आन्द्रे बेताई

 

 

 आन्द्रे बेताई:

 

 आंद्रे बेताई भारत के अग्रणीय समाजशास्त्री एवं मानवशास्त्री हैं , इन्होंने दक्षिण भारत की जाति प्रथा पर कार्य किया ।  इनका जन्म चन्दन नगर में हुआ और कलकत्ता के सेंट जेवियर कॉलेज से अध्ययन किया  इन्होंने कलक्ता विश्वविद्यालय से मानवशास्त्र में स्नातक और स्नातकोत्तर अध्ययन किया ।  दिल्ली विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की । तत्पश्चात इन्होंने भारतीय सांख्यकीय विभाग में शोध कता के रूप में कार्य किया ।  दिल्ली स्कूल ऑफ इकमोमिक्स में समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर के रूप में पद प्राप्त किया ।  

अपने अध्यापन काल में इन्होंने उल्लेखनीय स्थानों जैसे आक्सफोर्ड , कैम्ब्रीज एवं शिकागो विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया । वर्तमान में सेन्टर फॉर स्टडीज इन सोशल साईस कलकत्ता एवं इंडियन कॉसिल ऑफ सोशल साईस रिसर्च के अध्यक्ष पद पर आसीन है ।  वर्ष 2005 में प्रधानमंत्री राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के सदस्य मनोनीत हुये परन्तु जातिवाद की राजनीति के कारण आयोग को छोड़ा । 2005 में उन्हें पदम् भूषण से सम्मानित किया गया । कलकत्ता के सेंट जेवियर कॉलेज से अध्ययन किया ।

 

प्रकाशित पुस्तकें

 

( 1 ) Social Inequality – Selected Readings – 1960 सोश्ल इनिक्वीलिटी – सलेक्टेड रीडिंगस – 1960

( 2 ) Caste class and power : changing patterns of stratification in Tanjore village . कास्ट क्लास एंड पावर ! चेजिंग पैर्टन ऑफ स्ट्रेटिफिकेशन इन तंजोर विलेज (

 ( 3 ) The Back Ward classes in Contemporary India – 1992 दी बैकवर्ड क्लासेज इन कनटेम्पररी इंडिया- 1992

 ( 4 ) The idea of indigenous people – 1998 दी आईडीया ऑफ इडिजीनस पीपूल – 1998

 ( 5 ) Society and Politics in India Essays in a Comparative Perpective सोसाईटी एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया – ऐसेज इनका कामपेरेटिव परसपेकटिव

( 6 ) chronics of our time – 2000 क्रोनिक्स ऑफ अवर टाइम – 2000

( 7 ) The idea of Natural Inequality and Other Essays – 2003 द आईडिया ऑफ नेचूरल इन इकवेलिटि एंड अदर ऐसेज – 2003 15

 

      आंद बेताई ने तुलनात्मक पद्धति के माध्यम से भारतीय समाज की विभिन्न सामाजिक हस्याओं का अध्ययन तुलनात्मक पद्धति के आधार पर किया है । दक्षिण भारत के तंजौर जिले अध्ययन के माध्यम से न केवल जाति प्रथा का अध्ययन किया बल्कि ग्रामीण समाज में कृषक सम्बन्ध शक्ति एवं सत्ता का रूप , स्तरीकरण के प्रतिमान आदि का अध्ययन किया उपरोक्त अध्ययन समाजशास्त्रीय अध्ययनों में मील का पत्थर माना जाता है इसके आंतरिक भी उनका योगदान अग्रणीय हैं । दक्षिण भारत से प्रकाशित ‘ हिन्दु ‘ पत्रिका में उनके कई लेख प्रकाशित हुए है जो सम सामाजिक विषयों से सम्बधित भी है तथा इनमें भारतीय समाज को गहराई से समझने की अन्तष्टि भी स्पष्ट दिखती है इसका विवरण निम्न है धर्मनिरपेक्षता सेक्यूलीरजिम रि – एक्सामिन ( Secularism Re – examined ) : बेताई ने इस लेख में धर्म निरपेक्षता पर अपने विचार प्रकट किये है ।

उनका मत है भारत में धर्म निरपेक्षता की विचारधारा नई नहीं है । हिन्दु समाज में बहु देवत्व स्वयं में धर्म निरपेक्षता की भावना का प्रतिबिम्ब है । यह पश्चिमी समाज की धर्म निरपेक्षता की धारणा से अलग है । इसे भारतीय संदर्भ में ही समझा जा सकता है । भारत विविधताओं का देश है रहा समानता का मान अनिवार्य है । बेताई अपनी सम्पूर्ण कृतियों में भारत की विविधता को बड़ा महत्व देते हैं ।

यही इस देश की सबसे महान विशेषता है । जाति एवं प्रजाति – ‘ कार्ट एंडरेस ‘ : हिन्दु में प्रकाशित लेख में बेताई का कहना है कि प्रजाति जाति कभी भी नहीं हो सकती । प्रजातीय शारीरिक लक्षणों को प्रकट करती है जो सम्पूर्ण विश्व में पायी जाती है जाति को भारतीय संदर्भ में अलग ही समझना होगा । यह न ‘ केवल जन्म पर आधारित है बल्कि इसका सम्बन्ध धर्म और कर्म की भावना से सम्बंधित है । जाति को प्रजाति के आधार पर समझना एक राजनैतिक छेड़ छाड़ है । आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में – ( Teaching and Research ) : टिचिग एंड रिसर्च : हिन्दु में प्रकाशित इस लेख में उन्होंने निम्न तथ्य प्रकट किये हैं –

 ( 1 ) भारतीय समाज में शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि हुई है । निशुल्क शिक्षा से शिक्षा का प्रसार अति तीव्र गति से हुआ है

 ( 2 ) भारतीय जनता में शिक्षित होने की होड़ सी लग रही है ।

 ( 3 ) उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शोध कार्यों के प्रति युवा वर्ग का रुझान कम है । विश्वविद्यालियों में शोध कम हो रहे है । इसलिये सरकार भी अब यह पैसा शोध के लिये एन.जी.ओ.एस. ( N.G.O.S. ) को दे रही है जिससे उनकी समस्याओं का समाधान हो रहा है

( 4 ) पिछड़े वर्ग के संदर्भ में – जनजातिय समाज के उत्थान के लिये सरकार प्रयत्नशील है । गैर सरकारी संस्थाएं भी इस कार्य में अपनी भूमिका निभा रही है परन्तु इन समाजों की अपनी मूल संस्कृति लुप्त होती जा रही है यह राजनैतिक दलों का वोट बैंक बन रहे हैं सामाजिक सांस्कृति आर्थिक और राजनैतिक सब तरह से इनका शोषण हो रहा है ।

 

 भारत की समस्याएँ : भारत जैसे विकासशील देश के समक्ष दो समस्याएँ प्रमुख हैं –

 आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय ।

 

पंचवर्षीय योजनाएं , हरित क्रांति , कृषि के यंत्रीकरण द्वारा ग्रामीण पुर्ननिर्माण को प्रधानता दी गई है और भूमि सुधारों के माध्यम से किराए पर भूमि जोतने वालों ( Tenants ) बटाईदारी में खेती करने वालों ( Share Croppers ) तथा भूमिहीन श्रमिकों ( Land Less Labourers ) की स्थिति सुधारने का भी प्रयत्न किया गया है । नवीन किस्म के बीजों रसायनिक खादों , नवीन कृषि प्रविधियों तथा सिंचाई की सुविधाओं आदि के उपलब्ध होने से कृषि उत्पादन बढ़ा है और कच्चे माल की भी कमी नहीं है । प्रमुख समस्या उत्पादन या आर्थिक विकास की नहीं है बाल्कि उत्पादित वस्तुओं का समाज के विभिन्न वर्गों में न्यायोचित तरीके से वितरण हो जिससे विकास का लाभ केवल मात्रा शक्ति सम्पन्न लोगों को नहीं मिले और सामान्य जन भी इसका लाभ उठा सकें ।गरीबी दूर हो और लोगों के रहन – सहन का स्तर ऊंचा उठे ।

 

 कृषक एवं कृषक समाज की अवधारणा

 

आन्द्रे बेताई ने अपनी पुस्तक सिक्स एसेज इन कम्पेरेटिव सॉसियोलोजी में कृषक की तीन विशेषताओं पर प्रकाश डाला है :

 

 ( 1 ) कृषक भूमि से जुड़ा होता है वह न केवल भूमि पर रहता है बल्कि उसे अपने श्रम से फलदायक बनाता है । कानूनी दृष्टि से वह भूमि का स्वामी , उसे किराये पर जोतने वाला या बिना भू – स्वामी अधिकार के एक श्रमिक हो सकता है ।

 

( 2 ) ऐसा माना जाता है कि अधिकांश समाजों से कृषकों की निम्न स्थिति होती है । वे लोग जो कृषक के परिश्रमी , सरल तथा मितव्ययी होने की प्रशंसा करते हैं , स्वीकार करते हैं कि समाज में उनकी वास्तविक प्रतिष्ठा ऊँची होती । अक्सर कृषक वर्ग के लिए यह मान लिया जाता है कि यह कुलीन वर्ग के विपरित प्रकार की विशेषताऐ लिए हुए है । कृषर्को को अपरिष्कृत , असभ्य या अशिक्षित भी माना जाता है । उनके लिए यह समझा जाता है कि सभ्य जीवन के तौर – तरीकों से वे अपरिचित हैं ।

 

 ( 3 ) कृषकों को मजदूरों का प्रतिपक्ष या पूरक माना जाता है । ऐसा मानने से यह स्पष्ट होता है कि कृषकों का विभिन्न वर्गों के द्वारा शोषण होता है । एक ओर शोषित कृषक वर्ग आता है तो दूसरी ओर उनके शोषणकर्ता ।

 

‘ कृषक शब्द के उपरोक्त तीन अर्थों को ध्यान में रखने पर स्पष्ट हो जाता है कि सम्पूर्ण भारतीय सभ्यता के लिए कृषक समाज ‘ शब्दावली का प्रयोग अनुप्युक्त है । कृषक समाज का अर्थ : कृषक समाज के संदर्भ में आन्द्रे बेताई ने बतलाया है कि निम्न स्तर वाले कृषकों और उच्च स्तर वाले अकृषकों के बीच विभाजन गॉव या कस्बे या नगर के बीच के भेद को व्यक्त नहीं करता है बल्कि स्वयं गाँव के भीतर के भेदन को बतलाता है । स्पष्ट है कि कृषकों के अ कृषकों के साथ सम्बन्ध पाये जाते हैं परन्तु ये अ – कृषक लोग कस्बे या नगर के रहने बाले है । कम से कम भारत में तो वास्तविकता यही है ।

 

