नगरीकरण
( Urbanization )
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी मे
अवधारणा ( Concept ) : नगर की कोई निश्चित परिभाषा देना कठिन है । मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि नगर सामाजिक विभिन्नताओं का वह समुदाय है जहाँ द्वैतीयक समूहों , नियंत्रणों , उद्योग और व्यापार , घनी आबादी और अवैयक्तिक संबंधों की प्रधानता हो । अतः हम कह सकते हैं कि नगर एक ऐसा जन – समुदाय होता है जिसकी अपनी कुछ विशेषतायें होती हैं । नगरों में अनेक प्रकार के उद्योग – धन्धे , व्यापार और वाणिज्य होते हैं । इस कारण देश – विदेश के विभिन्न भागों से प्रत्येक जाति , प्रजाति , धर्म और वर्ग के लोग नगर में आकर बस जाते हैं । इसीलिए नगर की आबादी केवल अधिक ही नहीं होती अपितु उस आबादी में एकरूपता न होकर विभिन्नताएँ होती हैं । भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया तथा सामाजिक परिवर्तन में इसकी भूमिका को समझने से पहले नगरीकरण के अर्थ को समझना आवश्यक है । सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ कि नगरीकरण वह प्रक्रिया है , जिसके द्वारा नगरों के क्षेत्र तथा नगरीय जीवन शैली का विस्तार होता जाता है । स्पष्ट है कि नगरीकरण को समझने के लिए सर्वप्रथम नगर के अर्थ को समझना आवश्यक है । नगर की कोई परिभाषा ऐसी नहीं जो सर्वस्वीकृत तथा सर्वसामान्य हो , यह एक कठिन कार्य है । इसे इसकी कुछ विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है
- अधिक जनसंख्या
- अधिकतम जनसंख्या घनत्व
- द्वितीयक समूह की प्रधानता
- विभिन्न व्यवसाय से जुड़े लोग
- व्यक्तिवादिता
- स्वार्थ प्रधानता
- दिखावटीपन
- जटिलता ।
अतः विभिन्न विद्वानों ने नगरीकरण की अवधारण को नगर की उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट किया है । ई ० ई ० वर्गेल ( E.E. Bergell ) के अनुसार “ ग्रामीण क्षेत्रों का नगरीय क्षेत्रों में बदलने की प्रक्रिया का नाम ही नगरीकरण है । ” ( We call urbanization the process of transforming rural into urban areas • Bergell , Urban Sociology . Pl . ) थॉम्पसन ( W. Ihompson ) के अनुसार ” नगरीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कृषि से सम्बन्धित समुदाय के लोगों धीरे – धीरे ऐसे समूहों के रूप में बदलने लगते हैं जिनकी क्रियाएँ उद्योग , व्यापार , वाणिज्य तथा सरकारी कार्यालयों से सम्बन्धित हो जाती है । ”
एम ० एन ० श्रीनिवास ( M.N. Srinivas ) के अनुसार : ” नगरीकरण का तात्पर्य केवल सीमित क्षेत्र में अधिक जनसंख्या से नहीं होती बल्कि उस प्रक्रिया से होता है जिसके द्वारा लोगों के सामाजिक और आर्थिक संबंधों में परिवर्तन होने लगता है । ” इन सभी परिभाषाओं के आधार पर नगरीकरण की अवधारणा को इसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं की सहायता से समझा जा सकता है :
1..नगरीकरण का तात्पर्य जनसंख्या का गाँवों से नगरों की ओर बढ़ना अथवा नगरीय मनोवृत्तियों का प्रभाव अधिक होना ही नहीं है बल्कि स्थान परिवर्तन के बिना भी लोगों की उपयोग की आदतों और व्यवहार के तरीकों में जब नगरीय विशेषताओं का समावेश होने लगता है , तब यह दशा नगरीकरण को स्पष्ट करती है । विशेष जीवन – विधि है जिसका प्रसार नगर से बाहर के क्षेत्रों की ओर होता है
- इस प्रक्रिया के अन्तर्गत कृषि व ग्रामीण उद्योग – धन्धों की जगह नगरीय व्यवसायों के बढ़ते हुए प्रभाव को स्पष्ट करती है ।
- यह एक दोहरी प्रक्रिया है । एक ओर यह प्रक्रिया ग्रामीण श्रेत्रों के नगरों में बदलने अथवा नगरों का विस्तार होने की दशा को स्पष्ट करती है तो दूसरी ओर इसका संबंध एक ऐसी दशा से है जिसमें नगर में पायी जाने वाली मनोवृत्तियों का प्रभाव बढ़ने लगता है ।\
- नगरीकरण की प्रक्रिया का औद्योगीकरण से घनिष्ट संबंध है । जैसे – जैसे किसी समाज में औद्योगीकरण में वृद्धि होती है , नगरीकरण में भी विस्तार होने लगता
- इस प्रक्रिया के अन्तर्गत ग्रामीण जनसंख्या में कमी होती है तथा नगरीय जनसंख्या में वृद्धि होती है ।
- यह प्रक्रिया सामाजिक संबंधों की औपचारिकता को स्पष्ट करती है । इसका तात्पर्य है कि नगरीकरण की प्रक्रिया विभिन्न व्यक्तियों और समूहों के बीच स्वार्थ पर आधारित संबंधों को प्रोत्साहन देकर व्यक्तिवादिता को बढ़ाती है । भारत में नगरों का विकास : नगरों की उत्पत्ति एवं विकास के विषय में ( 1 ) मार्ग रेट मूरे ( 2 ) प्रवीण और थामस कोई एक निश्चित कहानी नहीं बनाई जा सकती और न ही किसी निश्चित 2. नगरीकरण एक तिथि को या सत्र को निर्धारित किया जा सकता है । मनुष्य ने अपनी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही नगरों का निर्माण किया है । राबर्ट बीयरस्टेड ने अपनी कृति “ दि सोशल ऑर्डर ‘ ‘ में लिखा है कि नगरों की उत्पत्ति सात या आठ हजार वर्ष पूर्व हुई होगी ।
