अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की समस्याएं ,
संवैधानिक व्यवस्थाएं तथा कल्याण योजनाएं
PROBLEMS , CONSTITUTIONAL PROVISIONS AND WELFARE SCHEMES FOR SCHEDULED CASTES AND SCHEDULED TRIBES ]
सामान्यतः अनुसूचित जातियों को अस्पृश्य जातियां भी कहा जाता है । अस्पृश्यता समाज की वह व्यवस्था है जिसके कारण एक समाज दूसरे समाज को परम्परा के आधार पर छू नहीं सकता , यदि छूता है तो स्वयं अपवित्र हो जाता है और इस अपवित्रता से छूटने के लिये उसे किसी प्रकार का प्रायश्चित करना पड़ता है । अतः इनकी परिभाषा अस्पृश्यता के आधार पर की गयी है । साधारणतः अनुसूचित जाति का अर्थ उन जातियों से लगाया जाता है जिन्हें धार्मिक , सामाजिक , आर्थिक और राजनैतिक सुविधाएं दिलाने के लिए जिनका उल्लेख संविधान की अनुसूची में किया गया है । इन्हें अछूत जातियां , दलित वर्ग , बाहरी जातियां और हरिजन , आदि नामों से भी पुकारा जाता है । अनुसूचित जातियों को ऐसी जातियों के आधार पर परिभाषित किया गया है जो घृणित पेशों के द्वारा अपनी आजीविका अर्जित करती हैं , किन्तु अस्पृश्यता के निर्धारण का यह सर्वमान्य आधार नहीं है । अस्पृश्यता का सम्बन्ध प्रमुखतः पवित्रता एवं अपवित्रता की धारणा से है । हिन्दू समाज में कुछ व्यवसायों या कार्यों को पवित्र एवं कुछ को अपवित्र समझा जाता रहा है । यहां मनुष्य या पशु – पक्षी के शरीर से निकले हुए पदार्थों को अपवित्र माना गया है । ऐसी दशा में इन पदार्थों से सम्बन्धित व्यवसाय में लगी जातियों को अपवित्र समझा गया और उन्हें अस्पृश्य कहा गया । अस्पृश्यता समाज की एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों के व्यक्ति सवर्ण हिन्दुओं को स्पर्श नहीं कर सकते । – अस्पृश्यता का तात्पर्य है ‘ जो छूने योग्य नहीं है । ‘ अस्पृश्यता एक ऐसी धारणा है जिसके अनुसार एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को छूने , देखने और छाया पड़ने मात्र से अपवित्र हो जाता है । सवर्ण हिन्दुओं को अपवित्र होने से बचाने के लिए अस्पृश्य लोगों के रहने के लिए अलग से व्यवस्था की गयी , उन पर अनेक निर्योग्यताएं लाद दी गयीं और उनके सम्पर्क से बचने के कई उपाय किये गये । अस्पृश्यों के अन्तर्गत वे जातीय समूह आते हैं जिनके छूने से अन्य व्यक्ति अपवित्र हो जायें और जिन्हें पुनः पवित्र होने के लिए कुछ विशेष संस्कार करने पड़ें । इस सम्बन्ध में
डॉ . के . एन . शर्मा ने लिखा है , ” अस्पृश्य जातियां वे हैं जिनके स्पर्श से एक व्यक्ति अपवित्र हो जाय और उसे पवित्र | होने के लिए कुछ कृत्य करने पड़ें । आर . एन . सक्सेना ने इस बारे में लिखा है कि यदि ऐसे लोगों को अस्पृश्य माना जाय जिनके छूने से हिन्दुओं को शुद्धि करनी पड़े तो ऐसी स्थिति में हट्टन के एक उदाहरण के अनुसार ब्राह्मणों को भी अस्पृश्य मानना पड़ेगा क्योंकि दक्षिण भारत में होलिया जाति के लोग ब्राह्मण को अपने गांव के बीच से नहीं जाने देते हैं और यदि पहचली जाता है तो वे लोग गांव की शुद्धि करते हैं ।