    संरचनात्मक दृष्टि से भारतीय ग्रार्मों में काफी भिन्नता देखने को मिलती है । सभी यामों के लिए कृषक समुदाय संज्ञा का प्रयोग करने से हम ग्रामीण भारत की कृषि सम्बन्धी संरचना के विभिन्न प्रकारों के बीच पाये जाने वाले महत्वपूर्ण अन्तर को नहीं समझ पायेंगे । भारत में कार्य कर रहे अनेक सामाजिक मानवशास्त्री इस मान्यता को लेकर आगे बढ़े कि ग्रामीण भारत कृषक समाज का भौतिक स्थान है । भारत और विदेशों में कार्यरत रॉबर्ट रेडफील्ड के अनुयायियों की रचनाओं से भी यही बात प्रकट होती है । आन्द्रे बेताई ने लिखा है कि , ” यद्यपि कुछ समाजों को कृषक समाजों के रूप में चित्रित करना लाभदायक हो सकता है , परन्तु यह संदेहजनक है कि कोई परम्परागत भारत के लिए इस बात को माने जहाँ एक ओर वृहद जातीय – संस्तरण की प्रणाली पायी जाती है तो दूसरी और जटिल कृषि सम्बन्धी स्तरीकरण की । ” भारतीय समाज को अनेक समाजों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है । हम अपने समाज को ग्रामीण समाज , नगरीय समाज , जनजातीय समाज , एवं कृषक समाज आदि खण्डों में विभाजित कर सकते हैं । सर्व प्रथम भारतीय समाज को नगरीय और ग्रामीण खण्डों में बाँटा जाता है , तत्पश्चात ग्रामीण खण्ड को जनजातीय , और अजनजातीय खण्डों में । अजनजातीय गाँवों से मिलकर भारतीय समाज का कृषक खण्ड निर्मित होता है । अनेक विश्वविद्यालयों में सामाजिक मानवशास्त्र के अध्यापन में विद्यार्थियों को नगरीय भारत तथा जनजातीय भारत के सम्बन्ध में बतलाया जाता है और शेष भारत के लिए यह मान लिया जाता कि यह कृषकों का समाज है । ऐसा करने से परम्परागत भारत के कृषि सम्बन्धी संस्करण से जो आज देश भर के अनेक भार्गों में पाया जाता है , लोग पारिचित नहीं हो पाते ।

इसके अतिरिक्त भारत में किए गए कुछ ग्राम – अध्ययन वास्तव में कृषकों के अध्ययन न होकर विजातीय समुदार्यों के अध्ययन है । ये अध्ययन कृषक समाज को सही अर्थों में चित्रित नहीं कर पाते हैं । आंन्द्रे बेताई की मान्यता है कि भारत में बहुत से जनजातीय गाँव वास्तव में कृषकों के समुदाय है । यदि हम छोटी , घुमन्तू शिकारी तथा फल – फूल एकत्रित करने वाली जनजातियों को छोड दें , तो पायेंगे कि बहुत सी बड़ी जनजातियाँ जो एक स्थान पर रह कर खेती करती हैं तथा समुदायों में संगठित है , कृषक वर्ग के समान है ।

आन्द्रे बेताई ने तो यहीं तक कहा है कि यदि भारत में कृषक समुदायों को देखना है तो उसके लिए सर्वोत्तम स्थान जहाँ से प्रारम्भ करना है , सन्थाली , औरांव तथा मुन्डा लोगों में हैं उपरोक्त कथन से हमें यह नहीं समझ लेना चाहिए कि जनजातीय समाज के लिए कृषक समाज शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए और शेष ग्रामीण समाज के लिए कोई अन्य नाम खोजा जाना चाहिए ।

इसका स्पष्टतः तात्पर्य यही है कि हमें कृषक समाज नामक अवधारणा की बड़ी सावधानीपूर्वक जाँच करनी चाहिए । इसका लक्ष्य यही होना चाहिए कि भारत में ग्रामीण समुदायों के मध्य पाये जाने वाले वास्तविक सम्बन्धो की प्रकृति को सही रूप में समझा जाय । इसके लिए ग्रामीण भारत में भूमि वितरण , कृषि सम्बन्धों , जाति संरचना तथा कार्य के संगठन पर ध्यान देना होगा तभी हम विविध ग्रामीण समुदायों के सम्बन्ध में गहनता के साथ कुछ जान सकेंगे । स्पष्ट है कि केवल कृषक समाज तथा ‘ जनजातीय समाज जैसे शब्दों के प्रयोग मात्रा से ग्रामीण भारत की कृषि सम्बन्धी संरचना को सही अर्थों में नहीं समझा जा सकता ।

 

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 आन्द्रे बेताई का नृतत्वशास्स्त्रीय परिपेक्ष्य

 

आन्द्रे बेताई के अनुसार नृतत्वशास्त्र की स्थापना भारत में एक भौतिक विषय के रूप में लगभग 50 वर्षों पूर्व मानी जा सकती है । इस समय प्रत्येक नृतत्वशास्त्री भौतिक संस्कृति ( Marerial Culture ) सामाजिक संगठन ( Social Organization ) तथा धार्मिक विश्वासों व मान्यताओं ( Religious Beliefs & practices ) के अध्ययन हेतु प्रशिक्षित था । दूसरे शब्दों में नृतत्वशास्त्रीयों ने स्वयं को आदिम , अशिक्षित एवं जनजातीय समुदायों के अध्ययन तक सीमित कर रखा था । लेकिन आज नृतत्वशास्त्रीयों ने स्वयं को अनेक समुदायों के अध्ययन में लगा रखा है और जिनका अध्ययन सम्भव : वे 20 वर्षा पूर्व नहीं किया करते थे आज अधिकांश नृतत्वशास्त्री न केवल गैर – आदिम समाजों का बल्कि कस्बों व शहरी समुदायों का भी अध्ययन करने में व्यस्त हैं ।

आदिम समाजों के अध्ययन अब केवल युवा नृतत्वशास्त्रियों एव समाजशास्त्रियों की रुचि की बात हो गई है । इस संदर्भ में आन्द्रे बेताई के अनुसार भारतवर्ष में मुख्यत : दो प्रकार की गतिविधियाँ प्रमुख रूप से रही हैं जिनमें सामाजिक व सांस्कृतिक नृतत्वशास्त्रियों ने वर्तमान शताब्दी की तीसरी व चौथी दशाब्दियों में स्वयं को व्यस्त रखा । वे हैं

( i ) उन्होंने सांस्कृतिक इतिहास जो कि मुख्यत : भारतीय व विदेशी आदिम समाजों की प्रथाओं को इकट्ठा करने व उनकी तुलना करने से सम्बन्धित था , को ढूंढने का प्रयास किया ।

( ii ) आरम्भ से ही किसी विशिष्ट आदिम समुदायों के सम्पूर्ण संरचनात्मक अध्ययन ही नृतत्वशास्त्रियों की रुचि के विषय रहे हैं जिसमें कि वे उनके भौतिक , साँस्कृतिक , सामाजिक संगठन एवं धार्मिक विश्वासों व मान्यताओं आदि के अध्ययन पर विशेष ध्यान देते हैं । आन्द्रे बेताई ने अनेक नृतत्वशास्त्रीय अध्ययनों की विवेचना की है जैसे एस . सी . राय का छोटा नागपुर में किया गया अध्ययन , प्रो . के . पी . चट्टोपाध्याय ( K.P.Chattopadhyay ) का अध्ययन आदि । विशिष्ट आदिम जनजातियों पर अनेक मोनोग्राफ भारतीय नृतत्वशास्त्रीयों द्वारा प्रारम्भ से ही तैयार किए जाते रहे हैं । मजूमदार द्वारा प्रयुक्त उपागम के प्रमुख लक्षणों की विवेचना यहाँ अतार्किक नहीं होगी क्योंकि इस समय के नृतत्वशास्त्रीयों ने एवं निवर्तमान नृतत्वशास्त्रियों ने भी इस उपागम का बहुतायत से प्रयोग किया । मजूमदार ने बताया है कि हो जनजाति के द्वारा खाये जाने वाले भोजन के प्रकारों से लेकर खाद्य सामग्री के उपागम एवं कार्य का वार्षिक चक्र तथा कार्य का विभिन्न पीढ़ियों एवं विभिन्न विशेषीकृत संघों में लिंग के आधार पर किस प्रकार श्रम विभाजन किया जाता है । दो अन्य विशेषताएँ भी मजूमदार के उपागम की यहीं देखी जा सकती हैं । प्रथम , आर्थिक संगठन , सामाजिक संगठन का लक्ष्य न होकर कुछ अलग ही है एव दूसरी सामाजिक संगठन की लघु अवधारणा मुख्यत : गोत्रा उपगोत्रा आदि के विभाजन से सम्बन्धित होती है ।

 

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आन्द्रे बेताई का कहना है कि सामाजिक संगठन व टोटमवाद , चचेरे ममेरे भाई वहन विवाह , एवं सास परिहार आदि संस्थाओं का विश्लेषण , खेत व बाजार में दिन प्रतिदिन की गतिविधियों के विश्लेषण से अधिक सरल है । आज नृतत्वशास्त्रीयों ने अध्ययन के नये क्षेत्रा तो टूढे हैं परन्तु फिर भी इन नये क्षेत्रों में आज भी आर्थिक गतिविधियों ( Economic Activities ) का अध्ययन लगभग नगण्य ही है ।

नृतत्वशास्त्री अध्ययन तब तक एकपक्षीय ही रहेंगे जब तक कि हम सामाजिक संगठन की विस्तृत अवधारणा को स्वीकृत नहीं कर लेते जिसमें कि हमें आर्थिक संगठनों को भी एक महत्वपूर्ण पक्ष के रूप में स्वीकारना होगा । भारत में नृतत्वशास्त्री अध्ययनो के दूसरे दौर में जाति व्यवस्था ( Caste System ) से सम्बन्धित अध्ययन प्रारम्भ किए । यह समय मुख्यत : 1950 के आस – पास का था । इस प्रकार नृतत्वशास्त्रीयों के जनजाति से जाति की ओर अग्रसर हो जाने से दो बडी सैद्धान्तिक समस्यायें प्रमुख रूप से उभर कर सामने आयीं ।

प्रथम , जनजाति समुदाय छोटे , एकाकी , आत्मनिर्भर तथा स्वायतशासी थे जबकि इसके विपरीत जाति , एकाकी , आत्मनिर्भर , एवं स्वायतशासी नहीं मानी जाती । अपितु वह अन्तनिर्मरता की एक जटिल व्यवस्था के रूप में गाँव , जिले , या प्रादेशिक आधार पर अध्ययन की जा सकती है । द्वितीय , अपनी आदर्श रूप में जनजाति समुदाय समरूप व अस्तरीकृत रूप में पाये जाते थे जबकि भारत में जाति व्यवस्था के अध्ययन में लगे नृतत्वशास्त्रियों के बीच स्तरीकरण का अध्ययन एक केन्द्रिय विषय हो गया । इस प्रकार हम देखते है कि आन्द्रे बेताई के अनुसार अनुसंधान का एक क्षेत्र जो निःसंदेह अत्यधिक महत्व का है और जिस पर भारत में समाजशास्त्रीयों एवं नृतत्वशास्त्रियों ने बहुत कम अध्ययन प्रस्तुत किए हैं वह ‘ कृषक अवस्थाओं का है । आन्द्रे बेताई के अनुसार कृषक व्यवस्थाओ का अध्ययन भूमि और उत्पादन कार्यों हेतु उसके प्रयोग की समस्या से सम्बन्धित है | भूमि पर आधारित सामाजिक एव आर्थिक व्यवस्था में कृषिक अवस्थाओं ( Agrarian Systems ) के अध्ययन का विशेष महत्व है । यही हमें यह बात कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि अभी तक नृतत्व शास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने इस ओर बहुत कम ध्यान दिया है । उपलब्ध तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में भूमि के उपयोग से सम्बन्धित विभिन्न प्रौद्योगिक अवस्थाएँ पायी जाती है ।

