Public Administration

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लोक प्रशासन

 

परिचय:

 

लोक प्रशासन अध्ययन और अभ्यास का एक क्षेत्र है जो सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सरकारी नीतियों के कार्यान्वयन और सार्वजनिक संसाधनों के प्रबंधन से संबंधित है। इसमें नीति निर्माण और निर्णय लेने से लेकर विभिन्न प्रशासनिक प्रक्रियाओं के माध्यम से उन नीतियों के कार्यान्वयन तक गतिविधियों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है। लोक प्रशासन विभिन्न स्तरों पर सरकारों के कामकाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और बदलती सामाजिक आवश्यकताओं और चुनौतियों के जवाब में इसका दायरा और महत्व समय के साथ विकसित हुआ है।

 

लोक प्रशासन का ऐतिहासिक विकास:

 

लोक प्रशासन की जड़ें प्राचीन सभ्यताओं में खोजी जा सकती हैं, जहां शासकों और नेताओं को प्रभावी ढंग से शासन करने के लिए संसाधनों को व्यवस्थित और प्रबंधित करना पड़ता था। हालाँकि, एक अनुशासन के रूप में लोक प्रशासन के औपचारिक अध्ययन को 20वीं सदी की शुरुआत में प्रमुखता मिली। वुडरो विल्सन जैसे विद्वानों ने आधुनिक शासन की जटिलताओं को दूर करने के लिए एक पेशेवर और कुशल प्रशासन की आवश्यकता पर बल देकर इस क्षेत्र को आकार देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

 

  1. **लोक प्रशासन का दायरा:**

 

लोक प्रशासन का दायरा व्यापक और बहुआयामी है, जिसमें विभिन्न आयाम शामिल हैं जो सामूहिक रूप से प्रभावी शासन में योगदान करते हैं। लोक प्रशासन के दायरे के प्रमुख घटकों में शामिल हैं:

 

    एक। **नीति निर्धारण:**

       लोक प्रशासन में नीति निर्माण की प्रक्रिया शामिल होती है, जहाँ सरकारी अधिकारी, अक्सर निर्वाचित प्रतिनिधियों के सहयोग से, सामाजिक मुद्दों के समाधान के लिए रणनीतियाँ और योजनाएँ विकसित करते हैं। इस चरण में सार्वजनिक आवश्यकताओं की गहरी समझ, गहन शोध और संभावित चुनौतियों का अनुमान लगाने की क्षमता की आवश्यकता होती है।

 

    बी। **नीति का कार्यान्वयन:**

       एक बार नीतियां बन जाने के बाद अगला कदम उनका कार्यान्वयन है। लोक प्रशासक नीतियों को कार्यरूप में परिणित करने और यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार हैं कि इच्छित लक्ष्यों को प्राप्त किया जाए। इसमें योजनाओं को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने के लिए विभिन्न सरकारी विभागों, एजेंसियों और हितधारकों के बीच समन्वय शामिल है।

 

    सी। **सार्वजनिक वित्त प्रबंधन:**

       सार्वजनिक वित्त का प्रबंधन लोक प्रशासन का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसमें बजट, संसाधन आवंटन, राजस्व सृजन और वित्तीय जवाबदेही शामिल है। सार्वजनिक प्रशासकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि संसाधनों का उपयोग जनता की जरूरतों को पूरा करने और नीतिगत उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए कुशलतापूर्वक किया जाए।

 

    डी। **कार्मिक प्रबंधन:**

       सरकारी एजेंसियों के कामकाज में मानव संसाधन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सक्षम और प्रेरित कार्यबल सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक प्रशासक कर्मियों की भर्ती, प्रशिक्षण और प्रबंधन में शामिल होते हैं। इसमें कर्मचारी प्रदर्शन, नौकरी से संतुष्टि और संगठनात्मक संस्कृति से संबंधित मुद्दों को संबोधित करना शामिल है।

 

    इ। **नौकरशाही कार्यप्रणाली:**

       नौकरशाही लोक प्रशासन का एक अभिन्न अंग है, जो पदानुक्रमित संरचनाओं, नियमों और प्रक्रियाओं द्वारा विशेषता है। नौकरशाही प्रणालियाँ सरकारी कार्यों में स्थिरता और दक्षता लाने के लिए डिज़ाइन की गई हैं। हालाँकि, नौकरशाही प्रणालियों में दक्षता और जवाबदेही के बीच संतुलन बनाना एक सतत चुनौती है।

 

    एफ। **सार्वजनिक सेवा वितरण:**

       लोक प्रशासन का एक प्राथमिक उद्देश्य सार्वजनिक सेवाओं को कुशलतापूर्वक और न्यायसंगत रूप से वितरित करना है। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, परिवहन और बहुत कुछ जैसी सेवाएँ शामिल हैं। सार्वजनिक प्रशासकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सेवाएँ आबादी के सभी वर्गों तक पहुँचें और समाज के समग्र कल्याण में योगदान दें।

 

    जी। **नैतिकता और जवाबदेही:**

       सार्वजनिक प्रशासकों से अपेक्षा की जाती है कि वे उच्च नैतिक मानकों का पालन करें और अपने कार्यों के लिए जवाबदेह हों। निर्णय लेने और यह सुनिश्चित करने में नैतिक विचार महत्वपूर्ण हैं कि सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग समाज के लाभ के लिए किया जाए। जवाबदेही तंत्र भ्रष्टाचार को रोकने और पारदर्शिता को बढ़ावा देने में मदद करते हैं।

 

    एच। **अंतर्राष्ट्रीय और तुलनात्मक प्रशासन:**

       लोक प्रशासन राष्ट्रीय सीमाओं तक सीमित नहीं है। वैश्वीकरण और अंतर्संबंध के साथ, अंतर्राष्ट्रीय और तुलनात्मक प्रशासन पर ध्यान बढ़ रहा है। यह समझना कि विभिन्न देश अपने सार्वजनिक मामलों का प्रबंधन कैसे करते हैं, सर्वोत्तम प्रथाओं के आदान-प्रदान और वैश्विक शासन मानकों के विकास की अनुमति देता है।

 

    मैं। **सार्वजनिक नीति विश्लेषण:**

       सार्वजनिक प्रशासक मौजूदा नीतियों का विश्लेषण करने, उनके प्रभाव का मूल्यांकन करने और सुधार का प्रस्ताव देने में संलग्न हैं। इसमें डेटा विश्लेषण, अनुसंधान पद्धतियां और नीति परिणामों को प्रभावित करने वाले सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारकों की व्यापक समझ शामिल है।

 

  1. **लोक प्रशासन का महत्व:**

 

लोक प्रशासन एक लोकतांत्रिक समाज के कामकाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और इसके महत्व को कई तरीकों से उजागर किया जा सकता है:

 

    एक। **प्रभावी शासन:**

       लोक प्रशासन प्रभावी शासन की अवधारणा का मूल आधार है। यह संगठन प्रदान करता है

 

कानूनों और नीतियों के कार्यान्वयन के लिए आवश्यक संरचनात्मक संरचना और प्रक्रियाएं। एक अच्छी तरह से कार्य करने वाला सार्वजनिक प्रशासन यह सुनिश्चित करता है कि सरकारी कार्यवाहियाँ समन्वित, उत्तरदायी और लोगों की आवश्यकताओं के अनुरूप हों।

 

    बी। **सार्वजनिक सेवा वितरण:**

       लोक प्रशासन की प्राथमिक जिम्मेदारियों में से एक सार्वजनिक सेवाओं की कुशल और न्यायसंगत डिलीवरी सुनिश्चित करना है। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, बुनियादी ढाँचा और सामाजिक कल्याण कार्यक्रम जैसी आवश्यक सेवाएँ शामिल हैं। एक मजबूत सार्वजनिक प्रशासन प्रणाली नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता पर सीधे प्रभाव डालती है।

 

    सी। **नीति निर्माण और कार्यान्वयन:**

       लोक प्रशासक नीति निर्माण और कार्यान्वयन में सबसे आगे हैं। वे नीतियां निर्धारित करने वाले निर्वाचित अधिकारियों और उनसे लाभान्वित होने वाले नागरिकों के बीच अंतर को पाटते हैं। सावधानीपूर्वक योजना और कार्यान्वयन के माध्यम से, लोक प्रशासन यह सुनिश्चित करता है कि नीतियां केवल कागज पर विचार नहीं हैं, बल्कि मूर्त कार्य हैं जो समाज को बेहतर बनाते हैं।

 

    डी। **संसाधन प्रबंधन:**

       लोक प्रशासन वित्त, कार्मिक और बुनियादी ढांचे सहित सार्वजनिक संसाधनों के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार है। सरकारी संचालन को बनाए रखने, विकास परियोजनाओं में निवेश करने और आपात स्थिति या संकट का जवाब देने के लिए प्रभावी संसाधन प्रबंधन महत्वपूर्ण है।

 

    इ। **सामाजिक समानता और न्याय:**

       सार्वजनिक प्रशासक यह सुनिश्चित करके सामाजिक समानता और न्याय को बढ़ावा देने में भूमिका निभाते हैं कि सरकारी कार्रवाइयों से विशिष्ट समूहों को अत्यधिक लाभ या हानि न हो। वे ऐसी नीतियां बनाने की दिशा में काम करते हैं जो सामाजिक असमानताओं को दूर करती हैं और समावेशिता को बढ़ावा देती हैं।

 

    एफ। **राजनीतिक तटस्थता:**

       सार्वजनिक प्रशासकों से अपेक्षा की जाती है कि वे राजनीतिक रूप से तटस्थ रहें और किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के बजाय जनता के हितों की सेवा करें। इससे सरकारी संस्थानों की अखंडता और निष्पक्षता बनाए रखने, सिस्टम में जनता के विश्वास को बढ़ावा देने में मदद मिलती है।

 

    जी। **नवाचार और अनुकूलन:**

       लोक प्रशासन स्थिर नहीं है; इसे बदलती परिस्थितियों और सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप ढलना होगा। उभरती चुनौतियों से निपटने और कुशल सेवाएँ प्रदान करने के लिए प्रशासनिक प्रक्रियाओं में नवाचार, प्रौद्योगिकी का उपयोग और निरंतर सुधार आवश्यक हैं।

 

    एच। **युद्ध वियोजन:**

       सार्वजनिक प्रशासक अक्सर स्वयं को संघर्षों में मध्यस्थता करते हुए और विवादों को सुलझाते हुए पाते हैं। इसमें विभिन्न हितधारकों के हितों को संतुलित करना, शिकायतों का समाधान करना और ऐसे समाधान ढूंढना शामिल हो सकता है जो इसमें शामिल सभी पक्षों को स्वीकार्य हों।

 

    मैं। **वैश्विक सहयोग:**

       एक परस्पर जुड़ी दुनिया में, लोक प्रशासन अंतरराष्ट्रीय संबंधों और सहयोग में एक भूमिका निभाता है। जलवायु परिवर्तन, सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर देश अक्सर मिलकर काम करते हैं। प्रभावी लोक प्रशासन वैश्विक स्तर पर सहयोग और समन्वय की सुविधा प्रदान करता है।

 

    जे। **सामुदायिक व्यस्तता:**

       सफल लोक प्रशासन में समुदाय के साथ जुड़ना और नागरिकों से इनपुट मांगना शामिल है। यह सहभागी दृष्टिकोण स्थानीय जरूरतों को समझने, विश्वास बनाने और ऐसी नीतियां बनाने में मदद करता है जो समाज के भीतर विविध दृष्टिकोणों से मेल खाती हों।

 

  1. **लोक प्रशासन में चुनौतियाँ और विवाद:**

 

हालाँकि लोक प्रशासन सरकारों के कामकाज के लिए आवश्यक है, लेकिन यह अपनी चुनौतियों और विवादों से रहित नहीं है। कुछ प्रमुख मुद्दों में शामिल हैं:

 

    एक। **नौकरशाही लालफीताशाही:**

       अत्यधिक नौकरशाही निर्णय लेने और नीति कार्यान्वयन में अक्षमताओं और देरी को जन्म दे सकती है। लोक प्रशासन में नियमों के पालन और लचीलेपन के बीच संतुलन बनाना एक निरंतर चुनौती है।

 

    बी। **भ्रष्टाचार और नैतिक चिंताएँ:**

       लोक प्रशासन में भ्रष्टाचार एक महत्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है। सार्वजनिक संसाधनों का दुरुपयोग, रिश्वतखोरी और अन्य अनैतिक आचरण जनता का विश्वास कम कर सकते हैं और सरकारी संस्थानों के प्रभावी कामकाज में बाधा डाल सकते हैं।

 

    सी। **राजनीतिक हस्तक्षेप:**

       सार्वजनिक प्रशासकों को अक्सर निर्वाचित अधिकारियों या राजनीतिक नियुक्तियों के दबाव का सामना करना पड़ता है। राजनीतिक हस्तक्षेप सार्वजनिक प्रशासन की तटस्थता और प्रभावशीलता से समझौता कर सकता है, क्योंकि निर्णय योग्यता के बजाय राजनीतिक विचारों से प्रभावित हो सकते हैं।

 

    डी। **संसाधनों की कमी:**

       सीमित संसाधन, दोनों

 

  वित्तीय और मानवीय, लोक प्रशासन के लिए एक चुनौती है। कुशल संसाधन आवंटन सुनिश्चित करते समय प्रतिस्पर्धी जरूरतों और प्राथमिकताओं को संतुलित करने के लिए रणनीतिक योजना और सावधानीपूर्वक निर्णय लेने की आवश्यकता होती है।

 

    इ। **प्रौद्योगिकी एकीकरण:**

       तकनीकी प्रगति की तीव्र गति लोक प्रशासन के लिए अवसर और चुनौतियाँ दोनों प्रस्तुत करती है। जबकि प्रौद्योगिकी दक्षता बढ़ा सकती है, इसके एकीकरण के लिए पर्याप्त निवेश की आवश्यकता होती है, और डेटा गोपनीयता और साइबर सुरक्षा से संबंधित चिंताएं भी हैं।

 

    एफ। **संकट प्रबंधन:**

       सार्वजनिक प्रशासक अक्सर प्राकृतिक आपदाओं, सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थितियों या आर्थिक मंदी जैसे संकटों के दौरान खुद को सबसे आगे पाते हैं।

 

एस। प्रभावी संकट प्रबंधन के लिए त्वरित निर्णय लेने, समन्वय और तेजी से बदलती परिस्थितियों के अनुकूल होने की क्षमता की आवश्यकता होती है।

 

    जी। **सार्वजनिक धारणा और विश्वास:**

       सरकारी संस्थानों के बारे में जनता की धारणा और सार्वजनिक प्रशासकों में विश्वास लोक प्रशासन की प्रभावशीलता को प्रभावित कर सकता है। सार्वजनिक विश्वास बनाना और बनाए रखना एक सतत चुनौती है, खासकर जब कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार या नीति विफलता के मामले हों।

 

    एच। **विविधता और समावेशिता:**

       यह सुनिश्चित करना कि सार्वजनिक प्रशासन उस विविध आबादी का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी वह सेवा करता है, एक बढ़ती हुई चिंता है। विविधता की कमी के कारण ऐसी नीतियां बन सकती हैं जो सभी नागरिकों की जरूरतों को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं करती हैं, जिससे मौजूदा असमानताएं मजबूत होती हैं।

 

    मैं। **पर्यावरणीय स्थिरता:**

       पर्यावरणीय स्थिरता की चुनौती के लिए सार्वजनिक प्रशासकों को नीति निर्माण और कार्यान्वयन में पर्यावरण अनुकूल प्रथाओं को एकीकृत करने की आवश्यकता है। इसमें जलवायु परिवर्तन, संसाधन संरक्षण और सतत विकास जैसे मुद्दों का समाधान शामिल है।

 

  1. **लोक प्रशासन में वर्तमान रुझान और नवाचार:**

 

लोक प्रशासन के सामने आने वाली चुनौतियों पर काबू पाने के लिए, हाल के वर्षों में विभिन्न रुझान और नवाचार सामने आए हैं। इन विकासों का उद्देश्य दक्षता, पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ाना है। कुछ उल्लेखनीय रुझानों में शामिल हैं:

 

    एक। **ई-सरकार और डिजिटल परिवर्तन:**

       कई सरकारें ऑनलाइन सेवाएं प्रदान करने, प्रशासनिक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने और नागरिक जुड़ाव बढ़ाने के लिए ई-सरकारी पहल अपना रही हैं। डिजिटल परिवर्तन में सार्वजनिक प्रशासन में दक्षता और पहुंच में सुधार के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग शामिल है।

 

    बी। **डेटा विश्लेषण और साक्ष्य-आधारित निर्णय लेना:**

       डेटा एनालिटिक्स का उपयोग सार्वजनिक प्रशासकों को साक्ष्य के आधार पर सूचित निर्णय लेने की अनुमति देता है। बड़े डेटासेट का विश्लेषण करने से रुझानों को समझने, परिणामों की भविष्यवाणी करने और नीतियों के प्रभाव का मूल्यांकन करने में मदद मिलती है।

 

    सी। **चुस्त शासन:**

       चुस्त शासन में नीति विकास और कार्यान्वयन के लिए लचीला और अनुकूली दृष्टिकोण अपनाना शामिल है। यह प्रवृत्ति त्वरित पुनरावृत्तियों, हितधारक सहयोग और बदलती परिस्थितियों में तेजी से प्रतिक्रिया करने की क्षमता पर जोर देती है।

 

    डी। **समावेशी निर्णय लेना:**

       विविध दृष्टिकोणों के महत्व को पहचानते हुए, समावेशी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं पर जोर बढ़ रहा है। इसमें नागरिकों, हितधारकों और समुदायों के साथ जुड़ना शामिल है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि नीतियां व्यापक दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करती हैं।

 

    इ। **सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी):**

       जटिल चुनौतियों से निपटने के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच सहयोग आम होता जा रहा है। पीपीपी सेवाएं प्रदान करने, परियोजनाओं को लागू करने और नवाचार को आगे बढ़ाने के लिए दोनों क्षेत्रों की ताकत का लाभ उठाता है।

 

    एफ। **स्थिरता और जलवायु कार्रवाई:**

       लोक प्रशासन स्थिरता सिद्धांतों को नीतियों और प्रथाओं में शामिल कर रहा है। इसमें जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने, नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने और सतत विकास लक्ष्यों को लागू करने के प्रयास शामिल हैं।

 

    जी। **संकट संचार और प्रबंधन:**

       संकट के दौरान उन्नत संचार रणनीतियाँ महत्वपूर्ण हैं। सार्वजनिक प्रशासक सटीक जानकारी प्रसारित करने, सार्वजनिक चिंताओं को दूर करने और चुनौतीपूर्ण समय के दौरान पारदर्शिता बनाए रखने के लिए विभिन्न संचार चैनलों का लाभ उठा रहे हैं।

 

    एच। **भावनात्मक बुद्धिमत्ता पर जोर:**

       पारस्परिक कौशल के महत्व को पहचानते हुए, भावनात्मक बुद्धिमत्ता सार्वजनिक प्रशासन में प्रमुखता प्राप्त कर रही है। नेताओं और प्रशासकों से जटिल मानवीय अंतःक्रियाओं को प्रभावी ढंग से समझने और नेविगेट करने की अपेक्षा की जाती है।

 

    मैं। **क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण:**

       शासन की गतिशील प्रकृति को देखते हुए, सार्वजनिक प्रशासकों के लिए निरंतर क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इसमें नेतृत्व, प्रौद्योगिकी और संकट प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में कौशल विकसित करना शामिल है।

 

5। उपसंहार:**

 

लोक प्रशासन शासन का एक गतिशील और अपरिहार्य पहलू है, जो समाज की बदलती जरूरतों को पूरा करने के लिए विकसित हो रहा है। इसके दायरे में नीति निर्माण से लेकर सेवा वितरण तक कार्यों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है, और इसका महत्व प्रभावी और उत्तरदायी शासन सुनिश्चित करने की इसकी क्षमता में निहित है। चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, सार्वजनिक प्रशासन आधुनिक दुनिया की मांगों को पूरा करने के लिए तकनीकी प्रगति और नए दृष्टिकोणों को शामिल करते हुए अनुकूलन और नवाचार करना जारी रखता है।

 

जैसे-जैसे हम 21वीं सदी की जटिलताओं से जूझ रहे हैं, लोक प्रशासन की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। जलवायु परिवर्तन, महामारी और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं जैसी वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए एक समन्वित और सुप्रबंधित सार्वजनिक प्रशासन की आवश्यकता है। नवाचार को अपनाकर, समावेशिता को बढ़ावा देकर और उच्च नैतिक मानकों को बनाए रखकर, लोक प्रशासन लचीले और टिकाऊ समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं, अच्छी सरकार के सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता बढ़ती जा रही है

 

यह सुनिश्चित करने के लिए कि सार्वजनिक प्रशासन सकारात्मक परिवर्तन के लिए एक शक्ति बना रहे, पारदर्शिता, पारदर्शिता और नागरिक सहभागिता आवश्यक होगी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रश्न – लोक प्रशासन की परिभाषा दीजिये और इसकी प्रकृति की व्याख्या कीजिये।

Define the term ‘Public Administration’ and explain its nature.

