नातेदारी

नातेदारी

 ( Kinship )

नातेदारी का शाब्दिक अर्थ होता है सम्बन्ध यह सम्बन्ध दो या अधिक व्यक्तियों के बीच ही हो सकता है समाज के सदस्य विभिन्न सम्बन्धों से बँधे होते हैं इनमें रक्त सम्बन्ध , विवाह सम्बन्ध तथा दूर के सम्बन्ध होते हैं जब इन सम्बन्धों को सामाजिक मान्यता मिली होती है , तो उसे ही नातेदारी व्यवस्था कहा जाता है प्रत्येक वयस्क व्यक्ति दो परिवारों से सम्बन्धित होता है ,

 पहला जनक परिवारजिसमें वह जन्म लिया पाला गया

 दूसरा जनन परिवारजिसका निर्माण विवाह द्वारा किया गया इस प्रकार व्यक्ति दो परिवारों से सम्बन्धित होता है इन सम्बन्धों से नातेदारी व्यवस्था का निर्माण होता है

 

 चार्ल्स विनिक ( Charles Winick ) ने मानवशास्त्रीय शब्दकोष में नातेदारी को परिभाषित करते हुए लिखा है , “ नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे सम्बन्ध आते हैं जो अनुमानित और रक्तसम्बन्धों पर आधारित हो इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि नातेदारी व्यवस्था समाज द्वारा मान्य होते हैं यह व्यवस्था वास्तविक कल्पित दोनों होते हैं कल्पित का अभिप्राय गोद लेने की प्रथा से है

 

नोट्स एण्ड क्वैरीज ऑन एन्थोपोलोजी ( Notes and Queries on Anthropology ) में लिखा है , “ नातेदारी वह सम्बन्ध है जो मातापिता एवं उनके बच्चे अथवा सहोदर के सम्बन्धों द्वारा वास्तव में या अनुमानित रूप से ज्ञात किया जाता है इस कथन से पता चलता है कि नातेदारी व्यवस्था रक्तसम्बन्धों पर आधारित तो होता ही है साथ ही , जिन कृत्रिम अनुमानित सम्बन्ध को समाज की मान्यता मिली होती है , वे भी नातेदारी सम्बन्ध में आते हैं

 

  . आर . ब्राउन ( A . R . Brown ) ने लिखा है , ” नातेदारी सामाजिक उद्देश्यों के लिए स्वीकृत वंश सम्बन्ध है तथा यह सामाजिक सम्बन्धाक प्रथागत स्वरूप का आधार हा इस परिभाषा से ज्ञात होता है कि नातेदारी समूह में परिवार के बाद वंश आते हैं एक ही वंश के सदस्य नातेदार होते हैं इसे सामाजिक मान्यता मिली होती है

 

लेवीस्ट्रास ( Levi – Strauss ) के अनुसार , ” नातेदारी प्रणाली वंश अथवा रक्त सम्बन्ध नुसार , ” नातेदारी प्रणाली वंश अथवा रक्त सम्बन्धी कर्म विषयक सूत्रों निर्मित नहीं होती जो कि व्यक्ति को मिलती है , यह मानव चेतना में विद्यमान रहती है , यह विचारों का निरकुर प्रणाली है , वास्तविक परिस्थिति का स्वतः विकास नहीं है लेवीस्टास का मानना है कि नातेदारी में प्राणिशास्त्रीय सम्बन्ध समाज द्वारा मान्य सम्बन्ध दोनों आते है सालेदारी को केवल रक्त सम्बन्ध पर आधारित नहीं मानना चाहिए , क्योंकि जहाँ दत्तक पुत्रपुत्री को स्वीकार करने की परम्परा है , वहाँ वे नातेदारी में सम्मिलित हैं

उपर्युक्त वर्णन के आधार पर नातेदारी व्यवस्था की अवधारणा को निम्न चार आधारों पर समझा जा सकता

 

1 . नातेदारी व्यवस्था का आधार रक्त सम्बन्ध विवाह सम्बन्ध दोनों होते हैं

 2 . साथ ही इसके निर्माण का आधार दत्तक पुत्र या पुत्री हो सकते हैं , जबकि ये वास्तविक रक्त सम्बन्धी नहीं

3 . नातेदारी सम्बन्ध सामाजिक मान्यताओं से सम्बन्धित है

4 . नातेदारी व्यवस्था की प्रकृति में भिन्नता देखी जा सकती है क्योंकि सामाजिक मान्यताएँ सभी समाजों की एक समान नहीं है इस प्रकार कहा जा सकता है कि नातेदारी व्यवस्था रक्त सम्बन्धों , विवाह सम्बन्धों और सामाजिक मान्यताओं पर टिकी हुई व्यवस्था है

 

 नातेदारी श्रेणियाँ ( Kinship Categories )

 

1 . प्राथमिक नातेदार ( Primary Kins ) : प्राथमिक नातेदार जनक परिवार और जनन परिवार से जुड़े व्यक्ति कहलाते हैं जनक परिवार वह है जिसमें व्यक्ति जन्म लेता और पलता है इस प्रकार पिता , माता , बहन और भाई व्यक्ति के प्राथमिक नातेदार हुए जनन परिवार वह है जिसमें व्यक्ति विवाह से सम्बन्धित होता है इस प्रकार पति , पत्नी . पत्र और पुत्री व्यक्ति के प्राथमिक नातेदार हए दुबे ने कुल 8 प्रकार के सम्बन्धों का उल्लेख प्राथमिक नातेदार के रूप में किया है ये हैंपतिपत्नी , पितापुत्र , पितापुत्री , मातापुत्र , मातापुत्री , भाईभाई , बहनबहन और भाईबहन ये सभी सम्बन्ध रक्त विवाह से सम्बन्धित हैं

 

2 . द्वितीयक नातेदार ( Secondary Kins ) : व्यक्ति के प्राथमिक नातेदार का अपना जो प्राथमिक नातेदार होता है उसे द्वितीयक नातेदार कहा जाता है उदाहरणस्वरूपपिता हमारे प्राथमिक नातेदार हैं हमारे पिता का प्राथमिक नातेदार उनके पिता हुए यहाँ पर पिता के पिता यानि दादा हमारे द्वितीयक नातेदार कहलाये इसी तरह पिता की माँ यानि दादी , माँ का पिता यानि नाना , माँ का भाई यानि मामा आदि द्वितीयक नातेदार हैं जी . पी . मरडॉक ( G . P . Murdock ) ने 33 प्रकार के द्वितीयक नातेदारों का उल्लेख किया है

 

 3 . तृतीयक नातेदार ( Tertiary Kins ) : व्यक्ति के द्वितीयक नातेदार का अपना जो प्राथमिक नातेदार होता है उसे ततीयक नातेदार कहा जाता है यानि द्वितीयक नातेदार का प्राथमिक नातेदार तृतीयक नातेदार कहलाये उदाहरणस्वरूपपिता हमारे प्राथमिक नातेदार हैं पिता के पिता यानि दादाजी हमारे द्वितीयक नातेदार हए दादाजी के पिता यानि पितामह हमारे तृतीयक

नातेदार कहलाये इसी तरह दादीजी की माँ , दादाजी का भाई , दादाजी की बहन आदि तृतीयक नातेदार हैं जी . पी . मरडॉक ने कुल 151 प्रकार के तृतीयक नातेदारों का उल्लेख किया है

 

 

 

 

 

नातेदारी के प्रकार ( Types of Kinship )

 

 

नातेदारी के दो मुख्य प्रकार बतलाये जाते हैं जो प्रायः सभी समाजों में प्रचलित हैं ये हैंविवाहमूलक नातेदारी और रक्तमूलक नातेदारी

 1 . विवाहमूलक नातेदारी ( Affinal Kinship ) : सामाजिक या कानूनी दृष्टि से मान्य वैवाहिक सम्बन्धों से जो सम्बन्ध प्रकट होते हैं , उसे विवाहमलक नातेदारी कहा जाता है इस रूप में सम्बन्धित सम्बन्धिया को विवाह मूलक नातेदार ( Affinal Kins ) कहा जाता है उदाहरणस्वरूपविवाह के बाद एक पुरुष या महिला केवल पति या पत्नी बनता है , बल्कि अन्य सम्बन्धों का विकास करता है एक परुष का पति के साथसाथ दामाद , बहनोई . जीजा , मौसा आदि का बनना उसी तरह एक महिला का पत्नी के साथसाथ पुत्रवधू , भाभी , चाची , जेठानी आदि का बनना प्रत्येक सम्बन्ध दो व्यक्ति में हैं जैसेदेवरभाभी , सालीजीजा , सासदामाद , पतिपत्नी आदि इस प्रकार विवाह द्वारा उत्पन्न नातेदारी विवाहमूलक नातेदारी कहलाता है

 

 2 . रक्तमूलक नातेदारी ( Consanguineous Kinship ) : रक्तसम्बन्ध पर आधारित सम्बन्धता को रक्तमूलक नातेदारी कहा जाता है इस रूप में सम्बन्धित सम्बन्धियों को रक्तमूलक नातेदार कहते हैं उदाहरणस्वरूप मातापिता और बच्चों के बीच का सम्बन्ध , दो भाइयों के बीच का सम्बन्ध , दो भाईबहन के बीच का सम्बन्ध आदि इस सन्दर्भ में यह जानना है कि रक्तमूलक नातेदारी के निर्धारण में सिर्फ जैविकीय तथ्य ही महत्त्वपूर्ण नहीं होता , बल्कि सामाजिक मान्यता भी महत्त्वपूर्ण होती है जैसेगोद लेने की प्रथा सार्वभौमिक है दत्तक पुत्र पुत्री के प्रति सभी जगह इस प्रकार का व्यवहार किया जाता है कि मानो वह जैविक रूप में उत्पन्न सन्तान हो इसी तरह डी . एन . मजुमदार एवं टी . एन . मदन ( D . N . Majumdar and T . N . Madan ) का कहना है कि कई आदिम समाजों में संतान के जन्म के सन्दर्भ में पिता की भूमिका अज्ञात होती है इसका एक उदाहरण मेलानेशिया के ट्रोब्रिअंड द्वीप निवासियों के जीवन में देखने को मिलता है , जिनमें पत्नी के पति को परम्परानुसार संतान का पिता मान लिया जाता है इस प्रकार नातेदारी व्यवस्था में सामाजिक मान्यता जैविक तथ्य पर आरोपित रहती है

 

 

 

 

 

 

 नातेदारी शब्दावली

( Kinship Terminology )

 

 

नातेदारी शब्दावली के अध्ययन के क्षेत्र में प्रथम महत्त्वपूर्ण योगदान एल . एच . मॉर्गन ( L . H . Morgan ) का है इन्होंने संसार के सभी भागों में प्रचलित नातेदार संज्ञाओं का अध्ययन किया और उसे दो मुख्य भागों में बांटा – – वर्गीकृत नातेदारी संज्ञाएँ और विशिष्ट या वर्णनात्मक नातेदारी संज्ञाएँ

1 . वर्गीकृत नातेदारी संज्ञाएँ ( Classificatory Kinship Terms ) : जब एक ही संज्ञा या सम्बोधन के पारा एक वर्ग के अनेक सम्बन्धियों को सम्बोधित किया जाता है , तब इसे ही वर्गीकत नातेदारी संज्ञाएँ कहते हैं उदाहरणस्वरूपसेमा नागाओं मेंअजाशब्द का प्रयोग माँ , चाची , मौसी आदि गाओं में अजा शब्द का प्रयाग मा , चाची , मासी आदि के लिए होता है अपशब्द का पिता चाचा मौसा आदि के लिए होता है साथ ही विभिन्न पीढ़ियों और विभिन्न लिङ्ग के व्यक्तियों को भी समान जातेदारी संज्ञा से सम्बोधित किया जाता है कूकी जनजाति मेंहपूशब्द के द्वारा दादा , नाना . श्वसर ममेरे भाई , साले और भतीजे यानि तीन पीढ़ियों के नातेदारों को सम्बोधित किया जाता है अंगामी नागाओं मेंबरीशब्द के द्वारा बड़े भाई , पत्नी की बहन , चाची आदि यानि विभिन्न लिङ्ग के नातेदारों को सम्बोधित किया जाता है

 

 2 . विशिष्ट या वर्णनात्मक नातेदारी संज्ञाएँ ( Particularizing or Descriptive Kinship

 

 मजमदार एवं मदन का कहना है किविशिष्ट या वर्णनात्मक नातेदारी संज्ञाएँ वास्तविक सम्बन्ध की सूचक होती है तथा केवल उन विशिष्ट व्यक्तियों के लिए ही प्रयोग में लायी जाती हैं जिनके सन्दर्भ में या जिन्हें सम्बोधित करने के लिए बात की जाती है उदाहरणस्वरूपहिन्दू समाज में पिता शब्द एक व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है , जिसने हमें जन्म दिया है इसी प्रकार माँ , पत्नी , पुत्र , पुत्री आदि ऐसी संज्ञाएँ हैं जिसका प्रयोग एक विशेष नातेदार के लिए ही किया जाता है मजुमदार एवं मदन ( Majumdar and Madan ) का कहना है कि संसार में कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ या तो शद्ध वर्गीकृत नातेदारी संज्ञाएं या शुद्ध विशिष्ट नातेदारी संज्ञाएँ काम में ली जाती हों

