सामाजिक संरचना

सामाजिक संरचना

( Social Structure )

 

सामाजिक संरचना समाजशास्त्र की महत्वपूर्ण अवधारणाओं में से है समाजशास्त्र में सामाजिक संरचना की अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम हरबर्ट स्पेन्सर ने अपनी पुस्तक ” Principles of Sociology ” में किया दुर्थीम ने इसका प्रयोग ‘ The Rules of Sociological Methods ‘ में किया लेकिन दुर्भाग्य से ये इसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाये लुईस हेनरी मार्गन की पुस्तक ‘ Systems of Consanguinity and Affinity of the Human family ‘ का सामाजिक संरचना का प्रथम मानवशास्त्रीय अध्ययन माना जाता है ज्ञातव्य हो कि संरचना शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग मकान की संरचना के परिप्रेक्ष्य में हुआ था तत्पश्चात् शरीर संरचना के रूप में जीव विज्ञान में प्रयोग हुआ और जीव विज्ञान से ही समाजशास्त्र में लिया गया जिस प्रकार से किसी शरीर या भौतिक वस्तु की संरचना होती है उसी प्रकार समाज की भी संरचना होती है समाज की संरचना भी कई इकाइयों जैसेपरिवार , संस्थाओं , संघों , प्रतिमानित संबंधों , मूल्यों एवं पदों आदि से मिलकर बनी होती हैं यह सभी इकाइयाँ परस्पर व्यवस्थित रुप से संबंधित होती है और अपनेअपने स्थान पर अपेक्षतया स्थिर होती है इन सभी के संयोग से समाज का एक बाह्य स्वरुप प्रकट होता है जिसे हम सामाजिक संरचना कहते हैं ।समाज एक अखण्ड व्यवस्था नहीं है उसके विभिन्न भाग होते हैं ये विभिन्न भाग व्यवस्थित ढंग से संयुक्त होकर एक ढाँचे का निर्माण करते हैं इसी ढांचे को सामाजिक संरचना कहा जाता है टॉलकॉट पारसन्स ( Talcott Parsons ) के शब्दों में , ” सामाजिक संरचना से तात्पर्य अन्तर्सम्बन्धित संस्थाओं , अभिकर और सामाजिक प्रतिमानों तथा समूह में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किए गए प्रस्थितियों और भमिकाओं की विशिष्ट क्रमबद्धता से है   इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि

-. सामाजिक संरचना का निर्माण सामाजिक संस्थाओं , अभिकरणों . सामाजिक प्रतिमानों और व्यक्ति के प्रस्थितियों और भूमिकाओं से होता है

 -. इस रूप में सामाजिक संरचना अमूर्त है , क्योंकि इसके निर्माण की इकाइयाँ अमूर्त हैं

 – ये इकाइयाँ एकदूसरे से सम्बन्धित होती हैं

सामाजिक संरचना में एक विशिष्ट क्रमबद्धता पाई जाती है

 

 कार्ल मैनहीम ( Karl Manheim ) की दृष्टि में , ‘ सामाजिक संरचना अन्तक्रियात्मक सामाजिक शक्तियों का जाल है जिससे अवलोकन एवं चिन्तन की विभिन्न पद्धतियों का उद्भव हुआ है ”  इस कथन से पता चलता है कि

 – सामाजिक संरचना सामाजिक शक्तियों का जाल है

 –यहाँ सामाजिक शक्तियों का अभिप्राय सामाजिक नियंत्रण के साधनों से है

-. ये सामाजिक शक्तिया परस्पर अन्तक्रिया करती रहती हैं

 – साथ ही ये शक्तियाँ अवलोकन चिन्तन की पद्धतियों को जन्म देती हैं

एच०एम० जानसन ( H . M . Johnson ) के अनुसार , ‘ ‘ किसी वस्तु की संरचना उसके अंगों में विद्यमान अपेक्षाकत स्थाई अन्तर्सम्बन्धों से बनती हैं स्वयं अंग शब्द में ही स्थायित्व की एक निश्चित मात्रा पाई जाती है चूंकि एक सामाजिक व्यवस्था लोगों की असम्बन्धित क्रियाओं से निर्मित होती है , अत : उसकी संरचना को इन क्रियाओं की नियमितता या पुनरुपत्ति की मात्रा में ढूंढा जाना चाहिए इस परिभाषा से स्पष्ट है कि सामाजिक गतिशीलता सामाजिक परिवर्तन से जुड़ा है इस परिभाषा से पता चलता है कि

सामाजिक सरंचना के निर्माण की अनेक इकाइयां हैं

इन इकाइयों में परस्पर सम्बन्ध पाए जाते हैं

 – इन सम्बन्धों में स्थायित्व के गुण होते और सामाजिक संरचना के निर्माण में व्यक्तियों से परस्पर सम्बन्धित क्रियाओं का योगदान होता है

 आर०के० मर्टन ( RKMerton ) ने सामाजिक संरचना का आधार समाज के व्यक्तियों की प्रस्थिति और भूमिका को बताया है उनका कहना है कि समाज में व्यक्ति को कई प्रस्थितियाँ प्राप्त होती हैं और प्रत्येक प्रस्थिति से सम्बन्धित भूमिकाएं होती है सामाजिक संरचना का निर्माण इन्हीं प्रस्थितियों और भूमिकाओं से होता है उपरोक्त परिभाषाओं के आलोक में कहा जा सकता है कि सामाजिक संरचना अनेक इकाइयों ( सामाजिक समह संस्थाएं , व्यक्तियों की प्रस्थिति और भूमिका आदि ) से निर्मित होती है ये इकाईयाँ परस्पर अन्तर्सम्बन्धित होती है इसे अपेक्षाकृत अधिक स्थिर माना जाता है

 

सामाजिक संरचना की विशेषताएँ

 ( Characteristics of Social Structure )

विशिष्ट क्रमवद्धता ( Particular Arrangement ) : सामाजिक संरचना एक विशिष्ट क्रमबद्धता है किसी भी सामाजिक संरचना का निर्माण मात्र इकाइयों के योग से नहीं होता , बल्कि उन्हें एक विशिष्ट क्रम में संयुक्त करना होता है क्रम के अभाव में संरचना नहीं बन सकती ठीक उसी तरह ईंट , पत्थर , सीमेन्ट , लोहा , बालू आदि को यों ही एक जगह मिश्रित कर रख दिया जाए , तो भवन नहीं बन जाता है इन चीजों को व्यवस्थित ढंग से संयुक्त करने पर ही भवन का ढांचा ठीक से बनता है

स्थानीय विशेषताओं का अभाव ( Effect of LocalCharacteristics ) : सामाजिक संरचना में स्थानीय विशेषताओं भाव होता है यही कारण है कि एक समाज की संरचना दसरे समाज से भिन्न होती है दरअसल समाज उस स्थान भौगोलिक , आर्थिक , सांस्कृतिक और राजनीतिक दशाओं से प्रभावित होता है स्वाभाविक है कि समाज की संरचना में स्थानीयता की छाप हो

अन्तर्सम्बन्धित ( Interrelated ) : सामाजिक संरचना की इकाइयों में परस्परसम्बन्ध का गुण पाया जाता है प्रत्येक टकार्ड दसरी इकाइयों से सम्बन्धित होती है परिवार , स्कल . कॉलेज , अस्पताल , थाना , कचहरी , आदि सामाजिक संरचना की इकाइयाँ हैं समाज में इनका अपना खास कार्य है जिससे उसकी महत्ता स्पष्ट होती है , परन्तु ये सभी इकाइयाँ स्वतंत्र नहीं हैं , बल्कि किसीकिसी रूप में एकदूसरे से सम्बन्धित हैं यही सामाजिक संरचना की विशेषता है इन उपर्युक्त विशेषताओं से सामाजिक संरचना की अवधारणा और अधिक स्पष्ट हो जाती है इस रूप में इसे पक्तियों की अन्तक्रियाओं का परिणाम कहा जा सकता है

अमूर्त अवधारणा ( Abstract Concept ) : सामाजिक संरचना एक अमूर्त अवधारणा है पारसन्स और मैकईवर एवं पेज ने इस विशेषता का उल्लेख किया है सामाजिक संरचना के इकाइयों के रूप में पारसन्स ने संस्थाओं , अभिकरणों , प्रतिमानों , परिस्थितियों भूमिकाओं का उल्लेख किया है इनमें से कोई भी इकाई मूर्त नहीं है , बल्कि अमूर्त है , अत : सामाजिक संरचना भी अमूर्त है राइट ( Wright ) का मानना है कि सामाजिक संरचना का आशय एक अवस्था या दशा या सम्बन्ध से है , इसीलिए यह अमूर्त अवधारणा है

अपेक्षाकृत स्थाई ( Relatively Stable ) : सामाजिक संरचना अपेक्षाकृत स्थाई अवधारणा है जॉनसन का कहना है कि सामाजिक संरचना का निर्माण जिन इकाइयों से होता है , वे अपेक्षाकृत अधिक स्थाई होते हैं इसीलिए अपेक्षाकृत स्थाई इकाइयों से निर्मित सामाजिक संरचना अपेक्षाकृत स्थाई होते हैं दरअसल संरचना स्थाई तत्त्वों या अंगों का एक प्रतिमान है और इस कारण इनमें अत्यधिक परिवर्तनशील तत्वों को सम्मिलित नहीं किया जा सकता

सामाजिक प्रक्रियाएं ( Social Processes ) : सामाजिक संरचना के निर्माण में सामाजिक प्रक्रियाओं का योगदान होता है सहयोग , समायोजन , सात्मीकरण , प्रतिस्पर्द्धा और संघर्ष आदि कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं जिसके अभाव में सामाजिक संरचना का निर्माण नहीं हो सकता इन प्रक्रियाओं का स्वरूप जैसा होता है , उसी के अनुरूप एक विशेष सामाजिक संरचना निर्मित होती है एम०बी० ओल्सन ( M . B . Olsen ) ने सामाजिक संरचना को प्रक्रियाओं का ही बाह्य वाला माना है

उपसंरचनाएँ ( Sub – Structures ) : सामाजिक संरचना की अनेक उपसंरचनाएँ होती हैं कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक संरचना का निर्माण जिन इकाइयों से होता है , उनकी अपनी एक अलग संरचना होती है उदाहरणस्वरूप , सामाजिक सरंचना का निर्माण परिवार , स्कूल , कालेज , अस्पताल , जाति आदि के द्वारा होता है ।इस तरह सामाजिक संरचना अनेक उप संरचनाओं से बनती है

 

 

वाहा स्वरूप ( Outer Form ) : सामाजिक संरचना समाज के बाहरी स्वरूप का बोध कराती है इसका निर्माण विभिन्न इकाइयों ( समूह , संस्थाएं , समितियों , व्यक्तियों की प्रस्थिति और भूमिका आदि ) से होता है ये इकाइयाँ एकदूसरे से सम्बन्धित होकर एक संरचना का निर्माण करते है ठीक उसी तरह जिस तरह शरीर के विभिन्न अंगों ( हाथ , पैर कान . आंख आदि ) से शरीर ढांचे का निर्माण होता है

सामाजिक संरचना के तत्व

( Elements of Social Structure )

 

