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क्रान्ति का अर्थ एवं परिभाषाएँ 

क्रान्ति का अर्थ एवं परिभाषाएँ 

 क्रान्ति एक प्रकार का तीव्र परिवर्तन है जिसमें प्राचीन परम्पराओं और सामाजिक मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं रहता है । संकुचित अर्थ में क्रान्ति जीवन के किसी भी पक्ष में होने वाला मूल परिवर्तन है । परन्तु समाजशास्त्र में क्रान्ति शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया जाता है तथा इसे एक ऐसी प्रक्रिया माना जाता है जिसका उद्देश्य सामाजिक , आर्थिक अथवा राजनीतिक व्यवस्था में आमूल – चूल परिवर्तन लाना है । प्रमुख विद्वानों ने इसे निम्न प्रकार से परिभाषित किया है :

  1. किम्बल यंग के अनुसार : ‘ क्रान्ति शीघ्र अथवा देर से राजनीतिक शक्ति में हस्तान्तरित होती है । दूसरे राज्य तथा समाज के रूपों में अकस्मात् परिवर्तन हो जाता है । ‘
  2. क्रेन बिटोन के अनुसार : ‘ समाजशास्त्रीय रूप से सामाजिक क्रान्ति का अर्थ वर्तमान सामाजिक संरचना के अन्तर्गत व्यक्तियों की मनोवृत्तियों और सामाजिक मूल्यों में इस प्रकार का परिवर्तन हो जाना है कि वे उसको नए दृष्टिकोण से देखना प्रारम्भ कर दें । ‘
  3. अल्फ्रेड मेंसल के अनुसार : ‘ क्रान्ति शब्द प्राकृतिक विज्ञानों से बाहर एक प्रकार के यकायक एवं दूरगामी परिवर्तन को व्यक्त करता है , जोकि विकास की निरन्तरता में मुख्य मोड़ ला देता है । ‘
  4. ऑगबर्न एवं निमकॉफ : ‘ क्रान्ति संस्कृति में तीव्र परिवर्तन , जो कुछ विस्तार लिए होता है ,

 ‘ उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि क्रान्ति आकस्मिक रूप से होने वाला तीव्र परिवर्तन है अर्थात् यह यकायक होता है और सामान्यतः सम्पूर्ण व्यवस्था को बदल देता है । क्रान्ति के प्रमुख कारण : क्रान्तियाँ प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक समय तक विश्व के किसी – न – किसी देश में होती रही हैं , परन्तु आधुनिक समय की क्रान्तियों के कारण प्राचीन समय के कारणों से पर्याप्त मात्रा ‘ में भिन्न होते हैं । आधुनिक राज्यों का सामाजिक तथा राजनीतिक ढाँचा , शासन व्यवस्था के स्वरूप , शासक – वर्ग की संरचना एवं प्रकृति , राजनीतिक दलों तथा दबाव समूहों की स्थिति तथा शासन प्रक्रियाओं में जन सहभागिता के परिवर्तित आधारों के कारण क्रान्ति के वे कारण नहीं हैं जो प्राचीन समय में प्रभावी रहे हैं । प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू ‘ पॉलिटिक्स ‘ में क्रान्तियो के कारणों की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की है । अरस्तू के लिए संविधान में थोड़ा – सा परिवर्तन भी क्रान्ति बन जाता था जबकि संविधान में भारी परिवर्तनों को भी वर्तमान समय में क्रान्ति की संज्ञा प्रदान नहीं की जाती है । प्रत्येक देश में सम्पन्न हुई क्रान्ति की प्रकृति तथा उसके उत्पन्न होने के कारण विशिष्ट होते हैं क्योंकि क्रान्ति किसी भी देश की सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति पर निर्भर करती है । अरस्तू ने क्रान्तियों के सामान्य तथा विशिष्ट दोनों प्रकार के कारणों पर प्रकाश डाला है । प्रत्येक देश की क्रान्ति विचित्र एवं अनोखी होती है तथा क्रान्ति का यह अनोखापन क्रान्ति के विशिष्ट कारणों से सम्बन्धित होता है । I. प्राचीनकाल में क्रान्ति के कारण : प्राचीनकाल में यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने क्रान्ति के कारणों की निम्न प्रकार विवेचना की है अरस्तू ने क्रान्ति के कारणों को तीन भागों में विभक्त किया है 1. क्रान्ति के मूल कारण : अरस्तू राजनीतिक व्यवस्था में क्रान्ति का मूल कारण असमानता की भावना को मानता है । जब एक व्यक्ति को समान योग्यता रखने पर भी अधिकारों अथवा धन सम्पत्ति के मामलों में दूसरों की तुलना में समानता की स्थिति से वंचित किया जाता है तो उसके अंदर विद्रोह अथवा असन्तोष की भावना उग्र रूप धारण करने लगती है तथा उसका परिणाम होता है क्रान्ति ।