यहीं कृषि के क्षेत्रा में अनेक पारिस्थितिक ( Ecological ) विभिन्नताएँ भी देखने को मिलती है । यही कुछ क्षेत्र में बहुत अधिक वर्षा तो कुछ में कठिनता से ही तनिक वर्षा हो पाती है । यहाँ कुछ क्षेत्रो में सिंचाई की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हैं , और कुछ में नहीं के बराबर । विभिन्न क्षेत्रों में तापमान , नमी तथा धूप की दृष्टि से भी अन्तर पाये जाते हैं । इन सबका प्रभाव फसलों की विभिन्न किस्मों तथा उनके लिए काम में ली जाने वाली प्रौद्योगिकी ( Techonology ) पर पड़ता है । कृषि व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में समुचित जानकारी प्राप्त करने हेतु कृषि में प्रयुक्त प्रौद्योगिकी के महत्व को समझना आवश्यक है । तथा इन पर अन्य कारकों का भी प्रभाव पड़ सकता है जिसकी जानकारी रखना अति आवश्यक है जो निम्न है –

लिंग – खेती के कार्यों की प्रकृति वास्तव में काफी जटिल है । कृषि कार्यों का संगठन इस बात पर निर्भर करता है कि किस समुदाय में कृषि हेतु कौन – सी प्रौदयोगिकी उपलब्ध है । लेकिन यहाँ हमें इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि कृषि कार्य का विभाजन प्रौद्योगिकी पर आधारित न होकर सामाजिक संगठन पर आधारित होता है । समाज विशेष की संस्कृति यह निर्धारित करती है कि कृषि कार्यों में पुरुषों की भूमिका क्या होगी और स्त्रिार्यों की क्या ? जनगणना सम्बन्धी आँकड़ों से ज्ञात होता है कि पंजाब के बजाय पश्चिमी बंगाल में कृषि मजदूरों में स्त्रिार्यों की सापेक्ष संख्या अधिक है । अध्ययन से यह भी जात होता है । कि तमिलनाडु और केरल के कुछ भागों में कृषि श्रमिकों में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है ।

स्तरीकरण आन्द्रे बेताई ने बताया है कि भारतीय कृषि के क्षेत्रा में एक महत्वपूर्ण बात यह देखने को मिलेगी कि यहीं स्तरीकरण की अवस्था और कार्य विभाजन के बीच भी एक सम्यक पाया जाता है । गेहूं की खेती और चावल की खेती वाले क्षेत्रों में भी कार्य के विभाजन की दृष्टि से काफी अन्तर देखने को मिलता है । जनगाणना सम्बन्धी अकड़ो से ज्ञात होता है कि पंजाब और हरियाणा में जहाँ गेहूं की खेती विशेषतः होती है , सम्पूर्ण कृषि जनसंख्या में कृषि श्रमिकों का अनुपात सापेक्ष दृष्टि से कम है , जबकि पश्चिमी बंगाल , तमिलनाडु तथा केरल में जहाँ गीले धान की खेती ( Wet Paddy Cultivation ) होती है , यह अनुपात अधिक है । यहीं बटाईदारी में खेती का प्रचलन भी ज्यादा है । आयोजकों और नीति – निर्धारकों की मान्यता है कि स्वयं के पारिवारिक श्रम द्वारा की जाने थाली खेती अधिक उन्नत प्रकार की हो सकती है , बजाय उस खेती के जो किराये पर श्रमिकों के द्वारा की जाती है । लेकिन उत्पादक संगठनों के तरीकों में मौजूद क्षेत्रीय अन्तरों की व्याख्या हम किस प्रकार करेंगे इस सम्बन्ध में समाजशास्त्रीयों की मान्यता है कि जाति संरचना ही इस व्याख्या का सूत्र है , स्वयं द्वारा खेती ( Self – Cultivation ) उन क्षेत्रों में सामान्य है जहाँ कृषक जातियाँ प्रभावी हैं जबकि बटाईदारों और वेतनभोगी श्रमिकों का प्रयोग उन क्षेत्रों में सामान्य है जहाँ अकृषक जातियों का भूमि पर स्वामित्व है ।

अर्थशास्त्रियों के अनुसार उपर्युक्त अन्तर का कारण भूमि पर जनसंख्या का दबाव , अतिरिक्त श्रम की उपलब्धता तथा वेतन संरचना सम्बन्धी भेद है । कार्य की प्रकृति , – आन्द्रे बेताई के अनुसार इसका एक अन्य कारण स्वयं कार्य की प्रकृति है । एक समुदाय का इस प्रकार विभाजन जहाँ कुछ लोग स्वयं काम करते है और के लिए दूसरे काम करते हैं , आंशिक रूप से कार्य की प्रकृति पर निर्भर करता है । यही कारण है कि पंजाब और हरियाणा में दस या पन्द्रह एकड के खेत पर स्वयं कृषक परिवार ही खेती कर लेता है , जबकि पश्चिमी बंगाल , तमिलनाडु तथा केरल में पाँच एकड के खेत पर भी लोग दूसरों से खेती कराते हैं ।

पंजाब व हरियाणा में गेहूं की खेती से सम्बन्धित कार्य इतने कठोर व थकाने वाले नहीं है जितने दक्षिण में गीले धान की खेती से सम्बन्धित कार्य । ग्रामीण समुदाय को ऐसे दो समूहों में विभक्त नहीं किया जा सकता जिसमें से एक में वे लोग आते हैं जो कृषि कार्य करते हैं और दूसरे में वे लोग जो कृषि कार्य नहीं करते हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों में से अधिकांश किसी न किसी रूप में खेती से

सम्बन्धित कोई न कोई कार्य अवश्य करते हैं । वहीं कुछ लोग किराये पर भूमि लेकर जोतते स्वयं खेत पर तो काम नहीं करते परन्तु अन्य लोगों द्वारा किये जाने वाले कृषि कार्यों की देख – रेख करते हैं । बड़े भूस्वामी भूमिहीन श्रमिकों की सहायता से खेती का कार्य करते है । कृषि के क्षेत्र में हाथ से किये जाने वाले कार्यों में भी एक संस्तरण पाया जाता है । सबसे अधिक परिश्रम – साध्य कार्य निम्नतम जातियों अथवा स्तर के लोगों एवं स्त्रियों को करने पड़ते है । कृषि क्षेत्र में किसे कौन – सा कार्य सौंपा जायेगा , यह इस बात पर निर्भर करता है कि समाज विशेष में विभिन्न कार्यों का मूल्यांकन किस प्रकार से किया जाता है । कार्यों के विभाजन में इस बात को विशेष महत्व दिया जाता है कि किसके पास कितनी भूमि है तथा अन्य भौतिक स्रोतों पर किस का कितना नियन्त्रण हैं आन्द्रे बेताई ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि साधारणतः देखने में यह भाता है कि कठोर एवं सर्वाधिक परिश्रम – साध्य कार्य उन्हें सौंपे जाते है जो भूमिहीन हैं और जो स्तरीकरण के निम्नतम स्तर पर हैं और बड़े भू – स्वामी स्वयं कार्य नहीं करते क्योंकि वे दूसरों से अपने लिए कार्य कराने में साधनों की सम्पन्नता के कारण समर्थ हैं । उत्पादन एवं सामाजिक संगठन जब हम उत्पादन के सामाजिक संगठन पर विचार करते हैं तो हम देखते हैं कि न केवल कार्य के बल्कि सम्पत्ति अधिकारों के भी एक विशिष्ट प्रतिमान को वक्त करता है ।

 

उत्पादन संगठन के तीन प्रमुख प्रतिमान देखे जा सकते हैं –

( 1 ) प्रथम प्रतिमान पारिवारिक श्रम पर आधारित है ।

( 2 ) दूसरा किराये के श्रम पर आधारित है एवं

 ( 3 ) तीसरा किराये पर भूमि जोतने वालों पर आधारित है ।

 

 इनमें से प्रत्येक प्रतिमान के अनेक भेद दिखाई देते हैं एवं अनेक स्थानों पर इन तीन प्रतिमानों का मिला – जुला प्रतिरूप दिखाई देता है । जहाँ उत्पादन पारिवारिक श्रम पर आधारित होता है , वही परिवार के विभिन्न सदस्यों को अलग – अलग कार्य सौंपे जाते हैं । कार्यों के विभाजन का एक प्रमुख आधार लिंग भेद है । जहाँ परिवार के सभी सदस्य स्वयं के खेत पर ही कार्य करते हैं , वही साथ ही उन्हें समय – समय पर आवश्यकतानुसार बाहरी लोगों का सहयोग भी लेना पड़ता है । यह सहयोग नकद भुगतान के रूप में भी हो सकता है अथवा किराये पर एक निश्चित अवधि के लिए दूसरे की भूमि जोती जाती है या बटाईदारी में खेती की जाती है , वहीं दो परिवारो के बीच सम्बन्ध पनपते हैं । इनमें एक परिवार भूस्वामी तथा दूसरा काश्तकार या बटाईदार का होता है । इन दो श्रेणियों के अन्तर्गत आने वाले लोग अधिकारों , कर्तव्यों तथा दायित्वों की दृष्टि से एक दूसरे से बँधे रहते हैं । भूस्वामी परिवार और वेतनभोगी श्रमिकों के बीच भी निश्चित प्रकार के सम्बन्ध पाये जाते हैं । अलग – अलग क्षेत्रो में इन सम्बन्धो में काफी भिन्नता देखने को मिलती है । मानवशास्त्रियों स्त्रियों का यह दायित्व है कि वे इस – बात का पता लगाएँ कि इन विभिन्न प्रकार के सम्बन्धों में बेधने वाले लोगों के प्रथा अथवा कानून की दृष्टि से एक दूसरे के प्रति सिद्धान्त रूप में क्या अधिकार और दायित्व हैं तथा व्यवहार में उनका रूप क्या है 

कुछ लोगों का कहना यह भी है कि जाति ग्रामीण समाज के वास्तविक विभाजन का प्रतिनिधित्व करती है , न कि वर्ग का परन्तु इससे हमें यह नहीं समझा लेना चाहिए कि लोग स्वयं भूमि के स्वामित्व , नियंत्रण तथा उपयोग पर आधारित विभाजन को महसूस नहीं करते हो । आन्द्रे बेताई ने बताया है कि यदि हम ग्रामीण पश्चिमी बंगाल को ले तो पायेगें कि वहीं लोग अपने समुदाय को केवल जातीय आधार पर ही . विभाजित नहीं मानते बल्कि अपने को जमींदार , जोतदार , वर्गाकार , माहीन्दार आदि के रूप में भी विभाजित समझते हैं । वर्गीकरण का यह दूसरा क्रम वर्गों के काफी निकट है । स्पष्ट है कि भारतीय ग्रामों में सामाजिक स्तरीकरण के आधार के रूप में केवल जाति का ही महत्व नहीं पाया जाता बल्कि वर्गों का भी । ग्रामीण कृषि क्षेत्र में उत्पादन के संगठन के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में भी बँटे हुए हैं इन विभिन्न श्रेणियों के व्यवस्थित अध्ययन के आधार पर ही कृषक सम्बन्धों को ठीक प्रकार से समझा जा सकता है ।

 

अध्ययन की रुचियां एवं विचार

 

आन्द्रे बेताई ने मूलत : ग्रामीण भारत में सामाजिक स्तरीकरण के अध्ययन में उपस्थित अवधारणाओं व समस्या पर विस्तार से विवेचन किया है । आन्द्रे बेताई के अनुसार भारतीय ग्रामीण समाज की समस्याओं को दो प्रमुख अवधारणाओं को व बहुतायत से प्रेरित किया जाता रहा है । इसमें से एक जाति ( Caste ) की है एवं दूसरी वर्ग ( Class ) की । सामाजिक नृतत्वशास्त्रियों एवं समाजशास्त्रियों ने अपने अध्ययनों में जाति का बहुत खुल कर प्रयोग किया है । आन्द्रे बेताई इनके शाब्दिक आधार पर अपनी आपत्ति प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि जाति एवं वर्ग दोनों ही अवधारणाएँ विभिन्न प्रकार के तथ्यों का प्रतिनिधित्व करती है अत : सामाजिक स्तरीकरण की अवधारणा को इन दोनों में से किसी पर भी अर्थपूर्ण ढंग से लागू नहीं किया जा सकताहै ।

