International Politics

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अंतर्राष्ट्रीय राजनीति

 

 

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति वैश्विक मंच पर संप्रभु राज्यों के बीच बातचीत और संबंधों को संदर्भित करती है। यह अध्ययन का एक क्षेत्र और एक व्यावहारिक क्षेत्र है जो एक दूसरे के साथ व्यवहार में राष्ट्रों के व्यवहार को समझने, विश्लेषण करने और प्रभावित करने पर केंद्रित है। यह बहुआयामी अनुशासन कूटनीति, संघर्ष, सहयोग, व्यापार, मानवाधिकार और वैश्विक शासन सहित मुद्दों की एक विस्तृत श्रृंखला को शामिल करता है।

 

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रमुख घटकों में शामिल हैं:

 

संप्रभु राज्य: अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में प्राथमिक अभिनेता संप्रभु राज्य होते हैं, प्रत्येक के पास अपनी सरकार, क्षेत्र, जनसंख्या और कानून बनाने और लागू करने की क्षमता होती है। अंतर्राष्ट्रीय संगठन, गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ), बहुराष्ट्रीय निगम और आतंकवादी समूह जैसे गैर-राज्य अभिनेता भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

 

कूटनीति: कूटनीति बातचीत करने और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को प्रबंधित करने की कला और अभ्यास है। राजनयिक राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने, संघर्षों को सुलझाने और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए चर्चाओं, वार्ताओं और समझौतों में अपने देशों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

 

संघर्ष और सुरक्षा: अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अक्सर राज्यों के बीच संघर्षों का विश्लेषण और प्रबंधन शामिल होता है। सुरक्षा चिंताओं में सैन्य क्षमताएं, परमाणु प्रसार, आतंकवाद, साइबर खतरे और क्षेत्रीय स्थिरता शामिल हैं। यथार्थवाद और उदारवाद जैसे अंतर्राष्ट्रीय संबंध सिद्धांत, संघर्ष और सहयोग की गतिशीलता को समझने के लिए रूपरेखा प्रदान करते हैं।

 

अंतर्राष्ट्रीय संगठन: संयुक्त राष्ट्र (यूएन), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), विश्व बैंक और क्षेत्रीय संगठन जैसे संस्थान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को आकार देने और विनियमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे सहयोग को सुविधाजनक बनाते हैं, वैश्विक चुनौतियों का समाधान करते हैं, और बातचीत और विवाद समाधान के लिए मंच प्रदान करते हैं।

 

वैश्विक अर्थव्यवस्था: आर्थिक कारक अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में हैं। राष्ट्रों के बीच व्यापार समझौते, आर्थिक प्रतिबंध और वित्तीय संबंध उनके राजनीतिक संबंधों को प्रभावित करते हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था आपस में जुड़ी हुई है, और आर्थिक नीतियों का अंतर्राष्ट्रीय शक्ति गतिशीलता पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

 

मानवाधिकार: मानवाधिकार से संबंधित मुद्दे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अभिन्न अंग हैं। राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय संगठन भेदभाव, नरसंहार और नागरिक स्वतंत्रता के उल्लंघन जैसी चिंताओं को संबोधित करते हुए विश्व स्तर पर मानवाधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिए मिलकर काम करते हैं।

 

वैश्विक शासन: तेजी से बढ़ती अन्योन्याश्रित दुनिया में, वैश्विक शासन में अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों का समाधान करने के लिए राष्ट्रों के बीच नीतियों और कार्यों का समन्वय शामिल है। जलवायु परिवर्तन, महामारी और प्रवासन ऐसे मुद्दों के उदाहरण हैं जिनके लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और शासन की आवश्यकता है।

 

अंतर्राष्ट्रीय कानून: कानूनी ढाँचे, संधियाँ और सम्मेलन अंतर्राष्ट्रीय कानून का आधार बनते हैं। राज्य अपने व्यवहार को विनियमित करने, विवादों को सुलझाने और सामान्य मानकों को बनाए रखने के लिए इन समझौतों का पालन करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय अदालतें और न्यायाधिकरण संघर्षों का निपटारा करते हैं और स्थापित मानदंडों का अनुपालन सुनिश्चित करते हैं।

 

सॉफ्ट पावर: सैन्य और आर्थिक ताकत के अलावा, राष्ट्र अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने और अपनी वैश्विक स्थिति को बढ़ाने के लिए अक्सर सॉफ्ट पावर-सांस्कृतिक प्रभाव, कूटनीति और अनुनय-का उपयोग करते हैं।

 

अभिनेताओं, रुचियों और इसमें शामिल मुद्दों की विविधता के कारण अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को समझना और उस पर मार्गदर्शन करना जटिल है। विद्वान, राजनयिक, नीति निर्माता और नागरिक वैश्विक मामलों के लगातार विकसित हो रहे परिदृश्य का विश्लेषण, आकार देने और प्रतिक्रिया देने के लिए चल रहे प्रयासों में लगे हुए हैं

 

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति वैश्विक परिदृश्य को आकार देने, राष्ट्रों के बीच बातचीत को प्रभावित करने और राष्ट्रीय सीमाओं से परे जटिल चुनौतियों का समाधान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के महत्व और दायरे को कई प्रमुख आयामों के माध्यम से समझा जा सकता है:

  1. **शांति और सुरक्षा:**

– **संघर्ष समाधान:** राष्ट्रों के बीच संघर्षों को सुलझाने और शत्रुता को बढ़ने से रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय राजनीति आवश्यक है। कूटनीति, बातचीत और संयुक्त राष्ट्र (यूएन) जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन वैश्विक शांति बनाए रखने में योगदान देते हैं।

– **सुरक्षा सहयोग:** सामूहिक सुरक्षा और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्र आतंकवाद विरोधी प्रयासों, हथियार नियंत्रण और शांति स्थापना अभियानों जैसे सुरक्षा मुद्दों पर सहयोग करते हैं।

 

  1. **वैश्विक शासन:**

– **अंतर्राष्ट्रीय संस्थान:** संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ), और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) जैसे संगठन वैश्विक मानकों को स्थापित करने, सहयोग को सुविधाजनक बनाने और जलवायु परिवर्तन, गरीबी सहित वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। , और स्वास्थ्य संकट।

– **अंतर्राष्ट्रीय कानून:** संधियाँ, सम्मेलन और समझौते राज्यों के बीच बातचीत को विनियमित करने, मानवाधिकारों के पालन को बढ़ावा देने और अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में जिम्मेदार आचरण के लिए मानदंड स्थापित करने का आधार बनते हैं।

 

  1. **आर्थिक परस्पर निर्भरता:**

– **व्यापार और वाणिज्य:** अंतर्राष्ट्रीय राजनीति राष्ट्रों के बीच आर्थिक संबंधों को प्रभावित करती है, व्यापार समझौतों, आर्थिक गठबंधनों और नीतियों को आकार देती है जो वैश्विक बाजारों को प्रभावित करती हैं। आर्थिक मामलों में सहयोग और प्रतिस्पर्धा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के अभिन्न अंग हैं।

– **विकास सहायता:** राष्ट्र विकास सहायता, विदेशी सहायता और कम विकसित क्षेत्रों के उत्थान के लिए सहयोगात्मक प्रयासों के माध्यम से वैश्विक आर्थिक असमानताओं को दूर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में संलग्न हैं।

 

  1. **सांस्कृतिक आदान-प्रदान:**

– **सॉफ्ट पावर:** अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सांस्कृतिक कूटनीति, शिक्षा विनिमय कार्यक्रमों और सार्वजनिक कूटनीति के माध्यम से सॉफ्ट पावर का प्रक्षेपण शामिल है। यह आपसी समझ को बढ़ावा देता है, राष्ट्र की छवि को बढ़ाता है और सकारात्मक संबंधों को सुविधाजनक बनाता है।

 

  1. **मानवाधिकार और सामाजिक न्याय:**

– **वकालत और सहयोग:** अंतर्राष्ट्रीय राजनीति मानवाधिकारों के उल्लंघन को संबोधित करने और वैश्विक स्तर पर सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए एक मंच प्रदान करती है। राष्ट्र नरसंहार, भेदभाव और मानवीय संकट जैसे मुद्दों से निपटने के लिए सहयोग करते हैं।

 

  1. **पर्यावरणीय चुनौतियाँ:**

– **जलवायु परिवर्तन:** पर्यावरणीय चुनौतियों, विशेषकर जलवायु परिवर्तन से निपटने में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति महत्वपूर्ण है। पेरिस समझौते जैसे समझौतों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने और सतत विकास को बढ़ावा देने के लिए वैश्विक सहयोग शामिल है।

 

  1. **प्रौद्योगिकी और साइबर सुरक्षा:**

– **डिजिटल कूटनीति:** वैश्विक मामलों में प्रौद्योगिकी की बढ़ती भूमिका ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का दायरा बढ़ा दिया है। साइबर सुरक्षा, डिजिटल व्यापार और उभरती प्रौद्योगिकियों के प्रशासन से संबंधित मुद्दों के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और कूटनीति की आवश्यकता है।

 

  1. **स्वास्थ्य महामारी:**

– **वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन:** महामारी की प्रतिक्रिया, जैसा कि COVID-19 महामारी जैसी घटनाओं से प्रदर्शित होती है, में टीका वितरण, सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों और सूचना साझाकरण जैसे क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग शामिल है।

 

संक्षेप में, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का महत्व और दायरा व्यापक और बहुआयामी है, जिसमें वैश्विक स्तर पर मानवीय संपर्क के विभिन्न पहलू शामिल हैं। साझा चुनौतियों से निपटने, सहयोग को बढ़ावा देने और अधिक परस्पर जुड़े और शांतिपूर्ण विश्व के निर्माण के लिए प्रभावी अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक सहभागिता आवश्यक है।

 

प्रश्न ) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अर्थ, विषय क्षेत्र तथा महत्त्व बताइये ?

 

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की परिभाषा करना सरल नहीं है।  परिभाषा के सम्बन्ध ने विद्वानों में मतभेद है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

 

हार्टमैन के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का आशय उन प्रणालियों के अध्ययन से है जिनके द्वारा विभिन्न राष्ट्रीय हितों का सामंजस्य दूसरे राष्ट्रों के हितों के साथ बैठाते हैं।

 

क्विन्सी राइट के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक ऐसी कला है जिसके द्वारा कोई वर्ग या गुट अन्य बड़े गुटों को प्रभावित छलयोजित अथवा नियन्त्रित करके, विरोध के बावजूद अपने स्वार्थों की सिद्धि करता है।

 

बैडलफोर्ड तथा लिंकन के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति राजसत्ताओं के बदलते सम्बन्धों के सन्दर्भ में राज्यों की नीतियों की अन्तः क्रिया हैं।

 

मॉर्गन्धाऊ के शब्दों में, “राष्ट्रों के मध्य शक्ति के लिए संघर्ष तथा उसका प्रयोग अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति कहलाता है।

 

चार्ल्स श्लाइसर के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विभिन्न राज्यों, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान अधीन जनता के सम्पूर्ण संघर्ष सम्बन्ध समाविष्ट होते हैं।

 

बर्टन  के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में सामान्य बातों के अतिरिक्त वे सभी घटनाएँ और परिस्थितियाँ भी शामिल हैं जिनका प्रभाव एक से एक राज्यों राज्यों पर पड़ता है। यह शान्तिपूर्ण संचारों की व्यवस्था है जहाँ राज्य समझकर तथा स्वहित में विवादों को टालना चाहते हैं, क्योंकि विवाद उन्हें बड़े मंहगे पड़ते हैं।

 

हैरोल्ड स्प्राउट तथा मारप्रेट स्प्राउट के शब्दों के अनुसार, “स्वतन्त्र राजनीतिक समुदायों के अपनेअपने उद्देश्यों या हितों के आपसी विरोध, प्रतिरोध या संघर्ष से उत्पन्न उसको क्रियाप्रतिक्रिया एवं सम्बन्धों का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति कहलाता है।

 

पामर एवं पर्किन्स के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का सम्बन्ध मुख्य रूप से राज्य प्रणाली से है।

 

राबर्ट स्ट्रोज हूप तथा स्टीफन पोसोनी के शब्दों में, “नागरिकों के कार्यों तथा राजनीतिक रूप में महत्त्वपूर्ण निजी संस्थाओं के निर्णयों को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्र कहा जा सकता है।

 

फैलिक्स ग्रॉस के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन वास्तव में विदेश नीतियों के अध्ययन के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

 

जेप्य एन० रोजनाऊ के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपखण्ड है।

 

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरन्तर चलती रहती है। इसमें शक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह राष्ट्रों को प्रभावित ओर नियन्त्रित करने की कला है।

 

विषयवस्तु

 

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निम्नलिखित विषयों का अध्ययन किया जाता है

 

*शक्ति का अध्ययनअन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति के अध्ययन पर बहुत जोर दिया जाता है, क्योंकि शक्ति ही विदेश नीति की रचना में निर्णायक भूमिका निभाती है।

 

मॉर्गन्याऊ के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति प्रत्येक राजनीति की भाँति शक्ति संघर्ष है।अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अन्तिम लक्ष्य चाहे जो कुछ भी हो, शक्ति सदैव तात्कालिक लक्ष्य रहती।

 

* राष्ट्रीय हितों का अध्ययनअन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय हित के चारों ओर सम्पूर्ण राजनीति घूमती है। इसलिये अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विभिन्न राष्ट्रों के राष्ट्रीय हितों का अध्ययन किया जाता है। प्रत्येक राष्ट्र अपनी विदेश नीति का संचालन राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर करता है। इसी के आधार पर मित्र और शत्रु राष्ट्रों की पहचान होती है। राष्ट्रीय हित ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का आधार होते हैं और इन्हीं के कारण संघर्ष और मैत्री की जाती है।

 

हार्टगैन ने कहा है किअन्तर्राष्ट्रीय राजनीति उन प्रक्रियाओं का अध्ययन करती है जिनके माध्यम से एक राज्य अन्य राज्यों के साथ अपने राष्ट्र हितों का तालमेल करता है।

 

*राज्य का अध्ययनइसमें दो या दो से अधिक राज्यों के बाह्य व्यवहारों तथा आपसी क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। राज्यों के आपसी सम्बन्ध अनेक तत्त्वों, जैसेभौगोलिक, प्राकृतिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक, वैचारिक, ऐतिहासिक वैज्ञानिक, सामरिक आदि के प्रभावित होते रहते हैं। इसीलिये अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन पर जोर देती है।

 

पामर तथा पर्किन्स के शब्दों में, “क्योंकि इसका आधार राज्य या राज्य प्रणाली है। यहीं से एक विश्व समुदाय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन अवश्य शुरू हो जाना चाहिये।

 

*विदेश नीति का अध्ययनफैलिक्स माँस का मत है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन वास्तव में विदेश नीतियों का अध्ययन है। किसी भी राज्य का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवहार सदैव उसकी विदेशी नीति द्वारा नियन्त्रित तथा निर्देशित होता है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अन्तर्गत उन तत्त्वों का अध्ययन किया जाता है जिनसे किसी देश की विदेश नीति बनती है।

 

*अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं तथा क्षेत्रीय संगठन का अध्ययनराज्यों के मध्य आर्थिक, सैनिक, तकनीकी और सांस्कृतिक सहयोग की वृद्धि करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बनाये जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ने अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के महत्त्व को बहुत बढ़ा दिया है। वर्तमान  में यू० एन० ओ० के अतिरिक्त अन्य संस्थाएँ भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

 

इसलिये आर्थिक उपकरणों का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में किया जाता है।

 

* अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के आर्थिक उपकरणों का अध्ययनअन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ते हुए अधिक तीव्यापारिक सम्बन्धों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आज राज्यों के बीच विदेश सहायता, ऋण, व्यापार, अनुदान आदि राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण तत्त्व है। इसलिये आर्थिक उपकरणों का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में किया जाता।

 

* अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धी के नियन्त्रकों का अध्ययनराष्ट्रों के आपसी व्यवहार को नियन्त्रित और निर्देशित करने के लिये शक्ति सन्तुलन की अवधारणा, क्षेत्रीयता, निःशस्त्रीकरण तथा नियन्त्रण, सामूहिक सुरक्षा, विश्व जनमत, कूटनीति आदि कुछ अवधारणाओं का सहारा लिया जाता है।

 

*राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययनअन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का लक्ष्य विभिन्न देशों की नीतियों का प्रयोग जानता है, किन्तु इन विदेश नीतियों का सार जानने के लिये राष्ट्रीय राजनीतियों के विभिन्न पक्षों का ज्ञान जरूरी है। राजनीतिज्ञ दूसरे देशों के कार्यों एवं नीतियों को ध्यान में रखते हुये अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिये अपने देश की नीति का निर्धारण करते हैं।

 

*अन्तर्राष्ट्रीय कानून का अध्ययनराष्ट्र उन अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का पालन करते हैं। जिनसे उनके हितों की रक्षा होती है। आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय कानून धीरेधीरे शक्तिशाली होता जा रहा है तथा वह राष्ट्रों के व्यवहार को मर्यादित करता है और विश्व व्यवस्था को बनाये रखने में सहयोगी की भूमिका निभाता है।

 

*युद्ध एवं शान्ति की गतिविधियाँ का अध्ययनअन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध और शान्ति से जुड़ा हुआ है। विभिन्न राष्ट्रों में कभीकभी युद्ध हो जाते हैं जिनमें जन, धन की अपार हानि होती है। इन्हें रोकने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों की आवश्यकता होती है। शीत युद्ध, आर्थिक प्रतिबन्ध युद्ध के ही तत्त्व हैं। इसलिये युद्ध तथा शान्ति की गतिविधियों का अध्ययन भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में पाया जाता है।

 

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रासंगिकता

 

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक विकासशील विषय है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की प्रासंगिकता या महत्त्व को निम्न तर्कों के आधार पर समझा जा सकता है

 

*विदेश नीति में बौद्धिक गुणों का समावेशअन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धान्त बुद्धि पर आधारित होते हैं। बौद्धिक आधार पर परीक्षण करके विदेश नीतियों को उचित अथवा अनुचित ठहराया जाता है।

 

*विश्व की ऐतिहासिक और सामाजिक परिस्थितियों का विश्लेषणअन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विश्व की वर्तमान ऐतिहासिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का विश्लेषण करती है तथा अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान खोजती है।

 

*विश्प शान्ति में योगदानशान्ति के अभाव में दुनिया में प्रगति सम्भव नहीं है। प्रो० चाल्स मार्टिन के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की मुख्य समस्या दो विरोधी स्थितियोंविश्व शान्ति तथा युद्ध का एक साथ अध्ययन करना होता है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विश्व शान्ति की स्थापना के लिए प्रयत्नशील रहती है। अतः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का आधुनिक युग में विशेष महत्त्व है।

 

*तनाव का सक्रिय विरोध करने के लियेआधुनिक युग में अणु शक्ति का पर्याप्त विकास हुआ है। अणु शक्ति के प्रयोग से जहाँ विश्व में ऊर्जा का विकास हुआ है वहाँ अणु शक्ति से विनाशकारी हथियारों का भी विकास हुआ है। विश्व में तनाव बढ़ा है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का आधुनिक युग में महत्त्व बढ़ गया है, क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय सिद्धान्तों के द्वारा हो विश्व शान्ति स्थापित हो सकती है।

 

इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रासंगिकता आज के युग में पहले से भी अधिक है और दिनोंदिन होने वालो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक गतिविधियों ने इसके महत्व को और अधिक बढ़ा दिया है।

 

*राजनीतिज्ञों के लिये महत्त्वअन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विचारधारा के सिद्धान्त राजनीतिज्ञों का साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, अर्थव्यवस्था का भूमण्डलीकरण, नवीन अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था, निःशस्त्रीकरण आदि के सामधान करने में सहयोग मिलता है।

 

*शक्ति संघर्ष की राजनीति का अध्ययनप्रारम्भ में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का उद्देश्य युद्ध को समाप्त करना था, परन्तु वर्तमान में आध आधुनिक प्रवृत्ति अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार को शक्ति के आधार पर समझने को है। आज प्रत्येक राष्ट्र शक्ति प्राप्त करने शक्ति की वृद्धि करने और उसका प्रदर्शन करने में विश्वास करने लगा है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति इस स्थिति को को समझने और इस सन्दर्भ में विश्व की समस्याओं को हल करने का उपाय बताती है।

 

*विश्व सरकार : एक उद्देश्यबटैण्ड रसेल के अनुसार, विश्व सरकार के द्वारा ही विश्व शान्ति की स्थापना की जा सकती है। सम्प्रभुता और उम्र राष्ट्रीयता की धाराणाएँ विश्व सरकार के मार्ग की प्रमुख बाधायें हैं। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के माध्यम से राज्यों के मध्य विश्व सरकार की पृष्ठभूमि तैयार को जाती है।

 

*खक्से से बचावअन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अनेक सिद्धान्त प्रचलित हैं तथा उनके अपने अलगेअलग गुणदोष। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि कौनसा सिद्धान्त देश के हित में और कौनसा सिद्धान्त अहित में हैं इस प्रकार राष्ट्र खतरों से सुरक्षित रहता है।

 

* लोकतन्त्रात्मकवर्तमान समय लोकतन्त्र का समय है। इस समय अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति बहुमत पर आधारित है। लोकतान्त्रिक प्रणाली से विश्व समस्याओं को हल करने का प्रयास किया जाता है। लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली युग में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अत्यधिक महत्त्व है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रश्न  – राष्ट्रीय शक्ति पर एक निवन्य लिखिये

अथवा

राष्ट्रीय शक्ति के तत्त्वों की व्याख्या कीजिए।

 

उत्तरसामान्य अर्थों में दूसरों को प्रभावित कर सकने की क्षमता शक्ति कहलाती है। परन्तु यदि शक्ति को व्यक्तिगत सन्दर्भ में लेकर राष्ट्र के सन्दर्भ में लिया जाये तो उसेराष्ट्रीय शक्तिकहा जायेगा

 

राष्ट्रीय शक्ति का अर्थ

 

जो राष्ट्र जितना अधिक शक्तिशाली होगा अथवा जिस राष्ट्र के नेता जितने अधिक कूटनीतिज्ञ होंगे एवं ख्याति प्राप्त होंगे, वह राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उतना ही अधिक शक्तिशाली एवं प्रभावपूर्ण माना जायेगा।

 

प्रत्येक राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में ऊँचे से ऊँचा मान सम्मान बनाये रखने का प्रयास करता है। वह अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति शक्ति द्वारा करता है। जिस राष्ट्र में जितनी अधिक , शक्ति होगी वह अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति उतनी ही शीघ्रता से कर पायेगा। जबकि दुर्बल राष्ट्रों को शक्तिशाली राष्ट्रों के अधीन होना पड़ता है। अतः प्रत्येक राष्ट्र अपने अन्दर ऐसे साधनों को वृद्धि करता है जो उसे शक्तिशाली बना सके। इस प्रकार के साधनों से उत्पन्न होने वाली शक्ति हो राष्ट्रीय शक्ति कहलाती है।

 

राष्ट्रीय शक्ति की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

 

विलियम एवेन्सटीन के शब्दों में, “राष्ट्रीय शक्ति जनसंख्या, कच्चा माल तथा मात्रात्मक तत्त्वों के योग से कहीं अधिक है। राष्ट्र की संयुक्त क्षमता उसके नागरिकों का देशप्रेम, उसकी संस्थाओं का लचीलापन, उसका प्रावधिक ज्ञान, उसकी कष्ट सहने की क्षमता कुछ ऐसे गुणात्मक तत्त्व हैं जो किसी राष्ट्र की सम्पूर्ण शक्ति को निर्धारित करते हैं।

 

ऑर्गेनकी के शब्दों में– “शक्ति अपने साध्यों के अनुकूल किसी राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र के व्यवहार को प्रभावित करने की योग्यता का नाम है। यदि कोई राष्ट्र ऐसा नहीं कर सकता तो चाहे वह कितना भी बड़ा हो, जितना भी धनी हो, कितना ही महान हो, वह शक्तिशाली नहीं माना जा सकता है।

 

जे० मांगेंन्याऊ के अनुसार, “राष्ट्रीय शक्त्ति वह शक्ति है जिसके आधार पर कोई व्यक्ति दूसरे राष्ट्रों के कायाँ, व्यवहारों और नीतियों पर प्रभाव तथा नियन्त्रण रखने की चेष्टा करता है।

 

हार्टमैन के शब्दों में, “राष्ट्रीय शक्वि से यह बोध होता है कि अमुक राष्ट्र कितर शक्तिशाली अर्थवा निर्बल है या अपने राष्ट्रीय द्देश्यों की पूर्ति करने की दृष्टि से उसमे

कितनी क्षमता है।

 

पैडलफोर्ड तथा लिंकन के अनुसार, “यह शब्द राष्ट्रीय शक्ति को भौतिक और सैनिक शक्ति तथा सामर्थ्य का सूचक है, किन्तु उस व्यापक अर्थ में, जिसमें यह शब्द अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राज्यों के मध्य शक्ति एवं सामर्थ्य का वह योग मान सकते हैं जो एक राज्य अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए तथा राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उपयोग में लाता है।

 

इन परिभाषाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि शक्ति वह क्षमता है जो एक राष्ट्र द्वारा अपने हितों की पूर्ति के लिए दूसरे राष्ट्र के विरुद्ध प्रयोग में लायी जाती है। वास्तव में राष्ट्रीय शक्ति राष्ट्र की वह क्षमता है जिसके आधार पर वह दूसरे राष्ट्र के व्यवहार को प्रभावित और नियन्त्रित करता है। यह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राज्य का सम्पूर्ण प्रभाव है। इस राष्ट्रीय शक्ति का निर्माण अनेक तत्त्वों से होता है जो एकदूसरे से सम्बन्धित होते हैं।

 

राष्ट्रीय शक्ति के तत्त्व

 

राष्ट्रीय शक्ति के तत्त्वों का निर्धारंण करना अत्यन्त कठिन कार्य है। मॉर्गेन्याऊ ने राष्ट्रीय शक्ति को स्थायी अस्थायी दो तत्त्वों में विभाजित किया है।

 

पामर पर्किन्स ने इन्हें मानवीय एवं गैर मानवीय दो श्रेणियों में विभाजित किया है।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अध्ययन की सुविधा के लिए राष्ट्रीय शक्ति के तत्त्वों का निम्न रूपों में अध्ययन किया जा सकता है

 

*भौगोलिक स्थितियह राष्ट्रीय शक्ति का सर्वाधिक स्थायी तत्त्व है। किसी भी शक्ति, सभ्यता और विकास पर उस देश की भौगोलिक स्थिति क। महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। वर्तमान युग में यातायात तथा सैनिक क्षेत्रों में वैज्ञानिक और द्रुतगामी आविष्कारों के कारण दुनिया बहुत छोटी हो गयी है तथा कोई भी देश या स्थान अनुलंघनीय नहीं है। तथापि भूगोल या भौगोलिक स्थिति के महत्त्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वियतनाम की भौगोलिक स्थिति में अनभिज्ञ होने के कारण ही अमेरिका विपुल सैन्य शक्ति होने के बावजूद ही विजयी नहीं हो सका। भारत के उत्तर में गगनचुम्बी हिमालय पर्वत श्रृंखला यद्यपि आज अभेद्य नहीं रही है, फिर भी देश की रक्षा के लिए उसका स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है एवं चिर परिचित है।

 

राष्ट्रीय शक्ति के तत्त्व के रूप में भूगोल का अध्ययन करते समय चार बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए जो निम्नवत् हैं

 

(i)जलवायुजलवायु मनुष्य के शारीरिक मानसिक गठन के लिए अत्यन्त आवश्यक है इसलिए ठण्डे  प्रदेशों के निवासी अधिक परिश्रमी होते हैं, जबकि गर्म प्रदेशों में रहने वाले कम परिश्रमी होते हैं।

 

(ii) आकारश्लाइचर के अनुसार आकार, फैलाव या विस्तार शक्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्त्व है। आकार अधिक होने से खनिज पदार्थों, जनसंख्या कारखानों के विस्तार की सम्भावना अधिक होती है। आज विश्व की महान शक्तियाँ रूस अमेरिका आकार में भी सबसे बड़ी हैं अर्थात् उनका क्षेत्रफल सर्वाधिक है।

 

(iii) आकृतिविस्तार से जहाँ देश की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ता है वहीं उस देश की भूआकृति और भी अधिक प्रभाव डालती है। सामुद्रिक एवं पर्वतीय सीमायें लाभकारी एवं हानिकार दोनों हो सकती हैं। जैसेम्यांमार की पर्वत श्रृंखलाओं ने उसे अन्य देशों से अलग कर दिया है, जबकि यूरोप की भूआकृति में प्राकृतिक अप्राकृतिक बन्दरगाहों की प्रचुरता है।

 

(iv)अवस्थितिविश्व में एक राज्य की स्थिति उस देश को महत्त्वपूर्ण या महत्त्वहीन बना देती है।

 

*जनसंख्याराष्ट्रीय शक्ति के निर्धारण एवं निर्माण में जनसंख्या का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह राष्ट्रीय शक्ति का मानवीय नवीय तत्त्व है। यद्यपि जनसंख्या की अधिकता अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव स्थापित नहीं करती है, लेकिन राज्यों पर जनसंख्या का प्रभाव पड़ता है। है। इसीलिए अधिक जनसंख्या वाले राज्य कम जनसंख्या वाले राज्यों को अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होते हैं। पूरोप में अधिक बनसंख्या वाला राज्य ही प्रभावशाली माना जाता है।

आधुनिक युग में रूस सर्वाधिक शक्तिशाली है, क्योंकि उसकी जनसंख्या फ्रांस जर्मनी को जनसंख्या के योग से भी अधिक है।

ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री चर्चिल ने ब्रिटेन की शक्ति की कमी का कारण जनसंख्या की कमी को ही माना है। 22 मार्च, 1947 में अपने भाषण में उन्होंने कहा थायदि कोई देश विश्व के नेतृत्व में उच्च स्थान बनाये रखना चाहता है एवं महाशक्ति के रूप में जीवित रहना चाहता है। जिससे वह बाह्य शक्ति के दबाव में सके तो उसे अपनी जनता को बड़े परिवारों के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

