ग्रामीण नेतृत्व के परम्परागत प्राधार
( Traditional Bases of Rural Leadership )
भारत में ग्रामीण नेतृत्व की परम्परागत प्रकृति तथा नेतृत्व के वर्तमान स्वरूप का तुलनात्मक आधार पर अध्ययन करने के लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम ग्रामीण नेतृत्व के उन परम्परागत प्राधारों की विवेचना की जाए जो एक लम्बी अवधि तक ग्रामीण नेतृत्व का अभिन्न अंग बने रहे । इन विशेषताओं की तुलना में ही नेतृत्व के वर्तमान स्वरूप को समझा जा सकता है ।
जातीय प्रस्थिति ( Caste Status ) – भारत की ग्रामीण संरचना में जातिगत स्तरीकरण का प्रभाव सबसे अधिक स्पष्ट रहा है । परम्परागत रूप से गाँव में केवल उच्च जातियों के प्रभावशाली व्यक्तियों को ही नेतृत्व करने का अधिकार प्राप्त होता था । एक निम्न जाति में कोई व्यक्ति चाहे कितना ही शक्तिशाली , साधन – सम्पन्न अथवा प्रतिभाशाली क्यों न हो , उसे गाँव में नेता अथवा मुखिया मान सकना अत्यधिक कठिन था ।
परिवार का प्राकार तथा प्रतिष्ठा ( Size and Prestige of the Family ) परिवार का आकार तथा परिवार की प्रतिष्ठा ग्रामीण संरचना में वह महत्त्वपूर्ण प्राधार रहा है जिसके अनुसार ग्रामीण नेतृत्व में व्यक्ति को एक विशेष प्रस्थिति प्राप्त होती रही है । परिवार का प्राकार बड़ा होने से उसके सदस्यों को न केवल नेतृत्व के लिए अतिरिक्त समय प्राप्त हो जाता है बल्कि प्रत्येक स्थिति में अधिक व्यक्तियों का समर्थन प्राप्त करने के अवसर भी बढ़ जाते हैं । दूसरी ओर व्यक्ति यदि एक प्रतिष्ठित परिवार का सदस्य होता है तो गांव के अन्य व्यक्ति सामान्य रूप से उसकी प्रभुता को स्वीकार कर लेते हैं । गांव में यह विश्वास किया जाता है कि प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य अधिक प्रतिभावान , सदाचारी तथा व्यवहार – कुशल होते हैं और वे उनकी समस्याओं का सरलता से समाधान कर सकते हैं ।
श्रायु ( Age ) – बहुत प्रारम्भिक काल से ही आयु ग्रामीण नेतृत्व का एक प्रमुख प्राधार रही है । अनेक अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व ऊंची प्रायु समूहों के हाथ में ही था । गाँव में अधिक आयु के व्यक्ति को न केवल अनुभवी एवं सम्मानित समझा जाता है , बल्कि किसी भी निर्णय में उसके विचारों को जानना भी आवश्यक समझा जाता है । जन सामान्य की धारणा है कि वयोवृद्ध व्यक्ति परम्पराओं के रक्षक होते हैं , इसलिए उनके द्वारा दिया गया नेतृत्व अधिक उपयोगी एवं सार्थक होता है ।
आर्थिक प्रस्थिति ( Economic Status ) – ग्रामीण नेतृत्व के निर्धारण में व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का भी विशेष महत्त्व रहा है । ग्रामीण जीवन एक प्रभाव – ग्रस्त जीवन है । यहाँ जो व्यक्ति भी जन – सामान्य की आथिक अावश्यकतानों को पूरा करने अथवा समय – समय पर उन्हें पाथिक महायता देने में सहायक होता है , उसका जल्दी ही सामान्य ग्रामीणों पर प्राधिपत्य स्थापित हो जाता है । सम्भवतः यही कारण है कि परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व साधारणतया बड़े भ – स्वामियों तथा । साहकारों तक ही सीमित रहा । यदि कोई व्यक्ति प्रार्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्तियों के नेतत्व को चुनौती देता है तो उसे बहुत कठिन प्राथिक समस्यानों का सामना करना पड़ता है ।
