History Basics NCERT Important Points
प्राचीन भारतीय इतिहास अध्ययन के मुख्य रूप से तीन स्रोत हैं— ( 1 ) पुरातात्विक स्रोत ( Archaeological Sources ) ( 2 ) साहित्यिक स्रोत ( Litrary Sources ) एवं ( 3 ) विदेशियों के यात्रा – वृतांत ( Journey accounts of Foreigners ) ।
पुरातात्विक स्रोतों में अभिलेख , सिक्के , चित्र – कला , मूर्तियाँ स्मारक तथा भवन हैं । जीवाश्मों ( Fossils ) की प्राचीनता का निर्धारण रेडियो कार्बन ( C14 ) पद्धति से होता है ।
C ‘ की अर्द्ध – आयु ( Half – Life ) 5568 वर्ष होती है । निर्जीव वस्तुओं के अवशेषों की प्राचीनता यूरेनियम डेटिंग से ज्ञात की जाती है ।
सिक्कों का अध्ययन न्यूमिजमेटिक्स ( Numismetics ) कहलाता है शिलालेखों से सम्बन्धित अध्ययन एपिग्राफी ( Epigraphy ) के अन्तर्गत किया जाता है अभिलेखों के अध्ययन को पैलियोग्राफी ( Paleography ) कहा जाता है ।
भारत में ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई का कार्य सर्वप्रथम जॉन मार्शल ने 1901 ई ० में आरंभ किया । भारत में प्राचीनतम अभिलेख जिन्हें पढ़ा गया है , मौर्य शासक अशोक के शासनकाल के मिलते हैं अशोक के अधिकांश अभिलेखों की लिपि ब्राह्मी है ।
ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप को 1837 ई . में सफलता मिली । अशोक का अरामाइक लिपि में अभिलेख लमगान ( अफगानिस्तान ) से प्राप्त हुआ है । अशोक के खरोष्ठी लिपि में अभिलेख मनसेहरा एवं शहबाजगढ़ी से प्राप्त हुए हैं ।
रामायण की रचना संस्कृत भाषा में की गई है । रामायण से इक्ष्वाकु कुल के सूर्यवंशीय शासक दशरथ तथा उनके वंश का ऐतिहासिक विवरण प्राप्त होता है ।
रामायण में मूल रूप से 24000 श्लोक थे जो कि दूसरी शताब्दी तक 12000 रह गये । रामायण से हमें बुद्ध ( तथागत ) , यूनानी , शक तथा सीथियनों के विषय में ऐतिहासिक विवरण प्राप्त होता है ।
महाभारत विश्व का सबसे विस्तृत महाकाव्य है , इसकी रचना सम्भवत : ई ० पू ० 400 से 400 ई ० के बीच महर्षि व्यास के द्वारा हुई ।
महाभारत में आरम्भिक रचना में 8800 श्लोक थे जो बाद में बढ़कर 2400 ) हो गये तथा वर्तमान में इसे । लाख श्लोकों तक बढ़ाया जा चुका है ।
महाभारत में कौरवों पर पांडवों की विजय का इतिहास होने के कारण महाभारत को जय संहिता तथा गुप्तकाल में शतसहस्त्री संहिता कहा जाता था । महाभारत में यूनानियों , रोमनों , शक , यवन , पहलव आदि के शासन सम्बन्धी जानकारी मिलती है ।
दक्षिण भारत के प्राचीन इतिहास की जानकारी का प्रमुख साधन संगम साहित्य है । संगम साहित्य का संभावित रचनाकाल 250 ई . से 100 ई ० तक माना जाता है ।
‘ संगम ‘ का अर्थ कवियों का एक संघ अथवा ‘ मण्डल ‘ है , जिन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त रहने के कारण विशाल साहित्य की रचना हुई है ।
संगम 9990 वर्ष चले तथा लगभग 8598 कवियों ने अपना योगदान . न में . दिया । . . तमाम संगम साहित्य 9 संग्रह – ग्रंथों में संकलित है तथा इनमें अब मात्र 2289 रचनाएँ बची हुई हैं । इरेयनार अगप्पोरूल की 8 वीं शताब्दी की रचनाओं से ज्ञात होता है कि 197 पांड्य शासकों ने उपर्युक्त संगमों को संरक्षण प्रदान किया ।
संगम साहित्य तमिल भाषा में रचित है , ‘ तमिल रामायण ‘ की रचना कंबन ने की ।
संगम ग्रन्थों के अलावा इस काल में कुछ अन्य तमिल ग्रंथों की रचना हुई – तोल्कापियम ( तमिल व्याकरण ) एवं तिरूकुरल ( दार्शनिक विचार और सूक्तियाँ ) महत्वपूर्ण हैं ।
प्रथम संगम का आयोजन मदुरा नामक स्थान पर अगस्त्य ऋषि की अध्यक्षता में हुआ ।
द्वितीय संगम का आयोजन कपाटपुरम में अगस्त्य एवं तोल्कापियर की अध्यक्षता में हुआ ।
तीसरे संगम का आयोजन उत्तरी मदुरा में नकीरर की अध्यक्षता में हुआ ।
बौद्ध साहित्य से भारतीय इतिहास पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है , ये जातक , त्रिपिटक , पालि ग्रंथ एवं संस्कृत ग्रन्थों के रूप में प्राप्त होते हैं ।
जातक 550 कथाओं का एक संकलन है जिसे 12 भागों में संकलित किया गया है बुद्ध के पूर्व जन्मों का विवरण प्राप्त होता है ।
जातक कथाओं से मौर्यकालीन इतिहास की जानकारी भी प्राप्त होती है । बौद्ध साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन एवं महत्वपूर्ण ‘ त्रिपिटक ‘ है , इनकी रचना गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद हुई । त्रिपिटकों का संकलन प्राकृत भाषा में किया गया है ।
त्रिपिटकों की संख्या 3 है – सुत्तपिटक , अभिधम्म पिटक एवं विनयपिटक ।
त्रिपिटक को बौद्ध धर्म का बाइबिल कहा जाता है ।
चतुर्थ बौद्ध संगीति में त्रिपिटकों की टीका का संकलन महाविभाष सूत्र में किया गया ।
‘ वसुमित्र ‘ द्वारा रचित महाविभाष सूत्र बौद्ध धर्म का विश्वकोष कहा जाता है ।
बौद्ध साहित्य अंगुत्तर निकाय ई ० पू ० छठी शताब्दी में 16 महजन पदों की जानकारी देता है ।
बौद्ध साहित्य सुत्तपिटक से बुद्ध के धार्मिक विचारों एवं उपदेशों की जानकारी मिलती है ।
बौद्ध साहित्य विनय पिटक से मठ – निवासियों के अनुशासन संबंधी जानकारी मिलती है ।
बौद्ध साहित्य अभिधम्मपिटक से बौद्ध दर्शन की व्याख्या प्राप्त होती है ।
ऋग्वेद 10 मण्डल , 8 अष्टक , एवं 108 सूक्त ( 11 बालखिल्य सुक्त सहित ) 1028 ऋचाओं ( श्लोक ) में संग्रहित हैं ।
ऋग्वेद का लोकप्रिय मंत्र गायत्री मंत्र है ।
ऋग्वेद का दूसरा एवं 7 वाँ मण्डल प्राचीनतम एवं पहला तथा 10 वाँ मण्डल नवीनतम है । जिसे सबसे अन्त में जोड़ा गया है । ऋग्वेद के 9 वें मण्डल से आर्यों के देवता सोम तथा 10 वें मण्डल में शूद्र शब्द की जानकारी प्राप्त होती है ।
ऋग्वेद से आर्यों के पाँच जनों की जानकारी प्राप्त होती है ये पाँच जन थे – यदु , द्रहु , तुर्वस , द्रद्य् , पुरू । ऋग्वेद 7 वें मंडल से प्रसिद्ध दशराज युद्ध ( Battle of 10 kings ) के विषय में जानकारी मिलती है ।
ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रंथ – ऐतरेय एवं कौषीतिकी हैं । गद्यरूप में वेदों की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थ कहलाती है ।
सामवेद को ‘ गीतों का संग्रह ‘ कहते हैं , साम का अर्थ ‘ गान ‘ होता है । सामवेद में कुल 1549 ऋचाएँ हैं इनमें 75 को छोड़कर सभी ऋग्वेद से लिये गये हैं ।
सामवेद का स्थान भारतीय संगीत के इतिहास में महत्वपूर्ण है , इसे भारतीय संगीत का जनक माना जाता है ।
सामवेद से हमें आर्यों के मत्वपूर्ण देवताओं सूर्य , इन्द्र एवं सोम के विषय में जानकारी प्राप्त होती है ।
यजुर्वेद में यज्ञ सम्बन्धी नियमों का उल्लेख पाया जाता है – यह कर्मकाण्ड प्रधान है ।
यजुर्वेद के दो भाग हैं – कृष्ण यजुर्वेद एवं शुक्ल यजुर्वेद । ण अथर्ववेद 20 मण्डल , 731 सुक्त , एवं 6000 मंत्रों में संकलित है ।
अथर्ववेद के दूसरे ‘ मंत्रद्रष्टा ( वाचक ) ‘ महर्षि अंगिरस थे । इस वेद से हमें ब्रह्मज्ञान , औषधि – प्रयोग , रोग – निवारण , जंत्र – तंत्र एवं टोना – टोटका जैसे विषय का ज्ञान होता है । अथर्ववेद में कर्मकांडों की आलोचना की गई है ।
आरण्यकों की रचना ब्राह्मण ग्रंथों के बाद हुई । आरण्यक का शाब्दिक अर्थ जंगल ( अरण्य ) होता है । इन ग्रन्थों का पठन – पाठन वानप्रस्थी , मुनि तथा वनवासियों द्वारा जंगल में किया जाता उपनिषदों में दार्शनिक प्रश्नों , ईश्वर , आत्मा , इहलोक तथा परलोक की समस्याओं पर विश्लेषण किया गया है ।
भारत का प्रसिद्ध आदर्श राष्ट्रीय वाक्य सत्यमेव जयते है जो कि मुंडकोपनिषद् से लिया गया है ।
उपनिषदों की संख्या 108 है ।
उपनिषदों का रचनाकाल सम्भवत : 600 ई.पू. है , जो कि उत्तरवैदिक काल ( Later Vedic Period ) के आरम्भ का काल माना जाता है । उपनिषदों में वैदिक यज्ञों एवं आडंबरों के विरुद्ध प्रतिक्रिया व्यक्त की गई हैं । वेदांग ( Vedangas ) वेदांगों की रचना वैदिक काल के अन्त में वेदों को ठीक प्रकार से समझने के लिए की गई ।
. भारत में पहली बार हिन्द – यूनानियों ने लेख – युक्त ‘ स्वर्ण सिक्के ‘ जारी किए ।
जिन सिक्कों पर लेख नहीं होने सिर्फ चिन्ह होते हैं , उन्हें आहत सिक्के ( Punch – Marked coins ) कहा जाता है ।
भारत में शक , बैक्ट्रियन , कुषाण तथा इंडो – पार्थियन आदि राजवंशों के इतिहास की जानकारी के एकमात्र ग्रोत सिक्के हैं ।
शुद्धता के लिहाज से सर्वाधिक शुद्ध स्वर्ण सिक्कं कुषाणों द्वारा जारी किये गये । संख्या की दृष्टि से सर्वाधिक स्वर्ण मुद्राएँ गुप्त शासकों ने जारी किये ।
समुद्रगुप्त के सिक्कों पर अश्वमेध यज्ञ एवं उसको वीणा बजाते हुए तस्वीर उत्कीर्ण है । अन्तरजीखेरा से 800 ई ० पू ० में लोहे ( iron ) के प्रयोग का साक्ष्य प्राप्त हआ है ।
पुदुचेरौ के अरिकामेहु से प्राप्त रामन सिक्कों से प्राचीन काल दक्षिण भारत – रोम व्यापारिक एवं सांस्कृतिक संबंधों पर प्रकाश पड़ता है ।
• अंकोरवट ( कंबोडिया ) का विश्व का सबसे बड़ा विष्णु मन्दिर वैष्णव धर्म के भारत के बाहर प्रसार को रेखांकित करता है । भारत का सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रंथ वेद है ।
वेद का अर्थ पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञान ( Knowledge Par Excellence ) होता है । महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास को वेदों का संकलनकर्ता माना जाता है ।
वैदिक साहित्य के अन्तर्गत 4 वेद ( वाग्वेद , सामवेद , यजुर्वेद , अथर्ववेद ) ब्राह्मण ग्रंथ , आरण्यक , उपनिषद् , वेदांग तथा उपवेद आते हैं ।
प्रत्येक वेद की ऋचाओं का उच्चारण करने वाले ऋषि को मंत्रद्रष्टा कहते होत ( ऋग्वेद ) , उदगात्र ( सामवेद ) , अध्वायु ( यजुर्वेद ) तथा अथर्वा ( अथर्ववेद ) चारों वेदों के मंत्रद्रष्टा थे ।
वैदिक साहित्य से आर्यों ( Aryans ) के राजनैतिक जीवन के संदर्भ में कुछ कम एवं सामाजिक , आर्थिक एवं धार्मिक जीवन की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है ।
वेदों में सर्वाधिक प्राचीन ऋग्वेद है तथा वेदों में सबसे नवीन वेद अथर्ववेद है ।
Ancient India ) . . . . . ग्रीक लिपि में उत्कीर्ण अशोक का अभिलेख शार – ए – कुन्हा ( कन्धार ) से प्राप्त हुआ है ।
अशोक का एक द्विलिपीय ( Biscriptual ) अभिलेख ग्रीका – अरामाइको में शार – ए – कुन्हा ( कंधार ) से प्राप्त हुआ है ।
1750 ई ० में सर्वप्रथम टीफेन्थलर ने दिल्ली में दिल्ली – मेरठ अशोक स्तंभ का पता लगाया । स्तंभ अभिलेख दिल्ली – टोपरा , प्रयाग , दिल्ली – मेरठ , रामपुरवा ( बिहार ) , लौरिया – अरेराज ( चम्पारण बिहार ) , लौरिया – नन्दनगढ़ ( चम्पारण , बिहार ) से प्राप्त हुए हैं ।
रामपुरवा ( चम्पारण , बिहार ) स्थित स्तंभ की खोज 1872 ई ० में कारलायल ने की । लघु स्तंभ अभिलेख सारनाथ में 1905 ई ० में ओटैल द्वारा खोजा गया । साँची , कौशांबी , रूमिन्देयी के अभिलेख 1896 ई ० में कीहरर ने खोजा ।
निग्लीवा ( 1895 ई ० में कोहरर ) तथा इलाहाबाद से रानी स्तंभ लेख प्राप्त हुए हैं ये अशोक की राजकीय घोषणाओं का उल्लेख करते हैं ।
तराई लेख रूम्मिनदेई एवं निग्लीवा में नेपाल की तराई में स्थित है । अशोक के तमाम स्थलों पर अभिलेखों में सिर्फ मास्की एवं गुजरा ( मध्य प्रदेश ) को छोड़कर शेष सभी स्थलों पर अशोक के नाम से स्थान पर देवानामपियसिन् उत्कीर्ण है । अशोक के 14 – शिलालेखों ( Rock Edicts ) में 7 वाँ शिलालेख ( Seventh Rock Edict ) सबसे लंबा है । अशोक के 13 वें शिलालेख ( Thirteenth Rock Edict ) से उसके द्वारा अपने शासन के 9 वें वर्ष में कलिंग का विवरण प्राप्त होता है ।
अशोक का रानी स्तंभ अभिलेख अथवा ‘ प्रयाग स्तंभ अभिलेख ‘ पूर्व में कौशांबी ( इलाहाबाद ) में स्थित था , बाद में ‘ अकबर ‘ ने उसे इलाहाबाद के किले में स्थापित करवाया ।
\अशोक का दिल्ली – टोपरा स्तंभ – लेख दिल्ली में सुल्तान ‘ फिरोज तुगलक ‘ ने स्थापित किया ।
अशोक के बाद के महत्वपूर्ण अभिलेख इस प्रकार हैं कलिंगराज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख ।
सातवाहन शासक पुलवामी का नासिक गुहालेख ।
समुद्रगुप्त के दरबारी हरिषेण का प्रयाग स्तंभ लेख ।
मालवा नरेश यशोवर्मन का मंदसौर अभिलेख ।
संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण प्रथम अभिलेख रुद्रदामन || का जूनागढ़ अभिलेख है ।
एहियोल अभिलेख से चालुक्य नरेश पुल्केशिन- || के संबंध में एतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है ।
प्रतिहार नरेश ‘ भोज ‘ के विषय में ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से ऐतिहासिक विवरण प्राप्त होता है ।
सम्राट हर्षवर्द्धन की प्रशासनिक एवं धार्मिक नीति पर बांसखेड़ा – मधुबन अभिलेख से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । बंगाल के शासक विजयसेन का देवपाड़ा अभिलेख तत्कालीन इतिहास की जानकारी देता है ।
यवन राजदूत हेलियोडोरस का बेसनगर ( विदिशा ) से प्राप्त गरूड़ स्तंभ लेख द्वितीय शताब्दी ई ० पू ० में भारत में भागवत धर्म के विकसित होने का साक्ष्य प्रस्तुत करता है ।
प्रमुख संवत् 1 ( 1 ) शक संवत् – 78 ई ० से । ( ii ) विक्रम संवत् – 57 ई ० पू ० से । ( ii ) गुप्त संवत् – 319 ई ० से । ( iv ) हिजरी संवत् – 622 ई ० से । ( v ) इलाही संवत् – 1583 ई ० से ।
सिन्धु सभ्यता
( Indus Civilisation )
सिन्धु सभ्यता की खोज 1921 में दयाराम साहनी ने की ।
सिन्धु सभ्यता भारत की प्रथम नगरीय सभ्यता थी ।
सिन्धु , सभ्यता का काल मेसोपोटामिया एवं मिस्र की सभ्यता के समकालीन थी ।
सिन्धु घाटी सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है , क्योंकि सिन्धु सभ्यता में सर्वप्रथम हड़प्पा नामक स्थल की खोज हुई ।
सन् 1922 ई ० में राखाल दास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो की खोज की । सिन्धु सभ्यता का इतिहास आद्य ऐतिहासिक काल का इतिहास है ।
सिन्धु सभ्यता का विस्तार 12,99,600 वर्ग किमी . में उत्तर से दक्षिण की ओर त्रिभुजाकार आकृति में था । सिन्धु सभ्यता में मेडिटेरेनियन , अल्पाइन , मंगोलॉयड तथा प्रोटो – ऑस्ट्रोलॉयड प्रजाति के लोग निवास करते थे ।
अभी तक सिन्धु सभ्यता के 1000 से अधिक स्थल भारत के विभिन्न क्षेत्रों से खोजे जा चुके हैं ।
गुजरात में सिन्धु सभ्यता के सर्वाधिक स्थल खोजे गए हैं ।
लोथल से गोदीवाड़ा ( बंदरगाह ) , मकान बनाने का कारखाना एवं कपास के साक्ष्य मिले हैं ।
अल्लादीनोह सिन्धु सभ्यता का सबसे छोटा स्थल था ।
धौलावीरा सिन्धु सभ्यता का तकनीकी रूप से सर्वाधिक विकसित स्थल था ।
सिन्धु सभ्यता के काल निर्धारण का नवीनतम स्रोत रेडियोकार्बन विधि है ।
रेडियो कार्बन ( C ) विधि से प्राप्त जानकारी से इस सभ्यता का कालानुक्रम 2350-1750 ई ० पू ० तक माना गया है ।
मोहनजोदड़ो का अर्थ ‘ मुर्दो का टीला ‘ होता है ।
. . . सिन्धु घाटी सभ्यता के हड़प्पा नगर से एक ही आकार के छोटे – छोटे घरों की एक बस्ती मिली है , जो सम्भवतः तत्कालीन श्रमिकों का निवास स्थान कर रहा हो । उपर्युक्त बस्ती के आगे 16 भट्ठियाँ मिली हैं , जो सम्भवतः ताँबा गलाने का कारखाना है ।
सिन्धु घाटी सभ्यता की सड़कें एक – दूसरे को समकोण पर काटती थी और सड़कों का निर्माण अधिकांशतः कच्ची ईंटों से किया गया था । भवन का दरवाजा और खिड़कियाँ सड़क की ओर न खुलकर पिछवाड़े की ओर खुलते थे ।
सड़कें तीन प्रकार की थी – मुख्य सड़क , सहायक सड़क और गली की सड़क । सिन्धु सभ्यता के लोगों का पुनर्जन्म पर विश्वास था ।
सिन्धु सभ्यता के लोगों के लिए पीपल का वृक्ष सर्वाधिक पूजनीय था । यहाँ के लोग शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों थे ।
सिन्धु सभ्यता के मोहनजोदड़ो से मातृदेवी के गर्भ से उगता हुआ वृक्ष वाला शील प्राप्त हुआ है ।
सिन्धु सभ्यता के लोग भूत – प्रेतों तथा जादू – टोने में विश्वास करते थे , क्योंकि कई स्थलों के उत्खनन से ज्ञात होता है कि सिन्धुवासी ताबीजों का प्रयोग करते थे । लोथल से फारस की मुहरें तथा कालीबंगा से ऊँट की हड्डियों के साक्ष्य मिले हैं ।
सिन्धु सभ्यता के स्थल राणा गुंडई के निम्नस्तरीय धरातल की खुदाई में घोड़े के दाँतों के अवशेष प्राप्त हुए हैं । भारतीय गैंडा का एकमात्र प्रमाण आमरी से प्राप्त हुआ है ।
हड़प्पा के पूर्वी टीले को नगर टीला एवं पश्चिमी टीले को दुर्ग टीला की संज्ञा दी जाती है ।
सिन्धु सभ्यता में मोहनजोदड़ो , गणवारी वाला , लोथल , कालीबंगन , हड़प्पा , धौलावीरा आदि बड़े नगर थे । सभ्यता के स्थल में प्रवेश करने वाला पहला चौराहा ऑक्सफोर्ड सर्कस कहलाता है ।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त वृहत् स्नानागार एक प्रमुख स्मारक है , जिसके मध्य स्थित स्नानकुण्ड 11.88 मीटर लम्बा , 7.01 मीटर चौड़ा एवं 2.43 मीटर गहरा है । जल – कुण्ड में उतरने के लिए 2.44 मीटर चौड़ी सीढ़ियाँ थी ।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त अन्नागार सम्भवत :सिंधु सभ्यता की सबसे बड़ी . इमारत है ।
हड़प्पा से 6 अनाज – शालाएँ मिली हैं । दुर्ग के दक्षिण में सभा भवन स्थित था , ये भवन 27.43 मी . के वर्गाकार में था , जो 20 स्तंभों पर टिका था , सम्भवतः इसका उपयोग धार्मिक सभाओं के लिए होता था ।
सिन्धु लिपि के सबसे बड़े लेख में लगभग 17 चिन्ह हैं अभी हाल में इतिहासकार के ० एस ० आर ० राव ने इस लिपि को पढ़ने का दावा किया है ।
सिन्धु सभ्यता के पतन का प्रमुख कारण सम्भवतः बाढ़ था । पंजाब प्रान्त के मॉन्टगोमरी जिले में स्थित हड़प्पा के सामान्य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक कब्रिस्तान स्थित था , जिसे ‘ समाधि R – 37 ‘ कहा जाता है ।
मोहजजोदड़ो से विशाल स्नानागार के साक्ष्य मिले हैं । भारत में सबसे बड़ा सिन्धु सभ्यता का स्थल धौलावीरा तथा राखीगढ़ी था ।
मोहनजोदड़ो से हड़प्पा सभ्यता के मशहूर काँस्य नर्तकी की प्रतिमा मिली है , अत : यह कौस्ययुगीन सभ्यता थी । अल्लादीनोह सिन्धु सभ्यता का सबसे छोटा स्थल था ।
सिन्धु सभ्यता का समाज मातृप्रधान था । सिन्धु सभ्यता से प्राप्त अधिकांश मूर्तियाँ मातृदेवी की मिली है । बनवाली से खिलौना तथा हल की प्राप्ति हुई है 1
कालीबंगा से जोते हुए खेत एवं नक्काशीदार ईंटों के प्रमाण प्राप्त हुए हैं ।
सिन्धु सभ्यता की चित्राक्षर लिपि को लिखने की तकनीक को बुस्त्रोफेंडन कहा जाता है ।
रंगपुर एवं लोथल से चावल के दाने मिले हैं , जिनसे धान की खेती होने का प्रमाण मिलता है ।
सिन्धु सभ्यता के लोगों का मुख्य पेशा कृषि एवं पशुपालन था । वे गेहूँ , कपास , जौ , गेहूँ , राई , मटर एवं खजूर आदि की खेती करते थे ।
सिन्धु सभ्यता के लोग बैल , ऊँट , भैंस , भेंड , गधे , बकरी , सुअर , हाथी , कुत्ते एवं बिल्ली पालते थे । सिन्धु सभ्यता के लोग गाय तथा घोड़ा के महत्व से परिचित नहीं थे ।
हड़प्पा सभ्यता के लोग कुबड़ वाले साँढ़ की पूजा करते थे । हड़प्पा सभ्यता के लोग पशुपति एवं शिव की पूजा करते थे । सुरकोतदा से घोड़े की हड्डियों के अवशेष मिले हैं ।
मोहनजोदड़ो एवं आमरी नामक स्थल सिन्धु नदी के किनारे स्थित है ।
हड़प्पा पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब प्रान्त के मांटगोमरी जिले में स्थित है ।
मोहनजोदडो पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त के लरकाना जिले में स्थित है । बहावलपुर ( राजस्थान ) सूखी नदी ‘ सरस्वती ‘ के किनारे स्थित है ।
सिन्धु सभ्यता के सबसे बाद ( 1974 ई ० ) खोजा गया स्थल बनवाली है ।
सिन्धु सभ्यता के लोगों का समाज चार भागों में विभक्त था – व्यापारी , विद्वान , श्रमिक तथा सैनिक ।
सिंधु सभ्यता में व्यापारी वर्ग के हाथ में सभ्यता के शासन – प्रशासन की जिम्मेवारी होने का अनुमान लगाया जाता है ।
सिन्धु घाटी सभ्यता में वस्तु – विनिमय प्रणाली प्रचलित थी ।
सिंधु सभ्यता में माप – तौल की इकाई सम्भवतः 16 के अनुपात में ( 16 , 32 , 64 , 128 , 256 … ) थी ।
सिन्धु क्षेत्र में मापने के लिए कई स्केल पाये गये हैं , इनमें एक दशमलव स्केल भी है । दशमलव स्केल की लम्बाई 13.2 ईंच है , इसका एक भाग 1.32 इंच का है ।
कालीबंगन का अर्थ होता है काले रंग की चूड़ियाँ , यहाँ से शल्य – क्रिया के साक्ष्य मिले हैं ।
सिंधु सभ्यता में अन्तिम संस्कार का सबसे प्रचलित तरीका शवाधान ( सम्पूर्ण रूप से शव को दफनाया जाना ) था । सिंधु सभ्यता में पर्दा – प्रथा एवं वेश्यावृत्ति सिन्धु सभ्यता में प्रचलित थी ।
सिन्धु सभ्यता के निवासी सूती एवं ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते थे तथा वृक्ष – पूजा करते थे ।
सिन्धु सभ्यता के लोग मिठास के लिए शहद का प्रयोग करते थे ।
रंगपुर एवं लोथल से चावल के दाने मिले हैं जिनसे धान की खेती का प्रमाण मिलता है ।
चान्हुदड़ो से गुड़िया निर्माण हेतु एक कारखाने तथा लिपिस्टिक के अवशेष मिले हैं ।
धौलावीरा सिन्धु सभ्यता का तकनीकी रूप से सर्वाधिक विकसित स्थल था ।
पिग्गट महोदय ने हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो को एक विस्तृत साम्राज्य की जुड़वाँ राजधानी ( Twin capital ) की संज्ञा दी थी ।
• सिन्धु निवासी मिट्टी के बर्तन निर्माण , मुहरों के निर्माण , मूर्ति निर्माण , वर्गाकार एवं आयताकार ताबीज का निर्माण तथा मटके के निर्माण आदि कुशल थे कपास उगाने के कारण समकालीन मिस्र सभ्यता के लोग सिन्धु क्षेत्र को शिंडन कहते थे ।
मेसोपोटामिया के लोग सिन्धु क्षेत्र को मेलूहा कहते थे ।
सिन्धु सभ्यता के लोगों ने नगरों तथा घरों के विन्यास के लिए ग्रिड पद्धति अपनाई ।
वैदिक सभ्यता
( Vedic Civilisation )
भारत में लगभग ई ० पू ० 1500 में इस सभ्यता की नींव , पड़ी । इसकी जानकारी वेदों से होने के कारण इसे ‘ वैदिक सभ्यता ‘ भी कहते हैं ।
‘ मैक्समूलर ‘ के सर्वमान्य मत के अनुसार आर्यों का मूल उत्पति स्थान मध्य एशिया में बैक्ट्रिया था । जेंद – अवेस्ता ( ईरानी धर्मग्रन्थ ) में भारतीय आर्यों के देवता इन्द्र , वरूण तथा मित्र का उल्लेख है । ‘ आर्य ‘ शब्द का अर्थ पवित्र वंश वाला होता है , संस्कृत भाषा बोलते थे ।
ऋग्वेद से आरम्भिक आर्यों के उत्तर – पश्चिम भारत में बसने का ज्ञान होता है । नदी सूक्त ( ऋग्वेद ) के अनुसार सिन्धु एवं उसकी 7 सहायक नदियों के इर्द – गिर्द ऋग्वैदिक सभ्यता विकसित हुई ।
नदी सूक्त सरस्वती एवं सिन्धु को सर्वाधिक पवित्र नदी के रूप में प्रतिष्ठित करता है ।
वर्तमान में ‘ सरस्वती ‘ नदी का कोई अस्तित्व नहीं है , यह राजस्थान के रेगिस्तान में विलीन हो चुकी है । वैदिक काल में सम्पूर्ण उत्तर भारत के क्षेत्र को आर्यावर्त कहा जाता था ।
बाद में आर्यों ने सदानीरा ( गंडक ) नदी का भी पता लगाया । प्रारम्भ में आर्य समुद्र से परिचित नहीं थे , तथा इसका अर्थ वे जल के विपुल भण्डार अथवा बड़ी नदियाँ समझते थे ।
ऋग्वैदिक आर्य हिमालय पर्वत से परिचित थे , इसकी एक चोटी मुंजावत पर सोम ( आधुनिक भांग ) नामक पौधा प्राप्त होता था । सोम पौधे से तैयार नशीले पेय का सेवन आर्यों द्वारा वाजपेय यज्ञों की समाप्ति के उपरान्त किया जाता था ।
ऋग्वेद में आर्यों की प्रमुख जनजातियों का उल्लेख पंचजन के रूप में किया गया है ।
दशराज युद्ध में आर्यों को ऋषि वाल्मिकि का तथा अनार्यों को ऋषि विश्वामित्र का समर्थन प्राप्त था । दशराज युद्ध में भरतवंशी राजा ‘ सुदास ‘ के नेतृत्व में आर्यों की विजय हुई । हमारे देश का नाम भारतवर्ष आर्यों के ‘ भारतवंशी ‘ राजा भरत के नाम पर पड़ा ।
वर्गीकरण व्यवसाय के आधार पर इस प्रकार किया गया था 1. पुरोहित ( ब्राह्मण ) , 2. राजन्य ( क्षत्रिय ) , 3. वैश्य ( कृषक , कारीगर , – व्यापारी ) तथा शूद ( दास तथा अनार्य ) ।
ऋग्वैदिक समाज में परिवार के मुखिया को कुलप्पा कहा जाता था । ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक होते हुए भी उसमें ‘ महिलाओं ‘ की स्थिति अच्छी थी ।
समाज में एक – विवाह ( Monogamy ) की प्रथा थी तथा इस काल में सती प्रथा एवं पर्दा प्रथा का अस्तित्व नहीं था । 11-8 .
. ऋग्वैदिक काल में प्रयुक्त महत्त्वपूर्ण शब्द .
-उवेश – जुते हुए खेत ,
ऊर्दर – अनाज नापने वाला यंत्र ,
• करीष – गोबर की खाद ,
वृक – बैल ,
लांगल – हल सीता – हलरेखा , अवत – कूप ,
कीवाश – हल लगाने वाला ,
स्थिवि – अनाज रखने का कोठार ,
पर्जन्य – बादल ।
ऋग्वेद के 24 श्लोकों में शब्द कृषि का उल्लेख है । खेतों को जोतने के लिए हल का प्रयोग होता था जिसमे साधारणतया 6 . 8 या 12 बैलों का प्रयोग होता था । ऋग्वेद में खाद्यान्नों को सामूहिक रूप से यव अथवा धान्य कहा गया है ।
ऋग्वेद में चावल की कृषि के प्रमाण नहीं प्राप्त होते । बर्तन बनाना , बुनाई , बढ़ईगिरी , धातुकर्म एवं चर्मकारी जैसे कुछ अन्य व्यवसाय भी प्रचलन में थे ।
ऋग्वैदिक आर्यों को टिन , सीसा , चाँदी , ताँबा , काँसा तथा स्वर्ण की जानकारी थी ।
ऋग्वैदिक काल में स्वर्ण को हिरण्य , काँसे को अस्म तथा ताँबे को अयस कहा गया है ।
ऋग्वैदिक देवताओं में इन्द्र एवं अग्नि सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे ।
ऋग्वेद में इन्द्र की प्रार्थना में सर्वाधिक 250 सूक्त दिये गये हैं तथा इन्हें पुरंदर ( दुर्गों को ध्वस्त करनेवाला ) कहा गया है ।
पृथ्वी के देवताओं में अग्नि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है । ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित 200 सूक्तों का समावेश किया गया है । जल के देवता ‘ वरुण ‘ का भी जत्याधक महत्व था , ईरानी ग्रन्थों में इन्हें अहुरमाजदा एवं यूनानी ग्रंथों में ओरनोज कहा गया है ।
ई ० पू ० 1000-600 का काल उत्तर वैदिक काल कहलाता है । इस काल में आर्यों का प्रसार पूरब में सदानीरा ( गंडक ) नदी एवं दक्षिण में विंध्य पर्वत तक हुआ । सदनीरा नदी के पूर्वी किनारे पर आर्यों का एक जत्था विदेह माधव के नेतृत्व में आकर बसा । कालीतर में सदानीरा नदी के क्षेत्र में विदेह राज्य की स्थापना हुई । तकनीकी विकास की दृष्टि से यही वह काल था जब उत्तर भारत में लौह युग आरम्भ हुआ ।
. . . स्त्रियों को वेदों का अध्ययन करने तथा अपने पति के साथ सार्वजनिक सभाओं तथा उत्सवों में भाग लेने का अधिकार था ।
ऋग्वे ऋग्वैदिक काल की कुछ स्त्रियाँ विश्ववरा , अपाला , घोष एवं लोपमुद्रा वैदिक मंत्रों की रचना करने के लिए जानी जाती हैं ।
आर्यों ने स्वयं को द्विज ( दो बार जन्में ) एक बार तब जब वे माता के पेट से उत्पन्न होते हैं तथा दूसरी बार तब जब उनका उपनयन संस्कार होता है )
इस काल में विधवा विवाह का प्रचलन तो था परन्तु बाल – विवाह का कोई अस्तित्व नहीं था ।
ऋग्वैदिक काल में ‘ दहेज प्रथा ‘ जैसी सामाजिक बुराई का प्रचलन था तथा स्त्रियाँ पैतृक संपत्ति की हकदार नहीं थी । आर्य भोजन के रूप में अन्न , फल , दूध एवं दूध से तैयार पदार्थ तथा ( ix ) भेंड़ , बकरी , घोड़े के मांस एवं मछलियाँ ग्रहण करते थे । सुरा , मधु एवं सोमरस ( सोम नामक पौधे से तैयार ) आदि आर्यों के मुख्य पेय पदार्थ थे । वास , अधिवास तथा उष्णीश ( पगड़ी ) आदि आर्यों के प्रमुख पहनावे थे , अंदर पहनने वाले कपड़ों को नीवि कहा जाता था ।
आर्यों के मनोरंजन के मुख्य साधन संगीत , रथ – दौड़ , दूत – क्रीड़ा एवं घुड़दौड़ आदि थे । ऋग्वेद में दास एवं दस्यु का उल्लेख किया गया है ।
ऋग्वैदिक समाज एक कबायली – समाज था , कई परिवारों को मिलाकर एक गाँव बनता था जिसका प्रमुख ग्रामणी होता था । कई ग्रामों को मिलाकर जन का निर्माण होता था ।
ऋग्वेद में ‘ जन ‘ का उल्लेख 275 बार किया गया है । एक जन के सभी व्यक्ति विश कहलाते थे तथा इसका प्रधान विशपति अथवा राजा कहलाता था ।
ऋग्वेद में विश् का उल्लेख 170 बार हुआ है । ऋग्वैदिक काल में राजा का चुनाव होता था , प्रजा को उसे हटाने की शक्ति भी थी । राजा युद्धों में सेना का नेतृत्व करता था तथा उपज का 1/6 भाग वह राज्यकर के रूप में प्राप्त करता था ।
ऋग्वेद के अनुसार तत्कालीन प्रशासन में राजा के पश्चात पुरोहित का पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण था । पुरोहित राजा का मित्र , पथ – प्रदर्शक , दार्शनिक एवं प्रधान सहायक होता था । पुरोहितों के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद सेनानी राजा द्वारा नियुक्त होता था । उपर्युक्त के अलावा ग्रामिणी , सूत , रथकार एवं कर्मकार के उल्लेख भी ऋग्वेद से प्राप्त होते हैं । ग्रामीणी , सूत , रथकार एवं कर्मकार को ऋग्वेद में सम्मिलित रूप से रलिन ( Ratnins ) कहा गया है ।
ऋग्वैदिक काल में निम्न पदाधिकारियों के उल्लेख मिलते हैं 1. क्षत्र ( प्रतिहारी ) , 2. भागदुधा ( कर – संग्राहक ) , 3. संग्रहीत ( कोषाध्यक्ष ) , 4. अक्षवाय ( पांसे के खेल मेंराजा का सहयोगी ) , 5. पालागल ( राजा का मित्र ) ।
ऋग्वेद में हमें कुछ गुप्तचरों एवं समाचार – वाहकों का उल्लेख मिलता है जो स्पश कहलाते थे । इस काल में उग्र अपराधियों को पकड़ने वाला पदाधिकारी तथा ब्रजापति ( राजकीय चारागाह का पदाधिकारी ) जैसे पदाधिकारियों के उल्लेख भी मिलते हैं ।
ऋग्वैदिक प्रशासन में विक्ष्य ( आर्यों की प्राचीन सभा ) , समिति ( आम जनों की सभा ) तथा सभा ( कुलीनों एवं श्रेष्ठ जनों की सभा ) जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएं भी अस्तित्व में थीं । सीमित में महिलाओं को शामिल होने की अनुमति थी । सभा में महिलाओं की उपस्थिति की अनुमति नहीं थी , यह संभवत : राष्ट्र न्यायालय का कार्य करती थी ।
शत पथ ब्राह्मण में ‘ सभा एवं समिति ‘ को प्रजापति ( ब्रह्ममा ) की । जुड़वाँ पुत्रियाँ ( Twin daughters of prayapati ) कहा गया पशुपालन एवं कृषि ऋग्वैदिक आर्यों के प्रमुख पेशे थे , सीमित व्यापार के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं ।
उत्तर – वैदिक काल
. . . . . . हस्तिनापुर , अतरंजीखेरा , आलमगीरपुर तथा बटेसर आदि से 800 ई ० पू ० से 400 ई ० पू ० तक लोहे के व्यापक प्रयोग के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं ।
उत्तर वैदिक साहित्य में लोहे ( Iron ) के लिए श्याम अयस् अथवा कृष्ण अयस् जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है । इस काल में मत्स्य , कुरु , पंचाल , काशी , गंधार , कैकेय , हैहेय , विदेह , अंग , मद एवं कोशल तथा मगध जैसे शक्तिशाली राज्यों का उदय हुआ । इस काल में हलों को खींचने के लिए 24 बैलों के प्रयोग का साक्ष्य प्राप्त होता है , कृषि कार्य में खाद का प्रयोग आरम्भ हुआ । हल को सिरा एवं हलरेखा को सीता कहा जाता था ।
उत्तर वैदिक काल में चावल एवं गेहूँ ( शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ) प्रमुख अनाज थे ।
उत्तर वैदिक आर्य ‘ समुद्र ‘ से परिचित थे , ऐसा ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित अनंत सागर शब्द से ज्ञात होता है । इस काल में व्यापार उन्नति पर था , श्रेष्ठी एवं गण जैसे व्यावसायिक शब्द इस बात को सिद्ध करते हैं ।
उत्तर वैदिक काल में सूदखोरों को बेकनॉट कहा जाता था ।
उत्तर वैदिक काल में स्वर्ण का सिक्का शतमान एवं ताँबे के सिक्के कृष्णात एवं पाद प्रचलन में आया ।
उत्तर वैदिक काल में वाराणसी , हस्तिनापुर तथा इन्द्रप्रस्थ जैसे कुछ नगरों का विकास हुआ । बालि ( एक उपहार ) नामक कर ऋग्वैदिक काल में लोग स्वेच्छा से अदा करते थे उसे इस काल में अनिवार्य कर दिया गया ।
उत्तर – वैदिक काल में ‘ कर ‘ सम्भवतः कुल उपज का 1 / 6 वाँ हिस्सा लिया जाता था ।
ऋग्वेद , गोमिल गृह्यसूत्र , तथा परस्पर गृह्यसूत्र आदि ‘ कृषि सम्बन्धित देवी ‘ के लिए सीता शब्द का उल्लेख करते हैं । इस काल में बड़े पैमाने पर ‘ चित्रित धूसर – मृदभांट ‘ एवं बड़े पैमाने पर लोहे के औजार प्राप्त हुए हैं । अतः इस काल को चित्रित धूसर मृदभांड – लौहकाल ( PGW iron Phase ) भी कहा जाता है ।
उत्तर – वैदिक काल में ‘ पक्की ईंटों के प्रयोग ‘ का पहला प्रमाण कौशांबी नगर से मिलता है ।
उत्तर – वैदिक युग राजतन्त्र ( Monarchy ) के सशक्तिकरण का युग था राजाओं द्वारा इस काल में महाराज , अधिराज , सम्राट एवं सार्वभौम की उपाधियाँ धारण की गई ।
ऐतरेय ब्राह्मण में विभिन्न दिशाओं के राजाओं के लिए निम्न शब्दों का प्रयोग किया गया है ? . सम्राट – पूर्वी देश का शासक । . भोज – दक्षिणी देश का शासक । . स्वराट – पश्चिमी देश का शासक । . राजन – मध्य देश का शासक । विराट – उत्तरी देश का शासक । एकराट – चारों दिशाओं का शासक
इस युग में जिन प्रतापी राजाओं के उल्लेख मिलते हैं , उनमें जन्मेजय , प्रतिपीय , बहलीक तथा परीक्षित प्रमुख थे ।
राजा का पद अब वंशानुगत हो गया ।
इस काल का ‘ प्रशासनिक ढाँचा ‘ निम्नवत था 1. suत – रथ हाँकने वाला , 6. पालागल – राजा का मित्र , 2 ब्रजापति – चारागाह का अधिकारी , 7. पुरूप – दुर्गपाल , 3. भागदुधा – कर समाहर्ता , 8. जीवग्राह्य – पुलिस अधिकारी , 4. स्थापति – मुख्य न्यायाधीश , 9. सेनानी – सेनापति , 10. अक्षवाय – पाँसे के खेल में राजा का सहयोगी ।
अभी तक राजकीय न्यायालय का कार्य सभा ही कर रही थी । इस काल में समाज स्पष्ट रूप से चार जातियों ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य एवं शूद्र में विभक्त था ।
जाति का निर्धारण पैत्रिक आधार पर किया जाने लगा । .1-10 . . . . 5. ग्रामणी – ग्राम का प्रमुख ,
उत्तर – वैदिक काल में लोहार , बढ़ई , व्यापारी , मलाह , चर्मकार एवं रथकार जैसी उपजातियों का उल्लेख भी मिलता है । इस काल में छुआछूत ( Untouchability ) की बुराई के आविर्भाव का प्रमाण हमें गौतम सूत्र से मिलता है । इस काल में महिलाओं की स्थित दयनीय हो गई तथा इन्हें लोकप्रिय सभाओं में भाग लेने तथा ‘ उपनयन संस्कार ‘ से वर्जित कर दिया गया ।
ऋग्वैदिक काल में महिलाओं का भी पुरुषों के समान उपनयन संस्कार होता था ।
वेश्यावृत्ति जैसी सामाजिक बुराई का अभ्युदय भी उत्तर – वैदिक काल में हुआ । हालांकि स्त्री – शिक्षा इस काल में भी पूर्व की भांति प्रचलन में रही , गार्गी , न मैत्रेयी एवं वाचनवी जैसी विदुषियों का उल्लेख मिलता है ।
ऋग्वेद में 8 प्रकार के विवाहों का उल्लेख प्राप्त होता है
उत्तर वैदिक काल में गोत्र परम्परा का अभ्युदय हुआ तथा इसी काल में गोत्र के बाहर विवाह करने की परम्परा विकसित हुई ।
उत्तर – वैदिक काल में प्राचीन भारतीय जीवन के चार महान पुरूषार्थों ध , अर्थ , काम एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए चार आश्रमों ( ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ तथा सन्यास ) को आधार बनाया गया ।
उत्तर वैदिक काल में 7 प्रकार के सोमयज्ञों का प्रचलन था – अग्निष्टोम , अत्यग्निष्टो , उक्थ्य , षोडशिन् , वाजपेय् , अतिरात्र और अप्तोर्याम ।
वाजपेय यज्ञों में ‘ रथ – दौड़ ‘ प्रतियोगिता होती थी जिसमें आमतौर पर ‘ राजा का रथ ‘ जीतता अथवा जितवाया जाता था ।
वाजपेय यज्ञों के अवसर पर सोम पौधों की पत्तियों को पीस कर तैयार किये गये नशीले पेय वाजपेय का सेवन किया जाता था ।
उत्तर – वैदिक काल में प्रचलित 40 संस्कारों की सूची परवर्ती वैदिक न साहित्य से प्राप्त होती है ।
उत्तर वैदिक काल में यज्ञों की अवधि , संख्या एवं जटिलता में वृद्धि हुई । इस काल में इंद्र , अग्नि एवं वरूण का स्थान प्रजापति ( ब्रह्मा ) , विष्णु एवं शिव ने ले लिया ।
उत्तर वैदिक काल में पशुओं के देवता पूषण को शूद्रों के देवता का स्थान प्राप्त हुआ ।
उत्तर वैदिक काल में ही भारतीय षड्दर्शन ( Six schools of Indian 7 Philoshophy ) का विकास हुआ – सांख्य , योग , न्याय , वैशेषिक , मीमांसा तथा वेदांत ।
सर्वाधिक प्राचीन सांख्य दर्शन है ।
उपनिषदों , ब्रह्मसूत्र , एवं भगवद्गीता इत्यादि पर ‘ आदि कवि ‘ शंकराचार्य के भाष्य महत्वपूर्ण है । शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित दर्शन अद्वैत वेदांत महत्वपूर्ण है । सांख्य दर्शन का प्रवर्तन महर्षि कपिल ने किया , यह अनीश्वरवादी दर्शन है ।
वैशेषिक दर्शन वेद ( Vedas ) की प्रमाणिकता को स्वीकार करता है , इसके प्रणेता कणाद मुनि थे । वैशेषिक दर्शन परमाणु ( Atom ) के अस्तित्व को मानता है ।
न्याय दर्शन का ज्ञान गौतम ऋषि द्वारा प्रतिपादित न्यायसूत्र से प्राप्त होता है ।
योग दर्शन का प्रतिपादन पतंजलि ने किया , यह दर्शन विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय है । योग दर्शन ‘ मोक्ष ‘ के लिए योगाभ्यास पर बल देता है तथ ‘ ईश्वर ‘ के अस्तित्व को । मीमांसा एक आस्तिक दर्शन है , यह पूर्णतः वेदों पर आधारित है ।
मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक जैमिनी थे , यह दर्शन वैदिक कर्मकांडों की पैरवी करता है ।
वेदांत दर्शन का आधार उपनिषद् है इसका विवेचन बदरायन रचित ब्रह्मसूत्र से प्राप्त होता है ।
वेदांत दर्शन को ‘ उत्तर मीमांसा ‘ अथवा ‘ शारीरिक मीमांसा ‘ भी कहते हैं ।
• ई ० पू ० छठी शताब्दी में भारत में 62 नए धार्मिक संप्रदायों का उदय हुआ । उपरोक्त में जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म का विशेष महत्व है । 1-10 . 7
जैन परम्परा में धर्मगुरुओं को तीर्थकर कहा जाता है , इनकी संख्या 24 ऋषभदेव इस परम्परा के पहले तीर्थकर हुए ।
ऋषभदेव का उल्लेख ऋग्वेद में भी है ।
ऋषभदेव , पार्श्वनाथ ( 23 वें तीर्थकर ) तथा वर्द्धमान महावीर ( 24 वें तीर्थंकर ) को छोड़कर शेष सभी तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदेह के घेरे में है ।
सांढ़ ऋषभ देव के शंख पार्श्व नाथ के तथा शेर वर्द्धमान महावीर के प्रतीक चिह्न थे ।
जैनों के 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म ई ० पू ० 850 ई ० में वाराणसी में हुआ था ।
पार्श्वनाथ के पिता अश्वसेन ‘ काशी ‘ के इक्ष्वाकु वंश के राजा थे । वे 30 वर्षों की आयु में वैराग्य उत्पन्न होने के कारण संन्यासी हो गये । 83 दिनों तक सम्मेत पर्वत ( पारसनाथ पहाड़ी , झारखण्ड ) पर कठिन तप करने के पश्चात् 84 वें दिन उन्हें ‘ कैवल्य ( ज्ञान ) ‘ की प्राप्ति हुई ।
जैन अनुश्रुतियों के अनुसार पार्श्वनाथ ने 70 वर्ष तक धर्मप्रचार किया ।
पार्श्वनाथ के अनुयायियों को निर्गंथ कहा जाता था ।
. पार्श्वनाथ के काल में ‘ निग्रंथ संप्रदाय ‘ चार गणों ( संघों ) में बँटा हुआ था , प्रत्येक गण का प्रमुख एक गणधर होता था ।
पार्श्वनाथ ने सत्य ( सदा सच बोलना ) , अहिन्सा ( किसी प्रकार की हिन्सा न करना ) , अस्तेय ( चोरी न करना ) तथा अपरिग्रह ( धन संचय ) न करने . का उपदेश दिया ।
भद्रबाहु द्वारा रचित कल्पसूत्र के अनुसार पार्श्वनाथ का निधन सम्मेत पर्वत ( पारसनाथ , झारखंड ) पर हुआ था ।
पारसनाथ पहाड़ी आज भी जैनियों का एक पवित्र स्थल है ।
महावीर स्वामी जैन धर्म के 24 वें ‘ एवं अन्तिम तीर्थकर थे ।
ई ० पू ० छठी शताब्दी में उत्तर बिहार में प्रसिद्ध वज्जि संघ था , जिसकी राजधानी वैशाली थी ।
‘ वज्जि संघ ‘ में 8 – गणराज्य सम्मिलत थे , जिसमें एक राज्य कुण्डग्राम था ।
” कुण्डग्राम ‘ में उक्त काल में ज्ञातृक क्षत्रियों का राज्य था , जिसके प्रमुख राजा सिद्धार्थ थे ।
राजा ‘ सिद्धार्थ ‘ का विवाह लिच्छवि गणराज्य के प्रमुख चेटक की बहन त्रिशला से हुआ ।
सिद्धार्थ एवं त्रिशला के संगम से ‘ वर्द्धमान महावीर ‘ का जन्म हुआ ।
महावीर के बचपन का नाम वर्द्धमान था , उनका जन्म 540 ई ० पू ० में हुआ । बड़े होने पर यशोदा से महावीर का विवाह हुआ । ‘ यशोदा ‘ से अन्नोज्जा प्रियदर्शिनी का जन्म हुआ ।
वर्द्धमान ने 30 वर्ष की उम्र में अपने भाई राजा नंदिवर्द्धन से आज्ञा लेकर गृह – त्याग दिया ।
प्रसिद्ध जैन – ग्रन्थों कल्पसूत्र एवं अचरांगसूत्र से ज्ञात होता है , कि वर्द्धमान महावीर ने 12 वर्षों तक ऋजुपालिका नदी के तट पर जाग्राम के समीप साल वृक्ष के नीचे कठोर तपस्या की । 12 वर्षों के कठोर तप के पश्चात् 42 वर्ष की उम्र में महावीर को कैवल्य +( सर्वोच्च ज्ञान ) की प्राप्ति हुआ ।
‘ कैवल्य ‘ की प्राप्ति कर लेने के कारण उन्हें केवलिन कहा गया । अपनी समस्त इंद्रियों को जीत लेने के कारण उन्हें जिन कहा गया ।
तप – काल में अपरिमित पराक्रम दिखाने के कारण उन्हें महावीर कहा गया । महावीर को ‘ जिन ‘ की उपाधि मिलने के बाद ‘ निग्रंथ सम्प्रदाय ‘ जैन संप्रदाय ‘ एवं उनका धर्म जैन धर्म कहलाया ।
468 ई ० पू ० में 72 वर्ष की अवस्था में ‘ महावीर ‘ की मृत्यु पावा ( पावापुरी ) के मल्ल राजा सृस्तिपाल के राजप्रासाद में हुआ ।
महावीर ने अपने उपदेश प्राकृत ( अर्द्धमागधी ) भाषा में दिये ।
महावीर के सबसे पहले शिष्य उनके दामाद जमाली बने । महावीर की प्रथम महिला शिष्य राजा दधिवाहन की पुत्री चम्पा थी ।
जैन धर्म के अनुयायी कुछ प्रमुख शासक थे – अजातशत्रू ( आरंभ में ) , उदयन , चंद्रगुप्त मौर्य , कलिंगराज खारवेल , अमोघवर्ष ( राष्ट्रकूट शासक ) , चंदेल शासक । . .
