History Best Short Points

History Best Short Points

भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण तिथियाँ

 
 

ईसा पूर्व (बी.सी.) Before Christ

 
 
  • लगभग 2500 ई.पू. हड़प्पा संस्कृति.
 
  • इसके प्रमुख केन्द्र थे- मोहनजोदडो तथा हडप्पा, लोथल, कालीबंगान, आलमगीरपुर
 
  • 1500 ई.पू. ऋग्वैदिक सभ्यता का आरम्भ
 
  • 800 ई.पू. – लोहे का प्रयोग, आर्य सभ्यता का प्रसार
 
  • 567 ई. पू. – लुम्बनी में महात्मा बुद्ध का जन्म
 
  • 519 ई.पू. – ईरान के सम्राट साइरस द्वारा पश्चिमोत्तर भारत के प्रदेशों की विजय
 
  • 493 ई.पू. मगध के अजातशत्रु का राज्यारोहण
 
  • 486 ई. पू. – महात्मा गौतम बुद्ध को कुशी-नगर नामक स्थान पर मोक्ष प्राप्त
 
  • 468 ई.पू. महावीर स्वामी को राजगिरी के निकट पावापुरी नामक स्थान पर निर्वाण प्राप्त
  • 413 ई. पू. – शिशुनाग राजवंश की मगध में स्थापना
 
  • 362-21 ई.पू. – नन्दवंश का शासकाल
 
  • 327-25 ई. पू. – यूनान के सिकन्दर महान् का भारत पर आक्रमण
 
  • 321 ई. पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण
 
  • 305 ई.पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा सेल्यूकस की पराजय
 
  • 269-232 ई.पू. – अशोक का शासनकाल
 
  • 261 ई. पू. – अशोक की कलिंग पर विजय
 
  • 250 ई. पू. – पाटलीपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति
 
  • 185 ई.पू. अन्तिम मौर्य सम्राट ब्रहद्रथ का वध मौर्य वंश का शासन समाप्त शुंग वंश का उदय
 
  • 180-165 ई.पू. – इण्डो-ग्रीक दिमीत्रियस द्वितीय का उत्तर-पश्चिम भारत पर शासन
 
  • 155-130 ई. पू. मेनान्डर का शासन-
 
  • 73 ई. पू. शुंग वंश के अन्तिम सम्राट देवभूति का वासुदेव कण्व द्वारा वध
 
  • 73-28 ई.पू. – कण्व वंश का शासनकाल
 
  • 58 ई.पू. विक्रम संवत् का प्रारम्भ
 
  • 50 ई.पू. कलिंग का राजा खारवेल
 
  • 28 ई.पू. 225 ई.पू. आन्ध्र व सातवाहन वंश का शासनकाल
 
 
 
  • ईसवी सन् (ए.डी.) Anno Domini
 
 
  • 50 ईसवी सन्त थॉमस का भारत आगमन
 
  • 78 ईसवी- शक संवत् का प्रारम्भ
 
  • 78-101 ईसवी कुषाण वंश के प्रतापी शासक कनिष्क का शासनकाल कुछ के अनुसार (78-125 ईसवी)
 
  • 86-114 ईसवी- गौतमीपुत्र शतकर्णी का शासनकाल
 
  • 130-150 ईसवी- शक शासक रुद्र दमन प्रथम का पश्चिमी भारत पर शासन
 
  • 319-320 ईसवी-गुप्त वंश का प्रारम्भ. गुप्त संवत्, चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्यारोहण
 
  • 335 ईसवी समुद्रगुप्त सिंहासन पर आसीन हुआ
 
  • 375-415 ईसवी- चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल
 
  • 388-409 ईसवी के मध्य – चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शक सत्ता का अन्त
 
  • 405-411 ईसवी – चीनी यात्री फाह्यान की भारत यात्रा.
 
  • 415 ईसवी- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का पुत्रकुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर आसीन हुआ
 
  • 455-67 ईसवी-हुणों का आक्रमण
 
  • 455-67 ईसवी स्कन्दगुप्त का शासन-
 
  • 476 ईसवी – महान् वैज्ञानिकों व ज्योतिर्विद काल आर्यभट्ट का जन्म
 
  • 570 ईसवी – पैगम्बर मोहम्मद का जन्म
 
  • 606-647 ईसवी- हर्षवर्धन का शासन.
 
  • 622 ईसवी हिजरी संवत् का प्रारम्भ
 
  • 628-34 ईसवी के मध्य-पुलकेशिन द्वितीय द्वारा हर्षवर्धन को पराजित करना
 
  • 629-645 ईसवी – चीनी यात्री ह्वेनसाग की भारत यात्रा
 
  • 642 ईसवी-महान् पल्लव शासक नरसिंह वर्मन प्रथम द्वारा पुलकेशिन द्वितीय की पराजय
 
  • पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु
 
  • 671-685 ईसवी – चीनी विद्वान् इत्सिंग का भारत के लिए प्रस्थान भारत में निवास का समय
 
  • 712-13 ईसवी- मुहम्मद बिन कासिम द्वारा भारत पर आक्रमण तथा सिन्ध तट पर अधिकार 736 ईसवी दिल्ली के प्रथम नगर की स्थापना
 
  • 740 ईसवी चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा पल्लव वंश का अन्त
 
 
  • 750 ईसवी बंगाल में पाल वंश के शासन का आरम्भ
 
  • 757 ईसवी दन्ति दुर्ग धारा चालुक्यों से अपनी स्वतन्त्रता घोषित तथा राष्ट्रकुल वंश का
 
  • शक्तिशाली वंश के रूप में उदय
 
  • 793 ईसवी- राष्ट्रकूट वंश के गोविन्द तृतीय का राज्याभिषेक
 
  • 814-880 ईसवी राष्ट्रकूट शासक अमोघ- वर्ष प्रथम का शासनकाल
 
  • 836-92 ईसवी -प्रतिहार वंश के महान् शासक भोज कन्नौज के सिंहासन पर आसीन, पूर्वी चालुक्य वंश के भीम प्रथम का राज्याभिषेक 897 ईसवी-चोल राजा द्वारा अन्तिम पल्लव शासक की पराजय काँची के पल्लवों का अन्त
 
  • 915 ईसवी- राष्ट्रकूट शासक द्वारा बंगाल के शासक महीपाल की पराजय राष्ट्रकूट वंश का मध्य भारत में शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में अभ्युदय
 
  • 949 ईसवी कृष्ण तृतीय द्वारा चोलवंशीय परान्तक प्रथम की पराजय 985 ईसवी – राजराज चोल प्रथम का राज्याभिषेक
 
  • 1001 ईसवी-महमूद गजनी द्वारा पेशावर और पंजाब के हिन्दूशाही शासक जयपाल की पराजय 1008 ईसवी-पेशावर के समीप वेहिन्द पर महमूद गजनी द्वारा आक्रमण, आनंदपाल की पराजय
 
  • 1010 ईसवी – भोज परमार शासक बना
 
  • 1014 ईसवी-राजेन्द्र प्रथम चोल वंश का शासक बना
 
  • 1017-1137 ईसवी दार्शनिक रामानुज 1019 ईसवी-महमूद गजनवी का मथुरा व कन्नौज पर आक्रमण
 
  • 1022 ईसवी-महमूद गजनवी का कालिजर पर आक्रमण व ग्वालियर पर आक्रमण
 
  • 1025 ईसवी महमूद गजनवी ईसवी-महमूद द्वारा सोमनाथ पर आक्रमण लूटपाट तथा मन्दिर तोड़ना
 
  • 1030 ईसवी- अल्बरूनी भारत में
 
  • 1030 ईसवी- राजेन्द्र चोल का उत्तरी. भारत का अभियान
 
  • 1175 ईसवी- मुहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण व मुल्तान दुर्ग पर कब्जा
 
  • 1178 ईसवी -मुहम्मद गौरी का गुजरात पर आक्रमण तथा पराजय
 
  • 1191 ईसवी तराइन का प्रथम युद्ध पृथ्वीराज चौहान द्वारा मुहम्मद गौरी की पराजय
 
  • 1192 ईसवी तराइन का द्वितीय युद्ध पृथ्वीराज चौहान की मुहम्मद गौरी द्वारा पराजय
 
  • 1194 ईसवी- मुहम्मद गौरी द्वारा चन्द्रावर के युद्ध में कन्नौज के शासक जयचन्द की पराजय
 
  • 1206 ईसवी कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली के सिहासन पर आसीन मुस्लिम राज्य की स्थापना. मुहम्मद गौरी की हत्या
 
  • 1210 ईसवी दिल्ली सुल्तान कुतुबुदीन ऐबक की मृत्यु 1211 ईसवी इल्तुतमिश का शासनकाल आरम्भ
 
  • 1221 ईसवी- मंगोलों के सरदार चगेज खाँ का खारिज्म के शाह पर आक्रमण
 
  • 1236 ईसवी- शेख निजामुद्दीन औलिया का जन्म इल्तुतमिश की पुत्री रजिया आसीन
 
  • 1236 ईसवी दिल्ली के सुल्तान पद पर
 
  • 1240 ईसवी रजिया सुल्तान का वध
 
  • 1246 ईसवी – नासिरूद्दीन औलिया का जन्म
 
  • 1266 86 ईसवी- गयासुद्दीन बलबन का शासनकाल
 
  • 1288 ईसवी-मार्क पोलो का भारत आगमन
 
  • 1290 ईसवी दासवंश का अंत जलालुद्दीन खलजी द्वारा दिल्ली पर अधिकार. 1294 ईसवी- अलाउद्दीन खलजी द्वारा देवगिरी पर विजय.
 
  • 1296 ईसवी- जलालुद्दीन खलजी का अलाउद्दीन खलजी द्वारा वध, अलाउद्दीन का राज्यारोहण
 
  • 1297-1305 ईसवी अलाउद्दीन की उ भारत में विजयों का काल
 
  • 1306-1313 ईसवी दक्षिण भारत में अलाउद्दीन का विजय अभियान,
 
  • 1316 ईसवी- अलाउद्दीन खलजी की मृत्यु.
 
  • 1324-26 ईसवी-मोहम्मद बिन तुगलक
 
  • 1328 ईसवी – मोहम्मद बिन तुगलक द्वारा का राज्यारोहण.राजधानी परिवर्तन
 
  • 1329-32 ईसवी-मुहम्मद तुगलक द्वारा सांकेतिक मुद्रा का चलन
 
  • 1333-34 ईसवी- इब्नबतूता का आगमन
 
  • 1336 ईसवी दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना
 
  • 1347 ईसवी- अलाउद्दीन हसन बहमन शाह द्वारा दक्षिण भारत में बहमनी राज्य की स्थापना
 
  • 1351 ईसवी-फिरोज तुगलक का राज्या-रोहण
 
  • 1398 ईसवी भारत पर तैमूरलंग का आक्रमण व दिल्ली लूट
 
  • 1451 ईसवी- लोदी वंश की स्थापना
 
  • 1469 ईसवी- गुरुनानक का पाकिस्तान स्थित तलबडी नामक स्थान में जन्म
 
 
 
  • 1485 ईसवी चैतन्य का जन्म
 
  • 1498 ईसवी- वास्कोडिगामा का आगमन भारत
 
  • 1509 ईसवी कृष्णदेव राय का राज्या-रोहण, मेवाड़ में राणा सांगा का राज्यारोहण
 
  • 1510 ईसवी – पुर्तगालियों ने बीजापुर से गोआ छीना.
 
  • 1517 ईसवी – सिकन्दर लोदी की मृत्यु व इब्राहीम लोदी उत्तराधिकार नियुक्त.
 
  • 1520 ईसवी कृष्णदेव राय द्वारा बीजापुर के शासक की पराजय तथा गोलकुण्डा पर अधिकार 1525 ईसवी – बाबर द्वारा पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोदी पराजित व पंजाब पर अधिकार
 
  • 1526 ईसवी – पानीपत का प्रथम युद्ध, इब्राहीम लोदी व बाबर के बीच इब्राहीम लोदी की पराजय भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना
 
  • 1527 ईसवी खानवा का युद्ध, बाबर तथा राणा सांगा के मध्य, राणा सांगा की पराजय.
 
  • 1528 ईसवी चंदेरी का युद्ध बाबर तथा मेदिनीराय के मध्य बाबर की विजय
 
  • 1529 ईसवी – घाघरा का युद्ध. बाबर द्वारा अफगानों पर विजय प्राप्त करना..
 
  • 1530 ईसवी – बाबर की मृत्यु हुमायूँ का आगरे में राज्यारोहण, विजयनगर साम्राज्य के महानतम शासक राणा कृष्णदेव राय की मृत्यु तथा उत्तराधिकार युद्ध.
 
  • 1532 ईसवी- हुमायूँ द्वारा दौर्रा के युद्ध में अफगानों की पराजय तथा चुनार का घेरा.
 
  • 1533 ईसवी-गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ जीता.
 
  • 1535 ईसवी- हुमायूँ द्वारा बहादुरशाह की पराजय तथा गुजरात व मालवा पर अधिकार..
 
  • 1538 ईसवी- हुमायूँ द्वारा शेरखान से चुनारगढ़ का किला छीनना…
 
  • 1539 ईसवी चौसा का युद्ध, शेरखान द्वारा बंगाल अभियान से लौटते हुए हुमायूँ को चौसा नामक स्थान पर पराजित करना
 
  • 1540 ईसवी – बिलग्राम अथवा कन्नौज का युद्ध, शेरखान द्वारा हुमायूँ तथा उसकी सेना की निर्णायक पराजय तथा हुमायूँ का पलायन, शेरशाह द्वारा दिल्ली में सूर साम्राज्य की स्थापना.
 
  • 1542 ईसवी-15 अक्टूबर को अमरकोट में राणा वीरसाल के महल में अकबर का जन्म
 
  • 1544 ईसवी- सामेल का युद्ध, शेरशाह म द्वारा मारवाड़ के शासक मालदेव की पराजय.
 
  • 1545 ईसवी- शेरशाह द्वारा बुन्देलखण्ड स्थित कालिंजर किले का घेरा किले पर विजय, किन्तु बारूद फट जाने के कारण शेरशाह की मृत्यु, इस्लामशाह का राज्यारोहण.
 
  • 1533 ईसवी-सूर वंश के दूसरे शासक इस्लामशाह की मृत्यु तथा सूर साम्राज्य का
 
  • विखण्डन
 
 
  • 1555 ईसवी मच्छीवाड़ा का युद्ध हुमायूँ द्वारा अफगानों को पराजित कर दिल्ली तथा आगरे पर अधिकार
 
  • 1556 ईसवी – दीनपनाह महल की सीढ़ियों से लुढककर हुमायूँ की मृत्यु अकबर का पंजाब में स्थित कालानोर नामक स्थान पर सिंहासनारोहण, चुनार के सूर शासक मोहम्मद आदिलशाह के हिन्दू सेनापति हेमू द्वारा आगरा तथा दिल्ली पर अधिकार, 5 नवम्बर पानीपत का दूसरा युद्ध अकबर द्वारा हेमू की पराजय तथा वध
 
  • 1560 ईसवी बैरम खाँ का विद्रोह, अकबर द्वारा दमन तथा मक्का जाने का आदेश, किन्तु र मार्ग में ही पाटन नामक स्थान पर उसका वध
 
  • 1563-64 ईसवीअकबर द्वारा हिन्दुओं पर लगाए हुए जजिया कर तथा तीर्थ यात्रा कर की समाप्ति.
 
  • 1565 ईसवी तालीकोटा का युद्ध-बीजापुर, अहमदनगर तथा गोलकुण्डा की संयुक्त सेनाओं द्वारा तालीकोटा के निकट बन्नीहट्टी नामक स्थान पर विजयनगर की सेना को निर्णायक रूप से पराजित करना तथा विजयनगर को लूटकर ध्वस्त करना.
 
  • 1567 ईसवी-अकबर द्वारा मेवाड़ के राणा उदयसिंह को पराजित कर चित्तौड़ के किले पर
 
  • अधिकार..
 
  • 1572 ईसवी – राणा उदयसिंह की मृत्यु राणा प्रताप का राज्यारोहण.
 
  • 1573 ईसवी-अकबर द्वारा गुजरात विजय.
 
  • 1575 ईसवी- अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में इबादत खाने की स्थापना..
 
  • 1576 ईसवी – बंगाल व बिहार के अन्तिम अफगान शासक दाउद खाँ की पराजय तथा बंगाल एवं बिहार का मुगल साम्राज्य में विलय,हल्दी घाटी का युद्ध मुगल सेना के सेनापति राजा मानसिंह द्वारा राणा प्रताप की पराजय
 
  • 1577 ईसवी-अकबर द्वारा मनसबदारी प्रथा का प्रारम्भ
 
  • 1579 ईसवी- अकबर के पक्ष में महजर की घोषणा
 
  • 1582 ईसवी-अकबर द्वारा मिर्जा हकीम – की पराजय तथा काबुल पर अधिकार, अकबर द्वारा तौहीद-ए-इलाही अथवा दीन-ए-इलाही नामक नवीन धर्म की स्थापना…
 
  • 1591 ईसवी अकबर द्वारा सिंध पर विजय,
 
  • 1592 ईसवी-अकबर द्वारा उड़ीसा का मुगल साम्राज्य में विलय करना.
 
  • 1595 ईसवी कांधार पर मुगलों का अधिकार.
 
  • 1596 ईसवी – अहमदनगर की शासिका चाँद बीबी द्वारा मुगलों की अधीनता स्वीकार करना तथा बरार प्रदेश मुगलों को देना.
 
  • 1597 ईसवी मुगल सेना द्वारा बीजापुर गोलकुण्डा अहमदनगर की संयुक्त सेनाओं को पराजित करना, राणाप्रताप की मृत्यु.
 
 
  • 1600 ईसवी 31 दिसम्बर ईस्ट इण्डिया कम्पनी की इगलैण्ड में स्थापना
 
  • 1601 ईसवी डच व्यापारिक कम्पनी की स्थापना
 
  • 1602 ईसवी अबुल फजल की हत्या
 
  • 1605 ईसवी- अकबर महान् की मृत्यु तथा जहाँगीर का राज्यारोहण
 
  • 1606 ईसवी खुसरो का विद्रोह
 
  • 1608 ईसवी भारत स्थित सूरत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रथम कारखाने की स्थापना 1609 ईसवी कैप्टिन हॉकिन्स का आगरा में जहाँगीर के दरबार में आगमन
 
  • 1610 ईसवी मलिक अम्बर द्वारा दक्षिण राज्यों को संगठित कर मुगलों को वहाँ से निष्कासित करना
 
  • 1611 ईसवी-जहाँगीर का महरुन्निसा (नूरजहाँ से विवाह, ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा दक्षिण भारत में अपना पहला कारखाना मसूलीपट्टनम स्थान पर खोला जाना
 
  • 1612 ईसवी- खुर्रम (शाहजहाँ) का मुमताजमहल से विवाह
 
  • 1615 ईसवी जहाँगीर द्वारा मेवाड के राणा अमरसिंह से सम्मानपूर्वक समझौता तथा अमरसिंह के पुत्र को मुगल सेवा में रखना
 
  • 1616 ईसवी-अंग्रेजी राजदूत सर टॉमस रो का मुगल दरबार में आगमन तथा सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य में व्यापार करने तथा कारखाने स्थापित करने की छूट का शाही फरमान प्राप्त करना
 
  • 1622 ईसवी-शाहजहाँ का विद्रोह तथा कन्धार का मुगलों के हाथ से निकलना
 
  • 1626 ईसवी-मलिक अम्बर की मृत्यु
 
  • 1627 ईसवी-शिवाजी का जन्म लाहौर के निकट जहाँगीर की मृत्यु
 
  • 1628 ईसवी- शाहजहाँ का राज्यारोहण
 
  • 1630 ईसवी शिवाजी का जन्म
 
  • 1631 ईसवी-मुमताज महल की मृत्यु
 
  • 1632 ईसवी मलिक अम्बर के पुत्र फतेह खाँ द्वारा मुगलों को अहमदनगर समर्पित करना
 
  • 1633 ईसवी-मुगल सेनापति महावत खाँ द्वारा दौलतबाद पर अधिकार तथा अहमद नगर के निजामशाही वंश की समाप्ति करना
 
  • 1639 ईसवी-अंग्रेजों द्वारा मदास को पट्टे पर लेना तथा वहाँ सेन्ट जॉर्ज किले का निर्माण कराना
 
  • 1651 ईसवी-अंग्रेजी कम्पनी द्वारा बंगाल के नवाब से हुगली में व्यापार करने का आदेश प्राप्त करना
 
  • 1653 ईसवी – शाहजहाँ द्वारा ताजमहल का निर्माण
 
 
  • 1657 ईसवी – शाहजहाँ की बीमारी तथा
 
 
  • उत्तराधिकार युद्ध का आरम्भ
 
  • 1658-59 ईसवी- सामूगढ़ का युद्ध औरंगजेब द्वारा दाराशिकोह को पराजित करना, आगरे के किले पर विजय तथा शाहजहाँ को बन्दी बनाना शिवाजी द्वारा बीजापुर के सेनापति अफजल खाँ का वध
 
  • 1662 ईसवी- पुर्तगालियों द्वारा इगलैण्ड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय के पुर्तगाली राजकुमारी से विवाह के उपलक्ष्य में मुम्बई द्वीप दहेज स्वरूप देना
 
  • 1663 ईसवी शिवाजी का पूना में मुगल सेनापति शाइस्ता खाँ पर रात्रि में आक्रमण
 
  • 1664 ईसवी फ्रांसीसी मंत्री कोबार्ट द्वारा – फ्रेन्च ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना, शिवाजी द्वारा सूरत की लूट
 
  • 1665 ईसवी औरंगजेब द्वारा नवनिर्मित मंदिरों को तोडने के आदेश, मुगल सेनापति राजा जयसिंह द्वारा शिवाजी को पराजित करना तथा पुरन्दर की संधि के लिए बाध्य करना
 
  • 1666 ईसवी – शिवाजी का आगरा में मुगल दरबार में आगमन तथा बन्दी बनाया जाना, किन्तु फलों के टोकरे में छुपकर कैद से भाग जाना
 
  • 1668 ईसवी ब्रिटिश सम्राट द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को मुम्बई द्वीप प्रदान करना सूरत में फ्रांसीसियों की प्रथम फैक्ट्री की स्थापना
 
  • 1669 ईसवी गोकुल के नेतृत्व में जाटों का विद्रोह तथा मुगल सरकार द्वारा कठोरता से दमन
 
  • 1670 ईसवी शिवाजी द्वारा दूसरी बार ने सूरत के किले पर आक्रमण तथा लूट तथा पुरन्दर की संधि द्वारा मुगलों को दिए गए अधिकांश किलों पर पुन अधिकार
 
  • 1672 ईसवी-नारनौल के सतनामियों का विद्रोह तथा मुगलों द्वारा दमन
 
  • 1674 ईसवी – शिवाजी का रायगढ़ नामक स्थान पर सिंहासनारोहण तथा छत्रपति की उपाधि धारण करना, फ्रांसीसी कम्पनी द्वारा पाण्डिचेरी की स्थापना
 
  • 1675 ईसवी सिखों के नवें गुरु तेगबहादुर का औरंगजेब द्वारा वध
 
  • 1679 ईसवी औरगजेब का मारवाड़ पर आक्रमण, जजिया कर पुनः लागू करना
 
  • 1680 ईसवी- छत्रपति शिवाजी की मृत्यु
 
  • 1685 ईसवी – राजाराम तथा चूडामणि के नेतृत्व में जाटों का दूसरा विद्रोह 1686 ईसवी हुगली में मुगलों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा तथा मुगलों द्वारा बीजापुर पर अधिकार
 
  • 1687 ईसवी मुगलों का गोलकुण्डा पर अधिकार
 
  • 1689 ईसवी-औरगजेब द्वारा शम्भाजी का – वध तथा राजाराम द्वारा मराठों का नेतृत्व
 
  • 1691 ईसवी-मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा अंग्रेजों को बंगाल में बिना किसी कर के व्यापार
 
  • करने की अनुमति प्रदान करना
 
  • 1698 ईसवी-एक नई अंग्रेज कम्पनी की स्थापना, सुतनाती, गोविन्दपुर व कलकत्ता की जमीदारी अंग्रेजों को मिलना
 
 
  • 1699 ईसवी सिखों के 10वें तथा अन्तिम गुरु गोविन्द सिंह द्वारा आनन्दपुर नामक स्थान पर खालसा पथ का गठन
 
  • 1702 ईसवी अग्रेज कम्पनियों का एकी
  • 1706 ईसवी सिखों तथा मुगलों में मित्रता करण तथा गुरु गोविन्दसिंह जी का औरंगजेब से मिलन दक्षिण जाना, औरंगजेब द्वारा सभी मराठा
 
  • दुर्ग विजित करने के अभियान में असफल
 
  • होकर औरगाबाद लौटना
 
  • 1707 ईसवी औरगाबाद में औरगजेब की मृत्यु तथा वहादुरशाह प्रथम का दिल्ली में सिहासनारोहण
 
  • 1708 ईसवी गुरुगोविन्द सिंह द्वारा मुगल सम्राट बहादुरशाह प्रथम के अधीन मनसबदारी प्राप्त करना तथा एक अफगान सैनिक द्वारा उनका धोखे से वध कर देना
 
  • 1712 ईसवी बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु तथा उत्तराधिकार का युद्ध
 
  • 1713 ईसवी-सैयद बन्धुओं की सहायता से फर्रुखसियर का मुगल सम्राट बनना
 
  • 1713-14 ईसवी-मराठा छत्रपति शाहू के पेशवा बालाजी विश्वनाथ द्वारा पेशवा दश की स्थापना
 
  • 1719 ईसवी – पेशवा बालाजी विश्वनाथ द्वारा सैयद मोहम्मद को मुगल सम्राट फर्रुखसियर को पदच्युत करने में सहायता प्रदान करना, मुहम्मदशाह का मुगल सम्राट बनना
 
  • 1720 ईसवी- पेशवा बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु तथा बाजीराव प्रथम पेशवा पद पर आसीन
 
  • 1722 ईसवी-सादात खाँ का अवध का सूबेदार नियुक्त होना तथा बाद में उसके द्वारा अवध की स्वतन्त्रता तथा वहाँ नवाबियत की स्थापना करना
 
  • 1724 ईसवी मुगल साम्राज्य के वजीर निजामुल मुल्क द्वारा पद त्याग तथा दक्षिण में हैदराबाद राज्य की स्थापना करना
 
  • 1739 ईसवी- नादिरशाह का आक्रमण करनाल के युद्ध में नादिरशाह द्वारा मुगल सम्राट मुहम्मदशाह की पराजय दिल्ली में भयकर लूटपाट
 
  • 1740 ईसवी – बाजीराव प्रथम की मृत्यु तथा बालाजी बाजीराव द्वारा उत्तराधिकार प्राप्त करना, अलीवर्दी खों द्वारा मुर्शीद कुली खाँ के दामाद को गद्दी से हटाकर बंगाल का नवाब बनना
 
  • 1742 ईसवी मराठों का बंगाल पर आक्रमण
 
  • 1744-48 ईसवी-प्रथम कर्नाटक का युद्ध अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों के मध्य
 
  • 1746 ईसवी- फ्रासीसियों ने मदास जीता
 
  • 1748 ईसवी-मुगल सम्राट मोहम्मदशाह की मृत्यु
 
  • 1749 ईसवी छत्रपति शाहू की मृत्यु, ■ पेशवा बालाजी बाजीराव द्वारा मराठा राज्य की राजधानी सतारा से पूना स्थानातरित करना।
 
  • 1751 ईसवी क्लाइव द्वारा अर्काट की प्रतिरक्षा
 
  • 1754 ईसवी आलमगीर द्वितीय का दिल्ली में सिंहासनारोहण.
 
  • 1756 ईसवी अलीवर्दी खाँ की मृत्यु, सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना
 
  • 1556-63 ईसवी यूरोप में इंगलैण्ड तथा फ्रांस के मध्य छिड़े सप्तवर्षीय युद्ध के परिणामस्वरूप भारत में अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों के मध्य तृतीय कर्नाटक युद्ध. सूरजमल जाट के नेतृत्व में जाटों द्वारा दिल्ली के आसपास एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना.
 
  • 1757 ईसवी-23 जून को प्लासी का युद्ध.. बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला तथा अंग्रेजों के मध्य युद्ध, नवाब की पराजय तथा मीरजाफर का अंग्रेजों की सहायता से नवाब बनना.
 
  • 1760 ईसवी – वांडीवाश का युद्ध-अंग्रेजों द्वारा फ्रांसीसियों को निर्णायक रूप से पराजित करना, अंग्रेजों द्वारा मीरजाफर को गद्दी से हटाकर उसके दामाद मीरकासिम को बंगाल का नवाब बनाना.
 
  • 1761 ईसवी – पानीपत का तृतीय युद्ध- सदाशिव भाऊ के नेतृत्व में मराठा सेनाओं को अफगान सरदार अहमदशाह अब्दाली द्वारा रुहेलखण्ड के नवाब नजीबउद्दौला तथा अवध के नवाब शुजाउद्दौला की सहायता से पराजित करना, अलीगौहर शाहआलम द्वितीय के नाम से अहमदशाह अब्दाली द्वारा दिल्ली का सम्राट नियुक्त, पेशवा बालाजी वाजीराव द्वितीय की मृत्यु तथा माधवराव द्वारा उत्तराधिकार प्राप्त करना, हैदरअली द्वारा मैसूर के हिन्दू राजा को हटाकर स्वयं सत्ता सँभालना.
 
  • 1764 ईसवी- बक्सर का युद्ध-अंग्रेजों द्वारा बंगाल के नवाब मीरकासिम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेनाओं की पराजय
 
  • 1765 ईसवी- मीरजाफर की बंगाल में मृत्यु, बंगाल के गवर्नर क्लाइव द्वारा बंगाल में द्वैध शासन प्रणाली प्रारम्भ करना.
 
 
  • 1767-69 ईसवी- प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध हैदर अली तथा अंग्रेजों के मध्य.
 
  • 1770 ईसवी बंगाल का भीषण अकाल, जिसमें बंगाल की एक तिहाई जनता का समाप्त होना…
 
  • 1771 ईसवी-मराठों द्वारा सम्राट शाह- आलम द्वितीय को इलाहाबाद से लाकर पुनः दिल्ली के सिहासन पर आसीन करना..
 
  • 1772-74 ईसवी वारेन हेस्टिंग्ज बंगाल का गवर्नर
 
  • 1772 ईसवी-बंगाल में द्वैध शासन की समाप्ति तथा कम्पनी द्वारा बंगाल में प्रत्यक्ष रूप से शासन, पेशवा माधव राव की मृत्यु तथा गृहयुद्ध.
 
  • 1773 ईसवी रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित.
 
  • 1774 ईसवी-रूहेला युद्ध, वारेन हेस्टिंग्ज गवर्नर जनरल, सुप्रीम कोर्ट कलकत्ता में स्थापित.
 
 
  • 1775-82 ईसवी- प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध. ने
 
  • 1780-84 ईसवी – द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध.
 
  • 1782 ईसवी हैदरअली की मृत्यु, टीपू सुल्तान का मैसूर के सिंहासन पर बैठना, सालबाई की संधि
 
  • 1784 ईसवी-पिट का इण्डिया एक्ट पारित, मंगलौर की संधि.
 
  • 1786 ईसवी कार्नवालिस का गवर्नर जनरल बनना.
 
  • 1790-92 ईसवी तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध.श्रीरंगपट्टम् की संधि.
 
  • 1793 ईसवी कार्नवालिस द्वारा बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त लागू करना.
 
  • 1795 ईसवी- निजाम तथा मराठों के बीच खर्दा का युद्ध
 
  • 1798 ईसवी- अहमदशाह अब्दाली के पोते जमानशाह अब्दाली का भारत पर आक्रमण..
 
  • 1798 ईसवी- लॉर्ड वेलेजली भारत का गवर्नर जनरल.
 
  • 1799 ईसवी – चतुर्थ मैसूर युद्ध. टीपू सुल्तान की मृत्यु, रणजीतसिंह ने लाहौर जीता.
 
  • 1800 ईसवी-नाना फड़नवीस की मृत्यु.
 
  • 1801 ईसवी- लॉर्ड वेलेजली का कर्नाटक पर अधिकार
 
  • 1802 ईसवी – बेसीन की संधि, पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा वेलेजली के मध्य.
 
  • 1803-05 ईसवी – द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध.
 
  • 1806 ईसवी – वेलूर का सैनिक विद्रोह तथा अंग्रेजों द्वारा कठोरता से दमन.
 
  • 1809 ईसवी-अंग्रेज तथा रणजीत सिंह के मध्य अमृतसर की संधि.
 
  • 1813 ईसवी चार्टर अधिनियम पारित. ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत से व्यापार करने का एकाधिकार समाप्त.
 
  • 1814-16 ईसवी- आंग्ल गोरखा युद्ध.
 
  • 1817-18 ईसवी – पिण्डारियों के विरुद्ध अंग्रेजों का अभियान, तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध.
 
  • 1819 ईसवी – मुम्बई में एलफिस्टन गवर्नर बने.
 
  • 1820 ईसवी- मुनरो मद्रास के गवर्नर बने.
 
  • 1824-26 ईसवी-प्रथम आंग्ल बर्मा युद्ध..
 
  • 1828 ईसवी – ब्रह्म समाज की स्थापना, विलियम बैंटिंक भारत के गवर्नर जनरल बने.
 
  • 1829 ईसवी – सतीप्रथा का अन्त
 
  • 1833 ईसवी राजा राममोहन राय की इंगलैण्ड में मृत्यु, नवाँ चार्टर पारित.
 
  • 1834 ईसवी-कुर्ग पर अंग्रेजी अधिकार.
 
  • 1835 ईसवी-अंग्रेजी भाषा भारतीय प्रशासन की सरकारी भाषा बनी.
 
  • 1838 ईसवी-ईस्ट इण्डिया कम्पनी, रणजीत सिंह तथा शाह शुजा के बीच त्रिदलीय संधि.
 
  • 1839 ईसवी – रणजीत सिंह की मृत्यु.
 
  • 1839-42 ईसवी- प्रथम आंग्ल अफगान युद्ध
 
  • 1843 ईसवी- सिन्ध की विजय पू 1845-46 ईसवी- प्रथम आंग्ल सिख युद्ध
 
 
  • 1848 ईसवी- डलहौजी की गवर्नर जनरल के रूप में नियुक्ति
 
 
  • 1848-49 ईसवी द्वितीय आंग्ल सिख युद्ध तथा पंजाब का विलय
 
  • 1852 ईसवी द्वितीय आंग्ल वर्मा युद्ध
 
  • 1853 ईसवी भारत में बम्बई से थाणे तक प्रथम रेलवे की स्थापना.में
 
  • 1854 ईसवी- सर चार्ल्स बुड का शिक्षा नीति पर पत्र, झाँसी का विलय,
 
  • 1855 ईसवी-संथाल विद्रोह.
 
  • 1856 ईसवी – अवध का विलय.
 
  • 1857 ईसवी- भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का प्रारम्भ.
 
  • 1858 ईसवी- प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की समाप्ति, विक्टोरिया भारत की साम्राज्ञी घोषित की गई.
 
  • 1859 ईसवी बंगाल में नील विद्रोह 1861 ईसवी भारतीय परिषद नियम फौजदारी और दीवान कार्य संहिता तथा भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम पारित..
 
  • 1863 ईसवी- अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मुहम्मद की मृत्यु.
 
  • 1872 ईसवी-पंजाब में कूका विद्रोह
 
  • 1876 ईसवी- साम्राज्ञी विक्टोरिया कैसर-हिन्द घोषित.
 
  • 1877 ईसवी-लॉर्ड लिटन द्वारा दिल्ली दरबार आयोजित..
 
  • 1878 ईसवी-समाचार-पत्र अधिनियम.
 
  • 1878-80 ईसवी द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध
 
  • 1881 ईसवी-प्रथम फैक्टरी अधिनियम,
 
  • 1882 ईसवी- हंटर कमीशन, स्थानीय स्व- शासन का आरम्भ.
 
  • 1883 ईसवी-इल्बर्ट बिल.
 
  • 1885 ईसवी – मुम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन, बंगाल कृषक अधिनियम पारित तीसरा आंग्ल-बर्मा युद्ध.
 
  • 1892 ईसवी-अंग्रेजी संसद द्वारा भारतीय परिषद् अधिनियम पारित
 
  • 1893 ईसवी- मुस्लिम ऐंग्लो-ओरिएण्टल डिफेन्स एसोसिएशन ऑफ अपर इण्डिया का गठन.
 
  • 1895 ईसवी तिलक ने शिवाजी उत्सव मनाया.
 
  • 1896-97 ईसवी-भीषण अकाल. 1897 ईसवी-चापेकर बन्धुओं द्वारा पूना में दो अंग्रेजों की हत्या.
 
  • 1899-1905 ईसवी- वाइसराय लॉर्ड कर्जन का कार्यकाल
 
  • 1904 ईसवी- भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित, यंग हस्बैंड का तिब्बत मिशन.
 
 
 
 
  • 1905 ईसवी बंगाल विभाजन, भारत लोक सेवक संघ की स्थापना
 
  • 1906 ईसवी लॉर्ड मिन्टो शिमला में मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल से मिले, मुस्लिम लीग व का गठन.
 
  • 1908 ईसवी खुदीराम बोस को फाँसी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को 6 वर्ष का कारावास, समाचार पत्र कानून
 
  • 1909 ईसवी – भारतीय परिषद् अधिनियम
 
  • 1911 ईसवी- दिल्ली दरबार, विभाजन रद्द
 
  • 1912 ईसवी कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली राजधानी बनाई गई. लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंका गया
 
  • 1913 ईसवी- गांधी का दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह सफल, सेनफ्रांसिस्को में भारतीय गदर दल का गठन.
 
  • 1914 ईसवी- प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ.
 
  • 1915 ईसवी- गोपालकृष्ण गोखले एवं फिरोजशाह मेहता की मृत्यु, मिसेज ऐनी बीसेण्ट द्वारा होमरूल लीग का गठन.
 
  • 1916 ईसवी-लखनऊ पैक्ट के रूप में कांग्रेस लीग समझौता, बनारस हिन्दू-विश्व- विद्यालय की स्थापना, बालगंगाधर तिलक द्वारा पूना में होमरूल लीग की स्थापना.
 
  • 1917 ईसवी – महात्मा गांधी द्वारा चम्पारन में आंदोलन किया गया.
 
  • 1919 ईसवी- (6 अप्रैल) रौलेट एक्ट के विरुद्ध हड़ताल का आह्वान, (13 अप्रैल) जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड, मॉण्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार अधिनियम पारित
 
 
  • 1920 ईसवी – भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन, अलीगढ़ मुस्लिम विश्व-
 
  • विद्यालय की स्थापना, एम. एन. राय द्वारा ताशकन्द में भारतीय साम्यवादी दल का गठन
 
 
 
  • 1922 ईसवी-5 फरवरी चौरी-चौरा काण्ड तथा महात्मा गांधी का आन्दोलन वापस लेना, मोपला विद्रोह.
 
  • 1923 ईसवी-नवगठित स्वराज पार्टी का परिषदों के चुनाव में हिस्सा लेना..
 
  • 1925 ईसवी-सी. आर. दास की मृत्यु. कानपुर में साम्यवादी दल का गठन
 
  • 1927 ईसवी- साइमन आयोग की नियुक्ति,
 
  • 1928 ईसवी- साइमन कमीशन का भारत आगमन, कांग्रेस द्वारा बहिष्कार लाला लाजपत राय की मृत्यु, सर्वदल सम्मेलन..
 
  • 1929 ईसवी-भगतसिंह द्वारा केन्द्रीय असेम्बली भवन में बम विस्फोट.
 
  • 1929 ईसवी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य की माँग, शारदा एक्ट: मेरठ षड्यंत्र केस
 
  • 1930 ईसवी- प्रथम गोलमेज परिषद् नमक सत्याग्रह से सविनय आन्दोलन आरम्भ.
 
  • 1931 ईसवी- गांधी-इरविन समझौता, द्वितीय भारतीय गोलमेज सम्मेलन,
 
  • 1932 ईसवी-द्वितीय गोलमेज परिषद्, साम्प्रदायिक पंचाट (कम्यूनल अवार्ड), पूना पैक्ट,
 
  • 1935 ईसवी- भारत सरकार अधिनियम पारित (अगस्त)
 
 
  • 1937 ईसवी-प्रान्तीय स्वायत्तता का सूत्र- पात, सात प्रान्तों में कांग्रेस के मन्त्रिमण्डल
 
  • 1939 ईसवी – द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ, कांग्रेस सरकारों द्वारा त्यागपत्र मुस्लिम लीग शि द्वारा मुक्ति दिवस मनाना (दिसम्बर 12).
 
  • 1940 ईसवी- मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया. वाइसराय का अगस्त प्रस्ताव
 
  • 1941 ईसवी- रबीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु.सुभाष चन्द्र बोस का भारत छोड़ना
 
  • 1942 ईसवी क्रिप्स मिशन, कांग्रेस द्वारा भारत छोडोप्रस्ताव पारित करना.
 
  • 1943 ईसवी – सुभाष चन्द्र बोस द्वारा सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज का गठन..
 
  • 1945 ईसवी वेवल ने शिमला में कान्फ्रेन्स बुलाई. आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा…
 
  • 1946 ईसवी भारत में अन्तरिम सरकार की स्थापना, फरवरी में मुम्बई में नौसेना विद्रोह, जुलाई में संविधान सभा के चुनाव कैबिनेट मिशन
 
  • 1947 ईसवी-क्लीमेंट ऐटली द्वारा जून 1948 से पूर्व भारत छोड़ने की घोषणा (फरवरी) 15 अगस्त को भारत स्वतन्त्र हुआ.
 
  • 1948 ईसवी – महात्मा गांधी की हत्या (30 जनवरी). कश्मीर का भारत में विलय.
 
  • 1948-50 ईसवी देशी रियासतों का भारत में विलय, राजगोपालाचारी का गवर्नर जनरल बनना.
 
  • 1949 ईसवी- भारतीय संविधान को सभा द्वारा स्वीकृति (26 नवम्बर).
 
  • 1950 ईसवी – भारतीय गणतन्त्र का नया संविधान लागू डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने
 
  • 1951 ईसवी- प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रारम्भ
 
  • 1952 ईसवी- प्रथम आम चुनाव.
 
  • 1953 ईसवी- प्रथम बार माउण्ट एवरेस्ट पर शेरपा आन्ध्र प्रदेश का निर्माण तेनसिंह और ई. पी. हिलेरी द्वारा पहुँचना,
 
  • 1956 ईसवी – फ्रांस द्वारा भारत में अपनी बस्तियों का भारत को हस्तांतरण.
 
  • 1957 ईसवी-द्वितीय आम चुनाव. 1961 ईसवी-गोआ, दमन, दीव की मुक्ति तथा भारत में विलय
 
  • 1962 ईसवी तृतीय आम चुनाव भारत पर चीन का आक्रमण.
 
  • 1963 ईसवी-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की मृत्यु, नगालैण्ड का राज्य बनना.
 
  • 1964 ईसवी- जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु (27 मई)
 
  • 1965 ईसवी- भारत-पाक युद्ध. 1966 ईसवी भारत-पाक ताशकंद समझौता (10 जनवरी), लाल बहादुर शास्त्री का निधन (11 जनवरी).
 
  • 1969 ईसवी-डॉ. जाकिर हुसैन की मृत्यु (3 मई). वी.वी. गिरि का राष्ट्रपति बनना, कांग्रेस का विभाजन, 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण.
 
  • 1970 ईसवी मेघालय का निर्माण (2 अप्रैल), राजाओं की मान्यता की समाप्ति
 
 
  • 1971 ईसवी – हिमाचल प्रदेश का निर्माण (25 जन), भारत-रूस संधि भारत पाक युद्ध
 
  • 1972 ईसवी राजगोपालाचारी का निधन शिमला समझौता मेघालय, मणिपुर, त्रिपु पूर्ण राज्य बनना अरु प्रदेश और मिजोरम का केन्द्रशासित प्रदेश बनना PIN Code प्रणाली शुरू
 
  • 1974 ईसवी भारत का आदि शक्ति बनना
 
  • 1975 ईसवी- सिक्किम का राज्य बनना (16 मई) देश में आपात स्थिति की घोषणा (26 जून)
 
  • 1977 ईसवी राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का निधन 1978 ईसवी काग्रेस (आई) का गठन,
 
  • 1979 ईसवी- मोरारजी देसाई का प्रधान मंत्री पद इस्तीफा (15 जुलाई), जय प्रकाश नारायण का निधन (8 अक्टूबर)
 
  • 1982 ईसवी आचार्य कृपलानी का निधन (10 मार्च) तीन बीघा क्षेत्र बाग्लादेश को दिया
 
  • 1983 ईसवी तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन (28-30 अक्टूबर)
 
  • 1984 ईसवी स्वर्ण मंदिर में ऑपरेशन ब्लू स्टार (6-8 जून), इंदिरा गांधी की हत्या (31 अक्टूबर) 1987 ईसवी चौधरी चरण सिंह की मृत्य (29 मई)
 
  • 1988 ईसवी- खान अब्दुल गफ्फार खाँ की मृत्यु (20 जून)
 
  • 1989 ईसवी अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास (10 नवम्बर)
 
  • 1990 ईसवी बी आर. अम्बेडकर (मरणोपरान्त) और नेल्सन मंडेला भारतरत्नसे सम्मानित:
 
  • 1991 ईसवी राजीव गांधी (मरणोपरान्त) और मोरारजी देसाई भारतरत्नसे सम्मानित
 
  • 1993 ईसवी महाराष्ट्र में भूकम्प से 50,000 से अधिक मृत डकल प्रस्ताव स्वीकारा गया. बनी,
 
  • 1994 ईसवी – सुष्मिता सेन मिस यूनीवर्स
 
  • 1995 ईसवी उग्रवादियों ने चरार-ए-शरीफ जताया
 
  • 1996 ईसवी जियाग जेमिन की भारत यात्रा
 
  • 1997 ईसवी मदर टेरेसा की मृत्यु (5 सितम्बर)
 
  • 1998 ईसवी भारत द्वारा पाँच परमाणु परीक्षण (11 एवं 13 मई),
 
  • 1999 ईसवी अटल बिहारी वाजपेयी की ऐतिहासिक बस यात्रा (20 फरवरी), कारगिल युद्ध
 
  • 2000 ईसवी- अमरीकी राष्ट्रपति दिल क्लिटन का भारत आगमन (19-20 मार्च), छत्तीसगढ़ (1 नवम्बर), उत्तराचल (9 नवम्बर) और झारखण्ड (15 नवम्बर) नए राज्य बने
 
  • 2001 ईसवी – भारत में ही विकसित लाइट कम्बाट एयरक्राफ्ट (LCA) की सफल परीक्षण उड़ान (4 जन ), गुजरात में भीषण भूकम्प, कई हजार मरे (26 जन), जे. एम. लिंगदोह भारत के नए मुख्य चुनाव आयुक्त बने (14 जून),
 
  • 2002 ईसवी इन्सैट 3सी का सफल प्रक्षेपण (24 जन ), लोक सभा स्पीकर जी एम सी बालयोगी की हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु (3 मार्च), डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम भारत के राष्ट्रपति निर्वाचित घोषित (18 जुलाई), उपराष्ट्रपति कृष्णकान्त का निधन (27 जुलाई), भैरोंसिंह शेखावत उपराष्ट्रपति निर्वाचित (12 अगस्त),
 
  • 2003 ईसवी – निर्मल चन्द बिज बने नए सेनाध्यक्ष (1 जन.), मुलायम सिंह यादव उ. प्र. के नए मुख्यमंत्री बने (29 अगस्त), भारत ने पहली बार एशिया कप हॉकी चैम्पियनशिप जीती (28 सित), एफ्रो-एशियाई खेलों का हैदराबाद में समापन (1 नवम्बर)
 
  • 2004 ईसवी – भारत का स्वदेश में तैयार किया गया T-90 मुख्य युद्धक टैंक भीष्मसेना को सौंपा गया (7 जन ), 13वीं लोक सभा भंग
 
 
 
 
  • (6 फर) 14वीं लोक सभा के चुनाव (20) अप्रैल-10 मई), डॉ मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली (22 मई), लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के अध्यक्ष चुने गये (18 अक्टू ).
 
  • ऑपरेशन ककून के तहत चन्दन तस्कर वीरप्पन विशेष कार्यबल (T.F.) के साथ मुठभेड़ में मारा गया (18 अक्टू) बूटा सिंह द्वारा बिहार के राज्यपाल के रूप में कार्यभार ग्रहण (5 नव), दक्षिण भारत, अण्डमान निकोबार द्वीप, इण्डोनेशिया, थाइलैण्ड, श्रीलंका आदि हिन्द महासागर की सुनामी लहरों से प्रभावित, कई हजार मरे (26 दिस)
 
  • 2005 ईसवी एम. के. नारायणन देश के नए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नियुक्त (27 जन), जनरल जे जे सिंह द्वारा नए थलसेनाध्यक्ष के रूप में कार्यभार ग्रहण (31 जन), गोआ में राष्ट्रपति शासन लागू (4 मार्च), सूचना के अधिकार का अधिनियम लागू (12 अक्टू )
 
  • 2006 ईसवी – राजनाथ सिंह ने बीजेपी के अध्यक्ष पद का कार्यभार सँभाला (2 जन), महात्मा 1 गांधी के सत्याग्रह के 100 वर्ष पूर्ण (11 सित) 2007 ईसवी-उत्तरांचल का नाम अब उत्तराखण्ड (1 जन.), उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्व में बसपा की स्पष्ट बहुमत वाली नई सरकार (13 मई), प्रतिभा पाटिल ने भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति के रूप में पदभार ग्रहण किया (25 जुलाई).
 
 
 
  • 2008 ईसवी आदिवासियों एवं परम्परागत वनवासियों को वन सम्पत्ति में अधिकार दिलाने वाला वनाधिकार कानून लागू (1 जन), गंगा नदी राष्ट्रीय नदी घोषित (4 नव) मुम्बई देश में सबसे बड़े आतंकी हमले का शिकार (26 नव). राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यपालों के वेतन बढ़ोत्तरी की संसद द्वारा मंजूरी (15 दिस).
 
  • 2009 ईसवी – राष्ट्रीय जाँच एजेंसी का गठन (1 जन.), टाटा मोटर्स ने अपनी बहू- प्रतीक्षित नैनो कार को बिक्री के लिए लांच की (23 मार्च), दिल्ली हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला समलैंगिकता अपराध नहीं (2 जुलाई). हेलीकॉप्टर दुर्घटना में आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी का निधन (2 सितम्बर). के. राधाकृष्णन इसरोके नए अध्यक्ष बनाए गए (31 अक्टूबर)
 
  • 2010 ईसवी – पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु का निधन (17 जन.). सर्वोच्च न्यायालय ने देश के सभी राज्यों को छह सप्ताह के भीतर बाल अपराध न्याय बोर्ड, बाल कल्याण समिति एवं विशेष पुलिस बल गठित करने का निर्देश जारी (20 जन ). राजस्थान की राज्यपाल प्रभा राव का निधन (26 अप्रैल), भारतीय नौसेना में पहला स्टेल्थ युद्धपोत आईएनएस शिवालिक शामिल (29 अप्रैल), एस वाई कुरैशी भारत के नए मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त (30 जुलाई), बैंक ऑफ राजस्थान का विलय आईसीआईसीआई बैंक में हुआ (13 अगस्त)
 
  • 2011 ईसवी – श्रीकृष्ण कमेटी ने तेलंगाना पर रिपोर्ट सौंपी (1 जन), भारत ने क्रिकेट का विश्व कप जीता (2 अप्रैल), अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री दोरजी खाण्डू की हेलीकॉप्टर दुर्घटना मै मृत्यु (30 अप्रैल), ममता बनर्जी प बंगाल की नमंत्री पहली महिला मुख्यमंत्री बन (20 मई), मुम्बई में बम धमाका (13 जुलाई), केरल के पद्मनाभस् ब) मन्दिर में स्वर्ण का विशाल भण्डार (21 जुलाई) बंगलोर में मेट्रो रेल का उद्घाटन (21 अक्टू), ड में भारत में एफ-1 कार रेस (30 अक्टूबर), बिहार निर्माता, निर्देशक, अभिनेता देवानन्द का निधन (4 दिसम्बर ).
 
 
 
 
  • 2012 ईसवी गुजरातियों के लिए हिन्दी विदेशी भाषा गुजरात हाईकोर्ट (1 जन). मानवरहित विमान का गणतन्त्र दिवस परेड में प्रदर्शन (27 जन) भारत ने पहला महिला के कबड्डी का विश्व कप जीता (3 मार्च), कब (27 को फांसी (21 नवम्बर), नरेन्द्र मोदी तीसरी बार गुजरात चुनाव जीते (21 दिसम्बर).
 
 
 
 
  • 2013 ईसवी – रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डॉ. वाई वी रेड्डी की अध्यक्षता में 14वें वित्त आयोग का गठन (3 जनवरी), सितारवादक प रविशंकर सांस्कृतिक सद्भावना के लिए प्रथम टैगोर पुरस्कार से सम्मानित (8 मार्च), फिल्म अभिनेता प्राण को 60वाँ दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया (12 अप्रैल), आंध्र प्रदेश का विघटन कर पृथक राज्य तेलंगाना बनाने का सरकार द्वारा निर्णय (30 जुलाई). की सचिन तेंदुलकर एवं सी. एन. एन. राव को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्नप्रदान करने की घोषणा (16 नवम्बर)
 
 
  • 2014 ईसवी देश का प्रथम राष्ट्रीय ने स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरूआत (7 जनवरी). दी किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता में प्रदान की गयी (15 अप्रैल), 20वें राष्ट्रमंडल खेल ग्लासगो में सम्पन्न, भारत ने 15 स्वर्ण न पदक, 30 रजत एवं 19 कांस्य पदकों सहित 64 पदक जीते (23 जुलाई-3 अगस्त, 2014). केन्द्र सरकार द्वारा पूर्वोत्तर के लिए ऊर्जा राजमार्ग की घोषणा (25 अगस्त), प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर स्वच्छ भारत मिशन कार्यक्रम की शुरूआत की (2 अक्टूबर) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयतेयोजना का आरम्भ किया (16 अक्टूबर), गुजरात में निकाय चुनावों में अनिवार्य मतदान का प्रावधान किया (11 नवम्बर). भारत ने पाकिस्तान को हराकर 2014 का दृष्टिहीन क्रिकेट विश्वकप जीता (8 दिसम्बर)
 
 
 
  • 2015 ईसवी योजना आयोग की जगह नीति आयोग की स्थापना (1 जनवरी). नागरिकता (संशोधन) अध्यादेश 2015 को लागू किया गया (6 जनवरी). महाराष्ट्र सरकार ने लंदन स्थित बी आर अम्बेडकर के घर को खरीदने का फैसला किया. (24 जनवरी) काठमांडू और वाराणसी के बीच सीधी बस सेवा प्रारम्भ (5 मार्च), सर्वोच्च न्यायालय ने आइ टी एक्ट की धारा 66 A निरस्त की चंद्रशेखर की समाधि का नया नाम जननायक स्थल रखा गया (22) अप्रैल), वेटिकन ने फिलिस्तीन को राज्य के रूप में मान्यता प्रदान की (13 मई). वाटरलू युद्ध की 200वीं वर्षगाठ मनाई गयी (20 जून), मिशनरीज ऑफ चैरिटी की पूर्व प्रमुख सिस्टर निर्मला का निधन (22 जून)
 
 
 
