राजनीतिक समाजीकरण की अवधारणा
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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राजनीतिक समाजीकरण की अवधारणा यह जानने के लिए महत्वपूर्ण है कि विभिन्न समाजों में राजनीतिक संस्कृति कैसे बनती है और लोगों के राजनीतिक मूल्य विश्वास और दृष्टिकोण विभिन्न पीढ़ियों पर कैसे हावी होते हैं। राजनीतिक समाजीकरण के कुछ एजेंटों के माध्यम से उन मूल्यों या विश्वासों का नई पीढ़ी तक विस्तार होता है।
एक समूह के विभिन्न सदस्यों की मृत्यु से समूह की राजनीतिक संस्कृति नहीं मरती है। समूह के नए सदस्य अपनी राजनीतिक संस्कृति को बनाए रखते हैं। बचपन से ही उन्होंने समाज के राजनीतिक मूल्यों या मान्यताओं को सीखाए अपनाया और उनका पालन किया।
राजनीतिक समाजीकरण राजनीतिक मूल्यों के प्रवाह को सीखनेए अपनाने और बनाए रखने की प्रक्रिया है।
विषयसूची
राजनीतिक समाजीकरण का अर्थ
राजनीतिक समाजीकरण के लक्षण
राजनीतिक समाजीकरण के एजेंट
राजनीतिक समाजीकरण का महत्व
निष्कर्ष
राजनीतिक समाजीकरण का अर्थ
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- वह प्रक्रिया जिसके द्वारा एक व्यक्ति समाज की राजनीतिक संस्कृति के साथ एकीकृत होता हैए समाज के राजनीतिक मूल्योंए आदर्शों और विश्वासों का ज्ञान प्राप्त करता है और एक सामाजिक और राजनीतिक प्रकृति प्राप्त करता हैए राजनीतिक समाजीकरण कहलाता है।
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- राजनीतिक समाजीकरण के माध्यम से व्यक्ति अपनी राजनीतिक व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त करता हैए अपने समाज के साथ एकजुट होता हैए व्यक्ति की राजनीतिक पसंद का निर्धारण करता है और अपने राज्य के नागरिक की भूमिका निभाता है।
- राजनीतिक समाजीकरण के लक्षण
- वहाँ राजनीतिक समाजीकरण की कुछ विशेषताएं हैं। य़े हैंरू
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- प्रारंभिक बचपन राजनीतिक समाजीकरण के लिए एक महत्वपूर्ण समय है। लेकिन यह बचपन के कुछ सालों तक ही सीमित नहीं है। राजनीतिक समाजीकरण व्यक्ति के जीवन भर चलता रहता है।
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- राजनीतिक समाजीकरण मुख्य रूप से तीन प्रकार से होता है . अनुकरणए निर्देश और प्रेरणा। बच्चों में नकल की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती हैए जबकि किशोरों और वयस्कों में अनुकरण निर्देश और प्रेरणा का संयोजन होता है।
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- राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम सेए समर्थन में वृद्धिए प्रचलित राजनीतिक व्यवस्था के लिए समर्थनए पारंपरिक संस्थानों के पक्ष में मूल्यए सरकार की वैधता में वृद्धि हुई है।
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- एक राजनीतिक समाज से संबंधित सभी व्यक्ति राजनीतिक समाजीकरण के अधीन हैं और जीवन भर प्रभावी होते हैं।
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- राजनीतिक समाजीकरण समाज के राजनीतिक मूल्यों या संस्कृति का शिखर है। इसलिए कोई भी शिक्षा राजनीतिक समाजीकरण नहीं है।
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- राजनीतिक समाजीकरण का उद्देश्य समाज के सदस्यों को राजनीतिक रूप से शिक्षित करना और बढ़ाना हैए उन्हें राजनीतिक समाज के प्रभावी सदस्य बनते देखना और समाज के राजनीतिक मूल्यों की निरंतरता को बनाए रखना है।
राजनीतिक समाजीकरण के एजेंट
कुछ संगठन राजनीतिक समाजीकरण के संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन्हें राजनीतिक समाजीकरण के एजेंट कहा जाता है। उन्हें राजनीतिक समाजीकरण के साधन के रूप में भी पहचाना जाता है। य़े हैंरू
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- परिवार
- अंतरंग मित्र समूह
- शैक्षिक संस्था
- राजनीतिक दलों
- संचार मीडिया
- व्यावसायिक संगठन
- धार्मिक संगठन
परिवार
राजनीतिक मूल्यों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने में परिवार की भूमिका अहम होती है। परिवार में अपने जीवन के पहले दस से पंद्रह वर्षों मेंए बच्चा अपने अधिकांश राजनीतिक व्यक्तित्व को प्राप्त कर लेता है। बच्चा अपने माता.पिता और परिवार की मानसिकता पर ध्यान देता है और अपने दिमाग पर गहरा और स्थायी दबाव डालता है। परिवार से ही बच्चा अपने राजनीतिक मूल्यों के बारे में सीखता है।
शैक्षणिक संस्थान
कुछ वर्ष की आयु के बाद बालक शिक्षा छोड़ चुके शिक्षा संस्थानों से जुड़ गया और उसके जीवन के राजनीतिक समाजीकरण के साधन के रूप में स्कूलए कॉलेज और विश्वविद्यालय महत्वपूर्ण हो गए। स्कूल के पाठ्यक्रम के माध्यम से देश के प्रति वफादारी बढ़ाने के प्रयासों में राष्ट्रवादी आदर्शए राष्ट्र के अतीत गौरवए राष्ट्र के नेताओं के बारे में चर्चा आदि शामिल हैं।
राजनीतिक दल
राजनीतिक दल राजनीतिक शक्ति का लाभ उठाने के लिए राजनीतिक रूप से संगठित होकर चुनावों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। एक राजनीतिक दल के विभिन्न स्तरों और वर्गों के लोग विभिन्न प्रकार के कार्यों में शामिल होते हैं। राजनीतिक दल लोगों के कौशल और जागरूकता को बढ़ाते हैं। लोगों की राजनीतिक भूमिका राजनीतिक दल के आर्थिकए सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण और राजनीतिक व्यवस्था के साथ उसके संबंधों पर निर्भर करती है।
मास मीडिया
विज्ञान और प्रौद्योगिकी का प्रभावए आधुनिक समय में मीडिया जैसे रेडियोए फिल्मए
टेलीविजन इंटरनेट आदि बहुत उन्नत हैं और राजनीतिक समाजीकरण के एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में काम करते हैं।
मीडिया की मदद से राजनीतिक घटनाओं से संबंधित खबरेंए कमेंट्री और तस्वीरें तेजी से जन.जन तक पहुंचती हैं। सरकार या सरकारी दल के सदस्य अपने विचार व्यक्त करने के लिए मीडिया का उपयोग करते हैं। विपक्षी दल और उनके सदस्य भी यही रास्ता अपनाते हैं।
व्यावसायिक संगठन
व्यावसायिक आधार पर संगठित विभिन्न संगठन श्रमिक संघए ट्रेड यूनियनए किसान संघए शिक्षक संघए छात्र संघ आदि हैं। ये संगठन राजनीतिक दलों की तरह राजनीतिक शक्ति प्राप्त नहीं करते हैं या चुनावी प्रतियोगिता में भाग नहीं लेते हैंए लेकिन अपने व्यावसायिक हितों को संरक्षित करने का प्रयास करते हैं। सरकार की निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित करना।
ये संगठन विभिन्न दावों के माध्यम से अपने सदस्यों के बीच राजनीतिक मूल्यों और भावनाओं का संचार करते हैं और राजनीतिक समाजीकरण संभव है।
धार्मिक संगठन
आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्यों में धार्मिक संगठनों की राजनीतिक भूमिका कम हो गई है। फिर भी यह पता चला है कि उनकी कुछ अप्रत्यक्ष भूमिका है।
कई यूरोपीय राज्यों मेंए रोमन कैथोलिक ध्यान के संबंध में राज्य और शैक्षणिक संस्थानों का विरोध देखा जाता है। भारत मेंए हिंदू और मुस्लिम धार्मिक संगठन विभिन्न तरीकों से अपने सदस्यों के राजनीतिक विचारों को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं।
राजनीतिक समाजीकरण का महत्व
तीसरी दुनिया के देश कभी यूरोपीय सत्ता के राजनीतिक नियंत्रण में थे। बीसवीं शताब्दी के मध्य सेए वे स्वतंत्रता प्राप्त करना जारी रखते थे। इन देशों में शाही यूरोपीय शक्ति की राजनीतिक संरचनाएँ ज्ञात थीं। इसलिए तीसरी दुनिया के कई देशों में साम्राज्यवादी सत्ता के अनुकरण में राजनीतिक ढाँचे का विकास हुआ। उनका अपना सामाजिक और राजनीतिक ढाँचा भी है।
अंतरंग मित्र समूह
एक अंतरंग समूह समान या करीबी दोस्तों या करीबी दोस्तों वाले लोगों का समूह होता है। आधुनिक समय मेंए औद्योगीकरणए शहरीकरण और आधुनिकीकरण ने पूर्व के जीवन के तरीके को बदल दिया हैय समस्याओं की संख्या में वृद्धि हुई है। इसलिए आधुनिक समाज में अंतरंग अंधों का महत्व बढ़ गया है। घनिष्ठ मित्रों से कई प्रकार की चर्चा होती है। दोस्तों का राजनीतिक रवैया व्यक्ति के नैतिक दृष्टिकोण को प्रभावित और बदल सकता है।
इन देशों के राजनीतिक समाजीकरण के संदर्भ में चर्चा करना बहुत महत्वपूर्ण हैए यह जानने के लिए कि उनकी अपनी राजनीतिक और सामाजिक संरचनाएँ कितनी पुरानी हैंए उनमें कितना बदलाव आया हैए पश्चिम में राजनीतिक निरंतरता कैसे बनी हुई है। समाज लगातार बदल रहा है। राजनीतिक समाजीकरण की चर्चा यह समझने के लिए भी आवश्यक है कि ये परिवर्तन किस हद तक राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं।
राजनीतिक समाजीकरण समाज की राजनीतिक स्थिरता से संबंधित है। आधुनिकीकरणए औद्योगीकरणए शहरीकरण और अन्य विभिन्न परिवर्तनों की प्रक्रिया में राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने के लिए राजनीतिक समाजीकरण पर ध्यान देना आवश्यक है। उदार और समाजवादी दोनों व्यवस्थाओं में राजनीतिक समाजीकरण पर जोर दिया जाता है।
सामाजिक स्तरीकरण
स्तरीकरण ( stratification ) शब्द भूविज्ञान से ग्रहण किया गया है तथा यह समाज में व्यक्तियों के विभिन्न स्तरों में वर्गीकरण की ओर संकेत करता है जिसके सम्बन्ध में माना जाता है कि समाज में स्तर की यह व्यवस्था ठीक उसी तरह लम्बवत् रूप में होती है जैसे धरती की परतें / तहें एक – दूसरे के ऊपर अथवा नीचे लम्बवत् रूप में व्यवस्थित रहती हैं । किन्तु इस भू – वैज्ञानिक रूपक की अपनी सीमाएँ भी हैं । जैसा कि आन्द्रे बीते ( 1985 ) कहते हैं , “ समाज में व्यक्तियों की व्यवस्था धरती पर परतों / तहों की व्यवस्था से कहीं अधिक जटिल है तथा सामाजिक परतों को नंगी आँखों से उस प्रकार नहीं देखा जा सकता जैसे कि हम भूमि की परतों को देख सकते हैं । ” जब हम सामाजिक स्तरीकरण की बात करते हैं तो एक प्रकार से समाज में व्याप्त असमानताओं पर ध्यान केन्द्रित कर रहे होते हैं । विस्तृत अर्थों में सामाजिक स्तरीकरण समाज के विभिन्न स्तरों में वर्गीकरण की बात करता है । ये स्तरव्यवस्था पदानुक्रम के आधार पर व्यवस्थित वर्गों की ओर संकेत करती है । इन वर्गों में अनेक ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विविधतायें व विषमताएँ पाई जाती हैं जिनमें जातियाँ , सत्ता वर्ग ( estate ) एवं वर्ग सबसे महत्त्वपूर्ण हैं । सन् 1960 ई . के बाद से नृजातीय ( ethnic ) एवं लैंगिक ( gender ) स्तरीकरण की ओर भी ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है ।कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं
जिसबर्ट ( Gisbert ) के शब्दों में , ‘ ‘ सामाजिक स्तरीकरण समाज का उन स्थायी समूहों अथवा श्रेणियों में विभाजन है जो कि आपस में श्रेष्ठता एवं अधीनता के सम्बन्धों द्वारा सम्बद्ध होते हैं । ” इस कथन से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण एक व्यवस्था है । इस व्यवसथा द्वारा समाज विभिन्न स्थायी समहों या श्रेणियों में विभक्त होता है । साथ ही , ये विभिन्न समूह उच्चता और अधीनता के सम्बन्धों द्वारा एक – दूसरे से बंधे रहते हैं ।
सदरलैण्ड एवं वडवर्ड ( Sutherland and Woodward ) के अनुसार , ” स्तरीकरण साधारणतया अन्त : क्रिया अथवा विभेदीकरण की एक प्रक्रिया है , जिसके द्वारा कुछ व्यक्तियों को दूसरों की तुलना में उच्च स्थिति प्राप्त हो जाती है ।इस परिभाषा से पता चलता है कि सामाजिक स्तरीकरण एक प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया द्वारा समाज विभिन्न भागों में विभाजित होता है । इस विभाजन में कुछ को उच्च स्थिति व अन्य को निम्न स्थिति प्राप्त होती है ।
पारसन्स ( T . Parsons ) ने लिखा है , ” सामाजिक स्तरीकरण से अभिप्राय किसी सामाजिक व्यवस्था में व्यक्तियों का ऊचे और नीचे के पदानुक्रम में विभाजन है । ” इस कथन से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण समाज को ऊँच व निम्न वर्ग में विभाजन की एक व्यवस्था है ।
सोरोकिन ( Sorokin ) ने लिखा है , ‘ सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एक जनसंख्या – विशेष का ऊँच – नीच के संस्तरणात्मक अध्यारोपित वर्गों में विभेदीकरण है । ” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि सामाजिक स्तरीकरण द्वारा समाज विभिन्न वर्गों में बँट जाता है । ये वर्ग एक – दूसरे के नीचे व ऊपर होते हैं । यानि इन वर्गों के बीच संस्तरण पाया जाता है ।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण एक ऐसी व्यवस्था है जिसके माध्यम से समाज अनेक समहो व वर्गों में बँट जाता है । प्रत्येक वर्ग की एक निश्चित स्थिति होती है जो एक – दूसरे की तुलना में उच्च या निम्न होता है । परन्तु , ये वर्ग व समूह एक – दूसरे से जुड़े होते हैं ।
सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएँ ( Characteristics of Social Stratification )
सार्वभौमिकता ( Universality ) : सामाजिक स्तरीकरण एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है । यह प्रत्येक समाज में किसी – न – किसी रूप में अवश्य पाया जाता रहा है । चाहे वह पिछड़ा समाज हो या सभ्य , प्राचीन समाज हो या आधुनिक सरल समाज हो या जटिल , सामाजिक स्तरीकरण का रूप देखने को मिलता ही है । यहाँ तक कि वर्गविहीन समाज होने का दावा करने वाले साम्यवादी समाजों में भी यह प्रक्रिया पायी जाती है ।
चेतन प्रक्रिया ( Conscious Process ) : सामाजिक स्तरीकरण एक चेतन प्रक्रिया है । इसका निर्माण जागरूक दशा में योजनाबद्ध रूप से किया जाता है । साधारणतया यह कार्य समाज के अभिजन वर्ग ( Elite Class ) द्वारा होता है ।
समाज का विभाजन ( Division of Society ) : सामाजिक स्तरीकरण समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित करने की व्यवस्था है । इसके द्वारा समाज अनेक उच्च से निम्न वर्गों में बँट जाता है तथा प्रत्येक वर्ग की एक निश्चित स्थिति होती है । साथ ही इस स्थिति से सम्बन्धित कार्य व सुविधाएँ भी प्राप्त होती हैं ।
क्षैतिज विभाजन ( Horizontal Division ) : सामाजिक स्तरीकरण के द्वारा समाज का क्षैतिज विभाजन होता है । क्षैतिज विभाजन का अभिप्राय उस विभाजन से है जहाँ समाज विभिन्न वर्गों में बंट जाता है तथा प्रत्येक वर्ग के लोगों की स्थिति में समानता पाई जाती है । जैसे – जातिगत स्तरीकरण के अन्तर्गत एक जाति के लोगों की स्थिति में समानता पाई जाती है ।
श्रेष्ठता एवं अधीनता के सम्बन्ध ( Relationshipof Superiorityand Subordination ) : सामाजिक स्तरीकरण समाज को उच्च एवं निम्न अनेक वर्गों में बाँटती है । लेकिन ये वर्ग एक – दूसरे से अलग नहीं होते , बल्कि सम्बन्धित होते हैं । एक के अभाव में दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती । उदाहरणस्वरूप , सामाजिक स्तरीकरण का एक रूप वर्गगत स्तरीकरण के अन्तर्गत पेशा के आधार पर उच्च एवं निम्न अनेक वर्ग हैं , परन्तु वे सामाजिक सम्बन्ध से जुड़े होते हैं । इसी तरह अर्थ के आधार पर पूंजीपति वर्ग एवं श्रमिक वर्ग हैं और वे श्रेष्ठता एवं अधीनता के सम्बन्ध से जुड़े होते हैं ।
वैयक्तिक प्रक्रिया ( Individual Process ) : ओल्सन ( Olsen ) ने इस विशेषता का उल्लेख किया है । उनका कहना है कि स्तरीकरण एक वैयक्तिक प्रक्रिया है । इस व्यवस्था के अन्तर्गत एक स्तर के व्यक्ति दूसरे स्तर के व्यक्तियों से प्रतियोगिता करने का प्रयत्न करता है एवं कभी – कभी विरोध भी । वर्ग – संघर्ष व जातीय – संघर्ष इसी व्यवस्था की देन है ।
मनोवृत्ति का निर्धारण ( Determine of Attitude ) : सामाजिक स्तरीकरण की एक विशेषता यह है कि इसके द्वारा व्यक्ति के मनोवृत्ति का निर्धारण सम्भव हो पाता है । व्यक्ति जिस जाति , वर्ग व प्रस्थिति समूह का सदस्य होता है , उसके विचार एवं मनोवृत्ति भी उसी के अनुकूल बन जाता है । यही कारण है कि दो भिन्न वर्ग के लोगों की मनोवृत्ति में भिन्नता पाई जाती है ।
अनेक आधार ( Many Bases ) : सामाजिक स्तरीकरण के अनेक आधार हैं । इनमें प्रमुख लिंग , आयु , सम्पत्ति , धर्म , शारीरिक और बौद्धिक कुशलता , प्रजाति , जाति आदि हैं । यह समाज व सामाजिक व्यवस्था पर निर्भर है कि वह स्तरीकरण में किसे मान्यता दे और किसे नहीं ।.
