SCOPE OF EDUCATION SOCIOLOGY
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
INTRODUCTION TO SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2kHe1iFMwct0QNJUR_bRCw
शिक्षा के समाजशास्त्र का क्षेत्र विस्तृत है।
- यह विभिन्न प्रकार की बुद्धि वाले छात्रों को पढ़ाने में विभिन्न शैक्षिक विधियों की प्रभावशीलता को समझने में हमारी मदद करता है।
- यह छात्रों को प्रदान की जाने वाली शिक्षा के प्रकार पर अर्थव्यवस्था के प्रभाव का अध्ययन करता है। उदा. आईबी, आईसीएसई, एसएससी, नगरपालिका स्कूलों में शिक्षा प्रदान की जाती है
- यह छात्रों पर परिवार, स्कूल जैसी विभिन्न सामाजिक एजेंसियों के प्रभाव को समझने में हमारी मदद करता है।
- यह समाज, संस्कृति, समुदाय, वर्ग, पर्यावरण, समाजीकरण, आंतरिककरण, आवास, आत्मसात, सांस्कृतिक अंतराल, उप-संस्कृति, स्थिति, भूमिका आदि जैसी सामान्य अवधारणाओं से संबंधित है।
- यह आगे शिक्षा और सामाजिक वर्ग, राज्य, सामाजिक बल, सांस्कृतिक परिवर्तन, भूमिका संरचना की विभिन्न समस्याओं, कुल सामाजिक व्यवस्था के संबंध में भूमिका विश्लेषण और स्कूल के सूक्ष्म समाज जैसे प्राधिकरण, चयन, और के मामलों में शामिल है। सीखने, स्ट्रीमिंग, पाठ्यक्रम आदि का संगठन।
- यह विभिन्न भौगोलिक और जातीय संदर्भों में शैक्षिक स्थितियों के विश्लेषण से संबंधित है। उदा. ग्रामीण, शहरी और जनजातीय क्षेत्रों में, देश/विश्व के विभिन्न भागों में, विभिन्न नस्लों, संस्कृतियों आदि की पृष्ठभूमि के साथ शैक्षिक स्थितियाँ।
- यह सामाजिक वर्ग, संस्कृति, भाषा, माता-पिता की शिक्षा, व्यवसाय और छात्रों की उपलब्धि के बीच संबंधों का अध्ययन करता है
- यह छात्रों के व्यक्तित्व पर स्कूल, सहकर्मी समूह की भूमिका और संरचना का अध्ययन करता है
- यह नस्लवाद, सांप्रदायिकता, लैंगिक भेदभाव आदि जैसी समस्याओं की समझ प्रदान करता है।
- यह छात्रों के समाजीकरण में विद्यालयों की भूमिका का अध्ययन करता है।
- यह छात्रों में राष्ट्रीय एकता, अंतर्राष्ट्रीय समझ, वैज्ञानिक सोच, वैश्वीकरण की भावना विकसित करने के तरीके सुझाता है
- यह शिक्षा में विभिन्न सिद्धांतों की योजना, संगठन और अनुप्रयोग से संबंधित शोध अध्ययन को बढ़ावा देता है।
- ये सभी समाज की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करने वाले अविभाज्य अनुशासन के रूप में शिक्षा और समाजशास्त्र की चिंताएँ हैं।
शिक्षा के समाजशास्त्र के सैद्धांतिक दृष्टिकोण
थ्योरी का मतलब अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग चीजें हैं। इसे एक वैचारिक योजना के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे दो या दो से अधिक चरों के बीच देखी गई नियमितताओं या संबंधों को समझाने के लिए डिज़ाइन किया गया है। सैद्धांतिक दृष्टिकोण का उपयोग तार्किक व्याख्या प्रदान करने के लिए किया जाता है कि चीजें जिस तरह से होती हैं, वैसी क्यों होती हैं। हमारे रोजमर्रा के जीवन में हमेशा घटनाओं की अलग-अलग व्याख्याएं होती हैं। इसी तरह, इस बारे में कई समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण हैं कि चीजें जिस तरह से समाज में होती हैं, वैसी ही क्यों होती हैं। इन सिद्धांतों का परिणाम अलग होता है
एक ही जानकारी की व्याख्याएं क्योंकि वे विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करती हैं।
व्यवहार विज्ञान में कोई भी सिद्धांत पूर्णतः सत्य नहीं होता है। कोई भी सिद्धांत अंतिम सूत्रीकरण नहीं है क्योंकि नया ज्ञान मौजूदा सिद्धांतों को संशोधित करता रहता है या उनका खंडन भी करता है। किसी सिद्धांत को उसके द्वारा दिए गए उत्तरों के संदर्भ में केवल उत्पादक नहीं माना जाता है; लेकिन समान रूप से यह जितने सवाल उठाता है।
हम निम्नलिखित सिद्धांतों के प्रमुख पहलुओं पर एक नज़र डालने जा रहे हैं जिन्होंने शिक्षा के समाजशास्त्र के क्षेत्र में प्रमुख योगदान दिया है:
रेखीय या उद्विकासीय सिद्धांत :
साधारण शब्दों में उविकास का अर्थ है , एक सादी और सरल वस्तु का धीरे – धार एक जटिल अवस्था में बदल जाना और भी स्पष्ट रूप में सब कछ निश्चित स्तरों में से गुजरती हुई । सादी या सरल वस्तु एक जटिल वस्तु में परिवर्तित हो जाती है तो उसे उविकास कहते है । श्री मेकाइवर और पेज के शब्दों में , ” उविकास परिवर्तन की एक दिशा है जिसमें कि बदलत हए पदार्थ की विविध दशायें प्रकट होती हैं और जिससे कि उस पदार्थ की असलियत का पता । चलता है । ”
ऑगवर्न और निमकॉफ ने उविकास की परिभाषा करते हुए लिखा है , ” उद्विकास केवल । मात्र एक निश्चित दिशा में परिवर्तन है । ”
डार्विन का उद्विकास का सिद्धांत :
चूंकि सामाजिक उविकास का सिद्धांत श्री डार्विन के प्राणिशास्त्रीय उदुविकास पर आधारित है , अतः श्री डार्विन के सिद्धांत को समझ लेना अति आवश्यक होगा । इस सिद्धांत की प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं
1 . प्रारम्भ में प्रत्येक जीवित प्राणी सरल होता है और उसके विभिन्न अंग इस प्रकार साथ घुले – मिले होते हैं कि उन्हें अलग नहीं किया सकता और न ही उसका कोई निश्चित स्वरूप होता है । यह अनिश्चित अभिन्न समानता की स्थिति है । परन्तु धीरे – धीरे उस वस्तु के विभिन्न अंग स्पष्ट तथा पृथक हो जाते हैं , और साथ ही साथ उसका स्वरूप भी निश्चित हो जाता है । यह निश्चित भिन्नता की स्थिति है । उदाहरण के लिए प्रारम्भ में एक बीज सरल होता है और उसके विभिन्न अंग ( जैसे जड़ , फल , फूल इत्यादि ) अलग – अलग नहीं होते , पर धीरे धीरे ये अंग स्पष्ट हो जाते हैं और उनमें भिन्नता उत्पन्न होती है । इस प्रकार अभिन्न समग्रता का विभिन्न समग्रता में विकसित होना उद्विकास का प्रथम नियम है । ।
2 . जीवित वस्तु के विभिन्न अंग जैसे – जैसे स्पष्ट तथा पृथक होते जाते हैं वैसे – वैसे प्रत्येक अंग एक विशेष प्रकार का कार्य करने लगता है । उदाहरण के लिए मानव शरीर को ही ले लीजिए । मां के पेट में रहते हुए धीरे – धीरे बच्चे के शरीर के विभिन्न अंग जैसे हाथ , पैर , आँख , मुँह , नाक आदि स्पष्ट हो जाते हैं और उसी के साथ – साथ प्रत्येक अंग का एक विशेष कार्य हो जाता है , जैसे पैर चलने का कार्य करता है तो आँख देखने का , मुँह खाने का आदि । यह नहीं हो सकता है कि हाथ कान का कार्य करे , कान पेट का और पेट पैर का ।
3 . यह सच है कि विभिन्न अंगों के विकसित और स्पष्ट होने पर प्रत्येक अंग के कार्य अलग – अलग बंट जाते हैं । परन्तु इस विभिन्नता का यह अर्थ नहीं है कि कोई भी अंग दूसरे अंगों से पूर्णतया पृथक या उनसे परे होता है । वास्तव में विभिन्न अंगों में सदैव अन्तः संबंध तथा अन्तःनिर्भरता बनी रहती है । पेट खराब होने पर दूसरे अंग भी निरर्थक हो जाते हैं । हाथ में चोट लगने पर उसका प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ सकता है ।
4 . उविकास की प्रक्रिया एक निरन्तर जारी रहने वाली प्रक्रिया है । एकप्राणी के शरीर में कव कौन सा परिवर्तन हुआ , यह निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता क्योंकि उसमें हर क्षण
विकास हो रहा है । आपकी ही छोटी बहन आपकी आँखों के समक्ष बड़ी हो र निश्चित रूप से नहीं बता सकते कि वह कव कितनी बड़ी हो रही है ।
5 . उद्विकास की प्रक्रिया कुछ निश्चित स्तरों से गुजरकर होती है , जिस दौरान धीरे – धीरे जटिल रूप धारण कर लेती हैं । उदाहरण के लिए , एक बीज को लीजिए कितना सरल होता है , पेड़ के रूप में विकसित हो जाने पर वह कितना जटिल परन्तु इस सादे से जटिल रूप में बदलने के दौरान वह कुछ निश्चित स्तरों से गज बच्चा पहले जन्म लेता है , उसके बाद उसका बचपन शुरू होता है , फिर युवावस्था फिर वृद्धावस्था और अन्त में मृत्यु ।
सामाजिक उविकास का सिद्धांत :
श्री हरबर्ट स्पेन्सर का कथन है कि उद्विकास के उपरोक्त नियम समाज और संबंध में भी लागू होते हैं जैसा कि निम्नलिखित विवेचना से स्पष्ट है
1 . प्रारंभ में या प्राचीन आदिम युग में समाज अत्यधिक सादा और सरल था । इसके लिए अंग इस प्रकार घुले – मिले होते थे कि उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता था । एक परिवार सामाजिक , आर्थिक तथा राजनैतिक सभी प्रकार के कार्यों को करता था । इतना ही नहीं व्यक्ति केवल अपने परिवार के बारे में ही जानता और करता था । सभी प्रकार के कार्यों और विचार प्रायः एक से होते थे । इस दृष्टिकोण से सभी व्यक्ति प्रायः समान था । साथ इस स्तर पर कुछ भी निश्चित तथा , न तो जीवन , न ही सामाजिक संगठन और न संस्कार इस प्रकार उनकी यह अवस्था अनिश्चित व असम्बद्ध समानता की थी । परन्तु धीरे – धीरे अनुभव , विचार तथा ज्ञान में उन्नति हुई , उन्हें मिलकर काम करना आ गया और साथ सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न अंग स्पष्ट होते गए । उदाहरण के लिए परिस राज्य , कारखाना , धार्मिक संस्था , श्रमिक संघ , ग्राम , नगर आदि स्पष्ट रूप में विकसित हुए I
2 . विकास के दौरान समाज के विभिन्न भाग जैसे – स्पष्ट होते हैं , वैसे – वैसे प्रत्येक अंग एक विशेष प्रकार का कार्य करने लगता है , अर्थात् समाज के विभिन्न अंगों के बीच श्रम विभाजन और विशेषीकरण हो जाता है । परिवार एक विशेष प्रकार का कार्य करता है । तो एक राज्य दूसरे का स्कल और कालेज तीसरे प्रकार का कार्य , मिल और कारखाने अन्य प्रकार के कार्य तथा श्रमिक संघ पृथक – पृथक कार्यों को करने लगते हैं । यह हो ही नहीं सकता कि परिवार राज्य का कार्य करे , राज्य श्रमिक संघ का या श्रमिक – संघ धार्मिक संस्थानों का ।
3 . समाज के विभिन्न अंगों के विकसित हो जाने से उनमें श्रम – विभाजन और विशेषीकरण हो जाता है परन्तु वे एक दूसरे से पृथक या पूर्णतया परे नहीं होते । उनमें कुछ निश्चित अन्तःसंबंध और अन्तःनिर्भरता बनी रहती है । परिवार राज्य से संबंधित तथा उस पर निर्भर है और राज्य परिवार से संबंधित और उस पर निर्भर है , इसी प्रकार शिक्षक , कृषक , धोबी , मेहतर , जुलाहा इन सबमें एक अन्तःसंबंध तथा अन्तःनिर्भरता होती है ।
4 . उद्विकास की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है और एक सम्पूर्ण समाज का निर्माण अनेक वर्षों में धीरे – धीरे होता है ।
5 . सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया कुछ निश्चित स्तरों से गुजकर होती है । जिस दौरान समाज का सरल रूप धीरे – धीरे जटिल रूप धारण कर लेता है । उदाहरण के लिए आर्थिक जीवन के प्रारंभ में अदला बदली से काम शुरू किया गया , पर अब उस सादी और सरल व्यवस्था ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का रूप धारण कर लिया है । पहले लोग सीधे – सादे तौर पर पैदल चलते थे , अब हवाई जहाजों की रफ्तार का कहना ही क्या । पहले व्यक्ति का जीवन अधिक से अधिक 15 सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत वही जीवन अन्तर्राष्ट्रीय जीवन हो गया है । यह विकास परिवार तक सीमित था , पर अब वही जीवन अन्तर्राष्ट्रीय जीवन ह धार – धीरे कुछ निश्चित स्तरों में से होकर गुजरा है । जैसे एक दिन में नहीं हुआ है , बल्कि धीरे – धीरे कुछ निश्चित स्तरों में सहा आर्थिक क्षेत्र में उद्विकास के प्रमुख स्तर हैं –
1 . शिकार करने का स्तर ,
2 . चरागाह का स्तर ,
3 . कृषि का स्तर , और
4 . औद्योगिक स्तर ।
इस प्रकार कार हम कह सकते हैं कि पहले समाज सरल था और उसके विभिन्न अंग अभिन्न एक – दूसरे से अधिक घले मिले थे । पर धीरे – धीरे सामाजिक जीवन के विभिन्न अग स्पष्ट आर पृथक होते गए और उनमें श्रम विभाजन और विशेषीकरण हुआ , परन्तु यह भिन्नता कान पर भी विभिन्न अंगों में समन्वय बना रहा अर्थात विभिन्न अंग एक – दूसरे से संबंधित तथा एक – दूसरे पर निर्भर हैं । अतः हम कह सकते हैं कि समाज में भिन्नता और समन्वय दोनों ही तत्व पाए जाते हैं । साथ ही इन दोनों तत्वों की क्रियाशीलता के फलस्वरूप ही समाज का आस्तत्व संभव होता है । इसीलिए यह कहा गया है कि समाज समन्वय और विभिन्नता का एक गतिशील सन्तुलन है ।
इस सिद्धांत के मानने वाले वैज्ञानिकों में हरबर्ट स्पेन्सर , लुइस हेनरी मार्गन , आगस्ट कॉम्ट , इमाइल दुरखिम आदि आते हैं ।
आगस्त कॉम्ट ( 1798 – 1857 ) :
फ्रांसीसी विचारक आगस्त कॉस्ट जो समाजशास्त्र के पिता हैं , इन्होंने अपनी पुस्तक Positive Philosophy में समाजिक उविकासीय आधार पर समाज में परिवर्तन को दर्शाया है । इनका मानना है कि व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास जैसे – जैसे होता है वैसे – वैसे समाज का विकास होता है । समाज के विकास की प्रक्रिया को इन्होंने तीन स्तरों में बाँटते हुए सामाजिक उद्विकास की चर्चा की है Comte के ही शब्दों में – ” Each of our leading conceptions each branch of our knowledge , passes successively through three different theoretical conditions the theological or fictitious , the metaphysical or abstract and the scientific or positive . ”
उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि मानव ज्ञान में विकास तीन स्तरों के माध्यम से होता है और ये तीन स्तर क्रमशः निम्नलिखित हैं ।
1 . धार्मिक ( Theological )
2 . तात्विक ( Metaphysical )
3 . प्रत्यक्षवादी ( Scientific )
इनके अनुसार आरंभ में मानव मस्तिष्क बहुत विकसित नहीं था । अतः उस अवस्था का ज्ञान धार्मिक स्वरूप का था । तात्पर्य यह है कि आरम्भिक अवस्था में मनुष्य सभी घटनाओं की व्याख्या अलौकिक शक्ति के आधार पर करता था । चूँकि मानव मस्तिष्क विकसित नहीं था अतः मानवीय ज्ञान में केवल आस्था एवं विश्वास के तत्व मौजूद थे , तर्क एवं विवेक का अभाव था । फलतः मनुष्य किसी भी घटना के पीछे के कार्य – काल संबंध को नहीं जान पाता । था बल्कि हर घटना के पीछे अलौकिक शक्ति का हाथ मानता था । जैसे हरा – भरा पेड़ क्यों सूख गया कोई व्यक्ति क्यों बीमार पड़ गया इन सबके पीछे वह ईश्वरीय शक्ति को मानता था । ऐसा नहीं है कि इस काल में वैज्ञानिक ज्ञान नहीं थे । मनुष्य ने पेड़ की दो टहनियों के घर्षण को देखकर स्वयं भी इस प्रक्रिया के माध्यम से आग का आविष्कार किया जो उसके बैला ज्ञान होने का प्रमाण है । लेकिन इस तरह के वैज्ञानिक ज्ञान अत्यन्त सीमित ये और भरपर में धार्मिक ज्ञान उपलब्ध था ।
कॉस्ट के अनुसार धार्मिक स्तर स्वयं निम्नलिखित तीन उप स्तर से गुजरता है ।
1.प्रेतवाद ( Fetishism )
2.वहुदेवतावाद ( Polytheism ) एवं
3.एकदेवतावाद ( Monotheism )
प्रेतवाद के स्तर में प्राकृतिक चीजों का मानवीकृत किया जाता है । पेड़ों , नदियों , पर्वता आदि की पूजा इसलिए की जाती है क्योंकि लोगों में ऐसी धारणा बनी रहती है कि ये प्राक तिक चीजें देवी – देवताओं के निवास स्थान हैं । लेकिन जैसे – जैसे मस्तिष्क में विकास होता । वैसे – वैसे मानव – ज्ञान में परिवर्तन आता है । प्रेतवाद का रूप मिटता जाता है और बहुदेवतावाद की भावना लोगों में आ जाती है । इस प्रक्रिया में घरेलू देवताओं की स्थापना की जाती है । साथ ही लोग एक साथ अनेक देवताओं में न केवल विश्वास करने लगते हैं बल्कि देवताओं का श्रेणीक्रम उनकी पदस्थिति के आधार पर निर्धारित की जाती है । पुनः जैसे – जैसे मानव मस्तिष्क के साथ साथ मानव ज्ञान में वृद्धि होती है वैसे – वैसे बहुदेवतावाद का स्थान समाप्त हो जाता है । इस अवस्था में मनुष्य यह अनुभव करने लगता है कि भले ही देवताओं के नाम अनेक हैं पर देवता एक हैं । कॉस्ट के अनुसार एकदेवतावाद धार्मिक स्तर के चिन्तन का सर्वोच्च स्तर है ।
ज्ञान के विकास का दूसरा स्तर तात्विक स्तर ( Metaphysical stage ) है । मानव ज्ञान का यह दसरा स्तर धार्मिक और प्रत्यक्षवादी स्तर के वीच एक कड़ी का काम करता है । आगस्त कॉस्ट के अनुसार , जहाँ धार्मिक स्तर कई हजार वर्षों का काल था वहीं तात्विक स्तर कछ सी वर्षों का काल है । दरअसल कॉम्ट ने इसे संक्रमण की अवस्था ( Transition Phase ) कहा है । इस स्तर का ज्ञान न तो पूर्णतया धार्मिक स्तर का होता है और न ही पूर्णतया प्रत्यक्षवादी स्तर का । साफ शब्दों में कहा जाए तो इस स्तर के ज्ञान में विभिन्न घटनाओं की व्याख्या न तो अलौकिक शक्ति के आधार पर की जाती है और न ही तर्क एवं विवेक के आधार पर । दरअसल अदृश्य शक्ति के आधार पर घटनाओं की व्याख्या की जाती है । आगस्त कॉन्ट का कहना है कि इस स्तर के ज्ञान में मनुष्य घटनाओं की पीछे अलौकिक शक्ति का हाथ नहीं मानता बल्कि घटना के कारण को जानना चाहता है । लेकिन ज्ञान में तर्क एवं विवेक के अभाव के चलते वह जान नहीं पाता है और ऐसी स्थिति में वह यह मान लेता है कि अलौकिक शक्ति तो नहीं पर अदृश्य शक्ति ( Invisible Power ) इसके पीछे जरूर कार्यरत है ।
कॉस्ट का कहना है कि मानव मस्तिष्क में विकास के फलस्वरूप ज्ञान के विकास का तीसरा और अन्तिम स्तर प्रत्यक्षवादी स्तर ( Scientificstage ) है । इस स्तर का ज्ञान तथ्यों के अवलोकन और विश्लेषण पर आधारित होता है । मनुष्य सारी घटनाओं की व्याख्या तर्क एवं विवेक के आधार पर करता है और उसी को सत्य मानता है जो अवलोकन और परीक्षण के आधार पर खड़ा उतरता है ।
त्रिस्तरीय नियमों की चर्चा करते हुए कॉन्ट का कहना है कि उपर्युक्त तीनों प्रकार के चिंतन का ढंग एक ही मस्तिष्क में या एक ही समाज में अपना अस्तित्व रख सकते हैं । लेकिन तीन तरह के चिंतन हमेशा अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल नहीं होते । इससे साफ जाहिर होता है कि धार्मिक स्तर में भी प्रत्यक्षवादी ज्ञान था पर मात्रा कम थी । और आज के प्रत्यक्षवादी यग में भी अंधविश्वास , कपोलकल्पना आदि मौजूद है पर धीरे – धीरे इनकी मात्रा घटती जा रही है ।
आगस्त कॉस्ट के इन विचारों काटक इन विचारों को निम्नलिखित तालिका के द्वारा भी समझा जा सकता है
ज्ञान का स्तर समाज में वर्चस्व सामाजिक संगठन
1 . धार्मिक स्तर पुरोहित एवं सैनिक परिवार
2 . तात्विक स्तर पादरी एवं वकील. राज्य
3 . प्रत्यक्षवादी स्तर पूँजीपति एवं औद्योगिक साहसी लोकतांत्रिक राज्य
अतः स्पष्ट है कि आगस्त कॉप्ट ने मानव में होने वाले ज्ञान के विकास के आधार पर सामाजिक संगठन में होने वाले उदविकासीय परिवर्तन को समझाया है पर आगस्त कॉम्ट के इस सिद्धांत की आलोचनाएँ भी कम नहीं हैं ।
आलोचनाएँ :
1 . आलोचकों का यह कहना है कि कॉस्ट का यह सिद्धांत उसके मौलिक चिन्तन का परिणाम नहीं है बल्कि उसने उसे सेन्ट साइमन आदि विद्वानों से ग्रहण किया है । अतः कॉस्ट को एक कुशल समन्वयकर्ता ही कहा जा सकता है , मौलिक चिंतक नहीं ।
2 . पी० ए० सोरोकिन का कहना है कि आगस्त कॉस्ट के ये विचार जिसमें वैज्ञानिकता कम तथा दार्शनिकता अधिक है । दरअसल कॉस्ट ने कहीं कोई क्षेत्रीय अध्ययन नहीं किया है बल्कि लोगों के संस्मरण , यात्रावृत्तांत और अन्य द्वितीयक स्रोतों से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर यह सिद्धात प्रतिपादित किया है । सोरोकिन के ही शब्दों में , ” All such theories have been nothing buta king of metaphysics . Ogburn और Nimcoff ने भी इसी आधार पर आलोचना की है ।
3 . पैरेटो ने तो कॉस्ट के विचारों को पूर्णतः अवैज्ञानिक एवं नहीं काम करने लायक बताया है । पैरेटो ने कॉस्ट सहित सभी उद्विकासवादियों की आलोचना करते हुए कहा है कि इन विद्वानों ने मानव सभ्यता का अध्ययन भूत से वर्तमान की ओर करना चाहा है जो कि अवैज्ञानिक है । पैरेटो के अनुसार वैज्ञानिकों को किसी भी चीज का अध्ययन ज्ञात से अज्ञात की ओर करना चाहिए । यानि वर्तमान के आधार पर भूत की व्याख्या होनी चाहिए । जबकि उद्विकासीय सिद्धांतदाताओं ने अज्ञात से ज्ञात की ओर बढ़ने का प्रयास किया है जो वैज्ञानिक भावना के विरुद्ध है ।
4 . इतना ही नहीं पैरेटो ने उद्विकासीय सिद्धांत को ही गलत बताते हुए इसे Cinematography की संज्ञा दी है । उनका कहना है कि जिस तरह सिनेमा के एक दृश्य के बाद दूसरा दृश्य आता है और तब पहला दृश्य आँखों से ओझल हो जाता है । ठीक उसी तरह उदविकासवादियों ने अपने सिद्धांत में विभिन्न स्तरों की चर्चा की है जो आलोचनीय है । इसका समर्थन करते हुए सोरोकिन का भी कहना है कि उद्विकासीय सिद्धांत अंधेरी कोठरी में काली बिल्ली खोजने के समान है । तात्पर्य यह है कि उद्विकासीय सिद्धांत का अनुसरण करने पर कभी सत्य की प्राप्ति हो सकती है और कभी न भी ।
उपर्युक्त सारी चर्चाओं के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यद्यपि कॉस्ट के सिद्धांत की काफी आलोचना की गई है पर इन सारी आलोचनाओं के बावजूद समाजशास्त्र के क्षेत्र में आगस्त कॉम्ट की देन को नकारा नहीं जा सकता है ।
एल० एच० मार्गन ( 1818 – 1881 ) :
मार्गन ने भी सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या अपनी पुस्तक Ancient Society में उद्विकासीय आधार पर किया है । इनके अनुसार समाज में परिवर्तन तकनीकी कारक
(Technological Factor) पर निर्भर है । जैसे – जैसे समाज में तकनीकी का विकास होता है , वैसे वैसे समा अवस्था से दूसरे अवस्था में प्रवेश करती है ।
मॉर्गन एक ऐसे विद्वान थे जिन्होंने उद्विकास की चर्चा न केवल पूरे समाज पर ही समाज के भिन्न – भिन्न अंगों पर भी की है । इनके अनुसार तकनीकी में विकास के चलते म एक स्तर से दूसरे स्तर में प्रवेश करती है । यह अवस्था निम्नलिखित हैं
1 . Societas
2 . Civitas
इसी प्रकार मार्गन के अनुसार संस्कृति तथा परिवार में उद्विकास विभिन्न चरणों में होता है !
एल० एच० मार्गन ने संस्कृति में होने वाले परिवर्तन को निम्नलिखित रूप में बताया है .