 

 

 

 नातेदारी की रीतियाँ ( Kinship Usages )

 

 

 नातेदारी व्यवस्था में दो नातेदारों के बीच जिन व्यवहार प्रतिमानों का समावेश होता है , उसे नातेदारी की रीतियाँ कहते हैं ये रीतियाँ भिन्नभिन्न प्रकार की होती हैं दरअसल सभी नातेदारों के साथ व्यवहार के एक ही ढंग नहीं होते और व्यवहार का आधार एक होता है एक व्यक्ति का माँबाप के प्रति व्यवहार सम्मान से जुड़ा होता है फिर पत्नी के प्रति व्यवहार प्रेम का , सन्तान के प्रति स्नेह का और साली के प्रति मधुरता का होता है चूंकि नातेदारों के साथ व्यवहार व्यवहार के आधार में भिन्नता है , इसलिए नातेदारी की रीतियाँ भी विभिन्न हैं प्रमुख निम्नलिखित हैं

 

परिहार की रीति लोकप्रिय है इस रीति के अनुसार , कुछ ऐसे नातेदार होते हैं जो कि दो व्यक्तियों के बीच एक निश्चित सम्बन्ध तो स्थापित करते हैं , परन्तु इस बात का निर्देश देते हैं कि वे एकदूसरे से दूर रहें तथा पारस्परिक अन्तःक्रिया में यथासम्भव भाग लें उदाहरणस्वरूपपुत्रवधू तथा सासससुर , भाभीजेठ आदि में परिहार की रीति सामान्य है इसी तरह सासदामाद में परिहार की रीति युकाधिर जनजाति में पाया जाता है

 

 परिहाससम्बन्ध ( Joking Relationship ) : नातेदारी व्यवस्था में परिहाससम्बन्ध की रीति सामान्य है यह वह रीति है , जो दो व्यक्तियों को मधुरसम्बन्ध सूत्र में बांधता है और दोनों को एकदूसरे के साथ हँसीमजाक करने का अधिकार देता है उदाहरणस्वरूपजीजासाली , देवरभाभी , बाबापोती , भांजामामी आदि के बीच परिहाससम्बन्ध पाये जाते हैं जीजासाली और देवरभाभी के बीच परिहास सम्बन्ध प्रायः प्रत्येक समाज में देखे जा सकते हैं लेकिन बाबापोती और भांजामामी के बीच परिहाससम्बन्ध की रीति आदिम समाजों की विशेषता है जहाँ होपी जनजाति में खुले रूप में भांजामामी परिहास प्रचलित है , वहीं ओरांव बैगा जनजाति में दादीपोते और दादा पोती के बीच परिहाससम्बन्ध पाया जाता है

 

 . मातुलेय ( Avunculate ) : मातुलेय प्रथा मातृप्रधान समाजों की विशेषता है जब एक मामा अपने भानजोंभानजियों के जीवन में प्रमुख स्थान रखता हो , उनकी आत्मीयता का आधार हो , पिता से अधिक मामा दायित्व का निर्वाह करता हो , भानजोंभानजियों का मामा के प्रति विशेष वफादारी हो , सम्पत्ति का हस्तान्तरण मामा से भानजे को हो , तो ऐसी नातेदारी रीति को मातुलेय कहा जाता है मामा की ऐसी सत्ता को मातुलसत्तात्मकता कही जाती है यदि भाजनेभानजियाँ मामा के घर रहकर बड़े होते हों , तब यह स्थिति मातृस्थानी निवास कहलायेगा उत्तरीपश्चिमी अमेरिका की हैडा ( Haida ) जनजाति , ट्रोब्रियंड ( Trobriand ) जनजाति , होपी एवं जूनी ( Hopi and Juni ) जनजाति आदि में इसका प्रचलन देखा गया है

 

. पितृष्वेय ( Amitate ) : यह पितृसत्तात्मक समाजों की विशेषता है जब एक बुआ ( पिता की बहन ) अपने भतीजेभतीजियों के जीवन में पिता की तुलना में विशेष स्थान रखती हो , बच्चों के हित में विशेष दायित्व का निर्वाह करती हो , तो ऐसी रीति को पितृष्वेय ( Amitate ) कहा जाता है भारत की टोडा , बैक्स द्वीप , दक्षिण अफ्रीका की जनजातियों में इसका प्रचलन है

 

 माध्यमिक सम्बोधन ( Teknonymy ) : अनुनामिता का अंग्रेजी शब्द टेक्रोनिमी ग्रीक भाषा से बना है इसे समाज विज्ञान में सर्वप्रथम लाने का श्रेय . बी . टायलर ( E . B . Tylor ) को है जब किसी नातेदार को प्रत्यक्ष रूप से सम्बोधित करके किसी व्यक्ति के माध्यम से सम्बोधित किया जाता होअनेक हिन्दू परिवारों में पत्नी को अपने पति का नाम लेने का प्रचलन नहीं है ऐसे परिवारों में पति किसी दुसरे नाम ( अनुनाम ) के साथ जोड़कर पति को सम्बोधित करती हैं यह अनुनाम के रूप में पुत्रपुत्री या अन्य नातेदार हो सकते हैं यदि बेटा का नाम शानू है , तो शान का पिता कहकर पति को सम्बोधित किया जाता है टायला ने अपने अध्ययन में 30 जनजातियों का उल्लेख किया है , जहाँ इसका प्रचलन है इनमें दक्षिण अफ्रीका की बेचयाना पश्चिमी कनाडा की क्रो , भारत की खासी , साइबेरिया की गोल्ड आदि जनजातियाँ मुख्य रूप से आती हैं

 

. सहप्रसविता या सहकष्टी ( Cauvade ) : नातेदारी की सहकष्टी एक अनोखी रीति के रूप में जानी जाती है जब बच्चे को जन्म देने वाली स्त्री के साथ उसके पति को भी कष्टसाध्य जीवन जीने के लिए बाध्य किया जाता है , तो उसे सहकष्टी कहा जाता है इसका प्रचलन भारत की खासी टोडा तथा भारत के बाहर की जनजातियों में देखा गया है इस रीति के अनुसार पति को अपनी गर्भवती पत्नी के समान ही भोजन करना होता है , सभी निषेधों का पालन करना होता है तथा कष्ट का अनुभव करना होता है

 

 

 

 

 

 

 नातेदारी का महत्व ( Importance of Kinship )

 

 

 हिन्दुओं में नातेदारी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं इसके महत्त्व को दैनिक जीवन में , विभिन्न सामाजिकसांस्कृतिकधार्मिक संस्कारों में , सामाजिक समारोहों में और कष्टप्रद परिस्थितियों में देखा जा सकता है किसी भी समाज की संरचना व्यक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों को नातेदारी व्यवसथा के माध्यम से जाना जा सकता है व्यक्ति के वंश , उत्तराधिकार , प्रस्थिति आदि नातेदारी से निर्धारित होता है इसके महत्त्वों को निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है

1 . प्रस्थिति निर्धारण ( Status Determination ) : प्रत्येक समाज में व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण बहुत कुछ उसके नातेदारों के आधार पर किया जाता है नातेदारी की सहायता से किसी के वंश के इतिहास को जाना जा सकता है साथ ही इसके माध्यम से नातेदारों की संख्या का पता चलता है नातेदारों की संख्या के माध्यम से एक विशेष वंश कुलखानदान की शक्ति का पता चलता है , जिससे एक व्यक्ति की प्रस्थिति निर्धारित होती है कुछ परम्परागत समाजों में तो नातेदारी का वृहत् रूप एक प्रतिष्ठा का द्योतक माना जाता है

 

 2 . परिवार और विवाह का आधार ( Basis of Family and Marriage ) : मॉर्गन ( Morgan ) ने परिवार और विवाह व्यवस्था की उत्पत्ति एवं विकास की जानकारी के लिए नातेदारी शब्दावली ( Kinship Terminol ogy ) को आधार के रूप में माना है नातेदारी पद व्यक्तियों में निकटता एवं दूरी का आभास कराते हैं लड़के या लड़के के विवाह के लिए जीवनसाथी का चुनाव में नातेदारों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है साथ ही परिवार नातेदारी सम्बन्धों की वृहद् व्यवस्था का एक अभिन्न अंग होता है परिवारों के सदस्यों के बीच के सामाजिक सम्बन्ध नातेदारी दायित्वों पर आधारित होते हैं

 

3 . मानसिक सन्तुष्टि ( Mental Satisfaction ) : नातेदारी की भावना मानसिक रूप से सन्तुष्टि प्रदान करती है केवल सरल ग्रामीण समाजों में , बल्कि आधुनिक नगरीय समाजों में भी इस प्रकार की प्रवत्ति लोगों में पाई जाती है नगर में प्रवासी लोग अपने आवास स्थलों की निकटता में अपने को अधिक सन्तुष्ट एवं सुरक्षित महसूस करते हैं

 

4 . असीमित उत्तरदायित्व ( Unlimited Responsibility ) : सामाजिक जीवन में नातेदारी समूह की भमिका ऐसी होती है जिसमें प्रायः सभी व्यक्ति एकदूसरे के प्रति असीमित उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हैं इससे एक तरफ नातेदारों का भला होता है , तो दूसरी तरफ नातेदारी समूहों में व्यक्ति भमिका निर्वाह और नार के उत्तरदायित्वों का प्रशिक्षण प्राप्त करता है नातेदारी में व्यक्ति एकदूसरे की सहायता एवं उसके

 

 5 . सामाजिक सुरक्षा ( Social Security ) : नातदारा समूह व्याक्त को सामाजिक सरक्षा प्रदान करता है इसका पता तब चलता है , जब कोई व्यक्ति संकट की स्थिति में होता है ऐसी स्थिति में जाने सविधाएँ प्रदान की जाती हैं नातेदारी समूह के कारण व्यक्ति अकेला असहाय समारोहोंमुण्डन , उपनयन , विवाह आदिके अवसर पर नातेदारी मानसिक शान्ति सख प्रदान करता है

 

 6 . सामाजिक संगठन में सुदृढ़ता ( Solidarity in Social Organization ) : नातेदारी व्यवस्था सामाजिक संगठन को सुदृढ़ बनाता है

 

 

 

 

 

आदिम समाज में सामाजिक संस्थाएँ

विवाह

विवाह एक ऐसी संस्था है जो पुरुषों और महिलाओं को पारिवारिक जीवन में प्रवेश देती है। जॉन लेवी और रूथ मोनरो लोग इस भावना के कारण विवाह करते हैं कि परिवार में रहना ही एकमात्र उचित वास्तव में जीने का एकमात्र संभव तरीका है। लोग इसलिए शादी नहीं करते हैं क्योंकि परिवार की संस्था को कायम रखना उनका सामाजिक कर्तव्य है या इसलिए कि शास्त्र विवाह की सलाह देते हैं, बल्कि इसलिए कि वे एक परिवार में बच्चों के रूप में रहते थे और इस भावना से बाहर नहीं निकल पाते थे कि परिवार में रहना ही जीवन जीने का एकमात्र उचित तरीका है। समाज।

परिवार विवाह के परिणामस्वरूप प्रकट होता है और यह विवाह के माध्यम से जारी रहता है। वेस्टरमार्क के अनुसार “संतान के जन्म के बाद तक प्रजनन के कार्य से परे पुरुष और महिला कास्टिंग के बीच शादी कमोबेश टिकाऊ संबंध है”। विवाह एक बच्चे को सामाजिक रूप से मान्यता प्राप्त पिता और माता प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। प्रसिद्ध मानवविज्ञानी आर. लोवी ने कहा कि विवाह के पीछे दो प्रमुख उद्देश्य थे ‘परिवार स्थापित करने का सार्वभौमिक उद्देश्य और जीवन की दैनिक दिनचर्या में सहयोग की निरंतर आवश्यकता’

इसलिए विवाह एक पुरुष और एक महिला के बीच एक स्थायी कानूनी मिलन है। यह एक महत्वपूर्ण संस्था है जिसके बिना समाज कभी भी कायम नहीं रह सकता।

विवाह के रूप

वर्तमान समय में मानव समाज में विवाह के दो रूप स्पष्ट हैं

एक। मोनोगैमी यानी एक पुरुष का एक महिला से विवाह।

बी। बहुविवाह यानी एक पुरुष या महिला का दो या दो से अधिक साथियों के साथ विवाह। बहुविवाह दो प्रकार के हो सकते हैं बहुविवाह और बहुपतित्व। बहुविवाह का अर्थ है एक पुरुष का कई महिलाओं से विवाह। बहुपति विवाह एक महिला के कई पुरुषों के साथ विवाह को दर्शाता है।

मातृस्थानिक निवास अर्थात् पुरुष का पत्नी के घर में रहने की प्रथा भी बहुविवाह के पक्ष में है।

