो इस प्रकार है अव व्यापारी भारत की सम्पति तथा ऐश्वर्य, स्वर्ण तथा हीरे-जवाहरात मणि जड़ित मूर्तियों बच्च धार्मिक उत्सवों और अनुपम सभ्यता की कहानियाँ लेकर अपने देश वापिस जाते थे इस प्रभूत सम्पत्ति के प्रलोभन के साथ ही अपना धर्म फैलाने का जोश भी उनमें था।”
(4) जहाज का लूटा जाना-एक नजदीकी या तत्कालीन कारण यह माना जाता है। कि हज्जाज (इराक का गवर्नर) से सम्बन्धित जहाज को लूट लिया गया था। हज्जाज ने तुरन्त सिन्ध के शासक दाहिर को पत्र लिखा और उससे क्षतिपूर्ति को कहा। दाहिर ने अपनी असमर्थता प्रकट की साथ ही यह भी कहा कि डाकुओं की जिम्मेवारी वह नहीं रखता, क्योंकि डाकू उसकी प्रजा नहीं है। इससे हम्वाज भड़क उठा।
(5) व्यापार-एम० मुजीव के अनुसार, आक्रमण के मुख्य कारण व्यापारिक विचार थे। अरबों के पहले व्यापार पारसियों के हाथ में था। जब अरब लोग एक प्रबल समुदाय हो गये तब उन्होंने पारसियों से व्यापार अपने हाथ में लिया और 637 ई० में बसरा शहर की स्थापना की। जब अरवों ने भारत से व्यापार शुरू किया तो व्यापारियों के रूप में उन्हें अपनी वस्तियाँ बना लेने दी गयीं, और चूंकि यह व्यापार ही था जिसे लुटेरों ने अस्त-व्यस्त कर दिया था और इसीलिये हज्जाज ने सिन्ध पर धावा बोला।
अरबों का सिन्ध पर आक्रमण (Arab’s Invasion on Sindh)
सर्वप्रथम हम्बाज ने खलीफा वलीद की अनुमति लेकर उबेदुल्ला के नेतृत्व में दाहिर के विरुद्ध सेना भेजी। परन्तु उबेदुल्ला हार गया और मारा गया। दूसरा आक्रमण समुद्र मार्ग से करवाया गया। इसके लिये बुदेल के नेतृत्व में ओमन से नौ सेना भेजी गयी । बुंदेल और दाहिर के पुत्र जयसिंह में डटकर युद्ध हुआ। अन्त में मुस्लिम सेना हार कर भाग गयी और बुदेल मारा गया।
मुहम्मद-बिन-कासिम का अभियान
दो विफलताओं से आग बबूला होकर हज्जाज ने तीसरी बार आक्रमण की योजना बनायी। इस आक्रमण का नेतृत्व उसने 17 वर्षीय मुहम्मद-बिन-कासिम को दिया जो उसका
और और और 6000 दिये गये। इसके 30वानी पर लड़ाई मरान के रास्ते मे बड़ा राहते में वहाँ का द अपनी सेना के सहित उसके साथ हो लिया था। जलमार्ग से बड़ी बड़ी मशीनें भी भेजी जलको जाती थी। यही नहीं, कासिम ने कई जाटी और मेड़ों को भी अपनी ओर कर लिया था।
(1) पर अधिकारी यही तैयारी के साथ मुहम्मद बिन कासिम ने सर्वश्र
देवल पर अधिकार किया और लोगों को इस्लाम कबूलने को बाध्य किया गया आज्ञापालन
नहीं होने पर करलेआम करना दिया। वहाँ के मन्दिर को गिरवाकर उसने वहाँ मस्जिद
प्रवेश करना
(2) पर अधिकार देवल पर अधिकार करने के बाद कासिम ने की और रवाना हुआ जो उत्तरपूर्व की ओर 75 भीत दूरी पर और वर्तमान हैदराबाद के निकट स्थित था। यह नगर इस समय एक बौद्ध भिक्षु के संरक्षण में था। भिक्षु ने बिना किसी बुद्ध या प्रतिरोध के नगर को काम के हवाले कर दिया। कासिम ने वहाँ एक मुसलमान गर्वनर नियुक्त कर दिया।
(3) सेहवान (शहवान) की ओर कूच के बाद कासिम सेहवान (शहवान) की ओर रहा जो मे से 800 मील दूर उत्तर-पश्चिम में स्थित था। यहाँ दाहिर का भतीजा भजरा अरब सेना का सामना करने को तैयार था, परन्तु वहाँ के बौद्ध निवासी युद्ध नहीं चाहते थे। सो, उन्होंने नगर अरबों के सुपुर्द कर दिया।
(4) सीम की तरफ कूच सेहवान के बाद कासिम ने सीयम पर चढ़ाई की जो जाटों का राज्य था। वहाँ 2 दिन तक युद्ध हुआ। इसमें दाहिर का चचेरा, बम्भारा, वीरगति को प्राप्त हुआ। कहने में विजयश्री कासिम को भी नहीं मिली और उसने जाटों से मंत्री कर ली। कुछ कहते हैं कि जाटों का मुखिया काक कासिम से मिल गया था।
(5) रावर अभियान- फिर रावर की बारी आयी। यहाँ कासिम का दाहिर से सीधा मुकाबला हुआ। चचनामा में इसे एक साहसिक युद्ध की संज्ञा दी गयी है। निःसन्देह दाहिर इस युद्ध में बड़ी वीरता से लड़ा, परन्तु अन्त में लड़ते-लड़ते उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के बाद उसकी रानी ने युद्ध जारी रखा। जब विजय की कोई आशा नहीं रह गयी तब उसने और उसकी दासियों ने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिये जौहर करके अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। इतिहास में जौहर का यह पहला उदाहरण माना जाता
(6) बहमनाबाद (ब्राह्मणाबाद) पर चढ़ाई-रावर दुर्ग पर अधिकार हो जाने के पश्चात् कासिम बहमनाबाद की ओर बढ़ा। बहमनाबाद (नेरु के दूसरे तट पर) इस समय दाहिर के पुत्र जयसिंह के सुदर्द था। जयसिंह का राजमन्त्री कासिम से मिल गया था। फिर भी उसने कासिम का सामना किया। अन्त में उसे हताश होकर युद्ध भूमि से भागना पड़ा। कासिम को यहां से बहुत-सी अमूल्य वस्तुयें प्राप्त हुयीं। कहते हैं कि दाहिर की दो लड़कियों, सूरजदेवी और परमात देवी भी उन्हें को तोहफे के रूप में भेज दिया गया।
(7)आर पर अधिकार हमनाबाद के बाद कासिम आलोर (सिन्ध की राजधानी)
की ओर बढ़ा। आलोर में दाहिर का एक और पुत्र फूजी (Fuji) शासक था। कासिम को इस पर अधिकार करने में कोई कठिनाई नहीं हुयी। (8) मुल्तान विजय- सिन्ध के अलावा मुल्तान में भी भयंकर संघर्ष हुआ। यहाँ किसी विद्रोही ने कासिम को नगर में पानी लाने का स्रोत बड़ला दिया। भेद बतलाने के कार्य
भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक) इतिहास में नये नहीं। कई बार ऐसा हुआ है। भेद मालूम हो जाने पर कासिम ने उस स्रोत को बन्द करवा दिया और फलतः उसकी विजय सरल हो गयी। जीत के बाद यहाँ भी लूटमार एवं आम हत्याकाण्ड किया गया।
(9) कश्मीर और कन्नौज पर आक्रमण-चचनामा में लिखा है कि मुहम्मद-बिन-कासिम ने मुल्तान से कश्मीर की ओर चढ़ाई की थी और एक सेना कन्नौज भेजी थी। परन्तु अरबों के लिखे गये अन्य इतिहासों में इन चढ़ाईयों का कोई उल्लेख नहीं है। उस समय कन्नौज में यशोवर्मा और कश्मीर में ललितादित्य का राज्य था। यदि मुहम्मद-बिन-कासिम ने चढ़ाई की होगी तो भी इन लोगों ने उसकी सेना को वापिस ढकेल दिया होगा। राजतरंगिणी (ललितादित्य के इतिहास का प्रमुख स्रोत माना जाता है) तथा यशोवर्मन के इतिहास के जो स्त्रोत हैं उनसे भी कोई ऐसी जानकारी नहीं मिलती जिससे यह सिद्ध हो या कि जिनसे कोई इशारा प्राप्त हो कि ललितादित्य और यशोवर्मन पर कासिम का कोई आक्रमण हुआ था।
जब कासिम भारत के भागों में विजय प्राप्त करने में व्यस्त था तब उसे खलीफा द्वारा वापिस बुलवा लिया गया था। उसके वापिस बुलवा लिये जाने के बारे में दो मत हैं। एक तो यह कि राजा दाहिर की दो लड़कियों की जिन्हें कासिम ने हज्जाज को तोहफे के रूप में भिजवा दिया था उन्होंने उसे यह कहा कि वे उसके लायक नहीं रह गयी हैं। क्योंकि कासिम ने उनका कौमार्य नष्ट कर दिया है। खलीफा इससे बहुत नाराज हुआ और उसने हुक्म दिया कि कासिम को जीते-जी ही बैल की खाल में सिलवाकर उसके सामने पेश किया जाये। ऐसा किया गया और रास्ते में ही कासिम की मौत हो गयी। दूसरा मत (फुतहुल बुल्दान के आधार पर) यह है कि खिलाफत में परिवर्तन हो गया था। नया खलीफा सुलेमान हज्जाज का शत्रु था और मुहम्मद-बिन-कासिम हज्जाज का भतीजा और दामाद था इसलिये उसको वापिस इराक में बुलाया गया और घोर यातनायें देकर उसका वध करवा दिया गया। उसकी मौत कैसे भी हुयी हो, परन्तु यह तय है कि उसकी जीवन वितस्ति कम थी।
अरबों की सफलता के कारण
(Causes of the Success of Arabs) (1) एकता का अभाव – सिन्ध आन्तरिक रूप से छिन्न-भिन्न हो गया था। वहाँ की राजनीतिक एकता समाप्त प्राय थी। इसी कारण शक्तिशाली आक्रमण का सामना करना उनके लिये कठिन ही था। सिन्ध में उस समय कई जातियों तथा धर्मों के निवासी थे जिनमें आपसी सद्भाव नहीं था। इसी वजह से वहाँ के लोगों ने अपने शासन के विरुद्ध आक्रमणकारियों की सहायता की।
(2) राजा की अलोकप्रियता अरबों की विजय का एक कारण यह भी था कि सिन्ध का कोई भी शासक अपनी प्रजा में लोकप्रिय नहीं था। प्रजा शासक के बीच कोई सद्भावना शेष नहीं रह गयी थी। राजाओं में न तो सामरिक और न ही शासन करने की प्रतिभा थी। चच अनाधिकारी समझा जाता था और उसका पुत्र दाहिर पुणा का पात्र प्रजा ने विशेषकर बौद्धों और व्यापारियों ने उनका साथ नहीं दिया। दाहिर के गर्वनर करीब-करीब अर्द्ध स्वतन्त्र हो गये थे।
(3) हिन्दुओं का विश्व मंत्री का सिद्धान्त-हिन्दू लोग धार्मिक दृष्टि से अति सहिष्णु थे। दूसरे धर्म के लोगों के साथ उन्होंने मैत्री भाव अपनाया। यह सोचा ही नहीं कि उनके और इस्लाम धर्म के मध्य में काफी अन्तर है। एतदर्थ वे तटस्थ रहे और देश पर आये संकट को मौन दर्शक की भांति देखते रहे।
वजह से यह सम्भव नहीं था कि वह विशाल, सुसंगठित और सुसज्जित सेना रख सके । (5) सिन्ध देश का अन्य भागों से अलग होना-सिन्ध प्रान्त कई दिनों से शेष भारत से अलग था। अतएव आपत्ति के समय सिन्ध को देश के अन्य भागों से कोई सहायता नहीं मिल सकी।
(6) आक्रमणकारी सेना की उत्तमता दाहिर की सेना की तुलना में अरब सेना उत्तम