या

लोक प्रशासन का अर्थ लिखिये। वर्तमान समय में इसके महत्व और क्षेत्र का विवेचन कीजिये।

Write the meaning of Public Administration.Discuss its Importance and Scope in present time.

 

“लोक प्रशासन का सम्बन्ध कायों को सम्पन्न कराने से है, जिससे कि निर्धारित लक्ष्य पूरा हो सके।” (लूथर गुलिक) व्याख्या कीजिये। या “लोक प्रशासन का सम्बन्ध उन सभी कार्यों से है जिनका प्रयोजन सार्वजनिकै नीति को पूरा करना या उसे क्रियान्वित करना है।” (व्हाइट) इस परिभाषा विवेचनात्मक मूल्यांकन करते हुये आधुनिक राज्यों में लोक प्रशासन के मत को समझाइये।

 

 

उत्तर-

(लोक प्रशासन की परिभाषा)

 

किसी भी विषय को भली प्रकार समझने के लिये उससे सम्बन्धित विभिन्न परिभाषाओं का अध्ययन करना आवश्यक है। लोक प्रशासन की भी विभिन्न विद्वानों ने भिन-भिन्न परिभाषायें दी हैं। इस दिशा में हेमिल्टन (Hemilton) को प्रथम विचारक कहा जा सकता है। इन्होंने ‘Federalist’ में लोक प्रशासन की परिभाषा प्रस्तुत करने का प्रयास किया था किन्तु वास्तव में यह लोक प्रशासन की व्याख्या मात्र थी। लोक प्रशासन को विभिन्न परिभाषायें निम्न प्रकार हैं-

 

* लूथर गुलिक (Luther Gullick) के अनुसार, “लोक प्रशासन, प्रशासन का वह अंग है जिसका सम्बन्ध सरकार से है और इस प्रकार मौलिक रूप से उसका सम्बन्ध कार्यपालिका से है।”

 

*डब्ल्यू० एफ० विलोबी (W F. Willoughy) के अनुसार, “अपने व्यापक अर्थ में लोक प्रशासन सरकारी कार्यों के वास्तविक सम्पादन से सम्बन्धित कार्यों का प्रतीक है चाहे उनका सम्बन्ध सरकार की किसी भी शाखा से क्यों न हो…. अपने संकुचित अर्थ में यह केवल प्रशासकीय कार्यवाहियों की ओर संकेत करता है।”

 

* मार्क्स (Marx) के अनुसार, “लोक प्रशासन शब्द का प्रयोग करते समय हमारा अभिप्राय मुख्यतया संगठन, कर्मचारी वर्ग के कार्यों तथा कार्य करने की उन रीतियों से होता है जो कि सरकार की कार्यपालिका शाखा को सौंपे गये सिविल अथवा असैनिक कार्यों को प्रभावशाली ढंग से पूरा करने के लिये आवश्यक होते हैं।””

 

*हार्वे वाकर (Harvey Walker) के अनुसार, “लोक प्रशासन वे क्रियायें हैं जो सरकार कानून को कार्य रूप देने के लिये करती है।

 

*वाल्डो (Valdo) के अनुसार, “लोक प्रशासन, प्रवन्ध की कला एवं विज्ञान की राज्य की क्रियाओं में प्रयोग है।”

 

*ग्लैडन (Gladden) के अनुसार, “लोक प्रशासन का वास्तविक क्षेत्र सरकार के प्रशासनिक क्षेत्र में पाया जाता है जो सार्वजनिक विषयों के प्रवन्ध के प्रति उत्तरदायी होता है।

 

*पिफनर (Piffner) के अनुसार, “लोक प्रशासन का अर्थ है, सरकार का काम करना।

 

*साइमन (Simon) के अनुसार, “लोक प्रशासन से अभिप्राय उन क्रियाओं से है जो केन्द्र राज्य तथा स्थानीय सरकारों की कार्यपालिका शाखाओं द्वारा सम्पादित की जाती है।

 

*एल० डी० व्हाइट (L. D. White) के अनुसार, “लोक प्रशासन में वे सभी कार्य आ जाते हैं जिनका उद्देश्य लोक नीति को क्रियान्वित करना होता है।

 

*वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) के अनुसार, “लोक प्रशासन कानून के विस्तृत एवं क्रमबद्ध रूप से कार्यान्वित करने का नाम है, कानून को क्रियान्वित करने की प्रत्येक क्रिया प्रशासनिक क्रिया है।”

 

लोक प्रशासन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा व्यापक परिभाषा मार्शल ई० डिमॉक (Marshall E. Dimock) द्वारा की गयी है। उनके अनुसार, “प्रशासन का सम्बन्ध सरकार के ‘क्या’ एवं ‘कैसे’ से है।” ‘क्या’ का सम्बन्य विषय-वस्तु से है, विषय का तकनीकी ज्ञान जिससे कि एक प्रशासक अपने कार्यों को सम्पादित करता है। ‘कैसे’ का सम्बन्ध प्रवन्य की तकनीक से है वे सिद्धान्त जिनके द्वारा व्यापक योजनाओं को सफलता के साथ पूर्ण किया जाता है।”

 

 

 

 

लोक प्रशासन की प्रकृति

 

किसी भी विषय के अध्ययन की पूर्णता के लिये विषय की प्रकृति का अध्ययन करना बहुत आवश्यक है। इसी प्रकार लोक प्रशासन के पूर्ण अध्ययन तथा प्रकृति के

अध्ययन के लिये यह जानना आवश्यक है कि लोक प्रशासन कला है अथवा विज्ञान ? सामान्यतया लोक प्रशासन को कला तथा विज्ञान दोनों ही स्वीकार किया जाता है। ग्लैंडन (Gladden) ने प्रशासन के कला पक्ष पर बल देते हुये कहा है, “प्रशासन एक ऐसी विशिष्ट क्रिया है, जिसके लिये विशेष ज्ञान एवं तकनीकी की आवश्यकता होती है।”

 

 

लोक प्रशासन कला के रूप में

 

 

ऑर्डवे टीड के अनुसा……….. संक्षेप में, प्रशासन एक ललित कला है, क्योंकि यहाँ सामूहिक रचना के लिये, जो कि आधुनिक सभ्य जीवन का अभिन्न अंग है, विशेषज्ञों के एक प्रभावी समूह की आवश्यकता होती है।”

कला, विज्ञान का व्यावहारिक पक्ष है तथा ज्ञान का व्यवस्थित प्रयोग है। लोक प्रशासन की प्रत्येक क्रिया, व्यावहारिक उद्देश्य लिये होती है। अतः लोक प्रशासन के सिद्धान्तों का निर्माण, व्यावहारिक पक्ष को ध्यान में रख कर किया जाता है।

लोक प्रशासन को प्राचीन काल से कला के रूप में महत्व दिया जाता रहा है। अशोक, अकबर तथा चाणक्य आदि प्रशासक कला के कारण ही इतिहास में प्रसिद्धि पा सके । कला के लिये विषय के ज्ञान के साथ-साथ अभ्यास भी आवश्यक है। उसके कुशल सम्पादन अथवा व्यवहार की भी आवश्यकता होती है। जैसे-एक अच्छे संगीतकार के लिये रागों की संरचना के ज्ञान के साथ-साथ उसका प्रस्तुतीकरण भी अत्यधिक महत्व रखता है। इसी प्रकार लोक प्रशासन के सिद्धान्तों के व्यवस्थित अध्ययन मात्र से व्यक्ति का कुशल प्रशासक होना आवश्यक नहीं है। कला के कुछ सिद्धान्तों की भाँति, लोक प्रशासन में विभिन्न पद्धतियों का अनुसरण करना होता है। इसी प्रकार कला के प्रशिक्षण की भाँति प्रत्येक प्रशासक को शिक्षण केन्द्रों में प्रशिक्षण प्राप्त करना आवश्यक होता है।

 

इस प्रकार, लोक प्रशासन एक विकसित कला है तथा यह मनुष्य के आचरण व व्यवहार से सम्बन्ध रखती है। एल० डी० व्हाइट (L. D. White) ने इस विषय में कहा है, “किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये, अनेक व्यक्तियों का निर्देशन, एकीकरण एवं नियन्त्रण प्रशासन की कला है।”

 

ग्लैंडन (Gladden) का कथन है, “कला, मानव योग्यता से सम्बन्धित ऐसा ज्ञान है जिसमें सिद्धान्त की अपेक्षा अभ्यास पर विशेष बल दिया जाता है।”

 

लोक प्रशासन विज्ञान के रूप में

 

चार्ल्स बर्थ (Charles Berth) के अनुसार, “यह (प्रशासन) विज्ञान है, क्योंकि इसमें आगमनात्मक विश्लेषण, विधिगत संगठन, ध्यानपूर्ण नियोजन और चातुर्यमय प्रक्रियाओं के निकालने की आवश्यकता होती है।” बीयर्ड (Beard) ने लोक प्रशासन को विज्ञानकी श्रेणी में रखते हुये कहा है-“जिस प्रकार अनुसन्धान, वैज्ञानिक समाजों तथा प्राकृतिक वैज्ञानिकों द्वारा ज्ञान के आदान-प्रदान व प्राक्कल्पनाओं ने प्राकृतिक विज्ञान के जगत में ज्ञान को निश्वितता प्रदान करने उसी प्रकार हमें पूर्ण आशा में उन्नति की है, है कि अनुसन्धान, प्रशासकीय समाजों तथा प्रशासकों के बीच विचारों के आदान-प्रदान द्वारा प्रशासकीय जगत में भी ज्ञान को पूर्ण बनाने में प्रगति होगी।”

 

थॉमसन (Thompson) ने विज्ञान की व्याख्या करते हुये कहा है, “वह सम्पूर्ण शास्त्र एक प्रमाणित ज्ञान है जिसका, नियमानुकूल निरीक्षण एवं परीक्षण द्वारा अध्ययन हो सके और जो संक्षिप्त स्थिरता व तत्सम्बन्धी सिद्धान्तों को मानता है।”

 

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन के अध्ययन का क्षेत्र परिभाषित है तथा परीक्षण और पर्यवेक्षण के द्वारा इस सन्दर्भ में तथ्य तथा आँकड़ेएकत्रित हो चुके हैं। इनके विषय में वैज्ञानिक तरीके से खोज होती रहती है।

 

*वैज्ञानिक रीति द्वारा अध्ययन— लोक प्रशासन का अध्ययन, भौतिक विज्ञान की भाँति वैज्ञानिक रीति द्वारा होता है, उसकी क्रियाओं का निरीक्षण तथा अनुसन्धान होता है और उनसे प्राप्त निष्कर्षों द्वारा सारणीकरण करके कार्यकारण में सहसम्बन्ध स्थापित किया जाता है। इसी पद्धति द्वारा लोक प्रशासन के सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता है। लोक प्रशासन में समाज प्रयोगशाला है तथा मानव विषय-सामग्री है। इस प्रकार लोक प्रशासन में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है।

 

*संगठित व क्रमबद्ध ज्ञान— लोक प्रशासन के अपने सिद्धान्त हैं तथा उसका ज्ञान क्रमबद्ध तथा संगठित है। लोक प्रशासन में एकात्मकता का अभाव नाम-मात्र का है, कुछ अभाव तो भौतिक विज्ञान में भी है। लोक प्रशासन एक विकासशील विषय है।

 

*व्यापकता तथा निश्चितता— अन्य विज्ञानों की भाँति लोक प्रशासन के सर्वव्यापक सिद्धान्त हैं तथा उनमें भौतिक विज्ञान की तरह निश्चितता मिलती है। प्रशासक, पूर्व अर्जित अनुभवों द्वारा अमुक क्रिया को प्रतिक्रिया के विषय में पहले ही अनुमान लगा लेता है। कुछ परिवर्तन मनुष्य के परिवर्तनशील होने के कारण हो जाता है। अतः लोक प्रशासन में भौतिक विज्ञान की भाँति निश्चितता नहीं पायी जाती, क्योंकि लोक प्रशासन मनुष्य से सम्बन्धित होता है और मनुष्य परिवर्तनशील होता है। समय, काल, परिस्थिति, अनुभव आदि के फलस्वरूप, उसके विचारों और व्यवहारों में पर्याप्त वैभिन्नता पायी जाती है। परन्तु कई बार भौतिक विज्ञानों में भी अनिश्चितता मिलती है, जैसे-ऋतु-विज्ञान सम्बन्धी भविष्यवाणियाँ । इस प्रकार अनिश्चितता दोनों में ही मिलती है, केवल मात्रा सम्बन्धी अन्तर होता है।

 

आदर्शात्मकता— लोक प्रशासन आदर्शात्मक होने के कारण, भौतिक विज्ञान के समान नहीं माना जा सकता, परन्तु विज्ञान माना जा सकता है। प्रत्येक विज्ञान आदर्शात्मक होता है, क्योंकि वह मनुष्य से सम्बद्ध होता है।

 

सैद्धान्तिक एकरूपता— क्रियान्वयन पद्धति को भ्रम और महँगे व्यावहारिक प्रयोगों से बचाने तथा स्थायी सिद्धान्तों को प्रदान करने के लिये तथा लोक प्रशासन के व्यवस्थित अध्ययन के लिये वांछित सिद्धान्तों की खोज के प्रयास किये जा रहे हैं। टेलर (Taylor) ने इन सिद्धान्तों की खोज के लिये वैज्ञानिक प्रबन्ध का आन्दोलन लिखा। हावें वाकर ने लोक प्रशासन के सिद्धान्तों का वर्णन किया है। इनका निर्माण उसने सरकार तथा व्यक्तिगत प्रशासन की सर्वाधिक सफल तकनीकों के आधार पर किया है। उसने ये सिद्धान्त 6 भागों-संगठन, क्रय, बजट, लेखांकन एवं लेखा परीक्षा, कार्मिक तथा मिश्रित सेवायें-में बोटे । ये सिद्धान्त, प्रशासन के प्रत्येक क्षेत्र में लागू होते हैं। विलोबी ने भी इस सम्बन्ध में कहा है कि “अन्य विज्ञानों के सिद्धान्तों की भाँति इसमें सामान्य प्रयोग के मौलिक सिद्धान्त हैं। प्रशासन के उद्देश्य क्रियान्वयन में दक्षता प्राप्त करने के लिये उनका अनुपालन करना आवश्यक है।”

 

उपरोक्त तथ्यों का विवेचन करने पर यह ज्ञात होता है कि लोक प्रशासन में विज्ञान के अनेक तत्व हैं, केवल लोक प्रशासन तथा भौतिक विज्ञान की मात्रायें भिन्न हैं। संक्षेप में, लोक प्रशासन की विषय-सामग्री मनुष्य होने के कारण उसे समाज विज्ञान की कोटि में रखा जा सकता है

 

लोक प्रशासन का क्षेत्र

 

(Marx) के अनुसार लोक प्रशासन का क्षेत्र-“शाब्दिक अर्थ में न्यायिक प्रशासन के भाग के रूप में न्यायालयों के कार्य और नागरिक प्रशासन के अतिरिक्त सैन्य अभिकरणों के कार्य भी लोक प्रशासन में सम्मिलित होते हैं। व्यावहारिक प्रयोग में, लोक प्रशासन के अन्तर्गत प्रमुख रूप में संगठन, कर्मचारी पद्धतियों एवं प्रक्रियाओं को सम्मिलित करते हैं जो कि सरकार के कार्यपालिका अंग द्वारा नागरिक कार्यों को प्रभावशाली रूप से सम्पन्न करने के लिये आवश्यक है।”

 

लोक प्रशासन के व्यापक अर्थ के अनुसार, लोक प्रशासन के अन्तर्गत शासन की तीनों शाखायें कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा विधायिका की गतिविधियाँ आती हैं, परन्तु सीमित और सामान्य स्वीकृत अर्थ में, यहाँ कार्यपालिका के कार्यों से ही तात्पर्य है। लोक प्रशासन के अन्तर्गत, कार्यपालिका की राष्ट्रीय, प्रादेशिक तथा स्थानीय सभी स्तरों पर संचालित होने वाली गतिविधियाँ आती हैं। हेनरी फेयोल (Henry Fayol) ने लोक प्रशासन के क्षेत्र के अन्तर्गत, पाँच समस्यायें-सामान्य प्रशासन, कार्मिक प्रवन्ध, संगठन सम्बन्धी समस्यायें, पदार्थ तथा सामग्री और वित्त समिलित की हैं। मेकक्वीन (Mac Queen) के अनुसार, “प्रशासन में मानव, भौतिक साधन तथा रीतियाँ तीन तत्वों का अध्ययन होता है।”

 

लोक प्रशासन के अन्तर्गत आने वाली गतिविधियों को लूथर गुलिक की ‘पोस्डकॉर्ब’ (POSDCORB) विधि में सम्मिलित किया गया है। इन शब्दों के आरम्भ होने वाले प्रत्येक शब्द का अर्थ इस प्रकार है-योजना (Planning), संगठन (Organization), कार्मिक प्रवन्ध (Staffing), निर्देशक (Directing), समन्वय (Co-ordinating), परिवी क्षण करना (Over-seeing), रिपोर्ट देना (Reporting) तथा बजट बनाना (Budgeting) | प्रो० लिविस मेरियम (Leavis Mariam) ने ‘पोस्डकॉर्ब’ को बहुत महत्वपूर्ण माना है। पिफनर के अनुसार, “लोक प्रशासन का सम्बन्ध शासन में ‘क्या’ और ‘कैसे’ से है। ‘क्या’ से तात्पर्य किसी क्षेत्र के विषय तथा तकनीकी ज्ञान से है। यह प्रशासक के लिये कार्य करने हेतु आवश्यक है। ‘कैसे’ से तात्पर्य प्रवन्ध की तकनीकी तथा उन सिद्धान्तों से है, जिनके द्वारा सहकारी कार्यक्रम तथा योजनायें सफलतापूर्वक कार्यान्वित की जाती है।” इस विचार से सहमत अन्य लेखक इस विषय को इसी आधार पर चार भागों में विभक्त करते हैं—

 

सरकार क्या करती है— आन्तरिक प्रशासकीय नीति व योजना, सरकारी कार्यों की सीमा का निर्धारण तथा उद्देश्य।

प्रशासकीय ढाँचा— सरकार संगठन, कर्मचारी तथा व्यय की व्यवस्था किस प्रकार करती है।

 

प्रशासक किस प्रकार सहयोग तथा ठीक भाव से कार्य करते हैं— मुख्य कार्यालय व उपकार्यालयों में सम्बन्ध, परिवीक्षण, जनसम्पर्क, प्रशासकीय उत्तरदायित्व, निर्देशन, नेतृत्व, समन्वय तथा प्रतिनिदान।

 

प्रशासन की उत्तरदायित्वता— आन्तरिक नियन्त्रण, प्रशासकीय विधियों पर विधायिका  तथा न्यायालयों द्वारा नियन्त्रण।

 

विलोवी ने लोक प्रशासन सम्बन्धी समस्याओं को पाँच भागों में विभक्त किया है—

 

* संगठन सम्बन्धी समस्यायें-प्रशासन सम्बन्धी व्यवस्था अथवा संरचना का निर्धारण, सरकारी विभागों, सेवाओं और अभिकरणों का संगठन ।

 

*कर्मचारियों की समस्यायें-कर्मचारियों का संगठन, भर्ती, प्रशिक्षण, नौकरी की शर्त, अनुशासन तथा मन्त्रियों व प्रशासकीय अधिकारियों के बीच सम्बन्ध ।

 

*वित्तीय समस्यायें-प्रशासन के लिये वित्तीय आवश्यकता का निर्धारण तथा व्यवस्था, बजट बनाना, स्वीकृत कराना तथा क्रियान्वित करना।

 

*सामान्य प्रशासन की समस्यायें-सामान्य कार्य-निर्देशन, परिवीक्षण तथा नियन्त्रण आदि ।

 

*सम्भरण समस्यायें-बड़ी मशीनें, यन्त्र और अन्य सामग्री की प्राप्ति व उनके संग्रह, नियन्त्रण व क्रय सम्बन्धी अभिकरणों की व्यवस्था आदि । उपरोक्त विश्लेषण पर्याप्त व्यापक होते हुये भी कुछ आवश्यक तत्वों की उपेक्षा करता है—

 