एक समय में दो या दो से अधिक बहनों के साथ एक पुरुष की शादी को सोरोरल पॉलीगनी कहा जाता है। जब सह-पत्नियाँ बहनें नहीं होती हैं, तो विवाह को गैर-विवाहित बहुविवाह कहा जाता है। अंडमानी, कनिक्कर, उराली, आदि। जनजातियाँ सोरोरल बहुविवाह की उच्च घटना दर्शाती हैं।

बहुपतित्व भी दो प्रकार के होते हैं- एडेल्फ़िक या भ्रातृ और गैर-भ्रातृ। जब पति भाई होते हैं, तो इसे भ्रातृ बहुपतित्व कहा जाता है। इसके विपरीत गैर-भ्रातृ बहुपतित्व है। टोडा और खासा जनजाति भ्रातृ बहुपतित्व के पक्ष में हैं, जबकि कुछ तिब्बती और नायर गैर-भाईचारे का अभ्यास करते हैं।

 

 

मोनोगैमी को विवाह का सबसे आधुनिक रूप माना जाता है।

साथियों का चयन

समाज में कोई जिसे चाहे उससे शादी नहीं कर सकता। कुछ सख्त नियम और कानून हैं। विवाह सम्बन्ध स्थापित करने की पहली कसौटी समूह का ही विचार है।

बहिर्विवाह

यह वह नियम है जिसके द्वारा पुरुष को अपने ही सामाजिक समूह के किसी व्यक्ति से विवाह करने की अनुमति नहीं है। इस तरह के निषिद्ध संघ को अनाचार के रूप में नामित किया गया है। अनाचार को अक्सर पाप माना जाता है। विभिन्न विद्वानों ने इस निषेध के पीछे की व्याख्या का पता लगाने का प्रयास किया था। यानी अनाचार वर्जित कैसे प्रचलन में आया।

वास्तव में कुछ निश्चित कारण हैं जिनके कारण बहिर्विवाह की प्रथा को स्वीकृति मिली। वे हैं:

(ए) एक समूह के सदस्यों के बीच रक्त संबंध की अवधारणा प्रचलित है। इसलिए, के साथ शादी

समूह-सदस्यों को भाई और बहन के बीच विवाह माना जाता है

(बी) एक छोटे समूह में घनिष्ठ संबंध के कारण नर और मादा के बीच आकर्षण खो जाता है।

(सी) एक लोकप्रिय विचार है कि यदि विवाह दो बेहद दूर के व्यक्तियों को बांधता है, जिनके बीच कोई रिश्तेदारी नहीं है, तो संतान में ऊर्जा और शक्ति की एक बड़ी वृद्धि संभव है।

हिंदू अपने गोट्रो-नाम वाले अपने विवाह भागीदारों का चयन नहीं करते हैं। ऐसा माना जाता है कि “गोट्रो” एक बड़े समूह को दर्शाता है जहां सदस्य एक सामान्य पूर्वज से उत्पन्न होते हैं। स्वभाव से गोत्र बहिर्विवाही होता है।

सगोत्र विवाह

यह नियम है, जो एक समूह के सदस्यों को समूह के भीतर शादी करने के लिए मजबूर करता है। भारत की सभी जनजातियाँ और जाति समूह अंतर्विवाही हैं।

 

 

निषेध: एक अनाचार वर्जित दुनिया में सार्वभौमिक विशेषता है जिसका अर्थ है संभोग पर निषेध जैसा कि सभी समाजों में माता-पिता और बच्चों या भाई-बहनों के बीच निकट संबंधियों के बीच पाया जाता है। दुनिया के आदिम लोगों के बीच। अनाचार प्रतिबंध ने अपने स्वयं के सामाजिक समूह के बाहर विवाह को प्रोत्साहित किया और इस प्रकार विभिन्न समूहों के सदस्यों को एक बड़ा सहयोगी समूह बनाने में मदद की।

 

 

निर्धारित और अधिमान्य विवाह

कई समाजों में, पहली चचेरी बहनों के बीच विवाह की अनुमति या मांग की जाती है। जब एक पुरुष पूरी तरह से एक विशेष श्रेणी के व्यक्ति से शादी करने के लिए होता है, तो इसे निर्धारित विवाह कहा जाता है। कुछ में

 

 

समाजों में कोई बाध्यता नहीं होती, लेकिन लोग कुछ मिलन को वांछनीय मानते हैं। इस तरह के विवाह को अधिमान्य विवाह के रूप में जाना जाता है। इस संबंध में तीन प्रकार के विवाह प्रचलित हैं।

  1. क्रॉस-कजिन मैरिज

यह अवधारणा पहली बार 1888 में टाइलर द्वारा तैयार की गई थी। यह विवाह है, जो उन चचेरे भाई-बहनों के बीच होता है जिनके माता-पिता भाई और बहन हैं। व्यक्ति के चचेरे भाई इसलिए, एक तरफ उसके पिता की बहन के बच्चे हैं, और दूसरी तरफ उसकी मां के भाई के बच्चे हैं। उराँव, टोटो, कादर गोंड, खारिया आदि जनजातियों में इस प्रकार के विवाह सम्बन्ध देखे गए हैं। जिस विवाह में चचेरे भाई का चयन प्रतिबंधित नहीं है, उसे असममित प्रकार का क्रॉस-कजिन विवाह कहा जाता है। यहाँ एक व्यक्ति अपनी इच्छित लड़की से या तो पिता की बहन की बेटियों से या माँ के भाई की बेटियों से शादी करने के लिए स्वतंत्र है।

 

 

  1. समानांतर चचेरे भाई की शादी

जब एक ही लिंग के भाई-बहनों के बच्चों के बीच विवाह होता है, तो इसे समानांतर चचेरा भाई विवाह कहा जाता है। साथी या तो किसी के पिता के भाई के बच्चों से या माँ की बहन के बच्चों से आ सकता है। इस प्रकार का विवाह मुस्लिम समुदाय में पाया जाता है। आम तौर पर एक समुदाय में, जहां क्रॉस-कजिन विवाह की अनुमति है, समानांतर-चचेरे भाई की शादी प्रतिबंधित है।

  1. लेविरेट और सोरोरेट

कई समाजों में सांस्कृतिक मानदंड अक्सर व्यक्तियों को मृत पति या पत्नी के सहोदर से शादी करने के लिए मजबूर करते हैं। लैटिन शब्द “लेविर” का अर्थ पति का भाई होता है। पति की मृत्यु के बाद जब महिला अपने पति के भाई से शादी करती है, तो प्रथा को लेविरेट कहा जाता है। कुकी, संथाल जनजातियां इसका पालन करती हैं।

वह रिवाज जिसके द्वारा एक पुरुष अपनी मृत पत्नी की बहन से शादी करने के लिए बाध्य होता है, उसे सोरोरेट विवाह कहा जाता है। लैटिन शब्द “सॉरर” का अर्थ बहन होता है। प्रतिबंधित और गैर-प्रतिबंधित दो प्रकार के सोरोरेट हैं। प्रतिबंधित वास्तविक रूप है। लेकिन कभी-कभी पत्नी के जीवनकाल के दौरान, पति अपनी बहन से शादी कर लेता है – इसे गैर-प्रतिबंधित सोरोरेट कहा जाता है। एक पुरुष कई महिलाओं से शादी करता है, जिन्हें सोरोरल पॉलीगनी कहा जाता है। अंडमानी, उराली, कनिकार, संथाल भी ऐसा ही करते हैं।

हाइपरगामी या अनुलोम विवाह

यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ एक उच्च जाति का पुरुष निम्न जाति की महिला से विवाह करता है। इस असमान मिलान के लिए एक आदमी अपनी जाति की स्थिति या अनुष्ठान शुद्धता को बिल्कुल नहीं खोता है। लेकिन उसके बच्चों को बहुत पीड़ा होती है; वे आंशिक रूप से अपनी वंशानुगत स्थिति खो देते हैं लेकिन इस प्रकार के विवाह को हिंदू सामाजिक रीति-रिवाजों द्वारा प्राचीन भारत में स्वीकृति प्राप्त थी।

 

 

हाइपोगैमी या प्रतिलोम विवाह

यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ एक निम्न जाति के पुरुष का विवाह एक उच्च जाति की महिला से होता है। हालाँकि इस प्रकार का मेल कभी-कभी स्पष्ट होता था, लेकिन सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करने में विफल रहा। क्योंकि इस तरह की शादी के बाद एक महिला को अपनी मूल जाति की स्थिति खोने के लिए धार्मिक रूप से अपवित्र माना जाता था। .

 

जीवनसाथी की प्राप्ति के उपाय

  1. कब्जा करके शादी
  2. परीक्षण द्वारा विवाह
  3. खरीद कर शादी करना
  4. विनिमय द्वारा विवाह
  5. सेवा द्वारा विवाह
  6. बातचीत से विवाह
  7. पलायन द्वारा विवाह
  8. घुसपैठ द्वारा विवाह
  9. परिवीक्षा पर विवाह।

 

 ए) कब्जा करके शादी

 

यह एक तरह का विवाह है जिसमें लड़की को उसकी मर्जी के बिना जबरन उठा लिया जाता है। उसके अभिभावक या निकट संबंधियों से भी सहमति नहीं ली जाती है। सभी आदिम समुदायों में कभी इस प्रकार के विवाह का प्रचलन था। हिंदू समाज के प्राचीन विधायक मनु ने इस प्रकार के विवाह को ‘राक्षस विवाह’ कहा और इसे हिंदुओं के बीच पत्नी को सुरक्षित करने के एक स्वीकृत तरीके के रूप में उल्लेख किया। भील, गोंड, हो आदि जनजातियाँ इसका व्यापक रूप से अभ्यास करती थीं। वर्तमान में, इस प्रथा को अदालत से दंड की प्रत्याशा में आधुनिक बनाया गया है। खारिया और बिरहोर के बीच, वास्तविक भौतिक कब्जे के बजाय औपचारिक कब्जा होता है। युवती के प्रेम में डूबा युवक अचानक सिंदूर लगा लेता है

पब्लिक प्लेस पर लड़की के माथे पर लगाकर भाग जाता है। इसके बाद लड़की उसकी पत्नी बन जाती है। संताल समाज में कभी-कभी इस प्रकार के विवाह होते पाए जाते हैं। गोंडों में गोटअप कैप्चर होता है। दो पक्षों के बीच एक नकली लड़ाई आयोजित की जाती है जहाँ दुल्हन रोती है और औपचारिक रूप से विलाप करती है। अफ्रीका, मेलानेशिया और चीन में भी मॉक कैप्चर का अभ्यास किया जाता है। जिन समाजों में स्त्रियों की संख्या अधिक होती है, वहाँ वर को पकड़ लिया जाता है। न्यू गिनी के कंबोट लोगों से इस तरह की प्रथा का उल्लेख किया गया है।

(बी) परीक्षण द्वारा विवाह

यह उस तरह का विवाह है जहां एक युवक को लड़की को पत्नी के रूप में दावा करने से पहले अपने साहस, शौर्य और शारीरिक शक्ति को साबित करना होता है। ऐसी प्रथा मध्य भारत के भीलों में व्यापक है।

 

(सी) खरीद द्वारा विवाह

आदिवासी समाजों में पत्नी प्राप्त करने का यह सामान्य तरीका है। यहां विवाह वधू के लिए एक भुगतान की मांग करता है, जिसे वधू मूल्य के रूप में जाना जाता है। वैदिक युग में हिंदू समाज में ऐसी प्रथा व्यापक थी। बंगाल की निचली जातियाँ अभी भी खरीद कर विवाह करना पसंद करती हैं। वीफेई कुकी और रेंगामा नागाओं के बीच यह प्रथा काफी आम है। संथाल, उरांव, टोटो, लोढ़ा आदि इसके अपवाद नहीं हैं।

 

 

(डी) विनिमय द्वारा विवाह

यह ‘खरीद कर शादी’ का संशोधित रूप है। यहां वधू मूल्य की भरपाई के बदले में दूसरी दुल्हन प्रदान की जाती है। जिससे दोनों परिवारों में से किसी के द्वारा भुगतान का दावा नहीं किया जा सका। मेलानेशिया और ऑस्ट्रेलिया में एक आदमी की बहन को उसकी पत्नी के भाई को ऑफर किया जाता है। बंगाल के कुलीन ब्राह्मणों के बीच भी ऐसा ही किया जाता था। अल्मोड़ा के भोठिया भी अपने समुदाय में इस प्रकार के विवाह दिखाते हैं।

(ङ) सेवा द्वारा विवाह

यह शादी से पहले दूल्हे द्वारा दुल्हन के परिवार को काफी श्रम द्वारा दी जाने वाली शादी है। एक भावी दूल्हा उस घर में रहने के लिए जाता है, जो उसके ससुर का घर होगा और उनके लिए काम करता है। सेवा की अवधि लोगों के विभिन्न समूहों में भिन्न होती है। यह कुछ दिन या कुछ महीने या कुछ साल भी हो सकता है। बंगाल के बनास में दूल्हा छह से नौ महीने ससुराल की सेवा करता है। वीफेई कुकिस इस अवधि को दो से तीन साल तक लेते हैं। भीलों के लिए, यह लगभग सात वर्ष है। इस तरह की प्रथा मणिपुर के एमोल, पुरुम और चिरू कुकिस, जापान के एस्किमो और ऐनस के बीच भी लोकप्रिय है। सेवा द्वारा विवाह भी मातृसत्तात्मक निवास से जुड़ा है।