नोट्स
प्राचीन भारत का इतिहास
अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्राफी) कहा जाता है।
सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिन्सेप को अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता मिली। भारत से बाहर सर्वाधिक प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के बोंगजकोई नामक स्थान से लगभग 1400 ई. पू. के मिले हैं, जिसमें इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य आदि वैदिक देवताओं के नाम मिलते हैं। सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (न्यूमिस्मेटिक्स) कहा जाता है।
 भारत के प्राचीनतम सिक्के आहत सिक्के या पंचमार्क्स सिक्के कहलाते हैं। सर्वप्रथम हिन्द-यूनानियों ने स्वर्ण मुद्राएँ जारी की। सर्वाधिक शुद्ध स्वर्ण मुद्राएँ कुषाणों ने तथा सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएँ गुप्तों ने जारी कीं।
चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद) को सम्मिलित रूप से संहिता कहा जाता है।
 ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं की स्तुतियाँ तथा यजुर्वेद में यज्ञों के नियम एवं विधि-विधानों का संकलन है।
सामवेद में यज्ञों के अवसर पर गाए जाने वाले मन्त्रों का संग्रह तथा अथर्ववेद में धर्म, औषधि प्रयोग, रोग निवारण, तन्त्र-मन्त्र, जादू-टोना जैसे अनेक विषयों का वर्णन है।
उपनिषदों में अध्यात्म तथा दर्शन के गूढ़ रहस्यों का विवेचन हुआ है। वेदों का अन्तिम भाग होने के कारण इसे वेदान्त भी कहा जाता है।
सबसे प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ पाली भाषा में लिखित त्रिपिटक हैं। ये हैं-सुत्तपिटक, विनयपिटक एवं अभिधम्मपिटका बुद्ध के पूर्वजन्म की कथा जातक से सम्बन्धित है।
जैन साहित्य को आगम कहा जाता है, इनकी रचना प्राकृत भाषा में हुई है।
हेरोडोटस को इतिहास का पिता कहा जाता है, जिनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिस्टोरिका’ है।
अज्ञात लेखक की रचना ‘पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ में भारतीय बन्दरगाहों तथा वाणिज्यिक गतिविधियों का विवरण मिलता है।
फाह्यान की प्रसिद्ध रचना ‘फो-क्यो की’ अथवा ‘ए रिकॉर्ड ऑफ द बुद्धिस्ट कण्ट्रीज’ है।
 ह्वेनसांग का यात्रा वृत्तान्त सी-यू-की अथवा एस्से ऑन वेस्टर्न वर्ल्ड है।
  • अलबरूनी की रचना ‘तहकीक-ए-हिन्द’ (किताब-उल-हिन्द) में पूर्व मध्यकालीन समाज का विविधतापूर्ण विवरण मिलता है।
                           प्रागतिहासिक संस्कृतियाँ
  • मानव धरती पर प्लाइस्टोसीन काल के आरम्भ में पैदा हुआ। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में आदिमानव का कोई जीवाश्म (फॉसिल) नहीं मिला है। पशुपालन का प्रारम्भिक साक्ष्य मध्य पाषाणकाल में मध्य प्रदेश के आदमगढ़ तथा . राजस्थान के बागोर से प्राप्त होता है।
मेहरगढ़ से कृषि का प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त होता है। यहीं से जी तथा गेहूँ के साक्ष्य मिले हैं।
  • अलबरूनी ने भारतीय गणित, भौतिकी, ज्योतिष, भूगोल, दर्शन, धार्मिक क्रियाओं, रीति-रिवाजों और सामाजिक विचारधारा का भी महत्त्वपूर्ण वर्णन किया है।
  • चावल का प्राचीनतम साक्ष्य कोल्डीहवा (उत्तर प्रदेश) से, चित्रकारी का प्रारम्भिक साक्ष्य भीमबेटका (मध्य प्रदेश) से प्राप्त हुआ है। चौपानी माण्डो से मृद्भाण्ड का प्राचीनतम साक्ष्य मिला है। – मानव द्वारा प्रयुक्त सर्वप्रथम अनाज जौ तथा धातु तौबा थी।
– नवपाषाणकालीन स्थल बुर्जहोम से गर्त निवास तथा कब्रों में मालिक के साथ पालतू कुत्ते दफनाए जाने का साक्ष्य मिलता है। • पिक्लीहल (कर्नाटक) से राख के ढेर एवं निवास स्थल दोनों मिले हैं।
  • ताम्र पाषाणकाल के लोग गेहूं, धान और दाल की खेती करते थे, जो नवदाटोली (महाराष्ट्र) से प्राप्त हुए हैं। चित्रित मृद्भाण्डों का प्रयोग सर्वप्रथम ताम्र पाषाणिक लोगों ने ही किया। • अहाड़ का प्राचीन नाम ताम्बवती था। यहाँ के लोग पत्थर के बने घरों में रहते थे।
   प्राचीन भारतीय
प्राचीन भारतीय इतिहास का अभी तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो सका है अनेक तथ्यों को लेकर इतिहासविद् एकमत नहीं हैं, किन्तु फिर भी अपने सतत् प्रयासों से उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास को क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जिसमें उन्हें कुछ हद तक सफलता भी प्राप्त हुई है अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने (इतिहासविदों ने) कुछ आधारों का निर्धारण किया है, जिन्हें हम स्रोतों की संज्ञा दे सकते हैं अध्ययन सुविधा की दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
 (1) प्राचीन भारतीय इतिहास के आन्तरिक स्रोत
(2) प्राचीन भारतीय इतिहास के विदेशी सोत
                                प्राचीन भारतीय इतिहास के आन्तरिक स्रोत
आन्तरिक स्रोतों के अन्तर्गत प्राचीन वैदिक साहित्य यथा – हिन्दू धार्मिक साहित्य.. धर्म बौद्ध धार्मिक साहित्य, जैन धार्मिक साहित्य, धर्म निरपेक्ष साहित्य यथा- ऐतिहासिक ग्रन्थ नाटक. राजनीतिक एवं व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ, पुरातत्व सम्बन्धी स्रोत यथा-अभिलेख, सिक्के. पुरातत्व सम्बन्धी सामग्री, स्मारक आदि को रखा जाता है
                                 वैदिक साहित्य
वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, रामायण, महाभारत, पुराण आदि हिन्दू धार्मिक साहित्य हैं, जिनसे हमें प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने में बहुत सहायता मिलती है. वेद चार हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ऋग्वेद में 10 मण्डल 1,028 सूक्त तथा 10.580 ऋचाएं है. इस ग्रन्थ से धर्म के साथ-साथ तत्कालीन भारत की सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है यजुर्वेद में 40 अध्याय तथा लगभग दो हजार मन्त्र हैं. इस ग्रन्थ से तत्कालीन भारत का सामाजिक एवं धार्मिक ज्ञान प्राप्त होता है. सामवेद में 1549 अथवा 1.810 श्लोक हैं. इन श्लोकों को यज्ञ के 7 अवसर पर गाया जाता था यह ग्रन्थ दि तत्कालीन भारत की गायन विद्या का श्रेष्ठ पु उदाहरण है अथर्ववेद में 20 मण्डल, 731 ऋचाएं तथा 5.839 मन्त्र हैं इस ग्रन्थ से उत्तर वैदिककालीन भारत की पारिवारिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन की विशद जानकारी प्राप्त होती है. इन वेदों के एक- एक उपवेद हैं. आयुर्वेद ऋग्वेद का धनुर्वेद यजुर्वेद का गन्धर्ववेद सामवेद का तथा शिल्पवेद अथर्ववेद का उपवेद है.
                             ब्राह्मण ग्रन्थ
ऋषियों द्वारा गद्य में वेदों की, की गई सरल व्याख्या को ब्राह्मण ग्रन्थ कहा जाता है. प्रत्येक वेद के अपने ब्राह्मण ग्रन्थ हैं. कौशीतकी तथा एतरेय ॠग्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ हैं. एतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ में विभिन्न प्रकार के राज्याभिषेक उत्सव तथा वैदिक काल के कुछ राजाओं का विवरण दिया हुआ है, तैतरीय कृष्ण यजुर्वेद का शतपथ, शुक्ल यजुर्वेद का, ताण्डव, पंचविश तथा जैमनीय सामवेद का तथा गोपथ अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ है. इन ब्राह्मण ग्रन्थों से तत्कालीन लोगों की सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक जीवन की विशद जानकारी प्राप्त होती है आरण्यक ये भी एक प्रकर के ग्रन्थ हैं, जिनकी रचना बाद में की गई. इनमें आत्मा मृत्यु तथा जीवन सम्बन्धी विषयों का वर्णान किया गया है. इनका पठन-पाठन वानप्रस्थी, मुनि तथा वनवासियों द्वारा वन में किया जाता था, इसलिए इन ग्रन्थों का नाम आरण्यक पड़ गया. कौशीतकी और एतरेय ॠग्वेद के. तैतरीय कृष्ण यजुर्वेद के आरण्यक हैं सामवेद तथा अथर्ववेद के कोई आरण्यक नहीं हैं.
                                रामायण तथा महाभारत
महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण तथा वेदव्यास द्वारा लिखित महाभारत हिन्दुओं के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं. दोनों ही
– ग्रन्थ राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक जीवन की विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं
– पुराण
ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त करने के लिए पुराण एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं इन पुराणों से राजवंशों तथा उनके कार्यकलापों का ज्ञान प्राप्त होता है. हालांकि वह पूर्णत विश्वसनीय नहीं हैं पुराणों की कुल संख्या 18 है जिनमें ब्रह्म मत्स्य, विष्णु भागवत अग्नि, वायु, मार्कण्डेय तथा गरूड़ पुराण ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं बौद्ध साहित्य हिन्दू साहित्य की भाँति ही बौद्ध साहित्य भी प्राचीन भारतीय इतिहास पर समुचित प्रकाश डालता है. बौद्ध साहित्य के तीन प्रमुख अंग हैं जातक पिटक एवं निकाय, जातक कथाओं का ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व है. ये कथाएं महात्मा बुद्ध के पूर्व भारत की सामाजिक स्थिति के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान करती हैं. त्रिपिटक हैं (1) विनयपिटक (2) सुत्तपिटक, (3) अभिधम्मपिटक विनयपिटक में भिक्षुओं के आचरण सम्बन्धी सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेश तथा अभिधम्मपिटक में बौद्ध धर्म के दर्शन का वर्णन किया गया है. इन पिटकों को पाली भाषा में लिखा गया है. इन पिटकों में महात्मा बुद्ध के समकालीन शासकों तथा तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी वर्णित की गई है.
महावंश एवं दीपवंश पाली भाषा में लिखित अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं. इनसे श्रीलंका के राजवंशों का ऐतिहासिक वर्णन प्राप्त होता है. कनिष्क के शासनकाल में अश्वघोष द्वारा लिखित ‘बुद्धचरित मिलिन्दपन्हो महाविभाव तथा संस्कृत भाषा में लिखित ‘ललित विस्तार’ से भी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है. दिव्यावदान, वैपुल्य सूत्र तथा मंजुश्री मूलकल्प अन्य प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ हैं जैन साहित्य
प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में अनेक ऐसे तथ्यों का वर्णन प्राकृत भाषा में लिखित जैन साहित्य में मिलता है, जिनका वर्णन ब्राह्मण एवं बौद्ध साहित्य में या तो किया ही नहीं गया है या फिर बहुत कम किया गया है. परिशिष्ट पर्व, भद्रबाहुचरित, त्रिलोक प्रजटित, कथाकोष, लोक विभाग, आराधना कथाकोष, स्थविरावलि, आवश्यक- सूत्र, कल्पसूत्र तथा भगवतीसूत्र आदि जैन साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं. जैन साहित्य को बारह भागों में विभाजित किया गया है. जैन साहित्य से हमें 24 तीर्थंकरों तथा महावीर स्वामी के काल में उत्तर प्रदेश एवं बिहार राज्य की राजनीतिक एवं ऐतिहासिक जान- कारी प्राप्त होती है
                                 आश्रम
आश्रम से आशय जीवन के उस भाग से, जिसमें मनुष्य कुछ समय रहकर श्रम करता है. आश्रमों की संख्या चार थी. मनुष्य के जीवन की आयु 100 मानकर प्रत्येक आश्रम का काल 25 वर्ष निर्धारित किया गया था
ब्रह्मचर्य आश्रम-विषय वासनाओं से दूर रहकर विद्या ग्रहण करना, भिक्षावृत्ति कर जीवनयापन करना, गुरु की आज्ञा का पालन करना तथा उनका सम्मान करना आदि विद्यार्थी का कर्तव्य होता था
गृहस्थ आश्रम-विद्याध्ययन की समाप्ति के पश्चात् इस आश्रम का प्रारम्भ होता था. इस आश्रम में विवाह कर व्यक्ति प्रविष्ट होता था. इस आश्रम के अन्तर्गत मनुष्य को सन्तानोत्पत्ति, अग्निहोत्र, तर्पण, अतिथि सेवा तथा पंच महायज्ञों को करना अनिवार्य होता था.
वानप्रस्थ- गृहस्थ जीवन में संतान, धन एवं यज्ञ कामना की पूर्ति के पश्चात् मनुष्य अपने घर का त्याग कर वन की ओर गमन करता था तथा वन में ही रहकर तप करता था
संन्यास आश्रम – इस आश्रम में मनुष्य सांसारिक इच्छाओं को त्यागकर भिक्षावृत्ति कर जीवनयापन करता था तथा मृत्युपर्यन्त इस आश्रम में निवास करता था. पुरुषार्थ
यह शब्द पुरुष एवं अर्थ शब्दों से मिलकर बना है, यहाँ पुरुष का अर्थ जीवात्मा तथा अर्थ शब्द का अर्थ उद्देश्य है. इस प्रकार पुरुषार्थ का अर्थ जीवात्मा का उद्देश्य है. प्राचीनकालीन भारतीय समाज में जीवात्मा का उद्देश्य परमात्मा में विलीन होना इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्रत्येक मनुष्य को पुरुषार्थ का पालन करना होता था. ये पुरुषार्थ थे – (1) धर्म (2) अर्थ, (3) काम, (4) मोक्ष.
धर्म-धर्म को कर्तव्य का पर्यायवाची माना गया है. कर्तव्य एवं सदाचरण का पालन करना ही धर्म है, प्राचीन मनीषियों का विश्वास था कि धर्म से न केवल व्यक्ति एवं समाज की उन्नति होती है बल्कि राष्ट्र का उत्कर्ष भी. अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करना चाहिए.
अर्थ-जीवन की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति अर्थ अर्थात् धन द्वारा होती है. प्राचीन मनीषियों का मत था कि प्रत्येक व्यक्ति को यथोचित तरीके से धन अर्जन कर अपनी भौतिक उन्नति करनी चाहिए.
काम – इस पुरुषार्थ के अन्तर्गत मनुष्य को गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट हो सन्तानोत्पत्ति कर पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त करना था. मोक्ष-सांसारिक तीन प्रकार के दुख- दैहिक दुख, दैविक दुख तथा आध्यात्मिक दुःख से मुक्ति पाना ही मोक्ष है.
                                संस्कार
संस्कारों का प्रारम्भ वैदिक काल में ही प्रारम्भ हो चुका था. तत्कालीन समाज में प्रत्येक व्यक्ति इन संस्कारों को करना अपना सामाजिक कर्तव्य समझता था. प्रमुख, संस्कारों की संख्या-16 थी.
                            संस्कार
 गर्भाधान
 कर्णवेधन
 पुंसवन
 विद्यारम्भ
 सीमन्तोन्नयन
 उपनयन
 वेदारम्भ
 जातकर्म
 समापवर्तन
 नामकरण
(6) निष्क्रमण
 विवाह
 वानप्रस्थ
 अन्नप्राशन
 अन्त्येष्टि
 चूड़ाकर्म
गर्भाधान संस्कार- इस संस्कार के अन्तर्गत पुरुष स्त्री में अपना बीजारोपण करता था. इस संस्कार के लिए रात्रि तथा उचित नक्षत्र का ध्यान रखना परम आवश्यक होता था.
हिन्दू विवाह के प्रकार मनुस्मृति में विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जिसमें प्रथम चार विवाह प्रशंसित तथा शेष चार निदनीय: जाते हैं. मान प्रशंसनीय विवाह
(1) ब्रह्म-कन्या के वयस्क होने पर उसके माता-पिता द्वारा योग्य वर खोजकर उससे अपनी कन्या का विवाह करना
(2) दैव-यज्ञ करने वाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह.
 (3) आर्ष-कन्या के पिता द्वारा यज्ञ कार्य हेतु एक अथवा दो गाय के बदले में अपनी कन्या का विवाह करना.
 (4) प्रजापत्य-वर स्वयं कन्या के पिता से कन्या माँगकर विवाह करता था. निंदनीय विवाह
(5) आसुर कन्या के पिता द्वारा धन के बदले में कन्या का विक्रय.
(6) गंधर्व कन्या तथा वर प्रेम अथवा कामुकता के वशीभूत होकर करते थे.
(7) पैशाच सोई हुई अथवा पागल कन्या के साथ सहवास कर विवाह करना..
(8) राक्षस-बलपूर्वक कन्या को छीनकर उससे विवाह करना.
पुंसवन संस्कार – पुत्र प्राप्ति तथा गर्भ की रक्षा हेतु गर्भ के तीसरे माह में यह संस्कार किया जाता था. इसमें स्त्री-पुरुष दोनों प्रतिज्ञा करते थे कि वे कोई ऐसा काम नहीं करेंगे, जिससे गर्भ को हानि पहुँचे..
सीमन्तोन्नयन संस्कार यह संस्कार गर्भस्थ शिशु की मानसिक वृद्धि हेतु गर्म के सातवें या आठवें माह में किया जाता था.. जातकर्म संस्कार- इस संस्कार में पिता उत्पन्न शिशु का स्पर्श करके उसे आशीर्वाद देता था तथा अपनी उंगली से बच्चे को मधु अथवा शहद चटाता तथा शिशु के कान में मेघा जनन का मंत्र उच्चारित करता था.
नामकरण संस्कार- शिशु के जन्म के ग्यारहवें दिन शिशु का नामकरण कर यह संस्कार किया जाता था.
निष्क्रमण संस्कार – यह संस्कार बच्चे को घर से बाहर निकालने के अवसर पर किया जाता था. इसमें शिशु को जन्म के 12वें दिन आकर्षक वस्त्र पहनाकर पिता अथवा मामा के साथ घर के बाहर लाया जाता था.
अन्नप्राशन संस्कार- इसमें शिशु को छठवें महीने में अन्नादि सामग्री चटाई जाती थी. चूड़ाकर्म संस्कार यह संस्कार जन्म के तीसरे वर्ष में किया जाता था. इसमें शिशु के केशों को मूड़ा जाता था.
कर्णवेधन संस्कार यह संस्कार तीसरे अथवा पाँचवें वर्ष में किया जाता था. इसमें शिशु के कानों को छेदा जाता था.. विद्यारम्भ संस्कार शिशु के जन्म के पाँचवें वर्ष में किसी शुभ दिन गुरु के पास ले जाकर शिशु को अक्षर ज्ञान कराया जाता था. इस अवसर पर सरस्वती की पूजा की जाती थी.
उपनयन संस्कार बालक यज्ञोपवीत धारण कर ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रविष्ट होता था. यह संस्कार ब्राह्मण शिशु के जन्म के आठवें वर्ष में क्षत्रिय शिशु के जन्म के ग्यारहवें वर्ष में तथा वैश्य शिशु के जन्म के बारहवें वर्ष में किया जाता था. शूद्रों को इस संस्कार से वंचित रखा गया था.
वेदारम्भ संस्कार व्यास स्मृति में इस संस्कार का उल्लेख है. उपनयन संस्कार के अगले दिन अथवा एक वर्ष के अन्दर यह संस्कार किया जाता था.
समावर्तन संस्कार- ब्रह्मचारी बालक गुरु की अनुमति से स्नान कर मेघचर्म, दण्ड आदि को जल में फेंक कर गुरुकुल से घर की ओर प्रस्थान करता था.
                        विवाह संस्कार-स्त्री-पुरुष का विवाह
कर सन्तानोत्पत्ति के उद्देश्य उन्हें गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट कराया जाता था
वानप्रस्थ संस्कार- 50 वर्ष की अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् जब पुत्र के पुत्र हो जाता था तब साँसारिकता से दूर रहने के लिए यह संस्कार किया जाता था.
अन्त्येष्टि संस्कार यह मनुष्य का अन्तिम संस्कार था. इसमें मृतक को लकड़ी की चिता पर रखकर अग्नि को समर्पित कर दिया जाता था. अबोध मृतक शिशु को जमीन में गाढ़ दिया जाता था. विवाह
यह एक पवित्र संस्कार था. तत्कालीन समाज में आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे, ब्रह्म- सर्वोत्तम प्रकार के इस विवाह में कन्या के वयस्क होने पर उसके माता-पिता योग्य वर खोज कर अपनी कन्या का विवाह करते थे, दैव-यज्ञ करने वाले पुरोहित को कन्यादान में दे दी जाती थी.
आर्ष-कन्या के पिता वर से यज्ञ कार्य हेतु एक अथवा दो गाय लेता था. गान्धर्व कन्या तथा वर प्रेम अथवा कामुकता के वशीभूत होकर करते थे.
                 प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्त
कपिल सांख्य दर्शन पतंजलि योग सूत्र) योग दर्शन गौतम (न्याय सूत्र) न्याय दर्शन वैशेषिक दर्शन कणद या उलूक जैमिनी पूर्व मीमांसा दर्शन उत्तर मीमांसा (वेदान्त) दर्शन बादरायण (ब्रहा सूत्र) लोकायत (भौतिकवादी) दर्शन चार्वाक आसुर-वर कन्या के सम्बन्धियों को यथा – शक्ति धन देकर कन्या से विवाह करता था.
राक्षस-वर बलपूर्वक कन्या को उसके सम्बन्धियों से छीनकर विवाह करता था.
प्रजापत्य-वर स्वयं कन्या के पिता से कन्या माँगकर विवाह करता था.
पैशाच- सोई हुई कन्या के साथ सहवास करना पैशाच विवाह कहलाता था.
                                 दस यम
मनुस्मृति में उल्लेख है कि बुद्धिमान व्यक्ति को दस यमों का पालन करना चाहिए. ये यम हैं-
(1) ब्रह्मचर्य, (2) दया, (3) क्षमा, (4) ध्यान, (5) सत्य, (6) नम्रता, (7) अहिंसा, (8) चोरी न करना, (9) मधुर स्वभाव, (10) इन्द्रिय दमन.
                                 जाति
अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह के परिणाम- स्वरूप अनेक जातियों का उद्भव हुआ कुछ जातियों का उद्भव पेशों के आधार पर हुआ.
                                प्रमुख जाति
अम्बष्ठ, आयोगण, उग्र, निषाद, मागध रथकार, वैदेहक, सूत, वेण, पुक्कस, क्षता, पारशव, आभीर, धिग्वण, धीवर, कुम्कुटक श्वपाक, चाण्डाल, सैरिन्ध्र, मैत्रेयक, किरात, शैलूष, भिल्ल, डोम, शूलिक, तन्तुवाय, तच्चक आदि प्राचीन भारतीय समाज में प्रमुख जातियाँ अस्तित्व में थीं.
                                  सूत्र साहित्य
सूत्र संक्षेप में निश्चित भाषा में व्यक्त शिक्षा/ उपदेश की पुस्तिका है.
सूत्र साहित्य में यक्ष का निरुक्त, पाणिनी की अष्टाधायी, स्रोत सूत्र, गृह सूत्र तथा धर्म सूत्र सम्मिलित हैं.
इस साहित्य का निर्माण काल सातवीं शताब्दी ई. पू. से द्वितीय शताब्दी ई.पू. माना गया है.
वेदांग 6 हैं-कल्प, शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छन्द एवं ज्योतिष. पाणिनी की अष्टाध्यायी संस्कृत की व्याकरण है.
स्रोत सूत्र- इसमें पुरोहितों द्वारा किए गए समारोहों का वर्णन है.
गृह सूत्र-गृहस्थों द्वारा किए जाने वाला यज्ञ व क्रिया काण्ड से सम्बन्धित है.
धर्म सूत्र – प्रचलित धार्मिक नियम व उनका व्यावहारिक रूप है.
सिकन्दर यूनान स्थित मकदूनिया के राजा फिलिप का पुत्र था. उसका जन्म 356 ई.पू. में हुआ था. 20 वर्ष की अवस्था में वह सिंहासन पर आसीन हुआ और शीघ्र ही उसने अपनी महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत हो विश्व – विजय अभियान प्रारम्भ कर दिया. ईरान, अफगानिस्तान तथा बैक्ट्रिया को विजित करता हुआ भारत की ओर बढ़ा.
                             भारत पर आक्रमण
इस समय उत्तर पश्चिमी भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था. यहाँ के शासकों में आपसी फूट थी. अतः 327-26 ई.पू. में सिकन्दर ने हिन्दुकुश पार कर भारत में प्रवेश किया और शीघ्र ही सीमांत प्रदेश के कुछ राज्यों पर बिना युद्ध किए ही अधिकार कर लिया तथा कुछ प्रदेशों से उसे युद्ध करना पड़ा.
                          अस्पसिओई जाति से युद्ध
सिकन्दर ने सर्वप्रथम अलिसांगे-कुदार घाटी में निवास करने वाली अस्पसिओई अथवा अश्वक जाति को परास्त किया.
                                नीसा पर आक्रमण
नीसा राज्य पर अभिजात वर्ग का अधिकार था. यहाँ के शासक अकूफिस ने हल्के संघर्ष में पराजय के बाद सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली.
                              मस्सग पर आक्रमण
यह नगर गोरी नदी के पूर्व में स्थित था. यहाँ का दुर्ग अभेद्य था. युद्ध में राजा अस्सकेनस के मर जाने के बाद यहाँ की स्त्रियों ने सिकन्दर से लोहा लेकर शौर्यता का परिचय दिया, किन्तु अंत में विजय सिकन्दर को ही प्राप्त हुई.
                                   आम्भी
आम्भी तक्षशिला का शासक था उसने सिकन्दर से युद्ध के स्थान पर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली.
                                अभिसार पर अधिकार
झेलम तथा चिनाव नदी के बीच स्थित इस पर्वतीय प्रदेश तथा अन्य छोटे-छोटे राज्यों ने सिकन्दर के समक्ष हथियार डालकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली. पोरस से युद्ध पोरस चिनाव तथा झेलम नदियों के मध्यवर्ती प्रदेश का शासक था सिकन्दर को इस वीर शासक को परास्त करने में सर्वाधिक शक्ति व बुद्धि का प्रयोग करना पड़ा. सिकन्दर पोरस की वीरता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसके राज्य को वापस कर उससे मित्रता कर ली तथा आगे के अभियान में उसका सहयोग लिया.
ग्लोगनिकाई, कठोई व सौभूति इन्हें पराजित करने में सिकन्दर को मेहनत करनी पड़ी. कठोई को तो पोरस की मदद के बाद ही पराजित किया जा सका. सिकन्दर की सेना में विद्रोह सौभूति पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् जैसे ही सिकन्दर व्यास नदी के तट पर पहुंचा तभी उसकी सेना ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया. सिकन्दर के लाख समझाने पर भी सेना नहीं मानी तो उसने स्वदेश लौटने का निश्चय किया लौटते समय भी उसने अनेक जातियों यथा अगलस्स, क्षुद्रक, शौद्र तथा ब्राह्मण आदि को पदाक्रान्त किया.
                                 वापसी तथा मृत्यु
325 ई.पू. में सिकन्दर ने अपने देश की ओर प्रस्थान किया. उसने अपनी सेना को दो भागों में बाँट दिया. निथारकस की अध्यक्षता में सेना का एक भाग जलमार्ग द्वारा तथा दूसरा भाग सिकन्दर के नेतृत्व में थल मार्ग से वापस हुआ. स्वदेश पहुँचने से पूर्व ही 325 ई. पू. में उसकी मृत्यु हो गई.
                          सिकन्दर के आक्रमण का प्रभाव
सिकन्दर के आक्रमण के प्रभाव के विषय में इतिहासकार एक मत नहीं हैं. कुछ इतिहासकारों का मत है कि सिकन्दर भारत में आँधी की तरह आया और शीघ्र ही यहाँ से वापस भी चला गया. अतः उसके आक्रमण का भारत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, किन्तु कुछ इतिहासकारों का मत है। कि सिकन्दर के आक्रमण का भारत पर प्रभाव पड़ा. वास्तव में यह प्रभाव अनेक क्षेत्रों में दर्शित भी होता है.
राजनीतिक महत्व इतिहास की तिथि निर्धारण में न सहायक इस आक्रमण से तिथिवार इतिहास को प्रस्तुत करने में सहायता प्राप्त हुई. राजनीतिक एकता का प्रारम्भ तत्कालीन उत्तरी भारत के अनेक छोटे-छोटे राज्यों का विलय पोरस तथा आम्भी के राज्यों में हो गया. अपेक्षाकृत उ राज्य विस्तृत तथा राजनीतिक दृष्टि से एकजुट होने लगे.
                              यूनानी राज्यों की स्थापना
पश्चिमी पंजाब, सिन्ध आदि सीमावर्ती प्रान्तों में यूनानी राज्यों की स्थापना हुई.
दोषपूर्ण युद्ध विधि का ज्ञान भारतीयों को सिकन्दर के विरुद्ध युद्ध करने से अपनी युद्ध विधि के दोषों का भली-भाँति ज्ञान हुआ, जिसे उन्होंने भविष्य में दूर भी किया.
                        आर्थिक प्रभाव नए मार्गों का ज्ञान
यद्यपि भारत के यूनान से पहले से ही सम्बन्ध स्थापित थे, किन्तु इस आक्रमण से यूनान, अन्य व्यापारिक मार्ग खुल गए. मार्गों में एक जलमार्ग तथा तीन स्थल मार्ग भारत, ईरान आदि पश्चिमी देशों के मध्य थे. काबुल, बलूचिस्तान में सुल्तान दर्रा तथा जोडोशिया से होकर जाने वाला स्थल मार्ग भविष्य में व्यापारिक दृष्टि से अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुआ.
                              व्यापार को प्रोत्साहन
भारत और यूनान के मध्य व्यापारिक सम्बन्ध घनिष्ठ हुए. भारत गर्म मसाले, हाथी दाँत आदि वस्तु का निर्यात तथा यूनान से कन्याओं का आयात होने लगा.
                                सांस्कृतिक प्रभाव
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सिकन्दर की भारत विजय के फलस्वरूप किन्तु कला, भाषा, साहित्य, ज्योतिष, चिकित्सा आदि के क्षेत्र में यूनानी प्रभाव पड़ा, यह मत सही नहीं है, यह प्रभाव परवर्ती यूनानी सम्पर्क का था.
पाषाण काल
*जिस काल का कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता है, उसे ‘प्रागैतिहासिक काल’ कहते हैं। ‘आद्य ऐतिहासिक काल’ में लिपि के साक्ष्य तो हैं किंतु उनके अपठ्य या दुर्बोध होने के कारण उनसे कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। जब से लिखित विवरण मिलते हैं यह ‘ऐतिहासिक काल’ है। * प्रागैतिहास के अंतर्गत पाषाण कालीन सभ्यता तथा आद्य-इतिहास के अंतर्गत सिंधु घाटी सभ्यता एवं ताम्र सभ्यता (अहाड़, जोर्वे आदि) आती हैं, जबकि छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास से ऐतिहासिक काल का आरंभ होता है। * सर्वप्रथम 1863 ई. में भारत में पाषाण कालीन सभ्यता का अनुसंधान प्रारंभ हुआ। पाषाण निर्मित उपकरणों की अधिकता के कारण संपूर्ण पाषाण युगीन संस्कृति को तीन मुख्य चरणों में विभाजित किया गया। *ये हैं-पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल और नवपाषाण काल। * उपकरणों की मिन्नता के आधार पर पुरापाषाण काल को भी तीन कालों में विभाजित किया जाता है।
  1. पूर्व पुरापाषाण काल-क्रोड उपकरण (हस्तकुठार, खंडक एवं विदारिणी),
  2. मध्य पुरापाषाण काल फलक उपकरण तथा
3 उच्च पुरापाषाण काल-तक्षिणी एवं खुरचनी उपकरण
* सर्वप्रथम पंजाब की सोहन नदी घाटी (पाकिस्तान) से चापर-चापिंग पेबुल संस्कृति के उपकरण प्राप्त हुए। * सर्वप्रथम मद्रास के समीप बदमदुरै तथा अत्तिरमपक्कम से हैंडऐक्स संस्कृति के उपकरण प्राप्त किए गए। * इस संस्कृति के अन्य उपकरण क्लीवर, स्क्रेपर आदि हैं। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (Indian Geological Servey) के वैज्ञानिक रॉबर्ट ब्रूस फुट ब्रिटिश भूगर्भ वैज्ञानिक और पुरातत्वविद थे। 1863 ई. में रॉबर्ट ब्रूस फुट ने मद्रास के पास ‘पल्लवरम’ नामक स्थान से पहला हैंडऐक्स प्राप्त किया था। उनके मित्र विलियम किंग ने अत्तिरमपक्कम से पूर्व पाषाण काल के उपकरण खोज निकाले। * वर्ष 1935 में डी. टेरा के नेतृत्व में एल कैम्ब्रिज अभियान दल ने सोहन घाटी में सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान किए। *बेलन घाटी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जी.आर. शर्मा के निर्देशन में अनुसंधान किया गया। पूर्व पुरापाषाण काल से संबंधित यहां 44 पुरास्थल प्राप्त हुए हैं। *उपकरणों के अतिरिक्त बेलन के लोहदा नाला क्षेत्र से इस काल की अस्थि निर्मित मातृदेवी की एक प्रतिमा मिली है, जो संप्रति कौशाम्बी संग्रहालय में सुरक्षित है।
* फलकों की अधिकता के कारण मध्य पुरापाषाण काल को ‘फलक संस्कृति’ भी कहा जाता है। इन सामान्य उपकरणों का निर्माण क्वाइट पत्थरों से किया गया है। पुरापाषाण कालीन मानव का जीवन पूर्णतया प्राकृतिक था। प्रधान शिकार पर निर्भर रहते थे तथा उनका भोजन मांस अथवा कंदमूल हुआ करता था। * अग्नि के प्रयोग से अपरिचित रहने के कारण वे कच्चा मांस खाते थे। इस युग का मानव शिकारी एवं खाद्य संग्राहक था।
इस काल के मानव को पशुपालन तथा कृषि का ज्ञान नहीं था। भारत में मध्यपाषाण काल के विषय में जानकारी सर्वप्रथम 1867- 68 ई. में हुई जब आर्कीवाल्ड कार्लाइल ने किंव्य क्षेत्र से शैल चित्र (Rock 7 Painting) खोज निकाले। मध्यपाषाण काल के विशिष्ट औजार सूक्ष्म पाषाण या पत्थर के बहुत छोटे औजार हैं। भारत में मानव अस्थिपंजर सर्वप्रथम मध्यपाषाण काल से ही प्राप्त होने लगता है। *गुजरात स्थित लंघनाज सबसे महत्वपूर्ण पुरास्थल है। यहां से लघु पाषाणोपकरणों के अतिरिक्त पशुओं की हड्डियां, कब्रिस्तान तथा कुछ मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ से 14 मानव कंकाल भी मिले हैं।
 * मध्यपाषाण कालीन महदहा (प्रतापगढ़, उ.प्र.) से हड्डी एवं सींग निर्मित उपकरण प्राप्त हुए हैं। जी. आर. शर्मा ने महदहा के तीन क्षेत्रों का उल्लेख किया है, जो झील क्षेत्र, बूचड़खाना संकुल क्षेत्र एवं कब्रिस्तान निवास क्षेत्र में बंटा था। बूचड़खाना संकुल क्षेत्र से ही हड्डी एवं सींग निर्मित उपकरण एवं आभूषण बड़े पैमाने पर पाए गए हैं। *डॉ. जयनारायण पाण्डेय द्वारा लिखित पुस्तक ‘पुरातत्व विमर्श में महदहा, सराय नाहर राय एवं दमदमा तीनों ही स्थलों से हड्डी के उपकरण एवं आभूषण पाए जाने का उल्लेख है।
*दमदमा में किए गए उत्खनन के फलस्वरूप पश्चिमी तथा मध्यवर्ती क्षेत्रों से कुल मिलाकर 41 मानव शवाधान ज्ञात हुए हैं। *इन शवाधानों में से 5 शवाधान युग्म शवाधान हैं और एक शवाधान में मानव कंकाल एक साथ दफनाए हुए मिले हैं। शेष शवाधानों में एक-एक कंकाल मिले हैं। इस प्रकार कुल 48 मानव कंकाल प्राप्त हुए हैं। सराय नाहर राय से ऐसी समाधि मिली है, जिसमें चार मानव कंकाल एक साथ दफनाए गए थे। * यहां की कब्रें (समाधियां) आवास क्षेत्र के अंदर स्थितः थीं। कब्रें छिछली तथा अंडाकार थीं। *विंध्य क्षेत्र के लेखहिया के शिलाश्रय संख्या 1 से मध्यपाषाणिक लघु पाषाण उपकरणों के अतिरिक्त 17 मानव कंकाल प्राप्त हुए हैं, जिनमें से कुछ सुरक्षित हालत में हैं तथा अधिकांश क्षत-विक्षत अवस्था में हैं।
* अमेरिका के ओरेगॉन विश्वविद्यालय के जॉन आर. लुकास के अनुसार, लेखहिया में कुल 27 मानव कंकालों की अस्थियां मिली हैं। *पशुपालन का प्रारंभ मध्यपाषाण काल में हुआ। *पशुपालन के साक्ष्य भारत में आदमगढ़ (होशंगाबाद, म.प्र.) तथा बागोर (भीलवाड़ा, राजस्थान) से प्राप्त हुए हैं। * मध्यपाषाण काल के मानव शिकार करके मछली पकड़कर और खाद्य वस्तुओं का संग्रह कर पेट भरते थे। *मध्य और अन्य अध्ययन भारतीय इतिहास हू
प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका प्रागैतिहासिक शैल चित्रकला का श्रेष्ठ उदाहरण है। *भारत में सर्वाधिक 700 से अधिक शिलाश्रय प्राप्त हुए है, जिसमें से 243 को क्रमांक दिया गया है, इसमें से 133 शिलाश्रयों चित्रकारी प्राप्त हुई है। यूनेस्को ने भीमबेटका शैल चित्रों को विश्व दिराका सूची में सम्मिलित किया है।
*सर्वप्रथम खाद्यान्नों का उत्पादन नवपाषाण काल में प्रारंभ हुआ। इसी काल में गेहूं की कृषि प्रारंभ हुई। नवीनतम खोजों के आधार पर भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीनतम कृषि साक्ष्य वाला स्थल उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जिले में स्थित लहुरादेव है। * यहां से 9000 ई.पू. से 7000 ई.पू. माय के चावल के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। उल्लेखनीय है कि इस नवीनतम खोज के पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप का प्राचीनतम कृषि साक्ष्य वाला स्थल मेहरगढ़ (पाकिस्तान के बलूचिस्तान में स्थित यहां से 7000 ई.पू. के गेहूं के साक्ष्य मिले हैं), जबकि प्राचीनतम चावल के साक्ष्य वाला स्थल कोलडिहवा (इलाहाबाद जिले में बेलन नदी के तट पर स्थित यहां से 6500 ई.पू. के चावल की भूसी के साक्ष्य मिले हैं) माना जाता था। चीन के यांग्त्जी नदी घाटी क्षेत्र में लगभग 7000 ई.पू. चावल उगाया गया। मक्का (लगभग 6000 ई.पू.) का प्रथम साक्ष्य मेक्सिको में पाया गया। *बाजरा 5500 ई.पू. चीन में, सोरघम 5000 ई.पू. पूर्वी अफ्रीका में राई 5000 ई. पू. में दक्षिण-पूर्व एशिया में तथा जई 2300 ई.पू. में यूरोप में सर्वप्रथम उगाया गया।
* मेहरगढ़ से पाषाण संस्कृति से लेकर हड़प्पा सभ्यता तक के सांस्कृतिक अवशेष प्राप्त हुए हैं। *मानव कंकाल के साथ कुत्ते का कंकाल बुर्जहोम (जम्मू-कश्मीर) से प्राप्त हुआ। गर्त आवास के साक्ष्य भी यहीं से प्राप्त हुए। * इस पुरास्थल की खोज वर्ष 1935 में डी. टेरा एवं पीटरसन ने की थी। * गुफकराल कश्मीर में स्थित नवपाषाणिक स्थल है। *गुफकराल का अर्थ होता है कुलाल अर्थात कुम्हार की गुहा *यहां के लोग कृषि एवं पशुपालन का कार्य करते थे। * चिरांद बिहार के सारण जिले में स्थित है। यहां से नवपाषाणिक अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां से हड्डी के अनेक उपकरण प्राप्त हुए हैं। यहां से प्राप्त उपकरण हिरण के सींगों से निर्मित है। नवपाषाण युगीन दक्षिण भारत में मृतक को दफनाने के स्थल के रूप में वृहत्पाषाण स्मारकों की पहचान की गई। *नवपाषाण कालीन पुरास्थल से ‘राख के टीले’ कर्नाटक में मैसूर के पास बेल्लारी जनपद में स्थित संगनकल्लू नामक स्थान से प्राप्त हुए। *पिकलीहल, उतनूर आदि स्थलों से भी राख
के टीले मिले हैं। ये राख के टीले नवपाषाण युगीन पशुपालक समुदायों के
मौसमी शिविरों के जले अवशेष है। * आग का उपयोग नवपाषाण काल की
महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।
* धातुओं में सबसे पहले तांबे का प्रयोग हुआ। इस चरण में पत्थर एवं तांबे के उपकरणों का साथ-साथ प्रयोग जारी रहा। इसी कारण इसे ताम्रपाषाणिक संस्कृति (कल्कोलिथिक कल्चर) कहा जाता है। * ताम्रपाषाणिक का अर्थ है- पत्थर एवं तांबे के प्रयोग की अवस्था। *भारत में ताम्रपाषाण युग की बस्तियां दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण-पूर्वी भारत में पाई गई है।
* दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में अनेक पुरास्थलों की खुदाई हुई है, – बालाल, बागोर, ओजियाना एवं गिलुंद। ये पुरास्थल बनास घाटी में स्थित हैं। *बनास घाटी में स्थित होने के कारण इसे बनास संस्कृति भी कहते हैं।
*अहाड़ का प्राचीन नाम तांबवती अर्थात तांबा वाली जगह है। *गिलुद बालावल, ओजियाना में घरो को चाहरदीवारी से घेरा गया है। *अहाड़ के पास गिलुंद में मिट्टी की इमारत बनी है, किंतु कहीं-कहीं पक्की ईंट भीलगी है।
*गिलुंद में तांबे के टुकड़े मिले हैं। * अहाड़ संस्कृति (2100-1500 ई.पू.) अन्य ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों से भिन्न है क्योंकि जहां दूसरे केंद्रों में लाल व काले लेप के मृदभांड बने हैं, वहीं यहां पर इस लेप के ऊपर सफेद रंग से चित्रकारी को गई कृष्ण लोहित मृदभांड परंपरा विशिष्ट रही है। * पश्चिमी मध्य प्रदेश में मालवा, कायथा, एरण और नवदाटोली प्रमुख स्थल हैं। * नवदाटोली, मध्य प्रदेश का एक महत्वपूर्ण ताम्रपाषाणिक पुरास्थल है, जो खारगोन जिले में स्थित है। इसका उत्खनन एच.डी. संकालिया ने कराया था। यहां से मिट्टी, बांस एवं फूस के बने चौकोर एवं वृत्ताकार घर मिले हैं। यहां के मूल मृद्भांड लाल-काले रंग के हैं, जिन पर ज्यामितीय आरेख उत्कीर्ण है।
* कायथा संस्कृति जो हड़प्पा संस्कृति की कनिष्ठ समकालीन है. इसके मृद्मांडों में कुछ प्राक् हड़प्पीय लक्षण दिखाई देते है, साथ ही इन पर हड़प्पाई प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई देता है। * इस संस्कृति की लगभग 40 बस्तियां मालवा क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं, जो अत्यंत छोटी-छोटी हैं। *मालवा संस्कृति अपनी मृद्मांडों की उत्कृष्टता के लिए जानी जाती है। * मध्य प्रदेश में कायथा और एरण की तथा पश्चिमी महाराष्ट्र में इनामगांव की बस्तियां किलाबंद है। * पश्चिमी महाराष्ट्र के प्रमुख पुरास्थल हैं-अहमदनगर जिले में जोर्वे, नेवासा और दैमाबाद, पुणे जिले में चंदोली, सोनगांव, इनामगांव, प्रकाश और नासिक। * ये सभी पुरास्थल जोर्वे संस्कृति (1400-700 ई.पू.) के हैं। * अब तक ज्ञात 200 जोर्वे स्थलों में गोदावरी का दैमाबाद सबसे बड़ा है। *यह लगभग 20 हेक्टेयर में फैला है, जिसमें लगभग 4000 लोग रह सकते थे। * नेवासा (जोर्वे संस्कृति स्थल) से पटसन का साक्ष्य प्राप्त हुआ है। टोटीदार पात्र परंपरा जोर्वे संस्कृति की विशिष्ट पहचान है।
*महाराष्ट्र की ताम्रपाषाण कालीन संस्कृति (जोर्वे संस्कृति) के नेवासा, दैमाबाद, चंदोली, इनामगांव आदि पुरास्थलों में मृतकों को अस्थि कलश में रखकर उत्तर से दक्षिण दिशा में घरों के फर्श के नीचे दफनाए जाने के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। आरंभिक ताम्रपाषाण अवस्था के इनामगांव स्थल पर चूल्हों सहित बड़े-बड़े कच्ची मिट्टी के मकान और गोलाकार गड्ढों वाले मकान मिले हैं। * पश्चात की अवस्था ( 1300-1000 ई.पू.) में पांच कमरों वाला एक मकान मिला है जिसमें चार कमरे आयताकार हैं और एक वृत्ताकार । * इनामगांव में 130 से अधिक घर (NCERT के अनुसार 100 से अधिक) और अनेक कब्रें पा गई हैं। * यह बस्ती किलाबंद है और खाई से घिरी हुई है। * यहां शिल
या पंसारी लोग पश्चिम छोर पर रहते थे, जबकि सरदार प्राय: केंद्र स्थल में रहता था। यहां से अन्नागार भी मिला है। *पूर्वी भारत में गंगा तटवर्ती चिरांद के अलावा, पश्चिम बंगाल के जिले के पांडु राजर डिवि और बीरभूम जिले में महिषदल उल्लेखनीय समकालीन है। कुछ अन्य पुरास्थल जहां खुदाई हुई, ये है बिहार में सेनुवार, सोनपुर और ताराडीह तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में खैराबीह और नरहना
*बिहार, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में रहने वाले लोग टोटी वाले जलपात्र, गोडीदार तश्तरिया और गोडीदार कटोरे बनाते थे। *दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र और अन्यत्र रहने वाले ताम्रपाषाण युग के लोग मवेशी पालन और कृषि करते गाय, भेड़, बकरी और मेस रखते थे और हिरण का शिकार भी करते थे। * यहा से ऊंट के अवशेष प्राप्त हुए है। * मुख्य अनाज गेहूं और चावल के अतिरिक्त वे बाजरे की भी खेती करते थे।
ताम्रपाषाण युग के लोग शिल्प-कर्म मे निःसंदेह बड़े दक्ष थे और पत्थर का काम भी अच्छा करते थे। वे कानैलियन स्टेटाइट और क्वार्ट्ज क्रिस्टल जैसे अच्छे पत्थरों के मनके या गुटिकाएं भी बनाते थे। *वे लोग कताई और बुनाई जानते थे क्योंकि मालवा में चरखे और तकलियां मिली हैं। * महाराष्ट्र में कपास, सन और सेमल की रूई के बने धागे भी मिले हैं। * इनामगांव में कुंभकार, धातुकार, हाथी दांत के शिल्पी, चूना बनाने वाले और खिलौने की मिट्टी की मूर्ति (टेराकोटा) बनाने वाले कारीगर भी दिखाई देते हैं। * इनामगांव में मातृ-देवी की प्रतिमा मिली है, जो पश्चिमी एशिया में पाई जाने वाली ऐसी प्रतिमा की प्रतिरूप है। *मालवा और राजस्थान में मिली रूढ़ शैली से बनी मिट्टी की वृषभ मूर्तिकाएं यह सूचित करती है कि वृषभ (सांड) धार्मिक पंथ का प्रतीक था।
* पश्चिमी महाराष्ट्र की चंदोली और नेवासा बस्तियों में कुछ बच्चों के गलों में तांबे के मनकों का हार पहनाकर उन्हें दफनाया गया है, जबकि अन्य बच्चों की कब्रों में सामान के तौर पर कुछ बर्तन मात्र हैं। * महाराष्ट्र में मृतक को उत्तर-दक्षिण की दिशा में रखा जाता था किंतु दक्षिण भारत में पूर्व-पश्चिम की दिशा में पश्चिमी भारत में लगभग संपूर्ण शवाधान (एक्सटेंडेड बरिअल) प्रचलित था, जबकि पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान (फ्रैक्शनल रिअल) चलता था। * सबसे बड़ी निधि मध्य प्रदेश के गुगेरिया से प्राप्त हुई है। * इसमें 424 तांबे के औजार एवं हथियार तथा 102 चांदी के पतले पत्तर हैं।
* कायथा के एक घर में तांबे के 28 कंगन और दो अद्वितीय ढंग की कुल्हाड़ियां पाई गई हैं। इसी स्थान में स्टेटाइट और कार्नेलियन जैसे कीमती पत्थरों की गोलियों के हार पात्रों में जमा पाए गए हैं। * गणेश्वर स्थल राजस्थान में खेत्री ताम्र-पट्टी के सीकर-झुंझनू क्षेत्र के तांबे की समृद्ध खानों के निकट पड़ता है। * दक्षिण भारत में ब्रह्मगिरि, पिकलीहल, संगलनकल्लू, मस्की, हल्लूर आदि से ताम्रपाषाण युगीन बस्तियों के साक्ष्य मिले हैं। दक्षिण भारत में कृषक की अपेक्षा चरवाहा संस्कृति का अधिक प्रमाण मिला है।
भारत में सर्वप्रथम 1861 ई. में अलेक्जेंडर कनिंघम को पुरातत्व सर्वेक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। *1871 ई. में पुरातत्व सर्वेक्षण को सरकार के एक विभाग के रूप में गठित किया गया था। वर्ष 1901 में लॉर्ड कर्जन के समय में इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के रूप में केंद्रीकृत कर जॉन मार्शल को इसका प्रथम महानिदेशक बनाया गया था। वर्ष 1902 में जॉन मार्शल ने कार्यभार ग्रहण किया।
                                  सैंधव सभ्यता एवं संस्कृति
नोट्स
*सैंधव सभ्यता के लिए साधारणतः तीन नामों का प्रयोग होता है- ‘सिंघ-सभ्यता’, ‘सिंधु घाटी की सभ्यता’ और ‘हड़प्पा सभ्यता’। *हड़प्पा सभ्यता की खोज वर्ष 1921 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक सर जॉन मार्शल के निर्देशन में रायबहादुर दयाराम साहनी ने किया था। हड़प्पा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मांटगोमरी जिले (वर्तमान शाहीवाल) में स्थित है, जबकि मोहनजोदड़ो सिंघ के लरकाना जिले में स्थित है। *पिग्गट महोदय ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो को ‘एक विस्तृत साम्राज्य की जुड़वां राजधानियां’ कहा है। * हड़प्पा रावी नदी के बाएं तट पर जबकि मोहनजोदड़ो सिंधु नदी के दाहिने तट पर स्थित है। * जॉन मार्शल ने सर्वप्रथम इस सभ्यता को सिंधु सभ्यता का नाम दिया। * रेडियो कार्बन-14 (C-14) जैसी नवीन विश्लेषण पद्धति के द्वारा हड़प्पा सभ्यता की तिथि 2300 ई.पू.-1700 ई.पू. मानी गई है, जो सर्वाधिक मान्य है। *लगभग 2300 ई.पू. से 1900 ई.पू. तक यह सभ्यता अपने विकास की पराकाष्ठा पर थी। *यह सभ्यता मेसोपोटामिया तथा मिस्र की सभ्यताओं की समकालीन थी।
* अब तक इस सभ्यता के अवशेष पाकिस्तान में पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और भारत में पंजाब, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उ.प्र., जम्मू कश्मीर, पश्चिमी महाराष्ट्र में पाए जा चुके हैं। * इस सभ्यता का सर्वाधिक पश्चिमी पुरास्थल सुत्कागेनडोर (बलूचिस्तान), पूर्वी पुरास्थल आलमगीरपुर (पश्चिमी उ.प्र.), उत्तरी पुरास्थल मांडा (जम्मू कश्मीर) तथा दक्षिणी पुरास्थल दैमाबाद (महाराष्ट्र) है। * इसका आकार त्रिभुजाकार है तथा वर्तमान में लगभग 13 लाख वर्ग किमी. क्षेत्रफल में विस्तृत है।
*प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मोहनजोदड़ों की जनसंख्या एक मिश्रित प्रजाति की थी जिसमें कम-से-कम चार प्रजातियां थीं। 1. प्रोटो ऑस्ट्रेलायड (काकेशियन), 2, भूमध्य सागरीय 3. अल्पाइन और 4. मंगोलायड *मोहनजोदड़ो के निवासी अधिकांशतः भूमध्य सागरीय थे।
नगर को अनेक वर्गाकार खड़ी विभाजित करती सड़कों के एक-दूसरे को पर काटने को ऑक्सफोर्ड सर्कस नाम दिया गया है। मोदी के पश्चिमी भाग में स्थित दुर्ग टीले को स्तूपटीला भी कहा जाता है क्योंकि यहां परमाण शासकों ने एक स्तूप का निर्माण करवाया था जो से प्राप्त अन्य अवशेषों में कांसे की बनी नृत्यरत नारी की मूर्ति, पुजारी (बागी) की मूर्ति मुद्रा पर अंकित पशुपतिनाथ (शिव) की मूर्तिकारों के छ कपड़ा, हाथी का कपाल खंड, गले हुए तांबे के ढेर, सीपी की बनी हुई पटरी, अंतिम स्तर पर बिखरे हुए एवं कुए से प्राप्त नर कंकाल घोड़े के दांव एवं गीली मिट्टी पर कपड़े के साक्ष्य मिले हैं।
*मोहनजोदड़ो से 130 किमी, दक्षिण-पूर्व में स्थित चन्द्रददों की खोज सर्वप्रथम वर्ष 1931 में एम. जी. मजूमदार ने की थी। वर्ष 1935-36 में इसका उत्खनन मैके ने किया। यहां संघय संस्कृति के अतिरिक्त प्राकृ संस्कृति जिसे झुकर और झांगर संस्कृति कहते हैं, के अवशेष मिले हैं। * संभवतः यह एक औद्योगिक केंद्र था जहां मणिकारी, मुहर बनाने, भार- माप के बटखरे बनाने का काम होता था। *मके को यहां से मनका बनाने का कारखाना (Bead Factory) तथा भट्ठी प्राप्त हुई थी। यहां से प्राप्त अवशेषों में प्रमुख हैं- अलंकृत हाथी, खिलौना एवं कुत्ते के बिल्ली का पीछा करते हुए पद-चिह्न, सौंदर्य प्रसाधनों में प्रयुक्त लिपस्टिक आदि। चन्हूदड़ो एकमात्र पुरास्थल है जहाँ से वक्राकार ईंटें मिली है। *यहां किसी दुर्ग कर अवशेष नहीं मिला है।
*गुजरात में अहमदाबाद जिले में भोगवा नदी के तट पर स्थित लोथल की खोज सर्वप्रथम डॉ. एस. आर. राव ने की थी। सागर तट पर स्थित यह स्थल पश्चिमी एशिया से व्यापार के लिए एक प्रमुख बंदरगाह था। निगर ● योजना तथा अन्य भौतिक वस्तुओं के आधार पर लोबल एक लघु हड़प्पा या ‘लघु मोहनजोदड़ो’ नगर प्रतीत होता है। *यहां से फारस की मुद्रा 1 सील और पक्के रंग में रंगे हुए पात्र प्राप्त हुए हैं। *लोयल में गढ़ी तथा नगर दोनों एक रक्षा प्राचीर से घिरे है। लोथल की सबसे प्रमुख विशेषता ‘जहाजों की गोदी (डॉकयार्ड) है। * यहाँ से प्राप्त अन्य महत्वपूर्ण अवशेष 1 है- धान (चावल) और बाजरे का साक्ष्य फारस की मुहर, घोड़े की लघु मृण्मूर्ति, तीन युगल समाधिया आदि।
* कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ (पूर्व में हनुमानगढ़ जिला, गंगानगर का भाग था) जिले में स्थित है। इस स्थल की खोज अमलानंद 2. घोष ने की थी। * वर्ष 1961 में बी. बी. लाल एवं बी. के. थापर ने उत्खनन में आरंभ किया। यहां पूर्वी और पश्चिमी टीला अलग-अलग सुरक्षा प्राचीर से घिरे थे। यहां पर पश्चिम दिशा में स्थित दुर्ग वाले टीले पर सैंधव सभ्यता के नीचे प्राक्-सैंधव संस्कृति के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। *मोहनजोदड़ों के भवन पक्की ईंटों के बने थे, जबकि कालीबंगा के भवन कच्ची ईंटों के बने
ईंट को नालियों कुछ एवं स्नानागार बनाने में ही किया गया है। यहां से जुड़े हुए खेत के मिले है, जिसकी जुलाई आड़ी-तिरी की गई है। मोहनजोदो एवं ड़या के समान यहाँ से दो टीले मिले है, जो सुरक्षा दीवारों से घिरे हैं। पूर्व की ओर स्थित दीला बड़ा जबकि पश्चिम की तरफ स्थित टीला छोटा था। पश्चिमी टीले को ‘कालीबंगा प्रथम नाम दिया गया है। यहां से भूकंप का साक्ष्य *दुर्ग या गढ़ी वाले टीले के दक्षिणी अर्धभाग में पांच या छ कच्ची ईंटों के चबूतरे बने थे। एक चबूतरे पर अग्निकुड, कुआं तथा पक्की ईंटों का बना एक आयताकार गर्न था, जिसमें पशुओं की हड्डियों थी। दूसरे चबूतरे पर सात अग्निकुंड या वेदिकाएं एक पंक्ति में बनी थीं।
* यहां से सेलखड़ी तथा मिट्टी की मुहरें एवं मृदभांड के टुकड़े मिले हैं। *चौलावीरा गुजरात के कच्छ के रन में अवस्थित है। *सर्वप्रथम वर्ष 1967-68 में इसकी खोज जे. पी. जोशी ने की। वर्ष 1990-91 के दौरान आर. एस. बिष्ट द्वारा व्यापक पैमाने पर उत्खनन कार्य प्रारंभ किया गया। * यह नगर आयताकार बना था। * इस नगर को तीन भागों किला, मध्य नगर तथा निचला नगर में विभाजित किया गया था। यहां से एक विशाल जलाशय मिला है। यहां के निवासी एक उन्नत जल प्रबंधन व्यवस्था से परिचित थे। यहां से हड़प्या लिपि के बड़े आकार के 10 चिह्नों वाला एक शिलालेख मिला है।
* सुरकोटडा गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है। यह नगर दो दुर्गीकृत भागों-गढ़ी तथा आवास क्षेत्र में विभाजित था। * यहां के कब्रिस्तान से कलश शवाधान के साक्ष्य मिले हैं। यहां घोड़े की कुछ हड्डियों के साक्ष्य मिले हैं।
* दैमाबाद महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में प्रवरा नदी के बाएं किनारे पर स्थित है। * यह सैंधव सभ्यता का सबसे दक्षिणी स्थल है। यहां से रथ चलाते हुए मनुष्य, साड़, गैंडे की आकृतियां प्राप्त हुई हैं। यहां से कुछ मृदभांड, संचय लिपि की एक मुहर, तश्तरी प्याले आदि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। *राखीगढ़ी हरियाणा के हिसार जिले में घग्गर नदी के किनारेस्थित है। * इस स्थल की खोज वर्ष 1969 में सूरजभान ने की थी।
*यह नवीनतम शोधों के अनुसार सबसे बड़ा सैंधव स्थल है।
* रोपड़ (पंजाब) सतलज नदी के बाएं तट पर स्थित है। इसका आधुनिक नाम रूपनगर है। वर्ष 1950 में इसकी खोज बी. बी. लाल ने तथा वर्ष 1953-55 के दौरान यज्ञदत्त शर्मा ने इसकी खुदाई करवाई। यहां से मृदभांड, सेलखड़ी की मुहर, चर्ट के बटखरे, एक छुरा, तांबे के बाणाग्र तथा कुल्हाड़ी आदि प्राप्त हुए हैं। *यहां से मनुष्य के साथ पालतू कुत्ता के दफनाए जाने का साक्ष्य मिला है।
रंगपुर गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में है। * यहां से प्राक् हड़प्पा, हड़प्पा और उत्तर हड़प्पाकालीन सभ्यता के साक्ष्य मिले हैं। * यहां से प्राप्त वनस्पति अवशेष के आधार पर कहा जा सकता है कि वे लोग चावल, बाजरा एवं ज्वार की खेती करते थे।
सैंधव    सभ्यता के प्रमुख स्थल एवं उनसे संबंधित नदी
 हड़प्पा   – रावी
मोहनजोदड़ो  – सिंधु
कालीबंगा   घग्गर
लोथल    भोगवा
रोपड़    सतलज
आलमगीरपुर   हिंडन
सुत्कागेनडोर    दास्त/दाश्क
“आलमगीरपुर उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में हिंडन नदी के किनारे स्थित है। *यहां से खुदाई में मृदभांड एवं मनके मिले हैं। * कुछ बर्तन पर त्रिभुज, मोर, गिलहरी आदि की चित्रकारियां मिलती हैं।
 * हुलास उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में स्थित है। *यहां से कांचली मिट्टी के मनके, चूड़ियां, खिलौना-गाड़ी आदि मिले हैं। * संघट लिपियुक्त एक ठप्पा का भी साक्ष्य मिला है। * देसलपुर से एक रक्षा प्राचीर मिला है।
 * सुत्कागेनडोर स्थल दक्षिण बलूचिस्तान में दस्त / दाश्क नदी के किनारे स्थित है। *इसकी खोज वर्ष 1927 में आरेल स्टीन ने की थी। *इसका दुर्ग एक प्राकृतिक चट्टान के ऊपर स्थित था। * यहां से मृद्भाङ एक ताम्रनिर्मित बाणाग्र, ताम्र निर्मित ब्लेड के टुकड़े, तिकोने ठीकरे तथ
मिट्टी की चूड़ियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
सोत्काकोह सुत्कागेनडोर के पूर्व में स्थित है। * वर्ष 1962 में इसकी खोज डेल्स द्वारा की गई। * यहां से दो टीले मिले हैं, जिसके आकार सुत्कागेनडोर जैसे ही हैं।