जैन संघ की स्थापना महावीर के पहले ही हो चुकी थी ।
महावीर का शिष्य आर्य सुधरमन उनकी मृत्यु के पश्चात् जैन संघ का प्रमुख बना । जैन धर्म में निर्वाण की प्राप्ति के लिए त्रिरत्न का पालन आवश्यक माना गया है ।
जैन धर्म के त्रिरत्न हैं – सम्यक दर्शन ( सत्य में विश्वास ) , सम्यक ज्ञान ( शंकविहीन वास्तविक ज्ञान ) तथा सम्यक आचरण ( सुख – दुख के प्रति समभाव ) ।
त्रिरल के अनुशीलन में निम्न पंचमहाव्रत का पालन आवश्यक माना गया . 1. अहिन्सा ( Non – violence ) – मन , वचन तथा कर्म से किसी के प्रति असंयत व्यवहार नहीं करना । 2. सत्य वचन ( Truth ) – असत्य बोलने से परहेज करना । 3. अस्तेय ( Non – stealing ) – चोरी नहीं करनी चाहिए । 4. ब्रह्मचर्य ( Brahamcharya ) –
किसी नारी से वार्तालाप , उसे देखना तथा उसके संसर्ग का ध्यान करने की भी मनाही है । 5. अपरिग्रह ( Non – attachment ) – भिक्षुओं के लिए किसी भी प्रकार से संग्रह करने की प्रवृत्ति वर्जित है । उपर्युक्त पंचमहाव्रत में अहिन्सा , सत्य वचन , अस्तेय एवं अपरिग्रह पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित किये गये थे । पंचमहाव्रत में ब्रह्मचर्य व्रत महावीर स्वामी द्वारा जोड़ा गया । ‘ प्रथम जैन संगीति ‘ का आयोजन ई ० पू ० 322-298 के बीच पाटलिपुत्र में हुआ ।
प्रथम जैन संगीति की अध्यक्षता स्थूलभद्र अथवा स्थलबाहु ने की । प्रथम जैन संगीति को मौर्य सम्राट ‘ चंद्रगुप्त मौर्य ‘ ने संरक्षण प्रदान किया ।
प्रथम जैन संगीति में जैन साहित्य के 12 अंगों का प्रणयन किया गया ।
द्वितीय जैन संगीति का आयोजन 512 ई ० में वल्लभी ( गुजरात ) में हुआ ।
द्वितीय जैन संगीति की अध्यक्षता देवर्धिक्षमाश्रमण द्वारा की गई ।
‘ महावीर स्वामी ‘ की मृत्यु के 200 वर्षों के बाद ‘ मगध ‘ में एक भीषण अकाल पड़ा ।
अकाल की विभीषिका से बचने के लिए ‘ मौर्य सम्राट ‘ चंद्रगुप्त एवं भद्रबाहु अपने अनुयायियों के साथ दक्षिण भारत के कर्नाटक चले गये ।
मगध में रह गये जैनियों की जिम्मेदारी स्थूलभद्र को सौंपी गई । भ्रदबाहु के अनुयायी जब दक्षिण से लौटे तो जैन संप्रदाय दो खेमों में बँट गया भद्रबाहु के खेमे ने महावीर की शिक्षा के अनुसार ‘ पूर्ण नग्नता ‘ को स्वीकार किया ।
स्थलबाहु के खेमे ने पार्श्वनाथ की शिक्षा के अनुसार ‘ श्वेत वस्त्र ‘ धारण करने को समर्थन दिया । उपरोक्त कारण से स्थलबाहु के समर्थक श्वेतांबर एवं भद्रबाहु के समर्थक दिगंबर कहलाये ।
जैन धर्म में विभाजन प्रथम जैन संगीति ( First Jaina Council ) में हुआ । जैन धर्म के आध्यात्मिक विचार सांख्य दर्शन से प्रेरित हैं ।
मौर्य काल के पश्चात् मथुरा जैन धर्म का एक प्रसिद्ध केंद्र बना ।
बौद्ध धर्म में दीक्षित होने वाली प्रथम महिला गौतम बुद्ध की विमाता प्रजापति गौतमी थी ।
80 वर्ष की आयु में 483 ई ० पू ० में मल्ल राज्य की राजधानी कुशीनगर ( देवरिया जिला ) में महात्मा बुद्ध का निधन हो गया । बौद्ध परम्पराओं में महात्मा बुद्ध के निधन को महापरिनिर्वाण ( Buddha leaving the world ) कहा गया है । बौद्ध धर्म अनीश्वरवादी है तथा इसके अनुसार आत्मा ( Soul ) का कोई अस्तित्व नहीं है । बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं , बुद्ध , धम्म एवं संघ । गौतम बुद्ध ने संघ जैसी व्यवस्था को संस्थागत स्वरूप प्रदान किया । आधुनिक युग में लाखों बौद्ध निम्न वाक्य कहकर त्रिरल में अपनी आस्था व्यक्त करते हैं बुद्धं शरणं गच्छामि , धम्मं शरणं गच्छामि , संघं शरणं गच्छामि ……… संघ की सभा में पठित प्रस्ताव को ‘ अनसावन ‘ कहा जाता था । किसी व्यक्ति के संघ में प्रवेश करने की प्रक्रिया उपसंपदा कहलाती थी । बौद्ध संघ में प्रवेश की न्यूनतम उम्र – सीमा 15 वर्ष थी । अपने प्रिय शिष्य आनन्द के आग्रह पर बुद्ध ने महिलाओं को भी संघ में प्रवेश की अनुमति दी । ‘ वैशाली की नगरवधू ‘ के नाम से विख्यात आम्रपाली बौद्ध संघ की सदस्य बनने वाली पहली महिला थी । संघ में शामिल होने वाले बौद्ध धर्मावलम्बी भिक्षुक कहलाते थे । गृहस्थ जीवन बिताने वाले बौद्ध धर्मावलम्बी उपासक कहलाते थे । बौद्ध धर्म के विषय में ज्ञान पालि भाषा में रचित त्रिपिटक ( Tripitak ) से होता है । बौद्ध धर्म का मूल आधार इसके चार आर्य सत्य हैं 1. सर्वम् दुःखम् – इसके अनुसार संसार दु : खमय है । यह तथ्य उपनिषद् से लिया गया है । 2. दुःख समुद्दय – तृष्णा ( Desire ) दुखों का कारण है । 3. दुःख निरोध दुख का निवारण तृष्णा को त्याग कर किया जा सकता है । 4. दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा – दुख का निरोध आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करने से सम्भव है ।
अष्टांगिक मार्ग ( Astangik Marg ) 1. सम्यक् दृष्टि — बौद्ध धर्म के चार आर्य – सत्यों के ज्ञान से वाकिफ होना । 2. सम्यक् संकल्प – तृष्णा तथा हिन्सा रहित संकल्प करना । 3. सम्यक् वाणी – सदा सत्य एवं मृदु वाणी का प्रयोग करना जो कि ध मसम्मत हो । 4. सम्यक कर्म – सम्यक अथवा अच्छे कर्मों में संलग्न रहना । | 5. सम्यक् आजीव विशुद्ध रूप से सदाचार का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करना । 6. सम्यक् व्यायाम – विवेकपूर्ण प्रयत्न करना । 7. सम्यक् स्मृति – अपने कर्मों के प्रति विवेक तथा सावधानी को निरन्तर स्मरण रखना । ( 8. सम्यक् समाधि – चित्त की समुचित एकाग्रता ।
अष्टांगिक मार्ग के अनुशीलन से व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त कर सकता है । बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग के अन्तर्गत अत्यधिक सुखपूर्ण जीवन तथा अत्यन्त कठोर जीवन के बीच का मध्यम मार्ग अपनाने की वकालत की , इसे बौद्ध परम्पराओं में मध्यमा प्रतिपदा कहा गया । बुद्ध ने इसके लिए 10 शीलों का प्रतिपादन किया , उनके अनुसार इसका अनुशीलन ही नैतिक जीवन का आधार है 1. सत्य , 2. अहिन्सा , 3. अस्तेय ( चोरी न करना ) , 4. व्यभिचार न करना , 5. मद्य सेवन न करना , 6. असमय भोजन न करना , 7. सुखप्रद बिस्तर पर न सोना , 8. धन – संचय न करना , 9. अपरिग्रह ( सांसारिक बंधनों का मोह न करना ) , 10. स्त्री मोह का त्याग करना ।
बौद्ध संगीतियाँ ( Buddhist Councils ) 1.प्रथम संगीति ( First Council ) प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन 487 ई ० पू ० में सप्तपर्णि गुफा ( राजगृह ) में हुआ ।
. इस संगीति को मगध के सम्राट अजातशत्रु का संरक्षण प्राप्त हुआ ।
प्रथम बौद्ध संगीति की अध्यक्षता महाकस्सप ने की । इस संगीति में बुद्ध की शिक्षाओं को ग्रन्थ का स्वरूप प्रदान करते हुए इन्हें . विनय पिटक एवं अभिधम्मपिटक के रूप में संकलित किया गया । बुद्ध के प्रिय शिष्यों उपालि एवं आनन्द में क्रमश : विनयपिटक ‘ एवं ‘ ध म्मपिटक ‘ का संपादन किया । 2. द्वितीय संगीति ( Second Council )
द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन 387 ई ० पू ० में वैशाली में हुआ । इस बौद्ध संगीति की अध्यक्षता सबाकमी ने किया । इस संगीति को ‘ मगध ‘ के शिशुनाग वंशीय शासक कालाशोक का संरक्षण मिला । द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन बुद्ध की मृत्यु के 100 वर्षों के पश्चात् 3. तृतीय बौद्ध संगीति ( Third Council ) तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन 251 ई ० पू ० में पाटलिपुत्र में हुआ । तृतीय बौद्ध संगीति की अध्यक्षता मोगालिपुत्त तिस्सा ने किया । तृतीय बौद्ध संगीति को मौर्य सम्राट अशोक ने संरक्षण प्रदान किया ।
तृतीय बौद्ध संगीति में एक नवीन बौद्ध ग्रन्थ ‘ अभिधम्म पिटक ‘ का संकलन किया गया ।
4. चतुर्थ बौद्ध संगीति ( Fourth Council ) चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन प्रथम शताब्दी ई ० में कुण्डलवन ( कश्मीर ) में हुआ । चतुर्थ बौद्ध संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र एवं उपाध्यक्ष अश्वघोष थे ।
चतुर्थ बौद्ध संगीति को कुषाण सम्राट कनिष्क का संरक्षण प्राप्त हुआ । इस संगीति में बौद्ध ग्रन्थ ‘ त्रिपिटक ‘ पर महाभाष्यों की रचना हुई ।
वैशाली के बौद्धों ने 387 ई ० पू ० में विनयपिटक से अलग कुछ सिद्धान्तों को अपना लिया ।
चतुर्थ बौद्ध संगीति में बौद्ध संप्रदाय स्पष्ट रूप से दो संप्रदायों हीनयान ( Lesser vehichle ) एवं महायान ( Greater vehicle ) में विभाजित हो कर गया । परिवर्तन – विरोधी संप्रदाय हीनयान तथा परिवर्तन समर्थक महायान कहलता ।
महायान संप्रदाय बुद्ध को देवता मानकर उनकी मूर्ति – पूजा के समर्थक थे । हीनयान बुद्ध की मूर्ति – पूजा के विरोधी थे ।
चीन , तिब्बत , कोरिया , मंगोलिया तथा जापान में वर्तमान में महायान संप्रदाय के अनुयायी फैले हुए हैं । श्रीलंका , जावा एवं म्यांमार में ‘ हीनयान ‘ संप्रदाय के लोग फैले हुए कालान्तर में हीनयान संप्रदाय भी वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक में बँट गया । ‘
महायान ‘ संप्रदाय भी बाद में शून्यवाद ( माध्यमिक ) एवं विज्ञानवाद ( योगचार ) में विभक्त हो गया । Lon ” शून्यवाद ‘ का प्रतिपादक नागार्जुन था ,
‘ विज्ञानवाद ‘ का प्रवर्तक मैतन्य था ।
7 वीं शताब्दी में तंत्र – मंत्र से युक्त बौद्ध संप्रदाय वज्रयान का उदय हुआ । 7 वीं शताब्दी में बिहार के भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला विश्वविद्यालय ‘ वज्रयान संप्रदाय ‘ का प्रमुख केंद्र था । वैदिक युग में स्थापित ब्राह्मण धर्म का गुप्त काल में पर्याप्त विकास हुआ । आधुनिक काल में भारत में इसी धर्म के सर्वाधिक अनुयायी हैं । ।
भागवत् धर्म का उदय ई ० पू ० , छठी शताब्दी में हुआ । इस धर्म का आरम्भ महाकाव्य महाभारत के नारायण उपस्थान प्रसंग से होता है ।
इस धर्म के आरम्भिक सिद्धान्त भगवतगीता में प्राप्त होते हैं । महाकाव्य महाभारत इस धर्म को एक दिव्य धर्म के रूप में प्रतिष्ठापित करता है तथा विष्णु का उल्लेख भागवत् के रूप में करता है ।
भागवत धर्म विष्णु के तीन अवतारों पुरुषावतार , गुणावतार , लीलावतार का उल्लेख करता है ।
भागवत् संप्रदाय का प्रथम ज्ञात यूनानी अनुयायी हेलियोडोरस था । हेलियोडोरस ने विदिशा में गरुड़ध्वज की स्थापना की । विशिष्टाद्वैत दार्शनिक संप्रदाय भागवत् धर्म की मुख्य शाखा है ।
‘ विशिष्टाद्वैत ‘ संप्रदाय के संस्थापक रामानुज थे । ‘ भागवत धर्म ‘ के गर्भ से छठी शताब्दी ई ० पू ० में वैष्णव धर्म का उदय हुआ । मथुरा के कृष्णा ने वैष्णव धर्म की स्थापना की । ‘ कृष्ण ‘ के पिता वसुदेव यादव वंश के वृष्णि या सतवत् शाखा के प्रमुख थे ।
यात्रा वृत्तांत इंडिका ( मेगास्थनीज ) से ज्ञात होता है कि मथुरा के लोग हेराक्लीज ( कृष्ण का यूनानी नाम ) का विशेष आदर करते थे । ब्राह्मण ग्रन्थों में वर्णित ‘ विष्णु ‘ के 39 अवतारों में से वैष्णव धर्म 10 अवतारों को मान्यता देता है ।
वैष्णव धर्म में स्वीकृत ‘ विष्णु ‘ के 10 अवतार हैं -1 . मत्स्य , 2. वामण , 3. परशुराम , 4. कच्छप , 5. राम , 6. कृष्ण , 7. कलि , 8. वराह , 9. नृसिंह , 10. बुद्ध । ‘ चंद्रगुप्त- ।। ‘ सहित कई गुप्त सम्राटों ने परमभागवत् की उपाधि धारण की । गुप्त सम्राटों समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त- ।। के सिक्कों पर विष्णु के वाहन गरुड़ के चित्र उत्कीर्ण हैं ।
गाजीपुर जिले के भितरी नामक स्थान से गरुड़ – मुद्रायें प्राप्त हुई हैं । वैष्णव धर्म के अन्य प्रतीक शंक , चक्र , गदा , पद्म तथा लक्ष्मी के चित्र भी गुप्तकलीन मुद्राओं पर अंकित प्राप्त हुए हैं । • विष्णुपद पर्वत पर गुप्त सम्राट ‘ चन्द्रगुप्त- II ‘ द्वारा विष्णुध्वज स्थापित किया गया । गुप्तकाल में वैष्णव धर्म से सम्बन्धित महत्वपूर्ण अवशेष झांसी के देवगढ़ स्थित दशावतार मन्दिर से प्राप्त होते हैं । निम्बार्क द्वारा स्थापित निम्बार्क संप्रदाय वैष्णव धर्म से ही सम्बन्धित है ।
• सिन्धु सभ्यता के अवशेष शिवलिंग की पूजा के प्राचीनतम साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं ।
दक्षिण भारत में पल्लव वंश के शासकों ने शैव धर्म को संरक्षण दिया । पाशुपत शैव धर्म को मानने वाले लोग ‘ शिव ‘ के पशुपति रूप के उपासक होते हैं ।
पाशुपत शैव संप्रदाय की स्थापना भगवान शिव का एक अवतार माने गये लकुलीश ने की । पशुपति संप्रदाय भगवान शिव के 18 अवतारों को मान्यता देता है ।
कापलिक शैव संप्रदाय के अनुयायी भैरव के उपासक थे । कापालिक संप्रदाय का मुख्य केन्द्र श्री शैल नामक स्थान माना जाता है । कापालिक संप्रदाय में भैरव को सुरा एवं नरबलि पेश करने की परम्परा थी ।
कालामुख संप्रदाय भी कापालिक संप्रदाय की तरह आसुरी प्रवृत्ति का था । इस संप्रदाय के लोग नर – कपाल में ही भोजन , जल एवं सुरापान करते . . लिं
गायत शैव संप्रदाय दक्षिण भारत में प्रचलित था , इसे वीर शैव भी कहते हैं । ‘ लिंगायत शैव ‘ के अनुयाइयों को जंगम भी कहा जाता है
मथुरा कला जैन धर्म से ही सम्बन्धित है । 1 ‘ चंदेल शासकों ‘ ने खजुराहो में जैन मन्दिरों का निर्माण कराया । मैसूर के ‘ गंगवंश ‘ के मन्त्री चामुंड ने कर्नाटक के श्रवणवेलगोला में गोमतेश्वर की मूर्ति स्थापित की ।
प्रसिद्ध जैनग्रन्थ कल्पसूत्र ( रचनाकार – भद्रबाहु ) में जैन तीर्थंकरों की जीवनी संग्रहित है । जैनियों का प्रसिद्ध तीर्थस्थल हाथी – सिंह जैन मन्दिर गुजरात में स्थित है । जैनियों का एक अन्य प्रसिद्ध तीर्थस्थल जल – मन्दिर बिहार राज्य के पावापुरी में स्थित है ।
बौद्ध धर्म का प्रवर्तन गौतम बुद्ध ने किया । गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई ० पू ० में नेपाल की तराई में स्थित कपिलवस्तु के एक ग्राम लुम्बनी में हुआ था । गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोद्धन तथा माता का नाम मायादेवी था । गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोद्धन शाक्य क्षत्रिय कुल के प्रमुख थे । गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था । सिद्धार्थ की माता मायादेवी का निधन बचपन में ही हो गया था । सिद्धार्थ का लालन – पालन विमाता प्रजापति गौतमी ने किया ।
बौद्ध परंपरा में गौतम के गृह – त्याग की घटना को महाभिनिष्क्रमण कहा . . जाता है । गृहत्याग के पश्चात् गौतम ने सर्वप्रथम वैशाली में अलारकलाम से सांख्य । दर्शन की शिक्षा ग्रहण की । इस प्रकार ‘ अलारकलाम ‘ गौतम के प्रथम गुरु थे । इसके बाद गौतम ने रामपुत्त से शिक्षा ग्रहण की । परन्तु , उपर्युक्त शिक्षाओं से वे संतुष्ट नहीं हुए तथा वे गया के समीप 1 . उरुवेला की वनस्थली में पहुंचे तथा वहाँ कठिन तप किया , परन्तु उन्हें 2 . वाछित ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई । 3 . तत्पश्चात् , गौतम ‘ गया ‘ के निकट निरंजना ( फल्गू ) नदी के किनारे कठिन तप के लिए पीपल – वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर बैठ गये । 4 . अपने जीवन के 35 वें वर्ष में गौतम को वैशाखी पूर्णिमा की रात्रि को 5 . ‘ सच्चा ज्ञान ‘ प्राप्त हुआ ।
• बुद्ध को सम्बोधि – प्राप्ति का स्थान कालान्तर में बोध गया ( Bodh Gaya ) के नाम से प्रसिद्ध हुआ । जिस वृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ उसे कालान्तर में बोधि – वृक्ष के नाम से जाना गया । बोध गया से महात्मा बुद्ध ऋषिपत्तन ( वाराणसी के नजदीक सारनाथ ) पहुँचे । ‘ ऋषिपतन ( सारनाथ ) ‘ में उन्होंने पाँच तपस्वियों को अपना पहला उपदेश दिया ।
महाजनपदों का उदय
( Rise of Mahajanpads )
ई ० पू ० 6 वीं शताब्दी का काल भारत में महाजनपदों ( बड़े राज्यों ) के उदय का काल माना जाता हैं । ई ० पू ० 6 वीं शताब्दी का काल . भारत में द्वितीय नगरीकरण ( second yobanisation ) का कल माना जात है ।
बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय एवं जैन साहित्य भगवती सूत्र से 16 महाजनपदों का उल्लेख प्राप्त होता है । सोलह महाजनपदों में मगध , कोसल , वत्स और अवन्ति सर्वाधिक शक्तिशाली थे । सोलह महाजनपदों में अश्मक एकमात्र जनपद था , जो दक्षिण भारत में , अवस्थित था
. कुल 16 महाजनपदों में वीज्ज एवं मल्ल गणतांत्रिक ( Republican ) राज्य थ ।
बौद्ध एवं जैन ग्रंथों से ज्ञात होता है , कि ई ० पू ० 6 वीं शताब्दी में 10 गणतांत्रिक राज्य थे , जिनमें विदेह , मल्ल ( पावा ) , मल्ल ( कुशीनगर ) , शाक्य तथा लिच्छवी प्रमुख थे ।
16 महाजनपद
अंग – अंग महाजनपद मगध राज्य के पूरब में आधुनिक भागलपुर के सीमावर्ती क्षेत्रों में स्थित था । अंग की राजधानी चम्पा थी । उसका मगध के साथ संघर्ष होता रहता था ।
2 . मगध – मगध राज्य वर्तमान पटना एवं गया जिलों ( बिहार ) के स्थान पर स्थित था । मगध की राजधानी गिरिव्रज थी जो अपने वैभव के लिए प्रसिद्ध थी । मगध में सर्वप्रथम राजवंश की स्थापना ब्रहदथ ने की थी ।
3 . काशी – काशी राज्य की राजधानी वाराणसी थी , जो वरुणा एवं असी नदियों के तट पर बसी हुई थी । काशी एक शक्तिशाली राज्य था , जिसका कौशल राज्य से सदैव संघर्ष चलता रहता था ।
4. अवन्ति – प्राचीन भारतीय अवन्ति राज्य आधुनिक मालवा था । इस राज्य की मुख्य राजधानी उज्जयिनी नगरी थी । वत्स जनपद के साथ इस राज्य का निरन्तर संघर्ष रहता था ।
5. कुरू – वर्तमान दिल्ली एवं मेरठ के प्रदेश इस राज्य के अन्तर्गत आते थे । इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी , महाभारत में कुरू महाजनपद का उल्लेख है ।
6 . मत्स्य – मत्स्य जनपद कुरू राज्य के दक्षिण एवं यमुना नदी के पश्चिम में स्थित था । इसकी राजधानी विराट नगरी थी ।
7 . गान्धार – इस जनपद में कश्मीर , पश्चिमोत्तर प्रदेश , पेशावर एवं तक्षशिला के प्रदेश आते थे । इसकी राजधानी तक्षशिला थी । अवन्ति के शासक प्रद्योत- के साथ पुक्कुसाती के अनेक युद्ध हुए थे जिसमें गान्धार शासक की विजय हुई थी ।
8. कम्बोज – बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार कम्बोज , गन्धार जनपद का पड़ोसी राज्य था । कम्बोज की राजधानी राजपुर थी ।
9 . वत्स – वत्स काशी महाजनपद के दक्षिण – पश्चिम व चेदि के उत्तर – पूर्व में स्थित था । वत्स की राजधानी कौशाम्बी थी , जो यमुना नदी के किनारे स्थित थी । वत्स का अवन्ति राज्य से संघर्ष होता रहता था ।
10. कोशल – कोशल जनपद लगभग आधुनिक अवध के बराबर था । कोशल की राजधानी राप्ती के किनारे श्रावस्ती थी । काशी एवं कोशल में निरन्तर संघर्ष होता रहा ।
11. चेदि – आधुनिक बुन्देलखण्ड और उसके सीमावर्ती क्षेत्र चेदि राज्य के अन्तर्गत आते थे । चेदि की राजधानी शुक्तिमति थी ।
12. वज्जि – रीज डेविस ( Rhus Davis ) के अनुसार वज्जि राज्य आठ राज्यों का संघ था , जो प्राचीन विदेह और वैशाली राज्यों के टूट जाने पर उन्हीं के स्थान पर बना । इन आठ राज्यों में लिच्छवि , विदेह और ज्ञात्रिक प्रमुख थे । जिनकी राजधानियाँ क्रमश : वैशाली , मिथिला एवं कुण्डग्राम थी ।
13. मल्ल – वज्जि के समान मल्ल भी एक संघीय प्रजातन्त्रात्मक राज्य था । hi इस संघ में कुशीनारा एवं पावा दो मल्ल के शाखा थे । कुशीनगर , कुशीनारा की तथा दूसरी शाखा की राजधानी पावा थी ।
14. अश्मक – यह दक्षिण भारत में गोदावरी नदी तट पर स्थित था । इस जनपद की राजधानी पौदन्य ( आधुनिक पोतन ) थी ।
15. पांचाल – सम्पूर्ण रुहेलखण्ड एवं गंगा यमुना के दोआब के पूर्वी भाग में यह जनपद स्थित था । इस जनपद की दो शाखाएँ थी । प्रथम उत्तरी पांचाल द्वितीय , दक्षिणी पांचाल । उत्तरी पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र तथा दक्षिणी पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी ।
16. सूरसेन – सूरसेन जनपद , मत्स्य राज्य के उत्तर में स्थित था । यहाँ पर पहले यदुवंशी अंधक – वृष्णियों का गणराज्य था । उपरोक्त महाजनपदों में से अधिकांश राजतन्त्र थे , किन्तु वज्जि , मल्ल , सूरसेन आदि गणतंत्र थे ।
मगध साम्राज्य
( Magadh Empire )
16 महाजनपदों में मगध सर्वाधिक शक्तिशाली था । ई ० पू ० शताब्दी के पूर्व मगध में ‘ वार्हद्रथ वंश ‘ का शासन था । ‘ वार्हद्रथ वंश ‘ का संस्थापक वृहद्रथ था , उसकी राजधानी राजगृह या गिरिव्रज थी । जरासंध बृहद्रथ का पुत्र था , वह इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था ।
मगध की गद्दी पर बिम्बिसार ने 545 ई ० पू ० में हर्यक वंश का शासन स्थापित किया । बिम्बिसार भारत का पहला शासक था , जिसने स्थाई सेना ( Permanent Standing Army ) रखने की प्रथा आरंभ की । उपर्युक्त कारण से बिम्बिसार को सौणिय या श्रोणिक ( महती सेना वाला ) पड़ा । महावंश के अनुसार बिम्बिसार ने 52 वर्षों तक शासन किया था ।\
बिम्बिसार ने कोशल नरेश प्रसेनजीत की बहन कोशला वैशाली के चेटक की पुत्री चेल्लना तथा पंजाब की राजकुमारी क्षेमामद्र से विवाह किया । बिम्बिसार ने अंग – शासक ब्रह्मदत्त को हराकर उसका राज्य मगध में मिला लिया । बिम्बिसार के विशाल साम्राज्य की राजधानी गिरिव्रज थी , एवं राजगृह को नयी राजधानी बनाया । बिम्बिसार बौद्ध धर्म का अनुयायी था ।
बिम्बिसार ने महात्मा बुद्ध एवं अवन्तिरराज प्रद्योत की सेवा में राजवैद्य जीवक को भेजा । विम्बिसार ने अपने पुत्र अजातशत्रु को अंग का प्रान्तपति नियुक्त किया ।
बौद्ध साहित्य के अनुसार 493 ई ० पू ० में बिम्बिसार की हत्या उसके पुत्र अजातशत्रु ने की । जैन – साहित्य यद्यपि उपर्युक्त तथ्य को नकारता है तथा अजातशत्रु को पितृ – भक्त बताता है । अजातशत्रु 493 ई ० पू ० में मगध की गद्दी पर बैठा , उसे कुणिक भी कहते थे ।
कोशल नरेश प्रसेनजीत ने अजातशत्रु को पराजित कर बन्दी बना लिया तथा सन्धि करके अपनी पुत्री वजिरा का विवाह उससे करा दिया ।
अजातशत्रु ने उत्तर में वैशाली के शक्तिशाली वज्जि संघ से युद्ध किया । वस्सकार ( वर्षकार ) अजातशत्रु का सुयोग्य मन्त्री था
अजातशत्रु ने वैशाली के विरुद्ध युद्ध में दो नवीन युद्धास्त्रों रथमूसल एवं . महाशिलाकण्टक का प्रयोग किया था । लिच्छवियों के पश्चात् उसके मल्ल संघ को भी अजातशत्रु ने अपने साम्राज्य में मिला लिया । प्रारम्भ में अजातशत्रु जैन धर्म का अनुयायी था , परन्तु बाद में बौद्ध धर्म , ग्रहण कर लिया । अजातशत्रु ने 32 वर्षों तक मगध पर शासन किया ।
अजातशत्रु की हत्या उसके पुत्र उदयन ने 462 ई ० पू ० में कर दी और . वह मगध की गद्दी पर बैठा । उदयन ने पाटलीपुत्र ग्राम की स्थापना की । उदयन के शासन काल में पहली बार पाटलीपुत्र मगध की राजधानी बनी ।
उदयन जैन धर्मावलम्बी था , उसने लगभग 16 वर्ष तक राज्य किया । हर्यक वंश का अन्तिम राजा उदयन का पुत्र नागदशक था । 412 ई ० पू ० में नागदशक को उसके अमात्य शिशुनाग ने अपदस्थ करके मगध पर शिशुनाग वंश की स्थापना की ।
शिशुनाग ने पाटलिपुत्र के स्थान पर वैशाली को अपना राजधानी बनाया । शिशुनाग ने अवन्ति पर विजय प्राप्त कर , उसे मगध साम्राज्य में विलय कर दिया । 396 ई ० पू ० शिशुनाग की मृत्यु हो गयी । शिशुनाग के पश्चात् उसका पुत्र कालाशोक मगध का शासक बना ।
कालाशोक ने पुनः पाटलिपुत्र को मगध साम्राज्य की राजधानी बनाया । शिशुनाग वंश का अन्तिम शासक नन्दिवर्धन था । शिशुनाग वंश के पतन के पश्चात् मगध में नन्द वंश की स्थापना हुई । पुराणों के अनुसार नन्द वंश का संस्थापक महापद्म नन्द था ।
यूनानी इतिहासकार कार्टेयस ने महापद्म को शूद्र बताया है । महापद्म नन्द ने अनेक क्षत्रिय राजवंशों का उन्मूलन किया था , इसी कारण उसे अखिलक्षेत्रान्तकारी और क्षत्रविनाशकृता कहा गया है । खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि नन्द – राजा का कलिंग पर भी अधिकार था ।
\नन्द राजा ने वैशाली के समीप स्थित मिथिला राज्य को भी मगध का अंग बना लिया था । मैसूर के अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत के भी अनेक भागों पर नन्द शासक का अधिकार था । नन्द वंश ने 322 ई ० पू ० तक राज्य किया , इस वंश का अन्तिम शासक धनानन्द था । सिकन्दर का भारत पर आक्रमण धनानन्द के शासन काल में ही हुआ ।
322 ई ० पू ० में मौर्यवंशीय चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से धनानन्द को परास्त कर मगध में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की ।
विदेशी आक्रमण
( Foreign Invasion )
भारत पर पहला विदेशी आक्रमण 550 ई ० पू ० में ईरान के साइरस द्वारा क्रिया गया , जो विफल रहा । भारत पर दूसरा ईरानी आक्रमण डैरियस प्रथम ( हखामनी वंश ) द्वारा 518 ई ० पू ० के आस – पास किया गया । ई ० पू ० 326 में यूनान के ‘ सिकन्दर ‘ ने भारत पर हिन्दुकुश के रास्ते आक्रमण किया ।
सिकन्दर मकदूनिया के शासक फिलिप का पुत्र था । सिकन्दर ई ० पू ० 336 में राजसिंहासन पर बैठा , वह अरस्तू का शिष्य था । सिकन्दर के सेनापति का नाम सेल्यूकस निकोटर था , नियार्कस सिकन्दर का जल – सेनापति था । सिकन्दर को पुरु राज्य से कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा ।
झेलम और चिनाब नदी के मध्य के प्रदेश पर पोरस का राज्य था । सिकन्दर को पोरस के साथ युद्ध करना पड़ा , जिसे हाइडेस्पीज के युद्ध के नाम से जाना जाता है ।
सिकन्दर ने पुरू के राजा पोरस को हरा दिया परन्तु , उससे प्रभावित होकर उसे विजित प्रदेश लौटा दिया । सिकन्दर ने पोरस के विरुद्ध विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में निकाइया ( Nikaia ) की स्थापना की ।
. सिकन्दर ने स्वामी भक्त घोड़े के नाम पर बुकाफेला ( Bokkephala ) नामक नगर का निर्माण करवाया ।
सिकन्दर ने मिस्र पर विजय के उपलक्ष्य में सिकन्दरिया नामक नगर की स्थापना की थी । व्यास नदी के तट पर मगध की शक्तिशाली सेना से डरकर सिकन्दर के सैनिकों ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया । सिकंदर स्थल मार्ग द्वारा ई ० पू ० 325 में वापस लौटा ।
‘ सिकन्दर की मृत्यु 323 ई ० पू ० में बेबीलोन में हो गयी , वह भारत में 19 महीनों तक रहा ।
मौर्य साम्राज्य
( Mourya Empire )
मौर्य साम्राज्य की स्थापना ई ० पू ० 322 में ‘ चन्द्रगुप्त मौर्य ‘ ने की । चन्द्रगुप्त का जन्म ई ० पू ० 345 में शाक्यों के पिप्पलिवन गणराज्य की मोरिय शाखा में हुआ था । यूनानी साहित्य में चन्द्रगुप्त मौर्य को मौर्य वंश के शासक सैंड्रोकोट्टस कहा
चन्द्रगुप्त मौर्य ( ई ० पू ० 322-298 )
बिन्दुसार ( ई ० पू ० 298-273 ) ।
अशोक ( ई ० पू ० 269-232 ) ।
चन्द्रगुप्त एवं सेल्यूकस के बीच हुए युद्ध का विवरण एप्पियस नामक यूनानी व्यक्ति ने किया है । सेल्यूकस ने अपनी बेटी कारनेलिया की शादी चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ कर दी तथा काबुल , गन्धार , मकरान और हेरात प्रदेश चन्द्रगुप्त को दहेज के रूप में प्रदान किया ।
प्लूटार्क के अनुसार चन्द्रगुप्त ने सेल्युकस को 500 हाथी उपहार में दिया । सेल्यूकस ने मेगास्थनीज को दूत बनाकर चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा ।
मेगास्थनीज काफी दिनों तक पाटलिपुत्र में रहा तथा उसने चन्द्रगुप्त के बारे में अपनी पुस्तक इंडिका ( Indica ) में लिखा ।
चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रधानमन्त्री चाणक्य ( अथवा , विष्णुगुप्त , या कौटिल्य ) था । चन्द्रगुप्त ने बाद में जैन धर्म स्वीकार कर लिया तथा जैन आचार्य भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ली ।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार किया । 300 ई ० में कर्नाटक के श्रवणवेलगोला में अनशन व्रत करके चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने शरीर का त्याग कर दिया । चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बिन्दुसार मगध की गद्दी पर ई ० पू ० 300 में बैठा । यूनानी लेखों में बिन्दुसार को अमित्रोकेट्स कहा गया है , जिसका संस्कृत रूपान्तरण अमित्रघात ( शत्रुओं को नष्ट करनेवाला ) होता है , वह ( बिन्दुसार ) आजीवक सम्प्रदाय का अनुयायी था ।
वायुपुराण में बिन्दुसार के लिए भद्रसार नामक शब्द का प्रयोग किया गया । सीरिया के एण्टियोकस नामक राजा से ‘ बिन्दुसार ‘ ने मदिरा , सूखे अंजीर और दार्शनिक भेजने की अपील की थी ।
चाणक्य की मृत्यु के बाद राधागुप्त बिन्दुसार का प्रधानमन्त्री बना ।
एंटियोकस प्रथम ने अपने राजदूत डायमेकस को बिन्दुसार के दरबार में मेगास्थनीज के स्थान पर भेजा था । टॉलमी द्वितीय फिलाडेल्फस ने डायनिकस को बिन्दुसार के दरबार में भेजा था । . . . . . . .
. बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला में विद्रोह हुआ , उसका पुत्र सुसीम विद्रोह को दबाने में असफल रहा । उज्जैन के तत्कालीन सूबेदार अशोक ने तक्षशिला के विद्रोह को सफलतापूर्वक को दबा दिया ।
बिन्दुसार को जैनग्रन्थों में सिंहसेन की संज्ञा दी गई है ।
बिन्दुसार की मृत्यु के बाद ई ० पू ० 269 में अशोक मगध की गद्दी पर बैठा । अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी था ।
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष लगभग 261 ई ० पू ० में कलिंग पर आक्रमण कर और राजधानी तोसाली पर अधिकार कर लिया ।
कलिंग युद्ध में 2.5 लाख व्यक्ति मारे गये एवं इतने ही घायल हुए । कलिंग युद्ध ने अशोक का हृदय परिवर्तन कर दिया ।
कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने भेरीघोष के स्थान पर उसने धम्मघोष अपनाने की घोषणा की ।
अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया एवं उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु से बौद्ध धर्म की दीक्षा ली ।
अशोक ने आजीवकों को रहने हेतु बराबर की पहाड़ियों में चार गुफाओं का निर्माण करवाया । उपर्युक्त गुफाओं का नाम कर्ज , चौपार , सुदामा तथा विश्व झोंपड़ी था ।
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा । : को श्रीलंका भेजा ।
अशोक ने अपने जीवन में दो आक्रमण किए , पहला आक्रमण कश्मीर पर किया ।
अशोक की तुलना डेविड एवं सोलमान ( इस्रायल ) तथा मार्कस ओरलियस एवं शार्लमा ( रोम ) जैसे विश्व के महानतम सम्राटों से की जाती है । अशोक ने यवन शासकों एंटियोकस- ।। ( सीरिया ) , टॉलमी- II ( मिस्र ) , एंटिगोनस गोनाटस ( मकदूनिया ) , मरास ( साइरिन ) एवं एलेक्जेंडर से मित्रतापूर्ण संबंध कायम किये एवं उनके दरबार में अपने दूत भेजे ।
चोल , पांड्य , सतियपुत्र , केरलपुत्र एवं ताम्रपर्णि आदि दक्षिण भारतीय राज्यों में अशोक ने धर्म प्रचार के लिए दूत भेजा । अशोक ने बौद्ध धर्म को राजधर्म , ब्राह्मी लिपि को राजकीय लिपि घोषित किया था ।
भबू शिलालेख से स्पष्ट होता है अशोक बुद्ध , धम्म एवं संघ में विश्वास रखता था ।
अशोक के तीसरे शिलालेख के अनुसार , प्राचीन काल में विहार यात्रा के नाम से प्रचलित यात्रा को धम्म यात्रा में बदल दिया ।
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 12 वें वर्ष में धर्म प्रचार के लिए राजुका , प्रदेशका एवं युक्त जैसे पदाधिकारियों को लगाया ।
अशोक के ‘ 8 ‘ शिलालेख के अनुसार अपने शासन के 13 वें वर्ष में उसने धम्म महामात्र की नियुक्ति की । मौर्य प्रशासन के विषय में कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं मेगास्थनीज की इंडिका से महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है ।
राजा प्रधान सेनापति , प्रधान न्यायाधीश तथा प्रधान दंडाधिकारी होता था ।
. हिरण्य एक प्रकार का कर था जो अनाज के रूप में न लेकर नकद के रूप में देना पड़ता था
देश में सोना , चाँदी , ताँबा , लोहा तथा जस्ता भी काफी मात्रा में उपलब्ध
मौर्यकाल में जल – मार्गीय व्यापार के लिए 8 प्रकार की नौकाओं के प्रयोग के प्रमाण मिले हैं जिनमें वहण , संयात एवं क्षुद्रक प्रमुख थीं ।
शराब बेचने वाले को शौण्डिक कहा जाता था ।
अस्त्र – शस्त्र का निर्माण करने वाले विभाग का प्रमुख आयुधागाराध्यक्ष होता था । मौर्यकाल में पाटलिपुत्र , तक्षशिला , उज्जैन , तोशाली , कौशांबी , वाराणसी आदि प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे । भारत के समुद्र तटों पर अनेक बंदरगाह थे जहाँ से लंका , वर्मा , मिस्र , सीरिया , सुमात्रा , जावा , फारस , यूनान तथा रोम से विदेशी व्यापार होते थे । श्रेणियाँ प्रायः अपने शिल्पियों के लिए बैंक का कार्य करती थी । राजकीय कला के अन्तर्गत राजाप्रसाद , स्तम्भ , गुहाविहार स्तूप तथा लोक कला के अन्तर्गत प्रमुख रूप से यक्ष – यक्षी मूर्तियाँ आती हैं । डॉ ० स्पूनर ने बुलंदीबाग एवं कुम्हरार ( पटना स्थित ) लकड़ी के विशाल भवन के अवशेषों का पता लगाया , इस भवन की लम्बाई 140 फुट और चौड़ाई 120 फुट . उपर्युक्त सभा भवन 40 खम्भों वाला हॉल था । इस भवन का फर्श और छत लकड़ी का था ।
भवन के स्तम्भ बलुआ पत्थर के बने हुए थे और उसमें चमकदार पॉलिस की गयी थी । • फाह्यान के अनुसार यह प्रासाद मानव कृति नहीं है वरन देवों द्वारा निर्मित . स्तम्भों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अशोक द्वारा निर्मित सारनाथ ( वाराणसी ) का सिंह स्तम्भ है जिसमें चार सिंह का चित्र बना है । अशोक ने सर्वाधिक स्तूपों ( लगभग 84,000 ) का निर्माण करवाया इनमें साँची ( मध्यप्रदेश ) तथा भरहुत का स्तूप प्रमुख है । गया के निकट बराबर की पहाड़ियों में अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 12 वें वर्ष में सुदामा गुहा आजीवक भिक्षुओं को दान में दी । अशोक के पुत्र दशरथ ने नागार्जुनी पहाड़ियों में आजीवको
को 3 गुफाएँ प्रदान की , इसमें से एक प्रसिद्ध गुफा गोपी गुफा है मौर्य शासन 137 वर्षों तक रहा , इसका अन्तिम शासक बृहद्रथ था ।
बृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई ० पू ० में कर दी एवं मगध पर ‘ शुंग वंश ‘ की नींव डाली ।
मौर्योत्तर काल
( Post – Maurya Period )
187 ई ० पू ० से 240 ई ० तक का काल भारतीय इतिहास में ‘ मौर्योत्तर काल ‘ के नाम से जाना जाता है । इस काल में मगध सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में ब्राह्मण साम्राज्यों ( शुंग , कण्व , सातवाहन एवं वाकाटक ) का उदय हुआ तथा विदेशी आक्रमण हुए । इस काल में क्षेत्रीय राजा स्वतन्त्र होने लगे जिसमें कलिंग का राजा खारवेल प्रमुख था । हर्षचरित से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण था । पुष्यमित्र शुंग ने अपनी राजधानी बिदिशा में स्थापित किया । पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण धर्मावलम्बी था अत : उसने अपने शासनकाल में दो अश्वमेघ यज्ञ किये । पुष्यमित्र के शासनकाल में यवन आक्रमण हुए जिसका नेतृत्व डेमेट्रियस ने किया । पुष्यमित्र शुंग ने इण्डो – यूनानी शासक मिनांडर को पराजित किया । पतंजलि जैसे महान विद्वान पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में हुए थे शुंगकाल में भरहुत , बोध गया तथा साँची के स्तूपों को नया रूप प्रदान किया गया ।
पुष्यमित्र ने वैदिक धर्म को राजधर्म घोषित किया तथा पालि के स्थान पर संस्कृत को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया ।
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कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार मौर्य – प्रशासन विभागों में बंटा हुआ था । प्रत्येक विभाग को तीर्थ कहते थे । प्रत्येक ‘ तीर्थ ‘ के अध्यक्ष को अमात्य ( मन्त्री ) कहा जाता था ।
अर्थशास्त्र में कुल मिलाकर 18 अमात्यों का वर्णन किया गया है । इनमें महामन्त्री एवं पुरोहित अति महत्वपूर्ण थे । . . .
