सामाजिक मनोविज्ञान और अन्य विज्ञान

सामाजिक मनोविज्ञान और अन्य विज्ञान

यदि हम यह विचार करें कि सामाजिक मनोविज्ञान का अन्य विज्ञानों से क्या सम्बन्ध है तो हमारा सामाजिक मनोविज्ञान के क्षेत्र तथा समस्याओं का मूल्यां कन और अधिक स्पष्ट हो जाएगा । जन्म से ही प्रत्येक मनुष्य के सामने दो जगत होते हैं : पहला शारीरिक जगत और दूसरा सामाजिक जगत । उसे अपने चारों ओर के संसार को जानना पड़ता है ताकि वह अपना अस्तित्व बनाए रख सके और मानव जाति की उत्तरजीविता के लिए यथाशक्ति अपना अंशदान दे सके । उसका जीवन एक मनःशारीरिक प्राणी के रूप में शरू होता है और उत्तरजीविता के लिए उसके पास जैविक साधन होते हैं । लेकिन वह एक ऐसा असहाय व्यक्ति होता है कि जब तक लम्बे शैशव – काल में उसकी रक्षा न की जाय तब तक उसकी उत्तरजीविता की बहुत कम आशा रहती है । इस प्रकार व्यक्ति की वृद्धि में सामाजिक प्रभावों का विशेष महत्त्व होता है । अब भी सामान्य मनोविज्ञान में व्यक्ति का अध्ययन उसके सामाजिक परिवेश के सन्दर्भ में नहीं किया जाता । सामाजिक परिवेश के प्रभाव के कारण व्यक्ति में जो अन्तर आता है उसे केवल उसकी परिवर्तनशीलता का सहायक समझा जाता है । ये केवल विक्षुब्धकारी प्रभाव हैं जिनको व्यवहार और अनुभव के पीछे जो नियम हैं उनका पता लगाने के लिए गहराई से समझा जाना चाहिए । सामाजिक मनो विज्ञान का उद्देश्य व्यवहार के उन नियमों की स्थापना करना है जिन पर पालन पोषण की विभिन्नता का प्रभाव नहीं पड़ता । अभिप्रेरणा , प्रत्यक्ष , सीखने , स्मृति , चितन आदि के मूल नियम सभी मनुष्यों में होते हैं चाहे उनका लालन – पालन किसी भी संस्कृति में क्यों न हुआ हो । इस प्रकार सामान्य मनोविज्ञान में व्यक्ति का अध्ययन निरपेक्ष रूप में किया जाता है । दूसरी ओर चूंकि सामाजिक मनोविज्ञान व्यक्तियों की सामाजिक रूप से प्रेरक स्थितियों से सम्बन्धित अनुभव और व्यवहार का अध्ययन करता है इसलिए हम देखते हैं कि जो बात सामान्य मनोविज्ञान के लिए असंगत है वही सामाजिक मनोविज्ञान के लिए महत्त्वपूर्ण हो जाती है । सामाजिक मनोविज्ञान में मनुष्य का अध्ययन उसके वास्तविक , सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में किया जाता है । जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं कि व्यावहारिक रूप से ऐसी कोई स्थिति नहीं होती जिसका सामाजिक महत्त्व न हो । भूख एक जैविक आवश्यकता है । लेकिन व्यक्ति कैसे खाता है , क्या खाता है , कब खाता है , यह सब उसके उस समूह द्वारा निर्धारित होता है जिसमें वह रहता है और विशेष रूप से उस समूह द्वारा जिसमें उसका पालन – पोषण हुआ होता है । प्रज्ञा पर प्रजातीय भेदों का जो प्रभाव पड़ता है उसके अध्ययन से यह पता चलता है कि यह निर्धारण करना कठिन है कि ये भेद कहाँ तक जैविक आवश्यकताओं के कारण होते हैं और कहां तक अच्छी या बुरी सामाजिक प्रेरणा के कारण होते हैं । इस दृष्टिकोण से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक मनो विज्ञान , सामान्य मनोविज्ञान का आवश्यक पूरक है । व्यवहार के नियमों का पूर्ण महत्त्व तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक सामान्य मनोविज्ञान का अध्ययन सामाजिक मनोविज्ञान के साथ न किया जाए । किन्तु यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सामाजिक मनोविज्ञान के नियम सामान्य मनोविज्ञान के नियमों से अलग हैं । वे एक से हैं । ‘ सामाजिक प्रत्यक्षज्ञान ‘ और ‘ सामाजिक अधिगम ‘ असामाजिक स्थितियों में प्रत्यक्षज्ञान या अधिगमन से भिन्न नहीं है । इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि समाज – मनोविज्ञान में सामान्य सिद्धान्तों को सामाजिक अन्तक्रियाओं पर लागू किया जाता है ।