* बलूचिस्तान के दक्षिण तटवर्ती पट्टी पर स्थित बालाकोट एक बंदरगाह के रूप में कार्य करता था। * यहां से हड़प्पा पूर्व एवं हड़प्पाकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। *इसकी नगर योजना सुनियोजित थी। * भवनों के निर्माण में कच्ची ईंटों का जबकि नालियों के निर्माण में पक्की ईंटों क
प्रयोग किया जाता था। * यहां का सबसे समृद्ध उद्योग सीप उद्योग था *यहां से हजारों की संख्या में सीप से बनी चूड़ियों के टुकड़े मिले हैं।। * बनावली हरियाणा के फतेहाबाद ( पूर्व में हिसार का भाग था
जिले में स्थित है। * वर्ष 1973-74 में आर. एस. बिष्ट द्वारा इस स्थल क उत्खनन करवाया गया। * यहां से संस्कृति के तीन स्तर प्रकाश में आ हैं- प्राक् सैंधव, विकसित सैंधव एवं उत्तर सैंधव । * यहां की सड़कें नगर को तारांकित (Star Shaped) भागों में विभाजित करती हैं। *यहां मुहरें, बटखरे, लाजवर्द तथा कार्नेलियन के मनके, हल की आकृति दे
खिलौने, तांबे के बाणाग्र आदि के साक्ष्य मिले हैं। * भगवानपुरा हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में सरस्वती नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। जे. पी. जोशी ने इसका उत्खनन करवाया था। * यहां के प्रमुख अवशेषों में सफेद, काले तथा आसमानी रंग की कांच की चूड़ियां, तांबे की चूड़ियां, कांच की मिट्टी के चित्रित मनके आदि हैं।
मांडा जम्मू एवं कश्मीर में चेनाब नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। * वर्ष 1982 में इसका उत्खनन जे.पी. जोशी तथा मधुबाला द्वारा करवाया गया था। * उत्खनन से यहां तीन सांस्कृतिक स्तर प्राप्त हुए है- प्राकू सैंधव, विकसित सैंधव एवं उत्तर कालीन सैंधव *यहां से मिट्टी के ठीकरे, हड्डी के नुकीले बाणाग्र, चर्ट ब्लेड, कांस्य निर्मित पेंचदार पिन तथा एक आधी-अधूरी मुहर आदि के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में बारोट तहसील के सनौली नामक हड़प्पन पुरास्थल से क्रमबद्ध रूप से 125 मानव शवाधान प्राप्त हुए हैं, जिनकी दिशा उत्तर से दक्षिण है। * मिस्र की सभ्यता का विकास नील नदी की द्रोणी में हुआ। * मिस्र को नील नदी का उपहार कहा जाता है क्योंकि इस नदी के अभाव में यह भू भाग रेगिस्तान होता। * सुमेरिया सभ्यता के लोग
प्राचीन विश्व के प्रथम लिपि आविष्कर्ता थे।
* खुदाई से प्राप्त बहुसंख्यक नारी मूर्तियों से अनुमान लगाया जाता है कि सैंधव सभ्यता मातृसत्तात्मक थी। * सैंधव लोग शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। उनके वस्त्र ऊनी और सूती दोनों प्रकार के होते थे। *कंठहार, कर्णफूल, कड़ा, भुजबंद, अंगूठी, हसुली करघनी आदि आभूषण पहने जाते थे। *नौसारो से स्त्रियों के मांग में सिंदूर के प्रमाण मिले हैं, जो हिंदू धर्म में सुहाग का प्रतीक है।
* सैंधव काल में पासा प्रमुख खेल था।
* सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों के मुख्य खाद्यान्न गेहूं और जौ थे। * रंगपुर से धान की भूसी तथा लोथल से चावल के अवशेष मिले हैं। लोथल से वृत्ताकार चक्की के दो पाट मिले हैं। * सूती वस्त्रों के अवशेष से यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि यहां के निवासी कपास उगाना जानते थे। * सर्वप्रथम सैंधव निवासियों ने कपास की खेती प्रारंभ किया था। * भारत से कपास यूनान गई, जिसे यूनानी हिंडन के नाम से पुकारते थे। * भारत में कपास की खेती का प्रारंभ 3000 ई.पू. में किया गया, जबकि मिस्र में इसकी खेती 2500 ई.पू. के लगभग शुरू की गई। *हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगन, सुरकोटडा के स्थलों से कूबड़दार ऊंट का जीवाश्म मिला है। *सुरकोटडा, लोथल, कालीबंगा से घोड़े की मृण्मूर्तियां, हड्डियां, जबड़े आदि के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
* सिंधु सभ्यता का प्रमुख उद्योग वस्त्र उद्योग था । * मोहनजोदड़ो से तांबे के दो उपकरणों से लिपटा हुआ सूती धागा एवं कपड़ा प्राप्त हुआ है। * लोथल तथा चन्हूदड़ो में मनके बनाने का कार्य होता था। * लोथल तथा बालाकोट सीप उद्योग के लिए प्रसिद्ध था।
* संघव निवासियों का आंतरिक एवं बाह्य व्यापार उन्नत अवस्था में था। *सिक्कों का प्रचलन नहीं था तथा क्रय-विक्रय वस्तु-विनिमय द्वारा किया जाता था। * लोथल एवं मोहनजोदड़ो से हाथी दांत के बने तराजू के पलड़े मिले हैं। उनके बाट मुख्यतः घनाकार होते थे। *कुछ बाट बेलनाकार, • ढोलाकार, वर्तुलाकार प्रकार के भी मिले हैं। * सारगोन युगीन सुमेरियन लेख से ज्ञात होता है कि मेलुहा, दिलमुन तथा मगन के साथ मेसोपोटामिया 1 के साथ व्यापारिक संबंध थे। *मेलुहा’ की पहचान सिंघ क्षेत्र से की गई है। * दिलमुन’ की पहचान फारस की खाड़ी के बहरीन से की गई है। * सुमेरी अभिलेखों में दिलमुन को साफ-सुथरे नगरों का स्थान’ या ‘सूर्योदय का क्षेत्र’ और ‘हाथियों का देश’ कहा गया है। *मिस्र के साथ व्यापारिक संबंध का पता लोथल से प्राप्त ‘ममी’ की एक आकृति से चलता है।
* सैंधव सभ्यता में मूर्तिकला, वास्तुकला, उत्कीर्ण कला, मृदभांड कला आदि के उन्नत होने का प्रमाण मिलता है। * मोहनजोदड़ो से एक संयुक्त पशुमूर्ति प्राप्त हुई है जिसमें शरीर भेड़ का तथा मस्तक सूडदार हाथी का है। *हड़प्पा की पाषाण मूर्तियों में दो सिर रहित मानव मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। * धातु मूर्तियां लुप्त मोम या मधूच्छिष्ट विधि (Lost Wax) से बनाई जाती थीं। * मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की कांस्य मूर्ति अत्यंत प्रसिद्ध है। * लोथल से कुत्ते तथा कालीबंगन से ताम्र मूर्ति प्राप्त हुई है। *चन्हूदड़ो से प्राप्त इक्का गाड़ी एवं बैलगाड़ी की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। *मृण्मूर्तिया पुरुषों, स्त्रियों और पशु-पक्षियों की प्राप्त हुई हैं। * मानव मूर्तियां अधिकतर स्त्रियों की हैं। *सर्वाधिक मृण्मूर्तियां पशु-पक्षियों की प्राप्त हुई हैं।
* सैंधव काल में सर्वाधिक मुहरें सेलखड़ी की बनी हैं। * इसके अतिरिक्त कांचली मिट्टी, चर्ट, गोमेद, मिट्टी आदि की बनी मुहरें भी हैं। * अधिकांश मुहरें वर्गाकार या चौकोर हैं किंतु कुछ मुहरें घनाकार, गोलाकार अथवा बेलनाकार भी हैं। * सिंधु सभ्यता की मुहरों पर सर्वाधिक अंकन एक श्रृंगी बैलों का है, उसके बाद कूबड़ वाले बैल का है। *पशुपति शिव का प्रमाण मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर है जिस पर योगी की आकृति बनी है।
दाई और बाघ और हाथी तथा बाई ओर गैंडा एवं भैंसा चित्रित किए गए हैं। दो हिरन भी बने हैं। योगी के सिर पर एक त्रिशूल जैसा आभूषण है तथा इसके तीन मुख है। मार्शल महोदय ने इसे रूद्र शिव से संबंधित किया है। *मुख्यतया लाल या गुलाबी रंग के हैं। कुछ मृदभांडों
को लाल रंग से रंगकर काली रेखाओं से चित्र बनाए गए हैं। कुछ बर्तनों पर मोर, हिरण, कछुआ, मछली, गाय, बकरा, पीपल, नीम, खजूर, केला आदि का अंकन है। संधव मृदभांडों में मर्तबान, कटोरे, ततरियां एवं थालियाँ प्रमुख हैं। * स्त्री-पुरुष दोनों आभूषण पहनते थे। *सोने-चांदी के अतिरिक्त हाथी दांत, शंख आदि के भी आभूषण तैयार किए जाते थे। सैंधव सभ्यता में मातृदेवी की पूजा प्रमुख थी। *हड़प्पा से प्राप्त एक स्त्री की मूर्ति में उसके गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है। संभवतः यह देवी धरती की मूर्ति थी, जिसे लोग उर्वरता की देवी समझते थे तथा इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस प्रकार मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस की। *मातृदेवी एवं शिव की पूजा के अतिरिक्त संघव निवासी पशुओं, पक्षियों, वृक्षों आदि की उपासना करते थे। *लोथल, कालीबंगा एवं बनावली के पुरास्थलों से अग्निकुंड अथवा यज्ञ वेदियों के साक्ष्य मिलते हैं। *उत्तर-दक्षिण दिशा में शव दफनाने की प्रथा प्रचलित थी किंतु इसके अपवाद भी मिलते हैं। कालीबंगा में शव दक्षिण-उत्तर, रोपड़ में पश्चिम-पूर्व तथा लोथल में पूर्व-पश्चिम दिशा में प्राप्त हुए हैं। *आंशिक समाधिकरण के उदाहरण बहावलपुर से मिले हैं।
समानान्तर चतुर्भुज के आकार का हडप्पा का दुर्ग 460 गज लम्बा (उद) 215 गज चौड़ा (पूप) तथा 15-17 गज ऊँचा था • सिन्धु सभ्यता की लिपि चित्र-लिपि थी जिसमें 600 से अधिक चित्र अक्षर तथा 60 मूल अक्षर है
चन्हूदड़ो नामक नगर की खुदाई सन् 1925 ई. में अर्नेस्ट मेके के नेतृत्व में की गई थी इस नगर में दुर्ग नहीं है नाल डाबरकोट, राखी गढ़ी, बणावली, रंगपुर. लोथल, आमरी कुल्ली, रानाघुण्डई, अजीरा, गुमला, देस मोरासी घुण्डई, मुण्डीगाक डीप्लवंगा, सहर-ए-सोख्ता बामपुर एवं क्वेटा आदि महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है जहाँ सिन्धुकालीन एवं सिन्धुकालीन के पूर्व सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए है
  • डाबरकोट, पेरियाना, घुण्डई कुल्ली मही चन्हुदड़ो अमरी लोहुमजोदडो, अलीमुराद रोपड़, रंगपुर, सुल्कगेण्डर आदि प्रमुख सिन्धुकालीन स्थल हैं। राजस्थान स्थित कालीबंगा नामक ऐतिहासिक स्थल का उत्खनन कार्य सन् 1961 ई में श्री बी बी लाल एवं बी के थापड के निर्देशन में हुआ उत्खनन में निचली सतह से पूर्व सिन्धु सभ्यता और ऊपरी सतह से सिन्धु- सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं यहाँ की गढ़ी और नगर दोनों ही चहारदीवारी से घिरे हुए थे
गुजरात स्थित रंगपुर नामक सिन्धुकालीन स्थल का उत्खनन कार्य सन् 1953-54 ई में श्री रंगनाथ राव के निर्देशन में हुआ उत्खनन में कच्ची ईंटों के दुर्ग, नालियों, मृद्भाण्ड बाँट, पत्थर के फलक आदि मिले हैं. किन्तु मातृ देवी की मूर्तियाँ एवं मुद्राएँ प्राप्त नहीं हुए हैं
प्राचीनकाल में लोथल समुद्र के निकट स्थित था. उत्खनन में एक ‘गोदी’ (Dockyard) के अवशेष प्राप्त हुए है जिससे ज्ञात होता है. कि लोथल से सिन्धु-निवासी पश्चिमी एशिया के साथ व्यापार करते थे
गुजरात राज्य के कच्छ जिले में अदेसर से 12 किमी उत्तर-पूर्व में स्थित सुरकोटडा नामक स्थल की खोज एवं उत्खनन कार्य सन् 1964 ई में श्री जगतपति जोशी के निर्देशन में किया गया
सिन्धु सभ्यता के उत्खनन में एक विशाल भवन प्राप्त हुआ है, जिसकी लम्बाई 242 फीट चौड़ाई 112 फीट तथा दीवारों की मोटाई 5 फीट है.
 सिन्धु घाटी के उत्खनन में कुछ मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनके मध्य में सूर्य का गोल चित्र तथा उसके चारों ओर 6 देवों के चित्र इस प्रकार निर्मित हैं जो सूर्य की किरण जैसे लगते हैं जिससे ज्ञात होता है कि इस काल में सूर्य पूजा भी प्रचलन में थी. ● भारत में मनुष्य जैसे प्राणी के अस्तित्व के प्रमाण 1 करोड़ 20 लाख से 90 लाख वर्ष तक पुराने हैं
  • भारत की जनसंख्या के चार मूल प्रजातीय उपभेद हैं. यह है नीग्रिटो, आद्य आस्ट्रेलियाई काकेशसी तथा मंगोलॉइड्स
। भारत में शारीरिक प्ररूप (कंकाल) इलाहाबाद के समीप स्थित सराय नाहर राय, बालाईखोर तथा लेखानिया में प्राप्त हुए हैं, ऊँचे कद, चपटी नाक व चौड़े मुँह के यह कंकाल मध्य पाषाणकाल के हैं.
पुरापाषाणयुगीन सभ्यता का पता सिन्धु की सहायक सोहन नदी के क्षेत्र में हुआ है. अतः इसे सोहन सभ्यता कहा जाता है गंडासे व खंडक के रूप में प्राप्त बटिकापूम इसके मुख्य उपकरण थे
हड़प्पा संस्कृति में धरती की पूजा देवी रूप में थी इसका अनुमान उस मूर्ति से लगाया गया जिसमें स्त्री के गर्भ से पौधा निकलता दिखाया गया हाथी, गैंडा, भैंस, बाघ व हिरण के साथ एक मुहर उत्कीर्ण योगी का चित्र हड़प्पाकाल में शिव पूजा की पुष्टि करता है. इस देवता के तीन सिर और सींग हैं तथा उसका एक पैर दूसरे पैर पर रखा हुआ है
बड़ी तादाद में मिले ताबीजों से अनुमान होता है कि इस संस्कृति में भूत-प्रेत पर विश्वास किया जाता था यह ताबीज ताँबे से निर्मित पट्टे के रूप में थे
हड़प्पा संस्कृति में तौल के बाँट 16 अथवा इसके गुणज भार के हैं कुत्ता, बिल्ली हड़प्पा संस्कृति के पालतू पशुओं में थे उनके पैरों के चिह्न प्राप्त हुए हैं घोड़े के अवशेष सुरकोतड़ा स्थान से मिले हैं. मोहनजोदड़ो की ऊपरी सतह से तथा लोथल की लघु मृण्मूर्ति से उसके बारे में जानकारी प्राप्त होती है
लोथल के लोग 1800 ई. पू. में चावल का इस्तेमाल करते थे • चूँकि सिन्ध कपास पैदा करने वाले क्षेत्रों में सबसे पुरानों में एक था अतः यूनानियों ने इसे सिडोन नाम दिया
  • हड़प्पा संस्कृति में चाँदी अफगानिस्तान ईरान, द भारत तथा अरब से मँगाई जाती थी बलूचिस्तान से भी उसे प्राप्त किया जाता था. स्वर्ण अफगानिस्तान व फारस से लाया जाता था • भवन निर्माण में इस्तेमाल के लिए लाजबर्द बदख्शां से फिरोजा ईरान से जबुमणि महाराष्ट्र से मूंगा और लाल सौराष्ट्र व प भारत से तथा कीमती हरा पत्थर मध्य एशिया से मँगाया जाता था
  • अहाड़ संस्कृति (राजस्थान) ताम्रयुगीन थी गारे व पत्थर के मकान, चावल की खेती तथा ताम्र धातु कर्म का अधिक प्रचलन 2000 ई. पू. की इस संस्कृति की मुख्य विशेषता थी
  • मालवा पाषाण ताम्रकालीन संस्कृति के चिह्न नवदातोली में प्राप्त हुए हैं मिट्टी, बाँस और फूस के चौकोर तथा वृत्ताकार मकान, लाल- काले रंग के मृद्भाड, अनेक प्रकार की गेहूँ, अलसी, मसूर, हरा व काले चना की खेती 1600-1300 ई पू सभ्यता की विशेषता हैं
वैदिक काल
नोट्स
    वैदिक संस्कृति
  • ऋग्वेद में आर्य शब्द का 36 बार उल्लेख है। ऋग्वेद की अनेक बातें अवेस्ता से मिलती हैं, जो ईरानी भाषा का प्राचीनतम ग्रन्थ है। सिन्धु नदी की ऋग्वेद में सर्वाधिक चर्चा की गई है।
ऋग्वेद में सरस्वती को नदीतमा (पवित्र नदी) कहा गया है। ऋग्वेद में गंगा की एक बार एवं यमुना की तीन बार चर्चा की गई है। .
दसराश युद्ध भरत वंश के राजा सुदास तथा अन्य दस राजाओं के बीच परुष्णी नदी (रावी) के तट पर हुआ था, जिसमें सुदास की विजय हुई थी।
ऋग्वेद में सभा समिति तथा विद्ध की चर्चा की गई है। सभा कबीले के वृद्धजनों की संस्था थी, जबकि समिति आम लोगों की संस्था थी।
 ऋग्वैदिक काल में राजा को जनस्य गोपा, विशपति, गणपति एवं गोपति कहा जाता था।
ऋग्वैदिककालीन प्रशासन में सबसे प्रमुख, पुरोहित था। वह जन प्रशासन की सर्वोच्च इकाई थी। सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मण्डल में वर्णित पुरुष सूक्त में चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। सोम नामक पदार्थ की चर्चा ऋग्वेद के नौवें मण्डल में है।
  • अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, विश्ववारा, सिक्ता को वैदिक ऋचाओं को लिखने का श्रेय दिया जाता है।
   ऋग्वैदिक काल में बाल विवाह, तलाक, सती प्रथा, पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।
 ऋग्वैदिक काल में विधवा विवाह एवं नियोग प्रथा का प्रचलन था।
ऋग्वैदिक आर्यो का मुख्य पेशा पशुचारण था। ऋग्वेद में कृषि का उल्लेख 24 बार हुआ है।
 ऋग्वैदिक आर्यों को पाँच ऋतुओं का ज्ञान था। ऋग्वेद में मुद्रा के रूप में निष्क और शतमान की चर्चा मिलती है।
ऋग्वैदिक काल के सबसे महत्त्वपूर्ण देवता इन्द्र को पुरन्दर कहा गया है। दूसरे महत्त्वपूर्ण देवता अग्नि, जो देवताओं और मनुष्यों के बीच मध्यस्थ थे। ऋग्वेद में वरुण देवता को नैतिक नियमों का संरक्षक बताया गया है।
ऋग्वैदिक धर्म की दृष्टि मानवीय तथा इहलौकिक थी।
*वैदिक शब्द ‘वेद’ से बना है। वेद का अर्थ ज्ञान होता है। *भारत में सैंधव संस्कृति के पश्चात जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ, उसे वैदिक सभ्यता या आर्य सभ्यता के नाम से जाना जाता है। * आर्य’ शब्द भाषा सूचक है जिसका अर्थ है श्रेष्ठ या कुलीना क्लासिकीय संस्कृति में ‘आर्य’ शब्द का अर्थ है- एक उत्तम व्यक्ति। *आर्यों का इतिहास मुख्यतः वेदों से ज्ञात होता है। * सामान्यतः वैदिक साहित्य की रचना का श्रेय आर्यों को दिया जाता है। * आर्यों के मूल निवास स्थान को लेकर मतभेद है। प्रमुख इतिहासकारों ने इस पर अलग-अलग विचार व्यक्त किए हैं।
उत्तर वैदिक *वैदिक काल को दो भागों में विभाजित किया जाता है ऋग्वेद अथवा पूर्ववैदिक काल (1500 ई.पू. 1000 ई.पू.)। (1000 ई.पू. 600 ई.पू.) * ऋग्वैदिक काल का इतिहास पूर्णतया ऋग्वेद से ज्ञात होता हो में लोहे का उल्लेख नहीं है। उत्तर वैदिक ग्रंथों में लोहे का उल्लेख है।
 * ऋग्वेद के नदी सूक्त में 21 नदियों का वर्णन है, जिसमें सबसे पश्चिम कुभा तथा सबसे पूर्व में गंगा है। ऋग्वेद में अफगानिस्तान की चार नदिए 1 कुमु. कुभा, गोमती और सुवास्तु का उल्लेख मिलता है। सैंधव प्रदेश की सात नदियों का उल्लेख मिलता है। ये नदियां है-सरस्वती सद विपासा, परुष्णी, वितस्ता, सिंधु, शुतुद्री तथा अस्किनी। *ॠग्वेद में यमुन नदी का तीन बार जबकि गंगा नदी का एक बार उल्लेख हुआ है। इसमें कश्मीर की एक नदी मरुवृधा का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में सिंधु नदी का सर्वाधिक बार उल्लेख हुआ है, जबकि ऋग्वैदिक आर्यों की सबसे पवित्र नदी सरस्वती थी जिसे ‘मातेतमा,’ ‘देवीतमा’ एवं ‘नदीतमा’ (नदिय में प्रमुख) कहा गया है। सिंधु नदी को उसके आर्थिक महत्व के कारण। ‘हिरण्यनी’ कहा गया है तथा इसके गिरने की जगह ‘परावत’ अर्थात अस सागर बताई गई है। गंगा-यमुना के दोआब एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्रों को आयो ने ‘ब्रह्मर्षि देश’ कहा। आर्यों ने हिमालय और विंध्याचल पर्वतों के बीच का नाम ‘मध्य देश’ रखा। कालांतर में आर्यों ने संपूर्ण उत्तर भारत । * में अपना विस्तार कर लिया, जिसे ‘आर्यावर्त कहा जाता था। 1400३. पू के बोगजकोई (एशिया माइनर) के अभिलेख में ऋग्वैदिक काल के देवताओ (इंद्र, वरुण, मित्र तथा नासत्य) का उल्लेख मिलता है।
*वैदिक साहित्य को ‘श्रुति’ भी कहा जाता है। * श्रुति का शाब्दिक अर्थ सुना गया। * भारतीय साहित्य में वेद सबसे प्राचीन है। चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद। * ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद को ‘वेदत्रयी’ या ‘त्रयी’ कहा जाता है। * प्रत्येक वेद के भारतीय इतिह
भाग होते हैं-संहिता, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद ऋग्वेद में कुल 10 मंडल तथा 1028 सूक्त और 10552 ऋचाएं हैं। * 1017 सूक्त साकल में तथा 11 सूक्त बालखिल्य में हैं। ऋग्वेद के 2 से 7 तक के मंडल प्राचीन माने जाते हैं।
* ऋग्वेद के तृतीय मंडल में ‘गायत्री मंत्र’ का उल्लेख है। इसके रचनाकार विश्वामित्र हैं। *यह सविता (सूर्य देवता) को समर्पित है। * ऋग्वेद के नौवें मंडल के सभी 114 सूक्त ‘सोम’ को समर्पित हैं। * प्रारंभ में हम तीन वर्णों का उल्लेख पाते हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य। * शूद्र’ शब्द का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में हुआ है। * ऋग्वेद के मंत्रों का उच्चारण करके यज्ञ संपन्न कराने वाले पुरोहित को ‘होता’ कहा जाता था। *ऐतरेय तथा कौषीतकि ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रंथ है। * पतंजलि के अनुसार, ऋग्वेद की 21 शाखाएं हैं। *ऐतरेय ब्राह्मण में शुनःशेप आख्यान का वर्णन मिलता है।
* यजुर्वेद में स्तोत्र एवं कर्मकांड वर्णित हैं। * यह वेद गद्य एवं पद्य दोनों में है। यजुर्वेद के कर्मकांडों को संपन्न कराने वाले पुरोहित को ‘अध्वर्यु’ कहा जाता था। * यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद जो पद्य और गद्य दोनों में है और शुक्ल यजुर्वेद जो केवल पद्य में है। यजुर्वेद का अंतिम भाग ‘ईशोपनिषद’ है, जिसका संबंध याज्ञिक अनुष्ठान से न होकर आध्यात्मिक चिंतन से है। *शुक्ल यजुर्वेद की मुख्य शाखाएं काण्व तथा माध्यन्दिन हैं। *शुक्ल यजुर्वेद की संहिताओं को ‘वाजसनेय’ भी कहा गया है, क्योंकि वाजसनी के पुत्र याज्ञवल्क्य इसके द्रष्टा थे। * कृष्ण यजुर्वेद की मुख्य शाखाएं हैं- तैत्तिरीय, काठक, मैत्रायणी तथा कपिष्ठल। *शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रंथ है। *इसमें पुनर्जन्म का सिद्धांत, जल-प्लावन कथा पुरुरवा उर्वशी आख्यान तथा पुरुषमेध का वर्णन है। *’साम’ का अर्थ ‘संगीत’ अथवा ‘गान’ होता है। *सामवेद में यज्ञों के अवसर पर गाए जाने वाले मंत्रों का संग्रह है। जो व्यक्ति इन मंत्रों को गाता था उसे ‘उद्गाता’ कहा जाता था। *सामवेद में कुल 1875 ऋचाएं हैं, जिनमें से 75 जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार 99 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में भी उपलब्ध हैं।
* सामवेद की प्रमुख शाखाएं हैं-कौथुमीय, राणायनीय एवं जैमिनीय अवेद में 20 कांड 731 सूक्त तथा 5987 मंत्र हैं। इसमें 1200 ● मंत्र वेद के हैं। * अथर्ववेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाले पुरोहित को ‘ब्रह्मा’ कहा जाता था। अथर्ववेद में मगध तथा अंग दोनों को दूरस्थ प्रदेश कहा गया है। *इसमें सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रिया कहा गया है। * इसमें सामान्य मनुष्य के विचारों, विश्वासों तथा अंधविश्वासों का विवरण मिलता है। अथर्ववेद की दो शाखाएं उपलब्ध हैं-पिप्पलाद तथा शौनका *याज्ञवल्क्य गार्गी के प्रसिद्ध संवाद का उल्लेख गृहदारण्यक उपनिषद में है। *कठोपनिषद में यम और नचिकेता का संवाद उल्लिखित है। *”कठोपनिषद’ कृष्ण यजुर्वेद का उपनिषद है। “सत्यमेव जयते’ शब्द मुंडकोपनिषद से लिया गया है। * अथर्ववेद का एकमात्र ब्राह्मण गोपथ ब्राह्मण है। इसका कोई आरण्यक नहीं है। उपनिषद दर्शन पर आधारित पुस्तकें हैं। इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। उपनिषद का अर्थ शिष्य द्वारा ज्ञान प्राप्ति हेतु गुरु के समीप बैठना है। उपनिषद में प्रथम बार मोक्ष की चर्चा मिलती है। यह शब्द श्वेताश्वर उपनिषद में पहली बार आया है। * वेदांग की संख्या छ है, ये हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष। * शुल्व सूत्र में यज्ञीय वेदियों को मापने, उनके स्थान चयन तथा निर्माण आदि का वर्णन है।
* पुराणों की संख्या 18 है। *ये हैं- (1) मत्स्य, (2) मार्कडेय, (3) भविष्य, (4) भागवत, (5) ब्रह्मांड, (6) ब्रह्मवैवर्त, (7) ब्रह्म, (8) वामन, (9) वराह (10) विष्णु, (11) वायु, (12) अग्नि, (13) नारद (14) पदम (15) लिंग, (16) गरुड़, (17) कूर्म तथा (18) स्कंद पुराण *इनकी रचना लोमहर्ष ऋषि तथा उनके पुत्र उग्रश्रवा द्वारा की गई थी। * इनमें भविष्यत काल शैली में कलियुग के राजाओं का विवरण मिलता है। *हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन हेतु मथानी के रूप में मंद्राचल पर्वत तथा रस्सी के रूप में सर्पों के राजा वासुकी का प्रयोग किया गया था। * इसमें विष्णु ने कूर्मावतार धारण कर मंद्राचल पर्वत को अपने ऊपर रखा था। अनु, द्रुह्य, पुरु, यदु तथा तुर्वस को ‘पंचजन’ कहा गया है। जन के अधिपति को ‘राजा’ कहा जाता था। *कुलप परिवार का स्वामी, पिता अथवा बड़ा भाई होता था। ‘ग्राम का मुखिया ‘ग्रामणी’ तथा विश का प्रमुख “विशपति’ कहलाता था। * दशराज्ञ युद्ध का उल्लेख ऋग्वेद के 7वें मंडल में मिलता है। *इस युद्ध में प्रत्येक पक्ष में आर्य एवं अनार्य थे। *यह युद्ध परुष्णी नदी (आधुनिक रावी नदी) के तट पर लड़ा गया था। * दशराज्ञ युद्ध भरतों के राजा सुदास (त्रित्सु राजवंश) तथा दस राजाओं के एक संघ (इसमें पंचजन तथा पांच लघु जनजातियों-अलिन, पक्थ, भलान शिव तथा विषाणिन के राजा सम्मिलित) के मध्य हुआ था। * इस युद्ध में । सुदास की विजय हुई। *सुदास के पुरोहित वशिष्ठ थे। * ऋग्वैदिक युग में राजा भूमि का स्वामी नहीं था। वह प्रधानतः युद्ध में जन का नेता में होता था। *विदथ आर्यों की प्राचीन संस्था थी। *ऋग्वेद में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी का उल्लेख मिलता है। *पुरोहित, युद्ध के समय राजा के साथ जाता था। * स्पश (गुप्तचर) तथा दूत नामक कर्मचारियों का भी उल्लेख मिलता है।
* ऋग्वैदिक समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार या कुल होती थी। * ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक समाज था। * वरुण सूक्त के शुनःशेप आख्यान से ज्ञात होता है कि पिता अपनी संतान को बेच सकता था।
*पीदिक कालीन समाज प्रारंभ में वर्ग विभेद से रहित था। में वर्ण शब्द रंग के अर्थ में तथा कहीं कहीं सायमन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में सर्वप्रथम ‘शूद्र शब्द मिलता है। इसमें विराट पुरुष के विभिन्न अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति बताई गई है। विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से राजन्य (क्षत्रिय), उरु (अंचा) भांग से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। * शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में हुआ था गोत्र शब्द का मूल अर्थ है-गोष्ठ अथवा वह स्थान जहाँ समूचे कुल का गोधन पाला जाता था परंतु बाद में इसका अर्थ एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया। * गोत्र प्रथा की स्थापना उत्तरवैदिक काल में हुई थी। आर्यों द्वारा अनाय को दिए गए विभिन्न नाम है- अब्रह्मन (वेदों को न मानने वाले), अयज्वन् (यज्ञ न करने वाले), अनासः (बिना नाक वाले), अदेवयु (देवताओं को न मानने वाले), अडत (वैदिक व्रतों का पालन न करने वाले) तथा मृथवा (कटु पाणी वाले)।
*शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को पति की अर्धांगिनी कहा गया है। वेद
में ‘जायेदस्तम’ अर्थात पत्नी ही गृह है, कहकर उसके महत्व को स्वीकार
किया गया है। कन्या के विदाई के समय
उपहार एवं द्रव्य दिए जाते थे
उसे ‘वहतु’ कहा जाता था। “स्त्रियों में पुनर्विवाह एवं नियोग प्रथा प्रचलित थी। *नियोग प्रथा से उत्पन्न संतान ‘क्षेत्रज’ कहलाती थी। *समाज में सती प्रथा के प्रचलन का उदाहरण नहीं मिलता है। जो कन्याए जीवन भर कुंवारी रहती थीं, उन्हें ‘अमानू’ कहा जाता था। ऋग्वेद में घोषा लोपामुद्रा, विश्ववारा, अपाला आदि स्त्रियां शिक्षित थीं तथा जिन्होंने कुछ मंत्रों की रचना भी की थी। लोपामुद्रा अगस्ता ऋषि की पत्नी थीं। *आर्य मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। भोजन में दूध, घी, दही आदि का विशेष महत्व था। * दूध में पकी हुई खीर
(क्षीरपाकादन) का उल्लेख मिलता है। जो के सतू को दही में मिलाकर
‘करंम’ नामक खाद्य पदार्थ बनाया जाता था। ऋग्वैदिक काल में तीन
प्रकार के परिधान प्रचलित थे। नीवी, वास एवं अधिवाससा स्त्री एवं पुरुष
आभूषण पहनते थे। * ऋग्वैदिक आर्य आमोद-प्रमोद का जीवन व्यतीत करते थे। * रथदौड़, घुड़दौड़ तथा पासा खेल उनके मनोरंजन के साधन थे। वाथों में झांझ-मजीरे, दुंदुभि, कर्तरि, वीणा, बांसुरी आदि का उल्लेख मिलता है। * आर्यों की संस्कृति मूलतः ग्रामीण थी। कृषि और पशुपालन उनके
आर्थिक जीवन का मूल आधार था। ऋग्वेद में पशुपालन की तुलना में कृषि का उल्लेख बहुत कम मिलता है। ऋग्वेद के मात्र 24 मंत्रों में ही कृषि का उल्लेख प्राप्त होता है। * उर्वरा’ या ‘क्षेत्र’ कृषि योग्य भूमि को कहा जाता था। *बुजाई, कटाई, मड़ाई जादि क्रियाओं से लोग परिचित थे। * ऋग्वेद में कुल्या (नहर), कूप तथा अवट (खोदकर बने हुए गड्डे), अश्मचक्र (रहट की चरखी) आदि का उल्लेख है। * ऋग्वैदिक समाज में व्यवसाय आनुवंशिक (Hereditary) नहीं थे। ऋग्वेद में तक्षा (बढ़ई), स्वर्णकार, चर्मकार, वाय (जुलाहे), कर्मा (धातु कर्म करने वाले), कुंभकार आदि का उल्लेख मिलता है। * कताई-बुनाई का कार्य स्त्री-पुरुष दोनों करते थे। ऋग्वेद से पता
* विनिमय के माध्यम चलता है कि सिंघ तथा गांधार प्रदेश सुंदर ऊनी वस्त्रों के लिए विख्यात *व्यापार अदल-बदल प्रणाली पर आधारित था। रूप में ‘निष्क’ का उल्लेख हुआ है। व्यापार वाणिज्य प्रधानतः ‘पणि के लोग करते थे। ऋग्वैदिक आर्य लोहे से परिचित नहीं थे।
*वैदिक साहित्य में ऋग्वेद प्राचीनतम ग्रंथ है जिसमें हमें सर्वप्रथ बहुदेववाद के दर्शन प्राप्त होते हैं। यास्क के निरुक्त के अनुसार, ऋग्वैदि देवताओं की संख्या मात्र 3 बताई गई है। ऋग्वेद में एक अन्य स्थल प प्रत्येक लोक में 11 देवताओं का निवास मानकर उनकी संख्या 33 बताई है। ऋग्वैदिक देवताओं का वर्गीकरण तीन वर्गों में किया गया है- पूर्व के देवता पृथ्वी, अग्नि, बृहस्पति, सोम आदि। आकाश के देवता-वरुण सूर्य, मित्र, पूषन, विष्णु, अश्विन आदि।
*अंतरिक्ष के देवता-इंद्र, पर्जन रुद्र, आप, वायु, वात आदि। *इंद्र को विश्व का स्वामी कहा गया है। पुरंदर अर्थात ‘किलों को तोड़ने वाला’ कहा गया है। ॠग्वेद में सर्वाधिद सूक्त (250) इंद्र को समर्पित है। इंद्र को आर्यों का युद्ध नेता तथा का देवता माना जाता है। *ऋग्वेद में अग्नि को 200 सूक्त समर्पित हैं है * वह इस काल के दूसरे सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवता है। ऋग्वैदिक देवता में सोम को तीसरा स्थान प्राप्त था। * वरुण को समुद्र का देवता एवं का नियामक माना जाता है। * वरुण को वैदिक सभ्यता में नैतिक व्यवस्थ का प्रधान माना जाता था। इसी कारण उन्हें ‘ऋतस्यगोपा’ भी कहा जा था। ‘ईरान में वरुण को ‘अहुरमज्दा’ तथा यूनान में ‘ओरनोज’ क से जाना जाता है। * ऋग्वेद के नौवें मंडल के सभी 114 मंत्र ‘सोम’ के समर्पित हैं। * वनस्पतियों एवं औषधियों का देवता पूषन है। इनके रथ ह बकरे द्वारा खींचते हुए प्रदर्शित किया गया है। * जंगल की देवी ‘अरण्यान जबकि ज्ञान की देवी ‘सरस्वती’ थीं।
*उत्तर वैदिक काल में अनु, द्रुह्य, तुर्वश, क्रिवि, पुरु तथा भरत आि जनों का लोप हो गया। *शतपथ ब्राह्मण में कुरु और पांचाल को वैदिर सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि बताया गया है। * छांदोग्योपनिषद से इ होता है कि कुरु जनपद में कभी ओले नहीं पड़े और न ही टिड्डियाँ उपद्रव के कारण अकाल ही पड़ा। * उत्तर वैदिक काल में काशी, कोशल कुरु, पांचाल, विदेह, मगध, अंग आदि प्रमुख राज्य थे। * उपनिषद में कु क्षत्रिय राजाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं। *विदेह के जनक, पांचाल । राजा प्रवाहणजाबालि केकय के राजा अश्वपति और काशी के रा अजातशत्रु प्रमुख थे।
*ऐतरेय ब्राह्मण में सर्वप्रथम राजा की उत्पत्ति का सिद्धांत मिलता है। *ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि “समुद्रपर्यंत पृथ्वी का शासक एकराट होता है। * अथर्ववेद में एकराट सर्वोच्च शासक को कहा गया है। * अथर्ववेद
में परीक्षित को ‘मृत्युलोक का देवता कहा गया है। *छांदोग्योपनिषद और बृहदारण्यक उपनिषद में उद्दालक आरुणि एवं उनके पुत्र श्वेतकेतु के बीच ब्रह्म एवं आत्मा की अभिन्नता के विषय में संवाद है। * अथववेद में समा और समिति को ‘प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है। *वैदिक काल में सभा एवं समिति नामक दो संस्थाएं राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं। संभवतः समा कुलीन या वृद्ध मनुष्यों की संस्था थी. जिसमें उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति ही भाग ले सकते थे। इसके विपरीत समिति सर्वसाधारण की सभा थी, जिसमें जनों के सभी व्यक्ति अथवा परिवारों के प्रमुख भाग ले सकते थे। * सभा का ऋग्वेद में 8 बार उल्लेख मिलता है। *ग्वेद में समिति का 6 बार उल्लेख मिलता है। *उत्तर वैदिक काल
में सभा में महिलाओं की भागीदारी बंद कर दी गई। *संहिता एवं ब्राह्मण काल तक समिति का प्रभाव कम हो गया और यह केवल परामर्शदायिनी परिषद ही रह गई। राजसूय यज्ञ में रत्न हविस् उत्सव के समय राजा रचिन के घर जाता था। अलग-अलग ग्रंथों में रत्निनों की संख्या अलग-अलग प्राप्त होती है। * शतपथ ब्राह्मण में सर्वाधिक 12 रत्निनों का उल्लेख है।
*शतपथ ब्राह्मण तथा काठक संहिता में गोविकर्तन (गवाध्यक्ष), तक्षा (बढ़ई) तथा रथकार (रथ बनाने वाला) का नाम भी रत्नियों की सूची में मिलता है। *शतपथ ब्राह्मण में राजसूय यज्ञ का विस्तृत वर्णन है। *राजसूय यज्ञ में राजा का अभिषेक 17 प्रकार के जल से किया जाता था।
* पारिवारिक जीवन ऋग्वैदिक काल के समान था। *समाज पितृसत्तात्मक) था। *ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि अजीत ने अपने पुत्र शुनःशेप को 100 गायें लेकर बलि के लिए बेच दिया था। उत्तर वैदिक काल में समाज चार वर्णों में विभक्त या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रा ऐतरेय ब्राह्मण में चारों वर्णों के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है। क्षत्रिय या राजा भूमि का स्वामी होता था। * वैश्य दूसरे को कर देते थे (अन्यस्थवलित) * को तीनों वर्णों का सेवक (अन्यस्य प्रेष्य) कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में कन्या को चिंता का कारण माना गया है। मैत्रायणी सहिता में स्त्री को पासा तथा सुरा के साथ तीन प्रमुख बुराइयों में गिनाया गया है। वृहदारण्यक उपनिषद में वाइवत्वव- गार्गी संवाद का उल्लेख है। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आई।
* छांदोग्योपनिषद में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है, जबकि सर्वप्रथम चारों आश्रमों का उल्लेख जाबालोपनिषद में मिलता है। ये थे ब्रह्मचर्य (25 वर्ष), गृहस्थ (25-50 वर्ष) वानप्रस्थ (50-75 वर्ष) तथा संन्यास (75-100 वर्ष) । *मनुष्य की आयु 100 वर्ष मानकर प्रत्येक आश्रम के लिए 25-25 वर्ष आयु निर्धारित की गई। * बौधायन धर्मसूत्र के अनुसार, गायत्री मंत्र द्वारा ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार, वसंत ऋतु में 8 वर्ष की अवस्था में किया जाता था। * त्रिष्टुप मंत्र द्वारा क्षत्रिय बालक का उपनयन संस्कार ग्रीष्म ऋतु में 11 वर्ष की अवस्था में होता था। जगती मंत्र द्वारा वैश्य बालक का उपनयन संस्कार शरद ऋतु में 12 वर्ष की अवस्था में होता था। * वैदिक काल में जीविकोपार्जन हेतु वेद-वेदांग पढ़ाने वाला अध्यापक उपाध्याय कहलाता था। * ब्रह्मवादिनी वे कन्याएं थीं, जो जीवन भर आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करती थीं। * जबकि साद्योवधू विवाह पूर्व तक शिक्षा प्राप्त करने वाली कन्याएं थीं। * गृहस्थ आश्रम में मनुष्य को 5 महायज्ञ का अनुष्ठान करना पड़ता था। ये पंच महायज्ञ हैं- *ब्रह्म यज्ञ-प्राचीन ऋषियों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना। *देव यज्ञ-देवताओं का सम्मान। *भूत यज्ञ-सभी प्राणियों के कल्याणार्थ * पितृ यज्ञ-पितरों के तर्पण हेतु। मनुष्य यज्ञ-मानव मात्र के कल्याण हेतु ।
*शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं का उल्लेख हुआ है। ये है- जुताई, बुवाई, कटाई तथा मड़ाई। * काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा हलो को खींचने का उल्लेख मिलता है। *उत्तर वैदिक काल में उत्तर भारत में लोहे का प्रचार हुआ। *उत्तर वैदिक साहित्य में लोहे को ‘कृष्ण अयस’ कहा गया है। *तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिए ‘कुसीद तथा शतपथ ब्राह्मण में उधार देने वाले के लिए ‘कुसीदिन’ शब्द मिलता है। *माप की विभिन्न इकाइयां थीं निष्क, शतमान, कृष्णल, पाद आदि। * कृष्णल’ संभवतः बाट की मूलभूत इकाई थी। * गुंजा तथा रत्तिका भी उसी के समान थे। * रत्तिका को साहित्य में ‘तुलाबीज’ कहा गया है। *शतपथ ब्राह्मण में पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रों का उल्लेख हुआ है। * वाजसनेयी संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण में विभिन्न व्यवसायों की लंबी सूची मिलती है। *इनमें प्रमुख हैं-रथकार, स्वर्णकार, लुहार, सूत, कुंभकार, चर्मकार, रज्जुकार आदि। * स्त्रियां रंगाई, सुईकारी आदि में निपुण थीं। * उत्तर वैदिक काल में व्यापार वस्तु-विनिमय पर आधारित था।
*उत्तर वैदिक काल में धर्म और दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। *ऋग्वैदिक काल के वरुण, इंद्र आदि का स्थान प्रजापति, विष्णु एवं रुद्र-शिव ने ले लिया। *यज्ञों में पशुबलि को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य आहुतियां गौण होने लगीं। *राजसूय, अश्वमेध तथा वाजपेय जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान किया जाने लगा। *अग्निष्टोम यज्ञ सात दिनों तक चलता था। *पहली बार शतपथ ब्राह्मण में पुनर्जन्म के सिद्धांत का उल्लेख मिलता है। *उपनिषदों में ब्रह्म एवं आत्मा के संबंधों की व्याख्या की गई। *पुरुषार्थ की संख्या चार है–धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। *धर्म, अर्थ तथा काम को त्रिवर्ग कहा गया है। *गृह्य सूत्रों में 16 प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। *ये हैं-गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन संस्कार, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह एवं अंत्येष्टि । * गृह्य सूत्र में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है। *ये हैं–ब्रह्मा, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, गंधर्व, असुर, राक्षस एवं पैशाच विवाह।
  • गृत्समद विश्वामित्र वामदेव भारद्वाज, अत्रि, एवं वशिष्ठ आदि ऋषियों ने सूक्त अथवा मंत्रों की रचना की थी • लोपामुद्रा, घोषा, शची एवं पौलोमी प्रमुख ऋषणियाँ थीं
  • सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है-
(1) कौथुम
(2) राणायनीय
(3) जैमिनीय
  • आचार्य अश्वनी कुमार धन्वन्तरि बाणभट्ट सुश्रुत माधव जीवन एवं लोलिम्बराज आदि आयुर्वेद के प्रमुख रचनाकार हुए हैं
  • आयुर्वेद ऋग्वेद का धनुर्वेद यजुर्वेद का गन्धर्व वेद सामवेद का तथा शिल्पवेद अथर्ववेद का उपवेद है
ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं-ऐतरेय एवं कौशीतकी • कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तरीय तथा शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण है। • ताण्डव, पंचविश सदविश एव छान्दोग्य सामवेद के ब्राह्मण हैं
  • आरण्यकों में आत्मा, मृत्यु और जीवन आदि विषयों का वर्णन है. इनका अध्ययन एकान्त वनों में किया जाता था
  • ऐतरेय एवं कौशीतकी ऋग्वेद के आरण्यक हैं ऐतरेय आरण्यक के रचयिता महिदास ऐतरेय हैं. • तैत्तरीय आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद का है.
  • सामवेद एवं अथर्ववेद के आरण्यक नहीं हैं.
  • ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य,
तेत्तरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य वृहदारण्यक श्वेताश्वतर, कौशीतकी महानारायण आदि प्रमुख उपनिषद है
  • ऋग्वैदिककाल में गले में ‘निष्क’ कान में कर्णशोभन तथा शीश पर कुम्ब नामक आभूषण पहना जाता था.
  • ऋग्वैदिककाल में गाय, भैंस अजा (बकरी). घोड़ा हाथी एवं ऊँट आदि पशुओं को आर्य पालते थे ‘भीषज’ का कार्य चिकित्सा करना था. • ऋग्वैदिककालीन आर्य सूर्य की सविता, मित्र, पूषन तथा विष्णु आदि के रूप में उपासना करते थे सूर्य को देवताओं का नेत्र तथा अग्नि को देवताओं का मुख कहा गया है. अग्नि को आर्यों का पुरोहित माना गया है. उनका विचार था कि यज्ञ की आहुति अग्नि ही देवताओं के पास पहुँचता है. वरुण को आकाशीय देवता के रूप में पूजा जाता था.
  • उषा, सीता, पृथ्वी अरण्यानी रात्रि वाक् की आराधना ऋग्वेद में देवी रूप में की गई है. • कृषि से सम्बन्धित देवी के रूप में सीता का उल्लेख ऋग्वेद के अतिरिक्त गोमिल गृह्य सूत्र तथा परस्पर गृह्य सूत्र में हुआ है. • गणपति या गणेश की प्राचीन मूर्तियों में उनके मुख्य आयुध पाश तथा अंकुश दिखाए गए
  • ऋग्वैदिककाल में व्यापार करने वाले व्यापारियों को ‘पणि’ कहा जाता था. यह आयों के मवेशी भी चुरा लेते थे. पाणि लोगों से भी ज्यादा घृणित के रूप में दास अथवा दस्यु का उल्लेख हुआ है. यह काली चमडी वाले, अमंगलकारी यज्ञ विरोधी तथा शिश्नदेव के पूजक थे.
  • ऋग्वैदिककाल में गाय अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी अतः उसे अधन्या, युद्ध को गलिण्टि, अतिथि को मोहन व पुत्री को दुहिती कहा गया. एक ऋक में भेड़पालन का भी उल्लेख है.
  • विश्वामित्र के स्थान पर सुदास के पुरोहित का पद ग्रहण करने वाले वशिष्ठ को ऋग्वेद में ‘उर्वशी का मानसपुत्र’ मित्र तथा वरुण’ के वीर्य से उत्पन्न तथा एक घड़े से पैदा हुआ कहा गया. अगस्त्य को भी घड़े से उत्पन्न बताया जाता है.
  • बल्बूभ तथा तरुक्ष द्वास सरदार थे तथा पुरोहितों को उदारतापूर्वक दान देकर उन्होंने आर्य समाज में सम्मान व उच्च स्थान प्राप्त किया.
  • ‘सावित्री’ का उल्लेख प्रसिद्ध गायत्री मंत्र में मिलता है वैसे ऋग्वेद में सर्वाधिक उल्लेख इन्द्र का तथा उसके उपरान्त वरुण का है. वरुण तथा मरुत गणों का उल्लेख प्राचीन ऋचाओं में हुआ है त्वष्टा वैदिक देवता था. • प्रजापति का उल्लेख आदि पुरुष के रूप में हुआ. देवता उसकी ही संतान थे.
  • ऋग्वेद में राजा का उल्लेख कबीले के संरक्षक ‘गोप्ता जनस्य के रूप में किया गया है इसमें सभा समिति, गण तथा विदश जैसी कबीलाई परिषदों का उल्लेख मिलता है. ऋग्वैदिककाल में अधिकारीतंत्र का विकास नहीं हुआ था. किन्तु गोचर भूमि के अधिकारी ‘व्राजपति’ ग्राम का सैन्य अधिकारी ग्रामणी’ तथा परिवार के मुखिया ‘कुलप’ का उल्लेख मिलता है.
  • व्रात, गण, ग्राम तथा शर्ध शब्द का प्रयोग सैनिक समूह को बताने के लिए भी किया गया है.
  • ऋग्वेद में जन शब्द 275 बार विश शब्द 170 बार प्रयुक्त हुआ है. गाँवों के पारस्परिक युद्ध के लिए ‘संग्राम’ शब्द आया है. • सोम वनस्पति का देवता था तथा एक मादक पेय भी जिसे तैयार करने की विधि का उल्लेख ऋग्वेद में किया गया.
  • उत्तर वैदिककालीन साहित्य 1100-600 ई. पू. में रचा गया. इस काल में चित्रित धूसर भाण्ड (मिट्टी के चित्रित व भूरे कटोरे व थालियाँ) व लोहे के औजारों का इस्तेमाल हुआ. 102
  • उत्तर वैदिककाल की मुख्य उपज जौ न रहकर धान और गेहूँ हो गई.
  • उत्तर वैदिककाल में विदाथा नष्ट हो गए किन्तु सभा और समिति मौजूद थे. इस काल में राजा दिव्य शक्ति की इच्छा से राजसूय यज्ञ, राज्य विस्तार हेतु अश्वमेध यज्ञ तथा संगोत्रीय बंधुओं के साथ रथ दौड़ के लिए वाजपेय यज्ञ का अनुष्ठान करने लगे.
  • उत्तर-वैदिककाल में गोत्र व्यवस्था एवं गोत्र के बाहर विवाह की परम्परा आरम्भ हुई.
  • उत्तर वैदिककाल के साहित्य में प्रथम तीन आश्रमों का उल्लेख मिलता है, संन्यास आश्रम की स्पष्ट स्थापना नहीं हुई. तीन आश्रम थे- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ.
  • उत्तर वैदिककाल में ‘सोम’ का पौधा मुश्किल से मिलने के कारण ही अन्य पेय पदार्थों का प्रयोग किया जाने लगा था.
उत्तर- वैदिककाल में स्वर्ण एवं रजत का प्रयोग मुख्यतया आभूषण एवं बर्तन बनाने के लिए तथा अन्य धातुओं का प्रयोग उपकरण बनाने के लिए किया जाता था. • उत्तर-वैदिककाल में व्यापारियों ने अपने संघ बना लिये थे. आर्यों द्वारा सामुद्रिक व्यापार भी किया जाता था. व्यापार में निष्क शतमान कृष्णाल आदि मुदाओं का प्रयोग किया जाने लगा था
उत्तर- वैदिककाल में ऋग्वैदिककाल की तुलना में धर्म का स्वरूप अत्यधिक जटिल हो गया था. यज्ञ बलि तथा पुरोहितों का महत्व बढ गया था, विभिन्न प्रकार के यक्ष किए जाने लगे थे
  • शतपत ब्राह्मण में खेती की जुताई, बुवाई, लवनी एवं मडनी चारों प्रक्रियाओं का वर्णन मिलता है.
संगम साहित्य आठ ग्रन्थों में समाहित ये ग्रन्थ है
(1) नट्रिणे, (2) कुरगदो (3) ऐगुरुनुस, (4) पाटट्रिफ्तु (5) परिपाल (6) कलित्तोगे,
(7) अहनागुरु (8) पुरनानुरु
बौद्ध धर्म
नोट्स
*गौतम बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में 563 ई.पू. में हुआ था। *उनके पिता शुद्धोधन शाक्यगण के प्रधान थे तथा माता माया देवी अथवा महामाया कोलिय गणराज्य (कोलिय वंश) की कन्या थीं।
*गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। * इनके जन्म के कुछ दिनों बाद इनकी माता का देहांत हो गया। अतः इनका लालन-पालन इनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया था। * इनका विवाह 16 वर्ष की अल्पायु में शाक्य कुल की कन्या यशोधरा के साथ हुआ। *उत्तरकालीन बौद्ध ग्रंथों में यशोधरा के अन्य नाम गोपा, बिम्बा, भद्कच्छना आदि मिलते हैं।
* इनके पुत्र का नाम राहुल था। * बुद्ध के जीवन में चार दृश्यों का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। ये थे – वृद्ध व्यक्ति, बीमार व्यक्ति, मृतक तथा प्रसन्नचित्त संन्यासी । *सिद्धार्थ ने पत्नी एवं बच्चों को सोते हुए छोड़कर गृह त्याग दिया। *गृह त्याग के समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी। बौद्ध ग्रंथों में गृह त्याग को ‘महाभिनिष्क्रमण’ की संज्ञा दी गई है। * सांख्य दर्शन के आचार्य आलार कालाम से वैशाली के समीप उनकी मुलाकात हुई। यहां से सिद्धार्थ राजगृह के समीप निवास करने वाले रुद्रक रामपुत्त नामक एक दूसरे धर्माचार्य के पास पहुंचे। * इसके पश्चात सिद्धार्थ उरुवेला (बोधगया पहुंचे। छः वर्षों की कठिन साधना के पश्चात 35 वर्ष की अवस्था में वैशाख पूर्णिमा की रात्रि को एक पीपल के वृक्ष के नीचे गौतम को ज्ञान प्राप्त हुआ। *ज्ञान प्राप्ति के बाद वह ‘बुद्ध’ कहलाए। * बुद्ध का एक अन्य नाम ‘तथागत’ मिलता है, जिसका अर्थ है-सत्य है ज्ञान जिसका । * शाक्य कुल में जन्म लेने के कारण इन्हें ‘शाक्यमुनि’ कहा गया।
तम
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात गौतम बुद्ध ने अपने मत का प्रचार प्रारंभ * उरुवेला से वे सबसे पहले ऋषिपत्तन (वर्तमान सारनाथ, वाराणसी) *यहां उन्होंने पांच ब्राह्मण संन्यासियों को प्रथम उपदेश दिया। उ इस
‘उपदेश को ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ कहा जाता है।
किया। राजगृह में उन्होंने द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ वर्षा * मगध के राजा बिम्बिसार ने उनके निवास के लिए ‘वैणुक नामक महाविहार बनवाया।
* राजगृह से चलकर बुद्ध लिच्छवियों की राजधानी वैशाली पहुंचा उन्होंने पांचवां वर्षाकाल व्यतीत किया। *लिच्छवियों ने उनके निवास के महावन में प्रसिद्ध ‘कुटाग्रशाला’ का निर्माण करवाया। वैशाली की प्र नगर-वधू आम्रपाली उनकी शिष्या बनी तथा भिक्षु संघ के निवास के अपनी आम्रवाटिका प्रदान कर दी। *ज्ञान प्राप्ति के 8वें वर्ष गीतम वैशाली में अपने प्रिय शिष्य आनंद के कहने पर महिलाओं को संघ में की अनुमति दी। * बुद्ध की मौसी तथा विमाता संघ में प्रवेश करने वाली महिला थीं। *देवदत्त, बुद्ध का चचेरा भाई था। *यह पहले उनका अ बना और फिर उनका विरोधी बन गया। वह बौद्ध संघ से बुद्ध का हटाक स्वयं संघ का प्रधान बनना चाहता था, किंतु उसे इसमें सफलता नहीं मिल
– * बौद्ध धर्म का सर्वाधिक प्रचार कोशल राज्य में हुआ। इक्कीस वास किए। कोशल राज्य के अनाथपिण्डक नामक धनी व्यापारी उनकी शिष्यता ग्रहण की तथा संघ के लिए ‘जेतवन’ विहार प्रदान कि * भरहुत से प्राप्त एक शिल्प के ऊपर इस दान का उल्लेख है। इस ‘जेतवन अनाथपेन्डिकों देति कोटिसम्थतेनकेता’ लेख उत्कीर्ण मिलता * कोशल नरेश प्रसेनजित ने भी अपने परिवार के साथ बुद्ध की शिष् ब्रहण की तथा संघ के लिए ‘पुब्बाराम (पूर्वा-राम) नामक विहारबा *बुद्ध ने अपने जीवन की अंतिम वर्षा ऋतु वैशाली में बिताई थी। मत का प्रचार करते हुए वे मल्लों की राजधानी पावा पहुंचे, जहां वे कु नामक लुहार की आम्रवाटिका में ठहरे। उसने बुद्ध को सूकरा सूकरमद्दव को दिया. इससे उन्हें ‘रक्तातिसार’ हो गया। *फिर वे पावा से चले गए और यहीं पर सुमद्द को उन्होंने अपना अंतिम उपदेश दिए
*कुशीनारा मल्ल गणराज्य की राजधानी) में 483 ई.पू. में 80 वर्ष अवस्था में उन्होंने शरीर त्याग दिया। *बौद्ध ग्रंथों में इसे “महापरिनि कहा जाता है। *महापरिनिर्वाण सूत्र में बुद्ध की शरीर धातु के दावेदा व * यहां बुद्ध के नाम हैं- मगध नरेश अजातशत्रु, वैशाली के लिवानी, पावा के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, रामग्राम के कोलिय, अलकण के बुलि, पिलियन के मोरिय तथा वेद्वीप के ब्राह्मणा *बुद्ध के प्रथम उपदेश को ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ की संज्ञा दी जाती है। उनका यह उपदेश दुःख, दुःख के कारण तथा उसके समाधान से संबंधित था। इसे चार आर्य सत्य कहा जाता है। ये हैं दु:ख, दुःख समुदय, दु:ख निरोध तथा दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा। बुद्ध के अनुसार, दुःख का मूल कारण अविद्या के विनाश का उपाय अष्टांगिक मार्ग है।
 * अष्टांगिक मार्ग आठ है, जो इस प्रकार है- सम्यक् दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक कर्मात सम्यक आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति एवं सम्यक् समाधि। * बुद्ध अपने मत को मायमा प्रतिपदा’ या मध्यम मार्ग कहते हैं। *बौद्ध धर्म के अनुयायी दो वर्गों में बंटे हुए थे- भिक्षु/भिक्षुणी तथा उपासक/उपासिकाएं। * सामान्य मनुष्यों के लिए बुक ने जिस धर्म का उपदेश दिया उसे ‘उपासक धर्म’ कहा गया। *बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं-बुद्ध, धम्म एवं संघा
*परंपरागत नियम में आस्था रखने वालों का संप्रदाय स्थविर’ या ‘येरावादी’ कहलाया। *इनका नेतृत्व महाकच्चायन ने किया। *परिवर्तन के साथ नियम को स्वीकार करने वालों का संप्रदाय ‘महासांघिक’ कहलाया। इनका नेतृत्व महाकस्सप ने किया। * चतुर्थ बौद्ध संगीति में महासांधिकों का बोलबाला था।
* चतुर्थ बौद्ध संगीति के समय में बौद्धों ने भाषा के रूप में संस्कृत को अपनाया। * इस संगीति के समय बौद्ध धर्म स्पष्ट रूप से हीनयान और महायान नामक दो संप्रदायों में विभाजित हो गया।
* सर्वास्तिवाद आगे चलकर वैभाषिक और सौत्रांतिक में विभाजित हुआ। वैभाषिक मत की उत्पत्ति मुख्य रूप से कश्मीर में हुई। * वैभाषिक मत के प्रमुख आचार्य हैं-धर्मत्रात, घोषक, बुद्धदेव, वसुमित्र आदि। *सौत्रांतिक संप्रदाय सुत्तपिटक पर आधारित है।
*शून्यवाद (माध्यमिक) के प्रवर्तक नागार्जुन हैं, जिसकी प्रसिद्ध रचना ‘माध्यमिककारिका’ है। *नागार्जुन के अतिरिक्त इस मत के अन्य विद्वान थे- चंद्रकीर्ति, शांतिदेव, शांतिरक्षित, आर्यदेव आदि। * नागार्जुन की तुलना ‘मार्टिन लूथर’ से की जाती है। * ह्वेनसांग ने उसे ‘संसार की चार
मार्गदर्शक शक्तियों में से एक कहा है। उसे ‘भारत का आइंस्टीन भी कहा जाता है। चीनी मान्यता के अनुसार, नागार्जुन ने चीन की यात्रा कर वहाँ शिक्षा प्रदान की थी। *विज्ञानवाद अथवा योगाचार संप्रदाय की स्थापना मैत्रेय अथवा मैत्रेय ने किया था। थाने इसका विकास दिया। *वान का सर्वाधिक विकास आदी शताब्दी में हुआ इसके सिद्धांत आर्य मंजुश्रीमूलकल्प तथा गुहासमाज नामक ग्रंथों में मिलते हैं। इसने भारत में बौद्ध धर्म के पतन का मार्ग प्रशस्त किया। बौद्ध दर्शन में दाणिकवाद को स्वीकार किया गया है। बुद्ध ने स्वयं अनित्यवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। * मैत्रेय को बौद्ध परंपरा में ‘भावी कुछ कहा गया है। “अवलोकितेश्वर प्रधान दोसिल हैं। इन्हें ‘पद्मपाणि’ (हाथ में कमल लिए हुए) भी कहते हैं। इनका प्रधान गुण दया है। मंजुश्री के एक हाथ में खड़ग तथा दूसरे हाथ में
पुस्तक रहती है। इनका मुख्य कार्य बुद्धि को प्रखर करना है। *बौद्ध धर्म के आरंभिक ग्रंथों को ‘त्रिपिटक’ कहा जाता है। यह पाली भाषा में रचित है। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात उनकी शिक्षाओं को संकलित कर तीन भागों में बांटा गया, इन्हीं को त्रिपिटक कहते हैं। * यह हैं-विनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक’ *विनयपिटक में संघ संबंधी नियम तथा दैनिक जीवन संबंधी आचार-विचारों, विधि-निषेधों आदि का संग्रह है।
 *सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है। ‘अभिधम्मपिटक में बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धांतों का संग्रह मिलता है। * अट्ठ कथाएं त्रिपिटकों के भाष्य के रूप में लिखी गई हैं। * सुत्तपिटक की अट्ठकथा ‘महा अद्रुक’ तथा विनयपिटक की अट्ट कथा ‘कुरुन्दी’ है। * अभिधम्मपिटक की अट्ठ कथा मूल रूप से सिंहली भाषा में महा पच्चरी’ है। *बौद्धों का वह धर्म ग्रंथ, जिसमें गौतम बुद्ध के पूर्ववर्ती जन्म की कथाए संकलित हैं, जातक कहलाता है। *यह पालि भाषा में है।