परम्परागों का ज्ञान ( Traditional Knowledge ) – गाँव में प्रशिक्षित व्यक्तियों की संख्या अधिक होने के कारण उन व्यक्तियों को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है जो ग्रामीण उसका जल्दी ही म । सम्भवतः यही का परम्परामों से परिचित होते हैं तथा उनकी कुशलतापूर्वक व्याख्या करने में प्रवीण होते हैं । वर्तमान युग में भी आधुनिकता तथा प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति को ग्रामीण जीवन के लिए उतना महत्त्वपूर्ण नहीं समझा जाता जितना कि परम्परागत ढंग से व्यवहार करने वाले व्यक्ति को । यही कारण है कि गांव में नवीन शिक्षा ग्रहण करके रहने वाले व्यक्ति भी तब तक ग्रामीण नेतृत्व ग्रहण नहीं कर पाते जब तक कि वे अपने जीवन प्रतिमानों को परम्पराओं के अनुसार न ढाल लें ।
बाह्य दुनिया से सम्पर्क ( Contact with wider World ) – अधिकांश ग्रामीणों का जीवन आज भी सरल , प्रशिक्षित तथा बाह्य दुनिया के सम्पर्क से पृथक् है । ऐसी स्थिति में सामान्य ग्रामीण अपनी सामाजिक , आर्थिक तथा शैक्षणिक आवश्यकतानों की पूर्ति के लिए उन व्यक्तियों पर निर्भर होता है जो अपने बाह्य सम्पर्क की सहायता से ग्रामीणों की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक होते हैं । साधारणतया यदि किसी व्यक्ति का गांव के पटवारी , पुलिस अधिकारी अथवा नगर के अन्य अधिकारियों से कोई सम्बन्ध होता है तो वह समय – समय पर ग्रामीणों की सहायता करके तथा उन्हें नवीन जानकारी देकर उनका नेतृत्व ग्रहण कर लेता है । ग्रामों में भूमि , सम्पत्ति तथा अन्य प्राधारों को लेकर अक्सर झगड़े और विवाद चलते रहते हैं । ग्रामीणों को न्यायिक प्रक्रिया का समुचित ज्ञान न होने के कारण जो व्यक्ति उन्हें न्यायिक प्रक्रिया में सहायता देते हैं , उन्हें भी सरलता से ग्रामीण नेतृत्व प्राप्त हो जाता है ।
( बहुमखी व्यक्तित्व ( Manifold Personality ) – ग्रामीण नेतृत्व के निर्धारण में किसी व्यक्ति की वैयक्तिक विशेषताओं का भी महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । एक ऐसा व्यक्ति जो गांव के सार्वजनिक जीवन में भाग लेता रहता हो तथा जिसमें किसी विवाद के समय मध्यस्थता करने की अधिक क्षमता होती है , उसे नेता बनने के अधिक अवसर प्राप्त हो जाते हैं । इसी प्रकार किसी विपत्ति के समय ग्रामीणों की सहायता करना , गाँव में कुएं अथवा तालाबों की व्यवस्था कराना , ग्रामीणों के साथ नम्रतापूर्वक तथा मृदु व्यवहार करना एवं गाँव के बड़े – बूहों का आदर करना आदि ऐसे गुण हैं जिन्हें परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व के लिए आवश्यक समझा जाता रहा है ।
परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व की विशेषताएं ( Characteristics of Traditional Rural Leadership )
अत्यधिक प्रारम्भिक काल से ही ग्रामीण नेतृत्व में अनेक ऐसी विशेषताओं का समावेश रहा है जो वृहत् समूहों में देखने को नहीं मिलती । यह सच है कि वर्तमान युग में ग्रामीण नेतृत्व की विशेषताओं में अत्यधिक परिवर्तन हो चुके हैं लेकिन तो भी ग्रामीण नेतृत्व का परिवर्तित स्वरूप अपने परम्परागत स्वरूप से अधिक दूर नहीं हट सका है । इस स्थिति में यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व की विशेषताओं की विवेचना करें जिससे उन्हीं के सन्दर्भ में हम परिवर्तन की वर्तमान प्रक्रियाओं को समझ सकें ।
