लुईस ड्यूमो

लुईस ड्यूमो

 

फ्रांसीसी मानवशास्त्री एवं समाजशास्त्री लुई इयूमो ( 1911-1998 ) भारत विद्याशास्त्रीय परिप्रेक्षण के प्रमुख समर्थक माने जाते हैं । इयूमो ने कई वर्षों तक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया । किन्तु 1955 ई . के बाद वे फ्रांस आ गए और यहीं पर उन्होंने अध्यापन कार्य किया । इयूमों के शैक्षणिक कैरियर का प्रारम्भ 1930 ई . के मध्य में सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री मार्शल मॉस के निर्देशन में हुआ । युद्धबन्दी के कारण उनके अध्ययन में बाधा आई किन्तु उन्होंने संस्कृत का अध्ययन जारी रखा । ड्यूमो को भारत के समाजशास्त्र में विशेष हचि थी ।

भारतीय समाज के इतिहास को समझने के लिये उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया । इसलिए उन्हें भारतीय परम्परा के अध्ययन पर बल देने वाले विद्वानों में से एक अग्रणी विदवान माना जाता है । इयूमो ने भारतीय जाति व्यवस्था तथा संस्तरण को अपने विश्लेषण कॉन्ट्रिब्यूशन्स टू इण्डियन सोशियोलॉजी ‘ नामक पत्रिका के एक संस्थापक के लिए विशेषतः जाने जाते हैं । भारतीय जाति व्यवस्था के अतिरिक्त इयूमो की भारतीय सामाजिक व्यवस्था में भी विशेष रुचि थी । इयमो ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था के कई पक्षों ; जैसे – नातेदारी , धर्म , विवाह आदि पर अनेक लेख और पुस्तकें लिखी हैं

उनका जन्म 1911 ई ० में हुआ था । ड्यूमो ने कई वर्षों तक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया । किन्तु 1955 ई ० के बाद वे फ्रांस आ गए और यहाँ पर उन्होंने लेखन एवं अध्यापन कार्य किया । ड्यूमो के शैक्षणिक कैरियर का प्रारम्भ 1930 ई ० के मध्य में सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री मार्शल मॉस के निर्देशन में हुआ । द्वितीय विश्वयुद्ध ( 1939-45 ) में युद्धबन्दी के कारण उनके अध्ययन में बाधा आई किन्तु उन्होंने संस्कृत का अध्ययन जारी रखा । ड्यूमो को भारत के समाजशास्त्र में विशेष रुचि थी । इसलिए उन्हें भारतीय परम्परा के अध्ययन पर बल देने वाले विद्वानों में से एक अग्रणी विद्वान् माना जाता है । इयूमो भारतीय जाति व्यवस्था तथा संस्तरण को अपने विश्लेषण ‘ कॉन्ट्रिब्यूशन्स टू इण्डियन सोशियोलॉजी’नामक पत्रिका के एक संस्थापक के लिए विशेषत : जाने जाते हैं । भारतीय जाति व्यवस्था के अतिरिक्त ड्यूमो की भारतीय सामाजिक व्यवस्था में भी विशेष रुचि थी । ड्यूमो 1998 ई ० में स्वर्ग सिधार गए ।

ड्यमो ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था के कई पक्षों ; जैसे – नातेदारी , धर्म , विवाह आदि पर अनेक लेख और पुस्तकें लिखी हैं जिनमें प्रमुख निम्न प्रकार हैं

( 1 ) हैरारकी एण्ड मैरिज एलायन्स इन साउथ इंडिया ( 1954 ) Hierarchy and Marriage Alliance in South Indian Kinship

( 2 ) होमो हैरारकी 1970 ( Homo Hierarchicus 1970 )

( 3 ) रिलीजन , पोलिटिक्स एड हिस्ट्री इन इडिया : फ्रोम मेंडविले टू मार्क्स 1970 ( Religion Politics and History in India : From Mandeville to Marx 1970 )

( 4 ) ऐसेज ऑन इन्डीविजुअलिजम 1986 ( Essays on Individualism ) , तथा

( 5 ) ला आईडियोलिजी एलमन्डे 1994 ( L’ideologie Allemande 1994

ड्यूमो भारतविद्याशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य द्वारा भारत में जाति प्रथा का विश्लेषण करने वाले एक सुप्रसिद्ध विद्वान् माने जाते हैं । उनकी 1966 में प्रकाशित पुस्तक Homo Hierarchicus अंग्रेजी में 1970 तथा विश्व की अनेक अन्य भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है । इस पुस्तक का अभी तक किसी भारतीय भाषा में अनुवाद नहीं हुआ है । जाति व्यवस्था के विश्लेषण मे ड्यूमो ने सामाजिक संरचना के अनेक नवीन परिप्रेक्ष्य प्रतिपादित किए हैं । वैचारिकी एवं परम्परा की धारणाएँ उसके रूपनिदर्शन का अभिन्न अंग है । उन्होंने जाति व्यवस्था के अध्ययन हेतु संरचनावादी पद्धति को भी अपनाया है ।

उनके पद्धतिशास्त्र के प्रमुख रूप से निम्नलिखित चार तत्त्व है

( 1 ) वैचारिकी एवं संरचना ,

( 2 ) द्वन्द्ववादी रूपान्तरकारी सम्बन्ध एवं तुलना ,

( 3 ) भारतविद्याशास्त्रीय एवं संरचनावादी उपागम तथा

( 4 ) संजात्मक ऐतिहासिक उपागम ।

ड्यूमो ने जाति व्यवस्था की वैचारिकी को भारतविद्याशास्त्र तथा भारतीय सभ्यता की एकता में ढूँढने का प्रयास किया है । ड्यूमो के जाति व्यवस्था के विश्लेषण में संस्तरण का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । संस्तरण पवित्र एवं अपवित्र के विरोध तथा इसके कारण उत्पन्न द्वन्द्ववाद से सम्बन्धित है ।

read also

ड्यूमो का भारतविद्याशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य 

यद्यपि ड्यूमो की सभी पुस्तकें काफी महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं , तथापि इन्हें सबसे अधिक ख्याति 1970 ई ० में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित होमो हाइरारकिक्स पुस्तक से ही प्राप्त हुई । यह पुस्तक पहले 1967 ई ० में फ्रांसीसी में प्रकाशित हुई थी । इसी पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद मार्क सेंसबरी ने किया है । इस पुस्तक ने उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय जयत में एक अग्रणी समाजशास्त्री के रूप में प्रतिष्ठित किया ।

यह पुस्तक कुल 11 अध्यायों में विभाजित है । पुस्तक के प्रारम्भ में परिचयात्मक विवरण के अन्तर्गत उन्होंने आधुनिक मानव की समानतामूलक विचारधारा को श्रेणीक्रम की पृष्ठभूमि में अभिव्यक्त किया है । पुस्तक के अध्यायों की सामग्री अग्र प्रकार है होमोहैरारकी- एक परिचय ,

( 1 ) विचारों का इतिहास ( History of Ideas ) , जिसमें उन्होंने जाति की परिभाषा , प्रवृत्तियों एवं पूर्ववर्ती अध्ययनों की विवेचना की है ;

( 2 ) व्यवस्था से संरचना की और पवित्रा एवं अपवित्र ( From System to Structure : The Pure and the Impure ) , जिसमें उन्होंने पवित्र एवं अपवित्र विचारधारा से जुड़े आधारभूत तथ्यों की विवेचना की है ।

( 3 ) संस्तरण : वर्ण का सिद्धान्त ( Hierarchy : The Theory of the varia ) , जिसने उन्होंने वर्ण के सिद्धान्त की विवेचना करते हुए क्षेत्रीय स्तर पर संस्तरण अथवा प्रस्थिति क्रम के निर्धारण , शक्ति एवं श्रेणीक्रम के वितरण के आधारों पर प्रकाश डाला है ।

( 4 ) श्रम – विभाजन ( The Division of Labour ) , जिसमें उन्होंने श्रम – विभाजन , जाति एवं व्यवसाय तथा जजमानी व्यवस्था की विवेचना की है ।

( 5 ) विवाह का नियमन : पृथक्करण एवं संस्तरण ( The Regulation of Marriage : Separation and Hierarchy ) , जिसमें उन्होंने विवाह को नियन्त्रित करने वाले आधारों , अन्तविवाह एवं बहिर्विवाह के नियमों के परिप्रेक्ष्य में पृथकता एवं स्तरण की विवेचना की

( 6 ) सहवास एवं खान – पान सम्बन्धी नियम ( Rules Conerning Contact and Food ) , जिसमें उन्होंने सामाजिक सहवास एवं खान – पान के प्रतिबन्धों एवं निया के पीरप्रेक्षण में अन्तर्जातीय सम्बन्धों को समझाने का प्रयास किया है ।

( 7 ) शक्ति एवं क्षेत्र ( Power and Territory ) , जिसमें उन्होंने सम्प्रभु जाति तथा जाति के आर्थिक व्यवहारों के आधार पर क्षेत्रीय शक्ति संरचना की विवेचना की है :

( 8 ) जातीय सरकार न्याय एवं सत्ता ( Caste Government : Justice Authorit ) , जिसमें उन्होंने जाति पर आधारित शक्ति एवं सत्ता तथा न्याय प्रणाली के अन्तर्सम्बन्धों की विवेचना इसके व्यावहारिक पहलुओं के आधार पर की है :

( 9 ) सहवर्ती एवं निहितार्थ ( Concomitants and Implication ) . जिसमें उन्होंने परित्याग , स्थायित्व , परिवर्तन एवं सामाजिक गतिशीलता के व्यावहारिक पक्षों की विवेचना की है ,

read also

( 10 ) तुलनाः क्या गैर – हिन्दुओं तथा भारत बहार जातियाँ है ? ( Comparison : Are There Castes Among Non – Hindus and Outside India ? ) , जिसमें उन्होंने गैर – हिन्दुओं : यथा – ईसाई , मुस्लिमों ( भारत में तथा भारत से बाहर ) में जाति की विद्यमानता से जुड़े प्रश्नों के आधार पर हिन्दू एवं गैर – हिन्दू समुदायों की तुलना की है , तथा

( 11 ) तुलना पर आधारित निष्कर्ष समकालीन प्रवृत्ति ( Comparison Concluded : The Contemporary Trend ) , जिसमें उन्होंने जाति में होने वाले अभिनव परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में संस्तरण पर आधारित समाजों एवं समतामूलक समाजों की समसामयिक प्रवृत्तियों की तुलनात्मक व्याख्या की है ।

