Modern History
प्रश्न -अंग्रेजों के विरुद्ध मराठा शक्ति की असफलता (पतन) के कारणों का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर– मराठों के पतन के कारण
(अंग्रेजों के विरुद्ध मराठों की असफलता के कारण)
किसी साम्राज्य का पतन कोई अकस्मात् तथा अप्रत्याशित घटना नहीं होती । वास्तविक पतन अथवा विघटन के पर्याप्त समय पूर्व ही इसके चिन्ह दृष्टिगोचर होने लगते हैं। इसी प्रकार, मराठा साम्राज्य के विघटन का आरम्भ भी इसके अन्तिम विनाश से बहुत पहले हो गया था। बालाजी बाजीराव के समय में ही विघटनशील शक्तियाँ सिर उठाने लगी थीं। ये शक्तियाँ निरन्तर बल पकड़ती गयीं तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् पचास वर्ष में ही मराठों का पतन हो गया। मराठों के इस पतन के कारणों का विवेचन इस प्रकार से किया जा सकता है—
*शिवाजी के दुर्बल और अयोग्य उत्तराधिकारी-मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी एक प्रतिभाशाली तथा सफल सेनानायक थे। उनके अधीन मराठा साम्राज्य की शक्ति निरन्तर बढ़ती ही चली गई। दुर्भाग्य से उनका पुत्र शम्भाजी तथा पौत्र शाहू बहुत निर्बल तथा अयोग्य व्यक्ति सिद्ध हुए। उन्हीं की अयोग्ता के कारण राज्य की वास्तविक शक्ति पेशवा के हाथ में चली गई । यद्यपि पहले दो पेशवा बहुत योग्य थे, तथापि उनके पश्चात् के पेशवा अयोग्य सिद्ध हुए तथा उनके शासनकाल में विघटनकारी शक्तियाँ ओर पकड़ती गई।
*पेशवा के पद का वंशानुगत होना-शाहू के राज्य में पेशवा का पद पैतृक हो गया था और दुर्भाग्य से दूसरे पेशवा के पश्चात् सिहासन पर आसीन होने वाले सब पेशवा अयोग्य सिद्ध हुए थे। यदि पद पैतृक न होता तो योग्य मनुष्य अवश्य आगे आते और मराठो संप को विघटित होने से बचा लेते।
*पानीपत का तीसरा युद्ध जब मराठा शक्ति अपनी चरम सीमा पर थी, तो इसे 1701 ई० में पानीपत के युद्ध में एक विनाशकारी धक्का लगा। यद्यपि मराठों ने थोड़े ही समय में अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त कर लिया, तथापि योग्य व्यक्तियों के अभाव की पूर्ति फिर भी न हो सकी। लगभग सभी योग्य कूटनीतिज्ञ तथा सेनानायक ने इस युद्ध में मारे गए। पेशवा का संघ के सदस्यों पर नियन्त्रण निर्बल पड़ गया तथा आपसी मतभेद उत्पन हो गए। इसके अतिरिक्त, अंग्रेजों को अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का अवसर मिल गया क्योंकि उनके विरोधियों-मुसलमानों तथा मराठों को शक्ति क्षीण हो चुकी थी।
*सुदृढ़ केन्द्रीय शक्ति का अभाव पेशवा के नेतृत्व में मराठों में ऐसी कोई प्रभावशाली केन्द्रीय शक्ति नहीं थो जोकि सब मराठा सरदारों को राष्ट्रीय उद्देश्य र के प्रति बाँधे रखती। मराठा संघ न तो पूर्णत राज्य ही था तथा न हो एक संघ। यह कुछ सरदारों का ऐसा संगठन था जो किसी क्षण भी विघटित हो सकता था। संघ के सदसय पूना सरकार के प्रति नाममात्र को श्रद्धा रखते थे। केन्द्रीय शक्ति का यह अभाव भी मराठा साम्राज्य के विघटन का कारण बना।
*मराठा सरदारों में मतभेद मराठा संघ के सदस्य तथा अन्य राजनीतिज्ञों में आपसी मतभेद रहता था। वे सदा एक-दूसरे के ‘आपसी अविश्वास तथा स्वार्थपरता के कारण पड्यन्त्र करते रहते ये। पूना दरबार में तथा अन्तिम पेशवा पर अपना प्रभाव जमान के उद्देश्य से, सिंधिया तथा होल्कर में हुए संघर्ष ने अंग्रेजों को हस्तक्षेप करने का अवसर दे दिया। इसी समय से मराठों का वास्तविक पवन आरम्भ हो गया।
*शोचनीय आर्थिक दशा मराठा साम्राज्य के पतन का एक मुख्य कारण इसको असन्तोषजनक आर्थिक व्यवस्था भी थी। महाराष्ट्र की भूमि अधिक उपजाऊ न होने के कारण मराठों ने उद्योग और व्यापार की उन्नति की ओर ध्यान नहीं दिया। राज्य की आय का मुख्य स्रोत चौथ और सरदेशमुखी आदि कर त्या समय-समय पर को जाने वाली लूट थी। राज्य की स्थायी आय का कोई प्रबन्ध नहीं था। इस प्रकार, उत्तम आर्थिक व्यवस्था के बिना कोई साम्राज्य भला कैसे खड़ा कर सकता था?
*जागीर-प्रवा शिवाजी ने जागीर प्रथा को बन्द कर दिया था, परन्तु राजाराम प्रथम के अधीन इस प्रथा को पुनः प्रारम्भ कर दिया गया। पेशवाओं ने भी इसे प्रोत्साहन दिया। यह प्रथा मराठा साम्राज्य के लिए एक प्रमुख विघटनकारी कारक सिद्ध हुई। जागीरदार लोग अपने निजि हितों के लिए राष्ट्रीय उद्देश्यों और आदशों को आहुति देने लगे। मराठा संघ के सदस्य स्वयं भी पहले जागीरदार ही थे जिन्होंने बाद में अपनी जागीरों को राज्यों का रूप दे दिया।
छापामार (गुरिल्ला) युद्ध-प्रणाली का परित्याग मराठों ने अपनी उस युद्ध प्रणाली का त्याग कर दिया जिसके बल पर उन्होंने मुगलों पर गौरवपूर्ण विजयें प्राप्त की थीं। साम्राज्य के विस्तार के कारण मराठों को शत्रु से आमने-सा -सामने युद्र। करने की प्रणाली को अपनाना पड़ा जिसमें वे निय नहीं थे। वे कभी भी ऐसे युद्र क्षेत्र का चुनाव न कर सके जो उनकी छापामार युद्ध-प्रणाली उपयुक्त हो। अंग्रेजों ने मराठों को निर्बलता को भांप लिया था तथा वे सदैव ऐसे युद्ध क्षेत्र थे जहाँ मराठों को आमने-सामने युद्ध करना पड़ता था। इसी कारण वे सदैव परास्त हो जाते थे।
*राष्ट्रीय आदर्श का अभाव शिवाजी तथा उसके पश्चात् बाजीराव प्रथम द्वारा स्थापित क्रिये हिन्दू-पद-बादशाही के आदर्श को उत्तरवर्ती मराठों ने अवहेलना कर दी। वे मराठा राज्य के संकुचित आदर्श को अपनाए रहे जिसके फलस्वरूप दूसरे हिन्दू उनसे विमुख हो गये। मराठों ने जाटों और राजपूतों को लूटा और उन पर चौथ और सरदेशमुखी आदि कर लगा दिए। पानीपत के युद्ध में मराठा शक्ति के विनाश का एक मुख्य कारण सूरजमल जाट आदि हिन्दुओं की मराठों के प्रति विमुखता ही थी। अतः मराठों के आदर्श का संकुचित हो जाना उनके पतन का एक सबल कारण बना।
*मराठों की कूटनीतिक अयोग्ता मराठे इतने योग्य और कूटनीतिज्ञ नहीं थे जितने की अंग्रेज। यद्यपि नाना फड़नवीस तथा महादजी सिंधिया के अधीन मराठों ने अपने आपको सम्भाले रखा, तथापि उनकी अपेक्षा अंग्रेज कहीं उत्तम कूटनीतिज्ञ थे। दौलतराव सिंधिया तथा जसवन्त राव होल्कर आदि उत्तरवर्ती मराठों में कूटनीति का सर्वथा अभाव था। अतः वे अंग्रेजों की राजनीतिक चतुरता का शिकार हो गये। टीपू के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता करना मराठों की एक भयानक भूल थी, क्योकि इसके फलस्वरूप अंग्रेज अपने एक प्रवल शत्रु से मुक्ति पाने में सफल हो गए। बाद में भी मराठे आपसी सहयोग पर आधारित कूटनीतिक लाभों के महत्व को न समझ सके तथा अंग्रेजों ने उन्हें एक-एक करके परास्त कर दिया।
*मराठों का चारित्रिक पतन-उत्तरवर्ती मराठों के चारित्रिक पतन ने भी मराठा साम्राज्य के विनाश में महत्वपूर्ण योग दिया उन्होंने उच्च नैतिक आदर्श का परित्याग कर दिया। इसके फलस्वरूप मराठा सेना का पठन हो गया। सैनिकों में विलासिता घर कर गई। मुगलों के पवन से भी मराठों ने कोई शिक्षा न ली। मराठा सैनिकः युद्ध में भी अपनी पलियों को साथ ले जाने लगे। शिवाजी के समय यह घोर अपराध था, जिसके लिए मृत्युदण्ड दिया जाता था, परन्तु उत्तरवर्ती पेशवाओं के अधीन यह एक परम्परा बन गई थी।
*सहायक सन्धि-लॉर्ड वेलेजली द्वारा प्रारम्भ की पवन गई सहायक सन्धि ने भी मराठों के में महत्वूपर्ण योगदान दिया। इस सन्धि के अधीन की स्वतन्त्रता का पर किया गया सौंदा थी। इस बड़े सस्ते दामों गई बेसिन की सन्धि मराठा सन्धि के फलस्वरूप अंग्रेज अपनी सेनाओं को भारतीय शासकों के व्यय पर रख सकते थे। अतः वेलेजल को नीति ने भारतीय शक्तियों को क्षीण कर दिया। मराठों पर उसका विशेष प्रभाव हुआ, क्योंकि वे अंग्रेजों के सबसे भयानक शत्रु माने जाते थे।
*तोपखाने का अभाव तोपखाना अंग्रेजी सेना का एक अनिवार्य अंग था। मराठे उनका सामना नहीं कर सकता थे, जब तक कि उनकी सेना में तोपखाना न हो, परन्तु तोपखाने की प्राप्ति के लिए वे यूरोपियनों पर निर्भर थे। इसके अतिरिक्त, तोपखाने का प्रयोग भी केवल प्रशिक्षित व्यक्ति हो कर सकते थे अतः मराठों के यूरोपियन लोगों लोगों को को अपनी सेना में रखना पढ़ता था। फलतः मराठा सेना का यह अंग पूर्णतः यूरोपीय लोगो 1 के अधीन न हो ही रहा। अतः यह अंग अपूर्ण और अयोग्य रहा और मराठे अंग्रेजो के उत्तम तथा विकसित तोपखाने करने में असमर्थ रहे। इस प्रकार, मराठे अपनी ‘सुरक्षा’ के अति सवल साधन के लिए’ विदेशियों पर निर्भर थे।
*अंग्रेजों की शक्तिशाली नौसेना अंग्रेज सम्भवतः विश्व की श्रेष्ठतम् नौसेनिक शक्ति बलए वे जबकि मराठों के पास नाम मात्र की नौसेना थी। अंग्रेज आवश्यकता पड़ने पर इंग्लैण्ड से सेनाएँ रसद और शस्त्र ला सकते थे तथा मराठा अपनी निर्बल जल-शक्ति के कारण उन्हें नहीं रोक सकते थे। इस प्रकार, मराठों की निर्वल नौसेना ने भी उनकी अन्तिम पराजय में अपना योगदान दिया।
*अंग्रेजों की कुशल गुप्तचर व्यवस्था – अंग्रेजों की गुप्तचर व्यवस्था बहुत उत्तम थी। वे मराठों की योजनाओं का पहले से ही पता लगा लेते थे। वे उनकी निर्बलताओं का परिचय प्राप्त कर लेते थे तथा उनके षड़यंत्रों के सफल होने से पूर्व ही उनकी सूचना प्राप्त कर लेते थे। अतः वे मराठों से टक्कर लेने और उनकी गतिविधियों को विफल करने के लिए समय पर पूर्ण तैयारी कर लेते थे और उसके उपरान्त ही मराठों के विरुद्व युद्ध छेड़ देते थे। अंग्रेजों ने उत्तम जासूसी उद्देश्य से भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, परन्तु इसके विपरीत मराठों को अंग्रेजों का ज्ञान नहीं था तथा उनकी गुप्तचर व्यवस्था भी असन्तोषजनक थी।
प्रश्न— “लार्ड डलहौजी एक साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल था।” इस कथन के प्रकाश में लॉर्डडलहौजी की साम्राज्यवादी नीति की समीक्षा कीजिए।
उत्तर– लॉर्ड डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति
लॉर्ड डलहौजी जनवरी, 1848 ई० में गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। वह एक प्रबल साम्राज्यवादी था। उसकी तीव्र अभिलाषा थी कि वह देशी राज्यों को समाप्त करके भारत में अंग्रेजी राज्य का विस्तार करे, चाहे इसके लिए उसे किनती भी अनैतिकता का मार्ग क्यों ने अपनाना पड़े। अतः उसने अपनी अभिलाषा की पूर्ति हेतु तीन नीतियों का अनुसरण किया-
- राज्य हड़पने की नीति, तथा
- कुशासन का आरोप लगाकर राज्यों का अपहरण।
- युद्ध की नीति
युद्ध की नीति
उसने युद्ध की नीति द्वारा निम्नलिखित राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया-
*पंजाब जिस समय लॉर्ड डलहौजी भारत आया, उस समय पंजाब की स्थिति बिट्रिश साम्राज्य के प्रतिकूल थी। सिक्ख लोग अंग्रेजों को बड़ी घृणा की दृष्टि से देखा करते थे। वे अंग्रेजों से बहुत असन्तुष्ट थे। प्रथम सिक्ख युद्ध के पश्चात् तो वे अंग्रेजों से और भी अधिक घृणा करने लगे थे। कुछ अन्य कारणों के फलस्वरूप भी सिक्खों और अंग्रेजों में 1848-49 ई० में द्वितीय सिक्ख युद्ध हुआ था। इसमें सिक्खों की पराजय हुई लॉर्ड डलहौजी ने पंजाब को भी बिट्रिश राज्य में मिला लिया . और राजा दिलीप सिंह को 50 हजार पौण्ड वार्षिक पेन्शन देकर इंग्लैण्ड भेज दिया। पंजाब का प्रशासन चलाने के लिए तीन, कमिश्नरी की एक विशिष्ट समिति बना दी गई इसमें कम्पनी को यह लाभ हुआ कि इसकी पश्चिमी सीमा सुरक्षित हो गई।
*सिक्किम-नेपाल और भूटान के बची में एक छोटा-सा राज्य सिक्किम अनिश्चिततापूर्ण स्थिति में था। पंजाब के बाद डलहौजी ने इस राज्य पर आक्रमण कर दिया और 1849 ई० में इसे अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।
*वर्मा-सिक्किम के बाद उसकी दृष्टि वर्मा पर गई। इस समय बर्मा में अनिश्चयपूर्ण स्थिति थी। 1852 ई० में वर्मा का द्वितीय युद्ध हुआ। इस युद्ध में ‘मर्ववान’ एवं सम्पूर्ण बर्मा पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रजों ने बर्मा के नगर रंगून को खूब लुटा। बर्मा के निचले भाग और ‘पीगू’ को भी डलहौजी ने अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया।
कुशासन का आरोप लगाकर राज्यों का अपहरण
अनेक राज्यों को अनैतिक ढंग से ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लेने के बाद भी डलहौजी की इच्छा तृप्त नहीं हुई। उसने कुछ राज्यों पर यह आरोप लगाया कि वहाँ का शासन ठीक ढंग से नहीं चल पा रहा है, जिससे वहाँ जनता बहुत दुखी एवं परेशान है और इन राज्यों की जनता की भलाई केलिए वहाँ पर कम्पनी का शासन आवश्यक है। यह आरोप लगाकर उसने निम्नलिखितं राज्यों पर अंग्रेजी सत्ता का अधिकार स्थापित कर दिया-
*बरार– डलहौजी के समय बरार प्रान्त में प्रतिदिन हिन्दू-मुस्लिमों के विवाद होते रहते थे, जिससे वहाँ शान्ति नहीं रहती थी। अतः वहाँ शान्ति स्थापित करने का बहाना बनाकर एक अंग्रेजी सेना निजाम के व्यय पर रखी गई, लेकिन निजाम इस व्यय को समय से नहीं दे पाता था। अतः डलहौजी ने पुनः निजाम को बहकाकर उसके बरार राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
*अवध— डलहौजी के समय अवध राज्य में भी शासन-व्यवस्था अस्त-व्यस्त थी। अतः डलहौजी ने अवध के नवाब वाजिदअली शाह को शासन-व्यवस्था ठीक करने की आज्ञा दी. लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया। अतः डलहौजी ने उससे स्वेच्छा से राज्य देने को कहा, लेकिन वाजिदअली शाह नही माना। परिणामस्वरूप उसके राज्य पर सेना द्वारा बलपूर्वक अधिकार कर लिया गया। नवाब वाजिदअली शाह को कोलकाता भेज दिया गया और उसके महलों को खूब लूटा गया। 13 फरवरी 1856 ई० को एक घोषणा के अनुसार अवध का राज्य कम्पनी के राज्य में मिला लिया गया।
निष्कर्ष— इस प्रकार हम देखते हैं कि डलहौजी ने बिटिश साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार किया। डलहौजी ने अनेक पेन्शनों तथा विशेष पदों की भी समाप्ति कर दी थी। पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के बाद उसके दत्तक पुत्र नाना साहब की पेन्शन भी समाप्त कर दी गई थी। कर्नाटक तथा तंजौर के नवाबों की मृत्यु के पश्चात् उनके दत्तक पुत्रों को भी नवाब की उपाधियाँ नहीं दी गई थीं। इस प्रकार डलहौजी नेनिन्दनीय कूटनीति का सहारा लेते हुए ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार किया था। वह वह निस्सन्देह साम्राज्यवादी नीतियों का पोषक था। अतः उसके सम्बन्ध में यह कथन उचित है कि,
“लॉर्ड डलहौजी साम्राज्यवादी नीतियों का पोषक था।”
डलहौजी की इस राज्य हड़प नीति का परिणाम बहुत भयंकर सिद्ध हुआ। ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के कारण जनसामान्य में चारों ओर असन्तोष फैल गया, जो 1857 ई० की जनक्रान्ति रूप में प्रस्फुटित हुआ।
राज्य हड़पने की नीति
डलहौजी साम्राज्यवादी शासक था। अतः वह साम्राज्य विस्तार करने में उचित अनुचित पर विचार नहीं करता था। उसने अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिए एक ‘गोद-निषेध’ नियम बनाकर अनेक राज्यों का अपहरण किया। ‘गोद-निषेध’ नियम का यह अर्थ या कि कोई भी भारतीय राजा सन्तानहीन होने पर ब्रिटिश सरकार की आज्ञा के बिना किसी को उत्तराधिकारी बनाने के लिए गोद नहीं ले सकता था। सन्तानहीन राजाओं की मृत्यु के पश्चात् उनके राज्य पर कम्पनी का अधिकार माना जाता था। डलहौजी ने अपनी इस गोद-निषेय नीति से निम्नलिखित राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया—
* सतारा-1848 ई० में सतारा के राजा की मृत्यु हो गई। उसके कोई सन्तान नहीं थी। मृत्यु से पूर्व उसने एक बालक को विधान एवं रीतियों द्वारा बिना अंग्रेजी रेजीडेण्ट की स्वीकृति के गोद ले लिया था। डलहौजी ने अपने नियमानुसार गोद लिए हुए बालक को उत्तराधिकारी स्वीकार नहीं किया तथा सतारा को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। उसका यह कार्य बहुत ही अनुचित था।
*झाँसी-1853 ई० झाँसी के गंगाधर राव की मृत्यु हो गई। गंगाधर राव ने मृत्यु से पूर्व सरकार से आज्ञा लेकर दामोदर राव नामक बालक को गोद लिया था, लेकिन डलहौजी ने दामोदर राव को अवैध घोषित कर दिया तथा रानी लक्ष्मीबाई को हटाकर झाँसी को भी ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
*नागपुर-1854 1 ई० में नागपुर के राजा राघोजी की मृत्यु हुई । ई। वे भी निःसन्तान थे। उन्होंने अपनी जीवन-लोला की समाप्ति के समय एक बालक को गोद लेने के लिए कम्पनी को लिखा । उनकी मृत्यु से पूर्व कम्पनी का उत्तर नहीं आया और वे अपनी पत्नी को यशवन्तराव को गोद लेने की आज्ञा देकर स्वर्गवासी हो गए। परन्तु यशवन्तराव को नागपुर का शासक स्वीकार नहीं किया गया और नागपुर को भी कम्पनी के साम्राज्य में मिला लिया गया
*अन्य छोटे-छोटे राज्य-उपर्युक्त राज्यों के अतिरिक्त डलहौजी ने इस नियम के आधार पर सम्भलपुर, जैतपुर, बाधात तथा उदयपुर जैसे चार छोटे राज्यों का भी अंग्रेजी साम्राज्य में विलय कर लिया।
प्रश्न– “रॉबर्ट क्लाइव भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था।” इस कथन के प्रकाश में क्लाइव की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
रॉबर्ट क्लाइव
भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना का श्रेय रॉबर्ट क्लाइव को प्राप्त है। प्रारम्भ में क्लाइव “ईस्ट इण्डिया कम्पनी” में एक साधारण क्लर्क था। कुछ समय बाद वह कम्पनी की सेना में भर्ती हो गया। क्लाइव को उसकी योग्यता के कारण ही एक सैनिक से भारत में ब्रिटिश गवर्नर बना दिया। उसको सैनिक प्रतिभा का परिचय उसके प्रथम गवर्नर बनने पर बंगाल और दक्षिण की रणभूमि में किए गए कार्यों से मिलता है। क्लाइव में अदम्य साहस, प्रशासनिक प्रतिभा तथा राजनीति के भी थे, थे, जिसका आभास हमें उसकी गवर्नर की द्वितीय पारी के काल में किए गए कार्यों से मिलता है। उसे भारत में में अ अंग्रेजी राज्य का संस्थापक होने का गौरव प्राप्त है।
रॉबर्ट क्लाइव : ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक
अधिकांश इतिहासकार क्लाइव को ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक मानते हैं। यदि हम क्लाइव के अभूतपूर्व कार्यों का अवलोकन करें तो यह मत सत्य प्रतीत होता है। वास्तव में क्लाइव के परिश्रम एवं नीति कुशलता के कारण ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का बीजारोपण हुआ। एल्फ्रेड के अनुसार, “भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के लिए अंग्रेज लोग अन्य सभी लोगों की अपेक्षा क्लाइव के ही ऋणी हैं, जो उत्साही, साहसी और कभी न थकने वाला व्यक्ति था।”
रॉबर्ट क्लाइव की निम्नांकित सफलताएँ उसे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं-
*अर्काट की विजय-यदि क्लाइव ने अर्काट की विजय प्राप्त नहीं की होती तो सम्भव था कि भारत में अंग्रेजों के स्थान पर फ्रांसीसियों की प्रभुता स्थापित हो जाती।
*प्लासी की विजय प्लासी की विजय भी क्लाइव की विलक्षण बुद्धि और दूरदर्शिता का परिणाम थी। एक विद्वान ने इसे युद्ध नहीं, वरन् एक प्रकार का समझौता मानते हुए लिखा एक समझौता था और इसकी सारी सफलता का श्रेय क्लाइव को ही दिया दिया जाना बाहिए। वास्तव में प्लासी की विजय ने ही भारत में बिटिश साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया था।
*शाहआलम से सन्धि-वक्सर के युद्ध के बाद क्लाइव ने मुगल सम्राट शाहआलम से इलाहाबाद की सन्धि की, जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजो कम्पनी को भारत में सुदृढ़ राजनीतिक एवं आर्थिक आधार प्राप्त हुआ। वस्तुतः इस सन्धि ने प्लासी के अधूरे कार्य को पूरा कर दिया
निष्कर्ष-डा० ईश्वरी प्रसाद ने क्लाइव के कार्यों की समीक्षा करते हुए लिखा है, “कम्पनी को एक व्यापारिक संस्था से प्रशासनिक संस्था के रूप में बदलने का सबसे अधिक श्रेय क्लाइव को ही है। क्लाइव की कार्य प्रणाली एवं संगठन-शक्ति का ही यह फल था कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी समकालीन अन्य कम्पनियों के ऊपर अपनी प्रभुता स्थापित कर सकी।” वास्तव में, क्लाइव की विजयें हो महान् नहीं थीं, वरन् उसके द्वारा की गई तमाम सन्धियाँ और समझौते भी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना करने में सहायक सिद्ध हुए। लॉर्ड मैकाले ने क्लाइव की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “हमारे द्वीप ने शायद ही कभी युद्ध-भूमि और विचार-भवन्न, दोनों ही स्थानों पर वस्तुतः उससे अधिक महान् व्यक्ति को जन्म दिया हो।”
लॉड कर्जन के शब्दों में- “क्लाइव अंग्रेज जाति में महान् आत्मा वाला व्यक्ति था। वह उन शक्तियों में से था जो मानव जाति के भाग्य-निर्माण के लिए इस विश्व में अवतरित होती।”
रॉबर्ट क्लाइव के सुधार या कार्य
कम्पनी के डायरेक्टरों ने 1765 ई० में लॉर्ड क्लाइव को पुनः कम्पनी की दशा में सुधार करने हेतु गवर्नर बनाकर भारत भेजा। उसने भारत आकर अनेक सुधार किए—
प्रतिज्ञा-पत्र का प्रचलन क्लाइव ने प्रष्टाचार तथा घूसखोरी को बन्द करने के उद्देश्य से सभी कर्मचारियों से एक प्रतिज्ञा-पत्र भरवाया तथा उन पर यह प्रतिबन्ध लगा दिया कि वे भारतीयों से किसी प्रकार की भेंट, नजराना या उपहार नहीं लेंगे।
व्यक्तिगत व्यापार पर प्रतिबन्ध-क्लाइव ने देखा कि कम्पनी के लगभग सभी कर्मचारी निजी व्यापार कर रहे हैं और कम्पनी के व्यापार को भारी क्षति पहुंचा रहे हैं। इसके साथ ही वे भारतीयों का माल बिना चुंगी के ही निकलवा देते हैं। अतः इन सबके सुधार हेतु कम्पनी के कर्मचारियो के निजी व्यापार करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इसके साथ ही क्लाइव ने कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि कर दी। उसने व्यापारिक संघ की भी स्थापना की, जो नमक, तम्बाकू आदि का व्यापार करता था और इनका लाभ कम्पनी के सभी अधिकारियों में विभाजित कर दिया जाता था।
सैनिक सुधार क्लाइव ने कम्पनी की सैनिक व्यवस्था में भी अनेक उपयोगी सुधार किए। उसने सिपाहियों को मिलने वाला दोहरा भत्ता बन्द कर दिया। इस भत्ते को बन्द करने का कारण यह था कि अंग्रेजों के प्रभुत्व से पहले बंगाल का नवाब, यह देवा भत्ता, अपने राजकोष से था, किन्तु अब यह धन कम्पनी को देना पड़ता था। दोहरा भत्ता देने की प्रथा केवल युद्धकाल में थी, है, किन्तु मीर जाफर इसे शान्तिकाल में भी देता रहा था। अतः अब क्लाइव ने इस भत्ते का कोई औचित्य नहीं समझा और इसे बन्द करवा दिया। इससे अंग्रेज सैनिकों में खलबली मच गई। लेकिन क्लाइव अपने निर्णय पर दृढ़ रहा। क्लाइव’ ने अधिकारियों के त्यागपत्र और विरोध की भी कोई चिन्ता, नहीं की। उसके द्वारा मीर जाफर से प्राप्त 5 लाख रुपये का एक क्लाइव-कोष बनाया गया था। इस कोष से उन सैनिकों की सहायता की जाती थी, जिनका युद्ध में अंग भंग हो जाता था। क्लाइव के इन सैनिक सुधारों से सेना के अनेक गम्भीर दोष दूर हो गए थे।
क्लाइव के भारती शासकों से सम्बन्ध जिस समय क्लाइव दूसरी बार गवर्नर बनकर भारत आया, उस समय तक अंग्रेज बक्सर की ऐतिहासिक विजय प्राप्त कर चुके थे। 1764 ई० के बक्सर युद्ध में दिल्ली का बादशाह शाह आलम द्वितीय, बंगाल का नवाब मौर कासिम तथा अवध का नवाब शुजाउद्दौला सम्मिलित रूप से पराजित हुए थे।
अब क्लाइव के समक्ष यह प्रश्न या कि दिल्ली जीतकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत की शासन संस्था बनाया जाए या नहीं। उसने दिल्ली पर अधिकार स्थापित करने का समयानुकूल निर्णय लिया । इसका कारण बताते हुए उसने स्वयं लिखा है, “इससे आगे बढ़ने की योजना ऐसी अविवेकपूर्ण जान पड़ती है कि गवर्नर या उसकी कॉसिल के सदस्य कभी भी बुद्धि के रहते हुए ऐसी सलाह नहीं दे सकते, क्योंकि इससे कम्पनी के सम्पूर्ण हितों को क्षति पहुँचेगी।”
अवध के नवाब के साथ सन्धि-बक्सर के युद्ध में अवध का नवाब पराजित हो गया था। इस समय यदि क्लाइव चाहता तो अवध पर कम्पनी का अधिकार स्थापित कर सकता था लेकिन उसने ऐसा न करके नवाब से सन्धि ही की। इस सन्धि की शर्तें इस प्रकार थीं- (क) नवाब 54 लाख रुपये कम्पनी को देगा, (ख) कम्पनी नवाब को सैनिक सहायता देगी जिसका व्यय नवाब को देना होगा, (ग) नवाब अंघों के विरोधियों को सहायता नहीं देगा, (घ) दोनों संकट के समय एक दूसरे की हर प्रकार से सहायता करेंगे। इस सन्धि की राठों से, क्लाइव की बुद्धिमत्ता एवं उच्च कोटि की दूरदर्शिता का परिचय मिलता है।
मुगल सम्राट शाह-आलम के साथ इलाहाबाद की सन्धि-1765 ई० में क्लाइव ने मुगल बादशाह शाहआलम के साथ इलाहाबाद की सन्धि की। इस सन्धि के अनुसार, बादशाह ने कम्पनों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी या मालगुजारी वसूल करने का अधिकार दे दिया। इसके बदले में कम्पनी ने बादशाह को 26 लाख रुपये वार्षिक धन देना स्वीकार किया। इस समझौते के अनुसार कम्पनी ने कड़ा और इलाहाबाद के जिले भी सम्राट शाहआलम को दे दिए।
बंगाल में द्वैध शासन— क्लाइव ने इलाहाबाद की सन्धि के अनुसार बंगाल ‘प्रान्त में द्वैध शासन व्यवस्था स्थापित की। इस शासन व्यवस्था का तात्पर्य यह था कि बंगाल, बिहार व उड़ीसा शेष शासन संम्बन्धी सभी कार्य नवाब स्वयं करेगा। मुहम्मद रजाखाँ को बंगाल का नायब नाजिम और सिताबराय को बिहार का नायव नाजिम नियुक्त किया गया था। इस पद से हटाने का अधिकार भी कम्पनी को ही प्राप्त था। नवाब लगान वसूल कर तथा अपना खर्च काटकर शेष धन कम्पनी के खजाने में जमा कर देता था।
इस प्रकार बंगाल, बिहार और उड़ीसा का शासन-प्रबन्ध नवाब और कम्पनी में बँट गया था। यह दोहरा शासन-प्रबन्ध हो बंगाल का द्वैध शासन चलता रहा और इसे हेस्टिम्स ने ही समाप्त किया।
प्रश्न- भू-स्वामित्व की रैयतवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रणाली की विशेषतायें, गुण एवं दोष का ई। वर्णन करो।
महालवाड़ी प्रणाली
यह प्रणाली सर्वप्रथम 1833 ई० में ‘रेगुलेशन एक्ट’ के अन्तर्गत आगरा तथा अवध में लागू की गई। तत्पश्चात् पंजाब तथा मध्य प्रदेश में इसे इसे शुरू कर दिया गया। इस प्रणाली के अन्तर्गत गाँव की समस्त भूमि पर गाँव के सभी किसानों का संयुक्त रूप से स्वामित्व होता है तथा मालगुजारी भी इसी भूमि को एक इकाई मानकर निर्धारित की जाती है। यद्यपि कृषक इस भूमि पर व्यक्तिगत रूप से खेती करता है, तथापि मालगुजारी का दायित्व संयुक्त रूप से होता है। गाँव का नम्बरदार मालगुजारी एकत्र करके उच्च अधिकारी के पास जमा कर देता है। इसके बदले उसे कमीशन मिलता है। गाँव में जो बंजर भूमि होती है, उस पर गाँववासियों का अधिकार होता है।
महालवाड़ी प्रथा के अन्तर्गत आने वाली गाँवों की भूमि में हिस्सेदारी के विभाजन के सम्बन्ध में मुख्यतया तीन प्रकार की प्रथा प्रचलित थी—
पैतृक सम्पत्ति के आधार वालो प्रथा- इस प्रथा के अन्तर्गत भूमि की हिस्सेदारी परम्परागत पैतृक स्वामित्व के अनुसार निर्धारित होती है। गाँव की सम्पूर्ण भूमि या उत्पादन पैतृक स्वामित्व के सिद्धान्त पर ही विभाजित होता है। प्रत्येक व्यक्ति को लगान अपने भू-स्वामित्व के अनुसार देना होता है, किन्तु सम्पूर्ण लगान गाँव की भूमि को एक इकाई मानकर ही वसूल किया जाता है।
अर्पतृक सम्पत्ति के आधार वाली प्रथा इस प्रथा के अन्तर्गत गाँव की सम्पूर्ण भूमि का विभाजन भाईचारे के आधार पर किया जाता है। भूमि का विभाजन कृषक के पास उपलब्ध साधनों, जैसे हल-बैल, सिंचाई के साधन, खेती करने वाले व्यक्तियों की संख्या इत्यादि को ध्यान में रखकर किया जाता है, किन्तु भूमि के विभाजन के पश्चाद भी भूमि का स्वामित्व सामूहिक होता है।
बिना किसी सिद्धान्त पर आधारित प्रथा महालवाड़ी प्रथा के अन्तर्गत एक यह प्रथा भी प्रचलित थी कि जो कृषक जितनी भूमि की काश्त करता था, वह उसका मालिक होता था तथा लगान भी उतनी ही भूमि का चुकाता था। यह प्रथा किसी विशेष सिद्धान्त पर आधारित नहीं थी।
प्रणाली के लाभ
भूमि पर सामूहिक स्वामित्व– भूमि पर सामूहिक स्वामित्व से परस्पर भाईचारे एवं निकटता = को बढ़ावा मिलता है।
मध्यस्थों का अभाव-मध्यस्थों के अभाव में कृषकों का शोषण नहीं हो पाता।
सरकार को लाभ-लगान का अस्थायी रूप से निर्धारण होने के कारण भूमि की उर्वरता का लाभ सरकार को भी प्राप्त हो जाता है।
कृषक का स्वाभिमान बना रहना-व्यक्तिगत रूप से स्वतन्त्र खेती करने से कृषक का स्वाभिमान बना रहता है।
प्रणाली के दोष
लगान निर्धारण में मनमानी– लगान निर्धारित करने में सरकारी अधिकारी मनमानी कर सकते।
जमींदारी प्रथा के दोषों का समावेश– यह व्यवस्था लगभग जमींदारी प्रथा की तरह अमल में लाई गई, अतः इस प्रथा में जमींदारी के दोष आ जाते है।
रैयतबाड़ी प्रणाली
रैयतबाड़ी प्रगाली सर्वप्रथम 1792 ई० में कैप्टन रोड तथा थोप्स पुनरो द्वारा मद्रास (चेन्नई) में लागू की गई। धीरे-धीरे यह अन्य प्रान्तों में भी लागू कर दी गई। स्वतन्त्रता के समय यह व्यवस्था कृषि क्षेत्र के 48 प्रतिशत भाग में प्रचलित थी जिसके मुख्य क्षेत्र मद्रास (चेन्नई), मुम्बई, असम व सिन्ध प्रान्त थे।
रैयतवाड़ी प्रणाली के अन्तर्गत सम्पूर्ण पूमि पर राज्य का एकाधिकार होता है, किन्तु व्यवहार में उस भूमि इकाई का स्वामी प्रत्येक रजिस्टर्डधारी (रयतं) होता है। उस व्यक्ति का स्वामित्व उस भूमि पर तब तक बना रहता है, जब तक वह सरकार को नियमित रूप से लगान देता रहता है। उस व्यक्ति को भूभि हस्तान्तरण, भूमि का प्रयोग करने, बेचने एवं बंधक रखने या अन्य किसी प्रकार से अलग करने का पूर्ण अधिकार होता है। भूमि पर मालगुजारी का निर्धारण भूमि की उर्वरा शक्ति द्वारा प्रति 20-40 वर्ष पश्चात् किया जाता है।
प्रणाली की विशेषताएँ
इस प्रणाली में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती है-
(1) सम्पूर्ण भूमि पर राज्य का स्वामित्व होता है।
नहीं होता।
(2) राज्य वथा काश्तकार के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है, क्योंकि इसके मध्य कोई मध्यस्थ नहीं होता।
(3) जब तक काश्तकार भूमि। का लगान देता रहेगा, भूमि का मालिकाना हक कास्तकार के पास बना रहेगा।
(4) भूमि पर मालगुजारी का निर्धारण 20 से 40 वर्ष के अन्तराल के पश्चात् किया जाता है।
(5) भूमि का प्रत्येक अधिकारी स्वयं ही मालगुजारी देने के लिए उत्तरदायी होता है।
(6) जर तक काश्तकारी भूमि का लगान देता है, तब तक उसे भूमि का इस्तान्तरण करने, भूमि का प्रयोग करने, बेचने या बन्धक रखने या अन्य किसी प्रकार अलग करने का पूर्ण अधिकार होता है।
प्रणाली के गुण
*काश्तकार का राज्य से प्रत्यक्ष सम्बन्ध इस प्रणाली के अन्तर्गत राज्य एवं कृषक के मध्य प्रत्यक्ष सम्बन्ध बना रहता है, अतः सरकार आसानी से कृषकों की कठिनाइयाँ समझ सकती है।
*भूमि सुधार का लाभ सरकार को भी प्राप्त होना-चूंकि लगान का निर्धारण एक निश्चित समय अवधि के पश्चात् निर्धारित होता है, अतः भूमि सुधारों का लाभ राज्यों को भी प्राप्त होता रहता है।
*भू-धारण की सुरक्षा इस व्यवस्था में भू-धारण की भी सुरक्षा बनी रहती है, जिससे किसान परिश्रम एवं पूँजी का प्रतिफल प्राप्त हो जाता है।
*भूमिसंबंधी अभिलेख एवं प्रलेख इस प्रणाली में भूमिसंबंधी अभिलेख एवं प्रलेख पूर्ण होते हैं, अतः भूमि सुधार आसानी से किया जा सकता है।
*मध्यस्थता का अभाव इस प्रणाली में मध्यस्थता के अभाव में कृषक का शोषण नहीं होता, क्योंकि काश्तकार का राज्य से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है।