( अर्थशास्त्र में वर्णित 18 अमात्य 1. महामन्त्री – मुख्यमन्त्री 10. नायर – नगराध्यक्ष 2. पुरोहित – राजा का प्रमुख सलाहकार 11. करमांतिक – खनन एवं कारखाने का अध्यक्ष 3. सेनापति – सशस्त्र सेना का प्रधान 12. सन्निधाता – राजकोष का अध्यक्ष 4. युवराज – राजा का ज्येष्ठ पुत्र 13. व्यावहारिक – मुख्य न्यायाधीश 45. दौवारिक – द्वारपाल मंत्रिमण्डलाध्यक्ष – मंत्रिमण्डल का अध्यक्ष 6. दंडपाल – पुलिस का प्रधान अधिकारी 15. अन्तपाल – सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक 7. समाहर्ता – आय संग्रहकर्ता 16. दुर्गपाल – देश के अंदर दुर्गों का रक्षक 8. प्रदेष्ट्रा – कमिश्नर 17. अन्तर्वेदिक – अन्तःपुर का रक्षाधिकारी 9. पौर – नगर कोतवाल 18. प्रशास्त – कारागार युक्त ( खोई हुई संपत्ति के प्राप्त होने पर उसकी सुरक्षा करनेवाला ) , प्रतिवैदिक ( सम्राट को प्रतिदिन की सूचना देने वाला ) , ब्रजभूमिक ( गौशाला का निरीक्षण करने वाला पदाधिकारी ) , एग्रोनोमोई ( सड़कों का निरीक्षण करने वाला पदाधिकारी ) आदि मौर्यकाल के कुछ प्रमुख पदाधिकारी थे ।
मौर्य काल में गुप्तचर सेवा को भी दो भागों में बाँटा गया था – संस्थान तथा संचारण । संस्थान वर्ग के गुप्तचर एक स्थान पर टिककर वहाँ के गतिविधियों की सूचना राजा को देते थे । संचारण वर्ग के गुप्तचर एक स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण करके विभिन्न स्थानों की सूचना राजा को देते थे ।
प्लिनी के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना में 6 लाख पैदल सैनिक , 30 की हजार घुड़सवार , 9 हजार हाथी तथा 8000 रथ थे ।
इंडिका के अनुसार सम्पूर्ण सेना के प्रबन्धन हेतु एक 30 सदस्यीय समिति होती थी । सेना का प्रबन्ध 6 भागों में विभक्त था तथा प्रत्येक विभाग की समिति में अध्यक्ष सहित 5 सदस्य होते थे 1 . प्रथम समिति – ये जल सेना का प्रबन्ध करती थी । 2. द्वितीय समिति – सेना को हर प्रकार की सामग्री तथा रसद भेजने का प्रबन्ध करती थी । 3. तृतीय समिति – पैदल सेना का प्रबन्ध करती थी । चतुर्थ समिति – अश्वरोहियों का प्रबन्ध देखती थी । 5. पाँचवीं समिति हाथियों की सेना का प्रबन्ध देखती थी । तथा , 6 . छठी समिति – रथ सेना का प्रबन्ध देखती थी ।
सेना के साथ एक चिकित्सा – विभाग होता था जो घायल सैनिकों का इलाज करता था । धर्मस्थेय ( दीवानी मामले ) तथा कंटकशोधन ( फौजदारी मामले ) मौर्यकालीन न्यायालय थे ।
अशोक के समय जनपदीय न्यायालय का न्यायाधीश राजुका कहलाता था ।
मौर्य कालीन प्रांतों को चक्र कहा जाता था ।
प्रान्तों का प्रशासन राज्य परिवार के ही किसी व्यक्ति द्वारा होता था जिन्हें कुमार या आर्यपुत्र कहा जाता था । प्रान्तों में कई मण्डल होते थे ।
. पुष्यमित्र के प्रोत्साहन से पतंजलि के महाभाष्य तथा मनु – स्मृति ( Manu Script ) की रचना हुई । पुष्यमित्र शुंग की मृत्यु 148 ई ० पू ० में हुई , शुंग वंश का अन्तिम शासक देवभूति था । देवभूति की हत्या उसके मन्त्री वासुदेव कण्व ने कर दी ।
शुंग वंश का पतन 73 ई ० पू ० में हुआ । विदिशा का गरुड़ध्वज , भाजा का चैत्य एवं विहार , अजन्ता का नवाँ चैत्य मन्दिर , नासिक तथा काने के चैत्य , मथुरा की अनेक यक्ष – यक्षिणियों को मूर्तियाँ शृंग – कला के ही उदाहरण हैं । मगध पर कण्व वंश की स्थापना वासुदेव कण्व ने 72 ई ० पू ० में की । कण्व वंश ने कुल 45 वर्षों तक ( 72 ई ० पू ० से 27 ई ० पू ० ) तक शासन किया । कण्व वंश के शासक ब्राह्मण थे । कण्व वंश का अन्तिम राजा सुशर्मा था , जिसकी हत्या उसके सेनापति सिमुक ने कर दी तथा सातवाहन वंश की स्थापना की । सातवाहन शासकों ने अपनी राजधानी प्रतिष्ठान में स्थापित की । सातवाहन वंश के प्रमुख शासक थे सिमुक , शातकर्णि , गौतमीपुत्र शातकर्णि , वशिष्ठी पुत्र , पुलवामी तथा यज्ञश्री शातकर्णि । इस वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक शातकर्णि प्रथम था । गौतमीपुत्र शातकर्णि को सातवाहन – वंश का पुनरूद्धारक कहा जाता है ।
गौतमीपुत्र शातकर्णि का शासनकाल 106 ई ० से 130 ई ० तक माना जाता . . गौतमीपुत्र शातकर्णि ब्राह्मण – धर्म का अनुयायी था । उसने दो अश्वमेघ तथा एक राजसूय यज्ञ किया । गौतमीपुत्र शातकर्णि की विजयों के विषय में नासिक अभिलेख से पता चलता है । गौतमीपुत्र शातकर्णि की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र वशिष्ठीपुत्र पुलमावी शासक बना ।
वशिष्ठीपुत्र ने 130 ई ० से 154 ई ० तक शासन किया । वशिष्ठीपुत्र के पश्चात् सातवाहन वंश का अन्तिम शासक यज्ञश्री शातकर्णि था जिसने 165 ई ० से 193 ई ० तक शासन किया । सातवाहन शासकों के समय प्रसिद्ध साहित्यकार हाल एवं गुणाढ्य थे ।
हाल ने गाथा सप्तशतक तथा गुणाढ्य ने बृहत्कथा नामक पुस्तकों की रचना की । सातवाहन शासकों ने चाँदी , ताँबे , सीसा , पोटीन और काँसे की मुद्राओं का प्रचलन किया । गौतमीपुत्र शतकर्णि ने अपने शासन के 24 वें वर्ष में ब्राह्मणों को भूमि – अनुदान ( Land Grants ) देने की प्रथा आरम्भ की । सातवाहन समाज मातृसत्तात्मक था तथा उनकी भाषा प्राकृत एवं लिपि ब्राह्मी थी । कार्ले का चैत्य , अजंता – एलोरा की गुफाओं का निर्माण एवं अमरावती कला का विकास कला के क्षेत्र में सातवाहनों के उल्लेखनीय योगदान हैं ।
कथा सरितसागर एवं कथाकोष नामक प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना सातवाहन काल में हुई । नासिक अभिलेख ( गौतमी बल श्री ) में उल्लिखित है कि गौतमीपुत्र शतकर्णि के घोड़े तीन समुद्रों का पानी पीते थे । सातवाहनों के पतन के पश्चात् दक्षिण में उठने वाली शक्तियों में सबसे प्रवल वाकाटक थे । इस वंश की स्थापना एक ब्राह्मण विन्ध्यशक्ति ने विदर्भ में की । एकमात्र वाकाटक शासक प्रवरसेन ( विन्ध्यशक्ति का पुत्र ) था जिसे सम्राट की उपाधि दी गयी । प्रवरसेन का राज्य उत्तर में बुन्देलखंड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक विस्तृत था । प्रवरसेन ने अनेक वैदिक यज्ञ किये जिनमें चार अश्वमेघ यज्ञ थे । प्रवरसेन ने एक प्रसिद्ध कृति सेतुबंध की रचना की ।
मौर्य – शासन के पतन के उपरान्त भारत पर निरन्तर विदेशी आक्रमण हुए । जो इस प्रकार थे – हिन्द – यूनानी , शक , पहल्व एवं कुषाण । .
डेमेट्रियस ने हिन्दुकुश को पार कर पंजाब के विस्तृत भू – भाग पर अधिकार कर लिया तथा साकल को अपनी राजधानी बनायी । उपर्युक्त काल में डेमेट्रियस के देश बैक्ट्रिया में यूक्रेटाइडीज के नेतृत्व में विद्रोह हो गया । यूक्रेटाइडीज भी भारत की ओर बढ़ा और कुछ भागों को जीतकर तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया । यवन साम्राज्य डेमेट्रियस एवं यूक्रेटाइडीज के वंशों में बँट गया । डेमेट्रियस के पश्चात् उसके वंश का सबसे प्रतापी शासक मीनाण्डर हुआ ।
मीनाण्डर को बौद्ध – ग्रन्थों में मिलिन्द कहा गया है । मीनाण्डर बौद्ध था , उसने नागसेन से बौद्ध धर्म की दीक्षा ली । मिलिन्दपान्हों नामक ग्रन्थ में मीनाण्डर की राजधानी साकल ( स्यालकोट ) का वर्णन मिलता है । भारत में सबसे पहले हिन्द – यूनानियों ने ही सोने के सिक्के जारी किए । जन्म – पत्री के लिए भारत में प्रयुक्त शब्द होरा – चक्र यूनानी संस्कृति से ही लिया गया है । भारत में प्रचलित राशियाँ यूनानियों से ही ली गई हैं । हिन्द – यूनानी शासकों ने भारत के पश्चिमोत्तर सीमा – प्रान्त में यूनान की हेलेनिस्टिक आर्ट का प्रचलन किया । भारत के गन्धार कला को इण्डो – ग्रीक कला भी कहा जाता है । भारतीयों ने यूनानियों से ही कैलेण्डर बनाने का ज्ञान प्राप्त किया । ई ० पू ० पहली सदी के अन्त में पार्थियन शासकों का पश्चिमोत्तर भारत पर राज था । पार्शियन पहलव वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक गोण्डोफर्नीज था , जिसने 20-41 ई ० के दौरान शासन किया । इसाई धर्म का प्रचारक सेंट टॉमस गोण्डोफर्नीज के दरबार में आया था । कुषाणों ने भारत में हिन्द – पार्थियन शासन का अन्त किया ।
कुषाण पश्चिमी चीन में गोबी प्रदेश में रहने वाली यू – ची ( Yueh – chi ) जाति से सम्बन्धित थे । कुषाण वंश का संस्थापक कुजूल कडफिसस था । भारत में कुषाण साम्राज्य की स्थापना कुजुल कडफिसस के पुत्र विम कडफिसस ने की । कुषाण वंश का सबसे प्रतापी राजा कनिष्क 78 ई ० में गद्दी पर बैठा । कनिष्क ने 78 ई ० में एक संवत् चलाया , जो शक संवत् कहलाता है । कनिष्क ने अपने राज्य का विस्तार मगध तक किया । कनिष्क के साम्राज्य में अफगानिस्तान , सिन्ध का भाग , पार्थिया एवं बैक्ट्रिया के प्रदेश सम्मिलित थे । कनिष्क की राजधानी पुरूषपुर ( पेशावर ) में थी । कनिष्क ने कश्मीर को जीत लिया तथा एक नये नगर कनिष्कपुर की स्थापना की । कनिष्क बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का अनुयायी था । कनिष्क ने मगध के बौद्ध – विद्वान अश्वघोष को अपना राज – कवि नियुक्त किया । कनिष्क ने अश्वघोष से बौद्ध धर्म में दीक्षा ली । कनिष्क की मुद्राओं पर यूनानी , ईरानी व हिन्दू – देवताओं जैसे हेराक्लीज , सेरापीज , सूर्य , चन्द्र , अग्नि , शिव आदि की आकृतियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं । कनिष्क ने बौद्ध – धर्म को राजधर्म बनाया तथा कनिष्कपुर , पुरूषपुर , मथुरा व तक्षशिला आदि स्थानों पर स्तूप एवं विहार बनवाये । कनिष्क के शासनकाल में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन कश्मीर के कुण्डलवन में हुआ । चरक कनिष्क का राजवैद्य था , जिसने चरकसंहिता की रचना की थी । अश्वघोष , चरक , नागार्जुन , महाचेत , संघरक्ष तथा पार्श्व कनिष्क के दरबार की शोभा बढ़ाते थे । कनिष्क के शासनकाल में एक नवीन कला शैली गंधार कला का आविर्भाव हुआ । कनिष्क की मृत्यु 102 ई ० में हो गयी , उसकी हत्या उसके सेनापतियों ने ही कर दी ।
कुषाण वंश का अन्तिम शासक वासुदेव था । . .
बौद्ध – धर्म को संरक्षण प्रदान करने के कारण कनिष्क को दूसरा अशोक कहा जाता है । शक एक घुमक्कड़ जाति थी और उनका मूल निवास स्थान मध्य एशिया था । यूची नामक एक अन्य घुमन्तु जाति ने शकों को मध्य एशिया से निकाल दिया , तो वे बैक्ट्रिया में बस गये । कुछ समय पश्चात् शक बलूचिस्तान से होकर निचले सिन्ध प्रदेश पहुँचे तथा वहीं बस गए । भारतीय शक राजाओं में सम्भवतः पहला शासक माउस ( Maues ) था ।
भारत में शक शासक स्वयं को क्षत्रप ( फारसी प्रणाली ) कहते थे । पश्चिमी भारत ( महाराष्ट्र ) में शकों के प्रसिद्ध क्षहरात – वंश का आविर्भाव हुआ । क्षहरात वंश का सबसे प्रमुख शासक नहपान था , सम्भवतः उसने 119 ई ० से 124 ई ० तक राज्य किया था । नहपान ने महाराष्ट्र के सातवाहन शासक को परास्त करके उस प्रदेश पर अधिकार कर लिया । शकों के एक वंश का उज्जैन में भी आविर्भाव हुआ , जिसे चष्टन वंश कहा जाता है । चष्टन वंश का संस्थापक चष्टन था जो राजा यसामोतिक का पुत्र था । चष्टन वंश का सबसे प्रतापी शासक रूद्रदामन -1 ( 130-150 ई ० पू ० ) था तथा उसकी राजधानी उम्जैन थी । रूद्रदामन- I
सिक्कों एवं जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने महाक्षत्रप की उपाधि धारण की थी । रूद्रदामन- I ने कठियावाड़ की सुदर्शन झील का पुनर्निमाण करवाया था । रूद्रदामन- I संस्कृत भाषा और अलंकार शास्त्र का प्रकांड पंडित था । रूद्रदामन -1 ने प्रथम संस्कृत नाटक की रचना कराई । रूद्रदामन- I ने पहली बार भारतीय इतिहास में शुद्ध संस्कृत भाषा में अभिलेख खुदवाये । भारत में शुद्ध संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण प्रथम अभिलेख , गिरनार – अभिलेख है ।
गुप्तवंशीय शासक चन्दगुप्त द्वितीय ने चष्टन – वंश के शासक रूदसिंह तृतीय की हत्या करके शक राज्य पर अधिकार कर लिया । 58 ई ० पू ० में उज्जैन के एक स्थानीय राजा ने शकों को पराजित करके बाहर कर दिया तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की । शकों पर विजय के उपलक्ष्य में 57 ई ० पू ० से एक नया संवत् , विक्रम संवत् के नाम से प्रारम्भ हुआ । अशोक के बाद कलिंग स्वतन्त्र हो गया तथा वहाँ एक नवीन राजवंश का उदय हुआ , जिसे चेति ( चेदि ) वंश कहा जाता है । कलिंग के ‘ चेति वंश ‘ का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक खारवेल था । कलिंगराज खारवेल के विषय में जानकारी का प्रमुख स्रोत हाथीगुम्फा ” अभिलेख है । खारवेल 24 वर्षों की आयु में राजगद्दी पर बैठा । राजा खारवेल जैनधर्म का अनुयायी था तथा उसे भिक्षुराज भी कहा गया भारहुत स्तूप का निर्माण यों तो अशोक के समय हुआ था , परन्तु शुंगकाल . में इसमें चार तोरणद्वार लगाये गये । मौयोत्तर काल में कुषाणों ने गंधार कला – शैली का विकास किया । मथुरा में जैनियों ने मथुरा कला का विकास किया । ‘ मथुरा कला शैली ‘ , गंधार कला से प्रभावित थी । सातवाहन काल की कलात्मक कृतियों को दो भागों में बाँटा गया है – स्तूप और चैत्य । ई ० पू ० दूसरी शताब्दी में दक्कन में अमरावती कला का विकास हुआ । कार्ले का चैत्य , अजंता एवं एलोरा की गुफाओं का निर्माण सातवाहनों की महत्वपूर्ण स्थापत्य कृतियाँ हैं । हेनसांग ने कनिष्क के 178 विहारों तथा स्तूपों का वर्णन किया है ।
सर्वप्रथम बुद्ध की मूर्ति गान्धार शैली में ही बनी ।
मौर्योत्तर कालीन चित्रकला के उदाहरण अजंता की गुफा संख्या 9 एवं 10 में मिलते हैं ।
बुद्धचरित् ( संस्कृत भाषा में ) तथा सूत्रालंकार की रचना अश्वघोष ने की । बुद्धचरित् को बौद्ध धर्म का महाकाव्य माना जाता है । सौन्दरानन्द नामक प्रसिद्ध काव्य की रचना अश्वघोष ने इसी काल में की । कनिष्क काल के एक प्रसिद्ध विद्वान नागार्जुन ने शून्यवाद का प्रतिपादन । नागार्जुन को भारतीय आइंस्टीन कहा गया ।
नागार्जुन ने अपने ग्रन्थ माध्यमिक सूत्र में सृष्टि सिद्धान्त ( Theory of Relativity ) को प्रस्तुत किया । चरक संहिता ( आयुर्वेदिक ग्रन्थ ) की रचना कनिष्क के राजवैद्य चरक म द्वारा की गयी । गुप्त काल ( Gupta Period ) . कुषाणों के साम्राज्य के पतन के पश्चात् गुप्त – साम्राज्य स्थापित हुआ ।
गुप्त काल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण – युग ( Golden Age ) कहा जाता है । गुप्त लोग कुषाणों के सामन्त थे ।
गुप्त वंश का उदय प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ था । 7 गुप्त वंश की स्थापना श्री गुप्त ने लगभग 275 ई ० में की । श्री गुप्त के मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र घटोत्कच शासक बना । घटोत्कच का पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम ( 319-340 ई ० ) गुप्त वंश का पहला प्रसिद्ध शासक हुआ । चन्द्रगुप्त प्रथम गुप्तवंश का प्रथम स्वतन्त्र शासक था , जिसकी उपाधि ने महाराजाधिराज थी । चन्द्रगुप्त ने अपने राज्यारोहण के समय ( 319-320 ई ० ) गुप्त – सम्वत् । । आरंभ किया । ।
चन्द्रगुप्त प्रथम की मृत्यु के कुछ समय बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त 335 ई ० में राजगद्दी पर बैठा । में समुद्रगुप्त का इतिहास जानने का प्रमुख स्रोत इलाहाबाद स्थित प्रयाग – प्रशस्ति स्तंभ अभिलेख है इसकी रचना उसके दरबारी कवि हरिषेण ने की थी । समुद्रगुप्त एक महान योद्धा तथा कुशल सेनापति था , उसने आर्यावर्त के 9 शासकों एवं दक्षिणावर्त के 12 शासकों को पराजित किया । ह उपर्युक्त विजयों के कारण स्मिथ ने समुद्रगुप्त को एशियन नेपोलियन कहा है । के समुद्रगुप्त इतिहास में 100 युद्धों के नायक ( Hero of 100 battles ) के नाम से प्रसिद्ध है । समुद्रगुप्त विष्णु का उपासक था , उसने अश्वमेघ यज्ञ किया था । समुद्रगुप्त संगीत – प्रेमी एवं वीणावादन का शौकीन था , उसने कविराज ग की उपाधि धारण की थी । समुद्रगुप्त ने श्रीलंका के राजा मेघवर्मन को बोधगया में महाबोधि संघाराम नामक बौद्ध – विहार बनाने की अनुमति दी ।
गुप्त वंश का महानतम शासक चंद्रगुप्त- II था । चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन काल 380 ई ० से 412 ई ० तक रहा । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नागवंशीय राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह किया था । मा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों को परास्त कर पश्चिमी भारत से उनका प्रभुत्व समाप्त कर दिया । शकों पर विजय के उपलक्ष्य में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने चाँदी के सिक्के चलाए । चन्द्रगुप्त द्वितीय वैष्णव था तथा उसने परमभागवत की उपाधि धारण की । । चन्द्रगुप्त विद्या – प्रेमी था उसके दरबार में नवरत्न विद्वानों की एक मण्डली सामरहती थी । नवरलमण्डली में कालिदास , धन्वंतरी , क्षपणक , अमरसिंह , शंकु , वो तालभट्ट , घटकर्पर , वाराहमिहिर , वररुचि जैसे विद्वान थे । प्रसिद्ध चिकित्सक धन्वंतरि चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में था । 1 चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् उसका पुत्र कुमारगुप्त ( 413 ई०-455 ई ० ) नों सिंहासन पर बैठा । कुमारगुप्त ने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की थी । कुमारगुप्त- | का उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त ( 455-467 ई ० ) हुआ । . स्कन्द गुप्त ने हूणों को परास्त कर गुप्त साम्राज्य की रक्षा की थी ।
स्कन्द गुप्त ने हूणों को परास्त करने के पश्चात् विक्रमादित्य व क्रमादित्य की उपाधियाँ धारण कीं । H – . .
गुप्त युग में ही आर्यभट्ट जैसा गणितज्ञ एवं महान खगोलज्ञ हुए । आर्यभट्ट ने सर्वप्रथम प्रमाणित किया कि पृथ्वी अपनी धूरी पर घूमती है । आर्यभट्ट ने ही सर्वप्रथम बताया कि पृथ्वी और सूर्य के बीच चंद्रमा के आ जाने से सूर्यग्रहण होता है । दशमलव प्रणाली का भी आविष्कार आर्यभट्ट ने इसी युग में किया । आर्यभट्ट ने आर्यभट्टीय एवं सूर्यसिद्धान्त नामक ग्रन्थों की रचना की जो नक्षत्र विज्ञान से संबोधत थी । आर्यभट्ट , वराहमिहिर , धन्वन्तरि , ब्रह्मगुप्त आदि चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में रहने वाले प्रमुख विद्वान थे । ब्रह्मगुप्त गुप्त काल के प्रसिद्ध गणितज्ञ थे , उन्होंने ब्रह्म सिद्धान्त नामक ग्रन्थ की रचना की । वाराहमिहिर गुप्तकाल के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री थे , उन्होंने वृहत् संहिता एवं पंचसिद्धांतिका नामक प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना की । पाल्काल नामक पशु चिकित्सक ने ‘ हाथियों के रोगों से सम्बन्धित चिकित्सा हेतु हस्त्यायुर्वेद नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की । नागार्जुन इस काल का प्रसिद्ध चिकित्सक था , उसने रस चिकित्सा नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की । धातु विज्ञान का इस युग में अत्यधिक विकास हुआ । नागार्जुन ने इस काल में सिद्ध किया कि सोना , चाँदी , लोहा , ताँबा आदि खनिज धातुओं में रोग निवारण की शक्ति विद्यमान है । लगभग 1.5 हजार वर्ष पूर्व निर्मित दिल्ली में एक लौह स्तम्भ में अभी तक जंग नहीं लगा है , जो तत्कालीन धातुकर्म विज्ञान के काफी विकसित होने का प्रमाण है ।
गुप्तोत्तर काल
( Post – Gupta Period )
हूण मध्य एशिया की एक बर्बर जाति थी । हूणों ने अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर पश्चिम की ओर बढ़ना प्रारम्भ किया । F छठी शताब्दी ई ० के अन्त में हूण एक विशाल साम्राज्य पर शासन करते थे , जिनकी राजधानी बल्ख में थी । फारस पर अधिकार हो जाने से हूणों के लिए भारत का रास्ता खुल गया । स्कन्दगुप्त की मृत्यु के 33 वर्षों के पश्चात् लगभग 500 ई ० में तोरमाण के नेतृत्व में हूणों ने गंगा घाटी पर आक्रमण किया ।
तोरमाण ने प्रारम्भ में काबुल , गन्धार , सीमाप्रान्त , पंजाब और कश्मीर पर विजय प्राप्त की । ग्वालियर अभिलेख से ज्ञात होता है कि तोरमाण की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र मिहिरकुल शासक बना , उसकी राजधानी सांकल ( स्यालकोट ) थी ।
मिहिरकुल एक अत्याचारी शासक था , उसने 15 वर्षों तक शासन किया । मिहिरकुल बौद्ध धर्म के प्रति अनुदार था , उसने बौद्धों की हत्या की एवं उनके स्तूपों एवं विहारों को नष्ट किया । मन्दसौर अभिलेख से ज्ञात होता है कि मिहिरकुल को मालवा के शासक यशोधर्मा ने परास्त किया । मिहिरकुल की मृत्यु के बाद हूणों का पतन हो गया । गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद थानेश्वर में पुष्यभूति ने पुष्यभूति वंश की नींव डाली । इस वंश का प्रथम महत्वपूर्ण शासक प्रभाकर वर्द्धन था प्रभाकर वर्द्धन ने परमभट्टारक या महाराजाधिराज की उपाधि धारण की ।
प्रभाकर वर्द्धन के दो पुत्र राज्यवर्द्धन तथा हर्षवर्द्धन तथा एक पुत्री राज्य श्री थी । प्रभाकर वर्द्धन की मृत्यु के बाद राज्यवर्द्धन थानेश्वर का शासक बना लेकिन अल्पकाल में ही गौड़ के शासक शशांक ने उसकी हत्या कर दी ।
राज्यवर्द्धन के बाद लगभग 606 ई ० में 16 वर्ष की आयु में हर्षवर्द्धन थानेश्वर का शासक बना । हर्षवर्द्धन के शासन के विषय में जानकारी के प्रमुख स्रोत बाणभट्ट की रचनाएँ , ह्वेनसांग का यात्रा विवरण तथा स्वयं हर्ष के नाटक हैं । हर्षवर्द्धन स्वयं एक बड़ा , विद्वान , लेखक , नाट्यकार तथा कवि था ।
हर्षवर्धन ने प्रियदर्शिका , रत्नावली और नागानन्द नामक तीन नाटक लिखे थे । .
बाणभट्ट हर्षवर्द्धन का राजकवि था , उसने हर्षचरित , कादम्बरी तथा पार्वती – परिणय नामक ग्रन्थों की रचना की । राजा बनते ही हर्षवर्द्धन ने अपनी बहन राज्यश्री को शशांक के कैद से मुक्त कराया ।
हर्षवर्धन ने शशांक से युद्ध किया और पराजित कर कन्नौज पर अधि कार कर लिया ।
आरम्भ में हर्षवर्द्धन की राजधानी थानेश्वर थी , बाद में उसने कनौज को अपना राजधानी बनाया । हर्षवर्द्धन के शासनकाल में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत की यात्रा की थी ।
हेनसांग को यात्री सम्राट एवं नीति का सम्राट कहा गया है । हेनसांग भारत में नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ने तथा बौद्ध ग्रन्थ संग्रह करने के उद्देश्य से आया था ।
हर्षवर्द्धन का एक अन्य नाम शिलादित्य था ।
हर्षवर्द्धन के दरबार में बाणभट्ट , मयूर , हरिदत्त एवं जयसेन जैसे प्रसिद्ध कवि एवं लेखक थे । वह प्रतिदन 500 ब्राह्मणों एवं 1000 बौद्ध भिक्षुओं को भोजन कराता था । हर्ष ने 643 ई ० में कन्नौज तथा प्रयाग में दो विशाल धार्मिक सभाओं का आयोजन किया था । प्रयाग में आयोजित सभा को मोक्ष – परिषद् कहा जाता है । । हर्षवर्द्धन को दक्षिण भारत के शासक पुलकेशिन द्वितीय ( चालुक्य वंश ) . ने ताप्ती नदी के किनारे 630 ई ० में पराजित किया ।
हर्षवर्द्धन के शासन प्रबन्ध में राजा का सर्वोच्च स्थान था । राजा को ‘ परम भट्टारक ‘ , ‘ परमेश्वर ‘ , ‘ परम देवता ‘ , ‘ महाराजाधिराज ‘ आदि की उपाधियाँ प्राप्त थी । हर्ष का साम्राज्य शासन की सुविधा के लिए इकाइयों में बँटा हुआ था ।
हर्षवर्द्धन के शासनकाल में भूमि – कर कुल उपज का 1/6 हिस्सा लिया जाता था । ने हर्षवर्द्धन की मृत्यु 647 ई ० में हुई । पल्लव वंश की स्थापना सिंह विष्णु ( 575-600 ई ० ) ने की । सिंहविष्णु ने काँची ( तमिलनाडु ) को अपनी राजधानी बनाया , वह वैष्णव धर्म का उपासक था ।
किरातार्जुनीयम के रचनाकार भारवि सिंह विष्णु का दरबारी कवि था ।
पल्लव वंश का अन्तिम शासक अपराजित ( 879-897 ई ० ) था । पल्लव वंश के शासक नरसिंहवर्मन- द्वारा एकाश्मक रथ ( महाबलिपुरम् ) त् का निर्माण कराया गया । एकाश्म रथ चट्टान काटकर बनाया गया है तथा इसे धर्मराज रथ भी कहा जा जाता है । धर्मराज रथ तथा उसी स्थान पर बने 6 अन्य मन्दिर सामूहिक रूप से वं सप्तरथ अथवा 7 – पैगोडा कहलाते हैं ।
कैलाशनाथ मन्दिर ( काँची ) का निर्माण नरसिंहवर्मन- II , मुक्तेश्वर एवं बैकुंठ पेरुमाल मन्दिर ( दोनों काँची में ) का निर्माण पल्लव शासक नन्दीवर्मन ने किया । पल्लव शासक नरसिंहवर्मन -1 ने द्वारा वातापीकोंडा की उपाधि धारण की । श पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन- I ने द्वारा मतविलास प्रहसन नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की ।
दशकुमारचरितम् का रचनाकार दंडी पल्लव शासक नन्दीवर्मन का ‘ T दरबारी कवि था । पल्लव शासक ‘ नन्दीवर्मन ‘ के ही समकालीन प्रसिद्ध वैष्णव संत तिरूमङग ना अलवर थे । काँची के पल्लवों के संदर्भ में हमें प्रथम जानकारी हरिषेण के प्रयाग 11 प्रशस्ति एवं चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण से प्राप्त झेती है ।
पल्लव वंश के प्रथम शासक सिंहविष्णु ने माम्मलपुरम् के आदि वराह की गुहा मन्दिर का निर्माण किया । इस वंश के शासक नरसिंहवर्मन -1 ने चालुक्य शासक पुलकेशिन- II को । तीन युद्धों में परास्त किया ।
. नरसिंहवर्मन -1 ने एक बंदरगाह नगर महाबलिपुरम् ( काम्मलपुरम् ) की स्थापना काँची के नजदीक की ।
स्कन्दगुप्त ने गिरनार स्थित सुदर्शन झील पर बाँध का जीर्णोद्धार किया था । स्कन्दगुप्त की मृत्यु 467 ई ० में हुई । विष्णुगुप्त , कुमारगुप्त तृतीय का पुत्र था , वह अन्तिम गुप्त शासक था । गुप्तकालीन शासन – व्यवस्था में सम्राट दीवानी विभाग , सेना एवं न्याय प्रत्येक विभागों का सर्वोच्च अधिकारी होता था ।
गुप्त शासक परमदैवत , महाराजाधिराज , एकाधिराज , परमेश्वर तथा चक्रवर्तिन उपाधि धारण करते थे । राजा युद्धों में सेना का संचालन करता था तथा अमात्यों व मन्त्रियों की सहायता से शासन करता था । राज्य के सभी केन्द्रीय विभागों का प्रमुख सर्वाध्यक्ष कहलाता था ।
सम्राट से मिलने वालों के लिए आज्ञापत्र का वितरक अन्त : पुर एवं राजमहल का प्रमुख रक्षक प्रतिहार एवं महाप्रतिहार कहलाता था । सर्वोच्च सेनापति को महादंडनायक कहा जाता था । गजसेना का अध्यक्ष महापीलुपति तथा अश्वसेना का अध्यक्ष महाश्वपति कहलाता था ।
गुप्तकाल में कुमारामात्य नामक एक महत्वपूर्ण अधिकारी होता था , जो आधुनिक प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के समान था । गुप्तकाल में दण्डपाशिक पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी था । गुप्तकाल में मुख्य न्यायाधीश को महादण्डनायक कहा जाता था । गुप्तकाल में न्यायालयों की चार श्रेणियाँ कुल , श्रेणी , पुत्र तथा राजा का न्यायालय थी । प्रशासनिक सहुलियत के लिए साम्राजय को देश , भुक्ति अथवा अपनी जैसे प्रांतों में बाँटा गया था । भुक्ति के प्रशासक को उपरिक कहा जाता था , उसकी नियुक्ति सम्राट करता था । नगरों का प्रशासन महापालिकाओं द्वारा चलाया जाता था । पुरपाल नगर का मुख्य अधिकारी होता था ।
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी जिसका ग्राम का प्रशासन ग्राम सभा द्वारा संचालित होता था । गुप्तकाल में स्थानीय स्वशासन के अस्तित्व में होने का प्रमाण दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख से प्राप्त होता है । गुप्तकालीन समाज मुख्य रूप से चार वर्गों ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य एवं शूद्र में विभाजित था । गुप्तकालीन अभिलेखों में सर्वप्रथम कायस्थ का उल्लेख मिलता है । 510 ई ० में सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य ऐरण अभिलेख में मिलता है । गुप्त राजाओं ने सर्वाधिक संख्या में स्वर्ण मुद्राएँ जारी की , जिन्हें दिनार कहा जाता था ।
गुप्तकाल में प्रमुख शिक्षा केन्द्र नालन्दा , उज्जैन , पाटलिपुत्र , काँची , मथुरा , अयोध्या आदि थे । गुप्तकाल में गणिकाओं का उल्लेख मिलता है , वृद्ध वेश्याओं को कुट्टनी कहा जाता था । गुप्तकाल में कृषकों को कुल उपज का 1/6 हिस्सा कर के रूप में देना पड़ता था । दशपुर , बनारस , मथुरा और कामरूप कपड़ा उत्पादन के बड़े केन्द्र थे । वृहत्संहिता में गुप्त – काल के 22 रनों का उल्लेख मिलता है । गुप्तकाल में स्थिति में था । पेशावर , भड़ौंच , उज्जैयनी , बनारस , प्रयाग , मथुरा , पाटलिपुत्र , वैशाली एवं ताम्रलिप्ति आदि प्रमुख व्यापारिक केंद्र थे ।
उज्जैन सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था । इस काल में जल एवं स्थल मार्ग द्वारा मिस्र , फारस , रोम , यूनान , लंका , बर्मा , सुमात्रा , तिब्बत , चीन एवं पश्चिम एशिया से व्यापार होता था । नगरों में व्यापार करने वाले श्रेष्ठी व वैदेशिक व्यापार करने वालों का मुखिया सार्थवाह कहलाता था । गुप्तकाल में जिन महत्वपूर्ण चीजों का व्यापार होता था , वे थीं – रेशम , मसाले , कपड़ा , धातुएँ , हाथी दाँत एवं समुद्री उत्पाद आदि ।
गुप्तकाल में हिन्दू – धर्म के दो मुख्य सम्प्रदाय वैष्णव ( भागवत ) और शैव . . . . विकसित हुए ।
. अनेक गुप्त शासक वैष्णव धर्म के अनुयायी थे अत : उन्होंने इस धर्म को राजाश्रय प्रदान किया । गुप्तवंश के दो सर्वाधिक प्रतापी शासक समुद्रगुप्त व चन्द्रगुप्त द्वितीय भी वैष्णव धर्मावलम्बी ही थे । गुप्तकाल में वैष्णव धर्म सम्बंधी सबसे महत्वपूर्ण अवशेष देवगढ़ के दशावतार मन्दिर ( झाँसी ) से प्राप्त हुआ है ।
गुप्तकालीन प्रसिद्ध मन्दिर मन्दिर एवं स्थान
दशावतार मन्दिर – देवगढ़ ( झाँसी ) ।
2 . विष्णु मन्दिर – तिगवा ( म ० प्र ० , जबलपुर ) ।
शिव मन्दिर – खोह ( नगौद म ० प्र ० ) ।
पार्वती मन्दिर – नयना कुठार ( म ० प्र ० ) ।
भीतरगाँव मन्दिर – भीतर गाँव ( कानपुर ) ।
शिव मन्दिर भूमरा ( नगौद म ० प्र ० ) ।
गुप्तकाल में निर्मित भीतरी गाँव का मन्दिर कानुपर जिला ( उ ० प्र ० ) में स्थित है ।
विष्णु के 10 अवतारों में वराह एवं कृष्ण की पूजा का प्रचलन गुप्त काल में विशेष रूप से हुआ । गुप्त काल में कालीदास , शुद्रक , विशाखदत्त , भारवि , भोट्ट , भास , विष्णु शर्मा आदि जैसे कई साहित्यकार हुए । कालिदास ने मालविकाग्निमित्रम् , अभिज्ञानशाकुंतलम् तथा रघुवंशम् की रचना की । विशाखदत्त ने देवी चंद्रगुप्तम तथा भाष ने स्वप्नवासवदत्तम् जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की ।
सारनाथ से प्राप्त धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में बुद्ध की मूर्ति गुप्तकाल की मूर्तिकला का सबसे भव्य नमूना 1 इसके अतिरिक्त बिहार के भागलपुर से मिली बुद्ध की ताममूर्ति एवं मथुरा से मिली बुद्ध की खड़ी मूर्ति विशेष है । साहित्यिक व कला के विकास के साथ ही गुप्त – युग में विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रगति हुई । आर्यभट्ट गुप्त युग में ही सर्वप्रथम यह प्रमाणित किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है तथा पृथ्वी व सूर्य के मध्य चन्द्रमा आ जाने से सूर्यग्रहण होता है । 1-20 . गुप्तकाल में । .
Gyasuddin तुगलक ने दिल्ली पर तुगलक वंश ( 1320-98 ई . ) का शासन प्रारंभ किया ।
1321 ई . में प्रताप रुद्रदेव के विरूद्ध तेलंगाना में ग्यासुद्दीन तुगलक ने सैन्य अभियान करवाया । तेलंगाना का सैन्य अभियान जौना खाँ ( मुहम्मद – बिन – तुगलक ) के नेतृत्व में हुआ । ग्यासुद्दीन तुगलक ने 29 बार मंगोल आक्रमण को विफल किया । ग्यासुद्दीन ने अपने साम्राज्य में सिंचाई की व्यवस्था की तथा सम्भवतः नहरों ( canals ) का निर्माण करने वाला पहला शासक था । ग्यासुद्दीन तुगलक ने दिल्ली के समीप तुगलकाबाद नाम का एक नया नगर स्थापित किया । रोमन शैली में निर्मित तुगलकाबाद में छप्पनकोट नामक एक दुर्ग का निर्माण भी हुआ । ग्यासुद्दीन तुगलक की मृत्यु 1325 ई ० में बंगाल के अभियान से लौटते समय जूना खाँ द्वारा निर्मित लकड़ी के महल में दबकर हो गयी । बिहार के मैथिली कवि विद्यापति की रचनाओं में ग्यासुद्दीन तुगलक के महत्वपूर्ण विवरण प्राप्त होते हैं । ग्यासुद्दीन तुगलक के मृत्यु के बाद जौना खाँ , मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा । भारतीय इतिहास में मुहम्मद बिन तुगलक पागल , सनकी , रक्तपिपासु आदि नामों से जाना जाता है । मुहम्मद बिन तुगलक के काल में दिल्ली सल्तनत का साम्राज्य सर्वाधि क विस्तृत था । मुहम्मद बिन तुगलक मध्यकालीन सभी सुल्तानों में सर्वाधिक शिक्षित तथा विद्वान था । मुहम्मद बिन तुगलक ने चार योजनाओं को क्रियान्वित किया जो इस प्रकार थे ( i ) राजधानी दिल्ली का दौलताबाद स्थानान्तरण । ( i ) सोना चाँदी के स्थान पर ताँबे एवं पीतल के सांकेतिक मुद्रा ( Token currency ) का प्रचलन । ( i ) दोआब क्षेत्र में भू – राजस्व की दर कुल उपज का 1/2 करना । ( iv ) कराचिल एवं खुरासन का विफल अभियान । . मुहम्मद तुगलक ने एक नये कृषि विभाग दीवान – ए – अमीर कोही की स्थापना की । अफ्रीकी यात्री इब्नबतूता मुहम्मद तुगलक के समय में भारत आया था । 1333 ई ० में मुहम्मद – बिन – तुगलक ने इब्नबतूता को दिल्ली का काजी नियुक्त किया । मुहम्मद – बिन – तुगलक ने इब्नबतूता को 1342 ई ० में राजदूत बना कर चीन . भेजा । मुहम्मद – बिन – तुगलक के शासनकाल में दक्षिण में हरिहर एवं बुक्का नामक दो भाइयों ने 1336 ई ० में स्वतन्त्र राज्य विजयनगर की स्थापना की । 1347 ई ० में महाराष्ट्र में अलाउद्दीन बहमन शाह ने बहमनी साम्राज्य की स्थापना की । मुहम्मद – बिन – तुगलक के शासनकाल में सर्वाधिक विद्रोह हुए जिसके परिणामस्वरूप लगभग पूरा दक्षिण का राज्य स्वतन्त्र हो गया । मुहम्मद – बिन – तुगलक के शासनकाल में कान्हा नायक ने विद्रोह कर स्वतन्त्र वारंगल राज्य की स्थापना की । मुहम्मद – बिन – तुगलक ने इंशा – ए – महरु नामक पुस्तक की रचना की । 1341 ई ० में चीनी सम्राट तोगनतिमुख ने अपना राजदूत भेजकर मुहम्मद • बिन तुगलक से हिमाचल प्रदेश के बौद्ध मन्दिरों के जीर्णोद्धार के लिए अनुमति मांगी । जैन सन्त जिन चन्द्रसूरी को मुहम्मद तुगलक ने सम्मानित किया । मुहम्मद – बिन – तुगलक की मृत्यु थट्टा में हुई । मुहम्मद तुगलक की मृत्यु पर बदायूनी ने लिखा कि ” सुल्तान को उसकी प्रजा से और प्रजा को अपने सुल्तान से मुक्ति मिल गई । “
मुहम्मद – बिन – तुगलक की मृत्यु के पश्चात् उसका चचेरा भाई फिरोजशाह -तुगलक ( 1351-88 ई . ) दिल्ली की गद्दी पर बैठा ।
मालवा के शासक महमूद खिलजी ने मुहम्मद शाह के समय दिल्ली पर 3 . आक्रमण किया । मुहम्मद शाह की मृत्यु ( 1444 ई . ) के बाद उसका पुत्र अलाउद्दीन 5 . आलमशाह के नाम से गद्दी पर बैठा । आलमशाह ( 1445-51 ई . ) अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर बदायूं ले 7 . गया । 1451 ई ० में आलमशाह ने बहलोल लोदी को दिल्ली का राज्य पूर्णत : सौंप दिया और स्वयं बदायूं की जागीर में रहने लगा । 37 वर्ष के शासन के बाद सैय्यद वंश का अन्त हो गया तथा लोदी वंश की नींव पड़ी । लोदी वंश ( 1451-89 ई . ) की स्थापना बहलोल लोदी ने 1451 ई . में किया । बहलोल लोदी ( 1451-89 ई . ) दिल्ली में प्रथम अफगान शासक था । बहलोल लोधी ने शाह गाजी की उपाधि धारण की । बहलोल लोदी ने बहलोल सिक्के का प्रचलन किया । 1489 ई ० में बहलोल लोदी की मृत्यु हो गयी । बहलोल लोदी का पुत्र सुल्तान सिकन्दर शाह लोदी 1489 ई . में सिंहासन पर बैठा । सिकन्दर लोदी ने 1504 ई ० में आगरा शहर की स्थापना की तथा इसे अपनी नयी राजधानी बनाया । सिकन्दर लोदी ने भूमि माप के लिए सिकन्दरी गज का प्रचलन करवाया । सिकन्दर लोदी ( 1489-1517 ई . ) गुलरुखी के उपनाम कविताएँ लिखता था । सिकन्दर लोदी ने मुसलमानों द्वारा ताजिया निकालने तथा मुस्लिम स्त्रियों 2 . 3 द्वारा पीरों एवं सन्तों की मजार पर जाने को प्रतिबंधित कर दिया । 3 . सिकन्दर लोदी ने संस्कृत के ग्रन्थ आयुर्वेद का फरंहग – ए – सिकन्दरी के नाम 4 . व से फारसी में अनुवाद करवाया । 5 . सिकन्दर लोदी ने नगरकोट के ज्वालामुखी मन्दिर की मूर्ति को तोड़कर 6 . उसके टुकड़ों को कसाइयों को मांस तौलने के लिए दे दिया था । 7 . 21 नवम्बर , 1517 ई ० को सिकन्दर लोदी की मृत्यु हो गयी । अ सिकन्दर लोदी के मृत्यु के बाद 22 नवम्बर 1517 ई ० को उसका पुत्र PO इब्राहिम शाह लोदी गद्दी पर बैठा । बा इब्राहिम लोदी ( 1517-26 ई . ) के शासनकाल की महत्वपूर्ण घटना निः पानीपत का प्रथम युद्ध है । अब पानीपत का प्रथम युद्ध ( अफगानिस्तान ) के शासक ‘ बाबर ‘ तथा इब्राहिम लोदी के बची 1526 ई . में हुआ । 8 . सर उपरोक्त युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त कर भारत में मुगल वंश की 9 . शह स्थापना की । 11. बरी बाबर को भारत पर आक्रमण का न्यौता पंजाब के शासक दौलत खाँ 10. अर्म लोधी ने दिया था । दौलत खाँ लोधी , इब्राहिम लोधी का चाचा था । में ) सल्तनत साम्राज्य एक प्रकार का ‘ धार्मिक राजतन्त्र ‘ ( Religious Monarchy ) बिह था । सल्तनत काल में इस्लाम को राजधर्म घोषित किया गया । प्रान्त अलाउद्दीन खिलजी ने सर्वप्रथम ‘ खलीफा ‘ के वर्चस्व को चुनौती दी तथा सल उसके नाम का ‘ खुतबा ‘ पढ़ने एवं उसके नाम के सिक्के ‘ ढालने की प्रथा जात बन्द कर दी । इक्त अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी ने स्वयं को 147 ” खलीफा ‘ घोषित कर खलीफा के महत्व को नकार दिया । ” शित सल्तनत काल में , सुल्तान प्रशासन के सभी विभागों का प्रमुख होता था । अधि सुल्तान को प्रशासन में मदद करने के लिए मजलिस – ए – खिलवत नामक गाँवों मंत्रिपरिषद् थी । होते . परंतु , सुल्तान मजलिस – ए – खिलवत की सलाह मानने को बाध्य नहीं था । सबस सुल्तान अपने दैनिक कार्य बार – ए – आजम ( जनसभा हॉल ) में निपटाता ग्राम र था । . सल्तनतकालीन केन्द्रीय शासन में निम्न विभाग थे इब्नब समूह 1. वित्त मन्त्रालय ( Finance Ministry ) – प्रधानमंत्री विभाग । २. दीवान – ए – रिसालत ( Department of Apeals ) – अपील विभाग ।
. 3 . दीवान – ए – इंशा ( Department of Drafting ) – आलेख विभाग । 4 . दीवान – ए – आरज ( Department of Military ) – सैन्य विभाग । न 5 5 . दीवान – ए – खैरात ( Department of Charity ) – दान विभाग । 6 . दीवान – ए – वंदगान ( Slave Department ) – दास विभाग । ले 7. दीवान – ए – इस्तेफाक – पेंशन विभाग ( Department of Pension ) | मुहम्मद – बिन – तुगलक ने दीवान – ए – अमीर कोही नाम कृषि विभाग की 7 : स्थापना की । अलाउद्दीन खिलजी ने वित्त मंत्रालय के अधीन दीवान – ए – मुस्तखराज श नामक एक नया विभाग स्थापित किया । दीवान – ए – मुस्तखराज का कार्य कर अधिशेष ‘ का हिसाब रखना था । में जलालुद्दीन खिलजी ने भी एक नए विभाग दीवान – ए – वकूफ की स्थापना की । 1 ‘ दीवान – ए – वकूफ ‘ की स्थापना आय – व्यय के कागजातों की देखभाल करने के लिए किया गया था । सल्तनत प्रशासन में सुल्तान के बाद सर्वाधिक शक्तिशाली मन्त्री वजीर था । वजीर , वित्त मंत्रालयका प्रधान होता था । न वजीर गुप्तचर , डाक , धर्मार्थ संस्थाएँ तथा कारखानों आदि का भी प्रधान होता था , वह सुल्तान की अनुपस्थिति में उसके कार्यों का सम्पादन करता था । नायब वजीर वजीर का सहायक था तथा वजीर की अनुपस्थिति में उसके कार्यों को देखता था । सल्तनत काल में कुछ अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारी निम्नवत् धे 1 . मजमुआदार – आय – व्यय को ठीक रखने वाला पदाधिकारी । 2. आरिज – ए – मुमालिक – सेना मन्त्री । 3 . सद्र – उस – सुदूर – धर्म एवं राजकीय दान विभाग का अध्यक्ष । 4 . वकील – ए – दर – सुल्तान की व्यक्तिगत सेवाओं का प्रबन्धक । 5 . अमीर – ए – हाजिब – दरबारी शिष्टाचार को लागू करवाने वाला पदाधिकारी । 6. खजीन – खजाँची । 7. काजी – उल – कुजात – मुख्य न्यायाधीश । अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार नियंत्रण व्यवस्था ( Market controll Policy ) लागू की । बाजार नियंत्रण व्यवस्था के अंतर्गत सभी वस्तुओं के सरकार दाम निर्धारित थे । अलाउद्दीन ने व्यापारियों की बेईमानी से आम जनता को बचाने के लिए मुहतसिब एवं बरीद जैसे गुप्तचार नियुक्त किए थे । 8. सरजांदार – सुल्तान के अंग – रक्षकों का नायक । 9 . शहना – ए – पील – हस्तिशाला का अध्यक्ष । 11. बरीद – गुप्तचर । 10. अमीर – ए – आखुर – अश्वशाला का अध्यक्ष । सल्तनत काल में ‘ सूबों ‘ ( प्रान्तों ) की संख्या 2 से 31 ( विभिन्न कालों में ) तक थी । बिहार के उत्तरी हिस्से में तिरहुत नामक एक नये प्रान्त का गठन ग्याशुद्दीन तुगलक द्वारा किया गया । प्रान्तीय शासन का संचालन नायब , वली अथवा मुक्ति के हाथों में था । सल्तनत को 13 वीं शताब्दी में सैनिक क्षेत्रों में बाँटा गया , जिसे इक्ता कहा जाता था । इक्ता का प्रधान मुक्ति ( एक शक्तिशाली सैन्य – अधिकारी ) होता था । 14 वीं शताब्दी में शिक्कों ( जिलों ) का गठन हुआ । ‘ शिक्क ‘ का शासन देखने की जिम्मेदारी नाजीम या अमील नामक अधिकारी की थी । गाँवों में मुकदम की सहायता के लिए पटवारी एवं कारकून ( क्लर्क ) होते थे । सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई ग्राम थी । . ग्राम का प्रमुख मुकदम ,, खुत अथवा चौधरी कहलाता था । इब्नबतुता में प्रशासन की सबसे छोटी इकाई सादी ( 100 गाँवों का समूह ) को माना है ‘ नगर ‘ का प्रशासन अमीर – ए – सदा नामक अधिकारी के हाथों में थी ।
‘ इस्लामिक शरा ‘ में राजकीय आय के पाँच साधनों , जकात , जजिया , . .