(एफ) बातचीत द्वारा विवाह

इस प्रकार के विवाह में दोनों पक्षों की आपसी सहमति होती है। यहां के अभिभावक उपयुक्त मैच की तलाश करते हैं और उसके बाद बातचीत करते हैं। कभी-कभी गो-बीच नियुक्त किए जाते हैं। भारत की अधिकांश जनजातियाँ और जातियाँ इसी मार्ग का अनुसरण करती हैं। असम के पुरम कुकी, छोटा नागपुर के मुंडा और होस, मध्य प्रदेश के बैगा इस प्रक्रिया में सबसे अधिक कठोरता दिखाते हैं।

 

(छ) पलायन द्वारा विवाह

जनजातियाँ विशेष रूप से जो युवाओं के लिए शयनागार रखती हैं, किशोर लड़के और लड़कियों को अपना साथी चुनने के लिए प्रेरित करती हैं। इस स्थिति में, यदि माता-पिता की सहमति उपलब्ध नहीं होती है, तो पलायन होता है। लड़का लड़की को भगा देता है और आम तौर पर काफी समय के बाद, जोड़े को परिवार में वापस मिल जाता है। भागे हुए जोड़े को जब जनजाति में दोबारा शामिल किया जाता है, तो उन्हें पिटाई का एक चरण स्वीकार करना पड़ता है। उसके बाद एक भव्य भोज का आयोजन हो भी सकता है और नहीं भी। उराँव में इस प्रकार का विवाह अत्यधिक लोकप्रिय है। दक्षिण पूर्व ऑस्ट्रेलिया के कुरनाइयों में एक समय में लगभग एक दर्जन लड़कियों को भगा दिया जाता है।

(ज) घुसपैठ द्वारा विवाह

यह वह विवाह है, जो लड़की की इच्छा के अनुसार संपन्न होता है। जब कोई लड़की किसी ऐसे व्यक्ति से शादी करने को तैयार होती है जो उसे नहीं चाहता है, तो वह खुद उसके घर में घुस जाती है और उस घर की अनुमति के बिना वहां रहना शुरू कर देती है। स्वाभाविक रूप से वे उसका दुरुपयोग करते हैं और लड़की को विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। यदि वह उन सब पर विजय प्राप्त कर लेती है, तो विवाह स्वीकृत हो जाता है। शादी के ऐसे ही अजीब तरीके को ‘घुसपैठ से शादी’ के नाम से जाना जाता है। यह बिरहोर और हो जैसी जनजातियों के बीच मनाया जाता है।

(i) परिवीक्षा पर विवाह

यह वह विवाह है जिसमें वर को विवाह से कुछ दिन पहले वधू के घर में रहने की अनुमति दी जाती है। इस दौरान लड़का और लड़की दोनों एक दूसरे को अच्छे से जानने की कोशिश करते हैं। यदि वे सोचते हैं कि उनका स्वभाव एक-दूसरे के अनुकूल है, तभी वे विवाह के संबंध में निर्णय लेते हैं। अन्यथा वे अलग हो जाते हैं और दूसरी स्थिति में लड़के को लड़की के माता-पिता को नकद भुगतान के साथ मुआवजा देना पड़ता है। साथी पाने का ऐसा तरीका कुकी समुदाय में पाया जाता है।

 

 

परिवार

परिवार मानव समाज का आधार है। यह समाज का सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिक समूह है। एक संस्था के रूप में परिवार सार्वभौमिक है। यह सभी सामाजिक संस्थाओं में सबसे स्थायी और सबसे व्यापक है। परिवार के भीतर पारस्परिक संबंध परिवार को एक स्थायी सामाजिक इकाई बनाते हैं। परिवार न केवल बुनियादी सामाजिक समूह है; यह मानव जाति की सबसे पुरानी संस्था भी है, जिसमें सामाजिक परिवर्तनों को झेलने की शक्ति है। समाज की निरंतरता बनाए रखने के लिए परिवार में जैविक और सामाजिक पुनरुत्पादन अनिवार्य है।

शब्द ‘परिवार’ लैटिन शब्द ‘फैमुलस’ से लिया गया है [जिसका अर्थ है नौकर। इलियट व

मेरिल, परिवार पति, पत्नी और बच्चों से बनी जैविक सामाजिक इकाई है।

 

 

परिवार की उत्पत्ति

मानव समाज के प्रारम्भ में न तो परिवार था और न ही विवाह। केवल एक प्रकार का अनियंत्रित पशु-जैसा जीवन प्रचलित था। सामाजिक विकास के कुछ चरणों के बाद संस्थाएँ, अर्थात् परिवार और विवाह अस्तित्व में आए।

परिवार की ऐतिहासिक उत्पत्ति का पता लगाने के लिए कई मानवशास्त्रीय अनुसंधान और अटकलें की गई हैं। एल.एच. मॉर्गन, जे.जी. फ्रेजर और हाल ही में आर.ब्रिफॉल्ट डार्विन और स्पेंसर के विकासवादी सिद्धांतों से प्रभावित हुए। उन्होंने एकरेखीय विकास के माध्यम से परिवार को प्रक्षेपित करने का प्रयास किया।

एंशिएंट सोसाइटी’ (1851) पुस्तक में मॉर्गन ने परिवार के विकास के लिए पांच क्रमिक चरणों को दिखाया था। आधार पर रजनी परिवार था, जो एक ही पीढ़ी के सदस्यों के बीच सामूहिक विवाह के परिणामस्वरूप बना। वहां भाई-बहन के बीच विवाह की अनुमति थी। दूसरे चरण में पुनालुआन परिवार था। यद्यपि इस प्रकार का परिवार सामूहिक विवाह का परिणाम था, किन्तु भाई-बहन का विवाह वर्जित था। एक पुरुष और एक महिला के बीच विवाह के आधार पर सिंडीसमियन परिवार तीसरे चरण में आया। लेकिन यह अनन्य सहवास के मानदंड से रहित था; शादी का रिश्ता तब तक चलता रहा जब तक पार्टियों का सुख बना रहा। चौथे चरण में, पितृसत्तात्मक परिवार एक पुरुष के कई महिलाओं के साथ विवाह का संकेत देने लगा। चरणों का अंतिम या अंतिम एकाकी परिवार के साथ प्रकट हुआ जहां एकल जोड़े के बीच विवाह को अनन्य सहवास के मानदंड के साथ स्वीकार किया गया। मॉर्गन के अनुसार एक विवाही परिवार आधुनिक एकाकी परिवार के समान था। इसी दृष्टिकोण के साथ मैक्लेनन और हर्बर्ट मुलर ने वकालत की कि समाज के प्रारंभिक चरण में यौन साम्यवाद प्रबल था और समूह-विवाह स्वच्छंद स्थिति का केवल एक कदम ऊंचा रूप था।

 

 

 

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परिवार के प्रकार

परिवार के स्वरूपों में विभिन्नताएँ बिल्कुल स्वाभाविक हैं। यह शादी के तरीकों और आर्थिक व्यवस्था पर निर्भर करता है।

क) एकविवाही परिवार/परमाणु परिवार

इस प्रकार का परिवार एकांगी विवाह पर आधारित होता है, अर्थात एक पुरुष और एक महिला के बीच विवाह। यह सभी प्रकार के परिवारों में सबसे सरल है क्योंकि इसमें एक पुरुष होता है; उसकी पत्नी और बच्चे। यहां पति या पत्नी तब तक दोबारा शादी नहीं कर सकते जब तक पति या पत्नी जीवित है। इस परिवार के अन्य नाम प्राथमिक परिवार, बुनियादी परिवार, वैवाहिक परिवार, तत्काल परिवार, प्राथमिक परिवार आदि हैं, चूंकि इस प्रकार का परिवार अन्य सभी प्रकार के परिवारों के केंद्रक के रूप में कार्य करता है, यह एकल परिवार के नाम से भी लोकप्रिय है। . भारत के विभिन्न जनजातीय समूह उदा। संथाल, लोढ़ा, खरिया, बिरहोर, चेंचू, खासी, कादर आदि अपने समुदाय में इस प्रकार के परिवार दिखाते हैं। ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों में एक विवाही पारिवारिक संरचना भी आम है,

संयुक्त परिवार/विस्तृत परिवार

कुछ प्रकार के परिवार में, केंद्रक कुछ निकट संबंधी नातेदारों के साथ विस्तारित होता है और परिवार को विस्तारित परिवार कहा जाता है। कभी-कभी इसे संयुक्त परिवार भी कहा जाता है। हैंडबुक, नोट्स एंड क्वेरीज ऑफ एंथ्रोपोलॉजी (1874) के अनुसार, एक संयुक्त परिवार तब बनता है जब “एक ही लिंग के दो या दो से अधिक पारिवारिक रिश्तेदार, उनके पति और संतान एक ही घर में रहते हैं और संयुक्त रूप से एक ही अधिकार या एकल मुखिया के अधीन होते हैं। ”। इसका मतलब यह है कि संयुक्त परिवार एक बड़ा समूह है जो दो, तीन या अधिक पीढ़ियों तक विस्तारित होता है, जिसमें पति-पत्नी और बच्चे संबंधित सदस्य होते हैं।

संयुक्त परिवार उत्पन्न होते हैं और बने रहते हैं क्योंकि सदस्य घर के सबसे बड़े व्यक्ति के नेतृत्व में एक सामंजस्यपूर्ण तरीके से अपनी गतिविधियाँ करते हैं। सहयोग और आपसी समर्थन यहाँ प्रमुख शब्द हैं। संयुक्त परिवारों के निर्माण के पीछे महत्वपूर्ण आर्थिक कारक भूमिका निभाते हैं।

बी) बहुविवाह परिवार

इस प्रकार का परिवार दो या दो से अधिक एकल (एकविवाही) परिवारों से बना होता है जो कई विवाहों से जुड़े होते हैं। आवश्यक विशेषता यह है कि एक बहुपत्नी परिवार के भीतर सभी एकविवाही परिवारों में पति-पत्नी में से एक समान रहता है। बहुविवाही परिवार दो प्रकार के हो सकते हैं – बहुविवाही और बहुपत्नी।

  1. i) बहुविवाहित परिवार

इस प्रकार का परिवार विवाह के बहुपत्नी रूप पर आधारित होता है, जहाँ एक पुरुष एक से अधिक महिलाओं से विवाह करता है और अपनी सभी पत्नियों और बच्चों के साथ एक ही घर में जीवन व्यतीत करता है। इस प्रकार के परिवार बंगाल के कुलिन ब्राह्मणों और मुस्लिम समुदाय में भी देखे गए हैं। जनजातीय समूहों के संदर्भ में उत्तर-पूर्वी भारत के नागा, मध्य भारत के गोंड और बैगा इस प्रकार के परिवार प्रस्तुत करते हैं। भारत के बाहर, उत्तरी अमेरिका के एस्किमो जनजाति, कौवा और हिदत्सा और विशेष रूप से अफ्रीकी नीग्रो में बहुपत्नी परिवार पाए जाते हैं।

एक समाज में बहुपत्नी परिवार अक्सर पुरुषों की तुलना में महिलाओं की अधिक संख्या की स्थिति के बाद उत्पन्न होते हैं। यह महिलाओं की निम्न सामाजिक स्थिति को भी इंगित करता है; पुरुषों की स्थिति प्रतिष्ठित रहती है क्योंकि वे एक समय में कई पत्नियाँ रख सकते हैं।

 

 

 

  1. ii) बहुपतित्व परिवार

इस प्रकार का परिवार विवाह के बहुपत्नी रूप का परिणाम है। यहां एक महिला कई पुरुषों से शादी करती है और सभी पतियों और बच्चों के साथ रहती है। बहुपतित्व प्रकार

परिवारों की संख्या बिल्कुल भी प्रमुख नहीं है; बल्कि वे छोटी जेबों तक ही सीमित हैं। प्रकृति के अनुसार, बहुपत्नी परिवारों को दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है- भ्रातृ (एडेल्फ़िक) बहुपतित्व परिवार और गैर-भ्रातृ बहुपत्नी परिवार।

भ्रातृ बहुपत्नी परिवार वह परिवार है जहाँ एक महिला दो या दो से अधिक भाइयों से शादी करती है। उत्तरी भारत में जानूसर-बावर से लेकर कांगड़ा घाटी से होते हुए हिन्दू कुश श्रेणी तक एक पेटी पायी जाती है, जहाँ परिवार मुख्यतः बहुपतित्व वाले हैं। पोलिनेशिया के मार्केसन्स भी इस प्रकार के परिवारों को प्रदर्शित करते हैं। भारत में उत्तर प्रदेश के खासा, हिमाचल प्रदेश के किन्नौर, लाहौल और स्प्रिट के लोग, श्रीलंका के सिंहली, कुछ तिब्बती और नीलगिरी पहाड़ियों के टोडा इस प्रकार के परिवारों को दर्शाते हैं।