हट्टन ने उपर्युक्त कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए कुछ ऐसी निर्योग्यताओं का उल्लेख किया है जिनके आधार पर अस्पृश्य जातियों के निर्धारण का प्रयत्न किया गया है । आपने उन लोगों को अस्पृश्य माना है जो ( अ ) उच्च स्थिति के ब्राह्मणों की सेवा प्राप्त करने के अयोग्य हों , ( ब ) सवर्ण हिन्दुओं की सेवा करने वाले नाइयों , कहारों तथा दर्जियों की सेवा पाने के अयोग्य हो , ( स ) हिन्दू मन्दिरों में प्रवेश प्राप्त करने के अयोग्य हों , ( द ) सार्वजनिक सुविधाओं ( पाठशाला , सड़क तथा कुआं ) को उपयोग में लाने के अयोग्य हों , और ( य ) घणित पेशे से पृथक् होने के अयोग्य हों । सारे देश में अस्पश्यों के प्रति एकसा व्यवहार नहीं पाया जाता और न ही देश के विभिन्न भागों में अस्पृश्यों के सामाजिक स्तर में समानता पायी जाती है । अतः हट्टन द्वारा दिये गये उपर्युक्त आधार भी अन्तिम नहीं हैं ।
डॉ . डी . एन . मजूमदार के अनुसार , “ अस्पृश्य जातियां वे हैं जो विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक निर्योग्यताओं से पीड़ित हैं , जिनमें से बहुत – सी निर्योग्यताएं उच्च जातियों द्वारा परम्परागत रूप से निर्धारित और सामाजिक रूप से लागू की गयी हैं । ” स्पष्ट है कि अस्पृश्यता से सम्बन्धित कई निर्योग्यताएं या समस्याएं हैं जिनका आगे उल्लेख किया गया है ।
” रामगोपाल सिंह का कथन है कि “ अस्पृश्यता की मनोवृत्ति जाति से नहीं , अपितु परम्परागत घृणा और पिछड़ेपन के दृष्टिकोण से संबद्ध है । ” इसीलिये डी . एन . मजूमदार के शब्दों में “ अस्पृश्य जातियाँ वे हैं , जो विभिन्न सामाजिक व राजनैतिकं निर्योग्यताओं से पीड़ित हैं जिनमें से अधिकतर निर्योग्यताओं को परम्परा द्वारा निर्धारित करके सामाजिक रूप से उच्च जातियों द्वारा लागू किया गया है ।
” कैलाशनाथ शर्मा के अनुसार “ अस्पृश्य जातियाँ वे हैं जिनके स्पर्श से एक व्यक्ति अपवित्र हो जाये और उसे पवित्र होने के लिये कुछ कृत्य करना पड़े । ” स्पष्ट है कि अस्पृश्यता समाज की निम्न जातियों के व्यक्तियों की सामान्य निर्योग्यताओं से सम्बन्धित है , जिस कारण इन जातियों को अपवित्र समझा जाता है तथा उच्च एवं स्पृश्य जातियों द्वारा इनका स्पर्श होने पर प्रायचित करना पड़ता है । यद्यपि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात अस्पृश्यता को सामाजिक अपराध के रूप में स्वीकार करते हए अस्पृश्यता की भावना को प्रतिबन्धित कर दिया गया है तथा इस सम्बन्ध में ‘ अस्पृश्यता – निवारण अधिनियम – 1955 ‘ को लागू किया गया है ।
अनुसूचित जातियों की समस्याएं ( निर्योग्यताएं )
( PROBLEMS OR DISABILITIES OF SCHEDULED CASTES )
धार्मिक निर्योग्यताएं ( Religious Disabilities ) मन्दिर – प्रवेश व पवित्र स्थानों के उपयोग पर प्रतिबन्ध अस्पश्यों को अपवित्र माना गया और उन पर अनेक निर्योग्यताएं लाद दी गयीं । इन लोगों को मन्दिर प्रवेश पवित्र नदीघाटों के उपयोग , पवित्र स्थानों पर जाने तथा अपने ही घरों पर देवी – देवताओं की पूजा करने का अधिकार नहीं दिया गया । इन्हें वेदों अथवा अन्य धर्म – ग्रन्थों के अध्ययन एवं श्रवण की आज्ञा नहीं दी गयी । इन्हें अपने सम्बन्धियों के शव सार्वजनिक शमशान घाट पर जलाने की भी स्वीकृति नहीं दी गयी ।
