HISTORY OF INDIA UP to 300 A.D

HISTORY OF INDIA UP to 300 A.D.

 

 

भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण तिथियाँ

 

 

ईसा पूर्व (बी.सी.) Before Christ

 

 

लगभग 2500 ई.पू. हड़प्पा संस्कृति.
 
इसके प्रमुख केन्द्र थे- मोहनजोदडो तथा हडप्पा, लोथल, कालीबंगान, आलमगीरपुर
 
1500 ई.पू. ऋग्वैदिक सभ्यता का आरम्भ
 
800 ई.पू. – लोहे का प्रयोग, आर्य सभ्यता का प्रसार
 
567 ई. पू. – लुम्बनी में महात्मा बुद्ध का जन्म
 
519 ई.पू. – ईरान के सम्राट साइरस द्वारा पश्चिमोत्तर भारत के प्रदेशों की विजय
 
493 ई.पू. मगध के अजातशत्रु का राज्यारोहण
 
486 ई. पू. – महात्मा गौतम बुद्ध को कुशी-नगर नामक स्थान पर मोक्ष प्राप्त
 
468 ई.पू. महावीर स्वामी को राजगिरी के निकट पावापुरी नामक स्थान पर निर्वाण प्राप्त
413 ई. पू. – शिशुनाग राजवंश की मगध में स्थापना
 
362-21 ई.पू. – नन्दवंश का शासकाल
 
327-25 ई. पू. – यूनान के सिकन्दर महान् का भारत पर आक्रमण
 
321 ई. पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण
 
305 ई.पू. – चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा सेल्यूकस की पराजय
 
269-232 ई.पू. – अशोक का शासनकाल
 
261 ई. पू. – अशोक की कलिंग पर विजय
 
250 ई. पू. – पाटलीपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति
 
185 ई.पू. अन्तिम मौर्य सम्राट ब्रहद्रथ का वध मौर्य वंश का शासन समाप्त शुंग वंश का उदय
 
180-165 ई.पू. – इण्डो-ग्रीक दिमीत्रियस द्वितीय का उत्तर-पश्चिम भारत पर शासन
 
155-130 ई. पू. मेनान्डर का शासन-
 
73 ई. पू. शुंग वंश के अन्तिम सम्राट  देवभूति का वासुदेव कण्व द्वारा वध
 
73-28 ई.पू. – कण्व वंश का शासनकाल
 
58 ई.पू. विक्रम संवत् का प्रारम्भ
 
50 ई.पू. कलिंग का राजा खारवेल
 
28 ई.पू. 225 ई.पू. आन्ध्र व सातवाहन वंश का शासनकाल
 
 
 
ईसवी सन् (ए.डी.) Anno Domini
 
 
50 ईसवी सन्त थॉमस का भारत आगमन
 
78 ईसवी- शक संवत् का प्रारम्भ
 
78-101 ईसवी कुषाण वंश के प्रतापी शासक कनिष्क का शासनकाल कुछ के अनुसार (78-125 ईसवी)
 
 86-114 ईसवी- गौतमीपुत्र शतकर्णी का शासनकाल
 
130-150 ईसवी- शक शासक रुद्र दमन प्रथम का पश्चिमी भारत पर शासन
 
319-320 ईसवी-गुप्त वंश का प्रारम्भ. गुप्त संवत्, चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्यारोहण
 
335 ईसवी समुद्रगुप्त सिंहासन पर आसीन हुआ
 
375-415 ईसवी- चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल
 
388-409 ईसवी के मध्य – चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शक सत्ता का अन्त
 
405-411 ईसवी – चीनी यात्री फाह्यान की भारत यात्रा.
 
415 ईसवी- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का पुत्रकुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर आसीन हुआ
 
455-67 ईसवी-हुणों का आक्रमण
 
455-67 ईसवी स्कन्दगुप्त का शासन-
 
476 ईसवी – महान् वैज्ञानिकों व ज्योतिर्विद काल आर्यभट्ट का जन्म
 
570 ईसवी – पैगम्बर मोहम्मद का जन्म
 
606-647 ईसवी- हर्षवर्धन का शासन.
 
622 ईसवी हिजरी संवत् का प्रारम्भ
 
628-34 ईसवी के मध्य-पुलकेशिन द्वितीय द्वारा हर्षवर्धन को पराजित करना
 
629-645 ईसवी – चीनी यात्री ह्वेनसाग की भारत यात्रा
 
642 ईसवी-महान् पल्लव शासक नरसिंह वर्मन प्रथम द्वारा पुलकेशिन द्वितीय की पराजय
 
पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु
 
671-685 ईसवी – चीनी विद्वान् इत्सिंग का भारत के लिए प्रस्थान भारत में निवास का समय
 
712-13 ईसवी- मुहम्मद बिन कासिम द्वारा भारत पर आक्रमण तथा सिन्ध तट पर अधिकार 736 ईसवी दिल्ली के प्रथम नगर की स्थापना
 
 740 ईसवी चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा पल्लव वंश का अन्त
 
 
750 ईसवी बंगाल में पाल वंश के शासन का आरम्भ
 
757 ईसवी दन्ति दुर्ग धारा चालुक्यों से अपनी स्वतन्त्रता घोषित तथा राष्ट्रकुल वंश का
 
शक्तिशाली वंश के रूप में उदय
 
793 ईसवी- राष्ट्रकूट वंश के गोविन्द तृतीय का राज्याभिषेक
 
814-880 ईसवी राष्ट्रकूट शासक अमोघ- वर्ष प्रथम का शासनकाल
 
836-92 ईसवी -प्रतिहार वंश के महान् शासक भोज कन्नौज के सिंहासन पर आसीन, पूर्वी चालुक्य वंश के भीम प्रथम का राज्याभिषेक 897 ईसवी-चोल राजा द्वारा अन्तिम पल्लव शासक की पराजय काँची के पल्लवों का अन्त
 
915 ईसवी- राष्ट्रकूट शासक द्वारा बंगाल के शासक महीपाल की पराजय राष्ट्रकूट वंश का मध्य भारत में शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में अभ्युदय
 
949 ईसवी कृष्ण तृतीय द्वारा चोलवंशीय परान्तक प्रथम की पराजय 985 ईसवी – राजराज चोल प्रथम का राज्याभिषेक
 
1001 ईसवी-महमूद गजनी द्वारा पेशावर और पंजाब के हिन्दूशाही शासक जयपाल की पराजय 1008 ईसवी-पेशावर के समीप वेहिन्द पर महमूद गजनी द्वारा आक्रमण, आनंदपाल की पराजय
 
1010 ईसवी – भोज परमार शासक बना
 
1014 ईसवी-राजेन्द्र प्रथम चोल वंश का शासक बना
 
1017-1137 ईसवी दार्शनिक रामानुज 1019 ईसवी-महमूद गजनवी का मथुरा व कन्नौज पर आक्रमण
 
1022 ईसवी-महमूद गजनवी का कालिजर पर आक्रमण व ग्वालियर पर आक्रमण
 
1025 ईसवी महमूद गजनवी ईसवी-महमूद द्वारा सोमनाथ पर आक्रमण लूटपाट तथा मन्दिर तोड़ना
 
1030 ईसवी- अल्बरूनी भारत में
 
1030 ईसवी- राजेन्द्र चोल का उत्तरी. भारत का अभियान
 
1175 ईसवी- मुहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण व मुल्तान दुर्ग पर कब्जा
 
 1178 ईसवी -मुहम्मद गौरी का गुजरात पर आक्रमण तथा पराजय
 
1191 ईसवी तराइन का प्रथम युद्ध पृथ्वीराज चौहान द्वारा मुहम्मद गौरी की पराजय
 
1192 ईसवी तराइन का द्वितीय युद्ध पृथ्वीराज चौहान की मुहम्मद गौरी द्वारा पराजय
 
1194 ईसवी- मुहम्मद गौरी द्वारा चन्द्रावर के युद्ध में कन्नौज के शासक जयचन्द की पराजय
 
1206 ईसवी कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली के सिहासन पर आसीन मुस्लिम राज्य की स्थापना. मुहम्मद गौरी की हत्या
 
 
 
 

 

 

 

  1. इतिहास का अर्थ, परिभाषा और क्षेत्र ,Meaning  of History and Scope

(अर्थ, परिभाषा और इतिहास का दायरा ]

 

  1. इतिहास के योग

 

[इतिहास का स्रोत]

 

  1. प्रागैतिहासिक युग

 

[पूर्वऐतिहासिक काल]

 

पूर्व ऐतिहासिक युगपा सभ्यता

 

4.

 

[Proto-Historic Period-Harappa Civilization] भारत में लोह युगीन सभ्यतायें 5.

 

[भारत में लौह युग की संस्कृति]

 

  1. क्षेत्रीय राज्यों का उदयवैदिक और महाजनपद [Rise of Territorial States – Vedic and Mahajanpada]

 

7.

 

मगध साम्राज्य का उत्थान

 

[मगध साम्राज्य का उदय]

 

  1. मौर्य : राज्य और प्रशासन [Maurya : State and Administration]

 

9 परवर्ती मौर्य युगशुंग, पश्चिमी छत्रप, सातवाहन तथा कुषाण [ Post Mauryan Period- Sungas, Western Kshatrapas Satvahans and Kushans]

 

  1. सुदूर दक्षिण के चेर, चोल और पाण्ड्य

 

[सुदूर दक्षिण में चेरा, चोल और पांड्य)

 

 

 

 

इतिहास का अर्थ, परिभाषा और क्षेत्र

Meaning, definition and scope of history

 

 

इतिहास अतीत काल में जो कुछ घटित हो चुका है, उसका अभिलेख है.

 

यह प्रत्येक घटना का अभिलेख है, जो अतीत काल में घटित हुयी। वे चाहे बहुत पहले घटित हुयी हों अथवा हाल ही में घटी हो।जी० के० क्लार्क “History is the story of deeds and achievements of men livingin societies,”

 -Henery Pirenne

 

इतिहास की परिभाषा दीजिये और इसका क्षेत्र बताइये।

 

या

 

Define History and discuss its scope. “इतिहास एक कहानी है।इस कथन की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिये imper “History is the story.” Critically examine this statement.

 

इतिहास अंग्रेजी शब्द ‘History’ का हिन्दी रूपान्तर है। History यूनानी संज्ञालोरोप्ला” (Loropla) से लिया गया है, जिसका अर्थ है, सीखना कालान्तर में इतिहास के लिये Scientia नामक लैटिन शब्द प्रयुक्त किया जाने लगा। हिन्दी में इतिहास शब्द की व्युत्पत्तिइतिआसइन तीन शब्दों से मानी गयी है, जिसका अर्थ हैनिश्चित

 

रूप से ऐसा हुआ आधुनिक काल में इतिहास की व्युत्पत्ति जर्मन शब्दगेस्विचटे‘ (Geschichte) से मानी जाती है, जिसका अर्थ है-‘घटित होना। इस प्रकार इतिहास का अर्थ है, विगत घटनाओं का विशेष एवं बोधगम्य विवरण

 

सर्वप्रथम हेरोडोटस ने इतिहास के लियेहिस्ट्री‘ (History) शब्द का प्रयोग किया।हिस्ट्रीशब्दहिस्टोरेसे बना है। ग्रीक शब्दहिस्टोरेशब्द इतिहासकार के लिये प्रयुक्त होता है, जो वादविवाद का निर्णय करने में समर्थ होता था अर्थात् वह विषय का अच्छा ज्ञाता होता था। एक लम्बे समय तक माना जाता रहा कि इतिहास का अर्थ इतिहासकार द्वारा तथ्यों का संकलन करके अतीत की घटनाओं को लिपिबद्ध करना है। लेकिन तथ्य स्वयं नहीं बोलते, इतिहासकार तथ्यों को एकत्रित करके उनको एक निश्चित घटनाक्रम के रूप में प्रस्तुत करता है। कालान्तर में जर्मन इतिहासकारों ने इतिहास में दर्शन का समावेश करके उसे वैज्ञानिक रूप प्रदान किया।

 

इतिहास की परिभाषा

 

(Definition of History) इतिहास की परिभाषा के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। फिर भी इतिहास की विभिन्न परिभाषायें प्रस्तुत की गयी हैं। कुछ प्रमुख परिभाषायें इस प्रकार हैं

 

 

 

(1) हेनरी पिरेन के अनुसार – “इतिहास समाज में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों और

 

उपलब्धियों की कहानी है।

 

__(2) ट्रैवेलियन के अनुसार—” इतिहास अपने परिवर्तनीय अंश में एक कहानी है।

 

3) दुइजिंग के अनुसारइतिहास अतीत की घटनाओं का विवरण है।

 

उल्लेख है।

 

रनियर के अनुसार– “इतिहास सभ्य समाज में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों

 

(5) चार्ल्स फर्थ के अनुसार — “इतिहास मानवीय सामाजिक जीवन का वर्णन है। का इसका उद्देश्य सामाजिक परिवर्तनों को प्रभावित करने वाले उन सक्रिय विचारों का अन्वेषण है, जो समाज के विकास में बाधक अथवा सहायक सिद्ध हुये हैं। इन सभी तथ्यों उल्लेख इतिहास में होना चाहिये।” (6) कालिंगवुड के अनुसार – “इतिहास एक अद्वितीय प्रकार का ज्ञान है तथा यह

 

मानव के सम्पूर्ण ज्ञान का स्रोत है।

 

(2) डिल्वे के अनुसार – “इतिहास वर्तमान में अतीत कालीन ज्ञान का अध्ययन है।

 

कोंचे के अनुसार – ” सम्पूर्ण इतिहास समसामयिक इतिहास होता है।” () जी० आर० एल्टन के अनुसार – “इतिहासकार जिसे लिखता है, वही इतिहास है।

 

(10) ई० एक० कार के अनुसार – “वस्तुतः इतिहास इतिहासकार तथा तथ्यों के बीच अन्तःक्रिया की अविच्छिन्न प्रक्रिया तथा वर्तमान और अतीत के बीच अनवरत परिसंवाद है।

 

(11) गेरोन्सकी के अनुसार – “इतिहास विगत मानवीय समाज का मानवतावादी एवं व्याख्यात्मक अध्ययन है, जिनका उद्देश्य वर्तमान के बारे में अन्तर्दृष्टि प्राप्त करना तथा अनुकूल भविष्य को प्रभावित करने की आशा जाग्रत करना है।

 

(12) लार्ड एक्टन के अनुसार – “इतिहास मनुष्यों के व्यक्तिगत कार्यों का सामान्यीकृत लेखाजोखा है, जो किन्ही सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये एक निकाय में एकीकृत होते हैं।उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर इतिहास के सम्बन्ध में निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं

 

(1) इतिहास मौलिक रूप से एक मानवीय अध्ययन है। (2) इतिहास व्यक्ति और समाज दोनों का अध्ययन है।

 

(3) इतिहास मार्गदर्शक है। जो लोग इतिहास को सुनना जानते हैं, उनके लिये इतिहास एक प्रकार से पूर्व की चेतावनी का कार्य करता है (4) इतिहास व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों प्रकार के मानवीय अनुभवों की विलक्षणता

 

पर बल देता है। (5) इतिहास अतीत का अध्ययन है। इतिहास का विशेष दायित्व अतीत करना, पुनर्मूल्यांकन करना एवं उसकी पुनः व्याख्या करना है।

 

 

(6) साहित्य, दर्शन एवं कला की अपेक्षा इतिहास चयन तथा निर्णय अधिक करता है। यह बारबार मानवीय संस्कृति को बदल देता है। (7) इतिहास अतीत की घटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या है।

 

 

 

Scope of History

 

इतिहास का क्षेत्र निरन्तर परिवर्तनशील रहा है। इतिहास के विकसित क्षेत्र का एकमात्र आधार विभिन्न युगों के ऐतिहासिकसामाजिक मूल्य तथा उनको सामाजिक आवश्यकतायें रही हैं। आरम्भ में इतिहास लेखन अनुप्त ज्ञान पिपासा की पूर्ति करने के लिये हुआ। प्राचीन इतिहासकारों ने इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर इतिहास का अध्ययन किया।इतिहास के जनक‘ (Father of History) हेरोडोटस ने अतीत के मानवीय कार्यों को वर्तमान तथा भविष्य के लिये सुरक्षित करने के उद्देश्य से अध्ययन किया। इस प्रकार उसने मानवीय कार्यों तथा उपलब्धियों की कहानी प्रस्तुत की। सभी इतिहासकारों ने प्रत्येक युग में इतिहास लेखन की आवश्यकता को स्वीकार किया है। उनका एकमात्र लक्ष्य सामाजिक मूल्यों तथा आवश्यकता के अनुसार इतिहास को लिपिबद्ध करना था। मध्य युग में जब धर्म की प्रधानता को मान्यता मिली, सन्त आगस्टाइन ने सम्पूर्ण विश्व कोईश्वर के नगर के रूप में चित्रित किया। इसी प्रकार वैज्ञानिक युग की सामाजिक आवश्यकता ने इतिहास को विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया।

 

इतिहास के खोत

 

साहित्य

 

 

 

साहित्य के अन्तर्गत देशी और विदेशी साहित्य सम्मिलित है। बी० डी० महाजन ने

 

जाति सम्बन्धी किंवदन्तियाँ भी साहित्य में शामिल की हैं।

 

देशी साहित्य

 

(H) अनैतिहासिक या धार्मिक

 

(A) ब्राह्मण– (1) वेदवेदों में ऋग्वेद सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद आते हैं। ऋग्वेद से हमें आर्यों के प्रसार, उनके भीतरी और बाहरी संघर्ष, उनके राजनीतिक, सामाजिक 1 तथा धार्मिक जीवन आदि के बारे में काफी जानकारी मिलती है। सामवेद गान प्रधान है। पुरोहित (उद्गाता यज्ञों के समय देवताओं की स्तुति करते समय इसके मन्त्रों को गाया करते हैं। यजुर्वेद विभिन्न यज्ञ विधियों का संग्रह है

 

(2) ब्राह्मण ग्रन्थइन्हें वेदों की टीका कहा जा सकता है। उत्तर वैदिक आर्यों की सभ्यता पर इनसे महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। प्रत्येक ब्राह्मण एक वेद या संहिता से सम्बन्धित है। ऐतरेय और कापीतकी ब्राह्मण ऋग्वेद से, शतपथ यजुर्वेद से, पंचविश सामवेद से, तथा गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद से सम्बन्धित है। ब्राह्मण ग्रन्थ आर्यों के राजनीतिक जीवन के अतिरिक्त सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन की झाँकी प्रस्तुत करते हैं।

 

(3) आरण्यकब्राह्मण ग्रन्थ का ही भाग आरण्यक भी है। ये मन्य अरण्यों (वनों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्गदर्शन के लिये लिखे गये थे। इनमें यज्ञों एवं धार्मिक अनुष्ठानों के अतिरिक्त दार्शनिक प्रश्नों की भी चर्चा की गयी है, जो भारतीय दर्शन का ज्ञान उपलब्ध कराते हैं। प्रमुख आरण्यकों में ऐतरेय, तैत्तरीय, मैत्रयाणी आरण्यकों का उल्लेख किया जा सकता है।

 

(4) उपनिषदआरण्यकों में जिस दार्शनिक विचारधारा का प्रारम्भ हम पाते हैं, उन्हीं का विस्तृत स्वरूप हमें उपनिषदों में देखने को मिलता है। इनमें जीव, आत्मा, परमात्मा, ब्रह्मा, कर्म, सृष्टि सम्बन्धी दार्शनिक एवं रहस्यात्मक प्रश्नों की विवेचना की गयी है। इनमें धार्मिक कर्मकाण्डों, यज्ञों, बलि इत्यादि की तीखी आलोचना भी की गयी है। प्रमुख उपनिषदों में ईश, केन, कठ, छान्दोग्य इत्यादि का उल्लेख किया जा सकता है। उपनिषदों से राजनीतिक इतिहास का भी पता चलता है। इनसे परीक्षित, उसके पुत्र जन्मेजय, उसके उत्तराधिकारी तथा विदेह के राजा जनक की ओर भी संकेत हैं। ब्लूमफिल्ड ने ठीक ही लिखा है कि, “हिन्दू धर्म का कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण विषय नहीं है जिसकी जड़ उपनिषदों में आरोपित हो।इनकी रचना लगभग 800-500 ई० पू० के मध्य मानी जाती है।

 

(5) वेदांगवेदांग वेद के अन्तिम भाग माने जाते हैं। वैदिक अध्ययन के लिये विद्या की विशिष्ट शाखाओं का जन्म हुआ जो वेदांग के रूप में विख्यात हुये और जिनका उल्लेख मुण्डक उपनिषद में है। वेदांग संख्या में 6 हैंशिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष

 

(6) सूत्र साहित्यवेदांगों के एक भाग का नाम हैकल्प (अनुष्ठान) कल्प सूत्रों में विभाजित हैश्रीत (यज्ञ सम्बन्धी नियम), गृह (मानव जीवन के कार्यकलापों से सम्बन्धित संस्कार, नियम, इत्यादि), धर्म (सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक नियम), शत्व (पत्र, हवन कुण्डों से सम्बन्धित नियमों का संकलन) कल्प के अलावा जैसा कि ऊपर लिखा गया है, अन्य वेदांग हैंशिक्षा (उच्चारण विज्ञान), व्याकरण, निरुक्त (व्युत्पत्ति विज्ञान), छन्द और ज्योतिष

 

 

(ii) हिकेटियस मिलेटसइसने भी स्काइलेक्स का ही आश्रय लेकरभूगोल नामक धन्य लिखा जो स्काइलेक्स की ही भाँति सिन्धु नदी की घाटी तक सीमित है। (iii) हेरोडोटस – ‘इतिहास के जनकहेरोडोटस ने अपने अन्य हिस्टोरिका में ईरानी

 

और यूनानी आक्रमणों तथा इण्डोईरानी सम्बन्धों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। वह हमें अपने समय के उत्तरपश्चिमी भारत की सांस्कृतिक जानकारी तथा राजनीतिक स्थिति का ज्ञान प्रदान करता है। उसका मत है कि उत्तरी भारत का भूक्षेत्र द्वारा (डेरियस) के साम्राज्य का एक अंग था। यह भूक्षेत्र उसके साम्राज्य का 200 प्रान्त था।

 

(iv) टेसियस (Ctesias) – टेसियस यूनानी राजवैद्य था तथा पारसीक सम्राट अजिग्जीन के दरबार में रहता था। उसने पूर्वी देशों से लौटकर आये हुये यात्रियों के मुंह से सुनसुन कर भारत के सम्बन्ध में अद्भुत कहानियों का संग्रह किया था।पर्शिकाउसका प्रमुख प्रन्थ है, जो अब उपलब्ध नहीं (?) उद्धरण अवश्य मिल जाते हैं जिनसे कुछ सहायता मिल जाती है। किन्तु प्रामाणिकता की दृष्टि से उसकी अधिकांश सामग्री सन्देहास्पद है। (2) सिकन्दर के समकालीन (1) निअर्कस यह सिकन्दर के जहाजी बेड़े का एडमिरल

 

(अध्यक्ष) था। इसके लेखों के उद्धरण स्ट्रेबो तथा एरियन के लेखों में मिलते हैं।

 

(ii) ऐरिस्टोवलसइसनेहिस्ट्री दी वामें अपने निजी अनुभवों का वर्णन किया है। एरियन और प्लुटार्क भी इस ग्रन्थ से लाभान्वित हुये थे। (iii) आनेसिक्रिटसयह सिकन्दर के जहाजी बेड़े का पाइलट था। इसनेसिकन्दर की जीवनीलिखो।

 

(3) सिकन्दर के परवर्ती— (i) मेगस्थनीजयह यूनानी शासक सेल्यूकस के राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार (पाटलिपुत्र) में आया था। भारत की तत्कालीन सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थिति के विषय में बहुत कुछ लिखा है। यद्यपि उसकी मूल पुस्तकइण्डिकाउपलब्ध नहीं है, किन्तु अन्य ग्रन्थों में इसके उद्धरण प्राप्त होते हैं जिससे पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री मिलती है। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र नगर की संरचना, चन्द्रगुप्त के व्यक्तिगत जीवन तथा उसके शासनप्रबन्ध के लिये बनी समितियों एवं उसके सैनिक प्रवन के विषय में विस्तार के साथ लिखा है। उसने भारतीय संस्थाओं, भूगोल एवं वनस्पति के

 

सम्बन्ध में भी लिखा है। (ii) डायमेकसयह बिन्दुसार के दरबार में राजदूत बनकर आया था। इसका लि हुआ मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। स्ट्रेबो ने अपने लेखों में एकदो बार डायमेक्स के कपों के उद्धरण दिये हैं।

 

(iii) डायोनिसियसइसे मिस्र के राजा टॉलेमी ने अपना राजदूत बनाकर भारत था। वह मौर्य नरेश बिन्दुसार की राजसभा में यूनानी राजदूत के रूप में रहा था। उसक मूल ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है, परन्तु उसका उपयोग बाद के लेखकों ने अपने ग्रन्थों किया है।

 

(iv) एरियनयह एक प्रसिद्ध यूनानी इतिहासकार था उसनेइण्डि

 

एनोबेसिसअर्थात् सिकन्दर के अभियान का इतिहास नामक दो ग्रन्थ लिखे। ये दोनों घर

 

सिकन्दर के समकालीन लेखकों और मेगस्थनीज के विवरणों पर आश्रित थे। विमल

 

पाण्डेय के अनुसार, “सम्पूर्ण विवरण को देखते हुये मानना पड़ेगा कि उसकी अधिक

 

बातें सत्य हैं।

 

(v) स्ट्रेबोयह एक प्रसिद्ध इतिहासकार एवं भूगोलवेत्ता था। इसने देशविदेश भ्रमण करके भारी अनुभव प्राप्त किया। इसका प्रन्थभूगोलइतिहास में अपना बड़ा रखता है। भौगोलिक अवस्थाओं के अतिरिक्त इसमें सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक

 

 

शीर्ष अथवा अधोभाग पर अनेक लेख उत्कीर्ण मिले हैं जिनसे प्राचीन इतिहास के निर्माण में बहुत सहायता मिलती है। इनसे मन्दिरों के निर्माण या मूर्तियों के प्रतिष्ठापन का समय ज्ञात होता है। इनसे वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास पर भी प्रभाव पड़ता है। ये भाषाओं के विकास पर प्रभाव डालते हैं। उदाहरणस्वरूप, गुप्तकाल से पहले के अधिकार अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं और उनमें ब्राह्मगोत्तर धार्मिक सम्प्रदायों जैसे बौद्ध और जैन धर्म का उल्लेख है। गुप्तोत्तर काल के अधिकतर अभिलेख संस्कृत में हैं और उनमें विशेष रूप से ब्राह्मण धर्म का उल्लेख है।

 

(e) प्राकार लेखप्राय: प्राचीन मन्दिरों तथा स्तूपों के चारों ओर प्राकार अथवा चार दीवारों का निर्माण किया जाता है। इन प्राचीरों पर भी उत्कीर्ण अभिलेख प्राप्त हुये हैं। इस प्रकार के अभिलेखों में भरहुत का प्राकार अभिलेख बड़ा महत्त्वपूर्ण है जिससे पता चलता है कि इसका निर्माण शुंग राजाओं के काल में हुआ था। (1) पाषाण पत्र लेखमध्य प्रदेश में धार में उपलब्ध पाषाण पत्रों पर नाटकों के

 

अंश उल्लिखित हैं। (g) पात्र लेखप्राचीनकाल के मृदपात्रों तथा धातु पात्रों पर भी उत्कीर्ण लेख प्राप्त हुये हैं। सिन्धु घाटी की खुदाई में इस प्रकार के अनेक अभिलेख मिले हैं जिनसे तत्कालीन दशा का पर्याप्त परिचय मिल सकता है, परन्तु अभी तक वे पढ़े नहीं जा सके हैं। पात्र लेखों में पिपरहवा कलश लेख उल्लेखनीय है।

 

(h) ताम्र पत्र लेखप्राचीन काल में जब सम्राट लोग प्रसन्न होकर किसी व्यक्ति को भूमि अथवा सम्पत्ति दान में देते थे तो उसे ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करा कर प्रमाणपत्र के रूप में दे दिया करते थे। इनमें उपहार अथवा दान देने वाले सम्राट का नाम, वंश तथा क्रियाकलापों का उल्लेख रहता था। सौहगोरा पत्र से तत्कालीन शासन व्यवस्था की जानकारी मिलती है।

 

(i) मुहर अभिलेखइस प्रकार के लेख मिट्टी तथा धातु दोनों ही प्रकार की बनी मुहरों (Scan) पर उत्कीर्ण किये जाते थे। इन मुद्राओ अथवा मुहरों पर राजकीय पदाधिकारियों अथवा व्यक्ति विशेष के नाम अथवा हस्ताक्षर उत्कीर्ण मिले हैं जो इतिहास के निर्माण में पर्याप्त सहायक हैं। वैशाली से बहुतसी मुहरें मिली हैं जिनमें ध्रुवस्वामिनी की मुद्रा मुख्य है। मुहरों के महत्त्व के बारे में एक विद्वान् ने लिखा है– “मुहरों के भिन्नभिन्न रूपों के द्वारा हमें प्रान्तीय और स्थानीय प्रशासन के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। हमें बड़े और छोटे दोनों ही प्रकार के अधिकारियों की मुहरें प्राप्त हुयी हैं।

 

(4) काल के आधार पर – (a) अशोक के पूर्ववर्ती अभिलेखकतिपय विद्वानों की यह धारणा है कि अभिलेखों के उत्कीर्ण कराने की परम्परा का प्रादुर्भाव अशोक के पूर्व हो चुका था। अपने मत के समर्थन में इन विद्वानों ने बस्ती से प्राप्त पिपरहवा कलश लेख एवं अजमेर में प्राप्त बडली अभिलेखों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। परन्तु अभिलेखों के उत्कीर्ण करने का स्वर्ण काल अशोक के ही समय से आरम्भ होता है।

 

(b) अशोक के समय के अभिलेखअनेक विद्वान् अशोक को ही अभिलेखों का जन्मदाता स्वीकार करते हैं। अशोक ने अपने सम्पूर्ण राज्य में शिलाओं तथा स्तम्भों पर लेख लिखवाये थे। ये लेख अशोक के जीवन तथा व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने के साथ ही तत्कालीन इतिहास पर भी प्रकाश डालते हैं।

 

(c) अशोक के परवर्ती अभिलेखअशोक के बाद के लेखों को हम राजकीय तथा अराजकीय दो भागों में बाँट सकते हैं। राजकीय लेख प्रधानतः प्रशस्तियों अथवा भूमि दानों के रूप में पाये जाते हैं। प्रशस्तियां राजकवियों द्वारा सम्राटों की प्रशंसा में लिखी गयी है।

 

 

 

  1. A) देशी स्मारकदेशी स्मारकों में प्रधान निम्नांकित हैं

 

(1) सारनाथ का घंटाकार स्तम्भइस घंटाकार स्तम्भ मस्तक के बारे में जे० मार्शल ने लिखा है कि यह भारतवर्ष की सर्वोच्च नक्काशी है और प्राचीन विश्व में इसकी क्षमता की कोई दूसरी वस्तु नहीं थी। (2) झाँसी तथा कानपुर के मन्दिरझाँसी जिले में देवगढ़ का पत्थर का दशवतार मन्दिर तथा कानपुर जिले में भीतरी गाँव का ईंटों का मन्दिर प्राचीन भारत की भवननिर्माण

एवं वास्तुकला की महानता के द्योतक हैं।

 

(3) अजन्ता तथा एलोरा की चित्रकारीअजन्ता तथा एलोरा की गुफाओं में जो चित्रकारी मिलती है उससे प्राचीन भारत की चित्रकला का कुशलता से बोध हो जाता है। (4) प्राचीन मूर्तियां प्राचीन मूर्तियों से भारतीय मूर्तिकला तथा मूर्ति निर्माण की कुशलता का बोध हो जाता है। गुप्तकालीन मूर्तियों से यह पता चलता है कि उस समय वैष्णव, शैव तथा बौद्ध धर्मों का प्रचलन था एवं उनमें धार्मिक सहिष्णुता थी

 

(5) उत्खनन में प्राप्त सामग्रीपुरातत्त्व विभाग द्वारा कई स्थानों में उत्खनन कार्य किया जा रहा है। प्राचीन नगरों में या नदियों के तटों पर टीलों, गुफाओं, खण्डहरों, दुर्गों आदि में खुदाई करने पर प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है। इससे प्राण एवं प्राक् काल के इतिहास, तथा बाद के समय की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है।

 

(B) विदेशी स्मारकजावा, कम्बोज, मलाया, बाली, बोर्नियो, चीनी, तुर्किस्तान, बलुचिस्तान आदि स्थानों में जो स्मारक उपलब्ध हुये हैं उनसे यह प्रतिविम्बित होता है कि प्राचीन काल में भारतीय धर्म और संस्कृति की ज्योति वहाँ विकीर्ण हो गयी भग्नावशेषों में आज भी देदीप्यमान है। रमाशंकर त्रिपाठी के अनुसार, “विदेशों के प्राचीन स्मारकीय भग्नावशेष प्राचीन भारत के अज्ञात गौरव का नवीन प्रकरण हमारे सामने खोलते हैं।इनसे ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतीय धर्म एवं संस्कृति का वहाँ प्रचार था

 

कलाकृतियाँ एवं मिट्टी के बर्तनविभिन्न स्थानों पर किये गये उत्खननों से मिट्टी की बनी हुयी अनेक मूर्तियाँ वर्तन प्राप्त होते हैं। इन बर्तनों मूर्तियों का भी अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि इनसे तत्कालीन लोक कला धर्म सामाजिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। यह बर्तन मूर्तियाँ विभिन्न रंगों आकारों से मिलते हैं। चित्रकलाप्रागऐतिहासिक काल की चित्रकला से यह पता चलता है कि मानव किस

 

प्रकार अपने भावों की अभिव्यक्ति रेखांकन द्वारा करता था। चित्रकला से ही हमें पता

 

चलता है कि गुप्त युग तक आतेआते मानव ने चित्रकला क्षेत्र में कितनी प्रगति कर ली थी। उपरोक्त विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय इतिहास की जानकारी के विविध साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक स्रोत हैं। प्रत्येक प्रकार के स्रोत का अपना अलग महत्त्व है। इनमें से किसी भी स्लोत पर विशेष बल देने एवं दूसरे की अपेक्षा करने पर इतिहास की सही जानकारी नहीं हो सकती। तुलनात्मक दृष्टि से पुरातात्विक प्रमाण ज्यादा प्रामाणिक होने के बावजूद अपने में पूर्ण नहीं हैं। इसलिये दोनों प्रकार के स्रोतों के उचित प्रयोग के आधार पर ही निरषेध इतिहास की रचना की जा सकती है। यद्यपि विभिन्न युगों में विविध सम्वतों का प्रचलन तिथियों का ज्ञान होना आदि अनेक समस्यायें रास्ते में आती है, किन्तु इन समस्याओं को अतिक्रमण करके प्राचीन भारत के क्रमिक वैज्ञानिक इतिहास का निर्माण करना असम्भव कार्य नहीं है।

 

प्रतिपादन एवं अन्य मतमतान्तरों के खण्डन के साथसाथ छठी सदी ई० पृ०. के मामों, नगरों, जनपदों, राज्यों एवं गणराज्यों का उल्लेख भी मिलता है। युद्ध के उपदेशों का निरूपण मिलता है। संयुक्त इससे भी बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों के साथसाथ छटी ई० पू० की समाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर काफी प्रकाश पड़ता है।

 

(iii) अंगुत्तरइसमें 11 निपात हैं और जो 6 ई० पू० के महाजनपदों एवं अन्य ऐतिहासिक महत्त्व की बात बतलाते हैं।

 

(iv) खुदकइसके खुहक पाठ, धम्मपद उदान, इतिवृत्तक, सुन निपात, विमान वत्यु, पेट वत्थु थेरगाथा, थेरीगाथा, निस, पतिस्म्मिदाग, अपादान, बुद्धवंश चरिया पिटक आदि पंथ आते हैं।

 

(v) अभिधम्म पिटकइसमें बौद्ध धर्म के दार्शनिक पक्ष का विवेचन मिलता है 1 इसके अन्तर्गत धम्मसंगणि, विभंग, धातुकथा, पुग्गल पंजति, कथा वत्यु, यमक एवं पठान नामक ग्रन्थ आते हैं। बौद्ध धर्म तथा तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के अध्ययन में इन ग्रन्थों का काफी महत्त्व है। रतिभानुसिंह नाहर के अनुसार – “त्रिपिटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये बौद्ध ग्रन्थ के संगठन का पूर्ण विवरण उपस्थित करते है। साथ ही तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का भी बोध कराते हैं।

 

(2) जातकजातकों का भी अपना महत्त्व है। इनकी संख्या 549 है। विटरनिट्ज

 

के अनुसार, “जातक केवल इसलिये ही अमूल्य नहीं कि उनके साहित्य और उनकी कला

 

का प्रकाशन वैसा है। अपितु 3 ई० पू० की सभ्यता के इतिहास की दृष्टि से भी उनका

 

ऊँचा मान है।जातकों से तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक

 

अवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता

 

(3) अन्य बौद्ध ग्रन्थ अन्य ग्रन्थों में पाली ग्रन्थ मिलिन्द्रपन्हो, दीपवंश, महावंश तथा चूलवंश उल्लेखनीय हैं। मिलिन्दपन्हो से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक अवस्थाओं के अतिरिक्त आर्थिक अवस्था का भी पूर्ण विवरण प्राप्त होता है। दीपवंश से मौर्य वंश के इतिहास निर्माण में सहायता ली जाती है। यद्यपि इसमें कपोलकल्पित एवं अतिरिक्त उल्लेखों की भरमार है। इसका रचनाकाल 5 ई० पू० स्वीकार किया गया है। महावंश से भी मौर्य साम्राज्य की जानकारी मिलती है, यद्यपि इसमें भी कपोल कल्पित कथाओं का समावेश है। चूलवंश से प्रभाकर के शासनकाल तक का वर्णन मिलता है। इसका रचनाकाल भी 5 ई० पू० माना जाता है। इन प्रन्थों के अतिरिक्त महावस्तु का भी अपना महत्त्व है। यह प्रथ मिश्रित संस्कृत में करीब 2-1 ई० पू० में लिखा गया। इससे जातक कलाओं तथा महाजनपदों की जानकारी मिलती है। ललितविस्तर भी मिश्रित संस्कृत में है। इसमें बुद्ध लीलाओं का वर्णन तो है ही, परन्तु साथ ही धार्मिक तथा सामाजिक अवस्थाओं का भी वर्णन है। बुद्धचरित् सदरा (दोनों अश्वघोषकृत एवं विशुद्ध से भी भारतीय इतिहास के निर्माण में पर्याप्त सहायता मिलती है। मंजुश्री मूलकल्प में मौर्य के पूर्व से लेकर हर्ष तक के युग की राजनीतिक घटनाओं का यत्रतत्र वर्णन है। दिव्यावदान भी अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। अशोकावदान तथा कुणालावदान से मौर्यवंश के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त नागार्जुन के माध्यमिक सूत्र शतसहस्मिका वसुबन्धु के धर्मबन्धु के धर्मकोष का भी अपना महत्त्व है। वैपुल्य सूत्र भी एक महत्त्वपूर्ण बौद्ध ग्रन्थ है। (C) जैन साहित्यजैन धर्म के ग्रन्थ आगम अथवा सिद्धान्त के नाम से ज्ञात हैं।

 

आगम साहित्य के अन्तर्गत ये आते हैंबारह अंगआचारंग सूत्र, सूयगडंग, ठाणंग, समवायंग, भगवतीसूत्र, नायाधम्मकहासूत्र, उवासगदसाओ, अन्तगडदसाओ, अपुत्तरो ववाइयदसाओ, पन्हावागरणाइन, विवागसुयम, तथा दिष्ठीवाय

 

 

 

बारह उपांगउपवाय, रायपसेणैज्ज, जीवाभिगम, पन्नवण, सुरपन्नति, जम्बुद्दीपन्नति चन्दपन्नति, निर्यावली, कप्प, वडसी समरूप, पुष्आयो, पुष्कचलियाओ तथा दिशाओ। दस प्रकीर्ण चौसरण, ओरपच्य करवाण, भट परिन्ना, संघर, तंदुलने वालिय चालू

 

विज्झम, देविन्दत्यव, गणिविद्या, महापच्चकवाण, वीरत्थ। छःच्छेदिससूत्रनिसीह, महानिसीह, क्वाहार, आयारदसाओं, कप्प, पंचकल्प। चार मूल सूत्र उत्तराय, अवस्थ्य, दस वेयाल पिण्डनिति।

 

(11) लौकिक साहित्य

 

लौकिक साहित्य, जैसेपाणिनि कृत अष्टाध्यायी (जिसमें आधुनिक शोधों के अनुसार कम्प्यूटर के प्रोप्रामिंग की जानकारी भी है और जो रूप और सार तत्त्व में कम्प्यूटर की कोबाल और फोटान की भाषा की तरह है) पतंजलि कृत महामाय से हमें मौर्य एवं मुंग काल के इतिहास की जानकारी मिलती है। इन पदों से तत्कालीन गणराज्यों की जानकारी मिलती है तथा भारत पर होने वाले यूनानी आक्रमण की भी नीतिसार नीतिवाक्यात ये हमें तत्कालीन राजकीय मशीनरी के बारे में जानकारी मिलती है। गार्गीसहित (1 कामसूत्र पू० ?” से यूनानियों के आक्रमण एवं शासन पर प्रकाश पड़ता है। विशाखदत्त के मुद्राराक्षस से नन्दों और मौर्यो के इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। कालिदास के अभिज्ञानशकुन्तलम् मालविकाग्निमित्रम् रघुवंशम् मे शुक के पृच्छकटिक, वात्स्यायन के काम दण्डिन के दशकुमारचरित आदि से तत्कालीन सभ्यता एवं संस्कृति का पता चलता है। सम्राट हर्ष द्वारा रचित तथाकथित ग्रन्थ नाग नन्द, रत्नावली और प्रियदर्शिका से भी तत्कालीन इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इसके अतिरिक्त बाण के हर्षचरित और कादम्बरी से हर्षवर्धन के राज्य को जानकारी मिलती है। रामचरित (सन्ध्याकरनन्दी), भोजप्रबन्ध (करनाल) 2 लालचरित (आनन्द भट्ट) पृथ्वीराज विजय (जयानक), पृथ्वीराजरासो (चन्द्रवरदायी अच्युतराजभ्युदय (राजराज), हमीरपईन (जयसिंह सूरी), प्रबन्धविन्तामणी (मेरुतुंग), वृहत गुणलोक्यसून्दरी (रुद्र), मनोवती (धवल) वररुचि की चारुवती सुमनोत्तरी भाग विन्दुमती विलासपती तथा प्राकृत भाषा की तरंगवती आदि सुन्दर कथाओं से भी प्राचीन इतिहास के अमूल्य संकेत प्राप्त होते हैं। सोमदेव के कथाचरित सागर, अरिमित सुकृतसंकीर्तण, राजेश्वर के प्रबन्धकोष से गुप्तकालीन इतिहास की अच्छी जानकारी मिलती है। इसके अलावा कुमारपालचरित (हेमचन्द्र), हमीर काव्य (जयचन्द्र), वल्लभी विक्रमांकदेवचरित (बिल्हण) नवसाहशांकचरित (परिमणगुप्त या पद्मगुप्त), कामन्दकीय नीतिशास्त्र (कामन्दक), बार्हस्पत्य, अर्थशास्त्र (बृहस्पति) बृहतकथामंजरी (क्षेमेन्द्र) आदि ग्रन्थों से भी विपुल ऐतिहासिक जानकारी मिलती है। भवभूति के ग्रन्थों का भी अपना महत्त्व है। भास कृत स्वप्नवासवदत्ता और प्रतिज्ञायोगंधरायण से हमें प्रद्योत कालीन भारत

 

की राजनीतिक स्थिति का पता चलता है। यद्यपि उपरोक्त सभी प्रधानतः साहित्यिक रचनायें हैं, और इनमें कल्पना की उड़ान तथा रूपकों का प्रचुर समावेश है, परन्तु सावधानी तथा सतर्कता से समीक्षा करने पर इनमें

 

पर्याप्त ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हो जाते (IIT) ऐतिहासिक

 

यद्यपि प्राचीन भारत का कोई ऐसा मन्य नहीं है जिसे विशुद्ध रूप से ऐतिहासिक कहा जा सके और जो इतिहास की कसौटी पर खरा उतर सके, क्योंकि (लगभग सभी , पर साहित्य दर्शन, धर्म आदि का प्रलेप चढ़ा हुआ है, तथापि कुछ ग्रन्थ ऐसे अवश्य। जिन्हें इतिहास की परिधि के अन्तर्गत रखा जा सकता है। इसमें से मुख्य अग्र हैं-.

 

(1) कौटिल्य का अर्थशास्त्र -15 का कोटा (41) राजनीतिशास्त्र और प्रशासन प्रणाली का सबसे महत्वपूर्ण है। राज्यको उसका संगठन, उसकी सुरक्षा के उपाय राजा के अधिकार और कर्तव्य मंत्रियों और अधिकारियों की नियुक्ति के नियम, सामाजिक संस्थाओं, आर्थिक क्रियाकलापों इत्यादि विषयों का विशद विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसमें राजा आमात्य राज्य कर्मचारी माम नगर, राज्य कर, वाणिज्य, न्याय, विवाह, स्त्री, धन, उत्तराधिकार, कटकशोधन, राज्य कर्मचारियों के आधार की परीक्षा मण्डल विधान, व्यसन, आक्रमण, युद्धश्रेणीसमूह कूटनीति दुर्गा पर आधिपत्य और गुप्तचर कार्य आदि विषयों का विवेचन बड़ी मार्मिकता से किया गया है। भोटे रूप में यह मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था, विशेषतया चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन की अच्छी जानकारी देता है।

 

(2) महाकाव्य रामायण तथा महाभारत (जिनमें अब कुल सवा लाख श्लोक है) हमारे देश के दो महाकाव्य हैं। रामायण मोटे रूप से राजा राम की कहानी है। परन्तु इससे तत्कालीन पारिवारिक जीवन, वर्णाश्रम व्यवस्था, धर्म, आर्थिक उन्नति, राजकीय व्यवस्था की जानकारी भी मिलती है। इसके अलावा, इससे हमें जनपदों की उत्पत्ति तथा विकास का भी ज्ञान होता है। इससे हमें हिन्दुओं तथा यवनों (यूनानियों) और शकों (सीथियनों) के संघर्ष का पता चलता है। महाभारत लगभग 950 ई० पू० हुये भारत युद्ध का ही विस्तृत रूप है। यह सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिविम्व है। इससे यह पता चलता है कि उस समय हिन्दू धर्म की स्थिति क्या थी। इसमें हिन्दू राजतन्त्र का अच्छा वर्णन है।

 

(3) कल्हण की राजतरंगिणीराजतरंगिणी की रचना कल्हण ने 1149-50 में की। आर० सी० मजूमदार का मत है कि राजतरंगिणी ही प्राचीन भारतीय साहित्य का एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसे यथार्थ रूप में प्राचीन भारत का ऐतिहासिक पन्थ कहा जा सकता है। इसमें प्राचीन काल से लेकर 12वीं सदी तक का कश्मीर का इतिहास दिया हुआ है। 7वीं सदी से पूर्व का भाग विश्वसनीय नहीं है, परन्तु आगे का भाग विश्वसनीय है। लेखक ने कालक्रमानुसार प्रत्येक राजा का विस्तृत परिचय दिया है। (4) वाक्पति का गौडवहोवाक्पति द्वारा प्राकृत में रचित गौडवहो का अपना महत्त्व

 

है। इस ग्रन्थ से कन्नौज के राजा यशोवर्मन के शासनकाल की अनेक घटनाओं का ज्ञान

 

प्राप्त होता है।

 

(5) तमिलसंगम साहित्यतमिल भाषा में लिखे प्रन्थ हमें दक्षिण भारत के इतिहास की बहुतसी घटनाओं का परिचय देते हैं। संगम काल का साहित्य ईसा की पहली सदियों के राज्यों और समाज पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। एक राजकवि ने अपनी पुस्तक नन्दिक्कलम्बकम् में पल्लव राजा नन्दिवर्मन III का वर्णन किया है। कलिगतुप्परणि में राजा कुलोन्तुंग द्वारा कलिंग देश पर किये गये आक्रमण का वर्णन है। ओकूतन नामक लेखक वे अपने 3 अन्यों में मणिमेकलाई लिपदिकारमतिर ?) तीन पोल राजाओंविक्रम चोल, कुलोतुंग II और राजराज II का वर्णन किया है।

 

(6) अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थउपरोक्त के अलावा, शुक्राचार्य द्वारा रचित शुक्रनीतिसार सोमेश्वर प्रणीत और रासमाला और कीर्ति कौमुदी का भी अपना महत्त्व है। इसी प्रकार नेपाल के स्थानीय इतिहास भी हैं, किन्तु उनके तथ्यों को ठीक प्रकार एकत्रित नहीं किया गया है।

 

विदेशी साहित्य

 

(1) ईरानी यूनानी एवं रोपनसिकन्दर के पूर्ववर्ती (1) स्काइलेक्स स्काइलेक्स फारस के सम्राट डेरियस का यूनानी सैनिक था। वह सिन्धु घाटी प्रदेश के अध्ययन हेतु आया था, और उसने उसके विषय पर लिखा।

 

 

राजनीतिक अवस्थाओं का भी उल्लेख है। भारतवर्ष के विषय में इसमें पर्याप्त उल्लेख मिलता है।

 

(vi) कर्टियस पर रोमन सम्राट क्याडियस (41-54 0) का समकालीन था। इसकी पुस्तक से भी सिकन्दर के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है। (vi) डायोडोरस यह यूनान का प्रसिद्ध इतिहासकार था। इसने अनेक वर्षों के कठिन परिश्रम के पश्चाद अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ बिलिओका हिस्टोरिका की रचना की। इस ग्रन्थ से सिकन्दर के भारत अभियान और भारत के विषय में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध

 

होती है। (viii) जस्टिनयह एक रोमन इतिहासकार था। इसके अन्य से सिकन्दर के अतिरिक्त अन्य यूनानी शासकों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

 

(ix) प्लिनी यह एक रोमन इतिहासकार था। इसने नेचुरल हिस्टरीलिखा जिसमें भारत के पशुओं, पौधों और खनिज पदार्थों का वर्णन है।

 

(x) पेट्रोक्लीज यह यूनानी नरेश सेल्यूकस और एण्टी आकस प्रथम (281-261 ई०

 

पू०) के किसी पूर्वी प्रान्त का एक पदाधिकारी थी। इसने पूर्वी देशों का भूगोल ग्रन्थ लिखा

 

इसमें भारतवर्ष का भी वर्णन है। स्ट्रेबो ने पेट्रोक्लीज के वर्णन को सत्य माना है। (xi) पेरिप्लस मारिस अरिथीए-80 ई० पू० के एक अज्ञात यूनानी लेखक ने पेरिप्लस मारिस अरिथीए (लाल सागर परभ्रमण) नामक पुस्तक लिखी। इस ग्रन्थ में उसने भारत के तटों, बन्दरगाहों एवं उनसे होने वाले व्यापार का जिक्र किया है।

 

(xii. xiii) टॉलेमी और इण्डकोप्लुस्टसइन्होंने क्रमशःभूगोलऔरक्रिश्चियन

 

ऑफ यूनिवर्स ग्रन्थ लिखे। ये ग्रन्थ भारत के भौगोलिक विस्तार और सांस्कृतिक इतिहास को दृष्टि से उपयोगी हैं

 

((4) चीनी — (i) सुयाचीनचीनी इतिहास के जन्मदाताकहे जाने वाले सुयाचीन ने लगभग 100 ई० पू० में एक ग्रन्थ लिखा था जिससे भारत के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता हैं 1

 

(ii, iii) पान कू तथा हनयेइसके द्वारा लिखित ग्रन्थों से कुषाण शासकों कडफिसिस और विम कडफिसिस के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। कुजुल

 

(iv) फाह्वानयह 399 ई० में भारत आया था। वह करीब 14-16 वर्ष तक भारत

 

में रहा। चीन वापस लौटकर उसने अपनीट्रेवेल्सलिखी। इससे गुप्तकालीन इतिहास,

 

सभ्यता और संस्कृति की अच्छी जानकारी मिलती है। यद्यपि फाहान के विवरण में वैज्ञानिकता

 

का अभाव है।

 

(v) ह्वेनसांग — ‘चीनी यात्रियों का सम्राटह्वेनसांग या युवानच्युआंग हर्ष के शासनकाल में 629 ई० में भारत आया था। नालन्दा में वह पढ़ा भी। करीब 13-15 वर्ष रहकर उसने दक्षिण भारत को छोड़कर करीब सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। उसनेरेक इस आद वेस्टल वल्डमें 7वीं सदी के भारतीय इतिहास और संस्कृति, विशेषकर हर्षवर्धन की जीवनी, उसके कार्यकलापों, प्रशासनिक, धार्मिक, शैक्षणिक व्यवस्था का अच्छा जिक्र किया है। ह्वेनसांग के लेख वास्तव मेंसूचनाओं के भण्डारहैं जो भारत के प्राचीन इतिहास की भिन्नभिन्न कड़ियों को जोड़ने में अमूल्य सहायता प्रदान करते हैं।

 

(vi) हूवलीयह ह्वेनसांग का मित्र था। उसने उसकी जीवनी (The Life of Huien Tsang) लिखी। इससे भी 7वीं सदी के भारतीय इतिहास की जानकारी मिलती है। (vii) इत्सिंगयह 7वीं सदी के अन्त में भारत आया था। नालन्दा तथा विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों में वह बहुत दिनों तक रहा। उसके विवरण से विश्वविद्यालयों के सम्बन्ध

 

 

 

प्रागैतिहासिक युग
Prehistoric era
 

 

 

पुरापाषाण युग मानव सभ्यता का ऊषा काल था। इस काल उपलब्धि आग की खोज थी।

 

 पुराया युग पर एक संक्षिप्त विन्धलिखिये। Write a short essay on Lower Palacolithic Age. (Lower Palaeolithic Age)

 

उत्तर

 

पूर्व पाषाण युग

 

जीवन की शुरुआत क्रमशः आजीव चट्टान युग-Azoic Age (पृथ्वी पर इस समय कोई प्राणी या जीवन नहीं था), प्रारम्भिक जीव युग Palacozoic Age- इस समय अंगहीन, अस्थिहीन, रीढ़हीन जीव हुये। इनमें से बाद में रीढ़ की हड्डियों वाले जीव उत्पन्न हुये, जीधीरे ये रेंगकर भूमि पर आने लगे। इसी बीच पृथ्वी पर पेड़पौधे और वनस्पतियों नहुष), मध्य जीव युग Mesozoic Age (इस समय सन्तानोत्पत्ति करने वाले जानवरों का विकास हुआ, पेड़ों पर कूदने और फुदकने वाले जीव भी इसी समय हुये), नव जीव Cainozoic (इस समय कई नवीन जातियों का विकास हुआ, स्तनधारी सन्तान उत्पन्न होने वाले जीवों में कुछ ने तो पशु का रूप ले लिया और कुछ ने पृथ्वी पर घूमनेफिरने वाले शरीरधारी जीवों का रूप ले लिया) तथा हिमनद युग Glacial Age-इसमें मानव सम प्राणी होमोनिड का जन्म हुआ जो अन्त में हीमो सेपियंस में विकसित हुआ।

 

भारत में आदि मानव का जीवन द्वितीय अन्त ग्लेशियल (Second Inter-glacial Age) में अर्थात् करीब डेढ़दो लाख वर्ष पूर्व शुरू हुआ और यही युग प्रागैतिहासिक (Pre-historic) युग कहलाया। इस काल को 2 भागों में विभाजित किया गया है-(1) पाषाण युग, और (2) धातु युग। पाषाण युग को पुरापाषाण, मध्यपाषाण और नवपाषाण काल में विभक्त किया जाता है। पुरापाषाण काल को पुनः निम्न या पूर्व पुरापाषाण काल (Early or Lower Palaeolithic Age), मध्य पुरापाषाण काल (Middle Palaeolithic Age) तथा उत्तर पुरापाषाण काल (Upper Palaeolithic Age) में विभक्त किया गया है। फिलहाल हमारा सम्बन्ध निम्न या पूर्व पुरापाषाण काल से है।
 
पूर्व पुरापाषाणकालीन संस्कृति के स्थल (Place of Palaeolithic Culture) पूर्व पुरापाषाणयुगीन प्रस्तर उपकरण देश के कई भागों में खोजे गये हैं। पूर्व पुरापाषाण संस्कृति के दो केन्द्र एकदूसरे से स्वतन्त्र रूप से उभर कर सामने आते हैंउत्तर में सोन या सोहन संस्कृति (वर्तमान पाकिस्तान में सोहन नदी के किनारे) या पेबल चापिंग संस्कृति और दक्षिण में, दवान में तथाकथित मद्रास संस्कृति या हेड एक्स क्लीवर संस्कृति ये पुरापाषाण स्थलियाँ नदियों की घाटियों में थीं जो आदि मानव को जो जंगलों से दूर रहता था क्योंकि वह अपने पत्थरों के हथियारों से उनको साफ करने में कठिनाई अनुभव करता होगा) पानी उपलब्ध कराती थी: अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध कराती थी। इनमें से पहली स्थली 1863 में मद्रास में खोजी गयी थी और इसी कारण दक्षिण भारत में मिले पूर्व पुरापाषाण युग के लाक्षणिक प्रस्तर उपकरण हस्तकुठार या हस्तकुदाली (Hand (axe) मद्रास कुठारों के नाम से विख्यात हुये। देश के उत्तरी भागों की पुरापाषाण स्थलियों में बिल्कुल दूसरी तरह के उपकरणवटिकाश्म कर्तन उपकरणमिले थे जो खंडक या गंडासे (Choppers) कहलाते हैं पुरापाषाण उपकरण देश के अन्य भागों में भी मिले हैंमध्य तथा पश्चिमी भारत मेंजहाँ मानो सोहन और मद्रास परम्पराओं का अन्तर्गथन होता है। नये अनुसन्धानों ने दिखलाया है कि दक्षिण में मद्रास कुठारों का प्राधान्य है, और जैसेजैसे हम उत्तर की ओर बढ़ते हैं। वैसेवैसे सोहन उपकरणों की संख्या बढ़ती जाती है।
 
इन दोनों प्रकार के उपकरणों में अन्तर का सबसे मुख्य कारण प्राकृतिक परिस्थितियों की भिन्नता, उपकरण निर्माण करने के लिये उपयुक्त पत्थर की उपलभ्यता है। यह कोई सांयोगिक बात ही नहीं है कि सबसे अधिक स्थलिया दकन की नदी घाटियों में स्थित गुफाओं में और उत्तरी भारत के पहाड़ों की ताइयों में खोजी गयी है। इन इलाकों में जलवायु अधिक अनुकूल है और जीवनजन्तुओं का बाहुल्य है। उपरोक्त वर्णित औजारों के अलावा आन्तरक या कोर (Cores) फलक या पृथक (Flakes) और विदारणियाँ (Cleavers) भी मिले हैं। सभी औजार भद्दे आकार के होते थे। जो भी हो, इनका आविष्कार एवं उपयोग इस युग की एक क्रान्तिकारी घटना थी और इस बात को पुष्ट करने वाली भी थी कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है।

 

पूर्व पाषाण युग में जीवन

 

(निम्न पुरापाषाण युग में जीवन)

 

(1) औजार और आविष्कारअधिकतर औजार चमकीले पत्थर (Quartzite) या बिल्लौरी पत्थर के बने हैं। इसलिये इस युग के मानव को चमकीले पत्थर का मानव (Quartzite Man) या बिल्लौरी युग का मानव कहा जाता है। टी० टी० पेटरसन, एफ० ३० जाइनर कबानी एव० डी० [सांकलिया के अनुसार, औजारों का उपयोग काटने, खाँचा करने, भेदने, वेघने, छेद करने, कूटने, टुकड़े करने, रेतने, खाल निकालने, निवृन्त करने, उखाड़ने, खोदने आदि के काम आते थे। इन औजारों की साम्यता तत्कालीन अफ्रीका, जावा, बर्मा, चीन के औजारों से है। लगता है मूलतः इस मानव का सम्बन्ध इन स्थानों से रहा होगा। कतिपय विद्वानों की धारणा है कि ये लोग अण्डमान द्वीप में निवास करने वाले लोगों की भाँति ही जाति के थे।

 

(2) जीवजन्तु, पेड़पौधेबन्दर, जंगली हाथी, जंगली घोड़े, जंगली बैल आदि के अवशेष प्राप्त हुये हैं। (3) पारिस्थितिकीपारिस्थितिकी के बारे में निर्णयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। यह जरूर कहा जा सकता है कि ठण्डे और गर्म मौसम ने अलगअलग प्रकार के

 

जीवजन्तु, पेड़पौधों को जन्म दिया।

 

(4) जनजीवन उस समय के जनजीवन की झांकी हमें उस समय के अनगढ़ और अपरिष्कृत औजारों से तथा गुफाओं से मिलती है। पता चलता है कि मानव उस समय बर्बर अवस्था में था, कृषि, पशुपालन नहीं जानता था, और पूर्ण रूप से प्रकृति जीवी था और उसका जीवन अस्थिर था। इस युग में मनुष्य अपने उद्योग से वस्तुयें उत्पन्न नहीं करता था, वरन वह प्रकृति की देन पर ही निर्भर रहता था। प्रकृति प्रदत्त पदार्थों का ही वह उपयोग करता था। वन्य पशुओं का आखे इनका एक उद्यम था इसलिये कुछ कोआखेट युगकी संज्ञा दी है। यह स्वाभाविक ही था कि जब के लोग आखेट करते थे तो उन लोगों ने आखेट की सुविधा के लिये पशु अध्ययन अवश्य किया होगा और सरलतापूर्वक उनकी हत्या करने के लिये उपयुक्त जका जान अवश्य प्राप्त किया होगा। (5) आग की खोजपूर्व पुरापाषाणकालीन आदमी अग्नि का प्रयोग जानता था या

 

इस बात पर विद्वानों में बड़ा मतभेद है। अलबत्ता कर की गुफाओं में अग्नि के चिन्न अस्तित्व तथा लुप्त पशुओं के चिन्ह तथा मिट्टी के बर्तन के अलावा मिले है। लगता है, शुरू में तो यह मानव अग्नि से अनभिज्ञ रहा होगा, और बाद में इसका उपयोग सीख लिया होगा। (6) मृतक संस्कार इस समय के मानव की, जिसकी औसत आयु 15 और 400 वर्ष के बीच रही होगी, कब नहीं मिली है। ऐसा मालूम होता है कि सम्भवतः मृतकों को प्राकृतिक से नष्ट हो जाने के लिये या तो खुला ही छोड़ दिया जाता था या उसे जंगली पशु O

 

 मध्य पुरापाषाण काल पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिये। Write a short essay on the Middle Palacolithic Age.

 

 

नेवासा संस्कृति पर एक नोट लिखिये। Write a note on Nevasa Culture. फलक संस्कृति पर एक नोट लिखिये। Write a note on Flake Culture.