1 . जंगली अवस्था ( Savagery Stage )
2 . असभ्य अवस्था ( Barbarian Stage ) एवं
3 . सभ्य अवस्था ( Civilised Stage )
1 . जंगली अवस्था ( Savage Stage ) –
मानव – समाज की यह सबसे आरम्भिक अवस्था थी जबकि मनुष्य प्रत्येक अर्थ में बिल्कुल जंगली था । इस स्तर का इतिहास सबसे लम्बा रहा है । श्री मॉर्गन ने इस स्तर के जिन तीन उपस्तरों का उल्लेख किया है वे इस प्रकार हैं –
( a ) जंगली अवस्था का प्राचीनतम स्तर – इस उपस्तर का इतिहास बहुत ही अस्पष्ट है फिर भी इतना निश्चित है कि यह जंगली अवस्था का चरम स्तर था । इस उपस्तर में मानव जंगल में मारा – मारा फिरता था और शायद ही किसी प्रकार के सामाजिक संगठन या संस्कृति का अधिकारी था । कच्चा मांस खाना , फल , मूल , कंद खाकर जीविका निर्वाह करना , बिना किसी रोकथाम के और बिना किसी रिश्तेदारी के प्रतिबंध को मान्यता दिए यौन – संबंध स्थापित करना , गुफाओं में रहना , वृक्षों पर अथवा गुफाओं में अस्थायी रूप से रहना और प्रत्येक दशा में पशु जैसी प्रवृत्तियों को दर्शाना इस उपस्तर की प्रमुख विशेषताएँ हैं ।
( b ) जंगली अवस्था का मध्यस्तर – इस स्तर का आरम्भ उस समय हुआ जब मनुष्य में मछली पकड़ने तथा आग जलाने की कला आ गई । अतः कच्चा मांस खाने के बजाय शिकार को आग में भूनकर खाया जाने लगा । उद्विकासवादी विद्वानों का यह विचार है कि सामूहिक जीवन का श्रीगणेश इसी उपस्तर से हुआ और लोग छोटे – छोटे झुण्डों में रहने लगे । श्री मॉर्गन ने कुछ आस्ट्रेलियन और पालेनीशियन जनजातियों को इस अवस्था का प्रतिनिधि माना है ।
( c ) जंगली अवस्था का उच्च स्तर – जंगली अवस्था के इस अंतिम स्तर का श्रीगणेश मनुष्य द्वारा धनुष – बाण का आविष्कार किए जाने के साथ हुआ । कहा जाता है कि इस उपस्तर में पारिवारिक जीवन का भी आरंभ हो गया था , पर यौन संबंध स्थापित करने के संबंध में कोई निश्चित नियम देखने को नहीं मिलता था । सामूहिक जीवन में पहले की अपेक्षा कुछ स्थिरता इस अर्थ में देखने को मिलती है कि व्यक्ति केवल व्यक्ति न रहकर अपने को समूह का सदस्य से बदला लेता था । भी मानने लगा । इसलिए व्यक्तिगत आधार पर नहीं बल्कि सामूहिक आधार पर एक समूह दूसरे
2 . असम्य अवस्था ( Barbarian Stage ) –
जंगली अवस्था को पार करके मनुष्य ने जब अपेक्षाकृत उन्नत स्तर पर कदम रखा तो सामाजिक जीवन के उद्विकास का यह दूसरा स्तर आरम्भ हुआ । इस स्तर के भी तीन उपस्तर है जिन्हें कि इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है–
( a ) असम्य अवस्था का प्राचीनतम स्तर– मानव ने जब बर्तनों का आविष्कार किया आर उस अवागमलाना आरम्भ किया तो उसने असभ्य अवस्था के इस प्रथम उपस्तर म कदम रखा । मनुष्य का जीवन उतना ज्यादा घुमन्तू न रहा जितना का जगला अब भाखानाबदोशी की तरह एक स्थान से दसरे स्थान पर जाकर बसने का प्रवृत्ति व आवश्यकता पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुई । इसी स्तर में सम्पत्ति की धारणा का उदय हुआ , फिर भाव्या का अपक्षा समूह का महत्त्व अधिक बना रहा । समूहों के आधार पर ही एक समूह दूसर समूह पर आक्रमण करता था और ऐसे आक्रमण का उद्देश्य हथियार . स्त्रियों तथा बर्तनों को प्राप्त करना होता था । इस स्तर में परिवार का स्वरूप भी पहले से कुछ स्पष्ट हो गया था । पर पारवार के सभी लोगों में यौन – संबंध स्थापित करने की स्वतन्त्रता होने के कारण बच्चों के पितृत्व का निर्धारण बहुत ही कठिन था ।
( b ) असभ्य अवस्था का मध्य स्तर– इस अवस्था में मानव ने उस समय प्रवेश किया जबकि उसे पशुओं को पालने तथा पौधों को उगाने की कला आ गई । जो लोग पशु – पालन के द्वारा अपनी जीविका निर्वाह करते थे उनके लिए चरागाह की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान में जाना आवश्यक था । अतः घमन्त जीवन का पूर्णतया अन्त नहीं हुआ । फिर भी जो लोग पौधों को उगाते थे . अर्थात कृषि का काम करते थे उनके घुमन्तु जीवन में बहुत कमी हो गयी । निजी सम्पत्ति की धारणा और भी स्पष्ट रूप से सामने आई और समाज में व्यक्ति की स्थिति सम्पत्ति के आधार पर भी निश्चित होने लगी । वस्तु विनिमय की प्रथा प्रचलित हुई और इसके अन्तर्गत अदला बदली के द्वारा लोग आपस में चीजों का विनिमय करने लगे । परिवार का रूप भी और स्पष्ट हो गया और परिवार के सदस्यों में यौन संबंध स्थापित करने के संबंध में कुछ निश्चित नियमों का विकास हुआ ।
( c ) असभ्य अवस्था का उच्च स्तर– जब मनुष्य लोहे को पिघलाकर उससे लोहे के बर्तन तथा औजार बनाना आ गया तो उसका इस स्तर में प्रवेश हुआ । रोज के काम आने वाले कई किस्मों के बर्तन और नोकदार व तीखे हथियारों का निर्माण होना लगा । इस उपस्तर में समाज में श्रम प्रणाली को स्त्री पुरुष के भेद के आधार पर लागू किया गया । स्त्रियाँ घर गृहस्थी व बच्चों के पालन पोषण से संबंधित कार्यों को करती थी जबकि पुरुष घर से बाहर रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करता था । इस स्तर की प्रमुख विशेषता सम्पत्ति के अन्तर्गत स्त्रियों को सम्मिलित कर लेना और छोटे – छोटे गणराज्यों की स्थापना थी । चूँकि धातु को गलाने और उसको प्रयोग में लाने का ज्ञान इस स्तर की सबसे बड़ी उपलब्धि थी । इस कारण इसे घातु युग के नाम से भी पुकारा जाता है ।
3 . सभ्य अवस्था ( Civilised Stage ) –
समाज या संस्कृति के उद्विकास के क्रम में यह अन्तिम स्तर है और परम प्राप्ति भी । श्री मॉर्गन ने इस स्तर के तीन उपस्तरों का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है –
(a) सभ्य अवस्था का प्रचीनतम स्तर– मानव का इस अवस्था में प्रवेश तब हुआ जब अक्षरों को लिखने और पढ़ने की कला का श्रीगणेश हुआ । वास्तव में अक्षरों को लिखने और पढ़ने की क्षमता का विकास होने से सांस्कृतिक परम्परा को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को हस्तांतरित करना अब बहुत सरल हो गया । इस अवस्था में परिवार का रूप बहुत ही स्पष्ट होता है और यौन संबंधों का नियमन व नियंत्रण इस युग की एक बहुत बड़ी विशेषता मानी जाती है । कृषि कार्य और उद्योग – धन्धों में परिवार का महत्त्व इस अवस्था में भी बना रहता है । फिर भी नगरों का विकास व्यापार और वाणिज्य का विस्तार एवं कला और शिल्प – कला में उन्नति इस युग को सभ्य युग कहलाने की योग्यता प्रदान करती है ।
( b ) सभ्य अवस्था का मध्य स्तर– इस अवस्था में आर्थिक आर सामाजिक संगठन बन व्यवस्थित रूप में सामने आता है । इसे सांस्कतिक प्रगति का युग भी कहा जा सकता है । सस्कृति के प्रत्येक पक्ष में इस स्तर पर उन्नति देखने को मिलती है । आर्थिक क्रियाओं का उल्लेखनीय आधार बन जाता है । राजनैतिक संगठन का और विकास होता है और कार्यक्षेत्र का विकास साथ साथ होता जाता है । सरकारी कानून और भी व्यवस्थित रूप में और लागू किए जाते हैं जिससे कि केवल जान और माल का ही नहीं , अधिकारों की भी सा होती है ।
( c ) सभ्य अवस्था का उच्च स्तर– इस उपस्तर का आरम्भ 19 वी शताब्दी के उत्तरार्टी माना जाता है जबकि आधनिक सभ्य और जटिल समाज का उदय होता हा इस स्तर की सबसे बड़ी विशेषता औयोगीकरण और नगरीकरण की तीव्र गति है । इस स्तर में न केवल बड़े – बड़े ना का विकास होता है बल्कि बड़े – बड़े मिल कारखानों आदि में बहुत बड़े पैमाने पर उत्पादन कार्य किया जाता है और साथ ही श्रम विभाजन और विशेषीकरण की प्रणाली को भी बहुत विस्तार में लागू किया जाता है । उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत अधिकार इस स्तर के अनेक समाजों की एक मुख्य विशेषता बनी हुई है जिसके फलस्वरूप पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का चरम रूप सामने आया है । साथ ही कछ समाजों में इन उत्पादन के साधनों पर समाज या राज्य का पर्ण या आंशिक अधिकार भी देखने को मिलता है । राजनैतिक संगठन भी बहुत ही उन्नत स्तर पर पहुँच गया है और प्रजातंत्रात्मक सिद्धांतों को स्वीकार करते हुए प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के द्वारा जनता के प्रतिनिधियों द्वारा सरकार के गठन पर बल दिया जाता है । राज्य को एक कल्याणकारी संस्था माना जाता है जिसका कि प्रमुख कार्य सभी नागरिकों के लिए अधिकतम सुख – सुविधाओं की व्यवस्था करना है । ज्ञान , विज्ञान , कला , दर्शन सभी दिशाओं में उल्लेखनीय प्रगति होती है । पर सभी का उद्देश्य बहुत कुछ भौतिकवादी है । आज विश्व के अधिकतर देश सभ्य अवस्था के चरण में ही है।
केवल समाज और संस्कृति का ही नहीं बल्कि आर्थिक जीवन , परिवार आदि के भी उद्विकास के विभिन्न स्तरों का उल्लेख विद्वानों ने किया है । अब हम उन्हीं के विषय में संक्षेप में विवेचना करेंगे ।
परिवार के उविकास के स्तर :
श्री मॉर्गन ने ऐसी पाँच अवस्थाओं का वर्णन किया है जिनको कि पार करके परिवार अपनी वर्तमान स्थिति पर पहुंचा है । ये पाँच अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं–
1 . समान रुधिर वाले परिवार ( Consanguine Family ) – इस प्रकार के परिवार मानव जीवन के प्रारम्भिक स्तर पर पाये जाते हैं । इनमें केवल रक्त – संबंधी ही रहते थे और रक्त का कोई भी संकोच किए बिना भाई और बहनों तक में परस्पर विवाह होते थे ।
2 . समह परिवार (Punalunant Family ) – उविकास की दूसरी अवस्था में इस प्रका के परिवार पाए जाते थे । इसमें एक परिवार के भाइयों का विवाह दूसरे परिवार की सब बहन के साथ हआ करता था परन्तु उनमें आपस में यौन संबंध अनिश्चित था अर्थात् प्रत्येक पुरु ” सभी स्त्रियों का पति होता था और प्रत्येक स्त्री सभी पुरुषों की पत्नी होती थी ।
3 . सिडैस्मियन परिवार ( Syndasmian Family ) – इस प्रकार में यद्यपि एक पुरुष एक ही स्त्री के साथ विवाह होता था , फिर भी उसी परिवार में व्हायी हई अन्य स्त्रियों साथ यौन – संबंध स्थापित करने की प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती थी ।
4 . पितृसत्तात्मक परिवार ( Patriarchal Family ) – यह परिवार के उदविकास में चौथीं । पुरुष का एकाधिपत्य होता था । वह एक से अधिक स्त्रियों के साथ विवाह करता था और उन सबके साथ यौन संबंध रखता था । परिवार ( Monogamous Family ) – इसमें एक समय में एक पुरुष की एक पली होती है । यही विवाह और परिवार का वर्तमान रूप है । कार श्री आगस्त कॉम्टे का कथन है कि धर्म के विकास में तीन स्पष्ट स्तर होते हैं और वे हैं
1 . जीवितसत्तावाद
2 . बहुदेवत्ववाद एवं
3 . अद्वैतवाद ।
इसी प्रकार अन्य विद्वानों ने भी मानव – समाज तथा संस्कृति से संबंधित विभिन्न पक्षों की उदावकासीय अवस्थाओं का वर्णन प्रस्तुत किया है । उदाहरण के लिए , श्री हड्डन ने कला के क्षेत्र में होने वाली उदविकासीय प्रक्रिया का वर्णन किया है . श्री मॉरगन ने परिवार के उविकास । का तथा श्री टायलर ने धर्म के क्षेत्र में उविकासीय अवस्थाओं का वर्णन प्रस्तुत किया है ।
आर्थिक जीवन के उद्विकास के स्तर :
उद्विकासीय सिद्धांत के समर्थकों का कहना है कि मानव के आर्थिक जीवन का उद्विकास निम्नलिखित चार प्रमुख स्तरों में से होकर गुजरा है–
1.शिकार करने और भोजन इकट्ठा करने का स्तर ( Hunting and food gathering Stage ) – यह मानव जीवन के आर्थिक पहलू का प्राथमिक व प्रारम्भिक स्तर है । इस स्तर में आर्थिक संगठन न केवल अव्यवस्थित है , बल्कि अस्पष्ट और अनिश्चित भी । इसका सर्वप्रमुख कारण यह है कि इस स्तर में मानव भोजन का उत्पादन नहीं , संकलन करता है । इस स्तर में मानव – जीवन सम्पूर्णतया प्रकृति की गोद में पलने वाला होता है । मानव जंगलों में अपना जीवन बिताता है और उदर – पूर्ति करके किसी प्रकार जीवित रहना ही उसके लिए पर्याप्त होता है । उदर – पूर्ति के लिए आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करने का कोई भी ज्ञान मानव को नहीं होता , इसलिए उदर – पूर्ति शिकार करके और फल , मूल , कन्द और शहद इकट्ठा करके की जाती है । परन्तु जीवित रहने के ये साधन अत्यधिक कठिनता से प्राप्त होते हैं । पशुओं का शिकार करने , मछली पकड़ने या कन्द , मूल , फल , शाक – पात आदि के संकलन के लिए लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान को भटकना पड़ता है क्योंकि शिकार और फल – फूल का एक स्थान से सदैव प्राप्त होना असंभव है । फलतः सामाजिक और आर्थिक जीवन अत्यधिक अनिश्चित , अस्थिर व घमन्त होता है । पूर्णतया भौगोलिक तथा प्राकृतिक साधनों पर निर्भर रहते हुए इन लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान को घूम – घूमकर जीवित रहने के लिए भोजन को इकट्ठा करना पड़ता है । अगर भौगोलिक परिस्थितियाँ अनुकूल हैं , तो उन्हें भोजन सरलता से मिल जाता है , पर यदि प्रतिकल है तो आदिम मानव के सामने कोई दूसरा रास्ता भी नहीं होता है , उसके सिवा कि प्रकृति जितना भी देती है या जिस रूप में देती उतना और उसी रूप में जीवन – यापन के साधनों को प्राप्त करें । चूँकि ऐसे समाजों में जीवित रहने के ये साधन ( शिकार , फल – मूल , शाक – पात आदि ) अत्यधिक सीमित मात्रा में उपलब्ध तथा कठिनता से प्राप्त होते हैं , इस कारण यहाँ जीवित रहने के लिए संघर्ष भी उग्र और भयंकर होता है ।
2.पशुपालन या चरागाह का स्तर ( Pastrol Stage ) – उपरोक्त स्थिति में पशुपालन के स्तर में आदिम समाजों ने तब कदम रखा जब मानव ने यह अनुभव किया कि पशुओं को मारने के बजाय अगर उन्हें पाला जाए तो उनसे जीवित रहने के अधिक साधन प्राप्त क्योंकि उन पशुओं से उनके बच्चे भी प्राप्त होंगे और साथ ही दूध भी । इससे आर्थिक जीवन प्रथम स्तर की तुलना में अधिक निश्चित और स्थिर हुआ क्योंकि लेकर रोज स्थान परिवर्तित करना मुश्किल होता है इसलिए एक स्थान पर जब तक पशओं के खाने – पीने की चीजें अर्थात् चरागाह मिल जाते हैं , तब तक स्थान परिवर्तन विशेष आवश्यकता नहीं होती । परन्तु घास आदि समाप्त होने पर दूसरी चरागाह की वे दूसरी जगह चले जाते हैं ।
संसार में शायद ही कोई ऐसा समाज है जहाँ कि पशुपालन का काम नहीं होता है । समाज किसी न किसी रूप में पशुओं को पालता है । प्रारम्भिक स्तर में इन पशुओं को उनके मांस को खाने के काम में , खाल को पहनने के काम में और हड्डियों को विभिल के आभूषण और अस्त्र बनाने के काम में लाया जाता है । टुण्ड्रा प्रदेश बारह महीने बर्षा रहता है , फिर भी प्रकृति ने यहाँ के लोगों को समूह वाले जानवर जैसे सफेद भाल लोमड़ी , खरगोश , मस्कबैल , रेनडियर आदि प्रदान किए हैं । वहाँ के लोग इन पशओं की के वस्त्र पहनते हैं । वे समूर के दास्ताने और लम्चे जूते जिनमें भीतर समूर लगी होती है । हैं । उसी प्रकार संसार में ऐसे अनेक आदिम समाज हैं जिनमें कि पशुओं को पालने । प्रमुख उद्देश्य उनके दूध को या दूध से बनी अन्य चीजों को भोजन के एक उत्तम साधन में प्राप्त करना होता है । साथ ही , ऐसे भी जनजातीय समाज हैं जिनमें लोग कृषि के पशुओं को व्यवहार में लाने के लिए उन्हें पालते हैं ।
3 . कृषि – स्तर ( Agricultural Stage ) – इस स्तर का प्रारम्भ तब होता है जब मानना वीज और पौधे उगाने की कला आ गई । फलों का बाग लगाने या खेती करने की इस आर्थिक जीवन को पहले से अधिक स्थिर बनाया । यद्यपि जनजातियों के लिए बगीचा फल उत्पन्न करना अथवा खेती द्वारा अनाज प्राप्त करना भा प्राकृतिक दशाओं पर अत्याशि और इस स्तर में शिकार करने व फल मूल इकट्ठा करने तथा पशुपालन की स्थिति से भोजन अधिक नियमित रूप से प्राप्त होने लगा । साथ ही , फलों के बाग लगाना या खेती कर ऐसी आर्थिक क्रिया है जो कि स्वभावतः ही मनुस्य को जमीन से बाँध देती है । इसका यह है कि इस स्तर में मनुष्यों को एक स्थान पर घर बसाकर स्थायी रूप से आर्थिक कि को करने का अवसर प्राप्त हुआ । भोजन की पूर्ति बढ़ी और उसके साथ – साथ जनसंख्या इससे आर्थिक अन्तःक्रियाओं का क्षेत्र भी विस्तृत हुआ और विभिन्न समाजों के बीच आर्शिता संबंध पनपा ।
4 .प्रौद्योगिक स्तर ( TechnoilogicalStage ) – यह स्तर विशेष रूप से मशीनों के आविष्कार क बाद प्रारम्भ हआ । मशीनों के आविष्कार से उत्पादन कार्य मशीनों के द्वारा होने लगा । इसके फलस्वरूप बड़ी – बड़ी मिलों और कारखानों में बड़े पैमाने पर उत्पादन – कार्य होने लगा और आधि कि जीवन का क्षेत्र प्रान्त और देश की सीमाओं को पार करके अन्तर्राष्ट्रीय हो गया । यहाँ तक कि खेती के कार्यों में भी मशीनों का प्रयोग हुआ । आर्थिक जीवन का यही वर्तमान स्तर है ।
ईमाइल दुर्शीम : सामाजिक परिवर्तन ( 1858 – 1917 ) :
फ्रांसीसी विचारक इमाईल दुर्शीम ( 1858 – 1917 ) ने अपनी पुस्तक ” डिविजन ऑफ लेबर इन सोसायटी ( 1893 ) में जो कि उनकी पहली कृति है – श्रम – विभाजन को समाजशास्त्रीय ढंग । से प्रस्तुत किया है । अपने इस शोध ग्रंथ में उन्होंने तुलनात्मक वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया है । दुर्शीम ने समाज में श्रम विभाजन के व्यक्तिगत , आर्थिक तथा मनोवैज्ञानिक कारकों का खण्डन किया है । इनके अनसार श्रम विभाजन एक सामाजिक ” नक अनुसार श्रम विभाजन एक सामाजिक तथ्य है अतः इसकी व्याख्या अन्य सामाजिक तथ्य के आधार पर ही की स्य क आधार पर ही की जा सकती है । इस पुस्तक की केन्द्रीय समस्या समाज का सया व्यक्ति और समाज के संबंध हैं । इन्होंने श्रम – विभाजनको तीन दृष्टि से देखा है–
(i)यह हमारी किन आवश्यकता की पूर्ति करता है ?
(ii) इनके कारण कौन – कौन से हैं ?
(iii) क्या यह किसी असमानता या विचलन को दर्शाता है ?
उनके अनुसार सामाजिक परिवर्तन का मूल कारण श्रम – विभाजन है तथा श्रम – विभाजन के निम्नलिखित दो कारण हैं ।
1.जनसंख्या में वृद्धि एवं
2.समाज का विस्तार
श्रम– विभाजन की गतिशीलता को दर्शन के लिए उन्होंने उदविकासीय आधार पर निम्नलिखित दो प्रकार के संगठन की चर्चा की है ।
1.यांत्रिक संगठन (Mechanical Solidarity) एवं
2.सावयवी संगठन । (Organic Solidarity)
इन दोनों समाजों के संदर्भ में दुर्खीम अभिरुचि इन कारकों एवं चरों को जानने की है जिनके कारण इनके समाजों की एकता या सदृढ़ता बनी रहती है ।
Durkheim के अनसार प्रारंभिक अवस्था में लोगों की आवश्यकताएँ कम एवं एकसमान थी अतः लोगों के बीच अन्तर्निर्भरता की कोई चीज नहीं थी । परन्तु जैसे जैसे जनसंख्या में वृद्धि होती , है लोग अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए विभिन्न पेशों को अपनाते हैं । फलस्वरूप श्रम विभाजन स्पष्ट होने लगता है । श्रम – विभाजन की इसी गतिशीलता के कारण समाज में यांत्रिक संगठन की जगह सावयवी संगठन आया । यांत्रिक एवं सावयवी संगठन की विभिन्नताओं को निम्नलिखित रूप से देखा जा सकता है।
1.यांत्रिक समाज में भेद – भाव नहीं होता है जबकि सावयवी समाज में पर्याप्त विभेदीकरण होता है ।
2.यांत्रिक समाज में व्यक्तिवाद का अभाव होता है जबकि सावयवी समाज में वैयक्तिक चेतना को स्वतन्त्रता होती है ।
3.यांत्रिक समाज की सुदृढ़ता ” सामूहिक चेतना ” द्वारा तथा सावयवी समाज की सुदृढ़ता “ सामूहिक प्रतिनिधान ” द्वारा बनी रहती है ।
4.यांत्रिक समाज में “ दमनकारी कानूनों ” होता है जबकि सावयवी समाज में ‘ प्रतिकारी कानून ‘ होता है ।
5.यांत्रिक समाज की सुदृढ़ता नैतिकता पर आधारित होती है जबकि सावयवी समाज की सुदृढ़ता अनुबन्ध पर निर्भर करता है ।
6.यांत्रिक समाज अपने सदस्यों को प्रत्यक्ष रूप से जोड़ता है , जबकि सावयवी समाज में यह जोड़ या एक प्रकार्यात्मक निर्भरता द्वारा आती है ।
7.यांत्रिक समाज की संरचना सम्बद्धता में बंधी होती है , जबकि सावयवी समाज की व्यवस्था खण्डात्मक होती है ।
8.यांत्रिक समाज सरल होती है जबकि सावयवी समाज जटिल होता है ।
9.यांत्रिक समाज में संरचना प्रायः सामान्य होती है जबकि सावयवी समाज में संरचना असामान्य भी होती है ।
आलोचना – गैबरियल टार्ड ने कहा है कि यद्यपि दुर्शीम इसे एक सामाजिक तथा है , तथा इसका कारण भी सामाजिक तथ्य है पर अपने विश्लेषण में श्रम विभाजन का जनसंख्या वृद्धि को मानते हैं , जो एक जैविकीय तथ्य है ।
हरबर्ट स्पेन्सर का योगदान ( 1820 – 1902 ) :
19वीं शदाब्दी के समस्त समाजशास्त्रियों की रचनाओं का मूल्यांकन करने से हमे स्पष्ट हो है कि सामाजिक परिवर्तन का अध्ययन समाजशास्त्रियों का केन्द्र बिन्दु रहा है । इस सामारि परिवर्तन की व्याख्या के क्रम में जो सबसे पहला प्रारूप ( मॉडल ) प्रयोग में लाया गया है । ” उद्विकासीय प्रारूप ” ही था ।
बाद में conflict या cylical या Consensus Model ( सहमति प्रारूप ) के आधार . . सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने का प्रयास किया गया । सर्वप्रथम ब्रिटिश वैज्ञानिक ना डार्विन ने अपनी पुस्तक ” The Origin of Species में वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर जी जगत में उद्विकासीय आधार पर व्याख्या प्रदान की । इससे प्रभावित होकर अनेक समाजशास्त्रियां जैसे हरबर्ट स्पेन्सर , लेविस मॉर्गन , एल०टी० हॉवहाउस आदि ने सामाजिक परिवर्तन की व्यास उविकास के आधार पर करने का प्रयास किया।
उदविकास दरअसल एक ऐसी प्रक्रिया है जो आन्तरिक कारकों के चलते ह ती है । दास कारकों या मानवीय क्रियाओं में इसका कोई योगदान नहीं होता । यह एक स्वतः चलनेवाली प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया के तहत कोई भी चीज सरलता से जटिलता की तरफ उन्मुख होती है और इस बीच कई स्तरों से गुजरती है । यह धीरे – धीरे पर लगातार चलने वाली प्रक्रिया है । दस तरह स्पष्ट है कि उद्विकास एक वैज्ञानिक अवधारणा है और साथ ही साथ सार्वभौमिक है । उद्विकासीय प्रक्रिया मूलतः दो मान्यताओं पर धारित है।
(a) संस्कृति की समानान्तर वृद्धि
(b) मानव की मानसिक एकता
इन्हीं दो प्रमुख अवधारणाओं के चलते उद्विकासीय प्रक्रिया को एक सार्वभौमिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया गया है ।
19वीं शदी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक विचारधारा को श्रेष्ठ रीति से प्रस्तुत करनेवालों में H . Spencer का नाम उल्लेखनीय है । इन्होंने समाजशास्त्र की उस रूप रेखा को निखारा एवं उपयोगी बनाया जिसे आगस्त कॉम्ट ने प्रस्तुत किया था । हालाँकि Spencer के अनुसार The First Principle लिखते समय तक उसने कॉस्ट को पढ़ा भी नहीं था । Comte and Spencer दोनों ने समाजशास्त्र को दर्शन के आधार पर खण्डन किया और इसी से प्रेरित होकर कॉस्ट ने समाजशास्त्र की अवधारणा स्पष्ट करने से पहले Positive Philosphy लिखी और Spencer ने Synthetic Philosphy की रचना की । Spencer के प्रमुख सिद्धांतों में समाज के सावयवी सिद्धांत एवं समाज का उद्विकासीय सिद्धांत प्रमुख है । उद्विकास की अवधारणा Spencer से पहले Charles Darwin दे चुके थे मगर उन्होंने इसे सिर्फ जीव जगत पर ही लागू किया था । Spencer ने उद्विकास के विस्तृत अर्थ को अपनाया और कहा कि उद्विकास का नियम दृश्य जगत के सभी वस्तुओं पर लागू हो सकता है । विकासवाद के नियमों का प्रदिपादन Spencer ने अपनी पुस्तक The First Principles के द्वितीय भागों में किया है । Spencer के अनुसार हमारा भौतिक संसार बहुत ही जटिल है । इसमें पदार्थ एक दूसरे से इस प्रकार मिले हुए हैं कि रासायनिक पदार्थों की भाँति उनका विश्लेषण किया जाना संभव नहीं है ।
अत: जगत के विश्लेषण के financer नकासा निकाला जिससे विश्लषण के साथ उसकी समस्याओं का समाधान सरल हो सकाspeneart समाज के विकास के लिए । लगारीको यात लकही बल्कि उनका कहना है कि समाज तो Univerie काहीएक अंग । जता सामाजिक उपविकासमा यही नियम कार्य करते जो सार्वभौमिक उदविकास में ।
सार्वभौमिक पदविकास की चर्चा करते spencirr का कहना है कि प्रत्येक विचारक पहले कारकों की खोज करता है । Spencer के अनुसार यह शक्ति है , जिसके दो स्वम्प
( a ) पदार्य एवं ( b) गति है–
शक्ति ( बल ) का अपना रूप अजातकाअत : Spencer के अनुसार खोजना इसे धर्म का काम है । मगर इनका भौतिक स्वरूपात है जिसे योजना विज्ञान का काम है।
Spencer के अनुसार जब मूल कारण शक्ति (बल) क्रियाशील हो जाता है तो पदार्थ तथा गति में विकास की प्रक्रिया शुरू हो जाती है । पेन्सर भौतिक एवं यांत्रिक
(Machanics) के नियमों के आधार पर उदविकासीय सिद्धांत को समझने के लिए तीन मालिक एवं चार गौण
(Secondary) नियमों की चर्चा की ।
मौलिक नियमों की चर्चा करते हुए Spencer ने कहा कि प्रथम नियम ‘ बल के अस्तित्व का नियम ‘ (Law of persistence of force) है । इसका अर्थ यह होता है कि आरम्भ से ही ब्राह्मण्ड ( Universe ) में एक बल ( Force ) पाया जाता है और उसी बल के कारण सभी कुछ गतिमान होते हैं । स्पेन्सर का कहना है कि उदविकास के लिए यह आवश्यक है कि वह आन्तरिक बल के कारण हो और आरम्भ से ही एक बल की उपस्थिति स्वीकार न कर ली जाय तो फिर ब्राह्मण्ड में होने वाले परिवर्तनों को उदविकास नहीं कहा जा सकता.