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अब हम सामाजिक मनोविज्ञान का समाज – विज्ञान से क्या सम्बन्ध है , इस पर संक्षेप में विचार कर सकते हैं । समाज – विज्ञान में सामाजिक संगठन के विकास तथा सिद्धान्तों का अध्ययन और साधारण रूप से समूह के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है जो समूह में व्यक्ति के व्यवहार से भिन्न होता है । इसका सम्बन्ध समूह की रचना तथा उसके संगठन से है । इसके अध्ययन की इकाई समूह है । इस में समूहों की उत्पत्ति और उनके विकास का , समूह अपने को जिन साधनों से बनाए रखता है , उनका और समूह अपने सदस्यों को किस तरह अनुशासन में रखता और किस तरह उसका पालन करवाता है , इसका अध्ययन किया जाता है । इसमें इस बात का अध्ययन भी किया जाता है कि समूह और सामाजिक संस्थाएं कैसे बदलती हैं । उदाहरणार्थ , इसमें परिवार का केवल समूह के रूप में ही अध्ययन नहीं किया जाता किन्तु इस बात का अध्ययन भी किया जाता है कि परिवार समय समय पर कैसे बदलता रहा है । दूसरी ओर , सामाजिक मनोविज्ञान का सम्बन्ध व्यक्ति से है और इस बात से है कि वह दूसरे व्यक्तियों और उनके समूह के साथ कैसा व्यवहार करता है । इसका क्षेत्र अधिक सीमित है । इसमें केवल उन्हीं मना वैज्ञानिक कारकों का अध्ययन किया जाता है जिनके आधार पर समूह बनते हैं । एक दूसरे दृष्टिकोण से समाज – विज्ञान के लिए सामाजिक मनोविज्ञान एक आधारभूत विषय है । सामाजिक संस्थाओं के निर्माण , विकास तथा परिवर्तन में मनोवैज्ञानिक तथ्यों का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । सुझाव – ग्राहिता , अनुकरण , वफादारी , भय , आदर्श आदि से सामाजिक रीतियों के स्थायित्व के साथ – साथ उनके परि वर्तन का भी स्पष्टीकरण होता है । मैकआइवर और पेज इसे यों कहते हैं – ” जब हम व्यक्तियों के व्यवहार की प्रकृति , व्यक्ति की चेतना की संरचना का , जिसकी अभिव्यक्ति सामाजिक सम्बन्धों में होती है , अध्ययन करते हैं तो हम मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं । जब हम केवल सम्बन्धों का अध्ययन करते हैं तो समाज वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं । दोनों विज्ञान अविभाज्य वास्तविकता के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्ध रखते हैं । व्यक्तियों को उनके एक – दूसरे के सम्बन्धों से अलग करके नहीं समझा जा सकता ; सम्बन्धों को सम्बन्ध की इकाइयों ( या पदों ) से अलग करके नहीं समझा जा सकता । ”  । हम यह कह सकते हैं कि समाज वैज्ञानिक एवं मानववैज्ञानिक सामाजिक अन्तक्रिया के ताने – बाने का अध्ययन करता है , और समाज मनोवैज्ञानिक इस बात का अध्ययन करता है कि व्यक्ति का समाजीकरण कैसे होता है , वह सामाजिक ताने – बाने का उपयोग और उसकी अभिव्यक्ति कैसे करता है , अपने अन्दर जिस परिवार और समूह में वह पला है और रहता है उसकी अभिवृत्तियों और विचारों का निर्माण कैसे करता है और बदले में सामाजिक ताने – बाने पर न्यूनाधिक सक्रियता से अपनी छाप कैसे डालता है ।

मर्फी के शब्दों में , ” सामाजिक मनोविज्ञान में इस बात का अध्ययन किया जाता है कि कोई व्यक्ति किसी सामाजिक समूह का सदस्य कैसे बनता है और उस समूह में व्यवहार कैसे करता है । “