इस पुस्तक में उन्होंने भारतविद्याशास्त्रीय , मानवशास्त्रीय और उच्च समाजशास्त्रीय सिद्धान्तो की बहुकुशलता एवं विद्धत्तापूर्वक ढंग से समन्वय करके भारतीय जाति व्यवस्था तथा उसके द्वारा पड़ने वाले प्रभावों का सारगर्भित विश्लेषण किया है । इनका विचार था कि भारत का समाजशास्त्र , समाजशास्त्र एवं भारतविद्याशास्त्र के संगम पर ही होना चाहिए । इसलिए भारतीयों के मूल्यों के अध्ययन के लिए धर्मग्रन्थों का अध्ययन करना अनिवार्य है तथा इसके लिए संस्कृत का ज्ञान होना भी अनिवार्य है । ड्यूमो ने जाति व्यवस्था का विश्लेषण पवित्रता के आधार पर किया है जो अनूठा है । ड्यूमो ने इस पुस्तक में जाति के इतिहास तथा उद्गम सम्बन्धी सिद्धान्तों से लेकर सामाजिक संस्तरण , वर्ण व्यवस्था , खान – पान सम्बन्धी निषेध जैसे विषयों का भी विस्तार से विश्लेषण किया । इस प्रकार , ड्यूमो ने अन्य विद्वानों की भाँति जाति के कार्यों अथवा अकार्यों की विवेचना न कर उन आधारों को ढूँढने का प्रयास किया है जो सम्पूर्ण हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं को नियन्त्रित करते हैं । अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि उनके अनुसार जाति व्यवस्था को समझने के लिए भारतीय पौराणिक ग्रन्थों में इस बारे में निहित विचारधारा को समझना आवश्यक है । यह उनके भारतविद्याशास्त्र का ही एक अंग है ।

ड्यूमो ने हिन्दू विवाह , सामाजिक संस्तरण , भौतिक सम्पर्क , श्रम – विभाजन , जजमानी व्यवस्था , शक्ति एवं सत्ता के वितरण इत्यादि तत्त्वों को संचालित , नियमित एवं नियन्त्रित करने वाली विचारधारा को अपने विश्लेषण का आधार बनाया है ।

read also

भारतीय समाज में हो रहे परिवर्तन के बारे में ड्यूमो ने लिखा है कि , “ समाज में परिवर्तन हो रहा है किन्तु समाज का परिवर्तन नहीं हो रहा है । ” उनका ‘ जाति की दृष्टि से गाँव ‘ और ‘ सभ्यतापरक दृष्टि से जाति ‘ सम्बन्धी दृष्टिकोण अन्य लोगों के जाति अध्ययनों के परिप्रेक्ष्यों से भिन्न है ।

ड्यूमो ने भारतीय जाति व्यवस्था और भारतीय गाँव की सामाजिक संरचना के अध्ययन के लिए भारतविद्याशास्त्रीय ( इनडॉलॉजी ) दृष्टि और संरचनात्मक उपागम दोनों के प्रयोग की बात कही है । हालाँकि जाति व्यवस्था विषय पर ड्यूमो के विचारों को पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया गया लेकिन फिर भी मार्क्सवादी , उत्तर – आधुनिकतावादी , प्रकार्यवादी , संरचनावादी और चाहे किसी विचारधारा का व्यक्ति क्यों न हो , वह जाति व्यवस्था सम्बन्धी अपने लेखन में ड्यूमो के विचारों को अनदेखा नहीं कर सकता है । ड्यूमो का यह विचार कि , ” भारत एक ऐसा धार्मिक समाज है जो जाति व्यवस्था के शुद्ध संस्तरण व्यवस्था से परिचालित है ” को कोई भी विचारक माने अथवा नहीं लेकिन यह एक तथ्यपरक स्पष्ट कथन है ।

ड्युमो ने जाति व्यवस्था के अतिरिक्त दक्षिण भारत में प्रचलित नातेदारी व्यवस्था पर भी कार्य किया है । इस सन्दर्भ में उन्होंने दक्षिण भारत में परमली , कल्लर नामक समुदाय पर गहन कार्य किया है । ड्यूमो एक विशेष परिचर्चा के लिए भी प्रसिद्ध हैं जो 1957 ई ० में एक लेख द्वारा प्रारम्भ हुई ।

अपने लेख ‘ भारत के लिए समाजशास्त्र ‘ में ड्यूमो ने भारतीय समाजशास्त्र की प्रकृति , सिद्धान्त और अवधारणाओं और पद्धति विज्ञान के बारे में अपने विचारों को प्रकट किया । बाद में इस परिचर्चा में पुस्तकों , लेखो और गोष्ठियों के माध्यम से कई समाजशास्त्रियों ने जैसे योगेन्द्र सिंह , ऑबराय , डी ० नारायण आदि ने भाग लिया । इस लेख के ऊपर भारतीय तथा विदेशी समाजशास्त्रियों ने तीव्र प्रतिक्रियाएँ जाहिर की । उन्होंने कहा कि समाजशास्त्र तो समाजशास्त्र है , उसके सिद्धान्त , अध्ययन उपागम , विषय – वस्तु आदि सभी देशों में एक जैसे ही हैं । यदि प्रत्येक देश का अपना समाजशास्त्र होने लगा तो समाजशास्त्र का स्वरूप विस्तृत हो जाएगा । इस प्रकार उन्होंने ड्यूमो के विचारों का विरोध किया । दूसरी ओर ड्यूमो , पोकॉक एवं अन्य समाजशास्त्रियों ने इस विचार का जोरदार समर्थन किया कि भारत के लिए पृथक् से समाजशास्त्र सम्भव हो । इसकी विषय – वस्तु , उत्पत्ति , सिद्धान्त एवं उपागम आदि , भारत के प्राचीन इतिहास एवं महाकाव्यों , पुराणों , धर्मशास्त्रों , आदि के आधार पर किया जाना चाहिए जोकि भारतविद्याशास्त्र के नाम से जाना जाता है ।

read also

ड्यूमो के अनुसार पवित्रता ( शुद्धता ) एवं अपवित्रता ( अशुद्धता ) की अवधारणाएँ विचारों पर आधारित हैं । ये अवधारणाएँ उस वृहद् छाते की भाँति हैं जिसमें तात्कालिक भौतिक वस्तुओं ; जैसे – सफाई , स्वास्थ्यवर्द्धकता आदि से लेकर दैनिक व्यवहार एवं आदतें , संस्कृति एवं सभ्यता के विभिन्न आयाम तक सम्मिलित हैं ।

अशुद्धता को उन्होंने पुन : दो भागों में विभाजित किया है अस्थायी अशुद्धता एवं स्थायी अशुद्धता । प्रथम प्रकार की अशुद्धता क्षणिक होती है तथा निर्धारित अवधि में समाप्त होकर पुनः शुद्धता प्राप्त कर लेती है । मासिक धर्म , प्रसवकाल एवं मृत्यु से जुड़ी अशुद्धता इसी श्रेणी के उदाहरण हैं । स्थायी अशुद्धता वह है जो परिवर्तनशील नहीं है ; जैसे – मृत्यु संस्कार को करने वाले डोम का पेशा ।

पवित्रता एवं अपवित्रता से जुड़े मूल्य एवं विचार विभिन्न जातियों में सामाजिक सहवास एवं खान – पान के नियमों का भी निर्धारण करते हैं । उनका विचार था कि भारतीय समाज में जाति व्यवस्था पवित्र ( ब्राह्मण ) तथा अपवित्र ( शूद्र ) के दो विरोधी परन्तु परस्पर एक – दूसरे पर निर्भर सांस्कृतिक तत्त्वों से बनी हुई है । भारतीय संरचना के ये दो विरोधी तत्त्व भारतीय जाति व्यवस्था के प्राण हैं ।

ड्यूमो के अनुसार ब्राह्मण तथा अस्पृश्य एक – दूसरे के पूरक हैं तथा सम्पूर्ण रचना के लिए ये दोनों तत्त्व आवश्यक हैं चाहे इन दोनों में असमानता ही क्यों न हो । ड्यूमो के अनुसार सामाजिक सहवास , खान – पान एवं पेयजल आदि पर नियन्त्रण एवं निषेधों के आधार पर धार्मिक श्रेष्ठता एवं अधिनस्थता का प्रादुर्भाव होता है जो कालान्तर में आर्थिक सम्बन्धों में उच्चता एवं निम्नता का श्रेणीक्रम निर्धारित करती है ।

read also

ड्यूमो ने 1955 ई ० में हेग विश्वविद्यालय में भारत के समाजशास्त्र की पीठ ‘ की स्थापना के अवसर पर अपने भाषण में कहा है कि , ” भारतीय समाजशास्त्र एक ऐसी विशिष्ट ज्ञान की शाखा है जो भारतविद्याशास्त्र और समाजशास्त्र के संगम – स्थल पर स्थित है । ” ड्यूमो ने भारतीय समाजशास्त्र को एक ओर भारत – विद्या के आधार पर स्थापित करने तथा दूसरी ओर भारतविद्याशास्त्र से पूर्णतः अलग स्वतन्त्र रूप से विकसित करने का सुझाव दिया । ड्यूमो लिखते हैं कि , “ भारत हेतु समाजशास्त्र के स्थायी विकास की प्रथम शर्त यह है कि इसके और शास्त्रीय भारतविद्याशास्त्र के मध्य उचित सम्बन्धों की स्थापना हो । ” ड्यूमो ने ‘ वर्णनात्मक समाजशास्त्र ‘ का विचार भी दिया है जिसे अनेक समाजशास्त्रियों ने अस्वीकार किया । ड्यूमो के विचारों की अनेक आलोचनाएँ हुई हैं । उनके इस विचार की कि जाति व्यवस्था की जड़ें ब्राह्मणवादी रूढ़िवादिता में गढ़ी हुई हैं तथा उनके विविधता में एकता , सामाजिक संगठन , संस्तरण , पवित्रता – अपवित्रता सम्बन्धी विचारों की भी भारत में हो रहे सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भ में काफी आलोचना हुई है ।

आलोचकों का कहना है कि ड्यूमो ने असमता पर आधारित समाज को आदर्श समाज मानने की भूल की है । ऐसा लगता है कि ड्यूमो का सिद्धान्त राजनीति से प्रेरित रहा है जिसके द्वारा वह यह प्रमाणित करना चाहता है कि संस्तरण पर आधारित भारतीय समाज में समानता एवं समाजवाद सम्भव नहीं है । साथ ही , ड्यूमो ने पूर्व एवं पश्चिम के चले आ रहे विवाद को पुनर्जीवित कर दिया तथा पश्चिमी समाजों में वर्ग एवं संजातीयता पर आधारित असमता को अनदेखा कर दिया । इस प्रकार से घुरिये एवं ड्यूमो ने भारतविद्याशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की न केवल विवेचना की है वरन् उसको विस्तार भी दिया है ।

 

 

 

read also

सामाजिक स्तरीकरण :

ड्यूमो का विश्लेषण प्रसिद्ध फ्रांसीसी सामाजिक विचारक लुई ड्यूमों ने अपनी पुस्तक होमी हैरारकीस में सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था का अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है । इयूमा के सामाजिक स्तरीकरण सम्बन्धी विचारों को विशेषकर हम उनकी पुस्तक होमो हैरारकीस में देख सकते है । यद्यपि इयूमो ने सामाजिक स्तरीकरण पर किसी पृथक् अध्ययन की रचना नहीं की ।