दूसरे नियम की चर्चा करते हुए , स्पेन्सर ने ” गति को निरंतरता का नियम ‘ ( Law of continuty of motion ) की व्याख्या की है । स्पेन्सर के अनुसार आरम्भ से ही Universe में एक Force रहने के कारण जो गति उत्पन्न होती है वह लगातार कायम रहती है क्योंकि उद्विकासीय प्रक्रिया के लिए लगातार गति होना आवश्यक है ।
तीसरे नियम की चर्चा करते हुए उसने ( Law of Indespensible of Matter ) ( पदार्थ की नश्वरता नियम ) कही है । स्पेन्सर के अनुसार ब्रह्माण्ड में जो Fo rce रहता है उसके फलस्वरूप पदार्थ ( Matter ) में परिवर्तन आता है मगर पदार्थ सिर्फ अपने ( Internal Composition ) आंतरिक संरचना को ही बदलता है वह समाप्त नहीं होता । इस पर पर्यावरण का असर पड़ भी सकता है और नहीं भी । अतः इनके अनुसार पदार्थ अविनाशी है । सिर्फ यह अपना स्वरूप बदलता है ।
इन मौलिक नियमों के अलावा स्पेन्सर ने चार द्वितीयक नियम ( Secondary Laws ) भी दिए जो मूलतः Fundamental Laws पर ही आधारित हैं ।
पहले नियमों की चर्चा इन्हों ( Law of Uniformity of Law ) नियमों की समानता का नियम के रूप में की । स्पेन्सर के अनुसार अनेक प्रकार के Force , Universe में काम करते हैं जिनके बीच एक समानता ( Equilibrium ) पायी जाती है । तात्पर्य यह है कि Force एक दूसरे पर प्रभाव अवश्य डालते हैं मगर उससे Universe के System में ( ब्रह्माण्ड की व्यवस्था ) बाधा उपस्थित नहीं होती है । संसार में सर्वत्र एक ही नियम है । वस्तुतः जो भिन्न – भिन्न दिखते हैं तत्वतः वे एक ही नियम के विभिन्न रूप हैं । अर्थात नियम केवल बदलता है उसकी आत्मा एक ही रहती है ।
दूसरा गौण नियम हस्तांतरण अनुरूपता का नियम ( Law of Transformation and Equivalence ) का है । इस नियम के अनुसार किसी भी Force को बर्वाद नहीं किया जा
सकता बल्कि हमेशा एक Force किसी दूसरे Force में परिवर्तित हो जाता है । यानि पदार्थ का नाश नहीं होता उसी प्रकार शक्ति का भी नाश नहीं होता ।
तीसरा गौण नियम ” अल्प अवरोधों एवं महत्तम आकर्षण का नियम” (law of least Resistence and greatest attraction ) का है । इस नियम के अनुसार प्रत्येक का में आगे बढ़ती है जहाँ उसे कम – से – कम रुकावट होती है या फिर अधिक से अधि मिलता है ।
चौथा गीण नियम ” गति की समरूपता या अदला – बदली का नियम Rhyme or alternation ) का है । इस नियम के अनुसार उद्विकास की प्रक्रिया ” गति में समरूपता नहीं पायी जाती बल्कि गति बदलती रहती है । यानी उदविका ” पदार्थ की एकरूपता ” ( Integration of matter ) की प्रक्रिया में होता है और तब am ( Disintegration ) आरम्भ होती है , जहाँ गति ( Motion ) घट जाती है । इसी तरह Inte and Disintegration के आधार पर उद्विकास की प्रक्रिया को देखा जा सकता है ।
इसके अलावे स्पेन्सर ने उविकास के जैविकीय के तीनों नियमों
( a ) अस्तित्व के लिए संघर्ष ( Struggle for existence )
( b ) योग्यता का अस्तित्व ( Survival of fittest ) तथा
( c ) प्राकृतिक चयन ( Natural Selection )
के आधार पर उद्विकास की परिभाषा देते हुए लिखा ” Evolution is an integration of matter and concommitant dissipati . of motion , during which the matter passes from an indefinite , incoheron homogenity to definite coherent heterogenity and during which the retains motion undergoes a parallel transformation ” . स्पेन्सर के इस कथन से स्पष्ट है कि प्रारम्भ में प्रत्येक पदार्थ एक अनिश्चित , असम्बत समानता की स्थिति में होता है अर्थात् उसके विभिन्न अंग इस प्रकार एक – दूसरे से घुले – मिले होते हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है और न ही उसका कोई निश्चित स्वरूप होता है । अर्थात् सभी पदार्थ आरम्भ में एक – एक स्वरूप ही न ढ़ेर मात ्र होता है । परन्तु यह दे शक्तिमान होता है और उसमें गति भी होती है । फवस्वरूप समय बितने के साथ – साथ धीरे – धीरे । पदार्थ का स्वरूप बदलता जाता है और उसके विभिन्न अंग – प्रत्यंग स्पष्ट एवं पृथक होने लगते बना रहता है । हैं । लेकिन इस पृथकता एवं भिन्नता के होते हुए भी विभिन्न अंगों में सम्बद्धता या अन्तःसंबंध
सामाजिक उद्विकास की चर्चा करते हुए स्पेन्सर ने कहा कि आरम्भ में मानव का कोई संगठन नहीं था । मनुष्य एक जगह से दूसरी जगह भोजन एवं वस्त्र की खोज में घूमता रहता था । पर धीरे – धीरे जनसंख्या बढ़ी तो भोजन की समस्या उत्पन्न हुई । साधन कम रहने के कारण लोगों में युद्ध की प्रवृत्ति उठी । परिणामतः अस्तित्व के लिए संघर्ष ( Struggle for existence ) की समस्या उठी और टकराव होने के कारण एक समूह ने दूसरे समूह को पराजित किया । इस टकराव के फलस्वरूप दो प्रकार के भय उत्पन्न हए ।
1 . जीवितों से भय ( Fear of the living ) : राज्य की उत्पत्ति
2 . मृतकों से भय ( Fear of the dead ) धर्म की उत्पत्ति
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
INTRODUCTION TO SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2kHe1iFMwct0QNJUR_bRCw
SOCIAL CHANGE: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R32rSjP_FRX8WfdjINfujwJ
SOCIAL PROBLEMS: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R0LaTcYAYtPZO4F8ZEh79Fl
INDIAN SOCIETY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R1cT4sEGOdNGRLB7u4Ly05x
SOCIAL THOUGHT: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2OD8O3BixFBOF13rVr75zW
RURAL SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R0XA5flVouraVF5f_rEMKm_
INDIAN SOCIOLOGICAL THOUGHT: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R1UnrT9Z6yi6D16tt6ZCF9H
स्पेन्सर के अनुसार इस टकराव में पहले जबतक मनुष्य एक स्थान से दूसरे स्थान तक इधर – उधर घूमता था वह खानाबदोश ( Nomadic Stage ) था पर जब बार – बार टकराव होने लगे तब आदती संघर्ष (Habitual Conflict) आया परिणामस्वरूप सैनिकत्व (Militarism ) का विकास हुआ ।
स्पन्सर के अनुसार इस टकराव के कारण जो दो प्रकार , के भय उत्पन्न हुए उसस राज्य रूपी संस्था एवं धर्म का विकास हुआ । उनका कहना है कि मृतकों से भय के फलस्वरूप धार्मिक संस्था विकसित हुई क्योंकि जो लोग पराजित होते थे उनके अन्दर यह विश्वास आया कि उनके हार का कारण यह है कि उनके पूर्वजों की आत्मा उनसे नाराज थी और दूसरी तरफ जो लोग जितते थे उन्हें यह भय उत्पन्न हुआ कि उनके पूर्वजों की आत्मा उनसे प्रसन्न थी । इसलिए वे जीते . अगर वे उनकी पूजा करना शरू कर दें तो वे हमेशा प्रसन्न रहेंगे और उनकी बराबर जीत होती रहेगी । हारने वालों ने भी पूर्वजों की पूजा इसलिए आरम्भ की उनके पूर्वज खुश हो जायग तब वे भी जीत सकते हैं । फलस्वरूप , दोनों ही समहों ने अपने पूर्वजों की आत्मा की पूजा शुरू कर दाजिससे आगे चलकर धार्मिक संस्थाओं का विकास हुआ । उसी प्रकार जीवितों से भय ( Fear of Living ) से राज्य रूपी संस्था का विकास हआ । दो समूहों में टकराव के कारण जो समूह पराजित होता था उसे जीतने वाले समूह से भय होता था कि वह उसे कहीं जान से न मार डाले और जीतने वाले को हारनेवाले से यह भय होता था कि कहीं हारनेवाला पुनः उसे हराकर या मारकर उस पर नियंत्रण न कर लें । अतः जीतने वाले समूहों ने हारनेवाले समूहों को नियत्रण में रखने के लिए कुछ नियम बनाए । इन्हीं नियमों के फलस्वरूप समाज में असमानता के साथ ही साथ सामाजिक स्तरीकरण का भी सूत्रपात हुआ ।
आगे चर्चा करते हुए स्पेन्सर ने मत दिया है कि राज्य संस्था बनने के फलस्वरूप राज्यों के बीच टकराव होने लगा और इस आधार पर बडे – बडे राज्यों की स्थापना होने लगी । जब राज्य बड़ा हुआ तो आबादी बढ़ी और इस बढ़ती आबादी के साथ – साथ यह आवश्यक हो गया कि उत्पादन के तरफ ध्यान दिया जाय । परन्तु अब तक सैनिकत्व ( Militarism ) में कोई सभावना नहीं थी । अतः धीरे – धीरे औद्योगिक अवस्था ( Industrial Stage ) आयी । इस अवस्था में बड़ी – बड़ी फैक्ट्री मिल एवं कल – कारखाने खलने लगे जहाँ भारी मात्रा में उत्पादन आरम्भ हुआ । सैनिकत्व की अवस्था में लोगों को जो स्वतंत्रता नहीं थी वह इस अवस्था में प्राप्त होने लगी क्योंकि सामाजिक गतिशीलता ( Social Mobility ) बढ़ी जिससे लोगों के विचारों , मूल्यों आदि में परिवर्तन आने लगे । आदती संघर्ष ( Habitual conflict ) की जगह आदती शांति विकसित ( Habitual peace develope ) की ओर लोग मित्रवत् शांतिपूर्ण ढंग से रहने लगे ।
स्पेन्सर का मत है कि शांतिपूर्ण समाज में दमन की नीति समाप्त हो जाती है और वैयक्तिक क्रियाशीलता बढ़ जाती है । सामाजिक संगठन प्लास्टिक की भाँति हो जाता है जिसमें व्यक्ति एक जगह से दूसरी जगह जा सकते हैं पर ‘ सामाजिक संगठन ‘ ( Social Cohesion ) के तत्व मौजूद रहते हैं । यद्यपि स्पेन्सर ने अपने सिद्धांत को व्यवस्थित ढंग से नियमों के आधार पर समझने का प्रयास किया है फिर भी समाजशास्त्रियों ने इसकी कई त्रुटियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है ।
Keller ( केलर ) ने स्पेन्सर के इस सिद्धांत की आलोचना करते हुए कहा है कि स्पेन्सर का यह सिद्धांत विज्ञान पर आधारित न होकर दर्शन पर आधारित है । Don Martindale ने भी इस विचार का समर्थन किया है ।
Spencer ने निरीक्षण , प्रमाणीकरण ( Verification ) तथा तर्क ( logic ) की सीमा को पार कर यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है । अतः Sorokin का कहना है कि यह सिद्धांत बिल्कुल ही अवैज्ञानिक है । स्पेन्सर ने जिन तीन स्तरों की चर्चा की है वे वैज्ञानिक मतों पर आधारित नहीं हैं । अतः तीन से अधिक या कम स्तरों की भी चर्चा की जा सकती है
मेकाइवर एवं पेज ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि समाज में परिवर्तन केवल आन्तरिक कारकों के चलते ही नहीं होता बल्कि इसमें बाह्य कारकों ( External Factors ) का भी योगदान होता है । पर स्पेन्सर सहित सभी उदविकासवादियों ने बाह्य कारकों की भूमिका को नकार दिया है जो न्यायोन्वित नहीं है ।
Comte, Morgan की तरह स्पेन्सर में भी एकरेखीय , सामाजिक परिवर्तन की चर्चा की । जब आलोचकों का कहना है कि समाज में ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट है कि प्रगति
(Progress) के साथ साथ अवनति ( Rearess ) भी होते हैं । यानि परिवर्तन विभिन्न दिशाओं में होती है ।
सामाजिक उविकास की वास्तविकता या आलोचना:
यह सच है कि उधिकास के सिद्धांत के प्रवर्तकों ने अपने सिद्धांतों को बड़े ही क्रमबल रूप में प्रस्तुत किया है , फिर भी समाज या सामाजिक जीवन के कुछ आधारभूत सत्य को ये बिल्कुल ही भूल गए हैं जिसके कार उनके विश्लेषण को आज अधिकतर विद्वान स्वीकार नहीं करता सामाजिक उद्विकास की वास्तविकता निम्नलिखित समालोचनाओं से स्वतः ही स्पष्ट हो जाएगी–
1 . उद्विकास सिद्धांत के प्रवर्तकों ने यह मान लेने की भूल की है कि प्रत्येक समाज के विकास में एक ही नियम लाग किया जा सकता है । वास्तव में प्रत्येक समाज की भौगोलिक तथा अन्य परिस्थितियाँ पृथक – पृथक होती हैं और इनका प्रभाव सामाजिक विकास की प्रक्रिया ओं पर पड़ना स्वाभाविक है । अतः यह कहना शायद गलत होगा कि परिस्थितियां अलग – अलग होते हुए भी प्रत्येक समाज में उविकासीय प्रक्रिया एक ही समान रही होगी l
2 . इस सिद्धांत के प्रवर्तकों का यह भी दावा गलत है कि प्रत्येक समाज में सांस्कृतिक या सामाजिक विकास के विभिन्न स्तर एक ही क्रम से आए हैं । आदिम समाजों के अध्ययन से यह पता चलता है कि अनेक आदिम जातियाँ ऐसी भी हैं ( जैसी उत्तरी और दक्षिणी अमेरीका की नहीं मिलता । आदिम जातियाँ ) जो खेती तो करती हैं , पर वे पशुपालन की स्थिति से गुजरी हैं – ऐसा प्रमाण नहीं मिलता l
3 . गोल्डन वीजर ( Golden Wiser ) ने लिखा है कि सामाजिक उविकासीय सिद्धांत की प्रमुख दुर्बलता यह है कि इस सिद्धांत के प्रवर्तक प्रसार के महत्त्व को भूल गए हैं । प्रसार की प्रक्रिया का अर्थ है सांस्कृतिक तत्वों का एक स्थान से दूसरे स्थान को फैलना । वास्तव में एक संस्कृति को मानने वाले लोग जैसे – जैसे दूसरी संस्कृति के सम्पर्क में आते हैं वैसे – वैसे संस्कृति का लेन – देन बढ़ता है जिसके फलस्वरूप संस्कृति का उद्विकास होता है ।
4 . इस सिद्धांत के प्रवर्तक आविष्कार के महत्त्व को भी शायद भूल जाते हैं । सामाजिक उविकास आप से आप कम होता है । आविष्कारों के फलस्वरूप ही उद्विकास की प्रक्रिया को गति मिलती है ।
5 . सर्वश्री मेकाइवर और पेज ( Mclver and Page ) का कथन है कि सामाजिक संबंध या समाज का जन्म एक जीवित प्राणी की भाँति नहीं होता । सामाजिक उदविकास में मानव का अपना प्रयल महत्त्वपूर्ण होता है , जबकि प्राणिशास्त्रीय उद्विकास में प्राकृतिक शक्तियाँ ही सब कुछ है l
6 . श्री जिन्सबर्ग ( Ginsberg ) का मत है कि ‘ यह धारणा कि उद्विकास सरल स्थिति से जटिल स्थिति की ओर होने वाल एक परिवर्तन है , एक गंभीर विवाद का विषय है । ऐसा इस कारण है कि यह आवश्यक नहीं है कि एक स्तर से दूसरे स्तर तक पहुँचने पर सामाजिक जीवन अनिवार्य रूप में अधिक जटिल हो ही जाएगा । मानव का ज्ञान और विज्ञान उसे जटिल को सरल बनाने की अधिकाधिक योग्यता देता जाता है । अतः जटिलता का बढ़ना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है । । अधिक से अधिक उसकी संभावना हो सकती है ।
निष्कर्ष : उपरोक्त विवेचना से यह स्पष्ट है कि सामाजिक उविकास को प्राणिशास्त्रीय उद्विकास के समान मान लेना न तो उचित होगा और न ही वैज्ञानिक । फिर भी इतना अवश्य है कि उद्विकासीय सिद्धान्त के आधार पर सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों के क्रम विकास का अध्ययन करने में हमें कुछ मदद अवश्य मिली है । सर्वश्री मेकाइवर तथा पेज ने भी कहा है कि सामाजिक जीवन के विकास की विभिन्न अवस्थाओं को एक – दूसरे से पृथक करने और उनका गहन अध्ययन करने में इस सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । इस सिद्धांत ने यह दशान का प्रयत्न किया है कि समाज एक आकस्मिक घटना नहीं और न ही समाज के विभिन्न पक्षी का विकास दो – चार दिनों के बाद ही है । जिस रूप में समाज को आज हम देख रहे हैं यह एक क्रम विकास का ही निश्चित प्रतिफल है ।
सामाजिक उद्विकास की वास्तविकता या समालोचना :
सामाजिक उद्विकास के समर्थकों ने अपनी व्याख्या को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया है । लोकन इन विद्वानों ने कुछ तथ्यों की इतनी अवहेलना की है कि इस सिद्धान्त को सदैव उचित मानना एक बड़ी भूल होगी । निम्नांकित आधारों पर उदविकास के सिद्धांत की वास्तविकता को समझा जा सकता है l
1 . सर्वप्रथम मेकाइवर ( Mclver ) का समर्थन करते हुए कहा जा सकता है कि समाज और प्राणी का विकास समान रूप से नहीं होता इसलिए प्राणी के विकास में यह सिद्धांत महत्त्वपूर्ण होते हुए भी समाज के विकास को स्पष्ट नहीं करता । सामाजिक संबंध किसी आन्तरिक शक्ति से उतने प्रभावित नहीं होते जितने कि मनुष्य की चारों ओर की सामाजिक दशाओं से । इस प्रकार सामाजिक संबंधों और सामाजिक ढाँचे में होने वाले परिवर्तनों को उविकास जैसे स्वतःचालित प्रक्रिया द्वारा नहीं समझा जा सकता ।
2 . गोल्डनवीजर (Goldenweiser) का कथन है कि सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारण संस्कृति में होने वाला प्रसार ( Cultural Diffusion ) है , इसे उद्विकासीय क्रम के द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सकता ।
3 . इस सिद्धांत के समर्थकों के अनुसार सामाजिक जीवन के सभी पक्ष , सभी समाजों में , समान स्तरों में से गुजरते हुए वर्तमान स्थिति तक पहुँच सके हैं । यदि यह सच है तो क्या कारण है कि आज भिन्न – भिन्न समाजों के सामाजिक संगठन और सामाजिक ढाँचे में इतना अधिक अन्तर पाया जाता है । इससे भी यही प्रमाणित होता है कि विकास के विभिन्न स्तर सभी समाजों में एकसमान नहीं रहे हैं ।
4 . गिन्सबर्ग ( Ginsberg ) का मत है कि “ यह धारणा कि उद्विकास एक सरल स्थिति से जटिल स्थिति की ओर होने वाला परिवर्तन है , एक गंभीर विवाद का विषय है । ” वास्तव में , सामाजिक जीवन प्रत्येक परिवर्तन के साथ अनिवार्य रूप से जटिल नहीं हो जाता अधिक – से – अधिक इसकी संभावना मात्र की जा सकती है ।
5 . आज अधिकांश समाजशास्त्री इस पक्ष में हैं कि सामाजिक परिवर्तन को उदविकास के द्वारा नहीं बल्कि आविष्कारों , संचय की प्रवृत्ति , सांस्कृतिक प्रसार और अभियोजन की प्रक्रिया के आधार पर ही समझा जा सकता है ।
6 . अन्त में यह कहना भी उचित होगा कि उद्विकास का सिद्धांत स्वयं एक भ्रमपूर्ण धारणा है । वर्तमान खोजें यह प्रमाणित करती जा रही हैं कि उद्विकास के जिस सिद्धांत के आधार मर डार्विन ( Darwin ) ने मनुष्य के उद्भव ( rigin ) की चर्चा की वह केवल एक कल्पना मात्र थी । सन् 1966 में इटली में मिले कुछ नर – कंकाल इस कथन की पुष्टि करते हैं । यदि उदविकार का सिद्धांत ही एक भ्रान्ति ( fallacy ) है , तब इस सिद्धांत के आधार पर समाज और सामाजिक जीवन के परिवर्तन को स्पष्ट करना किस प्रकार उचित हो सकता है ?
यद्यपि सामाजिक परिवर्तन की धारणा को स्पष्ट करने में उद्विकास का सिद्धांत अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं बन सका है लेकिन कुछ सामाजिक विशेषताओं को स्पष्ट करने में यह अवश्य ही सहायक मालूम होता है । मेकाइवर ने कहा है कि ” विभिन्न अवस्थाओं को एक – दूसरे से पृयक् करने में इस सिद्धांत ने महत्त्वपूर्ण योग दिया है । इसके अतिरिक्त , समाज की इस प्रकार को स्पष्ट करने में भी यह सिद्धांत विल्कुल सही प्रतीत होती है कि सभ्यता में होने वाली प्रत्येक वृद्धि के साथ समाज का रूप सरल से जटिल होता जाता है । इसमें कोई संदेह नहीं है कि अनेक सामाजिक तथ्यों की उत्पत्ति को स्पष्ट करने में इस सिद्धांत से बहुत सहायता मिली है । जिन तय्या की उत्पत्ति का कोई कारण ढूँढना लगभग असंभव सा या (जैसे – धर्म और परिवार की उत्पत्ति और उनकी वर्तमान अवस्था का कारण), उसे उद्विकास के सिद्धांत ने कुछ समय के लिए बिल्कुल ही सुलझा दिया । इस सम्पूर्ण विवेचना के बाद भी यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘ उद्विकास ‘ एक अत्यधिक अस्पष्ट और भ्रमपूर्ण शब्द है तथा किसी भी संस्था अथवा सामाजिक तथ्य की विवेचना करते समय इसके प्रयोग से अधिक से अधिक बचना ही हमारे हित में है ।
उद्विकासवादी सिद्धांत के विरुद्ध उठाई गई आपत्तियों से स्पष्ट होता है कि उद्विकास के सिद्धांत में अनेक ऐसे दोष हैं जिनके कारण केवल इसी एक आधार पर सभी तरह के परिवर्तनों को नहीं समझा जा सकता । इन दोषों को दूर करते हुए उद्विकास के सिद्धांत को जिस नवीन रूप में प्रस्तुत किया गया , उसी को हम ‘ नव – उविकास का सिद्धांत ‘ ( Neo – Evolutionary Theory ) कहते हैं । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि नव – उद्विकास डार्विन के उद्विकासवाद का ही एक संशोधित रूप है । नव – उद्विकास के प्रतिपादकों में स्टीवर्ड (Steword) तथा लेग्लीवाइट ( Lesliwhyte ) के नाम विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं ।
नव – उद्विकास भी इस मान्यता को लेकर चलता है कि किसी भी वस्तु अथवा संस्था में होने वाले परिवर्तन कुछ आन्तरिक शक्तियों के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं तथा इन परिवर्तनों की प्रकृति सरलता से जटिलता की ओर बढ़ने की होती है इसके बाद भी नव – उद्विकास यह नहीं मानता कि प्रत्येक युग में होने वाले परिवर्तन एक सीधी रेखा के रूप में होते हैं । इसके अनुसार परिवर्तन का स्वरूप एक घुमावदार वक्र रेखा ( parabolic curve ) के रूप में होता है । इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी विशेषता अथवा सामाजिक संस्था में परिवर्तन होना आरम्भ होता है तो कुछ समय तक यह परिवर्तन मौलिक विशेषताओं से भिन्न विशेषताएँ प्रदर्शित करता है यद्यपि कुछ समय के बाद परिवर्तन पुनः अपने मूल रूप की दिशा में मुड़ जाता है । ‘ मूल रूप ‘ का तात्पर्य किसी संस्था द्वारा अपनी मौलिक विशेषताओं को बिल्कुल उसी रूप में ग्रहण करता है ।
चक्रिय सिद्धांत :
इस सिद्धांत की मूल मान्यता है कि सामाजिक परिवर्तन की गति और दिशा एक चक्र की भाँति है और इसलिए सामाजिक परिवर्तन जहाँ से आरम्भ होता है फिर वहीं स्पलेंग्लर , पैरेटो आदि हैं । म पहुँच कर समाप्त होता है – इसी प्रकार समाज में चक्र चलता रहता है । इसके मानने वालों में स्पेंगलर पै रोटो आदि है!
