आदर्श – प्ररूप
( Ideal Type )
डिल्थे के इतिहासवाद तथा कान्त के बुद्धिवाद से प्रभावित होकर वेबर ने समाजशास्त्रीय विश्लेषण के लिए जिस महत्त्वपूर्ण साधन अथवा उपकरण को प्रस्तुत किया , उसे आपने ‘ आदर्श प्ररूप ‘ का नाम दिया । वेबर ने आदर्श प्ररूप की अव धारणा सन् 1904 में ‘ वस्तुनिष्ठता ‘ ( Objectivity ) शीर्षक से लिखे गये निबन्ध के अन्तर्गत प्रस्तुत की । इस निबन्ध में वेबर ने आर्थिक सिद्धान्तों का सन्दर्भ देते हए लिखा कि आर्थिक घटनाओं के विश्लेषण में अनुमान अथवा अनुभवसिद्ध तथ्यों के आधार पर कोई निष्कर्ष देने से अधिक उपयोगी और वैज्ञानिक प्रणाली यह हो सकती है कि पहले हम आर्थिक व्यवहारों से सम्बन्धित कुछ आदर्श प्ररूपों का निर्माण लें और इसके पश्चात् वर्तमान आर्थिक व्यवहारों से उनकी समानता अथवा असमानता के आधार पर आर्थिक व्यवहारों की प्रकृति को समझने का प्रयत्न करें । बाद में देबर ने आदर्श प्ररूप को ही अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण मानते हए सामाजिक घटनाओं के विश्लेषण में इसका व्यापक उपयोग किया ।आदर्श प्ररूप की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए कहा जा सकता है कि ” आदर्श प्ररूप विश्लेषण की एक रचना अथवा विन्यास ( Construct ) है जो अध्ययनकर्ता को वास्तविक दशाओं से समानता तथा भिन्नता का माप करने के लिए एक मापदण्ड प्रदान करता है ।
इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि आदर्श प्ररूप में ‘ आदर्श ‘ शब्द का सम्बन्ध किसी श्रेष्ठता अथवा नैतिकता के आधार से नहीं है । कुछ वास्तविकताओं अथवा घटनाओं का जो प्ररूप उपयोगिता के दृष्टिकोण से आदर्श है , उसी को वेबर ने आदर्श प्ररूप कहा । यह प्ररूप इसलिए आदर्श होता है क्योंकि इसका निर्माण कुछ वास्तविक तथ्यों के आधार पर किया जाता है । वास्तविकता यह है कि सामाजिक व्यवहारों का क्षेत्र इतना व्यापक है कि सभी मानवीय व्यवहारों का व्यवस्थित रूप से अध्ययन नहीं किया जा सकता । समाज – विज्ञानियों के पास ऐसा कोई उपकरण भी नहीं है जिसके द्वारा अनुभवसिद्ध तथ्यों की प्रामाणिकता को तार्किक आधार पर समझा जा सके । इस स्थिति में यह आवश्यक है कि कुछ प्रमुख ऐतिहासिक तथ्यों अथवा व्यवहार के प्रतिमानों का तर्कपूर्ण ढंग से चुनाव करके एक ऐसे मानदण्ड अथवा प्ररूप का निर्माण कर लिया जाय जिससे वर्तमान मानवीय व्यवहारों की तुलना करके एक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके ।
इस आधार पर कहा जा सकता है कि ‘ आदर्श – प्ररूप तर्कसंगत रूप से बनायी गयी तथ्यों की एक श्रेणी है जिसके आधार पर अनुभवसिद्ध तथ्यों की तुलना की जाती है । ‘ उदाहरण के लिए , एक श्रेणी के रूप में यदि हम यह स्वीकार कर लें कि संगठित विनिमय प्रणाली , तार्किक आधार पर वस्तुओं का उत्पादन , विक्रय की संगठित व्यवस्था , ऋण – प्रणाली , निजी सम्पत्ति , श्रम – विभाजन तथा मुक्त व्यवसाय