भारत में सिंधु घाटी सभ्यता की ईसा से 4000 वर्ष पूर्व उन्नत नगरीय सभ्यता का उदाहरण प्रस्तुत करती है नगर उद्भव में एक कारक नहीं बल्कि अनेकों कारकों का समावेश होता है । नगर के उद्भव में औद्योगीकरण , आर्थिक आकर्षण , ग्रामीण नगरीय प्रवसन , नगरीकरण , सामाजिक , आर्थिक आदि कारकों का पूर्ण योगदान होता है । नगरों की उत्पत्ति और विकास में राजनीतिक कारक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । नगर राजनीतिक क्रियाकलापों के सदैव से ही केन्द्र रहे हैं । भारत में नगरों की उत्पत्ति एवं विकास को मोटे तौर पर तीन भागों में बाँटकर अध्ययन किया जा सकता है ।
1.प्राचीन नगर
- मध्यकालीन नगर
- आधुनिक नगर
प्राचीन नगर :
भारत में नगरों का विकास भी सामान्यतः सामान्य नगरों के विकास की भाँति ही हुआ । लेकिन फिर भी , इस बात के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं कि भारत में अति प्राचीन काल से नगर विद्यमान रहे हैं । महाकाव्यों एवं पुराणों में भारत में नगरों का पर्याप्त वर्णन उपलब्ध है । आज से 8 हजार वर्ष पूर्व भारत में नगरीय सभ्यता विद्यमान थी एवं इसकी पुष्टि मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त अवशेषों के आधार पर की जा सकती है । गुप्तकाल में अनेक नगरों का उल्लेख मिलता है । परंतु प्राचीन नगर आधुनिक नगरों जितने बड़े नहीं थे । भारत में प्राचीनकाल में अनेक नगर थे जैसे : काशी , अयोध्या , तक्षशिला , पाटलिपुत्र , प्रयाग , उज्जैन आदि ।
- मध्यकालीन नगर : भारत में मध्यकाल में नगरों का विकास मुख्यतया राजाओं और अनेक दरबारियों की ही देन रही है । मध्यकाल में भारत पर विभिन्न राजाओं ने आक्रमण किया और जीते हुए स्थान पर अपने वस्तुकला का प्रयोग करते हुए बड़े – बड़े भवनों का निर्माण कर दिया और वहाँ वह रहने लगे । अतः उनके साथ सेना , दरबारी , मंत्री आदि भी रहने लगे जिससे नगरों का स्वतः विकास होने लगा । जैसे : फिरोजाबाद की स्थापना फिरोजशाह तुगलक ने की । सिकन्दर लोदी ने आगरा नगर को बसाया , दौलाताबाद की भी स्थापना हुई । मध्यकाल में , शेरशाह ने सासाराम नगर को बसाया आदि । मध्यकाल में नगरों का उद्विकास अपने गुणात्मक अवस्था में था । समाज शास्त्री लुईस ममफोर्ड ने लिखा है कि “ मध्युगीन नगरों की उत्पत्ति एवं विकास की पीछे सामन्तों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है । “
- आधुनिक नगर : मध्यकाल में , इन नगरों की वृद्धि और विकास में सामन्तवादियों का प्रभुत्व बना रहा । परन्तु इस काल के अतिम पच्चीस वर्षों में नगर केन्द्रों पर से सामाजवादियों का प्रभुत्व क्षीण होना प्रारम्भ हो गया । औद्योगिक क्रान्ति के कारण नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होने लगी तथा नए – नए नगरों का तेजी से विकास होने लगा । ऐसा माना जा सकता है कि आधुनिक युग नगरों का युग है । 1781 में भारत में लगभग 5000 से अधिक जन ० स ० वाले क्षेत्र को नगर माना जाता था । मगर आज 1000 / वर्ग मी ० के आधार पर नगर की गणना की जाती है । आधुनिक युग में आधुनिक शिक्षा , रोजगार आदि समस्याओं के समाधान के कारण भी नगर का उद्भव होने लगा है । अब दिन – हीन , दुर्भिक्ष , पिछड़े आदि का सहारा अब नगर हो गया है । अतः आधुनिक युग में नगरों में तेजी से वृद्धि हो रही है ।
नगरीकरण की दर को बढ़ाने वाले कारक : भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया कोई नई नहीं है , यह प्रक्रिया प्राचीनकाल से ही चली आ रही है । यहाँ महाजनपद काल तथा बौद्ध काल में भी बड़े – बड़े नगरों का उदय हुआ । ब्रिटिश
काल में नगरों का विकास बहुत तीव्र हुआ तथा नगरों के विकास में अनुकूल भौगोलिक दशाओं , धार्मिक विश्वासों , सैनिक शिविरों की स्थापना तथा यातायात की सुविधाओं का अधिक योगदान था । स्वतन्त्रता के बाद जनसंख्या वृद्धि , औद्योगीकरण , यातायात और संचार के साधन , शिक्षा संस्थाएँ , राजनीतिक दशाएँ , नागरिक सुविधाएँ तथा आर्थिक सुरक्षा के प्रमुख दशाएँ हैं जिन्होंने नगरीकरण को बढ़ाने में विशेष योगदान किया । इन कारकों को निम्नलिखित बिन्दुओं पर समझा जा सकता है :
- औद्योगीकरण : भारत में जैसे – जैसे औद्योगिक विकास हुआ इसके फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में मशीनों द्वारा बड़ी मात्रा में उत्पादन बढ़ता गया , गाँव के कुटीर उद्योग – धन्धे और हस्तशिल्प नष्ट होने लगे । इन उद्योग – धन्धे और दस्तकारी में लगे व्यक्तियों में बेरोजगारी बढ़ने लगी । नगरीय उद्योगों में अधिक श्रमिकों की आवश्यकता थी । फलस्वरूप ग्रामीण जनसंख्या का काफी बड़ा हिस्सा नगरीय उद्योगों में श्रमिकों के रूप में कार्य करने लगे । इससे नगरीय जनसंख्या में भी वृद्धि होने लगी ।
- अनुकूल भौगोलिक दशाएँ : नगरों की उत्पत्ति और विकास में अनुकूल भौगोलिक स्थिति एक महत्त्वपूर्ण कारण हो सकती है । निकट ही कच्चे माल का मिलना , विशेष उद्योग – धन्धों के लिए जलवायु का अनुकूल होना आदि सभी नगरों के विकास में काफी सहायक हो सकते हैं । जमशेदपुर , बंगलोर , कलकत्ता , मुम्बई आदि के उत्तरोत्तर विकास के मुख्य कारण उनकी अनुकूल भौगोलिक स्थिति ही है ।