  • इसमें प्रशासन के विभिन्न स्तरों का उल्लेख नहीं है,
  • द्वितीय, विलोबी ने जनसम्पर्क के महत्वपूर्ण प्रश्न को सम्मिलित नहीं किया।

इस प्रकार लोक प्रशासन के क्षेत्र में शासन से सम्बन्धित विभिन्न पहलू तथा समस्यायें आती हैं। वर्तमान समय में लोकतन्त्रीय व्यवस्था तथा समाजवादी समाज के आदर्शों तथा सरकार के कार्यों में वृद्धि के साथ-साथ उसी अनुपात में लोक प्रशासन के क्षेत्र का भी विस्तार हो रहा है। आज यह मान्यता है कि लोक प्रशासन एक पूर्ण व स्वतन्त्र विषय है और इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बातों का अध्ययन किया जाता है-

 

(i) प्रशासनिक या संगठनात्मक सिद्धान्तों का अध्ययन, (ii) लोक कार्मिक प्रशासन का अध्ययन,

 

(iii) लोक वित्तीय प्रशासन का अध्ययन,

 

(iv) तुलनात्मक लोक प्रशासन का अध्ययन,

(v) लोक नीति का अध्ययन ।

 

संक्षेप में कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में लोक प्रशासन का क्षेत्र अति व्यापक हो गया है। आजकल लोक प्रशासन के अन्तर्गत केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय सभी स्तरों की सरकारों के संगठन तथा कार्य-प्रणाली का अध्ययन किया जाता है।

 

लोक प्रशासन विज्ञान नहीं

 

बहुत से विद्वान जैसे वाल्डो (Waldo) और वालास (Wallas) प्रशासन को विज्ञान नहीं मानते हैं। इस सम्बन्ध में वे निम्न तर्क प्रस्तुत करते हैं—

 

(1) प्रशासन मानव क्रियाओं से सम्बन्धित है तथा उनका नियन्त्रित रूप में अध्ययन असम्भव है।

 

(2) प्रशासन के सिद्धान्त सर्वमान्य नहीं हैं।

 

(3) प्रशासन के अध्ययन में अनुसन्धान, प्रयोग, तुलना, माप और वर्गीकरण आदि वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग नहीं होता है।

 

(4) लोक प्रशासन, विज्ञान की भाँति कार्यकारण में सम्बन्ध स्थापित करकें निश्चित परिणाम निकालने में असमर्थ होता है।

 

(5) लोक प्रशासन का क्षेत्र मानव का अनिश्चित तथा परिवर्तित व्यवहार है। इसका सम्बन्ध मानव तथा सामाजिक सम्वन्धों से होता है। मानव व्यवहार के सम्बन्ध में निश्चित परिणाम निकालना असम्भव है। विज्ञान की दो मुख्य विशेषतायें निश्चितता तथा भविष्यवाणी लोक प्रशासन में मानव व्यवहार की अनिश्चितता के कारण नहीं होती। अतः लोक प्रशासन विज्ञान नहीं माना जा सकता।

 

निष्कर्ष स्वरूप, लोक प्रशासन को कला तथा समाज विज्ञान दोनों ही कहा जा सकता है। सैद्धान्तिक पहलू लोक प्रशासन को विज्ञान का तथा व्यावहारिक पहलू कला का रूप प्रदान करता है। इस सम्बन्ध में उर्विक (Urvick) ने लिखा है कि, “लोक प्रशासन का अध्येता एक ऐसे क्षेत्र में कार्य करता है, जिसमें अभी तक अनेक अज्ञात तत्व हैं तथा जिसका अधिकांश क्षेत्र अभी तक विचित्र प्रतीत हुआ है। अतः वह चिन्तन की एक स्थूल रूपरेखा प्रस्तुत करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर सकता। वह विचारों और सिद्धान्तों को ऐसे व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत कर सकता है, जिससे दूसरे लोगों को अपने अनुभव के प्रकाश में, संश्लेषण करने में सहायता मिल सके। ये सिद्धान्त छः ऐसे लेखकों की रचनाओं से लिये गये हैं, जिन्होंने अपने विचारों को कभी व्यवस्थित रूप देने का प्रयास नहीं किया। उन्हें सुव्यवस्थित और तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया जाना इस बात का सबल प्रमाण है कि सामाजिक समुदायों के संचालन में जो अनुभव प्राप्त हुये हैं, उनमें एक सामान्य तत्व निहित है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि अन्ततः प्रशासन एक सही विज्ञान है।” इसी प्रकार चार्ल्स बर्थ (Charles Berth) ने भी लिखा है कि, “प्रशासन कला है, क्योंकि इसमें उत्तमता, नेतृत्व, उत्साह तथा उच्च विचारों की प्रधानता होती है। यह एक

विज्ञान है, क्योंकि इसमें आगमनात्मक विश्लेषण, सतर्कतायुक्त नियोजन तथा विवेकपूर्ण साधनों की आवश्यकता पड़ती है।

 

लोक प्रशासन का महत्व

 

चार्ल्स बीयर्ड ने लोक प्रशासन के महत्व पर प्रकाश डालते हुये कहा है, “प्रशासन के सामने कोई महत्वपूर्ण विषय नहीं है। राज्य सरकार का भविष्य और मेरे विचार से स्वयं सभ्यता हमारी इस योग्यता पर निर्भर करती है कि हम एक राज्य समाज के कार्यों को करने के हेतु एक कुशल प्रशासकीय विज्ञान, दर्शन एवं व्यवहार का विकास कहाँ तक कर सकते हैं।”

 

आधुनिक युग में लोक प्रशासन का महत्व स्वीकार किया जा चुका है। औद्योगिक तथा प्रगतिशील सभ्यता से सम्बद्ध समस्याओं के कारण राज्य के कार्यक्षेत्र में वृद्धि हुयों है। वर्तमान स्थिति में मानव समाज की सभी समस्याओं के लिये राज्य की अपेक्षा कोजाती है। शासन-व्यवस्था की दक्षता तथा कुशलता पर ही सामाजिक हित निर्भर करता है।

 

शासन-व्यवस्था ही लोक प्रशासन है। लोक प्रशासन की सफलता, असफलता पर ही सम्पूर्ण सामाजिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्था निर्भर करती है। वास्तव में मनुष्य वर्तमान समाज में जन्म से मृत्यु तक लोक प्रशासन से किसी न किसी रूप में सम्बद्ध रहता है। जीवन-व्यवसाय निजी या सार्वजनिक होता है। राज्य किसी न किसी प्रकार से निजी व्यवसायों पर नियन्त्रण रखता है। इसी तरह से मनुष्य के जीवन-निर्वाह

तथा अन्य भौतिक आवश्यकतायें भी राज्य ही पूरी करता है। यदि लोक प्रशासन मनुष्य को सुविधायें तथा संरक्षण देना बन्द कर दे तो मानव जीवन अकल्पनीय है।

लोक प्रशासन वर्तमान समाज को स्थायित्व प्रदान करता है। राज्य में सरकारों के परिवर्तन की भाँति प्रशासन में कोई परिवर्तन नहीं होता। इस प्रकार लोक प्रशासन राज्य की नयी तथा पुरानी व्यवस्थाओं के मध्य सम्बन्ध बनाये रखने के लिये एक कड़ी का कार्य करता है। जनतन्त्रात्मक देशों में होने वाले संवैधानिक परिवर्तन के बाद भी लोक प्रशासन शासन तन्त्रों के मध्य निरन्तरता का ध्यान रखता है। उदाहरणस्वरूप भारत में लोकतन्त्रात्मक शासन स्थापित होने पर भी प्रशासकीय व्यवस्था में प्राचीन तथा उपयोगी व्यवस्था अभी भी पायी जाती है। इस प्रकार लोक प्रशासन की नयी और पुरानी व्यवस्थायें प्रशासनिक मिल कर राज्य व्यवस्था का मार्ग निष्कंटक बनाती हैं।

 

लोक प्रशासन वर्तमान जीवन का रक्षक तथा सामाजिक परिवर्तन और आवश्यक संशोधन का साधन भी है। वह गतिशील व्यक्ति का प्रतीक भी है, जो जनता की इच्छा का पूर्ण अनुसरण करता है तथा आवश्यक मार्ग निर्देशन भी करता है। वाल्डो (Valdo) ने इस सम्बन्ध में कहा है, “वह सम्पूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था का एक अंग है एवं केवल यही नहीं कि उसके द्वारा कार्य कराया जाता है, अपितु यह भी कि वह स्वयं भी कार्य करता है।” अर्थात् लोक प्रशासन एक प्रत्यक्ष तथा सक्रिय शक्ति भी है। इस प्रकार लोक प्रशासन का कार्य, सुधार को नियोजित तथा नियन्त्रित रूप में लागू करना है।

 

वर्तमान युग में लोक प्रशासन के बढ़ते हुये महत्व के निम्नलिखित कारण हैं—

(1) लोक कल्याणकारी राज्य की विचारधारा— आधुनिक लोकतान्त्रिक विचारधारा के अन्तर्गत जनता प्रशासन से अधिक से अधिक सेवायें प्राप्त करना चाहती है। प्राचीन समय में राज्य निरंकुश होता था तथा उनके सीमित कार्यों की वजह से उसे पुलिस राज्य कहा जाता था। युग में प्रतिनिधि सरकारों की । परन्तु आधुनिक युग। स्थापना के साथ-साथ प्रशासन के कार्यों में वृद्धि हो गयी है। व्हाइट के अनुसार, “प्रारम्भ में सरकार दमनकारी समझी जाती थी। अब जनता, राज्य से अनेक सेवाओं तथा संरक्षणों की अपेक्षा करती है।”

 

इन नये और अधिक उत्तरदायित्वों के कारण लोक प्रशासन का महत्व सरकार के अन्य अंगों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। लोक प्रशासन सार्वजनिक नीतियों के क्रियान्वयन के साथ व्यवस्थापिका तथा मन्त्रिमण्डल को नीतियों के निर्माण में भी सहायता पहुँचाता है। आधुनिक राज्य में लोक प्रशासन की दक्षता पर राज्य के जन-जीवन की उन्नति निर्भर करती है। –

 

(2) आर्थिक योजनायें— आधुनिक राज्य तथा सरकार ने, सामुदायिक जीवन के प्रबन्ध तथा राष्ट्र के विकास से स्वयं को बहुत अधिक सम्बद्ध कर लिया है। इससे नियोजन विचारधारा तथा व्यवहार प्रचलित हुआ है। प्रत्येक राज्य, देश के विकास के लिये योजनायें क्रियान्वित करता है। इनको क्रियान्वित करने के लिये तथा कार्य रूप देने के लिये व्यापक रूप में दक्ष, जटिल प्रशासकीय यन्त्र की आवश्यकता पड़ती है। योजनायें लोक प्रशासन की क्रियाओं में आवश्यक वृद्धि करती हैं। इनकी सफलता के लिये राज्य सरकारी उद्योगों का प्रबन्ध करता है अथवा व्यक्तिगत क्रियाओं पर अधिक नियन्त्रण एवं नियमन बढ़ाता है।

 

(3) औद्योगिक क्रान्ति तथा आधुनिक तकनीकी विकास— औद्योगिक क्रान्ति के कारण उत्पादन, बड़ी-बड़ी औद्योगिक संस्थाओं में होने लगा। उत्पादन के साधनों का केन्द्रीयकरण कुछ धनी व्यक्तियों के हाथ में आ गया। इससे बड़े शहरों का निर्माण होने लगा तथा साधारण व्यक्ति का जीवन कठिन हो गया। इन परिस्थितियों में व्यक्ति स्वयं को असहाय समझने लगे। अतः सामाजिक और आर्थिक शक्तियों के केन्द्रीयकरण से होने वाली हानि के कारण सामान्य नागरिकों की रक्षा का उत्तरदायित्व लोक प्रशासन पर आ गया।

 

(4) युद्ध की सम्भावनायें— दो महायुद्धों के कारण, सरकारें राष्ट्रों की सीमा सुरक्षा के लिये पहले से अधिक सचेत हो गयी हैं। आधुनिक युग, समय युद्ध का युग है। इस तरह के युद्ध से देश को सुरक्षा प्रदान करने के लिये, देश की समस्त मानव शक्ति तथा स्रोतों का गतिशील होना आवश्यक है। यह उत्तरदायित्व लोक प्रशासन पर है। प्रायः युद्ध के समय देश की अनेक क्रियायें, लोक प्रशासन के क्षेत्र में आ जाती हैं, जो शान्ति के समय व्यक्तिगत प्रबन्ध द्वारा प्रबन्धित की जाती हैं। युद्ध के समय लोक प्रशासन का यह महत्व वस्तुओं के उत्पादन, उपभोग तथा वितरण पर अनेक नियन्त्रण आदि की दृष्टि से है। सरकार, उक्त कार्यों के अतिरिक्त, युद्ध में मृत सैनिकों के परिवारों की व्यवस्था, अपंग सैनिकों को रोजगार आदि दिलाना, बहुत से महत्वपूर्ण कार्य भी करती है।

 

(5) विशेषीकरण के प्रकार—तकनीकी विकास के कारण, उत्पादन की क्रियायें बहुत जटिल हैं। निर्मित क्रियाओं ने विशेषीकरण के आधार पर, सामान्य उत्पादन की क्रियाओं का स्थान ले लिया। इन क्रियाओं के संचालन के लिये दक्ष प्रशासन की आवश्यकता से • लोक प्रशासन का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया। संचार-साधनों के विकास के कारण व्यापक संगठन पहले से कहीं अधिक व्यवहारिक बन गया।

 

 

 

 

निष्कर्ष

 

आधुनिक युग में विकासशील देशों में लोक प्रशासन का महत्व बहुत अधिक है क्योंकि प्रशासन ही सामाजिक परिवर्तन तथा आर्थिक विकास को सफल बना सकता है। डिमांक (Dimock) के अनुसार, “प्रशासन प्रत्येक नागरिक के लिये महत्वपूर्ण है, क्योंकि जो सेवायें उसे प्राप्त होती हैं, जो कर वह चुकाता है और जिन वैयक्तिक स्वतन्त्रताओं का वह उपयोग करता है, प्रशासक के सफल और असफल कार्यकारण पर निर्भर करता है। आधुनिक युग की बहुत-सी महत्वपूर्ण जटिल सामाजिक समस्यायें जैसे-स्वतन्त्रता और संगठन में समन्वय कैसे हो, प्रशासन के नौकरशाही क्षेत्र के चारों ओर घूमती रहती हैं। यही कारण है कि आज लोक प्रशासन राजनीतिक सिद्धान्त और दर्शन का मुख्य विषय बन गया है।”

 

पं० जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, “लोक प्रशासन सभ्य जीवन का रक्षक मात्र ही नहीं वरन् सामाजिक न्याय तथा परिवर्तन का महान् साधन है।”

 

फाइनर (Finer) ने लिखा है कि, “कुशल प्रशासन सरकार का एकमात्र वह आधार है, जिसके अभाव में राज्य छिन्न-भिन्न हो जायेगा।

 

 

लोक प्रशासन का अर्थ

 

उत्तर- लोक प्रशासन’, प्रशासन के व्यापक क्षेत्र की एकमात्र शाखा है। ‘प्रशासन’, अंग्रेजी शब्द ‘एडमिनिस्ट्रेशन’ (Administration) का हिन्दी रूपान्तर है। यह शब्द लैटिन भाषा के दो शब्दों ‘ad’ और ‘ministration’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है- ‘सेवा करना’। ‘प्रशासन करने’ (to administer) का शाब्दिक अर्थ ‘प्रवन्ध’ है। लोक प्रशासन में ‘लोक’ (Public) शब्द से विशेष तात्पर्य है- ‘सरकारी’ अथवा ‘सरकार का’। अतः लोक प्रशासन से तात्पर्य है-सभी स्तरों-स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय-परन्तु सरकारी कार्यों तथा मामलों का प्रवन्ध।

 

प्रशासन का अर्थ

 

 

‘प्रशासन’ शब्द के विभिन्न अर्थ हैं। प्रशासन का अर्थ कहीं पर क्रियाओं से लगाया जाता है तथा कहीं पर प्रशासन का प्रयोग समाजशास्त्र के एक भाग के लिये किया जाता है। कहीं पर इसे कला का एक रूप माना गया है तो कहीं पर इसे व्यक्तियों के समूह के लिये प्रयुक्त किया जाता है। सारांशतः प्रशासन को चार अथों में प्रयुक्त किया जाता है- प्रथम अर्थ में प्रशासन का प्रयोग, कार्यपालिका के सर्वोच्च लोगों के समूह के लिये किया जाता है।

 

द्वितीय अर्थ के अनुसार प्रशासन ज्ञान की एक शाखा है। इसके अन्तर्गत प्रशासन को एक सामाजिक विज्ञान के रूप में अन्य विषयों की भांति अध्ययन का विषय मानाके गया है।

 

अर्थ में सार्वजनिक नीतियों को कार्य रूप में परिणित करने के लिये सम्पादित की जाने वाली सभी क्रियायें विकासीय प्रशासन, वित्तीय प्रशासन आदि प्रशासन के क्षेत्र में आती हैं।

 

चतुर्थ अर्थ में प्रशासन प्रबन्धात्मक क्रियाओं को सम्पादित करने की कला को प्रदर्शितकरने के लिये प्रयुक्त किया जाता है।

 

उपरोक्त विवेचन के अनुसार, चारों अर्थों में पूर्ण भिन्नता है तथा उनमें कोई भी सीधा सम्पर्क नहीं है। इसी कारण, प्रशासन को परिभाषा के विषय में भी विद्वानों में मतैक्यता नहीं पायी जाती है।

 

 

 

 

प्रशासन की परिभाषा

 

अनेक विद्वानों द्वारा दी गयी प्रशासन की विभिन्न परिभाषायें निम्न प्रकार हैं—

 

  • पिफनर (Piffner) के अनुसार, “वांछित उद्देश्यों की पूर्ति के लिये मानवीय तथा भौतिक साधनों का संगठन और निर्देशन प्रशासन है।””
  • मलैडन (Gladen) के शब्दों में, “प्रशासन का अर्थ लोगों की परवाह करना या देखभाल करना या कार्यों का प्रबन्ध करना है।
  • साइमन (Simon) के कथनानुसार, “अपने व्यापक रूप में प्रशासन की व्याख्या उन समस्त सामूहिक क्रियाओं के रूप में की जा सकती है जो सामान्य लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सहयोगात्मक रूप में की जाती हैं।”
  • डॉ० व्हाइट (L. D. White) के अनुसार, “प्रशासन किसी लक्ष्य या उद्देश्य की पूर्ति के लिये बहुत से व्यक्तियों के सम्बन्ध में निर्देश, नियन्त्रण तथा समन्वय की कला है।
  • नीत्रो (Nigro) के अनुसार, “प्रशासन का वास्तविक अर्थ सेवा है, जो जनता के लिये की जाती है।
  • विवसटीड (Wicksteed) के अनुसार, “प्रशासन निर्धारित परिणाम की प्राप्ति के लिये मानवीय प्रयासों के एकीकरण की संयुक्त प्रक्रिया है।”
  • मार्क्स (Marx) के अनुसार, “प्रशासन एक निश्चित कार्य है, जो किसी निर्धारित प्रयोजन की प्राप्ति के लिये किया जाता है।”
  • नीरो (Nero) के अनुसार, “प्रशासन वह क्षमता है, जिसके द्वारा अनेक और परस्पर विरोधी सामाजिक शक्तियाँ एक सावयव में समन्वित की जा सकें, जिससे कि वे एक इकाई के रूप में कार्य कर सकें।”
  • लूथर गुलिक (Luther Gullick) के अनुसार, “प्रशासन का सम्बन्ध कार्यों को सम्पादित करने से है ताकि निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति हो सके।””
  • A (Marshall Dimock) के अनुसार, “प्रशासन का सम्बन्ध सरकार से ‘क्या’ तथा ‘कैसे’ से है। ‘क्या’ का अर्थ विषय-वस्तु से है। ‘कैसे’ प्रवन्य की विधा है, दोनों ही अनिवार्य हैं और दोनों मिलकर प्रशासन की स्थापना करते हैं।

 

 

 

प्रश्न– लोक प्रशासन तथा निजी प्रशासन के अन्तर को स्पष्ट कीजिये। क्या इन दोनों में कोई समान आधार है ?

Distinguish clearly between Public and Private Administration. Is there any similar basis between these two?