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. फिरोजशाह तुगलक का राज्याभिषेक थट्टा में हुआ तथा पुन : 1351 ई ० में दिल्ली में दोबारा राज्याभिषेक हुआ । फिरोज तुगलक ने 24 कष्टकारी करों को समाप्त किया । फिरोज तुगलक ने शरीयत द्वारा स्वीकृत 4 करों जजिया , जकात , खराज एवं खम्स को ही मुख्य रूप से रखा । ‘ जजिया ‘ गैर – मुसलमानों पर लगाया जाने वाला कर था । फिरोज तुगलक ने ‘ ब्राह्ममर्गों पर भी ‘ जजिया कर ‘ लगाया । फिरोज ने सिंचाई कर हक – ए – शर्ब लगाया जो सिंचित भूमि के कुल उपज का 1/10 था । फिरोज तुगलक ने 5 बड़ी नहरों का निर्माण करवाया । उसने फिरोजाबाद , हिसार , जौनपुर , फतेहाबाद आदि नगरों की स्थापना की । फिरोज तुगलक ने सर्वप्रथम राज्य के आय का प्रमाणिक ब्यौरा तैयार करवाया । फिरोज तुगलक ने अशोक के खिजाबाद ( टोपरा ) एवं मेरठ में स्थित दो स्तम्भों को वहाँ से स्थानांतरित कर दिल्ली में स्थापित किया । फिरोज तुगलक ने अनाथ मुस्लिम महिलाओं , विधवाओं एवं लड़कियों के लिए दीवान – ए – खैरात ( दान – विभाग ) की स्थापना की । फिरोज तुगलक के शासनकाल में सल्तनतकालीन सुल्तानों में दासों की संख्या सर्वाधिक ( लगभग 1,80,000 ) थी । उसने दासों के लिए दीवान – ए – वन्द्गान ( दास विभाग ) की स्थापना की । फिरोज के दरबार में विद्वान जियाउद्दीन बरनी तथा शम्से शिराज अफीफ रहता था । बरनी और शम्से शिराज अफीफ ने तारीख – ए – फिरोजशाही की रचना की । फिरोज तुगलक ने स्वयं आत्मकथा लिखी जो फुतूहाते – फिरोजशाही के नाम से जाना जाता है । फिरोज तुगलक ने दिल्ली के निकट दार – उल – सफा नामक एक खैराती अस्पताल खोला । फिरोज तुगलक ने चाँदी एवं ताँबे के मिश्रण से शशगनी , अद्धा एवं विश्व जैसे सिक्के चलाये । फिरोज तुगलक के काल में खान – ए – जहाँ तेलंगानी के मकबरे का निर्माण . . . हुआ । खान – ए – जहाँ तेलंगानी के मकबरे की तुलना जेरुशलम के उमर मस्जिद से की जाती है । दिल्ली स्थित फिरोजशाह कोटला दुर्ग फिरोज तुगलक द्वारा ही निर्मित करवाया गया । फिरोजशाह ने अपने जाजनगर ( उड़ीसा ) अभियान के दौरान पुरी के जगन्नाथ मन्दिर को ध्वस्त किया तथा नागरकोट अभियान के दौरान ज्वालामुखी मन्दिर को ध्वस्त कर इसे लूटा । फिरोज तुगलक ने लगभग 300 प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का फारसी अनुवाद आजउद्दीन खालिद द्वारा दलायले – फिरोजशाही के नाम से करवाया । नासिरुद्दीन महमूद तुगलक तुगलक वंश का अन्तिम शासक था । नसिरूँद्दीन महमूद तुगलक के ही शासनकाल में तैमूरलंग ने 1398 ई ० में भारत पर आक्रमण किया । तैमूरलंग के सेनापति खिज्र खाँ ने दिल्ली पर सैय्यद वंश ( 1414-50 ई . ) के शासन की स्थापना की । खिज खाँ ( 1412-21 ई . ) ने रैय्यत – ए – आला की उपाधि धारण की । 20 मई , 1421 ई ० को खिज्र खाँ की मृत्यु हुई । खिज्र खाँ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मुबारक शाह ( 1421-34 ई . ) सुल्तान बना । मुबारक शाह ने यमुना के तट पर मुबारकाबाद नामक नगर बसाया । उसके आश्रय में प्रसिद्ध इतिहासकार ‘ याह्या – बिन – अहमद सरहिन्दी ‘ थे । इसकी पुस्तक तारीख – ए – मुबारक शाही से सैय्यद वंश के विषय में जानकारी मिलती है । 19 फरवरी , 1434 ई ० को उसके एक सरदार सरवर – उल – मुल्क ने एक षड्यन्त्र द्वारा उसकी हत्या करवा दी ।
मुहम्मद शाह ( 1414-43 ई . ) के काल में दिल्ली सल्तनत में अराजकता व कुव्यवस्था व्याप्त रही ।
. खिराज , खम्स एवं उश का उल्लेख है । खराज गैर – मुसलमानों से तथा उथ मुसलमानों से वसूला जाने वाला कर था । 6 जकात गैर – मुसलमानों से वसूला जाने वाला एक धार्मिक कर था । 7 . जजिया कर हिन्दुओं से वसूला जाता था । 8 युद्ध से प्राप्त लूट के माल में राज्य के हिस्से को खम्स कहा जाता था । 9 खानों से होने वाली आय , निर्यात – आयात कर , आबकारी कर , यात्रा कर , गृह कर एवं सिंचाई कर इत्यादि राजकीय आय के अन्य स्रोत थे । सिंचाई कर को हक – ए – शर्ब कहा जाता था । ‘ हक – ए – शर्ब ‘ फिरोज तुगलक के शासनकाल में अध्यारोपित किया गया । फिरोज तुगलक ने ब्राह्मणों पर भी ‘ जजिया कर ‘ लगाया । सल्तनत काल में राज्य की समस्त भूमि को चार वर्गों में बाँट दिया गया इक्ता , 2. खालसा , 3. अनुदान , 4. समांतों की भूमि । खालसा भूमि पूर्णतः केन्द्रीय सरकार के अधीन थी । भू – राजस्व की सिंचित भूमि पर 10 % तथा गैर – सिंचित भूमि पर 5 % लिया 1 जाता था । ‘ खराज ‘ नामक कर कुल उपज का 1/3 से 2/3 भाग वसूला जाता था । दिल्ली सल्तनत के शासकों में सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने शुद्ध अरबी सिक्के सल्तनत काल में जीतल ( ताँबे का ) , टंका ( चाँदी का ) , दिल्लीवाल तथा बहलोली आदि सिक्के तथा स्वर्ण मुहरें प्रचलित थीं । चाँदी के ‘ टंका ‘ का मूल्य 175 ग्रेन था । सल्तनत काल में देश का सबसे बड़ा उद्योग वस्त्रोद्योग था । बंगाल , गुजरात , बनारस , उड़ीसा , सूरत , काम्बे , पटना , बुरहानपुर , दिल्ली , आगरा , मुल्तान एवं थट्टा सल्तनत काल के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे । सल्तनत काल में बंगाल रेशमी एवं सूती वस्त्रों के उत्पादन के लिये विख्यात था । सल्तनत काल में भारत का विदेश व्यापार ( Foreign Trade ) प्रशांत महासागर तथा भूमध्य सागरीय देशों से होता था । सल्तनत काल में देवल अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह के रूप में प्रसिद्ध था । सल्तनत काल में सेना का गठन ‘ दशमलव पद्धति ‘ पर किया गया था । सल्तनत काल में सेना मूल रूप से दो प्रकार की थी । ( i ) हश्म – ए – कल्ब – सुल्तान द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नियुक्त एवं सीधे उसके ( सुल्तान के ) नियन्त्रण में रहने वाले सैनिक । सा ( ii ) हश्म – ए – अतरफ – सुल्तान के सामंतों एवं प्रान्तपतियों द्वारा नियुक्त तथा उनके ही नियन्त्रण में रहने वाले सैनिक । सैन्य – विभाग को दीवान – ए – आरज कहा जाता था । 10 अश्वारोहियों की टोली को सर – ए – खैल कहा जाता था । 10 सर – ए – खैल के ऊपर एक सिपहसलार तथा 10 सिपहसलार के ऊपर एक अमीर होता था । 10 अमीर मलिक के अधीन तथा 10 मलिक एक खान के अधीन होते थे । सल्तनत काल में साम्राज्य का प्रधान न्यायाधीश सुल्तान होता था । सुल्तान के पश्चात् इस विभाग का सर्वोच्च पद काजी – उल – कुजात ( मुख्य काजी ) का था । काजी – उल – कुजात शीर्ष स्तर पर मुकदमों का निर्णय देता था । कस्बों एवं गाँवों के विवादों का निपटारा पंचायतों द्वारा किया जाता था । प्रान्तों में वली , काजी – ए – सूबा , दीवान – ए – सूबा तथा सद – ए – सूबा आदि के चार प्रकार के न्यायालयों के अस्तित्व में रहने का प्रमाण मिलता है । इस्लामी कानूनों की व्याख्या मुजतहिद करता था । शान्ति व्यवस्था को बनाने के लिए एक ‘ पुलिस विभाग ‘ था , जिसका प्रमुख कोतवाल होता था ।
कुवावुत – ईस्लम – मस्जिद भारत में पहली तुर्क मस्जिद थी , इसका निर्माण के 1193 ई ० में हुआ । इल्तुतमिश के मकबरे की दीवारें कुरान की आयतों से सजी हैं । भारत में वैज्ञानिक रूप से पहली बार गोल गुंबद का निर्माण ‘ अलाई दरवाजा ‘ में किया गया । त ‘ अटाला मस्जिद ‘ का निर्माण जहाँ हुआ वहाँ पहले अटाला देवी का मन्दिर था । झंझरी मस्जिद का निर्माण ‘ हजरत सईद सद्र जहाँ अजमली ‘ के सम्मान । में करवाया गया । 1301 ई ० में साहुदेव नामक एक हिन्दू ने कश्मीर में हिन्दू राज्य की 1 स्थापना की । 1339-40 ई ० में शाह मीर ( शमशुद्दीन शाह ) ने कश्मीर में प्रथम का मुस्लिम वंश की स्थापना की । हिन्दू मन्दिर एवं मूर्तियों को तोड़ने के कारण कश्मीर के शासक सिकन्दर को बुतशिकन कहा गया । 1420 ई ० में जैन – ऊल – आबदीन कश्मीर के सिंहासन पर बैठा । धार्मिक रूप से आबदीन सहिष्णु था , अत : उसे कश्मीर के अकबर की संज्ञा दी गई । जैन – ऊल – आबदीन ने महाभारत एवं राजतरंगिणी का फारसी में अनुवाद श करवाया ।
जैन – ऊल – आबदीन ने वूलर झील में जैनालंका नामक कृत्रिम द्वीप का निर्माण करवाया ।
. . 1588 ई ० में अकबर ने कश्मीर को मुगल साम्राज्य में मिला लिया । मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में बंगाल स्वतन्त्र हो गया था । शम्सुद्दीन इलियास शाह बंगाल 1345 ई ० में बंगाल का नवाब बना । शम्सुद्दीन ने एक नए राजवंश इल्यास शाही राजवंश की स्थापना की । 1375 ई ० में शम्सुद्दीन के मृत्यु के बाद सिकन्दर सुल्तान बना । सिकन्दर शाह ने पांडुआ में अदीना मस्जिद का निर्माण करवाया । 1493 ई ० में शासक बने ‘ अलाउद्दीन हुसैन शाह ‘ ने अपनी राजधानी को पांडुआ से गौड़ स्थानान्तरित किया । चैतन्य महाप्रभु अलाउद्दीन के समकालीन थे । अलाद्दीन ने सत्यपीर नामक आन्दोलन की शुरूआत की । अलाउद्दीन के शासन काल में मालधर बसु ने श्री कृष्ण विजय की रचना कर गुणराज खान की उपाधि धारण की । बंगाल के एक अन्य शासक ‘ नसीब खाँ ‘ के कार्यकाल में महाभारत का बंगला भाषा में अनुवाद तथा गौड़ में कदमरसूल मस्जिद का निर्माण करवाया । बंगाल में हुसैनशाही वंश का अन्तिम शासक ‘ ग्याशुद्दीन महमूदशाह ‘ था । मालवा राज्य 1398 ई ० में तैमूर के आक्रमण के बाद स्वतन्त्र हो गया । मालवा के सूबेदार दिलावर खाँ गोरी 1401 ई ० में मालवा को स्वतन्त्र घोषित कर दिया । दिलावर खाँ ने धार की लाट मस्जिद का निर्माण करवाया । 1405 ई ० में शासक बने हुशंगशाह ने मालवा की राजधानी से माण्डू को स्थानान्तरित किया । ‘ माण्डू के किले ‘ का निर्माण हुशंगशाह ने करवाया था , जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है – दिल्ली दरवाजा । हुशंग शाह ने नर्मदा तट पर होशंगाबाद नगर की स्थापना की । 1435 ई ० में शासक बने महमूदशाह खिलजी ने माण्डू में सात मंजिलों वाले महल का निर्माण करवाया । मेवाड़ के राणा कुंभा ने महमूद खिलजी को युद्ध में परास्त कर चित्तौड़ में कैद कर लिया । Ye राणा कुंभा ने विजय की स्मृति में विजय स्तम्भ ( चित्तौड़ ) का निर्माण करवाया । जहाज महल का निर्माण 1469 ई ० में शासक बने ग्यासुद्दीन खिलजी ने मांडू में करवाया । 1500 ई ० में शासक बने नासिरुद्दीन शाह ने बाज बहादुर एवं रुपमति महल का निर्माण करवाया । खिलजी वंश के अन्तिम शासक ‘ महमूदशाह द्वितीय ‘ ने फतेहाबाद नामक स्थान पर महमूद खिलजी के कुश्क महल का निर्माण करवाया । गुजरात के बहादुरशाह ने महमूदशाह द्वितीय को युद्ध में परास्त कर दिया तथा 1531 ई ० में मालवा का गुजरात में विलय हो गया । 1401 ई ० में जफर खाँ के नेतृत्व में गुजरात स्वतन्त्र हो गया । अहमदशाह गुजरात के स्वतन्त्र राज्य का वास्तविक संस्थापक था । अहमदशाह ने असावल के समीप अहमदनगर नामक नगर की स्थापना की । उसने अपनी राजधानी अहमदनगर स्थानान्तरित की । महमूद बेगड़ा गुजरात का प्रसिद्ध शासक था । महमूद बेगड़ा ने गिरनार के निकट मुस्तफाबाद नामक नगर और चम्मानेर के निकट मुहम्मदाबाद नगर बसाया । महमूद बेगड़ा ने गुजरात के समुद्रतट से पुर्तगालियों को भगाने के लिए मिन तथा कालीकट के शासकों से सन्धि की । 1 . 1507 ई ० में ड्यू द्वीप के पास हुए सामुद्रिक युद्ध में महमूद बेगड़ा ने 2 . पुर्तगालियों को पराजित किया , परन्तु , 1509 ई ० में वह पुर्तगालियों से 3 . हार गया । गुजरात को अकबर ने 1572 ई ० में मुगल साम्राज्य के अधीन कर लिया । जौनपुर की स्थापना फिरोज तुगलक ने अपने भाई जौना खाँ की स्मृति में की थी । जौनपुर में स्वतन्त्र शर्की राज्य का संस्थापक ख्वाजा जहाँ था ।
1394 ई ० में फिरोजशाह तुगलक के पुत्र सुल्तान महमूद ने खाजा जहान को मलिक- उस – शर्क ( पूर्व का स्वामी ) की उपाधि प्रदान की । . .
शर्की वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक शम्सुद्दीन इब्राहीम शाह हुआ । शम्सुद्दीन इब्राहिम शाह के समय में , जौनपुर को साहित्य एवं स्थापत्य के कारण भारत का सीराज कहा गया । जौनपुर का अन्तिम शर्की शासक हुसैन शाह शर्की था । जौनपुर राज्य लगभग 75 वर्षों तक स्वतन्त्र रहने के बाद बहलोल लोदी द्वारा दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया । मेवाड़ मध्य काल में सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य था तथा इसकी राजधानी चितौड़ थी । 1303 ई ० में अलाउद्दीन खिलजी ने मेवाड़ के गुहिलौत राजवंश के शासक रत्नसिंह को पराजित कर मेवाड़ को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया । अलाउद्दीन रत्नसिंह की रानी पद्मिनी को प्राप्त करना चाहता था , लेकिन पद्मिनी ने जौहर व्रत ( सती होना ) धारण कर स्वयं को समाप्त कर लिया । 1314 ई ० में सिसोदियों वंश के हम्मीरदेव ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया । मेवाड़ के अन्य प्रसिद्ध शासक राणा कुंभा ( 1433-68 ई ० ) एवं राणा सांगा ( 1509-28 ई ० ) थे । राणा कुंभा ने मेवाड़ में 22 दुर्गों का निर्माण करवाया , जिसमें कुम्भलगढ़ का दुर्ग मुख्य रूप से प्रसिद्ध है । 1527 ई ० में राणा सांगा एवं बाबर के बीच खनवा का युद्ध हुआ जिसमें बाबर विजयी हुआ । 1576 ई ० में मेवाड़ के प्रसिद्ध शासक राणा प्रताप को अकबर ने हल्दी घाटी के युद्ध में परास्त किया । मेवाड़ को मुगल सम्राट जहाँगीर ने मुगल साम्राज्य में मिला लिया । आधुनिक मारवाड़ का संस्थापक चुन्द था , उसने 1394 ई ० में उसकी स्थापना की । मारवाड़ पर राठौर वंश का शासन था । मारवाड़ के शासक जोधा ने जोधपुर एवं बिक्का ने बिकानेर शहरों की स्थापना की । जोधा ने नन्दौर के प्रसिद्ध दुर्ग का निर्माण करवाया । मारवाड़ का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक मालदेव ( 1532-62 ई ० ) था , उसने शेरशाह को मारवाड़ जीतने नहीं दिया । महमूद गजनी ने 1010 ई ० में सिन्ध पर अधिकार कर लिया तथा 50 वर्षों तक शासन किया । 1210 ई ० में सिन्ध पर नासिरुद्दीन कुबाचा ने अधिकार कर लिया । 1382 ई ० में फिरोजशाह तुगलक के सूबेदार मलिक राजा फारुकी ने खानदेश की स्थापना स्वतन्त्र मुस्लिम राज्य के रूप में की थी । उसके नाम पर उसके वंश का नाम फारुखी वंश पड़ा । खानदेश की राजधानी बुरहानपुर थी । खानदेश का सैनिक मुख्यालय असीरगढ़ में स्थित था । मल्लिक नासिर ने 1399-1438 ई ० तक तथा आदिल शाह ने 1457-1503 ई ० तक खानदेश पर शासन किया ।
1601 ई ० में मुगल सम्राट अकबर ने खानदेश को मुगल साम्राज्य में . मिला लिया ।
विजय नगर साम्राज्य की राजधानी ‘ तुंगभद्रानदी के किनारे हम्पी थी ।
वि हरिहर एवं बुक्का ने अपने पिता संगम के नाम पर संगम वंश की स्थापना बुक्का प्रथम ने वेदमार्ग प्रतिष्ठापक की उपाधि धारण की । देवराय प्रथम के शासनकाल में इटली के यात्री निकोलस कॉण्टी ने विजय नगर की यात्रा की । देवराय द्वितीय संगम वंश का सबसे प्रतापी राजा था तथा इसे इमाडिदेवराय के नाम से भी जाना जाता है । देवराय द्वितीय के शासनकाल में फारसी राजदूत अब्दुर्रज्जाक ने विजयनगर की यात्रा की । देवराय द्वितीय को एक अभिलेख में जगबेटकर ( हाथियों का शिकारी ) की उपाधि दी गई है । विजयनगर में सालुव वंश की स्थापना सालुव नरसिंह ने 1485 ई ० में की । सालुव नरसिंह के शासनकाल में आने वाला प्रसिद्ध पुर्तगाली यात्री नूनिज . था । वीर नरसिंह ने विजयनगर में तुलुव वंश की स्थापना 1505 ई ० में की । कृष्णदेव राय तुलुव वंश का महान शासक था , वह 8 अगस्त 1509 ई ० को गद्दी पर बैठा । वि कृष्णदेव राय ने यवनराज स्थापनाचार्य की उपाधि धारण की । प्र कृष्णदेव राय ने अपने प्रथम सैनिक अभियान ( 1509-10 ई ० ) में बीदर fe के सुल्तान महमूद शाह को हराया । TC कृष्णदेव राय का अन्तिम सैनिक अभियान बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिल के विरुद्ध हुआ , उसे हराकर गुलबर्गा के किले को नष्ट कर दिया । कृष्णदेव राय के शासनकाल में पुर्तगाली शासक अल्बुकर्क था । पुर्तगाली यात्री डोमिगोस पायस कृष्णदेव राय के शासनकाल में विजयनगर की यात्रा पर आया था । कृष्णदेव राय ने नागलपुर नामक नए नगर की स्थापना की थी । कृष्णदेव राय के शासनकाल को तेलुगु साहित्य का क्लासिक युग कहा गया है । कृष्णदेव राय के दरबार में तेलुगु साहित्य के आठ सर्वश्रेष्ठ कवि थे , जिन्हें अष्टदिग्गज कहा गया है । कृष्णदेव राय के अष्टदिग्गज में सर्वाधिक उल्लेखनीय तेलुगु कवि अल्लसानि पेद्वन था , जिन्हें तेलुगु कविता के पितामह की उपाधि प्रदान की गयी थी । ” तेनाली राम ‘ कृष्णदेव राय के दरबार का अन्तिम व आठवाँ कवि था । इनकी प्रसिद्ध रचना पाण्डुराम महात्म्य है । कृष्णदेव राय ने तेलुगु में अमुक्त्माल्यम एवं संस्कृत में जाम्बबती कल्याणम् की रचना की । कृष्णदेव राय वैष्णव धर्म का अनुयायी था । कृष्णदेव राय ने हजारा और विट्ठलस्वामी मन्दिरों का निर्माण करवाया था । कृष्णदेव राय की मृत्यु 1529 ई ० में हो गयी । तुलुव वंश का अन्तिम शासक सदाशिव था । सदाशिव राय के शासनकाल में प्रसिद्ध युद्ध तालीकोटा या राक्षसीतंगड़ी का युद्ध 25 जनवरी 1565 में हुआ । तालीकोटा या राक्षसीतंगड़ी का युद्ध बीजापुर , अहमदनगर , गोलकुण्डा एवं बीदर के संयुक्त मोर्चा का नेता अली अदिल शाह और विजयनगर के सेना का नायक रामराय के बीच हुई , जिसमें रामराय पराजित हुआ । विजयनगर साम्राज्य के चौथे वंश , अरवीडु वंश का संस्थापक ‘ तिरुमल ‘ था । इस वंश की स्थापना तिरुमल ने सदाशिव को अपदस्थ कर 1570 ई ० में पेनुकोंडा में की । अरवीडु शासक वेंकट द्वितीय के शासन काल में ही वाडयार ने 1612 ई ० में मैसूर राज्य की स्थापना की । विजयनगर साम्राज्य का अन्तिम शासक रंग -1 || था । विजयनगर साम्राज्य के शासक को राय कहा जाता था ।
विजयनगर साम्राज्य में सारी शक्तियाँ असैनिक और सैनिक दोनों प्रशासन का प्रधान राजा था ।
विजयनगर साम्राज्य
( Vijaynagar Dynasty ) )
1. संगम वंश 1336-1485ई ०
2. सालुव वंश 1485-1505 ई ०
3. तुलुव वंश 1505-1570 ई ०
4. अरवीडु वंश1570-1650 ई ०
विजयनगर साम्राज्य मध्य युग का प्रथम हिन्दू साम्राज्य था । विजय नगर साम्राज्य की स्थापना 1336 ई ० में दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के उत्तरी तट पर हुई । विजय नगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर एवं बुक्का नामक दो भाइयों ने की है । . हरिहर एवं बुक्का काकतीय शासक प्रताप रूद्र देव के सेवक थे ।
विजयनगर साम्राज्य 6 प्रान्तों में विभक्त था तथा प्रत्येक प्रान्त राजप्रतिनिधि या नायक के अधीन थे । विजयनगर में प्रत्येक गाँव स्वत : पूर्ण इकाई थी । साम्राज्य कई छोटी – छोटी प्रशासनिक इकाइयों में विभक्त थी । सबसे बड़ी प्रशासनिक इकाई मण्डलम ( प्रान्त ) थी जिसका प्रशासनिक अधिकारी नायक अथवा मण्डलेश्वर होता था । मण्डलम के बाद नाडू ( जिला ) , स्थल अनुमण्डल तथा ग्राम होता था । प्रत्येक गाँव के प्रशासन के लिए स्थानीय सभाएँ थी । गाँवों के समूह नाडू में स्थानीय सभाएं कार्य करती थी जिसे नात्वर कहते हैं । इस साम्राज्य की सेना नायकों को नायक कहा जाता था । नायक को वेतन के बदले भूखंड प्रदान किया जाता था , जिसे अमरम कहा जाता था । इस साम्राज्य में आयंगर और नायंकर व्यवस्था प्रचलित थी । बारह प्रशासकीय अधिकारियों की नियुक्ति संगठित ग्रामीण इकाइयों पर शासन हेतु किया गया था जिसको सामूहिक रूप से आयंगर कहा गया 1 1 भू – राजस्व कुल उपज के 1/6 हिस्से की दर से वसूला जाता था । विजयनगर के काल में देवदासी प्रथा , सती प्रथा तथा दास प्रथा का प्रचलन था । विजय नगर में मनुष्यों की खरीद – बिक्री को बेसवग कहते थे । विजय नगर में व्यापारियों के श्रेणियों को चेट्टि कहा जाता था । बहमनी साम्राज्य की स्थापना 1347 ई ० में मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में हुआ था । बहमनी साम्राज्य का संस्थापक अलाउद्दीन बहमनशाह था । बहमनशाह ने गुलबर्गा को अपनी राजधानी बनाया तथा उस का नाम अहसनाबाद रखा । उसने अपने साम्राज्य को चार प्रान्तों में गुलबर्गा , दौलताबाद , बरार एवं बीदर में बाँटा । मुहम्मदशाह प्रथम के काल में ही बारुद का उपयोग पहली बार प्रारम्भ 7 हुआ , जिसने रक्षा – संगठन में नई क्रान्ति ला दी थी । 1397 ई ० में ताजउद्दीन फिरोज बहमनी का शासक बना , वह बहमनी सम्राटों में सर्वाधिक विद्वान था । ताजउद्दीन के शासनकाल में 1417 ई ० में रुसी यात्री निकितिन बहमनी व साम्राज्य की यात्रा पर आया था । ताजउद्दीन फिरोज ने भीमा नदी के तट पर फिरोजाबाद नामक शहर की नींव डाली । फिरोज के शासनकाल में सोनार की बेटी का युद्ध हुआ जिसमें विजयनगर साम्राज्य के शासक देवराय प्रथम की हार हुई थी । 1361 ई ० में मिस्र के खलीफा ने मुहम्मद शाह- । को मान्यता प्रदान की तथा दक्षिण भारत का सुल्तान स्वीकार किया । फिरोज की मृत्यु के पश्चात् शिहाबुद्दीन अहमद प्रथम ( 1422-46 AD ) | निबहमनी के सिंहासन पर बैठा । शिहाबुद्दीन अहमद प्रथम ने अपनी राजधानी गुलबर्गा से हटाकर बीदर में स्थापित किया तथा इसका नाम मुहमदाबाद रखा ।
शिहाबुद्दीन इतिहास में शाह वली अथवा सन्त अहमद के नाम से भी जाने जाते हैं । 7 बहमनी – विजयगनर के संघर्ष का मुख्य क्षेत्र रायचूर दोआव था । र बहमनी राजवंश के शासक हुमायूँ को उसकी क्रूरता एवं विलासिता के कारण जालिम हुमायूँ एवं पूर्व का नीरो कहा गया । हुमायूँ ने महमूद गवाँ को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया । वह एक योग्य एवं कुशल राजनायक था । हुमायूँ के काल में बहमनी को मिली सफलताओं का श्रेय महमूद गवाँ को जाता है । 2 महमूद गवाँ ने बीदर में एक विद्यालय की स्थापना कराया । महमूद गवाँ ने राज्य को आठ प्रान्तों अथवा अतराफ में विभाजित कर दिया और प्रत्येक में तरफदार की नियुक्ति की । बहमनी वंश का सबसे अन्तिम शासक कलीमउल्लाह था ।
बहमनी राज्य के पतन के बाद पाँच स्वतन्त्र राज्यों का उदय दक्कन में हुआ ।
विजय नगर साम्राज्य की राजधानी ‘ तुंगभद्रानदी के किनारे हम्पी थी । वि हरिहर एवं बुक्का ने अपने पिता संगम के नाम पर संगम वंश की स्थापना बुक्का प्रथम ने वेदमार्ग प्रतिष्ठापक की उपाधि धारण की । देवराय प्रथम के शासनकाल में इटली के यात्री निकोलस कॉण्टी ने विजय नगर की यात्रा की । देवराय द्वितीय संगम वंश का सबसे प्रतापी राजा था तथा इसे इमाडिदेवराय के नाम से भी जाना जाता है । देवराय द्वितीय के शासनकाल में फारसी राजदूत अब्दुर्रज्जाक ने विजयनगर की यात्रा की । देवराय द्वितीय को एक अभिलेख में जगबेटकर ( हाथियों का शिकारी ) की उपाधि दी गई है । विजयनगर में सालुव वंश की स्थापना सालुव नरसिंह ने 1485 ई ० में की । सालुव नरसिंह के शासनकाल में आने वाला प्रसिद्ध पुर्तगाली यात्री नूनिज . था । वीर नरसिंह ने विजयनगर में तुलुव वंश की स्थापना 1505 ई ० में की । कृष्णदेव राय तुलुव वंश का महान शासक था , वह 8 अगस्त 1509 ई ० को गद्दी पर बैठा । वि कृष्णदेव राय ने यवनराज स्थापनाचार्य की उपाधि धारण की । प्र कृष्णदेव राय ने अपने प्रथम सैनिक अभियान ( 1509-10 ई ० ) में बीदर fe के सुल्तान महमूद शाह को हराया । TC कृष्णदेव राय का अन्तिम सैनिक अभियान बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिल के विरुद्ध हुआ , उसे हराकर गुलबर्गा के किले को नष्ट कर दिया । कृष्णदेव राय के शासनकाल में पुर्तगाली शासक अल्बुकर्क था । पुर्तगाली यात्री डोमिगोस पायस कृष्णदेव राय के शासनकाल में विजयनगर की यात्रा पर आया था । कृष्णदेव राय ने नागलपुर नामक नए नगर की स्थापना की थी । कृष्णदेव राय के शासनकाल को तेलुगु साहित्य का क्लासिक युग कहा गया है । कृष्णदेव राय के दरबार में तेलुगु साहित्य के आठ सर्वश्रेष्ठ कवि थे , जिन्हें अष्टदिग्गज कहा गया है । कृष्णदेव राय के अष्टदिग्गज में सर्वाधिक उल्लेखनीय तेलुगु कवि अल्लसानि पेद्वन था , जिन्हें तेलुगु कविता के पितामह की उपाधि प्रदान की गयी थी । ” तेनाली राम ‘ कृष्णदेव राय के दरबार का अन्तिम व आठवाँ कवि था । इनकी प्रसिद्ध रचना पाण्डुराम महात्म्य है । कृष्णदेव राय ने तेलुगु में अमुक्त्माल्यम एवं संस्कृत में जाम्बबती कल्याणम् की रचना की । कृष्णदेव राय वैष्णव धर्म का अनुयायी था । कृष्णदेव राय ने हजारा और विट्ठलस्वामी मन्दिरों का निर्माण करवाया था । कृष्णदेव राय की मृत्यु 1529 ई ० में हो गयी । तुलुव वंश का अन्तिम शासक सदाशिव था । सदाशिव राय के शासनकाल में प्रसिद्ध युद्ध तालीकोटा या राक्षसीतंगड़ी का युद्ध 25 जनवरी 1565 में हुआ । तालीकोटा या राक्षसीतंगड़ी का युद्ध बीजापुर , अहमदनगर , गोलकुण्डा एवं बीदर के संयुक्त मोर्चा का नेता अली अदिल शाह और विजयनगर के सेना का नायक रामराय के बीच हुई , जिसमें रामराय पराजित हुआ । विजयनगर साम्राज्य के चौथे वंश , अरवीडु वंश का संस्थापक ‘ तिरुमल ‘ था । इस वंश की स्थापना तिरुमल ने सदाशिव को अपदस्थ कर 1570 ई ० में पेनुकोंडा में की । अरवीडु शासक वेंकट द्वितीय के शासन काल में ही वाडयार ने 1612 ई ० में मैसूर राज्य की स्थापना की । विजयनगर साम्राज्य का अन्तिम शासक रंग -1 || था ।
विजयनगर साम्राज्य के शासक को राय कहा जाता था ।
विजयनगर साम्राज्य में सारी शक्तियाँ असैनिक और सैनिक दोनों प्रशासन का प्रधान राजा थ
शर्की वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक शम्सुद्दीन इब्राहीम शाह हुआ । शम्सुद्दीन इब्राहिम शाह के समय में , जौनपुर को साहित्य एवं स्थापत्य के कारण भारत का सीराज कहा गया । जौनपुर का अन्तिम शर्की शासक हुसैन शाह शर्की था ।
जौनपुर राज्य लगभग 75 वर्षों तक स्वतन्त्र रहने के बाद बहलोल लोदी द्वारा दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया । मेवाड़ मध्य काल में सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य था तथा इसकी राजधानी चितौड़ थी । 1303 ई ० में अलाउद्दीन खिलजी ने मेवाड़ के गुहिलौत राजवंश के शासक रत्नसिंह को पराजित कर मेवाड़ को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया । अलाउद्दीन रत्नसिंह की रानी पद्मिनी को प्राप्त करना चाहता था , लेकिन पद्मिनी ने जौहर व्रत ( सती होना ) धारण कर स्वयं को समाप्त कर लिया । 1314 ई ० में सिसोदियों वंश के हम्मीरदेव ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया । मेवाड़ के अन्य प्रसिद्ध शासक राणा कुंभा ( 1433-68 ई ० ) एवं राणा सांगा ( 1509-28 ई ० ) थे । राणा कुंभा ने मेवाड़ में 22 दुर्गों का निर्माण करवाया , जिसमें कुम्भलगढ़ का दुर्ग मुख्य रूप से प्रसिद्ध है । 1527 ई ० में राणा सांगा एवं बाबर के बीच खनवा का युद्ध हुआ जिसमें बाबर विजयी हुआ । 1576 ई ० में मेवाड़ के प्रसिद्ध शासक राणा प्रताप को अकबर ने हल्दी घाटी के युद्ध में परास्त किया । मेवाड़ को मुगल सम्राट जहाँगीर ने मुगल साम्राज्य में मिला लिया । आधुनिक मारवाड़ का संस्थापक चुन्द था , उसने 1394 ई ० में उसकी स्थापना की । मारवाड़ पर राठौर वंश का शासन था । मारवाड़ के शासक जोधा ने जोधपुर एवं बिक्का ने बिकानेर शहरों की स्थापना की । जोधा ने नन्दौर के प्रसिद्ध दुर्ग का निर्माण करवाया । मारवाड़ का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक मालदेव ( 1532-62 ई ० ) था , उसने शेरशाह को मारवाड़ जीतने नहीं दिया । महमूद गजनी ने 1010 ई ० में सिन्ध पर अधिकार कर लिया तथा 50 वर्षों तक शासन किया । 1210 ई ० में सिन्ध पर नासिरुद्दीन कुबाचा ने अधिकार कर लिया ।
1382 ई ० में फिरोजशाह तुगलक के सूबेदार मलिक राजा फारुकी ने खानदेश की स्थापना स्वतन्त्र मुस्लिम राज्य के रूप में की थी । उसके नाम पर उसके वंश का नाम फारुखी वंश पड़ा । खानदेश की राजधानी बुरहानपुर थी । खानदेश का सैनिक मुख्यालय असीरगढ़ में स्थित था । मल्लिक नासिर ने 1399-1438 ई ० तक तथा आदिल शाह ने 1457-1503 ई ० तक खानदेश पर शासन किया । 1601 ई ० में मुगल सम्राट अकबर ने खानदेश को मुगल साम्राज्य में . मिला लिया ।
महमूद गजनवी की पंजाब विजय के पश्चात् कई सूफी सन्त भारत आये । सूफीमत इस्लाम धर्म में उदार , रहस्यवादी और संश्लेषणात्मक प्रवृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली विचारधारा है । सूफियों का मुख्य उपदेश वाहदत – उल – वजूद था । के सूफी जिन आश्रमों में निवास करते थे , उन्हें खनकाह या मठ कहा जाता था । सूफियों के धर्मसंघ दो भागों बा – शारा ( इस्लामी सिद्धान्त के समर्थक ) और बे – शारा ( इस्लामी सिद्धान्त से बँधे नहीं ) में विभाजित थे । भारत में आने वाला पहला सूफी सन्त शेख इस्माल था , जो लाहौर रा आया ।
भारत में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती , हमीहुन नागौरी , कुतुबुद्दीन बख्तियार की काकी , सरीदुद्दीन गजशंकरी , निजामुद्दीन औलिया आदि सूफी मत के प्रमुख प्रचारक हुए ।
. . 1588 ई ० में अकबर ने कश्मीर को मुगल साम्राज्य में मिला लिया । मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में बंगाल स्वतन्त्र हो गया था । शम्सुद्दीन इलियास शाह बंगाल 1345 ई ० में बंगाल का नवाब बना । शम्सुद्दीन ने एक नए राजवंश इल्यास शाही राजवंश की स्थापना की । 1375 ई ० में शम्सुद्दीन के मृत्यु के बाद सिकन्दर सुल्तान बना । सिकन्दर शाह ने पांडुआ में अदीना मस्जिद का निर्माण करवाया । 1493 ई ० में शासक बने ‘ अलाउद्दीन हुसैन शाह ‘ ने अपनी राजधानी को पांडुआ से गौड़ स्थानान्तरित किया । चैतन्य महाप्रभु अलाउद्दीन के समकालीन थे । अलाद्दीन ने सत्यपीर नामक आन्दोलन की शुरूआत की । अलाउद्दीन के शासन काल में मालधर बसु ने श्री कृष्ण विजय की रचना कर गुणराज खान की उपाधि धारण की । बंगाल के एक अन्य शासक ‘ नसीब खाँ ‘ के कार्यकाल में महाभारत का बंगला भाषा में अनुवाद तथा गौड़ में कदमरसूल मस्जिद का निर्माण करवाया । बंगाल में हुसैनशाही वंश का अन्तिम शासक ‘ ग्याशुद्दीन महमूदशाह ‘ था । मालवा राज्य 1398 ई ० में तैमूर के आक्रमण के बाद स्वतन्त्र हो गया । मालवा के सूबेदार दिलावर खाँ गोरी 1401 ई ० में मालवा को स्वतन्त्र घोषित कर दिया । दिलावर खाँ ने धार की लाट मस्जिद का निर्माण करवाया । 1405 ई ० में शासक बने हुशंगशाह ने मालवा की राजधानी से माण्डू को स्थानान्तरित किया ।
‘ माण्डू के किले ‘ का निर्माण हुशंगशाह ने करवाया था , जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है – दिल्ली दरवाजा । हुशंग शाह ने नर्मदा तट पर होशंगाबाद नगर की स्थापना की । 1435 ई ० में शासक बने महमूदशाह खिलजी ने माण्डू में सात मंजिलों वाले महल का निर्माण करवाया । मेवाड़ के राणा कुंभा ने महमूद खिलजी को युद्ध में परास्त कर चित्तौड़ में कैद कर लिया । Ye राणा कुंभा ने विजय की स्मृति में विजय स्तम्भ ( चित्तौड़ ) का निर्माण करवाया । जहाज महल का निर्माण 1469 ई ० में शासक बने ग्यासुद्दीन खिलजी ने मांडू में करवाया । 1500 ई ० में शासक बने नासिरुद्दीन शाह ने बाज बहादुर एवं रुपमति महल का निर्माण करवाया । खिलजी वंश के अन्तिम शासक ‘ महमूदशाह द्वितीय ‘ ने फतेहाबाद नामक स्थान पर महमूद खिलजी के कुश्क महल का निर्माण करवाया । गुजरात के बहादुरशाह ने महमूदशाह द्वितीय को युद्ध में परास्त कर दिया तथा 1531 ई ० में मालवा का गुजरात में विलय हो गया ।
1401 ई ० में जफर खाँ के नेतृत्व में गुजरात स्वतन्त्र हो गया । अहमदशाह गुजरात के स्वतन्त्र राज्य का वास्तविक संस्थापक था । अहमदशाह ने असावल के समीप अहमदनगर नामक नगर की स्थापना की । उसने अपनी राजधानी अहमदनगर स्थानान्तरित की । महमूद बेगड़ा गुजरात का प्रसिद्ध शासक था । महमूद बेगड़ा ने गिरनार के निकट मुस्तफाबाद नामक नगर और चम्मानेर के निकट मुहम्मदाबाद नगर बसाया । महमूद बेगड़ा ने गुजरात के समुद्रतट से पुर्तगालियों को भगाने के लिए मिन तथा कालीकट के शासकों से सन्धि की ।
1507 ई ० में ड्यू द्वीप के पास हुए सामुद्रिक युद्ध में महमूद बेगड़ाने . पुर्तगालियों को पराजित किया , परन्तु , 1509 ई ० में वह पुर्तगालियों से 3 . हार गया । गुजरात को अकबर ने 1572 ई ० में मुगल साम्राज्य के अधीन कर लिया । जौनपुर की स्थापना फिरोज तुगलक ने अपने भाई जौना खाँ की स्मृति में की थी । जौनपुर में स्वतन्त्र शर्की राज्य का संस्थापक ख्वाजा जहाँ था ।
1394 ई ० में फिरोजशाह तुगलक के पुत्र सुल्तान महमूद ने खाजा जहान को मलिक- उस – शर्क ( पूर्व का स्वामी ) की उपाधि प्रदान की ।
1699 ई ० में गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की । गुरु गोविंद सिंह के बाद सिक्खों में गुरु की परम्परा समाप्त हो गयी । गुरु गोविंद सिंह ने पाहुल प्रणाली को प्रारम्भ किया । इन्होंने सिक्खों के धार्मिक ग्रन्थ आदिग्रन्थ को वर्तमान रूप दिया । • गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु के बाद सिक्खों का नेतृत्व बन्दा सिंह ने किया । बन्दा का उद्देश्य पंजाब में एक सिक्ख राज्य स्थापित करने का था । इसके लिए उसने लौहगढ़ को राजधानी बनाया । मुगल बादशाह फर्रुखसियर के आदेश पर 1716 ई ० में बन्दा सिंह को गुरुदासपुर नांगल नामक स्थान पर पकड़कर मौत के घाट उतार दिया गया ।
शिवाजी के नेतृत्व में मराठों का उदय
( Rise of Marathas under Sivaji )
सत्रहवीं शताब्दी में शिवाजी ने मराठा साम्राज्य की स्थापना की थी । शिवाजी का जन्म 20 अप्रैल , 1627 ई ० में शिवनेर नामक स्थान पर हुआ था । शिवाजी के पिता का नाम शाहजी भोंसले तथा माता का नाम जीजाबाई था । शिवाजी के गुरु दादाजी कोणदेव थे , शिवाजी ने इन्हीं से प्रारम्भिक शिक्षा ली । . शिवाजी के आध्यात्मिक एवं धार्मिक गुरु रामदास थे । 1640 ई ० में शाहजी ने शिवाजी को पूना की जागीर सौंप दी एवं स्वयं बीजापुर के रियासत में नौकरी कर ली । • 1640 ई ० में साईं बाई निम्बालकर से शिवाजी का विवाह हुआ । 1644 ई ० में शिवाजी अपने सैन्य अभियान के अन्तर्गत सर्वप्रथम बीजापुर के तोरण नामक पहाड़ी किले पर अधिकार किया । शिवाजी ने 1655 ई ० में जावली एवं 1656 ई ० में रायगढ़ पर अधिकार कर लिया तथा रायगढ़ में अपनी राजधानी स्थापित की । 1665 ई ० में बीजापुर के सुल्तान ने अपने सेनापति अफजल खाँ को शिवाजी को पराजित करने के लिए भेजा । 1663 ई ० में औरंगजेब के दक्षिण के सूबेदार शाइस्ता खाँ को शिवाजी f ने पराजित किया । 1664 ई ० में शिवाजी ने गुजरात को लूटा तथा 1664 ई ० में रायगढ़ के किले का निर्माण किया । 24 अप्रैल , 1665 ई ० को शिवाजी और राजा जयसिंह के बीच पुरन्दर की सन्धि हुई ।
1666 ई ० में शिवाजी ने आगरा की यात्रा की । शा आगरा पहुँचकर मुगल दरबार में उपस्थित हुए जहाँ उन्हें औरंगजेब ने धोखे से जयपुर भवन में कैद कर लिया , साथ में उनका पुत्र शम्भाजी क रा भी था । क 1670 ई ० में शिवाजी ने पुनः सूरत को लूटा । 16 जून , 1674 ई ० को शिवाजी का राज्याभिषेक रायगढ़ के किला में तान हुआ । 17 . शिवाजी का राज्याभिषेक काशी के प्रसिद्ध विद्वान श्री गंगाभट्ट द्वारा किया शा गया । जिन शिवाजी ने छत्रपति , हैंदव धर्मोधारक एवं गौ – ब्राह्मण प्रतिपालक की 22 उपाधि धारण की । . ‘ जिंजी ‘ को शिवाजी ने मराठा राज्य के दक्षिणी क्षेत्र की राजधानी बनाया । गण शिवाजी का अन्तिम महत्वपूर्ण अभियान 1676 ई ० में कर्नाटक का अभियान था । मुग – शिवाजी की मृत्यु मात्र 53 वर्ष की अवस्था में 14 अप्रैल , 1680 में हो गयी । . शिवाजी का मंत्रिमण्डल अष्टप्रधान था । शिवाजी के मंत्रिमण्डल में पेशवा का पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण था । –
शिवाजी के प्रशासन में पेशवा शासन – सम्बन्धी सभी कार्य करता था और मुगन सरकारी पत्रों एवं कागजों पर अपनी मुहर लगाता था ।
शेरशाह के साम्राज्य में कश्मीर को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत शामिल था । शेरशाह के बाद उसका पुत्र इस्लाम शाह ( 1545-53 ) शासक बना । 1555 ई ० में हुमायूँ ने मच्छीवाड़ा के युद्ध में अफगानों को बुरी तरह परास्त किया तथा मुगल वंश की पुनर्स्थापना की । शेरशाह के मकबरे का निर्माण सासाराम ( बिहार ) में हुआ । रोहतासगढ़ के किले एवं किला – ए – कुन्हा मस्जिद ( दिल्ली ) का निर्माण 1.3 शेरशाह ने करवाया । शेरशाह के कार्यकाल में सुल्तान या शासक सभी शक्तियों का केन्द्रबिन्दु था और एक निरंकुश शासक के रूप में कार्य करता था । शेरशाह ने सम्पूर्ण साम्राज्य को 47 सरकारों ( प्रान्तों ) में जिसके शीर्षस्थ अधिकारी कहीं हकीम , कहीं अमीन या फौजदार कहलाते थे 5 . । प्रत्येक सरकार में शेरशाह ने दो पदाधिकारी नियुक्त किया – 1. शिकदार – ए – शिकदान कानून व्यवस्था का पदाधिकारी । 2. मुन्सिक – ए – मुंसिकान लगान से संबंधित मुकदमों की देख – रेख करने वाला पदाधिकारी । सरकारों को ‘ परगनों में बाँटा गया था 1. शिकदार – कानून – व्यवस्था का पदाधिकारी । 2. अमीन – लगान बसूलने वाला पदधिकारी । 3. मुंसिफ – मुकदमों की देख – रेख करने वाला पदाधिकारी । शेरशाह के शासनकाल में ग्राम में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए मुकद्दम होता था । शेरशाह ने जब्ती प्रणाली को लागू किया , जिसके अन्तर्गत लगान का निर्धारण भूमि के माप के आधार पर किया जाता था । शेरशाह ने भूमि की माप के लिए 32 अंकों वाला सिकन्दरी गज चलाया । शेरशाह के शासनकाल में भू – राजस्व , कुल उपज का 1/3 भाग वसूला जाता था । शेरशाह ने चाँदी के रुपया का प्रचलन शुरू किया , जो 178 ग्रेन का था तथा 380 ग्रेन ताँबे का दाम चलवाया । शेरशाह ने ‘ कबूलियत एवं पट्टा ‘ प्रथा की शुरूआत की । शेरशाह ने ग्रैंड ट्रंक रोड का निर्माण करवाया , जो सुनारगाँव से पेशावर तक जाती थी । 1541 ई ० में शेरशाह ने पाटलिपुत्र को पटना के नाम से पुनः स्थापित किया । शेरशाह ने डाक – व्यवस्था प्रारम्भ की थी । शेरशाह ने कन्नौज के स्थान पर शेरसूर नामक नगर बसाया । शेरशाह ने जनता की सुविधा के लिए सरायों की स्थापना की जिसकी संख्या लगभग 1700 थी । शेरशाह का वित्तमन्त्री टोडरमल था । शेरशाह के काल में प्रमुख कवि मलिक मोहम्मद जायसी थे , उन्होंने प्रसिद्ध पुस्तक पद्मावत की रचना हिन्दी में की थी । सिक्ख धर्म की स्थापना गुरु नानक द्वारा पन्द्रहवीं शताब्दी में की गई । गुरु नानक के अनुयायी ही सिख ( शिष्य ) कहलाए ।
गुरु नानक ने संगत ( धर्मशाला ) एवं पंगत ( साथ बैठकर भोजन करना ) , जिसे लंगर भी कहते हैं की परम्परा आरम्भ की । सिक्खों के दूसरे गुरु अंगद ने गुरुमुखी लिपि का आविष्कार किया । • अंगद के नेतृत्व में गुरु नानक के जीवन चरित्र की रचना की गयी तथा उनकी वाणियों एवं शब्दों को एकत्रित करके गुरुमुखी में लिपिबद्ध किया गया । सिक्खों के चौथे गुरु अमरदास ने देश भर में 22 गद्दियों की स्थापना की म तथा प्रत्येक पर एक महंथ की नियुक्ति की । सिक्खों के चौथे गुरु रामदास को अकबर ने 500 बीघा भूमि प्रदान की ग थी । • उपर्युक्त भूमि पर रामदास ने अमृतसर तथा सन्तोष नामक दो सरोवरों का निर्माण किया और इनके आसपास अमृतसर नगर को बसाया । गुरु ल रामदास ने मसनद प्रणाली चलाई ।
सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुन देव के काल में गुरु पद वंश – परम्परानुगत ग हो गया ।
औरंगजेब के शासनकाल में जाटों ने 1669 ई ० में गोकुल के नेतृत्व में एवं 1686 ई ० में राजाराम तथा रामचेरा तथा 1689 ई ० के बाद चुरामन के नेतृत्व में विद्रोह किए । औरंगजेब कट्टर सुनी मुसलमान था , उसे औरंगजेब को जिदापीर कहा हो . जाता था । औरंगजेब ने सिक्खों के 9 वें गुरु तेग बहादुर को इस्लाम धर्म न स्वीकारने के कारण 1675 ई ० में हत्या करवा दी । औरंगजेब के शासनकाल में सिक्खों के 10 वें गुरु गोविंद सिंह ने 30 मार्च , 1699 ई ० को ‘ वैशाखी ‘ के दिन खालसा पंथ की स्थापना की । 1643 ई ० में औरंगजेब ने मराठा नेता शिवाजी का दमन करने के उद्देश्य से शाइस्ता खों को एक सेना के साथ भेजा , परन्तु वह असफल रहा । 1665 ई ० में औरंगजेब एवं शिवाजी के बीच पुरन्दर की सन्धि हुई । औरंगजेब ने 1669 ई ० में हिन्दू मन्दिरों को तोड़ने का आदेश दिया । औरंगजेब ने 1679 ई ० में हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया । औरंगजेब ने झरोखा दर्शन तथा तुलादान प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया । औरंगजेब ने आबवाब ( राहदारी परिवहन कर ) , पानडारी ( चुंगी कर ) नामक कर समाप्त कर दिया । औरंगजेब ने मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद रखा था ।
औरंगजेब के समय में हिन्दू मनसबदारों की संख्या लगभग 337 थी , जो अन्य मुगल सम्राटों की तुलना में अधिक थी । औरंगजेब ने कुरान को अपने शासन का आधार बनाया तथा इस्लाम को पुनः राजधर्म घोषित किया । fot औरंगजेब ने औरंगाबाद में अपनी बीबी रविया – उद – दौरानी की समाधि पर बीबी का मकबरा बनवाया । औरंगजेब ने लाहौर में बादशाही मस्जिद का निर्माण करवाया । औरंगजेब ने अपने दरबार में संगीत पर प्रतिबंध लगा दिया । औरंगजेब की मृत्यु 4 मार्च , 1707 ई ० को हुई । उसके मृत शरीर को दौलताबाद स्थित फकीर खुरहानुद्दीन की कब्र के अहाते में दफन किया . . गया । . . औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसका दूसरा पुत्र मुहम्मद मुअज्जम बहादुर शाह के नाम से सिंहासन पर बैठा , उत्तराधिकार के में गुरु गोविन्द सिंह ने उसका साथ दिया था । • बहादुरशाह के शासनकाल में मराठा नेता शाहू को मुगल कैद से मुक्त कर दिया गया था । बहादुरशाह ने दक्षिण में मराठों के बीच चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल करने के अधिकार को मान्यता प्रदान कर दिया था । जमान बहादुरशाह को शाह – ए – बेखबर के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है । बहादुरशाह की मृत्यु 16 फरवरी , 1711 ई ० को हुई । बहादुरशाह के बाद जहाँदारशाह 29 मार्च , 1712 ई ० को गद्दी पर बैठा । • जहाँदार शाह एक अयोग्य व्यक्ति था , अत : उसे लम्पट मूर्ख कहा गया है । फर्रुखसियर ने जहाँदारशाह को युद्ध में पराजित कर दिया । • फर्रुखसियर के आदेश पर 11 फरवरी , 1713 ई ० को जहाँदारशाह की हत्या कर दी गयी । • जहाँदारशाह लाल कुमारी नामक एक वेश्या के साथ रंगरेली मनाने में . व्यस्त रहता था । जहाँदारशाह के पतन के बाद 11 जनवरी , 1713 ई ० को फर्रुखसियर गद्दी पर बैठा । • सैय्यद बन्धु हुसैन अली खाँ एवं अब्दुला खाँ को मुगलकालीन इतिहास में शासक निर्माता के रूप में जाना जाता है , सैय्यद बन्धुओं की मदद से ही फर्रुखशियर गद्दी पर बैठा । फर्रुखसियर के शासनकाल में जाट नेता चूरामन का दमन किया गया था । • फर्रुखसियर ने सिक्ख नेता बन्दा सिंह की हत्या करवा दी । • फर्रुखसियर को मुगल वंश का घृणित कायर कहा गया है । फर्रुखसियर को गद्दी से हटाये जाने के बाद 28 फरवरी 1719 ई ० को रफी – उद – दरजात दिल्ली का सम्राट बना । रफी – उद – दरजात शासन को अच्छे ढंग से संचालित करने में असफल रहा तथा सैय्यद बन्धुओं के हाथों का कठपुतली बनकर रह गया ।
रफी – उद – दरजात के शासनकाल में निकृसियर का विद्रोह हुआ ।
6 जून , 1719 को रफी – उद – दरजात को सैय्यद बन्धुओं की मदद से अपदस्थ कर रफी – उद – दौला हुसैन अली खाँ ने निकूसियर के विद्रोह को दबाया । रफी – उद – दौला का निधन क्षय रोग के कारण 17 सितम्बर , 1719 ई ० में हो गया । सैय्यद अब्दुला ने 28 सितम्बर , 1719 ई ० को मुहम्मद शाह को गद्दी पर मुहम्मदशाह ने 1720 ई ० को अब्दुला को युद्ध में पराजित किया तथा साम्राज्य को सैय्यद बन्धुओं से मुक्ति मिल गयी । मुहम्मदशाह के शासनकाल में 1739 ई ० में प्रसिद्ध ईरानी लुटेरा नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया था । मुहम्मदशाह तख्ते – ताउस ( मयूर सिंहासन ) पर बैठने वाला अन्तिम मुगल शासक था । मुहम्मदशाह नाच – गानों में अधिक दिलचस्पी लेता था इसी कारण इतिहास में मुहम्मद शाह को रंगीला बादशाह की संज्ञा से सम्बोधित किया जाता है । नादिरशाह अपने साथ धनराशि , शाहजहाँ का तख्ते – ताउस ( मयूर सिंहासन ) तथा कोहिनूर हीरा उठाकर ले गया । मुहम्मदशाह के शासनकाल में निजाम – उल – मुल्क ने विद्रोह कर स्वयं को दक्षिण के 6 सूबों का शासक घोषित कर दिया एवं हैदराबाद को अपनी राजधानी बनाया । मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद 28 अप्रैल , 1748 ई ० को अहमदशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा । अहमदशाह के शासनकाल में अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर आक्रमण किया था । अहमदशाह के बाद गद्दी पर बैठे शाहआलम का नाम अली गौहर था । शाहआलम द्वितीय के शासन काल में 1761 ई ० में अहमदशाह अब्दाली ने पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों को हराया । अहमदशाह अब्दाली ने आठ बार भारत पर आक्रमण किया था । पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों का नेतृत्व सदाशिव राव भाउ एवं इब्राहिम गार्दी ने किया । शाह आलम द्वितीय के शासन काल में अंग्रेजों ने 1803 ई ० में दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कर लिया । शाहआलम द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अकबर द्वितीय मुगलों की गद्दी पर बैठा । अकबर द्वितीय के समय तक भारतवर्ष में अंग्रेजों की शक्ति एवं सत्ता का तीव्रता से विकास हो रहा था । अकबर द्वितीय की मृत्यु 1837 ई ० में हो गयी । बहादुरशाह जफर अन्तिम मुगल सम्राट था , उसने 1857 ई ० की क्रान्ति में भाग लिया था । 1857 ई ० के विद्रोह के दमन के बाद अंग्रेजों ने उसपर मुकदमा चलाया और उसे रंगून भेज दिया ।
शेरशाह ने सूर साम्राज्य की स्थापना की थी । शेरशाह का बचपन का नाम फरीद खाँ था । शेरशाह का जन्म 1472 ई ० में बजवाड़ा ( होशियारपुर ) में हुआ था । शेरशाह के पिता का नाम हसन खाँ था , वह सासाराम का जागीदार था । शेरशाह ने एक बार एक शेर को तलवार के एक ही वार से मार गिराया इसी कारण मुहम्मद बहार खाँ लोहानी ने उसे शेर खाँ की उपाधि प्रदान की । शेर खाँ 1529 ई ० में बिहार एवं 17 मई , 1540 ई ० को हुए बिलग्राम युद्ध में हुमायूँ को हराकर दिल्ली का शासक बना । दिल्ली की गद्दी पर बैठते समय शेर खाँ ने शेरशाह की उपाधि धारण की । • शेरशाह लाड मलिका नाम की एक विधवा से शादी कर चुनार प्राप्त . . किया । 1539 ई ० में शेरशाह ने चौसा पर अधिकार कर लिया । 1540 ई ० में शेरशाह ने कन्नौज के बाद लाहौर पर कब्जा किया ।
1545 ई ० में कालिंजर फतह के दौरान बारूद के ढेर में आग लगने के कारण शेरशाह की मृत्यु हो गयी ।
गुरु के अधिकारों में वृद्धि हुई उन्हें राज्याधिकारों से विभूषित किया गया और सिक्खों के बीच गुरुओं की पूजा चल पड़ी । गुरु अर्जुन देव प्रथम गुरु थे , जिन्होंने राजनीति में रुचि ली । अर्जुनदेव ने सन्तों वाले वस्त्र त्याग कर राजसी वस्त्रों को अपनाया ।
अर्जुनदेव ने 1595 ई ० में व्यास नदी के तट पर गोविन्दपुर नामक एक शहर बसाया । अर्जुनदेव ने अमृतसर एवं सन्तोष नामक सरोवरों के बीच हर मन्दिर साहिब का निर्माण करवाया ।
गुरु हरगोविन्द मीरी एवं पीरी नामक दो तलवार बाँधकर गद्दी पर बैठते के 7 । 7 . . न 1 गुरु हरगोविंद ने अकालतख्त की स्थापना की । गुरु हरगोविंद ने अमृतसर की रक्षा हेतु लौहगढ़ किले का निर्माण करवाया । सिक्खों के ‘ 7 वें गुरु हर राय ने जब शाहजहाँ के पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के युद्ध का प्रारम्भ हुआ तो अपना समर्थन दारा शिकोह को दिया । • सिक्खों के ‘ 8 वें ‘ गुरु हर किशन की मृत्यु 30 मार्च , 1664 को चेचक से हो गयी । सिक्खों के नौवें गुरु तेगबहादुर हुए । सिक्खों के ‘ नौवें ‘ गुरु तेगबहादुर ने कीर्तिपुर से 5 मील दूर आनन्दपुर नामक एक ग्राम बसाया तथा उसे अपना केन्द्र बनाया । इस्लाम नहीं स्वीकार करने के कारण औरंगजेब ने तेगबहादुर को वर्तमान शीशगंज गुरुद्वारा के निकट फाँसी दे दी । सिक्खों के 10 वें ‘ गुरु गोविंद सिंह का जन्म 1666 ई ० में पटना साहिब में हुआ था । • गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में सिक्खों ने मुगलों को 1695 ई ० में नादोन तथा 1706 ई ० में खिदराना में पराजित किया । गुरु गोविंद सिंह ने सिक्खों के लिए पंजककार अनिवार्य किया और सभी लोगों को अपने नाम के अन्त में सिंह शब्द जोड़ने के लिए कहा । • गुरु गोविंद सिंह ने सिक्खों से पंजककार के तहत केश , कच्छा , कंघी , कड़ा एवं कृपाण धारण करने के लिए कहा । .