जाति और वर्ग में अन्तर ( Distinction between Caste and Class )
‘ ( 1 ) जाति – प्रणाली एक बन्द वर्ग है जबकि वर्ग – प्रेरणाली एक खुला या मुक्त वर्ग है । जाति में सामाजिक स्तर का निर्धारण जन्म से होता है और किसी दूसरी जाति में सम्मिलित होने का अवसर नहीं मिलता । इसके विपरीत वर्ग – व्यवस्था में मनुष्य की असमानतामों को मान्यता मिलती है । इसमें व्यक्ति को उन्नति के लिए समान अवसर दिए जाते हैं । अपनी योग्यता के बेल पर व्यक्ति एक वर्ग से दूसरे वर्ग में प्रवेश कर सकता है ।
2 जाति में व्यक्तिगत क्षमता और योग्यता की उपेक्षा की जाती है । वर्ग में स्थिति इससे बिल्कुल विपरीत होती है । अपनी योग्यता के बल पर व्यक्ति समाज के उच्च वर्ग में पहुंच सकता है ।
3.जाति को स्तरीकरण की बन्द व्यवस्था और वर्ग को खली व्यवस्था के रूप में देखा जाता है । सामान्यतः वर्गों की प्रकृति खुली हुई समझ ली जाती है परंतु वास्तव में प्रत्येक वर्ग अपने से निम्नवर्ग के सदस्य को अपने वर्ग में आने से रोकता है और साधारणतया अपने वर्ग के सदस्यों से ही संबंधों की स्थापना करता है । व्यावहारिक रूप से विभिन्न वर्गों के बीच भी वर्ग – अंतर्विवाह की नीति अपनाई जाती है । यही कारण है कि जैसे कुछ विद्वानों ने जाति और वर्ग में कोई मौलिक भेद स्वीकार नहीं किया है । फिर भी यह निश्चित है कि अपनी प्रकृति , कार्यों और निषेधों में जाति और वर्ग की एक – दूसरे से भिन्न धारणाएं हैं जिन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है
4.जाति सामाजिक स्तरीकरण का एक बंद स्वरूप है जबकि वर्ग में खुलापन है । कोई भी व्यक्ति एक जाति को छोड़कर दूसरी जाति की सदस्यता ग्रहण नहीं कर सकता । प्रत्येक जाति के नियम भी दूसरी जातियों से भिन्न होते हैं । इसके विपरीत वर्ग की सदस्यता का द्वार सभी के लिए खुला है । एक व्यक्ति अपनी संपति , योग्यता , कुशलता के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है ।
5.जाति की सदस्यता का आधार जन्म है । व्यक्ति एक बार जिस जाति में जन्म लेता है , आजीवन उसी जाति का सदस्य बना रहता है । लेकिन वर्ग की सदस्यता व्यक्ति के कार्यों और प्रयत्नों पर आधारित होती है और वह अपनी योग्यता द्वारा अपने वर्ग में परिवर्तन कर सकता है ।
6.व्यक्ति को जाति की सदस्यता प्राप्त करने का प्रयत्न करना नहीं पड़ता बल्कि यह समाज की ओर से प्रदत्त होती है । यही कारण है कि जाति में स्थिरता होती है । दसरी ओर वर्ग की सदस्यता पूर्णत : व्यक्ति के निजी प्रयत्नों का फल है और इन प्रयत्नों में परिवर्तन होने से वर्ग की सदस्यता में भी परिवर्तन हो जाता है ।
. 7.प्रत्येक जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता है और उसी के द्वारा आजीविका उपार्जित करना उस जाति के सदस्यों का नैतिक कर्त्तव्य है । लेकिन वर्ग – व्यवस्था में कोई सदस्य अपनी रूचि और साधनों के अनुसार किसी भी व्यवसाय का चुनाव कर सकता है ।
. 8.प्रत्येक जाति आवश्यक रूप से अपने सदस्यों को अपनी ही जाति के अन्तर्गत विवाह – सम्बन्ध स्थापित करने पर बाध्य करती है । इसके विपरीत वर्ग में इस प्रकार का कोई निश्चित नियम नहीं होता । इसके बावजूद एक वर्ग के सदस्य अपने वर्ग में ही विवाह सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं । 6 . वर्ग में उच्चता का आधार आर्थिक है जबकि जाति का स्तर समाज द्वारा निर्धारित होता है । जातियों के निर्माण का आधार अनेक धार्मिक तथा सांस्कृतिक विश्वास हैं । इस दृष्टिकोण से जाति पवित्रता तथा अपवित्रता सम्बन्धी बहुत से नियमों की एक व्यवस्था है । वर्ग – व्यवस्था में पवित्रता अथवा अपवित्रता सम्बन्धी किसी प्रकार के विश्वासों का समावेश नहीं होता ।
- जाति – व्यवस्था में व्यवसाय का निश्चय बहुत कुछ जन्म से हो जाता है । वर्ग – व्यवस्था में स्वेच्छानुसार व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता रहती है । ।
10.जाति की सदस्यता जन्मजात होती है । यह समाज की ओर से उसे अपने – आप प्राप्त हो जाती है । इसके विपरीत वर्ग की सदस्यता अजित की जाती है । एक वर्ग से दुसरे वर्ग में व्यक्ति अपने प्रयासों से ही प्रवेश कर पाता
सामाजिक स्तरीकरण के आधार ( Bases of Social Stratification )
जाति ( Caste ) : सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख प्राणिशास्त्रीय आधार ‘ जाति ‘ है । भारत इसका ज्वलन्त उदाहरण है । इस जातिगत स्तरीकरण में सबसे ऊंचा ‘ ब्राह्मण ‘ को एवं निम्नतर स्थान ‘ शूद्र ‘ को प्राप्त है । इन दोनों छोरों के बीच क्रमश : अनेक जातियाँ हैं । यह स्तरीकरण बहुत कुछ स्थिर एवं दृढ़ है ।
सम्पत्ति ( Wealth ) : प्राचीन काल से ही सम्पत्ति सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख आधार रहा है । समाज में जिन लोगों को जितनी अधिक सम्पत्ति होती है , उनकी स्थिति उतनी ऊँची मानी जाती है । वे जीवन की अनेक सुविधाओं को जुटाने में सफल होते हैं । ठीक इसके विपरीत जिन लोगों को जितनी कम सम्पत्ति होती है , उनकी स्थिति उतनी निम्न होती है । यही कारण है कि गरीबी स्थितिहीन होती है ।
व्यवसाय ( Occupation ) : व्यवसाय भी सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख आधार है । समाज में व्यवसाय की उच्चता एवं निम्नता के आधार पर उससे जुड़े लोगों की स्थिति तय होती है । जैसे – समाज में कुछ व्यवसाय को ऊँचा एवं प्रतिष्ठित माना जाता है । प्रशासक , डॉक्टर , प्राध्यापक आदि इसी में आते हैं । फिर दूसरी तरफ कुछ व्यवसाय को निम्न माना जाता है , जैसे – हजामत का काम , जूता बनाने का काम आदि । इस प्रकार जो लोग प्रशासन , चिकित्सा व शिक्षण से जुड़े हैं उनकी स्थिति ऊँची होती है । फिर जूता बनाने के काम से जुड़े लोगों की स्थिति निम्न होती है ।
लिंग ( Sex ) : सामाजिक स्तरीकरण का सबसे प्राचीन आधार लिंग – भेद है । अधिकांश समाजों में परुषों की स्थिति सियों की तलना में ऊंची मानी जाती है । जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जितनी अधिक सुविधाएं एवं स्वतंत्रता पुरुषों को प्राप्त है , उतनी स्त्रियों को नहीं ।
आय ( Age ) : सामाजिक स्तरीकरण का दूसरा प्राणिशास्त्रीय आधार आयु माना जाता रहा है । आयु प्रायः व्यक्ति की मानसिक परिपक्वता एवं अनुभव को प्रकट करती +-है । इसीलिए अधिकांश समाजों में अधिक आयु के व्यक्तियों को अधिक सम्मान , आदर – भाव एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की जाती हैं ।
प्रजाति ( Race ) : प्रजातीय भिन्नता के आधार पर समाज में ऊंच – नीच का स्तरीकरण देखा जाता है । ऐसी मान्यता है कि प्रजातियों में श्रेष्ठ श्वेत प्रजाति ( काकेशियन ) है क्योंकि इसका रंग सफेद , रक्त उच्च स्तर का , उच्च मानसिक योग्यता एवं सभ्यता के प्रसारक हैं । इसके बाद क्रमश : योग्यता के अनुसार पीत प्रजाति ( मंगोलॉयड ) एवं सबसे नीचे श्याम प्रजाति ( नीग्रोयॉड ) हैं ।
धर्म ( Religion ) : धर्म – प्रधान समाजों में स्तरीकरण का आधार धर्म रहा है । जो व्यक्ति धर्म , धार्मिक ज्ञान , धार्मिक कर्मकाण्ड व विश्वास से अधिक जुड़े होते हैं , उनकी स्थिति आमलोगों से ऊँची होती है । भारत में धार्मिक गुरुओं . पुजारियों व धर्म – ज्ञानियों आदि की स्थिति ऊँची होने का मूल कारण उनका धर्म से जुड़ा होना है ।
राजनीति ( Politics ) : सामाजिक स्तरीकरण का एक महत्त्वपूर्ण आधार राजनीति कहा जाता है । जिसके हाथ में शासन की बागडोर होती है । उनकी स्थिति ऊँची होती है । साथ ही शासन – व्यवस्था के अन्तर्गत राजकीय सत्ता के आधार पर ऊंच – नीच का स्तरीकरण देखने को मिलता है । उदाहरणस्वरूप – भारत में शासन – व्यवस्था के अन्तर्गत सबसे ऊँचा स्थान राष्ट्रपति को प्राप्त है । फिर उसके बाद क्रमश : उप – राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री , उप – प्रधानमंत्री , कैबिनेट स्तर के मंत्री व राज्य – मंत्री आदि आते हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण के अनेक आधार हैं ।
सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप ( Forms of social Stratification )
बन्द स्तरीकरण ( Closed Stratification ) : बन्द स्तरीकरण वह स्तरीकरण है जिसमें व्यक्ति की स्थिति निर्धारण जन्म के आधार पर होता है । साथ ही इसमें किसी प्रकार की गतिशीलता नहीं पाई जाती है । इस व्यवस्था अनसार जन्म से व्यक्ति के कार्य , हैसियत एवं सुविधा व असुविधा का निर्धारण हो जाता है । इस प्रकार के स्तर का सर्वोत्तम उदाहरण भारतीय जाति – व्यवस्था है । व्यक्ति की जाति का निर्धारण जन्म से होता है । लेकिन एक जाति हैसियत एवं स्थिति दसरी जाति की तलना में ऊंची या नीची होती है । जैसे — ब्राह्मण की स्थिति सबसे ऊपर की सबसे नीचे है । इन दो छोरों के बीच अनेक जातियाँ एवं उपजातियाँ हैं । फिर इनके स्थिति में परिवर्तन सा है । इसीलिए जाति को बन्द वर्ग के रूप में स्पष्ट किया जाता है । बन्द स्तरीकरण को जातिगत स्तरीकरण के नाम जाना जाता है । _
( 2 ) खुला स्तरीकरण ( Open Stratification ) : खला स्तरीकरण वह स्तरीकरण है जिसमें व्यक्ति की स्थिति निर्धारण उनकी योग्यता , क्षमता एवं कार्य – कशलता के आधार पर होता है । गतिशीलता ऐसे स्तरीकरण का एक प्रसव विशेषता है । इस व्यवस्था के अनुसार व्यक्ति अपने प्रयत्न के द्वारा उच्च या निम्न स्थिति प्राप्त कर सकता है । साथ ही एक बार जो स्थिति प्राप्त होगी , आवश्यक नहीं कि वह स्थिति बनी ही रहे । उसमें परिवर्तन संभव है । ऐसे स्तरीकरण का सर्वोत्तम उदाहरण वर्ग – व्यवस्था है । वर्ग का आधार कर्म होता है , कर्म से व्यक्ति एक उद्योगपति , मजदूर , प्राध्यापक एवं छात्र हो सकता है । इसी के अनुसार व्यक्ति का वर्ग निर्धारित होता है । साथ ही वर्ग खुला समूह है । व्यक्ति अपने वर्ग की सदस्यता बदल सकता है । जन्म के साथ व्यक्ति को अपने परिवार की वर्ग – स्थिति प्राप्त होती है । लेकिन अपनी योग्यता व क्षमता के आधार पर अपनी हैसियत में वृद्धि कर सकता है । इस प्रकार वर्ग – व्यवस्था के अन्तर्गत उच्च समह से निम्न समूह , निम्न से उच्च समूह तक पहुँचना संभव है । इसीलिए कुछ लोग खुला स्तरीकरण को वर्गगत स्तरीकरण भी कहते हैं ।
सामाजिक स्तरीकरण का महत्त्व या प्रकार्य
` ( Importance or Functions of Social Stratification )
कार्य को सरल बनाना ( Simplify the Work ) : सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति की योग्यता का निर्धारण हो जाता है । जैसे – जाति व्यवस्था के द्वारा एक खास जाति को खास योग्यता व कार्य प्राप्त होता है जिसे उसे पूरा करना होता है । उसी तरह वर्ग व्यवस्था के अन्तर्गत एक खास वर्ग की खास योग्यता व कार्य – शैली होती है जिसे उसे पूरा करना होता है । इस तरह सामाजिक स्तरीकरण के माध्यम से व्यक्ति को जानकारी मिल जाती है कि कौन – सा कार्य करना है और कैसे करना है । इससे कार्यों में सरलता होती है ।
मनोवत्तियों का निर्धारण ( Determine the Attitudes ) : सामाजिक स्तरीकरण का एक खास महत्त्व मानवाय मनोवृत्तियों का निर्धारण करना है । व्यक्ति जिस जाति , वर्ग या प्रस्थिति – समूह का सदस्य होता है , उसी के अनुसार उसका मनोवृत्तियों का विकास व निर्धारण होता है । इस दृष्टिकोण से सामाजिक स्तरीकरण व्यक्ति को अपनी मनोवृत्तियों के बारे में जागरूक बनाकर उन्हें अपना विकास स्वयं करने की प्रेरणा देता है ।
सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में सहायक ( Helpful in Maintaining SocialOrder ) : सामाजिक सारीकरण का एक महत्त्व यह है कि वह समाज में व्यवस्था बनाए रखने में सहायक होता है । इसके द्वारा जन्म व योग्यता के आधार पर समाज को विभिन्न वर्गों में बांट दिया जाता है तथा प्रत्येक वर्ग के व्यक्तियों के व्यवहार व ढंग निश्चित हो ।
साथ ही ऐसी व्यवस्था कर दी जाती है कि व्यक्ति अपने निश्चित कार्य – शैली को अपनाएं । इससे सामाजिक व्यवस्था बनी रहती है ।
सामाजिक एकीकरण में सहायक ( Helpful in Social Integration ) : सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था यो तथा समहों को विभिन्न वर्गों में बांट देती है । प्रत्येक वर्ग के व्यक्तियों के कार्य निश्चित होते हैं । एक व्यक्ति अपने कार्यों को परा कर अन्य कार्यों के सन्दर्भ में दूसरे पर निर्भर होता है । क्योंकि एक व्यक्ति की आवश्यकताएं केवल के दारा परी नहीं हो सकतीं । इससे व्यक्तियों व समूहों में आपस में पारस्परिक निर्भरता बनी रहती है । यह निर्भरता सामाजिक एकीकरण में सहायक होता है ।
सामाजिक प्रगति में सहायक ( Helpful in Social Progress ) : सामाजिक स्तरीकरण प्रगति में सहायक होता है । व्यवस्था का आधार चाहे जन्म हो ( जाति व्यवस्था ) या योग्यता ( वर्ग व्यवस्था ) दोनों ही व्यक्ति में अपने – अपने ढंग से सामाजिक मान्यता के अनुसार कार्य करने की प्रेरणा देता है । जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत जाति – धर्म की बात कही जाती है । इस सिद्धांत के अनुसार , व्यक्ति के पिछले जन्म के कार्यों के आधार पर इस जन्म के कर्म निर्धारित हुए हैं , अत : उनका पालन अनिवार्य है । फलस्वरूप व्यक्ति स्वेच्छा से अपने कर्म को निभाता है । फिर वर्ग व्यवस्था में अधिक – से – अधिक योग्यता बढ़ाने का व्यक्ति प्रयास करता है ताकि वह उच्च स्थिति को प्राप्त कर सके । ये दोनों ही स्थितियाँ सामाजिक प्रगति में सहायक होती है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक स्तरीकरण व्यक्ति व समूह दोनों ही स्तर पर अपने महत्त्व को दर्शाता है ।
आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक ( Helpful in Fulfilment ofNeeds ) : व्यक्तियों की अनेक आवश्यकताएँ होती हैं । कोई भी व्यक्ति अपनी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं नहीं कर सकता । सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था के द्वारा व्यक्तियों के कार्यों का विभाजन हो जाता है । प्रत्येक व्यक्ति अपने निश्चित कार्य को कुशलता से करके लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होता है ।