 

उत्तर

 

मध्य पुरापाषाण काल

 

(मध्य पुरापाषाण युग)

 

मध्य पुरापाषाणकालीन सभ्यता को पुरापाषाणकाल की मध्यकालीन सभ्यता कहते हैं और चूंकि सर्वप्रथम इस युग की संस्कृति के अवशेष नेवासा (महाराष्ट्र) से प्राप्त हुये, इसलिये इसे नेवासा सभ्यता भी कहते हैं। इस समय के अवशेष बाद में कर्नाटक (मेसूर, कृष्णा बाटो) आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश (बेलन घाटी), मध्य प्रदेश (घसान, बेतवा तथा सोन घाटी), बिहार, उड़ोसा, गुजरात, सौराष्ट्र सिन्ध, राजस्थान, तमिलनाडु (मद्रास) और कश्मीर तथा पाकिस्तान से भी प्राप्त हुये

 

(1) विशेषतायेंइस काल में मनुष्य ने अपने उपकरणों को तुलनात्मक रूप से ज्यादा सुन्दर एवं उपयोगी बनाया। अब क्वार्टजाइट की जगह पर गोमेद (अकीक), सूर्यकान्त (Josper), चालसीडनी (Chalcedony), चर्ट (Chert) आदि की सहायता से फलक (Flakes) हथियार ही बनाये गये। इसलिये प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता एच० डी० सांकलिया ने पाषाणकालीन संस्कृति को फलक संस्कृति (Flake Culture) का नाम दिया। इस काल में फलकों की सहायता से मुख्यतः वेधक (Borers), खुरचनी (Scrapers), वेधनियाँ (Points) इत्यादि बनाये गये। कुछ औजार ऐसे भी मिले हैं जो तीरकमान के अविष्कार को इंगित करते हैं और जिनका उपयोग शिकार के लिये होता था।

 

(2) निवासइस युग का मानव सामान्यतः पादगिरि (तलहटी) में रहता था। (3) जीवजन्तु पीये बास (बोस) और रतिफस (एलीफस) आम जानवर थे।

 

वे ही मानव का भोजन थे। पेड़पौधों में कोई विशेष तबदीली नहीं हुयी होगी।

 

(4) जनजीवनइस युग के मानव का सामाजिक जीवन तथा उसकी आर्थिक व्यवस्था करीबकरीब पूर्व सी ही थी। वह भोजन संग्राहक (Food gatherer) अब भी था। हाँ, अब उसने गुफाओं और कन्दराओं में वास करना अधिक उपयुक्त समझा। कामेश्वर प्रसाद के अनुसार, अब अग्नि का व्यवहार बड़े पैमाने पर होने लगा, एवं मृतक संस्कार की परिपाटी भी निकल गयी।

 

 

समयकरीब 50,000 और 20,000 ई० पू० के मध्य माना जाता है।

 

 

 

उत्तर पुरापाषाण काल पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिये। Write a short essay on the upper Palacolithic Age.

 

 

उत्तर

 

उत्तर पुरापाषाण काल (Upper Palaeolithic Age)

 

उत्तर पुरापाषाण काल में होमोसेपियंस (ज्ञानी मानव) का उदय हुआ। इस काल में मानव विकास की प्रक्रिया और भी अधिक तीव्र हुयी। पाषाणोपकरण बनाने में ज्यादा दक्षता हासिल हुयी। इस समय के अवशेष आन्ध्र प्रदेश (रेनीगुटा, पेर्टगोण्डपलेम, मुच्छलता, चिन्तामनुगावी, बेटमचेली), कर्नाटक (शोरापुर, दोआब, बीजापुर), बिहार (सिंहभूम), उत्तर प्रदेश (बेलन घाटी), महाराष्ट्र (पटने, इनामगाँव) और गुजरात (विसादी) से प्राप्त हुये हैं। प्राप्त औजारों से ब्लेड्स (पत्थर के फलक) और ब्युरिन्स मुख्य हैं। इनका विभाजन क्लासिकल और सबक्लासिकल (Classical and Sub-classical) में किया गया है। प्रथम प्रकार के ब्लेड्स (Blades) तथा ब्युरिन्स (Burins) अर्थात् तक्षणियाँ लम्बे, कोमल, मजबूत तथा रीटचिंग (Retouching) किये गये होते हैं। ये यूरोपीय किस्म के हैं। द्वितीय प्रकार के सुन्दर नहीं हैं और यूरोपीय किस्म के भी नहीं हैं औजार इस समय हड्डी एवं हाथीदाँत के भी बने।

 

जनजीवनवैज्ञानिकों के अनुसार इस काल में नीग्रोसम प्रजाति के प्रतिनिधियों का प्राधान्य था। इस समय मानव जीवन में कुछ विशेष परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। यद्यपि अब भी मनुष्य की जीविका का मुख्य साधन शिकार ही था, परन्तु गोत्र (Clan) समुदाय के परिणामस्वरूप सामूहिक संगठन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये। सामुदायिक जीवन का विकास इस समय ज्यादा सुदृढ़ हुआ। अनेक लोग झुण्डों या कुलों में रहते थे जिसने आगे चलकर परिवार को जन्म दिया। यद्यपि सामाजिक असमानताओं एवं व्यक्तिगत सम्पत्ति की भावना का उदय अभी नहीं हुआ था, परन्तु मोटे तौर पर पुरुषों एवं महिलाओं में श्रम विभाजन प्रारम्भ हो चुका था। पुरुष भोजन संग्राहक का कार्य करता था और महिलायें घर की देखभाल करती थीं। निवास के लिये गुफाओं के अतिरिक्त सम्भवतः झोपड़ियाँ भी बनायी जाती थीं। हड्डी से बनी हुयी सुइयों की सहायता से जानवरों के चमड़े को वस्त्र के रूप में बनाकर पहना जाता था। कला एवं धर्म के प्रति भी लोगों की अभिरुचि बढ़ी। भीमबेटका की गुफाओं में इस काल के चित्र मिले हैं। ये चित्र ऐसी अन्धेरी गुफाओं में पाये गये हैं जहाँ प्रकाश पहुँचना कठिन है। कुछ चित्रों को बनाते समय तो कलाकार को बैठने में भी कष्ट उठाना पड़ा होगा। इसलिये अनेक विद्वानों की धारणा है कि चित्रित गुफायें मन्दिरों के सदृश थीं एवं इन्हें बनाने वाले एक विशेष वर्ग के व्यक्ति जादूगर पुरोहित (Magic Priests) थे जो पशुओं को वश में करने का उपाय करते थे। अगर ऐसी बात रही होगी तो इसी समय से सामाजिक विभेद का भी आरम्भ मानना चाहिये, क्योंकि एक वर्ग विशेष का प्रभाव इससे परिलक्षित होता है। यह वर्ग बिना परिश्रम के ही (भोजन एकत्र करने) जादू के बल पर भोजन प्राप्त करता था। बाद में इसी कारण समाज में पुरोहितों का प्रभाव बढ़ गया। चित्रकला के अतिरिक्त नक्काशी करने, मूर्ति बनाने की कला भी विकसित हुयी हड्डी से बने उपकरणों पर सुन्दर नक्काशी की जाने लगी अस्थियों एवं हाथी दांत से सुन्दर मूर्तियाँ भी बनने लगीं, जिनका कुछ धार्मिक महत्त्व भी था। उत्तर प्रदेश के बेलन

 

पाटी से हड़ी की बनी मा देवी (Mother Goddess) की एक सुन्दर मूर्ति मिली है। भारत में ऐसी मूर्ति अन्य किसी भी स्थान से प्राप्त नहीं है। आभूषण भी बनाये गये (अस्थियों एवं जानवरों के दाँतों से) इतनी प्रगति के बावजूद मानव अभी सभ्य नहीं बना था उसे असभ्य, वर और जंगली कहा गया है, परन्तु सभ्यता की सीढ़ी परज्ञानी मानवआगे बढ़ चुका था।

 

 

 

 

समय–30,000 और 10,000 बी० पी० (Before Present) माना जाता

 

  • मध्यपाषाण युग पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिये। Write a short essay on the Middle Stone Age. मेसोलिथिक युग का संक्षेप में वर्णन कीजिये।
 
मध्यपाषाण युग का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
 

उत्तर

 

मध्यपाषाण युग (Middle Stone Age)

 

पुरापाषाण युग के बाद की संस्कृति को मध्यपाषाण युग या मेसोलिथिक युग कहा गया है। चूंकि यह काल पूर्व पाषाण काल तथा उत्तर पाषाण काल के मध्य कड़ी का कार्य करता है, अतएव यह अपने पार्श्ववर्ती दोनों ही कालों को कुछ कुछ विशेषताओं को अपने में सन्निहित करता है। इस समय के जलवायवीय परिवर्तनों ने तत्कालीन संस्कृति के विकास को प्रभावित किया। इस समय बर्फ की जगह घास से भरे मैदान एवं जंगल उगने आरम्भ हो गये, पुराने मौसमी जलस्त्रोत सूख गये, नये प्रकार के जानवरों एवं वनस्पति का प्रादुर्भाव हुआ। ठण्ड में रहने वाले विशालकाय जानवरों (मैमथ रेनडियर इत्यादि) की जगह पर घास खाकर जीवित रहने वाले छोटे जानवर खरगोश, हिरण, बकरी आदि पैदा हुये। छोटे पशुओं के आखेट के लिये छोटे हथियारों की आवश्यकता पड़ी अतः मानव ने अब लघुपाषाणोपकरण या सूक्ष्म (Microliths), पौन इन्च तक के छोटे, बनाना आरम्भ किया, और उस युग को माइक्रोलिथिक युग का जामा पहना दिया। ये हथियार छोटे होते हुये भी ज्यादा उपयोगी एवं सांघातिक शक्ति से बने होते थे। इन हथियारों को व्यवहार में लाने के लिये इन्हीं लकड़ी या हड्डी के हत्थों में नियत किया गया।

 

(1) सामग्री प्रकार औजार बहुधा फलसीडी (Chalcedony) और सिलिकेट पत्थरों जैसे जैस्पर, चर्ट और ब्लड स्टोन (पतोनिया) के बने होते थे।इन औजार का वर्गीकरण मुख्यतः दो प्रकार का हैअज्यामितिक लघुपाषाणोपकरण तथा ज्यामितिक लघुपाषाणोपकरण। इसी समय प्रक्षेपास्त्र तकनीक (तीर धनुष) का भी विकास हुआ। इस समय के हथियारों में प्रमुख थेइकधार फलक (Backed Blade), वेधनी (Points), अर्द्धचन्द्राकार (Lunate), त्रिकोण (Triangle), समलम्ब (Trapeze), सूआ (Awl), और बोरर्स (Borers) इस युग के औजारों में कुछ छोटी हाथ को कुल्हाड़ियाँ भी मिली हैं। पत्ते के आकार के नुकीले पृथक बड़ी संख्या में मिले हैं, खुरचने के अनेक प्रकार हैं। कुछ अवतल कुछ उत्तल और कुछ सरल हैं। सम्भवतः अस्त्र के रूप में फेंकने के लिये गोलियाँ लकड़ी या हड्डी की बनायी जाती थीं, क्योंकि दक्षिणपूर्वी एशिया में आज तक भी खणा (Arrow-heads) और चाकू बांस के बनाये जाते हैं।

 

(2) प्राप्ति स्थलकुछ प्रमुख मध्यपाषाणकालीन स्थल ये हैंवीरभानपुर (पश्चिम बंगाल), लंघनाज (गुजरात), टेरी समूह (तमिलनाडु), आदमगढ़ (मध्य प्रदेश), बागोर (राजस्थान), मोरहना पहाड़, सराय नाहर राय, महादाहा (उत्तर प्रदेश) इत्यादि। मोटे रूप से यह कहा जा सकता है कि असम, गंगा की घाटी तथा केरल को छोड़कर प्राय: सम्पूर्ण भारत में Microliths प्राप्त होते हैं।

 

 

 

 

(3) निवासजो साक्ष्य उपलब्ध है उनसे पता चलता है कि इस युग का मानव प्रायः पहाड़ी आश्रय स्थलों में (सुरक्षा की दृष्टि से उपयुक्त), समुद्र तथा नदी के किनारे एवं रेतीले क्षेत्रों में रहता था। सराय नाहर राय और महादाहा से स्थायी झोपड़ियां बनाकर रहने का अन्दाज लगता है।

 

(4) जनजीवनपूर्वजों की भांति मध्यपाषाणकालीन लोगों का प्रमुख उद्यम आखेट (शिकार) ही था सरिताओं, सरोवरों तथा जलाशयों से ये लोग अपनी प्यास बुझा लिया करते थे तथा उनसे प्राप्त मछलियों को खा लिया करते थे, अन्य पशुओं का मांस तो खाने ही थे। फलफूल तथा कन्दमूल भी उनकी जीविका के साधन थे। कृषि विज्ञान से ये लोग अनभिज्ञ थे, परन्तु गुजरात में मध्यपाषाण काल के लोगों ने एक प्रकार की घास को उत्पन्न करना आरम्भ कर दिया था जिसका प्रयोग वे भोजन के रूप में किया करते थे। यदि यह सत्य है तो मध्यपाषाणकाल में कृषि विज्ञान का बीजारोपण हो गया था। भारतीय इतिहास के रूसी विद्वानों, अन्तोनोवा, लेविन कोतोवोस्की का कहना है कि दक्षिण के लोग शिकार करते थे, जबकि उत्तर में, सिन्ध में, कृषि पर आधारित समुदाय तेजी से जड़ें जमाने लग गये थे।

 

इससे भारत के भिन्नभिन्न प्रदेशों में विकास के असमान क्रम का बोध होता है। शायद इस काल के मानव को अग्नि का ज्ञान भी हो गया था। कामेश्वर प्रसाद ने लिखा है कि भोजन बनाने के लिये चूल्हे बनाये जाते थे, मिट्टी के बर्तन भी। लंघनाज के हाथ द्वारा बनाये गये मिट्टी के बर्तन भी मिले हैं। पुरातत्त्वज्ञों ने भाण्डों के आधार पर लंघनाज के इतिहास को दो पृथक् कालों में विभक्त किया है। पहले काल के अन्त में हस्तनिर्मित मुभान्ड प्रकट हुये, जबकि दूसरे काल के पूर्व नवपाषाणकालीन मृदभान्ड चाक पर बनाये गये है और अलंकृत हैं।

 

 

नवपाषाण युग पर एक निबन्ध लिखिये। Write an essay on the Neolithic Age. “नवपाषाण युग में आधुनिक सभ्यता के कई अंग बीज रूप में विद्यमान थे।इस कथन की व्याख्या कीजिये।

 

उत्तर

 

नवपाषाण युग

 

(नवपाषाण युग)

 

मानव सभ्यता के विकास का तीसरा सोपान नवपाषाण काल के नाम से जाना जाता है। नवपाषाण युग, जिसकी शुरूआत वस्तुतः मनुष्य के भोजन संग्राहक से भोजन उत्पादक होने के समय से मानी जाती है, की जलवायु मानवजीवन के लिये अधिक उपयुक्त हो गयी। उसमें तो शीतलता का आधिक्य था, और ही आर्द्रता का, वरन् वह सामान्य थी। इस अनुकूल जलवायु में केवल जनसंख्या में वृद्धि हुयी, वरन् मनुष्य के ज्ञान तथा उसकी प्रतिभा का भी विकास हुआ। अपने अध्यवसाय तथा अनुभव से लाभ उठाकर नवपाषाणकालीन मनुष्य ने अपने जीवन को और अधिक उच्चतर और सभ्य बनाने का प्रयत्न किया।

 

(1) प्राप्ति स्थलभारत में अनेक नवपाषणिक वस्तियों के प्रमाण मिले हैं। उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त में बलूचिस्तान, रानी कुन्डाई (पूर्वी क्लूचिस्तान), सिन्ध, किली गुल मोहम्मद (क्वेटा घाटी पाकिस्तान), दंब सद्दात (किली गुलमोहम्मद के निकट), सराय खोला (रावलपिंडी, पाकिस्तान), पश्चिम में गुजरात, उत्तर में श्रीनगर के पास बुर्जहोम, दक्षिण में बेलारी के पास संगनकल्लू, पिकलीहाल उनूर, पेयामपल्ली, पूर्व में बिहार, उड़ीसा और असम, राजस्थान में कालीबंगा, उत्तर प्रदेश में कोलडी हवा मध्यभारत मध्यप्रान्त बुन्देलखण्ड छोटा नागपुर तथा मेघालय से इस काल के अवशेष प्राप्त हुये हैं।

 

 

 

(2) आजारों की सामग्री तथा प्रकारयद्यपि इस समय धातु के हथियार नहीं बनने थे, तथापि पत्थर के ही हथियार पहले की अपेक्षा अधिक उपयोगी, सुडौल और ओपयुक्त (Polished) बनाये गये पत्थर के औजारों में मुख्य रूप से महीन दानेदार गहरे हरे रंग के ट्रैप का इस्तेमाल मिलता है यदाकदा डायोराइट, बसाल्ट, स्लेट, क्लोराइट, सिस्ट, नाइस, बलुए पत्थर और स्फटिक का भी इस्तेमाल हुआ है। पाषाण के अलावा काष्ठ, हाथी दांत तथा अस्थियों का भी प्रचुरता से उपयोग होने लगा। धनुष बाण, बर्फी, हत्थेदार कुल्हाड़ी (Celts), तलवार, चाकू आदि के अतिरिक्त ये लोग, हंसिया, पहिया, घिरनी, सीढ़ी, डोंगी, तकली, करघे आदि भी बनाने लगे थे। पहिये का आविष्कार इस युग को क्रान्तिकारी घटना थी पहिये का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर मनुष्य सामान ढोने तथा सवारी के लिये बेलगाड़ियों (स्वतन्त्र रूप से पशुओं का भी) का उपयोग करने लगा।

 

(3) जनजीवनस्थायी जीवन प्रणाली और कृषि की शुरूआतअब आदमी ने यायावार रहनसहन त्याग कर स्थायी जीवनप्रणाली को अपना लिया क्योंकि व्यक्ति अब भोजनसंग्राहक के स्थान पर भोजनउत्पादक बन गया था। कृषि की उसने शुरूआत कर दी थी। सम्भवतः इस युग में मनुष्य हल तथा बैल की सहायता से कृषि करता था। इस काल की एक पाषाण शिला पर दो बैलों की सहायता से हल चलाते हुये एक कृषक का चित्र उपलब्ध हुआ है, परन्तु अभी दुर्भाग्य से उत्खनन में किसी हल या उसके अवशेषों की प्राप्ति नहीं हुयी है। सम्भव है कि काष्ठ के बने होने के कारण ये विनष्ट हो गये हो।

 

(4) पशुपालनइस काल में मनुष्य ने पशुओं को पालना आरम्भ कर दिया। उनूर में पशुओं के खुर मिले हैं। मनुष्य ने सम्भवतः अपनी बुद्धि बल से इस बात का अनुभव किया कि यदि पशुओं की हत्या करने के स्थान पर उनका पालन किया जाये तो वे अधिक उपयोगी सिद्ध होंगे। फलतः इन लोगों ने गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, बिल्ली, कुत्ता, घोडा आदि पालना आरम्भ किया। परन्तु कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि नवपाषाण काल में वर्षा का अत्यन्त अभाव हो गया, जिससे जलवायु अत्यधिक शुष्क हो गयी। इसके फलस्वरूप पशुओं ने वनों को त्याग दिया और अपनी उदर पूर्ति के लिये मानवस्थानों के सन्निकट गये। इस प्रकार मनुष्यों तथा पशुओं का सामीप्य स्थापित हो गया और अि पशुपालन की क्रिया आरम्भ हो गयी। पशुपालन की क्रिया के आरम्भ का कुछ भी कारण रहा हो, जब मनुष्य ने कृषि कर्म करना आरम्भ किया तब पशुपालन अनिवार्य हो गया, क्योंकि कृषि तथा पशुपालन में अविच्छिन्न सम्बन्ध है।

 

(5) मिट्टी के वर्तन का निर्माण एवं अग्नि का अस्तित्व कृषि कर्म तथा पशुपालन का प्रादुर्भाव हो जाने के कारण मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का आविर्भाव अनिवार्य हो गया। कृषि कर्म तथा पशुपालन के फलस्वरूप मनुष्य की खाद्य सामग्री में वृद्धि हो गयी। इस सामग्री को संग्रह करने के लिये बर्तनों की आवश्यकता पड़ी। फलतः खाद्य सामग्री को एकत्रित करने के लिये मिट्टी के बर्तनों का निर्माण आरम्भ हो गया। पहले ये बर्तन या झांड हस्तनिर्मित और अनगढ़ होते थे, परन्तु कालान्तर में सम्भव है कुम्हार के चाक का आविष्कार हुआ और उस पर ये बर्तन बनाये जाने लगे। शायद पकाये भी जाने लगे। उत्खननों से अनेक पाकझांड भी प्राप्त हुये हैं जिससे अग्नि का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। अग्नि से उस काल का मानव केवल खाना पकाता था, परन्तु अग्नि जलाकर वह शीत से अपनी रक्षा भी करता था। अन्धकार में अग्नि जलाकर वह प्रकाश प्राप्त कर लेता था और अपनी वस्तुओं का अन्वेषण कर लेता था। हिंसक पशुओं से भी अग्नि द्वारा वह अपनी रक्षा कर सकता था।

 

(6) श्रम विभाजनइस काल में श्रम विभाजन सिद्धान्त स्थापित हो गया। जुलाहे, बढ़ई, कुम्हार, नाविक, लुहार, सुनार, रंगरेज, आदि शिल्पियों की पृथक् श्रेणियों का निर्माण आरम्भ हो गया। इस प्रकार से इस युग में व्यावसायिक विशेषीकरण का बीजारोपण हुआ।

 

 

 

 

(7) व्यापार में वृद्धिश्रमविभाजन के फलस्वरूप विनिमय की व्यवस्था स्थापित हो गयी। एक ग्राम में रहने वाले लोग अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये वस्तुओं का विनिमय कर लिया करते थे। कुछ विशिष्ट वस्तुओं का व्यापार शायद सुदूरवती ग्रामों से भी होता था।

 

(8) व्यवसाय कृषि और पशुपालन मुख्य व्यवसाय थे। सम्भवतः उस काल की उत्पादित सामग्री में गेहूं, जौ, बाजरा, मक्का, मृग, मसूर, चावल, शाकसब्जी, फल और कपास रहे हों। मछली पकड़ना भी एक व्यवसाय था। बर्तन बनाना, पहिये बनाना, नाव बनाना और रंगाई करना कुछ अन्य व्यवसाय थे। वस्त्र निर्माण का व्यवसाय भी महत्त्वपूर्ण था। शुरू में पौधों के रेशों तथा ऊन के धागों से वस्त्र बनाये जाने लगे। वृक्षों के द्रव्यों तथा धातु रसों की सहायता से वस्त्रों की रंगाई भी की जाती थी।

 

स्थायी, (9) सामाजिक जीवनविभिन्न प्रकार के उपयोगी उपकरणों, अग्नि के प्रयोग कृषि कर्म, पशुपालन, अन्य व्यवसायों और धन्धों से मनुष्य का सामाजिक जीवन अधिक व्यवस्थित और सुखद हो गया था। अब जीवन एकाकी रहा। संगठित समुदाय और सामाजिक जीवन की शुरुआत से गयी पारस्पारिक सहयोग और सहकारिता की जागृत हुयी। कुल चिन्हों (Totems) के आधार पर मनुष्य अब कबीलों और परिवारों में रहने लगा। यहीं से समाज का अंकुरण हुआ। कृषि, अन्नसंचय, पशुपालन, निवासगृह (जिसकी दीवारें लट्ठों तथा नरकुलों की होती थीं, जिन पर मिट्टी का लेप लगा दिया जाता था, जिनकी छतें लकड़ी, पत्ती, छाल आदि की बनी होती थीं और जिनके फर्श कच्चे मिट्टी के बने होते थे निर्मित मिट्टी अथवा कच्ची ईंटों के इक्केदुक्के आवास मिले हैं। मकान के चारों ओर बांगड़ भी लगी होती थीं। आंगन लिपे होते थे), परिवार आदि ने सम्पत्ति की भावना जागृत की। सम्पत्ति के साथसाथ धनाढ्यता और निर्धनता आने लगी। आर्थिक असमानता उत्पन्न होने लगी। इसके साथसाथ विभिन्न व्यवसायों के आधार पर समाज में वर्ग करने लगे। वर्ग के संचालन हेतु मुखिया या नेता और परिवार के संचालन हेतु पिता की महत्ता मानी जाने लगी। कौटुम्बिक व्यवस्था कहीं मातृसत्तात्मक थी तो कहीं तथा

 

पितृसत्तात्मक (10) खानपानअब शायद कच्चे माँस का सेवन त्याग दिया गया था। अब अनाज, पका माँस, कन्दमूल, फल, गिरियाँ, जंगली दालें, दूध, दही, मक्खन का उपयोग होने लगा। सम्भव है कि अब लोग विभिन्न प्रकार के पेड़ों और पौधों से निकले हुये रसो को पीने लगे हों।

 

(11) वस्त्राभूषणसूती तथा कन्नी दोनों प्रकारों के वस्त्रों का प्रचलन था। कई वर को सुन्दर आकर्षक ढंग से रंगा भी जाता था। पीले, हरे, नीले और लाल रंग का ज्ञान था। वस्त्र पहनने का ढंग बड़ा सादा था। वस्त्र का आधा भाग लपेट लिया जाता था और शेष को कन्धे पर डाल दिया जाता था। शायद सिले हुये वस्त्र भी पहने जाते रहे होंगे, क्योंकि बुर्जोम सूइयां मिली है। स्त्रियों घुटनों तक लहंगा पहनती थीं। लोग आभूषण हो गये थे वे कोड़ी, सींग, सीप, शंख, हड्डी के आभूषण बनाते और एहनते थे। पाला वाली वृन्दे अंगूठियाँ चूड़ियाँ वाद आदि मुख्य आभूषण थे। बाल काटने की कंधियों तथा गुलुबन्द से ऐसा आभास होता है कि साजश्रृंगार की भावना भी उदय हो गयी थी (12) ललित कलाइस मानव को ललित कला का बोध हो गया था। पके मिट्टी के बर्तनों और आयुधों के निर्माण से उस काल की कला झलकती है। होशंगाबाद, पंचमढ़ी, भीमबेटका सिंघनपुर, मिर्जापुर मानिकपुर आदि स्थानों में पर्वतों की कन्दराओं में इस युग के कई रेखाचित्र उपलब्ध हुये हैं। इनमें मनुष्यों, पशुओं और आखेट के चित्र है। धनुषधारी, करवालधारी और अश्वारोही के चित्र भी हैं। इससे पता चलता है कि युद्ध का प्रकोप बढ्

गया था और जिससे रक्षा हेतु परिखा और दुर्ग का निर्माण होने लगा होगा। अस्त्र पाषाण के ही होते थे। जो हो, चित्रों में रंगों का विशेषकर लाल का प्रयोग होता था। चित्रों में आकार की सजीवता और भावों का प्रत्यक्षीकरण है। ये प्रकृति और मनुष्य की सानिध्यता प्रकट करते हैं।

 

(13) धार्मिक भावनायें और विधियों इस युग में धर्म, अनुष्ठान और अन्धविश्वास की भावनाओं का उदय हो गया। इस युग के मनुष्य वृक्ष और चट्टानों में देवी शक्ति या देवता का निवास समझने लगे थे। इस युग के ध्वंसावशेषों में मिट्टी तथा पत्थर की बनी अनेक नारी मूर्तियां मिली है, जिन्हें कयों ने मातृ देवियाँ माना है। शायद लिंग पूजा भी प्रचलित थी। अनेक विद्वानों का मत है कि देवता को सन्तुष्ट रखने के लिये बली की प्रथा भी इस युग में आरम्भ हो गयी थी। इन लोगों को ऐसा विश्वास हो गया था कि वलि देने से पृथ्वी माता प्रसन्न होती है और पशु तथा कृषि में वृद्धि होती है। कुछ स्थानों पर इस युग के विशाल भवनों के भग्नावशेष उपलब्ध हुये हैं। कुछ विद्वानों की धारणा है कि ये उस काल के मन्दिर हैं। इसके अतिरिक्त उत्खनन में कुछ विशेष प्रकार के पाषाणखण्ड प्राप्त हुये हैं जिनके सम्बन्ध में यह अनुमान लगाया गया है कि ये उस काल की वेदिकायें हैं। परन्तु विश्वस्त साक्ष्य के अभाव के कारण इन अनुमानों की सत्यता पर अभी सन्देह ही किया जाता है।

 

अब लोग भौतिक पदार्थ में जीवन शक्ति का अनुभव करने लगे थे और पदार्थों में जीवात्मा की सत्ता मानने लगे थे। ऐसा प्रतीत होता है कि जीवन की आधिव्याधि और नश्वरता का अनुभव कर उन्होंने दानवी और दैविक शक्तियों की कल्पना की होगी और शायद इसीलिये जादूगरों का समाज एवं धर्म पर प्रभाव बढ़ गया था। सम्भव है, मृत्यु के पश्चात् लोकोत्तर जीवन के विषय में भी इस युग के मानव की कुछ धारणायें रही होंगी। उत्खनन में प्राप्त मृत शरीरों की अस्थियाँ रखने के लिये अस्थिपात्रों, शव भस्म के पात्रों – Urns (अण्डाकार, एक टांग वाले और बिना टांग वाले) तथा शवों के साथ रखे हथियार, और अन्य सामग्री और शवों पर निर्मित समाधियों से ऐसा प्रकट होता है कि इस युग के मनुष्य जीवन, श्रृंगार और पुनर्जन्म में विश्वास करते थे। कभीकभी शव को कब्रिस्तान में गाड़ने के स्थान पर घर के भीतर ही अथवा समीप ही गाड़ दिया जाता था। कभीकभी शव को काटकर मिट्टी के बर्तनों में भरकर गाड़ने की प्रथा भी थी। शवों के साथ उनकी आवश्यकता की वस्तुयें रखने के पीछे मूलतः दो कारण थे। प्रथम, मृतक फसलों के विकास में सहायक थे। अतः उन्हें प्रसन्न रखना आवश्यक था। द्वितीय, मृत्यु के बाद के जीवन में भी उन्हें इन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ सकती थी। यूरोप और दक्षिण भारत के कुछ कब्रगाहों में मृतकों के प्रति सम्मान प्रकट करने के उद्देश्य से बड़ेबड़े पत्थर लगा दिये जाते थे जो महापाषाण (Megaliths ) के नाम से जाने जाते हैं। इस काल में पितृ पूजा प्रचलित हो गयी थी। पितृपूजा और प्रस्तर खण्डों की पूजा में विविध प्रकार के चढ़ावे अन्न, दूध, दही, माँस आदि पदार्थ अर्पित किये जाते थे।

 

 

 

 

 

 

 

  

 

हड़प्पा सभ्यता

PROTO-HISTORIC PERIOD-HARAPPA

 

 

 
हड़प्पा सभ्यता सभी प्राचीन सभ्यताओं में सर्वश्रेष्ठ थी।गार्डन चाइल्ड
 
प्रश्न 1- सिन्धु घाटी सभ्यता की खोज, उसके नाम, विस्तार, समय तथा निर्माताओं पर
 
प्रकाश डालिये। सिंधु घाटी सभ्यता की खोज, नाम, विस्तार, समय और लेखकों के बारे में आप क्या जानते हैं?
 
उत्तर
 

हड़प्पा सभ्यता की खोज

 

(हड़प्पा सभ्यता की खोज)

 

1921-22 तक यही माना जाता था कि भारत की प्राचीन सभ्यता आर्य सभ्यता है। परन्तु 1921-22 में जब जे० मार्शल, आर० डी० बनर्जी, डी० आर० साहनी ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो (जिला लरकाना, सिन्ध, पाकिस्तान) में प्राचीन नगर अनावृत किये तो एक अनजानी सभ्यता बेपरदा हुयी और जिसने आर्यों की सभ्यता की प्राचीनता को हिला दिया और विश्व में सनसनी फैला दी। फिर बहावलपुर, चन्हुदाड़ो, अली मुरीद, जुडेरजोदड़ो, अमरी, डाबरकोट, सुतकार्गेडोर, सोतकाबोह, बालाकोट, नाल और गुमला में भी उत्खनन किये गये। चूँकि सर्वप्रथम इस सभ्यता के अवशेष सिन्धु घाटी क्षेत्र से ही मिले इसलिये इसे सिन्धु या सैन्धव्य सभ्यता या सिन्धु की घाटी सभ्यता कहा गया। परन्तु बाद में उत्खननों और अनुसन्धानों के आधार पर यह सिद्ध हो गया कि यह सभ्यता सिन्धु घाटी के पार राजस्थान (कालीबंगा), गुजरात (लोथल, रंगपुर, मालवण, सुरकोटडा, रोजदी), हरियाणा (मित्ताथाल बनवाली) पूर्वी पंजाब (रूपड़, संघोल), उत्तर प्रदेश (आलमगिरपुर, इलाम), जम्मू (मांदा) और महाराष्ट्र (दैमाबाद) तक फैली हुयी थी। तब इस सभ्यता के विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र की पहचान के लिये इसे हड़प्पा सभ्यता कहा गया, क्योंकि प्रारम्भ में इस सभ्यता की खोज हड़प्पा में ही हुयी और वहीं पहले इसकी जानकारी प्राप्त हुयी। हड़प्पा सभ्यता नगरीय सभ्यता थी। नगर उद्योगधन्धों तथा व्यापार के केन्द्र होने के साथ प्रशासनिक केन्द्र भी थे। ये नगर कांसा युगीन नगर (Bronze Age Cities) थे। यद्यपि इस समय तक धातु का प्रयोग आरम्भ हो चुका था, परन्तु पत्थर का भी उपयोग होता रहा इसलिये इस सभ्यता को धातु प्रस्तर युग या ताम्रपाषाण या ताम्रास्म युग की सभ्यता भी कह सकते हैं।

 

हड़प्पा सभ्यता के निर्माता

 

(Makers of Harappa Civilization) इस सभ्यता के निर्माता के बारे में विद्वानों में मतभेद है

 

 

 

 

) अधिकतर विद्वान यह मानते है कि इस सभ्यता के निर्माता इसे क्योंकि यह सभ्यता इविडों से काफी साम्यता रखती है। परन्तु सभ्यता तो व्यापारिक एवं आकस्मिक कारणों से भी हो सकती है।

 

(2) आर्य कई विद्वान आर्यों को सिन्धु घाटी सभ्यता का निर्माता मानते हैं। परन्तु आय और सिन्धु घाटी सभ्यता में इतनी असमानताये है कि आर्यों को सिन्धु घाटी सभ्यता का निर्माता मान ही नहीं सकते। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सेमिटी (शमशान) एवं उन आर्यों की मानी जाती है, जिन्होंने सिन्धु घाटी के लोगों पर हमला किया था हमलावर

 

इस संस्कृति के सृजन करने वाले कैसे हो सकते हैं? (3) सुमेरियनकतिपय विद्वान सुमेर निवासियों को सिन्धु घाटी का निर्माता मानते हैं। परन्तु उनकी उत्पत्ति अज्ञात ही है। मनुष्य शरीर रचना शास्त्र के अनुसार भी ये लोग इस सभ्यता के निर्माता नहीं हो सकते।

 

(4) ईरानीकुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि सभ्यता के निर्माता ईरानी थे, क्योंकि कुछ एक पात्रों पर ईरानी प्रभाव दिखायी देता है परन्तु यह प्रभाव अन्य कारणों से भी सम्भव था। (5) पणी, असुर, वाहलिक, दास, दस्यु नागकुछ विद्वान् पक्षी या असुर या वाहलिक या दास या दस्यु या नाग को सिन्धु घाटी सभ्यता के निर्माता मानते हैं। परन्तु

 

इस पक्ष में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलते।

 

(6) विभिन्न प्रजातियों कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि इस सभ्यता के निर्माता किसी एक प्रजाति के नहीं थे, जो 26 अस्थिपंजर प्राप्त हुये हैं वे चार प्रजातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं— (i) प्रोटो आस्ट्रेलायड्स (Proto-Australoids) | (ii) मेडिटेरिनियन (Mediterr- aneans) | (iii) मंगोलायड्स (Mongoloids) | (iv) अल्पाइन (Alpine) (7) सोठी, आहर तथा लोथल सभ्यता के लोग कई विद्वानों के अनुसार सिन्धु

 

घाटी के निर्माता सोठी, आहर तथा लोथल सभ्यता के लोग थे।

 

परन्तु अभी भी सिन्धु घाटी सभ्यता के निर्माताओं के विषय में स्पष्ट निर्णय नहीं निकाला जा सकता

 

 

 

 

 

 

 

(सभ्यता की अवधि)

 

जे० मार्शल ने सिन्धु घाटी सभ्यता का काल 3250-2750 ई० पू० निर्धारित किया था। बाद में प्राचीन मेसोपोटामिया के नगरों में उत्खननों के दौरान सिन्धु घाटी किस्म की मुद्राओं के पाये जाने पर यह पता चला कि उनमें से अधिकांश सरगोन (2316-2261 ई० पू०) के शासनकाल और इसीनकाल (2017-1794 ई० पू०) तथा लार्सा काल (2025-1763 ई० पू०) से भी सम्बद्ध थीं।

 

कार्बन 14 तिथि निर्धारण ने इस कालक्रम में कुछ संशोधन आवश्यक कर दिये हैं। इसकी सहायता से विद्वानों ने यह निर्धारित किया है कि कालीबंगा में हड़प्पा संस्कृति के प्रारम्भिक स्तरों की तिथि 22वीं सदी ई० पू० है और अन्तिम स्तर को अब 18वीं तथा 17वीं ई० पू० को बताया जाता है। मोहनजोदड़ो में खोजें भी समान कालक्रम की ओर ही इंगित करती हैंइस सभ्यता का चरमोत्कर्ष काल 22वीं और 19वीं ई० पू० के बीच था, और सम्भवतः वह 18वीं सदी ई० पू० तक विद्यमान रही थीं। वास्तव में देखा जाये तो हड़प्पा संस्कृति कभी भी अपने आप साम्राज्य नहीं थी बल्कि एक खिसकती हुयी प्रतिभास

 

थी। महानगर में इसका अन्त करीब 2000 ई० पू० हुआ, और प्रान्तीय क्षेत्रों में यह करीब D 1700 ई० पू० तक चलती रही।

 

 

 

सिन्धु घाटी सभ्यता पर्याप्त विकसित देशों की सभ्यता थी।इस कथन की
 
“The Indus Valley Civilization was the civilization of the sufficiently developed country.” Prove this statement. या सिन्धु घाटी की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक दशा, नगर नियोजन और कला के बारे में आप क्या जानते हैं ? What do you know about the political, social, economic, religious condition, town planning and the art of the Indus valley
 

 

 

 

उत्तर

 

सिंधु सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता की विशेषताएं (सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता की विशेषताएं)

 

राजनीतिक दशा (1) शासन पद्धतिसैन्धव सभ्यता के लोगों में राजनीतिक उत्तेजना, विप्लव और क्रान्ति की भावना नहीं थी। उनका राजनीतिक जीवन सुख और शान्तिपूर्ण था। आक्रमण, हिंसा, संघर्ष और युद्ध की भावना उनमें नहीं थी। वहाँ उल्खनन में गदा, कटार, फरसा, वर्धी, गोफन, भाला आदि प्राप्त हुये हैं; ढाल, तलवार, कवच, शिरस्त्राण जैसे हथियार नहीं मिले हैं। इससे प्रमाणित होता है कि सिन्धु सभ्यता के लोग आक्रमण और युद्ध प्रेमी नहीं थे।

 

हन्टर के अनुसार, मोहनजोदड़ो का शासन जनतन्त्रात्मक था, और सत्ता किसी राजा के हाथ में केन्द्रित होकर जनप्रतिनिधियों के हाथ में थी। मैके का मत है कि वहाँ का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथ में था। ए० वीलर तथा अन्य विद्वानों ने यह मानते हुये इसके राजनीतिक संगठन की प्राचीन सुमेर और अक्काद (मेसोपोटामिया जिसकी सभ्यता के अन्य स्थल थेबाबुल और असीरिया) से तुलना की है कि सिन्धु घाटी में भी सत्ता पुरोहितों (और उनके प्रतिनिधियों) के हाथ में थी जिनका सारी जमीन पर कब्जा था। भारतीय पुरातत्त्वज्ञों द्वारा कालीबंगन में उत्खननों के परिणामस्वरूप रोचक तथ्य प्रकाश में आये हैं। गढ़ी से नहीं बल्कि निचली बस्ती भी दीवार से घिरी ही थी और किलेबन्द श्री कालीबंगन में गढ़ी के 2 भाग थेउत्तरी और दक्षिणी उत्तरी भारत में रिहायशी मकान थे, लेकिन दक्षिणी भाग में कोई मकान नहीं था, जहाँ कच्ची ईंट के बने अनेक चबूतरे मिले हैं। इनमें एक चबूतरे के शिखर पर वेदियों के अवशेष मिले थे। इसके आधार पर बी० बी० लाल आदि विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि गढ़ी का दक्षिणी भाग विशेष धार्मिक भवन समूह था, कि किसी शासक का निवास। इस प्रसंग में यह सम्भव है कि गढ़ के उत्तरी भाग के रिहायशी मकान पुरोहितों के आवास रहे हों। और यह भी सम्भव है कि हड़प्पायी नगरों में सत्ता का रूप अल्पतन्त्रीय गणतन्त्र का रहा हो। मत वैभिन्य के कारण निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि सिन्धु सभ्यता की शासन व्यवस्था का स्वरूप क्या था, प्रधान सत्ता मिस्र के फराह के समान राजा के हाथ में थी या जन प्रतिनिधियों के हाथ में, अथवा पुरोहित वर्ग के हाथ में। फिर भी कॉलेजिएट या सार्वजनिक इमारत के आधार पर यह सिद्ध होता है कि शासन व्यवस्था लोकात्पक थी, और समष्टिवाहिनी थी तथा नगर के सभी लोगों को शासन कार्य में हस्तक्षेप करने की इजाजत थी। वी० सी० पाण्डेय का कहना है कि सम्भवः केन्द्रीय सत्ता का विकेन्द्रीकरण कर दिया गया था, और केन्द्रीय शासन की ओर से अनेक पदाधिकारी भिन्नभिन्न नगरों में शासन करते थे।

 

(2) सत्ता का विकेन्द्रीकरण उत्खनन से प्राप्त अवशेषों से सिन्धु सभ्यता के नगरों की उत्तम सफाई व्यवस्था का ज्ञान होता है। इससे अनुमान लगाया गया है कि उस समय सिन्धु प्रदेश के विभिन्न नगरों में नगरपालिकाओं या परिषदों जैसी व्यवस्था रही होगी, अर्थात् स्थानीय शासनप्रणाली किसी किसी रूप में अवश्य विद्यमान भी यह सम्भव कि इस परिषद के सदस्यों की बैठकें मोहनजोदड़ो की स्थली पर मिले तथाकथित सभा कक्ष में ही होती हो। विशाल भवनों और दुर्ग के खण्डहरों से अनुमान लगाया जाता है कि नगरों में रक्षकों की भी व्यवस्था थी। विशाल भवनों में सम्भवतः उच्च पदाधिकारी रहते होंगे। अनेक सहकों के कोनों पर एकएक भवन के जो खण्डहर मिले हैं उनसे अनुमान होता है कि सम्भवतः ये पुलिस अथवा शान्ति रक्षकों के नाके थे। चूंकि सिन्धु सभ्यता शान्तिप्रिय थी, अतः पुलिस अथवा शान्ति रक्षकों की संख्या बहुत ही कम रही होगी और उनका मुख्य कार्य सार्वजनिक कार्यों की देखभाल और व्यवस्था ही होगा। सामाजिक दशा

 

हड़प्पा समय में नगरीय जीवन का आविर्भाव सामाजिक दशा का वैशिष्ट है। जीवनयापन के कई धन्धे शुरू हुये, जिन्होंने विभिन्न वर्गों को जन्म दिया। बड़े पैमाने पर उत्पादन ने लोगों को अधिक सुविधायें प्रदान कीं, आमोदप्रमोद भी (1) जनसंख्याउत्खनन से पता चलता है कि जनसंख्या शहरी थी। हड़प्पा और

 

मोहनजोदडो (जिनकी जनसंख्या करीब 23,554 और 41,250 के बीच थी) महानगरीय केन्द्र थे, और कालीबंगन, चन्हुदाड़ो, लोथल (जिसकी जनसंख्या करीब 10-15 हजार थी जो ताम्र पाषाणकालीन नगर के लिये काफी है) रंगपुर आदि अन्य शहरी केन्द्र थे। बड़े पैमाने पर उत्पादन, आवागमन को मुगम करने के लिये नदियों की उपस्थिति, सिचाई, व्यापार आदि ने इन नगरों को जन्म दिया। यहाँ की जनसंख्या सर्वदेशीय थी, ऐसा प्राप्त अस्थिपंजरों के आधार पर पता चलता है। परन्तु, डी० सी० सरकार का मत है कि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और लोथल के लोग आज के पंजाब, सिन्ध और गुजरात के लोग जैसे ही थे अर्थात् हड़प्पा संस्कृति अलगअलग स्थानों पर स्थानीय लोगों द्वारा अपनायी गयी, और हड़प्पा उपनिवेश का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

 

(2) परिवारसम्भवतः परिवार समाज की इकाई थी। शायद परिवार संयुक्तात्मक होते थे, और उक्त सम्बन्धों पर आधारित थे। इसके अलावा उनके मातृसत्तात्मक होने की सम्भावना लगती है।

 

(3) विभिन्न वर्गों का निर्माण या सामाजिक संरचना या सामाजिक वर्गीकरणउत्पादन में वृद्धि की वजह से लोगों ने अलगअलग पेशे अपनाये और बाद में उन्होंने अपनेअपने वर्ग बना लिये। मोहनजोदड़ो के अवशेषों से 4 प्रकार के वर्गों का पता चलता है— (i) शिक्षित, (ii) योद्धा, (iii) व्यवसायी या व्यापारी और कारीगर, और (iv) शारीरिक श्रम करने वाले या श्रमजीवी शिक्षित वर्ग में पुरोहित, वैद्य, जादूटूटोना वाले लोग आते थे। मोहनजोदड़ो के महल के अवशेष से क्षत्रिय (शासक) वर्ग का पता चलता है। व्यापारी, शिल्पी, जैसेलुहार, सुनार, सीप का काम करने वाले, टोकरी बनाने वाले और राजगीर तृतीय वर्ग में आते थे और चमड़े का काम करने वाले, टोकरी बनाने वाले, किसान, मछुए आदि चतुर्थ वर्ग में आते थे

 

(4) स्त्रियों का सम्मानसमाज में स्त्रियों का आदर था। स्त्री को मातृदेवी के रूप में माना जाता था। पर्दा प्रथा नहीं थी। धार्मिक और सामाजिक उत्सवों में नरनारी समान

 

 

भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक)

 

रूप से भाग लेते थे। स्त्रियों का कार्य बच्चों का लालनपालन और फालतू समय में सूत कावना था। (5) खानपानगेहूं, जौ, चावल, दूधदही आदि मुख्य भोजन था। अनाज चक्की

 

में पीसा जाता था। रोटी चकलों पर बनायी जाती थी। कुछ घरों से जानवरों की अधजली हड्डियां प्राप्त हुयी है। सो पता चलता है कि जानवरों का (गाय, सुअर, घड़ियाल, कछुआ, भेड़, बकरी आदि) का माँस खाया जाता था। फलों में अनार, तरबूज, खरबूजा, नारियल, खजूर, नींबू तथा कुछ अन्य फल प्रयोग में लाये जाते थे। खुदाई में तश्तरियाँ, प्याले, थाली, चम्मच आदि वर्तन बड़ी संख्या में मिले हैं जिनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि त्यौहार आदि के अवसर पर दावतें होती थीं। मिठाई बनाने के साँचे भी मिले हैं। सैन्धव लोगों में मद्यपान की प्रथा थी अथवा नहीं यह कहना कठिन है, क्योंकि इस सम्बन्ध में अभी तक ठोस प्रमाण नहीं मिले हैं। कुछ बरतनों से अलबत्ता ऐसा पता चलता है कि उनका प्रयोग मद्य खींचने के लिये होता होगा।

 

V (6) पशुअस्थिपंजरों, बर्तनों, मृण्मूर्तियों आदि से हमें उस समय के पालतू जानवर जैसेभेड़, बकरा, बकरी, बिल्ली, कुत्ता, सूअर, कूबड़ बैल, गाय, मुर्गा, भैंस, हाथी और ऊँट, तथा जंगली जानवर जैसे बन्दर, भालू, शेर, बाघ, गैंडा और हिरण का पता चलता है। मोर, बतख खरगोश की भी लोगों को जानकारी थी। तथाकथित घोड़े की हड्डी मिली है। लोथल की मृण्मूर्ति पर भी घोड़ा नजर आता है। परन्तु उसके अस्तित्व के बारे में अभी ठीकठीक नहीं कहा जा सकता।

 

(7) पहनावाएक सेलखड़ी (Alabaster) की मूर्ति से पता चलता है कि शाल और धोती के समान दो कपड़े पहने जाते थे। ऊनी और सूती वस्त्रों का प्रचलन था मोहनजोदड़ो से बुने हुये कपड़े का टुकड़ा मिला है। लोथल की सीलों पर कपड़े की छाप है। पक्की मिट्टी को काटने की चकरियाँ कई स्थानों से प्राप्त हुयी हैं। स्त्रियाँ घाघरे का प्रयोग करती थीं। वे सिर पर विशेष प्रकार का वस्त्र धारण करती थीं जो पंखे की तरह उठा रहता था। बांहों और कंधों को ढकने के लिये वे ढीला वस्त्र चुनती थीं, लेकिन स्तनों को आवृत करने के लिये नहीं कपड़े सिले जाते होंगे क्योंकि सुइयां भी प्राप्त हुयी हैं, कैंचियाँ भी मिली हैं।

 

(8) केश विन्यासआदमी और औरतों की जो लघु मूर्तियां मिली हैं उनसे पता चलता है कि उनके केश विन्यास के कई तरीके थे। बालों को संवारने के लिये दर्पण एवं कंधी का उपयोग किया जाता था, शायद सुगन्धित तेल का भी अनेक मूर्तियों को देखने से पता चलता है कि पुरुष लम्बे बाल रखते थे और पीछे की ओर या बीच में सुमेरियन ढंग पर जुड़े की तरह बाँध लेते थे। एक मूर्ति के बाल आधुनिक ढंग के कटे हुये बालों की तरह हैं। कुछ अपना चेहरा साफ रखते थे (उस्तरे की सहायता से), तो कुछ दाढ़ी रखते थे। दाड़ियाँ या तो अच्छी तरह काटछाँट कर छोटी बनाकर रखी जाती थीं (आधुनिक कादियानी फैशन) या बड़ी एवं पीछे की ओर मुड़ी हुयी होती थीं या मौलवी फैशन की यानी चेहरे के बाकी बाल काट दिये जाते थे। नृत्य करती हुयी कांस्य मूर्तियों से यह पता चलता है कि लड़कियाँ बाल अपने बायें कान से सीधे कन्धे की तरफ गिराया करती थीं। कुछ टोपियाँ भी मिली हैं।

 

(9) आभूषणआभूषणों में कण्ठी, कतल, बाजूबन्द, अंगूठी, कर्णफूल मुख्य थे। औरतें विशेषकर कमरबन्द या मेखला या करपनी, नथुनी पायल या पाजेब या नुपूर, चूड़ियाँ आदि पहनती थीं। पुरुष मुख्यतः अंगूठी और नेकलेस पहनते थे गहने सोने, चांदी, हाथी 33 दाँत या अर्थमूल्यवान पत्थर के होते थे। गरीबों के गहने सीप, हड्डी, ताँबे और पक्की मिट्टी के होते थे। कारनीलियन (Carnelian), अर्थात् अकीक, किया पत्थर सेलखड़ी (Stcatite). यशव या गोमेद या अकीद (Agate), मरकत (सब्जा), लाजवर्द, चाल्सीडनी (Chalcedony); जैस्पर (Jasper) अर्थात् सूर्य कान्त के कई सुन्दर मणिके (Beads) भी मिले हैं जो मणिकारों की तकनीकी दक्षता के प्रमाण हैं। मनके सोने के भी बनते थे।

 

(10) प्रसाधन या श्रृंगार और अंगराग या क्रान्तिवर्द्धकएक श्रृंगार बक्स (जिसकी तुलना कर तथा किश से प्राप्त श्रृंगार बक्स से की जाती है) हड़प्पा से मिला है। ऐसा पता चलता है कि मोहनजोदड़ो की औरतें अंजन या काजल या सुरमा लगाती थी मुखप्रप (Face Paint) और अन्य अंगरागों का उपयोग भी होता था। चन्हुदाड़ों से रंजनशलाका (Lipstick) और सीसे की अंगारक तुल्य वस्तुयें मिली हैं।

 

(11) आमोदप्रमोदगोलियाँ, गंदे, पासे प्राप्त हुये हैं। ये खेल के काम आते थे। लगता है, शतरंज या शतरंज सा खेल लोकप्रिय था। कुछ ताबीजों से पता चलता है कि लोग मृगया (शिकार) के शौकीन थे। पक्षी पाले जाते थे, मुर्गों, तीतरों, बटेरों आदि पक्षियों की लड़ाई भी आमोदप्रमोद का एक साधन था। बैलों की लड़ाई भी होती थी। फन्दा डालना, मछली पकड़ना भी लोकप्रिय था। शायद द्यूत भी मनोरंजन का साधन था। मिट्टी के खिलौने बच्चे बनाया करते थे। मिट्टी की गाड़ियों तथा भेड़ें बच्चों के खेल का प्रमुख साधन थीं। पक्षियों के ऐसे खिलौने भी बनाये जाते थे जिनको बजाने के वास्ते उनमें तूती लगी हुयी हो। तूतियों से सीटी बजती थी। बच्चों के लिये झुनझुने, भोंपू भी बनते थे। चिड़ियों के खिलौने भी बनते थे। चिड़ियों में अलग से टाँगेंजोड़ दी जाती थीं। लगता है, या तो अलगअलग अंग बनाने की कला की एक प्रथा थी या कि Mass Production का सैन्धव लोगों को भान था। कांसे की नर्तकी से पता चलता है कि नाच भी आमोदप्रमोद का साधन था। कुछ ऐसी भी उत्कीर्ण आकृतियाँ खुदाई में मिली हैं जिनसे अनुमान लगाया जाता है कि सिन्धु निवासी तबला या ढोल से परिचित थे और नृत्य के अवसरों पर इनका

 

प्रयोग करते थे। कुछ मुद्राओं पर तुरही, वीणा आदि वाद्यों के चित्र भी उत्कीर्ण हैं। (12) अयुध या शस्त्र या हथियार, औजार और उपकरणकई शस्त्र, उपकरण और औजार भी प्राप्त हुये हैं। सभी ताँबे और कांसे के हैं। अलगअलग उद्देश्य के अलगअलग उपकरण मिले हैं जो सिन्धु घाटी के लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी से सम्बन्धित हैं।

 

(13) घरेलू पदार्थघरेलू बर्तनों में अपर्ण आधार (Offering stands), जाम या पानपात्र, टोंटीदार पात्र, कटोरा, चिलमची या प्याला या कुंडी, रकाबी, तवा या कड़ाह, मरतबान आधार (Jar Stands), भण्डार मरतबान आदि मुख्य थे, ये मिट्टी के होते थे। कुर्सी, स्टूल, तख्त, पलंग, नरकुल की चटाई आदि से कमरों की सजावट की जाती थी। ताँबे, सीप और , कुम्हारी मिट्टी के दीप या चिराग होते थे। बत्तीदान या शमादान का उपयोग घर में उजाले के लिये किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि मोमबत्ती का प्रयोग भी करते थे।

 

(14) औषधि शिलाजीत के समान एक पदार्थ मिला है, भांडे में मछली की हड़ियाँ मिली हैं, कुरंग, हिरण के सींग भी मिले हैं। इनका उपयोग दवाई में होता होगा। प्रवाल और नीम की पतियों का उपयोग भी औषधि में होता था। लगता है. भारतीय आयुर्वेदिक का मूल सिन्धु सभ्यता में छिपा था। कालीबंगन और लोथल से प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि कपाल छेदन की प्रथा मौजूद थी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि कपाल छेदन से सिर दर्द, स्तनाकार और मस्तिष्क सूजन दूर होती थी।

 

(15) लिपिशहरों के सुसंगठित सामाजिक जीवन ने लेखन की आवश्यकता को कबूल किया होगा। हड़प्पा, कालीबंगन, कोटदीजी, रोजदी, रंगपुर आदि से प्राप्त मोहरों (Seals) पर कुछ चिन्ह अभिलेख में हैं। कुछ विद्वान इसे चित्रलिपि और कुछ भावलिपि मानते हैं। कुछ स्वोफेदन (Boustrophedon) इसी प्रकार की सीलें और सुमेर इलाम से भी मिली है। भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक)

 

अवशेष प्राप्त हुये हैं उनसे पता चलता है कि मृतक संस्कार तीन प्रकार से किये जाते (16) अत्येष्टि प्रथा मोहनजोदड़ो हड़प्पा, कालीबंगन, रूपढ़ और लोबल से (i) मृतक शरीर को पृथ्वी में गाड़ दिया जाता था। धनी सामन्तों के शव के साथ आराम को समस्त वस्तुयें भी गाड़ दी जाती थीं। (ii) मृतक शरीर को पक्षियों को खाने के पृथ्वी में गाढ़ दिया जाता था। (iii) मृतक शरीर को जला दिया जाता था। ऐसा अनुमान किया जाता था कि शव गाढ़ने की प्रथा कम होने लगी थी और जलाने की प्रथा का अधिक प्रचार हो गया था। लोथल से युगल के अस्थिपंजर मिले हैं। यह प्रथा सती प्रथा की ओर इशारा करती है।

 

आर्थिक दशा

 

(1) खेतीखेती मुख्य व्यवसाय था, यद्यपि खेती करने के औजार प्राप्त नहीं हैं। गेहूं, जौ, मुख्य अन्न थे। अनार, नारियल, नींबू, खजूर, तिल, दालें वगैरहा भी होती थी। लोथल और रंगपुर से चावल का भूसा मिला है। शायद ज्वारबाजरे की खेती भी होती थी (2) पशुपालनखेती के बाद पशुपालन का नम्बर आता है। जानवरों के अस्थिपंजरों, सीलों तथा मिट्टी के खिलौने पर बनी आकृतियों से पता चलता है कि कूबड़ वाला बैल, भैंस, भेड़, हाथी, खरगोश, बत्तख, तोता, सूअर, कँट पाले जाते थे। ये विभिन्न आर्थिक उद्देश्यों को पूरा करते थे। उनसे दूध और गोश्त मिलता था। उन भी मिलती थी। वे आवागमन के साधन भी थे। मधुवाही (Fishing) भी होती थी।

 

(3) उद्योगधन्धेहड़प्पा स्थलों के सुनियोजित मकान, सड़कों आदि से लगता है कि मकान बनाना एक पेशा था। कुंभकारी प्रचलित थी, बागवानी भी धातुकर्म (Meallurgy) भी प्रचलित था। ताँबे के कई उपकरण मिले हैं। युद्ध के शस्त्र भी मिले हैं। सोने की कई चीजें मिली हैं। चाँदी का प्राचीनतम आविर्भाव या प्रकटन सिन्धु घाटी में हुआ। सैन्धवों को सोना और चाँदी के मिश्रण से बनी इलेक्ट्रम नामक धातु का भी ज्ञान था। ताँबे में रांगा मिलाकर कांसा नामक मिश्रित धातु का निर्माण किया जाता था। हाथी दाँत, सीप का जड़ाऊ काम आदि कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कौशल थे। पात्र और मणके बनाने का व्यवसाय भी अच्छा विकसित था। सूती उद्योग मुख्य था। किसी पात्र पर नाव बनी हुयी दिखायी गयी है। वर्तन निर्माण का भी उद्योग था औजार हथियार, मलाई डलाई और गढ़ाई आदि के धन्धे भी प्रचलित थे।

 

(4) व्यापार, वाणिज्यखेती और उद्योग के विकास से उत्पादन काफी बढ़ा। हड़प्पा व्यापारी अपने माल देश में और बाहर ले जाते थे। सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता था। स्थल व्यापार गाड़ी और जानवरों की सहायता से होता था। गाड़ी के रास्ते हड़प्पा शहर की सड़कों पर मिले हैं। समुद्र से भी व्यापार होता था। बिना मस्तूल का जहाज एक सील पर दर्शाया गया है। सोकता खो और सुक्कजेंडोर के बन्दरगाह और सोमल का गोदीवाड़ा इसी बात को प्रमाणित करता है।

 

हड़प्पा लोग सोना मैसूर से, चांदी अफगानिस्तान और ईरान से, तांबा राजस्थान, बलूचिस्तान और अरेबिया से, सोसा दक्षिण से लाजवर्द या रायट अफगानिस्तान से, भीरोजा ईरान से सेलखड़ी पूर्व और पश्चिम के कई स्थानों से जम्बुमणि (Amethyst) महाराष्ट्र से, लकड़ी और बाहरसिंगा कश्मीर से, अकीक चालसीडनी और कारनीलिअन सौराष्ट्र और पश्चिम भारत से, संगयशब (Jade) मध्य एशिया से प्राप्त करते थे

 

 

 

मापतौलव्यापार, व्यवसाय, वाणिज्य और जीवन में गणना तथा नाप तौल का विशेष महत्त्व होता है। उस समय भी ये विशिष्ट रूप से महत्त्वपूर्ण थे। खुदाइयों के दौरान पत्थर और सीपों के बटखरे मिले हैं। ये विभिन्न आकारप्रकार और वजन के हैं। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि विभिन्न स्थलों से प्राप्त होने पर भी इनमें एकरूपता देखने को मिलती है। तौलने की इकाई के रूप में 16 या उसके गुणक अंक का प्रयोग किया जाता था। चूँकि बाट दशमलव तक प्राप्त हुये हैं, इसलिये यह माना जा सकता है कि हड़प्पाई लोगों को दशमलव प्रणाली का ज्ञान था और कि भारत ने ही यूरोप तथा अन्य महाद्वीपों को दशमलव पद्धति का ज्ञान कराया। धार्मिक दशा

 

लिपि की गूढ़ता की वजह से सिन्धु घाटी सभ्यता के धर्म के बारे में कुछ निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता उत्खनन से प्राप्त सील, लघु मूर्तियाँ और पत्थर मूर्तियाँ उस समय के धर्म पर कुछ प्रकाश फेंकती हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक इमारत (जिसमें से मूर्तियाँ भी प्राप्त हुयी हैं) को मन्दिर माना गया है। यह भी अनुमान लगाया गया है कि सामान्यतया मन्दिर लकड़ी के होते थे। कुछ नारी मूर्तियों के आधार पर जे० मार्शल ने यह अनुमान लगाया है कि ये सारी मूर्तियाँ मन्दिर की उपासिकाओं की हैं। नग्न रूप से नृत्य करती हुयी नर्तकी की मूर्ति को विद्वान् देवदासी समझते हैं। यह भी प्रतीत होता है कि सिन्धु घाटी के निवासियों ने अपने देवताओं का मानवीकरण कर दिया था और उन्हें मनुष्य के रूप में देखते थे। मानवीय गुणों की प्रतिष्ठा के कारण ही मुहरों तथा प्रतिमाओं में उनके देवीदेवता मानव आकृति में प्रस्थापित किये गये थे। बहुत से चौकोर और आयताकार ताबीज भी पाये गये हैं। इन ताबीजों पर देवीदेवताओं की प्रतिमायें और नीचे कुछ मन्त्र अंकित हैं। ये ताबीज मिट्टी, ताँबा आदि के बने हुये हैं। इससे यह प्रकट होता है कि उनके धर्म में अन्धविश्वास, जादूटोना, और ताबीज को भी प्रमुख स्थान प्राप्त होगा। भूतप्रेत अथवा वैसी शक्तियों में उन लोगों का विश्वास था और उनसे बचने के लिये ही वे लोग जादूटोना का व्यवहार करते थे। एक प्रतिमा में एक देवता के समक्ष एक स्त्री नाचती दिखायी गयी है। इससे यह सिद्ध होता है कि ये लोग अपने देवीदेवताओं के समक्ष उन्हें रिझाने के लिये नृत्य भी करते थे। पशुबलि, देवी पूजा का एक अंग समझी जाती थी। कला

 