यूरोपियन समाजशास्त्रियो ने वर्ग एवं स्तर एव कुछ ने सामाजिक वर्ग एव सामाजिक स्तरीकरण एकदम पृथक – पृथक् मानकर अपने अध्ययन प्रस्तुत किये हैं । आन्द्रे बेताई ने बताया है कि दक्षिण एशिया के कृषक समाज सम्पत्ति , शक्ति एवं प्रस्थिति की असमानता के आधार पर जाने जाते हैं । कुछ लेखकों ने इस असमानता को इन राष्ट्रों की गरीबी के साथ सम्बन्धित किया है । इन समाजों में सबसे प्रमुख असमानता का आधार भूमि का विभाजन है । भारत में भूमि वितरण एवं स्वामित्व के विश्वसनीय ऑकड़े यहीं प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है फिर भी यह स्वीकार करना ही पडेगा कि जाति का अध्ययन भारतीय समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण है । आन्द्रे बेताई कहते हैं कि कृषक समाजों के समाजशास्त्रीय अध्ययन की बहुत अधिक आवश्यकता है एवं ऐसे किसी भी कृषक समाज के अध्ययन में भूमि केन्द्रीय महत्व का विषय होना चाहिए । दे जोर देकर कहते हैं भूमि पर स्वामित्व नियन्त्रण एवं उपयोग आदि किसी भी अध्ययन को उचित विषय सामग्री प्रदान कर सकते है । 

 

सामाजिक परिधि एवं दायित्व

 

आन्द्रे बेताई ने कृषि एवं सामाजिक संगठन में विशेष सम्बन्ध पाया है । आर्थिक क्रियाकलापों की दृष्टि से सामाजिक परिधि का विशेष महत्व पाया जाता है । इन आर्थिक क्रियाकलापों में विभिन्न व्यक्तियों के बीच होने चली अन्त : क्रिया आती है एवं इनमें व्यक्तियों के अधिकार एवं दायित्व भी सामाजिक रूप से परिभाषित किए जाते है । उदाहरण के लिए कृषि सम्बन्धी क्रियाओं को भिन्न – भिन्न तरीकों से संगठित किया जा सकता है ! भूस्वामी स्वयं अपनी भूमि को न जोत कर वेतनभोगी मजदूरों से उसे जुतवा सकता है इसके अलावा वह अपनी भूमि को दूसरों को निश्चित अवधि के लिए जोतने को दे सकता है , एवं उत्पादन का एक निश्चित भाग भूमि के बदले प्राप्त कराता है । इसके अलावा कृषि की सामाजिक परिधि , सामाजिक व्यवस्था के अन्य पक्षों जैसे भागीदारी , जाति एवं स्थान विशेष से भी सम्बन्धित होती है । इसी कारण विभिन्न समूहों और श्रेणियों में पाई जाने वाले पारस्परिक सम्बन्ध भिन्न – भिन्न समाज में भिन्न – भिन्न होते हैं . । इसके अतिरिक्त आन्द्रे बेताई के अनुसार प्रत्येक समाज के मूल्य और संगठन परस्पर सम्बन्धित होते है एवं किसी भी परिवर्तन में ये दोनों महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।

परन्तु इस सम्बन्ध में हमें ध्यान अदृश्य रखना है कि संगठनों की तुलना में मूल्य परिवर्तन में अक्सर अधिक बाधक होते हैं । वर्तमान में एशियाई देशों में सामाजिक समानता को एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है । इसी मूल्य को ध्यान में रखते हुए भारत ने अपने सम्मुख एक जातिविहीन और वर्गविहीन समाज ( Classless Society ) की रचना का लक्ष्य रखा है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि एशियाई समाजों में यद्यपि परम्परागत मूल्य आज भी मौजूद है परन्तु आदर्श एक समतावादी समाज के निर्माण का रखा गया है लेकिन इन समाजों में और विशेषत : भारत में संस्तरणात्मक मूल्यों का महत्व आज भी बना हुआ है ।

 

 वर्ग संरचना

 

आन्द्रे बेताई कहते हैं कि यदि हम पश्चिमी बंगाल के ग्रामीण समाज को बारीकी से देखने का प्रयास करें तो हम पायेंगें कि वहाँ के लोग न केवल जाति की श्रेणी के आधार पर विभाजित हैं , वे कुछ आर्थिक श्रेणियों के आधार पर भी विभाजित हैं । जैसे जमीदार , तालुकेदार , जोतेदार , अड़ियार महीनदार एवं मुंशी आदि । बेताई कहते हैं कि इन प्रत्येक श्रेणियों का विश्लेषण एवं इनके बीच पाये जाने वाले अतसम्बन्धों का अध्ययन हमारे लिए कृषक वर्ग की संरचना को समझने में बहुत उपयोगी होगा । आन्द्रे बेताई ने कृषक सामाजिक संरचना , कृषक समाज में पाए जाने वाली वर्ग संरचना , कृषक सम्बन्धों , कृषक असन्तोष तथा कृषक आन्दोलनों का विस्तृत अध्ययन किया है ।

 

इनके अनुसार ग्रामीण कृषक संरचना में निम्नलिखित वर्ग पाए जाते हैं –

( 1 ) भू – स्वामी कृषक :

( ii ) भू – स्वामी खेतिहर कृषक

( ii i) काश्तकार अथवा बटाईदार कृषक ; तथा

( iv ) कृषि श्रमिक

 

उपर्युक्त विभिन्न श्रेणियों और इनके पारस्परिक सम्बन्धों से कृषक संस्तरण प्रणाली निर्मित होती है जो भारतीय ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता है । इस सामाजिक व्यवस्था में पाया जाने कला सामंजस्य अथवा असन्तोष इन श्रेणियों के पारस्परिक सामाजिक सम्बन्धों पर निर्भर करता है ।

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 शक्ति एवं सत्ता संरचना

 

 परम्परागत रूप से भारतीय ग्रामों में शक्ति संरचना के प्रमुख आधार निम्नलिखित थे

( i ) राजवंश पर आधारित या बाद में जमींदारी या तालुकेदारी पर आधारित शासक वर्ग ,

( i ) जाति पद – क्रम सोपान में संस्कार के आधार पर उच्च जातियाँ जिसमें प्रस्थिति जन्म के आधार पर प्राप्त होती थी ,

 ( iii ) जाति पंचायत में चौधरी का पद भी वंशानुगत था , और

( iv ) ग्राम पंचायत में भी प्रायः मुखिया वंशानुगत आधार पर ही होता था ।

 

इस भाँति , शक्ति और संरचना एक बन्द व्यवस्था का रूप प्रकट करती हैं जहाँ शक्ति पद – क्रम सोपान में एक क्रम से दूसरे क्रम में गतिशीलता करना प्राय : असम्भव ही है । इसके अतिरिक्त , प्रस्थिति संयोजन ( Status Summation ) की स्थिति भी दिखाई देती है अर्थात उच्च जाति ही उच्च वर्ग है और वही शक्ति के सर्वोच्च पद भी ग्रहण किए हुए है । परन्तु पंचायती राज के लागू किए जाने से , सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार मिलने से तथा विकास के अन्य कार्यक्रमों के परिणामस्वरूप यह परम्परागत शक्ति संरचना टूटने लगी है । 12.9 असमानता एवं निर्धनता कृषि प्रधान समाजों की एक महत्वपूर्ण विशेषता उनकी गरीबी तथा सापेक्ष रूप से उनकी अपरिवर्तनीय प्रकृति है । जब इन समाजों की तुलना औद्योगिक समाजों से की जाती है तो एक स्पष्ट अन्तर यह दिखाई पड़ता है कि जहाँ कृषि – प्रधान समाजों में गरीबी पाई जाती है , वहीं औद्योगिक समाजों में समूहता । कृषि- प्रधान समाजों में गरीबी पाए जाने का मुख्य कारण भूमि पर जनसंख्या का अधिक दबाब तथा परम्परागत प्रकार की कृषि प्रौद्योगिकी का प्रयोग है । जब हम भारतीय समाज के विशेषतः ग्रामीण भाग पर विचार करते है तो पाते हैं कि न केवल यही गरीबी और उसकी अपरिवर्तनीय प्रकृति ही पाई जाती है , बल्कि सामाजिक , आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में असमानता की भी ऊँची मात्रा देखने को मिलती है । कृषक समाजों में औदयोगिक समाजों की तुलना में ये असमानताएँ अधिक कठोर और स्पष्ट होती है । मिचल यग ने कृषक और औदयोगिक समाजों की तुलना करते हुए सार रूप में बताया है कि ‘ भूमि जातियाँ पैदा करती हैं , मशीन वर्ग बनाती हैं ।

‘ कृषि प्रधान समाजों में असमानता के दो पक्ष हैं । आन्द्रे बेताई के अनुसार इसका प्रथम पक्ष वितरण सम्बन्धी है जो सम्पत्ति , आय , साक्षरता , शिक्षा आदि के वितरण के रूप में व्यक्त होता है । इसके अलावा असमानता उनकी मूल्य व्यवस्थाओं में भी मौलिक स्थान रखती है । 

असमानता को वैचारिक दृष्टि से न्यायोचित ठहराया । यहीं विशेषत संस्तरणात्मक मूल्यों की de प्रधानता पाई जाती है जिनका प्रभाव विभिन्न प्रकार के संगठनों पर स्पष्टतः देखने को मिलता है । देश के चहुंमुखी विकास की दृष्टि से जब नवीन संगठन निर्मित किए जाते है तो वे भी इन परम्परागत मूल्यों से साधारणतः प्रभावित हो जाते हैं । भारत में सहकारी समितियों , खण्ड एवं जिला विकास समितियों तथा विदयालय प्रबन्ध भण्डलों में संस्तरणात्मक प्रणाली स्पष्टतः देखने को मिलती है । यहाँ एक ओर ऐसे व्यक्ति पाए जाते हैं जो विशेष सुविधा प्राप्त एवं सम्पन्न हैं , जबकि दूसरी और ऐसे लोग जो विभिन्न साधनों , सुविधाओं एवं योग्यताओं से वंचित हैं । इस देश में सम्पन्न या सुविधा प्राप्त लोगों के प्रति आदर का भाव सामाजिक व्यवस्था के सभी स्तरों पर पाया जाता हैं ।

परिणाम यह होता है कि जो संगठन सामाजिक असमानता को समाप्त करने के उद्देश्य से बनाए जाते हैं , उनमें भी संस्तरण पनप जाता है । ऐसी स्थिति में नवीन विकास या सामाजिक सुधार कार्यक्रर्मो का लाभ विशेषत : उन लोगों को ही मिल पाता है जो संस्तरणातक प्रणाली के शिखर पर है , जो उच्च या आदरणीय समझे जाते हैं । आन्द्रे बेताई ने बताया है कि विकास कार्यक्रमों का सफल होना वही संदिग्ध हो जाता है जहाँ विशेष सुविधा प्राप्त और उससे वंचित लोग दोनों ही यह मानते हैं कि मनुष्य जन्म से ही असमान पैदा किए जाते है और जहाँ कानून दवारा निर्मित अधिकरों को काम में लेने से अक्सर सम्बन्धो की मौजूदा व्यवस्था को चुनौती दी जाती हो ।