 

*ग्राष्ट्रीय सीमाएँये प्राकृतिक अप्राकृतिक दोनों प्रकार के होते हैं। प्राकृतिक सीमायें नदी, समुद्र तथा पर्वतों से निर्धारित मुद्र तया पर्वतों से निर्धारित होता है जबकि अप्राकृतिक सीमाएँ मानव द्वारा निर्धारित की जाती है और इनके निर्धारण के लिए ऐसा कोई तत्व नहीं है।

 

*तकनीकी विकासप्राविधिक ज्ञान का मूल्यांकन राष्ट्र वकी अर्थव्यवस्था, सुरक्षा शक्ति के अन्य तत्वों के सन्दर्भ में लिया जाता है। इसमें यान्त्रिक पद्धतियों के विकास, रणनीति, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, संचार साधनों को प्रगति इत्यादि विभिन्न बातें सम्मिलित हैं, जो राष्ट्रीय शक्ति के विकास में सहायक होती हैं। प्राविधिक ज्ञान में सैनिक औद्योगिक दोनों ही तकनीकी विकास शामिल किये जाते हैं।

 

* विचारधाराविचारधारा के माध्यम से एक देश की जनता अपने मूल्यों, विचारों द्देश्यों एवं दृष्टिकोणों को अभिव्यक्ति करती है। यह सम्पूर्ण राष्ट्र के अन्तर्गत निवास करने वाले सभी व्यक्तियों को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयल करती है।

 

विचारधारा व्यक्ति के विचारों की वह अमूर्त व्यवस्था है जो वास्तविकता को स्पष्ट करती है और मूल्यात्मक लक्ष्यों को अभिव्यक्त करती है और ही भीड़ के द्वारा किया जा सकता है। स्वाभाविक रूप से शासन कुछ गिनेचुने व्यक्तियों के हाथ में जाता है। राष्ट्र के प्राकृतिक स्रोतों सेना अन्य सभी तत्त्वों को प्रभावशाली रूप में प्रयोग करना कुशल नेतृत्व का ही कार्य है। नेतृत्त्व में ही राष्ट्रीय शक्ति के अन्य सभी आधार उचित दिशा में में निर्देश पाते हैं। नेतृत्व का कार्य दोमुखी होता है। नेतृत्व राष्ट्रीय शक्ति के सभी स्रोतों के मध्य समन्वय स्थापित करता है। राष्ट्रीय शक्ति की वृद्धि के लिए प्रभावशाली उपायों का चयन करता है।

 

*सैनिक तत्त्वसैनिक तकनीक पर राष्ट्र की सुरक्षा निर्भर करती है। जिस देश की सैनिक व्यवस्था जितनी अधिक मजबूत होगी वह देश उतना ही अधिक शक्तिशाली होगा।

 

*संचारकिसी देश के साक्तिशाली होने में उसे देश की सच्चर व्यवस्था का भी महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। जिस देश की सदार व्यवस्था जितनी अधिक advance होगी वह उतना ही अधिक शक्तिशाली होगा। आधुनिक युग में बहुत से दूर संचार माध्यम है जिनको सहायता से कुछ समय में ही बातवीत द्वारा सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं।

 

*औद्योगिक क्षमताआर्थिक एवं औद्योगिक विकास ने राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण में कान्ति ला दी और शक्ति के सभी प्र पुराने मापदण्डों को बदल दिया। वर्तमान युग में वे सभी राष्ट्र शक्तिशाली नहीं माने जाते जिनके पास अधिक मानव शक्ति, प्राकृतिक साधन तथा राष्ट्रीय चरित्र।

 

कांगो राज्य में यूरेनियम अत्यधिक मात्रा में पाया जाता है। लेकिन इससे कोई शक्तिशाली के राष्ट्र नहीं बन जाता, क्योंकि उसके पास ऐसी मशीनें एवं उद्योग नहीं जिससे वह यूरेनियम का के समुचित उपयोग कर सके।

 

आधुनिक युग में इतना अधिक परिवर्तन गया है कि केवल औद्योगिक क्षमता हो किसी समस्या को सफलता प्रदान कर सकती है। सेना में प्रयोग होने होने वाली छोटी से छोटी बस्तु से के लेकर अन्तर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रों के निर्माण के लिए औद्योगिक विकास ही सहायक हो सकता है।

 

*सैनिक क्षमताएक राष्ट्र को सैनिक शक्ति ही राष्ट्रीय हितों को प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण साधन है। प्राचीन काल से ही इस शक्ति के स्तर का निर्धारण उच्चकोटि को सैनिक युग में इनसभी तत्त्वों को जटिलता के कारण जासूसी का महत्त्व बढ़ गया है। हमारी सफलता इसी बात पर ननिर्भर करती है कि शत्रु क्या सोच रहा है और क्या करना चाहता है ? कैसे उसके प्रयार को असफल किया जा सकता है ? यह तभी सम्भव है जब हमारी जासूसी शक्तिशाली हो

 

*सैनिक नेतृत्वइतिहास में राज्यों को विजय दिलाने और राष्ट्रीय शक्ति का संवर्धन करने में महान सैनिक नेताओं का सर्वाधिक योगदान रहा है। 1947 में लेनिन का सैनिक नेतृत्व बाराशाही पश्चिमी पूँजीवादी राज्यों को असफल करने में सफल रहा है।

 

*प्राकृतिक साधनराष्ट्रीय शक्ति के रूप में प्राकृतिक साधन अन्य सभी तत्त्वों से अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। प्राकृतिक साधनों में भूमि, जल एवं भूमि में पैदा होने वाली वस्तुएँ खनिज पदार्थ है।

 

*खाद्य पदार्थवे राज्य जो खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भर होते हैं। वे उन राज्यों से अधिक शक्तिशाली होते हैं, जो खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भर नहीं हैं।

 

मोर्गेंथाऊ के अनुसार– “भोजन की स्थायी कमी का एक स्रोत है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में स्थायी कमजोरी।

 

*शक्ति उत्पादन साधनइसमें कोयला, पेट्रोल, गैस, जलीय शक्ति तथ्य यूरेनियम शामिल हैं। Oil diplomacy इसका उदाहरण है।

 

*निर्माण सामग्रीजिन राज्यों में अधिक खनिज पदार्थों का भण्डार है वे भीशक्तिशाली बन जाते हैं और उनको उत्पादन क्षमता में वृद्धि हो जाती है।

 

*राष्ट्रीय चरित्रराष्ट्रीय चरित्र भी राष्ट्रीय शक्ति का एक प्रमुख तत्त्व है। रहनसहन विचार, भाषा, धर्म संस्कृति आदि के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोण को राष्ट्रीय चरित्र के नाम से सम्बन्धित किया जाता है।

 

*राष्ट्रीय मनोवलराष्ट्रीय मनोबल या स्वाभिमान राष्ट्रीय शक्ति का वह सूक्ष्म अंग है जिसके अभाव में राष्ट्रीय शक्ति शून्य हो जाती है। एक राष्ट्र सेना को की सेना युद्धभूमि में तन, मन तथा धन से अर्पित कर देने की प्रेरणा कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी संगठन, अनुशासन,उत्साह तथा मनोबल द्वारा ही सम्भव है।

 

*नेतृत्वराष्ट्रीय शक्ति के एक अन्य महत्वपूर्ण तत्त्व नेतृत्व रहा है। शासन विशिष्ट एवं बटिल व्यवस्था है। यह तो एक व्यक्ति के द्वारा ही चलाया जा जाता है।

 

मॉर्गन्याऊ के शब्दों में उन तमाम तत्वों में जो किसी राष्ट्र की शक्ति के निर्माण योगदान देते हैं, सबसे महत्वपूर्ण कूटनीति की उत्तमता है। चाहे यह कितना भी अस्थायी तत्त्व क्यों हो

एक कुशल राजनय अपने राज्य को आवश्यकताओं का अध्ययन करेगा, शक्ति दुर्बलताओं का अध्ययन करेगा, छुपे हुए स्रोतों को प्रकाश में लायेगा और इसके अनुसार अपनी विदेश नीति के माध्यम से ट्रम्प कार्ड को भाँति उनका प्रयोग करेगा।

 

*शासन का स्वरूपराष्ट्रीय शक्ति के निर्माण में शासन का स्वरूप भी महत्त्वपूर्ण कारक है। यद्यपि यह विवादास्पद प्रश्न रहा है कि राष्ट्रीय शक्ति की दृष्टि से कौनसी प्रणाली सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। फिर भी अच्छी सरकार वही है जिसे जनता का समर्थन प्राप्त है तथा वह राष्ट्रीय शक्ति के तत्त्वों का समन्वय करके विदेश नीति का संचालन शक्ति ने ही किया है। भारत में इब्राहिम लोदी राणा सांगा की बाचर के हाथों हार का कारण बाबर की सैनिक तैयासे हो थी। सैनिक तैयारी कई तत्त्वों से मिलकर बनती है, जो निम्नवत् हैं

 

(i)युद्ध तकनीकइतिहास में प्राचीन काल से आज तक देखा जाये तो नये हथियारों के प्रयोग ने सर्वदा विजयश्री दिलाकर राज्यों की राष्ट्र शक्ति का निर्माण किया है। द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी की प्रारम्भिक विजय का कारण नये हथियारों का प्रयोग ही था।

 

(ii)सशस्त्र सेनाकिसी राज्य की राष्ट्रीय शक्ति के लिए सशस्त्र सेनाएँ युद्ध तकनीक से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। 1967 में भारतपाक युद्ध में यद्यपि पाकिस्तान के पास सैनिक संख्या, साहस एवं त्याग भारतीय सैनिकों से कम था। लेकिन उचित अनुशासन, शक्ति के उचित प्रयोग को क्षमता होने के कारण करीब एक लाख सिपाहियों को आत्मसमर्पण करके देश के अपमान का कारण बनना पड़ा।

 

(iii) जासूसीरणनीति को बनाने में एक राज्य को शत्रु की चाल सेना का स्थान क्षमता एवं हथियारों के जमाव का गुणात्मक एवं भावात्मक ज्ञान होना चाहिए। आधुनिक संचालन कर सके और अपने लक्ष्यों तथा द्देश्यों को प्राप्त कर सके।

 

प्रश्न ) राष्ट्रीय हित का अर्थ तथा इसके अभिवृद्धि के साधन बताइये

 

उत्तरअन्तर्राष्ट्रीय हित देश की आवश्य आदि अनुसार भिन्नभिन्न होता है जिसे भौगोलिक ऐतिहासिक से निर्धारित किया जाता हैाओं येक देश के आर्थिक तथा सैनिक तत्त्व उसकी प्राचीन परम्पराएँ, आचारविचार, रीतिरिवाज धार्मिक, दार्शनिक तथा सामाजिक विचारधाराएँ और विश्वास राष्ट्रीय हित के निर्माण में भाग लेते हैं।

रेमो आरो के अनुसार— “राष्ट्रीय हित की अवधारणा इतनी अस्पष्ट है कि अर्थहीन ही है।अधिक से अधिक इसे एक दिखावे की अवधारणा कहा जा सकता है। राष्ट्रीय हित संघर्ष अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। संघर्ष एवं प्रतियोगिता की स्थिति मुख्यतःइसलिए बनी रहती है कि प्रत्येक राज्य अपने राष्ट्रीय हित को अभिवृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है और उसके ये प्रयास दूसरे राष्ट्रों के राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के प्रयासों से टकराते हैं।मानव के व्यक्तिगत जीवन की भाँति राष्ट्रीय हित के भी दो पक्ष होते हैं

 

  1. स्वार्थ पक्ष, 2. परार्थ पक्ष

पहले पक्ष के अनुसार, प्रत्येक राष्ट्र के प्रत्येक कार्य प्रमुख लक्ष्य उसके स्वयं के स्वार्थों की पूर्ति करना होता है। इस दृष्टि से कोई भी एक राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र का स्थायी मित्र नहीं होता है। स्थायी तो केवल स्वार्थ होता है।

 

Admiral. A.T. Mohan के शब्दों में—Self intrest is not only a legitimate but also a fundament cause for national policy. It is vain to expect government to act continuous on any ground than national intrest.

चार्ल्स ओ० लर्न तथा अब्दुल सईद के अनुसार, “व्यापक दीर्घकालीन तथा सतत् उद्देश्य की सिद्धि के लिए राष्ट्र, राज्य सरकार स्वयं को प्रयास करते हुए पाते हैं। यही राष्ट्रीय हित है।

पैडल फोर्ड और लिंकन के अनुसार, “व्यापक दीर्घ को अवधारणा समाज के मूलभूत मूल्यों से जुड़ी हुई हैं।ये मूल्य हैं

राष्ट्र का कल्याण, उसके राजनीतिक विश्वासों का संरक्षण, राष्ट्रीय जीवन पद्धति, क्षेत्रीय अखण्डता तथा सीमाओं की सुरक्षा इत्यादि

 

वी० वी० डाइक के अनुसार, “राष्ट्रीय हित की परिभाषा एक ऐसी चीज के रूप में की जा सकती है जिसकी रक्षा या उपलब्धि राज्य एकदूसरे के मुकाबले में करना चाहते हैं।

 

राष्ट्रीय हितों के अभिवृद्धि के साधन

 

प्रत्येक राष्ट्र की विदेश नीति का प्राथमिक लक्ष्य राष्ट्रीय हितों की वृद्धि करना है। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए राष्ट्र मुख्यतः निम्न साधनों का प्रयोग करते हैं

 

*कूटनीतिक समझौतेराष्ट्रीय हितों को संरक्षण प्रदान करने का यह दूसरा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सोध्न है जिसका सहारा सभी राज्य लेते हैं। इसमें दोनों देशों के राजदूत विवादग्रस्त प्रश्नों के हल के लिए पारस्परिक वार्ता का माहौल तैयार करते हैं। इससे वार्ता तभी सम्भव होतीहै, जबकि दोनों देशों के हितों की पूर्ति सम्भव हो।

 

*बाध्यकारी साधनउपर्युक्त दो साधन असफल हो जाने पर राज्य अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए वाध्यकारी साधनों का सहारा लेते हैं।

इन साधनों में सैनिक शक्ति भी एक प्रमुख साधन है। जो अपने राष्ट्र के हित के लिए आक्रमण का सहारा लेते हैं। किन्तु राज्य आक्रमण का सहारा अन्तिम स्थिति में ही लेते हैं, क्योंकि यह विनाशक प्रक्रिया है और इसके परिणाम अत्यन्त घातक होते हैं।

अनेक विद्वानों ने राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के बारे में अलगअलग साधनों का वर्णन किया है, क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राज्यों के राष्ट्रीय हितों में विरोध संघर्ष पाया गया है। प्रो० पामर पर्किन्स के अनुसार निम्न साधन राष्ट्रीय हित में अभिवृद्धि के लिए प्रयोग में लाये जाते हैं।

 

*प्रठ्बन्धनसमान हितों के संरक्षण तथा वृद्धि के लिए प्रायः दो या दो से अधिक देश सन्धियों करते हैं, ताकि कानूनी रूप से उन हितों को संरक्षण प्राप्त हो सके। इन सन्धियों का उद्देश्य सहयोग प्राप्त करना है। जैसेसाम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए (NATO,