धार्मिक सुख – सुविधाओं से वंचित – अस्पृश्यों को सब प्रकार की धार्मिक सुविधाओं से वंचित कर दिया गया । यहां तक कि सवर्ण हिन्दुओं को आदेश दिये गये कि वे अपने धार्मिक जीवन से अस्पृश्यों को पृथक् रखें । मनुस्मृति में बतलाया गया है कि अस्पृश्य को किसी प्रकार की कोई राय न दी जाय , न ही उसे भोजन का शेष भाग ही दिया जाये , न ही उसे देवभोग का प्रसाद ही मिले , न उसके समक्ष पवित्र विधान की व्याख्या ही की जाय , न उस पर तपस्या का प्रायश्चित का ही भार डाला जाये . . . . वह , जो किसी ( अस्पृश्य के लिए ) पवित्र विधान की व्याख्या करता है अथवा उसे तपस्या या प्रायश्चित करने को बाध्य करता है , उस ( अस्पृश्य ) के साथ स्वयं भी असंवृत नामक नरक में डूब जायेगा । अस्पृश्य लोगों को पूजा , आराधना , भगवत भजन , कीर्तन , आदि का अधिकार नहीं दिया गया है । ब्राह्मणों को इनके यहां पूजा , श्राद्ध तथा यज्ञ , आदि कराने की आज्ञा नहीं दी गयी है ।
धार्मिक संस्कारों के सम्पादन पर प्रतिबन्ध – अस्पृश्यो को जन्म से ही अपवित्र माना गया है और इसी कारण इनके – शुद्धिकरण के लिए संस्कारों की व्यवस्था नहीं की गयी है । शुद्धिकरण हेतु धर्म – ग्रन्थों में सोलह प्रमुख संस्कारा
का उल्लेख मिलता है । इनमें से अधिकांश को पूरा करने का अधिकार अस्पृश्यों को नहीं दिया गया है । इन्हें विद्यारम्भ , उपनयन और चूडाकरण जैसे प्रमुख संस्कारों की आज्ञा नहीं दी गयी है ।
सामाजिक निर्योग्यताएं ( Social Disabilities ) अस्पृश्यों की अनेक सामाजिक निर्योग्यताएं रही हैं जिनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं :
सामाजिक सम्पर्क पर रोक अस्पृश्यों को सवर्ण हिन्दुओं के साथ सामाजिक सम्पर्क रखने और उनके सम्मेलनों , गोष्ठियों , पंचायतों , उत्सवों एवं समारोहों में भाग लेने की आज्ञा नहीं दी गयी । उन्हें उच्च जाति के हिन्दुओं के साथ खान – पान का सम्बन्ध रखने से वंचित रखा गया है । अस्पृश्यों की छाया तक को अपवित्र माना गया और उन्हें सार्वजनिक स्थानों के उपयोग की आज्ञा नहीं दी गयी । उनके दर्शनमात्र से सवर्ण हिन्दुओं के अपवित्र हो जाने की आशंका से अस्पृश्यों को अपने सब कार्य रात्रि में ही करने पड़ते । दक्षिण भारत में कई स्थानों पर तो इन्हें सड़कों पर चलने तक का अधिकार नहीं दिया गया । मनुस्मृति में बताया गया है कि चाण्डालों या अस्पृश्यों का विवाह एवं सम्पर्क अपने बराबर वालों के साथ ही हो तथा रात्रि के समय इन्हें गांव या नगर में विचरण करने का अधिकार नहीं दिया जाये ।
सार्वजनिक वस्तुओं के उपयोग पर प्रतिबन्ध – अस्पृश्यों को अन्य हिन्दुओं के द्वारा काम में लिये जाने वाले कुओं से पानी नहीं भरने दिया जाता , स्कूलों में पढ़ने एवं छात्रावासों में रहने नहीं दिया जाता था । इन लोगों को उच्च जातियों द्वारा काम में ली जाने वाली वस्तुओं का प्रयोग नहीं करने दिया जाता था । ये पीतल तथा कांसे के बर्तनों का प्रयोग नहीं कर सकते थे , अच्छे वस्त्र एवं सोने के आभूषण नहीं पहन सकते थे । दुकानदार इन्हें खाना नहीं देते , धोबी इनके कपड़े नहीं धोते , नाई बाल नहीं बनाते और कहार पानी नहीं भरते । इन्हें अन्य सवर्ण हिन्दुओं की बस्ती या मोहल्ले में रहने की आज्ञा भी नहीं थी । धर्म – ग्रन्थों में बतलाया गया है कि चाण्डालों एवं श्वपाकों का निवास स्थान गांव के बाहर होगा , ये अपात्र होंगे तथा कुत्ते एवं खच्चर ही उनका धन होंगे । इस सम्बन्ध में मनुस्मृति में कहा गया है कि मृत व्यक्ति के वस्त्र या पुराने चीथड़े ही इनके कपड़े हों , मिट्टी के टूटे हुए टुकड़े इनके बर्तन हों , यह लोग लोहे इवें और रात – दिन भ्रमण करते रहें । जन सम्बन्धी सुविधाओं से वंचित न केवल अस्पृश्यों को बल्कि शूद्रों तक को शिक्षा प्राप्त करने की स्याएं , संवैधानिक व्यवस्थाएं तथा कल्याण योजनाएं 425 – 17 आज्ञा नहीं दी गयी । इन्हें चौपालों , मेलों तथा हाटों में शामिल होकर अपना मनोरंजन करने का अधिकार नहीं दिया गया । परिणाम यह हुआ कि समाज का एक बड़ा वर्ग निरक्षर रह गया ।