ग्रामीण नेतृत्व में रक्त – सम्बन्धों की प्रधानता – परम्परागत रूप से ग्रामीण नेतृत्व के अन्तर्गत रक्त – समूहों की स्थिरता तथा उनकी प्रधानता स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है । यह सच है कि प्रत्येक गाँव का एक मुखिया अथवा पंच अवश्य होता है लेकिन व्यक्तियों के व्यवहार उस नेता से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं जो उन्हीं के वंश अथवा स्वजन – समूह का प्रतिनिधित्व करता हो । व्यावहारिक रूप से प्रत्येक ग्रामीण तथा जन – जातीय क्षेत्र में सभी रक्त समूहों का अपना – अपना पृथक मूखिया होता है तथा उसका कार्य अपने समूह के सभी सदस्यों के विवादों का निपटारा करना और उनका मार्ग निर्देशन करना होता है । इसके फलस्वरूप नेतृत्व के प्राधार पर ग्रामीण जीवन अनेक गूटों में अवश्य विभाजित हो जाता है लेकिन समूह के सदस्यों पर नियन्त्रण रखने के लिए यह विभाजित नेतृत्व अधिक सफल भी प्रमाणित हुआ है ।
आनुवंशिकता का प्रभाव – ग्रामीण नेतृत्व सदैव ही अपनी प्रकृति से आनुवंशिक रहा है । इसका तात्पर्य है कि किसी समूह अथवा सम्पूर्ण गांव में जिस व्यक्ति को एक बार नेता अथवा मुखिया का पद प्राप्त हो जाता है वह साधारणतया उसी की आगामी पीढ़ियों को हस्तान्तरित होता रहता है । नेतृत्व में परिवर्तन केवल तभी होता है जब कोई नेता या तो ग्रामीणों की आकांक्षाओं को पूर्ण न कर सके अथवा उसमें ऐसे चरित्रगत दोष उत्पन्न हो जाएँ कि उसे नेता के रूप में मान्यता देना हानिकारक समझा जाने लगे ।
नेतृत्व जातियों में विभक – परम्परागत रूप से भारत के ग्रामों में जाति पंचायत का अत्यधिक प्रभाव होने के कारण प्रत्येक जाति का अपना – अपना प्रथक नेता होता था , जिसका कार्य अपनी जाति के सभी सदस्यों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखना तथा प्रावश्यकतानुसार उन्हें दण्ड अथवा पुरस्कार देना था । इस दृष्टिकोण से एक जाति के नेता का दूसरी जातियों के लिए कोई महत्त्व नहीं था , यद्यपि अनेक अवसरों पर विभिन्न जातियों के नेता मिलकर गाँव में सार्वजनिक जीवन से सम्बन्धित निर्णय लिया करते थे । साधारणतया विभिन्न जातियों के सभी मखिया मिलकर एक सर्वसम्मत नेता के अधीन रहकर कार्य करते थे । सम्पुर्ण गाँव के नेता का पद भी जाति – व्यवस्था के ही आधार पर किसी उच्च जाति के व्यक्ति को प्राप्त होता था ।
अनौपचारिक नियन्त्रण की प्रधानता – अनौपचारिक नियन्त्रण परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व की एक प्रमुख विशेषता है । नियन्जण को स्थापित करने के लिए हास्य , व्यंग , पालोचना , तिरस्कार तथा सामाजिक बहिष्कार आदि ऐसे साधन रहे हैं जिनका ग्रामीण नेता के द्वारा व्यापक उपयोग किया जाता था । कुछ विशेष अवसरों पर गांव के नेता को यह भी अधिकार था कि वह ग्रामीणों को शारीरिक दण्ड दे सके , लेकिन यह कार्य साधारणतया जमींदारों की प्रभूता से ही सम्बद्ध था । (