गैर-भ्रातृ बहुपत्नी प्रकार के परिवारों में, पति अनिवार्य रूप से भाई नहीं होते हैं। ऐसे परिवार कभी तिब्बतियों और केरल के नायरों में व्यापक थे।

संयुक्त परिवार

यह परिवार प्रकार एक ठोस समूह को संदर्भित करता है, जो एकल परिवार इकाइयों या उनके कुछ हिस्सों के ढेर से बनता है। विशेष परिस्थितियों में इस प्रकार के परिवार बनते हैं। उदाहरण के लिए, एक बार कन्या भ्रूण हत्या की प्रथा के कारण, टोडा समुदाय में पुरुषों की संख्या में वृद्धि हुई और बहुपतित्व लोकप्रिय हो गया। लेकिन वर्तमान में कन्या भ्रूण हत्या का चलन पूरी तरह से बंद हो गया है और इसलिए समुदाय में पुरुषों और महिलाओं की संख्या समानांतर हो गई है। अभी भी पारंपरिक धारणा के कारण, एक भाई की पत्नी को परिवार में अन्य सभी भाइयों की पत्नी के रूप में देखा जाता है। अब, यदि वे भाई अलग-अलग विवाह करते हैं और एक ही घर में रहते हैं, तो सभी भाई अपनी सभी पत्नियों और बच्चों के साथ संयुक्त परिवार को जन्म देते हैं जो सामान्य रूप से एक असामान्य घटना है।

ग) संयुक्त परिवार

यह न केवल एक असामान्य, बल्कि परिवार का एक अत्यंत जटिल रूप भी है। ऐसे परिवार के पुरुष को अक्सर आजीविका प्राप्त करने के लिए दूर के जंगल में लंबा समय गुजारने के लिए मजबूर होना पड़ता है। उस दौरान पड़ोस का एक आदमी नियमानुसार परिवार की देखभाल के लिए आता है। यह पुरुष पत्नी के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करता है और वास्तविक पति के वापस आने पर वापस चला जाता है। डिएरी, ऑस्ट्रेलिया की एक शिकार जनजाति इस प्रकार के परिवारों को दिखाती है। इस प्रकार एक डायरिया महिला के पास एक स्थायी पति (टिप्पमल्कु) और कई अस्थायी पति (पिरौरू) होते हैं। सभी बच्चे मां के साथ एक ही घर में रहते हैं। ऐसे परिवार को संयुक्त परिवार कहा जाता है।

निवास के नियमों के आधार पर परिवार को छह में वर्गीकृत किया गया है।

क) पितृस्थानीय निवास

शादी के बाद पत्नी अपने पति के साथ पति के घर रहने चली जाती है। इस प्रकार का निवास हमारे समाज में व्यापक रूप से दृष्टिगोचर होता है। संथाल, मुंडा, लोढ़ा आदि जनजातियाँ निवास के इस पैटर्न का पालन करती हैं।

 

 

बी) मातृस्थानिक निवास

शादी के बाद पति पत्नी के घर रहने आता है, खासी, गारो आदि जनजातियां प्रदान करती हैं

उदाहरण।

ग) द्विस्थानीय निवास

कभी-कभी, नवविवाहित जोड़ा यह तय करने के लिए स्वतंत्र होता है कि वे कहाँ रहेंगे, चाहे पति के रिश्तेदारों के साथ या उसके पास, या पत्नी के साथ या उसके पास। आवश्यकता यहाँ निवास के पैटर्न को निर्धारित करती है। निवास के इस स्वरूप को द्विस्थानीय निवास कहा जाता है।

  1. d) नियोलोकल निवास

शादी के बाद जोड़े किसी भी पक्ष के करीबी रिश्तेदारों के साथ या उनके पास नहीं रहते हैं। वे जहां रहते हैं, वहां अपना एक अलग अस्तित्व बना लेते हैं। इस प्रकार के आवास को नियोलोकल निवास कहा जाता है।

ङ) स्थानीय आवास

कुछ समाजों में नवविवाहित जोड़ा पत्नी के चाचा (माँ के भाई) के पास रहने चला जाता है। मातृसत्तात्मक समाजों में इस तरह के अवनकुलोकल निवास पाए जाते हैं। इसलिए, इस प्रकार की घटना अपेक्षाकृत दुर्लभ है। फिर भी मालाबार तट के नायर उन्हें पसंद करते हैं। ट्रोब्रिएंड द्वीपवासी कभी-कभी इस प्रकार का निवास स्थापित करना पसंद करते हैं।

च) मातृ-पितृस्थानीय निवास

कुछ समाजों में, पहले पति पत्नी के साथ उसके घर में रहता है। कुछ समय बाद प्राय: पहले बच्चे के जन्म के बाद वह पत्नी के साथ अपने पैतृक घर वापस आ जाता है। दक्षिण भारत के चेंचुओं में इस प्रकार का निवास स्थान प्रचलित है।

परिवार के कार्य

समाज की जनन कोशिका के रूप में परिवार कुछ विशिष्ट कार्य करता है जिनका उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है:

  • बच्चे के जीवित रहने के लिए भोजन और आश्रय की आवश्यकता को मौलिक माना जाता है।
  • परिवार एक पुरुष और महिला के लिए एक सामान्य निवास स्थान प्रदान करके एक जैविक इकाई के रूप में कार्य करता है जहां उनके बीच यौन संतुष्टि संभव है।
  • एक परिवार अपने सदस्यों के बीच विभिन्न संबंधों को नियंत्रित करता है।
  • परिवार स्वयं को एक आर्थिक इकाई के रूप में प्रस्तुत करता है क्योंकि परिवार के सदस्यों के बीच श्रम का विशिष्ट विभाजन होता है।
  • एक परिवार के सदस्य आपसी स्नेह और घनिष्ठ संबंधों से एक दूसरे से बंधे होते हैं।
  • परिवार सामाजिक विरासत के प्रसारण में एक प्रभावी एजेंट के रूप में व्यवहार करता है।
  • परिवार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संपत्ति सौंपने में मदद करता है।
  • परिवार धार्मिक परंपरा को भी प्रसारित करता है।
  • परिवार एक मनोरंजक इकाई के रूप में कार्य करता है क्योंकि कभी-कभी यह सदस्यों के लिए कुछ मनोरंजक गतिविधियों का आयोजन करता है।
  • परिवार सुरक्षा कवच का काम करता है।

इंट्रा – पारिवारिक भूमिका और संबंध

1) पति-पत्नी का रिश्ता

2) पिता और पुत्र

रिश्ता

3) माँ-बेटी का रिश्ता

4) माँ-बेटे का रिश्ता

 

 

5) पिता-बेटी का रिश्ता

6) बड़े भाई- छोटे भाई का रिश्ता

7) बड़ी बहन – छोटी बहन का रिश्ता

8) भाई-बहन का रिश्ता

एक बुनियादी सामाजिक संस्था के रूप में परिवार परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। आधुनिक परिवार पारंपरिक रूप से मौलिक रूप से भिन्न है। परिवार कभी भी आराम से नहीं रहा है। इसकी संरचना और कार्यों दोनों में परिवर्तन हुए हैं।

 

समानता

नृविज्ञान में एक महत्वपूर्ण अवधारणा – नृविज्ञान में “रिश्तेदारी” की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है। सरल समाजों में नातेदारी संबंध इतने व्यापक, मौलिक और प्रभावशाली होते हैं कि वास्तव में वे अपने आप में ‘सामाजिक व्यवस्था’ का निर्माण करते हैं।

लेकिन अधिक जटिल समाजों में नातेदारी आमतौर पर सामाजिक संबंधों की समग्रता का एक छोटा सा हिस्सा होता है जो सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करता है। समाजशास्त्री परिवार के समाजशास्त्र के अपने अध्ययन को छोड़कर इसे अधिक महत्व नहीं देते हैं। मानवविज्ञानी, इसके विपरीत, इस अवधारणा को अधिक महत्व देते हैं क्योंकि मानवशास्त्रीय अध्ययन में रिश्तेदारी और परिवार केंद्र बिंदु बनाते हैं।

रिश्तेदारी रिश्ते की गणना करने की विधि है। किसी भी समाज में प्रत्येक वयस्क व्यक्ति दो अलग-अलग एकल परिवारों से संबंधित होता है। जिस परिवार में उनका जन्म और पालन-पोषण हुआ उसे ‘अभिविन्यास का परिवार’ कहा जाता है। जिस दूसरे परिवार से वह विवाह के माध्यम से संबंध स्थापित करता है, उसे ‘संतानोत्पत्ति का परिवार’ कहा जाता है। नातेदारी प्रणाली न तो एक सामाजिक समूह है और न ही यह व्यक्तियों के संगठित एकत्रीकरण के अनुरूप है। यह रिश्तों की एक संरचित प्रणाली है जहां व्यक्ति जटिल इंटरलॉकिंग और रेमीफाइंग संबंधों से एक साथ बंधे होते हैं।

इरावती कर्वे ने अपनी पुस्तक ‘किन्शिप ऑर्गेनाइजेशन इन इंडिया’ में तीन बातों का उल्लेख किया है

भारत में किसी भी सांस्कृतिक घटना को समझने के लिए नितांत आवश्यक है।

हिंदू किसानों में, परिवार में माता-पिता, विवाहित पुत्र और बूढ़े दादा-दादी, पिता की बहनें, अविवाहित और विधवा भी शामिल हो सकते हैं। आमतौर पर यहां एक परिवार में पीढ़ियां समा जाती हैं।

 

रिश्तेदारी के संरचनात्मक सिद्धांत:

रिश्तेदारी प्रणाली कुछ बुनियादी सिद्धांतों द्वारा शासित होती है जिन्हें “जीवन के तथ्य” कहा जा सकता है।

रॉबिन फॉक्स ऐसे चार बुनियादी सिद्धांतों की बात करता है जिनका उल्लेख नीचे किया गया है: सिद्धांत -1: महिलाओं के बच्चे होते हैं

सिद्धांत-2: पुरुष महिलाओं को गर्भवती करते हैं सिद्धांत-3: पुरुष आमतौर पर नियंत्रण का प्रयोग करते हैं सिद्धांत-4: प्राथमिक परिजन एक-दूसरे के साथ संभोग नहीं करते हैं।

 

 

ये सिद्धांत बुनियादी जैविक तथ्य पर बल देते हैं जिस पर नातेदारी व्यवस्था निर्भर करती है। पुरुष और महिलाएं यौन संपर्क में शामिल होते हैं और परिणामस्वरूप महिलाएं बच्चों को जन्म देती हैं। इससे व्यक्तियों के बीच रक्त संबंध बनते हैं और इस संबंध को पहचानने के लिए विशेष शब्दों का उपयोग किया जाता है: माता, बच्चे और पिता। रक्त संबंधों पर आधारित रिश्ते को “रक्त संबंध” कहा जाता है, और इस तरह के रिश्तेदारों को ‘रक्त संबंध’ कहा जाता है।

पुनरुत्पादन की इच्छा दूसरे प्रकार के बंधनकारी संबंध को जन्म देती है। “इस प्रकार का बंधन, जो एक सामाजिक या कानूनी रूप से परिभाषित वैवाहिक संबंध से उत्पन्न होता है, एक अंतिम संबंध कहलाता है”, और इस तरह के संबंधियों को ‘एक अंतिम परिजन’ कहा जाता है। अंतिम प्रकार [पति और पत्नी] रक्त के माध्यम से एक दूसरे से संबंधित नहीं हैं।

वंश का नियम:

डिसेंट’ का तात्पर्य व्यक्तियों के बीच मौजूद जैविक संबंधों की सामाजिक मान्यता से है। ‘वंश का नियम’ सिद्धांतों के एक समूह को संदर्भित करता है जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपने वंश का पता लगाता है। लगभग सभी समाजों में रिश्तेदारी के संबंध बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। एक व्यक्ति हमेशा अपने रिश्तेदारों के प्रति कुछ दायित्व रखता है और वह अपने रिश्तेदारों से भी यही उम्मीद करता है। उत्तराधिकार और विरासत वंश के इस नियम से संबंधित है। शालीनता के चार महत्वपूर्ण नियम इस प्रकार हैं;

पितृसत्तात्मक वंश

जब वंश का पता केवल पुरुष रेखा से लगाया जाता है, तो इसे पितृसत्तात्मक वंश कहा जाता है। एक आदमी के बेटे और बेटियाँ सभी जन्म के आधार पर एक ही वंश समूह के होते हैं, लेकिन यह केवल बेटे ही होते हैं जो संबद्धता को जारी रखते हैं। उत्तराधिकार और वंशानुक्रम पुरुष रेखा से होकर गुजरते हैं।

मातृसत्तात्मक वंश

जब वंश का पता केवल स्त्री रेखा से चलता है। इसे मातृसत्तात्मक वंश कहा जाता है। जन्म के समय, दोनों लिंगों के बच्चे माता के वंश समूह से संबंधित होते हैं, लेकिन बाद में केवल महिलाएं ही उत्तराधिकार और विरासत प्राप्त करती हैं। इसलिए बेटियां पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरा को आगे बढ़ाती हैं।