पी०ए०सोरोकिन (P.A.Sorokin) का उतार – चढ़ाव का सिद्धांत :
सोरोकिन ने सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया की चर्चा अपनी पुस्तक Social and Cultural Dynamics में की है।सोरोकिन का सिद्धांत Principle of Imminent socio – cultural change अर्थात् ‘ स्वाभाविक परिवर्तन ‘ के सिद्धांत पर आधारित है । इस सिद्धांत की मान्यता के अनुसार समाज में परिवर्तन होने का काल या परिवर्तन लाने वाली शक्ति स्वयं संस्कृति का अपनी प्रकृति में ही अन्तनिहित है । अर्यात परिवर्तन किसी बाहरी शक्ति के द्वारा न होकर स्वय उस संस्कृति में ही होती है ।
सोरोकिन ने तीन प्रकार की संस्कृतियों की चर्चा की है
1.भावनात्मक संस्कृति (Ideational Culture)
2.यादर्शात्मक संस्कृति (Idealistic Culture)
3.चेतनात्मक संस्कृति ( Sensate Culture )
सारोकिन के अनुसार Ideational Culture एक घोर अध्यात्मिकता की अवस्था है ठीक इसक विपरीत Sensate Culture घोर भौतिकता की अवस्था दोनों में परिवर्तन स्वभाविक रूप से होता है ।
Idealistic Sensate Ideational Idealistic
सोरोकिन के सिद्धांत को निम्न बिन्दुओं पर देखा जा सकता है –
1.सोरोकिन के अनुसार सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत का आधार ” स्वभाविक परिवर्तन का सिद्धात ‘ ( Principle of Imminent Change ) है । समाज या संस्कृति में परिवर्तन इस कारण होता है क्योंकि ऐसा होना ही स्वभाविक है । अर्थात् स्वयं संस्कृति की प्रकृति में ही कुछ ऐसी आन्तरिक शक्तियाँ हैं जिनके फलस्वरूप समाज या संस्कृति में परिवर्तन होता है ।
- सामाजिक परिवर्तन न तो निश्चित दिशा की ओर होती है और न ही इनकी कोई चक्रीय गति होती है यह तो केवल सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के बीच उतार – चढ़ाव की प्रक्रिया मात्र है ।
3.सोरोकिन ने अपने Theory of Limits के आधार पर यह समझाया है कि जब कोई समाज किसी एक प्रकार की अवस्था में चरम सीमा पर पहुँच जाता है तो उस चरम अवस्था का एक विरोधी प्रभाव क्रियाशील होता है जिसके फलस्वरूप एक अवस्था से दूसरी अवस्था आ जाती है अर्थात् पहले की सांस्कृतिक व्यवस्था दूसरी सांस्कृतिक व्यवस्था में परिवर्तित हो जाती है और एक नवीन अवस्था का जन्म होता है ।
4.यह सांस्कृतिक व्यवस्था मुख्यतः दो प्रकार की होती है – चेतनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था व भावनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था उतार – चढ़ाव की प्रक्रिया इन्हीं दोनों सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के बीच चलती रहती है ।
5.भावनात्मक तथा चेतनात्मक अवस्था के बीच एक आदर्शात्मक अवस्था होती है जिसमें . दोनों संस्कतियों के गुण पाये जाते हैं । अर्थात ये दोनों की बीच की अवस्था है ।
6.सोरोकिन का कहना है कि इन दोनों अवस्थाओं में उतार – चढ़ाव किसी निश्चित नियम के तहत नहीं बल्कि स्वभाविक व अनिश्चित तौर पर होता रहता है ।
आलोचना : सोरोकिन के सामाजिक – सांस्कृतिक गतिशीलता के सिद्धांत की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है–
1.सोरोकिन का चिन्तन एकपक्षीय है । उन्होंने वैज्ञानिक प्रगति को घृणा कि दृष्टि से देखा है तथा उसके कल्याणकारी पक्षों की अवहेलना की है ।
2.सोरोकिन के अनुसार, सांस्कृतिक व्यवस्था में आन्तरिक शक्ति है । उन्होंने इस आन्तरिक शक्ति का स्पष्टीकरण नहीं किया है ।
3.सामाजिक परिवर्तन को एक निश्चित सीमा के साथ बांधना उनि यह है कि इस सीमा को नापने का हमारे पास कोई पैमाना नहीं है ।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि सोरोकिन ने सामाजिक मानी सिद्धांत को अत्यन्त विद्वता से समझाने का प्रयास किया है । यद्यपि न से समझाने का प्रयास किया है । यद्यपि उनके इस सिद्धांत के विरुद्ध कई आपत्तियाँ उठाई गई हैं । फिर भी यह सिद्धांत बताता है कि सामाजिक सांस्कृतिक कारक उत्तरदायी है । सांस्कृतिक कारकों में परिवर्तन यह सिद्धांत बताता है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए है । सांस्कृतिक कारकों में परिवर्तन के फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन आता है , क्योंकि विचारों का क्रियात्मक रूप ही परिवर्तन है । वास्तविकता रूप ही परिवर्तन है । वास्तविकता यह है कि इस सिद्धांत ने सामाजिक परिवर्तन के एक नये मार्ग की ओर संकेत किया है ।
Spengler ने अपनी पुस्तक ” The Decline of The West ” में सामान परिवर्तन को चक्रीय आधार पर समझाने की कोशिश की है । इनका कहना है कि जन्म से किशोरावस्था , युवावस्था और प्रौढ़ावस्था के बाद पतन या विनाश के तन्त स्पाट होने लगते हैं । आरम्भ में एक सभ्यता अपने विकास के प्रारम्भिक स्तर पर होती है , जब मौतिक विकास में काफी आगे बढ़ जाती है तो उसका पतन होना आरम्भ हो जाता होयही समाज अथवा सभ्यता की वृद्धावस्था है । इसके बाद उस समाज का पतन निश्चित हो जाता है । अतः स्पेंगलर के अनुसार , समाज निम्न अवस्थाओं से गुजरती है –
1.जन्म
2.युवावस्था
3.वृद्धावस्था
4.पतन
स्पेंगलर ने संसार के आठ प्रमुख सभ्यताओं का ऐतिहासिक अध्ययन करके यह ज्ञात किया कि विकास तथा विनाश की अवस्था प्रत्येक सभ्यता में पायी जाती है ।
2.बिलफ्रेडो परेटो (Vilfredo Pareto) का अभिजात वर्ग परिभ्रमण का सिद्धांत :
इटली के विचारक विल्फ्रेडो परेटो सर्वप्रथम अर्थशास्त्री बाद में समाजशास्त्री के रूप में समाज के प्रति अपने Mechanistic view के कारण Mechanistic School के संस्थापक के रूप में जाने जाते हैं । इन्हें हम Prophet of Facism , Karl Marnx of Bourgeousic के नाम से भी जानते हैं । इस इटेलियन समाजशास्त्र के सम्पूर्ण सिद्धांत Theory of circulation of elites principle of Feticism एवं The concept of heterogeneity पर आधारित है । इन्होंने चिन्तन द्वारा सामाजिक संतुलन एवं परिवर्तन को समझने की चेष्टा की । वास्तव में इनका सम्पूर्ण सिद्धांत और विचार तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों की उपज है । उसने मार्क्सवादी सिद्धांत के प्रत्यक्ष प्रतिवाद के रूप में अपनी circulation of elite के सिद्धांत को प्रतिपादित किया । परेटो मार्क्स के आर्थिक वर्ग की जगह सामाजिक वर्ग की चर्चा की जिसके अन्तर्गत उन्होंने Elite तथा Non Elite की बात कही । मार्क्स ने जहाँ समानता पर बल दिया वहीं परेटो की धारणा है कि सामाजिक व्यवस्था के संतुलन के लिए असमानता अत्यन्त जरूरी है । उनके अनुसार सामाजिक व्यवस्था विघटित तथा संग्रहित करने वाले तत्वों के सामंजस्यपूर्ण अर्थपूर्ण संतुलन से ही सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़ होती है । समाज में असमानता Physical , Intellectual , Moral आदि सभी स्तर पर पाये जाते हैं । वे freedom , equality liberty आदि धारणाओं को वास्तविक ( reality ) नहीं मानते हैं । बल्कि उसे सिर्फ Derivations या Rediculous concept माना है । उन्होंने स्पष्ट कहा है कि किसी भी समाज में किसी भी काल में सदस्यों में पूर्णतः समानता होना असंभव है । इसने Heterogeneity of Individuals चचा करते हुए यह विचार दिया है कि प्रत्येक समाज में किसी न किसी अंधार पर ऊंच नीच का सस्तरण अवश्य होता है । इनमें कछ व्यक्ति योग्य और तीव्र होते हैं तथा कुछ लोग मंद – सुस्त होते हैं । इसके अतिरिक्त हर व्यक्ति के वातावरण सामाजिक रहन – सहन शिक्षा एवं प्रशिक्षण म भी समानता नहीं पायी जाती है । अतः स्पष्ट यह है कि हर समाज में संस्तरण किसी न किसी रूप में अवश्य स्थापित रहती है ।
उन्होंने स्पष्ट बताया है कि समाज में दो वर्ग अभिजात्य वर्ग (Etite Class) तथा गरम भिजात्य वर्ग (Non Elite Class) रहता है । Elites की संख्या कम तथा Non Elites का संख्या अपेक्षाकृत काफी अधिक होती है । समाज की चोटी पर Elite जबकि शेष व्यक्ति आधार पर रहते हैं । साधारणतः Elite वे छोटे हैं जिनका सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों पर नियंत्रण होता है वे कुशल बुद्धिमान तथा समर्थ होते हैं । इन्ही गुणों के आधार पर वे समाज के शासक होते हैं । ये योग्य होते हैं तथा कठिनाइयों से सामना की क्षमता रखते हैं । इसके विपरीत Non Elite अपने नैतिक स्तर तथा ज्ञान में वृद्धि से Elite बन सकता है । इस प्रकार Elite , Non Elite वर्ग में जा सकता है तथा Non Elite : Elite वर्ग में जा सकता है । यह प्रक्रिया समाज में चलती रहती है । इसी circulation की प्रक्रिया को ही परेटो ने Circulation of Elite कहा हैं । यह प्रक्रिया समाज में सदा चलती रहती है ।
परेटो के Circulation of Elite में निम्न बात निहित हैं –
I.परेटो के अनुसार कोई भी समाज या वर्ग पूर्णतः बंद या Imrnobile नहीं है ।
- अभिजात वर्ग शक्ति के अधिकारी होते हैं और यह शक्ति उन्हें भ्रष्ट कर देती है जिससे उनका पतन हो जाता है ।
III . कारण यह है कि नीचे वर्ग में भी बुद्धिमान तथा कुशल व्यक्ति होते है । जो ऊपर की ओर बढ़ते जाते हैं । परेटो के अनुसार कोई अभिजात वर्ग अधिक दिनों तक अभिजात नहीं रह सकता है । समय तथा परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ – साथ उसका पतन भी अवश्यम्भावी है और उसका स्ट गान नए Elite Class ग्रहण करता है । अतः Pareto ने समस्त इतिहास को कुलीन तंत्रों का कब्रिस्तान कहा है । उच्च वर्ग के परिभ्रमण के फलस्वरूप समाज में निरन्तर चक्रीय रूप से परिवर्तन होता है । परेटो ने सामाजिक परिवर्तन को दो श्रेणी विशिष्ट चालकों – Residues of Combinations और Residues of Persistence of aggregates के आधार पर बताया है । प्रथम वर्ग जिसमें Residues of combinations प्रमुख होता है । वह तात्कालिक स्वार्थों पर बल देता है तथा परिवर्तनशीलता का समर्थक होता है । वह नये values तथा Ideas आदि का समर्थक होता है । दूसरा वर्ग जिसमें Residues of the Persistence of aggaregates की प्रधानता होती है । आदर्शात्मक लक्ष्यों में विश्वास करता है तथा परिवर्तन का विरोधी होता है । इन दो प्रकार के विशिष्ट चालकों के परिणामस्वरूप ही सामाजिक परिवर्तन होता है । Elite class में भी दो वर्ग होते है , Governing Elite तथा Non – Governing Elite राजनीतिक आर्थिक तथा परिणामस्वरूप ही सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है । राजनीतिक क्षेत्र में चक्रिय परिवर्तन तब गतिशील होता है जब Residues of the persistence of aggragates अधिक गतिशील हो जाती है । उन्हें Lion governing elite कहा जाता है । Lion elite का कछ आदर्शवादी लक्ष्यों पर कुछ दृढ़ विश्वास होता है और इन आदर्शों की प्राप्ति के लिए ये शक्ति हिंसावादी का सहारा लेते हैं । हिंसात्मक कारवाई के परिणामस्वरूप वे अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए कूटनीति का सहारा लेता है । तब वे Lion से Fox में बदल जाते हैं । लेकिन Non Elite में foxes होते हैं और वे सदा के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं । फलस्वरूप निकलकर निम्नवर्ग के fox की हाथ चली जाती है। तभी राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन होता है । पेरेटो के अनुसार प्रत्येक समाज अल्प जनतंत्रों से शासित है । बल प्रयोग से उत्पन्न शासक Fox बनता है तब निम्न वर्ग द्वारा वह पदच्युत कर दिया जाता है ।
जहाँ तक आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन का प्रश्न है परेटो ने दो आर्थिक तथा Rentiers की चर्चा की है । इसके आय में उतार – चढ़ाव आते रहते हैं । of combination की प्रधानता होती है । पहले वर्ग के लोग आविष्कार इत्यादि होते हैं । यह वर्ग अपने आर्थिक मोह से भ्रष्टाचार का स्वयं शिकार हो उसका पतन हो जाता है और दूसरा वर्ग उसका स्थान ले लेता है ।
आदर्शात्मक सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र में अविश्वास और विश्वास का है । किसी एक समय में समाज में विश्वासवादियों का बोलबाला होता है । परन्त या रूढ़िवादिता के कारण अपने पतन का साधन अपने ही जुटा लेते हैं और र्थिक वर्ग Specular ते हैं । इसमें Restha कारकर्ता उद्योग कार हो जाता है । फार का चक्र चलता परन्तु वे अपनी दम और उसका स्थान का वर्ग ले लेता है ।
परेटो के अनुसार कोई भी शासक चाहे कोई भी क्षेत्र हो अधिक दिनों तक नहीं अतः परिवर्तन आवश्यभावी है । परेटो और मार्क्स के विचार मिलते – जुलते हैं । मान Change को वर्ग संघर्ष का परिणाम बताया है । पर जहाँ मार्क्स के वर्ग का आ . था वहीं परेटो के वर्ग का आधार ज्ञान और चातुर्य है | Marx के सामाजवादी समा होगा । जवकि परेटो ने हर समाज में वर्ग के अस्तित्व को अवश्यम्भावी बताया है । स्थापना के पश्चात् वर्ग संघर्ष का अंत हो गया पर परेटो के अनुसार यह एक अनत वाली प्रक्रिया है ।
परेटो ने “Circulation of Elite” काफी रोचक और व्यावहारिक होने के आलोचकों की आलोचनाओं से नहीं बच सके–
(a) परेटो ने राजनीतिक क्षेत्र में जो परिवर्तन दिखाया है वह वस्तुतः Machine दिया था । विचार से लिया गया है । “Governing Elite” का Theory Parato से पहले Mosca , तक नहीं रह सकता है समावर्स ने Social का आधार आदि जवादी समाज वर्गविक पाया है । साम्यवादी एक अनवरत चल हैक होने के बावजूद
(b) परेटो का यह सिद्धांत पूर्णतया मार्क्स विरोधी है । इसलए इसे कार्ल मार्क्स । Bourgeoisie भी कहा जाता है ।
(c) Lion , जैसे निर्दयता के साथ जब Gov . Elite Mass के साथ आ जाता है । Mad उस समय किस तरह से प्रतिक्रिया करता है उसका भी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है ।
(d) परेटो ने अपने इस सिद्धांत में सिर्फ दो वर्गों की चर्चा की है जबकि प्रत्येक समाज विभिन्न आधारों पर कई तरह के वर्ग पाये जाते हैं । परेटो की Elite की परिभाषा भी संकलित है । वस्तुत जो बुद्धिमान चतुर या अपने क्षेत्र में अग्रगण्य होते हैं । सभी Elite कहला सकता है ।
(e) Democracy की धारणा भी परेटो की ठीक नहीं है । Democracy का मतलब या नहीं होता है कि किसी ऐसे शासन प्रणाली में सभी व्यक्ति पूर्णरूपेण समान हो और उनमें भिन्नता न हो । Democracy तो ऐसी शासन प्रणाली है जो irrespective of caste , creed , religion equal opprtunity का समर्थन करता है । इस Force को hypothetical concept घोषित करना उचित प्रतीत नहीं होता है ।
उपरोक्त आलोचनाओं के बावजूद इतना तो स्पष्ट है कि परेटो ( Parato ) के सिद्धांत में बहु । हद तक सच्चाई है । यदि हम भारतीय संदर्भ में भी अवलोकन करें तो स्पष्ट प्रतीत होता है । निम्न जाति के लोग उच्च जाति की तरह सत्ता में भागीदारी कर रहे हैं और अब वे संवैधानिक प्रतिष्ठा में काफी कमी आई है । रूप से बराबर हो गए हैं । पर उच्च जाति अपनी स्थिति से काफी नीचे गिर गई है । ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा में काफी कमी आयी है।
A.टॉयनयी ( Toynobee ‘ s Challenge and Response Theory ) के चुनोती एवं प्रत्युत्तर का सिद्धांत :
टायनबा न विश्व की 21 सभ्यताओं का अध्ययन कर अपनी पुस्तक ” A Study of History ” में सामाजिक परिवर्तन का सिद्धांत प्रस्तत किया । उन्होंने विभिन्न सभ्यताओं के विकास का एक आदर्श प्रारूप दंढा और सिद्धांत का निर्माण किया । टायनबी के सिद्धांत को ” चुनाता एवं प्रत्युत्तर का सिद्धांत ” ( Challengee and Response Theory ) भी कहत हा अनुसार प्रत्येक सभ्यता को प्रारम्भ में प्रक्रति तथा मानव द्वारा चुनौती दी जाती हा इस चुनाता का सामना करने के लिए व्यक्ति को अनकलन की आवश्यकता होती है , व्यक्ति इस चुनाता के प्रत्युत्तर में भी सभ्यता व संस्कृति का निर्माण करता है । इसके बाद भौगोलिक चुनीतिया स्थान पर सामाजिक चुनौतियाँ दी जाती हैं । वे चुनौतियाँ समाज के भीतरी समस्याओं के रूप म अथवा बाहरी समाजों द्वारा दी जाती है ।
टॉयनवी का कहना है कि जो समाज इन चनीतियों का सामना सफलतापूर्वक कर लेता है , वह जीवित रहता है और जो ऐसा नहीं कर सकता , वह नष्ट हो जाता है । इस प्रकार एक समाज , निर्माण एवं विनाश तथा संगठन एवं विघटन के दौरे से गुजरता है । प्राकृतिक आपदाएं , सुनामी , भूकम्प , आँधी , तूफान आदि वहाँ के लोगों को प्राकृतिक चुनीतियाँ दी है जिसका प्रत्युत्तर वहाँ के लोगों ने निर्माण के द्वारा देने का प्रयास किया है । सिंधु व मेसोपोटामिया की सभ्यता के साथ ऐसा ही हुआ ।
किसी भी सिद्धांत को अपनी कुछ कमियाँ होती हैं उसी प्रकार टॉयनवी के सिद्धांत में वैज्ञानिकता कम तथा दार्शनिकता अधिक देखने को मिलती है । फिर भी उन्होंने समाज में परिवर्तन को देखने का एक नजरिया देते हैं ।
संघर्षवादी सिद्धांत:
इस सिद्धांत की मान्यता है कि समाज में परिवर्तन का कारक द्वन्द्व है । इस सिद्धांत के समर्थक कार्ल मार्क्स , राल्फ डहरेन्डार्फ , जार्ज – सिम्मेल तथा लेविस कोजर आदि हैं ।
संघर्षवादी सिद्धांत के सबसे बड़े समर्थक कार्ल मार्क्स हैं । मार्क्स के अनुसार आरम्भ में समाज में आर्थिक साम्यवाद की स्थिति थी यानि इस काल में निजी सम्पत्ति की धारणा नहीं थी और न ही वर्ग की अवधारणा थी । अतः समाज में शोषण का नामोनिशान नहीं था । पर जैसे – जैसे जनसंख्या में वृद्धि हुई लोगों में बचत की अवधारण विकसित हुई । इसके फलस्वरूप समाज में दो वर्ग उत्पन्न हुए । प्रथम बुर्जुआ ( Haves ) व द्वितीय सर्वहारा ( Haves not ) |
मार्क्स के अनुसार किसी भी समाज की अर्थव्यवस्था उसकी मूल संरचना होती है जो उत्पादन के तरीके तथा उत्पादन के संबंधों से निर्मित होती है । इसी मूल संरचना पर समाज के अन्य सारे व्यवस्थाएँ , धर्म , दर्शन , विचार , विज्ञान , नैतिकता आदि , जिसे मार्क्स ने ‘ अधि संरचना ‘ कहा है निर्भर करती है । स्पष्टतः मार्क्स के अनुसार अर्थव्यवस्था में परिवर्तन से समाज में परिवर्तन होता है ।
मार्क्स के अनुसार इस परिवर्तन को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर , ऐतिहासिक भौतिकवाद के स्तरों से समझा जा सकता है ।
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या :
कार्ल मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर इतिहास की भौतिवादी व्याख्या की है । मार्क्स के अनुसार आज तक जो भी इतिहास में लिखा गया है उसमें केवल राजाओं एवं महाराजाओं की गाथा है या कुछ विशेष तिथियों का उल्लेख है , जबकि वास्तविकता यह है कि जब तक हम जनसामान्य के इतिहास को नहीं समझ लेते हैं तब तक सामाजिक विकास की प्रक्रिया को समझना नामुमकिन है । स्पष्टताः , मार्क्स ने दलितों पिछड़ी एवं सर्वहारा वर्ग की वकालत की है । प्रसिद्ध पुस्तक ‘ Communist Manifesto ‘ में उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है कि अब तक का मानव इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास चूंकि , मार्क्स के समय उविकासीय विचारधारा प्रवल यी अतः ये उद्विकासवाद से अप्रभावित नहीं रह सके । यही कारण है कि इतिहास के भौतिकवादी व्याख्या में मार्क्स ने समाज के संपर्ण इतिहास को उद्विकासीय क्रम में पाँच अवस्थाओं में बाँटकर दिखाया है । यद्यपि एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने का मूल कारण संघर्ष है।
मार्क्स के अनुसार मानव समाज की आरंभिक अवस्था आदिम – सामूहिक – आर्थिक व्यवस्था थी । इस काल में मनुष्य जंगल में जानवरों की तरह रहता था । उनके पास जीवन यापन के लिए कोई हथियार या उपकरण नहीं थे । वह जंगलों में फल फूल चुनकर अपने उदर की पूर्ति किया करते थे । इस तरह उनका जीवन पूरी तरह प्रकृति पर आश्रित था । अतः समाज में वर्ग या शोषण का नामोनिशान नहीं था । परंतु जैसे – जैसे जनसंख्या बढ़ी लोगों की आवश्यकताएं बढ़ती गयी । धीरे – धीरे इन हथियारों के द्वारा शक्तिशाली लोगों ने निर्मल लोगों का शोषण करना शरू किया । इस संदर्भ में मार्क्स का कहना है कि शोषण के क्षेत्र में हथियार मानव की पहली पूँजी है । बढ़ती हुई जनसंख्या एवं बढ़ती हुई आवश्यकताओं ने बचत की अवधारणा का जन्म दिया और इस अवस्था में हथियारों के रूप में कुछ लोगों के पास उत्पादन के साधनों की शक्ति का केन्द्रीकरण हो गया । आगे चलकर समाज में इसका प्रतिवाद होने लगा जिसके फलस्वरूप समाज दूसरी अवस्था में प्रवेश किया ।
गुलाम की अवस्था को मावर्स ने अपने ऐतिहासिक विश्लेषण में दूसरी अवस्था के रूप । स्वीकार किया है । इस अवस्था में दो वर्ग उत्पन्न हुए – मालिक और गुलाम । मार्क्स का कहना है कि आदिम साम्यवादी युग में जब मनुष्य ने पशुओं को मारने की जगह पशुपालन करना शुरू किया तभी से समाज में निजी संपत्ति की अवधारणा का विकास हुआ । कृषि एवं पशुपालन के । लिए धीरे – धीरे मनुष्य ने अपने घुमन्तू जीवन को छोड़कर स्थायी निवास करना शुरू किया और । इस तरह उत्पादन के साधनों में होनेवाले परिवर्तन के आधार पर दास युग का आरम्भ हुआ । इस युग में पशुपालन एवं भोजन संकलन के लिए शक्तिशाली लोगों ने दूसरे निर्बल लोगों को । दास बनाना शुरू किया । अतः समाज में एक वर्ग वे थे जिनके पास उत्पादन के साधन के रूप में दास थे और दूसरा वर्ग दासों का था , जो अपने मालिक की सम्पत्ति थे । मार्क्स के अनुसार । इस अवस्था में लकड़ी एवं पत्थर के औजार की जगह लोहे के औजार बनने लगे । कृषि के लिए सिंचाई की व्यवस्था की जाने लगी । समाज में श्रम – विभाजन आने लगा । कपड़ा बुनना , मिट्टी के बर्तन बनाना आदि धंधे शुरू हुए , पर इस पूरी प्रक्रिया में मालिक का अपने गुलामों पर पूर्ण नियंत्रण था । गुलाम जो कि उत्पादन के साधन थे उन्हें उतना ही दिया जाता था जिससे कि वे शारीरिक रूप से जिन्दा रह सकें । गुलामों की संख्या मालिकों की सामाजिक हैसियत का सूचक थी तथा मालिक अपनी इच्छा से गुलाम को खरीद . बेच या नष्ट कर सकता था । स्पष्टतः . . . गुलामों पर पूर्ण नियंत्रण के लिए मालिकों ने ऐसे नियम बनाए जो निजी संपत्ति और शोषण का पोषण करता था । लेकिन , जैसे – जैसे जनसंख्या में वृद्धि हुई अधिक उत्पादन की जरूरत होने लगी । मालिकों ने गुलामों पर अधिक उत्पादन के लिए जोर डालना शुरू किया पर दूसरी तरफ गुलामों में उत्पादन के प्रति कोई रुचि नहीं थी , क्योंकि उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन होने वाला नहीं था । परिणामतः मालिक और गुलाम के बीच असंतोष बढ़ता गया । मालिकों के अत्याचार एवं शोषण जैसे – जैसे बढ़ते गए वैसे – वैसे संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार होती गयी । अतंतः गलामों ने विद्रोह कर दिया पर इस संघर्ष में जीत मालिकों की हुई । समाज ने एक दूसरी अवस्था में प्रवेश किया । इस अवस्था में भी वर्ग तो दो ही रहे पर वर्गीय चरित्र बदल गया । मार्क्स का यह भी कहना है कि दास–युग का आरंभ दुनिया में लगभग एक साथ शुरू हुआ और कृषि के विस्तार रलाह के वनने लगे जिससे कृषि के क्षेत्र में होने के साथ ही सामंतवाद (सामंतवाद) का प्रादुर्भाव होने लगा।
