सामाजिक उविकास का नियम

 

सामाजिक उविकास का नियम

( Law of Social Evolution )

 

 

 

स्पेन्सर ने भौतिक उ विकास और प्राणीशास्त्रीय उद्विकास के नियम के आधार पर सामाजिक उ विकास के नियमों का प्रतिपादन किया । जिस प्रकार भौतिक उदविकास में पदार्थ एवं गति अथवा शक्ति के स्रोत कभी नष्ट नहीं होते , उसी प्रकार स्पेन्सर के मतानुसार समाज में जो शक्ति संरचना है तथा उसमें जो तत्त्व निहित हैं वे रूपान्तरित तो होते हैं किन्तु उनका संतुलन और निरंतरता समाप्त नहीं होती । समाज में विभिन्नताओं की चर्चा करते हुए स्पेन्सर ने डार्विन द्वारा प्रति पादित मान्यताओं को स्वीकार किया और बतलाया कि समाज से अनुकूलन करने की प्रक्रिया में समाज में विभिन्नता की दशा उत्पन्न होती है । इस प्रकार भौतिक और प्राणीशास्त्रीय उद्विकास के आधार पर स्पेन्सर ने दो प्रकार के परस्पर सम्बन्धित नियमों को प्रतिपादित किया जिन्हें स्पेन्सर के सामाजिक उद्विकास के नियमों के रूप में जाना जाता है । इन नियमों की प्रकृति को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :

 

 ( I ) सरलता से जटिलता का नियम ( Law of Simple . to Complex ) स्पेन्सर ने बतलाया कि आज समाज को जिस स्थिति में हम देख रहे हैं , प्रारम्भिक काल में समाज की संरचना ठीक इसी रूप में नहीं थी । प्राचीन अथवा आदिम समाज में व्यक्ति केवल अपने जीवन को बचाने के लिए खाने योग्य पदार्थों की तलाश में घूमता रहता था । मनुष्य छाया के लिए गुफाएँ ढूंढ़ता था और तन ढंकने के लिए पत्तों या अन्य वस्तुओं का उपयोग करता था । उस समाज के व्यक्तियों की कोई सामाजिक अनुभूति नहीं थी । सम्पूर्ण समाज अत्यधिक सरल तथा असंगठित था । तब से लेकर आज तक समाज कई अवस्थाओं से गुजरते हुए आज की जटिल सामा जिक संरचना तक पहुंचा है । स्पेन्सर ने सामाजिक उद्विकास के इस प्रथम नियम की चर्चा करते हए उन चार अवस्थाओं की चर्चा की है जिनसे होकर समाज का उद्विकास हआ है । स्पेन्सर ने विभिन्न अवस्थाओं से सम्बन्धित समाज के विभिन्न रूपों को जिन नामों से सम्बो धित किया , वे हैं – ( 1 ) सरल समाज , ( 2 ) संश्लिष्ट समाज , ( 3 ) द्वि – संश्लिष्ट समाज , तथा ( 4 ) त्रि – संश्लिष्ट समाज । ।

 

 ( 1 ) सरल समाज ( Simple Society ) – इन समाजों की सर्वाधिक महत्त्व पूर्ण विशेषता यह थी कि ये समाज समरूपी ( Homogenous ) हआ करते थे । इस प्रकार के समाज में व्यरियों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव या ऊँच – नीच नहीं पायी जाती थी । इन समाजों में समरूपता से विषमरूपता ( Heterogenity ) की ओर बढ़ने की प्रति NOTE कार नहीं किया जा सकता । इसी प्रवत्ति के कारण आलक ( Uniform ) समाज बहुरूपी ( Multiform ) समाजकी विशेषता ग्रहण करने लगते हैं । स्पेन्सर का कथन है कि इसी प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप संश्लिष्ट अथवा जटिल समाजों का निर्माण होता है ।

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 ( 2 ) संश्लिष्ट समाज ( Compound Society ) – अनेक सरल समाज जब मिलकर एक हो जाते हैं तब वे एक संश्लिष्ट समाज का निर्माण करते हैं । संश्लिष्ट समाजों के निर्माण की प्रक्रिया को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि किसी भी समाज को तब पूर्ण रूप से संश्लिष्ट समाज के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जब उसका एक राजनैतिक संगठन विकसित हो जाता है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि जब कई छोटे – छोटे समाज अथवा कबीले आपस में मिलकर एक इकाई के रूप में संगठित हो जाते हैं तथा इस प्रकार से संगठित होने वाले सभी परिवारों और व्यक्तियों का जीवन एक सामान्य शक्ति से ही नियन्त्रित होने लगता है तब ऐसे समाज को हम एक संश्लिष्ट समाज कहते हैं । संश्लिष्ट समाजों में चलने वाली विकास सम्बन्धी प्रक्रियाओं से समाज की संरचना पुनः परिवर्तित होती है ।

