भारत में सामाजिक समस्याएँ

भारत में सामाजिक समस्याएँ

वर्तमान समय में भारत में अनेक सामाजिक समस्याएँ हैं । यद्यपि भारतवर्ष एक स्वतंत्र गणराज्य है जिसने धर्म निरपेक्ष , प्रजातंत्र तथा आर्थिक समानता के प्रगतिशील मूल्यों को स्वीकार किया है , परन्तु यहाँ निर्धनता पाई जाती है , गरीब – अमीर के बीच एक बहुत बड़ी खाई दिखलाई पड़ती है । यहाँ धर्म , भाषा , प्रजाति , जाति तथा क्षेत्रीयता के आधार पर अनेक भेदभाव किये जाते हैं । व्यक्ति – व्यक्ति में सामाजिक और आर्थिक स्तर पर ऊँच – नीच का एक संस्तरण पाया जाता है । जातिवाद , अस्पृश्यता , भाषावाद , प्रान्तीयता , साम्प्रदायिकता युवाविक्षोभ तथा बेकारी आदि समस्याएँ यहाँ मौजूद हैं । यहाँ बाल अपराधी और प्रौढ़ अपराधी भी पाए जाते हैं जो समाज के सम्मुख समस्या उत्पन्न करते हैं । यहाँ जनसंख्या की बढ़ोत्तरी भी तेजी के साथ होती जा रही है । निरक्षरता , निम्न जीवन – स्तर , शराबखोरी , जुआ , वेश्यावृत्ति और राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार की समस्याओं का भी देशवासियों को समाना करना पड़ रहा है । यहाँ औद्योगीकरण एवं नगरीकरण से सम्बन्धित समस्याएँ भी गम्भीर रूप धारण करती जा रही हैं ।

सामाजिक समस्याओं का उपचार विश्व के सामाजिक समस्याओं के इतिहास का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि वास्तव में बहुत – सी सामाजिक समस्याओं को समय – समय पर हल किया गया । गलामी की प्रथा से लोगों को मुक्त कराया जा सका । प्रतिदिन बारह घंटे तथा सप्ताह में सात दिन तक मजदूरों से काम लेने की समस्या को हल किया जा सके । इसी प्रकार बाल श्रम की समस्या का निवारण सम्भव हआ ।

आज अनेक देशों ने निर्धनता अथवा अभाव की स्थिति पर काफी नियंत्रण प्राप्त कर लिया है और बहुत – से देश इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं । वर्तमान में अनेक बीमारियों की रोकथाम का भी सफलतापूर्वक प्रयत्न किया जा सका है । कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि परिस्थितियों के बदलने के साथ – साथ नवीन समस्याएँ उठ खडी होती हैं । ऐसी स्थिति में पुरानी समस्याओं का स्थान नवीन समस्याएँ ले लेती हैं । इस दृष्टि से सामाजिक समस्याएँ हल नहीं होतीं , बल्कि उनके स्थान पर नई समस्याएं उठ खड़ी होती हैं । सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए काफी कुछ किया जा सकता है लेकिन यह सब कुछ निश्चित सीमाओं में ही सम्भव है ।

 

 यहां सामाजिक समस्याओं को हल करने या उपचार करने के लिए निम्नलिखित तीन दृष्टिकोणों पर विचार करना आवश्यक है :

 1 . बहुकारवादी दृष्टिकोण – इसके अनुसार किसी भी आमाजिक समस्या का जन्म अनेक कारकों के फलस्वरूप  है । सामाजिक समस्या के लिए कोई एक कारक उत्तरदायी नहीं है । उदाहरण के रूप में , यह नहीं माना जासकता कि केवल निर्धनता के कारण ही सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध होते हैं । यदि ऐसा होता तो अनेक धनी व्यक्तियों के द्वारा अपराध क्यों किए जाते ? इसी प्रकार बेकारी अथवा छात्र असन्तोष के पीछे एक ही कारण नहीं पाया जाता ।

 

2 . पारस्परिक सम्बन्ध – इसका तात्पर्य विभिन्न सामाजिक समस्याओं के एक – दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होने से है । यदि हम किसी एक समस्या को पृथक रूप से सलझाना चाहें , तो यह सम्भव नहीं । उदाहरण के लिए , अस्पृश्यता निवारण के लिए यह आवश्यक है कि अस्पृश्यता या अछूत समझे जाने वालों को आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति के अवसर प्रदान किए जाएँ परन्तु इसके साथ ही यह भी अनवार्य है कि अन्य जातियों के लोगों में उनके प्रति पाई जाने वाली पूर्व निर्धारित धारणाओं को दूर किया जाए ।