प्रो.लुई इयूमो के सामाजिक स्तरीकरण की अवधारणा को निम्नलिखित शीर्षकों के आधार पर समझा जा सकता है ( 1 ) जाति – व्यवस्था – पदसोपान का एक सिद्धान्त । ( 2 ) व्यवस्था से संरचना की ओर ( 3 ) पदसोपान : वर्ण – व्यवस्था का सिद्धान्त । ( 4 ) श्रमविभाजन ( 5 ) जाति एवं व्यवसाय ( 6 ) जजमानी प्रथा ( 7 ) विवाह के नियम अलगाव व पदसोपान ( 8 ) सम्पर्क व खान – पान के नियम

 जाति व्यवस्था – पदसोपान का एक सिद्धान्त

प्रो.लुई ड्यूमो के अनुसार ‘ जाति ( Caste ) पदसोपान ( Hierarchy ) का एक आधारभूत सिद्धान्त प्रदान करती है । इयूमो कहते हैं – हमारा पहला आधारभूत उद्देश्य जाति व्यवस्था की वैचारिकी ( Ideology ) को समझना है । प्रो . लुई इयूमो अपनी पुस्तक के प्रथम अध्याय जिसे वे विचारों का इतिहास ( History of Ideas ) कहते हैं , में जाति शब्द की परिभाषा प्रस्तुत करते हैं । इयूमो जाति व्यवस्था पर अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए जाति की एक प्रारम्भिक परिभाषा स्वीकार करते हैं और इसके लिए वे सी – बोगल ( C.Bougle ) द्वारा ‘ कांट्रीब्यूशन्स टू इण्डियन सोशियोलोजी ‘ में प्रस्तुत परिभाषा को स्वीकार करते हैं । बोगल के अनुसार जाति व्यवस्था सम्पूर्ण समाज को अनेक वंशानुक्रम समूहों में विभाजित करती है जो कि सामान्यत : एक दूसरे से पृथक् हैं लेकिन वे तीन विशेषताओं द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए हैं । ये तीन विशेषताएँ निम्न हैं –

( क ) अलगाव ( Separation ) – विवाह एवं सम्पर्क के रूप में ।

( ख ) श्रम विभाजन ( Division of Labour ) – प्रत्येक समूह सिद्धान्त के रूप में या परम्परा के तौर पर एक निश्चित व्यवसाय अपनाये हुए हैं एवं उस समूह के सदस्य कुछ निश्चित सीमाओं को छोडकर इन व्यवसायों के परे नहीं जा सकते ।

( ग ) पदसोपान ( Hierarchy ) – जो समूह के सदस्यों को एक दूसरे से श्रेष्ठता ब निम्नता के आधार पर श्रेणीगत करते हैं ।

लूई इयूमो के अनुसार बोगल की यह परिभाषा जाति व्यवस्था की आधारभूत विशेषताओं को स्पष्ट करती है । जाति शब्द की उत्पत्ति इयूमों अपनी विवेचना को ‘ कास्ट ‘ ( Caste ) शब्द से शुरू करते हैं । वे कहते है कि ‘ कास्ट ‘ शब्द की व्युत्पत्ति सामान्यत : पुर्तगाली तथा स्पेनिश शब्द ‘ कास्टा ( Casta ) से मानी जाती है , जिसका सामान्य आशय ‘ प्रजाति ‘ अथवा ‘ प्रजाति भेद ‘ । इयूमो के अनुसार इसकी व्युत्पत्ति को लेटिन शब्द ‘ Castus ‘ एवं ‘ Chaste ‘ से नहीं मिलाया जाना चाहिये । इस शब्द का आशय सामान्यतः प्रजाति से ही लगाया जाता रहा हैं । इसे पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य के आसपास पुर्तगालियों द्वारा लागू किया गया है । अंग्रेजी में इसका प्रयोग प्रजाति के रूप में सन् 1555 के आस – पास होता रहा है एवं भारतीय अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही हो पाया है । फ्रांसिस भाषा में इसे ‘ कास्ट ‘ कहा गया जो 1800 से पूर्व छुटपुट रूप में पाया जाता रहा है । तकनीकी रूप से इसका प्रयोग 1700 के बाद ही प्रारम्भ हुआ है । अब्बु दुबाय जैसे महान् फ्रॉसीसी विचारक ने भी ‘ कास्ट शब्द का उपयोग प्रजातीय भिन्नता को स्पष्ट करने के लिए ही किया

11.5 जाति प्रथा की उत्पत्ति के सिद्धान्त एवं डयूमो का विश्लेषण लुई इयूमो जाति – व्यवस्था के कुछ ऐतिहासिक स्पष्टिकरणों की भी विवेचना करते हैं जिनमें वे विशेषकर तीन प्रकार के सिद्धान्तों का उल्लेख करते हैं –

( क ) इण्डौंयूरोपीयन एवं दविड़ियन सिद्धान्त ।

( ख ) प्रजातीय सिद्धान्त ।

( ग ) प्रसारवीद सिद्धान्त । ( क ) इण्डोयूरोपीयन एवं दविड़ियन सिद्धान्त : प्रो.लुई इयूमो कहते हैं कि 19 वीं शताब्दी में वे विद्वान् जो भारत में अध्ययन कार्य में व्यस्त थे वे पहले इण्डोयूरोपियन पक्ष से निर्देशित थे एवं भारतीय इतिहास का अधिकांश प्राचीन समय इण्डोयूरोपियन भाषायी जनसंख्या के भारत में आगमन का है । यह वह जनसंख्या है जिसकी विवेचना वेदों व अन्य धार्मिक ग्रन्यों में भी उपलब्ध है अत : यह स्वाभाविक है कि जाति का एक इण्डोयूरोपीयन सिद्धान्त हो जिसे सेनार्ट ने 1896 में प्रस्तुत किया । सेनार्ट ( Senart ) ने जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत भोजन , विवाह और सामाजिक सहवास से सम्बन्धित प्रतिबन्धों पर अपना ध्ययन केन्द्रित करते हुए यह विचार व्यक्त किया कि जाति व्यवस्था की उत्पत्ति कुलदेवता की पूजा और परिवार में भोजन सम्बन्धी निषेधों की भिन्नता पर आधारित है । इसे स्पष्ट करते हुए आपका कथन है कि भारत में आर्यों के आक्रमण के पश्चात् प्रजातीय मिश्रण बढ़ जाने के कारण विशुद्धता का स्तर दो भागों में विभाजित हो गया – एक ओर वे व्यक्ति थे जो अपनी वंश – परम्परा के आधार पर विशुद्ध होने का दावा करते थे और टूसरी और कुछ व्यक्ति ऐसे थे जो अपने परम्परागत व्यवसाय के आधार पर स्वयं को विशुद्ध कहते थे । इन दोनों ही परिस्थितियों के फलस्वरूप अनेक समूहों की रचना हो गई । एक और भिन्न – भिन्न कुल देवताओं में विश्वास करने वाले समूह एक – दूसरे से पृथक् हो गए और दूसरी और व्यवसाय की भिन्नता के कारण इस पृथकता में और अधिक वृद्धि हुई । सेनार्ट का कथन है कि पुरोहितों का कार्य करने वाले व्यक्ति सबसे अधिक संगठित थे । इस प्रकार उन्होंने अपनी जैतिक शक्ति के दबाव से इन सभी समूहो ( अथवा जाति – व्यवस्था ) में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लिया । इस प्रकार धार्मिक आधार पर ही समाज कुछ समूहों में विभाजित हुआ और धार्मिक शुद्धता के अनुसार ही विभिन्न समूहों को एक विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त हुई ।

( ख ) प्रजातीय सिद्धान्त इसी प्रकार इयूमो के अनुसार वर्तमान में प्रजातीय सिद्धान्त का भी काफी प्रभाव रहा । जाति – व्यवस्था की उत्पत्ति को स्पष्ट करने में प्रजातीय आधार को लगभग सभी विद्वानो ने किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार किया है । प्रजातीय सिद्धान्त के प्रबल समर्थकों में हर्बर्ट रिजले का नाम विशेष उल्लेखनीय है । हर्बर्ट रिजले के अनुसार जाति प्रथा की उत्पत्ति में तीन महत्वपूर्ण कारक उत्तरदायी रहे हैं , वे हैं – ( क ) प्रजातीय सम्पर्क , ( ख ) इस सम्पर्क से उत्पन्न वर्णसंकरता , तथा ( ग ) वर्ग – भेद की भावना । रिजले के अनुसार भारत में जाति – व्यवस्था आरम्भ से ही विद्यमान नहीं थी , बल्कि इसका आरम्भ आर्यों की उस शाखा से द्वारा हुआ जिसने गिलगिट और चिवाल के रास्ते से भारत में आकर यहीं के मूल निवासी द्रविडों को परास्त किया था । रिजले का कथन है कि जहाँ कहीं विश्व के इतिहास में एक जनसमूह ने दूसरे जनसमूह पर आक्रमण करके उन्हें परास्त किया है वहाँ विजेताओं ने हारे हुए समूह की स्त्रियों को तो पत्नी के रूप में स्वीकार किया लेकिन अपने समूह की स्त्रियों को हारे हुए लोगों के सम्पर्क में जाने पर प्रतिबन्ध लगाए हैं । यदि विजित और विजेता एक ही प्रजाति के होते हैं तब उनके बीच अनुलोम विवाह की यह धारणा जल्दी ही कमजोर पड़ जाती है और दोनों समूह एक – दूसरे से घुल – मिल जाते हैं लेकिन यदि इन दोनों समूहों की प्रजातीय विशेषताएँ एक – दूसरे से भिन्न होती हैं तब अनुलोम अथवा कुलीन विवाह को एक नियम का रूप दे दिया जाता है । इस स्थिति में प्रभावशाली अथवा

विजेता लोग दूसरे रक्त के समूहों से सामाजिक दूरी की नीति अपनाते हैं । यही से वर्णसंकरता की स्थिति आरम्भ होती है क्योंकि विजेता और विजित समूह के स्त्री – पुरुषों के बीच अनियमित सहवास तब भी स्थापित होता रहता है । इस प्रकार रक्त की विशुद्धता और वर्णसंकरता के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच ऊँच – नीच की भावना जन्म ले लेती है । रिजले का विश्वास है कि आर्यों में विशुद्धता के आधार पर सामाजिक विभाजन की व्यवस्था पहले से ही प्रचलित थी ।

जत्न आर्य भारत में आए तब उन्होंने प्रजातीय आधार पर स्वयं को उच्च और द्रविड़ों को निम्न वर्ण का कहना आरम्भ कर दिया । कालान्तर में प्रजातीय सम्पर्क में वृद्धि होने से आर्य स्वयं भी रक्त की विद्वता के आधार पर तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित हो गए जबकि द्रविड़ों को ‘ दास ‘ अथवा ‘ शूद्र ‘ कहा जाने लगा । इसके उपरान्त जब कभी भी अनुलोम के नियम की अवहेलना हुई अर्थात उच्च वर्ण की स्त्रियों ने निम्न वर्ण के पुरुषों से विवाह सम्बन्ध स्थापित किए , तब ऐसे विवाहों से उत्पन्न सन्तानों को वर्णसंकर मान लिया गया तथा इस वर्णसंकर समूह को एक नवीन जाति के रूप में देखा जाने लगा । इस आधार पर वैवाहिक नियमों का उल्लंघन होते रहने की स्थिति में जातियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती रही और वर्ग – भेद की भावना के कारण कभी भी एक जाति दूसरी जाति से नहीं मिल सकी । इस प्रकार रिजले के अनुसार प्रजातीय संघर्ष – अनुलोम विवाह की नीति – प्रजातीय मिश्रण वर्ण – संकर समूहों का निर्माण वर्ण – भेद , आदि जातियों की उत्पत्ति का वास्तविक क्रम रहा है । रिजले ने तो यहीं तक निष्कर्ष दे दिया कि भारतवर्ष में व्यक्ति की नाक की बनावट ( जो एक प्रजातीय लक्षण है ) से ही उसकी सामाजिक अथवा जातिगत स्थिति को ज्ञात किया जा सकता है ।