नेतृत्व का सामाजिक स्वरूप – – मारत में एक लम्बे समय तक ग्रामीण – जीवन मूलरूप से सामाजिक – सांस्कृतिक जीवन था , याथिक राजनीतिक नहीं । इस दृष्टिकोण से ग्रामीण नेतृत्व के अन्तर्गत उन्हीं कार्यों का विशेष महत्त्व था जिनका सम्बन्ध प्रथानों , कर्मकाण्डों , सामाजिक व्यवहारों तथा समाज के प्रादर्श नियमों के पालन से था । इस दृष्टिकोण से गांव के नेता की प्रतिष्ठा का मूल्यांकन उसकी राजनीतिक शक्ति के आधार पर नहीं बल्कि उसकी सामाजिक – सांस्कृतिक प्रवीणता के माघार पर किया जाता था ।
नेतृत्व में पारस्परिकता – ब्राउन ने यह स्पष्ट किया है कि भारत के ग्रामीण नेतत्व में पारस्परिकता एक प्रमुख तत्त्व रहा है । इसका तात्पर्य है कि गांवों में नेता का मापने अनुयायियों पर प्रभाव एक – पक्षीय नहीं होता बल्कि सामान्य ग्रामीणों के विचार तथा भावनाएँ नेता के व्यवहार को भी बहत बड़ी सीमा तक प्रभावित करती हैं । इसका तात्पर्य है कि गांव में नेता तथा अनुयायी एक समन्वित इकाई हैं । दूसरे शब्दों में , अनुयाथियों को निकाल कर नेता तथा नेतृत्व की कल्पना नहीं की जा सकती ।
नेतृत्व में प्रतिष्ठा की प्रधानता – परम्परागत ग्रामीण नेतत्व में प्रतिष्ठा का तत्त्व अत्यधिक महत्त्वपूर्ण रहा है । इस प्रतिष्ठा के निर्धारण में व्यक्ति की नैतिकता , कार्य – कुशलता . दरशिता तथा सेवा की भावना का विशेष महत्त्व रहा है । अपनी इसी नैतिक शक्ति के आधार पर नेता सामान्य ग्रामीणों को किसी विशेष प्रकार के प्राचरण करने को बाध्य करता है । ग्रामीण नेता अपनी प्रतिष्ठा खना सबसे अधिक अनिवार्य समझता है और इस दृष्टिकोण से वह कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहता जो सार्वजनिक प्राकक्षिानों के प्रतिकूल हो ।
नेतृत्व में सर्वांगीणता ग्रामीण नेतृत्व का स्वरूप नगरों के समान विशेषीकृत नहीं सायी नेता अपने गाँव के लिए वे सभी कार्य करता है जिनकी ग्रामीणों को आवश्यकता होती हाउदाहरण के लिए विभिन्न योजनाएं बनाना , नीतियों का निर्धारण करना विवाह तथा उत्सवों के यावश्यक प्रबन्ध करना , विशेषज्ञ के रूप में कार्य करना , सदस्यों के पवहारों पर नियन्त्रण लगाना , पंच एवं मध्यस्थ के रूप में कार्य करना तथा किसी विशेष अबसर पर सम्पूर्ण गांव का प्रतिनिधित्व करना नेता के विभिन्न कार्य हैं । यही कारण है कि ग्रामीण जीवन में नेता एक सत्ताधिकारी नहीं होता बल्कि समूह का प्रादर्श होता है । भारत में ग्रामीण नेतृत्व की उपयुक्त विशेषतायों से स्पष्ट होता है कि यहाँ नेतृत्त्व का स्वरूप व्यापक रूप से अनौपचारिक ही रहा है । यह अनौपचारिक नेतृत्व न केवल ग्रामीण सरचना के अनुकूल या बल्कि ग्रामीण समस्याओं के समाधान तथा विभिन्न जाति – समूहों की एकता के लिए भी इसने रचनात्मक योगदान दिया ।
ग्रामीण नेतत्व के उभार
( Emerging Patterns of Rural Leadership )
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात ग्रामीण नेतत्व के परम्परागत स्वरूप में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हा है । स्वतन्त्रता के पश्चात एक धर्म – निरपेक्ष , समतावादी और लोकतान्त्रिक समाज की स्थापना के लिए ग्रामीण विकास . को सर्वप्रमुख आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया गया । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ग्रामों में न केवल नवीन विकास योजनाएँ प्रारम्भ की गई बल्कि सामाजिक , राजनीतिक एवं प्राधिक जीवन में ग्रामीणों के सहभाग को भी अनिवार्य समझा जाने लगा । इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के प्रभाव से ग्रामीण नेतृत्व के अन्तर्गत अनेक ऐसे प्रतिमान विकसित होने प्रारम्भ हो गए जिनका परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व में पूर्ण अभाव था । नेतृत्व के इन नवोदित प्रतिमानों को समझ लेने के उपरान्त ही ग्रामीण शक्ति संरचना से सम्बद्ध इस महत्त्वपूर्ण पक्ष की प्रकृति को अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है ।