उभयलिंगी वंश

कुछ समाजों में व्यक्ति पुरुषों या महिलाओं के माध्यम से अपनी वंशावली दिखाने के लिए स्वतंत्र हैं। इसलिए ऐसे समाज के कुछ लोग पिता के स्वजन समूह से और कुछ अन्य माता के सगोत्र समूह से जुड़े होते हैं। उत्तराधिकार और उत्तराधिकार का पता लगाने के लिए कोई निश्चित नियम नहीं है; ऐसे समाजों में रेखीय लिंक का कोई भी संयोजन संभव है।

द्विपक्षीय वंश

द्विपक्षीय शब्द का अर्थ है दो तरफा,। कुछ ऐसे समाज हैं जहाँ कोई भी रैखिक सिद्धांत काम नहीं करता है,

यानी उन समाजों में व्यक्ति खुद को एक सामान्य पूर्वज से नहीं जोड़ते हैं। किसी विशेष रेखा के अवतरण की गणना नहीं की जाती है; बल्कि वे सापेक्षता को स्वीकार करते हैं

पिता और माता दोनों पक्षों के समान महत्व के साथ। दो पक्षों के रिश्तेदारों को अहंकार के संदर्भ में गिना जाता है और इसमें मुख्य रूप से माता-पिता, दादा-दादी, चाचा, चाची और पहले चचेरे भाई शामिल होते हैं। परमाणु परिवार हमेशा द्विपक्षीय होते हैं

 

 

क्योंकि पति-पत्नी अनिवार्य रूप से दो अलग-अलग परिवारों से आते हैं और बच्चे दोनों से संबंधित होते हैं

माता-पिता के परिवार का। संयुक्त राज्य के समाज को द्विपक्षीय वंश की विशेषता है।

विशेष रिश्तेदारी उपयोग

नातेदारी प्रथा या नातेदारी के नियम नातेदारी व्यवस्था को समझने में महत्वपूर्ण हैं। वे दो मुख्य उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं:

 

  • वे समूह या विशेष समूह या परिजन बनाते हैं। उदाहरण के लिए- परिवार विस्तारित परिवार, गोत्र आदि।
  • रिश्तेदारी के नियम रिश्तेदारों के बीच संबंधों की भूमिका को नियंत्रित करते हैं।

 

रिश्तेदारी का उपयोग इन सामाजिक समूहों में व्यक्तियों के बीच बातचीत के लिए दिशानिर्देश प्रदान करता है। यह उचित और स्वीकार्य भूमिका संबंधों को परिभाषित करता है। इस प्रकार यह सामाजिक जीवन के नियामक के रूप में कार्य करता है। इनमें से कुछ रिश्ते हैं: परिहार, टेक्नोनीमी, एवेंक्यूलेट, एमिटेट, कौवाडे और मजाक का रिश्ता।

ये विशेष नातेदारी प्रयोग, जो अशिक्षित समाजों के संबंध में विशेष महत्व रखते हैं।

(ए) अवंकुलेट

यह एक माँ के भाई और उसकी बहन के बच्चों के बीच पाया जाने वाला एक विचित्र प्रयोग है। कुछ मातृसत्तात्मक समाजों में, मामा पिता के कई कर्तव्यों को परंपरा के रूप में मानते हैं। उनके भतीजे और भतीजी उनके अधिकार में रहते हैं। उन्हें उनकी संपत्ति भी विरासत में मिलती है। मेलनेशिया के ट्रोब्रिएंड आइलैंडर्स और केरल के नायर्स के बीच ऐसा रिश्ता मौजूद है। यह उस विशेष संबंध को संदर्भित करता है जो कुछ समाजों में एक व्यक्ति और उसकी माँ के भाई के बीच बना रहता है। यह प्रयोग मातृसत्तात्मक व्यवस्था में पाया जाता है जिसमें मामा को उसके भतीजों और भतीजियों के जीवन में प्रमुखता दी जाती है।

(बी) अमितेट

इस प्रकार का प्रयोग कमोबेश अवनकुलत्व के समान है और पितृसत्तात्मक लोगों में पाया जाता है। अमिताते का प्रयोग पिता की बहन को विशेष भूमिका देता है। यहां पिता की बहन को बहुत सम्मान और प्रमुख महत्व मिलता है। वह अपने भतीजे के लिए माँ से बढ़कर है और जीवन की कई घटनाओं में उस पर अपना अधिकार जताती है। वास्तव में यह एक सामाजिक तंत्र है, जो पिता की बहनों को उपेक्षित होने से बचाता है, विशेष रूप से उन स्थितियों में जब उन्हें अपने ससुराल से निकाल दिया जाता है। पोलिनेशियन टोंगा, दक्षिण भारत के टोडा आदि इस प्रकार के उपयोग को प्रदर्शित करते हैं। बच्चे का नाम उसके माता-पिता से नहीं बल्कि पिता की बहन से होता है। बच्चे का नामकरण करना उसका विशेषाधिकार है।

(सी) कौवाडे

यह एक पति और उसकी पत्नी के बीच रिश्तेदारी का एक और अजीब प्रयोग है। यहाँ पति को मजबूर होना पड़ता है जब भी उसकी पत्नी बच्चे को जन्म देती है तो उसे कठोर जीवन व्यतीत करना पड़ता है। उसे पत्नी के साथ कई वर्जनाओं का पालन करने के लिए एक सख्त रुख बनाए रखना पड़ता है। मानवविज्ञानी कौवाडों को मानते हैं

 

 

बच्चे पर पितृत्व स्थापित करने का एक प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है मलिनॉस्की के अनुसार कुवड़े का उपयोग पति और पत्नी के बीच एक मजबूत वैवाहिक बंधन में योगदान देता है।

यह दक्षिण भारत के नायर्स, जापान के ऐनस और चीन के कुछ समुदायों के बीच लोकप्रिय था।

(डी) परिहार

अधिकांश समाजों में परिहार का उपयोग अनाचार निषेध के रूप में कार्य करता है। इसका मतलब यह है कि आम तौर पर विपरीत लिंग के दो रिश्तेदारों को एक दूसरे से दूर रहना चाहिए। लगभग सभी समाजों में परिहार नियम निर्धारित करते हैं कि पुरुषों और महिलाओं को मिश्रित कंपनी में भाषण, पोशाक और हावभाव में निश्चित मात्रा में शालीनता बनाए रखनी चाहिए। यह वास्तव में करीबी रिश्तेदारों के बीच अनाचारपूर्ण यौन संबंध के खिलाफ एक सुरक्षात्मक उपाय है जो हर दिन आमने-सामने संपर्क में रहते हैं।

उत्तर में हिंदू परिवार में पर्दा प्रथा परिहार के उपयोग को दर्शाती है।

 

 

(ई) मजाक रिश्ते

यह ‘परिहार’ के विपरीत रिश्तेदारी के उपयोग का ठीक विपरीत प्रकार है। हंसी-मजाक वाले रिश्ते मिले

आदिवासी के साथ-साथ हिंदू समाज में भी।

एक मज़ाकिया रिश्ते में कुछ सामाजिक स्थितियों में व्यक्तियों और समूहों के बीच मित्रता और विरोध का एक विशेष संयोजन शामिल होता है। इन स्थितियों में एक व्यक्ति या समूह को अपराध किए बिना दूसरे का उपहास या उपहास करने की अनुमति है। मज़ाक करने वाले रिश्ते का उपयोग दूसरे को चिढ़ाने और मज़ाक उड़ाने की अनुमति देता है। ऐसा रिश्ता एक तरफ नाती और पोती, उसके दादा और दादी के बीच होता है, दूसरी तरफ उड़ीसा के ओरान और मध्य प्रदेश के बैगा में ऐसे रिश्ते होते हैं।

(एफ) तकनीकी:

इस प्रयोग के प्रयोग के अनुसार एक नातेदार को सीधे नहीं बल्कि दूसरे नातेदार के माध्यम से संदर्भित किया जाता है। एक पारंपरिक हिंदू परिवार में पत्नी सीधे अपने पति का नाम नहीं लेती है, लेकिन अपने पति को अमुक-अमुक के पिता के रूप में संदर्भित करती है। जेम्स फ्रेज़र ने कहा है कि इस प्रकार का प्रयोग ऑस्ट्रेलिया, न्यू गिनी, चीन, उत्तरी साइबेरिया, अफ्रीका, अंडमान द्वीप आदि जैसे कई स्थानों में लोगों के बीच पाया जाता है।

कबीले

वंश एक वंश से बड़ा एक एकरेखीय नातेदारी समूह है। यहां सदस्यों को एक सामान्य पूर्वज से वंशज माना जाता है लेकिन वंशावली लिंक निर्दिष्ट नहीं हैं। यानी सदस्य वंशावली तालिका के माध्यम से अपने वास्तविक रैखिक संबंध को प्रदर्शित नहीं कर सकते। एस में

ऐसी स्थिति के वंश का पता एक पौराणिक पूर्वज से लगाया जाता है जो एक मानव या एक पौधा या एक जानवर या एक निर्जीव वस्तु भी हो सकता है। कबीला, सिब और जेंट्स शब्द चारों ओर समान एकरेखीय नातेदारी को इंगित करते हैं।

गोत्र स्वभाव से बहिर्विवाही होते हैं अर्थात विवाह के साथी अनिवार्य रूप से दो अलग-अलग गोत्रों से आते हैं। एक कबीले में सदस्यता वंशानुगत होती है। एक कबीले के सदस्य आमतौर पर एक-दूसरे के मित्रवत रहते हैं और

 

 

एक सामाजिक आवश्यकता के बाद एक दूसरे की मदद करें। लेकिन कभी-कभी दो कुलों के बीच शत्रुतापूर्ण संबंध पाया जाता है।

विशेष पशु या पौधा, जो समूह पहचान के रूप में एक गोत्र से जुड़ा रहता है, टोटेम कहलाता है। आर.एच. लोवी के अनुसार, ‘एक टोटेम आम तौर पर एक जानवर होता है जो शायद ही कभी एक पौधा होता है, फिर भी शायद ही कभी एक ब्रह्मांडीय शरीर या सूरज या हवा की तरह बल होता है, जो एक कबीले को अपना नाम देता है और शायद अन्यथा इससे जुड़ा होता है।’ एक टोटेम इसलिए विशेष रूप से है कबीले के सामने महत्वपूर्ण। नदियां गोत्र को ‘जनजाति का बहिर्विवाही विभाजन’ के रूप में परिभाषित करती हैं, जिसके सदस्य एक समान वंश, कुलदेवता के सामान्य आधिपत्य या एक सामान्य भू-भाग में विश्वास द्वारा एक साथ बंधे होते हैं। कबीला दुनिया के लगभग सभी आदिम समुदायों में पाया जाता है। , हालांकि एक सार्वभौमिक विशेषता के रूप में नहीं। उदाहरण के लिए, भारत के सैंडल में बारह गोत्र हैं, लोढ़ा जनजाति में नौ गोत्र हैं। अंडमानी और कादर कबीले का कोई सबूत नहीं दिखाते हैं। अमेरिका की जनजातियों में गोत्र का अभाव भी पाया गया है।

एक कबीले के सदस्य अपने कुलदेवता को संस्थापक पूर्वज मानते हैं। वे हमेशा यह नहीं मानते हैं कि वे सीधे कुलदेवता के वंशज हैं, ऐसा कहा जाता है कि विशेष कुलदेवता ने उनके पूर्वजों की मदद की या उन्हें बढ़ावा दिया या कुछ सेवाएं दीं। इसलिए, सदस्य कुलदेवता का सम्मान करते हैं, वे कभी भी संदर्भ के कुलदेवता को छूते, मारते, खाते, नुकसान पहुँचाते या नष्ट नहीं करते। उदाहरण के लिए, संथाल के बीच एक गोत्र को हंसदा नाम दिया गया है। इस कबीले के सदस्य बत्तख (स्थानीय नाम: हंस) का सम्मान करते हैं और बत्तख का मांस नहीं खाते क्योंकि वे खुद को बत्तख से उत्पन्न मानते हैं। इसी प्रकार लोधाओं में एक गोत्र नायक है जिसका कुलदेवता साल-मछली है। इस जाति के लिए साल-मछली को मारना या खाना वर्जित है। इस संबंध में और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं। उराँवों में से एक कबीले का नाम लकड़ा है जिसका अर्थ है बाघ। कबीले के सदस्य इस पुश्तैनी जानवर के संबंध में बाघों का कभी शिकार नहीं करते हैं।

उत्पत्ति की प्रकृति के आधार पर कुलों को कई प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

(ए) पितृवंशीय कबीले

जब एक गोत्र प्रकृति में पितृसत्तात्मक होता है, तो उसे पितृवंशीय कबीला कहा जाता है, अर्थात सभी सदस्य पुरुष वंश के माध्यम से एक सामान्य पूर्व-पिता के वंशज माने जाते हैं। हर बच्चे को पिता के गोत्र का नाम विरासत में मिलता है, हालांकि बेटियां शादी के बाद अपने पति के संबंधित गोत्र के नाम को अपनाकर इसे छोड़ देती हैं। भारत की संथाल, मुंडा, लोढ़ा, उराँव, भील आदि जनजातियाँ इस प्रकार के गोत्र का प्रदर्शन करती हैं।