या

 

लोक प्रशासन की परिभाषा दीजिये। लोक प्रशासन तथा निजी प्रशासन की समानताओं तथा विभिन्नताओं का वर्णन कीजिये।

 

 

 

उत्तर- लोक प्रशासन और निजी प्रशासन में समानता।

 

लोक प्रशासन और निजी प्रशासन में उपर्युक्त असमानताओं के साथ ही दोनों में कुछ समानतायें भी पायी जाती हैं, जो निम्नलिखित हैं—

 

  • समान उत्तरदायित्व की भावना— लोक प्रशासन और व्यक्तिगत प्रशासन दोनों ही प्रकार के प्रशासनों से सम्बन्धित कर्मचारियों में उत्तरदायित्व की भावना समान रूप से पायी जाती है। प्रशासन के प्रत्येक पक्ष से सम्बन्धित कर्मचारियों का यह प्रयास होता है कि उपलब्ध साधनों के उपयोग द्वारा यथासम्भव अच्छे ढंग से अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। प्रत्येक प्रशासकीय अधिकारी, चाहे वह लोक प्रशासन से सम्बन्ध रखता हो या व्यक्तिगत संगठन से, अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह पूर्ण निष्ठा एवं योग्यता के साथ करता है।
  • संगठन का होना आवश्यक— दोनों प्रकार के प्रशासनों में संगठन की आवश्यकता अनिवार्य रूप से होती है। वास्तव में प्रत्येक प्रशासन में संगठन का होना उसकी एक सर्वप्रमुख विशेषता होती है। जिस प्रकार लोक प्रशासन में व्यवस्थापिका, नीति निर्धारण और कार्यपालिका, नीतियों को क्रियान्वित करने का कार्य करती है, ठीक उसी प्रकार व्यक्तिगत प्रशासन में भी, संचालक मण्डल, नीति-निर्धारण और प्रबन्धक वर्ग, नीति क्रियान्वयन का कार्य करता है। इस प्रकार दोनों ही प्रशासनों में संगठनात्मक व्यवस्था का होना समान रूप से आवश्यक होता है।
  • प्रगति और विकास की गति— दोनों ही प्रकार के प्रशासनों में प्रगति और गति के सम्बन्ध में सैद्धान्तिक समानता पायो जाती है। आन्तरिक शक्तियों के माध्यम से ही दोनों प्रकार के प्रशासन, प्रगति और विकास का मार्ग सफल बनाते हैं।
  • प्रबन्धकीय व्यवस्था में समानता— लोक प्रशासन और व्यक्तिगत प्रशासन में प्रबन्धकीय व्यवस्थाओं में बहुत समानता होती है। दोनों प्रकार के प्रशासनों में कार्य-संचालन की अनेक पद्धतियाँ समान रूप से अपनायी जाती हैं, जैसे-आँकड़े रखना, फाइलें रखना आदि ।
  • शोध कार्य और उनका महत्व—दोनों ही प्रकार के प्रशासन में नये-नये आविष्कारों का महत्व होता है। नये-नये अन्वेषणों द्वारा प्रशासन की कार्यक्षमता और कार्यकुशलता में वृद्धि करना, लोक प्रशासन तथा व्यक्तिगत प्रशासन दोनों के लिये आवश्यक होता है। ऐसा न करने पर प्रशासन की गति में अवरोध उत्पन्न होने की सम्भावना हो जाती है।
  • लोक सम्पर्क— लोक प्रशासन और व्यक्तिगत प्रशासन में समान रूप से लोक सम्पर्क को महत्व दिया जाता है। वस्तुतः प्रशासन की सफलता और व्यापकता के लिये सम्पर्क एक आवश्यक साधन माना गया है। आज के आधुनिक युग में यदि लोक सम्पर्क प्रशासन का अंग नहीं रह जाये, तो उसकी सफलता सन्देहात्मक हो जायेगी।

 

अतः स्पष्ट है कि लोक प्रशासन और व्यक्तिगत प्रशासन में अनेक भिन्नतायें हैं, लेकिन दोनों में अनेक दृष्टियों में समानता भी है। लेकिन वास्तविकता यह है कि लोक प्रशासन और निजी प्रशासन का अन्तर केवल मात्रा का है, गुण का नहीं। इसीलिये वर्तमान काल में लोक प्रशासन तथा निजी प्रशासन के मध्य भेद समाप्त होता जा रहा है। इस सम्बन्ध में हेनरी फेयोल (Henry Fayol) ने ठीक ही लिखा है। कि, “सभी प्रकार के प्रशासनों को योजना, संगठन, आदेश, समन्वय तथा नियन्त्रण की आवश्यकता होती है और अपना कार्य सही तरीके से सम्पादित करने के लिये सभी को एक समान सामान्य सिद्धान्तों का पालन करना होता है। अतः लोक प्रशासन तथा निजी प्रशासन में भेद करना अतार्किक व अव्यावहारिक है।”

 

लोक प्रशासन और निजी प्रशासन में अन्तर

 

प्रशासन के दो पक्ष होते हैं-निजी या व्यक्तिगत प्रशासन और सार्वजनिक या लोक प्रशासन। प्रशासन के इन दोनों पक्षों में अनेक दृष्टियों से पर्याप्त भिन्नता होती है। इस भिन्नता या अन्तर को निम्नलिखित शीर्षकों के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है—

 

*एकाधिकार—-लोक प्रशासन सम्बन्धी कार्यों पर सरकार का पूर्णतः एकाधिकार होता है और उन कार्यों को कोई अन्य व्यक्ति निजी रूप में नहीं कर सकता है। इसके विपरीत, निजी प्रशासन में इस प्रकार का एकाधिकार नहीं पाया जाता है।

 

*उत्तरदायित्व—-इस दृष्टि से भी प्रशासन के दोनों पक्षों में परस्पर भिन्नता होती है। लोक प्रशासन में जनता के संसदीय उत्तरदायित्व की पद्धति द्वारा कार्यपालिका के सदस्यों से विभागीय कार्यों का स्पष्टीकरण करा सकते हैं। सरकार को व्यवस्थापिका की इच्छानुकूल ही आचरण करना पड़ता है। लेकिन व्यक्तिगत प्रशासन इस प्रकार की जाँच और उत्तरदायित्व से मुक्त होता है। निजी प्रशासन बहुत ही कम सीमा तक तथा अप्रत्यक्ष रूप से जनता के प्रति उत्तरदायी होता है।

 

*समान व्यवहार— लोक प्रशासन की सर्वप्रमुख विशेषता है-समान व्यवहार । समान परिस्थितियों में शासकीय कर्मचारी वर्ग का व्यवहार, सबके साथ एक समान होता है। परन्तु व्यक्तिगत प्रशासन प्रायः पक्षपातपूर्ण व्यवहार होता है, क्योंकि इसका प्रमुख उद्देश्य लाभ प्राप्त करना होता है।

 

*सेवायें सुरक्षित— लोक प्रशासन में कर्मचारियों की सेवायें अधिक सुरक्षित होती हैं और कर्मचारियों को अपनी सेवा (Service) के प्रति सुरक्षा का विश्वास होता है। निजी प्रशासन में इस प्रकार की सेवा-सुरक्षा का आश्वासन नहीं दिया जाता है।

 

*प्रतिनिधित्व—-लोक प्रशासन, राज्य की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है और उसके निर्णय में एकरूपता तथा अधिकार की भावना पायी जाती है। इसके विपरीत निजी प्रशासन सीमित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है और निर्णय में एकरूपता का अभाव पाया जाता है।

 

*विधि—-लोक प्रशासन, अपने उत्तरदायित्वों को समुचित रूप से पूरा करने के लिये कठोरता एवं सत्य का दामन पकड़ता है, किन्तु व्यक्तिगत प्रशासन में प्रत्येक कार्य में चापलूसी या खुशामद से काम लिया जाता है।

 

*व्यापकता— निजी प्रशासन की अपेक्षा लोक प्रशासन अत्यधिक व्यापक होता है। प्रायः सभी राज्यों, विशेषकर समाजवादी राज्यों में जीवन का प्रत्येक क्षेत्र राष्ट्रीयकरण की समस्याओं से प्रभावित है और ऐसे राज्यों में लोक प्रशासन का कार्य क्षेत्र सर्वाधिक व्यापक है, परन्तु व्यक्तिगत प्रशासन में न तो इतनी अधिक समस्यायें होती हैं और न ही उनका क्षेत्र व्यापक होता है।

 

*प्रचार और प्रसार— लोक प्रशासन के पदाधिकारी अपने व्यक्तिगत नाम का प्रचार-प्रसार नहीं करते हैं, जबकि व्यक्तिगत प्रशासन के कर्मचारी अपने आपको विभिन्न माध्यमों से लोकप्रिय बनाने का प्रयास करते हैं।

 

*कार्यकुशलता— लोक प्रशासन की तुलना में व्यक्तिगत प्रशासन के कर्मचारी, अपना कार्य अधिक रुचि तथा परिश्रम से करते हैं, इसलिये उनकी कार्यक्षमता अधिक होती है। लेकिन लोक प्रशासन में कर्मचारी वर्ग, अपने कार्य में रुचि, परिश्रम और कार्यकुशलता को अधिक महत्व नहीं देते हैं।

 

*कर्तव्य की सीमा— लोक प्रशासन के कर्मचारियों के कर्तव्यों और अधिकारों की व्याख्या अत्यधिक व्यापक रूप में की गयी होती है। इसके विपरीत, व्यक्तिगत प्रशासन के कर्मचारियों के कर्तव्यों और अधिकारों का उल्लेख संक्षिप्त रूप में रहता है।

 

*उद्योगों का संगठन एवं संचालन— बड़े उद्योगों का संगठन एवं संचालन लोक प्रशासन द्वारा किया जाता है। अन्य शब्दों में, बड़े उद्योगों का संगठन व संचालन लोक प्रशासन को विशेषता है। पुलिस व्यवस्था, आकाशवाणी, सेना, रेलवे आदि संचालन लोक प्रशासन द्वारा का संगठन एवं ही होता है। इसके विपरीत व्यक्तिगत प्रशासन का अपेक्षाकृत बहुत छोटे संगठनों तक ही सीमित होता है। क्षेत्र

 

*सेवा तथा मूल्य— लोक प्रशासन में उतनी ही धनराशि अर्जित की जाती है जितनी जनता की सेवा सम्बन्धी सार्वजनिक कार्यों को सम्पन्न करने में व्यय की जाती है। सामान्यतया सेवा सम्बन्धी सरकारी कार्यों में व्यय होने वाले मूल्य से भी कुछ कम ही वसूल किया जाता है, इसीलिये सरकारी बजट प्रायः घाटे में ही चलता है। इसके विपरीत व्यक्तिगत प्रशासन में किसी भी रूप में घाटे का प्रश्न नहीं उठता है।

 

*लाभ एवं हित— लोक प्रशासन में लाभ की अपेक्षा सार्वजनिक हित को महत्व दिया जाता है, जबकि व्यक्तिगत प्रशासन में व्यक्तिगत लाभ के दृष्टिकोण को अपनाया जाता है।

 

*अतिरिक्त लाभ— लोक प्रशासन में शेष धनराशि को पुनः सार्वजनिक हित में व्यय कर दिया जाता है, जबकि व्यक्तिगत प्रशासन में अतिरिक्त प्राप्त धनराशि को मालिक की अपनी निजी सम्पत्ति मान लिया जाता है और उस लाभ की मात्रा में वृद्धि करने के लिये, वह उस धनराशि का अन्यत्र उपयोग करता है।

 

*वित्त नियन्त्रण— सार्वजनिक प्रशासन के अन्तर्गत वित्त पर कार्यपालिका का नियन्त्रण न होकर व्यवस्थापिका का होता है। व्यक्तिगत प्रशासन में इस प्रकार की पृथक् पृथक् व्यवस्था नहीं रहती है।

 

*नौकरशाही— लोक प्रशासन का कर्मचारी वर्ग, नौकरशाही के आधार पर चुना जाता है और यह अपना कार्य नौकरशाही के अनुरूप ही अत्यधिक शिथिलता से करता है। इसी कार्य प्रणाली को लाल फीताशाही की संज्ञा दी जाती है। व्यक्तिगत प्रशासन में कार्य अपेक्षाकृत बहुत शीघ्रता से तथा अधिक मात्रा में किये जाते हैं।

 

*कानूनी हस्तक्षेप— व्यक्तिगत प्रशासन की अपेक्षा, लोक प्रशासन के कार्यों में कानूनी हस्तक्षेप अधिक होता है। व्यक्तिगत प्रशासन में इस प्रकार का कानूनी हस्तक्षेप नहीं होता है जिससे कार्य बड़ी शीघ्रता और सरलता से सम्पन्न होता है।

 

 

* मनोवैज्ञानिकता— दोनों प्रकार के प्रशासनों में मनोवैज्ञानिक अन्तर भी पाया है। व्य व्यक्तिगत प्रशासन की भाँति लोक प्रशासन के कर्मचारी हड़ताल तथा असहयोग जैसे आदि साधनों का प्रयोग उस स्वतन्त्रता के साथ नहीं कर सकते हैं।

 

*आलोचना— साइमन के मतानुसार, इन दोनों प्रकार के प्रशासनों में आलोचना की दृष्टि से भी अन्तर पाया जाता है। लोक प्रशासन के कार्यों की अपेक्षा व्यक्तिगत

प्रशासन के कार्यों की आलोचना स्वतन्त्रतापूर्वक की जा सकती है और की जाती है।

 

प्रश्न – नवीन लोक प्रशासन की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये तथा इसके अध्ययन क्षेत्र की नूतन प्रवृत्तियों की व्याख्या कीजिये।

 

उत्तर-नवीन लोक प्रशासन का विकास

 

नवीन लोक प्रशासन के विकास का श्रेय अमरीकी विद्वानों और विचारकों को दिया जा सकता है। सर्वप्रथम अमेरिकी राष्ट्रपति बुडरो विल्सन ने अपनी रचनाओं में नवीन लोक प्रशासन की पृष्ठभूमि निर्मित की थी, परन्तु उनका दृष्टिकोण वैधानिक (Legal) था। वे वैधानिक संगठनों के माध्यम से ही लोक प्रशासन में वैधानिकता का विकास करना चाहते थे। विल्सन ने प्रशासन को राजनीति से पृथक् करके एक स्वतन्त्र विषय बनाने का प्रयास किया।

 

‘बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में गुडनो (Good Know) ने अपनी पुस्तक Politics and Administration’ में इस तथ्य का प्रतिपादन किया है, जबकि प्रशासन इन नीतियों के क्रियान्वयन से ही सम्बन्धित होता है। लोक प्रशासन को एक स्वतन्त्र विषय बनाने में लियोनार्ड डी० ह्वाइट (Leonard D. White) तथा विलोबी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ह्वाइट ने अपनी पुस्तक में लोक प्रशासन के ‘व्यावहारिक पक्ष’ पर व्यापक प्रकाश डाला है, जबकि विलोबी ने लोक प्रशासन में वित्तीय प्रशासन एवं अन्य तकनीकी विषयों की विशद विवेचना की है।

 

एफ० डब्ल्यू० टेलर (F. W. Taylor) ने लोक प्रशासन को ‘प्रबन्ध का विज्ञान’ बनाने का प्रयास किया है। प्रबन्ध विज्ञान के समर्थकों ने प्रशासनिक क्रियाओं का विश्लेषण करके गति की क्रियाओं एवं सिद्धान्तों के अध्ययन पर विशेष बल दिया। प्रशासन और प्रबन्ध की इस तकनीकी विवेचना ने अनेक विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया और इस सम्बन्ध में लोक अध्ययन के प्रयोग आरम्भ हो गये। सन् 1940 के बाद हरवर्ट साइमन (Herbert Simon) तथा राबर्ट डहल (Robert Dahl) ने नवीन लोक प्रशासन के विकास को नये आयाम दिये। इन विद्वानों के प्रयत्नों से लोक प्रशासन में निर्णय निर्माण तथा ‘लोकनीति उपागम’ का समावेश हुआ। लोक प्रशासन के अध्ययन के इन नये उपागमों ने प्रशासन में वैज्ञानिकता का समावेश कर दिया। नवीन लोक प्रशासन और राजनीति में समन्वय करता है।

 

नवीन लोक प्रशासन की विशेषतायें

 

नवीन लोक प्रशासन की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं—

 

  • प्रशासन में नागरिकों की भागीदारी अधिकतम होनी चाहिये अर्थात् नवीन लोक प्रशासन निर्णय निर्माण में जन प्रतिनिधित्व पर बल देता है।
  • प्रशासनिक संगठनों को ऐसे स्पष्ट मानदण्ड का विकास करना चाहिये जो आज की बदलती हुयी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी परिस्थितियों में अपने निर्णयों व कार्यों को प्रभावकारी बना सके।
  • नवीन लोक प्रशासन संगठनात्मक संरचना के प्रति एक गतिशील दृष्टिकोण अपनाने पर बल देता है।
  • प्रशासन की व्यापकता और जटिलता को देखते हुये नवीन लोक प्रशासन आधुनिक प्रबन्धात्मक विधियों तथा तकनीकों को अपनाने की वकालत करता है। संक्षेप में, नवीन लोक प्रशासन आचारशास्त्र, मूल्यों, नूतन परिवर्तन तथा सामाजिक परिवर्तन पर बल देता है। इसके अनुसार मूल्यों की आधारशिला पर ही लोक प्रशासन का भवन निर्मित किया जा सकता है।

 

नवीन लोक प्रशासन की अवधारणा

 

द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त राजनीति और प्रशासन के क्षेत्र में नूतन परिवर्तन हुये हैं। विश्व के अधिकांश देशों में प्रशासन की कार्यक्षमता और कुशलता में विकास के लिये संगठित तथा व्यवस्थित रूप से प्रयास किये जा रहे हैं। आज प्रत्येक देश प्रगतिशील पदाधिकारी प्रशासन, वैज्ञानिक विधियों व प्रक्रियाओं तथा कुशल व मजबूत कार्यालय प्रबन्ध, स्वचालन का प्रयोग, कर्मचारियों को सुविधायें, प्रबन्धकों के प्रशिक्षण आदि बातों की ओर विशेष ध्यान दे रहा है। प्रशासन के क्षेत्र में यह अभिनवीकरण ही नवीन लोक प्रशासन के नाम से जाना जाता है।

 

लोक प्रशासन में नवीनीकरण अथवा आधुनिक विकास का आशय है, “किसी प्रचलित व्यवस्था में नूतन तथ्यों अथवा विधियों का क्रियान्वयन।” तकनीकी दृष्टिकोण से नवीन लोक प्रशासन वह है, जिसमें प्रशासनिक संगठन, व्यवहार, विधियों एवं प्रक्रियाओं में संगठित एवं व्यवस्थित रूप से नूतनता का समावेश किया जाये।

 

परम्परागत लोक प्रशासन का स्वरूप नकारात्मक था, जबकि नवीन लोक प्रशासन का स्वरूप आदर्शात्मक है, क्योंकि इसमें लोक कल्याण और नैतिकता का समावेश है. और यह सकारात्मक दृष्टिकोण रखता है। नवीन लोक प्रशासन विकेन्द्रीकरण की संकल्पना में आस्था रखता है और व्यक्ति तथा उसके आत्मविश्वास की रक्षा करता है। नवीन लोक प्रशासन की मान्यता यह है कि प्रशासन एक साधन मात्र है, जिसका मूल लक्ष्य मानव कल्याण का सम्पादन करना है। परम्परागत लोक प्रशासन के तीन लक्ष्य मूल्य शून्यता, दक्षता और तटस्थता माने जाते थे, जबकि नवीन लोक प्रशासन नैतिकता, सामाजिक उपयोगिता तथा प्रतिबद्धता का हामी है। दूसरे शब्दों में, नवीन लोक प्रशासन निश्चित मूल्यों पर आधारित है।

 

नवीन लोक प्रशासन परम्परागत मूल्यों को बनाये रख कर उनमें कुछ नये मूल्यों का भी संयोजन करता है। यह प्राचीन मूल्यों कार्यकुशलता, मितव्ययिता, एकीकृत प्रबन्ध तथा उच्चस्तरीय प्रबन्ध पर ही बल नहीं देता वरन् एक नया मूल्य ‘सामाजिक समानता’ पर भी विशेष बल देता है। वास्तव में नवीन लोक प्रशासन का चरम उद्देश्य ‘सामाजिक समानता के मूल्य’ की स्थापना करना है। नवीन लोक प्रशासन नियोजन पर विशेष बल देता है इसके लिये वह कार्यक्रम, नियोजन तथा बजट तकनीक को अपनाने पर जोर देता है।

 

नवीन लोक प्रशासन का अध्ययन क्षेत्र

 

नवीन लोक प्रशासन के अध्ययन क्षेत्र में परम्परागत लोक प्रशासन की अपेक्षा अमांकित नूतन प्रवृत्तियों का समावेश हो गया है—

 

  • लोक प्रशासन के क्षेत्र का विस्तार— सामान्य नागरिक की दृष्टि से लोक प्रशासन का स्वरूप काफी परिवर्तित हो गया है। उसके कार्य कुछ प्रक्रियाओं, व्यवसायों, मन्त्रणा क्षेत्र और सरकारी सीमाओं के स्थान पर सम्पूर्ण समाज, सामुदायिक गतिविधियों तथा गहन विषयों तक विस्तृत हो गये हैं। पहले लोक प्रशासन अपने विषय तथा राष्ट्रीयता की परिधि तक ही सीमित था, परन्तु अब उसका अध्ययन क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है। अब वह सार्वजनिक नीति निर्माण तथा सामाजिक मूल्यों की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो गया है।
  • तुलनात्मक अध्ययन पर बल— आज लोक प्रशासन के तुलनात्मक अध्ययन पर विशेष बल दिया जाने लगा है। तुलनात्मक लोक प्रशासन में विभिन्न संस्कृतियों के मध्यस्थित प्रशासनिक अंगों का किसी व्यापक सिद्धान्त के आधार पर प्रशासनिक सुधार या सिद्धान्त निर्माण के लिये वैज्ञानिक अध्ययन किया गया है।
  • प्रशासन और राजनीति की पृथकता का अन्त— परम्परागत लोक प्रशासन में प्रशासन और राजनीति पृथक् रखकर दोनों का अध्ययन किया जाता था, परन्तु नवीन लोक प्रशासन में प्रशासन और राजनीति में समन्वय स्थापित किया गया है और यही कारण है कि आज प्रशासन के क्षेत्र में राजनीतिज्ञों का हस्तक्षेप दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
  • लोक प्रशासन और निजी प्रशासन का समन्वय— नवीन लोक प्रशासन के अन्तर्गत निजी प्रशासन और सार्वजनिक प्रशासन में समन्वय किया गया है। आजकल प्रशासन की इन दोनों शाखाओं को पृथक् नहीं माना जाता है।
  • नौकरशाही का समाजशास्त्रीय अध्ययन— प्रारम्भ में लोक प्रशासन का अध्ययन प्रशासकीय कानून के आधार पर किया जाता था, किन्तु नवीन लोक प्रशासन के अन्तर्गत लोक प्रशासन को समाज विज्ञान और सामाजिक मनोविज्ञान से सम्बन्धित कर दिया गया है और नौकरशाही का समाजशास्त्रीय अध्ययन करने पर बल दिया जाने लगा है।

इस सम्बन्ध में डॉ० एम० पी० शर्मा ने लिखा है कि, “लोक प्रशासन के क्षेत्र में समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक पद्धतियों के प्रयोग से प्रशासकीय व्यवहार और प्रक्रिया के उन आन्तरिक प्रेरणा स्रोतों तथा संचालक तत्वों का रहस्योद्घाटन हुआ है, जो अभी तक प्रयोग में आने वाली वैश्लेषिक-वैधानिक पद्धतियों से सर्वथा अलग ap थी।

 

प्रश्न—  ‘अधिकार’ की परिभाषा दीजिये तथा इसके स्रोत बताइये। औपचारिक अधिकार सिद्धान्त का विवेचन कीजिये। स्वीकृति सिद्धान्त से यह कहाँ तक भिन्न है ?