( ग ) प्रसारवाद सिद्धान्त : तीसरे प्रकार का स्पष्टीकरण जो कि सांस्कृतिक इतिहास से लिया गया है एवं जिसका प्रचलन नृतत्वशास्त्र में अधिक था , प्रसारवाद का है । इयूमो इसमें होकार्ट के विचारों को शामिल करते हैं । होकार्ट का मानना है कि सम्पूर्ण जाति व्यवस्था की उत्पत्ति अनेक धार्मिक क्रियाओं अथवा कर्मकाण्डों से सम्बन्धित है । होकार्ट के अनुसार कर्मकाण्डों से सम्बन्धित विभिन्न क्रियाएँ पवित्रता के आधार पर अनेक उच्च और निम्न स्तरों में विभाजित होती है । इसके अतिरिक्त इन क्रियाओं की संख्या भी इतनी अधिक होती है कि प्रत्येक क्रिया के लिए कुछ विशेष व्यक्तियों की आवश्यकता होती है , जैसे – मन्त्रोच्चरण के लिए पुरोहित , निमन्त्रण देने के लिए नाई , फूल लाने के लिए माली , सामान्य सेवा के लिए कहार आदि । इस प्रकार होकार्ट का मत है कि ‘ आरम्भ में ही चारों वर्गों का विभाजन प्रमुख रूप से इन धार्मिक क्रियाओं को पूरा करने के उद्देश्य से हुआ । चारों वर्गों के जिन चार रंगों , अर्थात सफेद , लाल , पीला और काला का जो उल्लेख मिलता है वह भी वास्तव में विभिन्न वर्णो द्वारा की जाने वाली धार्मिक क्रियाओं की पवित्रता के अनुसार उनकी सामाजिक स्थिति का निर्धारण हुआ जो आनुवंशिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होने लगी ।

read also

व्यवस्था से संरचना की ओर

इयूमो अपनी पुस्तक ‘ होमो हेरारकीज दी कास्ट सिस्टम एण्ड इट्स इम्लीकेशंस के दूसरे अध्याय को अवस्था से संरचना की ओर नाम देते हैं । यहाँ ड्यूमो का आश्य जाति – अवस्था से उसकी संरचना की ओर है । प्रो.लुई ड्यूमो अपने इस अध्याय में जाति – व्यवस्था से उसकी वैचारिकी तथा विशेष रूप से उसकी पवित्रता अपवित्रता की धारणा की विवेचना करते है । इयूमो आरम्भ में ही यह प्रश्न उठाते है कि भारत में कितनी जातियाँ हैं ? क्या इनमें से कुछ मुख्य – मुख्य जातियों की सूची बनाई जा सकती है अथवा उनकी संख्या गिनी जा सकती है । स्वयं इयूमो ही प्रत्युत्तर के रूप में यह कहते हैं कि इस तरह के प्रश्न पाठकों के मन में उतना स्वाभाविक है लेकिन फिर भी हम यही इन प्रश्नों का उत्तर इसीलिए नहीं दे रहे हैं क्योंकि वे सामान्यत : अर्थहीन ही समझे जाते हैं जातियों की संख्या गिनने या उनकी सूची बनाने से हमारे अध्ययन का कोई पक्ष स्पष्ट नहीं होता । अतः हम इन प्रश्नों का उत्तर नहीं देगें । लुई ड्यूमो कहते हैं कि जैसा कि हम देखेंगे कि प्रत्येक वास्तविक जाति व्यवस्था कम या अधिक रूप में एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र तक सीमित होती है । आपके अनुसार पदसोपान व्यवस्था में ब्राह्मण का स्थान भारत के लगभग समस्त क्षेत्रों में सबसे ऊपर आता है तो क्या

हम ब्राहमण जाति की बात कर सकते है । इयूमो के अनुसार ऐसा करना एक श्रेणी के रूप में यहाँ वर्ण – व्यवस्था कहा जाता है जाति नहीं । ठीक यही स्थिति अछूतों की भी है , जो कि इस पद सोपान व्यवस्था में सबसे नीचे आती है । इन अछूतों की अनेक जातियाँ केवल एक ही भौगोलिक क्षेत्र या जिले में देखी सकती है । इयूमो उदाहरण देकर कहते हैं कि नाई लगभग भारत में सभी जगह पाए जाते हैं । यद्यपि उनकी प्रस्थति उत्तरी भारत व दक्षिणी भारत दोनों ही जगह पृथक् पृथक् स्पष्ट रूप में दिखाई देती है । लुई इयूमो के अनुसार जाति जो कि बाहर से एक दिखाई देती है , अपने भीतरी स्वरूप में अनेक मतों में विभाजित है अर्थात एक जाति की अनेक उपजातियाँ होती हैं और भी सामान्य रूप में एक विशिष्ट जाति एक जटिल समूह है जो कि विभिन्न अवस्थाओं और स्तरों के द्वारा समझी जा सकती है एवं इन विभिन्न स्तरों के साथ अलग – अलग प्रकार्य लगाए गए है ।

इयूमो के अनुसार सामान्य शब्दों में जाति मस्तिष्क की एक दशा है अर्थात मस्तिष्क की एक ऐसी दशा जिसे विभिन्न समूहों के विभिन्न परिस्थितियों में उद्भव आदि के रूप में जाति के तौर पर परिभाषित किया जाता है । इयूमो यहाँ हट्टन द्वारा प्रस्तुत परिभाषा को देखते है जो कि उन्होंने विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर तैयार की । प्रो.हट्टन के अनुसार जाति समाज की अर्द्ध – सावयवी व्यवस्था ( Organic System ) में एक सामाजिक इकाई के रूप में देखी व समझी जा सकती है तथा इसे सम्पूर्ण भारत में आसानी से पहचाना जा सकता है । प्रो.हटन जो कि 19 व 21 की भारतीय जनगणना के अखिल भारतीय कमिश्नर एवं एक निर्विवाद लेखक थे , ने जाति की एक अन्य परिभाषा देते हुए लिखा है कि जाति एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण समाज अनेक आत्म – केन्द्रित तथा एक – दूसरे से पृथक् इकाइयों ( जातियो ) में विभाजित रहता है । इन इकाइयों के पारस्परिक सम्बन्ध ऊँच – नीच के आधार पर परम्परा द्वारा निर्धारित होते है । हट्टन द्वारा प्रस्तुत विचार पश्चिम विचारकों की सूची में यद्यपि अधिक संतुलित हैं लेकिन जिन अर्थो में हट्टन ने ‘ आत्म – केन्द्रित ‘ शब्द का प्रयोग किया है जिसका सम्बन्ध मूलतः जातिवाद से है जाति – अवस्था से नहीं । हट्टन ने लिखा है कि आधुनिक विज्ञानों की एक विशेषता यह है कि संरचना के किसी एक तत्व को तब तक नहीं समझा जा सकता है जब तक कि उसके प्रकार्या को न देखा जाए । इस तरह हट्टन समाजशास्त्र में संरचनात्मक प्रकार्यात्मक उपागम के समर्थक समझे जाते हैं । हट्टन का आग्रह है कि हमारा पहला लक्ष्य सम्पूर्ण व्यवस्था का अध्ययन करना है और तभी हम सम्पूर्ण जाति को अच्छी तरह समझ सकते हैं । इयूमो आगे इस तथ्य की भी विवेचना करते है कि जाति एक ‘ व्यवस्था से हम क्या समझते हैं । इयूमो के अनुसार यह शब्द दो विभिन्न आधारों में सामान्यतः प्रयुक्त किया जाता ( क ) आनुमाविक रूप में ( Empirically ) ( ख ) वैचारिकी रूप में ( Ideologically )

इयूमो के अनुसार वे जातियाँ जो निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में रहती हैं . उन्हें भौगोलिक परिस्थितियों के रूप में देखा जा सकता है । उनके अनुसार इस बात को माने के पर्याप्त कारण कि प्राचीन समय में जाति – व्यवस्था इस तरह के अमूर्त सम्पूर्ण रूप में देखी पर या आधार * तो प्राथमिक माना जा सकता है और ना ही पर्याप्त बल्कि इसका मूर्त सम्पूर्ण के लिए हम इसे सामान्य सिद्धान्तों के आधार पर देखना चाहिए । इस अर्थ में कोई व्यक्ति जातिव्यवस्था को भारतीय संस्था के रूप में विश्लेषित कर सकता है ।

इस प्रकार इस स्तर पर सम्पूर्ण रूप में जाति – व्यवस्था विचारों ( Ideas ) एवं मूल्यों ( Values ) की एक व्यवस्था है एवं बौद्धिक अर्थ में जाति – व्यवस्था एक औपचारिक , व्यापक एवं तार्किक व्यवस्था है । लुई ड्यूमो के अनुसार यहीं हमारा पहला उद्देश्य जाति – अवस्था की इस बौद्धिक व्यवस्था को देखना व समझना है । दूसरे शब्दों में हमें इसकी वैचारिकी को देखना है अत : इयूमो के अनुसार हमारे लिए प्रथम तो सबसे महत्वपूर्ण तथ्य जाति को विद्यारों मूल्यों की व्यवस्था के इम में देखना , समझना व विश्लेषित करना हैं ।

लेकिन यह चरण एक रात में परम्परागत स्थिति को परिवर्तित करने की क्षमता नहीं रखता एवं इसी परम्परागत स्थिति से हमारा यहाँ सम्बन्ध हैं । इयूमो ने आगे चलकर अपनी पुस्तक में इस बात की विस्तार से विवेचना की कि पवित्रता व अपवित्रता की धारणा को किस प्रकार जाति – व्यवस्था से सम्बन्धित किया गया है । इयूमो पवित्रता और अपवित्रता की धारणा को जाति – व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग मानते है और इसी आधार पर इनकी विवेचना करते हैं । पुन : इयूमो ने ‘ अपवित्रता की धारणा को दो भागों में विभाजित किया ( अ ) अस्थाई अपवित्रता , ( ब ) स्थाई अपवित्रता । ड्यूमो के अनुसार संसार के अधिकाँश भागों में व्यक्ति के जन्म , मृत्यु आदि घटनाओं को लगभग सभी परिवारों में महत्वपूर्ण माना जाता है और इन घटनाओं से प्रभावित व्यक्तियों की ‘ अस्थाई अपवित्रता की धारणा आरोपित की जाती है । फलस्वरूप इन अस्थाई अपवित्र व्यक्तियों के लिए अन्य व्यक्तियों का सम्पर्क आदि निषेध होता है ।