प्रस्थिति का निर्धारण ( Determination of Status ) : सामाजिक स्तरीकरण का एक खास महत्त्व यह है कि इसके द्वारा व्यक्तियों को समाज में उचित स्थान मिलता है जिसे उसकी प्रस्थिति कही जाती है । समाज में हर एक व्यक्ति की योग्यता , क्षमता एवं कार्य – कुशलता एक समान नहीं होती । एक स्वस्थ समाज के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति की योग्यता के अनुसार प्रस्थिति प्राप्त हो । इस आवश्यकता की पूर्ति सामाजिक स्तरीकरण द्वारा हो जाता है ।
वर्ग( Class )
ऐसे व्यक्तियों का समूह है जिनकी समान सामाजिक प्रस्थिति होती है । प्रत्येक समाज में अनेक प्रस्थितियाँ पाई जाती है । फलस्वरूप उनके अनुसार अनेक वर्ग भी पाए जाते हैं । जब जन्म के अतिरिक्त अन्य किसी आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में विभाजित किया जाता है तो प्रत्येक समूह को वर्ग कहा जाता है । कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं
मैक्ईवर एवं पेज ( Maclver and Page ) ने वर्ग को परिभाषित करते हुए लिखा है , ‘ सामाजिक वर्ग समुदाय का वह भाग है जो सामाजिक प्रस्थिति के आधार पर शेष भाग से पृथक होता है । ” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि वर्ग का आधार सामाजिक प्रस्थिति है । यानि एक समान प्रस्थिति के लोग एक वर्ग का निर्माण करते जो अन्य वर्गों से भिन्न होते हैं ।
गिन्सबर्ग ( Ginsberg ) के शब्दों में , ” वर्ग व्यक्तियों के ऐसे समूह को कहा जा सकता है जो व्यवसाय , धन , शिक्षा , जीवन – शैली , विचार , भाव , मनोवृत्ति और व्यवहार के आधार पर समान हो या इनमें से एक – दो ही आधारों पर उनमें समानता की चेतना हो जो उन्हें अपने एक समूह या वर्ग का बोध कराती हो । ” इस परिभाषा से तीन बातें स्पष्ट होती हैं वर्ग व्यक्तियों का एक समूह है , ( ii ) वर्ग – निर्माण के अनेक आधार हैं – व्यवसाय , धन , शिक्षा , जीवन – शैली व मनोवृत्ति आदि और ( iii ) वर्ग के लिए चेतना का होना , जिसे वर्ग चेतना कहा जाता है ।
मावर्स एवं एंगेल्स ( Marxand Engels ) ने लिखा है , ‘ विभिन्न व्यक्तियों के एक साथ मिलने से वर्ग तभी बनता है , जब वे एक वर्ग के रूप में दूसरे वर्ग के विरुद्ध संघर्ष करते हैं , अन्यथा वे परस्पर प्रतियोगी होने के नाते एक दत्तरे के विरोधी या दश्मन ही रहते हैं । ” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि वर्ग का आधार संघर्ष है । यानि बिना संघर्ष के टपणे की कल्पना नहीं की जा सकती । यह संघर्ष आर्थिक हितों के आधार पर होता है । उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर ऐसा कह सकते हैं – वर्ग व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो सामाजिक व तत्त्वों पर आधारित है और जिनमें वर्ग – चेतना के गुण होते हैं ।
वर्ग की विशेषताएँ ( Characteristics of Class )
निश्चित संस्तरण ( Definite Hierarchy ) – सामाजिक वर्ग कुछ श्रेणियों में विभक्त होते हैं । इनमें से कुछ श्रेणियों का स्थान ऊँचा और कुछ का नीचा होता है । जो उच्च वर्ग के सदस्य होते हैं उनके सदस्यों की संख्या तो सबसे कम होती है लेकिन प्रतिष्ठा सबसे अधिक होती है । इसके विपरीत जो निम्न वर्ग के सदस्य होते हैं उनके सदस्यों की संख्या तो अधिक होती है , लेकिन उनका महत्त्व और सम्मान सबसे कम होता है । इस प्रकार की स्थिति का यह स्वाभाविक परिणाम होता है कि उच्च वर्ग के सदस्य प्रायः निम्न वर्ग के सदस्यों से दर रहने में अपना गौरव समझते हैं । दूसरे शब्दों में , सामाजिक दूरी को नोति को प्रोत्साहन – मिलता है ।
अर्जित व्यवस्था ( Achieved System ) : वर्ग का आधार कर्म है । एक व्यक्ति अपने कर्म के बल पर धनी या गरीब , उद्योगपति या श्रमिक , विशेषज्ञ , प्राध्यापक , डॉक्टर , इंजीनियर या किसान हो सकता है । उसी के अनुसार उसका वर्ग बनता है । इस प्रकार वर्ग अर्जित की जाती है । इसे व्यक्ति अपने प्रयत्न से प्राप्त करता है ।
वर्ग – संघर्ष ( Class Conflict ) : इस विशेषता का उल्लेख मार्क्स ने किया है । मार्क्स का कहना है कि वर्गों के बीच संघर्ष ही वह तत्व है , जो समाज में वर्गों के अस्तित्व का बोध कराता है । संघर्ष के बिना वर्ग की कल्पना नहीं की जा सकती है और यह संघर्ष आर्थिक हितों के आधार पर होता है । इस प्रकार वर्ग की अवधारणा एवं विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट है कि वर्ग सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रचलित आधार है ।
संस्तरण ( Hierarchy ) : वर्ग की एक प्रमुख विशेषता ‘ संस्तरण ‘ कही जाती है । इसका अर्थ यह है कि समाज में वर्गों की एक श्रेणी होती है जिसमें उच्चतम से निम्नतम अनेक वर्ग होते हैं । इन वर्गों में स्पष्टत : उच्च एवं निम्न का संस्तरण देखा जाता है । इस संस्तरण के अनुसार ही पद , प्रतिष्ठा एवं सुविधाओं में भिन्नता देखी जाती है ।
ऊँच – नीच की भावना ( Feeling of Superiority – Inferiority ) : वर्गों में ऊँच – नीच की भावना देखी जाती है । एक वर्ग के सदस्य दसरे वर्गों के सदस्यों के प्रति उच्चता या निम्नता की भावना रखते हैं । उदाहरणस्वरूप धनी वर्ग एवं निर्धन वर्ग के बीच एक – दूसरे के प्रति यह भावना स्पष्ट रूप से देखी जाती है ।
सामान्य जीवन ( Common Life ) – समाज के विभिन्न वर्गों के सदस्य अपने – अपने विशेष ढंग से जीवन – यापन करते हैं । धनी वर्ग के जीवन – यापन का तरीका मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग से भिन्न होता है । धनी वर्ग अधिक से अधिक अपव्यय करने में अपनी शान समझता है । मध्यम वर्ग प्रायः रूढ़ियों और प्रथानों में जकड़ा रहता है तथा निम्न वर्ग का तरीका इन दोनों ही से बिलकुल भिन्न होता है ।
आर्थिक आधार की महत्ता ( Importance of Economic Basis ) माथिक स्थिति वर्ग – निर्माण का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है । आधुनिक समाज पूंजीवादी या प्रौद्योगिक है । इन समाजों में लिंग , प्रायु आदि वर्ग की सदस्यता से विशेष सम्बन्ध नहीं है । आर्थिक दृष्टि से समृद्धि या हीनता लोगों को उच्च वर्ग , मध्य और निम्न वर्ग में विभाजित करती रहती है ।
खुलापन और उतार चढ़ाव ( Openness and Shifting ) – वर्गों की प्रकृति खुली हुई होती है । इसका अभिप्राय : यह है कि यदि कोई व्यक्ति विशेष योग्य अथवा कार्यकुशल है तो वह किसी भी वर्ग की सदस्यता ग्रहण कर सकता है अथवा अलग – अलग प्राधारों पर एक साथ अनेक वर्गों का सदस्य हो सकता है । इसी स्थिति को दर्शाते हुए बोटोमोरे ने लिखा है कि ” सामाजिक वर्ग अपेक्षाकृत उन्मुक्त होते हैं अथवा नहीं , उनका प्राधार निर्विवाद रूप से आर्थिक है , लेकिन वे आर्थिक समूहों से अधिक हैं । ” सामाजिक वर्गों में उतार – चढ़ाव होते रहना भी सामान्य बात है । कोई भी गरीब व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनकर धनी वर्ग में सम्मिलित हो सकता है । इसी प्रकार यदि किसी धनी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति एकदम गिर जाती है तो वह उस वर्ग से फिसल कर मध्यम अथवा निम्न वर्ग में जा सकता है । वर्गगत स्थिति में यह परिवर्तन आर्थिक स्थिति के अनुरूप अपने – अाप हो जाता है ।
अजित सदस्यता ( Achieved Membership ) सामाजिक वर्ग की उपरोक्त चौथी और पांचवी विशेषता से यह एक स्पष्ट है कि वर्ग की सदस्यता जन्म पर ही नहीं बल्कि को ग्यता , कुशलता और आर्थिक सम्पन्नता पर निर्भर करती है । वर्ग की सदस्यता के लिए व्यक्ति को प्रयत्नशील होना पड़ता है । यदि कोई व्यक्ति निम्न वर्ग का है तो उच्च वर्ग में प्रवेश के लिए उसे अपनी योग्यता सिद्ध करनी होगी । स्थायी रूप से व्यक्ति उसी वर्ग में रह पाता है जिसके अनुरूप उसमें योग्यता होती है ।
वर्गों की अनिवार्यता ( Essentiality of Classes ) – – – वर्गों की समाज में उपस्थिति अनिवार्य है । सभी व्यक्ति योग्यता , कार्यक्षमता , रुचि , बुद्धि प्रादि की दष्टि से समान नहीं होते । अत : यह स्वाभाविक है कि व्यक्तियों को उनकी । योग्यतानुसार पद और सम्मान मिले । ऐसा होने पर ही सामाजिक व्यवस्था स्थायी रूप से बनी रह सकती है । मार्क्सवाद में वर्गहीन समाज की कल्पना की गई है । लेकिन यह सुनिश्चित है कि इस प्रकार का समाज कभी स्थापित नहीं हो सकता । ।
कम स्थिरता ( Less Stability ) – धन , शिक्षा , व्यवसाय प्रांति र अस्थायी प्रकृति के होते हैं , अतः उन पर आधारित वर्ग – व्यवस्था भी एक स्थिर धारणा है । जो आज धनी है वह कल निर्धन हो सकता है ।
उप – वर्ग ( Sub – classes ) – सामाजिक वर्ग में प्रत्येक वर्ग के अन्तर्गत उप – वर्ग होते हैं । उदाहरणार्थ , धनी वर्ग में धन पर अधिकार के आधार पर पोटति – वर्ग . लखपति – वर्ग अनेक उप – वर्ग आदि विभिन्न उप – वर्ग पाए जाते हैं ।
जीवन अवसर ( Life Chances ) – मैक्स वेबर ने वर्ग की एक विशेषता ‘ जीवन अवसर ‘ ( Life Chance ) की ओर संकेत किया है । तद्नुसार , ” हम एक समूह को तब वर्ग कह सकते हैं जब उसके सदस्यों को जीवन के कुछ विशिष्ट अवसर समान रूप से प्राप्त हों । “
वर्ग – परिस्थिति ( Class Situation ) – इस विशेषता की ओर भी , जो जीवन अवसर से सम्बन्धित है , मैक्स वेवर ने ही ध्यान आकर्षित किया है । किसी वर्ग के अधिकार में सम्पत्ति के होने अथवा न होने से एक विशिष्ट परिस्थिति का जन्म होता है जिसमें वर्ग निवास करता है । यदि वर्ग के सदस्यों के पास सम्पत्ति होती है तो स्वभावत : उसे अधिक धनोपार्जन , अधिक क्रय और उच्च जीवन – स्तर बनाए रखने प्रादि के अवसर प्राप्त होंगे । संयुक्त रूप में इन अवसरों से एक ऐसी विशिष्ट परिस्थिति का निर्माण होगा जिसमें उस वर्ग के सदस्यों को निवास करना होगा । यही वर्ग : परिस्थिति ( Class Situation ) है ।
समान जीवन – शैली ( Common Life Style ) : एक वर्ग के सदस्यों की जीवन – शैली में समानता देखी जाती है जो दूसरी तरफ अन्य वर्गों से भिन्न भी होता है । एक वर्ग के लोगों के कपड़े , खान – पान , मकान का स्वरूप , रहन – सहन एवं तौर – तरीकों में अधिकतर समानता होती है । साथ ही एक वर्ग के सदस्यों का पारिवारिक ब वैवाहिक सम्बन्ध भी अपने वर्ग – समूहों तक सीमित होते हैं ।
वर्ग – चेतना ( Class Conciousness ) : वर्ग – चेतना वर्ग की आधारभूत विशेषता है । इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वर्ग के सदस्यों में इसका बोध होता है कि उसका सामाजिक – आर्थिक – राजनीतिक पद व प्रतिष्ठा दूसरे वर्गों की तुलना में कैसी है । यही वह भावना जो एक वर्ग के सदस्यों को आपस में बांधे रखता है ।
सीमित सामाजिक सम्बन्ध ( Restricted Social Relations ) : एक वर्ग के सदस्यों का सामाजिक सम्बन्ध प्राय : अपने वर्ग तक ही सीमित होता है । इनका खाना – पीना , उठना – बैठना एवं अन्य अन्त : क्रियात्मक सम्बन्ध अपने वर्ग के लोगों के साथ होता है । साथ ही , ये अन्य वर्गों से एक निश्चित सामाजिक दुरी बनाए रखते हैं । यही सामाजिक सम्बन्धों की सीमितता है , जो वर्ग की एक खास विशेषता है ।
गतिशीलता ( Mobility ) : वर्ग की एक खास विशेषता गतिशीलता है । यह जन्म पर आधारित नहीं है , बल्कि यह योग्यता , क्षमता यानि कर्मशीलता पर आधारित है । फलस्वरूप एक निम्न वर्ग का सदस्य अपनी योग्यता व क्षमता के बल पर उच्च वर्ग में सम्मिलित हो सकता है । उसी तरह एक व्यक्ति असफलता के माध्यम से नीचे के वर्ग की ओर जा सकता है । इस प्रकार वर्गों की प्रकृति में खलापन है । (
जाति (Caste )
जाति की अवधारणा या परिभाषा के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि मुख्यत : यह लोगों का एक ऐसा सबक है जिसकी सदस्यता आनुवंशिकता पर आधारित होती है । इसे जाति – संस्तरण में एक निश्चित स्थान प्राप्त होता है एक जाति स्वयं कोई समुदाय या समाज नहीं होती , बल्कि समुदाय या समाज का एक समूह होती है जिसका समाज एक पूर्व निर्धारित स्थान होता है तथा यह एक निश्चित व्यवसाय से सम्बन्धित होती है । कुछ महत्त्वपर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार है
हरबर्ट रिजले ( Herbert Risley ) ने जाति की परिभाषा देते हुए लिखा है , ” जाति परिवारों या परिवार के समहों संकलन है जिसका एक ही नाम होता है , जो एक काल्पनिक पूर्वज , जो मानव या देवता हो सकता है , से अपनी श – परम्परा की उत्पत्ति का दावा करता है , जो समान जन्मजात ( पुश्तैनी ) व्यवसाय को चलाता है और जिसे उन लोगों द्वारा एक सजातीय समुदाय माना जाता है जो इस तरह के निर्णय या मत देने के अधिकारी हैं । इस परिभाषा से 5 बातें स्पष्ट होती हैं – (i)जाति अनेक परिवारों का एक सामूहिक संगठन है , ( ii ) इसका एक नाम होता है , ( iii ) प्रत्येक जाति की एक काल्पनिक पूर्वज है , ( iv ) इसका एक निश्चित व्यवसाय होता है और ( v ) यह एक सजातीय समुदाय के रूप में जाना जाता है ।
मजुमदार एवं मदन ( D . N . Majumdar and T . N . Madan ) के अनुसार , ” जाति एक बन्द वर्ग है । इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि जाति जन्म पर आधारित है । अत : व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसी में अन्त तक रहना पड़ता है । किसी भी स्थिति में जाति की सदस्यता बदली नहीं जा सकती है । इसी माने में जाति बन्द वर्ग है ।