यही कारण है कि ग्रामीण समाज में सामुदायिक कार्यक्रमों का लाभ उन गिने – चुने लोगों को ही मिल पाता है जो पहले ही सम्पन्न और शक्तिशाली थे । कृषक समाजों में सामान्यत : भूमि का स्वामित्व एवं नियन्त्रक आर्थिक शक्ति का प्रमुख स्त्रोत है । भारत में कुछ लोग ऐसे है जिनके पास प्रचुर मात्रा में भूमि है , तो कुछ ऐसे भी हैं जो इससे पूर्णत : वंचित हैं । यहीं भू – स्वामियों की भूमिहीनों की तुलना में काफी अधिक आय पाई जाती है । भू – स्वामियों और भूमिहीनों के बीच प्रभुत्व एवं निर्भरता के परम्परागत बन्धन पाए जाते हैं जो प्रथम प्रकार के लोगों को भूमिहीनों को अनेक तरीकों से नियन्त्रित करने में समर्थ बना देते हैं । यहीं भूस्वामियों , किराए पर भूमि जोतने वाले काश्तकारों , बटाईदारों तथा भूमिहीन कृषि श्रमिकों के बीच सम्बन्धों में काफी भिन्नताएँ देखने को मिलती हैं । देश के विभिन्न भागों में भूमि सुधार योजना के अन्तर्गत पट्टेदारी तथा बटाईदारी से सम्बन्धित शर्तो की काश्तकार एवं बटाईदार की दृष्टि से समान और सुविधाजनक बनाने का प्रयत्न किया है परन्तु फिर भी भू स्वामी और भूमिहीन श्रमिकों के बीच आज भी काफी अन्तर देखने को मिलता है । आन्द्रे बेताई ने बताया है कि कुछ भागों में विशेषत : पूर्वी और दक्षिणी क्षेत्रों में भूमि सुधारों के बाद भी बटाईदारी में खेती असामान्य नहीं है और कभी – कभी भूमिहीन श्रमिकों का वर्ग ग्रामीण जनसंख्या का एक – तिहाई भाग तक निर्मित करता है । अवलोकनों से यह भी ज्ञात होता है कि काश्तकार , बटाईदार और भूमिहीन श्रमिकों के अपने भू – स्वामियों के साथ आज भी कई क्षेत्रों में परम्परागत सम्बन्ध पाए जाते हैं । ये लोग अपने मालिकों के प्रति आदर और

सम्मान का भाव रखते हैं । इन विभिन्न श्रेणियों के लोगों में विशेषतः भू – स्वामी के सन्दर्भ में आज भी सामाजिक दूरी पाई जाती है । जाति – व्यवस्था ने भू – स्वामियों और भूमिहीनों के बीच सामाजिक दूरी को बढ़ाने में योग दिया क्योंकि साधारणतः भू – स्वामी उच्च जातियों के और भूमिहीन निम्न जातियों के सदस्य है । उच्च जातियों से सम्बन्धित भू – स्वामी अक्सर स्वयं अपने खेतों पर हाथ से काम नहीं करते हैं । कृषि से सम्बन्धित परिश्रम साध्य कार्य जैसे जमीन खोदना , हल चलाना तथा मिट्टी बोना आदि निम्नतम या अस्पृश्य जातियों के लोग करते हैं । भूमि के असमान वितरण का परिणाम यह हुआ है जिसके पास जितनी अधिक भूमि है उसकी आय भी उतनी ही अधिक है ।

इस प्रकार भूमि असमान मात्रा में स्वामित्वता के कारण यहीं आय सम्बन्धी असमानता भी काफी मात्रा में देखने को मिलती है । बटाईदार और भूमिहीन श्रमिकों को साधारणतः कठिनता से ही इतनी आय हो पाती है कि वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें । वर्तमान में कृषि क्षेत्र में नवीन प्रौदयोगिकी के प्रयोग तथा व्यापारिक किस्म की फसलों के प्रकार ने छोटे कृषकों तक की भी आय को बढ़ाने में योग दिया है कृषि श्रमिकों को कहीं – कहीं , विशेषतया उन क्षेत्रों में जहाँ कृषि और उदयोग में श्रमिकों की माँग काफी बढ़ गई है , अधिक मजदूरी मिलने लगी है । फिर भी यह कहा जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में आय का कम या अधिक होना प्रमुखतः इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति का कितनी भूमि पर स्वामित्व या नियन्त्रण है । ग्रामीण सामाजिक संरचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता जीवन के ढंग ( Style of Life ) सम्बन्धी अन्तरों के रूप में है । भारतीय गाँवों में बड़े भू – स्वामी जागीरदार एवं जींदार आदि पक्के मकानों तथा कोठियों में रहते हैं । बटाईदार और कृषि श्रमिक कच्चे मकानों या झोपड़ियों तक में रहते है । एक ओर भू – स्वामियों और दूसरी ओर बटाईदारों व कृषि – श्रमिकों की पोषाक , बोल – चाल की भाषा , तौर – तरीके और जीवन के तप में भी काफी अन्तर देखने को मिलते हैं । कृषि क्षेत्र में विभिन्न स्तर के लोगों में साक्षरता की दृष्टि से भी भेद पाया जाता है ।

यहाँ शिक्षा को आज भी कुछ उच्च वर्गो और जातियों के विशेषाधिकार के रूप में माना जाता है । आज भी देश में कई ऐसे ग्राम मिल जाएँगे जहाँ कृषि श्रमिकों में से शायद ही कोई व्यक्ति शिक्षित हो । आन्द्रे बेताई ने बताया है कि कृषक वर्ग में साक्षरता और शिक्षा का फैलाव जापान में भूमि सुधारों की सफलता के पीछे एक महत्वपूर्ण कारक था , जबकि भारत में जहाँ पददलित या शोषित लोग जो अशिक्षित भी हैं , भूस्वामी उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखने में अधिक सफल रहे हैं । ग्रामीण भार्गो में ने केवल धन तथा प्रस्थिति की दृष्टि से ही असमानताएँ पाई जाती हैं , बल्कि शक्ति तथा सत्ता की दृष्टि से भी । यद्यपि गाँवों में प्रजातन्त्रालक संस्थाएँ प्रारम्भ तो जा चुकी हैं और सिद्धान्त रूप में सभी वर्गों और जातियों को शक्ति प्राप्त करने की दृष्टि से समान सुविधाएँ उपलब्ध हैं , परन्तु व्यवहार रूप में ऐसा नहीं हैं । वहाँ बटाईदार और कृषि श्रमिक शक्ति संस्तरण की प्रणाली में सबसे निम्न स्तर पर है । इसका मुख्य कारण परम्परागत रूप से चली आ रही असमानताएँ है । गाँवों में देखने में आता है कि वहाँ

निवाधिकार सम्पत्ति एवं शक्ति एक ही व्यक्ति में केन्द्रित होती है तथा सामाजिक दृष्टि से पद – दलित लोग न केवल आर्थिक दृष्टि से बल्कि राजनीतिक दृष्टि से भी वितिध साधनों एवं सुविधाओं से वंचित रहते हैं । यही आनुवंशिक सिद्धान्त पर विशेषत : जोर दिए जाने के कारण सामाजिक विभेद और भी बढ़ जाते है । ऐसी स्थिति में समाज को समतावादी आधार पर निर्मित करने में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है । ऐसी दशा में विकास एवं सुधार कार्यों में लगे लोगों का संस्तरणात्मक प्रणाली के शिखर पर बैठे समूहों को छोड़कर उन लोगों तक पहुँचना जिनके लाभ के लिए योजनाएँ बनाई गई हैं , कठिन है ।

परिणामस्वरूप विकास कार्यक्रमों एवं किसी भी नवीन योजना का लाभ साधारणत : उन्हीं लोगों को मिल पाता है जो पहले से सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि आन्द्रे बेताई ने बताया है कि मालाबार के कृषक संस्तरण की प्रणाली और जातियों की संस्तरण प्रणाली एक दूसरे से काफी निकट और सम्बन्धित पाई गई । साधारणतः कृषक भू स्वामी जातियों की प्रस्थिति सबसे उच्च होती है , इनके नीचे कृषि करने वाली और दस्तकारी का काम करने वाली जातियाँ आती है और सबसे नीचे कृषि श्रमिकों की जातियाँ | ग्रामीण स्तर पर प्रभुत्वशाली भू – स्वामी समूह की स्थिति जाति संस्तरण की प्रणाली में शिखर पर न होकर मध्य में थी । भारत में नवीन राजनीतिक व्यवस्था ने इन प्रभुत्व – सम्पन्न कृषक जातियों में महत्व को और भी बढ़ा दिया है । व्यस्क मताधिकार ने इनकी शक्ति को बढ़ाने में विशेष योग दिया है । कृषि – संस्तरण के निम्नतर स्तर पर बटाईदार और भूमिहीन कृषि श्रमिक आते हैं जो साधारणत निम्न या अस्पृश्य जातियों से सम्बन्धित हैं । कृषक क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों की ओर संकेत करते हुए आन्द्रे बेताई ने बताया है कि वयस्क मताधिकार तथा ग्राम पंचायतों की स्थापना से गाँव में केवल भू – स्वामित्व तथा परम्परागत प्रस्थिति ही शक्ति के आधार नहीं रहे है ।

संगठित संख्या की शक्ति अब इतनी महत्वपूर्ण बन गई है जितनी पहले कभी नहीं थी । इसके उपरान्त भी भूमिहीन लोगों के पास शक्ति बहुत कम हो गई है , चाहे उनकी संख्या कितनी ही ज्यादा क्यों न हो । साधारणतः हुआ यह है कि कृषक भू – स्वामियों मध्यम , और बड़े को अकृषक भू – स्वामियों की कीमत पर शक्ति प्राप्त करने की दृष्टि से कुछ लाभ मिला है कहने का तात्पर्य यह है कि कृषक भू – स्वामियों की शक्ति सापेक्ष रूप से बढ़ती है परन्तु भूमिहीन लोगों की स्थिति में इस दृष्टि से कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है । भूमि सुधार ( Land Reform ) में हम यह देखने का प्रयास करते हैं कि कृषि क्षेत्रों में जहाँ एक ओर कुछ लोगों के पास भूमि काफी अधिक मात्रा में पाई जाती है , वही दूसरी ओर बहुत से लोग इससे पूर्णत : वंचित हैं । परिणाम यह हुआ कि एक ओर जींदारों और दूसरी और किराए पर भूमि जोतने वाले काश्तकारों तथा भूमि – हीन श्रमिकों के बीच असमानता की खाई बहुत बढ़ गई है । देश के स्वतन्त्रा होने के तुरन्त पश्चात लोगों का ध्यान असमानता के इन विपरीत छोरों की ओर गया । फलस्वरूप स्वतन्त्र भारत में ऐसा संविधान लागू किया गया जो