इयूमो एक उदाहरण देकर इस बात की विवेचना करते हैं कि एक नई कैथोलिक माँ जिसने एक बच्चे को जन्म दिया है , चर्च से केवल चालीस दिनों तक बाहर रहती है । अर्थात 40 दिनों तक उसके लिए चर्च में प्रवेश अपवित्रता है एवं इन चालीस दिनों के बाद वह एक जलती हुई मोमबत्ती लेकर पहली बार चर्च के पोर्च में पादरी से मिलती है और अपनी पवित्रता को पुन : प्राप्त करती है । लुई ड्यूमो के अनुसार अपवित्रता की यह धारणा जिस रूप में दिखाई देती है उसके लिए स्थान कर लेना इस अपवित्रता को समाप्त करने देने का सबसे बड़ा उपाय है । लुई इयूमो कहते हैं कि भारत में ही इस प्रकार की अपवित्रता का सामना करना पड़ता है । वे प्रो.पी.बी.काने ( P.V.Kane ) की पुस्तक ‘ हिस्ट्री ओफ धर्मशास्त्र ‘ से उदाहरण देकर बताते हैं कि एक व्यक्ति को घनिष्ठ सम्बन्धी एवं एक अच्छे मित्र को इन धारणाओं के कारण कुछ निश्चित समय के लिए अछूत रहना पड़ा । इयूमो ने भारतीय आदिवासी समाजो से अनेक उदाहरण देकर इस अपवित्रता की धारणा की विस्तार से विवेचना की है । लुई ड्यूमो अपने अध्ययन में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों का भी सहारा लेते हैं एवं इन ऐतिहासिक तथ्यों के द्वारा पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा को समझाने का प्रयास करते हैं । वे कहते है कि आदर्शात्मक साहित्य अर्थात् धार्मिक साहित्य मैं शुद्धीकरण ( शुद्धि ) को एक महत्वपूर्ण विशेषता के रूप में समझा जाता है । इयूमों ने मनु से उदाहरण लेकर इस तथ्य की विवेचना की है कि मनु अपवित्रता के जिन बाहर क्षेत्रों की विवेचना करता है जो कि मूलतः अपने मूल्यों पर आधारित है जैसे सिल्क को सूती कपड़े की अपेक्षा एवं सोने को चाँदी व ताँबे की अपेक्षा पवित्र मान गया हैं लेकिन इयूमो के अनुसार वस्तुएँ ‘ सम्पर्क से अपवित्रता नहीं मानी जाती बल्कि वे इस बात से पवित्र व अपवित्र मानी जाती है कि उनका किस तरह प्रयोग किया जाता है । लेकिन ड्यूमो यह भी बताते हैं कि वर्तमान में नए गहने इत्यादि लगभग सभी व्यक्तियों द्वारा पहने जाते है । इयूमो लिखते हैं कि यह , देखा गया है कि व्यक्ति के स्वयं का 136

read also

पद – सोपन : वर्ण – व्यवस्था का सिद्धान्त

प्रो.लुई इयूमो ने अपनी पुस्तक में पद – सोपान वर्ण व्यवस्था का सिद्धान्त प्रस्तुत किया हैं लुई इयूमो अपने इस अध्ययन में पद – सोपान व्यवस्था की सामान्य विवेचना के साथ – साथ  वर्ण – व्यवस्था , जाति एवं वर्ण , पद – सोपान एवं शक्ति , प्रादेशिक प्रस्थिति श्रेणी व केन्द्रीय भारत का एक प्रमुख उदाहरण प्रस्तुत करते है प्रो.लुई इयूमों के अनुसार पद – सोपान के मूल अर्य आरम्भ में धार्मिक श्रेणियों से था लेकिन आधुनिक युग में इयूमो के अनुसार पद – सोपान व्यवस्था ही ‘ सामाजिक स्तरीकरण के रूप में परिवर्तित हो गई । वे कहते है कि पद – सोपान व्यवस्था को जहाँ पूरी तरह धार्मिक मूल्यों के साथ सम्बन्धित किया जाता है , वही यह देखना स्वाभाविक है कि यह पद – सोपान व्यवस्था किस तरह शक्ति ( Power ) से सम्बन्धित है एवं किस तरह सत्ता ( Authority ) को परिभाषित किया जा सकता है । पद – सोपान सिद्धान्त को लुई इयूमो के अनुसार पवित्र व अपवित्र के विरोध स्वरूप प्रस्तुत किया था , लेकिन यहीं हम ऐसा नहीं कर सकते । लेकिन हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि यह विरोध जो कि पूरी तरह धार्मिक है हमें समाज में शक्ति के स्थान के बारे में कोई जानकारी नहीं प्रदान करता है । इसके लिए हमें परम्परागत हिन्दू सिद्धान्त को देखना होगा जो कि कम से कम जाति में निहित नहीं था । इस तरह इयूमो के अनुसार इसे ‘ वर्ण – व्यवस्था के आधार पर समझा जा सकता है ।

इयूमो के अनुसार किसी भी हालत में कोई व्यक्ति वर्ण की विवेचना किए बिना जाति की विवेचना नहीं कर सकता । लुई इयूमो कहते हैं कि हमें जाति की अपेक्षा प्राचीन भारत में वर्ण – व्यवस्था का अध्ययन करना होगा एवं साथ – साथ वर्ण एवं जाति के सम्बन्ध को देखना होगा । वर्ण व जाति का यह सम्बन्ध विशेषकर पद सोपान ब शक्ति के सम्बन्ध के दृष्टिकोण से करना चाहिए तभी हम वर्ण – व्यवस्था की भी विधिवत् व्याख्या कर सकेंगे एवं पद – सोपान व्यवस्था व शक्ति एवं सत्ता की अवधारणाओं को विधिवत् रूप से समझ पायेंगे । इस प्रकार हम देखते है कि इयूमों के अनुसार स्तरीकरण की व्यवस्था में न केवल गति बल्कि वर्ण भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है तथा पद – सोपान व्यवस्था व ‘ वर्ण के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है । इस प्रकार लुई इयूमो वर्ण – व्यवस्था को अपने अध्ययन का केन्द्रिय कारण मानते है । इयूमों कहते है कि भारत में पवित्रा व अपवित्रा के पद – सोपान के अतिरिक्त एक परम्परागत पद – सोपान यहाँ चार वर्णों के रूप में देखा जा सकता है । यहाँ हम वर्ण के सामान्य अर्थ की विवेचना पहले करेंगे ।

read also

 पदसोपान एवं शक्ति

इसके बाद लुई इयूमो ने पद सोपान एवं शक्ति के आपसी सम्बन्ध की विवेचना की है और इयूमो का मानना है कि इन दोनों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध के आधार पर ही सामाजिक स्तरीकरण की विवेचना की जा सकती है । शक्ति को परम्परागत एवं आधुनिक दोनों ही रूपों में समझा जा सकता है । इयूमो प्रादेशिक प्रस्थिति , श्रेणी तथा केन्द्रीय भारत का एक उदाहरण भी प्रस्तुत करते इयूमो ने ‘ पी.एस.महार ‘ व ‘ मेकिम मैरियट ‘ दवारा उत्तर प्रदेश व पश्चिम भाग में किये गये अध्ययन की विवेचना की है । मैकिम मैरियट का मत है कि जातिगत पद सोपान सामाजिक संरचना का एक अनिवार्य अंग है । उनका मानना है कि जाति सामूहिक सम्मति का एक संगठन है जिसमें किन्हीं जातीय समूहों को एक सम्पूर्णता के सम्बन्ध में उच्च या निम्न स्थान प्रदान किया जाता है । यह सोपान सामान्यत : प्राथमिकता एवं प्रतिष्ठा के आधार पर निर्मित होता है । मैकिम मेरियट ने अपने अध्ययन को पाँच क्षेत्रों केरल , कोरोमण्डल , गंगा का उच्चतट , मध्य सिन्धु व बंगाल के डेल्टा में सम्पन्न किया था । केरल में जातिगत क्रम अधिक स्पष्टता से देखा गया जबकि वहाँ के रेखिक क्रम – विन्यास के कारण धार्मिक समूहों के अनुसार अन्त : क्रिया व परस्पर सेवाओं का आदान – प्रदान होता था । कोरोमण्डल में जातिगत क्रम विन्यास कम स्पष्ट पाया गया वहाँ मूलत : निम्न जातियों में यह विवाद था कि कौन सी जाति उंची है । गंगा के तट पर क्रम – विन्यास सरल व क्षैतिजीय पाया गया एवं वहाँ साँस्कारिक व गैर – साँस्कारिक अन्तःक्रियाओं में स्पष्ट स्तरीकरण का अभाव पाया गया । शेष दो क्षेत्र जो मुस्लिम प्रधान ये उनमें भी जाति – विन्यास साधारणत : सरल देखा गया । लुई ड्यूमो कहते हैं कि पद सोपान का सिद्धान्त एक श्रेणी के रूप में अधिकार आरोपण ( Attribution ) एवं अन्तःक्रिया की एक व्यवस्था है जिसमें प्रत्येक का सम्बन्ध सम्पूर्ण से है । इस प्रकार इयूमो का मानना है कि व्यवस्था की प्रत्येक इकाई सम्पूर्ण से सम्बन्धित है और इस इकाई के अध्ययन के लिए हमें उसे सम्पूर्ण में ही देखना चाहिये । लुई ड्यूमो कहते हैं कि मैकिम मैरियट द्वारा प्रस्तुत अवधारणायें पूरी तरह सत्य नहीं कही जा सकती क्योंकि मैकिम मैरियट का सम्बन्ध मूलत : जातिगत श्रेणियों से ही था । वे 143