प्रजातान्त्रिक नेतृत्व का प्रादुर्भाव ( Emergence of Democratic Leadership ) ग्रामों में आज एक नए प्रजातान्त्रिक नेतृत्व का विकास हुआ है जिसमें व्यक्ति की प्रानुवंशिक स्थिति भू स्वामित्व तथा जातिगत सदस्यता का विशेष महत्त्व नहीं है । गांव का नेतत्व अब उन व्यक्तियों में केन्द्रित है जो सामान्य ग्रामीणों के द्वारा निर्वाचित होते हैं अथवा जिन्हें बहमत का समर्थन प्राप्त होता है । एक विशेष तथ्य यह है कि इस प्रजातान्त्रिक नेतृत्व में नेता तथा उसके अनुयायियों की शक्ति अथवा प्रतिष्ठा में कोई स्पष्ट विभेद नहीं होता । इसका तात्पर्य है कि ग्रामीण नेता अन्य व्यक्तियों को अपने व्यवहारों से प्रभावित करने के साथ ही स्वयं ग्रामीणों की आकांक्षाओं से भी प्रभावित होता है । गांव में नेतृत्व का स्वरूप अब अधिक लौकिक और धर्म – निरपेक्ष है । नेता की शक्ति की व्याख्या किसी धर्म शास्त्र अथवा परम्परागत विश्वासों के आधार पर नहीं होती बल्कि जन – आकांक्षानों एवं राजकीय नीतियों के आधार पर होती है । यह ग्रामीण नेतृत्व में उत्पन्न एक ऐसा परिवर्तन है जिसने सम्पूर्ण ग्रामीण शक्ति संरचना के स्वरूप को परिवर्तित कर दिया है ।
शिक्षा का महत्त्व ( Importance of Education ) – कुछ समय पूर्व तक ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक निरक्षरता होने के कारण नेतृत्व में भी शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं था । वर्तमान समय में नेतृत्व के लिए शिक्षा को प्रावश्यक समझा जाने लगा है । इसका कारण यह है कि गांव में आर्थिक , सामाजिक एवं राजनीतिक सम्बन्धों के क्षेत्र में विस्तार होने के फलस्वरूप उसी व्यक्ति से अच्छे नेतत्व की प्राशा की जाती है जो शिक्षित हो । नए नियमों के अन्तर्गत अब राज्य की प्रोर से भी ऐसे निर्देश दिए जाने लगे हैं कि गाँवों में प्रोपचारिक पदों पर कोई पढ़ा – लिखा व्यक्ति ही आसीन हो सकता । है । प्रो . योगेन्द्रसिंह का विचार है कि ग्रामीण नेतृत्व में युवा एवं शिक्षित व्यक्तियों द्वारा भाग लेने के कारण भी शिक्षा को नेतत्व का प्रावश्यक प्राधार समझा जाने लगा है । हिचकॉक ने भी अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि गांव में शिक्षित नेता की उपयोगिता पहले की तुलना में कहीं अधिक बढ़ गई है । एक अन्य अध्ययन में प्रो . सिंह एवं पारिख ने यह ज्ञात किया कि गावा में केवल वही व्यक्ति मंत्रणा नेता ( Opinion Leader ) बन पाता है जो कुछ सीमा तक वित होता है । इन सभी अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षित नेताओं को ही प्राज ग्रामीणों का विश्वास प्राप्त है तथा उन्हीं को ग्रामीण जीवन के लिए अधिक उपयोगी समझा जाता है ।