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  1. क्रान्ति के सामान्य कारण : अरस्तू ने क्रान्ति के निम्नलिखित सामान्य कारणों की विवेचना की है :

 ( i ) नागरिकों के एक वर्ग में कुलीनता अथवा श्रेष्ठता का भाव ।

( ii ) अनैतिक साधनों से सम्मान प्राप्त करने की आकांक्षा ।

 ( iii ) शासकों की स्वार्थपरता की भावनाएँ ।

( iv ) शासक एवं शासितों के मध्य घृणा का वातावरण ।

( v ) शासक वर्ग में निहित ईर्ष्या एवं द्वेष की भावनाएँ ।

( vi ) जातिगत एवं वंशगत विभिन्नताएँ ।

( vii ) राज्य में व्याप्त भय तथा आतंक का वातावरण । –

( viii ) राज्य के किसी भौगोलिक प्रदेश का असन्तुलित विकास ।

 ( ix ) समाज मध्यम वर्ग की कमजोर स्थिति ।

( x ) निर्वाचन से सम्बन्धित अनेक बुराइयाँ ।

( xi ) राज्य में शक्ति सन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाना ।

( xii ) शासन द्वारा असावधानीपूर्वक सम्पादित किए गए कार्य ।

( xiii ) शासक वर्ग के पारिवारिक विवाद |

 ( xiv ) अल्प परिवर्तनों को उपेक्षित भाव से देखना ।

 ( xv ) विदेशियों पर पूर्ण विश्वास करना ।

 

  1. विभिन्न शासन – प्रणालियों में क्रान्ति के विशेष कारण विभिन्न शासन – प्रणालियों में क्रान्ति के विशिष्ट कारण निम्न प्रकार हैं :

( i ) प्रजातन्त्र में लोक नेताओं की अधिकता के कारण क्रान्ति होती है । 

( ii ) स्वेच्छाचारी राजतन्त्र में शासन की निरंकुश सत्ता के विरुद्ध जन क्रान्ति हो जाती है ।

( iii ) कुलीनतन्त्र में सीमित व्यक्तियों के द्वारा पद तथा प्रतिष्ठा प्राप्त करने के कारण अन्य उपेक्षित वर्गों के द्वारा क्रान्ति का आह्वान करना ।

 II . मध्यकाल में क्रन्ति के कारण : बोदाँ के अनुसार क्रान्ति के तीन प्रमुख कारण हैं :

  1. दैवी कारण : ये कारण सदैव अदृश्य तथा अज्ञात होते हैं ।
  2. प्राकृतिक कारण : प्राकृतिक कारणों में नक्षत्रों के प्रभाव की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है ।
  3. मानवीय कारण : समाज में व्यक्ति अनेक प्रकार की सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक , धार्मिक एवं बौद्धिक परिस्थितियों से बाध्य होकर क्रान्ति करता है ।