(बी) मातृवंशीय कबीले

यह एक प्रकार का गोत्र है जहाँ महिलाओं के माध्यम से एक ही पूर्वज से वंश की गणना की जाती है। हर बच्चा, लिंग के बावजूद जन्म से ही अपने मातृ गोत्र का नाम प्राप्त कर लेता है, लेकिन बेटे शादी के बाद अपनी-अपनी पत्नियों के गोत्र-नाम अपना लेते हैं। भारत की गारो, खासी और नायर जनजातियाँ इस प्रकार के गोत्र दर्शाती हैं।

(c) पैतृक वंश

कभी-कभी एक कबीले के सदस्यों का मानना है कि उनकी उत्पत्ति नर और मादा की एक निश्चित जोड़ी से हुई है। इस प्रकार के गोत्र को पैतृक गोत्र कहा जाता है। यह भारत के खासी लोगों में पाया जाता है।

 

 

(डी) टोटेमिक कबीले

मानव पूर्वज के बजाय जब एक कबीले के सदस्य खुद को एक विशेष टोटेम से संबंधित करते हैं, तो कबीले को टोटेमिक कबीले के रूप में नामित किया जाता है। संताल, उरांव, लोढ़ा, कोल, भील, गोंड, टोडा आदि जैसे आदिम समुदायों में इस तरह के गोत्र अक्सर पाए जाते हैं।

(ई) प्रादेशिक कबीले

कभी-कभी एक कबीले के सदस्य खुद को एक विशेष क्षेत्र से पहचानते हैं जहां से वे संभवतः उत्पन्न हुए थे। मप्र के बाइसन मुरियाओं में कुलों का नाम गांवों के नाम पर रखा गया है। असम के नागाओं में, खेल एक प्रादेशिक समूह है, हालांकि गोत्र नहीं।

सिब’ शब्द को अक्सर ‘कबीले’ शब्द का पर्याय माना जाता है क्योंकि यह एकतरफा बहिर्विवाही समूह भी है जहां सदस्य एक सामान्य वंश में विश्वास करते हैं लेकिन वे वंशावली तालिका के माध्यम से लिंक दिखाने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। इसके अलावा, यह अनैच्छिक जुड़ाव जन्म पर निर्भर है और इसे गोद लेने के माध्यम से बदला जा सकता है। शिकार और देहाती जनजातियों जैसे अंडमानी, सेमांग, हॉटेंटॉट, बुशमैन, एस्किमो, आदि द्वारा प्रतिनिधित्व की जाने वाली संस्कृति के सबसे निचले चरणों में सिब नहीं होते हैं। सिब का अस्तित्व असम के ल्होटा नागा, उड़ीसा के भुइया, मणिपुर के कुकी से दर्ज किया गया है। , ऑस्ट्रेलिया के अरुणता, अफ्रीका के बैंटस और मसाई आदि कबीले के अन्य पर्यायवाची हैं, ‘जेन’ एक पितृसत्तात्मक कबीले से मेल खाते हैं क्योंकि यहाँ रिश्तेदारी पूरी तरह से पुरुष रेखा के माध्यम से खोजी जाती है।

गोत्र भी बंगाल शब्द ‘गोत्र’ के समतुल्य है। एक ही गोत्र नाम के सदस्य आपस में विवाह नहीं करते। भारत के हिंदुओं में विभिन्न गोत्र- नाम कुछ प्राचीन ऋषियों (क्षयप, शांडिल्य, गौतम, वरतद्वाज, आदि) के नामों से संबंधित हैं, जिसका अर्थ है कि एक ही गोत्र-नाम वाले लोग एक ही पूर्व-पिता के वंशज हैं। गोत्र, इसलिए पितृसत्तात्मक है और इसका कोई कुलदेवता नहीं है।

समारोह

कबीले का

  1. एक कबीला अपने सदस्यों के बीच एकजुटता का बंधन प्रदान करता है।
  2. एक गोत्र के स्त्री-पुरुष संबंध को भाई-बहन के संबंध की तरह देखते हैं क्योंकि वे एक ही पूर्वज के वंशज होते हैं।
  3. एक कबीला अपने सदस्यों को किसी सामाजिक मानदंड का उल्लंघन करने पर दंडित कर सकता है।
  4. गोत्र एक सरकार के रूप में कार्य करता है.. इसके पास न केवल शांति बनाए रखने के लिए विवादों पर निर्णय करने की शक्ति है, इसके माध्यम से विभिन्न प्रकार की मंजूरी आती है।
  5. संपत्ति को नियंत्रित करने के लिए एक कबीला पाया जाता है।
  6. एक कबीले के सदस्य विभिन्न धार्मिक और औपचारिक अवसरों में आपस में सहयोग करने के लिए एकजुट होते हैं।

बिरादरी

दो या दो से अधिक गोत्रों का परस्पर संबंध भ्रातृभाव बनाता है। इसलिए, यह कुल की तुलना में एक बड़ा एकरेखीय वंश समूह है। एक कबीले के रूप में, एक फ्रेट्री के सदस्य सामान्य पूर्वज के साथ अपने वंशावली संबंधों को प्रदर्शित करने में सक्षम नहीं होते हैं, हालांकि वे ऐसे पूर्वज में दृढ़ता से विश्वास करते हैं।

 

 

फ्रेट्री शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘फ्रेटर’ से हुई है जिसका अर्थ भाई होता है। ऐसा माना जाता है कि कुछ कबीले ऐतिहासिक रूप से किसी न किसी कारण से एक साथ मिल गए और उनके बीच ऐसा घनिष्ठ संबंध विकसित हो गया कि धीरे-धीरे उन्होंने एक सामान्य पहचान हासिल कर ली जहां उनकी व्यक्तिगत स्थिति को भुला दिया गया। फ्रेट्री मणिपुर की ऐमोल कुकी, होपी इंडियन, क्रो इंडियन, अमेरिका की एज़्टेक इंडियन आदि जनजातियों में पाई जाती है।

एक फ्रेट्री बहिर्विवाही हो भी सकती है और नहीं भी। उदाहरण के लिए, कौवा भारतीयों के बीच तेरह कुलों को छह अज्ञात वाक्यांशों में बांटा गया है, जिनमें से चार विवाह के नियमों में सख्त नहीं हैं। दूसरी ओर, होपी भारतीयों में, नौ गुमनाम फ्रेट्रीज़ (प्रत्येक में दो से छह गोत्र होते हैं) पाए जाते हैं, जो बहिर्विवाही हैं।

आधा भाग

यह सबसे बड़ा एकपक्षीय सामाजिक समूह है, जो वंश के आधार पर समाज के दो हिस्सों में बंटने का परिणाम है। मोइटी शब्द फ्रांसीसी शब्द से आया है जिसका अर्थ है ‘आधा’। गोत्र और बिरादरी की तरह, प्रत्येक खंड के सदस्य हालांकि एक सामान्य पूर्वज में विश्वास करते हैं, लेकिन सटीक लिंक निर्दिष्ट नहीं कर सकते। अर्धांग बहिर्विवाही या अंतर्विवाही हो सकते हैं। उनमें से कुछ अविवाहित भी हैं अर्थात वे विवाह के कारक को नियंत्रित नहीं करते हैं।

मणिपुर की ऐमोल कुकियों को विशिष्ट नामों के बिना दो भागों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक भाग को आगे दो गुटों में विभाजित किया जाता है और प्रत्येक खंड के दो गोत्र या सहोदर होते हैं। द्विविवाह बहिर्विवाही होते हैं और उनमें से एक को दूसरे से श्रेष्ठ माना जाता है। पुजारी सहित ग्राम संगठन के सभी पदों को श्रेष्ठ अंश सुरक्षित रखता है। दोनों पक्ष जनजाति के विशिष्ट धार्मिक संस्कार और समारोह अलग-अलग करते हैं। प्रत्येक के कुछ विशेष प्रदर्शन भी हैं। लेकिन उच्च सामाजिक-स्थिति वाले समारोह केवल श्रेष्ठ धर्म के सदस्यों द्वारा ही किए जाते हैं।

वंशावली

एक परिवार द्विपक्षीय है। इसके विपरीत, एक वंश एकतरफा वंश समूह है। यह संगीन नातेदारों से बना होता है जो ज्ञात लिंक के माध्यम से एक सामान्य पूर्वज या पूर्वज से अपने वंश का दावा करते हैं। एक वंश में आमतौर पर एक क्रम में पांच या छह पीढ़ियों के पूर्वज शामिल होते हैं। वंश दो प्रकार के हो सकते हैं- पितृवंश और मातृवंश। पूर्व में, केवल पुरुष रेखा के माध्यम से लिंक का पता लगाया जाता है और बाद में, केवल महिला लाइन के माध्यम से लिंक बनाए रखा जाता है। यदि वंश पितृसत्तात्मक है, तो कानूनी विवाह का बच्चा अपने पिता के वंश का होता है। एक महान या एक सामान्य के रूप में उनकी रैंक संबंधित वंश की प्रकृति से निर्धारित होगी। यह उसे राजा या मुखिया या पुजारी बनने का हकदार बना सकता है। सामान्य मामलों में, किसी का वंश के उत्पादक संसाधनों पर दावा होना चाहिए। एक मातृसत्तात्मक समाज में, प्रत्येक बच्चा अपनी माँ के वंश का होता है, हालाँकि अधिकार माँ के सबसे बड़े भाई के पास जाता है।

वंश के सदस्य एक सामान्य निवास साझा कर सकते हैं या नहीं भी कर सकते हैं। सबसे छोटे वंश में एक आदमी और उसके बच्चे होते हैं। संयुक्त परिवार भी एक वंश है जिसमें तीन या चार पीढ़ी तक के सदस्य एक साथ उपलब्ध होते हैं। दरअसल एक वंश के सदस्य एक कॉर्पोरेट समूह बनाते हैं जो

 

 

समान कर्मकांड करते हैं लेकिन दैनिक मामलों में स्वायत्तता रखते हैं। एक वंश हमेशा एक सख्त बहिर्विवाही इकाई होता है और वंश का पूर्वज कभी भी पौराणिक या पौराणिक व्यक्ति नहीं होता है।

 

गण चिन्ह वाद

टोटेमवाद बुतपरस्ती का विस्तार है। टोटेम पशु या पौधे की एक प्रजाति है; या प्राकृतिक वस्तु या घटना या इनमें से किसी का प्रतीक जो एक ही समाज में समान रूप से प्रतिनिधित्व किए गए अन्य समूहों की तुलना में एक मानव समूह की विशेषताओं को दर्शाता है और अलग करता है।

एक टोटेम भौतिक वस्तुओं का एक वर्ग है जिसे एक जंगली अंधविश्वासी सम्मान के साथ मानता है कि उसके और कबीले के प्रत्येक सदस्य के बीच एक अंतरंग और पूरी तरह से एक विशेष संबंध है। एक टोटेम आम तौर पर एक जानवर या शायद ही कभी एक पौधा होता है जो कबीले को नाम देता है।

टोटेमिज्म’ के सिद्धांत के अनुसार, एक जनजाति को एक वस्तु-मुख्य रूप से जानवर या पौधे से संबंधित माना जाता है, जिसके प्रति वे उसके नाम को अपनाकर और बलि चढ़ाकर या उसकी पूजा करके श्रद्धापूर्वक व्यवहार करते हैं। टोटेम आदिवासी संगठन से जुड़ा हुआ है, और यह जनजाति का नाम बन जाता है, टोटेम भावना की एक छवि, और

जानवर या पौधा जो पहचान करता है। जनजातीय समूह के सदस्य खुद को टोटेम से संबद्ध करते हैं। टोटेमिक प्रतीकों का आह्वान किया जाता है कि धार्मिक दृष्टिकोण और असहमति के साथ टोटेमिक लाइन का पता लगाया जाता है। हालांकि कुलदेवतावाद सार्वभौमिक रूप से पाया जाता है लेकिन यह काफी विविधताओं को प्रदर्शित करता है।

धर्म

धर्म एक अलौकिकतावाद है जिसमें विश्वास, विचार और क्रिया की एक प्रणाली शामिल है। यह सभी आदिम और सभ्य संस्कृतियों के मूल में निहित है। यह समाज के लिए एक आंतरिक नियंत्रक शक्ति के रूप में कार्य करता है और लोगों को नैतिकता प्रदान करता है। किसी धर्म को न तो किसी विशेष आस्था के संदर्भ में, न ही किसी विशेष ईश्वर के संदर्भ में परिभाषित किया जा सकता है। वास्तव में विभिन्न प्रकार के धर्म और धार्मिक विचार हैं। अलौकिकता की प्रकृति की जांच करना सबसे पहली और महत्वपूर्ण आवश्यकता है। सभी धर्म अनिवार्य रूप से परा प्रकृति के प्रति एक मानसिक दृष्टिकोण प्रदर्शित करते हैं, जो विश्वासों और कर्मकांडों में प्रकट होता है। विश्वास को धर्म का स्थिर हिस्सा माना जाता है जबकि कर्मकांड गतिशील हिस्सा है। अनुष्ठान में विभिन्न क्रियाएं शामिल होती हैं जिनका उद्देश्य प्रदर्शन करने वाले व्यक्ति और अलौकिक शक्ति के बीच संबंध स्थापित करना होता है। दूसरी ओर, विश्वास का कोई सीधा प्रभाव नहीं पड़ता; यह अनुष्ठानों के लिए एक चार्टर के रूप में खड़ा है और उसी के लिए एक तर्क प्रदान करता है। हालाँकि, सभी ज्ञात संस्कृतियों, आदिम और आधुनिक में धार्मिक दृष्टिकोण सार्वभौमिक हैं। वे होमो सेपियन्स से जुड़े रहे हैं।