मार्क्स के अनुसार तीसरी अवस्था सामंतवादी सामाजिक आर्थिक रही है। इस अवधि म अंक के अनुसार तृतीय अवस्था सामंतवादी सामाजिक आर्थिक होने आर समाज में दो वर्ग थे – भू – सामंत और अर्द – किसान। समाज पूरी तरह कृषि पर आधारित था और समाज में दो वर्ग थे – भू – सामत एव इस काल में मनुष्य के सभी हथियारों और औजार लोहे के बनने लगे जिससे कृषि तेजी से विकास हुआ। समाज में आग – किसानों की भी स्थिति में परिवर्तन हुआ जिस तरह खरीदे और वेचे तो जाते थे पर जान से उनकी स्थिति दासों जैसी नहीं। दास जिस तरह से खरीदे और बेचे तो जात थर मारने की प्रथा इस अवधि में समाप्त हो गए। साथ ही, गुलाम अपने मालिक का अपना कुछ नहीं था जबकि फाइ – किसानों के पास जमीन के बारे में – माट दुपा थे जिनपर वह मालिकों के खेतों में काम करने के बाद अपने लिए काम करते थे। इस काले भु – सामंतों (फ्यूडोल होर्ड्स) ने सामंतवादी राज्यों की स्थापना की और इसकी सुरक्षा के लिए सेना की व्यवस्था की। इस अवधि में विश्व में कई साहसी नाविकों और अन्वेषकों का पता लगाया गया जिससे न केवल जलमार्ग का विस्तार हआ बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार भी बनने लगा। इन अन्तर्राष्ट्रीय द्वीपों की माँगों की पूर्ति हस्तकारघाट उद्योग से संभव नहीं हो सकी जिसके परिणामस्वरूप बड़े – बड़े उद्योगों की स्थापना की जाने लगी जिसमें हजारों मज़दूर आकर एक साथ काम करने लगे। इस तरह पूँजीवाद के लिए उद्योगों की स्थापना ने मार्ग प्रशस्त किया, लेकिन उत्पादन में उत्पादन के लिए स्वतंत्र श्रमिकों की जरूरत थी जबकि सामंतवादी व्यवस्थाबंदी – किसानों को जमीन से बाँधे हुए थी। कार्य में निश्चित कार्य पद्धति, नकद भुगतान, आवास की सुविधा और शहरों की चकाचौंध ने कई किसानों को अपनी ओर आकर्षित किया। फलस्वरूप वे खेत से खेतों की ओर प्रवासित होने लगे। नतीजा यह हुआ कि फसल किसानों पर भू सामंतों का अत्याचार और शोषण बढ़ने लगा। दोनों के बीच संघर्ष हुआ लेकिन जीत जमीन – सामंतो की हुई। समाज एक दूसरा अवस्था में प्रवेश किया जहाँ फिर से वर्ग तो दो ही रहे पर उनकी वर्गीय चरित्र बदल गई। वे दो वर्ग क्रमशः बुजुआ और सर्वहारा के रूप में जाने जाते हैं।
मार्क्सवादी व्याख्या में चौथी अवस्था पूँजीवादी अवस्था है। इस अवस्था में उत्पादन बड़े पैमाने पर बड़े – बड़े कल – उत्पादन द्वारा होने लगा। साथ ही वितरण और उपभोग की भी निश्चित व्यवस्था मेयी गयी। लेकिन सम्पत्ति पर पूरा स्वामित्व पूँजीपतियों यानि वुजुआ वर्ग का था। श्रमिकों या सर्वहारा वर्ग के पास अपने श्रम के अलावा और कोई पूँजी नहीं थी। लेकिन अंकों का कहना है कि मानव इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में श्रमिक एक साथ एकत्रित हुए हैं जिनके फलस्वरूप उन्हें वर्गगत चेतना जाग्रत होगी और वे संगठित होंगे। अब जो संघर्ष होगा उसमें मानव इतिहास में पहली बार जीत सर्वहारा वर्ग की होगी और परजय बुजुआ वर्ग की होगी। इसका कारण यह है कि गुलाम और वित्तीय किसान वर्ग तो थे पर उनमें वर्गगत चेतना के अभाव में संगठन नहीं था। गुलाम और वित्तीय किसान को उसने “अपने आप में वर्ग” की संज्ञा दी है। अंकों के अनुसार इस संघर्ष में सर्वहरा अपनी गुलामी की जंजीर के अलावा कुछ भी नहीं खोयेगा जबकि बुजुआ वर्ग अपना सब कुछ खो देगा। संघर्ष के कारणों की चर्चा करते हए मार्क्स का कहना है की पूँजीवादी समाज में पूँजीपतियों ने अपने हाथ में पूँजी का केंद्रीकरण करना शुरू कर दिया है जिसके कारण समाज में दरिद्रीकरण, ध्रुवीकरण और अलगाववाद आदि पैदा हो रहे हैं। फलस्वरूप बजआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच बढ़ते असंतोष के कारण संघर्ष होगा।
मार्क्स ने अपने विश्लेषण के क्रम में बतलाया है कि इस संघर्ष के बाद समाज में थोडी देर के लिए समाजवाद होगा। यानि संपत्ति पर राज्य का नियंत्रण होगा और सबको उनकी जरूरत के अनुसार धन मिलेगा । लेकिन यह अवस्था अल्पकालीन होगी क्योंकि धीरे – धीरे समाज म सभी लोग एकसमान हो जायेंगे । अतः राज्य का नामोनिशान अपने आप मिट जायेगा और समाज साम्यवादी अवस्था में पहुँच जाएगा । मार्क्स के अनुसार साम्यवादी युग की स्थापना के लिए श्रमिक – वर्ग पूँजीपति वर्ग को उसी हथियार से खत्म कर देगा जिस हथियार से पूंजीपतियों ने सामंतवाद को नष्ट किया था । अतः मार्क्स ने एक साम्यवादी समाज की कल्पना की है जिसमें न वर्ग होगा , न अन्तःविरोध होगा . न राज्य होगा और न ही शोषण होगा बल्कि सभी लोग एक समान होंगे ।
यद्यपि मार्क्स ने अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के आधार पर इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या सुसंगत तरीके से की है तथापि उनका यह सिद्धांत आलोचनाओं से मुक्त नहीं है । मार्क्स ने जहाँ समाज की व्याख्या पाँच अवस्थाओं में बाँटकर दिखाया है , वहीं इना अवस्थाओं के संबंध में विद्वानों का कहना है कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है । आगस्त कॉस्ट ने तीन , दर्शीम ने दो तथा मार्गन ने तीन अवस्थाओं का उल्लेख किया है । द्वितीय द्वन्द्वात्मक और भौतिकवाद की विवेचना में मार्क्स द्वारा दिया गया सामाजिक विकास का क्रम सार्वभौमिक नहीं है । मार्क्स ने जिस औद्योगिक क्रान्ति के आधार पर पूँजीवादी समाज की चर्चा की उनके अनुसार श्रमिकों द्वारा की जानेवाली सबसे पहली क्रान्ति इंग्लैण्ड में होनी चाहिए थी और वहीं सर्वहारा वर्ग की सत्ता के आधार पर साम्यवाद की स्थापना होनी चाहिए । अतः ऐतिहासिक तथ्य यह बतलाते हैं कि सामंतवाद के बाद पूँजीवाद का आना कोई आवश्यक नहीं है ।
मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत में अनेक अन्तःविरोध हैं । यदि हर वाद क प्रतिवाद होता है तो यह कैसे मान लिया जाए कि साम्यवाद का कोई प्रतिवाद नहीं होगा । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि या तो मार्क्स ने इन तथ्यों का गहन अध्ययन नहीं किया कि किन दशा में किसी भी वाद का प्रतिवाद उत्पन्न होता है या उनका यह कहना गलत है कि साम्यवाद क कोई प्रतिवाद नहीं होगा । जहाँ तक वर्ग – संघर्ष की बात है तो मार्क्स ने समाज में केवल दो ही वर्गों के अस्तित्व के चर्चा की है जबकि सोरोकिन का कहना है कि समाज का सबसे बड़ा भाग मध्यम वर्ग का है । सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या में मध्यम वर्ग की भूमिका को नकारना मार्क्सवादी सिद्धांत की सबसे बड़ी खामी है ।
राल्फ डेहरन्डार्फ ( Ralf Dahrendorf ) ने मार्क्स के सिद्धात की आलोचना करते हुए कहा है कि परम्परागत समाजों के लिए मार्क्स का सिद्धांत चाहे जितना सही हो पर आधुनिक औद्योगिक समाज में पूरी तरह निष्फल हो जाता है । इनका कहना है कि आधुनिक औद्योगिक समाज में पूँजीपति वर्ग एवं श्रमिक वर्ग के बीच कभी भी प्रत्यक्ष संघर्ष की स्थिति नहीं आए । क्योंकि दोनों के बीच कड़ी के रूप में प्रबन्धक वर्ग हैं । अतः बुजुआ और सर्वहारा के बी प्रबन्धक वर्ग सुरक्षा – कपाट ( Safety Valve ) का काम करता है । दूसरी बात डेटरन्डार्फ ने य कही है कि श्रमिक वर्ग कई स्तरों में विभाजित होता है जिनके वेतन एवं सुविधाएँ अलग – अल होती है । अतः श्रमिकों के एकजुट होने की संभावना ही नहीं बनती है ।
इन सारी आलोचनाओं के बावजूद यह सत्य है कि मार्क्सवाद आज के युग की एक प्रव विचारधारा है । इससे हमें इतिहास और समाज को देखने का एक नया नजरिया मिलता है । र सही है कि मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर दुनियाँ का कोई समाज आज तक नहीं बद है पर सैद्धान्तिक विश्लेषण की दृष्टि से यह एक सवल विचारधारा जरूर है ।
एल० ए० कोजर :
अमेरिकन समाजशास्त्री लेविस ए० कोजर , जर्मन समाजशास्त्री जार्ज सिम्मेल के विचारों से प्रभावित थे । कोजर ने अपनी पस्तक ” फंक्शन ऑफ सोशल कंफ्लिक्ट 1955 में संघर्ष से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर कछ प्रस्ताव रखे । वस्तुतः इन प्रस्तावों की प्रकृति प्राकल्पनात्मक है । उन्होंने अपने प्रस्तावों को संघर्ष के पाँच पहलूओं पर केन्द्रित किया हैI
1 . संघर्ष के कारणों से संबंधित प्रस्ताव
2 . संघर्ष की अवधि से संबंधित प्रस्ताव
3 . हिंसात्मक संघर्ष से संबंधित प्रस्ताव
4 . समूह के लिए संघर्ष की उपादेयता
5 . सम्पूर्ण समाज पर पड़ने वाले संघर्ष के प्रकार्य
संघर्ष के कारणों से संबंधित प्रस्ताव : आखिर संघर्ष क्यों होता है इसके उत्तर में कोजर ने मुख्य रूप से दो प्रस्ताव रखे हैं
1.पहला , जब गैर – बरावरी के प्रश्न पर अधिक संख्या में अधीनस्थ सदस्य विरोध करते हैं और गैर बराबरी को वैधता नहीं देने तो संघर्ष प्रारंभ हो जाता है ।
2.दूसरा ,जव अधीनस्थ लोगों के सीमित अभाव अभियोग सामान्य अधीनस्थों के अभाव अभियोग बन जाते हैं तो संघर्ष व्यापक हो जाता है । मतलब हुआ कि जब कुछ लोगों की गरीबी व त्रासदी सामान्य जन – जीवन की त्रासदी बन जाती है तो संघर्ष सापेक्षिक हो जाता है ।
संघर्ष की परिभाषा देते हुए कोजर ने लिखा है ” जब समाज में किसी प्रकार की सत्ता , सिद्धांत , साधन है और इस विरोध के लिए एक – दूसरे पर हिंसात्मक प्रहार करते हैं या दोनों एक निष्कर्ष पर पहुँचते हैं । ” स्पष्टतः संघर्ष एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति या समूह अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए विरोधी को हिंसा की धमकी देता है या वास्ततिक हिंसात्मक कार्यवाही करता है ।
संघर्ष के प्रकार्य : कोजर के संघर्ष के प्रकार्यों अथवा परिवर्तन की चर्चा निम्न है
1.यदि समूह संघर्ष की स्थिति में हों तो प्रत्येक समूह के सदस्यों के आपसी संबंध बढ़ जाते हैं तथा सामूहिक चेतना का विकास होता है । इस चेतना के फलस्वरूप समूह की आंतरिक एकता बढ़ती है तथा संगठन मजबूत होता है ।
2.यदि दो अर्द्ध – समूह संघर्ष की स्थिति में हों तो , दोनों के बीच का सीमा स्पष्ट हो जाता है ।
3.यदि समूह में नेता का अभाव हो या नेतृत्व कमजोर हो तो दूसरे समूह से संघर्ष की स्थिति में , अपने समूह को मजबूत करने के लिए नेतृत्व परिवर्तन किया जाता है तथा नेतृत्व को शक्तिशाली बनाया जाता है ।
4.दोनों के आदर्श प्रतिमान तथा मूल्यों में परिवर्तन होता है जिसके कारण नए आदर्श प्रतिमान आते हैं जो समूह के लिए फायदेमन्द होता है ।
5.दो समूह में संघर्ष के कारण अपने समूह के अन्दर होने वाले द्वन्द्व समाप्त होते हैं जो कि प्रायात्मक वितरण को बदलना पड़ता है और नए ढंग से कार्यों को वितरित किया जाता है । अतः संघर्ष के फलस्वरूप एक नई संरचना का उदय होता है , जिससे सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा मिलता है ।
आलोचना : एल चॉनस्की एवं ऑसिपोव ने कोजर की आलोचना करते हुए कहा है कि संघर्ष हमेशा ही व्यवस्था के विनाशकारी साबित होता है ।
जार्ज सिम्मेल :
19वीं शताब्दी के प्रमुख संघर्ष सिद्धांतकारों में जार्ज सिम्मेल तथा कार्ल मार्क्स प्रमुख हैं । मगर इन दोनों के विचारों में अन्तर है । जहाँ सिम्मेल के अनुसार संघर्ष समाज व्यवस्था के लिए । विघटनकारी ही नहीं बल्कि समाज व्यवस्था के लिए फायदेमन्द तथा व्यवस्था को सुदृढ़ करता है । कार्ल मार्क्स के अनुसार संघर्ष से समाज में परिवर्तन होता है तो सिम्मेल कहते हैं कि प्रत्येक संघर्ष समाज को परिवर्तित नहीं करता है
सिम्मेल के अनुसार संघर्ष के दो कारण हैं
1.व्यक्ति की संघर्षशील मूल प्रवृत्ति एवं
2.सामाजिक संबंधों के प्रकार ।
ये दोनों तत्व संघर्ष को आवश्यक घटना बनाते हैं ।
संघर्ष के परिवर्त्य :
1.समाज में नियमन की मात्रा
2.सीधे संघर्ष की मात्रा एवं
3.संघर्षरत पक्षों में तीव्रता की मात्रा
जब समाज में नियमन की मात्रा अधिक होगी तो संघर्ष प्रतिस्पर्धा बनकर रह जाएगा तथा संगठन मजबूत होगा । अगर समाज में हिंसा अधिक होगी तो संगठन घटेगा ।
संघर्ष के सैद्धान्तिक सूत्र – सिम्मेल के संघर्ष के सैद्धान्तिक सूत्र निम्नलिखित हैं–
1.संघर्षरत दलों का संघर्ष में जितना अधिक संवेगीय लगाव होगा संघर्ष उतना ही अधिक तीव्र होगा ।
2 . संघर्षरत दल , संघर्ष के दौरान जितने अधिक संगठित होंगे , संघर्षात्मक मुकाबले में उतना ही अधिक भावावेश में आकर व्यवहार करेंगे ।
3.संघर्षरत दल के सदस्य जितनी अधिक मात्रा में अपने निजी हितों का त्याग करेंगे संघर्ष में उतने ही भावावेश में व्यवहार करेंगे ।
4.यदि संघर्ष का उपयोग , किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन के रूप में किया जायेगा तो संघर्ष कम तीव्र होगा । सिम्मेल द्वारा सैद्धांतिक व्याख्या में कहा गया है कि संघर्ष का लक्ष्य स्पष्ट हो जाने से संघर्षरत दल यह देखते हैं कि कम – से – कम कीमत पर लक्ष्य की प्राप्ति कैसे होगी । कम – से – कम कीमत का अर्थ है संघर्ष के द्वारा हिंसा और तीव्रता के विकल्प को नहीं चूना जायेगा ।
संघर्ष के परिणाम या प्रकार्य – सिम्मेल के अनुसार संघर्ष के परिणाम संघर्षरत दल तथा पूरे समाज पर पड़ता है । संघर्ष के परिणामों को सूत्र रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है ।
1.संघर्ष के परिणामस्वरूप संघर्षरत दलों की एकता बढ़ती जाती है ।
2.संगठित होकर संघर्षरत दल जब प्रयास करते हैं तो तीव्र संघर्ष की मात्रा घटती है । ऐसा इसलिए होता है कि संगठित दल की मात्र धमकी से ही लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती और तीव्र । संघर्ष या हिंसा की नौबत नहीं आती है जिसके कारण सामाजिक एकीकरण बढ़ता है । मार्क्स का अभिव्यक्ति अधिक होती है । मत इसके विपरीत है कि दलों के संगठित होने से संघर्ष का ध्रुवीकरण होता है और हिंसात्मक अभिव्यक्ति अधिक होगी I
3.संघर्षरत दलों का संघर्ष जितना तीव्र होगा उन दलों का संगठन और आंतरिक व्यवस्था , उतनी ही अधिक संगठित होगी ।
4.संघर्षरत दल जितने ही कम संगठित होंगे , और अगर संघर्ष की मात्रा तीव्र होगी तो दलों में तानाशाही की प्रवृत्ति बढ़ेगी ।
5.यदि संघर्ष तीव्र होगा . और संघर्षरत लोटे या अल्पसंख्यक होंगे तो उनमें आंतरिक एकता बढ़ेगी ।
6.संघर्षरत दल जब आत्मरक्षा के लिए संघर्ष करेगा तो उसका संगठन तथा एकता होगी । सिम्मल के विचारों की तलना मार्क्स के विचारों से करने स्पष्ट है कि मार्क्स सामाजिक संघर्ष का आनवार्य घटना मानते हैं , जबकि सिम्मेल सहयोगात्मक और असहयोगात्मक दोनों प्रवृत्तिया को महत्त्व देता है । मार्क्स के अनुसार संघर्ष से समाज परिवर्तित होता है जबकि सिम्मेल कहते हैं कि प्रत्येक संघर्ष परिवर्तन नहीं लाता है ।
संघर्ष से परिवर्तन :
1.एकता 2 . संगठित होकर संघर्ष
3.तीव्र संघर्ष एवं 4 . तानाशी की प्रवृत्ति
राल्फ डेहरेन्डार्फ :
1929 में जन्मे जर्मन समाजशास्त्री राल्फ डेहरेन्डार्फ , मार्क्स के स्वदेशी हैं । मार्क्स की तरह वह भी द्वन्द्वादी योजना के आधार संघर्ष सिद्धांत की व्याख्या करते हैं किन्तु संघर्ष के अन्य मुद्दों पर इन दोनों के विचारों में गहरे मतभेद दिखाई पड़ते हैं । संघर्ष सिद्धांत की व्याख्या इन्होंने अपनी पुस्तक ” क्लास एण्ड क्लास कंफ्लिक्ट इन इण्डस्ट्रियल सोसायटी “(Class and Class Conflict in Industrial Society) 1959 में तथा ” टोडिस के जेनरल थ्योरी ऑफ सोशियोलॉजी में की है । उन्होंने अपने सिद्धांत को यूरोप और अमेरिका के आधुनिक औद्योगिक समाज के संदर्भ में प्रस्तुत किया है । डेहरेन्डार्फ ने कहा है कि किसी भी समाज व्यवस्था के दो पहलू होते हैं–
1.सर्वसम्मति एवं 2.संघर्ष ।
पारसन्स सहित अन्य प्रकार्यवादियों ने सहमति वाले पक्ष पर काफी प्रकाश डाला है , जबकि समाज के दूसरे पहलू संघर्ष की उपेक्षा की है ।
अपने सिद्धांत में डेहरेन्डार्फ मार्क्स से द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया तथा वेबर से सत्ता और शक्ति की अवधारणा को सम्मिलित किया है । टर्नर ने डेहरेन्डार्फ के सिद्धांत के द्वन्द्वात्मक संघर्ष सिद्धान्त नाम दिया है । द्वन्द्वात्मक इसलिए कि किसी भी समाज में संघर्ष दो वर्गों के बीच निरन्तर चलता रहता है ।
डेहराडार्फ के अनुसार वर्ग निर्माण का आधार शक्ति एवं सत्ता है । शक्ति एवं सत्ता के असमान विभाजन से ही समाज में दो वर्ग होते हैं–
1.दमनकारी या शक्तिशाली वर्ग एवं
2.दमित या शक्तिहीन वर्ग ।
दमनकारी वर्ग , वह है जो सत्ता पर काबिज होते हैं तथा यथास्थितिवाद चाहते हैं । दमित वर्ग वह है जिसके पास शक्ति एवं सत्ता का अभाव होता है तथा जो शासित होते है । ये हमेशा प्रयलशील रहते हैं कि शक्ति का पुनर्वितरण हो ।
डेहरेन्डार्फ के अनुसार किसी भी छोटे समूह औपचारिक संगठन या समुदाय अथवा पूरे समाज को “आदेश सूचक समन्वित समाज” की संज्ञा दे सकते हैं । इनका कहना है कि किसी भी आदेश – सूचक समन्वित समाज में शक्ति एवं सत्ता का न केवल असमान वितरण होता है बल्कि उस पर चलता रहता है । इस संघर्ष के फलस्वरूप शक्तिहीन वर्ग शक्तिशाली वर्ग को पराजित कर सता प्राप्त कर लेता है । इस तरह सामाजिक परिवर्तन होता है ।
अपनी पुस्तक ” क्लास एण्ड क्लास कंफ्लिक्ट ” में उन्होंने संघर्ष के बारे में निम्नलिखित प्रस्ताव दिये हैं–
1.किसी भी आदेश – सूचक समन्वयित समाज के लोगों में वास्तविक समाज के बारे में जितना अधिक चेतना होगी उतनी ही अधिक उनकी संघर्ष करने की संभावना होगी।
2.अधिक तकनीकी, राजनैतिक और सामाजिक दशाओं की आवश्यकताओं की। पूर्ति संगठन में होगा, उसी तरह संघर्ष अधिक तीव्र होगा।
3.दमनकारी और दमित समूहों में जितना कम गतिशीलता होगी उतना ही अधिक होगा।
4.संघर्ष जितना अधिक गहरा, सघन और हिंसात्मक होगा, उतना ही अधिक सामाजिक परिवर्तन होगा।
आलोचना: आर० के० मर्टन एंड अमिटाई इटज्योनी का कहना है कि उसने समाज में संघर्ष की प्रक्रिया को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है और सहयोग की भूमिका को अनदेखा कर दिया गया है।
कोजर का मानना है कि उन्होंने संघर्ष के ऐसे योगदानों की चर्चा नहीं की है जो सामाजिक स्थिति को मजबूत करता है।
प्रकार्यवादी सिद्धांत:
सर्वप्रथम ‘FUNCTION’ शब्द की चर्चा हरबर्ट स्पेन्सर की रचनाओं में आई लेकिन FUNCTION शब्द की वैज्ञानिक अवधारणा के रूप में प्रयोग करने का श्रेय फ्रेंच विचारक इमाइल दुर्शीम ने अपनी पुस्तक The rules of sociological Method (1895) में की है। उनके अनुसार टाइप्य किसी व्यवस्था की किसी भी इकाई का वह योगदान जो व्यवस्था की आवश्यकता पूर्ति में सहायता प्रदान करता है उसे ‘प्रकार्य’ कहते हैं।] में हे प्रकार्य को दो भागों में बाँटा है–
1.धनात्मक प्रकार्य (Positive function)
2.ऋणात्मक प्रकार्य (Negative Function)
धर्म को जहाँ में उसने कई धनात्मक प्रकार्यो – अनुशासन, संगठन आदि की चर्चा की वहीं आत्महत्या के ऋणात्मक प्रकारों की चर्चा की है। इमाईल दुर्थीम के बाद प्रकार्य शब्द पर विशद विश्लेषण हमें रेडक्लिफ ब्रान और मौलिनोस्की की रचनाओं में मिलता है। रेडक्लिफ ब्र ने ने टाइप्य शब्द को दो भागों में बाँटा है–
1.यूनोमिया (Eunomia)
2.डिस्नोमिया (Dysnomia)
यूनोमिया से इनका तात्पर्य इकाई का इंतजाम स्वाभाव प्रभाव से है और डिसनोमिया से तात्पर्य हानिकारक प्रभाव से है।
बी0 मौलिनोस्किनी ने अपनी पुस्तक A Scientific Study of Culture and Argonoutes of the Western Pacific में प्रकार्यावाद का विशद विश्लेषण किया। ब्रून और मौलिनोस्किी दोनों विद्वानों ने टाइप्यवाद के तीन मौलिक मान्यताओं की चर्चा की है–
1.यूनिवर्सल टाइपिज्म (Universal Functionalism)
2.प्रकार्यात्मकता (Functional Unity) और
3.प्रकार्यात्मक अपरिहार्यता (Functional Indespensability)
सार्वभौमिक प्रकारवाद की मान्यता के अनुसार सामाजिक व्यवस्था की प्रत्येक इकाई। किसी–न–किसी प्रकार्य में योगदान देता है। अतः कोई भी इकाई ऐसी नहीं है जो कुछ–न–कुछ सहयोगात्मक न हो। इसलिए सम्पूर्ण इकाईयाँ प्रकार्यात्मक होते हैं। इस सिद्धांत को सार्वभौमिक प्रकार्यावाद कहते हैं।
प्रकार्यात्मक एकता से तात्पर्य यह है कि जब व्यवस्था की सारी ईकाइयाँ प्रकायात्मक हा हैं तो इन सभी इकाइयों में एकता स्थापित होती है । इस तरह प्रत्येक इकाई सहयोगात्मक की होती है । अतः सभी इकाई अपना–अपना प्रकार्य करते हुए प्रकार्यात्मक एकता बनाए रखता है l प्रकार्यात्मक अपरिहार्यता से तात्पर्य यह है कि जब सारी इकाईयाँ प्रकार्य करता ह साथ ही प्रकार्यात्मक एकता स्थापित किये होती है तो उसमें से कोई भी इकाई की व्यवस्था स हटाया नहीं जा सकता है । अतः प्रत्येक इकाई का अपना महत्त्व है इसलिए किसी भी इकाइका व्यवस्था से निष्कासित नहीं किया जा सकता है ।
आधुनिक समाजशास्त्रीय जगत में प्रकार्यवाद का व्यापक विश्लेषण अमेरिकी समाजशास्त्री आर० के मर्टन ने किया । इन्होंने अपनी पुस्तक The Social Theory and Social Structure में न केवल प्रकार्यवाद को समाजशास्त्रीय जगत में वापस लाया बल्कि इसकी पुनव्याख्या का ।
प्रकार्यवादी सिद्धांत के प्रमुख समर्थक टॉलगट पारसन्स हैं इन्होंनी अपनी पुस्तक The Structure of Social Action ( 1837 ) तथा The Social System ( 1851 ) में प्रकार्यवाद का स्थापित करने का प्रयास किया है । इनके अनुसार , किसी भी सामजिक व्यवस्था का तीन पूर्व आवश्यकताएँ (Pre-requisties) होती है ।
1.जैविकीय पूर्व आवश्यकताएँ (Biological Pre-requisites)
2.सांस्कृतिक पूर्व आवश्यकताएँ (Cultural Pre-requisites) एवं,
3.प्रकार्यात्मक पूर्व आवश्यकताएँ (Functional Pre-requisites)
पारसन्स ने इन तीन पूर्व आवश्यकताओं में सबसे अधिक बल प्रकार्यात्मक पूर्व आवश्यकता पर दी है और बतलाया है कि किसी भी समाज व्यवस्था की चार प्रकार्यात्मक पूर्व आवश्यकताएँ होती हैं जिनकी पूर्ति उस व्यवस्था की चार उप–व्यवस्थाएँ करती हैं । ये चार पूर्व आवश्यकताएँ हैं–
1.प्रतिमान निरूपण एवं तनाव की मुक्ति (Latency)
2.लक्ष्य की प्राप्ति (Goal Attainment)
3.अनुकूलन (Adaptation) एवं
4.एकीकरण (Integration)
इसे संक्षेप में AGIL भी कहा जाता है । साथ ही चार पूर्व उप–व्यवस्थाएँ भी हैं–
1.मूल्य व्यवस्था (Value System)
2.राजनीतिक व्यवस्था (Political System)
3.आर्थिक व्यवस्था (Economic System) एवं
4.सामाजिक व्यवस्था (Social System)