*बुद्ध की ‘भूमिस्पर्श मुद्रा’ से तात्पर्य अपने तप की शुचिता और निरंतरता को बनाए रखने से है। *भूमिस्पर्श मुद्रा की सारनाथ मूर्ति गुप्तकाल से संबंधित है।
* प्राचीन काल में बौद्ध शिक्षा के तीन प्रमुख केंद्र थे (1) नालंदा, – (2) वल्लभी और (3) विक्रमशिला । * नालंदा महायान बौद्ध धर्म की तथा वल्लभी हीनयान बौद्ध धर्म की शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। * विक्रमशिला न महाविहार की स्थापना पाल नरेश धर्मपाल ने की थी। उसने यहां मंदिर ब तथा मठ भी बनवाए थे। *पांचवीं शताब्दी के मध्य, गुप्तों के समय में नालंदा
विश्वविद्यालय अस्तित्व में आया। *सर्वप्रथम कुमारगुप्त-1 ने नालंदा बौद्ध विहार को दान दिया और बाद में बुधगुप्त, तथागतगुप्त तथा बालादित्य नामक गुप्त शासकों ने भी इस विहार को दान दिए। * नव नालंदा महाविहार’ बौद्ध अध्ययन का आधुनिक केंद्र है, जिसे बिहार सरकार ने वर्ष 1951 में नालंदा में स्थापित किया था।
* चैत्य’ का शाब्दिक अर्थ है चिता संबंधी। *शवदाह के पश्चात बचे हुए अवशेषों को भूमि में गाड़कर उनके ऊपर जो समाधियां बनाई। – गई, उन्हीं को प्रारंभ में चैत्य या स्तूप कहा गया। *इन समाधियों में महापुरुषों के धातु अवशेष सुरक्षित थे, अतः चैत्य उपासना के केंद्र बन गए। *चैत्यगृहों के समीप ही भिक्षुओं के रहने के लिए आवास बनाए गए, जिन्हें विहार कहा गया।
*सर्वप्रथम ‘स्तूप’ शब्द का वर्णन ऋग्वेद में प्राप्त होता है। * इसके अतिरिक्त अथर्ववेद, वाजसनेयी संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण संहिता, पंचविश ब्राह्मण आदि ग्रंथों से ‘स्तूप’ के संबंध में जानकारी मिलती है। *स्तूप का शाब्दिक अर्थ है-‘किसी वस्तु का ढेर । * स्तूप का विकास ही संभवतः मिट्टी
के ऐसे चबूतरे से हुआ जिसका निर्माण मृतक की चिता के ऊपर मृतक की चुनी हुई अस्थियों के रखने के लिए किया जाता था।’ में बौद्धों ने इसे अपनी संघ-पद्धति में अपना लिया। * इन स्तूपों में अथवा उनके प्रमुख शिष्यों की धातु रखी जाती थी, अतः व बौद्धों की और उपासना के प्रमुख केंद्र बन गए। स्तूप के 4 भेद है- 1. शारी स्तूप, 2. पारिभौगिक स्तूप, 3. उद्देशिका स्तूप तथा 4. पूजार्थक
* गौतम बुद्ध को ‘एशिया के ज्योति पुंज’ के तौर पर जाना है। *गौतम बुद्ध के जीवन पर एडविन अर्नाल्ड ने ‘Light of Asia काव्य पुस्तक की रचना की थी। * महापरिनिर्वाण मंदिर’ उत्तर प्रदे कुशीनगर जिले में स्थित है। *मंदिर में स्थापित भगवान बुद्ध की 1876 ई. में उत्खनन के द्वारा प्राप्त की गई थी। इस मंदिर में बुद्ध की 6.10 मीटर ऊंची मूर्ति लेटी हुई मुद्रा में रखी है। काल को दर्शाती है, जब 80 वर्ष की आयु में भगवान बुद्ध ने अपने शरीर छोड़ दिया और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो गए अर्थात की प्राप्ति हो गई।
हीनयान और महायान में अंतर
हीनयान
हीनयान का शाब्दिक अर्थ है- निम्न मार्ग।
इसमें महात्मा बुद्ध को एक महापुरुष माना जाता है।
यह व्यक्तिवादी धर्म है। इसके अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।
  • यह मूर्तिपूजा एवं भक्ति में विश्वास नहीं करता है।
इसकी साधना पद्धति अत्यंत कठोर है तथा यह भिक्षु जीवन
का समर्थक है।
  • इसका आदर्श ‘अर्हत्’ पद को प्राप्त करना है।
इसके प्रमुख संप्रदाय हैं-वैभाषिक तथा सौत्रांतिक
महायान
  • महायान का शाब्दिक अर्थ है- उत्कृष्ट मार्ग।
इसमें उन्हें देवता माना जाता है।
इसमें परोपकार एवं परसेवा पर बल दिया गया। इसका उ समस्त मानव जाति का कल्याण है।
यह आत्मा एवं पुनर्जन्म में विश्वास करता है।
इनके सिद्धांत सरल एवं सर्वसाधारण के लिए सुलभ हैं।
भिक्षु के साथ-साथ सामान्य उपासकों को भी महत्व दिया ग
इसका आदर्श ‘बोधिसत्व’ है।
इसके प्रमुख संप्रदाय हैं-शून्यवाद (माध्यमिक) तथा (योगाचार)।
जैन धर्म
नोट्स
*जैन शब्द संस्कृत के ‘जिन’ शब्द से बना है जिसका अर्थ क है। *जैन संस्थापकों को ‘तीर्थकर’ जबकि जैन ग्रंथों को ‘निग्रंथ गया।
 * जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर माने जाते हैं, जिन पर जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया जाता है। *ये हैं -1. ऋषभदेव या आदिनाथ अजितनाथ, 3. संभावितनाथ, 4. अभिनंदन, 5. सुमतिनाथ, 6. पद्मप्र सुपार्श्वनाथ 8. इंद्रप्रम, 9. पुष्पदत (सुविधिनाथ), 10. शीतलनाथ श्रेयांसनाथ 12 वासुज्य, 13. विमलनाथ, 14. अनंतनाथ, 15. शांतिनाथ , 17. कुंथुनाथ, 18. अर्नाथ, 19. मल्लीनाथ, 20. मुनि-सुबत नमिनाथ, 22. नेमिनाथ या अरिष्टनेमि, 23. पारजनाथ एवं 24. महावीर
 * जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे। इनके अन्य नाम ऋष आदिनाथ साथ भी हैं। ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि का उल्लेख में मिलता है। पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थकर माने का जन्म काशी (वाराणसी) में हुआ था। इनके पिता अश्वसेन काशी के रच थे। *पार्श्वनाथ को वाराणसी के करीब आश्रमपथ पार्क में हुआ था और उनके परिनिर्वाण सम्मेतशिखर (सम्मेद पर्वत) पर हुआ ज्ञान* नाथ ने अपनी सीढ़ियों को चतुर्यान शिक्षा का पालन किया था। *ये चार शिक्षाएं थीं-सत्य, अहिंसा, अस्तेय एवं अपरिग्रह।
*महावीर स्वामी का जन्म वैशाली के निकट कु में लगभग 599 ई.पू. में हुआ था। इनके पिता सिद्धार्थ के संघ के प्रधान थे। इनकी माता त्रिशला अथवा विदे के लिकवी गणराज्य के प्रमुख चेटक की बहन थीं। *महावीर बचपन का नाम वर्द्धमान था। *इनकी पत्नी का नाम यशोदा ( गोत्र की कन्या) था। *इससे उन्हें अणोज्जा (प्रियदर्शना) नामक उत्पन्न हुई। *इसका विवाह जमालि के साथ हुआ था। ज्ञातृक स्वाम
* जैन धर्म में पूर्ण ज्ञान’ के लिए ‘कैवल्य’ शब्द का प्रयोग गया है। महावीर स्वामी को 12 वर्षों की कठोर तपस्या तथा पश्चात ‘जृम्भिकाग्राम’ के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे कैवल्य (पूर्ण ज्ञान) प्राप्त हुआ था। *ज्ञान प्राप्ति के पा वे केवलिन, अर्हत (योग्य), जिन (विजेता) तथा निर्ग्रथ (बंधन सं कहलाए। * कैवल्य प्राप्ति के पश्चात महावीर स्वामी ने अपने सि का प्रचार प्रारंभ किया। *वैशाली के लिच्छवी सरदार चेटक जो मामा थे, जैन धर्म के प्रचार में मुख्य योगदान दिया। महावीर को उनके प्रथम शिष्य जमालि से मतभेद हो गया, मतभेद का क्रियमाणकृत सिद्धांत (कार्य करते ही पूर्ण हो जाना) था। * इस म के कारण जमालि ने संघ छोड़ दिया और एक नए सिद्धांत हु (कार्य पूर्ण होने पर ही पूर्ण माना जाएगा) का प्रतिपादन किया।
धर्म में दूसरा विद्रोह जमालि के विद्रोह के दो वर्ष बाद तीसगुप्त ने किया था। * मक्खलिगोसाल ने आजीवक संप्रदाय की स्थापना की। इनका है। मत ‘नियतिवाद’ कहा जाता है। इसके अनुसार, संसार की प्रत्येक वस्तु वी भाग्य द्वारा पूर्व नियंत्रित एवं संचालित होती है। *527 ई.पू. के लगभग 72 वर्ष की आयु में राजगृह (राजगीर) के समीप स्थित पावापुरी नामक स्थान पर महावीर स्वामी ने शरीर त्याग दिया।
*महावीर स्वामी ने पंच महाव्रत की शिक्षा दी जो है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य। *प्रथम चार व्रत पार्श्वनाथ के समय से ही प्रचलित थे। महावीर ने इसमें पांचवां व्रत ब्रह्मचर्य को जोड़ा था। * जैन धर्म में गृहस्थों के लिए पंच महाव्रत अणुव्रत के रूप में व्यवहृत हुआ है, क्योंकि संसार में रहते हुए इन महाव्रतों का पूर्णतः पालन करना संभव -नहीं, इसलिए आंशिक रूप से इनके पालन के लिए कहा गया। ये पंच अयुक्त है-हंत सत्यागुक्त, अस्तेयामुक्त और अपरिग्रहाणुव्रत महावीर स्वामी ने वेदों की अपौरुषेयता स्वीकार करने से इंकार किया तथा धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों एवं पाखंडों का विरोध किया। उन्होंने आत्मवादियों तथा नास्तिकों के एकांतिक मतों को छोड़कर  बीच का मार्ग अपनाया, जिसे ‘अनेकांतवाद’ अथवा ‘स्यादवाद’ कहा गया।
 स्यादवाद’ को सप्तभंगी नय के नाम से भी जाना जाता है। यह ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है। महावीर स्वामी पुनर्जन्म एवं कर्मवाद में विश्वास करते थे, किंतु ईश्वर के अस्तित्व में उनका विश्वास नहीं था।
* अज्ञान के कारण कर्म जीव की ओर आकर्षित होने लगता है, जिसे ‘आसव’ कहते हैं। क्रोध, लोभ, मान, माया आदि कुप्रवृत्तियां (कषाय) हैं. जो अज्ञान के कारण उत्पन्न होती हैं। जैन धर्म में मोक्ष के लिए तीन २ साधन आवश्यक बताए गए हैं। *ये हैं-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र *इन तीनों को जैन धर्म में ‘त्रिरत्न’ की संज्ञा दी गई है। *त्रिरत्नों का अनुसरण करने से कर्मों का जीव की ओर प्रवाह रुक जाता है, जिसे ‘संवर’ कहते हैं। इसके बाद जीव में पहले से व्याप्त कर्म समाप्त होने लगते हैं, इसे ‘निर्जरा’ कहा गया है।
 *जब जीव में कर्म का अवशेष पूर्ण समाप्त हो जाता है, तब यह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। “जैन धर्म में अनंत चतुष्ट्य है-अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य तथा अनंत सुखा
‘महावीर स्वामी ने अपने जीवनकाल में एक संघ की स्थापना की। * इस संघ में 11 प्रमुख अनुयायी सम्मिलित थे। ये ‘गणधर कहे गए। * इनके नाम है-इंद्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति (तीनों भाई), आर्य व्यक्त सुधर्मन, मंडित, मौर्यपुत्र, अकपित, अचलनाता, मेतार्य तथा प्रभास * महावीर की मृत्यु के पश्चात सुधर्मन जैन संघ का प्रथम अध्यक्ष बना। *सुधर्मन की मृत्यु के पश्चात जम्बू 44 वर्षों तक संघ का अध्यक्ष रहा।
*अंतिम नंद राजा के समय सम्भूतविजय तथा भद्रबाहु संघ के अध्यक्ष थे। महावीर द्वारा प्रदत्त 14 पूथ्वो (पूर्वी) (प्राचीनतम जैन ग्रंथों) के विषय में जानने वाले ये दोनों अंतिम व्यक्ति थे। * कालांतर में जैन संप्रदाय दो संप्रदायों में विभक्त हो गया। “ये संप्रदाय थे-श्वेतांबर एवं दिगंबर * स्थूलभद्र के अनुयायी ‘श्वेतांबर’ कहलाए, जबकि मद्रबाहु के अनुयायी ‘दिगंबर’ कहलाए। * यापनीय’ जैन धर्म का एक संप्रदाय है।
 * प्रथम जैन सभा 310 ई. पू. में पाटलिपुत्र में स्थूलभद्र की अध्यक्षता में संपन्न हुई। * इस सभा में जैन धर्म के 12 अंगों का संकलन किया गया। * इसमें भद्रबाहु के अनुयायियों ने भाग नहीं लिया। *द्वितीय जैन सभा छठीं शताब्दी 512 ई. में वल्लभी (गुजरात) में देवर्धिगण या क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में संपन्न हुई। द्वितीय जैन सभा के समय 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, अनुयोग सूत्र का संकलन हुआ। *जैन साहित्य को ‘आगम’ (सिद्धांत) कहा जाता है। * इसके अंतर्गत 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, 10 प्रकीर्णसूत्र और 2 चूलिकासूत्र की गणना की जाती है। *जैन आगम में बारह अंगों का प्रमुख स्थान है। *ये हैं-आयारंग-सुत्त (आचारांग सूत्र), सूयगदंग (सूत्रकृतांग), थाणंग (स्थानांग). समवायंग (समवायाग), भगवई वियाहपन्नति (भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति), णयाधम्म- कहाओ (ज्ञात्रधर्मकथा). उवासगदसाओ (उपासकदशा), अंतगददसाओं (अंतकर्दशा), अणुत्तरोक् वाइयदसाओं (अनुत्तरउपपातिकदाशा), पण्हावागरनाइ (प्रश्नव्याकरण). विवागसूदन (विकासुत) और दिदिवा (दृष्टिवाद)। बारह अंगों से संबंधित एक-एक ‘उपांग’ ग्रंथ हैं। इनमें ब्रह्मांड का वर्णन, प्राणियों का वर्गीकरण, खगोल विद्या, काल विभाजन, मरणोत्तर जीवन का वर्णन आदि का उल्लेख प्राप्त होता है। *बारह उपांग हैं-उववाइय (औपपातिक), रायपसेणइज्जा (राजप्रश्नीय) जीवाजीवाभिगम, पण्णवणा (प्रज्ञापना), सूरियपति (सूर्यप्रज्ञप्ति) जम्बुयापति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), चंदपण्णति (चन्द्रज्ञप्ति), निश्यावली कमावदसिआओ (कल्पावसिका) पुहिआओ (पुष्पिका) पुष्पबूलिआओ (पुष्पबूलिया और पदाओं (वृष्णिदशा)। ** दस प्रकीर्ण’ प्रमुख ग्रंथों के परिशिष्ट हैं। * ये हैं-चउसरण (चत: शरण), आउरपच्चक्प्वाण (आतुरप्रत्याख्यान), भत्तपरिण्णा (भक्तपरिज्ञा), संथार (संस्तारक), तंदुलवेयलिय (तदुलवैचारिक), चंदाविज्य (चन्द्रवेध्यक), देविदत्थय (देवेन्द्रस्तव), गणिविज्जा (गणिविद्या), महापच्चक्खाग
महाप्रत्याख्यान) और वीरत्थय (वीरस्तव)। छेदसूत्र’ की संख्या छ है। *इसमें जैन भिक्षुओं के लिए विधि नियमों का संकलन है। *छ: छेदसूत्र है आयारदसाओ (आचारदरंग), बिहाकम्प (बृहत्कल्प), ववहाद (व्यवहार), निसीह (निशीथ), महानिसीह ( महानिशीथ) और जीयकल्प (जीतकल्प)
*मूलसूत्र की संख्या चार है। इनमें जैन धर्म के उपदेश, बिहार के जीवन, भिक्षुओं के कर्तव्य, यम-नियम आदि का वर्णन है।
*चार मूलसूत्र है- दसवेयालिय (दशवेकालिक), उत्तरज्झयण (उत्तराध्ययन), आवस्य (आवश्यक) और पिंडानिज्जुत्ति (पिंडानिर्युक्ति)। *दो चूलिकासूत्र हैं- नदी- सुतम] (नदी सूत्र) और अणुओगद्दारा अनुयोगद्वारसूत्र जो एक प्रकार का विश्वकोश है। *इनमें भिक्षुओं के लिए आचरणीय बातें लिखी गई। है। *उपर्युक्त सभी ग्रंथ श्वेतांबर संप्रदाय के लिए हैं। * दिगंबर संप्रदाय के अनुयायी इनकी प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते।
श्वेतांबर
इस संप्रदाय के लोग श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।
इस मत के अनुसार, स्त्री के लिए मोक्ष प्राप्ति संभव है।
इस संप्रदाय के लोग ज्ञान प्राप्ति के बाद भोजन ग्रहण करने में विश्वास करते हैं।
  • इस मत के अनुसार, महावीर स्वामी विवाहित थे। इस मत के अनुसार, 19 वें तीर्थकर मल्लिनाथ स्त्री थे।
*जैन साहित्य में अशोक के पौत्र संप्रति को जैन मत का जिसके कारण * जैनियों का दूसरा प्रमुख बताया गया है। *वह उज्जैन में शासन करता था, जैन धर्म का एक प्रमुख केंद्र बन गया। मथुरा था। *यहां से अनेक मंदिर, प्रतिमाएं, अभिलेख आदि प्राप्त उ * कलिंग का चेदि शासक खारवेल जैन धर्म का महान संरक्षक था। भुवनेश्वर के नजदीक उदयगिरि तथा खंडगिरि की पहाड़ियों को अ कर जैन भिक्षुओं के निवास के लिए गुहा विहार बनवाए थे। * राजाओं के शासनकाल (9वीं शताब्दी) में गुजरात एवं राजस्थान धर्म 11वीं तथा 12वीं शताब्दियों में अधिक लोकप्रिय रहा मंदिर हिंदू धर्म और जैन धर्म से संबंधित है। माउंट आबू के द जैन मंदिर संगमरमर के बने हैं। * इनका निर्माण गुजरात के (सोलंकी) शासक भीमदेव प्रथम के सामंत विमलशाह ने करवाय • श्रवणबेलगोला कर्नाटक राज्य में स्थित है। यहां गंग शासक चतुर्थ (पंचमल्ल) के शासनकाल में चामुंडराय नामक मंत्री ने 981 ई. में बाहुबली (गोमतेश्वर) की विशालकाय जैन मूर्तिका कराया। बाहुबली, प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र हैं। *महामस्तकाभिषेक, जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण उत्सव है, वर्ष के अंतराल पर कर्नाटक राज्य के श्रवणबेलगोला में आया किया जाता है।
  • इस संप्रदाय के लोग पूर्णतया नग्न रहकर तपस्या करते हैं सू इस मत के अनुसार, • दिगंबर मत के स्त्री के लिए मोक्ष संभव नहीं है। अनुसार आदर्श साधु भोजन नहीं ग्रहण कर महावीर स्वामी अविवाहित थे।
तमिल व्याकरण पर तौलकापियम’ नामक विस्तृत ग्रन्थ की रचना संगम युग में हुई थी. गायकों के गान के साथ नर्तकियाँ नृत्य करती थीं इन्हें ‘पाणर’ तथा ‘विडेलियर’ कहा जाता. था “पेदिनेकिलकन्कू संगम साहित्य की प्रसिद्ध रचना है संगम शब्द संस्कृत भाषा का है, जिसका अर्थ है, गोष्ठी अथवा परिषद् संगम साहित्य का मुख्य विषय श्रृंगार तथा ‘वीरगाथा’ है ‘ श्रृंगार को अहम् व ‘वीरगाथा’ को पुरम् कहा गया है.
  • प्रथम संगम का आयोजन ‘मदुरा में ऋषि अगस्त्य की अध्यक्षता में किया गया था. द्वितीय संगम का आयोजन कपाटपुरम नगर में ऋषि अगस्त्य की अध्यक्षता में किया गया था
  • तृतीय संगम का आयोजन मदुरा में किया गया. इस संगम के सभापति नक्कीरर थे,
  • ‘अवे’ संगमकालीन परिवार था जिसका अर्थ है. सभा ‘पंचवारम’ संगमकालीन राजा के परामर्श-
दाताओं की सभा को कहते थे ‘उर’ नाम की संस्था नगर प्रशासन की व्यवस्था करती थी
  • आरिकमेहूँ की खुदाई से अनुमान होता है। कि किसी समय यहाँ रोमन व्यापारियों की
छावनियों अस्तित्व में रही होगी.
संगमकाल में शिक्षक को कणक्काटर कहा जाता था. संगमकाल में विद्यार्थी को भाण्वन अथवा • पिल्लै कहा जाता था
  • पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं के चतुव्रतों की व्यवस्था की थी ये व्रत इस प्रकार थे (1) में जीवित प्राणियों की हिंसा नहीं करूँगा, (2) मे सदा सत्य भाषण करूंगा. (3) में चोरी नहीं करूंगा, (4) मैं कोई सम्पत्ति नहीं रखूँगा
  • बौद्ध साहित्य में महावीर स्वामी को निगष्ट नातपुत्र अथवा निग्रन्थ सातपुत्र भी कहा गया है
  • महावीर स्वामी को बिहार स्थित पटना जिले के समीप पावापुरी नामक स्थान पर निर्वाण प्राप्त हुआ.
  • जैन धर्म में वर्णित त्रिरत्न हैं-सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् आचरण
  • जैन धर्म के अनुसार आत्मा को भौतिक तत्वों से मुक्त कर देना ही निर्वाण है.
  • महावीर स्वामी ने सर्वसाधारण के लिए पाँच नियम बताये हैं जिन्हें पंचमहाव्रत कहते हैं, ये
व्रत है सत्य, अहिंसा अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य इन्हीं पंचमहाव्रतों में आगे चलकर
रात्रि का भोजन न करना भी सम्मिलित कर दिया गया.
  • कैवल्य- यह पूर्ण ज्ञान है जो निर्ग्रन्थों को प्राप्त होता है.
  • महात्मा बुद्ध का जन्म नेपाल की तराई में कपिलवस्तु से 14 किमी दूर लुम्बनी वन में
हुआ था.
  • कौण्डिन्य महात्मा बुद्ध के समय का ब्राह्मण भविष्यवेत्ता था. गौतम को गया में ज्ञान प्राप्त हुआ था. इसलिए वह स्थान बौद्ध गया कहलाया.
  • महात्मा बुद्ध का प्रथम उपदेश धर्म चक्र प्रवर्तन कहलाता है..
  • महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश ऋषिपत्तन (सारनाथ) में दिया था. • महात्मा बुद्ध के अनुयायी 4 भागों में विभक्त थे (1) भिक्षु (2) भिक्षुणी. (3) उपासक, (4) उपासिका
  • 45 वर्ष तक अनवरत धर्मोपदेश देकर 80 वर्ष की अवस्था में कुशीनगर में महात्मा बुद्ध को महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ था. • त्रिपिटक हैं- (1) विनय पिटक (2) सुत्तपिटक, (3) अभिधम्म पिटक
  • विनय पिटक के तीन भाग हैं- (1) सुत्त विभंग. (2) खन्धक (3) परिवार. • दीघनिकाय, मज्झिम निकाय, अंगुत्तर निकाय, संयुक्त निकाय, खुद्दक निकाय सुत्त पिटक के निकाय हैं.
  • अभिधम्म पिटक में दार्शनिक और आध्यात्मिक चिन्तन किया गया है.
  • अभिधम्मपिटक के सात ग्रन्थ है-(1) धम्म- संगीति, (2) विभंग, (3) धातुकथा, (4) पुग्गल पञ्जति, (5) कथावस्तु (6) यमक, (7)
पट्ठान, अष्टांगिक मार्ग हैं- (1) सम्यक् दृष्टि, (2) सम्यक् संकल्प, (3) सम्यक् वाणी, (4) सम्यक् कर्मान्त, (5) सम्यक् आजीव, (6) सम्यक व्यायाम, (7) सम्यक् स्मृति, (8) सम्यक् समाधि.
  • बौद्ध धर्म में अष्टांगिक मार्ग तीन प्रकार से श्रेणीबद्ध किया गया है- (1) प्रजा स्कन्ध, (2) शील स्कन्ध, (3) समाधि स्कन्ध. • सम्यक् दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक् वाणी, प्रजा स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं।
  • सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, शील स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं. • सम्यक व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि, समाधि स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं.
  • महात्मा बुद्ध अनात्मवादी थे, आत्मा के अस्तित्व में उनका कोई विश्वास नहीं था. • महात्मा बुद्ध की मृत्यु के कुछ समय पश्चात् महाकस्सप की अध्यक्षता में राजगृह के निकट सप्तपर्णा गुहा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ था. • द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन वैशाली में हुआ था.
■ तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन पाटलिपुत्र में अशोक के काल में हुआ था. → चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन कश्मीर में कनिष्क के समय में हुआ था. → पुराणों की कुल संख्या अठारह मानी गई जिसमें भागवत नाम का एक प्रसिद्ध पुराण है.
शव भागवत धर्म
नोट्स
* भागवत धर्म से वैष्णव धर्म का विकास हुआ। *परंपरानुसार इसके प्रवर्तक वृष्णि (सात्वत) वंशी कृष्ण थे। *छांदोग्य उपनिषद् और तैत्तिरीय आरण्यक के अंतिम अंश में उन्हें देवकी पुत्र कहा गया है। * इन्हें घोर अंगिरस का शिष्य बताया गया है। कृष्ण के अनुयायी उन्हें ‘भगवत्’ पूज्य कहते थे। इस कारण उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म की संज्ञा भागवत हो गई।
* ऋग्वेद में विष्णु का उल्लेख आकाश के देवता के रूप में हुआ है। * उत्तर वैदिक काल में तीन प्रमुख देवता-प्रजापति, रुद्र एवं विष्णु थे। *विष्णु को लोग पालक एवं रक्षक मानने लगे। *पतंजलि ने वासुदेव को विष्णु का रूप बताया * विष्णु पुराण में भी वासुदेव को विष्णु का एक नाम बताया गया है। *इस प्रकार जब कृष्ण-विष्णु का तादात्म्य नारायण से स्थापित हुआ,
भगवान विष्णु राजा करने के लिए रूप धारण किया तथा उसके चंगुल से धरती को ऐसी कल्पना की गई है कि भगवान विष्णु हाथ में तलवार लेकर पर सवार होकर पृथ्वी पर अवतरित हो
भागवत अथवा पांचरात्र धर्म वासुदेव (कृष्णकी उपासना के साथ ही तीन अन्य व्यक्तियों की उपासना की जाती थी। इनके नाम है- (1) संकर्षण (बलराम वसुदेव और रोहिणी से उत्पन्न (ii) और रुक्मिणी से उत्पन्न पुत्र (iii) अनिरुद्ध प्रद्युम्न के पुत्र इन चारों को ‘चतुर्व्यूह’ की संज्ञा दी जाती है। वायु पुराण में इन चारों के साथ ‘साम्ब (कृष्ण और जाम्बवती से उत्पन्न पुत्र) को मिलाकर पंचवी कहा गया है। *भागवत संप्रदाय में नवधा भक्ति का विशेष महत्व है। * धर्म के प्रमुख आचार्य है-रामानुज, मध्य, बल्लम, चैतन्य आदि। वैष्णव धर्म से संबंधित प्रमुख मंदिर
जगन्नाथ मंदिर
दशावतार मंदिर
विष्णु मंदिर
विष्णु मंदिर द्वारिकाधीश मंदिर द्वारिकाधीश मंदिर
* शिव से संबंधित धर्म को ‘शैव धर्म’ कहा जाता है। *शिव के उपासक को ‘शैव’ कहा जाता है। *शैव धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म है। इसका संबंध प्रागैतिहासिक युग तक है। सिंधु घाटी के लोग शिव की पूजा करते थे। इसका प्रमाण मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा है, जिस पर योगी की आकृति बनी है। *योगी के सिर पर एक त्रिशुल जैसा आभूषण है तथा इसके तीन मुख हैं। * मार्शल महोदय ने इसे शिव से संबंधित किया है। *ॠग्वेद में शिव को ‘रुद्र’ कहा गया है, जो अपनी उग्रता के लिए प्रसिद्ध हैं। रुद्र को समस्त लोकों का स्वामी वाजसनेयी संहिता के शतरुद्रीय मंत्र में कहा गया है।
 * अथर्ववेद में उन्हें पशुपति, भव, शर्व, भूपति आदि कहा गया है। *पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि दूसरी सदी ईसा पूर्व में शिव की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती थी। *महाभाष्य में शिव के विभिन्न नामों का उल्लेख मिलता है। *ये प्रमुख नाम हैं-रुद्र, महादेव, गिरीश, भव, सर्व, त्र्यम्बक आदि। कुषाण शासकों के सिक्कों पर शिव, वृषभ और त्रिशूल की आकृतियां मिलती हैं। * उदयगिरि गुहालेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय के प्रधानमंत्री वीरसेन ने उदयगिरि पहाड़ी पर एक शैव गुफा का निर्माण करवाया था। * कुमारगुप्त के समय में खोह तथा करमदंडा में शिवलिंग की स्थापना करवाई गई थी। * गुप्त काल में नचनाकुठार में पार्वती मंदिर तथा भूमरा में शिव मंदिर का निर्माण करवाया गया था। * कालिदास ने कुमारसम्भवम् में शिव की महिमा का गुणगान किया है। चंदेल शासकों द्वारा खजुराहो का प्रसिद्ध कंदारिया महादेव मंदिर
निर्मित कराया गया था राष्ट्रकूटों के समय में एलोरा का प्रसिद्ध कैलाश ● मंदिर निर्मत कराया गया काल में धर्म का प्रचारप्रसार दक्षिण भारत में जयनारी द्वारा किया गया था यारों की संख्या है। तिरुज्ञान, सुंदर मूर्ति सम्बन्दर, अणार आदि का नाम उल्लेखनीय है। इनके गित को एक साथ देवारभ’ में संकलित किया गया है। भारत में चोल शासक शिव के अन्य शासक राजराज प्रथम ने वर मंदिर निर्मित करवाया था। *राजराज प्रथम ने बृहदीस अथवा राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था। कुलोतुंग प्रथम एक कथा इस शिव के प्रति अतिशय श्रद्धा के कारण चिदंबरम मंदिर में स्थापित विष्णु की प्रतिमा को उखाड़ कर समुद्र में फेंक दिया था। धर्म से संबंधित देश के विभिन्न भागों में स्थित द्वादश ज्योतिर्लिंग है-सोमनाथ, नागेश्वर (द्वारका के समीप), केदारनाथ, विश्वनाथ (काशी), वैद्यनाथ, महाकालेश्वर (उज्जैन), ओंकारेश्वर (म.प्र.), मीमेश्वर (नासिक), त्र्यम्बकेश्वर (नासिक), घुश्मेश्वर प्रदेश * वामन पुराण में शैव संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है। ये
है- शैव, पाशुपत, कापालिक एवं कालामुख * पाशुपत संप्रदाय की उत्पत्ति ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में हुई थी। * पुराणों के अनुसार, इस संप्रदाय की स्थापना लकुलीश अथवा लकुली नामक ब्रह्मचारी ने की थी। इस संप्रदाय के अनुयायी लकुलीश को शिव का अवतार मानते हैं। कापालिक संप्रदाय के उपासक भैरव को शिव का अवतार मानकर उनकी उपासना करते थे। इस मत के अनुवायी सुरा का सेवन करते हैं एवं मांस खाते हैं, शरीर पर श्मशान की भस्म लगाते हैं तथा हाथ में नरमुंड धारण करते हैं।
* भवभूति के ‘मालतीमाधव’ नाटक से पता चलता है कि ‘श्रीशैल’ नामक स्थान कापालिकों का प्रमुख केंद्र था। कालामुख संप्रदाय अतिमार्गी होने के कारण शिवपुराण में इसके अनुयायियों को महाव्रतचर कहा गया है। शैव धर्म का ही एक संप्रदाय लिंगायत अथवा वीर शैव था। इसका प्रचार बारहवी शताब्दी में दक्षिण भारत में व्यापक रूप से हुआ। वसव को इस संप्रदाय का संस्थापक माना जाता है। * शेव धर्म का एक नया संप्रदाय कश्मीर में विकसित हुआ। यह संप्रदाय शुद्ध रूप से दार्शनिक या ज्ञानमार्गी था। नाथपंथ संप्रदाय दसवीं सदी के अंत में मत्स्येंद्रनाथ ने चलाया। इसमें शिव को आदिनाथ मानते हुए नौ नाथो को दिव्य पुरुष के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। बाबा गोरखनाथ न दसवी – ग्यारहवीं शताब्दी में इस मत का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार किया।
शैव धर्म से संबंधित
मंदिर राजराजेश्वर मंदिर
शिव मंदिर
नटराज मंदिर विरुपाक्ष मंदिर
विश्वनाथ मंदिर
जैन वैष्णव धर्म की एक संज्ञा ‘पांचरात्र धर्म’ हो गया। वासुदेव की पूजा का उल्लेख महर्षि पाणिनि ने किया है। उन्होंने ‘हेराक्लीज’ के उपासकों को ‘वासुदेवक’ कहा है। *यह धर्म प्रारंभ में मथुरा एवं आस-पास के क्षेत्रों में प्रचलित था। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज के शूरसेन (मथुरा) के लोग ‘हेराक्लीज’ के उपासक थे। वासुदेव कृष्ण से ही है। मथुरा से इस धर्म का प्रसार धीरे-धीरे भारत के भागों में हुआ। * भागवत धर्म से संबद्ध प्रथम उपलब्ध प्रस्तर स्मारक (बेसनगर) का गरुड़ स्तंभ है। इससे पता चलता है कि तक्षशिला के राजदूत हेलियोडोरस ने भागवत धर्म ग्रहण किया तथा इस स्तंभ की करवाकर उसकी पूजा की थी। *इस पर उत्कीर्ण लेख में हेलियोडोरस ‘भागवत’ तथा वासुदेव को ‘देवदेवस’ अर्थात देवताओं था। अपोलोडोटस के सिक्कों पर सबसे पहले भागवत धर्म के चिह्न मिलत कहा| * महाक्षत्रप शोडासकालीन मोरा (मथुरा) पाषाण लेख में पंचवीरों ( वासुदेव, प्रद्युम्न, साम्ब तथा अनिरुद्ध) की पाषाण प्रतिमाओं को मंदिर में नसे किए जाने का उल्लेख मिलता है।
। गुप्त नरेश वैष्णव मतानुयायी थे तथा उन्होंने इसे अपना राजध था। * अधिकांश गुप्त शासक ‘परमभागवत’ की उपाधि धारण करते थे। 19 का वाहन ‘गरुड़ गुप्त शासकों का राजचिह्न था। महरौली स्तंम लेख उल्लेख मिलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने विष्णुपद पर्वत पर विष्णु ध्य करवाई थी। स्कंदगुप्त के मितरी स्तंभ लेख (गाजीपुर) मे मूर्ति स्थापित किए जाने का उल्लेख है। जूनागढ़ लेख से होता है। तिने सुदर्शन झील के तट पर विष्णु की मूर्ति स्था देवगढ़ की मूर्ति में विष्णु को शेषशादी पर विश्राम करते हुए है। * अमरसिंह ने अपने ग्रंथ अमरकोश में विष्णु के 42 नामों का वर्णन कि है। के पूर्वी चालुक्य शासक वैष्णव मतानुबाई थे। गुप्ती के समान उनका राज गरुड़ा राष्ट्रकूट नरेश दरिदुर्ग ने एलोरा में का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया था। इस मंदिर में विष्णु के दस अवतारों कथा मूर्तियों में अंकित है। *क्षेमेंद्र रचित ‘दशावतार चरित’ में विष्णु के ? अवतारों का वर्णन मिलता है। अलवार संतों द्वारा दक्षिण भारत में वैष्णव का प्रचार-प्रसार किया गया। *अलवार’ शब्द का अर्थ होता है-ज्ञानी व्यति * अलवार संतों की संख्या 12 बताई गई है। * इनमें विशेष रूप से उल्लेखनी हैं- पोयगई, पूडम, पेय, तिरुमंगई, आण्डाल, नम्मालवार आदि। * अलवा संतों में एकमात्र महिला साध्वी आण्डाल थी।
 * चोल काल में वैष्णव धर्म प्रचार का कार्य अलवारों के स्थान पर आचार्यों ने किया। * आचार्य परंपरा प्रथम नाम नाथमुनि का लिया जाता है। इन्हें मधुरकवि का शिष्य बताय है। *इन्होंने ‘न्यायतत्व’ की रचना की। *पुराणों में विष्णु के दस अवतारों विवरण प्राप्त होता है। वे हैं -मत्स्य, कूर्म अथवा कच्छप, वराह, नृसिंह, वामर परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध एवं कल्कि (कलि) कल्कि अवतार भविष्य में
शाक्त संप्रदाय के लोग शक्ति को इष्टदेवी मानकर पूजा करते थे। * शैव धर्म के साथ शाक्त धर्म का घनिष्ठ संबंध रहा है। शाक्त धर्म की प्राचीनता भी शैव धर्म के समान प्रागैतिहासिक युग तक जाती है। * मातृदेवी की बहुसंख्यक मूर्तियां खुदाई में प्राप्त हुई हैं। *वैदिक साहित्य * सैंधव सभ्यता में मातृदेवी की उपासना व्यापक रूप से प्रचलित थी। से सरस्वती, अदिति, उषा, लक्ष्मी आदि देवियों के विषय में सूचना मिलती है। *देवी महात्म्य का विस्तृत वर्णन महाभारत तथा पुराणों में प्राप्त होता है। *देवी की उपासना तीन रूपों में की जाती थी। *ये रूप है-शांत या सौम्य रूप, उम्र या प्रचंड रूप और काम प्रधान रूप। सौम्य रूप की प्रतीक उमा, पार्वती, लक्ष्मी आदि हैं। * उग्र रूप की प्रतीक चंडी, दुर्गा, भैरवी, कपाली आदि हैं। * कापालिक एवं कालमुख संप्रदाय के लोग देवी के उग्र रूप की आराधना करते हैं। *वैष्णो देवी का मंदिर देवी के सौम्य रूप का मंदिर है। * कोलकाता स्थित काली मंदिर देवी के उग्र रूप का प्रतिनिधित्व करता है। *असम का कामाख्या मंदिर देवी के काम प्रधान रूप का प्रतिनिधित्व करता है। *प्रतिहार शासक महेंद्रपाल के लेखों में दुर्गा की महिषासुरमर्दिनी, कांचनदेवी, अम्बा आदि नामों की स्तुति मिलती है। *राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष महालक्ष्मी का अनन्य भक्त था। *संजन लेख से ज्ञात होता है कि उसने एक बार अपने बाएं हाथ की अंगुलि काटकर देवी को चढ़ा दिया था। * श्रीहर्ष ने अपने ग्रंथ ‘नैषधीयचरित’ में सरस्वती मंत्र की महत्ता का प्रतिपादन किया। *संप्रति शाक्त उपासना के तीन प्रमुख केंद्र हैं। * ये हैं-कश्मीर, कांची तथा असम स्थित कामाख्या । *असम स्थित कामाख्या कौल मत का प्रसिद्ध केंद्र है।
शाक्त धर्म से संबंधित प्रमुख मंदिर
वैष्णो देवी का मंदिर विंध्यवासिनी देवी का मंदिर चौसठ योगिनी का मंदिर पार्वती मंदिर कामाख्या मंदिर
दक्षिणेश्वर काली मंदिर
विंध्याचल
भेड़ाघाट (म.प्र.)
असम
स्थान जम्मू नाचना कुठार (म.प्र.)
कोलकाता
                       छठी शती ई.पू.-राजनीतिक दशा
नोट्स
*बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तरनिकाय से ज्ञात होता है कि गौतम बुद्ध के जन्म के पूर्व समस्त उत्तर भारत 16 बड़े राज्यों में विभाजित था। * इन्हें ‘सोलह (पोडश) महाजनपद’ कहा गया है। *इन सोलह महाजनपदों के नाम हैं-कोशल, काशी, मगध, अंग, वज्जि, चेदि, मल्ल, वत्स, कुरु, पांचाल, मत्स्य, शूरसेन, कम्बोज, अवंति, अस्सक (अश्मक) तथा गांधार। *जैन ग्रंथ ‘भगवतीसूत्र’ में मी इन 16 महाजनपदों के नाम मिलते हैं, किंतु इसमें कुछ नाम भिन्न दिए गए हैं।
* वैशाली बुद्ध काल का सबसे बड़ा तथा शक्तिशाली गणराज्य * पुराणों के अनुसार, मगध पर शासन करने वाला पहला राजवंश वंश था। *इस वंश के पहले राजा बृहद्रथ का पुत्र जरासंघ था, जि गिरिव्रज (राजगृह) को अपनी राजधानी बनाया।
राजगृह को जरासा की राजाके अनुसार, का प्रथम प्रतापी शासक विवारा यह हर्यक वंश से संबंधित था
*काशी का सबसे शक्तिशाली शासक था इसने कोशल पर विजय प्राप्त की थी। अंततोगत्या कोशल के राजा कसने काशी को जीतकर अपने राज्य में शामिल कर लिया। प्रसेनजित के समय कोशल का काशी के अतिरिक्त कपिलवस्तु के शाक्य, केशपुरा के कालाम, रामगाम के कोलिय पाया और कुशीनाश के मल्ल, पिप्पलिन के मोरिस आदि गणराज्यों पर भी अधिकार था “संयुक्त निकाय के अनुसार, प्रसेनजित “पांच राजाओं के एक गुट का नेतृत्व करता था। रामायणकालीन कोशल राज्य की राजधानी अयोध्या थी। *कोशल के प्रमुख नगर श्रावस्ती और अयोध्या थे। बुद्ध काल में कोशल के दो भाग हो गए थे। उत्तरी भाग की राजधानी बावस्ती तथा दक्षिणी भाग की राजधानी साकेत थी।
* उत्खननों के आधार पर ज्ञात हुआ है कि प्राचीन श्रावस्ती का नगर विन्यास अर्द्धचंद्राकार था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में मल्ल महाजनपद स्थित था। इसके दो भाग थे-एक की राजधानी पावा (पडरौना) तथा दूसरे की कुशीनारा (कसया) थी। छठी शताब्दी ई.पू. में आधुनिक बुंदेलखंड के पूर्वी तथा उसके समीपवर्ती भागों में चेदि महाजनपद स्थित था। *इसकी राजधानी ‘सोत्यिवती’ थी, जिसकी पहचान महाभारत में शुक्तिमती से की जाती है। *महाभारत काल में चेदि का शासक शिशुपाल था जिसका वध कृष्ण द्वारा किया गया था। *प्रयागराज के आस-पास के क्षेत्रों में वत्स महाजनपद स्थित था। *विष्णु पुराण से ज्ञात होता है कि हस्तिनापुर के राजा निवक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा के प्रवाह में बह जाने के बाद कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाई थी। *बुद्ध काल में यहां पौरव वंश का शासन था। *यहां का शासक उदयन था। *बौद्ध भिक्षु पिण्डोला ने उदयन को बौद्ध मत में दीक्षित किया था। उदयन- वासवदत्ता की दंतकथा उज्जैन से संबंधित है। इस कथा को महाकवि भास ने अपने नाटक स्वप्नवासवदत्तम् में वर्णित किया है।
*कुरु महाजनपद मेरठ, दिल्ली तथा थानेश्वर के भू-भागों में स्थित था। *महाभारतकालीन हस्तिनापुर नगर इसी राज्य में स्थित था। बुद्ध के समय यहां का राजा कोरव्य था। *पांचाल महाजनपद आधुनिक रुहेलखंड के बरेली, बदायूँ तथा फर्रुखाबाद के जिलों से मिलकर बनता था। *प्रारंभ में इसके दो भाग थे-उत्तरी पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र तथा दक्षिणी पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी। *पांचाल महाजनपद के अंतर्गत कान्यकुब्ज का प्रसिद्ध नगर स्थित था। *पांचाल जनपद की सीमाए हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में चंबल नदी तक तथा पूर्व में कोसल तथा पश्चिम में कुरु जनपद को स्पर्श करती थी। *पांचाल मूलतः एक राजतंत्र था, किंतु ऐसा प्रतीत होता है। कि कौटिल्य के समय तक वह एक गणराज्य हो गया था। * मत्स्य महाजनपद राजस्थान के जयपुर क्षेत्र में बसा हुआ था। इसके अंतर्गत वर्तमान अलवर एवं भरतपुर का एक भाग भी सम्मिलित था। *इसकी राजधानी ‘विराट’ की स्थापना विराट नामक राजा द्वारा की गई थी।
की बहन महा उसके देश की राजकुमारी के साथ करके का सहयोग केकर अपने राज्य में मिला लिय है कि इसने एवं प्रदान दिन से होता है कि सरक कहाँ की संपूर्ण आमदनी दान में दे दिया विविसार को अपने द्वारा बंदी बनाकर सरागार में डालने का उल्लेख एवं मिलता है। विसारी492 ई. के लगभग हो गई। विसार के पुत्र (492-460 ई.पू.) का शासक हुआ। यह अपने पिता के समान ही साम्राज्यवादी था। इसके शासन के प्रारंभिक वर्षों एवं राज्य के बीच संघर्ष शुरू हो गया। किंतु बाद में भग के शासक तथा कोशल के शासक प्रसेनजित के बीच सधि हो गई। प्रसेनजित ने अपने पुत्री वाजरा का विवाह से कर दिया तथा पुनः काशी के ऊपर उसका अधिकार स्वीकार कर लिया। पाटलिपुत्र की स्थापना अजातशत्रु के उत्तराधिकारी उदयिन ने गंगा और सोन नदी के संगम पर एक किला बनाकर की थी। इसने मगध साम्राज्य की
राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र स्थानांतरित की। “शिशुनाग वंश की स्थापना शिशुनाग द्वारा की गई थी। *महावंश टीका में शिशुनाग को एक लिच्छवी राजा की वेश्या पत्नी से उत्पन्न कहा गया है। * पुराणों के अनुसार वह क्षत्रिय था। अवंति की विजय शिशुनाग के लिए लाभदायक सिद्ध हुई। इससे मगध साम्राज्य की पश्चिमी सीमा मालवा तक पहुंच गई। “इस विजय के पश्चात शिशुनाग का वत्स के ऊपर भी अधिकार क हो गया, क्योंकि वह अवंति के अधीन था। *अवंति और वत्स पर अधिकार हो उ जाने से पश्चिमी विश्व के साथ पाटलिपुत्र को व्यापार-वाणिज्य के लिए एक प नया मार्ग प्राप्त हो गया। * शिशुनाग ने गिरिव्रज के अतिरिक्त वैशाली नगर को अ अपनी दूसरी राजधानी बनाई थी, जो बाद में उसकी प्रधान राजधानी बन गई। व * शिशुनाग ने लगभग 412-394 ई.पू. तक शासन किया। *महावंश के अनुसार, वा शिशुनाग की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र कालाशोक राजा बना। पुराणों में त कालाशोक को ‘काकवर्ण’ कहा गया है। कालाशोक ने अपनी राजधानी पुनः अ पाटलिपुत्र स्थानांतरित कर दिया। इसके शासनकाल में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन वैशाली में हुआ। *इस संगीति में बौद्ध संघ दो संप्रदायों स्थविर ने तथा महासंधिक में विभाजित हो गए। * बाणभट्ट के हर्षचरित से ज्ञात होता च है कि राजधानी के समीप घूमते किसी व्यक्ति ने कालाशोक की हत्या कर दी। सं * महाबोधि वंश के अनुसार, कालाशोक के 10 पुत्रों ने सम्मिलित रूप से लगभग द्वा 22 वर्षों तक शासन किया। कालाशोक के उत्तराधिकारियों का शासन 344 क ई.पू. के लगभग समाप्त हो गया।
* शिशुनाग वंश का अंत कर नंद वंश की स्थापना जिस व्यक्ति ने की, चंद्र वह निम्न वर्ण से संबंधित था। विभिन्न ग्रंथों में उसका नाम भिन्न-भिन्न दिया अं B-86
में उसे ‘महापद्म’ जबकि महाबोधि वंश में उसे
पुराणों के अनुसार, महापद्मनंद शिशुनाग देश के
महानदिन की शुद्र के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। जैन परि नापित (भाई) पिता और वेश्या माता का पुत्र था। होने के कारण उन्हें नवनंद’ कहा जाता है। महा के अनुसार, इनके नाम है-उग्रसेन, पण्डुक, पण्डुगति, भूतपाल, गोविषाणक, दशसिद्धक, घनानंद
महापद्म नंद (उग्रसेन) 344-321
(344-321 ई.पू.) तथा उसके आठ पुत्र
*महापद्मनंद को ‘कलि का अंश’ सभी क्षत्रियों का नाश वाला, ‘दूसरे परशुराम का अवतार’ कहा गया। की स्थापना की तथा ‘एकराट्’ की उपाधि ग्रहण की। इसके उन्मूलित राजवंशों के जो नाम मिलते हैं, वे है-इक्ष्वाकु, कालग पांचाल, काय, कुरु, मैथिल, शूरसेन, वीतिहोत्रा मत्स्यपुरा अनुसार, इक्ष्वाकु ने चौबीस वर्ष, कलिंग ने बत्तीस वर्ष, अश्मक ने वर्ष, पांचाल ने सत्ताइस वर्ष, काशी ने चौबीस वर्ष, हैहय ने वर्ग, कुरु ने छत्तीस वर्ष, मैथिल ने अट्ठाइस वर्ष, शूरसेन ने तेईस तथा वीतिहोत्र ने बीस वर्ष तक शासन किया। * खारवेल के हाथी अभिलेख से उसके कलिंग विजय की सूचना प्राप्त होती है। *नंद वंश अंतिम राजा धनानंद था, जो सिकंदर का समकालीन था। * यूनानी लेख ने उसे ‘अग्रमीज’ (उग्रसेन का पुत्र) कहा है। जेनोफोन ने इसे धनाढ्य व्यक्ति बताया है। *तमिल और सिंहली ग्रंथों से भी उसकी जा संपत्ति की सूचना मिलती है। *भद्दशाल उसका सेनापति था। घ द्वारा जनता से बलपूर्वक धन वसूलने तथा छोटी-छोटी वस्तुओं पर कर लगाने के कारण जनता इसके विरुद्ध हो गई और चारों ओर कृ एवं असंतोष का वातावरण व्याप्त हो गया। * इस स्थिति का लाभ उठाक चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य के सहयोग से धनानंद की हत्या कर नंद वंशा अंत कर दिया। व्याकरणाचार्य पाणिनि महापद्मनंद के मित्र थे। * * उसने एकछत्र प्र
उपवर्ष, वररुचि, कात्यायन जैसे विद्वानों का जन्म नंद काल में ही हुआ था। *नंद शासक जैन मत के पोषक थे। * कल्पक नामक व्यक्ति जैन था, इसकी सहायता से महापद्मनंद ने समस्त क्षत्रियों का विनाश कर डाला था। *धनानंद के जैन अमात्य शकटाल तथा स्थूलभद्र थे। *मुद्राराक्षस से भी नंदों के जैन मतानुयायी होने की सूचना मिलती है।
दो अन्य रचनाओं का भी उल्लेख प्राप्त होता है- (1) व ‘तथा सोमदेव कृत ‘कथासरित्सागर’ देवीचंद्रगुप्तम् तथा (2) अभिसारिका वंचितक या अभिसारिका बघितक में (अप्राप्य)। क्षेमेंद्र कृत ‘बृहत्कथामंजरी’ चंद्रगुप्त के शूद्र उत्पत्ति के विषय में विवरण मिलता है। बौद्ध ग्रंथ महाबोधिवंश के अनुसार, चंद्रगुप्त राजकुल से संबंधित था तथा वह मोरिय नगर में उत्पन्न हुआ था। हेमचंद्र के परिशिष्टपर्वन में चंद्रगुप्त को मयूर पोषकों के ग्राम के मुखिया के पुत्री का पुत्र बताया गया है।
* विलियम जोंस पहले विद्वान थे, जिन्होंने ‘सैड्रोकोट्स’ की पहचान मौर्य शासक चंद्रगुप्त मौर्य से की। *एरियन तथा प्लूटार्क ने चंद्रगुप्त मौर्य को एंड्रोकोट्स के रूप में वर्णित किया है। जस्टिन ने ‘सैंड्रोकोट्स’ (चंद्रगुप्त मौर्य) और सिकंदर महान की भेंट का उल्लेख किया है। ऋषि चणक ने अपने पुत्र का नाम चाणक्य रखा था। अर्थशास्त्र’ के
लेखक के रूप में इसी पुस्तक में उल्लिखित ‘कौटिल्य’ तथा एक पद्यखंड में उल्लिखित ‘विष्णुगुप्त’ नाम की साम्यता चाणक्य से की जाती है। पुराणों में उसे ‘द्विजर्षम’ (श्रेष्ठ ब्राह्मण) कहा गया है। कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा मौर्य 1 में रचित अर्थशास्त्र, शासन के सिद्धांतों की पुस्तक है। इसमें राज्य काल के सप्तांग सिद्धांत राजा, आमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दंड एवं मित्र की व्याख्या मिलती है। कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है अपितु * राजनीति शास्त्र का एक अद्वितीय ग्रंथ है। इसकी तुलना ‘मैक्यावेली’ के ‘प्रिंस’ से की जाती है।
*चंद्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत की विजय प्राप्त की थी। *जैन एवं तमिल साक्ष्य भी चंद्रगुप्त मौर्य की दक्षिण विजय की पुष्टि करते हैं। नेतृत्व *राजनैतिक तौर पर समस्त भारत का एकीकरण चंद्रगुप्त मौर्य के में संभव हुआ। *प्रारंभिक विजयों के फलस्वरूप चंद्रगुप्त का साम्राज्य व्यास नदी से लेकर सिंधु नदी तक के प्रदेश पर हो गया। * रुद्रदामन के अभिलेख से पश्चिमी भारत पर उसका अधिकार प्रमाणित होता है। जैन ग्रंथों के अनुसार, सौराष्ट्र के साथ-साथ अवंति पर भी चंद्रगुप्त मौर्य का • अधिकार था। *उसकी मृत्यु के समय उसके साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में हिंदुकुश पर्वत से पूरव में बंगाल की खाड़ी तक तथा उत्तर में हिमालय की श्रृंखलाओं से दक्षिण में मैसूर तक था।
*150 ई. के रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख में आनर्त और सौराष्ट्र (गुजरात) प्रदेश में चंद्रगुप्त मौर्य के प्रांतीय राज्यपाल ‘पुष्यगुप्त’ द्वारा सिंचाई के बंध के निर्माण का उल्लेख मिलता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि पश्चिम भारत का यह भाग मौर्य साम्राज्य में शामिल था। *चंद्रगुप्त मौर्य ने सिकंदर के साम्राज्य के पूर्वी भाग के शासक सेल्यूकस की आक्रमणकारी सेना को 305 ई.पू. में परास्त किया था।
* यूनानी लेखकों ने बिंदुसार को अमित्रोकेडीज कहा है। विद्वानों के अनुसार अमित्रोकेडीज का संस्कृत रूप है अमित्रघात (शत्रुओं का नाश करने वाला)। *जैन ग्रंथ उसे ‘सिंहसेन’ कहते हैं। *जैन ग्रंथ में बिंदुसार की माता
का नाम ‘दुर्धरा’ मिलता है। दिव्यावदान के अनुसार, बिंदुसार के समय में राक्षशिला में विद्रोह हुआ था, जिसको दबाने के लिए उसने अपने पुत्र अशोक को भेजा था। *स्ट्रैबो के अनुसार, बिंदुसार के समय में मिस्र के राजा एटियोक्स ने डाइमेक्स नामक राजदूत भेजा। • प्लिनी के अनुसार, मौर्य राजदरबार में मिस्र के राजा टालमी द्वितीय फिलाडेल्फस ने डायनोसिस नामक राजदूत भेजा। *विदुसार ने सीरिया के शासक एटियोकस से तीन वस्तुओं की मांग की। *ये वस्तुएं थीं मीठी मंदिरा, सूखी अंजीर तथा दार्शनिका एटियोकस ने दार्शनिक को छोड़कर शेष सभी वस्तुएं बिंदुसार के पास भेजवा दिया। *बौद्ध साक्ष्यों के अनुसार, अशोक अपने पिता के शासनकाल में अवंति (उज्जयिनी) का उपराजा (वायसराय) था। *असम और सुदूर दक्षिण को छोड़कर संपूर्ण भारतवर्ष अशोक के साम्राज्य के अंतर्गत था। *अशोक ने अपनी प्रजा के विशाल समूह को ध्यान में रखकर ही एक ऐसे व्यावहारिक ‘धम्म’ का प्रतिपादन किया, जिसका पालन आसानी से सभी कर सकें। सहिष्णुता, उदारता एवं करुणा उसके त्रिविध आयाम थे। * अशोक 273 ई.पू. के लगभग मगध का राजा बना तथा लगभग 4 वर्ष बाद 269 ई.पू. में उसका राज्याभिषेक हुआ था। उसके अभिलेखों में सर्वत्र उसे ‘देवनामपिय’, ‘देवानांपियदसि’ कहा गया है जिसका अर्थ है-देवताओं
का प्रिय या देखने में सुंदर पुराणों में उसे ‘अशोकवर्द्धन’ कहा गया है। दशरथ भी अशोक की तरह ‘देवानामपिय’ की उपाधि धारण करता था। * सिंहली अनुश्रुतियों-दीपवंश तथा महावंश के अनुसार, अशोक के राज्यकाल में ‘पाटलिपुत्र’ में बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति हुई । * इसकी
अध्यक्षता ‘मोग्गलिपुत्त तिस्स’ नामक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु ने की थी। * दीपवंश एवं महावंश के अनुसार, अशोक को उसके शासन के चौथे वर्ष ‘निग्रोध’ नामक भिक्षु ने बौद्ध मत में दीक्षित किया। तत्पश्चात मोग्गलिपुत्त तिस्स के प्रभाव में वह पूर्णरूपेण बौद्ध हो गया। *दिव्यावदान के अनुसार, अशोक को उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु ने बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। * मौर्य शासकों में अशोक और उसका पौत्र दशरथ बौद्ध धर्म के अनुयायी थे।
* अशोक के अभिलेखों में ‘रज्जुक’ नामक अधिकारी का उल्लेख मिलता है। * रज्जुकों की स्थिति आधुनिक जिलाधिकारी जैसी थी, जिसे राजस्व तथा न्याय दोनों क्षेत्रों में अधिकार प्राप्त थे। * अग्रोनोमोई जिले के अधिकारी को कहा जाता था। * मौर्यकाल में व्यापारिक काफिलों (कारवां) के मुखिया को सार्थवाह की संज्ञा दी गई थी। *बौद्ध धर्म ग्रहण करने के उपरांत अशोक ने आखेट तथा विहार यात्राएं रोक दी तथा उनके स्थान पर धर्म यात्राएं प्रारंभ की। *राज्याभिषेक के 10 वर्ष बाद (आठवां शिलालेख) संबोधि (बोध गया) तथा 20 वर्ष बाद (रुम्मिनदेई अभिलेख) रुम्मिनदेई गया तथा उनकी पूजा की। इतिहासकार विसेट आर्थर स्मिथ ने अपनी पुस्तक इंडियन लीजेंड ऑफ अशोक में साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर उपगुप्त के साथ अशोक की धम्म यात्राओं का क्रम इस प्रकार दिया है-लुम्बिनी, कपिलवस्तु, बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर और श्रावस्ती। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के दसवें
वर्ष बोधगया की यात्रा की। बीसवें वर्ष लुम्बिनी की यात्रा की तथा वहाँ एक शिलास्तंभ स्थापित किया। बुद्ध की जन्मभूमि होने के कारण लुम्बिनी ग्राम का भोग कर माफ कर दिया तथा भू-राजस्व 1/6 से घटाकर 1/8 कर दिया। *कालसी, गिरनार और मेरठ के अभिलेख ब्राह्मी लिपि में है। “अशोक का इतिहास हमे मुख्यतः उसके अभिलेखों से ही ज्ञात होता.
है। उसके अभिलेखों का विभाजन 3 वर्गों में किया जा सकता है- (1) शिलालेख, (2) स्तंभलेख तथा (3) गुहालेख। शिलालेख 14 विभिन्न लेखों का एक समूह है, जो आठ भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त किए गए हैं। ये स्थान है-( 1 ) शाहबाजगढ़ी, (2) मानसेहरा, (3) कालसी, (4) गिरनार, (5) धौली, (6) जौगढ़, (7) एर्रागुडी तथा (8) सोपारा। *अशोक के अधिकांश अभिलेख प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी लिपि में लिखे गए है, केवल दो अभिलेखों- शाहबाजगढ़ी एवं मानसेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है। *तक्षशिला से आरमेइक लिपि में लिखा गया एक मग्न अभिलेख, शरेकुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमेइक लिपियों में लिखा गया द्विभाषीय यूनानी एवं सीरियाई भाषा अभिलेख तथा लंघमान नामक स्थान से आरमेइक लिपि में लिखा गया अशोक का अभिलेख प्राप्त हुआ है। ब्राह्मी लिपि का प्रथम उद्ववाचन पत्थर की पट्टियों (शिलालेखों) पर उत्कीर्ण अक्षरों से किया गया था। * इस कार्य को संपादित करने वाले प्रथम विद्वान सर ‘जेम्स प्रिंसेप’ थे जिन्होंने अशोक के अभिलेखों को पढ़ने का श्रेय हासिल किया। डी. आर. भंडारकर ने मात्र अभिलेखों के आधार पर अशोक का इतिहास लिखने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। प्राक् अशोक ब्राह्मी लिपि का पता श्रीलंका स्थित अनुराधापुर से चला। कुछ और स्थानों के अभिलेखों से इस प्रकार की लिपि का साक्ष्य मिला है, जिनके नाम इस प्रकार हैं-पिपरहवां, सोहगौरा और महास्थान।। *प्राचीन भारत में खरोष्ठी लिपि दाएं से बाएं लिखी जाती थी। * इसे पढ़ने का श्रेय मैसन, प्रिंसेप, नोरिस, लैसेन, कनिंघम आदि विद्वानों को है। * यह मुख्यतः उत्तर-पश्चिम भारत की लिपि थी। *अशोक का नामोल्लेख करने वाला गुजर्रा लघु शिलालेख मध्य प्रदेश के दतिया जिले में स्थित है। * मास्की,
नेत्तूर एवं उडेगोलम के लेखों में भी अशोक का व्यक्तिगत नाम मिलता है। * भाजू (बैराट) स्तंभ लेख में अशोक ने स्वयं को मगध का सम्राट बताया है। * यही अभिलेख अशोक को बौद्ध धर्मावलंबी प्रमाणित करता है। * अशोक के प्रथम शिलालेख में पशु बलि निषेध के संदर्भ में लेख इस प्रकार
है- “यहां कोई जीव मारकर बलि न दिया जाए और न कोई उत्सव किया जाए। *पहले ‘प्रियदर्शी राजा की पाकशाला में प्रतिदिन सैकड़ों जीव मांस के लिए मारे जाते थे, लेकिन अब इस अभिलेख के लिखे जाने तक सिर्फ तीन पशु प्रतिदिन मारे जाते हैं- दो मोर एवं एक मृग, इसमें भी मृग हमेशा नहीं मारा जाता। *ये तीनों भी भविष्य में नहीं मारे जाएंगे। *” पांचवें स्तंभ लेख में भी अशोक द्वारा राज्याभिषेक के 26वें वर्ष बाद विभिन्न प्रकार के
प्राणियों के वध को वर्जित करने का स्पष्ट उल्लेख है।
* अशोक के राज्यकाल की पहली बड़ी घटना कलिंग युद्ध और इसमें अशोक की विजय थी। *अशोक के तेरहवें (XIII) शिलालेख से इस युद्ध
के के संदर्भ में स्पष्ट साक्ष्य मिलते है। यह घटना अशोक के 8 वर्ष बाद अर्थात 261 ई. पू. में घटित हुई। कलिंग युद्ध से हुई पीड़ा पर अपना दुःख और पश्चाताप व्यक्त * अशोक के दीर्घ शिलालेख XII में सभी संप्रदायों के सार की की कामना की गई है तथा धार्मिक सहिष्णुता हेतु पालनीय गए हैं। * अशोक के दूसरे (II) एवं तेरहवें (XIII) शिलालेख , उपाय, राज्यों पाण्ड्य सतियपुत्त एवं केरलयुक्त सहित सूचना मिलती है। *भीर्य शासक अशोक के तेरहवे शिलालेख होता है कि अशोक के पांच यवन राजाओं के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध अंतियोक (एंटियोकस-II थियोस- सीरिया का शासक) तुरमय या मेसीडोनिया या मकदूनिया का राजा), मग (साइरीन का शासक) सुंदर (एलेक्जेंडर – एपाइरस या एपीरस का राजा)। * इस / शासनक शिलालेख कर सं
गोरखपुर जिले से प्राप्त सोहगौरा ताम्रपत्र अभिलेख के बोगरा जिले से प्राप्त महास्थान अभिलेख की रचना अशोककालीन भाषा में हुई और उन्हें ईसा पूर्व तीसरी सदी की ब्राह्मी लिपि में लिखा * ये अभिलेख अकाल के समय किए जाने वाले * इस अकाल की पुष्टि जैन खोतों से होती है। राहत कार्यों के कि हो के
:
मौर्य साम्राज्य
 