* आपत्तिकाल में सुविधा इस प्रणाली में आपत्तिकाल में सुविधा रहती है, क्योंकि सरकार इस दौरान भूमि लगान माफ कर सकती है।
प्रणाली के दोष
- मनमाने लगान का निर्धारण— इस प्रणाली में सरकारी अधिकारी लगान निर्धारण में कास मनमानी कर सकते हैं।
- भूमि सुधार में संकोच— लगान बढ़ने के भय कृषक भूमि सुधार करने में संकोच करते हैं।
- भूमि हस्तान्तरण का भय— हस्तान्तरण की स्वतन्त्रता के कारण छोटे किसानों की भूनि बड़े किसानों की ओर हस्तान्तरित होने का भय सदैव रहता है।
- सरकार के लिए अमितव्ययी व्यवस्था— लगान वसूल करने में सरकार को काफी व्यय करना पड़ता है, क्योंकि इस कार्य के लिए ही कई कर्मचारी नियुक्त करने पड़ते हैं।
- जमीदारी प्रथा के दोषों से मुक्त नहीं— इस प्रणाली में, भूमि उप-कृषकों के अभाव में जमींदारी प्रया के दोष आ जाते हैं।
प्रश्न– ब्रिटिशकाल में दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों के पतन के क्या कारण थे ? इस औद्योगिक पतन का अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
औद्योगिक पतन का कारण
ईस्ट इण्डिया कम्पनी एवं ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के परिणामस्वरूप 18वीं शताब्दी के अन्त तक भारतीय उद्योगों का पतन हो गया। परिणामस्वरूप हमारे देश की गणना भी अल्पविकसित राष्ट्रो में होने लगी। इस औद्योगिक पतन के निम्नलिखित कारण थे—
* भारतीय राजाओं का पतन-ब्रिटिश शासन में देशी शासकों का अन्त हो गया, जिसके कारण हथकरघा उद्योगों को गहरा धक्का लगा। राजा-महाराजाओं के पतन से उनके द्वारा दिए गए प्रोत्साहन समाप्त हो गए। बाजार में मशीनों से बना माल उपलब्ध होने से उनकी माँग में गिरावट आ गई तथा दूसरी तरफ बिटिश शासन की उपेक्षा से उन्हें प्रोत्साहन न मिलने से हथकरघा वस्तुओं एवं कलात्मक वस्तुओं के प्रति जनता का रूझान कम हो गया। इस प्रकार भारतीय उद्योगों का पतन होने लगा।
*ब्रिटिश शासन की स्थापना-ब्रिटिश शासन की स्थापना से कुटीर उद्योग प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुआ। ब्रिटिश शासन ने शान्ति एवं कानून व्यवस्था के नाम पर हथियार, औजार एवं ढाल निर्माण पर प्रतिबन्ध लगा दिया। फलस्वरूप पंजाब एवं सिन्ध, जहाँ इनका निर्माण होता था, के उद्योग समाप्त हो गए। इसके साथ-साथ शासन ने विदशी पर्यटकों के लिए आभूषणों में सजाए जाने वाले पदार्थों के निर्माण पर रोक लगा दी। इस प्रकार ब्रिटिश शासन ने कुटीर उद्योगों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। ब्रिटिश शासन ने अलिखित रूप से यह आवश्यक कर दिया कि प्रत्येक कर्मचारी, अंग्रेज अधिकारी के सामने केवल मशीन से बना हुआ चमड़े का जूता ही पहनेगा। इससे मोचियों के धन्धों पर बुरा प्रभाव पड़ा। इस प्रकार ब्रिटिश शासन ने एक तरफ कुटीर उद्योग-धन्धों को रौंदा तथा दूसरी तरफ इन घन्थों की वस्तुओं के कलात्मक एवं व्यापारिक मूल्य का हास किया ।
*मशीनों से बनी वस्तुओं से प्रतियोगिता – भारतीय उद्योग-धन्धों के पतन का एक यह भी कारण था कि बाजार मे देशी वस्तुओं को मशीनों से बनी वस्तुओं प्रतियोगिता करनी पड़ी। इन विदेशी वस्तुओं के सामने देशी वस्तुएँ गुणात्मक रूप से घटिया एवं महँगी होती थीं, जिससे उनकी माँग पर बुरा असर पड़ा। रानाडे के अनुसार, “यूरोप में शक्तिचालित सूती उद्योगों के उत्थान से भारतीय सूती उद्योग पूरी तरह से बर्बाद हो गया।” यही दशा देश के दूसरे उद्योगों, जैसे लोहा गलाना, काँच, रंगाई एवं छपाई, कागज आदि की हुई। भारतीय घरेलू तथा कुटीर हथकरघा उद्योग विदेशी वस्तुओं के आगे टिक नही पाए। इसके अतिरिक्त स्वेज नहर के निर्माण से ब्रिटिश वस्तुओं की लागत कम हो गई, इससे भी घरेलू उद्योग-धन्धों पर बुरा असर पड़ा।
*पश्चिमी शिक्षा – अंग्रेजी शिक्षा भी घरेलू उद्योग-धन्यों के पतन का एक करण रहा है। शुरू मे तो अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय लोग यूरोपियन लोगों से भी अधिक पश्चिमी देशो की नकल करते थे। वे लोग यूरोपियन वेशभूषा, फैशन एवं खान-पान को अपनाने लगे तथा भारतीयों को नीची नजर से देखने लगे। इस सब का यह प्रभाव हुआ कि घरेलू वस्तुओं की माँग घटन लगी और यूरोपियन औद्योगिक वस्तुओं की माँग बढ़ने लगी ।
*नए प्रारूप का प्रादुर्भाव भारतीय कारीगर ब्रिटिश शासकों एवं यूरोपियन अधिकारियों की रुचि के अनुसार वस्तुओं का निर्माण नहीं कर सके। यद्यपि कुछ कारीगरों ने नई विदेशी वस्तुओं की कल करने की कोशिश की, तथापि परिणाम यह हुआ कि वे उन वस्तुओं को पूरी तरह नहीं अपना एके तथा भारतीय वस्तुओं को भी नहीं बना सके। उदाहरणार्थ-पंजाब की ‘काफ्टगिरि फैक्ट्री’ ने यूरोपियन वस्तुओंकी नकल की व वस्तुओं का उत्पादन शुरू किया। परिणामस्वरूप वह उद्योग हो समाप्त हो गया।
*मध्यस्थो की भूमिका– पामीण दस्तकारी तथा पामीण जीवन-निर्वाहक उद्योगों के अतिरिक्त् जितने भी अतिरिक्त उद्योग थे, उनके बाजार विस्तार के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी मध्यस्य के रमप ये कार्य करती थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी कुटीर उद्योगों से निर्मित भाल खरीदती और यूरोप के बाजारों में बेचती थी। कम्पनी इन उद्योगों का अपिम कच्चा माल एवं वित्तीय सहायता प्रदान कर उनसे कम कीमत पर माल खरीदने का समझौता कर लेती थी तथा तैयार माल ऊंचे दामों पर बेच देती थी। इस प्रकार कम्पनी इन उद्योगों का शोषण करती थी। कभी-कभी यदि कोई उद्योग इस समझौते का उल्लंघन करता था, तो वे दबाव बनाकर उसका माल जब्त करके उसी जगह पर मात को नीलामी कर देते थे। इस प्रकार देशी उद्योग माल उत्पादन करने में निरुत्साहित हो गए।
*ब्रिटिश सरकार की नीति– शुरू में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नीति भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन देने की थी, क्योंकि भारत से कम्पनी जिन वस्तुओं का निर्यात करती थी वे अधिकतर भारतीय उद्योगों में निर्मित होती थो, किन्तु बाद में कम्पनी को नोति ब्रिटिश सरकार के दबाव के कारण बदल गई। बाद में कम्पनी को नीति यह हो गई कि ब्रिटेन के उद्योगों के लिए अधिक-से-अधिक कम कीमत पर कच्चा माल खरीदों और ब्रिटेन में निर्मित माल को भारत में अधिक कीमत पर बेचो ।
सरकार ने कुटीर एवं लघु उद्योग, विशेषकर रेशम उद्योग के कारीगरों के लिए आदेश पारित किए कि वे कारीगर केवल कम्पनी की फैक्ट्रियों में ही कार्य करें, अन्यत्र नहीं। सरकार ने भारतीय उद्योगों पर भारी उत्पादन कर लगा दिए ताकि उनका उत्पादन निरुत्साहित हो। उदाहरणार्थ-1813 ई० में भारतीय सूती तथा रेशमी वस्र ब्रिटेन के बाजार में इंग्लैण्ड में बनें वस्त्र से 50-60 মতিহার कम कीमत पर बिकता था, किन्तु बाद में इन उत्पादकों को विटेन के बाजार से निकालने के लिए उन पर उनक कुल मूल्य का 70-80% कर लगा दिया गया। यदि देश आजाद होता था तो सम्भव था कि भारत सरकार ब्रिटेन के विरुद्ध कदम उठाती, किन्तु गुलाम देश क्या कर सकता था ? इस प्रकार देशी उद्योगों को नष्ट करने के लिए ब्रिटिश शासन ने दमनकारी नीति अपनाई। इस प्रकार के वातावरण मे कोई उद्योग नहीं पनप सकता था और परिणामस्वरूप देश के व्यापार एवं औद्योगिक विकास का पतन होता चला गया।
औद्योगिक पतन का प्रभाव
भारत के कुटीर उद्य उद्योग-धन्धों पतन होने से भारतीय अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई, कयोंकि का मामीण व्यवस्था इन कुटीर एवं कृषि व्यवसायो पर ही आधारित थी। हथकरघा तथा युनाई भारतीय अर्थव्यवस्था का एक पहिया था, जिसको बिटिश शासन ने पूर्णतया नष्ट कर दिया। इन व्यवसायों के कारीगर लोग बिल्कुल बेकार हो। गए। एक तरफ लोगो की आमदनी के साधन समाप्त हो गए तो दूसरी तरफ देश के लोगों की क्रय शक्ति विदेशों में हस्तान्तरित हो गई। कुटीर उद्योगों के समाप्त होने से इन धन्धो के जो गढ़ थे, वे वह गए तथा गांवों की जिन्दगी पूर्णतया असन्तुलित हो गई। जो लोग इन धन्यों पर निर्भर करते थे, उनका अतिरिक्त भार कृषि पर पड़ गया। इस तरह कुटीर उद्योगों के नष्ट होने से कारीगर बेकार हो गए, उनकी क्रय शक्ति घट गई तथा भारतीय धन विदेशी वस्तुओं के खरीदने के कारण विदेशों में जाने लगा।
प्रश्न— भारतीय कृषि मे वाणिज्यीकरण का क्या अर्थ है ? इसके कारण और प्रभावों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर— कृषि वाणिज्यीकरण के कारण
कृषि के वाणिज्यीकरण होने के अनेक कारण है—
जो निम्नलिखित हैं-
*यातायात के साधनों का विकास-भारत में यातायात के साधनों का विकास होने से कृषि उत्पादको का एक क्षेत्र से दूसरे प्रवाह होने लगा। इसी काल में सड़कों के निर्माण में भी तेजी आई। सड़क एवं रेलें विभिन्न बन्दरगाहों एवं मण्डियों से जोड़ी गई जिससे विभिन्न प्रकार की व्यापारिक म फसलों का आधिक्य-क्षेत्रों से कमी वाले क्षेत्रों मे आवागमन आसान हो गया। इस प्रकार यातायात के साधनों के उपलब्ध होने से व्यापारिक फसलों को प्रोत्साहन मिला ।
*स्वेज नहर का खुलना-स्वेज नहर के खुलने से भारत तथा इंग्लैण्ड के बीच की 4,800 किमी की दूरी कम हो गई और कलकत्ता (कोलकाता) से लन्दन माल पहुंचने की अवधि 36 दिन कम हो गई। इस प्रकार कृषि उत्पादों को यातायात लागत घट गई।
*आर्थिक मन्दी-कृषि उत्पादन को प्रोत्साहन मिलने का एक कारण यह भी रहा कि ब्रिटिश आहाजरानी उद्योग का जबरदस्त मन्दी का सामना करना पड़ा। 1869 ई० के बाद नए-नए जहाज पुराने जहाजों की जगह लेने लगे, जिससे परस्पर प्रतियोगिता होने लगी तथा स्वेज नहर खुलने से भारत तथा ब्रिटेन की दूरी कम हो गई। परिणामस्वरूप माल ढुलाई के भाड़े की दर घट गई। इससे भी व्यापारिक फसलों को प्रोत्साहन मिला।
*अमेरिका में गृहयुद्ध-अमेरिका में जो गृहयुद्ध चला, उसका प्रभाव भारत की कृषि पर भी पड़ा। ब्रिटेन जो कपास अमेरिका से खरीदता था, वह माँग अब अमेरिका में गृहयुद्ध चलने के कारण भारत की ओर स्थानान्तरित हो गई। 1859 ई० में भारत ब्रिटेन को 5 लाख बैल कपास का निर्यात करता था, जो एकदम बढ़कर 1856 ई० में 12.6 लाख बेल हो गई। यद्यपि अमेरिका के गृहयुद्ध के समाप्त होने पर कपास कीमत में गिरावट आ गई, तथापि उस माँग की पूर्ति कुछ हद तक घरेलू माँग ने पूरी कर दी। इस प्रकार कृषि उत्पाद की बढ़ती हुई माँग ने भी कृषि के वाणिज्यीकरण को प्रोत्साहित किया।
*भू-राजस्व का नकद राशि में निर्धारण-ब्रिटिशकाल में भू-राजस्व का निर्धारण नकद मुद्रा मे निश्चित कर दिया गया, जबकि इससे पहले इस प्रकार का प्रावधान नही था। अब किसानो को मुद्रा की आवश्यकता पड़ने लगी और वे अपने उत्पादों का विक्रय करने लगे। कृषि उत्पादों को विक्रय के लिए वाजारों की आवश्यकता होने लगी तथा बाजार की समस्या का समाधान तभी हो
सकता था जब किसान अपने उत्पादों को इंग्लैण्ड भेजें। इस प्रकार फसलों का मुद्रा में विक्रय होने लगा।
*सिंचाई के साधनो का विकास-एक बार जब फसलों का वाणिज्यीकरण हो गया तो किसान अधिक लाभ कमाने के लिए अधिक उत्पादन करना चाहने लगे और फलस्वरूप सिंचाई के साधनों का विकास होने लगा। सिंचाई के साधनों को जुटाने के लिए मुद्रा की आवश्यकता पड़ी, जो फसल उत्पाद को विक्रय करने से ही सम्भव हो सकती थी। यदि लोगों को एक फसल पैदा करने ॉफी से अधिक फायदा नहीं पहुँचता, तो लोग दूसरी ऊंची कीमत पर बिकने वाली फसल का उत्पादन कि करने लगे तथा फसल को ऐसे बाजार में बेचना चाहने लगे जहाँ उन्हें ऊँचा दाम मिले। यह विदेशी बाजार मे सम्भव हो सकता था, अतः कृषि उत्पादों का निर्यात बढ़ा।
*सरकार द्वारा प्रोत्साहन व्यापारिक फसल अधिक मात्रा में उत्पन्न करने का यह भी कारण न में या कि ब्रिटिश शासन इस प्रकार की फसलों से अधिक उत्पादन मे अधिक रुचि रखता था ताकि उसे ब्रिटेन में अपने उद्योगों के लिए कच्चा माल, जैसे-कपास, जूट आदि आसानी से उपलब्ध होता रहे । इसलिए ब्रिटिश सरकार ने इस प्रकार की फसल उत्पादन में हर प्रकार की सुविधाएँ एवं प्रोत्साहन दिया ताकि भारत से इनका ब्रिटेन को निर्यात होता रहे।
कृषि के वाणिज्यीकरण का अर्थ
खेती, जो केवल जीवन निर्वाह का साधन हुआ करती थी, अब उसका स्वरूप बदकर व्यापारिक हो गया। लोग अपने खेतों पर केवल उपयोग के लिए ही वस्तु पैदा नहीं करते बल्कि निर्यात करने के लिए भी पैदा करने लगे। इसके अतिरिक्त लोग उपभोग फसलो के अतिरक्त व्यापारिक फसल अधिक पैदा करने लगे। संक्षेप में, व्यापार तथा निर्यात के लिए फसल उत्पन्न करना ही कृषि का वाणिज्यीकरण कहलाता है। अब कृषि एक व्यवसाय माना जाने लगा। कृषि जीवन निर्वाह के साधन के स्थान पर अब व्यापारिक दृष्टिकोण से की जाने लगी।
यातायात एवं विदेशी व्यापार का विकास होने से निर्यातित वस्तुओं में कुछ वस्तुएँ, जैसे तम्बाकू, चाय, कॉफी, कढ़वा, नारियल एवं आलू आदि और जूड़ गई। ईस्ट इण्डिया कम्पनी जूट, चाय, कॉफी तथा नील के पौधे को पैदावार में सहायता देने लगी। देश के किसान यह महसूस करने लगे कि उन्हें इन व्यापारिक फसलों से अधिक फायदा प्राप्त होता है। इसलिए वे भोज्य पदार्थ से अधिक व्यापारिक फसल उगाने लगे। इस प्रकार खेती की प्रकृति में परिवर्तन होने से विशेषीकरण स्थानीयकरण को बढ़ावा मिला। उदाहरणार्थ-बरार (Berar) क्षेत्र मे कपास एवं गन्ना, बंगाल में जूट तथा पंजाब में गेहूँ के उत्पादन मे विशेषीकरण स्थापित हो गया।
कृषि वाणिज्यीकरण का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
कृषि मे वाणिज्यीकरण को क्रान्ति का भारतीय प्रामोण समाज की सामाजिक एवं आर्थिक संरचना परत्यक्ष प्रभाव पड़ा:
ग्रारीण समाज की आत्मनिर्भरता का अन्त-ग्रामीण समाज में जो आत्मनिर्भरता पाई जाती बो, वह वाणिज्यीकरण से छिन्न-भिन्न हो गई।
राष्ट्रीय बाजार की स्थापना देश में कृषि उत्पादों के लिए एक राष्ट्रीय बाजार स्थापित हो 36 दिर गया। जहाँ किसान फसल काटने के बाद अपनी फसल को बेच सकता है, तो आवश्यकता पड़ने पर उसे बाजार से खरीद भी सकता है। इस प्रकार इस नए परिवर्तन का यह प्रभाव हुआ कि प्रामीण बिटिर समाज, जो एक समूह में आत्मनिर्भर था, मे यह प्रवृत्ति आ गई कि प्रत्येक परिवार अपनी आवश्यकता को जितनी अच्छो तरह पूरी कर सकता था, करने की चेष्टा करने लगा। उसे सम्पूर्ण समाज से कोई लेना-देना नहीं रहा।
कृषि उत्पादों की विदेशी मांग में वृद्धि-फसलों का वाणिज्यीकरण होने से भारतीय कृषि उत्पादों को विदेशों में निरन्तर मांग बढ़ने लगी। साथ ही उन उत्पादों की कीमते भी बढ़ने लगी। भारत से गेहूं का अधिकतर निर्यात ब्रिटेन को होने लगा तथा चावल कई देशों, जैसे लंका, पूर्वीं अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका आदि में भेजा जाने लगा। परिणामस्वरूप किसान अपने घर अथवा गाँव को आवश्यकताओं की उपेक्षा करने लगा और विदेशी बाजार और कृषि उत्पादों की कीमतों की ओर अधिक ध्यान देने लगा। इस प्रकार विदेशी बाजार में उत्पादनों के उच्चावचन एवं कोमतों का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने लगा।
कृषि में आधुनिक उन्नत मशीनों का प्रयोग कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण कृषि के काम में आने वाली परम्परागत तकनीकियो का स्थान आधुनिक मशीनों ने ले लिया।
प्रामीण कारीगरो में बेरोजगारी इससे प्रामीण कारीगर एवं हथकरघा उद्योग में लगे हुए लोग बेकार होने लग गए तथा अन्त में उनमें से कुछ लुप्त हो गए थे।
कृषि पर जनसंख्या के भार में वृद्धि कारीगरों व दस्तकारों के बेरोजगारी होने पर ये लोग कृषि को और अधिक स्थानान्तरित होकर कृषि पर भार हो गए, जोकि भारतीय अर्थव्यवस्था की एक स्थायी विशेषता बन गई।
किसानों की आदत में परिवर्तन-कृषि के इस परिवर्तन ने किसानों की आदतो में परिवर्तन कर दिया। पहले किसान अनाज का संग्रह कर लेता था, जो कमी वाले समय में काम आता था, किन्तु कृषि का व्यापारीकरण होने से लोगों की प्रवृत्ति बदल गई।
खाद्यान के स्थान पर व्यापारिक फसलों का अधिक उत्पादन किसान भोज्य वस्तुओं को अपेक्षा व्यापारिक फसल अधिक बोने लगे और अधिक-से-अधिक फसल का विक्रय करने लगे।
साहूकारों द्वारा किसान का शोषण नई भू-राजस्व तथा भूमि किराएदारी पद्धति के अन्तर्गत कृषि के वाणिज्यीकरण ने महाजनों एवं साहूकारों के लिए सुनहरा अवसर प्रदान किया, क्योंकि भारतीय किसान निर्धन है। वह फसल के समय महाजन से उधार लेता है और फसल के बाद चुकाने का वादा करता है। फसल कटते ही उसे फसल महाजन को बेचनी पड़ती है जिससे उसे कम दाम प्राप्त होते है। इस प्रकार महाजन एवं साहूकार किसानों का शोषण करने लगे। इस प्रकार किसान तथा महाजनों में आर्थिक खाई बढ़ने लगी ।
प्रश्न– एक राजनेता के रूप में महात्मा गांधी के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
महात्मा गांधी ने भारत की क्या सेवा की? विवेचना कीजिए।
महात्मा गांधी का राष्ट्रीय आन्दोलन में क्या योगदान था ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-आधुनिक भारत के इतिहास में महात्मा गांधी का एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। भारत को स्वतन्त्र कराने में सबसे अधिक उनका ही योगदान रहा। वह राजनीतिज्ञ, संगठनकर्ता एवं सुधारक थे। वे आदर्शवादी राजनीविज्ञ थे। उन्होंने अहिंसा और सत्यामह द्वारा शक्तिशाली अंग्रेजी साम्राज्य से टक्कर ली और अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश किया।
जन्म तथा शिक्षा— महात्मा गांधी के बचपन का नाम मोहनदास था। उनका जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को काठियावाड़ मे पोरबन्दर नामक स्थान पर हुआ। इनके पिता का नाम करमचन्द गांधी था। भारत में शिक्षा महण करने के बाद इन्हें इंग्लैण्ड वकालत पढ़ने के लिए भेजा गया, वहाँ से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे।
राजनैतिक जीवन-गांधी जी के राजनैतिक जीवन का आरम्भ दक्षिण अफ्रीका से हुआ जहाँ वे वकील की हैसियत से गये थे। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की दशा बहुत खराब थी। वहाँ की गौरी सरकार भारतीयों के साथ बुरा व्यवहार करती थी। उन्होंने वहाँ की सरकार के विरुद्ध सत्यापह आन्दोलन चलाया और भारतीयों को उनके अधिकार दिलवाये ।
गांधीजी का राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोग/योगदान
महात्मा गांधी भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के कर्णधार थे। उन्होंने भारत को स्वतन्त्रता के लिए अनेक आन्दोलनों का नेतृत्व किया और स्वतन्त्रता आन्दोलन को जन-आन्दोलन का रूप दिया। उन्हीं के अथक प्रयासों से भारत स्वतन्त्र हुआ। महात्मा गांधी का राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
* चम्पारन खेड़ा तथा अहमदावाद में आन्दोलन-चम्पारन (बिहार) में अंग्रेजों ने किसानों पर बहुत अत्याचार किये। गांधीजी को जब पता चला तो वे चम्पारन गये। वहाँ के कमिश्नर ने गांधीजी को चम्पारन से जाने के लिए कहा, लेकिन गांधीजी ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। अन्त में वहाँ के कमिश्नर को झुकना पड़ा। गांधीजी को प्रतिष्ठा सारे देश में बढ़ गई। खेड़ा में गांधीजी ने ‘कर नहीं दो’ आन्दोलन चलाया, क्योंकि वहाँ किसानों की फसलें वर्षा न होने के कारण नष्ट हो गई थीं। बाद में किसानों को सफलता मिली। अहमदाबाद के मिल मालिकों से मजदूरों के सेवन बढ़ाने के लिए कहा, लेकिन पिल-मालिकों ने इस और कोई ध्यान नहीं दिया। गांधीजी ने वहाँ आमरण अनशन भारभ कर दिया। बाद में मिल मालिकों का वेतन बहाना पड़ा।
* स्वतन्त्रता आन्दोलन के कर्णधार-भारत की स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलनों का नेतृत्व किया- गांधीजी ने निम्नलिखित—
असहयोग आन्दोलन-1919 में अंग्रेजी सरकार ने रौलट एक्ट पास किया। यह एक ऐसा कानून था जिसके अनुसार किसी भी व्यक्ति को बिना किसी कारण से बन्दी बनाया जा सकता था। गांधीजी ने इस एक्ट के विरोध में एक दिन के लिए आम हड़ताल की घोषणा की। 13 अप्रैल, 1919 ई० में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में आम सभा बुलाई गई। जनरल डायर ने वहाँ एकत्रित स्त्रियों, पुरुषों तथा बच्चों को गोलियों से भून डाला। इस घटना से दुखी होकर गांधीजी ने 1920 ई० में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में प्रस्ताव पेश किया। प्रस्ताव पेश करते हुए गांधी जी ने कहा “अंग्रेज सरकार शैतान है जिसके साथ सहयोग करना नितान्त असम्भव है। इस आन्दोलन के अन्तर्गत गांधीजी ने ‘केसर-ए-हिन्द’ की उपाधि वापस कर दी। सरकारी स्कूलों के छात्रों ने पढ़ना छोड़ दिया। वकीलों ने वकालत छोड़ दी। विदेशी माल का बहिष्कार किया गया। यह आन्दोलन पूरे जोरों पर था। उसी समय चौरी-चौरा में हिंसात्मक घटना घटित हो गयी। वहाँ की जनता ने थाने में आग लगा दी और थानेदार तथा 21 सिपाहियों को मार डाला। इस घटना से दुःखी गांधीजी ने अपना आन्दोलन समाप्त कर दिया। गांधीजी के इस कदम का सारे देश ने विरोध किया। 3 मार्च, 1922 को गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। 1925 ई० में गांधीजी को जेल से मुक्त कर दिया गया।
(ii) सविनय अवज्ञा आन्दोलन-गांधीजी ने कमीशन का विरोध करने की सारे देश वासियों से अपील की। 26 जनवरी, 1930 को गांधीजी के नेतृत्व में स्वराज्य दिवस मनाने का निश्चय किया गया। गांधीजी ने अंग्रेजों के सामने नेहरु रिपोर्ट पेश की जिसको अस्वीकार कर दिया गया। इससे निराश होकर गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। 12 मार्च, 1930 को गांधीजी ने डाण्डी यात्रा आरम्भ की तथा 6 अप्रैल, 1930 को नमक कानून तोड़ा। सरकार ने हजारों देश भक्तों को जेल में बन्द कर दिया। गांधीजी को बन्दी बना लिया गया।
(iii) भारत छोड़ों आन्दोलन– 1942 ई० में गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो’ का नारा लगाया। गांधीजी की आवाज सारे देश की आवाज बन गई। यह प्रस्ताव 8 अगस्त, 1942 ई० को कांग्रेस द्वारा पारित हुआ था। 9 अगस्त को गांधीजी को बन्दी बना लिया गया। देश में मारकाट, तोड़-फोड़, लूटमार आदि घटनाएँ हुई। 1944 में गांधीजी को जेल से मुक्त कर दिया गया। मुक्त होने के पश्चात् गांधीजी ने इस बात का प्रयास किया कि भारत का विभाजन न हो, लेकिन प्रयास करने पर भी गांधीजी इस विभाजन को रोक न सके। अन्त में गांधीजी के प्रयासों के फलस्वरूप 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत स्वतन्त्र हुआ :
* आन्दोलन को व्यापक बनाना-गांधीजी के राजनीति में पर्दापण से पूर्व कांग्रेस केवल शिक्षित वर्ग की संस्था थी। गांधीजी ने इसको व्यापकता प्रदान कर जनता की संस्था के रूप में परिवर्तित कर दिया। राष्ट्रीय आन्दोलन ने जन-आन्दोलन का रुप धारण कर लिया। इस प्रकार आन्दोलन में भाग लेने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई।
आन्दोलन को नया रूप प्रदान करना-महात्मा गांधी ने ही सर्वप्रथम सत्य, अहिंसा एवं शान्तिपूर्ण आन्दोलन का प्रयोग किया। पराधीनता की बेड़ियों को काटकर एक शक्तिशाली साम्राज्य से स्वतन्त्रता प्राप्त करने का यह तरीका इतिहास में अनोखी चीज है। इसके अतिरिक्त, असहयोग आन्दोलन तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन तथा स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए अपनाना भी महात्मा गांधी की विश्व को एक महान् देन है।
जनता में जागृति-महात्मा गांधी का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक और प्रभावशाली था। उन्होंने भारत को अशिक्षित, सुषुप्त एवं दरिद्र जनता में जागृति भर दी। उन्होंने जिन उपायों को अपनाया, वे उन उपायों द्वारा ही बड़े लोकप्रिय नेता बन गये।
प्रश्न— प्रमुख जनजातीय आन्दोलनों का उल्लेख कीजिए।
जनजातीय आन्दोलन
उत्तर– जनजाति के लोग सामान्यतः शान्त प्रकृति के अनुशासित तथा ईमानदार होते हैं। उनकी जीवन के प्रति बहुत उच्च आकांक्षा नहीं होती। लेकिन, गैर आदिवासी लोगों के संपर्क में आने और ईसाई मिशनरियों के प्रभाव से जनजातीय क्षेत्र में राजाओं द्वारा उनके साथ विश्वासबात के कारण उन्होंने अपने शोषण तथा अन्याय के विरुद्ध अनेक आन्दोलन किए है। यह आन्दोलन एक प्रकार के बहुसंख्यक लोगों के विरुद्ध किये जाने वाले आन्दोलन है। संक्षिप्त मे कुछ प्रमुख आन्दोलन निम्नानुसार हैं-
मुंडा बिरसा विद्रोह
मुण्डा अदिवासियों में भू-स्वामित्व सामुदायिक था। इसक व्यवस्था जनजातीय सरदार करते थे धीरे-धीरे यह मुखिया अपने क्षेत्र मे शासन करने लगे। गैर आदिवासी राजाओं के संपर्क में आकर जनजातीय मुखिया राजाओं ने इनके लोगों को अपने क्षेत्रों में बसाया। ब्रिटिश काल मे गैर आदिवासी जनजातीय क्षेत्रों में जमींदार जागीरदार बन गये और जनजातियों का शोषण करने लगे। दूसरी ओर ईसाई धर्म प्रचारको द्वारा ईसाई सम्राज्य स्थापित करने का प्रयास किया गया जिस अंग्रेजों से खुला समर्थन और संरक्षण प्रशासनिक रूप से मिलना प्रारंभ हुआ। ईसाई मिशरियों ने मुण्डा लोंगों को आर्थिक दशा सुधारने का भरोसा दिलाकर उनका धर्म परिवर्तन तो किया किन्तु वास्तव में बाबदा पूरा नहीं किया। इस बीच मुण्डा आदिवासियो का नेतृतव बिरसा ने संभाला। बिरसा ने ईसाई मिशनरियों से शिक्षा प्राप्त की थी। साथ ही वह हिन्दू साधु-संतो के संपर्क में भी था कि बिरसा ईसाईयों और हिन्दुओं दोनों का विश्वासपात्र होकर कहने लगा कि वह ईश्वर का अवतार है। उसने अपने शिष्य बनाकर मुण्डाओं को राजनैतिक दृष्टि से उद्वेलित किया। मुण्डाओं को उसने हिन्दुओं को उच्चजातियों की भांति ट्रेनिंग देना प्ररम्भ किया और मुण्डा राज्य स्थापना का उद्देश्य लेकर महाजनों, साहूकारों, जमींदारों तथा ईसाई मिशनरियों के भी विरुद्ध आन्दोलन चलाने लगा । सन् 1895 में उसने लगभग छः हजार मुण्डाओं को अपने समर्थन में ले लिया। अंग्रेजों ने उसे बंदी बना लिया। 1897 में जेल से छूटने के बाद बिरसा ने ईसाई मिशनरियों और चर्चों पर खुला आक्रमण करा कर अंग्रेजी फौज तक को लोहे के चने चवा दिए। अन्ततः बिरसा पकड़ा गया। उसको मृत्यु के पश्चात् मुण्डाओं का मनोबल तो टूटा, किन्तु मिशनरियों को धर्म प्रचार की गतिविधियां पूर्वोत्तर भारत में सीमित होकर रह गई।
ताना भगत आन्दोलन
ताना भगत आन्दोलन भी बिरसा, आन्दोलन का समकालीन था। इस पर बिरसा मुण्डा का हसे स्पष्ट प्रभाव था। इस आन्दोलन का प्रणेता ताना उरांव था। ताना भगत ने प्रचारित किया कि वह धर्मेश भगवान का प्रतिनिधि है। उसने अनेक सामाजिक बुराईयों के विरुद्ध तथा जमींदारी व्यवस्था के विरुद्ध आन्दोलन तो किया ही, साथ ही स्वतन्त्रता संग्राम में गांधी के अहिंसक आन्दोलन और उग्रवादी आन्दोलन का भी साथ दिया। 1921 मे ताना भगत को गिरफ्तारी के बाद उरांघ जनजाति के लोगों का आन्दोलन उम और हिसंक हो गया। अंग्रेजों ने दमन का सहारा लेकर इसका अंत किया।
संथाल विद्रोह
संथाल आदिवासी विद्रोह का मूल कारण बहुसंख्यक बाह्य लोगों का आर्थिक शोषण था। इसका नेतृत्व कान्टू बन्धुओं ने किया, जिसकी सहायता दो अन्य भाइयों चाँद और भैरव ने की। यह विद्रोह 1855 मे हुआ। प्रथम दो आन्दोलन की ही भांति इस आन्दोलन का मुख्य कारण और आधार भू-स्वामित्व था। भू-स्वामित्व के साथ जब संथाल आदिवासी क्षेत्र के लिए बाध्य हो गये। संथाल राज्य की स्थापना को लेकर चलाया गया आन्दोलन भागलपुर, वीरभूमि और बंगाल वे कुछ भागों तक फैला। अंग्रेजों ने फौज के बल पर बमुश्किल इस आन्दोलन को दबाया।
बस्तर संघर्ष
मध्य प्रदेश के बस्तर जिले (अब छत्तीसगढ़ में स्थित) का राजा गैर आदिवासी हिन्दू था। यही कारण रहा कि गोंड आदिवासियों ने गैर आदिवासियों का विरोध नही किया। यहां गैर आदिवासी कृषकों और गोंडों का अच्छा समायोजन रहा। गोंडों की अपने राजा के प्रति दैनिक निष्ठा थी लेकिन गोंड राजा अपनी उत्तराधिकार की लड़ाई में आदिवासियों को ढकेलकर उनका शोषण करते रहे। आजादी के बाद वहाँ के राजा भंजदेव ने आदिवासियों की श्रद्धा और भक्ति की प्रतीक दंतेश्वरी का भय दिखाकर तथा स्वयं की राम और कृष्ण का अवतार बताकर बस्तर के जिलाधीश से उसके राजकीय अधिकार दिलाने का आग्रह किया। ऐसा न करने पर आदिवासी विद्रोह की धमकी दी। प्रवीणचन्द्र भन्जदेव ने बस्तर क्षेत्र की विधानसभा की कुछ सीटें भी जीत ली और 31 मार्च 1961 को लगभग 10 हजार आदिवासियों को एकत्रित कर शक्ति का भी प्रदर्शन किया। 10 मार्च 1966 को किए जंगी प्रदर्शन के अवसर पर म० प्र० के मुख्यमंत्री पं० द्वारिका प्रसाद मिश्र द्वारा जिला कलेक्टर को स्थिति के नियंत्रण मे पूर्ण सहयोग दिए जाने के फलस्वरूप प्रवीरचन्द्र भंजदेव की मृत्यु के साथ ही यह आन्दोलन भी समाप्त हो गया।
नागा विद्राह
उत्तर पूर्वी क्षेत्रों के जनजातीय आन्दोलनों में ‘अल्पसंख्यक’ ‘बहुसंख्यक’ के भाव में अलगाववादका सूत्रपात है। इन आन्दोलनों में सर्वाधिक प्रखर आन्दोलन नागा विद्रोहियों का है। भारत को विखण्डित करने की इच्छा रखने वाली बाह्य शक्तियों ने नागाओं में यह विश्वास जगा दिया कि स्वतंत्रता के बाद विद्रोह करने पर उन्हें भी पाकिस्तान की भांति स्वतंत्रता प्राप्त हो जावेगी। अतः नागा आन्दोलन करने लगे। इस आन्दोलन का ईसाई मिशनरियों, चचों विदेशी लोगों तथा चीन तथा बर्मा का तो युद्ध कौशल प्रशिक्षण और हथियारों तथा गोला बारूद का भी समर्थन मिला। अतः नागा आन्दोलन तीव्र से तीव्रतर होता गया। बमुश्किल तमाम प्रयासों के बाद भारतीय गणराज्य और संविधान की सीमा में नागाओं को अलग राज्य नागालैण्ड के लिए तैयार किया जा सका। नागालैण्ड और नागाओं की सफलता के कारण अन्य क्षेत्रों के आदिवासी भी अलग राज्य की स्थापना के लिए आन्दोलनरत हुए। इसका परिणाम त्रिपुरा, अरूणाचल, मेघालय और मिजोरम राज्यों के अस्तित्व मे आने के रूप में निकला। अभी हाल में ही झारखण्ड आन्दोलन की परिणति के रूप में झारखण्ड राज्य अस्तित्व में आया है तथा छत्तीसगढ़ बहुल आदिवासी क्षेत्र को छत्तीसगढ़ राज्य का नाम दिया गया है। उत्तर प्रदेश का विभाजन कर आदिवासी बहुल क्षेत्र उत्तरांचल बनाया गया। म० प्र० में नर्मदा सागर बांध से संबंधित गुजरात और मध्य प्रदेश के अल्पसंख्यक आदिवासियों से संबंधित आन्दोलन की प्रवृत्ति आदिवासी क्षेत्रों की बांध से डूब और विस्थापित होने की समस्याओं को लेकर चलाया जा रहा है। इसे तमाम लब्ध प्रतिष्ठित गैर आदिवासी लोगों और संस्थाओं का भी समर्थन प्राप्त है।
अल्पसंख्यकों को समस्यात्मक पहलू और इसका समाधान
‘अल्पसंख्यक’ समस्या का सबसे दुखद पहलू राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग की बाधा और सांम्प्रदायिकता में है। समाज शास्त्रीय दृष्टि से धार्मिक, भाषायी और जनजातीय अल्पसंख्यक समूह सामाजिक संरचना के अभिन्न अंग हैं। जहा एक ओर अल्पसंख्यक समूहों ने भारतीय सामाजिक संरचना के विविधता में एकता की संस्कृति को बढ़ावा देकर विश्व को यह संदेश दिया है कि सहयोग सदभाव और समन्वय की प्रक्रिया के अंतर्गत भारतीय प्रजातंत्र अपने आप में एक अनूठी मिसाल है वहीं विश्व के अनेक देशों में एक ही प्रकार के समुदाय के लोगों में समानता नहीं है। ऐसी स्थिति में भारत का उदाहरण अपने आप में अनोखा है। वहीं दूसरी ओर धर्म, जाति भाषा और प्रजातियों, जनजातियों का पारस्परिक तनाव अनेक बार हिंसा और संघर्ष का स्वरूप लेकर देश के सामने कानून और व्यवस्था के लिए समस्या तो बनता ही है, साथ ही अलगाववाद को प्रवृत्ति राष्ट्री एकीकरण के लिए चुनौती का रूप धारण करने लगती है। आजादी के बाद से भाषायो विवादों और जनजातीय आन्दोलनों के परिणास्वरूप तमाम प्रकार के प्रयलों के बावजूद समस्याओं का अंत नहीं हो रहा है। भाषायी आधार पर त्रिभाषी फार्मूला कारगर साबित नहीं हुआ। उत्तर-दक्षिण के हिन्दी अंग्रेजी विवाद क्षेत्रीय भाषाओं के संविधान को सूची में सम्मलित करने और भाषायी आधार राज्य बनने के आन्दोलन एकीकरण में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। इसी प्रकार जनसंख्या की बहुलता के आधार पर अल्पसंख्यक राज्यों के बनाये जाने में भी अलगाववाद का कोई अन्त नहीं हुआ है। विदेशी ताकतें इस अलगाववाद को प्रोत्साहित करने में कोई कोर कसर नहीं रख रही हैं।