थी। आक्रमण सेना नवीन युद्ध उपकरणों से सुसज्जित तथा उचित नेतृत्व के अधीन थी, जबकि भारतीय सेना का नेतृत्व कमजोर था और अस्त्र-शस्त्र भी प्राचीन थे। ऐसा लगता है, सिन्ध के लोगों के पास अच्छी नौसेना नहीं होगी।
(7) अरबों का धार्मिक आदर्श-अरबों में यह भावना विद्यमान थी कि अल्लाह ने
उन्हें इस्लाम के लिये प्रतिनिधि के रूप में भेजा है, जबकि सिन्ध के लोगों में इस प्रकार का
कोई धार्मिक आदर्श नहीं था। (8) दाहिर की अयोग्यता एवं दुर्बलता इसके अतिरिक्त अरबों की विजय का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि सिन्ध का शासक दाहिर अयोग्य एवं दुर्बल था। दाहिर की सबसे बड़ी गलती यह थी कि उसने न तो अरब में होने वाले उपद्रवों की जानकारी रखी और न ही वह अरबों की प्रारम्भिक विजयों से सचेत हुआ। उसने सम्पूर्ण नेतृत्व करने के स्थान पर एक सिपाही की भाँति युद्ध में भाग लिया।
(9) विश्वासघात-बहुत से विश्वासघातियों ने अरबों का साथ दिया। आशावादी लाल श्रीवास्तव ने अरबों की विजय पर अपने विचार प्रकट करते हुये लिखा है- “सिन्थ की पराजय का मुख्य कारण जनता का असहयोग एवं विश्वासघात था।”
(10) मुहम्मद-बिन-कासिम का व्यक्तित्व-मुहम्मद बिन कासिम का व्यक्तित्व भी अरवों की विजय का कारण बना। वह कर्मठ, योग्य तथा एक स्वामीभक्त योद्धा था। वह महान् कूटनीतिज्ञ था। उसने एक ओर देवल विजय के बाद क्रूरता का आश्रय लिया तो दूसरी ओर उसने हिन्दुओं के प्रति सहानुभूति के साथ विचार किया। कई लोगों को उसने अपने यहाँ नौकरियाँ दी।
(11) कासिम को मकरान से सैनिक सहायता की प्राप्ति-मुहम्मद-बिन-कासिम के
साथ केवल हज्जाज की सेना ही नहीं थी, बल्कि मकरान के हाकिम ने भी उसको अपनी
सेना दी थी।
(12) सिन्ध निवासियों में सामाजिक मतभेद-सिन्ध निवासियों में सामाजिक मतभेद भी था। निम्न वर्ग के साथ खराब व्यवहार किया जाता था और उन्हें तुच्छ दृष्टि से देखा जाता था। इस सामाजिक व्यवस्था का राजनीतिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ा तथा अरबों के आक्रमण के समय इस निम्न वर्ग ने अरबों का साथ दिया। (13) अरब सेना में उत्साह की वृद्धि-निरन्तर सफलता का आलिंगन करने के कारण
अरब सेना का उत्साह निरन्तर बढ़ता जा रहा था। इसके विपरीत निरन्तर असफलता के
प्रहार से भारतीय सेना का उत्साह तथा धैर्य उत्तरोत्तर ध्वस्त होता जा रहा था।
(14) ज्योतिषी की भविष्यवाणी उस समय के ब्राह्मण तथा बौद्ध ज्योतिषियों ने यह भविष्यवाणी की कि भारत पर मुसलमान शासन करेंगे। इसका भी हिन्दुओं तथा मुसलमानों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।
(15) पारस्परिक वैमनस्य मुहम्मद की जीत का एक कारण हिन्दुओं का पारस्परिक
वैमनस्य भी था। चाच वंश कभी भी लोकप्रिय न हो सका था। वह अपहर्ता समझा जाता
भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक) था और प्रजा के साथ उसका व्यवहार अच्छा नहीं था। कश्मीर, कन्नौज आदि राज्यों के साथ उसका झगड़ा निरन्तर चलता रहा। इससे पड़ोस के राज्यों से कोई सहायता नहीं मिल सकी।
(16) सेना का विश्वासघात – दाहिर की सेना में अरब सैनिकों की एक टुकड़ी थी। युद्ध के समय इस दस्ते ने बड़ा विश्वासघात किया ।
अरव आक्रमण का प्रभाव
अरबों की सिन्ध विजय भारत तथा इस्लाम के इतिहास में एक कथा मात्र मानी गयी।
है, उसे एक परिणामहीन विजय कहा गया है, क्योंकि (1) राजनीतिक क्षेत्र में इस विजय ने भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना में कोई विशेष योगदान नहीं दिया। भारत में छोटे-छोटे राज्यों की स्थिति पूर्ववत बनी रही।
(2) सामाजिक क्षेत्र में-अरबों की विजय का भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अरब कवीले बड़े-बड़े नगरों में बस गये व उनमें से बहुतों ने अपने वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर लिये। किन्तु कालान्तर में खलीफाओं की उदासीनता व पारस्परिक द्वेष भाव के कारण अरब भारतीय समाज को प्रभावित न कर सके। इसके साथ हिन्दुओं ने भी मुसलमानों से मिलने का कभी कोई प्रयास नहीं किया। इनके विपरीत
मुसलमानों ने भी अपनी धार्मिक कट्टरता के कारण हिन्दुओं से मेल करना उचित न समझा । (3) धार्मिक क्षेत्र में-अरब भारतवासियों को प्रभावित न कर सके। यद्यपि उन्होंने तलवार के बल पर इस्लाम धर्म का प्रचार भारत भूमि पर करना चाहा, किन्तु विशेष सफलता नहीं मिली। सिन्ध निवासी इस्लाम धर्म अपनाने की अपेक्षा मृत्यु का आलिंगन करना उचित समझते थे अतः मुसलमानों ने उस पर जजिया कर लगा कर ही सन्तोष किया। कासिम प्रथम व्यक्ति था जिसने जजिया कर लगाया।
(4) आर्थिक क्षेत्र में अरबों को सिन्ध विजय के फलस्वरूप भारत की कृषि व व्यापार की अवस्था पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। अरबों ने बहुत से हिन्दुओं की भूमि को छीनकर मुसलमानों को दे दिया, परन्तु हिन्दुओं का कार्य खेती व व्यापार ही रहा । यद्यपि मुसलमानों ने हिन्दुओं को आर्थिक दृष्टि से खोखला करने का प्रयास किया, किन्तु वे ऐसा करने में सफल न हो सके, क्योंकि खेती व व्यापार, जो आय के मुख्य साधन थे,
हिन्दुओं के हाथ में रहे।
महमूद गजनवी के समय भारत की स्थिति का वर्णन कीजिए
आक्रमणों के पीछे महमूद गजनवी के उद्देश्य क्या वे और उसकी सफलता के क्या कारण थे ? What were the aims of Mahmud Ghaznavi behind his invasions
and what were the causes of his success? महमूद गजनवी के आक्रमणों ने भारत को किस प्रकार प्रभावित किया ? How did Mahmud Ghaznavi’s invasions effect india? या महमूद गजनवी के प्रारम्भिक जीवन और उसके आक्रमणों का वर्णन कीजिये। Give an account of the early life of Mahmud Ghaznavi and his invasions.
उत्तर-
(तुर्कों का परिचय)
वैसे 8वीं सदी में अरबों के भारत पर आक्रमण ने भारत के इतिहास का सफा पलटने का प्रयास किया था, परन्तु इसकी सही साख तुर्की को जाती है, वह भी विशेषकर महमूद गजनवी को। महमूद के पहले अलप्तगीन, सुबुक्तगीन ने भारत प्रवेश की कोशिश अवश्य की थी, परन्तु वे एक प्रकार से परिधि या परिरखा पर ही रहे। महमुद का प्रवेश ही गहरा रहा। कहा जाता है, महमूद के पूर्वजों का सम्बन्ध फारसी घराने से था जब अरबों ने आक्रमण किया तो वे लोग तुर्किस्तान चले गये और तुर्की से घुलमिल गये और इसलिये उनका घराना तुर्की घराना कहलाने लगा।
महमूद का प्रारम्भिक जीवन (Early Life of Mahmud)
महमूद गजनवी का जन्म 1 नवम्बर 971 में हुआ था और 27 वर्ष की उम्र में 1998 में वह गजनी का सुल्तान बना। उसे प्रारम्भ में इस्लामी ढंग की शिक्षा दी गयी थी। कुरान, हदीश तथा शरियत के नियमों से वह भली-भाँति परिचित था। यद्यपि वह कुरूप था, तथापि प्रतिभाशाली होने के साथ-साथ कुशल सामरिक प्रवृत्ति का व्यक्ति भी था। जिस समय वह गजनी का सुल्तान बना उस समय उसके अधीन अफगानिस्तान और खुरासान के ही राज्य थे। वह युद्ध-प्रेमी और महत्त्वाकांक्षी तो था ही। अतः जब बगदाद के खलीफा अलकादिर मिल्लाह ने उसे यामिन-उद-दौला (साम्राज्य का दाहिना हाथ ) तथा यामिन-उल-मिल्लाह (मुसलमानों का रक्षक) और शाही पोशाक दी तब उसने प्रण किया कि वह भारत पर आक्रमण करेगा।
भारत की दशा
ऐसा प्रतीत होता था कि जिस समय महमूद सुल्तान बना, उस समय यद्यपि भारत में शिक्षा साहित्य, धर्म, कला का कुछ विकास हो ही रहा था और राजनीतिक क्षेत्र में भी हालात उतने बुरे नहीं थे, तथापि जब हमें भीमकाय पुरुष की आवश्यकता थी तब हमें बौना मिला और कुछ आन्तरिक गड़बड़ी हर क्षेत्र में थी वरना संस्कृति यों ही नष्ट नहीं हो जाया करती। जार्ज मेरेडिथ ने कहा था कि ईश्वर जानता है कि कारुणिक या दुःखद या त्रासिक जीवन में किसी खलनायक की आवश्यकता नहीं होती, कि सिर्फ मनोभाव या मनोविकार ही कथावस्तु या कथानक बनाते हैं कि हमारे अन्दर ही मिथ्या से ही हमें छले जाते हैं। संस्कृति के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती नजर आती है। वास्तव में, संस्कृति और सभ्यता के पतन के लिये बाह्य घटक नहीं लगते, विदेशी आक्रमण तो सांघातिक प्रहार (Coupd grace) देते हैं। गिरावट तो आन्तरिक घटकों द्वारा होती है। वकीनन, महमूद के समय राजनीतिक दृष्टि से भारतवर्ष छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था जो आपसी फूट के शिकार थे। उत्तरी भारत में हिन्दूशाही कन्नौज, बंगाल, कश्मीर आदि कुछ प्रसिद्ध राज्य थे और सिन्ध तथा मुल्तान की मुस्लिम रियासतें भी थीं। दक्षिण में केवल दो ही प्रमुख राज्य थे-कल्याणी का चालुक्य राज्य और तंजौर का चोल राज्य उत्तर और दक्षिण भारत के ये सभी राज्य राष्ट्रीय एकता और देश भक्ति की भावना से शून्य थे। सामाजिक दृष्टि से भारतीय जनता संकीर्णता में फंसी हुयी थी। वह कूपमंडूक थी जिसे विदेशियों की गतिविधियों को कोई ज्ञान नहीं था। समाज की पाचनशक्ति नष्टप्राय हो गयी थी। सामाजिक
भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक) कट्टरता के कारण विकास के मार्ग कुण्ठित हो गये थे। समाज में चेतना और स्फूर्ति की कमी थी। उस समय के संघों और मठों में भ्रष्टाचार व्याप्त हो रहा था। आर्थिक क्षेत्र दे गरीबों और अमीरों के बीच खाई थी। वैसे कुल मिलाकर देश की आर्थिक स्थिति उत्पन थी। विदेशों में भारत को सोने की चिड़िया समझा जाता था। दुर्भाग्य से यह धन वैभव अरक्षित अवस्था में था। भारतीय अपनी पश्चिम सीमा की रक्षा के सम्बन्ध में पूरी तरह असावधान थे। अतः स्वाभाविक था कि विदेशियों को भारत आकर्षित करता।
महमूद के आक्रमण के उद्देश्य
वैसे तो महमूद आकर्षित हुआ, भारत पर। उसके भारत आक्रमण के उद्देश्य मुख्यत: निम्नांकित बतलाये जाते हैं- (1) इस्लामी प्रचार-उतवी के अनुसार महमूद का भारत पर आक्रमण करने का
उद्देश्य इस्लाम का प्रसार तथा कुरु का मूलोच्छेदन करना था। परन्तु हवीय के अनुसार, उसकी बर्बरता ने तो इस्लाम को बदनाम कर दिया था। आशीर्वादी लाल का भी इसी प्रकार का मत है। एलफिन्सटन का भी मत है कि हमें उसके द्वारा किये गये धर्म परिवर्तन के कार्यों का पता नहीं चलता।
(2) साम्राज्य विस्तार एवं सेना को शक्तिशाली बनाये रखना आशीर्वादी लाल के अनुसार, महमूद साम्राज्य विस्तार करना चाहता था। परन्तु यह मत भी ठीक प्रतीत नहीं होता। उसने जाते हुये प्रदेशों को (पंजाब, सिन्ध के कुछ भाग को छोड़कर) अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया। उतवी का कहना है कि महमूद एक विजेता एवं साम्राज्यवादी सुल्तान था। साम्राज्यवादी व विजेता को सदैव एक सुसंगठित एवं शक्तिशाली सेना की आवश्यकता होती है। सेना निरन्तर युद्धों में भाग लेने से ही शक्तिशाली रहती है। अतः भारत को उसने एक उपयुक्त रण-स्थल समझा और वहाँ निरन्तर आक्रमण किये। अपनी सेना को
विशाल एवं शक्तिशाली बनाये रखने के प्रयत्न तो वह अपने देश में भी कर सकता था। (3) साम्राज्य को सुरक्षित रखना- एक यह भी कारण बतलाया जाता है कि उसने अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिये भी भारत पर आक्रमण किये। ए० एल० श्रीवास्तव ने लिखा है – “वह यथार्थवादी था और पड़ोस में स्थित एक शक्तिशाली तथा शत्रुतापूर्ण हिन्दू राज्य के अस्तित्व से उसकी स्वतन्त्रता और विशेषकर आक्रमणकारी नीति को खतरा था।”
(4) धन प्राप्ति महमूद बेहद लोलुप था और उसने भारत की अपार धन सम्पत्ति की कहानियाँ भी सुन रखी थीं। नगरकोट, बानेश्वर, मथुरा और सोमनाथ उसके लिये सोने के अक्षर थे जो उसके लोलुप हृदय की पट्टी पर लिखे हुये थे। भारत के स्वर्ण चर्म को वह अपने देश में बिछाना चाहता था। किस पराक्रमी को धन की आवश्यकता नहीं होती ? खादी हावेल तथा श्रीवास्तव आदि अनेक लोगों ने धन प्राप्ति को ही महमूद के भारत आक्रमण का मुख्य उद्देश्य बताया है।
महमूद के भारत पर आक्रमण (Mahmud’s Invasions on India)
ऐसा लगता है कि अनेक कारणों से धन प्राप्ति, अपना नाम और गजनी का गौरव एवं साम्राज्य सुरक्षा आदि महमूद के भारत आक्रमण के मुख्य कारण थे। उनसे प्रेरित होकर महमूद ने 1000 से 1027 के बीच भारत पर आक्रमण किये। चूँकि उसके आक्रमण की
में इतना धन मिला कि जितने भी ऊँट महमुद को मिल सके, उन पर लूट का प दिया फिर भी जो बचा कर उसे अफसरों में बाँट दिया गया।” ए० एल० श्रीवास्तव कहना है कि इस आक्रमण के समय आधुनिक अलवर तक आ गया और अलवर ि में नारायणपुर को भी उसने लूटा।
(4) मथुरा पर आक्रमण-1018 में महमूद ने मथुरा के कलापूर्ण धराशायी कर दिया तथा उनकी अपार धनराशि को गजनी ले गया। (5) कर्नाज कालिंजर पर आक्रमण-1019 में उसने कन्नौज के राठौर वंशीय
जयचन्द को अपना आधिपत्य स्वीकार करने के लिये वाध्य किया और कालिंजर में एक नन्द को हराया। इन स्थानों से भी उसने जवाहरात, भेंटें आदि काफी प्राप्त की। (6) सोमनाथ पर आक्रमण – 1025 में एक विशाल सेना के साथ महमूद ने सोमनाथ पर चढ़ाई को पंजाब और राजपूताने के रेगिस्तान को पार करते हुए गुजरात के
सोमनाथ के मन्दिर को अथाह धन सम्पति को लूटने के लिये महमूद को राजपू
युद्ध करना पड़ा। अन्त में राजपूतों की हार हुयी। यहाँ के मन्दिर की लूट से, ए० एल०
श्रीवास्तव के मतानुसार, महमूद को 20,00,000 दीनार से भी अधिक का धन प्राप्त हुआ। (7) अन्तिम आक्रमण और मृत्यु – 1027 में सोमनाथ पर विजय प्राप्त करने के बाद जब महमूद अपने देश लौट रहा था तो नमक के पहाड़ों के पास रहने वाले जाटों ने उसे 1 कष्ट दिया। अतः उसने 1027 में उन पर चढ़ाई की और उनका कठोरतापूर्वक दमन किया। जाटों से युद्ध करने के 3 वर्ष बाद 1030 में उसकी मृत्यु को गयी। कहते हैं कि उसके अन्तिम दिन सुखद सिद्ध न हुये। साम्राज्य अति विस्तृत हो गया था और उस पर पूर्ण रूप से शान्ति व व्यवस्था बनाये रखने में वह सफल नहीं हुआ था। अतः उसके जीवन काल में ही उसके साम्राज्य में अराजकता घर करने लग गयी थी। भारत के लूटे माल से उसे बहुत मोह हो गया था। अतः उसने इस लोक को अत्यन्त दुःखपूर्ण अवस्था में छोड़ा। आक्रमण का महमूद को लाभ
महमूद गजनवी को भारत आक्रमण से जो लाभ हुआ, उसे अवर्णनीय कहा जा सकता है। आक्रमणों से कई हाथी, अनेकों आदमी, कई दीनारें, बहुत से उपहार आदि प्राप्त हुये । मथुरा और सोमनाथ से तो अतुल राशि प्राप्त हुयी। उसके भारत आक्रमण से उसका खजाना खचाखच भर गया। यदि कुछ कमी रह भी गयी थी तो उसने उसे युद्ध-कैदियों को दास की तरह बेच कर पूरा किया। धन के अलावा, उसका नाम हुआ, गजनी का गौरव और उसके साम्राज्य की सुरक्षा का मकसद भी पूरा हुआ। महमूद की सफलता के कारण (Causes of the Success of Mahmud) बढ़ा
महमूद अपने हर एक आक्रमण में सफल हुआ। ऐसा कहा जा सकता है। उसकी सफलता के मुख्य कारण ये गिनाये गये हैं— (i) राजपूतों में आपसी मतभेद, (ii) भारतीय शासकों की अयोग्यता, (ii) मुसलमानों में धार्मिक जोश, (iv) भारतीयों में देश-प्रेम व राष्ट्रीयता का अभाव, (v) महमूद की रण-कुशलता, (vi) धन का आकर्षण, (vii) सेना का अभाव, (viii) महमूद के पास सुरक्षित सेना का होना, (ix) हिन्दू शासकों के युद्ध में हाथियों का प्रयोग, (x) महमूद के गुप्तचर विभाग की कुशलता ।
महमूद के आक्रमण के प्रभाव (Effects of Mahmud’s Invasions) कुछ लोग कहते हैं कि महमूद गजनवी के आक्रमणों का भारत पर कोई चिरस्थायी प्रभाव नहीं पड़ा। महमूद तूफान की तरह आया, प्रत्येक चीज को नष्ट किया और फिर चला
गया। भारतीय लोग शीघ्र ही उसके भावों और उसकी नृशंसताओं को भूल गये और उन्होंने पुनः मन्दिर बनाये, मूर्तियाँ बनवायी और शहर बनवाये। वास्तव में भारतीय उसके आक्रमण को भूल गये और बाद में उन्हें उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। परन्तु यह मानना होगा कि उसके आक्रमणों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। आर० सी० मजमदार का कहना है— भारतीय शासस्तव में अनको दूसरे आ गयी और अब प्रश्न यह नहीं था कि कैसे भारतीय साम्राज्य गिर पड़ेगा, परन्तु प्रश्न यह था कि कब गिर पड़ेगा। इससे लगता है कि महमूद के आक्रमण प्रभावहीन नहीं थे बल्कि प्रभावशाली थे।” इसी विद्वान के अनुसार, मुख्य प्रभाव इस प्रकार थे-
(1) राजनीतिक-महमूद के आक्रमणों से भारत की राजनीतिक दुर्बलता प्रकट हो गयी जिससे भावो मुस्लिम आक्रमणकारियों को प्रोत्साहन मिला। महमूद आक्रमणों के कारण सिन्ध और मुल्तान के अतिरिक्त पंजाब में भी इस्लामी हुकूमत कायम हो गयी। पंजाब को विजय के बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों के लिये शेष भारत को विजय आसान हो गयी।
(II) आर्थिक-महमूद के हमलों के कारण को जन-धन की अपार हानि उठानी पड़ी। हजारों हिन्दू उसकी बर्बरता के शिकार हुये और भारत को सैन्य शक्ति को गहरा आघात लगा। भारत को विपुल आर्थिक हानि उठानी पड़ी, जिसकी क्षतिपूर्ति भविष्य में कभी नहीं हो सकी।
(III) सांस्कृतिक भारत के मन्दिरों, भवनों, ऐतिहासिक समृद्धिशाली नगरों के विनाश से भारतीय सभ्यता और संस्कृति को गहरी चोट लगी।
(IV) धार्मिक हिन्दुओं में धर्म को श्रद्धा कुछ कम हो गयी, भगवान में उसको आस्था भी कम होने लगी, मूर्ति-पूजा का ह्रास हुआ, वे नास्तिक व निर्गुण पंथी होने लगे । इधर महमूद के साथ और बाद में कुछ मुस्लिम सन्त हुये, जिन्होंने भारत में इस्लाम को लोकप्रिय बनाने का प्रयत्न किया। 0
महमूद गजनवी के चरित्र व व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिये।
Give an account of the character and personality of Mahinud Ghaznavi
. या “यद्यपि महमूद गजनवी अनेक गुणों से सम्पन्न था, परन्तु भारतीयों के लिये वह केवल एक लुटेरा था।” इस कथन की विवेचना कीजिये ।
“Through Mahmud was gifted with many good qualities but for Indians he was a bandit.” Discuss.