मौर्य कौन थे ?
स्पूनर के अनुसार मौर्य पारसीक थे, क्योंकि अनेक मौर्यकालीन प्रथाएं पारसीक प्रथाओं से मिलती-जुलती हैं.
ब्राह्मण साहित्य, विष्णु पुराण, मुद्रा राक्षस, कथा सरित सागर, वृहत्कथा मंजरी के अनुसार मौर्य शूद्र थे.
बौद्ध परम्पराओं के अनुसार मौर्य क्षत्रिय थे तथा गोरखपुर क्षेत्र के निवासी थे. ग्रीक लेखक जस्टिन तथा जैन परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त निम्न जाति का था. महावंश टीका के अनुसार वह क्षत्रिय था. चाणक्य के अर्थशास्त्र में एक स्थान पर लिखा है कि वह शूद्र नंदवंश का विनाश करना चाहता था. अतः वह स्वयं एक शूद्र को शासक नहीं बना सकता था. अतः वह ‘मोरेय’ नामक क्षत्रिय कुल का था. डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी भी इसका समर्थन करते हैं.
                   मौर्य काल
मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य था। चन्द्रगुप्त ने कौटिल्य की सहायता से मगध के नन्द वंशी शासक धनानन्द को पराजित कर मगध पर अधिकार कर लिया था।
धनानन्द के विरुद्ध चन्द्रगुप्त की पर्वतक नामक राजा ने सहायता की थी।
305 ई.पू. में सिन्धु नदी के किनारे ग्रीक क्षत्रप सेल्यूकस निकेटर और चन्द्रगुप्त के बीच युद्ध हुआ।
 युद्ध के बाद हुई सन्धि के अनुसार सेल्यू अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया।
सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को एरिया, अराकोसिया, पेरिपेनिसदई तथा जेड्रोसिया सौंप दिया। चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी दिए।
  • रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से चन्द्रगुप्त की पश्चिमी भारत की विजय का पता चलता है, जहाँ उसने पुष्यगुप्त को गवर्नर नियुक्त किया, जिसने सुदर्शन झील का निर्माण कराया।
चन्द्रगुप्त अपने शासनकाल के अन्तिम समय में जैन साधु भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला चला गया, जहाँ चन्द्रगिरि पर्वत पर तपस्या करके पद्धति से अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी। स्ट्रेबो एरियन एवं जस्टिन ने चन्द्रगुप्त को सैण्ड्रोकोटस तथा एप्ि एवं प्लूटार्क ने एण्ड्रोकोटस कहा है। सर्वप्रथम सर विलियम जोन्सने नामों का समीकरण चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ किया। यूनानी लेखकों ने बिन्दुसार को अमित्रचेट्स या अमित्रघात कहा है, अर्थ है शत्रुओं का नाश करने वाला। इसका अन्य नाम सिंहसेन एवं भद्रसार भी था।
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सीरिया के शासक एण्टियोकस प्रथम ने अपने दूत डायमेक्स को तथा मिस्र के शासक टॉलेमी द्वितीय ने डायनिसस को बिन्दुसार के दरवार में भेजा था।
बिन्दुसार ने सीरिया के शासक से शराब, मीठा अंजीर तथा दार्शनिक की भाँग की थी। इनमें दार्शनिक नहीं भेजा गया था। अशोक को उसके अभिलेखों में सामान्यतः देवानांप्रिय कहकर सम्बोधित
  • किया गया है। भाबू शिलालेख में अशोक ने अपने को ‘बुद्धशाक्य तथा गौतम बुद्ध को ‘भगवान’ कहकर सम्बोधित किया है।
प्रयाग स्तम्भ लेख में अशोक की पत्नी कारुवाकी तथा पुत्र तीवर का उल्लेख मिलता है।
इस स्तम्म अभिलेख पर समुद्रगुप्त और जहाँगीर के अभिलेख भी मिलते हैं।
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 9वें वर्ष (261 ई. पू.) में कलिंग विजय की, जिसका उल्लेख उसके 13वें शिलालेख में मिलता है। राजतरंगिणी के अनुसार अशोक ने कश्मीर में श्रीनगर तथा नेपाल में
देवपत्तन नामक नगर बसाया। दूसरे शिलालेख से पता चलता है कि बोल, चेर, पाण्ड्य तथा सतीयपुत्र उसकी राज्य की सीमा से बाहर थे।
 अशोक ने अपने बड़े भाई सुमन के पुत्र निग्रोध के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म अपना लिया। अन्य मत के अनुसार ऐसा उसने मोगलिपुत्त तिस्स के प्रभाव में किया।
अशोक ने शासन के 10वें वर्ष बोधगया, 12वें वर्ष निगालीसागर तथा 20वें वर्ष लुम्बिनी की यात्रा की। लुम्बिनी में धार्मिक कर को माफ कर दिया तथा भूमिकर घटाकर 1/8 भाग कर दिया।
अशोक के धम्म की परिभाषा राहुलोवादसुत्त से ली गई है। अशोक के अभिलेख ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरमाइक एवं यूनानी में प्राप्त होते हैं। अशोक का शहबाजगढ़ी एवं मनसेहरा अभिलेख खरोष्ठी लिपि में तथा तक्षशिला एवं लधमान (काबुल) अभिलेख अरमाइक लिपि में है। शर-ए-कुना (कन्धार) अभिलेख अरमाइक एवं यूनानी भाषा में है।
प्रथम पृथक शिलालेख (धौली) में अशोक सभी मनुष्यों को अपनी सन्तान बताता है। साँची, कौशाम्बी और सारनाथ लघु स्तम्भलेख में संघ में फूट • डालने के विरुद्ध आदेश है।
अशोक ने बराबर की पहाड़ियों में आजीवक संन्यासियों के लिए सुदामा गुफा, कर्ण चौपड़ तथा विश्व झोपड़ी का निर्माण करवाया।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजनीति विषय पर लिखी गई पुस्तक है।
अर्थशास्त्र में सबसे उच्च अधिकारियों को तीर्थ कहा गया है, जिनकी संख्या 18 थी।
इसके अतिरिक्त 26 अध्यक्षों की भी चर्चा मिलती है।
मौर्यकाल में दीवानी न्यायालय धर्मस्थीय तथा फौजदारी न्यायालय कण्टकशोधन कहलाते थे। गुप्तचरों को गूढपुरुष तथा इसके प्रमुख अधिकारी को सर्पमहामात्य कहा गया है। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों-संस्था एवं संचार का वर्णन है।
कृषि योग्य भूमि पर उपज का एक-चौथाई (1/4) या छठा भाग ( 1/6) भूराजस्व या लगान के रूप में वसूल किया जाता था। राजकीय भूमि सीता कहलाती थी तथा इस पर उत्पादन कार्य के लिए सीताध्यक्ष नामक अधिकारी को नियुक्त किया जाता था। बिना वर्षा की खेती वाली भूमि को अदेवमातृक कहा जाता था।
  • इस काल में ताम्रलिप्ति पूर्वी तट का महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था। पश्चिमी तट पर भड़ौच तथा सोपारा प्रमुख बन्दरगाह थे।
मेगास्थनीज के अनुसार, भारतीय समाज सात जातियों में विभाजित था-
 दार्शनिक, किसान, शिकारी एवं पशुपालक, शिल्पी एवं कारीगर, योद्धा, निरीक्षक एवं गुप्तचर तथा अमात्य एवं सभासद।
  • कौटिल्य ने नौ प्रकार के दासों की चर्चा की है, जबकि मेगास्थनीज के अनुसार भारत में दास प्रथा प्रचलित नहीं थी। स्वतन्त्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियाँ ‘रूपाजीवा’ कहलाती थीं, जिनसे राज्य को आय होती थी।
– मेगास्थनीज ने धार्मिक व्यवस्था में डायोनिसस एवं हेराक्लीज की चर्चा की है. जिसकी पहचान क्रमशः शिव और कृष्ण से की गई है।
                            मौर्योत्तर काल
हाल प्राकृत भाषा में गाथा सप्तशती नामक पुस्तक की रचना की, जिसमें उसको प्रेमगाथाओं का वर्णन है। गोरानी कली के मासिक अभिलेख के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णी के घोड़े तीनों समुद्रों का पानी पीते थे। इसने शक शासक महपान को पराजित किया था। सातवाहन शासक वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी, शक शासक रुद्रदामन से दो बार पराजित हुआ। पुलुमावी को दक्षिणापलेश्वर भी कहा गया है। यहश्री शातकर्णी के सिक्के पर नाव का चित्र अंकित है।
इसवाकु वंश का संस्थापक श्री शान्तमूल था, जिसने अश्वमेध यज्ञ किया था। जैन लोगों को ग्राम दान में दिए जाने का उल्लेख हाथीगुम्फा अभिलेख से प्राप्त होता है। इस अभिलेख के अनुसार खारवेल ने दक्षिण के तीन राज्यों-चोल चेर एवं पाण्ड्य को पराजित किया था।
  • सबसे पहला यवन आक्रमणकारी डेमेट्रियस प्रथम था, जिसने पंजाब के एक बड़े भाग को जीतकर साकल को अपनी राजधानी बनाया। डेमेट्रियस ने भारतीय राजाओं की उपाधि धारण की और यूनानी तथा खरोष्ठी दोनों लिपियों वाले सिक्के चलाए।
मिनाण्डर एक महत्त्वपूर्ण इण्डो-ग्रीक शासक था, जो बौद्ध भिक्षु नागसेन के प्रमाद में बौद्ध हो गया था। नागसेन के साथ वाद-विवाद की चर्चा मिलिन्दपन्हो में संकलित है।
सर्वप्रथम हिन्द-यवन शासकों ने ही भारत में सोने के सिक्के चलाए। सिक्कों पर पहले यूनानी लिपि तथा बाद में खरोष्ठी एवं ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया। उज्जैन के शकों में रुद्रदामन सबसे प्रसिद्ध था, इसका जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत का पहला बड़ा अभिलेख है।
इसमें चन्द्रगुप्त मौर्य एवं अशोक के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है। जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि इस समय यहाँ के राज्यपाल सुविशाख ने सुदर्शन झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवाया था।
  • भारत में पार्थियन साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मिथेडेट्स प्रथम था तथा सबसे प्रसिद्ध शासक गोन्दोफर्निस था।
तख्तेबही अभिलेख, गोन्दोफर्निस से सम्बन्धित है. इसके शासनकाल में सेण्ट थॉमस ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए भारत आया था।
भारत का प्रथम कुषाण शासक कुजुल कडफिसस था, जिसने पश्चिमोत्तर प्रदेश पर आक्रमण कर ताँबे के सिक्के चलवाए।
विम कडफिसस को भारत में कुषाण शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
कनिष्क सर्वाधिक विख्यात कुषाण शासक था, जिसने 78 ई. में एक सम्वत् चलाया, जो शक संवत् कहलाता है। कनिष्क ने कश्मीर को जीतकर वहाँ कनिष्कपुर नामक नगर बसाया। इसे द्वितीय अशोक भी कहा जाता है। कनिष्क के समय कुण्डलवन (कश्मीर) में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन
हुआ, जिसमें बौद्ध धर्म हीनयान एवं महायान में विभाजित हो गया।
संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र तथा उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। सातवाहनों ने शीशे के सिक्के चलवाए। सातवाहन वंश का सबसे महान् शासक गौतमी पुत्रा कनिष्क कला एवं संस्कृत साहित्य का महान संरक्षक था। इसके दरका पार्श्वे, वसुमित्र, अश्वघोष, नागार्जुन तथा चरक विद्यमान वनस्पतिशास्त्र एवं रसायनशास्त्र का विवेचन क्रमशः रक नागार्जुन ने किया है।
कुषाणों की राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) एवं मथुरा थी। पेशावर से क ने एक मठ और विशाल स्तूप का निर्माण कराया था। कुषाणों ने सर्वाधिक शुद्ध स्वर्ण सिक्के जारी किए। इन्हें सिक्के चलाने का श्रेय भी प्राप्त है। कनिष्क के विपर मिलता है।
पतंजलि के अनुसार मथुरा में शाटक नामक एक विशेष वस्त्रका होता था। उरैयूर एवं अरिकामेडु से ईंटों के बने रंगाई के प्राप्त • ईसा की पहली सदी में हिप्पोलस नामक ग्रीक नाविक द्वारा मानसून खोज से मौर्योत्तरकालीन व्यापार को काफी बल मिला।
रोमन वस्तुएँ बंगाल के तामलुक, पाण्डिचेरी के निकट अरि दक्षिण भारत के कई स्थानों से खुदाई में मिली हैं। \
अरिकामे कर में पेडूक कहा गया है। आन्ध्र प्रदेश में नागार्जुनकोण्डा और अमरावती बौद्ध कला के महान केन्द्र थे।
बौद्ध धर्म से सम्बन्धित सबसे पुराने पट्टचित्र गया, सोची और म में पाए गए हैं।
  • बुद्धचरित, सौन्दरानन्द, कामसूत्र, स्वप्नवासवदत्ता, विभाष माध्यमिक सूत्र इस काल की प्रमुख रचनाएं है। इस काल में यूनानियों के सम्पर्क से खगोल और ज्योतिषशास्त्र के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई।
  • शकों और कुषाणों ने पगड़ी, ट्यूनिक (कुरती), पजामा और भारी त कोट चलाए, इन्होंने बड़े पैमाने पर उत्तम अश्वारोही सेना और की परम्परा चलाई।
                      मौर्यवंशीय इतिहास के स्रोत
(1) कौटिल्य का अर्थशास्त्र,
 (2) विशाखदत्त का मुद्राराक्षस,
 (3) अभिलेख,
(4) ब्राह्मण साहित्य,
(5) जैन साहित्य,
(6) बौद्ध साहित्य,
 (7) कलावशेष,
 (8) यूनानी लेखकों के वृत्तांत.
                             चन्द्रगुप्त मौर्य
चन्द्रगुप्त भारतीय इतिहास में पहला महान् सम्राट था. उसने अपने गुरु एवं मंत्री विष्णुगुप्त जिसे इतिहास में चाणक्य के नाम से जाना जाता है की सहायता से भारत को यूनानी शक्तियों से मुक्त कराया. इसके पश्चात् मगध के नंदवंशीय राजा धनानन्द को सिंहासन से उतारकर मगध राज्य छीन लिया. 305 ई.पू. में सीरिया के यूनानी शासक सेल्यूकस को पराजित कर संधि के लिए मजबूर किया. संधि की शर्तें निम्न- लिखित थीं-
(1) संधि के अनुसार सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को एरिया (हिरात), परोपनिसदी (काबुल), अराकोशिया (कंदहार), जेड्रोशिया (बलूचिस्तान) चार प्रान्त दे दिए..
(2) सेल्यूकस की पुत्री हेलन से चन्द्रगुप्त मौर्य का विवाह सम्पन्न हुआ.
(3) सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त के दरबार में मैगस्थनीज को राजदूत के रूप में भेजा,
(4) चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस को उपहार स्वरूप 500 हाथी प्रदान किए. चन्द्रगुप्त मौर्य की विजयें
(1) पंजाब विजय, (2) मगध विजय, (3) मल्यकेतु के विद्रोह का दमन, (4) सेल्युकस पर विजय, (5) पश्चिमी भारत की विजय, (6) दक्षिण भारत की विजय.
साम्राज्य विस्तार चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक विस्तृत राज्य की स्थापना की थी. उसने उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मैसूर, पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर-पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत तथा पश्चिम में अरब सागर तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया. पाटलिपुत्र उसकी राजधानी थी. अन्तिम दिन बौद्ध साहित्य के अनुसार मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग 24 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन किया. जैन साहित्य के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम दिनों में चन्द्रगुप्त मौर्य ने राजकाज अपने पुत्र को सौंप दिया और जैन धर्म स्वीकार कर जैन भिक्षु भद्रबाहु के साथ मैसूर चला गया. वहीं सन्यासियों का जीवन व्यतीत करते हुए 298 ई.पू. के लगभग उसकी मृत्यु हो गई. शासन प्रबन्ध
(1) केन्द्रीय शासन (2) प्रांतीय शासन
(3) नगर शासन (4) ग्राम शासन
                            केन्द्रीय शासन
शासन प्रणाली राजतन्त्रात्मक थी. राजा समस्त शक्तियों का स्रोत था. यद्यपि उसकी शक्तियाँ एवं अधिकार असीमित थे, किन्तु फिर भी वह पूर्णरूपेण निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी नहीं बन सकता था. वह प्रधान सेनापति, प्रधान न्यायाधीश तथा प्रधान दण्डाधिकारी होता था.
                               मंत्रिपरिषद्
राजा की सहायता हेतु एक मंत्रिपरिषद् की व्यवस्था की गई थी. इसमें बारह से लेकर बीस तक मंत्री रहते थे. मंत्रिपरिषद् के प्रत्येक सदस्य को 12,000 पण वार्षिक वेतन दिया जाता था. मंत्री परिषद् का उस पर अंकुश रहता था. निर्णय बहुमत द्वारा लिए जाते थे. बैठकें गुप्त रूप से होती थीं. राजा मंत्रिपरिषद् के निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं था.
                             आमात्य मण्डल
केन्द्रीय शासन को सुविधा की दृष्टि से कई भागों में विभक्त कर दिया गया था. जिनको ‘तीर्थ’ कहा जाता था. प्रत्येक विभाग के अध्यक्ष को आमात्य कहा जाता था. कुल मिलाकर आमात्यों की संख्या अठारह थी. ये आमात्य निम्नलिखित थे- (1) पुरोहित, (2) मंत्री, (3) सेनाध्यक्ष, (4) दण्डपाल, (5) दौवारिक अर्थात् द्वारपाल, (6) युवराज, (7) दुर्गापाल, (8) अंतपाल 7 अर्थात् सीमारक्षाधिकारी, (9) अन्तःपुर रक्षाधिकारी (10) प्रशात्र अर्थात् कारागार का अधिकारी, (11) सन्निधात्री अर्थात् राजकोष अस्त्रागार तथा कोष्ठागार का अधिकारी (12) नायक अर्थात् नगर का रक्षक, (13) समाहर्ता अर्थात् राज्य की सम्पत्ति एवं आयुव्यय का अधिकारी (14) प्रदेष्टा (15) व्यावहारिक अर्थात् प्रधान न्यायाधीश (16) पौर अर्थात् कोतवाल, (17) मंत्री मण्डलाध्यक्ष (18) कार्मान्तरिक अर्थात् खान एवं कारखानों का अधिकारी. प्रांतीय शासन समस्त साम्राज्य को चार प्रान्तों में विभक्त कर दिया गया था, ये प्रान्त थे- पूर्वी प्रांत इसमें आधुनिक उत्तर-प्रदेश, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा सम्मिलित थे.
उत्तर पश्चिमी प्रांत वर्तमान पंजाब, सिंध, कश्मीर, बलूचिस्तान तथा अफगानिस्तान सम्मिलित थे.
                              पश्चिमी प्रांत
मालवा, गुजरात, काठियावाड़ तथा राजस्थान प्रदेश सम्मिलित थे. दक्षिणी प्रांत विन्ध्यांचल पर्वत से लेकर मैसूर तक के प्रदेश सम्मिलित थे.
                              नगर शासन
नगर का प्रधान नगराध्यक्ष कहलाता था. मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र की व्यवस्था का जो वर्णन किया उसके अनुसार नगर शासन में समितियों का महत्वपूर्ण योगदान था, इनकी संख्या 6 थी :
(1) शिल्पकला समिति, (2) वैदेशिक समिति, (3) जनसंख्या समिति, (4) वाणिज्य व्यवसाय समिति, (5) वस्तु निरीक्षक समिति, (6) कर समिति..
                              ग्राम शासन
ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी. ग्राम का मुखिया ‘ग्रामिक’ अथवा ग्रामिणी कहलाता था. प्रत्येक गाँव में एक सरकारी कर्मचारी होता था, जो ग्राम भोजक कहलाता था. 5 से 10 गाँवों की व्यवस्था ‘गोप’ नामक अधिकारी करता था. इसके ऊपर ‘स्थानिक’ होता था जो जनपद के चौथाई भाग का प्रबन्ध करता था. अर्थव्यवस्था भूमिकर भूमिकर उपज का 1/6 भाग अथवा 1/4 भाग लिया जाता था.
आय के साधन सेतुकर, वनकर, पशुकर, सीमा शुल्क, धर्मस्थल पर कर आदि आय के मुख्य साधन थे.
                             न्याय व्यवस्था
जनपद संधि इस न्यायालय में दो गाँव के आपसी  झगड़ों का फैसला होता था. दोण मुख
चार सौ गांव के ऊपर यह न्यायालय होता था.
                                राजुक
राजुक जनपद के न्यायालय का न्याया- धीश होता था. व्यावहारिक महापात्र व्यावहारिक महामात्र नगर का न्याया- धीश होता था.
                               न्यायालय
रत न्यायालय दो प्रकार के होते थे- (1) धर्मस्थलीय न्यायालय इसमें दीवानी सम्बन्धी मामलों का निर्णय होता था, (2) कण्टक शोधन न्यायालय- इसमें फौजदारी सम्बन्धी मामलों का निर्णय होता था. सेना प्रबन्ध था
सेना का प्रबन्ध 6 भागों में विभक्त था. प्रत्येक विभाग का प्रबन्ध पाँच-पाँच सदस्यों की समिति के हाथ में रहता था. सेना के विभाग थे-
                            नौ-सेना विभाग
इस विभाग के अध्यक्ष को नवाध्यक्ष कहा जाता था.
               मैगस्थनीज द्वारा वर्णित सात जातियाँ
मैगस्थनीज ने तत्कालीन भारतीय समाज अर्थात् चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में निम्नलिखित सात जातियों का विवरण दिया है-
  1. ब्राह्मण तथा दार्शनिक
  1. कृषक वर्ग
  1. ग्वाले तथा आखेटक शिल्पी,
  1. व्यापारी तथा श्रमजीव कारीगर एवं
  1. योद्धा अथवा सैनिक
  1. निरीक्षक तथा गुप्तचर
  1. मंत्री एवं परामर्शदाता, सभासद.. सैनिक यातायात विभाग
यह विभाग युद्धकाल में सैनिकों को ग्वा युद्ध हथियार, भोजन सामग्री पशुओं के लिए भेजने का प्रबन्ध करता है.
                        पैदल सेना विभाग
यह विभाग पैदल सेना सम्बन्धी प्रबन्ध करता था. अश्व सेना विभाग इस विभाग के अध्यक्ष को अश्वाध्यक्ष कहते थे हस्तिसेना विभाग इस विभाग के अध्यक्ष को हस्ताध्यक्ष कहते थे.
रथ सेना विभाग यह विभाग रथ सेना का प्रबन्ध करता था. इस विभाग के अध्यक्ष को रथाध्यक्ष कहते थे.
                          गुप्तचर प्रणाली
गुप्तचर प्रणाली अत्यन्त ही सुव्यवस्थित एवं संगठित थी. कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार गुप्तचरों के दो वर्ग थे
(1) संस्थान, (2) संचारण.
इस वर्ग के गुप्तचरों को कापटीक, गृहपतिक तापस, वैदेहक आदि नामों से पुकारा जाता था. ये एक ही स्थान पर रहते थे.
संचारण इस वर्ग के गुप्तचर ज्योतिष, साधु आदि के भेष में घूम-घूमकर गोपनीय सूचनाओं को सम्राट तक पहुँचाते थे. बिन्दुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बिन्दुसार ‘अमित्रघाक’ उपाधि धारण कर 297 ई.पू. में सिंहासन पर आसीन हुआ. यूनानी लेखकों ने उसे अमित्रोचेडस अलित्रोचेडस आदि नाम से पुकारा है. पिता से प्राप्त से प्राप्त साम्राज्य को बिन्दुसार ने सुव्यवस्थित एवं संगठित बनाए रखा, उसके दरबार में सेल्युकस के उत्तराधिकारी एण्टीको अस का दूत ‘डेईमेकस’ तथा मिस्र के शासक टोलेमी का दूत ‘डायोनीसियस’ रहता था. उसके काल में, तक्षशिला में विद्रोह हुआ था जिसका दमन अशोक ने किया था. कुछ विद्वानों का मत है कि दक्षिण भारत को बिन्दुसार ने ही विजित किया था, परन्तु अधिकांश विद्वान् इस मत से सहमत नहीं हैं. 272 ई. पू. में बिन्दुसार की मृत्यु हुई. इसके पश्चात् अशोक उसका उत्तराधिकारी बना
                            शासक मौर्यवंश शासनकाल
  1. चन्द्रगुप्त मौर्य
  1. बिन्दुसार
  1. अशोक
  1. अशोक के उत्तराधिकारी 332-185 ई.पू. जालौक, सम्प्रति, दशरथ बृहस्पति (शालि शूक)
                                 अशोक
अशोक विश्व के महानतम् सम्राटों में से एक था 296 ई.पू. में वह सिंहासन पर आसीन हुआ उसके अभिलेखों में उसे ‘देवानाम्प्रिय’ तथा ‘प्रियदर्शी’ कहा गया है. कलिंग युद्ध इसके शासनकाल की महान् घटना थी. कलिंग युद्ध में भीषण नरसंहार देखकर अशोक द्रवित हो उठा. उसने प्रतिज्ञा की वह अब कभी युद्ध नहीं करेगा, उसने ब्राह्मण धर्म के स्थान पर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया उसने 232 ई.पू. तक शासन किया. बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया. लोक कल्याणकारी कार्य किए धर्म प्रचार के लिए अशोक ने निम्नलिखित उपाय किए-
(1) धम्म नीति का पालन किया.
(2) मठों का निर्माण तथा उनको उदारतापूर्वक अनुदान.
(3) धर्म यात्राएं.
(4) पशु-वध निषेध.
(5) धर्म महामात्रों की नियुक्ति.
(6) तीसरी बौद्ध संगीति का आयोजन.
(7) धर्म प्रचारकों द्वारा विदेश में प्रचार.
(8) दान व्यवस्था,
(9) शिलालेखों द्वारा धर्म प्रचार.
(10) लोक-कल्याणकारी कार्य.
(11) धार्मिक पथ प्रदर्शन.
(12) सत्य आचरण पर बल
                            अशोक के अभिलेख
अशोक के अभिलेखों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है-
(1) शिलालेख,
(2) स्तम्भ लेख
(3) गुहा लेख, बी. ए. स्मिथ के अनुसार इन लेखों को आठ भागों में बाँटा गया है- दो लघु शिलालेख
दोनों लघु शिलालेखों को 258 ई.पू. में खुदवाया गया था. प्रथम प्रकार के शिलालेख से अशोक के व्यक्तिगत जीवन की तथा द्वितीय प्रकार के शिलालेख से धर्म के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है. प्रथम प्रकार के शिलालेख सहसराम (बिहार), बैराट (राजस्थान), मस्की गवीमठ, पल्कीगुंडू चेरागुड़ी में तथा द्वितीय प्रकार का शिलालेख सिद्धपुर (मैसूर), जतिंग, रामेश्वर तथा ब्रह्मगिरि में पाया गया है. भट्ट शिलालेख
यह राजस्थान स्थित बैराट नामक स्थान से उपलब्ध हुआ है. इसमें अशोक के बौद्ध धर्म के अनुयायी होने का स्पष्ट प्रमाण है. चौदह शिलालेख इनमें तेरहवाँ शिलालेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. इसमें अशोक के हृदय परिवर्तन का उल्लेख मिलता है.
                                                                    गुफा लेख
अंकित गुफा लेखों की संख्या तीन है. ये लेख बिहार स्थित गया के समीप ‘बराबर की पहाड़ियों में स्थित चार गुफाओं में से तीन की दीवारों पर अंकित हैं. इन लेखों से धार्मिक सहिष्णुता की जानकारी प्राप्त होती है. तराई स्तम्भ लेख इनकी संख्या दो है. ये लेख नेपाल की तराई में स्थित रूम्भिन देई’ तथा निग्लीवा में पाए गए हैं. इनसे ज्ञात होता है कि अशोक ने बुद्ध के जीवन सम्बन्धित पवित्र स्थानों की यात्रा की थी.
                                  सात स्तम्भ लेख
ये लेख भारत के 6 स्थानों से प्राप्त हुए हैं-ये प्राप्त लेख हैं-
(1) दिल्ली टोपरा स्तम्भ लेख (2) मेरठ- दिल्ली स्तम्भ लेख (3) इलाहाबाद स्तम्भ लेख (4) लौरिया अरराज स्तम्भ लेख, (5) लौरिया-नंदनगढ़ स्तम्भ लेख (6) रामपुरवा स्तम्भ लेख. लघु स्तम्भ लेख
ये लेख एक प्रकार के राज्यादेश हैं. इनमें से दो सांची एवं सारनाथ के स्तम्भों पर खुदे हुए हैं तथा दो प्रयाग में हैं.
अशोक का धम्म- मूलभूत सिद्धान्त 1. संयम अथवा इन्द्रियों पर नियंत्रण 2. भावशुद्धि अथवा विचारों की पवित्रता 3. कृतज्ञता  4. दृढ भक्ति  5. दया  6. शौच अथवा पवित्रता 7. सत्य 8. सुश्रुता सेवा 9. दान
  1. सम्प्रत्तिपत्ति अथवा सहायता करना 11. अपिचित्ति अथवा आदर
सुशर्मा कण्व के सेनापति सिमुक ने 27 ई.पू. में सुशर्मा कण्व का वध कर सातवाहन वंश की नींव डाली. पुराणों के अनुसार सातवाहन और आंध्र एक ही थे. प्रारम्भ में वे दक्षिण के निवासी थे कुछ विद्वानों के अनुसार इनका मूल स्थान बेलोरी जिले के आसपास था. बाद में इन्होंने आंध्र प्रदेश को विजित किया. चूँकि उनका अपने मूल निवास पर से अधिकार समाप्त हो गया. अतः वे अपने को आंध्र कहने लगे. नासिक लेख से ज्ञात होता है कि ये लोग भी ब्राह्मण वंश के थे सिमुक, शातकर्णी, गोमती पुत्र शातकर्णी, वसिष्ठीपुत्र, पुलुमावी तथा यज्ञश्री शातकर्णी इस वंश के प्रमुख शासक हुए जिन्होंने लगभग 250 ई. तक शासन किया
अशोक की मृत्यु के पश्चात् मौर्य साम्राज्य में अनेक शासक हुए, किन्तु कोई भी शासक योग्य नहीं था परिणामस्वरूप मौर्य साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया. शुंग वंश पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य सम्राट ब्रहद्रथ की हत्या कर शुंग वंश की नींव डाली. पुष्यमित्र के शासनकाल की प्रमुख घटना विदर्भ से युद्ध था. विदर्भ के शासक यज्ञसेन ने युद्ध में पराजित होने के पश्चात् आत्मसमर्पण कर पुष्यमित्र की अधीनता स्वीकार कर ली. विदर्भ राज्य यज्ञसेन और माधवसेन को बाँट दिया गया. पुष्यमित्र ने अपने शासनकाल में यवनों के आक्रमण का सामना किया और उनको मध्य देश से निकालकर सिन्धु के किनारे तक खदेड़ दिया. अयोध्या अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने अपने शासनकाल में दो अश्वमेध यज्ञ किए तथा 36 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन किया. ब्राह्मण धर्म की उन्नति की. कला को संरक्षण प्रदान किया. साहित्य का विकास किया. रामायण, महाभारत, मनुस्मृति की रचना इसी काल में हुई. पुष्यमित्र के पश्चात् शुंग शासकों ने लगभग 75 वर्ष तक शासन किया.
 