 सामाजिक संरचना के तत्त्वों के संदर्भ में सामाजिक वैज्ञानिकों के बीच एक मत का अभाव देखा जाता है एच०एम० जॉनसन ( H . M . Johnson ) ने विभिन्न समूहों , उपसमूहों एवं उनके बीच पाए जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों को सामाजिक संरचना का तत्त्व माना है आर०एम० मैकईवर ( R . M . Maclver ) ने परिवार , समुदाय , जाति , वर्ग , नगर , गाँव आदि को तत्त्व के रूप में देखा है सामाजिक संरचना के मूल तत्त्वों को निम्न रूप में समझा जा सकता

प्रस्थितियाँ और भूमिकाएँ ( Statuses and Roles ) : सामाजिक संरचना का आधारभूत तत्त्व व्यक्तियों की प्रस्थितियाँ और भमिकाएँ हैं इन दोनों के व्यवस्थित योग से सामाजिक संरचना का निर्माण होता है सामाजिक संरचना में प्रत्येक व्यक्ति को एक निश्चित पद मिलता है , वही उसकी प्रस्थिति कहलाता है प्रस्थिति के अनुकूल व्यक्ति से कार्य पूरा किए जाने की आशा की जाती है , वही उसकी भूमिका है प्रस्थिति और भूमिका में सामंजस्य संरचना को बनाए रखता है

सामाजिक अन्तक्रियाएँ ( Social Interactions ) : सामाजिक संरचना का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व सामाजिक अन्तक्रियाएँ हैं प्रत्येक समाज में व्यक्ति अपनी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एकदूसरे से अन्तर्किया करता है इसी अन्तक्रिया के क्रम में श्रम विभाजन व्यक्ति के अधिक से अधिक लाभ सन्तुष्टि से जुड़ा है इस पर समाज की संरचना टिकी है

सामाजिक संस्थाएँ ( Social Institutions ) : संस्थाएँ सामाजिक संरचना के महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं संस्थाओं का अभिप्राय उन नियमों एवं कार्यविधियों से है जो सामाजिक सम्बन्धों को बनाए रखने में योगदान देती हैं ऐसी संस्थाओं का विकास एक लम्बी प्रक्रिया के बाद होता है इनमें अपेक्षाकत स्थायित्व के गण होते हैं संस्थाए उचित अनुचित व्यवहार का निर्धारण करती हैं इनके माध्यम से सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना की जाती है नियंत्रण की व्यवस्था का बनाए रखा जाता है इस प्रकार सामाजिक संरचना का निर्माण एकाधिक तत्त्वों से है ये तत्त्व समाजशास्त्रीय दृष्टिकोणों के अधिक निकट हैं

व्यक्ति ( Person ) : सामाजिक संरचना का पहला तत्त्व व्यक्ति कहा जाता है आर० ब्राउन ( R . Brown ) ने लिखा है , ” सामाजिक संरचना के अंग मनुष्य हैं व्यक्ति परस्पर सामाजिक सम्बन्धों का विकास करते रहते हैं इससे सम्बन्धों का जटिल जाल बन जाता है सामाजिक संस्थाओं द्वारा ये सम्बन्ध परिभाषित तथा नियमित हो जाते हैं यह व्यक्तियों को एक निश्चित ढंग से व्यवस्थित कर देता है व्यक्तियों का यह व्यवस्थित रूप ही सामाजिक संरचना है

मूल्य तथा प्रतिमान ( Norms and Values ) : सामाजिक संरचना का आधारभूत तत्त्व सामाजिक मूल्य और प्रतिमान है आर०के० मर्टन ( R . K . Merton ) का कहना है कि सामाजिक संरचना की क्रमबद्धता उस समय तक बनी रहती है जब तक समूह के व्यक्ति मूल्यों और प्रतिमानों के अनुसार व्यवहार करते रहते हैं जब इन नियमों का सन्तुलन एवं क्रमबद्धता बिगड़ जाती है , नियमहीनता ( Anomie ) की स्थिति पनप जाती है

 

सामाजिक व्यवस्था

( Social System)

 

सामाजिक व्यवस्था का निर्माण सामाजिक अन्तक्रियाओं एवं अन्तर्सम्बन्धों के द्वारा होता है मानव प्राणियों के बीच होने वाले अन्तक्रियाओं एवं अन्तर्सम्बन्धों के परिणामस्वरूप विभिन्न रीतिरिवाज , कार्यप्रणाली , समिति , संस्था , नियंत्रण के साधन आदि विकसित होते हैं ये विभिन्न तत्त्व प्रकार्यात्मक रूप में संयुक्त रहते हैं . यही सामाजिक व्यवस्था है आधुनिक समाजशास्त्र में व्यवस्था विश्लेषण का सर्वाधिक विस्तृत विवेचन टी पारसन्स ( T . Parsons ) ने किया है इसकी विस्तृत व्याख्या इन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक सोशल सिस्टम ‘ 1951( The Social System ) में किया है पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था को परिभाषित करते हुए लिखा है , ‘ एक सामाजिक व्यवस्था एक ऐसी दशा में परस्पर अन्तक्रिया करने वाले वैयक्तिक कर्ताओं की बहुलता में निर्मित होती है जिसका कमसेकम एक भौतिक या पर्यावरण सम्बन्धी पक्ष होता है , ऐसे कर्ता जो आशानुकूल सन्तुष्टि की प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं और एकदूसरे के साथ तथा उनकी स्थितियों के साथ जिनके सम्बन्ध की परिभाषा और निर्णय सांस्कृतिक संरचना और सामान्य सहयोगी प्रतीकों द्वारा होती है   इस परिभाषा से अग्रलिखित मूल तथ्यों का पता चलता है

( 1 ) सामाजिक व्यवस्था के लिए एक से अधिक कर्ताओं का होना है

( 2 ) इन कर्ताओं के बीच अन्तक्रिया की प्रक्रिया पायी जाती है

( 3 ) अन्तक्रिया के लिए परिस्थिति आवश्यक है इस परिस्थिति में भौतिक एवं सामाजिक दोनों प्रकार के पर्यावरण अन्तर्निहित है

( 4 ) एक निश्चित लक्ष्य होंगे तथा

( 5 ) जिसकी एक सांस्कृतिक संरचना होगी

लूमिस का मानना है कि ( 1 ) सामाजिक व्यवस्था एकाधिक वैयक्तिक कतओिं की अन्तक्रिया से निर्मित होती है ; ( 2 ) इन कर्ताओं में अन्योन्याश्रयता के गुण होते हैं ( 3 ) कर्ता का एक लक्ष्य होता है उस लक्ष्य प्राप्ति की अभिलाषा में कर्ता एकदूसरे से सम्बन्धित होते हैं और अन्तक्रिया करते हैं

एम . जोन्स ( M . E . Jones ) के अनुसार , ” सामाजिक व्यवस्था एक स्थिति या दशा है जिसमें समाज के निर्माण करने वाली विभिन्न क्रियाशील इकाइयों एकदूसरे के साथ तथा सम्पूर्ण समाज के साथ अर्थपूर्ण ढंग से सम्बन्धित होती है इस कथन से पता चलता है कि अनेक व्यक्तियों के मान्यताप्राप्त ढंग से सम्बन्धित होते हुए अन्तक्रिया के फलस्वरूप सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होता है इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर यह कहा जा सकता है , कि सामाजिक व्यवस्था का निर्माण व्यक्तियों की अन्तर्किया के फलस्वरूप होता है ये व्यक्ति एक लक्ष्य को ध्यान में रखकर एकदूसरे से अन्तर्किया करते हैं साथ ही अन्तक्रिया के लिए स्थान परिस्थिति का होना आवश्यक है  

 

सामाजिक व्यवस्था की विशेषताएँ ( Characteristics of Social System )

अर्थपूर्ण अन्तक्रिया ( Meaningful Interaction ) : सामाजिक व्यवस्था अर्थपूर्ण अन्तक्रियाओं की व्यवस्था है अर्थहीन या उद्देश्यहीन अन्तक्रयाएँ सामाजिक व्यवस्था का निर्माण नहीं करती हैं समाज में पाए जाने वाले रीतिरिवाज , कार्य के ढंग , समूह , संस्था , नियंत्रण के साधन विधि आदि की उत्पत्ति एवं विकास अर्थपूर्ण अन्तक्रियाओं का परिणाम है

प्रकार्यात्मक सम्बन्ध ( Functiongal Relation ) : सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की इकाइयों के बीच प्रकार्यात्मक सम्बन्ध पाए जाते हैं इसके प्रत्येक इकाई के एक निश्चित कार्य होते हैं इस प्रकार्य के आधार पर ही प्रत्येक इकाई एकदूसरे से जुड़ जाते है जिसके चलते एक सम्बद्ध समानता का निर्माण होता है इसी को सामाजिक व्यवस्था कहा जाता है

गतिशील ( Dynamic ) : सामाजिक व्यवस्था गतिशील होती है इसका आधार अन्तक्रियात्मक सम्बन्ध है अन्तक्रियात्मक सम्बन्धों में बदलाव आते रहते हैं इसलिए सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन स्वाभाविक है इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें स्थिरता नहीं होती इसकी स्थिरता में ही गतिशीलता का अवलोकन किया जाता है

सांस्कृतिक व्यवस्था से सम्बन्धित ( Related with Cultural System ) : पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का उल्लेख किया है उनके अनुसार सामाजिक व्यवस्था का आधार अन्तक्रियात्मक सम्बन्ध है यह सम्बन्ध धर्म , प्रथा , कानून , जनरीति आदि के द्वारा निर्धारित होता है ये सब सांस्कृतिक व्यवस्था की इकाइयों हैं , इस रूप में सामाजिक व्यवस्था की सांस्कृतिक व्यवस्था से सम्बन्ध होना स्वाभाविक है

मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति ( Fulfilment of Human Needs ) : सामाजिक व्यवस्था की एक प्रमख विशेषता मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्ध कहा जाता है इस व्यवस्था का एक निश्चित लक्ष्य होता है जो मानवीय होता है दो या अधिक कर्ताओं के बीच पाए जाने वाले अनक्रियाओं का मूल आधार आवश्यकताओं का पूर्त होता है मानवीय आवश्यकताएं अन्योन्याश्रयता की नींव हैं इसीलिए तो पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था सर्व आवश्यकताओं का भी उल्लेख किया है ये हैंजैविकीय पूर्वआवश्यकताएँ . कार्यात्मक पूर्वआवश्यकता भर सांस्कृतिक पूर्वआवश्यकताएँ

अनुकूलनता ( Adaptable ) : सामाजिक व्यवस्था में अनुकूलनता का गुण होता है एक , समाज परिवर्तनशील है इस क्रम में व्यवस्था भी परिवर्तित परिस्थितियों से अनुकूलन करता रहता है दूसरा , मानवीय आवश्यकताएँ बदती रहती है इस क्रम में सामाजिक व्यवस्था भी बदलती है और बदली परिस्थितियों से अनुकूलन करती है

सामाजिक अन्तक्रिया ( Social Interaction ) : सामाजिक व्यवस्था अन्तर्किया की प्रक्रिया पर आधारित है पारसन्स ने लिखा है , ” सामाजिक व्यवस्था अनिवार्य रूप से अन्त : क्रियात्मक सम्बन्धों का जाल है  इसमें जब दो या अधिक कर्ताओं के बीच अन्तक्रियात्मक सम्बन्ध होते हैं , तब सामाजिकव्यवस्था का निर्माण होता है पारसन्स ने क्रिया को व्यवस्था के लिए भवन का पत्थर कहा है