अस्पृश्यों के भीतर भी संस्तरण ( Hierarchy ) – एक आश्चर्यजनक बात तो यह है कि स्वयं अस्पृश्यों में भी संस्तरण की प्रणाली अर्थात् ऊंच – नीच का भेदभाव पाया जाता है । ये लोग तीन सौ से अधिक उच्च एवं निम्न जातीय समूहों में बंटे हुए हैं जिनमें से प्रत्येक समूह की स्थिति एक – दूसरे से ऊंची अथवा नीची है । इस सम्बन्ध में के . एम . पणिक्कर का कहना है कि ” विचित्र बात यह है कि स्वयं अछूतों के भीतर एक पृथक् जाति के समान संगठन था । . . . . सवर्ण हिन्दुओं के समान उनमें भी बहुत उच्च और निम्न स्थिति वाली उपजातियों का संस्तरण था , जो एक – दूसरे से श्रेष्ठ होने का दावा करती थीं । पा
अस्पृश्य एक पृथक् समाज के रूप में एक पृथक् समाज के रूप में अस्पृश्यों को अनेक निर्योग्यताओं से पीड़ित रहना पड़ा है । इस बारे में डॉ . पणिक्कर ने लिखा है , ” जाति – व्यवस्था जब अपनी यौवनावस्था में क्रियाशील थी , उस समय इन अस्पृश्यों ( पंचम वर्ण ) की स्थिति कई प्रकार से दासता से भी खराब थी । दास कम से कम एक स्वामी के ही अधीन होता था और इसलिए उसके अपने स्वामी के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध होते थे , लेकिन अस्पृश्यों के परिवार पर तो गांव भर की दासता का भार होता था । व्यक्तियों को दास रखने की बजाय , प्रत्येक ग्राम के साथ कुछ अस्पृश्य परिवार एक किस्म की सामूहिक दासता के रूप में जुड़े हुए थे । ‘ उच्च ‘ जातियों का कोई व्यक्ति किसी भी अस्पृश्य के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं रख सकता था । “
आर्थिक निर्योग्यताएं ( Economic Disabilities )अस्पृश्यों को वे सब कार्य सौंपे गये जो सवर्ण हिन्दुओं के द्वारा नहीं किये जाते थे । आर्थिक निर्योग्यताओं के कारण अस्पृश्यों की आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय हो गयी कि इन्हें विवश होकर सवर्णों के झूठे भोजन , फटे – पुराने वस्त्रों एवं त्याज्य वस्तुओं से ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी पड़ी । इनकी आर्थिक निर्योग्यताएं इस प्रकार हैं :
व्यावसायिक निर्योग्यता – अस्पृश्यों को मल – मूत्र उठाने , सफाई करने , मरे हुए पशुओं को उठाने और उनके चमड़े से वस्तुएं बनाने का कार्य ही सौंपा गया । इन्हें खेती करने . व्यापार चलाने या शिक्षा प्राप्त कर नौकरी करने का अधिकार नहीं दिया गया । ये लोग ग्रामों में अधिकतर भूमिहीन ” श्रमिकों के रूप में कार्य करते हैं । इन लोगों पर यह निर्योग्यताएं
लाद दी गयीं कि ये अपने परम्परागत पेशे को छोड़कर किसी अन्य पेशे को नहीं अपना सकते हैं ।
सम्पत्ति सम्बन्धी निर्योग्यता — व्यावसायिक निर्योग्यता के अलावा इन्हें सम्पत्ति सम्बन्धी निर्योग्यता से भी पीड़ित रहना पड़ा । इन्हें भूमि – अधिकार तथा धन – संग्रह की आज्ञा नहीं दी गयी । मनुस्मृति में बतलाया गया है , “ अस्पृश्य व्यक्ति को धन – संचय कदापि नहीं करना चाहिए , चाहे वह ऐसा करने में समर्थ ही क्यों न हो , क्योंकि धन संचित करके रखने वाला शूद्र ब्राह्मणों को पीड़ा पहुंचाता है । अन्यत्र यूह भी बतलाया गया है कि ब्राह्मण अपनी इच्छा से अपने शूद्र सेवक की सम्पत्ति जब्त कर सकता है क्योंकि उसे सम्पत्ति रखने का अधिकार ही नहीं है । अस्पृश्यों को दासों के रूप अपने स्वामियों की सेवा करनी पड़ती थी , चाहे प्रतिफल के रूप में उन्हें कितना ही कम क्यों न दिया जाय । अस्पृश्यों की सम्पत्ति सम्बन्धी निर्योग्यता से ही द्रवित हो आचार्य विनोबा भावे ने इनके लिए ‘ भूदान ‘ आन्दोलन चलाया ।