स्थापत्यनगर नियोजनस्थापत्य कला में सैन्धव नगर नियोजन का विशेष महत्त्व है। हड़प्पा काल में सिन्धु घाटी के मैदान और पंजाब में रहने वालों ने ऐसे सुनियोजित शहर बनाये कि उन जैसे ईरान, मिल या पश्चिमी एशिया में भी नहीं दिखायी देते। ऐसे , शहरों में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा का विशेष महत्त्व है, क्योंकि वे महानगर थे। कम महत्त्व कालीबंगन, चन्दाड़ो, काटदीजी लोथल, रंगपुर, सुक्तजेन्डोर, सोटका कोह का भी नहीं। इन स्थानों पर जो पुरातात्त्विक उत्खनन हुये उनसे उस समय के नगर नियोजन एवं स्थापत्य के बारे में पता चलता है। नगर नियोजन की एकरूपता शहरों, गलियों, इमारतों, ईंटों का आकार नालियों आदि के अभिन्यास या विन्यास या खाके से पता चलती है। यह एकरूपता उत्पादन में केन्द्रीयकरण और चुस्त प्रशासन का नतीजा है। उस समय का नगर नियोजन तत्कालीन योजनाबद्ध इन्जीनियरी का प्रमाण है सारा नगर विन्यास ऐसा था कि एक गली से दूसरी गली तक सरलता से बिना किसी चक्करों के पहुंचा जा सकता था।

 

(1) मोर्चाबन्द (Fortified) शहरअधिकतर शहर आयतीय (Rectangular) थे दुर्गे का परकोटा या प्राकार या फासील ऊंचा होता था, उसकी नींव मिट्टी की और बौद होती थी, उसके दरवाजे होते थे। खाई या परीखा या खन्दक (Moat) भी होती थी। की दीवारों में बीचबीच में बुर्ज होते थे। हड़प्पा के दुर्ग की योजना समानान्तर चतुर्भी वाली है। अन्दर की इमारतें मिट्टी और मिट्टी की ईंटों के चबूतरों पर बनी थीं और सभी तरह सुरक्षा के प्रबन्ध में बाद में इनमें टेक (Buttesses) भी दिये गये प्रवेश दरवाजे उत्तर पश्चिम में होते थे। मोहनजोदड़ो का नगर दुर्ग बन्द (Bund) या पुरता से सुरक्षित था। कालीबंगा में प्रवेश उत्तर दक्षिण में होते थे। लोथल में भी परकोटा मिला है। रंगपुर में ईटों की किलेबन्दी है। हरियाणा में बनवली में अलगअलग हिस्से थेएक दुर्ग का दूसरा रहवास का। कच्छा के सुरकोटड़ा में भी मोर्चाबन्दी मिली है। सूक्तजेडोर में दुर्ग प्राकृतिक पहाड़ी पर बना है।

 

(2) गलियाँ और लेन्स हडप्पा शहर कई बड़ी गलियों में विभाजित था। गलियाँ शहर को कई ब्लॉक में बाँटती थी। मोहनजोदड़ो में उसकी चौड़ाई 9 से 34 फुट तक थी। ये कभीकभी आधे मील तक सीधी चली जाती थीं। वे समकोण पर काटती थीं और शहर को चौकोर या आयताकार ब्लॉक में बाँटती थीं। इन ब्लॉकों का क्षेत्र फिर अनेक छोटी लेन्स (Lancy) से काटता था। लेन में मकान होते थे। प्रत्येक लाइन में सार्वजनिक कुआँ होता था। सुमेर की भाँति कहीं भी कोई भी इमारत सार्वजनिक पथ पर अतिक्रमण करती थी छोटे उपभागों के कोण लहू पशुओं से रगड़े प्रतीत होते हैं और कहींकहीं कुछ इमारतों के कोने गोल कर दिये जाते थे। बनी के खम्भे मिले हैं जिनसे प्रतीत होता है कि गलियों में प्रकाश व्यवस्था थी। मोहनजोदड़ो और काली गंगा की पक्की सड़कें मिट्टी की बनी थी। प्रत्येक बड़ी सड़क 1 किमी. तक सीधी चली जाती थी और 10 मी० तक चौड़ी होती थी। सड़कों का विन्यास (Layout) कुछ इस प्रकार से था कि हवा स्वयं ही सड़कों को साफ करती थी। सड़कों की सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाता था। लगता है, सेनिटरी इन्जीनियरी सरीखी कोई चीज थी। कूड़ा फेंकने के लिये सड़कों के किनारे गड्ढे थे। पानी का जमाव रोकने के लिये सड़कें ढलुआ बनायी जाती थीं। मकानों को क्षति पहुँचे, इसलिये गलियों के कोने पर लकड़ी के जंगले लगा दिये जाते थे। लोथल से 4 गलियाँ मिली हैं, दो उत्तर दक्षिण दौड़ती थी और दो पूर्व पश्चिम दोनों तरफ लेनें थी। गली के एक तरफ 12 मकानों की कतार मिली है। छोटे मकान शायद दुकानों के काम आते थे।

 

(3) इमारतें – (i) निवास घरखुदाई से प्राप्त निवास घरों के अवशेषों से मकानों के आकार में विभिन्नता का पता चलता है। छोटे मकानों में दो से अधिक कमरे नहीं होते थे। कमरों में दीवारों के साथ अलमारी बनाने की प्रथा थी। सामान्यतया घरों में कई कमरे, एक रसाईघर, आँगन (सहन), गुसलखाना और एक मन्जिल ऊपर होती थी। खुला प्रांगण विशेषता थी। सीढ़ियाँ (लकड़ी, पत्थर) अन्दर के प्रांगण या चौक से ऊपर की मन्जिल पर जाती थीं। ऐसा भी पता चलता है कि कुछ स्थान चौकीदार के लिये होते थे। दरवाजे शायद लकड़ी के होते थे और दीवारों के अन्त में लगाये जाते थे कि मध्य में। प्रायः दरवाजों की माप 3′ 4” से 7′ 10′ तक की होती थी। घरों की बाहरी दीवारों में बहुधा खिड़कियाँ नहीं होती थीं। जालियों ही खिड़कियों और हवादानों का काम करती थी। दरवाजे और खिड़कियों आंगन की ओर खुलते थे। उन चौरस होती थी और शायद बांस, चटाई और लकड़ी की बनी होती थी ताकि तापमान संवत रहे। दीवार के सन्धि स्थानों पर लकड़ी के खम्भे होते थे जो छत को सहारा देते थे। कालीबंगा के मकानों के फर्श कुटाई पर बनाये गये थे। कभीकभी ऊपर मिट्टी की ईंटों का भी उपयोग किया जाता था। एक स्थान पर खपरैल भी मिली है। कालीबंगा के मकानों में अग्नि स्थान भी मिले हैं। शायद हवन में काम आते होंगे। हड़प्पा में और मोहनजोदड़ो में अलग पन्थों वाले लोगों के अलगअलग मकान होते थे। एक बात और मकानों में पक्की ईंटों का उपयोग यहाँ होता था, विश्व में अन्य कहीं नहीं। ईंटें 52″ ×22 ” ×22″ से 18×7-2″ +3,” के माप की 10 ऐतिहासिक युग होती थीं। सभी मकान ऊँचे चबूतरे पर बनाये जाते थे, शायद सैलाब (बाद) के विरुद्ध

 

एहतियात (Precaution) बरतने के लिये। कुछ मकानों में तलघर भी मिले हैं। (i) सार्वजनिक[सर्वाजनिक इमारतों में मोहनजोदड़ो की वह इमारत मुख्य है जिसे मैके ने कालेज कहा है। आमतौर पर यह माना जाता है कि इसमें शायद कोई उच्चाधिकारी, पुरोहित निवास करते थे। 80′ चौकोर स्तम्भों के हाल में लम्बे गलियारे थे, बेचे थीं। शायद सार्वजनिक सभा के समय बेंचों का उपयोग बैठने के लिये होता था। सीटें भी थीं, परिधीय (Peripheral) बुर्ज भी थे। एक 250′ लम्बे राजमहल के अवशेष भी प्राप्त हुये हैं। पास में वृत्ताकार या वर्तुल गड्ढे पाये गये हैं, उन पर मिट्टी लगी हुयी है। एक 87×54-5′ की इमारत को रेस्तरां माना गया है। एक बहुत ही महत्त्व की इमारत वह है जो 52′ x40′ है और जिसकी दीवारें मोटी हैं। इसके साथ ही दाढ़ी वाले आदमी 4 की मूर्ति मिली है। एम वीलर इस इमारत को मन्दिर समझता है। एक मजबूत बनावट का अन्न भण्डार भी मिला है। इसमें माल लादने और उतारने के लिये प्लेटफार्म बने हैं। इसका उपयोग शायद फसलों की दवनी (Threshing) के लिये भी किया जाता होगा। बड़ेबड़े अन्न भण्डार मिस्र और मेसोपोटामिया में भी मिले हैं, परन्तु हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के अन्न भण्डारों से उनकी तुलना नहीं की जा सकती। इनका अपना विशेष डिजाइन है। हड़प्पा का अन्न भण्डार या धन्यागार (Granary) अत्यन्त असाधारण है, बहुत लम्बा है। यह लोथल में भी गोदाम या अन्न भण्डार मिला है। वह 12 ऊँचे मिट्टी के चबूतरे पर खड़ा है। यह 165’x145′ का है और इसमें कोठरी वाले 12 खण्ड हैं। मोहनजोदड़ो में 39′ ×23’×8′ का महान स्नानागार (Great Bath), जल चिकित्सा सम्बन्धी प्रतिष्ठान (180×108′) का एक भाग था। इसमें जाने के लिये सीढ़ियाँ थीं, कई दो मन्जिल कमरे बने हुये थे। इसमें पास ही के कुर्य से ताजा पानी भरा जाता था। इसके फर्श और दीवारों को जलरोधी (Watertight) बनाया गया था, चारों ओर तीनतीन दीवारें बनायी गयीं थीं। सीलन से बचने के लिये राल (Bitumen) का उपयोग किया गया था। निकास कोने में दिया गया था जो बड़ी नाली में जाकर मिल जाता था। स्नानागार के छज्जे पर विशाल गलियारा था और उसमें तीन तरफ कमरे और दीर्घायें (Gallaries) बनी हुयी थीं जो एक प्रकार से अमानती सामान घर (Cloak Rooms) की तरह उपयोग में आते थे। स्नानागार के दक्षिणपश्चिम छोर की ओर एक हमाम था। लगता है, लोग हायपोकस्ट (Hypocast) स्नान का महत्त्व समझते थे। कुछ विद्वानों ने इसे पवित्र स्थान माना है। उनके अनुसार उत्सवों या पर्वो पर लोग यहाँ स्नान करते थे। के० डी० वाजपेयी ने इसे सार्वजनिक स्नानागार माना है। एक और स्नानागार प्रतिष्ठान था जिसमें स्नानागारों की दो पंक्तियाँ थीं जो एक संकीर्ण गलियारे से अलग होती थीं, प्रत्येक स्नानागार में सीढ़ियां थीं दरवाजे थे, अच्छा फर्श था। सीधी सतर ईंटों को रगड़कर साफ किया जाता था ताकि फर्श में पानी की बूंद तक समा सके। अंग्रेजी भाषा में ‘L’ के आकार की ईंटों का कभीकभी कोण बनाने के लिये प्रयोग किया जाता था। येके ने स्नानागारों को पुरोहितों के लिये प्रक्षालन के स्थान माना है और यह माना है कि बड़ा स्नानागार आम जनता के उपयोग के लिये था कार्लटन ने विशाल स्नानागार की तुलना समुद्र तट पर स्थित आधुनिक होटल से की है। जो भी हो स्नानागार के तलस्तर और फिनिशिंग हेतु सफेद रंग के सीमेंट का प्रयोग हुआ है। यह सीमेंट महीन रेत, चिरोड़ी तथा चूना मिलाकर बनाया गया था। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के बीच एक दुर्ग था जो परकोटे से सुरक्षित था। कालीबंगा, रंगपुर बनावली और सूतकोटडा से भी दुर्ग के अवशेष मिले हैं।

 

 

 

 

भारत में लौह युगीन सभ्यतायें [IRON AGE CULTURES IN INDIA]

 

भारत में लोहा चित्रित धूसर मुद्माण्ड संस्कृति और कांसा और लाल पत्र संस्कृति दोनों ही प्रारम्भिक लौह युग की विशिष्ट संस्कृतियाँ थी. जिनकी विशेषताये विशिष्ट थी। ये संस्कृतियों ग्रामीण से नगरीय जीवन की सांस्कृतिक
 
अवस्थाओं की द्योतक है।” 1-पातकालीन संस्कृति पर एक वृहद निवन्ध लिखिये
 
या
 
Write a detailed essay on the culture of the metal age. निम्न शीर्षकों में धातु काल का अध्ययन कीजिये– (1) ताम्रस्म या ताम्र पाषाण युग। (2) कांस्य युग (3) लौह युग
 
या
 

निम्नांकित पर नोट लिखिये– (1) चित्रित धूसर मृद्भाण्ड (Painted Gray Ware Culture) (2) महापाषणिक संस्कृति (Megolithic Culture)

 

 

 

 

उत्तर

 

ताम्रास्म या ताम्र पाषाण युग ताम्र पाषाण युग में काफी परिवर्तन हुये। ताँबे के आविष्कार (करीब 5,000 से 4,000 वर्ष पूर्व मेसोपोटेमिया में) ने उत्पादन में वृद्धि ला दी। हल, बैल और जुए (Yoke), पहिये (Wheel), नाव, मुहर के ज्ञान से उत्पादन बढ़ा, विनिमय का प्रसार हुआ एवं व्यक्तिगत स्वामित्व की भावना विकसित हुयी। कबीले दो राज्य की तरफ बढ़ने की प्रक्रिया भी आरम्भ हुयी। अन्ततः ताम्रयुगीन माम्य संस्कृतियों ने कांस्ययुगीन शहरी सभ्यता की पृष्ठभूमि तैयार

 

कर दी। भारत के विभिन्न भागों से अनेक ताम्र पाषणिक स्थल प्रकाश में आये हैं जहाँ असमान रूप से विकसित ग्राम्य सभ्यता के साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में आहा गिलन्द से इस समय की बस्तियों के प्रमाण मिले हैं। मकान मिट्टी और पत्थर के बने हुये और थे, कच्ची ईंटों के साथ पक्की ईंटों के प्रयोग की जानकारी भी मिलती है। मकान में तन्दूर (Qvens) भी मिले हैं। मिट्टी के बर्तन काले रंग के हैं जिन पर सफेद रंग से रेखाचित्र बने हुये हैं। चम्मच, प्याले भी मिले हैं। पत्थर के छोटे उपकरणों के साथ ताम्र उपकरण भी बहुतायत से पायें गये। ताम्रखानों से ताँबा प्राप्त कर उसे गलाया जाता था और उससे विभिन्न उपकरण और आभूषण बनाये जाते थे (अँगूठी, चूड़ी, चाकू, कुल्हाड़ी इत्यादि) ताँबे के उपकरण यहाँ से सम्भवतः मध्य प्रदेश एवं दक्षिण भारत में भेजे जाते थे। कृषि, पशुपालन, मृण्मूर्तियां, मनके मुहरे, हले, खेत के भी प्रमाण मिले हैं।

 

मध्य प्रदेश में कायथा, एरण और नवदतोली सबसे प्रमुख स्थल हैं। कायथा से प्राप्त महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक साक्ष्यों में चाक की सहायता से बनाये गये मिट्टी के बर्तन, ताँबे की कुल्हाड़ियों, चूड़ियाँ, पत्थर के सूक्ष्म हथियार और मनके हैं। इसी प्रकार नवदतोली से सुनियोजित वस्ती, लालकाले रंगों के मृद्भाण्ड, तांबे के उपकरण तथा गेहूं, मसूर, मटर, चना, खेसारी और चावल की कृषि के प्रमाण मिलते हैं।

 

महाराष्ट्र में नासिक, नेवासा, जोयें, दयमाबाद, चन्दोली, सोनगांव से कई दिलचस्प प्रमाण मिले हैं। चाक निर्मित मृदभाण्ड (विशिष्ट नमूना टोटीदार वर्तन) सूक्ष्म पाषाणांपकरण. ताम्रनिर्मित उपकरण यहाँ से मिले। गाय, बेड़, बकरी, सूअर, भैंस, मोड़ा के पालने और चावल, गेहूं, धान, जौ, मसूर, मटर, बेर, पटसन की कृषि के प्रमाण मिलते हैं। सम्भवतः बाजरा की भी खेती होती थी। कच्ची ईंट और फूस से वर्गाकार, आयताकार या वृत्ताकार पर बनाये जाते थे। घर काफी बड़े होते थे। इससे अन्दाज लगता है कि परिवार विशाल होते थे, संयुक्त होते थे। घरों में मिट्टी का लेप होता था। झोपड़ियों कभीकभी लकड़ी की भी बनायी जाती थीं घरों में चूल्हा और तन्दूर भी बना रहता था। कहींकहीं पर घरों की घेरावन्दी भी की जाती थी। सूत कातने एवं वस्त्र बुनने की कला भी ज्ञात थी। अर्ध बहुमूल्य पत्थर के मनके भी बनते थे। मातृदेवी की मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं। शवाधान कलशों में मिट्टी के बर्तन एवं तांबे की वस्तुयें भी रख दी जाती थीं। नेवासा, चन्दोसी और कायथा से कुछ शवों के साथ तांबे और पत्थर के आभूषण भी रखे पाये गये हैं (गले का हार एवं

 

चूड़ियाँ) इससे सामाजिक विभेद या असमानता का पता चलता है। दक्षिण भारत के कुछ स्थलों (ब्रह्मगिरि भास्की) पूर्वी भारत में उत्तर प्रदेश (इलाहाबाद के पास), बिहार (चिरन्द), पश्चिम बंगाल (पान्डु राजर ढिब्बी) से भी ताम्र पाषणिक संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। चिरन्द के काले और लाल मृद्भाण्ड पश्चिम तथा मध्य भारत के ताम्र पाषाणयुगीन मृद्भाण्डों के समान हैं।

 

समयअलगअलग स्थानों की सभ्यता का समय अलगअलग रहा है। परन्तु

 

सम्मिलित रूप से इस सभ्यता का समय 2000 और 800 ई० पू० के मध्य रखा जा सकता

 

है। कुल मिलाकर नवपाषाण तथा ताम्र पाषाण कालों में व्याप्त सजातीय और वैभिन्य और असमान विकास ने देश के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक विकास के आगामी क्रम पर सुस्पष्ट प्रभाव डाला। निर्माताबहुत से विद्वान् यह मानते हैं कि इस सभ्यता के निर्माता आर्य थे। परन्तु सी० 14 के विश्लेषण के आधार पर यह मान्यता गलत सिद्ध हो गयी। कुछ यह मानते हैं कि इस सभ्यता के निर्माता नाग, सबर, पुलिन्द आदि होने चाहियें। परन्तु पुराण बाद के हैं, इसलिये इन पर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता और पुरातात्त्विक प्रमाण कोई मिला नहीं है, जो भी हो, ज्ञात आधार पर इसके निर्माता भारतीय मान लेना चाहिये। पात्रों

 

पर ईरानी प्रभाव अवश्य है, परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि इसके निर्माता पश्चिम एशिया

 

के लोग हैं। कुछ इस सभ्यता का उद्गम सिन्धु सभ्यता से मानते हैं। परन्तु दोनों के बीच

 

कोई सभ्यता नहीं है। एक शहरी है तो दूसरी ग्राम्य संस्कृति का स्वरूपताम्रास्म युगीन संस्कृति का स्वरूप काफी विकसित था। मोटे रूप से यह कहा जा सकता है कि ये लोग खेती करते थे, पशु पालते थे। इनके औजारों में पट्टे, पिन, रेजर, चाकू आदि मुख्य है। कला के भी कई नमूने प्राप्त हुये हैं। गहने भी मिले हैं। मुर्दों को गाड़ दिया जाता था और उनके साथ ही उनके सामान को भी अर्थात् वे पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। धर्म के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि वे गाय और बैल के उपासक थे। यज्ञादि में विश्वास करते थे। तान युग

 

ताम्र पाषणिक संस्कृति के अतिरिक्त भारत से ऊपरी गंगा घाटी और गंगायमुना दोआब क्षेत्र के कुछ स्थलों से ताम्र उपकरण प्राप्त हुये हैं जिनका सम्बन्ध निश्चित तौर पर किसी भी ज्ञात संस्कृति से सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। ये ताम्र उपकरण सबसे अधिक गंगा यमुना श्रेणी (दो आव) क्षेत्र में मिले हैं। प्राप्त उपकरणों में प्रमुख हैंहाथ की कुल्हाड़ियाँ, मत्स्य भाले (Harpoons), भाले, कटारे, गिन्ना युक्त तलवारें (Swords with Antcanae), अंगूठियाँ, तथा मानवतारूपी मूर्तियाँ (Anthorpomorphic figures) इन उपकरणों को गंगा घाटी ताम्र निधि (Gangetic valley Copper Hoards) के नाम से पुकारा जाता है। कुछ इस संस्कृति का सम्बन्ध हड़प्पा संस्कृति से जोड़ते हैं पर आर० हाईने गेल्टनर के अनुसार इस संस्कृति के संस्थापक आर्य गण थे। जो भी हो उपकरणों के साथसाथ गेरु वर्ण मुद्भाण्ड (Ochre Coloured Pottery- O.C.P.) एवं मिट्टी के आवास स्थल भी मिले हैं। इनसे गंगायमुना दोआब में पहली बार स्थायी जीवन, कृषि और शिल्प का प्रमाण मिला है। ताम्र उपकरणों का प्रयोग करने वाले प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उन्नत थे। राजस्थान और बिहार में भी कुछ ताम्र उपकरण (Cells) पाये गये हैं। गंगा घाटी की ताम्र निधि सम्भवतः 2000-1800 ई० पूर्व के मध्य विकसित हुयी।

 

पुणे के इनाम गाँव से भी ताम्रयुगीन संस्कृति का पता चला है। यहाँ किये गये उत्खनन कार्य से यह जानकारी मिली है कि ताम्र युग के लोग अच्छे किसान थे और सुनियोजित ढंग से बस्तियाँ बनाकर रहते थे।

 

पुरातत्त्वविद एम० के० दावलिकर के अनुसार ये ताम्रयुगीन लोग ईसा से 1000 से सेकर 100 वर्ष पूर्व तक इस इलाके में रहते थे जिनकी अर्थव्यवस्था कृषि, अन्न संग्रह, शिकार और मछली मारने पर आधारित थी।

 

पशुपालन भी उनका एक व्यवसाय था, और वे भेड़ और सूअर पालते थे। मुख्य रूप से सूखी खेत पर आश्रित उस समाज ने सिंचाई की भी व्यवस्था की थी। पुरातत्त्वविदों ने उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर सम्पूर्ण अवधि को तीन कालों में विभाजित किया है

 

मालवा संस्कृति (1600-1400 ई० पू०), पूर्व जोर्वे (1400-1000 ई० पू०), और उत्तर जोवें संस्कृति (1000-700 ई० पू०)

 

उत्खनन में इन तीनों कालों की बस्तियों के अवशेष मिले हैं। इन अवशेषों से इनके सुनियोजित निर्माण का पता चलता है। मकान मिट्टी की दीवारों के और पंक्तिबद्ध बनाये जाते थे। मकानों की दो पंक्तियों के बीच डेढ़ मीटर गहरा रास्ता होता था, और घरों के भीतर आग जलाने की जगह अलग से होती थी। शिल्पियों और अच्छे किसानों की रिहाइश बस्ती के पश्चिम क्षेत्र में और गाँव के प्रमुख बस्ती के बीच रहते थे। कांस्य युग

 

विश्व स्तर पर करीब 3000 ई० पू० के आसपास कांस्य युग का आरम्भ होता है। इस युग में ताम्र उपकरणों के स्थान पर कांस्य का व्यवहार आरम्भ हुआ जो ताँबे की अपेक्षा ज्यादा टिकाऊ और कठोर था। इस समय से मिस्र, मेसोपोटामिया, क्रीट (यूनान) और सिन्धु घाटी में कांसे के उपकरण ही मुख्यतः व्यवहार में लाये जाने लगे। इसी से यह युग कांस्य युग (Bronze Age) के नाम से विख्यात है। इस युग की संस्कृतियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्होंने ताम्रयुगीन ग्राम्य संस्कृतियों के स्थान पर कांस्य युगीन शहरों की स्थापना कर दी। कांसे के उपकरणों की सहायता से अतिरिक्त उत्पादन (Surplus Production) बढ़ा जिसके आधार पर अनेक शिल्पों, व्यवसायों तथा व्यापार वाणिज्य का विकास हुआ। व्यक्ति सम्पत्ति की भावना, श्रम विभाजन, सुरक्षा की आवश्यकता, सामाजिक संस्थाओं को नियन्त्रित करने के लिये कानून बनाने, नहरों, बाँधों का निर्माण करवाने इत्यादि

 

 

 

संगनकल्ल से, चिंगलपट जिले के कुन्नदुर और उत्तरी आरकाट जिले के पेयमपल्ली से प्राप्त

 

हुआ है। पेंटेड मे वेअर संस्कृति के लोगों का समाज कृषि प्रधान था। पशुपालन और कृषि

 

लोगों का मुख्य व्यवसाय था। लोग निरामिषभोजी या शाकाहारी और अमिषभोजी या.. माँसाहारी दोनों ही थे। शाकाहारी लोगों का मुख्य आहार चावल और गेहूं था, माँसाहारी लोगों का मुख्य आहार गोमॉस, सूअर का गोस्त, भेड़ का माँस और मृग माँस मुख्य था। पालतू जानवरों में गाय, लोमड़ी, भैंस, सूअर, बकरा, भेड़ और घोड़ा मुख्य थे। लोग कण्ठी, लटकन या जुगनूँ, कर्णफूल, चूड़ियां आदि आभूषण (अल्पमूल्य पत्थर के) पहनते थे। सूती धोती आदमी और औरत दोनों पहनते थे। वी० बी० लाल के अनुसार पेंटेड ग्रे वेअर लोग आर्य थे। ए० घोष के अनुसार अभी ऐसा मानना ठीक नहीं।

 

मेगालिथ संस्कृति के लोग भी प्रधानतः कृषक थे। चावल इनका मुख्य भोजन था शिकार भी किया जाता था। भेड़, बकरा, मुर्गी आदि का माँस प्रचलित था। घोड़े, बैल और अन्य जानवर पाले जाते थे। इन लोगों के भाण्डे लाल और काले के नाम से जाने जाते हैं। ये लोग शवसंस्कार अपने रहने के स्थान और जोतने योग्य भूमि से दूर करते थे शव पूर्वपश्चिम दिशा में दफनाये जाते थे। इसका धार्मिक महत्त्व भी था। ये लोग सूर्य उपासक थे। मुद्दों के साथ उनका माल असबाब भी मेगेलिथ्स में रख दिया जाता था मूसल, बच्चों के खिलौने आदि मिले हैं। आभूषण, पत्थर, सोना, ताँबा, कांस्य और सीप के होते थे।

 

मानवशास्त्र के आधार पर कहा जा सकता है कि ये लोग लघुशिरस्क (Brachyce- phalic) होते थे। जिन्दगी इनकी दिलचस्प होती थी और मृतकों के प्रति ये आदर रखते थे संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि पेंटेड ग्रे वेअर और मेगेलिथ दोनों ही प्रारम्भिक लौह युग की विशिष्ट संस्कृतियाँ थीं जिनका वैशिष्ट्य विशिष्ट था। ये संस्कृतियाँ ग्रामीण से शहरी जीवन की सांक्रान्तिक अवस्थाओं (Transitional Stages) की द्योतक हैं। इनके निर्माताओं के बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। इनका समय करीब 1100 से 600 ई० पू० का माना जाता है।

 

 

महाराष्ट्र में नासिक, नेवासा, जोयें, दयमाबाद, चन्दोली, सोनगांव से कई दिलचस्प प्रमाण मिले हैं। चाक निर्मित मृदभाण्ड (विशिष्ट नमूना टोटीदार वर्तन) सूक्ष्म पाषाणांपकरण. ताम्रनिर्मित उपकरण यहाँ से मिले। गाय, बेड़, बकरी, सूअर, भैंस, मोड़ा के पालने और चावल, गेहूं, धान, जौ, मसूर, मटर, बेर, पटसन की कृषि के प्रमाण मिलते हैं। सम्भवतः बाजरा की भी खेती होती थी। कच्ची ईंट और फूस से वर्गाकार, आयताकार या वृत्ताकार पर बनाये जाते थे। घर काफी बड़े होते थे। इससे अन्दाज लगता है कि परिवार विशाल होते थे, संयुक्त होते थे। घरों में मिट्टी का लेप होता था। झोपड़ियों कभीकभी लकड़ी की भी बनायी जाती थीं घरों में चूल्हा और तन्दूर भी बना रहता था। कहींकहीं पर घरों की घेरावन्दी भी की जाती थी। सूत कातने एवं वस्त्र बुनने की कला भी ज्ञात थी। अर्ध बहुमूल्य पत्थर के मनके भी बनते थे। मातृदेवी की मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं। शवाधान कलशों में मिट्टी के बर्तन एवं तांबे की वस्तुयें भी रख दी जाती थीं। नेवासा, चन्दोसी और कायथा से कुछ शवों के साथ तांबे और पत्थर के आभूषण भी रखे पाये गये हैं (गले का हार एवं

 

चूड़ियाँ) इससे सामाजिक विभेद या असमानता का पता चलता है। दक्षिण भारत के कुछ स्थलों (ब्रह्मगिरि भास्की) पूर्वी भारत में उत्तर प्रदेश (इलाहाबाद के पास), बिहार (चिरन्द), पश्चिम बंगाल (पान्डु राजर ढिब्बी) से भी ताम्र पाषणिक संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। चिरन्द के काले और लाल मृद्भाण्ड पश्चिम तथा मध्य भारत के ताम्र पाषाणयुगीन मृद्भाण्डों के समान हैं।

 

समयअलगअलग स्थानों की सभ्यता का समय अलगअलग रहा है। परन्तु

 

सम्मिलित रूप से इस सभ्यता का समय 2000 और 800 ई० पू० के मध्य रखा जा सकता

 

है। कुल मिलाकर नवपाषाण तथा ताम्र पाषाण कालों में व्याप्त सजातीय और वैभिन्य और असमान विकास ने देश के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक विकास के आगामी क्रम पर सुस्पष्ट प्रभाव डाला। निर्माताबहुत से विद्वान् यह मानते हैं कि इस सभ्यता के निर्माता आर्य थे। परन्तु सी० 14 के विश्लेषण के आधार पर यह मान्यता गलत सिद्ध हो गयी। कुछ यह मानते हैं कि इस सभ्यता के निर्माता नाग, सबर, पुलिन्द आदि होने चाहियें। परन्तु पुराण बाद के हैं, इसलिये इन पर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता और पुरातात्त्विक प्रमाण कोई मिला नहीं है, जो भी हो, ज्ञात आधार पर इसके निर्माता भारतीय मान लेना चाहिये। पात्रों

 

पर ईरानी प्रभाव अवश्य है, परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि इसके निर्माता पश्चिम एशिया

 

के लोग हैं। कुछ इस सभ्यता का उद्गम सिन्धु सभ्यता से मानते हैं। परन्तु दोनों के बीच

 

कोई सभ्यता नहीं है। एक शहरी है तो दूसरी ग्राम्य संस्कृति का स्वरूपताम्रास्म युगीन संस्कृति का स्वरूप काफी विकसित था। मोटे रूप से यह कहा जा सकता है कि ये लोग खेती करते थे, पशु पालते थे। इनके औजारों में पट्टे, पिन, रेजर, चाकू आदि मुख्य है। कला के भी कई नमूने प्राप्त हुये हैं। गहने भी मिले हैं। मुर्दों को गाड़ दिया जाता था और उनके साथ ही उनके सामान को भी अर्थात् वे पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। धर्म के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि वे गाय और बैल के उपासक थे। यज्ञादि में विश्वास करते थे। तान युग

 

ताम्र पाषणिक संस्कृति के अतिरिक्त भारत से ऊपरी गंगा घाटी और गंगायमुना दोआब क्षेत्र के कुछ स्थलों से ताम्र उपकरण प्राप्त हुये हैं जिनका सम्बन्ध निश्चित तौर पर किसी भी ज्ञात संस्कृति से सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। ये ताम्र उपकरण सबसे अधिक

 

 

 

क्षेत्रीय राज्यों का उदयवैदिक और महाजनपद

RISE OF TERRITORIAL STATES-VEDIC AND MAHAJANPADA

 
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत में सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति का अभाव था। वैदिक काल से लेकर अब तक भारत अनेक राज्यों का ऐसा समूह था .जिन पर राजाओं तथा राजाध्यक्षों का शासन था और वे अपनी सर्वोच्चता विद्याधर महाजन क्यों?
 
लिये परस्पर संघर्षरत रहते थे।
प्रश्न 1- आर्य कौन थे ? उनके मूल निवास स्थान के बारे में कौनकौन से मत प्रचलित हैं ? आपके विचार में कौनसा मत विश्वसनीय है, और क्यों ? Who were the Aryans? What views are prevalent about their original home? In your view, which view is more reliable .

 

 

 

 

उत्तर

 

आर्यों का मूल निवास स्थान

 

 

 

(1) भारत मूल निवास स्थान

 

अविनाशचन्द्र दास और सम्पूर्णानन्द ने सप्त सैन्धव (वर्तमान पंजाब और सीमान्त), वी० एस० वाकणकर ने सरस्वती तट क्षेत्र, गंगानाथ झा ने ब्रह्मर्षि प्रदेश (पूर्वी राजस्थान, गंगायमुना दोआब, पश्चिमवर्ती प्रदेश), राजवली पाण्डे ने मध्यदेश (वर्तमान उत्तर प्रदेश और बिहार), एल० डी० काला ने कश्मीर, डी० एस० त्रिवेदी ने मुलतान में देविका क्षेत्र को आर्यों का मूल निवास स्थान माना है। कुछ ने पुराणों के आधार पर गंगा के मैदान को आयों का आदि देश माना है। पुराणों में देवासुर संग्राम का उल्लेख है। इसमें देवताओं को विजय प्राप्त हुयी और असुर लोग खदेड़ दिये गये थे। अवेस्ता में भी ईरानियों के पैगम्बर विलपन करते हैं कि वे अपनी मातृभूमि से खदेड़ दिये गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि देवासुर संग्राम केवल प्राचीन आर्यों तथा ईरानियों का युद्ध था और आर्यों ने ईरानियों को भारत से खदेड़ दिया था। इससे यह प्रमाणित होता है कि आर्य भारत से बाहर गये थे और बाहर से यहाँ नहीं आये थे। जिन्होंने भारत को आयों का आदि देश माना है उन्होंने अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं

 

(1) ऋग्वेद में विवरण भौगोलिक स्थिति सप्त सिंधु प्रदेश को ही खाता करता है। यदि आर्य बाहर से आते हैं तो उनके आदि प्रान्त में कुछ कुछ उल्लेख अवश्य होता है।

 

(2) आर्यों ने सप्तसिन्धु को देवनिर्मित देश या देवकृत योनि की संज्ञा इसलिए दी क्योंकि वे इसे अपनी मातृभाषा मानते थे।

 

 

(3) आर्य साहित्य से यह स्पष्ट है कि आर्य लोग गेहूँ तथा जो का प्रचुरता से प्रयोग

 

करते थे और यही उनका प्रधान खाधान्न था। पंजाब में इन दोनों अन्नों का बाहुल्य इस मतको पुष्टि करता है कि पंजाब या सप्त सिन्धु ही आयों का आदि देश था।

 

(4) संहिताओं के संकलन के पहले बलि देने की प्रथा या यज्ञादि अनुष्ठानों का विकास हो चुका था जिनमें सोमपान किया जाता था, और चूंकि सोम उत्तरी पंजाब को जयंत तथा मुजवंत पहाड़ियों से उपलब्ध होता था, इससे स्पष्ट है कि बलि प्रथा का प्रारम्भ

 

या यज्ञादि का विकास पंजाब में ही हुआ था।

 

(5) वैदिक संस्कृत में कई शब्द आयों की भाषाओं के शब्दों के समान हैं। यदि आर्य बाहर से आये होते तो वहाँ की भाषा में उनके शब्द मिलने चाहिये थे।

 

(6) वेदों में केवल आर्यों की भाषा सुरक्षित है, परन्तु उनका धर्म, संस्कृति आदि।

 

सभी सुरक्षित हैं। यदि वेदों की रचना कहीं और हुयी होती तो किसी दूरस्थ स्थान पर भाषा को उसके विशुद्ध रूप में बनाये रखना सम्भव नहीं होता।

 

 (7) एक दिलचस्प बात यह है कि लटविया और इस्टोनिया (वाटिक तट पर स्थित ) के प्राचीन महाकाव्यों में इस बात का उल्लेख आता है कि उन देशों के लोग भारत से उस

 

समय गये थे जब देवता और मनुष्य मिलकर साथसाथ रहते थे। जब बाटिक के तट तक

 

भारतीय पहुँच गये थे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आर्य जत्थे अन्य देशों

 

में भी जाते रहे होंगे।

 (8) वेद, पुराण और हिन्दुओं के किसी भी ऐतिहासिक ग्रन्थ में आर्यों के बाहर से आने का किचित मात्र भी उल्लेख नहीं मिलता। भारतीय अनुश्रुति या जनश्रुति में कहीं इस बात की गन्ध भी नहीं मिलती कि भारतीय आर्यों की पितृभूमि या कर्म भूमि इस देश के कहीं बाहर थी।

 

(9) आर्य भाषा के कुटुम्ब में लिथुनिआ सबसे आद्य है। इसलिये यह माना जाता

 

है कि जहाँ आज लिथुनिआ पायी जाती है वह क्षेत्र आर्यों का मूल निवास स्थान होना चाहिये

 

आलोचनाभारत को आर्यों का मूल निवास स्थान मानने वाले विद्वानों के तर्क

 

 

 

प्रकार हैं– (1) गाइल्स का कहना है कि वे सब वनस्पति तथा पशु भारत में नहीं पाये जाते जिनका अनुमान भाषाओं की समानता के आधार पर आर्यों के आदि देश में किया जाता है।

 

बड़ (2) वे वस्तुयें, जिनसे आर्य परिचित थे, भारतीय नहीं थे। वे भूर्ज (Birch), शीशम, और बबूल से परिचित थे, और ये भारत में उत्पन्न नहीं होते थे। चावल, बाघ, हाथी का तथा केले के वृक्ष का ज्ञान नहीं था। वे हाथी को एक विचित्र जानवर समझते थे और उसे हस्तिन (सूंड) वाला मृग (हिरन) कहते थे। यदि आर्य भारत के मूल निवासी होते तो वे इन पशुओं से अनभिज्ञ कैसे रहते।

 

(3) गाइल्स का यह तर्क भी है कि ऐतिहासिक काल में भिन्न जातियों का प्रवेश विदेशों से भारत में हुआ है। भारत से कोई जाति बाहर को नहीं गयी है।

 

(4) यदि भारत आदि देश होता तो वे सर्वप्रथम अपने देश का आर्यीकरण करते, और सभी जगह आर्य भाषायें बोली जातीं। परन्तु, सम्पूर्ण दक्षिण भारत और बलूचिस्तान तथा उत्तर भारत का कुछ अंग आज भी भाषा की दृष्टि से अनार्य हैं। (5) यदि आर्य भारतीय होते तो उन्हें भारत का पूर्ण ज्ञान अवश्य होना चाहिये था।

 

परन्तु ऐसा था नहीं इसके विपरीत, ईरान, अफगानिस्तान आदि देशों के बारे में उनका

 

भौगोलिक ज्ञान अपेक्षकृत कहीं अधिक था।

 

 

(6) संस्कृत भाषा को मूर्धन्य (Cerebral) ध्वनि इण्डोयूरोपियन परिवार की किसी भाषा में नहीं मिलती। आयों के बाहर से आने पर मूल निवासी अनार्यों से सम्पर्क हुआ जिसके परिणामस्वरूप ही उनकी भाषा में यह ध्वनि सम्बन्धी विशेषता आयी।

 

(7) सिन्धु सभ्यता निश्चित रूप से वैदिक सभ्यता से अधिक प्राचीन थी, अतः भारत को उन अनायों का हो देश कहा जा सकता है। (8) इस बात का हमें ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है कि कोई जाति अपने विस्तृत उर्वर देश को त्यागकर अनुर्वर प्रदेशों तथा कम स्वागत वाले स्थानों को गयी हो जहाँ

 

तथा

 

पर जीवन की सुविधायें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों।

 

(9) आयों ने सिन्धुवासियों को स्वयं दस्यु या दास कहकर पुकारा है। अगर

 

सिन्धुवासी आर्य रहते तो उन्हें ऐसे कुख्यात विशेषणों से सम्बोधित नहीं किया जाता।

 

(10) और, इस सबके आलावा भारतीय मत को तब स्वीकार किया जा सकता है।

 

जबकि सिंधु घाटी की भाषा संस्कृत सिद्ध हो जाए। लेकिन यह भी संभव नहीं है।

 

 

उत्तरी ध्रुव मूल निवास स्थान

 

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के अनुसार, प्रारम्भ में आर्य लोग उत्तरी ध्रुव प्रदेश में निवास करते थे। कालान्तर में जलवायु में परिवर्तन हो जाने के कारण इन्हें अपनी मातृभूमि त्यागनी पड़ी और ये अन्य देशों में चले गये। अपने इस मत का प्रतिपादन तिलक नै मुख्यतः ऋग्वेद, महाभारत और अवेस्ता के आधार पर किया है।

 

(1) तिलक का कहना है कि ऋग्वेद के निर्माण के समय आर्य लोग सप्तसैन्धव में गये थे, परन्तु अपनी जन्म भूमि की स्मृति अभी उन्हें बनी थी। ऋग्वेद में शिशिर एवं शरद का वर्णन है, ग्रीष्म का नहीं। आगे, ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर छः महीने के लम्बे अहर्निश (दिन रात) का वर्णन है। एक स्थल पर उषा के विभिन्न रूपों और उनकी अर्चना के लिये भिन्नभिन्न प्रकार के स्तवन का जिक्र आया है, परन्तु यह भारत की क्षणिक या अल्पकालीन उषा नहीं है, वरन् यह दीर्घकालीन उषा है, जहाँ प्रभात होता ही नहीं है। 6 मास की रात्रि तथा 6 मास का दिन और दीर्घकालीन उपा उत्तरी ध्रुव प्रदेश में ही होती है।

 

(2) ऋग्वेद के अतिरिक्त महाभारत से भी यह प्रमाणित हो जाता है कि उत्तरी ध्रुव

 

प्रदेश ही आर्यों का आदि देश था। महाभारत के सुमेरु पर्वत का वर्णन मिलता है। इस

 

प्रदेश में एक वर्ष की अहोरात्रि होती थी, और यहाँ पर वनस्पतियाँ तथा औषधियाँ उत्पन्न

 

होती थीं। जिस पर्वत के क्षेत्र में एक वर्ष की अहोरात्र होती रही होगी वह निश्चित ही

 

उत्तरी ध्रुव प्रदेश में स्थित रहा होगा। हिन्दुओं का पारम्परिक स्वर्ग उत्तर का मेरू ही है।

 

(3) ईरानियों के पवित्र ग्रन्थ अवेस्ता में भी प्रमाण मिलते हैं जिससे इस बात का अनुमोदन हो जाता है कि उत्तरी ध्रुव प्रदेश ही आयों का आदि देश था। अवेस्ता में लिखा है कि ईरानियों के देवता अहुरमज्द ने सबसे पहिलेएर्य्यन बेइजोका निर्माण किया। इस प्रदेश में शीत के 10 महीने और गर्मी के 2 महीने थे।

 

आलोचना – (1) देशान्तरगमन के कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। (2) तिलक ने जिन ऋग्वैदिक वर्णनों को उत्तरी ध्रुव विषयक समझा है वे बड़े ही संदिग्ध हैं। ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से उत्तरी ध्रुव का वर्णन नहीं किया गया है। सिर्फ हिमपात के उल्लेख के आधार पर आर्यों के आदि निवास की समस्या को हल नहीं किया जा सकता। (3) यदि आर्य लोग उत्तरी ध्रुव को अपनी मातृभूमि समझते होते तो सप्त सैन्यव

 

को कदाचित देवकृत योनि के नाम से पुकारते। फिर आर्यों का ज्ञान अपने ही प्रदेश

 

तक सीमित रहा होमान लेना युक्ति संगत नहीं

 

 

 

(4) भारतीय साहित्य में कहीं पर भी उत्तरी ध्रुव प्रदेश को आर्यों का आदि देश नहीं बतलाया गया है।

 

(5) यदि वास्तव में अपनी मातृभूमि अर्थात् उत्तरी ध्रुव प्रदेश की मधुर स्मृति की याद बेचैन किये होती तो वे कहीं कहीं इसका स्पष्ट उल्लेख अवश्य किये होते। (6) उत्तरी ध्रुव जैसी रहस्यपूर्ण जलवायु आर्य जाति सी कुशल, उत्साही, कृषक एवं कल्पनाशील जाति नहीं पैदा कर सकती थी।

 

(7) अविनाशचन्द्र दास का कहना है कि सृष्टि के आरम्भ में हिम युग, अन्तः हिम युग और उत्तर हिम युग में भूपटल पर इतने महान परिवर्तन हुये हैं, तथा पृथ्वी की जलवायु, वनस्पति आदि में इतने हेरफेर हुये हैं कि जिनके कारण सृष्टि के आदि मानवों के विभिन्न जनसमूहों को अपनी जन्म भूमि बारम्बार त्याग कर अन्यत्र शरण लेनी पड़ती थी। अतः यह कहना कि कौनसा जनसमूह आरम्भ में कहाँ रहता था तथा किस जनसमूह का मूल स्थान कौनसा था, अत्यन्त कठिन एवं असम्भव सा ही

 

आर्यों के मूल स्थान अथवा उनके पूर्वजों द्वारा आबाद इलाके को कुछ विद्वान्, जैसेजे० जी० रोड, इलीगल, पाट, पिक्टेट और मेक्समूलर, मध्य एशिया मानते हैं। इन विद्वानों का कहना है कि आर्य जाति, उनकी सभ्यता तथा संस्कृति का ज्ञान हमें वेदों तथा अवेस्ता से प्राप्त होता है। इन विद्वानों और उनके समर्थकों द्वारा अपने पक्ष में जो युक्तियाँ दी गयी हैं, वे मुख्यतः इस भाँति हैं

 

(1) आयों द्वारा वर्णित भौगोलिक अवस्था, प्राकृतिक वातावरण, पशुपक्षी और वनस्पतियाँ मध्य देश में ही पायी जाती हैं।

 

(2) मध्य एशिया सभ्य जीवन का प्राचीनतम केन्द्र रहा है। यहीं आर्यों की शाखा दक्षिण पूर्व की ओर हो गयी, और आगे चलकर ईरानी तथा भारतीय आर्यों के रूप में दो उपशाखाओं में विभक्त हो गयीं।

 

(3) जेन्द अवेस्ता तथा ऋग्वेद की भाषा में काफी साम्य है (सैल्टिक – Celtic में

 

सबसे अधिक परिवर्तन हुआ है) स्पष्ट है कि ईरानियों और वैदिक आर्यों के पूर्वज एक

 

ही रहे होंगे तथा वे किसी भी ऐसे प्रदेश से आये होंगे जो इन दोनों देशों के निकटस्थ

 

रहा हो। अतः यह प्रदेश कहीं मध्य एशिया में होगा। (4) आर्य लोग कृषि करते थे और पशु पालते थे। अतएव ये एक लम्बे मैदान में रहते होंगे। ये लोग अपने वर्ष की गणना हिम से करते थे जिससे स्पष्ट है कि यह प्रदेश शीत प्रधान रहा होगा। कालान्तर में ये लोग वर्ष की गणना शरद से करने लगे। इसका तात्पर्य है कि ये लोग कालान्तर में दक्षिण की ओर चलते गये जहाँ कम सर्दी पड़ती थी, और सुहाना बसन्त सा रहता था। इन लोगों के पास नावें भी होती थीं। अतएव वहाँ पर नदियाँ तथा झीलें अवश्य रही होंगी। ये लोग घोड़े भी रखते थे जिन पर वे सवारी भी करते थे और जिन्हें रथों में जोतते थे। इन्हें पीपल के वृक्ष का भी ज्ञान था, परन्तु बरगद तथा आम के वृक्ष से ये लोग परिचित थे। ऐसी परिस्थिति मध्य एशिया में थी। अतः यह अनुमान लगाया जाता है कि आर्य मध्य एशिया के ही निवासी थे।

 

(5) विद्वानों का, विशेषकर पिक्टेट का यह भी कहना है कि बाद में यूपी, शक, कुषाण, हूण आदि जातियाँ यहीं से भारत आयी थीं। इसके अतिरिक्त मध्य एशिया से ईरान, यूरोप तथा भारत तीनों जगह जाना सम्भव तथा सरल भी है। जनसंख्या की वृद्धि, भोजन

 

क्षेत्रीय राज्यों का उदयवैदिक और महाजनपद के अभाव, प्राकृतिक परिवर्तन अथवा किसी अन्य जाति द्वारा निष्कासित कर दिये जाने के

 

फलस्वरूप इन्हें अपनी जन्म भूमि त्यागनी पड़ी होगी।

 

(6) वी० डी० महाजन का कहना है कि अवेस्ता में एक अनुभूति है कि मनुष्य की प्रथम उत्पत्ति आर्याना बीजो (Aryana Vocjo) में हुयी और वहाँ से ईरानी लोग ईरान आये। आर्याना बीजो से सम्बन्धित अधिकांश स्थान मध्य एशिया या उसके निकट स्थित है आलोचना – (1) मध्य एशिया की भूमि उपजाऊ नहीं है और वहाँ पानी का भी अभाव है। अतः आर्यों जैसी कृषि और पशुपालन प्रधान सभ्यता का वह आदि देश नहीं हो सकता। यह कहना निरर्थक है कि अनुर्वरता और जलाभाव आर्या के वहाँ से जाने के बाद भौगोलिक परिवर्तन के कारण हुयी।

 

(2) भारतीय आर्यों के वैदिक साहित्य में कहीं भी मध्य एशिया का संकेत नहीं मिलता। (3) आधुनिक मध्य एशिया के लोगों में प्राचीन आर्य सभ्यता एवं संस्कृति के कोई लक्षण परिलक्षित नहीं होते। यदि सभ्यता मध्य एशिया से ही प्रसारित हुयी थी तो मध्य एशिया में उसका कुछ तो प्रभाव अवशिष्ट होना चाहिये था। आर्यों के कोई वंशज भी मध्य एशिया में नहीं पाये जाते।

 

(4) भाषा विज्ञान बहुत कुछ अनुमान एवं कल्पना पर आश्रित है, और उसके अनेक निष्कर्ष विवादास्पद हैं। अतः उसके आधार पर यूरोपीय गोरांगों के साथ भारतीय आर्यों को जोड़ना उचित नहीं

 

(5) किसी भी हालत में मध्य एशिया सा शुष्क, अनुर्वर, ऊबड़खाबड़ और अनाकर्षक स्थान आर्यों का देश नहीं हो सकता। (6) आर्यों की घुड़सवारी के वैशिष्ट को मध्य एशिया में खोजना नादानी ही होगी।

 

(7) भोज पत्र का यहाँ पाया जाना उनके मूल निवास स्थान पर प्रकाश नहीं डालता। (8) यूची, शक और हूण आदि जातियाँ यदि वहा रहीं, और वहीं से उन्होंने देशान्तरगमन किया तो यह जरूरी नहीं कि आर्य भी वहीं रहे हों और वहीं से उन्होंने देशान्तरगमन किया हो।

 

(9) इस सबके अतिरिक्त मध्य एशिया के लोग उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं

 

करते जिसका सम्बन्ध आयों से था।

 

 

 

(4) यूरोप मूल निवास स्थान

 

भाषा तथा संस्कृति की समानता के आधार पर गाइल्स, लाथम, वेफ्री, गियरगर, कुल के स्मिथ बुडाला पेकर पोकानों आदि विद्वानों ने यूरोप को आयों का आदि देश बतलाया है। उनके तर्क इस प्रकार हैं– (1) भारत की संस्कृत और यूरोपीय भाषाओं का साम्य यह सिद्ध करता है कि

 

भारतयूरोपीय भाषाओं का एक स्रोत था; अथवा भारतयूरोपीय भाषाभाषी प्राचीन काल

 

में कभी कहीं एक स्थान पर रहे होंगे, अथवा भारतयूरोपीय भाषाभाषी एक ही जाति के

 

रहे होंगे। भारतीय आर्य तथा यूनानी, इटली, फ्रांस, जर्मनी और रूस के तथा अन्य यूरोपीय

 

जातियों के पूर्वज एक ही परिवार के थे। (2) समस्त इण्डोयूरोपीय भाषा परिवार के जितने शब्द तथा मुहावरे यूरोप की भाषाओं में पाये जाते हैं उतने एशिया की भाषाओं में नहीं पाये जाते। इससे यही अनुमान लगाया जाता है कि सम्भवतः यूरोप का ही कोई प्रदेश आर्यों का आदि देश रहा होगा, एशिया

 

 (3) समस्त इण्डोयूरोपीय भाषा परिवार में यूरोप की लिथुनियन भाषा ही अपने को मूल में तथा अपरिष्कृत रखे हैं कि संस्कृत अथवा उसकी शाखायें प्रभाषायें। अतएव यूरोप ही आदि देश हो सकता है।

 

(4) चूंकि यूरोप के आर्यों की संख्या एशिया के आर्यों से अधिक है, अतएव यह

 

सम्भव है कि आर्य लोग पश्चिम से पूर्व की ओर गये हों।

 

(5), इस प्रदेश में अभेद्य सपनवन, मरुभूमि अथवा पर्वत मालायें नहीं हैं अतएव वहाँ से पूर्व की ओर जाना सरल भी है। (6) इस सिद्धान्त के समर्थकों का यह भी कहना है कि पर्यटन प्रायः पश्चिम से पूर्व की ओर हुआ है, पूर्व से पश्चिम की ओर नहीं।

 

अव प्रश्न यह उठता है कि यूरोप का वह कौनसा प्रदेश है जो आर्यों का आदि देश माना जा सकता है। विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि यूरोप के निम्नांकित स्थान आय

 

के आदि देश हो सकते हैं

 

पिया वायू नदी का प्रदेश इण्डोयूरोपीय भाषाओं की समानता के आधार पर गाइल्स ने यह निष्कर्ष निकाला है कि इन भाषाओं के बोलने वाले बहुत दिनों तक एक निश्चित क्षेत्र में रहते रहे होंगे। इन भाषाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन आर्य गाय, बैल, घोडा, भेड़, कुत्ता, सुअर, हिरण आदि पशुओं से भलीभाँति परिचित थे, और गेहूँ तथा जो की खेती करते थे। ये सभी पशु तथा वनस्पति शीतोष्ण कटिबन्ध में पाये जाते है। गाइल्स का कहना है कि हंगरी, बोहेमिया आस्ट्रिया अथवा डेन्यूब नदी का प्रदेश ही ऐसा स्थान है जहाँ ये सब बातें पायी जाती हैं।

 

आलोचना-(1) देशान्तरगमन के कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। (2) डेन्यूब घाटी के तौरतरीके आर्य संस्कृति के सादृश्य नहीं हैं।

 

(3) पहाड़ी प्रदेश घोड़ों के लिये अनुपयुक्त था। (4) तीर की अनुपस्थिति और मातृदेवी की उपस्थिति आर्य संस्कृति के विपरीत

 

जाती है (5) यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि सहस्रों वर्ष पूर्व हंगरी की भौगोलिक तथा वानस्पतिक अवस्था वैसी ही थी जैसी आज है। (6) आयों के आदि देश के निश्चित करने की समस्या ऐसी विवादग्रस्त है कि

 

केवल भाषा विज्ञान के आधार पर उसका निश्चित करना ठीक नहीं।

 

जर्मनी प्रदेश (स्कैण्डिनेविया बाल्टिक सागर) – पेन्का के नेतृत्व में कुछ विद्वानों ने, जर्मन प्रदेश को आर्यों का आदि देश बतलाया है। इन लोगों का कहना है कि प्राचीनतम आर्यों की सर्वप्रमुख जातीय विशेषता यह थी कि उनके बाल भूरे होते थे। यह विशेषता अब भी जर्मन जाति में पायी जाती है। अतः सम्भवतः प्राचीन आर्य जर्मनी के ही निवासी थे। पेन्का की धारणा है कि भूरे बालों के अतिरिक्त जो अन्य शारीरिक विशेषतायें प्राचीन आर्यों में पायी जाती थीं वे सब विशेषतायें जर्मन प्रदेश के स्कैण्डिनेविया के निवासियों में

 

पायी जाती हैं। अतएव स्कैण्डिनेविया ही आर्यों का आदि देश रहा होगा। हर्ट ने भाषा के आधार पर स्कैण्डिनेविया को आर्यों का आदि देश बतलाया है। उसका कहना है कि इस प्रदेश के लोगों ने सदैव इण्डोयूरोपीय भाषा का प्रयोग किया है। अतएव इण्डोयूरोपीय भाषा की उत्पत्ति इसी प्रदेश में हुयी थी और यही आय का आदि देश रहा होगा। पेनका के आधुनिक समर्थकों ने पुरातत्त्वों के आधार पर पश्चिम बाल्टिक समुद्र तट को आर्यों का मूल निवास स्थान बतलाया है। इनका कहना है कि पूर्व पाषाणकाल के

 

 

उपरान्त जो काल आरम्भ होता है उस समय की प्राचीनतम वस्तुयें तथा पत्थर के बढ़िया औजार इस प्रदेश में प्राप्त हुये हैं। अतएव यही आर्यों का आदि देश रहा होगा। मध्य जर्मनी में प्राग ऐतिहासिक काल के ऐसे पात्र प्राप्त हुये हैं जिनके ज्यामितिक रेखाचित्र इण्डोयूरोपीय प्रतीत होते हैं। अतएव यह अनुमान लगाया है कि जर्मनी ही आयों का आदि देश रहा होगा।

 

 

 

 

 ऋग्वैदिक आर्यो की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं कला की का वर्णन कीजिये। live an account of the political, social, economic, religious and
 

art condition of the Rigvedic Aryans. याऋग्वैदिक काल में राजनीतिक तथा सामाजिक संगठन का आधार पैतृक परिवार था। इस कथन की विवेचना कीजिये।

 

 

 

 

उत्तर

 

ऋग्वैदिक सभ्यता

 

(ऋग्वैदिक सभ्यता)

 

ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक काल से आशय उस समय से है जबकि आर्य पंजाब तथा गंगा घाटी के उत्तर भाग में फैले हुये थे। ऋग्वेद आयों का प्राचीनतम साहित्य है और उससे उनकी सभ्यता के बारे में जानकारी मिलती है। ऋग्वेद उस समय के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है। यद्यपि इसमें निरन्तरता टूट गयी है, परन्तु प्रकाश, चाहे अप्रत्यक्ष ही क्यों हो, तो इससे पड़ता ही है।

 

राजनीतिक दशा

 

राज्य का स्वरूप– (1) राजतन्त्रवैदिक काल में राजतन्त्र राज्य का मुख्य स्वरूप था। ऋग्वेद में वर्णित कई कबीले राजा के अधीन थे। ऋग्वेद में राजा के लियेराजनशब्द का उपयोग हुआ है। ऐसा लगता है कि राजा का पद पैतृक हो गया था और इसमें ज्येष्ठाधिकार का सिद्धान्त लागू होता था

 

(2) कबीली प्रजातन्त्ररामशरण शर्मा ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि ऋग्वैदिक काल में कबीली प्रजातन्त्र था। गणतन्त्र के लिये तकनीकी शब्दगणका प्रयोग ऋग्वेद में 46 बार हुआ है। एक जगह गण के प्रधान कोगणपतिया ज्येष्ठ कहा गया है। एक स्थान परराजनभी लगता है, गणपति के बाद में राजा का स्थान ले लिया हो। गणपति का चुनाव गण के सदस्यों द्वारा होता थाइसके बारे में कोई सन्दर्भ नहीं है। गण का आर्थिक आधार कृषि और पशुपालन था। गण में नाचगाना होता था, ऐसी जानकारी भी नहीं मिलती, ऋग्वैदिक काल के अन्त में कबीलीगण अलग प्रकार के होने लगे थे। ऋग्वेद की एक सूक्ति से पता चलता है कि 5 गणों के संघ ने राजा सुदास पर आक्रम

 

 

 

किया था। इससे अनुमान लगाया जाता है कि इस काल में सहयोगात्मक अथवा संघात्मक

 

संगठन भी होगा।

 

(3) राजत्वराजत्व के उद्गम और प्रकृति के बारे में विभिन्न मत हैं। शुरू में, समाज के पितृसत्तात्मक वातावरण ने राजत्व को जन्म दिया। एच० जिमर और ए० एस० अल्तेकर का ऐसा ही मत है। ऋग्वैदिक काल में कुटुम्ब का मुखिया, ‘कुलपतिबड़ा महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता था उसका हुक्म सब मानते थे। कई कुल या कुटुम्ब को मिलाकर ग्राम बनता या जिसका प्रधान ग्रामीण कहलाता था। कई ग्राम मिलकरविशहुये और विश का मुखियाविशपति कई विश सेजनबना और उसका मुखिया जनपति कहलाया। विशपति या

 

 

जनपति अपने विश और जन के लोगों पर विचारणीय अधिकार रखते थे। फिर आने वाले समय में वे राजा हो गये। राजा का पद सर्वोपरि होता था। वह भव्य वस्त्र पहनता था और भव्य प्रासाद में निवास करता था।राजनकी उपाधि धारण करता था राजा की गतिविधियों (Movements) कौं तुलना देवताओं से की जाती थी। दानस्तुतियों से हमें पता चलता है कि राजा के दाम

 

भी होते थे।

 

राजा का मुख्य कार्य प्रजा की रक्षा करना था। वह बड़ा नाजुक समय था। आयों और दासों या कि आयों में ही आपस में युद्ध चला करते थे। छोटे कबीले अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करते थे। राजा को युद्ध में सेना संचालन करना होता था। आर्य अब घुमक्कड़ जीवन छोड़कर कृषि करना एवं पशुपालन करना चाहते थे और उसके लिये राजा

 

की ओर से संरक्षण आवश्यक था।

 

प्रशासनऋग्वेद में वरुण और अन्य देवताओं के जासूसों का जिक्र आया है। इससे शायद राजा के द्वारा फौजदारी न्याय के सन्दर्भ में उसके एजेण्टों पर प्रतिबिम्ब पड़ता है। ऋग्वेद मेंमध्यमशीऔरजीवगृब‘ – इन दो उपाधियों का जिक्र भी हुआ है। कुछ विद्वानों ने इनका तात्पर्य क्रमशः न्याय और पुलिस अफसरों से लिया है। परन्तु यह मत सर्वसम्मति से स्वीकार नहीं किया गया है। मध्यमशी शायद मध्यस्थ होता था।

 

ऋग्वेद में वित्तीय प्रशासन की शुरुआत की जानकारी भी मिलती है। ऐसा पता चलता है कि प्रजा सेबलि‘ (कर) वसूल किया जाता था। पराजितों से भीबलिवसूल किया जाता था। राजस्व प्राप्ति के लिये राजा ने कुछ एजेण्ट्स नियुक्त किये होंगे। सैनिक प्रशासन के सन्दर्भ मेंसेनापतिऔरपुरपतिका जिक्र आया है। ग्रामिणी पहले तो सैन्य दल या टोलीअगुआ हुआ करता था, परन्तु बाद में गाँव का मुखिया हो

 

गया था।

 

राजा के रिटेनरस (Retainers) के लियेइभायाइभ्यका प्रयोग हुआ है। राजा

 