 

सन्तुलन ( Equilibrium ) : सामाजिक व्यवस्था सन्तुलन की व्यवस्था है यह अखण्ड व्यवस्था नहीं है इसकी अनेक इकाइयाँ एवं उपइकाइयाँ होती हैं ये इकाइयाँ बिल्कुल पृथक् होकर कार्य नहीं करतीं , बल्कि सभी इकाइया मिलकर कार्य करती हैं इससे सन्तुलन बना रहता है

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

संरचनात्मक सिद्धांत

क्लाउड लेवी स्ट्रॉस

  • क्लाउड लेवी स्ट्रॉस एक मानवविज्ञानी हैं जो संरचनात्मक मानव विज्ञान के अपने विकास के लिए जाने जाते हैं। उनका जन्म ब्रुसेल्स में हुआ था और उन्होंने पेरिस में पेरिस विश्वविद्यालय में कानून और दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया था। उन्होंने पहले कानून और दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया और उसके बाद नृविज्ञान में अपना वास्तविक व्यवसाय पाया। वह ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड के रॉयल एंथ्रोपोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के मानद फेलो हैं। उनके पास कई कार्य हैं; वह अमेरिकन फिलोसोफिकल सोसाइटी, अमेरिकन एकेडमी ऑफ आर्ट्स एंड साइंस, रॉयल एकेडमी ऑफ नीदरलैंड्स, नॉर्वेजियन एकेडमी ऑफ साइंस आदि के विदेशी फेलो हैं। उन्हें येल, ऑक्सफोर्ड आदि सहित कई विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया है। वह ब्राजील में रहते थे। 1931 से 1939। यह उस समय के दौरान था जब उन्होंने माटो ग्रोसो और अमेज़ॅन रेनफॉरेस्ट में समय-समय पर शोध करने के लिए अपना पहला नृवंशविज्ञान क्षेत्र कार्य किया।

 

 

  • लेवी-स्ट्रॉस के सिद्धांतों को स्ट्रक्चरल एंथ्रोपोलॉजी (1958) में प्रस्तुत किया गया है। संक्षेप में, वह संस्कृति को प्रतीकात्मक संचार की एक प्रणाली मानता है, जिसकी जांच उन तरीकों से की जाती है, जिन्हें अन्य लोगों ने उपन्यासों, राजनीतिक भाषणों, खेलों और फिल्मों की चर्चा में अधिक संकीर्ण रूप से उपयोग किया है।
  • नृविज्ञान और सामाजिक नृविज्ञान में संरचनात्मक सिद्धांत के अनुसार, विभिन्न प्रथाओं, घटनाओं और गतिविधियों के माध्यम से एक संस्कृति के भीतर अर्थ का उत्पादन और पुनरुत्पादन किया जाता है जो महत्व की प्रणाली के रूप में कार्य करता है। एक संरचनावाद भोजन तैयार करने और परोसने के अनुष्ठानों, धार्मिक संस्कारों, खेलों, साहित्यिक और गैर-साहित्यिक ग्रंथों और मनोरंजन के अन्य रूपों के रूप में विविध गतिविधियों का अध्ययन करता है ताकि गहरी संरचनाओं की खोज की जा सके जिसके द्वारा एक संस्कृति के भीतर अर्थ उत्पन्न और पुन: उत्पन्न होता है।
  • 1950 के दशक में संरचनावाद, मानवविज्ञानी और नृवंश विज्ञानी क्लॉड लेवी-स्ट्रॉस के एक प्रारंभिक और प्रमुख व्यवसायी ने पौराणिक कथाओं, रिश्तेदारी (गठबंधन सिद्धांत और अनाचार वर्जित), और भोजन की तैयारी सहित सांस्कृतिक घटनाओं का विश्लेषण किया, इन अध्ययनों के अलावा, उन्होंने भाषाई रूप से अधिक उत्पादन किया- केंद्रित लेखन जहां उन्होंने मानव मन की मौलिक मानसिक संरचनाओं की खोज में लैंगुए और पैरोल के बीच सॉसर के अंतर को लागू किया, यह तर्क देते हुए कि समाज के “गहरे व्याकरण” का निर्माण करने वाली संरचनाएं मन में उत्पन्न होती हैं और अनजाने में हमारे अंदर काम करती हैं। लेवी-स्ट्रॉस सूचना सिद्धांत और गणित से प्रेरित थे।
  • ज्ञान की किसी भी अन्य व्यवस्थित शाखा की तरह, मानव विज्ञान में समाज और संस्कृति के संचालन के सिद्धांतों की खोज में क्रांति लाने की परंपरा है। थॉमस कुह्न ने सामान्य कानूनों को ‘प्रतिमान’ कहा, जो एक निश्चित समय पर एक वैज्ञानिक समाज द्वारा स्वीकृत और साझा किया जाता है। नृविज्ञान के लंबे इतिहास में एक उचित अवधि के लिए कई प्रतिमान क्रमिक रूप से हावी रहे, एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते रहे और अंततः एक दूसरे पर विजय प्राप्त करता रहा।
  • नृविज्ञान की शुरुआत में, सिद्धांतकार मानव जाति की मानसिक एकता से उपजी सांस्कृतिक अवस्थाओं की सार्वभौमिकता में विश्वास करते थे। जब नृविज्ञान एक अनुभवजन्य विज्ञान के रूप में विकसित हुआ, तो पूर्व धारणा को नकारते हुए विकासवाद को कार्यात्मकता से बदल दिया गया। बाद में बीसवीं शताब्दी के मध्य में फ्रांसीसी मानवविज्ञानी और दार्शनिक लेवी-स्ट्रॉस ने ‘संरचनावाद’ नामक संस्कृति के अध्ययन में एक नया और अलग सैद्धांतिक मॉडल पेश किया।
  • संरचनावादी विचार में लेवी-स्ट्रॉस का योगदान यह है कि वह एक वैज्ञानिक खाता प्रदान करता है जो दुनिया को अर्थों की दुनिया के रूप में दिखाता है; उनका मानना ​​है कि संरचनावाद का उपयोग सभी संस्कृतियों की एकता को प्रकट करने के लिए किया जा सकता है। उनके दो कार्यों को क्लासिक माना जाता है: एंथ्रोपोलोजी स्ट्रक्चरल (1958) और पहले के एलीमेंट्री पीस्ट्रक्चर ऑफ किन्शिप (1949)। वह खुद को कुछ “विशुद्ध रूप से संरचनावादी विचारकों” में से एक मानते हैं। उन्होंने मिथक, कर्मकांड और रिश्तेदारी के अध्ययन के लिए संरचनात्मक सिद्धांत लागू किया है।
  • लेवी-स्ट्रॉस के काम का सबसे अक्सर उद्धृत क्षेत्र उनका पौराणिक कथाओं का अध्ययन है।

 

 

 

 

  • लेवी-स्ट्रॉस सांस्कृतिक परिघटनाओं जैसे कि भाषाओं, मिथकों और रिश्तेदारी प्रणालियों का विश्लेषण करते हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि वे किस तरह के पैटर्न या संरचनाओं को प्रदर्शित करते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि ये मानव मन की संरचना को प्रकट कर सकते हैं। उन्होंने तर्क दिया कि एस के पीछे
  • अलग-अलग संस्कृतियों की सतह पर हम सभी के लिए सामान्य प्राकृतिक गुण (सार्वभौमिक) मौजूद होने चाहिए। लेवी-स्ट्रॉस ने अपना ध्यान सभी संस्कृतियों के रीति-रिवाजों और विश्वासों के नीचे मौजूद पैटर्न या संरचनाओं पर केंद्रित किया।
  • लेवी-स्ट्रॉस संरचनात्मक पैटर्न में रुचि रखते हैं जो मिथक को इसका अर्थ देता है। दुनिया भर से मिथकों की अपनी परीक्षा के माध्यम से, उन्होंने पहचान की है कि मिथक मूल भाषाई इकाइयों की तरह द्विआधारी विरोधों (उदाहरण के लिए, अच्छे/बुरे) में व्यवस्थित होते हैं। मिथकों को अलग-अलग इकाइयों (“mythemes”) में विभाजित किया जा सकता है, जो भाषा की मूल ध्वनि इकाइयों (“स्वनिम”) की तरह ही अर्थ प्राप्त करते हैं, जब विशेष तरीकों से एक साथ संयुक्त होते हैं। लेवी-स्ट्रॉस तब संरचनात्मक पैटर्न में रुचि रखते हैं जो मिथक को इसका अर्थ देता है। उनका मानना ​​है कि यह भाषाई मॉडल मानव मन की मूल संरचना को उजागर करेगा, यानी वह संरचना जो मानव द्वारा अपने सभी संस्थानों, कलाकृतियों और उनके ज्ञान के रूपों को आकार देने के तरीके को नियंत्रित करती है। इन संयोजनों को नियंत्रित करने वाले नियमों को एक प्रकार के व्याकरण के रूप में देखा जा सकता है, कथा की सतह के नीचे संबंधों का एक समूह जो मिथक के सच्चे “अर्थ” का गठन करता है।

 

  • इसके अलावा, कथा का आधुनिक संरचनावादी विश्लेषण (कथाशास्त्र के रूप में जाना जाता है) मिथक पर लेवी-स्ट्रॉस के अग्रणी कार्य के साथ शुरू हुआ।
  • नए स्कूल ने सामाजिक संरचना के प्रतिस्थापन के रूप में मानसिक संरचना पर जोर दिया और व्यापक अनुभवजन्य फील्डवर्क और सांस्कृतिक सापेक्षवाद की परंपरा से तेजी से पीछे हट गया। इस सैद्धांतिक अभिविन्यास ने मानव जाति की सार्वभौमिकता और भौतिक एकता की खोज की जो मानव जीवन में भी सहज है और वास्तव में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाया जिसे मानव विज्ञान में ‘वैज्ञानिक क्रांति’ (कुह्न। 1970) कहा जा सकता है।
  • यद्यपि संरचनावाद मानव मन के सार्वभौमिक कानूनों की खोज करता है लेकिन जांच और इसका विश्लेषण विकासवादी दृष्टिकोण से मौलिक रूप से विशिष्ट है। वह मानसिक संरचना में सार्वभौमिक मानसिक विचार प्रक्रिया के आधार पर विश्वास करते थे, इस धारणा पर जोर देते हुए, ‘मानसिक विचार प्रक्रिया सार्वभौमिक और सहज है’
  • मौखिक परंपराओं, मिथकों, रिश्तेदारी व्यवस्था के अध्ययन से, उन्होंने मानव मानसिक संरचना के द्विभाजित विरोध को सशक्त रूप से प्रकट किया, जिसे वे ‘द्विआधारी विरोध’ कहते हैं। ऐसी मानसिक स्थिति वास्तव में सभी मानव समाजों-मृत्यु/जीवन, जंगली/सभ्य, कच्चे/पक्के, मानव/पशु, संस्कृति/प्रकृति, प्रेम/घृणा, आदि में सक्रिय है। लेवी-स्ट्रॉसियन व्याख्या ने मानव की समझ को नई गति प्रदान की। दिमाग के साथ-साथ सांस्कृतिक दुनिया जो समकालीन मानव विज्ञान की सीमा से परे फैली हुई है। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि लेवी-स्ट्रॉस और उनके संरचनावाद ने “अर्थ” की प्रकृति पर बहस करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