- राजधानी की स्थापना : राजधानी होने पर किसी भी स्थान का महत्त्व बढ़ जाता है । राज कार्य से सम्बन्धित अनेक व्यक्तियों को वहाँ आकर बसना पड़ता है । सरकार के अधिकारीगण , लोकसभा आदि के सदस्य , सैनिक आदि का एकत्रीकरण वहाँ होता है । जनसंख्या बढ़ती है और उस बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए व्यापार और अन्य सेवा कार्य का विकास होना आवश्यक हो जाता है । इन सबका परिणाम नगर का दिन – प्रतिदिन विकास होता है । दिल्ली , मुम्बई , चण्डीगढ़ आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं |
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- सैनिक छावनी : इसी प्रकार जहाँ सैनिकों की छावनी स्थापित हो जाती है उस नगर का विकास भी होता है । कुछ सैनिकों के साथ उनके परिवार के अन्य सदस्य भी आते हैं और इन सबसे सम्बन्धित विविध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उद्योग – धन्धे , व्यापार और वाणिज्य भी बढ़ता है और इस प्रकार का विकास होता है , जम्मू , अम्बाला , देहरादून , सिकन्दरावाद आदि इसके उत्तम उदाहरण हैं ।
- प्रोद्योगिकीय विकास : प्रौद्योगिकीय उन्नति के साथ – साथ परिवहन तथा संचार के साधनों में उन्नति होती है जिसके कारण देश के ही नहीं , दुनिया के किसी भी भाग से कच्चा माल या आधुनिकतम मशीनें मंगवाकर उद्योग धन्धों का विकास किया जा सकता है और बनी हुई चीजों को राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय बाजार तक पहुँचाया जा सकता है । प्रौद्योगिकीय विकास के कारण आज जंगल को साफ करके भी नगर बसाया जा सकता है जैसे – जैसे उत्तम मशीनों से हम परिचित होते जाते हैं वैसे – वैसे उद्योग – धन्धों में भी उन्नति होती जाती है । जब मशीनों का अधिकाधिक प्रयोग कृषि में होने लगता है तो एक ओर समय की बचत होती है और दूसरी ओर , कृषि में कम – से – कम लोगों की आवश्यकता रह जाती है । इसके फलस्वरूप अनेक व्यक्तियों को खेती से अवकाश मिल जाता है और नगरों में श्रमिकों की आवश्यकता पूरी हो जाती है । दूसरे प्रौद्योगिक विकास से खेती के उत्पादन में आश्चर्यजनक उन्नति होती है और नगरों के विकास के लिये आवश्यक खाद्य – सामगियाँ ही नहीं , अनेक आधारभूत उद्योग – धन्धों के लिए आवश्यक माल कपड़ा , जूट , चीनी , वनस्पति घी और तेल आदि सरलता से मिलने लगता है
जनसंख्या वृद्धि : भारत में स्वतन्त्रता से पहले तक देश की 15 % आबादी ही नगरों में रहती थी । निर्धनता के बाद भी ग्रामीणों का जीवन आत्मनिर्भर था । हमारे देश में स्वतंत्रता के बाद जब जनसंख्या में तेजी से वृद्धि होना आरम्भ हुआ तो गाँवों में खेतों का विभाजन बढ़ने लगा । इसके फलस्वरूप ग्रामीण जनसंख्या के एक बड़े भाग ने रोजगार पाने के लिए नगरों की ओर बढ़ना आरम्भ कर दिया ।- राजनीतिक दशाएँ : नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने में वर्तमान राजनीतिक दशाओं का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोगों को उन नगरों में विकास के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं जो राजनीतिक क्रियाओं के केन्द्र होते हैं । यही कारण है कि दिल्ली में आज नगरीकरण की प्रक्रिया सबसे अधिक तेज है । विभिन्न प्रदेशों की राजधानी जिन नगरों में है , उनमें भी दूसरे नगरों की तुलना में नगरीकरण अधिक तेजी से हो रहा
- यातायात तथा संचार के साधनों में वृद्धि : स्वतन्त्रता के बाद भारत में सभी गाँवों को नगरों से जोड़ने के लिए सड़कों का निर्माण हुआ । पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा नये विकास कार्यक्रम आरम्भ हुए । यहाँ जैसे – जैसे यातायात और संचार के साधनों में वृद्धि होती गयी , सभी नगरीय और ग्रामीण क्षेत्र एक – दूसरे से जुड़ने लगे । कृषि में उन्नत उपकरणों और बीजों का उपयोग होने के कारण कृषि उत्पादन बढ़ा लेकिन , ग्रामीणों की नगरों पर निर्भरता बढ़ने लगी । फसल को बेचने के लिए भी ग्रामीणों का नगरों से सम्पर्क बढ़ा । यातायात की सुविधाओं के फलस्वरूप कृषि उपज को नगरों में लाकर बेचना अधिक लाभप्रद हो गया ।
- शिक्षा प्रणाली : ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक साधारणतया खेती जैसे परम्परागत व्यवसाय को करना पसन्द नहीं करते । उनका प्रयत्न नगर में स्थित कार्यालयों , कारखानों अथवा व्यक्तिगत प्रतिष्ठानों में नौकरी करके जीवनयापन करना होता है । नगर में शिक्षा ग्रहण करने के बाद गाँव का जीवन उन्हें अनुपयुक्त दिखायी देने लगता है । इस मनोवृत्ति के फलस्वरूप भी नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिलता है ।
- सुविधाएँ : हमारे देश में बढ़ते हुए नगरीकरण का एक अन्य कारण नगरों में प्राप्त होने वाली विशेष नागरिक सुविधाएँ हैं । नगरों में शिक्षा , पानी , बिजली , स्वास्थ्य तथा सुरक्षा की अधिक सुविधाएँ होने के कारण गाँवों और कस्बों में रहने वाले व्यक्तियों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन जाते हैं । स्पष्टतः इन सभी बहुआयमी पहलुओं पर ध्यान रखते हुए फिंग्सले डेविस ने यह निष्कर्ष दिया है कि नगरीकरण में होने वाली वृद्धि में सभी दशाओं के आधार पर समझा जा सकता है ।