SEATO, CENTO, आदि सन्धियाँ हुई हैं।

 

*राजनीतिक युद्धराजनैतिक युद्ध की स्थिति में कोई भी राज्य सैनिक शक्ति का प्रयोग नहीं करता है, लेकिन शक्ति के किसो किसी रूप का प्रयोग अवश्य होता है। युद्ध का अर्थ है किसी विपक्षी को कोई बात स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया जाये। सैनिक शक्ति के बल द्वारा ऐसा किया जाने पर उसे युद्ध की संज्ञा दी जाती है। लेकिन कूटनीति प्रचार तथा अन्य कई साधनों द्वारा भी किसी राष्ट्र को अपनी बात मनवाने के लिए विवश किया जा सकता है। जब किसी राष्ट्र को कूटनीति प्रचार के माध्यम से अपनी बात मनवाने के लिए विवश किया जाये तो इसे राजनीतिक युद्ध कहा जायेगा।

स्ट्रोप ग्रुप पासनी ने राजनीतिक युद्ध की निम्न परिभाषा दी है– “राजनैतिक युद्ध सूक्ष्म में एक व्यवस्थित क्रिया है एवं अधिकतर गुप्त स्वभाव की है। जो बिना शक्ति एवं सैनिक सैनिक अधिकार के दूसरे राज्य की नीतियों को प्रभावित एवं निर्देशित करते।

 

दूसरे देशों में प्रभाव क्षेत्र में लेने के लिए आर्थिक सहायता देना, प्रचार शस्त्रों को काम में लेना, जासूसी, सैनिक हस्तक्षेप, शस्त्र सप्लाई, रस्त्रीकरण, सैनिक गुटबन्दी और प्रादेशिक संगठनों का निर्माण राजनीतिक युद्ध के अंग हैं। राजनीत्कि युद्ध का शत्रु पक्ष को निर्बल बनाना है।

संक्षेप में राजनीतिक युद्ध का अभिप्राय एक राज्य द्वारा सामान्य रूप से लड़ाई के अतिरिक्त वे सभी कार्य हैं जिसके द्वारा राज्य अपने शत्रु को निर्बल बनाने का प्रयत्न करता है।

 

*प्रचारराजनीति दर्शन के मनोवैज्ञानिक तथा विचारक यह मानते हैं कि मानव  में अन्तः चेतन मस्तिष्क से निर्मित प्रतीकों का प्रभाव पड़ता है। वाल्टर लिपमेन का विवार या कि मानव प्रतीकों के माध्यम से ही ज्ञान नव को सरल भाषा में कोई सूचना दी जाये तो और भावुक हो जाता है।

 

पाल एन लाइनवर्गर के शब्दों मेंएक निश्चित सामान्य उद्देश्य के लिए सुनियोजित सामान्य संचारव्यवस्या के माध्यम से एक निश्चित वर्ग विशेष के मस्तिष्क भावना कार्यों को प्रभावित करने वाली व्यवस्था को प्रचार व्यवस्था कहा जाता है।

 

जोसेफ फ्रेंकल के शब्दों में प्रचार से हमारा अर्थ सामान्यतः किसी भी ऐसे व्यवस्थित प्रयास से होता है, जो किसी विशेष उद्देश्यों के लिए प्रदत्त समूह की प्रक्रियाओं तथा भावनाओं को प्रभावित करने के लिए किया जाता है।

 

हेरल्ड लासवेल के शब्दों मेंप्रचार विवादास्पद दृष्टिकोण को नियन्त्रित करने के लिए प्रतीकों का विस्तार है।

 

पामर पर्किन्स के अनुसार प्रचार का तात्पर्य है कि सरकारों या सरकार के सदस्यों द्वारा व्यवस्थित प्रयास जिसके द्वारा राज्य के अन्दर समुदायों या विदेशी राज्यों को अपने समर्थन में नीतियों को महण करने या अपने विरोध में नीतियों को ग्रहण करने के लिए प्रभावित करना

 

*आर्थिक साधनआधुनिक युग में आर्थिक साधन बल प्रयोग के मुख्य साधन हैं। इस रूप में यह विदेश नीति के अंग कहे जा सकते हैं।

 

पैडलफोर्ड एवं लिंकन के अनुसार– ” आर्थिक साधन से तात्पर्य ऐसी आर्थिक क्षमता संस्था एवं तकनीक से है। जो पूर्णरूप से या आंशिक रूप से विदेश नीति के लक्ष्यों के स्वतन्त्र के लिए प्रयुक्त की जाती है।

 

आर्थिक साधन स्वयं में लक्ष्य नहीं हैं। वरनु लक्ष्य प्राप्ति के साधन हैं। आर्थिक साधनों एवं लक्ष्यों का समायोजन करना एक जटिल प्रश्न है। इस जटिलता का कारण विश्व के स्वतन्त्र  देशों में व्यक्तिगत पहलू आर्थिक क्रिया को संचालित करने वाला तत्त्व है

 

 

 

युद्धराष्ट्रों के मध्य हिंसात्मक संघर्ष ही युद्ध कहलाता है।

 

वाल्टेयर के अनुसार– “इतिहास युद्धों, हिंसा, विनाश, दुखों तथा मृत्यु की कहानी है।

 

क्वाजविज़ के अनुसारयुद्ध राज्यों के मध्य राजनीतिक सम्बन्धों की अभिव्यक्ति का हो एक रूप है। कोई पृथक् वस्त नहीं। युद्ध राजनीतिक कार्य ही नहीं बल्कि राजनीतिक साधन भी है। यह राजनीतिक सम्बन्धों की निरन्तरता है तथा दूसरे साधनों द्वारा उन सम्बन्धों का परित्चालन है।

 

ओपेनहीम के अनुसार युद्ध दो या अधिक् राज्यों के मध्य एकदूसरे को पराजित करने तथा विजेता राज्य की इच्छा के अनुसार शान्ति थोपने के लिए सशस्त्र सेनाओं के माध्यम से संचालित विवाद है।

 

क्विन्सी राइट के शब्दों में-“युद्ध विभिन्न लेकिन इसकी इकाइयों के बीच हिंसापूर्ण संघर्ष है।

 

सीमित अर्थ में युद्ध वह कानूनी स्थिति है जो दो या इससे अधिक विरोधी समुदायों को सशल सेनाओं के मध्यम से संघर्ष के संचालन की समान रूप से अनुमति प्रदान करती है।

इतिहास के पृष्ठों पर युद्ध करा स्वरूप बदलता गया है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय से इसकी विनाशकारी क्षमता में इतनी अधिक वृद्धि हुई है कि कोई राष्ट्र इसका प्रयोग आसानी से नहीं कर सकता है। आण्विक अस्त्रों ने युद्ध का सम्बन्ध मानव अस्तित्व से जोड़ दिया है।

 

शंनेक्लेडी के शब्दों में-“यदि तृतीय विश्व युद्ध आता है। भगवान करे तृतीय विश्व बुद्ध कभी आये और यदि ऐसा होता है, तो इसमें अधिकांश मानवों का संहार हो जायेगा।

आधुनिक युद्ध का सम्पूर्ण युद्ध की संज्ञा दी जाती है। आधुनिक युग का व्यय विनाश तथा लए असुरक्षा इतनी अधिक है कि इसका प्रयोग असम्भव सा होता जा रहा है।

आइन्स्टीन के शब्दों में-“युद्ध का अर्थ सम्पूर्ण मानवता का विनाश है। इससे हमारी समस्त सभ्यता अणुधूल में बदल जायेगी।

 

जब तक युद्ध का कोई मान्य विकल्प नहीं निकल आता इसके त्याग की कल्पना आदर्शवादी धोखा होगी।

 

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि राष्ट्रीय हितों की अवधारणा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में खतरनाक सिद्ध हुई है, क्योंकि राष्ट्र अपने स्वार्थों हितों की सिद्धि के लिए अन्य राष्ट्रों के हितों की उपेक्षा करते हैं। फलस्वरूप विश्व शान्ति अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में है। फिर भी यह हैं स्वीकार करना ही होगा कि आज की विश्व व्यवस्था में अधिकतर अन्तः निर्भरता बढ़ती ही जा रही है। जहाँ राज्य परस्पर सहयोग स्थापित करके एकदूसरे देशों के सर्वोच्च हितों को ध्यान में में रखते हैं।

 

 

प्रश्न ) भारतीय विदेश नीति की विशेषता लिखिए।

अथवा

भारतीय विदेश नीति के प्रमुख सिद्धांत बताएं।

 

 

उत्तरभारत की विदेश नीति के मुख्य सिद्धान्तों को स्पष्ट करते हुए 29 सितम्बर, 1946 को पं० नेहरू ने एक प्रेस कांफ्रेस में कहा था किभारत का दृष्टिकोण संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रति पूर्णतया सहयोग का है तथा जो चार्टर उसे संचालित करता है। उसका अक्षरशः बिना किसी पूर्वाग्रह के पालन करने का है। इस लक्ष्य को सम्मुख रखते हुए भारत विश्व की विभिन्न गतिविधियों में पूर्ण भाग लेगा तथा रूप में उस भूमिका को निभाने का प्रयत्ल करेगा जो इसकी भौगोलिक स्थिति तथा जनसख्या तथा शान्तिमय प्रगति के लिए इसके योग्य है। भारत सभी उपनिवेशक तथा पराधीन लोगों की स्वतन्त्रता तथा आत्मनिर्णय के अधिकार का पूर्ण समर्थन करता है।

विदेशी मामालों के क्षेत्र में, भारत की स्वतन्त्र नीति यह होगी एकदूसरे के विरुद्ध इकट्ठे हुए गुटों की शक्तिराजनीति से दूर रहना। पराधीन व्यक्तियों की स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को मानना तथा जहाँ कहीं भी नस्ली भेदभाव होगा, उसका विरोध करना। यह दूसरे शान्तिप्रिय देशों के साथ मिलकर एक राष्ट्र के शोषण के बिना अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग तथा सद्भावना के लिए कार्य करेगा। यह आवश्यक है कि अपनी पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति की प्राप्ति के साथ भारत विश्व के सभी महान् राष्ट्रों के साथ सम्बन्ध स्थापित करे तथा एशिया के अपने पड़ौसी राष्ट्रों के साथ सम्बन्धों को और और अधिक निकटता प्रदान करे।

 

भारतीय विदेश नीति के प्रमुख सिद्धान्त निम्नवत् हैं

 

*साधनों की शुद्धताभारत को विदेश नीति अवसरवादी और अनैतिक नहीं है। भारत की विदेश नीति महात्मा गांधी के इस सिद्धान्त से प्रभावित रही है कि केवल उद्देश्य बल्कि उसको प्राप्ति के साथन भी पवित्र होने चाहिए। भारतीय संविधान के भाग IV में दिये गये नीति निर्देशक सिद्धान्तों में अनुच्छेद 51 में कहा गया है कि राज्य

 

(i)अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा अभिवृद्धि का।

 

(ii) राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाये रखना।

 

(iii) संगठित लोगों के एकदूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि बन्धनों के प्रति आदर बढ़ाने का।

 

(iv) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने के लिए प्रोत्साहन देने इत्यादि का प्रयत्न करेगा।

 

29 नवम्बर, 1955 को ५० नेहरू ने रूसी नेताओं बुल्लोनिन खुश्चेव के साथ एक प्रतिभोव में कहा था कि हम केवल इस बात में विश्वास नहीं करते कि जिन द्देश्यों को प्राप्त करना हे वे शुद्ध हो, किन्तु उनके लिए प्रयोग में लाये गये साधन भी शुद्ध हों अन्यथा नवीन समस्याओं की उत्पत्ति होती है तथा द्देश्य अपने आप में बदल जाता है।

 

*पंचशील— P नेहरू ने भारत को विदेश नीति को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए पंचशील सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। ये पाँच सिद्धान्त निम्नलिखित है

 

(i) एकदूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और सर्वोच्च सत्ता के लिए पारस्परिक सम्मान को भावना,

 

(ii) अनाक्रमण,

 

(iii) एकदूसरे के आन्तरिक मामालों में हस्तक्षेप करना,

 

(iv) समानता तथा पारस्परिक लाभ,

 

(v) शांतिपूर्ण सहअस्तित्व

 

*नस्लवादी भेदभाव का विरोधभारत सभी नस्लों की समानता में विश्वास रखता है हया किसी भी नस्ल के लोगों से भेदभाव का पूर्णरूप से विरोध करता है। अपनी स्वतन्त्रता से पहले भारत दक्षिणी अफ्रीका की प्रजाति पार्थम्य की नीति के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ में बराबर यह प्रश्न उठाता रहा है। भारत प्रजाति विशेष का इतना घोर विरोधी था कि उसने दक्षिणी अर्थका के साथ अपने राजनयिक सम्बन्ध तोड़ लिये थे। भारत तथा अन्य गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के प्रयासों से श्री नेल्सन मण्डेला अपने 27 वर्षों के लम्बे कारावास के पश्चात् 11 फरवरी, 1990 में स्वतन्त्रता को प्राप्त कर सके। अब जबकि दक्षिणी अफ्रीका की सरकार ने नस्लवाद की समाप्ति को ओर कदम उठाये हैं, तो भारत ने इसके विरुद्ध लागू सांस्कृतिक प्रतिबन्धों को हटाने की पहल को है।

पं० नेहरू के शब्दों मेंहम पूर्णरूप से नाजीवाद के नस्लवाद के सिद्धान्तों का खण्डन करते हैं चाहे वह कहीं भी किसी भी रूप में पाया जाता हो।इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में नस्लवाद को पूर्ण समाप्ति भारतीय विदेश नीति का मुख्य सिद्धान्त है।

 

 

गुटनिरपेक्षतागुटनिरपेक्षता या असंलग्नता भारत की विदेश नीति का सबसे महत्त्वपूर्ण और विलक्षण सिद्धान्त है। जिस समय अमेरिका और भूतपूर्व सोवियत संघ, ये दोनों महाशक्तियाँ शीत युद्ध की नीति पर चल रही थीं तथा दोनों पूँजीवादी एवं साम्यवादी गुट की अपनीअपनी स्थितियों को दृढ़ बनाने के लिए विभिन्न भारतीय नीति निर्माताओं विशेषतया पं० नेहरू राष्ट्रों के साथ गठजोड़ कर रहे थे। तब ने विश्व शान्ति तथा भारतीय सुरक्षा की आवश्यकताओं के हित में यही उचित समझा कि भारत को इस शक्ति राजनीति से पृथक् ही रखा जाये। 4 दिसम्बर, 1947 को पं० नेहरू ने कहा थाहम लोगों ने दोनों में से किसी भी गुट में सम्मिलित होकर विदेशी गुटबन्दियों से अलग रहने का प्रयास किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों में से कोई भी गुट हम लोगों के प्रति सहानुभूति नहीं रखता

सकारात्मक रूप से गुटनिरपेक्ष का तात्पर्य है, एक स्वतन्त्र विदेश नीति, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सक्रिय योगदान, प्रत्येक मामले को उसके गुणदोषों के आधार पर जाँचना तथा भारत के राष्ट्रीय हितों के आधार पर निर्णय लेना। नकारात्मक रूप से इसका तात्पर्य है, शीत युद्ध, सन्धियों तथा शक्ति राजनीति से दूर रहना। एम० एस० राजन के शब्दों में— “विशेषतया तथा नकारात्मक रूप से गुट निरपेक्षता का अर्थ राजनीतिक या सैनिक सन्धियों की अस्वीकृति, सकारात्मक रूप से इसका अर्थ था विषय के लाभों के आधार पर जब कभी भी या जैसी आवश्यकता हो, अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं परतदर्थ निर्णय लेना।