पूंजीवाद के प्रमुख आधार हैं तब इन सभी विशेषताओं से जिस प्ररूप का निर्माण होगा उसे हम ‘ पूंजीवाद का आदर्श प्ररूप ‘ कहेंगे । इसकी तुलना से ही यह ज्ञात करना सम्भव हो सकता है कि वर्तमान आर्थिक व्यवहार इस आदर्श प्ररूप के कितने समान अथवा असमान हैं । उपर्युक्त आधार पर वेबर ने स्पष्ट किया कि आदर्श प्ररूप को ‘ विशुद्ध प्ररूप ‘ ( Pare Type ) भी कहा जा सकता है । इसका तात्पर्य है कि जिन विशेषताओं के द्वारा किसी आदर्श – प्ररूप का निर्माण किया जाता है , वे सामान्य विशेषताएं न होकर आधारभूत्र और महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ होती हैं । आदर्श – प्ररूप इस अर्थ में भी विशुद्ध होता है कि इसमें सम्मिलित होने वाले तत्त्व उस प्ररूप की पुरातन विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं । यह भी मान लिया जाता है कि आदर्श – प्ररूप का निर्माण करने वाले तत्त्व स्वयं में पूर्ण हैं तथा उनके आधार पर अन्य व्यवहारों की तुलना करके किसी निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है ।वेबर द्वारा प्रस्तुत आदर्श – प्ररूप की प्रकृति को इसकी कुछ विशेषताओं की सहायता से सरलतापूर्वक समझा जा सकता है :
( 1 ) आदर्श – प्ररूप स्वयं में कोई सिद्धान्त न होकर अध्ययन की केवल एक प्रणाली है । यह प्रणाली इस बात को मानकर नहीं चलती कि सभी सामाजिक घटनाएं तार्किक होती हैं , ‘ यद्यपि स्वयं आदर्श – प्ररूप एक ऐसा आधार प्रदान करता है जिसकी सहायता से किसी अवलोकन अथवा अध्ययन को तार्किक बनाया जा सकता है । वास्तव में समाज – विज्ञानों का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य सामाजिक व्यव हारों का अवलोकन पर आधारित बोध तथा विवेचनात्मक बोध प्राप्त करना है । आदर्श – प्ररूप ही वह माध्यम अथवा उपकरण है जिसके द्वारा ऐसा बोध प्राप्त किया जा सकता है ।
( 2 ) आदर्श – प्ररूप कुछ तर्कपूर्ण और सुसम्बद्ध व्यवहारों की एक ऐसी श्रेणी है जिसे विशुद्ध रूप में किसी भी समाज में नहीं पाया जा सकता इसका तात्पर्य है कि आदर्श – एरूप का उपयोग केवल तुलना के लिए बनायी जाने वाली एक श्रेणी से ही होता है ।
( 3 ) वेबर के अनुसार आदर्श प्ररूप को कोई ऐसी सैद्धान्तिक परिकल्पना ( Theoretical Hypothesis ) नहीं माना जा सकता जिसे अनुभवसिद्ध तथ्यों के द्वारा प्रमाणित या अप्रमाणित सिद्ध किया जा सके । इसके विपरीत , आदर्श – प्ररूप स्वयं में एक ऐसा मॉडल ( Model ) है जिससे अनुभवसिद्ध तथ्यों की तुलना करके नयी परिकल्पनाओं का निर्माण किया जा सकता है ।
( 4 ) आदर्श – ग्ररूप की प्रकृति ‘ औसत प्ररूप ‘ ( Average Type ) से भिन्न होती है । आदर्श – प्ररूप अपनी प्रकृति से गुणात्मक होता है । इसका निर्माण उन विशेष तत्त्वों से होता है जो एक विशेष परिस्थिति के अन्तर्गत बहुत विशिष्ट और अनिवार्य प्रकृति के होते हैं । दूसरी ओर , औसत प्ररूप कुछ ऐसी सामान्य विशेषताओं से निर्मित होता है जिन्हें अध्ययन के दौरान अक्सर सांख्यिकीय गणना से प्राप्त कर लिया जाता है । यही कारण है कि आदर्श – प्ररूप को विश्लेषण की अवधारणात्मक रचना ‘ ( Conceptual Construction of Analysis ) कहा जाता है । ।