नेतृत्व में विशेषीकरण ( Specialization in Leadership ) – ग्रामीण नेतृत्व में उत्पल प्रमुख परिवर्तनों में से एक यह है कि ग्राज नेता में ही गांव की सम्पूर्ण शक्ति कन्द्रित नहीं होती बल्कि जीवन के प्रत्येक विशिष्ट पक्ष तथा विशिष्ट कार्यों से सम्बद्ध पृथक – पृथक व्यक्तियों को नेता के रूप में मान्यता दी जाने लगी है । वास्तव में ग्रामीण जीवन भी अब इतना विविधतापूर्ण हो गया है कि विभिन्न प्रावश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के नेताओं की आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिए ग्राम सभा का प्रधान , न्याय पंचायत के पंच , सहकारी समिति का अध्यक्ष , स्कूल का शिक्षक , युवक मण्डल का अध्यक्ष तथा कल्याण समितियों के पदाधिकारी आदि ऐसे नेता हैं जिनमें सम्पूर्ण ग्राम का नेतृत्व विभाजित रूप में देखने को मिलता है । डॉ . बैजनाथसिंह ने अपने अध्ययन के प्राधार पर यह स्पष्ट किया है कि ग्रामीण नेतृत्व की विविधता मूल रूप से सामुदायिक विकास योजनाओं के क्रियान्वयन का परिणाम है ।
युवकों का बढ़ता हुमा प्रतिनिधित्व ( Increasing Representation of the Youths ) – ग्रामीण नेतृत्व में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह हुमा है कि अब किसी व्यक्ति को नेता बनने के लिए अधिक पायु का होना आवश्यक नहीं है । कुछ समय पूर्व तक ग्रामीणों का यह विश्वास था कि केवल दृद्ध और अनुभवी व्यक्ति ही नेता बन सकता है , लेकिन अब अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में नेतृत्व धीरे – धीरे युवा वर्ग के हाथों में प्राता जा रहा है । सम्भवतः इसका मुख्य कारण यह है कि कृषि से सम्बन्धित वर्तमान नवाचारों का प्रशिक्षण तथा ज्ञान प्राप्त करके जब युवा वर्ग ग्राम में प्राता है तो वह सरलता से ग्राम का सलाहकार बन जाता है और धीरे – धीरे उनका नेतृत्व ग्रहण कर लेता है । सरकार द्वारा चलाए जा रहे ग्रामीण विकास कार्यक्रों में भी युवा वर्ग की सहभागिता ही सबसे अधिक है । पंजाब में इन्द्रसिंह द्वारा किए गए अध्ययन तथा उत्तर प्रदेश में रंगनाथ द्वारा किए गए अध्ययन से भी इसी प्रकार के निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं । इन दोनों अध्ययनकर्तामों ने यह विचार व्यक्त किया है कि भारत के ग्रामीण नेतृत्व में आयु का महत्त्व तेजी से घट रहा है । इस सम्बन्ध में लर्नर ने बताया है कि ग्रामीण जीवन में नेतृत्व आज भी अधिक प्रायु के लोगों में ही केन्द्रित है । लेकिन लनर का अध्ययन प्रब इतना पुराना हो चुका है कि तात्कालिक विशेषताओं को वर्तमान ग्रामीण समाज की विशेषतामों के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता । युवा – वर्ग सदैव ही अधिक क्रियाशील , विचारों में उदार , व्यवहार में परिवर्तनशील तथा जीवन के प्रति तर्कपूर्ण मनोवृत्ति रखने वाला होता है । ये विशेषताएँ एक परिवर्तनशील समुदाय में नेतृत्व के लिए अधिक उपयोगी समझी जाती हैं ।
मध्यम वर्ग की प्रधानता ( Dominance of Middle Class ) – भारतीय ग्रामों में नेतृत्व का परम्परागत स्वरूप मुख्य रूप से उस वर्ग से सम्बद्ध था जो या तो बड़ी – बड़ी भूमियों का स्वामी था अथवा जिसके पास धन की अतुल शक्ति थी । नवीन प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के पश्चात् आज ग्रामों में एक ऐसे नेतत्व का प्रादुर्भाव हुपा है जो मुख्यतः साधारण किसानों , पशु पालकों एवं कारीगरों से सम्बद्ध मध्यम वर्ग के व्यक्तियों से सामान्य ग्रामीण जल्दी ही अपनी अनुरूपता स्थापित कर लेता है जिसके फलस्वरूप उन्हें नेतृत्व ग्रहण करने तथा किसी विशेष कार्य को करने का निर्देश देने के अधिक अवसर प्राप्त हो जाते हैं । (