 

( 3 ) दोहरे – संश्लिष्ट समाज ( Double Compound Society ) – स्पेन्सर का कथन है कि विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत धीरे – धीरे अनेक संश्लिष्ट अथवा जटिल समाज मिलकर एक – एक ‘ गोत्र ‘ ( Clan ) के रूप में संगठित होने लगते हैं । स्पेन्सर के शब्दों में , जब समाजों में गोत्रों की स्थापना होती है तब दोहरे – संश्लिष्ट समाजों का विकास होता है । “

 

 ( 4 ) उच्च – संश्लिष्ट समाज ( Trebly Compound Society ) – इस प्रकार के समाजों को स्पेन्सर ने जटिलतम समाजों के रूप में स्वीकार किया है । उनका कथन है कि कालान्तर में अनेक दोहरे – संश्लिष्ट समाजों से बनने वाले अनेक गोत्र – समूह मिलकर एक जनजाति का निर्माण करते हैं । जनजातीय समाजों में विकास की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय – राज्य ( Nation – State ) का निर्माण होता है जिसे आधुनिकतम समाजों की अवस्था के रूप में अथवा जटिलतम सामाजिक संरचना के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । – इस प्रक्रिया में सामाजिक संरचना में विभेदीकरण तीव्र गति से बढ़ने लगता है जिसके परिणामस्वरूप समाज एक विशिष्ट प्रकार्यात्मक इकाई के रूप में विकसित होता है । स्पेन्सर द्वारा प्रस्तुत इस नियम में समाज की संरचना में बढ़ने वाली जटिलता को निरन्तरता के नियम द्वारा समझाया गया है । स्पेन्सर का कथन है कि ” इस प्रकार समाज के रूप में होने वाले प्रत्येक परिवर्तन में उद्विकास की विशेषता विद्यमान रहती है । परिवर्तन के क्रम में समाज की जो प्रगति होती है , वह इसके बढते हए आकार , सम्बद्धता , विषमरूपता तथा निश्चितता के रूप में देखने को मिलती है । “

 स्पेन्सर द्वारा प्रस्तुत ‘ सरलता से जटिलता के नियम ‘ की कुछ अन्य विशेषताओं को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :

 

( 1 ) स्वैच्छिक सहयोग ( Voluntary Cooperation ) – सरलता से जटि . लता की ओर सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया को समझाते हुए स्पेन्सर ने समाज में होने वाले अन्य परिवर्तनों की व्याख्या भी की है । उनके अनुसार जब समाज की संरचना सरल समाज के रूप में होती है तब उनमें अनिवार्य सहयोग आवश्यक होता है । जटिल समाजों में सहयोग की अनिवार्यता धीरे – धीरे समाप्त होने लगती है और स्वैच्छिक सहयोग ( Voluntary Cooperation ) की प्रवृत्ति बढ़ती है ।

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 ( 2 ) औद्योगिक समाज ( Industrial Society ) – स्पेन्सर के अनुसार सरल समाज में सैनिक सत्ता पाई जाती है । उनका कथन है कि सैनिक समाजों में भी केन्द्रीकृत सरकार , स्तरीकरण की कठोर प्रणाली , आर्थिक स्वायत्तता तथा सामाजिक संगठनों पर राज्य का आधिपत्य बना रहता है । लगभग यही लक्षण कुछ सीमा तक औद्योगिक समाजों में भी पाये जाते हैं । इसके पश्चात् भी सैनिक समाज से औद्योगिक समाज तक की यात्रा में होने वाले बुनियादी परिवर्तन को समझाते हुए स्पेन्सर ने बतलाया है कि ” सैनिक समाजों में व्यक्ति राज्य के लाभ के लिए कार्य करते हैं जबकि औद्योगिक समाज में राज्य व्यक्तियों के हितों का संरक्षण करते हैं । “

 

( 3 ) जटिल पारिवारिक संरचना ( Complex Family Structure ) सरलता से जटिलता की दिशा में होने वाले परिवर्तन में जब सरल समाज विकसित समाजों के रूप मे बदलने लगते हैं तब इन समाजों में परिवार की संरचना पर जाति , गोत्र , नातेदारी , वंश तथा सत्ता आदि अनेक नियमों का प्रभाव पड़ता है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि जटिल समाजों में व्यक्ति पर सामाजिक नियन्त्रण की प्रक्रिया परिवार से ही आरम्भ हो जाती है । इस सन्दर्भ में स्पेन्सर ने यह बतलाया है कि जब समाज का आकार बढ़ता है तब उसकी इकाइयों की संरचना और प्रकार्यों में भी जटिलता बढ़ने लगती है ।