के जो आश्रित होते थे वे उपस्तिस या स्तिस कहलाते थे। प्रशासनिक पदाधिकारियों में

 

सेनानी, पुरोहित तथा ग्रामीण के अतिरिक्त सूत, रथकार तथा कर्मार भी होते थे जिन्हें रली

 

कहा जाता था और जिनका स्थान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। पुस, स्पश और दूत अन्य

 

पदाधिकारी थे।

 

लोकप्रिय वैदिक साहित्य में (i) ‘विदर्थ‘ (ii) ‘सभा‘ (iii) ‘समितिका

 

जिक्र हुआ है। (1) विदयआर० शेठ के अनुसर विदय ऐडिक, धार्मिक एवं सैन्य कार्यों से सम्बन्धित असेम्बली थी। इस संस्था में बुजुर्ग व्यक्तियों को विशेष सम्मान प्राप्त था। इसका कोई नेता अवश्य हुआ करता होगा। पुरोहित तथा अन्य पदाधिकारी भी थे जिनके निर्वाचन का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है।विदथशब्द संस्कृत कीविदधातु से बना प्रतीत होता है। सो लगता है, विदथ में विद्वानों को ही सम्मिलित किया जाता था। इसमें औरतें भी सदस्य होती थीं। यशा केविदथमें जाने का जिक्र आया है। मुख्य रूप सेविदथकबीले के लिये कानून बनाती थी। शायद एक युद्धमुखिया के नेतृत्व में यह सैन्य कार्य भी करती थी।

 

(ii) सभाए० हिलब्रन्ड्ट के अनुसारसभाऔरसमितिदोनों ही एक थीं परन्तु अथर्ववेद मेंसभाऔरसमितिको स्पष्ट रूप से प्रजाति की दो पुत्रियों कहा गया है। एक जिपर के अनुसार वह कोई गाँव की कौसिल थी और प्रामिणी इनकी अध्यक्षता करता था। परन्तु शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि इसमें गणमान्य आते थे, इसलिय यह गाँव

 

 

की कौंसिल नहीं हो सकती थी। एम० ब्लूमफिल्ड के अनुसार, यह असेम्बली थी ही नहीं,

 

इसका प्रयोग सिर्फ घरेलू प्रयोजन से होता था। ए० लुडविग के अनुसार इसमें केवल ब्राह्मण

 

क्षेत्रीय राज्यों का उदयवैदिक और महाजनपद

 

और मेघवान (धनी) होते थे, सभी लोग नहीं। ए० मैकडोनेल तथा ए० बी० कीथ के अनुसार, सभा महज एक हॉल थी जिसमें जुए के अलावा कई प्रकार के जन कार्यों का सम्पादन होता था। इसमें औरतें नहीं होती थी। के० पी० जायसवाल के अनुसार, यह समिति के तहत एक अचल संस्था थी। (iii) समितिकुछ ने समिति की तुलना यूरोप की आरम्भिक लोकसभाओं से की हे। एच० जिमर, के० पी० जायसवाल और यू० एन० घोपाल के अनुसार, समिति एक

 

राष्ट्रीय असेम्बली थी। ए० एस० अल्नेकर के अनुसार गाँव की लोकप्रिय असेम्बली सभा

 

कहलाती थी और राजधानी की केन्द्रीय असेम्बली होती थी जिसे समिति कहा जाता था। युद्ध व्यवस्थाऋग्वेद काल में राजनीतिक व्यवस्था में युद्ध का महत्त्वपूर्ण स्थान था आर्य लोग आदिवासियों से ही लड़ते थे, अपितु परस्पर युद्ध भी करते थे। उस समय कोई स्थायी या निश्चित सेना नहीं थी। आवश्यकता पड़ने पर जनसाधारण से ही सेना तैयार कर ली जाती थी। सेना तीन प्रकार की होती थी— (i) पैदल सेना, (ii) घुड़सवार सेना, तथा (iii) रथी सेना। तब युद्ध में हाथी नहीं प्रयुक्त होते थे। सैनिक अपनी रक्षा हेतु कवच, धातु निर्मित शिरस्त्राण तथा ढाल का प्रयोग करते थे। इनके अस्त्रशस्त्रों में धनुष, बाण, तलवार, भाला, बर्धी (Charpoons) तथा गोफन मुख्य थे। बाण दो प्रकार के होते थे। एक प्रकार के बाण विषाक्त होते थे जिनका अग्र भाग सींग का बना होता था। दूसरे प्रकार के बाण ताँबे अथवा लोहे के मुख वाले (आपोमुखम) होते थे।

 

आर्य लोग युद्ध में पताकाओं का भी प्रयोग करते थे। युद्धों में बाजे भी बजाये जाते थे जिनमें ढोल, तुरुही तथा दुंदुभियाँ प्रमुख थे। युद्ध के लिये चलते समय आर्य लोग अपने देवताओं की उपासना करते थे। युद्ध में वृद्धों तथा स्त्रीबच्चों को नहीं मारा जाता था। शरण में आये हुये शत्रु को भी नहीं मारा जाता था। वे लोग शत्रु को धोखे से कभी नहीं मारते थे। निःशस्त्र, घायल एवं मूच्छित शत्रु को भी नहीं मारा जाता था। युद्ध प्रायः नदी तट पर लड़े जाते थे।

 

न्याय व्यवस्थाउस युग में प्रचलित न्याय व्यवस्था के बारे में हमें पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती। परन्तु ऐसा पता चलता है कि राजा सर्वोच्च न्यायाधिकारी होता था। ऋग्वेद से दण्डनीय अपराधों का उल्लेख मिलता है, जिनमें मुख्य हैचोरी, डकैती, ऋण चुकाना आदि। अपराधों के लिये राज्य की ओर से क्या दण्ड दिया जाता था इस सम्बन्ध में भी थोड़े बहुत उदाहरण मिलते हैं। मृत्यु दण्ड की सजा प्रचलित थी, परन्तु बहुत कम अवसरों पर वह सजा दी जाती थी। विद्वानों के अनुसार, मारे गये लोगों के सम्बन्धियों को धन देकर समझौता किया जा सकता था, अर्थात् प्राणघात के लिये द्रव्य देने की प्रथा थी। गेल्डनर और लुडविग का मत है कि अपराधियों की अग्नि परीक्षा अथवा सन्तप्त परथुपरीक्षा ली जाती थी। ऋण अदा करने वाले लोगों को दास बनाने की प्रथा भी प्रचलित थी। दण्ड के रूप में जुर्माना लेने की प्रथा भी थी गाँवों में अपराधों के मामलों को निपटाने हेतु पंच मध्यस्थ बनकर फैसला करते थे। अपराधों का पता लगाने के लिये जीवधन, उप (पुलिस) होते थे। राजा अदण्ड्य होता था

 

सामाजिक दशा

 

(1) कौटुम्बिक जीवन कौटुम्बिक जीवन का आधार पितृसत्तात्मक था। ऋग्वेद कई ऐसे सन्दर्भ आये हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि पिता का बच्चों पूरा नियन्त्रण होता था। पिता पुत्र को बेच भी सकता था राजा हरिश्चन्द्र ने सुन क्षेप

 

 

 

से प्राप्त किया था। एक यह भी कहा है कि सृजराजस्य को उसके पिता ने कर दिया था क्योंकि उसने 100 भेड़ियों को एक भेड़ से खिलवा दिया था। जुआरी को पिता और भाई साहूकार को दे देते थे। एक विशेषता यह थी कि आतिथ्य सत्कार पर जोर दिया जाता था। आतिथ्य सत्कार भी पक्ष महात्रों में से एक था।

 

(2) विवाहकौटुम्बिक जीवन का आधार विवाद था। ब्रह्म विवाह का विशेष प्रचलन था। वैसे गान्धर्व, राक्षस, क्षात्र और आसुर विवाह के संकेत मिलते हैं। बाल विवाह अज्ञात X 18.8 से ऐसा आभास होता है कि विधवा मृतक पति के भाई के साथ शादी कर लेती थी। साधारणतया एक पत्नी रखने की प्रथा थी। परन्तु, पुरुष एक से अधिक विवाह भी कर लेता था, क्योंकि सोतिया डाह का उल्लेख मिलता है। उपपत्नी का उल्लेख भी हुआ है। नियोग होता था। वेश्या प्रथा प्रचलन के कुछ संकेत मिलते हैं। भाईबहन में शायद आपस में यौन सम्बन्ध होते थे। सन्दर्भ, यमयमी अन्तर्जातीय विवाह (अनुलोम) तथा प्रतिलोम) के भी उदाहरण मिलते हैं।

 

(3) स्त्री दशा स्त्री दशा अच्छी थी। उनका भी उपनयन होता था। लोपमुद्रा, घोषा, विश्वारा, सिकतानिवावरी आदि विदुषियों थीं औरतें यज्ञ भी करती थीं। विवाह के समय उन्हें प्राप्त सम्पत्ति (वस्तु) पर उनका अधिकार होता था। यही नहीं, विदथ जैसी परिषद् की वे सदस्या भी होती थीं। पतिव्रता नारी को सम्मान मिलता था और कुलटा की निन्दा की जाती थी।

 

(4) दास प्रथाऋग्वैदिक युग में दास प्रथा विद्यमान थी। सम्भवतः उन लोगों को जिन पर ऋग्वेद ने आधिपत्य स्थापित किया था दास और दासी बनाकर रखा जाता था। (5) शिक्षालड़के और लड़कों की शिक्षा उपनयन संस्कार से चालू होती थी। वेदाध्ययन के लिये बच्चों को विशेष गुरुओं के पास जाना होता था। शिक्षा मुखाम दी जाती थी। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य चरित्र विकास होता था। लेखन कला का प्रादुर्भाव हुआ था या नहींठीक से नहीं कहा जा सकता

 

(6) आमोदप्रमोदआमोदप्रमोद में रथ दौड़ प्रमुख थी। इसके अलावा जुआ, शिकार, शतरंज, नाच, गाना आदि अन्य आमोदप्रमोद के साधन थे। ढोल, दुंदुभी, करकरी, वीणा, सारंगी, बांसुरी आदि उस समय के प्रमुख वाद्य थे। संगीत आनन्दमय होता था ऋग्वेद मेंसमनशब्द आया है। समन शायद वह संस्था थी जो आमोदप्रमोद की व्यवस्था करती थी। जलक्रीड़ा में भी आर्यों की रुचि थी।

 

(7) खानपानभोजन में गेहूँ और जौ की बनी रोटी तथा दूध और उससे बनी वस्तुयें मुख्य थीं। चावल, धान, मूँग, फल, सब्जी, मक्खन, घी, दूध, दही आदि का भी प्रचलन था। व्यंजनों में हलवा, मालपुए (?) का भी स्थान था। कुछ के अनुसार यह कहना कठिन है कि आटे का प्रयोग किस प्रकार होता था। अमिष भोजन भी व्यवहार में आता था। साधारणतः बैलों, भेड़ों तथा अजा का माँस भक्षण किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि घोड़ों का माँस अश्वमेध यज्ञ के समय खाया जाता था। अभी तक कई विद्वानों द्वारा माना जाता रहा है कि गाय अवध्य थी और उसका आदर किया जाता था। परन्तु, गौमाँस भक्षण का उल्लेख ऋग्वेद में आया है। ऐसा प्रतीत होता है कि केवल यज्ञ में ही गाय की बलि दी जाती थी और वह भी बन्ध्या गायों की।

 

() वस्त्राभूषणपोषाक में वास या परिधान (चादर या शाल की भाँति कमर के नीचे ओड़े जाने वाला वस्त्र, अधिवास (कमर के ऊपर ओड़े जाने वाला वस्त्र), नीवी (कंचुकी,

 

 

कटि में प्रदेश पहनने के लिये), अटक, द्वापी का वर्णन भी आया है। पगड़ी भी पहनी जाती थी। इस युग के वस्त्र सूत ऊन और मृग चर्म के होते थे। रस काटने और सीने की कला ज्ञात थी। पूर्वो आदि विशेष अवसरों पर नये वस्त्र पहनने का रिवाज था। धनी लोग रंगबिरंगे और सोने का काम किये हुये वस्त्र पहनते थे। गहनों में शकुन्याची खादी, निष्क, मणि, रुक्म आदि का प्रचलन था। स्वर्णभूषणों तथा पुष्पाहारों का प्रयोग विशेष उत्सवों पर अधिक होता था। स्त्रियों को वेणियों का शौक था। विवाह के समय एक

 

विशेष वस्त्र धारण करती थी जिसे वय कहते थे। () बाल संवारना वालों में तेल डाला जाता था और चोटी ती थी। आदमी या तो कधी करते थे या चोटी करते थे या कुंडली के आकार में रखते थे। कुछ लोग उस्तरे से दाढ़ी भी बनाते थे, किन्तु मूंछ रखने का आम रिवाज था।

 

(10) मकानऋग्वैदिक काल के आयों के मकान में ईंटों का प्रयोग अज्ञात था मकान लकड़ी, मिट्टी और फूस के बने होते थे। किन्तु वे बड़े स्वच्छ, खुले और हवादार थे। आर्य अपने घर प्रायः फलफूलों से घिरी ऊँची भूमि पर और नदियों के निकट और खेतों के आसपास बनाते थे। साथ ही वे प्रत्येक घर के पास इतनी भूमि छोड़ देते थे। जिससे एक परिवार के लिये पर्याप्त अन्न, चारे की व्यवस्था हो सके। प्रत्येक घर में अग्निशाला की व्यवस्था रहती थी: प्रत्येक घर में एक बैठक और स्त्रियों के लिये अलग कक्ष होता था। घरों में हविर्धान (भण्डारगृह), आवसथ (अतिथिशाला) होते थे।

 

(11) औषधि ज्ञान वैद्यों को आदर दिया जाता था। अश्विनी कई बीमारियाँ ठीक कर देते थे। X : 97 की ऋचा औषधियों का जिक्र करती है। रोगों में यक्ष्मा का प्रायः उल्लेख मिलता है। घोषा के कुष्ठ रोग निवारण का जिक्र हुआ है। शल्य चिकित्सा का ज्ञान था। एक राजा की पत्नी विश्पला की जाँघ टूट जाने पर अश्विनी कुमारों ने उसके नकली जांघ जोड़ दी थी। बीमारियों से छुटकारा पाने के लिये टूटोने का सहारा भी जादूलिया जाता था। दीर्घायु बनाने के लिये प्रार्थना का आश्रय भी लिया जाता था

 

(12) गणित एवं विज्ञानऋग्वैदिक आर्य गणित विज्ञान से भी परिचित थे ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 149 वें मन्त्र से प्रकट होता है कि आर्य लोग इस तथ्य से परिचित थे कि पृथ्वी सूर्य के आकर्षण से बँधी है। अर्थात् गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त उन्हें ज्ञात था उनको नक्षत्रों का भी ज्ञान था। ऋग्वेद में 60 हजार तक की संख्या का उल्लेख है। शून्य का प्रयोग भी आर्यों को विदिन था। ऊर्जा और पुंज और सेंटर सिद्धान्त से आर्य वाकिफ थे अन्तरिक्ष विज्ञान भी उन्हें आता था। पर्यावरण का भी उन्हें ज्ञान था

 

(13) कलाकौशलऋग्वेद से काव्य कला तथा आर्यों के मकानों से उनकी वास्तुकला जो कि सादी परन्तु उपयोगी थी, का पता चलता है। पत्थर के किलों के वर्णन से दुर्ग निर्माण कला का पता चलता है। ऋग्वेद में यत्रवेदियों हवन कुंडों, यहशालाओं, पाषाण प्रासादों, सहस्य स्तम्भों और हार वाले भवनों आदि का उल्लेख है। इन्द्र का मूर्ति का भी उल्लेख है। पर मूर्तिपूजा के बारे में मतभेद है। लेखन कला के बारे में भी मतभेद है। संगीत, नृत्यकला का जिक्र किया ही जा चुका है। रंगमंच भी रहे होंगे। लोगों को बताई बुनाई, रंगादि की कलायें भी आती थीं। आर्य लोग युद्ध के लिये सुन्दर रथों का निर्माण कर लेते थे। उन्हें लोहे का ज्ञान हो गया था तथा वे अन्य धातुओं के अतिरिक्त लोहे के हथियार अन्य उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते थे।

 

(14) नैतिकताआर्यों में नैतिकता की श्रेष्ठ भावना थी। उन्होंने उन व्यक्तियों की निन्दा और भर्त्सना भी की जो सम्पन्न होते हुये भी कठोर हृदय के थे और उनकी प्रशंसा

 

की है जो निर्धनों और निसहायों की सहायता करते थे। उन्होंने चोरी डाकुओं और दुष्टों के नाश के लिये प्रार्थना की। उन्होंने अतिथि सत्कार को एक पवित्र कर्तव्य बतलाया। उन्होंने जीवन को स्वस्थ, मौज और मस्ती का तथा नैतिकतापूर्ण माना

 

(15) अन्य सामाजिक प्रथायें ऋग्वेद से उस समय की अन्त्येष्टि क्रिया के बारे में भी पता चलता है। जलाने की प्रथा आम थी। गाड़ना भी प्रचलन में था। सती प्रथा के पक्ष में प्रत्यक्ष उदाहरण नहीं मिलते। हाँ, प्रग्वेद की ऋचा 10, 18, 7 में यह अवश्य बताया गया है कि विधवाओं को विधवा रहकर जीवन बिताने का अधिकार था। आर्थिक दशा

 

(1) खेती खेती लोगों का मुख्य व्यवसाय था। हर गृहस्थ उपजाऊ जमीन के मालिक होने की चाह रखता था। हल जोतने के लिये बैलों का उपयोग होता था। खेतों में बीज डालने, दात्र से अन्न काटने, जमीन पर अन्न एकत्रित करने, उसे कूटने, चलना देने आदि के भी सन्दर्भ ऋग्वेद में आये हैं। कृत्रिम नहरों (कुल्या या खनित्रिमा अपह) का वर्णन भी आया है। सिंचाई कुओं से भी होती थी। व्यवधान खेती होती थी। मुद्ग (मूंग), माप (उड़द और गेहूं मुख्य खाद्यान्न थे।

 

(2) पशु पालनआर्य मूलतः कृषक थे और वे बैल, गाय, घोड़ा, बकरी तथा ऊँट

 

आदि पालते थे। उनकी सम्पत्ति इससे आँकी जाती थी कि उनके पास कितने पशु हैं। बैलों से खेती होती थी, गाय से दूध मिलता था, घोड़े लड़ने के काम आते थे। जानवरों का उपयोग आवागमन के साधनों के रूप में भी होता था। (3) अन्य उद्योगधन्धेबदलते समय के साथ समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ऋग्वैदिक आर्यों ने श्रम विभाजन के सिद्धान्त को अपना लिया। धन्धों के अनुसार 4 वर्ग हो गये। ब्राह्मण लोग यज्ञ करने और शिक्षा देने का कार्य करने लगे, क्षत्रिय लड़ाई का काम करने लगे, वैश्य खेती, पशुपालन और दूसरी कलाओं से सम्बन्ध रखने लगे। शूद्र निम्न प्रकार का कार्य करने लगे। इसके अलावा जिन लोगों ने बुनाई का पेशा अपनाया वे बुनकर कहलाने लगे। जो लोग रथ, वेगन (अनस) तथा बोट (नाव) आदि बनाते थे वे बढ़ई

 

कहलाने लगे। कर्मकार युद्ध और खेती में काम आने वाले औजार बनाने लगे। इसके

 

अलावा सोने का काम करने वाले हिरण्यकार कहलाने लगे। कुम्हार, नाई (वपत्री), वैद्य आदि

 

के भी अपने वर्ग हो गये। (4) व्यापार एवं वाणिज्यकृषि और उद्योग के आधिक्य या अतिरेक माल ने आन्तरिक और बाह्य व्यापार को प्रोत्साहित किया। पणी लोगों ने व्यापारी वर्ग बनाया। वे जरूरतमन्द लोगों को अधिक व्याज दर पर कर्ज देते थे। बाजार में मोल भाव होता था। व्यापार समुद्री मार्ग से होता था या नहीं, इस बारे में विवाद है। धार्मिक दशा

 

(1) प्राकृतिवाद और मानवीकरण आर्य लोग प्रकृति के अजूबों से काफी प्रभावित थे। उन्हें उसमें कुछ पराशक्ति नजर आयी। सो वे प्राकृतिक चीजों से मानव रूप में पूजने लगे उन्हें अमर मानने लगे।

 

(2) बहुदेववाद और एकैकाधिवादऋग्वैदिक धर्म बहुदेववादी था क्योंकि ऋग्वेद में कई देवों का वर्णन आया है।देवका मतलब देने वाला। सूरज, चाँद देव हैं क्योंकि ये सभी को प्रकाश देते हैं। पान्तु विशिष्ट धार्मिक विचार के सन्दर्भ में बहुदेववादी सिद्धान्त शंकास्पद है। अनेक देवों में प्रत्येक की जब स्तुति की जाती है तो उसे सर्वोपरि माना जाता है, विश्व सृष्टा माना जाता है।

 

(3) एकेश्वरवादयदि प्रकृति के विभिन्न प्रतिभासों ने अनेक देवियों की मांग की तो प्रकृति को एकता ने एक ईश्वर को माँग को, जिसमें सभी चीजें सम्मिलित थी लोग एक सच्चाई के बारे में सोचने लगे। देवों की बहुतायत प्रश्नवाचक हो गयी। विश्व एक ही देव का सृजन माना जाने लगा और इसने अना में जाकर एकेश्वरवाद को जन्म दिया। (4) कोई मूर्ति पूजा नहीं ऋग्वैदिक धर्म मूर्ति पूजा वाला धर्म नहीं था। कोई मन्दिर, कोई मूर्ति नहीं मिली है। अलबत्ता इन्द्र की मूर्ति का उल्लेख है, परन्तु कुषाण युग से पहले को कोई भी मूर्ति अभी तक प्राप्त नहीं हुयी है। बिना किसी मध्यस्थ के आदमी ईश्वर से

 

सीधा सम्पर्क करता था। देवता और मनुष्य में व्यक्तिगत सम्बन्ध था (5) देवों का वर्गीकरणआयों के 33 देवता थे जिन्हें तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है— (i) आकाशस्थ, (ii) पार्थिव, और (ii) स्वर्गस्थ प्रथम श्रेणी के देवताओं में इन्द्र, रुद्र तथा मारुत का महत्वपूर्ण स्थान था। दूसरी श्रेणी के देवताओं में अग्नि तथा सोम मुख्य थे। तृतीय श्रेणी में दयूस, वरुण, अदिति, अश्विन तथा उपा आदि सम्मिलित थे। इसके अतिरिक्त धातु, विश्वकर्मा, रिभुस, अप्सरा, गन्धर्वस आदि छोटेछोटे देवताओं का भी जिक्र हुआ है।

 

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस युग में आर्यपापके प्रति सजग एवं आशावादी थे। पुनर्जन्म में इनका विश्वास नहीं था। फिर भी आर्यों को यह विश्वास था कि मृत्यु के बाद जीवन का अन्त नहीं होता। मनुष्य में एक ऐसा तत्त्व है जो मरणोपरान्त भी विद्यमान रहता है। इस लोक को छोड़कर मनुष्य रामलोक या पितृलोक में जाता है। इस यात्रा और इन लोगों का सजीव चित्र ऋग्वेद से मिलता है। मुक्ति की चिन्ता आयों में नहीं दीख दिर पड़ती। ऋग्वेद में टोटम या पशु पूजा का उल्लेख नहीं मिलता। साधारण जनता में जादूटोना का प्रचलन रहा होगा।

 

 
प्रश्न छठी शताब्दी ईसा पूर्व में उत्तरी भारत की राजनीतिक दशा पर प्रकाश डालिये। Throw light on the political condition of Northern India during Sixth Century B.C.
 

 

 

उत्तर

 

उत्तरी भारत के षोडश महाजनपद (Sixteen Mahajanpadas of Northern India)

 

बुद्ध के उदय के पूर्व प्रमुख महाजनपद 16 थे जिनकी जानकारी हमें बौद्ध साहित्य

 

से मिलती है, जो निम्नानुसार है– (1) अंगअंग राज्य बिहार के उत्तर पूर्वी भाग में स्थित था। उसकी राजधानी आधुनिक भागलपुर के पास चम्पा थी। वह व्यापार वाणिज्य का केन्द्र थी। प्रारम्भ में इस जनपद के राजाओं ने बह्मदत्त के सहयोग से मगध के कुछ राजाओं को पराजित भी किया था किन्तु कालान्तर में इनकी शक्ति क्षीण हो गयी और इन्हें मगध से पराजित होना पड़ा।

 

(2) मगधआधुनिक पटना तथा गया जिला इसमें सम्मिलित थे। बुद्ध के पूर्व बृहद्रथ तथा जरासन्ध यहाँ के प्रसिद्ध राजा हुये। बुद्ध के समय में बिम्बिसार मगध में शासन कर रहा था। वह बड़ा वीर, साहसी तथा महत्त्वाकांक्षी था। उसके शासनकाल में मगध के गौरव तथा साम्राज्य में वृद्धि होने लगी। उसने कई पड़ौसी राज्यों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जिससे मगध की प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि हो गयी। बिम्बिसार ने अंग पर विजय प्राप्त कर उसे अपने राज्य में मिला लिया। उसने जैन तथा बौद्ध दोनों ही धर्मों को प्रोत्साद दिया था और दोनों ही उसे अपना अनुयायी मानते थे। बिम्बिसार के अन्तिम दिन दुःख के बीते उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे बन्दीगृह में डाल दिया और वहीं उसकी

 

 भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक) हो गयी या करवा दी गयी। एतदर्श, मध्य युग की ऐसी परम्परा का बीजारोपण यहाँ देखा जा सकता है।

 

अजातशत्रु मगध के सिहासन पर बैठा। वह अपने पिता से भी अधिक महत्त्वाकांक्षी तथा साम्राज्यवादी था। उसने बज्जि तथा मल्ल के संघराज्यों (Federated States) पर आक्रमण कर उन्हें परास्त किया और अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया। अपने पिता की भाँति अजातशत्रु की भी नीति बड़ी उदार थी। पहले वह जैन धर्म का अनुयायी था, परन्तु बाद में बौद्ध धर्म का हो गया। अजातशत्रु के पुत्र उदायी ने पड्यन्त्र रचकर अपने पिता की जीवन लीला समाप्त कर दी अर्थात् भारत में पितृ हत्या का सिलसिला इस समय से शुरू हो गया था। अजातशत्रु के उत्तराधिकारियों ने अपनी निर्बलता की वजह

 

से शिशुनागों और नन्दों को स्थान दिया और नन्दों को समाप्त कर मौर्य स्थापित हुये। (3) काशीइस महाजनपद की राजधानी वाराणसी थी जो अपने ज्ञान, व्यापार तथा शिल्प के लिये प्रसिद्ध थी। जैनियों के 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पिता अश्वसेन किसी समय यहाँ राज्य कर चुके थे। इस राज्य की कौशल, अंग तथा मगध के साथ समयसमय पर स्पर्द्धा चलती रहती थी। छठी ई० पू० के आरम्भ में कौशल नरेश ने काशी को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था।

 

(4) कौशलइस जनपद में आधुनिक अवध का प्रदेश सम्मिलित था। उसके उत्तरी भाग की राजधानी सावत्थी (श्रावस्ती) थी जिसके खण्डहर आज भी गोंडा जिले के सहेतमहेत गाँव में पाये जाते हैं। इसके दक्षिण भाग की राजधानी कुशावती थी। अयोध्या और साकेत कौशल के महत्त्वपूर्ण नगर थे। इस काल के प्रारम्भ में कौशल के राजा कंस ने काशी को भी जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। कंस के बाद उसका पुत्र महाकौशल गद्दी पर बैठा। उसने अपनी पुत्री महाकोशला का विवाह मगध के राजा बिम्बिसार के साथ कर दिया था। महाकौशल का पुत्र प्रसेनजीत अपने समय का शक्तिशाली शासक था।

 

(5) वज्जि संघ यह 8 और 9 जनपदों का संघ था। इनमें वज्जि, विदेह, ज्ञात्रिक और लिच्छवि सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण थे। वैशाली (आधुनिक मुजफ्फरपुर जिले में बसाढ़) लिच्छवि जनपद तथा पूरे वज्जि संघ की राजधानी थी। वैशाली सुन्दर और समृद्ध नगरी थी। विदेह (आधुनिक तिरहुत) किसी समय शक्तिशाली राजतन्त्रीय जनपद था।

 

यद्यपि यह संघ बहुत शक्तिशाली था, किन्तु पड़ौसियों की ईर्ष्या के कारण उसका शीघ्र ही नाश हो गया। कोशल के प्रसेनजीत और मल्लों के साथ तो वज्जि संघ के सम्बन्ध अच्छे थे, किन्तु मगध के साथ लिच्छवियों की गहरी प्रतिस्पर्द्धा थी।

 

(6) मल्लमल्लों का महाजनपद वज्जि संघ के उत्तर में स्थित था। इसमें भी नौ जनपद सम्मिलित थे। बुद्ध के समय में इनमें से दो जनपद महत्त्वपूर्ण थे। एक की राजधानी कुशीनारा (आधुनिक गोरखपुर जिले में) और दूसरे की पावा आधुनिक पडरौना (महावीर भगवान की मोक्षस्थली थी। आरम्भ में मल्ल जनपद का शासन राजतन्त्रीय था, किन्तु बाद में उन्होंने भी गणतन्त्रीय व्यवस्था अपनी ली थी। बुद्ध की मृत्यु के कुछ समय बाद

 

मल्लों के राज्यों को मगध के शासकों ने जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। (7) वेदि इसमें आधुनिक बुन्देलखण्ड तथा आसपास के प्रदेश सम्मिलित थे। उसकी राजधानी शक्तिमति या सान्थिवति थी। इस काल में इस वंश की एक शाखा कलिंग में स्थापित हुवी और जिससे खारवेल सम्वन्धित रहा।

 

(8) वत्सवत्सों का राज्य चेदि राज्य के पूर्व में यमुना के किनारे स्थित था। इसकी राजधानी कौशाम्बी (इलाहाबाद से  किमी. दूर थी यहाँ का राजा उदयन बुद्ध का समकालीन था

 

 

9) कुरु कुरु महाजनपद दिल्ली के पड़ोस में स्थानी श्री तक आते ओं को मिती बुद्ध नादेश पर शासन करता था। कु पांचालों के साथ विवाह सम्बन्ध थे। जातकों में जय नाम के राजा का उल्लेख आता है और जिसे पुधिष्ठिर का राज कहा गया है। आगे चलकर कुरु देश में प्रणाली समाप्त हो गयी और गणतंत्र की स्थापना की गयी।

 

(10) पांचाल इस जनपद में अधुनिकखण्ड तथा गंगा यमुना दोआब का कुछ भाग सम्मिलित था। कोशल और अवन्ति की तरह इसके भी दो भागउत्तर पाचाल और दक्षिण पांचाल उत्तर पांचाल की राजधानी अक्षिम (बरेली जिले में स्थित आधुनिक रामनगर), और दक्षिण पांचाल के एक राजा दुम्मुख (दुर्मुख) ने दूरदूर तक विजय प्राप्त की। कहा जाता है, दक्षिण पांचाल अधिक शक्तिशाली था और कि यहाँ भी गणराज्य की स्थापना हो गयी थी।

 

(11)] मत्स्य यह राज्य यमुना के पश्चिम में कुरु महाजनपद के दक्षिण में स्थित

 

था आधुनिक जयपुर, भरतपुर, अलवर आदि इसमें सम्मिलित थे। उसकी राजधानी विराटनगर

 

(आधुनिक जयपुर से बैराट) थी। राजधानी का यह नाम उसके शासक विराट के नाम पर

 

पड़ा था। महाभारत से ज्ञात होता है कि शहाज नामक शासक ने मत्स्यों और चेदियों पर

 

समान रूप से शासन किया। इससे अन्दाज लगता है कि मत्स्य पर वेदियों का नियन्त्रण था।

 

(12) शूरसेनयह राज्य आधुनिक मथुरा के निकटवर्ती प्रदेश पर फैला हुआ था।

 

उसका विस्तार प्रायः वर्तमान वजमण्डल के बराबर था। मथुरा उसकी राजधानी श्री। पहले यहाँ गणराज्य था बाद में यहाँ राजतन्त्र स्थापित हो गया। अन्त में यह मौर्य साम्राज्य का अंग हो गया। (13) अस्मक अथवा अश्यकअश्मकों का निवास स्थान गोदावरी नदी के तट पर कहीं था। उसकी राजधानी पोतन अथवा पोतलि थी। इसका अवन्ति से संघर्ष चलता

 

रहता था।

 

(14) अवन्तिइसमें पश्चिम मालवा तथा मध्य प्रदेश के कुछ भाग सम्मिलित थे।

 

इसके भी (कौशल और पांचाल की तरह) दो भाग थे। उत्तर भाग की राजधानी उज्जयिनी

 

थी, जहाँ जैसा कि माना जाता है, कभी हैहयों ने राज्य किया था और जिसे अच्युतगामी

 

शिल्पी ने बनाया था। दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी। अवन्ति में बुद्ध के समय

 

में चण्ड प्रद्योत शासन करता था।

 

(15) गान्धारइस महाजनपद में आधुनिक पेशावर तथा रावलपिण्डी के जिले और कश्मीर का कुछ भाग सम्मिलित था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी। तक्षशिला व्यापार, व्यवसाय, विद्या तथा शिक्षा का केन्द्र था। दूरदूर के विद्यार्थी वहाँ पढ़ने जाते थे। छठी ई० पू० के मध्य में पुष्करसारिन गान्धार का शासक था। वह मगध नरेश बिम्बिसार का समकालीन था। उसने मगध के दरबार में एक दूत मण्डला भी भेजा था। उसने अवन्ति के प्रद्योत को भी हराया था। एच० सी० राय चौधरी के अनुसार, छठी ई० पू० के उत्तरार्द्ध पर फारस (ईरान) का अधिकार हो गया था।

 

(16) कम्बोजकम्बोज राज्य गान्धार का पड़ौसी था। इनमें कभी निकट सम्बन्ध

 

रहा होगा, क्योंकि गान्धारकम्बोज अनेक स्थलों पर साथसाथ उल्लिखित हैं। सम्भवतः

 

राजपुर उसकी राजधानी थी, द्वारका इसका प्रमुख नगर था। सिन्हा सहाय ने इसकी राजधानी

 

हाटक बतलायी है। जो भी हो, कालान्तर में यहाँ गणतन्त्र स्थापित हो गया था।

 

 

 

Giving a brief account of Republican states of the 6th century B.C, discuss their administration. प्राचीन भारत के बुजयुगीन गणतन्त्रों का वर्णन कीजिये तथा उनकी प्रशासकीय विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।

 

उत्तर

 

बुद्ध गणतन्त्र

 

(Republics of Buddhist Period) छठी ई० पू० जो अराजतान्त्रिक राज्य या गणराज्य थे, उनका वर्णन इस प्रकार है

 

(1) कपिलवस्तु के शाक्य शाक्य अपने को इक्ष्वाकु वंश का मानते थे। इसी वंश में और इसकी राजधानी कपिलवस्तु में युद्ध का जन्म हुआ था। कपिलवस्तु के खण्डहर नेपाल की तराई में तिलौराकोट में हैं। यह गणतन्त्र काफी उन्नत था। रोज डेविड्स के अनुसार, इस गण में 80,000 कुटुम्ब (लगभग 5 लाख मनुष्य) थे। शाक्यों में विद्या एवं कला के प्रति विशेष अनुराग था। कपिलवस्तु उस समय शिक्षा एवं संस्कृति का केन्द्र माना जाता था। बुद्ध ने यही विभिन्न प्रकार की कलाओं का अध्ययन किया था जिसके फलस्वरूप 500 शाक्यों को प्रतियोगिता में पराजित करके ही वे यशोधरा को ग्रहण कर पाये थे। शाक्यों को अपनी कला एवं संस्कृति पर गर्व था कि उसे स्थायित्व देना तथा उसमें किसी प्रकार का सम्मिश्रण होने देने के अभिप्राय से ही अपने इतरवर्ग वाले क्षत्रियों से वैवाहिक सम्बन्ध नहीं करना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होंने कौशल नरेश प्रसेनजीत को शाक्य कन्या देकर एक दासी से उसका विवाह कर दिया।

 

(2), अल्लकप्प के बुली– –इनका राज्य मल्लों के राज्य के पूर्व में आधुनिक आरा या शाहबाद और मुजफ्फरपुर (बिहार) में स्थित था। उनका वेथदीप (बेतिया) के राजा से निकट का सम्बन्ध था। (3) केसपुत्त के कालामइनका निश्चित स्थान बतलाना कठिन है। संकेतों से मालूम

 

होता है कि इनका सम्बन्ध पांचालों से था। शतपथ ब्राह्मण में पांचालों के साथ इनका उल्लेख है। बुद्ध के गुरु आलारकालाम इसी कुल के थे। (4) संसुमारगिरि के भागये ऐतरेय ब्राह्मण के प्राचीन वर्ग थे। के० पी० जायसवाल

 

के अनुसार, इसकी भूमि में मिर्जापुर तथा उसका समीपवर्ती भूभाग सम्मिलित था (5) रामगाम के कोलीयइनका निवास शाक्यों के पूर्व में था। दोनों गणराज्यों के बीच रोहिणी नदी थी। सिंचाई के लिये रोहिणी के जल के प्रश्न पर दोनों गणराज्यों में

 

संघर्ष हो जाया करते थे (जैसे कावेरी जल के उपयोग को लेकर आज भारत और बांग्लादेश में विवाद है) इसी पारस्परिक कलह की शान्ति के लिये ही सम्भवतः बुद्ध के पिता शुद्धोदन ने कोलियों की दो कन्याओं से ब्याह किया था। बुद्ध को भी इसी प्रकार की एक कलह

 

को शान्त करना पड़ा था जिसका उल्लेख जातक में किया गया था। (6) पावा के मल्लये वशिष्ट गोत्र के क्षत्रिय थे। ये सम्भवतः आधुनित पडरौना में बसे थे। कनिंघम ने फाजिलपुर को पावा माना है।

 

(7) कुशीनारा के मल्लयह मल्लों की दूसरी शाखा थी। आधुनिक कसिया ही कुशीनारा (गोरखपुर जिला) नाम से विख्यात था। यहीं बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ था जिसका प्रमाण कसिया में प्राप्त बुद्ध की परिनिर्वाण मुद्रा में सोई हुयी एक विशाल मूर्ति है। मज्झिमनिकाय में मल्लों के राज्य कोसंघ राज्यकहा गया है। मल्लों में भी

 

शाक्यों की भाँति शिक्षा एवं कला में विशेष रुचि थी। सुदूर तक्षशिला को मल्लों के एक

 

 

क्षेत्रीय राज्यों का उदयवैदिक और महाजनपद प्रमुख ने अपने पुत्र बन्धुल को विद्याध्ययन के लिये भेजा था। दर्शन के क्षेत्र में भी दे

 

काफी आगे बढ़े थे और इनका एक नगर उरवेलकम्प तो दार्शनिक वादविवाद के लिये

 

प्रसिद्ध था। धर्म के प्रति इनको विशेष रुचि थी। बौद्ध धर्म के उत्थान में इनकी प्रशंसनीय

 

देन है। अवरुद्ध, आनन्द, उपालि आदि के नाम एवं कार्य इस क्षेत्र में विशेष उल्लेखनीय है।

 

(8) पिप्पलिवन के मोरिय महावंश टीका से ज्ञात होता है कि मारिय पहले शाक्य थे. पर कालान्तर में विट्ठन की क्रूरता से ऊबकर स्थानान्तरण करके हिमालय के पर्वतीय भाग में चले आये जहां उन्होंने पिप्पलिवन नगर का निर्माण किया। इन्हें मोरिय की संज्ञा इसलिये दी गयी थी कि इनकी नगरी सर्वदा मोरो की आवाज से गुजरत रहती थी। मगध साम्राज्य के निर्माता चन्द्रगुप्त (मार्य) को इसी वंश का माना जाता 1

 

(9) मिथिला का विदेह मिथिला इनकी राजधानी थी। जातक से ज्ञात होता है कि यह बहुत ही प्रसिद्ध व्यापारिक नगर था और दूरदूर के व्यापारी यहाँ व्यापार करने आते थे। (10) वैशाली के लिच्छवीशुद्धोदन ने इनकी कन्या से विवाह किया था। बुद्ध के

 

भस्मावशेष के भी ये अधिकारी हुये थे। वैशाली इनकी राजधानी थी। महावस्तु महावग्ग महापरिनिर्वाण सुत्त आदि से ज्ञात होता है कि बुद्ध के काल में इन्होंने आशातीत उन्नति कर ली थी। इनके नगर अत्यधिक सुसज्जित एवं समृद्धशाली थे। नगर में चारों ओर अनेक चैत्य, विहार तथा राजप्रासाद थे। राजप्रासाद विभिन्न कुलीन सरदारों के थे। इनका शासन सुव्यवस्थित था। इस गणराज्य में मतैक्य, सौहार्द, आदर दृढ़ता आदि की भावना बलवती थी। इन गुणों के अतिरिक्त उनमें एक सर्वश्रेष्ठ गुण थाराष्ट्रीयता की भावना बुद्ध ने लिच्छवियों की सहिष्णुता की काफी प्रशंसा की है। अनेक लिच्छवी राजकुमारों ने धार्मिक क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य किये।

 

गणराज्यों की शासन पद्धति

 

 

 

(1) विधानछठी ई० पू० के या बौद्धकालीन गणराज्यों का विधान अथवा राजनीतिक संगठन लोकतान्त्रिक था। इनमें जनता द्वारा चुने हुये लोग शासन करते थे। शासन के लिये चुने हुये सदस्यों कोराजाकहते थे। राजा राज्य का स्वामी नहीं बल्कि सेवक था। राजा का क्षेत्र काफी मर्यादित हो गया था। अतः वह प्रजा पर निरंकुश शासन नहीं कर सकता था। जन के सभी लोगों की सहमति से अपने पद पर आसीन होने के कारण राजा कोमहासम्पतकहा जाता था। प्रजा का रक्षक होने के नाते उसे क्षत्रियकहा जाता था। सदस्यों से बनी हुयी संस्थापरिषद्कहलाती थी जिसके भवन को संस्थागारकहते थे जहाँ बैठकर राज्य के राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सामाजिक प्रश्नों पर विचार किया जाता था। परिषद् के सभापति अथवा गणमुख्य को भी राजा कहते थे जो एक निश्चित अवधि के लिये चुना जाता था। गण के दूसरे मुख्य अधिकारीउपराजा‘ (उपसभापति या उपगणमुख्य), ‘सेनापतिऔरभण्डागारिक‘ (कोषाध्यक्ष) थे। इसके अतिरिक्त शासन में परामर्श देने के लियेअष्टकुलमनाम की एक संस्था थी जिसमें गण के प्रमुख 8 कुलों के प्रतिनिधि भाग लेते थे। कई गणों के मिलने से संघ बनता था। मल्लों और वज्जियों के दो बड़े संघ थे। कभीकभी बाहरी आक्रमण के समय मल्लों और वज्जियों का एक सामरिक संघ भी बन जाता था। संघ के सभी सदस्यों के स्थान और अधिकार बराबर होते थे (2) शासनगणराज्यों की प्रशानिक व्यवस्था के सम्बन्ध मेंपरिषद्के निर्णय

 

महत्वपूर्ण होते हैं। गणमुख्य काउंसिल के निश्चय के अनुसार अपने अधिकारियों की सहायता से 1. कुछ अन्य गणराज्य ये थे मालव, क्षुद्रक, कठ, अष्टक, अश्वक, सौभूति, अग्रक्षेणी, क्षत्रिय, बसाति,

 

शासन चलाता था। सेना अर्थ एवं न्याय शासन के मुख्य विभाग थे। गणों की सैनिक शक्ति काफी अमल थी। प्रायः प्रत्येक सैनिक का काम जानता था। सैन्य विभाग का प्रमुख अधिकारीसेनापतिकहलाता था। सेनापति का शासन के मामलों में काफी प्रभाव होता था सैन्य संचालन के साथ ही यह एक मन्त्री के रूप में भी कार्य करता था। अपने पद को गम्भीरता के कारण वह सम्पूर्ण आमात्यों में प्रमुख कहा जा सकता है। अर्थविभाग के मुख्य कोभण्डागारिककहते थे। जो जन का कोई बड़ा समृद्धशाली व्यक्ति होता था। reat को fararमात्यकहते थे। वह केवल अभियोगों का निर्णय करता था बल्कि राजा को धार्मिक एवं कानूनी मामलों में सलाह भी देता था। इन कर्मचारियों के अतिरिक्तहिरण्यक‘, ‘सारथीआदि अन्य कर्मचारियों का उल्लेख भी जातक साहित्य में मिलता है।

 

नगर की व्यवस्था का भारनगर गुन्तिक‘ (नगररक्षक) के ऊपर था। नगर में शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिये वह उत्तरदायी होता था। उसे अपने कार्य के स्वरूप के कारणरात्रि का राजानामक संज्ञा से पुकारा जाता था। आज की भाषा में उसेपुलिसकहा जा सकता है। इसका मुख्य काम कानून व्यवस्था को बनाये रखना था। वह अपराधियों को पकड़ती थी। तत्कालीन साहित्य से पता चलता है कि वर्तमान पुलिस की भाँति उस युग की पुलिस भी कभीकभी लोगों से पैसा ऐंठती थी।

 

ग्राम शासन व्यवस्था भी सुनिश्चित, सुगठित एवं व्यवस्थित थी। सम्पूर्ण जनपद के शासन की इकाई ग्राम था। ग्राम के शासक को ग्राम भोजक कहते थे। ग्राम भोजक का पद बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। ग्राम सम्बन्धी सभी मामलों को सुलझाने का कार्य ग्राम भोजक के ऊपर था। वह ग्राम के अभियोगों का निर्णय भी करता था। मद्यपान, जुआ, पशुहिंसा जैसी दूषित प्रवृत्तियों को निषिद्ध करने का अधिकार ग्राम भोजक को प्राप्त था। मादक वस्तुओं का क्रयविक्रय ग्राम भोजक की आज्ञा या अनुमति पर ही सम्भव था, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि ग्राम भोजक अपने क्षेत्र में स्वेच्छाचारी शासक बन बैठता था। उसके कार्यों के विरुद्ध राजा के पास अपील की जा सकती थी। राजा को आवश्यकतानुसार ग्राम शासन में संशोधन करने तथा ग्राम भोजक को अपदस्थ करने का अधिकार था। कृषि और व्यापार दोनों पर काफी ध्यान दिया जाता था।

 

(3) कर आयव्ययगणराज्य का शासन चलाने के लिये सारे गण के लोगों को कर देना पड़ता था कृषि, व्यापारव्यवस्था आदि से भी कर लिये जाते थे। जुर्माना तथा राष्ट्रपति को मिलने वाली भेंट भी गणराज्य की आय मानी जाती थी। वनों, खदानों एवं अन्य कर साधनों से भी गणराज्य की आमदनी होती थी। शासन गणपति, मन्त्रिपरिषद्, सेना, पुलिस आदि पर रकम खर्च की जाती थी। (4) न्याय व्यवस्थान्याय व्यवस्था अति उत्तम थी। प्रशासनिक अभियोग न्यायालय

 

के समक्ष प्रायः नहीं आते थे। समता और स्वतन्त्रता न्याय के दो आधारभूत स्तम्भ थे। जब तक सेनापति, राजा, उपराजा सभी एक मत हों तब तक कोई अकेला अधिकारी किसी को दोषी ठहराकर दण्ड नहीं दे सकता था। अधिकारी अभियुक्त को बरी अवश्य कर सकता था। न्याय करने के लिये कई प्रकार के न्यायालय स्थापित थे। एक न्यायालय विनिश्चयमहामात्यों का था जिसमे फौजदारी और कभीकभी दीवानी के अभियोग का निर्णय होता था। दूसरा न्यायालय व्यवहारिकों का था जिसमें रुपयों का लेनदेन और दूसरे दीवानी के अभियोगों का निर्णय होता था। तीसरा सुधार और चौथा मुख्य न्यायालय अटकुलों का था। सेनापति राजा और उपराजा के क्रमशः 3 और न्यायालय थे। क्रमशः नीचे के न्यायालयों के निर्णय के विरोध में ऊपर के न्यायालयों का अपना नियमित कार्यकाल होता था। लेखक प्रत्येक अभियोग का ब्यौरा न्यायालय के निर्णय के प्रति सुरक्षित रखते थे

 

 

(5) गण परिषद की कार्यवाहीजभवन में परिषद का अधिवेशन होता था उसे धागा कहते थे। यह राज्य की व्यवस्थापिका सभा होती थी। संचागार ही राज्य की सबसे बही संस्था थी। इसी के द्वारा राजा, उपराजा, सेनापति एवं अन्य पदाधिकारियों की नियुक्ति होती थी। सभागार के सदस्यों के बैठने के स्थान को आसून कहा जाता था। आसनों की व्यवस्था करने के लिये एक पृथक कर्मचारी होता था जिसेआसन प्रज्ञापक कहते थे। परिषद्को कार्यवाही आरम्भ होने के लिये सदस्यों की कम से कम संख्या निश्चित थी जिसको गणपूर्ति (कोरम) कहते थे। जो व्यक्ति अपने दल के सदस्यों को इकट्ठा कर गणपूर्ति कराता था उसकी संज्ञागणपूरकथी। परिषद में प्रस्ताव कोप्रतिज्ञाकहते थे, इसको नियमपूर्वक रखने कोस्थापना और उसके पढ़ने कोज्ञप्तिकहा जाता था। प्रतिज्ञा के ऊँचे स्वर में घोषणा करने कोअनुवावण‘, उसके कई बार पढ़ने कोज्ञप्ति द्वितीय, ‘ज्ञप्ति तृतीयआदि कहते थे। प्रस्ताव के ऊपर बादविवाद होता था। वादविवाद हो चुकने के पश्चात मत लिया जाता था और बहुसम्मति द्वारा उसका निर्णय किया जाता था। बहुसम्मृति द्वारा निर्णय होने को यष्टिकहते थे। बौद्ध पन्थों में वोट के लियेछन्दशब्द का प्रयोग किया गया है। अनुपस्थित सदस्य लिखकर अपना मत दे सकते थे। मत प्रकट करने के लिये सदस्यों कोशलाका‘ (लकड़ी की छोटी तख्ती) दी जाती थी। शलाकाओं को इकट्ठा करने वाले कोशलाका पाहककहते थे। मत गुप्त रखे जाते थे।

 

वोट लेने के तीन ढंग थे— (i) गूढ़क, (ii) सकर्णजल्पक और (iii) विवृतक (i) गूढ़कशलाका ग्राहक जितने पक्ष हों, उतने रंग की शलाकायें बनाता था। क्रम से सदस्य उसके पास वोट देने के लिये आते थे। प्रत्येक सदस्य को शलाका ग्राहक बताता था कि इस रंग की शलाका इस पक्ष की है, उन्हें जो पक्ष अभीमत हो, उसकी शलाका उठा लो

 

(ii) सकर्णजल्पक जब वोट देने वाला सदस्य शलाकाप्राहक के कान में कहकर

 

अपने मत को प्रकट करे, तो उसेसकर्णजल्पकविधि कहा जाता था।

 

(iii) विवृतकजब वोट खुले से लिये जायें तो विवृतक विधि कहलाती थी। जो सदस्य परिषद् के अधिवेशन में किसी कारण उपस्थित हो सकें, उनकी सम्मति लिखित रूप से मँगा ली जाती थी। प्रतिज्ञा परिषद् में स्वीकृत हो जाने परसंघकर्मयाकर्म‘ (एक्ट) कहलाती थी। राजवली पाण्डेय के अनुसार, कार्यवाही की वैधानिकता निम्नलिखित बातों पर अवलम्बित थी – (a) गणपूर्ति, (b) अधिकारी सदस्यों की उपस्थिति, (c) प्रतिज्ञा की नियमित ज्ञप्ति, (d) सभी शलाकाओं का संग्रह, (c) परिषद् द्वारा कार्यवाही की सम्पुष्टि संथागार के भीतर विनय का पालन करना पड़ता था। अनावश्यक बातचीत करना मना था। किसी प्रस्ताव के नियमित पास होने पर फिर उस पर विचार नहीं होता था। जो सदस्य अनुचित व्यवहार करता था, उसके विरुद्ध निन्दा का प्रस्ताव रखा जा सकता था। अवैध अधिवेशन में स्वीकृत हुआ प्रस्ताव वैध अधिवेशन में सम्पुष्ट नहीं हो सकता था। न्यायालय की तरह परिषद् का भी कार्यालय होता था। इसमें विश्वासपात्र लेखक परिषद् की कार्यवाही लिखते थे और सुरक्षित रहते थे ऊपर की कार्यवाही देखने से मालूम होता है कि गण परिषद् की कार्यवाही वास्तव में लोकतान्त्रिक थी। इसमें निश्चय करने का आधार पशुबल नहीं, वरन् विवाद, तर्क और समझानाबुझाना था। यह कार्यवाही कई दृष्टियों से आधुनिक संसद अथवा लोकसभा की कार्यवाही से मिलतीजुलती है।

 

मगध साम्राज्य का उत्थान
 [RISE OF MAGADHA EMPIRE]
 

मगध का प्रारम्भिक राजवंशीय इतिहास अन्धकार में दबा हुआ है। हम केवल पौराणिक कथाओं के आधार पर इस युग के योद्धाओं तथा राजनीतिज्ञों की डॉ० राय चौधरी जानकारी पाते हैं। वास्तव में मगध का इतिहास हर्यक वंश के विख्यात राजा विसार से ही प्रकाश में आता है।साम्राज्य के उत्थान के कारणों की पृष्ठभूमि में हुये बृहद्रथ वंश से शिशुनाग वंश

 

मगध साम्राज्य के विकास का वर्णन कीजिये। Giving background of causes of the rise of Magadha Empire, trace the causes of Magadha Imperialism from Brihadratha to the Shishunaga Dynasty.

 

 

 

उत्तर

 

मगध साम्राज्य के उत्थान के कारण (Causes of the Rise of Magadha Empire)

 

प्राचीन भारतीय इतिहास में मगध का विशेष स्थान है। प्राचीन काल में भारत में अनेक छोटेबड़े राज्यों की सत्ता थी। मगध के प्रतापी राजाओं ने इन राज्यों पर विजय प्राप्त कर भारत के बड़े भाग पर विशाल एवं शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की और इस प्रकार मगध के शासकों ने सर्वप्रथम अपनी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को प्रदर्शित किया। मगध में मौर्य वंश की स्थापना से पूर्व भी अनेक शासकों ने अपने बाहुबल वीरता से मगध साम्राज्य को शक्तिशाली बनाया था।

 

बृहद्रथ वंश (Brihadrath Dynasty)

 

मगध पर शासन करने वाला प्राचीनतम ज्ञात राजवंशबृहद्रथ वंशहै। महाभारत पुराणों से ज्ञात होता है कि प्रागऐतिहासिक काल में चेदिराज वसु के पुत्र बृहद्रथ ने गिरिज को राजधानी बनाकर मगध में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया था। दक्षिणी बिहार के गया और पटना जनपदों के स्थान पर तत्कालीन मगध साम्राज्य था। इसके उत्तर में गंगा नदी, पश्चिम में सोन नदी, पूर्व में चम्पा नदी तथा दक्षिण में विन्ध्याचल पवर्तमाला थी। वृहद्रथ को ही मगध साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है। उसके द्वारा स्थापित राजवंश कोबृहद्रथ वंशकहा गया। इस वंश का सबसे प्रतापी शासक जरासंध था, जो बृहद्रथ का पुत्र था। जरासंघ अत्यन्त पराक्रमी एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। कृष्ण की सहायता से भीम ने जब जरासंध का वध किया तब जरासंध की मृत्यु के पतन की ओर अग्रसर हो गया, किन्तु फिर भी बृहद्रथ वंश के अनेक शासक कुछ समय पश्चात् मगध तक मगध पर शासन करते रहे। बृहद्रथ वंश का अन्तिम शासक रिपुंजय था, जिसकी हत्या उसके मन्त्री पुलिक ने कर दी तथा अपने पुत्रबालकको मगध का शासक नियुक्त किया।

 

 

इस प्रकार बृहद्रथ वंश का पतन हो गया। कुछ समय पश्चात् महिय या भट्टी नामक एक सामन्त नेबालककी हत्या करके अपने पुत्र विम्बिसार को मगध की गद्दी पर बैठाया।

 

 

हर्यक वंश बिम्बिसार

 

 

विम्बिसार के मगधसिंहासन पर आरूढ़ होने के पश्चात ही वास्तविक अर्थों में मगध साम्राज्य का उत्कर्ष प्रारम्भ हुआ। मगधराज बिम्बिसार एक सुयोग्य तथा शक्तिशाली शासक था। उसका सैन्यबल अमिट था और इसी कारण वहमुमंगल विलासिनीके अनुसारसैणिय‘ (श्रेणिक महती सेना वाला) नाम से प्रसिद्ध हुआ। वहचक्रवतीके आदर्श से प्रेरित था। उसकी महत्त्वाकांक्षा अन्ततः सार्वभौम साम्राज्य की प्रतिस्थापना थी। अपने अभीष्ट की पूर्ति के लिये उसने नीति और शक्ति दोनों से काम लिया और मगध को साम्राज्य निर्माण के पथ पर अग्रसर कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि अन्ततः मौयों के समय में मगध साम्राज्य ने लगभग सम्पूर्ण भारत के राष्ट्रीय राज्य का स्वरूप धारण कर लिया।

 

विम्बिसार का वंशबिम्बिसार किस वंश से सम्बन्धित था, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। उसके वंश से सम्बन्धित दो प्रमुख मत हैं

 

(i) विम्बिसार शिशुनाग वंश का था। इस मत को मानने वाले विद्वान् अपने मत के समर्थन में पुराणों का उल्लेख करते हैं। (ii) बिम्बिसार हयक कुल (Haryanaka Dynasty) का था। इस मत की पुष्टि

 

बौद्ध साहित्य से होती है। अधिकांश विद्वान् विम्विसार को हर्यक कुल का ही मानते हैं।

 

तिथिबिम्बिसार की तिथि के विषय में विद्वानों में मतभेद है। बौद्ध ग्रन्थ महावंश के अनुसार बिम्बिसार ने 52 वर्षों तक शासन किया था, किन्तु पुराण उसका शासनकाल 28 वर्षों तक का बताते हैं राधा कुमुद मुकर्जी ने बिम्बिसार की तिथि 544 ई० पू० से 492 ई० पू० निर्धारित की है जो कि सबसे तर्कसंगत प्रतीत होती है। हेमचन्द्र राय चौधरी भी बिम्बिसार की तिथि 544 ई० पू० से 492 ई० पू० ही मानते हैं।

 

मगध की दशा या परिस्थितियाँजिस समय बिम्बिसार गद्दी पर आया उस समय

 

मगध की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। उसके इर्दगिर्द के शासक अपनी शक्तिविस्तार

 

में लगे हुये थे। वृज्जि संघ, जो मगध के उत्तर में स्थित था, की सैनिक शक्ति का विस्तार

 

हो रहा था। अन्य राज्यों द्वारा भी विस्तारवादी नीति अपनायी जा रही थी। कौशल और

 

अवन्ति के शासक अपनीअपनी सीमा का विस्तार कर रहे थे। तक्षशिला अवन्ति के सम्बन्ध

 

भी कटु थे।

 

राज्य विस्तार बिम्बिसार महत्त्वाकांक्षी भी था और साम्राज्यवादी भी साथ ही वह राजनीतिज्ञ भी था। उसने अपने राज्य विस्तार के लिये, परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये, विवाह सम्बन्ध और मैत्री सम्बन्धों द्वारा पहले स्थिति मजबूत की और फिर प्रदेश विजय द्वारा राज्य विस्तार किया यही उसकी विदेश नीति भी कही जा सकती है।

 

(1) वैवाहिक सम्वन्धयूरोप के हैप्सवर्ग और बोरबन्स राजवंशों के राजाओं की तरह विम्बिसार ने भी तत्कालीन राजवंशों से सम्बन्ध स्थापित किये। महावग्ग के अनुसार, उसके 5000 रानियाँ थीं। परन्तु यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है। सम्भवतः बिम्बिसार के महल में सैकड़ों की संख्या में महिलायें हों जिन्हें रानी का पद प्राप्त हो गया हो। राजबली पाण्डेय के अनुसार, विम्बिसार ने चार वैवाहिक सम्बन्ध किये जिनका राजनीतिक एवं ऐतिहासिक महत्व था। उसकी एक रानी कौशल के राजा प्रसेनजीत की बहन महाकोसला

 

 

थी। उसको दूसरी रानी बेलना (छलना) लिच्छवी प्रमुख चेटक की पुत्री या बहन थी। तीसरी रानी वाती या वासवी विदेहकुमारी थी। कुछ का कहना है कि चेलना और वैदेही एक ही थी। चौथी क्षेम भद्र (गान्धार, उत्तरी पंजाब) के राजा की लड़की थी। कहते हैं, अम्बपाली जिससे अभय उत्पन्न हुआ था, भी उसकी रानी थी। इन सम्बन्धों से विम्बिसार ने काफी लाभ उठाया। कोशल की राजकुमारी के विवाह के साथ काशी का प्रान्त दहेज में मिला जिससे वार्षिक एक लाख का भूराजस्व प्राप्त होता था वैशाली के लिच्छवियों से सम्बन्ध करके उसने अपने राज्य की उत्तरी सीमा को सुरक्षित बनाया। वैदेही से सम्बन्ध करके अपने शत्रु अंग को पश्चिमोत्तर से घेर लिया। इन विवाहों से केवल बिम्बिसार का समकालीन राजकुलों पर प्रभाव विदित होता है, यह भी सत्य है कि इन्हीं की पृष्ठभूमि पर मगध के

 

प्रसार की अट्टालिका खड़ी हुयी। (2) मैत्री सम्बन्धबिम्बिसार ने समान राज्यों के साथ मित्रता की नीति अपनायी उसने वत्स, भद्र, तक्षशिला, गान्धार और कम्बोज आदि राज्यों से मित्रता की और उसने दौत्य सम्बन्ध स्थापित किये। शायद फारस के राजा से भी दौत्य सम्बन्ध थे। अवन्ति नरेश प्रद्योत के पाण्डु रोग (पीलिया) से पीड़ित हो जाने पर उसने अपने वैद्य जीवक को इलाज के लिये भेजा। ऐसा भी अनुमान है कि उसने फारस के राजा के दरबार में अपना दूत भेजा था। गान्धार नरेश पुष्करसारी ने अपना एक दूत उसके दरबार में भेजा था।

 

(3) विजय बिम्बिसार केवल मित्रता के सम्बन्धों पर ही आधारित नहीं था। उसने राज्य विस्तार के लिये एक सुदृढ़ सेना का भी संगठन किया। मैत्री सम्बन्धों द्वारा उसने अपने पड़ौसी शत्रु राज्य अंग को असहाय बना दिया तथा शक्तिशाली सेना द्वारा उस पर आक्रमण कर दिया। अंग का राजा ब्रह्मदत्त परास्त हुआ तथा अंग मगध के राज्य में मिला लिया गया। उसकी राजधानी चम्पा में विम्बिसार ने अपने पुत्र अजातशत्रु को गवर्नर नियुक्त किया। इस विजय से मगध की शक्ति तथा समृद्धि में बहुत वृद्धि हुयी। अंग शक्तिशाली नगर था तथा दूरस्थ देशों तक उनका व्यापार था। बिम्बिसार की अन्य विजयों का विवरण उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु इतिहासकारों का अनुमान है कि उसने कुछ अन्य प्रदेशों को भी विजय किया। महावग्ग के अनुसार, उसके राज्य में 80 हजार गाँव सम्मिलित थे। उसके राज्य विस्तार 300 योजन अर्थात् 1700 वर्ग मी० आँका जाता है। उसके राज्य में कई संघ राज्य भी शामिल थे। इतने राज्य के विस्तार के लिये उसे राज्यारोहण करना पड़ा होगा।