फर्रुखसियर द्वारा जारी इस फरमान को कम्पनी का महाधिकार पत्र ( Magna carta ) कहा जाता है । भारत में फ्रांसीसियों का आगमन सबसे बाद में हुआ । 1664 ई ० में फ्रेंच सम्राट लुई- XIV ने कम्पनी डि इंड्ज ओरिएंटेल्स ( Company des Indes orientales ) नाम से फ्रेंच ईस्ट कम्पनी की स्थापना की । फ्रांसीसियों की पहली कोठी फ्रेको कैरो के प्रयास से 1668 ई ० में सूरत में स्थापित हुई । 1674 ई ० में फ्रैंक मार्टिन ने पांडिचेरी की स्थापना की । 1721 ई ० में फ्रांसीसियों का मारीशस पर अधिकार हो गया । दूसरा कनार्टक युद्ध 1749-54 ई ० में हुआ , इस युद्ध में फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले की हार हुई । • डूण्ले को वापस बुला लिया गया और गोडेहू कैनोबिन को भारत में अगला फ्रांसीसी गवर्नर बनाया गया । 1760 ई ० में अंग्रेजों ने सर आयरकूट के नेतृत्व में वांडिवाश की लड़ाई में फ्रांसीसियों को परास्त कर दिया तथा 1761 ई ० में उनसे पांडिचेरी छीन लिया ।
1763 ई ० मे हुई पेरिस सन्धि के द्वारा अंग्रेजों ने चन्दरनगर को छोड़कर 10 शेष अन्य प्रदेशों को लौटा दिया , जो 1749 ई ० तक फ्रांसीसी कब्जे में थे । .
. . 1668 ई ० में चार्ल्स- ॥ ने बंबई को मात्र 10 पाउण्ड वार्षिक किराया पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को प्रदान कर दिया । अंग्रेजों ने पूर्वी भारत में अपना पहला कारखाना उड़ीसा में 1633 ई ० में स्थापित किया । – 1639 ई ० में अंग्रेजों द्वारा सेंट जॉर्ज किले की आधारशिला रखी गई जहाँ बाद में मदास शहर बस गया । 1686 ई ० में अंग्रजों ने हुगली को लूटा तथा हिजली एवं बालासोर स्थित मुगल घेराबन्दी पर हमले किये । परिणामस्वरूप , 1688 ई ० में औरंगजेब ने अंग्रेजों पर आक्रमण के आदेश दिये एवं ब्रिटिश सेना को हार का सामना करना पड़ा । 1690 ई ० में अंग्रेजों एवं मुगलों के बीच समझौता हो गया । 1698 ई ० में अंग्रेजों का सुतनाती , कलिकत्ता ( कालीघाट – कोलकता ) एवं गोविंदपुर तीन गाँवों की जमींदारी मिली तथा यहाँ पर फोर्ट विलियम का निर्माण किया गया । कालान्तर में जॉब चरनॉक ने यहाँ पर कलकत्ता ( कोलकाता ) शहर का निर्माण कराया ।
फर्रुखसियर ने 1717 ई ० में अंग्रेजों को कई व्यापारिक सुविधाओं वाला शाही फरमान जारी किया ।
. राजा के बाद मराठी शासन – व्यवस्था में पेशवा का स्थान दूसरा था । सेनापति या सर – ए – नौबत शिवाजी के प्रशासन में सेना – विभाग का प्रधान होता था । शिवाजी के प्रशासन में आमात्य समस्त राज्य की आय – व्यय का ने लेखा – जोखा करता था । शिवाजी के प्रशासन में सचिव राजा के पत्र – व्यवहार का अधीक्षक था । शिवाजी के प्रशासन में सुमन्त का पद परराष्ट्र मन्त्री का था । शिवाजी के प्रशासन में सुमन्त गुप्तचरों द्वारा दूसरे राज्यों की गुप्त खबरें मंगवाता और उसे राजा तक पहुंचाता था । शिवाजी के प्रशासन में पण्डितराव अथवा दानाध्यक्ष राज्य के सभी धार्मिक कार्यों का निरीक्षण करता था । शिवाजी के प्रशासन में न्यायाधीश राज्य के साथ न्याय विभाग का प्रधान होता था । शिवाजी के प्रशासन में मन्त्री अथवा नवीस सूचना , गुप्तचर तथा सन्धि विग्रह के विभागों का अध्यक्ष होता था । .
शिवाजी के प्रशासन में पण्डितराव एवं न्यायाधीश को छोड़कर अष्टप्रधान के सभी सदस्यों को समय – समय पर सैनिक कार्य करने पड़ते थे । ‘ अष्टप्रधान ‘ के सदस्य ‘ क्षत्रपति ‘ के प्रति उत्तरदायी होते थे और शिवाजी उनके ऊपर अपना पूरा नियन्त्रण रखता था । शिवाजी के अधीन मराठी सेना के तीन महत्वपूर्ण अंग – पागा , सिलहदार तथा पैदल सेना थे । शिवाजी के राजस्व के स्रोत भूमिकर , चौथ एवं सरदेशमुखी थे । • शिवाजी ने भूमि के नाप के लिए काठी एवं मानक छड़ी का प्रयोग आरम्भ किया । शिवाजी के प्रशासन में लगान की दर उपज का 2/5 यानी 40 प्रतिशत निर्धारित थी । शिवाजी के प्रशासन में ‘ चौथ ‘ पड़ोसी मुगल या दक्कनी राजाओं से वसूला जाता था जो आमदनी का 1/4 भाग होता था । शिवाजी के प्रशासन में चौथ की तरह ‘ सरदेशमुखी ‘ भी मराठा राज्य की आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत था । यह राज्यों की आय का 1 / 10 वाँ भाग होता था । शिवाजी की कर व्यवस्था मलिक अम्बर के व्यवस्था पर आधारित था ।
स्मिथ ने शिवाजी के राज्य को डाकू राज्य ( Robber State ) की संज्ञा दी है । 4 अप्रैल , 1680 ई ० को शिवाजी का स्वर्गवास हो गया । शिवाजी का उत्तराधिकारी उसका ज्येष्ठ पुत्र शम्भाजी था । शिवाजी के मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र शम्भाजी और राजाराम के बीच हुए उत्तराधिकार के युद्ध में शम्भाजी विजयी रहे तथा राजाराम को कैद कर लिया गया । शम्भाजी के पश्चात् 1689 ई ० में राजाराम गद्दी पर बैठा , उसने ‘ सतारा ‘ को अपनी दूसरी राजधानी बनाया , 1700 ई ० में वह मुगलों से संघर्ष करता हुआ मारा गया । राजा राम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कर्ण सिंह सिहांसन पर बैठा । • कर्ण के बाद मराठा सिंहासन पर ताराबाई का चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय पर बैठा और तारा उसका संरक्षक बन गई । – ताराबाई महान शासिका थी और उसने कई मराठा क्षेत्र को पुनः जीता । 1707 ई ० में शम्भाजी के पुत्र शाहू जो औरंगजेब के कैद में था मुक्त हुआ । – शाहू एवं ताराबाई के बीच उत्तराधिकार के लिए खेड़ा का युद्ध हुआ जिसमें शाहू विजयी हुआ । ताराबाई पराजित होकर कोल्हापुर चली गई । 22 जनवरी 1708 ई ० को शाहूजी का सतारा में राज्याभिषेक हुआ । • शाहू के शासनकाल में पेशवाओं का उदय हुआ तथा मराठा राज्य गणसंघों में बदल गया । • शाहू ने 1713 ई ० में बालाजी विश्वनाथ को पेशवा नियुक्त किया । • मुगल सम्राटों बाबर , हुमायूँ तथा औरंगजेब ने अपने शासन का आधार कुरान को बनाया ।
मुगल प्रशासन
( Mughal Administration )
मुगल शासक अकबर ने प्रशासन में धर्मनिरपेक्ष ( Secular ) तत्वों का समावेश किया तथा इस्लाम का ‘ राजधर्म ‘ का दर्जा समाप्त कर दिया । .
सूर वंश के सम्राट शेरशाह को प्रशासनिक मामलों में मुगल सम्राट अकबर का अग्रगामी माना जाता है । मुगल सम्राट सभी विभागों का प्रधान था । सम्राट की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी जिसे विजारत कहा जाता था । सम्राट के लिए ‘ विजारत ‘ का परामर्श मानने की कोई बाध्यता नहीं थी । 2 . वकील – ए – मुतलक सम्राट की अनुपस्थिति में उसके सभी कार्य देखता था । वकील – ए – मुतलक ‘ विजारत ( मंत्रिपरिषद् का अध्यक्ष ) ‘ होता था । वकील – ए – मुतलक को अन्य मंत्रियों की नियुक्ति अथवा पमुक्ति का अधिकार था । वकील – ए – मुतलक के नीचे निम्न मन्त्री कार्य करते थे ( 6 ) दीवान – ए – वजीरात – ए – कुल : इसकी नियुक्ति अकबर के शासनकाल में 8 वें वर्ष में हुई , वह राजस्व एवं वित्तीय मामलों का प्रबन्धक था । ( ii ) मीर बख्शी : वह सेना – मन्त्री था तथा मनसबदारों की नियुक्ति एवं वेतन का निर्धारण करना उसका प्रमुख कार्य था । उसे पे – मास्टर जनरल भी कहा गया है । मीर बख्शी , के अधीन निम्न पदाधिकारी कार्यरत थे .मीर आतिश : तोपचियों का अध्यक्ष , . वकिया नवीस : प्रान्तों की खबर मीर बख्शी तक पहुँचाने वाला अधिकारी , • हुजूर बख्शी : प्रान्तीय सैन्य अधिकारी । ( iii ) सद्र – उस – सुदूर : यह धार्मिक सम्पत्तियों तथा ‘ दान विभाग ‘ का प्रमुख था । अकबर के शासनकाल में प्रान्तों में भी इनकी नियुक्ति हुई । ( a ) ( iv ) मीर – सामान : इसके अन्तर्गत राजकीय गृह – विभाग आता था । वह ‘ शाही कारखानों की देखभाल करता था तथा वहाँ के कर्मचारियों की नियुक्ति मान करता था । ( b ) ( v ) काजी – उल – कुजात : यह प्रधान काजी था तथा सम्राट के नीचे न्याय विभाग का प्रधान होता था । ( vi ) मुहतसिब : जनता के सदाचार का निरीक्षण करने वाले विभाग का प्रधान , ( c ) जो कि शरीयत के विरुद्ध होने वाले कार्यों को रोकता था । मुगल प्रशासन में उपर्युक्त मंत्रियों के अलावा निम्न पदाधिकारी भी थे ( 6 ) दारोगा – ए – डाक – चौकी : ‘ सूचना ‘ एवं ‘ गुप्तचर विभाग ‘ का प्रधान जो प्रायः ‘ वकील – ए – मुतलक ‘ के मातहत कार्य करता था । ( ii ) मीर – मुंशी : सम्राट के पत्रों , आदेशों अथवा फरमानों को लिपिबद्ध करने वाला प्रधान अधिकारी । ( iii ) दारोगा – ए – टकसाल : सिक्के ढालने वाला पदाधिकारी तथा ‘ टकसाल ‘ का प्रमुख । ( iv ) दीवान – ए – तान : वेतन विभाग का प्रमुख । ( v ) मुफ्ती : कानून की व्याख्या करने वाला प्रमुख अधिकारी । 1. गल ( vi ) मीर अदल : मुकदमों की पेशी में सहायता करने वाला प्रमुख अधिकारी । ( vii ) बालाशाही : अंगरक्षकों को ‘ बालाशाही ‘ कहा जाता था । ( viii ) मीर बर्र : वह वनों ( Forest ) का अधीक्षक था । ( ix ) खानसामा : शाही – परिवार का प्रबन्धन देखने वाला प्रमुख अधिकारी । मुगल साम्राज्य में अकबर के काल में 15 , शाहजहाँ के काल में 18 एवं औरंगजेब के काल में 20 प्रान्त थे ।
मुगलों का प्रान्तीय प्रशासनिक ढाँचा ‘ केन्द्रीय शासन ‘ का ही लघु रूप 2. जब था । मुगल प्रशासन में ‘ सुबेदार ‘ प्रान्तीय कार्यकारिणी ( Provincial Executive ) का तथा ‘ दीवान ‘ प्रान्तीय राजस्व ( Provincial Revenue ) का प्रधान था । प्रान्तीय न्यायपालिका ( Provincial Judiciary ) का प्रमुख सदर काजी होता था । मुगलकालीन प्रान्त सरकारों ( जिलों ) में बँटे हुए थे । ‘ सरकार ‘ ( जिले ) के प्रशासन हेतु फौजदार ( जिलाधिकारी ) की नियुक्ति 3. आ की गई थी । प्रशासन की सबसे छोटी इकाई परगना या महाल थी जो सरकार के अधीन होती थी । कि ar शिकदार परगने का मुख्य प्रशासक था तथा उसकी सहायता के लिए निम्न कर्मचारी होते थे ।
‘ अकबर ‘ द्वारा 1512 ई ० में राजा टोडरमल की नियुक्ति दीन – ए – अशरफ ( राजस्व प्रवन्ध का संयोजक के रूप में की गई ।
राजा टोडरमल ने भूमि को उसी की ऊपज के आधार पर चार श्रेणियों में बाँटा पोलज – प्रथम श्रेणी की भूमि जो काफी उपजाऊ होती थी । इस श्रेणी की जमीन में वर्ष में कम – से – कम दो फसलें उगाई जाती थी । 2. पड़ती – यह जमीन ‘ पोलज ‘ की तरह निरन्तर उर्वरा नहीं थी । कुछ दिनों तक ‘ कृषि कार्य करने के उपरान्त इस भूमि की उर्वरता नष्ट हो जाती थी । चांचर – यह तृतीय श्रेणी की भूमि थी । इस भूमि को कुछ दिनों तक जोतने के बाद 3-4 वर्षों तक के लिए पड़ती छोड़ दिया जाता था । बंजर – यह निम्नतम श्रेणी की भूमि थी । इस भूमि में ऊपज न के बराबर होती थी । …..
. मुगल काल में भूमि के मुख्य प्रकार
( i ) खालसा – प्रत्यक्ष रूप से सम्राट के अधीन भूमि , जो कि सम्पूर्ण साम्राज्य की भूमि का ’20 वाँ ‘ हिस्सा थी । ( ii ) जागीर – वेतन के बदले दी गई भूमि ‘ जागीर ‘ कहलाती थी । ( i ) सयूरगल – यह भूमि अनुदान में दी जाती थी तथा इस पर लगान नहीं देना पड़ता था । इस भूमि को ‘ मिल्क ‘ तथा ‘ मदद – ए – माश ‘ भी कहा जाता था । अबुल फजल की रचना आइन – ए – अकबरी से हमें मुगल कालीन कृषकों के त्रिस्तरीय वर्गीकरण की जानकारी प्राप्त होती है ( a ) खुदकाश्त – इस वर्ग के खेतिहर उसी गाँव की जमीन पर कृषि कार्य करते थे । जिस गाँव के वे निवासी थे । इन्हें बारुघला या गावेति कहा गया है । ( b ) पाहीकाश्त – यह वर्ग ‘ पाही ‘ अथवा ‘ बाहरी ‘ कहलाता था । ये कृषक दूसरे गाँव में जाकर कृषि कार्य करते थे तथा वहीं अस्थाई रूप से निवास करते थे । ( c ) मुजारियन – यह कृषकों का ऐसा वर्ग था , जिनके पास उपयुक्त मात्रा में भूमि नहीं थी । वे कृषि कार्य हेतु खुदकाश्त कृषकों से किराये पर जमीन लेते थे । वित्तीय प्रबन्ध हेतु एक पृथक विभाग दीवान – ए – वजीरात की स्थापना की न 1 न प . 1 गई थी । . . . . ने दीवान – ए – वजीरात का प्रमुख दीवान – ए – वजीरात – ए – कुल होता था । मुगल सम्राट अकबर ने 1573 ई ० में कर वसूली के लिए करोड़ी नामक एक पदाधिकारी की नियुक्ति की । मुगल काल में भू – राजस्व ( ( Land Rvenue ) की निम्न व्यवस्थाएँ लागू थी 1. गल्ला बख्शी प्रणाली 1 इस पद्धति के तहत भू – राजस्व नकद के रूप में अदा नहीं किया जाता था । इस पद्धति के तहत गल्ले की ‘ बटाई ‘ का प्रचलन था । । बटाई , खेत बटाई , लंक बटाई तथा रास बटाई के रूप में प्रचलित थी । वं ‘ रास बटाई ‘ के तहत खेतों से फसल काटकर उनके ढेर लगा दिये जाते थे । तथा विभिन्न पक्षों के बीच एक करार करके गल्ले का बंटवारा होता था न 2. जब्ती , नस्क एवं कानकूत प्रणालियाँ कानकूत प्रणाली ‘ का उल्लेख अबुल फजल द्वारा रचित आईन – ए – अकबरी में किया गया है । । उपर्युक्त प्रणालियों में सर्वाधिक प्रचलित जब्ती प्रणाली थी । 7 जब्ती प्रणाली के तहत ‘ प्रति बीघा उपज ‘ को एक मानक मानकर उसका 1/3 हिस्सा सरकारी कोष में राई ( सरकार के राजस्व ) के रूप में जमा करना पड़ता था ।
. आइन – ए – दहसाला प्रणाली मुगल सम्राट ‘ अकबर ‘ ने अपने शासन के 24 वें वर्ष ( 1580 ई ० ) में यह के प्रणाली लागू की । इस प्रणाली के तहत कृषि की श्रेणियों तथा कीमतों के स्तरों के विषय में 10 वर्षों का आंकलन ( हाल – ए – दहसाला ) किया जाता था ।
10 वर्षीय आंकलन के पश्चात् उसका 10 वां हिस्सा वार्षिक भू – राजस्व क के रूप में लिया जाता था ।
. आइन – ए – दहसाला पद्धति को सफल बनाने में राजा टोडरमल तथा ख्वाजा मंसूर शाह ने अत्यधिक योगदान दिया ।
मुगल सम्राट ‘ जहाँगीर ‘ ने अकबर की प्रणाली को ही लागू किया । परन्तु उसने जागीरदारी प्रथा को भी प्रोत्साहन दिया । जहाँगीर के शासनकाल में अलतमगा नामक जागीर प्रथा की शुरूआत . . . . . शाहजहाँ के शासनकाल में ‘ जागीरदारी ‘ प्रथा को इतनी प्राथमिकता दी गई कि 70 प्रतिशत खालसा भूमि जागीरों में परिवर्तित हो गई । औरंगजेब के शासनकाल में भी जागीरदारी एवं इजारेदारी प्रथाएँ प्रचलित थीं । मुगलकाल में भू – राजस्व की दर कुल उपज का 1/8 हिस्सा थी परन्तु इसे औरंगजेब ने बढ़ाकर 12 हिस्सा कर दिया । भू – राजस्व से मुगल साम्राज्य की वार्षिक आय आइन – ए – अकबरी के अनुसार 30 करोड़ रुपये थी । भू – राजस्व के अलावा मुगल साम्राज्य को जजिया , जकात , खम्स , नजर , जब्ती आदि प्रकार के करों से भी राजस्व की प्राप्ति होती थी । शासन की सबसे छोटी इकाई ‘ ग्राम ‘ थी । प्रत्येक ग्राम का प्रशासन प्रजातांत्रिक पंचायतों के हाथों में था । नगर के प्रशासन का दायित्व कोतवाल का था । कोतवाल की नियुक्ति केन्द्र सरकार द्वारा होती थी । मुगलकालीन सेना चार विभागों में बंटी थी -1 . पैदल सेना , 2. घुड़सवार सेना , 3. तोपखाना , 4. हस्ति सेना ।
मुगलों के सैन्य प्रशासन में 1577 ई ० में एक नवीन प्रथा अकबर द्वारा लागू की गई , उसे मनसबदारी प्रथा कहते हैं मनसबदारी प्रथा
( MansabdariSystem )
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. . . . . . . मुहम्मद फकीर एवं मीर हासिम शाहजहाँ के दरबार के प्रमुख चित्रकार थे । .
पंडित जगन्नाथ ने अपनी रचनाओं में शाहजहाँ को ‘ दिल्लीश्वरी एवं जगदीश्वरी ‘ की उपाधियों से विभूषित किया । र शाहजहाँ ने अपने शासनकाल में सजदा की प्रथा बन्द करवा दी तथा सम्राट के चित्र में टोपी एवं पगडी लगाने पर पाबन्दी लगा दी । 9 शाहजहाँ ने अध्यादेश निकालकर हिन्दुओं को मुस्लिम दास – दासी रखने , मुस्लिम वेश में रहने एवं मुस्लिम स्त्रियों से विवाह करने से प्रतिबंधित 9 कर दिया । शाहजहाँ ने प्रशासन में राजपूतों को ऊँचे पद देने एवं राजपूत घरानों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने की नीति का परित्याग किया । न शाहजहाँ दारा शिकोह को गद्दी सौंपना चाहता था , किन्तु औरंगजेब बलपूर्वक अपने तीनों भाइयों को मारकर स्वयं गद्दी पर बैठ गया । 1650 ई ० में सामूगढ़ का युद्ध दारा एवं औरंगजेब के बीच हुआ , इस युद्ध में भी दारा की हार हुई । 1659 ई ० में शाहजहाँ के उत्तराधिकार का अन्तिम युद्ध देवराई की घाटी में हुआ । • इस युद्ध में दारा के पराजित होने पर उसे इस्लाम धर्म की अवहेलना करने के अपराध में हत्या कर दी गई । औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को गिरफ्तार कर आगरे के किले में कैद कर दिया ।
1666 ई ० में 74 वर्ष की अवस्था में शाहजहाँ की मृत्यु हो गयी । शाहजहाँ को आगरे के ताजमहल में मुमताज की कब्र के बगल में दफना किया गया । इलियट , डॉसन , ट्रैवर्नियर , लेनपुल , मनूची आदि इतिहासकारों ने शाहजहाँ के शासनकाल को स्वर्णयुग कहा है । औरंगजेब का जन्म 3 नवम्बर 1618 ई ० को दोहद उज्जैन में हुआ था । औरंगजेब , शाहजहाँ एवं मुमताज की छठी सन्तान था । औरंगजेब का 1658 ई ० में अबुल मुजफ्फर मुहीउद्दीन मुजफ्फर औरंगजेब बहादुर आलमगीर बादशाह गाजी के नाम से राज्याभिषेक हुआ । औरंगजेब को 1659 ई ० में देवराई – युद्ध में सफलता मिली । 1659 ई ० में दिल्ली में शाहजहाँ के महल में दूसरी बार औरंगजेब का राज्याभिषेक किया गया । . औरंगजेब ने 1678 ई ० में मारवाड़ तथा 1680 ई ० में मेवाड़ को साम्राज्य में मिला लिया । मुगल औरंगजेब के शासनकाल में सिक्खों के साथ युद्ध में मुगलों की नादौन में ( 1685 ई ० ) , खिदराना ( 1706 ई ० ) में दो युद्धों में पराजय हुई । औरंगजेब ने 1686 ई ० में बीजापुर एवं 1697 ई ० में गोलकुण्डा को साम्राज्य में मिला लिया ।
अफ्रीदियों का विद्रोह ( नेता – अकमल खाँ ) दिसम्बर , 1675 ई ० में औरंगजेब द्वारा दबा दिया गय . . .
ने ग्वालियर , जौनपुर एवं चुनार को जीतकर मुगल साम्राज्य में अकबर मिला लिया ।
मालवा , गुजरात , बिहार , बंगाल एवं उड़ीसा , काबुल , कश्मीर , सिन्ध , ब्लुचिस्तान , कन्धार , राजस्थान , कालिंजर , गोंडवाना , अहमदनगर आदि प्रदेशों में अकबर ने विजय प्राप्त की । गुजरात – विजय के दौरान अकबर सर्वप्रथम पुर्तगालियों से मिला एवं पहली बार यहीं से सख़ुद को देखा । 1562 ई ० में अकबर ने आमेर के राजा भारमल की पुत्री मरियम जमानी से विवाह किया । अकबर ने सभी धर्मों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के उद्देश्य से दीन – ए – इलाही की स्थापना की तथा इसे राजकीय धर्म घोषित किया । दीन – ए – इलाही धर्म को स्वीकार करने वाला एकमात्र हिन्दू राजा बीरबल था ।
अकबर ने आगरा के निकट फतेहपुर सीकरी का निर्माण करवाया । जैन आचार्य हरिविजय सूरी को अकबर ने जगद्गुरु की उपाधि प्रदान
बाबर का पूरा नाम जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर था । . उसके पिता का नाम उमर शेख मिर्जा था , वह फरगना ( अफगानिस्तान ) का शासक था ।
मुगल वंश के प्रमुख शासक .
शासक शासनकाल 1. बाबर 1526-1530ई ० 2. हुमायूँ 1530-1540 ई ० 1555-1556 ई ० 3. अकबर 1556-1605 ई ० 4. जहाँगीर 1605-1627 ई ० 5. शाहजहाँ 1627-1658 ई ० 6. औरंगजेब 1658-1707 ई ० 7. बहादुरशाह प्रथम 1707-1712 ई ० 8. जहांदारशाह 1712-1713 ई ० 9. फर्रुखसियर 1713-1719 ई ० 10. मुहम्मदशाह 1719-1748 ई ० 11. अहमदशाह 1748-1754 ई ० 12. आलमगीर 1754-1759 ई ० 13. शाहआलम द्वितीय 1759-1806 ई ० 14. अकबर द्वितीय 1806-1837 ई ० 15. बहादुरशाह जफर 1837-1857 ई ०
बाबर पिता की ओर से तैमूरलंग तथा माता की ओर से चंगेज खाँ का वंशज था । पिता की मृत्यु के बाद बाबर 1494 ई ० में 11 वर्ष की आयु में फरगना का शासक बना । बाबर ने 1507 ई ० में बादशाह की उपाधि धारण की । बाबर ने 1519 ई ० से 1526 ई ० तक भारत पर पाँच आक्रमण किए । बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण पंजाब के शासक दौलत खाँ लोधी एवं मेवाड़ के शासक राणा साँगा ने दिया था । 21 अप्रैल 1526 ई ० को इब्राहिम लोदी एवं बाबर के बीच पानीपत का प्रथम युद्ध हुआ , जिसमें इब्राहीम लोदी की पराजय हुई । 17 मार्च 1527 ई ० को राणा साँगा एवं बाबर के बीच खनवा का युद्ध हुआ , जिसमें राणा साँगा पराजित हुआ ।
29 जनवरी , 1528 ई ० को मेदनी राय एवं बाबर के बीच चन्देरी का युद्ध हुआ , जिसमें हिन्दू शासक मेदनी राय पराजित हुआ । पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर ने पहली बार तुगलुमा युद्ध नीति एवं तोपखाने का प्रयोग किया । बाबर की उदारता के कारण उसे कलन्दर की उपाधि दी गई । खनवा के युद्ध में बाबर ने राणा सांगा के विरुद्ध जिहाद का नारा दिया था । रा बाबर ने खनवा युद्ध में विजय के बाद गाजी की उपाधि धारण की । बाबर ने मुबईयान नामक पद्य – शैली को जन्म दिया । बाबर ने अपनी आत्मकथा तुजूक – ए – बाबरी की रचना तुर्की भाषा में की । तुजुक – ए – बाबरी का फारसी अनुवाद बाद में अब्दुल रहीम खान – ए – खाना ने किया । बाबर ने सड़कों की माप के लिए गज – ए – बाबरी चलाई । बाबर ने विस्फोटकों का प्रयोग कुस्तुनतुनियाँ से एवं बन्दूक का प्रयोग करने की कला ईरानियों से सीखी । बाबर ने तुर्की छंद – शास्त्र पर एक निबंध की रचना की । बाबर की मृत्यु 26 दिसम्बर 1530 ई ० को आगरा में हुई । पर प्रारम्भ में बाबर के शव को आगरा के आरामबाग में दफनाया गया , बाद बैर में उसकी ख्वाहिश के अनुसार काबुल के मनमोहक स्थान पर दफनाया ना गया । ख बाबर के चार पुत्र हुमायूँ , कमरान , अस्करी तथा हिन्दाल थे । बाबर का उत्तराधिकारी हुमायूँ हुआ ।
हुमायूँ का पूरा नाम ‘ नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ ‘ था ।.
हुमायूँ का जन्म 6 मार्च , 1508 ई ० को काबुल में हुआ था । हुमायूँ की माता का नाम माहम अंगा था । हुमायूँ को 1520 ई ० में 12 वर्ष की अल्पायु में बदख्शां के सुबेदार के पद पर नियुक्त किया गया । बाबर के मृत्यु के समय हुमायूँ सम्भल का सूबेदार था । बाबर के मृत्यु के पश्चात् 30 दिसम्बर , 1530 ई ० को हुमायूँ सिंहासन पर बैठा । हुमायूँ ने कमरान को काबुल और कन्धार , मिर्जा असकरी को संभल , मिर्जा हिन्दाल को अलवर एवं मेवाड़ की सूबेदारी प्रदान की । अपने चचेरे भाई सुलेमान मिर्जा को हुमायूँ ने बदख्शाँ प्रदेश दिया । हुमायूँ ने 1532 ई ० में गुजरात के शासक बहादुर शाह की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए कालिंजर अभियान किया । गुजरात के शासक बहादुर शाह एवं हुमायूँ के बीच 1535 ई ० में सारंगपुर में संघर्ष हुआ , जिसमें बहादुर शाह पराजित हुआ । हुमायूँ तथा शेर खाँ ( शेरशाह ) के बीच बक्सर के निकट चौसा ( 1539 ई ० में ) संघर्ष हुआ जिसमें हुमायूँ पराजित हुआ , तथा आगरा एवं दिल्ली पर शेर खाँ का अधिकार हो गया । बिलग्राम युद्ध के बाद हुमायूँ सिन्ध चला गया , जहाँ उसने 15 वर्षों तक घुमक्कड़ों जैसा निर्वासित जीवन व्यतीत किया । निर्वासन के समय हुमायूँ ने हमीदन बेगम से 29 अगस्त 1541 ई ० को निकाह किया । हमीदन बेगम से 1542 ई ० में उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम 1 उसने जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर रखा । 1555 ई ० में मच्छिवारा के युद्ध में सिकन्दर सूर को हरा कर हुमायूँ पुनः 7 दिल्ली की गद्दी पर बैठा । हुमायूँ की मृत्यु 27 जनवरी , 1556 ई ० को दीनपनाह भवन में स्थित पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने से हो गयी । । 1553 ई ० में हुमायूँ ने दिल्ली में दीनपनाह नामक नए भवन की स्थापना की थी । हुमायूँ की सौतेली बहन गुलबदन बेगम ने हुमायूँनामा की रचना की । अकबर का जन्म 23 नवंबर , 1542 ई ० को , अमरकोट में राणा वीरसाल के महल में हुआ । अकबर का राज्याभिषेक लगभग 14 वर्ष की आयु में 14 फरवरी , 1556 ई ० को पंजाब के ‘ कलानौर ‘ नामक स्थान
18 जून , 1576 ई ० को हल्दीघाटी का युद्ध मेवाड़ के शासक महाराणा प्रताप एवं अकबर के बीच हुआ तथा अकबर विजयी हुआ । अकवर का सेनापति मानसिंह था । 36 . लोगों के प्रवेश की अनुमति । .
अकबर के शासनकाल में राजस्व प्राप्ति की जब्ती प्रणाली प्रचलित थी । अकबर के दीवान टोडरमल ने 1580 ई ० में दहसाला बन्दोबस्त व्यवस्था लागू की । अकबर ने अपने प्रशासन में मनसबदारी प्रथा लागू की । अकबर के दरबार में प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन तथा प्रसिद्ध चित्रकार अब्दुस्समद थे । सूफी सन्त शेख सलीम चिश्ती अकबर के समकालीन थे । . .
. तानसेन , बाजबहादुर , बाबा रामदास और बैजू बाबरा अकबर के शासन काल के प्रमुख गायक थे । राजा टोडरमल ने दीन – ए – इलाही स्वीकारने से इंकार कर दिया । अकबर ने टोडरमल को ‘ राजा ‘ की उपाधि से विभूषित किया एवं अपने प्रशासन में प्रधानमन्त्री पद पर नियुक्त किया । अकबरनामा , आइन – ए – अकबरी नामक ऐतिहासिक साहित्य की रचना अकबर के मुख्य सचिव अबुल फजल ने की । फैजी द्वारा भी अकबरनामा नामक एक पुस्तक लिखी गई । अकबर कालीन अन्य साहित्यिक ग्रन्थ – अहसान – उत – त्वारीख रुमलु , मुंतखाब – उत – त्वारीख ( बदायूनी ) , तबकात – ए – अकबरी ( निजामुद्दीन बख्शी ) , तारीख – ए – मुहम्मद ( हाजी मुहम्मद आरिफ ) , लुबउत – त्वारीख ( मीर यहया ) , तारीख – ए – अलफी ( मुल्ला अहमद ) , तोहफा – ए अकबरशाही ( अब्बास खाँ शेरवानी ) , नफाइस – उल – मासिर अल्लाउद्दौला काजवीनी द्वारा लिखी गई । अकबर ने संगीत सम्राट तानसेन को कण्ठाभरण वाणी – विलास की उपाधि से सम्मानित किया । अकबर सहित सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य की राजभाषा फारसी थी ।
अकबर ने भगवानदास को अमीर – उल – उमरा की उपाधि प्रदान की । बीरबल को अकबर द्वारा कविप्रिय की उपाधि से सम्मानित किया गया । अकबर ने आगरे के किले के भीतर 500 इमारतों का निर्माण कराया । अकबर ने सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण ‘ अटक एवं इलाहाबाद ‘ में भी करवाया । बुलन्द दरवाजा का निर्माण अकबर ने गुजरात – विजय के उपलक्ष्य में करवाया था । • बुलन्द दरवाजे की ऊँचाई पास की भूमि से 134 फीट और उसकी सीढ़ियाँ 42 फीट हैं । कुल मिलाकर यह 176 फीट ऊँचा है । अकबर ने शीरी कलम की उपाधि अब्दुस्समद को एवं जड़ी कलम की उपाधि मुहम्मद हुसैन कश्मीरी को दिया । आइन – ए – अकबरी के अनुसार अकबर के दरबार में 100 उच्च कोटि के तथा अनेक निम्न कोटि के चित्रकार थे । अकबर की मृत्यु 1605 ई ० में हुई । अकबर के मृत्यु के बाद उसका पुत्र जहाँगीर 5 नवंबर , 1605 ई ० को आगरा के गद्दी पर बैठा । जहाँगीर का जन्म 30 अगस्त , 1569 ई ० में फतेहपुर सीकरी में स्थित शेख सलीम चिश्ती की कुटिया में हुआ था । . जहाँगीर के बचपन का नाम सलीम था । अकबर ने अपने पुत्र का नाम सलीम सूफी सन्त शेख सलीम चिश्ती के नाम पर रखा । जहाँगीर के माता का नाम मरियम उज्मानी ( हरवाबाई ) था ।
जहाँगीर नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर बादशाही गाजी की उपाधि धारण कर गद्दी पर बैठा । जहाँगीर ने अकबर के नौरत्न अङ्गुरहीम खानेखाना से शिक्षा प्राप्त की । . जहाँगीर का विवाह 15 वर्ष की अवस्था में अम्बर के राजा भगवान दास की पुत्री मानबाई के साथ हुआ । हमान • जहाँगीर के राज्यारोहण के कुछ ही दिनों बाद सका पुत्र खुसरो ने 1606 ई ० में अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । खुसरो और जहाँगीर की सेना के बीच जालंधर के निकट भैरावल नामक मैदान में युद्ध हुआ । जहाँगीर ने खुसरो को परास्त कर दिया तथा कैद में डाल दिया गया । खुसरो को सहायता करने के कारण सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुन देव को जहाँगीर ने मृत्युदण्ड दिया । जहाँगीर ने 1599 ई ० से 1603 ई ० तक अपने पिता सम्राट अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया । जहाँगीर ने न्याय की जंजीर के नाम से प्रसिद्ध सोने की जंजीर को आगरे के किले के शाहबुर्ज एवं यमुना तट पर स्थित पत्थर के खम्भे पर लगवाया । जहाँगीर ने 1606 ई ० में कन्धार को जीता परन्तु 1622 ई ० में कन्धार मुगलों के हाथ से निकल गया तथा कन्धार पर शाह अब्बास का अधि कार हो गया ।
1586 ई ० में जहाँगीर ने उदय सिंह की पुत्री जगत गोसांई से विवाह किया क्र जिससे शाहजादा खुर्रम का जन्म हुआ । .