( 5 ) आदर्श – प्ररूप का निर्माण करना स्वयं में एक लक्ष्य नहीं है बल्कि यह केवल एक साधन है जिसकी सहायता से वर्तमान व्यवहारों का विश्लेषण किया जाता है । इसे न तो ऐतिहासिक वास्तविकता कहा जा सकता है और न ही अनुभवसिद्ध वास्तविकता । यह केवल तर्कपूर्ण तथ्यों के चुनाव की एक श्रेणी है ।
6 ) प्रत्येक परिस्थिति अथवा क्षेत्र से सम्बन्धित आदर्श – प्ररूप एक – दूसरे से भिन्न हो सकते हैं । इनका नैतिकता या अनैतिता से कोई सम्बन्ध नहीं होता । इसका तात्पर्य है कि जहाँ आर्थिक व्यवस्था , राजनैतिक व्यवस्था , धार्मिक आचरणों
अथवा परिवार के कुछ आदर्श प्ररूप हो सकते हैं , वहीं वेश्यालय ( Brothel ) और अपराध के क्षेत्र में भी आदर्श प्ररूपों का निर्माण किया जा सकता है । ऐसे सभी आदर्श – प्ररूपों का उपयोग एक विशिष्ट सैद्धान्तिक श्रेणी से वर्तमान व्यवहारों की तुलना करने के लिए किया जाता है ।
( 7 ) तुलना के एक घटक के रूप में आदर्श – प्ररूप की प्रकृति बहुत कुछ स्थायी होती है लेकिन कोई भी आदर्श – प्ररूप पूरी तरह अपरिवर्तनशील नहीं होता । विभिन्न अवधियों के आदर्श – प्ररूप एक – दूसरे से इसलिए भिन्न हो सकते हैं कि उनकी परि स्थितियां एक – दूसरे से भिन्न होती हैं ।
( 8 ) एक आदर्श – प्ररूप का निर्माण करने वाले तत्त्व उस आदर्श – प्ररूप की प्रत्येक विशेषता से सम्बन्धित न होकर केवल कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य विशेषताओं से ही सम्बन्धित होते हैं । वेबर ने आदर्श – प्ररूप की अनेक विशेषताओं को स्पष्ट करने के साथ ही इसके तीन प्रकारों को भी स्पष्ट किया । ( क ) पहली श्रेणी के आदर्श – प्ररूप वे होते हैं जो कुछ विशेष ऐतिहासिक वास्तविकताओं से निर्मित होते हैं । उदाहरण के लिए प्रोटे स्टेन्ट आचार , आधुनिक पूंजीवाद अथवा पश्चिमी नगर इसी प्रकार के आदर्श – प्ररूप हैं जिनका निर्माण कुछ ऐतिहासिक वास्तविकताओं के तर्कपूर्ण चुनाव द्वारा किया जा सकता है । ( ख ) दूसरे प्रकार के आदर्श – प्ररूप उन ऐतिहासिक वास्तविकताओं से सम्बन्धित होते हैं जिनमें अनेक गुणात्मक तत्त्वों का समावेश होता है तथा जिनका किसी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में अवलोकन किया जा सकता है । उदाहरण के लिए , सामन्तवाद अथवा अधिकारीतन्त्र इसी प्रकार के आदर्श – प्ररूप हैं । ( ग ) तीसरे प्रकार के आदर्श – प्ररूप वे होते हैं जिनका निर्माण कुछ विशेष प्रकार के व्यवहारों की ताकिक संरचना के आधार पर किया जाता है । वेबर का कथन है कि आर्थिक सिद्धान्तों से सम्बन्धित अधिकांश मान्यताएँ इसी तरह के आदर्श – प्ररूपों को स्पष्ट करती हैं । आदर्श – प्ररूपों के इन तीनों प्रकारों से स्पष्ट होता है कि समाज शास्त्रीय विश्लेषण के लिए वेबर ने जिन आदर्श – प्ररूपों को महत्त्वपूर्ण माना , वे पहले और दूसरे प्रकार से ही सम्बन्धित हैं ।