दत्ता ( N . K . Dutta ) ने जाति की अधिकतम विशेषताओं को समेटते हुए जाति को परिभाषित करते हुए लिखा है , ” जाति एक प्रकार का सामाजिक समूह है , जिसके सदस्य अपने जाति से बाहर विवाह नहीं करते , खान – पान पर प्रतिबन्ध , पेशे निश्चित होते हैं , संस्तरणात्मक विभाजन का पाया जाना , एक जाति से दूसरी जाति में परिवर्तन सम्भव नहीं है । इस परिभाषा से जाति का 6 विशेषताओं का पता चलता है – ( i ) जाति एक सामाजिक समूह है , ( ii ) जाति अन्तर्विवाही समूह है , ( iii ) जाति में खान – पान पर प्रतिबन्ध होते हैं , ( iv ) जाति का पेशा निश्चित होता है , ( v ) जातियों में ऊँच – नीच का स्तरीकरण पाया जाता है और ( vi ) जाति की सदस्यता में परिवर्तन सम्भव नहीं । इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति स्तरीकरण की अगतिशील एक ऐसी व्यवस्था है जो जन्म पर आधारित है एवं खान – पान विवाह , पेशा आदि पर प्रतिबन्ध लगाती है ।
जाति की विशेषताएँ
( Characteristics of Caste )
_ जी . एस . घुरिए ( G . S . Ghurye ) ने जाति की 6 विशेषताओं की चर्चा की है , जिसके आधार पर जाति को समझना अधिक उपयोगी बतलाया गया है । ये विशेषताएं निम्नलिखित हैं
समाज का खण्डनात्मक विभाजन ( Segmental Division of Society ) : जाति व्यवस्था समाज को कुछ निश्चित खण्डों में विभाजित करती है । प्रत्येक खण्ड के सदस्यों की स्थिति , पद और कार्य जन्म से निर्धारित होता है । तथा उनमें एक सामुदायिक भावना होती है । जातीय नियम का पालन नैतिक कर्तव्य होता है ।
संस्तरण ( Hierarchy ) : जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक जाति की स्थिति एक – टसरे की तलाश नाचा हाती है । इस संस्तरण में सबसे ऊपर ब्राह्मण है और सबसनाचे अस्पृश्य जातियां हैं । इन दो लोग बीन जातिया है । इतना ही नहीं . एक जाति के अन्दर अनेक उपजातिया है तथा उनमें भी ऊंच – नीच का
व्यवसाय की आनुवंशिक प्रकृति ( Hereditary Nature of Occupation ) : व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धार जाति – व्यवसाय के आधार पर होता है । अतः एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसे उसी जाति का व्यक अपनाना होता है । इसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होती । इस प्रकार कहा जा सकता है कि जाति प्रमुख विशेषता परम्परागत व्यवसाय है ।
अन्तर्विवाही ( Endogamous ) : जाति – व्यवस्था के अनुसार जाति के सदस्य अपनी ही जाति या उपजाति , विवाह – सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं । इस नियम का उल्लंघन करने का साहस प्राय : कोई नहीं करता । वेस्टरमार्क ने विशेषता को ‘ जाति – व्यवस्था का सारतत्व ‘ माना है । अन्तर्विवाही नियम आज भी जातियों में पाई जाती है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज में जाति – व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण का एक स्पष्ट एवं महत्त्वपूर्ण आधार रहा है ।
भोजन तथा सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध ( Restrictions on Fooding and Social IntereCHISE ) : जाति – व्यवस्था में खान – पान मेल – जोल एवं सामाजिक सम्पर्क सम्बन्धी प्रतिबन्ध है । प्रायः एक जाति के व्यकित निम्न जातियों के हाथ का भोजन नहीं स्वीकार करते । साथ ही कच्चा व पक्का भाजन सम्बन्धी अनेक प्रतिबन्ध देखे जाते है । इसी तरह सामाजिक सम्पर्क एवं मेल – जोल के सन्दर्भ में छुआछूत की भावना पाई जाती है ।
सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यताएँ ( Social and Religious Disabilities ) : जाति – व्यवस्था में चिनारों मार सावधाओं में विशेष अन्तर देखा जाता है । एक ओर उच्च जाति को जितनी सुविधाएं एवं अधिकार जीवन के क्षत्रों में प्राप्त हैं उतनी निम्न जातियों को नहीं । सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में ब्राह्मण अनेक अधिकारों से पूर्ण है । वहीं अस्पृश्य जातियों को सार्वजनिक सुविधाओं व अधिकारों तक से वंचित रखा जाता है । कर भी ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी झलक देखी जाती है ।
प्रजाति ( Race)
प्रजाति एक जैविकीय धारणा है । प्रत्येक प्रजाति के सदस्यों की अपनी शारीरिक लक्षण होते हैं । ये लक्षण मूल रूप से वंशानुगत होते हैं । इन्हीं लक्षणों के आधार पर एक प्रजाति को दूसरी प्रजातियों से अलग कर सकते हैं । कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्न हैं
ए . एल . क्रोबर ( A . L . Kroeber ) ने प्रजाति को परिभाषित करते हुए लिखा है , ” प्रजाति एक प्रमाणित , प्राणिशास्त्रीय प्रत्यय है । यह एक समूह है जो आनुवंशिकता , वंश या प्रजातीय गुण या उपजाति के द्वारा सम्बन्धित है । “इस परिभाषा से स्पष्ट है – ( 1 ) प्रजाति प्राणिशास्त्रीय अर्थों में प्रयोग किया जाता है । ( 2 ) यह जन्म से उत्पन्न शारीरिक लक्षणों व विशेषताओं से सम्बन्धित होता है ।
जे . बीसंज एवं एम . बीसज ( J . Biesanz and M . Biesanz ) ने लिखा है , ” प्रजाति उन व्यक्तियों का एक बड़ा समूह होता है जो जन्मजात शारीरिक लक्षणों द्वारा पहचाने जाते हैं । “इस कथन से स्पष्ट हैं – ( 1 ) प्रत्येक प्रजाति के कुछ विशिष्ट शारीरिक लक्षण होते हैं । ( 2 ) ये विशिष्ट शारीरिक लक्षण एक बड़े समूह में पाये जाने पर उस समूह को प्रजाति कहेंगे ।
ई . ए . हॉबल ( E . A . Hoebel ) के शब्दों में , ” प्रजाति एक स्वाभाविक प्राणिशास्त्रीय समूह है जो विशिष्ट शारीरिक लक्षणों का स्वामी होता है । ये लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में शुद्ध रूप से मिलते रहते हैं । ” इससे स्पष्ट होता है – ( 1 ) प्रजाति एक प्राणिशास्त्रीय समूह है । ( 2 ) एक प्रजातीय समूह विशिष्ट शारीरिक लक्षणों के मालिक होते हैं । ( 3 ) ये लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को मिलते रहते है । । उपरोक्त वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रजाति एक ऐसा वहत मानव समह है जिसके सदस्यों में कुछ समान शारीरिक विशेषताएं पाई जाती हैं । ये विशेषताएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संचरित होती रहती हैं और इसका आधार पर एक प्रजातीय समूह को दूसरों से पृथक किया जा सकता है ।
प्रजाति की विशेषताएँ ( Characteristics of Race )
एक विशिष्ट शारीरिक प्रारूप ( A Particular Physical Type ) : एक प्रजाति के कुछ विशिष्ट शारीरिक लक्षण या विशेषताएं सामान्य होती हैं । इसका तात्पर्य यह नहीं कि एक प्रजाति के सदस्यों की सभी शारीरिक विशेषताएं एक – दूसरे बिल्कल समान होती है । सामान्य शारीरिक लक्षणों का अर्थ केवल अपनी प्रजाति के ‘ शारीरिक प्रारूप से मिलत – जुलत होता है । शारीरिक प्रारूप के आधार पर एक प्रजाति को दूसरे से अलग किया जा सकता है ।
आनुवंशिक लक्षणों का संचरण ( Transmission of Inherited Traits ) : एक प्रजाति के शारीरिक लक्षण या विशेषताएं वंशानुक्रम की प्रक्रिया के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते रहते हैं । प्रजाति के लक्षणों को हस्तान्तरित करने में वाहकाणु ( Genes ) का बड़ा महत्त्व होता है । जिनके वाहकणुओं में साम्य है वे एक प्रजाति के होंगे ।
समूह का बड़ा आकार ( Large Size of Group ) : प्रजाति एक वृहत मानव समूह है । इसके सदस्य किसी एक छोटे से क्षेत्र में न रहकर एक विस्तृत भू – भाग में फैले हुए होते हैं । इस प्रकार सामान्य शारीरिक लक्षण या विशेषताएं एक विशाल जन – समूह में पाए जाने पर ही उस समूह को प्रजाति कहेंगे । इसके सदस्यों की संख्या करोड़ों तक हो सकती है ।
प्रजाति अन्तर्विवाह ( Race Endogamy ) : प्रत्येक प्रजाति अपनी ही प्रजाति के सदस्यों से विवाह करने की नीति को अपनाती है । इस कारण उनकी संतानों में वही शारीरिक लक्षण पाए जाते हैं , जो उस समूह के होते हैं । अन्तर्विवाह के द्वारा प्रत्येक समूह अपनी प्रगति की बाह्य प्रभावों से रक्षा भी करता है तथा इसी नीति के द्वारा अन्य प्रजातियों से रक्त का मिश्रण होने की सम्भावना को कम करने का प्रयत्न किया जाता है ।
स्तरीकरण ( Stratification ) : प्रजातीय भिन्नता के आधार पर समाज में ऊँच नीच का स्तरीकरण देखा जाता है । ऐसी मान्यता है कि प्रजातियों में श्रेष्ठ श्वेत प्रजाति ( कालेशियन ) है क्योंकि इसका रंग सफेद , रक्त उच्च स्तर का , उच्च मानसिक योग्यता एवं सभ्यता के प्रसारक हैं । इसके बाद पीत प्रजाति ( मंगोलॉयड ) एवं सबसे नीचे श्याम प्रजाति ( नीग्रोयॉड ) है ।
जैविकीय धारणा ( Biological Concept ) प्रजाति एक जैविकीय धारणा है । इसे आनुवंशिकता से घनिष्ठ रूप । से सम्बद्ध माना गया है । मेरिल ( Merrill ) ने लिखा है , ” प्रजाति एक जैविकीय शब्द है जो एक वृहत मानव समूह की । शारीरिक समानताओं की ओर संकेत करता है जो आनुवंशिकता के द्वारा संचरित होती रहती है ।
लिंग एवं स्तरीकरण ( Gender and Stratification )
सामाजिक स्तरीकरण का सबसे प्राचीन आधार लिंग – भेद ( Gender Discrimination ) है । स्त्री और पुरुष मानव समाज की आधारशिला है । किसी एक के अभाव में समाज की कल्पना नहीं की जा सकती । इसके बावजूद अधिकांश समाजों में पुरुषों की स्थिति स्त्रियों की तुलना में ऊँची मानी जाती है । जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जितनी अधिक सुविधाएँ एवं स्वतंत्रता पुरुषों को प्राप्त है , उतनी स्त्रियों को नहीं । स्त्रियों का मूल कार्य प्रजनन , घर की देखभाल और पुरुषों के अधीन रहना माना गया ।
जब किसी समाज में लिंग ( Sex ) के आधार पर ऊँच – नीच की स्थिति प्रदान की जाती है , तब इस दशा को लैंगिक असामनता के नाम से जाना जाता है । भारतीय समाज में प्रारंभ से ही समूह के रूप में स्त्रियों पर पुरुषों ने प्रभुत्व जमाया है तथा परिवार व समाज में उनकी स्थिति निम्न रखी है । लैंगिक असमानता की समस्या मूल रूप से स्त्रियों से सम्बन्धित समस्या है । सैद्धांतिक दृष्टि से भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया है , परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से उनके साथ भेदभावपर्ण रवैया तथा उनका तिरस्कार . अपमान व प्रताड़ना आज भी जारी है । अब भी उनका मत जानने के लिए गम्भीरता नहीं दर्शाई जाती , उन्हें पुरुषों के समान नहीं समझा जाता तथा उनको उचित सम्मान नहीं दिया जाता । यही लैंगिक असमानता है । स्त्री – पुरुषों के सम्बन्धों में , सबल व्यक्तित्व वाला व्यक्ति ही प्रभावशाली स्थिति प्राप्त करता है । सामान्य रूप से , पुरुष स्त्री पर आज्ञा देने का अधिकार समझता है , यद्यपि कछ मामलों में स्त्री भी पुरुष के ऊपर नियंत्रण रखने की स्थिति म रहती है । भारत में प्रारंभ से ही स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समान नहीं रही , बल्कि निम्न रही । पारिवारिक व सामाजिक निर्णयों में उनकी सहभागिता कम पाई जाती है ।
बैज्ञानिकों ने लैंगिक असमानता की व्याख्या विभिन्न उपागमों के माध्यम से किया है । जैसे – जीवशास्त्रियों का मानना है कि जैविकीय दृष्टि से तुलनात्मक रूप में स्त्रियों में बुद्धि व शक्ति की कमी होती है । इसीलिए स्त्रिया पुरुषों के अधीन होती हैं तथा वे पुरुषों के समान स्थिति प्राप्त नहीं कर पातीं । मानवशास्त्रियों का मानना है कि सामाजिक उद्विकास का प्रारंभिक रूप पितृसत्तात्मक था । परिवार में पुरुषों का आधिपत्य रहा । स्त्रियों पुरुषों के अधीन रही यहीं लैंगिक असमानता आज भी है । मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्त्रियों पुरुषों से कमजोर होती हैं । फलस्वरूप परिवार व समाज में उनकी स्थिति पुरुषों की तुलना में निम्न होती है तथा उनका पुरुषों के अधीन रहना स्वाभाविक होता है । समाजशास्त्रियों का मानना है कि स्त्रियों की स्थिति पुरुषों की तुलना में कम होना समाज व संस्कृति की देन है । हमारी सोच व व्यवहार सामाजिक मूल्यों व प्रतिमानों से निर्धारित होता है । सामाजिक मूल्य प्रतिमान पुरुषों को विशेष महत्ता प्रदान करते हैं । यही कारण है कि स्त्रियों की स्थिति पुरुषों से निम्न होती है । फलस्वरूप लैंगिक असमानता जैसी समस्या विकसित हुई । इस प्रकार कहा जा सकता है कि जब लिंग के आधार पर स्त्रियों को पुरुषों के अधीन मानकर उनकी स्थिति का निर्धारण होता है , तब इसे लैंगिक असमानता के नाम से जाना जाता है ।
लैंगिक असमानता की समस्याएँ ( Problems of gender Inequality )
आर्थिक निर्भरता ( Economic Dependency ) : लैंगिक असमानता की एक प्रमुख समस्या स्त्रियों का पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता है । पुरुष अपनी आय को अपनी इच्छा से खर्च कर सकता है । स्त्रियाँ एक ओर आर्थिक रूप में पुरुषों पर निर्भर होती हैं । फलस्वरूप अपनी इच्छा से वह अपने पति की आय को खर्च नहीं कर सकतीं । दूसरी ओर जो स्त्रिया , आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं , वे भी विवाह – पूर्व माता – पिता व विवाह – पश्चात पति की इच्छानुसार ही खर्च करती हैं ।
भूमिका संघर्ष ( Role Conflict ) : लैंगिक असमानता की एक प्रमुख समस्या स्त्रियों से जुड़ी भूमिका संघर्ष की है । आज की कामकाजी स्त्रियाँ 8 – 10 घंटे दफ्तर या अन्य स्थानों में कार्यशील रहती हैं , जिससे उन्हें असंख्य समस्या का सामना करना पड़ता है । घर के जीवन का समायोजन दफ्तर की दिनचर्या से करना होता है , फिर घर के कामकाज व परम्परागत दिनचर्या से भिन्न बिन्दुओं पर व्यवस्थित करना होता है । इससे भूमिका संघर्ष की समस्या पैदा हो जाती है ।
सम्पत्ति अधिकार की समस्या ( Problem Regarding Property Right ) : लैंगिक असमानता की एक प्रमुख समस्या स्त्रिया से जुड़ी सम्पत्ति अधिकार की है । वैधानिक रूप में माता – पिता की सम्पत्ति में पुत्री का , पति की सम्पत्ति में पत्नी का व पुत्र की सम्पत्ति में माँ का अधिकार होता है . लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं है । आज भी माता – पिता की सम्पत्ति उनके पुत्रों में बँटती है । मानसिक तौर पर पत्री भी अपना अधिकार नहीं मानती । ग्रामीण क्षेत्रों में तो इन अधिकारों की जानकारी भी कम ही स्त्रियों को होती है ।