 

गुटनिरपेक्षता की नीति का अर्थ सकारात्मक है। अर्थात् जो सही और न्यायंसगत है। उसकी सहायता और समर्थन करना तथा जो अनीतिपूर्ण एवं अन्याय संगत है उसकी आलोचना एवं निन्दा करना। अमरीकी सीनेट में एक बार पं० नेहरू ने कहा था कियदि स्वतन्त्रता का उनन होगा न्याय की हत्या होगी अथवा कहीं आक्रमण होगा तो वहाँ हम तो आज तटस्थ रह सकते हैं और भविष्य में तटस्थ रहेंगे।

 

*संयुक्त राष्ट्र संघ तथा विश्व शान्ति के लिए समर्थनभारत संयुक्त राष्ट्र संघ के मूल सदस्यों में से एक है। भारत ने सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन में भाग लिया था तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर पर हस्ताक्षर किये। थे। तब से लेकर आज तक भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ तथा दूसरी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के क्रियाकलापों का समर्थन किया है तथा इनमें सक्रियता से भाग लिया है।

 

पं० नेहरू का विश्वास था किहम संयुक्त राष्ट्र संघ के बिना आधुनिक विश्व की कल्पना नहीं कर सकते।

 

*तीसरे विश्व के साथ एकतापं० नेहरू भारतीय स्वतन्त्रता को एशिया की उन्नति के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्थिति मानते थे। इसलिए उन्होंने एशिया में शान्ति तथा सुरक्षा पर पूर्ण ध्यान दिया। बाद में यही विचार अफ्रीकी एशियाई एकता की अवधारणा के रूप में विकसित हुआ। तीसरे विश्व की शान्ति तथा विकास की अवधारणा बाद में जन्म नये स्वतन्त्रता तथा विकासशील राष्ट्रों की अवधारणा बन गयी। 7 सितम्बर, 1946 को पं० नेहरू ने अपने भाषाण में कहा– “हम एशिया में रहने वाले हैं तथा एशिया में लागू दूसरों की अपेक्षा हमारे अधिक निकट तथा निकटतम हैं।

 

*सभी के साथ मित्रताभारत की नीति सभी के साथ शान्ति और मित्रता की है। भारत साम्यवादी और पूँजीवादी सभी देशों के साथ मधुर सम्बन्ध रखना चाहता है। भारत ने पड़ोसी देशों के साथ भी भी मित्रता की नीति अपनायी है। भारत ने पाकिस्तान से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रखने के लिए अनेक बार वार्ताएँ की। समझौता एक्सप्रेस, लाहौर बस यात्रा, आगरा वार्ता इसकी साक्षी है।

 

*भारत के राष्ट्रीय हितों पर आधारित स्वतन्त्र विदेशी नीतिभारत ने पिछले वर्षों में गुटनिरपेक्षता की जो स्वतन्त्रता नौति अपनायी है उसका आधार राष्ट्रीय हित है। इस नीति ने निर्णयों का निर्धारण करते समय आत्मसम्मान तथा स्वतन्त्रता के प्रति अस्था प्रकट की है। नेहरू की जी का यह विचार सही था कि किसी भी एक गुट को सम्मिलित होने पर दूसरे राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर स्थिति को अपने स्तर पर जाँचने स्वतन्त्र नीति अपनाने के लिए अपने दृढ़निश्चित पर एक प्रतिबन्ध लगेगा।

 

*निःशस्त्रीकरण का समर्थन–-भारत सभी प्रकार के शस्त्रों की होड़ रोकने के समर्थक है। इसके लिए जो शस्त्र बनाये जा रहे हैं वे बनाये और बने हुए हैं उन्हें नष्ट कर दिया जाये। इससे शीत युद्ध से उत्पन्न तनाव का आतंक समाप्त हो जायेगा। केवल निःशस्त्रीकरण ही अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को सुदृढ़ बना सकता है। निःशस्त्रीकरण से बचाये गये धन और साधनों के उपयोग से सभी राष्ट्रों का विकास हो सकता है। भारत निःशस्त्रीकरण द्वारा शान्ति लाने के पक्ष में है।

 

*परमाणु नीतिभारर्त पर्माणु शक्ति का युद्ध के लिए प्रयाग करने के विरुद्ध है। भारत पाकिस्तान की परमाणु नीति; जो यूरोपियन शस्त्र नौति का अनुसरण कर रही है का विरोधी है। भारत अन्तरिक्ष के परमाणुकरण तथा इसके साथसाथ अमेरिका के Star War Programme का विरोधी है। भारत परमाणु अप्रसार सन्धि का विरोधी है, क्योंकि वह पक्षपात पर आधारित है।

 

*सार्क से सहयोग–-दक्षिणी एशियाई राज्यों के साथ भाईचारे के सम्बन्धों का विकास करने के के लिए भारत के सार्क की स्थापना में सहयोग दिया है। सार्क में भारत, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, भूटान तथा मालदीव आदि राज्य सम्मिलित है

 

प्रश्न ) गुटनिरपेक्षता आन्दोलन में भारत की भूमिका बताइये

 

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में भारत की भूमिका

 

यूरोप के साम्राज्यवादी राष्ट्रों के द्वारा एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमरी अनेक शताब्दियों को शोषणे उपनिवेशवाद के शिकार हुए, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक युगान्तकारी परिवर्तन आया तथा इन शक्तियों साम्राज्यवादी नीति को आगे बढ़ाकर जनता की भावनाओं रही कि अपनी को कुचल सकें अतः उन्हें अपने स्वतन्त्रता के साथ एक नवे उपनिवेशों को छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा और इन देशों की युग का प्रारम्भ हुआ। चूंकि यहाँ गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में भारत की भूमिका का प्रश्न है इसलिए पर एक सरसरी नजर डालते हैं। जैसे

 

*सुखाका सम्मेलनसितम्बर, 1972 में आयोजित लुसाका सम्मेलन में भारत की तरफ से ओनति इन्दिरा गाँधी ने भाग लिया। सम्मेलन में पाकिस्तान को भाग नहीं लेने दिया गया, गुटनिरपेक्ष राष्ट्र नहीं था। इसमें इजराइल से मांग की गयी कि वह यू० एन० ओ० के अनुसार विजित क्षेत्र खाली कर दे तथा वियतनाम एवं कम्बोडिया से विदेशी हस्तक्षेप खत्म करने तथा अमेरिका ब्रिटेन को दक्षिण अफ्रीका सहायता के लिए उनकी आलोचना की गयी। जो लोग लुसाका सम्मेलन की असफलता की भविष्यवाणी कर रहे थे उन्हें अपनी पूल सांकार करनी पड़ी।

 

*अल्जीयर्स सम्मेलन—1974 के अल्वीयर्स सम्मेलन में केवल सात देशों ने भाग लिया जिनमें अल्जीरिया के बूमैदियन, भारत की श्रीमति इन्दिरा गाँधी, क्यूबा कात्रो, युगोस्लावियाटोट, सीबियागद्दाफी, कम्बोडियाराजकुमार सिहानुक ने महत्त्वपूर्ण भाग लिया। सम्मेलन में सोवियत तथा अमेरिका की बढ़ी मित्रता पर सन्तोष सिंहानुक को सरकार को मान्यता देने को सलाह, अफ्रीका मुक्ति मोर्चे को सहयोग देने की बात भी उठायो गयो तथा विश्व के आर्थिक दाँचे में में परिवर्तन लाने की मांग की गयी। अतः स्पष्ट हो गया कि तीसरी दुनिया को इच्छा मरी नहीं है और ही तटस्य राष्ट्रों ने अपने संगठन में विश्वास खो दिया है।

 

*कोलम्बों शिखर सम्मेलनअगस्त 1976 में ओलंका को राजधानी कोलम्बो में गुढ निरपेक्ष शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार करके इन्हें व्यवस्थित करने की मांग की। इनमें यू० एन० ओ० के महासचिव भी शामिल हुए। भारत का नेतृत्व श्रीमती इन्दिरा गाँधी कर रही थीं। सम्मेलन को समन्वय समिति में भारत को सम्मिलित किया गया।

 

*नई दिल्ली सम्मेलनमार्च, 1979 में गुटनिरपेक्ष देशों का शिखर सम्मेलन भारत की राजधोनी नई दिल्ली में हुआ। इसमें 123 देशों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में गुट निरपेक्ष आन्दोलन का अध्यक्ष श्रीमति इन्दिरा गाँधी को चुना गया। इसमें मुख्य व्यापार, निः शस्त्रीकरण, रंगभेद की नीति के विरोध का समर्थन किया।

 

हरारे शिखर सम्मेलन–-सितम्बर, सन् 1986 में जिम्बाब्वे की राजधानी हरारे में आयोजित हुआ। जिसमें भारत का नेतृत्व प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी कर रहे थे तथा इसका द्घाटन भी उन्हों ने किया। उन्होंने द्घाटन भाषण में शान्ति के सहअस्तित्व की वकालत करते हुए नामीबिया, फिलिस्तीन, हिन्द महासागर आदि के सम्बन्ध में भारत की गुट निरपेक्ष नीति तथा पंचशील पर ध्यान केन्द्रित किया।

 

*निकोसिया सम्मेलन अन्य सम्मेलन एवं वार्तायेंनिकोसिया नामक स्थान पर एक सम्मेलन होना तय किया गया तथा इसमें अन्तर्राष्ट्रीय मामलों से सम्बन्धित 5 पृष्ठों की घोषणा को गयी। इसके बाद बेलप्रड में। फिर से एक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में तकनीकी ज्ञान, शान्ति, सुरक्षा, सहयोग तथा लियों के उचित स्थान जैसे महत्त्वपूर्ण सवालों के शीघ्र समाधानों की ओर बल देने की आवश्यकता पर सहमति दिखलाई। हरारे घोषणा के अफ्रीका फण्ड के लिए सिर्फ भारत के प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने अपनी रुचि और प्रयास दिखा ये। श्री गाँधी ने अफ्रीका के प्रति प्यार और सहयोग को भावना को मजबूत बनाने हेतु मार्मिक भाषाण दिया जिसका सदस्यों ने तालियों की गड़गडाहट से स्वागत किया।

 

*एशियाई सम्मेलनभारत जाते हैं, का विश्वास था कि आगामी विश्व राजनीति में नवोदित राष्ट्री आन्दोलने दोलने के कर्णधार माने होगी। अतः 19947 ई०में भारतीय परिषद् के माध्यम से एशियाई को एक महत्वपूर्ण भूभिजित किया जिसमें विभिन्न राष्ट्रीय आन्दोलन के नायकों ने भाग लिया। इसने शोषण वेदान सोभाज्यवाद का विरोध तथा इण्डोनेशिया मुक्ति संघर्ष का समर्थन तथा एशिया तथा अफ्रीका आदि देशों का संयुक्त सम्मेलन बुलाया जाये आदि निर्णय लिये गये। इसमें भारत की भागीदारी रही।

 

सम्मेलनअफ्रीका एवं एशिया एकता की दिशा में बांहुँग सम्मेलन प्रथम एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण कदम था। यह 1955 में इण्डोनेशिया के शहर बांडुग में आयोजित किया गया। इसमें भारत के अलावा अन्य कई राष्ट्रों ने भी भाग लिया। इसकी सफलता का श्रेय पण्डित नेहरू, सुकाणों, नासिर एवं चाऊएनलाई को था। सुकार्णों ने कहा, “मुझे आशा है कि सम्मेलन इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करेगा कि एशिया और अफ्रीका का पुनर्जन्म हो चुका है तथा इसके माध्यम से एशिया और अफ्रीका में पुनर्जागरण, राजनीतिक, चेतना एवं आत्मविश्वास की लहर छा गयी। इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप और देशों ने भी शान्ति नीति का अनुसरण किया।

 

*बेलग्रेड सम्मेलनसन् 1961 में यूगोस्लोविया की राजधानी बेलग्रेड में शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें 28 राष्ट्रों ने भाग लिया। इनमें अधिकांश एशिया और अफ्रीका के राष्ट्र थे। सम्मेलन में उपनिवेशवाद, रगभेद, निःशस्त्रीकरण तथा शीतयुद्ध की समस्याओं पर विचार किया तथा व्याप्त खामियों का विरोध किया गया।

 

*काहिरा सम्मेलनगुट निरपेक्ष राष्ट्रों का अगला सम्मेलन मिस्त्र की राजधानी काहिरा में आर्योजित हुआ। पण्डित नेहरू की मृत्यु से गुटनिरपेक्ष देशों का बहुत धक्का लगा था। इस सम्मेलन में दक्षिण रोडेशिया की अल्पसंख्यक गोरी सरकार की आलोचना करके बहुसंख्यक समुदाय को सत्ता सौंपने को कहा गया तथा रंगभेद की भर्त्सना की गयी। काहिरा सम्मेलन से गुटनिरपेक्षता की साख बन गयी

 

 

 

प्रश्नदूसरे शीतयुद्ध के कारण तथा परिणाम    लिखिये

अथवा

द्वितीय शीत युद्ध की विशेषतायें लिखिये

 

 

उत्तर— 1980 के बाद रोगन प्रशासन ने रूस विरोधी टकराव की नीति अपनाकर नये शीतयुद्ध की प्रचण्डता को तीव्र किया। इसेद्वितीय शीतयुद्धकहा जाता है।

 

कारण

 

दूसरे शीतयुद्ध के लिये निम्नलिखित कारण प्रमुख थे–-

 

*दक्षिणपूर्वी एशिया में रूस का और क्तियनाम का बढ़ता हुआ प्रभावरूसवियतनाम मैत्री सन्धि कम्बोडिया (कम्पूचिया) में बढ़ता हुआ प्रभाव चीन अमेरिका दोनों के लिए चिन्ता का प्रश्न बना। अमेरिका से प्रेरणा लेकर ही चोन ने वियतनाम पर हमला किया, ताकि उसे सबक सिखाया जा सके। इससे वियतनाम और रूस में मित्रता और मजबूत हई।

 

*अन्तरिक्ष में दोनों महाशक्तियों की होडरूस अमेरिका दोनों यह प्रचार करते रहे है कि उनके अन्तरिक्ष अनुसन्धान मानव जाति के कल्याण के लिये हैं, किन्तु दोनों के लक्ष्य स्पष्ट नहीं थे। दोनों का लक्ष्य अन्तरिक्ष में अपनाअपना प्रभुत्व जमाना था। अन्तरिक्ष योजनाओं का मानव कल्याण के लिए संबंधित सैनिकों का प्रस्ताव नहीं था।

 

*यूरोप में प्रक्षेपास्त्रों का प्रश्न—  रूस ने यूरोप के पूर्वी भागों में मिसाइलें लगाने का निर्णय लिया, क्योंकि वह रोगन की नीति से भयभीत था कि नाटो देशों के द्वारा उस पर आक्रमण कर सकता है। इसके प्रत्युत्तर में नाटोनाष्ट्र भी रूस से डरने लगे।