मूल्य – व्यवस्था जहाँ Latency की आवश्यकता की पूर्ति करती है वहीं राजनीतिक व्यवस्था लक्ष्य – प्राप्ति से संबंधित आवश्यकताओं की पूर्ति करती है ; अर्थव्यवस्था का संबंध अनुकूलन से तथा एकीकरण का संबंध सामाजिक व्यवस्था से है । इस तरह पारसन्स का कहना है कि यह चारों उप – व्यवस्थाएँ क्रमशः चार तरह की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । इसे संक्षेप में इस रह देख सकते है–
Sub – System Pre – requisites
Value Latency
Political Goal
Economic Adaptation
Social Integration
इसके अलावा पारसन्स ने पाँच जोड़े Pattern Variables की चर्चा की है । इसमें उन्होंने यह बतलाया है कि यदि कोई कर्ता किसी भी क्रिया को करना चाहता है तो उसके समक्ष दो विकल्प होते हैं जिसमें से वह किसी एक को चनता है तथा सामाजिक क्रिया करता है । यह पाँच जोड़ Pattern Variable निम्नलिखित है ।
1.अनुशासन मुक्ति बनाम अनुशासन बद्धता
2.स्वहित बनाम परहित
3.विशिष्टवाद बनाम सार्वभीमिक
4.अंश बनाम सम्पूर्ण एवं
5.प्रदत्त बनाम अर्जित
अतः स्पष्ट है कि पारसंस ने सामाजिक परिवर्तन को समझने के लिए बारीक विश्लेषण किया है ।
आर० के० मर्टन :
अमेरिकी समाजशास्त्री राबर्ट किंग्सले मर्टन ने समाजशास्त्रीय जगत में प्रकार्यवादी विश्लेषण पर काफी बल दिया है अतः उन्हें प्रकार्यवाद के समर्थकों में से एक माना जाता है । मर्टन न केवल पारसन्स के समकालीन हैं बल्कि उनके शिष्य भी रह चुके हैं , फलस्वरूप मर्टन पर पारसन्स का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है । टॉलकट पारसन्स के अलावे मैक्स – वेवर तथा डव्ल्य० आई० थामस ( W.I.Thomas) का प्रभाव भी मर्टन पर पड़ा है । मर्टन ने मैक्स वेवर के सामाजिक क्रिया के ‘ Frame Work ‘ को स्वीकार करते हुए उनके विश्लेषण की तकनीकी को भी स्वीकार किया है । इसी तरह ने डब्ल्यू० आई० थामस के सामाजिक घटनाओं के विश्लेषण में सामाजिक परिस्थिति की महत्ता को भी स्वीकार किया है । यद्यपि मर्टन सर सामाजिक क्रिया के सिद्धांत तथा सामाजिक व्यवहारवाद ( Social Behaviour ) का काफी प्रभाव पड़ा है , लेकिन सामाजिक घटनाओं के विश्लेषण में मर्टन का दृष्टिकोण बिल्कुल अलग है । मर्टन की अध्ययन – पद्धति को पैराडाइम ( Paradiom ) कहते हैं जिसके आधार पर उन्होंने प्रकार्यवाद के विश्लेषण को प्रस्तुत किया है ।
प्रकार्यवादी विश्लेषण कोई नई घटना नहीं है बल्कि इस तरह के विचार हमें पूर्व के समाजशास्त्रियों एवं सामाजिक की रचनाओं में देखने को मिलता है । लेकिन समाजशास्त्रीय जगत में इस विचारधारा को पुनः लाने और इसे स्थापित कर सवल आधार देने का श्रेय मर्टन को ही जाता है । मर्टन ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि प्रकार्यवाद के संबंध में हमें लिखित सामग्री बहुत मिलती है । साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण (Functional analysis) पद्धति , सिद्धांत एवं तथ्य तीनों पर आधारित है (Method Principles & Facts) जिसमें सबसे कमजोर पथ पद्धति का ही है l
मर्टन ने प्रकार्य (Function) शब्द को न केवल समाजशास्त्र में लाया बल्कि इसकी पुनः व्याख्या की और इसके अलावे अन्य अवधारणाओं जैसे – प्रकार्य तथा अनेक प्रकारों प्रकट (Manifest) एवं अप्रकट (Latew) आदि की चर्चा की । मर्टन से पहले दर्शीम (Durkheim) रेडक्लीफ ब्राउन (R. Brown) , मौलिनोवस्की (Malinowski) आदि विद्वान प्रकार्यवाद की चर्चा कर चुके थे । ब्राउन एवं मैलिनोवस्की ने प्रकार्यवाद की तीन मान्यताओं की चर्चा की थी । पहली , समाज का हर तत्व निश्चित रूप से बने रहने में योगदान देता है यदि ऐसा नहीं करे तो वह अस्तित्वहीन हो जाएगा । दूसरी , सभी तत्वों के बीच प्रकार्यात्मक एकता पायी जाती है एवं तीसरी . किसी भी तत्व को अलग नहीं किया जा सकता है । मर्टन ने इन तीनों ही मान्यताओं का खण्डन किया।
रेडक्लिफ ब्राऊन एंड मौलिनोवस्की द्वारा प्रतिपादित प्रकार्यावाद की पहली मान्यता का खण्डन करते हुए मर्टन ने लिखा है कि मानवशास्त्रियों ने इस मान्यता के आधार पर समाज का जिस प्रकार व्यावहारिकता का उल्लेख किया है, उसकी वास्तविकता परीक्षण या द्वारा ज्ञात करना आवश्यक हैं। यह सच है कि प्रत्येक समाज में कुछ एकता अवश्य विद्यमान होती है लोकना समाजा म एकाकरण का यह स्तर अलग – अलग हो सकता है। इसकी तात्पर्य यह है कि समाज में जो ‘प्रचलन‘ व्यवहार प्रकार कार्यात्मक होते हैं, दूसरे समाज या समूह में अकार्यवादी भा हा सकते हैं। इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण करते समय विभिन्न इकाइयों के प्रकारों की विशेषताओं को निश्चित रूप से समझा जाए। इसी की सहायता से यह समझा जा सकता है कि किसी विशेष समाज में सामाजिक एकीकरण उत्पन्न करने में विभिन्न इकाईया के प्रकार्य कैसे और कितना योगदान करते हैं।
ब्राउन एवं मौलिनोवस्की की दूसरी मान्यता का खण्डन करते हुए मर्टन ने कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि संस्कृति के स्थापित तत्व के रूप में प्रत्येक परम्परा समाज को बनाए रखने में निश्चित ही सहयोगी हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जो परम्पराएँ कई पीढ़ियों तक समाज को सुरक्षित प्रदान करती रहती है वे कभी – कभी या किसी विशेष अवधि में या तो अनुपयोगी सिद्ध होने लगती है या समाज में परिवर्तन की दशा उत्पन्न कर देती है। उदाहरणार्थ, भारत में जाति प्रथा के परम्परागत प्रकार्य वर्तमान समय में उसके अकार्य बन गए हैं और यह प्रथा सामाजिक व्यवस्था को पशु प्रदान करने की जगह उसमे परिवर्तन उत्पन्न करने लगी है। इस प्रकार मर्टन यह स्वीकार नहीं करता है कि किसी भी इकाई के प्रकार्यो की प्रकृति सार्वभौमिक होती है। उनका कथन है कि संस्कृति या सामाजिक संरचना का कोई तत्व प्रकार कार्यात्मक भी हो सकता है, लेकिन यह मान लेना उचित नहीं है कि ऐसा प्रत्येक तत्व कोई न कोई प्रकार्य अवश्य होगा।
ब्राऊन एवं मौलिनोवस्की की तीसरी मान्यता को भी अस्वीकार करते हुए मर्टन ने कहा है कि ऐसा नहीं है कि ‘प्रत्येक प्रकार की सभ्यता‘ रीति – रिवाज, भौतिक तत्व, विचार और विश्वास आदि कुछ सामाजिक प्रकारों को पूरा करते हैं। मर्टन का कथन है कि इस वाक्यांश से यह पता नहीं चल रहा है कि इसके द्वारा मैलिनोवस्की टाइप्य की अपरिहार्यता को स्पष्ट करना चाहते हैं या उनका तात्पर्य सांस्कृतिक तत्वों की अपरिहार्य से है। वास्तविकता यह है कि टाइप्य की अपरिहार्य की मान्यता को दो परस्पर संबंधित दशाओं के आधार पर ही समझा जा सकता है। पहला यह की कुछ प्रकार्य इसलिए अपरिहार्य होते हैं कि यदि वे अपना कार्य के द्वारा न तो समाज के अस्तित्व को बनाकर रख सकते हैं। इसकी तात्पर्य यह है कि प्रत्येक समाज में कुछ प्रकार्य वे होते हैं जो समाज का निर्माण करने वाली पूर्व परिस्थितियों को उत्पन्न करते हैं। उन्हें मर्टन ने समाज की “टाइपस्टिक पूर्व संस्थानों” (कार्यात्मक पूर्व – आवश्यकताएं) कहा और उसी के आधार पर उन्होंने ‘टाइपस्टिक पूर्व‘ आवश्यकताओं के संदर्भ को प्रस्तुत किया। दसरी दशा की चर्चा करते हुए मर्टन ने बतलाया कि प्रत्येक समाज के कुछ निश्चित सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूप होते हैं जो इन टाइपो को पूरा करने में सहयोग देते हैं। इस मान्यता को सरल रूप से प्रस्तुत करते हुए मटेन ने कहा कि जिस प्रकार समान प्रकृति के तत्वों के एक दसरे से भिन्न प्रकृति वाले कई प्रकार्य होते हैं, उसी प्रकार एक ही तरह का प्रकार्य कई इकाइयों से भी संबंधित हो सकता है। इसकी तात्पर्य है कि मर्टन ने टाइप्य की अपरिहार्यता का इसका संबोधित रूप में “प्रकार्यात्मक विकल्प (Functional-alternatives) के रूप में प्रस्तुत किया।
मर्टन का कहना है कि प्रकार्य शब्द की व्याख्या के क्रम में अनेक विद्वान इसे अब तक अनेक रूप में व्यवहार कर चुके हैं । अतः एक शब्द प्रकार्य के लिए विविध अवधारणाओं की एक समस्या खड़ी हो गयी है । प्रकार्य शब्द का प्रयोग उपयोगिता , उद्देश्य , परिणाम , लक्ष्य आदि – आदि के रूप में अब तक किए गए हैं । इनका यह भी कहना है कि प्रकार्य की अवधारणा वैषयिक ( Objective ) एवं अवलोकनीय है । प्रकार्य की परिभाषा देते हुए इन्होंने लिखा है कि किसी भी इकाई अथवा तत्व की वह गतिशीलता जो इस व्यवस्था को बने रहने में मदद दे या दूसरी व्यवस्थाओं के साथ अनुकूलन में मदद दे तो उसे प्रकार्य कहते हैं । मर्टन का कहना है कि हर इकाई न तो हमेशा प्रकायामक होती है और न ही सार्वभौमिक । यहीं उन्होंने दुर्थीम , ब्राउन एवं मैलिनोवस्की के विचारों की आलोचना की है । इसका कहना है कि हर व्यवस्था में कुछ ऐसी इकाइयाँ होती हैं जो व्यवस्था की आवश्यकता की पूर्ति में बाधा डालने की चेष्टा करती है या बाधा डालती है या फिर व्यवस्था के संतुलन को कमजोर करती है । अतः ऐसी क्रियाशीलता प्रकार्य न कहलाकर अकार्य कहलाती है । इस तरह यह मर्टन ने अकार्य शब्द की चर्चा की है । इनका यह भी कहना है कि एक ही तत्व व्यवस्था के लिए एक समय में प्रकार्यात्मक हो सकता है दूसरे समय में अकार्यात्मक भी । साथ ही , जो एक समूह के लिए प्रकार्यात्मक है वह दूसरे के लिए अकायामक हो सकता है अतः फिर ब्राउन एवं मैलिनीवस्की के खिलाफ इनका कहना है कि हर तत्व का समाज में बना रहना आवश्यक नहीं है , जो तत्व अकार्यात्मक हो चुके हैं उन्हें हटाया जा सकता है । इस आधार पर इन्होंने तत्वों की अपृथकता भी मान्यता को भी अस्वीकार कर दिया है ।
स्पष्टतः मर्टन के अनुसार समाज के हर तत्व के दोनों ही पक्ष होते हैं । किसी भी तत्व की वह क्रियाशीलता जो व्यवस्था को धनात्मक योगदान करती है वह प्रकार्य कहलाता है जो ऋणात्मक योगदान करती है वह अकार्य कहलाता है । उदाहरणार्थ यदि धर्म किसी भी समाज में लोगों को एकता के सूत्र में बाँधता है , जिससे समाज का संगठन मजबूत होता है तो यह धर्म का प्रकार्य है । लेकिन यदि धर्म आपस में ईर्ष्या , द्वेष और वैमनस्य को फैलाता है जिसके फलस्वरूप धार्मिक दंगे होते हैं तो यह धर्म का अकार्य है । इस तरह प्रकार्य और अकार्य को अनेकों उदाहरण द्वारा समझाया जा सकता है । उदाहरणस्वरूप , किसी भी संगठन द्वारा यदि अपने कर्मचारियों को कालबद्ध पदोन्नति देने की व्यवस्था है और यदि इससे कर्मचारियों की कार्य – कुशलता बढ़ती है , उनके बीच की आपसी प्रतिद्वन्द्विता घटती है तो यह इसका प्रकार्य है । लेकिन कालबद्ध प्रोन्नति के परिणामस्वरूप कर्मचारियों में शिथिलता आती है और यह उनकी कार्य – कुशलता को घटाती है तो यह इसका अकार्य है ।
प्रकार्य , अकार्य के अलावे मर्टन ने नकार्य [Non-Function] का भी उल्लेख किया है । इनके अनुसार हर व्यवस्था में कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो न तो व्यवस्था को तोड़ने की चेष्टा करते हैं और न ही इसके संगठन को मजबूत रखते हैं । ऐसे तत्वों को ही मर्टन ने नकार्य कहा है , जैसे – पर्दा – प्रथा । मध्यकाल में चाहे प्रदा – प्रथा के जो भी प्रकार्य रहे हों लेकिन आज के इस औद्योगिक समाज में इसकी कोई प्रकार्यात्मक महत्ता नहीं है । फिर भी यह निम्न मध्यम वर्गीय कुछ मुस्लिम परिवारों में प्रचलन में है जिसका कोई अकार्यात्मक पक्ष भी नहीं है । इस तरह नकार्य वह है जिसका व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
अकार्य की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए मर्टन का कहना है कि जब समाज में इसकी मात्रा काफी बढ़ जाती है और सामाजिक नियंत्रण के अधिकरण इन्हें रोकने में असमर्थ हो जाते हैं तो समाज में परिवर्तन अवश्यम्भावी हो जाती है । इस तरह मर्टन के अनुसार अकार्यात्मक विधि बढ़ने से ही व्यवस्था में परिवर्तन आता है ।
अपने विश्लेषण के क्रम में मर्टन ने प्रकार्य एवं अकार्य को पनः दो भागों में बाँटा है – प्रकट एवं अप्रकट । मर्टन ने दोनों शब्दों को फ्रायड के स्वप्न के सिद्धांत से लिया है । इनके अनुसार । प्रकट प्रकार्य , उस प्रकार्य को कहते हैं जो समाज के सदस्यों द्वारा इच्छित एवं स्पष्ट रूप स प्रमाणित होता है । दूसरी तरफ अप्रकट प्रकार्य उसे कहते हैं जो न तो इच्छित होता है और न हा स्पष्ट रूप से प्रमाणित । इनके अनसार अप्रकट संबोधन से समाजशास्त्रियों को एक नवीन दृष्टि प्रदान होती है जिससे वह अनुसंधान कार्य में और प्रवीण हो जाता है । अतः मर्टन के अनुसार समाजशास्त्रियों का काम समाज के बाकी छिपे रहस्यों का पता लगाना है । प्रकट एव अप्रकट का कई उदाहरणों से समझा जा सकता है । मर्टन ने होपी जनजाति का उदाहरण दिया है । इनका कहना है कि इस जनजाति के लोग वर्षा लाने के लिए एक साथ इकट्ठा होकर कुछ सासारिक अनुष्ठान करते हैं । इस अनुष्ठान से वर्षा तो नहीं होती पर होपी जनजाति के विखड़े सदस्य एक जगह जमा होकर सामूहिक रूप से कार्य करते हैं , उनकी एकजुटता मजबूत होती है । यह मामूली उपलब्धि नहीं है । यही इस अनुष्ठान का अप्रकट प्रकार्य है । इसी तरह निकटाभिगमन निषेध आज दुनियाँ के सभी समाजों में मान्य है । इसका प्रकट प्रकार्य यह है कि इससे परिवार में यौन संबंध के लिए ईर्ष्या एवं झगड़े नहीं होते । अतः परिवार संगठित रहता है पर इसका अप्रकट प्रकार्य यह है कि निकट रक्त संबंधियों के बीच यौन संबंध निषेध से बच्चे बदसूरत एवं अपंग नहीं होते ।
थर्सटीन बेवलीन ने बताया कि कीमती चीजों को खरीदना विलासी वर्ग में काफी प्रचलित है । कीमती चीजों के खरीदने का प्रकट प्रकार्य यह है कि यह हमारी जरूरतों की पूर्ति करता है , पर इसका अप्रकट प्रकार्य यह है कि यह खरीदने वाले की उच्च आर्थिक हैसियत का सूचक वन जाता है।
इसी तरह अकार्य के भी प्रकट एवं अप्रकट स्वरूप को समझा जा सकता है , जैसे – किसी कारखाने में कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी तो इसका प्रकट अकार्य यह है कि इससे उत्पादन ठप पड़ जाता है , पर यदि हड़तालियों ने आमरण अनशन कर दिया और उसमें से कोई एक कर्मचारी मर गया तथा कर्मचारियों ने कारखाने में तोड़ – फोड़ कर दी तो यह अप्रकट अकार्य है , क्योंकि इसकी आशा किसी ने नहीं की थी ।
उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि मर्टन ने प्रकार्यात्मक विश्लेषण की एक विस्तृत रूप – रेखा प्रस्तुत की है । लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से मर्टन संहित प्रकार्यावाद की भी तीखी आलोचना की गयी है और यह सिद्धान्त लोकप्रियता की दृष्टि से कमजोर साबित हुआ है । इसका प्रमुख कारण यह है कि इन वर्षों में समाजशास्त्र के क्षेत्र में अनेक उपयोगी पद्धतियों का विकास हुआ है – जैसे विनिमय – सिद्धान्त , लोकविधि विज्ञान आदि । इसके अतिरिक्त प्रकार्यवादी विश्लेषण अनेक ऐसी मान्यताओं को लेकर चलता है जिसकी व्यवस्था की जाँच आवश्यक है क्योंकि उन्हें किसी भी रूप में स्वयंसिद्ध नहीं माना जा सकता । पर्शियस कोहन (Percys Cohen) ने प्रकार्यवाद से संबंधित समस्त आलोचनाओ को तीन भागों में बाँटा है–
1.तार्किक
2.मौलिक एवं वैचारिकीय
3.तार्किक
आलोचनाओं में कोहेन के अनुसार प्रकार्यवाद उद्देश्यपरक व्याख्या को बढ़ावा देता है । यह ऐसी उपकल्पनाओं का सुझाव देता है जो जाँच के योग्य नहीं है साथ ही , यह ऐसे वैज्ञानिक स्तर की जाँच करता है जो समाजशास्त्र में विद्यमान नहीं है ।
मौलिक आलोचनाओं में कोहेन का कहना है कि प्रकार्यवाद सामाजिक जीवन में आदर्शात्मक तत्वों पर आवश्यकता से अधिक बल देते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि सामाजिक स्थायित्व की कीमत पर सामाजिक संघर्ष के महत्त्व को कम कर देता है । प्रकार्यवाद में सामाजिक व्यवस्था के सामंजस्यपूर्ण प्रकृति पर इतना जोर दिया गया है कि यह सामाजिक परिवर्तन के महत्त्व को समझाने में असफल रहता है । वैचारकीय आलोचनाओं में कोहेन के अनुसार प्रकार्यवाद रूढ़िवादी पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देता है । इसके पीछे तर्क यह है कि प्रकार्यवाद सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न भागों के बीच सामंजस्य – पूर्ण संबंधों पर बल देकर यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि सभी व्यवस्थाएँ विश्व की सबसे अच्छी सम्भावित विशेषताओं में से है ।
मर्टन की आलोचना करते हुए कहा गया है कि वे यह निश्चय नहीं कर पाए हैं कि उनके सिद्धांत में अध्ययन पद्धति की क्या भूमिका होगी । साथ ही , मर्टन के प्रकार्य और अकार्य की अवधारणाएँ काफी अस्पष्ट हैं क्योंकि इनके अनुसार कोई भी परिणाम किसी के लिए प्रकार्यात्मक हो सकते हैं तो दूसरे के लिए अकार्यात्मक । ऐसी स्थिति में प्रकार्य एवं अकार्य के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं खींची जा सकती है । मर्टन का कहना है कि समाज में जब अकार्य की मात्रा बढ़ती है तो परिवर्तन होता है । लेकिन , आलोचकों का कहना है कि अकार्य ही मात्रा बढ़ने से समाज में परिवर्तन नहीं होगा बल्कि समाज का विघटन होगा ।
ऊपर की समस्त चर्चाओं के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मर्टन का योगदान यह है कि इन्होंने प्रकार्यवाद को न केवल मानवशास्त्र से समाजशास्त्र के क्षेत्र में लाया बल्कि उसकी जीवन्तता भी प्रदान की । यद्यपि मर्टन की आलोचनाएँ की गयी हैं बल्कि यह सत्य है कि 20वीं सदी के पूर्वाद्ध में प्रकार्यवाद समाजशास्त्रीय जगत में एक सबल विचारधारा रही है ।
प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद
( Symbolic Interactionism )
19 वीं सदी के अन्त में सामाजिक सिद्धान्तकारों की रुचियों में परिवर्तन होता दृष्टिगत है | वृहद् आकार की सामाजिक संरचनायें तथा प्रक्रियाएँ जिनका अध्ययन मार्क्स , स्पेंसर तथा सामाजिक डार्विनवादियों ने वर्ग – संघर्ष , सामाजिक उद्विकास तथा सामाजिक निकाय जैसी अवधारणाओं के सृजन से किया था , मुख्य विश्लेष्य नहीं रह गई थी । इस सदी के प्रारम्भ के सामाजिक विचारकों ने अपना ध्यान वृहद् आकार की सामाजिक संरचनाओं से हटाकर मानव – सम्बन्धों की जटिलताओं की ओर देना प्रारम्भ कर दिया था । सामाजिक मानव की अन्तक्रियात्मक प्रकृति पर सामाजिक संस्थाओं की दृष्टि से विचार किए जाने की अपेक्षा कहीं अधिक ‘ सामाजिक संस्थाओं के मध्य व्यक्ति ‘ की दृष्टि से विचार किया जाने लगा । अर्थबोध ( Meaning ) को प्रतीक ( Symbol ) कहते हैं । आप हाथ के इशारे से किसी व्यक्ति को अपने पास बुलाते हैं , तो वह हाथ के इशारे ‘ क अर्थ समझ कर आपके समीप आता है । यह प्रतीकात्मक पारस्परिक क्रिया है । इस प्रकार की पारस्परिक क्रिया इसलिए समरूप होती है कि दोनों व्यक्तियों के पास प्रतीकों को समझने के लिए मन ( Mind ) है . समझ है । मन व्यक्ति का होता है या व्यक्ति के पास होता है , या यों कहें , मन ही व्यक्ति है । अगर व्यक्ति के पास अपना मन न होता तो क्या पारस्परिक क्रिया सम्भव होती ? क्या सामाजिक प्रक्रियाएँ वास्तव में मात्र व्यक्ति के मन में होने वाली प्रक्रियाएँ हैं ? ये सारे प्रश्न बड़े उलझे हुए हैं ।
प्रतीकात्मक पारस्परिक क्रियावाद के अन्तर्गत शिकागो स्कूल ( Chicago School ) . आयवा स्कूल ( lowa School ) और इर्विन गोफमेन के नाटककारीय दृष्टि – प्रारूप की विवेचना करेंगे । प्रतीकात्मक पारस्परिक क्रियावादी दृष्टिकोण के अनुसार संरचनायें नहीं , व्यक्ति व्यवहार करता है , और जब व्यक्ति व्यवहार करता है तो उसकी चेतना , जो अर्थबोध का स्वरूप है . कार्य करती है । वर्ग संघर्षरत नहीं होते हैं , व्यक्ति संघर्षरत होते हैं । अधिकारी तंत्र नहीं , बल्कि अधिकारी ( व्यक्ति ) नियम का पालन करता है । राष्ट्र नहीं , नागरिक जागता है । संगठित व्यवहार के मूल में भी व्यक्ति ही होता है । प्रतीकात्मक पारस्परिक क्रियावादी इस वास्तविकता पर ध्यान नहीं देते कि उद्देश्यपूर्ति के लिए लोग अपने आपको ‘ राष्ट्र ‘ या ‘ समूह ‘ के रूप में प्रस्तुत करते हैं । एक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से . बहुत से व्यक्ति अनेक व्यक्तियों से पारस्परिक क्रिया करते हैं । पारस्परिक क्रियाओं से प्रभाव उत्पन्न होते हैं , परिणाम निकलते हैं , जिन्हें समाज कहें , समूह कहें . संरचना कहें , मगर व्यक्ति से पृथक् इन सबका कोई अस्तित्व नहीं होता । अतः विश्लेषण की इकाई व्यक्ति , व्यक्ति में भी उसकी चेतना और चेतना एवं समाज के परस्पर सम्बन्धों से उत्पन्न ‘ स्व ‘ है ।
izrhdkRed vUr% fØ;kokn] vUr% fØ;k dh ,d ,slh fØ;k gS tks izrhdkRed gS vFkkZr ladsr ;k izrhdksa ds ek/;e ls gh O;fDr ijLij vUr%fØ;k djrs gSaA bu ladsrksa ;k izrhdksa dk fuekZ.k lekt ds O;fDr;ksa }kjk fd;k tkrk gS os gh ladsrksa ds fo’ks’k vFkZ r; djrs gSaA
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प्रतीकात्मक अन्तक्रियावादी सिद्धान्त की मान्यताएँ
( Assumptions of Symbolic Interactional Theory )
( 1 ) प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद सामाजिक संगठन को एक सावयवी प्रक्रिया ( Organic process ) मानता है ।
( 2 ) सामाजिक संरचनाएँ तथा अन्तक्रियाएँ अनिवार्यतः सावयविक व गतिशील प्रकृति की होती हैं ।
( 3 ) व्यक्ति का सामाजिक जीवन मूलतः मानवीय गतिविधियों के निर्वचन , मूल्यांकन , परिभाषा एवं मानचित्रण ( Mapping ) का परिणाम है ।
( 4 ) सामाजिक जीवन का अध्ययन अन्तक्रिया कई वैयक्तिक इकाइयों ( स्वयं व्यक्ति व उसका प्रतीकात्मक व्यवहार ) पर केन्द्रित होनी चाहिए ।
( 5 ) व्यक्ति की प्रतीकात्मक रूप से अर्थपूर्ण वस्तुओं के निर्माण की क्षमता पर ध्यान केन्द्रित करके मानवीय अन्तक्रिया व इसके विकसित सामाजिक संगठन को समझा जा सकता है ।
( 6 ) सामाजिक संगठन का विकास सामाजिक जगत के बारे में व्यक्तियों के पारस्परिक निर्वचन , मूल्यांकन , परिभाषा व मानचित्रों द्वारा होता है न कि व्यवस्था की शक्तियों , सामाजिक आवश्यकताओं व संरचनात्मक क्रियाविधि द्वारा ।
( 7 ) प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद व्यवहार का चित्रण व्यक्तियों की साभिप्राय रचना ( Intentional construction ) के रूप में करता है ।
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अन्तःक्रियावाद की परिभाषाएँ
मार्विन ई ओल्सन “ प्रतीकात्मक सिद्धान्त का सम्बन्ध मुख्य रूप से उन विषयगत अर्थों से है जो लोग अपने तथा दूसरों की क्रियाओं का लगाते हैं ।
” बनार्ड फिलिप्स “ प्रतीकात्मक अन्त : क्रियावाद एक सैद्धान्तिक अभिमुखन है , जो परिस्थिति भूमिका तथा आत्मबिम्ब की व्यक्ति द्वारा दी गई परिभाषा पर प्रकाश डालता है ”
हरबर्ट ब्लूमर “ प्रतीकात्मक अन्त : क्रियावाद शब्द मनुष्यों में होने वाली विचित्र एवं विशिष्ट विशेषता वाली अन्तःक्रिया से सम्बन्धित है । ” अर्थात् इन्होंने मनुष्यों के बीच होने वाली अन्त : क्रिया को ही इसकी विषयवस्तु के रूप में स्वीकार किया है । .