अपने अध्ययन में पद सोपान सिद्धान्त एवं उसके सम्पूर्ण से सम्बन्ध को स्पष्टत : विवेचित नहीं कर सके । फलस्वरूप मैकिम मैरियट दवारा प्रस्तुत सिद्धान्त में सामाजिक पद सोपान व सम्पूर्ण के पक्षों की उपेक्षा की । लुई इयूमो कहते हैं कि हम इस बात से सहमत हैं कि पद सोपान व श्रम – विभाजन घनिष्ठ रूप से अन्तसम्बन्धित है लेकिन फिर भी उन्हें पृथक् रूप से विश्लेषित नहीं किया जा सकता बल्कि उनके इस सम्बन्ध को तभी समझा जा सकता है जबकि हम इसकी विवेचना सम्पूर्ण रूप से करें । यह सिद्धान्त कुछ सीमा तक अलगाव को भी स्पष्ट करता है जो कि अधिकार आरोपण है । इयूमो का मानना है कि अन्तःक्रिया को सम्पूर्ण वैचारिक अभिस्थापन के स्थान पर आरोपित नहीं किया जा सकता है ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि लुई इयूमो अपने सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धान्त में जहाँ पद सोपान एवं जाति के सम्बन्ध की विवेचना करते हैं वहीं वे वर्ण – व्यवस्था को भी पद सोपान की एक अनिवार्य परम्परागत आवश्यकता मानते हैं और उसे विश्लेषित करते हैं । साथ ही साथ लुई इयूमो पद सोपान व्यवस्था में ‘ शक्ति की अवधारणा को भी महत्वपूर्ण मानते हैं और उनका आग्रह है कि यह शक्ति सम्पूर्ण के सन्दर्भ में देखी व विश्लेषित की जानी चाहिए । पद सोपान की किसी एक इकाई के सन्दर्भ में शक्ति की विवेचना अर्थहीन होगी और इसके लिए ड्यूमा मैकिम मैरियट की आलोचना करते हैं जिन्होंने केवल जातिगत श्रेणियों से ही शक्ति सम्बन्धों की विवेचना की है तथा पद सोपान व्यवस्था एवं सम्पूर्ण के साथ इनके सम्बन्ध को विश्लेषित नहीं किया है । साथ इयूमो ने ‘ श्रम – विभाजन को पद सोपान व्यवस्था के साथ सम्बन्धित किया है एवं अधिकार – आरोपण व अन्तःक्रिया को इसके साथ विश्लेषण किया है ।

read also

जाति एवं व्यवसाय

लुई इयूमो ने लिखा है कि जाति व व्यवसाय के मध्य निश्चित रूप से घनिष्ठ सम्बन्ध है । इसे आसानी से नहीं देखा जा सकता । इयूमो इस सम्बन्ध में ब्लण्ट के विचारों को प्रस्तुत ब्लण्ट ने जाति – व्यवस्था की उत्पत्ति में व्यावसायिक आधार को महत्वपूर्ण मानते हुए इसे रिजसे के प्रजातीय सिद्धान्त से मिलाने का प्रयत्न किया है । आपके अनुसार , जाति व्यवस्था की उत्पत्ति एक वर्गगत समाज में व्यावसायिक विभाजन उत्पन्न होने की स्थिति से सम्बन्धित है । इसे स्पष्ट करते हुए ब्लण्ट का विचार है कि भारतीय समाज आरंभ से ही बहुत से प्रजातीय समूहों में विभाजित रहा है जिसका आधार प्रजातीय विशुद्धता अथवा प्रजातीय मिश्रणकी मात्रा थी । इसी समय यहाँ व्यवसाय के आधार पर अनेक सं ? ( Groups ) का निर्माण हुआ जिनमें सभी समूहों के व्यक्तियों को सदस्यता प्राप्त होने लगी । ये संघ शक्तिशाली संगठनों के रूप में विकसित होने लगे और अपने व्यावसायिक ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए इन्होंने अन्तर्विवाह की नीति को अपना लिया । इन व्यावसायिक संधों का रूप इतना व्यापक था कि अनेक जनजातीय समूह भी इनमें सम्मिलित होने लगे । इसके पश्चात भी ये जनजातीय समूह केवल अपने समूह में ही विवाह – सम्बन्ध स्थापित करने पर जोर देते थे । यही कारण है कि जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत सभी प्रमुख जातियाँ और उपजातियाँ अपने आपमें अन्तर्विवाही है । ब्लण्ट का विचार है कि अधिकतर जनजातियां अपनी उत्पत्ति एक विशेष पूर्वज से मानते हैं । यही कारण है कि जाति – व्यवस्था के अनतर्गत यद्यपि प्रमुख जातियों का कोई सामान्य पूर्वज नहीं होता , जबकि अनेक उपजातियाँ आज भी अपनी उत्पत्ति किसी विशेष पूर्वज से होने का दावा करती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि ब्लण्ट की मान्यता है कि भारतीय समाज में व्यावसायिक विभाजन के उत्पन्न होने से जाति – व्यवस्था की उत्पत्ति हुई । व्यवसाय के आधार पर यहीं अनेक व्यावसायिक संघ बने जिनकी सदस्यता प्रारम्भ में कोई भी व्यक्ति प्राप्त कर सकता था । धीरे – धीरे ये संगठित होने लगे और व्यवसायिक ज्ञान को अपने तक ही सुरक्षित बनाये रखने का प्रयत्न करने लगे । इसी उद्देश्य से उन्होंने अन्तर्विवाह की नीति का पालन किया और ये अपने ही समूह के लोगों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने लगे । ये समूह ही बाद में जातियों में बदल गये है । आज भी अन्तर्विवाह जाति की एक महत्वपूर्ण विशेषता है । डॉ . जी . एस . घुर्ये का कहना है कि व्यवसाय सम्बन्धी इस बन्धन के साथ जो उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में क्रियान्वित हो रहा था , यह कट्टर विश्वास भी विद्यमान था कि बहुसंख्यक जातियों में से प्रत्येक का अपना परम्परागत व्यवसाय था और इसलिए वही उनके 145

सदस्यों का वंशानुगत व्यवसाय हुआ जिसको दूसरे व्यवसाय की खोज में त्याग देना यदि पापपूर्ण नहीं तो कम से कम अनुचित अवश्य था । समाज में प्रचलित व्यवसायों का विभिन्न मूल्यांकन न केवल सभी समाजों का चिन्ह रहा है , अपितु वह अनेक आदिवासी या अपठित समाजों का भी रहता आया है । सामाजिक विकास के इस लक्षण की ओर इयूमो ने समुचित स्थानों पर यत्रातत्रा विषय की उपयुक्त माँग के अनुसार ध्यान आकृष्ट किया है परिणामस्वरूप यह स्पष्ट हो जायेगा कि पश्चिम की आंग्ल तथा अमेरिकन जैसे आधुनिक समाज में भी यह मूल्याँकन उनके सामाजिक गठन तथा मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति का लक्षण है । उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के जाति – समाज में भी , किन्हीं जातियों के प्रति रुपात्मक आचरण तथा सामाजिक प्रस्थिति के सम्बन्ध में कहावतों तथा सूक्तियों में गर्भित चमत्कारी किन्तु एकागी निर्णयों को छोड़कर सामाजिक वरिष्ठता तथा व्यवसायों अथवा व्यवसाय – समूहों की श्रेणि – बद्धता की लगभग सर्वसम्मत योजना विदयमान थी । इस योजना का उपयोग करते हुए हरबर्ट रिजले ने बंगाल की जातियों को उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में सामाजिक वरिष्ठता की दृष्टि से क्रमबद्धतापूर्वक व्यवस्थित किया ।

व्यवसायों के भारतीय मूल्यांकन में शारीरिक श्रम की तुलना में अशारीरिक श्रम के कार्य को उच्चतर मानने का लक्षण उसी प्रकार विद्यमान था , जैसा कि समकालीन ब्रिटेन तथा अमेरिका में मौन रूप से मान लिया गया था , किन्तु इस सिद्धान्त के कार्यान्वयन में जाति तथा पवित्रा धर्मशास्त्रा का अधिक महत्वपूर्ण विचार इससे आगे निकल जाता था । कार्य के सामाजिक मूल्यांकन का दूसरा स्वरूप यानी वह कार्य या उससे सम्बन्धित पदार्थ शुद्ध है या अशुद्ध , पवित्रा है अथवा अपवित्रा भ्रष्टताकारक है अथवा नहीं , जो कभी शताब्दी के समाज में इतना प्रमुख या कि इसे किसी कार्य या व्यवसाय के सामाजिक मूल का निर्धारण करने वाला कारक माना जा सकता है किन्तु यह मूल्याँकन स्वयं जाति – व्यवस्था में इतना जन्मजात हो गया था कि इसका सचेतन सामाजिक दृश्य में अवरोध प्रकट ही नहीं होता था । लगभग सर्वत्रा ही वे व्यवसाय समूह को भ्रष्ट करने वाले नहीं थे , सामान्यतः शुद्ध उच्चतर जातियों के लिए खुला क्षेत्र माने जाते थे , और उनके चारों ओर ही लौकिक मूल्योंकन केन्द्रित था । कम से कम भारतीय आर्यो के समय के भारत में उच्चतर जाति के लोग व्यवसाय चयन में अपना मार्गदर्शन आप ही उस सीमा तक करते थे जितना कि वह उस अधिकाँश गतिहीन तथा ग्रामीण समाज में व्यवहारिक था जो कार्यों तथा व्यवसार्यो के भेद – भाव तथा वैशिष्ट्य पर एक हजार वर्षों से भी अधिक लम्बे समय से आधारित रहा और जिसका प्रतिनिधित्व ऐसे कथन से होता है । व्यवसायों में ” कृषि उत्तम है , जबकि व्यापार मध्यम तथा नौकरी सबसे निकृष्ट है । निश्चित ही ब्रिटिश प्रशासन के आगमन के पूर्व नौकरी की बहुत कम गुन्जाइश थी , और वेतन बहुत थोड़ा मिलता था । नौकरी की वास्तविक दशा भी ऐसी थी जो लोगों के विकसित आत्म – सम्मान से मेल नहीं खाती थी । मनु ने बहुत समय पूर्व ही यह घोषणा कर दी थी कि नौकरी कुत्ते का जीवन है । इसके साथ ही यह कुख्यात तथ्य के विद्यमान था कि सभी स्तरों के प्रशासकीय अधिकारी अष्ट तथा दुष्ट स्वभाव के होते थे । ग्राम लेखपाल राजस्व कर्मचारी , सीमा शुल्क तथा अन्य कर – संग्राहक विभागों के सदस्यगण के लिए तो यह कहावत ही 146