 

 ( II ) योग्यतम की विजय ( Survival of the Fittest ) इस नियम को ‘ सामाजिक डाविनवाद ‘ भी कहा जा सकता है । स्पेन्सर ने बतलाया कि समाज में सभी प्रकार के व्यक्ति रहते हैं । राज्य ( State ) उन व्यक्तियों के लिए कुछ नहीं कर पाता है , जो अशक्त होते हैं । स्पेन्सर का मत है कि जिस प्रकार कुछ प्राणी पर्यावरण से अनुकूलन न कर पाने के कारण नष्ट हो जाते हैं , उसी प्रकार अयोग्य व्यक्ति और अयोग्य तथा समाज धीरे – धीरे नष्ट होने लगते हैं । इस सन्दर्भ में अयोग्य व्यक्तियों ( Les Fit ) की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि ” अयोग्य व्यक्तियों का अर्थ केवल गरीब अथवा अनैतिक ( Immoral ) व्यक्तियों से नहीं है । इसका अर्थ शारीरिक दृष्टि से कमजोर तथा सामाजिक मानदण्डों से कमजोर व्यक्तियों के साथ साथ मूर्ख , अविवेकशील , रोगी और मनोविकृत व्यक्तियों से भी है । ” विभिन्न समाजों में उद्विकास की सर्वव्यापी प्रक्रिया की विवेचना करते हुए स्पेन्सर ने बतलाया कि ईसा से 2 , 000 वर्ष पूर्व मेसोपोटामिया के लोगों ने लोहे को गलाकर उससे हथियार बनाने की विधि को खोज लिया था । लोहे का आविष्कारक होने के कारण मेसोपोटामिया दो – तिहाई विश्व को जीत सकने में सफल हो गया । दूसरी ओर जो संस्कृतियाँ अपने आपको समय के अनुसार बदल नहीं सकीं वे धीरे धीरे नष्ट हो गई जबकि योग्यतम संस्कृतियों द्वारा निर्मित समाजों में विकास की प्रक्रिया तीव्र गति से चलने लगी ।

स्पेन्सर द्वारा प्रस्तुत ‘ योग्यतम की विजय ‘ के नियम को हम कुछ दूसरे समाज | शास्त्रीय अध्ययनों के आधार पर भी समझ सकते हैं । अमेरिकन मानवशास्त्री रूथ बेन्डिक्ट ( Ruth Bendict ) ने द्वितीय विश्व – युद्ध के दौरान जापान की सेमुराय जाति का अध्ययन किया था । इस अध्ययन के आधार पर उन्होंने यह बतलाया कि सेमुराय लोग युद्ध में हार जाने पर हारा कोरी ( Hara Kiri ) करते हैं । इस प्रथा के कारण उनमें सफल होने की इच्छा – शक्ति बहुत प्रबल होती है । बाद के समाज शास्त्रीय अध्ययनों के आधार पर ज्ञात हुआ कि जापान में द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् वारसा सन्धि के द्वारा जब सैन्य – शक्ति के विस्तार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया तब सेमुराय कौम के लड़ाकू लोग बेरोजगार होने लगे । इसके पश्चात् भी स्पेन्सर द्वारा दिये गए नियम के सन्दर्भ में , सेमुराय जाति चूंकि एक ‘ योग्य ‘ जाति थी , अतः इसने व्यवसाय पर ध्यान दिया और फलस्वरूप आज सेमुराय जाति जापान की प्रमुख व्यावसायिक जाति के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है । इसी प्रकार भारत में आर्यों की विजेता संस्कृति ने अनार्य ( द्रविड़ ) संस्कृति पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था । ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति ने भी सम्पूर्ण विश्व पर ब्रिटेन के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आधिपत्य को स्थापित किया । यह सभी उदाहरण योग्यतम समाजों की विजय के द्वारा समाज के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं । ” इस प्रकार स्पेन्सर ने विकास की प्रक्रिया को समझाते हुए सरलता से जटिलता ‘ और ‘ योग्यतम की विजय ‘ जैसे दो नियमों को प्रतिपादित करते हुए कहा है कि , योग्य व्यक्तियों के ही बचे रहने से समाज की क्षमताओं में वृद्धि होती है और विभेदीकरण एवं सामाजिक जटिलता से समाज में संगठन एवं निश्चितता की स्थितियाँ उत्पन्न होती है । उनके मतानुसार इन दो नियमों के आधार पर ही सामा जिक उद् विकास की प्रक्रिया का संचालन होता है ।

 

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