यह शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव है । इसके साथ ही अस्पृश्यता निवारण से सम्बन्धित कानून को कठोरतापूर्वक लागू करने की भी आवश्यकता है । इन लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले व्यवसायों के आधनिकीकरण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि इन लोगों के व्यवसाय को घृणित अथवा अपमानजनक न माना जाए । स्पष्ट है कि किसी भी समस्या को हल करने के लिए उससे सम्बन्धित अन्य समस्याओं के निराकरण की ओर ध्यान देना भी आवश्यक है ।

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 4 . सापेक्षिकता – इसका तात्पर्य यह है कि सामाजिक समस्या का स्थान एवं समय के साथ गहरा सम्बन्ध पाया जाता है । यह सम्भव है कि आज भारत में जिस स्थिति या दशा को एक सामाजिक समस्या के रूप में माना जाता है , वह कुछ समय पूर्व उस रूप में नहीं मानी जाती थी . उदाहरण के रूप में , आज अस्पश्यता को एक गम्भीर सामाजिक समस्या माना जाता है लेकिन भूतकाल में यह समस्या नहीं समझी जाती थी । अमेरिका तथा अफ्रीका में प्रजातीय भेदभाव समस्या के रूप में है । आज जिसे लोग सामाजिक समस्या के रूप में देखते हैं , संभव है वही स्थिति निकट भविष्य में सामान्य स्थिति बन जाए और लोग उसे समस्या नहीं माने । किसी स्थिति को समस्या के रूप में देखना समाज विशेष के लोगों के दृष्टिकोण पर भी निर्भर करता है । उपर्युक्त तीनों दृष्टिकोणों के आधार पर सामाजिक समस्याओं से छुटकारा प्राप्त करना सम्भव है परन्तु फिर भी किसी ऐसे समाज की कल्पना करना कठिन है जो समस्याओं से पूर्णतः मुक्त हो । इतना अवश्य है कि अलग – अलग कालों और समाजों में सामाजिक समस्याओं को हल करने में नेताओं की प्रमुख भूमिका होती है । वे स्वयं के उदाहरण द्वारा जनता को समस्या के निराकरण के संबंध

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भारत में स्वस्थ विचार प्रदान कर और समस्या को हल करने में सफलता प्राप्ति के पूर्व सफलता की एक हवा या वातावरण तैयार कर लोगों में एक सामूहिक अभिरुचि उत्पन्न कर सकते हैं । ऐसा होने पर लोगों में आवश्यक धारणाएं निर्मित हो पाएँगी और सामाजिक समस्याओं के निराकरण में वे सक्रिय योगदान दे सकेंगे ।

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 सामाजिक समस्याओं के उपचार में कठिनाइयां-

 

 1 . शक्तिशाली मनोभाव तथा निहित स्वार्थों द्वारा समर्थित सामाजिक संरचना सामाजिक समस्याओं को हल करने में कठिनाई पैदा करती है । सामाजिक समस्या के बने रहने से कुछ शक्तिशाली लोगों के स्वार्थ की पूर्ति होती है ऐसे लोग बाहरी तौर पर उस समस्या के हल में रुचि दिखाते हैं परन्तु आन्तरिक रूप से उनका प्रयत्न यही रहता है कि समस्या समस्या ही बनी रहे । इसके उदाहरण के रूप में अमेरिका में पाई जाने वाली प्रजातीय भेदभाव की समस्या का उल्लेख किया जा सकता है ।

 

2 सामाजिक समस्या के हल में कठिनाई आती है कि निहित स्वार्थ वाले लोगों के द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि समस्या के निराकरण के लिए प्रस्तावित सुझाव समस्या को हल करने के बजाय उसे और गम्भीर बना देगें ।

 