1.नगरीकरण के फलस्वरूप सामाजिक – आर्थिक परिवर्तन : आज भी भारत आधारभूत रूप में गाँवों का देश है । पर आज नागरीकरण की प्रक्रिया भी तेजी से अपने प्रभाव का विस्तार करती जा रही है । नगरीकरण की प्रक्रिया ने हमारे सम्पूर्ण सामाजिक संरचना में परिवर्तन ला दिया है और हमारा सामाजिक , आर्थिक , मानसिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक , धार्मिक एवं नैतिक जीवन एक नया मोड़ ले रहा है । नगरीकरण के ये प्रभाव स्वस्थ भी हैं और अस्वस्थ भी । हम संक्षेप में उन दोनों प्रकार के प्रभावों की विवेचना यहाँ करेंगे ।
2.सामाजिक – सांस्कृतिक सम्पकों का विस्तृत क्षेत्र : नगरीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव यह है कि इसके फलस्वरूप सामाजिक – सांस्कृतिक सम्पर्कों का क्षेत्र स्वतः ही बढ़ जाता है । शहरों के सामाचार पत्र , पत्रिका , पुस्तक , रेडियो , केवल नेटवर्क , इंटरनेट , टेलीफोन , मोबाइल आदि के माध्यम से दूसरे प्रांतों या देशों के साथ सम्पर्क स्थापित करना सरल होता है । ये सभी तत्व सामाजिक – सांस्कृतिक सम्पर्क के क्षेत्र का विस्तृत करने में सहायक सिद्ध होते हैं । –
3.शिक्षा व प्रशिक्षण संबंधी अधिक सुविधायें : अपने बच्चों को उचित शिक्षा देने के प्रति झुकाव अधिक होता है इसलिए नगरीकरण के साथ साथ शिक्षा व प्रशिक्षण संबंधी सुविधाओं का भी विस्तार होता जाता है । कुछ नगरों में नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने में शिक्षा व प्रशिक्षण संबंधी सुविधाओं का अत्यधिक योगदान होता है । कम्प्यूटर तथा अनेक टेकनिकल कोर्स करके शहरों में नौकरी की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं । इन्हीं सुविधाओं के कारण नगर का महत्त्व दिन – प्रतिदिन बढ़ता जाता है ।
- व्यापार और वाणिज्य का विस्तार : नगरों के विकास के साथ साथ व्यापार और वाणिज्य की प्रगति भी निश्चित रूप में होती है क्योंकि नगरीकरण के साथ साथ आबादी बढ़ती है और आबादी बढ़ने से आवश्यकतायें बढ़ती हैं और उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यापार और वाणिज्य का विस्तार आवश्यक हो जाता है । इसलिए नगरीकरण के साथ – साथ नए बाजार , हाट , शॉपिंग सेन्टर , सिनेमा , रेस्टोरेन्ट आदि का भी उद्भव होता जाता है ।
5.यातायात व संदेशवाहन की सुविधाओं में वृद्धि नगर के विकास के साथ – साथ यातायात वसंदेशवाहन की सुविधाओं का भी प्रसार होता जाता है क्योंकि इसके बिना नगरवासियों का जीवन सुविधाजनक नहीं हो सकता । नागरिक परिस्थितियाँ यह माँग करती है । कि यातायात और संदेशवाहन के साधनों को विस्तृत किया जाय । इसलिए नगर के विकास के साथ – साथ डाकघर , टेलीफोन , रेलवे स्टेशन , कोरियर सर्विस , इन्टरनेट , साइबर कैफे आदि का भी विकास होता जाता है और नगर के अंदर बस तथा टैक्सी सर्विस , ऑटो रिक्शा आदि उपलब्ध होते हैं । ये सभी सुविधायें महंगी हो सकती हैं , जल्दी ही नागरिक जीवन के आवश्यक अंग बन जाती हैं ।
- राजनैतिक शिक्षा : नगरीकरण की प्रक्रिया के साथ – साथ राजनैतिक दलों की क्रियाशीलता भी बढ़ जाती हैं । वास्तव में नगर राजनैतिक दलों का अखाड़ा होता है और वे अपने – अपने आदर्शों व सिद्धांतों को फैलाने के लिए न केवल अत्यन्त प्रयत्नशील रहते हैं अपितु एक राजनैतिक दल दूसरे दल को नीचा दिखाने के लिए भी भरसक प्रयत्न करता रहता है । फलतः राजनैतिक दाँव – पेच सीखने का अवसर नगरों में जितना मिलता है उतना गाँव में कदापि नहीं , यह इसलिए भी सम्भव होता है क्योंकि नगर में यातायात और संदेशवाहन के साधन उन्नत स्तर पर होते हैं और उनके व पुस्तक पत्रिका , सामाचार – पत्र , रेडियो , टी ० वी ० पोस्टर , बैनर , स्पीकर आदि के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक जीवन में भाग लेना या कम से कम उसके संबंध में जानकारी हासिल करना हमारे लिये सम्भव होता है । राजनैतिक शिक्षा के व्यावहारिक स्तर पर लाने में सहायक सिद्ध होता है ।
- सामाजिक सहनशीलता : नगरीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव यह है कि नगर निवासियों में सामाजिक सहनशीलता पर्याप्त मात्रा में पनप जाता है । इसका कारण भी स्पष्ट है । नगरीकरण के साथ – साथ विभिन्न धर्म , सम्प्रदाय जाति , वर्ग , प्रजाति , प्रान्त तथा देश के लोग आकर बस जाते हैं , और प्रत्येक को एक – दूसरे के साथ मिलने – जुलने का तथा एक – दूसरे को अधिक निकट से देखने – जानने का अवसर प्राप्त होता है । इस प्रकार के सम्पर्क से एक – दूसरे के प्रति सहनशीलता पनपती है ।
- पारिवारिक मूल्य व संरचना में परिवर्तन : नगरीकरण के साथ – साथ पारिवारिक मूल्यों एवं संरचना में भी तेजी से परिवर्तन होता है , नगरों में बच्चे आज पूरी तरह अपने माता – पिता का सम्मान नहीं कर रहे हैं , अपनी जिद को ही सर्वोपरि मानते हैं , विवाह अपनी पसन्द की लड़की या लड़के से करते हैं , कॉलेज जाने के नाम पर रोमांस देखने को मिलता । काम – काजी लड़कियों का एफेयर तो नगरों में आम बात हो गई है । प्रेम विवाहों की संख्या में वृद्धि और तलाक कीसंख्या में वृद्धि भी नगरों में अधिक देखने की मिलती है । मीडिया एवं संचार क्रांति ने को अत्यधिक प्रभावित किया है । वह अपने रोल मॉडल की तरह ही बनने रहने की चाह में रहता है । पारिवारिक कर्तव्यों की ओर उसका ध्यान नहीं है । विवाह के बाद लड़की अपने पति को अलग घर में रहने को प्रेरित करती है , एकल परिवारों की संख्या बढ़ना तथा संयुक्त परिवारों का विघटन यहाँ लगातार बढ़ रहा है ।