 

उत्तर-  अधिकार का अर्थ एवं परिभाषा

 

अधिकार प्रवन्ध-कार्य को कुन्जी है। बिना अधिकार प्राप्त हुये कोई भी प्रबन्ध सफलतापूर्वक अपना उत्तरदायित्व नहीं निभा सकता है। अधिकार प्राप्त प्रबन्धक कार्य को सम्पन्न करने के लिये कर्मचारियों को आदेश देता है, जिससे संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके।

 

अधिकार का तात्पर्य किसी व्यक्ति को प्राप्त उस वैधानिक शक्ति से है जिसके आधार पर वह दूसरों को आदेश दे सकता है ? अन्य शब्दों में, संगठन के उद्देश्यों और लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये संगठन के अन्तर्गत कार्य करने वालों की गतिविधियों का मार्गदर्शन करने तथा उनसे कार्य लेने के लिये आदेश देने के लिये प्राप्त शक्ति को अधिकार कहा जा सकता है।

 

फ्रैंकलिन जी० मूरे (Franklin G. Moore) के अनुसार, “अधिकार निर्णय करने का स्वत्व (Right) है और शक्ति निर्णयों का पालन करने के लिये बाध्य करती है।”

 

चेस्टर बर्नार्ड (Chester Bernard) के शब्दों में, “एक औपचारिक संगठन में अधिकार एक आदेश का लक्षण है-जिसे उस संगठन के सदस्यों द्वारा इस रूप में स्वीकृत किया जाता है कि प्रशासन कार्य को चलाने में वह उसका योगदान है- इसका अर्थ यह है कि जहाँ तक संगठन का सम्बन्य है, वे यह निश्चय कर सकें कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है।”

 

एच० कून्ट्ज (H. Koontz) तथा ओ’डोनेल (O’Donnell) ने अधिकार को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-“वैधानिक या स्वत्वाधिकार शक्ति, आदेश देने या कार्य करने का स्वत्व । मूरे के अनुसार, “समय संगठन का सर्व समावेशी सिद्धान्त है तथा अधिकार इसकी आधारशिला है, क्योंकि अधिकार ही सर्वोत्तम समन्वयी शक्ति है।”

 

 

अधिकार की सीमायें

 

 

कोई भी अधिकार प्राप्त अधिकारी अपने अधिकारों को चाहे जैसा उपयोग नहीं कर सकता है, क्योंकि उसकी कुछ सीमायें होती हैं, जो कि निम्नलिखित हैं—

 

जीव विज्ञान सम्बन्धी सीमायें (Biological Limits) — किसी भी अधिकारी को अपने अधीन व्यक्ति को ऐसा आदेश नहीं देना चाहिये जिसे पूरा करना उसके लिये जीव विज्ञान की दृष्टि से असम्भव हो, क्योंकि जीव विज्ञान की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता सीमित होती है और यदि उसकी क्षमता से अधिक कार्य उसे सौंप दिया जाये तो वह उसे नहीं कर पायेगा, जैसे एक प्रबन्धक अपने अधीन कर्मचारी को खड़ी दीवार पर ऊपर की ओर चलने का आदेश नहीं दे सकता।

 

प्राकृतिक सीमायें (Physical Limitations) — भौगोलिक स्थिति, जलवायु तथा प्राकृतिक नियमों से सम्बन्धित सौमायें प्राकृतिक सोमा के अन्तर्गत आती हैं, जैसे-एक प्रबन्धक अपने अधीन कर्मचारी को एल्यूमीनियम से चाँदी बनाने का आदेश नहीं दे सकता या कोयले को होरे में परिवर्तित करने का आदेश नहीं दे सकता।

 

तकनीकी सीमायें (Technological Limitations)—ये सीमायें तकनीकी ज्ञान एवं कला के विकास से सम्बन्ध रखती हैं और कोई भी प्रवन्धक जितनी तकनीकी उन्नति हुयी है उससे आगे की स्थिति के लिये आदेश नहीं दे सकता है, जैसे कोई भी प्रबन्धक अपने अधीन कर्मचारियों को चन्द्रमा पर शक्कर फैक्ट्री स्थापित करने का आदेश उस समय तक नहीं दे सकता जब तक कि तकनीकी ज्ञान एवं कला के विकास के फलस्वरूप चन्द्रमा पर शक्कर फैक्ट्री स्थापित करना सम्भव न हो जाये।

 

आर्थिक सीमायें (Economic Limitations). -क्रेताओं एवं विक्रेताओं की पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा बाज़ार की दशाओं के अनुसार वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य निर्धारण आदि आर्थिक सीमायें हैं जिनके विपरीत एक प्रबन्धक अपने आदेश नहीं दे सकता, जैसे-माँग और पूर्ति (Demand and Supply) की शक्तियों के कारण यदि बाजार में किसी वस्तु का मूल्य 5 रु० है तो कोई भी प्रबन्धक अपने अधीन कर्मचारी को उस वस्तु को 3 रु० में लाने का आदेश नहीं दे सकता।

 

व्यक्ति समूह की प्रतिक्रियायें (Processes of Individual Groups) – किसी भी अधिकार का प्रयोग करने पर उसका प्रभाव विभिन्न व्यक्तियों और व्यक्ति समूहों पर पड़ता है। एक प्रबन्धक का सम्बन्ध उपक्रम के कर्मचारियों, अंशधारियों (Share-holders), संचालक मण्डल (Board of Directors), उपभोक्ताओं आदि से होता है। अतः अधिकार प्रयोग से पूर्व उन सभी की प्रतिक्रियाओं का ध्यान रखना पड़ता है और यदि सभी वर्गों के लिये कोई अधिकार प्रयोग कल्याणकारी होता है तब तो उसका प्रयोग किया जा सकता है।

 

अन्य सीमायें (Other Limitations) – उपरोक्त सीमाओं के अतिरिक्त प्रबन्धकों को एक फर्म की दशा में साझेदारी अनुभव एवं कम्पनी की दशा में पार्षद सीमा नियम तथा अन्तर्नियम, कम्पनी अधिनियम तथा व्यापारिक एवं औद्योगिक सन्नियमों में वर्णित सीमाओं का भी ध्यान रखना पड़ता है।

 

अधिकार के स्रोत या अधिकार के सिद्धान्त

 

अधिकार स्रोत के सम्बन्ध में मुख्यतः दो प्रकार के विचार पाये जाते हैं। इन विचारों को ही अधिकार के सिद्धान्त भी कहा जाता है, जो निम्नलिखित हैं—

 

  • औपचारिक अधिकार सिद्धान्त (Formal Authority Theory) – इस सिद्धान्त के अनुसार प्रबन्धक को अपने अधिकार अपने से ऊँचे अधिकारी द्वारा या देश के संविधान (Constitution) द्वारा प्रदान किये जाते हैं। उदाहरण के लिये, रोकपाल सहायक कोषाध्यक्ष से अधिकार प्राप्त करता है। कोषाध्यक्ष को अधिकार प्रबन्ध प्रदान करता है और उसे (प्रबन्ध को) अधिकार संचालक मण्डल (Board of Directors) से प्राप्त होते हैं। संचालक मण्डल को अधिकार अंशधारी (Share-holders) प्रदान करते हैं। एक पूँजीवादी या मिश्रित अर्थव्यवस्था में अंशधारियों को अधिकार की प्राप्ति निजी सम्पत्ति (Private Property) के अधिकार के कारण प्राप्त होती है और निजी सम्पत्ति का अधिकार देश के संविधान द्वारा प्रदान किया जाता है।

 

उच्च अधिकारियों द्वारा अधीन अधिकारियों को दिये अधिकार लिखित हो सकते हैं, या मौखिक या दोनों रूप में ही हो सकते हैं। कई बार तो अधिकार स्पष्ट (Expressed) होते हैं परन्तु अनेक बार ये ध्वनित (Implied) होते हैं, परन्तु किसी भी दशा में प्रबन्धकों को अपनी अधिकार सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये। एक उच्चाधिकारी केवल वही अधिकार अपने अधीनस्थों को दे सकता है, जो उसे स्वयं प्राप्त होते हैं।

 

  • स्वीकृत अधिकार सिद्धान्त (The Acceptance Theory of Authority) – इस सिद्धान्त के प्रतिपादक बर्नार्ड और साइमन हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी प्रबन्ध के अधिकार का अस्तित्व तभी तक होता है, जब तक कि उनका अधीन कर्मचारी उस अधिकार को स्वीकार करे। अधीन कर्मचारियों की स्वीकृति के अभाव में प्रबन्ध के अधिकारों का महत्व नहीं है तथा वे न होने के बराबर हैं। इस सिद्धान्त का तत्व यह है कि यदि किसी को अधिकार मिल जाये, परन्तु उस अधिकार को स्वीकार करने वाला कोई न हो तो ऐसे अधिकार का कोई महत्व नहीं है। इस प्रकार अधिकार का जन्म उसी समय होता है जब अधिकारों को स्वीकृति प्रदान करने वाला हो। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अधिकारों का उद्गम स्वीकृति में है।

 

बर्नार्ड (Bernard) के शब्दों में, “अधिकार के दो पहलू अन्तर्निहित हैं-प्रथम्, विषयगत (Subjective) अर्थात् वैयक्तिक सन्देश की अधिकारिक रूप में स्वीकृति तथा दूसरा वास्तविक (Objective) पहलू – संवहन का वह लक्षण, जिसके प्रभाव के द्वारा यह स्वीकृत किया जाता है।”

 

अधीन-कर्मचारी अपने से उच्च अधिकारी का अधिकार इसलिये स्वीकार करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि वे शक्तिशाली हैं और उनका अधिकार स्वीकार करने से उन्हें अनेक लाभ होते हैं, जो निम्न हैं—

 

(i) वेतन वृद्धि, सम्मान तथा पारितोषिक की प्राप्ति।

(ii) उपक्रम के उद्देश्यों की प्राप्ति में अधीनस्थ का योगदान ।

(iii) साथ में कर्मचारियों से प्रशंसा को प्राप्ति।

(iv) उत्तरदायित्व के अनावश्यक भार से मुक्ति।

(v) अधीनस्थों के स्वयं के नैतिक आदशों के अनुसार कार्यवाही ।

(vi) अपने उच्च अधिकारियों के नेतृत्व गुणों के प्रति प्रतिपादन (Response)

 

उच्च अधिकारियों का अधिकार स्वीकार न करने से अधीन कर्मचारियों को निम्न हानियाँ होती हैं—

 

(i) अधिकार स्वीकार करने से जो लाभ होते हैं, उनसे वंचित रहना।

(ii) वेतन व सम्मान को प्राप्ति में कठिनाई तथा सामाजिक अप्रतिष्ठा ।

(iii) अनुशासन कार्यवाही, जैसे-आर्थिक दण्ड, कारावास, नौकरी से छूटना आदि।

 

अन्य सिद्धान्त (Other Theories) – प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं विशेष तकनीकी योग्यता-अधिकारों के स्रोत के सम्बन्ध में कुछ लोगों का यह भी मत है कि कभी-कभी प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं विशेष तकनीकी योग्यता भी अधिकारों के स्रोत का काम करता है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिन्हें यद्यपि औपचारिक रूप से कुछ भी अधिकार प्राप्त नहीं होते, परन्तु प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं विशेष तकनीकी योग्यता के कारण उन्हें विशेष मान्यता दी जाती है, उनकी राय इतनी उत्सुकता एवं आमह से ली जाती है तथा उसका पालन इस तत्परता से किया जाता है कि उन्हें अधिकारी का दर्जा सा प्राप्त हो जाता है। भारतीय शासन में महात्मा गाँधी की तथा आज भी कुछ सीमा तक आचार्य विनोबा भावे को यही स्थिति है। इन व्यक्तियों को अपने प्रभावी व्यक्तित्व के कारण हो ऐसा अधिकार प्राप्त हो सका है। मेधावी इन्जीनियर व अर्थशास्त्री आदि भी इसी श्रेणी में सम्मिलित किये जाते हैं। विशेष योग्यता के कारण ही लोग उनके परामर्श देने के अधिकार को स्वीकार करते हैं। एक समाज सुधारक को सरकार की ओर से कोई अधिकार नहीं दिया जाता, परन्तु उनकी सलाह को जनता मानती है। कई बार तो देखने में आता है कि अधिकारियों के प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं जबकि समाज सुधारक और सन्त पुरुषों के प्रयत्न सफल हो जाते हैं।

 

निष्कर्ष— अधिकारों के स्रोत से सम्बन्ध रखने वाले उपरोक्त तीनों सिद्धान्त अपने-अपने ढंग से सत्य हैं। फिर भी एक प्रबन्ध के अधिकार प्रायः औपचारिक अधिकार सिद्धान्त (Formal Authority Theory) के द्वारा ही निश्चित होते हैं। परन्तु प्रभावशाली व्यक्तित्व या व्यक्तिगत प्रभाव भी कार्य कराने के लिये बहुत महत्व रखता है। किसी भी प्रबन्धक को कुशलता केवल अधिकारों की प्राप्ति पर निर्भर नहीं करती वरन् उसकी कार्य करने की क्षमता व उसके व्यक्तित्व पर भी निर्भर करती है। किसी भी अधिकार का उपयोग या दुरुपयोग अधिकारी पर निर्भर करता है। एक कुशल प्रबन्धक के हाथों में वे ही अधिकार उपक्रम की उन्नति में सहायक होते हैं, जबकि एक अकुशल प्रबन्धक के हाथों में वे ही अधिकार उपक्रम को अवनति की ओर ले जाते हैं। प्रबन्धक द्वारा अपने अधिकारों का सफल प्रयोग इन बातों पर निर्भर करता है— (i) उचित वातावरण की सृष्टि से जिनका आधार मानवीय सम्बन्ध हो।

(ii) अधीन कर्मचारियों के प्रति न्यायोचित व्यवहार। (iii) अधिकारों एवं अधीन कर्मचारियों में पारस्परिक विश्वास ।

(iv) अधिकारी के प्रति आदर को भावना होना ।

(v) कर्मचारियों के मन में कार्य के प्रति उत्साह एवं लगन जामत करना आदि। ये सभी बातें प्रबन्धक की नेतृत्व कुशलता पर निर्भर करती हैं, अतः हम कह सकते हैं कि प्रबन्धक की सफलता उचित अधिकारों में निहित होती है एवं उसके कार्य की सफलता नेतृत्व (Leadership) की कुशलता में निहित होती है।

 

 

 

 

 

 

प्रश्न – नौकरशाही से निहित सिद्धान्तों की समीक्षा करते हुये उसके कार्य एवं लक्षणों पर प्रकाश डालिये।

या

क्या आप इस बात से सहमत है कि नौकरशाही आधुनिक राज्य में एक आवश्यक बुराई है? नौकरशाही की प्रमुख बुराइयों का वर्णन करते हुये उनके दोषों को दूर करने के उपाय बताइये।

 

उत्तर-दोषों को दूर करने के सुझाव

 

(1) इस पर नियन्त्रण करने हेतु सत्ता का विकेन्द्रीकरण कर देना चाहिये ।

 

(2) संसद का अधिक नियन्त्रण होने से मनमानी करने के अवसर कम प्राप्त होंगे।

 

(3) नागरिकों को शिकायतें सुनने हेतु विभिन्न स्तर पर प्रशासकीय न्यायाधिकरणों की स्थापना करनी चाहिये ।

 

(4) प्रशासकीय उत्तरदायित्व का नियम कठोरता से लागू होना चाहिये।

 

प्रो० रोबसन ने भी कुछ सुझाव दोषों को दूर करने हेतु दिये हैं, जो ये हैं-

 

(1) अधिकारियों को अपने को समाज से भिन्नं नहीं मानना चाहिये। सेवा-भाव से जनहित में प्रत्येक नागरिक के प्रति उत्तरदायी होना चाहिये।

(2) लोक सेवा में समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिये।

(3) शासक और शासित में पर्याप्त अवसर विचार-विमर्श और सम्पर्क के होने चाहिये ।

(4) नागरिकों का प्रतिनिधित्व भी प्रशासकीय कार्यों में होना चाहिये तथा नागरिकों को उसमें रुचि लेनी चाहिये।

सारांश में कहा जा सकता है कि नौकरशाही आज के समय में आवश्यक है। इसे समाप्त नहीं किया जा सकता, हाँ, इस पर नियन्त्रण आवश्यक है जिससे यह जनता की स्वामी न बनकर जनता के सेवक के रूप में कार्य करे।

 

 

 

 

नौकरशाही की विशेषतायें

 

 

(1) प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने हेतु एक नियमित कार्य व्यवस्था आवश्यक होती है। यह नौकरशाही प्रणाली द्वारा सम्भव होता है, क्योंकि इसमें कार्य को नियमित क्रियाओं और निश्चित रीति से सम्पन्न किया जाता है।

 

(2) कार्यों को पूर्ण करने हेतु विभिन्न आदेश देने के अधिकार को भिन्न-भिन्न सम्बन्धित भत्ता भी दे दिया जाता है।

 

(3) इसके अन्तर्गत केवल योग्य व्यक्ति ही नियुक्त किये जाते हैं।

 

नौकरशाही के दोष

 

 

प्रायः ‘नौकरशाही’ प्रणाली को घृणा से देखा जाता है। इसमें निम्न दोष पाये जाते हैं-

 

 

(1) लालफीताशाही— आजकल इसे नौकरशाही का पर्यायवाची शब्द मान लिया गया है। यह नौकरशाही का मुख्य दोष है। इसके अन्तर्गत शीघ्रता का कार्य होने पर भी कानून के अनुसार कार्य करने की प्रवृत्ति देरी कर देती है।

(2) गौरव की प्रधानता—  इस प्रणाली में अधिकारी जनता से सम्पर्क स्थापित करने में अपनी मान-हानि समझते हैं तथा सदैव अपने गौरव प्रदर्शन में लगे रहते हैं।