राजनीतिक असमानता ( PoliticalInequalitv ) : लैंगिक असमानता की एक प्रमुख समस्या स्त्रियों की राजनीतिक सहभागिता में देखा जाता है । अधिकांश स्त्रियाँ अपने पति या परिवार के अन्य पुरुषों के इच्छानुसार ही इच्छित व्यक्ति को वोट डालती हैं । स्त्रियों की सहभागिता राजनीतिक क्षेत्र में कम है । पंचायती राज व्यवस्था के अनुसार आरक्षित स्थान पर जो स्त्रियाँ निर्वाचित हुई हैं , उनके द्वारा लिए गए निर्णयों पर उनके पति या अन्य पुरुष सदस्यों का प्रभाव देखा जाता है ।
वैवाहिक असमानता ( Marital Inequality ) : स्त्री व पुरुष विवाह प्रक्रिया के माध्यम से पारिवारिक जीवन में प्रवेश करता है । लेकिन विवाह प्रक्रिया में दोनों के बीच स्पष्ट असमानता है । परम्परा से चली आ रही आज भी जीवन – साथी के चुनाव में जितनी स्वतंत्रता लड़कों को है , उतनी लड़कियों को प्राप्त नहीं है । आज भी लड़की की ओर से लड़कों को दहेज देने की प्रथा है ।
परिवार में असमानता ( Inequality in Family ) : परिवार में स्त्री – पुरुष के बीच असमानता के रूप स्पष्ट रूप से देखे जा सकते है । परिवार के अन्दर – खाना – पीना , साफ – सुथरा , अतिथि सत्कार आदि – के दायित्वों को पूरा करने की जिम्मेदारी सिर्फ स्त्रियों की मानी जाती है । घरेलू हिंसा – दहेज सम्बन्धी मृत्यु , पत्नी को पीटना , लैंगिक दुर्व्यवहार , विधवाओं व वृद्धों के साथ दुर्व्यवहार , आदि – असमानता का ही परिणाम है ।
शैक्षणिक असमानता ( Educational Inequality ) : यद्यपि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्त्रियों की शिक्षा में काफी बढ़ोत्तरी देखी जाती है , लेकिन जितनी जागरूकता लड़कों की शिक्षा के सन्दर्भ में देखी जाती है , उतनी लड़कियों के सन्दर्भ में नहीं । जहां लड़कों को सभी तरह की शिक्षा के लिए छूट है , वहीं लड़कियों के सन्दर्भ में एक खास तरह की शिक्षा दिए जाने की बात की जाती है । आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों के सन्दर्भ में एक खास तरह की शिक्षा देने की बात की जाती है । आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा का प्रतिशत निम्न है ।
सामाजिक हिंसा ( Social – Violence ) : स्त्रियों के साथ जो शोषण व हिंसा हो रही है , यह मूलत : असमानता का द्योतक है । आज समाज में पत्नी , पुत्री , पुत्रवधू को मादा भ्रूण ( FemaleFoeticide ) की हत्या के लिए बाध्य करना , महिलाओं से छेड़छाड़ , सम्पत्ति में महिलाओं को हिस्सा देने में इंकार करना , पुत्र – वधू को दहेज लाने के लिए सताना , वरिष्ठ अफसरों द्वारा कनिष्ठ कामकाजी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार आदि घटनाएं आम हैं
सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप ( Forms of Stratification )
स्तरीकरण असमानता का वह स्वरूप है जिसमें समाज के सदस्य ऊँचे – नीचे पदों या स्थितियों में विभाजित रहते हैं । स्थिति की यह ऊँचाई – नीचाई जिन आधारों से निर्धारित होती है ये ही स्तरीकरण के स्वरूप या प्रकार को भी निश्चित करते हैं । स्तरीकरण के दो मौलिक स्वरूपों का उल्लेख प्रारम्भिक समाज वैज्ञानिकों ने किया है । स्तरीकरण का एक स्वरूप प्रादर्शात्मक ( Normative ) होता है और दूसरा यथार्थवादी ( Realistic ) या वास्तविक । प्रादर्शात्मक स्तरीकरण का सम्बन्ध स्तरों की प्रकृति से है , जैसे मुक्त स्तरीकरण और प्रतिबन्धित स्तरीकरण अथवा प्रदत्त स्थिति और अजित स्थिति के आदर्श अथवा स्तरीकरण की संस्थागत मात्रा और स्वरूप । वास्तविक स्तरीकरण उन कारकों के साथ सम्बन्धित हैं जिनके आधार पर समाज के सदस्यों में स्तरीकरण होता है , जैसे आर्थिक स्तरीकरण , स्थिति सोपान कम या शक्ति स्तरीकरण । स्तरीकरण के स्वरूपों की द्विविध व्याख्या अत्यन्त प्राचीन है जिनके द्वारा समाज के सदस्यों को दो ऊँचे – नीचे समूहों में बाँटा जाता है जैसे विशिष्ट और सामान्य , श्रेष्ठजन ( Elite ) और सामान्य जन ( Masses ) , स्वाधीन और पराधीन , अमीर और गरीब , शासक और शासित तथा उत्पादक और अनुत्पादक समूह । आधुनिक युग में स्तरीकरण का त्रिवर्गीय स्वरूप प्रचलित है जिसमें उच्च वर्ग , मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग होते हैं । समाजशास्त्रियों ने मुख्य रूप से स्तरीकरण के निम्नलिखित पाँच स्वरूपों का उल्लेख किया है
1 . दासता ( Slavery ) – दासता स्तरीकरण का वह स्वरूप है जिस में समाज दो वर्गों में विभाजित होता है जिन्हें स्वामी तथा दास कहा जाता है । किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के द्वारा प्रथा या प्रचलन के रूप में अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को दास के रूप में रखना स्तरीकरण के दासता – स्वरूप को व्यक्त करता है । दास स्वामी की सम्पत्ति होते हैं । स्वामियों में भी दास रखने की क्षमता और दासों की संख्या के आधार पर स्तरीकरण होता था । दास भी कार्य की प्रकृति के आधार पर ऊँची – नीची स्थितियों को प्राप्त करते थे । घरेलू दास और क्षेत्र दास ( Field Slaves ) में स्थिति की भिन्नता होती थी । दासता के दो प्रमुख उदाहरण मानव इतिहास में मिलते हैं । प्राचीन दासता जो यूनान और रोम के समाजों में प्रचलित थी , दासता का बहुचर्चित स्वरूप था । दासता का दूसरा स्वरूप संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिण भाग में विगत दी । शताब्दियों में प्रचलित रहा है । चीन में भी दासता घरेल दास व्यवस्था के रूप में प्रचलित रही है , किन्तु यहाँ दास को उस सीमा तक निजी सम्पत्ति के रूप में नहीं समझा जाता था जिस सीमा तक उसे रोम में समझा जाता था ।
2 . एस्टेट ( Estate ) – एस्टेट सामाजिक स्तरीकरण का वह स्वरूप है जो दासता के पश्चात् सामन्तवादी युग में विकसित हुआ । एस्टेट एक राजनीतिक अवधारणा भी है और एक सामाजिक स्थिति का प्रतीक शब्द भी है । राजनीतिक क्षेत्र में विशिष्ट अधिकारों से युक्त समूह को एस्टेट या जागीरदारी कहा जाता है । दूसरी ओर जागीर या एस्टेट जनसंख्या का वह भाग है जिसे स्तरीकरण में उच्च स्थान प्राप्त है और विशेष सामाजिक अधिकार और सुविधाएँ प्राप्त होती हैं । इन अधिकारों और सुविधाओं को कानूनी अभिमति प्राप्त होती है । एस्टेट व्यवस्था के अन्तर्गत सामन्तवादी समाज तीन ऊंचे – नीचे समूहों में विभाजित था । सामाजिक स्तरीकरण में प्रथम स्थान पुजारियों का था जो पूजा – पाठ करते थे । दूसरे स्थान पर भद्र पुरुष या कुलीन व्यक्ति थे जो युद्ध इत्यादि के समय सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाते थे , और तीसरे स्थान पर श्रम करने वाले सामान्य लोग थे । एस्टेट के आधार जन्म और सम्पत्ति थे । स्तरीकरण का एस्टेट स्वरूप ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त में प्रारम्भ हुआ जब अनेक दास स्वतन्त्र हो रहे थे । इन्हें कुलीन लोग अपने समूह में शामिल करने को तैयार नहीं थे । इस कुलीन की परिभाषा धन , सत्ता और सामाजिक आदतों से सम्बन्धित हो गई । कुलीन वर्ग एक प्रकार से स्वामी वर्ग बन गया और श्रम करने वाले उसके अधीन हो गए । सैनिक वृति ने उसके स्वभाव को भी आदेशात्मकता से परिपूर्ण बना दिया । विशिष्ट जीवन शैली उसकी पहचान बन गई । वह सामान्य जनता से अलग ग्रामीण क्षेत्र में रहता था पर खेती नहीं करता था । कुलीन समूह के वंशज विशेष सुविधाओं के पात्र हो गए । भारत में वह एस्टेट प्रथा के साथ जुड़ गई । यहाँ विलासी और श्रमिक समूहों का निर्माण नहीं हुआ बल्कि ग्रामीण कृषि पर आधारित स्तरीकरण का यह स्वरूप आर्थिक और सैनिक प्रकृति का था । यहाँ यूरोप का सामन्तवादी स्वरूप नहीं था , और न उसकी शोषणवादी व्यवस्था थी । एस्टेट प्रथा भी कानून पर आधारित थी । संक्षेप में एस्टेट एक प्रतिबन्धित स्तरीकरण का रूप था । स्तरीकरण के नियमों की प्रथा तथा परम्परा का समर्थन प्राप्त था और औपचारिक कानून भी इन नियमों और प्रादर्शों में सहायक थे ।
3 . जाति ( Caste ) – हिन्दुस्तान में सामाजिक जीवन और चिन्तन की दिशा जाति – प्रथा से निश्चित होती रही है । भारतीय सामाजिक संरचना के विशिष्ट लक्षणों से युक्त जाति – प्रथा स्तरीकरण का एक कठोर स्वरूप है जिसका उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता । यह प्रतिबन्धित स्तरीकरण का वह स्वरूप है जिसमें जन्म के साथ व्यक्ति की स्थिति निर्धारित हो जाती है और वह जीवनपर्यन्त उसी स्थिति में रहता है । धन का अनन्त कोष , अथवा प्रतिभा की प्रखरता उसकी स्थिति को नहीं बदल सकते । जाति के साथ धार्मिक अभिमति जुड़ गई है । जाति की व्याख्या एक कठोर वर्ग के रूप में भी की गई है और एक स्थिति समूह के रूप में भी । यद्यपि जाति प्रथा एक अपरिवर्तनीय स्थायी व्यवस्था प्रतीत होती है , फिर भी यह गतिशील तथ्य है । स्तरीकरण का यह भारतीय स्वरूप परिस्थितियों के साथ अनुकूलन है । प्रजातान्त्रिक प्रणाली के विकास ने अनेक परिवर्तन किए हैं । इसके सांस्कतिक स्वरूप में परिवर्तन हो रहा है और पद – सोपान – क्रम में भी परिवर्तन हो रहे हैं । जाति जन्मजात समूह है जिसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता । यह अन्तविवाही समूह भी है । जातियों के व्यवसाय पूर्व – निश्चित होते हैं और उन्हें नहीं जा सकता । खान – पान के प्रतिबन्धित और सामाजिक सम्पर्क या परिसीमन जाति प्रथा को अत्यन्त प्रतिबन्धित स्तरीकरण का स्वरूप बना देते हैं । न प्रतिबन्धों के कारण मध्यकाल तक पाते – पाते निम्न जातियों की निर्योग्यतामों का विकास हो गया और वे उच्च जातियों के शोषण का शिकार हो गई । उन्हें पशुओं से भी बदतर समझा जाने लगा । स्वतन्त्र भारत में प्रौद्योगीकरण , नगरी करण , लौकिकीकरण , संस्कृतिकरण , प्रजातन्त्रीकरण और पश्चिमीकरण आदि की प्रक्रियाओं ने जाति प्रथा में अनेक परिवर्तन किए हैं , किन्तु इन परिवर्तनों से जातीय स्तरीकरण का मौलिक स्वरूप नहीं बदला है । विभिन्न जातियों की स्थितियों में परिवर्तन हना है किन्तु स्थिति सोपान की निरन्तरता और जाति – सदस्यता के आधारों में परिवर्तन नहीं हुआ है । अनेकों धार्मिक और राजनीतिक विरोधों के सामने जातीय स्तरीकरण विद्यमान है ।
4 . वर्ग ( Class ) – सामाजिक वर्ग स्तरीकरण का वह प्रकार है जो अाधुनिक युग में अधिक प्रचलित है । वर्ग ऊँची – नीची स्थिति वाले आर्थिक समूहों के रूप में समझे जा सकते हैं जिन्हें कोई धार्मिक या कानूनी अभिमति प्राप्त नहीं होती । वर्ग स्तरीकर ण का मुक्त स्वरूप है । वर्ग के सदस्य अपनी स्थिति के अनुसार अन्य समूहों को ऊंचा या नीचा समझ कर व्यवहार करते हैं । वर्ग चेतना वर्ग का विशेष लक्षण है । मार्क्स ने सामाजिक स्तरीकरण में दो वर्गों को मान्यता दी है । बुर्जुवा वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है । वह शासक भी होता है और शोषक भी । यह उच्च वर्ग होता है । सर्वहारा वर्ग श्रम करता है , शोषित और निर्धन है । मार्स वैबर ने भी सम्पत्तिवान और सम्पत्तिहीन , दो वर्गों में समाज का विभाजन किया है । वर्ग आधुनिक समाज में स्तरीकरण का विशिष्ट स्वरूप है । आर्थिक स्थिति वर्ग – निर्धारण का मुख्य प्राधार है । अतः सम्पत्ति , प्राय और व्यवसाय वर्ग की अवधारणा के साथ विशेष रूप से जुड़ गए हैं । अमरीका आदि कुछ क्षेत्रों में प्रजाति वर्ग निर्धारण में सहायक तत्त्व हो गया है । एक वर्ग के सदस्य समान जीवन शैली रखते हैं और जीवन में उन्नति के अवसर भी उनके लिए समान ही होते हैं । योग्यता , परिश्रम और आकांक्षा वर्ग – परिवर्तन के अवसर प्रदान करते हैं । अाधुनिक वर्ग स्तरीकरण में उच्च , मध्यम और निम्न , ये तीन सवे प्रचलित वर्ग हैं । प्रजातान्त्रिक देशों में वर्ग महत्त्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका अदा करते हैं । सर्वसत्तावादी संरचनामों में राजनीतिक वर्गों का विकास हो गया है ।
5 , स्थिति समूह ( Status Groups ) – आधुनिक समाजों में उपभाग स्तरीकरण का मुख्य प्राधार बन गया है । मैक्स वेबर ने उपभोग की मात्रा को प्राधार मानकर ऊंचे – नीचे सामाजिक स्तर का निर्धारण करने का प्रयत्न किया है । अधिक खर्च करने वाले लोग उच्च स्थिति में होते हैं । संक्षेप में सामाजिक स्तरीकरण के निम्नलिखित स्वरूपों की व्याख्या की
आर्थिक स्तरीकरण ( Economic Stratification ) – धार्मिक स्तरीकरण का प्राधार धन – सम्पत्ति और आमदनी है । व्यक्ति की नाथिक स्थिति सदैव एक – सी नहीं रहती । इसमें उतार – चढ़ाव , पाने रहते हैं 12 उतार – चढ़ाव सम्पूर्ण समूह की प्रार्थिक स्थिति को भी परिवर्तित कर सकता है अगर समूह के अन्तर्गत विभिन्न वर्गों की आर्थिक स्थितियों को भी बदल सकता है । प्रत्येक समूह की औसत सम्पत्ति और प्राय अलग – अलग होती है जो समय – समय पर घटती बढ़ती है । आर्थिक स्थिति अर्थात् सम्पत्ति और आमदनी के नाधार पर समाज के विभिन्न सदस्यों और समूहों को ऊँचा – नीचा मानना आर्थिक स्तरीकरण है ।
राजनीतिक स्तरीकरण ( Political Stratification ) जनसंख्या के विस्तार और सभ्यता के विकास के कारण समाज अत्यन्त जटिल हो गए हैं । प्राचीन समाज छोटे और सरल समाज थे । अतः उस में राजनीतिक आधार पर लोग ऊंचे या नीचे न थे । राजा , मुखिया या सरदार ही सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति था और शेष सब उसके अधीन थे । आधुनिक युग में विभिन्न प्रकार की राजनीतिक संरचनाओं का विकास हो गया है जिसके अन्तर्गत राजनीतिक स्थितियों का विभाजन होने लगा है । प्रजातन्त्र में राष्ट्रपति , प्रधान मन्त्री , आदि अनेक स्थितियों का सोपान क्रम बन गया है । राजनीतिक परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं जिसके फलस्वरूप राजनीतिक स्तरीकरण भी बदल जाता है । किसी राजनीतिक संगठन के आकार के चढ़ने – घटने से स्तरीकरण भी बदल जाता है । यदि उसके सदस्यों में भिन्नता बढ़ जाती है तो स्तरीकरण में विस्तार हो जाता है और भिन्नता घट जाती है तो स्तरीकरण संकुचित हो जाता है । युद्ध , क्रान्ति अथवा विद्रोह की अवस्था में भी उलट – फेर हो जाता है । विरोधी राजनीतिक शक्तियाँ भी सामाजिक स्तरीकरण को प्रभावित करती हैं ।