 

 

 

 

ए.आर. रेडक्लिफ ब्राउन

  • यद्यपि कार्य और संरचना को “दोनों एक ही डेटा को देखने वाले थे” (फर्थ: 1951; रिचर्ड्स: 957 आदि) के रूप में कहा गया है, लेकिन कभी-कभी संरचनावादी, जिसके नेता थे
  • ए.आर. रैडक्लिफ ब्राउन (1881-1955), सामाजिक घटनाओं की कार्यप्रणालियों, व्याख्याओं और व्याख्याओं से आगे निकल गए, जिसने अंततः मानव विज्ञान में विचार के एक बड़े स्कूल का गठन किया।
  • सामाजिक संरचना शब्द पहले से ही हर्बर्ट स्पेंसर (1820-1903) “समाजशास्त्र के सिद्धांत” (1885, खंड I) और एमिल दुर्खीम (1858-1917) “श्रम का विभाजन” (1893) के कार्यों में प्रकट हुआ था।
  • (-एआर। रैडक्लिफ ब्राउन, इस विचारधारा के चैंपियन, “सामाजिक संरचना के घटक मनुष्य हैं; संरचना ही संस्थागत रूप से परिभाषित और विनियमित संबंधों में व्यक्तियों की व्यवस्था है” (1952)
  • एआर का प्रारंभिक प्रशिक्षण। रेडक्लिफ ब्राउन
  • अल्फ्रेड रेजिनाल्ड रेडक्लिफ ब्राउन का जन्म 1881 में हुआ था। उन्होंने एक छात्र के रूप में अपनी कमाई शुरू की
  • H.R। मनोविज्ञान में नदियाँ लेकिन वर्ष 1904 में कैम्ब्रिज में सामाजिक मानव विज्ञान में उनके पहले छात्र बने।
  • रेडचफ ब्राउन एक सच्चे सामाजिक मानवविज्ञानी थे, क्योंकि उन्होंने सामाजिक मानव विज्ञान पढ़ा, सामाजिक मानव विज्ञान लिखा और कई विश्वविद्यालयों में केवल सामाजिक मानव विज्ञान पढ़ाया। सिडनी, केप टाउन, शिकागो और ऑक्सफोर्ड। शिकागो में उन्होंने 1931 से 1937 तक सामाजिक नृविज्ञान पढ़ाया और उसके बाद 1937 से जुलाई 1946 तक ऑक्सफोर्ड में रहे और वहां के कई प्रतिष्ठित ब्रिटिश मानवविज्ञानी के भाग्य का मार्गदर्शन किया।
  • रैडक्लिफ़ ब्राउन ने न केवल सामाजिक मानवविज्ञान की स्वतंत्र स्थिति और अस्तित्व के लिए संघर्ष किया; लेकिन उन्होंने कई सैद्धांतिक अवधारणाओं और विचारों को भी विकसित किया, जिसने अंततः मानव विज्ञान में विचार के एक स्वतंत्र स्कूल का गठन किया। सामाजिक संरचना के व्यापक परिप्रेक्ष्य में उनकी सैद्धांतिक अवधारणाएँ, सामाजिक-आर्थिक धार्मिक संस्थाओं की व्याख्या सबसे उत्कृष्ट योगदान हैं, जो उन्होंने वैश्विक स्तर पर इस विज्ञान के विकास के लिए किए।
  • रेडक्लिफ ब्राउन का सामाजिक संरचना का सिद्धांत
  • रैडक्लिफ ब्राउन ने पहली बार 1914 में बर्मिंघम में “सोशल एंथ्रोपोलॉजी” पर व्याख्यान देते हुए पहली बार सामाजिक संरचना की अवधारणा का इस्तेमाल किया (फोर्ट: 1956)। हालाँकि, सामाजिक संरचना की अवधारणा को 1940 में रॉयल एंथ्रोपोलॉजिकल इन्स को अपना अध्यक्षीय भाषण देते हुए विस्तार से उजागर किया गया था।
  • ग्रेट ब्रिटेन की उपाधि। इस अवसर पर उन्होंने यह भी बताया कि “कोई कार्यात्मक सिद्धांत नहीं है; कार्यात्मकता प्रोफेसर मालिनोव्स्की द्वारा आविष्कार की गई एक मिथक थी” (1940)। हालांकि, जब रेडक्लिफ ब्राउन के कार्यों का उनके सहयोगियों द्वारा विश्लेषण और व्याख्या की गई, तो यह पाया गया कि रैडक्लिफ ब्राउन विभिन्न प्रकार के कार्यात्मकवादी थे, जिन्हें “संरचनात्मक-कार्यात्मकतावादी” कहा जा सकता है (मैफिज्ट: 1974)

 

 

  • रैडक्लिफ ब्राउन के अनुसार संरचना की अवधारणा एक दूसरे से संबंधित भागों या घटकों की किसी प्रकार की बड़ी एकता में व्यवस्था को संदर्भित करती है। उदाहरण के लिए, हम एक घर की संरचना के बारे में बात कर सकते हैं, मी जी: दीवारों, छतों, कमरों, मार्ग आदि की व्यवस्था, और अंततः ईंटों, पत्थर, लकड़ी आदि की व्यवस्था के रूप में। इसी तरह हम संरचना के बारे में बात कर सकते हैं। क्रमिक ध्वनियों की व्यवस्था के रूप में संगीत का एक टुकड़ा और इसलिए, हम कह सकते हैं कि एक गीत की संरचना या तो अच्छी है या बुरी? इस प्रकार मानव शरीर की एक संरचना होती है- जैसे अंगों, हड्डियों, ऊतकों आदि की संख्या होती है।
  • सामाजिक संरचना में अंतिम घटक व्यक्तिगत मनुष्य या व्यक्ति होते हैं और “संरचना में एक दूसरे के संबंध में व्यक्तियों की व्यवस्था होती है” (रैडक्लिफ ब्राउन: 952)। उदाहरण के लिए, एक गाँव में हम परिवारों या घरों में व्यक्तियों की व्यवस्था पाते हैं, जो फिर से एक संरचनात्मक विशेषता है। परिवार में संरचना में पिता माता और बच्चों के एक दूसरे के संबंध होते हैं।
  • इस प्रकार, सामाजिक जीवन की संरचनात्मक विशेषताओं की तलाश में हम पहले सभी प्रकार के सामाजिक समूहों के अस्तित्व को देखते हैं और उन समूहों की आंतरिक संरचनात्मक प्रणाली की भी जांच करते हैं। समूहों में व्यक्तियों की व्यवस्था के अलावा और उन समूहों के भीतर हम सामाजिक वर्गों और श्रेणियों में भी व्यवस्था पाते हैं। पुरुषों और महिलाओं के बीच सामाजिक भेद, ब्राह्मणों और शूद्रों या अछूतों के बीच, महत्वपूर्ण संरचनात्मक विशेषताएं हैं।
  • जबकि संरचना व्यक्तियों की व्यवस्था को संदर्भित करती है, संगठन संदर्भित करता है। गतिविधियों की व्यवस्था करने के लिए। रैडफी ब्राउन के अनुसार, सामाजिक संगठन दो या दो से अधिक व्यक्तियों की गतिविधियों की व्यवस्था है, जिन्हें एक संयुक्त संयुक्त गतिविधि देने के लिए समायोजित किया जाता है।

 

  • रैडक्लिफ ब्राउन ने पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की जनजातियों से उदाहरण देते हुए सामाजिक संरचना की अवधारणा को चित्रित किया। उन्होंने कहा कि जनजातियों को कई क्षेत्रों में विभाजित किया गया है और पुरुषों ने इस प्रकार एक विशेष क्षेत्र से जुड़े एक विशिष्ट सामाजिक समूह का गठन किया, जिसे हम एक कबीले की बात कर सकते हैं, यह सामाजिक संरचना में मौलिक महत्व की इकाई थी। ऑस्ट्रेलियाई जनजातियों में, कबीले को होर्डे के रूप में जाना जाता है।

 

  • भीड़ की आंतरिक संरचना परिवारों में एक विभाजन थी, प्रत्येक में एक पुरुष _ अपनी पत्नी या पत्नियों और उनके छोटे बच्चों के साथ बना था। एक भीड़ का एक निरंतर अस्तित्व है, क्योंकि भीड़ के सदस्यों को समय-समय पर पुराने की मृत्यु से बदल दिया जाता है और नवजात सदस्य भीड़ में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार, सामाजिक संरचना के अस्तित्व के लिए सामाजिक समूह की निरंतरता एक महत्वपूर्ण कारक है।
  • रैडक्लिफ ब्राउन ने आगे सुझाव दिया कि रिश्तेदारी प्रणाली के माध्यम से विभिन्न गिरोहों और विभिन्न जनजातियों के व्यक्ति एक साथ जुड़े हुए हैं। इसलिए, कुल सामाजिक संरचना के रखरखाव के लिए अंतर-जनजातीय रिश्तेदारी संरचना भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • रैडक्लिफ़ ब्राउन का मत था कि चूंकि सामाजिक संरचना संस्थागत भूमिकाओं और संबंधों में व्यक्तियों की एक व्यवस्था है, संरचनात्मक निरंतरता ऐसी व्यवस्था की निरंतरता है। मानव समाजों में संरचनात्मक निरंतरता इस अर्थ में गतिशील है। रैडक्लिफ़ ब्राउन के अनुसार, सामाजिक संरचना, इसलिए, संस्थाओं द्वारा परिभाषित या नियंत्रित संबंधों में व्यक्तियों की निरंतर व्यवस्था के रूप में परिभाषित की जानी है, अर्थात सामाजिक स्थापित मानदंड या व्यवहार के पैटर्न।

 

 

  • सामाजिक संरचना में संबंधों का एक जाल होता है लेकिन संबंधों के उन जालों को मानदंडों, नियमों या प्रतिमानों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इस प्रकार, सामाजिक संरचना के भीतर किसी भी संबंध में एक व्यक्ति जानता है कि उससे निर्धारित तरीके और मानदंडों के भीतर व्यवहार करने की अपेक्षा की जाती है।

सामाजिक नृविज्ञान और सामाजिक संरचना

 

  • सबसे पहले रैडक्लिफ ब्राउन ने समझाया कि सामाजिक मानव विज्ञान समाज का सैद्धांतिक प्राकृतिक विज्ञान है, अर्थात भौतिक और जैविक विज्ञानों में उपयोग की जाने वाली विधियों के समान ही सामाजिक घटनाओं की जांच। हालांकि, उन्होंने टिप्पणी की कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं है अगर कोई इसे “तुलनात्मक समाजशास्त्र” कहता है और वास्तव में यह स्वयं एक विषय है।

 