जातिविहीन तथा वर्गविहीन समाज के लिए प्रतिबन्ध था । यहीं सोचा गया कि भूमि सुधारों के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को समाप्त अथवा कम किया जा सकेगा । भारत में भूमि सुधार की दृष्टि से सर्वप्रथम जमींदारी व्यवस्था को समाप्त किया गया । सोचा यह गया कि ऐसा करने से मध्यस्थों के हितों को समाप्त किया जा सकेगा और किसानों के राज्य के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित किए जा सकेंगे लेकिन जमींदारी उन्मूलन से किसान के एक ऐसे समरूपवर्ग का निर्माण नहीं हो पाया जो देश के सभी भार्गों में करीब – करीब समान आकार के खेतों को स्वयं अपने परिवार के सदस्यों की सहायता से जोतते हों । इसका कारण यह था कि यहीं किसान के अन्तर्गत एक ओर वे छोटे भू – स्वामी आते है जो अपने परिवार की सहायता से ही खेती करते हैं , तो दूसरी ओर वे बड़े भूस्वामी भी जो काश्तकारों को किराए पर भूमि जोतने को देते हैं । जमींदारी उन्मूलन से बटाईदार में खेती और किराए पर लेकर भूमि जोतने के विभिन्न प्रकारों का प्रचलन समाप्त नहीं हुआ । साथ ही इससे भूमिहीनो श्रमिकों के एक बहुत बड़े वर्ग की स्थिति में भी कोई सुधार नहीं लाया जा सका ।

 

 

सामाजिक स्तरीकरण के प्रतिमान

 

 आन्द्रे बेताई ने दक्षिणी भारत में मद्रास के तंजौर जिले में पाये जाने वाले कृषक सम्बन्धों ( Agrarian Ralations ) की विस्तार से विवेचना की है । सामाजिक स्तरीकरण की विवेचना निःसन्देह हम भूविज्ञान ( Grology ) के आधार पर ही करते है अर्थात जिस तरह पृथ्वी एक दूसरे के ऊपर स्थित अनेक पर्तो का एक मिलाजुला रूप है ठीक उसी तरह समाज भी एक दूसरे पर अवस्थित विभिन्न स्तरों की एक व्यवस्था है ।

आन्द्रे बेताई ने स्तरीकरण की समस्या की वितेचना मुख्यत : भूमि के स्वामित्व ( Ownership ) , नियंत्रण ( Control ) एवं उपयोग ( Use ) के आधार पर की है । लेकिन वे लिखते हैं कि इसका यह आशय नहीं लगाया जाना चाहिए कि कृषक वर्ग संरचना का यह एक मात्रा अन्तिम विश्लेषण है अपितु इस आधार पर इसे विश्लेषित करने का सबसे बड़ा कारण यह है कि सामान्यत : ग्रामीण भारत में कार्यरत नेतृत्वशास्त्रियों व समाजशास्त्रियों ने इस पक्ष की उपेक्षा की । अतः जब तक हम इस पक्ष को निकटता से नहीं जान लेते कि किस प्रकार भूमि का स्वामित्व , नियन्त्रण व उपयोग असमानता के प्रतिमान को प्रस्तुत करता है तब तक हमारी ‘ जाति के प्रति समझ भी अधूरी रहेगी । आन्द्रे बेताई कहते है कि अब हमें पहले इन कोटियों के पदसोपानिक पक्ष को देखना चाहिये , जैसा कि हमने यहीं तंजौर जिले में पाया है । कोई भी व्यक्ति इनमें पायी जाने वाली तीन तरह की असमानता को आसानी से देख सकता है

 

( क ) भू – स्वामी एवं पट्टेदारों के मध्य पायी जाने वाली असमानता ।

 ( ख ) भूमि के मालिक एवं मजदूरों के मध्य पायी जाने वाली असमानता ।

 ( ग ) बई , मध्यम व छोटे स्वामियों के मध्य पायी जाने वाली असमानता । इन असमानताओं में से पहले दो वर्गों में पायी जाने वाली असमानतायें स्पष्टतः विरोधाभासी विभाजन पर आधारित है यद्यपि तीसरे वर्ग में केवल श्रेणी अन्तर पाया जाता है ।

सामाजिक स्तरीकरण की प्रकृति में यहाँ एक गाँव से दूसरे गांव में अलग – अलग दिखाई है । सामाजिक स्तरीकरण को तुलनात्मक रूप से देखने का एक अन्य आधार यह है कि हम पद – सोपानिक अवस्था में सबसे ऊपर व सबसे नीचे आने वाले वर्ग की सामाजिक दूरी को खाने का प्रयास करें । बेताई का मानना है कि इन कोटियों की प्रकृति एवं इनके मध्य के पारस्परिक सम्बन्ध भी तब तक स्पष्टतः नहीं समझा जा सकता जब तक कि हम इसे जाति सन्दर्भ में नहीं समझे । हालांकि ऐसा करने में हमें अत्यधिक सावधानी बरतनी होगी ।

 

आन्द्रे बेताई के अनुसार जाति एवं कृषक वर्ग संरचना के मध्य दो प्रकार के संबंध सण्टता देखे जा सकते हैं

1 ) सतही सम्बन्ध ( Surface Relationship ) अर्थात् यह माना जाना कि भूस्वामी उच्च जाति के एवं भूमिहीन सामान्यत : निम्न जाति के व्यक्ति हैं ।

 ( 2 ) गहरे सम्बन्ध ( Deeper Relationship ) अर्थात जाति के श्रेणीगत मूल्य भूमि जातिको . पट्टेदारों व कृषक श्रमिकों के मध्य असमान सम्बन्धो के रूप में दिखाई देते हैं तथा मान्यता प्राप्त है । कुछ लोग यह भी स्वीकार करते हैं कि जाति में तो एक पद – सोपानिक व्यवस्था होती है लेकिन वर्ग में ऐसा नहीं है । लेकिन वस्तुत : यह सत्य नहीं माना जा सकता । स्वामियों , भूमि मालिकों , पट्टेदारों व कृषक श्रमिकों के रूप में इस पदसोपानिक व्यवस्था को ज्ञासानी से देखा जा सकता है । कृषक पदसोपानिक व्यवस्था में सबस ऊपर व सबसे नीचे आने वालों में स्पष्ट अन्तर किया जा सकता है बड़े भू – स्वामियों एवं भूमिहीन मजदूरों के जीनद रहन सहन के तरीकों में श्री अनेक व स्पष्ट अन्तर देखे जा सकते हैं । प्रथम तो वे कार्य करने में ही अलग अलग है ।

बड़े भूस्वामी किसी तरह के शारीरिक श्रम ( Phyusical Labour ) में व्यस्त नही हैं । यह जन्तर भूस्वामियों व भूमिहीनों में विशेषकर औरतों में जिन्हें कोई भी तंजौर जिले में चावलों के खेत में काम करते हुए देख सकता है , और यह अनुभव कर सकता है कि ये लोग न केवल जाति संरचना में बल्कि कृषक पदसोपानिक व्यवस्था में भी निम्न स्थान रखते हैं । आन्द्रे बेताई लिखते हैं कि तंजौर जिले में भू – स्वामी व पट्टेदारों में भी पाया जाने वाला अन्तर उतना अधिक नहीं है जितना कि पहले दिखाई देता था । इसका कारण यह रहा कि 1950 के बाद पट्टेदारों में एक वर्ग के रूप में काफी परिवर्तन हुए हैं । आन्द्रे बेताई के अनुसार कृषक व्यवस्था की आधारभूत समस्या अभी भी भूस्वामियों व भूमिहीन मजदूरों के मध्य सम्बन्ध की है । यह समस्या अब कुछ नये आकार ग्रहण कर रही हैं और इन्हें समझने के लिए हमें जिले की राजनैतिक शक्तियों को समझना होगा ।

 

 

 

  कृषक एवं जनजातीय समाज :

 

सामाजिक असंतोष के कारण भारतीय कृषक संरचना के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि कृषि के क्षेत्र में पाई जाने वाली विभिन्न श्रेणियों के मध्य भूमि के स्वामित्व , नियन्त्रण आय ओर जीवन के तौर तरीकों सम्बन्धी अनेक अन्तर पाए जाते हैं

कृषक क्षेत्र में व्याप्त सामाजिक असमानताओं और इनके सम्बन्ध में जागरूकता बढने के कारण वर्तमान समय में कृषक असन्तोष बढ़ता जा रहा है । ग्रामीण क्षेत्रो में छोटे किसानों , काश्तकारों तथा पट्टेदारी पर खेती करने वालों और भूमिहीन श्रमिकों के जीवन में अनेक अभाव पाए जाते हैं । उनके अस्तित्व की दशाएँ शोचनीय है एवं जीवन की सामान्य सुख – सुविधाओं से भी वे सामान्यतः वंचित भी हैं । ऐसी स्थिति में उनमें असन्तोष का पाया जाना स्वाभाविक है । यद्यपि राजनीतिक आन्दोलनों में इन लगा में अपने अस्तित्व की दशाओं के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने के प्रति विशेष भूमिका निभाई ।

कृषक असन्तोष सामान्यत : लोगों की भौतिक दशाओं से सम्बन्धित है , जैसे -जैसे समाज के कमजोर वर्गों की भौतिक दशाओं में गिरावट आती जाती है वैसे – वैसे सामाजिक असन्तोष भी बढ़ता जाता है । भौतिक दशाओं में सुधार होने से कमजोर वर्ग में पाया जाने वाला असन्तोष कम होता है और उनमें सहयोग उन्नत होता है । यह भी सही है कि वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रो में हरित – क्रान्ति के कारण स्थिति में कुछ सुधार हुआ है । खाद्यान्नों का उत्पादन भी बढ़ा है तथा लोगों ने नवीन तकनीक , उपकरणों , रासायनिक खादों , उन्नत बीजों आदि को अपनाना प्रारम्भ किया है । साथ ही लोगों का यह अनुभव भी है कि वर्तमान में सामान्य व्यक्ति की आय , उनके वेतन , मजदूरी व भत्ते बढ़े हैं , लेकिन इससे हमें यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इन भौतिक दशाओं में होने वाले सुधार से सामाजिक असन्तोष समाप्त प्राय : हो जाता है । वास्तविकता इसके कुछ विपरीत है ।

 

आज भी कहीं कोई भूमिहीन जबरन भूमि पर किस्सा करने का प्रयास करता है तो कहीं भू – स्वामी अपने काश्तकार को भूमि पर से बेदखल करने पर लगा हुआ है अनेक स्थानों पर भू – स्वामियों के विरुद्ध आवाज उठाई जाती है तो कहीं – कहीं भू – स्वामित्व काश्तकार एवं भूमिहीन श्रमिकों का शोषण करते हुए दिखाई देते है । कहीं – कहीं भूमि को लेकर मारपीट – गोली मार देने एवं जिंदा जला देने जैसी घटनाएँ भी आम तौर पर सुनाई देती हैं ।

जो लोग यह मानते है ग्रामीण क्षेत्रों में संघर्ष और हिंसा में वृद्धि हुई है , उनकी मान्यता है कि यद्यपि हरित क्रान्ति से ग्रामों का काया – पलट तो हुआ है , परन्तु इसका लाभ अधिकांशत : कुछ थोडे से धनी किसानों को हुआ है छोटे किसानों , काश्तकारों तथा भूमिहीन श्रमिकों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है और विशेषत : बढ़ते हुए मूल्यों का इनकी भाँतिक दशाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है ।

 

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सुसंगत एवं कुसंगत व्यवस्थाएँ

 

 प्रो . आन्द्रे बेताई ने दो प्रकार की सामाजिक व्यवस्थाओं का उल्लेख किया है । जिनमें से एक को सुसंगत सामाजिक व्यवस्था ( Harmonic System ) एवं दूसरी को कुसंगत सामाजिक व्यवस्था ( Disharmonic System ) के नाम से पुकारा गया है । आन्द्रे बेताई के अनुसार एक सुसंगत सामाजिक व्यवस्था वह है जिसमें अस्तित्वात्मक व्यवस्था तथा प्रतिमानात्मक या आदर्शात्मक व्यवस्था के बीच सामंजस्यता पाई जाती है , असमानताऐ न केवल वास्तव में पाई जाती हैं लेकिन उन्हें वैध या उचित माना जाता है । एक कुसंगत सामाजिक अवस्था वह है जिसमें आदर्शात्मक व्यवस्था अस्तित्व सम्बन्धी व्यवस्था से असामंजस्यता की