व्यावसायिक स्तरीकरण ( Occupational Stratification ) सारोकिन ने दो प्रकार का व्यावसायिक स्तरीकरण बताया है । अन्त : व्यावसायिक स्तरीकरण वह होता है जिसमें एक ही व्यवसाय में लगे व्यक्तियों की स्थितियों में असमानता होती है । सबसे ऊँची स्थिति में वे लोग होते हैं जो व्यवसायों के मालिक , व्यवस्थापक प्रादि होते हैं और कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखते हैं । दूसरी स्थिति प्रवन्धकों या अन्य उच्चाधिकारियों की होती है , जो स्वयं मालिक न होते हुए भी महत्त्वपूर्ण अधिकार सम्पन्न व्यक्ति होते हैं । अन्तिम स्तर पर वेतन भोगी साधारण कर्मचारी और श्रमिक होते हैं । सामान्यतः प्रायिक , व्यावसाधिक और राजनीतिक स्तराकरण परस्पर एक – दूसरे को प्रभावित करते हैं । जो व्यक्ति एक क्षेत्र में ऊचा स्थिति पर होता है , वह अन्य क्षेत्रों में भी ऊँची स्थिति प्राप्त कर लेता है ।
4 . अन्य प्रकार ( Other Types ) – प्राधुनिक युग में शिक्षा , कला आदि के प्राधार पर समाज के
सदस्यों की स्थितियों में असमानता पा जाती है । प्रजाति भी स्तरीकरण का मुख्य स्वरूप रहा है । स्तरीकरण में जातीय स्वरूप और al स्वरूप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इस प्रकार सामाजिक स्तरीकरण अनेक स्वरूपों में प्रकट होता है । समाजशास्त्रियों के अनुसार मानवीय इतिहास के विभिन्न युगों में सामाजिक स्तरीकरण के विशिष्ट स्वरूपों का विकास हुआ है । प्राचीन काल में दास प्रथा स्तरीकरण का स्वरूप थी तो सामन्त युग में एस्टेट प्रथा का विकास हुना । भारतीय समाज में स्तरीकरण का प्रमुख स्वरूप जाति रही है और प्राधुनिक जगत में स्तरीकरण के प्रमुख स्वरूप के रूप में वर्ग प्रथा को मान्यता प्राप्त हुई है । भारत में सामाजिक स्तरीकरण के उपयुक्त स्वरूपों में से दो स्वरूप अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं अतः हम यहाँ उनकी विस्तार से विवेचना करेंगे – – 1 . जाति – प्रथा ( Caste System ) 2 . वर्ग – व्यवस्था ( Class System )
जाति प्रथा
( Caste System )
‘ जाति ‘ शब्द के निर्माण के बारे में अनेक मत प्रचलित हैं । जाति का शास्त्रीय देश भारत है । सन्दर्भ में देखा जाए तो हिन्दी का ‘ जाति ‘ शब्द संस्कृत भाषा के ‘ जन ‘ धातु से बना है , जिसका अर्थ है ‘ उत्पन्न होना ‘ या ‘ उत्पन्न करना ‘ । इस प्रकार जन्म से समान गुण – धर्म वाली वस्तुओं को एक जाति कहा जाता है । इस दृष्टि से जाति मनुष्यों में ही नहीं , पौधों और जड़ पदार्थों में भी होती है । एक अन्य धारणा के अनुसार यूरोपवासियों में सबसे पहले पुर्तगालियों ने Caste ‘ कास्ट ‘ शब्द का प्रयोग किया जो पूर्तगाली शब्द Castra ‘ कास्ट्रा ‘ से बना है जिसका अर्थ है ‘ वंश ‘ या ‘ नस्ल ‘ । ‘ कास्ट ‘ शब्द का लैटिन शब्द Castus ‘ कास्टस ‘ से भी घनिष्ट सम्बन्ध है जिसका तात्पर्य है ‘ परिशुद्ध ‘ या ‘ अमिश्रित ‘ । इस प्रकार शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से जाति एक ऐसे वर्ग को व्यक्त करता है जिसका प्राधार वंश या नस्ल परिशुद्धता या अमिश्रितता है जो पूर्णतया प्रानुवंशिकता पर आधारित होता है । स्पष्ट है कि एक समाज इस ( जाति ) प्रणाली से प्रभावित है , यदि यह समाज परस्पर विरोधी अनेक समूहों में बँटा हा है जो आनुवांशिक तरीके से विशेषीकृत है और संस्तरीकृत तरीके से श्रेणीबद्ध है – यदि , सिद्धान्ततः यह ( प्रणाली ) न नए व्यक्तियों को स्वीकार करती है और न रक्त – मिश्रण तथा न पेशों के बदलने को स्वीकार करती है । अनेक विद्वानों ने जाति या वर्ण को एक – दूसरे का पर्याय माना है , परन्तु वस्तुतः यह उपयुक्त नहीं है । यद्यपि वर्ण – व्यवस्था के द्वारा जाति की उत्पत्ति हुई , इस बात के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं ।
जाति : प्रकार्य अथवा लाभ
( Caste : Functions or Merits )
जाति – प्रथा ने भारतीय समाज के संरक्षण और संवर्द्धन में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथापि हजारों वर्षों के विकास की प्रक्रिया में आज यह प्रथा दोषों का ऐसा पिटारा बन चुकी है जिसे फैक देना ही वर्तमान युग की मांग है । इस दिशा में केवल वैधानिक और प्रशासकीय प्रयास ही काफी नहीं होंगे । जब तक शैक्षणिक विकास तथा अन्य उपायों से हिन्दू जनता में जाति – प्रथा के विरुद्ध घृणा का भाव नहीं पनपेगा तब तक यह दूषित प्रथा हमारे समाज और राष्ट्र को संगठित नहीं होन देगी । जब हम ज ति – प्रथा के लाभों की चर्चा करते हैं तो अधिकांशतः हमारा मन्तव्य उसके आदर्श स्वभाव और स्वरूप के लिए होता है । जिन उल्लेखनीय कार्यों से जाति – प्रथा प्रशंसा का पात्र बनी है वे मुख्यतः निम्नलिखित हैं
व्यक्तिगत अनुशासन तथा सम्मान की रक्षा – जाति के नियम व्यक्ति को अनुशासन में रखते हैं और उसे अवांछनीय तथा असामाजिक कार्यों को करने से रोकते हैं । अवांछनीय व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है । इस प्रकार जाति सामाजिक नियन्त्रण का कार्य करती है ।
सदस्यों की मानसिक सुरक्षा – जाति व्यवस्था अपने सदस्यों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करती है । प्रत्येक जाति में सामूहिक भावना अत्यन्त प्रभाव शाली होती है । कठिन परिस्थितियों में जाति मनुष्य की सहायता करती है । जाति की सामूहिक शक्ति के अाधार पर व्यक्ति को मानसिक सुरक्षा का अनुभव होता है । जाति प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक स्थिति प्रदान करती है । व्यक्ति को कोई भी मानसिक कष्ट नहीं उठाना पड़ता है क्योंकि उसके लिए सब कुछ पूर्व – निश्चित रहता है । उसे मार्ग निश्चित करने के लिए मनोवैज्ञानिक झंझट में नहीं पड़ना पड़ता , निश्चित मार्ग पर चलते रहने से ही परम धर्म होता है ।
समूह में सहयोग – जाति – बन्धन ने एक समूह विशेष को एकता के सूत्र में बांध रखा है । एक विशेष जाति समूह में व्यक्ति स्वयं को सुरक्षित समझता है और एक – दूसरे के प्रति सहायक होना अपना कर्त्तव्य मानता है । जातीय एकता ने व्यक्तियों की अनेक संकटों से रक्षा की है और अनेक हितार्थ कार्यों जैसे बाल कल्याण , जातीय वजीफों का प्रबन्ध , जातीय धर्मशालाओं आदि की अोर ध्यान दिया है ।
व्यावसायिक विशेषताओं को गुप्त रखना – प्राचीनकाल में जाति किसी निश्चित व्यवसाय को ही अपनाती थी तथा उसमें विशेषज्ञ समझी जाती थी । कोई भी जाति अन्य जाति के समक्ष अपने व्यावसायिक रहस्यों का उद्घाटन नहीं करती थी । जाति के सदस्यों को व्यावसायिक रहस्य अनिवार्य रूप से गुप्त रखने पड़ते थे । जाति अपनी विशिष्ट कुशलता का हस्तान्तरण अन्य जाति में नहीं हान हम चाहती है । उसके साथ ही जाति अपने विशेष व्यवसाय की प्रशिक्षा अपनी असानों को स्वाभाविक पर्यावरण के प्राधार पर नि : शुल्क प्रदान करती रही ।
सामाजिक स्थिति निर्धारित करना – जाति – प्रथा के अन्तर्गत समदाय विशेष के लिए एक निश्चित सामाजिक स्थिति निर्धारित की जाती है जिसके प्रसार तीय संस्तरण में प्रत्येक की स्थिति सुनिश्चित होती है । जाति के इन सभी कार्यों से स्पष्ट है कि अपने प्रादर्श के रूप में जाति – प्रथा देय नहीं है । दुर्भाग्यवश जाति – प्रथा के ये सभी लाभ आज अतीत की कहानी बन । सद् – उद्देश्यों से बनाई गई जाति – व्यवस्था आज बहुत ही कुत्सित रूप में हमारे सामने है । जाति – प्रथा में प्राज इतने दोष घर कर गए हैं कि हम इसका उन्मलन चाहते हैं । डॉ . राधाकृष्णन् के शब्दों में , ” दुर्भाग्यवश वही जाति – प्रथा जिसे सामाजिक संगठन को विनष्ट होने से बचाने के साधन के रूप में विकसित किया था , आज उसी की उन्नति में बाधक बन रही है । “
समाज , सभ्यता और संस्कृति की रक्षा – जाति – प्रथा ने हिन्दू – समाज और हिन्दू – संस्कृति की रक्षा की है । नाना राजनीतिक उथल – पुथल , युद्धों एवं क्रान्तियों के बाद भी जाति – प्रथा के कारण ही हिन्दू – समाज सुरक्षित रहा और हिन्दू जाति के चार प्रमुख अंगों – ब्राह्मण क्षत्रीय , वैश्य और शूद्र – में विशिष्ट साँस्कृतिक तत्त्व बने रहे । इस प्रथा ने धर्म – परिवर्तन का सदा विरोध किया और इस प्रकार खान – पान , रहन – सहन , वेश – भूषा , विवाह – प्रणाली एवं अन्य संस्कारों का विधि – विधान जातियों में सुरक्षित रहा । जाति – व्यवस्था ने सामाजिक परम्परा को जीवित रखा । विदेशी अाक्रमणकारियों ने भारत का तन जीता परन्तु वे उसका मन नहीं जीत पाए । जाति – प्रथा ने हिन्दू – समाज के विविध समुदायों को एक सूत्र में बांधे रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया । फरनीवाल ( Farniwal ) के शब्दों में , ” भारत में जाति – प्रथा ने समाज को एक ऐसी अवस्था प्रदान की है जिसमें कोई भी समुदाय ,चाहे वह प्रजातीय हो या सामाजिक या व्यावसायिक अथवा धामिक , अपनी विशिष्ट प्रकृति और पृथक सत्ता को बनाए रखते हुए अपने को सम्पूर्ण समाज के एक सहयोगी अंग के रूप में उपयुक्त बना सकता है । ” जोड ( Joad ) के अनुसार मी जाति – प्रथा अपने सर्वोत्तम रूप में इस विशाल देश के विभिन्न विचारों , विभिन्न वर्गों को एक सत्र में पिरोने का सफलतम प्रयास था ।
जाति – प्रथा ने राजनीतिक व्यवस्था की एक शाखा के रूप में काम किया – प्राचीन काल में जब प्राज की भाँति राज्यों का अभाव था , तब जाति – प्रथा के कारण समाज के सभी लोग अपने – अपने कर्तव्यों का पालन करते थे और अनुशासित रहते थे । इस प्रकार उस समय में जातियाँ राजनीतिक व्यवस्था की शाखाओं के रूप में ही थीं जिन्होंने समाज में प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली में विश्वास को जन्म दिया ।
समाज में सरल श्रम – विभाजन की व्यवस्था – हट्टन ने लिखा है कि जाति – प्रथा के फलस्वरूप ही भारतीय समाज के सब कार्य , चाहे वे निजी क्षेत्र के हों या सरकारी क्षेत्र के , सुचारू रूप से चलते हैं और लोग अपने कार्यों को धार्मिक विश्वास अथवा ‘ कर्म की धारणा ‘ के आधार पर करते हैं । जाति के सदस्य यह मानकर चलते हैं और लोग अपने कार्यों को धार्मिक विश्वास अथवा ‘ कर्म की धारणा ‘ के आधार पर करते हैं । जाति के सदस्य यह मानकर चलते हैं कि अपने पूर्व – जन्म के कर्मों के प्रतिफलस्वरूप उन्हें इस जन्म में परिवार – विशेष में जन्म लेना पड़ा है और कार्य विशेष करना पड़ा है । अपने इस विश्वास के कारण वे गन्दे कार्य को भी निःसंकोच करते रहते हैं और समाज में अपनी स्थिति के विरुद्ध विद्रोह करने की प्रायः नहीं सोचते । फलस्वरूप न केवल व्यक्ति को मानसिक द्वन्द्व और निराशा से छुटकारा मिल पाता है वरन् सामाजिक एकता और शान्ति भी बनी रहती है । जाति – प्रथा में श्रम – विभाजन का सिद्धान्त लागू होने के कारण प्रत्येक जाति अपने विशेष कार्य में कुशलता प्राप्त कर लेती है । आज चाहे इस कार्य की महत्ता कम हो गई हो , किन्तु अतीत में काम के बँटवारे के कारण ही काम और व्यवसाय की कुशलता में जातिगत रूप से वृद्धि हो सकी थी । जाति – प्रथा के आधार पर ही बड़े – बड़े संघ बने थे जिनकी सहायता से अच्छा उत्पादन होता था । वे संघ बाहरी प्रतियोगिता से अपने भाइयों की रक्षा करते थे ।
काम की होशियारी , ज्ञान और प्रगति को कायम रखना – जाति – प्रथा के कारण व्यावसायिक होशियारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सरलता से पहुँच जाती थी । एक पीढ़ी की तरक्की बेकार होने से पहले वह तरक्की पाने वाली पीढ़ी को मिल जाती थी । एक बढ़ई का पुत्र कुशल बढ़ई और एक जुलाहे का पुत्र कुशल जूलाहा बन जाता था । इस प्रकार जब बढ़ते हए ज्ञान को सुरक्षित रखने का अन्य कोई साधन नहीं था , तब जाति – प्रथा ने इस ज्ञान और तरक्की को सम्भाल । कर रखा ।
सुप्रजनन की शुद्धता को बनाए रखना – सिजबिक के अनुसार जातिप्रथा में पाई जाने वाली अन्त विवाह पद्धति के फलस्वरूप सुप्रजनन की शुद्धता नही रहती है । पर इस मत से सहमत होना कठिन है क्योंकि विभिन्न जातियों विवाह होने से वंशानुसंक्रमण सम्बन्धी दोष उत्पन्न होते हैं । डॉ . मजूमदार और मदान द्वारा जाति – प्रथा के एक मौन कार्य ( Silent Function ) का उल्लेख किया गया है । अन्त विवाह के फलस्वरूप प्रायः लड़कियों की अपेक्षा लड़कों का जा अधिक होता है । इस प्रकार जाति – प्रथा के कारण लोगों को मानसिक शान्ति प्राप्त होती है । लड़के परिवार की निरन्तरता बनाए रखने और तर्पण , पिण्डदान आदि धार्मिक क्रियाओं को पूर्ण करने का दायित्व निभाते हैं ।
उच्च कोटि के नागरिक गुणों को जन्म – जाति – प्रथा ने भाईचारे और सौहार्द्र की भावना को जन्म दिया । एक जाति के मनुष्य रोटी , बेटी और हुक्का – पानी में सम्मिलित होते हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर एक – दूसरे की सहायता करते हैं । वे जाति की बुराई को अपनी बुराई समझते हैं । इस प्रकार जाति – प्रथा से प्रेम , सेवा , त्याग एवं लोकतन्त्र के उदात्त विचारों को बल मिला ।
जाति – प्रथा से हानियाँ ( Demerits of Caste System )
जाति – प्रथा के कारण अधिकार , उपक्रम और महत्त्वपूर्ण कार्यों को प्रोत्साहन नहीं मिलता – जाति – प्रथा में अधिकांश व्यक्तियों में यह धारणा घर कर जाती है कि उनका सामाजिक स्तर जन्म द्वारा ही निश्चित हो चुका है और वे कितना भी परिश्रम क्यों न करें उनमें प्रगति होना कठिन है । जाति – प्रथा के कारण ही हिन्दु पों ने नाना खोजों एवं महत्त्वपूर्ण अधिकारों पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि उनके विचार में ऐसा करना जाति – धर्म और नियमों के विपरीत था ।
( हिन्दू – समाज को क्षीण बनाना – जाति – प्रथा ने अस्पृश्यता , भेदभाव और कठोर प्रतिबन्धों का ऐसा जाल फैलाया है कि भारी संख्या में हिन्दू लोग मुसलमान और ईसाई बन गए । अपने समाज में समानता के द्वार बन्द पाकर , वे दुसरे धर्मों की ओर आकर्षित हुए । जाति – च्युत लोगों के लिए हिन्दू धर्म का परित्याग करने के अलावा कोई चारा न रहा । कठोर जाति – प्रथा ने भारत के लगभग 30 – 35 प्रतिशत हिन्दुनों को विधर्मी बना दिया ।