भरपेट भोजन की सुविधा भी नहीं ( आर्थिक शोषण ) अस्पृश्यों का आर्थिक दृष्टि से शोषण हुआ है । उन्हें घृणित से घृणित पेशों को अपनाने के लिए बाध्य किया गया और बदले में इतना भी नहीं दिया गया कि वे भरपेट भोजन भी कर सकें । उनकी महत्वपूर्ण सेवाओं के बदले में समाज ने उन्हें शेष झूठा भोजन , त्याज्य वस्तुएं और फटे – पुराने वस्त्र दिये । हिन्दुओं ने धर्म के नाम पर अपने इस सारे व्यवहार को उचित माना और अस्पृश्यों को इस व्यवस्था से सन्तुष्ट रहने के लिए बाध्य किया । उन्हें कहा गया कि इस जन्म में अपने दायित्वों का ठीक प्रकार से पालन नहीं करने पर अगला जीवन और भी निम्न कोटि का होगा । इस प्रकार अस्पृश्यों को आर्थिक शोषण का शिकार होना पड़ा ।
राजनीतिक निर्योग्यताएं ( Political Disabilities ) अस्पृश्यों को राजनीति के क्षेत्र में सब प्रकार के अधिकारों से वंचित रखा गया है । उन्हें शासन के कार्य में किसी भी प्रकार का कोई हस्तक्षेप करने , कोई सुझाव देने , सार्वजनिक सेवाओं के लिए नौकरी प्राप्त करने या राजनीतिक सुरक्षा प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं दिया गया । अस्पृश्यों को कोई भी अपमानित कर सकता और यहां तक कि पीट भी सकता था । ऐसे व्यवहारों के विरुद्ध उन्हें सुरक्षा प्राप्त नहीं थी । उनके लिए । सामान्य अपराध के लिए भी कठोर दण्ड की व्यवस्था थी । दण्ड की विभेदकारी नीति का मनुस्मृति में स्पष्ट उल्लेख मिलता है । _ _ _ _ इस ग्रन्थ में बताया गया है कि जहां ब्राह्मण , क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए क्रमशः सत्य , शस्त्र तथा गऊ के नाम पर शपथ लेने का विधान रखा गया , वहीं अस्पृश्यों के लिए न्याय देने के पूर्व ही . केवल शपथ के रूप में आठ अंगुल लम्बा – चौड़ा गरम लोहा हाथ में लेकर सात पग चलने की व्यवस्था की गयी । मादण्ड की कठोरता का इसी बात से पता चलता है कि मनु ने बतलाया है कि निम्न वर्ण का मनुष्य ( शूद्र अथवा अस्पृश्य ) अपने जिस अंग से उच्च वर्ण के व्यक्तियों को चोट पहुंचाये , उसका वह अंग ही काट डाला जायेगा । . . . . . . . . वह , जो हाथ या डण्डा उठायेगा , उसका हाथ काट लिया जायेगा । स्पष्ट है कि अस्पृश्यों की अनेक राजनीतिक निर्योग्यताएं रही हैं । अस्पृश्यों की उपर्युक्त निर्योग्यताएं मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था से विशेष रूप से सम्बन्धित हैं ।
वर्तमान में अस्पृश्यों की समस्या प्रमुखतः सामाजिक और आर्थिक हैं न कि धार्मिक और राजनीतिक । इतने लम्बे समय से सब प्रकार के अधिकारों से वंचित , निरक्षर तथा चेतना शून्य होने के कारण इनकी स्थिति में सुधार होने में कुछ समय लगेगा । इनके प्रति लोगों की मनोवृत्ति धीरे – धीरे बदलेगी और कालान्तर में ये सामाजिक जीवन का मुख्य धारा में प्रवाहित हो सकेंगे । अस्पृश्यों की निर्योग्यताए नगरों में समाप्त – सी होती जा रही हैं , परन्त ग्रामों में आज भा दिखलायी पड़ती हैं । इसका प्रमुख कारण यही है कि ग्रामा म – सामाजिक परिवर्तन की गति धीमी है , रूढ़िवादिता का अभी – भी वहां बोलबाला है ।