‘अल्पसंख्यक’ समस्या का सबसे अधिक कुत्सित रूप सांप्रदायिकता है। भाषायी और जनजातीय स्तर की सांप्रदायिकता के नियंत्रण में तो आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। इसके यदा-कदा हौ उदाहरण देखने को मिलते हैं, लेकिन धर्म आधारित सांप्रदायिकता जिसमें कि हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिकता तो दिन-प्रतिदिन का सरदर्द बनी हुई है। आजादी के बाद अहमदाबाद, भिवंडी, रांची, राहारिकता तेरे तद अलीगढ़ के सांप्रदायिक दंगें रोमांचित कर देते हैं। मंदिर मस्जिद विवाद हल होने कबादाम नहीं लेते बल्कि गुजरात के ताजा दंगें यह एहसास कराते हैं कि समस्या ज्यों की त्योंहै। कट्टर हिन्दू भारत भूमि पर अपनी एकछत्र संस्कृति की श्रेष्ठता बनाये रखना चाहते हैं तो कट्टर मुसलमानों के मन से उनके शासक होने का भाव बहुसंख्यक हिन्दुओं के प्रति ईर्ष्या कटुता और नफरत को बढ़ावा देता ही प्रतीत होता है। दोनों धर्मावलम्बियों की इस कट्टरता को बढ़ाने में राजनेताओं की दलगत राजनीति और वोट की राजनीति आग में घी डालने का कार्य करती है। इस सबकी अन्तिम परिणति सांप्रदायिक दंगों के रूप में होती है जिससे दोनों ही समुदाय के निर्दोष लोगों को अनावश्यक जान गंवानी पड़ती है और उनके बच्चे अनाथ हो जाते हैं। इस समस्या का यदि प्रभावी हल न खोजा गया तो धर्म के नाम पर देश के अन्दर और बाहर की सांप्रदायिकता हिंसा और आतंकवाद के रूप में जनजीवन को तो तबाह करेगी ही, बल्कि राष्ट्र के अस्तित्व के लिए भी खतरा बन जायेगी। लोगों में अनिश्चितता और असुरक्षा की भावना किसी राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं हो सकती।
समस्या का समाधान
आजादी के बाद अल्पसंख्यकों की समस्या के समाधान के लिए भारतीय संविधान की समतावादी समाज की स्थापना के लिए अनुच्छेद 14, 15, 16, 25, 26, 27, 28, 29, और 30 में अल्पसंख्यकों के लिए विशेष उपबंध किए गये हैं। 1978 में अल्पसंख्यक आयोग बनाया गया था जो कि संवैधानिक उपबंधों की समीक्षा कर इन्हें प्रभावी ढ़ग से लागू करने हेतु केन्द्र और राज्य सरकारों को सुझाव देने का कार्य करता है। वर्ष 1983 में एक अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ बनाया गया है जिसमें कि प्रधानमंत्री के 15 सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रकोष्ठ के द्वारा सांप्रदायिक हिंसा और कल्याणकारी योजनाओं की देखरेख की व्यवस्था है। भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए संविधान के अनुच्छेद 347 एवं 350 में यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति किसी भी राजकीय भाषा में सम्मिलित करने की स्वीकृति प्रदान कर सकेंगे। अनुच्छेद 350 के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों के लिए विशेष पदाधिकारी नियुक्त करने तथा राज्य द्वारा ऐसा प्रयास करने का प्रावधान है जिससे कि प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा स्थानीय मातृभाषा में अल्पसंख्यकों को दी जाये। जनजातीय अल्पसंख्यकों के लिए 12 मार्च, 1992 की राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग बनाया गया है जिसमें राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक अध्यक्ष एक उपाध्यक्ष और पाँच सदस्य होते हैं। यह आयोग जनजातीय कानूनों, कल्याण ओर विकास से संबंधित उपबन्धों के क्रियान्वयन का मूल्यांकन करता है। यह विकास के लिए नये उपाय सुझाने के लिए भी अधिकृत है।
प्रश्न– “रॉबर्ट क्लाइव भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था।” इस कथन के प्रकाश में क्लाइव की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
रॉबर्ट क्लाइव
लॉड कर्जन के शब्दों में- “क्लाइव अंग्रेज जाति में महान् आत्मा वाला व्यक्ति था। वह उन शक्तियों में से था जो मानव जाति के भाग्य–निर्माण के लिए इस विश्व में अवतरित होती।“
भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना का श्रेय रॉबर्ट क्लाइव को प्राप्त है। प्रारम्भ में क्लाइव “ईस्ट इण्डिया कम्पनी” में एक साधारण क्लर्क था। कुछ समय बाद वह कम्पनी की सेना में भर्ती हो गया। क्लाइव को उसकी योग्यता के कारण ही एक सैनिक से भारत में ब्रिटिश गवर्नर बना दिया। उसको सैनिक प्रतिभा का परिचय उसके प्रथम गवर्नर बनने पर बंगाल और दक्षिण की रणभूमि में किए गए कार्यों से मिलता है। क्लाइव में अदम्य साहस, प्रशासनिक प्रतिभा तथा राजनीति के भी थे, थे, जिसका आभास हमें उसकी गवर्नर की द्वितीय पारी के काल में किए गए कार्यों से मिलता है। उसे भारत में में अ अंग्रेजी राज्य का संस्थापक होने का गौरव प्राप्त है।
रॉबर्ट क्लाइव : ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक
अधिकांश इतिहासकार क्लाइव को ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक मानते हैं। यदि हम क्लाइव के अभूतपूर्व कार्यों का अवलोकन करें तो यह मत सत्य प्रतीत होता है। वास्तव में क्लाइव के परिश्रम एवं नीति कुशलता के कारण ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का बीजारोपण हुआ। एल्फ्रेड के अनुसार, “भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के लिए अंग्रेज लोग अन्य सभी लोगों की अपेक्षा क्लाइव के ही ऋणी हैं, जो उत्साही, साहसी और कभी न थकने वाला व्यक्ति था।”
रॉबर्ट क्लाइव की निम्नांकित सफलताएँ उसे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं-
*अर्काट की विजय-यदि क्लाइव ने अर्काट की विजय प्राप्त नहीं की होती तो सम्भव था कि भारत में अंग्रेजों के स्थान पर फ्रांसीसियों की प्रभुता स्थापित हो जाती।
*प्लासी की विजय प्लासी की विजय भी क्लाइव की विलक्षण बुद्धि और दूरदर्शिता का परिणाम थी। एक विद्वान ने इसे युद्ध नहीं, वरन् एक प्रकार का समझौता मानते हुए लिखा एक समझौता था और इसकी सारी सफलता का श्रेय क्लाइव को ही दिया दिया जाना बाहिए। वास्तव में प्लासी की विजय ने ही भारत में बिटिश साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया था।
*शाहआलम से सन्धि-वक्सर के युद्ध के बाद क्लाइव ने मुगल सम्राट शाहआलम से इलाहाबाद की सन्धि की, जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजो कम्पनी को भारत में सुदृढ़ राजनीतिक एवं आर्थिक आधार प्राप्त हुआ। वस्तुतः इस सन्धि ने प्लासी के अधूरे कार्य को पूरा कर दिया
निष्कर्ष–डा० ईश्वरी प्रसाद ने क्लाइव के कार्यों की समीक्षा करते हुए लिखा है, “कम्पनी को एक व्यापारिक संस्था से प्रशासनिक संस्था के रूप में बदलने का सबसे अधिक श्रेय क्लाइव को ही है। क्लाइव की कार्य प्रणाली एवं संगठन-शक्ति का ही यह फल था कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी समकालीन अन्य कम्पनियों के ऊपर अपनी प्रभुता स्थापित कर सकी।” वास्तव में, क्लाइव की विजयें हो महान् नहीं थीं, वरन् उसके द्वारा की गई तमाम सन्धियाँ और समझौते भी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना करने में सहायक सिद्ध हुए। लॉर्ड मैकाले ने क्लाइव की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “हमारे द्वीप ने शायद ही कभी युद्ध–भूमि और विचार–भवन्न, दोनों ही स्थानों पर वस्तुतः उससे अधिक महान् व्यक्ति को जन्म दिया हो।“
रॉबर्ट क्लाइव के सुधार या कार्य
कम्पनी के डायरेक्टरों ने 1765 ई० में लॉर्ड क्लाइव को पुनः कम्पनी की दशा में सुधार करने हेतु गवर्नर बनाकर भारत भेजा। उसने भारत आकर अनेक सुधार किए—
प्रतिज्ञा–पत्र का प्रचलन क्लाइव ने प्रष्टाचार तथा घूसखोरी को बन्द करने के उद्देश्य से सभी कर्मचारियों से एक प्रतिज्ञा-पत्र भरवाया तथा उन पर यह प्रतिबन्ध लगा दिया कि वे भारतीयों से किसी प्रकार की भेंट, नजराना या उपहार नहीं लेंगे।
व्यक्तिगत व्यापार पर प्रतिबन्ध–क्लाइव ने देखा कि कम्पनी के लगभग सभी कर्मचारी निजी व्यापार कर रहे हैं और कम्पनी के व्यापार को भारी क्षति पहुंचा रहे हैं। इसके साथ ही वे भारतीयों का माल बिना चुंगी के ही निकलवा देते हैं। अतः इन सबके सुधार हेतु कम्पनी के कर्मचारियो के निजी व्यापार करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इसके साथ ही क्लाइव ने कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि कर दी। उसने व्यापारिक संघ की भी स्थापना की, जो नमक, तम्बाकू आदि का व्यापार करता था और इनका लाभ कम्पनी के सभी अधिकारियों में विभाजित कर दिया जाता था।
सैनिक सुधार क्लाइव ने कम्पनी की सैनिक व्यवस्था में भी अनेक उपयोगी सुधार किए। उसने सिपाहियों को मिलने वाला दोहरा भत्ता बन्द कर दिया। इस भत्ते को बन्द करने का कारण यह था कि अंग्रेजों के प्रभुत्व से पहले बंगाल का नवाब, यह देवा भत्ता, अपने राजकोष से था, किन्तु अब यह धन कम्पनी को देना पड़ता था। दोहरा भत्ता देने की प्रथा केवल युद्धकाल में थी, है, किन्तु मीर जाफर इसे शान्तिकाल में भी देता रहा था। अतः अब क्लाइव ने इस भत्ते का कोई औचित्य नहीं समझा और इसे बन्द करवा दिया। इससे अंग्रेज सैनिकों में खलबली मच गई। लेकिन क्लाइव अपने निर्णय पर दृढ़ रहा। क्लाइव’ ने अधिकारियों के त्यागपत्र और विरोध की भी कोई चिन्ता, नहीं की। उसके द्वारा मीर जाफर से प्राप्त 5 लाख रुपये का एक क्लाइव-कोष बनाया गया था। इस कोष से उन सैनिकों की सहायता की जाती थी, जिनका युद्ध में अंग भंग हो जाता था। क्लाइव के इन सैनिक सुधारों से सेना के अनेक गम्भीर दोष दूर हो गए थे।
क्लाइव के भारती शासकों से सम्बन्ध जिस समय क्लाइव दूसरी बार गवर्नर बनकर भारत आया, उस समय तक अंग्रेज बक्सर की ऐतिहासिक विजय प्राप्त कर चुके थे। 1764 ई० के बक्सर युद्ध में दिल्ली का बादशाह शाह आलम द्वितीय, बंगाल का नवाब मौर कासिम तथा अवध का नवाब शुजाउद्दौला सम्मिलित रूप से पराजित हुए थे।
अब क्लाइव के समक्ष यह प्रश्न या कि दिल्ली जीतकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत की शासन संस्था बनाया जाए या नहीं। उसने दिल्ली पर अधिकार स्थापित करने का समयानुकूल निर्णय लिया । इसका कारण बताते हुए उसने स्वयं लिखा है, “इससे आगे बढ़ने की योजना ऐसी अविवेकपूर्ण जान पड़ती है कि गवर्नर या उसकी कॉसिल के सदस्य कभी भी बुद्धि के रहते हुए ऐसी सलाह नहीं दे सकते, क्योंकि इससे कम्पनी के सम्पूर्ण हितों को क्षति पहुँचेगी।”
अवध के नवाब के साथ सन्धि–बक्सर के युद्ध में अवध का नवाब पराजित हो गया था। इस समय यदि क्लाइव चाहता तो अवध पर कम्पनी का अधिकार स्थापित कर सकता था लेकिन उसने ऐसा न करके नवाब से सन्धि ही की। इस सन्धि की शर्तें इस प्रकार थीं- (क) नवाब 54 लाख रुपये कम्पनी को देगा, (ख) कम्पनी नवाब को सैनिक सहायता देगी जिसका व्यय नवाब को देना होगा, (ग) नवाब अंघों के विरोधियों को सहायता नहीं देगा, (घ) दोनों संकट के समय एक दूसरे की हर प्रकार से सहायता करेंगे। इस सन्धि की राठों से, क्लाइव की बुद्धिमत्ता एवं उच्च कोटि की दूरदर्शिता का परिचय मिलता है।
मुगल सम्राट शाह–आलम के साथ इलाहाबाद की सन्धि–1765 ई० में क्लाइव ने मुगल बादशाह शाहआलम के साथ इलाहाबाद की सन्धि की। इस सन्धि के अनुसार, बादशाह ने कम्पनों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी या मालगुजारी वसूल करने का अधिकार दे दिया। इसके बदले में कम्पनी ने बादशाह को 26 लाख रुपये वार्षिक धन देना स्वीकार किया। इस समझौते के अनुसार कम्पनी ने कड़ा और इलाहाबाद के जिले भी सम्राट शाहआलम को दे दिए।
बंगाल में द्वैध शासन— क्लाइव ने इलाहाबाद की सन्धि के अनुसार बंगाल ‘प्रान्त में द्वैध शासन व्यवस्था स्थापित की। इस शासन व्यवस्था का तात्पर्य यह था कि बंगाल, बिहार व उड़ीसा शेष शासन संम्बन्धी सभी कार्य नवाब स्वयं करेगा। मुहम्मद रजाखाँ को बंगाल का नायब नाजिम और सिताबराय को बिहार का नायव नाजिम नियुक्त किया गया था। इस पद से हटाने का अधिकार भी कम्पनी को ही प्राप्त था। नवाब लगान वसूल कर तथा अपना खर्च काटकर शेष धन कम्पनी के खजाने में जमा कर देता था।
इस प्रकार बंगाल, बिहार और उड़ीसा का शासन-प्रबन्ध नवाब और कम्पनी में बँट गया था। यह दोहरा शासन-प्रबन्ध हो बंगाल का द्वैध शासन चलता रहा और इसे हेस्टिम्स ने ही समाप्त किया।
प्रश्न –अंग्रेजों के विरुद्ध मराठा शक्ति की असफलता (पतन) के कारणों का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर– मराठों के पतन के कारण
(अंग्रेजों के विरुद्ध मराठों की असफलता के कारण)
किसी साम्राज्य का पतन कोई अकस्मात् तथा अप्रत्याशित घटना नहीं होती । वास्तविक पतन अथवा विघटन के पर्याप्त समय पूर्व ही इसके चिन्ह दृष्टिगोचर होने लगते हैं। इसी प्रकार, मराठा साम्राज्य के विघटन का आरम्भ भी इसके अन्तिम विनाश से बहुत पहले हो गया था। बालाजी बाजीराव के समय में ही विघटनशील शक्तियाँ सिर उठाने लगी थीं। ये शक्तियाँ निरन्तर बल पकड़ती गयीं तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् पचास वर्ष में ही मराठों का पतन हो गया। मराठों के इस पतन के कारणों का विवेचन इस प्रकार से किया जा सकता है—
*शिवाजी के दुर्बल और अयोग्य उत्तराधिकारी-मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी एक प्रतिभाशाली तथा सफल सेनानायक थे। उनके अधीन मराठा साम्राज्य की शक्ति निरन्तर बढ़ती ही चली गई। दुर्भाग्य से उनका पुत्र शम्भाजी तथा पौत्र शाहू बहुत निर्बल तथा अयोग्य व्यक्ति सिद्ध हुए। उन्हीं की अयोग्ता के कारण राज्य की वास्तविक शक्ति पेशवा के हाथ में चली गई । यद्यपि पहले दो पेशवा बहुत योग्य थे, तथापि उनके पश्चात् के पेशवा अयोग्य सिद्ध हुए तथा उनके शासनकाल में विघटनकारी शक्तियाँ ओर पकड़ती गई।
*पेशवा के पद का वंशानुगत होना-शाहू के राज्य में पेशवा का पद पैतृक हो गया था और दुर्भाग्य से दूसरे पेशवा के पश्चात् सिहासन पर आसीन होने वाले सब पेशवा अयोग्य सिद्ध हुए थे। यदि पद पैतृक न होता तो योग्य मनुष्य अवश्य आगे आते और मराठो संप को विघटित होने से बचा लेते।
*पानीपत का तीसरा युद्ध जब मराठा शक्ति अपनी चरम सीमा पर थी, तो इसे 1701 ई० में पानीपत के युद्ध में एक विनाशकारी धक्का लगा। यद्यपि मराठों ने थोड़े ही समय में अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त कर लिया, तथापि योग्य व्यक्तियों के अभाव की पूर्ति फिर भी न हो सकी। लगभग सभी योग्य कूटनीतिज्ञ तथा सेनानायक ने इस युद्ध में मारे गए। पेशवा का संघ के सदस्यों पर नियन्त्रण निर्बल पड़ गया तथा आपसी मतभेद उत्पन हो गए। इसके अतिरिक्त, अंग्रेजों को अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का अवसर मिल गया क्योंकि उनके विरोधियों-मुसलमानों तथा मराठों को शक्ति क्षीण हो चुकी थी।
*सुदृढ़ केन्द्रीय शक्ति का अभाव पेशवा के नेतृत्व में मराठों में ऐसी कोई प्रभावशाली केन्द्रीय शक्ति नहीं थो जोकि सब मराठा सरदारों को राष्ट्रीय उद्देश्य र के प्रति बाँधे रखती। मराठा संघ न तो पूर्णत राज्य ही था तथा न हो एक संघ। यह कुछ सरदारों का ऐसा संगठन था जो किसी क्षण भी विघटित हो सकता था। संघ के सदसय पूना सरकार के प्रति नाममात्र को श्रद्धा रखते थे। केन्द्रीय शक्ति का यह अभाव भी मराठा साम्राज्य के विघटन का कारण बना।
*मराठा सरदारों में मतभेद मराठा संघ के सदस्य तथा अन्य राजनीतिज्ञों में आपसी मतभेद रहता था। वे सदा एक-दूसरे के ‘आपसी अविश्वास तथा स्वार्थपरता के कारण पड्यन्त्र करते रहते ये। पूना दरबार में तथा अन्तिम पेशवा पर अपना प्रभाव जमान के उद्देश्य से, सिंधिया तथा होल्कर में हुए संघर्ष ने अंग्रेजों को हस्तक्षेप करने का अवसर दे दिया। इसी समय से मराठों का वास्तविक पवन आरम्भ हो गया।
*शोचनीय आर्थिक दशा मराठा साम्राज्य के पतन का एक मुख्य कारण इसको असन्तोषजनक आर्थिक व्यवस्था भी थी। महाराष्ट्र की भूमि अधिक उपजाऊ न होने के कारण मराठों ने उद्योग और व्यापार की उन्नति की ओर ध्यान नहीं दिया। राज्य की आय का मुख्य स्रोत चौथ और सरदेशमुखी आदि कर त्या समय-समय पर को जाने वाली लूट थी। राज्य की स्थायी आय का कोई प्रबन्ध नहीं था। इस प्रकार, उत्तम आर्थिक व्यवस्था के बिना कोई साम्राज्य भला कैसे खड़ा कर सकता था?
*जागीर–प्रवा शिवाजी ने जागीर प्रथा को बन्द कर दिया था, परन्तु राजाराम प्रथम के अधीन इस प्रथा को पुनः प्रारम्भ कर दिया गया। पेशवाओं ने भी इसे प्रोत्साहन दिया। यह प्रथा मराठा साम्राज्य के लिए एक प्रमुख विघटनकारी कारक सिद्ध हुई। जागीरदार लोग अपने निजि हितों के लिए राष्ट्रीय उद्देश्यों और आदशों को आहुति देने लगे। मराठा संघ के सदस्य स्वयं भी पहले जागीरदार ही थे जिन्होंने बाद में अपनी जागीरों को राज्यों का रूप दे दिया।
छापामार (गुरिल्ला) युद्ध–प्रणाली का परित्याग मराठों ने अपनी उस युद्ध प्रणाली का त्याग कर दिया जिसके बल पर उन्होंने मुगलों पर गौरवपूर्ण विजयें प्राप्त की थीं। साम्राज्य के विस्तार के कारण मराठों को शत्रु से आमने-सा -सामने युद्र। करने की प्रणाली को अपनाना पड़ा जिसमें वे निय नहीं थे। वे कभी भी ऐसे युद्र क्षेत्र का चुनाव न कर सके जो उनकी छापामार युद्ध-प्रणाली उपयुक्त हो। अंग्रेजों ने मराठों को निर्बलता को भांप लिया था तथा वे सदैव ऐसे युद्ध क्षेत्र थे जहाँ मराठों को आमने-सामने युद्ध करना पड़ता था। इसी कारण वे सदैव परास्त हो जाते थे।
*राष्ट्रीय आदर्श का अभाव शिवाजी तथा उसके पश्चात् बाजीराव प्रथम द्वारा स्थापित क्रिये हिन्दू-पद-बादशाही के आदर्श को उत्तरवर्ती मराठों ने अवहेलना कर दी। वे मराठा राज्य के संकुचित आदर्श को अपनाए रहे जिसके फलस्वरूप दूसरे हिन्दू उनसे विमुख हो गये। मराठों ने जाटों और राजपूतों को लूटा और उन पर चौथ और सरदेशमुखी आदि कर लगा दिए। पानीपत के युद्ध में मराठा शक्ति के विनाश का एक मुख्य कारण सूरजमल जाट आदि हिन्दुओं की मराठों के प्रति विमुखता ही थी। अतः मराठों के आदर्श का संकुचित हो जाना उनके पतन का एक सबल कारण बना।
*मराठों की कूटनीतिक अयोग्ता मराठे इतने योग्य और कूटनीतिज्ञ नहीं थे जितने की अंग्रेज। यद्यपि नाना फड़नवीस तथा महादजी सिंधिया के अधीन मराठों ने अपने आपको सम्भाले रखा, तथापि उनकी अपेक्षा अंग्रेज कहीं उत्तम कूटनीतिज्ञ थे। दौलतराव सिंधिया तथा जसवन्त राव होल्कर आदि उत्तरवर्ती मराठों में कूटनीति का सर्वथा अभाव था। अतः वे अंग्रेजों की राजनीतिक चतुरता का शिकार हो गये। टीपू के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता करना मराठों की एक भयानक भूल थी, क्योकि इसके फलस्वरूप अंग्रेज अपने एक प्रवल शत्रु से मुक्ति पाने में सफल हो गए। बाद में भी मराठे आपसी सहयोग पर आधारित कूटनीतिक लाभों के महत्व को न समझ सके तथा अंग्रेजों ने उन्हें एक-एक करके परास्त कर दिया।
*मराठों का चारित्रिक पतन-उत्तरवर्ती मराठों के चारित्रिक पतन ने भी मराठा साम्राज्य के विनाश में महत्वपूर्ण योग दिया उन्होंने उच्च नैतिक आदर्श का परित्याग कर दिया। इसके फलस्वरूप मराठा सेना का पठन हो गया। सैनिकों में विलासिता घर कर गई। मुगलों के पवन से भी मराठों ने कोई शिक्षा न ली। मराठा सैनिकः युद्ध में भी अपनी पलियों को साथ ले जाने लगे। शिवाजी के समय यह घोर अपराध था, जिसके लिए मृत्युदण्ड दिया जाता था, परन्तु उत्तरवर्ती पेशवाओं के अधीन यह एक परम्परा बन गई थी।
*सहायक सन्धि-लॉर्ड वेलेजली द्वारा प्रारम्भ की पवन गई सहायक सन्धि ने भी मराठों के में महत्वूपर्ण योगदान दिया। इस सन्धि के अधीन की स्वतन्त्रता का पर किया गया सौंदा थी। इस बड़े सस्ते दामों गई बेसिन की सन्धि मराठा सन्धि के फलस्वरूप अंग्रेज अपनी सेनाओं को भारतीय शासकों के व्यय पर रख सकते थे। अतः वेलेजल को नीति ने भारतीय शक्तियों को क्षीण कर दिया। मराठों पर उसका विशेष प्रभाव हुआ, क्योंकि वे अंग्रेजों के सबसे भयानक शत्रु माने जाते थे।
*तोपखाने का अभाव तोपखाना अंग्रेजी सेना का एक अनिवार्य अंग था। मराठे उनका सामना नहीं कर सकता थे, जब तक कि उनकी सेना में तोपखाना न हो, परन्तु तोपखाने की प्राप्ति के लिए वे यूरोपियनों पर निर्भर थे। इसके अतिरिक्त, तोपखाने का प्रयोग भी केवल प्रशिक्षित व्यक्ति हो कर सकते थे अतः मराठों के यूरोपियन लोगों लोगों को को अपनी सेना में रखना पढ़ता था। फलतः मराठा सेना का यह अंग पूर्णतः यूरोपीय लोगो 1 के अधीन न हो ही रहा। अतः यह अंग अपूर्ण और अयोग्य रहा और मराठे अंग्रेजो के उत्तम तथा विकसित तोपखाने करने में असमर्थ रहे। इस प्रकार, मराठे अपनी ‘सुरक्षा’ के अति सवल साधन के लिए’ विदेशियों पर निर्भर थे।
*अंग्रेजों की शक्तिशाली नौसेना अंग्रेज सम्भवतः विश्व की श्रेष्ठतम् नौसेनिक शक्ति बलए वे जबकि मराठों के पास नाम मात्र की नौसेना थी। अंग्रेज आवश्यकता पड़ने पर इंग्लैण्ड से सेनाएँ रसद और शस्त्र ला सकते थे तथा मराठा अपनी निर्बल जल-शक्ति के कारण उन्हें नहीं रोक सकते थे। इस प्रकार, मराठों की निर्वल नौसेना ने भी उनकी अन्तिम पराजय में अपना योगदान दिया।
*अंग्रेजों की कुशल गुप्तचर व्यवस्था – अंग्रेजों की गुप्तचर व्यवस्था बहुत उत्तम थी। वे मराठों की योजनाओं का पहले से ही पता लगा लेते थे। वे उनकी निर्बलताओं का परिचय प्राप्त कर लेते थे तथा उनके षड़यंत्रों के सफल होने से पूर्व ही उनकी सूचना प्राप्त कर लेते थे। अतः वे मराठों से टक्कर लेने और उनकी गतिविधियों को विफल करने के लिए समय पर पूर्ण तैयारी कर लेते थे और उसके उपरान्त ही मराठों के विरुद्व युद्ध छेड़ देते थे। अंग्रेजों ने उत्तम जासूसी उद्देश्य से भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, परन्तु इसके विपरीत मराठों को अंग्रेजों का ज्ञान नहीं था तथा उनकी गुप्तचर व्यवस्था भी असन्तोषजनक थी।
प्रश्न— “लार्ड डलहौजी एक साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल था।” इस कथन के प्रकाश में लॉर्ड
डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति की समीक्षा कीजिए।
उत्तर– लॉर्ड डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति
लॉर्ड डलहौजी जनवरी, 1848 ई० में गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। वह एक प्रबल साम्राज्यवादी था। उसकी तीव्र अभिलाषा थी कि वह देशी राज्यों को समाप्त करके भारत में अंग्रेजी राज्य का विस्तार करे, चाहे इसके लिए उसे किनती भी अनैतिकता का मार्ग क्यों ने अपनाना पड़े। अतः उसने अपनी अभिलाषा की पूर्ति हेतु तीन नीतियों का अनुसरण किया-
राज्य हड़पने की नीति, तथा
कुशासन का आरोप लगाकर राज्यों का अपहरण।
युद्ध की नीति
युद्ध की नीति
उसने युद्ध की नीति द्वारा निम्नलिखित राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया-
*पंजाब जिस समय लॉर्ड डलहौजी भारत आया, उस समय पंजाब की स्थिति बिट्रिश साम्राज्य के प्रतिकूल थी। सिक्ख लोग अंग्रेजों को बड़ी घृणा की दृष्टि से देखा करते थे। वे अंग्रेजों से बहुत असन्तुष्ट थे। प्रथम सिक्ख युद्ध के पश्चात् तो वे अंग्रेजों से और भी अधिक घृणा करने लगे थे। कुछ अन्य कारणों के फलस्वरूप भी सिक्खों और अंग्रेजों में 1848-49 ई० में द्वितीय सिक्ख युद्ध हुआ था। इसमें सिक्खों की पराजय हुई लॉर्ड डलहौजी ने पंजाब को भी बिट्रिश राज्य में मिला लिया . और राजा दिलीप सिंह को 50 हजार पौण्ड वार्षिक पेन्शन देकर इंग्लैण्ड भेज दिया। पंजाब का प्रशासन चलाने के लिए तीन, कमिश्नरी की एक विशिष्ट समिति बना दी गई इसमें कम्पनी को यह लाभ हुआ कि इसकी पश्चिमी सीमा सुरक्षित हो गई।
*सिक्किम-नेपाल और भूटान के बची में एक छोटा-सा राज्य सिक्किम अनिश्चिततापूर्ण स्थिति में था। पंजाब के बाद डलहौजी ने इस राज्य पर आक्रमण कर दिया और 1849 ई० में इसे अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।
*वर्मा-सिक्किम के बाद उसकी दृष्टि वर्मा पर गई। इस समय बर्मा में अनिश्चयपूर्ण स्थिति थी। 1852 ई० में वर्मा का द्वितीय युद्ध हुआ। इस युद्ध में ‘मर्ववान’ एवं सम्पूर्ण बर्मा पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रजों ने बर्मा के नगर रंगून को खूब लुटा। बर्मा के निचले भाग और ‘पीगू’ को भी डलहौजी ने अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया।
कुशासन का आरोप लगाकर राज्यों का अपहरण
अनेक राज्यों को अनैतिक ढंग से ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लेने के बाद भी डलहौजी की इच्छा तृप्त नहीं हुई। उसने कुछ राज्यों पर यह आरोप लगाया कि वहाँ का शासन ठीक ढंग से नहीं चल पा रहा है, जिससे वहाँ जनता बहुत दुखी एवं परेशान है और इन राज्यों की जनता की भलाई केलिए वहाँ पर कम्पनी का शासन आवश्यक है। यह आरोप लगाकर उसने निम्नलिखितं राज्यों पर अंग्रेजी सत्ता का अधिकार स्थापित कर दिया-
*बरार– डलहौजी के समय बरार प्रान्त में प्रतिदिन हिन्दू-मुस्लिमों के विवाद होते रहते थे, जिससे वहाँ शान्ति नहीं रहती थी। अतः वहाँ शान्ति स्थापित करने का बहाना बनाकर एक अंग्रेजी सेना निजाम के व्यय पर रखी गई, लेकिन निजाम इस व्यय को समय से नहीं दे पाता था। अतः डलहौजी ने पुनः निजाम को बहकाकर उसके बरार राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
*अवध— डलहौजी के समय अवध राज्य में भी शासन-व्यवस्था अस्त-व्यस्त थी। अतः डलहौजी ने अवध के नवाब वाजिदअली शाह को शासन-व्यवस्था ठीक करने की आज्ञा दी. लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया। अतः डलहौजी ने उससे स्वेच्छा से राज्य देने को कहा, लेकिन वाजिदअली शाह नही माना। परिणामस्वरूप उसके राज्य पर सेना द्वारा बलपूर्वक अधिकार कर लिया गया। नवाब वाजिदअली शाह को कोलकाता भेज दिया गया और उसके महलों को खूब लूटा गया। 13 फरवरी 1856 ई० को एक घोषणा के अनुसार अवध का राज्य कम्पनी के राज्य में मिला लिया गया।
निष्कर्ष— इस प्रकार हम देखते हैं कि डलहौजी ने बिटिश साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार किया। डलहौजी ने अनेक पेन्शनों तथा विशेष पदों की भी समाप्ति कर दी थी। पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के बाद उसके दत्तक पुत्र नाना साहब की पेन्शन भी समाप्त कर दी गई थी। कर्नाटक तथा तंजौर के नवाबों की मृत्यु के पश्चात् उनके दत्तक पुत्रों को भी नवाब की उपाधियाँ नहीं दी गई थीं। इस प्रकार डलहौजी नेनिन्दनीय कूटनीति का सहारा लेते हुए ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार किया था। वह वह निस्सन्देह साम्राज्यवादी नीतियों का पोषक था। अतः उसके सम्बन्ध में यह कथन उचित है कि,
“लॉर्ड डलहौजी साम्राज्यवादी नीतियों का पोषक था।”
डलहौजी की इस राज्य हड़प नीति का परिणाम बहुत भयंकर सिद्ध हुआ। ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के कारण जनसामान्य में चारों ओर असन्तोष फैल गया, जो 1857 ई० की जनक्रान्ति रूप में प्रस्फुटित हुआ।
राज्य हड़पने की नीति
डलहौजी साम्राज्यवादी शासक था। अतः वह साम्राज्य विस्तार करने में उचित अनुचित पर विचार नहीं करता था। उसने अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिए एक ‘गोद-निषेध’ नियम बनाकर अनेक राज्यों का अपहरण किया। ‘गोद-निषेध’ नियम का यह अर्थ या कि कोई भी भारतीय राजा सन्तानहीन होने पर ब्रिटिश सरकार की आज्ञा के बिना किसी को उत्तराधिकारी बनाने के लिए गोद नहीं ले सकता था। सन्तानहीन राजाओं की मृत्यु के पश्चात् उनके राज्य पर कम्पनी का अधिकार माना जाता था। डलहौजी ने अपनी इस गोद-निषेय नीति से निम्नलिखित राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया—
* सतारा-1848 ई० में सतारा के राजा की मृत्यु हो गई। उसके कोई सन्तान नहीं थी। मृत्यु से पूर्व उसने एक बालक को विधान एवं रीतियों द्वारा बिना अंग्रेजी रेजीडेण्ट की स्वीकृति के गोद ले लिया था। डलहौजी ने अपने नियमानुसार गोद लिए हुए बालक को उत्तराधिकारी स्वीकार नहीं किया तथा सतारा को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। उसका यह कार्य बहुत ही अनुचित था।
*झाँसी-1853 ई० झाँसी के गंगाधर राव की मृत्यु हो गई। गंगाधर राव ने मृत्यु से पूर्व सरकार से आज्ञा लेकर दामोदर राव नामक बालक को गोद लिया था, लेकिन डलहौजी ने दामोदर राव को अवैध घोषित कर दिया तथा रानी लक्ष्मीबाई को हटाकर झाँसी को भी ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
*नागपुर-1854 1 ई० में नागपुर के राजा राघोजी की मृत्यु हुई । ई। वे भी निःसन्तान थे। उन्होंने अपनी जीवन-लोला की समाप्ति के समय एक बालक को गोद लेने के लिए कम्पनी को लिखा । उनकी मृत्यु से पूर्व कम्पनी का उत्तर नहीं आया और वे अपनी पत्नी को यशवन्तराव को गोद लेने की आज्ञा देकर स्वर्गवासी हो गए। परन्तु यशवन्तराव को नागपुर का शासक स्वीकार नहीं किया गया और नागपुर को भी कम्पनी के साम्राज्य में मिला लिया गया
*अन्य छोटे–छोटे राज्य-उपर्युक्त राज्यों के अतिरिक्त डलहौजी ने इस नियम के आधार पर सम्भलपुर, जैतपुर, बाधात तथा उदयपुर जैसे चार छोटे राज्यों का भी अंग्रेजी साम्राज्य में विलय कर लिया।
प्रश्न– भू–स्वामित्व की रैयतवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रणाली की विशेषतायें, गुण एवं दोष का ई। वर्णन करो।
महालवाड़ी प्रणाली
यह प्रणाली सर्वप्रथम 1833 ई० में ‘रेगुलेशन एक्ट’ के अन्तर्गत आगरा तथा अवध में लागू की गई। तत्पश्चात् पंजाब तथा मध्य प्रदेश में इसे इसे शुरू कर दिया गया। इस प्रणाली के अन्तर्गत गाँव की समस्त भूमि पर गाँव के सभी किसानों का संयुक्त रूप से स्वामित्व होता है तथा मालगुजारी भी इसी भूमि को एक इकाई मानकर निर्धारित की जाती है। यद्यपि कृषक इस भूमि पर व्यक्तिगत रूप से खेती करता है, तथापि मालगुजारी का दायित्व संयुक्त रूप से होता है। गाँव का नम्बरदार मालगुजारी एकत्र करके उच्च अधिकारी के पास जमा कर देता है। इसके बदले उसे कमीशन मिलता है। गाँव में जो बंजर भूमि होती है, उस पर गाँववासियों का अधिकार होता है।
महालवाड़ी प्रथा के अन्तर्गत आने वाली गाँवों की भूमि में हिस्सेदारी के विभाजन के सम्बन्ध में मुख्यतया तीन प्रकार की प्रथा प्रचलित थी—
पैतृक सम्पत्ति के आधार वालो प्रथा– इस प्रथा के अन्तर्गत भूमि की हिस्सेदारी परम्परागत पैतृक स्वामित्व के अनुसार निर्धारित होती है। गाँव की सम्पूर्ण भूमि या उत्पादन पैतृक स्वामित्व के सिद्धान्त पर ही विभाजित होता है। प्रत्येक व्यक्ति को लगान अपने भू-स्वामित्व के अनुसार देना होता है, किन्तु सम्पूर्ण लगान गाँव की भूमि को एक इकाई मानकर ही वसूल किया जाता है।