 

*खाड़ी क्षेत्र में अमेरिकी नीति की विफलताफारस की खाड़ी के क्षेत्र में हमेशा अमेरिका का प्रभाव रहा है तथा ईरान के शाह को अमेरिका पिट्दू समझा जाता था। किन्तु 1979 में शाह के पतन और इस्लामी क्रान्ति के फलस्वरूप यहाँ इस्लाम धर्म के नेता अयातुल्लाह खुमैनी का उदय हुआ जो अमेरिका के शत्रु रहे थे। अमेरिका के प्रभाव को समाप्त करने के लिये इस्लामी क्रान्तिकारियों ने नवम्बर, 1979 में तेहरान स्थित सभी दूतावास के 45 राजनायकों को बन्दी बना लिया। इस प्रकार से अमरीका की प्रतिष्ठा कम हुई।

 

* सोवियत संघ की शक्ति में वृद्धिऐसा समझा जाता है कि देतान्त के युग में रूस, परमाणु और नौसैनिक शक्ति में अमरीका की बराबरी में गया, क्योंकि उस समय अमेरिका वियतनाम के युद्ध में फंसा हुआ था। अतः कुस की शक्ति को देखते हुए अमेरिका ने चीन के साथ देतान्त प्रक्रिया को शुरू करके नये से प्रसन्न नहीं था। शक्ति सन्तुलन की चेष्टा की। है।

 

रोगन का राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित होनारोगन के सत्ता में आते ही अमरीका ने पुनः शस्त्र उद्योगों को बढ़ाया दिया और मित्र देशों का पुनः शस्त्रीकरण करना शुरू कर दिया। इससे शीतयुद्ध में वृद्धि हुई।

 

परिणाम

 

शीतयुद्ध के सम्भावित परिणामों को इस प्रकार बताया जा सकता है

 

*देतान्त को क्षतिदूसरे शीतयुद्ध का सबसे अधिकक दुष्परिणाम देतान्त की हानि रहा है। अफगानिस्तान, मेनेडा, कम्पूचियाँ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं केशान्तिपूर्ण सहअस्तित्वका स्थानसैनिक प्रतिद्वन्द्विताने ले लिया। सद्भावना यात्रायें, परस्पर शिखर सम्मेलन वार्ता की भूमिका निःशस्त्रीकरण के प्रयास रुक गये।

 

* स्थानीय युद्धों को प्रोत्साहनदूसरे शीतयुद्ध के परिणामस्वरूप स्थानीय शीतयुद्ध को बढ़ावा मिला। महाशक्तियों ने शस्त्रों की आपूर्ति करके उन्हें युद्ध के लिये प्रेरित किया।

 

*तनाव क्षेत्रों में वृद्धिदसरे शीतयुद्ध ने तनाव के क्षेत्रों में वृद्धि की। संयुक्त राष्ट्र संघ, हिन्द महासागर, दक्षिणपूर्वी एशिया, पश्चिम एशिया, फारस की खाड़ी आदि क्षेत्रों में महाशक्तियों में उम्र प्रतिद्वन्द्विता बढ़ी

 

*शस्त्रों की होड़ तथा निःशस्त्रीकरण के प्रयास विफलइन शीतयुद्ध ने शस्त्रों की होड़ को तेज किया है। महाशक्तियों ने अपने संरक्षित राज्यों को शस्त्र देकर युद्ध मनोदश को प्रबल किया। इसके परिणामस्वरूपसाल्ट द्वितीयसन्धि निरस्त हुई तथा परमाणु शस्त्रों को सीमित करने की वार्ता अधर में लटक गयी। दूसरे शीतयुद्ध का प्रभाव सम्पूर्ण विश्व में महसूस किया जा सकता है। औद्योगिक विश्व में इसका प्रभाव आर्थिक होगा, जबकि विकासशील राष्ट्रों में केवल आर्थिक अपितु हस्तक्षेपवादी नीतियों के कारणों राजनीतिक तथा सैनिक होगा।

रूसी नेता गोर्वाच्योव का उदार शान्तिपूर्ण नीतियाँ, रूस और अमेरिका के बीच सम्पन्न हुआ निःशस्त्रीकरण समझौता यह संकेत देता है कि महाशक्तियाँ आपसी बातचीत से समस्याओं का हल निकालना चाहती हैं

 

विशेषताएँ

 

द्वितीय शीतयुद्ध की विशेषतायें अग्रलिखित हैं

 

*विचारधारा से मुक्तप्रथम शीतयुद्ध साम्यवाद बनाम पूँजीवाद के बीच संघर्ष था, जबकि द्वितीय शीतयुद्ध उपयोगिता पर आधारित था। इस शीतयुद्ध में साम्यवादी चीन, अमेरीका यूरोपीय देशों के साथ है। अमेरिका ने रूस के प्रभाव को रोकने के लिये चीन के साथ मित्रताका रूप बढ़ाया, जबकि एक समय ऐसा था कि अमेरिका ने चीन का विस्तारवादी नीति का धिरोष किया था। आज अमेरिका चीन को शान्तिप्रिय देश मानता है।

 

*उद्देश्य में अन्तरपहले शीतयुद्ध का उद्देश्य साम्यवाद के विस्तार को रोकना था, दूसरे शांतयुद्ध का उद्देश्य केवल रूस की शक्ति तथा प्रभाव को सीमित करना था।

 

*प्रतिस्पद्धों का नया क्षेत्रप्रथम विश्वयुद्ध के बाद उत्पन्न शीतयुद्ध का मुख्य क्षेत्र यूरोप या तथा यूरोप के लिये हो सैनिक गठबन्धनों का उदय हुआ, किन्तु द्वितीय शीतयुद्ध का हो विश्वव्यापी था। यह हिन्द महासागर, पश्चिम एशिया, फारस की खाड़ी तथ लैटिन अमेरिका केन्द्रित था।

 

*निगुट आन्दोलन के सन्दर्भ में अन्तरप्रथम शीतयुद्ध के समय निर्गुट आन्दोलन का उदय हुआ जिसका लक्ष्य महाशक्तियों के मध्यसेतुबन्धका कार्य करना था। दूसरे शीतयुद्ध से निर्गुट राष्ट्र स्वयं गुटबन्दी के शिकार हो रहे हैं।

 

*परमाणु शस्त्रों से लड़ा जाने वाला युद्धप्रथम शीतयुद्ध की अपेक्षा द्वितीय शीतयुद्ध के दौरान महाशक्तियों के पास परमाणु शस्त्रों के भण्डार अधिक थे, लेकिन महाशक्तियाँ प्रत्यक्ष टकराव से बचती रहीं।

 

*द्वितीय शीतयुद्ध अमेरिकी मजबूरियों का परिणाम हैप्रथम विश्वयुद्ध स्टालिन की उप नोतियों का फल या, किन्तु द्वितीय अमेरिका प्रतिद्वन्द्रिता का परिणाम था।

अब अमेरिका औद्योगिक सामान और इलेक्टॉनिक्स में फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी और जापान के साथ प्रतिद्वन्द्विता नहीं कर सकता था। अतः विश्व में शस्त्रों का निर्यात करना चाहता था, क्योंकि यही एक ऐसा उद्योग था जहाँ उसे प्रतिद्वन्द्रिता सहन नहीं करनी थी। शस्त्र उद्योग का विकास अमरीका की आर्थिक स्थिति में सुधार हेतु आवश्यक माना गया।

 

प्रश्नसाम्यवादी गुट के विखराव का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ा ?

अथवा

सोवियत संघ के विघटन पर एक लेख लिखिये।

 

 

उत्तर 1991 की विश्व राजनीति में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय घटना सोवियत संघ के विघटन की है। इस घटना ने विश्व राजनीति में एक नया मोड़ ला दिया और इसने विश्व राजनीति को व्यापक रूप से प्रभावित भी किया है। सोवियत संघ के विघटन की नींव सन् 1985 ई० में पड़ गयी थी। 7 नवम्बर को सोवियत संघ की स्थापना की गयी थी। 1921 में लेनिन ने नई आर्थिक नीति की घोषणा की और 1922 में स्टालिन को कम्युनिस्ट पार्टी का महामन्त्री बना दिया गया। उसके बाद 1956 में खुश्चेव तथा 1964 में बेझनेव पार्टी के महामन्त्री बने। इन दिनों पार्टी के महामन्त्री की स्थिति एक अधिनायक की भाँति रही। 1985 में. गोर्बाच्योव पार्टी के महामन्त्री बने। उन्होंने ग्लेस्नोस्त (खुलापन) तथा पेरेस्त्रोइका (पुनर्निर्माण) के सिद्धान्त लागू किये और इनका व्यापक प्रचार भी किया। जिसके परिणामस्वरूप दिसम्बर, 1991 में सोवियत संघ का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। 26 दिसम्बर, 1991 को सोवियत संघ की पंसन्द सुप्रीम सोवियत ने अपने अन्तिम अधिवेशन में सोवियत संघ को समाप्त किये जाने का प्रस्ताव पारित कर दिया और स्वयं के भंग होने को भी घोषणा कर दी। इसके साथ ही 70 वर्ष पुराने सोवियत संघ का अन्त हो गया।

 

1991 को कुछ घटनायें सोवियत संघ का विघटन लाने के लिये उत्तरदायी सिद्ध हुई। 1991 को गोर्बोच्योव को राष्ट्रपति पद से हटाकर उपराष्ट्रपति गोन्नादि यानायेव को राष्ट्रपति पद का कार्यभार सौंप दिया गया। 22 अगस्त, 1991 को विद्रोह के असफल होने के बाद गोर्वाच्योव वापस लौटे तो एस्टोनिया के बाल्टिक गणराज्य ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। 25 अगस्त, 1991 को गोर्वाच्योव ने साम्यवादी पार्टी का प्रमुख पद छोड़ा तो साथ ही उक्रेन ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। 29 अगस्त, 1991 को सुप्रीम सोवियत ने कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 31 अगस्त, 1991 को अराकिस्तान ने सितम्बर, 1991 को उज्बेकिस्तान और किर्गिस्तान ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। 7 सितम्बर, 1991 को सोवियत संघ की तीन बाल्टिक गणराज्योंलिथुआनिया, एस्टोनिया और लेटविया को मान्यता प्रदान कर दी। 13 दिसम्बर, 1991 को येल्तसिन और गोर्वाच्योव में सोवियत संघ की सुप्रीम सोवियत संघ ने अपने अन्तिम अधिवेशन में सोवियत संघ को समाप्त किये जाने का प्रस्ताव पारित कर दिया और स्वयं भंग होने की घोषणा कर दी। इसके सोवियत रूस का उदय हुआ। विघटन हो 70 वर्ष पुराने सोवियत संघ का साथ ही गया और

 

में सोवियत संघ के विघटन के बाद उसका सबसे बड़ा गणराज्यरूसअन्तर्राष्ट्रीय राजनीति महत्वपूर्ण इकाई के रूप में अवतरित हुआ। जहाँ सोवियत संघ की कुल आबादी 28 करोड़ में सताव भी वहाँ रूस की कुल आबादी 14 करोड़ 77 लाख है। (सोवियत संघ की 52 प्रतिशत जनसंख्या रूसी गणराज्य में निवास करती है। आज भी वह क्षेत्रफल की दृष्टि से दुनिया का जबसे बड़ा देश है। पूर्व सोवियत संघ की भूमि का 75 प्रतिशत भाग रूस के पास है और ऐसा माना जाता है कि पूर्व सोवियत संघ का औद्योगिक और कृषि उत्पादन का 70 प्रतिशत रूस से ही होता है। सोवियत संघ का 90 प्रतिशत तेल, 50 प्रतिशत गेहूँ, 50 प्रतिशत कपड़ा, 50 प्रतिशत खनिज रूसी गणराज्य में ही पैदा होता है। रूस का स्वर्ण उद्योग विश्व के दूसरे स्थान पर आता है। क्षेत्रफल की दृष्टि से भी रूस सोवियत संघ का विशालतम गणराज्य था। सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में इस गणराज्य का अपना विशिष्ट योगदान रहा है, क्योंकि यह सर्वाधिक संसाधन सम्पन्न राज्य है। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस का संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में पुराने सोवियत संघ का स्थान प्रदान कर दिया गया तथा उसने वचन दिया कि पुराने सोवियत संघ के समस्त अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों का वह निर्वाह करेगा। पुराने सोवियत संघ के विघटन के बाद बचा हुआ रूस एक महाशक्ति के रूप में तो उभरा है, क्योंकि हजारों मिसाइल रूस से दूरदूर रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन को सौंप दिये थे।

 

सोवियत रुस की विदेशी नीति की बागडोर राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के हाथ में है। वे रूसी गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति हैं जिनका निर्वाचन लोकतान्त्रिक के विधि से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा 10 जुलाई, 1991 को हुआ। विगत एक हजार वर्ष के रुसी इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है। 26 दिसम्बर, 1991 को सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस एक स्वतन्त्र सम्प्रभुत्त राज्य के रूप में प्रकट हुआ है। केवल 5 वर्षों के अस्तित्व के आधार पर उसकी विदेशी नीति का मूल्यांकन करना एक कठिन कार्य है। फिर भी इन पाँच वर्षों में रूस ने संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ सहयोग, अमेरिका के साथ सामान्य सहयोगी सम्बन्ध, यूरोपीय राष्ट्रों विशेषकर जर्मनी के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध, चीन और जापान के साथ विवादों का समाधान और भारत के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया है।

 

आज विश्व में रूस की भूमिका उसके नायक बोरिस येल्तसिन के व्यक्तित्व से तय हो रही है। सत्ता में येल्तसिन के आने से रूसी लोगों की यह दुनिया खत्म हो गयी है कि वे एशियाई ताकत हैं या यूरोपीय मास्को विश्वविद्यालय में इतिहास में प्रोफेसर दमित्रि फ्योद्रोरोव यही बात कहते हैं, “हमें भरोसा है कि हम अब अपने संसाधन और ऊर्जा को अमेरिकी खेमे से लड़ने या तीसरी दुनिया को चलाने में वर्बाद नहीं करेंगे, हमें आत्मनिरीक्षण और कड़ा प्रतिबन्ध करना चाहिए तथा यूरोपीय समुदाय में शामिल हो जाना चाहिए, जहाँ के हम है।” 19 दिसम्बर, 1991 को ही बारिस येल्तसिन के रूसी परिसंघ के क्रेमिलिन की सोवियत सरकार की परम्परागत सीट और विदेश मन्त्रालय को अपने नियन्त्रण में कर लिया

 

सोवियत संघ के विघटन का विश्व राजनीति पर प्रभाव

 

सोवियत संघ के विघटन ने विश्व राजनीति को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। पिछले तीन वर्षों में रूसी विदेशी नौति की बहुतसी विशेषतायें उभरकर सामने आयी हैं। जैसेसंयुक्तराष्ट्र के साथ सहयोग, अमेरिका के साथ सामान्य सहयोगी सम्बन्ध, यूरोपीय राष्ट्रों विशेषकर जर्मनी के साथ घनिष्ठ आर्थिक सम्बन्ध, चीन और जापान के साथ विवादों को सुलझाने की नौसि और भारत के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बनाने की चेष्टा 10-12 महीनों में रूम ने विभिन्न देशों के शाप जिस ढंग से सम्बन्धों की शुरूआत की है उससे उसको विदेश नीति का रुझान स्पष्ट हो जाता है।