- गन्दी बस्तियों का विकास : नगरीकरण के साथ साथ जब औद्योगीकरण की प्रक्रिया भी चलती रहती है तो नगर की जनसंख्या अति तीव्र गति से बढ़ती चली जाती है । पर जिस अनुपात में जनसंख्या बढ़ती है उसी अनुपात में नये मकानों का निर्माण नहीं हो पाता है । इसलिए नगरीकरण का एक प्रभाव गन्दी बस्तियों का विकास होता है
- सामाजिक मूल्यों तथा संबंधों में परिवर्तन : नगरीकरण के साथ – साथ व्यक्तिवादी आदर्श पनपता है । नगरों में धन तथा व्यक्तिगत गुणों का अधिक महत्त्व होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी ही चिन्ता करता है और अपने स्वार्थों की रक्षा हेतु जी – जान लगा देता है । उसका प्रयत्न अपने ही व्यक्तित्व का विकास करना तथा अधिकाधिक धन एकत्र करना है क्योंकि इन्हीं पर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा निर्भर करती है । इसलिए नगरीकरण का एक प्रभाव व्यक्तिगत स्वार्थ की वेदी पर सामुदायिक स्वार्थ की बलि चढ़ा देना होता है । उसी प्रकार नगरीकरण के साथ – साथ व्यक्तिगत संबंध अवैयक्तिक सामाजिक संबंधों में बदल जाता है । दिल्ली , कलकत्ता , मुम्बई जैसे बड़े नगरों में तो आठ – दस मन्जिल वाले एक ही बिल्डिंग में रहने वाले व्यक्तियों में व्यक्तिगत संबंधों का नितान्त अभाव होता है । उसी प्रकार जाति – पाँति के आधार पर भेद – भाव , छुआछूत की भावना आदि नगरीकरण के साथ – साथ दुर्बल पड़ जाते हैं और इनसे सम्बन्धित सामाजिक मूल्य बदल जाते हैं । सामाजिक दूरी का घटना नगरीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव कहा जा सकता है ।
- मनोरंजन का व्यापारीकरण : नगरीकरण का एक और उल्लेखनीय प्रभाव मनोरंजन के साधनों का व्यापारीकरण है अर्थात् सिनेमा , थियेटर डिस्को क्लब , खेल कूद , केवल नेटवर्क , मोबाइल , इंटरनेट आदि मनोरंजन के सभी साधनों का आयोजन व्यापारिक संस्थाओं द्वारा किया जाता है । इसीलिये इनमें शीलता या स्वस्थ प्रभाव का उतना ध्यान नहीं रखा जाता है जितना कि उन्हें दर्शकों के लिये अधिकाधिक आकर्षक बनाकर उनसे पैसा लेन के प्रति सचेत रहा जाता के कारण
- दुर्घटना , बीमारी व गंदगी : नगरों में दुर्घटनायें अधिक होती हैं । अधिक प्रदूषण बीमारियाँ भी अधिक होती हैं । विभिन्न उद्योगों से सम्बन्धित अलग – अलग बीमारियाँ पनपती हैं । इतना ही नहीं , नगरों में घनी आबादी होने के कारण गन्दगी भी अधिक होती है । गन्दगी के कारण भी अनेक प्रकार की बीमारियाँ नगर निवासियों की आ घेरती हैं । लाख प्रयत्न करने पर भी नगरीकरण के परिणामस्वरूप होने वाली दुर्घटना , बीमारी तथा गंदगी को समस्या के टाला नहीं जा सकता ।
- सामुदायिक जीवन में अनिश्चितता : नगरों की यह एक प्रमुख समस्या है और समस्या इसलिए है कि इस अनिश्चितता के कारण नगरों में सामुदायिक भावना या ‘ हम ‘ की भावना पनप नहीं पाती है , जिसके कारण नगर के जीवन में एकरूपता पनप नहीं पाती है । यहाँ कोई रात को सोता है तो कोई दिन में , कोई आज रोजगार में लगा है तो कल बेकार है । यह अनिश्चितता हर पग पर हर क्षण है । सुबह घर से गया हुआ व्यक्ति शाम को घर लौटकर आयोग भी या नहीं , —
इसकी भी कोई निश्चितता नहीं है । यह अनिश्चितता सामुदायिक जीवन को विघटित करने वाले तत्वों के जन्म देती है ।
- सामाजिक विघटन : व्यक्ति तथा संस्थाओं की स्थिति व कार्यों में अनिश्चितता अथवा अधिक परिवर्तनशीलता सामाजिक विघटन को उत्पन्न करती है , नगरों में सामाजिक परिवर्तन की गति भी तेज होती है जिसके कारण सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है । नगरों में बैंक फेल करने , विद्रोह होने , क्रांति अथवा युद्ध छिड़ने की भी संभावना अधिक होती है जिनके कारण भी सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है जो कि स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिए घातक सिद्ध होती है
- पारिवारिक विघटन : नगरों में परिवारों के सदस्यों में आपसी संबंध अधिक घनिष्ट नहीं होता है क्योंकि पढ़ने – लिखने , प्रशिक्षण प्राप्त करने , नौकरी करने , मनोरंजन प्राप्त करने आदि के लिए घर के अधिकतर सदस्यों को या तो दंग एक दूसरे से अलग हैं या परिवार से बाहर ही अधिक समय व्यतीत करना पड़ता है , इस कारण परिवार के सदस्यों का एक दूसरे पर नियंत्रण बहुत कम होता है जो कि परिवार को विघटित करने में प्रायः सहायक ही सिद्ध होता है ।
- व्यक्तिगत विघटन : यह नगरों की एक अन्य उल्लेखनीय समस्या है । व्यक्तिगत विघटन के निम्नलिखित पाँच स्वरूप नगरों में देखने को मिलते हैं जिनमें से प्रत्येक स्वयं ही एक गंभीर भी समस्या है