अर्पतृक सम्पत्ति के आधार वाली प्रथा इस प्रथा के अन्तर्गत गाँव की सम्पूर्ण भूमि का विभाजन भाईचारे के आधार पर किया जाता है। भूमि का विभाजन कृषक के पास उपलब्ध साधनों, जैसे हल-बैल, सिंचाई के साधन, खेती करने वाले व्यक्तियों की संख्या इत्यादि को ध्यान में रखकर किया जाता है, किन्तु भूमि के विभाजन के पश्चाद भी भूमि का स्वामित्व सामूहिक होता है।
बिना किसी सिद्धान्त पर आधारित प्रथा महालवाड़ी प्रथा के अन्तर्गत एक यह प्रथा भी प्रचलित थी कि जो कृषक जितनी भूमि की काश्त करता था, वह उसका मालिक होता था तथा लगान भी उतनी ही भूमि का चुकाता था। यह प्रथा किसी विशेष सिद्धान्त पर आधारित नहीं थी।
प्रणाली के लाभ
भूमि पर सामूहिक स्वामित्व– भूमि पर सामूहिक स्वामित्व से परस्पर भाईचारे एवं निकटता = को बढ़ावा मिलता है।
मध्यस्थों का अभाव-मध्यस्थों के अभाव में कृषकों का शोषण नहीं हो पाता।
सरकार को लाभ-लगान का अस्थायी रूप से निर्धारण होने के कारण भूमि की उर्वरता का लाभ सरकार को भी प्राप्त हो जाता है।
कृषक का स्वाभिमान बना रहना-व्यक्तिगत रूप से स्वतन्त्र खेती करने से कृषक का स्वाभिमान बना रहता है।
प्रणाली के दोष
लगान निर्धारण में मनमानी– लगान निर्धारित करने में सरकारी अधिकारी मनमानी कर सकते।
जमींदारी प्रथा के दोषों का समावेश– यह व्यवस्था लगभग जमींदारी प्रथा की तरह अमल में लाई गई, अतः इस प्रथा में जमींदारी के दोष आ जाते है।
रैयतबाड़ी प्रणाली
रैयतबाड़ी प्रगाली सर्वप्रथम 1792 ई० में कैप्टन रोड तथा थोप्स पुनरो द्वारा मद्रास (चेन्नई) में लागू की गई। धीरे-धीरे यह अन्य प्रान्तों में भी लागू कर दी गई। स्वतन्त्रता के समय यह व्यवस्था कृषि क्षेत्र के 48 प्रतिशत भाग में प्रचलित थी जिसके मुख्य क्षेत्र मद्रास (चेन्नई), मुम्बई, असम व सिन्ध प्रान्त थे।
रैयतवाड़ी प्रणाली के अन्तर्गत सम्पूर्ण पूमि पर राज्य का एकाधिकार होता है, किन्तु व्यवहार में उस भूमि इकाई का स्वामी प्रत्येक रजिस्टर्डधारी (रयतं) होता है। उस व्यक्ति का स्वामित्व उस भूमि पर तब तक बना रहता है, जब तक वह सरकार को नियमित रूप से लगान देता रहता है। उस व्यक्ति को भूभि हस्तान्तरण, भूमि का प्रयोग करने, बेचने एवं बंधक रखने या अन्य किसी प्रकार से अलग करने का पूर्ण अधिकार होता है। भूमि पर मालगुजारी का निर्धारण भूमि की उर्वरा शक्ति द्वारा प्रति 20-40 वर्ष पश्चात् किया जाता है।
प्रणाली की विशेषताएँ
इस प्रणाली में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती है-
(1) सम्पूर्ण भूमि पर राज्य का स्वामित्व होता है।
नहीं होता।
(2) राज्य वथा काश्तकार के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है, क्योंकि इसके मध्य कोई मध्यस्थ नहीं होता।
(3) जब तक काश्तकार भूमि। का लगान देता रहेगा, भूमि का मालिकाना हक कास्तकार के पास बना रहेगा।
(4) भूमि पर मालगुजारी का निर्धारण 20 से 40 वर्ष के अन्तराल के पश्चात् किया जाता है।
(5) भूमि का प्रत्येक अधिकारी स्वयं ही मालगुजारी देने के लिए उत्तरदायी होता है।
(6) जर तक काश्तकारी भूमि का लगान देता है, तब तक उसे भूमि का इस्तान्तरण करने, भूमि का प्रयोग करने, बेचने या बन्धक रखने या अन्य किसी प्रकार अलग करने का पूर्ण अधिकार होता है।
प्रणाली के गुण
*काश्तकार का राज्य से प्रत्यक्ष सम्बन्ध इस प्रणाली के अन्तर्गत राज्य एवं कृषक के मध्य प्रत्यक्ष सम्बन्ध बना रहता है, अतः सरकार आसानी से कृषकों की कठिनाइयाँ समझ सकती है।
*भूमि सुधार का लाभ सरकार को भी प्राप्त होना-चूंकि लगान का निर्धारण एक निश्चित समय अवधि के पश्चात् निर्धारित होता है, अतः भूमि सुधारों का लाभ राज्यों को भी प्राप्त होता रहता है।
*भू–धारण की सुरक्षा इस व्यवस्था में भू-धारण की भी सुरक्षा बनी रहती है, जिससे किसान परिश्रम एवं पूँजी का प्रतिफल प्राप्त हो जाता है।
*भूमिसंबंधी अभिलेख एवं प्रलेख इस प्रणाली में भूमिसंबंधी अभिलेख एवं प्रलेख पूर्ण होते हैं, अतः भूमि सुधार आसानी से किया जा सकता है।
*मध्यस्थता का अभाव इस प्रणाली में मध्यस्थता के अभाव में कृषक का शोषण नहीं होता, क्योंकि काश्तकार का राज्य से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है।
* आपत्तिकाल में सुविधा इस प्रणाली में आपत्तिकाल में सुविधा रहती है, क्योंकि सरकार इस दौरान भूमि लगान माफ कर सकती है।
प्रणाली के दोष
- मनमाने लगान का निर्धारण— इस प्रणाली में सरकारी अधिकारी लगान निर्धारण में कास मनमानी कर सकते हैं।
- भूमि सुधार में संकोच— लगान बढ़ने के भय कृषक भूमि सुधार करने में संकोच करते हैं।
- भूमि हस्तान्तरण का भय— हस्तान्तरण की स्वतन्त्रता के कारण छोटे किसानों की भूनि बड़े किसानों की ओर हस्तान्तरित होने का भय सदैव रहता है।
- सरकार के लिए अमितव्ययी व्यवस्था— लगान वसूल करने में सरकार को काफी व्यय करना पड़ता है, क्योंकि इस कार्य के लिए ही कई कर्मचारी नियुक्त करने पड़ते हैं।
- जमीदारी प्रथा के दोषों से मुक्त नहीं— इस प्रणाली में, भूमि उप-कृषकों के अभाव में जमींदारी प्रया के दोष आ जाते हैं।
प्रश्न– ब्रिटिशकाल में दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों के पतन के क्या कारण थे ? इस औद्योगिक पतन का अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर–
औद्योगिक पतन का कारण
ईस्ट इण्डिया कम्पनी एवं ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के परिणामस्वरूप 18वीं शताब्दी के अन्त तक भारतीय उद्योगों का पतन हो गया। परिणामस्वरूप हमारे देश की गणना भी अल्पविकसित राष्ट्रो में होने लगी। इस औद्योगिक पतन के निम्नलिखित कारण थे—
* भारतीय राजाओं का पतन-ब्रिटिश शासन में देशी शासकों का अन्त हो गया, जिसके कारण हथकरघा उद्योगों को गहरा धक्का लगा। राजा-महाराजाओं के पतन से उनके द्वारा दिए गए प्रोत्साहन समाप्त हो गए। बाजार में मशीनों से बना माल उपलब्ध होने से उनकी माँग में गिरावट आ गई तथा दूसरी तरफ बिटिश शासन की उपेक्षा से उन्हें प्रोत्साहन न मिलने से हथकरघा वस्तुओं एवं कलात्मक वस्तुओं के प्रति जनता का रूझान कम हो गया। इस प्रकार भारतीय उद्योगों का पतन होने लगा।
*ब्रिटिश शासन की स्थापना-ब्रिटिश शासन की स्थापना से कुटीर उद्योग प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुआ। ब्रिटिश शासन ने शान्ति एवं कानून व्यवस्था के नाम पर हथियार, औजार एवं ढाल निर्माण पर प्रतिबन्ध लगा दिया। फलस्वरूप पंजाब एवं सिन्ध, जहाँ इनका निर्माण होता था, के उद्योग समाप्त हो गए। इसके साथ-साथ शासन ने विदशी पर्यटकों के लिए आभूषणों में सजाए जाने वाले पदार्थों के निर्माण पर रोक लगा दी। इस प्रकार ब्रिटिश शासन ने कुटीर उद्योगों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। ब्रिटिश शासन ने अलिखित रूप से यह आवश्यक कर दिया कि प्रत्येक कर्मचारी, अंग्रेज अधिकारी के सामने केवल मशीन से बना हुआ चमड़े का जूता ही पहनेगा। इससे मोचियों के धन्धों पर बुरा प्रभाव पड़ा। इस प्रकार ब्रिटिश शासन ने एक तरफ कुटीर उद्योग-धन्धों को रौंदा तथा दूसरी तरफ इन घन्थों की वस्तुओं के कलात्मक एवं व्यापारिक मूल्य का हास किया ।
*मशीनों से बनी वस्तुओं से प्रतियोगिता – भारतीय उद्योग-धन्धों के पतन का एक यह भी कारण था कि बाजार मे देशी वस्तुओं को मशीनों से बनी वस्तुओं प्रतियोगिता करनी पड़ी। इन विदेशी वस्तुओं के सामने देशी वस्तुएँ गुणात्मक रूप से घटिया एवं महँगी होती थीं, जिससे उनकी माँग पर बुरा असर पड़ा। रानाडे के अनुसार, “यूरोप में शक्तिचालित सूती उद्योगों के उत्थान से भारतीय सूती उद्योग पूरी तरह से बर्बाद हो गया।” यही दशा देश के दूसरे उद्योगों, जैसे लोहा गलाना, काँच, रंगाई एवं छपाई, कागज आदि की हुई। भारतीय घरेलू तथा कुटीर हथकरघा उद्योग विदेशी वस्तुओं के आगे टिक नही पाए। इसके अतिरिक्त स्वेज नहर के निर्माण से ब्रिटिश वस्तुओं की लागत कम हो गई, इससे भी घरेलू उद्योग-धन्धों पर बुरा असर पड़ा।
*पश्चिमी शिक्षा – अंग्रेजी शिक्षा भी घरेलू उद्योग-धन्यों के पतन का एक करण रहा है। शुरू मे तो अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय लोग यूरोपियन लोगों से भी अधिक पश्चिमी देशो की नकल करते थे। वे लोग यूरोपियन वेशभूषा, फैशन एवं खान-पान को अपनाने लगे तथा भारतीयों को नीची नजर से देखने लगे। इस सब का यह प्रभाव हुआ कि घरेलू वस्तुओं की माँग घटन लगी और यूरोपियन औद्योगिक वस्तुओं की माँग बढ़ने लगी ।
*नए प्रारूप का प्रादुर्भाव भारतीय कारीगर ब्रिटिश शासकों एवं यूरोपियन अधिकारियों की रुचि के अनुसार वस्तुओं का निर्माण नहीं कर सके। यद्यपि कुछ कारीगरों ने नई विदेशी वस्तुओं की कल करने की कोशिश की, तथापि परिणाम यह हुआ कि वे उन वस्तुओं को पूरी तरह नहीं अपना एके तथा भारतीय वस्तुओं को भी नहीं बना सके। उदाहरणार्थ-पंजाब की ‘काफ्टगिरि फैक्ट्री’ ने यूरोपियन वस्तुओंकी नकल की व वस्तुओं का उत्पादन शुरू किया। परिणामस्वरूप वह उद्योग हो समाप्त हो गया।
*मध्यस्थो की भूमिका– पामीण दस्तकारी तथा पामीण जीवन-निर्वाहक उद्योगों के अतिरिक्त् जितने भी अतिरिक्त उद्योग थे, उनके बाजार विस्तार के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी मध्यस्य के रमप ये कार्य करती थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी कुटीर उद्योगों से निर्मित भाल खरीदती और यूरोप के बाजारों में बेचती थी। कम्पनी इन उद्योगों का अपिम कच्चा माल एवं वित्तीय सहायता प्रदान कर उनसे कम कीमत पर माल खरीदने का समझौता कर लेती थी तथा तैयार माल ऊंचे दामों पर बेच देती थी। इस प्रकार कम्पनी इन उद्योगों का शोषण करती थी। कभी-कभी यदि कोई उद्योग इस समझौते का उल्लंघन करता था, तो वे दबाव बनाकर उसका माल जब्त करके उसी जगह पर मात को नीलामी कर देते थे। इस प्रकार देशी उद्योग माल उत्पादन करने में निरुत्साहित हो गए।
*ब्रिटिश सरकार की नीति– शुरू में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नीति भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन देने की थी, क्योंकि भारत से कम्पनी जिन वस्तुओं का निर्यात करती थी वे अधिकतर भारतीय उद्योगों में निर्मित होती थो, किन्तु बाद में कम्पनी को नोति ब्रिटिश सरकार के दबाव के कारण बदल गई। बाद में कम्पनी को नीति यह हो गई कि ब्रिटेन के उद्योगों के लिए अधिक-से-अधिक कम कीमत पर कच्चा माल खरीदों और ब्रिटेन में निर्मित माल को भारत में अधिक कीमत पर बेचो ।
सरकार ने कुटीर एवं लघु उद्योग, विशेषकर रेशम उद्योग के कारीगरों के लिए आदेश पारित किए कि वे कारीगर केवल कम्पनी की फैक्ट्रियों में ही कार्य करें, अन्यत्र नहीं। सरकार ने भारतीय उद्योगों पर भारी उत्पादन कर लगा दिए ताकि उनका उत्पादन निरुत्साहित हो। उदाहरणार्थ-1813 ई० में भारतीय सूती तथा रेशमी वस्र ब्रिटेन के बाजार में इंग्लैण्ड में बनें वस्त्र से 50-60 মতিহার कम कीमत पर बिकता था, किन्तु बाद में इन उत्पादकों को विटेन के बाजार से निकालने के लिए उन पर उनक कुल मूल्य का 70-80% कर लगा दिया गया। यदि देश आजाद होता था तो सम्भव था कि भारत सरकार ब्रिटेन के विरुद्ध कदम उठाती, किन्तु गुलाम देश क्या कर सकता था ? इस प्रकार देशी उद्योगों को नष्ट करने के लिए ब्रिटिश शासन ने दमनकारी नीति अपनाई। इस प्रकार के वातावरण मे कोई उद्योग नहीं पनप सकता था और परिणामस्वरूप देश के व्यापार एवं औद्योगिक विकास का पतन होता चला गया।
औद्योगिक पतन का प्रभाव
भारत के कुटीर उद्य उद्योग-धन्धों पतन होने से भारतीय अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई, कयोंकि का मामीण व्यवस्था इन कुटीर एवं कृषि व्यवसायो पर ही आधारित थी। हथकरघा तथा युनाई भारतीय अर्थव्यवस्था का एक पहिया था, जिसको बिटिश शासन ने पूर्णतया नष्ट कर दिया। इन व्यवसायों के कारीगर लोग बिल्कुल बेकार हो। गए। एक तरफ लोगो की आमदनी के साधन समाप्त हो गए तो दूसरी तरफ देश के लोगों की क्रय शक्ति विदेशों में हस्तान्तरित हो गई। कुटीर उद्योगों के समाप्त होने से इन धन्धो के जो गढ़ थे, वे वह गए तथा गांवों की जिन्दगी पूर्णतया असन्तुलित हो गई। जो लोग इन धन्यों पर निर्भर करते थे, उनका अतिरिक्त भार कृषि पर पड़ गया। इस तरह कुटीर उद्योगों के नष्ट होने से कारीगर बेकार हो गए, उनकी क्रय शक्ति घट गई तथा भारतीय धन विदेशी वस्तुओं के खरीदने के कारण विदेशों में जाने लगा।
प्रश्न— भारतीय कृषि मे वाणिज्यीकरण का क्या अर्थ है ? इसके कारण और प्रभावों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर— कृषि वाणिज्यीकरण के कारण
कृषि के वाणिज्यीकरण होने के अनेक कारण है—
जो निम्नलिखित हैं-
*यातायात के साधनों का विकास-भारत में यातायात के साधनों का विकास होने से कृषि उत्पादको का एक क्षेत्र से दूसरे प्रवाह होने लगा। इसी काल में सड़कों के निर्माण में भी तेजी आई। सड़क एवं रेलें विभिन्न बन्दरगाहों एवं मण्डियों से जोड़ी गई जिससे विभिन्न प्रकार की व्यापारिक म फसलों का आधिक्य-क्षेत्रों से कमी वाले क्षेत्रों मे आवागमन आसान हो गया। इस प्रकार यातायात के साधनों के उपलब्ध होने से व्यापारिक फसलों को प्रोत्साहन मिला ।
*स्वेज नहर का खुलना-स्वेज नहर के खुलने से भारत तथा इंग्लैण्ड के बीच की 4,800 किमी की दूरी कम हो गई और कलकत्ता (कोलकाता) से लन्दन माल पहुंचने की अवधि 36 दिन कम हो गई। इस प्रकार कृषि उत्पादों को यातायात लागत घट गई।
*आर्थिक मन्दी-कृषि उत्पादन को प्रोत्साहन मिलने का एक कारण यह भी रहा कि ब्रिटिश आहाजरानी उद्योग का जबरदस्त मन्दी का सामना करना पड़ा। 1869 ई० के बाद नए-नए जहाज पुराने जहाजों की जगह लेने लगे, जिससे परस्पर प्रतियोगिता होने लगी तथा स्वेज नहर खुलने से भारत तथा ब्रिटेन की दूरी कम हो गई। परिणामस्वरूप माल ढुलाई के भाड़े की दर घट गई। इससे भी व्यापारिक फसलों को प्रोत्साहन मिला।
*अमेरिका में गृहयुद्ध-अमेरिका में जो गृहयुद्ध चला, उसका प्रभाव भारत की कृषि पर भी पड़ा। ब्रिटेन जो कपास अमेरिका से खरीदता था, वह माँग अब अमेरिका में गृहयुद्ध चलने के कारण भारत की ओर स्थानान्तरित हो गई। 1859 ई० में भारत ब्रिटेन को 5 लाख बैल कपास का निर्यात करता था, जो एकदम बढ़कर 1856 ई० में 12.6 लाख बेल हो गई। यद्यपि अमेरिका के गृहयुद्ध के समाप्त होने पर कपास कीमत में गिरावट आ गई, तथापि उस माँग की पूर्ति कुछ हद तक घरेलू माँग ने पूरी कर दी। इस प्रकार कृषि उत्पाद की बढ़ती हुई माँग ने भी कृषि के वाणिज्यीकरण को प्रोत्साहित किया।
*भू–राजस्व का नकद राशि में निर्धारण-ब्रिटिशकाल में भू-राजस्व का निर्धारण नकद मुद्रा मे निश्चित कर दिया गया, जबकि इससे पहले इस प्रकार का प्रावधान नही था। अब किसानो को मुद्रा की आवश्यकता पड़ने लगी और वे अपने उत्पादों का विक्रय करने लगे। कृषि उत्पादों को विक्रय के लिए वाजारों की आवश्यकता होने लगी तथा बाजार की समस्या का समाधान तभी हो
सकता था जब किसान अपने उत्पादों को इंग्लैण्ड भेजें। इस प्रकार फसलों का मुद्रा में विक्रय होने लगा।
*सिंचाई के साधनो का विकास-एक बार जब फसलों का वाणिज्यीकरण हो गया तो किसान अधिक लाभ कमाने के लिए अधिक उत्पादन करना चाहने लगे और फलस्वरूप सिंचाई के साधनों का विकास होने लगा। सिंचाई के साधनों को जुटाने के लिए मुद्रा की आवश्यकता पड़ी, जो फसल उत्पाद को विक्रय करने से ही सम्भव हो सकती थी। यदि लोगों को एक फसल पैदा करने ॉफी से अधिक फायदा नहीं पहुँचता, तो लोग दूसरी ऊंची कीमत पर बिकने वाली फसल का उत्पादन कि करने लगे तथा फसल को ऐसे बाजार में बेचना चाहने लगे जहाँ उन्हें ऊँचा दाम मिले। यह विदेशी बाजार मे सम्भव हो सकता था, अतः कृषि उत्पादों का निर्यात बढ़ा।
*सरकार द्वारा प्रोत्साहन व्यापारिक फसल अधिक मात्रा में उत्पन्न करने का यह भी कारण न में या कि ब्रिटिश शासन इस प्रकार की फसलों से अधिक उत्पादन मे अधिक रुचि रखता था ताकि उसे ब्रिटेन में अपने उद्योगों के लिए कच्चा माल, जैसे-कपास, जूट आदि आसानी से उपलब्ध होता रहे । इसलिए ब्रिटिश सरकार ने इस प्रकार की फसल उत्पादन में हर प्रकार की सुविधाएँ एवं प्रोत्साहन दिया ताकि भारत से इनका ब्रिटेन को निर्यात होता रहे।
कृषि के वाणिज्यीकरण का अर्थ
खेती, जो केवल जीवन निर्वाह का साधन हुआ करती थी, अब उसका स्वरूप बदकर व्यापारिक हो गया। लोग अपने खेतों पर केवल उपयोग के लिए ही वस्तु पैदा नहीं करते बल्कि निर्यात करने के लिए भी पैदा करने लगे। इसके अतिरिक्त लोग उपभोग फसलो के अतिरक्त व्यापारिक फसल अधिक पैदा करने लगे। संक्षेप में, व्यापार तथा निर्यात के लिए फसल उत्पन्न करना ही कृषि का वाणिज्यीकरण कहलाता है। अब कृषि एक व्यवसाय माना जाने लगा। कृषि जीवन निर्वाह के साधन के स्थान पर अब व्यापारिक दृष्टिकोण से की जाने लगी।
यातायात एवं विदेशी व्यापार का विकास होने से निर्यातित वस्तुओं में कुछ वस्तुएँ, जैसे तम्बाकू, चाय, कॉफी, कढ़वा, नारियल एवं आलू आदि और जूड़ गई। ईस्ट इण्डिया कम्पनी जूट, चाय, कॉफी तथा नील के पौधे को पैदावार में सहायता देने लगी। देश के किसान यह महसूस करने लगे कि उन्हें इन व्यापारिक फसलों से अधिक फायदा प्राप्त होता है। इसलिए वे भोज्य पदार्थ से अधिक व्यापारिक फसल उगाने लगे। इस प्रकार खेती की प्रकृति में परिवर्तन होने से विशेषीकरण स्थानीयकरण को बढ़ावा मिला। उदाहरणार्थ-बरार (Berar) क्षेत्र मे कपास एवं गन्ना, बंगाल में जूट तथा पंजाब में गेहूँ के उत्पादन मे विशेषीकरण स्थापित हो गया।
कृषि वाणिज्यीकरण का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
कृषि मे वाणिज्यीकरण को क्रान्ति का भारतीय प्रामोण समाज की सामाजिक एवं आर्थिक संरचना परत्यक्ष प्रभाव पड़ा:
ग्रारीण समाज की आत्मनिर्भरता का अन्त-ग्रामीण समाज में जो आत्मनिर्भरता पाई जाती बो, वह वाणिज्यीकरण से छिन्न-भिन्न हो गई।
राष्ट्रीय बाजार की स्थापना देश में कृषि उत्पादों के लिए एक राष्ट्रीय बाजार स्थापित हो 36 दिर गया। जहाँ किसान फसल काटने के बाद अपनी फसल को बेच सकता है, तो आवश्यकता पड़ने पर उसे बाजार से खरीद भी सकता है। इस प्रकार इस नए परिवर्तन का यह प्रभाव हुआ कि प्रामीण बिटिर समाज, जो एक समूह में आत्मनिर्भर था, मे यह प्रवृत्ति आ गई कि प्रत्येक परिवार अपनी आवश्यकता को जितनी अच्छो तरह पूरी कर सकता था, करने की चेष्टा करने लगा। उसे सम्पूर्ण समाज से कोई लेना-देना नहीं रहा।
कृषि उत्पादों की विदेशी मांग में वृद्धि-फसलों का वाणिज्यीकरण होने से भारतीय कृषि उत्पादों को विदेशों में निरन्तर मांग बढ़ने लगी। साथ ही उन उत्पादों की कीमते भी बढ़ने लगी। भारत से गेहूं का अधिकतर निर्यात ब्रिटेन को होने लगा तथा चावल कई देशों, जैसे लंका, पूर्वीं अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका आदि में भेजा जाने लगा। परिणामस्वरूप किसान अपने घर अथवा गाँव को आवश्यकताओं की उपेक्षा करने लगा और विदेशी बाजार और कृषि उत्पादों की कीमतों की ओर अधिक ध्यान देने लगा। इस प्रकार विदेशी बाजार में उत्पादनों के उच्चावचन एवं कोमतों का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने लगा।
कृषि में आधुनिक उन्नत मशीनों का प्रयोग कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण कृषि के काम में आने वाली परम्परागत तकनीकियो का स्थान आधुनिक मशीनों ने ले लिया।
प्रामीण कारीगरो में बेरोजगारी इससे प्रामीण कारीगर एवं हथकरघा उद्योग में लगे हुए लोग बेकार होने लग गए तथा अन्त में उनमें से कुछ लुप्त हो गए थे।
कृषि पर जनसंख्या के भार में वृद्धि कारीगरों व दस्तकारों के बेरोजगारी होने पर ये लोग कृषि को और अधिक स्थानान्तरित होकर कृषि पर भार हो गए, जोकि भारतीय अर्थव्यवस्था की एक स्थायी विशेषता बन गई।
किसानों की आदत में परिवर्तन-कृषि के इस परिवर्तन ने किसानों की आदतो में परिवर्तन कर दिया। पहले किसान अनाज का संग्रह कर लेता था, जो कमी वाले समय में काम आता था, किन्तु कृषि का व्यापारीकरण होने से लोगों की प्रवृत्ति बदल गई।
खाद्यान के स्थान पर व्यापारिक फसलों का अधिक उत्पादन किसान भोज्य वस्तुओं को अपेक्षा व्यापारिक फसल अधिक बोने लगे और अधिक-से-अधिक फसल का विक्रय करने लगे।
साहूकारों द्वारा किसान का शोषण नई भू-राजस्व तथा भूमि किराएदारी पद्धति के अन्तर्गत कृषि के वाणिज्यीकरण ने महाजनों एवं साहूकारों के लिए सुनहरा अवसर प्रदान किया, क्योंकि भारतीय किसान निर्धन है। वह फसल के समय महाजन से उधार लेता है और फसल के बाद चुकाने का वादा करता है। फसल कटते ही उसे फसल महाजन को बेचनी पड़ती है जिससे उसे कम दाम प्राप्त होते है। इस प्रकार महाजन एवं साहूकार किसानों का शोषण करने लगे। इस प्रकार किसान तथा महाजनों में आर्थिक खाई बढ़ने लगी ।
प्रश्न– एक राजनेता के रूप में महात्मा गांधी के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
महात्मा गांधी ने भारत की क्या सेवा की? विवेचना कीजिए।
महात्मा गांधी का राष्ट्रीय आन्दोलन में क्या योगदान था ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-आधुनिक भारत के इतिहास में महात्मा गांधी का एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। भारत को स्वतन्त्र कराने में सबसे अधिक उनका ही योगदान रहा। वह राजनीतिज्ञ, संगठनकर्ता एवं सुधारक थे। वे आदर्शवादी राजनीविज्ञ थे। उन्होंने अहिंसा और सत्यामह द्वारा शक्तिशाली अंग्रेजी साम्राज्य से टक्कर ली और अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश किया।
जन्म तथा शिक्षा— महात्मा गांधी के बचपन का नाम मोहनदास था। उनका जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को काठियावाड़ मे पोरबन्दर नामक स्थान पर हुआ। इनके पिता का नाम करमचन्द गांधी था। भारत में शिक्षा महण करने के बाद इन्हें इंग्लैण्ड वकालत पढ़ने के लिए भेजा गया, वहाँ से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे।
राजनैतिक जीवन-गांधी जी के राजनैतिक जीवन का आरम्भ दक्षिण अफ्रीका से हुआ जहाँ वे वकील की हैसियत से गये थे। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की दशा बहुत खराब थी। वहाँ की गौरी सरकार भारतीयों के साथ बुरा व्यवहार करती थी। उन्होंने वहाँ की सरकार के विरुद्ध सत्यापह आन्दोलन चलाया और भारतीयों को उनके अधिकार दिलवाये ।
गांधीजी का राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोग/योगदान
महात्मा गांधी भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के कर्णधार थे। उन्होंने भारत को स्वतन्त्रता के लिए अनेक आन्दोलनों का नेतृत्व किया और स्वतन्त्रता आन्दोलन को जन-आन्दोलन का रूप दिया। उन्हीं के अथक प्रयासों से भारत स्वतन्त्र हुआ। महात्मा गांधी का राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
* चम्पारन खेड़ा तथा अहमदावाद में आन्दोलन-चम्पारन (बिहार) में अंग्रेजों ने किसानों पर बहुत अत्याचार किये। गांधीजी को जब पता चला तो वे चम्पारन गये। वहाँ के कमिश्नर ने गांधीजी को चम्पारन से जाने के लिए कहा, लेकिन गांधीजी ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। अन्त में वहाँ के कमिश्नर को झुकना पड़ा। गांधीजी को प्रतिष्ठा सारे देश में बढ़ गई। खेड़ा में गांधीजी ने ‘कर नहीं दो’ आन्दोलन चलाया, क्योंकि वहाँ किसानों की फसलें वर्षा न होने के कारण नष्ट हो गई थीं। बाद में किसानों को सफलता मिली। अहमदाबाद के मिल मालिकों से मजदूरों के सेवन बढ़ाने के लिए कहा, लेकिन पिल-मालिकों ने इस और कोई ध्यान नहीं दिया। गांधीजी ने वहाँ आमरण अनशन भारभ कर दिया। बाद में मिल मालिकों का वेतन बहाना पड़ा।
* स्वतन्त्रता आन्दोलन के कर्णधार-भारत की स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलनों का नेतृत्व किया- गांधीजी ने निम्नलिखित—
असहयोग आन्दोलन-1919 में अंग्रेजी सरकार ने रौलट एक्ट पास किया। यह एक ऐसा कानून था जिसके अनुसार किसी भी व्यक्ति को बिना किसी कारण से बन्दी बनाया जा सकता था। गांधीजी ने इस एक्ट के विरोध में एक दिन के लिए आम हड़ताल की घोषणा की। 13 अप्रैल, 1919 ई० में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में आम सभा बुलाई गई। जनरल डायर ने वहाँ एकत्रित स्त्रियों, पुरुषों तथा बच्चों को गोलियों से भून डाला। इस घटना से दुखी होकर गांधीजी ने 1920 ई० में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में प्रस्ताव पेश किया। प्रस्ताव पेश करते हुए गांधी जी ने कहा “अंग्रेज सरकार शैतान है जिसके साथ सहयोग करना नितान्त असम्भव है। इस आन्दोलन के अन्तर्गत गांधीजी ने ‘केसर–ए–हिन्द‘ की उपाधि वापस कर दी। सरकारी स्कूलों के छात्रों ने पढ़ना छोड़ दिया। वकीलों ने वकालत छोड़ दी। विदेशी माल का बहिष्कार किया गया। यह आन्दोलन पूरे जोरों पर था। उसी समय चौरी-चौरा में हिंसात्मक घटना घटित हो गयी। वहाँ की जनता ने थाने में आग लगा दी और थानेदार तथा 21 सिपाहियों को मार डाला। इस घटना से दुःखी गांधीजी ने अपना आन्दोलन समाप्त कर दिया। गांधीजी के इस कदम का सारे देश ने विरोध किया। 3 मार्च, 1922 को गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। 1925 ई० में गांधीजी को जेल से मुक्त कर दिया गया।
(ii) सविनय अवज्ञा आन्दोलन-गांधीजी ने कमीशन का विरोध करने की सारे देश वासियों से अपील की। 26 जनवरी, 1930 को गांधीजी के नेतृत्व में स्वराज्य दिवस मनाने का निश्चय किया गया। गांधीजी ने अंग्रेजों के सामने नेहरु रिपोर्ट पेश की जिसको अस्वीकार कर दिया गया। इससे निराश होकर गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। 12 मार्च, 1930 को गांधीजी ने डाण्डी यात्रा आरम्भ की तथा 6 अप्रैल, 1930 को नमक कानून तोड़ा। सरकार ने हजारों देश भक्तों को जेल में बन्द कर दिया। गांधीजी को बन्दी बना लिया गया।
(iii) भारत छोड़ों आन्दोलन– 1942 ई० में गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो’ का नारा लगाया। गांधीजी की आवाज सारे देश की आवाज बन गई। यह प्रस्ताव 8 अगस्त, 1942 ई० को कांग्रेस द्वारा पारित हुआ था। 9 अगस्त को गांधीजी को बन्दी बना लिया गया। देश में मारकाट, तोड़-फोड़, लूटमार आदि घटनाएँ हुई। 1944 में गांधीजी को जेल से मुक्त कर दिया गया। मुक्त होने के पश्चात् गांधीजी ने इस बात का प्रयास किया कि भारत का विभाजन न हो, लेकिन प्रयास करने पर भी गांधीजी इस विभाजन को रोक न सके। अन्त में गांधीजी के प्रयासों के फलस्वरूप 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत स्वतन्त्र हुआ :
* आन्दोलन को व्यापक बनाना-गांधीजी के राजनीति में पर्दापण से पूर्व कांग्रेस केवल शिक्षित वर्ग की संस्था थी। गांधीजी ने इसको व्यापकता प्रदान कर जनता की संस्था के रूप में परिवर्तित कर दिया। राष्ट्रीय आन्दोलन ने जन-आन्दोलन का रुप धारण कर लिया। इस प्रकार आन्दोलन में भाग लेने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई।
आन्दोलन को नया रूप प्रदान करना-महात्मा गांधी ने ही सर्वप्रथम सत्य, अहिंसा एवं शान्तिपूर्ण आन्दोलन का प्रयोग किया। पराधीनता की बेड़ियों को काटकर एक शक्तिशाली साम्राज्य से स्वतन्त्रता प्राप्त करने का यह तरीका इतिहास में अनोखी चीज है। इसके अतिरिक्त, असहयोग आन्दोलन तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन तथा स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए अपनाना भी महात्मा गांधी की विश्व को एक महान् देन है।
जनता में जागृति-महात्मा गांधी का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक और प्रभावशाली था। उन्होंने भारत को अशिक्षित, सुषुप्त एवं दरिद्र जनता में जागृति भर दी। उन्होंने जिन उपायों को अपनाया, वे उन उपायों द्वारा ही बड़े लोकप्रिय नेता बन गये।
प्रश्न— प्रमुख जनजातीय आन्दोलनों का उल्लेख कीजिए।
जनजातीय आन्दोलन
उत्तर– जनजाति के लोग सामान्यतः शान्त प्रकृति के अनुशासित तथा ईमानदार होते हैं। उनकी जीवन के प्रति बहुत उच्च आकांक्षा नहीं होती। लेकिन, गैर आदिवासी लोगों के संपर्क में आने और ईसाई मिशनरियों के प्रभाव से जनजातीय क्षेत्र में राजाओं द्वारा उनके साथ विश्वासबात के कारण उन्होंने अपने शोषण तथा अन्याय के विरुद्ध अनेक आन्दोलन किए है। यह आन्दोलन एक प्रकार के बहुसंख्यक लोगों के विरुद्ध किये जाने वाले आन्दोलन है। संक्षिप्त मे कुछ प्रमुख आन्दोलन निम्नानुसार हैं-
मुंडा बिरसा विद्रोह
मुण्डा अदिवासियों में भू-स्वामित्व सामुदायिक था। इसक व्यवस्था जनजातीय सरदार करते थे धीरे-धीरे यह मुखिया अपने क्षेत्र मे शासन करने लगे। गैर आदिवासी राजाओं के संपर्क में आकर जनजातीय मुखिया राजाओं ने इनके लोगों को अपने क्षेत्रों में बसाया। ब्रिटिश काल मे गैर आदिवासी जनजातीय क्षेत्रों में जमींदार जागीरदार बन गये और जनजातियों का शोषण करने लगे। दूसरी ओर ईसाई धर्म प्रचारको द्वारा ईसाई सम्राज्य स्थापित करने का प्रयास किया गया जिस अंग्रेजों से खुला समर्थन और संरक्षण प्रशासनिक रूप से मिलना प्रारंभ हुआ। ईसाई मिशरियों ने मुण्डा लोंगों को आर्थिक दशा सुधारने का भरोसा दिलाकर उनका धर्म परिवर्तन तो किया किन्तु वास्तव में बाबदा पूरा नहीं किया। इस बीच मुण्डा आदिवासियो का नेतृतव बिरसा ने संभाला। बिरसा ने ईसाई मिशनरियों से शिक्षा प्राप्त की थी। साथ ही वह हिन्दू साधु-संतो के संपर्क में भी था कि बिरसा ईसाईयों और हिन्दुओं दोनों का विश्वासपात्र होकर कहने लगा कि वह ईश्वर का अवतार है। उसने अपने शिष्य बनाकर मुण्डाओं को राजनैतिक दृष्टि से उद्वेलित किया। मुण्डाओं को उसने हिन्दुओं को उच्चजातियों की भांति ट्रेनिंग देना प्ररम्भ किया और मुण्डा राज्य स्थापना का उद्देश्य लेकर महाजनों, साहूकारों, जमींदारों तथा ईसाई मिशनरियों के भी विरुद्ध आन्दोलन चलाने लगा । सन् 1895 में उसने लगभग छः हजार मुण्डाओं को अपने समर्थन में ले लिया। अंग्रेजों ने उसे बंदी बना लिया। 1897 में जेल से छूटने के बाद बिरसा ने ईसाई मिशनरियों और चर्चों पर खुला आक्रमण करा कर अंग्रेजी फौज तक को लोहे के चने चवा दिए। अन्ततः बिरसा पकड़ा गया। उसको मृत्यु के पश्चात् मुण्डाओं का मनोबल तो टूटा, किन्तु मिशनरियों को धर्म प्रचार की गतिविधियां पूर्वोत्तर भारत में सीमित होकर रह गई।
ताना भगत आन्दोलन
ताना भगत आन्दोलन भी बिरसा, आन्दोलन का समकालीन था। इस पर बिरसा मुण्डा का हसे स्पष्ट प्रभाव था। इस आन्दोलन का प्रणेता ताना उरांव था। ताना भगत ने प्रचारित किया कि वह धर्मेश भगवान का प्रतिनिधि है। उसने अनेक सामाजिक बुराईयों के विरुद्ध तथा जमींदारी व्यवस्था के विरुद्ध आन्दोलन तो किया ही, साथ ही स्वतन्त्रता संग्राम में गांधी के अहिंसक आन्दोलन और उग्रवादी आन्दोलन का भी साथ दिया। 1921 मे ताना भगत को गिरफ्तारी के बाद उरांघ जनजाति के लोगों का आन्दोलन उम और हिसंक हो गया। अंग्रेजों ने दमन का सहारा लेकर इसका अंत किया।
संथाल विद्रोह
संथाल आदिवासी विद्रोह का मूल कारण बहुसंख्यक बाह्य लोगों का आर्थिक शोषण था। इसका नेतृत्व कान्टू बन्धुओं ने किया, जिसकी सहायता दो अन्य भाइयों चाँद और भैरव ने की। यह विद्रोह 1855 मे हुआ। प्रथम दो आन्दोलन की ही भांति इस आन्दोलन का मुख्य कारण और आधार भू-स्वामित्व था। भू-स्वामित्व के साथ जब संथाल आदिवासी क्षेत्र के लिए बाध्य हो गये। संथाल राज्य की स्थापना को लेकर चलाया गया आन्दोलन भागलपुर, वीरभूमि और बंगाल वे कुछ भागों तक फैला। अंग्रेजों ने फौज के बल पर बमुश्किल इस आन्दोलन को दबाया।
