INDIVIDUAL AND SOCIETY

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समाज जैसा कि हम अभी देख चुके हैं व्यक्ति का व्यक्तित्व परिवार तथा परिवार से बाहर के व्यक्तियों के साथ उसके सम्पर्क से बनता है । सामाजिक कार्य व्यक्तियों की अन्तकिया है । मां और शिशु का सम्बन्ध एक मूलभूत सामाजिक कार्य है जो प्रत्येक व्यक्ति के जन्म से ही शुरू हो जाता है । जैसा कि हम आगे देखेंगे माता – पिता और शिशु का यह सम्बन्ध पशुओं , पक्षियों तथा कीड़ों तक में पाया जाता है । सामाजिक अन्तक्रिया के सभी विभिन्न ताने – बाने मां और शिशु के इसी मूलभूत सामाजिक सम्बन्ध से आरम्भ होते हैं ।

समाज – विज्ञानी सामाजिक अन्तक्रिया का वर्गीकरण दो प्रकारों में करता है मुख्य और गौण । परिवार , क्रीड़ा – समूह , गांव का पड़ोस आदि सभी मुख्य समूह होते हैं । उनमें व्यक्तियों में परस्पर घनिष्ठ और प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है । ” साहचर्य के सभी रूपों में सबसे सरल , पहला तथा अत्यधिक सार्वभौम रूप वह है जिसमें कुछ व्यक्ति साथ – साथ रहने , पारस्परिक सहायता करने , अपने से संबंधित किसी प्रश्न पर चर्चा करने अथवा किसी सामान्य नीति की खोज करने या उसे लागू करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से मिलते हैं ”  । मुख्य समूह में व्यक्ति स्वतन्त्र तथा अनौपचारिक रूप से भाग ले सकते हैं , जैसाकि क्रीड़ा समूह या मित्रता में यह समूह औपचारिक भी हो सकते हैं जैसाकि साक्षात्कार के समय , कक्षा में या कार्यालय और कारखाने में । इसके विपरीत गौण समूहों में औपचा रिकता यानी कुछ विशिष्ट समूह भूमिकाएं होती हैं जैसे शिक्षक और छात्र की , विक्रेता और ग्राहक की , अधिकारियों और नागरिकों की ।

इनमें घनिष्ठता नहीं होती । सामाजिक परस्पर क्रिया व्यक्तियों में नहीं होती बल्कि एक औपचारिक क्रम से स्थितियों के प्रतिनिधियों में होती है । ज्यों – ज्यों समाज जटिल होता जाता है , त्यों – त्यों सामाजिक सम्बन्ध अधिक अवैयक्तिक होते जाते हैं । गांव में सब व्यक्ति एक दूसरे को जानते हैं । लेकिन किसी बड़े नगर में कोई अपने पड़ोसी या उसी मकान के अगले फ्लैट में रहने वाले व्यक्ति तक को नहीं जान सकता । धार्मिक संगठन , राजनैतिक दल और स्वयं राज्य गौण समूहों के उदाहरण हैं । औद्योगीकरण तथा उसके फलस्वरूप नागरीकरण से ‘ जनपुंज समाज ‘ बनता है ।

हमारे आधुनिक नगरों में लोग बहुत बड़ी संख्या में रहते हैं और उनके आपसी संबंधों में ‘ सामाजिक सम्बन्ध , अवैयक्तिक बन जाते हैं और व्यक्ति अकेलापन महसूस करता है । जब आप अकेले ही थियेटर देखने जाएं तो आपको अकेलापन महसूस होता है जबकि आपके इर्द – गिर्द सैकड़ों व्यक्ति होते हैं । वहां घनिष्ठता का संबंध नहीं होता । जनपुंज समाज में बौद्धिकता और अबौद्धिकता का एक अजबी मेल होता है । औद्योगिक प्रगति विज्ञान प्राद्योगिकी और संगठन की प्रगति पर निर्भर लेकिन नागरीकरण से अवैयक्तिक सम्बन्ध बढ़ते हैं , इसीलिए संसूचन तथा प्रचार का प्रभाव बढ़ जाता है । भीड़ व्यवहार जनपुंज समाज का एक महत्त्व पूर्ण अंग बन जाता है । मनुष्यों और उनकी संस्कृति पर जनपुंज समाज की छाप लग जाने से जो समस्या पैदा होती है वह व्यक्तित्व – सन्तुलन , संवेगात्मक सुरक्षा की भावना और शक्ति के नैतिक प्रयोग सम्बन्धी कठिन समस्याओं में से एक है  । हम देखेंगे कि सामाजिक अन्तक्रिया की मूलभूत प्रक्रियाओं के अध्ययन में मुख्य समूह और गौण साहचर्य की इन दो धारणाओं से बड़ी सहायता मिलेगी ।