अब हम सामाजिक मनोविज्ञान और मानवविज्ञान के सम्बन्ध का अध्ययन कर सकते हैं । मोटे तौर पर मानवविज्ञान को मनुष्य का विज्ञान कहा जाता है । इसमें जैविक पहलू के साथ – साथ सामाजिक – सांस्कृतिक पहलू भी होते हैं । मनुष्य समूह में रहने वाला सामाजिक प्राणी ही नहीं है किन्तु वह एक विशिष्ट प्राणी है जिसमें प्रतीकों का प्रयोग करने , सामान्य ग्रहण और सामान्यीकरण करने की योग्यता भी है । अपनी इन दो योग्यताओं के कारण वह अपनी दक्षता और ज्ञान अपने साथियों तथा अपनी सन्तान को देता है । वह अपनी सन्तान को केवल अपनी दक्षता और दक्षता के फल ही नहीं देता वरन् अपने विश्वास , प्रथाएं , मूल्य और अपनी सामाजिक संस्थाएं भी देता है । यही वह सब कुछ है जिसे हम संस्कृति कहते हैं । ” संस्कृति मानव के शाब्दिक और अशाब्दिक व्यवहार और उसके भौतिक और अभौतिक प्रतिफलों का योग है । “

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मजूमदार और मदान के अनुसार समाज सांस्कृतिक मानव – विज्ञान में मानवीय क्रियाओं के निम्नलिखित चार प्रकारों का अध्ययन किया जाता है –

( i ) आहार , वस्त्र और मकान द्वारा भूख और कामभाव जैसी जैव – मानसिक आवश्यकताओं की तुष्टि करने से सम्बन्धित क्रियाएं – जिनसे किसी समूह का आर्थिक संगठन होता है ;

( ii ) समूह का सामाजिक संगठन करने की ओर ले जाने वाली क्रियाएं ताकि समूह के प्रयत्न को संगठित करके वह अपनी जैव – मानसिक और अपनी भावनात्मक आवश्यकताओं की भी तुष्टि के लिए प्रकृति का उपभोग अच्छी तरह कर सके । ‘ परिवार , विवाह और ऐसी ही दूसरी सामाजिक संस्थाएं वे माध्यम हैं जिनमें और जिनके द्वारा सामाजिक जीवन चलता है । राजनैतिक संस्थाओं द्वारा नियंत्रण किया जाता है जिससे सामाजिक जीवन संस्थाओं की अन्तक्रिया पूरी उपयोगिता के साथ चलती रहे

( iii ) पारलौकिक शक्तियों की उपस्थिति के प्रति क्रियाएं और मनोवृत्तियां जो कि समूह का जादू और धर्म पर आधारित संगठन है ;

( iv ) सौन्दर्य की अभिव्यक्ति से सम्बन्धित क्रियाएं , जो समूह की सौन्दर्यबोधी क्रियाएं हैं । मानव – विज्ञान में संसार के विभिन्न देशों , विशेषतया प्राक् – शिक्षित और प्राक् – नागरिक समूहों की संस्कृति के ताने – बाने का अध्ययन किया जाता है ।

इसमें संस्कृति ‘ , ‘ प्रथा ‘ और ‘ लोकाचार ‘ संकल्पनाओं का प्रयोग विभिन्न समूहों का भेद बतलाने के लिए किया जाता है । परिणामस्वरूप कुछ मानव – विज्ञानी समूह में जाकर रहते हैं और समूह की संस्कृति के ताने – बाने का अध्ययन करते हैं । दूसरी ओर कुछ मानव – विज्ञानी विशिष्ट विवरणों का तुलना त्मक विश्लेषण करते हैं और मानव समाज की वृद्धि , कार्यकलापों और परिवर्तन से सम्बन्धित नियम बनाने का प्रयत्न करते हैं । यद्यपि यह माना जाता है कि मनुष्य की जैव – मानसिक आवश्यकताएं समूह के संगठन का आधार हैं , फिर भी सांस्कृतिक मानव – विज्ञानी यह कहते हैं कि संस्कृति अपने आप में मनोवैज्ञानिक तत्त्वों से अनुबंधित नहीं है । सामाजिक जीवन जैविक और मनोवैज्ञानिक स्तर तक ही सीमित नहीं है । सामाजिक जीवन में ” कोई नया स्तर प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है जो बहुत कुछ अति – मानसिक और अति – आंगिक होता है । . . . . . समाज , सामाजिक सम्बन्धों का तंत्र होता है , ये सामाजिक सम्बन्ध इतिहास की देन होते हैं ; ये सम्बन्ध नैतिक मूल्यों के कारण बने रहते हैं , प्राकृतिक शक्तियों के कारण नहीं । इसलिए , समाज एक सामाजिक एवं नैतिक तंत्र है । ” ( 3 . ii ) क्रोबर जैसे संस्कृति नियतिवादी संस्कृति को एक परा – जैविक , परा – मानसिक और परा – सामाजिक शक्ति के रूप में देखते हैं जिससे व्यक्ति के व्यवहार का और वह जिन चीजों को महत्त्व देता है और जिन्हें संजोया है , उनका निर्धारण होता है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्यक्ति समूह के सांचे में ढलता है और किसी भी समूह के अधिकांश व्यक्ति उस समूह के अनुरूप होते हैं । किन्तु यह भी माना जाता है कि कुछ व्यक्ति अवश्य ही संस्कृति के परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं ।