बस्तर संघर्ष
मध्य प्रदेश के बस्तर जिले (अब छत्तीसगढ़ में स्थित) का राजा गैर आदिवासी हिन्दू था। यही कारण रहा कि गोंड आदिवासियों ने गैर आदिवासियों का विरोध नही किया। यहां गैर आदिवासी कृषकों और गोंडों का अच्छा समायोजन रहा। गोंडों की अपने राजा के प्रति दैनिक निष्ठा थी लेकिन गोंड राजा अपनी उत्तराधिकार की लड़ाई में आदिवासियों को ढकेलकर उनका शोषण करते रहे। आजादी के बाद वहाँ के राजा भंजदेव ने आदिवासियों की श्रद्धा और भक्ति की प्रतीक दंतेश्वरी का भय दिखाकर तथा स्वयं की राम और कृष्ण का अवतार बताकर बस्तर के जिलाधीश से उसके राजकीय अधिकार दिलाने का आग्रह किया। ऐसा न करने पर आदिवासी विद्रोह की धमकी दी। प्रवीणचन्द्र भन्जदेव ने बस्तर क्षेत्र की विधानसभा की कुछ सीटें भी जीत ली और 31 मार्च 1961 को लगभग 10 हजार आदिवासियों को एकत्रित कर शक्ति का भी प्रदर्शन किया। 10 मार्च 1966 को किए जंगी प्रदर्शन के अवसर पर म० प्र० के मुख्यमंत्री पं० द्वारिका प्रसाद मिश्र द्वारा जिला कलेक्टर को स्थिति के नियंत्रण मे पूर्ण सहयोग दिए जाने के फलस्वरूप प्रवीरचन्द्र भंजदेव की मृत्यु के साथ ही यह आन्दोलन भी समाप्त हो गया।
नागा विद्राह
उत्तर पूर्वी क्षेत्रों के जनजातीय आन्दोलनों में ‘अल्पसंख्यक’ ‘बहुसंख्यक’ के भाव में अलगाववादका सूत्रपात है। इन आन्दोलनों में सर्वाधिक प्रखर आन्दोलन नागा विद्रोहियों का है। भारत को विखण्डित करने की इच्छा रखने वाली बाह्य शक्तियों ने नागाओं में यह विश्वास जगा दिया कि स्वतंत्रता के बाद विद्रोह करने पर उन्हें भी पाकिस्तान की भांति स्वतंत्रता प्राप्त हो जावेगी। अतः नागा आन्दोलन करने लगे। इस आन्दोलन का ईसाई मिशनरियों, चचों विदेशी लोगों तथा चीन तथा बर्मा का तो युद्ध कौशल प्रशिक्षण और हथियारों तथा गोला बारूद का भी समर्थन मिला। अतः नागा आन्दोलन तीव्र से तीव्रतर होता गया। बमुश्किल तमाम प्रयासों के बाद भारतीय गणराज्य और संविधान की सीमा में नागाओं को अलग राज्य नागालैण्ड के लिए तैयार किया जा सका। नागालैण्ड और नागाओं की सफलता के कारण अन्य क्षेत्रों के आदिवासी भी अलग राज्य की स्थापना के लिए आन्दोलनरत हुए। इसका परिणाम त्रिपुरा, अरूणाचल, मेघालय और मिजोरम राज्यों के अस्तित्व मे आने के रूप में निकला। अभी हाल में ही झारखण्ड आन्दोलन की परिणति के रूप में झारखण्ड राज्य अस्तित्व में आया है तथा छत्तीसगढ़ बहुल आदिवासी क्षेत्र को छत्तीसगढ़ राज्य का नाम दिया गया है। उत्तर प्रदेश का विभाजन कर आदिवासी बहुल क्षेत्र उत्तरांचल बनाया गया। म० प्र० में नर्मदा सागर बांध से संबंधित गुजरात और मध्य प्रदेश के अल्पसंख्यक आदिवासियों से संबंधित आन्दोलन की प्रवृत्ति आदिवासी क्षेत्रों की बांध से डूब और विस्थापित होने की समस्याओं को लेकर चलाया जा रहा है। इसे तमाम लब्ध प्रतिष्ठित गैर आदिवासी लोगों और संस्थाओं का भी समर्थन प्राप्त है।
अल्पसंख्यकों को समस्यात्मक पहलू और इसका समाधान
‘अल्पसंख्यक’ समस्या का सबसे दुखद पहलू राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग की बाधा और सांम्प्रदायिकता में है। समाज शास्त्रीय दृष्टि से धार्मिक, भाषायी और जनजातीय अल्पसंख्यक समूह सामाजिक संरचना के अभिन्न अंग हैं। जहा एक ओर अल्पसंख्यक समूहों ने भारतीय सामाजिक संरचना के विविधता में एकता की संस्कृति को बढ़ावा देकर विश्व को यह संदेश दिया है कि सहयोग सदभाव और समन्वय की प्रक्रिया के अंतर्गत भारतीय प्रजातंत्र अपने आप में एक अनूठी मिसाल है वहीं विश्व के अनेक देशों में एक ही प्रकार के समुदाय के लोगों में समानता नहीं है। ऐसी स्थिति में भारत का उदाहरण अपने आप में अनोखा है। वहीं दूसरी ओर धर्म, जाति भाषा और प्रजातियों, जनजातियों का पारस्परिक तनाव अनेक बार हिंसा और संघर्ष का स्वरूप लेकर देश के सामने कानून और व्यवस्था के लिए समस्या तो बनता ही है, साथ ही अलगाववाद को प्रवृत्ति राष्ट्री एकीकरण के लिए चुनौती का रूप धारण करने लगती है।
आजादी के बाद से भाषायो विवादों और जनजातीय आन्दोलनों के परिणास्वरूप तमाम प्रकार के प्रयलों के बावजूद समस्याओं का अंत नहीं हो रहा है। भाषायी आधार पर त्रिभाषी फार्मूला कारगर साबित नहीं हुआ। उत्तर-दक्षिण के हिन्दी अंग्रेजी विवाद क्षेत्रीय भाषाओं के संविधान को सूची में सम्मलित करने और भाषायी आधार राज्य बनने के आन्दोलन एकीकरण में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। इसी प्रकार जनसंख्या की बहुलता के आधार पर अल्पसंख्यक राज्यों के बनाये जाने में भी अलगाववाद का कोई अन्त नहीं हुआ है। विदेशी ताकतें इस अलगाववाद को प्रोत्साहित करने में कोई कोर कसर नहीं रख रही हैं।
‘अल्पसंख्यक’ समस्या का सबसे अधिक कुत्सित रूप सांप्रदायिकता है। भाषायी और जनजातीय स्तर की सांप्रदायिकता के नियंत्रण में तो आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। इसके यदा-कदा हौ उदाहरण देखने को मिलते हैं, लेकिन धर्म आधारित सांप्रदायिकता जिसमें कि हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिकता तो दिन-प्रतिदिन का सरदर्द बनी हुई है। आजादी के बाद अहमदाबाद, भिवंडी, रांची, राहारिकता तेरे तद अलीगढ़ के सांप्रदायिक दंगें रोमांचित कर देते हैं। मंदिर मस्जिद विवाद हल होने कबादाम नहीं लेते बल्कि गुजरात के ताजा दंगें यह एहसास कराते हैं कि समस्या ज्यों की त्योंहै। कट्टर हिन्दू भारत भूमि पर अपनी एकछत्र संस्कृति की श्रेष्ठता बनाये रखना चाहते हैं तो कट्टर मुसलमानों के मन से उनके शासक होने का भाव बहुसंख्यक हिन्दुओं के प्रति ईर्ष्या कटुता और नफरत को बढ़ावा देता ही प्रतीत होता है।
दोनों धर्मावलम्बियों की इस कट्टरता को बढ़ाने में राजनेताओं की दलगत राजनीति और वोट की राजनीति आग में घी डालने का कार्य करती है। इस सबकी अन्तिम परिणति सांप्रदायिक दंगों के रूप में होती है जिससे दोनों ही समुदाय के निर्दोष लोगों को अनावश्यक जान गंवानी पड़ती है और उनके बच्चे अनाथ हो जाते हैं। इस समस्या का यदि प्रभावी हल न खोजा गया तो धर्म के नाम पर देश के अन्दर और बाहर की सांप्रदायिकता हिंसा और आतंकवाद के रूप में जनजीवन को तो तबाह करेगी ही, बल्कि राष्ट्र के अस्तित्व के लिए भी खतरा बन जायेगी। लोगों में अनिश्चितता और असुरक्षा की भावना किसी राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं हो सकती।
समस्या का समाधान
आजादी के बाद अल्पसंख्यकों की समस्या के समाधान के लिए भारतीय संविधान की समतावादी समाज की स्थापना के लिए अनुच्छेद 14, 15, 16, 25, 26, 27, 28, 29, और 30 में अल्पसंख्यकों के लिए विशेष उपबंध किए गये हैं। 1978 में अल्पसंख्यक आयोग बनाया गया था जो कि संवैधानिक उपबंधों की समीक्षा कर इन्हें प्रभावी ढ़ग से लागू करने हेतु केन्द्र और राज्य सरकारों को सुझाव देने का कार्य करता है। वर्ष 1983 में एक अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ बनाया गया है जिसमें कि प्रधानमंत्री के 15 सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रकोष्ठ के द्वारा सांप्रदायिक हिंसा और कल्याणकारी योजनाओं की देखरेख की व्यवस्था है।
भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए संविधान के अनुच्छेद 347 एवं 350 में यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति किसी भी राजकीय भाषा में सम्मिलित करने की स्वीकृति प्रदान कर सकेंगे। अनुच्छेद 350 के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों के लिए विशेष पदाधिकारी नियुक्त करने तथा राज्य द्वारा ऐसा प्रयास करने का प्रावधान है जिससे कि प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा स्थानीय मातृभाषा में अल्पसंख्यकों को दी जाये।
जनजातीय अल्पसंख्यकों के लिए 12 मार्च, 1992 की राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग बनाया गया है जिसमें राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक अध्यक्ष एक उपाध्यक्ष और पाँच सदस्य होते हैं। यह आयोग जनजातीय कानूनों, कल्याण ओर विकास से संबंधित उपबन्धों के क्रियान्वयन का मूल्यांकन करता है। यह विकास के लिए नये उपाय सुझाने के लिए भी अधिकृत है।
आधुनिक भारत का इतिहास
Modern History
IMPORTANT POINTS
भारत में यूरोपीय कम्पनियों का आगमन
यूरोपीय यात्री वास्कोडिगामा अब्दुल मनीक नामक गुजराती पथ–प्रदर्शक की सहायता से 1498 ई. में कालीकट (भारत) के समुद्र तट पर उतरा। अल्फांसो–डी–अल्बुकर्क को भारत में पुर्तगीज शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। 1503 ई. में फ्रांसिस्को डी अल्मीडा ने तुर्की, गुजरात, मिस्र की संयुक्त सेना को पराजित कर दीव पर अधिकार किया। अल्बुकर्क ने पुर्तगालियों को भारतीय
महिलाओं से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया।
पुर्तगाल अधिगृहीत क्षेत्रों में व्यापार के लिए अकबर को भी एक निःशुल्क कार्ट्ज प्राप्त करना पड़ा था। पुर्तगाली अपने को सागर स्वामी कहते थे। पुर्तगाली राजकुमार हेनरी द नेविगेटर ने लम्बी समुद्री यात्राओं को सम्भव बनाने के लिए दिक् सूचक यन्त्र तथा नक्षत्र यन्त्र के द्वारा गणनाएँ करने वाली तालिकाएँ और सारणियों का निर्माण कराया, जिससे समुद्र की लम्बी यात्राएँ सम्भव हुई।
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भारत में गोथिक स्थापत्य कला पुर्तगालियों की देन है। भारत में प्रथम प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना पुर्तगालियों द्वारा 1556 ई. में गोवा में हुई। तम्बाकू की खेती भी पुर्तगालियों ने ही शुरू की। डचों की व्यापारिक व्यवस्था सहकारिता पर आधारित थी। इस व्यवस्था का उल्लेख 1722 ई. के दस्तावेजों में किया गया है।
1599 ई. में इंग्लैण्ड में मर्चेण्ट एडवेंचर्स नामक दल ने अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी अथवा द गवर्नर एण्ड कम्पनी ऑफ मर्चेण्ट्स ऑफ ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इण्डीज की स्थापना की।
1605 ई. में डचों ने पुर्तगीजों से अम्बायना ले लिया तथा धीरे–धीरे मसाला द्वीप पुंज (इण्डोनेशिया) में उनको हराकर अपना प्रभाव स्थापित किया।
उच्चों ने 1605 ई. में मसूलीपत्तनम में प्रथम डच कारखाने की स्थापना की।
डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी का सर्वाधिक लाभ कमाने वाला प्रतिष्ठान सूरत स्थित डच व्यापार निदेशालय था।
सर टॉमस से 1615 ई. में जेम्स प्रथम के राजदूत के रूप में जहाँगीर के दरबार में आए।
- शाहजहाँ ने पुर्तगालियों से नाराज होकर बंगाल में अंग्रेजों को सीमित क्षेत्र में बाजार की अनुमति प्रदान की। सेरामपुर एक प्रमुख डेनिश व्यापारिक केन्द्र था।
फ्रांस के सम्राट लुई चौदहवें के मन्त्री कॉलबर्ट द्वारा 1664 ई. में फ्रेंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई। सेण्टथो का युद्ध फ्रांसीसी सेना एवं नवाब अनवरुद्दीन की सेना के बीच लड़ा गया।
गवर्नर, गवर्नर जनरल एवं वायसराय
हेस्टिंग्स के समय में रेग्युलेटिंग एक्ट के तहत 1774 ई. में कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई। हेस्टिंग्स के काल में सर विलियम जोन्स द्वारा 1784 ई. में दक्षिण एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की स्थापना की गई।
भगवद्गीता के अंग्रेजी अनुवादक चार्ल्स विल्किन्स को वारेन हेस्टिंग्स ने आश्रय प्रदान किया। 1791 ई. जोनाथन डंकन ने बनारस में संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। सर जॉन शोर के समय में ही निजाम और मराठों के बीच 1795 ई. में खुर्दा का युद्ध लड़ा गया।
सर जॉन मैकफरसन ने भारत में अस्थायी नियुक्ति पर मात्र एक वर्ष कार्य किया। कार्नवालिस कोड शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित था, जिसके तहत न्याय प्रशासन तथा कर को पृथक कर दिया गया। कार्नवालिस को भारत में नागरिक सेवा का जन्मदाता माना जाता है। प्रारम्भ में सिविल सेवा का आयोजन इंग्लैण्ड में ही होता था। 1823 ई. से– यह भारत में होने लगी थी।
कार्नवालिस ने व्यापारिक सुधारों के तहत ठेकेदारों के स्थान पर गुमाश्तों तथा व्यापारिक प्रतिनिधियों द्वारा माल लेने की व्यवस्था बना दी तथा निजी व्यापार को समाप्त कर दिया।
- फ्रांसीसियों के भय को समाप्त करने तथा अंग्रेजी सत्ता की श्रेष्ठता स्थापित करने के उद्देश्य से वेलेजली ने भारत में सहायक सन्धि प्रणाली को प्रचलित किया। – नागरिक सेवा में भर्ती किए गए युवकों को प्रशिक्षित करने के लिए 1800- ई. में लॉर्ड वेलेजली ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की।
– कार्नवालिस ने 1793 ई. में स्थायी बन्दोबस्त प्रणाली का आरम्भ किया।
भारत को भारतीय वस्त्रों के निर्यात का केन्द्र बनाने का श्रेय डचों को जाता है।
1700 ई. में वा का युद्ध अंग्रेजों एवं फ्रांसीसियों के बीच हुआ, जिसमें की जीत हुई। 1816 ई. की सगौली की सन्धि के अनुसार गढ़वाल, कुमाऊँ, शिमला, रानीखेत एवं नैनीताल अंग्रेजों के अधिकार में आ गए तथा गोरखों ने काठमाण्डू में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार किया। लॉर्ड एमहर्स्ट के समय की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना वर्मा का प्रथम युद्ध तथा भरतपुर का उत्तराधिकार युद्ध है।
लॉर्ड विलियम बैण्टिक को भारत का प्रथम गवर्नर जनरल का पद सुशोभित करने का गौरव प्राप्त है। बैण्टिक ने सती प्रथा के खिलाफ कानून बनाकर दिसम्बर, 1829 में धारा XVII द्वारा विधवाओं के सती होने को अवैध घोषित किया। ठगी प्रथा एवं नरबलि प्रथा का भी अन्त किया। बैण्टिक ने कार्नवालिस द्वारा स्थापित प्रान्तीय अपीलीय तथा सर्किट न्यायालयों को बन्द करवा कर इसका कार्य मजिस्ट्रेट तथा कलेक्टरों में बाँट दिया। मात्र एक वर्ष तक भारत के गवर्नर जनरल के पद पर कार्य करने वाले चार्ल्स मेटकॉफ को प्रेस पर से नियन्त्रण हटाने के लिए प्रेस का मुक्तिदाता
के रूप में याद किया जाता है।
लॉर्ड ऑकलैण्ड के शासनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना प्रथम अफगान युद्ध था। 1839 ई. में ऑकलैण्ड ने कलकत्ता से दिल्ली तक जी टी रोड का निर्माण शुरू करवाया तथा इसी के समय में ‘शेरशाह सूरी मार्ग का नाम बदल कर जी टी रोड रख दिया गया। एलनबरो के समय में सर चार्ल्स नेपियर के नेतृत्व में 1843 ई. में सिन्ध का विलय किया गया। एलनबरो का कार्यकाल कुशल अकर्मण्यता की नीति का काल कहा जाता है। एलनबरो ने 1843 ई. के अधिनियम, द्वारा दास प्रथा का
अन्त कर दिया। गोण्ड जनजाति एवं मध्य भारत में मानव बलि प्रथा का दमन तथा शिशु
हत्या पर रोक लॉर्ड हार्डिंग के काल की महत्त्वपूर्ण घटना है।
द्वितीय आंग्ल–सिख युद्ध (1848 ई.) डलहौजी के समय में हुआ। डलहौजी का शासनकाल व्यपगत सिद्धान्त के कई मामलों को लागू करने के लिए प्रसिद्ध है।
डलहौजी ने प्रशासनिक सुधारों के अन्तर्गत भारत के गवर्नर जनरल के कार्यभार को कम करने के लिए बंगाल में एक लेफ्टिनेण्ट गवर्नर की नियुक्ति की व्यवस्था की। डलहौजी ने सैन्य सुधारों के अन्तर्गत कलकत्ता में स्थित तोपखाने का कार्यालय मेरठ में तथा सेना का मुख्य कार्यालय शिमला में स्थापित किया।
डलहौजी के समय भारतीय सेना एवं अंग्रेजी सेना का अनुपात 61 था।
1854 ई. का चार्ल्स वुड का डिस्पैच जो शिक्षा से सम्बन्धित था, डलहौजी के समय में पारित हुआ।
डलहौजी के काल में भारत में 1853 ई. में प्रथम रेलवे लाइन बम्बई से थाणे दूसरी रेलवे लाइन 1854 ई. में कलकत्ता से रानीगंज के बीच बिछाई गई। • डलहौजी के काल में प्रथम विद्युत तार सेवा कलकत्ता से आगरा के बीच प्रारम्भ हुई। डलहौजी ने डाक विभाग में सुधार करते हुए 1854 ई. में नया पोस्ट ऑफिस एक्ट पास किया। वाणिज्यिक सुधार के अन्तर्गत डलहौजी ने खुले व्यापार की नीति का
अनुसरण किया तथा भारत के बन्दरगाहों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए खोल दिया। सन्थाल विद्रोह तथा विधवा पुनर्विवाह विधेयक डलहौजी के काल की महत्वपूर्ण घटनाएं हैं।
लॉर्ड कैनिंग अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अन्तिम गवर्नर जनरल तथा सम्राट के अधीन प्रथम वायसराय था कैनिंग के समय में 1857 का महत्वपूर्ण विद्रोह हुआ
कैनिंग के काल में बिहार, आगरा तथा मध्य प्रान्त में 1859 ई. का किराया अधिनियम लागू हुआ तथा अधिकृत हाईकोर्ट की स्थापना हुई। वि पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 में व भारतीय दण्ड संहिता की स्थापना 1861 ई. में कैनिंग के समय में हुई।
लॉर्ड एल्गिन ने बनारस, कानपुर, आगरा तथा अम्बाला में अनेक दरबार किए। इन दरबारों का उद्देश्य भारतीय रियासतों को ब्रिटिश सरकार के समीप लाना था।
सर जॉन लॉरेन्स को ‘भारत का रक्षक‘ तथा ‘विजय का संचालक‘ कहा जाता है। लॉरेन्स के काल में 1868 ई. में पंजाब तथा अवध के काश्तकारी अधिनियम पारित हुए थे। लॉरेन्स के काल में 1865 ई. में भारत एवं यूरोप के बीच प्रथम समुद्री टेलीग्राफ सेवा आरम्भ हुई।
1872 ई. में लॉर्ड मेयो के शासनकाल में प्रायोगिक जनगणना करवाई गई।
ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के द्वितीय पुत्र ड्यूक ऑफ एडिनबरा ने लॉर्ड मेयो के काल में 1869 ई. में भारत यात्रा की।
लॉर्ड मेयो ने भारतीय नरेशों के बालकों की शिक्षा के लिए अजमेर में मेयो कॉलेज की स्थापना की। लॉर्ड नॉर्थबुक के समय में पंजाब का प्रसिद्ध कूका आन्दोलन हुआ। लॉर्ड नॉर्थबुक के समय प्रिन्स ऑफ वेल्स (किंग एडवर्ड सप्तम) भारत आए। लॉर्ड लिटन एक महान लेखक तथा प्रतिभावान वक्ता था। साहित्य जगत में वह ओवन मैरिडिथ नाम से प्रसिद्ध था।
1876-78 ई. में मद्रास, बम्बई, मैसूर, हैदराबाद, पंजाब तथा मध्य भारत के कुछ भागों में भारी अकाल पड़ा। लिटन ने अकाल के कारण की जाँच के लिए रिचर्ड स्ट्रेची की अध्यक्षता में अकाल आयोग की स्थापना की। लॉर्ड लिटन के काल में अंग्रेजी संसद ने महारानी विक्टोरिया को कैसर–ए–हिन्द की उपाधि देने के लिए राज उपाधि अधिनियम, 1876 पारित किया था।
मार्च, 1878 में लॉर्ड लिटन के समय में किसी भारतीय के लिए बिना लाइसेन्स शस्त्र रखना अथवा व्यापार करना एक दण्डनीय अपराध मान लिया गया।
लॉर्ड लिटन भारतीय सिविल सेवा में भारतीयों के प्रवेश को प्रतिबन्धित करना चाहता था, परन्तु भारत सचिव की सहमति न होने पर उसने परीक्षा की अधिकतम आयु को 21 से घटाकर 19 वर्ष कर दिया। लिटन ने अलीगढ़ में एक मुस्लिम–एंग्लो प्राच्य महाविद्यालय की स्थापना की। लॉर्ड रिपन के सुधार कार्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य स्थानीय स्वशासन की शुरुआत थी। प्रथम फैक्ट्री अधिनियम लॉर्ड रिपन के समय में 1881 ई. में पारित हुआ। लॉर्ड रिपन ने शैक्षिक सुधारों के अन्तर्गत 1882 ई. में विलियम हण्टर के नेतृत्व में हण्टर कमीशन का गठन किया। डफरिन के काल की महत्त्वपूर्ण घटना तृतीय आंग्ल–बर्मा युद्ध था। इसी के काल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई।
डफरिन के काल में लेडी डफरिन फण्ड व 1887 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।
लॉर्ड लैंसडाउन के काल में कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह द्वारा राजगद्दी का परित्याग एवं प्रिन्स ऑफ वेल्स का दूसरी बार भारत आगमन हुआ। • लैंसडाउन के समय में ‘मुस्लिम एंग्लो ओरिएण्टल डिफेन्स एसोसिएशन ऑफ इण्डिया‘ की स्थापना की गई। लॉर्ड एल्गिन द्वितीय के काल में स्वामी विवेकानन्द द्वारा वेल्लूर में रामकृष्ण मिशन और मठ की स्थापना हुई।
- एल्गिन ने भारत के विषय में कहा था कि “भारत को तलवार के बल पर विजित किया गया है और तलवार के बल पर ही इसकी रक्षा की जाएगी।” • लॉर्ड कर्जन स्वयं फॉरवर्ड स्कूल का समर्थक था. फिर भी उसने न तो फॉरवर्ड पॉलिसी को अपनाया तथा न ही ‘सिन्ध की ओर लौटो‘ वाली नीति का अनुसरण किया।
लॉर्ड कर्जन ने सर थॉमस ऐले के अधीन 1902 ई. में विश्वविद्यालयों में आवश्यक सुधारों हेतु सुझाव देने के लिए एक आयोग का गठन किया। लॉर्ड कर्जन ने भारत में रेलों की पद्धति के सम्बन्ध में रिपोर्ट करने के लिए सर थॉमस रॉबर्टसन को नियुक्त किया।
उफरिन के काल में ही बंगाल कृषक अधिनियम पारित हुआ था।
लॉर्ड एल्गिन के काल में मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश पंजाब में भयानक अकाल पड़ा था एवं लायल कमीशन का गठन हुआ था।
प्राचीन स्मारकों की रक्षा हेतु कर्जन ने 1904 ई. में एक अधिनियम पारित किया और भारत में प्राचीन स्मारकों की मरम्मत के लिए 50 हजार पौण्ड निश्चित किए।
. राष्ट्रीय आन्दोलन को दबाने व कमजोर करने के उद्देश्य से कर्जन ने 1905 ई. में बंगाल को दो भागों में बाँट दिया। कर्जन का यह विभाजन ‘फूट डालो और राज करो‘ की नीति पर आधारित था।
- 1916 ई. में लॉर्ड हार्डिंग द्वितीय को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का कुलाधिपति नियुक्त किया गया।
. भारत सरकार के 1935 के अधिनियम का ढाँचा बनाने में लॉर्ड लिनलिथगो का महत्त्वपूर्ण योगदान था। द्वितीय विश्वयुद्ध लॉर्ड वेवेल के काल में सफलतापूर्वक लॉर्ड माउण्टबेटन ने मार्च, 1947 में लॉर्ड वेवेल के स्थान समाप्त हुआ। स्वतन्त्रता के बाद लॉर्ड‘ माउण्टबेटन को स्वतन्त्र भारत का प्रथम गवर्नर–जनरल बनाया गया।
सी राजगोपालाचारी प्रथम भारतीय एवं अन्तिम गवर्नर जनरल थे।
1857 ई. का विद्रोह
- 1857 ई. के विद्रोह का तात्कालिक कारण ब्राउन बेस के स्थान पर नई इनफील्ड रायफल का प्रयोग था, जिसकी गोली के खोल में गाय तथा सूअर की चर्बी लगी होती थी तथा कारतूसों को प्रयोग से पहले दाँत से खींचना पड़ता था। इस कारण धार्मिक भावना आहत हुई।
34वीं नेटिव इन्फेण्ट्री के सिपाही मंगल पाण्डे ने 29 मार्च, 1857 को अंग्रेज अधिकारी सार्जेण्ट ह्यूरसन को गोली मार दी तथा लेफ्टिनेण्ट बाग की हत्या कर दी, जिसके कारण 8 अप्रैल 1857 को उन्हें फाँसी दे दी गई।
10 मई, 1857 को मेरठ में भारतीय सैनिक जेल से अपने साथियों को छुड़ाकर दिल्ली पहुँचे तथा 12 मई, 1857 को दिल्ली पर अधिकार कर मुगल शासक बहादुर शाह.. द्वितीय को अपना नेता बना दिया। दिल्ली पर अधिकार के बाद बख्त खान को सैन्य समिति का प्रमुख बनाया गया।
- लखनऊ में 4 जून को प्रारम्भ हुए विद्रोह का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया, विद्रोहियों ने वहाँ के चीफ कमिश्नर हेनरी लॉरेन्स को मार दिया। 5 जून को कानपुर में शुरू हुए विद्रोह का नेतृत्व नाना साहब (धोन्धू पन्त) ने किया, जिसमें तात्या टोपे ने उनका साथ दिया।
- झाँसी में विद्रोह का नेतृत्व गंगाधर राव की विधवा लक्ष्मीबाई ने किया अधिकारी यूरोज से लड़ते हुए 17 जून, 1856 को लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई।
1857 ई. के विद्रोह का नेतृत्व इलाहाबाद में लियाकत अली, जगदीशपुर में सिंह फैजाबाद में मौलवी अहमदउल्ला तथा बरेली में खान बहादुर खाँ ने किया।
डलहौजी ने व्यपगत सिद्धान्त के तहत सतारा (1848), जैतपुर एवं सम्भलपुर (1849), बघाट (1850), उदयपुर (1852) झांसी (1853) तथा नागपुर (1854) रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया था।
1857 के विद्रोह को लॉरेन्स, सीले मालेसन, ट्रेविलियन तथा होम्ज से पूर्णतः सिपाही विद्रोह आउट्रम एवं टेलर ने अंग्रेजों के विरुद्ध हिन्दू–मुस्लिम षड्यन्त्र, टी आर होज नेता एवं सभ्यता के बीच युद्ध व डिजरेली ने सुनियोजित राष्ट्रीय विद्रोह कहा। वीडी सावरकर ने इसे प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम माना।
1856 के धार्मिक अधिनियम द्वारा ईसाई धर्म ग्रहण करने वालों को पैतृक सम्पत्ति का हकदार माना जाता था तथा उन्हें ही नौकरियों में सुविधा मिलती थी।
उड़ीसा में संबलपुर के राजकुमार सुरेन्द्र शाही और उज्ज्वल शाही ने विद्रोह किया गंजाम में
सावरों ने राधाकृष्ण दण्डसेन के नेतृत्व में पराल की मेडी में विद्रोह किया।
1857 के विद्रोह के पश्चात् भारत शासन अधिनियम, 1858 पारित किया गया, जिसके अनुसार भारत का शासन ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से भारत के राज्य सचिव को चलाना था। भारत राज्य सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों की भारत परिषद् या इण्डिया काउन्सिल का गठन किया गया। विद्रोह के पश्चात् सेना के पुनर्गठन के लिए पील कमीशन का गठन किया गया, जिसके सुझावों के आधार पर सेना में यूरोपीय तथा भारतीय सैनिकों का अनुपात 1 2 कर दिया गया। बम्बई तथा मद्रास में यह अनुपात 13 रखा गया।
. विद्रोह के बाद 1858 में महारानी विक्टोरिया द्वारा जारी घोषणा पत्र में कहा गया कि ब्रिटिश सरकार भारतीय रियासतों को साम्राज्य में नहीं मिलाएगी तथा पूर्व के समझौतों का सम्मान करेगी। गोद लेने की प्रथा को स्वीकृति प्रदान की गई।
- 1857 के विद्रोह को प्रसिद्ध उर्दू कवि गालिब ने देखा था। इनकी मृत्यु 1860 ई. में हुई थी।
मुगल सम्राट द्वारा स्वतंत्र रूप से नियुक्त बंगाल का अंतिम गवर्नर मुर्शीद कुली खान (1717-1727 ई.) था। इसने अपनी राजधानी ढाका से मकसूदाबाद बनाया और नगर का नाम मुर्शिदाबाद रख दिया। * इसने भूमि बंदोबस्त में इजारा व्यवस्था आरंभ की।
* अलीवर्दी खां (1740-1756 ई.) में यूरोपियों की तुलना मधुमक्खियों से की तथा कहा कि यदि उन्हें न छेड़ा जाए तो ये शहद देंगी और यदि छेड़ा जाए तो वे काट–काट कर मार डालेंगी। * इसकी मृत्यु के पश्चात उसका दौहित्र सिराजुदौला उत्तराधिकारी बना। ब्लैक होल की कथित घटना 20 जून, 1756 को सिराजुदौला के समय में हुई थी। जे.जेड, हॉलवेल, जो शेष जीवित रहने वालों में से एक था. अनुसार 18 फीट लंबे तथा 14 फीट 10 इंच चौड़े कक्ष में 146 अंग्रेज बंदी बंद कर दिए गए और अगले दिन उनमें से केवल 23 व्यक्ति ही बच पाए। यह घटना ब्लैक होल के नाम से प्रसिद्ध है। समकालीन मुस्लिम इतिहासकार गुलाम हुसैन ने अपनी पुस्तक सिवार–उल–मुत्खैरीन में इसका कोई उल्लेख नहीं किया है।
* भारतवर्ष में ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक लॉर्ड रॉबर्ट क्लाइव को माना जाता है, जिसने प्लासी के युद्ध (23 जून, 1757) में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को पराजित कर पहली बार भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व की नींव रखी थी। * प्लासी (वर्तमान नाम पलाशी) का युद्ध मैदान प. बंगाल राज्य के नदिया जिले में भागीरथी नदी के किनारे स्थित है। *क्लाइव भारत में बंगाल के गवर्नर के पद पर 1757-60 ई. तथा 1765-1767 ई. तक रहा। *इस दौरान उसने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ इलाहाबाद की संधि की। *अंग्रेज सैनिकों का एक श्वेत विद्रोह उसके समय में हुआ था। * क्लाइव द्वारा बंगाल में सफलतापूर्वक एक ‘लुटेरा राज्य‘ की स्थापना की गई। * क्लाइव एक सैनिक के रूप में जननेता था। * विलियम पिट का यह कथन है कि “वह स्वर्ग से उत्पन्न सेनानायक (A Heaven Born
General) था।” * अलीवर्दी खां के उत्तराधिकारी नवाबों में मीर कासिम (1760-63 ई.) सबसे योग्य था। * पूर्णिया तथा रंगपुर के फौजदार के रूप में वह अपनी योग्यता पहले ही दर्शा चुका था। *वह अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर ले गया, संभवत: वह मुर्शिदाबाद के षड्यंत्रमय वातावरण तथा कलकत्ता से दूर रहना चाहता था, ताकि अंग्रेजों का हस्तक्षेप अधिक न हो।
* मीर कासिम ने सेना का गठन यूरोपीय पद्धति पर करने का निश्चय किया। * इसके द्वारा मुंगेर में तोपें तथा तोड़ेदार बंदूकें (Matchlock Gun) बनाने की व्यवस्था की गई। इसके अतिरिक्त मीर कासिम राज्य की आर्थिक स्थिति को भी सुधारने के लिए प्रयत्नशील रहा। जिन अधिकारियों ने गबन किया था उन पर बड़े–बड़े जुर्माने लगाए गए, कुछ नए कर भी उसने लगाए। * 22 अक्टूबर, 1764 को अंग्रेजों ने मीर कासिम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा दिल्ली के मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय की सम्मिलित सेना को बक्सर के युद्ध में परास्त किया। * इस युद्ध में अंग्रेजों की कमान मेजर हेक्टर मुनरो के हाथ में थी। इस युद्ध
के समय वेन्सिटार्ट बंगाल का गवर्नर था। * इस युद्ध के प्लासी के निर्णयों पर मुहर लगा दी, भारत में अब अंग्रेजों को परिणाम * देने वाला कोई दूसरा नहीं था। * इलाहाबाद तक का प्रदेश अंग्रेजी के अधिकार में आ गया तथा दिल्ली विजय का मार्ग खुल गया। का युद्ध भारतीय इतिहास में निर्णायक सिद्ध हुआ। बक्सर के युद्ध समय बंगाल का नवाब मीरजाफर तथा दिल्ली का शासक शाहाल द्वितीय था। * इलाहाबाद की दूसरी संधि (अगस्त, 1765) के अनुसार शाहआलम को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया गया तथा उसे रखा गया।
* इलाहाबाद तथा कड़ा के जो क्षेत्र नवाब ने छोड़ दिए, ६, इलाहाबाद शाहआलम को मिले। * 12 अगस्त, 1765 के अपने फरमान द्वारा मु बादशाह शाहआलम द्वितीय ने कंपनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ी की दीवानी स्थायी रूप से दे दी, जिसके बदले कंपनी द्वारा सम्राट 26 लाख रुपये दिया जाना था तथा निजामत व्यय के लिए कंपनी 53 लाख रुपये देना था। इस समय रॉबर्ट क्लाइव ईस्ट इंडिया कंपनी * का बंगाल का गवर्नर था। इसी समय बंगाल में द्वैध शासन की हुई। * कंपनी ने दीवानी कार्य के लिए दो उप–दीवान, बंगाल के लिए शुरुआत मुहम्मद रजा खान तथा बिहार के लिए राजा शिताब राय की नियुक्ति की।
* शाहआलम द्वितीय का संपूर्ण जीवन आपदाओं से ग्रस्त रहा उसे अंधा कर दिया गया। *शाहआलम द्वितीय के समय में 1803 1 में दिल्ली पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया। *शाहआलम द्वितीय उसके दो उत्तराधिकारी अकबर द्वितीय (1806-37 ई.) और : द्वितीय (1837-57 ई.) ईस्ट इंडिया कंपनी के पेंशनभोगी मात्र बनकर रहे * 1765 ई. में अंग्रेजों द्वारा सिलहट की दीवानी प्राप्त की गई तथा बर्म युद्ध के बाद स्काट द्वारा सिलहट को जयंतिया तथा गारो पहाड़ी क्षे से जोड़ने के लिए सड़कों का निर्माण किया जाने लगा, जिसके विरोध स्वरूप इन पहाड़ियों पर रहने वाली खासी जनजाति के लोगों ने अपन नेता तीरत सिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया था। * के. एम. पन्निकर कहा है कि 1765 से 1772 ई. तक कंपनी ने बंगाल में ‘डाकुओं काराज स्थापित कर दिया।
उत्तराधिकार के युद्ध में सफलता प्राप्त कर मुअज्जम बहादुरशाह के नाम से मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ
- औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम को ‘शाह बेखबर‘ कहा जाता था मुगल सम्राट् फार्रुखसियर ने अंग्रेजों को बिना किसी कर के बंगाल, गुजरात तथा हैदराबाद में व्यापार करने की छूट प्रदान की सन् 1759 ई. में आलमगीर का पुत्र अली मौहर, शाह आलम द्वितीय के नाम से मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ
मराठा शासक शाहू की मृत्यु के पश्चात् मराठा राज्य की वास्तविक शक्ति पेशवाओं के हाथ में आ गई.बंगाल के नवाब मुर्शीद कुली खाँ ने अपनी राजधानी ढाका से मुर्शीदाबाद स्थानान्तरित की.