शहजादा खुर्रम ने अहमदनगर के वजीर मलिक अम्बर का दमन किया इस कारण जहाँगीर ने उसे शाहजहाँ की उपाधि प्रदान की । 1611 ई ० में जहाँगीर ने ईरान निवासी मिर्जा ग्यासबेग की पुत्री मेहरुनिस्सा नने से विवाह किया । जहाँगीर ने शादी के बाद मेहरुनिस्सा को नूरमहल एवं नूरजहाँ ( Light of the world ) को उपाधि प्रदान की । जहाँगीर ने ग्यासबेग को एतमाद – उद् – दौला की उपाधि प्रदान किया । • नूरजहाँ ने एक दल का संगठन किया तथा राज्य शासन की पूरी बागडोर अपने हाथों में ले ली । नूरजहाँ के इस दल को नूरजहाँ गुट ( Nurjahan Junta ) के नाम से पुकारा जाता है । • नूरजहाँ के गुट के सदस्य थे – ग्यासबेग , आसफ खाँ , अस्मत बंगम , खुर्रम । 1626 ई ० में महावत खाँ ने झेलम नदी के तट पर विद्रोह किया तथा उसने ती जहाँगीर , नूरजहाँ एवं उसके भाई आसफ खाँ को बन्दी बना लिया । नूरजहाँ की माता अस्मत बेगम को गुलाब से इत्र निकालने के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है ।
लाडली बेगम शेर अफगान एवं मेहरुनिस्सा की पुत्री थी , जिनकी शादी जहाँगीर के पुत्र शहरयार के साथ हुई थी । जहाँगीर के पाँच पुत्र थे – खुसरो , परवेज , खुर्रम , शहरयार और जहाँदार । • जहाँगीर की मृत्यु 7 नवम्बर 1627 ई ० को भीमवार नामक स्थान पर हुई । जहाँगीर को शहादरा ( लाहौर ) में रावी नदी के किनारे दफनाया गया । • नूरजहाँ ने जहाँगीर के मकबरे ( शाहदरा – लाहौर ) का निर्माण करवाया । 7 जहाँगीर के शासनकाल में कैप्टन हॉकिन्स , सर टॉमस रो ( 1608-1616 ई ० ) अंग्रेजों के दूत के रूप में आया था । । जहाँगीर ने अपने राज्य में अलतमगा नामक नयी जागीर प्रथा का प्रचलन किया । 5. जहाँगीर का शासनकाल मुगल चित्रकारी का स्वर्णयुग माना जाता है । उस्ताद मंसूर , विशनदास , आगारजा , अबुल हसन , मुहम्मद नासिर , मुहम्मद मुराद , मनोहर एवं गोवर्धन , फारुख बैग एवं दौलत आदि जहाँगीर के दरबार के चित्रकार थे । जहाँगीर ने आगरा में एक ‘ चित्रशाला ‘ स्थापित की ।
जहाँगीर ने जम्मू – कश्मीर के श्रीनगर में शालिमार बाग का निर्माण करवाया । जहाँगीर द्वारा स्थापत्य के क्षेत्र में निर्मित मकबरे हैं – अकबर का मकबरा ( सिकन्दरा ) , एतमादुद्दौला का मकबरा तथा मरियम – उज – जमानी का मकबरा । एतमाद – उद् – दौला का मकबरा ऐसी प्रथम इमारत है जो पूर्णतः श्वेत संगमरमर से निर्मित है । • जहाँगीर कालीन निर्मित फारसी भाषा के ऐतिहासिक ग्रन्थों में तुजूक – ए – जहाँगीरी ( जहाँगीर ) इकबालनामा – ए – जहाँगीरी ( मौतमिद खाँ ) , मुहासिर – ए – जहाँगीरी ( ख्वाजा कामगार ) , मजखान- ए – अफगान ( नियामतुल्ला ) एवं तारीख – ए – फरिश्ता ( मुहम्मद कासिम फरिस्ता ) आदि प्रमुख हैं । जहाँगीर ने 1612 ई ० में प्रथम बार रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया था । जहाँगीर ने हिजड़ा व्यापार पर प्रतिबंध लगाया था । . शाहजहाँ का जन्म 1592 ई ० में लाहौर में हुआ था , उसकी माता का नाम जगत गोसाई था । शाहजहाँ के बचपन का नाम शहजादा खुर्रम था । 4 फरवरी , 1628 ई ० में शाहजादा खुर्रम ( शाहजहाँ ) का राज्याभिषेक आगरा में हुआ । शाहजहाँ के शासनकाल में खान – ए – जहाँ लोदी का विद्रोह ( 1628-31 ) तथा बुन्देलखण्ड के ‘ जूझर सिंह ‘ का विद्रोह हुआ जिसे सफलता पूर्वक दमन किया गया । शाहजहाँ ने पुर्तगालियों के बढ़ते प्रभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से 1632 ई ० में उनसे युद्ध किया तथा हुगली पर अधिकार कर लिया । शाहजहाँ के शासनकाल में 1628 ई ० , 1631 ई ० एवं 1634 ई ० में क्रमशः अमृतसर , लाहौर एवं करतारपुर में संघर्ष हुआ । • शाहजहाँ के शासनकाल में करतारपुर में मुगल एवं सिक्खों के बीच संघर्ष हुआ जिसमें सिक्खों की पराजय हुई ।
सिक्खों के छठे गुरु हरगोविंद ने कश्मीर में शरण ली एवं वहाँ कीर्तिपुर नामक नये नगर की स्थापना की । शाहजहाँ ने 1632 ई ० में अहमदनगर को मुगल साम्राज्य में मिला लिया । 1632-56 ई ० की अवधि में शाहजहाँ के शासनकाल में बीजापुर के साथ एक शान्ति – सन्धि हुई जो 20 वर्षों तक कायम रही । शाहजहाँ ने अपने पुत्र औरंगजेब को दक्षिण का सुबेदार नियुक्त किया था । शाहजहाँ के शासनकाल में यूरोपीय यात्री फ्रांसिस बर्नियर , ट्रैवर्नियर तथा मनूची ( इटली ) ने भारत की यात्रा की थी । शाहजहाँ सम्राट बनने पर अबुल मुजफ्फर हुसैन शहाबुद्दीन मुहम्मद साहब किरान – ए – सानी की उपाधि धारण की । शाहजहाँ की शादी मुमताज महल के साथ हुई , उससे 14 सन्तानें हुई . जिनमें चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ जीवित बचे । शाहजहाँ के चार पुत्रों के नाम हैं – दारा शिकोह ( युवराज ) , शुजा ( बंगाल का गर्वनर ) , औरंगजेब ( दक्कन का गर्वनर ) , मुराद बखा ( मालवा और गुजरात का गर्वनर ) । शाहजहाँ की तीन पुत्रियों के नाम थे – जहाँआरा बेगम , रोशन आरा और गौइरारा । . शाहजहाँ ने आसफ खाँ को वजीर का पद प्रदान किया । • शाहजहाँ ने महावत खाँ को खान – खाना की उपाधि प्रदान की । 1631 ई ० में मुमताज महल की मृत्यु हो गयी । मुमताज महल की याद में शाहजहाँ ने आगरे में उसकी कब्र के ऊपर ताजमहल का निर्माण करवाया । विश्व का सबसे महंगा हीरा कोहिनूर शाहजहाँ के सिंहासन तख्ते – ताउस में लगा हुआ था । शाहजहाँ के शासनकाल को मध्यकालीन इतिहास और वास्तुकला की दृष्टि से स्वर्णकाल कहा जाता है । कश्मीर स्थित निशातबाग का निर्माण शाहजहाँ ने करवाया था । ‘ मयूर सिंहासन ‘ का निर्माण शाहजहाँ ने करवाया था , इसका मुख्य कलाकार बादल खाँ था ।
1627 ई ० में आगरा स्थित दीवान – ए – आम शाहजहाँ का प्रथम निर्माण था । 1637 ई ० में शाहजहाँ ने दीवान – ए – खास का निर्माण आगरे के किले में करवाया था । 1648 ई ० में शाहजहाँ ने दिल्ली के लाल किले का निर्माण करवाया था । • लाल किले के पश्चिमी दरवाजा का नाम लाहौर दरवाजा है शाहजहाँ के शासनकाल में अनेक फारसी साहित्य में ग्रन्थों की रचना हुई – अब्दुल हमीद लाहौरी द्वारा पादशाहनामा , अमीनी काजविनी द्वारा शाहजहाँनामा , इनायत खाँ द्वारा अमल- ए – सालीह , सादिक खाँ द्वारा तारीख – ए – शाहजहाँनी , अमीनी काजविनी द्वारा पादशाहनामा , चन्द्रभान ब्राह्मण द्वारा चहारचमन । . शाहजहाँ का राजकवि पंडित जगन्नाथ था , गंगालहरी और रस – गंगाधर इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं । शाहजहाँ के शासनकाल के अन्तिम दिनों में वेनिस यात्री मनूची भारत की यात्रा पर आया था ।
शाहजहाँ के शासनकाल में इलाही संवत् के स्थान पर हिजरी संवत् प्रारम्भ
धर्मसंसद ( parliament of religion ) को सम्बोधित किया । रामकृष्ण मिशन की शिक्षाओं का मूल आधार वेदान्त दर्शन था । थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 1875 ई . में अमेरिका में हुई । थियोसोफिकल सोसायटी के संस्थापक मैडम हेलेना पेट्रोवेना ब्लात्वस्की ( रूस ) , एवं कर्नल हेनरी स्टील ऑल्कॉट ( अमेरिका ) थे । भारत में 1882 ई . में मदास ( चेन्नई ) के समीप अड्यार नामक स्थान पर थियोसोफिकल सोसायटी का मुख्यालय स्थापित हुआ । आयरिश महिला एनी बेसेंट द्वारा 1907 ई . में इस संस्था का नेतृत्व सम्भाला गया । एनी बेसेंट ने हिन्दू एवं बौद्ध धर्मों के उत्थान का आह्वान किया । एनी बेसेंट ने बनारस में सेंट्रल हिन्दू स्कूल ( CHS ) की स्थापना की ।
सेंट्रल हिन्दू स्कूल 1898 ई ० में सेंट्रल हिन्दू कॉलेज ( CHC ) में तब्दील हो गई । सेंट्रल हिन्दू स्कूल 1915 ई ० में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ( BHU ) में परिवर्तित हो गया । बनारस हिन्दू विश्विद्यालय ( BHU ) की स्थापना पंडित मदन मोहन मालवीय ने की । एनी बेसेंट ने काली – द मदर तथा द वे ऑफ इंडियन लाइफ नामक पुस्तकें लिखी । प्रथम ब्राह्मण – इतर संस्था का गठन 1917 ई . में दक्षिण भारतीय उदारवादी संघ ( South Indian Liberal Federation ) का गठन हुआ । दक्षिण भारतीय उदारवादी संघ को पी • त्यागराज तथा टी 0 एम 0 नायर ने स्थापित किया । कुछ दिनों बाद ‘ दक्षिण भारतीय उदारवादी संघ ‘ का नाम बदलकर जस्टिस पार्टी रख दिया गया । 1937 ई ० में रामास्वामी नायकर को जस्टिस पार्टी का अध्यक्ष चुना गया । रामास्वामी नायकर ने अस्पृश्ता ( छूआछूत ) के खिलाफ संघर्ष किया । 1920 ई ० में दक्षिण भारत में गैर – ब्राह्मण जातियों ने सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट चलाया । रामास्वामी नायकर के अनुयायी सी ० एन ० अन्नादुरई ने 1944 ई . में ‘ जस्टिस पार्टी ‘ का नाम बदलकर दविड़ कड़गम रखा । ‘ द्रविड़ कड़गम ‘ में 1949 ई . में विभाजन हो गया तथा सी ० एन ० अन्नादुरई ने अपने दल का नाम द्रविड़ मुन्नेत्रकड़गम ( DMK ) रखा । 1873 ई ० में ज्योतिबा फूले द्वारा सत्यशोधक समाज की स्थापना की गई । ‘ ज्योतिबा फूले ‘ 1876 ई ० में पूणे नगरपालिका के सदस्य चुने गये । 1888 ई . से ज्योतिबा फूले लोगों के बीच महात्मा के नाम से पुकारे जाने लगे । अछूतोद्धार के उद्देश्य से डॉ ० भीमराव अम्बेडकर ने ऑल इण्डिया डिप्रेस्ड क्लास फेडरेशन की स्थापना की । अछूतोद्धार के उद्देश्य से ही 1924 ई . में ‘ डॉ . भीमराव अम्बेडकर ‘ ने 1924 ई ० में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना बंबई में की । डॉ . भीमराव अंबेडकर ने अछूतों के प्रतिनिधि ( Representative of Untouchables ) के रूप में 1930 , 1931 एवं 1932 ई . में लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया । 1932 ई . में ‘ अखिल भारतीय अस्पृश्यता निवारण संघ ‘ की स्थापना हुई । कालान्तर में इसका नाम हरिजन सेवक संघ हो गया । डॉ . भीमराव अम्बेडकर ने 1942 ई ० में अनुसूचित जाति फेडरेशन नामक अखिल भारतीय संगठन की स्थापना की । डॉ . भीमराव अम्बेडकर ने स्वयं हिन्दू धर्म त्यागकर ‘ बौद्ध धर्म स्वीकार किया ।
मुसलमानों की पाश्चात्य प्रभावों के खिलाफ उत्पन्न प्रथम प्रतिक्रिया वहाबी अथवा वलीउल्लाह आन्दोलन अथवा , वहाबी के रूप में प्रकट हुई ।
इस आन्दोलन के नेता सैय्यद अहमद बरेलवी एवं शाह वलीउल्लाह थे ।
के विरुद्ध था , परन्तु 1849 ई ० में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध हो गया । बाद में इस आन्दोलन को मौलवी अब्दुल अजीज ने सांप्रदायिक दिशा देते हुए भारत को दार – उल – हर्ब ( काफिरों का देश ) घोषित कर दिया । ‘ मौलवी अब्दुल अजीज ‘ ने भारत को दार – उल – इस्लाम ( इस्लामी देश ) बनाने का आह्वान किया । पूर्वी भारत में वहाबी आन्दोलन का प्रसार मुख्य रूप से हाजी शरीयतुल्ला एवं शेख करामत अली ने किया । वहाबी आन्दोलन 1870 ई . तक चला , एवं उसके बाद ‘ ब्रिटिश फौजों ‘ के द्वारा कुचल दिया गया । अलीगढ़ आन्दोलन के प्रणेता सर सैय्यद अहमद खाँ ( 1817-98 ई . ) 1870 ई . में विलियम हंटर की पुस्तक इंडियन मुसलमान्स का प्रकाशन हुआ । ‘ इंडियन मुसलमान्स ‘ में अंग्रेजी सरकार को सुझाव दिया गया था कि वह मुसलमानों के प्रति ‘ सहयोग ‘ की नीति रखें । मुसलमानों का एक वर्ग अंग्रेजी सरकार के संरक्षण भरे रुख को स्वीकार करने को आतुर था , इस वर्ग के नेता सर सैय्यद अहमद खाँ थे । सर सैय्यद अहमद खाँ का जन्म ‘ दिल्ली ‘ के एक समृद्ध मुस्लिम परिवार में हुआ था ।
सर सैय्यद अहमद खाँ ने 1839 ई ० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ‘ की न्यायिक सेवा में नौकरी कर ली , उन्होंने कुरान पर एक टीका लिखी ।
सैय्यद अहमद खाँ द्वारा एक पत्रिका तहजीब – उल – अखलाक का प्रकाशन भी किया गया ।
19 वीं शताब्दी में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए हुए प्रयास
1870 ई . में अंग्रेजी सरकार द्वारा बालिका – वध रोकने के लिए कुछ कानून बनाए गये । ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ( संस्कृत कॉलेज , कलकत्ता के आचार्य ) ने हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम -1856 के तहत ‘ विधवा विवाह ‘ को कानूनी मान्यता दिलाई । प्रो . डी के कर्वे ने 1899 ई ० में पुणे में एक विधवा आश्रम की स्थापना की । ब्रिटिश सरकार ने समाज – सुधारकों के दबाब में 1930 में बाल विवाह के विरुद्ध शारदा एक्ट पारित किया । शारदा एक्ट के तहत् लड़कों की न्यूनतम आयु 18 वर्ष तथा लड़कियों के लिए 14 वर्ष रखी गई । कलकत्ता ( कोलकाता ) में 1819 ई . में कलकत्ता तरुण स्त्री सभा की स्थापना हुई । ‘ कलकत्ता तरुण स्त्री सभा ‘ के अध्यक्ष जे.ई.डी. बेथुन ने 1849 ई . में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की जो आगे चलकर बेथुन स्कूल के नाम से प्रसिद्ध हुआ । 1927 ई ० में अखिल भारतीय महिला सभा स्थापित हुई । 1857 ई . के विद्रोह के वक्त सैय्यद अहमद खाँ ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा में थे । 1 हिन्दू – मुस्लिम एकता के संदर्भ में कहा “ Hindus and Muslims are two स eyes of a beautiful bride l.e. India . ( हिन्दू एवं मुसलमान भारत – रूपी 2 2 सुन्दर दुल्हन की दो आँखें हैं । ) 1864 ई . में सर सैय्यद अहमद खाँ ने साइंटिफिक सोसायटी की स्थापना की । 1875 ई . में सर सैय्यद अहमद खाँ ने अलीगढ़ में ‘ मोहम्मडन एंग्लो – ओरिएन्टल कॉलेज ‘ की स्थापना की । दान का ‘ मोहम्तुन एंग्लो – आरिएंटल कॉलेज ‘ 1920 ई ० में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ( AMU ) में तब्दील हो गया ।
सैय्यद अहमद के आन्दोलन का केन्द्र चूँकि अलीगढ़ में स्थित था , अत : त्रिी इनके आन्दोलन को अलीगढ़ आन्दोलन कहा गया ।
सैय्यद अहमद के अलीगढ़ स्कूल के अन्य नेताओं में मौलवी चिराग अली एवं अल्ताफ हुसैन प्रमुख थे । सर सैय्यद अहमद खाँ ने काँग्रेस का विरोध करने के लिए 1886 ई . में इंडियन पैट्रियॉट एसोसिएशन एवं मुस्लिम – एजुकेशनल काक्रेन्स की स्थापना भी की । 1886 ई ० में सैय्यद अहमद खाँ ऑल इण्डिया मुहम्मडन एजुकेशनल काँग्रेस की स्थापना की । देवबन्द आन्दोलन सहारनपुर ( उत्तर प्रदेश ) में 1866-67 ई ० में मुहम्द कासिम वन्तोवी के नेतृत्व में शुरू हुआ । देवबन्द में एक विद्यालय खोला गया जो देवबन्द स्कूल के नाम से प्रसिद्ध हुआ । अहमदिया आन्दोलन का प्रमुख केंद्र पंजाब के गुरूदासपुर जिले में था । अहमदिया आन्दोलन के प्रवर्तक मिर्जा गुलाम अहमद थे । मिर्जा गुलाम अहमद स्वयं को कृष्णा का अवतार कहता था । 1851 ई . में धार्मिक रूढ़िवाद के विरुद्ध पारसी संगठन रहनुमाई मजध्यासन सभा अस्तित्व में आई । रहनुमाई मजध्यासन समाज की स्थापना दादाभाई नौरोजी तथा एस ० एस ० बंगाली ने की । रहनुमाई मजध्यासन सभा के प्रयासों से ‘ पारसी समाज ‘ वर्तमान में भारत का सर्वाधिक आधुनिक समाज बन गया । 19 वीं शताब्दी के अन्त में अमृतसर में खालसा कॉलेज की स्थापना हुई । 1920 ई . में अकाली आन्दोलन को शुरूआत हुई । अकाली आन्दोलन के दबाव में अंग्रेजी सरकार को सिक्ख गुरुद्वारा अधिनियम ‘ 1922 पारित करना पड़ा । गुरूद्वारा अधिनियम की सहायता से गुरुद्वारों को भ्रष्ट महन्तों से मुक्त कराया गया । कलकत्ता ( कोलकता ) में 1817 ई . में हिन्दू कॉलेज की स्थापना हुई । ‘ हिन्दू कॉलेज ‘ के छात्रों ने हेनरी विवियन डिरोजियो के नेतृत्व में ‘ यंग बंगाल आन्दोलन ‘ किया । ‘ यंग बंगाल आन्दोलन ‘ मैजिनी के यंग इटली आन्दोलन से प्रेरित था । ‘ यंग बंगाल आन्दोलन ‘ पर 1789 ई . के फ्रांसीसी क्रान्ति ( French Revolution ) वृहद प्रभाव पड़ा ।
डिरोजियो के निधन के बाद कृष्ण मोहन बनर्जी , रामगोपाल घोष तथा महेश चंद्र जैसे उनके शिष्यों ने ‘ यंग बंगाल आन्दोलन ‘ को आगे बढ़ाया ।
आधुनिक भारत
( MODERN INDIA )
दिल्ली में 1707 ई ० से 1748 ई ० तक बहादुर शाह ( 1707-12 ई ० ) , जहाँदार शाह ( 1712-13 ई ० ) , फरूर्खशियर ( 1713-19 ई ० ) , मुहम्मद शाह रंगीला ( 1719-48 ई ० ) आदि मुगल शासकों ने शासन किया । ब्रिटेन के भारत विजय में निम्नलिखित महत्वपूर्ण पड़ाव हैं –
1707 ई ० में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य का पतन शुरू हो गया । 1739 ई ० में नादिर शाह एवं 1747 ई ० में अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों से मुगल सामाज्य के पतन की गति और भी तेज हो गई । मुगल साम्राज्य की दुर्बलता का लाभ उठाकर हैदराबाद , अवध एवं बंगाल अलग हो गए । हैदाराबाद के आसफजाही वंश का प्रवर्तक चिनकिलिच खाँ था , उसे निजाम – उल – मुल्क भी कहा जाता था । निजाम – उल – मुल्क के मृत्यु के बाद हैदराबाद पर शासन करने वालों में नासिर जंग , मुजफ्फरजंग एवं सालारजंग थे । अवध के संस्थापक सआदत खाँ थे , जिन्हें मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ने बुरहान – उल – मुल्क की उपाधि से सम्मानित किया । सआदत खाँ के बाद अवध पर सफदर जंग एवं शुजाउद्दौला ने शासन किये । 1701 ई ० में मुर्शिद कुली खां को बंगाल की दीवानी प्राप्त हुई । मुर्शिद कुली खाँ ने 1717 ई ० में बंगाल को मुगल साम्राज्य से स्वतंत्र घोषित कर दिया । 1740 ई ० से 1756 ई ० तक बंगाल पर अलीवर्दी खाँ का शासन रहा । बंगाल का अन्तिम नवाब 1756 ई ० में ‘ सिराजुद्दौला ‘ बना । 1707 ई ० में मुगल कैद से आजाद हुए साहू को प्रशासन का ज्ञान नहीं था । साहू जी ने प्रशासन की देख – रेख पेशवाओं के हाथ में सौंप दी । मराठों के पेशवा इस प्रकार थे – बालाजी विश्वनाथ ( 1713-20 ई ० ) , बाजी राव -1 ( 1920-40 ई ० ) , बालाजी बाजी राव ( 1740-61 ई ० ) , माधव राव- ।। ( 1761-62 ई ० ) , नारायण राव -1 ( 1772-73 ई ० ) , माध व राव- ।। ( 1773-96 ई ० ) , बाजी राव- || ( 1796-1818 ई ० ) । बालाजी विश्वनाथ पेशवाओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रथम पेशवा था । मुगल दरबार के सैयद बंधुओं का दमन करने में बालाजी विश्वनाथ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । बाजी राव -1 ने ‘ मराठा संघ ‘ की स्थापना कर मराठा शक्ति का विस्तार किया । होल्कर ( इंदौर ) , भोंसले ( नागपुर ) , सिन्धिया ( ग्वालियर ) , गायकवाड़ ( बड़ौदा ) , तथा पेशवा ( पूना ) मराठा संघ के सदस्य थे । 1733 ई ० में पेशवा बाजीराव- । ने पुर्तगालियों सालसेट एवं बेसीन के प्रदेश जीते । बाजीराव -1 ने पालखेड़ा के युद्ध में हैदराबाद के निजाम – उल – मुल्क को ( i ) हराया तथा दोनों के बीच मुंशी शिवगांव की सन्धि हुई । मराठों के तीसरे पेशवा बालाजी बाजीराव ने 1757 ई ० में मुगलों की ( ii ) तत्कालीन राजधानी दिल्ली पर अधिकार कर लिया ।
1761 ई ० में पानीपत के तीसरे युद्ध में अहमद शाह अब्दाली ने बालाजी ( ii ) बाजीराव को परास्त कर दिया तथा यहीं से मराठों का पतन आरम्भ हो गया । 18 वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में हैदरअली के अधीन मैसूर राज्य का ( iv ) उदय हुआ । हैदरअली का जन्म मैसूर में 1721 ई ० में हुआ । 1766 ई ० में मैसूर का शासक बनने के बाद हैदर ने अपनी राज्य की सीमाएँ पूरब में पूर्वी घाट , पश्चिम में पश्चिमी घाट एवं दक्षिण में कावेरी नदी तक बढ़ाई । हैदर अली को मराठों के पेशवा माधव राव ने 1764 ई ० में युद्ध में परास्त कर दिया । हैदर अली ने 1782 ई ० तक तथा उसके बाद उसके पुत्र टीपू सुल्तान . ने 1799 ई ० तक मैसूर पर शासन किया ।
1748 ई ० में खालसा दल का निर्माण तथा पंजाब में सिक्खों के 12 मिसलों का गठन हुआ ।
इन्हीं मिस्लों में राजा रणजीत सिंह एक मिस्ल शुक्रकिया का प्रतिनिधित्व करता था । रणजीत सिंह ने 1799 में लाहौर , 1802 में अमृतसर पर अधिकार कर लिया । रंजीत सिंह की राजधानी लाहौर थे । रणजीत सिंह की सरकार को ‘ सरकार खालसा ‘ कहा जाता था । रणजीत सिंह का राज्य 4 सूबों पेशावर , कश्मीर , लाहौर तथा मुल्तान में विभक्त था । अमृतसर की सन्धि ( 1809 ई ० ) अंग्रेजों और रणजीत सिंह के बीच हुए । हरि सिंह नलवा की मदद से रणजीत सिंह ने मुल्तान , कश्मीर तथा पेशावर पर भी अधिकार कर लिया । 1839 ई ० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद 10 वर्षों के बाद उनका राज्य विलुप्त हो गया । 18 वीं शताब्दी के आरम्भ में केरल अनेक छोटे – छोटे क्षेत्रों में विभाजित था । इस काल में कालीकट , कोचीन , करिक्काल एवं ट्रावणकोर आदि महत्त्वपूर्ण थे । ट्रावणकोर के राजा मार्तण्ड वर्मा ने अपने राज्य का विस्तार किया तथा डचों को पूर्णरूपेण केरल से बाहर निकाल दिया ।
1805 ई ० में ट्रावणकोर सहायक सन्धि के तहत ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभुत्व में आ गया । 18 वीं शताब्दी के आरम्भ में अहोम , कछार , जयंतिया तथा मणिपुर पूर्वोत्तर के प्रमुख राज्य थे । ब्रिटिश काल में असम समेत पूर्वोत्तर का तमाम क्षेत्र असम प्रान्त के नाम से जाना जाता था । असम क्षेत्र में रूद्रसिम्हा ( 1694-1714 ई ० ) एवं शिव सिंह ( 1714-44 ई ० ) प्रमुख शासक हुए । रूद्रसिम्हा को पूर्वी भारत का शिवाजी कहा जाता है । 18 वीं शताब्दी के आरम्भ में राजपूताने में जोधपुर एवं आमेर ( जयपुर ) दो प्रमुख राज्य थे । उपरोक्त के अलावा दिल्ली से सटा समस्त क्षेत्र राजपूतों के अधीन था । जोधपुर ( मारवाड़ ) का प्रमुख शासक अजीत सिंह था तथा आमेर का शासक जय सिंह था । जयपुर के शासक सवाई जय सिंह एक उच्च स्तरीय विद्वान एवं विज्ञान की समझ रखने वाला शासक था ( 1 ) जय सिंह से खगोल विद्या के अध्ययन के लिए 5 वेधशालाओं का निर्माण कराया । ( i ) जय सिंह ने सारणियों के सेट तैयार कराये तथा त्रिकोणमिति की कई प्रसिद्ध पुस्तकों का अनुवाद कराया । ( it ) सवाई जय सिंह द्वारा वैज्ञानिक पद्धति से जयपुर शहर का निर्माण कराया गया । ( iv ) जय सिंह ने रेखा गणित के तत्व नामक यूक्लिड रचित ग्रन्थ का संस्कृत भाषा में अनुवाद कराया । दिल्ली के पास आगरा एवं मथुरा जाटों के प्रभुत्व में थे । भरतपुर में बदन सिंह के दत्तक पुत्र सूरजमल ( 1756-63 ई ० ) का शासन था । सूरजमल द्वारा अपने राज्य का विस्तार पूर्व में गंगा , दक्षिणी में चंबल , पश्चिम में आगरा एवं उत्तर में दिल्ली तक किया गया । 1763 ई ० में सूरजमल की मृत्यु के पश्चात इस राज्य का पतन हो गया ।
अंग्रेज समर्थित कर्नाटक के नवाब ‘ अनवारूद्दीन ‘ की सेना एवं फेंच सेना के बीच कार्नेटिक युद्ध -1 ( 1746-48 ई ० ) हुआ । उपर्युक्त युद्ध में फ्रांसीसियों की सेना की एक छोटी टुकड़ी ( 1000 सैनिक ) ने नवाब की बड़ी सेना ( 10000 सैनिक ) को हरा दिया । एक्स – लॉ – शॉपल की सन्धि ( 1748 ई ० ) के द्वारा यूरोप में फ्रांस एवं ब्रिटेन के बीच युद्ध समाप्त हो गया तथा साथ ही भारत में भी प्रथम कार्नेटिक युद्ध समाप्त हो गया । हैदराबाद , कर्नाटक तथा तंजौर के उत्तराधिकार के प्रश्न पर द्वितीय कार्नेटिक युद्ध ( 1749-54 ई ० ) हुआ । 1748 ई ० में हैदराबाद के निजाम आसफजाह की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र नासिरजंग एवं पौत्र मुजफ्फरजंग में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष आरम्भ हो गया । कार्नेटिक में नवाब अनवरुद्दीन एवं उसके जीजा चंदा साहिब के बीच भी . संघर्ष की स्थिति बनी हुई थी । फ्रेंच गवर्नर डूप्ले ने हैदराबाद में ‘ मुजफ्फर जंग ‘ एवं कार्नेटिक में ‘ चंदा साहिब ‘ का समर्थन किया । अंग्रेजों ने हैदराबाद में ‘ नासिर जंग ‘ तथा कार्नेटिक में ‘ अनवरुद्दीन ‘ का समर्थन किया । कई झड़पों के बावजूद 1753 ई ० तक कार्नेटिक युद्ध- । अनिर्णीत रहा । 1754 ई ० में अंग्रेजों एवं फ्रांसीसियों के बीच पांडिचेरी की सन्धि हुई । C ‘ पांडिचेरी की सन्धि ‘ के तहत दोनों पक्षों ने भारतीय शासकों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की सहमति बनी । 1756 ई ० में यूरोप में ‘ सप्तवर्षीय युद्ध ‘ के आरम्भ के साथ ही भारत में अंग्रेजों एवं फ्रांसीसियों के बीच शान्ति की स्थिति समाप्त हो गई ।
1760 ई ० में अंग्रेजों की सेना ने वान्डिवाश के युद्ध में सर आयरकूट के नेतृत्व में फ्रांसीसियों को बुरी तरह से पराजित कर दिया । वान्डिवाश युद्ध के बाद ‘ फ्रांसीसियों ‘ की ताकत समाप्त हो गई तथा वे पांडिचेरी में सिमट कर रह गए । 1767 ई ० में अंग्रेजों , निजाम तथा मराठों ने मिलकर ‘ हैदर अली ‘ के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बनाया । हैदर अली ने कूटनीति के प्रयोग से मराठों तथा निजाम को अपने पक्ष में कर लिया । 1767-69 ई ० के बीच आंग्ल – मैसूर युद्ध- हैदर अली एवं अंग्रेजों के बीच हुआ । अंग्रेजों को 1769 ई ० में ‘ हैदर अली ‘ के साथ अपमानजनक सन्धि करनी पड़ी तथा दोनों पक्षों ने एक – दूसरे के जीते हुए प्रदेश लौटा दिये । 1779 ई ० में पश्चिमी तट पर स्थित फ्रांसीसी उपनिवेश माहे पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया । ‘ माहे ‘ से हैदर अली के महत्वपूर्ण सामरिक संबंध थे । हैदर अली , निजाम मराठों के संयुक्त मोर्चा तथा अंग्रेज समर्थिक कर्नाटक के नवाब के बीच आंग्ल – मैसुर युद्ध -11 ( 1780-84 ई ० ) इसी बीच 1782 ई ० में हैदर अली एवं सर आयरकूट का निधन हो गया । अब युद्ध में मैसूर की कमान टीपू सुल्तान ( हैदर का पुत्र ) एवं अंग्रेजों 1 की कमान जेनरल स्टुआर्ट के हाथों में थी
अंग्रेजों एवं टीपू सुल्तान के बीच मंगलोर की सन्धि ( 1784 ई ० ) में हुई , जिसके तहत दोनों पक्षों ने एक – दूसरे के जीते हुए प्रदेश को वापस कर दिए ।
1790 ई ० में गर्वनर जेनरल ‘ लॉर्ड कार्नवालिस ‘ निजाम एवं मराठों के साथ मैसूर के खिलाफ त्रिदलीय मोर्चा ( Triple Alliance ) बना । टीपू सुल्तान एवं अंग्रेज समर्थित ट्रावणकोर के राजा के बीच हुए आंग्ल – मैसुर युद्ध -11 ( 1790-92 ई ० ) का परिणाम अंग्रेजों के पक्ष में गया । 1792 ई ० में टीपु सुल्तान तथा अंग्रेजों के बीच श्रीरंगापट्टम की सन्धि . . श्रीरंगापट्टम की अपमानजनक सन्धि के तहत टीपू को अपना आधा राज्य अंग्रेजों एवं उनके मित्रों के बीच बांटना पड़ा । श्रीरंगापट्टम को अपमानजनक सन्धि के तहत क्षेत्र को अपने दो पुत्रों को जमानत के तौर पर लॉर्ड कार्नवालिस को सौंपना पड़ा । 1798 ई ० में आंग्ल – मैसुर- IV ( 1798-99 ई ० ) आरम्भ हुआ और इस युद्ध में टीपू बुरी तरह हार गया एवं मारा गया । 1799 ई ० में श्रीरंगापट्टम ( मैसूर की राजधानी ) . पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया । वडियार वंश के एक बालक को अंग्रेजों ने मैसूर की गद्दी पर बैठा दिया तथा उस पर सहायक सन्धि ( Subsidiary Alliance ) थोप दी । 1756 ई ० में बंगाल की गद्दी पर नवाब के रूप में अलीवर्दी खाँ का नाती सिराजुद्दौला बैठा । सिराजुद्दौला की मौसी घसीटी बेगम तथा उसका पुत्र शौकत जंग , उसके प्रमुख विरोधी थे । सिराजुद्दौला को शौकत जंग की दीवान राजवल्लभ तथा अंग्रेजों से भी चुनौती मिल रही थी । सिराजुद्दौला ने 20 जून , 1776 ई ० को ‘ कलकत्ता ‘ पर आक्रमण कर फोर्ट विलियम पर कब्जा कर लिया । माणिकचंद को कलकत्ता का प्रभारी बनाकर ‘ सिराजुद्दौला ‘ स्वयं वापस लौट गया ।
Black hole tragedy
कलकत्ता युद्ध के बाद ‘ फोर्ट विलियम ‘ के 146 कैदियों को 20 जून , 1756 ई ० की रात को 18 फुट x 14 फुट के अंधेरे कमरे में बन्द कर दिया गया । 21 जून को सवेरे में उनमें से मात्र 23 व्यक्ति जीवित बचे थे । अंग्रेजों ने कुछ वर्ष तक इसे दुष्प्रचार के हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया । अधिकांश समकालीन इतिहासकार इस घटना को प्रमाणिक नहीं मानते . . . • आधुनिक भारत के इतिहासकार गुलाम हुसैन ने समकालीन भारत पर अपनी रचना सियार – उल – मुख्खरैन में भी इसका कोई जिक्र नहीं किया है । माणिक चंद को घूस देकर अंग्रेजों ने अपनी ओर मिला लिया तथा कलकत्ता एवं हुगली पर अधिकार कर लिया । अंग्रेजों एवं सिराजुद्दौजा के बीच 9 फरवरी , 1757 को अलीनगर की सन्धि हुई । ‘
अलीनगर की सन्धि ‘ के तहत अंग्रेजों को व्यापार के पुराने अधिकार मिल गये ।
उपर्युक्त संधि से ही अंग्रेजों को कलकत्ता ( कोलकाता ) की किलेबन्दी करने की भी अनुमति प्राप्त हुई । अंग्रेजों ने सिराजुद्दौजा के विरुद्ध मीर जाफर ( सिराजुद्दौला का सेनापति ) , जगत सेठ ( बंगाल का बैंकर ) , रायदुर्लभ ( एक बिचौलिया ) तथा अमीर चंद ( बंगाल का एक व्यापारी ) के साथ मिलकर साजिश की । सिराजुद्दौला एवं अंग्रेजों की सेना के बीच 23 जून , 1757 ई ० को ‘ मुर्शिदाबाद ‘ से 22 मील दक्षिण में प्लासी का युद्ध ( 1757 ई ० ) हुआ । प्लासी युद्ध साजिश में शामिल लोगों द्वारा धोखा दिये जाने के कारण सिराजुद्दौला हार गया तथा उसकी हत्या कर दी गई । 25 जून , 1757 ई ० को मीर जाफर द्वारा स्वयं को बंगाल का नवाब घोषित किया गया । मीर जाफर ने अंग्रेजों को इनामस्वरूप 24 परगने की जमींदारी प्रदान की । मीर जाफर युद्ध की क्षति की पूर्ति के लिए अंग्रेज सेनापति क्लाइव को 234000 रु ० दिये । मीर जाफर ने कम्पनी को बिना शुल्क अदा किये ही व्यापार करने की छूट दे दी । 24 परगने ‘ की जमींदारी ने अंग्रेजों को अत्यन्त फायदा पहुंचाया , परिणामस्वरूप धन की उनकी मांगें बढ़ने लगीं । ‘
मीर जाफर ‘ अंग्रेजों की दिनोंदिन बढ़ते मांग को पूरा करने में असमर्थ साबित हो रहा था । अंग्रेजों ने 27 दिसंबर 1760 को मीर कासिम ( मीर जाफर का दामाद ) को बंगाल का नया नवाब घोषित किया । मीर कासिम ने अपनी राजधानी मुंगेर में स्थापित की । मीर कासिम ने बिहार के तत्कालीन गर्वनर राम नारायण को अपदस्थ .. . किया । मीर कासिम एक योग्य व्यक्ति था , शीघ्र ही अंग्रेजों से दस्तक के सवाल पर उलझ पड़ा । 1763 ई ० में कम्पनी एवं मीर कासिम के बीच युद्ध आरम्भ हो गया । उदयनाला के युद्ध में बुरी तरह पराजित होने के पश्चात् ‘ मीर कासिम ‘ अवध चला गया । बंगाल के नवाब की गद्दी पर पुन : मीर जाफर को पदस्थापित किया गया । अंग्रेजों को चुंगी रहित व्यापार की सुविधा बहाल कर दी गई जबकि भारतीयों के लिए चुंगी की दर 25 प्रतिशत निर्धारित की गई । अवध पहुँचकर मीर कासिम ‘ ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध एक मोर्चा तैयार किया ।
22 अक्टूबर , 1764 को मीर कासिम की संयुक्त सेना एवं अंग्रेज सेना के बीच बक्सर का युद्ध ( 1764 ई ० ) हुआ । इस युद्ध में मेजर हेक्टर मुनरो ने अंग्रेजों को सेना का नेतृत्व किया । इस युद्ध में घमासान लड़ाई के पश्चात् अंग्रेजों की जीत हुई तथा मीर कासिम पलायन कर गया तथा 12 वर्षों के पश्चात् उसका निधन हो गया । ‘ इलाहाबाद की पहली सन्धि ‘ 12 अगस्त , 1765 को हुई । न ‘ दस्तक ‘ एक प्रकार का पास था जो कर – मुक्त व्यापार के लिए East India Co. को प्रदान किया गया था । ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्मचारी एवं अधिकारी ‘ दस्तक ‘ का प्रयोग अपने निजी व्यापार के लिए करके बंगाल के राजकोष को हानि पहुँचाते थे । उपर्युक्त सौंध के तहत ईस्ट इंडिया कं . को बिहार , बंगाल एवं उड़ीसा के दीवानी अधिकार प्राप्त हो गए । दीवानी अधिकार मिल जाने से बंगाल , बिहार , उड़ीसा क्षेत्र का वास्तविक स्वामित्व कंपनी के हाथ में आ गया । बदले में मुगल बादशाह को 26 लाख रुपये वार्षिक अदा करने एवं उसे अवध के इलाहाबाद एवं कड़ा जिले प्रदान करने की सहमति हुई ।
‘ इलाहाबाद की दूसरी सन्धि ‘ 16 अगस्त , 1765 को हुई , जिसके तहत अवध के नवाब शुजाउद्दौला को युद्ध की क्षतिपूर्ति हेतु 50 लाख रूपये अंग्रजों को देना तय हुआ ।
. 50 लाख रुपये देने के एवज में अंग्रेजों द्वारा अवध का जीता हुआ राज्य नवाब को वापस लौटाना था ।
बंगाल में द्वैध शासन ( Dual Government in Bengal )
1765 ई ० में ‘ मीर जाफर ‘ की मृत्यु हो गई । अंग्रेजों ने ‘ मीर जाफर ‘ के पुत्र नजमुद्दौला को निम्न शर्तों के साथ नवाब के रूप में स्वीकार किया ( i ) निजामत ( सैन्य संरक्षण एवं विदेशी मामले ) पूर्णतया कम्पनी के हाथ में होंगे । ( ii ) दीवानी मामलों के लिए एक डिप्टी गर्वनर हो , जिसकी नियुक्ति कम्पनी द्वारा हो तथा कम्पनी के अनुमति बगैर उसे हटाया न जाय । इस प्रकार प्रशासन की वास्तविक शक्ति कम्पनी के हाथों में रही एवं दैनिक प्रशासन नवाब के हाथों में । उपर्युक्त विचित्र प्रशासनिक व्यवस्था को ‘ द्वैध – शासन ‘ कहते हैं ।
यह व्यवस्था 1765 ई ० से 1772 ई ० तक चली । आंग्ल – मराठा यु -1 ( 1775-82 ई ० ) गवर्नर जेनरल ‘ बारेन हेस्टिंग्स ‘ के शासनकाल में हुआ । आंग्ल – मराठा युद्ध -1 , अंग्रेजों द्वारा बड़गाँव की संधि के उल्लंघन के कारण हुआ । अंग्रेज सेना ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया , ग्वालियर के शासक ‘ महादजी सिंधिया ‘ को साल्बाई की सन्धि ( 1782 ई ० ) करनी पड़ी । दोनों पक्षों के बीच अगले 20 वर्षों तक शान्ति बनी रही । 1805 ई ० में मराठों के सबसे बड़े नेता नाना फड़नवोस की मृत्यु हो गई । पेशवा वाजीराव- II , जसवंत राव होल्कर तथा दौलत सिंधिया में प्रमुत्व के लिए संघर्ष छिड़ गया । 1802 ई ० में जसवंत राव होल्कर ने पूना पर कब्जा कर पेशवा बाजी राव- II को अपदस्थ कर दिया । जसवंत राव होल्कर ने विनायक राव को नया पेशवा नियुक्त कर दिया । अपदस्थ पेशवा बाजीराव- ।। ने लॉर्ड वेलेस्ली के साथ बेसिन की सन्धि ( 1802 ई ० ) की । यह सन्धि ‘ लॉर्ड वेलेस्ली ‘ की बहुचर्चित सहायक सन्धि ( Subsidiary Alliance ) थी । इस सन्धि के तहत् दोनों पक्षों ने संकट काल में एक – दूसरे का साथ देने का आश्वासन दिया । पेशवा ने पूना में एक सहायक सेना रखने एवं उसके खर्चे के लिए 27 लाख रुपये वार्षिक देने की स्वीकृति दे दी । बेसीन की अपमानजनक सन्धि मराठा संघ के अन्य सरदारों द्वारा स्वीकार नहीं की गई । असाई नामक स्थान पर अंग्रेजों ने सिन्धिया एवं भोंसले की संयुक्त सेना को आंग्ल – मराठा युद्ध- II ( 1803 ई ० ) में बुरी तरह हरा दिया । अंग्रेजों ने पुनः मराठों को अरगाँव तथ लासबाड़ी में हराया । भोंसले ने हारकर देवगाँव की सन्धि की जिसके तहत् उसे कटक का सूबा अंग्रेजों को प्रदान करना पड़ा । 30 दिसम्बर , 1803 को सिन्धिया ने भी सूर्जी अर्जुन गाँव की सहायक सन्धि कर ली ।
आंग्ल – मराठा युद्ध- II ( 1804-06 ई ० ) लौर्ड वेलेस्ली एवं होल्कर के . बीच हुआ । . 1804 ई ० में लॉर्ड वेलेस्ली ने ‘ जयपुर ‘ को सुरक्षित करने की गरज से ‘ होल्कर ‘ पर आक्रमण किया । अंग्रेजों एवं होल्कर के बीच 7 जनवरी , 1806 को राजपुर घाट की सन्धि . राजपुरघाट की सन्धि के तहत चंबल नदी के उत्तर में अंग्रेजों का एवं दक्षिण में ‘ होल्कर ‘ का राज्य स्थापित हो गया । आंग्ल – मराठा युद्ध- II ( 1813-23 ई ० ) लॉर्ड हेस्टिंग्स के कार्यकाल में हुआ । अंग्रेजों एवं भोंसले सरदार अप्पा साहिब के बीच नागपुर की सन्धि हुई जिसके तहत ‘ नागपुर ‘ पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया ।
अप्पा साहिब ने फिर से संघर्ष किया परन्तु 1817 ई ० में सीताबर्डी के युद्ध में हार गया । -48 .