नेतृत्व में परिवर्तनशीलता ( Mobility in Leadership ) – परम्परागत नेतृत्व की पपेक्षा वर्तमान ग्रामीण नेतृत्व परिवर्तन की विशेषता से युक्त है । आनुवंशिकता का सिद्धान्त समाप्त हो जाने के कारण अब ग्रामीणों की आकांक्षानों के अनुरूप ग्रामीण नेतृत्व में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । एक समय जो व्यक्ति नेता होता है , कुछ समय बाद वही व्यक्ति ग्राम वालों के आक्रोश का शिकार भी बन सकता है । इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप अब ग्रामीण नेता केवल अधिकार सम्पन्न व्यक्ति ही नहीं होता बल्कि उसे अधिकारों की अपेक्षा ग्रामीणों के प्रति अपने कर्तव्यों के लिए अधिक जागरुक रहना पड़ता है । डॉ . सिंह ने लिखा है कि भारत के ग्रामों में परम्परा से चले आने वाला निरंकुशतापूर्ण और एकाधिकारवादी नेतृत्व अब इस दृष्टिकोण से परिवर्तनशील बन गया है कि ग्रामीणों को अब कभी भी अपने नेता को बदल देने का अधिकार प्राप्त हो गया है ।
सामूहिक नेतृत्व का विकास ( Rise of Collective Leadership ) – गांवों में नेतृत्व प्राज एक सीमित स्तर से हटकर सामूहिक स्वरूप ग्रहण कर रहा है । इसका अभिप्राय है कि परम्परागत रूप से जहां प्रत्येक परिवार , जाति तथा समूह के नेता पृथक् – पृथक् होते थे और उनकी स्थिति आनुवंशिक रूप से निर्धारित होती थी वहीं आज एक ऐसे नेतृत्व का प्रादुर्भाव हुआ है जिसमें सभी जातियां तथा परिवार मिलकर एक – एक सामूहिक नेतृत्व से सम्बद्ध हो गए हैं । यह सच है कि सामूहिक नेतृत्व भी बहुधा उच्च जातियों में विभाजित है , लेकिन ऐसे विभाजन की दृढ़ता अब काफी सीमा तक दुर्बल पड़ती जा रही है ।
नेतृत्व राजनीति से सम्बद्ध ( Leadership Combined with Politics ) – ग्रामीण शक्ति संरचना में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवेश के कारण अब नेतृत्व का सामाजिक सुधार से उतना सम्बन्ध नहीं रहा है जितना कि विभिन्न राजनीतिक गतिविधियों से । वर्तमान स्थिति में अधिकांश गाँव अब भिन्न – भिन्न राजनीतिक दलों के केन्द्र ( Pockets ) बन गए हैं । परम्परागत रूप से ग्रामीण नेतृत्व का किसी राजनीतिक विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं था । गाँव के प्रभावशाली व्यक्ति जिस दल के पक्ष में होते थे उसी को सम्पूर्ण गाँव का समर्थन प्राप्त हो जाता था । इसके विपरीत आज प्रत्येक राजनीतिक दल गाँव की जातिगत संरचना को ध्यान में रखते हुए वहाँ अपनी गतिविधियों का संचालन करता है जिसके फलस्वरूप एक ही गांव अनेक राजनीतिक दलों से तथा विभिन्न प्रकार के नेतृत्व से सम्बद्ध हो गया है । लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण के सन्दर्भ में मेहता कमेटी की रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया था कि गाँव से लेकर जनपद स्तर तक के सभी चुनावों में राजनीतिक दलों को सक्रिय सहभाग लेना चाहिए । इस सुझाव का स्पष्ट रूप अब ग्रामीण जीवन में स्पष्ट होने लगा है । इसके फलस्वरूप ग्रामीण नेतृत्व का सामाजिक स्वरूप अब राजनीतिक स्वरूप में परिवर्तित हो रहा है ।