समाजशास्त्रीय विश्लेषण के एक उपकरण के रूप में वेबर ने आदर्श – रूप के कुछ प्रकार्य भी बतलाये हैं । यह प्रकार्य मुख्यत तीन हैं जो इस प्रकार हैं :
( 1 ) आदर्श प्ररूप का पहला प्रकार्य घटनाओं के वर्गीकरण के लिए एक व्यवस्थित आधार प्रदान करना है । इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि आदर्श – प्ररूप का तात्पर्य किसी अवधारणा से नहीं होता । उदाहरण के लिए , प्रस्थिति भूमिका , चमत्कारी सत्ता तथा समूह आदि केबल कुछ अवधारणाएं हैं । इसके विपरीत , आदर्श – प्ररूप को एक प्रतिमान ( Pattern ) अथवा परस्पर सम्बन्धित अनेक कारकों का संकुल ( Complex ) कहा जा सकता है जिसमें अनेक अवधारणाओं का समावेश होता है । स्पष्ट है कि प्रत्येक आदर्श – प्ररूप की सहायता से सामाजिक घटनाओं का वर्गीकरण करना सरल हो जाता है ।
( 2 ) आदर्श – प्ररूप का दूसरा प्रकार उन कारकों को ज्ञात करना है जो किसी आधारभूत दशा में उत्पन्न होने वाले विचलन ( Deviation ) की प्रकृति और सीमा को स्पष्ट करते हैं । जब हम तार्किक रूप से अर्थपूर्ण क्रियाओं को लेकर किसी आदर्श प्ररूप का निर्माण करते हैं तब यह जानना सरल हो जाता है कि कुछ अन्य क्रियाएँ आदर्श – प्ररूप की तुलना में कितनी अधिक या कम तार्किक थीं । इस प्रकार आदर्श प्ररूप तुलना के लिए एक दृढ़ आधार प्रदान करता है । उदाहरण के लिए यदि हम किसी सम्प्रदाय की मौलिक वैचारिकी और उद्देश्यों के आधार पर एक आदर्श – प्ररूप का निर्माण कर लें तो यह सरलतापूर्वक समझा जा सकता है कि उस सम्प्रदाय से सम्बन्धित संगठनों की क्रियाएँ अपनी मूल वैचारिकी और उद्देश्यों से कितनी सम्बद्ध अथवा असम्बद्ध हैं ।
( 3 ) आदर्श – प्ररूप का तीसरा प्रकार्य सैद्धान्तिक विश्लेषण से सम्बन्धित है । इसका तात्पर्य है कि आदर्श प्ररूप के आधार पर सामाजिक घटनाओं की भविष्यवाणी भी की जा सकती है । वेबर का कथन है कि आदर्श – प्ररूप को एक मॉडल मानकर हम किसी विशेष परिस्थिति में होने वाले परिवर्तन का पूर्वानुमान कर सकते हैं । उदाहरण के लिए , पूंजीवाद तथा प्रोटेस्टेण्ट आचार दो प्रमुख आदर्श – प्ररूप हैं जिनके । पारस्परिक सम्बन्ध को स्थापित करके यह पूर्वानुमान किया जा सकता है कि संसार के किस देश में पूंजीवाद का विकास होने की अधिक सम्भावना है । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि विशिष्ट मानवीय व्यवहारों के विश्लेषण के लिए आदर्श – प्ररूप एक प्रतिमान मानदण्ड है । इस मानदण्ड अथवा मॉडल से तुलना करके यह ज्ञात किया जा सकता है कि वर्तमान मानवीय व्यवहार किन विशेषताओं को प्रदर्शित करते हैं । यही वह आधार है जो समाजशास्त्रीय सैद्धान्तिक विवेचनाओं को अधिक व्यवस्थित बना सकता है ।