 

अप्रैल, 1992 को रूस की कांग्रेस ने राष्ट्रपति येल्तसिन के अधिकारों में कटौती करने का प्रस्ताव पारित किया तो अमेरिका ने धमकी दी है कि यदि येल्तसिन को हटाया जाता है, तो यह 24 अरब डॉलर की सहायता रोक देगा जिसका उसने वचन दिया है। यूरोप में पुनर्निर्माण और विकास से सम्बद्ध पूरोपीय बैंक ने भी ऐसी ही धमकी दी और दोनों ने यह आशंका व्यक्त की, कि यदि पेल्तसिन को सत्ता से हटाया गया, तो आर्थिक सुधारों और उदारीकरण के प्रयासों को गहरा आपात लगेगा।

 

सोवियत संघ के साथ भारत के घनिष्ठ सम्बन्ध थे। अतः सोवियत संघ के विघटन से भारत का चिन्तित होना स्वभाविक था। 31 जनवरी, 1991 को न्यूयार्क में राष्ट्रपति येल्तसिन ने भारत के प्रधानमन्त्री से मुलाकात की। भारत ने रूसी संघ को 15 करोड़ रुपये की मानवीय सहायता देने का प्रस्ताव किया। भारत और रूस के बीच मैत्री एवं सहयोग से सम्बद्ध सन्धि का

अनुसमर्थन 11 अक्टूबर 1993 को मास्को में हुआ।

 

13 से 18 सितम्बर, 1992 तक रूस के राष्ट्रपति येल्तसिन जापान की यात्रा करने वाले थे। लेकिन 9 सितम्बर को अचानक इस यात्रा के स्थगन की घोषणा कर दी गयौ। ज्योंही येल्तसिन यात्रा तय हुई जापानी अधिकारियों, नेताओं अखबारों ने राष्ट्रपति भावनाओं का ज्वार उभार दिया। जापान के बारबार कहा कि वह रूस को आर्थिक सहायता अवश्य देगा, लेकिन यदि वह कुरीत यपुओं का वापस नहीं लौटाता है, तो जापानी जनता इस प्रकार सहायता देने की अनुमति नहीं देंगी। जापान सोचता था कि आर्थिक मजबूरियों के कारण रूस को झुकना ही पड़ेगा और जापान को कुरोल टापू वापस मिल जायेंगे। रूसी राष्ट्रवादियों और पुराने साम्यवादियों ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की। येल्तसिन की जापान यात्रा का भारी विरोध हुआ। उन पर आर्थिक सहायता के नाम पर राष्ट्रीय अखण्डता सम्प्रभुता का सौदा करने का आरोप लगाया गया। इस स्थिति में येत्सिन प्रशासन ने जापान से कोई मध्यम मार्ग निकालने की अपील की। लेकिन जापान के विदेश मन्त्री स्वयं मास्को आये तथा चार टापूओं की पूर्व शर्त पर अड़े रहे 19 सितम्बर को जब येल्तसिन ने यात्रा स्थगन की घोषणा कर दी तो मास्को में विजयोत्सव का वातावरण छा गया।

 

22 जून, 1994 को रुस ने उत्तर अटलांटिक सन्धि संगठन (नाटो) के साथ एक महत्त्वपूर्ण सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किये। यह योजना शान्ति के लिये सहभागिता के रूप में मानी जाती है। इस सहभागिता कार्यक्रम से रूस और नाटो के बीच सम्बन्ध और मजबूत होंगे तथा शान्ति अभियानों में सहयोग संयुक्त सैनिक अभ्यास का मार्ग भी खुलेगा।

 

इसके अतिरिक्त सोवियत संघ के विघटन का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर भी विशेष प्रभाव पड़ा है—-

 

विश्व राजनीति में शीतयुद्ध समाप्त हो गया।

अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में संयुक्त राज्य अमेरिका   हो अकेली महाशक्तियों के रूस में प्रतिष्ठित हो गया है।

नवोदित रूस अनेक समस्याओं और चुनौतियों से ग्रस्त होने के कारण महाशक्ति ने रहने का गौरव खो चुका है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रभाव और महत्त्व में वृद्धि हो गयी है।

विश्व में साम्यवाद के प्रसार में कमी गई है

एशिया और यूरोप की राजनीति में अमेरिका का हस्तक्षेप और वर्चस्व बढ़ता जा रहा है।

विश्व की राजनीति एक ध्रुवीकरण की दिशा में प्रशस्त हो चुकी है।

प्रश्नविदेश नीति का अर्थ, लक्ष्य निर्धारक तत्त्व तथा साधन लिखिये।

अथवा

विदेश नीति के प्रमुख निर्धारक तत्त्व लिखिए।

 

उत्तर विदेशी नीति का अर्थ है उन सिद्धान्तों का समूह जो एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों के साथ अपने सम्बन्धों के अन्तर्गत अपने राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने के लिये अपनाता है। सरल शब्दों में, विदेश नीति का अर्थ एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र या राष्ट्रों के प्रति अपनायी जाने वाली नीति या व्यवहार है।

 

विदेश नीति की कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

 

नॉर्मन हिल के शब्दों में, “विदेशी नीति अन्य देशों के साथ अपने हित को बढ़ाने के लिए किये जाने वाले किसी राष्ट्र के प्रयासों का समुच्चय है।

 

श्लीश्वर के शब्दों में, “विदेश नीति का तात्पर्य सरकारी प्रतिनिधियों के उन क्रियाकलापों से है, जिनके द्वारा वे अपने राष्ट्र की सीमा के बाहर के मानवीय व्यवहार को प्रभावित करते हैं।

 

पैडलफोर्ड तथा लिंकन के अनुसार, “विदेशी नीति उस प्रक्रिया का मुख्य तत्त्व है जिसके द्वारा राष्ट्र अपने विशेष लक्ष्यों तथा उद्देश्यों को ठोस कार्य दिशा देते हैं तथा इन उद्देश्यों को प्राप्त करने तथा बनाये रखने का यल करते हैं।

 

डॉ० वी० बी० सिंह के अनुसार, “विदेश नीति से अभिप्राय केवल उन सिद्धान्तों तथा आदर्शों के समूह की संज्ञा से नहीं है जिसके आधार पर वह देश अन्य देशों के साथ अपने सम्बन्धों का निर्धारण करता है वरन् किसी राज्य के साथ कोई सम्बन्ध रखने का निर्णय भी एक प्रकार की विदेशी नीति है।

 

सैसिल वी० क्रेव के शब्दों में, “अगर हम सिर्फ मूलभूत तत्त्व को ही लें, तो विदेश नीति में दो तत्त्व शामिल होते हैंराष्ट्रीय उद्देश्य, जो प्राप्त करते हैं तथा उन्हें प्राप्त करने के साधन हैं।

 

डॉ० महेन्द्र कुमार के शब्दों में, “विदेश नीति कार्यों की सोचीसमझा दिशा है, जिससे राष्ट्रीय हित की विचारधारा के अनुसार विदेशी सम्बन्धों में उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है।

 

फैलिक्स ग्रॉस के अनुसार, “अपने क्रियात्मक रूप में विदेश नीति एक सरकार की दूसरी सरकार के प्रति, एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य के प्रति अथवा एक सरकार द्वारा एक अन्तर्राष्ट्रीय संघ के प्रति अपनायी गयी विशिष्ट क्रिया पद्धति है।

 

जॉर्ज मोडेस्की के शब्दों में, “विदेश नीति राज्य की गतिविधियों का व्यवस्थित एवं विकसित रूप है, जिसके माध्यम से एक राज्य दूसरे के व्यवहार को अपने अनुकूल बनाने अथवा यदि ऐसा सम्भव हो सके तो व्यवहार को अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति के अनुसार बदलने का प्रयास करता है।

 

एण्डरसन क्रिस्टल के अनुसार, “विदेशी नीति, के सामान्य सिद्धान्तों का निर्धारित एवं क्रियान्वयन करती है जिसके द्वारा किसी राज्य के आचरण को प्रभावित करके अपने महत्त्वपूर्ण हितों की सुरक्षा एवं पुष्टिकरण करता है।

 

विदेश नीति का उपकरणा कोई भी देश अपनी विदेशी नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनेक उपकरण का सहारा लेता है। ये उपकरण वे साहस हैं जिनकी सहायता से सम्बन्धित देश राष्ट्रहित की पूर्ति करता है

 

सन्धिसन्धिवार्ता के दोरान यदि विवाद के बारे में किन्हीं निश्चित निर्णय पर सहमति हो जाती है तो सम्बन्धित पक्ष सन्धि एक ऐसा दस्तावेज है जिससे समझौते की शर्तों का स्पष्ट उल्लेख किया जाता है। प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त की गई वासाय की सन्धि विदेश नीति के सन्धिक उपकरण के रूप में अच्छा उदाहरण है।

 

दौत्य कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापनादौत्य सम्बन्धों का अर्थ दो राष्ट्रों के बीच कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना से है। इसके अन्तर्गत्त राष्ट्र एकदूसरे की राजधानियों में अपने दूतावास खोलता है। इन दूतावासों में राजदूत और अनेक अन्य अधिकारी रहते हैं। दोनों देशों के बीच चहुंमुखी सम्बन्धों की स्थापना में ये कूटनीतिक अधिकारी सहायक एवं माध्यम की भूमिका निभाते हैं। आधुनिक विश्व की अन्तर्निर्भरता को देखते हुए विदेश नीति उपकरण के रूप में अन्य राष्ट्रों के बीच दौत्य कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना का महत्त्व दिनोंदिन बढ्दा जा रहा है।

 

सन्धि वार्ताजब दो या दो सअधिक देशों के बीच विवाद हो तो उसका समाधान खोजने के लिए सम्बन्धित देशों के प्रतिनिधि विचारविमर्श करते हैं, ताकि किन्हीं निर्णयों पर पहुँचकर विवाद के समाधान के लिए सन्धि की जा सके। कुछ सन्धि वार्ताएँ गोपनीय होती हैं और कुछ खुले रूप से जिनके अन्तर्गत सम्बन्धित सन्धि वार्ता के प्रवक्ता विश्व को जनप्रचार के साधनों के माध्यम से समय समय पर वार्ता की प्रगति की जानकारी देते हैं। अतः सन्धि वार्ता विदेश नीति में एक ऐसा उपकरण है जिसके जरिये विवाद में उलझे राष्ट्र समाधान खोजने के लिए विचारों का आदानप्रदान कर किन्हीं निर्णयों तक पहुँचने का प्रयास करते हैं।

 

कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करनाकूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करना भी विदेश नीति का प्रमुख उपकरण होता है। कूटनीति कुरीतिक सम्भों को अत्यन्त नाजुक और सीमित परिस्थितियों में ही के हो जाता है। कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करने के अन्तर्गत दोनों देश के एकदूसरे की राजधानियों से अपने दूत बाप को बंग कसोर दूतावास हटा लेते हैं। इसका प्रभाव यह पड़ता है, प्रत्येक दोनों देश के बीच बातचीत का माध्यम नहीं रहता है। कूटनीतिक सम्बन्धों के प्रभाव में दोनों देशों को बातचीत शुरू करने के लिए अनेक कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं। एक बार कूटनीतिक सम्बन्ध विच्छित होने पर पुनः स्थापित तभी होते हैं जब दोनों देशों में विवाद के प्रति थोड़ी सहमति हो जाये। उदाहरणार्थ 1962 में चीन ने भारत पर सैनिक आक्रमण किया तो दोनों देशों ने अपनेअपने राजदूत वापस बुला लिये थे। 1976 में भारत और चीन में कूटनीतिक सम्बन्ध पुनः तभी स्थापित हुए वे जब दोनों देशों में आम सहमतिहो गई कि उनके मतभेद को शान्तिपूर्ण उपायों से सुलझाया जा सकता है। इस प्रकार कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करना विदेश नीति का एक प्रमुख उपकरण है।

 

अन्य देशों से आर्थिक सम्बन्धविदेश नीति के अन्य देशों से आर्थिक सम्बन्ध कायम रखने के उपकरण के रूप में किसी देश के द्वारा अन्य देशों में पूँजी पस्त करना, प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता प्रदान करना, औद्योगिकरण एवं पुनर्निर्माण में सहयोग देना महत्त्वपूर्ण रूप से उल्लेखनीय है। वस्तुतः आज की विश्व राजनीतिक में अर्थ विदेश नीति का एक आधारभूत तथ्य की तरह स्थापित हो गया है। आज विश्व राजनीति अर्थ केन्द्रित हो गई है। आधुनिक युग के विश्व की बड़ी शक्तियाँ तीसरी दुनिया के गरीब देशों में पूँजी निवेश के साथसाथ अपनेअपने राजनीतिक अन्य उद्देश्य भी पूरा करती हैं। बड़ी शक्तियों द्वारा छोटे देशों को आर्थिक सहायता भी राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित होती है अर्थात् इस प्रकार के आर्थिक सम्बन्ध विदेश नीति के उपकरण के रूप में कार्य करते हैं।

 

क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धि—- अनेक बार विश्वर के किसी कोने के देश क्षेत्रीय सुरक्षा की दृष्टिकोण से सन्धि करते हैं। यह सन्धि उनकी विदेश नीति के उपकरण का कार्य करती है। इस क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धि के जरिये क्षेत्र विशेष के देश जहाँ एक ओर आपस में सहयोग करते हैं वहीं दूसरी और बाहरी खतरे के समय एकजुट होकर उनका सामना करते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के के बाद अमेरिका ने पश्चिमी यूरोप के देशों को अपने गठजोड़ के अन्तर्गत लेकर साम्यवादी खतरे का मुकाबला करने के लिए क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धि करके नाये नामक सैनिक संघठन की स्थापना = की। इसी प्रकार सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप ने देशों को अपने साथ लेकर पूँजीवाद खतरे का मुकाबला करने के लिएवारसासन्धि की।सेन्तोऔरसिएतोसंगठनों की स्थापना भी क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धियों द्वारा हुई।

 

आर्थिक सहयोग संगठनों की स्थापनाविदेश नीति के उपकरण के रूप में आर्थिक सहयोग संगठन का प्रयोग किया जाता है। किन्हीं समाज हितों में प्रेरित होकर कुछ देश आर्थिक संघटन बना लेते हैं। ऐसे संघटन के माध्यम से सदस्य देश अपने देशों की विदेश नीतियों के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए आपसी आर्थिक सहयोग करते हैं। यूरोपीय आर्थिक समुदाय और यूरोपीय साझामण्डी को ऐसे आर्थिक सहयोग संगठनों में रखा जाता है इस प्रकार के संघटन भी राष्ट्र अपनी विदेशी नीति में उपकरण के रूप में प्रयोग करते हैं।

 