बंगाल के नवाब मीरकासिम ने अपनी राजधानी मुर्शीदाबाद से मुंगेर स्थानान्तरित की 18वीं शताब्दी के मध्य में मैसूर का नाममात्र का शासक चिका कृष्णराज था. शासन की वास्तविक शक्ति नन्दराज तथा देवराज नामक दो भाइयों के हाथों में थी.
सन् 1761 ई. में हैदरअली न गद्दी से उतारकर मैसूर राज्य पर अपना अधिकार कर लिया
- प्रथम आंग्ल–मैसूर युद्ध में हैदरअली ने अंग्रेजों को बुरी तरह पराजित किया
- हैदरअली ने सन् 1780 ई. में अकोट जीत लिया था, किन्तु सन् 1781 ई. में सर आयरकूट ने ‘पोर्ननोवो‘ नामक स्थान पर हैदरअली को परास्त किया रुहेलखण्ड की स्थापना का श्रेय अली
मुहम्मद खाँ को जाता है
- रुहेलखण्ड की प्रारम्भिक राजधानी ‘आंवला थी, जो बाद में रामपुर स्थानान्तरित कर दी गई
सन् 1721 ई. में सिखों के दो दल बन्दई‘ एवं ‘तत्खालसा‘ पुनः एकत्रित हो ‘दल खालसा‘ में संगठित हो गए. यह दल मुगलों के लिए कष्टदायक सिद्ध हुआ
- गुरु हरगोविन्द ने सिखों को सैनिक एव लड़ाकू समुदाय के रूप में परिवर्तित कर दिया अमृतसर स्थित अकाल तख्त का निर्माण गुरु हरगोविन्द सिंह ने कराया था
- सिख 12 मिस्लों अथवा संघों में संगठित थे जिनका राजनैतिक प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था बाद में रणजीत सिंह ने इन मिस्लों को विजित कर संगठित पंजाब राज्य की स्थापना की
- अफगानिस्तान के शासक जमानशाह ने रणजीत सिंह को राजा की उपाधि प्रदान कर लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया • रणजीत सिंह व अंग्रेजों के मध्य सन् 1809 ई. को अमृतसर की संधि हुई जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने रणजीत सिंह का सतलज क्षेत्र की ओर होने वाला विस्तार
रोक दिया।
- अमृतसर की संधि की शर्त के अनुसार अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को स्वतन्त्र शासक स्वीकार कर लिया
- प्रथम आंग्ल–सिख युद्ध के दौरान लॉर्ड हार्डिंग गर्वनर जनरल था • सन् 1846 ई. में अंग्रेज व सिखों के मध्य हुई लाहौर संधि के समय पंजाब का शासक महाराजा दिलीप सिंह था
- सिराजुद्दौला के शासनकाल में अंग्रेजों की बस्ती कलकत्ता, नवाब के शत्रुओं तथा राजद्रोहियों के लिए आश्रय स्थल बनी हुई थी. 4 जून, 1756 ई. में सिराजुद्दौला ने मुर्शिदाबाद के समीप स्थित अंग्रेजों की कासिम बाजार फैक्ट्री पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया. • इतिहास में विख्यात ब्लेक होल‘ घटना का विवरण हालवेल द्वारा लिखे गए एक पत्र से को ज्ञात होता है कुछ इतिहासकार इस घटना को कपोलकल्पित मानते हैं.
- तत्कालीन ऐतिहासिक ग्रन्थ ‘शेर–अ– मुतखरीन एवं रायस–उस–सलातीन में भी ‘ब्लेक होल‘ घटना के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं मिलता है • 9 फरवरी सन् 1757 ई. में अंग्रेज व नवाब
के मध्य ‘अलीनगर की संधि हुई प्लासी युद्ध के दौरान जब बंगाल का नवाब सिराजुद्दौला मुर्शिदाबाद से पटना की ओर भाग रहा था तब उसे अंग्रेजों द्वारा बंदी बना लिया गया.
- 28 जून, 1757 ई. में अंग्रेजों ने मीरजाफर को बंगाल का नवाब घोषित कर दिया. प्लासी युद्ध के उपरान्त अंग्रेजी कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में व्यापार करने की सुविधा प्राप्त हो गई. • बंगाल में अंग्रेजों की स्थापना में प्लासी के युद्ध के पश्चात् ‘बेदरा के युद्ध का महत्वपूर्ण स्थान है.
- 25 नवम्बर, सन् 1759 ई. को अंग्रेजों तथा डचों के मध्य ‘बेदरा‘ का युद्ध हुआ. इस युद्ध में डच पराजित हुए. • मीरकासिम ने बंगाल की नवाबी प्राप्त करने के लिए ‘बेन्सीटार्ट‘ से साठगाँठ की थी
- मीरकासिम ने अंग्रेजों की सेना का व्यय चलाने के लिए वर्दमान, मिदनापुर व चिटगाँव जिले ईस्ट इण्डिया कम्पनी को प्रदान कर दिए.
- सन् 1764 ई. में मीरकासिम, शुजाउद्दौला व शाह आलम की संयुक्त सेना तथा कम्पनी के मध्य बक्सर का युद्ध हुआ. इस युद्ध में अंग्रेजों को विजय प्राप्त हुई.
- बक्सर युद्ध के उपरान्त सन् 1765 ई. में इलाहाबाद की संधि हुई.
- इलाहाबाद संधि के अनुसार अवध के नवाब से कड़ा और इलाहाबाद जिले लेकर मुगल बादशाह को प्रदान कर दिए गए.
- इस संधि के अनुसार ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मुगल बादशाह को 26 लाख रुपया वार्षिक पेंशन देना स्वीकार किया.
- मीरजाफर की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र निजामुद्दौला बंगाल का नवाब बना • के. एम. पाणिक्कर के अनुसार सन् 1765 ई. से 1772 ई. तक अंग्रेजी कम्पनी द्वारा स्थापित बंगाल का राज्य ‘डाकू राज्य‘ था.
- वारेन हेस्टिंग्ज के काल में कम्पनी का राजकोष मुर्शिदाबाद से कलकत्ता में स्थानान्तरित कर दिया गया तथा कलकत्ते को बंगाल की राजधानी बना दिया गया.
- वारेन हेस्टिंग्स के गवर्नर काल में भारत में प्रत्येक जिले में एक दीवानी तथा एक फौजदारी न्यायालय की स्थापना की गई.
- दीवानी अदालत में 500 रुपए तक के मामले तथा इससे ऊपर सदर दीवानी अदालत में अपील की जा सकती थी.. • जिला फौजदारी अदालत को एक भारतीय अधिकारी के अधीन रखा गया. • रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा सन् 1773 ई. में कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई.
- स्थायी बंदोबस्त के परिणामस्वरूप भूमि सम्बन्धों में अनेक परिवर्तन हुए भूमि का अधिकांश भाग कलकत्ता व्यापारिक एवं धनिक वर्ग के हाथों में चला गया. • स्थायी बदोबस्त से सरकार की आय निश्चित हो गई साथ ही नये जमींदारों का सहयोग प्राप्त हुआ.महलवारी व्यवस्था में भू–राजस्व या तो स्थानीय गाँव के जमींदार तथा उनके वंशक्रमानुगत राजस्व एकत्र करने वाले, अथवा महल (कुछ गाँवों को मिलाकर महल बनता था) के जमींदारों से निश्चित किया जाता था. महलवारी व्यवस्था को पंजाब में ‘ग्रामीण व्यवस्था‘ का नाम दिया गया. रैयतवाड़ी बंदोबस्त 19वीं शताब्दी के आरम्भ में मद्रास एवं मुम्बई प्रांतों के कुछ क्षेत्रों में लागू किया गया. इसमें सरकार प्रत्यक्ष रूप से किसानों से एक निश्चित धनराशि प्राप्त करती थी.
- रैयतबाड़ी बंदोबस्त में राजस्व की दर कुल उत्पादन की 45% से 50% तक अलग– अलग निर्धारित की गई.
- रैयतबाड़ी व्यवस्था में अनेक दोष विद्यमान थे जिन्हें 1852-53 ई. के बीच कम्पनी चार्टर के नवीनीकरण के लिए हुई संसदीय जाँच के दौरान सरकारी अधिकारियों ने स्वीकार किया. भारतीय अर्थव्यवस्था पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए उन्नीसवीं शताब्दी के पाँचवें छठे दशक में अंग्रेजों ने भारी मात्रा में पूँजी निवेश किया..
- अंग्रेजों द्वारा सड़क परिवहन, रेल, डाक तार, बैंक व बड़े–बड़े बागानों में पूँजी का निवेश किया गया.
- सन् 1830 ई. में अहोम लोगों द्वारा पुनः अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया गया. इस बार अंग्रेजी कम्पनी ने शान्तिपूर्ण नीति अपनायी तथा उत्तरी आसाम व कुछ अन्य क्षेत्र प्रदेश के महाराज पुरन्दर सिंह को प्रदान कर दिए.
- ननक्लों के राजा तीरतसिंह ने गारो, खाम्पटी तथा सिंहपो की सहायता से अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया. शीघ्र ही इस विद्रोह ने जनव्यापी आन्दोलन का रूप धारण कर लिया अंग्रेजों ने सैन्य बल के द्वारा सन् 1833 ई. में इस विद्रोह का दमन कर दिया.
- सन् 1825 ई. में असम के तोप खाने का विद्रोह हुआ.
- सन् 1838 ई शोलापुर स्थित भारतीय टुकड़ी ने पूरा भत्ता न मिलने पर विद्रोह कर दिया. सन् 1850 ई. में गोविन्दगढ़ रेजीमेन्ट ने विद्रोह कर दिया.
1 जनवरी सन् 1857 ई. में ब्रिटिश निर्मित ‘एनफील्ड राइफल‘ का प्रयोग भारत में आरम्भ किया गया इस रायफल में प्रयुक्त होने वाले कारतूसों में गाय व सुअर की चर्बी प्रयुक्त की गई थी.
- मार्च 1857 ई. में बैरकपुर छावनी के सैनिको ने इन चर्बीयुक्त कारतूसों के प्रयोग करने से मना कर दिया • 2 मई, सन् 1857 ई. को लखनऊ की अवध रेजीमेन्ट ने भी इन कारतूसों के प्रयोग करने से इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप अवध रेजीमेंट को भंग कर दिया गया. मेरठ में चर्बीयुक्त कारतूसों के प्रयोग के इनकार करने वाले सैनिकों को अंग्रेज सैनिक अधिकारी कार माइकेल स्मिथ ने 5 वर्ष के कारावास की सजा सुना दी. ● 10 मई, 1857 ई. को सायं 5 बजे के लगभग मेरठ की एक पैदल टुकड़ी तथा घुड़सवार सेना ने विद्रोह कर दिया. इस विद्रोह के दौरान नाना साहब ने कानपुर पर अपना अधिकार कर स्वयं को वहाँ का पेशवा घोषित कर दिया.
- बुदेलखण्ड में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने क्रान्ति का नेतृत्व किया. बिहार में जगदीशपुर के जमींदार कुवरसिंह ने क्रान्ति का नेतृत्व किया राजस्थान स्थित नसीराबाद की सैनिक छावनी में 28 मई, 1857 ई. को सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। राजस्थान में कोटा व आडवा विद्रोह के प्रमुख केन्द्र थे.
- तात्या टोपे ने मध्य भारत में क्रान्तिकारियों का नेतृत्व किया. उत्तर प्रदेश में झाँसी, कानपुर, बरेली, मेरठ, लखनऊ, अलीगढ़, आगरा व मथुरा क्रान्ति के प्रमुख केन्द्र थे.
- बरेली विद्रोह का नेतृत्व जनरल वत्स खाँ द्वारा किया गया.
- 4 जुलाई सन् 1857 ई. को हुए एक भयंकर विस्फोट में अवध के कमिश्नर हेनरी लारेन्स की मृत्यु हो गई.
- सन् 1857 ई. के विद्रोह के दमन के दौरान अंग्रेज अधिकारी नील ने कानपुर में मृत ब्राह्मणों को जमीन में दफनवाया तथा मृत मुस्लिमों को चिता में जलवा दिया.
- कुंवर सिंह के नेतृत्व में विद्रोहियों ने मार्च सन् 1858 ई. में आजमगढ़ पर अपना अधिकार कर लिया.
- आजमगढ़ से बनारस की ओर जाते समय कुँवर सिंह व अंग्रेज अधिकारी लॉर्ड मार्क के मध्य मुकाबला हुआ जिसमे लॉर्ड मार्क को अपनी जान बचाकर भाग जाना पड़ा.
• जगदीशपुर के कुदर सिंह विद्रोह के नेताओं में से एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्हें आजादी के झण्डे तले मृत्यु प्राप्त हुई
- 14 सितम्बर, सन् 1857 ई को अंग्रेजी सेनाओं ने दिल्ली स्थित कश्मीरी गेट को बारूद से उड़ा दिया
- नवम्बर सन् 1857 ई. को जनरल विण्डह को कानपुर के समीप विद्रोहियों ने परास्त किया
- 1857 ई. में हुए विद्रोह को विनायक दामोदर ने प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की संज्ञा दी
- सर जॉन सीले के मतानुसार 1857 ई. का विद्रोह पूर्णतः अराष्ट्रीय तथा स्वार्थी सैनिको का विद्रोह था.
- सर जॉन लारेन्स, पी. ई. रॉबर्टस् व वी.ए. स्मिथ ने 1875 ई. के विद्रोह को ‘सैनिक विद्रोह‘ कहा है.
- वी. ए. स्मिथ के अनुसार 1857 ई. का विद्रोह शुद्ध रूप से सैनिक विद्रोह था, जो संयुक्त रूप से भारतीय सैनिकों की अनु– शासनहीनता और अंग्रेज सैनिक अधिकारियों की मूर्खता का परिणाम था.”
- सर जेम्स आउटरम के मतानुसार, 1857 ई. का विद्रोह मुसलमानों के षड्यन्त्र का परिणाम था. जो हिन्दुओं की शक्ति के बल पर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे.
- अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक ‘द ग्रेट रिवोल्ट‘ में 1857 ई. में हुए विद्रोह को “राष्ट्रीय विद्रोह‘ सिद्ध करने का प्रयास किया है.
- पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार सन् 1857 ई. का विद्रोह ‘प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम था. • बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को समाप्त कर इनके स्थान पर भारत सचिव तथा उसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक इण्डिया कौंसिल बनाई गई. विद्रोह के बाद इलाहाबाद में आयोजित दरबार में लॉर्ड केनिंग ने महारानी के घोषणा–पत्र को पढ़कर सुनाया. इस घोषणा पत्र को भारतीय स्वतन्त्रता का मेग्नाकार्टा कहा गया.
- महारानी की घोषणा के द्वारा क्षेत्रों की सीमा विस्तार नीति को समाप्त कर दिया गया. • अंग्रेजों की हत्या के दोषियों को छोड़कर शेष सभी विद्रोहियों को क्षमा कर दिया गया.
- ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन व थियोसोफिकल सोसायटी आदि की स्थापना का उद्देश्य भारत में पुनर्जागरण करना था. ब्रह्म समाज की स्थापना 20 अगस्त, सन् 1828 ई. को कलकत्ते में राजा राममोहन राय द्वारा की गयी..
- ब्रिटिश कम्पनी में भारतीयों को भी उच्च पद प्राप्त हो, इसके लिए राजा राममोहन राय
सदैव प्रयत्नशील रहे. 1829 ई. में सती प्रथा को बंद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.
- 20 अगस्त सन् 1833 ई. में राजा राममोहन राय की मृत्यु के पश्चात् देवेन्द्रनाथ टैगोर ने
ब्रह्म समाज का नेतृत्व संभाला. दी
- आदि ब्रह्म समाज की स्थापना महर्षि को देवेन्द्रनाथ टैगोर द्वारा की गई थी.
- भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना श्री म केशवचन्द्र सेन द्वारा की गई.
- ब्रह्म समाज के सिद्धान्तों ने राष्ट्रीयता भावना के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया.
- राजा राममोहन राय ने कोलकाता (कलकत्ता) स्थित वेदान्त कॉलेज, इंगलिश स्कूल तथा हिन्दू कॉलेज की स्थापना की…
- राजा राममोहन राय भारत में अंग्रेजी शिक्षा के पक्षधर थे, तथा अंग्रेजी को उन्नति का साधन मानते थे.
- राजा राममोहन राय के प्रयासों के फलस्वरूप ही सन् 1835 ई. में समाचार पत्रों पर लगा प्रतिबंध समाप्त हुआ.
- सन् 1819 ई. में महाराष्ट्र प्रांत में प्रार्थना सभा नामक संस्था की स्थापना की गई. प्रभाव क्षेत्र सीमित होने के कारण शीघ्र ही यह संस्था छिन्न–भिन्न हो गई. • सन् 1867 ई. में आत्माराम पाण्डुरंग ने प्रार्थना समाज की स्थापना की. • महादेव गोविन्द रानाडे, आर. जी. भण्डारकर तथा नारायण चन्द्रावरकर प्रार्थना समाज के प्रमुख सदस्य थे.
- 21 वर्ष की आयु में दयानन्द सरस्वती ने बुद्ध की भाँति गृह त्याग दिया तथा ब्रह्मचारी साधु के रूप में भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया
- दयानन्द सरस्वती ने सन् 1863 ई. में आगरा से अपने धर्म का प्रचार प्रारम्भ किया. • सन् 1874 ई. में दयानंद सरस्वती ने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ लिखा.
- 10 अप्रैल सन् 1875 ई. को दयानंद सरस्वती ने मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की..
- रामकृष्ण परमहंस का जन्म सन् 1836 ई. में बंगाल के हुगली जिले में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था.
- तोतापुरी नामक एक वेदान्तिक साधु ने दयानंद सरस्वती के वेदान्त साधना सिखाई. • स्वामी विवेकानन्द रामकृष्ण परमहंस के परम शिष्य थे.
- रामकृष्ण परमहंस ने न ही किसी आश्रम की स्थापना की और न ही किसी सम्प्रदाय की • सन् 1893 ई. में अमरीका के शिकागो नगर में आयोजित ‘सर्वधर्म सम्मेलन में अपने भाषण से सभी को प्रभावित किया तथा यहीं पर आपने वेदान्त समाज की स्थापना की. सन् 1896 ई में स्वामी विवेकानद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की.
- 19वीं शताब्दी तीसरे दशक के अन्तिम व में हुए यंग बंगाल आन्दोलन का नेतृत्व एक एंग्लो–इण्डियन हेनरी विलियम डेराजियो द्वारा किया गया.
- 7 सितम्बर सन् 1875 ई को अमरीका स्थित न्यूयार्क में मेडम एच. पी. ब्लाबस्टकी (रूसी) तथा कर्नल एच. एस. अल्काट (अमरीका) ने थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की.
- आयरिश महिला श्रीमती एनी बीसेन्ट भारत में थियोयोफिकल सोसायटी की सक्रिय सदस्य रहीं. • ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयासों के परिणामस्वरूप सन् 1856 ई. में विधवा पुनर्विवाह कानून बनाया गया.
- ‘इन्कलाब जिन्दाबाद‘ का नारा मुहम्मद इकबाल ने दिया था. • सन् 1877 ई. में सर सैयद अहमद खाँ ने अलीगढ में एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज की स्थापना की जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से प्रख्यात हुआ. • हाजी शरीयत उल्लाह फरायज आन्दोलन के
संचालक थे..
- महाराष्ट्र में भारत सेवक समाज‘ की स्थापना गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा की गई थी. सन् 1922 ई. में अमृतलाल विट्ठलदास ने ‘भील सेवा मण्डल‘ की स्थापना की.
- ज्योतिबा फूले महाराष्ट्र में विधवा पुनर्विवाह के अग्रदूत थे.
- सन् 1911 ई. में नारायण मल्तार जोशी ने सामाजिक समस्याओं के निराकरण हेतु कुछ प्रबुद्ध भारतीयों के सहयोग से सोशल सर्विस लीग‘ नामक संस्था का निर्माण किया. • अवनीन्द्र द्वारा ‘द इण्डियन सोसायटी ऑफ ओरियन्टल आर्ट‘ नामक संस्था की स्थापना की. उन्नीसवीं शताब्दी में प्रख्यात बंगला साहित्यकार बंकिमचन्द्र ने ‘वन्दे मातरम्‘ नामक गीत की रचना की. • सन् 1875 ई. में शिशिर कुमार घोष ने इण्डिया लीग की स्थापना की.
- सन् 1876 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी द्वारा स्थापित इण्डियन एसोसिएशन ने ‘इण्डियन लीग का स्थान ले लिया. • सन् 1885 ई. में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का श्रेय एक अंग्रेज अधिकारी एलन ओक्टोवियन ह्यूम को जाता है.
एलन आक्टेवियन ह्यूम (ए.ओ. ह्यूम ) भारतीय सिविल सेवा के सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारी थे। * ये शिमला में बस गए थे। * 1884 ई. में इन्होंने भारतीय राष्ट्रीय संघ (Indian National Union) की स्थापना की, जो कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अग्रदूत था। * भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 ई. में ए. ओ. ह्यूम द्वारा की गई थी इसका पहला अधिवेशन 28 दिसंबर, 1885 को बंबई स्थित गोकुलदास तेजपाल संस्कृत विद्यालय में आयोजित किया गया। इसी सम्मेलन में दादाभाई नौरोजी के सुझाव पर भारतीय राष्ट्रीय संघ का नाम बदलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर दिया गया। * इसमें कुल 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। * भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी (डब्ल्यू.सी. बनर्जी) ने की थी तथा इसके प्रथम महासचिव स्वयं ए.ओ. ह्यूम थे। * भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885 ई.) के समय भारत का वायसराय लॉर्ड डफरिन (कार्यकाल 1884-1888 ई.) था। *उसने कांग्रेस का यह कहकर मजाक उड़ाया था कि यह ‘सूक्ष्मदर्शी अल्पसंख्यकों की संस्था‘ है। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1886 ई. में कलकत्ता में हुआ। *इसकी अध्यक्षता दादाभाई नौरोजी ने की। * इसके अतिरिक्त दादाभाई नौरोजी ने 1893 ई. में लाहौर अधिवेशन तथा वर्ष 1906 में कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्षता की थी।
* भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सर्वप्रथम मुस्लिम अध्यक्ष होने का गौरव बदरुद्दीन तैयबजी को है, भारतीय राष्ट्रीय 27-30 दिसंबर, 1887 हुए तीसरे के लिए इस में कुल 6007 लिया इसी सम्मेलन में पहली बार संचालनकारी एक कमेटी के हाथों में सौपा गया। यह आगे चलकर विषय निर समिति कहलाई। भारतीय राष्ट्रीय निर्वाचित यूरो इसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इलाहाबाद में संपन्न चतुर्थ अधिवेशन (18KR) की लिए समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से जुलाई, 1880 में हिंदी की अध्यक्षता में ब्रिटिश कमेटी ऑफ इंडिया‘ की स्थापना की गई। यह इंडियन नेशनल की एक समिति थी। इस समिति . से भारतीय मामलों से अंग्रेजों को अवगत कराने के उद्देश्य से ‘इंडिया‘ नामक साप्ताहिक पत्र निकाला।
“लाला लाजपत राय, जिन्हें लोग प्राय: ‘शेरे पंजाब (पंजाब का सिंह) कहते थे, वर्ष 1920 में कलकता के विशेष अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने, इस अधिवेशन में असहयोग का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। श्रीमती एनी बेसेंट अग्लि आयरलैंड कुल से वर्ष 1907 से 1933 तक थियोसोफिकल सोसाइटी की प्रधान रहीं, वर्ष 1916 में होमरूल लीग का गठन किया तथा वर्ष 1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 27वां अधिवेशन दिसंबर, 1912 में बांकीपुर (बिहार) में संपन्न हुआ। *इस अधिवेशन की अध्यक्षता आर. एन. मुघोलकर ने की। इसी अधिवेशन में ए.ओ. ह्यूम को ‘कांग्रेस का पिता‘ कहा गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने वर्ष 1916 में लखनऊ में अधिवेशन किया। * तदनुसार, कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच लखनऊ समझौता हुआ जो कांग्रेस लीग योजना तथा ‘लखनऊ पैक्ट‘ के नाम से जाना जाता है। इसी अधिवेशन में उग्रपंथियों को जिन्हें पिछले नौ वर्ष से कांग्रेस से • निष्कासित कर दिया गया था पुनः कांग्रेस में शामिल किया गया। • कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता अंबिका चरण मजूमदार ने की थी। *भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन, 1916 में बाल गंगाधर तिलक ने कहा था, “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं उसे लेकर रहूंगा। 1888 ई. में सर सैयद अहमद खां ने एक संयुक्त भारतीय राजभक्त सभा (United Indian Patriotic Association) बनाई, जिसका उद्देश्य कांग्रेस के प्रचार को निष्फल करना था और लोगों को कांग्रेस से दूर रखना था। वर्ष 1900 में कर्जन ने कहा था– “कांग्रेस अब लड़खड़ा रही है और जल्द ही गिरने वाली है। मेरा सबसे बड़ा मकसद भी यही है कि मेरे भारत प्रवास के दौरान ही इस पार्टी का अंत हो जाए।” *भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महात्मा गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को समाप्त करने का सुझाव दिया था। लॉर्ड विलिंगटन ने कांग्रेस के 30वें अधिवेशन में भाग लिया था। * इस दौरान वह बंबई का गवर्नर था। *यह अधिवेशन बंबई में वर्ष 1915 में आयोजित किया गया।
*महात्मा गांधी ने केवल एक बार 1924 के बेलगांव अधिवेशन की अध्यक्षता की थी। *सरोजिनी नायडू (1879-1949 ई.) प्रख्यात कवयित्री और राष्ट्रवादी नेत्री थीं। वर्ष 1925 में कानपुर में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 40वें वार्षिक अधिवेशन में वह कांग्रेस की प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनी।
*1947-49 में यह उत्तर प्रदेश की राज्यपाल भी रहीं। ‘जवाहरलाल नेहरू ने वर्ष 1929 में लाहौर, अप्रैल 1936 में लखनऊ तथा दिसंबर, 1936 में फलपुर अधिवेशन की अध्यक्षता की। कांग्रेस का इक्यावनया अधिवेशन 19-21 फरवरी, 1938 के दौरान गुजरात के हरिपुरा में संपन्न हुआ था। इस अधिवेशन की अध्यता सुभाष चंद्र बोस ने की थी। *इस अधिवेशन में राष्ट्रीय नियोजन समिति का गठन किया गया तथा पं. जवाहरलाल नेहरू को इसका अध्यक्ष बनाया गया। वर्ष 1940-1946 तक अबुल कलाम आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष रहे।
*जे. बी. कृपलानी को कांग्रेस के चौवनवें अधिवेशन (नवंबर, 1946, मेरठ) का अध्यक्ष ना गया था तथा वे आजादी के समय भी अध्यक्ष रहे। कांग्रेस के पचपन अधिवेशन (दिसंबर, 1948, जयपुर) की अध्यक्षता डॉ. पट्टाभि सीतारमैय की थी। ‘रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा मूल रूप से बंगला में रचित और संगीतबद्ध ‘जन–गण–मन‘ के हिंदी संस्करण को संविधान सभा ने भारत है राष्ट्रगान के रूप में 24 जनवरी, 1950 को अपनाया था। यह सर्वप्रथ 27 दिसंबर, 1911 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन गाया गया था। *बाल गंगाधर तिलक ने अंतिम रूप से भारतीय राष्ट्री कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन, 1919 में भाग लिया था।
- सन् 1885 में भारतीय कांग्रेस का प्रथम सम्मेलन डब्ल्यू. सी. बनर्जी की अध्यक्षता में मुम्बई स्थित गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज में आयोजित किया गया.
सन् 1893 ई. में गणपति महोत्सव तथा सन् 1895 ई. में शिवाजी समारोह बाल गंगाधर
तिलक द्वारा प्रारम्भ किए गए. • पं जुगलकिशोर ने उदण्ड मार्तन्ड‘ अखबार निकाला भारतीयों के हितों को ध्यान में रखकर निकाला जाने वाला यह प्रथम समाचार पत्र था. लॉर्ड कर्जन के काल में सन् 1905 ई. में बंगाल का विभाजन हुआ.
- सन् 1911 ई. में लॉर्ड हार्डिंग्ज के काल में बंगाल विभाजन रद्द कर दिया गया.. सन् 1907 ई. में लाला लाजपतराय व अजीत सिंह को निर्वासित कर बर्मा भेज दिया गया.
- काशीराम तथा हरदयाल गदर पार्टी के प्रमुख सदस्य थे.
- 1912 ई. में भारत की राजधानी कोलकाता (कलकत्ता) से दिल्ली स्थानान्तरित कर दी गई.
- 1 नवम्बर, सन् 1913 ई. को संयुक्त राज्य अमरीका के सैन फ्रांसिस्को नगर में पंजाब के महान क्रान्तिकारी नेता लाला हरदयाल ने गदर पार्टी का गठन किया था.
- सन् 1906 ई. में आगा खाँ द्वारा ऑल इण्डिया मुस्लिम लीग की स्थापना की गई.
- सन् 1916 ई. में मुस्लिम लीग व कांग्रेस के मध्य समझौता हुआ जो इतिहास में लखनऊ
समझौते के नाम से प्रख्यात है.
- लखनऊ समझौते के बाद कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों पर आधारित राजनीतिक सुधारों की योजना रखी. इस समझौते से मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिला.
- सन् 1916 ई. को बाल गंगाधर तिलक ने होमरूल लीग की स्थापना की.
- जुलाई 1914 ई. में श्रीमती एनी बीसेंट ने अंग्रेजी में ‘न्यू इण्डिया‘ नामक समाचार–पत्र निकाला.
अहमदाबाद में महात्मा गांधी ने सावरमती आश्रम की स्थापना की.
- 30 मार्च, 1919 ई. को सम्पूर्ण भारत में सत्याग्रह दिवस मनाया गया. पंजाब व दिल्ली को छोड़कर सभी स्थानों पर सत्याग्रह शान्तिपूर्ण रहा.
- पंजाब में सत्याग्रह के नेता डॉ. सत्यपाल तथा डॉ. सैफुद्दीन को गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के विरोध में अमृतसर स्थित जलियाँवाला बाग में एक सभा हुई.
- प्रथम विश्वयुद्ध के उपरान्त अंग्रेजों द्वारा टर्की के खलीफा पद को समाप्त किए जाने के कारण भारतीय मुसलमान उत्तेजित हो उठे. उन्होंने मौलाना मुहम्मद अली तथा शौकत अली के नेतृत्व में सन् 1919 ई. में खिलाफत आन्दोलन कर दिया. खिलाफत आन्दोलन में कांग्रेस ने मुसलमानों का साथ दिया 31 अगस्त, 1919 ई. को खिलाफत दिवस मनाया गया..
- गोरखपुर में चौरी–चौरा नामक स्थान पर आन्दोलन में हिंसा का प्रवेश हो गया. जिससे गांधीजी बहुत दुखी हुए. अतः गांधीजी ने फरवरी सन् 1922 ई. में आन्दोलन समाप्त कर दिया.
मार्च 1922 ई. में पण्डित मोतीलाल नेहरू तथा देशबंधु चितरंजन दास ने स्वराज्य दल की स्थापना की. • सन् 1923 ई. के हुए चुनावों में स्वराज्य दल को विधान सभा की 148 सीटों में से 48 सीटें प्राप्त हुई 1928 ई. में सर जान साइमन की अध्यक्षता में एक कमीशन भारत की तत्कालीन शासन व्यवस्था के कार्यों की जाँच करने भारत आया. जिसका भारत में व्यापक विरोध हुआ. मार्च 1928 ई. कमीशन वापस चला गया.
1927 ई. में सरदार बल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में बारदोली सत्याग्रह हुआ. • सन् 1929 ई. में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए सम्मेलन में स्वराज्य का अर्थ पूर्ण स्वाधीनता घोषित किया गया.. सन् 1930 ई. में गांधीजी ने डांडी यात्रा प्रारम्भ कर सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ
किया तथा नमक कानून तोड़ा.