अनेक सामाजिक समस्याओं का कारण – जाति – प्रथा के कारण बाल – विवाह , विधवा – विवाह , कुलीन – विवाह , वरमूल्य – प्रथा आदि अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं । – अन्त में हम यही कहना चाहेंगे कि जाति – प्रथा के फलस्वरूप देश में समय समय पर अनेक विघटनकारी तत्त्व सक्रिय रहे हैं और इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण देश को अनेक बार कटु अनुभव हुए हैं । जातिगत फूट के कारण ही हम अपनी स्वतन्त्रता की भी रक्षा नहीं कर सके । अब हमारा एक राष्ट्र है । काश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा असम से गुजरात तक भारत एक राष्ट्र है । एक राष्ट्र व एक राष्ट्रीयता की भावना ही हमें आगे बढ़ा सकती है , तभी हम अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं , तभी हम अपने शत्रुनों को करारा जवाब दे सकते हैं , तभी हम देश की स्वतन्त्रता सुरक्षित रख सकते हैं और तभी हम इतने सबल और सक्षम हो सकते हैं कि दुनिया में न्याय के लिए लड़ सकें और अन्याय का प्रतिकार कर सकें । हमारी अमूल्य राष्ट्रीयता को जातिवाद से बहुत खतरा है । जाति – पाति प्राचीनकाल में चाहे कितनी ही उपयोगी रही हो पर अाज किसी भी भावना के अधीन होकर हमें इसके साथ मोह नहीं करना चाहिए । जाति – प्रथा इतनी दषित हो चुकी है कि इसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है लेकिन केवल इस प्रथा का परित्याग ही हमारी समस्याओं , हानियों की रामबाण प्रौषधि नहीं है । यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि जाति – प्रथा का त्याग मात्र हमारी सामाजिक संरचना में मिले हुए दोषों को मिटा देगा । इसके लिए तो हमें व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहल पर पुनचिन्तन करना होगा , हर क्षेत्र में सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा और सम्पूर्ण सामाजिक संरचना का पुनर्मूल्यांकन करना होगा ।
राष्ट्रीय एकता का ह्रास – जाति – व्यवस्था समाज एवं राष्ट्र के लिए दुखदायी और विनाशकारी सिद्ध हुई है । इसके कारण हमारे देश में राष्ट्राभिमान उत्पन्न होने को अपेक्षा जातीय अभिमान उत्पन्न हुप्रा । जाति – भेद के कारण ही विरोधी आक्रान्ताओं का डटकर मुकाबला नहीं किया जा सका । इसकी सामाजिक सुदृढ़ता एवं एकता को भी समाज के अनेक छोटे – छोटे वर्गों में विभक्त हो जाने के कारण ही सिक्ख अपना अलग सिक्खिस्तान मांगते हैं तो महाराष्ट्र वालों ने महाराष्ट्र और गुजरातियों ने गुजरात की अलग मांग की ।
समाज की प्राथिक व बौद्धिक प्रगति में रुकावट – जाति – प्रथा के कारण आर्थिक व बौद्धिक उन्नति के अवसर उच्चवंशीय लोगों को ही मिल पाए और शूद्र प्रादि उससे वंचित रह गए । यही कारण है कि समाज के पिछड़े और निम्न – जातीय वर्गों की सन्तानों को अध्ययन की सुविधा कभी नहीं मिली और उनके प्रतिभाशाली तथा योग्य बालक प्रकाश में नहीं पा पाए । इस प्रकार इस प्रथा ने समाज की नींव और उसके स्तर पर प्राघात किया ।
ऊँच – नीच , राग – द्वेष , साम्प्रदायिकता एवं अप्रजातन्त्रीय भावनाओं का विकास – – जाति – व्यवस्था मूलतः अप्रजातन्त्रीय है । समानता के स्थान पर यह असमानता को प्रोत्साहित करती है । इसके कारण समाज ऊँच – नीच में विभक्त हो गया है और इस ऊँच – नीच का आधार कर्म या योग्यता न होकर जन्म है । इसी ऊँच – नीच के कारण समाज का एक बड़ा भाग कभी शैक्षणिक , आथिक या सामाजिक उन्नति नहीं कर पाया । जाति – प्रथा ने ही साम्प्रदायिकता एवं अस्पृश्यता को जन्म दिया । इसी साम्प्रदायिकता के कारण पहले भारत विदेशी आक्रान्ताओं के चंगुल में रहा और अन्त में दो टुकड़ों में विभक्त हमा । जाति – प्रथा की अस्पृश्यता से ही हरिजन समस्या को ला खड़ा किया और इसी जाति – प्रथा ने सर्वत्र पस असहयोग एवं द्वेष की भयंकर ज्वाला सुलगाई ।
राजनीति पर कुप्रभाव – जाति – प्रथा ने परतन्त्र और स्वतन्त्र भारत के राजनीतिक भविष्य को अधिकांशतः गन्दा और धूमिल बनाने का कार्य किया । स्वतन्त्र भारत का इतिहास साक्षी है कि भारतीय मतदाता राजनीतिक समस्यायों पर बहुत कुछ जातीय दृष्टिकोण से सोचते हैं । सरकार – निर्माण के समय भी जातीयता को गौण नहीं समझा जाता क्योंकि बहुमत दल में जातीयता के घुन लगे होते हैं । अनेक बार प्रशासकीय निर्णय जातीय आधार पर लिए जाते हैं । ‘ जनता का राज्य जनता द्वारा तथा जनता के लिए ‘ के स्थान पर अनेक दृष्टियों से ‘ जाति का राज्य , जाति द्वारा तथा जाति के लिए ‘ हो गया है । लोकप्रिय सरकार जाति प्रतियोगिता का एक नया माध्यम बन गई है । प्रतिद्वन्द्वी जातियों ने अलग – अलग राजनीतिक दलों की सदस्यता ग्रहण की है और दलों में अथवा अलग – अलग गुट बना रखे हैं । राजनीति में जातीयता का विष – वृक्ष देश के लोकतान्त्रिक भविष्य के लिए निश्चित रूप से बड़ा घातक है ।
सैनिक शक्ति का हास – जाति – प्रथा के कारण देश की सैनिक शक्ति को बड़ा धक्का लगा क्योंकि एक ही वंश से सम्बद्ध जातियों का काम देश की रक्षा करना समझा गया जिससे दूसरी जातियाँ इधर से विमुख हो गयीं ।
अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादिता में वृद्धि – जातिगत नियमों , उप नियमों एवं नाना धार्मिक कर्मकाण्डों तथा रीति – रिवाजों ने समाज में अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादिता को बड़ा प्रोत्साहित किया । इसके कारण व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्रता कुण्ठित हो गई और उसे जातिगत बन्धनों व नियमों के अनुसार ही जीवन बिताना पड़ा ।
जाति – प्रथा से समाज के सभी प्राथिक साधनों का पूरा लाभ नहीं उठाया जा सकता – जाति – प्रथा के कारण प्रत्येक जाति का पेशा निश्चित है । किसी व्यक्ति द्वारा जाति के बाहर का पेशा अपनाना ठीक नहीं समझा जाता । जाति का व्यक्ति न अपनी जाति का उद्योग ही छोड़ सकता है और न अपनी ग्राजीविका कमाने के साधनों को ही बदल सकता है । अतः जाति – प्रथा के कारण देश के सभी प्राथिक साधनों का पूरा लाभ नहीं उठाया जा सकता ।
जाति प्रथा स्त्री – अधिकार की शत्र – जाति – व्यवस्था स्त्रियों के अधिकारों की शत्रु है । हमारे समाज में स्त्रियों की दुर्गति बहुत सीमा तक इसी व्यवस्था का परिणाम है । विवाह के मामलों में यह प्रथा स्त्रियों को कोई स्वतन्त्रता नहीं देती और अन्य क्षेत्रों में भी उन्हें पुरुषों के समकक्ष नहीं मानती ।
निर्धन और निम्न जाति के लोगों का शोषण – इस प्रथा से निर्धन और निम्न – जाति के लोगों का शोषण होने से असन्तोष फैलता है । इस प्रथा से उन लोगों के अधिकार छीन लिए जाते हैं और उनकी इच्छाओं का दमन कर दिया जाता है ।
झूठा अभिमान पैदा होता है – जाति – प्रथा में ऊंची जाति के लोगों में भठे सम्मान और अभिमान की भावना पैदा होती है और इस प्रथा में परिश्रम का समान प्रादर नहीं किया जाता ।
जाति (Caste )
जाति की अवधारणा या परिभाषा के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि मुख्यत : यह लोगों का एक ऐसा सबक है जिसकी सदस्यता आनुवंशिकता पर आधारित होती है । इसे जाति – संस्तरण में एक निश्चित स्थान प्राप्त होता है एक जाति स्वयं कोई समुदाय या समाज नहीं होती , बल्कि समुदाय या समाज का एक समूह होती है जिसका समाज एक पूर्व निर्धारित स्थान होता है तथा यह एक निश्चित व्यवसाय से सम्बन्धित होती है । कुछ महत्त्वपर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार है
हरबर्ट रिजले ( Herbert Risley ) ने जाति की परिभाषा देते हुए लिखा है , ” जाति परिवारों या परिवार के समहों संकलन है जिसका एक ही नाम होता है , जो एक काल्पनिक पूर्वज , जो मानव या देवता हो सकता है , से अपनी श – परम्परा की उत्पत्ति का दावा करता है , जो समान जन्मजात ( पुश्तैनी ) व्यवसाय को चलाता है और जिसे उन लोगों द्वारा एक सजातीय समुदाय माना जाता है जो इस तरह के निर्णय या मत देने के अधिकारी हैं । इस परिभाषा से 5 बातें स्पष्ट होती हैं – (i)जाति अनेक परिवारों का एक सामूहिक संगठन है , ( ii ) इसका एक नाम होता है , ( iii ) प्रत्येक जाति की एक काल्पनिक पूर्वज है , ( iv ) इसका एक निश्चित व्यवसाय होता है और ( v ) यह एक सजातीय समुदाय के रूप में जाना जाता है ।
मजुमदार एवं मदन ( D . N . Majumdar and T . N . Madan ) के अनुसार , ” जाति एक बन्द वर्ग है । इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि जाति जन्म पर आधारित है । अत : व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसी में अन्त तक रहना पड़ता है । किसी भी स्थिति में जाति की सदस्यता बदली नहीं जा सकती है । इसी माने में जाति बन्द वर्ग है ।
दत्ता ( N . K . Dutta ) ने जाति की अधिकतम विशेषताओं को समेटते हुए जाति को परिभाषित करते हुए लिखा है , ” जाति एक प्रकार का सामाजिक समूह है , जिसके सदस्य अपने जाति से बाहर विवाह नहीं करते , खान – पान पर प्रतिबन्ध , पेशे निश्चित होते हैं , संस्तरणात्मक विभाजन का पाया जाना , एक जाति से दूसरी जाति में परिवर्तन सम्भव नहीं है । इस परिभाषा से जाति का 6 विशेषताओं का पता चलता है – ( i ) जाति एक सामाजिक समूह है , ( ii ) जाति अन्तर्विवाही समूह है , ( iii ) जाति में खान – पान पर प्रतिबन्ध होते हैं , ( iv ) जाति का पेशा निश्चित होता है , ( v ) जातियों में ऊँच – नीच का स्तरीकरण पाया जाता है और ( vi ) जाति की सदस्यता में परिवर्तन सम्भव नहीं । इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति स्तरीकरण की अगतिशील एक ऐसी व्यवस्था है जो जन्म पर आधारित है एवं खान – पान विवाह , पेशा आदि पर प्रतिबन्ध लगाती है ।
जाति की विशेषताएँ
( Characteristics of Caste )
_ जी . एस . घुरिए ( G . S . Ghurye ) ने जाति की 6 विशेषताओं की चर्चा की है , जिसके आधार पर जाति को समझना अधिक उपयोगी बतलाया गया है । ये विशेषताएं निम्नलिखित हैं
समाज का खण्डनात्मक विभाजन ( Segmental Division of Society ) : जाति व्यवस्था समाज को कुछ निश्चित खण्डों में विभाजित करती है । प्रत्येक खण्ड के सदस्यों की स्थिति , पद और कार्य जन्म से निर्धारित होता है । तथा उनमें एक सामुदायिक भावना होती है । जातीय नियम का पालन नैतिक कर्तव्य होता है ।
संस्तरण ( Hierarchy ) : जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक जाति की स्थिति एक – टसरे की तलाश नाचा हाती है । इस संस्तरण में सबसे ऊपर ब्राह्मण है और सबसनाचे अस्पृश्य जातियां हैं । इन दो लोग बीन जातिया है । इतना ही नहीं . एक जाति के अन्दर अनेक उपजातिया है तथा उनमें भी ऊंच – नीच का
व्यवसाय की आनुवंशिक प्रकृति ( Hereditary Nature of Occupation ) : व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धार जाति – व्यवसाय के आधार पर होता है । अतः एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसे उसी जाति का व्यक अपनाना होता है । इसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होती । इस प्रकार कहा जा सकता है कि जाति प्रमुख विशेषता परम्परागत व्यवसाय है ।
अन्तर्विवाही ( Endogamous ) : जाति – व्यवस्था के अनुसार जाति के सदस्य अपनी ही जाति या उपजाति , विवाह – सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं । इस नियम का उल्लंघन करने का साहस प्राय : कोई नहीं करता । वेस्टरमार्क ने विशेषता को ‘ जाति – व्यवस्था का सारतत्व ‘ माना है । अन्तर्विवाही नियम आज भी जातियों में पाई जाती है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज में जाति – व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण का एक स्पष्ट एवं महत्त्वपूर्ण आधार रहा है ।
भोजन तथा सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध ( Restrictions on Fooding and Social IntereCHISE ) : जाति – व्यवस्था में खान – पान मेल – जोल एवं सामाजिक सम्पर्क सम्बन्धी प्रतिबन्ध है । प्रायः एक जाति के व्यकित निम्न जातियों के हाथ का भोजन नहीं स्वीकार करते । साथ ही कच्चा व पक्का भाजन सम्बन्धी अनेक प्रतिबन्ध देखे जाते है । इसी तरह सामाजिक सम्पर्क एवं मेल – जोल के सन्दर्भ में छुआछूत की भावना पाई जाती है ।
सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यताएँ ( Social and Religious Disabilities ) : जाति – व्यवस्था में चिनारों मार सावधाओं में विशेष अन्तर देखा जाता है । एक ओर उच्च जाति को जितनी सुविधाएं एवं अधिकार जीवन के क्षत्रों में प्राप्त हैं उतनी निम्न जातियों को नहीं । सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में ब्राह्मण अनेक अधिकारों से पूर्ण है । वहीं अस्पृश्य जातियों को सार्वजनिक सुविधाओं व अधिकारों तक से वंचित रखा जाता है । कर भी ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी झलक देखी जाती है ।
वर्ग( Class )
ऐसे व्यक्तियों का समूह है जिनकी समान सामाजिक प्रस्थिति होती है । प्रत्येक समाज में अनेक प्रस्थितियाँ पाई जाती है । फलस्वरूप उनके अनुसार अनेक वर्ग भी पाए जाते हैं । जब जन्म के अतिरिक्त अन्य किसी आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में विभाजित किया जाता है तो प्रत्येक समूह को वर्ग कहा जाता है । कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं
मैक्ईवर एवं पेज ( Maclver and Page ) ने वर्ग को परिभाषित करते हुए लिखा है , ‘ सामाजिक वर्ग समुदाय का वह भाग है जो सामाजिक प्रस्थिति के आधार पर शेष भाग से पृथक होता है । ” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि वर्ग का आधार सामाजिक प्रस्थिति है । यानि एक समान प्रस्थिति के लोग एक वर्ग का निर्माण करते जो अन्य वर्गों से भिन्न होते हैं ।