  • दूसरे शब्दों में यह मानव समाज का अध्ययन है, लेकिन रैडक्लिफ ब्राउन ने “संस्कृति” शब्द का अनुमोदन नहीं किया, जो आमतौर पर मानवविज्ञानियों द्वारा मानव समाज के संपूर्ण अध्ययन के लिए प्रयोग किया जाता है। उन्होंने बताया कि एक विशेष समाज में निवासी कुछ प्राकृतिक वातावरण में रहते हैं। हम उनके व्यवहार के कार्यों का निरीक्षण करते हैं और प्रत्यक्ष अवलोकन से हमें यह पता चलता है कि ये मनुष्य सामाजिक संबंधों के एक जटिल जाल द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और रैडक्लिफ ब्राउन ने वास्तव में मौजूदा संबंधों के इस नेटवर्क कार्य के लिए सामाजिक संरचना शब्द का उपयोग किया। सामाजिक पीएच.डी
  • एनोमेना प्राकृतिक घटनाओं का एक अलग वर्ग बनाती है। वे सभी, किसी न किसी रूप में, सामाजिक संरचना के अस्तित्व से जुड़े हुए हैं, या तो इसमें निहित हैं या इसके परिणामस्वरूप हैं। इस प्रकार, सामाजिक संरचना उतनी ही वास्तविक है जितनी कि व्यक्तिगत जीव। सामाजिक घटनाएँ जो हम किसी भी समाज में देखते हैं, वे व्यक्तिगत मनुष्यों की प्रकृति का तात्कालिक परिणाम नहीं हैं, बल्कि उस सामाजिक संरचना का परिणाम हैं जिसके द्वारा वे एकजुट हैं।
  • रैडक्लिफ़ ब्राउन के अनुसार सामाजिक संरचना में दो महत्वपूर्ण कारक हैं: पहला, व्यक्तियों का व्यक्तियों से सामाजिक संबंध और दूसरा, व्यक्तियों और वर्गों का उनकी सामाजिक भूमिका द्वारा विभेदन। पहले कारक के बारे में उन्होंने कहा कि किसी भी समाज की रिश्तेदारी संरचना में कई ऐसे युग्मक (दो का सेट) संबंध होते हैं, जैसे कि पिता और उसके बीच, या दूसरे के भाई और बेटे, या मां के बेटे के बीच। उन्होंने कहा कि एक ऑस्ट्रेलियाई जनजाति में पूरी सामाजिक संरचना व्यक्तियों के ऐसे संबंधों के नेटवर्क पर आधारित होती है, जो वंशावली संबंधों के माध्यम से स्थापित होती है। दूसरे कारक के बारे में, जो कि सामाजिक भूमिका है,

 

  • रैडक्लिफ ब्राउन ने सुझाव दिया कि पुरुषों और महिलाओं, प्रमुख और आम लोगों, नियोक्ता और कर्मचारियों की अलग-अलग सामाजिक स्थिति, अलग-अलग कुलों या विभिन्न राष्ट्रों से संबंधित सामाजिक संबंधों के निर्धारक हैं।

 

 

रैडक्लिफ़ ब्राउन ने सामाजिक संरचना के मॉडल को दो श्रेणियों में रखा: पहला, वास्तविक सामाजिक संरचना; और दूसरा, सामान्य सामाजिक संरचना। वास्तविक सामाजिक संरचना के बारे में रेडक्लिफ ब्राउन ने सुझाव दिया कि व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूह के वास्तविक सामाजिक संबंध साल-दर-साल बदलते रहते हैं या आज भी बदलते रहते हैं। नए सदस्य किसी समुदाय में जन्म या अप्रवास से आते हैं जबकि अन्य मृत्यु या प्रवास के द्वारा समुदाय से बाहर चले जाते हैं। इसके अलावा, विवाह और तलाक भी होते हैं जिनमें सदस्य कई बार बदलते हैं। इस प्रकार, रैडक्लिफ ब्राउन के अनुसार, जबकि वास्तविक सामाजिक संरचना कई बार बदलती है, सामान्य सामाजिक संरचना लंबे समय तक अपेक्षाकृत स्थिर रह सकती है।

 

 

सामाजिक संरचना के स्थानिक पहलू

  • सामाजिक संरचना के स्थानिक पहलू के बारे में रेडक्लिफ ब्राउन ने सुझाव दिया कि शायद ही कोई ऐसा समाज हो जो वास्तव में अलग-थलग हो या जिसका बाहरी दुनिया से कोई संपर्क न हो। इस प्रकार सामाजिक सम्बन्धों का जाल विशाल भूभाग में फैला हुआ है और एक गाँव या समाज विशेष का व्यक्ति दूर स्थित दूसरे गाँव के व्यक्ति से जुड़कर विभिन्न बंधनों से जुड़ा रहता है।

 

  • यहाँ फिर से आदिम समाज के बीच नातेदारी संबंधों की एक विस्तृत श्रृंखला प्रचलित है और इस आधार पर रिश्तेदारी संबंध हैं। रैडक्लिफ ब्राउन ने सुझाव दिया कि एक गांव के निवासी अन्य क्षेत्रों के निवासियों के साथ भी बातचीत करते हैं, या उनसे संबंधित हैं। इस संबंध में यह भी बताया जा सकता है कि रैडक्लिफ ब्राउन ने यह सुझाव नहीं दिया कि केवल एक गांव या इलाके की सामाजिक संरचना का अध्ययन किया जाना चाहिए, बल्कि उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि समाजशास्त्रियों या सामाजिक मानवविज्ञानी को कई क्षेत्रों की सामाजिक संरचनाओं का अध्ययन करना चाहिए। विभिन्न क्षेत्रों की सामाजिक संरचना की प्रणालियों का निरीक्षण, वर्णन और तुलना करें {उन्होंने कहा कि इस दृष्टिकोण से अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन के कई विद्वानों ने एक जापानी गांव, फ्रांसीसी गांव, मैक्सिकन गांव आदि की सामाजिक संरचना का अध्ययन किया है।
  • सामाजिक संरचना और सामाजिक व्यक्तित्व?
  • सोशल फिजियोलॉजी और सोशल स्ट्रक्चर
  • जब रेडक्लिफ ब्राउन ने सुझाव दिया कि मानवविज्ञानी को संरचनात्मक प्रणालियों की किस्मों और विविधताओं का अध्ययन करना चाहिए, तो उन्होंने दो शब्दों जैसे सामाजिक आकृति विज्ञान और सामाजिक शरीर विज्ञान का उपयोग किया। सामाजिक आकृति विज्ञान शब्द से उनका तात्पर्य समाजों की तुलनात्मक आकारिकी से है जिसमें किसी प्रकार का वर्गीकरण या संरचनात्मक प्रणालियों के प्रकार किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, रेडक्लिफ ब्राउन के अनुसार, सामाजिक आकारिकी में विभिन्न संरचनात्मक प्रणालियों की परिभाषा, तुलना और वर्गीकरण शामिल है।
  • इस रूपात्मक अध्ययन के अलावा, समाज का एक शारीरिक अध्ययन भी है जिसमें सामाजिक वैज्ञानिकों द्वारा कई प्रकार के प्रश्नों का अध्ययन किया जाता है।
  • रैडक्लिफ ब्राउन के अनुसार सामाजिक शरीर विज्ञान में हर तरह की सामाजिक घटनाएँ शामिल हैं, जैसे नैतिकता, कानून, शिष्टाचार, धर्म, सरकार, शिक्षा आदि, जो जटिल तंत्र का हिस्सा हैं जिसके द्वारा एक सामाजिक संरचना मौजूद है और बनी रहती है।

 

  • रैडक्लिफ ब्राउन के अनुसार हम इन चीजों का अध्ययन अमूर्त या अलगाव में नहीं बल्कि सामाजिक संरचना से उनके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संबंधों में करते हैं। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि इन सामाजिक घटनाओं का अध्ययन उस तरीके के संदर्भ में किया जाता है जिसमें वे व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूह के बीच सामाजिक संबंधों पर निर्भर करते हैं या प्रभावित करते हैं।

 

 

  • सामाजिक संरचना और आर्थिक संस्थान
  • रेडक्लिफ ब्राउन का कहना है कि मानव समाज के आर्थिक संस्थानों का अध्ययन दो कोणों से किया जा सकता है। सबसे पहले, आर्थिक प्रणालियों को तंत्र के रूप में देखा जा सकता है

 

 

  • जिसमें विभिन्न प्रकार के और विभिन्न मात्रा में माल का उत्पादन, परिवहन या हस्तांतरण और उपयोग किया जाता है; और दूसरी बात, आर्थिक एस
  • सिस्टम को व्यक्तियों और समूह के बीच संबंधों के एक सेट के रूप में भी माना जा सकता है, जो इस विनिमय या वस्तुओं के संचलन को बनाए रखता है और जीवित रहता है और इस दृष्टिकोण से, समाजों के आर्थिक जीवन का अध्ययन समाज के सामान्य अध्ययन के हिस्से के रूप में किया जा सकता है। सामाजिक संरचना।

 

 

  • सामाजिक संरचना में सामाजिक संबंधों और धर्म की अवधारणा
  • रैडक्लिफ ब्राउन के अनुसार “एक सामाजिक संबंध दो या दो से अधिक जीवों के बीच तब होता है जब उनके संबंधित हितों का कुछ समायोजन होता है” (1940)। रैडक्लिफ़ ब्राउन ने “रुचि” शब्द का प्रयोग यथासंभव व्यापक अर्थों में किया और उन्होंने उन सभी व्यवहारों का उल्लेख किया जिन्हें हम उद्देश्यपूर्ण मानते हैं।

 

  • उनके अनुसार, “रुचि” शब्द का अर्थ किसी विषय और वस्तु और विशेष रूप से उनके बीच के संबंध को व्यक्त या निर्दिष्ट करना है। व्याकरणिक संबंधों के संदर्भ में बात करते हुए रैडफी ब्राउन ने सुझाव दिया कि एक विषय की किसी वस्तु में रुचि होती है। दूसरे शब्दों में, किसी वस्तु का विषय के लिए निश्चित मूल्य होता है और इसलिए, उसके अनुसार, “रुचि” और “मूल्य” सहसंबंधी शब्द हैं। उन्होंने सामाजिक संबंधों के बिगड़ने की भी बात की। उन्होंने बताया कि रुचियां या मूल्य सामाजिक संबंधों के निर्धारक हैं, क्योंकि सामाजिक संरचना का अध्ययन तुरंत सामाजिक निर्धारकों के अध्ययन की ओर ले जाता है।

 

 

  • सामाजिक संरचना में सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा

 

  • रेडक्लिफ ब्राउन ने सुझाव दिया कि सामाजिक संरचना में महत्वपूर्ण पहलू हैं जिनका विस्तार से अध्ययन नहीं किया गया है और ये सामाजिक परिवर्तन की विधियां और प्रक्रियाएं हैं। हालांकि अशिक्षित समाजों में सामाजिक परिवर्तन पर कुछ अध्ययन किए गए हैं लेकिन
  • यह परिवर्तन की एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया तक ही सीमित है जो कुछ आक्रमणकारियों या विजेताओं के प्रभाव या प्रभुत्व में बनी हुई है। रैडक्लिफ ब्राउन ने बताया कि इस तरह के परिवर्तन को कुछ मानवशास्त्रियों द्वारा संस्कृति संपर्क के रूप में नामित किया जा रहा है और आलोचना की कि इस शब्द से हम ‘समाजों’ में बातचीत के एकतरफा या दोतरफा प्रभावों को समझ सकते हैं।

 

  • लेकिन सामाजिक परिवर्तन समाजों के अध्ययन में उनकी रुचि क्या थी, उन्होंने समग्र समाज या बहुवचन समाज कहा। बहुल समाज की अवधारणा को विस्तृत करते हुए रैडक्लिफ ब्राउन ने सुझाव दिया कि एक संयुक्त समाज का प्रतिनिधित्व विभिन्न भाषाओं, विभिन्न रीति-रिवाजों और जीवन के तरीकों के साथ-साथ विचारों और मूल्यों के विभिन्न समूहों के लोगों के वर्गों द्वारा किया जा सकता है।