या “जहाँ तक भारत का सम्बन्ध है महमूद गजनवी विस्तृत रूप से कार्य करने वाला
एक लुटेरा ही था।” क्या आप इस मत से सहमत हैं ? सुल्तान के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुये अपने उत्तर की पुष्टि कीजिये ।
“So far as India was concerned, Mahmud Ghaznavi was simply a bandit operation on a large scale.” Do you agree with this view? Give your estimate of the personality of the Sultan.
“मूर्ति भंजक भारत में इस्लामी राज्य (Crescentdem) स्थापित करने की अपेक्षा लूटमार की ओर अधिक झुका हुआ था।” महमूद गजनवी के सम्बन्ध में इस कथन की व्याख्या कीजिये।
या “महमूद गजनवी अपने चरित्र में दो मुखी था।” इस कथन को स्पष्ट कीजिये। “Mahmud Ghaznavi was double faced (Janus headed) in his character.” Elucidate.
उत्तर-
महमूद का मूल्यांकन
एस० आर० शर्मा ने ठीक ही कहा है, महमूद गजनवी का चरित्र दो मुखी था। गजनी के सन्दर्भ में उसके कार्य अलग थे और भारत के सन्दर्भ में अलग उसके व्यक्तित्व की सही जानकारी के लिये हमें उसे दोनों सन्दर्भों में ही परखना होगा वरना हम पूर्वाह दोषी होंगे और उसका मूल्यांकन निष्पक्ष नहीं कहा जा सकेगा। यदि दोनों सन्दर्भों पर गौर नहीं करें तो महमूद दिये गये किसी एक सन्दर्भ में तो बहुत अच्छा लग सकता है और किसी दूसरे में बहुत बुरा। किसी एक सन्दर्भ में फरिश्ता तो दूसरे में हैवान, मुस्लिम सन्दर्भ में गाजी और हिन्दू सन्दर्भ में दूग अलग-अलग सन्दर्भों की अलग-अलग परिस्थितियों में उसका व्यक्तित्व अलग-अलग था। गजनी के सन्दर्भ में यदि वह न्यायप्रिय, उदार, सफल प्रशासक, कला-प्रेमी, विद्वानों का संरक्षक, उच्च कोटि का धार्मिक तथा सद्-आचरण वाला व्यक्ति नजर आया तो भारत के सन्दर्भ में वह लालची, बर्बर और लुटेरा। सुविधा की दृष्टि से हम महमूद का मूल्यांकन निम्न शीर्षकों में कर सकते हैं-
(1) कुशल सेनानायक-महमूद के जीवन के अन्य पहलुओं पर इतिहासकार विभिन्न मत रख सकते हैं, पर उसके कुशल सेनानायक होने में किसी को सन्देह नहीं। भारत पर उसने कई बार आक्रमण किये। सभी आक्रमणों में वह स्वयं सेनापति रहा और समस्त युद्धों में उसने अपूर्व सफलता भी प्राप्त की। उसकी सोमनाथ विजय उसके दृढ़ निश्चय, मानसिक शक्ति और कठिनाइयों के सामने अडिग साहस को सिद्ध करती है। अदम्य उत्साही होना एक सफल सेनानायक का गुण समझा जाता है। उतबी से हमें पता चलता है कि, ‘महमूद है प्रातः काल उठकर अपनी सेना के साथ कूच कर देता था और रास्ते में पूरा नियम रखता था और अपनी द्रुतगति से विपक्षी को आश्चर्यचकित कर देता था।’ आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव का कहना है-“महमूद वीर सैनिक तथा महान् सेनानायक था। कहा जाता है, उसमें असाधारण व्यक्तिगत पराक्रम न था किन्तु वह निर्भीक तथा साहसी था।” लेनपूल के अनुसार, “महमूद एक महान् सैनिक, असीम साहस का व्यक्ति तथा अदम्य मानसिक तथा शारीरिक शक्ति का मनुष्य था।” एम० एम० जफर ने भी उच्च कोटि का सेनानी माना है। महमूद को सफल सेनानायक व
(2) उदार एवं सफल प्रशासक – महमूद को गणना एशिया के महानतम् मुस्लिम शासकों में की जाती है। यद्यपि उसका साम्राज्य खलीफा से भी अधिक विस्तृत था तथापि उसके उस विशाल राज्य में शान्ति व सुव्यवस्था थी। वह एक स्वेच्छाचारी शासक था। मन्त्री उसकी इच्छा पर निर्भर रहते थे। राज्य की कार्यपालिका व्यवस्थापिका तथा न्यायपालिका का वह प्रमुख था। उसके अधिकारों पर केवल दो ही अंकुश थे-परम्परागत मुस्लिम कानून और सैनिक विद्रोह की आशंका। वह अपने कर्तव्यों की ओर सैदव जागरूक रहता था। भारत में वह जरूर क्रूर रहा, परन्तु वैसे जनता की रक्षा करना अपना परम कर्त्तव्य समझता था। वह गरीबों की सदैव रक्षा करता था और उसकी दृष्टि में धनी तथा निर्धन समान थे।
(3) न्याय-प्रिय-महमूद एक न्यायप्रिय शासक था। न्याय सम्पादन में वह किसी का पक्षपात नहीं करता था। न्याय में वह कट्टरता पसन्द करता था। बेईमान व्यापारी उसके दण्ड से नहीं बच सकते थे। वह अपने सम्बन्धियों तक को उनके अपराध के लिये दण्ड देने में तनिक भी नहीं झिझकता था। उसने अपने भतीजे का एक स्त्री से नाजायज सम्बन्ध होने के कारण सिर काट दिया था। सल्यूक वजीर निजामुलमुल्क ने उसकी न्यायप्रियता की तारीफ की है।
सकता पंजाब को उसने जरूर अपने साम्राज्य का प्रान्त बनाया। परन्तु सिर्फ इस एक उदाहरण से तो यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होता कि उसका उद्देश्य भारत में साम्राज्य विस्तार था। फिर आर० सी० मजूमदार ने लिखा है कि पंजाब को महमूद ने प्रसन्नतापूर्वक नहीं वरन् आवश्यकता पूर्ति के उद्देश्य से ही अपने राज्य का अंग बनाया, क्योंकि इस क्षेत्र से होकर ही वह भारत में अपना अभियान जारी रख सकता था। हाँ, उधर उसने जरूर साम्राज्य विस्तार किया। भारत से प्राप्त अतुल धन को उसने विशाल सेना के संगठन में व्यय किया, ताकि उम्र सेना की सहायता से एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया जा सके। भारत के हाथों भी वह मध्य एशिया में अपने साम्राज्य विस्तार हेतु हो ले गया था। उसने अपने पिता से विरासत में केवल गजनी और खुरासान के प्रदेश ही प्राप्त किये थे। आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव का कहना है कि उसने स्वयं अपने बाहुबल से इस विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। वह एक विशाल साम्राज्य का स्वामी था जो इराक तथा कैस्पियन सागर से गंगा तक विस्तृत था और बगदाद के खलीफा से भी कहीं अधिक विशाल था। महेदी हुसैन ने लिखा है, “रोम और अभ्यासी खलीफाओं के राज्य के पतन के बाद उसका राज्य सबसे विशाल था जो संसार ने देखा था।” वुल्जले हेग ने भी ऐसा ही माना है।
(5) कला-प्रेमी तथा विद्वानों का संरक्षक-भारत के सन्दर्भ को छोड़कर यह कहा जा सकता है कि महमूद कला प्रेमी भी था। गजनों को उसने सुन्दर प्रासादों, मस्जिदों, विद्यालयों तथा समाधियों से अलंकृत किया। एस० आर० शर्मा ने उसके कला-प्रेम के बारे में लिखा है, जैसा कि 7 शताब्दियों के बाद फ्रांस का लुई XIV ने किया. महमूद ने अपनी राजधानी तथा दरवार को सारमण्डल का रूप दिया, जिसका अधिष्ठाता सूर्य वह स्वयं था। गजनी को सुशोभित करने के लिये उसने महान् शिल्पी विद्वान् कवि तथा कलाकार विस्तृत साम्राज्य के विभिन्न भागों में आमन्त्रित किये।” लेनपूल ने उसके कला प्रेम को सराहना की है और उसे इस क्षेत्र में नेपोलियन से भी अधिक श्रेष्ठ बताया है। नेपोलियन ने तो पेरिस को विजित देशों की कलाकृतियों से अलंकृत किया था, पर महमूद ने तो अन्य देशों से कलाकारों को गजनी आमन्त्रित कर उनकी कलाओं से गजनों को सुन्दर बनाया था।
इसी प्रकार वह विद्वानों का भी संरक्षक था। अलवरुनी (रेहान) उसके दरवार का महान् दार्शनिक, गणितज्ञ, इतिहास का विद्वान् ज्योतिष का ज्ञाता तथा संस्कृत और तुर्कों का पण्डित था उजरी तुसी अन्सारी उतवी, फारुखी असजादी भी उसके दरबार के विद्वान् थे। वहाकी नामक विद्वान ने तारीखे सुबुक्तगीन की रचना की थी। शाहनामा नामक अन्य महमूद को प्रशंसा में फिरदौसी ने लिखा था। लेनपूल के अनुसार, उसका दरबार सांस्कृतिक कार्यों का आदर्श माना जाता था। शिक्षा प्रचार की दृष्टि से उसने विद्यालय और विश्वविद्यालय भी स्थापित किये।
(6) आचरण की उच्चता- आचरण का वह पक्का था। कोई भी औरत उसकी कमजोरी नहीं हुयी। कोई भी इतिहासकार इस बात का प्रमाण नहीं देता कि उसने किसी स्त्री की हत्या करवायी हो अथवा किसी स्वी के सतीत्व को भंग किया हो।
(7) सुन्दरता का अभाव कहा जाता है कि महमुद तैमूर की भाँति सौन्दर्य से रहित था। उसके चेहरे पर चेचक के निशान थे जिसके कारण उसका मुख सुन्दर प्रतीत नहीं होता था। वह अपने इस अभाव को राजा के हाव-भाव द्वारा दूर करने का प्रयास करता था। परन्तु महमूद अपने इस अभाव से भली-भाँति परिचित था और उसे यह अभाव अखरता भी था। इसलिये एक दिन उसने अपने मन्त्रियों से कहा भी कि “राजा के व्यक्तित्व से
उसके दर्शकों की आँखें चकाचौंध हो जानी चाहियें। पर प्रकृति मेरे ऊपर इतनी निष्ठुर रही है कि मेरा व्यक्तित्व देखने योग्य नहीं रखा है।”