गिन्सबर्ग ( Ginsberg ) के शब्दों में , ” वर्ग व्यक्तियों के ऐसे समूह को कहा जा सकता है जो व्यवसाय , धन , शिक्षा , जीवन – शैली , विचार , भाव , मनोवृत्ति और व्यवहार के आधार पर समान हो या इनमें से एक – दो ही आधारों पर उनमें समानता की चेतना हो जो उन्हें अपने एक समूह या वर्ग का बोध कराती हो । ” इस परिभाषा से तीन बातें स्पष्ट होती हैं वर्ग व्यक्तियों का एक समूह है , ( ii ) वर्ग – निर्माण के अनेक आधार हैं – व्यवसाय , धन , शिक्षा , जीवन – शैली व मनोवृत्ति आदि और ( iii ) वर्ग के लिए चेतना का होना , जिसे वर्ग चेतना कहा जाता है ।
मावर्स एवं एंगेल्स ( Marxand Engels ) ने लिखा है , ‘ विभिन्न व्यक्तियों के एक साथ मिलने से वर्ग तभी बनता है , जब वे एक वर्ग के रूप में दूसरे वर्ग के विरुद्ध संघर्ष करते हैं , अन्यथा वे परस्पर प्रतियोगी होने के नाते एक दत्तरे के विरोधी या दश्मन ही रहते हैं । ” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि वर्ग का आधार संघर्ष है । यानि बिना संघर्ष के टपणे की कल्पना नहीं की जा सकती । यह संघर्ष आर्थिक हितों के आधार पर होता है । उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर ऐसा कह सकते हैं – वर्ग व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो सामाजिक व तत्त्वों पर आधारित है और जिनमें वर्ग – चेतना के गुण होते हैं ।
वर्ग की विशेषताएँ
( Characteristics of Class )
निश्चित संस्तरण ( Definite Hierarchy ) – सामाजिक वर्ग कुछ श्रेणियों में विभक्त होते हैं । इनमें से कुछ श्रेणियों का स्थान ऊँचा और कुछ का नीचा होता है । जो उच्च वर्ग के सदस्य होते हैं उनके सदस्यों की संख्या तो सबसे कम होती है लेकिन प्रतिष्ठा सबसे अधिक होती है । इसके विपरीत जो निम्न वर्ग के सदस्य होते हैं उनके सदस्यों की संख्या तो अधिक होती है , लेकिन उनका महत्त्व और सम्मान सबसे कम होता है । इस प्रकार की स्थिति का यह स्वाभाविक परिणाम होता है कि उच्च वर्ग के सदस्य प्रायः निम्न वर्ग के सदस्यों से दर रहने में अपना गौरव समझते हैं । दूसरे शब्दों में , सामाजिक दूरी को नोति को प्रोत्साहन – मिलता है ।
अर्जित व्यवस्था ( Achieved System ) : वर्ग का आधार कर्म है । एक व्यक्ति अपने कर्म के बल पर धनी या गरीब , उद्योगपति या श्रमिक , विशेषज्ञ , प्राध्यापक , डॉक्टर , इंजीनियर या किसान हो सकता है । उसी के अनुसार उसका वर्ग बनता है । इस प्रकार वर्ग अर्जित की जाती है । इसे व्यक्ति अपने प्रयत्न से प्राप्त करता है ।
वर्ग – संघर्ष ( Class Conflict ) : इस विशेषता का उल्लेख मार्क्स ने किया है । मार्क्स का कहना है कि वर्गों के बीच संघर्ष ही वह तत्व है , जो समाज में वर्गों के अस्तित्व का बोध कराता है । संघर्ष के बिना वर्ग की कल्पना नहीं की जा सकती है और यह संघर्ष आर्थिक हितों के आधार पर होता है । इस प्रकार वर्ग की अवधारणा एवं विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट है कि वर्ग सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रचलित आधार है ।
संस्तरण ( Hierarchy ) : वर्ग की एक प्रमुख विशेषता ‘ संस्तरण ‘ कही जाती है । इसका अर्थ यह है कि समाज में वर्गों की एक श्रेणी होती है जिसमें उच्चतम से निम्नतम अनेक वर्ग होते हैं । इन वर्गों में स्पष्टत : उच्च एवं निम्न का संस्तरण देखा जाता है । इस संस्तरण के अनुसार ही पद , प्रतिष्ठा एवं सुविधाओं में भिन्नता देखी जाती है ।
ऊँच – नीच की भावना ( Feeling of Superiority – Inferiority ) : वर्गों में ऊँच – नीच की भावना देखी जाती है । एक वर्ग के सदस्य दसरे वर्गों के सदस्यों के प्रति उच्चता या निम्नता की भावना रखते हैं । उदाहरणस्वरूप धनी वर्ग एवं निर्धन वर्ग के बीच एक – दूसरे के प्रति यह भावना स्पष्ट रूप से देखी जाती है ।
सामान्य जीवन ( Common Life ) – समाज के विभिन्न वर्गों के सदस्य अपने – अपने विशेष ढंग से जीवन – यापन करते हैं । धनी वर्ग के जीवन – यापन का तरीका मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग से भिन्न होता है । धनी वर्ग अधिक से अधिक अपव्यय करने में अपनी शान समझता है । मध्यम वर्ग प्रायः रूढ़ियों और प्रथानों में जकड़ा रहता है तथा निम्न वर्ग का तरीका इन दोनों ही से बिलकुल भिन्न होता है ।
आर्थिक आधार की महत्ता ( Importance of Economic Basis ) माथिक स्थिति वर्ग – निर्माण का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है । आधुनिक समाज पूंजीवादी या प्रौद्योगिक है । इन समाजों में लिंग , प्रायु आदि वर्ग की सदस्यता से विशेष सम्बन्ध नहीं है । आर्थिक दृष्टि से समृद्धि या हीनता लोगों को उच्च वर्ग , मध्य और निम्न वर्ग में विभाजित करती रहती है ।
खुलापन और उतार चढ़ाव ( Openness and Shifting ) – वर्गों की प्रकृति खुली हुई होती है । इसका अभिप्राय : यह है कि यदि कोई व्यक्ति विशेष योग्य अथवा कार्यकुशल है तो वह किसी भी वर्ग की सदस्यता ग्रहण कर सकता है अथवा अलग – अलग प्राधारों पर एक साथ अनेक वर्गों का सदस्य हो सकता है । इसी स्थिति को दर्शाते हुए बोटोमोरे ने लिखा है कि ” सामाजिक वर्ग अपेक्षाकृत उन्मुक्त होते हैं अथवा नहीं , उनका प्राधार निर्विवाद रूप से आर्थिक है , लेकिन वे आर्थिक समूहों से अधिक हैं । ” सामाजिक वर्गों में उतार – चढ़ाव होते रहना भी सामान्य बात है । कोई भी गरीब व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनकर धनी वर्ग में सम्मिलित हो सकता है । इसी प्रकार यदि किसी धनी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति एकदम गिर जाती है तो वह उस वर्ग से फिसल कर मध्यम अथवा निम्न वर्ग में जा सकता है । वर्गगत स्थिति में यह परिवर्तन आर्थिक स्थिति के अनुरूप अपने – अाप हो जाता है ।
अजित सदस्यता ( Achieved Membership ) सामाजिक वर्ग की उपरोक्त चौथी और पांचवी विशेषता से यह एक स्पष्ट है कि वर्ग की सदस्यता जन्म पर ही नहीं बल्कि को ग्यता , कुशलता और आर्थिक सम्पन्नता पर निर्भर करती है । वर्ग की सदस्यता के लिए व्यक्ति को प्रयत्नशील होना पड़ता है । यदि कोई व्यक्ति निम्न वर्ग का है तो उच्च वर्ग में प्रवेश के लिए उसे अपनी योग्यता सिद्ध करनी होगी । स्थायी रूप से व्यक्ति उसी वर्ग में रह पाता है जिसके अनुरूप उसमें योग्यता होती है ।
वर्गों की अनिवार्यता ( Essentiality of Classes ) – – – वर्गों की समाज में उपस्थिति अनिवार्य है । सभी व्यक्ति योग्यता , कार्यक्षमता , रुचि , बुद्धि प्रादि की दष्टि से समान नहीं होते । अत : यह स्वाभाविक है कि व्यक्तियों को उनकी । योग्यतानुसार पद और सम्मान मिले । ऐसा होने पर ही सामाजिक व्यवस्था स्थायी रूप से बनी रह सकती है । मार्क्सवाद में वर्गहीन समाज की कल्पना की गई है । लेकिन यह सुनिश्चित है कि इस प्रकार का समाज कभी स्थापित नहीं हो सकता । ।
कम स्थिरता ( Less Stability ) – धन , शिक्षा , व्यवसाय प्रांति र अस्थायी प्रकृति के होते हैं , अतः उन पर आधारित वर्ग – व्यवस्था भी एक स्थिर धारणा है । जो आज धनी है वह कल निर्धन हो सकता है ।
उप – वर्ग ( Sub – classes ) – सामाजिक वर्ग में प्रत्येक वर्ग के अन्तर्गत उप – वर्ग होते हैं । उदाहरणार्थ , धनी वर्ग में धन पर अधिकार के आधार पर पोटति – वर्ग . लखपति – वर्ग अनेक उप – वर्ग आदि विभिन्न उप – वर्ग पाए जाते हैं ।
जीवन अवसर ( Life Chances ) – मैक्स वेबर ने वर्ग की एक विशेषता ‘ जीवन अवसर ‘ ( Life Chance ) की ओर संकेत किया है । तद्नुसार , ” हम एक समूह को तब वर्ग कह सकते हैं जब उसके सदस्यों को जीवन के कुछ विशिष्ट अवसर समान रूप से प्राप्त हों । “
वर्ग – परिस्थिति ( Class Situation ) – इस विशेषता की ओर भी , जो जीवन अवसर से सम्बन्धित है , मैक्स वेवर ने ही ध्यान आकर्षित किया है । किसी वर्ग के अधिकार में सम्पत्ति के होने अथवा न होने से एक विशिष्ट परिस्थिति का जन्म होता है जिसमें वर्ग निवास करता है । यदि वर्ग के सदस्यों के पास सम्पत्ति होती है तो स्वभावत : उसे अधिक धनोपार्जन , अधिक क्रय और उच्च जीवन – स्तर बनाए रखने प्रादि के अवसर प्राप्त होंगे । संयुक्त रूप में इन अवसरों से एक ऐसी विशिष्ट परिस्थिति का निर्माण होगा जिसमें उस वर्ग के सदस्यों को निवास करना होगा । यही वर्ग : परिस्थिति ( Class Situation ) है ।
समान जीवन – शैली ( Common Life Style ) : एक वर्ग के सदस्यों की जीवन – शैली में समानता देखी जाती है जो दूसरी तरफ अन्य वर्गों से भिन्न भी होता है । एक वर्ग के लोगों के कपड़े , खान – पान , मकान का स्वरूप , रहन – सहन एवं तौर – तरीकों में अधिकतर समानता होती है । साथ ही एक वर्ग के सदस्यों का पारिवारिक ब वैवाहिक सम्बन्ध भी अपने वर्ग – समूहों तक सीमित होते हैं ।
वर्ग – चेतना ( Class Conciousness ) : वर्ग – चेतना वर्ग की आधारभूत विशेषता है । इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वर्ग के सदस्यों में इसका बोध होता है कि उसका सामाजिक – आर्थिक – राजनीतिक पद व प्रतिष्ठा दूसरे वर्गों की तुलना में कैसी है । यही वह भावना जो एक वर्ग के सदस्यों को आपस में बांधे रखता है ।
सीमित सामाजिक सम्बन्ध ( Restricted Social Relations ) : एक वर्ग के सदस्यों का सामाजिक सम्बन्ध प्राय : अपने वर्ग तक ही सीमित होता है । इनका खाना – पीना , उठना – बैठना एवं अन्य अन्त : क्रियात्मक सम्बन्ध अपने वर्ग के लोगों के साथ होता है । साथ ही , ये अन्य वर्गों से एक निश्चित सामाजिक दुरी बनाए रखते हैं । यही सामाजिक सम्बन्धों की सीमितता है , जो वर्ग की एक खास विशेषता है ।
गतिशीलता ( Mobility ) : वर्ग की एक खास विशेषता गतिशीलता है । यह जन्म पर आधारित नहीं है , बल्कि यह योग्यता , क्षमता यानि कर्मशीलता पर आधारित है । फलस्वरूप एक निम्न वर्ग का सदस्य अपनी योग्यता व क्षमता के बल पर उच्च वर्ग में सम्मिलित हो सकता है । उसी तरह एक व्यक्ति असफलता के माध्यम से नीचे के वर्ग की ओर जा सकता है । इस प्रकार वर्गों की प्रकृति में खलापन है । (
जाति और वर्ग में अन्तर ( Distinction between Caste and Class )
‘ ( 1 ) जाति – प्रणाली एक बन्द वर्ग है जबकि वर्ग – प्रेरणाली एक खुला या मुक्त वर्ग है । जाति में सामाजिक स्तर का निर्धारण जन्म से होता है और किसी दूसरी जाति में सम्मिलित होने का अवसर नहीं मिलता । इसके विपरीत वर्ग – व्यवस्था में मनुष्य की असमानतामों को मान्यता मिलती है । इसमें व्यक्ति को उन्नति के लिए समान अवसर दिए जाते हैं । अपनी योग्यता के बेल पर व्यक्ति एक वर्ग से दूसरे वर्ग में प्रवेश कर सकता है ।
2 जाति में व्यक्तिगत क्षमता और योग्यता की उपेक्षा की जाती है । वर्ग में स्थिति इससे बिल्कुल विपरीत होती है । अपनी योग्यता के बल पर व्यक्ति समाज के उच्च वर्ग में पहुंच सकता है ।
3.जाति को स्तरीकरण की बन्द व्यवस्था और वर्ग को खली व्यवस्था के रूप में देखा जाता है । सामान्यतः वर्गों की प्रकृति खुली हुई समझ ली जाती है परंतु वास्तव में प्रत्येक वर्ग अपने से निम्नवर्ग के सदस्य को अपने वर्ग में आने से रोकता है और साधारणतया अपने वर्ग के सदस्यों से ही संबंधों की स्थापना करता है । व्यावहारिक रूप से विभिन्न वर्गों के बीच भी वर्ग – अंतर्विवाह की नीति अपनाई जाती है । यही कारण है कि जैसे कुछ विद्वानों ने जाति और वर्ग में कोई मौलिक भेद स्वीकार नहीं किया है । फिर भी यह निश्चित है कि अपनी प्रकृति , कार्यों और निषेधों में जाति और वर्ग की एक – दूसरे से भिन्न धारणाएं हैं जिन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है
4.जाति सामाजिक स्तरीकरण का एक बंद स्वरूप है जबकि वर्ग में खुलापन है । कोई भी व्यक्ति एक जाति को छोड़कर दूसरी जाति की सदस्यता ग्रहण नहीं कर सकता । प्रत्येक जाति के नियम भी दूसरी जातियों से भिन्न होते हैं । इसके विपरीत वर्ग की सदस्यता का द्वार सभी के लिए खुला है । एक व्यक्ति अपनी संपति , योग्यता , कुशलता के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है ।
5.जाति की सदस्यता का आधार जन्म है । व्यक्ति एक बार जिस जाति में जन्म लेता है , आजीवन उसी जाति का सदस्य बना रहता है । लेकिन वर्ग की सदस्यता व्यक्ति के कार्यों और प्रयत्नों पर आधारित होती है और वह अपनी योग्यता द्वारा अपने वर्ग में परिवर्तन कर सकता है ।
6.व्यक्ति को जाति की सदस्यता प्राप्त करने का प्रयत्न करना नहीं पड़ता बल्कि यह समाज की ओर से प्रदत्त होती है । यही कारण है कि जाति में स्थिरता होती है । दसरी ओर वर्ग की सदस्यता पूर्णत : व्यक्ति के निजी प्रयत्नों का फल है और इन प्रयत्नों में परिवर्तन होने से वर्ग की सदस्यता में भी परिवर्तन हो जाता है ।
. 7.प्रत्येक जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता है और उसी के द्वारा आजीविका उपार्जित करना उस जाति के सदस्यों का नैतिक कर्त्तव्य है । लेकिन वर्ग – व्यवस्था में कोई सदस्य अपनी रूचि और साधनों के अनुसार किसी भी व्यवसाय का चुनाव कर सकता है ।
. 8.प्रत्येक जाति आवश्यक रूप से अपने सदस्यों को अपनी ही जाति के अन्तर्गत विवाह – सम्बन्ध स्थापित करने पर बाध्य करती है । इसके विपरीत वर्ग में इस प्रकार का कोई निश्चित नियम नहीं होता । इसके बावजूद एक वर्ग के सदस्य अपने वर्ग में ही विवाह सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं । 6 . वर्ग में उच्चता का आधार आर्थिक है जबकि जाति का स्तर समाज द्वारा निर्धारित होता है । जातियों के निर्माण का आधार अनेक धार्मिक तथा सांस्कृतिक विश्वास हैं । इस दृष्टिकोण से जाति पवित्रता तथा अपवित्रता सम्बन्धी बहुत से नियमों की एक व्यवस्था है । वर्ग – व्यवस्था में पवित्रता अथवा अपवित्रता सम्बन्धी किसी प्रकार के विश्वासों का समावेश नहीं होता ।
- जाति – व्यवस्था में व्यवसाय का निश्चय बहुत कुछ जन्म से हो जाता है । वर्ग – व्यवस्था में स्वेच्छानुसार व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता रहती है । ।
10.जाति की सदस्यता जन्मजात होती है । यह समाज की ओर से उसे अपने – आप प्राप्त हो जाती है । इसके विपरीत वर्ग की सदस्यता अजित की जाती है । एक वर्ग से दुसरे वर्ग में व्यक्ति अपने प्रयासों से ही प्रवेश कर पाता है