 

 

  • रैडक्लिफ़ ब्राउन का मत था कि सामाजिक प्रगति की अवधारणा को मानव जाति के कच्चे पत्थर के औजारों और यौन स्वच्छंदता से लेकर आधुनिक परिष्कृत हथियारों और एक विवाह विवाह तक स्थिर सामग्री और नैतिक सुधार के रूप में समझाया गया है। इसलिए शब्द प्रगति का उपयोग ‘ऐसी प्रक्रिया’ को निर्दिष्ट करने के लिए किया जा सकता है

 

 

  • जिसके द्वारा मनुष्य ने आविष्कारों और खोजों द्वारा वैज्ञानिक विकास के ज्ञान को सीखा या बढ़ाया है। रैडक्लिफ ब्राउन के अनुसार विकास विशेष रूप से संरचना के नए रूपों के उद्भव की प्रक्रिया को संदर्भित करता है। फिर से संरचना के इस नए रूप को दो तरह से समझाया जा सकता है अर्थात जैविक विकास और सामाजिक विकास।

 

  • जैविक विकास की कुछ विशेषताएँ हैं जिनमें छोटी संख्या में जीवों को बड़ी संख्या में जीवों में विकसित किया गया है और कार्बनिक संरचना के अधिक जटिल रूप सरल रूपों से अस्तित्व में आए हैं। इसी तरह, सामाजिक संरचना में सामाजिक विकास को रेडक्लिफ ब्राउन के अनुसार दो महत्वपूर्ण विशेषताओं की मदद से परिभाषित किया जा सकता है। प्रथमतः एक ऐसी प्रक्रिया रही है जिसके द्वारा इतिहास के क्रम में सामाजिक संरचना के कुछ रूपों से विभिन्न रूपों का विकास हुआ है। दूसरे शब्दों में समाज में विविधीकरण की प्रक्रिया रही है जिसमें सामाजिक संरचना के विकसित रूपों ने सामाजिक व्यवस्था को और अधिक जटिल बना दिया है। दूसरे, सामाजिक विकास की लंबी प्रक्रिया में सामाजिक संरचना के सरल रूपों को सामाजिक संरचना के जटिल रूपों द्वारा काफी हद तक बदल दिया गया है।

 

  • रैडक्लिफ ब्राउन ने कहा कि इस अर्थ में सामाजिक विकास एक वास्तविकता है, जिसका सामाजिक मानवविज्ञानियों को अध्ययन करना चाहिए और इसे पहचानना चाहिए। उन्होंने स्वीकार किया कि अन्वेषक द्वारा संरचनात्मक प्रणाली को उसकी सादगी या जटिलता के संदर्भ में वर्गीकृत करना मुश्किल है, लेकिन उन्होंने सुझाव दिया कि सामाजिक संबंधों के विस्तार का अध्ययन करके विस्तार से जाना जा सकता है। उदाहरण के लिए, एक आदिम सामाजिक संरचना में हम आम तौर पर एक संकीर्ण सामाजिक क्षेत्र पाते हैं जिसमें साधारण भाषाई समुदाय, एक साधारण और छोटे राजनीतिक संबंधों के साथ-साथ एक पर आर्थिक संबंधों द्वारा औसत या अधिकांश व्यक्तियों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंधों में लाया जाता है। बहुत संकीर्ण सीमा। इस प्रकार, ऐसे समाज में समाज के सदस्यों द्वारा निभाई जाने वाली सामाजिक भूमिकाओं में अधिक समानता होती है, जबकि सामाजिक संरचना के बहुत जटिल रूपों में बहुत अधिक विषमता होती है।

 

  • इस प्रकार, रैडक्लिफ ब्राउन के अनुसार सामाजिक इतिहास की प्रक्रिया सामाजिक विकास की अवधारणा के बहुत करीब है और उसके अनुसार इसे उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा सामाजिक संरचना की विस्तृत श्रृंखला प्रणाली संकीर्ण सीमा प्रणाली से विकसित हुई है या बदली है।
  • उपजी। उन्होंने आगे सुझाव दिया कि सामाजिक विकास की अवधारणा को केवल सामाजिक संरचना के संदर्भ में जांचने, समझाने और वर्णित करने की आवश्यकता है।
  • रैडक्लिफ ब्राउन एक सच्चे सामाजिक मानवविज्ञानी और एक अच्छे सिद्धांतकार थे। उन्होंने विभिन्न कोणों से सामाजिक संरचना के सिद्धांत का वर्णन किया और विशेष रूप से सामाजिक संबंधों के जाल के संदर्भ में व्याख्या की, और सामाजिक संस्थाओं की निरंतरता पर जोर दिया। उन्होंने सामाजिक संरचना और सामाजिक संगठन के बीच के अंतर को भी समझाया। उन्होंने सामाजिक संरचना के प्रकारों का भी वर्णन किया; सामाजिक संरचना के स्थानिक पहलू पर प्रकाश डाला; सामाजिक आकृति विज्ञान और सामाजिक शरीर विज्ञान के बीच अंतर किया। अंत में, उन्होंने भाषा के प्रसार के महत्व और उन आर्थिक संस्थानों की भूमिका पर जोर दिया जहां समाज के सदस्य विभिन्न चरणों में जुड़े हुए हैं। सामाजिक संरचना की चर्चा करते हुए उन्होंने धर्म की अवधारणा, सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक विकास आदि पर भी अपने विचार रखे।

 

 

 

 

 

 

 

सांस्कृतिक प्रक्रिया

सभी संस्कृतियाँ स्वाभाविक रूप से परिवर्तन के लिए और साथ ही, परिवर्तन का विरोध करने के लिए पूर्वनिर्धारित हैं। ऐसी गतिशील प्रक्रियाएं चल रही हैं जो नए विचारों और चीजों की स्वीकृति को प्रोत्साहित करती हैं जबकि अन्य ऐसी हैं जो परिवर्तनहीन स्थिरता को प्रोत्साहित करती हैं। यह संभावना है कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अराजकता का परिणाम होगा यदि रूढ़िवादी ताकतें परिवर्तन का विरोध नहीं करतीं।

प्रभाव या दबाव के तीन सामान्य स्रोत हैं जो इसके परिवर्तन और प्रतिरोध दोनों के लिए जिम्मेदार हैं:

  • एक समाज के भीतर काम करने वाली ताकतें
  • प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन
  • समाजों के बीच संपर्क

 

विकासवाद

विकास’ शब्द गुणात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया का वर्णन करता है। विकासवाद है

इस प्रक्रिया का वर्णन करने, समझने और समझाने की विद्वत्तापूर्ण गतिविधि।

विकासवादियों के विचारों और योगदानों की व्यवस्थित चर्चा के लिए, उन्हें दो कोणों से वर्गीकृत किया गया है। सबसे पहले, शास्त्रीय विकासवादी और नव-विकासवादी; और दूसरा, उनकी राष्ट्रीयता के आधार पर जैसे ब्रिटिश, अमेरिकी, जर्मन आदि। इस वर्गीकरण को निम्न तालिका के माध्यम से भी दिखाया जा सकता है:

 

 

 

 

 

 

 

 

Classical Evolutionists                                                                                                             Neo-evolutionists

 

 

 

 

 

 

British

 

 

 

American            Continental

American          British Neo-Evolutionists

 

इस प्रकार, शास्त्रीय विकासवादियों के तीन उप-विद्यालय हैं और नव-विकासवादियों के दो उप-विद्यालय हैं, जिनकी एक-एक करके चर्चा की जा सकती है।

 

 

ब्रिटिश शास्त्रीय विकासवादी

 

  • यद्यपि ग्रेट ब्रिटेन में कई विक्टोरियन विद्वान हैं, जिन्होंने संस्कृति के विकास के एकरेखीय रूप की बात की, लेकिन यहाँ एडवर्ड बर्नेट टाइलर (1832-1917), आर.आर. मैरेट (1866-1943), जेम्स फ्रेज़र (1854- 1941), मैक्लेनन (1827-1888), हेनरी मेन (1822-1888), हर्बर्ट स्पेन सेर (1820-1903) आदि, जिनके विभिन्न सामाजिक संस्थानों के विकास पर लेखन ने न केवल विश्व मानव विज्ञान को समृद्ध किया है, बल्कि मानव विज्ञान को भी समृद्ध बनाया है। वैश्विक स्तर पर ब्रिटिश नृविज्ञान के लिए एक विशिष्ट स्थान।
  • (ई.बी. टाइलर (1832-917):
  • टाइलर प्रशिक्षण से मानवविज्ञानी नहीं थे।
  • (ii) टायलर ऑन द साइंस ऑफ कल्चर हिस्ट्री
  • टायलर की राय थी कि संस्कृति का अध्ययन अनिवार्य रूप से एक ऐतिहासिक अध्ययन है, क्योंकि संस्कृति अनिवार्य रूप से एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। उनके अनुसार नृविज्ञान, इतिहास के क्रम में मनुष्य के विकास का अध्ययन है। टायलर की संस्कृति की परिभाषा, जो नीचे दी गई है, ने पहले दी गई सभी गलत व्याख्याओं को हटा दिया, और इसे संस्कृति को परिभाषित करने का पहला वैज्ञानिक रूप माना गया, जो मानव विज्ञान का केंद्रीय विषय है।
  • टाइलर कहते हैं, “संस्कृति या सभ्यता, अपने व्यापक नृवंशविज्ञान संबंधी अर्थों में ली गई, वह जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून, प्रथा और समाज के एक सदस्य के रूप में मनुष्य द्वारा अर्जित अन्य क्षमताएं और आदतें शामिल हैं” (1871) . संस्कृति इतिहास का उनका विज्ञान सांस्कृतिक प्रगति के दर्शन पर आधारित था जिसमें तीन चरण शामिल थे।

 

  • बर्बरता, बर्बरता और सभ्यता। उन्होंने सुझाव दिया कि ये सांस्कृतिक प्रगति के तीन सार्वभौमिक चरण हैं, लेकिन उन्होंने इसे इतिहास की गतिमान शक्ति नहीं माना, बल्कि इसे पिछली स्थितियों के पुनर्निर्माण के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया।
  • (iii) आदिम धर्म के अध्ययन में टाइलर का योगदान
  • हालांकि टाइलर ने मानवशास्त्रीय जांच के पूरे क्षेत्र को अपना लिया, लेकिन उनका सबसे व्यापक उपचार आदिम धर्म के क्षेत्र में था। उन्होंने धर्म को इतने सरल तरीके से परिभाषित करना शुरू किया कि इसके सभी रूपों को शामिल किया जा सके, जैसे कि “आध्यात्मिक प्राणियों में विश्वास”। उन्होंने दृढ़ता से कहा कि धर्म एक सांस्कृतिक सार्वभौमिक है।

 

 

 

 

 

 

अमेरिकी शास्त्रीय विकासवादी

लुईस हेनरी मॉर्गन (1818-1881)

 