महीदपुर में 1817 ई ० में पेशवा भी पराजित हो गया , उसने पूर्णरूपेण हथियार डाल दिए । मंदसौर में 1818 ई ० के आरम्भ में होल्कर ने सहायक सन्धि स्वीकार कर ली । ‘ पूना ‘ का ब्रिटिश राज्य में विलय कर दिया गया । सम्पूर्ण महाराष्ट्र पर अंग्रेजों का अधिकार स्थापित हो गया तथा मराठा संघ पूर्णरूपेण समाप्त हो गया । रणजीत सिंह द्वारा छोड़े गये 4000 सैनिकों ने पंजाब में अराजकता फैलाने का कार्य किया । रणजीत सिंह के अल्प – वयस्क पुत्र दिलीप सिंह को सितम्बर , 1843 ई ० में महाराजा घोषित किया गया । रानी जिंदा को दिलीप सिंह का संरक्षक एवं हीरा सिंह को वजीर नियुक्त . किया गया । 1844 ई ० में आए गर्वनर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने पंजाब के गवर्नर मेजर ब्राडफुट को पंजाब से पेशावर तक ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित करने का निर्देश दिया । 13 दिसम्बर , 1845 ई ० में मुदकी में हुए आंग्ल – सिख युद्ध- II . ( 1845-46 ई ० ) सिख जीत सकते थे , परन्तु , तेज सिंह तथा लाल सिंह के विश्वासघात के कारण हार गये । सिखों एवं अंग्रेजों के बीच निर्णायक भिड़त सबराओं में 10 फरवरी , 1846 को हुई , जिसमें विश्वासघात के कारण सिक्ख हार गये । इस युद्ध के परिणामस्वरूप लाहौर पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया ।
9 मार्च , 1846 को सिक्खों एवं अंग्रेजों के बीच लाहौर की सन्धि हुई । इस सन्धि के तहत् सतलज पार के सिक्खों के तमाम प्रदेश अंग्रेजों के अधिकार में चले गये । 1848 में पंजाब कांउसिल के अध्यक्ष हेनरी लॉरेंस ने बड़ी संख्या में सेना को भंग कर दिया । इससे पंजाब में बेहद अराजक स्थिति उत्पन्न हो गई । उपर्युक्त घटना ने दूसरे आंग्ल – सिक्ख युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार की , जबकि मुल्तान के विद्रोह ने तात्कालिक कारण उत्पन्न किये । शेर सिंह के नेतृत्व में सिक्खों एवं कमांडर गफ के नेतृत्व में अंग्रेजों के बीच 13 जनवरी , 1849 को चिलियानवाला में आंग्ल – सिख युद्ध- II ( 1848-49 ई . ) हुआ । द्वितीय आंग्ल – सिख युद्ध अनिर्णीत रहा परन्तु , अंग्रेजों को अत्यधिक क्षति उठानी पड़ी । तीसरा आंग्ल – सिख युद्ध 21 फरवरी , 1849 को लड़ा गया । इस युद्ध में सिख बुरी तरह पराजित हुए एवं आत्मसमर्पण कर दिया । 29 मार्च , 1849 को लॉर्ड डलहौजी ने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर दिया । पानीपत के तृतीय युद्ध के पश्चात् ‘ पिंडारी ‘ मालवा में बस गये तथा मराठों के सहायक सैनिक की भूमिका निभाने लगे । 19 वीं शताब्दी के आरम्भ में , चीतू , वासिल मुहम्मद तथा करीम पिंडारियों के प्रमुख नेता थे । पिंडारियों द्वारा अंग्रेजी शासन के अधीन मिर्जापुर एवं शाहाबाद जिलों पर 1812 ई ० में आक्रमण किये गये । पिंडारियों ने 1815 ई ० में निजाम के राज्य तथा 1816 ई ० में उत्तरी सरकार को लूटा । तत्कालीन गर्वनर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स ने 1817 ई ० में पिंडारियों का दमन आरम्भ किया । 1824 ई ० तक पिंडारियों का पूर्णरूपेण सफाया हो गया । नेपाल 1768 ई ० में एक गोरखा राज्य के रूप में अस्तित्व में आया । 1814 ई ० में अंग्रेजों एवं गोरखों के बीच लॉर्ड हेस्टिंग्स के कार्यकाल में हुए संघर्ष में ‘ गोरखे ‘ हार गए । गोरखों एवं अंग्रेजों के बीच मार्च , 1816 ई ० में सुगौली की सन्धि हुई । सुगौली की सन्धि के तहत कुमाऊँ तथा गढ़वाल अंग्रेजों के अधिकार में आ गये ।
सुगौली को सन्धि क तहत गोरखे सिक्किम छोड़ने एवं काठमांडु में एक अंग्रेज रेजीडेंट रखने पर तैयार हो गये ।
1843 ई ० में चार्ल्स नेपियर ने सिंध पर आक्रमण कर दिया एवं इमामगढ़ का दुर्ग जीत लिया । 1843 ई ० के अन्त तक सम्पूर्ण सिन्ध का ब्रिटिश राज में विलय हो गया । ‘ लॉर्ड डलहौजी ‘ के कार्यकाल से पूर्व भरतपुर ( 1826 ई ० ) , कछार ( 1832 ई ० ) , कुर्ग ( 1834 ई ० ) एवं सिक्किम ( 1850 ई ० ) का विलय ब्रिटिश राज्य में हो चुका था । लॉर्ड डलहौजी के व्यपगत् सिद्धान्त ( Doctrine of Lapse ) के तहत् सतारा ( 1848 ई ० ) , बघात ( 1850 ई ० ) , उदयपुर ( 1852 ई ० ) , नागपुर ( 1854 ई ० ) , झांसी ( 1853 ई ० ) . अवध ( 1856 ई ० ) का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय हुआ । अंग्रेजी शासन के विरूद्ध 1768-1921 ई . के बीच कई विद्रोह हुए । • उपर्युक्त में 1857 का विद्रोह सबसे महत्वपूर्ण था । 1770 ई . में पड़े भयानक अकाल के प्रति अंग्रेज सरकार ने उदासीनता . बरती । . . . 1770 ई . में सन्यासियों की तीर्थयात्रा भी अंग्रेजें प्रतिबंधित कर दी । उपर्युक्त दोनों कारणों से सन्यासी विद्रोह ( 1770-1800 ई . ) हुआ । सन्यासी विद्रोह की जानकारी ‘ बंकिम चंद्र चटर्जी ‘ की आनंदमठ ( उपन्यास ) से होती है । 1768 ई . में अकल एवं भूमि – कर के विरोध में बंगाल के मिदनापुर जिले में चुआर विद्रोह हुआ । 1776-77 ई . में बंगाल में ‘ मजनू शाह एव चिराग अली ‘ के नेतृत्व में फकीर विद्रोह ( 1776-77 ई . ) हुआ । ब्रिटिश भूमि – कर व्यवस्था के खिलाफ ‘ वीर काट्टावायान ‘ के नेतृत्व में तमिलनाडु में पॉलीगार विद्रोह ( 1799-1809 ई . ) हुआ । ट्रावणकोर रियासत में 1805 ई . में सहायक संधि के विरोध में दीवान वेलूथम्पी का विद्रोह हुआ । भारत के पश्चिमी घाट में स्थित ‘ खान देश ‘ ‘ सेवरम ‘ के नेतृत्व में झील विद्रोह ( 1812-46 ई . ) हुआ । पश्चिमी घाट पर निवास करने वाली ‘ रामोसी ‘ जाति ने ‘ सरदार चित्तर सिंह के नेतृत्व में रामोसी विद्रोह ( 1822-29 ई . ) किया । 1828 ई . में ‘ गोमधर कुंवर ‘ के नेतृत्व में अहोम राज्य हथियाने के विरोध में अहोम विद्रोह हुआ । बरासात ( बंगाल ) में ‘ टीट मीर ‘ के नेतृत्व में दाढ़ी पर कर लगाए जाने . के विरोध में वहाबी विद्रोह ( 1831 ई . ) हुआ । 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बढ़े भूमि कर एवं क्षेत्र में मुसलमानों एवं सिखों को बसाने के विरोध में ‘ नारायण राव ‘ के नेतृत्व में झारखंड क्षेत्र में कोल विद्रोह ( 1831-32 ई . ) हुआ । पूर्वोत्तर भारत में ‘ राजा तिरूत सिंह के नेतृत्व में खासी विद्रोह ( 1838 ई . ) हुआ । बंगाल के ढ़ाका एवं फरीदपुर जिलों में ‘ हाजी शरीयतुल्ला एवं दादू मिया ‘ के नेतृत्व में भूमि – कर शोषण के विरूद्ध फरायजी आंदोलन ( 1838-57 ई . ) हुआ । भूमि अधिकारी , जमीन्दार तथा साहूकारों के अत्याचार के खिलाफ ‘ सिद्ध कान्हू ‘ के नेतृत्व में संथाल परगना में संथाल विद्रोह ( 1855-56 ई . ) हुआ ।
संथाल विद्रोह के 1856 ई . में कमीश्नर ब्राउन एवं जनरल लॉयड ने दबाने में सफलता प्राप्त की । जमींदारों , ठेकेदारों , अनियों , सूदखोरों एवं अंग्रेजों के अत्याचार के विरूद्ध दक्षिणी छोटानागपुर के आदिवासियों ने मुंडा विद्रोह ( 1898-1900 ई . ) किया । मुंडा विद्रोह को नेतृत्व बिरसा मुंडा ने प्रदान किया । बिरसा मुंडा ने उलगुलान की उपाधि धारण की तथा स्वयं को ईश्वर का दूत घोषित किया । मुंडा विद्रोह को 1900 ई . तक दबा दिया गया । उड़ीसा में ‘ जगबंधु बख्शी ‘ के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरूद्ध पाइक विद्रोह ( 1817-25 ई . ) हुआ ।
आंध्र प्रदेश के तटवर्ती क्षेत्रों के आस – पास निवास करने वाले आदिवासियों ने रम्पा विद्रोह ( 1879 ई . ) किया ।
कच्छ एवं काठियावाड़ में राजा भारमल को अपदस्थ किए जाने के कारण उसके समर्थकों ने 1819 ई . एवं 1831 ई . में कच्छ विद्रोह . किया । सूरत में नमक कर 50 पैसे से बढ़ाकर | रुपया किए जाने के विरोध में सूरत का नमक विद्रोह ( 1844 ई . ) हुआ । उपर्युक्त विद्रोह की प्रचंडता देखकर अंग्रेजी सरकार ने कर – वृद्धि वापस ले ली । 9 वीं शताब्दी में ‘ दक्षिणी मालाबार ( केरल ) ‘ के मुसलमान पट्टेदारों तथा खेतिहरों को मोपला कहा जाता था । अंग्रेजों ने मालाबार में ‘ स्थाई बंदोबस्त ( Permanent settlement ) ‘ स्थाई बंदोबस्त के कारण जमींदारों के अधिकार बढ़ गए एवं उन्होंने मालाबार के मोपला किसानों को भूमि से बेदखल करना आरंभ कर दिया । उपर्युक्त के विरोध में ‘ सैयद अली मुसलियार ‘ के नेतृत्व में मोपला विद्रोह ( 1836-21 ई . ) हुआ । भारत में अंग्रेजों के विरूद्ध पहला बड़ा विद्रोह 1857 का विद्रोह था । 1857 के विद्रोह की शुरुआत मेरठ में 10 मई 1857 को हुई । 1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारण नई एनफील्ड राइफलों में चर्बीदार कारतूसों ( गाय एवं सुअरों की ) का उपयोग था । 29 मार्च , 1857 ई ० को मंगल पाण्डे ने अपने एजुटेंट पर बैरकपुर ( पश्चिम बंगाल ) में आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी । मंगल पाण्डे को सार्जेंट मेजर पर गोली चलाने के जुर्म में 8 अप्रैल 1857 को फाँसी दे दी । 1857 की क्रांति की शुरूआत 10 मई , 1857 को मेरठ की पैदल टुकड़ी 20 नेटिक्इन्फैन्ट्री द्वारा हुई । 11 से 30 मई , 1857 की अवधि में दिल्ली , फीरोजपुर , बम्बई , अलीगढ़ , इटावा , बरेली , मुरादाबाद एवं उत्तर प्रदेश के कई नगरों में विद्रोह का प्रसार हुआ । दिल्ली में विद्रोहियों ने अन्तिम मुगल बादशाह बहादुशाह जफर- II को भारत का सम्राट घोषित कर दिया । जून , 1857 में ग्वालियर , भरतपुर , झाँसी , इलाहाबाद , फैजाबाद , सुल्तानपुर एवं लखनऊ आदि में विद्रोह फैल गया । अगस्त , 1857 ई . तक जगदीशपुर ( बिहार ) इंदौर , सागर एवं नर्मदा घाटी . में विद्रोह का प्रसार हुआ । सितम्बर , 1857 ई ० में दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया , परन्तु मध्य – भारत में विद्रोह हो गया । मई 1858 ई ० तक अंग्रेजों का कानपुर , लखनऊ , झाँसी आदि पर अधि कार हो गया । जुलाई – दिसम्बर , 1858 ई ० तक सम्पूर्ण भारत में विद्रोह को दबा दिया गया एवं अंग्रेजी राज की पुनर्स्थापना कर दी गई ।
बंगाल में ‘ दिगंबर एवं विष्णु विश्वास ‘ के नेतृत्व में नीलहा – किसानों पर अत्याचार के विरूद्ध नील विद्रोह ( 1859-61 ई . ) हुआ । 1859 ई . के नील विद्रोह का विवरण ‘ दीनबंधु मित्रा ‘ की चर्चित पुस्तक नील दर्पण में मिलता है । बाद में हिन्दू पैट्रियॉट ‘ के हरीशचंद्र मुखर्जी ने उपर्युक्त आंदोलन को समर्थन दिया । जमीन्दारों की ज्यादती के खिलाफ ‘ यूसुफसराय ‘ के कृषक – संघ ने पाबना विद्रोह ( 1859-61 ई . ) किया । मारवाड़ी एवं गुजराती साहुकारों के शोषण के खिलाफ दक्कन विद्रोह ( 1875-79 ई . ) हुआ । उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में लगान – वृद्धि के विरोध में ‘ बाबा रामचंद्र ‘ के नेतृत्व में किसान आंदोलन ( 1920 ई . ) हुआ । बाबा राम चंद ने 1920 ई . में अवध किसान सभा की स्थापना की । अवध किसान सभा को जवाहर लाल नेहरू , गौरीशंकर मिश्र तथा केदारनाथ जैसे राष्ट्रवादियों का समर्थन मिला । पंजाब में कृषि से संबंधित समस्याओं खलाफ जवाहर मल एवं बाबा राम सिंह के नेतृत्व में कूका आंदोलन ( 1872 ई . ) हुआ । ऊँची लगान एवं चौकीदारी कर के विरूद्ध झारखंड में ‘ जतरा भगत ‘ के नेतृत्व में ताना भगत आंदोलन ( 1914 ई . ) हुआ । ऊँची भूमि – कर के विरोध में ‘ कंपा राम सिंह एवं भुवन सिंह ‘ के नेतृत्व में तेभागा आंदोलन ( 1946 ई . ) हुआ । जमींदारों , साहुकारों एवं सूदखोरों के शोषण के विरूद्ध आंध्र प्रदेश के किसानों ने तेलंगाना आंदोलन ( 1946 ई . ) किया । अंग्रेजों के विशाल भारतीय साम्राज्य का प्रशासन 1757 ई . से 1857 ई . तक ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में रहा । 1857 ई . से 1947 ई . भारत में अंग्रेजी साम्राज्य प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश क्राउन के अधीन था । दोनों ही प्रशासन में भारत के प्रशासन के रूप में गवर्नर , गवर्नर जेनरल एवं वायरायों की नियुक्ति हुई । 1773 ई . के रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के अनुसार बंगाल का गवर्नर , बंगाल का गवर्नर जेनरल हो गया । रेग्यूलेटिंग ऐक्ट , 1773 के तहत मद्रास एवं बंबई गवर्नर को ‘ बंगाल के गवर्नर जेनरल ‘ के अधीन कर दिया गया । 1774 ई ० में वारेन हेस्टिंग्स बंगाल का प्रथम गवर्नर जेनरल बनाया गया ।
1833 ई ० में चार्टर एक्ट के प्रावधानों के अनुसार बंगाल के गवर्नर जेनरल को भारत का गवर्नर जेनरल बनाया गया । लार्ड विलियम बेंटिक भारत का प्रथम गवर्नर जेनरल बना । अधिनियम 1858 के द्वारा गवर्नर जनरल को वायसराय की उपाधि दी गई । भारत का प्रथम वायसराय लार्ड कैनिंग था , वह भारत का अन्तिम गवर्नर जेनरल भी था । 1750 ई . में बारेन हेस्टिंग्स ( 1772-85 ई . ) ईस्ट इंडिया कंपनी के क्लर्क के रूप में कलकता पहुंचा । अपनी कार्यकुशलता से वारेन हेस्टिंग्स कासिम बाजार का अधीक्षक बन गया । वारेन हेस्टिंग्स 1772 ई . में बंगाल का गवर्नर तथ 1773 ई . ‘ बंगाल का गवर्नर जेनरल ‘ बना ।
वारेन हेस्टिंग्स के काल में पिटस इण्डिया एक्ट , रोहिला युद्ध , रोहिल खण्ड पर अधिकार , प्रथम मराठा युद्ध , सलवाई की सन्धि तथा द्वितीय मैसूर युद्ध इत्यादि हुए ।
. . 1772 ई ० में वारेन हेस्टिंग्स ने क्लाइव द्वारा लागू की गई द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त कर दिया ।
वारेन हेस्टिंग्स ने 1772 ई . में प्रत्येक जिले में दीवानी एवं एक फौजदारी न्यायालय की स्थापना की । वारेन हेस्टिंग्स ने 1781 में भारत में प्रथम मदरसा , कलकत्ता मदरसा की स्थापना की । वारेन हेस्टिंग्स के शासनकाल में 1782 ई ० में जोनाथन डंकन ने बनारस में एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना की । 1776 ई ० में वारेन हेस्टिंग्स के शासनकाल में Code of Gentoo Laws नामक पुस्तक का संस्कृत अनुवाद प्रकाशित हुआ । 1781 ई ० में वारेन हेस्टिंग्स के काल में विलियम जोंस तथा कोलबुक की Digest of Hindu Laws का प्रकाशन हुआ । 1784 ई ० में हेस्टिंग्स के काल में सर विलियम जोंस द्वारा कलकत्ता में . Royal Asiatic society की स्थापना की गई । वारेन हेस्टिंग्स ने चार्ल्स विलिकिंस द्वारा किये गए गीता के प्रथम अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना लिखी । चार्ल्स विलिकिंस ने फारसी तथा बांग्ला मुद्रण के लिए ढलाई के अक्षरों का आविष्कार किया । वारेन हेस्टिंग्स के कार्यकाल में 1778 ई ० में हॉलहेड ने ‘ संस्कृत . व्याकरण ‘ प्रकाशित किया । वारेन हेस्टिंग्स ने फतवा – ए – आलमगीरी नामक ग्रन्थ का अनुवाद करवाने का प्रयास किया । 1781 ई ० में वारेन हेस्टिंग्स के कार्यकाल में विलियम जोंस एवं कोलबुक • ने Digest of Hindu Laws प्रकाशित की । वारेन हेस्टिंग्स ने कलकत्ता में एक टकसाल का निर्माण कराया । हेस्टिंग्स ने मुगल सम्राट को मिलने वाली 26 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन बन्द कर दी एवं इलाहाबाद तथा ‘ कड़ा ‘ जिले अवध के नवाब को सौंप दिये । वारेन हेस्टिंग्स के काल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को नमक के व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त हुआ । 1784 ई . में वारेन हेस्टिंग्स के कार्यकाल में बंगाल में अरेबिक सोसायटी . की स्थापना की गई । वारेन हेस्टिंग्स ने इण्डिया क्ट ( 1784 ई . ) के विरोध में त्यागपत्र दे दिया एवं फरवरी 1785 में वह इंग्लैण्ड चला गया । वारेन हेस्टिंग्स जब 1785 ई ० में वापस इंग्लैण्ड लौटा तो उस पर ब्रिटिश संसद में महाभियोग चलाया गया । अभियोग लगाने वालों में फॉक्स एवं बर्क प्रमुख वक्ता थे ।
1795 ई ० में हेस्टिंग्स को महाभियोग के सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया । वारेन हेस्टिंग्स के समय में प्रथम एवं द्वितीय आंग्ल – मराठा युद्ध लड़े गए । 1786 ई ० में कम्पनी ने लार्ड कार्नवालिस ( 178-98 ई . ) को पिट्स . इण्डिया एक्ट के अन्तर्गत गवर्नर जनरल बनाकर भारत भेजा । लार्ड कार्नवालिस ने न्याय प्रशासन में सुधार के लिए ‘ कार्नवालिस कोड ‘ का निर्माण करवाया । ‘ कॉर्नवालिस कोड ‘ के अन्तर्गत राजस्व प्रशासन को न्याय प्रशासन से . अलग कर दिया गया ।
लार्ड कार्नवालिस को सिविल ( नागरिक ) सेना का जन्मदाता माना जाता .
कैनिंग ने इंडियन हाईकोर्ट एक्ट के अन्तर्गत बंबई , कलकत्ता तथा मद्रास में एक – एक उच्च न्यायालय की स्थापना की । कैंनिग के शासनकाल में शिक्षा विभाग खोला गया । कैनिंग के काल में 1857 में कलकत्ता , बंबई और मद्रास विश्वविद्यालय की स्थापना हुई । कैनिंग के शासनकाल में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम -1856 पारित हुआ । मैकॉले द्वारा प्रस्तावित भारतीय दंड सहिता -1858 ( Indian penal code ) को कानून बना दिया गया । कैनिंग के शासनकाल में 1861 ई . में एक भयंकर अकाल पड़ा । 1859-60 ई ० में नील उगाने वाले यूरोपीय और बंगाल के कृषकों के बीच झगड़े हुए । लॉर्ड कैनिंग के समय व्यपगत सिद्धान्त ( Doctrine of Lapase ) यानी राज्य – विलय की नीति को समाप्त कर दिया गया । कैनिंग के बाद 1862 ई . में वायसराय बनें लॉर्ड एल्गिन ( 1862-63 ई . ) बहावी आन्दोलन का दमन किया । लॉर्ड एल्गिन के उपरान्त लार्ड जॉन लॉरेंस ( 1864-63 ई . ) ने भारत का वायसराय बना । लारेंस ने चेम्बवेल हेनरी की अध्यक्षता में एक अकाल आयोग का गठन किया । भारतीय जनपद सेवा में भर्ती होने वाले प्रथम भारतीय सत्येन्द्र नाथ टैगोर थे । सत्येन्द्र नाथ टैगोर की भारतीय जनपद सेवा में भर्ती लॉर्ड लॉरस के शासनकाल में 1864 ई . में हुई । लारेंस ने 1865 ई . में भारत तथा यूरोप के बीच प्रथम समुदी टेलीग्राफ सेवा की शुरूआत की । लॉरेंस ने अफगानिस्तान के सम्बन्ध में अहस्तक्षेप की नीति अपनाई , जिसे शानदार निष्क्रियता के नाम से जाना जाता है । लॉरेंस के बाद लॉर्ड मेयो ( 1869-72 ई . ) भारत का वायसराय बना ।
लॉर्ड मेयो ने अजमेर में मेयो कॉलेज की स्थापना की । 1872 ई ० में मेयो के शासनकाल में पहली बार भारत में प्रायोगिक जनगणना कराई गई । 1872 ई ० में एक अफगान ने अंडमान में मेयो की चाकू मारकर हत्या कर दी । पंजाब का प्रसिद्ध ‘ कूका आंदोलन ‘ लॉर्ड नॉर्थब्रुक ( 1872-76 ई . ) के शासनकाल में हुआ । नार्थब्रुक के शासनकाल में स्वेज नहर के खुल जाने से भारत – ब्रिटेन व्यापार में भारी वृद्धि हुई । सर रिचर्ड स्ट्रेची के अध्यक्षता में अकाल आयोग का गठन लॉर्ड लिटन ( 1876-80 ई . ) ने किया । भारतीय समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस अधिनियम लॉर्ड लिटन ने पारित किया । लिटन ने भारतीयों को सिविल सर्विस में प्रवेश से रोकने के उद्देश्य से परीक्षा की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दिया । ब्रिटिश संसद ने लिटन के शासनकाल में राज उपाधि अधिनियम ( Royal Tities Act ) -1876 पारित किया । लिटन के काल में ‘ भारतीय शस्त्र अधिनियम ‘ 1878 ई . में पारित किया गया । लॉर्ड रिपन ( 1880-84 ई . ) ने भारत में स्थानीय स्वशासन की शुरूआत रिपन ने समाचारपत्रों की स्वतन्त्रता को बहाल करते हुए 1882 ई . में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट को समाप्त कर दिया । लिटन सिविल सेवा में प्रवेश की आयु को 19 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष कर दिया । लार्ड रिपन ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार लाने के उद्देश्य से विलियम हण्टर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया ।
रिपन के शासनकाल में 1881 ई . में सर्वप्रथम भारत में प्रथम नियमित जनगणना करवायी गई ।
रिपन द्वारा ही 1881 ई . में पहला कारखाना अधिनियम ( First Factory Act ) लागू किया गया ।
रिपन के समय में इलबर्ट विधेयक लाया गया , यह विधेयक फौजदारी दण्ड व्यवस्था से संबंधित था ।
इलबर्द बिल विवाद
. पूर्व में यूरोपीयों के मुकदमों की सुनवाई भारतीय न्यायाधीशों द्वारा नहीं होती थी । . इस भेदभाव को समाप्त करने के लिए रिपन के एक काउंसिल के सदस्य सी ० पी ० इलबर्ट ने एक बिल प्रस्तुत किया , जिस पर अंग्रेजों ने विद्रोह कर दिया इसे श्वेत विद्रोह ( White revolt ) कहा गया । . परिणामस्वरूप इल्बर्ट बिल वापस लेना पड़ा । लार्ड रिपन को भारतीय गवर्नर जनरल या वायसरायों में सबसे उदार था , अतः फ्लोरेंस नाइटिंगल ने रिपन को भारत के उद्धारक को संज्ञा दी । लार्ड रिपन के बाद 1884 ई . में लार्ड डफरिन ( 1884-88 ई ० ) गवर्नर जेनरल बना । लार्ड डफरिन के काल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 ई . में ए ० ओ ० ह्यूम के प्रयासों से हुई । डफरिन के समय बंगाल टेनेन्सी एक्ट , पंजाब टेनेन्सी एक्ट , अवध टेनेन्सी एक्ट पारित हुआ । 1888 ई ० में लॉर्ड लैन्सडाउन ( 1888-94 ई ० ) भारत का वायसराय बना ।
लॉर्ड लैन्सडाउन ने भारत और अफगानिस्तान के बीच सुनिश्चित कराया । ” भारत को तलवार के बल पर विजित किया गया है और तलवार के बल पर ही इसकी रक्षा की जाएगी ” यह वक्तव्य ‘ लार्ड एल्गिन- II ‘ ( 1894-99 ई . ) ने दिया था । एल्गिन- II के बाद लॉर्ड कर्जन ( 1889-1905 ई . ) भारत का वायसराय बना । Hai लॉर्ड कर्जन पुलिस सुधार के लिये 1902 में ‘ सर एण्ड्यू फ्रेजर ‘ की अध्यक्षता में एक पुलिस आयोग की स्थापना की । लॉर्ड कर्जन ने 1904 ई . में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पास किया गया । कर्जन के कार्यकाल में सैन्य अफसरों के प्रशिक्षण के लिए इंग्लैण्ड के किम्बरले कॉलेज की तर्ज पर क्वेटा में एक कॉलेज खोला गया । लॉर्ड कर्जन ने 1899 ई . के कलकत्ता कॉरपोरशन ऐक्ट पारित किया । कलकत्ता कॉर्प ० ऐक्ट के तहत निगम में चुने हुए सदस्यों की संख्या कम एवं अंग्रेजों की संख्या अधिक कर दी गई । लार्ड कर्जन द्वारा भारत में पहली बार प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम 1901 पारित करवाया गया । लॉर्ड कर्जन ने 1905 ई ० में बंगाल का विभाजन किया । 1901 ई ० में विक्टोरिया मेमोरियल हॉल का निर्माण लॉर्ड कर्जन ने कलकत्ता में करवाया । लॉर्ड मिन्टो ( 1905-10 ई . ) के काल में बंगाल विभाजन विरोधी एवं स्वदेशी आन्दोलन ( 1906 ई ० ) तथा सूरत में काँग्रेस का विभाजन ( 1907 ई ० ) हुआ । माले मिन्टो सुधार ( 1909 ई ० ) अथवा भारतीय परिषद अधिनियम लॉर्ड मिन्टो के शासनकाल में लाया गया । मिटरों के काल में ढाका में सलीमुल्लाह , आगा खाँ एवं उनके साथियों द्वारा मुस्लिम लीग की स्थापना हुई । बंगाल विभाजन 1911 ई ० में लॉर्ड हार्डिंग- II ( 1910-15 ई . ) द्वारा समाप्त कर दिया गया । लाई हार्डिंग ने 1912 ई . में राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानान्तरित किया । 23 दिसम्बर , 1912 को दिल्ली में लॉर्ड हार्डिंग पर बम से हमला किया गया ।
विश्वयुद्ध- लॉर्ड हार्डिंग -11 के कार्यकाल में आरम्भ हुआ ।
1916 ई . में लॉर्ड हार्डिंग- || को बनारस हिन्दू विश्वद्यिालय ( BHU ) का कुलाधिपति नियुक्त किया गया । 1919 का ‘ रॉलेट ऐक्ट ‘ लॉर्ड चेम्सफोर्ड ( 1916-21 ई . ) के कार्यकाल में वारित हुआ 13 अप्रैल , 1919 का जालियाँवाला बाग कांड , लॉर्ड चेक्सफोर्ड के शासनकाल में घटित हुआ । 1917 ई ० में शिक्षा पर ‘ सैडलर अयोग ‘ का गठन चेक्सफोर्ड के काल में किया गया । पुना में एक महिला विश्वविद्यालय की स्थापना 1916 ई . में चेक्सफोर्ड के काल में हुई । 1919 ई ० के भारत सरकार अधिनियम मांटेग्यू – चेम्सफोर्ड सुधार भी लॉर्ड चेम्सफोर्ड के काल में लाये गये । लॉर्ड रीडिंग ( 1921-26 ई . ) के काल में चौरी – चौरा घटना घटी ( 5 फरवरी 1922 ) और उसके कारण गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन । वापस लिया गया । र रीडिंग के कार्यकाल में प्रिंस ऑफ वेल्स ने नवम्बर 1921 ई ० में भारत की यात्रा की । . इसके शासनकाल में 1922 ई . में विश्व भारतीय विश्वविद्यालय ने कार्य करना प्रारम्भ किया । लॉर्ड रीडिंग के काल में रॉलेट एक्ट रद्द कर दिया गया । 1923 में भारतीय सिविल सेवा में इंग्लैंण्ड एवं भारत दोनों स्थानों पर एक 1 साथ परीक्षा की शुरूआत लॉर्ड रीडिंग के काल में की गई । 1925 ई . में प्रसिद्ध आर्यसमाजी राष्ट्रवादी स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या T लॉर्ड रीडिंग के काल में हुई । लॉर्ड इरविन ( 1926-31 ई . ) के काल में सविनय अवज्ञा आन्दोलन की शुरूआत हुई । 5 मार्च 1931 को गाँधी – इरविन समझौते के उपरान्त सविनय अवज्ञा आन्दोलन समाप्त कर दिया गया । लंदन में 1 सितम्बर से 1 दिसम्बर 1931 ई ० तक द्वितीय गोलमेज सम्मेलन का आयोजन लॉर्ड विलिंग्टन ( 1931-36 ई . ) के काल में हुआ । की लार्ड विलिंग्टन के समय ही अगस्त 1932 में मैकडोनाल्ड ने प्रसिद्ध सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा की । या विलिंग्टन के शासनकाल में 1932 ई . में गोलमेज सम्मेलन -1 || का भी आयोजन हुआ । के विलिंग्टन के शासनकाल में गवर्मेंट ऑफ इण्डिया ऐक्ट -1935 पारित हुआ । । 1942 ई . में भारत छोड़ो आन्दोलन की शुरूआत लॉर्ड लिनलिथगो के -म समय में हुई थी । लॉर्ड वेवेल ( 1944-47 ई . ) के समय 1945 ई . में शिमला समझौता हुआ । म लार्ड वेवेल के समय ही भारत को जून 1948 के पहले स्वतन्त्र करने की घोषणा तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमन्त्री लॉर्ड क्लीमेन्ट एटली ने की । लॉर्ड माउन्टबेटन ( मार्च , 1947 – जून , 1948 ) के समय में 4 जून 1947 को भारतीय स्वतन्त्रता विधेयक एटली द्वारा ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत किया गया । ने लार्ड माउन्टबेटन के समय में ही भारत स्वतन्त्र हुआ तथा भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान का निर्माण हुआ । एवं स्वतन्त्र भारत का प्रथम एवं अन्तिम विदेशी / ब्रिटिश गवर्नर जेनरल लार्ड नन माउन्टबेटन था । परतन्त्र भारत का अन्तिम वायसराय लार्ड माउन्टबेटन था । ॉर्ड स्वतन्त्र भारत के प्रथम एवं अन्तिम भारतीय गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी हुए ।
. . राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा गया है ।
1828 ई ० में राजा राममोहन राय ने ‘ ब्रह्म समाज ‘ की स्थापना की । ब्रह्म समाज ने मूर्ति पूजा तथा बलि प्रथा का विरोध किया । 1843 ई ० में देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्म समाज का नेतृत्व सम्भाला । देवेन्द्र नाथ टैगोर ने केशवचन्द्र सेन ( 1834-84 ई ० ) को ब्रह्म समाज का आचार्य नियुक्त किया । केशव चन्द्र के अतिशय उदारवाद के कारण ब्रह्म समाज मूल ब्रह्म समाज ( डी ० एन ० टैगोर ) तथा आदि ब्रह्म समाज ( के ० सी ० सेन ) में विभाजित हो गया । बाद में केशव चन्द्र सेन ने ‘ आदि ब्रह्म समाज ‘ से अलग होकर साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना की । दक्कन क्षेत्र में ब्रह्म समाज की नीतियों के प्रसार के लिए गोपाल हरि देशमुख द्वारा 1849 ई ० में परमहंस सभा की स्थापना महाराष्ट्र में की गई । गोपाल हरि देशमुख को लोकहितवादी भी कहा जाता है । 1867 ई . में केशव चन्द्र सेन की प्रेरणा पर बंबई में प्रार्थना समाज की स्थापना हुई । एम ० जी ० राणाडे , एन ० जी ० चन्द्रावरकर तथा आत्मा राम पांडुरंग प्रार्थना समाज के संस्थापक थे । प्रार्थना समाज ने दलित जाति मिशन ( Depressed class Mission ) तथा समाज सेवा संघ ( social service League ) की स्थापना की । महाराष्ट्र में वीडो रिमैरेज एसोसिएशन तथा दक्कन शिक्षा सभा ( Deccan Educational Society ) की स्थापना ‘ एम . जी . राणाडे द्वारा की गई । गोपालकृष्ण गोखले ( राणाडे के शिष्य ) ने भारत सेवक समाज ( Servants of India society ) की स्थापना की । . . . . |
आर्य समाज की स्थापना बंबई ( मुंबई ) में 1875 ई . में की गई । स्वामी दयानन्द सरस्वती आर्य समाज के संस्थापक थे । स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म मौरवी ( काठियावाड़ , गुजरात ) में 1824 ई . में हुआ । दयानंद के बचपन का नाम मूल शंकर था , उनका निधन अजमेर में 1883 ई . में हुआ । स्वामी दयानन्द ने स्वामी विरजानन्द ( मथुरा ) से ‘ वेद ‘ एवं ‘ हिन्दू दर्शन ‘ की शिक्षा ग्रहण की । स्वामी दयानन्द ने अपना प्रथम उपदेश आगरा में दिया । स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश नामक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की । . स्वामी दयानन्द ने 1882 ई ० में गोरक्षिणी सभाओं की स्थापना की । स्वामी दयानन्द ने वेदों की ओर लौट चलो ( Go back to vedas ) का नारा दिया । स्वामी दयानन्द ने हिन्दू धर्म छोड़ चुके लोगों को वापस इस धर्म में लाने के लिए शुद्धि एवं समागम आन्दोलन चलाया । स्वामी दयानन्द का मानना था – बुरे – से – बुरा देशी राज , अच्छे – से – अच्छे . देश के विभिन्न भागों में विदेशी राज से बेहतर होता है । स्वामी दयानन्द ने स्वदेशी एवं राजनीतिक स्वतन्त्रता के परिप्रेक्ष्य में India for Indians का नारा दिया । शिक्षा के प्रसार के लिए 1886 ई ० में आर्य समाज द्वारा लाहौर में दयानन्द – द एंग्लो वैदिक ( DAV ) स्कूल की स्थापना की गई । भविष्य में सम्पूर्ण देश में DAV स्कूलों की श्रृंखला स्थापित हुई । दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल DAV College में 1889 ई . में तब्दील हो गया । आर्य समाज ने मूर्ति – पूजा , बहुदेववाद , अवतारवाद , पशुबलि , श्राद्ध , झूठे कर्मकाण्ड आदि का विरोध किया ।
1902 ई ० में स्वामी श्रद्धानन्द ने ‘ हरिद्वार ‘ के समीप गुरूकुल कांगड़ी स्थापना की । रामकृष्ण परमहंस ( 1884-86 ई . ) के शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने 1897 ई . में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की । रामकृष्ण मिशन की स्थापना वराह नगर ( कोलकाता ) में हुई तथा बाद में इसका मुख्यालय बेलूर मठ ( कोलकाता ) ले जाया गया । स्वामी विवेकानन्द का जन्म 1862 ई . में हुआ , इनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था । स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म के पुनरूत्थान के उद्देश्य से ‘ रामकृष्ण मिशन ‘ की स्थापना की । रामकृष्ण मिशन ने निराकार ईश्वर की भक्ति एवं एकेश्वरवाद का प्रचार किया ।
स्वामी विवेकानन्द ने 1893 ई . में शिकागो ( अमेरिका ) में आयोजित .
अंग्रेजों की भू – राजस्व नीति
( British Land Revenue Policy )
अंग्रेजों ने भारत में तीन प्रकार की भू – राजस्व व्यवस्था विकसित की 1. स्थाई बंदोबस्त , 2. रैय्यबाड़ी , 3. महालबाड़ी । स्थायी बन्दोबस्त ( Permanent Settlement ) , समरत भारत की 19 % न्या भूमि पर लागू की गई । स्थाई बंदोबस्त व्यवस्था लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा 1793 ई ० में बंगाल , बिहार , उड़ीसा , बनारस एवं उत्तरी कर्नाटक में लागू की गई ।
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन
भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रारम्भ 1885 ई ० में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना से हुआ । . 1836 ई ० में पहली राजनीतिक संस्था बंग प्रकाशक सभा की स्थापना की गई । 1838 ई ० में बंगाल के जमींदारों ने लैण्ड होल्डर्स सोसायटी की स्थापना की । 1843 ई ० में एक अन्य राजनीतिक सभा बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसायटी बनी । 28 अक्टूबर , 1851 को ब्रिटिश इण्डिया एसोसिएशन कलकत्ता में बनाया गया । महादेव गोविन्द राणाडे ने 1870 ई ० में पूना में पूना सार्वजनिक सभा या- गठित की । . दादा भाई नौरोजी ने 1866 ई ० में लंदन में ईस्ट इण्डिया एसोसिएशन की स्थापना की । 1859 ई ० में मद्रास नेटिव एसोसिएशन बनाई , जो यह कलकत्ता की ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की एक शाखा थी । 1884 ई ० में मद्रास महाजन सभा गठित की गई । . .
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1875 ई ० में कलकत्ता में ‘ शिशिर कुमार घोष ‘ ने एक संस्था इंडियन लीग का गठन किया । 26 जुलाई , 1875 को ‘ इंडियन लीग ‘ का स्थान इंडियन एसोसिएशन ने इंडियन एसोसिएशन के संस्थापक सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा आनन्द मोहन बोस थे । 1885 ई ० में फिरोजशाह मेहता , के ० टी ० तेलंग एवं बदरुद्दीन तैय्यबजी के प्रयासों से बंबई में एक अन्य संगठन बॉम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन की स्थापना की । भारत का राष्ट्रीस आंदोलन तीन चरणों में हुआ ( 1885-1905 ई . ) , 2. द्वितीय चरण ( 1905-19 ई . ) , 3. तृतीय चरण 1. प्रथम चरण ( 1919-47 ई . ) भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रथम चरण की मुख्य घटना 1885 ई ० में ए.ओ. ह्यूम द्वारा भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना थी । कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन 28 दिसम्बर , 1885 ई ० को बम्बई स्थित To गोकुलदास तेजपाल संस्कृत विद्यालय में हुआ था ।
कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष व्योमेशचन्द्र बनर्जी थे । उपर्युक्त अधिवेशन में 72 प्रतिनिधि शामिल हुए । काँग्रेस की स्थापना के समय लॉर्ड डफरीन भारत का वायसराय था । काँग्रेस के प्रथम मुस्लिम अध्यक्ष 1887 ई ० में मद्रास में आयोजित ‘ तीसरे ‘ अधिवेशन में बदरुद्दीन तैय्यबजी हुए । काँग्रेस के प्रथम अंग्रेज अध्यक्ष 1888 ई ० में इलाहाबाद के चौथे अधि वेशन जॉर्ज यूले बने । काँग्रेस के अध्यक्षों में गैर – भारतीयों की संख्या 6 थी , जिनमें विलियम वेडरबर्न को दो बार भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का अध्यक्ष बनने का श्रेय प्राप्त है । काँग्रेस का अध्यक्ष बनने वाली प्रथम महिला / गैर – भारतीय महिला होने का श्रेय एनी बेसेंट को 1917 ई ० में कलकत्ता में आयोजित ’33 वें ‘ अधि वेशन में मिला । काँग्रेस का अध्यक्ष बनने वाली प्रथम भारतीय महिला होने का श्रेय सरोजिनी नायडू को 1925 ई ० में कानपुर में आयोजित ’41 वें ‘ अधि वेशन में प्राप्त हुआ । भारतीय पुरुषों में सर्वाधिक 4 बार काँग्रेस का अध्यक्ष बनने का श्रेय पं ० जवाहर लाल नेहरू को प्राप्त है । राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने सिर्फ एक बार वेलगाँव में काँग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता की जो 1924 ई ० में आयोजित हुआ । देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ ० राजेन्द्र प्रसाद ने भी एक बार 1934 ई ० में बंबई में आयोजित ’49 वें ‘ अधिवेशन में काँग्रेस की अध्यक्षता की । काँग्रेस के इतिहास में दिसंबर1920 में नागपुर अधिवेशन सबसे बड़ा अधिवेशन था , इसमें 14582 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया ।
जिस वक्त भारत आजाद हुआ ( 15 अगस्त , 1947 को ) , उस वक्त काँग्रेस के अध्यक्ष आचार्य जे ० बी ० कृपलानी थे ।
प्रथम चरण ( 1885-1905 ई ० )
काँग्रेस की स्थापना के बाद अगले 20 वर्षों तक उसकी नीति अत्यन्त उदार थी । इसे बाद के उग्रपन्थी नेताओं ने राजनीतिक भिक्षावृत्ति ( Political Mendicancy ) ELI उदारवादियों में प्रमुख नेता थे – दादाभाई नौरोजी , सुरेन्द्रनाथ बनर्जी , फिरोजशाह मेहता , गोविन्द रानाडे , दीनशा वाचा , गोपालकृष्ण गोखले , मदनमोहन मालवीय आदि । उदारवादियों का उद्देश्य संवैधानिक तरीके से भारत को स्वतन्त्रता दिलाना था । उदारवादियों की मुख्य उपलब्धि अंग्रेजों द्वारा पारित 1892 का भारतीय परिषद् अधिनियम था ।
उदारवादियों के काल में काँग्रेस का व्यापक प्रसार हुआ और उसकी लोकप्रियता में काफी वृद्धि हुई । .
1889 ई ० में गठित काँग्रेस की ब्रिटिश समिति ने इण्डिया नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया । काँग्रेस द्वारा प्रान्तीय परिषद् एवं इम्पीरियल काउंसिल में कुछ परिवर्तन करने के माँग के फलस्वरूप इण्डिया काउंसिल एक्ट -1892 ई ० पारित हुआ । . . . 18 फरवरी , 1905 को ‘ लंदन ‘ में एक भारतीय श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इण्डिया हाउस की स्थापना की ।
द्वितीय चरण ( 1905 ई०-1919 ई ० )
द्वितीय चरण में काँग्रेस के भीतर एक नयी विचारधारा उग्रवाद का उदय हुआ । उग्रवादी विचारधारा के प्रमुख नेता थे – बाल गंगाधर तिलक , विपिन चन्द्र पाल , लाला लाजपत राय तथा अरविन्दो घोष । उग्रवादी नेताओं का मानना था कि भीख माँगने से कभी स्वतन्त्रता नहीं मिल सकती , उसके लिए स्वाबलम्बन , संगठन और संघर्ष की आवश्यकता है । भारत में क्रान्तिकारी गतिविधियों का सूत्रपात 1897 ई ० में महाराष्ट्र में हुआ । बंगाल , पंजाब व महाराष्ट्र भारत में क्रांतिकारी आतंकवाद ( Revolutionary Terrorism ) के प्रमुख केन्द्र थे । 19 वीं शताब्दी के अन्त में बंगाल प्रान्त में असम , बिहार एवं उड़ीसा शामिल थे । लार्ड कर्जन ने 20 जुलाई , 1905 ई ० को बंगाल विभाजन के निर्णय की घोषणा की । 16 अगस्त , 1905 ई ० को बंगाल – विभाजन का निर्णय प्रभावी हुआ । इसके तहत् बंगाल के मुस्लिम बहुल क्षेत्र को ‘ पूर्वी बंगाल ‘ एवं हिन्दू बहुल क्षेत्र को ‘ पश्चिमी बंगाल ‘ में विभाजित कर दिया पूर्वी बंगाल ( मुस्लिम बहुल ) का मुख्यालय ढाका को बनाया गया । पश्चिमी बंगाल का मुख्यालय पूर्व की भाँति कलकत्ता में ही रहा । काँग्रेस द्वारा 7 अगस्त , 1905 ई ० को कोलकत्ता के टाउन हॉल में बंग – भंग के विरोध में स्वदेशी आन्दोलन की घोषणा के साथ ‘ बहिष्कार प्रस्ताव पारित किया गया । 16 अक्टूबर 1905 को पूरे बंगाल में शोक दिवस मनाया गया । स्वदेशी आन्दोलन के दौरान ही रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने प्रसिद्ध गीत अमार सोनार बांगला की रचना की । रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित गीत अमार सोनार बांगला को अपनी स्वतन्त्रता ( 1971 ई ० ) के उपरान्त बंग्लादेश ने राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया । स्वदेशी आन्दोलन के दौरान हिन्दू – मुस्लिम ने एक दूसरे की कलाइयों पर राखियाँ बाँधी । इस आन्दोलन में स्वदेशी यानी देशी वस्तुओं का उपयोग तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया । स्वदेशी आन्दोलन के प्रमुख नेता तिलक , अजीत सिंह , लाला लाजपत राय , विपिन चन्द्र पाल , अरविन्दो घोष , लियाकत हुसैन , दादा भाई नौरोजी इत्यादि थे ।
काँग्रेस के उदारवादी नेताओं के आशिक दबाव के परिणामस्वरूप 1892 ई ० का भारतीय परिषद् अधिनियम पारित हुआ । उपर्युक्त अधिनियम द्वारा स्थानीय निर्वाचित निकायों को कुछ अधिकार प्रदान किए गए थे ।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कलकत्ता से बंगाली नामक पत्रिका का सम्पादन किया ।
. . 1906 ई ० में कलकत्ता में हुए काँग्रेस में दादाभाई नौरोजी ने पहली बार ऑस्ट्रेलिया एवं कनाडा के उपनिवेशों की तर्ज पर स्वराज की माँग प्रस्तुत की । 1882 ई ० में दयानन्द सरस्वती ने गोरक्षिणी सभाओं का गठन किया , तब से 1895 ई ० तक पश्चिम भारत में अनेक दंगे हुए । काँग्रेस के कई सदस्य गोरक्षिणी सभाओं के सदस्य थे जिनको अनुशासित करने में काँग्रेस विफल रही तथा काँग्रेस की धर्मनिरपेक्ष छवि को धक्का पहुँचा । 30 दिसम्बर 1906 ई ० को ढाका में नवाब सलीमुल्ला के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई । मुस्लिम लीग के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता वकार – उल – मुल्क ने की । 1908 ई ० में मुस्लिम लीग का पहला स्थाई अध्यक्ष आगा खाँ को बनाया गया । 1907 ई ० के काँग्रेस के सूरत अधिवेशन ( 1907 ई . ) में काँग्रेस उदारवादी एवं उग्रवादी दो गुटों में विभाजित हो गई । उदारवादियों ( नरम दल ) का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले ने किया तथा उग्रवादियों ( गरम दल ) का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक ने किया । ‘ ऐनी बेसेंट ‘ ने इसे काँग्रेस के इतिहास में सबसे दुख – दायो घटना बताया । तत्कालीन वायसराय ‘ लॉर्ड मिन्टो ‘ तथा ‘ मॉर्ले ‘ ने उदारवादियों को पुचकारने एवं हिन्दू – मुस्लिम सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न करने के उद्देश्य से इण्डिया काउंसिल एक्ट -1909 पारित कराया ।
1909 ई ० से पहली बार साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली ( Communal Electorate ) आरम्भ हुई तथा मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र एवं प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई । ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम तथा मेरी के स्वागत के लिए 1911 ई ० में . दिल्ली दरबार का आयोजन वायसराय लार्ड हार्डिंग द्वारा किया गया । दिल्ली दरबार में ही लार्ड हार्डिंग ने बंगाल विभाजन को रद्द करते हुए एक नवीन प्रान्त बिहार के गठन की घोषणा की जिसमें बिहार एवं उड़ीसा शामिल थे । बिहार पूर्ण रूपेण 1912 ई ० में ही अस्तित्व में आ पाया । बांग्ला भाषियों के लिए दोनों बंगालों को मिलाकर एक बंगाल प्रान्त अस्तित्व में आया । दिल्ली दरबार में लार्ड हार्डिंग ने भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली ले जाने की घोषणा की । • हिन्दू महासभा की स्थापना 9 अप्रैल , 1915 ई ० को मदन मोहन मालवीय ने हरिद्वार में की । • हिन्दू महासभा में बी.एस. मुंजे एवं लाला लाजपतराय जैसे राष्ट्रवादी नेता थे । • हिन्दू महासभा ने अखण्ड भारत का नारा दिया । 1915 ई ० में मुहम्मद अली जिन्ना के प्रयास से बम्बई में काँग्रेस और मुस्लिम लीग के अधिवेशन साथ – साथ हुए । कांग्रेस एवं लीग पारस्परिक सहयोग द्वारा अंग्रेजी सरकार पर दबाव बनाने की नीति अपनाने पर सहमत हुए । 1916 ई . में हुए उपर्युक्त काँग्रेस – लीग समझौते को लखनऊ समझौता . कहा गया । 1916 ई ० के लखनऊ अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक के प्रयासों से कांग्रेस के दोनों दल एक हो गये । लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता अंबिकाचरण मजूमदार ने किया । लखनऊ अधिवेशन ( 1916 ई . ) में काँग्रेस ने पहली बार साम्प्रदायिक निर्वाचन को स्वीकार किया । अब काँग्रेस एवं मुस्लिम लीग के बीच अगले 3-4 वर्षों के लिए एकता स्थापित हो गई । 28 अप्रैल 1916 ई ० को बाल गंगाधर तिलक ने पूना में इण्डियन होमरूल लीग की स्थापना की । सितम्बर 1916 ई ० में एनी बेसेंट ने मद्रास में होमरूल लीग की स्थापना की ।
एनी बेसेंट की होमरूल लीग से जुड़ने वाले राष्ट्रवादियों में मोतीलाल नेहरू , जवाहरलाल नेहरू , खलीकुज्जमा , तेज बहादुर सपु , सी ० वाई .