(3) नीरसता—  इसमें कर्मचारियों का नित्य का कार्य-कलाप यन्त्रवत् और नीरस होता है।

(4) निरंकुशता— इसके अन्तर्गत अधिकारी सेवक के स्थान पर शासक बनना चाहता है तथा अपने अधिकारों को सदैव बढ़ाने में लगा रहता है, इसमें निरंकुशता की भावना पनपती है।

(5) असीमित नियन्त्रण—  नौकरशाही में प्रशासन के हर अंग पर अधिकारियों का निर्वाध रूप से नियन्त्रण होता है।

(6) सार्वजनिक नियन्त्रण का अभाव—  लोक सेवकों पर प्रभावी सार्वजनिक नियन्त्रण सम्भव नहीं होता।

(7) दो वर्गों में जनता का विभाजन—  इसमें समस्त देश की जनता शासन और शासित दो वर्गों में विभाजित हो जाती है।

 

नौकरशाही का अर्थ एवं परिभाषा

 

 

नौकरशाही का अर्थ उस प्रशासन व्यवस्था से है, जिसका गठन, पद-सोपान व्यवस्था के आधार पर होता है तथा शासन व्यवस्था कार्यालयों में बैठकर अधिकारियों द्वारा चलायी जाती है।

 

‘नौकरशाही’ की परिभाषा विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से की है—

(1) विलोबी के अनुसार, नौकरशाही ऐसी प्रणाली है जिसमें लोक सेवक का कार्य पद-सोपान के क्रम से संगठित होता है तथा जो प्रभावकारी सार्वजनिक नियन्त्रण से बाहर होता है।”

 

(2) वेबर के मतानुसार, “‘यह वह प्रशासकीय व्यवस्था है जिसमें विशेष योग्यता निष्पक्षता तथा मानवता का अभाव होता है।”

 

(3) जेनिंग्स के अनुसार, “निरंकुश शासन, एक व्यक्ति का शासन है और नौकरशाही नियमों का शासन है।

पहले का ध्येय कार्य को करना है, जबकि दूसरे का कार्य को व्यवस्थित रूप से करना है।”

 

 

 

 

 

 

प्रश्न लोक सेवकों की भर्ती सम्बन्धी विभिन्न पद्धतियों का परीक्षण कीजिये। उपयोगी और प्रभावशाली भर्ती के लिये आप किस पद्धति का सुझाव देंगे ?
प्रत्यक्ष भर्ती के दोष

 

(1) इसके अन्तर्गत अनुभवहीन व्यक्तियों की नियुक्ति उच्च पदों पर हो जाती है,जो जटिल  समस्याओं का समाधान उचित रूप से नहीं कर पाते।

(2) इसमें नये अनुभवहीन कर्मचारी, प्रायः अनु अनुभवी अधीनस्थ कर्मचारी के हाथ का खिलौना बन जाते हैं, जिससे भ्रष्टाचार पनपता है।

(3) इससे कर्मचारियों की कार्य के प्रति रुचि, पदोन्नति के अवसरों के कम होने के कारण कम होती है।

(4) यह किसी व्यक्ति की योग्यता का सही मूल्यांकन नहीं कर पाती। केवल लिखित परीक्षा या साक्षात्कार, उसके गुण-दोषों को जानने का सही और निष्पक्ष मापदण्ड नहीं है।

(5) प्रतिभावान व्यक्तियों के लिये प्रोत्साहन का अभाव रहता है। अतः कर्मठ और योग्य व्यक्ति इसमें कम रुक पाते हैं।

(6) इस व्यवस्था में सरकार को कर्मचारियों की भर्ती और प्रशिक्षण पर बहुत व्यय करना पड़ता है।

(7) कम आयु के अधिकारियों की अपने से अधिक आयु वाले अधीनस्थ कर्मचारियों पर नियुक्ति प्रशासन में अव्यवस्था उत्पन्न करती है।

 

अप्रत्यक्ष भर्ती के गुण

 

(1) मितव्ययिता—  इस प्रणाली के अन्तर्गत कर्मचारी की भर्ती पर व्यय कम होता है, क्योंकि इसमें उसके प्रशिक्षण इत्यादि पर सरकार को व्यय नहीं करना पड़ता है। उस कार्य के लिये पूर्ण योग्यता और अनुभव रखता है तथा पद का दायित्व निभाता है।

(2) अधीनस्थ कर्मचारियों में भविष्य की आशा—  इसमें अधीनस्थ कर्मचारियों में पदोन्नति का आकर्षण बना रहता है और वे कार्य में रुचि लेते हैं।

(3) पारस्परिक सहयोग— इसके अन्तर्गत कर्मचारी वर्ग में पारस्परिक सहयोग बना रहता है, क्योंकि उन्हीं में से एक अधिकारी पदोन्नति प्राप्त कर बना होता है।

(4) खुली प्रतियोगिता से मुक्त— इसके अन्तर्गत कार्यरत कर्मचारियों को उच्च पदों पर पहुँचने हेतु किसी प्रकार की प्रतियोगिता में भाग नहीं लेना पड़ता है।

 

 

(अप्रत्यक्ष भर्ती के दोष)

 

(1) इसके अन्तर्गत चयन के अवसर सीमित होते हैं, क्योंकि एक निश्चित अनुभव और कुशलता प्राप्त व्यक्ति हो पदोन्नति प्राप्त कर सकता है।

(2) इसमें प्रायः परम्परागत और रूढ़िवादी दृष्टिकोण अपनाया जाता है। कर्मचारी ‘लकीर के फकीर’ की धारणा से कार्य करते हैं।

(3) इस पद्धति द्वारा नये प्रगतिशील कार्यकुशल कर्मचारी नियुक्त नहीं किये सकते, अतः प्रशासन में गतिशीलता नहीं आ पाती और प्रशासन में कार्य विलम्ब से पूर्ण होते हैं।

(4) इसमें न्यूनतम योग्यता प्राप्त प्राप्त व्यक्ति भी उच्च पदों पर पदोन्नति द्वारा पहुँच जाते है, जिसके फलस्वरूप प्रशासन की कार्यक्षमता का हास होता है।

(5) कार्यरत् निम्न स्तर के कर्मचारियों को हास होता है। अपनी पदोन्नति की पूर्ण गारण्टी नहीं होती है, अतः वे अपने कार्य को श्रम और रुचि से नहीं करते। इसका प्रशासन की कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

(6) इस प्रणाली में अधिक योग्यता और प्रतिभावान व्यक्ति निम्न पदों पर काफी समय तक कार्यरत् रहते हैं, क्योंकि पदोन्नति में बहुत समय लगता है। अतः वे अपने पदों पर कार्य करना नहीं चाहते।

उपरोक्त अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भर्ती     करने की कोई एक प्रणाली उपयुक्त मान लेना उचित न होगा। प्रायः संसार के सभी देशों में इन दोनों प्रणालियों को ही अपनाया जाता है। कुछ पदों हेतु प्रत्यक्ष प्रणाली और कुछ पदों हेतु अप्रत्यक्ष प्रणाली को अपनाया जाता है। इस तरह भर्ती के सम्बन्ध में दोनों प्रणालियाँ प्रयुक्त की जाती हैं। नियम बनाकर अनुपात के आधार पर दोनों में समन्वय किया जाता है।

 

 

 

प्रत्येक प्रशासन की सफलता उसमें कार्यरत् अधिकारियों की योग्यता पर निर्भर होती है। योग्य अधिकारियों का चयन या भर्ती एक प्रमुख समस्या है। भर्ती की प्रक्रिया में विभिन्न सोपान होते हैं। किसी व्यवस्था के लक्ष्य को पूरा करने के लिये योग्य, उचित एवं कार्यकुशल व्यक्तियों का निश्चय करना ही भर्ती है।

 

भर्ती के प्रकार

 

(1) निरपेक्ष तथा सापेक्ष भर्ती—  योग्यता सिद्धान्त पर आधारित भर्ती का उद्देश्य प्रशासनिक पदों पर अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति पर रोक लगाना होता है, जिसे निरपेक्ष भर्ती कहते हैं।

वर्तमान व्यवस्था की भाँति प्रशासनिक पदों हेतु योग्य व्यक्तियों के चयन करने के उद्देश्य से की गयी भर्ती सापेक्ष भर्ती कहलाती है।

(2) व्यक्तिगत तथा सामूहिक भर्ती—-व्यक्तिगत भर्ती केवल तकनीकी या विशिष्ट योग्यता वाले पदों हेतु उपयुक्त होती है। इस प्रकार के पदों की संख्या प्रायः कम ही होती है। यह प्रायः साक्षात्कार प्रक्रिया द्वारा की जाती है।

यदि पदों की संख्या अधिक होती है तो सामूहिक भों को व्यवस्था की जाती है। यह प्रायः सामान्य योग्यता वाले पदों के लिये की जाती है।

(3) प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष भर्ती— इन दोनों में है यह। यह विवाद का विषय है। है। यु कुछ लोगों का विचार है से कौन-सी अधिक उपयुक्त प्रणाली कि उच्च पदों हेतु प्रशासनिक अनुभव की आवश्यकता होती है, जबकि प्रत्यक्ष भर्ती से आये कर्मचारियों को वांछित अनुभव नहीं होता।

अतः अप्रत्यक्ष भर्ती अर्थात् पदोन्नति द्वारा भर्ती    उच्च पदों हेतु अधिक उपयोगी सिद्ध हुयी है।

 

नीचे हम इन पद्धतियों के गुण-दोषों पर पृथक् पृथक् विचार करेंगे।

 

प्रत्यक्ष भर्ती के गुण

 

(1) यह प्रजातन्त्रीय है- प्रत्यक्ष भर्ती में सभी को समान अवसर प्राप्त होता है। बिना भेदभाव के सभी को प्रशासकीय सेवा सुलभ है।

 

(2) योग्यता और कुशलता एकमात्र—-प्रत्यक्ष भर्ती में चयन योग्यता और कुशलता के आधार पर होता है। इससे कर्मठ और निष्ठावान कर्मचारी प्राप्त होते हैं।

 

(3) प्रगतिशील दृष्टिकोण के कर्मचारी—-  इसके अन्तर्गत प्रगतिशील कर्मचारियों का बयन सम्भव म्भव होता है। जिनके जिनके कार्य करने का दृष्टिकोण रूढ़िवादी न होकर प्रगतिशील होता है। ये प्रत्येक समस्या के निराकरण हेतु नवीन दृष्टिकोण रखते हैं।

 

(4) प्रतिभावान व्यक्तियों का आकर्षण— यह पद्धति प्रतिभावान व्यक्तियों को आकर्षित करती है, क्योंकि इसमें उन्हें प्रशासनिक सेवा में आने के अवसर प्राप्त होते हैं।

 

(5) प्राविधिक पदों के लिये आवश्यक—  प्राविधिक पदों हेतु विशेष योग्यता प्राप्त व्यक्ति इसी पद्धति द्वारा सरलता से चयन किये जा सकते हैं।

 

(6) कार्यक्षमता की महत्ता— इसके अन्तर्गत ऐसे व्यक्तियों को कार्य करने का अवसर मिलता है, जिनमें उसे पूर्ण करने की क्षमता होती है।

 

 

प्रश्न— आधुनिक राज्य में लोक सेवकों के प्रशिक्षण के प्रकार, उद्देश्य और पद्धति पर एक आलोचनात्मक निबन्ध लिखिये।

 

उत्तर-          प्रशिक्षण के प्रकार

 

(i) अनौपकारिक प्रशिक्षण- इसके अन्तर्गत कर्मचारी अपने पद पर कार्य करते-करते सम्बन्धित अभिलेखों और प्रपत्रों का पुनरावलोकन द्वारा प्रशिक्षण प्राप्त करता। इसको अनुभव द्वारा प्रशिक्षण भी है। इस प्रकार कह सकते हैं। इसमें कर्मचारी कार्य-प्रक्रिया को देखकर बहुत कुछ प्रशिक्षण प्राप्त करता है। इस प्रकार यह एक कठिन प्रक्रिया है, जिसमें अधिक समय लगता है।

 

(ii)औपचारिक प्रशिक्षण- इसके अन्तर्गत प्रशासनिक स्कूल या संस्थान द्वारा जाता है। है। इस प्रशिक्षण में

प्रशिक्षण दिया जाता कर्मचारियों को विभागीय संगठन काविस्तृत ज्ञान कराया जाता है। समय-समय पर विभागाध्यक्षों द्वारा अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को दिये

आदेश और व्याख्यानों द्वारा भी उनको अपना कार्य करने के सम्बन्ध में प्रशिक्षण मिलता है। ये प्रशिक्षण निम्न प्रकार के होते हैं-

 

(1) प्रवेश-पूर्व प्रशिक्षण- इसके अन्तर्गत पद महण करने से पूर्व कर्मचारी को उससे सम्बन्धित प्रशिक्षण प्रशिक्षण किसी संस्थान में दिया जाता है, ताकि वह उस पद को सरलता कर सके और उसका उत्तरदायित्व निभा सके। से प्राप्त इस पद्धति की एक विशेष कमी यह है कि सीमित पदों के होने के कारण प्रत्येक प्रशिक्षित व्यक्ति को पद प्राप्त नहीं हो पाता।

 

(2) पुनरावलोकन प्रशिक्षण-  इस प्रकार के प्रशिक्षण के मुख्य उद्देश्य तीन होते हैं-

 

(i) कार्यरत् कर्मचारियों को उनके विभाग की मौलिक धारणाओं और दृष्टिकोणों से अवगत कराना।

(ii) नये कर्मचारियों को नये वातावरण और परिस्थितियों से परिचित कराना।

(iii) कर्मचारियों को विभागीय प्रक्रिया एवं महत्व का ज्ञान प्रदान करना।

 

(3) सेवाकालीन प्रशिक्षण- इसके अन्तर्गत कर्मचारी सेवा कार्य करते हुये अपने पद सम्बन्धी दायित्वों को पूरा करने का तरीका स्वतः सीख लेता है। यह प्रायः विभाग के अनुभवी एवं वरिष्ठ कर्मचारियों के सहयोग से किया जाता है। यह प्रशिक्षण व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों प्रकार से होता है।

गुण (Merits)- (i) इसमें निरन्तरता होती है।

(ii) कर्मचारियों को भिन्न-भिन्नं कार्यों को देना।

(iii) नयी अवधारणा का ज्ञान होना। दोष (Demerits) – इसमें प्रशासकीय कार्यकुशलता का प्रभाव बना रहता है।

 

(4) नियुक्ति पश्चात् प्रशिक्षण- पदों पर नियुक्ति होने के पश्चात् भी वर्तमान तथा भावी पद के दायित्वों के उचित निर्वाह हेतु भी समय-समय पर विभिन्न स्तरों पर प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है। इसके अन्तर्गत कर्मचारियों को नवीन वैज्ञानिक यन्त्रों, साधनों और उपकरणों का ज्ञान दिया जाता है। इस हेतु विभागों में समय-समय पर व्याख्यान, वार्ता और सेमीनारों का आयोजन किया जाता है। इसके कर्मचारियों में कार्यकुशलता की निरन्तरता बनी रहती है। इस प्रशिक्षण के अन्तर्गत कर्मचारियों को वेतन के अतिरिक्त छात्रवृत्ति और अनुदान भी दिये जाते हैं। इस प्रशिक्षण का मुख्य उद्देश्य भविष्य के दायित्वों हेतु कर्मचारी को सक्षम बनाना होता है, जबकि सेवाकालीन प्रशिक्षण वर्तमान दायित्व हेतु प्रशिक्षण देता है।इसके अतिरिक्त प्रशासन में विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण दिये जाते हैं,

जो निम्न हैं-

(i) प्रशिक्षण की अवधि-  अनुसार थोड़े समय का प्रशिक्षण अल्पकालीन और अधिक समय का प्रशिक्षण दीर्घकालीन कहलाता है।

 

(ii) विभागीय अथवा केन्द्रीय-  विभाग द्वारा प्रशिक्षण विभागीय प्रशिक्षण कहलाता है, जबकि केन्द्र या संस्थान द्वारा प्रशिक्षण केन्द्रीय प्रशिक्षण कहलाता है।

 

(iii) सामान्य अथवा कलात्मक- सामान्य विषय से सम्बन्धित प्रशिक्षण सामान्य प्रशिक्षण कहलाता है, जबकि किसी विषय विशेष से सम्बन्धित प्रशिक्षण कलात्मक प्रशिक्षण कहलाता है।

 

(iv) बहुउद्देश्यीय प्रशिक्षण-  इसके अन्तर्गत कर्मचारियों को सामान्य प्रशिक्षण द्वारा विभिन्न पदों पर कार्य करने योग्य बनाना है।

 

(v) निरीक्षण-परीक्षण-  यह कर्मचारियों को निरीक्षण का कार्य करने हेतु परीक्षण दिया जाता है।

 

(vi) प्रशासनिक प्रशिक्षण- नेतृत्व एवं कार्यक्षमता के विकास हेतु प्रशासकीय प्रशिक्षण दिया जाता है।

 

(vii) अन्तर्विभागीय प्रशिक्षण-  इस प्रकार का प्रशिक्षण पदोन्नति के अभ्यर्थियों को दिया जाता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रश्न– सरकारी निगमों पर नियन्त्रण करने के लिये प्रवर समिति की स्थापना की समीक्षा कीजिये तथा उसके पक्ष और विपक्ष में अपने तर्क प्रस्तुत कीजिये।

 

उत्तर- प्रवर समिति की भारत में प्रगति

 

इस सम्बन्ध में स्वतन्त्र सदस्य डॉ० सुन्दरम् ने 1953 में कहा था-” उनका उद्देश्य यह है कि मन्त्रियों के हाथ मजबूत किये और इससे भी अधिक यह कि पिछले कुछ वर्षों में अस्तित्व में आने वाली सरकारी निगमों को कार्यों की जाँच-पड़ताल करने की लॉक-सपा के सामर्थ्य को सन्देह की छाया से मुक्त कर दिया जाये।”

 

परन्तु इस प्रकार के सुझावों को वित्त मन्त्री सी० डी० देशमुख ने अस्वीकार कर दिया। उनके अनुसार उद्यमों के निरीक्षण के लिये किसी अन्य नियन्त्रण को आवश्यकता नहीं है। केवल मन्त्रियों का नियन्त्रण ही काफी है। लेकिन इस बात का अन्य सदस्यों ने समर्थन नहीं किया। अतः श्री कृष्णा मेनन की अध्यक्षता में काग्रेस दल की उपसमिति की स्थापित की गयी। उस उपसमिति का कार्य कानून द्वारा निर्मित निगमों तथा सरकारी स्वामित्व वाले निकायों पर संसद के नियन्त्रण के विषय में अध्ययन करना और उस पर रिर्पोट देना था। इस उपसमिति ने एक प्रवर समिति की स्थापना के पक्ष में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।

 

इंग्लैंड में प्रवर समिति की लोकप्रियता

 

 

इंग्लैंड में इस प्रवर समिति की लोकप्रियता बहुत बढ़ गयी है। प्रवर समिति के कार्यों को निर्धारित करने के लिये एक समिति की भी नियुक्ति की गयी हैं। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में निम्न सुझाव प्रस्तुत किये थे-

 

(1) राष्ट्रीयता उद्योगों के सम्बन्ध में जाँच-पड़ताल करने के लिये लोक सदन की समिति का निर्माण होना चाहिये।

 

(2) प्रवर समिति को उद्योगों के कागजों, अभिलेखों को माँगने और उनमें सम्बन्धित उपसमिति की स्थापना करने का अधिकार देना चाहिये।

 

(3) इस प्रकार की समिति को उद्योगों की सामान्य नीति तथा क्रियाओं से सम्बन्धित सूचनायें प्राप्त करने के समय ध्यान देना चाहिये।

 

(4) इस समिति को निगम के उद्देश्यों, क्रियाओं एवं उनकी समस्याओं की संसद को सूचना देनी चाहिये।

 

(5) समिति को महालेखा परीक्षक की नियुक्ति करनी चाहिये तथा आवश्यकतानुसार कुशल कर्मचारियों की व्यवस्था करनी चाहिये ।

 

(6) निगमों के लेखे परीक्षकों को निगम तथा संसद के लिये लाभकारी सूचनायें भी समिति को देनी चाहिये।

 

समिति के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of the Committee)

 

(1) लोक सदन की समस्याओं का हल (Solution of The Problems of Popular Chamber) – मोल्सन ने कहा है “भूतकाल में लोऊ सदन को भी किसी समस्या का सामना करना पड़ा तभी सदन ने एक विशेष समिति की व्यवथा करके समस्या का हल सुविधाजनक समझा।” इस कथन के आधार पर लोक सदन ने एक प्रवर समिति की स्थापना की।