( a ) अपराध तथा बाल – अपराध : नगरों में निर्धनता , मकानों की समस्या , बेरोजगारी , स्त्री पुरुष के अनुपात में भेद , नशाखोरी , व्यापारिक मनोरंजन , व्यापार चक्र , प्रतिस्पर्धा , परिवार का शिथिल नियंत्रण , वेश्यावृत्ति , बाल – श्रम आदि ऐसे महत्त्वपूर्ण कारक विद्यमान होते हैं जिनके कारण नगरों में अपराध और बाल अपराध अधिक देखने को मिलते हैं ।
( b ) आत्महत्या : नगरों में निर्धनता , बेरोजगारी , असुखी पारिवारिक जीवन , प्रतिस्पर्धा में असफल होने पर जीवन के संबंध में घोर निराशा , रोमांस या प्रेम में असफलता , व्यापार में असफलता आदि की सम्भावनायें अधिक होती हैं और इनमें से किसी भी अवस्था में व्यक्ति इस प्रकार की एक असहनीय मानसिक उलझन में फंस सकता है जिससे छुटकारा पाने के लिए वह आत्म हत्या को ही चुन लेता है । यही कारण है कि गाँवों की अपेक्षा नगरों में कहीं अधिक आत्महत्यायें होती हैं ।
( c ) वेश्यावृत्ति : नगरों में श्रमिक वर्ग अधिक होते हैं जो कि नगरों में मकानों की समस्या तथा महँगाई के कारण अपने बीबी बच्चों के साथ न रहकर अकेले ही रहने से बाध्य होते हैं । इनके लिए वेश्यालय मनोरंजन का एक अच्छा स्थान होता है । नगरों में पाये जाने वाली निर्धनता तथा बेरोजगारी भी अनेक स्त्रियों को वेश्यावृति को बाध्य करती हैं ।
( d ) नशाखोरी : मद्य – पान आदि व्यक्तिगत विघटन की ही एक अभिव्यक्ति है । नगरों में यह समस्या विशेष रूप से उग्र है । इस समस्या का चरम रूप तब देखने को मिलता है जब नगरों में बड़ी बड़ी पार्टियों , ‘ डिनरों ‘ में जहाँ की समाज के उच्चस्तरीय ‘ सज्जनों ‘ का जमघट होता है , मद्यपान को सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक और सामान्य शिष्टाचार के रूप में स्वीकार किया जाता है । शहरों में जो अपने जीवन में असफल हुए हैं , ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं होती । इसको शराब की दुकानों पर लगी भीड़ से हमें यह और अधिक स्पष्ट हो जाता है ।
( e ) भिक्षावृत्ति : नगरों में , विशेषकर धार्मिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण नगरों में लोग न केवल नगरों की गरीबी , भुखमरी और बेरोजगारी से तंग आकर भीख मांगते हैं अपितु भिक्षावृत्ति को एक व्यापारिक रूप भी देते हैं । बड़े – बड़े नगरों में भिखारियों के मालिक होते हैं जिनका कि काम
भारत में सामाजिक परिवर्तन : दशा एवं दिशा भिखारी बनाना , भिखारियों को भीख माँगने के तरीके सिखाना , उनके शरीर को इस भांति विकृत या जराजीर्ण कर देना होता है जिससे लोगों को दया भाव अपने आप उभरे ।
. नगरीकरण के अन्य सामाजिक – आर्थिक प्रभाव : पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का विकास , राष्ट्रीय धन का असमान वितरण , आर्थिक संकट , बेकारी , औद्योगिक झगड़े , मानसिक चिन्ता और रोग संघर्ष व प्रतिस्पर्धा , सामाजिक , गतिशीलता में वृद्धि , श्रम – विभाजन व विशेषीकरण , ‘ हम ‘ की भावना का प्रभाव , आदि नगरीकरण के अन्य प्रभाव हैं जो कि भारत में देखने को मिलते हैं ।
पिछले 3 दशकों में भारत में श्रम शक्ति दोगुनी से अधिक हो गई है। 2001 में, यह 1971 में 18.7 करोड़ की तुलना में 40.25 करोड़ थी। इस प्रकार इस अवधि में श्रम बल में वृद्धि की औसत दर 2.71% प्रति वर्ष थी जो जनसंख्या की 2.11% प्रति वर्ष की वृद्धि दर से स्पष्ट रूप से अधिक थी। ‘श्रम बल की वृद्धि‘ पर तालिका 1 से पता चलता है कि 1970 के दशक के दौरान कार्य बल की वृद्धि की भूमिका 2.96% प्रति वर्ष थी, यह 1980 के दशक के दौरान घटकर 2.37% प्रति वर्ष हो गई, लेकिन प्रवृत्ति बाद में विकास की औसत दर पर उलट गई 1990 के दौरान श्रम शक्ति बढ़कर 2.78% प्रति वर्ष हो गई। श्रमिकों को भी वर्गीकृत किया जा सकता है
- मुख्य कामगार और सीमांत कामगार
- ग्रामीण श्रमिक और शहरी श्रमिक।
- पुरुष कामगार और महिला कामगार।
1) मुख्य कर्मचारियों की घटती हिस्सेदारी:- मुख्य कर्मचारी पूर्णकालिक कर्मचारी होते हैं। 1971 में कुल कामगारों में उनका अनुपात 96.8% जितना अधिक था, जबकि सीमांत के 3.2% की तुलना में तब से श्रम बल की संरचना में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। अनुपात में भारी गिरावट आई है लेकिन सीमांत श्रमिकों के अनुपात में वृद्धि हुई है।
2) कुल मुख्य कामगारों की तुलना में निर्मित श्रमिकों का उच्च अनुपात:- मुख्य श्रमिकों के रूप में पुरुष श्रमिकों की संख्या महिला श्रमिकों की तुलना में अधिक है। सहायक कार्यकर्ता यानी परिवार की आय के पूरक के लिए। ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में कम महिलाएँ काम करती हैं जहाँ अधिक महिलाएँ काम करती हैं।
3) ग्रामीण कामगार और शहरी कामगार:- 1971 से तीन दशक की अवधि के दौरान ग्रामीण कामगारों का अनुपात
अल श्रमिकों के लिए हमेशा 75% से अधिक हो गया है। 1971 में यह 82.5% थी। उसके बाद यह लगातार घटती रही और 2001 में 77.2% रही। इस अवधि में शहरी श्रमिकों का अनुपात 1971 में 17.5 से बढ़कर 2001 में 22.8% हो गया। यह प्रवृत्ति देश में बढ़ते शहरीकरण को दर्शाती है। .