(8) धर्मनिष्ठा-महमूद में धर्मनिष्ठा थी। वह कुरान में पूर्ण विश्वास रखता था। वह दिन में 5 बार नमाज पढ़ता था और रमजान के दिनों में रोजे रखता था। मुसीबत में ज युद्ध में भी वह नमाज पढ़ना नहीं भूलता था। युद्ध प्रारम्भ करने से पूर्व वह अल्लाह की इबादत करना अच्छा समझता था। उसकी धार्मिक आस्था को प्रशंसा करते हुये एम एम० ऊपर लिखते हैं कि वह युद्ध में भी अल्लाह की इबादत करने के लिये झुक जाता था तथा वह अपनी विजय के लिये प्रार्थना करता था पर फिर भी इसका मतलब यह नहीं कि वह धर्मान्य था। भारत के सन्दर्भ में उसके द्वारा मूर्तियां तोड़ा जाना, लोगों का कत्लेआम किया जाना आदि निश्चित रूप से उसकी धर्मान्धता का प्रतीक नहीं। नाजिम के अनुसार, यह तत्कालीन युद्ध प्रणाली का अंग भी माना जा सकता है। कुछ यह कहते हैं कि जब महमूद ने बुलन्दशहर मथुरा और कन्नौज पर आक्रमण किया तब उसने कई लोगों को इस्लाम का अनुयायी बनाया और इसलिये उसे धर्मान्ध कहा जा सकता है। परन्तु, (जैसा एलफिन्स्टन ने माना है) गुजरात में इतने दीर्घकाल के प्रवास तथा गुजरात को अधीनस्थ करते समय महमूद ने एक का भी धर्म परिवर्तन नहीं किया और फिर यदि वह धर्मान्ध होता हो हिन्दू सैनिक उसकी सेना में शामिल होने के पश्चात् हिन्दू कैसे बने रहते ? ऐसा लगता है कि उसके द्वारा कुछ लोगों के मुसलमान बनाये जाने और कुछ को वैसे ही रहने दिये जाने के पीछे राजनीति का हाथ रहा होगा। वरना, जैसा कि हबीब का कहना है, “जीवन में महमूद का दृष्टिकोण धर्म-निरपेक्ष था।” वह मुस्लिम विद्वानों का अन्धा होकर विश्वास नहीं करता था। इसके अलावा यह भी पता चलता है कि गजनी में उसने हिन्दुओं को अलग निवास की सुविधा दी थी और उन्हें अपने धर्म की पूरी स्वतन्त्रता थी। इस प्रकार भी उसके धर्मान्ध होने का पता नहीं चलता।
(9) राजनीतिज्ञ पद्यपि महमूद एक उच्च कोटि का सेनानायक एवं योद्धा था, सफल प्रशासक भी था। परन्तु, उसमें एक सफल राजनीतिज्ञ के गुणों का सर्वथा अभाव था। लेनपूल ने भी लिखा है कि, “वह रचनात्मक कार्य करने वाला अथवा दूरदर्शी राजनीतिज्ञ नहीं था। हम किसी ऐसे नियम अथवा शासन व्यवस्था के विषय में नहीं सुनते जो उसके मस्तिष्क से निकला हो।” साम्राज्य सुसंगठित करना तथा सुदृढ़ करना शायद उसका ध्येय नहीं था। उसका राज्य इतना असंगठित था कि जैसे ही उसकी मृत्यु हुयी वैसे ही उसका राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा लेपूल ने इसकी पुष्टि में लिखा भी है कि, “उसके विशाल साम्राज्य का संगठन इतना असम्बद्ध और ढीला था कि उसकी मृत्यु होते ही उसका साम्राज्य खण्डित हो गया। “
(10) लालचीवर एवं लुटेरा भारत के सन्दर्भ में वह लालची, बर्नर एवं सुटे ही था। सी० वी० वैद्य तथा अन्य ऐसा नहीं मानते। परन्तु, स्मिथ, हॉवेल आदि का मत इन लोगों से विपरीत है। जहाँ राजस्थान के रेगिस्तान की चिन्ता न करते हुये सोमनाथ पहुँचना उसके अदम्य एवं अडिग उत्साह, साहस एवं दृढ़ निश्चय का द्योतक है, वहाँ वह उसकी धन लिप्सा का भी द्योतक है। यद्यपि भारत के धन को उसने अन्यत्र उदारतापूर्वक खर्च किया, परन्तु भारत को तो लूटा ही। जवाहर लाल नेहरू ने भी उसे लुटेरा हो भाग है। मन्दिरों को लूटना भी उसकी धनलोलुपता का ही प्रमाण है न कि धर्मान्धता का। धन कहीं अन्यत्र होता है तो वह लूटमार अन्यत्र करता है न कि वहाँ। और लूटमार में उसरे। 1. रौजत उस सभा और तबकाते अकबरी से भी उसकी धन लोलुपता का पता चलता है। ब्राउन का यदि
ऐसा ही मत है।
बरता बरती और इसलिये उसे रक्तपिपासु विध्वंसकारी एवं शैतान का अवतार कहा गया। अली ने लिखा है कि जहाँ भी उसकी सेनायें पहुंची वहीं से शिक्षित एवं विद्वान् अन् अपने प्राण लेकर भाग गये। आशीवांदी लाल ने लिखा है कि, “जहाँ भी वह गया वहाँ उसने अत्यन्त निर्दयतापूर्वक हत्याकाण्ड किये। जो विजेता अपने पीछे उमड़े नगरों और गाँवों तथा निर्दोष मनुष्यों की लाशों को छोड़ जाता है उसे भावी पीढ़ियाँ केवल आततायी रा समझकर ही याद रख सकती है, अन्य किसी प्रकार से नहीं। महमूद कार्यों से एक डाकू लालची लुटेरा तथा कला का निर्दयी शासक ही प्रतीत होता है, उसने दर्जनों समृद्धशाली नगरों को लूटा कई निर्दोष मनुष्यों को मौत के घाट उतारा तथा अनेक मन्दिरों को, जो कला के आश्चर्यजनक आदर्श के मूल में मिला दिया।” उसकी बर्बरता को दृष्टिकोण में रखते हुये विद्वानों ने यह कहा कि वह सिर्फ तुर्क था, बजाय मुसलमान के वैसे तुर्क 1 मुसलमान ही होते हैं, परन्तु अरबी और फारसी मुसलमानों की तुलना में तुर्क शायद जन्मजात बर्बर होते हैं। इसलिये कई विद्वानों ने महमूद को तुर्क कहना ज्यादा पसन्द किया जाय उसे मुसलमान कहने के। इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि मूर्ति भंजक महमूद का उद्देश्य भारत में इस्लामी राज्य स्थापित करने के बजाय लूटमार करना था। भारत पर आक्रमण कर यहाँ की सम्पत्ति को लूट ले जाना ही उसका एक मात्र उद्देश्य था और इसलिये भारत के परिप्रेक्ष में तो उसे एक लुटेरा मात्र ही कहा जायेगा। यदि बर्बरतापूर्वक धन लूटना उसका उद्देश्य नहीं होता तो वह भारत में अच्छी व्यवस्था कायम करता और स्थायी राज्य की कल्पना करता।
मुहम्मद गौरी के प्रारंभिक जीवन और उसके आक्रमणों का विवरण दीजिए।
तराइन के दूसरे बुद्ध के बारे में आप क्या जानते हैं ?
What do you know about the Second battle of Tarain.
या
पृथ्वीराज III की पराजय के कारण और तराइन के दूसरे युद्ध के परिणामों पर
एक संक्षिप्त निवन्ध लिखिये।
Write a short essay on the causes of the defeat of Prithviraj III and the results of the second battle of Tarain.
या “तराइन के दूसरे निर्णायक युद्ध ने भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव डाल दी।”
(वी० स्मिथ) विवचेना कीजिये। “The second decisive battle of Tarain laid the foundation of Muslim dominion in India”. (V. Smith) Discuss.
बारहवी शताब्दी में उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति की विवेचना कीजिये।
Discuss the political condition of Northern India during 12th Century.
मुहम्मद गौरी के आक्रमण के समय भारत की या राजनीतिक दशा का वर्णन कीजिये।
मुहम्मद गौरी के प्रारम्भिक जीवन और उसके आक्रमणों का वर्णन कीजिये।
उत्तर
भारत की दशा
(1) राजनीतिक दशा-महमूद गजनवी के 1027 के अन्तिम भारत आक्रमण के करीब 48 वर्ष बाद भी भारत में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ था सिवा इसके कि शासक लटते रहे। राजनीतिक दृष्टि से भारत पहले ही की तरह कमजोर था। सीमान्त प्रदेश में
मुसलमान राजा थे। पंजाब में गजनवी वंश का शासन था और सिन्ध और मुल्तान में शिया सम्प्रदाय के मुसलमानों का। सिन्ध और मुल्तान के राज्य छोटे से तथा पंजाब का गजनवी राज्य दुर्बल था। इन मुस्लिम राज्यों के साधन बड़े सीमित मे और हिन्दू जनता का सहयोग भी इन्हें प्राप्त न था, अत: इनमें इतनी क्षमता नहीं थी कि वे अपनी शक्ति का अपव्यय करते रहते थे। चौहान राजपूत उनसे प्रबल थे। अतः युद्धों में ये मुस्लिम राज्य उल्टे अपने कुछ प्रदेश खो बैठे।
इन विदेशी राज्यों को छोड़कर भारत के शेष सभी राज्यों में हिन्दू राज्य थे। उत्तर भारत में राजपूतों के विभिन्न राज्य अपनी फूट के शिकार थे। कुछ राज्य शक्तिशाली थे. जिनमें दिल्ली और अजमेर का चाहमान शासक पृथ्वीराज (अपने समय का वीर पुंगव) तथा कन्नौज का जयवन्द मुख्य थे, लेकिन पारस्परिक वैमनस्य के कारण इन दो वोर और समर्थ शासकों में एकता न थी । अतः वे इतने शक्तिशाली नहीं रह गये थे कि मुहम्मद गौरी जैसे प्रबल आक्रमणकारी का मुकाबला कर सकते। उत्तर भारत के अन्य छोटे-छोटे राज्य भी एक-दूसरे से ईर्ष्या और घृणा की दौड़ में पीछे न थे। दक्षिण भारत में भी चेर, पल्लव, चालुक्य, पाण्ड्य आदि अनेक छोटे-छोटे राज्य थे जिनमें आपस में बड़ा बैर था। दक्षिण भारत उत्तर भारत की राजनीति से पहले ही की भाँति सर्वदा उदासीन था।
(11) सामाजिक दशा सामाजिक दृष्टि से भी भारत की अवस्था शोचनीय थी। भारतीय समाज अनेक वर्गों, जातियों और जनजातियों में बंटा हुआ था, जिनके अपने-अपने स्वार्थ और हित थे तथा उनमें परस्पर ईर्ष्या, द्वेष तथा स्पर्द्धा का बोलबाला था। समाज का नैतिक पतन होता जा रहा था। रक्षा और बुद्ध का भार केवल क्षत्रियों पर था तथा शेष जनता इसके प्रति उदासीन थी। विलासिता का घुन भी देश को खाये जा रहा था। देश में राष्ट्रीय उत्साह क्षीण हो चुका था। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति निरन्तर गिरती जा रही थी। उच्च वर्ग में बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी। अधिकांश लोगों के विचार संकीर्ण थे। के कपूमण्डूकता के शिकार थे।
(III) धार्मिक दशा – धार्मिक दृष्टि से देश में बौद्ध धर्म और जैन धर्म अवनति पर थे। अन्य धर्म लोकप्रिय हो रहे थे। परन्तु सामाजिक जीवन की सड़ांध धार्मिक जीवन में प्रवेश कर चुकी थी, देव मन्दिरों में भ्रष्टाचार फैलता जा रहा था। मन्दिरों की अपार सम्पति ने धर्म स्थानों को भी राजनीति के दल-दल में फंसा दिया था। लोगों में धार्मिक उत्साह क्षीण या धार्मिक अन्ध भक्ति और कर्म-काण्डों ने कायरता को जन्म दे डाला था।
(IV) आर्थिक दशा – यद्यपि अनेक राजवंश धन-सम्पत्ति से वंचित हो गये थे और जनता का जीवन भी साधारण था, लेकिन भारत धन वैभव से शून्य नहीं हुआ था। कुल मिलाकर देश की स्थिति ऐसी थी जो विदेशी आक्रान्ताओं को प्रोत्साहित करती थी। अतः मुहम्मद भी प्रोत्साहित हुआ।”
मुहम्मद गौरी के उद्देश्य
दी गयी परिस्थितियों से प्रेरित हो मुहम्मद गौरी ने खासकर निम्न उद्देश्यों को मद्देनजर
रख भारत पर आक्रमण किये- (1) मुहम्मद एक महत्त्वाकांक्षी शासक था। उस समय की राजनीति के अनुसार वह
भी अपना प्रभाव और कीर्ति जमाने हेतु साम्राज्य विस्तार करना चाहता था। (2) और और गजनवी के सामने एक प्रकार से तौर पर एक-दूसरे के शत्रु हो गये थे। पंजाब में अभी भी गजनवी शासन कर रहे थे। मुहम्मद ने गजनी पर