 

(2) संसद की सन्तुष्टि (Satisfaction of the Parliament) संसद कार्य की अधिकता के कारण निगमों की देखभाल स्वयं नहीं कर सकती। अतः प्रवर समिति की स्थापना से संसद को सन्तुष्टि होगी कि वह समिति निगम के कार्यों से सम्बन्धित उत्तरादायित्व को ठीक प्रकार से पूरा कर रही है। प्रवर समिति की स्थापना से संसद समय-समय पर निगम सम्बन्धी सूचनायें प्राप्त कर सकती है।

 

(3) राजनीति पक्षपात से मुक्ति (Freedom from Favouratism) सदस्या किसी न किसी राजनीतिक दस से चुने जाते हैं। अतः वे कार्यों को को दलीय पक्षपात से सम्पन्न करते हैं। प्रवर समिति को स्थापना से उक्त दोष दूर हो जायेगा।

 

(4) संसद के पास समय एर अभाव (Parliament does not have enough Time) संसद को समस्याओं का गहन अध्ययन करने का पर्याप्त समय नहीं मिलता। अतः प्रवर समिति को स्थापना से यह समिति निगम की समस्याओं का गहराई से अध्ययन कर सकती है।

 

समिति के विपक्ष में तर्क

(Arguments of the Against of Committee)

(1) संसदीय अधिनियमों की अवहेलना (The Parliamentary Rules not Adopted) प्रवर समिति की स्थापना से संसद के उन अधिनियमों की अवहेलना होती है, जिनके द्वारा उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया गया था।

(2) निगमों में उत्तरदायित्व का अभाव (Lack of Responsibility in Corporations)-प्रवर समिति की स्थापना से निगमों पर समिति के नियन्त्रण के निगम का उत्तरदायित्व संसद के प्रति कम हो जायेगा।

(3) संसदीय कार्यक्षेत्र से बाहर (Outside the Jurisdiction of the Parliament) किसी भी उद्यम की सफलता तथा उसकी कार्यकुशलता स्वतन्त्रापूर्वक कार्य करने पर भी सम्भव है।

(4) निगमों के निर्णय में अनिश्विता (Uncertainity in the Decisions of निगम) -प्रवर समिति स्थापित करने से निगम के उत्तरदायित्व में का प्रश्न उठेगा। ऐसी स्थिति में कोई भी निर्णय निश्चितता तक नहीं पहुँच सकेगा तथा अन्तिम निर्णय की यह समस्या उत्पन्न हो जायेगा कि अन्तिम निर्णय समिति राष्ट्रीयकृत उद्योगों के कार्य-संचालन में बाधा उपस्थित करेगी तथा उनकी प्रेरणा या किसी कार्य को पूरा करने की इच्छा में अवरोध उत्पन्न करेगी।

(5) सामान्य व्यवसायियों की शक्तिहीनता (Genral Enterprenurs powerless) – अब तक निगमों के व्यवसायी उनके कार्यों में उतनी ही रुचि रखते हैं, जितनी सरकार के मनोनीत सदस्य रखते हैं। प्रवर समिति की स्थापना होने के बाद व्यवसायी इतनी रुचि नहीं लेंगे जिसमें व्यवसायी वर्ग शक्तिहीन हो जायेगा।

(6) निर्णय की न्यूनता (Delay in Decisions) – प्रवर समिति स्थापित हो जाने से निगम से सम्बन्धित कार्य विलम्ब से होगें तथा नियन्त्रण अधिक होने के कारण निर्णय करने की गति में भी अन्तर आ जायेगा।

 

निगमों का सरकार से वास्तविक सम्बन्ध

 

इस सम्बन्ध में श्री छागला ने कुछ सुझाव दिये थे, जो निम्न हैं—

 

(1) सरकार को निगमों के स्वतन्त्र कार्य-संचालन में हस्तेक्षप नहीं करना चाहिये तथा हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ने पर सरकार को लिखित निर्देश द्वारा हस्तक्षेप करना चाहिये।

 

(2) बड़े निगमों के अध्यक्षों की नियुक्ति ऐसे व्यक्तियों में से करनी चाहिय जिनको व्यावसायिक तथा वित्तीय क्षेत्र का अनुभव हो।

 

(3) मन्त्रियों को प्रारम्भ में ही संसद को अपने पक्ष में कर लेना चाहिये। इससे उनकी बहुत-सी समस्यायें समाप्त हो जायेगी।

 

(4) निगम के निष्पादक अधिकारी को नियुक्ति सिविल सेवाओं के व्यक्तियों में से करनी चाहिये तथा उसे निगम के प्रति उत्तरदायी होना चाहिये।

 

(5) बीमे के मामलों से सम्बन्धित निगमों को राष्ट्र हित की भावना से ओत-प्रोत होना चाहिये। इसके साथ ही उन्हें निधियों का प्रयोग पॉलिसी (इदम्छ) लेने वाले व्यक्तियों के हित में करना चाहिये ।

 

 

 

निगम व सरकारी सम्बन्ध पर अन्य सुझाव

 

(1) सरकारी उद्यमी के संचालन में सरकार को हस्तक्षेप कम करना चाहिये। इसको केवल नीति सम्बन्धी निर्देश लिखित रूप में मन्त्रियों के पास भेजना चाहिये ।

 

(2) निगम को निर्देश देने के अधिकार से सम्बन्धित कानूनी धाराओं का विश्लेषण इस प्रकार नहीं करना चाहिये कि कम्पनी या निगम के कार्यों में अवरोध उत्पन्न हो।

(3) निगम के कार्य-संचालन के लिये आवश्यकता पड़ने पर सरकार को निगम के सम्बन्ध में उचित कार्यवाही करनी चाहिये।

 

सरकारी निगमों पर संसदीय नियन्त्रण

 

जिन देशों में संसदात्मक सरकार होती है, उनमें सरकारी निगमों पर मन्त्रियों द्वारा व्यवस्थापिका का नियन्त्रण रखने की में मन्त्री संसद के प्रति उत्तरदायी व्यवस्था पायी जाती है। संसदात्मक पद्धति की सरकार होते हैं तथा वे वे र संसद की ओर सरकारी निगों पर अपना पूरू नियन्त्रण रखते हैं। इस प्रकार संसद, मन्त्रियों के माध्यम से निगमों पर अपना नियन्त्रण रखती है।

 

संसदीय नियन्त्रण विधि

 

(1) संसद के सदस्य, निगम से सम्बन्धित मन्त्रियों से निगम के विषय में प्रश्न पूछने का प्रस्ताव रख सकते हैं। (2) संसद सदस्य, किसी भी समय सार्वजनिक महत्त्व के मामले पर काम रोको प्रस्ताव रख सकते हैं।

(3) संसद सदस्य, किसी उद्यम पर आधा घण्टे के लिये वाद-विवाद कर सकते हैं।

 

(4) संसद सदस्य, सदन को सार्वजनिक महत्व की ओर आकर्षित कर सकते हैं।

(5) मन्त्री, निगमों से सम्बन्धित राष्ट्रपति के भाषण पर वाद-विवाद कर सकते हैं।

(6) मन्त्री, समिति द्वारा निगम से सम्बन्धित रिपोर्ट मिलने पर वाद-विवाद कर सकते हैं

(7) संसद, निगम के वित्तीय मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार रखती है।

(8) संसद के सदस्य, निगम के कार्य-संचालन के विषय में उस समय बहस कर सकते हैं, जबकि निगम द्वारा निर्मित कानून में संशोधन किया जाने वाला हो।

(9) संसद के सदस्य, निगम के वार्षिक प्रतिवेदन पर भी वाद-विवाद कर सकते हैं। संसद के और अधिक नियन्त्रण की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।

 

निगमों पर नियन्त्रण के लिये प्रवर समिति

 

वर्तमान काल में संसद का कार्यक्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो गया है। इसलिये संसद ठीक प्रकार से निगमों के मामले पर वाद-विवाद नहीं कर पाती है। संसद सदस्य इसके लिये परामर्श देते हैं कि निगमों पर उचित नियन्त्रण रखने के लिये एक पृथक् प्रवर समिति की स्थापना करनी चाहिये। इस समिति का कार्य, निगम सम्बन्धी सभी बातों का निरीक्षण करना होगा। इससे मन्त्रियों की स्थिति मजबूत होगी।

 

 

 

 

 

 

 

प्रश्न – बजट से आप क्या समझते है ? इसके निर्माण के सिद्धान्त, प्रकार और प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिये।
या
बजट की प्रकृति, सन्दर्भ और कार्य की विवेचना कीजिये।

उत्तर-

बजट से कार्य एवं परिभाषा

 

प्रशासन में वित्त एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। अतः वित्तीय व्यवस्था आवश्यक होती है। वित्तीय व्यवस्था का मूल आधार बजट होता है। आय-व्यय का लेखा ही बजट कहलाता है। यह फ्रेंच भाषा के Bougette शब्द से बना है, जिसका अर्थ चमड़े का थैला है। इस थैले में वित्त मन्त्री आगामी वर्ष की वित्त-योजना लाता था और संसद में प्रस्तुत करता था। इसकी विभिन्न परिभाषायें विद्वानों ने दी हैं जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

 

(1) जोसफ पायस के अनुसार, “बजट-निर्माण सामान्यतः उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसके द्वारा एक शासकीय अभिकरण की वित्तीय नीति का निर्माण और क्रियान्वयन किया जाता है।”

 

(2) रीन स्टार्म के मत में, “बजट एक ऐसा प्रपत्र है जिसमें सार्वजनिक राजस्व एवं व्यय की प्रारम्भिक योजना प्रस्तुत की जाती है।”

 

(3) पुनरो के अनुसार, “बजट आगामी वर्ष का वित्तीय नियोजन है, जिसमें एक ओर होने वाली सम्भावित आय का अनुमान होता है और दूसरी ओर व्यय का अनुमान होता है।

 

(4) जेज के शब्दों है “बजट सम्पूर्ण शासकीय आय और व्यय का एक पूर्वानुमान तथा कुछ प्राप्तियों का संग्रह करने एवं कुछ व्ययों को करने का एक आदेश है।”

 

(5) विलोवी के अनुसार, “बजद, सरकार की आय-व्यय का केवल अनुमान मात्र नहीं है वरन् उससे कुछ अधिक है। बजट एक ही साथ प्रतिवेदन, अनुमान और प्रस्ताव है अथवा उसे इस प्रकार का होना चाहिये। यह एक ऐसा लेखा पत्र है अथवा होना चाहिये जिसके द्वारा कार्यपालिका धन प्राप्त करने वाली तथा व्यय सम्बन्धी स्वीकृति देने वाली सत्ता के सम्मुख इस बात का प्रतिवेदन प्रस्तुत करती है कि उसने तथा उसके अधीनस्थ कर्मचारियों ने गत वर्ष प्रशासन का संचालन किस प्रकार किया है तथा राजकोष की वर्तमान स्थिति क्या है ?”

 

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि बजट, राज्य के आय-व्यय के लेखे से कहीं अधिक व्यापक अर्थ रखता है। इसके अन्तर्गत प्रशासन की वित्तीय नीति की रचना की जाती है तथा उसे क्रियान्वित किया जाता है। इसमें सभी तथ्य सम्मिलित होते हैं, जो प्रशासन के भूत और भविष्य के व्यय, राजकोष की आय तथा वित्त कार्यों से सम्बन्धित होते हैं। यह एक साथ ही प्रतिवेदन, अनुमान तथा प्रस्ताव है। बजट तीन प्रकार का हो सकता है-

 

(i) व्यवस्थापिका बजट, (ii) कार्यपालिका बजट और (iii) मण्डल या आयोग बजट ।

 

 

बजट निर्माण का सिद्धान्त

 

बजट निर्माण एक जटिल समस्या है। विभिन्न देशों ने लम्बे अनुभव के आधार पर एक आदर्श बजट के निर्माण में सहायक होने वाले कुछ सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है। वस्तुतः बजट अनुमानों पर आधारित होता है। अतः इसके निर्माण हेतु किसी प्रकार के ठोस और स्थायी नियमों को बनाना सर्वथा अनुपयोगी होगा। फिर भी सामान्य निर्देश के रूप में बजट-निर्माण के लिये निम्न सिद्धान्त का प्रयोग किया गया है—

 

(1) कार्यपालिका का उत्तरदायित्व होना— बजय निर्माण का कार्य व्यवस्थापिका का न होकर कार्यपालिका का होना चाहिये, क्योंकि कार्यपालिका को ही धन-सम्बन्धी आवश्यकताओं का वास्तविक ज्ञान होता है।

 

(2) बजट सन्तुलित होना चाहिये— स्वस्थ बजट निर्माण के लिये आवश्यक है कि बजट सन्तुलित हो। इसके अन्तर्गत आय और व्यय में सन्तुलन होना आवश्यक है। आय की अपेक्षा व्यय अधिक हो तो वह घाटे का बजट कहलाता है और यदि व्यय की अपेक्षा आय अधिक हो तो वह लाभ का बजट कहलाता है। शासन के लिये बजट के ये दोनों स्वरूप उचित नहीं होते अतः बजट का सन्तुलन होना अति आवश्यक है।

 

(3) तात्कालिक सन्दर्भ का होना चाहिये—  वास्तविक बजट के लिये आवश्यक है कि उसमें तात्कालिक वर्ष से सम्बन्धित मदों का उल्लेख हो ।

 

(4) आधार वास्तविक स्थिति न होकर वास्तविक विवरण हो— व्यवस्थापिका सार्वजनिक वित्त पर प्रभावशाली नियन्त्रण रखने हेतु बजट का निर्माण वास्तविक स्थिति पर आधारित न होकर वास्तविक आय-व्यय के विवरण पर आधारित होना चाहिये।

 

(5) उचित अनुमान होना चाहिये— बजट की वास्तविकता के लिये आवश्यक है कि उसमें उचित आय-व्यय का अनुमान किया गया हो। वास्तविक स्थिति से कम आय का अनुमान और वास्तविक व्यय से अधिक व्यय का अनुमान लगाकर बजट नहीं बनाना चाहिये ।

 

(6) नित कालिक होना चजट का निर्माण, एक निश्चित अवधि के लिये होना, चाहिये। ये वार्षिक ही होना चाहिये। व्यावहारिक दृष्टि से भी नीतियों के निष्पादन को एक साल के घर के अंदर कर लेना मालदीव।

 

(7) एकल स्वरूप होना चाहिये— इसका अर्थ यह है कि प्रशासन के सभी विभागों के आय-व्यय का विवरण एक ही बजट में होना चाहिये। इसका लाभ यह होता है कि सम्पूर्ण प्रशासन के आय-व्यय को बास्तविक स्थिति का सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है। अतः बजट का एकल स्वरूप होना चाहिये। सामान्यतया बजट का एकल स्वरूप ही अपनाया जाता है, परन्तु भारत में 1921 से दो बजटों का प्रचलन आरम्भ किया गया है। अब एक सामान्य बजट बनाया जाता है जिसमें सम्पूर्ण प्रशासन की वित्तीय व्यवस्था का समावेश होता है, जबकि रेलवे बजट में केवल रेलवे विभाग की वित्तीय व्यवस्था का विवरण रहता है।

 

(8) सामान्य नीति— इसके अन्तर्गत, यदि गजट में स्वीकृत धन का कोई अंश व्यवस्थापिका द्वारा निर्धारित वित्तीय वर्ष में व्यय नहीं किया जाता तो उसे आगामी वित्तीय में व्यय नहीं किया जा सकत सकता। उसे व्यय करने के लिये व्यवस्थापिका की पुनः स्वीकृति

वर्ष में लेनी होती है इस प्रकार व्यवस्थापिका का कार्यपालिका पर पूर्ण नियन्त्रण रहता है।

 

(9) आय और पूँजी का पृथक् पृथक् विवरण— बजट में आय का अनुमान और पूर्व पूँजी का भाग कितना है इसका स्पष्ट उल्लेख किया जाना चाहिये।

 

बजट के आर्थिक तथा सामाजिक परिणाम

 

प्राचीन काल में राज्य की व्यक्तिवादी धारणा प्रचलित थी। किन्तु वर्तमान में राज्य को लोक हितकारी धारणा से राज्य का कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। राज्य पर देश की सुरक्षा तथा शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के अतिरिक्त उसकी समृद्धि और कल्याण का भी भार है। इस दृष्टि से बजट, सार्वजनिक हित की उपलब्धि का साधन है। इसके निम्नलिखित सामाजिक और आर्थिक उद्देश्य होते हैं—

 

(1) बजट द्वारा उत्पादन वृद्धि और विकास को योजनाओं का जनता को जानकारी देना।

(2) राष्ट्रीय विषमताओं को दूर करने हेतु, आय और धन का उचित वितरण करना।

(3) देश की मुद्रा-स्थिति को सुदृढ़ता और स्थायित्व प्रदान करना।

(4) सरकारी योजनाओं का मूल्यांकन करना।

(5) व्यवसाय और रोजगारों की व्यवस्था करना तथा बेरोजगारी दूर करना।

(6) योजनाबद्ध विकास करना।

(7) राष्ट्रीय आय में वृद्धि करना।

(8) आर्थिक संकट दूर करना तथा मुद्रा-स्फीति रोकना। (9) राज्य की कर नीतियों की जनता को जानकारी देना।

इस प्रकार बजट को राष्ट्रीय विकास का प्रभावी साधन माना गया है। देश की अर्थव्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने में एक स्वस्थ बजट की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कहा जा सकता है कि बजट वह दर्पण है जिसमें राज्य का लोक हित स्वरूप और सेवाओं का प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर होता है।

 

वर्तमान युग में बजट का बहुत महत्व है, जिसके कारण वित्त विभाग का प्रशासन के अन्य विभागों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रश्न – लेखा और गणना परीक्षण से आप क्या समझते हैं? इसके मुख्य उद्देश्य क्या है ? भारतीय लेखा परीक्षण की व्यवस्था का उल्लेख कीजिये।

 

या

 

लेखा परीक्षा राष्ट्र वित्त की रक्षक तथा विधायिका है।” इस कथन की व्याख्या कीजिये।

 

उत्तर-  भारत में लेखा व्यवस्था

 

वास्तव में, प्रशासन के अन्तर्गत व्यय का लेखा विवरण अभिकरणों को तैयार करना होता है, जो धन व्यय करते हैं, परन्तु भारत में वित्तीय व्यय का लेखा करने के लिये पृथक् रूप से एक अभिकरण लेखा परीक्षा विभाग की स्थापना की गयी है।

वास्तव में, भारत में लेखा परीक्षा विभाग पूर्ण रूप से एकात्मक व्यवस्था है। भारतीय लेखांकन की एक मुख्य विशेषता यह है कि रेलवे एवं प्रतिरक्षा विभाग के वित्तीय लेखाओं को अन्य प्रशासनिक विभागों की लेखा व्यवस्था से अलग रखा गया है। यह विभाग भारत के लेखा परीक्षा तथा महालेखा परीक्षा अधिकारी के प्रति उत्तरदायी होता है। प्रत्येक राज्य में इस अधिकारी के अन्तर्गत एक महालेखा अधिकारी कार्य करता है। इस कार्यालय में और वरिष्ठ अधिकारी तथा कर्मचारी कार्य करते हैं। यह विभाग भारत में कार्यपालिका के नियन्त्रण में पूर्ण रूप से मुक्त होता है। यह विभाग केन्द्र और राज्यों के वित्तीय लेखाओं की जाँच तथा व्यवस्थायें करता है। इस प्रणाली की मुख्य विशेषतायें निम्न प्रकार हैं—

 

(1) सभी प्रशासकीय विभागों के लिये लेखा परीक्षा एक-सी होती है।

(2) लेखा व्यवस्था लेखा परीक्षक और लेखांकन विभाग द्वारा की जाती है।

(3) अन्य प्रशासकीय विभागों के सामूहिक रेलवे और प्रतिरक्षा सम्बन्धी लेखों से पृथक् रखे जाते हैं।

(4) लेखा व्यवस्था विभागीय कार्यालयों के हस्तक्षेप से पृथक् होती है।

(5) सामान्यतः एक ही अभिकरण लेखा परीक्षा और लेखा अभिलेख का कार्य निष्पादित करता है।

 