इसी प्रकार ‘ अन्तरंग समूह ‘ तथा बहिरंग समूह के रूप में किया जाने वाला एक अन्य वर्गीकरण भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । ‘ अन्तरंग समूह ‘ शब्द का प्रयोग सम्नर ने किया है । हम लोगों को ‘ अपने ‘ तथा ‘ पराये ‘ में विभाजित करते हैं । जिस समूह से हम अपना तादात्म्य स्थापित करते हैं वह अन्तरंग – समूह होता है । व्यक्ति में अपने परिवार , जाति तथा पड़ोस आदि के व्यक्तियों से तादात्म्य करने की अभिवृत्तियां बनती हैं । ‘ पराये ‘ समूहों के व्यक्तियों को ‘ अपने ‘ समूह की प्रगति और हित के प्रतिद्वन्द्वी समूह के रूप में भय , सन्देह या घृणा से देखा जाता है । अन्तरंग समूह के लोगों के साथ सहयोग किया जाता है और बहिरंग समूह के लोगों का विरोध ।

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कार्यों का विभेदन एक दूसरी मूल अन्तक्रिया है । समाज में वर्ग और जाति के भेद अन्तक्रिया की इन्हीं मूल प्रक्रियाओं पर आधारित हैं । समूह में कार्यों के विभेद और विशिष्ट कार्यों या भूमिकाओं के आधार पर ही सामाजिक अन्तक्रिया के विभिन्न रूप उत्पन्न होते हैं । घर के अन्दर भी कार्यों में मूल भेद होता है जिसके कारण पति तथा पत्नी की भूमिकाएं तथा स्त्री – पुरुषों और विभिन्न आयु के व्यक्तियों इत्यादि की भूमिकाएं बनती हैं । घर के अन्दर भी व्यक्ति को न्यूनाधिक सीमित और सुनिश्चित सामाजिक भूमिका अदा करनी पड़ती है । यह बात भारतीय संयुक्त परिवार में विशेष रूप से पायी जाती है । व्यक्ति अपनी भूमिका के उपयुक्त व्यवहार करना सीखता है अन्यथा उसे सामाजिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाएगा । ये भूमिकाएं , चाहे वे घर में हों या बाहर समाज में , बदलती रहती हैं और उनके कारण अधिक सीखने की आवश्यकता पड़ती है । आयु और परिस्थिति के अनुसार भूमिका में परिवर्तन होता है ; जो कभी पुत्र था पिता बनता है , शिष्य गुरु बनता है , जो कभी मातहत था वह प्रधान बनता है और श्रमिक प्रबन्धक बनता है ।

लेकिन हमें यह ध्यान में रखना पड़ेगा कि सामाजिक विभेदन के कारण जो अन्तक्रिया होती है उसमें अव्यक्त रूप से सांस्कृतिक कारक भी छिपे रहते हैं । यहां सामाजिक तथा सांस्कृतिक पहलुओं के बीच कोई विभाजक रेखा खींचना न तो संभव है और न ही आवश्यक । दूसरी ओर इससे हमें सामाजिक तथा सांस्कृतिक पक्षों के अन्तर की उपेक्षा करने की बात नहीं सोचनी चाहिए ।

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 सामाजिक तथा सांस्कृतिक पक्ष

स्पष्ट चितन के लिए दोनों पक्षों के अन्तर के साथ – साथ उनके सम्बन्ध को समझ लेने से बड़ा लाभ होगा । कुछ विशिष्ट शब्दों का प्रयोग संभवतः इस लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक हो सकता है । हम अन्तक्रियाओं के इन दो प्रकारों में भेद करने के लिए अन्तर्वैयक्तिक तथा समाज – सांस्कृतिक सम्बन्ध शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं पहला शब्द उस अन्तक्रिया का सूचक है जो व्यक्ति – व्यक्ति के बीच होती है और जिसमें सांस्कृतिक तथा संस्थागत कारक या तो बहुत कम होते हैं या बिल्कुल नहीं होते और दूसरा शब्द उस अन्तक्रिया का सूचक है जिसमें दोनों कारक बहुत ज्यादा होते हैं । जैसा लापियरे और फार्सवर्थ ने लिखा है : ” अधिक स्थायी सामाजिक पद्धतियों में कम से कम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानवीय आव श्यकताओं की तुष्टि संस्थागत तंत्र के माध्यम से होती हैं . इन व्यवस्थाओं में क्षणिक मामलों की अपेक्षा दीर्घकालीन लक्ष्यों की प्रधानता होती है । इसलिए तत्काल पूरी की जाने वाली अलग – अलग आवश्यकताओं की तुष्टि सामान्यतः उन अन्त क्रियात्मक स्थितियों से होती है जिन्हें ‘ अन्तर्वैयक्तिक ‘ स्थितियां कहा जा सकता है – जो संस्थागत प्रकार की नहीं होतीं । व्यक्तिगत आवश्यकताएं , जिनसे अन्त वैयक्तिक स्थितियां उत्पन्न होती हैं और जिनके द्वारा वे संगठित होती हैं , प्रायः व्यक्ति के किसी संस्था का सदस्य बनने का आकस्मिक परिणाम होती हैं और संस्था के सदस्य बनने के लिए बहुत कम प्रतिकूल पड़ती हैं । किंतु विभिन्न स्थितियों में अन्तक्रिया का ताना – बाना क्या होगा , वह मुख्य रूप से उन स्थितियों में काम करने वाले विशिष्ट व्यक्तियों पर निर्भर होता है ” ( 6 . 408 ) ।