III . आधुनिक युग में क्रान्ति के कारण : देश , काल एवं परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण समाज में नए – नए मूल्यों , प्रतिमानों एवं मापदंडों की स्थापना होती रहती है । अतः वर्तमान समय में क्रान्तियों के वे कारण नहीं रहे हैं जो कभी प्राचीन यूनानी राज्यों में देखने को मिलते थे । आधुनिक क्रान्तियों के आन्तरिक कारणों के साथ – साथ बाह्य कारण भी महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावी हो गए हैं । आधुनिक समय में क्रान्तियों के कारण में प्रमुख रूप से निम्नलिखित कारणों को सम्मिलित किया जा सकता है :

  1. वर्तमान समय में प्रचलित सामाजिक – राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था का पतन एवं भंजन ( विघटन ) होने पर ।
  2. जनसंख्या के बड़े भाग का निरन्तर असन्तोषजनक स्थिति में बने रहने के कारण ।
  3. लम्बी अवधि तक चलने वाले आर्थिक – सामाजिक विकास – क्रम के अचानक उलट जाने पर ।
  4. किसी देश विदेश में सम्पन्न हुई क्रान्ति की सफलता से प्रभावित होने के उपरान्त क्रान्ति की भावनाओं का प्रस्फुटन होना ।
  5. युद्धों से उत्पन्न परिस्थितियों के कारण |
  6. व्यक्तियों में वंचना के भाव उत्पन्न होने तथा उसकी अत्यधिक अधोगति होने के कारण ।
  7. पूँजीवादी व्यवस्था में अन्तर्निहित विरोधाभासों अथवा वर्ग – संघर्ष के कारण ।
  8. रंग – भेद , जाति – भेद एवं वर्ग – विभेद को समाप्त करने के उद्देश्य से प्रेरित होने के कारण आदि ।
  9. आधुनिक समय में क्रान्तियों की अभियन्त्रणा बाह्य रूप से की जाती है जिससे क्रान्तियों का सूत्रपात पूर्ण नियोजित एवं योजनाबद्ध तरीकों से हो जाए ।

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 वर्तमान समय में विश्व की महान् शक्तियों :

अमेरिका , रूस , चीन , ब्रिटेन , फ्रांस आदि : के वैचारिक टकराव अथवा संघर्ष ने भी क्रान्तियों की भूमिका बनाने , उनको पूर्ण सहयोग प्रदान करने , तकनीकी तथा आर्थिक सहायता प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है । सोवियत संघ के द्वारा यूरोप के अन्य देशों : पोलैण्ड , चेकोस्लोवाकिया , यूगोस्लाविया आदि : में सेना भेजकर साम्यवादी क्रांन्तियों को अंजाम दिया गया । फिजी की 14 मई , 1987 ई ० की सैनिक क्रान्ति में अमेरिका की गुप्तचर एजेन्सी सी ० आई ० ए ० का हाथ होने के आरोप लगाए गए थे । रूस के द्वारा ही अफगानिस्तान में सम्पन्न हुई क्रान्ति का भी संचालन किया गया था । एशियायी , अफ्रीकी तथा लैटिन अमेरिकी देशों में हुई क्रान्तियाँ किसी – न – किसी रूप में बाह्य शक्तियों के कारण ही अनियन्त्रित की गई थीं । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि क्रान्तियों के अनेक कारण हो सकते हैं जिसमें , कुछ परिस्थितिजन्य होते हैं , जबकि कुछ अन्य अचानक उत्पन्न हो जाते हैं । जिन राष्ट्रों में लोकतान्त्रिक परम्पराएँ पूर्ण स्थापित एवं सुव्यवस्थित हो गई हैं , उनमें क्रान्तियों की सम्भावनाएँ बहुत क्षीण .. हो चुकी हैं । सम्भावना व्यवस्था के पतन के परिणामस्वरूप अब विश्व में साम्यवादी क्रान्तियों की ही कोई सम्भावना नहीं रही है । वर्तमान समय में विकासशील राष्ट्रों में सैनिक क्रान्तियों की सम्भावनाएँ बहुत प्रबल होती जा रही हैं । आधुनिक विश्व में देश के आन्तरिक वातावरण की अपेक्षा बाह्य शक्तियों के प्रभाव से प्रेरित प्रतीत हो रही है । अतः अंत में हम यही कह सकते हैं कि क्रान्तियों के कारण एक नहीं , वरन् अनेक होते हैं तथा कुल मिलाकर ये बाह्य तथा आन्तरिक परिस्थितियों से सम्बद्ध होते हैं ।