जजमानि प्रथा

इसके बाद लुई न्यूमो जजमानी प्रथा पर अपने विचार प्रस्तुत करते हैं । वे बताते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण के लिए भारत में पायी जाने वाली जजमानी प्रथा को समझे बिना सामाजिक स्तरीकरण की विवेचना नहीं की जा सकती । विलियम वाइजर ने सबसे पहले ग्रामीण भारत में जजमानी प्रथा का उल्लेख किया हैं आस्कर लेविस ने जजमानी प्रथा की विवेचना करते हुए लिखा है कि ” जजमानी व्यवस्था में गाँवों में प्रत्येक जाति समूहाँ से अन्य जातियों के परिवारों को भी कुछ निश्चित सीमाओं की आशा की जाती है । गाँवों में लकड़ी की चीजें बनाता है , लुहार लोहे के औजार बनाता है , एवं नाई बाल काटता है किन्तु वे अपनी सेवाएँ सभी व्यक्तियों को प्रदान न करके केवल उन्हीं परिवारों को प्रदान करते हैं , जिनसे उनके परिवार के सम्बन्ध चले आ रहे हैं व्यक्ति के पिता ने भी उन्हीं परिवारों की सेवा की होगी और उसका डका भी उन परिवारों के लिए कार्य करता है । इस प्रकार यह व्यवसाय और सीमायें जाति के आधार पर परम्परागत रूप से चलती रही है और जजमानी प्रया में जिस परिवार की सेवा की जाती है वह परिवार अथवा परिवार का मुखिया सेवा करने वाले का जजमान कहलाता है और सेवा प्रदान करने वाला व्यक्ति ‘ कमीन ‘ अथवा काम करने वाला कहलाता है । इन शब्दों का प्रयोग उत्तरी पश्चिमी भारत में किया जाता है । भारत के अन्य भागों में जहाँ यह प्रथा पाई जाती है , कमीन के दूसरे नाम भी प्रचलित हैं जजमानी प्रथा को महाराष्ट्र में ‘ ब्लूटे ‘ मद्रास में मद्रास और मैसूर में ‘ अद्दे ‘ कहते हैं । वाइजन ने जजमानी प्रथा को परिभाषित करते हुए लिखा है . ‘ इस प्रथा के अन्तर्गत प्रत्येक जाति का कोई निश्चित कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है । इस कार्य पर उसका एकाधिकार होता है । इसमें एक जाति दूसरी जाति की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है । ‘ श्री रेड्डी का मत है कि जजमानी अवस्था में पुश्तैनी तौर पर एक जाति का सदस्य दूसरी जाति को अपनी सेवाएँ परम्परागत आधार पर प्रदान करता है । ये सेवा – सम्बन्ध जो पुरतैनी तौर पर शासित होते हैं , ‘ जजमान – कमीन सम्बन्ध कहलाते हैं । वेबस्टर शब्दकोष में लिखा है , ‘ जजमान एक ऐसा व्यक्ति है जिसने धार्मिक सेवाओं के लिए ब्राहमणों को किराये पर लिया है , इस तरह वह एक संरक्षक कार्यार्थी है । जजमान शब्द संस्कृत के यजमान से लिया गया है जिसका अर्थ यज्ञ करने वाले से था । क्रमश : यह शब्द उन सभी के लिए प्रयुक्त होने लगा जो कि सेवा के रूप में किसी से भी काम कराते थे । इस प्रकार जजमानी प्रथा में मुद्रा का विनिमय कम होता है क्योंकि वह खुली बाजार अर्थव्यवस्था नहीं है और न ही जजमान के कमीन के सम्बन्ध पूँजीवादी व्यवस्था की तरह सेवायोजक एवं सेवाकारी की तरह है । जजमान अपने कमीन को समय – समय पर नकद या अनाज में भुगतान करता हैं कमीन को सेवा के बदले भोजन , वस्त्र , निवास स्थान तथा कुछ औजारों का उपयोग करने एवं कच्चे माल की सुविधाएँ प्राप्त होती हैं । ये सुविधाएँ इस व्यवस्था को सृदृढ़ बनाती है । आज जबकि मुद्रा का उपयोग बहुत बढ़ गया है फिर भी किसान अनाज में भुगतान करना अच्छा समझते हैं । वाइजर ने जब मैनचुरी जिले के करीमपुर गाँव का अध्ययन कर अपनी पुस्तक लिखी यी तब वे यह नहीं जानते थे कि यह व्यवस्था इतनी व्यापक है । ऑस्कर लेबिस ने रामपुर 149

गाँव में इसका विस्तार से अध्ययन किया है । पूर्वी उत्तर प्रदेश , मालाबार और कोचीन के कुछ हिस्सों , मैसूर जिले , तन्जोर , हैदराबाद , गुजरात और पंजाब में हुए अनेक अध्ययनों से यह जात होता है कि जजामनी प्रथा व्यापक है और उसमें स्थानीय आधार पर अन्तर भी पाया जाता है । इस प्रकार इयूमो ने वाइजर द्वारा किए गए अध्ययन की विवेचना की हैं एक उदाहरण देते है जो करीमपुर गाँव से सम्बन्धित है । करीमपुर जो गंगा व जमुना के दौ – आब के मध्य 754 व्यक्तियों का एक गाँव है एवं जहाँ ब्राहमण प्रभुत्व जाति ( Dominant Caste ) के रूप में पाए जाते हैं एवं जिन्होंने जमीन के बहुत बड़े भाग पर अपना अधिकार कर रखा है । संख्यात्मक रूप से भी ये सबसे ज्यादा है । 161 परिवारों में से जो कि लगभग 24 जातियाँ के है अकेले ब्राहमणों के 41 परिवार पाए गए है । लुई इयूमो कहते हैं कि ‘ जजमानी प्रथा जो कि परम्परागत रूप से भारत में श्रम विभाजन का एक महत्वपूर्ण आधार थी , को ध्यान में रखते हुए हम यहाँ कुछ विशेषताओं को देख सकते हैं । इयूमो के अनुसार संक्षेप में दो तरह की जातियाँ दिखाई देती हैं- पहली दै जिनके पास जमीन है और दूसरी दे जिनके पास जमीन नहीं है । इयूमो का मानना है कि लगभग प्रत्येक गाँव में एक या कुछ जातियाँ ऐसी हैं जिनका जमीन पर स्वामित्व है और इसे ही प्रभुत्व जाति ( Dominant Caste ) माना जा सकता है । ये प्रभुत्व जातियाँ आर्थिक शक्ति की स्वामी हैं एवं जमीन निर्वाहक वस्तुओं व राजनीतिक शक्ति पर भी इनका स्वामित्व है । प्रभुत्व जाति भी अन्तर्जातीय सम्बन्धों को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । इस प्रकार प्रभुत्व जाति वह जाति होती है जो संख्या की दृष्टि से गाँव अथवा क्षेत्रा में अधिक होती है , जाति संस्तरण में जिसकी स्थिति ऊँची होती है । प्रभुत्व जाति अन्य जातियों पर अपनी संख्यात्मक शक्ति , आर्थिक सम्पन्नता और राजनीतिक प्रभुत्व के कारण हावी होती है । वह गॉव की अन्य जातियों के विवादों का निपटारा करती है और उन पर नियन्त्रण रखती है । गाँव में प्रभुत्व जाति ही अधिक सम्पन्न होती है । गाँव की अधिकांश भूमि की वही मालिक होती है अत : आर्थिक रूप से अन्य जातियाँ प्रभुत्व जाति पर निर्भर होती है । प्रभुत्व जाति के लोग ही अधिक शिक्षित होते हैं , उनके प्रशासकीय अधिकारियों से सम्बन्ध होते है और वे ही ग्रामीण राजनीतिक शक्ति का केन्द्र होते हैं । प्रभुत्व जाति ही अन्य जातियों का राजकाज में सहायता प्रदान करती है और उन्हें राजनीतिक संरक्षण भी देती है । प्रभुत्व जाति अन्य जातियों पर अपने दबाव का प्रयोग कर मत जुटाती है । इस प्रकार प्रभुत्व जाति भी अन्तर्जातीय सम्बन्धों को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । प्रभुत्व जाति की अवधारणा का महत्व बताते हुए इयूमो कहते हैं कि प्रभुत्व की अवधारणा अथवा प्रभुत्व जाति , भारत में सामाजिक मानवशास्त्र के क्षेत्र में किए गए अध्ययनों की दृढ और लाभदायक उपलब्धि का प्रतिनिधित्व करती है । इस प्रकार लुई इयूमो का विचार है कि संख्यात्मक शक्ति प्रभवता का परिणाम है न कि , प्रभुत्व का आधार । इयूमो का मत है कि जाति की सांस्कारिक प्रस्थिति संस्तरण ( पवित्रता और अपवित्रता ) के सिद्धान्त पर आधारित है । इसे प्रभुत्व से स्पष्ट रूप में पृथक् किया जाना 150

शाहिए । प्रभुत्व भूमि पर स्वामित्व का परिणाम है । कई विद्वानों ने इस बात पर जोर दिया है कि प्रभुत्व भूमि पर स्वामित्व का परिणाम है । कई विद्वानों ने इस बात पर जोर दिया है के प्रभुत्व को जाति के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए क्योंकि ये दोनों भिन्न – भिन्न तथ्य हैं । लुई डयूमों ने श्रम विभाजन के रूप में सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया जिसमें वे जाति एवं व्यवसाय की प्रमुखता से विवेचना करते है तथा इस सम्बन्ध में ब्लंट राव घुर्य के विचारों को प्रस्तुत करते है । इयूमो का मानना है कि जाति का व्यवसाय से अनिवार्यतः सम्बन्ध है और जाति की पद सोपानिक व्यवस्था को व्यावसायिक विभाजन के आधार पर स्पष्टत : समझा जा सकता है । यद्यपि ऐसा करने में हमें भारतीय जाति – व्यवस्था के परम्परागत रूप को ध्यान में रखना होगा । इसी प्रकार इयूमो जजमानी व्यवस्था को भी पद सोपानिक व्यवस्था में एक परम्परागत श्रम – विभाजन के महत्वपूर्ण आधार के रूप में स्वीकार करते हैं और इसी के साथ वे प्रभुत्व जाति की अवधारणा की विवेचना करते है । इयूमो के अनुसार प्रत्येक गाँव में एक या कुछ जातियाँ ऐसी होती है जो गाँव की अन्य जातियों से अनेक आधारों पर श्रेष्ठ होने का दावा करती हैं , और बे आर्थिक एवं राजनीतिक शक्ति की स्वामी तो होती ही हैं साथ ही साथ उनके पास जीवन निर्वाहक साधनों का भी प्रभुत्व होता है । यही जातियाँ गाँव के बारे में प्रमुख रूप से निर्णय लेती है और शक्ति संरचना में महत्वपूर्ण स्थान रखती है ।

read also

विवाह के नियम :

अलगाव व पदसोपान सामाजिक स्तरीकरण से संबन्धित विचारों को हम ड्यूमो के द्वारा प्रस्तुत विवाह के नियम व अलगाव व पदसोपान की व्यवस्था में देख सकते हैं । इयूमो के अनुसार विवाह से सम्बन्धित नियर्मा में विवाह का महत्व , अन्तर्विवाह – इसका सामान्य दृष्टिकोण व सीमाएँ , विवाह तथा समरूप इकाइयों के पदसोपान की व्यवस्था एवं अनुलोम व प्रतिलोम विवाह के कुछ उदाहरण के साथ – साथ विवाह एवं वर्ण के सिद्धान्त को देखा जा सकता है विवाह एक ऐसी सामाजिक संस्था है जो विश्व के लगभग प्रत्येक भाग में पाई जाती है । हिन्दू विवाह का भारतीय सामाजिक संस्थाओं में प्रमुख स्थान है । मनु ने कहा है कि जैसे सब प्राणी हवा के सहारे जीवित रहते हैं उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थाश्रम से जीवन प्राप्त करते है । विवाह के द्वारा व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है एवं चार पुरुषार्थों धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष की प्राप्ति का प्रयत्न करता है । इस प्रकार विवाह से सम्बन्धित कुछ नियम प्रत्येक समाज में अवश्य पाए जाते हैं , हिन्दू समाज में पाये जाने वाले नियम अन्य समाजों में पाए जाने वाले नियमों से पृथक् है । यहाँ ड्यूमो कुछ नियमों की विशेषकर चर्चा करते हैं , जिन्हें हम अन्तर्विवाह अनुलोम व प्रतिमोम विवाह के अन्तर्गत देख सकते हैं ‘ अन्तर्विवाह ( Endogamy ) का तात्पर्य अपने ही वर्ण में विवाह करने से है , प्रत्येक वर्ण में अनेक जातियाँ एवं उपजातियों पाई जाती हैं इसलिए अन्तर्विवाह वर्ण से सम्बन्धित न होकर जातियों एवं उपजातियों से सम्बन्धित है अर्थात सभी लोग अपनी जाति या उपजाति में 151