- इर्विन-गाँधी समझौता कब सम्पन्न हुआ था? = 5 मार्च, 1931 को
- सविनय अवज्ञा आन्दोलन का स्थगन किस समझौते के फलस्वरूप हुआ था?
– गाँधी-विन पैक्ट को
- गांधी इर्विन समझौते के सम्पन्न होने में किसने महत्त्वपूर्ण भूमिका का किया था?
– तेज बहादुर सपू एवं एमएआरए जयका
- किसने गाँधी तथा इर्विन को ‘दो महात्मा‘ की संज्ञा प्रदान की?
– सरोजिनी नायडू
- किसने गाँधी इर्विन समझौते में महात्मा गाँधी के लाभ को सांत्वना पुरस्कार” कहा था?
– एलन कैम्बल जॉनसन
- द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के दौरान यह किसने कहा था कि ‘अर्ध नंगे फकीर‘ के ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वार्ता हेतु सेंट जेम्स पैलेस की सीढ़ियाँ चढ़ने का दृश्य अपने आप में एक अनोखा और दिव्य प्रभाव उत्पन्न कर रहा था।”
= फ्रेंक मोरेस
- यह किसने कहा था कि “वह देश द्रोही फकीर (गाँधी जी) को बराबरी का दर्जा देकर बात कर रही है” ? = विंस्टन चर्चिल
29 मार्च, 1931 को सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में सम्पन्न कराची अधिवेशन के महत्वपूर्ण तथ्य क्या थे?
– पूर्ण स्वराज का लक्ष्य, गाँधी इर्विन पैक्ट की मंजूरी, मौलिक अधिकार के प्रस्ताव का पास होना, राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रम को पारित किया जाना, सार्वभौम, | वयस्क मताधिकार का प्रस्ताव, अनिवार्य तथा प्रारम्भिक शिक्षा की गारंटी आदि।
- कराची के कांग्रेस अधिवेशन में किसने मूल अधिकारों तथा आर्थिक कार्यक्रम पर संकल्प प्रारूपित किया था? पं0 जवाहर लाल नेहरू ने; ध्यातव्य है कि एम0 एन0 राय ने इसमें सहयोगी की भूमिका का निर्वहन किया था।
- किसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची (1931) अधिवेशन को महात्मा गाँधी की लोकप्रियता और सम्मान की पराकाष्ठा माना था ?
– सुभाष चन्द्र बोस ने –
- गाँधी इर्विन पैक्ट, भगत सिंह को फांसी, कांग्रेस का कराची अधिवेशन एवं द्वितीय गोलमेज सम्मेलन का सही अनुक्रम निर्धारित करें ? – क्रमशः 5 मार्च, | 1931; 23 मार्च, 1931; 29 मार्च, 1931 एवं 7 सितम्बर, 19311
- पूना समझौता कब सम्पन्न हुआ था ?
– 24 सितम्बर, 1932 –
- अगस्त, 1932 के रैम्जेमैक्डोनॉल्ड के साम्प्रदायिक पंचाट के द्वारा पहली बार एक पृथक निर्वाचक समूह कौन-सा बनाया गया ? = अछूतों के लिए
महात्मा गाँधी ने भारत में पहला आमरण अनशन कब प्रारम्भ किया था ?
– फरवरी, 1918 ई० में (अहमदाबाद )
- साम्प्रदायिक अवॉर्ड एवं पूना पैक्ट में क्रमशः दलित वर्ग के लिए कितनी सीटें -दी गई ? = क्रमशः 71 व 148
- पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किसने किया था? – गाँधी जी के समर्थक पं. मदन मोहन मालवीय और डा0 अम्बेडकर
- ऐतिहासिक 1932 के पूना समझौते पर बी० आर० अम्बेडकर, मदन मोहन मालवीय, सी० राजगोपालाचारी और एम० के० गाँधी में से कौन हस्ताक्षर नहीं किया था?
= एम० के० गाँधी
1932 में पूना पैक्ट के बाद हरिजन सेवक संघ की स्थापना हुई, इसके प्रथम अध्यक्ष कौन थे?
= घनश्याम दास बिड़ला
- अखिल भारतीय हरिजन संघ की स्थापना कब और किसने की थी ?
= 1932 ई० में महात्मा गाँधी ने
तीनों गोलमेज सम्मेलनों में कौन भाग लिया था ? – बी० आर० अम्बेडकर
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन किस प्रश्न पर असफल रहा?
–साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व पर गतिरोध के कारण
महात्मा गाँधी दिसम्बर, 1931 में खाली हाथ कहाँ से भारत लौटे थे?
= लंदन से
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस के एक प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने के लिए गाँधी जी बम्बई से लंदन किस जहाज से गये और वहाँ पर कहाँ रूके थे?
–क्रमशः एस० एस० राजपूताना जहाज से लंदन में ‘किंग्सले हाल‘ में ठहरे थे।
लंदन में सम्पन्न हुए प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भारतीय ईसाइयों का प्रतिनिधित्व
किसने किया था? – के० टी० पाल
- किसने कहा था “महात्मा गाँधी क्षणिक भूत की भांति धूल उड़ाते हैं लेकिन स्तर नहीं।”
–डॉ० बी० आर० अम्बेडकर
- द्वितीय विश्व युद्ध के सम्बन्ध में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की क्या नीति थी?
– पूर्ण स्वतंत्रता का आश्वासन मिलने पर ब्रिटेन का सहयोग
द्वितीय विश्व युद्ध में कांग्रेस द्वारा किसकी भर्त्सना की गई ?
– पोलैण्ड पर नाजी हमले तथा नाजीवाद और फांसीवाद की।
A तथा R दोनों सही हैं और R सही व्याख्या है A की। पढ़ें नीचे-
(A) : वर्ष 1939 में सभी प्रान्तों से कांग्रेसी मंत्रिमण्डलों ने त्यागपत्र दे दिया।
(R) : कांग्रेस ने द्वितीय विश्व युद्ध के सन्दर्भ में वायसराय के जर्मनी के विरुद्ध युद्ध घोषित कर देने के निर्णय को स्वीकार नहीं किया।
- महात्मा गाँधी द्वारा व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन के लिए प्रथम सत्याग्रही कौन चुना गया ? –विनोबा भावे (प्रथम) तथा द्वितीय सत्याग्रही जवाहर लाल नेहरू थे।
- ‘सर्वोदय‘ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया था? – महात्मा गाँधी ने।
- कांग्रेस ने किसके नेतृत्व में व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया था?
= महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 17 अक्टूबर, 1940 को
- सर्वोदय समाज की स्थापना किसने की थी ?
. विनोबा भावे
- व्यक्तिगत सत्याग्रह सर्वप्रथम कब और कहाँ शुरू किया गया ?
– पवनार आश्रम (महाराष्ट्र) से 17 अक्टूबर, 1940 को।
- किस आन्दोलन को ‘दिल्ली चलो‘ आन्दोलन की उपमा प्रदान की गई है?
– व्यक्तिगत सत्याग्रह को
- भारतीय मुसलमानों के पृथक राज्य के लिए ‘पाकिस्तान‘ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया था ? – चौधरी रहमत अली व उनके मित्रों ने (RAS : 96)
- मुसलमानों के लिए पृथक राष्ट्र का विचार व प्रस्ताव किसने दिया/ रखा था?
= सर मुहम्मद इकबाल ने (1930 के अखिल भारतीय मुस्लिम लीग ने के इलाहाबाद अधिवेशन में )।
- पाकिस्तान के अलग राज्य आंदोलन का नेतृत्व किसने किया था ?
– मुहम्मद अली जिन्ना ने
- ‘नेहरू एक राष्ट्रभक्त हैं, जबकि जिन्ना एक राजनीतिज्ञ हैं‘ यह कथन किसने व्यक्त किया था? = सर मोहम्मद इकबाल ने
- मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की स्थापना की मांग करने वाला प्रस्ताव कब और कहाँ पारित किया गया था ?
– 23 मार्च, 1940 ई0 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में।
पीरपुर रिपोर्ट क्या है?
1937 के चुनाव में मुस्लिम लीग के वांछित परिणाम न आने के कारण उसने कांग्रेसी सरकारों के कार्यों में बाधा पहुँचाया और जाँच हेतु अपनी एक समिति गठित की जिसका अध्यक्ष राजा मुहम्मद मेहदी को बनाया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट 1938 में प्रस्तुत की जिसे ‘पीरपुर रिपोर्ट‘ की संज्ञा दी गई। इसमें मुस्लिम लीग के इच्छानुरूप कांग्रेसी सरकार को अत्याचारी सिद्ध करते हुए भारत को संसदीय प्रणाली के लिए अनुपयुक्त बताया गया। इस रिपोर्ट में ‘वंदे मातरम्‘ को इस्लाम के विरुद्ध बताया गया। ध्यातव्य है। कि ऐसी ही एक रिपोर्ट बिहार में मार्च 1939 ई. में ‘शरीफ रिपोर्ट‘ प्रकाशित की गई थी। तत्पश्चात दिसम्बर 1939 ई. में फजलुल हक ने ‘मुस्लिम सफरिंग्स अंडर कांग्रेस रूल‘ संज्ञक रिपोर्ट प्रकाशित किया था। जिसमें कांग्रेसी अत्याचार को निर्दिष्ट किया गया था। वास्तव में उक्त दोनों रिपोर्ट। | द्वैषपूर्ण एवं कल्पित थीं। कांग्रेसी मंत्रिमण्डल के इस्तीफे के बाद यह द्वैष जिन्ना के ‘मुक्ति दिवस‘ के रूप प्रकट हुआ।
- वर्ष 1940 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में पाकिस्तान के सृजन का प्रस्ताव किसने रखा था? = प्रस्ताव को फजलुलहक ने प्रस्तुत किया और अनुमोदन खली कुज्जमां ने किया था।
- जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धान्त को मान्यता मुस्लिम लीग के किस अधिवेशन दी में गई थी ? – मार्च, 1940 के लाहौर अधिवेशन में
- मुस्लिम लीग ने ‘पाकिस्तान दिवस‘ कब मनाया था ?
= 23 मार्च, 1943 को
- मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन (1940) की अध्यक्षता किसने की थी ?
= मोहम्मद अली जिन्ना ने
- मुस्लिम लीग और कांग्रेस के मध्य 1916 में समझौता कराने में किसकी महत्वपूर्ण भूमिका थी? = मुहम्मद अली जिन्ना की।
- किस पुस्तक में प्रसंगानुकूल यह वर्णन किया गया है कि मुहम्मद इकबाल ने नेहरू से मुलाकात के दौरान कहा था कि आप एक राष्ट्रभक्त हैं, जबकि जिना एक राजनीतिज्ञ हैं?
– डिस्कवरी ऑफ इण्डिया में।
- दो राष्ट्र सिद्धान्त का समर्थक, मुस्लिम लीग के 1940 ई0 के लाहौर | अधिवेशन का अध्यक्ष और असहयोग आन्दोलन में असहभागिता किस नेता के विचार एवं कृतित्व की विशेषता थी ? – मोहम्मद अली जिन्ना की
– द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत को डोमिनियन स्टेट्स दे देना चाहिए; य किसकी योजना थी? –सर स्टैफोर्ड क्रिप्स की (IAS : 16)
“क्रिप्स प्रस्ताव एक टूटते हुए बैंक के नाम एक उत्तर दिनांकित चेक” यह किसका कथन था?
– महात्मा गांधी
- ‘संविधान निर्मात्री निकाय की रचना किस प्रस्ताव का अंग था ?
= क्रिप्स प्रस्ताव (IAS : 09)
जापान द्वारा रंगून पर अधिकार के बाद मार्च 1942 ई0 में ब्रिटिश सरकार के मंत्री सर स्टैफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में क्रिप्स मिशन भारत में किसने भेजा था ?
– विंस्टन चर्चिल ने –
क्रिप्स मिशन के साथ कांग्रेस के आधिकारिक वार्ताकार कौन थे ?
– पंडित जवाहर लाल नेहरू एवं मौलाना आजाद (IAS : 10)
किसने गाँधी जी के आन्दोलनों को ‘राजनैतिक फिरौती‘ कहा?
– लार्ड लिनलिथगो (UPPCS)
किसने यह कहा था कि शिमला सम्मेलन की विफलता भारत के राजनीतिक इतिहास में ‘एक जल विभाजक‘ की सूचक थी ?- अबुल कलाम आजाद
- 1945-46 के चुनाव में किस प्रांत में कांग्रेस मिली जुली सरकार बनी थी ?
= पंजाब में
- 1937 और 1945 के विधान सभाओं के चुनाव में मुस्लिम लीग को कितनी सीटें मिली थीं ? – = क्रमशः 109 और 425
- दिसम्बर, 1945 के आम चुनाव में उत्तर-पश्चिमी मुस्लिम बाहुल्य सीमा प्रान्त में कांग्रेस तथा लीग को कितनी-कितनी सीटें मिली थी ?
– कांग्रेस को 30 और मुस्लिम लीग को 17 सीटें।
- 1945 के आम चुनाव में पंजाब में मुस्लिम लीग सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर आयी किन्तु हिन्दू और सिक्ख की सहायता से किस दल ने सरकार बनाई थी ?
– यूनियनिस्ट पार्टी ने
- मुस्लिम लीग द्वारा सीधी कार्यवाही दिवस के दौरान हुए दंगे का प्रमुख केन्द्र कौन-सा स्थान था ? . नोआखाली (पूर्वी बंगाल )
सिक्किम हिमालय की गोद में स्थित एक छोटा सा राज्य है। जिसने 1947 ई. में जनमत संग्रह द्वारा भारतीय संघ में शामिल होने से इंकार कर दिया था। फिर भी प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उसे संरक्षित राज्य का दर्जा प्रदान किया। जिसके तहत सिक्किम के विदेशी मामलों एवं बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत के कंधों पर थी। यद्यपि 1955 ई. में एक राज्यिक परिषद के अधीन चोग्याल को एक संवैधानिक सरकार स्थापित करने की अनुमति दी गयी थी तथापि चोग्याल की अलोकप्रियता नेपालियों का | अत्यधिक हस्तक्षेप तथा दंगों आदि ने अराजकता की स्थिति उत्पन्न कर दी। परिणाम स्वरूप 1975 ई. में प्रधानमंत्री काजी के अनुरोध पर भारतीय सेना | सिक्किम में प्रवेश की तथा सम्पूर्ण राज्य पर नियन्त्रण स्थापित कर लिया। जनता की मांग पर और जनमत संग्रह के उपरान्त 16 मई, 1975 ई. में इसे भारतीय गणराज्य का 22वां प्रान्त बना दिया गया।
राष्ट्रीय स्तर पर गठित अन्तरिम सरकार में रियासती विभाग का मंत्री किसे बनाया गया था? – सरदार बल्लभ भाई पटेल को ।
जम्मू-कश्मीर ने विलय पत्र पर कब हस्ताक्षर किये थे?
= 26 अक्टूबर, 1947 को
राज्य पुनर्गठन आयोग का अध्यक्ष किसे बनाया गया था? – फजल अली को
भारत वर्ष के विभाजन के समय किस एक प्रान्त ने एक संयुक्त एवं स्वतंत्र अस्तित्व (पेप्सू) के लिए योजना सामने रखी ? किन तीन राज्यों ने भारत में शामिल होना बिलंबित किया ?
– पंजाब ने
भारतीय संघ में रजवाड़ों का विलय अधिकाधिक किस सन् में हुआ ? – 1947 में –
- भाषाई आधार पर राज्यों के पुनगर्ठन की सिफारिश सर्वप्रथम मांटफोर्ड रिपोर्ट 1918 में की गई थी।
- राष्ट्रीय कांग्रेस ने सर्वप्रथम 1920 में औपचारिक रूप से भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का समर्थन किया।
- नेहरू रिपोर्ट 1928 में भी भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की सिफारिश की गई।
- 1931 ई0 के भारतीय संवैधानिक आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1936 में भाषाई आधार पर उड़ीसा नामक राज्य का गठन किया गया।
- स्वतंत्रोपरान्त गठित ‘धर आयोग‘ जिसके अध्यक्ष एस० के० धर थे, ने अपनी रिपोर्ट में भाषाई आधार पर राज्यों के गठन को यह कहते हुए अस्वीकृत कर दिया कि इससे राष्ट्रीय एकता को खतरा एवं प्रशासन के लिए भारी असुविधा उत्पन्न होगी।
- धर आयोग के रिपोर्टों की समीक्षा करने के लिए राष्ट्रीय कांग्रेस कार्य समिति ने अपने जयपुर अधिवेशन में जवाहर लाल नेहरू, बल्लभ भाई पटेल और पट्टाभि सीतारमैय्या की एक समिति (J.V.P समिति) का गठन किया। इस समिति ने भी भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग को अस्वीकृत कर दिया।
सरदार पटेल को कब ‘रियासत विभाग‘ का कार्य भार सौंपा गया ?
= 27 जून, 1947 ई. को ।
- आजादी के समय जूनागढ़ का नवाब कौन था ?
= मोहम्मद महावत खान III ( बाबी राजवंश )
- ‘फ्रांसीसी बस्ती पाण्डिचेरी का भारतीय संघ में विलय कब किया गया ?
= 1 नवम्बर, 1954 में
- किस आपरेशन के तहत पुर्तगीज परिक्षेत्र का विलय भारत संघ में किया गया ?
= आपरेशन विजय
- भारतीय संघ में सिक्किम का विलय कब किया गया? – 16 मई, 1975 ई.
- भारत-पाक सीमा निर्धारण के लिए गठित किये गये सीमा आयोग का अध्यक्ष कौन था ?
– सर रैडक्लिफ
- भारत-पाक सीमा का निर्धारण कब किया गया? – 17 अगस्त, 1947 ई.)
- 1930 ई. में आयोजित प्रथम गोलमेज सम्मेलन का कांग्रेस ने बहिष्कार किया.
1931 ई. में आयोजित द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी तथा मुस्लिम लीग के सदस्य गए.
- 1932 ई. में आयोजित तृतीय गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस ने अपना प्रतिनिधि नहीं भेजा इस सम्मेलन में केवल 46 प्रतिनिधियों ने ही भाग लिया.
- 1 जनवरी, 1932 को हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में सरकार द्वारा पूर्णतया नकारात्मक रुख अपनाए जाने की स्थिति में सविनय अवज्ञा आन्दोलन पुनः प्रारम्भ करने का निर्णय लिया गया.
- 16 अगस्त, 1932 ई. को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैक डॉनल्ड ने अपने साम्प्रदायिक निर्णय की घोषणा की.
- 25 सितम्बर, 1932 ई. को पूना समझौता हुआ. इसमें दो शर्तों के आधार पर निर्वाचन मण्डल बनाए जाने पर सहमति हुई. इसमें दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने किया.
- गांधीजी ने 1932 ई. में हरिजनोत्थान के लिए हरिजन सेवक संघ की स्थापना की. • गांधीजी ने 8 मई 1933 ई. को अपनी तथा अपने सहयोगियों की शुद्धि के लिए 21 दिनों के आत्मशुद्धि अनशन की घोषणा की.
महात्मा गांधी ने । अगस्त, 1933 ई को व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया 1935 ई. के भारत सरकार अधिनियम में 321 धाराएं और 19 परिशिष्ट थे. 1935 ई. में ब्रिटिश प्रान्तों की संख्या 11 थी. ये प्रान्त थे मद्रास, बम्बई, बंगाल, बिहार, पंजाब, उड़ीसा, मध्य प्रान्त, असम, उत्तरी–पश्चिमी सीमा प्रान्त, संयुक्त राज्य और सिन्ध 1935 ई के भारत सरकार अधिनियम में विषयों को तीन भागों में बाँटा गया था– संघीय, प्रान्तीय या समवर्ती इस अधिनियम ने ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों को
दो श्रेणियों में विभाजित किया यथा-11 गवर्नर प्रान्त और 5 मुख्य आयुक्त प्रान्त
- भारत सरकार अधिनियम 1935 द्वारा प्रस्तावित संघीय व्यवस्था एवं प्रान्तीय स्वायत्तता में से संघीय व्यवस्था की योजना को तो ताक पर रख दिया गया. लेकिन प्रान्तीय विधानमण्डलों के लिए चुनाव जनवरी फरवरी 1937 ई. में हुए.
1937 ई. के आम चुनावों में पाँच प्रान्तों– मद्रास, संयुक्त प्रान्त मध्य प्रान्त, बिहार और उड़ीसा में कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया.
पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग ने मिलकर सरकार का गठन किया. इस सरकार ने मार्च 1947 तक बगैर किसी व्यवधान के कार्य किया.
बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी तथा मुस्लिम लीग ने मिलकर सरकार गठित की यह मंत्रिमण्डल 14 अगस्त, 1947 तक अस्तित्व में रहा सिकन्दर हयात खाँ इस सरकार के प्रधान थे कांग्रेस के मंत्रिमण्डलों ने 1937 से 1939 ई. तक कार्य किया. वर्ष 1934 ई. में कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण और अच्युत पटवर्धन ने कांग्रेस समाजवादी पार्टी का गठन किया…
कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन (1938) में सुभाषचन्द्र बोस निर्विरोध अध्यक्ष निर्वाचित हुए, लेकिन 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में उन्होंने गांधीजी द्वारा समर्थित पटटाभिसीता रमैया को हराया.
सुभाषचन्द्र बोस ने राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया. अप्रैल 1939 में सुभाषचन्द्र बोस ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और फॉरवर्ड ब्लॉक नामक उग्र दल की स्थापना की. 1939 ई. में जवाहरलाल नेहरू अखिल भारतीय राज्य जन सम्मेलन के अध्यक्ष बने. 1933 ई. में इंगलैण्ड में पढ़ने वाले एक मुस्लिम छात्र चौधरी रहमत अली ने पृथक् मुस्लिम राज्य के निर्माण का प्रस्ताव दिया और उसे पाकिस्तान नाम दिया. 24 मार्च, 1940 ई. को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित किया गया… अगस्त प्रस्ताव ‘अगस्त‘ 1940 को लॉर्ड लिनलिथगो ने कांग्रेस के समक्ष युद्ध के
दौरान सहयोग प्राप्त करने के उद्देश्य से रखा
- व्यक्तिगत सत्याग्रह 17 अक्टूबर, 1940 को शुरू किया गया. आचार्य विनोबा भावे पहले सत्याग्रही थे. महात्मा गांधी ने 17 दिसम्बर, 1940 को इसे स्थगित कर दिया
- 5 जनवरी, 1941 को इसे पुनः शुरू किया गया. इस चरण में 20,000 से अधिक लोगों
की गिरफ्तारी हुई.. क्रिप्स मिशन 1942 ई. में भारत आया. इस मिशन के एकमात्र सदस्य सर स्टेफोर्ड क्रिप्स थे.
- कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने ही क्रिप्स प्रस्ताव अस्वीकार कर दिए. “भारत छोड़ो” प्रस्ताव 14 जुलाई, 1942 को वर्धा में हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में पारित हुआ. जिसकी पुष्टि 8 अगस्त 1942 को बम्बई में हुई.
- 21 अक्टूबर, 1943 ई. को सुभाषचन्द्र बोस ने सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकार गठित की.
- जून 1945 ई. में 21 भारतीय राजनेताओं का शिमला में सम्मेलन बुलाया गया जो विफल हुआ. • दिसम्बर 1945 ई. में भारत में आम चुनाव हुए. 6 प्रान्तों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला..
- जनवरी 1946 ई. में वायुसेना के भारतीय सैनिकों ने बम्बई में हड़ताल कर दी.
- 18 फरवरी, 1946 को रायल इण्डियन नेवी के गैर–कमीशंड अधिकारियों एवं नौसैनिकों जिन्हें रेटिंग्ज कहा जाता था, ने बम्बई में सैनिक विद्रोह कर दिया.
- 19 फरवरी, 1946 ई. को ब्रिटिश सरकार ने संवैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए भारत में केबिनेट मिशन भेजने की घोषणा की.
- केबिनेट मिशन 29 मार्च, 1946 ई. को नई दिल्ली आया और 16 मई, 1946 को इसने अपने प्रस्तावों की घोषणा की..
- मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त, 1946 ई. को सीधी कार्यवाही दिवस मनाया.
- जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार का गठन हुआ और 2 सितम्बर, 1946 ई. को शपथ दिलाई गई.
- संविधान सभा की पहली बैठक 6 दिसम्बर, 1946 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में हुई.
- एटली ने 20 फरवरी 1947 को घोषणा की कि अंग्रेज जून 1948 के पहले ही “उत्तरदायी लोगों को सत्ता हस्तांतरित करने के उपरान्त भारत छोड़ देंगे.
- 3 जून योजना (1947) मूलतः विभाजन योजना थी. इसका अनुमोदन अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने 14-15 जून दिल्ली में हुई बैठक में किया. को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया.
- 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया.
- 26 जनवरी, 1950 को हैदराबाद भारतीय संघ में सम्मिलित हुआ.
- 20 अप्रैल, 1954 को भारत– चीन के बीच पंचशील समझौता हुआ.
- 20 अक्टूबर 1962 को चीन ने भारत पर आक्रमण किया और शीघ्र ही असम घाटी और लद्दाख उनके नियंत्रण में आ गए. 21 नवम्बर को चीन ने एकतरफा युद्ध– विराम की घोषणा कर दी.
भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण तिथियाँ
ईसा पूर्व (बी.सी.) Before Christ
लगभग 2500 ई.पू. हड़प्पा संस्कृति.
इसके प्रमुख केन्द्र थे- मोहनजोदडो तथा हडप्पा, लोथल, कालीबंगान, आलमगीरपुर
1500 ई.पू. ऋग्वैदिक सभ्यता का आरम्भ
800 ई.पू. – लोहे का प्रयोग, आर्य सभ्यता का प्रसार
567 ई. पू. – लुम्बनी में महात्मा बुद्ध का जन्म
519 ई.पू. – ईरान के सम्राट साइरस द्वारा पश्चिमोत्तर भारत के प्रदेशों की विजय
493 ई.पू. मगध के अजातशत्रु का राज्यारोहण
486 ई. पू. – महात्मा गौतम बुद्ध को कुशी-नगर नामक स्थान पर मोक्ष प्राप्त
468 ई.पू. महावीर स्वामी को राजगिरी के निकट पावापुरी नामक स्थान पर निर्वाण प्राप्त
413 ई. पू. – शिशुनाग राजवंश की मगध में स्थापना
362-21 ई.पू. – नन्दवंश का शासकाल
327-25 ई. पू. – यूनान के सिकन्दर महान् का भारत पर आक्रमण
321 ई. पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण
305 ई.पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा सेल्यूकस की पराजय
269-232 ई.पू. – अशोक का शासनकाल
261 ई. पू. – अशोक की कलिंग पर विजय
250 ई. पू. – पाटलीपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति
185 ई.पू. अन्तिम मौर्य सम्राट ब्रहद्रथ का वध मौर्य वंश का शासन समाप्त शुंग वंश का उदय
180-165 ई.पू. – इण्डो-ग्रीक दिमीत्रियस द्वितीय का उत्तर-पश्चिम भारत पर शासन
155-130 ई. पू. मेनान्डर का शासन-
73 ई. पू. शुंग वंश के अन्तिम सम्राट देवभूति का वासुदेव कण्व द्वारा वध
73-28 ई.पू. – कण्व वंश का शासनकाल
58 ई.पू. विक्रम संवत् का प्रारम्भ
50 ई.पू. कलिंग का राजा खारवेल
28 ई.पू. 225 ई.पू. आन्ध्र व सातवाहन वंश का शासनकाल
ईसवी सन् (ए.डी.) Anno Domini
50 ईसवी सन्त थॉमस का भारत आगमन
78 ईसवी- शक संवत् का प्रारम्भ
78-101 ईसवी कुषाण वंश के प्रतापी शासक कनिष्क का शासनकाल कुछ के अनुसार (78-125 ईसवी)
86-114 ईसवी- गौतमीपुत्र शतकर्णी का शासनकाल
130-150 ईसवी- शक शासक रुद्र दमन प्रथम का पश्चिमी भारत पर शासन
319-320 ईसवी-गुप्त वंश का प्रारम्भ. गुप्त संवत्, चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्यारोहण
335 ईसवी समुद्रगुप्त सिंहासन पर आसीन हुआ
375-415 ईसवी- चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल
388-409 ईसवी के मध्य – चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शक सत्ता का अन्त
405-411 ईसवी – चीनी यात्री फाह्यान की भारत यात्रा.
415 ईसवी- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का पुत्र – कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर आसीन हुआ
455-67 ईसवी-हुणों का आक्रमण
455-67 ईसवी स्कन्दगुप्त का शासन-
476 ईसवी – महान् वैज्ञानिकों व ज्योतिर्विद काल आर्यभट्ट का जन्म
570 ईसवी – पैगम्बर मोहम्मद का जन्म
606-647 ईसवी- हर्षवर्धन का शासन.
622 ईसवी हिजरी संवत् का प्रारम्भ
628-34 ईसवी के मध्य-पुलकेशिन द्वितीय द्वारा हर्षवर्धन को पराजित करना
629-645 ईसवी – चीनी यात्री ह्वेनसाग की भारत यात्रा
642 ईसवी-महान् पल्लव शासक नरसिंह वर्मन प्रथम द्वारा पुलकेशिन द्वितीय की पराजय
पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु
671-685 ईसवी – चीनी विद्वान् इत्सिंग का भारत के लिए प्रस्थान भारत में निवास का समय
712-13 ईसवी- मुहम्मद बिन कासिम द्वारा भारत पर आक्रमण तथा सिन्ध तट पर अधिकार 736 ईसवी दिल्ली के प्रथम नगर की स्थापना
740 ईसवी चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा पल्लव वंश का अन्त
750 ईसवी बंगाल में पाल वंश के शासन का आरम्भ
757 ईसवी दन्ति दुर्ग धारा चालुक्यों से अपनी स्वतन्त्रता घोषित तथा राष्ट्रकुल वंश का
शक्तिशाली वंश के रूप में उदय
793 ईसवी- राष्ट्रकूट वंश के गोविन्द तृतीय का राज्याभिषेक
814-880 ईसवी राष्ट्रकूट शासक अमोघ- वर्ष प्रथम का शासनकाल
836-92 ईसवी -प्रतिहार वंश के महान् शासक भोज कन्नौज के सिंहासन पर आसीन, पूर्वी चालुक्य वंश के भीम प्रथम का राज्याभिषेक 897 ईसवी-चोल राजा द्वारा अन्तिम पल्लव शासक की पराजय काँची के पल्लवों का अन्त
915 ईसवी- राष्ट्रकूट शासक द्वारा बंगाल के शासक महीपाल की पराजय राष्ट्रकूट वंश का मध्य भारत में शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में अभ्युदय
949 ईसवी कृष्ण तृतीय द्वारा चोलवंशीय परान्तक प्रथम की पराजय 985 ईसवी – राजराज चोल प्रथम का राज्याभिषेक
1001 ईसवी-महमूद गजनी द्वारा पेशावर और पंजाब के हिन्दूशाही शासक जयपाल की पराजय 1008 ईसवी-पेशावर के समीप वेहिन्द पर महमूद गजनी द्वारा आक्रमण, आनंदपाल की पराजय
1010 ईसवी – भोज परमार शासक बना
1014 ईसवी-राजेन्द्र प्रथम चोल वंश का शासक बना
1017-1137 ईसवी दार्शनिक रामानुज 1019 ईसवी-महमूद गजनवी का मथुरा व कन्नौज पर आक्रमण
1022 ईसवी-महमूद गजनवी का कालिजर पर आक्रमण व ग्वालियर पर आक्रमण
1025 ईसवी महमूद गजनवी ईसवी-महमूद द्वारा सोमनाथ पर आक्रमण लूटपाट तथा मन्दिर तोड़ना
1030 ईसवी- अल्बरूनी भारत में
1030 ईसवी- राजेन्द्र चोल का उत्तरी. भारत का अभियान
1175 ईसवी- मुहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण व मुल्तान दुर्ग पर कब्जा
1178 ईसवी -मुहम्मद गौरी का गुजरात पर आक्रमण तथा पराजय
1191 ईसवी तराइन का प्रथम युद्ध पृथ्वीराज चौहान द्वारा मुहम्मद गौरी की पराजय
1192 ईसवी तराइन का द्वितीय युद्ध पृथ्वीराज चौहान की मुहम्मद गौरी द्वारा पराजय
1194 ईसवी- मुहम्मद गौरी द्वारा चन्द्रावर के युद्ध में कन्नौज के शासक जयचन्द की पराजय
1206 ईसवी कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली के सिहासन पर आसीन मुस्लिम राज्य की स्थापना. मुहम्मद गौरी की हत्या
1210 ईसवी दिल्ली सुल्तान कुतुबुदीन ऐबक की मृत्यु 1211 ईसवी इल्तुतमिश का शासनकाल आरम्भ
1221 ईसवी- मंगोलों के सरदार चगेज खाँ का खारिज्म के शाह पर आक्रमण
1236 ईसवी- शेख निजामुद्दीन औलिया का जन्म इल्तुतमिश की पुत्री रजिया आसीन
1236 ईसवी दिल्ली के सुल्तान पद पर
1240 ईसवी रजिया सुल्तान का वध
1246 ईसवी – नासिरूद्दीन औलिया का जन्म
1266 86 ईसवी- गयासुद्दीन बलबन का शासनकाल
1288 ईसवी-मार्क पोलो का भारत आगमन
1290 ईसवी दासवंश का अंत जलालुद्दीन खलजी द्वारा दिल्ली पर अधिकार. 1294 ईसवी- अलाउद्दीन खलजी द्वारा देवगिरी पर विजय.
1296 ईसवी- जलालुद्दीन खलजी का अलाउद्दीन खलजी द्वारा वध, अलाउद्दीन का राज्यारोहण
1297-1305 ईसवी अलाउद्दीन की उ भारत में विजयों का काल
1306-1313 ईसवी दक्षिण भारत में अलाउद्दीन का विजय अभियान,
1316 ईसवी- अलाउद्दीन खलजी की मृत्यु.
1324-26 ईसवी-मोहम्मद बिन तुगलक
1328 ईसवी – मोहम्मद बिन तुगलक द्वारा का राज्यारोहण.राजधानी परिवर्तन
1329-32 ईसवी-मुहम्मद तुगलक द्वारा सांकेतिक मुद्रा का चलन
1333-34 ईसवी- इब्नबतूता का आगमन
1336 ईसवी दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना
1347 ईसवी- अलाउद्दीन हसन बहमन शाह द्वारा दक्षिण भारत में बहमनी राज्य की स्थापना
1351 ईसवी-फिरोज तुगलक का राज्या-रोहण
1398 ईसवी भारत पर तैमूरलंग का आक्रमण व दिल्ली लूट
1451 ईसवी- लोदी वंश की स्थापना
1469 ईसवी- गुरुनानक का पाकिस्तान स्थित तलबडी नामक स्थान में जन्म
1485 ईसवी चैतन्य का जन्म
1498 ईसवी- वास्कोडिगामा का आगमन भारत
1509 ईसवी कृष्णदेव राय का राज्या-रोहण, मेवाड़ में राणा सांगा का राज्यारोहण
1510 ईसवी – पुर्तगालियों ने बीजापुर से गोआ छीना.
1517 ईसवी – सिकन्दर लोदी की मृत्यु व इब्राहीम लोदी उत्तराधिकार नियुक्त.
1520 ईसवी कृष्णदेव राय द्वारा बीजापुर के शासक की पराजय तथा गोलकुण्डा पर अधिकार 1525 ईसवी – बाबर द्वारा पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोदी पराजित व पंजाब पर अधिकार
1526 ईसवी – पानीपत का प्रथम युद्ध, इब्राहीम लोदी व बाबर के बीच इब्राहीम लोदी की पराजय भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना
1527 ईसवी खानवा का युद्ध, बाबर तथा राणा सांगा के मध्य, राणा सांगा की पराजय.
1528 ईसवी चंदेरी का युद्ध बाबर तथा मेदिनीराय के मध्य बाबर की विजय
1529 ईसवी – घाघरा का युद्ध. बाबर द्वारा अफगानों पर विजय प्राप्त करना..
1530 ईसवी – बाबर की मृत्यु हुमायूँ का आगरे में राज्यारोहण, विजयनगर साम्राज्य के महानतम शासक राणा कृष्णदेव राय की मृत्यु तथा उत्तराधिकार युद्ध.
1532 ईसवी- हुमायूँ द्वारा दौर्रा के युद्ध में अफगानों की पराजय तथा चुनार का घेरा.
1533 ईसवी-गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ जीता.
1535 ईसवी- हुमायूँ द्वारा बहादुरशाह की पराजय तथा गुजरात व मालवा पर अधिकार..
1538 ईसवी- हुमायूँ द्वारा शेरखान से चुनारगढ़ का किला छीनना…
1539 ईसवी चौसा का युद्ध, शेरखान द्वारा बंगाल अभियान से लौटते हुए हुमायूँ को चौसा नामक स्थान पर पराजित करना
1540 ईसवी – बिलग्राम अथवा कन्नौज का युद्ध, शेरखान द्वारा हुमायूँ तथा उसकी सेना की निर्णायक पराजय तथा हुमायूँ का पलायन, शेरशाह द्वारा दिल्ली में सूर साम्राज्य की स्थापना.
1542 ईसवी-15 अक्टूबर को अमरकोट में राणा वीरसाल के महल में अकबर का जन्म
1544 ईसवी- सामेल का युद्ध, शेरशाह म द्वारा मारवाड़ के शासक मालदेव की पराजय.
1545 ईसवी- शेरशाह द्वारा बुन्देलखण्ड स्थित कालिंजर किले का घेरा किले पर विजय, किन्तु बारूद फट जाने के कारण शेरशाह की मृत्यु, इस्लामशाह का राज्यारोहण.