उद्विकास तथा प्रगति में अन्तर :

1.उद्विकास . वैज्ञानिक धारणा । प्रगति नैतिक धारणा ।

  1. एक निश्चित दिशा में होने वाला परिवर्तन । अच्छे उद्देश्य के लिए परिवर्तन ।
  2. क्षेत्र व्यापक – एक निश्चित दिशा में होने वाला क्षेत्र सीमित – प्रत्येक परिवर्तन प्रत्येक परिवर्तन विकास कहलाता है प्रगति नहीं कहलाता है ।
  3. उद्विकास का रूप सदैव एक – सा रहता है । . प्रगति की धारणा देशकाल के अनुसार बदलती रहती है ।
  4. इसका आधार प्राणिशास्त्रीय नियम है । . इसका आधार सामाजिक मूल्य तथा आदर्श है
  5. उद्विकास की गति धीमी होती है । . प्रगति की गति धीमी या तेज की जा सकती है ।
  6. उद्विकास की प्रक्रिया स्वचालित होती है । प्रगति की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए प्रयास करना पड़ता है ।
  7. उद्विकास ‘ वृद्धि ‘ की ओर संकेत करता है । प्रगति से अभिप्राय सामाजिक जीवन के गुणों की वृद्धि से होता है ।
  8. उद्विकास प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति से सम्बन्धित,. प्रगति समाज के सदस्यों से संबंधित नहीं होता है । होती है । |
  9. उद्विकास की प्रक्रिया सरल से जटिल के . प्रगति में ऐसा नहीं होता है । ओर चलती है ।
  10. उद्विकास की प्रक्रिया समाज में सदस्यों ,. वार्ड के अनुसार प्रगति का कार्य की चिन्ता किये बिना चलती रहती है । मानवीय सुखों में वृद्धि करना है ।

 क्रान्ति तथा आन्दोलन में अंतर :

आन्दोलन तथा क्रान्ति दोनों ही किन्ही निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होते हैं तथा दोनों का उद्देश्य मुख्यतया सामाजिक परिवर्तन लाना है । फिर भी , इनमें कुछ अंतर निम्नलिखित हैं:

  1. क्रान्ति प्रायः किसी सरकार को बदलने के लिए अथवा समाज में आमूल चूल परिवर्तन लाने के लिए की जाती है या किसी धार्मिक कुरीति को समूल नष्ट करने के लिए होती है , किन्तु आन्दोलन का उद्देश्य प्रथाओं व रीति – रिवाजों में सुधार करना होता है ।
  2. क्रान्ति में प्रायः हिंसात्मक साधनों का और आन्दोलन में अहिंसात्मक साधनों का प्रयोग किया जाता है ।