आलोचना— भारतीय लेखा व्यवस्था की कुछ आलोचनायें भी की गयी हैं। कुछ आलोचकों के अनुसार, भारतीय लेखा अभिलेख को कार्यपालिका के अन्तर्गत रखकर पृथक् रूप से परीक्षा तथा लेखांकन विभाग को स्थापना की गयी है। सार्वजनिक वित्त लेखांकन समिति ने भारतीय व्यवस्था की आलोचना करते हुये कहा था, “आधुनिक व्यवस्था जिसमें व्यय करने वाले अधिकारियों को अपने अन्तर्गत होने वाले आय-व्यय के लिये उत्तरदायी नहीं माना जाता है और इन लेखाओं को एकत्र करने और रखने का काम एक बाह्य अभिकरण, जो भारतीय लेखा परीक्षा विभाग कहा जाता है, को दिया जाता है। इस प्रकार काम करने वाले विभागों के विभिन्न उत्तरदायित्व पृथक् हो जाते हैं। वस्तुतः प्रचलित व्यवस्था उत्तरदायित्व को क्षीण करती है और अनेक दृष्टि से अत्यधिक त्रुटिपूर्ण है।” उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में व्यय करने वाला विभाग अपने द्वारा किये गये व्यय के लिये उत्तरदायी नहीं होता है। इस विषय में यह परामर्श दिया गया है कि लेखा व्यवस्था तथा लेखा परीक्षण का कार्य अलग-अलग अभिकरणों को दिया जाना चाहिये, क्योंकि इससे नियन्त्रण व्यवस्था अधिक प्रभावपूर्ण हो सकेगी।

 

लेखा व्यवस्था का आशय

 

डा० एम०पी० शर्मा के अनुसार, “लेखा व्यवस्था का तात्पर्य है कि वित्तीय आय-व्ययों का चाहे वे किसी लोकहित अधिकारी के हों अथवा निजी उद्योग या व्यक्ति के, क्रमबद्ध अभिलेख बनाना।” फ्रांसिस ओक के कथनानुसार, “वित्तीय परिस्थितियों से सम्बन्धित वास्तविकताओं को प्रस्तुत एवं उत्पन्न करने की विधि प्रत्येक संगठन का आधार है। ह्वाइट के अनुसार, “लेखा व्यवस्था का पूल कार्य वित्तीय अभिलेखों को तैयार करना, कोष को सुरक्षित रखना संगठन की विभिन्न शाखाओं की वित्तीय स्थिति का स्पष्टीकरण करना, व्यय स्तरों में आवश्यक समायोजन की सुविधायें उत्पन्न करना तथा उन व्यक्तियों को सूचित करना है जो उत्तरदायी पदों पर हैं और जो भविष्य में इन सूचनाओं के आधार पर वित्तीय कार्यक्रम और योजनाओं का निरूपण करते हैं। लेखा व्यवस्था का कार्य गणना परीक्षण की प्रक्रिया को सरल बनाना है।”

 

लेखा व्यवस्था की आवश्यकता, वित्तीय व्यवस्था के अन्तर्गत बजट सम्बन्धी आय-व्यय पर नियन्त्रण रखने के लिये पड़ती है। लेखा परीक्षण से तात्पर्य, वित्तीय आय-व्यय का क्रमबद्ध लेखा रखना है। कर्मचारियों की ईमानदारी रसीदों द्वारा ज्ञात होती है। लेखा अभिलेख द्वारा सरलता से ज्ञात हो जाता है कि धन का व्यय स्वीकृत राशि तथा निर्देशित नियमों के अनुसार हुआ है अथवा नहीं। लेखा अभिलेखों द्वारा वित्त विभाग और प्रशासनिक नीतियाँ सरकार सरलता से निरूपित कर सकती है। इसके अतिरिक्त, इस व्यवस्था द्वारा देश की वित्तीय स्थिति का सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है। स्पष्टतः वित्तीय प्रशासन में एकरूपता, पूर्ण स्थायित्व तथा स्पष्टता के लिये उचित लेखा व्यवस्था का होना आवश्यक है।

 

 

 

 

लेखा व्यवस्था की कार्यविधि

 

प्रत्येक राजकीय कोषागार, आय-व्यय के लेखा को उचित रसीदों और सम्बन्धित विवरण आदि लिखकर प्रत्येक माह के अन्तिम दिन महालेखा अधिकारी के कार्यालय में भेजा जाता है। इस कार्य में उक्त विवरण का वर्गीकरण तथा परीक्षण किया जाता है। यह कार्य निम्न प्रकार से किये जाते हैं—

 

(1) लेखा संग्रह कार्य— महालेखा अधिकारी का कार्य राजकोषों तथा अन्य प्रशासकीय विभागों द्वारा भेजे गये लेखाओं को एकत्रित तथा क्रमबद्ध करना है। प्रशासन का प्रत्येक विभाग अपनी शाखाओं से लेखा माँगकर तथा उसे व्यवस्थित करके भेजता है। यह कार्य प्रत्येक माह के अन्तिम दिन किया जाता है।

 

(2) वार्षिक व्यवस्था क्रम— लेखा व्यवस्था का अन्तिम चरण, वार्षिक व्यवस्था क्रम है। यह कार्य महागणना परीक्षक का कार्यालय प्रत्येक वर्ष के अन्त में करता है। नया वित्तीय वर्ष प्रारम्भ होने से पूर्व ही केन्द्र और राज्य सरकारें आय-व्यय का वितरण कर लेती हैं। यह कार्यालय ही सभी लेखा-विवरणों का संयुक्त प्रतिवेदन बनाता है। संसद के सम्मुख यह प्रतिवेदन नियमित रूप से प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रतिवेदन में, शासन की वित्तीय स्थिति को घाटे में रखने वाले सभी उत्तरदायी तथ्यों का उल्लेख किया जाता है।

 

(3) गणना परीक्षण— वास्तव में गणना परीक्षण, लेखा व्यवस्था को शल्य-क्रिया को भाँति है। संसद वित्तीय प्रशासन को सुव्यवस्थित बनाने तथा सार्वजनिक धन के उचित और नियमानुसार व्यय के लिये लेखाओं की गणना परीक्षा किये जाने की समुचित व्यवस्था करती है।

 

गणना परीक्षा तथा लेखा व्यवस्था में अन्तर

 

गणना परीक्षा तथा लेखा व्यवस्था में कुछ विषमतायें हैं, जो निम्न प्रकार हैं—

(1) गणना परीक्षा का व्यवस्थापिका से सम्बन्धित कार्य होता है तथा लेखा व्यवस्था का कार्यपालिका से।

(2) लेखा व्यवस्था वित्त विभाग में आय-व्यय का प्रभावशाली तथा वास्तविक अभिलेख है तथा यह धन संग्रह तथा उसके व्यय का उल्लेख करता है। इस प्रकार बजट लेखा व्यवस्था का मौलिक आधार है, जिसमें आय-व्यय की स्वीकृति होती है, परन्तु गणना परीक्षा, लेखा व्यवस्था के बाद की प्रक्रिया है तथा यह विनियोग विधेयक की स्वीकृति के पश्चात् अपना कार्य प्रारम्भ करती है। यह मुख्य रूप से यह परीक्षण करती है कि संसद द्वारा स्वीकृत धन का प्रशासन सदुपयोग करे, न कि दुरुपयोग।

 

गणना परीक्षा के कार्य— गणना परीक्षा के प्रमुख कार्य निम्न प्रकार हैं—

(1) गत वित्तीय वर्ष के लेखाओं का परीक्षण करना,

(2) सरकारी राजस्व की प्राप्ति, सुरक्षा तथा वितरण के   औचित्य का परीक्षण करना,

(3) प्रशासकीय विधियों की वैधता का परीक्षण करना,

(4) अपने कार्य से सम्बन्धित प्रतिवेदन व्यवस्थापिका को देना।

 

गणना परीक्षण व्यवस्था

 

लोकतान्त्रिक देशों में वित्तीय लेखा व्यवस्था संसदीय नियन्त्रण के अन्तर्गत विशेष महत्व रखती है। 19वीं सदी में इस व्यवस्था का प्रारम्भ किया गया था। सर्वप्रथम यह व्यवस्था ब्रिटेन में प्रारम्भ की गयी। संसद ने इस व्यवस्था को सार्वजनिक लेखाओं के औचित्यपूर्ण परीक्षण के लिये प्रारम्भ किया। इसलिये इस पर कार्यपालिका का नियन्त्रण तथा हस्तक्षेप नहीं रखा गया। 1866 के महापरीक्षा तथा गणना विभाग अधिनियम में इस व्यवस्था के कार्य तथा क्षेत्र का वर्णन किया गया है। 1921 के एक अन्य अधिनियम ने मुख्य लेखा नियन्त्रक के अधिकारों को अधिक व्यापक किया।

 

संसद द्वारा स्वीकृत धनराशि का नियमों तथा आदेशों के अनुसार व्यय के औचित्य का परीक्षण करने के लिये लेखा नियन्त्रक तथा परीक्षण अधिकारी उत्तरदायी है। वर्तमान समय में इसको शक्तियों का विकास हो जाने के कारण यह वित्तीय व्यवस्था में भी हस्तक्षेप करने लगा है। इसका मुख्य लक्ष्य, विभागीय व्यय में मितव्ययिता का दृष्टिकोण अपनाना है। भारतीय गणना महानिरीक्षक को इतने व्यापक अधिकार प्राप्त नहीं हैं। उसके अधिकारों को अधिक व्यापक बनाने के लिये भारत सरकार को समय-समय पर परामर्श दिये गये हैं। अमेरिका में इस कार्य के लिये एक महानियन्त्रक नियुक्त किया गया है। यह मुख्य रूप से सरकार के वित्तीय कार्यों का परीक्षण करता है। इसके साथ ही वह विभागीय व्यय पर नियन्त्रण रखता है तथा किसी अनावश्यक या अनुपयोगी व्यय को अस्वीकृत भी कर सकता है।

 

वास्तव में, गणना परीक्षा द्वारा संसद कार्यपालिका के सम्बन्ध में अपना नियन्त्रण स्थापित करती है। इसके द्वारा जनता के प्रतिनिधि यह जानकारी प्राप्त करते हैं कि कार्यपालिका ने उनके आदर्शों के अनुसार सार्वजनिक हित के लिये धन उचित प्रकार व्यय किया है या नहीं। आय-व्यय के पश्चात् सम्बन्धित लेखाओं का परीक्षण किया जाना ही गणना परीक्षण कहलाता ता है। है। इस इसी प्रकार यह व्यवस्थापिका को भी सूचित करता है कि सार्वजनिक प्रशासन के कार्य उसके आदेशों के अनुरूप निष्पादित हुये हैं या नहीं। यह प्रशासनिक नियन्त्रण का बाह्य माध्यम है। इसका मुख्य उद्देश्य सम्पूर्ण वित्तीय लेखाओं का परीक्षण करके उत्तरदायित्व की स्थापना करना है। चाल्स वर्थ ने इस सम्बन्ध में कहा है, “गणना परीक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा इस तथ्य का पता लगाया जाता है कि विनियोजित धन प्रशासकों द्वारा वास्तविक रूप में व्यय हो रहा है अथवा नहीं।”

 

राबर्ट माण्टगोमरी के अनुसार, “गणना परीक्षण, किसी व्यापार अथवा संगठन विशेष की लेखा-बहियों तथा अभिलेखों का क्रमिक परीक्षण है जिसका उद्देश्य वित्तीय आय-व्यय के सम्बन्ध में तथ्यों का परीक्षण करके, उनकी सत्यता प्रमाणित करके परिणामों के सन्दर्भ में अपना प्रतिवेदन तैयार करना है।

 

गणना परीक्षण के उद्देश्य तथा प्रकार

 

गणना परीक्षण के उद्देश्य निम्न प्रकार हैं—

 

(1) प्रशासकीय कार्यों के व्यय का परीक्षण।

(2) प्रशासक द्वारा धन का व्यय नियमानुसार और निर्देशानुसार हुआ है या नहीं, इस तथ्य की जाँच करना।

(3) सार्वजनिक व्यय सम्बन्धी उत्तरदायित्व निश्चित करना।

(4) राष्ट्र की वास्तविक वित्तीय स्थिति का ज्ञान रखना तथा वित्तीय राजस्व की सुरक्षा करना।

(5) कर्मचारियों की कार्यकुशलता को वित्तीय प्रशासन की दृष्टि से स्थापित करना। गणना परीक्षा को वित्तीय प्रशासन के अनुसार दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-पूर्व गणना परीक्षा तथा उत्तरीय गणना परीक्षा। पूर्व गणना परीक्षा से तात्पर्य, वित्तीय व्यय की उस प्रारम्भिक स्थिति से है जो अन्तिम रूप से कहीं अंकित न की गयी हो। वास्तव में, यह औपचारिक लेखा है तथा इसका प्रयोग धन प्राप्ति तथा व्यय की वैधानिकता के लिये किया जाता है। इसके समुचित प्रयोग द्वारा बजट के घाटे में सुधार या कमी की जा सकती है। उत्तरीय गणना परीक्षा के अन्तर्गत, लेखाओं की परीक्षा उस समय की जाती है, जबकि वे अन्तिम रूप से पूरे होकर अभिलिखित कर लिये जाते हैं। वास्तव में, यह कार्य धन व्यय के बाद किया जाता है।

 

महालेखा एवं गणना परीक्षक के कार्य

 

महालेखा तथा गणना परीक्षक के मुख्य कार्य निम्न प्रकार हैं—

(1) केन्द्र तथा राज्य सरकारों के वित्तीय लेखाओं की व्यवस्था करना तथा सम्बन्धित,  नियमों का निरूपण करना।

(2) उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा चेन्नई के अतिरिक्त अन्य सभी राज्यों के ग्राम पंचायतों के वित्तीय प्रशासन में हस्तक्षेप, निर्देशन तथा पूर्ण नियमन करना।

(3) प्रत्येक प्रशासनिक अभिकरण के अनुचित धन संग्रह पर निषेधात्मक नियन्त्रण रखना तथा व्यय के लिये संचित कोष से धन देने से पूर्व अनुमति देना।

(4) केन्द्र तथा राज्य सरकारों के धन सम्बन्धी अभिलेखों का आवश्यक परीक्षण करना तथा ऋण, लाभ, शेष धन आदि वित्तीय स्थिति का परीक्षण करना। (5) प्रत्येक वित्तीय वर्ष के अन्त तक केन्द्र और राज्य सरकारों को उनका लेखा व्यवस्था सम्बन्धी प्रतिवेदन प्रेषित करना।

(6) राष्ट्रपति को प्रत्येक वित्तीय वर्ष के अन्त में व्यय किये गये धन, शेष धन तथा. धन की आवश्यकता से सम्बन्धित एक प्रतिवेदन देना।

(7) विभागों द्वारा किया गया व्यय निर्देशित कार्यों के लिये किया गया है अथवा नहीं, व्यय राशि स्वीकृत राशि से कम है या उचित, इस बात का परीक्षण करना।

(8) राज्य और केन्द्र सरकारों से सम्बन्धित गणना परीक्षण पर आधारित परीक्षण तैयार करना।

(9) राज्य सरकारों को वार्षिक वित्तीय प्रतिवेदन तैयार करने के लिये आवश्यक सूचनायें उपलब्ध कराना।

(10) अनुदान माँगों के रूप में प्राप्त धनराशि प्राप्त करने के लिये, प्रशासकीय विभागों को स्वीकृति प्रदान करना

 

प्रश्न —  संसदीय नियन्त्रण के साधनों में संसदीय वित्त समितियों के महत्व को स्पष्ट कीजिये।

 

भारतीय संसद की लोक लेखा समिति अथवा अनुमान समिति के या कार्यों का वर्णन कीजिये।

 

उत्तर-

 

संसदीय वित्त समितियाँ

 

भारत में व्यवस्थापिका, सार्वजनिक वित्त पर नियन्त्रण रखने के लिय अनेक साधनों का प्रयोग करती है। व्यवस्थापिका इस कार्य को समितियों के माध्यम से करती है। संसद इन समितियों के माध्यम से ही वित्तीय विषयों पर नियन्त्रण स्थापित करती है। ये समितियाँ निम्न है—

 

(1) लोक लेखा समिति — लोक लेखा समिति

संसद का एक प्रभावशाली माध्यम है, जो सार्वजनिक व्यय पर नियन्त्रण स्थापित करती है।इस समिति में केवल संसद के ही सदस्य होते हैं। प्रारम्भ में समिति के सदस्यों की संख्या 15 थी जो बाद में बढ़ाकर 22 कर दी गयी। इसमें 15 सदस्य लोकसभा के तथा 7 सदस्य राज्य सभा के होते हैं। आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर समिति के सदस्य का निर्वाचन किया जाता है जिससे सभी राजनीतिक दल सदस्य बन सकें। कम से कम 4 सदस्य समिति की बैठक की वैधानिकता के लिये उपस्थित होने आवश्यक होते हैं। लोकसभा का अध्यक्ष, समिति के सदस्यों में से एक अध्यक्ष नियुक्त करता है तथा एक सदस्य को उपाध्यक्ष बनाया जाता है, परन्तु यदि लोकसभा का उपाध्यक्ष समिति का भी सदस्य होता है तो उसे ही समिति का अध्यक्ष मान लिया जाता है। बहुमत के आधार पर समिति का निर्णय होता है। यदि किसी विषय पर समिति के दोनों पक्षों का बराबर का मतदान होता है तो केवल अध्यक्ष ही निर्णायक मत दे सकता है। समिति के सदस्यों का निर्वाचन, संसद के दोनों सदनों में से होने पर भी राज्य सभा के सदस्य किसी वित्तीय विषय पर केवल विचार-विमर्श कर सकते हैं, मतदान नहीं।

 

समिति के कार्य (Functions of Committee) – लोक लेखा समिति सार्वजनिक वित्त पर प्रभावपूर्ण नियन्त्रण बनाने के लिये अंग्राकित कार्य करती है-

 

(1) राष्ट्रपति के आदेशानुसार किये स्वायत्तशासी व्ययों के विषय में गणना परीक्षण करना ।

(2) यह समिति, स्वास्थ्य संस्थाओं के उन लेखाओं का भी परीक्षण करती है, जिनका परीक्षण नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक जाँच कर चुके होते हैं।

(3) किसी विभाग द्वारा धन के अनियमित तथा अनुचित या अनावश्यक व्यय किये जाने पर संसद का इस ओर ध्यान आकर्षित करना। समिति मुख्य रूप से धन के व्यय में मितव्ययिता का ध्यान रखती है।

(4) भारत का नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक प्रस्तुत प्रतिवेदन पर विचार तथा परीक्षण करता है कि प्रशासकीय विभागों ने संसद द्वारा स्वीकृत धन का व्यय अभियाचिकाओं की सीमा के अन्तर्गत किया है या नहीं।

(5) समिति अपने कार्य में स्पष्टीकरण की आवश्यकता का अनुभव होने पर सम्बन्धित विभागीय अधिकारी को आमन्त्रित कर सकती है अथवा नियन्त्रक महालेखा परीक्षक से प्रश्न पूछ सकती है।

 

लोक लेखा समिति का कार्य उस समय प्रारम्भ हो जाता है जब नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक द्वारा राष्ट्रपति तथा राज्यपाल को प्रस्तुत किया गया प्रतिवेदन संसद में उपस्थित किया जाता है तथा संसद उसको समिति के सम्मुख प्रस्तुत करती है। यह समिति नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक की सहायता से उसके प्रतिवेदन पर विचार करती है। यह समिति प्रत्येक विभाग के लेखाओं का व्यापक रूप से परीक्षण करती है। कभी-कभी विभागीय सचिव को, लेखाओं सम्बन्धी स्पष्टीकरण देने के लिये समिति की बैठक में सम्मिलित होना पड़ता है। समिति अपने परीक्षण सम्बन्धी प्रतिवेदन को अध्यक्ष के सम्मुख प्रस्तुत करती है तथा समिति का अध्यक्ष उसे लोकसभा के अध्यक्ष के समक्ष प्रस्तुत कर देता है। सम्बन्धित विभाग के अध्यक्ष को भी समिति के प्रतिवेदनों की प्रतिलिपि भेजी जाती है। समिति अपने प्रतिवेदन में आय-व्यय सम्बन्धी व्यवस्थाओं से सम्बन्धित संशोधात्मक और सुधारात्मक परामर्श भी देती है। इन सुझावों को प्रायः सरकार मान लेती है, सरकार यदि किसी सुझाव को अस्वीकृत होता है। प्रन्तु सरकार यदि किसी सुझाव को अस्वीकृत करती है तो सरकार को इसका स्पष्टीकरण देना

होता है

* मूल्यांकन लोक लेखा समिति के आलोचकों का कथन है कि समिति लेखाओं का केवल ‘शेव विच्छेदन’ करती है, क्योंकि लेखाओं का वास्तविक परीक्षण नियन्त्रक तथा महालेखा परीक्षक पूरा कर लेता है, परन्तु यह तर्क उचित नहीं है, क्योकि वास्तव में समिति का कार्य वित्तीय प्रशासन में संसद के नियन्त्रण को वास्तविक बनाता है। समिति ने समय-समय पर सार्वजनिक व्यय की अनियमितताओं पर सरकार का अनेक प्रकार से ध्यान आकर्षित किया है।

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