भारत में 91वीं जनगणना ने कहा कि केवल 37.7% श्रमिक थे, 10% संगठित क्षेत्रों में थे। ज्यादातर पुरुष शामिल हैं, महिलाएं कम हैं, ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक लोग काम करते हैं जबकि शहरों में कम
लोग शामिल हैं। आजकल गुजरात, पंजाब, हरियाणा और पश्चिम बंगाल जैसे विकसित राज्यों में अधिक महिलाएँ काम करती हैं।
श्रमिकों को कम प्रतिबद्ध के रूप में भी वर्गीकृत किया जा सकता है; बच्चे या वयस्क हो सकते हैं। कुछ अनिच्छुक इस्तीफा देने के लिए ठीक से प्रतिबद्ध, समर्पित या समर्पित हैं।
- पर्यवेक्षक : आमतौर पर फोरमैन किसे कहा जाता है? उन्होंने संयंत्र पर काम किया, श्रम से प्रबंधन और प्रबंधन से श्रम का प्रतिनिधित्व किया और दोनों पक्षों को सामाजिक और आर्थिक रूप से जोड़ने वाली कड़ी है। प्रबंधकीय पदानुक्रम में किसी भी अधिकारी की तुलना में पर्यवेक्षक कार्य निष्पादन और नियंत्रण से अधिक संबंधित है।
2) सफेदपोश कार्यकर्ता जिन्हें आमतौर पर कार्यालय कहा जाता है, उस स्थान के लिए काम करते हैं जिसमें बुद्धिमान देखभाल की आवश्यकता होती है और यह उद्योग के लिए अत्यधिक आवश्यक है। जबकि कॉलर कार्यकर्ता बेहतर शिक्षित, बेहतर कपड़े पहने हुए हैं और अधिक परिष्कृत आदतें हैं जो नीले कॉलर श्रमिकों के पास हैं और हालांकि उनकी आयु अधिक नहीं हो सकती है, उनकी सामाजिक स्थिति और प्रतिष्ठा है, क्योंकि वे खुद को मध्यम वर्ग में रखते हैं।
3) उत्पादन से बने बुल कॉलर श्रमिकों का मशीन के साथ घनिष्ठ संबंध है। मशीन के ऊपर कार्यकर्ता ने ‘कर्मचारी जहाज‘ खो दिया है। कार्यकर्ता मशीन के साथ लगातार काम करता है, मशीन की गति के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश में नियंत्रण और काम करने की स्वतंत्रता खो देता है। वह अपने काम करने का तरीका खुद तय नहीं कर सकता। वह कुल उत्पादक प्रक्रिया के केवल एक हिस्से में शामिल है, इसलिए, पूरे उत्पाद या उत्पादन की प्रक्रिया के बारे में कोई विचार नहीं है।
वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग
आधुनिक औद्योगिक प्रणाली में “श्रम विभाजन” – एक नई अवधारणा – का उपयोग किया गया था जिसमें पूरे उत्पादन को विभिन्न चरणों या चरणों में विभाजित किया गया था, सभी चरणों में काम एक साथ हुआ था। इससे निर्माण के दौरान लगने वाले कुल समय में कमी आई। इसने पूरी प्रक्रिया को बहुत सरल और तेज बना दिया। इसके अलावा, उत्पादन की कुल लागत को भी कम किया जा सकता है।
पहले वस्तुओं का निर्माण करते समय, शिल्पकार (आमतौर पर स्वामी कहलाते थे) उत्पादन की गति में सुधार के लिए किसी भी व्यवस्थित या व्यवस्थित तरीके का उपयोग नहीं करते थे। वे उत्पादन के सभी चरणों या चरणों का स्वयं पालन करते थे और कभी भी ऐसी किसी विधि के बारे में नहीं सोचा जिसे आज हम “श्रम विभाजन” कहते हैं। नतीजतन पूरी प्रक्रिया में काफी समय लग गया। उपभोक्ताओं को लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता था और अपने ऑर्डर के लिए अधिक भुगतान करना पड़ता था और स्वाभाविक रूप से यह आम आदमी के लिए नहीं था।
इस प्रकार उत्पादन की यह नई प्रणाली विभिन्न चरणों या अवस्थाओं में विभाजित हो गई। सभी चरणों में काम एक साथ हुआ। इससे निर्माण के दौरान लगने वाले कुल समय में कमी आई।
इसने पूरी प्रक्रिया को बहुत सरल और तेज बना दिया। इसके अलावा, उत्पादन की कुल लागत को भी कम किया जा सकता है।
इस प्रकार उत्पादन की यह नई प्रणाली जिसे हम ‘उद्योग‘ कहते हैं, में निर्माण की व्यवस्थित, गणनात्मक और तर्कसंगत विधि शामिल है जो न केवल उत्पादन की लागत को कम करती है बल्कि उद्यमियों के लिए पूरी लागत या उपभोग किए जाने वाले समय की गणना करना भी संभव बनाती है। लाभ की पूरी श्रृंखला अग्रिम मे……………
निश्चित पूंजी और मुक्त श्रम:
उत्पादन की अन्य प्रणालियों के विपरीत, जो गिल्ड और पुटिंग आउट सिस्टम है, औद्योगिक प्रणाली में मशीनों में निवेश की गई पूंजी, श्रम और प्रबंधन को एक निश्चित तरीके से एक साथ शामिल किया जाता है, इसलिए उत्पादक प्रक्रियाओं की एकाग्रता थी। सभी श्रमिकों ने नई तकनीक और मशीनों का उपयोग कर एक साथ काम किया। वे इस अर्थ में भी स्वतंत्र थे कि श्रमिक काम की शर्तों के आधार पर काम करना स्वीकार या अस्वीकार कर सकते थे, इस प्रकार श्रमिक अपने श्रम को बेचने के लिए स्वतंत्र थे।