मानिस – मेल्टजर “ प्रतीकात्मक अन्त : क्रियावाद का सम्बन्ध मानवीय व्यवहार के आन्तरिक पक्ष से है । ”
अन्तःक्रिया के प्रकार
अन्तःक्रिया तीन प्रकार की होती है
( i ) व्यक्ति और व्यक्ति के बीच की अन्त : क्रिया ।
( ii ) व्यक्ति और समूह के बीच की अन्तःक्रिया ।
( iii ) समूह और समूह के बीच की अन्त : क्रिया ।
ब्लूमर समाज को अन्त : क्रिया की निरन्तर होने वाली प्रक्रिया के रूप देखते हैं ।
उसकी दृष्टि में प्रतीकात्मक अन्तर्कियावाद मुख्यतः तीन केन्द्रीय मान्यताओं पर आधारित है
-1 . मानव समाज व्यक्तियों से बना है , जो स्व युक्त होते हैं । मानव – प्राणी बाह्य संवेगों के प्रति प्रतिक्रिया करने की अपेक्षा वस्तुओं को अपने द्वारा दिए गए अर्थों के आधार पर किया करता है । इसलिए प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद सामाजिक तथा दोनों ही निर्णयवादों का निरसन करता है ।
- व्यक्ति क्रिया करता है , जिसमें उसकी विशेषताओं का विश्लेषण सन्निहित होता है । व्यक्ति द्वारा घटनाओं का अर्थबोध किया जाना , अन्तक्रिया की प्रक्रिया पर निर्भर करता है । कुछ सीमा तक अर्थ का निर्माण , संशोधन , विकास तथा उसमें परिवर्तन किया जाता है किन्तु यह अन्तर्किया की स्थिति की सीमा के अन्दर होता है । अन्तर्किया में व्यक्ति दास की भाँति वर्तमान आदर्शों का अनुसरण नहीं करते या यंत्रवत् प्रति – स्थापित भूमिका का निर्वाह नहीं करते ।
- अन्तक्रिया के दिए हुए सन्दर्भ में व्यक्ति विश्लेषणात्मक प्रक्रियाओं के द्वारा अर्थबोध करता है , अर्थात् विश्लेषण के द्वारा कर्ता दूसरों की इच्छाओं एवं अर्थों का विश्लेषण करते हैं । स्व – अन्तक्रिया की यान्त्रिकी के द्वारा व्यक्ति ” स्थिति की अपनी परिभाषा को संशोधित करता है या बदलता है . क्रिया के विकल्पों का पूर्वाभ्यास करता है तथा उनके सम्भावित परिणामों पर विचार करता है । इस प्रकार ब्लुमर मानता है कि क्रिया को निर्देशित करने वाला अर्थबोध अनेक जटिल विश्लेषणात्मक प्रक्रियाओं के सन्दर्भ में उत्पन्न होता है । ब्लुमर की मान्यता है कि मानव नयी स्थितियों के सृजन की क्षमता रखता है ।
अतः समाज को कर्त्ताओं की अन्तक्रिया की सदैव चलने वाली प्रक्रिया के रूप में परिभाषित करता है । मानव – समूह जीवन की तुलना एक यांत्रिकीय संरचना के परिचालन या संतुलन बनाये रखने वाली व्यवस्था के प्रकार्य से करने पर अत्यन्त कठिन स्थिति उत्पन्न हो जाती है
कोहन तथा आयवा सम्प्रदाय ( M. Cohen and Iowa School ) मफोर्ड कोहन तथा आयवा
विश्वविद्यालय में उसके अनुयायी भी प्रतीकात्मक अन्तर्किया सम्बन्धी विचारों की दृष्टि से हरबर्ट ब्लुमर तथा शिकागो सम्प्रदाय के विचारों के पक्षधर हैं लेकिन वे शिकागो सम्प्रदाय के पद्धति – शास्त्र के कटु आलोचक भी हैं । कोहन तथा उसके सयोगियों ने इस बात पर बल दिया है कि पद्धति शास्त्र में प्रतीकात्मक अन्तक्रिया की प्रक्रिया का विश्वसनीय यंत्रों से प्रमापन किये जाने से सम्बन्धित विचारों का समावेश किया जाना चाहिए | उन्होंने कुछ प्रमुख अवधारणाओं की प्रकार्यात्मक परिभाषाएँ दीं , जैसे – ‘ स्व ‘ , ‘ सामाजिक क्रिया ‘ तथा सामान्यीकृत दूसरे तथा उनके विश्वसनीय प्रमापन के लिए प्रश्नावली का निर्माण किया है । कोहन ने ‘ स्व ‘ को मापने के लिए प्रसिद्ध परीक्षण निकाला है । जिसे ‘ ट्वेन्टी स्टेटमेंट टेस्ट ‘ ( बीस कथन परीक्षण ) कहा जाता है । कोहन द्वारा प्रयुक्त उदाहरण के द्वारा कैसे ‘ स्व ‘ का अध्ययन किया जाए । इसे टी . एस . टी . ( ट्वेन्टी स्टेटमेंट टेस्ट ) के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है । मैं कौन हूँ ‘ का बीस उत्तर शीघ्रतापूर्वक देने के लिए उत्तरदाताओं से आग्रह करना इस विधि की विशेषताएँ हैं । शिकागो तथा आयवा सम्प्रदाय में काफी साम्य फिर भी दोनों में अनेक अंतर हैं । शिकागो सम्प्रदाय ने गतिशील तथा जैविकीय प्रक्रिया के वस्तुनिष्ठ विश्लेषण कार्य – कारण सम्बन्धों के अध्ययन के प्रयासों की अवहेलना की है , जबकि आयवा सम्प्रदाय ने शिकागो की इस उपधारणा के विरुद्ध तर्क दिया है । ब्लुमर ने ‘ स्व ‘ की प्रक्रियात्मक प्रकृति तथा परिवर्तित होते व्यवहार पर बल दिया है । कोहन ने मूल स्व ( कोर सेल्फ ) की अवधारणा पर बल दिया है तथा इसे अपेक्षाकृत स्थायी अर्थों एवं अभिवृत्तियों के रूप में परिभाषित किया है । लुमर की दृष्टि में व्यक्ति का व्यवहार स्वतः स्फूर्त होता है उसमें अनिश्चितता तथा अस्पष्टता के साथ – साथ ‘ आत्म – प्रेरणा ( स्वतः स्फूर्तता ) भी होती है तथा वह दुनिया का निर्माता होता है । इससे पृथक कोहन की दृष्टि में व्यक्तित्व संरचित तथा तुलनात्मक दृष्टि से स्थायी होता है अस्तु उसने मानव व्यवहार की निरन्तरता एवं पूर्वानुमेयता पर प्रकाश डाला है । ब्लुमर की दृष्टि में क्रिया का सक्रिय स्व – निर्देशन के द्वारा निर्माण होता है । यह एक रचना ( कन्स्ट्रक्शन ) है जबकि कोहन इसे सामूहिकता के प्रभाव में न्यूनाधिक रूप में ‘ विमोचन ‘ मानता है । ब्लुमर ने सामाजिक संगठन में प्रक्रियात्मक पक्षों पर प्रकाश डाला है , जबकि कोहन ने उसकी संरचनात्मक विशेषताओं पर । सामाजिक संरचना के प्रति अपनी ‘ अनिश्चयवादी . तथा अनिर्धारणवादी दृष्टिकोण के फलस्वरूप ब्लुमर ने इसे विश्लेषण की वस्तु के रूप में वर्णित किया है । जबकि कोहन का तर्क है कि सामाजिक जगत् ‘ निश्चयवादी है , निर्धारक भी है । अतः यह मूल – स्व ‘ के स्वरूप का निर्माण तथा निर्धारण करता है ।
जॉन किंच ने ‘ स्व ‘ की अवधारणा सम्बन्धी अन्तक्रियावादी विचारों के स्वरूपीकरण का प्रयास किया है ।
तदनुसार व्यक्ति में स्व की अवधारणा सामाजिक अन्तक्रिया से उत्पन्न होती है तथा उसके व्यवहारों का पथ – प्रदर्शन करती है । उसने प्रतीकात्मक अन्तक्रिया सिद्धान्त की निम्नांकित उपधारणाओं का निर्माण किया है :
- व्यक्ति की स्व – अवधारणा उसके इस प्रत्यक्षण पर आधारित होती है कि दूसरे किस प्रकार उसका प्रत्युत्तर देते हैं ।
- व्यक्ति की स्व – अवधारणा उसके व्यवहार का दिशा – निर्देश करती है ।
- अपने प्रति दूसरों के प्रत्युत्तर का व्यक्ति द्वारा प्रत्यक्षण उसके प्रति दूसरे के वास्तविक व्यवहार की अभिव्यक्ति होती है । इन प्रमेयों के आधार पर फ्रांसिस अब्राहम ने तीन अन्य प्रमेयों का निर्माण किया है जो व्यक्ति के व्यवहार निर्माण में दूसरों के प्रत्युत्तरों के प्रत्यक्षण से सम्बन्धित हैं । इन प्रस्थापनाओं में चार परिवर्त्य अन्तर्भूत हैं :
- व्यक्ति की स्व – अवधारणा ,
- अपने प्रति दूसरों के प्रत्युत्तरों का उसका प्रत्यक्षण ,
- उसके प्रति दूसरों का वास्तविक व्यवहार , तथा
- उसका व्यवहार । ‘
प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति के दैनिक जीवन में उत्पन्न होने वाली स्थितियों से लेकर युद्ध जैसी जटिल समस्याओं का विश्लेषण किया जाता है । इस परिप्रेक्ष्य में मानव का वर्णन अपनी स्थितियों को सक्रियतापूर्वक परिभाषित करने तथा क्रिया करने वाले प्राणी के रूप में किया गया है | ‘ स्व ‘ का प्रस्तुतीकरण , पर्यावरण के स्वार्थ साधन हेतु प्रयोग तथा दूसरों की परिभाषा के द्वारा शक्ति का प्रदर्शन किया जाता है । संसाधनों तथा स्थिति को परिभाषित करने की क्षमता का अभाव व्यक्ति को ऐसी स्थिति में डाल देता है , जहाँ दूसरे की परिभाषा पर व्यक्ति की निर्भरता बढ़ जाती है । इस विधि के महत्त्वपूर्ण बिन्दु निम्नांकित हैं :
- अन्तक्रिया द्वारा “ सामाजिक वस्तु ‘ परिभाषित होती है ।
- अन्तक्रिया द्वारा प्रतीक एवं भाषा परिभाषित होती है ।
- अन्तक्रिया से परिप्रेक्ष्य का उद्भव होता है ।
- अन्तक्रिया में ‘ स्व ‘ का जन्म होता है ।
- अन्तक्रिया में मन उत्पन्न होता है , क्योंकि मन स्व के साथ प्रतीकात्मक अन्तक्रिया को अभिव्यक्त करता है ।
- महत्त्वपूर्ण दूसरों के साथ अन्तक्रिया के दौरान भूमिका ग्रहण का जन्म होता उपर्युक्त समस्त तथ्य अन्तक्रिया को भी प्रभावित करते हैं । प्रतीकात्मक अन्तक्रियावादी परिप्रेक्ष्य सभी सामाजिक विज्ञानों के लिए महत्त्वपूर्ण एवं प्रासंगिक है । जिसमें मानव अन्तर्किया का सम्यक विवेचन समाज विज्ञान का केन्द्रीय लक्ष्य है । इसमें वास्तविक जीवन स्थितियों के द्वारा तथ्य संकलन किया जाता है । यह इस बात पर बल देता है कि क्रिया बाह्य तथा आन्तरिक दोनों प्रकार की होती है तथा बाह्य क्रिया
को समझने का अर्थ होता है . व्यक्ति के ‘ मस्तिष्क में प्रवेश करना ‘ । यह मानव क्रिया के बारे में नई प्रस्थापनाओं पर बल देता है । इस दृष्टि से यह क्रान्तिकारी है । विशेषतः समाजशास्त्र के लिए इसकी काफी उपयोगिता है । यह परम्परागत समाजशास्त्र का आलोचक है किन्तु समृद्धिकारी भी । समाज विज्ञानों की सीमा से बाहर भी , जैसे — मानविकी , सम्प्रेषण तथा दर्शन एवं अनेक व्यावसायिकों – सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा मनोचिकित्सकों के लिए भी यह परिप्रेक्ष्य काफी प्रासंगिक है ।
प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद की समालोचना ( Criticism of Symbolic Interactionism )
आलोचना ब्रिटन ( Brittan ) ने इस प्रकार की है ‘ :
-1 . प्रतीकात्मक क्रियावाद आत्म – चेतना को इतना अधिक महत्त्व देता है कि अचेतन मन को मामूली स्थान देता है । जबकि चेतन और अचेतन मन के दोनों स्तरों पर व्यवहारों को प्रभावित करते हैं ।
- मनुष्य की आवश्यकताओं , इच्छाओं और अभिप्रेरणाओं को महत्त्व नहीं दिया गया है । केवल स्थिति की परिभाषा को प्रधानता दी गई है ।
- प्रतीकात्मक क्रियावादी अर्थ – बोध से मनोग्रसित हैं । वे समाज को अर्थबोध या प्रतीकों का तमाशा मानते हैं । सामाजिक संरचना और सामाजिक परिवर्तन को अत्यन्त हल्केपन से समझते हैं ।
- स्थिति की परिभाषा से मनोग्रसित होने के कारण अस्थायी , अस्थिर और मात्र प्रासंगिक तथ्यों को महत्त्वपूर्ण मानकर अवलोकन करते हैं ।
प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद सामाजिक जीवन में प्रतीकों का महत्व
( Importance of Symbols in Social Life )
सामाजिक जीवन में प्रतीकों अत्यधिक महत्व होता है । प्रतीकों का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सामाजिक व व्यक्तिगत व्यवहारों का संगठन और नियन्त्रण करना है । इन प्रतीकों के माध्यम से व्यक्ति को व्यवहार करने का सही व संक्षिप्त तरीका सरलता से प्राप्त हो जाता है और वह सरलता से अपने को अपनी सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल कर लेता है । प्रतीक सामूहिक चेतना का सामूहिक प्रतिनिधित्व करता है । इस कारण इसमें व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करने की अपार शक्ति होती है । आधुनिक चित्रकला , नृत्य आदि एक प्रकार से प्रतीकों पर ही निर्भर है क्योंकि इनमें ऐसे प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है जिनके माध्यम से व्यापक विचार , भावना आदि को व्यक्त करना सरल हो जाता है । नृत्य में प्रतीकों का प्रयोग न किया जाए तो नृत्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा । इसी प्रकार राजनीतिक जीवन में भी प्रतीकों का महत्व हमें स्पष्टतः देखने को मिलता है । राष्ट्रीय जीवन के प्रतीक के रूप में राष्ट्रीय झण्डा राजनीतिक एकता तथा आत्मत्याग की भावना को जाग्रत करता है । राष्ट्रीय विपदा या संकट के समय समस्त भेदभावों को भुलाकर राष्ट्र के सभी नागरिक एक ही झण्डे के नीचे एकत्रित या संगठित हो जाते हैं और उस रूप में संकट का सामना करते हैं । चुनाव के समय में विभिन्न राजनीतिक दल विभिन्न प्रतीकों का प्रयोग करते हैं और उसी के आधार पर वोट माँगते हैं । उदाहरणार्थ , कांग्रेस का चुनाव – चिह्न ‘ हाथ का पंजा ‘ है यानी मजबूत संगठन का प्रतीक । इसके विपरीत भाजपा का चिह्न ‘ कमल का फूल ‘ स्वच्छ छवि की ओर संकेत करता है । इसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में प्रतीकों का अपना महत्व होता है । ‘ क्रॉस ‘ को देखते ही एक ईसाई के मन में धर्म व पवित्रता की भावना जाग्रत हो जाती है , पवित्र ‘ कुरान ‘ इस्लाम धर्म के मानने वालों में भाईचारे का भाव भर देती है और ‘ भगवद्गीता ‘ कर्मयोग द्वारा मुक्ति के पद को प्रशस्त करने का प्रतीक बनकर हिन्दुओं में नव – जीवन का संचार करती है । प्रतीक कायर को भी वीर बना सकता है – महान् आदर्शों से उसके व्यक्तित्व भावों को ओत – प्रोत कर सकता है और उसे सत्य की खोज में मर – मिटने की निष्ठा प्रदान कर सकता है । प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद ( Symbolic Interactionism ) व्यक्ति समाज में न तो अकेला है और न ही अकेले क्रिया करता है । एक सामाजिक प्राणी के रूप में वह दूसरों के सम्पर्क में आता है और दूसरों के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है । व्यक्ति के विचार , भावनाएँ यहाँ तक कि प्रतिक्रियाएँ भी दूसरे व्यक्तियों से संचारित होती हैं और दूसरों से उसे यह सब प्राप्त भी होता है । व्यक्ति अपने आस – पास के लोगों को उत्तेजित करता है और उनके द्वारा स्वयं भी उत्तेजित होता है । व्यक्ति की व्यवहार अन्तःक्रियावादी दृष्टिकोण – अधिकांश क्रियाएँ या व्यवहार ‘ सामाजिक ‘ होते हैं , क्योंकि वे क्रियाएँ अर्थ – पूर्ण ढंग से ( परिचित या अपरिचित ) दूसरे व्यक्तियों और मानव – समूहों के भूत – वर्तमान या भावी से सम्बन्धित तथा प्रभावित होती हैं , और उन्हीं के अनुसार उसकी ( व्यक्ति की क्रिया या व्यवहार की ) गतिविधि निर्धारित होती है । इसीलिए समाज के सदस्य के रूप में या सामाजिक प्राणी के रूप में व्यक्ति के द्वारा सामाजिक सन्दर्भ में , अर्थात् दूसरे व्यक्तियों या समूहों से सम्बन्धित रहकर तथा उनके द्वारा प्रभावित किए गए कार्य को ही सामाजिक क्रिया कहते हैं । वास्तविकता तो यह है कि समाज का प्रत्येक सदस्य दूसरे व्यक्तियों की क्रियाओं के सन्दर्भ में ‘ क्रिया ‘ कर रहा है , और उस ‘ क्रिया ‘ के प्रत्युत्तर में दूसरे व्यक्ति भी अपनी क्रियाओं का निर्धारण कर रहे हैं । इसी को अन्तःक्रिया कहा जाता है । और भी स्पष्ट शब्दों में , क्रिया के प्रत्युत्तर में क्रिया अन्तःक्रिया है । यह क्रिया वैयक्तिक क्रिया भी हो सकती है और सामूहिक क्रिया भी । इसीलिए अन्तःक्रिया व्यक्ति और व्यक्ति में , व्यक्ति और समूह में तथा समूह और समूह में हो सकती है ।
अन्तःक्रिया का अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Interaction ) उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जब व्यक्तियों की क्रियाएँ एक – दूसरे की क्रियाओं के सन्दर्भ में तथा उनसे प्रभावित होते हुए घटित होती हैं तो उस प्रक्रिया को अर्थात् क्रिया के प्रत्युत्तर को अन्तःक्रिया कहते हैं ।
किम्बल यंग– ” विस्तृत रूप में परिभाषित करते हुए हम कह सकते हैं कि अन्तःक्रिया इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि व्यक्ति की प्रतिक्रिया – हाव – भाव , शब्द या स्थूल शारीरिक गति – दूसरे व्यक्ति को उत्तेजित करती हैं , और यह दूसरा व्यक्ति अपनी बारी पर प्रथम व्यक्ति के प्रति प्रतिक्रिया करता है । ”
उ गिस्ट– “ सामाजिक अन्तःक्रिया वह पारस्परिक प्रभाव है जो मनुष्य अन्तःउत्तेजना तथा प्रक्रिया द्वारा एक – दूसरे पर डालते हैं । ”
मैरिल तथा एल्डेरेज– “ सामाजिक अन्तःक्रिया वह सामान्य प्रक्रिया है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्तियों में अर्थपूर्ण सम्पर्क की स्थापना होती है और जिसके फलस्वरूप उनके व्यवहार में थोड़ा – बहुत परिवर्तन आ जाता है । ” उपर्युक्त परिभाषाओं की सामान्य विवेचना – किम्बल यंग ने अन्तःक्रिया को विस्तृत अर्थ में परिभाषित किया है । समाज में व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है । एक व्यक्ति का सम्पर्क दूसरे व्यक्ति को और दूसरे व्यक्ति का सम्पर्क प्रथम व्यक्ति को प्रभावित करता है । यह प्रभाव , व्यक्ति की प्रतिक्रिया के द्वारा , एक – दूसरे पर पड़ता है । यह प्रतिक्रिया व्यक्ति के हाव – भाव , शब्द या केवल शारीरिक क्रिया के रूप में हो सकती है ।
प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद उदाहरणार्थ , परिवार में किसी व्यक्ति की आंखों से आंसू बहते देखकर हम भी रोने लगते हैं , या किसी को गाली देता देखकर हम भी उसे गाली देते हैं , मारने – पीटने लगते हैं या गुस्सा हो जाते हैं , तो इन सबको अन्तःक्रिया ही कहा जाएगा । पहले उदाहरण में एक व्यक्ति के हाव – भाव ( आंखों से आंसू ) हमारे अन्दर इस प्रकार की उत्तेजना उत्पन्न की , जिसके कारण हमें भी एक क्रिया करनी पड़ी , अर्थात् हम भी रो दिए । दूसरे उदाहरण में एक व्यक्ति के द्वारा उच्चारित गाली – सूचक ‘ शब्द ‘ ने हमें इतना उसेजित कर दिया कि हमारे अन्दर भी उसकी प्रतिक्रिया हुई , और हमने भी उसके प्रत्युत्तर में एक क्रिया की , अर्थात् उसे मारना – पीटना शुरू कर दिया । हमारा यह मारना – पीटना , जवाब में उस व्यक्ति को भी उत्तेजित कर सकता है , जिसके बदले वह भी हमें मार – पीट सकता है । इस प्रकार एक व्यक्ति की प्रतिक्रिया दूसरे व्यक्ति को , और दूसरे व्यक्ति की प्रतिक्रिया पहले व्यक्ति को जब उत्तेजित व क्रियान्वित करती है , तो उस प्रक्रिया को , किम्बल यंग के अनुसार , अन्तःक्रिया कहते हैं ।
गिस्ट ने अन्तःक्रिया को मनुष्य के पारस्परिक प्रभावों के रूप में परिभाषित किया है । सामाजिक प्राणी अर्थात् मनुष्य कोई निष्क्रिय प्राणी नहीं , अपितु सक्रिय प्राणी है । मनुष्य की यह सक्रियता दूसरे व्यक्तियों को भी सक्रिय कर देती है , क्योंकि सामाजिक जीवन में मनुष्यों को एक – दूसरे के सम्पर्क में आना पड़ता है । यह सम्पर्क पारस्परिक प्रभावों का कारण बन जाता है । गिस्ट के मतानुसार यह प्रभाव अन्तःउत्तेजना तथा प्रतिक्रिया के माध्यम से पड़ता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक व्यक्ति की क्रिया दूसरे व्यक्ति में एक प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकती है , जिसके फलस्वरूप वह दूसरा व्यक्ति भी क्रिया कर सकता है । इसी प्रकार एक व्यक्ति की उत्तेजना न केवल उसी व्यक्ति को , अपितु दूसरे व्यक्तियों को भी किसी विशेष क्रिया के लिए प्रेरित कर सकती है । मैरिल तथा एल्डरेज ने भी सामाजिक अन्तःक्रिया उस प्रक्रिया को माना है जिसके अन्तर्गत दो या दो से अधिक व्यक्ति एक दूसरे के व्यवहारों को प्रभावित करते हैं । स्पष्ट है कि एक व्यक्ति की क्रिया से प्रभावित होकर दूसरा व्यक्ति प्रतिक्रिया करता है , साथ ही उस प्रतिक्रिया का प्रभाव पहले व्यक्ति पर भी पड़ता है और वह भी कोई क्रिया करता है । यही क्रिया और प्रतिक्रिया का चक्र सामाजिक अन्तःक्रिया कहलाता है । उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि क्रिया के प्रत्युत्तर में क्रिया को अन्तःक्रिया कहते हैं । जब एक क्रिया के कारण दूसरी क्रिया घटित होती है तो यह स्पष्ट है कि प्रथम क्रिया का प्रभाव दूसरी क्रिया पर और दूसरी का प्रथम तथा तृतीय क्रिया आदि पर अवश्य ही पड़ता है । इसीलिए अन्तःक्रिया की परिभाषा में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि जब व्यक्तियों की क्रियाएँ एक – दूसरे की क्रियाओं के सन्दर्भ में तथा उनसे प्रभावित होते हुए घटित होती हैं , तो इस घटना को ‘ अन्तःक्रिया ‘ कहते हैं । एक क्रिया का प्रभाव दूसरी क्रिया पर इसलिए पड़ता है क्योंकि इन क्रियाओं को करने वाले कर्ता एक – दूसरे के सम्पर्क में आते हैं , अर्थात् वास्तविक सामाजिक परिस्थिति में कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों से पूर्णतया पृथक् नहीं होता । उसे , जैसा कि वी . वी . अकोलकर ने लिखा है , “ अधिकांश समय दूसरों के सम्पर्क में रहना पड़ता है । ये दूसरे लोग व्यक्ति के सम्मुख प्रत्यक्ष रूप में उपस्थित रह सकते हैं ; या उस व्यक्ति से दूर निवास करते हुए उसके आय संचार के विभिन्न साधनों द्वारा सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं , या वे दूसरे लोग उस व्यक्ति के विचार में विद्यमान रह सकते हैं । पर इन सभी अवस्थाओं में वे उस व्यक्ति को प्रभावित करते हैं । ” यह प्रभाव ही अन्तःक्रिया का आधार है , अर्थात् एक क्रिया दूसरी क्रिया को जन्म देती है – यही अन्तःक्रिया है ।
अन्तःक्रिया के प्रकार ( Types of Interaction ) किम्बल यंग के अनुसार अन्तःक्रिया निम्न तीन प्रकार की होती है
( 1 ) व्यक्ति और व्यक्ति के बीच अन्तःक्रिया ( Person to Person Interaction ) – अन्तःक्रिया का सबसे सामान्य रूप व्यक्ति और व्यक्ति के बीच होने वाली अन्तःक्रियाएँ हैं । इस प्रकार की अन्तःवैयक्तिक ( interpersonal ) अन्तःक्रिया वास्तव में सामाजिक जीवन का आधार होती है । इन अन्तःवैयक्तिक अन्तःक्रियाओं में माता तथा सन्तान के बीच होने वाली अन्तःक्रिया मानव जीवन के आरम्भिक आधारों को दृढ़ करती है । इस प्रकार की क्रिया मानव में ही नहीं , पशु – पक्षियों में भी देखने को मिलती है । सामाजिक जीवन में अनेक आन्तरिक सन्तोष व्यक्ति को इन्हीं अन्तःवैयक्तिक अन्तःक्रिया के माध्यम से ही प्राप्त होते हैं । पति और पत्नी के बीच , मित्र और मित्र के बीच , शिक्षक और छात्र के बीच तथा मां और सन्तान के बीच जो अन्तःक्रियाएँ होती हैं , उनमें दोनों की ही एकाधिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है , और साथ ही आन्तरिक सन्तोष भी प्राप्त होता है ।
( 2 ) व्यक्ति और समूह के बीच अन्तःक्रिया ( Ineraction between Individual and Group ) – इस प्रकार की अन्तःक्रियाओं में व्यक्ति समूह के सम्पर्क में आता है तथा उसके प्रति प्रतिक्रिया करता है । दूसरे शब्दों में , इस प्रकार की अन्तःक्रियाओं से व्यक्ति का व्यवहार समूह के द्वारा और समूह का व्यवहार व्यक्ति के ही द्वारा प्रभावित होता है । सामान्य समूह का व्यक्ति पर प्रभाव ही अधिक दृढ़ स्पष्ट होता है । एक छोटा बच्चा भी अपने समूह के प्रति प्रतिक्रिया करता है । इस प्रतिक्रिया का आरम्भ परिवार से होता है । फिर क्रमशः बालक की यह प्रतिक्रिया पड़ोस , खेल के साथियों , स्कूल आदि के प्रति निर्देशित होती जाती है । कुप्पुस्वामी के शब्दों में , ” इस अन्तःक्रिया का स्वरूप बालक के भावी जीवन में कहीं अधिक जटिल हो जाता है , जबकि उसका सम्पर्क अन्य ऐसे समूहों से होता है जो औपचारिक भी हो सकते हैं और अनौपचारिक भी । वास्तव में व्यक्ति के व्यक्तित्व का अधिकांश भाग उसी रूप में अपने को अभिव्यक्त करता है , जिस रूप में वह व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के प्रति तथा अन्य समूहों के प्रति प्रतिक्रिया करता है । इसलिए किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने में समूह – परिस्थितियाँ अत्यधिक सहायक सिद्ध होती हैं । “
( 3 ) समूह और समूह के बीच अन्तःक्रिया ( Interaction between Group and Group ) – सामाजिक अन्तःक्रिया समूह और समूह के बीच भी हो सकती है । इसमें व्यक्ति समूह के साथ एकरूपता स्थापित कर लेता है और समग्र रूप में किसी दूसरे समूह के प्रति प्रतिक्रिया करता है । गांव व शहर के दो समूहों में , गांव और गांव में , गांव और शहर में , दो भाषा – समूहों में , तथा दो राष्ट्रों में होने वाली अन्तःक्रियाएँ ; इसी श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं । समूह और समूह के बीच होने वाली अन्तःक्रियाओं के तीन सम्भावित रूप हो सकते हैं ( अ ) प्राथमिक और द्वितीयक समूह के बीच अन्तःक्रियाएँ ; ( ब ) दो द्वितीयक समूहों के बीच अन्तःक्रियाएँ तथा ( स ) अन्तःसमूह और बाह्य – समूह के बीच होने वाली अन्तःक्रियाएँ । परिवार और राज्य के बीच और परिवार और आर्थिक – समूह के बीच होने वाली अन्तःक्रियाएँ प्रथम श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं । दो राष्ट्रों के बीच जो अन्तःक्रियाएँ होती हैं , उन्हें द्वितीय श्रेणी के अन्तर्गत तथा हमारा समूह अर्थात् अन्तःसमूह और ‘ पराया ‘ अर्थात् बाह्य समूह के बीच जो अन्तःक्रियाएँ होती हैं , उन्हें तृतीय श्रेणी के अन्तर्गत रखा जाता है ।
जेम्स के विचार ( Views of James )
इस सिद्धान्त के साथ विलियम जेम्स ( 1882-1910 ई . ) का नाम प्रमुख रूप से जुड़ा हुआ है । इन्होंने अपनी पुस्तक ‘ Principles of Psychology ‘ ( 1890 ) में सर्वप्रथम व्यक्ति एवं समाज के सम्बन्ध की विवेचना की है । इनके मतानुसार यदि हम मानवीय व्यवहार का अध्ययन करना चाहते हैं तो उसके लिए मानव की मूलप्रवृत्तियों तथा आदतों का अध्ययन करना आवश्यक है । इनका केवल व्यक्ति के लिए ही महत्त्व नहीं है अपितु ये समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं । इन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि व्यक्तियों में अपने आपको वस्तुओं के रूप में देखने तथा अपने प्रति स्व – अनुभूतियाँ एवं मनोवृत्तियाँ विकसित करने की क्षमता होती है । इनके अनुसार व्यक्ति की चेतना की प्रत्येक अवस्था सदैव परिवर्तित होती रहती है और यह तात्त्विक नहीं होती । इसी चेतना द्वारा ही व्यक्ति में अपने ‘ स्व ‘ ( Self ) के प्रति जागरूकता पैदा होती है । इन्होंने ‘ स्व ‘ को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है – ‘ भौतिक स्व ‘ ( Material self ) , ‘ सामाजिक स्व ‘ ( Social sell ) तथा ‘ आध्यात्मिक स्व ‘ ( Spiritual self ) । इनमें से ‘ सामाजिक स्व ‘ का विकास अन्यों से अन्तक्रि परिणामस्वरूप होता है तथा इसी से अपने बारे में अनुभूति विकसित होती है । परन्तु बाद के अन्तक्रियावादी विद्वानों ने ‘ स्व ‘ के इस वर्गीकरण को आगे बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया है ।
कूले के विचार ( Views of Cooley )
कूले के अनुसार समाज एक मानसिक घटना है क्योंकि यह व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था है । कूले की ‘ स्व ‘ ( Self ) एवं ‘ दर्पण में आत्मदर्शन ‘ की अवधारणा जेम्स की ‘ सामाजिक स्व ‘ की अवधारणा से मिलती – जुलती है । कूले ने अपनी पुस्तकों ‘ Human Nature and the Social Order ‘ ( 1902 ) तथा ‘ Social Organization BAStudy of the Larger Mind ‘ ( 1916 ) में व्यक्ति और समाज के परस्पर सम्बन्धों को सामने रखकर ‘ स्व ‘ के विकास का दर्पण में आत्मदर्शन का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है । इनके अनुसार बच्चा तीन बातों के बारे में सोचता है
( 1 ) दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं ?