भू – स्वामित्व , परिवार तथा जाति के प्रभाव में ह्राप्त ( Decline of the Impact of Land Ownership , Family and Caste ) – परम्परागत रूप से ग्रामीण नेतृत्व केवल उन्हीं व्यक्ति में केन्द्रित था जो बड़ी भूमि के स्वामी थे , प्रतिष्ठित परिवारों से सम्बद्ध थे अथवा उच्च जाति के सदस्य थे । वर्तमान युग में ग्रामीण नेतृत्व का एक ऐसा प्रतिमान विकसित हुआ है जिसमें इन प्राधारों का कोई महत्त्व नहीं है । जनतान्त्रिक चुनाव पद्धति में नेतृत्व का निर्धारण अब किसी समूह को संख्या शक्ति के आधार पर होने लगा है । इसी का परिणाम है कि ग्राज ग्रामीण नेतृत्व में पिछड़ी और अनुसचित जातियों का प्रतिनिधित्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है । पंचायत राज – व्यवस्था के प्रत्येक स्तर पर अनुसूचित जातियों , जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लिए स्थान सुरक्षित हो जाने के कारण भी ग्रामीण नेतृत्व में इन जातियों की सहभागिता में वृद्धि हुई है ।
अधिशाली नेतृत्व पर बल ( Emphasis on Bureaucratic Leadership ) – गांवों में नवीन विकास योजनामों के क्रियान्वयन के कारण एक ऐसे नेतृत्व का प्रादुर्भाव हया है जिसे अपनी प्रकृति से नौकरशाही अथवा अधिशासी ( Bureaucratic ) कहा जा सकता है । उदाहरण के लिए सामदायिक विकास कार्यक्रमों के फलस्वरूप गाँवों में ग्राम सेवक की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है । डॉ दबे ने इसे ‘ नवीन नेता ‘ के नाम से सम्बोधित किया है । अापके अनुसार , ग्राम सेवक से एक राजकीय अधिकारी के समान कार्य करने की आशा नहीं की जाती लेकिन तो भी ग्रामीण निर्णयों को प्रभावित करने तथा विकास योजनाओं में सहभाग देने के क्षेत्र में उसकी भूमिका निरन्तर महत्त्वपूर्ण बनती जा रही है । इसी प्रकार विकास खण्ड अधिकारी , नियोजन अधिकारी तथा नियोजन से सम्बद्ध अन्य कार्यकर्ताओं ने भी गांवों में नेतृत्व के नवीन स्वरूप को प्रोत्साहन दिया है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण जीवन में नेतृत्व के केवल नवीन प्रतिमान ही विकसित नहीं हुए हैं बल्कि उन परिस्थितियों में भी परिवर्तन हुआ है जो नेतृत्व के एक विशेष स्वरूप का निर्धारण करते हैं ।
उदाहरण के लिए संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकाकी परिवारों की संख्या बढ़ने के कारण नेतृत्व के निर्धारण में परिवार का महत्त्व कम हुआ है । भू – स्वामित्व के नवीन कानूनों के कारण परम्परागत जमींदारों तथा बड़े भू – स्वामियों की स्थिति में ह्रास हुआ है । समाजवादी मूल्यों का प्रसार होने से गांव के छोटे और सीमान्त कृषकों ने उन अधिकारों की मांग करना प्रारम्भ कर दिया है जिनकी कुछ समय पहले तक सम्भावना भी नहीं की जा सकती थी । नगरों में शिक्षा प्राप्त करके गांव में पाकर रहने वाले नवयुवक ऐसे विचारों का प्रसार कर रहे हैं जिनके अन्तर्गत नेतृत्व का परम्परागत स्वरूप स्थिर नहीं रह सकता । यह सच है कि परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व से सम्बद्ध अधिकारों का उपयोग कर लेने के पश्चात् गाँव के परम्परागत मुखिया आज भी बदलती हुई परिस्थितियों में अपने प्रभाव कों बनाए रखने का प्रयत्न कर रहे हैं , परन्तु इन परिवर्तित दशाओं के अन्तर्गत उन्हें अधिक सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है ।