 

पाण्डेय ने लिखा है कि, ‘अनेक राजाओं को परास्त करके उसने अपने साम्राज्य का विस्तार पूर्वोत्तर में किया। बुद्धघोष की अट्टकथा में ऐसा उल्लेख मिलता है कि मगध राज्य सीमा विस्तार बिम्बिसार के शासनकाल में दुगुना हो गया था।

 

(4) धर्मबिम्बिसार की धार्मिक नीति उदार थी। वह सभी धर्मों का आदर करता था। इसलिये विभिन्न धर्मावलम्बी उसे अपने ही धर्म का समझते थे। जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार, बिम्बिसार जैन था और महावीर स्वामी का अनन्य भक्त था उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि बिम्बिसार बहुत ही श्रद्धा एवं आदर के साथ महावीर स्वामी के पास गया था और अपनी रानियों, नौकरों तथा सम्बन्धियों के साथ जैन मतावलम्बी हो गया। हेमचन्द्र के अनुसार, “जब देश में भयंकर शीत पड़ रहा था तो राजा देवी चेल्लना सहित महावीर की पूजा करने गया।इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्थों से यह ज्ञात होता है कि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। सुत्त निपात से ज्ञात होता है कि बिम्बिसार ने महात्मा बुद्ध से अपनी राजधानी राजगृह में भेंट की और तब उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उसने महाला बुद्ध और उसके संघ को एक बाग भी दान दिया था। इसके अतिरिक्त उसने अपने राजवैद्य जीवक को बुद्ध की सेवा में नियुक्त कर दिया था। ललित विस्तार के अनुसार बिम्बिसार ने बौद्ध भिक्षुओं के लिये निशुल्क जलयात्रा करने की आज्ञा दे दी थी।

 

 

 

 

(5) बिम्बिसार के अन्तिम दिन और उसका मूल्यांकनविम्बिसार के जीवन का अन्तिम भाग बड़ा दुखान्त रहा। उसके लम्बे शासनकाल से अधीर होकर उसके प्रिय किन्तु महत्त्वाकांक्षी पुत्र कुणीक (बाद में अजातशत्रु) ने उसको बन्दीगृह में डाल दिया और वहीं उसका देहान्त हो गया। बिम्बिसार की कौशल की रानी कौशल देवी या महाकोशला भी उसके वियोग में मर गयी। बिम्बिसार की मृत्यु 495 ई० पू० में हुयी। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अजातशत्रु ने अपने पिता की हत्या की जबकि जैन ग्रन्थों के अनुसार बिम्बिसार ने अजातशत्रु से भयभीत होकर विषपान द्वारा आत्महत्या कर ली। शायद जैन ग्रन्थकारों ने अजातशत्रु को पितृहंता के दोष से मुक्त करने के लिये ऐसी कथा गढ़ी हो, क्योंकि जैन ग्रन्थों में अजातशत्रु को जैन माना गया है। अधिकांश इतिहासकार इन दोनों ही कथनों से सहमत नहीं हैं। मान्य मत यही है कि बन्दीगृह में ही बिम्बिसार की मृत्यु हुयी। जो भी और जैसा भी हो, बिम्बिसार मगध साम्राज्य के उत्कर्ष का वास्तविक संस्थापक था।

 

अजातशत्रु (Ajatshatru)

 

करीब 495-490 ई० पू० अजातशत्रु मगध का राजा बना। जिस समय वह राजा बना उस समय मगध की स्थिति निरापद नहीं थी। मगध की सीमा पर अमित्र राज्य थे जो मगध की बढ़ती हुयी शक्ति को सीधी आँख नहीं देख सकते थे। कौशल राज्य अजातशत्रु से चिढ़ा हुआ था, क्योंकि उसने अपने पिता बिम्बिसार का वध कर दिया था तथा उसके लिये कौशला देवी को भी प्राण त्यागने पड़े थे। वैशाली का राज्य शक्तिशाली था तथा मगध को अपनी शक्ति का परिचय देने के लिये उतारू था।

 

(1) कौशल के साथ संघर्षअजातशत्रु ने सबसे पहले कौशल नरेश प्रसेनजीत पर आक्रमण किया, क्योंकि बिम्बिसार और उसकी रानी कौशला देवी की मृत्यु के बाद प्रसेनजीत ने काशी का वह भाग, जो मगध को दहेज में मिला था, वापिस ले लिया। सो अजात ने कौशल के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। कहा जाता है, युद्ध लम्बी अवधि तक चला। दोनों ही पक्षों की समयसमय पर हारजीत होती रही। अन्त में कौशल नरेश प्रसेनजीत को ही सन्धि करनी पड़ी। सन्धिनुसार कौशल प्रदेश भी वापस करना पड़ा। ऐसा होने से अजात के राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा भी सुरक्षित हो गयी।

 

(2) वैशाली से

 

युद्ध

 

वैशाली के लिच्छवियों से भी अजातशत्रु को युद्ध करना पड़ा।

 

निम्नांकित कारण ये बतलाये हैं

 

(i) जैन साहित्य के अनुसार बिम्बिसार ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपना प्रसिद्ध हाथी सेयणग (सेचनक) और लड़ियों वाला हीरे का हार अपनी पत्नी चेलना से उत्पन्न हुआ पुत्र हल्ल और बेहल्ल को दे दिया था। राजा बनने के बाद अपनी रानी पदमावई या पद्मावती के उकसाने पर अजातशत्रु ने हल्ल और बेहल्ल से इन दोनों वस्तुओं की माँग की। इन्हें वापस देने के बदले में दोनों भाई अपने नाना चेटक के पास वैशाली भाग गये। अतः कुपित होकर अज्ञातशत्रु ने बेटक के राज्य वैशाली पर धावा बोलने का निश्चय किया।

 

(ii) सुमंगल विलासिनी के अनुसार, गंगा नदी के एक बन्दगाह के निकट एक पहाड़ी के नीचे हीरों की खान थी। इसके सम्बन्ध में अजात तथा वैशाली के लिच्छवियों में यह समझौता हुआ था कि हीरों को आधाआधा बाँट लिया जायेगा। परन्तु लिच्छवियों ने इस समझौते का उल्लंघन किया और फलतः युद्ध करना अजात को अवश्यम्भावी लगा।

 

(iii) मगध में राजतन्त्रात्मक शासन प्रणाली प्रचलित थी, जबकि वैशाली में गणतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था स्थापित थी। गणराज्य साम्राज्यवाद के कट्टर शत्रु थे। अतः उन्हें समाप्त किये बिना अजात अपनी महत्त्वाकांक्षायें पूरी कर सकता था।

 

भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक) (3)नीतिका परन्तु अजात तो लिच्छवियों के अस्तित्व को समाप्त करने पर तुला हुआ था। उसने उन्हें कल से नष्ट करने का निश्चय कर लिया। अभेद नीति से काम लेते हुये अपने दो मन्त्रियों वस्साकार और सुनी को लिच्छि की संगठित शक्ति में फूट के बीज बोने के लिये भेजा। उन्होंने निरन्तर 3 वर्ष तक वैशाली में निवास करके अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त की और लिच्छवियों में फूट डाल दी। इसके अतिरिक्त अजात ने अपने राज्य की सीमा पर स्थित पाटली ग्राम को ही युद्ध का केन्द्र बनाया और यहाँ पर एक सुदव दुर्ग का निर्माण करवाया। इस प्रकार पूरी तैयारी करके अजात ने वैशाली पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में अजात ने पहली बार महाशिलाकटव और रसल नामक दो नवीन अस्म अवक्षेपकों का उपयोग किया। रथमुसल आधुनिक टैंकों सा ही था। महाशिलाकंटक से बड़ेबड़े पत्थर दुश्मन पर फेंके जाते थे। रथ ताना घोड़े एवं चालकों के बगैर चलने वाला एक स्वचालित यन्त्र था। शायद मध्ययुग के अन्य यन्त्रों की तरह एक व्यक्ति उसके अन्दर छुपा रहता था और पहिये को घुमाता था। इतने प्राचीन समय में स्वचालित यन्त्र, चाहे कितना ही अपक्व और अपरिष्कृत क्यों हो, स्वचलन के इतिहास में भारत का प्रथम उदाहरण होगा। पुनः मुख्य विन्दु पर कहा जाता है; युद्ध लगभग 16 वर्ष तक चला। अन्त में अजात विजित हुआ और वैशाली को मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

 

(4) गणराज्य से युद्धबी० एन० लुणिया का मत है कि चूंकि मल्ल गणराज्य अजातशत्रु के विरुद्ध संघ में सम्मिलित हुआ था, इसलिये उसने मल्लों पर आक्रमण कर उन्हें युद्ध में पराजित किया। लिच्छवियों और मल्लों को पराजित करके अजात ने मगध की सीमा उत्तर में हिमालय की तलहटी तक बढ़ी ली थी। (5) अवन्ति के विरुद्ध सतर्कताअवन्ति साम्रज्यवादी नीति का अनुसरण कर रहा

 

था। उसने पड़ौसी राज्य वत्स को हड़प लिया था। जिस समय अजात लिच्छवियों से: में व्यस्त था, अवन्ति नरेश ने मगध पर आक्रमण करने का निश्चय किया। अवन्तिराज युद्ध (प्रद्योत यह कहाँ बृहद्रथ वंश के अन्तिम शासक रिपुंजय का नाश करने वाले मन्त्री पुलिक का दूसरा लड़का तो नहीं जिसे पुलिक ने मगध विजय के बाद अवन्ति का शासक बना दिया था ?) बिम्बिसार (जो उसका मित्र था) की हत्या से दुःखी और क्रोधित था। इसलिये उसने मगध पर आक्रमण करने की योजना बनायी थी। आक्रमण की चाह का कारण प्रद्योत की साम्राज्यवादी नीति भी हो सकती है। अजात को जब पता चला तो उसने भी अपनी सुरक्षा के प्रबन्ध किये। उसने राजधानी के चारों तरफ एक सुदृढ़ दीवार का निर्माण कराया। परन्तु दानों के बीच में कोई संघर्ष हुआ होइसका पता नहीं चलता

 

(6) साम्राज्य की सीमाअजात ने अपने पराक्रम तथा कूटनीति से मगध साम्राज्य की सीमा में वृद्धि की तथा इसे सुदृढ़ किया। इसमें अब काशी, अंग तथा वैशाली राज्य सम्मिलित होने से इसका राज्यक्षेत्र बढ़ गया। मल्लों की पराजय से इसमें देवरिया के आसपास का क्षेत्र भी सम्मिलित हो गया। कौशल राज्य इसका मित्र हो गया। इस मगध के राज्य ने एक विशाल राज्य का रूप लेना आरम्भ कर दिया। घोष ने अजात के पराक्रम की प्रशंसा करते हुये कहा कि, “बिम्बिसार कुल में अजातशत्रु का राज्यकाल शक्ति के शिखर पर था।राय चौधरी के अनुसार, “उसका शासन हर्यक वंश का चर्मोत्कर्ष काल था।धार्मिक नीतिराजकली पाण्डेय के अनुसारधार्मिक मामलों में अपने पिता विका

 

की तरह अजातशत्रु भी उदार था और अपने समय के सभी धर्मों का आदर करता था।

 

उसके पहले जैन मत का विशेष प्रभाव था, परन्तु पीछे बौद्ध धर्म से वह विशेष प्रभावित 1. यदि यह सच है तो दोनों पक्षों की 16 वर्ष तक युद्ध चलाने की क्षमता की सराहना की जानी चाहिये।

 

 

अपने पिता विम्बिसार को मारने के बाद तो वह भगवान का पूरा भक्त हो गया। कुशीनगर में बुद्ध का निर्माण हुआ तो अजातशत्रु ने उनके अवशेषों में से अपना भाग लिया और उसके ऊपर स्तूप बनवाया। बुद्ध के निर्माण के बाद अजातशत्रु के जीवन काल में ही राजगृह की सप्तपर्ण गुफा में बौद्ध की प्रथम (धार्मिक) सभा का अधिवेशन हुआ।मृत्यु: मूल्यांकन पुराणों के अनुसार अजातशत्रु ने 35 वर्ष तक राज्य किया, यद्यपि बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उसका राज्य काल 32 वर्ष का बताया गया है। पाण्डेय ने लिखा है कि, “अपने जीवन के अन्तिम समय में अपने पितृघात का प्रायश्चित अजातशत्रु को करना

 

पड़ा। वह भी अपने प्रिय पुत्र उदायी के षड्यन्त्र से मारा गया।अजातशत्रु के उत्तराधिकारी पौराणिक कथाओं के अनुसार दर्शक अजातशत्रु का उत्तराधिकारी था। भास केस्वप्नवासवदत्तानामक नाटक में भी दर्शक का उल्लेख मिलता है। इस नाटक की कथा के अनुसार दर्शक की बहिन पद्मावती का विवाह कौशाम्बी के राजा उदयन के साथ हुआ था। दर्शक का राज्य काल 518-483 ई० पू० माना जाता है, परन्तु बौद्ध तथा जैन ग्रन्थ दर्शक को अजात का पुत्र नहीं मानते। इन प्रन्थों के अनुसार अजात का पुत्र उदय अथवा उदायी या उदयभद्र था।

 

लाभदायक या उदय

 

(Udiyani) बौद्ध प्रन्थों के अनुसार उदायी ने भी अपने पिता अजातशत्रु की हत्या की थी। इसके विपरीत हेमचन्द्र के अनुसार, अजात की मृत्यु के समय उदायी चम्पा का मॉडलिक था। गार्गी संहिता में उदायी के लियेधर्मात्माशब्द का प्रयोग किया है। अतः जायसवाल का है मत है कि वह पितृहन्ता नहीं था।

 

(1) नयी राजधानीउदायी ने राज्य प्राप्ति के चार वर्ष में पाटलिपुत्र का विकास कर

 

उसे मगध की राजधानी बनाया। यह नगर अपनी व्यापारिक स्थिति के कारण कुछ ही समय

 

में प्रसिद्ध हो गया। महात्मा बुद्ध ने इसका उद्घाटन करते हुये आशीर्वाद दिया था कि यह

 

नगर एक दिन बहुत ही समृद्धशाली नगर का रूप धारण कर लेगा।

 

(2) धर्मप्राप्त साक्ष्यों के अनुसार उदायी जैन था। उसने राजधानी में जैन चैत्य

 

का निर्माण करवाया था। वह चौथ अष्टमी का व्रत भी रखता था। (3) अवन्ति से संघर्षअंग और वैशाली के पतन के पश्चात् और कौशल की पराजय के बाद अवन्ति मगध के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में शेष रह गया था। परिणामस्वरूप दोनों राज्यों में प्रतिस्पर्द्धा और शत्रुता होना स्वाभाविक थाआवश्यक सुत्त के अनुसार उदायी ने अवन्ति को कई बार पराजित किया था।

 

(4) मृत्यु ऐसा लेख है कि उदयन ने एक पड़ौसी राज्य पर आक्रमण कर उसके राजा को मार दिया। उसके पुत्र ने छद्म वेश धारण कर उसे मार डाला। कुछ कहते हैं कि व्रत के दिन जब वह महल में उपदेश देने जा रहा था तो उसकी एक शिष्या ने उसकी हत्या कर दी।

 

(5) आप एक करोड़ के उत्तराधिकारीआप एक करोड़ के विपरीत का इतिहास अन्धकारपूर्ण है। पौराणिक पौराणिक कथाओं के अनुसार वर्ष की मृत्यु के संबंध में इस वंश में नन्दीवर्धन और महानन्दिन नाम के दो राजा हैं। 1 दीप और महावंश के अनुसार, जैएर के जामरू अनुशासन मुड और नागदसक ये तीनों अपने पिता का वध कर गद्दी पर बैठे हैं। महावंश प्रथम दो का प्रमाणीकरण क्रमशः नन्दीवर्धन और महानंदिन से करता है।

 

शिशुनाग वंश

 

(Shishunaga Dynasty )

 

(1) शिशुनागशिशुनाग वंश का प्रथम राजा शिशुनाग था। दीपवंश और महावंश एक लिच्छवी के अनुसार पोर्टो, अमात्यों और मन्त्रियों ने नागदसक को उतार कर बनारस या काशी था वाराणसी में गवर्नर (मॉडलिक) के पद पर कार्य कर रहे शिशुनाग को मगध का राजा बनाया। के ऐसा भी कहा जा सकता है कि जनता ने उसे मगध के सिंहासन पर बैठने में मदद की। (2) राजधानीमहावंश टीका के अनुसार शिशुनाग वैशाली के तथा एक स्थानीय नगर शोभिनौ की सन्तान था। वैशाली से सम्बन्धित होने के कारण राजा शिशुनाग ने वैशाली को अपनी राजधानी बनाया ऐसा एक मत है। कुछ शिशुनाग ने पुरानी राजधानी गिरिव्रज (राजगृह) को फिर से अपनी राजधानी बनाया। लगता है अवन्ति की ओर से निश्चिन्त रहने के लिये उसने गिरिव्रज को पुनः राजधानी बनाया और राज्य के उत्तरी भाग को पूर्ण रूप से नियन्त्रित करने के उद्देश्य से उसने वैशाली को अनुसार,

 

दूसरी राजधानी का रूप दे दिया। (3) विजयशिशुनाग एक पराक्रमी और महत्त्वाकांक्षी शासक था। उसके शासनकाल में मगध साम्राज्य का और अधिक विस्तार हुआ। कुछ के अनुसार, शासक घोषित हो जाने से अवन्ति में गृह युद्ध छिड़ गया। शिशु ने परिस्थिति पर काबू पाने के लिये शायद अवन्ति पर धावा बोला हो और वहाँ के एवं मगध के शासन को एक कर दिया हो। शिशु मध्यदेश, मालवा और उत्तर के अनेक प्रदेशों का शासक हो गया। आर्यक के उज्जयनि का

 

उसने वत्स पर अधिकार किया। (4) राज्यकाल एवं मूल्यांकनशिशुनाग ने सम्भवतः 14 वर्ष तक राज्य किया। इस सुयोग्य शासक ने मगध राज्य को सर्वप्रथम सही अर्थों में साम्राज्य का रूप दिया। वस्तुस वह पहला मगध नरेश था जिसे हम सम्राट कह सकते हैं।

 

कालाशोक या काकवर्ण

 

(कालाशोक या काकवर्ण)

 

पुरा के अनुसार शिशुनाग के बाद उसका पुत्र काकवर्ण मगध की गद्दी पर बैठा।

 

परन्तु, सिंहली गाथाओं में उसका नाम कालाशोक दिया है। भण्डारकर तथा जेकोबी के

 

अनुसार ये दोनों एक ही हैं। ऐसा कहा जाता है कि राजा बनने के पूर्व वह काशी के

 

मांडलिक रहा था।

 

 

निष्कर्ष के बतौर यह कहा जा सकता है कि शिशुनाग वंशों के नेतृत्व में मर साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार हुआ। राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार, बुद्ध के समय में उत्तरी भारत में विद्यमान सभी महत्त्वपूर्ण राज्य अब मगध साम्राज्य में समाहित हो गये थे। इस प्रकार हर्दक और शिशुनाग वंश के प्रतापी सम्राटों ने नन्द वंश और मौर्य वंश के सम्राटों के लिये साम्राज्य विस्तार का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

 

 

 

स् की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिये।

 

Give an estimate of the achievements of the Nandas. प्राचीन भारत के इतिहास में महापद्मनन्द के महत्त्व का मूल्यांकन कीजिये। Give an estimate of the significance of Mahapadmananda the history of Ancient India.

 

 

 

उत्तर

 

नन्द वंश

 

(Nanda Dynasty) जिस राजन्ता ने शिशुनाग शासन की इतिश्री करके परमाधिकार हथिया लिया था. वह और कोई नहीं, नन्द वंश का प्रसिद्ध संस्थापक अभाषा संस्थापक को उपसेन के नाम से जाना जाता है। यूनानी इतिहासकारों के अनुसार सिकन्दर के आक्रमण के समय अप्रमीज (Agrames) मगध का शासक था। राय चौधरी के अनुसार, यह संस्कृत शब्द ओपसेनीय का अपभ्रंश हो सकता है। पुराणों के अनुसार नन्द वंश का प्रथम शासक महापद्यनन्द था। एक किंवदन्ती के अनुसार उसका यह नाम इसलिये पड़ा कि उसके पास पद्मों की संख्या में सेना सम्पत्ति थी उपसेन का अर्थ भी शक्तिशाली सेना से होता इस प्रकार दोनों ही नाम उसकी शक्ति वैभव के द्योतक हैं। भारतीय ऐतिहासिक परम्परा में महापद्मनन्द नाम ही अधिक प्रचलित है।

 

(1) महापद्यनन्दवंश परम्परामहापद्मनन्द की वंश परम्परा के बारे में मतभेद है। यूनानी इतिहासकार तथा पौराणिक जैन साक्ष्य उसे शूद्र मानते हैं। यूनानी इतिहासकार कोटियस का कथन है अम्मीज का पिता नाई था जो अपने आकर्षक रूप के कारण रानी का कृपापात्र बन गया था और रानी के प्रभाव से ही वह उस समय के राजा का विश्वासपात्र बन गया था। परन्तु बाद में उसने राजा की निर्मम हत्या कर दी या किसी के द्वारा करवा दी और फिर राजकुमारों के बहाने सारी सत्ता अपने अधिकार में ले ली और राजकुमारों को मौत के घाट उतार कर स्वयं राजा बन बैठा। पुराणों में उसेअनभिजात‘ (नीच कुल) कहा गया है। पुराणों से ही यह भी पता चलता है कि वह अन्तिम हर्य॑कवंशी राजा महानन्दिनी की शूद्र रानी से उत्पन्न पुत्र था, किन्तु ऐसे भी साक्ष्य हैं जो उसे कुल का अथवा क्षत्रिय वंशीय मानते मुद्राराक्षस में इसका एक क्षत्रिय वंशीय के रूप में उल्लेख आया है। इसको एक राजा की रानी सुनन्दा का पुत्र कहा गया

 

(2) कालक्रमखारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख में नन्द द्वारा खुदायी हुयी नहर का समयतिवससतदिया है जिसका मान्य अर्थ निकालने में अभी तक सफलता प्राप्त नहीं हुयी है। कोई इसका अर्थ 300 वर्ष करता है तो कुछ 103 वर्ष। घोष के मतानुसार, सिंहली गाथाओं के आधार पर कालाशोक के राज्याधिकार की तिथि 369 ई० पू० मानी है। उसने 28 वर्ष तथा उसके पुत्रों ने 22 वर्ष राज्य किया इस तरह (369-30) 346 ई० पू० में महापद्मनन्द गद्दी पर बैठा होगा। इसका मेल यूनानी इतिहासकार के द्वारा दी गयी तिथियों से भी होता है। परन्तु निर्णयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

 

(3) राज्य विस्तारमहापद्मनन्द का राज्यारोहण इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है। इस घटना से देश में एक नये युग का आरम्भ हुआ। कहा जाता है कि नन्द वंश ने अपने राज्य का विस्तार कर उसे बहुत शक्तिशाली बना दिया। पुराणों में उसे सर्वधत्रान्तक कहा गया है। यूनानी लेखकों ने लिखा है कि व्यास के पार बसने वाली जातियाँ बहुत शक्तिशाली थीं तथा वे एक राजा के अधीन थीं। प्लिनी के अनुसार, भारत में प्रशियायी (प्राची) का राज्य सबसे अधिक शक्तिशाली था। उस समय ये क्षत्रिय राज्य थे जिन्हें सम्भवतः मगध राज्य में सम्मिलित कर लिया गया था; इक्ष्वाकु, पांचाल, काशी, कुरु, सुरसैन, हैहय, कलिंग, मिथिला, अश्मक, मैसूर, गुजरात, काठियावाड़ पर सत्यानारायण दुबे ने इस पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया है। उसका कहना है कि इन राज्यों में से कई एक तो पहले ही मगध या दूसरे पड़ोसी राज्यों ने हड़प लिये थे।

 

इस प्रकार महापद्मनन्द का राज्य उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम भारत के अधिकतर भाग पर फैला हुआ था। उसके राज्य की सीमा के अन्तर्गत अब पंजाब से पूर्व का सम्पूर्ण भारत, मालवा तथा मध्य प्रदेश तक का इलाका गया था। सम्भवतः महाराष्ट्र का हिस्सा भी उनके साम्राज्य में सम्मिलित था।

 

(4) सैन्यवल इतने विशाल साम्राज्य के विस्तार के लिये स्पष्टतः एक विशाल सेनाकी आवश्यकता थी प्लुटार्क के अनुसार, नन्दों ने एक विशाल सेना का संगठन किया

 

भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक) जिसमें 80 हजार अश्वारोही, 2 लाख पैदल, 8 हजार रथ (चार मोड़ों वाले) तथा 7 हजार हाथी थे। नन्द राजा अपने प्रवेश मार्गों की रक्षा के लिये भी विशाल सेना नियुक्त करते थे। उसकी विशाल और प्रचण्ड सेना पद्म व्यूह में खड़ी की जा सकती थी। उसकी सेना की कुशलता तथा शक्ति का जीता जागता प्रमाण तो यही है कि मगध ने समुद्र तट के देशों को विजित किया तथा सभी क्षत्रिय राज्यों को पददलित कर एकछत्र राज्य की स्थापना की।

 

(5) मूल्यांकनयह कम आश्चर्य की बात थी कि एक अनभिजात ने और आयु में वृद्ध होकर भी परिस्थितियों के विरुद्ध सफलतापूर्वक युद्ध किया तथा मगध के नाम पर 4 चांद लगाये। बिम्बिसार के समय से मगध का जो सैनिक अभियान आरम्भ हुआ था वह अब अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार महापद्मनन्द ने यदि धन संग्रह के लिये अवांछनीय उपायों का आश्रय लिया तो सिंचाई आदि सार्वजनिक कार्यो पर भी ध्यान दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि उसकी गणना भारत के महान सम्राटों में की जानी चाहिये। उसके हाथीगुम्फा अभिलेख के अनुसार सम्भवतः उसका झुकाव जन धर्म की ओर था। ऐसा भी पता चलता है कि शायद यही कलिंग से जैन तीर्थंकर की मूर्ति को उठा ले गया था। (यदि मूर्तियां बनने लगी थीं तो कुछ के अनुसार, उसे भारत का प्रथम महान् ऐतिहासिक सम्राट मीन सकते हैं।

 

(6) महापरानन्द के उत्तराधिकारीकहा जाता है कि नन्द वंश में कुल ना राजा हुये। महाबोधियावंश और पुराणों में नव नन्द का उल्लेख है; जनश्रुतियों से भी उनके बारे में पता चलता है। हाँ इन स्रोतों से प्राप्त नामों में भिन्नता अवश्य है। पर क० पी० जायसवाल की धारणा है कि यहाँनवशब्द का अर्थ नो नहीं वरन् नवीन है। इनके विचार से महापद्मनन्द तथा उसके उत्तराधिकारी जो शूद्र जाति के थे नवीन नन्द कहलाते रहे होंगे। इसी से पुराणों में नवनन्दु शब्द का उल्लेख है। नन्दिवर्धन तथा महानन्दिन (दोनों हर्यक वंशी) नन्द कहलाते रहे होंगे.

 

(7) धननन्दयूनानियों ने धननन्द को अगानिस या जेन्द्रमिस कहा है। वह बहुत वैभवशाली था। उसके पास शाहजहाँ की भाँति अपार धन था। एक सिंहली जनश्रुति के अनुसार उसने गंगा नदी के तट पर एक चट्टान में काफी गहरी खुदायी करके अपने कोष को गाड़ा था। एक तमिल कविता में भी इसका जिक्र है। उसके पास 80 करोड़ (कथासरितसागर के अनुसार 99 करोड़) का स्वर्ण था। ह्वेनसांग ने नन्दों के रत्नों के खजानों का उल्लेख किया है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने ब्राह्मण चाणक्य (कौटिल्य) की सहायता से धननन्द पर आक्रमण कर दिया और उसे पराजित कर एवं उसका वध कर नन्द वंश की अन्त कर दिया।

 

नन्दों का महत्त्व या योगदान

 

(नंदों का महत्व या योगदान)

 

नन्दों का इतिहास में अपना विशेष महत्त्व है। उनका अपना योगदान भी काफी रहा। इन्होंने ही विभिन्न् छोटेछोटे टुकड़ों में विभक्त भारत को राजनीतिक एकता के पथ पर अग्रसर किया जिसमें भावी सम्राटों को एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने में सहायता मिली। वी० ए० स्मिथ का कथन है कि, “नन्दों ने परस्पर विरोधी राज्यों को इस बात के लिये विवश किया कि वे अपनी उखाड़पछाड़ करें और स्वयं को किसी उच्चतर नियात्मक सत्ता के हाथों में सौंप दें।नन्दों ने एक ऐसी सेना तैयार की जिसका उपयोग मगध के परवर्ती शासकों ने विदेशी आक्रमणकारियों के हमले को रोकने में और अपने राज्य के विस्तार की नीति को कार्यान्वित करने में किया। नन्दों ने देश को एक सुव्यवस्थित और सुसंगठित शासन प्रणाली भी दी।

 

 

 

 

मौर्य राज्य और प्रशासन

 

 

“The advent of the Mauryan dynasty marks the passage from darkness to light for the historian chronology suddenly becomes definite, almost precise, a huge empire spring into existence.” -Dr. V. A. Smith प्रश्न 1 वन्द्रगुप्त मौर्य के प्रारम्भिक जीवन एवं घटनाओं का वर्णन करते हुये उसकी
 
Cintnutary विजयों एवं साम्राज्य विस्तार की विवेचना कीजिये। Describing the earlylife and events of Chandragupta Maurya, discuss his conquests and the extent of his empire. चन्द्रगुप्त मौर्य की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिये। Throw light on the achievements of Chandragupta Maurya.
 
 
 

उत्तर

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवन चरित्र

 

(चंद्रगुप्त मौर्य का जीवन रेखाचित्र)

 

चन्द्रगुप्त का पिता (नाम ज्ञात नहीं) नेपाल की तराई में पिप्लिवन के मौयों के प्रजातन्त्र राज्य का प्रधान था। दुर्भाग्यवश एक शक्तिशाली राजा ने (अज्ञात) उसकी हत्या करवा दी और उसके राज्य को छीन लिया। चन्द्रगुप्त की माता उन दिनों गर्भवती थी। इस आपत्तिकाल में वह अपने सम्बन्धियों के साथ भाग गयी और अज्ञात रूप में पुष्पपुर या पाटलिपुत्र में निवास करने लगी। अपनी जीविका चलाने तथा अपने राजवंश को गुप्त रखने के लिये वह यहाँ पर मयूर पालकों का कार्य करने लगी। यहीं पर 345 ई० पू० चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ। जन्म होने पर उसकी माँ ने उसे (चन्द्रगुप्त को) एक ओखली में रखकर एक स्थान (मवेशीशाला) पर फेंक दिया। वहाँ पर चन्द नामक एक वृषभ (ग्वाले) ने उसकी रक्षा की जिससे उस बच्चे का नाम चन्द्रगुप्त (चन्द या चन्द्र द्वारा शिक्षित) पड़ा। कुछ सामाजिक सुख से प्रभावित होकर एक शिकारी उसे अपने साथ ले गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त का शैशव काल मयूर पालकों, चरवाहों (ग्वालों) एवं शिकारियों के मध्य व्यतीत हुआ।

 

जब चन्द्रगुप्त बड़ा हुआ तो उसने मगध के नन्द राजा के यहाँ नौकरी कर ली। अपनी प्रतिभा और योग्यता के बल पर वह मगध की सेना का सेनापति बन गया। वह नन्द राजा का सभासद भी रहा। परन्तु कुछ कारणों से मगधनरेश उससे अप्रसन्न हो गया और उसे मृत्यु दण्ड की आज्ञा दे दी गयी। अतः अपने प्राणों की रक्षा हेतु चन्द्रगुप्त मगध से भाग गया और नन्द वंश को विनष्ट करने का संकल्प कर लिया।

 

यद्यपि चन्द्रगुप्त ने नन्द वंश के उन्मूलित करने का संकल्प कर लिया था, परन्तु अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उसके पास साधन थे। अतएव साधन की खोज में वह पंजाब की ओर चला गया और इधरउधर भटकता हुआ तथशिला पहुंचा जहाँ विष्णुगुप्त को चाणक्य भी कहते हैं क्योंकि कामवासे भी कहते हैं क्योंकि उसके पिता का चाणक्य बहुत बड़ा विद्वान तथा राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित था। यह भारत के पश्चिमोत्तर भाग को राजनीतिक परिचित था और उसे यह आशंका लगी रहती थी कि यह प्रदेश कभी भी विदेशी आक्रमणकारियों का शिकार बन सकता है। अतएव इस भूभाग के छोटेछोटे राज्यों को समाप्त कर वहाँ एक प्रबल केन्द्रीय शासन स्थापित करना चाहता था जिससे विदेशी आक्रमणकारियों से देश की रक्षा हो सके। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये मगध नरेश की सहायता प्राप्त करने के लिये पाटलिपुत्र गया, परन्तु सहायता प्राप्त करने के स्थान पर वह धार्मिक अनुष्ठान में नन्द राजा द्वारा अपमानित किया गया। चाणक्य वहा ही क्रोधी तथा उप प्रकृति का व्यक्ति था। उसने नन्द वंश के विनष्ट करने का संकल्प ले लिया। उसने अपनी चोटी खोल दी और उसे तब तक नने का प्रण लिया जब तक वह नन्दों का विनाश कर दे, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार द्रौपदी ने दुस्साशन से घोर अपमानित होने पर अपने केश खोल दिये थे और उन्हें तब तक बाँधने की कसम खाई थी तब तक कि वह उसकी (दुस्साशन की) छाती के लहू से उन्हें धो ले।

 

नन्द वंश के विशाल साम्राज्य को उन्मूलित करने के साधन चाणक्य के पास थे। अतएव वह साधन की खोज में संलग्न था। इसी समय उसकी भेंट चन्द्रगुप्त से हो गयी। चाणक्य और चन्द्रगुप्त समउद्देशीय थे। दोनों ही नन्द वंश का विनाश करना चाहते थे। परन्तु दोनों ही के पास साधनों का अभाव था। संयोगवश इन दोनों ने एकदूसरे की आवश्यकता की पूर्ति कर दी। चाणक्य को एक वीर साहसी तथा महत्त्वाकांक्षी नवयुवक की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति चन्द्रगुप्त ने कर दी और चन्द्रगुप्त को एक विद्वान्, अनुभवी, कूटनीतिज्ञ तथा सेना एकत्रित करने के लिये धन की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति चाणक्य ने कर दी। फलतः इन दोनों में मैत्री तथा गठबन्धन हो गया।

 

अब अपने उद्देश्य की पूर्ति की तैयारी करने के लिये दोनों मित्र विन्ध्याचल के वनों की ओर चले गये और धन एकत्र किया (महावंश एवं परिशिष्टपर्वन) फिर दोनों ने विभिन्न स्थानों से भाड़े की एक सेना (स्थानीय गणतान्त्रिक जातियों जिन्हें जस्टिन नेलुटेरेकहा) तैयार की। रीज डेविड्स के अनुसार, ये पंजाब से भरती किये गये सैनिक थे। इस सेना की सहायता से मगध पर आक्रमण किया गया, परन्तु नन्दों की शक्तिशाली सेना ने उन्हें परास्त कर दिया और वे मगध से भाग खड़े हुये।

 

इन दोनों मित्रों ने अपने प्राणों की रक्षा के लिये पंजाब की ओर प्रस्थान कर दिया। अब इन लोगों ने इस बात का अनुभव किया कि मगध राज्य के केन्द्र पर प्रहार कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी। वास्तव में उन्हें इस राज्य के एक किनारे पर उसके सुदूरस्थ प्रदेश पर आक्रमण करना चाहिये था, जहाँ केन्द्रीय सरकार का प्रभाव कम और उसके विरुद्ध असन्तोष अधिक रहता है। इन दिनों यूनानी विजेता सिकन्दर पंजाब में ही था और वहाँ के छोटेछोटे राज्यों को समाप्त कर रहा था। चन्द्रगुप्त ने नन्दों के विरुद्ध सिकन्दर की सहायता लेने का विचार किया। अतएव वह सिकन्दर से मिला और कुछ दिनों तक उसके शिविर में रहा। परन्तु चन्द्रगुप्त के स्वदेश प्रेम और महत्त्वाकांक्षी स्वतन्त्र विचारों से सिकन्दर अप्रसन्न हो गया और उसका वध कर देने की आज्ञा दे दी। चन्द्रगुप्त अपने प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ। अब उसने मगध के विनाश के साथसाथ यूनानियों को भी अपने देश से भगाने का निश्चय कर लिया और अपने मित्र चाणक्य की सहायता से अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये योजनायें बनाने लगा

 

 

 

चन्द्रगुप्त की विजयें (Conquests of Chandragupta)

 

(1) पंजाब सीमान्त प्रान्तों पर विजयजिस समय सिकन्दर भारत में ही था उसी समय अश्वकायनों ने पुष्कलावती के क्षत्रप निकनौर की हत्या कर दी गधार में भी एक भारतीय के भड़काने पर विद्रोह हो गया। जब सिकन्दर ने भारत से प्रस्थान किया तो स्थिति और भी बिगड़ गयी। निकनोर के बाद के प्रशासक फिलिप की भी हत्या कर दी गयी। उसके बाद यूनानी शिविर का सेनापति यूडेमस (Eudamus) भी कुछ नहीं कर पाया। 323 ई० पू० में सिकन्दर की मृत्यु के बाद तो यूनानियों की भारत में स्थिति और

 

भी डांवाडोल हो गयी। मुकर्जी के अनुसार, सिकन्दर की मृत्यु वास्तव में भारत में यूनानी शासन की मृत्यु थी। उसकी मृत्यु के बाद उसका शासन छिन्नभिन्न होने लगा। उसके सेनापतियों में ही साम्राज्यविभाजन को लेकर संघर्ष होने लगा। इधर भारतीयों ने यूनानियों के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया। चन्द्रगुप्त के लिये यह स्वर्ण अवसर था और इससे उसने पूरा लाभ उठाने का प्रयत्न किया। उसने भारतीयों को यूनानियों के विरुद्ध खूब भड़काया। उसने क्रान्तिकारियों का नेतृत्व ग्रहण किया और यूनानियों को पंजाब से भगाना आरम्भ किया। यूनानी सरदार यूडेमस अन्य यूनानियों के साथ भारत छोड़कर भाग गया और जो सैनिक भारत में रह गये थे वे मौत के घाट उतार दिये गये।

 

(2) मगध पर पुनः आक्रमण जैसेजैसे वह विजय प्राप्त करता जाता वैसेवैसे वह वहाँ अपनी सेनायें भी नियुक्त करता जाता था। इस प्रकार यही रणपद्धति अपनाकर उसने मगध पर पुनः आक्रमण किया। वह अपनी विशाल सेना के साथ मगध साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर टूट पड़ा। सेनापति भदसाल के नेतृत्व में मगध नरेश के चन्द्रगुप्त की सेना की प्रगति राकने के सभी प्रयत्न निष्फल सिद्ध हुये। मुद्राराक्षस के अनुसार, चाणक्य के प्रयत्न से पर्वतक नामक राजा ने चन्द्रगुप्त की सहायता की थी। भीषण युद्ध के पश्चात् चन्द्रगुप्त घननन्द को परास्त करने में सफल हुआ।

 

इस प्रकार नन्द वंश के उन्मूलन से मगध एक ऐसे राजवंश के आधिपत्य से मुक्त हो गया जिससे अपनी महान सेनाओं के पश्चात् भी जनता का वास्तविक हित करने अथवाउत्तरपश्चिम से विदेशी आक्रमणों को रोकने के विषय में कोई बुद्धिमत्ता प्रदर्शित नहीं की थी। चन्द्रगुप्त ने जनहित और यवनों की विपत्ति से देश की रक्षा करके अपने वंश के अस्तित्व की उपयोगिता प्रमाणित की और मगध (पाटलिपुत्र) में सिंहासनारूढ़ हो जाने पर चाणक्य ने 322 ई० पू० में उसका राज्याभिषेक कर दिया और यह एक युग परिवर्तनकारी घटना थी। इसीलिये प्राचीन भारतीय इतिहास में 322 ई० पू० को काफी महत्त्वपूर्ण तिथि माना जाता है.

 

(3) मल्यकेतु के विद्रोह का दमनउत्तरी भारत पर विजय प्राप्त करने के पूर्व ही चन्द्रगुप्त ने पर्वतक नामक प्रधान से मैत्री कर ली थी। पर्वतक हिमालय पर्वत के कुछ जिलों में शासन करता था। मगध पर जिस समय चन्द्रगुप्त को विजय प्राप्त हुयी उसके बाद ही पर्वतको मृत्यु हो गयी और उसका पुत्र मलयकेतु राजा हुआ मुद्राराक्षस से हमें पता चलता है कि मलयकेतु ने नन्दराज के मन्त्री राक्षस तथा 5 अन्य सामन्तों की सहायता से चन्द्रगुप्त के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया, परन्तु चन्द्रगुप्त के मन्त्री चाणक्य ने अपनी कूटनीति से विपक्षियों में फूट उत्पन्न कर दी। इससे मलयकेतु निर्बल हो गया और उसने चन्द्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। यह चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण के बाद की शायद प्रथम महत्त्वपूर्ण घटना है।

 

 

(4) पश्चिमदक्षिण भारत पर अभियानचन्द्रगुप्त ने पश्चिम और दक्षिण भारत पर तक भी अभियान किया। पश्चिम में उसकी विजय के बारे में कोई संशय नहीं रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख (150 ई०) से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रान्तीय शासक पुष्पगुप्त ने किस प्रकार उर्जयत पर्वत से नीचे की ओर बहने वाली सुवर्णसिन्ता फ्लाशिनी आदि नदियों पर बांध बनाकर सौराष्ट्र में प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण कराया था। पुष्यगुप्त सौराष्ट्र का प्रान्तीय शासक (गवर्नर) था। सौराष्ट्र की विजय के परिणामस्वरूप अवन्ति (मावा) पर भी उसका अधिकार हो गया था। मुम्बई के थाना जिले के सोपारा नामक स्थान

 

 

से प्राप्त अशोक के शिलालेख से ज्ञात होता है कि सोपारा भी चन्द्रगुप्त के अधीन था। चन्द्रगुप्त ने दक्षिण में भी विजय प्राप्त की थी। परन्तु तारानाथ के वर्णन से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त के बाद चाणक्य बिन्दुसार का मन्त्री रहा जिसने 16 नगरों के सामन्तों और राजाओं को परास्त कर बिन्दुसार को पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों के बीच के समस्त प्रदेशों का स्वामी बना दिया। इस आधार पर स्मिथ और अयंगर दक्षिण विजय का श्रेय बिन्दुसार को दे देते हैं। (5) सेल्यूकस से संघर्षचन्द्रगुप्त का अन्तिम संघर्ष निकेटर के साथ हुआ। ए० के०

 

मित्तल ने मगध के बाद सेल्यूकस से युद्ध का वर्णन किया है। इस मुठभेड़ में सेल्यूकस की पराजय हुयी और विवश हो उसे चन्द्रगुप्त से सन्धि करनी पड़ी। जिसके अनुसार– (i) चन्द्रगुप्त को अरिया (Aria) अर्थात् हेरात, परोपनिसदी (Paropnisadac) अर्थात् काबुल, आर्कोशिया (Archosia) अर्थात् कन्दहार तथा जैड्रोसिया (Gedrosia)

 

अर्थात् बलूचिस्तान के प्रान्त प्राप्त हो गये। इसी कारण चन्द्रगुप्त का साम्राज्य, जो सेल्यूकस की पराजय के पूर्व सिन्धु नदी तक

 

सीमित था, हिन्दूकुश तक विस्तृत हो गया। (ii) चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी प्रदान किये।

 

क्या चन्द्रगुप्त परास्त हुआ था ? नहीं, विजय उसे ही मिली थी। उसने 500 हाथी सेल्यूकस को उपहार देकर मित्रता को प्रगाढ़ किया। (iii) सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। अपनी लड़की हेलन का विवाह चन्द्रगुप्त (या उसके पुत्र विन्दुसार) के साथ किया।

 

 

 

साम्राज्य विस्तार

 

 

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मौर्य साम्राज्य की सीमा पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत से लेकर पूर्व में बंगाल प्रदेश (जिसकी पुष्टि महास्थान अभिलेख से भी होती है तक और उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कृष्णा तक फैल गया था। विमल चन्द्र पाण्डेय के अनुसार, उत्तर में कश्मीर और नेपाल तथा दक्षिण पूर्व में कलिंग भी उसके साम्राज्य में थे।

 

चन्द्रगुप्त के अन्तिम दिन

 

 

जैन परम्पराओं के अनुसार चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उसने सिंहासन अपने पुत्र को सौंप दिया और स्वयं भद्रबाहु नामक जैन भिक्षु के साथ मैसूर चला गया और वहीं श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर अनशन द्वारा (300 या 298 ई० पू० ) शरीर त्याग दिया। किन्तु इसके विपरीत यूनानी लेखकों के

 

 

 

 

 

 

मौर्य राज्य और प्रशासन

 

 वृत्तान्त से पता चलता है कि प्रथम मौर्य सम्राट ने यज्ञ करना नहीं छोड़ा था और जैनियों के अहिंसा के सिद्धान्त से वह कोसों दूर था।
 
प्रश्न 2- चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन के बारे में आप क्या जानते हैं
 
 
What do you know about the administration of Chandragupta “चन्द्रगुप्त एक महान् विजेता था परन्तु वह उससे भी महान् शासक प्रवन्धक
 
या
 
शासन प्रबन्ध का वर्णन कीजिये। Describe Mauryan administration.
 
 
उत्तर
 
था।इस कथन की समीक्षा कीजिये। चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबन्ध (Administration of Chandragupta Maurya)

 

ओमे

 

मौर्य शासन प्रबन्ध का प्रणेता चन्द्रगुप्त मौर्य था। वह केवल एक महान् विजेता ही नहीं अपितु एक योग्य शासक भी था। प्रशासन का मुख्य उद्देश्य थाजन कल्याण गरीबों, अनाथ, रुग्ण व्यक्तियों का भरणपोषण करना राज्य का काम था। न्याय, धर्म तथा वर्णाश्रम धर्म को कायम रखना भी राज्य का उद्देश्य था। आर्थिक मामलों में भी राज्य सक्रिय भाग लेता था यही शासन की प्रकृति थी, उसका आदर्श था। राज्य का स्वरूप कल्याणकारी था। खास जानकारी हमें कौटिल्य के अर्थशास्त्र और मेगस्थनीज की इण्डिका से मिलती है। केन्द्रीय शासन

 

(1) राजा सर्वोच्चचन्द्रगुप्त के शासन का रूप प्रबुद्ध राज्य (Enlightened Despotism) था। पूरी सत्ता राज्य के अधीन थी, किन्तु राजा का ध्येय अधिक से अधिक कल्याण करना था। सिद्धान्त रूप में राज्य की शक्ति उसके हाथ में केन्द्रित थी, यद्यपि व्यवहार में कई प्रतिबन्धों के कारण उसकी शक्ति और निरंकुशता सीमित थी। अर्थशास्त्र के अनुसार राजा के 3 कर्तव्य थेशासन सम्बन्धी, न्याय सम्बन्धी और सैनिक शासक 1 की हैसियत से वह राज्याधिकारियों की नियुक्ति करता, अर्थ विभाग के कागज पत्रों को देखता, विदेशी राजदूतों से बातचीत करता और अपने राजदूत बाहर भेजता, गुप्तचरों द्वारा राज्य के सम्बन्ध में विवरण सुनता और प्रजा तथा राजपुरुषों के पास शासन अथवा आज्ञापत्र भेजता था। न्यायाधीश की हैसियत से वह अपनी राज्य सभा के नीचे के न्यायालयों से अपील सुनता, प्रजा से सीधे आवेदनपत्र भी लेता और उनके अभियोगों पर निर्णय देता। सैनिक कर्त्तव्य पालन में वह युद्ध के समय स्वयं सेना का नेतृत्व करता और शान्ति के समय सैन्य संगठन और साम्राज्य रक्षा की व्यवस्था करता था

 

राजाज्ञा सर्वोच्च थी। इसी प्रकार का शासन यूनानी राज्यों में भी था। (2) राजा की दिनचर्याकौटिल्य तथा मेगस्थनीज दोनों का ही कथन है कि राजा राज्य कार्य में बहुत व्यस्त रहता था तथा बहुत कम सोता था। सबसे पहले राजा रक्षा तथा अर्थव्यवस्था और उसके बाद नागरिक समस्याओं पर विचार करने के बाद मध्यान्ह में स्नानभोजन से निवृत्त हो कुछ समय स्वाध्याय करता था, अपरान्ह में आयव्यय की जाँच, अध्यक्षों से बंद मन्त्रिपरिषद् तथा गुप्तचरों की रिपोर्ट्स का अवलोकन सेना तथा शास्त्रों का निरीक्षण आदि से निवृत्त हो संध्योपासना करता था। रात्रि के प्रथम पहर में गुप्तचरों से भेंट करता तथा रात्रि के भोजन के पश्चात् राजकीय समस्याओं पर विचार करता था।

 

(3) मन्त्रिपरिषद् तथा अध्यक्षइतनी व्यस्तता के बाद भी राजा अकेला राज्य को नहीं सम्भाल सकता था। उसकी सहायता के लिये मन्त्रिपरिषद् तथा सुनियोजित अधिकारी

 

भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ३० वर्ग होता कोटिल्य ने राज्याधिकारियों या नौकरशाही (Bureaucracy) की एक फहरिस्त दी है। उसने 18 तीर्थों या उच्च अधिकारियों या महामात्र या अमात्य का किया है– (सर्वोच्च परामर्शदाता), पुरोहित (राज्य तथा धार्मिक कार्यों में परामर्श देने वाल सेनापति युवराज का उत्तराधिकारी तथा परामर्शदाता), दीवारिक (मुख्य स्वागत अधिकारी तथा द्वार रक्षक) आंतर्वेशिक (अन्तपुर का रक्षक), प्रशास्तु (पुलिस का सर्वोच् अधिकारी), समाहर्ता (आय संग्रहक), सन्निधाता (कोषाध्यक्ष), प्रदेष्टि (क्षेत्रीय अधिकारी अथवा दण्डनायक), नायक (पैदल सेना का मुख्य अधिकारी अथवा नगर कोतवाल), व्यावहारिक (न्यायाधीश), नगर निरीक्षक (स्थानीय निकायों का अधिकारी), व्यापाराध्यक्ष (उद्योग तथा व्यापार का अधीक्षक), अन्तपाल (सीमा सुरक्षा सम्बन्धी अधिकारी), कर्मान्तक (खानों का

 

अध्यक्ष), महापौर (नगर का सर्वोच्च अध्यक्ष), आटविक (वन विभाग का अध्यक्ष) (4) अधिकारियों का वेतन उपरोक्त में से प्रथम 4 को 48,000 पण और अन्यों को 24,000 पण प्रतिवर्ष वेतन मिलता था। इनके अतिरिक्त भी जो बहुत से छोटे अधिकारी थे उन्हें 12,000 से 4,000 पण तक वार्षिक वेतन मिलता था।

 

(5) विभागकौटिल्य ने 26 विभागोंकोश, खान, धातु, टकसाल, लवण, सुवर्ण, कोष्ठागार, व्यापार, वन, शस्त्र, तोल मोल, शुल्क, बुनकर, कृषि, सुरा, बूचड़खाना, पोत, गो अश्व, हाथी, रथ, पत्ति (पासपोर्ट), चरागाह, गुप्तचर, धार्मिक, द्यूत, जेल का उल्लेख किया है। प्रत्येक विभाग एक विभागाध्यक्ष के अधीन होता था। विभागाध्यक्ष एक मन्त्री के अधीन होते थे। एक मन्त्री के पास एक से अधिक विभाग भी होते थे।

 

(6) राजा का दरबारपतंजलि कर्टियस (मेगस्थनीज के आधार पर) तथा कौटिल्य ने चन्द्रगुप्त के दरबार का वर्णन किया है। उनके वर्णनानुसार दरबार शानदार था। राजप्रासाद की दीवारों पर सोने का काम था, उसमें सोने के पक्षी और सोने की अंगूर की बेल होती थी। दरबार में राजा राजदूतों तथा मन्त्रियों से भेंट करता था, प्रजा की प्रार्थना सुनता था और न्यायिक अपीलों के फैसले देता था। दरबार के दरवाजों पर अंगरक्षक तथा सैनिक पहरा देते थे तथा चारों और सादे वेश में गुप्तचर तैनात रहते थे।

 

न्याय व्यवस्था

 

सम्राट उच्च न्यायाधिकरण था जिसका निर्णय अन्तिम होता था। राज्य में दो प्रकार के न्यायालय थे— (i) धर्मस्थीय और (ii) कंटकशोधन धर्मस्थीय न्यायालय आधुनिक दीवानी न्यायालय की तरह था और कंटकशोधन आधुनिक फौजदारी न्यायालय की तरह (1) धर्मस्थीय न्यायालयइसमें 3 धर्मशास्त्र के ज्ञाता तथा 3 अमात्य होते थे धर्मस्थ

 

न्याय 4 प्रकार के होते थे— (i) जनपदीय, (i) दस ग्रामों पर, (iii) चार सौ प्रामों पर, और (iv) आठ सौ ग्रामों पर स्थापित होते थे। पिछले 3 न्याय क्रमशः संग्रहक, द्रोणमुख तथा स्थानीय कहलाते थे।

 

(2) न्याय प्रक्रियावादी तथा प्रतिवादी दोनों को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाता था। प्रथम बार ही अभियोक्ता को सब विवरण दे देना होता था। बयान बदलने की अनुमति विशेष परिस्थिति में ही दी जाती थी। विवाद का निबटारा करते समय न्यायाधिकरण अभियुक्त तथा अभियोक्ता का चालचलन देखते थे। यदि अभियुक्त जीत जाता था तो वह अभियोक्ता पर उल्टा मुकदमा नहीं चला सकता था, किन्तु मारपीट, डाका तथा व्यापारिक संघों के मुकदमों में ऐसा हो सकता था। अभियुक्त पर एक ही आरोप पर बारबार अभियोग नहीं चलाया जा सकता था। यदि कोई समय माँगता तो उसे 3 से 7 दिन का समय दे दिया जाता था। ऋणों के मामलों में डिक्री देते समय यह ध्यान रखा

 

जाता था कि अभियुक्त का सर्वस्व ही छिन जाये मुकदमों को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता था। अधिकांश विवाद पंचों द्वारा निम्न स्तर पर ही निबटा दिये जाते थे। (3) न्याय विधिन्यायाधिकरण निर्णय देते समय इस बात पर ध्यान देता था कि क्या (i) अपराधी ने वह अपराध पहले भी किया है, (ii) उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है, (iii) अभियुक्त स्वपक्ष का प्रतिपादन तथा प्रश्नों का उत्तर सरलता से देता है तथा क्या वह शपथपूर्वक कह रहा है ? साक्ष्य भी वही मान्य होते थे जो चरित्रवान तथा प्रतिष्ठावान हों। इकरारनामों तथा अन्य समझौते पर गवाहों के हस्ताक्षर होते थे। धर्मस्थों में मुख्य रूप से दीवानी तथा साधारण फौजदारी विवाद लाये जाते थे।

 

(4) कंटकशोधन न्यायाधिकरण यह मौर्य शासन की अपनी विशेषता थी। समय की आवश्यकता ने मौर्यों को यह प्रणाली चालू करने के लिये प्रोत्साहित किया। राय चौधरी के अनुसार – ” ऐसा लगता है कि नयी सामाजिक अर्थव्यवस्था की निरन्तर वर्तमान विषमताओं को देख कर इन न्यायालयों की स्थापना की गयी तथा सभी विषयों में अति संगठित नौकरशाही के निर्णयों को लागू किया जाता था। ये विशेष न्यायाधिकरण (Special Tribunals) थे जिनमें सामाजिक रूप (Summary Judgement) से न्याय कर दिया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि नये साम्राज्य में शान्ति तथा व्यवस्था स्थापित करने के लिये तथा षड्यन्त्रों और राजद्रोहियों का दमन करने के लिये एक ऐसी न्याय प्रणाली की आवश्यकता समझी गयी जो त्वरित निर्णय देकर समाज कंटकों का उन्मूलन कर सके। प्रकार के न्यायाधिकरण विशेष परिस्थितियों में अन्यत्र भी कायम किये गये। फ्रांस इसका उदाहरण है। नयी व्यवस्थायें साम्राज्य में कायम हो रही थीं जिनको लागू करना शासन की समस्या रही होगी। प्रशासकों (Executive) के हाथ मजबूत करना आवश्यक था।

 

(5) दण्ड विधानचन्द्रगुप्त के शासन में कठोर दण्ड व्यवस्था थी। झूठी गवाही अथवा अंगभंग के अपराध के लिये मृत्यु दण्ड दिया जाता था। जिस हाथ से चोट पहुँचायी जाती थी उसी हाथ को काट दिया जाता था। दण्ड तीन प्रकार के थे— (i) जुर्माना, (ii) शारीरिक एवं (ii) मृत्यु दण्ड जुर्माना की कई श्रेणियाँ थीं। कौटिल्य ने चोरी तथा लूट में अन्तर किया है तथा खुले आम किसी की वस्तु का अपहरण करना साहस कहलाता था। साहस की तीन श्रेणियाँ थीं। खानेपीने को छोटीमोटी चीजें उठा लेना, राज्य की बुराई करना, प्रथम साहस कहलाता था, कीमती वस्तुओं, बरतनों आदि का अपहरण मध्यम साहस कहलाता था तथा पशु, खेत, मकान पर कब्जा, जाति या श्रेणी की बुराई करना भी मध्यम साहस की कोटि में आता था। स्त्रीपुरुषों का अपहरण, देवालयों की निन्दा, कारागार से बन्दी भगा ले जाना आदि उत्तम साहस कहलाता था। प्रथम साहस के लिये 12 से 48 पण, मध्यम साहस के लिये 500 पण तथा उत्तम साहस के लिये 1,000 पण तक जुर्माना किया जाता था। जो लोग Accomplices होते थे उन्हें दुगुनाचौगुना दण्ड दिया जाता था जुर्माने के अतिरिक्त अंगभंग की व्यवस्था भी थी। अपराधियों से अपराध स्वीकार करवाने या उन्हें दोषी या निर्दोष प्रमाणित करने के लिये विभिन्न उपाय (Ordeals) किये जाते थे। दण्ड के तौर पर आज के समान सिर मुंडवा देने की प्रथा भी थी। जिनकी सम्पत्ति की हानि होती थी उनकी क्षतिपूर्ति की जाती थी। वृक्षों को तोड़ने या खराब करने पर भी मध्यम साहस का दण्ड दिया जाता था। सीमा वृक्षों को तोड़ने पर दुगुना दण्ड मिलता था। गौ एवं ब्राह्मण अवध्य थे शिल्पियों के अंगभंग पर मृत्यु दण्ड था।

 

(6) अपराध बहुत कम चन्द्रगुप्त की दण्ड व्यवस्था तथा कुशल प्रशासन का ही परिणाम था कि राज्य में चोरियाँ नहीं होती थीं तथा लोगों में ईमानदारों की भावना विद्यमान थी, इसलिये अपराध कम होते थे। लोग मकानों की सुरक्षा की आवश्यकता नहीं समझते

 

थे। यूनानी इतिहासकारों ने चन्द्रगुप्त के कठोर नियमों की आलोचना की है तथा उसे उत्पीड़क (Oppressor) बताया है। घोष के अनुसार, यह आरोप अतिशयोक्तिपूर्ण तथा सत्य से परे है। चन्द्रगुप्त के दण्ड विधान को कठोर कहा जा सकता है, किन्तु उस समय की अस्त व्यस्त दशा, लगातार युद्ध तथा कुशल शासन पद्धति की स्थापना के लिये कठोरता तथा धन दोनों की ही आवश्यकता थी। जो भी हो, चन्द्रगुप्त को निरंकुश नहीं कहा जा सकता। सैन्य व्यवस्था

 

चन्द्रगुप्त का सैनिक प्रशासन बड़ा संगठित था। कौटिल्य 6 प्रकार की सेना का वर्णन करता है—(i) पैतृकू, (ii) किराये की, (ii) लड़ाकू श्रेणियों की (शस्त्रोपजीवी), (iv) मित्र की, (vi) शत्रु की और (vi) खूंखार जाति की। आगे वह कहता है कि अच्छी सेना पैतृक हो, आज्ञाकारी हो, सन्तुष्ट हो, तत्पर हो, भलीभाँति प्रशिक्षित हो, दोहरी नीति से अलग हो। युद्ध के समय राजा अपने प्रधान सेनापति के साथ सामरिक दाव पेंच पर विचार करता था (बाद में सेनापति राजा पर छा गया था। उसकी सेना में 6,00,000 पैदल, 30,000 घुड़सवार, 9,000 हाथी और करीब 8,000 रथ थे। इस विशाल सेना की सुनियोजित व्यवस्था के लिये 300 सदस्यों का एक मण्डल होता था, उस मण्डल की 6 समितियां होती थीं और प्रत्येक में 5 सदस्य होते थे (इस प्रकार की व्यवस्था चन्द्रगुप्त की व्यक्तिगत सुझ जान पड़ती हैं) ये 6 समितियाँ क्रमशः जल सेना, रसद, पैदल अश्वारोही, हाथी और रथों की देखरेख करती थीं। अन्तिम 4 चतुरंगिणी सेना (पट्टी या पदाति, अश्व हस्ति और रथ) के अंग थे। प्रत्येक पदाति के पास उसकी लम्बाई के बराबर धनुष होता था और तीन हाथ लम्बी और काफी चौड़े फल वाली तलवार भी होती थी और घुड़सवार सैनिक के पास दो भाले और ढाल होती थी। समस्त सेना चन्द्रगुप्त के अधीन थी। वह सेनापति था। सेना का प्रबन्ध करने वाला अधिकारी बलाध्यक्ष कहलाता था। सेना के विभिन्न विभागों के अधिकारी इसके अधीन थे। सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिये भाट, चारण आदि होते थे। बीमार और घायल सैनिकों के उपचार के लिये सेना के साथसाथ चिकित्सा विभाग भी रहता था। जैसे आजकल रेडक्रास होते हैं। सैनिकों के लिये राजकीय कारखानों में विभिन्न प्रकार के आक्रमणात्मक और रक्षात्मक अस्त्रशस्त्रों का निर्माण होता था। उसके लिये राजकीय पदाधिकारी और निरीक्षक होते थे तथा शस्त्रागार भी होता था। दुर्गों का संगठन भी प्रशंसनीय था।

 

पुलिस एवं गुप्तचर विभाग

 

चन्द्रगुप्त मौर्य के समय पुलिस एवं गुप्तचर विभाग का प्रशासन अच्छा था। गुप्तचर विभाग वास्तव में पुलिस विभाग का एक अंग था। पुलिस विभाग 2 भागों में विभक्त था— (i) प्रकट और (ii) गुप्त प्रथम भाग के लोग रक्षित कहलाते थे और दूसरे के गुप्त रक्षित समाज की रक्षा करते थे। गुप्त, जिन्हें स्ट्रेवो ने एफोरी (Ephori) याइन्सपेक्टरकहा है, एरियन ने ओवरसिअर कहा है, कौटिल्य ने गूढ़पुरुष का राजपुरुष कहा है, साम्राज्य के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण मसले के बारे में गोपनीय जानकारी राजा को देते थे। स्ट्रेबो ने कई प्रकार के गुप्तचरों का वर्णन किया है। इनमें से एक तो नगर के गुप्तचर होते थे जो वेश्याओं को अपना सहायक तैनात रखते थे। इसके बाद महिलायें शिविर गुप्तचरों की श्रेणी होती थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी साधारण गुणों वाली महिलाओं को गुप्तचर के रूप में नियुक्ति करने का उल्लेख है। अर्थशास्त्र के अनुसार गुप्तचरों की 2 श्रेणियाँ थीं— (a) संस्था 1. पैदल सेना 4 प्रकार की होती थीं— (i) मोलवल (पुश्तैनी या आनुवांशिक), (ii) भूतक (किराये की), (iii) श्रेणी

 

बल (आयुध श्रेणियों से प्राप्त सैनिक), (iv) अटवी बल (था ग्रामीण जिन्हें युद्धकाल में भरती करते थे।

 

 

वित्तीय व्यवस्था

 

वित्तीय विभाग अक्षपटलकहलाता था तथा इसके मुख्य अधिकारी को अक्षपटलाध्यक्ष कहते थे। राज्य का सम्पूर्ण वित्तीय अभिलेख इसी कार्यालय में रखा जाता था। इसके अधीन अनेक कर्मचारी होते जो विभिन्न स्तरों पर कर वसूली में सहायता करते थे.