पूंजी की आवश्यकता:
श्रम, कच्चा माल और मशीनें खरीदने के लिए पूँजी की आवश्यकता होती थी। इस प्रकार फैक्ट्री प्रणाली में धन का संकेन्द्रण था। इसके अलावा इसमें विविधतापूर्ण बाजार प्रणाली की भी आवश्यकता है –
- a) एक उपभोक्ता बाजार।
बी) एक श्रम बाजार।
ग) मुद्रा बाजार।
पूंजीपतियों और श्रमिकों के बीच संबंध:
पूंजीपति उत्पादन के साधनों के मालिक हैं। अंतिम उत्पादों पर उनका पूरा अधिकार है और उन्हें बाजार में बेचने का भी अधिकार है। वे श्रम लगाते हैं और देखते हैं कि वे निश्चित घंटों के लिए काम करते हैं। श्रमिकों को उनकी नौकरी के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है लेकिन उनके पास इस उद्देश्य के लिए उपयोग किए जाने वाले किसी भी उपकरण या मशीन पर कोई स्वामित्व अधिकार नहीं है। पूंजीपति श्रमिकों के साथ औपचारिक और अवैयक्तिक संबंध बनाए रखते हैं। वे काम के लिए लेबर को हायर करते हैं। गिल्ड सिस्टम के विपरीत पूंजीपति ‘पिता‘ के रूप में कार्य नहीं करते हैं, वे केवल श्रमिकों को ‘रोज़गार‘ देते हैं और केवल कार्य अवधि के दौरान उनके लिए जिम्मेदार होते हैं। कामगारों को केवल पारस्परिक सौदेबाजी या अनुबंध द्वारा निर्धारित नियमों और शर्तों के अनुसार भुगतान या व्यवहार किया जाता है। इसके अलावा मजदूरों को कुछ हासिल नहीं होने वाला है। कारखाने के समय के बाद या जब वे नौकरी पर नहीं होते हैं, तब पूंजीपति श्रमिकों के लिए ज़िम्मेदार नहीं होते हैं।
भेदभाव और विशेषज्ञता:
उत्पादन में त्वरित और व्यवस्थित होने के लिए, पूंजीपतियों ने वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित नई तकनीकें ईजाद कीं। उन्होंने पूरी प्रक्रिया को सूक्ष्म उप-चरणों या चरणों में विघटित कर दिया, और प्रत्येक चरण के साथ उन्होंने विशिष्ट समूहों को उत्पादन के लिए जोड़ा। इस प्रकार, विशिष्ट श्रमिक, जो पूरे उत्पादन से संबंधित अपनी सीमित नौकरियों में अच्छे थे, एक साथ लगे हुए थे। इससे उत्पादन की कुल गति में वृद्धि हुई, क्योंकि निर्माण के सभी चरणों ने एक साथ काम किया। इसलिए पूरी प्रणाली को पहले की गिल्ड प्रणाली या पुटिंग आउट प्रणाली की तुलना में इस उद्देश्य के लिए बहुत कुशल और उपयुक्त पाया गया। मशीनों, औजारों, कच्चे माल की लागत, कुल समय, श्रम की लागत आदि की गणना पहले से की जा सकती है। इससे उनका लाभ बढ़ा और उनका निवेश सुरक्षित हुआ। इस प्रकार इस प्रणाली को सफल बनाने के लिए नए उद्यमियों को इस प्रणाली से जोड़ा गया।
मशीनीकरण (मशीनों का उपयोग):
गिल्ड प्रणाली की तुलना में जहां उत्पादन पूरी तरह से हाथ से बनाई गई पद्धति पर आधारित था और इसलिए एक बहुत धीमी प्रक्रिया थी, उत्पादन की नई प्रणाली जो कि औद्योगिक है, जिसमें हाथ या हाथ के औजारों के स्थान पर मशीनों को नियोजित किया गया था, बहुत तेज थी। साथ ही मशीनों के उपयोग से तैयार उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार हुआ। चूँकि समय कम लगता था, श्रम की लागत कम हो जाती थी; अधिक आदेश तो एकत्र किया जा सकता है। इससे बड़े पैमाने पर उत्पादन हुआ। मशीनों ने उत्पादों को अधिक स्थायित्व और बेहतर फिनिश प्रदान की।
बड़ा विस्तारित बाजार:
तैयार उत्पादों की कम लागत ने आम आदमी को उपभोक्ता बना दिया
विभिन्न वस्तुओं के उपभोक्ता। इससे बड़े पैमाने पर उत्पादन की संभावना के साथ मौजूदा बाजार का दायरा बढ़ गया, मध्यम और निम्न वर्ग से संबंधित बड़ी संख्या में उपभोक्ताओं को शामिल किया जा सका। इसने औद्योगिक प्रणाली को और विकसित किया।
श्रमिक नियोक्ता हैं जो कुछ घंटों के लिए काम करते हैं और अपनी नियमित मजदूरी प्राप्त करते हैं। जब तक मांग है, श्रमिकों की जरूरत है। लेकिन किसी भी मांग के अभाव में श्रमिकों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है। औद्योगिक व्यवस्था में श्रमिकों को यहाँ कोई स्थान नहीं मिल सकता है। उन्हें अपने श्रम को निर्धारित दरों के अनुसार ही बाजार में बेचना पड़ता है।
औद्योगिक प्रणाली या कारखाना प्रणाली इस प्रकार एक औपचारिक, वैज्ञानिक और यंत्रीकृत प्रणाली है जहाँ उत्पादन बहुत तेजी से किया जाता है और सभी तकनीशियन, प्रबंधक, पर्यवेक्षक और कर्मचारी बड़े पैमाने पर दक्षता और उत्पादन बनाए रखने के लिए मिलकर काम करते हैं।
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