अधिकार करने के बाद पंजाब को अपने साम्राज्य में मिलाना चाहा ताकि पूर्व से उसका
साम्राज्य सुरक्षित रह सके।
(3) पश्चिम में गौर वंश की साम्राज्यवादी नीति पर फारस के ख्वारिज्म वंश ने नियन्त्रण लगा दिया था। अतः गौरियों के पास अब दूसरा विकल्प पूर्व, अर्थात् भारत ही बचा था। इसके अलावा पश्चिम में साम्राज्य विस्तार की जिम्मेदारी ग्यासुद्दीन पर थी। अतः मुहम्मद ने भारत विजय की जिम्मेदारी
(4) शायद मुहम्मद भारत से धन प्राप्त करना भी चाहता था और भारत में धर्म प्रचार भी। परन्तु धर्म को ही मूल कारण मान लेना शायद ठौक नहीं।
मुहम्मद गौरी के आक्रमण
(1) मुल्तान और उच्छ की विजय-मुल्तान का शासक और उसके अनुयायी इस्लामी सम्प्रदाय को मानते थे, जिनको कट्टर मुसलमान धर्म विरोधी समझते थे। अतः मुहम्मद गौरी ने 1175 में मुल्तान पर आक्रमण कर अपना कब्जा किया और वहाँ अपने एक विश्वास पात्र कट्टर मुसलमान को गवर्नर नियुक्त कर दिया। इसके बाद वह सिन्ध में स्थित उच्छा दुर्ग की ओर बढ़ा। वहाँ उस समय भाट्टी राजपूत राजा राज्य करता था। बुल्जले हेग के अनुसार, वहाँ के राजा व उसकी रानी से सम्बन्ध अच्छे न थे। मुहम्मद ने रानी को उसकी लड़की से विवाह करने का वचन देकर रानी से दुर्ग का फाटक खुलवा लिया था और फिर इसने उच्छ पर विजय प्राप्त कर ली थी।
(2) अनहिलवाड़ और लाहौर पर आक्रमण-1178 में गौरी ने गुजरात की राजधानी अनहिलवाड़ पर आक्रमण किया, किन्तु राजा मूलराज के हाथों बुरी तरह पराजित हुआ। इससे मुसलमानों का बिल गिर गया और राजपूतों में मुसलमानों का साहस के साथ सामना करने के लिये एक नयी शक्ति संचारित हुयी। इस हार के बाद उसने अपना ध्यान पंजाब की ओर लगाया। 1179 में उसने पेशावर जीता। 1181 में उसने लाहौर पर आक्रमण किया। इस समय खुसरो मलिक ने उसका सामना किये बिना ही अपने आपको समर्पित कर दिया और उसे उसने कई उपहार दिये और युद्ध-बन्दी के रूप में अपने पुत्र को भी उसे मुहम्मद को देना पड़ा। किसी पिता के द्वारा अपने पुत्र को युद्ध-बन्दी के रूप देने के इतिहास में कम ही प्रमाण मिलते हैं। इसके बावजूद भी मुहम्मद की गतिविधियाँ वहाँ चालू रहीं। 1184 में वह पुन: पंजाब आया, स्यालकोट में एक दुर्ग बनाया और वापस चला गया। उसके इस प्रकार आने-जाने से खुसरो को सन्देह हुआ। उसने उसके विरुद्ध खोखरों से मित्रता करने की सोची। परन्तु गुप्तचर विभाग की सक्षमता से मुहम्मद को यह बात मालूम पड़ गयी। इसलिये उसने 1186 में पुनः उस पर आक्रमण कर उसे हरा दिया और बन्दी बना लिया और बाद में उसका तथा उसके पुत्र का वध कर दिया गया। पंजाब को अन्ततोगत्वा और साम्राज्य में मिला लिया गया। पता चलता है कि कुछ आगे बढ़कर मुहम्मद ने भटिण्डा और सरहिन्द पर भी अपना अधिकार जमा लिया। भटिण्डा में उसने मलिक जियाउद्दीन गौर को अपना गवर्नर नियुक्त किया।
(3) तराइन का प्रथम युद्ध-पृथ्वीराज के लिये यह सब असह्य होता जा रहा था। अतः उसने उसके विरुद्ध अभियान कर दिया। 1191 में दोनों का दिल्ली से 80 मील दूर तराइन के मैदान में सामना हुआ। इसमें मुहम्मद की हार हुयी। हमीर महाकाव्य के अनुसार,
1. रमाशंकर त्रिपाठी और गौरीशंकर ओझा इसे ऐतिहासिक तथ्य न मानकर केवल एक आख्यान मात्र मानते हैं। 2. मिन्हाज ने स्थान का नाम नारायण बतलाया है।
के मुखम अंग को पीछे रखा। हाथ भी इसी अंग में शामिल थे। सवारों को आगे बढ़ाया और कुछ सैनिक रिजर्व के रूप में पीछे रख दिये जब अश्वारोहियों के प्रहार से राजपूत सैनिक थक गये तो रिजर्व मुस्लिम सैनिकों ने अचानक हमला बोल दिया और चीरता से युद्ध करते हुये राजपूतों को भी परास्त कर दिया।।
बुद्ध के परिणाम तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के परास्त हो जाने से केवल चाहमान (चौहान) वंश का हो पराभव नहीं हुआ, वरन् भारतीय इतिहास का ही युग समाप्त हो गया। इसलिये भारतीय व पाश्चात्य देशों के प्रमुख इतिहासकारों ने इसे एक युद्ध माना है। इस युद्ध की तुलना पानीपत के युद्ध से की जाती है। जब भारतीय इतिहास में इस युद्ध को इतना महत्वपूर्ण समझा गया है तो उसके परिणाम भी महत्वपूर्ण ही होने चाहियें। उनमें से कतिपय निम्नलिखित हैं-
(i) पृथ्वीराज चौहान की इच्छाओं पर तुषारापात अपनी महत्वाकांक्षा से प्रेरित है।
वह उत्तर भारत का एक छत्र शासक बनना चाहता था। पर उसकी इस पराजय से उसकी
इस प्रकार की सारी इच्छाओं पर पानी फिर गया। (ii) राजपूत शक्ति पर एक प्रबल आपात इस पराजय ने राजपूतों की कीर्ति को धूल में मिला दिया। यह एक राजपूत शक्ति पर आघात था। इससे भारतीय समाज के सभी अंगों का नैतिक पतन आरम्भ हो गया और ऐसा कोई राजपूत नहीं रह गया जो मुस्लिम आक्रमणों को रोकने के लिये अन्य राजाओं को अपने झण्डे के नीचे एकत्रित करता। “
(iii) मुसलमानों की विजय सुनिश्चित इस युद्ध में विजयी हो जाने के उपरान्त मुहम्मद गौरी भारत में अपनी विजय सुनिश्चित समझने लगा। वह अपने मार्ग का कांटा केवल पृथ्वीराज चौहान को ही समझता था। जब पृथ्वीराज इस युद्ध में साफ हो गया तो मुहम्मद अन्य नरेशों से निश्चित हो गया। बी० स्मित और आशीर्वादी लाल दोनों ने ही इस युद्ध को एक निर्णायक युद्ध मानते हुये यह कहा कि इससे मुहम्मद गौरी की भारत विजय निश्चित हो गयी। इस पराजय से राजपूत इतने हतोत्साहित हुये कि वे भविष्य में भी मुसलमानों के विरुद्ध एक होकर युद्ध नहीं कर सके। इसलिये गौरी के बाद जो मुस्लिम आक्रमणकारी भारत आये, वे सब विजयी होते चले गये। इसलिये एच० सी० राय चौधरी ने भी इस युद्ध को निर्णायक एवं मुस्लिम विजय में सहायक बताया है।
(iv) मुस्लिम साम्राज्यवादी वृधा का और भी प्रयत्न होना इस युद्ध में विजयी होने के उपरान्त मुहम्मद गौरी व उसके सहायक भारत में राज्य जीतते हो चले गये। शायद इसी कारण हीना ने इस युद्ध को महत्वपूर्ण बताया है।
(v) मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि जिस प्रकार पानीपत के प्रथम युद्ध ने भारत में मुगल वंश की स्थापना करावी तथा पानीपत के तीसरे युद्ध ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव डालने में सहायता दी, उसी प्रकार इस युद्ध में राजपूतों की पराजय से भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हो गयी। वी० स्मिथ ने भी ऐसा ही माना है। ए० एल० श्रीवास्तव ने इसे भारतीय इतिहास के युग में एक युगान्तकारी घटना माना है।
इसके अलावा भारत में इस्लाम धर्म की जड़ें मजबूत होने लगी, हिन्दू कला को आघात पहुँचा, एक नयी स्थापत्य कला का सृजन हुआ, एक संस्कृति प्रारम्भ हुयी। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि तराइन के द्वितीय युद्ध ने मुसलमानों के लिये भारत के इस खोल दिये और उनके आगमन से भारत में नाना प्रकार के प्रभाव लक्षित होने लगे।
१. इटावा के निकट ।
– 1192-93 में पृथ्वीराज को पाने के बाद जोर देशका कुन देव पालकर गौरी गजनी लौट गया। कुकुटीन में मोड़, बटन, कोइल (दोन) आदि कई स्थानों को जीतकर मुस्लिम
(16) कन्नौर विजय असा कि पृथ्वीराज को गौरी के खिलाफ सहायता देने से गौरी उस पर आक्रमण नहीं करेगा। लेकिन 1194 में ही गो नेक स्थान पर आक्रमण कर दिया। जयचन्द ने डटकर लोग लिया। उनकी विजय होने ही वाली थी कि उसकी आंख में दौर आकर लगा और वह हाथ से गिर पड़ी। उसके गिरते ही राजपूत सेना में भगदड़ मच गयी। मुहम्मद गौरी की पूर्ण विजयी। फिर मुहम्मद ने कन्नौज और बनारस पर अपना अधिकार कर लिया। उसने नागरिकों और मन्दिरों, जो धन के खजाने थे, को लूटा। इस लूट से गौरी को इतना पर प्राप्त हुआ कि उसे 1400 ऊँटों पर लाद कर ले जाया गया। कन्नौज विजय गौरी को एक महान सैनिक सफलता थी जिसके फलस्वरूप मेरठ और बनारस के बीच का समृद्ध प्रदेश मुसलमानों के अधिकार में आ गया। उत्तर भारत का एक और प्रतापी एवं शक्तिशाली हिन्दू राज का अन्त हो गया। मुस्लिम शक्ति का विस्तार सुगम हो गया। राजपूतों की रही सही शक्ति को गहरा आघात पहुंचा। भारत के राजनीतिक और धार्मिक केन्द्र-कनीक तथा बनारस मुस्लिम साम्राज्य के अंग हो गये। जयचन्द की भीषण पराजय के साथ ही गहड़वाल साम्राज्य की इतिश्री हो गयी और बहुत से गहड़वाल (राठौर) भागकर जोधपुर की और आ गये।
(7) अन्य विजयें फिर 1195-96 में बयाना पर अधिकार किया गया तथा ग्वालियर के नरेशों को वार्षिक कर देने को बाध्य किया गया। तदुपश्चात् बुन्देलखण्ड और कालिंजर पर अधिकार किया गया। 1997 में गौरी के एक अन्य सेनानायक बख्तियार खिलजी ने चुनार तथा कर्मशाला नदी के बीच के प्रदेश को मुस्लिम राज्य में मिला लिया और फिर बिहार की राजधानी ओदन्तपुरी पर टूट पड़ा तथा कई बौद्ध भिक्षुओं का वध किया, मन्दिरों और विहारों को नष्ट किया एवं पुस्तकालयों को जला दिया। बिहार के बाद बंगाल पर अभियान ले जाया गया और उस पर कब्जा कर लिया गया। विक्रमशिला को भी तहस-नहस कर दिया गया।