 

जैसेस्थानीय समाहर्ता, गोप आदि राजस्व तथा आय के मुख्य स्रोत ये थे

 

(1) भूमिकरराज्य के अन्तर्गत भूमि से प्राप्त होने वाली आय कोसीताकहते थे। किसानों के अधीन भूमि के लिये किसानभाग‘ (रूढिगत कर जो राज निश्चित रूप से पैदावार पर लेता ही था) याबलि‘ (इसकी व्याख्या के बार में मतभेद है) के रूप में भूराजस्व अदा करता था। प्रायः पैदावार का 1/6 अंश सरकार को भाग के रूप में मिलता था। यह अंश कभीकभी 1/8 या 1/4 भी कर दिया जाता था। यह सब भूमि को किस्म के अनुसार होता था। उक्त कर के अतिरिक्त भी कभीकभी कर लगाकर किसानों को अन्य करों से मुक्त कर दिया जाता था। इस अतिरिक्त कर को बलि कहते थे। भूमि से उत्पन्न होने वाली अन्य वस्तुओं पर भी कर लगाये जाते थे। इनमें से दो प्रमुख हैं— (i) सेतुफल, फूल, मूल और तरकारियों पर लगने वाला कर, (ii) वन कर वनों पर राज्य का अधिकारथा, अतः उनकी उपज पर भी विभिन्न कर थे

 

(2) आयात और निर्यात कर देश में आयात की जाने वाली वस्तुओं पर जो कर लगता था उसेप्रवेश्यकहते थे और जो साधारणतया 20% होता था। निर्यात की गयी वस्तुओं पर लगे कर कोनिष्काम्यकहा जाता था और उसकी दरें निश्चित रूप से ज्ञात नहीं (3) विक्री करकॉटिल्य के अनुसार कोई भी वस्तु अपने उत्पत्ति स्थान पर बेची नहीं जा सकती। अतः मौर्य काल में बिक्री पर कर लेने की व्यवस्था थी। समस्त वस्तुयें पहले शुक्लाध्यक्ष के पास लायी जाती थीं और उन पर चुंगी लगायी जाती थी। चुंगी की दर तीन थीं

 

(i) गिन कर बेची जाने वाली वस्तुओं पर 945 (ii) तौल कर बेची जाने वाली वस्तुओं पर 5-0%;

 

(iii) नाप कर बेची जाने वाली वस्तुओं पर 6-% (4) नगरों से आयनगरों से अनेक प्रकार की आय होती थी जिसेदुर्गकहते थे और जो निम्नलिखित साधनों से प्राप्त होती थी

 

(i) शराब बनाने वालों से, (ii) नमक बनाने वालों से, (iii) शिल्पकारों से, (iv) कसाइयों से, (v) पीतेल के व्यवसायियों से, (vi) वेश्याओं से, (vii) जुआरियों से (viii) अधिक आमदनी वालों से (ix) मन्दिरों से (1) तौल और नाप के परिणामों से, (xi) नहीं, नाटक करने वालों, गायकों, वादकों, नर्तकों आदि से।

 

(5) राज्य द्वारा अधिकृत व्यवसायों से आयकुछ व्यवसाय पूर्णतः राज्य के अधिकार में थे। इनमें खानें, जंगल, अस्त्रशस्त्र का कारोबार और मुद्रा प्रमुख थे। इनसे राज्य को अच्छी आमदनी होती थी।

 

(6) जुर्मानों से आय राज्य द्वारा अनेक जुमने निश्चित किये गये थे जिनसे काफी धन प्राप्त होता था। (7) विविधमुद्रा पद्धति पूर्णतया राज्य के हाथ में होती थी। रूपा, पण आदि सिक्के टकसाल में बनते थे। जो व्यक्ति चाहे अपनी धातु ले जाकर टकसाल में सिक्के ढलवा

 

प्राये राज्य और प्रशासन सकता था। पर इसके लिये 1359% प्रीमियम देना पड़ता था। पूरे गाँव के किसानों को मिलकर पिडकर देना पड़ता था। इन सबके अतिरिक्त आपाकाल में सम्पत्ति कर पर अन्य भी अनेक प्रकार के कर

 

 

 

लगाये जाते थे। सोना, चांदी आदि का व्यापार करने वाले धनी लोगों से ऐसे अवसरों पर उनकी आमदनी का 60% कर में ले लिया जाता था। मन्दिरों और धार्मिक संस्थाओं से भी ऐसे अवसरों पर उपहार और दाम लिये जाते थे। इसके अलावा सरकार को प्रकीर्णक (नजराने, लावारिसों की राजगामी सम्पत्ति, निरवात निधि Treasure Trove का अंश आदि) तथा मवेशी पालने वालों से आय होती थी। आगे सरकार को जन्म तथा मृत्यु दर से आय होती थी। अर्थशास्त्र में मामीण तथा किलेबन्दी के क्षेत्र में लगाये जाने वाले करो का भी उल्लेख है।

 

(8) कर वसूली के नियमकर वसूली के नियम कठोर थे। करों की चोरी करने बालों से 8 गुना शुल्क दण्डस्वरूप वमूल किया जाता था। कुछ स्थितियों में पुण्य शुल्क मुक्त जैसे के लिये खरीदी हुयी वस्तुये, धर्म कार्य, प्रसव, आदि के लिये क्रय वस्तु, वाह्मण तथा अधिकारी कर से मुक्त होते थे।

 

(9) आमद के व्यय के मदजो आय होती थी उसका व्यय नियमित अनुमान पत्र के अनुसार होता था। मुख्यतः आय को राज्य कर्मचारियों के वेतन, सेनाप्रबन्ध, (बजट) सार्वजनिक आमोदप्रमोद पर व्यय किया जाता था। शिक्षा के लिये भी सरकार व्यय करती थी जिसे देवपूजा कहा जाता था। राज्य की ओर से अनेक शिक्षणालयों का संचालन किया जाता था और उनके शिक्षकों को राज्य की ओर से वेतन मिलता था। फिर बालकों, वृद्धों, अनाथों, रोगप्रस्त और अन्य पीड़ित व्यक्तियों को राज्य की ओर से आर्थिक सहायता दी जाती थी। इसी प्रकार शिल्पियों और समयसमय पर कृषकों को भी मदद दी जाती थी। राज्य राजकीय चिकित्सालय खुलवाता था। दुर्भिक्ष, आग, महामारी आदि आपत्तियों से राज्य जनता की रक्षा करता था। जलाशयों, कुओं, नदियों आदि का निर्माण भी कराया जाता था। इसके अलावा, राजा के विशाल और शानदार अन्तःपुर और उसके कर्मचारियों पर भी भारी धन खर्च किया जाता था। राजा के निजी ठाठबाट पर भी बहुत अधिक व्यय होता था राजा के परिवार विभिन्न व्यक्तियों को राजकोष से नकद वेतन दिया जाता था। इस प्रकार राजा और उससे सम्बन्धियों पर व्यय को Public Money का दुरुपयोग ही कहा जायेगा।

 

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तथा विदेश नीति

 

चन्द्रगुप्त मौर्य की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण अंग अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध था भारत में पहली बार एक ऐसे प्रभावशाली साम्राज्य की स्थापना हुयी थी कि विदेशों से दौत्य (Ambassadorial) सम्बन्ध स्थापित हुये थे। यूनानी विवरणों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त के दरबार में मिस्र (डायोनिसम), सीरिया (डायमेक्स) तथा सेल्यूकस के दूत (मेगस्थनीज) रहते थे। भारत के राजदूत भी इन देशों में भेजे गये थे या नहीं, इसका स्पष्ट कोई उल्लेख यूनानी लेखकों के लेखों से प्राप्त नहीं होता। किन्तु कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजदूतों की योग्यतायें तथा उनके महत्त्व पर विशेष बल दिया है। जिससे प्रतीत होता है कि भारतीय राजदूत इन राज्यों में भेजे गये होंगे।

 

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में विदेश नीति का विशद वर्णन किया है। राजनीति के 6 गुणों का उल्लेख किया है— (i) सन्धि, (ii) विग्रह, (ii) यान (शक्ति संग्रह), (iv) असन्न (तटस्थता की नीति), (v) संशय (शरण लेना), (vi) ईदीभाव (मित्रता तथा शत्रुता) दोनों का प्रयोग। ये सिद्धान्त आवश्यकतानुसार काम में लाये जाते थे। ढाई हजार वर्ष के बाद भी

 

आज राजनीति के इन सिद्धान्तों का उपयोग होता है, और इसे कूटनीति (Diplomacy) कहते हैं। सामान्यतया हितैषीमित्रतथा अपकारीशत्रुकहलाता था। साम्राज्यवादी प्रकृति का राजा (विज़गेषु) शत्रु कहलाता था। ऐसा राज्य यदि पड़ौसी राज्य है तो कौटिल्य ने उससे तर समय सावधान रहने की बात कही है। राजनीति का यह सिद्धान्त भी कौटिल्य को मान्य था कि शत्रु का शत्रु अपना मित्र होता है और शत्रु का मित्र अपना शत्रु होता है। चन्द्रगुप्त इस नीति का उपयोग करता था।

 

प्रान्तीय प्रशासन

 

चन्द्रगुप्त का साम्राज्य कई प्रदेशों या सूबों या प्रान्तों में विभाजित था प्रान्त विभिन्न आहारों या विषयों (जिलों) में विभाजित होते थे, क्योंकि बिना इस विभाजन के कोई भी प्रशासकीय इकाई बड़ा बोझ बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। चन्द्रगुप्त के समय में प्रान्तों की निश्चित संख्या क्या थी, यह बात नहीं। परन्तु उसके पौत्र अशोक के समय में साम्राज्य भर में प्रान्त थे महावंश, दिव्यावदान, मिलिन्दपन्ह में हमें इन प्रान्तों का पता चलता हैउत्तरापथ (राजधानी, तक्षशिला), अवन्तिरट्ठ (राजधानी, उज्जयिनि), दक्षिणापथ (राजधानी, स्वर्णगिरि), कलिंग (राजधानी, तोसली), प्राच्य या प्राचीन प्रासी (राजधानी पाटलिपुत्र) राजधानी से दूरस्थ प्रान्तों का शासन राजवंश के राजकुमारों द्वारा चलता था। इन राजकुमारों को ‘1/2 मार की पदवी प्राप्त होती थी। प्राच्य प्रान्त तथा मध्य देश पर सम्राट स्वयं शासन करता था सम्राट द्वारा शासित प्रान्त के अलावा भी कई क्षेत्र मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत थे जो एक सीमा तक स्वशासित थे। एरियन ने कुछ ऐसे क्षेत्रों या राष्ट्रों का उल्लेख किया है जो स्वशासित थे, तथा जहाँ लोकतन्त्रात्मक सरकारें थीं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कई संघों का जिक्र आया है जो स्वशासित थे। अर्थशास्त्र में कम्बोज और सुराष्ट्र का नाम आया है। अशोक के 13वें शिलालेख में साम्राज्य की पश्चिम सीमा पर कई राष्ट्रों के होने की बात लिखी है। असम्भव नहीं कि सुराष्ट्र इन्हीं राष्ट्रों में से एक रहा हो और पर्याप्त सीमा तक स्वशासित रहा हो। पेतवत्थु की टीका में यहाँ के एक अशोक काल के राजा का नाम पिंगल कहा गया है। जूनागढ़ के रुद्रदामन के शिलालेख में अशोक के समकालीन यवन राजा तुशाष्प का नाम मिलता है। स्थानीय प्रशासन

 

स्थानीय प्रशासन में— (1) नगर एवं (2) गाँव आते हैं। (1) नगरमौर्य साम्राज्य की स्थापना तक भारत में अनेक नगरों की स्थापना हो चुकी थी। हड़प्पा के नगरों के पतन के पश्चात् अनेक आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक कारणों से 6 ई० पू० में पुनः नगरों का उदय हुआ। इसे नगरीकरण (Urbanization) का द्वितीय चरण माना जाता है। नगरों के उदय और विकास ने अनेक नयी समस्याओं को जन्म दिया। अतः इनके समाधान के लिये चन्द्रगुप्त मौर्य ने नगर प्रशासन (Municipal Administration) की तरफ भी ध्यान दिया।इण्डिकाऔरअर्थशास्त्रसे इस विषय पर प्रकाश पड़ता है।

 

नगर का प्रमुखपौर‘, ‘नागरिकयानगराध्यक्षहोता था। मेगस्थनीज ने नगर के अधिकारियों को अस्टीनोमाई (Astynomoi) कहा है। मेगस्थनीज पाटलिपुत्र नगर प्रशासन की विस्तृत जानकारी देता है, जिससे प्रतीत होता है कि वह एक प्रकार की म्युनिसिपल व्यवस्था थी जिसकी आज की म्युनिसिपल कार्य प्रणाली से तुलना की जा सकती है। पाटलिपुत्र के समान ही अन्य नगरों के शासन प्रबन्ध की रूपरेखा रही होगी। पाटलिपुत्र का प्रबन्ध 30 सदस्यों का एक मण्डल करता था। यह मण्डल आधुनिक म्युनिसिपैलिटी की परिषद के समान था। मठ्ठल की 6 समितियाँ थीं। यह नहीं कहा जा सकता है कि ये

 

 

 

समितियाँ नागरिकों द्वारा निर्वाचित होती थीं अथवा सरकार द्वारा मनोनीत हो सकता है, 1 पाटलिपुत्र नगर की समितियों के निर्माण में नागरिकों की आवाज हो, किन्तु अन्य नगरों की समितियों के सदस्य सम्भवतः सरकार द्वारा मनोनीत होते थे। जो भी हो समितियाँ आधुनिक म्युनिसिपलिटी की उपसमितियों के समान ही थी। कहा जा सकता है कि आधुनिक स्थानीय स्वशासन की नगरपालिकाओं का विस्तृत रूप मौर्य साम्राज्य में विद्यमान था। समितियाँ क्रमशः शिल्पियों, विदेशियों (स्ट्रेबो और डायोडोरस) ने लिखा है कि मौर्यकाल में विदेशियों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। भारतीय अधिकारियों में विदेशियों को नियुक्त किया जाता था ताकि वे देखें कि किसी विदेशी के साथ किसी तरफ कोई दुर्व्यवहार हो), जनगणना, वाणिज्य, निर्मित पदार्थ तथा उनकी बेचवाली तथा कर की देखभाल करती थी। दूसरी समिति यूनानियों की संस्था प्रॉक्सनर (Proxnor) से मिलतीजुलती थी। संयुक्त रूप से 300 सदस्यों का यह मण्डल सार्वजनिक इमारतों की उचित मरम्मत, बाजारों, बन्दरगाहों, नौकागृहों और मन्दिरों की देखरेख मूल्य निर्धारण आदि का काम करता था।

 

कौटिल्य से यह पता चलता है कि प्रत्येक नगर 4 वाईस में बाँटा जाता था। प्रत्येक वार्ड एकस्थानीयके अधीन होता था। प्रत्येक वार्ड को उपवास में बाँटा जाता था जोगोपके अधीन होता था। वह अपने वार्ड के स्त्रीपुरुषों तथा उनकी सम्पत्ति की व्यक्तिगत जानकारी रखता था। नगर में आग से रक्षा के लिये व्यवस्था होती थी।

 

(2) गाँवशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। उसके प्रशासन के लियेग्रामिकहोते थे। यह निश्चित करना कठिन है कि ग्रामिकों की नियुक्ति राज्य के द्वारा होती थी या ग्रामीण स्वयं ही उसे चुनते थे, परन्तु इतना निश्चित है कि वह गाँव के बुजुर्गों की एक निर्वाचित सभा की सहायता से प्रशासन चलाता था। उसका मुख्य कार्य राजस्व वसूली एवं स्थानीय समस्याओं को निबटाना था। यह अपराधों की रोकथाम करता था। गाँव के लोगों के मनोरंजन का भी ध्यान रखता था। प्रामिकों के कार्यों परगोपनियन्त्रण रखते थे। एक गोप के जिम्मे 5-10 गाँव होते थे। प्राचीन अभिलेखों में गोपों का उल्लेख नहीं मिलता। जो भी यह अफसर भूमि की सीमा का निरीक्षण करता था और अधिकृत दानों, चिक्रियों, बन्धकों की रजिस्ट्री करता था तथा निवासियों की संख्या और उनके धनोपार्जन के स्रोतों का ठीकठीक लेखा रखता था। तद्नुसार कर निर्धारण होता था गोप के ऊपर एक स्थानिक होता था जो समाहर्ता के प्रति उत्तरदायी होता था। स्थानिक और समाहर्ता के अफसर प्रवेष्टा कहलाते थे।

 

चन्द्रगुप्त के शासन प्रबन्ध का मूल्यांकन (Evaluation of the Administration of Chandragupta)

 

चन्द्रगुप्त का शासन प्रबन्ध अत्यन्त ही संगठित, सुव्यवस्थित और उच्च कोटि का था। आगामी शासकों के लिये उसकी प्रशासकीय व्यवस्था आधारशिला थी। उन्होंने अपने प्रशासन में चन्द्रगुप्त का अनुकरण किया। कतिपय विद्वानों ने चन्द्रगुप्त के शासन प्रबन्ध की तुलना वर्तमान शासन व्यवस्था से की है। अनेक प्रदेशों के और विशेषकर भारत के शासन का ढांचा चन्द्रगुप्त के प्रशासन के ढांचे के समान ही है। विद्वानों ने चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुये लिखा है कि उसकी यह शासन व्यवस्था सदियों के विकास और अनुभव का फल था। प्राचीन काल में किसी भी प्रदेश में ऐसी श्रेष्ठ व्यवस्था नहीं थी विन्सेट स्मिथ का मत है कि प्राचीन यूनान के किसी भी नगरराज्य में ऐसी उन्नत शासन व्यवस्था नहीं थी।  कुछ के अनुसार ग्रामीक का पद वेनतनहीन होता था

 

 
चन्द्रगुप्त मार्य का मूल्यांकन कीजिये। Give an estimate of Chandragupta Maurya. “चन्द्रगुप्त मौर्य भारत का प्रथम ऐतिहासिक राजा था।इस कथन की व्याख्या कीजिये। “Chandragupta Maurya was the first historical king of India.”
 

चन्द्रगुप्त मौर्य का मूल्यांकन

 

उत्तर

 

(Estimate of Chandragupta Maurya) मौर्य भारत के ऐतिहासिक काल का सर्वप्रथम राष्ट्रीय सम्राट था। उसके चन्द्रगुप्त पहले भारत में किसी ने भी इतने बड़े साम्राज्य का निर्माण नहीं किया। केवल भारतीय इतिहास में वरन विश्व के इतिहास में भी उसका अग्रगण्य स्थान है।

 

(1) महान् विजेता एवं कूटनीतिज्ञ चन्द्रगुप्त एक महान विजेता था। उसने एक ऐसे विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी जिसकी सीमा फारस की सीमा को छूती थी। यद्यपि भारतवर्ष पर अन्य महान् राजाओं ने भी शासन किया, परन्तु भारत में उत्तरपश्चिम में किसी सम्राट ने इतनी सफलतापूर्वक राज्य नहीं किया जितनी सफलता से चन्द्रगुप्त ने किया था। दिल्ली के सुल्तान सदैव मुगलों के आक्रमण से भयभीत रहते थे और उनकी राज्य सीमा उसकी प्राकृतिक सीमा के बाहर जा सकी। प्रबल मुगल सम्राटों को भी उत्तरपश्चिम की विजय में असफलता रही बिटिश सरकार भी अपने अपार साधनों के होते हुये भी उत्तरपश्चिम में अपनी सत्ता स्थापित कर सकी। आजकल पाकिस्तान को भी नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। परन्तु चन्द्रगुप्त ने अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान पर बड़ी ही सफलतापूर्वक शासन किया था। उत्तरपश्चिम सीमा प्रदेश की चन्द्रगुप्त की अद्वितीय उपलब्धि के सम्बन्ध में स्मिथ ने लिखा है, “दो सहस्त्र वर्षों से भी अधिक पहले भारत के प्रथम सम्राट ने वह वैज्ञानिक सीमा प्राप्त कर ली जिसके लिये ब्रिटिश उत्तराधिकारी निष्फल प्रयत्न करते रहे, और जिसे 16वीं तथा 17वीं सदी में मुगल सम्राट भी पूर्ण रूप से प्राप्त कर सके।

 

ने केवल उत्तरी भारत पर अपनी विजय पताका फहरायी थी, चन्द्रगुप्त ने जैसा वरन् कि विदित होता है, दक्षिण भारत के भी एक बहुत बड़े भूभाग पर अपना अधिकार स्थापित किया था, परन्तु उन दिनों आवागमन के साधनों में बड़ी कमी थी और उत्तर से दक्षिण का शासन करना सम्भव था। अतएव चन्द्रगुप्त ने दक्षिण के राज्यों को स्वायत्त शासन प्रदान कर दिया था। इससे उसकी दूरदर्शिता तथा राजनीतिज्ञता का परिचय मिलता है।

 

उसकी कूटनीतिज्ञता का परिचय इस बात से भी मिलता है कि उसने राजा पर्वतक से गठजोड़ कर मगध के शक्तिशाली राजा पर विजय प्राप्त की। सेल्यूकस को पराजित करने के बाद भी एक बुद्धिमान राजनीतिज्ञ की भांति उसने उससे कुछ प्रदेश लेकर उसके साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लिया

 

(2) महान् शासकविजेता बाबर ने मुगल साम्राज्य की स्थापना की थी, किन्तु शासन प्रबन्ध के विषय में उसने कुछ विशेष नहीं किया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक महान् विजेता की भाँति केवल विस्तृत साम्राज्य की स्थापना ही नहीं की थी, वरन् उसने अपने विशाल साम्राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था स्थापित करने के लिये सुसंगठित शासनप्रबन्ध की भी व्यवस्था की थी। उसके प्रशासन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसमें केन्द्रवाद तथा स्वशासन दोनों का ही सुन्दर समन्वय था। नगरों और गाँवों की प्रशासन व्यवस्था उस युग को देखते हुये मौलिक तथा वैज्ञानिक थी। उसने भारतीय सम्राटों को इस क्षेत्र में प्रेरणा

 

 

दी। विन्दुसार के नगण्य शासन तथा अशोक के धार्मिक राज्य के समय में मौर्य साम्राज्य जितनी शीघ्रता से बना था, उतनी ही शीघ्रता से समाप्त हो गया होता, पर यह चन्द्रगु मार्य के ही शासन प्रबन्ध की विशेषता थी कि वह इतने दिनों तक चल सका। जिस सेना का संगठन चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया था वह अशोक के धर्मपरायण युग में अस्त्रशस्त्र से विदा लेने के पश्चात् भी इतनी सशक्त एवं भयंकर थी कि किसी आन्तरिक या बाह्य प्रसाधनों द्वारा सामाज्य की शान्ति भंग हो सकी। चन्द्रगुप्त के शासन के अन्तर्गत दण्ड विधान में कठोरता का समावेश प्राप्त होता है और जस्टिन, जो उससे चिढ़ता था क्योंकि उसने यूनानियों को खदेड़ दिया था) ने यह आधार लेकर उसे निर्दयी क्रूर कह डाला। परन्तु जस्टिन का मत सही नहीं।मुद्राराक्षस ने तो चन्द्रगुप्त को अशिक्षित देवता घोषित किया जो सुख तथा समृद्धि प्रदान करने के लिये स्वर्ग से उतरा। पेगस्थनीज ने भी चन्द्रगुप्त के शासनकाल की भूरीभूरी प्रशंसा की है। दण्ड विधान की कठोरता तत्कालीन परिस्थितियों की माँग थी। वरना वह प्रजाहितेषी था, कि ईरान के सम्राट् द्वारा या भारत के खिलजी सम्राट अलाउद्दीन की तरह निरंकुश और स्वेच्छाचारी वह हमेशा जनकल्याण का ध्यान रखता था, प्राचीन राजनियमों का आदर करता था। उसने प्रशासनिक प्रतिभा से प्रमाणित कर दिया कि शासक ही युग निर्माता होता है।राजा कालस्य कारणके सिद्धान्त को उसने चरितार्थ कर दिखाया।

 

(3) कला, सौन्दर्य तथा प्रकृति प्रेमीचन्द्रगुप्त को सौन्दर्य तथा प्रकृति से बड़ा प्रेम था। वह एक अत्यन्त भव्य राजप्रासाद में निवास करता था जो कला, सुन्दरता तथा रमणीयता में ईरान के सम्राटों के भी राजप्रासादों से कहीं अधिक सुन्दर था। जिस राजसी ठाठबाट से वह रहता था वह आदर्श विलासिता (नैतिकता बरतते हुये विलासी) जीवन कही जा सकती है। उसने कई विवाह किये किन्तु हमें इसकी दो पलियों के बारे में ही ज्ञात है एक जानी शासक सेल्यूकस की पुत्री तथा दूसरी दुर्धरा जिसने बिन्दुसार को जन्म दिया। चन्द्रगुप्त और सेल्यूकस के बीच विवाह सम्बन्ध तो हुआ था, परन्तु किसने किसकी कन्या को वरा इस बारे में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। खैर ! यह सच है कि चन्द्रगुप्त के प्रासाद में अनेक अंगरक्षकायें होती थीं। चन्द्रगुप्त सम्भवतः यज्ञों के अवसर पर मदिरापान भी करता था। तथापि वह इसका अधिक सेवन नहीं करता था। वैभवशाली जीवन व्यतीत करते हुये भी चन्द्रगुप्त परिश्रमी था।

 

(4) जिज्ञासु तथा धर्मपरायण चन्द्रगुप्त बड़ा ही जिज्ञासु तथा धर्मपरायण व्यक्ति था। यह प्रवृति उसमें दार्शनिकों के सम्पर्क में रहने से उत्पन्न हो गयी थी। यह विश्वस्त सूत्र से नहीं बतलाया जा सकता कि चन्द्रगुप्त किस धर्म का अनुयायी था। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार वह जैन था। 600 ई० के एक शिलालेख के अनुसार भद्रबाहु का चन्द्रगुप्त से सम्बन्ध था। सेरिंगापट्टम के निकट कावेरी के तट पर लगभग 900 ई० के 2 शिलालेख मिलते हैं। इससे पता चलता है कि श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि की चोटी पर भद्रवाह और चंद्रगुप्त के पैरों के निशान हैं। स्थानीय विचार के अनुसार चन्द्रगिरि पहाड़ी का नाम चन्द्रगुप्त के नाम पर पड़ा। यहीं पर चन्द्रवस्ती नाम का एक मन्दिर है जिसे श्री चन्द्रगुप्त ने ही बनवाया था ऐसा कहते हैं। लगभग 1129 के श्रवण बेलगोला के शिलालेख से भी पता चलता है कि चन्द्रगुप्त और भद्रबाहु का परस्पर सम्बन्ध था। पर निश्चयात्मक रूप से अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। हाँ, यह बतलाया जा सकता है कि चन्द्रगुप्त में धार्मिक सहिष्णुता थी और सभी धर्मों को वह आदर की दृष्टि से देखता था और उन्हें सहायता तथा प्रोत्साहन देता था। जिज्ञासु तथा धर्मपरायण होने के कारण वह सत्य का आलिंगन करने के लिये उद्यत रहता था, वह चाहे जहाँ प्राप्य हो।

 

 

 (5) साहित्य प्रेमीचन्द्रगुप्त का काल साहित्यिक रुचि से भी रिक्त था। कोटिल्य के अर्थशास्त्र तथा जन भद्रवाह के कल्पसूत्र की रचना को इसी काल का माना गया है। यद्यपि चन्द्रगुप्त का प्रधान क्षेत्र राजनीति था, परन्तु साहित्य प्रेमियों को भी वह प्रोत्साहन 1 देता था। तक)

 

(6) दार्शनिकों का संरक्षकचन्द्रगुप्त दार्शनिकों का भी संरक्षक था। प्रत्येक वर्ष वह एक विशाल सभा बुलाया करता था। इस सभा में दार्शनिक निमन्त्रित किये जाते थे और इनसे आशा की जाती थी कि वे अपने उपलब्ध ज्ञान की गंगा बहा कर लोगों का कल्याण करें, पशु धन और कृषि सम्बन्धी जानकारी का प्रसार करके देश को ऊँचा उठाये। ऐसी सभाओं में दार्शनिक लोग एकत्र जनता को आगामी अनावृष्टि, वर्षा, उपयोगी हवाओं, बीमारी और अन्य आवश्यक, किन्तु भविष्यगर्भित बातों से पहले ही परिचय करवा देते थे 1 इसका फल यह होता था कि राजा और प्रजा आने वाली आपत्ति का सामना करने के लिये तैयार हो जाते थे। निष्कर्ष

 

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि चन्द्रगुप्त को सैनिक तथा प्रशासकीय दोनों ही क्षेत्रों में अत्यधिक सफलता प्राप्त हुयी और यह सफलता उसे बड़ी ही विषम परिस्थितियों में प्राप्त हुयी। जसवन्त सिंह नेगी के अनुसार, “चन्द्रगुप्त की उपलब्धि किसी भी व्यक्ति के लिये गर्व का कारण हो सकती है, और विशेषकर ऐसे व्यक्ति के लिये जिसका जन्म सम्भवतः राजकुल में नहीं हुआ था

 

प्रश्न अशोक के चरित्र एवं उसकी उपलब्धियों पर प्रकाश डालिये।

 

 
Throw light on Ashoka’s career and his achievements. या कलिंग के युद्ध के कारण, अशोक की उस पर प्रतिक्रिया और उसके परिणाम तथा प्रभाव का वर्णन कीजिये
या
 
अशोक के साम्राज्य विस्तार, प्रशासन के बारे में आप क्या जानते हैं ? या प्रशासक के रूप में अशोक का मूल्यांकन कीजिये। मौर्यो की शासन व्यवस्था में उसने क्या परिवर्तन किये ?
 
एक प्रशासक के रूप में अशोक के बारे में अपना अनुमान दीजिए।
 
क्या उसने मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था में परिचय दिया था?
 
उत्तर
 
अशोक का जीवन चरित्र (Life Sketch of Ashoka)
 
अशोक, जिसका जन्म अधिकांश विद्वानों के अनुसार 294 ई० पू० हुआ था (राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार 304 ई० पू०), जिसे बौद्ध ग्रन्थों में कालाशोक पहाशोक धर्मा कामासोक, पिपदस्सी, पिपदस्सन आदि नाम दिये गये हैं, चन्द्रगुप्त मौर्य का पोता और बिन्दुसार का पुत्र (धम्मा या सुभद्रांगी से कोई निश्चित नहींयदि ये दो अलगअलग ये तो था। अशोक ने अपने आपको ऐसा सम्राट सिद्ध किया जिसे विश्व में कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिसने लोगों के शरीर पर ही नहीं वरन् हृदय पर शासन किया और जो अपने कार्यों द्वारा अमर हो गया। उत्तराधिकार का युद्ध

 

बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अशोक ने लगभग 273 ई० पू० में राज्य प्राप्त कर लिया। किन्तु उसका राज्याभिषेक 4 वर्ष बाद 269 ई० पू० हुआ। इस 4 वर्ष के अन्तराल

 

 

 

के बारे में मतैक्यता नहीं है। सिहली गाथा के ग्रन्थ दीपवंश के अनुसार उसको अपने 199 भाइयों का वध करना पड़ा था और केवल एक तिष्य शेष बचा था। इतने भाइयों का करने में शायद 4 वर्ष लग गये हो। परन्तु कई इतिहासकार इसे विश्वसनीय नहीं मानते, क्योंकि अशोक के शिलालेखों में उसके राज्याभिषेक के बहुत दिनों बाद भी एक नहीं कई राजकुमारों का उल्लेख है जो पाटलिपुत्र तथा साम्राज्य के अन्य भागों में रह रहे थे और जिन्हें अशोक चाहता था, प्यार करता था। यदि वास्तव में अपनों का संहार किया हो तो उसे अवश्य ही पश्चाताप हुआ होता और उसका इजहार किया होता। तारानाथ अशोक द्वारा उसके 6 भाइयों के वध का उल्लेख करता है। तथ्य यह प्रतीत होता है कि अशोक को अपने सिंहासन के लिये संघर्ष करना पड़ा था तथा उसे उन भाइयों को जो उसका विरोध कर रहे थे अपने मार्ग से हटाना पड़ा था। यह संघर्ष 4 वर्ष तक चला तथा जब उसकी स्थिति निरापद हो गयी तब 269 ई० पू० में उसका विधिवत् राज्याभिषेक हुआ। डी० आर० भण्डारकर इस संघर्ष की कहानी में विश्वास नहीं करते और वे 4 वर्ष के व्यवधान को ही स्वीकार करते हैं। पुराणों में भी इस व्यवधान का कोई उल्लेख नहीं है।

 

टामस भी व्यवधान काल को पूर्ण सन्देह की दृष्टि से देखता है। स्मिथ व्यवधान काल को तो स्वीकार करता है, किन्तु संघर्ष के तथ्य को नहीं। सिंहली गाथा (महावंश) इसकी पुष्टि करती है कि, “राज्य प्राप्त करने के 4 वर्ष बाद अशोक ने पाटलिपुत्र नगर के राजा के रूप में अपना राज्याभिषेक किया।इंगरमोण्ट जो 4 वर्ष का व्यवधान संघर्ष के कारण नहीं मानता, कहता है कि सिंहली परम्परा अशोक के राज्याभिषेक को बुद्ध के परिनिर्वाण 217 वर्ष में मानती है। इससे मेल बैठने के लिये 4 वर्ष का व्यवधान मानना आवश्यक हो गया किन्तु जैसा थापर का मत है कि यदि इस रिक्तता को ही पूरी करना था तो इसका समायोजन अन्य राज्यकालों में से कुछ घटाबढ़ा कर आसानी से किया जा सकता था। अतः थापर का कहना है कि, “हमारे मत से 4 वर्ष का व्यवधान काल केवल तिथियों है के समायोजन के लिये ही नहीं किया गया था, बल्कि नियमित रूप से चली रही परम्पराओं के अनुसार ही ऐसा किया गया था तथा अशोक के उत्तराधिकार की दृष्टि से इसकी यर्थाथता बिल्कुल सम्भव प्रतीत होती है।के० पी० जायसवाल के मतानुसार, उन दिनों राज्याभिषेक के समय युवराज की अवस्था 25 वर्ष की होनी चाहिये थी परन्तु अशोक की अवस्था बिन्दुसार की मृत्यु के समय 25 वर्ष से कम थी परन्तु राय चौधरी ने इस मत का विरोध करते हुये लिखा है कि महाभारत से हमें पता चलता है कि विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक बाल्यकाल में ही हो गया था। विमल चन्द्र पाण्डेय ने लिखा है कि जायसवाल का मत कोरी कल्पना पर आधारित है। इसका कोई प्रमाण नहीं कि अशोक जिस समय 1 सिंहासन पर बैठा उस समय उसकी आयु 25 वर्ष की नहीं थी दीपवंश से प्रकट होता है कि सिंहासनारोहण के समय अशोक का पुत्र महेन्द्र 10 वर्ष का था। अतः स्वयं अशोक लगभग 30 वर्ष का रहा होगा। अस्तु, यही निष्कर्ष निकलता है कि इस विलम्ब का वास्तविक कारण उत्तराधिकार का युद्ध ही प्रतीत होता है। जो भी हो राज्यारोहण के बाद उसनेदेवानाम प्रिय‘, ‘प्रियदर्शीकी उपाधियाँ धारण कीं और अपने राज्याभिषेक का वार्षिकोत्सव वह सदैव ही बड़ी धूमधाम से मनाता था। इस अवसर पर वह अनेक कैदियों को क्षमादान देता था। अशोक की विजयें (Conquests of Ashoka)

 

ऐसा लगता है कि अपने शासनकाल के प्रथम 13 वर्षों में अशोक ने उस नीति का अनुसरण किया था जैसा उसके पूर्वजों ने सेल्यूकस के साथ युद्ध करने के उपरान्त किया था, अर्थात् विदेशों के साथ मैत्री का भाव रखना और भारत में राज्य का विस्तार करना।

 

 

थे। यूनानी इतिहासकारों ने चन्द्रगुप्त के कठोर नियमों की आलोचना की है तथा उसे उत्पीड़क (Oppressor) बताया है। घोष के अनुसार, यह आरोप अतिशयोक्तिपूर्ण तथा सत्य से परे है। चन्द्रगुप्त के दण्ड विधान को कठोर कहा जा सकता है, किन्तु उस समय की अस्त व्यस्त दशा, लगातार युद्ध तथा कुशल शासन पद्धति की स्थापना के लिये कठोरता तथा धन दोनों की ही आवश्यकता थी। जो भी हो, चन्द्रगुप्त को निरंकुश नहीं कहा जा सकता। सैन्य व्यवस्था

 

चन्द्रगुप्त का सैनिक प्रशासन बड़ा संगठित था। कौटिल्य 6 प्रकार की सेना का वर्णन करता है—(i) पैतृकू, (ii) किराये की, (ii) लड़ाकू श्रेणियों की (शस्त्रोपजीवी), (iv) मित्र की, (vi) शत्रु की और (vi) खूंखार जाति की। आगे वह कहता है कि अच्छी सेना पैतृक हो, आज्ञाकारी हो, सन्तुष्ट हो, तत्पर हो, भलीभाँति प्रशिक्षित हो, दोहरी नीति से अलग हो। युद्ध के समय राजा अपने प्रधान सेनापति के साथ सामरिक दाव पेंच पर विचार करता था (बाद में सेनापति राजा पर छा गया था। उसकी सेना में 6,00,000 पैदल, 30,000 घुड़सवार, 9,000 हाथी और करीब 8,000 रथ थे। इस विशाल सेना की सुनियोजित व्यवस्था के लिये 300 सदस्यों का एक मण्डल होता था, उस मण्डल की 6 समितियां होती थीं और प्रत्येक में 5 सदस्य होते थे (इस प्रकार की व्यवस्था चन्द्रगुप्त की व्यक्तिगत सुझ जान पड़ती हैं) ये 6 समितियाँ क्रमशः जल सेना, रसद, पैदल अश्वारोही, हाथी और रथों की देखरेख करती थीं। अन्तिम 4 चतुरंगिणी सेना (पट्टी या पदाति, अश्व हस्ति और रथ) के अंग थे। प्रत्येक पदाति के पास उसकी लम्बाई के बराबर धनुष होता था और तीन हाथ लम्बी और काफी चौड़े फल वाली तलवार भी होती थी और घुड़सवार सैनिक के पास दो भाले और ढाल होती थी। समस्त सेना चन्द्रगुप्त के अधीन थी। वह सेनापति था। सेना का प्रबन्ध करने वाला अधिकारी बलाध्यक्ष कहलाता था। सेना के विभिन्न विभागों के अधिकारी इसके अधीन थे। सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिये भाट, चारण आदि होते थे। बीमार और घायल सैनिकों के उपचार के लिये सेना के साथसाथ चिकित्सा विभाग भी रहता था। जैसे आजकल रेडक्रास होते हैं। सैनिकों के लिये राजकीय कारखानों में विभिन्न प्रकार के आक्रमणात्मक और रक्षात्मक अस्त्रशस्त्रों का निर्माण होता था। उसके लिये राजकीय पदाधिकारी और निरीक्षक होते थे तथा शस्त्रागार भी होता था। दुर्गों का संगठन भी प्रशंसनीय था।

 

पुलिस एवं गुप्तचर विभाग

 

चन्द्रगुप्त मौर्य के समय पुलिस एवं गुप्तचर विभाग का प्रशासन अच्छा था। गुप्तचर विभाग वास्तव में पुलिस विभाग का एक अंग था। पुलिस विभाग 2 भागों में विभक्त था— (i) प्रकट और (ii) गुप्त प्रथम भाग के लोग रक्षित कहलाते थे और दूसरे के गुप्त रक्षित समाज की रक्षा करते थे। गुप्त, जिन्हें स्ट्रेवो ने एफोरी (Ephori) याइन्सपेक्टरकहा है, एरियन ने ओवरसिअर कहा है, कौटिल्य ने गूढ़पुरुष का राजपुरुष कहा है, साम्राज्य के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण मसले के बारे में गोपनीय जानकारी राजा को देते थे। स्ट्रेबो ने कई प्रकार के गुप्तचरों का वर्णन किया है। इनमें से एक तो नगर के गुप्तचर होते थे जो वेश्याओं को अपना सहायक तैनात रखते थे। इसके बाद महिलायें शिविर गुप्तचरों की श्रेणी होती थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी साधारण गुणों वाली महिलाओं को गुप्तचर के रूप में नियुक्ति करने का उल्लेख है। अर्थशास्त्र के अनुसार गुप्तचरों की 2 श्रेणियाँ थीं— (a) संस्था 1. पैदल सेना 4 प्रकार की होती थीं— (i) मोलवल (पुश्तैनी या आनुवांशिक), (ii) भूतक (किराये की), (iii) श्रेणी

 

बल (आयुध श्रेणियों से प्राप्त सैनिक), (iv) अटवी बल (था ग्रामीण जिन्हें युद्धकाल में भरती करते थे।

 

 

श्री शातकर्णी के बाद विजय चन्द्री पुलोमाथी 111 सरीखे शासक हुये जिनके

 

समय का पतन हुआ।

 

 

 

कुषाण कौन थे ? इस वंश के सबसे महत्वपूर्ण शासक के जीवन तथा उपलब्धियां का वर्णन कीजिये।
 
Who were the Kushanas ? Sketch the career and achievements of the most notable ruler of the dynasty. कनिष्क की उपलब्धियों और विजयों के बारे में आप क्या जानते हैं ? या
 
 
या
 
कनिष्क युद्ध में भी उतना ही महान था जितना कि शान्तिकाल में इस कथन
 
की व्याख्या कीजिये।
 
“Kanishka was as great in war as in Peace.” Elucidate. या | भारत में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये कनिष्क की सेवाओं का मूल्यांकन कीजिये Evaluate the services of Kanishka for the propagation of Buddhism in India.
 

उत्तर

 

कनिष्क (Kanishka)

 

भारत के कुपाणवंशी शासकों में कनिष्क तीसरा और सबसे अधिक प्रतापी, शक्तिशाली, प्रभावशाली एवं महत्त्वपूर्ण शासक था। कनिष्क का सिंहासनारोहण 78 ई० में हुआ था। पश्चिमी भारत के उसके समकालीन शक राजाओं द्वारा दीर्घकाल तक इसके प्रयुक्त होने के कारण यह संवत् शक संवत् कहलाने लगा था और वर्तमान में हमारा राष्ट्रीय संवत् भी यही है।

 

कनिष्क की राजनीतिक उपलब्धियाँ या विजयें

 

(Political Achievements or Conquests of Kanishka) (1) भारत — (i) पूर्व में कनिष्क के अभिलेख मथुरा, कौशाम्बी और सारनाथ से प्राप्त हुये हैं। ये सभी अभिलेख उसके द्वारा चालू किये गये संवत् में लिखे गये हैं। उसके सिक्के हमें वैशाली, जुन्नर तथा पाटलिपुत्र से प्राप्त हुये हैं। तिब्बती और चीनी स्रोत भी उसकी साकेत और पाटलिपुत्र के राजा के साथ हुयी मुठभेड़ को सन्दर्भित करते हैं।श्रीधर्मपिटक निधानसूत्रसे भी हमें यह पता चलता है कि उसने पाटलिपुत्र के शासक को हराया था और उसने युद्धक्षति प्राप्त की थी। बौद्ध परम्परा के अनुसार, जब उसने पाटलिपुत्र पर अधिकार कर लिया तो महान् बौद्ध दार्शनिक अश्वघोष भी उसके हाथों में गया और उसे अपने साथ ही ले गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अश्वघोष कनिष्क के दरबार को सुशोभित करता था। इससे अनुमान लगाया गया है कि कनिष्क ने मगध के कुछ भाग को विजित किया होगा। इस मत की पुष्टि इस बात से होती है कि कनिष्क के सिक्के बहुत बड़ी संख्या में गाजीपुर तथा गोरखपुर से पाये गये हैं। पुराणों में भी मगध के असभ्य शासकों का जिक्र आया है जिनके शारीरिक गुण कुषाणों के से थे।कल्पनामुद्रिकामें भी कनिष्क की पूर्वी भारत पर चढ़ाई का जिक्र आया है। इन सभी प्रमाणों से पता चलता है। कि कनिष्क ने भारत के लम्बे पूर्वी भाग पर अधिकार कर रखा था। इसमें उत्तर प्रदेश और

 

बिहार के भाग भी सम्मिलित थे। (II) पश्चिम में कनिष्क ने पश्चिम में अपने साम्राज्य के विस्तार हेतु मालवा तथा उज्जैन के शक क्षत्रपों के विरुद्ध भी युद्ध किया। अत्यधिक सम्भावना यही है कि कनिष्क

 

 

कशास पेटको पराजित किया और फो स्वीकार कर मालवा का कुछ भाग भी दे दिया। कमिष्न के एक शिलालेख के अनुसार उसने अपने शासनकाल के 11वर्ष में उन्हें उसकी बारे में हमें पेशावर स्नूप से प्राप्त मंजूषा तथा विहार (भागलपुर राज्य अभिलेख से पता (iii) उत्तर में ऐसा पता चलता है कि उसने काश्मीर को अपने साम्राज्य में मिला चलता है। लिया था और वहाँ अनेक स्मारक बनवाये तथा चौथी बौद्ध संगीति का आयोजन किया

 

तथा श्रीनगर के निकट कनिष्कपुर (आधुनिक बारामूला के समीप वर्तमान कनीस्पोर

 

 

Kanispore ग्राम) नामक नगर भी बसाया। (2) बाहर– (1) पार्थिया पार्थिया और कुषाण साम्राज्य की सीमायें एकदूसरे से मिली हुयी थी। पार्थियों का एरियान प्रदेश इस समय कुषाणों के अधिकार में था। स्वाभाविक है कि पार्थिया अपने इस प्रदेश को पुनः अपने अधिकार में लेना चाहता था। इसके अतिरिक्त बैक्ट्रिया पर कनिष्क का अधिकार था तथा यहां से जाने वाले व्यापारिक मार्गो पर भी उसका प्रभाव था। परन्तु पार्थिया अपनी समृद्धि के लिये मध्य एशिया के व्यापारिक मार्गो पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहता था। इन दोनों कारणों से पार्थिया और कनिष्क का युद्ध हुआ। (ii) चीन चीन के विरुद्ध भी वह अभियान ले गया था। इसके पूर्व कटफिश II

 

ने चीन पर चीन के सम्राट को वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया था। कनिष्क इस पराजय का बदला लेना चाहता था। जब वह राजा बना तो उसने देवपुत्र (Son of Heaven) को उपाधि धारण कर ली और चीन नरेश होती को कर देना बन्द कर दिया। उधर चीन के सम्राट का सेनापति पान चाओ (Pan Chao) जब अपनी विजय यात्रा में पश्चिम की ओर बढ़ा तो कनिष्क ने उसके पास दूत द्वारा चीन की राजकुमारी से अपने विवाह का प्रस्ताव भेजा। पान चाओ ने इस प्रस्ताव को अपने सम्राट के लिये अपमानजनक समझा और उसने दूत या केंद कर लिया। इस पर कनिष्क ने क्रोध में आकर 70,000 घुड़सवारों की एक सेना पामीर के पार चीन से मोर्चा लेने के लिये भेजी। दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ, दुर्भाग्यवश पामीर को लांघने में इस सेना की इतनी क्षति हुयी कि कनिष्क को पराजय का सामना करना पड़ा और उसे मजबूर होकर चीन के सम्राट को कर देना पड़ा। पर चीनी इतिहासकार इसका जिक्र नहीं करते। शायद इसलिये नहीं कि बाद में चीन की पराजय हुयी। थी या फिर जिक्र होना महज एक इत्तेफाक भी हो सकता है।

 

कनिष्क अपनी प्रथम पराजय से हतोत्साहित नहीं हुआ था, अपनी हार का बदला लेने के लिये उसने फिर से सैनिक तैयारियाँ कीं। इस बार उसने अपनी सेना का नेतृत्व स्वयं किया, उधर पान चाओ की मृत्यु के बाद चीनी सेनापति पानचियांग बन गया था, जो अपने पूर्वाधिकारी की भाँति योग्य बलवान नहीं था। परिणामस्वरूप कनिष्क ने चीनियों को हराकर केवल अपने घर को कर के भार से मुक्त कर लिया, बल्कि काशगर, खोतान और यारकन्द को भी अपने साम्राज्य में मिला लिया। कहा जाता है कि इस युद्ध के बाद वह चीन के किसी करद राज्य के राजकुमारों को बन्धक (Hostages) के रूप में आया। इन राजकुमारों के साथ कनिष्क ने बड़ा अच्छा व्यवहार किया। इन राजकुमारों ने भारत में सर्वप्रथम आडू और नाशपाती के पौधे लगाये, और कई सौ वर्ष बाद सांग भारत आया तो उसे ज्ञात हुआ कि उन्होंने एक विहार के लिये, जिसमें वे रहे थे, प्रचुर धन दिया था। स्मिथ के अनुसार, विजेता के रूप से कनिष्क की यह सबसे महान् तथा सराहनीय सफलता थी

 

 

100) रोम से इस गेम का पार्थिकेाज्य से मनोमालिन्य का हाथ का भी पा से अच्छा समय था, इस प्रकार पार्थिया रोमन साम्राज्य के साथसाथ कनिका भी था, ऐसी स्थिति में का रोमन सम्राट में पूर्ण होने को थी क्योंकि जिनके उभयनिष्ठ होते है उनमें बड़ी ही सरलता से मैत्रीपूर्ण सम्वन्ध स्थापित हो जाता है। कनिष्ठ ने इस सुअवसर से लाभ उठाया। उसने रोमन साम्राज्य के साथ व्यापारिक तथा कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित कर लिया और राजदूतों का आदानप्रदान किया।

 

साम्राज्य विस्तार

 

(Expansion of Empire) यारकन्द, खोतान और काशगर तक

 

(1) मध्य एशिया यहाँ कनिष्क का साम्राज्य विस्तृत था। ह्वेनसाग इस बात की पुष्टि करता है।

 

(2) बैक्ट्रिया वैक्ट्रिया कुजुल कदफिस के समय से ही कुषाण साम्राज्य के अन्तर्गत था। अतः कनिष्क ने उसे उत्तराधिकार के रूप में विम से प्राप्त किया था। इस बात की पुष्टि खोतान से प्राप्त एक पाण्डुलिपि से भी होती है, जिसमेंचन्द्र कनिष्कको सन्दर्भित

 

किया गया है।

 

(3) अफगानिस्तानवैदिक (काबुल) अभिलेख से ज्ञात होता है कि अफगानिस्तान

 

के कम से कम कुछ भाग पर हुविष्क का अधिकार था। अनुमान है कि अफगानिस्तान की

 

विजय स्वयं हुविष्क ने नहीं की होगी, अपितु यह प्रदेश कनिष्क के समय से ही कुषाण साम्राज्य में चला रहा था। (4) उत्तरपश्चिमी सीमा प्रान्त इस प्रदेश पर कनिष्क का आधिपत्य था, इसी प्रदेश में स्थित नगर पुरुषपुर (पेशावर) कनिष्क के साम्राज्य के इस हिस्से की राजधानी थी।

 

(5) गान्धारचीनी प्रन्थों और ह्वेनसाग के विवरण के अनुसार, गान्वार कनिष्क के अधीन था, यह उस समय कला का प्रख्यात केन्द्र था ((6) काश्मीरराजतरंगिणी से सिद्ध होता है कि काश्मीर कनिष्क के साम्राज्य में था

 

(7) पंजाब, सिन्धजेदा अभिलेख (डंड के समीप), मणिक्याल (रावलपिंडी के पास)

 

अभिलेख से पंजाब तथा सुई बिहार (बहावलपुर) अभिलेख से सिन्ध पर कनिष्क के आधिपत्य

 

का प्रमाण मिलता है। टॉलमी जिस कुषाण शासक के पूर्वी पंजाब पर आधिपत्य का वर्णन

 

करता है, विद्वानों के अनुसार वह कनिष्क ही था।

 

(8) उत्तर प्रदेशतिब्बती ग्रन्थों में वर्णित कनिष्क के साकेत आक्रमण, उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ और गोरखपुर से प्राप्त कनिष्क की मुद्राओं, कौशाम्बी, मधुरा, सारनाथ, श्रीवास्ती आदि स्थानों से प्राप्त मूर्तियों एवं अभिलेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के भी कुछ भाग पर कनिष्क का आधिपत्य था। कनिष्क के सारनाथ अभिलेख से अब यह निर्विवाद हो गया है कि उसका साम्राज्य उत्तर प्रदेश में सारनाथ तक व्याप्त था।

 

(9) बिहारउड़ीसाधर्मपटिक सम्प्रदाय निदान सूत्र से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र के राजा (?) को पराजित करके इससे एक लाख स्वर्ण मुद्रायें माँगी थीं राजा ने मुद्राओं के अभाव में बुद्ध का भिक्षापात्र ही कनिष्क को समर्पित कर दिया था। इस कथानक तथा बिहार में पाटलिपुत्र बक्सर, चिरांद और बक्सर की खुदाइयों से प्राप्त कतिपय मुद्राओं के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि बिहार पर भी कनिष्क ने विजय

 

 

 

 

 

प्राप्त की थी और उसे अपने साम्राज्य के अन्तर्गत कर लिया था। कतिपय मुद्राओं के आधार पर उड़ीसा पर भी कनिष्क के आधिपत्य का अनुमान लगाया जाता है, किन्तु मुद्राओं की प्राप्ति का साक्ष्य अत्यन्त संदिग्ध माना जाता है, क्योंकि इसे यात्री या व्यापारी भी स्थानान्तरित कर सकते हैं।

 

* (10) मध्य प्रदेशबिलासपुर तथा साँची (जो कि पूर्वी मालता की प्राचीन काल की थी) में कनिष्क तथा उसके उत्तराधिकारियों की मुद्रायें प्राप्त हुयी है।

 

राजधानी (11) पश्चिमी भारतश्रीनेत्र पाण्डेय ने लिखा है कि पश्चिमी भारत में शकों के आधिपत्य में शकों की जो शासन व्यवस्था थी उस पर भी कुषाणों का प्रभुत्व था और कि. यदि गुजरात, काठियावाड़ पर कनिष्क शासन नहीं तो अप्रत्यक्ष शासन और राजनीतिक प्रभुत्व

 

अवश्य था। कनिष्क (12) दक्षिण भारत और बंगालकुछ विद्वान् दक्षिण भारत और बंगाल पर भी का आधिपत्य स्वीकार करते हैं, परन्तु इसके लिये स्पष्ट प्रमाप उपलब्ध नहीं है।

 

 

 

 

 

 

कनिष्क की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

 

 

(1) साहित्यकनिष्क के शासनकाल में साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय उन्नति हुयी अश्वघोष उसके समय का सबसे महान् साहित्यिक व्यक्ति था, उसनेबुद्धचरितऔरसूत्रालकारकी रचना की। बुद्धचरित में बुद्ध की जीवन कथा संस्कृत पद्य में प्रस्तुत की गयी है। इसे बौद्ध महाकाव्य कहा जाता है और इसकी तुलना बाल्मीकिकृतरामायणसे की जाती है। इस समय का द्वितीय प्रसिद्ध विद्वान् नागार्जुन था, जिसकी तुलना मार्टिन लूथर (Martin Luther) से की जाती है और जिसे ह्वेनसांग ने संसार की 4 मार्गदर्शक शक्तियों में से एक कहा है, उसने शून्यवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। वह केवल दार्शनिक ही नहीं, वैज्ञानिक भी था। उसने अपनी पुस्तकमाध्यमिक सूत्रमें सृष्टि सिद्धान्त या सापेक्षवाद (Theory of Relativity) को प्रस्तुत किया और इसीलिये उसे भारतीय आइन्सटीन (Indian Einstein) कहा गया है। जैन धर्म में यह सिद्धान्त महावीर के समय में ही प्रस्तुत किया जा चुका था, आर्यदेव एक अन्य विद्वान् था। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में चरक का अपना नाम है। वसुमित्र भी कनिष्क के दरबार के रत्नों में था। उसने महाविभाषसूत्र की रचना की जो बौद्ध धर्म के त्रिपिटक पर टीका थी। इसे बौद्ध धर्म का विश्वकोष कहा गया है। पार्श्व और संघरक्ष भी इसी युग के प्रसिद्ध विद्वान् थे।

 

(2) कला कनिष्क ने अनेक भवनों, स्मारकों, राजासादों मठों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया। उसने अनेक नगर भी बसाये। काश्मीर में कनिष्कपुर तथा तक्षशिला में सिरकप नामक नगर कनिष्क द्वारा ही बसाये गये थे। इसके अतिरिक्त उसने अपनी राजधानी पेशावर को अनेक सुन्दर इमारतों, स्मारकों आदि से सुशोभित किया। उसने एक यूनानी अभियन्ता (इन्जीनियर), अजेसिलास (Agesilaus) द्वारा अपनी राजधानी पेशावर में एक स्मारक बुर्ज, ‘सहजी की देहरीबनवाया। यह नगर के सिंहद्वार पर स्थित 120 मी० ऊंचा स्तूप एवं मठ है, इसमें 13 मंजिलें थीं। इसके ऊपर लोहे का एक बड़ा छत्र स्थापित किया गया। इस स्तूप को स्तूप निर्माण कला में क्रान्ति का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। स्तूप के समीप ही एक सुन्दर बौद्ध विहार (महाविहार) का निर्माण भी किया गया था। अन्यत्र भी उसने कई विहार और स्तूप बनवाये। फाह्यान ने उसके द्वारा गंधार में बनवाये गये विहारों और स्तूपों का जिक्र किया है। ह्वेनसांग ने 178 विहारों और स्तूपों का वर्णन किया है।

 

उद्यमों और संबंधित गतिविधियों करके शासनकाल में मूर्तिकला का विकास भी हुआ। गान्धार शैली एक मायने कालिका का है। इस शैली के विषय तो भारतीय थे, परन्तु सजावट आदि यूनानी पद्धति पर की जाती थी। मथुरा कनिष्क के समय का एक अन्य मूर्तिकला केन्द्र था। यहाँ पूर्ण रूप से भारतीय शैली की मूर्तियां बनी। इन्हें मथुरा शैली की मूर्तियों कहा

 

जाता है।

 

(3) वर्ष कनिष्क के सिक्कों पर यूनानी, ईरानी, हिन्दू तथा बौद्ध धर्म के देवताओं के चित्र अंकित हैं, जिनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि कनिष्क का धार्मिक दृष्टिकोण सहिष्णुतापूर्ण था और वह सभी धर्मों का आदर करता था। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं बी था। ऐसा प्रतीत होता है कि पाटलिपुत्र की विजय के पश्चात् वह अश्वघोष के सम्पर्क में आने से बौद्ध धर्म के प्रति विशेष आकर्षित हुआ और बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया (वरना पहले शायद वह यूनानी धर्म का अनुयायी था, बाद में पारसीक धर्म का अनुयायी हुआ और अन्त में बौद्ध धर्म का। वैसे उसके मूल धर्म के बारे में कोई निश्चयात्मकता नहीं है) सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य, तारानाथ, ह्वेनसांग, पेशावर, कास्केट अभिलेख एवं कल्हण की राजतरंगिणी से हमें उसके बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के प्रमाण मिलते हैं। म० प्र० के धार जिले के राजगढ़ स्थान से कनिष्क की एक स्वर्ण मुद्रा पर बोडो लिखा मिला है, जिससे भी उसके बौद्ध होने का प्रमाण मिलता है।

 

 

 

 

कनिष्क की सेवाओं का मूल्यांकन

 

 

(1) बौद्ध धर्म का प्रसार हेमचन्द्र राय चौधरी का कथन है कि कनिष्क की ख्याति उसकी विजयों पर उतनी आधारित नहीं है जितनी शाक्य मुनि के धर्म को संरक्षण प्रदान करने के कारण हैं। कनिष्क ने बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के बाद अशोक की भाँति बौद्ध धर्म के प्रचारप्रसार के लिये अथक प्रयास किये जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्नांकित है—-

 

(i) कनिष्क ने बौद्ध धर्म के लिये अनेक मठों, विहारों आदि का निर्माण करवाया और पुराने विहारों की मरम्मत करवायी। (ii) बौद्ध भिक्षुओं के जीवनयापन के लिये उन्हें बहुतसा धन दिया गया। (iii) उसने अपने साम्राज्य के भिन्नभिन्न भागों में अनेक स्तूपों, विहारों, स्मारकों

 

आदि का निर्माण करवाया, उसने भगवान बुद्ध की स्मृति में असंख्य मूर्तियों का निर्माण करवाया।

 

(iv) उसने विदेशों में अनेक धर्म प्रचारक भेजे, इन्हीं प्रचारकों के प्रयत्नों से बौद्ध

 

धर्म चीन, जापान, तिब्बत और मध्य एशिया में फैल गया।

 

(iv) कनिष्क ने चौथी बौद्ध संगीति का आयोजन किया जिसमें लगभग 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया। यह सभा काश्मीर में कुण्डलवन नामक स्थान पर आयोजित की गयी। सभा की अध्यक्षता करने का गौरव वसुमित्र को मिला तथा उपाध्यक्ष का गौरव अश्वघोष को। सभा का अधिवेशन 6 माह तक होता रहा। इसी सभा में महायान धर्म स्वीकार किया गया।

 

कनिष्क का मूल्यांकन

 

(Estimate of Kanishka) (1) महान् विजेताकनिष्क बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था और सिंहासन पर बैठते ही उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण करना आरम्भ किया और जीवन पर्यन्त अपने

 

 

 

साम्राज्य को वृद्धि करने में हार के एशिया के एक बहुत बड़े भाग गया था। उसमें लेकर दक्षिण में सौराष्ट्र तक और पूर्व में बंगाल तक फैला हुआ था। पश्चिम में आने पार्थिया के राजा के साथ सफलतापूर्वक युद्ध किया. उसने काशगर खोताना सरक को भी जीत लिया था। उसकी इस विजय को प्रशंसा करते हुवे ने लिख की सबसे अधिक आकर्षक सैनिक सफलता उसकी काशगर, पारकन्द तथाकी

 

विजय थी।यही नहीं, उसने चीन के शासक को भी नतमस्तक किया था। (2) महान् शासकप्रशासकीय दृष्टि से भी कनिष्क को ऊंचा स्थान प्रदान किया जाना चाहिये। अशोक की मृत्यु के उपरान्त उत्तरी भारत में जो कुव्यवस्था तथा अराजकता फैली थी, उसे दूर करने में वह सफल रहा। इतने विशाल साम्राज्य को सुसंगठित तथा सुरक्षित रखना ही इस बात का प्रमाण है कि वह अत्यन्त कुशल शासक था। अपने क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों को नियन्त्रित रखने में वह पूर्ण सफल रहा, उसने अपने साम्राज्य को आन्तरिक उपद्रवों तथा विद्रोहों से मुक्त रखा। उसकी मुद्राओं, स्तूपों तथा विहारों से यह पता चलता है कि उसका साम्राज्य धनधान्यपूर्ण था और प्रजा बड़ी सुखी थी। विदेशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण भारत के उद्योगधन्धों तथा व्यापार में बड़ी उन्नति हुयी होगी।

 

 

(3) महान् धर्म तत्त्ववेत्ताकनिष्क में उच्च कोटि की धर्मपरायणता थी। उसने बौद्ध धर्म की उसी प्रकार से सेवा की जिस प्रकार अशोक ने की थी। अशोक की भाँति ही उसने भी अनेक स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया और बौद्ध धर्म, भिक्षुओं तथा आचायाँ की सहायता की थी। उसने चतुर्थ बौद्ध संगीति को बुलाकर बौद्ध धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर किया और बौद्ध धर्म पर टीकायें तथा भाष्य लिखवाये, बौद्ध को अवतार मान लिया गया। रॉबिन्सन के अनुसार, कनिष्क की बौद्ध परिषद् बौद्ध धर्म के इतिहास में नवीन युग की जन्मदात्री है। महायान सम्प्रदाय को मान्यता देकर उसे राजधर्म बनाकर और विदेशों में उसका प्रचार करवाकर उसने उस सम्प्रदाय की बहुत बड़ी सेवा की और कम से कम विदेशों में उसने उसे अमर बना दिया। एन० एस० घोष ने ठीक ही लिखा है कि, “महायान सम्प्रदाय के आश्रयदाता तथा समर्थक के रूप में उसे उतना ही ऊँचा स्थान प्राप्त है जितना कि अशोक को हीनयान सम्प्रदाय के संरक्षक तथा समर्थक के रूप में प्राप्त होता था।हाल ही में मध्य प्रदेश के धार जिले के रायगढ़ नामक स्थान से कनिष्क की एक दुर्लभ स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुयी है। इसमें इसे यज्ञकुण्ड में आहुति देते दर्शाया गया है। मुद्रा के पृष्ठ भाग में बुद्ध की खड़ी मुद्रा में है तथा बुद्ध के लिये बोडो (Boddo) लिखा है। इससे उनके बौद्ध होने का प्रमाण मिलता है।

 

पर, कनिष्क के धार्मिक विचार संकीर्ण थे, वह कट्टरपन्थी भी था। उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी और वह अशोक की भाँति सभी धर्मों को आदर की दृष्टि से देखता था। उसकी मुद्राओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह यूनानी, ईरानी तथा ब्राह्मण धर्म का भी सम्मान करता था।

 

(4) महान् निर्मातायद्यपि कनिष्क का सम्पूर्ण जीवन युद्ध करने तथा अपने साम्राज्य को सुरक्षित तथा सुसंगठित रखने में व्यतीत हुआ, उसने शान्तिकालीन कार्यों की ओर भी समुचित ध्यान दिया। ऐसा कहा जाता है कि काश्मीर का कनिष्कपुर नामक नगर उसी के द्वारा बसाया हुआ था। अपनी राजधानी पुरुषपुर के समीप उसने एकदूसरे नगर का निर्माण करवाया था। अपनी राजधानी में तथा राज्य के अन्य भागों में उसने बहुतसे स्तूपों तथा विहारों का भी निर्माण करवाया था। अपनी राजधानी में उसने जो लकड़ी का स्तम्भ बनवाया था वह लगभग 120 मी० ऊँचा था। एक निर्माता के रूप में उसकी प्रशंसा करते हुये स्मिथ

 

 

ने लिखा हैस्थापत्य कला को उसकी सहायक शिकला के साथ कनिष्क का उदार

 

संरक्षण प्राप्त था जो अशोक की भाँति एक महान निर्माता था।हाल ही में मुर्ख कोतल

 

(उत्तरी अफगानिस्तान) में कनिष्क के राज्यकाल का एक बड़ा वाख्खी लिपि (यूनानी लिपि के आधार पर निकाली गयी लिपि जिसे सारे राज्य में अपना लिया गया) का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसमें एक देवालय के निर्माण का वर्णन है, सम्भव है कि यह कुपाणवंशीय कोट का गर्भगृह रहा हो। (5) साहित्य तथा कला का महान् प्रेमीकनिष्क को यह श्रेय प्राप्त है कि उसने बड़ेबड़े विद्वानों, लेखकों तथा धर्माचायों को अपना आश्रय प्रदान किया था। अपने काल के अत्यन्त धुरन्धर धर्माचार्यों वसुमित्र तथा अश्वघोष को चतुर्थ बौद्ध संगीति का अध्यक्ष

 

एवं उपाध्यक्ष बनवाकर उसने उन्हें सम्मानित किया था। दूसरे बौद्ध आचार्य पार्श्व की शिष्यता ग्रहण कर कनिष्क ने उसे प्रतिष्ठित किया था। यह कनिष्क के लिये बड़े गौरव की बात है कि नागार्जुन जैसा महायान धर्म का आचार्य उसके सम्पर्क में था। यह श्रेय भी कनिष्क को प्राप्त है कि गान्धार शैली की प्रतिष्ठा उसके समय हुयी। (6) महान व्यक्तित्वसिक्कों पर वह सिर पर राजमुकुट और शरीर पर लम्बा कंचुक पहने हुये, वेदी में आहुति डालता हुआ दिखाया गया है। इन चित्रों से ज्ञात होता है कि

 

वह एक भव्य आकृति वाला मनुष्य था और लम्बी दाढ़ी रखता था। उसे उच्च उपाधियों का शौक था और उसने केवल भारतीय उपाधि महाराजा एवं राजाधिराज ही नहीं, अपितु ईरानी उपाधि भी धारण की थी। स्मिथ के अनुसार– “कुषाण सम्राटों में केवल वही ऐसा नाम छोड़ गया है जो भारत की सीमाओं के सुदूर बाहर भी विश्रुत था और जिसकी समता के लिये लोग लालायित रहते आये हैं।

 

 

 

सुदूर दक्षिण के चेर, चोल और पाण्ड्य

CHERA, CHOLA AND PANDAYAS IN FAR SOUTH

 

 चोल वंश सुदूर दक्षिण का एक अत्यन्त प्राचीन वंश है। इसका उल्लेख महाभारत इण्डिका और कॉटिल्य के प्रन्थ अर्थशास्त्र में हुआ है। टॉलमी तथा afra भी इनकी प्राचीनता का समर्थन करते है प्रश्न 1 चरा पर एक संक्षिप्त नाट लिखिय।
 
Write a short note on the Cheras. चेरों का इतिहास
 
उत्तर

 

(चेरों का इतिहास)

 

कुछ विद्वान् केरों या चेरों का सम्बन्ध दूतियों से जोड़ते हैं। उनके साम्राज्य में आधुनिक मालाबार, कोचीन, त्रावनकोर के प्रान्त सम्मिलित थे। उनके समय का प्रमुख बन्दरगाह मुजरिस (आधुनिक कंगनूर) था। इस बन्दरगाह ने रोभी के व्यापारियों को आकर्षित किया।

 

अथन ||

 

अथन II चेर साम्राज्य का प्रथम महान और शक्तिशाली शासक था। वह करिकाल बोल का दामाद था। उसने कपिलार नामक कवि को राज्याश्रय प्रदान किया था। इसके पूर्व के शासक पेरूनर और इलानजेतसमी के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती। सेनवन

 

सेनगुत्तुवन इस वंश का एक महान् शासक था। कहा जाता है कि उसने कई पड़ोसी राज्यों पर विजय प्राप्त की। वह साहित्यानुरागी था और साहित्यकारों को राज्याश्रय देता था। उसके उत्तराधिकारियों के समय में चेर वंश का पतन प्रारम्भ हो गया। फिर भी चेर राज्य ने अपनी आन्तरिक स्वतन्त्रता को 10वीं सदी तक बनाये रखा। फिर राजराज चोल ने बेर भास्कर रविवर्मन को परास्त किया। 12वीं सदी तक चोलों ने चेर राज्य पर अपना अधिकार रखा। 12वीं सदी में वीर केरल के नेतृत्व में चेर राज्य स्वतन्त्र हो गया। किन्तु 13वीं सदी में एक बार फिर पाण्ड्यों के उदय से चेरों को धक्का लगा। मलिक कफूर के आक्रमण से पाण्ड्य राज्य में फैली गड़बड़ी का लाभ उठाकर रविवर्मन कुलशेखर ने चेर शक्ति को पुनः संगठित किया। पर बाद में यह राज्य अनेक छोटेछोटे राज्यों में विभक्त हो गया।

 

चोलों के उत्थान और पतन का इतिहास लिखिये
पाण्ड्यों के इतिहास का संक्षिप्त विवरण दीजिये। Sketch a short history of the Pandyas.”
 