चिंतामणि , सी ० पी ० रामास्वामी अय्यर सुब्रह्मण्यम अय्यर हसन इमाम एवं मजहरूल हक आदि प्रमुख थे । एनी बेसेंट ने 1914 में कॉमन वील नामक पत्रिका तथा न्यू इण्डिया नामक दैनिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया और इसके माध्यम से आन्दोलन छेड़ दिया जिसका समर्थन बाल गंगाधर तिलक ने भी किया । तिलक ने मराठा एवं केसरी तथा एनी बेसेंट ने अपने पत्रों कॉमनवील , न्यू इण्डिया तथा यंग इण्डिया ( बंबई ) के माध्यम से होमरूल का व्यापक प्रचार किया । होमरूल आन्दोलन भारत में संवैधानिक तरीके से स्वशासन की माँग को लेकर चलाया गया था ।
एनी बेसेंट ने 20 अगस्त 1917 को होमरूल लीग समाप्त कर दिया । क्रान्तिकारी आतंकवादी आन्दोलन का आरम्भ 1897 ई ० से हुआ जब चापेकर बन्धुओं ने दो ब्रिटिश अधिकारी की हत्या कर दी । बारीन्द्र कुमार बोष द्वारा 1907 ई . में स्थापित बंगाल की अनुशीलन समिति पहली क्रान्तिकारी संस्था थी । बारीन्द घोष ने ‘ भवानी मन्दिर ‘ नामक पुस्तक की रचना की , जिसमें क्रान्तिकारी संस्थाओं की स्थापना से सम्बन्धित जानकारी प्राप्त होती है । खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने 1908 ई ० में मुजफ्फरपुर में जॉन किंग्सफोर्ड की हत्या करने के लिए बम फेंका । इसके उपरान्त गिरफ्तारी से बचने के लिए प्रफुल्ल ने खुद को गोली मार लिया । खुदीराम को गिरफ्तार कर फाँसी दे दिया गया । महाराष्ट्र के क्रान्तिकारी विनायक दामोदर सावरकर ने 1904 ई ० में अभिनव भारत नामक गुप्त क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की । क्रान्तिकारी आतंकवादी विचारधारा के प्रचार में बंगाल का समाचार – पत्र संध्या तथा युगांतर और महाराष्ट्र के समाचार – पत्र काल की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी । महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आन्दोलन उभारने का श्रेय तिलक के पत्र केसरी को भी जाता है । सचिन्द्रनाथ सन्याल ने क्रान्तिकारी आन्दोलन पर बन्दी जीवन नामक पुस्तक लिखी । 1895 ई . में दामोदर चापेकर एवं बालकृष्ण चापेकर ( दोनों भाई थे ) ने हिन्दू धर्म संरक्षिणी सभा का गठन किया । 1895 ई ० में पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड एवं आयरेस्ट की हत्या कर दी गई । 1912 ई ० में रास बिहारी बोस और सचिन्द्र सन्याल ने वायसराय लार्ड हार्डिज की हत्या करने के लिए बम फेंका , लेकिन वह बच गया । लॉर्ड हार्डिज पर बम फेंकने के अपराध में जो मुकदमा चला उसे दिल्ली षड्यन्त्र केस कहा गया । विनायक दामोदर सावरकर ने THE INDIAN WAR OF 1 INDEPENDENCE नामक पुस्तक लिखी जिसको अंग्रेजी सरकार ने प्रकाशन से पूर्व ही जब्त कर लिया । अंग्रेजी सरकार ने वी ० डी ० सावरकर को कालापानी की सजा देकर अण्डमान भेज दिया । 21 दिसम्बर , 1909 ई ० को अभिनव भारत संगठन के अनन्त कन्हेरे ने गणेश सावरकर पर राजद्रोह लगाये जाने के विरोध में जैक्सन की हत्या कर दी , कन्हेरे पर नासिक षड्यन्त्र केस चलाया गया । । जुलाई 1909 को ‘ अमृतसर से लंदन गये मदन लाल ढींगरा ने कर्जन वायली की गोली मारकर हत्या कर दी । 1910 ई ० में हावड़ा षड्यन्त्र केस में जतीन मुखर्जी मुख्य अभियुक्त थे । 1912 ई . में दिल्ली षड्यन्त्र केस में मास्टर अमीन चन्द्र ( 1915 ई ० ) , अवध बिहारी ( 1915 ई ० ) एवं बालमुकुन्द को फाँसी की सजा दी गई । 1910 ई ० में ढाका षड्यन्त्र केस में पुलिनदास को 7 वर्षों की सजा दी गई । अलीपुर या मनिकतल्ला षड्यन्त्र केस ( 1908 ई ० ) अरविन्द घोष सहित कई व्यक्तियों पर चलाया गया ।
लाला हरदयाल ( 1884-1938 ई ० ) ने अमेरिका में 1913 ई ० में एक क्रान्तिकारी संगठन गदर पार्टी की स्थापना की ।
सोहन सिंह भाखना ‘ को गदर पार्टी का प्रथम अध्यक्ष बनाया गया । 1914 ई ० में कोमगाटामारू की घटना घटी । बजबज में यात्रियों और पुलिस के बीच खूनी संघर्ष हुआ , जिसमें 18 व्यक्ति मारे गये एवं 25 घायल हुए । 1926 ई ० में भगत सिंह ने नौजवान सभा ( पंजाब ) की स्थापना की । भगत सिंह , चन्द्रशेखर आजाद , शचीन्द्रनाथ सान्याल , जोगेश चन्द्र चटर्जी एवं राम प्रसाद बिस्मिल ने 1928 ई ० में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की । अगस्त , 1925 ई ० को ‘ काकोरी काण्ड ‘ हुआ , जिसमें रामप्रसाद बिस्मल , राजेन्द्र लाहिड़ी , अशफाकउल्ला खाँ को फाँसी एवं शचीन्द्र बख्शी को आजीवन कारावास की सजा मिली । 30 अक्टूबर 1928 ई ० को लाहौर में साइमन आयोग के विरूद्ध प्रदर्शन करते समय पुलिस की लाठी से लाला लाजपत राय घायल हो गए और . बाद में उनकी मृत्यु हो गयी । हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने ‘ लाला लाजपत राय ‘ की मौत को राष्ट्रीय अपमान मानते हुए 17 दिसम्बर , 1928 ई ० को ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या कर दी । पब्लिक सेफ्टी बिल पास होने के विरोध में 8 अप्रैल 1929 ई ० को बटुकेश्वर दत्त एवं भगत सिंह ने सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में खाली बेंचों पर बम फेंका । 23 मार्च 1931 ई ० को सुखदेव , भगत सिंह एवं राजगुरू को फाँसी पर लटका दिया गया ।
27 फरवरी , 1931 को चन्द्रशेखर आजाद की एक ब्रिटिश अधिकारी नॉट बाबर के साथ इलाहाबाद के अल्फेड पार्क में हुई मुठभेड़ में मृत्यु हो गई । 18 अप्रैल 1930 ई ० को क्रान्तिकारियों ने सूर्यसेन के नेतृत्व में चटगाँव शस्त्रागार को लूट लिया । सूर्यसेन को फाँसी की सजा दी गई । 1916 ई . में अहमदाबाद में साबरमती आश्रम की स्थापना से भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी का प्रवेश हुआ । चंपारण सत्याग्रह ( 1917 ई . ) , खेड़ा सत्याग्रह ( 1918 ई . ) , अहमदाबाद मिल सत्याग्रह ( 1918 ई . ) , तथा रॉलेट सत्याग्रह ( 1919 ई . ) आदि महात्मा गाँधी के आरंभिक प्रयोग थे । 1917 ई ० में चम्पारण आन्दोलन हुआ । चंपारण आन्दोलन नील की खेती और उससे सम्बन्धित तीन कठिया पद्धति के कारण हुआ । चम्पारण में यूरोपीय बगान मालिक किसानों से जबरन नील की खेती करवाते थे तथा उसका 3/20 वाँ हिस्सा अधिशेष के रूप में वसूलते थे । चम्पारण के किसान नेता राज कुमार शुक्ल के आग्रह पर महात्मा गाँधी चम्पारण गये ।
महात्मा गाँधी ( एक नजर में )
महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर , 1869 ई ० में गुजरात के पोरबन्दर नामक स्थान पर हुआ था । इनका विवाह 13 वर्ष की अवस्था में कस्तूरबा के साथ हुआ । उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए ये लंदन गये । वहाँ से इन्होंने बैरिस्ट्री की परीक्षा पास की । 1893 ई ० में एक मुकदमें के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका गए । दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ संघर्ष किया । 1915 ई ० में गाँधीजी वापस भारत आये । 1916 ई ० में उन्होंने साबरमती आश्रम की स्थापना की । 1919 ई ० में ये राजनीति में प्रवेश किए । महात्मा गाँधी ने यंग इंडिया , नवजीवन , हरिजन आदि पत्र – पत्रिकाओं का प्रकाशन किया । गाँधीजी ने हिन्द स्वराज नामक पुस्तक की रचना की । . II – 60 .
1914-19 ई ० में प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का समर्थन करने को वजह से उन्हें कैसर – ए – हिन्द उपाधि से सम्मानित किया गया था । गाँधीजी ने गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु बनाया । ग्राम उद्योग संघ , तालीमी संघ एवं गो – रक्षा संघ आदि संगठन गाँधीजी से सम्बन्धित थे । उन्होंने अछूतों को हरिजन की संज्ञा दी तथा उन्हें शेष हिन्दुओं से बराबरी दिलाने के उदेश्य से ‘ मन्दिर प्रवेश कार्यक्रम ‘ चलाया । • गाँधीजी के नेतृत्व में 1919 ई ० से 1947 ई ० तक जो स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा गया । उसमें सत्य , अहिन्सा एवं सर्वोदय उनके हथियार थे । महात्मा गाँधी ने चंपारण सत्याग्रह ( 1917 ई . ) किया जिसमें ब्रज किशोर प्रसाद , राजेन्द्र प्रसाद , महादेव देसाई , नरहरिक पारिख , जे ० बी ० कृपलानी ने उनका साथ दिया । विवश होकर ब्रिटिश सरकार को एक कमीशन बैठाना पड़ा और चम्पारण अधिनियम पारित हुआ , यह गाँधी जी की एक बड़ी जीत थी । चम्पारण सत्याग्रह के समय ही रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘ गाँधीजी ‘ को महात्मा की संज्ञा दी । 1918 ई ० में गुजरात के खेड़ा नामक स्थान पर किसानों ने फसल खराब होने के कारण लगान देने से इंकार कर दिया । गाँधी जी ने यहाँ भी किसानों को नेतृत्व प्रदान किया तथा सत्याग्रह किया । खेड़ा आन्दोलन को सरदार वल्लभ भाई पटेल का भरपूर सहयोग मिला । खेड़ा सत्याग्रह को भारत में गाँधीजी द्वारा चलाया जाने वाला पहला वास्तविक किसान सत्याग्रह कहा गया । 1918 ई ० में अहमदाबाद के कपड़ा मिल में वेतन – वृद्धि के सवाल पर मिल मालिकों एवं मजदूरों में झगड़ा हो गया । गाँधीजी ने 35 % तक की मजदूरों के वेतन में बढ़ोत्तरी की माँग की परन्तु सरकार ने अस्वीकार कर दिया । अहमदाबाद मिल मजदूरों ने गाँधीजी के नेतृत्व में हड़ताल की तथा सफलता पायी । ‘ सर रॉलेट ‘ की अनुशंसा पर 18 मार्च , 1919 को ‘ आतंकवादी अपराध अधिनियम ( TCA ) ‘ पारित किया गया । उपर्युक्त अधिनियम को रॉलेट अधिनियम ( Rowlat Act ) भी कहते हैं । रॉलेट अधिनियम के तहत राजद्रोहात्मक कार्यों का संदेह मात्र हो जाने पर ही किसी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए दो वर्षों के लिए कैद किया जा सकता था । इसे ‘ बिना अपील , बिना वकील तथा बिना दलील ‘ वाला काला कानून कहा गया । रॉलेट एक्ट के विरोध के लिए गाँधीजी ने 6 अप्रैल 1919 को देश – भर में हड़ताल का आह्वान किया । भारतीय जनमानस हड़ताल ( strike ) शब्द से पहली बार परिचित हुआ ।
तृतीय चरण ( 1919-47 ई ० )
इस चरण में राष्ट्रीय आन्दोलन को ‘ बाल गंगाधर तिलक ‘ के निधन ( 1920 ई ० ) से महान क्षति पहुँची । तृतीय चरण में देश को महात्मा गाँधी जैसा महान नेता मिला जिनके नेतृत्व में 1947 ई ० में आजादी हासिल हुई । अत : तृतीय चरण को गाँधीवादी राष्ट्रीयता का युग भीकहा जाता है । रॉलेट ऐक्ट के विरोध में पंजाब में जगह – जगह पर जनसभाएँ आयोजित की जा रही थी । 9 अप्रैल , 1919 ई ० को अंग्रेजी सरकार ने अमृतसर के लोकप्रिय नेताओं डॉ . सत्यपाल एवं डॉ ० किचलू को पंजाब से निष्कासित कर दिया । 13 अप्रैल , 1919 को लोकप्रिय नेताओं के निष्कासन के विरोध में अमृतसर के ‘ जालियाँवाला बाग ‘ में भारी भीड़ जमा हुई ।
13 अप्रैल , 1919 को ही ‘ जेनरल डायर ‘ में जालियाँवाला बाग कांड को अंजाम दिया । जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के विरोध में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी नाइट हुड की उपाधि वापस कर दी तथा जमनालाल बजाज ने राय बहादुर की उपाधि लौटा दी । महात्मा गाँधी ने जालियाँवाला बाग घटना के विरोध में कैसर – ए – हिन्द की उपाधि वापस कर दी । वायसराय की कार्यकारिणी के भारतीय सदस्य शंकरन नायर ने जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के विरोध स्वरूप इस्तीफा दे दिया । जालियाँवाला बाग कांड की जाँच करने वाले हण्टर आयोग की रिर्पोट में जेनरल डायर के कृत्य को वैध ठहराया गया । प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा टर्की विभाजन के विचार के विरोध में भारतीय मुसलमानों द्वारा खिलाफत आन्दोलन ( 1919-22 ई . ) शुरू किया गया । खिलाफत आन्दोलन का नेतृत्व मुहम्मद अली एवं शौकत अली ने किया । मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भी खिलाफत आन्दोलन को सक्रिय नेतृत्व प्रदान किया । मौलाना आजाद एवं मुहम्मद अली ने क्रमश : अपने पत्रों अल – हिलाल एवं द कॉमरेड के माध्यम से खिलाफत आन्दोलन का प्रचार किया । मुहम्मद अली एवं शौकत अली ने 1919 के आरम्भ में बम्बई में खिलाफत कमेटी बनाई । गाँधीजी ने खिलाफत आंदोलन को ‘ हिन्दू – मुस्लिम एकता ‘ के स्वर्णिम अवसर के रूप में देखा । 23 नवम्बर 1919 को अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी का अधिवेशन Immm हुआ जिसकी अध्यक्षता गाँधीजी ने की । 17 अक्टूबर , 1919 को खिलाफत दिवस के रूप में मनाया गया । तुर्की के कमाल पाशा द्वारा खलीफा के पद को 1924 में समाप्त करने के उपरान्त खिलाफत आन्दोलन समाप्त हो गया । कोलाकाता में ‘ लाला जालपत राय ‘ की अध्यक्षता में 20 जून , 2104 को आयोजित अधिवेशन में गाँधी जी के ‘ असहयोग प्रस्ताव को पारित कर दिया गया । गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन 1 अगस्त , 1920 से शुरू हुआ । असहगोग आन्दोलन गाँधीजी के नेतृत्व में काँग्रेस का पहला जन – आन्दोलन था ।
असहयोग आन्दोलन में बहिष्कार कार्यक्रम के अन्र्तगत विदेशी माल का बहिष्कार तथा स्वदेशी माल के उपयोग पर जोड़ दिया गया । असहयोग आन्दोलन पश्चिमी भारत , बंगाल तथा उत्तरी भारत में पूर्ण से सफल रहा । गाँधीजी के आह्ववान पर तिलक स्वराज फण्ड की स्थापना की गई जिसमें एक करोड़ से अधिक रूपया जमा किया गया । इस आन्दोलन के अन्य कार्यक्रम के तहत् नवम्बर , 1921 ई ० को भारत दौरे पर आये प्रिन्स ऑफ वेल्स का बहिष्कार किया गया । सरकारी दमन के तहत अनेक नेता गिरफ्तार कर लिये गये तथा काँग्रेस एवं खिलाफत कमेटियों को गैर – कानूनी घोषित कर दिया गया । असहयोग आन्दोलन के दौरान सर्वप्रथम गिरफ्तार होने वाले नेता मुहम्मद अली थे । माम असहयोग आन्दोलन की शुरूआत के समय भारत का वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड था । लार्ड रीडिंग के वायसराय बनने के उपरान्त असहयोग आन्दोलन पर व्यापक रूप से दमन किया गया ।
5 फरवरी , 1922 ई ० को गोरखपुर जिले के चौरी – चौरा नामक स्थान पर कांग्रेस एवं खिलाफत कमेटी ने एक जुलूस निकाला । पुलिस के व्यवहार से क्रुद्ध होकर जुलूस ने पुलिस एवं थाने पर हमला कर दिया , बड़े पैमाने पर हिन्सा हुई एवं 22 पुलिसकर्मी मारे गये । चौरी – चौरा घटना से आहत हो कर गांधी जी ने 12 फरवरी , 1922 ई ० को असहयोग आन्दोलन का समाप्त कर दिया ।
. . . आन्दोलन समाप्त होते ही सरकार ने 10 मार्च , 1922 ई ० को गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया तथा असन्तोष भड़काने के अपराध में छ : वर्ष की कैद की सजा दी गई । भारत में पहली मजदूर हड़ताल 1877 ई ० में एप्रेस मिल में हुई । 1884 ई ० में भारत का पहला श्रमिक संघ बंबई में बंबई मिलहैंड एसोसिएशन के नाम से स्थापित किया गया , इसके अध्यक्ष एम ० एम ० लोखण्डे थे । 1919 ई ० में जेनेवा में अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ( ILO ) की स्थापना हुई । भारत के पहले आधुनिक श्रमिक संघ मद्रास श्रमिक संघ की स्थापना बी ० पी ० वाडिया द्वारा किया गया । ‘ 1920 ई ० में ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन काँग्रेस ( AITUC ) का गठन किया गया । AITUC के प्रथम अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे । 1926 ई ० में बी ० पी ० वाडिया के प्रयासों से ‘ ट्रेड यूनियन ऐक्ट ‘ पारित हुआ । 1929 ई ० में अंग्रेजी सरकार ने देश के प्रमुख मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया तथा उन पर मेरठ में ( Meerut Conspiracy Case ) मुकदमा चलाया । सुभाषचन्द्र बोस के प्रयासों से 1938 ई ० में हिन्द मजदूर सेवक संघ की स्थापना की गई । सरदार वल्लभ भाई पटेल द्वारा 1947 ई ० में भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस ( INTUC ) की स्थापना की गई । समाजवादियों ने 1948 ई ० में हिन्द मजदूर सभा की स्थापना की । भारत का प्रथम क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन ” लाल बापटा गिरनी कामगार यूनियन ” था जिसकी स्थापना बम्बई में 1928 में श्रीपाद् अमृत डांगे ने की । एन ० दत्त मजुमदार ने 1939 ई ० में भारतीय वोल्शेविक दल की स्थापना की । सौम्येन्द्रनाथ टैगोर ने ‘ क्रान्तिकारी साम्यवादी दल ‘ का गठन किया । नरेन्द्रनाथ भटाचार्य ( उर्फ मानवेन्द्रनाथ राय ) ने भारत में सबसे पहले non कम्युनिज्म् का प्रचार किया । मामला 1916 ई ० में नरेन्द्रनाथ ने मास्को में आयोजित थर्ड कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल Time में भाग लिये । मार 1920 ई ० में एम ० एन ० राय ने ताशकंद में हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया । racel 1924 ई ० में सत्य भक्त ने कानपुर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की । 1925 ई ० में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( CPI ) की स्थापना हुई , एस ० पी ० घाटे को इसका महामन्त्री बनाया गया । पेशावर षडयन्त्र केस ( 1922-23 ई ० ) , कानपुर षडयन्त्र केस ( 1924 ई ० ) , एवं मेरठ षडयन्त्र केस ( 1924-33 ई ० ) में संलिप्तता के कारण कम्युनिस्टों की ख्याति बहुत बढ़ गई । 1934 ई ० में अंग्रेजी सरकार ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध आरोपित कर दिया । अच्युत पटवर्धन , अशोक मेहता तथा जय प्रकाश नारायण बंबई में 1933 ई ० में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ( PSP ) की स्थापना की ।
पंजाब में भी 1933 ई ० में ही ‘ पंजाब सोशलिस्ट पार्टी ‘ की स्थापना हुई । 17 मई , 1934 ई ० को जय प्रकाश नारायण , आचार्य नरेंद्र देव , मीनू मसानी तथा अशोक मेहता ने मिलकर काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की । कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का पहला अधिवेशन पटना में हुआ जिसकी अध्यक्षता आचार्य नरेन्द्र देव ने की । 1920 ई ० से प्रारम्भ होनेवाले दशक में बंगाल , बिहार , पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में किसान सभाओं का गठन किया गया । बंगाल में अबुल रहीम एवं फजलुल हक के नेतृत्व में कृषक प्रजा पार्टी काली का गठन हुआ । 1930 ई ० में बिहार में स्वामी सहजानन्द के नेतृत्व में बिहार किसान सभा का गठन किया गया ।
11 अप्रैल , 1936 ई ० को लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन किया गया , जिसके अध्यक्ष स्वामी सहजानन्द थे ।
एन ० जी ० रंगा ने आंध्र प्रदेश में रैय्यत संघ की स्थापना की । मार्च , 1923 में मोतीलाल नेहरू तथा सी ० आर ० दास ने इलाहाबाद में स्वराज पार्टी की स्थापना की । इस पार्टी का गठन काँग्रेस के भीतर एक दबाब समूह ( Pressure Group ) के रूप में किया गया था । स्वराजियों का उद्देश्य था कि काँग्रेस के अन्दर रहकर चुनावों में हिस्सा लेना और विधान परिषद में स्वदेशी सरकार के गठन की मांग को उठाना । स्वराज पार्टी का अध्यक्ष चितरंजन दास तथा सचिव मोतीलाल नेहरू को बनाया गया । नवम्बर , 1923 ई ० के विधानमण्डल चुनावों में स्वराज पार्टी ने हिस्सा लिया । केन्द्रीय विधान मण्डल एवं सेंट्रल प्रोविंस में इस दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ तथा बंगाल में मजबूती से उभरा । 1923 ई ० में अखिल भारतीय खादी बोर्ड ( AIKB ) की स्थापना की गयी ।
1924 ई ० में काँग्रेस की सदस्यता के लिए न्यूनतम अर्हता ‘ कताई ‘ निर्धारित की गई ।
भारत में प्रशासनिक सुधार के सवाल पर 1927 ई ० में सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक कमीशन गठित किया गया । साइमन कमीशन में कोई भारतीय सदस्य नहीं था , अत : इसे white man लग commission कहा गया । साइमन कमीशन का भारत में आगमन 3 फरवरी , 1928 ई ० को हुआ । काँग्रेस ने साइमन कमीशन का बहिष्कार एवं विरोध किया । 1928 ई ० में साइमन कमीशन के विरूद्ध प्रदर्शन में पुलिस की लाठी की लि . चोट से लाला लाजपत राय घायल हो गये तथा कुछ दिनों के बाद उनकी मृत्यु हो गयी । साइमन कमीशन ने 1930 ई ० में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसके आधार पर लंदन के गोलमेज सम्मेलनों में विचार – विमर्श हुआ । 10 मई , 1928 ई ० को बंबई में मोती लाल नेहरू की अध्यक्षता में चार सदस्यीय कमिटी ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की , जिसे नेहरू रिपोर्ट कहा गया । नेहरू रिपोर्ट का उद्देश्य भारत के लिए संविधान की रूप – रेखा तैयार करना था । 1929 ई . में रावी नदी के तट पर लाहौर अधिवेशन आयोजित हुआ । लाहौर अधिवेशन ( 1929 ई . ) की अध्यक्षता जवाहर लाल नेहरू ने की । लाहौर अधिवेशन में जवाहर लाल नेहरू ने पहली बार कांग्रेस के मंच से पूर्ण स्वराज की मांग की । 31 दिसम्बर , 1929 की आधी रात को नेहरू ने भारतीय स्वतन्त्रता के प्रतीक तिरंगा झण्डा फहराया । 1929 ई ० में कांग्रेस द्वारा नियुक्त एक समिति की रिपोर्ट पर 26 जनवरी , .. 1930 ई ० को ‘ प्रथम स्वतन्त्रता दिवस ‘ के रूप में मनाया गया । 12 मार्च , 1930 ई ० को महात्मा गाँधी ने ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह का प्रारम्भ करके सविनय अवज्ञा आन्दोलन की शुरूआत की । महात्मा गाँधी ने 6 अप्रैल , 1930 ई ० को गुजरात के समुद्रतट पर स्थित दाण्डी की 78 अनुयायियों के साथ यात्रा की तथा वहाँ नमक बनाकर कानून तोडा ।
गाँधीजी की 240 मील की यात्रा इतिहास में दाण्डी यात्रा ( DANDY MARCH ) के नाम से प्रसिद्ध है
जवाहरलाल नेहरू को नमक कानून तोड़ने के जुर्म में 14 अप्रैल 1930 को गिरफ्तार कर लिया गया ।
5 मार्च , 1931 ई ० को गाँधी – इरविन समझौता हुआ । गांधी – इरविन समझौते के तहत , काँग्रेस ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन की समाप्ति तथा गाँधी जी के द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने की घोषणा की । गाँधी – इरविन समझौते को दिल्ली समझौता भी कहते हैं । प्रथम गोलमेज सम्मेलन 1930 में लंदन में आयोजित किये गये । गोलमेज सम्मेलन -1 की अध्यक्षता तात्कालीन ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ‘ रैम्जे मैकडोनाल्ड ‘ ने की प्रथम गोलमेज सम्मेलन में काँग्रेस के किसी भी प्रतिनिधि ने भाग नहीं लिया जबकि मुस्लिम लीग , हिन्दू महासभा , दलित वर्ग , व्यापारी वर्ग तथा रजवाड़ों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया । काँग्रेस के बहिष्कार के कारण पहला गोलमेज सम्मेलन असफल हो गया । 7 दिम्बर , 1931 ई ० को द्वितीय गोलमेज सम्मेलन प्रारम्भ हुआ , काँग्रेस की ओर से एकमात्र प्रतिनिधि गाँधीजी थे । दूसरा गोलमेज सम्मेलन स्वतन्त्रता प्राप्ति एवं साम्प्रदायिकता के सवाल पर असफल रहा । 17 नवम्बर , 1932 ई ० को तीसरा गोलमेज सम्मेलन का आयोजन हुआ , जिसमें काँग्रेस के किसी भी सदस्य ने भाग नहीं लिया तथा यह सम्मेलन बिना किसी निर्णय के समाप्त हो गया । तीनों गोलमेज सम्मेलनों में दलितों के प्रतिनिधि के रूप में डॉ ० बी ० आर ० अम्बेडकर ने भाग लिया । जनवरी , 1932 ई ० में द्वितीय सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया गया । 4 जनवरी , 1932 ई ० को गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया काँग्रेस तथा उसके संगठनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया ।
ब्रिटिश प्रधानमन्त्री रैम्जे मैकडोनाल्ड 16 अगस्त 1932 को साम्प्रदायिक अधिनिर्णय प्रस्तुत किया । सांप्रदायिक अधिनिर्णय के अनुसार दलितों को हिन्दुओं से अलग मानते हुए उन्हें अलग प्रतिनिधित्व देने एवं अलग से निर्वाचक मण्डल की व्यवस्था की गई । गाँधीजी ने सांप्रदायिक निर्णय के विरोध में 20 सितम्बर , 1932 ई ० से आमरण अनशन आरम्भ कर दिया । गाँधीजी और बी ० आर ० अम्बेडकर के बीच 26 सितम्बर 1932 को पूना समझौता हुआ जिसके तहत हरिजनों के लिए अलग निर्वाचन मण्डल समाप्त कर दिया गया । दलितों के लिए प्रान्तीय विधानमण्डलों में रिजर्व 71 स्थानों को बढ़ाकर 148 कर दिया गया । गवर्मेंट ऑफ इण्डिया ऐक्ट -1935 के प्रावधानों के अनुसार , 1937 ई ० में प्रान्तीय चुनाव हुए । 1937 के चुनावों में 7 प्रान्तों में काँग्रेस ने अपने मंत्रिमण्डलों का गठन किया । 15 नवम्बर 1939 को प्रान्तीय मन्त्रिमण्डल ने इस्तीफा दे दिया । 15 नवम्बर 1939 को प्रांतों मेंकांग्रेस मंत्रिमंडल ने इस्तीफा दे दिया ।
उपर्युक्त घटना को 22 दिसंबर , 1939 को मुस्लिम लीग ने मुक्ति दिवस के रूप में मनाया ।
जवाहरलाल नेहरू स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री तथा लॉर्ड माउण्टबेटन प्रथम गवर्नर जेनरल बने ।
पाकिस्तान के गवर्नर जेनरल मुहम्मद अली जिना तथा प्रधानमन्त्री लियाकत अली को बनाया गया
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
17 अक्टूबर , 1940 ई ० को पवनार में गाँधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह की शुरूआत की थी । पंजाब के सुनाम नामक स्थान पर जन्मे उधम सिंह ने 13 मार्च , 1940 को लंदन में पंजाब के भूतपूर्व लेफ्टिनेंट गर्वनर जनरल डायर की की गोली मारकर हत्या कर दी । सुभाषचंद्र बोस 1939 ई ० में महात्मा गाँधी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैय्या को हराकर काँग्रेस के अध्यक्ष बने , परन्तु गाँधी से मतभेद के कारण उन्होंने यह पद छोड़ दिया । गढ़वाल राइफल्स के जवानों ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान पठान सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया । हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन 1924 ई ० में शचीन्द्रनाथ सान्याल एवं भगत सिंह द्वारा पूर्व में स्थापित हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को समाप्त करके किया गया था । काँग्रेस द्वारा जालियाँवाला बाग काण्ड की जाँच के लिए मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया । जनरल डायर को जालियाँवाला बाग काण्ड के दौरान हंसराज नामक एक भारतीय ने मदद पहुँचाई । गाँधीजी द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारतीयों को सेना में भर्ती होने का आह्वान किये जाने के कारण उन्हें सार्जेंट ( सेना में भर्ती करने वाला ) की संज्ञा दी गई । अनुशीलन समिति के हेमचन्द्र एवं पी ० एन ० वापट बम बनाने की कला क्रमशः रूस एवं पेरिस में सीखी । देश के लिए कई बार जेल यात्रा करने वाले पहले काँग्रेसी नेता बाल गंगाधर तिलक थे । ” काँग्रेस अपने पतन की ओर लड़खड़ाती हुई बढ़ रही है ” यह बात लॉर्ड डफरीन ने कही । ब्रिटिश सरकार का रूख काँग्रेस के प्रति 1887 के बाद कठोर हो गया । हरमिट ऑफ शिमला ए ० ओ ० ह्युम को कहा जाता है ।
भारत छोड़ो प्रस्ताव काँग्रेस द्वारा मौलाना अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में पारित किया गया । राष्ट्रीय युवा दिवस स्वामी विवकानन्द से सम्बन्धित है । सरदार वल्लभ भाई पटेल को भारत का बिस्मार्क कहा गया है । देशबन्धु चित्तरंजन दास नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के राजनीतिक गुरू थे । एम ० जी ० राणाडे गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक एवं आध्यात्मिक . . गुरू थे । बारडोली सत्याग्रह की सफलता के बाद वहाँ की महिलाओं द्वारा बल्लभ भाई पटेल को सरदार की उपाधि दी गई । सुभाषचन्द्र बोस ने गाँधी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित किया । रवीन्द्रनाथ टैगोर सर्वप्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने गाँधी को महात्मा कहा । मुहम्म्द अली जिन्ना ने काँग्रेस को सवर्ण हिन्दुओं की फासीवादी काँग्रेस कहा ।
भगत सिंह को शहीद – ए – आजम के नाम से भी जाना जाता
भगत सिंह ने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा दिया । . . वन्दे मातरम् . हे राम खुदी राम बोस सबसे कम उम्र में फाँसी पर चढ़ने वाले क्रान्तिकारी थे । नरेन्द्र गोसाई नामक व्यक्ति ‘ अलीपुर षड्यन्त्र ‘ मामले में सरकारी गवाह बना । मजहरूल हक ने राष्ट्रवादी अहरार आन्दोलन चलाया । पंजाब में चमनदीव ने डण्डा फौज का गठन किया था । सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को बिना ताज का बादशाह की उपाधि मिली । घनश्याम दास बिड़ला महात्मा गाँधी द्वारा स्थापित हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष थे । आजाद हिन्द फौज का झण्डा काँग्रेस के झण्डे के समान था जिसपर दहाड़ते हुए शेर का चित्र अंकित था ।
सुभाषचन्द्र बोस ने | मई , 1939 ई ० को फॉरवर्ड ब्लॉक नामक पार्टी की स्थापना की । ब्रिटिश सरकार ने इस पार्टी की गतिविधियों के कारण 1940 ई ० में सुभाषचन्द्र बोस के निवास स्थान पर नजरबन्द कर दिया जहाँ से 17 जनवरी , 1941 को वे यूरोप की ओर भाग गये । मुसलमानों के लिए अलग स्वतन्त्र राष्ट्र की परिकल्पना सर्वप्रथम 1930 ई ० में मुहम्मद इकबाल ने इलाहाबाद में प्रस्तुत की । मुसलमानों के लिए पृथक पाकिस्तान की परिकल्पना सर्वप्रथम कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र रहमत अली ने 1933 ई ० में प्रस्तुत की । 22-23 मार्च , 1940 ई ० को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पहली बार पृथक ‘ पाकिस्तान ‘ राज्य के निर्माण का प्रस्ताव पारित किया गया , परन्तु प्रस्ताव में ‘ पाकिस्तान ‘ शब्द का उल्लेख नहीं था । 22 मार्च , 1940 ई ० को मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में प्रसिद्ध द्विराष्ट्र सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । ‘ पाकिस्तान ‘ योजना को सर्वप्रथम आंशिक मान्यता 1942 ई ० के क्रिप्स मिशन योजना से मिली । 23 मार्च , 1942 ई ० में स्टैफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में क्रिप्स मिशन भारत आया । ‘ क्रिप्स मिशन ‘ में भारत को डोमिनियन स्टेटस का दर्जा तथा संविधान सभा के गठन का वादा किया गया । देश के प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा क्रिप्स का प्रस्ताव नकार दिया गया । महात्मा गाँधी ने क्रिप्स प्रस्ताव को आगे की तारीख का चेक ( Post dated cheque ) बताया । बाद में इस वाक्य में जिसका बैंक शीघ्र नष्ट होने वाला था , जवाहरलाल नेहरू ने जोड़ दिया । काँग्रेस कार्यकारिणी ने जुलाई में अपनी ‘ वर्धा बैठक ‘ में 14 जुलाई , 1942 ई ० को भारत छोड़ो नामक प्रस्ताव पारित किया गया । अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी ने बंबई अधिवेशन में गाँधीजी के ऐतिहासिक भारत छोड़ो प्रस्ताव को 8 अगस्त , 1942 ई ० को पास कर दिया । महात्मा गाँधी ने बंबई में करो या मरो ( Do or Die ) का नारा देते हुए भारत छोड़ो आन्दोलन की शुरूआत की । भारत छोड़ो आन्दोलन को अगस्त क्रान्ति भी कहा जाता है । भारत छोड़ो आन्दोलन के समय ब्रिटिश प्रधानमन्त्री विंस्टन चर्चिल थे ।
आन्दोलन के दौरान 9 अगस्त 1942 को काँग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया ,
काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने आन्दोलन को भूमिगत तरीके से चलाने की जिम्मेदारी अपने हाथों में ली । भारत छोड़ो आन्दोलन के शुरूआत के समय भारत का वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो था । साम्यवादी दल तथा मुस्लिम लीग ने भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग नहीं . लिया तथा ये भारत छोड़ो आन्दोलन के विरोधी थे । तेज बहादुर सा जैसे उदारवादी एवं डॉ ० भीम राव अम्बेडकर जैसे हरिजन नेताओं ने भी भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध किया । । सितम्बर , 1942 को कैप्टन मोहन सिंह ने मलाया में आजाद हिन्द फौज . के प्रथम डिवीजन का गठन किया जो सफल नहीं हो सका । आजाद हिन्द फौज की स्थापना का सर्वप्रथम विचार कैप्टन मोहन सिंह के . मन में आया था । आजाद हिन्द फौज की स्थापना का वास्तविक श्रेय रास बिहारी बोस को है ।
सुभाषचन्द्र बोस ने 1943 में आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सम्भाला ।
. सुभाषचन्द्र बोस ने हिटलर से भारत की स्वतन्त्रता के लिए सहयोग का आश्वासन प्राप्त किया तथा जर्मनी में फ्री इण्डिया सेन्टर स्थापित किया । सुभाषचन्द्र बोस ने सिंगापुर में 21 अक्टूबर 1943 ई ० को आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की । सुभाषचन्द्र बोस ने नारा दिया तुम मुझे खून दो , मैं तुम्हें आजादी दूंगा । जापानी सेना के साथ ‘ आजाद हिन्द फौज ‘ ने अंडमान तथा निकोबार द्वीपसमूह पर अधिकार कर लिया था । नेताजी ने अंडमान द्वीप का नाम शहीद द्वीप तथा ‘ निकोबार ” का नाम स्वराज द्वीप रखा । सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु 18 अगस्त , 1945 को फॉर्मोसा द्वीप से टोक्यो जाने के क्रम में एक हवाई दुर्घटना हुई मानी जाती है । द्वितीय विश्वयुद्ध में क्रमश : 6 अगस्त एवं 9 अगस्त , 1945 को जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी पर अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराने जाने के कारण जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया । जापान के आत्मसमर्पण के साथ आजाद हिन्द फौज को जापान द्वारा मिलने वाली मदद समाप्त हो गई । आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों और अधिकारियों पर दिल्ली के लाल किला में मुकदमा चलाया गया । राजगोपालाचारी ने मुस्लिम लीग और काँग्रेस के बीच समझौते के लिए 10 अगस्त 1944 को एक फार्मूला प्रस्तुत किया जिसे सी ० आर ० फार्मुला कहा जाता है । मुस्लिम लीग ने सी ० आर ० फार्मूले को नकार दिया और पाकिस्तान की माँग पर अड़े रहे तथा गाँधीजी के साथ वार्ता को असफल कर दिया । सर्वप्रथम गाँधीजी ने ही मुहम्मद अली जिना को कायदे आजम ( महान नेता ) कहा । 14 जून , 1945 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने स्वशासन से सम्बन्धित एक योजना प्रस्तुत की जिसे वेवेल योजना कहा जाता है । लॉर्ड वेवेल ने संवैधानिक सुधारों के सवाल पर 25 जून , 1945 को शिमला में एक सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन करवाया । एस ० एम ० आई ० एस ० तलवार नामक जहाज के कर्मचारियों द्वारा खराब खाने की शिकायत के कारण 1946 में शाही नौसेना विद्रोह बम्बई में शुरू हुआ । यह विद्रोह सरदार वल्लभ भाई पटेल तथा जिन्ना के दबाव के कारण 25 फरवरी 1946 ई ० को समाप्त हो गया । सत्ता हस्तांतरण के सवाल पर कैबिनेट मिशन 24 मार्च , 1946 को दिल्ली आया ।
कैबिनेट मिशन के अध्यक्ष भारत मन्त्री लार्ड पैथिक लारेन्स थे तथा अन्य दो सदस्यों में स्ट्रैफोर्ड क्रिप्स तथा ए ० वी ० अलेक्जेण्डर थे । 16 मई , 1946 को कैबिनेट मिशन ने अपने प्रस्तावों की घोषणा की । गाँधीजी और काँग्रेस ने कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार कर लिया लेकिन मुस्लिम लीग ने इसे अस्वीकृत कर दिया । कैबिनेट मिशन योजना के तहत् 1946 में संविधान सभा का चुनाव 296 सीटों पर हुआ , जिसमें काँग्रेस को 201 तथा मुस्लिम लीग को 73 सीटें प्राप्त हुई । 6 जून , 1946 ई ० को मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन प्रस्तावों को स्वीकार करते हुए पाकिस्तान की लक्ष्य – प्राप्ति हेतु संघर्ष जारी रखने का संकल्प लिया । 16 अगस्त , 1946 ई ० को मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान को प्राप्त करने के लिए ‘ प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस ‘ मनाया । 2 सितम्बर , 1946 को कैबिनेट मिशन योजना ‘ के अनुसार जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार का गठन किया गया । पाकिस्तान की मांग पूरी न होने के कारण मुस्लिम लीग ने आरम्भ में मन्त्रिमण्डल का बहिष्कार किया । बाद में मुस्लिम लीग इसमें शामिल हुई परन्तु उसने संविधान सभा का बहिष्कार किया ।
20 फरवरी , 1947 ई ० को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एटली ने घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार जून , 1948 ई ० तक भारतीयों को सत्ता सौंप देगी ।
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. . 24 मार्च , 1947 को लॉर्ड माउण्टबेटेन को भारत का वायसराय बनाकर भेजा गया । माउण्टबेटन योजना के आधार पर भारत का विभाजन हुआ और 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान का निर्माण हुआ । माउण्टबेटन योजना के तहत ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने 18 जुलाई , 1947 ई ० में भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम पारित किया । भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम , 1947 के अनुसार 15 , अगस्त , 1947 ई ० को भारत स्वतन्त्र हुआ ।
. 1793 ई ० में लार्ड कार्नवालिस ने स्थाई बन्दोबस्त ( Permanent Settle ment ) नामक व्यवस्था भू – राजस्व के क्षेत्र में लागू की । स्थाई बन्दोबस्त के अन्तर्गत भू – राजस्व का 8/9 भाग कम्पनी को तथा 1/9 भाग अपने पास रखता था । कार्नवालिस ने ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदारों के पुलिस अधिकार एवं दायित्व दोनों समाप्त कर दिये । लार्ड वेलेजली ( 1798-1805 ई . ) ने ‘ सहायक सन्धि ‘ की पद्धति शुरू की । वेलेजली ने हैदराबाद ( 1798 ई ० ) , मैसूर ( 1799 ई . ) , तंजौर ( 1799 ई . ) , अवध ( 1801 ई . ) पेशवा ( 1801 ई . ) , बरार एवं भोंसले ( 1803 ई ० ) तथा सिन्धिया ( 1804 ई . ) आदि के साथ सहायक सन्धि की । लार्ड वेलेजली ने मेहदी अली खाँ को 1799 ई . तथा जॉन मैल्न को 1800 ई ० में ईरान के शाह के दरबार में भेजा । लार्ड वेलेजली ने फोर्ट विलयम कॉलेज की स्थापना सिविल सेवा में भर्ती किये गये युवकों को प्रशिक्षित करने के लिए किया । लार्ड वेलेजली स्वयं को बंगाल का शेर कहता था । जॉर्ज बार्लो ( 1805-07 ई . ) के कार्यकाल में वेल्लोर का सिपाही विद्रोह हुआ । चार्टर ऐक्ट , 1813 द्वारा कंपनीके व्यापारिक अधिकार अगले 20 वर्षों तक बढ़ा दिए गए । चार्टर ऐक्ट , 1813 द्वारा कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार ( चाय , चीनी छोड़कर ) खत्म कर दिए गए । लार्ड मिन्टो के कार्यकाल में चार्टर एक्ट 1813 ई ० द्वारा पहली बार भारत में शिक्षा की व्यवस्था के लिए 1 लाख रुपये प्रदान करके भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रादुर्भाव हुआ । लार्ड हेस्टिंग्स के काल में थॉमस मुनरो द्वारा 1820 ई . में मद्रास राज्य में रैयतवाड़ी व्यवस्था लागू की गई । लार्ड हेस्टिंग्स ( 1813-23 ई . ) ने 28 युद्ध लड़े एवं 120 दुर्ग जीते । आगरा एवं पंजाब में लॉर्ड हेस्टिंग्स ने भू – राजस्व के क्षेत्र में महलवाड़ी व्यवस्था लागू की । भारत के पहले हिन्दी अखबार समाचार भूषण का प्रकाशन लॉर्ड हेस्टिंग्स के शासनकाल में हुआ । 1822 ई . में लॉर्ड हेस्टिंग्स ने बंगाल टेनेंसी एक्ट पारित करवाया , इसके द्वारा निर्धारित हुआ कि किसान जब तक लगान दे रहा है , तब तक उसे जमीन से वंचित नहीं किया जायेगा । लॉर्ड हेस्टिंग्स के जाने के बाद ‘ जॉन एडम्स ‘ ने अस्थाई तौर पर 7 महीने तक गवर्नर जेनरल का पद संभाला । एडम्स के बाद लॉर्ड एम्हर्स्ट ने पद संभाला । प्रथम आंग्ल – बर्मा युद्ध ( 1824-1826 ई ० ) एवं यान्डबू सन्धि लॉर्ड एकहर्ट ( 1823-28 ई . ) के काल में हुई । लार्ड एम्हर्स्ट के समय 1824 ई ० में बैरकपुर का सैन्य विद्रोह हुआ । लॉर्ड विलियम बेंटिक ( 1828-35 ई . ) के कार्य – काल में चार्टर एक्ट -1833 पारित हुआ । लॉर्ड विलियम बेंटिक ने 1829 ई ० में राजा राम मोहन राय के सहयोग से सती प्रथा का अन्त किया । विलियम बेंटिक ने कर्नल – स्लीमैन की मदद से ठगी प्रथा का अन्त किया । बेंटिक ने 1835 ई . में कलकत्ता में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज की स्थापना की । लॉर्ड विलियम बेंटिक ने शिशु बालिका की हत्या पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया । लॉर्ड विलियम बेंटिक ने 1835 में मैकाले समिति के आधार पर भारत में शिक्षा का माध्यम ( आधार ) अंग्रेजी को बनाया । लॉर्ड विलियम बेंटिक ने 1832 ई . में कानून बनाकर दास – प्रथा का निषेध कर दिया । लॉर्ड विलियम बैंटिक ने कानून बनाकर हिन्दू धर्म से दूसरे धर्म को अपनाने वाले व्यक्तियों के लिए पैतृक संपत्ति अधिकार प्रदान किया ।
विलियम बेंटिक ने अदालतों में फारसी भाषा के स्थान पर विकल्प के रूप में अन्य स्थानीय भाषाओं के प्रयोग की अनुमति दी ।
लॉर्ड विलियम बेंटिक ने आगरा में एक सर्वोच्च अपील अदालत की स्थापना की । विलियम बैंटिक के समय में कलकत्ता एवं दिल्ली को जोड़ने वाली ग्रांड ट्रंक रोड का आधुनिक निर्माण हुआ था । उसने ऊपरी गंगा नहर की योजना बनाई तथा उसके लिए सिविल इंजिनियरिंग कॉलेज की स्थापना की । . . . चार्ल्स मेटकॉफ ( 1835-36 ई ० ) ने अपने एक वर्ष के कार्यकाल में प्रेस पर से नियन्त्रण हटाया , इसी कारण उसे भारतीय प्रेस का मुक्ति दाता कहा जाता है । लार्ड ऑकलैंड ( 1936-42 ई . ) के काल में आंग्ल – अफगान युद्ध -1 की समाप्ति , रणजीत सिंह , शाह शुजा एवं अंग्रेजों के बीच 1838 ई ० में त्रिपक्षीय सन्धि से हुई । ‘ आंग्ल – अफगान युद्ध- ॥ ‘ अंग्रेजों ने लॉर्ड एलिनबरो ( 1842-44 ई . ) के शासनकाल 1842 ई . में जीता । लॉर्ड एलिनबरो के शासनकाल में ब्रिटिश साम्राज्य में पूर्णरूपेण सिंध का विलय 91843 ई . ) होगया । प्रथम आंग्ल – सिक्ख युद्ध ( 1845-46 ई ० ) लॉर्ड हार्डिंग ( 1844-48 ई . ) के शासन काल में हुआ । लॉर्ड हार्डिग ने नरबलि – प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाया । लॉर्ड डलहौजी ( 1848-56 ई . ) व्यपगत सिद्धान्त ( doctrine of lapse ) के कारण इतिहास में प्रसिद्ध है । डलहौजी ने लोअर वर्मा अथवा पेगु ( 1856 ई ० ) , सिक्किम ( 1850 ई ० ) , बराड़ ( 1853 ई ० ) एवं अवध ( 1856 ई ० ) आदि का विलय अपने साम्राज्य में कर दिया । डलहौजी ने 1856 ई ० में इसने तोपखाने के मुख्यालय को कलकत्ता से मेरठ स्थानान्तरित किया । डलहौजी सेना का मुख्यालय शिमला में स्थापित किया ।
डलहौजी को भारत में रेलवे का जनक माना जाता है । डलहौजी के समय भारत में पहली बार 1853 ई . में बम्बई से थाणे के बीच प्रथम रेल चलायी गयी । डलहौजी के कार्यकाल में 1854 ई ० तक कलकत्ता से रानीगंज कोयला – क्षेत्र तक रेल लाईन बिछा दी गई । डलहौजी ने भारत में पहली बार डाक टिकटों ( Postal Stamps ) का चलन आरम्भ किया । डलहौजी ने 1852 ई ० में भारत में पहली बार विद्युत तार ( Electric Telegraph ) व्यवस्था आरम्भ की । डलहौजी ने भारत में पहली बार एक सार्वजनिक निर्माण विभाग ( PWD ) की स्थापना की । डलहौजी के समय में भारतीय नागरिक सेवा ( ICS ) हेतु पहली बार प्रतियोगिता परीक्षा शुरू हुई । 1854 ई . में डलहौजी ने स्वतन्त्र लोक सेवा विभाग की स्थापना की । डलहौजी के काल में शिमला को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया गया । डलहौजी ने शिक्षा सम्बन्धी सुधारों के अन्तर्गत 1854 में वुड्स डिस्पैच को लागू किया । विधवा पुनर्विवाह विधेयक ( 1856 ई ० ) डलहौजी के काल में लाया गया । डलहाजी ने सिंचाई की सुविधा के लिए गंगा नहर का निर्माण करवाया , पंजाब में बारी दोआब नहर पर निर्माण कार्य की नींव डाली । डलहौजी ने परिवहन की सुविधा के लिए ‘ ग्रांड ट्रंक ‘ रोड की मरम्मत करवायी । डलहौजी के काल में 1853 के चार्टर एक्ट आया तथा 1855 ई ० में संथाल विद्रोह हुआ । डलहौजी ने भारत के बन्दरगाहों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए खोल दिया । डलहौजी के बाद लाई कैनिंग ( 1856-62 ई ० ) भारत का गवर्नर जनरल . . . . का . रि व लि . . लार्ड कैनिंग भारत का ब्रिटिश सम्राट के अधीन प्रथम वायसराय था ।