स्थिति में होती है , वास्तव में असमानताएँ पाई जाती है लेकिन उन्हें अब वैध या उचित नहीं माना जाता । अनुभव के आधार पर यह प्रमाणित नहीं होता कि निर्धनता और असमानता सामाजिक असन्तोष और संघर्ष के पीछे प्रमुख शक्ति हैं । परम्परागत समाजों में निर्धनता और असमानता काफी मात्रा में पाई जाती रही है लेकिन वे इनके प्रति सहिष्णु रहे हैं । इन समाजों में असन्तोष और संघर्ष के बजाय शान्ति और व्यवस्था पाई जाती है ।

 

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 परम्परागत प्रतिमान एवं परिवर्तन

 

 ( 1 ) परम्परागत कृषि संस्तरण में परिवर्तन – आन्द्रे बेताई ने बताया है कि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भारत में परम्परागत कृषिक संस्तरीय प्रणाली के सबसे ऊपरी भाग के महत्व को घटा दिया और स्वरूप भी बदल दिया गया है । यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि भूमि सुधार ही इसका एकमात्र कारण है , लेकिन इसने निश्चित रूप से इसमें प्रमुख भूमिका निभायी है । पिछले पन्द्रह वर्षों में बहुत से बड़े जमींदारों , तालुकेदारों तथा जागीरदारों की अवनति हुई है और उनके साथ न केवल भूमि के स्वामित्व का एक विशिष्ट स्वरूप ही समाप्त हुआ है , बल्कि ‘ सामन्ती प्रकार के जीवन के ढंग के बहुत से तत्व

 

( 2 ) भूस्वामियों के प्रभुत्व कास – भूमि सुधारों का एक प्रभाव यह पड़ा कि बड़े – बड़े जागीरदारों जमींदारों की , जिनकी देश के विभिन्न भागों में जैसे ग्रामीण बंगाल , राजस्थान तथा अन्य कई राज्यों में आर्थिक , राजनीतिक तथा सांस्कृतिक मामलों में प्रभुत्वशाली स्थिति थी , अब वह स्थिति नहीं रही । परम्परागत कृषि संरचना के सबसे ऊपरी भाग वाले लोगों के पास यद्यपि भूमि तो काफी मात्रा में थी , परन्तु उनका वास्तविक कृषि कार्यों से नहीं के बराबर सम्बन्ध था । वे दूसरों को किराये पर या बटाईदारी में भूमि जोतने को देते थे : अनुपात पहले की तुलना में घट गया है । अब कृषि के माध्यम से आर्थिक लाभ के अवसर बढ़ गये है । इससे प्रेरित होकर कुछ पूर्ववर्ती जागीरदार और जींदार कृषि कार्य में अधिक प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने लगे हैं । आजकल कई जमींदार स्वयं ‘ पूँजीपति किसान ( Capitalist Farmers ) बन गये है । अब वे अपने खेतों पर और कुछ नहीं तो देखरेख का ही कार्य करने लगे है । यद्यपि आज भी उनकी आय काफी है , परन्तु अब उन्हें वह सम्मान या प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है जो किसी समय जागीरदार के रूप में थी । वर्तमान में पंजाब , हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘ सामन्ती प्रकार के भूस्वामी की बजाय ‘ आर्थिक प्रकार के भूस्वामी का महत्व बढ़ा है ।

 

 ( 3 ) नवीन प्रकार के भूस्वामियों का उदय – यही इस ओर ध्यान देना भी आवश्यक है कि इस नवीन प्रकार के भूस्वामी का उदय जो वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से खेती करने की ओर अग्रसर है , कुछ ही लोगों के हाथ में भूमि के केन्द्रीकरण की प्रवृति को किस सीमा तक बदल पाया है इसमें कोई सन्देह नहीं कि बड़ी – बड़ी जागीरें जिनका क्षेत्र सैकडो मीलों अथवा कई गाँवों तक विस्तृत था , समाप्त प्राय हो चुकी हैं , परन्तु आज भी 100 से 200 एकड़ के खेत या फार्म कई लोगों के पास हैं । इन लोगों ने भूमि की उच्चतम सीमा

सम्बन्धी कानूनों से बचने के लिए भूमि का विभाजन अलग – अलग व्यक्तियों के नाम दिया अवश्य रखा है . परन्तु वास्तव में पूरे फार्म पर एक ही परिवार का अधिकार है ।

 

( 4 ) अर्जित पदों का महत्व – जन्म पर आधारित प्रदत्त पदों के स्थान पर अर्जित पदों की महत्व बढ़ रहा है । आन्द्रे बेताई ने अपने अध्ययन में बताया है कि पंचायत में चुनाव अब वोट के आधार पर होता है । गाँव में उन लोगों का प्रभुत्व बढ़ रहा है जो सरकारी दफ्तरों या राजनेताओं से अच्छे सम्बन्ध रखते हैं और किसी का काम करा देने की स्थिति में है । जिस परिवार के सदस्य उच्च सरकारी पदों पर पहुँच जाते है उनका भी ग्रामीण समाज में महत्व बढ़ जाता है । जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हो चुका है । द्रव्य पर आधारित अर्य व्यवस्था के लाग हो जाने से गाव में उन परिवारों का महत्व भी बढ़ जाता है जो पैसे वाले हो गए हैं । निश्चित ही आश्रयदाता और सेवक का वह परम्परागत सम्बन्ध टूट रहा है ।

 

 ( 5 ) भूमि वितरण सम्बन्धी असमानता – आन्द्रे बेताई ने बताया है कि कुछ लोग उचित आकार के खेत के स्वामी या नियन्त्रक है जबकि अधिकांश कृषक परिवारों के पास छोटे खेत ही है । नेशनल सैम्पल सर्व ( National Sample Survey ) दवारा 1953-54 , 1959-60 तथा 1960-61 ने जो ऑकडे दिये गये हैं , वे विभिन्न आकार की जोतों के वितरण में कोई परिवर्तन व्यक्त नहीं करते । 1953-54 में 60 प्रतिशत जोत 5 एकड से छोटे थे जबकि 1959-60 तथा 1960-61 के लिए ये ऑकडे क्रमश : 62.96 तथा 61.69 प्रतिशत थे । इस आकार के जोतों द्वारा घेरा हुआ क्षेत्र 1953-54 में कुछ क्षेत्रा का 15.44 प्रतिशत था , 1959-60 में 18.88 तथा 1960-61 मे 19.18 प्रतिशत था । दूसरी ओर 1953-54 में – 30 एकड़ से ऊपर के जोत सम्पूर्ण का 4.27 प्रतिशत थे और ये 30.81 प्रतिशत क्षेत्रा घेरे हुए थे . 1960-61 में ये खेत कुल खेतों का 3.21 प्रतिशत थे और कुल क्षेत्र का 23.65 प्रतिशत भाग घेरे हुए थे । इन आकड़ों से ज्ञात होता है कि भारत में भूमि वितरण सम्बन्धी असमानता काफी मात्रा में व्याप्त है ।

सन् 1976-77 में जहाँ देश में कुल कार्यशील जोतों की संख्या 8.15 करोड़ थी , वहीं 1980-81में यह 8.94 करोड तथा 1990-91 में 10.53 करोड हो गयी । इनमें से सीमान्त एवं लघु जोतों की संख्या बढकर कुल जोतों की करीब 75 प्रतिशत है एक हेक्टेयर से कम बाली जोतों को सीमान्त जोत ( Marginal Holding ) तथा एक हेक्टेयर से अधिक , किन्तु दो हेक्टेयर से कम बाली जोतों को लघु जोत ( Small Holding ) 2 से 4 हेक्टेयर तक जोतों को अई – मध्यम जोते , 4 से 10 हेक्टेयर तक को मध्यम जोते तथा 10 हेक्टेयर या उससे अधिक को वृहत जोते माना गया है । यद्यपि आज अकृषक भूस्वामी या अनुपस्थित प्रकार के भूस्वामी जो अकृषक कार्यों में लगे हुए हैं , अपनी भूमि को बेचने की ओर प्रवृत्त हैं , परन्तु इससे हमें यह नहीं समझ लेना चाहिए कि भूमि का अधिक लोगों में वितरण हो रहा है ।

स्थिति यह है कि खेतों से उत्पन्न वस्तुओं की कीमतों के तेजी से बढ़ने का आर्थिक लाभ उठाने हेतु बड़े आर्थिक भूस्वामी और अधिक भूमि खरीद कर अपने खेतों का आकार बढाना चाहते हैं । यहीं इस दृष्टि से विचार करना भी आवश्यक है कि नवीन किस्म के उत्पादक प्रबन्धों की व्यवस्था में विभिन्न व्यक्तियों

के बीच पाये जाने बाले सम्बन्ध पुरानी उत्पादक व्यवस्था की तुलना में कम अथवा अधिक संस्तरणात्मक हैं ।

यह कहा जा सकता है कि नवीन उत्पादक व्यवस्था संस्तरण के परम्परागत प्रतिमान के महत्व को कम करने में सहायक है । ‘ आर्थिक भूस्वामी स्वयं भी किसी न किसी रूप में खेत पर काम करता है ।

वह कभी खेत में ट्रैक्टर चलाता है तो कभी कोई अन्य कार्य करता है और कभी निरीक्षणकर्ता के रूप में अन्य लोगों द्वारा किये जाने वाले कार्यों की देख – रेख करता

 

( 4 ) भूमि सुधार कार्यक्रमों ले फलस्वरूप जींदारों द्वारा काश्तकारों का जो शोषण होता था उसका अन्त हुआ हैं अत वे उनसे बेगार नहीं ले सकते ।

( 5 ) भूमि सुधार कार्यक्रमों में उत्पादन में भी वृद्धि हुई है क्योंकि अब किसान लगन से काम करने लगे हैं । ( 6 ) जमींदारी उन्मूलन से कृषकों का सरकार से सीधा सम्बन्ध स्थापित हो गया है जिससे उनको सरकारी सहायता मिलन में आसान हो गया है ।

 ( 7 ) भूमि सुधार कानूनों से सामन्तवाद का अन्त हो गया है अब कृषक लोकतन्त्र एवं समाजवाद में भाग ले सकते हैं ।

 ( 8 ) इन कानूनों से किसानों की दशा सुधरी है एवं उनकी उन्नति हुई है । भूमिहीन कृषकों को भूमि प्राप्त हुई है ।

 

 इन कानूनों से पंचायतों की आय में वृद्धि हुई है क्योंकि उन्हें बंजर एवं चरागाह भूमि का प्रबन्ध करने का अधिकार मिल गया है । इस आय को वे गाँव के विकास कार्य में लगा सकते हैं ।

 ( 10 ) भूमि सुधार कार्यक्रमों से ग्रामीण रोजगार में वृद्धि हुई है ।

 ( 11 ) इन अधिनियमों से भूमि के असमान वितरण में कमी आयी है ।

 

( 12 ) इन अधिनियमों से सहकारी कृषि को प्रोत्साहन मिला है ।

 ( 13 ) इनके कारण गाँवों में वर्ग संघर्ष पर रोक लगी है ।

 ( 14 ) भूस्वामी एवं काश्तकार के बीच अनार की समाप्ति –

 