  • 1818 में ऑरिरा, न्यूयॉर्क में जन्मे, लुईस हेनरी मॉर्गन ने अल्बानी में कानून का अध्ययन किया और रोचेस्टर में एक वकील के रूप में बस गए। उन्होंने इरोक्विस भारतीयों का विस्तार से अध्ययन किया और बाद में एक समाज का गठन किया, जिसके सदस्य हम इरोक्विस के रीति-रिवाजों और शिष्टाचार के संरक्षक हैं। इस सोसाइटी के सदस्य, मॉर्गन एन के अध्यक्ष जहाज के तहत, बैठकों की व्यवस्था करते थे, जिसमें वे सभी इरोक्वाइस-इंडिया एनएस की वेशभूषा और पोशाक पहनते थे।

 

 

  • चूंकि मॉर्गन Iroquois के साथ घनिष्ठ संपर्क में थे और उनमें से कई अक्सर उनसे मिलते थे, मॉर्गन ने महसूस किया कि Iroquois की संस्कृतियां तेजी से बदल रही थीं और इससे पहले कि बहुत देर हो जाए उनकी संस्कृतियों को रिकॉर्ड और प्रकाशित किया जाना चाहिए।

 

  • इस प्रकार, कई इरोक्वाइस भारतीयों का दौरा और साक्षात्कार करते हुए, मॉर्गन ने बड़ी मात्रा में डेटा एकत्र किया और फिर अपनी पुस्तक “लीग ऑफ द इरोक्वाइस” (1851) में प्रकाशित किया। इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद, मॉर्गन ने अब अमेरिका में एक महत्वपूर्ण स्थान पर कब्जा कर लिया और एक पूर्ण विकसित विकासवादी के रूप में माना जाने लगा।

 

  • उनके लेखन ने मॉर्गन को एक अंतरराष्ट्रीय नाम और प्रसिद्धि दिलाई और उन्हें सार्वभौमिक रूप से एक विकासवादी के रूप में पहचाना गया। उन्होंने सभी इतिहास को तीन मुख्य चरणों में विभाजित किया है। (ए) बर्बरता, (बी) बर्बरता और (सी) सभ्यता। इन तीनों अवस्थाओं को आगे चलकर आर्थिक और बौद्धिक विकास के साथ जोड़ा गया। मॉर्गन के अनुसार, बर्बरता मिट्टी के बर्तनों से पहले की अवधि थी; बर्बरता सिरेमिक युग से शुरू हुई और सभ्यता अक्षर और लेखन के आविष्कार के बाद आई। इस अवधि के बारे में मॉर्गन ने आगे लिखा है कि “इन अवधियों में से प्रत्येक की एक अलग संस्कृति है और जीवन की एक विधा को प्रदर्शित करती है, कम या ज्यादा, विशेष और अपने आप में अजीब” (1877)

 

  • महाद्वीपीय विकासवादी
  • महाद्वीपीय विकासवादियों में, जिन्होंने संस्कृति की उत्पत्ति के विभिन्न पहलुओं के बारे में बात की, जोहान जैकब बैकोफेन (1815-1877), एडॉल्फ बास्टियन (1826-1905), कार्ल मार्क्स (1818-1883) और फ्रेडरिक एंगेल्स का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। (1820-1895)

 

  • नव-विकासवादी
  • उन्नीसवीं शताब्दी के शास्त्रीय विकासवादियों ने मुख्य रूप से या कानूनों के बारे में बात की, लेकिन उनके निष्कर्षों और दृष्टिकोणों को बीसवीं शताब्दी के विकासवादियों द्वारा संस्कृति की उत्पत्ति के लिए उनके नए शोधों और पद्धतिगत दृष्टिकोणों के प्रकाश में संशोधित किया गया था और इसलिए उन्हें नव के रूप में जाना जाता है। -विकासवादी। उन नवविकासवादियों में तीन विद्वानों का विशेष उल्लेख किया जा सकता है।

 

  • वी. गॉर्डन चाइल्ड (इंग्लैंड के), यू.एस.ए. के जूलियन स्टीवर्ड और लेस्ली व्हाइट, जिन्होंने सांस्कृतिक विकास और उनके शोधों के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, ने हाल ही में संस्कृति की उत्पत्ति के विभिन्न आयामों पर एक नया प्रकाश डाला है।
  • वी. गॉर्डन चाइल्ड (1892-1957)
  • वी.वी. गॉर्डन चाइल्ड ने तीन प्रमुख के संदर्भ में विकास का वर्णन किया
  • घटनाओं जैसे। खाद्य-उत्पाद आयन, शहरीकरण और औद्योगीकरण का आविष्कार। इस प्रकार, इन “क्रांतियों” के प्रभाव के तहत होने वाले संक्रमणों का विश्लेषण करते हुए, चाइल्ड ने इसके सामान्य कारकों को चित्रित करने की विकासवादी प्रक्रिया का एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।
  • वी. गॉर्डन चाइल्ड ने इस प्रकार पुरातात्विक निष्कर्षों के संदर्भ में सांस्कृतिक विकास के चरणों को वर्गीकृत किया, जो इस प्रकार हैं:

 

 

क्रम संख्या पुरातत्व काल सांस्कृतिक विकास

  1. पैलियोलिथिए सैवेजरी
  2. नवपाषाणकालीन बर्बरता
  3. द्वापरयुग उच्च बर्बरता
  4. प्रारंभिक कांस्य युग की सभ्यता

 

जूलियन. एच. स्टीवर्ड (1902-1972)

  • सांस्कृतिक विकास के अध्ययन में जूलियन स्टीवर्ड का योगदान अद्वितीय है, क्योंकि उन्होंने पहली बार दुनिया के विभिन्न सांस्कृतिक क्षेत्रों के अपने पद्धतिगत अध्ययन के आधार पर विकासवादियों की एक व्यापक टाइपोलॉजी दी थी। स्टीवर्ड ने कहा कि सांस्कृतिक विकास को व्यापक रूप से सांस्कृतिक नियमितताओं या कानूनों की खोज के रूप में परिभाषित किया जा सकता है और आगे बताया गया है कि तीन विशिष्ट तरीके हैं जिनमें विकासवादी डेटा को संभाला जा सकता है। जैसे, यूनिलाइनियर इवोल्यूशन, यूनिवर्सल इवोल्यूशन और मल्टीलाइनर इवोल्यूशन:
  • लेस्ली ए व्हाइट (1900-1975)
  • लेस्ली व्हाइट को अमेरिका का सबसे विवादित और नव-विकासवादी माना जाता है। हालांकि वह फ्रांज़ बोस का छात्र था, लेकिन वह टाइलर और मॉर्गन का एक बड़ा प्रशंसक था और इसलिए, शुरू से ही वह विकास के प्रगतिशील पाठ्यक्रम में विश्वास करता था। विकास के क्रम को समझाने के एक सार्वभौमिक सिद्धांत की खोज करते हुए, वह चाइल्ड और स्टीवर्ड से एक कदम आगे बढ़े और उसी के लिए “ऊर्जा” पर विचार किया।
  • व्हाइट की राय थी कि संस्कृति मूल रूप से एक उत्तरजीविता तंत्र है और मनुष्य को उसके निरंतर अस्तित्व के लिए आवश्यक चीजें प्रदान करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। मानव विकास के प्रारंभिक चरण में, मनुष्य ने अपने शरीर को ऊर्जा के प्रमुख स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया, लेकिन जल्द ही उसने ऊर्जा के अन्य प्राकृतिक स्रोतों पर कब्जा करना शुरू कर दिया, और आग, पानी, हवा आदि का उपयोग अपने उद्देश्यों के लिए किया।
  • उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “संस्कृति का विज्ञान” 1949 में प्रकाशित हुई, जिसने विकासवाद की सोच में एक नाटकीय परिवर्तन लाया।
  • संस्कृति-संक्रमण
  • कलाकृतियों, रीति-रिवाजों और विश्वासों में परिवर्तन की प्रक्रियाएँ जो दो या दो से अधिक संस्कृतियों के संपर्क से उत्पन्न होती हैं। इस शब्द का उपयोग इस तरह के निगमन और निर्देशित परिवर्तन के परिणामों को संदर्भित करने के लिए भी किया जाता है, उन परिस्थितियों के आधार पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है जिनके तहत सांस्कृतिक संपर्क और परिवर्तन होता है। विचारों, मूल्यों, सम्मेलनों और व्यवहार की शिक्षा जो एक सामाजिक विशेषता है समूह। (समाजीकरण देखें।) दो या दो से अधिक विभिन्न संस्कृतियों के बीच संपर्क के परिणामों का वर्णन करने के लिए संस्कृतिकरण का भी उपयोग किया जाता है; एक नई, समग्र संस्कृति उभरती है, जिसमें ओमे
  • मौजूदा सांस्कृतिक विशेषताओं को जोड़ दिया जाता है, कुछ खो जाती हैं, और नई सुविधाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। लिंटन, रेडफ़ील्ड, हर्स्कोविट्स और होइज़र ने परसंस्कृतिकरण को परिभाषित करने के लिए कई उदाहरण दिए हैं। हर्सकोविट्स के अनुसार, जब कोई बच्चा विकास की प्रक्रिया में अपनी सांस्कृतिक परंपराओं का पालन करना सीखता है, तो उसे परसंस्कृतिकरण कहा जाता है।

 

 

  • एक समाज के भीतर, परिवर्तन की ओर ले जाने वाली प्रक्रियाओं में आविष्कार और शामिल हैं
  • एसिमिलेशन कल्चर लॉस। आविष्कार या तो तकनीकी या वैचारिक हो सकते हैं।
  • संस्कृति का नुकसान पुराने सांस्कृतिक प्रतिमानों को नए लोगों द्वारा प्रतिस्थापित किए जाने का एक अनिवार्य परिणाम है।
  • आत्मसात: आत्मसात करना एक में दो अलग-अलग समूहों का संलयन या सम्मिश्रण है।
  • सांस्कृतिक आत्मसातीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक व्यक्ति या एक समूह की भाषा और, या संस्कृति दूसरे समूह के समान हो जाती है। इस शब्द का प्रयोग व्यक्तियों और समूहों दोनों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है, और बाद के मामले में यह अप्रवासी डायस्पोरा या मूल निवासियों को संदर्भित कर सकता है जो किसी अन्य समाज द्वारा सांस्कृतिक रूप से प्रभुत्व में आते हैं।
  • आत्मसात में परिस्थितियों के आधार पर त्वरित या क्रमिक परिवर्तन शामिल हो सकता है। पूर्ण आत्मसात तब होता है जब एक समाज के नए सदस्य दूसरे समूह के सदस्यों से अप्रभेद्य हो जाते हैं। एक अप्रवासी समूह को आत्मसात करना वांछनीय है या नहीं, यह अक्सर समूह के सदस्यों और प्रमुख समाज के दोनों सदस्यों द्वारा विवादित होता है। आत्मसात करने का संबंध दूसरे द्वारा संस्कृति के अवशोषण और समावेश से है। जब आत्मसात करने की प्रक्रिया होती है, तो दो अलग-अलग समूहों में लोग एक-दूसरे के साथ समझौता नहीं करते हैं, वे लगभग अप्रभेद्य बन जाते हैं।
  • आत्मसात करना केवल एक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। यह आम तौर पर दो अलग-अलग सांस्कृतिक समूहों के संलयन की व्याख्या करने के लिए लागू होता है। यह एक धीमी और क्रमिक प्रक्रिया है। आत्मसात करने की प्रक्रिया की गति संपर्कों की प्रकृति पर निर्भर करती है। आत्मसात एक अचेतन प्रक्रिया है। अधिकतर अचेतन तरीके से व्यक्ति और समूह अपनी मूल सांस्कृतिक विरासत को त्याग देते हैं और इसे नए के साथ बदल देते हैं। आत्मसात करना दो तरफा प्रक्रिया है। इसमें देने और लेने का सिद्धांत शामिल है।
  • आत्मसात करना तभी संभव है जब व्यक्ति और समूह ओ के सांस्कृतिक अंतर के प्रति सहिष्णु हों
  • थर्स। आत्मसात सामाजिक संपर्क का अंतिम उत्पाद है। एक कारक जो पूर्ण आत्मसात करने में मदद करता है वह समामेलन है जो विभिन्न समूहों के अंतर विवाह को संदर्भित करता है। जैविक समामेलन के बिना पूर्ण आत्मसात संभव नहीं है। सांस्कृतिक समानताएं उन महत्वपूर्ण कारकों में से एक हैं जो आत्मसात करने की सुविधा प्रदान करते हैं। शिक्षा आत्मसात करने के लिए एक और अनुकूल कारक है। आत्मसातीकरण आम तौर पर अंतर-समूह विवादों और मतभेदों का स्थायी समाधान प्रदान करता है।
  • प्रसार
  • प्रसारवादियों ने कहा कि विश्व के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न समय पर विभिन्न संस्कृति संकुल विकसित होते हैं और बाद में पृथ्वी के संगत भागों में फैल जाते हैं। उनके अनुसार संस्कृति के लक्षण लोगों को एक ऐसे क्षेत्र में ले जा सकते हैं जहाँ वे अस्थायी रूप से बस जाते हैं और वहाँ रहने वाले स्थानीय निवासियों को सूचित किया जा सकता है। इस प्रकार, प्रसारवादियों का मत है कि संस्कृति का इतिहास के क्रम में विकास हुआ है, विकास के कारण नहीं, बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं और आपसी संपर्क के कारण संस्कृति के संचरण के कारण। ऐसी ऐतिहासिक घटना, जिसने संस्कृति के संचरण को संस्कृति के विकास और संस्कृति के समानांतरों के अध्ययन के लिए एक सिद्धांत प्रदान किया, “प्रसार” कहा जाता था।