युद्धयुद्ध भी विदेश नीति के प्रमुख उपकरण के रूप में इस्तेमाल होता है। इसके अन्तर्गत युद्ध को धमकी देना, युद्ध लड़ना और शत्रु देश द्वारा आक्रमण करने पर उसके साथ युद्ध करना प्रमुख है। कुछ राष्ट्र तो विवादों के समाधान के लिए अन्य शान्तिपूर्ण उपायों के स्थान पर युद्ध को ही प्राथमिकता देते हैं। उदाहरणार्थ भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान अपनी विदेश नीति को महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारत पर 1947, 1965, 1971 में तीन बार सैनिक आक्रमण कर चुका है। शान्तिप्रिय भारत को भी राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए मजबूरीवश युद्ध का सहारा लेना पड़ा। इस प्रकार युद्ध विदेश नीति के उपकरण के रूप में इस्तेमान किया जाता है।

 

विश्व संगठन का. उपयोगविश्व समुदाय आमतौर पर शान्ति और सुरक्षा के बातावरण में रहना चाहता है। इसके लिए जब भी किसी विश्व संगठन के निर्माण का प्रस्ताव आता है तो एक बड़ी संख्या में राष्ट्र उसके सदस्य बनने के लिए तैयार हो जाते हैं। विश्व संगठन विश्व में शान्ति और सुरक्षा बनाये रखता है इसके साथसाथ ही राष्ट्रों के आपसी विवादों का हल ढूँढने का भी प्रयास करता है जिससे कि राष्ट्रों के विवादों को शान्तिपूर्वक सुलझाया जा सके। सदस्य राष्ट्र अपने विवाद की स्थिति में विशेष संघटन के माध्यम से संगठन का इस्तेमान करता है। उदाहरणार्थ 1947 में पाकिस्तान ने भारत के कश्मीर राज्य पर अपना दावा पेश किया तो भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे विशाल संगठन को इस विवाद का हल ढूँढने के लिए कहा। अतः इस प्रकार राष्ट्र विश्व संगठन का विदेश नीति के उपकरण के रूप में इस्तेमान करते हैं।

 

विदेशी नीति के लक्ष्य

 

विदेश नीति के लक्ष्यों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है

 

राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षाविश्व के सभी राष्ट्रों की विदेश नीति का सर्वप्रथम उददेश्य उसकी राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा करना होता है, ताकि उसकी अखण्डता बने। राष्ट्रीय धीमाओं की सुरक्षा के बाद ही राष्ट्र अपने आन्तरिक विकास का लक्ष्य पूरा कर पाता है। राष्ट्रीय श्रीमाओं को सुरक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विश्व के सभी राष्ट्र सेना का गठन करते हैं तथा बाह्य आक्रमण के संकट के दौरान सेना अपनी राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा के लिए जीजान लगा देती है, इस प्रकार प्रत्येक राष्ट्र की विदेशी नीति का सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा करना होता है।

 

चहुमुखी आन्तरिक विकासविश्व के राष्ट्रों की यह महत्त्वाकांक्षी होती है कि वे चहुमुखी विकास करे। इसी कारण इन राष्ट्रों की विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य चहुमुखी आन्तरिक विकास करना बन जाता है। विदेशी नीति राष्ट्रहितों की पूर्ति करती है और आन्तरिक विकास उससे घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। चहुंमुखी आन्तरिक विकास के लिए राष्ट्र आपस में अनेक प्रकार के लेनदेन और समझौते करते हैं। इस प्रकार विश्व के प्रत्येक राष्ट्र की विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य चहुंमुखी आन्तरिक विकास करना होता है।

 

आर्थिक द्देश्यवर्तमान युग अर्थ प्रधान युग है। है। ऐसी परिस्थितियों में में किसी भी विदेश नीति द्वारा आर्थिक उद्देश्यों को उपेक्षा नहीं की जा सकती है। प्रत्येक देश आर्थिक रूप से सक्षम बनना चाहता है और यह तभी सम्भव हो सकता है जब विदेश नीति के आर्थिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए ठोस उठाये जायें। कदम उदाहरणार्थ तेल निर्यातक देश ओपेक संघठन बनाकर तेल से ज्यादा दाम वसूल कर अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करते हैं। अनेक बड़ी शक्तियाँ दूसरे देशों में पूँजो निवेश की आर्थिक मुनाफा कमाती है। इस प्रकार आर्थिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सभी देशों की विदेशी नीति सदैव सक्रिय रहती है।

 

सैनिक दृष्टि से शक्तिशाली होनाआज के युग में किसी भी राष्ट्र का सैनिक दृष्टि से मजबूत होना अनिवार्य सा हो गया है। अन्यथा शत्रु राष्ट्र उस पर आक्रमण करके अवैध रूप से कब्जा कर सकते हैं। इस दृष्टि से विभिन्न देशों की विदेश नीति का एक प्रमुख लक्ष्य सैनिक दृष्टि से शक्तिशाली बनना होता है। इसके लिए वे शस्त्रों का निर्माण करते हैं और आवश्यकता के अभाव में बड़ेबड़े राष्ट्रों से वस्त्र खरीदते हैं।

 

राष्ट्रीय स्वाधीनता की रक्षा करनाप्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र चाहता है कि वह अपनी राष्ट्रीय स्वार्धानता को अक्षुण्ण रखे। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त एशिया अफ्रीका वे लैटिन अमेरिका के अनेक देशों ने राष्ट्रीय स्वाधीनता पाने के लिए औपचारिक दासता के विरुद्ध संघर्ष किया। स्वाधीनता प्राप्त होने पर अधिकांश देशों ने गुटनिरपेक्षता के नीति अपनाई, ताकि वे बड़े राष्ट्रों के प्रभाव से मुक्त होकर स्वतन्त्रता का मार्ग अपना सकें। इस प्रकार स्वाधीनता का लक्ष्य अनेक छोटे गरीब देशों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है।

 

वैचारिक उद्देश्यप्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक विचारधारा होती है जिसके आधार पर वह अपने कार्यों का सम्पादन करता है। उदाहरणार्थ अमेरिकी विदेश नीति का लक्ष्य यह रहता है कि विश्व के राष्ट्रों में लोकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था हो और इस शासन व्यवस्था को अपनाने वाले देश मुक्त अर्थव्यवस्था का मार्ग अपनायें इसके विपरीत सोवियत संघ की विदेश नीति साम्यवादी दर्शन पर आधारित थी जिस कारण उसकी विदेश नीति का वैचारिक लक्ष्य था। विश्व में साम्यवाद का प्रचार। इस प्रकार राष्ट्रों की विदेश नीति नीतियों के वैचारिक लक्ष्य होते हैं।

 

धार्मिक उद्देश्यअनेक राष्ट्रों की विदेश नीतियों के धार्मिक उद्देश्य भी होते हैं। अधिकांश मुस्लिम बहुसंख्यक होने के कारण अधिकांश मुस्लिम राष्ट्रों की विदेश नीति का धार्मिक द्देश्य उनमें एकता स्थापित करना होता है। संकट के समय वे एकदूसरे की सहायता करते हैं। एक मंच बनाकर वे धार्मिक उद्देश्य प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। भारत में हिन्दूमुस्लिम दंगे होने पर पाकिस्तान द्वारा भारत में मुस्लिम समुदाय के पक्ष में आवाज उठाना धार्मिक उद्देश्य बन गया है।

 

सांस्कृतिक उद्देश्यप्रत्येक राष्ट्र की अपनी सभ्यता और संस्कृति होती है। वह विदेश में अपनी संस्कृति के प्रसारं के लिए कार्य करता है। इस सांस्कृतिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए वह विदेशों में सांस्कृतिक प्रतिनिधि मण्डल भेजता है और साहित्य बाँटता है, ताकि सांस्कृतिक प्रभाव के जरिये अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करते हैं।

 

डॉ० वेद प्रताप वैदिक ने अपनी पुस्तकभारतीब विदेश नीति‘, ‘नये दिशा संकेतमें भारत के लिए सांस्कृतिक विदेश नीति का एक वैकल्पिक ढाँचा प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, इस समय आग्नेय एशिया, पश्चिमी एशिया, तालीनी अमेरिका में ऐसे लगभग 25 देश हैं जहाँ भारतीय सांस्कृतिक दूतावासों की स्थापना अविलम्ब की जानी चाहिये। इन दूतावासों का काम उन देशों में भारतीय भाषा, वेशभूषा, भोजन, भजन और भेषज की कूटनीति चलाना होना चाहिए। भारतीय भाषाओं के प्रशिक्षण केन्द्र विदेशियों को तो भारत से जोड़ेगा ही प्रवासी भारतीयों के मन में भारत के प्रति अनुराग को भी भाव तरोताजा रखेगा

 

 

 

विदेश नीति के निर्धारक तत्त्व

 

किसी भी देश नीति के निर्धारक तत्त्व निम्नलिखित हैं

 

हित राष्ट्र के लिय राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने देश को सब मजबूत बनाने के लिये प्रयास करता है जिससे उसके राष्ट्रीय स्वार्थ सुरक्षित रह सकें। ये हित सदैव एक जैसे होकर समयसमय पर आवश्यकतानुसार बदलते रहते हैं। विदेश नीति का लक्ष्य राष्ट्रीय हितों को पूरा करना होता है।

 

राष्ट्र की प्रतिष्ठा और आदर्शविदेश नीति का निर्माण करते समय प्रत्येक देश अपने के आदशों की रक्षा करना चाहता है। जो देश शान्तिप्रिय और नैतिकता में विश्वास करते हैं, राष्ट्र के वे अचानक शक्ति का प्रयोग नहीं करते। वे अपने विवाद शान्तिपूर्ण तरीके से हल करना चाहते हैं।

 

सांस्कृतिक विकासप्रत्येक देश को अपनी सांस्कृतिक विरासत और अलग पहचान होती है। प्रत्येक अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को बनाये रखना चाहता है। ये सांस्कृतिक आदर्श और सामाजिक मूल्य विदेश नीति के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक राष्ट्र की विदेश नीति का निर्माण करने वाले नेता राष्ट्रीय राष्ट्रों को बनाने तथा इनको व्याख्या करने को

प्रक्रिया के दौरान सदैव अपने सांस्कृतिक सम्बन्धों, ऐतिहासिक परम्पराओं तथा अनुभवों द्वारा निर्देशित होता है।

 

जनमतकिसी भी देश की सरकार अपनी जनता की रुचि या जनमत के विरुद्ध विदेश नीति नहीं अपना सकती है। प्रजातान्त्रिक राष्ट्रों में जनता बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विदेश नीति निर्माताओं को अपने देश के जनमत के साथसाथ विश्व जनमत को भी ध्यान में रखना पड़ता है।

 

भौगोलिक स्थितिकिसी भी देश की विदेश नीति भौगोलिक पारिस्थितियों में 5. निश्चित होती है। भौगोलिक स्थिति से तात्पर्य देश के विस्तार, स्थलाकृति, जलवायु तथा स्थिति से है। ये तत्त्व राष्ट्र के लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक है। भौगोलिक स्थिति के कारण ही ब्रिटेन नौशक्ति बना तथा विश्व में अपनी प्रभावी भूमिका निभा सके।

 

सैनिक शक्ति—  आधुनिक युग में विश्व के राष्ट्र में शस्त्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी है।इसका कारण राष्ट्रीय सुरक्षा और विश्व में शाक्तिशाली राष्ट्र बनने की प्रबल इच्छा है। आज अमेरिका, रूस, चीन, इंग्लैण्ड, फ्रॉन्स शाक्तिशाली राष्ट्र कहलाते हैं। किसी भी देश को विदेश नीति अपनी सैनिक क्षमता के आधार पर बनायी जाती है।

 

प्रकृितिक सम्पदाप्राकृतिक सम्पदा किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में प्रभावशाली भूमिका निभाती है। जिस देश में प्राकृतिक सम्पदा प्रचुर मात्रा में होती है, वह देश धनी देश होता है। अमेरिका इतना सम्पन्न देश है कि वह निर्धन देशों को आर्थिक सहायता देकर अपने प्रभाव में रखता है। किसी भी देश की विदेश नीति के निर्धारण में प्राकृतिक सम्पदा की भूमिकामहत्त्वपूर्ण होती है।

 

औद्योगिक स्रोतऔद्योगिक स्रोत विदेश नीति निर्धारण में प्रभावशाली तत्त्व है। आज विकसित देश औद्योगिक आधार पर ही दूसरे दशा में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। औद्योगिक दृष्टि से विकसित देश विकासशील देशों को ओद्यौगिक सहायता देकर उनकी विदेश नीतियों को प्रभावित करते हैं।

 

विश्व संगठनजो देश संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बन जाता है, वह संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर और घोषणापत्र से बंध जाता है और उसके निर्णयों का पालन करता है। इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता स्वीकार करने के बाद सदस्य देशों की विदेश नीति मर्यादित हो जाती है।

 

कूटनीतिकूटनीति एक ऐसा साधन है, जिससे किसी राष्ट्र को विदेश नीति अपनी सीमाओं से बाहर दूसरे राष्ट्रों के साथ अपने सम्बन्ध स्थापित करती है। कूटनीति के माध्यम से ही दूसरे राष्ट्रों के साथ सम्बन्धों के आधार विदेशी नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के प्रयत्न किये  जाते हैं। कूटनीति विदेश नीति को प्रभावित करती है।

 

भाषा, धर्म, जाति, संस्कृतिविदेश नीति के निर्धारण में इनका भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। भाषा और नस्ल के आधार पर सोमान्त प्रान्त के पठानों के कारण पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संबंध मधुर रहे। रंगभेद के कारण दक्षिण अफ्रीका को गोरी सरकार को

अलगथलग डाल दिया। धर्म के कारण आज भी अरबइजराइल मधुर सम्बन्ध नहीं हैं। भारत

विभाजन धर्म के आधार पर हुआ। आज धर्म का आधार पर मुस्लिम और ईसाई देश आपस में संगठित हो रहे हैं।

 

विचारधाराकिसी भी देश का समाज किसी राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पर आधारित होता है। यह व्यवस्था उस देश की विचारधारा से प्रभावित होती है, उस देश की बनने वाली विदेश नीति में भी इसी विचारधारा की प्रमुख भूमिका होती है। द्वितीय  विश्वयुद्ध के बाद यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि विचारधारा के आधार पर विश्व अमरीका और सोवियत संघ के अलगअलग नेतृत्व में विभाजित हो गया। अमरीका ने पूँजीवादी विचारधारा का नेतृत्व किया तो सोवियत संघ ने साम्यवादी विचारधारा का। दोनों ने विश्व के अन्य देशों में अपनीअपनी विचारधारा को फैलाने की नीति अपनायी। अमरीका ने सोवियत साम्यवाद के प्रसार को रोकने के प्रयास किये तो सोवियत संघ ने अमरीकी पूँजीवाद को। इसी प्रकार अन्य देशों भी विदेश नीति निर्धारण में अपनी विचारधारा के सिद्धान्तों को अपनाते हैं। भारत अशोक और बुद्ध के जमाने से शान्तिभिय राष्ट्र रहा है। भारत द्वारा विदेश नीति के निर्धारण में शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व का सिद्धान्त उसको विचारधारा की अमिट छाप को स्पष्ट करता है। वैसे अनेक विद्धानों ने यह कहा है कि विदेशनीति में विचारधारा की भूमिका क्षीण हो गयी है, किन्तु असल में ऐसा नहीं है। हाँ, वर्तमान में विचारधारा की भूमिका कम जरूर हुई है, लेकिन अभी भी उसके महत्त्व को नकारना बुद्धिमत्ता नहीं होगी।

NOTES

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Comparative Politics

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