(8) खोखरों पर आक्रमण – 1205 में मुहम्मद गौरी को ख्वारिज्म (मध्य एशिया) शासक अलाउद्दीन मुहम्मद ने बुरी तरह अंधकुई पर पराजित किया। इसका लाभ उठाकर मुल्तान के खोखरों ने गौरी के प्रतिनिधि के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। चूंकि कुतुबुद्दीन ऐबक इस विद्रोह को दबाने में सफल रहा, अतः गौरी को 1206 में एक बार फिर भारत आना पड़ा। उसने विद्रोह को बड़ी शक्ति से कुचल दिया। हजारों खोखर निर्दयतापूर्वक मौत के घाट उतार दिये गये।
गौरी की मृत्यु (Death of Ghori)
खोखरों का दमन करने के बाद जब गौरी वापिस लौटकर गजनी जा रहा था तब 1205 में सिन्धु नदी के तट पर दमयक नामक स्थान पर शाम की नमाज अदा करते समय उसका वध कर दिया गया। कुछ कहते हैं कि किसी असन्तुष्ट सिपाही ने उसकी हत्या की कुछ कहते हैं कि हत्यारे खोखर थे कुछ कहते हैं इस्माइली सम्प्रदाय के लोग थे; कुछ कहते कि दोनों ने पहुंच कर उसका वध कर दिया। उसको मृत्यु के बाद गौरी वंश में और कोई सुल्तान नहीं हुआ जो उसके विस्तृत साम्राज्य को सम्भाल सकता। परिणामस्वरूप
प्रान्तीय शासकों ने स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया। बख्तियार खिलजी ने बंगाल और बिहार में अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। कुतुबुद्दीन ऐवक दिल्ली का सम्राट बन बैठा । नासिरुद्दीन कुमेचा ने अपने को सिन्ध का स्वामी घोषित कर दिया और यादोज ने गजनी के राज्य को जीत लिया। गौरी वंश भारत में एक चिरस्थायी मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना करके स्वयं लुप्त हो गया।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मुहम्मद गौरी के आक्रमणों के फलस्वरूप राजपूतों को शक्ति का ह्रास हो गया हिन्दू धर्म को ठेस पहुंची आर्थिक रूप से भारत कमजोर हुआ और हिन्दू साम्राज्य नष्ट हुआ। पृथ्वीराज चौहान अन्तिम हिन्दू सम्राट माना जाता है और उसका विनाश तराइन को दूसरी लड़ाई में मुहम्मद गौरी ने कर दिया। उसकी मृत्यु उपरान्त कोई हिन्दू नरेश अपना शासन नहीं चला सका। इस सबके अलावा, भारत O के में मुस्लिम साम्राज्य को स्थापना हुयी।
मुहम्मद गौरी के चरित्र का मूल्याकंन कीजिये और उसकी महमूद गजनवी से तुलना कीजिये।
Give an estimate of the character of Muhammad Ghori and compare and contrast with Mahmud Ghaznavi.
भारत में मुस्लिम शासन का वास्तविक संस्थापक कौन था-महमूद
Ghaznavi or Muhammad Ghori and how ? या “महमूद गजनवी एक चतुर आक्रमणकारी था और मुहम्मद गोरी एक निपुण विजेता, उनमें से कोई भी चतुर राजनीतिज्ञ नही था।” इस कथन की पुष्टि कीजिये। “Mahmud Ghaznavi was a brilliant raider Muhammad Ghori was a calculating conqueror neither was a real statesman.” Comment.
उत्तर-
महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी
(Mahmud Ghaznavi and Muhammad Ghori) भारतीय इतिहास में मुहम्मद गौरी का नाम निर्विवाद है। सुविधा की दृष्टि से हम उसके चरित्र का मूल्यांकन निम्न शीर्षकों में कर सकते हैं- (1) साहसी एवं संकल्पी व्यक्ति के रूप में मुहम्मद गौरी अत्यन्त ही वीर साहसी
एवं दृढ़ संकल्पी था। उसकी कुल तीन पराजयों के बाद भी वह निरुत्साही नहीं हुआ। (2) परिवार प्रेमी एवं प्रजावत्सल्य के रूप में उसे अपने परिवार से प्रेम था। अपने भाई गियासुद्दीन के प्रति वह वफदार रहा। प्रजा के सुख का वह हमेशा ख्याल रखता था । गुलामों को भी अपनी सन्तान समझता था।
(3) न्यायप्रिय व्यक्ति के रूप में वह न्यायप्रिय था। मिनहाज ने तबकात-ए-नासिरी में उसकी न्यायप्रिय की भूरी-भूरी प्रशंसा की है।
(4) साहित्य एवं कला प्रेमी के रूप में मुहम्मद गौरी साहित्य एवं कला प्रेमी भी था। फखरुद्दीन राजी तथा नमाजी उरुजी आदि कवि उसके दरबार में संरक्षण पाते थे। (5) शासक, सैनिक एवं राजनीतिज्ञ के रूप में चूंकि मुहम्मद को सलाह के लिये
बार-बार अपने भाई के पास भागकर जाना पड़ता था, चूंकि उसने उच्छा की रानी एवं जयचन्द के साथ विश्वासघात किया, चूंकि उसे पराजय का भी सामना करना पड़ा इसलिये हवीय ने यह कह डाला कि वह एक योग्य शासक नहीं था और आशीर्वादी साल ने यह कह डाला
कापी का कहना है कि उसके भाग्य से उस समय देश और सरीखे योग्य सेनापति मिल गये। कुछ और आती है। भाई से सलाह लेना भाई के प्रति स्नेह और किसी के द्वारा किसी से सलाह लेना किसी के जो भी हो सकता है। राज का और अच्छे सेनापति होने का आपस के कोई नहीं आता। फिर अच्छे-अच्छे तीरंदाज भी तो कभी-कभी जाते हैं। उनके पास युद्ध के साधन कम थे। कुछ कहते हैं कि उसकी पराजय एक यह एक विजेता के रूप में आगे बढ़ता जाता था। उसने धार पर कुछ भारत भूमि से ही किये थे। इससे उसके विरोधी को उसकी शक्ति कापताना नहीं था। यदि उसके गुलाम कुतुबुद्दीन ऐवक और सेनापति शियारको साथ विशाल साम्राज्य की पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में) दी जाती है तो मुहम्मद को पहली दी जानी चाहिये। आखिर उनका चयन भी तो उसी का था और फिर स्वयं भी सो में हाजिर रहा। यह बात अलग है कि यह हर वक्त हाजिर न रहा हो। हो, दैविक प्रतिमा कम-ज्यादा जरूर हो सकती है। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ भी था। उच्छा की रात्री तथा जयचन्द के साथ उसके द्वारा विश्वासघात किया जाना शायद राजनीतिक मानक के अनुसार ही था। इश्क और जंग में तो हर चीज जायज होती है। इसलिये मुहम्मद को एक निर्बल शासक मानना या उसके सैनिक गुणों का अभाव मानना उचित प्रतीत नहीं होता उसे भाग्यशाली के साथ-साथ प्रतिभा सम्पन्न शासक भी मानना चाहिये। मुहम्मद गौरी और महमूद गजनवी की तुलना
महमूद गजनी और मुहम्मद गौरी दोनों ही मुसलमान तुर्क विजेता थे, जिन्होंने भारत पर एक के बाद एक आक्रमणों का ताँता बाँध दिया था। दोनों ही प्रजावत्सल्य तथा विद्वानों केन जहाँ तक भारत के मुस्लिम राज्य की नींव डालने का प्रश्न है. गजनी की अपेक्षा गौरी को ही श्रेय मिलना चाहिये। निःसन्देह दोनों ही नेता साहसी और मेन्होंने अपने कौशल का कुशल प्रमाण दिया, लेकिन जहाँ गजनवी की कोरी लूटमार रही वहीं गोरी की विजय भारत में अधिक चिरस्थायी रही जिसने यहाँ राम की नींव डाल दी और बाद में उसके गुलाम ने भारत में मुस्लिम साम्राज्य को और भी दढ़ कर दिया।
मुहम्मद गोरी महमूद गजनवी जैसा कुशल योद्धा कला और साहित्य का संरक्षक नहीं था और शायद इसलिये लेनपूल ने यह कह डाला कि महमूद गजनवी की अपेक्षा मुहम्मद गौरी का नाम अप्रसिद्ध सा है या कि अन्धेरे में है और न किसी कवि या इतिहासकार उसको महानता तथा शक्ति की प्रशंसा करने के लिये होड़ ही लगायी। जो भी हो, मुहम्मद के भारतीय अभियानों का उद्देश्य महमूद से अधिक महान था महमूद ने भारत पर अनेक बार भीषण आक्रमण किये, वह विजयी भी हुआ, लेकिन उसने विजित प्रदेशों को अपने साम्राज्य में मिलाने की कोई चेष्टा नहीं की और न ही उनके शासन-प्रबन्ध की कोई व्यवस्था थी। केवल पंजाब को छोड़कर अन्य किसी राज्य को उसने गजनी साम्राज्य में नहीं लिया। यह तथ्य उसमें राजनीति और नीता के अभाव को बतलाता है। इसके विपरीत, मुहम्मद निःसन्देह एक बड़ा राजनीतिज्ञ था। उसका तो दृष्टिकोण ही अपने पूर्वाधिकारी मैं अधिक राजनीतिक था। अतः यह कहा जाना उचित प्रतीत नहीं होता कि दोनों में से कोई भी चतुर राजनीतिज्ञ नहीं था। मुहम्मद गौरी ने भारत में जिन प्रदेशों को जीता उसको साथ ही साथ संगठित भी किया और उनके शासन-प्रबन्ध के लिये कुतुबुद्दीन ऐबक को
नियुक्त किया। यद्यपि गौरी भी जन की भाँति भारत में अधिक समय तक नहीं था तथापि उसने भारतीय प्रदेशों की ओर से अपना ध्यान कभी नहीं हटाया। गजनी में र हुये भी वह उनके प्रबन्ध में रुचि लेता रहा। गजनवी के समान वह भारत और उसके निवासियों के प्रति उदासीन न रहा। वह भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के प्रति सन रहा और सफल भी हुआ। महमूद धन के लोभ में इतना अन्धा हो गया था कि उसने उन् महत्त्वपूर्ण लाभों की ओर ध्यान नहीं दिया जो भारत विजय से एक विजेता को प्राप्त हो सकते थे, जबकि मुहम्मद गौरी का भारत सम्बन्धी कार्य बढ़ा ठोस था। गजनी का साम्राज्य गौरी को मृत्यु के बाद जिन्न-भिन्न हो गया, लेकिन जिस मुस्लिम राज्य की उसने भारत में नींव डाली वह दिन-प्रतिदिन सशक्त होती गयी और वह परि-भीर पूर्व का एक महान साम्राज्य बन गया। लेनपूल ने लिखा है यद्यपि गौरी वंश भारत से शीघ्र ही विलुप्त हो गया तथा मुहम्मद गोरी ने एक ऐसे साम्राज्य की नींव डाली जिसके सिहासन को 1857 की महान् कान्ति तक मुस्लिम शासक ही सुशोभित करते रहे। इसलिये श्रीराम शर्मा का यह कहना ठीक प्रतीत नहीं होता कि, “मुहम्मद गौरी के प्रारम्भिक कार्य भविष्य के लिये उतने आशापूर्ण नहीं थे जितने कि 100 वर्ष पूर्व व्रतशिकन महमूद के थे।”
अन्त में यह कहा जा सकता है कि भारत में मुस्लिम राज्य को संस्थापक मुहम्मद गौरी था न कि महमूद गजनवी गौरी ने जीते हुये प्रदेशों पर कड़ा नियन्त्रण कायम रखा और स्थायी रूप से भारत में मुस्लिम शासन की नींव डाल दी।
– तुकों की विजय और राजपूतों (हिन्दुओं) की हार के क्या कारण थे ?