 

 

प्रसारवादियों और उनके योगदानों की व्यवस्थित चर्चा के लिए, हम उनकी चर्चा इस प्रकार कर सकते हैं:

  1. ब्रिटिश प्रसारवादी,
  2. जर्मन प्रसारवादी,
  3. अमेरिकी प्रसारवादी।

प्रसारवादियों के इन तीन उप-विद्यालयों ने • संस्कृति-समानताओं और संस्कृति के एक ऐतिहासिक आयाम के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

 

ब्रिटिश प्रसारवादी

ब्रिटिश प्रसारवादियों में, जिन्होंने मुख्य रूप से प्राचीन मिस्र को दुनिया के सांस्कृतिक पालने के रूप में बताया, जी.ई. का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। स्मिथ (1871-1937),

डब्ल्यू.जे. पेरी (1887-1949) और डब्ल्यू.एच.आर. नदियाँ (1864-1922)। जैसा कि उनके कार्य और निष्कर्ष मुख्य रूप से मिस्र पर केंद्रित थे, उन्हें मिस्रविज्ञानी भी कहा जाता है।

 

विलियम जेम्स पेरी (1887-1949): डब्ल्यूजे पेरी का मुख्य उद्देश्य प्रसार के सिद्धांत का समर्थन करना था, जिसे स्मिथ ने आगे बढ़ाया, हालांकि उन्होंने मलय क्षेत्र में अच्छा क्षेत्र कार्य किया और कुछ महत्वपूर्ण किताबें लिखीं। पेरी ने काहिरा का भी दौरा किया और पुरातात्विक उत्खनन में रुचि ली और स्मिथ को उनकी सैद्धांतिक धारणाओं का अंधा समर्थन दिया। पेरी काहिरा में सूर्य मंदिर के अवशेषों से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने एक पुस्तक “द चिल्ड्रन ऑफ द सन” लिखी, जो 1923 में लंदन से प्रकाशित हुई थी।

 

इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद वह बहुत लोकप्रिय हुए और इस पुस्तक को कई बार पुनर्मुद्रित किया गया। समय और व्यापक रूप से पढ़ा गया था। इस पुस्तक में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि “संस्कृति का संचरण हमेशा गिरावट के साथ होता है” और “कोई भी चीज वास्तव में स्थायी नहीं होती है”। उन्होंने यह भी बताया कि प्राचीन; दुनिया में एकमात्र सांस्कृतिक पालना है। पेरी की एक और किताब “गॉड्स एंड द मेन” 1927 में प्रकट हुआ • जिसमें उन्होंने प्रारंभिक पुरुषों की अलौकिक शक्तियों की अवधारणा पर प्रकाश डाला।

विलम हल्स नदियाँ (1864-19.22) • डब्ल्यू.एच.आर. नदियाँ, स्मिथ की तरह, पेशे से एक चिकित्सा चिकित्सक हैं और उन्हें इस चिकित्सा चिकित्सक द्वारा पेशे से राजी किया गया था और उन्हें अपने जीवन के अंत में इस चरम प्रसारवाद द्वारा राजी किया गया था।

1906 में रिवर की क्लासिक मोंग्राफी “द टोडा” पर, नीलगिरी हिल्स (भारत) की एक पोलियन • ड्रूस जनजाति।

जर्मन प्रसारवादी

फ्रेड्रिक रैटजेल (1844-1904), फ्रिट्ज ग्रेबनेर (1877-1934) और जेसुइट विल्हेमस्किनमिड्ट (1868-1954) इस स्कूल के मुख्य प्रस्तावक थे। जर्मन प्रसारवादियों को उनके ब्रिटिश समकक्षों से बेहतर माना जाता है। उन्होंने शास्त्रीय विकासवादियों द्वारा आगे रखी गई विकासवादी योजनाओं का अतिसरलीकरण करने का विरोध किया। जर्मन

 

 

प्रसारवादियों ने आगे बताया कि ब्रह्मांड में विकास एक समान नहीं है और यही कारण है कि सरल तकनीक वाले लोगों के एक समूह के पास एक उन्नत सामाजिक संरचना हो सकती है या पूजा का एक जटिल रूप हो सकता है। इस प्रकार, प्रो • मिस्रवासियों के विपरीत, जर्मन प्रसारवादियों ने संस्कृति के विकास के बहुरूपी रूपों की स्थापना की।

 

 इस प्रकार, संस्कृति-ऐतिहासिक आंदोलन, जिसे कुल्तुर्क्रीज़ या “संस्कृति मंडल” के रूप में जाना जाता है, बहुत अधिक विद्वतापूर्ण था। उनके अनुयायियों ने सभी सांस्कृतिक लक्षणों की विस्तार से और संपूर्णता के साथ जांच की। कभी-कभी इस स्कूल को कुल्तुर्क्रीज़ स्कूल भी कहा जाता है क्योंकि इसे संस्कृति-जटिल या संस्कृति चक्र की अवधारणा का सुझाव दिया जाता है।

 

अमेरिकन स्कूल ऑफ डिफ्यूजन

अमेरिकी प्रसारवादियों ने अपने जर्मन समकक्षों से प्रोत्साहन और प्रेरणा प्राप्त की और इसलिए, यह कहा जाता है कि प्रसार का अमेरिकी “संस्कृति क्षेत्र” सिद्धांत जर्मन प्रसार के “संग्रहालय पद्धति” से प्रभावित था।

अमेरिकी प्रसार में “सांस्कृतिक क्षेत्र” प्रमुख विषय बन गया, इसके अलावा “खाद्य क्षेत्र”, “आयु • क्षेत्र”, “संस्कृति केंद्र”, “संस्कृति-चरमोत्कर्ष” आदि जैसी कई अवधारणाएं भी प्रकृति की व्याख्या करने के लिए उपयोग की गईं।

 

और मूल अमेरिका में प्रसार की प्रक्रियाएँ। डिफ्यूनलिज़्म का यह स्कूल मुख्य रूप से क्लार्क विस्लर 1870-1947) और अल्फ्रेड लुई क्रोएबर (1876-1947) द्वारा संचालित किया गया था। ये दोनों फ्रांस बोस (1858-1942) के छात्र थे, जो बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में विकासवाद के प्रमुख प्रस्तावक थे।

 

परसंस्कृतिकरण

हम संस्कृतिकरण को उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जिसके द्वारा व्यक्ति ज्ञान, कौशल, दृष्टिकोण और मूल्यों को प्राप्त करते हैं जो उन्हें अपने समाजों के कार्यशील सदस्य बनने में सक्षम बनाता है। देशी संस्कृति।” संस्कृतिकरण की प्रक्रिया जन्म से ही शुरू हो जाती है। “!” अधिकांश भाग के लिए यह एक प्रक्रिया है जो स्वचालित रूप से और अनजाने में होती है।

 

 फिर भी हर कोई इस बात से सहमत है कि संस्कृतीकरण एक बहुत शक्तिशाली शक्ति है, जो प्रत्येक व्यक्ति के संपूर्ण जीवन के संदर्भ को आकार देता है, और एक नींव रखता है जो अच्छे या बुरे के लिए हमारे जीवन विकल्पों को सूक्ष्म और व्यापक तरीके से प्रभावित करता है। मानवविज्ञानी जिन्होंने विभिन्न संस्कृतियों का अध्ययन किया है, ने विभिन्न तरीकों का वर्णन किया है कि संस्कृति के तत्व उस संस्कृति में पैदा हुए व्यक्तियों को प्रेषित किए जाते हैं। इनमें भाषा का प्रयोग, रीति-रिवाजों में भाग लेना, कहानियों को सुनाना, कुछ घटनाओं के संबंध में संप्रेषित भावनाएँ और दिन-प्रतिदिन, पल-पल की पसंद और व्यवहार जैसी चीज़ें शामिल हैं, जिन्हें कोई अपने आसपास के लोगों में देख सकता है।

सांस्कृतिक एकीकरण सांस्कृतिक एकीकरण शब्द का अर्थ है एक संस्कृति द्वारा दूसरी संस्कृति के विचारों, प्रौद्योगिकियों और उत्पादों को प्राप्त करने की प्रक्रिया और इसलिए इसका अर्थ यह है कि यह संस्कृति दूसरी संस्कृति में समाहित होती हुई प्रतीत होगी। सांस्कृतिक एकीकरण विभिन्न संस्कृतियों के लोगों की बातचीत को संदर्भित करता है। इस एकीकरण में विभिन्न धर्मों, व्यावसायिकता और जातीय समूहों के विभिन्न कौशल वाले लोग शामिल होंगे। सांस्कृतिक एकीकरण

 

 

एक पूरे के रूप में एक संगठन को लाभ पहुंचाने के लिए मौजूदा मतभेदों का लाभ उठाता है। रूथ बेनेडिक्ट अपनी सामग्री द्वारा संस्कृति के एकीकरण में विश्वास करते थे। उसने कहा, एक संस्कृति कई प्रतिमानों से बनी होती है, इसके अलावा, उसने दिखाया था कि एक संस्कृति के प्रतिरूप सामंजस्यपूर्ण होते हैं ताकि वे किसी सुसंगत तरीके से एक साथ बंधे रह सकें। उनके अनुसार, सद्भाव ने संस्कृति को एक विशेष शैली- एक अद्वितीय विन्यास दिया।

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