ही वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते है ।

11.14 सम्पर्क व खान – पान के नियम

इसी तरह लुई इयूमो सम्पर्क व खान – पान के नियमों में विभिन्न नियमों की विस्तार से विवेचना करते हैं जिनमें वे सम्पर्क व अस्पृश्यता , खान – पान के सामान्य रूप एवं खान – पान व विशेषकर पानी को जाति के सम्बन्ध में विस्तार से प्रस्तुत करते है । इयूमो के अनुसार भोजन को भी सामान्यतः दो भार्गो में बाँटा गया है कच्चा एवं पक्का । सामान्यत : किन्ही दो जातियों लोग परस्पर कच्चा भोजन ग्रहण नहीं करते । ब्राहमण सामान्यतः क्षत्रियों एवं अन्य जातियों के यहाँ कच्चा भोजन ग्रहण नहीं करता है । सभी निम्न वर्ग के लोग उच्च वर्ण के यहीं जल ग्रहण कर सकते है किन्तु उच्च वर्ग के लोग केवल स्पृश्य जातियों के यहीं ही , जिनके यहाँ जल ग्रहण किया जा सकता है , पक्का भोजन भी ग्रहण कर लेते हैं किन्तु इसके अपवाद भी हैं जैसे ठाकुर चेरों लोगों के यहाँ तथा कलवार तेलियों के यहाँ जल ग्रहण कर सकते हैं , भोजन नहीं । निम्न जातियों और कबायली जातियों परस्पर जल ग्रहण करती हैं । ड्यूमो के अनुसार इसी प्रकार सम्पर्क के भी अपने नियम पाए जाते हैं । सामानयतः अस्पृश्य निम्न वर्ण के व्यक्ति उच्च वर्ण के व्यक्तियों को छू नहीं सकते । इन नियमों को भी विभिन्न रूपों में विभिन्न स्थानों पर देखा जा सकता है । इस प्रकार लुई ड्यूमो के सामाजिक स्तरीकरण को पदसोपान व जाति – व्यवस्था , वर्ण व्यवस्था , पदसोपान एवं शक्ति समूह , पदसोपान एवं शक्ति पवित्रता व अपवित्रता की धारणा , श्रम विभाजन , विवाह के नियम एवं सम्पर्क व खान – पान के नियमों के रूप में देखा जा सकता है !

 प्रभव जाति ( Dominant Caste ) की अवधारणा

भारतीय गाँवों में सामाजिक संस्तरण का मुख्य आधार जाति प्रथा है । यही विभिन्न जातियाँ जजमानी प्रथा द्वारा आर्थिक रूप से एक – दूसरे पर निर्भर रही हैं । निम्न एवं उन जातियो के पारस्परिक सम्बन्ध भूस्वामी और काश्तकार , मालिक और सेवक , साहू कार और ऋण 153

लेने वाले , संरक्षक और मातहत , आदि के रूप में भी पाये जाते हैं । जातियों के पारस्परिक सम्बन्धी एवं ग्राम एकता को समझने के लिए प्रभव जाति , की अवधारणा को समझना अवश्यक है । यह की अवधारणा गाँव की राजनैतिक व्यवस्था , शक्ति एवं न्याय व्यवस्था और प्रभुत्व को समझने में भी योग देती है । ( संख्यात्मक शक्ति , ( 2 ) आर्थिक व राजनैतिक प्रभुत्व ( 3 ) धार्मिक कृत्यों अथवा जाति व्यवस्था में उच्च सामाजिक स्थिति , ( 4 ) आधुनिक शिक्षा एवं नवीन व्यवसाय , ( 5 ) गाँव की एकता न्याय और कल्याण के लिए कार्य । ( 1 ) संख्यात्मक शक्ति ( Numerical Strength ) – प्रभु जाति का सर्वप्रमुख आधार उसकी संख्यात्मक शक्ति है । प्रभु जाति , गाँव में अथवा क्षेत्र में अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक संख्या में होली है । संख्या में अधिक होने से वह अन्य जातियों पर अपना प्रभुत्व रखती है । अल्पसंख्यक जातियों को उसकी शक्ति के समुख झुकना होता है और कई बार तो प्रभु जाति उन पर अत्याचार भी करती है । अल्पसंख्यक जातियों ऐसी स्थिति में प्रभु जाति का विरोध भी करती हैं । ( 2 ) आर्थिक व राजनैतिक प्रभुत्व ( Econimic and Political Dominance ) – क्षेत्र अथवा गाँव में प्रभाव जाति आर्थिक एवं राजनैतिक शक्ति रखती है । उसके पास गाँव की सर्वाधिक भूमि होती है जिस पर अन्य जातियों के लोगों द्वारा काम करवाया जाता है । इस प्रकार अन्य जातियाँ प्रभु जाति पर आर्थिक रूप से निर्भर होती हैं । आर्थिक निर्भरता राजनैतिक प्रभुत्व को भी जन्म देती है । चुनाव के समय प्रभु जाति अपने आश्रितों के मत प्राप्त करने में सक्षम होती है । कभी – कभी वह राजनैतिक शक्ति एवं पद पाने के लिए बल का प्रयोग और डराने – धमकाने का कार्य भी करती है । गाँव में प्रभु जातियाँ राज्य विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में वोट बैंक का कार्य करती है । ( 3 ) जातीय संस्तरण की प्रणाली में उच्च सामाजिक स्थिति ( Higher Status in Caste Hierarchy ) प्रभाव जाति के लिए यह आवश्यक है कि वह जाति व्यवस्था में अपना ऊँचा स्थान रखती हो । कोई भी निम्न जाति नहीं पायी गयी है क्योंकि सामाजिक संस्तरण में जातियों की पवित्रता और अपवित्रता भी एक महत्वपूर्ण पक्ष रहा है । कई बार एक निम्न जाति संख्या में अधिक होने अथवा आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होने पर भी गाँव में प्रभु जाति का स्थान इसलिए ही नहीं ले पायी कि वह जाति संस्तरण में निम्न स्तर पर है । ( 4 ) आधुनिक शिक्षा एवं नवीन व्यवसाय ( Mordern Education and New Occupations ) – गाँव में प्रभव जाति अन्य जातियों की अपेक्षा आधिक शिक्षित होती है । वह नवीन व्यवसायों और नौकरियों में लगी होती है । शिक्षित होने के कारण उसका सम्पर्क राजकीय अधिकारियों से होता है । इन सब बातों का अन्य जातियों पर प्रभाव पड़ता है और वे प्रभु जाति का दबदबा मानती हैं । ( 5 ) सम्पूर्ण गाँव की एकता , न्याय और कल्याण के लिए कार्य ( Administration of Justice , Unity and Welfare for the whole Community ) – प्रभव जाति गाँव की एकता को बनाये रखने में योग देती है और ऐसे कार्य करती है जिससे सारे समुदाय की भलाई 154

हो । यह सारे गाँव में झगडे निपटाने एवं न्याय का कार्य भी करती है । प्रभु जाति अन्य जातियों के निया का समान करती है । अन्य जातियों के विवाद हल करने के लिए प्रभु जाति के वयोवृद्ध व्यक्तियों के पास लाये जाते हैं : प्रभु जाति निष्पक्ष और तटस्थ होती है । केवल वे मामले ही जो जाति से सम्बन्धित होते हैं , पास के गाँवों में रहने वाले अपनी जाति के वयोवृद्ध क्तियों के पास ले जाते है । सार्वजनिक उत्सवों एवं सभाओं में प्रभु जाति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । प्रभु जाति की अवधारणा का महत्व बताते हुए इयूमा कहते हैं कि ” प्रभुत्व की अवधारणा अथवा प्रभु जाति , भारत में सामाजिक मानवशास्त्र के क्षेत्र में किये गये अध्ययनों की हद और लाभदायक उपलब्धि का प्रतिधित्व करती है । आलोचना : इयूमो का विचार है कि संख्यात्मक शक्ति प्रभुत्व का परिणाम है न कि प्रभुत्व का आधार । इयूमो का मत है कि जाति की सांसारिक प्रस्थिति ( ritual status ) संस्तरण ( पवित्रता और अपवित्रता ) के सिद्धान्त पर आधारित है । इसे प्रभुत्व से स्पष्ट रूप में पृथक किया जाना चाहिए । प्रभुत्व भूमि पर स्वामित्व का परिणाम है । कई विद्वानों ने इस बात पर जोर दिया है कि प्रभुत्व को जाति के साथ नहीं जोड़ा चाहिए क्योंकि ये दोनों भिन्न – भिन्न तथ्य हैं । कई बार गाँव में संख्या , जाति संस्तरण तथा आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से एक से अधिक जातियाँ प्रभुत्वशाली होने का दावा करती हैं । ऐसी स्थिति में यह तय करना बड़ा कठिन होता है कि उनमें से किसे प्रभुत्व जाति कहा जाय । ऐसी दशा में हमें प्रभुत्व जाति के स्थान पर प्रभु जातियाँ दिखाई पड़ती हैं । उदाहरण के लिए , भागलपुर के पास भारको गाँव में ब्राह्मण यादव दोनों ही प्रभुत्व का दावा कर रहे थे । ऐसी ही स्थिति का उल्लेख बेली ने उड़ीया के गाँवों के बारे में किया है । वर्तमान में नवीन परिवर्तनों के कारण परम्परात्मक प्रभुत्व जाति को चुनौती दी गयी है और अन्य जातियाँ प्रभु जाति का स्थान ग्रहण कर रही हैं जिनमें मध्यम स्तर की जातियाँ भी हैं । जमींदारी प्रथा के उन्मूलन और भूमि सुधार के कारण प्रभु जाति के भू – स्वामित्व में कमी आयी है । पंचायती राज – व्यवस्था , निम्न जातियों के लिए चुनावों में आरक्षण तथा वयस्क मताधिकार . आदि ने प्रभु जाति की शक्ति को कमजोर किया है । उत्तर प्रदेश के चानुखेड़ा एवं सेनापुर तथा माधोपुर गाँवों में वहीं की राजपूत प्रभुत्व जाति की शक्ति को चमार , नोनियाँ , कहार , आदि निम्न जातियों ने चुनौती दी है । भारत के अन्य गाँवों में भी परिवर्तन की यह प्रक्रिया देखी जा सकती है । सारांश इस ईकाई के अध्ययन के पश्चात् आप जान सकेंगे लूईस डयूमों का व्यक्ति एवं कृतित्व लुईस इयूमों का समाजशास्त्रा को योगदान इयूमों का भारत विद्याशास्त्री परिप्रेक्ष्य सामाजिक स्तरीकरण के क्षेत्र में डयूमो का विशलेषण • जाति व्यवस्था के संदर्भ में इयूमो का विश्लेषण .

read also

 

 

 

 

 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top