संस्कृति के ताने – बाने का अध्ययन तो सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानव – विज्ञान में किया जाता है किंतु सामाजिक मनोविज्ञान में इस बात का अध्ययन किया जाता है कि किसी समूह के लोग संस्कृति को किस तरह ग्रहण करते हैं । इस तरह हम देखते हैं कि जहां मानव – विज्ञान में सामाजिक संगठन के ताने – बाने को समझने के लिए संस्कृति और प्रथा को संकल्पना के रूप में प्रयुक्त किया जाता है वहाँ सामाजिक मनोविज्ञान में इन धारणाओं के पीछे क्या प्रक्रियाएं है इसका विश्लेषण किया जाता है । सामाजिक मनोविज्ञान में यह जानने की चेष्टा की जाती है कि प्रथाएं कैसे बनती हैं और वे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक कैसे संप्रेषित होती हैं ।

सामाजिक मनोविज्ञान तथा मानव – विज्ञान के सम्बन्ध के एक दूसरे पहलू की ओर भी ध्यान आकर्षित किया जाना चाहिए । रूथ बेनेडिक्ट ने अपनी पुस्तक ‘ पैटर्नस ऑव कल्चर ‘ तथा मार्गे रेट मीड ने अपनी पुस्तक ‘ सेक्स एंड टेम्परामेंट ” में छह आदिम समूहों के व्यवहार के विशेषकों का उल्लेख किया है । इन अध्ययनों से पता चला है कि यह कहना सन्दिग्ध होगा कि ‘ मानव प्रकृति ‘ केवल जैविक है और उस पर किसी प्रकार का सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव नहीं पड़ता । व्यवहार के विशेषक जैसे , आक्रमणशीलता और चित्तप्रकृति के भेद आदि पालन – पोषण से अनुबंधित होते हैं । आक्रामकता और प्रतियोगिता का समर्थन किया जाता है या नहीं यह समूह के मानकों से निश्चित होता है । न्यू मैक्सिको की जूनी जाति का रेड इंडियन सहिष्णु , उदार , सौम्य अहिंस्र होता है , न्यू गिनी के डोवुअन लोग अत्यधिक प्रतियोगी , आक्रामक , कपटी और सन्देहशील होते हैं जबकि अलास्का के क्वाकिडटल शेखीबाज़ , शब्दजालक और दूसरों की खिल्ली उड़ाने को तैयार रहने वाले होते हैं  ।

स्त्री – पुरुष के अन्तर के बारे में मार्गरेट मीड का यह कहना है कि ” अरापेश लोगों का आदर्श यह है कि विनम्र और प्रतिसंवेदी पुरुष का विवाह विनम्र और प्रतिसंवेदी स्त्री से होना चाहिए । मुंडुगुमर जाति का आदर्श यह है कि उग्र आक्रामक पुरुष का विवाह उग्र आक्रामक स्त्री से होना चाहिए । एक तीसरे शाम्बूली कबीले में हमें हमारी संस्कृति में स्त्री – पुरुष के सम्बन्ध में जो दृष्टिकोण है उसका विरोधी दृष्टिकोण मिला ; वहां स्त्री अभिभावक , निर्वैयक्तिक , प्रबन्ध कर्ता होती है और पुरुष कम उत्तरदायी तथा सांवेगिक दृष्टि से परावलम्बी व्यक्ति होता है “। इस प्रकार की गवेषणाओं से समाज मनोवैज्ञानिकों की विचारधारा पर काफी प्रभाव पड़ा है । समाजीकरण की समस्या का अध्ययन करते समय हम इस प्रकरण का विस्तृत वर्णन करेंगे । भारतीय जनजातियों के समूहों के व्यवहार में जो आश्चर्यजनक विषमता है उससे यह पता चलेगा कि व्यक्तित्व के विशेषकों पर पालन – पोषण के तरीकों और सामाजिक मानकों का प्रभाव कहां तक पड़ेगा ।

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