 
 Describe the achievements of Jatavarman Sundra Pandya
 
 
पाण्ड्य वंश का इतिहास (History of Pandyas)
 
उत्पत्तिकुछ लोगों के अनुसार पाण्ड्य कोरकर्ड उन तीन काल्पनिक भाइयों के जिन्होंने दय बोल और मेर साम्राज्य की नींव डाली। कुछ अनुभूतियों

 

उन्हें पाण्डवों या चन्द्रमा से सम्बन्धित करती है। (2) पाण्ड्य साम्राज्य पाण्ड्यों ने पूर्वी तट पर भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिण छोर पर राज्य किया। उनका साम्राज्य शासकों की शक्ति एवं कमजोरी के अनुसार घटताबढ़ता रहा है। 1. सामान्य रूप से पाण्ड्य साम्राज्य में मदुरा, रमनद और तिनीवेली जिले सम्मिलित थे। उनको राजधानी मथुरा (मदुरा थी।

 

(3) पादय सन्दर्भ कात्यायन काअष्टाध्यायीवाल्मिकी कीरामायण‘, ‘महावंशकौटिल्य काअर्थशास्त्र‘, ‘मेगस्थनीज‘, अशोक के शिलालेख 2 और 13 खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, स्ट्रेबो, पेरिप्लस तथा तालेमी पाण्ड्यों को सन्दर्भित करते हैं।शिलापदिकारमऔर मणिकलम आदि संगम कृतियों में कुछ पाण्ड्य शासकों के नाम आये हैं, परन्तु उनकी वंशावली तथा उनकी उपलब्धियों आदि के बारे में कुछ जानकारी नहीं मिलती। लगता है, पल्लवों और कलधों की वजह से ये लोग अन्धकार में चले गये और करीब छठी सदी के

 

अन्त में या सातवीं सदी के शुरू में पुनः इनका उत्थान हुआ। (4) कडुनगोनकडुनगोन द्वारा पाण्ड्य साम्राज्य का पुनरुत्थान शुरू किया गया। उनके बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती।

 

(5) मारवर्मन अवनि शुलामणि कडुनगोन के बाद मारवर्मन अवनि शुलामणि हुआ। (6) अरिकेशरी मारवर्मनमारवर्मन अवनि शुलामणि के बाद अरिकेशरी मारवर्मन हुआ, जिसका समीकरण नेडुमरन या पौराणिक कुन दक्षिण से भी किया जाता है जिसे संबदार नामक शैव सन्त ने अपने मत में दीक्षित किया था। ह्वेनसांग ने सम्भवतः उसी के समय दक्षिण भारत का पर्यटन किया था।

 

(7) कोच्चडयन रणधीर और मारवर्मन राजसिंहअरिकेशरी मारवर्मन के बाद

 

क्रमशः कोच्चडयन रणधीर और मारवर्मन राजसिंह | हुये। (8)याण दुयन, जिसे मारब्जयन, परान्तक, अतिलया जतिलवर्मन और वरगुण I के नाम से भी जाना जाता है, एक महत्त्वपूर्ण शासक था। उसने करीब 765 ई० से 815 ई० तक राज्य किया। एक अभिलेख से पता चलता है कि उसने तंजौर के पास पेण्णगडम में काडव (पल्लवों) पर विजय प्राप्त की और तिरुनेलवेली और त्रावनकोर के बीच शासन कर रहे मुखियों को भी हराया। लगता है, उसने कलओं को भी हराया। मद्रास संग्रहालय के उसके शासनकाल के सतरहवें वर्ष के पत्रों से पता चलता है कि उसने तगडुर (धर्मपुरी, सलेम) के आदि गमानों को हराया तथा कोंगदेश (कोयम्बटूर) को अपने अधिकार में किया। उसने विलीनाम जीतने के बाद बेनाड़ या दक्षिण त्रावनकोर को अपने साम्राज्य में मिलाया। उसकी विजयों ने उसे तंजौर, तिरुचिरापल्ली, सलेम, कोयम्बटूर जिलों तथा दक्षिण त्रावनकोर का स्वामी बना दिया। उसने कई शैव और वैष्णव मन्दिर बनवायें।

 

कोयम्बटूर जिले के पेरूर स्थान में स्थित विष्णु मन्दिर सबसे अधिक उल्लेखनीय है (9) श्रीमार श्रीवल्लभ नेडुज्ञड्डियन के बाद श्रीमार श्रीवल्लभ (815 ई०-862 ई०) को हुआ। लेखों से उसकी कई विजयों का पता चलता है। कहा जाता है कि उसने विलिनाम

 

परवर्ती मौर्य युगशुंग, पश्चिमी छत्रप

 

सातवाहन तथा कुषाण

[POST MAURYAN PERIOD-SUNGAS, WESTERN KSHATRAPAS, SATVAHANS AND KUSHANS

 

पुष्यमित्र शुगबाह्मणतन्त्र का अधिनायक था तथा उसका उद्देश्य उन याज्ञिक कर्मकाण्डों तथा हिन्दू संस्कारों का पुनरुद्धार करना था और इसीलिये उसने अश्वमेघ यज्ञ आयोजित किये। शुंग काल में हिंसा को धर्मविहित माना गया था।” –डॉ० नरेन्द्र घोषशकों तथा पहलों ने भारतीय इतिहास के रंगमंच में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। इनमें रुद्रापन का नाम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।” – डी० सी० सरकार

 

पुराणों में वर्णित आन्ध्र वंश के शासकों के नाम ही सातवाहन शासकों के

 

नाम हैं। इसलिये आन्ध्र वंश ही सातवाहन है।श्रीनिवास चारी एवं आयंगर

 

कुषाण युग भारत के इतिहास में एक युग प्रवर्तक काल है। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद पहली बार एक महान् साम्राज्य बना। भारत बाहर की दुनियाडी० सी० सरकार के साथ घनिष्ठ सम्पर्क में आया। इस युग में धर्म, साहित्य और मूर्तिकला का भी महत्वपूर्ण विकास हुआ।

 

 

 शुंग कौन थे ? पुष्यमित्र के शुंग के शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का वर्णन कीजिये।
 
सुंग कौन थे? के शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का वर्णन कीजिए
 
Pushyamitra Shunga.
 
शुंग कौन थे ? अति संक्षिप्त विवरण दीजिये।
 
शुंग कौन थे ? बहुत संक्षिप्त विवरण दें।
 
 
उत्तर
 
शुंगों का परिचय

 

 

दिव्यावदान के अनुसार, पुष्यमित्र शुंग मौर्य वंशीय शासक था, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ के लेखक ने भूल से पुष्यमित्र शुंग को मौर्य वंशी सम्राटों की सूची के अन्तर्गत रख दिया है और अब दिव्यावदान के आधार पर शुंगों को मौर्य वंशीय मानने के लिये इतिहासकार उद्यत नहीं हैं।

 

 

हरप्रसाद शास्त्री ने यह मत प्रकट किया है कि पुष्यमित्र तथा उसके वंशज, जिनके नाम के अन्त मेंमित्रशब्द जुड़ा हुआ है पारसीक अथवा ईरानी थे क्योंकि मित्र की उपाधि के लोग महण करते थे जो मित्र (पारसीक देवता मिसूर्य) की उपासना करते थे। चूँकि ईरान में मित्र की पूजा का अत्यधिक प्रचलन था। अतएव शास्त्री ने यह धारणा बना कि शुंग लोग पारसीक थे, परन्तु कालान्तर में उन्होंने स्वयं अपने इस विचार को त्याग दिया

 

बेबिक वंशीय

 

मालविकाग्निमित्र के अनुसार, पुष्यमित्र शुंग का पुत्र अग्निमित्र वैम्बूक वंश का था। कतिपय विद्वानों ने वैम्बिक वंश का समीकरण विम्बिक के वंश से किया है जो क्षत्रिय वंश का था, परन्तु विश्वसनीय साक्ष्यों के अभाव में इस सिद्धान्त को स्वीकार करना समीचीन नहीं प्रतीत होता

 

ब्राह्मण

 

बौधायन श्रौतसूत्र के अनुसार, शुंग लोग कश्यप गोत्र के और यह गौत्र ब्राह्मणों का था। हरिवंश पुराण में यह उल्लेख है कि कश्यप गौत्र का एकआदिभिन्न‘ (हीन अवस्था से अकस्मात उत्कर्ष करने वाला) सेनापति कलियुग में अश्वमेघ यज्ञ का उद्धार करेगा। जायसवाल के अनुसार, यह उल्लेख सेनानी पुष्यमित्र का है, यह मत तर्कसंगत जान पड़ता है।

 

अन्य साक्ष्यों से भी यही सिद्ध होता है कि शुंग लोग ब्राह्मण वंशीय थे। पाणिनि के अनुसार, शुंग लोग भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण थे। पतंजलि पुष्यमित्र का राज पुरोहित था। उसने एक जगह लिखा है कि ब्राह्मण राज्य सर्वोत्तम होता है। यदि शुंग वंश का संस्थापक पुष्यमित्र ब्राह्मण होता तो वह ऐसा लिखने की हिम्मत नहीं कर सकता था। मनुस्मृति से भी यही ध्वनित होता है कि शुंग ब्राह्मण वंशीय थे, मनु ने जो सम्भवतः पुष्यमित्र का समकालीन था, अपनी मनुस्मृति में एक स्थान पर लिखा है कि वेद और शास्त्र का ज्ञाता ही सेनापतित्व, राज्य, दण्ड, नेतृत्व और सर्वलोकाधिपत्य के योग्य होता है। इस प्रकार का उल्लेख करते समय सम्भवतः मनु का संकेत ब्राह्मण सेनापति एवं सम्राट पुष्यमित्र

 

शुंग की ही ओर था। पुराणों में पुष्यमित्र को शुंग वंशीय बतलाया गया है। हर्षचरित में भी एक अनुवर्ती शुंग वंशीय कहा गया है। इस प्रकार पुष्यमित्र तथा उसके वंशज शुंग सिद्ध होते हैं और मैकडोनल तथा कीथ ने आश्वालयन श्रौत सूत्र के आधार पर यह मत प्रतिपादित किया है कि शुंग आचार्य होते थे। बृहदारण्यक उपनिषद् में शौंगी पुत्र आचार्य का उल्लेख मिलता है। शौंगी पुत्र का अर्थ लगाया जाता है कि शुंग वंश की बेटी का पुत्र इस साक्ष्य के अनुसार शुंग लोग आचार्य हुआ करते थे जो कि प्रायः प्राचीन काल में ब्राह्मण ही होते थे अस्तु, इस साक्ष्य के अनुसार भी शुंग लोग ब्राह्मण वंशीय ठहरते हैं। तारानाथ ने भी पुष्यमित्र को ब्राह्मण वंशीय स्वीकार किया है। निष्कर्ष

 

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न साक्ष्यों से जो तथ्य उपलब्ध हैं। उनके आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि शुंग लोग भारद्वाज गौत्र के ब्राह्मण वंशीय थे। यह अब लगभग निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गया है कि शुंग लोग ब्राह्मण वंश के थे।

 

 

पुष्यमित्र शुंग

 

(Pushyamitra Sunga)

 

अन्तिममा की हत्या करने के बाद पुष्यमित्र शुंग ने शासन को

 

सम्भाली और की हत्या के विरोध में कोई भी आवाज नहीं उठी। इससे

 

मौर्य शासक की निष्कृष्ट स्थिति का पता चलता है जिसने उसकी हत्या को समय की क्रूर आवश्यकता बना दिया था। पुराणों में मौर्य वंश का शासनकाल 137 वर्ष का माना गया है। चन्द्रगुप्त मौर्य के सिंहासनारोहण की तिथि 322 ई० पू० मानी जाती है। इस हिसाब से 185 ई० पू० के आसपास मौर्य वंश का अन्त तथा पुष्यमित्र शुंग का राज्यारोहण होना चाहिये। वायु पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण में पुष्यमित्र के 60 वर्ष तक शासन करने का उल्लेख है, पर यह गलत

 

लगता है।

 

पुष्यमित्र की उपलब्धियाँ

 

(पुष्यमित्र की उपलब्धियां)

 

पुष्यमित्र शुंग ने रक्त से अपना राज्य प्रारम्भ किया था तथा रक्त से ही उसने उसे कायम रखा। उसके सभी कार्य, सभी उपलब्धियाँ रक्तिम हैं। यही कारण है कि भगवतशरण उपाध्याय ने लिखा है– “ब्राह्मण (पुष्यमित्र) का इतिहास रक्तरंजित है।उसके मुख्य कार्य या सैन्य या राजनीतिक उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं

 

(1) मगध साम्राज्य का संगठन बृहद्रथ की हत्या करने के पश्चात् पुष्यमित्र मगध राज्य का स्वामी तो बन गया, परन्तु उसके राज्य की स्थिति अभी बड़ी डावांडोल थी। मगध के हाथों से सीमान्त के प्रान्तों के निकल जाने से इसकी शक्ति खोखली हो गयी थी और पड़ोसी राज्यों की बढ़ती हुयी शक्ति मगध राज्य के लिये एक सबल चुनौती थी। राजवली पाण्डेय का कथन है कि, “इसलिये मगध साम्राज्य के बचे हुये भाग को सम्भालना और यदि सम्भव हो तो इसका विस्तार करना पुष्यमित्र के सामने मुख्य समस्या थी।यूनानियों (इण्डोबेक्ट्रियनों) का खतरा भी बढ़ रहा था। अतः मगध पर अधिकार जमा लेने के बाद पुष्यमित्र ने सबसे पहले अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने की ओर ध्यान दिया। उसने प्राची, कोसल, वत्स, आकर, अवन्ति आदि प्रदेशों को संगठित किया। पश्चिम के प्रान्तों पर पूरा अधिकार रखने के लिये उसने आकर प्रान्त के प्रमुख नगर विदिशा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। विदिशा में उसने अपने दूसरे पुत्र अग्निमित्र को राज्य के प्रतिनिधि के रूप में रखा। इसके पश्चात् पुष्यमित्र ने अपना ध्यान साम्राज्य विस्तार की ओर दिया।

 

(2) विदर्भ के विरुद्ध अभियानमालविकाग्निमित्रसे हमें पता चलता है कि पुष्यमित्र ने विदिशा (पूर्वी मालवा) में अपने पुत्र अग्निमित्र को गवर्नर (गोप्ता अथवा उपराजा) नियुक्त किया था। अग्निमित्र को विदर्भ या बरार (विदिशा के दक्षिण में) के शासक यज्ञसेन, जो कि हाल में ही स्वतन्त्र हुआ था, के साथ युद्ध करना पड़ा। कहा जाता है कि यज्ञसेन मौर्य मन्त्री का रिश्तेदार था और इसलिये पुष्यमित्र का प्राकृतिक शत्रु पुष्यमित्र ने जब मगध साम्राज्य को पुनः सुसंगठित और विस्तृत करने का निश्चय किया तो उसने यज्ञसेन को आत्मसमर्पण करने को कहा, पर यज्ञसेन ने साफ इन्कार कर दिया, तब यज्ञसेन के चचेरे भाई माधवसेन को पुष्यमित्र ने अपनी ओर मिला लिया। यह माधवसेन जब विदिशा की ओर जा रहा था तब यज्ञसेन के सिपाहियों (अन्तपालों) ने उसे गिरफ्तार कर लिया। अग्निमित्र ने यज्ञसेन को उसे रिहा करने के लिये कहा। यज्ञसेन ने इस शर्त पर माधवसेन को छोड़ना

 

 

स्वीकार किया कि प्रथम अग्निमित्र को केंद्र में मौर्य मन्त्री को छोड़ दिया जाये। इस पर अग्निमित्र अप्रसन्न हो गया और उसने वीरसेन को विदर्भ पर चढ़ाई करने की आशा दी। वीरसेन ने यज्ञसेन को हराकर माधवसेन को कासमुक्त किया। अन्त में विदर्भ का राज्य दो भागों में बाँट दिया गया जिन पर पुष्यमित्र की अधीनता में यज्ञसेन और माधवसेन शासन करने लगे। वरा नदी दोनों राज्यों की सीमा रेखा थी।

 

(3) खारवेल से युद्धपद्यपि अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त कर ली थी, परन्तु परवर्ती मौर्य शासकों के समय में कलिंग स्वतंत्र हो गया था और बड़ा ही शक्तिशाली राज्य बन गया था। हाथी गुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि कलिग नरेश खारवेल ने मगध पर आक्रमण कर बृहस्पतिमित्र को पराजित किया था। स्मिथ ने शायद बृहस्पतिमित्र को ही पुष्यमित्र माना है और इसलिये उनका कहना है कि कलिंग नरेश खारवेल ने पुष्यमित्र के शासनकाल में दो बार मगध पर आक्रमण किया। प्रथम आक्रमण लगभग 165 ई० पू० हुआ था और इस समय खारवेल पाटलिपुत्र के सन्निकट गया था। पुष्यमित्र कूटनीतिक चाल चला और वह मथुरा तक पीछे हट गया। ऐसी स्थिति में खारवेल ने आगे बढ़ना उचित नहीं समझा और वह पीछे हट गया। खारवेल का दूसरा आक्रमण 161 ई० पू० हुआ और इस बार पुष्यमित्र पराजित हुआ और उसे खारवेल से सन्धि करनी पड़ी। विजेता के हाथ मगध की प्रभूत सम्पत्ति लगी।

 

जायसवाल ने भी बृहस्पतिमित्र का समीकरण पुष्यमित्र के साथ किया है। अपने मत की परिपुष्टि में वे कहते हैं कि ज्योतिष शास्त्र में बृहस्पति को पुष्य (Zodiacal Asterism) का नक्षत्राधिपति माना जाता है। अतः बृहस्पतिमित्र पुष्यमित्र का ही पर्यायवाची है, परन्तु इस प्रकार के मत को मानने में अनेक आपत्तियाँ हैं और एच० सी० राय चौधरी, आर० पी० चन्द्रा, बी० एम० बरुआ, आर० एस० त्रिपाठी आदि इस मत का खण्डन करते हैं। इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि पुष्यमित्र का नाम बृहस्पतिमित्र था। (4) यवन आक्रमणयद्यपि चन्द्रगुप्त मौर्य ने यवनों अर्थात् यूनानियों को भारत से

 

निष्कासित कर दिया था, परन्तु उन्होंने भारत की उत्तरपश्चिम सीमा पर बैक्ट्रिया में अपना स्थायी राज्य स्थापित कर लिया था। ये लोग बाबीयूनानी के नाम से प्रसिद्ध हुये। ये लोग सदैव अपनी लुब्ध दृष्टि भारत पर लगाये रहते थे, किन्तु अशोक के शासनकाल तक इनका दुस्साहस भारत पर आक्रमण करने का हुआ, किन्तु जब अशोक के दुर्बल उत्तराधिकारियों के समय में राजनीतिक विश्रृंखलता आरम्भ हुयी और अनेक छोटेछोटे राज्यों की स्थापना हो गयी तब यूनानियों ने फिर इस स्वर्णगर्भा वसुन्धरा पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का दुस्साहस किया। विभिन्न साक्ष्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि शुंग काल मेंपश्चिमी प्रश्न या समस्या सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक समस्या बन गयी, शायद 19वीं सदी कोपूर्वी समस्या‘ (टर्की के सन्दर्भ में) सी।

 

पतंजलि नेअरुणद यवनः साकेतम्मेंअरुणद यवनः मध्यमिकाम्का उल्लेख किया है। इसका मतलब यह होता है कि यवनों ने साकेत (अयोध्या) और मध्यिका (राजस्थान में चित्तचौर के पास नगरी) पर घोटा डाला। गार्गी संहिता के युग पुराण से भी पता चलता है कि यवनों ने साकेत, पांचाल और मूर्छित आक्रमण किया और तदुपरान्त वे कुसुमध्वज अर्थात् पाटलिपुत्र तक पहुँचे। एन0 एन0 घोष के अनुसार, यह यवनों का प्रथम आक्रमण था और उनके नेता डमित्रियस (दिमित था, पर डिमिट्रियस की मुद्रायें उत्तरी भारत में नहीं मिलते। डिमित्रियस की केवल एक ही मुद्रा मिली है और वह भी तक्षशिला से और जो संभवतः डिमिटियस II की हो हो सकता है या फिर यह व्यापार या यात्रा से संबंध है और चूंकि डिमिट्रियस की मुद्राएं व्यास की पश्चिम की ओर ही हैं

 

 

का उल्लेख है। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार, 72वें वर्ष में शकों का शासन था। कुछ इतिहासकार माओज का राज्यकाल 78 वि० सं० अर्थात् 200 ई० पू० मानते हैं, रेप्सन का विचार है कि 78वाँ वर्ष मिडेटस प्रथम के शकस्तान विजय की तिथि से सम्बन्धित जो 150 ई० पू० में हुयी थी। इस गणना से माओज काल 72 ३० पू० बैठता है। डॉ० घोष के विचार से चाहे संवत् कोई हो, तक्षशिला ताम्रपटिका की तिथि 72 ई० पू० माओ के राज्य में स्वीकार करने से कोई तिथि व्यतिक्रम नहीं होता। माओज ने राजातिराज की उपाधि 88 ई० पू० में धारण की होगी। तक्षशिला रजत अभिलेख के अनुसार, उसके उत्तराधिकारी एजेंस प्रथम की तिथि 56 ई० पू० बैठती है। अतः माओज का शासनकाल 8 ई० पू० से 58 ई० पू० तक निर्धारित किया जा सकता है।

 

(2) एजेंस प्रथममाओज के पश्चात् एजेस प्रथम शक राज्य का राजा बना। उसनेमाओजशैली की मुद्राओं के अतिरिक्त कुछ अन्य मुद्रायें भी प्रसारित की जो यवन सम्राट एपोलोडोटस और मिनाण्डर की मुद्राओं की शैली की थीं। इससे प्रतीत होता है कि उसने यवन शासक हिपोस्ट्रेटस से पूर्वी पंजाब छीन कर यवनों की शक्ति बिल्कुल नष्ट कर दी। साकुल सम्भवतः उसके राज्य का अंग बन गया। हिपोस्ट्रेटस और गजेस की मुद्राओं पर वर्गाकार गोल आकृतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। मुद्रा साक्ष्यों से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि ये मुद्रायें 41) ई० पू० की नहीं हैं तथा हिपोस्ट्रेटस एजेस प्रथम का समकालीन था। एजेस प्रथम ने 40 ई० पू० के लगभग इसके राज्य पर अधिकार कर ये सिक्के प्रसारित किये। कहा जाता है कि एजेस प्रथम का राज्य मथुरा तक विस्तृत हो गया था।

 

(3) एजलिसिज कुछ मुद्रायें एजलिसिज के नाम की भी प्राप्त हुयी हैं। इसके दो प्रकार के सिक्के प्राप्त हुये हैं। एक प्रकार के सिक्कों पर सामने की तरफ एजेस प्रथम का नाम यूनानी लिपि में है तथा पीछे की तरफ एजलिसिज का नाम खरोष्ठी लिपि में है। इससे प्रतीत होता है कि एजलिसिज एजेस प्रथम के अधीन था। दूसरे सिक्के में सामने की तरफ एजलिसिज का नाम यूनानी लिपि में है और एड्रेस प्रथम का नाम पीछे की तरफ खरोष्ठी लिपि में है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि दूसरे प्रकार के सिक्के एजेंस प्रथम की मृत्यु के बाद एजलिसिज के राजा बनने पर प्रसारित किये गये थे। इन मुद्राओं के द्वारा यह तथ्य भी उजागर होता है कि एजेस नाम के दो राजा थे।

 

(4) एजेस द्वितीयएजेस द्वितीय अन्तिम शक राजा था। पहले तो एजलिसिज के

 

अधीन शासक के रूप में रहा तथा उसके बाद वह स्वतन्त्र शासक हो गया। इसका साक्ष्य

 

एजेस प्रथम एजलिसिज जैसी मुद्राओं की प्राप्ति है। एजेस द्वितीय के राज्यकाल में पहलवों

 

की शक्ति बढ़ गयी। पहलव शासक गोंडोफर्नीज ने एड्रेस द्वितीय के राज्य पर अधिकार

 

कर लिया। इसका राज्य 19 ई० पू० के लगभग समाप्त हुआ।

 

(II) उत्तरपश्चिम के क्षत्रप

 

(Kshatraps of North-West) शकों ने पश्चिमोत्तर प्रान्त में स्थापित होने के बाद भारत के विभिन्न भागों में क्षत्रपी, स्थापित की।क्षत्रपशब्द ईरानी शब्दक्षत्रपावनका अर्थप्रान्त का शासक होता है। इस अर्थ में क्षत्रप सम्राट का प्रतिनिधि होता था जो प्रान्त के शासन का भार वहन करता था। प्रत्येक प्रान्त में 2 क्षत्रप होते थेएक महाक्षत्रप दूसरा क्षत्रप जो प्रायः महाक्षत्रप का

 

ही पुत्र एवं उत्तराधिकारी होता था। उत्कीर्ण अभिलेखों के आधार पर उत्तरपश्चिम के क्षत्रपों को तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त किया जा सकता है

 

 

 

(1) कापिसी, पुष्पपुर, और अभिसारप्रस्थ के (3) मथुरा के क्षत्रप

 

(2) पश्चिमी पंजाब के और

 

(1) कापिसी, पुष्पपुर और अभिसारप्रस्थ के क्षत्रपमणिक्वाल अभिलेख से पता चलता है कि कापिसि का क्षत्रप गणव्यहक का पुत्र था। इसके अलावा कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती। काबुल संग्रहालय के एक पाषाण अभिलेख से ज्ञात होता है कि पुष्पपुर में शिवंहणं (तिरर्ण ) नामक क्षत्रप राज्य करता था।

 

पंजाब से प्राप्त ताँबे की एक सील से अभिसारप्रस्थ नगर के क्षत्रप शिवसेन का पता

 

चलता है

 

इन तीनों स्थानों के क्षत्रपों की राज्य सीमा में, दोन गान्धार और काम्बोज सम्मिलित रहे होंगे जिनका उल्लेख हमें अशोक के अभिलेख में प्राप्त होता है। (2) पश्चिमी पंजाब के क्षत्रपराय चौधरी ने यहाँ के क्षत्रपों का अध्ययन निम्नांकित तीन कुलों में विभक्त कर दिया है

 

(i) कुसुलक कुलइस कुल के क्षत्रप लियाक (Liaka) तथा पतिक (Patika) थे। इनका शासन चिक्षु (तक्षशिला का उत्तरपश्चिम का प्रदेश) जिले में था। फ्लीट के अनुसार, पतिक दो थे, परन्तु मार्शल के अनुसार, पतिक नामक क्षत्रप एक ही था। इस वंश के क्षत्रपों का मथुरा के क्षत्रपों से निकट का सम्बन्ध था। लियाक कुमुलक के सिक्के इस बात को सूचित करते हैं कि पूर्वी गान्धार प्रदेश यूक्रेटाइडीज के वंशजों के हाथ से निकलकर शकों के अधीन हो गया था। तक्षशिला के एक ताम्रपत्र से हमें पता चलता है कि लियाक माउस का क्षत्रप था और पतिकमहादानपति था।

 

(ii) मनिगल और जिहोणिक का कुल मुद्राओं से ज्ञात होता है कि मनिगल (Manigul) तथा जिहोणिक (Jihonik) नामक क्षत्रप एजेस द्वितीय के शासनकाल में पुष्कलावती के क्षत्रप थे, परन्तु तक्षशिला के सिलवर वेस इंसक्रिप्शन से पता चलता है कि जिहोणिनिक तक्षशिला के निकट चिक्षु (या चुक्षा) का क्षत्रप था।

 

(iii) इन्द्रवर्मन का कुलतीसरा कुल इन्द्रवर्मन का था। इन्द्रवर्मन के उपरान्त उसका पुत्र इस्पवर्मन क्षत्रप हुआ। इस्पवर्मन ने एजेस द्वितीय और गोडोफर्नीज (पहलव) दोनों के राज्य प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया था। इस्पवर्मन के पश्चात् उसके भतीजे सस (Szsa) ने राज्य प्रतिनिधि का कार्य किया था। यह गोंडोफर्नीज तथा पेकोरीज (दोनों पहलव) का उपशासक था।

 

इस्पवर्मन और सस क्षत्रपों के उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि क्षत्रप व्यवस्था का तत्कालीन शासन पद्धति में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान था, क्योंकि शकों का राज्य जब नष्ट हो गया और उनका स्थान पहलवों ने ले लिया तब भी यह व्यवस्था प्रचलित रही और पहलवों ने क्षत्रपों को उनके पदों से च्युत करना भी अनुचित समझा। यह सम्भव है कि क्षत्रप उस समय की शासनप्रणाली के मेरुदण्ड स्वरूप थे, जिनको सहसा बदल देने से राज्य की केन्द्रीय सरकार को धक्का पहुँच सकता था, इसलिये इस्पवर्मन को प्रतापी पहलव नरेश गोंडोफर्नीज ने क्षत्रप के पद से अलग नहीं किया। क्षत्रप व्यवस्था का महत्त्व हम और अच्छी तरह तभी समझ सकते हैं, जब आगे आने वाले कुषाणों की शासन पद्धति का अध्ययन करें। कुषाणों ने पहलवों का ध्वंस करके राज्य हस्तगत किया था, किन्तु उन्होंने अपने विजितों से क्षत्रप व्यवस्था ग्रहण कर ली, जिस प्रकार कुछ समय पूर्व शकों की राजसत्ता का उन्मूलन

 

 

करनेवाले ने अपने जियों की व्यवस्था को ग्रहण किया था। इतना ही

 

नहीं का विनाश हो जाने पर भी सपों का राज्य बना रहा। डी० सी० सरकार से लिखा है कि पश्चिमी भारत के शक क्षत्रप, जो कुषाणों की अधीनता स्वीकार करते थे, उन भागों में भारत में कुषाणों की साम्राज्य सेवा के पतन के बाद भी काफी लम्बे समय तक शासन करते रहे।

 

(111) मथुरा के क्षत्रप (Kshatrap of Mathura).

 

(1,2) हमान और हगामशमथुरा के क्षत्रप वंश के बरि में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। मुद्राओं से पता चलता है कि हगान और हगामश प्रथम दो क्षत्रप थे। कुछ की मान्यता है कि इन दोनों ने पृथक रूप से शासन किया तथा कुछ के अनुसार इन्होंने सम्मिलित रूप से शासन किया।

 

(3) गजलहगान और हगामश के पश्चात् राजुबुल मथुरा का क्षत्रप बना। इसे मथुरा अभिलेख में महाक्षत्रप कहा गया है। इनकी कुछ मुद्रायें पंजाब मथुरा में प्राप्त हुयी है, जिनमें उसका अप्रतिहित चक्र क्षत्रपके नाम से उल्लेख हुआ है। इसकी मुद्रायें पंजाब से प्राप्त हुयी हैं तथा उनमें स्ट्रेटी | और 11 की मुद्राओं से साम्य इसलिये कुछ की धारणा है कि उसने यवनों से (डिमिट्रियस के यूथेडीमस पराने के) पूर्वी पंजाब छीन लिया था। मथुरा के सिंह मस्तक वाले अभिलेख से यह पता चलता है कि वह उस समय अप था जबकि पतिक (कुमुलक कुल) महाक्षत्रप था। इस प्रकार हम दोनों की ससामयिकता मान सकते हैं। कनियम का विचार है कि मुद्राओं के प्राप्ति स्थानों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राजबुल का राज्य पूर्वी पंजाब से लेकर मथुरा तक विस्तृत था।

 

(4) खरोष्टमथुरा लायन कैपिटल पर युवराज खरोष्ट का नाम मिलता है। स्टेनकोनोन ने इसे राजुबुल का श्वसुर माना है और कहा है कि माओज के पश्चात्राजराजके पद का यही उत्तराधिकारी था। फ्लीट के अनुसार, वह राजबुल की पुत्री का पुत्र था। परन्तु कुछ विद्वान इसे राजुबुल का पुत्र भी मानते हैं। कुछ दिन क्षत्रप रहने के पश्चात् सम्भवतः राजुबुल के जीवनकाल में ही उसकी मृत्यु हो गयी थी, अतः उसके अभाव में राजुबुल का दूसरा पुत्र सोडास क्रमशः क्षत्रप और महाक्षत्रप बना।

 

(5) सोडासराजुबुल के बाद सोडास मथुरा का शासक हुआ। उसे अभिलेखों में क्षत्रप एवं महाक्षत्रप कहा गया है। सोडास के जीवनकाल के एक अभिलेख में 72 वर्ष का उल्लेख है जिसको विद्वान् 72 वि० सं० मानते हैं। इस गणना से सोडास का काल ई० के लगभग होना चाहिये। इसकी मुद्रायें पूर्वी पंजाब में नहीं मिलतीं। इससे प्रकट होता है कि उसका राज्य उस प्रदेश में नहीं था। उसकी मुद्रायें और अभिलेख मथुरा में प्राप्त हुये हैं जिससे प्रकट होता है कि सोडास का राज्य मथुरा प्रदेश तक ही सीमित था। 1979 में मथुरा के पुरातत्त्व संग्रहालय को सोडास के समय का एक अभिलेख मिला है। इसमें यह बतलाया गया है कि कौशिकी नामक महिला ने एक तालाब खुदवाया, बगीचा बनवाया, एक स्तम्भ निर्मित करवाया और लक्ष्मी देवी की मूर्ति स्थापित की। तालाब तो मथुरा के निकट ग्राम में था, परन्तु लक्ष्मी की जगह शिव मन्दिर ने ले ली। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि लोगों को धार्मिक स्वतन्त्रता थी।

 

पतन सोडास के बाद के क्षत्रपों के बारे में कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं होती। लगता है कुषाणों के आक्रमण के कारण मथुरा के शक क्षत्रपों का पतन हुआ।

 

मथुरा के क्षत्रपों का धर्म– –मथुरा के सिंह लेख से पता चलता है कि मथुरा के क्षत्रप कपिसा तथा तक्षशिला के क्षत्रपों की भाँति बौद्ध धर्मावलम्बी थे, क्योंकि इसमें लिखा

 

 

परवतीर्य युगपश्चिमी सातवाहन कु है कि राजल की पटरानी ने वृद्ध की अस्थियों पर एक स्तूप बनवाया था। नाहर के अनुसार, कुछ ने जैन धर्म भी स्वीकार किया था।

 

(IV) महाराष्ट्र के क्षहरात शक क्षत्रप (महाराष्ट्र का शाहरात क्षत्रप)

 

महाराष्ट्र के क्षत्रप शहरात क्षेत्र कहलाते थे। इनका भारत में प्रवेश बलूचिस्तान, सिन्धु, गुजरात आदि में होकर महाराष्ट्र तक हुआ था, वे बड़े बीर और बुद्धकुशल थे। इन्होंने सातवाहनों से महाराष्ट्र का विस्तृत प्रदेश छीनकर वहाँ अपनी सत्ता स्थापित की। (1) अर्टअर्ट शहरात वंश का प्राचीनतम सदस्य जान पड़ता है जिसने क्षत्रप की उपाधि धारण की थी। शायद वह भूमक का पूर्ववर्ती (Predecessor) था। उसके अभी तक प्रकाशित दो सिक्कों के अग्रभाग पर स्वम्भ का शीर्ष है जिस पर सिंह और चक्र है। और जिस पर ब्राह्मी आख्यान हैशहरतम क्षतपस अनस पिछले भाग पर नाइक (Nike) की आकृति है जिसके दोनों हाथों में माला है और यूनानी आख्यान है। प्रतीत होता है कि वह कुषाणों का वाइसराय था। अर्ट की जानकारी उसके पुत्र खरोष्ट या खरोष्ट के सिक्कों से भी होती है।

 

(2) भूमक क्षहरात वंश का दूसरा क्षत्रप भूमक था अर्ट से उसके क्या सम्बन्ध थे कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती। हाँ, अर्ट के सिक्कों के चिह्न उसके सिक्कों पर भी मिलते हैं। इस आधार पर कई विद्वानों ने उसका (और इसलिये स्वाभाविक रूप से अर्ट का भी) सम्बन्ध मथुरा के क्षत्रपों से जोड़ा है, क्योंकि अपने एक बौद्ध स्मारक के सिंह मस्तक के लिये विख्यात हैं। ऐसा भी लगता है कि कनिष्क के कुषाण घराने के साम्राज्य के दक्षिणपूर्वी भाग का वह क्षत्रप था। उसके सिक्के मालवा में उज्जैन और भिलसा से प्राप्त हुये हैं। उसके सिक्के गुजरात और काठियावाड़ के तटीय प्रान्तों से, राजस्थान के अजमेर क्षेत्र से भी प्राप्त हुये हैं। उनके सिक्कों पर बाह्मी और खरोष्ठी लिपि के प्रयोग से यह सिद्ध होता है कि क्षत्रपों का क्षेत्र मालवा, गुजरात और काठियावाड़ तक नहीं फैला था जहाँ ब्राह्मी लिपि प्रचलन में थी, वरन् पश्चिमी राजस्थान और सिन्ध तक भी, जहाँ खरोष्ठी का प्रचलन था, परन्तु एन० एन० घोष का मत है कि पांडुसेन (नासिक) में जितने अभिलेख मिले हैं, उनमें से किसी में भी भूमक का नाम नहीं आया है, जबकि उसके उत्तराधिकारी नहपान और उसके (नहपान) के दामाद ऋषभदत्त के सिक्के लेख महाराष्ट्र में मिले हैं। अतः लगता है कि भूमक महाराष्ट्र पर शासन सत्ता नहीं जमा पाया था। नहपान ने प्रथम बार (और कहा जाये कि अन्तिम बार ऐसा किया था। भूमक के शासन की कोई विस्तृत जानकारी नहीं मिलती। यह भी निश्चित नहीं है कि उसने कनिष्क प्रथम के जीवनकाल में सिक्के प्रसारित किये या उसकी मृत्यु के बाद जब बहिर्वति (Oullying) या दूरस्थ प्रान्तों पर कुषाणों की पकड़ ढीली पड़ रही थी।

 

(3) नहपानभूमक की मुद्राओं में सामने की तरफ भूमक का नाम है और पीछे की तरफ नहपान का। इस कारण रेप्सन के कथन में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि नहपान भूमक का उत्तराधिकारी था। पर दोनों के बीच सम्बन्धों की स्पष्ट जानकारी नहीं है और ही नहपान की राजधानी मिन्ननगर का अभी तक ठीक से समीकरण हो पाया है। भण्डारकर ने इसे मंदसौर माना है और जायसवाल ने भड़ाँच। कुछ के अनुसार, नहपान की राजधानी दक्षिण अथवा पश्चिम भारत में नहीं वरन् उत्तर भारत में थी। उसनेराजनकी उपाधि धारण की थी और उसके किसी अधिपति का नाम भी (उसके रिकार्ड से) पता नहीं चलता। इसलिये लगता है कि उसने एक स्वतन्त्र शासक के रूप में ही शासन किया होगा।

 

 

नहपान के बादमहाराष्ट्र के शहरात शक क्षत्रपों की उसके बाद कोई जानकारी नहीं मिलती। उसके दामाद ऋषभदन के क्षेत्रप बनने के प्रमाण नहीं मिलते। सम्भवतः गौतमीपुत्र शातकर्णी ने इस घराने का सर्वनाश हो कर दिया था। एक प्रशस्ति में गौतमीपुत्र कोशहरात जाति का उच्छेद करने वाला कहा गया है।

 

(V) उज्जयिनी के क्षत्रप (उज्जयिनी का क्षत्रप)

 

यदि कहा जाये कि शकों के राजकुल में सबसे अधिक महत्त्व उज्जयिनी के क्षत्रपों का था तो सम्भवतः अतियुक्ति होगी। चूंकि इस वंश का राज्य प्रमुखतया उज्जैन और

 

काठियावाड़ में था इसे उज्जैनकाठियावाड का शक वंश भी कहा गया है।

 

(1) यसोमतिकउज्जैन के क्षत्रप राजवंश का संस्थापक यसोमतिक (अथवा जामोतिक) था जो चेष्टन का पिता था। यसोमतिक का नाम सीथिमन उत्पत्ति का है। उसके वंश को जो चन्द्रगुप्त || द्वारा मारा गया, बाण ने अपने हर्षचरित में शक राजा कहा है। इसलिये विद्वान इस बात को मानते हैं कि उज्जैन का क्षत्रप कुल शक जाति का ही था। इस वंश का ठीकठीक नाम नहीं मालूम। रेप्सन का कथन है कि यह नाम कार्दमक हो सकता है। 1 रुद्रदामन की पुत्री इस बात पर गर्व प्रकट करती है कि उसका जन्म कार्दमक वंश के नरेशों के परिवार में हुआ है, परन्तु यह सम्भव है कि इस बात के लिये वह अपनी माता की ऋणी रही हो स्पष्टतया कार्दमक नरेशों के नाम का उद्भव फारस की एक नदी कर्दम से हुआ है।

 

(2) वेष्टन चेष्टन उज्जैन का प्रथम शक शासक था। उसके पिता ने उसके वंश की प्रतिष्ठापना अवश्य की थी, परन्तु उज्जैन में अपने वंश का शासन प्रारम्भ करने वाला चेष्टन ही था। नाहर ने लिखा है कि चेप्टन ने सम्भवतः कुषाणों के एक सामन्त के रूप में सिन्ध पर शासन किया था। नहपान की मृत्यु के बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि दक्षिणीपश्चिमी भागों का उपशासक कुषाणों ने चेष्टन को ही नियुक्त कर दिया और उसे सातवाहनों से अपने शासनान्तर्गत उन भागों को पुनः अधिकार में करने का आदेश भी दिया जो नहपान के समय में गौतमीपुत्र शातकर्णी ने जीत लिये थे। परन्तु उसके अभिलेखों से यह ज्ञात नहीं होता कि वह किसी कुषाण अधिपति के अधीन था। कच्छ से अन्धक अभिलेख, जो संवत् 52 (130-31 ई०) का है, में उसेराजाकहा गया है। इससे उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का पता चलता है।

 

(3) जयदामनएक मत के अनुसार जयदामन सिर्फ क्षत्रप ही रहा। हो सकता है

 

कि सातवाहनों द्वारा उसके वंश को क्षति पहुँची हो और शायद इसीलिये उसके सिक्के भी

 

ताँबे के हैं।

 

दूसरा मत यह है कि उसने चेष्टन के साथ मालवा पर राज्य किया तथा वह गौतमीपुत्र शातकर्णी के औपचारिक अधीन रहा और इसलिये उसने क्षत्रप की उपाधि धारण की, की जानकारी हमें हाल में ही शाजापुर से 16 किमी0 दूर सतखेड़ी से एक दुर्लभ शिलालेख (जो इस क्षेत्र की ऐतिहासिक सम्बद्धता को मौर्यकालीन सन्धिकाल से जोड़ता है) से होती है।

 

(4) रुद्रदामनलगता है जयदामन की मृत्यु जल्दी हो गयी थी। शक वर्ष 52 के अन्धऊ अभिलेख से पता चलता है कि चेष्टन अपने प्रपौत्र रुद्रदामन के साथ संयुक्त रूप

 

से शासन कर रहा था। लगता है, चेष्टन इस समय महाक्षत्रप था और रुद्रदामन क्षत्रप क्षत्रप के रूप में ऐसा प्रमाण है कि अपने दादा चेष्टन के अधीन क्षत्रप रुद्रदामन ने सातवाहन शासक को हराकर उसके साम्राज्य के उत्तरी जिलों (जिनको नहपान हार चुका

 

 

 

 

था) को पुनः प्राप्त किया। उसके ही जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि उसने पुत्र

 

चित्रिणी से आएं अवन्ति, अनूप, अपांतर, सौराष्ट्र और आनरत जीते। इससे आगे रुद्रदामन

 

का यह दावा है कि उसने दक्षिणपथ के शातकर्णी को दुबारा हराया, परन्तु नष्ट नहीं किया, क्योंकि वह उसका सम्बन्धी या कान्हेरी अभिलेख से हमें पता चलता है कि वाशिष्ठीपुत्र रुद्रदामन का दामाद था। लगता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा हराये गये नहपान के सामन्तों को रुद्रदामन ने पुनर्स्थापित किया। महाक्षत्रप के रूप में 130-131 . के कुछ समय बाद रुद्रदामन महाक्षत्रप हुआ। उसके सभी ज्ञात सिक्के उस समय के है जब वह महाक्षत्रप था। महाक्षत्रप के प्रान्तों में मालवा, काठियावाड़, गुजरात, उत्तरी कोंकण और माहिष्मति सम्मिलित थे। बाद में उसमें कच्छ, श्वभ (साबरमती घाटी), मरु (मारवाड़ क्षेत्र), सिन्धु (निचली सिन्धु घाटी का पश्चिमी

 

भाग), सोवीर (निचली सिन्धु घाटी का पूर्वी भाग) और निषाद (पूर्वी विन्ध्य और अरावली

 

श्रृंखला) सम्मिलित हो गये। इस प्रकार प्रतीत होता है कि नासिक और पूना जिलों को

 

छोड़कर रुद्रदामन ने क्षहरात्र साम्राज्य के संपूर्ण अंशों पर राज्य किया। रुद्रदामन का यह

 

दावा है कि ये सब प्रान्त उसने शौर्य से जीते।

 

ऐसा भी जाना गया है कि रुद्रदामन ने यौधेयों (जो उस समय दक्षिणी पंजाब और आसपास के क्षेत्रों में थे) को अपने कुषाण स्वामी की ओर से हराया (यद्यपि उनकी हार क्षणिक थी), परन्तु उसके समय के ज्ञात प्रमाणों में कुषाणों को कहीं भी सन्दर्भित नहीं किया गया है और फिर उसने स्वयं महाक्षत्रप की उपाधि धारण की थी, इसलिये पता चलता है कि वह स्वतन्त्र शासक ही था।

 

मूल्यांकन शासक के रूप में 150 ई० में स्वर्णाशिक्ता, पलाशिनी तथा उरजयत पर्वत की नदियों की बाढ़ से सुदर्शन झील (जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने बनवाया था और जिसकी मरम्मत अशोक ने करवायी थी) फिर टूट गयी। तब रुद्रदामन ने अपनी निजी आय (क्योंकि आर्थिक कारणों से आमात्यों ने उसका विरोध किया था) से इसकी मरम्मत करायी। इसके लिये रुद्रदामन ने प्रजा से कोई अतिरिक्त कर नहीं लिया। इस समय सौराष्ट्र में रुद्रदामन का आमात्य एक पहलव था, जिसका नाम सुविशाख था। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके अन्य प्रान्त भी राज्यपालों के हाथ में होंगे। रुद्रदामन के 2 प्रकार के मन्त्री थे। सम्मति देने वाले मन्त्रियों कोमति सचिवकहा जाता था और कार्यपालिका के अध्यक्षों को कर्म सचिव, ‘कर्म सचिवराजा के निश्चयों को क्रियान्वित करते थे। इस प्रकार वह मन्त्रिपरिषद् की सहायता से कार्य करता था। उसकी मन्त्रिपरिषद्अमात्यण सयुक्ताथी अर्थात् मन्त्रिपरिषद् में सभी गुण थे। उसने पौर तथा जनपद को हर प्रकार की सुविधा देने के लिये शासक नियुक्त कर रखे थे। उसके कर्मचारी प्रजा के हित के लिये धर्म, अर्थ तथा व्यवहार सम्बन्धी कार्यों में सदैव तत्पर रहते थे। उसने अपनी प्रजा पर कोई अनुचित कर नहीं लगाया। इस समय बलि, भाग और शुल्क उचित कर समझे जाते थे और कर (Tax), विष्टिन (बेगार) और प्रणय (प्रीतिदान) अनुचित रुद्रदामन ने अपनी प्रजा से बलि, भाग और शुल्क ही वसूल किये। उसने प्रजा से बेगार ली और उपहार लिये जिनको देने में प्रजा को आपत्ति हो सकती थी। इससे स्पष्ट होता है कि रुद्रदामन परोपकारी राजा था जो प्रजा के हित का पूर्ण ध्यान रखता था।

 

व्यक्ति के रूपरुद्रदामन को व्यक्तिगत रुचियाँ भी बड़ी सुन्दर और सौम्य थीं वह व्याकरण, राजनीति, संगीत और न्याय (तर्कशास्त्र) का अच्छा ज्ञाता था। गद्य और पद्य काव्यों में वह प्रवीण था। संस्कृत भाषा और साहित्य का वह आश्रयदाता था। उसका जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में है और इससे उस समय के संस्कृत साहित्य के विकास का

 

 

भारत का इतिहास से 1200 ई० तक अनुमान होता है। अर्थशास्त्र का ज्ञान उसे अच्छा था। धर्म में उसकी बड़ी अभिरुचि थी वह अपना धर्मकीर्ति फैलाने का प्रयत्न करता था और गोब्राह्मणों की रक्षा करता था। व्यर्थ के करता था, अतः उसने प्रतिज्ञा की थी कि युद्ध के अतिरिक्त पर मनुष्य का वध नहीं करेगा। इस योग्य, उदार और कुशल शासक के राज्यकाल में उसकी राजधानी उज्जैनी विद्या और वैभव से पूर्ण हो गयी।

 

ऐसा भी पता चलता है कि रुद्रदामन कई स्वयंवरों में उपस्थित हुआ था और कई राजकुमारियों से ब्याह किया था यह कि रुद्रदामन वास्तव में एक महान शासक था। इस तथ्य की पुष्टि 5 ईषद्वारा रचित तीन कृतियों से होती है। इन कृतियों से उन वित्तीय शब्दावली का आभास होता है जो रुद्रदामन के नाम से रखी गयीं और जिसके दरबार में कालिदास रहा हो। यह स्मरणीय बात है कि करीब 300 वर्ष बाद भी बुद्धघोष के समय में रुद्रदामन याद किया जाता रहा। वेष्टन की तरह रुद्रदामन का भी विदेशी साहित्य में नाम है।

 

(5) दया दामजद श्री दामपसद या दामजद श्री ने 170 ई० में महाक्षत्रप की उपाधि धारण की। उसके सिक्के दंगवाड़ा से भी प्राप्त हुये हैं। शायद 175 ई० तक ही उसका शासन रहा। लगता है, उसके समय साम्राज्य में कोई खलबली नहीं हुयी।

 

(6) जीवनदामन और रुद्रसिंह दामजद श्री के बाद जीवनदामन हुआ। वह करीब 175 ई० में महाक्षत्रप हुआ। इसके भी सिक्के दंगवाड़ा से मिले हैं। इसका चाचा रुद्रसिंह बड़ा महत्वाकांक्षी था। गुंड अभिलेख से पता चलता है कि शायद उसने आभीरों की सहायता से अपने भतीजे को हटा दिया और 181 ई० में स्वयं महाक्षत्रप बन बैठा, अन्यथा वह अपने भतीजे के अधीन क्षत्रप था, परन्तु आभीर सेनापति (ईश्वरदत्त) ने उसे हटा दिया और लगभग 188 ई० पूर्व में स्वयं महाक्षत्रप हो गया और उसने अपने नाम के सिक्के भी चलाये। रुद्रसिंह शायद उसके अधीन क्षत्रप हो गया। लगता है ईश्वरदत्त को रुद्रसिंह को हटाने में सातवाहन यज्ञ शातकर्णी से सहायता मिली थी। यज्ञ शातकर्णी ने भी शकों की कीमत पर साम्राज्य का विस्तार किया। सम्भवतः ईश्वरदन और यज्ञ शातकर्णी दोनों ने मिलकर जीवनदामन और रुद्रसिंह के बीच की संघर्षपूर्ण परिस्थिति का लाभ उठाया। जो भी हो, 191 ई० के लगभग रुद्रसिंह ईश्वरदत्त को हटाने में सफल हो गया और पुनः महाक्षत्रप बन गया। करीब 197 ई० तक वह रहा और उसके बाद जीवनदामन ने पुनः सत्ता सम्भाल ली। यह निश्चित नहीं है कि दोनों के बीच समझौता हो गया था या भतीजे ने चाचा को हरा दिया था। अधिक सम्भावना समझौते की लगती है, क्योंकि रुद्रसिंह का लड़का रुद्रसेन जीवनदामन का क्षत्रप हो गया था।

 

(7) रुद्रसेन I- फिर रुद्रसेन | हुआ। उसने लगभग 220 से 222 ई० तक राज्य किया। संघदामन और दामसेन उसके 2 भाई थे तथा पृथ्वीसेन और दामजद II दो लड़के इसके समय मालवा, गुजरात, कॉठियावाड़ और पश्चिमी राजपूताना शकों के अधिकार में बने रहे और उज्जैन राजधानी बनी रही।

 

(8) संघदामन और दामसेनरुद्रसेन के बाद ताज संघदामन के पास चला गया। उसने सिर्फ करीब 14 वर्ष ही शासन किया और फिर 223 ई० के करीब उसका छोटा भाई महाक्षत्रप हो गया। शायद संघदामन की असामयिक मृत्यु हो गयी हो। ए० एस० अल्लेकर का मत है कि शायद वह अजमेरउदयपुर क्षेत्र के मालवों के (जो स्वतन्त्र होने का प्रयास कर रहे थे) विरुद्ध संघर्ष में मारा गया होगा। श्रीसोम या नन्दीसोम नामक एक मालव मुखिया ने उदयपुर के पास नान्दसा में देश की स्वतन्त्रता की खुशी में यज्ञ किया था। मालवा की स्वतन्त्रता का पता हमें 226 ई० के एक अभिलेख से होता है।

 

दामसेन ने करीब 237 राज्य उसके राज्य के प्रथम 1 सकेको कार्य किया, पर

 

 

उसके अन्तिम 4 वर्षों में उसका पुत्र बीरदासन अप होगा। () दाम | और स्टोन IV-दामन का पुत्र वीरान शायद मृत्यु को जल्दी प्राप्त हो गया और इसलिये दामसेन के बाद यशोदामन महाक्षत्रप हुआ यह भी असामयिक रूप से एक ही वर्ष के अन्दर मौत को प्राप्त हुआ (24839 ६०) लगता है इस समय कुछ राजनीतिक गड़बड़ चल रही थी। फिर विजय हुआ जिसने करीब 12 (230.51 (6) शान्तिपूर्वक राज्य किया और जिसके सिक्के गुजरात और काठियावाड़ से काफी तादाद में मिले हैं। हाल ही में गुजरात में राजकोट के पास कोरेलागाँव में 32 चाँदी के सिक्के मिले हैं, जिन पर विजयसेन रायो महाक्षत्रप राजा सुपुत्र ख़ुदा हुआ है। विजयसेन के बाद उसका छोटा भाई दामजद तृतीय हुआ, करीब 2500 ई० में फिर करीब 255 ई० में उसके सबसे बड़े भाई वीरदामन के लड़के रुद्रसेन द्वितीय ने उसका स्थान लिया। उसने करीब 25 वर्ष राज्य किया। 239 और 275 ई० के मध्य किसी भी राजकुमार के शासन कर रहे शासक के साथ होने का पता नहीं चलता है। लगता है, यह पद खत्म कर दिया गया था जिसे रुद्रसेन 11 ने अपने शासन के अन्तिम समय में पुनर्जीवित किया। उसकी मृत्यु के कुछ समय पूर्व उसके लड़के विश्वसिंह ने कुछ समय के लिये क्षत्रप का कार्य किया था। कुछ का मत है कि इस समय वाकाटक विन्ध्यशक्ति ने पूर्वी मालवा का कुछ हिस्सा अपने साम्राज्य में मिला लिया था, परन्तु यह मत सही प्रतीत नहीं होता, क्योंकि एरन से सिक्कों के करीब 24 मौल्ड्स (Moulds) अर्थात् साँचे एवं क्षत्रप सिंहसेन और उसके पिता ईश्वरमित्र के नाम की एक मिट्टी की सील प्राप्त हुयी है।

 

(10) विश्वसिंह और भतृदामनरुद्रसेन द्वितीय के बाद करीब 279 ई० में उसके पुत्र विश्वसिंह ने उसका स्थान लिया। लगता है उसने केवल 3 वर्ष ही राज्य किया, क्योंकि हमें 282 ई० में उसके भाई भतृदामन के महाक्षत्रप होने का पता चलता है, चूंकि भतृदामन और विश्वसेन के क्रमशः महाक्षत्रप और क्षत्रप की हैसियत से प्रसारित अनेक सिक्के प्राप्त हुये हैं, इसलिये ऐसा माना जा सकता है कि ये दोनों अपने कुटुम्ब के भाग्य को काफी हद तक पुनर्जीवित करने में सफल हुये। चेष्टन घराने से सम्बन्धित अन्तिम क्षत्रप विश्वसेन था लगता है भतृदामन और विश्वसेन को ससेनियनों (Sassanians) ने उखाड़ फेंका था, पर इस मत के बारे में विवाद है।

 

 

 – सातवाहन वंश के विषय में आप क्या जानते हैं ?
 