( 2 ) दूसरों की राय के सन्दर्भ में मैं अपने बारे में क्या सोचता हूँ ?
( 3 ) मैं अपने बारे में सोचकर अपने को कैसा मानता हूँ ? कूले के अनुसार व्यक्ति समाज रूपी दर्पण में अपना बिम्ब देखता है । इससे वह यह जानने का प्रयास करता है कि दूसरे उसके बारे में क्या सोचते हैं । यह जान लेने के पश्चात् कि दूसरे उसके बारे में क्या सोचते हैं , वह अपने बारे में राय बनाता है । इस राय के परिणामस्वरूप बच्चे में हीनता या श्रेष्ठता के भाव विकसित होते हैं अर्थात् यदि उसे ऐसा लगता है कि दूसरे उसके बारे में अच्छे विचार रखते हैं तो उसमें श्रेष्ठता की भावना आ जाती है और इसके विपरीत यदि उसे लगता है कि दूसरे उसके बारे में अच्छी राय नहीं रखते , तो उसमें हीन – भाव आ जाती है । स्वयं के बारे में दूसरों की दृष्टि से मूल्यांकन के द्वारा ‘ स्व ‘ के बारे में हमारी धारणा स्थायी नहीं है अपितु समय – समय पर बदलती रहती है । इन्होंने समूह के महत्व को स्वीकार करते हुए समूह को प्राथमिक एवं द्वितीयक प्रकारों में विभेदित किया तथा बताया कि इन दोनों ही प्रकार के समूहों में व्यक्ति का व्यवहार पृथक् – पृथक् होता है ।
मीड के विचार ( Views of Mead )
मीड ने ‘ स्व ‘ के विकास में बालक द्वारा अपने प्रति जागरूकता तथा दूसरों की दृष्टि से अपने मूल्यांकन को महत्वपूर्ण माना है । इसे उन्होंने दो शब्दों ‘ मैं ‘ ( 1 ) तथा ‘ मुझे ‘ ( Me ) द्वारा व्यक्त किया है । ‘ मैं ‘ और ‘ मुझे एक ही चीज के दो पहलू ( अर्थात् विषय व वस्तु ) हैं जिनसे समाजीकरण होता है । दूसरों की दृष्टि से वह अपना मूल्यांकन इसलिए करता है कि दूसरों को सन्तुष्ट करके ही उसकी अपनी इच्छाएँ पूरी हो सकती हैं और उसे स्वयं को सन्तुष्टि मिल सकती है । मीड ने अपने विचारों को ‘ सामान्यीकृत अन्य ‘ की अवधारणा द्वारा भी समझाने का प्रयास किया है । सामान्यीकृत अन्य शब्द से अभिप्राय व्यक्ति की दूसरों के मूल्यांकन द्वारा अपने बारे में बनी धारणा है जिसका कि वह आन्तरीकरण कर लेता है । वह अपनी भूमिका निभाने के साथ – साथ अपनी तुलना सामान्यीकृत अन्य से करता है और इसी से उसका समाजीकरण होता है । जब तक कोई व्यक्ति अपने ‘ स्व ‘ को समझने के लिए दूसरों की भूमिका को ग्रहण नहीं कर पाता है तब तक उसके व्यक्तित्व के विकास में बाधा उत्पन्न होती रहती है । मीड के अनुसार समाजीकरण की प्रक्रिया में भूमिका ग्रहण करना एक अत्यावश्यक प्रक्रिया है । मीड ने भाषा को समाज का महत्वपूर्ण प्रतीक माना है जिसके माध्यम से व्यक्ति और समाज एक – दूसरे से अन्तःक्रिया करते हैं । इनके अनुसार मनुष्य का सम्पूर्ण सामाजिक अनुभव भाषा के द्वारा ही अभिव्यक्त होता है । .
फ्रायड के विचार ( Views of Freud ) फ्रायड के कामवृत्तियों को मानव व्यवहार के संचालन में प्रमुख स्थान दिया है तथा यौन – भेद के समाजीकरण की ऑडिपस कॉम्पलैक्स ( Oedipus complex ) तथा इलेक्ट्रा कॉम्पलैक्स ( Electra complex ) के रूप में समझने का प्रयास किया है । इतना ही नहीं , इन्होंने सम्पूर्ण समाजीकरण की प्रक्रिया को ‘ इड ‘ ( Id ) , ‘ इगो ‘ ( Ego ) तथा ‘ सुपर – इगो ‘ ( Super – ego ) की अवधारणाओं द्वारा समझाने का प्रयास किया है । इन तीनों का व्यक्तित्व या ‘ स्व ‘ के विकास में महत्वपूर्ण स्थान होता है । ‘ इड ‘ हमारी मूल प्रेरणाओं , इच्छाओं एवं स्वार्थों में सम्बन्धित है तथा हमारी इच्छाएँ ‘ इड ‘ द्वारा ही प्रेरित होती हैं । ‘ इगो ‘ ‘ स्व ‘ का चेतन व तार्किक रूप होने के कारण वास्तविकता है जो यह निश्चित करती है कि व्यक्ति को अमुक कार्य करना चाहिए या नहीं । यह एक प्रकार से व्यक्ति की अन्तरात्मा है । ‘ सुपर – इगो ‘ सामाजिक मूल्यों एवं सामाजिक आदर्शों का योग है जिसे कि व्यक्ति ने आत्मसात कर रखा है और जो उसकी अन्तरात्मा का निर्माण करते हैं । ‘ इड ‘ का ‘ सुपर – इगो ‘ से सामंजस्य बैठाने या ‘ इड ‘ और ‘ सुपर – इगो ‘ के अन्तर्द्वन्द्व की प्रक्रिया से ही समाजीकरण होता है । यदि ‘ इगो ‘ ‘ सुपर – इगो ‘ का कहना मानकर ‘ इड ‘ को नियन्त्रित कर लेता है तो व्यक्ति सामाजिक मान्यताओं के अनुकूल व्यवहार करने के लिए प्रेरित होता है । गर्थ एवं मिल्स के अन्तक्रियावादी दृष्टिकोण के निर्माण के लिए मीड तथा फ्रायड के विचारों में समन्वय तथा व्यवस्था स्थापित करके , उत्प्रेरणा के एक व्यापक सिद्धान्त का विकास करने तथा सामाजिक संरचना के एक सामाजिक – मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करने पर बल दिया है ।
वेबर के विचार ( Views of Weber )
मैक्स वेबर के अनुसार , “ समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रिया का अर्थपूर्ण बोध कराने का प्रयत्न करता है ताकि इसके घटना – क्रम ( गतिविधि ) की कार्य – कारण व्याख्या तक पहुंचा जा सके । ” इस परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि वेबर समाजशास्त्र की विषय – वस्तु सामाजिक क्रिया मानते हैं , इसलिए समाजशास्त्र का विस्तृत कार्य तथा प्रकृति को समझने के लिए उनकी सामाजिक क्रिया की अवधारणा को समझना जरूरी है । समाजशास्त्र में क्रिया का अर्थ किसी उद्देश्यपूर्ण व्यवहार से लगाया जाता है । वेबर के अनुसार ‘ क्रिया ‘ में वह सारा व्यवहार आ जाता है जिसको क्रियारत व्यक्ति ( कर्ता ) व्यक्तिनिष्ठ ( Subjective ) अर्थ से सम्बन्धित करता है । इस अर्थ में क्रिया बाहरी भी हो सकती है तथा आन्तरक या चेतना सम्बन्धी भी । यह किसी परिस्थिति में सकारात्मक रूप में दखल देने तथा जान – बूझ कर उस परिस्थिति से दूर रहने के रूप में हो सकती है । मैक्स वेबर के अनुसार , ” किसी क्रिया को सामाजिक क्रिया तभी कहा जा सकता है जबकि उस क्रिया को करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों के द्वारा लगाए गए सहानुभूतिमूलक तथा आत्मपरक अर्थ के कारण यह क्रिया दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार द्वारा प्रभावित हो और उसी के अनुसार उसकी गतिविधि निर्धारित हो । ” मैक्स वेबर के क्रिया तथा सामाजिक क्रिया के बारे में विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी क्रियाएँ सामाजिक नहीं हैं । वेबर के अनुसार कोई भी क्रिया तभी सामाजिक कही जा सकती है यदि वह अन्य व्यक्तियों अथवा उनकी क्रियाओं से सम्बन्धित है । मैक्स वेवर ने सामाजिक क्रियाओं को , उनके प्रेरक उन्मेष ( Orientation ) के ढंग के आधार पर , चार श्रेणियों में बांटा है । वे चार प्रकार निम्नलिखित हैं
( 1 ) परम्परागत सामाजिक क्रियाएँ ( Traditional Social Actions ) – इसके अन्तर्गत मनुष्यों के उन व्यवहारों एवं क्रियाओं को सम्मिलित किया जा सकता है जो प्राचीन काल से चली आ रही परम्पराओं , प्रथाओं , विचारों तथा प्रतिमानों द्वारा संचालित होती हैं ।
( 2 ) भावात्मक सामाजिक क्रियाएँ ( Affectual Social Actions ) – इस श्रेणी की क्रियाओं का सम्बन्ध व्यक्ति की भावात्मक दशाओं से होता है , न कि साधन साध्य के तार्किक मूल्यांकन से । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के व्यवहार से प्रभावित होकर भावनाओं और संवेगों के रूप में कोई क्रिया करता है तो उसे भावात्मक क्रिया कहेंगे । ये वे सामाजिक क्रियाएँ हैं जो व्यक्ति या समूह भावावेश में करते हैं ।
( 3 ) मूल्यात्मक सामाजिक क्रियाएँ ( Value – oriented Social Actions ) – मूल्यों से सम्बन्धित क्रियाओं को मूल्यात्मक क्रियाएँ कहा जाता है । धार्मिक अथवा दैनिक प्रतिमानों एवं मूल्यों के अनुसार व्यक्ति से जिस प्रकार के व्यवहार की आशा दूसरे व्यक्तियों द्वारा की जाती है उस प्रकार का व्यवहार करना मूल्यात्मक व्यवहार कहलाता है । इस प्रकार की क्रिया का सम्बन्ध वास्तव में उन साध्यों तक पहुंचना है जो तार्किक नहीं है यद्यपि उन्हें प्राप्त करने के लिए तार्किक साधनों का प्रयोग किया जाता है ।
( 4 ) बौद्धिक सामाजिक क्रियाएँ ( Rational Social Actions ) – साध्य एवं साधनों को दृष्टिगत रखते हुए व्यक्ति द्वारा निश्चित योजना के अनुसार की जाने वाली क्रियाएँ बौद्धिक सामाजिक क्रियाएँ कही जाती हैं । इन क्रियाओं का सम्बन्ध साधन और साध्य के तार्किक चयन से होता है । अधिकतर व्यापारिक क्रियाएँ इस श्रेणी में आती हैं । यहाँ व्यक्ति क्रिया करने से पहले इसमें होने वाले लाभ – हानि का हिसाब लगाता है और लाभ या सुख की दृष्टि से कार्य करता है ।
पारसन्स के विचार ( Views of Parsons ) पारसन्स ने इस बात पर बल दिया कि सामाजिक क्रिया सामाजिक व्यवहार का प्रमुख आधार है । पारसन्स एवं शिल्स के अनुसार , ” क्रिया का सिद्धान्त जीवित सावयवों के व्यवहार के विश्लेषण की एक अवधारणात्मक योजना है । ” क्रिया के सिद्धान्त का केन्द्रीय बिन्दु व्यवहार है । पारसन्स के अनुसार , “ परिस्थितियों में विद्यमान उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मूल्यों द्वारा शक्ति के नियमित उदय को व्यवहार कहते हैं । ” व्यवहार की उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर हम क्रिया में केवल उसी व्यवहार को समाहित कर सकते हैं ( 1 ) जोकि उद्देश्य पूर्ति के लिए उन्मेषित हो ; ( 2 ) जो कुछ परिस्थितियों में घटित हो ; ( 3 ) जो मूल्यों द्वारा नियमित हो , तथा ( 4 ) जिनमें कुछ शक्ति का व्यय , प्रयल या उत्प्रेरणा भी हो ।
पारसन्स के अनुसार , जिस व्यवहार में उपर्युक्त चारों बातें पाई जाती हैं उसे हम क्रिया कह सकते हैं । उदाहरणार्थ – मान लीजिए कि कोई व्यक्ति अपनी गाड़ी चला कर एक झील की ओर मछलियाँ पकड़ने जा रहा है । उसके इस व्यवहार में -1 ) मछली पकड़ना वह उद्देश्य है जिस ओर उसका व्यवहार उन्मेषित है , ( ii ) सड़क , मोटरगाड़ी तथा झील सामूहिक रूप से परिस्थिति का निर्माण करते हैं , ( ii ) उसका यह प्रयत्न कुछ मूल्यों व प्रतिमानों द्वारा नियमित है तथा ( iv ) झील तक पहुंचने व मछली पकड़ने में वह अपनी शक्ति का व्यय करता है ।
ब्लूमर के विचार ( Views of Blumer )
ब्लूमर , मीड के शिष्य थे तथा इन्होंने मीड के विचारों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । इनके विचारानुसार समाज सदैव मानवीय अन्तक्रियाओं द्वारा परिवर्तित होता रहता है । ब्लूमर के अनुसार समाज की प्रकृति प्रक्रियात्मक है । इसलिए इनका दृष्टिकोण प्रकार्यवादियों की तरह कठोर नहीं है जोकि केवल संरचनात्मक विश्लेषण पर बल देते हैं । ब्लूमर का कहना है कि सामाजिक संरचनाएँ ( भूमिकाएँ , परिस्थितियाँ , आदर्श सत्ता इत्यादि ) क्रिया के निर्धारक रूप में नहीं पाई जाती , अपितु वे अन्तक्रिया के परिमाणों के कारण विद्यमान होती हैं । ब्लूमर के अनुसार वस्तुओं में अर्थ ( अर्थबोध ) निहित नहीं होता अपितु व्यक्ति वस्तुओं को अर्थ प्रदान करते हैं । एक ही संस्कृति में रहने वाले मनुष्य प्रतीकों का एक समान अर्थ लगाते हैं । मनुष्यों में ही प्रतीकों के सृजन , प्रयोग व सम्प्रेषण की क्षमता होती है । नुष्य सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों का दास मात्र नहीं है अपितु वह नवीन परिस्थितियों का सृजनकर्ता भी है । प्रतीकों के सृजन की क्षमता के कारण ही व्यक्ति किसी परिस्थिति की परिभाषा बदल सकता है और परिवर्तित परिस्थिति के अनुसार अपना व्यवहार भी बदल लेता है । ब्लूमर ने मानवीय व्यवहार को अनिर्धारित व आकस्मिक माना है । समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति का ‘ स्व ‘ विकसित होता है तथा अन्तक्रियाएँ भी व्यक्ति के स्वभाव को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । व्यक्ति प्रतीकात्मक तथा गैर – प्रतीकात्मक दोनों स्तरों पर अन्तक्रिया करता है । इस प्रकार , ब्लूमर का दृष्टिकोण व्यक्ति के व्यवहार को निर्धारित करने में सामाजिक संरचना की कठोरता को स्वीकार नहीं करता है । सृजनशील प्रकृति के कारण व्यक्ति का आचरण स्वतः प्रेरित एवं स्वतन्त्र होता है ।
गॉफमैन के विचार ( Views of Goffiman )
गॉफमैन ने नाट्यशास्त्रीय ( Dramaturgical ) दृष्टिकोण विकसित किया है जोकि मौलिक प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद का ही विस्तार है । गॉफमैन के अनुसार सामाजिक जगत न तो स्वयं व्यवस्थित ( self – ordered ) है और न ही व्यवहार में सदैव अर्थ सन्निहित होता है । सामाजिक व्यवस्था तथा किसी विशिष्ट व्यवहार का अर्थ इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि लोग इन्हें महत्व प्रदान करते हैं । इसलिए अन्तक्रिया के दौरान व्यक्ति अपने आपको एक – दूसरे के सम्मुख प्रस्तुत ही नहीं करते अपितु वे उस बिम्ब को भी बनाए रखने का प्रयास करते हैं जिसे वे प्रस्तुत करते हैं । अतः गॉफमैन ने मुख्यतः प्रभाव प्रबन्धक ( Impression management ) पर अधिक बल दिया है अर्थात् उस तरीके को अधिक महत्व दिया है जिसके द्वारा कर्ता किसी सामाजिक परिस्थिति में प्रभाव जमाने हेतु संकेतों को काम में लेता है । उन्होंने ड्रामों में प्रयोग की जाने वाली भाषा के आधार पर व्यक्ति का दैनिक जीवन में प्रस्तुतीकरण को समझाने का प्रयास किया है । उन्होंने आमने – सामने की अन्तक्रिया पर ही अधिक ध्यान केन्द्रित किया है ।
इस सिद्धान्त की कुछ कमियों का उल्लेख किया गया है
आत्म चेतना और अचेतन मन दोनों प्रक्रियाएँ मानव व्यवहार को प्रभावित करती हैं किन्तु प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद आत्मचेतना को आवश्यकता से अधिक महत्त्व देता है ।
यह उपागम सामाजिक संरचना एवं सामाजिक परिवर्तन की अवहेलना करके समाज को मात्र प्रतीकों के माध्यम से समझने का प्रयास करता है । मात्र प्रतीकों के माध्यम से समाज को समझना सम्भव नहीं है ।
प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद मनुष्यों की केवल स्थिति का अध्ययन करता है । मानव इच्छाओं , आवश्यकताओं एवं प्रेरणाओं को इस उपागम में कोई महत्त्व नहीं दिया जाता । कमियाँ तो इस उपागम में अधिक हैं परन्तु फिर भी यह उपागम अपने विषय की नवीनता के कारण समाजशास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । आज समाजशास्त्र में जो स्थान संघर्ष सिद्धान्त एवं संरचनात्मक प्रकार्यवाद का है , वही स्थान प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद का भी । यही इस उपागम की सफलता है ।
नृजाति पद्धति विज्ञानी जो कि प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावादियों के निकट सहयोगी हैं , इनकी आलोचना इस बात पर करते हैं कि यह उपागम जांच की प्रक्रिया को महत्त्व न देकर सामान्य ज्ञान के आधार पर समाज का अध्ययन करता है ।
प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद लघु स्तरीय अध्ययनों को महत्त्व देता है । व्यापक सामाजिक – आर्थिक संघर्षों से इसी उपागम का कोई लेना – देना नहीं है । गूल्डनर का कहना है कि प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद एक ऐसा सिद्धान्त है जो सूक्ष्म अंतःक्रियाओं के दायरे में जीवन को समझने का प्रयास करता है । इस अर्थ में यह उपागम ऐतिहासिक एवं असंस्थात्मक है ।
प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद सत्ता को सामाजिक संगठन का आधार नहीं मानता । ये समाज में स्तरीकरण के आधार पर छोटे – बड़ों का वर्गीकरण स्वीकार करते हैं । इस समाज में सत्ता और शक्ति का उपयोग कैसे होता है , इस प्रश्न का अध्ययन तो यह उपागम करता है । किन्तु इस समाज में सत्ता और शक्ति क्यों विद्यमान है ? इस प्रश्न को ये उपागम छोड़ देता है । वास्तव में सामाजिक संरचना के महत्त्व को अस्वीकार कर देने के कारण ही प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावादी शक्ति को कम महत्त्व देते हैं ।
प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावादी कार्य का अध्ययन तो करते हैं किन्तु कारणों की खोज नहीं करते । इस अर्थ में यह उपागम एक सिद्धान्त न होकर शोध की एक प्रवृत्ति है ।
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