  • मौर्य साम्राज्य की स्थापना में विष्णुगुप्त अथवा चाणक्य, जोकि जाति से ब्राह्मण था, का अभूतपूर्व योगदान था. • चन्द्रगुप्त मौर्य को यूनानी लेखों में ‘सैण्ड्रोकोटस’ (Sandrocottus) कहा गया है.
  • एपिअन और प्लूटार्क ने चन्द्रगुप्त मौर्य को ने ऐण्ड्रोकोटस (Androcottus) कहा है. • विशाखदत्तकृत मुद्रा राक्षस में चन्द्रगुप्त मौर्य को चन्द्रसिरि अथवा चन्द्रश्री कहा गया है. • बौद्ध साहित्य में महावंश टीका ग्रन्थ चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी पर सर्वाधिक प्रकाश डालता है,
  • ‘इण्डिका’ मैगस्थनीज द्वारा लिखी गयी थी. • बौद्ध साहित्य के महावंश ग्रन्थ में चन्द्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय जाति का बताया गया है. • युद्ध में पराजित होने के पश्चात् सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को गडरोसिया (बिलोचिस्तान). अंर्कोसिया (कन्धार), एरिया (हिरात) तथा हिंदुकुश का कुछ भाग प्रदान किया. • जूनागढ़ स्थित सुदर्शन झील का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य ने कराया था.
महास्थान अभिलेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का बंगाल पर आधिपत्य था.
  • रुद्रदमन के गिरनार अभिलेख से प्रमाणित होता है कि सौराष्ट्र का प्रदेश चन्द्रगुप्त मौर्य के अधिकार में था. • जैन ग्रन्थों के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम दिनों में चन्द्रगुप्त मौर्य जैन धर्म स्वीकार कर जैन भिक्षु भद्रबाहु के साथ मैसूर चला गया था.
चन्द्रगुप्त मौर्य की साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मैसूर तक पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में हिरात, काबुल, कधार, बलूचिस्तान तक विस्तृत था, पंजाब, सिन्ध कश्मीर, गंगा-यमुना का दोआब, मगध, बंगाल, मालवा, सौराष्ट्र तथा दक्षिणी भारत में मैसूर का भू-भाग सम्मिलित था
चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन प्रणाली राज तन्त्रात्मक थी. शासनतन्त्र को सुचारु रूप से चलाने के लिए चन्द्रगुप्त ने एक मंत्रिपरिषद् नियुक्त की थी.
व्यापार सम्बन्धी करों को एकत्र करने वाले व्यक्ति को मौर्य काल में ‘शुल्काध्यक्ष’ कहा जाता था.
* मौर्य काल में न्यायालय मुख्यतः दो प्रकार के थे धर्मस्वी कंटकशोधना धर्मस्थीय ‘दीवानी’ तथा कटकशोधन ‘फौजदारी थे। * गुप्तचरों को अर्थशास्त्र में ‘गूढ़ पुरुष’ कहा गया है। * अर्थ दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख मिलता है- ‘संस्था’ अर्थात पर रहने वाले तथा ‘संचरा’ अर्थात प्रत्येक स्थान पर भ्रमण करने एक ही। (वा (वेश आव था,
*मेगस्थनीज की ‘इंडिका’ में पाटलिपुत्र के नगर प्रशासन क मिलता है। इसके अनुसार, पाटलिपुत्र नगर का प्रशासन 30 सदस्य समितियों द्वारा होता था। * इसकी कुल 6 समितियां होती थीं तथा (धा अनु समिति में 5 सदस्य होते थे। तीसरी समिति जनगणना का हिस बहु थी। वर्तमान में भी यह कार्य नगरपालिका प्रशासन द्वारा किया * छठीं समिति का कार्य बिक्री कर वसूल करना था। * विक्रय कर दसवें भाग के रूप में वसूल किया जाता था। करों की चोरी क को मृत्युदंड दिया जाता था। *वह नगर के पदाधिकारियों को एस्टि K कहता है। 户
बन
*मेगस्थनीज, सेल्यूकस निकेटर’ द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य की। सभा में भेजा गया यूनानी राजदूत था, * मौर्य युग में नगरों का पा नगरपालिकाओं द्वारा चलाया जाता था। जिसका प्रमुख ‘नागरक’ या पुर था। * मेगस्थनीज ने तत्कालीन भारतीय समाज को सात श्रेणियों में कि किया है, जो इस प्रकार हैं- (1) दार्शनिक, (2) कृषक, (3) पशुपाल कारीगर, (5) योद्धा, (6) निरीक्षक एवं (7) मंत्री। *मेगस्थनीज म समाज में दास प्रथा के प्रचलित होने का उल्लेख नहीं करता है।’
अनुसार, मौर्य काल में कोई भी व्यतितो अपनी जाति से बाहर विवाह भन् कर सकता था और न ही उससे भिन्न पेशा ही अपना सकता था। *इतिहासकार स्मिथ के अनुसार, हिंदुकुश पर्वत भारत की वैज्ञानिक है सीमा थी। अशोक के अभिलेखों में मौर्य साम्राज्य के 5 प्रांतो के नाम मिलते हैं-
प्रांत
उत्तरापथ
अवतिर
राजधानी तक्षशिला
तोसली
कलिंग दक्षिणापथ
सुवर्णगिरि
पाटलिपुत्र
*भाग एवं बलि प्राचीन भारत में राजस्व के स्रोत थे। अर्थशास्त्र से ज्ञात
प्राच्य या पूर्वी प्रदेश
होता है कि राजा भूमि का मालिक होता था, वह भूमि से उत्पन्न उत्पादन के एक भाग का अधिकारी था। इस कर को ‘भाग’ कहते थे। इसी प्रकार ‘बलि’ भी राजस्व का स्रोत था।
* मौर्य मंत्रिपरिषद में राजस्व एकत्र करने का कार्य समाहर्ता के द्वारा
किया जाता था। * अंतपाल सीमा रक्षक या सीमावर्ती दुर्गों की देखभाल करता
था, जबकि प्रदेष्टा विषयों या कमिशनरियों का प्रशासक था।
* उपर्युक्त पदाधिकारियों के अतिरिक्त अन्य पदाधिकारी है- पण्याध्यक्ष (वाणिज्य का अध्यक्ष), सुराध्यक्ष, सूनाध्यक्ष (बूचड़खाने का अध्यक्ष), गणिकाध्यक्ष ( वेश्याओं का निरीक्षक ), सीताध्यक्ष (राजकीय कृषि विभाग का अध्यक्ष ). आकाराध्यक्ष (खानों का अध्यक्ष), लक्षणाध्यक्ष (छापे खाने का अध्यक्ष), लोहाध्यक्ष (धातु विभाग का अध्यक्ष) तथा नवाध्यक्ष (जहाजरानी विभाग का अध्यक्ष ) । * अर्थशास्त्र में पति द्वारा परित्यक्त पत्नी के लिए विवाह-विच्छेद की
अनुमति दी गई है। * मौर्यकालीन समाज में तलाक की प्रथा थी। * पति के
बहुत समय तक विदेश में रहने या उसके शरीर में दोष होने पर पत्नी
उसका त्याग कर सकती थी। इसी प्रकार पत्नी के व्याभिचारिणी होने या
बन्ध्या होने जैसी दशाओं में पति उसका त्याग कर सकने का अधिकारी था।
* विदेशियों को भारतीय समाज में मनु द्वारा व्रात्य क्षत्रिय (Fallen Kshatriyas) का सामाजिक स्तर दिया गया था। * सारनाथ स्तंभ का निर्माण अशोक ने कराया था। * इस स्तंभ के शीर्ष पर सिंह की आकृति बनी है, जो शक्ति का प्रतीक है। *इस प्रतिकृति को भारत सरकार ने अपने प्रतीक चिह्न के रूप में लिया है। *मौर्ययुगीन सभी स्तंभ चुनार के बलुआ पत्थरों से निर्मित हैं।
* स्थापत्य कला के दृष्टिकोण से सांची के स्तूप को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। *सांची म.प्र. के रायसेन जिले में स्थित है। *इसका निर्माण अशोक ने कराया था। * इस स्तूप का आरंभिक काल तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व था * जबकि भरहुत का स्तूप म.प्र. के सतना जिले में स्थित है। *सांची तथ
भरहुत के स्तूपों की खोज एलेक्जेंडर कनिंघम ने की थी। * अमरावती का स्तूप आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में कृष्णा नदी के दाहिने तट पर स्थित है, कर्नल कॉलिन मैकेंजी ने 1797 ई. में इस स्तूप का पता लगाया था। * सारनाथ का धमेख स्तूप गुप्तकालीन है, जो बिना आधार के समतल भूमि पर बनाया गया है।
* बिहार में पटना (पाटलिपुत्र) के समीप बुलंदीबाग एवं कुग्रहार में की गई खुदाई से मौर्य काल के लकड़ी के विशाल भवनों के अवशेष प्रकाश में आए हैं। * इन्हें प्रकाश में लाने का श्रेय स्पूनर महोदय को है। *बुलंदीबाग से नगर के परकोटे के अवशेष तथा कुप्रहार से राजप्रासाद के अवशेष प्राप्त हुए हैं। * बुलंदीबाग, पाटलिपुत्र का प्राचीन स्थान था। *जिस महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने 184 ई. पू. में अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या करके शुंग राजवंश की स्थापना की, वह इतिहास में पुष्यमित्र शुंग के नाम से विख्यात है।
* ई.पू. की कुछ शताब्दियों में चंद्रगुप्त मौर्य एवं अशोक ने गिरनार क्षेत्र में जल संसाधन व्यवस्था की ओर ध्यान दिया। *उस क्षेत्र में चंद्रगुप्त मौर्य ने सुदर्शन झील खुदवाई तथा अशोक ने ई.पू. तीसरी शताब्दी में इससे नहरें निकाली। *शक क्षत्रप रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में इन दोनों के कार्यों का वर्णन है। * जूनागढ़ के शासक रुद्रदामन ने इस झील की मरम्मत कराई थी।
महाभारत के भीष्म पर्व में सर्वप्रथम भागवत धर्म का उल्लेख किया गया है, • द्रविड़ वैष्णव भक्तों को अलवार कहा जाता है.
  • राजकीय व्यवसायों के विभाग के अध्यक्ष को मौर्यकाल में ‘सूत्राध्यक्ष’ के नाम से जाना जाता था.
  • माप-तौल के देखरेख करने वाले माप-तौल विभाग के अधिकारी को मौर्यकाल में पीतवाध्यक्ष के नाम से जाना जाता था.
  • मौर्यकाल में शराब के निर्माण, क्रय-विक्रय, प्रयोग आदि पर नियन्त्रण रखने वाले अधिकारी को सुराध्यक्ष कहा जाता था.
  • मौर्य काल में कृषि विभाग के अध्यक्ष को सीताध्यक्ष कहा जाता था. गणिकाध्यक्ष, मुद्राध्यक्ष, नावाध्यक्ष, अश्वाध्यक्ष, देवताध्यक्ष आदि अनेक मौर्यकालीन अधिकारी थे.
  • राज्य की आय-व्यय का सम्पूर्ण ब्यौरा रखने वाले तथा राज्य की आर्थिक नीति का निर्धारण करने वाले अधिकारी को ‘सन्निधाता’ कहा जाता था. कोषाध्यक्ष तथा शुल्काध्यक्ष पदाधिकारी इसके अधीन होते थे. आदि मौर्यकाल में कारखानों तथा खानों के मंत्री को ‘कार्मान्तिरक’ कहा जाता था, इसका मुख्य कार्य खानों से धातु निकलवाना तथा कारखानों की देखभाल करना था. मौर्यकाल में फौजदारी न्यायालय के आमात्य को ‘प्रदेष्टा’ कहा जाता था.
  • दीवानी न्यायालयों के आमात्य को व्यावहारिक कहा जाता था.
  • यूनानी लेखकों ने आमात्य का वर्णन सातवीं जाति के रूप में किया है.
  • अधिकांश पुराणों तथा सिंहली बौद्धग्रन्थ दीपवंश तथा महावंश में चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी को बिन्दुसार के नाम से ही पुकारा गया, वायु पुराण में इसका नाम ‘भद्रासार मिलता है. कुछ पुराणों में इसे “वारिसार’ कहकर भी पुकारा गया है, चीनी ग्रन्थ फा- युएन चु-लिन में इसे ‘बिन्दुपाल’ कहा गया है, राजवलिकथा में चन्द्रगुप्त मौर्य के उत्तराधिकारी पुत्र का नाम सिंहासेन दिया है.
मिस के शासक ‘टालेमी’ ने ‘डायोनियस’ (Dionysios) को अपना राजदूत बनाकर बिन्दुसार के दरबार में भेजा था चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में नगर का मुखिया ‘नगराध्यक्ष’ कहलाता था. जो आधुनिक जिलाधीश की भाँति कार्य करता था.
  • शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम था. इसका मुखिया ग्रामिक’ अथवा ‘ग्रामणी कहलाता था. ‘ग्रामाणी का चुनाव ग्राम की जनता द्वारा किया जाता था प्रत्येक गाँव में एक अधिकारी होता था, जिसे ‘ग्राम भोजक’ कहते थे. चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध में गुप्तचर विभाग पूर्णतः संगठित एवं व्यवस्थित था
कौटिल्य के अनुसार गुप्तचरों के दो वर्ग थे- (1) संस्थान, (2) संचारण.
  • अभिलेखों में अशोक को ‘देवनाम्प्रिय’ तथा ‘प्रियदर्शी’ कहा गया है.
सिहली ग्रन्थ दीपवंश में उसे प्रियदर्शन तथा ‘प्रियदर्शी कहा गया है अनेक विद्वानों का मत है कि ‘प्रियदर्शन’ तथा ‘प्रियदर्शी’ अशोक की उपाधियाँ थीं.
  • अशोक ने साम्राज्य के प्रत्येक जिले तथा नगर में ‘महामात्रों’ की नियुक्ति की थी. अशोक ने अपने शासन के तेरहवें वर्ष में पहली बार अपनी प्रजा की सुख-शान्ति के लिए धर्ममहामात्र तथा धर्मयुक्तों की नियुक्ति की थी.
‘उपगुप्त’ मथुरा का एक बौद्ध भिक्षु था.. जिसके प्रभाव से अशोक का धर्म परिवर्तित हुआ.
  • अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए अपने पुत्र महेन्द्र’ तथा पुत्री ‘संघमित्रा’ को श्रीलंका भेजा.
लघु शिलालेख में अशोक ने अपने को ‘बुद्ध शाक्य कहा है.
  • अशोक ने मज्झान्तिक को कश्मीर एवं गांधार में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए भेजा था.
  • 1750 में टीफेन्लर (Teffenthaler) ने सर्वप्रथम दिल्ली में अशोक स्तम्भ का पता लगाया था.
  • अशोक के अन्तिम शिलालेख की खोज बीडन महोदय (Beadon) ने सन् 1915 ई. में मास्की में की थी.
  • अशोक के लघु शिलालेख दो प्रकार के हैं. डॉ. स्मिथ के अनुसार ये 259-232 ई. पू. में लिखे गये थे. अशोक के प्रथम प्रकार के लघु शिलालेख रूपनाथ (जबलपुर जिला म. प्र.), सहसराम (बिहार राज्य का शाहबाद जिला), मस्की (रायचूर जिला) बैराट (राजस्थान) में उपलब्ध हैं.
  • अशोक के द्वितीय प्रकार के लघु शिलालेख र सिद्धपुर (चित्रलहुग मैसूर) जतिग, रामेश्वर और ब्रह्मगिरि नामक स्थानों पर पाए गए हैं • भबू शिलालेख राजस्थान में जयपुर के क निकट बैराठ अथवा वैराट नामक स्थान से उपलब्ध हुआ है. इस शिलालेख में बौद्ध धर्म के सात ऐसे उदाहरण दिए गए हैं जो अशोक को बहुत प्रिय थे और वह चाहता था कि प्रजा उनको पढ़कर उनके अनुसार आचरण करे यह शिलालेख कोलकाता संग्रहालय में सुरक्षित है. दो कलिंग शिलालेख धौली एवं जौगढ़ नामक स्थानों पर स्थापित किए गए थे. इसमें उन सिद्धान्तों की चर्चा की गई है, जिनके अनुसार कलिंग एवं अन्य सीमान्त प्रदेशों के लोगों के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए. ● अशोक के लघु शिला लेख लगभग 15 स्थानों से प्राप्त हुए हैं.
मौर्योत्तर काल
नोट्स
* रुद्रदामन (130-150 ई.) का जूनागढ़ अभिलेख गुजरात में गिरनार पर्वत पर प्राप्त हुआ है। * ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण संस्कृत भाषा का यह अभिलेख अब तक प्राप्त संस्कृत अभिलेखों में सर्वाधिक प्राचीन है। * इस अभिलेख में संस्कृत ‘काव्य शैली’ का प्राचीनतम नमूना प्राप्त होता है। * इसमें रुद्रदामन की वंशावली, विजयों, शासन, व्यक्तित्व आदि पर सुंदर प्रकाश डाला गया है। * इस अभिलेख का मुख्य उद्देश्य सुदर्शन झील के बांध के पुनर्निर्माण का विवरण सुरक्षित रखना था। स
* कुजुल कडफिसेस (लगभग 45-85 ई.) ने भारत में सर्वप्रथम पश्चिमोत्तर प्रदेश पर अधिकार कर लिया। *इसने केवल तांबे के सिक्के जारी किए। उसके सिक्कों पर ‘धर्मथिदस’ तथा ‘धर्मथित’ (धर्म में स्थित ) उत्कीर्ण हैं। *सर्वप्रथम विम कडफिसेस के काल में ही भारत में कुषाण सत्ता स्थापित हुई थी। विम कडफिसेस ने स्वर्ण एवं तांबे के सिक्के चलाए थे। *शिव, त्रिशूल तथा नंदी की आकृति इसके सिक्कों पर मिलती हैं। * इसने ‘महेश्वर’ नामक उपाधि धारण की थी ।
* उत्तर-पश्चिम भारत में स्वर्ण सिक्कों का प्रचलन इंडो-ग्रीक (हिंदयवन) राजाओं ने करवाया था। *जबकि इन्हें नियमित एवं पूर्णरूप से प्रचलित करवाने का श्रेय कुषाण शासकों को जाता है। *कुषाण शासकों ने स्वर्ण एवं ताम्र दोनों ही प्रकार के सिक्कों को व्यापक पैमाने पर प्रचलित किया था। *कुषाण शासकों में विम कडफिसेस ने सर्वप्रथम सोने के सिक्के जारी किए थे।
 * कुषाण शासक कनिष्क के सिक्कों पर बुद्ध का अंकन मिलता है। * यौधेयों का प्रमाण पुराण, अष्टाध्यायी तथा वृहत्संहिता इत्यादि ग्रंथों से प्राप्त होता है। * इनका साम्राज्य दक्षिण-पूर्वी पंजाब तथा राजस्थान के बीच था। * इनके सिक्कों पर कार्तिकेय का अंकन मिलता है।
*कनिष्क के सारनाथ बौद्ध अभिलेख की तिथि 81 ई है। यह प्रतिमा मथुरा से लाकर कनिष्क के राज्यारोहण (78 ई.) के तीसरे वर्ष सारनाथ में स्थापित की गई थी। कनिष्क के रबतक अभिलेख में चार शहरों के नाम का उल्लेख मिलता है। *ये हैं- साकेत, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र तथा चम्पा *जैन ग्रंथों के अनुसार, विक्रमादित्य (57 ई.पू.) के उत्तराधिकारी को 135 विक्रम संवत् में शकों ने पराजित कर इसके उपलक्ष्य में शक संवत् चलाया था। इस प्रकार इसकी प्रारंभिक तिथि 1355778 ई. आती। अधिकांश इतिहासकारों ने कुषाण शासक कनिष्क को इसका प्रवर्तक माना है।
*वर्तमान में तिथि एवं वर्ष के लिए प्रेगेरियन कैलेंडर का प्रयोग किया जाता है, जो विश्वव्यापी है। वर्तमान कैलेंडर से 57 जोड़ देने पर विक्रम संवत् (प्रारंभ 57 ई.पू.) तथा 78 घटा देने पर शक संवत् (प्रारंभ 78 ई.) प्राप्त होता है। चैत्र भारतीय राष्ट्रीय पंचांग का प्रथम माह होता है। *विक्रम संवत् के दो अन्य नाम भी मिलते हैं-कृत संवत् तथा मालव संवत्
* भारत में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में शक संवत् को अपनाया गया है। * अश्वघोष कनिष्क के राजकवि थे। *सौंदरानंद, बुद्धचरित तथा सारिपुत्रप्रकरण उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। “वसुमित्र भी कनिष्क के आश्रित विद्वान थे, इन्होंने चतुर्थ बौद्ध संगीति की अध्यक्षता भी की थी। अश्वघोष, नागार्जुन, पार्श्व तथा चरक ये चारों ही कनिष्क के दरबार से संबंधित थे। *पतंजलि ने पाणिनी की अष्टाध्यायी पर महामाध्य की रचना की थी।
* महर्षि पतंजलि शुंगकालीन विद्वान थे तथा इन्होंने ऐसे लोगों को शिष्य
बनाया था, जो बिना किसी अध्ययन के ही संस्कृत बोल लेते थे।
* कुषाण वंश के साम्राज्य की सीमाएं भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर तक फैली थीं। इस वंश का महान शासक कनिष्क था, जिसकी सीमाएं उत्तर में चीन के तुरफान एवं कश्मीर से लेकर दक्षिण में विध्य पर्वत तथा पश्चिम में उत्तरी अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में पूर्वी उ.प्र. एवं बिहार तक विस्तृत थीं।
* पेरीप्लस ऑफ द एरीथ्रियन सी और अरिकामेडु में हुई खुदाई से ऐसे अनेक बंदरगाहों और व्यापारिक केंद्रों की उपस्थिति के साक्ष्य मिले हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि कुषाणों का व्यापार पश्चिमी विश्व ● से फारस की खाड़ी और लाल सागर के जलमार्ग से होता था। *इन सभी साक्ष्यों में किसी में भी कुषाणों की सशक्त नौसेना की उपस्थिति का उल्लेख नहीं मिलता है।
कुषाण शासक कनिष्क के काल में कला क्षेत्र में दो स्वतंत्र शैलियों का विकास हुआ – (1) गांधार शैली एवं (2) मथुरा शैली। भारतीय और यूनानी आकृति की सम्मिश्रण शैली गांधार शैली है। इस कला शैली के प्रमुख संरक्षक शक एवं कुषाण थे। इस कला का विषय मात्र बौद्ध होने के के कारण इसे ‘यूनानी-बौद्ध’ (Greeco Buddhist ), इंडो-ग्रीक (Indo- Greek) या ग्रीको-रोमन (Greeco Roman) भी कहा जाता है। गांधार ना कला में सदैव हरित स्तरित या शिस्ट चट्टान का प्रयोग ही मूर्तियां बनाने के में लिए किया जाता था। * अफगानिस्तान का बामियान, पहाड़ियों को काटकर म बनवाई गई बुद्ध प्रतिमाओं के लिए प्रसिद्ध था लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान शासन ने इन बुद्ध प्रतिमाओं को नष्ट करवा दिया। * कुषाणकाल ( प्रथम शती ई.) में बाल विवाह की प्रथा प्रारंभ हुई को थी।
 *स्त्रियों में उपनयन की समाप्ति तथा बाल विवाह के प्रचलन ने उसे ती समाज में अत्यंत निम्न स्थिति में ला दिया।
*भारत में बाह्य आक्रामक के काल काम है-यूनानी
(326 ई.पू. सिकंदर महान), शक (प्रथम शताब्दी ई.पू.) कुषाण (पहली शताब्दी ई.)। ईरानी शासक डेरियस प्रथम (522-486 ई. पू.) ने सर्वप्रथम भारत कुछ भाग को अपने अधीन किया था। ‘हेरोडोटस के अनुसार, डेरियस प्रथम के साम्राज्य में संपूर्ण सिंधु घाटी का प्रदेश शामिल था तथा पूर्व की और इसका विस्तार राजपूताना के रेगिस्तान तक था। *मिनाण्डर तथा उसके पुत्र स्टैटो प्रथम के सिक्के मथुरा से मिले है।
स्ट्रैटो ॥ ने सीसे के सिक्के जारी किए थे। इस हिंद-यवन शासक का शासन 25 ई.पू. से 10 ईस्वी तक माना जाता है। *184 ई.पू. | पुष्यमित्र शुंग ने अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या करके शुंग राजवंश की स्थापना की। पुराणों के अनुसार, पुष्यमित्र ने 36 वर्षो तक शासन किया। महर्षि पाणिनी ने ‘शुंग वंश को भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मण बताया है। अयोध्या के लेख से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र ने दो अश्वमेध यज्ञ किए थे। पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे। शुग वंश का 9वां शासक भागवत अथवा भागभद्र था। इसके शासनकाल मे तक्षशिला के यवन नरेश एटियालकीड्स का राजदूत हेलियोडोरस उसके विदिशा राजदरबार में उपस्थित हुआ था। *हेलियोडोरस ने भागवत धर्म ग्रहण किया तथा विदिशा (बेसनगर) मे गरुड़-स्तंभ की स्थापना कर भागवत विष्णु की पूजा की।
*शुंग वंश का अंतिम राजा देवभूति (देवभूमि) अपने आमात्य वासुदेव के षड्यंत्रों द्वारा मार डाला गया। *वासुदेव ने जिस नवीन राजवंश की नींव डाली, वह ‘कण्व’ या ‘कण्वायन’ नाम से जाना जाता है। * मौर्योों के बाद दक्षिण भारत में सबसे प्रभावशाली राज्य सातवाहनों का था।
* पुराणों में इस वंश के संस्थापक का नाम सिंधुक, सिमुक या शिप्रक दिया गया है, जिसने कण्व वंश के राजा सुशर्मा का वध करके अपना शासन स्थापित किया था।
* पुराणों में कुल तीस या इकतीस सातवाहन राजाओं के नाम मिलते हैं, जिनमें से सबसे लंबी सूची मत्स्य पुराण में 29 राजाओं की मिलती है। * सातवाहनों की वास्तविक राजधानी प्रतिष्ठान या पैठन में अवस्थित थी। * पुराणों में इस राजवंश को आंध्रभृत्य या आंध्र जातीय कहा गया है। *उनकी आरंभिक राजधानी अमरावती मानी जाती है। पुराणों के अनुसार, कृष्ण का पुत्र एवं उत्तराधिकारी शातकर्णि प्रथम सातवाहन वंश का शातकर्णि उपाधि धारण करने वाला प्रथम राजा था। * इसके शासन के बारे में हमें नागनिका के नानाघाट अभिलेख से महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
* सातवाहन शासक गौतमीपुत्र शातकर्णि ने कहा है कि उसने विछिन्न होते चातुर्वर्ण्य (चार वर्णों वाली व्यवस्था) को फिर से स्थापित किया और वर्णसंकर (वर्णों और जातियों के सम्मिश्रण) को रोका। * इसी कारण इसे वर्ण-व्यवस्था का रक्षक कहा जाता है।
 *गौतमीपुत्र शातकर्णि को नासिक अभिलेख में अद्वितीय ब्राह्मण’ (एक ब्राह्मण) तथा ‘वेदों का आश्रय’ कहा गया है तथा ‘खतीय दप मनमदा’ अर्थात क्षत्रियों के दर्प का मर्दन वाला कहा गया है। *वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी को ‘दक्षिणापथेश्वर’ है। दो पतवारों वाले जहाज’ का चित्र उसके कुछ सिक्कों है। *इस वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक यज्ञ श्री शातकीण था। पर बना * कलिंग के चेदि वंश का संस्थापक महामेघवाहन था।
चेदिवंशीय शासक खारवेल प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम में से एक था। * उड़ीसा (ओडिशा) प्रांत के भुवनेश्वर से तीन मील क पर स्थित उदयगिरि पहाड़ी की ‘हाथीगुम्फा’ से उसका एक बिना ि अभिलेख प्राप्त हुआ है। *इसमें खारवेल के बचपन, शिक्षा, राज्याभिषे राजा होने के बाद से तेरह वर्षों तक के शासनकाल की घटनाओं विवरण दिया हुआ है। *यह अभिलेख खारवेल का इतिहास जानने का एक का स्रोत है। * इस अभिलेख से पता चलता है कि खारवेल ने दक्षिण  राज्यों चोल, चेर एवं पाण्ड्यों को पराजित किया था। * पाण्ड्य उसने गधे से हल चलवाया था। *इसका जैन धर्म के प्रति भारी * पूर्वी रोमन शासक जस्टिनियन को सर्वाधिक प्रसिद्धि उसके झुकात संबंधी सुधारों से मिली। * जस्टिनियन रोमन कानून के संपूर्ण संशोधन लिए उत्तरदायी था।
  • एर्रगुडी शिलालेख आंध्र प्रदेश के कर्नूल जिले के एरंगुडी नामक स्थान से प्राप्त हुआ है. • मास्की लघु शिलालेख आंध्र प्रदेश के रायचूर जिले में मास्की नाम के एक गाँव से प्राप्त हुआ है. इसमें ‘अशोक’ के नाम का उल्लेख मिलता है. इसकी खोज बीडन ने 1915 में की थी
  • राजुल मण्डगिरि शिलालेख आंध्र प्रदेश में कर्नूल जिले में एर्रगुडी से लगभग 20 मील की दूरी पर एक टीले पर प्राप्त हुआ है.
  • गुर्जरा शिलालेख मध्य प्रदेश के दतिया जिले में स्थित गुर्जरा नामक गाँव से प्राप्त हुआ है. इसमें भी अशोक के नाम का उल्लेख मिलता है.
  • अहरौरा शिलालेख उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित अहरौरा गाँव की एक पहाड़ी है… पर प्राप्त हुआ है.
  • पानगोरारिया शिलालेख सन् 1975 ई. में प्राप्त हुआ है.
  • सन्नति शिलालेख कर्नाटक राज्य के गुलबर्ग जिले में स्थित सन्नति नामक गाँव से प्राप्त हुआ है.
  • गुहालेखों की संख्या तीन है यह बिहार राज्य स्थित गया नगर के निकट ‘बाराबर’ नामक पहाड़ी में हैं इसमें सम्राट द्वारा आजीविकों को दिए गए दान का उल्लेख है. • कन्धार शिलालेख की भाषा यूनानी एवं अरमाइक है.
  • टोपरा स्तम्भ लेख हरियाणा के टोपरा नामक गाँव में स्थापित किया गया था. कालान्तर में फिरोज तुगलक इसे दिल्ली ले आया. आज भी यह फिरोजशाह कोटला में स्थित है. • रुमिन्देई लघु स्तम्भ लेख नेपाल की तराई से प्राप्त हुआ है…
अशोक के अधिकांश अभिलेखों की भाषा प्राकृत है.
  • गुप्तकाल में नाव एवं जहाजों का बहुतायत में निर्माण किया जाता था. गुजरात, बंगाल
एवं तमिलनाडु वस्त्र व्यवसाय के प्रमुख केन्द्र थे.
  • गुप्तकाल से पूर्व द्वितीय शताब्दी में भारत का चीन के साथ सामुद्रिक व्यापार होता था
  • भारत के पूर्वी देशों से व्यापारिक सम्बन्ध थे इन देशों को स्वर्ण भूमि भी कहा जाता है. • पेशावर, भड़ौच, उज्जयनी, वाराणसी, प्रयाग, पाटलिपुत्र, मथुरा, वैशाली एवं ताम्रलिप्ति आदि प्रमुख बन्दरगाह थे. • पश्चिम में भड़ौच एवं पूर्व में ताम्रलिप्ति आदि प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे.
  • सोना, चाँदी, ताँबा, टिन, रेशम, कपूर, खजूर एवं घोडे आदि का आयात किया जाता था
  • उद्योगों में काम करने वाले लोगों के सामूहिक निगम को ‘कुलिक कहा जाता था. • कुलिक निगम और श्रेष्ठी निगम सम्पन्न व्यवसायियों के व्यापारिक संघ होते थे. कुलिक निगम की अपनी मुहर होती थी. वह पत्र-व्यवहार और व्यापारिक माल पर लगाई जाती थी. • गुप्तकाल में भारत के अरब से भी व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित थे. घोड़ों का अरब एवं ईरान से आयात किया जाता था. • कुलिक निगम की मुहरें इलाहाबाद के निकट मीटा नामक स्थान से प्राप्त हुई हैं.
  • वैशाली में श्रेष्ठी सार्थवाह कुलिक निगम की 274 मुहरें प्राप्त हुई हैं, जो इस बात को प्रमाणित करती हैं कि यह गुप्त युग की एक बडी व्यापारिक संस्था थी
  • ताम्रलिप्ति बंदरगाह से चीन जावा एवं सुमात्रा से व्यापार होता था.
  • गुप्तकाल में भूमि कर को उदंग कहा जाता था. • कदूर, चरपाल, आंध्र प्रदेश के बंदरगाह थे.
  • कावेरीपत्तनम तोन्दर चोल प्रदेश के बंदरगाह थे.
  • कोकई, सलिपुर पाण्ड्य प्रदेश के बंदरगाह थे.
  • कोत्रयम, मुजिरिस, मालाबा के बंदरगाह थे.
  • सिन्धु, ओरहोथ, कल्याण, मिबोर आदि अन्य प्रमुख बंदरगाह थे जिनसे व्यापार किया जाता था.
  • नकद भुगतान के रूप में अदा किए जाने वाले कर को ‘हिरण्य’ कहा जाता था. विदेशों से आयात की गई वस्तुओं पर लगाये जाने वाले कर को भूतावात प्रत्याय कर कहा जाता था.
  • जुती हुई भूमि पर दिए जाने वाले कर को ‘हाल दण्ड’ कहा जाता था. • खेती में प्रयुक्त होने वाली जमीन से पैदावार का निश्चित भाग राज्य कर के रूप में लिया जाता था. इसे भाग कर कहते थे यह प्रायः पैदावार के रूप में ही लिया जाता था.
गुप्तकाल में केवल ब्राह्मणों को भूमि दान में दी जाती थी जिन ब्राह्मणों का गाँवों पर अधिकार होता था उन्हें बह्मदेया’ कहा जाता था.
  • ब्राह्मणों के कर मुक्त गाँव को ‘अग्रहारा कहा जाता था
  • गुप्तकाल में ग्राम परिषदे सरकार के नियन्त्रण से मुक्त स्वायत्तशासी थी
  • जिस भूमि पर खेती नहीं की जाती थी उस पर राजा का अधिकार होता था.
  • जीवनपर्यन्त अध्ययनरत् रहने वाली अविवा हित महिलाओं को ‘ब्रह्मवादिनी’ कहा जाता था
  • मौर्य काल में तक्षशिला, काशी तथा उज्जैन प्रमुख शिक्षा के केन्द्र थे
  • गुप्तकालीन समाज में अन्तर्जातीय विवाह प्रचलित थे.
  • गुप्तकाल में दास प्रथा प्रचलित थी. गुप्तकालीन समाज में संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी
  • गुप्तकालीन समाज में स्त्रियों की दशा वैदिक काल की तुलना में तो श्रेष्ठ नहीं थी, किन्तु फिर भी उन्हें समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था
  • शीलभट्टारिका गुप्तकाल की शिक्षित एव योग्य महिला थी.
  • गुप्तकाल में विधवा-विवाह का भी प्रचलन था, किन्तु अनेक स्थलों पर इसके विरोध के भी वर्णन मिलते हैं चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने भाई रामगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा ध्रुव स्वामिनी के साथ विवाह किया था
  • नृत्य एवं संगीत में निपुण तथा कामशास्त्र में पारंगत सार्वजनिक महिलाओं को गणिका कहा जाता था • गुप्तकाल में व्यापारियों एवं व्यवसायियों की अपनी श्रेणियाँ थीं, पटकार तैलिक (तेली) पाषाण-कोडक (पत्थर काटने वाले) आदि प्रमुख श्रेणियाँ थी
  • स्वप्नवासवदत्ता का रचयिता सुबन्धु गुप्तकाल का प्रसिद्ध गद्य लेखक था
  • भट्टिकाव्य अथवा रावण वध के रचयिता भट्टि गुप्तकाल के प्रसिद्ध कवि थे • भर्तृहरि द्वार लिखित ‘नीतिशतक’, ‘श्रृंगार शतक एवं वैराग्यशतक प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं कुछ विद्वानों का मत है कि भर्तृहरि भट्टि
का ही दूसरा नाम है
  • ‘कुन्तलेश्वरदौत्यमृ’ नामक नाटक कालिदास को गुप्तयुगीन सिद्ध करता था • महर्षि वात्स्यायन’ द्वारा लिखित ‘कामसूत्र’ गुप्तकाल का कामशास्त्र सम्बन्धी प्रसिद्ध ग्रन्थ है
  • वैभाषिक’ तथा ‘सघभद्र’ नामक गुप्तयुगीन आचार्य वैभाषिक सम्प्रदाय के साहित्यिक ग्रन्थ के रचयिता थे
                                                       कण्व वंश
अन्तिम शुंग शासक देवभूति की हत्या कर 73 ई.पू. में वसुदेव ने कण्व वंश की स्थापना की. पुराणों के अनुसार कण्व वंश के चार राजाओं ने लगभग 45 वर्ष तक शासन किया. ये शासक थे-वसुदेव कण्व, भूमिमित्र कण्व, नारायण कण्व तथा सुशर्मा कण्व. सातवाहन वंश के संस्थापक सिमुक को सिन्धुक व सिप्तक भी कहा गया है. शक सिमुक के प्रबल प्रतिद्वन्द्वी थे. शकों ने एक समय सिमुक के महाराष्ट्र एवं पश्चिमी भारतीय साम्राज्य पर अधिकार कर लिया था, किन्तु नासिक लेख से ज्ञात होता है, गौतमी पुत्र शातकर्णी ने राजवंश की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया. गौतमी पुत्र शातकर्णी तथा उसके बाद के शासकों से शकों का संघर्ष चलता रहा यक्ष श्री शातकर्णी सातवाहन वंश का अति महत्वपूर्ण शासक था इसके पश्चात् कोई भी ऐसा योग्य शासक नहीं हुआ, जो अपने साम्राज्य को सुरक्षित रख सके सातवाहनों के शासनकाल में समाज परम्परागत चार वर्णों में विभाजित था वैष्णव व शैव धर्म का महत्व था कृषि के अतिरिक्त अन्य उद्योगों का प्रचलन था व्यवसायियों ने अपनी श्रेणियों अथवा गिल्ड बना ली थी आमात्य महामात्र तथा भण्डारगारिक इस शासनकाल के अधिकारी गम अर्थात् व्यापारी सार्थवाह अर्थात् व्यापारियों के काफिले का प्रमुख श्रेष्तिन अर्थात् व्यापार निगम का प्रमुख आदि गैर- सरकारी कर्मचारी थे यज्ञों का प्रचलन था शातकर्णी ने दो अश्वमेध यज्ञ तथा एक राजसूय यज्ञ किया साहित्य का इस युग में विकास हुआ सातवाहन काल प्राकृत भाषा के विकास का काल था ‘गाथा सप्तशतक का रचयिता ‘हाल’ इस वंश का महान् कवि एवं साहित्यकार था इसके अतिरिक्त ‘गुनाढ्य नामक कवि इस युग का महान् कवि था जिसने प्राकृत भाषा में ‘वृहत कथा’ नामक पुस्तक लिखी थी
                          कलिंग राज खारवेल’
प्राचीन भारतीय इतिहस में कलिंग राज्य का अपना अलग ही महत्व है. अशोक के दुर्बल उत्तराधिकारियों के समय कलिंग पर चेदि वंश का अधिकार हो गया था. चेदिवश के तीन शासकों में महामेघवाहन, खारवेल तथा कुदेप थे. इनमें खारवेल का नाम प्रमुख है, जिसके विषय में उदयगिरि की हाथी गुम्फा नामक गुफा शिलालेख से जानकारी प्राप्त होती है. जब खारवेल 15 वर्ष का था, तब उसे युवराज तथा जब वह 28 वर्ष का था. तब उसे राजा बनाया गया खारवेल चेदि वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक था. सम्राट बनते ही उसने विजय अभियान प्रारम्भ किया हाथी गुम्फा शिलालेख के अनुसार, प्रथम वर्ष में उसने अपनी राजधानी की मरम्मत कराई द्वितीय वर्ष में मूषिको की राजधानी ‘असिक नगर को नष्ट कर दिया. तृतीय वर्ष में नृत्य संगीत कार्यक्रमों का आयोजन कर जनता को प्रसन्न किया. पाँचवें वर्ष में अनेक सार्वजनिक कार्य किए. छठे वर्ष में पौर (नगर) तथा जनपद (राज्य) को विशेष अधिकार प्रदान किए सातवें वर्ष में उसने ‘मसूलीपट्म को विजित किया आठवें वर्ष में उसने गया के निकट बारबर की पहाड़ी में स्थित ‘गोरठगिरि के किले को नष्ट किया तथा राजग्रह पर आक्रमण किया ग्यारहवें वर्ष में पिघुद नामक शहर को नष्ट किया तेरहवें वर्ष में उसने कुमारी पहाड़ियों पर अनेक स्तम्भ बनवाए. इसके बाद का विवरण ज्ञात नहीं है, खारवेल जैन धर्म का न अनुयायी था मगध तथा अंगराज्य को 5 विजित करने के पश्चात वह वहीं से प्रथम नद राजा पहले कलिंग से ले गया था खारवेल ने जैन भिक्षुओं के लिए अनेक जैन तीर्थंकर की मूर्ति को वापस लाया जिसे गुफाओं का निर्माण कराया
मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् भारत की राजनैतिक एकता समाप्त हो गई भी यहाँ की राजनीतिक एकता समाप्त होने का पूरा पूरा लाभ विदेशी शक्तियों ने भी पुनः उठाया इन विदेशी शक्तियों में बैक्ट्रिया के यवन, पय, शक तथा कुषाण प्रमुख थे इनमें से कुछ विदेशी शक्तियों ने भारत में अपना विस्तृत साम्राज्य स्थापित कर वर्षों तक शासन किया. वास्तव में मौर्यकाल के पतन से लेकर गुप्तकाल के उदय होने तक भारत का इतिहास मुख्यतः भारत में विदेशी शासकों की साम्राज्यवादिता का इतिहास है.
बैक्ट्रिया के शासक सेल्यूकस द्वारा स्थापित पश्चिमी तथा मध्य एशिया के विशाल साम्राज्य को उसके उत्तराधिकारी ऐन्टिओकस प्रथम ने अक्षुण बनाए रखा, किन्तु इसके पश्चात् ऐन्टिओकस द्वितीय शासक बना, जोकि अत्यन्त ही अयोग्य था, परिणामस्वरूप विद्रोह हुए और अनेक प्रांत स्वतन्त्र हो गए इनमें बैक्ट्रिया तथा पार्थिया साम्राज्य प्रमुख थे बैक्ट्रिया के विद्रोह का नेतृत्व डियोडोट्स प्रथम ने किया था. डियोडोट्स प्रथम के पश्चात् डियोडोट्स द्वितीय सिंहासन पर आसीन हुआ, इसके पश्चात् यूथिडेमस डेमिट्रियस, मिनेण्डर, यूक्रेटाइडस एण्टी आलकीडस तथा हर्मिक्स शासक हुए
यूनानी सम्राटों में डेमिट्रियस ने 190 ई.पू. में भारत पर आक्रमण कर अफगानि स्तान, पंजाब तथा सिंध के अधिकांश भाग पर अधिकार कर लिया. इसके पश्चात् 160 ई.पू. से 140 ई.पू. तक मिनेण्डर ने शासन किया. बौद्ध धर्म में अपार विश्वास रखने के कारण वह भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध रहा मिलिन्दपन्हो नामक पाली ग्रन्थ में उसे महान् दार्शनिक बताया गया है. मिनेण्डर के पश्चात् आयोग्य उत्तराधिकारियों ने भारत पर शासन किया परिणामस्वरूप धीरे-धीरे इनका प्रभाव कम होने लगा और शकों का प्रभाव बढ़ने लगा पार्थिया के शासक
बैक्ट्रिया के शासकों द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने के पश्चात् पार्थिया के शासकों ने भारत पर आक्रमण कर यहाँ के विशाल-भू-भाग पर अधिकार कर लिया गोंडाफरनीज पार्थिया का अन्तिम महान्
तक राज्य किया, अनेक विद्वानों का मत है। ई कि उसके शासनकाल में सेन्ट टामस ईसाई ने धर्म का प्रचार करने के लिए भारत आया। था, किन्तु बी.ए. स्मिथ ने इस मत को स्वीकार नहीं किया है. गोडोफरनीज की मृत्यु के साथ ही भारत में पार्थिया साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया. कालान्तर में कुषाण वंश के शासकों ने लगातार इन पर आक्रमण कर इनकी शक्ति को छिन्न-भिन्न कर समाप्त कर दिया
                               शक शासक
शक मूलतः मध्य एशिया की एक पर्यटनशील जाति थी, जो सर नदी के उत्तरी प्रदेश में निवास करती थी. इसी समय हूणों द्वारा पराजित पश्चिमी चीन की = यूची जाति ने यहाँ से शकों को खदेड़ दिया। अपनी जन्मभूमि को छोड़ने के पश्चात् शक लोग अनेक नए प्रदेशों में जाकर बस गए शकों ने बैक्ट्रिया के यूनानी साम्राज्य को नष्ट किया और पश्चिम की ओर बढ़कर हिरात व सीस्तान पर अपना अधिकार कर • लिया, किन्तु कुछ समय पश्चात् पचवों ने शकों को यहाँ से भी खदेड़ दिया अब शक कान्धार तथा बलूचिस्तान से बोलन दर्रे से होते हुए सिन्ध प्रदेश में जाकर बस गए इस स्थान को अब ‘शक द्वीप’ कहा जाने लगा. भूगोल के यूनानी विद्वानों ने इसे ‘इण्डोसाइथिया’ का नाम दिया है. सिन्धु को अपनी शक्ति का केन्द्र बनाकर शकों ने भारत के अन्य भागों पंजाब कठियावाड सौराष्ट्र, उज्जयिनी मथुरा पर अपना अधिकार कर लिया तथा क्षत्रप एवं महाक्षत्रप की उपाधि धारण की विभिन्न प्रदेशों में अनेक शक क्षत्रप राजवंश थे यथा- पंजाब के क्षत्रप, मथुरा के क्षेत्रप महाराष्ट्र के क्षत्रप, उज्जैन के क्षत्रप पंजाब के क्षत्रप पंजाब में तीन वंश के क्षत्रप हुए ये तीन वंश थे –
(1) कुसुलुक वंश,
(2) जिहोनिक वंश.
(3) इन्द्रवर्मन वंश
कुसुलुक वंश – लियक तथा पतिक इस वंश के दो प्रमुख शासक थे. जिहोनिक वंश-मनिगुल तथा जिहोनिक इस वंश के प्रमुख शासक थे।
इन्द्रवर्मन वंश – इस वंश के इन्द्रवर्मन तथा अस्पवर्मन प्रमुख थे
                            मथुरा के क्षत्रप
हगान तथा हगामस मथुरा के प्रथम शक क्षत्रप थे इनके बाद रज्जुबल तथा शोडास क्षत्रप हुए मोरा अभिलेख में रज्जुबल को महाक्षत्रप कहा गया है। महाराष्ट्र के क्षत्रप ‘भूमिक’ महाराष्ट्र में क्षहरात वशीय क्षत्रपों के राज्य का संस्थापक माना जाता है, किन्तु इस वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध क्षत्रप नहपन’ था इसने सातवाहन वंश के राजा पर आक्रमण करके महाराष्ट्र का विस्तृत क्षेत्र प्राप्त किया था नासिक गुफा अभिलेख के अनुसार उसने महाराष्ट्र पर 6 वर्ष तक शासन किया उज्जैन के क्षत्रप चेष्टन उज्जैन का प्रथम शक शासक था चेष्टन के पश्चात् जयदामन उत्तराधिकारी हुआ. उसने कोई विशेष प्रतिभा का परिचय नहीं दिया. जयदामन के पश्चात् रुद्रदामन महाक्षत्रप बना रुद्रदामन सर्वाधिक प्रसिद्ध शक शासक प्रा था. उसने सुदर्शन झील के टूटे हुए बाँध अ को बनवाया था वह व्याकरण, संगीत, ध अर्थशास्त्र व न्याय का ज्ञाता था मालवा, श सौराष्ट्र, कच्छ, सिंध, उत्तरी कोंकण, मान्धाता च आदि प्रदेश उसके साम्राज्य में सम्मिलित स थे. उसने अपने बाहुबल से पश्चिमी भारत उ के विशाल भू-भाग पर अधिकार किया तथा दक्षिण नरेश शातकर्णी को दो बार परास्त कर जीवनदान दिया. उसके शासनकाल में प्रजा बहुत सुखी थी. रुद्रदामन के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी अयोग्य सिद्ध हुए तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में आभीरों ने शकों की शक्ति को बहुत अधिक क्षीण कर दिया और चौथी शताब्दी ई. के अन्त में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने मालवा और काठियावाड को विजित कर शकों की सत्ता को समाप्त ही कर दिया
                                 व कुषाण
यवन, पह्नव एवं शक जाति की भाँति कुषाण भी एक विदेशी जाति थी जो चीन के पश्चिमोत्तर प्रदेश में निवास करती थी. इस जाति का सम्बन्ध चीन की यू.ची जाति की शाखा से था. भारत में आने वाली विदेशी जातियों में कुषाण जाति के लोग सर्वाधिक प्रभावशाली रहे. कदफिसीस प्रथम अथवा कुजुल कदफिसीस कुषाण वंश का प्रथम शासक था इसके अतिरिक्त वीम- कदफिसीस, कनिष्क, वासिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव आदि अन्य प्रमुख शासक थे कुषाणों ने ईसा की पहली शती के उत्तरार्द्ध तथा दूसरी शती में उत्तर-पश्चिमी भारत में शासन किया.
कनिष्क कुषाण वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक था ओल्डनबर्ग, फरगुसन आदि विद्वानों के अनुसार वह 78 ई में सिंहासन पर आसीन हुआ उसका साम्राज्य मध्य एशिया, अफगानिस्तान तथा पश्चिमोत्तर भारत में विस्तृत था. अतः पुरुषपुर (पेशावर) को उसने अपनी राजधानी बनाया पंजाब, सिन्ध, कश्मीर, उत्तर प्रदेश, पूर्व तथा दक्षिण के कुछ प्रदेशों को विजित किया. भारत के अतिरिक्त अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, गान्धार, बैक्ट्रिया, ताशकंद खोतान, हिरात, गजनी तथा सिस्तान आदि प्रान्त कनिष्क के साम्राज्य में सम्मिलित थे. कनिष्क के धर्म के सम्बन्ध में जानकारी उसकी मुद्राओं से प्राप्त होती है उसके काल की तीन प्रकार की प्राप्त मुद्राओं में से प्रथम प्रकार की मुद्रा पर यूनानी देवता, सूर्य, चन्द्रमा के चित्र मिले हैं. अतः वह यूनानी धर्म का अनुयायी था द्वितीय प्रकार की मुद्रा में ईरानी देवता अग्नि के चित्र मिले हैं, अतः वह ईरानी धर्म का अनुयायी था तृतीय प्रकार की मुद्रा में बुद्ध के चित्र मिले हैं, अतः वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था. ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी रहा हो, किन्तु अन्त में वह बौद्ध धर्म का प्रबल समर्थक हो गया. इसके शासनकाल में कश्मीर के कुण्डलवन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ इस संगीति के वसुमित्र सभापति तथा अश्वघोष उपसभापति थे. संगीति के पश्चात् बौद्ध धर्म हीनयान तथा महायान दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया. बुद्ध चरित का रचयिता अश्वघोष कनिष्क का दरबारी कवि था वसुमित्र, नागार्जुन इसके काल के अन्य विद्वान् थे. आयुर्वेद का महापंडित ‘चरक’ कनिष्क का राजवैद्य था.
कनिष्क कला का संरक्षक था. उसके शासनकाल में चित्रकला तथा मूर्तिकला कला की नवीन गांधार शैली का विकास हुआ. सारनाथ, मथुरा, गान्धार तथा अमरावती कला के प्रमुख केन्द्र थे. गान्धार शैली में असंख्य बौद्ध मूर्तियों का निर्माण हुआ. मठ, विहार तथा स्तूप निर्मित हुए कनिष्कपुर तथा सिरमुख नगरों की स्थापना हुई भारतीय इतिहास में अनेक इतिहासकारों ने कनिष्क को द्वितीय अशोक की संज्ञा भी दी है, एक मत के अनुसार 101 ई में कनिष्क की मृत्यु हो गई दूसरा मत 123 ई को अन्तिम तिथि मानता है
| कनिष्क की सिंहासनारोहण की तिथि
कनिष्क की सिंहासनारोहण तिथि के सम्बन्ध में विद्वानों के निम्नलिखित मत है (1) डॉ. फ्लीट, कनिंघम, कैनेडी, डोसन व फ्रैंक के अनुसार 58 ई.पू.
(2) रेप्सन, फरगुसन, ओल्डनवर्ग, आर. डी. बैनर्जी व डॉ. रायचौधरी के अनुसार 78 ई.
(3) सर जॉन मार्शल, स्टेनकोनों व स्मिथ के अनुसार 120 ई., 125 ई. अथवा 144 ई.
(4) आर. सी. मजूमदार के अनुसार 248
(5) डॉ. आर. जी. भण्डारकर के अनुसार 278 ई.
सर्वाधिक मान्य तिथि कनिष्क की सिंहासनारोहण की सर्वाधिक मान्य तिथि 78 ई. है.
                               विदेशी प्रभाव
मौर्य काल के उपरान्त भारत में आए विदेशियों, विशेषकर यूनानियों ने भारतीय संस्कृति व जनजीवन को सम्पन्न बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया पहला योगदान हमें मुद्रा के क्षेत्र में दिखाई देता है. यूनानी द्रम्म को दाम के रूप में भारतीय भाषाओं में अपनाया गया तथा आहत सिक्कों के स्थान पर अधिक कलात्मक सिक्के, जिन पर एक ओर राजा की आकृति तथा दूसरी ओर देवता की आकृति या अन्य चिह्न अंकित किए जाते थे. ढाले जाने लगे.
ज्योतिष के क्षेत्र में नक्षत्रों के आधार पर भविष्य बताने की कला यूनानियों से सीखी गई, साथ ही रोमक व पोलिस सिद्धान्त भी उन्हीं से लिए गए. इस क्षेत्र में यूनान के योगदान को गार्गी संहिता तथा वाराहमिहिर दोनों ने स्वीकार किया.
कला के क्षेत्र में विदेशी प्रभाव सबसे अधिक मूर्तिकला के क्षेत्र में दिखाई देता है. ‘यूनानी बौद्ध कला’ अथवा ‘इण्डो-ग्रीक कला’ के नाम से विख्यात गांधार शैली के बुद्ध व बोधिसत्व की मूर्तियाँ गौतमबुद्ध की कम ‘अपोलो’ की मूर्ति ज्यादा प्रतीत होती है. यह कला कनिष्क काल में अपने विकास के चरम बिन्दु पर थी.
साहित्य के क्षेत्र में विदेशी प्रभाव नगण्य-सा है. हाँ, महाभारत की मूल कथा में बाद में जो आख्यान जोड़े गए उनमें से कुछ में बाह्य प्रभाव की छाया मिलती है, भारतीय नाट्य कला पर यूनानी प्रभाव की बात करना तर्कसगत नहीं है.
अन्त में यह रेखांकित करना आवश्यक है कि केवल भारतीय यूनानियों व विदेशियों से सीखते ही नहीं रहे, धर्म व दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने विदेशियों को बहुत कुछ सिखाया भी.
गुप्त साम्राज्य की स्थापना तृतीय शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी में हुआ. चूँकि इस काल में भारत ने प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की, इसीलिए भारतीय इतिहास में यह काल ‘स्वर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है. इस काल में गुप्त शासकों ने भारत के बड़े भू-भाग को अपने अधिकार में ले लिया. गुप्त काल के प्रमुख शासक थे- चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, विक्रमादित्य कुमार गुप्त, स्कन्दगुप्त, बुद्ध गुप्त.
                              श्रीगुप्त (240-280 ई.)
श्रीगुप्त इस वंश का संस्थापक था. 240-280 ई. तक उसने शासन किया. महाराज की उपाधि धारण की. डॉ. के.पी. जायसवाल के मतानुसार श्रीगुप्त भारशिवो के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था.
                             घटोत्कच (280-320 ई.)
श्रीगुप्त के पुत्र घटोत्कच ने 280 ई. से 320 ई. तक शासन किया. महाराज की उपाधि धारण की एलन के मतानुसार घटोत्कच के साम्राज्य में पाटलिपुत्र तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश आते थे.
                           चन्द्रगुप्त प्रथम (320-335 ई.)
घटोत्कच का उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त प्रथम स्वतन्त्र शासक बना. उसने महाराजा- धिराज की उपाधि धारण की और लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमार देवी से विवाह कर अपनी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ बनाया. बाद में उसने लिच्छवि साम्राज्य को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया. उसने 320 ई. से 335 ई. तक शासन किया तथा समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया.
                             समुद्रगुप्त (335-375 ई.)
चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् समुद्रगुप्त राज सिंहासन पर आसीन हुआ. हरिषेण समुद्रगुप्त का मंत्री एवं दरबारी कवि था. इसके द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजयों, साम्राज्य ग विस्तार आदि के विषय में उपयोगी जानकारी प्राप्त होती है. वह महान् विजेता था. उसने हो महाराजाधिराज की उपाधि धारण की व कला तथा साहित्य की उन्नति में अपूर्व स योगदान दिया. उसने 335 ई. से 380 ई. तक सफलतापूर्वक शासन किया.
                           समुद्रगुप्त की विजयें
उत्तरी भारत की विजय इलाहाबाद प्रशस्ति के अनुसार समुद्र- गुप्त ने उत्तरी भारत पर दो बार आक्रमण किया. प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि अपने प्रथम आक्रमण में उसने उत्तरी भारत के तीन शासकों (1) अच्युत, (2) नागसेन, (3) कोट कुल से सम्बन्धित एक शासक को पराजित किया. प्रशस्ति की 21वीं पंक्ति के अनुसार अपने द्वितीय आक्रमण में उसने 9 शासकों- (1) रुद्रदेव, (2) मतिल, (3) नागदत्त, (4) चन्द्रवर्मन, (5) गणपति नाग, (6) नागसेन, (7) अच्युत, (8) नंदिन, (9) बलवर्मन को परास्त कर उनके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया. आटविक राज्य की विजय
जबलपुर तथा छोटा नागपुर के समीप आटविकों के 18 राज्य थे. वहाँ जंगल तथा पहाड़ी प्रदेश थे. आटविकों को परास्त कर समुद्रगुप्त ने उन्हें अपना सेवक बना लिया. दक्षिण की विजयों में समुद्रगुप्त को इन राज्यों से सहयोग प्राप्त हुआ.
दक्षिण भारत की विजय दक्षिण विजय अभियान में उसने 12 राज्य के राजाओं को परास्त कर उनसे वार्षिक कर वसूल किया. दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया, बल्कि उन्हें अपने अधीनस्थ रखा इन पराजित राजाओं ने भी समुद्रगुप्त को अपना राजाधिराज स्वीकार कर लिया. समुद्रगुप्त द्वारा पराजित राज्यों तथा राजाओ के नाम इस प्रकार थे-
(1) कौशल का शासक महेन्द्र, (2) महाकान्तर का व्याघ्रराज, (3) कोशल का मन्तराज, (4) पिष्टपुर का महेन्द्रगिरि, (5) कोट्टूर का स्वामीदत्त (6) विजिगापट्टम का दमन, (7) काँची का विष्णुगोप, (8) अवमुक्त का नीलराज, (9) वेंगी का हस्तिवर्मन (10) पालक्क का उग्रसेन, (11) देवराष्ट्र का कुवेर, (12) कुस्थलपुर का धनञ्जय सीमांत राज्यों की विजय
सीमान्त राज्यों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली. सीमान्त राज्य निम्नलिखित थे- (1) समतट, (2) दवाक (3) कामरूप, (4) नेपाल (5) कर्तृपुर. गणराज्यों पर विजय
समुद्रगुप्त की विजयों से भयभीत होकर गणराज्य जिनकी संख्या 9 थी. ने बिना युद्ध किए ही समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली. ये गणराज्य थे
मालव
 (2) अर्जुनायन,
 (3) योद्धेय
 (4) मद्रक,
(5) आभीर,
(6) प्रार्जुन
 (7) सनकानीक,
(8) काक,
(9) खरपटिक.
                        समुद्रगुप्त का धर्म
समुद्रगुप्त हिन्दु धर्म में विश्वास रखता था, किन्तु दूसरे धर्मों के प्रति भी सहिष्णु था. वह विष्णु का उपासक था. साम्राज्य समुद्रगुप्त का साम्राज्य उत्तर में हिमालय की तलहटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पूर्व में हुगली से पश्चिम में यमुना व चम्बल तक विस्तृत था. रामगुप्त समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त मगध सिंहासन पर आसीन हुआ. वह अत्यन्त ही भीरू प्रकृति का व्यक्ति था. चन्द्रगुप्त द्वितीय अपने भाई रामगुप्त की हत्या कर मगध सिंहासन पर आसीन हो गया.
                चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (लगभग 380-414 ई.)
इतिहास में इसे विक्रमादित्य के नाम से जाना जाता है. गुप्तवंश इसके राज्य उन्नति की चरम सीमा पर था. इसने शक में राज्य का अन्त किया तथा बाल्हीक प्रदेश तक विजय प्राप्त की. चीनी यात्री फाह्यान इसी के शासनकाल में भारत आया था. विक्रमादित्य कला, साहित्य व संस्कृति का संरक्षक तथा प्रेमी था इसके दरबार के नवरत्नों में कालिदास, जो कवि तथा नाटककार थे, प्रसिद्ध हैं.
                  कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य (414-455 ई.)
यह चन्द्रगुप्त द्वितीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था. यह कार्तिकेय का उपासक तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था. इसने अपने पूर्वजों से प्राप्त विशाल साम्राज्य को सुरक्षित तथा संगठित बनाए रखा. इसका शासन शांति तथा समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है. 455 ई. तक कुमारगुप्त ने शासन किया.
                                 स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (455-467 ई.)
कुमारगुप्त की मृत्यु के पश्चात् मगध सिंहासन पर स्कन्दगुप्त आसीन हुआ. यह गुप्त वंश का अन्तिम योग्य सम्राट था. इसके शासनकाल में हूणों ने भारत पर आक्रमण किए. स्कन्दगुप्त ने हूणों का मुकाबला बुद्धिमानी तथा वीरतापूर्वक किया. हुणों को परास्त कर ‘क्रमादित्य’ अथवा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की वह विष्णु का उपासक था.
स्कन्दगुप्त के उपरान्त का पराभव आरम्भ हो गया. पुरूगुप्त गुप्त वंश (467-69), कुमारगुप्त द्वितीय (473-76), बुधगुप्त (476-500), वैन्यगुप्त व भानुगुप्त, नरसिंहगुप्त बालादित्य, कुमारगुप्त तृतीय तथा विष्णुगुप्त ने सौ वर्ष तक और राज्य किया, किन्तु उनमें से कोई भी इतना सामर्थ्यवान नहीं निकला जो हूणों का सफल सामना करता तथा राज्य को विखण्डित होने से रोकता
गुप्त युग शांति, समृद्धि एवं चतुर्मुखी इ विकास का युग था. कुछ इतिहासविदों ने इस युग की ‘आंगस्टन युग’ तथा ‘पैरिक्लयन युग’ से तुलना की है. भारतीय इतिहास में इस युग को ‘स्वर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है. इस युग में कला, विज्ञान, साहित्य, वास्तुकला आदि के क्षेत्र में आशातीत विकास हुआ. उच्चकोटि की शासन व्यवस्था स्थापित हुई. व्यापार, उद्योग, कृषि की उन्नति हुई.
                               प्रशासन
राजा शासन का अध्यक्ष होता था, वह मंत्रियों की सहायता से राज्य धर्म के अनुसार शासन करता था. महामंत्री, महाबलाधिकृत, महादण्डनायक महाप्रतिहार, संधि विग्रहिका, कुमारामात्था नामक प्रमुख अधिकारी होते थे. भू-राजस्व राज्य की आय का प्रमुख साधन था. करों की कुल संख्या 18 थी.
सम्पूर्ण राज्य प्रान्तों में विभक्त था, जिनके अधिकारी उपरिक कहलाते थे. प्रान्त विषय, मण्डल एवं भोग में विभक्त थे, ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी. विषय का अधिकारी विषयपति होता था, जिसकी सहायता कुमारमात्य व आयुक्त करते थे, जिले के शासक की सहायता दण्डिक, दण्डपासिक, कुलक आदि करते थे. ग्राम का अधिकार ग्रामिक एवं भोजक होते थे। प्रान्तीय जिला व ग्राम के शासन में जनता के प्रतिनिधियों का महत्वपूर्ण स्थान था.
                             सैन्य विभाग
केन्द्र में मुख्य विभाग सैन्य था. संधि विग्रहिक सेना का मुख्य अधिकारी होता था
                                                                  स्कृतिक विकास
इसे संधि और युद्ध करने का अधिकार प्राप्त था. उसके अधीनस्थ सैन्य अधिकारी थे-महासेनापति अथवा महादण्डनायक, बलाधिकृत अर्थात् सैनिकों की नियुक्ति करने वाला, रणभाण्डागारिक अर्थात् सैनिक सामानों का अधिकारी, भटश्वपति अर्थात् पैदल एवं घुड़सवारों का अध्यक्ष आदि ‘बलाधिकरण’ सेना के कार्यालय को कहते हैं.
गुप्त वंश
शासक का नाम     चन्द्रगुप्त प्रथम समुद्रगुप्त 320-335.
.
                          रामगुप्त   375-380..
                चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य   413-540 ई.
                  चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य उत्तराधिकारी
गुप्त महेन्द्रादित्य 415-455 ई.
बाद के गुप्त शासक- पुरुगुप्त, नरसिंह गुप्त, बालादित्य, कुमार गुप्त द्वितीय, बुद्ध गुप्त, भानु गुप्त, हर्ष गुप्त, दामोदर गुप्त, महासेन गुप्त आदि
                          न्याय-विभाग
न्याय व्यवस्था श्रेष्ठ थी. दण्डव्यवस्थ कठोर नहीं थी. किसी को भी मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था. देशद्रोही अथवा चो अपराधी का हाथ काट दिया जाता था सम्राट न्याय विभाग का सर्वोच्च अधिका होता था. उसका निर्णय अंतिम माना जा था. नारद स्मृति के अनुसार गुप्तयुग में चार प्रकार के न्यायालय थे
(1) कुल न्यायालय
(2) श्रेणी न्यायालय,
(3) गुण न्यायालय,
(4) राजकीय न्यायालय. इनमें प्रथम तीन जनता  के तथा चौथा सरकारी न्यायालय होता था.
                             उद्योग-धन्धे
उद्योग धंधों की स्थिति इस युग में संतोषजनक थी. लौह उद्योग, स्वर्ण उद्योग, वस्त्र उद्योग प्रचलित थे गुजरात, बंगाल | तथा तमिल देश वस्त्र उद्योग के प्रमुख केन्द्र थे. दिल्ली के पास स्थित उत्कृष्ट लोह कला के सर्वोत्तम उदाहरण लोह स्तम्भ इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि लोह उद्योग अत्यधिक उन्नत था जहाज और नावों का निर्माण भी इस युग में होता था. व्यापार इस युग में व्यापार उन्नत अवस्था में था राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों प्रकार के व्यापार प्रचलन में थे व्यापार जल एवं थल दोनों मार्गों से होता था पेशावर, भडोच, उज्जयिनी, वाराणसी, प्रयाग, पाटलिपुत्र मथुरा, ताम्रलिप्ति तथा वैशाली आदि व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे. पश्चिमी एशिया, चीन तथा तिब्बत के साथ स्थल मार्ग तथा मिस्र, रोम, फारस व यूनान आदि के साथ जल मार्ग द्वारा व्यापार होता था. भड़ौच तथा ताम्रलिप्ति इस युग के प्रमुख बंदरगाह थे. व्यापार में बहुमूल्य रत्न सूती वस्त्र, मसाले, सुगन्धित तेल, उबटन, पाउडर, इत्र, आभूषण आदि का निर्यात तथा सोना, चाँदी, ताँबा, टिन, रेशम कपूर, खजूर तथा अश्वों आदि का आयात किया जाता था. गुप्त युग में सिक्कों का प्रचलन हो गया था विभिन्न प्रकार के सोने, ताँबे तथा चाँदी के सिक्कों का व्यापार में प्रयोग किया जाता था. साथ ही वस्तु विनिमय के माध्यम से व्यापार होता था. जल तथा स्थल दोनों ही व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा की पूर्व व्यवस्था की गई थी.
                                     कृषि
इस युग में कृषि क्षेत्र में भी उन्नति हो रही थी. गेहूँ, चावल, ज्वार, बाजरा, कपास, सुपारी, नील. जूट, तिलहन, फल, तरकारी तथा विभिन्न प्रकार के मसालों आदि की खेती की जाती थी.
                                कला
गुप्त युग में विविध प्रकार की कलाओं यथा मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला, संगीत नाव नाट्य कला तथा मुद्रा कला के क्षेत्र में आशातीत उन्नति हुई.
                                 मूर्तिकला
इस युग में गान्धार प्रभाव से मुक्त हो भारतीय कला अपने विशुद्ध रूप में प्रकट हुई, बहुतायत में देवताओं की मूर्तियों का निर्माण हुआ. मूर्तियों में विष्णु, शिव, पार्वती, ब्रह्मा, बुद्ध तथा जैन तीर्थंकर की मूर्तियों का निर्माण हुआ. देव मूर्तियों में अलंकृत प्रभामंडल, झीने वस्त्र, मुद्रा तथा आसन कला की दृष्टि से प्रशंसनीय है. सारनाथ की बुद्धमूर्ति, मथुरा की वर्धमान महावीर की मूर्ति विदिशा की वराह अवतार की मूर्ति, झाँसी की शेषशायी विष्णु की मूर्ति, काशी की गोवर्धनधारी कृष्ण की मूर्ति आदि इस युग की मूर्तिकला के प्रमुख उदाहरण हैं.
                               चित्रकला
चित्रकला विकास की चरम सीमा को प्राप्त कर चुकी थी. स्वाभाविकता, लावण्य, सजीवता आदि इस युग की चित्रकला के प्रमुख गुण थे. अजन्ता की गुफाओं के चित्र इस युग की चित्रकला के सर्वोत्तम उदाहरण हैं. चित्रों के विषय तीन प्रकार के हैं. प्रथम प्रकार में पशु-पक्षियों के चित्र, पेड़, फूल- पत्तियाँ आदि द्वितीय प्रकार में मनुष्यों के तथा तीसरे प्रकार के विषय में जातकों की कहानियों का उत्कृष्ट चित्रण है.
                               वास्तुकला
वास्तुकला के अन्तर्गत इस युग में विभिन्न मंदिर, गुफा, चैत्य, बिहार, स्तूप तथा अट्टालिकाओं से युक्त वैभवशाली नगरों का निर्माण हुआ. इनके बनाने में पत्थरों तथा पकी ईंटों का प्रयोग किया गया. झाँसी स्थित देवगढ़ का दशावतार का मंदिर कानपुर स्थित भीतरगाँव का मंदिर, नागौर स्थित भूमरा का शिव मंदिर आदि युग की वास्तुकला के कुछ श्रेष्ठ उदाहरण हैं.
                          संगीत एवं नाट्यकला
संगीत एवं नाट्यकला का पर्याप्त विकास हुआ. गुप्त शासकों ने संगीत, नृत्य व अभिनय को प्रोत्साहन दिया था. ललित कलाओं में महिलाओं को प्रशिक्षण दिया जाता था. देवदासी व नगर वधुओं को इन कलाओं में श्रेष्ठ प्रशिक्षण दिया जाता था. –
                                                          गुप्तकालीन मुद्राएं
गुप्त युग में मुद्रा का पर्याप्त विकास हुआ. निर्मित मुद्राएं बहुमूल्य धातुओं की तथा आकर्षक थी. मुद्राओं पर अंकित मूर्ति तत्कालीन सम्राटों की मनोवृत्ति को स्पष्ट करती थीं. इस युग में सोने व चाँदी की मुद्राओं का निर्माण हुआ. चन्द्रगुप्त प्रथम के सिक्कों पर चन्द्रगुप्त व कुमार देवी के चित्र व नाम हैं तथा दूसरी ओर सिंह पर आसीन-दुर्गा है. समुद्र गुप्त के अश्व, व्याघ्र प्रकार के सिक्के तत्कालीन मुद्राकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं. विज्ञान गुप्त युग में गणित पदार्थ विज्ञान, धातुविज्ञान, रसायन विज्ञान ज्योतिष विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान की बहुत उन्नति हुई दशमलव तथा भिन्न का अन्वेषण इसी युग में हुआ. आर्यभट्ट इस युग के प्रख्यात ज्योतिषी थे, इन्होंने ‘आर्यभट्टीयम’ नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें अंकगणित, बीजगणित तथा रेखागणित की विवेचना की गई है. आर्यभट्ट ने यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है. इसी काल में लाट, प्रद्युम्न, उदयनंदिन व वाराहमिहिर ने आर्यभट्ट के कार्य को चरम उत्कर्ष पर पहुँचाया वाराहमिहिर की वृत्तसंहिता तो ज्ञान का भण्डार है, ब्रह्मगुप्त का ब्रह्म सिद्धान्त भी खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है शप्त पंचसिका, वशिष्ठ सिद्धान्त उच्चकोटि के ग्रन्थ इसी युग में रचे गए.
वैधक की इस युग में बहुत उन्नति हुई धनवन्तरि तथा सुश्रुत इस युग के प्रख्यात वैद्य थे. नवनीतकम् इस युग की प्रसिद्ध चिकित्सा पुस्तक है. हस्त्यायुर्वेद व अश्वशास्त्र पशु चिकित्सा सम्बन्धी पुस्तकें हैं. प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य धनवन्तरि इसी युग में हुआ था. उसने अनेक नवीन औषधियों की खोज की, ‘रसचिकित्सा’ नामक पुस्तक की रचना की. उसने सिद्ध किया कि सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा आदि धातुओं में रोग निवारण की शक्ति विद्यमान है. साहित्य गुप्त युग में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति हुई काशी, मथुरा, नासिक पद्यावती, उज्जयिनी, अवरपुर, बल्लभी पाटलिपुत्र तथा काँची आदि गुप्त युग के प्रमुख शैक्षिक केन्द्र थे शिक्षा संचालन में समृद्ध व्यक्तियों की दान की गई धनराशि का उपयोग किया जाता था. हिन्दू, बौद्ध तथा जैन साहित्य इस युग में लिखा गया रामायण व महाभारत का वर्तमान स्वरूप इसी युग में प्राप्त हुआ. वात्स्यायन का कामसूत्र, विष्णु शर्मा का पंचतन्त्र की रचना हुई. पुराणों, नारद व वृहस्पति स्मृतियाँ व अन्य धर्मशास्त्र इसी युग में रचे गए. ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका की रचना की.
संस्कृत साहित्य में कालिदास ने कुमारसम्भव, मेघदूत, अभिज्ञानशाकुन्तलम तथ मालविकाग्निमित्र की रचना की. संस्कृति इस युग में राष्ट्रभाषा बन गई थी. इस युग में लौकिक साहित्य की रचना भी प्रचुर मात्रा में हुई. विशाखदत्त की मुद्रा- राक्षस, देवी चन्द्रगुप्तम भट्टी का रावण वध शूद्रक का मृच्छकटिकम् सुबन्धु की वासवदत्ता, दण्डी की दसकुमार चरित इसी युग में लिखे गए.