इस तरह हम देखते हैं कि जिस सामाजिक व्यवहार में सांस्कृतिक पक्ष बिल्कुल नहीं होता या बहुत कम होता है और जिसमें सांस्कृतिक पक्ष बहुत ज्यादा होता है इन दो के अन्तर को ध्यान में रखना आवश्यक है । जब हम मनुष्यों में सामाजिक व्यवहार पर विचार करते हैं तो इस अन्तर को समझना कुछ कठिन हो जाता है क्योंकि जब तक व्यक्ति का पालन – पोषण किसी परिवार या अपनी संस्कृति – चाहे वह संस्कृति सरल हो या जटिल , रखने वाले किसी समूह में न हो , वह जीवित नहीं रह सकता । किन्तु इससे हमें इस तथ्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि सामाजिक व्यवहार मानव की उत्पत्ति और संस्कृति के उदय से भी पहले का है । एक – कोशिक प्राणियों तक में भी कोई न कोई सामाजिक कारक रहता है । ” प्राणियों की अन्तक्रिया एक बहुत महत्त्वपूर्ण जैविक तथ्य है ।

यदि अनुसरण करना और तलाश करना मनुष्यों में एक सामाजिक तथ्य है तो यह जब अमीबा में होता है तब उसे सामाजिक तथ्य क्यों न समझा जाय ? सामाजिक पक्ष वस्तुत : जैविक पक्ष का ही एक रूप है । जहां तक हम जानते हैं ऐसा कोई प्राणी नहीं है जिसका सामाजिक सम्पर्क न हो ”  । हम अगले अध्याय में पशुओं के सामाजिक व्यवहार के विविध पक्षों पर दृष्टिपात करेंगे । ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमें ‘ सामा जिक ‘ पक्ष को इस रूप में नहीं देखना चाहिए कि उसमें ‘ सांस्कृतिक ‘ पक्ष सदा होता ही है ।

हमें मनुष्यों में ही शिशुओं तथा बच्चों के बीच सामाजिक तथा अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्ध के विशुद्ध उदाहरण मिलते हैं । बच्चा अपनी वृद्धि के कारण ही अपने परिवार , धर्म , पिता के व्यवसाय आदि के सम्बन्ध के प्रति सचेत होता है । इसी भांति हम देखते हैं कि अनुकूल स्थितियों में सांस्कृतिक कारक का बलात् प्रवेश बहुत कम होता है । बालक , युवक तथा वयस्क खेलते समय संस्थाओं के प्रति अपने सम्बन्धों के बारे में यदा – कदा ही सचेत रहेंगे । जब हम सड़क पर बाजार , कार्यालय , बस या रेल में किसी अपरिचित आदमी से ऐसे मिलते हैं मानो हम उसे जानते हों तो हम न्यूनाधिक रूप से विशुद्ध सामाजिक तथा अन्तर्वैयक्तिक सम्पर्क स्थापित करते हैं । इसी प्रकार मित्रता में कई ऐसी बातें होती हैं जो सांस्कृतिक नहीं होती । मित्रता व्यक्तियों के विशेष सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य के अनुरूप उनकी मांगों और प्रत्याशाओं पर इतनी अधिक आधारित नहीं होती किंतु उससे भी ज्यादा मूल स्थायी भावों के निर्माण , स्नेह और सुरक्षा की व्यक्तिगत आव श्यकताओं के लिए लगातार या अकसर मिलने वाले संतोष पर आधारित हो सकती है । ला पियरे और फार्क्सवर्थ ने बहुत ही संकरी गली में दो व्यक्तियों के मिलने की काल्पनिक स्थिति का जो अत्यन्त ज्ञानवर्धक विश्लेषण किया है उस पर ध्यान दिया जा सकता है ।