धार्मिक विश्वास की उत्पत्ति

लोगों का सामान्य दर्शन दो प्रकार के विचारों को स्वीकार करता है- प्रकृति और प्रकृति से श्रेष्ठ यानी परा प्रकृति। प्रकृति और परा प्रकृति की अवधारणा एक विशेष क्षण में एक संस्कृति में सापेक्ष होती है। ज्ञान की वृद्धि के साथ और कुछ अलौकिक घटनाएँ स्वाभाविक प्रतीत हो सकती हैं। वास्तव में, प्रकृति और परा प्रकृति के बीच का अंतर इंद्रियों की मदद से लोगों के दृष्टिकोण और अहसास में निहित है।

 

 

मानवशास्त्रियों ने धर्म को मानव मस्तिष्क के विकासवादी विकास का उत्पाद माना है। दूसरे जानवरों के दिमाग की क्षमता इतनी कम होती है कि वह उन्हें इंसानों की तरह सोचने की इजाजत नहीं देता। वे ब्रह्मांड की उस विशालता को कभी नहीं देख पाते क्योंकि उनके पास संवेदनशील मन और भावनात्मक भावनाओं की कमी होती है। इसलिए, पहला धार्मिक विश्वास संभवतः प्रारंभिक पुरापाषाण काल में मूल प्रथम व्यक्ति के साथ अस्तित्व में आया और तब से रहस्यवादी विचार ने मानव जीवन पर बहुत अधिक नियंत्रण किया जब तक कि अरस्तू, प्लेटो और अन्य यूनानी दार्शनिकों ने धर्म में आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवशास्त्रीय जांच की नींव नहीं रखी। उन्नीसवीं शताब्दी तक फैला हुआ है जब नृविज्ञान एक अकादमिक अनुशासन के रूप में उभरा। धार्मिक विश्वासों की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न सिद्धांत हैं। सबसे पहला ईबी टेलर (1871) द्वारा अग्रेषित किया गया था, जहां उन्होंने यह विचार व्यक्त किया कि धर्म स्वप्न, समाधि और मृत्यु जैसी घटनाओं के बारे में बौद्धिक अटकलों से उपजा था। उनका प्रस्ताव तीन गुना था ‘

  1. धर्म का विकास भय से हुआ है।
  2. यद्यपि विश्व में धर्म के रूपों में अत्यधिक विविधता है, तथापि सभी धर्मों का मूल तत्व एक ही है।
  3. सभी धर्म अलौकिक शक्ति को स्वीकार करते हैं।

हर्बर्ट स्पेंसर (1822-1903) ने सोचा कि यह पैतृक पूजा से उत्पन्न हुआ है। सर जेम्स फ्रेजर (1854-1941) ने जादू को धर्म के विकास के स्रोत के रूप में माना। उस प्रारंभिक काल के अधिकांश विद्वानों का मानना था कि धर्म प्रकृति के अन्वेषक के तहत विस्मय, भय और आश्चर्य जैसी भावनाओं की परस्पर क्रिया से विकसित हुआ है। एमिल दुर्खीम (1858-1917) ने धर्म को संपूर्ण सामाजिक घटनाओं में सबसे आदिम माना। उन्हें अलौकिक क्षेत्र में दो अलग-अलग खंड मिले, जिन्हें उन्होंने पवित्र भाग और अपवित्र भाग के रूप में नामित किया। उनके अनुसार धर्म का पवित्र भाग देवताओं और देवताओं को संदर्भित करता है और पवित्र प्रदर्शन और अपवित्र भाग विश्वासों और प्रथाओं को संदर्भित करता है।

 

मलिनॉस्की और रैडक्लिफ-ब्राउन ने आदिम धर्म की कार्यात्मक व्याख्या की है। मलिनॉस्की ने धर्म को विभिन्न प्रकार की भावनात्मक प्रतिक्रियाओं के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ पाया, इसलिए उन्होंने धर्म को एक अनुकूलन के रूप में वर्णित किया, जो व्यक्तियों के सभी तनाव और तनाव को कम करता है। रेडक्लिफ ब्राउन के लिए एक व्यक्ति की तुलना में एक समूह का जीवित रहना अधिक महत्वपूर्ण था। इसलिए, उन्होंने सुझाव दिया कि एक समूह का सामाजिक अस्तित्व एक व्यक्ति की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण था। इसलिए, उन्होंने धर्म की सहायता से सामाजिक अस्तित्व का सुझाव दिया।

 

अशिक्षित समाज में धर्म लोगों को आपस में जोड़ने वाला प्रमुख कारक है। सम्बन्धों का बंधन इतना व्यापक है कि यह कानून, नैतिकता, कला, विज्ञान, राजनीतिक रूपों आदि सामूहिक गतिविधियों में प्रकट होता है।

धर्म के विकास में अवधारणाओं

मानवशास्त्रियों ने सरल से जटिल रूपों में धर्म के विकास का पता लगाने का प्रयास किया। एडवर्ड बर्नेट टाइलर ने अपनी पुस्तक ‘प्रिमिटिव रिलिजन’ (1871) में बहुदेववाद के माध्यम से जीववाद से एकेश्वरवाद तक के इस विकास को दिखाया।

 

 

जीववाद

स्वयं टाइलर द्वारा प्रतिपादित धर्म के प्रति सर्वप्रथम अवधारणा जीववाद है। यह आध्यात्मिक प्राणियों के अस्तित्व में विश्वास है। आत्माएं वास्तविक मांस और रक्त के बिना ईथर अवतार हैं। हालांकि

गैर-भौतिक हैं, लेकिन उन लोगों के लिए पर्याप्त वास्तविक हैं जो इसमें विश्वास करते हैं। आदिम उन आत्माओं को संदर्भित करने के लिए विभिन्न नामों का उपयोग करते हैं- भूत, भूत, जिन्न, ट्रोल, परी, चुड़ैल, दानव, शैतान, देवदूत और यहां तक ​​कि भगवान भी। एक आत्मा प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करती है और पदार्थ, समय और स्थान को पार कर सकती है। यह आत्माओं को अद्भुत और रहस्यमय बनाता है, और इसलिए उन्हें अलौकिक माना गया है।

एनिमेटिज्म

यह धर्म का सबसे प्रारंभिक रूप है जिसमें प्रकृति में विभिन्न वस्तुओं की पूजा शामिल है। विविध प्राकृतिक वस्तुओं और परिघटनाओं को लेकर लोगों के मन में विस्मय और श्रद्धा का भाव काम करता था। व्याकुल होने के कारण, उन्होंने जीवन को निर्जीव वस्तुओं से जोड़ दिया और शक्ति के अदृश्य स्रोत को ईश्वर के साथ जोड़ दिया। जीववादी सिद्धांत के विशिष्ट रूप को मनवाद कहा जाता है। मन मेलानेशियन शब्द है जिसका अर्थ है शक्ति। प्रोफेसर मेरेट के अनुसार, दुनिया के माध्यम से आदिम लोग एक अवैयक्तिक गैर-भौतिक अलौकिक शक्ति के अस्तित्व में विश्वास करते हैं जो सभी वस्तुओं- चेतन और निर्जीव से संबंधित है। मन की शक्ति को कभी-कभी “कामोत्तेजक” कहा जाता है। एक बुत एक पत्थर, खोल का हार या नक्काशीदार पत्थर का एक टुकड़ा है, जिसके बारे में माना जाता है कि इसमें शक्ति होती है, जो अपने मालिक की मदद करने में सक्षम है। इसलिए बुत को उसके व्यवहार के अनुसार सराहा जाता है, शांत किया जाता है, अपमानित किया जाता है या उसके साथ बुरा व्यवहार किया जाता है, चाहे वह अपने स्वामी की इच्छा को पूरा करता हो या नहीं करता हो।

आदिम धर्म के घटक

सभी अलौकिक प्राणियों को दो व्यापक समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

(i) वे गैर-मानव मूल के हैं यानी प्रकृति देवता और आत्माएं।

(ii) (ii) वे मानव मूल के हैं यानी दिवंगत आत्माएं जैसे पूर्वजों की आत्माएं और भूत।

दोनों श्रेणियों के अलौकिक प्राणी पुरुषों के लिए अच्छाई और बुराई पैदा कर सकते हैं। वे कई सफलताओं और असफलताओं के पीछे कारण रहे हैं। रोग, सूखा, तूफान, भारी वर्षा, अकाल, महामारी भी इनसे ही उत्पन्न होती है।

आदिम जीवन में देवी-देवताओं का महत्वपूर्ण स्थान है। संपूर्ण ब्रह्मांड देवताओं के बीच विभाजित है। ये देवी-देवता आमतौर पर स्वयं निर्माता होते हैं।

धार्मिक प्रथाओं की प्रकृति

विश्वास और प्रथाओं के एक निकाय के रूप में धर्म धार्मिक विचारों में व्यापक भिन्नता दर्शाता है। धार्मिक प्रथाएं भी विविध हैं। ये अभ्यास और कुछ नहीं बल्कि अलौकिक के साथ संवाद करने की तकनीकें हैं। लेकिन वे विश्वासियों के लिए अनिवार्य हैं जो अपने विश्वासों के अनुसार कार्य करते हैं। इस तरह की प्रथाएं एक आदिम समूह में सामाजिक बंधनों को मजबूत करती हैं और रीति-रिवाजों के प्रति एक अतिरिक्त अधिकार को दर्शाती हैं। प्रथाओं को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है: धार्मिक संस्कार और मार्ग के संस्कार।

(ए) धार्मिक संस्कार

, धार्मिक संस्कारों का उद्देश्य पूजा के द्वारा एक भगवान को प्रसन्न करना है जो कि निजी तौर पर घर में या सार्वजनिक रूप से मंदिर में किया जा सकता है। प्रार्थना, प्रसाद, व्रत उत्सव के रूप में रूप भिन्न हो सकते हैं

 

 

या बलिदान प्रदर्शन। प्रार्थना सभी धार्मिक संस्कारों में सबसे सरल है जहाँ शब्दों के माध्यम से श्रद्धा प्रकट की जाती है। यह एक अनुरोध या एक मांग या सिर्फ धन्यवाद हो सकता है..

(बी) पारित होने के संस्कार

मार्ग के संस्कार धार्मिक संस्कारों से पूरी तरह से अलग हैं जिनमें प्रकृति देवताओं और विभिन्न आत्माओं की पूजा शामिल है। ये विशेष संस्कार प्रत्येक समाज में लोगों के जीवन चक्र से महत्वपूर्ण रूप से जुड़े हुए हैं। वे जीवन के एक चरण के गुजरने और दूसरे में प्रवेश करने का प्रतीक हैं। उदाहरण के लिए, जन्म, युवावस्था, विवाह, पुरोहित-पद की दीक्षा, मृत्यु आदि। वे अंग्रेजी में फ्रेंच समकक्ष राइट्स-डी-पैसेज द्वारा जाने जाते हैं, और लोकप्रिय रूप से ‘लाइफ-क्राइसिस’ अनुष्ठान के रूप में जाने जाते हैं।

 

(सी) धर्म का महत्व

संस्कार और समारोह परोपकार और भाईचारे का माहौल बनाते हैं। झगड़े और असहमति के सभी उद्देश्य समाप्त हो जाते हैं। लोग एक साथ एकजुट होते हैं और आनन्ददायक गतिविधियाँ उन्हें ऊर्जा प्रदान करती हैं; एक संगठित समुदाय की सामाजिक भावनाओं को नवीनीकृत किया जाता है। धार्मिक अनुभव ऐसा वातावरण और दृष्टिकोण निर्मित करते हैं कि मनुष्य अपने आचरण को नियमित करने में समर्थ हो जाता है। हर जगह लोगों ने धार्मिक व्यवस्था विकसित की है जिसमें धार्मिक व्यवहार का लक्ष्य समान अंत हासिल करना है। यह मानव जाति की एकता की गवाही देता है।

यह अंतर-पारिवारिक संबंधों को बांधता है, और समाज की आर्थिक और राजनीतिक संरचना पर शासन करता है। इसमें विभिन्न प्रकार के पंथ और विशिष्ट धार्मिक कर्मी शामिल हो सकते हैं। लोग अपने तीव्र मानसिक दबाव को धर्म के बैनर तले उतारने की कोशिश करते हैं। वे अस्तित्व के लिए संघर्ष के रास्ते में अति-प्रकृति से समर्थन और सहनशक्ति की तलाश करते हैं।

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