हरिषेण. वीरसेन, कालिदास तथा विशाखदत्त आदि इस युग के प्रसिद्ध विद्वान थे. इनमें हरिषेण महान् कवि, वीरसेन व्याकरणाविद थे. बौद्ध विद्वानों में असंग वसुबन्धु दिगनाग तथा धर्मपाल, जैन विद्वानों में उपेशवती, सिद्धसेन तथा भद्रबाहु द्वितीय इसी युग में हुए. धर्म गुप्त युग धार्मिक विकास के लिए भी विख्यात है. वर्तमान में प्रचलित हिन्दू धर्म के स्वरूप का निर्माण इसी युग में हुआ. इस युग में सम्राट हिन्दू धर्म के अनुयायी थे. विष्णु इनके इष्ट देव थे. वैष्णव, शैव धर्म ■ का अत्यधिक प्रचार-प्रसार हुआ साथ ही बौद्ध एवं जैन धर्म भी अपने अस्तित्व में रहे.
                          स्त्रियों की दशा
गुप्त युग में स्त्रियों की स्थिति श्रेष्ठ नहीं थी उन्हें सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त नहीं था. बाल विवाह प्रथा को बढ़ावा मिला था. यद्यपि ‘स्त्री-शिक्षक’ का विवरण मिलता है, तथापि यह कहा जा सकता है कि स्त्री- शिक्षा की औपचारिक व्यवस्था नहीं थी. उच्चकोटि की शिक्षक, दार्शनिक, चिकित्सक स्त्रियों की संख्या सीमित थी विधवा विवाह का प्रचलन बन्द हो गया था विधवाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वह ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शेष जीवन व्यतीत करें, सती प्रथा भी प्रारम्भ हो चुकी थी सती प्रथा उच्च वंशीय लोगों तक सीमित थी उन्हें ‘स्त्रीधन’ के अतिरिक्त सम्पत्ति में भाग नहीं मिलता था स्त्रियों का स्वतंत्र जीवन नहीं था उन्हें सदैव संरक्षण की आवश्यकता थी अतः यह कहा जा सकता है कि स्त्रियों की स्थिति पहले की अपेक्षाकृत निम्न हो गई थी.
गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ ही अनेक स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ इन राज्यों में वर्धन वंश के थानेश्वर राज्य ने अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की थानेश्वर राज्य के शासकों का वर्णन मधुवन प्रशस्ति में प्राप्त होता है. हर्ष वर्धन के अभिलेखों में उसके केवल चार पूर्वजों-नर वर्धन राज्य वर्धन, आदित्य वर्धन तथा प्रभाकर वर्धन का उल्लेख मिलता है. प्रभाकर वर्धन तथा हर्ष वर्धन वंश के प्रमुख शक्तिशाली एवं प्रसिद्ध शासक थे. प्रभाकर वर्धन प्रभाकर वर्धन अपने वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक था उसने महाराजा- धिराज तथा परमभट्टारक की उपाधि धारण की. प्रभाकर वर्धन के दो पुत्र राज्य वर्धन. हर्षवर्धन तथा एक कन्या राज्यश्री थी. उसने मौखरी वंश के ग्रह वर्मन से अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह कर मौखरी वंश से मैत्री सम्बन्ध स्थापित किए. राज्य वर्धन प्रभाकर वर्धन की मृत्यु के उपरान्त राज्य वर्धन थानेश्वर का राजा बना शासक बनते ही उसे अपने बहनोई के हन्ता मालवा व बंगाल के शासकों से युद्ध करना पड़ा. यद्यपि युद्ध में राज्य वर्धन को विजय प्राप्त हुई, किन्तु शशांक ने उसे धोखे से मरवा दिया. उसके बाद उसका छोटा भाई हर्ष वर्धन राजा बना हर्ष वर्धन हर्ष वर्धन का जन्म 590 ई. में हुआ था. अपने बहनोई ग्रहवर्मन तथा भाई राज्य वर्धन की आकस्मिक मृत्यु से कन्नौज और थानेश्वर राज्य के शासन की जिम्मेदारी उसके ऊपर आ पड़ी, जिसे उसने कुशलता से निभाया. वह एक वीर साहसी तथा दानप्रिय व्यक्ति था. उसमें समुद्रगुप्त के समान वीरता तथा अशोक महान् के समान सहिष्णुता के गुण विद्यमान थे. वह एक महान् साहित्यकार भी था. उसने नागानंद, रत्नावली तथा प्रियदर्शिका ग्रन्थ की रचना की थी. राजकवि बाण, दिवाकर तथा मयूर आदि उसके शासनकाल में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में आशातीत उन्नति हुई वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था. चीनी यात्री ह्वेनसांग इसी के शासनकाल में भारत आया था उसने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया. हर्ष ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया हर्ष के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी के साधन ह्वेनसांग का वर्णन तथा बाण का हर्षचरित है हर्ष ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी. उसका साम्राज्य पूर्व में पश्चिमी बंगाल, मगध, उडीसा तथा गंजम तक उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में नर्मदा तक विस्तृत था. पश्चिमी पंजाब, सिन्ध, कश्मीर, कामरूप, गुजरात, सौराष्ट्र, राजपूताना तथा दक्षिण भारत के कुछ प्रदेश उसके साम्राज्य में सम्मिलित थे. हर्ष की विजय
                             पंच नद प्रदेश की विजय
चीनी यात्री ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि हर्ष ने पंच नदी प्रदेश अर्थात् पंजाब, कान्यकुब्ज, गौड़ (बंगाल), मिथिला (बिहार) तथा उड़ीसा पर विजय प्राप्त की थी.
                           बल्लभी की विजय
हर्ष ने बल्लभी के शासक ध्रुवसेन द्वितीय पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया. ध्रुवसेन द्वितीय ने भागकर भड़ौच के राजा दछा के यहाँ शरण ली और कुछ समय पश्चात् हर्ष ने बुद्धिमत्तापूर्ण ध्रुवसेन द्वितीय से अपनी पुत्री का विवाह कर मित्रता कर ली. ध्रुवसेन द्वितीय ने हर्ष को अपना अधीश्वर स्वीकार कर लिया. गौड की विजय हर्ष को शशांक के विरुद्ध कोई सफलता नहीं मिली, किन्तु शशांक की मृत्यु के पश्चात् हर्ष ने गौड़ प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया था.
                            पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध
ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि हर्ष का चालुक्य वंश के शक्तिशाली सम्राट पुलकेशिन द्वितीय से संघर्ष हुआ जिससे हर्ष को अपार क्षति पहुँची हर्ष पराजित हुआ, उसे पीछे हटना पड़ा नर्मदा नदी दोनों शासकों के राज्य की सीमा बन गई
                                 सिन्ध की विजय
बाण के हर्षचरित से ज्ञात होता है कि हर्ष ने सिन्ध के शासक को नतमस्तक किया, किन्तु हेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि सिन्धु एक स्वतन्त्र राज्य था. डॉ. मजूमदार का मत है कि हर्ष को सिन्ध के विरुद्ध कोई खास सफलता प्राप्त नहीं हुई होगी
                                 अन्य विजय
उपर्युक्त विजयों के अतिरिक्त हर्ष वर्धन ने पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् गजाम प्रदेश पर भी अपना अधिकार कर लिया था
                               राजा की स्थिति
राजा शासन प्रबन्ध का सर्वोच्च अधिकारी था. यह मुख्य न्यायाधीश तथा युद्ध में सेना का नेतृत्वकर्ता होता था. राज्य के उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति करता था. उसने परम भट्टारक परमेश्वर, परम देवता’ ‘महाराजाधिराज आदि की उपाधियाँ धारण कीं.
                               केन्द्रीय शासन
राजा राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था. केन्द्रीय शासन अनेक भागों में विभक्त था. इन विभागों को अध्यक्षों एवं मंत्रियों का संरक्षण प्राप्त था राजा के निजी अधिकारी [ इस प्रकार थे- T प्रतिहार (राज्य सभा का मुख्य संरक्षक) विनयानुसार (आगन्तुकों को राज्य सभा में ले जाने वाला और उनके आगमन की घोषणा करने वाला) स्थापित (रनिवास के कर्मचारियों का निरीक्षक)
                                मंत्रिपरिषद्
हर्ष के शासन प्रबन्ध में मंत्रिपरिषद् थी अथवा नहीं ठीक-ठीक प्रकार से ज्ञात नहीं है, परन्तु इतना तो निश्चित है कि हर्ष के शासनकाल में अनेक मंत्री थे, जिनके सहयोग से हर्ष शासन करता था हर्ष चरित के अनुसार ‘अवन्ति’ हर्ष का प्रधानमंत्री था. मंत्रियों में संधिविग्रहिक अर्थात् संधि और युद्ध करने का अधिकारी, अक्षपटलाधिकृत जिसके हाथ में सरकारी कागज पत्र रहते थे अर्थ विभाग का मंत्री तथा न्याय विभाग के मंत्री मुख्य थे. प्रान्तीय शासन समस्त साम्राज्य की भूमि को राज्य. राष्ट्र, देश अथवा मण्डल कहा जाता था. इसे कई प्रांतों जिन्हें भुक्ति अथवा प्रदेश कहते थे में विभक्त कर दिया गया था. अहिच्छत्र, श्रावस्ती कौशाम्बी इस काल के मुख्य मुक्ति थे मुक्ति को विषयों (जिलों) में विभक्त किया गया था प्रान्तों के अधिकारी उपरिक महाराज भोगपति, राष्ट्रपति कहलाते थे विषयपति विषय का शासन होता था इसकी नियुक्ति प्रान्तपति द्वारा की जाती थी प्रत्येक विषय को ‘पथकों में विभक्त किया गया था, जो आधुनिक तहसील की भाँति थे.
                                ग्राम शासन
‘पथकों को गाँवों में बाँट दिया गया था. गाँव शासन की सबसे छोटी इकाई थी गाँव के सभी मामलों की देखभाल महत्तर’ नामक पदाधिकारी करता था ग्रामिक, भ्रष्ट कुलाधिकरण अक्षपटलिक गाँव के अन्य महत्वपूर्ण अधिकारी होते थे दण्ड विधान हर्ष के शासनकाल में दण्डविधान अत्यन्त ही कठोर था घोर अपराध के लिए मृत्यु दण्ड, सामाजिक नैतिकता के उल्लंघन करने वाले को अंगभग, राजद्रोहियों को आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाता था कुछ अन्य अपराधों के लिए अपराधी को नगर अथवा गाँव से निष्कासन का दण्ड देकर जंगलों में भेज दिया जाता था सैन्य प्रबन्ध हर्ष का सैन्य प्रबन्ध अत्यन्त सुदृढ़ था. सेना के लिए सिन्ध, अफगानिस्तान तथा ईरान से उच्चकोटि के घोड़ों का क्रय किया जाता था सैनिकों की भर्ती उन्हें वेतन बताकर एक सार्वजनिक घोषणा द्वारा की जाती थी ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की सेना में पैदल फौजों के अतिरिक्त साठ हजार हाथी तथा एक लाख अश्वारोही थे आय-व्यय के साधन हर्ष के शासनकाल में आय के मुख्य साधन कर थे, किन्तु हर्ष ने अपनी प्रजा पर बहुत कम कर लगाया था भूमिकर आय का प्रमुख साधन था, जो उपज का 1/6 भाग था इसके अतिरिक्त दूध, फल, चरागाह तथा खनिजों पर लगाए कर आय के मुख्य साधन थे.
राज्य की आय को मुख्यतः चार मदों पर व्यय किया जाता था-
(1) राजकीय व्यय तथा अनुष्ठानों पर धार्मिक
(2) उच्च राजकीय पदाधिकारियों की धन सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए
(3) विद्वानों को पुरस्कृत करने हेतु
(4) विभिन्न सम्प्रदायों को दान तथा सार्वजनिक निर्माण हेतु
विन्ध्याचल के दक्षिण में तुंगभद्रा तक के विशाल विस्तृत प्रदेश में वाकाटकों का राज्य स्थापित था. प्राचीनकाल में यह प्रदेश दक्षिणापथ के नाम से जाना जाता था. वाकाटकों के पतन के पश्चात् छठी शताब्दी में यहाँ चालुक्यों का आधिपत्य हो गया. दक्षिण के प्रमुख राज्यों में हम यहाँ चालुक्य, चोल, राष्ट्रकूट एवं पल्लवों का अध्ययन करेंगे.
                                 चालुक्य वंश
दक्षिण के विशाल भू-भाग पर चालुक्यों ने वर्षों तक शासन कर इस क्षेत्र की राजनीति को प्रभावित किया. चालुक्य वंश की तीन प्रमुख शाखाएं थीं-
(1) कल्याणी के चालुक्य,
(2) वातापी के चालुक्य,
(3) वेंगी के चालुक्य.
                             कल्याणी के चालुक्य
जिन चालुक्यवंशी नरेशों ने हैदराबाद राज्य स्थित कल्याण अथवा कल्याणपुर को राजधानी बनाया, वे कल्याणी के चालुक्य के नाम से प्रसिद्ध हुए तैलप प्रथम, तैलप द्वितीय, सत्याश्रय, विक्रमादित्य षष्ट, सोमेश्वर तृतीय तथा तैलप तृतीय आदि इस वंश के मुख्य शासक थे. कल्याणी के चालुक्य नरेश कला प्रेमी थे उनके शासनकाल में निर्मित भवनों में चिकने काले पत्थर का बहुतायत में प्रयोग किया गया है.
धखर जिले में लकुण्डी का काशी विश्वेश्वर का मंदिर तथा इत्तगी में महादेव का मंदिर कला के कुछ सुन्दर उदाहरण हैं।
विक्रमादित्य षष्ठ इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक था. सफल विजेता होने के साथ ही यह विद्वानों, कवियों का संरक्षक एवं आश्रयदाता था इसके शासनकाल में शिक्षा एवं साहित्य की अपार उन्नति हुई प्रसिद्ध कश्मीर कवि बिल्हण इसी के दरबार का अमूल्य रत्न था, जिसने विक्रमांक चरित्र नामक ग्रन्थ लिखकर विक्रमादित्य षष्ट की कीर्ति एवं यश को सर्वत्र फैलाया था. इसी समय विज्ञानेश्वर ने हिन्दू कानून की प्रसिद्ध पुस्तक ‘मिताक्षरा’ की रचना की थी, तैलप तृतीय कल्याणी के चालुक्य वंश का अन्तिम शासक था
वातापी के चालुक्य जिन चालुक्यों ने बीजापुर स्थित वातापी को अपनी राजधानी बनाया, वे वातापी के चालुक्य कहलाए जयसिंह नामक शासक ने इस वंश की नींव डाली. रणराज, पुलकेशिन प्रथम, कीर्तिवर्मन, पुलकेशिन द्वितीय, विक्रमादित्य, विनयदित्य, विजयादित्य आदि इस वंश के प्रमुख शासक हुए इनके शासनकाल में कला एवं धर्म की आशातीत उन्नति हुई. वातापी स्थित मंगलेश का मंदिर इस काल की कला का उत्कृष्ट उदाहरण है. इसके अतिरिक्त मेंगुती का शिव मंदिर तथा एहोल का विष्णु मंदिर तो अविस्मरणीय हैं. इस काल के शासक ब्राह्मण हिन्दू धर्म के अनुयायी थे, रवि कीर्ति जैन चालुक्यों के दरबार का महान् कवि था
पुलकेशिन द्वितीय इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था. सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् उसने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया तथा पृथ्वीवल्लभ- सत्याश्रय की उपाधि धारण की उत्तरी भारत के सम्राट हर्ष को नर्मदा के तट पर बुरी तरह पराजित किया उसका संघर्ष दक्षिण के पल्लव वंश से भी होता रहा तथा नरसिंहवर्मन ने उसे पराजित कर युद्ध में मार डाला (642 ई.) पुलकेशिन द्वितीय के उत्तराधिकारी अयोग्य थे, अतः परिस्थितियों का लाभ उठाकर राष्ट्रकूटों ने इस राजवंश का अन्त कर दिया. वेंगी के चालुक्य जिन चालुक्यों ने आन्ध्र प्रदेश स्थित वेंगी को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया, वे देगी के चालुक्य कहलाए. विष्णु वर्धन इस राजवंश का संस्थापक था. जयसिंह प्रथम, इन्द्र वर्धन विष्णु वर्धन द्वितीय, मंगि युवराज, जयसिंह द्वितीय. कोकिल, विष्णु वर्धन तृतीय आदि इस वंश के प्रमुख शासक हुए. विजयादित्य इस वंश का सर्वाधिक
शक्तिशाली शासक था, सिंहासन पर आसीन होते ही उसने पल्लवों को पराजित कर नेल्युर नगर पर तथा नोलम्ब राज्य के राज गांगी को परास्त कर उस पर भी अपना अधिकार कर लिया. राष्ट्रकूट वंश चालुक्यों के पतन के पश्चात् आठवीं शताब्दी के अन्त में राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर मालखेड़ अथवा मान्यखेट को अपनी राजधानी बनाया.
कृष्ण प्रथम, धुवधारावर्ष गोविन्द द्वितीय. गोविन्द तृतीय तथा अमोघवर्ष प्रथम आदि
इस वंश के प्रमुख शासक हुए. गोविन्द तृतीय इस वंश के प्रमुख शासकों में से एक था जिसने विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की दक्षिण भारत में उसने गंगों, चोलों, पाण्ड्यों तथा केरलों की बुरी तरह परास्त किया. अपने पिता ध्रुव की तरह उसने भी उत्तरी भारत पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की. कृष्ण तृतीय इस वंश का अंतिम महान् शासक था. 973 ई. में चालुक्य राजा तैलप द्वितीय ने राष्ट्रकूटों के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया. राष्ट्रकूट कालीन संस्कृति साहित्य राष्ट्रकूटों के शासनकाल में साहित्य की अपार उन्नति हुई. अमोघवर्ष प्रथम द्वारा प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय
लिखित ‘कविराज मार्ग’ तथा ‘रत्नमालिका’ जिनसेन द्वारा लिखित ‘पाश्र्वभयुदय’ इसके अतिरिक्त इसी काल की अमोधवृत्ति मुख्य साहित्य कृति हैं. जिनसेन, शाक्तायन, वीराचार्य, पोन्न, पाम्पा, रन्ना आदि इस काल के उच्चकोटि के लेखक कवि एवं दार्शनिक थे। शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रगति हुई ‘कन्हेरी’ का बौद्ध बिहार इस काल का शिक्षा एवं विद्या का प्रसिद्ध केन्द्र था इसके अतिरिक्त मंदिर तथा ब्राह्मणों के घर भी शिक्षा के केन्द्र थे कला
इस कला में स्थापत्य कला, चित्रकला तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ कृष्ण प्रथम के समय में निर्मित ऐलोरा का कैलाश मंदिर जोकि चट्टानों को काटकर बनाया गया था. इस काल की स्थापत्य कला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है धर्म राष्ट्रकूटों के काल में दक्षिण में पौराणिक हिन्दू धर्म उन्नति पर था पूजा हेतु अनेक मूर्ति तथा मंदिरों का निर्माण हुआ, जिनमें विष्णु तथा शिव की पूजा की जाती थी.. यज्ञों का प्रचलन था दन्तिदुर्ग ने उज्जयिनी में हिरण्यगर्भ यज्ञ तुलादान भी दिया था. पल्लव वंश किया था. साथ ही
कृष्ण नदी के दक्षिण के प्रदेश पर पल्लवों का आधिपत्य था. कांची पल्लवों की राजधानी थी. बप्पादेव इस वंश का संस्थापक तथा प्रथम शासक था. महेन्द्र वर्मन, नरसिंह वर्मन प्रथम, महेन्द्र वर्मन द्वितीय परमेश्वर वर्मन प्रथम, नरसिंह वर्मन द्वितीय, दन्ति वर्मन आदि इस वंश के प्रमुख शासक हुए. पल्लव कालीन संस्कृति साहित्य पल्लवों के शासनकाल में साहित्य की अपार उन्नति हुई पल्लवों ने तमिल भाषा के स्थान पर संस्कृत भाषा को प्रोत्साहन दिया पल्लवों की राजधानी कांची साहित्य का प्रमुख केन्द्र था कवि सम्राट भारवि. अलंकार के रचयिता दण्डिन, प्रसिद्ध विद्वान् मातृदत्त आदि साहित्य सम्राट थे महेन्द्र वर्मन द्वारा रचित ‘मत्तविलास प्रहसन’ पल्लव कालीन साहित्य की अनुपम कृतियों में से एक है शिक्षा
इस काल में शिक्षा का अत्यधिक प्रचार- प्रसार हुआ. वेद अध्ययन तथा संस्कृत भाषा की शिक्षा का अधिक प्रचार था. राजकीय आज्ञाएं भी संस्कृत में लिखी जाती थी.
काची का विश्वविद्यालय शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था, जहाँ सभी धर्मशास्त्रों तथा ज्ञान विज्ञान की शिक्षा का उचित प्रबन्ध था कला
इस काल में स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला का आशातीत विकास हुआ मंदिर स्थापत्य की चार शैलियाँ (1) महेन्द्र शैली- जिसका प्रवर्तक महेन्द्र वर्मन (2) मामल्ल शैली जिसका प्रवर्तक नरसिंह वर्मन प्रथम (3) राजसिंह शैली, (4) अपराजित शैली विकसित हुई धर्म
पल्लव कालीन शासक वैष्णव एवं शेव धर्म के अनुयायी थे विभिन्न शैव सम्प्रदायों का जन्म इसी काल में हुआ इस युग में शैव धर्म की प्रधानता बढी सत अय्यर एव तिरुज्ञान सम्बन्दर ने शैव धर्म का प्रचार- प्रसार किया चोल वंश
चोल वंश का इतिहास बहुत पुराना है. तीसरी व चौथी शताब्दी में पाण्डय तथा चेर वंशीय शासकों के उत्कर्ष के कारण इनका पतन हो गया और नवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक इनका प्रभाव न के बराबर रहा. किन्तु नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पल्लवों की शक्ति क्षीण हो गई, अतः एक बार पुनः चोल वंश की स्थापना का श्रेय विजयालय को जाता है, इसके पश्चात् आदित्य प्रथम, परान्तक प्रथम, राजराज प्रथम, राजाधिराज प्रथम, राजेन्द्र द्वितीय, वीर राजेन्द्र कोलोत्तुंग आदि प्रमुख चोल नरेश हुए.
विजयालय ने तंजौर को अपनी राजधानी बनाकर शासन आरम्भ किया राजराज प्रथम चोल वंश के शक्तिशाली नरेशों में एक था इसने मैसूर के गंगों, पाड्यों तथा वेंगी के चालुक्यों को पराजित मदुरा के कर साम्राज्य विस्तार किया तथा तंजौर में शिव का एक विशाल मंदिर निर्मित कराया. जो कालान्तर में ‘राजराजेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ चोल साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार राजेन्द्र प्रथम के काल में हुआ उसने पांड्य तथा केरल राजाओं को परास्त किया. राजेन्द्र ने लंका पर विजय प्राप्त की. पूर्वी द्वीपों पर सफल नाविक आक्रमण किया तथा बंगाल के महिपाल को भी युद्ध में हराया. उसने अपनी राजधानी ‘गगेकोण्ड चोलपुरम’ में एक विशाल मंदिर तथा एक राजप्रासाद का निर्माण कराया इस वंश के अंतिम शासक राजेन्द्र तृतीय को पाण्ड्य शासकों ने पराजित कर चोल वंश का अंत कर दिया
                          चोल कालीन संस्कृति
साहित्य- चोल शासकों के शासन काल में साहित्य की अपार उन्नति हुई जीवक चिन्तामणि शूलमणि, गत्तुप्पीर्ण, कुण्डलकेशि. कल्लदम, रसोलियम, नलबेम्ब ‘दण्डिय- लंगारम’ आदि इस काल की मुख्य साहित्य कृति हैं, जैन पंडित तिरूत्क्कदेवर, तोला- मोक्ति (दोनों लेखक), जयन्गोन्दार, कम्बन, कल्लदनर (कवि) आदि इस काल में महान् विद्वान थे.
                                 शिक्षा
इस काल में शिक्षा का विकास हुआ मंदिर शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे पुजारी छात्रों को शिक्षा प्रदान करते थे. शिक्षा का शुल्क निश्चित नहीं था
                                कला
कला के क्षेत्र में अपूर्व उन्नति हुई तजौर का राजराजेश्वर मंदिर, ब्रह्मदेशम का तिरूपालीशरम मंदिर ऐरापतेश्वर मंदिर, कम्परेश्वर मंदिर इस काल की कला के कुछ सुन्दर उदाहरण हैं। इनमें तंजौर का राजराजेश्वर का मंदिर जोकि तेरह मंजिल ऊँचा था, जिसके शिखर का वजन 20 टन था सर्वाधिक प्रसिद्ध है
                                  धर्म
चोलकालीन शासक शैव धर्म के अनुयायी थे शैव मत के अतिरिक्त वैष्णव, बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय भी प्रचलित थे
                                राजा
राजा समस्त शासन तंत्र का प्रमुख संचालक था. वह मंत्रिपरिषद के सहयोग से शासन संचालन करता था राज्याधिकारियों की नियुक्ति वह स्वयं करता था. इन्हें भूमि के रूप में वेतन दिया जाता था नकद नहीं प्रान्त शासन सुविधा की दृष्टि से समस्त साम्राज्य को 6 प्रान्तों में बाँट दिया गया था. इन प्रान्तों को ‘मण्डलम’ कहा जाता था जिसका शासन वायसराय करता था
                                  कोट्टम
मण्डलम को कई कोट्टम अथवा वलनाडु मैं बाँट दिया गया था।
                                नाडू
कोट्टम में अनेक नाडू अथवा जिल सम्मिलित होते थे कुर्रम नाडू के अन्तर्गत अनेक ग्राम संघ होते थे, जिन्हें कुर्रम कहा जाता था, ग्राम सभा प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होती थी ग्रामों को स्वायत्त शासन प्राप्त था
सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हर्ष वर्द्धन कि की मृत्यु होते ही अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र प्र राज्यों का उदय हुआ इन विभिन्न स्वतन्त्र राज्यों के शासक राजपूत थे, जिन्होंने भा 1200 ई. तक लगभग साढ़े पाँच सौ वर्ष इन शासन किया. इस काल को इतिहास में से ‘राजपूत युग’ के नाम से जाना जाता है, भी
                        राजपूत उत्पत्ति के सिद्धान्त
राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया ये प्रतिपादित सिद्धान्त इस प्रकार थे-
प्राचीन क्षत्रियों से उत्पत्ति गौरीशंकर ओझा ने राजपूतों की उत्पत्ति प्राचीन क्षत्रिय जाति से मानी है. कुछ विद्वानों का विचार है कि क्षत्रिय सामंतों अथवा जागीरदारों की अवैध संतान ‘राजपुत्र’ कहलाती थी. ये ही बाद में राजपूत नाम से प्रसिद्ध हुए. अग्नि-कुण्ड से उत्पत्ति चन्दबरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ वर्णित एक अनुश्रुति के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति एक अग्निकुण्ड से हुई थी इस अनुश्रुति का वर्णन ‘सिसाणा’ अभिलेख में भी मिलता है. कथा का सारांश इस प्रकार है “जब पृथ्वी राक्षसों से क्लांत हो उठी तब महर्षि वशिष्ठ ने इन राक्षसों का दमन करने के लिए अग्निकुण्ड का निर्माण करके यज्ञ किया इस अग्निकुण्ड से चार वीर योद्धा प्रतिहार, चालुक्य, परमार तथा चाह्यान उत्पन्न हुए इन्होंने वैदिक धर्म की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया भारत के राजपूत इन्हीं चार योद्धाओं की संतान है। अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने के कारण इन्हें अग्निवंशीय भी कहा गया.”
                              ब्राह्मणों से उत्पत्ति
दशरथ शर्मा, विशम्भरशरण पाठक आदि विद्वान् इस मत के समर्थक हैं कि राजपूतों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से हुई है. बिजोलिया शिलालेख’ में चाह्यान वासुदेव के उत्तराधिकारी सामन्त को ‘वत्स गोत्रीय ब्राह्मण कहा गया है. कायम खाँ रासो में भी चाह्मानों की उत्पत्ति वत्स से बतलाई गई है. सी.वी. वैद्य और गौरीशंकर ओझा इस सिद्धांत को नहीं मानते हैं.
                              विदेशियों से उत्पत्ति
कर्नल टॉड, भण्डारकर तथा ईश्वरी प्रसाद इस सिद्धान्त के समर्थक हैं. राजस्थान का इतिहास के प्रणेता कर्नल टॉड ने राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी जाति से मानी है. वे इन्हें शक अथवा सीथियन्स जाति का वंशज बताते हैं विलियम ब्रुक ने भी टॉड का समर्थन किया है. उसने गुर्जरों तक को विदेशी कहा है, किन्तु गौरीशंकर ओझा ने इस मत का खण्डन किया है.
मिश्रित उत्पत्ति बी ए स्मिथ का मत है कि कुछ राजपूत प्राचीन आर्य क्षत्रियों के तथा कुछ शक व कुषाणों के वंशज हैं ये विदेशी जातियाँ भारतीय जातियों में घुल-मिल गई इनसे उत्पन्न जाति, जिसने तत्कालीन भारत में शासन किया, वे राजपूत कहलाए इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजपूतों की उत्पत्ति देशी एवं अनेक विदेशी जातियों के मिश्रण से हुई थी यही सिद्धान्त सर्वाधिक मान्य भी है.
उत्तरी भारत के प्रमुख राजपूत वंश एवं राज्य गुर्जर-प्रतिहार वंश आठवीं शताब्दी में नागभट्ट प्रथम ने मालवा में गुर्जर प्रतिहार वंश के प्रथम शासक के रूप में शासन किया देवराज वत्सराज तथा नागभट्ट द्वितीय इस वंश के अन्य प्रसिद्ध शासक हुए चन्द्र प्रभा सूर कृत ‘वप्पाभरिचरित्र’ से ज्ञात होता है कि मिहिरभोज प्रतिहार वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रतापी सम्राट था उसने अपने पिता को मारकर सिंहासन हस्तगत किया था, इसने अपने शासनकाल में कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया महेन्द्रपाल तथा महिपाल इस वंश के अन्य शासक हुए. महिपाल की मृत्यु होने पर इस वंश का पतन हो गया. गहड़वाल वंश ‘चन्द्र देव’ इस वंश का संस्थापक था. इसने वाराणसी को अपनी राजधानी बनाया और शीघ्र ही उसने प्रतिहारों का अंत कर कन्नौज पर भी अपना अधिकार कर लिया. गोविन्द चन्द्र इस वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं प्रतापी शासक था. उसने मगध के पश्चिमी भाग तथा मालवा के पूर्वी भाग पर अधिकार कर अपने यश एवं कीर्ति में वृद्धि की वह कला एवं साहित्य का भी संरक्षक था. उसके शासनकाल में ‘लक्ष्मीधर ने ‘कल्पद्रुम’ नामक विधि ग्रन्थ की रचना की जयचन्द्र जोकि पृथ्वीराज चौहान क समकालीन एवं प्रतिद्वन्द्वी था. इस वंश क. अन्तिम शक्तिशाली शासक था. चौहान वंश
दिल्ली तथा अजमेर का राज्य उत्तरी भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य था. इस पर चौहान वंश का अधिकार था. विग्रहराज द्वितीय, अजयराज विग्रहराज चतुर्थ, बीसलदेव, पृथ्वीराज द्वितीय था. पृथ्वीराज तृतीय इस वंश के प्रमुख शासक थे. पृथ्वीराज चौहान इस वंश का वीर, प्रतापी एवं अन्तिम शासक था, जिसका मुहम्मद गौरी के साथ तराइन का प्रथम एवं प्रतियोगिता द्वितीय युद्ध हुआ द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान परास्त हुआ और उत्तरी भारत में पहली बार मुसलमानों का राज्य स्थापित हुआ चंदेल वंश
यशोवर्मन इस वंश का प्रथम प्रतापी एवं स्वतन्त्र शासक था. जिसने बुंदेलखण्ड का राज्य कन्नौज के प्रतिहारों की दुर्बलता का लाभ उठाकर प्राप्त किया था उसने कालिंजर के दुर्ग को विजित कर महोबा को अपनी राजधानी बनाया धंग, गण्ड, कीर्तिवर्मन, मदनवर्मन तथा परमाल इस वंश के अन्य शासक हुए कीर्तिवर्मन कला एवं साहित्य का प्रेमी था. उसने महोबा के समीप ‘कीर्ति सागर’ नामक जलाशय का निर्माण कराया. परमाल अथवा परमर्दन चंदेल इस वंश का अंतिम शासक था. इसके शासनकाल में तुर्कों ने चंदेल राज्य पर आक्रमण कर उसे जीता और यहीं से चंदेल वंश का पतन प्रारम्भ हो गया. 16वीं शताब्दी तक बुंदेलखण्ड के कुछ भाग पर दुर्बल शक्ति होने के बाद भी चंदेलों का शासन रहा. किन्तु अंत में मुसलमानों ने पूर्णरूपेण इस राज्य पर अपना अधिकार कर लिया परमार वंश ‘उपेन्द्र’ इस वंश का संस्थापक था. मालवा इसका शासन प्रदेश था श्री हर्ष वाक्पतिमुंज, सिंधुराज भोज, जयसिंह. उदयादित्य इस वंश के अन्य शासक हुए. श्री हर्ष इस वंश का प्रथम स्वतंत्र शक्तिशाली शासक था, जिसने राष्ट्रकूटों को पराजित किया राजा भोज अपनी दानशीलता, कला एवं विद्यानुराग के कारण इस वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा था. उसने चिकित्सा, गणित, व्याकरण आदि पर अनेक ग्रन्थ लिखे 1297 ई. में अलाउद्दीन खलजी के सेनापति नसरत खाँ तथा उलूग खाँ ने इस साम्राज्य पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया पाल वंश हर्ष की मृत्यु के पश्चात् सम्पूर्ण बंगाल अव्यवस्था फैल चुकी थी. अतः में परिस्थितियों का लाभ उठाकर ‘गोपाल’ नामक व्यक्ति ने बंगाल में एक नवीन वंश की स्थापना की. चूँकि इस वंश के शासकों के नाम के अंत में पाल शब्द जुड़ा रहता था. अतः यह वंश ‘पाल’ वंश के नाम से जाना जाता है. धर्मपाल, देवपाल, नारायण- पाल, महिपाल, नयपाल, रामपाल आदि इस वंश के कुछ प्रमुख शासक हुए, जिन्होंने ‘परमभट्टारक’, ‘महाराजाधिराज’, ‘परमेश्वर आदि की उपाधियाँ धारण कीं.
‘देवपाल’ इस वंश का सर्वाधिक शक्ति- शाली शासक था, जिसने कामरूप (वर्तमान असम) तथा कलिंग पर अपना अधिकार कर लिया था. अंत में बारहवी शताब्दी में सेन वंश के शासकों ने पाल वंश का अत कर दिया कन्नौज पर अधिकार तथा उ भारत की प्रभुता के लिए पाल वंश का प्रतिहारों से दीर्घकालीन संघर्ष हुआ सेन वंश सामत सेन, सेन वंश का संस्थापक था विजय सेन, बल्लाल सेन, लक्ष्मण सेन इस वंश के अन्य शासक हुए, जिन्होंने बंगाल व बिहार पर शासन किया, विजय सेन इस वंश का महत्वाकांक्षी शासक हुआ उसने अपनी विजयों से सेन वंश के यश और कीर्ति में वृद्धि की ‘देवपारा’ अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने नेपाल और मिथिला के शासकों पर विजय प्राप्त की थी. वह शैव धर्म का अनुयायी था. देवपारा में उसने एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया, जो ‘प्रधुमनेश्वर’ के नाम से जाना जाता है. देवपारा में ही उसने झील का निर्माण भी कराया बल्लाल सेन भी इस वंश का उच्चकोटि का शासक विद्वान् तथा प्रसिद्ध लेखक था इसने ‘दान सागर’ लिखा तथा र अद्भुत सागर’ का लेखन प्रारम्भ किया
लक्ष्मण सेन इस वंश का अन्तिम प्रसिद्ध शासक था, जिसने वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन किया. हलायुद्ध’ इसका मंत्री तथा न्यायाधीश था, गीतगोविन्द का रचयिता ‘जयदेव’ इसका दरबारी कवि था यह वैष्णव धर्म का अनुयायी तथा प्रसिद्ध विद्वान् था. उसने अपने पिता द्वारा प्रारम्भ किए गए ग्रन्थ अद्भुत सागर’ को पूरा किया था.
                               गुजरात के चालुक्य
गुजरात में इस वंश का संस्थापक ‘मूलराज प्रथम’ था वह शैव धर्म का अनुयायी तथा कला का आश्रयदाता था. उसने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया भीम प्रथम कर्ण जयसिंह सिद्धराज कुमारपाल, भीम द्वितीय इस वंश के अन्य शासक हुए इस वंश के शासक भीम प्रथम के शासनकाल में महमूद गजनवी ने सोमनाथ के मंदिर पर आक्रमण किया था.
जयसिंह सिद्धराज इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं कुमारपाल इस वंश के अंतिम शासकों में से था इसकी मृत्यु के पश्चात् ही इस वंश का पतन प्रारम्भ हो गया अन्तिम शासक निर्बल एवं अयोग्य थे 1197 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुजरात पर आक्रमण कर वहाँ की राजधानी अन्हिलवाड़ को खूब लूटा
                              कलचुरी वंश
इस वंश का संस्थापक कोकल्ल था. इसने त्रिपुरी’ को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया. इस वंश की दो शाखाएं थीं. दूसरी शाखा की राजधानी ‘रत्नपुर’ थी.
कोकल्स को समस्त पृथ्वी का विजेता कहा गया है लक्ष्मण राज, गांगेयदेव, लक्ष्मीकोण इस वंश के अन्य शासक हुए
गांगेय देव इस वंश का शक्तिशाली शासक था उसने प्रयाग, काशी तथा तिरहुत के प्रदेश को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया तथा विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की लक्ष्मीकीर्ण के पश्चात् र इस वंश का पतन होना प्रारम्भ हो गया 13वीं शताब्दी में इस वंश की शक्ति अत्यन्त क्षीण हो गई 15वीं शताब्दी के आरम्भ में गौड़ों ने इनकी रही बची शक्ति को नष्ट कर दिया
                                   सिसोदिया वंश
इस वंश के शासक अपने को सूर्यवशी कहते थे इनका मेवाड़ पर शासन था. चित्तौड़ इनकी राजधानी थी राणाकुम्भा, राणा संग्राम सिंह तथा महाराणा प्रताप इस वंश के प्रतापी तथा प्रसिद्ध राजा हुए जिन्होंने अनेक युद्धों में शत्रुओं के दाँत खट्टे कर दिए राणा कुम्भा ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में विजय स्तम्भ का निर्माण कराया यह उसकी वीरता का सबल प्रमाण है.
                   राजपूतकालीन सभ्यता एवं संस्कृति प्रशासन
राजपूत काल में राजतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था विद्यमान थी राजा निरंकुश होता था राज्य की समस्त शक्तियाँ उसी के हाथ में होती थीं राजा प्रजावत्सल होते थे. वे सभी धर्मावलम्बियों के साथ समानता और सहिष्णुता का व्यवहार करते थे.
दैवी अधिकारों में विश्वास राजपूत काल में जनता का विश्वास था कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है स्वयं
राजा भी अपने में ईश्वरीय अंश मानते थे.
                            सामन्तशाही
इस काल में सामन्तशाही अर्थात् जागीरदारी प्रथा विद्यमान थी सामन्तों का पद परम्परागत होता था इनकी नियुक्ति का मुख्य आधार उच्च कुल था
                               सैन्य संगठन
सैन्य संगठन पुरानी पद्धतियों पर आधारित था राजा सामन्त की सेनाओं पर निर्भर होता था यद्यपि राजा एवं सैनिक बड़े वीर होते थे, किन्तु उनके कुशल एवं नियमित प्रशिक्षण की उत्तम व्यवस्था नहीं थी सेना के मुख्यत: तीन अंग थे – (1) पैदल. (2) हाथी. (3) अश्व सेना
वित्त व्यवस्था अपराध के लिए किए जुर्माने व्यापार तथा उद्योग-धन्धों पर लगाए गए करों से राज्य को पर्याप्त आय प्राप्त होती थी भूमिकर राज्य की आय का मुख्य स्रोत था राजा को सामंत भी वार्षिक कर एवं उपहार प्रदान करते थे आय का अधिकांश भाग युद्धों पर व्यय किया जाता था प्रांतीय शासन
शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए राज्य को प्रातों में बाँट दिया जाता था, जिन्हें ‘भुक्ति’ कहा जाता था भुक्ति के शासक को ‘उपरिक’ के नाम से जाना जाता था भुक्ति को अनेक ‘विषयों’ अर्थात् जिले में विभक्त किया जाता था. विषय के शासक को विषयपति’ कहा जाता था विषय को कई गाँवों में विभक्त किया जाता था. गाँव के अधिकारी को ग्रामिणी कहा जाता था
                             वर्ण व्यवस्था
राजपूत काल में वर्ण व्यवस्था अस्त- व्यस्त हो चुकी थी वर्णों के स्थान पर अनेक नई जातियों तथा उपजातियों का प्रार्दुभाव हो गया था नई जातियों का मुख्य आधार प्रांतीय सीमाए. उद्योग-धन्धे तथा व्यवसाय आदि थे व्यवसाय के आधार पर ‘कायस्थ’ नामक नई जाति का उद्भव इसी काल में हुआ
                         राजपूतों में जौहर प्रथा
राजपूतों में जौहर प्रथा का प्रचलन था. इस प्रथा में राज्य के समस्त सैनिक मारे जाने राजा के मारे जाने या बंदी बनाए जाने की दशा में जब विजय प्राप्त होने की जरा भी आशा नहीं रहती थी, तब राजपूत महिलाएं अपने सतीत्व की रक्षा हेतु सामूहिक रूप से अग्नि में भस्म हो जाया करती थीं.
                           स्त्रियों की दशा
राजपूतकालीन समाज में स्त्रियों का आदर होता था स्त्रियों का चरित्र उच्चकोटि का होता था पतिभक्ति उनके जीवन का परम लक्ष्य था. इस काल में अनेक विदुषी स्त्रियाँ हुईं ‘इंद्रलेखा’, ‘मोरिका’, ‘सुभद्रा’, ‘पद्मश्री’, ‘मदालसा’ इस काल की प्रसिद्ध संस्कृत साहित्य की कवयित्रियाँ थीं नृत्य. संगीत एवं चित्रकला में स्त्रियाँ विशेष प्रशिक्षण लेती थीं. पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था, किन्तु बाल-विवाह एवं सती प्रथा का अत्यधिक प्रचार था धर्म राजपूत काल में हिन्दू धर्म का खूब प्रचार-प्रसार हुआ. अनेक समाज सुधारक एवं विद्वान् यथा कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य. रामानुज आदि ने हिन्दू धर्म को पुनर्गठित कर, सरल, सहज तथा लोकप्रिय बनाया इसी काल में हिन्दू धर्म वैष्णव व शेव में विभाजित हो गया यह युग बौद्ध तथा जैन धर्म के अवसान का काल था शिक्षा राजपूत काल में प्राचीन शिक्षा प्रणाली ही प्रचलित थी गुरुकुल, बौद्ध विहार तथा मंदिर शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे नालंदा इस काल का प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था राजपूतों में बंगाल के पाल शासकों ने शिक्षा का बहुत अधिक प्रचार-प्रसार किया ओंदतपुरी (बिहार), सोमपुरी (बंगाल), विक्रमशील (पूर्वी बिहार), विक्रमपुर (पूर्वी बंगाल), जगदल (उत्तरी बंगाल) इस काल के अन्य प्रसिद्ध शिक्षा के केन्द्र थे. भाषाओं की प्रगति
यह युग विभिन्न भाषाओं की प्रगति का युग था. सर्वाधिक प्रगति संस्कृत भाषा की हुई. इसके अतिरिक्त अनेक प्रादेशिक भाषाएं यथा सूरसैनी, मागधी, हिन्दी (अपभ्रंश) बंगाली, गुजराती, मराठी आदि का भी खूब विकास हुआ
                             साहित्य
राजपूत सम्राटों ने विद्वानों तथा लेखकों को पुरस्कार एवं आश्रय प्रदान कर साहित्य की उन्नति में अपना अपूर्व योगदान दिया भवभूति, कल्हण विल्हण, राजशेखर, जयदेव, श्री हर्ष हलायुध, भारवि माद्य, भट्टी, पदमगुप्त, आनन्दवर्धन, भट्ट नारायण, मुरारी, जयनाथ, क्षेमेन्द्र, जयादित्य, भर्तृहरि, कोक पण्डित, हेमचन्द्र, विज्ञानेश्वर आदि इस काल के प्रमुख विद्वान् थे
राजशेखर की ‘काव्य मीमांसा’ तथा ‘कर्पूर मंजरी, भवभूति की मालती माधव’. ‘महावीरचरित’ तथा ‘उत्तररामचरित’, कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ विल्हण की ‘विक्रमांक चरितम् जयनाथ की पृथ्वीराज विजयम् चन्दबरदाई की ‘पृथ्वीराज रासो’, भट्टी का ‘रावण वध’, कोक पण्डित की ‘कोकशास्त्र’, विज्ञानेश्वर की ‘मिताक्षरा’, माधवकर की ‘माधव निदान’ जयदेव का ‘गीतगोविन्द आदि इस काल की उच्चकोटि की साहित्यिक रचनाएं हैं. मूर्तिकला
राजपूत काल में मूर्तिकला उन्नति तथा विकास की ओर अग्रसर थी. इस काल में मिट्टी पत्थर तथा धातु की मूर्तियाँ निर्मित की गई. दुर्गा, शिव, विष्णु, सूर्य, गणेश, चण्डी, काली, सरस्वती, कामातुरा आदि अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियों का निर्माण किया गया. ऐलीफेन्टा गुफा स्थित शिव की मूर्ति इस युग की श्रेष्ठ मूर्तियों में से है
                                चित्रकला
यद्यपि वर्तमान में तत्कालीन चित्रकला के नमूने अधिकांशतः नष्ट हो गए, किन्तु तत्कालीन साहित्य से ज्ञात होता है कि इस काल में चित्रकला उन्नत रही होगी क्योंकि आज भी मन्दिरों की दीवारों पर पशु-पक्षी. वृक्ष. लता, पुष्प आदि के चित्र यत्र-तत्र मिलते हैं. इस काल में चित्रशालाएं भी अपने अस्तित्व में थीं.
                               संगीतकला
इस काल में संगीत, वादन, नृत्यकला का भी विकास हुआ. संगीत सभी वर्गों के लिए मनोरंजन का उत्तम साधन था राजपूत नरेश समय-समय पर गायन वादन एवं नृत्य का रसास्वादन करते थे.
                               वास्तुकला
इस काल में वास्तुकला के क्षेत्र में आशातीत प्रगति हुई. अनेक राजप्रासाद दुर्ग तथा मंदिरों का निर्माण हुआ जो वर्तमान में भी अपने कलात्मक आकर्षण को अक्षुण्ण बनाए हुए हैं. राजप्रासादों में उदयपुर की ‘पिछोला झील के राजप्रासाद, ग्वालियर का ‘गूजरी महल’ तथा ‘मान मंदिर’ व जयपुर के राजप्रासाद, दुर्गों में रणथम्भौर, ग्वालियर, चित्तौड़ तथा मांडू के दुर्ग कला के अविस्मरणीय उदाहरण हैं
मंदिरों में उड़ीसा में भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर, खजुराहो का महादेव मंदिर, आबू का जैन मंदिर इस काल की वास्तुकला के आकर्षक उदाहरण हैं. इस काल के मंदिरों में तीन प्रकार की शैलियाँ दर्शित होती हैं- (1) नागर शैली, (2) द्रविड़ शैली , (3) चालुक्य शैली (बेसर शैली) सातवीं शताब्दी के मध्य में अरबवासियों ने भारत में घुसने का असफल प्रयास किया. इसके पश्चात् पुनः 711-712 ई. में हज्जाज के भतीजे एवं दामद मुहम्मद-बिन- कासिम ने भारत पर आक्रमण कर सिन्ध तथा मुल्तान को विजित किया, किन्तु मुहम्मद-बिन-कासिम की मृत्यु के कारण भारत में अरबवासियों का राज्य स्थायित्व को प्राप्त नहीं कर सका भारत पर अरबवासियों के आक्रमण करने का मुख्य उद्देश्य यहाँ की सम्पत्ति को लूटना तथा यहाँ इस्लाम धर्म का प्रचार करना था किन्तु इस आक्रमण का भारत के राजनीतिक क्षेत्र में कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा लेनपूल के अनुसार, “सिन्धु की विजय एक घटना मात्र है. इसका कोई स्थायी प्रभाव नहीं हुआ”, किन्तु इतना तो अवश्य है कि भविष्य में भारत पर आक्रमण करने वालों को प्रोत्साहन जरूर प्राप्त हुआ.
इसके पश्चात् 11वीं शताब्दी के प्रारम्भ में महमूद गजनवी ने तथा 12वीं शताब्दी में मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण किया. इन आक्रमणों में महमूद गजनवी के आक्रमण का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा. वह यहाँ की केवल सम्पत्ति लूटने तथा धर्मस्थलों को नष्ट करने में ही सफल हुआ, किन्तु मुहम्मद गौरी के आक्रमण का भारत के राजनीतिक क्षेत्र में बहुत अधिक प्रभाव पड़ा. इस आक्रमण के परिणामस्वरूप ही भारत में तुर्क राज्य की स्थापना हुई. बाद में तुर्कों के अनेक वंशों ने भारत पर सैकड़ों वर्ष तक शासन किया.
                     महमूद गजनवी तथा उसके भारत पर आक्रमण
महमूद गजनवी गजनी के शासक सुबुत्तगीन का पुत्र था उसका जन्म 1 नवम्बर सन् 971 ई. में हुआ था. 27 वर्ष की अवस्था में सन् 998 ई. में महमूद गजनवी सिंहासन पर आसीन हुआ. बगदाद के खलीफा अल कादिर बिल्लाह ने महमूद गजनवी के पद को मान्यता प्रदान कर उसे -मिल्लाह ‘यमीन-उद-दौला’ तथा यमीन-उल-1 की उपाधियों से विभूषित किया. महमूद बड़ा ही महत्वाकांक्षी था. उसने प्रतिज्ञा की थी कि यह प्रति वर्ष भारत के काफिरों पर आक्रमण करेगा उसके भारत पर किए गए कुछ प्रमुख आक्रमण इस प्रकार थे-
सीमावर्ती प्रदेशों पर आक्रमण 1000 ई. में महमूद गजनवी ने भारत के सीमावर्ती प्रदेशों पर आक्रमण करके वहाँ स्थित दुर्गों तथा नगरों को विजित कर वहाँ की धन सम्पदा को लूटा.
                           जयपाल पर आक्रमण
1001 ई. में महमूद ने जयपाल पर आक्रमण कर दिया. पेशावर के निकट युद्ध में जयपाल पराजित हुआ. जयपाल स्वाभिमानी था. वह इस पराजय को झेल न सका, अतः उसने चिता में जलकर आत्महत्या कर ली.
                          मुल्तान पर आक्रमण
1006 ई. में महमूद ने मुल्तान पर आक्रमण कर फतेह दाउद को परास्त किया और मुल्तान पर अधिकार कर लिया. आनन्दपाल पर आक्रमण आनन्दपाल जयपाल का पुत्र तथा लाहौर का शासक था 1008 ई में ने आनन्दपाल पर आक्रमण कर दिया वैहिन्द के युद्ध में महमूद को अप्रत्याशित विजय प्राप्त हुई. महमूद नगरकोट पर आक्रमण नगरकोट हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान था यहाँ उस समय प्रसिद्ध ज्वालामुखी मंदिर विद्यमान था. महमूद ने सन् 1009 में नगरकोट पर आक्रमण कर दिया वहाँ के मंदिर तथा धन सम्पदा को खूब लूटा थानेश्वर पर आक्रमण नगरकोट को लूटने के पश्चात् महमूद ने 1014 ई. में थानेश्वर पर आक्रमण करके यहाँ स्थित अनेक मंदिरों तथा नगर को लूटा
                             मथुरा पर आक्रमण
एक बार पुन: महमूद सन् 1018 ई. में भारत पर आक्रमण हेतु गजनी से चला इस बार उसके आक्रमण का शिकार बुलंदशहर, मथुरा तथा कन्नौज नगर हुए मथुरा उस समय उत्तरी भारत का सर्वाधिक समृद्धशाली नगर था अतः महमूद ने मथुरा को जी भरकर लूटा. कन्नौज पर आक्रमण मथुरा को लूटने के पश्चात् महमूद कन्नौज की ओर बढ़ा यहाँ प्रतिहार राजा राज्यपाल बिना युद्ध किए ही भाग गया महमूद ने दुर्ग पर अधिकार करके नगर को जी भरकर लूटा और गजनी वापस चला गया.
कालिंजर पर आक्रमण सन् 1019 ई. में कालिंजर पर आक्रमण कर दिया, वहाँ का राजा गण्ड डर कर भाग गया. इस आक्रमण से भी भी महमूद को बहुत धन प्राप्त हुआ धन प्राप्त करने के पश्चात् वह गजनी लौट गया. सोमनाथ पर आक्रमण काठियावाड़ तत्कालीन भारत का एक अत्यन्त ही समृद्धशाली नगर था. यहाँ का मन्दिर भी सर्वत्र प्रसिद्ध था. काठियावाड़ के तट पर स्थित इस मंदिर पर सन् 1025 ई. में महमूद ने आक्रमण कर दिया. आक्रमण का समाचार पाते ही अनेक हिन्दू राजा सोमनाथ की रक्षा हेतु एकत्र हो गए और एक बार तो महमूद को पराजय के द्वार पर पहुँचा दिया, किन्तु अन्त में विजय महमूद की ही हुई. सोमनाथ की मूर्ति तोड़ दी गई तथा मंदिर की समस्त सम्पत्ति महमूद हाथ लगी और वह गजनी लौट गया. के आक्रमण के प्रभाव राजनीतिक प्रभाव
महमूद के आक्रमण से पंजाब तुकों के अधिकार में चला गया. भारत की राजनीतिक दुर्बलता का सर्वत्र प्रचार हो गया परिणामस्वरूप भारत पर तुकों के अन्य आक्रमण हुए और तुर्कों के राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ
                           धार्मिक प्रभाव
तुर्कों की लूट-खसोट व खून-खराबे की नीति से भारतीयों के हृदय में घोर घृणा उत्पन्न हो गई कलाकृतियों की क्षति महमूद के भारत पर किए गए आक्रमणों के परिणामस्वरूप भारतीय कला, सभ्यता एवं संस्कृति को अपार क्षति पहुँची. इस आक्रमण में अनेक भव्य मंदिरों तथा देवी- देवताओं की मूर्तियों का विध्वंस किया गया अनेक समृद्धशाली नगर यथा-नगरकोट, कन्नौज, मथुरा को लूटा गया, वहाँ की जनता पर अमानुषिक अत्याचार किए गए आर्थिक प्रभाव महमूद के आक्रमण से जन-धन की अपार क्षति हुई भारत की अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई. भारत की अतुलनीय सम्पत्ति गजनी पहुँच गई इससे गजनी के सौन्दर्यीकरण में सहायता मिली.
                 मुहम्मद गौरी और उसका भारत पर आक्रमण
बारहवीं शताब्दी में गजनी तथा हिरात के मध्य ‘गोर’ नाम का एक छोटा-सा राज्य था. महमूद गजनवी ने ‘गोर’ पर अनेक आक्रमण किए, किन्तु वह इस राज्य को कभी भी पूर्णरूपेण अपने राज्य में न मिला सका. इस प्रकार दोनों राज्यों में संघर्ष जारी रहा. बाद में गौरी के शासक ‘ग्यासुद्दीन-बिन-गोर’ ने गजनी के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया और अपने भाई मुईजुद्दीन को मुहम्मद गौरी के नाम से गजनी का शासक नियुक्त किया
जिस समय मुहम्मद गौरी ‘गजनी एवं गोर प्रदेश का शासक था, उस समय भारत की राजनीतिक दशा दयनीय थी. भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था. मुहम्मद गौरी की महत्वाकांक्षाओं ने उसे भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया. मुहम्मद गौरी को यह भी भली-भाँति ज्ञात था कि महमूद द्वारा भारत की सम्पत्ति लूटे जाने के बाद भी अभी यहाँ अपार सम्पत्ति भण्डार है. इधर पंजाब में इस समय महमूद गजनवी के वंश का शासन था, जिससे मुहम्मद गौरी को हमेशा भय बना रहता था कि यह राज्य कहीं उस पर आक्रमण न कर दे वह मुल्तान के इस्माइलिया शियाओं से भी शकित रहता था अतः अपने साम्राज्य की सुरक्षा तथा सम्पत्ति वृद्धि करने के उद्देश्य से उसने भारत पर आक्रमण कर दिया मुहम्मद गौरी ने भारत पर निम्नलिखित आक्रमण किए-
मुल्तान पर आक्रमण मुहम्मद गौरी ने 1175 ई. में मुल्तान पर आक्रमण कर मुल्तान को विजित किया
उच्छ के दुर्ग के आक्रमण मुल्तान विजित करने के पश्चात् मुहम्मद गौरी ने उच्छ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया
                        गुजरात पर आक्रमण
इस आक्रमण में मुहम्मद गौरी का अत्यन्त ही वीर एवं कुशल योद्धा मूलराज द्वितीय से आमना-सामना हुआ घमासान युद्ध में मुहम्मद गौरी पराजित हुआ उसे अपार जन एवं धन की हानि हुई भारत में मुहम्मद गौरी की यह पहली बड़ी हार थी
लाहौर पर आक्रमण व पंजाब विजय सन् 1181 ई. में मुहम्मद गौरी ने लाहौर पर आक्रमण किया उस समय वहाँ खुसरो मलिक का शासन था उसने बिना युद्ध किए ही मुहम्मद गौरी के समक्ष आत्म- समर्पण कर उसे अनेक उपहार प्रदान किए मुहम्मद गौरी ने 1186 ई में पुनः खुसरो पर आक्रमण कर उसे हरा दिया और बंदी बना लिया और सम्पूर्ण पंजाब पर उसका अधिकार हो गया
                              तराइन का प्रथम युद्ध
सिन्ध तथा पंजाब विजय के पश्चात् मुहम्मद गौरी ने सीमावर्ती नगर सरहिन्द, भटिण्डा पर आक्रमण कर इन्हें हस्तगत कर लिया अब गौरी के राज्य की सीमाएँ दिल्ली तथा अजमेर को स्पर्श करने लगीं 1191 में गौरी व पृथ्वीराज के मध्य तराइन के मैदान में भयंकर युद्ध हुआ इस युद्ध में मुहम्मद गौरी की अपार क्षति हुई उसकी भारत में यह एक अन्य बड़ी पराजय थी.
                            तराइन का द्वितीय युद्ध
मुहम्मद गौरी ने गजनी पहुँचते ही राजपूतों से अपनी पराजय का बदला लेने के लिए युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ कर दी सन् 1192 ई. में एक बार पुनः तराइन के मैदान में घोर संग्राम हुआ, किन्तु इस युद्ध में मुहम्मद गौरी विजित हुआ इस विजय ने उत्तरी भारत में तुर्क सत्ता की स्थापना की प्रक्रिया आरम्भ कर दी
                              कन्नौज पर आक्रमण
1194 में गौरी ने कन्नौज पर आक्रमण किया कन्नौज और इटावा के मध्य स्थित चन्दवार नामक स्थान पर दोनों सेनाओं के मध्य घोर युद्ध हुआ. युद्ध में राजपूत पराजित हुए तथा जयचन्द मारा गया
                               अन्य विजयें
मुहम्मद गौरी के गजनी लौट जाने के पश्चात् उसके प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक ने बयाना, ग्वालियर, धौलपुर, अजमेर तथा बुंदेलखण्ड आदि प्रदेशों पर तथा गौरी के एक अन्य सेनापति मुहम्मद-बिन-बख्तियार खिलजी ने बंगाल व बिहार के सेन वंशीय शासकों को पराजित कर उनके साम्राज्य पर अधिकार कर लिया 1206 ई. में मुहम्मद गौरी की मृत्यु के उपरान्त भारत में कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वयं को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और इस प्रकार भारत में दास वंश का शासन आरम्भ हुआ.
गुप्त एवं गुप्तोत्तर युग
(नोट्स
* गुप्त वंश ने लगभग 275-550 ई. तक शासन किया। *इस वंश की स्थापना लगभग 275 ई. में महाराज श्रीगुप्त द्वारा की गई थी, किंतु गुप्त वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक चंद्रगुप्त I था, जिसने 319-335 ई. तक शासन किया। * इसने अपनी महत्ता सूचित करने के लिए अपने पूर्वजों के विपरीत ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। *गुप्त संवत् का प्रवर्तक चंद्रगुप्त प्रथम था। * इसकी प्रारंभ तिथि 319 ई. है।
* इतिहासकार विसेंट स्मिथ ने अपनी रचना ‘अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में समुद्रगुप्त की वीरता एवं विजयों पर मुग्ध होकर उसे ‘भारतीय नेपोलियन’ की संज्ञा दी है।
* इलाहाबाद का अशोक स्तंभ अभिलेख समुद्रगुप्त (335-375 ई.) के शासन के बारे में सूचना प्रदान करता है। * इस स्तंभ पर समुद्रगुप्त के संधि- विग्रहिक हरिषेण ने संस्कृत भाषा में प्रशंसात्मक वर्णन प्रस्तुत किया है, जिसे ‘प्रयाग प्रशस्ति’ कहा गया है। * इसमें समुद्रगुप्त की विजयों का  उल्लेख है। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के कुछ प्रशासनिक पदाधिकारियो के नाम मिलते है। ये हैं सन्धिविग्रहक, खाद्यटपार्किक, कुमारामात्य तथा महादण्डनायका अशोक निर्मित यह स्तंभ मूलतः कौशाम्बी में स्थित था, जिसे अकबर ने इलाहाबाद में स्थापित करवाया था। इस स्तंभ पर जहांगीर के आदेश है तथा बीरबल का भी उल्लेख है।
गुप्त शासक चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (375-415 ई.) का एक अन्य नाम देवगुप्त मिलता है। इसका प्रमाण सांधी एवं वाकाटक अभिलेखों से मिलता है। उसके अन्य नाम देवराज तथा देवश्री भी मिलते हैं। मेहरौली लेख के अनुसार, चंद्र ( चंद्रगुप्त द्वितीय) ने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्व की स्थापना कराई थी। *दिल्ली में मेहरौली नामक स्थान से ‘मेहरौली लौह स्तंभ लेख प्राप्त हुआ है, जो वर्तमान में कुतुबमीनार के समीप है। * इसमें ‘चंद्र’ नामक किसी राजा की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है, जिसका समीकरण गुप्तवंशीय शासक चंद्रगुप्त द्वितीय से किया जाता है। *गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य को ‘शक विजेता’ कहा गया. है।
 *पश्चिम भारत के अंतिम शक राजा रुद्रसिंह III को चंद्रगुप्त द्वितीय “विक्रमादित्य ने पांचवीं सदी के प्रथम दशक में परास्त कर पश्चिमी भारत में शक सत्ता का उन्मूलन किया था। शकों को हराने के कारण चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की एक अन्य उपाधि ‘शकारि’ भी है। उसने इस उपलक्ष्य में अ चांदी के सिक्के भी चलाए। *चांदी के सिक्कों को गुप्त काल में ‘रुप्यक’ (रूपक) कहा जाता था।
* चंद्रगुप्त द्वित्तीय विक्रमादित्य के कुशल शासन की प्रशंसा चीनी यात्री फाह्यान ने भी की है। इनके नवरत्नों की प्रसिद्धि सर्वकालिक रही है। नवरत्नों में सर्वोत्कृष्ट महाकवि कालिदास थे। *अगले क्रम पर महान चिकित्सक (Great Physician) धन्वंतरि थे। तीसरे खगोल विज्ञानी (Astronomer) वराहमिहिर, चौथे कोशकार (Lexicographer • डिक्शनरी निर्माणकर्ता) अमर सिंह, पांचवें वास्तुकार (Architect) शंकु तथा छठवें रत्न फलित ज्योतिषी (Astrologer) क्षपणक थे। * इसी इस प्रकार सातवें विद्वान वैयाकरण (व्याकरण) वरुचि, आठवें जादूगर (Magician) बेतालभट्ट तथा नौवें रत्न घटकर्पर महान कूटनीतिज्ञ थे। *कुमारगुप्त प्रथम ‘महेंद्रादित्य’ (लगभग 415-455 ई.) चंद्रगुप्त द्वितीय की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न बड़ा पुत्र था। इसके समय के गुप्तकालीन सर्वाधिक अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनकी संख्या लगभग 18 है। *बिलसड अभिलेख में कुमारगुप्त प्रथम तक गुप्तों की वंशावली प्राप्त होती है। * बंगाल) के तीन स्थानों से कुमारगुप्तकालीन ताम्रपत्र प्राप्त होते हैं। *ये हैं- धनदेह ताम्रपत्र, दामोदरपुर ताम्रपत्र तथा वैग्राम ताम्रपत्र। *कुमारगुप्त की स्वर्ण,
रजत तथा ताम्र मुद्राएं प्राप्त होती हैं। मुद्राओं पर उसकी उपाधियां महेंद्रादित्य, श्रीमहेंद्र, महेंद्रसिंह, अश्वमेध महेंद्र आदि उत्कीर्ण मिलती हैं। * स्कंदगुप्त ‘क्रमादित्य’ (लगभग 455-467 ई.) के स्वर्ण सिक्कों के ( मुख भाग पर धनुष-बाण लिए हुए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर थे द्मासन में विराजमान लक्ष्मी के साथ-साथ ‘श्रीस्कंदगुप्त’ उत्कीर्ण है।
रियों सिक्कों के ऊपर गरुड़ध्वज तथा उसकी उपाधि ‘क्रमादित था मितरी स्तम लेख में पुष्यमित्र और हूणों के साथ स्कंदगुप्त
वर्णन मिलता है। हूणों का पहला भारतीय आक्रमण गुप्त के शासनकाल में हुआ तथा स्कंदगुप्त के हाथों वे बुरी तरह
*ईसा की तीसरी सदी से जब हूण आक्रमण से रोमन साम्राज हो गया, तो भारतीय दक्षिण-पूर्व एशियाई व्यापार पर अधिक नि
*तौरमाण भारत पर दूसरे हूण आक्रमण का नेता था। 5 एरण नामक स्थान से वाराह प्रतिमा पर खुदा हुआ उसका है, जिससे पता चलता है कि धन्यविष्णु उसके शासनकाल के में उसका सामंत था। *मिहिरकुल हूण शासक तोरमाण का उत्तराधिकारी था। *मिहिरकुल अत्यंत क्रूर एवं अत्याचारी शा *चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा मंदसौर लेख के साक्ष्य से ज्ञात हो सर्वप्रथम गुप्त नरेश नरसिंह गुप्त बालादित्य ने लगभग 528 ई. स्रोतों के अनुसार 495 ई. में तत्पश्चात मालव नरेश यशोधन मिहिरकुल को बुरी तरह पराजित किया गया था।
* गुप्तकाल में बंगाल में ताम्रलिप्ति एक प्रमुख बंदरगाह था, जहां त भारतीय व्यापार एवं साथ ही दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, लंका, जावा. आदि देशों के साथ व्यापार होता था। *पश्चिमी भारत का प्रमुख मृगुकच्छ (भड़ौच) था जहां से पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार होत * प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था में श्रेणियों का विशेष महत्व थ नी संगठन व्यापारियों के द्वारा उनके व्यापार के समुचित संचालन के 5 स्थापित किए जाते थे। * श्रेणियों का अपने सदस्यों पर न्यायिक अधि होता था तथा श्रेणियों के द्वारा ही सदस्यों के वेतन, काम करन नियमों, मानकों एवं कीमतों का निर्धारण किया जाता था। *प्रत्येक का अपना एक प्रमुख होता था। *राजा का श्रेणियों के संचालन में हस्तक्षेप नहीं होता था, श्रेणियां अपने नियम स्वयं बनाती थीं। * गुप्तकाल में गुजरात, बंगाल, दक्कन एवं तमिलनाडु वस्त्र उत्पाके लिए प्रसिद्ध थे। * वस्त्रोद्योग, गुप्तकाल का प्रमुख उद्योग था। *गुप्तक
में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के प्रमुख केंद्र थे-ताम्रलिप्ति, भृगुकच्छ, अरिकामे कावेरीपत्तनम, मुजिरिस, प्रतिष्ठान, सोपारा, बारबेरिकम।
* आयुर्वेद तथा चिकित्सा के क्षेत्र में प्राचीन भारत की चरम परिणा चरक एवं सुश्रुत में मिलती है। * धन्वंतरि चंद्रगुप्त II विक्रमादित्य ल नवरत्नों में से एक थे, ये आयुर्वेद शास्त्र के प्रकांड पंडित थे। * भास्कराचा देह प्रख्यात खगोलज्ञ एवं गणितज्ञ थे। उन्होंने ‘सिद्धांत शिरोमणि’ तथ र्ण, ‘लीलावती’ नामक ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में गणित तथा खगोल
यां विज्ञान संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। * 5वीं शती ई. तक भारत में त्रिकोणमिति में ज्या (Sine), कोज्या के (Cosine) और उत्क्रम ज्या (Inverse Sine ) के सिद्धांत ज्ञात हो चुके थे। *”सूर्य सिद्धांत’ और ‘आर्यमट्टीय’ में इनका उल्लेख है। *सातवीं शती ई. में ब्रह्मगुप्त द्वारा के सिद्धांत का वर्णन मिलता है। •
की कुल • समुद्रगुप्त 8 प्रकार की स्वर्ण मुद्राएं हमें प्राप्त होती है। ये है गरुड़, धनुधारी, चंद्रगुप्त । प्रकार, चक्र प्रकार, परशु, अश्वमेध तथा वीणावादन प्रकार। गुप्तकाल में स्वर्ण मुद्रा को दीनार जाता था। चीनी यात्री फाह्यान के अनुसार, लोग दैनिक क्रय-विक्रय का प्रयोग करते थे। गुप्त शासकों के सिक्के उत्तर प्रदेश, कौड़ियों का बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा (ओडिशा) में पाए गए हैं। “सिक्को का सबसे प्रसिद्ध प्राप्ति स्थल राजस्थान का भरतपुर बिहार बयाना है। * इनके द्वारा जारी किए गए चांदी के सिक्के रूपक कहलाते “गुप्त शासकों में चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा सर्वप्रथम सिक्के जारी किए गए। सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य एरण से प्राप्त हुआ है। * यह 510 ई. का है, जिसमें गोपराज नामक सेनापति की स्त्री के
ती होने का उल्लेख है। गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण थे – हूण आक्रमण, प्रशासन का ढांचा आदि। गुप्तकाल में नगर क्रमिक पतन की ओर अग्रसर हुए संपूर्ण गंगा घाटी में जो शहर पहले अत्यंत समृद्ध अवस्था में थे, से अधिकांश की गुप्तकाल में या तो त्याग दिया गया या वहां के न में पर्याप्त विघटन हुआ। * पाटलिपुत्र जैसा प्रमुख नगर ह्वेनसांग * के आगमन तक गांव बन गया था। मथुरा जैसा प्रमुख नगर एवं कुप्रहार, आवासन सोहगौरा और उत्तर प्रदेश में गंगा घाटी के अनेक महत्वपूर्ण केंद्र इस काल में हास के ही प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
गुप्तकाल में कला एवं साहित्य में हुई प्रगति के आधार पर इस की प्राचीन भारत का ‘स्वर्ण युग’ कहा जाता है। अजंता की तीन चैत्य है। गुफाएं (16वी, 17वीं तथा 19वीं) गुप्तकालीन मानी जाती हैं। * इनमें 16वी था 17वा गुफाएं विहार तथा उन्नीसवीं गुफा
*गुप्त अनुदान वंश के शासकों ने मंदिरों एवं ब्राह्मणों को सबसे अधिक ग्राम में दिए थे। गुप्तकाल में जो लोग राजकीय भूमि पर कृषि करते. उन्हें अपनी उपज का एक भाग राजा को कर के रूप में देना पड़ता था, जो सामान्यतः षष्ठांश तक होता था। गुप्त अभिलेखों में भूमि कर को उद्रंग कर कहा गया है। प्रायः सभी धर्मशास्त्रों में भू-राजस्व की दर 1 उपज का छठा भाग थी। *प्राचीन भारत में सिंचाई कर को अथवा उदकभाग कहा गया है। हिरण्य मौर्यकाल में लिया। वाला नकद कर था। गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में रेशम के लिए कौशेय’ शब्द का प्रयोग होता था। *तीसरी शताब्दी में वारंगल लोहे के पिकरणों हेतु प्रसिद्ध था।
* गुप्तकाल में लिखित संस्कृत नाटकों में स्त्री और शूद्र प्राकृत भाषा हांसे थे, जबकि उच्च वर्ण के लोग संस्कृत भाषा बोलते थे। * शूद्रक पृच्छकटिकम्’ नामक रचना से गुप्तकालीन शासन व्यवस्था एवं जीवन के विषय में रोचक सामग्री मिलती है। * इस ग्रंथ में चारुदत्त नार सनक ब्राह्मण सार्थवाह एवं एक गणिका की पुत्री वसंतसेना की प्रेम गाथा शब्दों का रूप दिया गया है।
  • गुप्त साम्राज्य की शासन व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। मौर्य शासकों के विपरीत शासक अपनी दैवीय उत्पत्ति में विश्वास करते थे। गुप्त शासकों ने भूमिदान की परंपरा को विस्तारित किया। गुप्त प्रशासन का स्वरूप केंद्रीकृत न होकर संघात्मक था, गुप्त राजा अनेक छोटे राजाओं का राजा होता था। सात तथा प्रातीय शासक अपने-अपने क्षेत्रों में नितांत स्वतंत्रता का अनुभव करते थे।
* शतरंज का खेल भारत में गुप्तकाल के दौरान उदभूत हुआ था
जहाँ इसे ‘चतुरंग’ के नाम से जाना जाता था। *भारत से यह ईरान एवं