1533 ईसवी-सूर वंश के दूसरे शासक इस्लामशाह की मृत्यु तथा सूर साम्राज्य का
विखण्डन
1555 ईसवी मच्छीवाड़ा का युद्ध हुमायूँ द्वारा अफगानों को पराजित कर दिल्ली तथा आगरे पर अधिकार
1556 ईसवी – दीनपनाह महल की सीढ़ियों से लुढककर हुमायूँ की मृत्यु अकबर का पंजाब में स्थित कालानोर नामक स्थान पर सिंहासनारोहण, चुनार के सूर शासक मोहम्मद आदिलशाह के हिन्दू सेनापति हेमू द्वारा आगरा तथा दिल्ली पर अधिकार, 5 नवम्बर पानीपत का दूसरा युद्ध अकबर द्वारा हेमू की पराजय तथा वध
1560 ईसवी बैरम खाँ का विद्रोह, अकबर द्वारा दमन तथा मक्का जाने का आदेश, किन्तु र मार्ग में ही पाटन नामक स्थान पर उसका वध
1563-64 ईसवी— अकबर द्वारा हिन्दुओं पर लगाए हुए जजिया कर तथा तीर्थ यात्रा कर की समाप्ति.
1565 ईसवी तालीकोटा का युद्ध-बीजापुर, अहमदनगर तथा गोलकुण्डा की संयुक्त सेनाओं द्वारा तालीकोटा के निकट बन्नीहट्टी नामक स्थान पर विजयनगर की सेना को निर्णायक रूप से पराजित करना तथा विजयनगर को लूटकर ध्वस्त करना.
1567 ईसवी-अकबर द्वारा मेवाड़ के राणा उदयसिंह को पराजित कर चित्तौड़ के किले पर
अधिकार..
1572 ईसवी – राणा उदयसिंह की मृत्यु राणा प्रताप का राज्यारोहण.
1573 ईसवी-अकबर द्वारा गुजरात विजय.
1575 ईसवी- अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में इबादत खाने की स्थापना..
1576 ईसवी – बंगाल व बिहार के अन्तिम अफगान शासक दाउद खाँ की पराजय तथा बंगाल एवं बिहार का मुगल साम्राज्य में विलय,हल्दी घाटी का युद्ध मुगल सेना के सेनापति राजा मानसिंह द्वारा राणा प्रताप की पराजय
1577 ईसवी-अकबर द्वारा मनसबदारी प्रथा का प्रारम्भ
1579 ईसवी- अकबर के पक्ष में महजर की घोषणा
1582 ईसवी-अकबर द्वारा मिर्जा हकीम – की पराजय तथा काबुल पर अधिकार, अकबर द्वारा तौहीद-ए-इलाही अथवा दीन-ए-इलाही नामक नवीन धर्म की स्थापना…
1591 ईसवी अकबर द्वारा सिंध पर विजय,
1592 ईसवी-अकबर द्वारा उड़ीसा का मुगल साम्राज्य में विलय करना.
1595 ईसवी कांधार पर मुगलों का अधिकार.
1596 ईसवी – अहमदनगर की शासिका चाँद बीबी द्वारा मुगलों की अधीनता स्वीकार करना तथा बरार प्रदेश मुगलों को देना.
1597 ईसवी मुगल सेना द्वारा बीजापुर गोलकुण्डा अहमदनगर की संयुक्त सेनाओं को पराजित करना, राणाप्रताप की मृत्यु.
1600 ईसवी 31 दिसम्बर ईस्ट इण्डिया कम्पनी की इगलैण्ड में स्थापना
1601 ईसवी डच व्यापारिक कम्पनी की स्थापना
1602 ईसवी अबुल फजल की हत्या
1605 ईसवी- अकबर महान् की मृत्यु तथा जहाँगीर का राज्यारोहण
1606 ईसवी खुसरो का विद्रोह
1608 ईसवी भारत स्थित सूरत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रथम कारखाने की स्थापना 1609 ईसवी कैप्टिन हॉकिन्स का आगरा में जहाँगीर के दरबार में आगमन
1610 ईसवी मलिक अम्बर द्वारा दक्षिण राज्यों को संगठित कर मुगलों को वहाँ से निष्कासित करना
1611 ईसवी-जहाँगीर का महरुन्निसा (नूरजहाँ से विवाह, ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा दक्षिण भारत में अपना पहला कारखाना मसूलीपट्टनम स्थान पर खोला जाना
1612 ईसवी- खुर्रम (शाहजहाँ) का मुमताजमहल से विवाह
1615 ईसवी जहाँगीर द्वारा मेवाड के राणा अमरसिंह से सम्मानपूर्वक समझौता तथा अमरसिंह के पुत्र को मुगल सेवा में रखना
1616 ईसवी-अंग्रेजी राजदूत सर टॉमस रो का मुगल दरबार में आगमन तथा सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य में व्यापार करने तथा कारखाने स्थापित करने की छूट का शाही फरमान प्राप्त करना
1622 ईसवी-शाहजहाँ का विद्रोह तथा कन्धार का मुगलों के हाथ से निकलना
1626 ईसवी-मलिक अम्बर की मृत्यु
1627 ईसवी-शिवाजी का जन्म लाहौर के निकट जहाँगीर की मृत्यु
1628 ईसवी- शाहजहाँ का राज्यारोहण
1630 ईसवी शिवाजी का जन्म
1631 ईसवी-मुमताज महल की मृत्यु
1632 ईसवी मलिक अम्बर के पुत्र फतेह खाँ द्वारा मुगलों को अहमदनगर समर्पित करना
1633 ईसवी-मुगल सेनापति महावत खाँ द्वारा दौलतबाद पर अधिकार तथा अहमद नगर के निजामशाही वंश की समाप्ति करना
1639 ईसवी-अंग्रेजों द्वारा मदास को पट्टे पर लेना तथा वहाँ सेन्ट जॉर्ज किले का निर्माण कराना
1651 ईसवी-अंग्रेजी कम्पनी द्वारा बंगाल के नवाब से हुगली में व्यापार करने का आदेश प्राप्त करना
1653 ईसवी – शाहजहाँ द्वारा ताजमहल का निर्माण
1657 ईसवी – शाहजहाँ की बीमारी तथा
उत्तराधिकार युद्ध का आरम्भ
1658-59 ईसवी- सामूगढ़ का युद्ध औरंगजेब द्वारा दाराशिकोह को पराजित करना, आगरे के किले पर विजय तथा शाहजहाँ को बन्दी बनाना शिवाजी द्वारा बीजापुर के सेनापति अफजल खाँ का वध
1662 ईसवी- पुर्तगालियों द्वारा इगलैण्ड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय के पुर्तगाली राजकुमारी से विवाह के उपलक्ष्य में मुम्बई द्वीप दहेज स्वरूप देना
1663 ईसवी शिवाजी का पूना में मुगल सेनापति शाइस्ता खाँ पर रात्रि में आक्रमण
1664 ईसवी फ्रांसीसी मंत्री कोबार्ट द्वारा – फ्रेन्च ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना, शिवाजी द्वारा सूरत की लूट
1665 ईसवी औरंगजेब द्वारा नवनिर्मित मंदिरों को तोडने के आदेश, मुगल सेनापति राजा जयसिंह द्वारा शिवाजी को पराजित करना तथा पुरन्दर की संधि के लिए बाध्य करना
1666 ईसवी – शिवाजी का आगरा में मुगल दरबार में आगमन तथा बन्दी बनाया जाना, किन्तु फलों के टोकरे में छुपकर कैद से भाग जाना
1668 ईसवी ब्रिटिश सम्राट द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को मुम्बई द्वीप प्रदान करना सूरत में फ्रांसीसियों की प्रथम फैक्ट्री की स्थापना
1669 ईसवी गोकुल के नेतृत्व में जाटों का विद्रोह तथा मुगल सरकार द्वारा कठोरता से दमन
1670 ईसवी शिवाजी द्वारा दूसरी बार ने सूरत के किले पर आक्रमण तथा लूट तथा पुरन्दर की संधि द्वारा मुगलों को दिए गए अधिकांश किलों पर पुन अधिकार
1672 ईसवी-नारनौल के सतनामियों का विद्रोह तथा मुगलों द्वारा दमन
1674 ईसवी – शिवाजी का रायगढ़ नामक स्थान पर सिंहासनारोहण तथा छत्रपति की उपाधि धारण करना, फ्रांसीसी कम्पनी द्वारा पाण्डिचेरी की स्थापना
1675 ईसवी सिखों के नवें गुरु तेगबहादुर का औरंगजेब द्वारा वध
1679 ईसवी औरगजेब का मारवाड़ पर आक्रमण, जजिया कर पुनः लागू करना
1680 ईसवी- छत्रपति शिवाजी की मृत्यु
1685 ईसवी – राजाराम तथा चूडामणि के नेतृत्व में जाटों का दूसरा विद्रोह 1686 ईसवी हुगली में मुगलों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा तथा मुगलों द्वारा बीजापुर पर अधिकार
1687 ईसवी मुगलों का गोलकुण्डा पर अधिकार
1689 ईसवी-औरगजेब द्वारा शम्भाजी का – वध तथा राजाराम द्वारा मराठों का नेतृत्व
1691 ईसवी-मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा अंग्रेजों को बंगाल में बिना किसी कर के व्यापार
करने की अनुमति प्रदान करना
1698 ईसवी-एक नई अंग्रेज कम्पनी की स्थापना, सुतनाती, गोविन्दपुर व कलकत्ता की ■ जमीदारी अंग्रेजों को मिलना
1699 ईसवी सिखों के 10वें तथा अन्तिम गुरु गोविन्द सिंह द्वारा आनन्दपुर नामक स्थान पर खालसा पथ का गठन
1702 ईसवी अग्रेज कम्पनियों का एकी
1706 ईसवी सिखों तथा मुगलों में मित्रता करण तथा गुरु गोविन्दसिंह जी का औरंगजेब से मिलन दक्षिण जाना, औरंगजेब द्वारा सभी मराठा
दुर्ग विजित करने के अभियान में असफल
होकर औरगाबाद लौटना
1707 ईसवी औरगाबाद में औरगजेब की मृत्यु तथा वहादुरशाह प्रथम का दिल्ली में सिहासनारोहण
1708 ईसवी गुरुगोविन्द सिंह द्वारा मुगल सम्राट बहादुरशाह प्रथम के अधीन मनसबदारी प्राप्त करना तथा एक अफगान सैनिक द्वारा उनका धोखे से वध कर देना
1712 ईसवी बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु तथा उत्तराधिकार का युद्ध
1713 ईसवी-सैयद बन्धुओं की सहायता से फर्रुखसियर का मुगल सम्राट बनना
1713-14 ईसवी-मराठा छत्रपति शाहू के पेशवा बालाजी विश्वनाथ द्वारा पेशवा दश की स्थापना
1719 ईसवी – पेशवा बालाजी विश्वनाथ द्वारा सैयद मोहम्मद को मुगल सम्राट फर्रुखसियर को पदच्युत करने में सहायता प्रदान करना, मुहम्मदशाह का मुगल सम्राट बनना
1720 ईसवी- पेशवा बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु तथा बाजीराव प्रथम पेशवा पद पर आसीन
1722 ईसवी-सादात खाँ का अवध का सूबेदार नियुक्त होना तथा बाद में उसके द्वारा अवध की स्वतन्त्रता तथा वहाँ नवाबियत की स्थापना करना
1724 ईसवी मुगल साम्राज्य के वजीर निजामुल मुल्क द्वारा पद त्याग तथा दक्षिण में हैदराबाद राज्य की स्थापना करना
1739 ईसवी- नादिरशाह का आक्रमण करनाल के युद्ध में नादिरशाह द्वारा मुगल सम्राट मुहम्मदशाह की पराजय दिल्ली में भयकर लूटपाट
1740 ईसवी – बाजीराव प्रथम की मृत्यु तथा बालाजी बाजीराव द्वारा उत्तराधिकार प्राप्त करना, अलीवर्दी खों द्वारा मुर्शीद कुली खाँ के दामाद को गद्दी से हटाकर बंगाल का नवाब बनना
1742 ईसवी मराठों का बंगाल पर आक्रमण
1744-48 ईसवी-प्रथम कर्नाटक का युद्ध अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों के मध्य
1746 ईसवी- फ्रासीसियों ने मदास जीता
1748 ईसवी-मुगल सम्राट मोहम्मदशाह की मृत्यु
1749 ईसवी छत्रपति शाहू की मृत्यु, ■ पेशवा बालाजी बाजीराव द्वारा मराठा राज्य की राजधानी सतारा से पूना स्थानातरित करना।
1751 ईसवी क्लाइव द्वारा अर्काट की प्रतिरक्षा
1754 ईसवी आलमगीर द्वितीय का दिल्ली में सिंहासनारोहण.
1756 ईसवी अलीवर्दी खाँ की मृत्यु, सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना
1556-63 ईसवी यूरोप में इंगलैण्ड तथा फ्रांस के मध्य छिड़े सप्तवर्षीय युद्ध के परिणामस्वरूप भारत में अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों के मध्य तृतीय कर्नाटक युद्ध. सूरजमल जाट के नेतृत्व में जाटों द्वारा दिल्ली के आसपास एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना.
1757 ईसवी-23 जून को प्लासी का युद्ध.. बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला तथा अंग्रेजों के मध्य युद्ध, नवाब की पराजय तथा मीरजाफर का अंग्रेजों की सहायता से नवाब बनना.
1760 ईसवी – वांडीवाश का युद्ध-अंग्रेजों द्वारा फ्रांसीसियों को निर्णायक रूप से पराजित करना, अंग्रेजों द्वारा मीरजाफर को गद्दी से हटाकर उसके दामाद मीरकासिम को बंगाल का नवाब बनाना.
1761 ईसवी – पानीपत का तृतीय युद्ध- सदाशिव भाऊ के नेतृत्व में मराठा सेनाओं को अफगान सरदार अहमदशाह अब्दाली द्वारा रुहेलखण्ड के नवाब नजीबउद्दौला तथा अवध के नवाब शुजाउद्दौला की सहायता से पराजित करना, अलीगौहर शाहआलम द्वितीय के नाम से अहमदशाह अब्दाली द्वारा दिल्ली का सम्राट नियुक्त, पेशवा बालाजी वाजीराव द्वितीय की मृत्यु तथा माधवराव द्वारा उत्तराधिकार प्राप्त करना, हैदरअली द्वारा मैसूर के हिन्दू राजा को हटाकर स्वयं सत्ता सँभालना.
1764 ईसवी- बक्सर का युद्ध-अंग्रेजों द्वारा बंगाल के नवाब मीरकासिम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेनाओं की पराजय
1765 ईसवी- मीरजाफर की बंगाल में मृत्यु, बंगाल के गवर्नर क्लाइव द्वारा बंगाल में द्वैध शासन प्रणाली प्रारम्भ करना.
1767-69 ईसवी- प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध हैदर अली तथा अंग्रेजों के मध्य.
1770 ईसवी बंगाल का भीषण अकाल, जिसमें बंगाल की एक तिहाई जनता का समाप्त होना…
1771 ईसवी-मराठों द्वारा सम्राट शाह- आलम द्वितीय को इलाहाबाद से लाकर पुनः दिल्ली के सिहासन पर आसीन करना..
1772-74 ईसवी वारेन हेस्टिंग्ज बंगाल का गवर्नर
1772 ईसवी-बंगाल में द्वैध शासन की समाप्ति तथा कम्पनी द्वारा बंगाल में प्रत्यक्ष रूप से शासन, पेशवा माधव राव की मृत्यु तथा गृहयुद्ध.
1773 ईसवी रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित.
1774 ईसवी-रूहेला युद्ध, वारेन हेस्टिंग्ज गवर्नर जनरल, सुप्रीम कोर्ट कलकत्ता में स्थापित.
1775-82 ईसवी- प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध. ने
1780-84 ईसवी – द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध.
1782 ईसवी हैदरअली की मृत्यु, टीपू सुल्तान का मैसूर के सिंहासन पर बैठना, सालबाई की संधि
1784 ईसवी-पिट का इण्डिया एक्ट पारित, मंगलौर की संधि.
1786 ईसवी कार्नवालिस का गवर्नर जनरल बनना.
1790-92 ईसवी तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध. – श्रीरंगपट्टम् की संधि.
1793 ईसवी कार्नवालिस द्वारा बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त लागू करना.
1795 ईसवी- निजाम तथा मराठों के बीच खर्दा का युद्ध
1798 ईसवी- अहमदशाह अब्दाली के पोते जमानशाह अब्दाली का भारत पर आक्रमण..
1798 ईसवी- लॉर्ड वेलेजली भारत का गवर्नर जनरल.
1799 ईसवी – चतुर्थ मैसूर युद्ध. टीपू सुल्तान की मृत्यु, रणजीतसिंह ने लाहौर जीता.
1800 ईसवी-नाना फड़नवीस की मृत्यु.
1801 ईसवी- लॉर्ड वेलेजली का कर्नाटक पर अधिकार
1802 ईसवी – बेसीन की संधि, पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा वेलेजली के मध्य.
1803-05 ईसवी – द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध.
1806 ईसवी – वेलूर का सैनिक विद्रोह तथा अंग्रेजों द्वारा कठोरता से दमन.
1809 ईसवी-अंग्रेज तथा रणजीत सिंह के मध्य अमृतसर की संधि.
1813 ईसवी चार्टर अधिनियम पारित. ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत से व्यापार करने का एकाधिकार समाप्त.
1814-16 ईसवी- आंग्ल गोरखा युद्ध.
1817-18 ईसवी – पिण्डारियों के विरुद्ध अंग्रेजों का अभियान, तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध.
1819 ईसवी – मुम्बई में एलफिस्टन गवर्नर बने.
1820 ईसवी- मुनरो मद्रास के गवर्नर बने.
1824-26 ईसवी-प्रथम आंग्ल बर्मा युद्ध..
1828 ईसवी – ब्रह्म समाज की स्थापना, विलियम बैंटिंक भारत के गवर्नर जनरल बने.
1829 ईसवी – सतीप्रथा का अन्त
1833 ईसवी राजा राममोहन राय की इंगलैण्ड में मृत्यु, नवाँ चार्टर पारित.
1834 ईसवी-कुर्ग पर अंग्रेजी अधिकार.
1835 ईसवी-अंग्रेजी भाषा भारतीय प्रशासन की सरकारी भाषा बनी.
1838 ईसवी-ईस्ट इण्डिया कम्पनी, रणजीत सिंह तथा शाह शुजा के बीच त्रिदलीय संधि.
1839 ईसवी – रणजीत सिंह की मृत्यु.
1839-42 ईसवी- प्रथम आंग्ल अफगान युद्ध
1843 ईसवी- सिन्ध की विजय पू 1845-46 ईसवी- प्रथम आंग्ल सिख युद्ध
1848 ईसवी- डलहौजी की गवर्नर जनरल के रूप में नियुक्ति
1848-49 ईसवी द्वितीय आंग्ल सिख युद्ध तथा पंजाब का विलय
1852 ईसवी द्वितीय आंग्ल वर्मा युद्ध
1853 ईसवी भारत में बम्बई से थाणे तक प्रथम रेलवे की स्थापना.में
1854 ईसवी- सर चार्ल्स बुड का शिक्षा नीति पर पत्र, झाँसी का विलय,
1855 ईसवी-संथाल विद्रोह.
1856 ईसवी – अवध का विलय.
1857 ईसवी- भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का प्रारम्भ.
1858 ईसवी- प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की समाप्ति, विक्टोरिया भारत की साम्राज्ञी घोषित की गई.
1859 ईसवी बंगाल में नील विद्रोह 1861 ईसवी भारतीय परिषद नियम फौजदारी और दीवान कार्य संहिता तथा भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम पारित..
1863 ईसवी- अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मुहम्मद की मृत्यु.
1872 ईसवी-पंजाब में कूका विद्रोह
1876 ईसवी- साम्राज्ञी विक्टोरिया कैसर-हिन्द घोषित.
1877 ईसवी-लॉर्ड लिटन द्वारा दिल्ली दरबार आयोजित..
1878 ईसवी-समाचार-पत्र अधिनियम.
1878-80 ईसवी द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध
1881 ईसवी-प्रथम फैक्टरी अधिनियम,
1882 ईसवी- हंटर कमीशन, स्थानीय स्व- शासन का आरम्भ.
1883 ईसवी-इल्बर्ट बिल.
1885 ईसवी – मुम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन, बंगाल कृषक अधिनियम पारित तीसरा आंग्ल-बर्मा युद्ध.
1892 ईसवी-अंग्रेजी संसद द्वारा भारतीय परिषद् अधिनियम पारित
1893 ईसवी- मुस्लिम ऐंग्लो-ओरिएण्टल डिफेन्स एसोसिएशन ऑफ अपर इण्डिया का गठन.
1895 ईसवी तिलक ने शिवाजी उत्सव मनाया.
1896-97 ईसवी-भीषण अकाल. 1897 ईसवी-चापेकर बन्धुओं द्वारा पूना में दो अंग्रेजों की हत्या.
1899-1905 ईसवी- वाइसराय लॉर्ड कर्जन का कार्यकाल
1904 ईसवी- भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित, यंग हस्बैंड का तिब्बत मिशन.
1905 ईसवी बंगाल विभाजन, भारत लोक सेवक संघ की स्थापना
1906 ईसवी लॉर्ड मिन्टो शिमला में मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल से मिले, मुस्लिम लीग व का गठन.
1908 ईसवी खुदीराम बोस को फाँसी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को 6 वर्ष का कारावास, समाचार पत्र कानून
1909 ईसवी – भारतीय परिषद् अधिनियम
1911 ईसवी- दिल्ली दरबार, विभाजन रद्द
1912 ईसवी कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली राजधानी बनाई गई. लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंका गया
1913 ईसवी- गांधी का दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह सफल, सेनफ्रांसिस्को में भारतीय गदर दल का गठन.
1914 ईसवी- प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ.
1915 ईसवी- गोपालकृष्ण गोखले एवं फिरोजशाह मेहता की मृत्यु, मिसेज ऐनी बीसेण्ट द्वारा होमरूल लीग का गठन.
1916 ईसवी-लखनऊ पैक्ट के रूप में कांग्रेस लीग समझौता, बनारस हिन्दू-विश्व- विद्यालय की स्थापना, बालगंगाधर तिलक द्वारा पूना में होमरूल लीग की स्थापना.
1917 ईसवी – महात्मा गांधी द्वारा चम्पारन में आंदोलन किया गया.
1919 ईसवी- (6 अप्रैल) रौलेट एक्ट के विरुद्ध हड़ताल का आह्वान, (13 अप्रैल) जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड, मॉण्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार अधिनियम पारित
1920 ईसवी – भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन, अलीगढ़ मुस्लिम विश्व-
विद्यालय की स्थापना, एम. एन. राय द्वारा ताशकन्द में भारतीय साम्यवादी दल का गठन
1922 ईसवी-5 फरवरी चौरी-चौरा काण्ड तथा महात्मा गांधी का आन्दोलन वापस लेना, मोपला विद्रोह.
1923 ईसवी-नवगठित स्वराज पार्टी का परिषदों के चुनाव में हिस्सा लेना..
1925 ईसवी-सी. आर. दास की मृत्यु. कानपुर में साम्यवादी दल का गठन
1927 ईसवी- साइमन आयोग की नियुक्ति,
1928 ईसवी- साइमन कमीशन का भारत आगमन, कांग्रेस द्वारा बहिष्कार लाला लाजपत राय की मृत्यु, सर्वदल सम्मेलन..
1929 ईसवी-भगतसिंह द्वारा केन्द्रीय असेम्बली भवन में बम विस्फोट.
1929 ईसवी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य की माँग, शारदा एक्ट: मेरठ षड्यंत्र केस
1930 ईसवी- प्रथम गोलमेज परिषद् नमक सत्याग्रह से सविनय आन्दोलन आरम्भ.
1931 ईसवी- गांधी-इरविन समझौता, द्वितीय भारतीय गोलमेज सम्मेलन,
1932 ईसवी-द्वितीय गोलमेज परिषद्, साम्प्रदायिक पंचाट (कम्यूनल अवार्ड), पूना पैक्ट,
1935 ईसवी- भारत सरकार अधिनियम पारित (अगस्त)
1937 ईसवी-प्रान्तीय स्वायत्तता का सूत्र- पात, सात प्रान्तों में कांग्रेस के मन्त्रिमण्डल
1939 ईसवी – द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ, कांग्रेस सरकारों द्वारा त्यागपत्र मुस्लिम लीग शि द्वारा मुक्ति दिवस मनाना (दिसम्बर 12).
1940 ईसवी- मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया. वाइसराय का अगस्त प्रस्ताव
1941 ईसवी- रबीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु.सुभाष चन्द्र बोस का भारत छोड़ना
1942 ईसवी क्रिप्स मिशन, कांग्रेस द्वारा ‘भारत छोडो‘ प्रस्ताव पारित करना.
1943 ईसवी – सुभाष चन्द्र बोस द्वारा सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज का गठन..
1945 ईसवी वेवल ने शिमला में कान्फ्रेन्स बुलाई. आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा…
1946 ईसवी भारत में अन्तरिम सरकार की स्थापना, फरवरी में मुम्बई में नौसेना विद्रोह, जुलाई में संविधान सभा के चुनाव कैबिनेट मिशन
1947 ईसवी-क्लीमेंट ऐटली द्वारा जून 1948 से पूर्व भारत छोड़ने की घोषणा (फरवरी) 15 अगस्त को भारत स्वतन्त्र हुआ.
1948 ईसवी – महात्मा गांधी की हत्या (30 जनवरी). कश्मीर का भारत में विलय.
1948-50 ईसवी देशी रियासतों का भारत में विलय, राजगोपालाचारी का गवर्नर जनरल बनना.
1949 ईसवी- भारतीय संविधान को सभा द्वारा स्वीकृति (26 नवम्बर).
1950 ईसवी – भारतीय गणतन्त्र का नया संविधान लागू डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने
1951 ईसवी- प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रारम्भ
1952 ईसवी- प्रथम आम चुनाव.
1953 ईसवी- प्रथम बार माउण्ट एवरेस्ट पर शेरपा आन्ध्र प्रदेश का निर्माण तेनसिंह और ई. पी. हिलेरी द्वारा पहुँचना,
1956 ईसवी – फ्रांस द्वारा भारत में अपनी बस्तियों का भारत को हस्तांतरण.
1957 ईसवी-द्वितीय आम चुनाव. 1961 ईसवी-गोआ, दमन, दीव की मुक्ति तथा भारत में विलय
1962 ईसवी तृतीय आम चुनाव भारत पर चीन का आक्रमण.
1963 ईसवी-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की मृत्यु, नगालैण्ड का राज्य बनना.
1964 ईसवी- जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु (27 मई)
1965 ईसवी- भारत-पाक युद्ध. 1966 ईसवी भारत-पाक ताशकंद समझौता (10 जनवरी), लाल बहादुर शास्त्री का निधन (11 जनवरी).
1969 ईसवी-डॉ. जाकिर हुसैन की मृत्यु (3 मई). वी.वी. गिरि का राष्ट्रपति बनना, कांग्रेस का विभाजन, 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण.
1970 ईसवी मेघालय का निर्माण (2 अप्रैल), राजाओं की मान्यता की समाप्ति
1971 ईसवी – हिमाचल प्रदेश का निर्माण (25 जन), भारत-रूस संधि भारत पाक युद्ध
1972 ईसवी राजगोपालाचारी का निधन शिमला समझौता मेघालय, मणिपुर, त्रिपु पूर्ण राज्य बनना अरु प्रदेश और मिजोरम का केन्द्रशासित प्रदेश बनना PIN Code प्रणाली शुरू
1974 ईसवी भारत का आदि शक्ति बनना
1975 ईसवी- सिक्किम का राज्य बनना (16 मई) देश में आपात स्थिति की घोषणा (26 जून)
1977 ईसवी राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का निधन 1978 ईसवी काग्रेस (आई) का गठन,
1979 ईसवी- मोरारजी देसाई का प्रधान मंत्री पद इस्तीफा (15 जुलाई), जय प्रकाश नारायण का निधन (8 अक्टूबर)
1982 ईसवी आचार्य कृपलानी का निधन (10 मार्च) तीन बीघा क्षेत्र बाग्लादेश को दिया
1983 ईसवी तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन (28-30 अक्टूबर)
1984 ईसवी स्वर्ण मंदिर में ऑपरेशन ब्लू स्टार (6-8 जून), इंदिरा गांधी की हत्या (31 अक्टूबर) 1987 ईसवी चौधरी चरण सिंह की मृत्य (29 मई)
1988 ईसवी- खान अब्दुल गफ्फार खाँ की मृत्यु (20 जून)
1989 ईसवी अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास (10 नवम्बर)
1990 ईसवी बी आर. अम्बेडकर (मरणोपरान्त) और नेल्सन मंडेला ‘भारतरत्न‘ से सम्मानित:
1991 ईसवी राजीव गांधी (मरणोपरान्त) और मोरारजी देसाई भारतरत्न‘ से सम्मानित
1993 ईसवी महाराष्ट्र में भूकम्प से 50,000 से अधिक मृत डकल प्रस्ताव स्वीकारा गया. बनी,
1994 ईसवी – सुष्मिता सेन मिस यूनीवर्स
1995 ईसवी उग्रवादियों ने चरार-ए-शरीफ जताया
1996 ईसवी जियाग जेमिन की भारत यात्रा
1997 ईसवी मदर टेरेसा की मृत्यु (5 सितम्बर)
1998 ईसवी भारत द्वारा पाँच परमाणु परीक्षण (11 एवं 13 मई),
1999 ईसवी अटल बिहारी वाजपेयी की ऐतिहासिक बस यात्रा (20 फरवरी), कारगिल युद्ध
2000 ईसवी- अमरीकी राष्ट्रपति दिल क्लिटन का भारत आगमन (19-20 मार्च), छत्तीसगढ़ (1 नवम्बर), उत्तराचल (9 नवम्बर) ‘और झारखण्ड (15 नवम्बर) नए राज्य बने
2001 ईसवी – भारत में ही विकसित लाइट कम्बाट एयरक्राफ्ट (LCA) की सफल परीक्षण उड़ान (4 जन ), गुजरात में भीषण भूकम्प, कई हजार मरे (26 जन), जे. एम. लिंगदोह भारत के नए मुख्य चुनाव आयुक्त बने (14 जून),
2002 ईसवी – इन्सैट 3सी का सफल प्रक्षेपण (24 जन ), लोक सभा स्पीकर जी एम सी बालयोगी की हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु (3 मार्च), डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम भारत के राष्ट्रपति निर्वाचित घोषित (18 जुलाई), उपराष्ट्रपति कृष्णकान्त का निधन (27 जुलाई), भैरोंसिंह शेखावत उपराष्ट्रपति निर्वाचित (12 अगस्त),
2003 ईसवी – निर्मल चन्द बिज बने नए सेनाध्यक्ष (1 जन.), मुलायम सिंह यादव उ. प्र. के नए मुख्यमंत्री बने (29 अगस्त), भारत ने पहली बार एशिया कप हॉकी चैम्पियनशिप जीती (28 सित), एफ्रो-एशियाई खेलों का हैदराबाद में समापन (1 नवम्बर)
2004 ईसवी – भारत का स्वदेश में तैयार किया गया T-90 मुख्य युद्धक टैंक ‘भीष्म‘ सेना को सौंपा गया (7 जन ), 13वीं लोक सभा भंग
(6 फर) 14वीं लोक सभा के चुनाव (20) अप्रैल-10 मई), डॉ मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली (22 मई), लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के अध्यक्ष चुने गये (18 अक्टू ).
ऑपरेशन ककून के तहत चन्दन तस्कर वीरप्पन विशेष कार्यबल (S.T.F.) के साथ मुठभेड़ में मारा गया (18 अक्टू) बूटा सिंह द्वारा बिहार के राज्यपाल के रूप में कार्यभार ग्रहण (5 नव), दक्षिण भारत, अण्डमान निकोबार द्वीप, इण्डोनेशिया, थाइलैण्ड, श्रीलंका आदि हिन्द महासागर की सुनामी लहरों से प्रभावित, कई हजार मरे (26 दिस)
2005 ईसवी एम. के. नारायणन देश के नए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नियुक्त (27 जन), जनरल जे जे सिंह द्वारा नए थलसेनाध्यक्ष के रूप में कार्यभार ग्रहण (31 जन), गोआ में राष्ट्रपति शासन लागू (4 मार्च), सूचना के अधिकार का अधिनियम लागू (12 अक्टू )
2006 ईसवी – राजनाथ सिंह ने बीजेपी के अध्यक्ष पद का कार्यभार सँभाला (2 जन), महात्मा 1 गांधी के सत्याग्रह के 100 वर्ष पूर्ण (11 सित) 2007 ईसवी-उत्तरांचल का नाम अब उत्तराखण्ड (1 जन.), उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्व में बसपा की स्पष्ट बहुमत वाली नई सरकार (13 मई), प्रतिभा पाटिल ने भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति के रूप में पदभार ग्रहण किया (25 जुलाई).
2008 ईसवी आदिवासियों एवं परम्परागत वनवासियों को वन सम्पत्ति में अधिकार दिलाने वाला वनाधिकार कानून लागू (1 जन), गंगा नदी राष्ट्रीय नदी घोषित (4 नव) मुम्बई देश में सबसे बड़े आतंकी हमले का शिकार (26 नव). राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यपालों के वेतन बढ़ोत्तरी की संसद द्वारा मंजूरी (15 दिस).
2009 ईसवी – राष्ट्रीय जाँच एजेंसी का गठन (1 जन.), टाटा मोटर्स ने अपनी बहू- प्रतीक्षित नैनो कार को बिक्री के लिए लांच की (23 मार्च), दिल्ली हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला समलैंगिकता अपराध नहीं (2 जुलाई). हेलीकॉप्टर दुर्घटना में आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी का निधन (2 सितम्बर). के. राधाकृष्णन ‘इसरो‘ के नए अध्यक्ष बनाए गए (31 अक्टूबर)
2010 ईसवी – पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु का निधन (17 जन.). सर्वोच्च न्यायालय ने देश के सभी राज्यों को छह सप्ताह के भीतर बाल अपराध न्याय बोर्ड, बाल कल्याण समिति एवं विशेष पुलिस बल गठित करने का निर्देश जारी (20 जन ). राजस्थान की राज्यपाल प्रभा राव का निधन (26 अप्रैल), भारतीय नौसेना में पहला स्टेल्थ युद्धपोत आईएनएस शिवालिक शामिल (29 अप्रैल), एस वाई कुरैशी भारत के नए मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त (30 जुलाई), बैंक ऑफ राजस्थान का विलय आईसीआईसीआई बैंक में हुआ (13 अगस्त)
2011 ईसवी – श्रीकृष्ण कमेटी ने तेलंगाना पर रिपोर्ट सौंपी (1 जन), भारत ने क्रिकेट का विश्व कप जीता (2 अप्रैल), अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री दोरजी खाण्डू की हेलीकॉप्टर दुर्घटना मै मृत्यु (30 अप्रैल), ममता बनर्जी प बंगाल की नमंत्री पहली महिला मुख्यमंत्री बन (20 मई), मुम्बई में बम धमाका (13 जुलाई), केरल के पद्मनाभस् ब) मन्दिर में स्वर्ण का विशाल भण्डार (21 जुलाई) बंगलोर में मेट्रो रेल का उद्घाटन (21 अक्टू), ड में भारत में एफ-1 कार रेस (30 अक्टूबर), बिहार निर्माता, निर्देशक, अभिनेता देवानन्द का निधन (4 दिसम्बर ).
2012 ईसवी गुजरातियों के लिए हिन्दी विदेशी भाषा गुजरात हाईकोर्ट (1 जन). मानवरहित विमान का गणतन्त्र दिवस परेड में प्रदर्शन (27 जन) भारत ने पहला महिला के कबड्डी का विश्व कप जीता (3 मार्च), कब (27 को फांसी (21 नवम्बर), नरेन्द्र मोदी तीसरी बार गुजरात चुनाव जीते (21 दिसम्बर).
2013 ईसवी – रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डॉ. वाई वी रेड्डी की अध्यक्षता में 14वें वित्त आयोग का गठन (3 जनवरी), सितारवादक प रविशंकर सांस्कृतिक सद्भावना के लिए प्रथम टैगोर पुरस्कार से सम्मानित (8 मार्च), फिल्म अभिनेता प्राण को 60वाँ दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया (12 अप्रैल), आंध्र प्रदेश का विघटन कर पृथक राज्य तेलंगाना बनाने का सरकार द्वारा निर्णय (30 जुलाई). की सचिन तेंदुलकर एवं सी. एन. एन. राव को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न‘ प्रदान करने की घोषणा (16 नवम्बर)
2014 ईसवी देश का प्रथम राष्ट्रीय ने स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरूआत (7 जनवरी). दी किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता में प्रदान की गयी (15 अप्रैल), 20वें राष्ट्रमंडल 3. खेल ग्लासगो में सम्पन्न, भारत ने 15 स्वर्ण न पदक, 30 रजत एवं 19 कांस्य पदकों सहित 64 पदक जीते (23 जुलाई-3 अगस्त, 2014). केन्द्र सरकार द्वारा पूर्वोत्तर के लिए ऊर्जा राजमार्ग की घोषणा (25 अगस्त), प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर स्वच्छ भारत मिशन कार्यक्रम की शुरूआत की (2 अक्टूबर) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते‘ योजना का आरम्भ किया (16 अक्टूबर), गुजरात में निकाय चुनावों में अनिवार्य मतदान का प्रावधान किया (11 नवम्बर). भारत ने पाकिस्तान को हराकर 2014 का दृष्टिहीन क्रिकेट विश्वकप जीता (8 दिसम्बर)
2015 ईसवी योजना आयोग की जगह नीति आयोग की स्थापना (1 जनवरी). नागरिकता (संशोधन) अध्यादेश 2015 को लागू किया गया (6 जनवरी). महाराष्ट्र सरकार ने लंदन स्थित बी आर अम्बेडकर के घर को खरीदने का फैसला किया. (24 जनवरी) काठमांडू और वाराणसी के बीच सीधी बस सेवा प्रारम्भ (5 मार्च), सर्वोच्च न्यायालय ने आइ टी एक्ट की धारा 66 A निरस्त की चंद्रशेखर की समाधि का नया नाम जननायक स्थल रखा गया (22) अप्रैल), वेटिकन ने फिलिस्तीन को राज्य के रूप में मान्यता प्रदान की (13 मई). वाटरलू युद्ध की 200वीं वर्षगाठ मनाई गयी (20 जून), मिशनरीज ऑफ चैरिटी की पूर्व प्रमुख सिस्टर निर्मला का निधन (22 जून)