आन्द्रे बेताई ने इस सम्बन्ध में बताया है कि पहले वाली उत्पादक व्यवस्था में भूमि के स्वामित्व और हाथ से काम करने में विपरीत प्रकार का सम्बन्ध था । जब भूस्वामी स्वयं भी किसी न किसी रूप में खेत पर काम करता है , तो उसके और उसी के खेत पर काम करने वाले श्रमिकों के बीच की एक महत्वपूर्ण बाधा समाप्त हो जाती है , चाहे भूस्वामी की जोत का आकार कितना ही बड़ा और श्रमिकों का वेतन कितना ही कम क्यों न हो । स्पष्ट है कि नवीन पारिस्थितयों ने उत्पादन सम्बन्धों को पहले की तुलना में कुछ कम संस्तरणात्मक बनाने में योग दिया हैं ओज- -बड़े भूस्वामी भी आस पास के खेतों को किराये पर लेकर अपने खेतों के आकार को बढाने की ओर प्रयत्नशील हैं । ऐसी स्थिति में – आज कई भूस्वामी साथ ही काश्तकार भी हैं और ऐसी दशा में भूस्वामी और काश्तकार के बीच पाये जाने वाले कई अन्तर अब धीरे – धीरे कम होते जा रहे है , परन्तु समाप्त नहीं । परन्तु आज भी

वास्तविकता यह है कि पंजाब , हरियाणा , पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा देश के अनेक भागों में भूमि के वितरण के सम्बन्ध में अनेक असमानताएँ पाई जाती हैं । प्रश्न यह उठता है कि भूमि सुधार सम्बन्धी विभिन्न अधिनियमों के पारित होने के उपरान्त भी कृषि क्षेत्र में सभी मध्यस्थों से छुटकारा प्राप्त क्यों नहीं किया जा सका और काश्तकारों एवं भूमिहीन श्रमिकों का शोषण क्यों नहीं रोका जा सका ? कृषिक सामाजिक संरचना में ही कुछ ऐसी विशेषताएँ मौजूद है जिनकी वजह से इच्छित परिवर्तन नहीं लाये जा सके ।

 

सर्वप्रथम हम पाते हैं कि स्वयं कानून में ‘ कृषक ( Cultivator ) की परिभाषा में उन लोगों को भी सम्मिलित कर लिया गया जो स्वयं खेती तो नहीं करते , परन्तु जो भूस्वामी है । यह मौजूदा सामाजिक व्यवस्था से एक समझौता था , क्योंकि ब्राहमण एवं राजपूत , आदि उच्च जातियों के लोग भूस्वामी हो हैं , परन्तु अधिकांशत : स्वयं खेती नहीं करते । ऐसे लोगों को भी कृषक की परिभाषा के अन्तर्गत ले लिया गया । डेनियल थोर्नर ने बताया है कि यह वास्तव में परम्परागत भारतीय समाज के संस्तरणात्मक मूल्यों के प्रति एक छूट थी । न केवल कानूनों के निर्माण में बल्कि उनके क्रिया चयन में अधिकारियों तक के द्वारा भूस्वामियों की उच्चता को स्वीकार किया गया है ।

भूमि सुधार प्रयत्नों की असफलता का एक प्रमुख कारण प्रशासन की अकुशलता या अधिकारियों का कमजोर वर्ग के लोगों के प्रति उपेक्षा का भाव रहा है । परिणाम यह हुआ है कि दूसरों की भूमि को किराये पर जातेने वाले काश्तकार और भूमिहीन श्रमिक जिनके लाभ के लिए समय – समय पर विभिन्न अधिनियम पारित किये गये , लाभान्वित नहीं हो सके । यहाँ किराये पर भूमि लेकर जोतने के प्रचलन की पूर्ण समाप्ति व्यवहार रूप में कठिन है ।

भूमि पर जनसंख्या के अधिक भार के कारण भूस्वामी और काश्तकार दोनों ही भूमि के छोटे से दुकडे से अपना जीवन – निर्वाह करते हैं । काश्तकार भी आर्थिक कारणों की बजाय प्रस्थिति या प्रतिष्ठा सम्बन्धी कारणों से भूमिहीन श्रमिकों के रूप में कार्य करने की बजाय दूसरों की भूमि किराये पर जोतने या बटाईदारी में खेती करने को ज्यादा पसन्द करते हैं । उदाहरण के रूप में , कृषक जातियाँ जैसे जाट , आदि श्रमिकों के बजाय काश्तकारों या बटाईदार के रूप में कार्य करना अधिक उत्तम समझती है , चाहे आर्थिक दृष्टि से यह लाभप्रद नहीं भी हो । आज किराये पर भूमि जीतने वाले काश्तकारों अथवा बटाईदारी में खेती करने वालों की स्थिति अनेक कानूनों के उनके पक्ष में होने के बावजूद भी काफी अस्पष्ट है । पहले भूस्वामी बटाईदारी में खेती को एक अच्छी अवस्था समझते है . लेकिन आज वे ऐसे बटाईदार या किराये पर भूमि जोतने वाले काश्त कारको भूमि पर से बेदखल करके उस भूमि को स्वयं जोतना या उसे कृषि श्रमिकों से व्यक्तिगत देखरेख में जुतवाना लाभप्रद समझते है । इससे कम से कम वे इस भय से तो मुक्त हो जाते हैं कि नये – नये कानूनों के बनने से कहीं उनकी भूमि पर काश्तकारी का अधिकार नहीं हो जाये , कहीं दह भूमि का मालिक नहीं बन जाये । अतः पट्टेधारी काश्तकार ( tenant ) की स्थिति इस दृष्टि से अनिश्चित और असुरक्षित है कि शक्तिशाली भूस्वामी उसे भूमि पर से बेदखल करने और उसके द्वारा जोती जाने वाली भूमि को स्वयं के

प्रत्यक्ष नियन्त्रण में लेने में सफल हो जाता है , परन्तु जहाँ किराये पर चुभे जीतने वाला कोई काश्तकार भूमि पर अपना कानूनी अधिकार स्थापित करने में सफल हो जाता है , वहाँ उसे पहले के समान अपने भूस्वामी की कृपा पर निर्भर नहीं रहना पड़ता । ऐसे काश्तकार की आर्थिक स्थिति में भी सुधार की सम्भावना अधिक रहती है । यद्यपि कुछ क्षेत्रों में काश्तकारी की स्थिति में थोड़ा – बहुत सुधार हुआ है , परन्तु सम्पूर्ण देश की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि कानूनों के काश्तकारों के पक्ष में होने के उपरान्त भी उनकी वास्तविक स्थिति न केवल अनिश्चित बल्कि साथ ही असुरक्षित भी है । तथ्यों से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जहाँ काश्तकारों और भूमिहीन श्रमिकों को संगठित राजनीतिक शक्तियों का समर्थन प्राप्त है , वहाँ उनकी स्थिति में सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से सुधार हुआ

 

 

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 भूमि सुधार कार्यक्रमों से सम्मधित आंद्रे बेताई के विचार

 

आन्द्रे बेताई ने भूमि सुधारों का मूल्यांकन करते हुए बताया है कि तर्यों के सूक्ष्म अवलोकन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में भूमि सुधार कृषिक सामाजिक संरचना में व्याप्त मौलिक असमानताओं को समाप्त या कम करने में असफल रहे है । भूमि सुधार से किराये पर जोती जाने वाली भूमि के क्षेत्र में अवश्य कमी आयी है और उच्च मध्यस्थों के अधिकार भी समाप्त हुए हैं । परन्तु इससे भूमि के स्वामित्व का केन्द्रीकरण कम नहीं हुआ है और न ही उन छोटे काश्तकारों की स्थिति में सुधार हुआ है जो केवल मौखिक रूप से निर्धारित शर्तों के आधार पर किराये पर भूमि जोतते हैं या जो बटाईदार के रूप में खेती करते हैं ।

इस सम्बन्ध में जी . पी . मिश्रा ने अपने अध्ययन के आधार पर लिखा है कि भूमि सम्बन्धों की मौलिक संरचना वैसी की वेंसी बनी हुई है जैसा कि भूस्वामी कृषक , किराये पर भूमि जोतने वाले काश्तकार तथा भूमिहीन कृषि श्रमिकों की कृषक बनावट से व्यक्त होता है । कृषि के क्षेत्र में हरित क्रान्ति का विशेष लाभ बड़े भूस्वामियों को मिला है और इससे असमानता और निर्धनता कम नहीं हो पायी है । इसका मूल कारण यह है कि पंचवर्षीय योजनाओं में नवीन कृषि प्रौद्योगिकी को काम में लेते हुए कृषि उत्पादन को बढ़ाने पर तो विशेष जोर दिया गया , लेकिन उत्पादित वस्तुओं के समुचित वितरण और सामाजिक न्याय पर कम ।

अत : कृषि संरचना में परिवर्तन की प्रक्रिया न तो कमजोर वर्ग के लोगों की संख्या को घटाने और न ही उनकी आर्थिक दशा को सुधारने में सफल हो सकी । विडम्बना यह भी है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश की नीतियाँ तो किसान विरोधी हैं एवं अमेरिका , यूरोपीय देशों एवं जापान जैसे उद्योग प्रधान देशों की नीतियाँ किसान समर्थक हैं । एक बात और भी है , भारत में राजस्व के प्रशासन का सारा ढाँचा ब्रिटिश राज की देन है और हमारी गुलामी की याद दिलाता है और आज भी हम भारतीय किसानों को गुलामी की विडम्बनाओं से मुक्त करना नहीं चाहते है । उत्पादन और इससे सम्बन्धित भूमि सम्बन्धों की कृषिक संरचना को इस दृष्टि से बदलें कि कृषि क्षेत्र में उत्पादित वस्तुओं का न्यायोचित तरीके से वितरण हो सके , यह दृढ राजनीतिक संकल्प या निश्चय पर निर्भर करता है न कि नियोजन पर । अभी तक के भूमि सुधार प्रयत्नों से यही प्रमाणित होता हैं भूमि सम्बन्धों की कृषि संरचना में परिवर्तन लाने हेतु

आवश्यक है कि भूमि का कमजोर वर्ग के लोगों में अधिकाधिक वितरण किया जाय और उन्हें कृषि हेतु आवश्यक सुविधाएँ प्रदान की जायें । ऐसा करने से एक समतावादी कृषिक व्यवस्था का उदय हो पायेगा और कृषि क्षेत्र में उत्पादित वस्तुओं का लाभ कुछ बड़े भूस्वामियों या आर्थिक किसानों को ही नहीं मिलकर काश्तकारों , बटाईदारों एवं कृषि श्रमिकों को भी मिल पायेगा ।

 

भूमि सुधार कार्यक्रमों की सफलता के लिए आवश्यक है कि

 ( i ) भूमि सम्बन्धी नवीन रिकार्ड तैयार किया जाय जिसमें स्वामित्व का विकास समाप्त हो , ( ii ) कुशल प्रशासकीय मशीनरी स्थापित की जाय ,

 

( ii ) खेतिहर श्रमिकों के संघ बनें एवं उनके प्रतिनिधियों को भूमि सुधार कार्यक्रमों में सम्मिलित किया जाय ,

 ( iv ) भूमि सुधार कानूनों का प्रचार – प्रसार किया जाय .

 

 ( v ) कानूनों को लाग करने की सरल विधियाँ अपनायी जायें ,

 

 ( vi ) नये कृषकों के लिए वित्तीय संसाधनों का प्रबन्ध किया जाय

 

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