What are the causes of success of the Turks and the failure
या
“हिन्दुओं की पराजय के मुख्य कारण सामाजिक तथा आर्थिक थे न कि राजनीतिक और सैनिक।” व्याख्या कीजिये।
या
राजपूतों के विरुद्ध मुसलमानों की विजय के क्या कारण थे ?
What were the causes of success of Muslims against Rajputs ? राजपूतों की पराजय और तुर्कों की विजय के कारण
उत्तर-
(राजपूतों की पराजय और तुर्कों की सफलता के कारण)
(I) सैनिक कारण
(1) राजपूतों के साथ स्थायी सेना का अभाव-राजपूत राजाओं को सैनिक संगठन को सुदृढ़ बनाने और एक स्थायी तथा नियमित सेना का निर्माण करने में विशेष रुचि नहीं थी। शासन-प्रणाली सामन्ती ढंग की थी जिसमें सामन्तों के पास सैनिक टुकड़ियाँ होती थीं और संकटकाल में वे राजा को सैनिक सहायता देते थे। इस प्रकार युद्ध के समय राजा लोग सामन्नतों की सैनिक टुकड़ियों को एकत्रित करके ही प्रायः शत्रु से लड़ते थे। इस प्रकार के एकत्रित सैनिकों में न तो समान कौशल और अनुशासन ही होता था और न वे एक निश्चित ढंग से लड़ ही पाते थे। राजपूतों के विपरीत तुर्क आक्रान्ताओं के पास शक्तिशाली स्थायी और नियमित सेना होती थी जो राजपूतों की सैनिक दुर्बलता का पूरा-पूरा लाभ उठाने
में सक्षम थी। जहां राजपूतों के सामन्ती सैनिक कितनी ही बार राजा की अपेक्षा अपने सामन्त के प्रति अपनी अधिक भक्ति दिखाते थे और सामन्त के असन्तुष्ट हो जाने, मर जाने या मायल हो जाने पर युद्ध से हट जाते थे वहाँ तुकों की सुशिक्षित नियमित सेना अपने सुल्तान के प्रति विशेष भक्ति भाव रखते हुये अन्तिम सांस तक युद्ध करती थी। राजपूत सेना इस कमजोरी का भी शिकार बन जाती कि उसमें प्रायः समय-समय पर भर्ती किये जाने वाले ऐसे पेशेवर सैनिक अधिक होते थे जो राज्य या राजा के प्रति कोई विशेष भक्ति भाव नहीं रखते थे। दूसरी ओर तुर्क सेना में बड़ी जाँच-पड़ताल के बाद भर्ती की जाती थी, अतः सुल्तान को अपने सैनिकों की ओर से धोखे का डर नहीं रहता था। कभी-कभी जिन हिन्दू सैनिकों को भर्ती किया जाता था वे भी ऐसे होते थे जिन्हें किसी न किसी कारणवश अपने देशवासियों से घृणा होती थी और वे उनसे प्रतिशोध लेने का अवसर ढूँढते रहते थे।
(2) मुस्लिम अश्व सेना की श्रेष्ठता- राजपूतों की हार का एक मुख्य सैनिक कारण यह था कि जहाँ तुर्क सेना में अश्वारोहियों की प्रधानता रहती थी वहाँ राजपूत सेना में पैदल सैनिकों की संख्या अधिक होती थी। इसके अतिरिक्त राजपूत अश्वारोहियों के पास तुर्कों की अपेक्षा अधिक अच्छी नस्ल के घोड़ों की कमी थी। अतः युद्ध के समय राजपूत सेना की गतिशीलता और पैंतरेबाजी तुर्क सेना की तुलना में कमजोर सिद्ध होती थी। तुर्कों की घुड़सवार सेना विद्युत गति से राजपूत सैनिकों को प्रायः अस्त-व्यस्त कर देती थी।
(3) राजपूतों की हस्ति-सेना की दुर्बलता- राजपूतों की युद्ध-प्रणाली परम्परागत थी जिसमें समयानुकूल परिवर्तन बहुत कम होते थे अथवा बिल्कुल नहीं होते थे। इनकी सेना में ही मुख्य होते थे, जो कई बार बिगड़ जाने पर अपने ही सैनिकों को हानि पहुँचाते थे। इसके विपरीत तुर्कों के तेज और फुर्तीले घोड़े चारों ओर बड़ी तेजी से घूम सकते थे तथा मारने और बचाव करने की दृष्टि से हथियारों की तुलना में अधिक उपयोगी सिद्ध होते थे। तुर्क अपनी विद्युत-गति अश्वसेना के बल पर भागते हुये हिन्दू सैनिकों का पीछा करके न केवल उनका संहार करते थे, बल्कि उनके पुनर्संगठित होने के मार्ग में भी सफलतापूर्वक बाधा डाल देते थे। परन्तु हाथियों पर निर्भर रहना ही राजपूतों की हार का एकमात्र कारण नहीं था। यदि हाथी युद्ध में लाभदायक न होते तो बाद में औरंगजेब आदि सम्राट हाथियों को युद्ध के काम में न लाते और सन्धियों में हारने वालों से हाथी न माँगते, और तो और महमूद ने स्वयं भी तो आक्रमणों से अन्य चीजों के साथ हाथी प्राप्त किये थे। इसके अतिरिक्त हिन्दू आक्रमणकारी हो से नहीं वे तो रथात्मक युद्ध करते थे और इस प्रकार के युद्ध में हाथी बहुत ही काम करते थे। जो भी हो, यह तय है कि हाथियों से परेशानी तो हुयी।
(4) तुकों की श्रेष्ठतर रणनीति और पैंतरेबाजी-राजपूत इसलिये भी हारे कि (0) तुर्क सेनापति व्यक्तिगत शौर्य-प्रदर्शन की अपेक्षा सैन्य संचालन पर जोर देते थे, जबकि राजपूत नेता सैन्य संचालन की तुलना में व्यक्तिगत शौर्य-प्रदर्शन पर अधिक ध्यान देते थे। (ii) तुर्क सेनापति इस दृष्टि से कि नेताविहीन सेना का मनोबल टूट जाता है वे अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा का भी ध्यान रखते थे, इसके विपरीत राजपूत सेनापति प्रायः हाथियों पर चढ़कर युद्ध करते थे और इस प्रकार की साज-सज्जा करते थे कि दूर से ही सबको पता चल जाता था कि सेनापति कहाँ है और इस तरह शत्रु उसे घायल करने या मार डालने या युद्ध से भगाने की ओर अपना ध्यान सुगमता से केन्द्रित कर सकता था। (iii) राजपूत द्वारा इस तरह अपनी उपस्थिति प्रदर्शन का एक कुपरिणाम यह होता था कि यदि वह किसी कारणवश अपने सैनिकों की दृष्टि से ओझल हो जाता था तो वे सैनिक अपने नेता को मरा जानकर या निश्चित पराजय की आशंका से भयभीत हो युद्ध से भागने लगते
के कण तथा उनके प्रभाव थे। (iv) तुर्क योद्धा अपनी तलवारों और अपने तीरों से हाथियों पर सांघातिक चोट कर उनका मुँह मोड़ देते थे और इस तरह रक्षक हाथी उलट कर अपनी ही फौज को रौंदने लगते थे। (v) राजपूत सैनिक घमासान युद्ध करने में दक्ष थे और तुर्कों के समान चतुरतापूर्ण पैंतरेबाजी नहीं कर पाते थे। (vi) राजपूत तीरंदाजी के प्रयोग में उतने निपुण नहीं थे जितने तलवार और भालों के प्रयोग में, अतः मुस्लिम सैनिक दूर से ही अपने सटीक निशानों से कोलते थे। उसे भारी नुकसान पहुंचाते थे और कने नहीं होने देते थे। (vi) तुर्क अपनी व्यूह रचना बदलते रहते थे, जबकि राजपूतों की शैली परम्परागत ही होती थी।
वास्तव में, तुर्कों की रणनीति बहुरंगी थी। अवध बिहारी पाण्डेय ने लिखा है- तुर्की ने कई बार अपनी रिजर्व सेनाओं का उपयोग करके पराजय को विजय में परिवर्तित कर दिया था, परन्तु राजपूत सभी सैनिकों को आरम्भ से ही युद्ध में लगा देते थे। कावा काटकर पार्श्व पर टूट पड़ना अथवा पीछे से धावा करना, भागने का बहाना करके शत्रु को उसकी प्रबल मोर्चाबन्दी से बाहर निकाल लाना, सामान्य नागरिकों को धन का लोभ अथवा मृत्यु का भय दिखाकर उपयोगी भौगोलिक और गुप्त सूचना प्राप्त करना, आदि तुर्कों की नीति के आवश्यक अंग थे। राजपूतों ने इनमें से किसी का एक बार भी उपयोग नहीं किया। साधनों के नैतिक पहलू पर ध्यान न देकर तुर्क केवल विजय प्राप्ति का ध्यान रखते थे।” (5) युद्ध विज्ञान के अध्ययन की उपेक्षा – राजपूतों ने इसकी उपेक्षा की। यदि वे युद्ध कला के अध्ययन में अभिरुचि रखते तो उनका सैन्य पतन न होता ।
(6) एक नेता पर निर्भरता।
(7) सुरक्षा की द्वितीय पंक्ति का अभाव। (४) शत्रु की रसद नष्ट करने का अभाव-ये बिन्दु भी उनकी हार के कारण थे।
(9) शस्त्रास्त्रों में तुकों की श्रेष्