What do you know about the Satavahana Dynasty? या गौतमीपुत्र शातकर्णी कौन था ? क्या आप उसे सातवाहन राजवंश का प्रमुख शासक मानेंगे ? Who was Gautamiputra ? Can you regard him as the most important Satavahana ruler ?
 
उत्तर
 
सातवाहनों का परिचय
 

(सातवाहनों का परिचय)

 

अधिकांशतः सातवाहनों के शासनकाल का प्रारम्भ 27 ई० पू० से माना जाता है। उनकी जाति एवं मूल निवास के बारे में मतभेद हैं।

 

(1) अनार्यआयंगर आदि का विचार है कि सातवाहन अनार्य थे, क्योंकि– (i) अनेक राजाओं के नाम अनार्थ थे, जैसेसिमुक हाल पुलोपावी।

 

 

 

 

 

(ii) सातवाहनों ने अनायों के समान अपने नाम अपनी माताओं के नाम पर जैसे गौतमीपुत्र वाशिष्ठीपुत्र आदि। (iii) सातवाहनों ने अनायों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित किये। (iv) पुराणों में सातवाहनों को आवंशीय कहा गया है और आन्ध्र जाति अनार्य थी।

 

किन्तु (1) दक्षिण भारत का आर्थीकरण देरी से हुआ, इस कारण सातवाहनों के पर अनार्य प्रभाव दिखायी देता है।

 

(ii) उपरोक्त तर्क हो माँ के नाम पर अपने नाम रखने के विषय में भी लागू होता है, अन्यथा सातवाहनकालीन समाज मातृ प्रधान था (iii) जहाँ तक अनाथों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने की बात है, अन्तर्जातीय

 

विवाह प्रत्येक काल में हुये हैं। कहा जाता है, चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानी राजकुमारी से विवाह

 

किया था, पर इस आधार पर उसे यूनानी नहीं माना जा सकता। अकबर ने हिन्दू स्त्रियों से

 

विवाह किया था पर उसे हिन्दू नहीं कहा जाता।

 

(iv) यदि पुराणों में सातवाहनों को आन्ध्र कहा गया है तो इसका तात्पर्य उनकी जाति से नहीं, उनके निवास स्थान से है। चूँकि वे गोदावरी और कृष्णा नदी के मध्य आन्ध्र प्रदेश में रहते थे, अतः पुराणों में उन्हें उनके निवास स्थान के आधार पर आन्ध्र कहा गया। इस प्रकार उनको आन्ध्र कहा जाना उनकी जाति का नहीं, वरन् उनके निवास स्थान का सूचक है। फिर उनके किसी भी अभिलेख में उन्हें आन्ध्र जाति का नहीं कहा गया है।

 

(2) आर्यअधिकांश विद्वानों का विचार है कि सातवाहन आर्य थे, किन्तु वे ब्राह्मण थे या नहीं, इस बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। जो विद्वान सातवाहनों को ब्राह्मण नहीं मानते उनमें गोपालाचारी और भण्डारकर आदि मुख्य हैं। ये कहते हैं कि

 

नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णी की तुलना राम, अर्जुन तथा भीम से की गयी है, अतः वह क्षत्रिय रहा होगा किन्तु इस आधार पर सातवाहनों को क्षत्रिय स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि

 

तुलना का आधार उनकी जाति नहीं, वरन् वीरता एवं साहस था।

 

(3) ब्राह्मणसेनाई, व्हलर एवं त्रिपाठी आदि विद्वानों का विचार है कि सातवाहन

 

ब्राह्मण थे। राय चौधरी भी उन्हें ब्राह्मण ही मानते हैं, परन्तु उनका विचार है कि सातवाहनों

 

में नाग (वंश) के रक्त का भी मिश्रण था। सातवाहनों को ब्राह्मण स्वीकार करने वाले विद्वान् अपने मत के समर्थन में ये तर्क देते हैं– (i) नासिक लेख में गौतमीपुत्र कोपरशुराम सा पराक्रमी ब्राह्मणकहा गया है।

 

(ii) नासिक लेख में ही उसेखतियदपमानमदनस‘ (क्षत्रियों का दर्प और मान चूर करने वाला) कहा गया है। अतः स्पष्ट है कि वह क्षत्रिय था, ऐसी स्थिति में वह ब्राह्मण ही रहा होगा।

 

(iii) गौमतीपुत्र वाशिष्ठीपुत्र नाम ब्राह्मण गोत्र गौतम वाशिष्ठी पर आधारित है। किन्तु भण्डारकर और कु० भ्रमर घोष ने एक तर्क के आधार पर सातवाहनों को अब्राह्मण माना है। उनके मतानुसार गौतमीवल्लभी के लियेराजर्षि वधूका प्रयोग किया गया है जिससे स्पष्ट होता है कि वे ब्राह्मण नहीं थे अन्यथाब्रह्मर्षिवधूशब्द प्रयुक्त किया गया होता।

 

खण्डनयदि गौतमीवल्लभी के लियेराजर्षि वधूका प्रयोग किया गया है तो उससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह एक अब्राह्मण कुल की वधू थी। राय चौधरी ने भी यह सिद्ध किया है कि, ‘राजर्षिशब्द का प्रयोग हमेशा ही अब्राह्मणों के लिये प्रयुक्त नहीं हुआ है,

 

 

 

परत मौर्य युग वाहन तथ अरिक भारतीय साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें को भी ही कहा गया है। इसके अतिरिक्त सातवाहन नरेशों के लिये का प्रयोग उपहारपद होता, क्योंकि उन्होंने अपने हाथों में शस्त्र ग्रहण कर लिया था। अतः स्पष्ट है कि सातवाहन ब्राह्मण रहे होंगे।

 

मूल स्थान

 

 

वी० वी० मिराशी का विचार है कि सातवाहनों का मूल स्थान वरार (विदर्भ) था. क्योंकि वहाँ उनकी मुद्रायें मिली हैं, पर गौतमीपुत्र से पहले की नहीं, अतः यह मत उचित प्रतीत नहीं होता।

 

जायसवाल वाट आदि ने आन्ध्र प्रदेश को सातवाहनों का मूल निवास स्थान माना है, किन्तु वाशिष्ठीपुत्र पुलमावी पूर्व किसी सातवाहन राजा के यहाँ शासन करने के प्रमाण नहीं मिलते, अतः स्पष्ट है कि वहाँ के बाद में पहुंचे होंगे। सुक्थंकर के मत में सातवाहन वेलरी (चेन्नई) में रहते थे, किन्तु वहाँ से सातवाहनों

 

के लेखों मुद्राओं का मिलना इस मत को भी अस्वीकार करने के लिये विवश करता है।

 

अधिकांश विद्वानों का विचार है कि सातवाहन मूलतः महाराष्ट्र के निवासी थे, किन्तु

 

शकों द्वारा परास्त किये जाने पर वे कृष्णा और गोदावरी के मध्य आन्ध्र देश में बस गये।

 

थे। इसी कारण इन्हें आन्ध्र भी कहा जाने लगा।

 

संस्थापक एवं अन्य शासक

 

 

(1) कृष्णसिमुक के बाद उसका अनुज कृष्ण या कान्ह सिंहासन पर बैठा। उसने अपने साम्राज्य का विस्तार करने का प्रयत्न किया। नासिक लेख से ज्ञात होता है कि उसके शासनकाल में नासिक में एक गुहा का निर्माण हुआ। इससे पता चलता है कि उसने नासिक तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था।

 

(2) शातकर्णी I – कृष्ण के पश्चात् शातकर्णी 1 शासक बना। यह एक शक्तिशाली एवं पराक्रमी शासक था। इसने मगध राज्य के संस्थापक बिम्बिसार की भाँति सैन्य विजय और वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा अपनी स्थिति सुदृढ़ करने की ओर ध्यान दिया। उसेसिमुक सिमुक सातवाहनस वंशधनस” (सिमुक के वंश का धन) कहा गया है। उसने महाराष्ट्र की महारथी की कन्या से विवाह करके अपने राजनीतिक प्रभाव में अभिवृद्धि की। इस प्रकार वह लगभग सम्पूर्ण दक्षिणापथ का अधिकारी हो गया। नानाघाट अभिलेख में उसेअप्रतिहत दक्षिणापथपतिकहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने पूर्वी मालवा पर भी अपना नियन्त्रण स्थापित किया। पुष्यमित्र शुंग की भाँति उसने भी दो बार अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया और ब्राह्मण धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित की। नानाघाट का अभिलेख ही इस विषय में साक्ष्य प्रस्तुत करता है जिसमें उसके लियेअश्वमेघ यज्ञ द्वितीय इष्टंकहा गया है। एच० सी० राय चौधरी का कहना है कि, “शातकर्णी प्रथम राजा था जिसने सातवाहनों को विन्ध्य पार भारत के सर्वसत्ताधारक सम्राटों की स्थिति तक उठाया। इस प्रकार गोदावरी की घाटी में पहले महान् साम्राज्य का उत्थान हुआ जो विस्तार तथा शक्ति में गंगा की घाटी के संग

 

साम्राज्य और पंचनद प्रदेश के यूनानी साम्राज्य की बराबरी करता था।इस शक्तिशाली नरेश को भी अपने एक समकालीन नरेश से लोहा लेना पड़ा। कलिंग नरेश खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख से यह प्रमाण मिलता है कि शातकर्णी की

 

 

 

भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई० तक) समझते हुये उसने अपने शासन के द्वितीय वर्ष में सुपि नगर पर

 

शक्ति को कुछ भी अक्रमण कर दिया और सातवाहन नरेश से पैर ठान लिया। परन्तु इस और से सातवाहन वंश के गौरव को कुछ भी धक्का नहीं लगने पाया। खारवेल की शक्ति स्थायी नहीं हो पाय और शातकणों का गौरव पूर्ववत ही बना रहा। पर खारवेलशातकर्णी संघर्ष पर विवाद है। जो भी हो, शातकर्णी ने केवल 9 वर्ष शासन किया। उसके शासनकाल में व्यापार

 

उन्नत दशा में प्रतीत होता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, कल्याण व्यापार का महत्त्वपूर्ण

 

केन्द्र था। उसने अपने राज्यकाल में मुद्रा भी प्रसारित की थी। जिन परसिरि सात और

 

सातकर्णीनाम अंकित है। इन मुद्राओं की शैली से कुछ इतिहासकार यह अनुमान लगाने

 

हैं कि शातकर्णी के राज्य में पश्चिम का कुछ भाग भी सम्मिलित था।

 

शातकर्णी 1 ने एक विशाल राज्य की स्थापना की थी, जिसमें महाराष्ट्र, कोंकण तथा

 

मालवा प्रदेश सम्मिलित थे। वह सातवाहन वंश का प्रथम प्रतापी सम्राट था जिसने विन्ध्यप्रदेश

 

मे सार्वभौम सत्ता स्थापित की, जिससे गोदावरी घाटी में प्रथम महान् साम्राज्य का उदय हुआ जिसने शक्ति और विस्तार में शंग साम्राज्य और पंचनन्द के यवन राज्य को मात दी। शातकर्णी के बाद से गौतमीपुत्र शातकर्णी तकशातकर्णी की मृत्यु के समय उसके दोनों पुत्रशक्ति श्री (पुलोमावी 1) वेदश्री अल्पवयस्क थे, अतः उनकी माता नागनिका ने उनके संरक्षक के रूप में कार्य करते हुये शासन किया। इसके बाद कुछ वर्षो का सातवाहन वंश का इतिहास अन्धकार में विलुप्त है। पुराणों में यद्यपि इस काल के राजाओं की सूची है, किन्तु वह प्रामाणिक नहीं है। फिर भी इतना निश्चित है कि यह सातवाहन वंश की अवनति का समय था।

 

गौतमीपुत्र शातकर्णीगौतमीपुत्र शातकर्णी, जिसका समय 106 ई० से 130 ई० या 137 ई० माना जाता है, अपने वंश का सबसे पराक्रमी, प्रतापी राजा था। उसने अपने वंश की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित कर अपने आपको उस वंश के महानतम् राजाओं में से एक सिद्ध किया। उसने अपने शासनकाल में सातवाहन वंश को गौरव के शिखर पर पहुँचा दिया। अपने शासनकाल में उसने विदेशी आक्रमणकारियों को मातृभूमि से खदेड़ दिया और अनेक समकालीन राजाओं से लोहा लेकर उन्हें पराजित किया।

 

विजयें एवं साम्राज्य विस्तारनासिका गुहा लेख से पता चलता है कि गौतमीपुत्र ने शक, यवन, पहलव नरेशों को हराया और क्षहरात जाति का नाश किया और अपने वंश की कीर्ति पुनः स्थापित की। क्षहरात नहपान सातवाहनों का प्रबल शत्रु था। गौतमीपुत्र ने उसको युद्ध में परास्त कर उसके द्वारा हथियाये प्रदेशों को वापस ले लिया। इसके बाद क्षहरात वंश का अन्त हो गया। नासिक अभिलेख के अनुसार गौतमीपुत्र शत्रुओं का मानमर्दन करने वाला कहलाता था। इससे प्रतीत होता है कि उसने कुछ क्षत्रिय राजाओं को परास्त किया होगा। धहरातों के अन्त के बाद गौतमीपुत्र ने नहपान की मुद्राओं को अपने नाम से प्रचलित किया।

 

सारांशतः अपनी विजयों के फलस्वरूप उसके राज्य की सीमा उत्तर में मालवा (अवन्ति) और काठियावाड़ से दक्षिण में गोदावरी नदी तक तथा पूर्व से विदर्भ में पश्चिम में कोंकण तक उसके राज्य की सीमा थी। इस प्रकार उसका राज्यत्रिसमुद्रपर्यन्त अर्थात् अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत था। नासिक अभिलेख में उसेखातिय दपमान मदस्मअर्थात् क्षत्रियों का मान मर्दन करने वाला कहा गया है। अनेक विद्वानों का मत है कि अपनी मृत्यु से पहले गौतमीपुत्र को शकों के हाथ पराजित होना पड़ा और उसके राज्य

 

 

 

का बहुतसा भाग जगा काहार का सांत या वह विद्वान एवं धर्मशार विभिन्न सोतों से होता है कि वह एक योग्य, कुशल एवं दूरदेशी शासक होने के साथ जनता में लोकप्रिय एवं आदर का पात्र थारूपवान एवं प्रभावशाली व्यक्तिका वालिष्ठ शरीर एवं लम्बी भुजाओं वाला व्यक्ति था एक दवा एवं आदर्श शासक था। वह अपने कुबियों को उन्नति करने वाला था अपन के प्रति सद्भाव रखता था। रक्तपिपासू नहीं था वह दानशील भी था नामक अभिलेख से उसके द्वारा दिये गये दानों के विषय में पता चलता है।

 

 

गौतमीपुत्र एक प्रजावत्सल शासक था और उसी के अनुरूप यह कार्य करता था। प्रजा पर आवश्यकता से अधिक कर नहीं लगाता था। प्रजा की ख़ुशी के लिये चट उत्सव एवं समाज भी करवाता था। अपराधियों के साथ नरमी का व्यवहार करता था। उत्कीर्ण लेखों और पुराणों से गौतमीपुत्र की शासन पद्धति का सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिलता। माना जाता है कि याज्ञवल्क्यस्मृति इसी काल में लिखी गयी, अतः सातवाहन शासन पद्धति की इस पर पूरी छाप है। इससे ज्ञात होता है कि राज्य का केन्द्रीय शासन सुदद्द था और न्याय व्यवस्था बहुत अच्छी तरह से संगठित थी।

 

गौतमीपुत्र ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था तथा उसके विकास के लिये उसने प्रयत्न भी किये। उसने केवल वैदिक अनुष्ठानों को स्वीकार करके उन्हें प्रधानता ही दो, अपित ब्राह्मण धर्म के लिये जो तत्त्व घातक थे उनके उन्मूलन का भी प्रयत्न किया, परन्तु वह असहिष्णु नहीं था। बौद्ध धर्म के प्रभाव और विदेशियों के सम्पर्क के कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रइन चारों वर्णों में परस्पर जो वर्णशंकरता उत्पन्न हो गयी थी, उसको गौतमीपुत्र शातकर्णी ने दूर किया।

 

 

गौतमीपुत्र शातकर्णी के बाद के शासक एवं सातवाहनों का पतनगौतमीपुत्र शातकर्णी के बाद उसका पुत्र वाशिष्ठीपुत्र श्री पुलोमावी II सिंहासन पर बैठा। वह भी अपने पिता की भाँति एक शक्तिशाली एवं योग्य राजा सिद्ध हुआ, जिसने महाराष्ट्र और आन्ध्र दोनों देशों पर शासन किया। कहा जाता है कि उसने कृष्णा नदी के मुहाने का प्रदेश तथा बेल्लारी जिले को जीतकर सातवाहन साम्राज्य में मिलाया। उसने शक क्षत्रप रुद्रदामन की पुत्री से विवाह किया लेकिन उसे अपने श्वसुर से लम्बे समय तक युद्ध करना पड़ा जिसमें उसकी दो बार पराजय हुयी जिससे उसे अपने कुछ उत्तरी प्रदेश खोने पड़े। यह दामादश्वसुर के मध्य संघर्ष का एक ऐतिहासिक उदाहरण हैं। पुलोमावी के बाद शिवश्री शातकर्णी और शिवस्कन्द शातकर्णी यज्ञश्री शातकर्णी हुये,

 

परन्तु इनके बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती।

 

तद्पश्चात् सातवाहन वंश का अन्तिम महान् राजा यज्ञश्री शातकर्णी गद्दी पर बैठा। उपलब्ध अभिलेखों और सिक्कों से पता चलता है कि उसका साम्राज्य अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक फैला हुआ था। उसने शकों द्वारा जीते हुये अधिकांश प्रदेश छीन लिये। यह भी अनुमान है कि उसने स्वयं मध्य प्रदेश की सातवाहन शाखा का भी अन्त कर दिया। उसके शासकों को पश्चिमी भारत और नर्मदा की खाड़ी से खदेड़ दिया। उसने एक निराले ढंग की मुद्रा चलायी जिस पर जहाज की आकृति बनी है। इससे प्रकट होता है कि उसका राज्य सागर तट तक फैला हुआ था।

 

 

कुषाण कौन थे ? इस वंश के सबसे महत्वपूर्ण शासक के जीवन तथा उपलब्धियां का वर्णन कीजिये।
 
Who were the Kushanas ? Sketch the career and achievements of the most notable ruler of the dynasty. कनिष्क की उपलब्धियों और विजयों के बारे में आप क्या जानते हैं ? या
 
आप उपलब्धियों या विजय के बारे में क्या जानते हैं
 
 
या
 
कनिष्क युद्ध में भी उतना ही महान था जितना कि शान्तिकाल में इस कथन
 
की व्याख्या कीजिये।
 
“Kanishka was as great in war as in Peace.” Elucidate. या | भारत में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये कनिष्क की सेवाओं का मूल्यांकन कीजिये Evaluate the services of Kanishka for the propagation of Buddhism in India.
 
उत्तर
 

कनिष्क (Kanishka)

 

भारत के कुपाणवंशी शासकों में कनिष्क तीसरा और सबसे अधिक प्रतापी, शक्तिशाली, प्रभावशाली एवं महत्त्वपूर्ण शासक था। कनिष्क का सिंहासनारोहण 78 ई० में हुआ था। पश्चिमी भारत के उसके समकालीन शक राजाओं द्वारा दीर्घकाल तक इसके प्रयुक्त होने के कारण यह संवत् शक संवत् कहलाने लगा था और वर्तमान में हमारा राष्ट्रीय संवत् भी यही है।

 

कनिष्क की राजनीतिक उपलब्धियाँ या विजयें

 

(Political Achievements or Conquests of Kanishka) (1) भारत — (i) पूर्व में कनिष्क के अभिलेख मथुरा, कौशाम्बी और सारनाथ से प्राप्त हुये हैं। ये सभी अभिलेख उसके द्वारा चालू किये गये संवत् में लिखे गये हैं। उसके सिक्के हमें वैशाली, जुन्नर तथा पाटलिपुत्र से प्राप्त हुये हैं। तिब्बती और चीनी स्रोत भी उसकी साकेत और पाटलिपुत्र के राजा के साथ हुयी मुठभेड़ को सन्दर्भित करते हैं।श्रीधर्मपिटक निधानसूत्रसे भी हमें यह पता चलता है कि उसने पाटलिपुत्र के शासक को हराया था और उसने युद्धक्षति प्राप्त की थी। बौद्ध परम्परा के अनुसार, जब उसने पाटलिपुत्र पर अधिकार कर लिया तो महान् बौद्ध दार्शनिक अश्वघोष भी उसके हाथों में गया और उसे अपने साथ ही ले गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अश्वघोष कनिष्क के दरबार को सुशोभित करता था। इससे अनुमान लगाया गया है कि कनिष्क ने मगध के कुछ भाग को विजित किया होगा। इस मत की पुष्टि इस बात से होती है कि कनिष्क के सिक्के बहुत बड़ी संख्या में गाजीपुर तथा गोरखपुर से पाये गये हैं। पुराणों में भी मगध के असभ्य शासकों का जिक्र आया है जिनके शारीरिक गुण कुषाणों के से थे।कल्पनामुद्रिकामें भी कनिष्क की पूर्वी भारत पर चढ़ाई का जिक्र आया है। इन सभी प्रमाणों से पता चलता है। कि कनिष्क ने भारत के लम्बे पूर्वी भाग पर अधिकार कर रखा था। इसमें उत्तर प्रदेश और

 

बिहार के भाग भी सम्मिलित थे। (II) पश्चिम में कनिष्क ने पश्चिम में अपने साम्राज्य के विस्तार हेतु मालवा तथा उज्जैन के शक क्षत्रपों के विरुद्ध भी युद्ध किया। अत्यधिक सम्भावना यही है कि कनिष्क

 

 

परवर्ती गुप्त युगपल्लव और चालुक्य [ POST GUPTA PERIOD UPTO 750 A.D. – PALLAVAS AND CHALUKAYAS]

 

तो विदेशी थे, द्रविड़ वरन उत्तर के बाद के अभिजात कुलीन ब्राह्मण थे, जिन्होंने सैनिक वृत्ति अपना ली थी और वाकाटकों की एक शाखा के रूप में थे।के० पी० जायसवालपुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का सबसे प्रसिद्ध एवं प्रतिभाशाली सम्राट था। यह बड़ा ही महत्वाकांक्षी विजेता एवं वीर सेनानी था। उसमें उच्चकोटि की सैनिक प्रतिभा के साथसाथ एक उच्चकोटि के राजनीतिज्ञ के गुण भी थे।

 

यी० ए० स्मिथ प्रश्न 1- पल्लव कोन थे ? उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न मतों एवं उनके मूल निवास स्थान के बारे में बतलाते हुये उनके उत्थान एवं पतन का वर्णन कीजिये।
 
या महेन्द्रवर्मन प्रथम से परमेश्वरवर्धन प्रथम तक के पल्लव इतिहास का वर्णन कीजिये। Trace the history of Pallavas from Mahendraverman 1 to
 
Parmeshvarverman.
 
उत्तर
 
पल्लवों का परिचय (Introduction of Pallavas)
 
पल्लव कौन थे ? यह एक विवादास्पद विषय है। कुछ इतिहासकारों ने पल्लवों को पहलवों, नागों तथा वाकाटकों से सम्बन्धित किया है जिसका जिक्र नीचे किया जा रहा है
 

(1) पल्लवों से सम्बन्धपल्लव और पहलव शब्दों में एकरूपता होने के कारण अनेक इतिहासकार पल्लवों की उत्पत्ति पहलवों से मानते हैं। वेनकैया का ऐसा ही मत है। पर शब्दों की साम्यता उनकी उत्पत्ति का द्योतक नहीं। फिर ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं मिलता कि पल्लव कभी दक्षिण पथ अथवा पश्चिम भारत से सुदूर दक्षिण में जाकर बसे

 

बी० एल० राइस तथा दुर्बीया ने भी पल्लवों का सम्बन्ध पहलवों से जोड़ा है। राइस अपने मत के समर्थन में कहते हैं कि नामों में साम्य होने के अतिरिक्त कांची के एक मन्दिर में पल्लव नरेश नन्दवर्मन द्वितीय के सिंहासनारोहण की एक मूर्ति है जिसमें वह डोमिट्रियस की भाँति अपने सिर पर गजशीष धारण किये हुये है। दुर्बीया के अनुसार, रुद्रदामने के पहलव मन्त्री सुविशाख ने कांची के पल्लव वंश की स्थापना की थी।

 

राम और दया के विचार तर्कसंगत प्रतीत नहीं होते, क्योंकि पल्लव वंश के किसी भी लेख में पहलों का उल्लेख नहीं है। इसके अतिरिक्त सर्वविदित है कि पल्लवी ने अश्वमे यत्र किया था, यदि वे पल्लवों से सम्बन्धित होते तो वह कदापि ऐसा नहीं करते।

 

 

(2) चोल एवं नागों से सम्बन्धमुदालियर सी० रसनगम सी० एस० निवासवारी तथा आयंगर का मत है कि पल्लव चोल तथा नागों से सम्बन्धित थे। रसनयगम ने लिखा है कि लंका के एक चोल राजा किल्लवलवन ने मनीपल्लवम के नाग राजा की कन्या के साथ विवाह किया था। इनसे उत्पन्न पुत्र का नाम टोण्डैमन ईलन्तिरयन रखा गया। यह पुत्र टोण्डैमंडलम् का राजा हुआ तथा इसकी राजधानी कांची थी। नाग कन्या के निवास प्रदेश मनी पल्लवम के नाम पर इस राजकुमार के वंश का नाम पल्लव वंश पड़ा। इस प्रकार पल्लव चोलों एवं नागों का सम्मिश्रण है। इस मत का खण्डन आर० गोपालन ने प्रत्योत्पादक तर्कों के द्वारा किया है।

 

(3) वाकाटकों से सम्बन्धके० पी० जायसवाल पल्लवों को वाकाटकों की एक शाखा मानते हैं। सर्वविदित है कि वाकाटक ब्राह्मण थे, किन्तु पल्लवों को तालगुण्ड अभिलेख में क्षत्रिय कहा गया है। अतः डॉ० जायसवाल के मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

पल्लवों का इतिहास (History of Pallavas)

 

(1) प्राकृत कालपल्लवों का प्रारम्भिक काल प्राकृत काल कहलाता है, क्योंकि इस समय के इनके पत्र प्राकृत में हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार पल्लव आरम्भ में सातवाहनों के सामन्त थे और उन्हीं की अधीनता में शासन करते थे। सातवाहन साम्राज्य के पतन के समय जब अन्य सामन्तों ने अपने को स्वतन्त्र करना आरम्भ किया उसी समय पल्लवों ने भी अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया और अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया।

 

(2) बप्पादेवईसा की तीसरी शताब्दी के प्राकृत में लिखे हुये तीन ताम्रपत्रों से पता चलता है कि इस वंश का पहला राजा वप्पादेव था जिसने जंगलों को काट कर तथा सिंचाई की सुविधा करके इस प्रदेश को रहने योग्य बना दिया। बप्पादेव ने तेलगू आन्ध्रपथ तथा तमिल टोण्डैमंडलम् पर अपनी प्रभुता स्थापित कर ली। तेलगू आन्ध्रपथ का प्रधान नगर धान्यकट अर्थात् धरणांका था और तमिल मंडल को कांजीवरम् थी।

 

(3) शिवस्कन्दवर्मनबप्पादेव के उपरान्त उसका पुत्र शिवस्कन्दवर्मन राजा हुआ। प्रारम्भिक पल्लव नरेशों में उसका नाम अप्रगण्य है। वह एक शक्तिशाली नरेश प्रतीत होता है। उसने धर्म महाराज की उपाधि धारण की थी। उसने अश्वमेघ तथा बाजपेय यज्ञ भी किये थे जिससे यह आभासित होता है कि वह एक विजयी तथा शक्तिशाली नरेश एवं ब्राह्मण धर्म का अनुयायी रहा होगा। उसका राज्य उत्तर में कृष्णा नदी तक और पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत था। उसका शासनकाल 275 ई० के आसपास रखा गया है।

 

(4) विष्णुगोपशिवस्कन्दवर्धन के उपरान्त का पल्लवों का बहुत दिनों का इतिहासअन्धकारमय है। इस अन्धकारमय युग के पश्चात् सर्वप्रथम हमें समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में पल्लवों का उल्लेख मिलता है। इस प्रशस्ति के अनुसार जिस समय समुद्रगुप्त अपना दक्षिण विजय का अभियान चला रहा था उस समय कांची में पल्लव नरेश विष्णुगोप शासन कर रहा था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि विष्णुगोप को अपने पास पड़ोस के नरेशों का संघ बनाकर समुद्रगुप्त का सामना करना पड़ा था, किन्तु अन्त में वह पराजित हो गया था। इस काल में पल्लवों के घोषणापत्र प्राकृत में प्रकाशित होते थे।

 

(5) संस्कृत घोषणापत्रों का कालपल्लवों के विकास का दूसरा काल वह था जिसमें उनके घोषणापत्र संस्कृत भाषा में निकाले जाते थे। इस काल के राजाओं ने चौथी सदी से छठी के अन्त तक शासन किया था। इस काल के दानपत्रों से तत्कालीन राजनीतिक दशा पर कुछ प्रकाश नहीं पड़ता। अतएव इस युग का पल्लव इतिहास अन्धकारपूर्ण है।

 

परवर्ती गुप्त युग पालव और चालुक्य

 

(6) वरीकु सिंहवर्मन तथा कुमारविष्णु इस काल का प्रथम राजा वरीकुर्य माना जाता है जिसने नागवंश की राजकुमारी के साथ विवाह करके अपने वंश के महत्व को बढ़ा दिया था। दानपत्रों से इस समय के एक अन्य राजा सिंहवर्मन का नाम प्राप्त होता है। यह लगभग 434 ई० में सिंहासन पर बैठा था, यह बौद्ध धर्मावलम्बी था। इस समय पलव को चोलों से निष्फल संघर्ष करना पड़ा और काँची उनके हाथ से निकल गया था। अनुमान कि उन्हें विवश होकर नेल्लोर की ओर जाना पड़ा। एक अभिलेख से ऐसा लगता है कि कुमार विष्णु के काल में पल्लवों ने कांची पर फिर अपना अधिकार जमा लिया था। (7) महान् पल्लवों का कालपल्लवों के विकास का तीसरा काल महान पल्लवों

 

का काल कहलाता है। यह काल छठी सदी के अन्तिम भाग से आरम्भ होता है।

 

(8) सिंहविष्णु अवनिसिंह इस वंश की स्थापना सिंहविष्णु ने की थी। वह बड़ा ही वीर तथा प्रतापी शासक था। सिंहविष्णु ने दक्षिण की शक्तिशाली कलन को पराजित किया तथा सम्पूर्ण चोलमंडल की विजय कर अपने राज्य का कावेरी तक विस्तार किया। इसने पाण्ड्य नरेश तथा सिंहल नरेश से भी युद्ध किये। अपने शूर कार्यों के कारण ही उसनेअवनिसिंहकी उपाधि धारण की।

 

सिंहविष्णु के राज्यारोहण से काँची के इतिहास का एक नवीन युग प्रारम्भ हुआ। इस वंश के शासकों ने पल्लव राज्य की राजनीतिक शक्ति को अत्यधिक विकसित किया। इसी युग में शैव तथा वैष्णव सम्प्रदायों के अनेक प्रसिद्ध सन्तों का प्रादुर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त इसी युग में तमिल प्रदेश के निवासियों ने मन्दिर तथा अन्य इमारतों के निर्माणार्थ लकड़ी तथा ईंट के स्थान पर पत्थर का प्रयोग प्रारम्भ किया। महान् कवि एवं काव्यशास्वाविद भारवि तथा दण्डिन जोकिरातार्जुनीयतथाकाव्यादर्शके प्रणेता थे, इसी युग में कांची की राजसभा को समलंकृत करते थे

 

सिंहविष्णु की धार्मिक अभिरुचि वैष्णव मत की ओर थी, जैसा कि उसके नाम से भी स्पष्ट है। महाबलिपुरम में उसके तथा उसकी रानियों के उवांकित चित्र (Relief) मिलते हैं।

 

(9) महेन्द्रवर्मन प्रथम (600 0 से 630 ई०) – सिंहविष्णु के पश्चात् महेन्द्रवर्मन पल्लव वंश का शासक बना। महेन्द्रवर्मन अपने पिता के समान वीर, योग्य एवं साहसी था। महेन्द्रवर्मन का शासनकाल अनेक प्रमुख बातों के लिये उल्लेखनीय है। महेन्द्रवर्मन ही ऐसा पहला शासक था जिसने पाषाण खण्डों को काटकर मन्दिर बनवाने की कला का प्रचार किया। इसके अतिरिक्त महेन्द्रवर्मन के शासनकाल में ही अप्पर नामक सन्त ने अपने धर्म का प्रचार किया तथा संस्कृत के महाकवि भारवि ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्यकिरातार्जुनीयकी रचना की। शासनप्रबन्ध के दृष्टिकोण से भी उसने जनता को निरुपद्रविता का वातावरण प्रदान किया। जिससे वह उद्योग व्यवसाय के शान्तिपूर्ण कार्यों में प्रवृत्त हो सकी। उल्लेखनीय है कि महेन्द्र से पूर्व अपने शासकों के युद्धों का भार जनता को वहन करना होता था सैनिक दृष्टिकोण से भी महेन्द्र का शासनकाल महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि उसी समय से पल्लवचालुक्य और पल्लवपाण्ड्य संघर्षो का आविर्भाव हुआ, जो लगभग डेढ़ शताब्दी तक चलते रहे। संयोग की बात है कि महेन्द्रवर्धन के दो समकालीन शासक पुलकेशिन द्वितीय तथा सम्राट हर्षवर्धन उसी के समान कलानुरागी तथा संस्कृति के सम्पोषक थे। यह भारत का सौभाग्य था कि वहाँ एक साथ तीन शक्तिशाली तथा संस्कृति प्रेमी सम्राट हुये जिन्होंने अपनी शक्ति से देश की राजनीतिक स्थिति को दृढ़ता प्रदान की तथा अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रख सके। इस समय नाटक, संगीत (कुटुको राज्य में

 

 

संगीत से सम्बन्धित अभिलेख है, वह शायद महेन्द्रवर्मन के कहने पर लिखा गया है) चित्रकला और अन्य कलाओं के लिये भी महेन्द्रवर्मन के समय कई प्रकार के प्रोत्साहन दिये गये। महेन्द्रवर्मन एक कुशल लेखक भी था, उसनेमत्तविलास प्रहसननामक ग्रन्थ को

 

रचना की थी। उसने संगीत पर भी एक पुस्तक लिखी थी। महेन्द्रवर्मन ने अनेक उपाधियाँ भी धारण की जिसनेअविभाजन शक्ल, गुणाभार, विन आदि प्रमुख हैं। (10) नरसिंहवर्मन प्रथम (630 0-668 ई०) – महेन्द्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात उसका

 

पुत्र नरसिंहवर्मन राजगद्दी पर बैठा। नरसिंहवर्मन पल्लव वंश का सर्वाधिक प्रतापी राजा

 

प्रमाणित हुआ। नरसिंहवर्मन प्रथम के समय में भी चालुक्यों और पल्लवों की शत्रुता चलती रही। चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लव राज्य पर आक्रमण किया, परन्तु नरसिंहवर्मन प्रथम ने सिंहल के राजकुमार मानवर्मा की सहायता से पुलकेशिन को पराजित किया। तत्पश्चात् पुलकेशिन के राज्य पर आक्रमण करने के उद्देश्य से नरसिंहवर्मन ने एक शक्तिशाली सेना संगठित की। तत्पश्चात् उसने चालुक्यों पर आक्रमण किया। भयंकर युद्ध के पश्चात् पुलकेशी द्वितीय मारा गया तथा चालुक्यों की राजधानी बादामी पर नरसिंहवर्मन ने अधिकार कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में नरसिंहवर्मन नेवातापिकोडकी उपाधि धारण की। बादामी पर पल्लवों का अधिक समय तक अधिकार रह सका, क्योंकि पुलकेशिन के पुत्र विक्रमादित्य ने अपने नाना गंग नरेश दुर्विनीत की सहायता से नरसिंहवर्मन को परास्त किया

 

और पुनः अपने पैतृक राज्य पर अधिकार किया। नरसिंहवर्मन ने एक जहाजी बेड़ा लंका भी भेजा। अपने और मित्र राजकुमार मानवर्मा को वहाँ का राजा बनाने में अपने द्वितीय प्रयास में सफल रहा। नरसिंहवर्मन ने चेरों, चोलो, कलनों और पाण्ड्यों आदि से भी युद्ध कर उन्हें परास्त किया।

 

आर० गोपालन के अनुसार, नरसिंहवर्मन अपने पिता के समान महान् निर्माता था। त्रिचनापल्ली जिले तथा पुहुकोटा रियासत में उसने चट्टान को खुदवाकर मन्दिरों का निर्माण कराया था। इन मन्दिरों का साधारण नक्शा भी महेन्द्रवर्मन प्रथम द्वारा निर्मित मन्दिरों से मिलता है। उसने महाबलिपुरम नामक नगर भी बसाया

 

(11) महेन्द्रवर्मन द्वितीय (668 ई०-670 ई०) नरसिंहवर्मन के पश्चात् उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन राजगद्दी पर बैठा। उसने केवल दो वर्षों तक राज्य किया। उसके शासनकाल में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं हुयी। 670 ई० में महेन्द्रवर्मन की मृत्यु रुवी

 

(12) परमेश्वरवर्मन प्रथम (670 ई०-680 ई०) – महेन्द्रवर्मन के पश्चात् उसका पुत्र परमेश्वरवर्मन पल्लव राज्य का राजा बना। उसके राजगद्दी पर बैठते ही चालुक्य नरेश विक्रमादित्य ने पाण्ड्य नरेश मारवर्मन प्रथम की सहायता से परमेश्वरवर्मन पर आक्रमण किया। परमेश्वरवर्मन को इस युद्ध में पराजय का मुख देखना पड़ा और कांची पर चालुक्यों का अधिकार हो गया, परन्तु इस कठिन समय में महान् धैर्य और साहस का परिचय देते हुये विक्रमादित्य का ध्यान बँटाने के लिये एक सेना चालुक्य राज्य पर आक्रमण करने के लिये भेजी। इस सेना ने विक्रमादित्य के पुत्र विनयादित्य और पोत्र विजयादित्य को परास्त किया। परमेश्वरवर्मन ने स्वयं भी विक्रमादित्य को पेरवलनल्लूर के युद्ध में परास्त किया। फलतः विक्रमादित्य पल्लव राज्य पर से अपना अधिकार समाप्त करने के लिये विवश हुआ।

 

नश्वरवर्मन शैव मतावलम्बी था, वे मामल्लपुरम में मन्दिर बनवाये। कांच के निकट करम में भी। उन्होंनेचित्रमाय‘, ‘गुणभाजन‘, ‘श्रीमार‘, ‘रणजय‘, ‘विद्याविनीतजैसी डिग्री की डिग्री कीं

 

(13) नरसिंहवर्मन द्वितीय (680 ई०-720 ई०) परमेश्वरवर्मन की मृत्यु के पश्चात् सिंहासन पर उसका पुत्र नरसिंहवर्मन बैठा। गोपालन के अनुसार, नरसिंहवर्मन का शासनकाल शान्तिमय एवं बाह्य आक्रमणों से मुक्त रहा। यही कारण है कि उसने अपने राज्य में अनेक मन्दिर बनवाये, जिनमें काँची का कैलाशनाथ मन्दिर, महाबलिपुरम काशोर‘, काँची का ऐरावतेश्वर मन्दिर पनामलई आदि प्रमुख हैं। इन सभी मन्दिरों में नरसिंहवर्मन के अभिलेख मिलते हैं 1

 

नरसिंहवर्मन द्वितीय का शासनकाल एक उत्कृष्ट साहित्यिक क्रियाशीलता का युग था। सम्भवतः इसी की राज्यसभा में संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान् दण्डिन रहता था। नरसिंहवर्मन द्वितीय नेआगमप्रियउपाधि धारण की जिससे उसका विद्या प्रेम स्पष्ट होता है। इसके अतिरिक्त उसनेराजसिंहतथाशंकरभक्तकी भी उपाधि धारण की।वाद्यद्यविद्याधर‘, ‘शिवचूड़ामणीउसकी अन्य उपाधियाँ थीं। नरसिंहवर्मन ने चीन भी अपना एक दूतमण्डल भेजा था। उसके शासनकाल में अत्यधिक व्यापार उन्नति हुयी।

 

(14) परमेश्वरवर्मन द्वितीय (720 ई०-731 ई०) नरसिंहवर्मन के पश्चात् उसका पुत्र परमेश्वरवर्मन सिंहासनारूढ़ हुआ। परमेश्वरवर्मन नरसिंहवर्मन का द्वितीय पुत्र था। परमेश्वरवर्मन द्वितीय को चालुक्यों के विरोध को सहना पड़ा। चालुक्य युवराज विक्रमादित्य द्वितीय और गंग राजकुमारएरेयप्पने सम्मिलित रूप से उसकी राजधानी कांची पर आक्रमण किया और उसे परास्त किया। इस युद्ध का प्रतिशोध लेने के लिये परमेश्वरवर्मन ने 730 ई० के लगभग गंगनरेश श्रीपुरुष पर आक्रमण किया, किन्तु वह पुनः परास्त हुआ और इसी युद्ध के दौरान उसकी मृत्यु हो गयी।

 

परमेश्वरवर्मन द्वितीय भी शैव धर्मावलम्बी था। निर्माण कार्य में भी उसकी पर्याप्त रुचि थी। तिरुवडि में एक शिव मन्दिर बनवाने का उसे श्रेय प्राप्त है। (15) नन्दिवर्मन ( 731 0-795 ई०) – परमेश्वरवर्मन के कोई पुत्र था अतएव

 

राज्याधिकारियों ने इसी वंश के एक राजकुमार नन्दिवर्मन को राजा बनाया। नन्दिवर्मन के समय में चालुक्यपल्लव संघर्ष पुनर्जीवित हुआ। उल्लेखनीय है कि नरसिंहवर्मन प्रथम महामल्ल के समय से चालुक्यों और पल्लवों का संघर्ष शान्त हो गया था, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वरवर्मन की मृत्यु के बाद गृहकलह उत्पन्न हो जाने के कारण चालुक्यों ने इस अवसर का लाभ उठाना चाहा होगा। 740 ई० में चालुक्य नरेश विक्रमादित्य ने नन्दिवर्मन पर आक्रमण किया। कहा जाता है कि विक्रमादित्य ने कुछ समय के लिये काँची को अपने अधिकार में रखा, किन्तु शीघ्र ही नन्दिवर्मन ने विक्रमादित्य से अपने राज्य को मुक्त करा लिया। अपने शासन के अन्तिम चरण में विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लव राज्य पर आक्रमण हेतु अपने पुत्र कीर्तिवर्मन को भेजा। इस आक्रमण में चालुक्यों की विजय हुथी तथा कीर्तिवर्मन बहुसंख्यक हाथी और अपार धनसम्पत्ति के साथ अपने राज्य वापस लौटा।

 

पाण्ड्य नरेश मारवर्मन नरसिंह प्रथम ने भी नन्दिवर्मन पर आक्रमण किया, किन्तु नन्दिवर्मन के सेनापति उदयचन्द ने आक्रमणकारियों को पराजित करके चित्रमाय की हत्या कर दी। तत्पश्चात् उदयचन्द्र ने विरोधी शबर और निषाद जातियों को भी परास्त किया। नन्दिवर्मन को गंगों के विरुद्ध सफलता मिली। उसने गंग नरेश श्रीपुरुष पर आक्रमण

 

किया और उसे परास्त कर प्रभूत सम्पत्ति प्राप्त की

 

 

 

पाण्ड्य नरेश राजसिंह प्रथम को परास्त करने के उद्देश्य से नन्दिवर्मन ने निकटवर्ती छोटीछोटी जातियों के साथ मिलकर एक संघ का निर्माण किया। इस संघ ने राजसिंह पर आक्रमण किया, किन्तु राजसिंह, जो एक अत्यन्त वीर शासक था, ने संघ को परास्त किया। नन्दिवर्मन पर राष्ट्रकों ने भी आक्रमण किया, परन्तु इस आक्रमण के पश्चात् दोनों शक्तियों में सुलह हो गयी राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग ने अपनी पुत्री रेवा का विवाह नन्दिवर्मन

 

के साथ कर दिया।

 

गोपालन के अनुसार, यद्यपि नन्दिवर्मन का शासनकाल सैन्यकार्यों, चढ़ाइयों, आक्रमण तथा प्रत्याक्रमणों से परिपूर्ण था तथापि उसने निर्माण कार्यों के प्रति अपनी रुचि प्रदर्शि की। यह वैष्णव मतावलम्बी था तथा उसने अपनी राजधानी कांची में मुक्तेश्वर के मन्दिर को बनवाया। कांची में वैकुण्ठपेरुमल मन्दिर भी उसी के द्वारा निर्मित बताया जाता है। नन्दिवर्मन के राज्य में ही प्रसिद्ध वैष्णव संत और विद्वान् तिरुमनाई आलावार हुये जिनकी रचनायेंनालायिर प्रबन्धम्में संग्रहित हैं।

 

(16) दंतिवर्धन ( 795 0 -815 0) – नंदिवर्मन के पत्रकार उनके पुत्र दन्तिवर्मन सिंहारूढ़ हुआ। उनके राज में राष्ट्रकूट नरेश गोविंद तृतीय का आक्रमण हुआ। गोविंद तृतीय ने दंतिवर्मन को हराया। पाण्ड्य नरेश वरगुण प्रथम और श्रीमार ने क्रमशः आक्रमण किया और पल्लव राज्य के कुछ दक्षिण प्रदेश पाण्ड्यों के हाथ गए। (17) नन्दी ( 845 0-866 0) – दन्तिवर्मन के उपनाम उनके पुत्र नन्दी शासक बने। उसने गैंगों, चोलों और राष्ट्रकूटों के सहयोग से पाण्ड्य नरेश श्रीमार को परास्त किया, प्रश्न कुछ ही समय में झमिल श्रीमार ने नन्दी और उनके साथियों को परास्त किया। नंदी के पास एक जहाजी बेड़ा भी था। इसकी सहायता से उसने वृहत्तर भारत से भी संपर्क स्थापित कर रखा था। स्याम के एक अभिलेख में नंदी का उल्लेख है।

 

(18) पल्लव राज्य का अंतनंदी का उत्तराधिकारी नृपतुंगवर्मन था। 866 0 में

 

राजा बनने से पूर्व उसने 11 वर्षों तक युवराज के रूप में कार्य किया। नृपतुंगवर्मन ने पाण्ड्य नरेश श्रीमार को परास्त किया। नृपतुंगवर्मन ने 866 ई० से 896 ई० तक राज्य किया। नृपतुंग के पश्चात् अपराजित राजा बना। अपराजित नृपतुंगवर्मन का पुत्र था तथा राजा बनने से पूर्व 879 ई० से युवराज के रूप में कार्य कर रहा था। चोल शासक आदित्य I ने अपराजित पर आक्रमण किया और उसे मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार अपराजित की मृत्यु के साथ ही पल्लव राज्य का अन्त हो गया और उस पर चोलों का अधिकार छा गया। कहा गया है कि 12वीं सदी के आरम्भ में चोल राजा विक्रय के सामन्तों में पल्लव राजाओं को प्रथम स्थान प्राप्त था। पल्लव शासक 13वीं सदी में भी देखने को मिलते हैं। 17वीं सदी के पश्चात् पृथक् जाति या कवीले के रूप में पल्लवों का अस्तित्व समाप्त हो गया

 
बादामी के पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्यों का वर्णन कीजिये। Describe the early Western Chalukyas of Badami.
 पुलकेशिन  की उपलब्धियों का वर्णन कीजिये। Describe the achievements of Pulakeshin II.
 
 
 
उत्तर
 

बादामी के चालुक्य

 

(बादामी के चालुक्य)

 

बादामी के चालुक्यों की इस शाखा के प्रारम्भिक राजाओं में जयसिंह और उसके पुत्र रणराज का उल्लेख मिलता है। परन्तु, इन राजाओं के विषय में अत्यन्त अल्प जानकारी उपलब्ध है। बस इतना ही पता चलता है कि प्रथम ने राष्ट्रकूटों से महाराष्ट्र छीन लिया था।

 

1) पुलकेशिनरणराज के बाद उसका पुत्र पुलकेशिन हुआ। इसे ही दी के चालुक्य राजवंश की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। फ्लीट के अनुसार, पुलकेशिन का आधा नाम कन्नड़ है और आधा संस्कृत जिसका अर्थबाप के से बालों वालाहोता है। मोनियर विलियम्स के अनुसार, पुलकेशिन नाम का पहला आधा भी संस्कृत है। यहपुलधातु से बना है जिसका अर्थ होता हैमहान होना यदि इसकी यह व्युत्पत्ति मान ली जाये तो नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार फिर इससे नाम के दोनों रूपों पुलकेशिन और पोलकेशिन का खुलासा हो जाता है।केशिनका अर्थसिंहहै। इस प्रकार इस नाम का अर्थ हुआमहान् सिंह

 

पुलकेशिन ने बीजापुर जिले में अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा की और वही वादामी ( तातापी के किले का निर्माण किया) अपनी शक्ति को प्रदर्शित करते हुये पुलकेशिन ने अश्वमेघ, वाजपेय, हिरण्यगर्भ और अन्य स्रोत यज्ञों का अनुष्ठान किया औरसत्याश्रय‘, ‘रणविक्रम‘, ‘श्रीपृथ्वीवल्लभआदि की उपाधियाँ धारण कीं। इसे किसी राज्य के विजय करने का श्रेय तो नहीं दिया जाता पर यज्ञों एवं उपाधियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि वह एक बड़ा ही शक्तिशाली तथा वीर विजेता रहा होगा। यही कारण है कि वीरता में उसकी तुलना ययाति तथा दिलीप से की गयी है।

 

पुलकेशिन 1 केवल एक वीर विजेता सम्राट था, वरन वह विद्यानुरागी भी था।

 

कहा जाता है कि उसे मानवधर्म, पुराणों, रामायण, महाभारत और इतिहास का अच्छा ज्ञान

 

था। इसका समय लगभग 535 ई० से 566 ई० माना जाता है। (2) कीर्तिवर्मनअपने पिता की मृत्यु के बाद करीब 566-267 ई० में कीर्तिवर्मन राजगद्दी पर बैठा। पुलकेशिन II के लेख में उसे बादामी का प्रथम निर्माता और नलों, मौयों और कदम्बों के लिये कालरात्रि कहा गया है। यद्यपि चालुक्यों की राजधानी बादामी पुलकेशिन | के समय में ही बन चुकी थी तथापि उसको विभिन्न तरीकों से सजाने के अतिरिक्त मन्दिरों के निर्माण का कार्य कीर्तिवर्मन ने ही किया। नव स्थापित राज्य के विस्तार के विषय में नलों, मौर्यो और कदम्बों की विजयों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा होगा। वास्तव में, इन तीनों शक्तियों में कदम्ब ही प्रमुख थे जिन पर कीर्तिवर्मन ने आक्रमण किया था। अभिलेखों का वर्णन है कि उसने अपनी शक्ति के वनवासी और शत्रुओं के अन्य मण्डलों पर अधिकार कर लिया था। कीर्तिवर्मन द्वारा पराजित कदम्ब शासक सम्भवतः अजवर्मन था। नल उस समय नलवाड़ी के शासक थे। मौर्य कोंकण के शासक थे। उनकी राजधानी पुरी थी। कीर्तिवर्मन की उपरोक्त विजयों से स्पष्ट है कि उसने राज्य का चतुर्दिक विस्तार किया। उसनेअग्निष्टोमऔरसुवर्णयज्ञ किये थे औरपुरुरणपराक्रमको उपाधि धारण की थी। महाकूट स्तम्भलेख के अनुसार उसने बंग, अंग, कलिंग, वत्तूर, मगध,

 

मइक, केरल, गंग, मूषक, प्रमिल, घोलिय, आलुक वैजयंती आदि देशों के राजाओं को परास्त

 

किया था। इसका समय लगभग 598 ई० तक था। (3) मंगलेशलगभग 598 ई० में कीर्तिवर्मन के बाद उसका छोटा भाई (सम्भवतः सौतेला) मंगलेश हुआ। उस समय तक कलपरि वंश का शासक बुद्धराज बहुत शक्तिशाली हो गया था। गुजरात, खानदेश और मालवा के प्रदेश उसके अधीन थे। अतः मंगलेश के साथ लम्बे समय तक उसका युद्ध चला। अन्त में मंगलेश विजयी हुआ और उसने कलचुरि वंश से खानदेश और उसके निकटवर्ती प्रदेश छीन लिये। इस रेवतीद्वीप (पश्चिम अथवा अरब सागर अथवा गोआ ?) में स्वामीराज राज्य कर रहा था। उसने सम्भवतः मंगलेश के विरुद्ध आवाज उठायी। मंगलेश ने उस पर आक्रमण कर उसे परास्त किया तथा उसकी हत्या कर दी। फिर वहाँ उसने बप्रवंश के इन्द्रवर्मन को नियुक्त किया। मंगलेश एक निर्माणकर्त्ता भी था। उसके काल में बादामी विष्णु के एक गुहा मन्दिर का निर्माण हुआ था।

 

 

तक) (4) पुलकेशिन 11- एहोल अभिलेख से पता चलता है कि मंगलेश ने अपने को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। इस पर कीर्तिवर्मन का पुत्र मंगलेश का पुलकेशिन ।। क्रुद्ध हो उठा। पुलकेशिन || ने मंगलेश के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर और युद्ध में मंगलेश को मार डाला। तदुपरान्त लगभग 610 ई० में वह राजगद्दी पर हुआ। विद्रोह में पुलकेशिन के सहयोगी कौन थे ?-इस विषय में ठीक से पता नहीं।

 

ठीक से यह जरूर पता चलता है कि पुलकेशिन के राजगद्दी पर बैठते समय समस्याओं के समाधान के लिये भारी सैनिक योग्यता की आवश्यकता थी। मंगलेश के राज्य है अन्तिम वर्षों में जो गृहयुद्ध हुआ था उससे चालुक्य साम्राज्य की जड़ें हिल गयी थी। एहोल प्रशस्ति के लेखक रविकीर्ति के अनुसार जब मंगलेश का राज्य समाप्त हुआ तो संसार अरिकुल के अन्धकार से आच्छादित हो गया, अतः शासक बनने के पश्चात् पुलकेशी को साम्राज्य का पुनर्निर्माण करना था। उसने उस महान् उत्तरदायित्व के लिये अपने को सर्वा समर्थ सिद्ध किया। उसने उस प्रभात का निर्माण कर दिया जो समूचे चालुक्य इतिहास में सबसे दैदीप्यमान था। निःसन्देह पुलकेशिन ।। इस वंश का सबसे प्रताप प्रसिद्ध सम्राट था। एक मायने में बादामी के चालुक्य वंश का आदि और अन्त उसे ही कहा जा सकता है। उसने कई उपाधियाँ धारण की, उनमें से एकसत्याश्रयथी। उसके समय की मुख्य घटनायें अथवा उपलब्धियाँ निम्न थीं– (1) गोविन्द तथा अष्पायिक से सामना उसके समय अप्पायिक और गोविन्द ने

 

 

 

भैभर्थी (भीमा) तक बढ़कर उसके घर प्रान्त को घुड़काया। पुलकेशिन ने भेद डालकर शासन

 

करने वाली नीति अपनायी और गोविन्द से भेज कर अध्याधिक को मार भगाया।

 

(2) विजय अभियान (2) दक्षिण में (1) कयों के विरुद्ध अभियान उसने शासक (कृष्णवर्मन || ?) की राजधानी बनवायो को पेरा और श्रीनेत्र पाण्डेय के अनुसार उस पर अपना अधिकार स्थापित किया। (ii) अलूपों और गंगों के विरुद्ध अभियान फिर उसने दक्षिण मैसूर के गंगों और मैसूर के शिमोगा जिलों के हुमचा में शासन कर रहे अलुपों को समर्पण करने के लिये

 

बाध्य किया क्योंकि वे कदम्बों के मित्र थे। गंग राजा दुर्विनीत ने तो अपनी पुत्री का विवाह

 

पुलकेशिन से कर दिया था।

 

(ii) कोंकण के मौयों पर आक्रमण और फिर अब पुलकेशिन ने उत्तरी कोकण के मौयों की राजधानी पुरी पर आक्रमण कर दिया और उन्हें परास्त कर अपने अधीन कर लिया। पुरी सम्भवतः मुम्बई के एलिफेंटा के द्वीप पर बसी थी फिर पश्चिम समुद्र की लक्ष्मीपुरी पर सैकड़ों नौ यानों के साथ आक्रमण किया।

 

(b) उत्तर में (iv) लाटों, मालवों और कुर्जरों के विरुद्ध अभियान इन दिनों के हर्ष की शक्ति बढ़ रही थी, सो उससे आतंकित हो लाटों, मालवों, गुर्जरों ने पुलकेशिन की अधीनता स्वीकार कर ली। कुछ की मान्यता है कि पुलकेशिन ने इनका दमन किया। गुजरात में तो उसने चालुक्य वाइसराय भी नियुक्त किया था।

 

(v) हर्ष पर विजय पुलकेशिन तथा हर्ष दोनों ही महत्त्वाकांक्षी तथा साम्राज्यवादी सम्राट थे और दोनों ही अपने साम्राज्य के विस्तार में संलग्न थे। पुलकेशिन दक्षिण से उत्तर की ओर हर्ष उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ रहा था। दोनों ही पश्चिमी भारत के आनर्त लिये वल्लभी पर आक्रमण किया। वल्लभी नरेश ध्रुवसेन || परास्त हो गया और पलायन

 

 

 

 

कर गुर्जर नरेश दह ।। की शरण में चला गया। ऐसा लगता है कि दह ने पुलकेशिन || के प्रभाव में होने की वजह से हर्ष के विरुद्ध ध्रुवसेन ।। की सहायता करने का दुस्साहस किया था। इस प्रकार हर्ष को पुलकेशिन 11 से लोहा लेने और अपनी दक्षिण दिग्विजय की योजना को कार्यान्वित करने का बहाना मिल गया। पर कहते हैं उसके विरुद्ध लाटी, मालवों ने भी दर्द और पुलकेशिन का साथ दिया। शायद बंगाल का शशांक भी पुलकेशिन की तरफ हो गया हो ? बहरहाल हर्ष को एक प्रबल शक्ति का रेवा अथवा नर्मदा के तट पर सामना करना पड़ा जिसने हर्ष के हर्ष को (जो भी रहा हो) अहशं परिवर्तित कर दिया। दोनों के बीच युद्ध के समय को 612 ई० और 634 ई० के मध्य रखा जाता है।

 

(c) पूर्वी दक्खन में (vi) कोशलों, कलिगों के विरुद्ध अभियान एहोल अभिलेख

 

से पता चलता है कि उसने कोशलों (दक्षिण पथ के पांडुवंशी ) तथा कलिंगों (गंगों ?) पर विजय प्राप्त की थी। वस्तुतः यहाँ के नरेश उससे इतने भयभीत हो गये थे कि बिना लड़े ही उन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। (vii) पिष्टपुर तथा कुन्तल पर आक्रमण उसने समुद्री मार्ग द्वारा पिष्टपुर (पीठापुर,

 

गोदावरी जिला) तथा कुन्तल पर अधिकार किया। पिष्टपुर में उसने अपने भाई विष्णुवर्धन को नियुक्त किया जिसने पूर्वी चालुक्य वंश (वेंगी के चालुक्य) की नींव डाली। (viii) एल्लोर क्षेत्र के विरुद्ध अभियानएल्लोर में विष्णुकुण्डिन विक्रम देववर्मन III ने अपने क्षेत्र को बचाने की कोशिश की, परन्तु उसकी कोशिश निष्फल रही और वह हारा।

 

(ix) कांची के विरुद्ध अभियान इन दिनों पल्लव महेन्द्रवर्मन शासन कर रहा था जो बड़ा ही शक्तिशाली हो गया था और दक्षिण में पुलकेशिन II का सबसे बड़ा प्रतिद्वन्द्वी बन गया था। पुलकेशिन ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसके साम्राज्य में प्रवेश कर पुल्ललूर तक पहुँच गया। यद्यपि वह पल्लवों की राजधानी कांची (कांजीवरम) को ले सका, किन्तु उनके साम्राज्य के उत्तरी भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। अपनी स्थिति को मुड बनाने के लिये उसने चोलों, पाण्ड्यों (मैसूर) और केरलों (मालाबार) से मित्रता की।

 

महेन्द्रवर्मन I के काल में पल्लवी के साथ पुलकेशिन का जो संघर्ष आरम्भ हुआ वह उसकी मृत्युपरान्त भी चलता रहा। 630 ई० में महेन्द्रवर्मन की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र नरसिंहवर्मन महामल्ल पल्लव नरेश हुआ। पुलकेशिन ने उस पर भी आक्रमण किया (कांची को लेने के लिये), पर नरसिंह ने लंका के राजकुमार मानवर्मा की सहायता से केवल पुलकेशिन को अपने साम्राज्य से मार भगाया, किन्तु वह पुलकेशिन के साम्राज्य में भी प्रवेश कर गया और उसकी राजधानी बादामी पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। युद्ध में पुलकेशिन मारा गया और नरसिंह नेवातापीकाण्डकी उपाधि धारण की।

 

साम्राज्य विस्तार पुलकेशिन II के सुविशाल साम्राज्य की सीमायें उत्तर के विन्ध्यपर्वत श्रेणी और महानदी तक, दक्षिण में मैसूर के पार तक और आसिन्धुसिन्धु पर्यन्त फैली थीं। पुलकेशिन का मूल्यांकनपुलकेशिन 11 बादामी के चालुक्य वंश का सिरमौर था। जिस समय वह सिंहासनारूढ़ हुआ उस समय उसका साम्राज्य बड़ी संकटापन्न स्थिति में था, किन्तु उसने बड़े धैर्य तथा साहस के साथ अपनी विषम परिस्थितियों का सामना किया

 

और अपने विरोधियों का दमन कर अपने साम्राज्य में अमनचैन कायम किया वह एक वीर विजेता तथा कुशल सेनानायक था। उसकी सेना विशाल थी जो युद्ध में नशा चढ़ा लेती थी। उसने इसी की बदौलत दिग्विजय की योजना बनायी अर्थात् वह आयोजक  (Planner) भी थी।

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