तत्पश्चात यूरोप में पहुंचा। * प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई.) वाकाटक वंश का एकमात्र शासक था, जिसने सम्राट’ की उपाधि धारण की थी। वाकाटक शासक प्रवरसेन प्रथम ने चार अश्वमेध यज्ञों का संपादन किया। इसके साथ ही उसने अनेक वैदिक यज्ञ भी किए। * इसी वंश के शासक प्रवरसेन द्वितीय की रुचि साहित्य में थी, उसने ‘सेतुबंध’ नामक ग्रंथ की रचना की।
 * महर्षि कपिल ने सांख्य दर्शन का प्रतिपादन किया था। *सांख्य पुनर्जन्म अथवा आत्मा के आवागमन के सिद्धांत को स्वीकार करता है। सांख्य दर्शन में अज्ञानता को ही दुःखों का कारण तथा विवेक ज्ञान को उनसे मुक्ति का एकमात्र उपाय बताया गया है। * महर्षि पतंजलि को योग दर्शन का प्रतिष्ठापक आचार्य माना जाता है। *सर्वप्रथम महर्षि पतंजलि ने ही सुसंबद्ध दार्शनिक सिद्धांत के रूप में योग का विवेचन किया। इसीलिए इसे ‘पतंजलि दर्शन’ भी कहा जाता है।
*नव्य-न्याय संप्रदाय का प्रवर्तन मिथिला के आचार्य गंगेश उपाध्याय की युग-प्रवर्तक कृति ‘तत्वचिंतामणि’ से हुआ एवं इसके संवर्धन के लिए बंगाल के नवद्वीप के नैयायिक वासुदेव सार्वभौम, दीघितिकार रघुनाथ शिरोमणि तथा मथुरानाथ, जगदीश एवं गदाधर भट्टाचार्य सुप्रसिद्ध हैं। * भारतीय दर्शन में चार्वाक दर्शन जड़वादी या भौतिकवादी विचारधारा का पोषक है। * इस दर्शन का आदर्श है-
“यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः । ” “जब तक जीवित रहें, सुख से जीवित रहें, ऋण लेकर घी पियें, क्योंकि देह के भस्म हो जाने के बाद पुन: प्राप्त नहीं होता है।”
* न्याय दर्शन का प्रवर्तन गौतम ने किया जिन्हें अक्षपाद भी कहा जाता है। * न्याय का शाब्दिक अर्थ तर्क या निर्णय होता है। * न्याय दर्शन में 16 पदार्थों या तत्वों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। * न्याय दर्शन का मूल ग्रंथ गौतम कृत ‘न्यायसूत्र है।
कर्म का सिद्धांत मीमांसा दर्शन से संबंधित है। इसे पूर्व मीमांसा, कर्म मीमांसा या धर्म मीमांसा भी कहते हैं। *जैमिनी ने पूर्व मीमांसा का प्रतिपादन किया था। * मीमांसा के प्रखर एवं उद्भट आचार्य कुमारिल भट्ट को, जिनकी गणना भारतीय दर्शन के मूर्धन्य आचायों में की जाती है और जिन्होंने अपने प्रमुख तर्कों से बौद्ध धर्म तथा दर्शन का खंडन करके वैदिक धर्म तथा दर्शन की पुनः प्रतिष्ठा की, पूर्व मीमांसा और वेदांत के बीच की श्रृंखला माना जा
सकता है। मीमांसा दर्शन वेद को शाश्वत सत्य मानता है। पूर्वमीमांसा दर्शन में वेद के कर्मकांड भाग पर विचार किया गया है और उत्तर मीमांसा में वेद के ज्ञानकांड भाग पर विचार किया गया है। मीमांसा और वेदांत न्याय और वैशेषिक तथा सांख्य और योग भारतीय षडदर्शन के भाग है। * वेदों को मान्यता देने के कारण ही सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा
और वेदांत (उत्तर मीमांसा) पड्दर्शन ‘आस्तिक दर्शन’ कहे जाते हैं। इनके प्रणेता क्रमश: कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनी तथा बादरायण थे। *वेदांत दर्शन को भारतीय विचारधारा की पराकाष्ठा माना जाता है। *वेदांत का शाब्दिक अर्थ है- वेद का अंत’ या ‘वैदिक विचाराधारा की पराकाष्ठा वेदांत दर्शन के तीन आधार है-उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता। *इन्हें वेदांत दर्शन की प्रस्थानत्रयी’ कहा जाता है। कई सूक्ष्म भेदों के आधार पर इसके कई उपसंप्रदाय एवं इसके प्रवर्तक है, जैसे- शंकराचार्य का अद्वैतवाद, रामानुज का विशिष्टाद्वैत, मध्वाचार्य का द्वैतवाद | * पुराणों के अनुसार, चंद्रवंश (या सोमवंश) क्षत्रिय वर्ण के तीन मूल वंशों (अन्य दो सूर्यवंश एवं अग्निवंश) में से एक था। चंद्रवंशीय शासकों का मूल स्थान त्रेतायुग में प्रयाग था परंतु प्रलय के पश्चात द्वापर युग चंद्रवंशीय संवारन ने प्रतिष्ठानपुर (वर्तमान झूसी, इलाहाबाद) में राजधानी की स्थापना की थी।
* अग्निकुल के राजपूतों का सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रतिहार वंश था। * गुर्जरों की शाखा से संबंधित होने के कारण इतिहास में इसे गुर्जर-प्रतिहार वंश के नाम से जाना जाता है। * गुर्जर जाति का प्रथम उल्लेख पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल लेख में हुआ है। *बाणभट्ट के हर्षचरित में भी गुर्जरों का उल्लेख मिलता है। *गुर्जर-प्रतिहार वंश का संस्थापक नागमट्ट प्रथम (730-756 ई.) था। * ग्वालियर अभिलेख से पता चलता है कि उसने म्लेच्छ शासक की विशाल सेना को नष्ट कर दिया था, जो संभवतः सिंघ का अरब शासक था। *इस प्रकार नागभट्ट ने अरबों के आक्रमण से पश्चिम भारत की रक्षा भी की थी। * राष्ट्रकूट वंश की स्थापना 736 ई. में दंतिदुर्ग ने की। उसने मान्यखेट
अपनी राजधानी बनाई। *दंतिदुर्ग के संबंध में कहा जाता है कि उज्जयिनी में उसने हिरण्यगर्भ (महादान) यज्ञ करवाया था। *राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष । का जन्म 800 ई. में नर्मदा नदी के किनारे श्रीभावन नामक स्थान पर सैनिक छावनी में हुआ था। * इस समय इसके पिता राष्ट्रकूट राजा गोविंद III, उत्तर भारत के सफल अभियानों के बाद वापस लौट रहे थे।
* मौखरि गुप्तों के सामंत थे, जो मूलतः गया के निवासी थे। * मौखरि वंश के शासकों ने अपनी राजधानी कन्नौज बनाई। *इस वंश के
प्रमुख शासक हरिवर्मा, आदित्यवर्मा, ईशानवर्मा, सर्ववर्मा एवं ग्रहवर्मा थे। * हर्ष के समय की विस्तृत सूचना इसके दरबारी कवि बाणभट्ट की कृति हर्षचरित से प्राप्त होती है। इससे जुड़ी कुछ सूचनाएं कल्हण कृति राजतरंगिणी में भी मिलती हैं। चीनी स्रोतों से पता चलता है कि हर्ष एवं राज्यश्री दोनों साथ कन्नौज के राजसिंहासन पर बैठते थे।
* हर्ष ने अपनी राजधानी थानेश्वर से कन्नौज स्थानांतरित की, HT को प्रशासनिक कार्यों में पूरी सहायता प्रदान कर सके। महायान की उत्कृष्टता सिद्ध करने के लिए हर्ष ने कन्नौज में विभिन्न एवं संप्रदायों के आचायों की एक विशाल सभा बुलवाई। अनुसार इस सभा में बीस देशों के राजा अपने देशों के प्रसिद्ध: श्रमणों, सैनिकों, राजपुरुषों आदि के साथ उपस्थित हुए थे। की अध्यक्षता हेनसांग ने की थी। साथ ही हर्ष के समय प्रति प्रयाग के संगम क्षेत्र में एक समारोह का आयोजन किया जाता था की ‘महामोक्ष परिषद’ कहा गया है। हेनसांग स्वयं छठे समारोह में था। * इसमें 18 देशों के राजा सम्मिलित हुए थे।
हर्ष की विजयों के फलस्वरूप उसके राज्य की पश्चिमी सीमा पर्य नदी तक पहुंच गई। इधर पुलकेशिन II भी उत्तर की और राज्य का हित करना चाहता था, ऐसी स्थिति में दोनों के बीच युद्ध अवश्यंभावी * फलतः नर्मदा के तट पर दोनों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें पुलकेशिन ॥ हर्ष को किया। “पुलकेशिन II की ऐहोल प्रशस्ति एवं विवरण इस युद्ध के साक्ष्य हैं।
* हर्षवर्धन के समय की सर्वप्रमुख घटना चीनी यात्री ह्वेनसांग के आगमन की है। *उसने तांग शासकों की राजधानी चंगन (चीन) से के लिए 629 ई. में प्रस्थान किया। * अपनी भारत यात्रा के ऊपर उसने ग्रंथ लिखा, जिसे ‘सी-यू-की’ कहा जाता है। इसने भीनमाल की यात्रा की * इसे ‘यात्रियों का राजकुमार’ कहा जाता है। * ह्वेनसांग के अनुसार, स पर आवागमन पूर्णतया सुरक्षित नहीं था। *अपराध अथवा निर्दोष सिद्ध कर 5.) के लिए अग्नि, जल, विष आदि द्वारा दिव्य परीक्षाएं ली जाती थी। उस ल अनुसार व्यापारिक मार्गों, घाटों, बिक्री की वस्तुओं आदि पर भी कर लगत स थे, जिससे राज्य को पर्याप्त धन प्राप्त होता था।
* ह्वेनसांग चीन के तांग वंशी 1 शासक ताई सुंग का समकालीन तथा इसी के राज्य का नागरिक था। * 637 ई. में ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय गया। * इस समय यहां के कुलपति आचार्य शीलभद्र थे। * ह्वेनसांग के अनुसार, मथुरा उस समय सूती वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था जबकि वाराणसी रेशमी वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था। * ह्वेनसांग बताता है कि थानेश्वर की समृद्धि का प्रधान कारण वहां का व्यापार ही था। *बाग ने थानेश्वर नगरी को अतिथियों के लिए ‘चिंतामणि भूमि’ तथा व्यापारियों के लिए ‘लाल भूमि’ बताया है।
* हर्ष की मृत्यु के बाद कन्नौज विभिन्न शक्तियों के आकर्षण का केंद्र बन गया। * इसे ‘महोदया’, ‘महोदयाश्री’ आदि नामों से अभिव्यक्त किया गया है। * अतः इस पर अधिकार करने के लिए आठवीं सदी की तीन बड़ी शक्तियों-पाल, गुर्जर-प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट के बीच त्रिकोणीय संघर्ष प्रारंभ हो गया, जो आठवीं-नवीं शताब्दी के उत्तर भारत के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। * इस संघर्ष में अंततः प्रतिहारों को सफलता मिली।
* चीनी यात्री इत्सिंग ने 671 या 672 ई. में, जब वह युवक था, अपने 37 बौद्ध सहयोगियों के साथ बौद्ध धर्म के अवशेषों को देखने की इच्छा से पाश्चात्य विश्व का भ्रमण करने का निश्चय किया। * वह दक्षिण के समुद्री मार्ग से होकर भारत आया। * 693-94 ई. के लगभग सुमात्रा होते हुए वह चीन वापस लौट गया।
* प्राचीनकाल के चीनी लेखकों ने भारत का उल्लेख ‘यिन-तु’ (Yin-tu) तथा ‘थिआन-तु’ (Thian-tu) नाम से किया है।
* नालंदा विश्वविद्यालय बख्तियार खिलजी के अधीन तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा 1193 ई. में नष्ट किया गया था। * यह भारत में बौद्ध मत के पतन के लिए अंतिम प्रहार के रूप में देखा जाता है। * विक्रमशिला के प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना बंगाल के पाल वंशीय शासक धर्मपाल द्वारा की गई थी।
* शंकराचार्य को शंकर, श्री शंकराचार्य आदि नामों से भी जाना जाता है। * 8वीं शताब्दी में इनका जन्म केरल के एक छोटे से गांव कलाडी में हुआ था। * उनके दर्शन को ‘अद्वैत वेदांत’ के नाम से जाना जाता है। * शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठ वर्तमान में भी हिंदू धर्म के पथ-प्रदर्शक माने जाते हैं। *इनका विवरण इस प्रकार है- (1) शृंगेरी (कर्नाटक)–दक्षिण में, (2) द्वारका (गुजरात)-पश्चिम में, (3) पुरी (ओडिशा) – पूर्व में तथा (4) ज्योतिर्मठ (जोशीमठ, उत्तराखंड) – उत्तर में। *चारधाम में बद्रीनाथ, द्वारका, पुरी तथा रामेश्वरम् आते हैं, जबकि छोटा चारधाम में उत्तराखंड में स्थित गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ तथा बद्रीनाथ आते हैं।
*अजंता की गुफाएं वाकाटकों के अधीन राजसी संरक्षण और जागीरदारों द्वारा निर्मित करवाई गई थीं। अजंता की गुफा संख्या 16 में उत्कीर्ण मरणासन्न राजकुमारी का चित्र प्रशंसनीय है। इस चित्र की प्रशंसा करते हुए ग्रिफिथ्य, वर्गेस एवं फर्गुसन ने कहा, “करुणा, भाव एवं अपनी कथा को स्पष्ट ढंग से कहने की दृष्टि से यह चित्रकला के इतिहास में अनतिक्रमणीय है। गुफा संख्या 16 को वाकाटक शासक हरिषेण (475-500 ई.) के मंत्री वराहदेव ने बौद्ध संघ को दान में दिया था। “अजंता के चित्र तकनीकी दृष्टि से विश्व में प्रथम स्थान रखते हैं। *इन गुफाओं में अनेक प्रकार के फूल-पत्तियों, वृक्षों तथा पशु आकृतियों की सजावट तथा बुद्ध एवं बोधिसत्वों की प्रतिमाओं के चित्रण मे जातक ग्रंथों से ली गई कहानियों का वर्णनात्मक दृश्य में प्रयोग हुआ है। *ये चित्र अधिकतर जातक कथाओं को दर्शाते है। के रूप
*पुरी स्थित कोणार्क का विशाल सूर्यदेव का मंदिर नरसिंह देववर्मन प्रथम चोडगंग ने बनवाया था। *यह मंदिर 13वीं शताब्दी का है तथा यह अपनी विशिष्ट शैली के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर का आधार एक विशाल चबूतरा है। *इसके चारों ओर पत्थर के तराशे हुए बारह पहिए लगाए गए हैं। और सूर्य के रथ का पूरा आभास देने के लिए चबूतरे के सामने जो सीढ़ियां हैं, उनमें सात अश्वों की स्वतंत्र मूर्तियां लगी हैं, मानो कि ये सातों अश्व रथ को खींच रहे हों। *कोणार्क के सूर्य मंदिर को ‘काला पैगोडा’ (Black Pagoda) भी कहा जाता है। इसे यूनेस्को द्वारा 1984 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया।
*लिंगराज मंदिर उड़ीसा के भुवनेश्वर में स्थित है। * इस मंदिर की शैली नागर है। *यह नागर शैली का सर्वोत्तम मंदिर है। *लिंगराज मंदिर का सबसे आकर्षक भाग इसका शिखर है, जिसकी ऊंचाई 180 फीट है। *जगन्नाथ मंदिर उड़ीसा राज्य के पुरी जिले में स्थित है। * यह मंदिर नागर शैली में बना है। *मोढेरा का सूर्य मंदिर गुजरात में स्थित है। * इसका निर्माण 11 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में सोलंकी वंश के राजा भीमदेव प्रथम द्वारा कराया गया था।
* अंकोरवाट मंदिर समूह का निर्माण कंपूचिया (वर्तमान कंबोडिया) के शासक सूर्यवर्मन II द्वारा 12वीं शताब्दी के प्रारंभ में अपनी राजधानी यशोधरपुर (वर्तमान अंगकोर) में कराया गया था। *विष्णु को समर्पित द्रविड़ शैली का यह मंदिर विश्व का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर समूह है। बोरोबुदुर का प्रख्यात स्तूप इंडोनेशिया के जावा द्वीप पर स्थित है। *यह यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त एक ‘विश्व विरासत स्थल’ (World Heritage Site) है।
*पाण्ड्यों के राज्यकाल में द्रविड़ शैली में मंदिरों का निर्माण हुआ। *इस काल में मंदिर छोटे होते थे, किंतु उनके प्रांगण के चारों ओर अनेक प्राचीर बनाए जाते थे। वे प्राचीर तो सामान्य होते थे, किंतु इनके प्रवेश द्वार, जिन्हें ‘गोपुरम’ कहा जाता था, भव्य एवं विशाल और प्रचुर मात्रा में शिल्पकारिता से अलंकृत होते थे।
* मामल्ल शैली (640-674 ई.) का विकास नरसिंह वर्मन प्रथम महामल्ल के काल में हुआ। * इसके अंतर्गत दो प्रकार के स्मारक बने – मण्डप तथा एकाश्मक मंदिर, जिन्हें ‘रथ’ कहा गया है। *पल्लव कला की राजसिंह
शैली, जिसका प्रारंभ नरसिंह वर्मन द्वितीय ‘राजसिंह’ ने किया था। र्ण मंदिर महाबलीपुरम से प्राप्त होते हैं- शोर मंदिर (तटीय शिव मंदिर ते मंदिर तथा मुकुंद मंदिर। *शोर मंदिर इस शैली का प्रथम को महाबलीपुरम में रथ मंदिरों का निर्माण पल्लव शासको द्वारा था। ये मंदिर एकाश्म पत्थर से निर्मित हैं। *पल्लवकालीन मामल जी बने रथो या एकाश्मक मंदिरों में धर्मराज रथ सबसे बड़ा एवं सबसे छोटा है। इसमें किसी प्रकार का अलंकरण नहीं मिलता तथा एवं हाथी जैसे पशुओं के आधार पर टिका हुआ है।
प काल *श्रीनिवासननल्लूर का कोरंगनाथ मंदिर चोल शासक परांतक में निर्मित हुआ था। * तंजौर में राजराजेश्वर अथवा बृहदीश्वर का निर्माण राजराज प्रथम के काल में निर्मित हुआ था। इसके न ग्रेनाइट पत्थरों का प्रयोग किया गया है। * राजराज शासनकाल मे गंगैकोंडचोलपुरम् में मंदिर का निर्माण हुआ।
दिगंबर जैनियों का पवित्र स्थान है। सोनगिरि के चारों ओर जैन मंदिर स्थापित हैं। वर्तमान में यहां 77 जैन मंदिर पहाड़ी पर गांव में स्थित हैं। इस प्रकार इनकी कुल संख्या 103 है। *पहाड़ी प 57वां मंदिर मुख्य मंदिर है, जो भगवान चंद्रप्रभु से संबंधित है। * विरूपाक्ष मंदिर कर्नाटक राज्य के हम्पी (Hampi) जिले में है। * यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है, जो यहां विरूपाक्ष के ने जाने जाते हैं।
*नागर, द्रविड़ तथा बेसर भारतीय मंदिर वास्तु की तीन मुख्य हैं। * नागर शैली समस्त उत्तरी भारत में प्रचलित है। *उड़ीसा के मंदिर रूप से इसी शैली के हैं। द्रविड़ शैली का प्रसार दक्षिण भारत विशे कृष्णा नदी एवं कुमारी अंतरीप के मध्य (तमिलनाडु) में था। बेसर का विकास, नागर एवं द्रविड़ शैलियों के मिश्रण से हुआ। कन्नड़ प्रदे * अंतिम चालुक्य शासकों के द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इस शैली का शैली भी कहते हैं।
*पंचायतन शब्द मंदिर रचना-शैली को निर्दिष्ट करता है। ब कपूर द्वारा रचित बृहत प्रामाणिक हिंदी कोश’ (मूल संपादक – रामचंद्र वर्मा) के अनुसार, पंचायतन एक पुल्लिंग शब्द है, जो किसी और उसके साथ के चार देवताओं की मूर्तियों के समूह के लिए प्रयुक्त है, जैसे शिव पंचायतन, राम-पंचायतना बदरीनाथ मंदिर में पांच जो बदरी पंचायतन के नाम से प्रसिद्ध हैं। * राजस्थान के उदयपुर में जगदीश मंदिर शिल्पकला की दृष्टि से अनोखा है। *यह मंदिर प शैली का है। चार लघु मंदिरों से परिवृत्त होने के कारण इसे ‘पंचायत गया है। 70201
*प्रसिद्ध नैमिषारण्य तीर्थ उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में नि *यहां महर्षि दधीचि ने देवताओं को अपनी अस्थियां दान दी थी निर्मित वज्र द्वारा देवराज इंद्र ने दैत्यों का वध किया था।
                दक्षिण भारत (चोल, चालुक्य, राजाओं के संरक्षण में तीन संगम आयोजित किए गए थे-
* दक्षिण भारत के आर्यकरण का श्रेय महर्षि अगस्त्य को दिया जाता है। * इन्हें तमिल साहित्य के जनक के रूप में जाना जाता है। *तोल्कापियम द्वितीय संगम का एकमात्र अवशिष्ट ही नहीं, प्रत्युत अद्यतन उपलब्ध तमिल साहित्य का प्राचीनतम ग्रंथ है। इसके प्रणयनकर्ता तोल्काप्पियर ऋषि अगस्त्य के बारह योग्य शिष्यों में से एक थे। यह एक व्याकरण ग्रंथ है। * इसकी रचना सूत्र शैली में की गई है। व्याकरण के साथ-साथ यह काव्य शास्त्र का भी एक उच्चकोटि का ग्रंथ है। “शिलप्पादिकारम’ का लेखक इलंगो आडिगल था। यह संगम साहित्य का महत्वपूर्ण महाकाव्य है।
 * इसका लेखक चोल नरेश करिकाल का पौत्र था। इस ग्रंथ में पुहार या कावेरीपट्टनम के एक धनाढ्य व्यापारी के पुत्र कोवलन एवं उसकी अति सुंदर किंतु दुर्भाग्यशालिनी पत्नी कन्नगी से संबंधित दुःखद एवं मार्मिक कथा का वर्णन है। तिरुक्कुरल तमिल भाषा में रचित काव्य रचना है, जिसमें नीतिशास्त्र का वर्णन है। इसके रचयिता तिरुवल्लुवर हैं। तोल्काप्पियम तमिल भाषा के व्याकरण की पुस्तक है। *कुरल तमिल साहित्य का बाइबिल तथा लघुवेद माना जाता है। * इसे मुप्पाल भी कहा जाता है। * इसकी रचना सुप्रसिद्ध कवि तिरुवल्लुवर ने की थी। अनुश्रुतियों के अनुसार तिरुवल्लुवर ब्रह्मा के अवतार थे।
*पल्लव शासक सिंहविष्णु (575-600 ई.) ने ‘अवनिसिंह’ की उपाधि धारण की थी। “कशाकुडी दान पत्र से ज्ञात होता है कि सिंहविष्णु ने चोल, पाण्ड्य सिंहल तथा कलम्र के राजाओं को पराजित किया। *नरसिंहवर्मन प्रथम (630-668 ई.) ने ‘महामल्ल’ की उपाधि धारण की थी। *परमेश्वरवर्मन प्रथम (लगभग 670-700 ई.) ने लोकादित्य, एकमल्ल, रणंजय, अत्यन्तकाम, उग्रदंड, गुणभाजन आदि उपाधियां ग्रहण की महेंद्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.) ने ‘मत्तविलासप्रहसन’ नामक हास्य ग्रंथ की रचना की थी।
* संगम साहित्य में केवल चोल, चेर एवं पाण्ड्य राजाओं के उद्भव और विकास का विवरण प्राप्त होता है। *चोल स्थापत्य के उत्कृष्ट नमूने जौर के शैव मंदिर, जो राजराजेश्वर या वृहदीश्वर नाम से प्रसिद्ध – का निर्माण राजराज-1 के काल में हुआ था। *भारत के मंदिरों में न्यसे बड़ा तथा लंबा यह मंदिर द्रविड़ शैली का सर्वोत्तम नमूना माना सकता है। * इस मंदिर के बहिर्भाग में नंदी की एकाश्म विशाल मूर्ति है, जिसे भारत की विशालतम नंदी मूर्ति माना जाता है।
पल्लव एवं संगम युग
नोटस
* संगम कालीन साहित्य में ‘कोन’, ‘को’ एवं ‘मन्नन’ शब्द राजा के लिए प्रयुक्त होते थे। * संगम या संघम प्राचीन तमिल शब्द है, जिसे सामान्यतया ‘गोष्ठी परिषद’ के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। इस रूप में संगम तमिल कवियों एवं विद्वानों की परिषदें’ थीं। * इन संगमों में कवियों द्वारा रचा गया साहित्य ‘संगम साहित्य’ कहलाता है। * संगम साहित्य, तमिल साहित्य का सबसे प्राचीन उपलब्ध अंश है। * संगम युग में दक्षिण भारत पाण्ड्य
*कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों से लेकर कुमारी अंतरीप भू-भाग प्राचीन काल में तमिल प्रदेश का निर्माण करता था। *इसमे को तट तथा दक्कन के कुछ भाग यथा-उरैयूर, कावेरीपट्टनम, ” , तंजावुर
चोलों के अधिकार में थे। में चोली *परांतक-1 के अंतिम दिनों में राष्ट्रकूट शासक कृष्णा | गंगों (बुग II) की सहायता से तक्कोलम के युद्ध किया और तंजौर पर अधिकार कर लिया। *कृष्ण III ने इस उप ‘ड’ की उपाधि धारण की थी। को
*पोलों की राजधानी थी। इसके अतिरिक्त परांतक भी चोलों की राजधानी बनी थी। *संगम काल में चोलों की राजधानी थी। * द्रविड़ देश में चोल आधिपत्य की स्थापना वस्तुतः थी। उसने मदुरा के पाण्ड्य राजा राज सिंह द्वितीय को हराकर मदुर ‘उपाधि’ धारण की। *राजराज ने सर्वप्रथम चेर राज्य को (केरल) में परास्त किया। राजराज । एवं उसके पुत्र राजेंद्र ने दक्षिणी-पूर्वी ए के शैलेंद्र साम्राज्य के विरुद्ध सैन्य चढ़ाई की तथा कुछ क्षेत्रों को जीत लि *चोल शासक राजराज I ने सिंहल (श्रीलंका) पर आक्रमण उत्तरी सिंहल को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। विजित क्षेत्र प्रथम ने राजराज ने अनुराधापुर को नष्ट कर पोलोन्नरुव को इस क्षेत्र की राज बनाया और इसका नाम ‘जननाथ मंगलम्’ रखा।
*राजराजन की मृत्यु के बाद उसका योग्यतम पुत्र राजेंद्र – सम बना। उसने अपने पिता की साम्राज्यवादी नीति को आगे बढ़ाया। राजेद्र का काल चोल शक्ति का चरमोत्कर्ष काल था। राजेंद्र-1 के बारे में कहा ग है कि उसने बंगाल की खाड़ी को ‘चोल झील’ का स्वरूप प्रदान कर दिय *उसने संपूर्ण सिंहल द्वीप (बीलंका) को जीत लिया तथा वह सिं राजा महेंद्र पंचम को बंदी बनाकर चोल राज्य में लाया। *उसने पवित्र गंग जल लाने के उद्देश्य से उत्तर-पूर्वी भारत (गंगा घाटी) पर आक्रमण किय तथा पाल शासक महीपाल को पराजित किया। * इस विजय के उपलब्ध में उसने गंगैकोंड की उपाधि ग्रहण की तथा गंगैकोंडचोलपुरम् नामक नई राजधानी की स्थापना की। *नवीन राजधानी के निकट ही उसने सिंचाई के लिए चोलगंगम नामक विशाल तालाब का भी निर्माण कराया।
*कुलोत्तुंग-1 के समय में श्रीलंका के राजा विजयबाहु ने अपनी स्वतंत्रता घोषित की। कुलोत्तुंग-1 ने श्रीलंका में चोल प्रभाव की समाप्ति के प्रति किसी कटुता का प्रदर्शन नहीं किया तथा उसने अपनी पुत्री का विवाह श्रीलंका के राजकुमार वीरप्पेरुमाल के साथ कर दिया।
* चोल शासक कुलोत्तुंग-1 के शासनकाल में 1077 ई. में 72 सौदागरों का एक चोल दूत मंडल चीन भेजा गया था। *कुलोत्तुंग-I को चोल लेखों में ‘शुंगम तविर्त’ अर्थात करों को हटाने वाला कहा गया है। * चोल साम्राज्य को प्रशासन की सुविधा के लिए छः प्रांतों में विभाजित
किया गया था। * प्रांत को ‘मंडलम्’ कहा जाता था। प्रांत का विभाजन नामक चीनी यात्री ने चालु केली एवं का विवरण दिया है। * भारतीय काली मिर्च यूनानियों एवं वासियों को बहुत इसलिए प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में इसे यवनकिया है।
*अरिकामे पूर्वी तट पर पांडिचेरी (पुदुचेरी) से 3 किमी द उष्णकटिबंधीय कोरोमंडल तट पर स्थित है। पेरिप्लस में इसे “पोके गया है। यहां ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में रोमन बस्ती की अवस्थिति मानी जाती है। यहां से प्राप्त अवशेषों में कई रोमन वस्तुएं प्राप्त हुई है. जिनमें शराब के दो हत्थे कलश, रोमन लैम्प, रोमन ग्लास आदि प्रमुख है।
*एम्फोरा जार एक लंबी एवं संकीर्ण गर्दन वाला और दोनों तरफ हत्थेदार जार है। प्राचीन काल में इसका प्रयोग तेल या शराब को रखने के लिए किया जाता था। *कंबन ने 12वीं शती ई. में तमिल रामायणम या रामावतारम की रचना तमिल भाषा में की थी।
* दक्षिण भारत में नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे, जैसे-मणिग्रामम्, वलंजीवर आदि। इनका कार्य व्यापार-व्यवसाय को प्रोत्साहन देना था।
* तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में कावेरी नदी के तट पर अवस्थित उरैयूर संगम कालीन महत्वपूर्ण नगर था। *संगम युग में उरैयूर सूती वस्त्रों का बहुत बड़ा केंद्र था। इसका विवरण पेरिप्लस ऑफ दी एरीशियन सी में मिलता है।
* पाण्ड्य राज्य की जीवन रेखा वेंगी नदी थी। *पाण्ड्य राज्य कावेरी के दक्षिण में स्थित था। *इसमें आधुनिक मदुरा तथा तिन्नेवेल्ली के जिले और त्रावणकोर का कुछ भाग शामिल था। * इसकी राजधानी मदुरा थी।
* वेंगी नदी वाला प्रदेश अपनी उर्वरता के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध था। *चेर राज्य पर विजय के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक जयंतवर्मन ने ‘वानवन’ की उपाधि धारण की। *पल्लवों के विरुद्ध सफलता के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक मारवर्मन राजसिंह प्रथम ने पल्लव भंजन’ की उपाधि धारण की।
“दक्षिण भारत के पाण्ड्य वंश के राजा ने रोम राज्य में एक दूत 26 ई.पू. में भेजा था। * मीनाक्षी मंदिर का निर्माण पाण्ड्यों ने अपनी राजधानी मदुरई में करवाया था।
*एक अज्ञात ग्रीक नाविक द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक ‘पेरिप्लस ऑफ दी एरीशियन सी’ में प्राचीन काल के विभिन्न बंदरगाहों की सूची मिलती है। * इसमें नौरा, तोंडी, मुशिरी और नेलिसंडा पश्चिमी तट के प्रमुख बंदरगाह थे।
*कदंब राजाओं की राजधानी वनवासी थी। इस राजवंश (कदंब ) की
स्थापना मयूरशर्मन ने की थी। कदंब राज्य को पुलकेशिन द्वितीय ने अपने राज्य में मिला लिया था।
कोवलन हुआ था। कित्येक मे ”हो “जिजा की रिकनगरों में नगरम् नामक व्यापारियों की होती थी। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होती थी।लों के अधीन ग्राम प्रशासन सभा की कार्यकारिणी समितियों की कार्यप्रणाली का विस्तृत विवरण हमार कर से प्राप्त लेखों के माध्यम से प्राप्त करते है। बोलकालीन गायों के गतिविधियों की देख-रेख एक कार्यकारिणी समिति करती थी, जिसे मान कहा जाता था। उद्यान प्रशासन का कार्य देखने वाली समितिको वारियम् कहा जाता है, जबकि संवत्सर वारियम् (वार्षिक समिति), वारियम् (तालाब समिति) तथा पोन वारियम् (स्वर्ण समिति ) थी। व्यापारियों तथा शिल्पियों की सभा को श्रेणी अथवा पूग कहा जाता था।
चोल कलाकारो ने तक्षण कला में भी सफलता प्राप्त की है। उन्होंने पत्थर तथा धातु की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण किया। *पाषाण मूर्तियों से भी अधिक धातु (कांस्य) मूर्तियों का निर्माण हुआ। सर्वाधिक सुंदर मूर्तिया नटराज (शिव) की हैं, जो बड़ी संख्या में मिली है। इन्हें विश्व की श्रेष्ठतम प्रतिमा-रचनाओं में शामिल किया जाता है। ये मूर्तियां प्रायः चतुर्भुज है। *शिव की ‘दक्षिणामूर्ति’ प्रतिमा उन्हें गुरु (शिक्षक) के रूप में प्रदर्शित करती है। उ “इस रूप में शिव अपने भक्तों को सभी प्रकार का ज्ञान प्रदान करते हुए माने गए हैं। इस रूप में शिव की दक्षिण दिशा में मुख किए हुए प्रतिमा स्थापित की गई है।
चोल राजाओं ने एक विशाल संगठित सेना का निर्माण किया था। *बोलों के पास अश्व, गज एवं पैदल सैनिकों के साथ-ही-साथ एक अत्यंत शक्तिशाली नौसेना भी थी। इसी नौसेना की सहायता से उन्होंने श्रीविजय, सिंहल, मालदीव आदि द्वीपों की विजय की थी। चोल काल के सम्राट प्रायः अपने जीवनकाल में ही युवराज का चुनाव कर लेते थे, जो उसके बाद उसका उत्तराधिकारी बनता था।
*तगर प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था, यह कल्याण
तथा वेंगी के मध्य स्थित था। *बीजापुर (कर्नाटक) जिले के वातापी नामक प्राचीन नगर का आधुनिक नाम बादामी है। *छठी-सातवीं शताब्दी ई. में यह चालुक्यों की राजधानी थी।
*वातापी के चालुक्य राजवंश का वास्तविक संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था। #पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश के शासकों में सर्वाधिक योग्य तथा शक्तिशाली था, उसने 610 ई. से 642 ई. तक शासन किया। *उसकी उपलब्धियों का विवरण हमें ऐहोल अभिलेख से प्राप्त होता है। *इस लेख की रचना सने की थी। *चालुक्यों के शासनकाल में प्रायः महिलाओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। *विजयादित्य प्रथम के भाई चंद्रादित्य की रानी विजय भट्टारिका ने अपने नाम से दो ताम्रपत्र लिखवाए थे।
नामक चीनी यात्रा के शासनकाल में एवं भारत के का विवरण दिया है।
  • भारतीय काली मिर्च यूनानियों एवं रोमवासियों को बहुत भी इसलिए प्राचीन संस्कृत में इसे कहा गया है। * अरिकामे पूर्वी तट पर पांडिचेरी (पुरी) से 3 किमी. दक्षिण में उष्णकटिबंधीय कोरोमंडल तट पर स्थित है। पेरिप्लस में इसे कहा गया है। यहाँ ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में रोमन बस्ती की अवस्थिति
मानी जाती है। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में कई रोमन वस्तुएं प्राप्त हुई है. जिनमें शराब के दो हत्थे कलश, रोगन लैम्प, रोमन ग्लास आदि प्रमुख हैं। * एम्फोरा जार एक लंबी एवं संकीर्ण गर्दन वाला और दोनों तरफ हत्थेदार जार है। प्राचीन काल में इसका प्रयोग तेल या शराब को रखने के लिए किया जाता था। *कंबन ने 12वीं शती ई. में तमिल रामायणम या रामावतारम की रचना तमिल भाषा में की थी।
* दक्षिण भारत में नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे, जैसे मणिग्रामम्, वलंजीयर आदि। इनका कार्य व्यापार-व्यवसाय को प्रोत्साहन
देना था।
* तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में कावेरी नदी के तट पर अवस्थित उरैयूर संगम कालीन महत्वपूर्ण नगर था। * संगम युग में उरैयूर सूती वस्त्रों का बहुत बड़ा केंद्र था। इसका विवरण पेरिप्लस ऑफ दी एरीशियन सी में मिलता है।
* पाण्ड्य राज्य की जीवन रेखा वेंगी नदी थी। *पाण्ड्य राज्य कावेरी के दक्षिण में स्थित था। * इसमें आधुनिक मदुरा तथा तिन्नेवेल्ली के जिले और त्रावणकोर का कुछ भाग शामिल था। * इसकी राजधानी मदुरा थी।
* वेंगी नदी वाला प्रदेश अपनी उर्वरता के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध था।
*चेर राज्य पर विजय के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक जयंतवर्मन ने ‘वानवन’ की उपाधि धारण की। *पल्लवों के विरुद्ध सफलता के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक मारवर्मन राजसिंह प्रथम ने ‘पल्लव भंजन’ की उपाधि धारण की।
* दक्षिण भारत के पाण्ड्य वंश के राजा ने रोम राज्य में एक दूत 26 ई.पू. में भेजा था। * मीनाक्षी मंदिर का निर्माण पाण्ड्यों ने अपनी राजधानी • मदुरई में करवाया था।
* एक अज्ञात ग्रीक नाविक द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक ‘पेरिप्लस ऑफ दी एरीशियन सी’ में प्राचीन काल के विभिन्न बंदरगाहों की सूची मिलती है। *इसमें गौरा, तोंडी, मुशिरी और लिसंडा पश्चिमी तट के प्रमुख बंदरगाह 7 थे।
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* कदंब राजाओं की राजधानी वनवासी थी। *इस राजवंश (कदंब ) की स्थापना मयूरशर्मन ने की थी। कदंब राज्य को पुलकेशिन द्वितीय ने अपने राज्य में मिला लिया था।
नामक चीनी यात्री ने चालुक्यों के शासनकाल में चीन एवं भारत के का विवरण दिया है। * भारतीय काली मिर्च यूनानियों एवं रामवासियों को बहुत प्रिय थी. इसलिए प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में इसे यवनप्रिय’ कहा गया है। * अरिकामे पूर्वी तट पर पांडिचेरी (मुडुचेरी) से 3 किमी. दक्षिण में 1 उष्णकटिबंधीय कोरोमंडल तट पर स्थित है। *पेरिप्लस में इसे “पोटुके” कहा गया है। यहाँ ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में रोमन बस्ती की अवस्थिति मानी जाती है। यहां से प्राप्त अवशेषों में कई रोमन वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, 7 जिनमें शराब के दो हत्थे कलश, रोमन लैम्प, रोमन ग्लास आदि प्रमुख है।
* एम्फोरा जार एक लंबी एवं संकीर्ण गर्दन वाला और दोनों तरफ । हत्थेदार जार है। प्राचीन काल में इसका प्रयोग तेल या शराब को रखने 7 के लिए किया जाता था।
*कंबन ने 12वीं शती ई. में तमिल रामायणम या रामावतारम की रचना तमिल भाषा में की थी।
* दक्षिण भारत में नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे, जैसे- मणिग्रामम्, वलंजीवर आदि। इनका कार्य व्यापार-व्यवसाय को प्रोत्साहन देना था।
*तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में कावेरी नदी के तट पर अवस्थित । उरैयूर संगम कालीन महत्वपूर्ण नगर था। संगम युग में उरेयूर सूती वस्त्रों 2 का बहुत बड़ा केंद्र था। *इसका विवरण पेरिप्लस ऑफ दी एरीशियन सी मे मिलता है।
पाण्ड्य राज्य की जीवन रेखा वेंगी नदी थी। पाण्ड्य राज्य कावेरी के दक्षिण में स्थित था। इसमें आधुनिक मदुरा तथा तिन्नेवेल्ली के जिले और त्रावणकोर का कुछ भाग शामिल था। इसकी राजधानी मदुरा थी।
* वेंगी नदी वाला प्रदेश अपनी उर्वरता के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध था। *चेर राज्य पर विजय के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक जयंतवर्मन ने ‘वानवन’ की उपाधि धारण की। *पल्लवों के विरुद्ध सफलता के उपलक्ष्य में पाण्ड्य शासक मारवर्मन राजसिंह प्रथम ने ‘पल्लव भंजन’ की उपाधि धारण की। * दक्षिण भारत के पाण्ड्य वंश के राजा ने रोम राज्य में एक दूत 26 ई.पू. में भेजा था। मीनाक्षी मंदिर का निर्माण पाण्ड्यों ने अपनी राजधानी मदुरई में करवाया था।
1 *एक अज्ञात ग्रीक नाविक द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक ‘पेरिप्लस ऑफ दी एशियन सी में प्राचीन काल के विभिन्न बंदरगाहों की सूची मिलती है। इसमें नौरा, सॉडी मुशिरी और नेलिसंडा पश्चिमी तट के प्रमुख बंदरगाह थे।
“कदंब राजाओं की राजधानी बनवासी थी इस राजवंश (कदंब) की स्थापना मयूरशर्मन ने की थी। कदंब राज्य को पुलकेशिन द्वितीय ने अपने राज्य में मिला लिया था।
प्राचीन साहित्य एवं साहित्यकार
नोट्स
*यूनानी लेखक हेरोडोटस (5वीं शदी ई.पू.) को ‘इतिहास का पिता’ कहा जाता है। *’हिस्टोरिका’ उसकी प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसमें 5वीं शदी ई.पू. के भारत-फारस संबंधों का विवरण (अनुश्रुतियों के आधार पर) मिलता है।
* मुद्राराक्षस की रचना विशाखदत्त ने की थी। * इस ग्रंथ से मौर्य इतिहास, मुख्यतः चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन पर प्रकाश पड़ता है। * इसमें चंद्रगुप्त मौर्य को ‘वृषल’ तथा ‘कुलहीन’ कहा गया है। *धुंडिराज ने मुद्राराक्षस पर टीका लिखी है। ‎‫לין‎
*व्याकरणाचार्य पाणिनि नंद शासक महापद्मनंद के मित्र थे, अष्टाध्यायी उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। *वाराहमिहिर गुप्तयुगीन खगोल शास्त्र थे। * बृहज्जातक, पंचसिद्धांतिका, बृहत्संहिता आदि इनके प्रमुख ग्रंथ हैं। इनकी पंचसिद्धांतिका
यूनाधिपरा
की की है।
(प्राचीन भारत के प्रसिद्ध गणित बताया कि सूर्य र पृथ्वी घूमती है।उन्होंने एवं सूर्य के कारण पृथ्वी की परिधि का लग दशमलव स्थानिक मान की खोज की बौद्ध भिक्षु नागसेन द्वारा लिखित न
एवं हिंदू यवन शासक मिनोर के बीच वार्तालाप का वर्णन है। • कालिदास चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबारी कवि इन्होंने ऋतुसंहार, मेघदूत, रघुवंश, कुमारसंभवम् अभिज्ञानशाकुन्तलम् आदि की रचना की। इनके द्वारा रचित ‘मालविकाग्निमित्रम पांच अंको का नाटक है,
जिसमें मालविका और अग्निमित्र की प्रणय कथा वर्णित है। अग्निमित्र शुंग
शासक पुष्यमित्र शुंग का पुत्र था।
*कश्मीर के हिंदू राज्य का इतिहास हमें कल्हण की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है। राजतरंगिणी में कुल आठ तरंग एवं आठ हजार के लगभग श्लोक है। इस ग्रंथ की रचना कल्हण ने राजा जय सिंह (1128-1149 ई.) के शासनकाल में की थी। कश्मीर के शासक जैनुल आबदीन द्वारा संरक्षित दो विद्वानों जोनराज एवं उनके शिष्य श्रीवर ने कल्हण की राजतरंगिणी का आगे विस्तार किया।
* अश्वघोष कुषाण शासक कनिष्क के राजकवि थे। * इनकी तुलना मिल्टन, गेटे, कांट तथा वाल्टेयर से की जाती है। *उनकी रचनाओं में तीन प्रमुख है- (1) बुद्धचरित (2) सौंदरानंद तथा (3) सारिपुत्र प्रकरण। * इनमें प्रथम दो महाकाव्य तथा अंतिम नाटक ग्रंथ है। सौंदरानंद में बुद्ध के सौतेले भाई सुंदर नंद के बौद्ध धर्म ग्रहण करने का वर्णन है। इसमें 18 सर्ग है।
* हर्ष को संस्कृत के तीन नाटक ग्रंथों का रचयिता माना जाता है- प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानंद *प्रियदर्शिका चार अंको का नाटक है, जिसमें वत्सराज उदयन के अंतःपुर की प्रणय कथा का वर्णन हुआ है। * रत्नावली में भी चार अंक हैं तथा यह नाटक वत्सराज उदयन और उसकी रानी वासवदत्ता की परिचारिका नागरिका की प्रणय कथा का बड़ा ही रोचक वर्णन करता है। * नागानंद बौद्ध धर्म से प्रभावित रचना है, इसमें पांच अंक है।
* जयदेव ने हर्ष को भास, कालिदास, बाण, मूर आदि कवियों की समानता
में रखते हुए उसे कविताकामिनी का साक्षात हर्ष निरूपित किया है। * महाकवि भास के नाम से 13 नाटक उपलब्ध हुए हैं, जिन्हें टी. गणपति शास्त्री ने ट्रावनकोर राज्य से प्राप्त किया था। * इन नाटकों के नाम हैं- (1) प्रतिज्ञायौगंधरायण, (2) स्वप्नवासवदत्ता, (3) उरुभंग, (4) दूतवाक्य, (5) पंचरात्र, (6) बालचरित. (7) दूतघटोत्कच, (8) कर्णभार (9) मध्यमव्यायोग,
(10) प्रतिमा नाटक, (11) अभिषेक नाटक, (12) अविमारक और (13) चारुदत्त * गीत गोविंद के रचयिता, जयदेव बंगाल के अंतिम सेन शासक लक्ष्मणसेन के आश्रित महाकवि थे। *अतः जयदेव ने बारहवीं शताब्दी में गीत गोविंद की रचना की है। * इसे गीतिकाव्य कहना उचित होगा। * इसमें 12 सर्ग हैं तथा प्रत्येक सर्ग गीतों से समन्वित है।
* प्राचीन भारतीय पुस्तक पंचतंत्र (मूलतः संस्कृत में रचित) का पंद्रह भारतीय और चालीस विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ। * इसके मूल लेखक विष्णु
शर्मा माने जाते हैं। रूडगर्टन के अनुसार, पंचतंत्र के 50 से अधिक भाषाओं में 200 से अधिक स्वरूप उपलब्ध हैं। * यह भारत की सर्वाधिक बार अनुवादि साहित्यिक पुस्तक मानी जाती है। *मुगल काल में पंचतंत्र का फारसी अनुवाद | ‘आयर-ए-दानिश’ (अबुल फजल द्वारा) शीर्षक के तहत कराया गया था। * आचार्य सर्ववर्मा (Acharya Sarvavarma) ने पांच खंडों में कातंत्र व्याकरम (Katantra Vyakaram) नामक पुस्तक हिंदी एवं संस्कृत में लिखी थी। *12वी शताब्दी के गणितज्ञ भास्कर (भास्कर II या भास्कराचार्य) ने बीजगणित के क्षेत्र में विशेष योगदान दिया। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘सिद्धांत शिरोमणि’ चार भागों-लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित और गोलाध्याय में विभाजित है। * 12वीं शताब्दी में ‘मिताक्षरा’ (Mitakshara) की रचना विज्ञानेश्वर ने की थी। * इसका पहला अंग्रेजी अनुवाद हेनरी टॉमस कोलब्रुक के द्वारा 19वीं शताब्दी में किया गया। * इसमें हिंदू नियमों का उल्लेख है।
“मत्त विलास प्रहसन’ एक संस्कृत नाटक है। इसके लेखक पल्लव नरेश महेंद्र वर्मन हैं। * यह एक परिहास नाटक है, जिसमें धार्मिक आडंबरों पर कटाक्ष किया गया है। *दंडी ने ‘दशकुमारचरित’ एवं ‘काव्यादर्श’ की रचना की। *”मनुस्मृति’, जिसमें कुल 18 स्मृतियां सम्मिलित हैं, की रचना मनु द्वारा की गई मानी जाती है। *मनुस्मृति प्राचीन भारतीय समाज-व्यवस्था तथा हिंदू विधि से संबंधित है। *मनु को प्राचीन भारत का प्रथम एवं महान धर्मा माना जाता है। *शूद्रक ने प्रसिद्ध नाटक मृच्छकटिकम की रचना की। * इस नाटक में ब्राह्मण चारूदत्त तथा उज्जयिनी की प्रसिद्ध गणिका बसंतसेना के आदर्श प्रेम की कहानी वर्णित है।
* शून्य का आविष्कार ईसा पूर्व दूसरी शती में किसी अज्ञात भारतीय ने किया था। *अरबों ने इसे भारत से सीखा और यूरोप में फैलाया। *अरब देश में शून्य का प्रयोग सबसे पहले 873 ई. में पाया जाता है। *प्रमुख रचनाकारों की प्रमुख रचनाएं हैं-सूरदास – सूरसागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी तुलसीदास – रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली। राजशेखर- काव्यमीमांसा, बाल रामायण, बाल भारत, विशालभाजि
पूर्व मध्यकाल (800-1200 ई.
नोट्स
  दिल्ली सल्तनत
कुतुबुद्दीन ऐबक, जो गौरी के भारतीय क्षेत्रों का ‘वली अहद था, 1206 ई. में लाहौर में गद्दीनशीन हुआ।
गजनी के शासक महमूद ने ऐबक को दास्य मुक्ति-पत्र दिया।
ऐबक को कुरान खाँ कहा जाता था, क्योंकि वह कुरान का सुरीला पाठ करता था। अपनी उदारता के कारण ऐबक को लाख बख्श कहा गया है।
ऐबक ने अजमेर में अढ़ाई दिन का झोपड़ा बनवाया तथा दिल्ली में कुव्वत उत्त-इस्लाम मस्जिद का निर्माण करवाया। ऐबक ने कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम पर कुतुबमीनार बनवानी प्रारम्भ की हसन निजामी तथा फल-ए-मुदब्बिर को ऐबक का संरक्षण प्राप्त था। लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते हुए 1210 ई. में घोड़े से गिरकर ऐबक की मृत्यु हो गई। ऐबक के पश्चात् कुछ समय के लिए आरामशाह शासक बना।
इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक कहलाता है इल्तुतमिश ऐबक का दास था, ऐबक की मृत्यु के समय वह बदायूँ का सूबेदार था। उसे यल्दूज ने दास्य मुक्ति-पत्र दिया। उसने लाहौर के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाया। चंगेज खाँ की चेतावनी के कारण इल्तुतमिश ने ख्वारिज्म शहजाद जलालुद्दीन मंगबरनी को शरण देने से मना कर दिया।
इल्तुतमिश प्रथम तुर्क शासक था, जिसने शुद्ध अरबी चाँदी का टंका तथा तांबे का जीतल उसी ने प्रारम्भ किए, सिक्कों पर टकसाल का नाम लिखना प्रारम्भ किया।
इल्तुतमिश ने चालीसा दल (तुर्कानेचहलगानी) का गठन किया था।
इल्तुतमिश ने कुतुबमीनार को पूर्ण करवाया। इल्तुतमिश ने गौरी की स्मृति में मदरसा-ए-मुइज्जी तथा अपने पुत्र नासिरुद्दीन की नासिरी मदरसा बनवाया। समकालीन साहित्य में दिल्ली को हजरत-ए-दिल्ली कहा गया है। इल्तुतमिश के बाद रुकनुद्दीन फिरोजशाह गद्दी पर बैठा वास्तविक सत्ता उसकी माता शाह तुकोन के हाथ में थी।
जनसमूह द्वारा इसे अपदस्थ कर रजिया को सुल्तान बनाया गया। रजिया ने न्याय के प्रतीक लाल वस्त्र पहन कर जनता से न्याय की अपील की तथा जनसमर्थन से ही वह गद्दी पर बैठ पाई। रजिया ने दिया तथा कुबा (कोट) एवं कुलाह (टोपी) पहन कर दरबार लगाया।
रजिया ने अबीसीनियाई अमीर याकूत को अमीर-ए-आखुर बनाया। रजिया ने सरहिन्द के सूबेदार अल्लूनिया से विवाह किया।
मुइजुद्दीन बहराम शाह के वक्त ही नायब-ए-मुमलकत नामक महत्त्वपूर्ण पद की स्थापना हुई। प्रथम ‘नायब-ए-मुमलकत’ एतगीन था। बहरामशाह के शासनकाल में ही मंगोलों का प्रथम आक्रमण (1241 ई.) हुआ था।
नासिरुद्दीन महमूद अत्यन्त धार्मिक स्वभाव का सुल्तान था। मिनहाज की तबकाते नासिरी उसे ही समर्पित है। महमूद द्वारा ही बलबन को ‘उलूग खाँ’ की उपाधि प्रदान की गई तथा ‘नायब-ए-मुमलकत का पद प्रदान किया गया।
बलबन चालीसा दल का सदस्य था तथा झाँसी एवं नागौर का इक्तादार रहा था। इसे रेवाड़ी की जागीर प्रदान की गई थी। बलबन ने सीमा विस्तार की नीति नहीं अपनाई थी।
  • बलबन ने राजत्व के ईरानी सिद्धान्तों को अपनाया तथा सिजदा (लेटना), पैबोस (पैर चूमना) जैसी प्रथाएँ प्रारम्भ करवाई। बलबन ने दरबार में ईरानी त्यौहार नौरोज मनाने की प्रथा प्रारम्भ की। बलबन के काल में तुगरिल खाँ ने बंगाल में विद्रोह करके सुन मुगीसुद्दीन की उपाधि ली। बलबन ने मंगोलों को रोकने में सफलता पाई।
यद्यपि शाहजादा मोहम्मद मंगोलों के हाथों मारा गया। • खिलजी वंश की स्थापना खिलजी क्रान्ति के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तुर्की अमीर वर्ग का सत्ता पर एकाधिकार और तुर्की लोगों की जातीय तानाशाही समाप्त हो गई।
– दक्षिण भारत पर प्रथम आक्रमण अलाउद्दीन खिलजी द्वारा जलालु के समय में किया गया था। उसने 1296 ई. में देवगिरि पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन के दक्षिणी अभियानों में मलिक काफूर की प्रत भूमिका रही। दक्षिण में देवगिरि के यादव शासक रामचन्द्र, वारंगल के काकतीय शासक प्रताप रुद्र देव तथा द्वार-समुद्र के होयसल शासक बल्लाल ने अलाउद्दीन का आधिपत्य स्वीकार किया। अलाउद्दी रामचन्द्र देव को राय रायान की उपाधि दी तथा नौसारी जिला भेंट किया।
अलाउद्दीन खिलजी ने दशमलव प्रणाली के आधार पर सेना का गठन किया था। अलाउद्दीन भू-राजस्व निर्धारण हेतु पैमाइश को आधार बनाने वाला पहला सुल्तान था। भू-राजस्व निर्धारण हेतु बिस्वा को मानक इकाई बनाया गया तथा भू-राजस्व की दर 50% तय की गई। अलाउद्दीन खिलजी ने भू-राजस्व व्यवस्था में सुधार हेतु दीवान-ए-मुस्तखराज की स्थापना की। अलाउद्दीन के बाजार सुधारों का विस्तृत वर्णन बरनी ने किया है। बाजार सुधारों के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने तीन बाजारों की स्थापना की खाद्यान्न बाजार, वस्त्र एवं अन्य कीमती वस्तुओं का बाजार तथा दास, मवेशियों एवं घोड़ों का बाजार अलाउद्दीन ने कुतुबमीनार से दोगुनी ऊँचाई की मीनार बनाने की योजना बनाई, परन्तु उसकी मृत्यु के कारण यह मीनार अपूर्ण रह गई। अलाउद्दीन ने एक नया धर्म चलाने की योजना बनाई थी, परन्तु अलाउल्लमुल्क की सलाह पर उसने यह योजना छोड़ दी। अलाउद्दीन ने सिकन्दर सानी (द्वितीय सिकन्दर) की उपाधि धारण की। अमीर खुसरो सर्वप्रथम अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में ही दरबारी रहे थे।
गयासुद्दीन तुगलक ने कठोरता एवं नरमी के बीच का मध्य मार्ग अपनाया, जिसे रस्म-ए-मियाना कहा गया है।
इसने भू-राजस्व को बँटाई के आधार पर निर्धारित किया तथा इसे थोड़ा-थोड़ा (1/11. 1/10) करके बढ़ाने के निर्देश दिए। सल्तनत काल में नहर बनवाने वाला पहला शासक गयासुद्दीन तुगलक ही था।
शेख निजामुद्दीन औलिया ने गयासुद्दीन तुगलक के सन्दर्भ में कहा था ‘हनूज दिल्ली दूर अस्त’ (अभी दिल्ली दूर है)।
  • मुहम्मद-बिन-तुगलक का वास्तविक नाम जौना खाँ था। मुहम्मद-बिन-तुगलक को अन्तर्विरोधों का मिश्रण, रक्त पिपासु, पागल आदि कहा गया है।
मुहम्मद-बिन-तुगलक ने पैमाइश को भू-राजस्व निर्धारण का आधार बनाया। कृषि में सुधार एवं विस्तार हेतु मुहम्मद-बिन-तुगलक ने दीवान-ए-अमीर कोही (कृषि विभाग) नामक विभाग की स्थापना की। इनके द्वारा अकाल राहत संहिता भी तैयार कराई गई।
दोआब में हुए विद्रोह के पश्चात् मुहम्मद-बिन-तुगलक स्वर्गद्वार नामक स्थान पर चला गया। मुहम्मद-बिन-तुगलक के शासनकाल में (1333 ई.) में अफ्रीकी यात्री इब्नबतूता भारत आया। सुल्तान ने उसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया।
सुल्तान ने जैन विद्वान् जिनप्रभु सूरि और राजशेखर का स्वागत किया। शेख निजामुद्दीन चिराग-ए-दिल्ली सुल्तान के विरोधियों में से एक था।
मुहम्मद बिन तुगलक के समय सबसे अधिक (चौंतीस) विद्रोह हुए, जिसमें
सत्ताइस विद्रोह अकेले दक्षिण भारत में हुए। मुहम्मद-बिन-तुगलक के काल के प्रमुख विद्रोह हैं-दक्षिण में बहाउद्दीन गुरशस्प, मुल्तान में बहराम किश्लू तथा बंगाल में गयासुद्दीन आदि।
फिरोजशाह तुगलक ने प्रचलित कम-से-कम तेईस करों को समाप्त करके इस्लामी शरीयत कानून द्वारा अनुमति प्राप्त केवल चार करों-खराज, जकात, जजिया और खुम्स को आरोपित किया। ख्वाजा हिसामुद्दीन के हिसाब के अनुसार फिरोज सरकार की वार्षिक आय छः करोड़ पचहत्तर लाख टका थी। .
तुगलक वंश के अन्तिम शासक नासिरुद्दीन महमूद (1394-1412 ई.) के शासन काल में मध्य एशिया के मंगोल सेनानायक तैमूर ने 1398 ई. में भारत पर आक्रमण किया। सैयद वंश (1414-51 ई.) के संस्थापक खिज्र खाँ ने मंगोल आक्रमणकारी तैमूर को सहयोग प्रदान किया था।
उसने तैमूर के पुत्र शाहरुख के प्रतिनिधि के रूप में शासन किया।
बहलोल लोदी (हजरत आला) के पश्चात् लोदी वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक सिकन्दर लोदी गद्दी पर बैठा, उसने 1504 ई. में आगरा नगर की स्थापना की तथा बादलगढ़ का किला बनवाया। सिकन्दर लोदी द्वारा नाप के लिए एक पैमाना ‘गजे सिकन्दरी’ प्रारम्भ किया गया। यह प्रायः 30 इंच का होता था ।
सल्तनत काल में सबसे ज्यादा नहर बनवाने वाला शासक फिरोजशाह तुगलक था।
सल्तनतकालीन प्रशासन, अर्थव्यवस्था समाज एवं संस्कृति सुल्तान की उपाधि तुर्क शासकों ने प्रारम्भ की। सुल्तान स्वयं को खलीफा का नाइन मानता था
सत्तनतकालीन भारत में प्रशासनिक संरचना मुख्यतः पारसी अरबी पद्धति पर आधारित थी, किन्तु सैन्य संगठन तुर्क मंगोल पद्धति पर आधारित था।
  • सल्तनतकालीन इस्लामी कानून शरीयत कुरान व हदीस पर आधारित था। शरीयत की व्याख्या उलेमा’ करते थे। राज्य का प्रधानमन्त्री वजीर कहलाता था, उसका कार्यालय दीवान-ए-विजारत था।
काजी-उल-कुजात न्याय विभाग का प्रमुख होता तथा सद्र-उस-सुदूर धार्मिक विभाग का प्रधान था।
  • आमिल राजस्व प्रशासन में राजस्व वसूली के प्रभारी (राजस्व अधिकारी) को आमिल कहा जाता था। यह परगना स्तर पर एक महत्त्वपूर्ण अधिकारी होता था
. दीवान-ए-अर्ज सैन्य विभाग था. इसकी स्थापना बलबन द्वारा की गई थी। अलाउद्दीन ने इस विभाग को और अधिक व्यवस्थित किया, उसने दाग तथा चेहरा प्रथाएँ प्रारम्भ की।
दीवान-ए-इंशा सूचना, पत्र-व्यवहार आदि से सम्बन्धित विभाग था। इसका प्रमुख अधिकारी दबीर-ए-खास या दबीर-ए-मुमालिक कहलाता था।
दीवान-ए-वकूफ जलालुद्दीन खिलजी द्वारा व्यय के कागजात की देखभाल हेतु स्थापित किया गया था। ‘दीवान-ए-मुस्तखराज अलाउद्दीन खिलजी ने बकाया राजस्व की जाँच एवं वसूली के लिए स्थापित किया।
दिल्ली सल्तनत में ही भारत में रेशम के कीड़े पालने की प्रथा शुरू हुई।
इसी काल में फिरोज तुगलक द्वारा समय सूचक यन्त्रों के प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं।
सल्तनतकाल में 5 प्रकार के कर थे
(1) उग्र मुसलमानों से लिया जाने वाला भूमि कर
(2) खराज गैर मुसलमानों पर भूमि कर
(3) खुम्स लूट, खानों व भूमि में गड़े खजानों पर
(4) जकात मुसलमानों पर धार्मिक कर
(5) जजिया गैर मुसलमानों पर लगाया जाने वाला धार्मिक कर तुर्क अपने साथ चरखा लेकर आए, यह सम्भवतः 12वीं सदी में ईरान में विकसित हुआ। भारत में इसका प्रथम उल्लेख 14वीं सदी में ही मिलता है। रहट के प्रयोग के संकेत पूर्व मध्यकालीन ग्रन्थों में अरघट्ट, घटी यन्त्र आदि शब्दों के प्रयोग से मिलते हैं, परन्तु इसका प्रथम विस्तृत विवरण बाबरनामा में मिलता है।
  • कागज का प्रचलन सल्तनत काल में प्रारम्भ हुआ। भारत में कागज की प्राचीनतम पाण्डुलिपि 1223-24 ई. की है, जो गुजरात से मिली है। अलाउद्दीन खिलजी तथा मुहम्मद-बिन-तुगलक ने भू-राजस्व निर्धारण के लिए भूमि की पैमाइश कराई। – अमीर खुसरो को तोता-ए-हिन्द (तूती-ए-हिन्द ) की उपाधि दी गई थी। इनकी प्रमुख रचनाएँ-किरान-उस-सादेन, आशिका, नूह-सिपेहर, तुगलकनामा आदि हैं। भारत में अमीर खुसरो ने कव्वाली गायन शैली प्रचलित की, इन्हें सितार व तबले का भी आविष्कारक माना जाता है। अमीर खुसरो ने उर्दू को ‘हिन्दवी’ अथवा ‘देहलवी’ कहा। इसकी लिपि फारसी में है।
  • मोहम्मद गेसूदराज को उर्दू गद्य का जन्मदाता कहा जाता है। इब्राहिम आदिलशाह पहला शासक था, जिसने उर्दू को राजभाषा बनाया। ‘शम्स-ए-सिराज अफीफ तथा जियाउद्दीन बरनी दोनों ने ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ नाम से पुस्तक लिखी।
                            प्रान्तीय राजवंश
1202 ई. में बख्तियार खिलजी ने लक्ष्मण सेन को परास्त कर बंगाल में तुर्क सत्ता स्थापित की, जबकि अलाउद्दीन अलीशाह ने मुहम्मद तुगलक काल (1338 ई.) में स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया था।
सिकन्दर शाह ने 1386 ई. में पण्डुआ में अदीना मस्जिद बनवाई, मालाघर बसु को गुणराज खान, उसके पुत्र को सत्यराज खान की उपाधि दी। मालाधर बसु ने श्रीकृष्ण विजय तथा सिकन्दरशाह के ही काल में कृत्तिवास ने बंगाली भाषा में रामायण की रचना की।
अलाउद्दीन हुसैन शाह ने खलीफतुल्लाह की उपाधि धारण की। सत्यपीर नामक आन्दोलन को प्रारम्भ किया तथा बड़ी संख्या में हिन्दुओं को प्रशासन में स्थान दिया। अपनी उदारता के कारण उसे नृपति तिलक, कृष्ण का अवतार तथा जगत भूषण आदि उपाधियाँ दी गई।
नुसरतशाह (1519-32 ई.) ने गौड़ में बड़ा सोना मस्जिद तथा कदम रसूल मस्जिद बनवाई एवं इसी के काल में ‘महाभारत’ का बांग्ला भाषा में अनुवाद काशीराम ने किया। फिरोज तुगलक द्वारा जौना खाँ (मुहम्मद तुगलक) की स्मृति में स्थापित जौनपुर में 1394 ई. में मलिक सरवर (ख्वाजा जहाँ) ने स्वतन्त्र शर्क राज्य की स्थापना की। इब्राहिम शाह शर्की (1401-1440 ई.) ने जौनपुर को कला, संस्कृति, इस्लामी विद्या का केन्द्र बना दिया तथा उसको शर्की/जौनपुर शैली का जन्मदाता माना जाता है। इसी के काल में अटाला मस्जिद पूर्ण हुई। इब्राहिम शाह शर्की को सिराज-ए-हिन्द तथा जौनपुर को भारत का सिराज कहा गया। दुर्लभवर्द्धन ने कश्मीर कार्कोट वंश की नींव डाली। ललितादित्य मुक्तापीड़ (72460 ई.) इस वंश का महानतम शासक था, जिसने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया, प्रसिद्ध सूर्य मन्दिर (मार्तण्ड मन्दिर) बनवाया। • उत्पल वंश का संस्थापक अवन्तिवर्मन (855-83 ई.) था। इसके मन्त्री सुय्य ने नहरों का निर्माण करवाया तथा अवन्तिपुर नामक नगर की स्थापना की। क्षेमेन्द्रगुप्त का विवाह दिदा से हुआ, जोकि एक महत्त्वाकांक्षी महिला थी। दिद्दा ने लगभग पचास वर्षों तक व्यावहारिक रूप से सत्ता पर पकड़ बनाए रखी, इसका नाम सिक्कों पर भी मिलता है। हर्ष को कश्मीर का नीरो कहा जाता है। इसने कल्हण को संरक्षण दिया। कल्हण ने राजतरंगिणी की रचना की, जिससे कश्मीर का इतिहास ज्ञात होता है राजतरंगिणी, जयसिंह (112759 ई.) के काल में पूर्ण हुई। सिकन्दर (1389-1413 ई.) अत्यधिक धर्मान्ध शासक था। उसने बुतशिकन (मूर्ति तोड़ने वाला) की उपाधि ली थी तथा उसे तुरुष्क सूहा भी कहा जाता था। सिकन्दर का पुत्र जैनुलआबिदीन अपनी उदारता के कारण कश्मीर का अकबर कहलाता है। उसे वडशाह (महान शासक) कहा जाता था। उसने अपने पुत्र से दुःखी होकर शिकायतनामा’ नामक ग्रन्थ की रचना की।
जफर खाँ ने गुजरात में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना 1407 ई. में की, जबकि अहमदशाह (1411-42 ई.) को गुजरात राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। अहमदशाह ने प्राचीन नगर आसवाल के स्थान पर अहमदाबाद नगर की स्थापना की। महमूद बेगड़ा (1459-1511 ई.) ने मुहम्मदाबाद, मुस्तफाबाद नामक नगर बसाए तथा गिरनार के निकट बाग-ए-फिरदौस की स्थापना की।
महमूद खिलजी (1436-69 ई.) ने मालवा में खिलजी वंश की स्थापना की। इसके मेवाड़ के शासक राणा कुम्भा से निरन्तर युद्ध हुए, जिसमें दोनों पक्षों ने विजय के दावे किए। परिणामस्वरूप राणा कुम्भा ने चित्तौड़ में विजयस्तम्भ तथा महमूद खिलजी ने माण्डू में विजय स्मृति स्थापित की। • राणा कुम्भा ने विजयस्तम्भ लेख के रचयिता अत्रि तथा महेश को संरक्षण दिया।
गीत गोविन्द पर रसिकप्रिया नामक टीका लिखी, एकलिंग महात्म्य के अन्तिम भाग की रचना की। वे एक कुशल वीणा वादक तथा महान् संगीतकार थे। राणा सांगा ने घटोली (खतौली) के युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त किया, परन्तु खानवा के युद्ध में बाबर से उनकी हार हुई। उनके सरदारों ने विष देकर उनकी हत्या कर दी।
                             मध्यकालीन भारत
  • रिवीजन फैक्ट्स विजयनगर साम्राज्य 1336 ई. में हरिहर एवं बुक्का ने वेदों के भाष्यकार सायण की प्रेरणा से तुंगभद्रा के तट पर विजयनगर राज्य की स्थापना की। हरिहर एवं बुक्का के पिता के नाम पर विजयनगर पर शासन करने वाला प्रथम वंश संगम वंश (1336-1485 ई.) कहलाया। इसके अतिरिक्त विजयनगर पर सालुव वंश (1485-1505 ई., संस्थापक नरसिंह सालुव), सुलुव वंश (1505-70 ई. संस्थापक वीर नरसिं तथा अरवी वंश (1570-1650 ई.. संस्थापक तिरुमल) ने भी विजयनगर
पर शासन किया। बुक्का प्रथम (1356-77 ई.) ने वेद मार्ग प्रतिष्ठापक की उपाधि ली इसकी मदुरा विजय का वर्णन गंगा देवी कृतं मदुरा विजयम् नामक कृति में है। देवराय प्रथम (1406-22 ई.) ने तुंगभद्रा नदी पर ह नामक बाँध बनवाया तथा हरविलासम नामक ग्रन्थ के रचयिता श्रीनाथ
को संरक्षण दिया। इटली के यात्री निकोलो कोण्टी ने इनके समय विजयनगर की यात्रा की। देवराय द्वितीय (1422-46 ई.) को इम्माडि देवराय, प्रौद देवराय तथ गजबेटकर (हाथियों का शिकारी) कहा जाता था। इसने भी श्रीनाथ को संरक्षण दिया, इसने स्वयं ब्रह्मसूत्र’ पर टीका तथा महानाटक ‘सुधानिधि’ नामक ग्रन्थों की रचना की। इनके काल में ईरान का अब्दुर्रज्जाक विजयनगर आया विरुपाक्ष द्वितीय (1465-85 ई.) संगम वंश का अन्तिम शासक था।
कृष्णदेव राय (1509-29 ई.) तुलुव वंश से सम्बन्धित थे। ये एक महान शासक थे। इन्होंने बहमनी शासक महमूदशाह को पुनः बीदर की गद्दी पर स्थापित किया तथा यवनराज स्थापनाचार्य का विरुद धारण किया। 1510 ई. में अल्बुकर्क ने फादर लुई को दूत बनाकर कृष्णदेव राय के पास भेजा। पुर्तगाली यात्री डोमिंगोपायस तथा डुआर्ट बारबोलसा ने भी इनके समय विजयनगर की यात्रा की।
कृष्णदेव राय ने विद्वानों को संरक्षण दिया तथा इनके दरबार में तेलुगू के आठ महान् विद्वान् अष्टदिग्गज कहलाते थे।
अष्टदिग्गजों में पेड्डाना सर्वप्रमुख थे। कृष्णदेव राय ने आमुक्त माल्यद (तेलुगू), उषा परिणय (संस्कृत), जाम्बवती कल्याणम (संस्कृत) नामक ग्रन्थों की रचना की। कृष्णदेव राय ने हजारा मन्दिर, विट्ठल स्वामी मन्दिर (हम्पी में) विरुपाक्ष मन्दिर, चिदम्बरम मन्दिर आदि का निर्माण करवाया।
विजयनगर साम्राज्य के मन्दिर वास्तुकला में ‘कल्याण मण्डप’ एक प्रमुख रचना थी, जो गर्भगृह के समीप में खुला प्रांगण होता था, जहाँ देवी-देवताओं से सम्बन्धित समारोह एवं विवाहोत्सव आयोजित किए जाते थे। • सदाशिवराय (1542-70 ई.) के काल में वास्तविक सत्ता रामराय के हाथ में थी। इसी के काल में (1565 ई.) रक्षसी-तंगड़ी अथवा तालीकोटा या बन्नी हट्टी का युद्ध हुआ। सीजर फ्रेडरिक तथा सेवेल (ए फॉरगॉटन एम्पायर का रचयिता) ने तालीकोटा युद्ध के विनाश का वर्णन किया है।
वेंकट द्वितीय (1586-1614 ई.) अरवीद वंश का महानतम् शासक था। इसने चन्द्रगिरि को मुख्यालय बनाया। इसने स्पेन के शासक फिलिप द्वितीय से पत्र-व्यवहार किया।
विजयनगर में मन्त्रिपरिषद् राज्य संचालन की सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था थी, जिसमें लगभग बीस सदस्य होते थे तथा अध्यक्ष, सभानायक एवं प्रमुख अधिकारी महाप्रधानी कहलाता था। इसकी बैठक वेंकट विलास मण्डप में होती थी। केन्द्रीय सचिवालय के प्रमुख अधिकारी थे- मानेय प्रधान (गृहमन्त्री), रायसम (सचिव), कर्णिकम (लेखाधिकारी), मुद्राकर्ता (शाही मुद्राधारक) आदि।
  • रिवीजन फैक्ट्स प्रान्त को राज्य अथवा मण्डपम, जिले को कोट्टम अथवा वलनाडु, उपजिला (तहसील) को नाडु, 50 गाँवों के समूह को मेलाग्राम और गाँव को उर कहते थे। गाँव का प्रशासन सभा/महासभा द्वारा किया जाता था। ब्रह्मदेय गाँव की सभा चतुर्वेदि मंगलम, जबकि अन्य गाँवों की सभा उर कहलाती थी। नायंकार व्यवस्था के अन्तर्गत भूखण्ड प्रदान किए जाते थे, जो अमरम कहलाते
थे तथा इन्हें पाने वाला सामन्त अमरनायक कहलाता था। राज्य के प्रत्यक्ष नियन्त्रण में आने वाले ग्राम भण्डारवाद ग्राम कहलाते थे। इसी तरह ब्रह्मदेय (ब्राह्मणों को), देवदेय ( मन्दिर को), मठापुर (मठ को दी गई कर मुक्त भूमि थी। विजयनगर राज्य में दास प्रथा विद्यमान थी एवं मनुष्यों का क्रय-विक्रय वेसवग कहलाता था। सदाशिवराय ने नाइयों को कर मुक्त कर दिया था, जबकि कृष्णदेव राय ने विधवा विवाह को विवाह कर से मुक्त करके विधवा विवाह को बढ़ावा देने का प्रयास किया।
शिष्ट नामक भूमिकर विजयनगर की आय का मुख्य स्रोत था। भू-राजस्व विभाग को ‘अथावना’ या ‘अठानवे ‘ कहा जाता था। किसान तथा भू-स्वामी के बीच उपज की हिस्सेदारी की व्यवस्था वारम कहलाती थी। भू-राजस्व का निर्धारण भूमि की उत्पादकता के आधार पर होता था। पॉलीगार जमीदार थे तथा कुदिते कृषि मजदूर थे, जो भूमि के साथ ही स्थानान्तरित हो जाते थे। नकद राजस्व सिद्धदाय कहलाता था। वीर पंचाल दस्तकार थे।
                              बहमनी साम्राज्य
  • हसन गंगू (जफर खाँ) ने मोहम्मद बिन तुगलक के शासन के अन्तिम दिनों में अलाउद्दीन हसन बहमन शाह की उपाधि धारण करके बहमनी साम्राज्य की स्थापना (1347 ई.) की हसन ने बहमनी साम्राज्य को चतुर्दिक, गुलबर्गा ( बीजापुर सम्मिलित), बरार, बीदर एवं दौलताबाद में बाँटा ।
शिहाबुद्दीन अहमद (1422-36 ई.) न्याय एवं धर्मनिष्ठा के कारण सन्त या वली कहलाता था।
अलाउद्दीन हुमायूँ को अपनी क्रूरता के कारण जालिम तथा आलस्य के कारण दक्कन का नीरो कहा जाता था।
शम्सुद्दीन मोहम्मद तृतीय (1463-83 ई.) के काल में रूसी यात्री निकितिन ने बहमनी राज्य की यात्रा की। महमूद गवाँ ने गोवा पर अधिकार प्राप्त किया तथा रौजत-उल-इंशा तथा दीवान-ए-अक्ष नामक ग्रन्थों की रचना की। इसे मोहम्मद तृतीय ने राजद्रोह के आरोप में मृत्युदण्ड दे दिया। बरार की स्थापना फतहुल्लाह इमादशाह ने की। बहमनी साम्राज्य से पृथक् होने वाला पहला राज्य बरार ही था। बीजापुर की स्थापना यूसुफ आदिलशाह ने 1489-90 ई. में की थी। इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय (1580-1627 ई.) ने दक्कनी उर्दू (हिन्दवी) को अपनी राजभाषा बनाया। इसे अपने उदार दृष्टिकोण के कारण जगद्गुरु कहा जाता था तथा निर्धनों की सहायता करने के कारण उसे अबला बाबा कहा जाता था. इसने किताब-ए-नौरस की रचना की।
  • मलिक अहमद ने 1490 ई. में अहमदनगर को स्वतन्त्र घोषित कर निजामशाही वंश के शासन की स्थापना की। सैयद अली तबताई ने निजामवंशी शासकों का इतिहास बुरहान-ए-नासिर नाम से लिखा। मलिक अम्बर ने छापामार युद्ध पद्धति अपनाई, जिसे कालान्तर में मराठों ने अपना लिया। उसने रैयतवाड़ी पर आधारित भू-राजस्व व्यवस्था लागू की। स्वतन्त्र गोलकुण्डा राज