3 . सामाजिक समस्या को हल करने में तीसरी कठिनाई धीरे – धीरे पीछे की ओर मुड़ने या कार्य करने से संबंधित है । कई लोग काफी समय तक समस्या को समस्या के रूप में मानने को तैयार नहीं होते । भारत में लोग राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार को मानने को तैयार नहीं थे । अब लोग यह स्वीकार करने लगे हैं कि वास्तव में व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार व्याप्त है और उसे दूर करने की आवश्यकता है । भ्रष्टाचार का उन्मूलन उसी समय सम्भव है जब इसे समस्या के रूप में समझा जाए और धीरे – धीरे कार्य करने की प्रवृत्ति को छोड़ा जाए । सामाजिक समस्याओं के प्रति समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण सामाजिक समस्याओं के निराकरण के सम्बन्ध में वाल्श तथा फर्फे ने लिखा है कि प्रत्येक समस्या का निराकरण अवलोकन निर्णय अथवा तथ्यों के विश्लेषण और सामाजिक क्रिया एवं सामाजिक कार्य के द्वारा सम्भव है । अवलोकन का तात्पर्य वैज्ञानिक विधियों को काम में लेते हुए तथ्यों को एकत्रित करने से है । निर्णय का दिए गए तथ्यों के विश्लेषण से है , अर्थात् यहाँ तथ्यों पता लगाने का प्रयत्न किया जाता है कि सामाजिक समस्याओं को उत्पन्न करने में कौन – सी सामाजिक घटनाएँ विशेषत : महत्वपूर्ण हैं । क्रिया के अन्तर्गत यह निश्चित किया जाता है कि सामाजिक समस्या के निवारण के लिए कहां सामाजिक क्रिया की और कहां सामाजिक कार्य की आवश्यकता है । किसी भी सामाजिक समस्या को हल करने के लिए व्यक्ति और समूह दोनों का सक्रिय सहयोग आवश्यक है । सामाजिक समस्याओं के प्रति समाजशास्त्रियों का दष्टिकोण क्या है इसका यथावत चित्रण करता है । वह सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया के रूप में सामाजिक समस्या को देखता है । समाजशास्त्री वस्तुनिष्ठ तरीके से तथ्यों का विश्लेषण करता है और सामाजिक समस्या के पीछे पाए जाने वाले कार्यकारण सम्बन्धों का पता लगाने की कोशिश करता है । वह अपने दृष्टिकोण में सर्वत्र समाजशास्त्रीय तार्किकता को बनाए रखता है । वह जानता है कि कभी समाज क्रान्ति की स्थिति से गुजरता है तो एक ओर परम्परागत जीवन के ढंग और दूसरी ओर रहन – सहन तथा विचार करने के आधुनिक तरीकों में टकराव की स्थिति पैदा होती है । यह स्थिति ही अनेक प्रकार की सामाजिक समस्याओं के लिए उत्तरदायी है । समाजशास्त्री वैज्ञानिक पद्धतियों को काम में लेता हुआ सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण करता है , और उन्हें हल करने के लिए सामूहिक उपचारात्मक प्रयत्नों का मूल्यांकन भी करता है ।

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सामाजिक समस्याओं के क्षेत्र में निष्कर्ष

 1 . व्यक्ति को वंशानुक्रमण की बजाय पर्यावरण की उपज के रूप में पुनः परिभाषित किया गया है और विचलित व्यवहार के अनेक स्वरूपों को सीखा हुआ माना गया है , न कि जन्मजात । बाल – अपराधी एवं अपराधी उनके स्वयं के सामाजिक अनुभवों की उपज है , अल्पसंख्यक समूह को अब जन्मजात रूप से ही नहीं समझा जाता , बल्कि सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से वंचित माना जाता है ।

 2 . इन निष्कर्षों का तात्पर्य है कि समस्यामूलक व्यवहार को समूह तथा संस्थात्मक प्रभावों को परिवर्तित एवं कम करके बदला जा सकता है । उदाहरण के रूप में , बाल – अपराध या प्रजातीय संघर्ष कुछ सामाजिक प्रक्रियाओं का परिणाम है और इन प्रक्रियाओं को समझकर , समस्यामूलक व्यवहार का शीघ्र ही पता लगाया जा सकता है , उसका उपचार किया और उसे रोका जा सकता है ।

3 . समस्यामूलक व्यवहार के प्रति इस परिवर्तित दृष्टिकोण ने विचलित व्यवहार व्यक्त करने वालों की परिभाषा को बदल दिया है । अब उन्हें रोगी , सांस्कृतिक रूप से गलत निर्देशित अथवा सुविधाओं से वंचित माना जाता है ।

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