चूंकि गली संकरी है और चूंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने गन्तव्य तक पहुंचने के लिए एक दूसरे को पार करके निकलना है इसलिए अन्तक्रिया की अपेक्षा रखने वाली स्थिति उत्पन्न हो गई है । इस समस्या के हल के बहुत से संभव तरीके हैं । उनमें से कोई एक व्यक्ति एक तरफ हट सकता है या दोनों वाद – विवाद पर उतर सकते हैं या हाथापाई भी कर सकते हैं । ” हमारी समस्या यह नहीं है कि वे क्या करते हैं बल्कि यह है कि वे जिस कार्य को करते हैं उसे वे कैसे करते हैं । इस विषय में हम समायोजन के तीन मूल प्रकारों में , जो एक दृष्टि से परस्पर एकान्तिक हैं , भेद कर सकते हैं : “ पहले तो यदि उनके सामने वैसी समस्या पहले कभी नहीं आई हो तो वे समुचित अन्तक्रिया करने के लिए प्रयत्न और त्रुटि युक्ति अपनाने को बाध्य हो सकते हैं । दूसरे यदि वे इस रास्ते या किसी अन्य रास्ते पर मिल चुके हैं तो वे समायोजन की उस युक्ति का उपयोग कर सकते हैं जिसे उन्होंने पहले सोच रखा हो ; अन्त में वे समायोजन की कोई ऐसी परम्परा गत प्रणाली अपना सकते हैं जो उन्हें सामाजिक दाय के रूप में मिली हो ”  । स्पष्ट है कि अन्तक्रिया सम्बन्धी स्थितियों को सुलझाने के लिए पह दो प्रणालियां अधिक ‘ अन्तर्वैयक्तिक ‘ या ‘ वैयक्तिक सामाजिक ‘ हैं और तीसरी प्रणाली निश्चित रूप से ‘ समाज – सांस्कृतिक ‘ है ।

प्राचीन भारत में यह प्रथा थी कि यदि कोई अछूत किसी किसान या ब्राह्मण को किसी तंग रास्ते में देख ले तो उसे एक तरफ हट जाना पड़ता था या पीछे लौटकर भाग जाना पड़ता था । इसी प्रकार यदि कोई किसान किसी ब्राह्मण को तंग रास्ते में देख लेता था तो उसे एक तरफ हट जाना पड़ता था । सामाजिक असमानता से सामाजिक स्थिति में अनु क्रिया करने की कुछ निश्चित परम्परागत रीतियां पड़ीं । इसी भांति स्त्री – पुरुष , आयु या धन के आधार पर यह निर्धारित किया जा सकता था कि रास्ता किसे छोड़ना है । आजकल भी सरकार राजनैतिक विशिष्ट व्यक्तियों से परिचय कराने के लिए वरिष्ठता क्रम प्रकाशित करती है । परिष्ठा पर इस तरह विचार करने से अक्सर द्वन्द्व पैदा हो सकते हैं जिनके पीछे किसी परिपाटी को मानने का विरोध और परिपाटी को अपने पद के गौरव की धारणा के अनुसार बदलने की इच्छा का भी विरोध हो सकता है । इस प्रकार जब दो व्यक्ति मिलते हैं तो सामाजिक अन्तक्रिया अन्तर्वैयक्तिक या समाज – सांस्कृतिक हो सकती है ।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि भारत में मानवीय विकास के उच्चतम स्तर पर सन्यासी माना जाता है । उसका कोई सांस्कृतिक लगाव नहीं होता इसलिए वह दूसरों से एक मानव की तरह ही मिल सकता है । उसके लिए अंतरंग तथा बहिरंग समूह में कोई भेद नहीं होता और वह सारी मानव जाति को एक अंतरंग समूह समझता है । निस्सन्देह इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह मानवीय अभिवृत्ति एक महान सांस्कृतिक प्रयत्न करने के बाद उपलब्ध होती है । यह विधि या न्याय के शासन के समान होती है । न्याय पर वर्णभेद , जाति , पंथ , स्त्री – पुरुष या दूसरी बातों का प्रभाव नहीं पड़ता । यह मानना चाहिए कि कोई देश और कोई व्यक्ति केवल उन शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति से ही , जो स्वयं सांस्कृतिक विकास से अनुबंधित होते हैं , उन सांस्कृतिक लगावों से ऊपर उठ सकता है जो सामाजिक सम्पर्कों को सीमित करते हैं ।

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