  1. आन्दोलन तथा क्रान्ति दोनों ही उद्देश्यों में समान रहते हैं , क्योंकि दोनों का उद्देश्य कोई न – कोई परिवर्तन लाना है , किन्तु जब आन्दोलन में हिंसात्मक साधनों का सहारा लिया जाता है तो आन्दोलन क्रान्ति में बदल जाता है । 
  2. क्रान्ति में भाग लेने वाले संगठनों का उद्देश्य क्रान्ति की सफलता के पश्चात् सरकार पर अधिकार करना होता है , किन्तु आन्दोलन में इस प्रकार के उद्देश्यों का कोई महत्त्व नहीं होता । इटली में फासीवाद , जर्मनी में नाजीवाद तथा रूस में बोल्शेविकावाद इसके उदाहरण हैं , जिनमें क्रान्ति को सफल बनाकर क्रान्तिकारियों ने सरकार को अपने हाथों में ले लिया ।
  3. क्रान्ति में विस्फोटक पदार्थों का भी प्रयोग हो सकता है । उससे राष्ट्र की सम्पत्ति , कला तथा संस्कृति का ह्रास होता है । प्रबुद्ध व्यक्ति मारे जाते हैं , किन्तु आन्दोलन की प्रकृति शान्तिपूर्ण एवं विवेकपूर्ण होती है , उसमें राष्ट्र की सम्पत्ति का कोई विनाश नहीं होता है ।
  4. क्रान्ति में सदैव ही विरोधी भावना पाई जाती है अर्थात् सामान्यतः सत्ताधारी पक्ष क्रान्ति का विरोध करता है । क्रान्ति में अपने विरोधी पक्ष को समाप्त करने का प्रयास किया जाता है , किन्तु आन्दोलन में सहयोग पर बल दिया जाता है ।
  5. क्रान्ति के समय क्रान्तिकारियों को पता रहता है कि विरोधी पक्ष कौन है । वह क्रान्तिकारियों से कठिनाई से ही मिलता है , किन्तु आन्दोलन में विरोधी पक्ष यदि कोई होता है तो वह भी आन्दोलनकर्ताओं के लिए सहानुभूति रखता है । भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में अंग्रेजों ने भी सहानुभूति दिखाई थी । कांग्रेस की स्थापना स्वयं एक अंग्रेज ‘ श्री राम ‘ ने की थी ।
  6. क्रान्ति के परिणाम शुभ अथवा अशुभ दोनों हो सकते हैं , किन्तु आन्दोलन के परिणाम सदैव शुभ ही होते हैं ।
  7. आन्दोलन की समाप्ति पर समाज का नया रूप आरम्भ हो जाता है , किन्तु क्रान्ति की समाप्ति पर समाज विघटित पाया जाता है । 10. आन्दोलन के परिणाम सदैव ही उन्नति की ओर उन्मुख होते हैं , किन्तु क्रान्ति के परिणाम सदैव ही विनाशकरी होते हैं |

विकास तथा प्रगति में अन्तर :

  1. विकास का संबंध मुख्यतः आर्थिक वृद्धि . प्रगति का संबंध समाज द्वारा मान्य एवं प्रौद्योगिक उन्नति से है । तरीकों से होने वाले परिवर्तन से है । \
  2. विकास का संबंध अधिकतम रूप से ,. प्रगति का संबंध नीतिगत मूल्य से भौतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने से है । प्राप्त लक्ष्यों से है ।
  3. विकास की अवधारणा सार्वभौमिक है । . प्रगति की अवधारणा तुलनात्मक है । . विकास की व्यवस्था में मनुष्य की प्रकृति
  4. प्रगति में मानव की प्रकृति निर्भरता पर निर्भरता निरन्तर कम होती जाती है । कम होना आवश्यक नहीं है ।
  5. विकास का क्षेत्र प्रगति से सीमित है । . प्रगति की अवधारणा व्यापक है । इसमें विकास से संबन्धित परिवर्तनों का भी समावेश हो जाता है ।
  6. विकास के अर्न्तगत अवैयक्तिक संबंधों में वृद्धि | . प्रगति का संबंध सामूहिकता में वृद्धि से होती है , विकास की प्रवृत्ति रेखीय होता है । है । प्रगति की निश्चित दिशा होती है ।
  7. विकास का संबंध संस्कृति के भौतिक पहलू . प्रगति का संबंध संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक किसी भी पहलू से हो सकता है । |
  8. विकास मूल्य से अप्रत्यक्ष रूप से संबन्धित 18. प्रगति प्रत्यक्ष रूप से मूल्य निर्णय से सम्बन्धित होती है । से होता है । होता है । 

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