भारतीय सामाजिक संगठन की नवीन विशेषताएं
( CHARACTERISTICS OF INDIAN SOCIAL ORGANIZATION : NEW BASES )
समय के साथ – साथ भारतीय सामाजिक संगठन के आधारों में भी परिवर्तन आया और अनेक नवीन आयल विकसित हुए । जैसे – जैसे समय बीतता है उसके साथ – साथ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व्यक्तियों की आवश्यकताएं एवं अनुभव भी बदलते जाते हैं । परिणामस्वरूप व्यवहार के नवीन तरीके विकसित होते जाते हैं । वर्तमान में भारतीय समाज में औद्योगीकरण , नगरीकरण , पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति , आधुनिक शिक्षा तथा नवीन सामाजिक मूल्यों के कारण समाज के परम्परागत आधारों के स्थान पर कुछ नवीन आधार विकसित हुए हैं । अब लोग पुरुषार्थ के सिद्धान्त में विश्वास नहीं करते , न ही अब आश्रम – व्यवस्था का कोई महत्व शेष रह गया है । आज ऋणों तथा पंच महायज्ञो की धारणा भी दुर्बल हुई है । अब विभिन्न संस्कारों का भी वह महत्व नहीं है जो कुछ समय पहले तक था । आज बहुत से लोग कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को भी नहीं मानते । वर्तमान में वर्ण – व्यवस्था का स्थान जाति – व्यवस्था ने ले लिया है और जाति – व्यवस्था भी परिवर्तित हो रही है । आज संयुक्त परिवार भी विघटन की ओर अग्रसर हैं । वर्तमान में भारतीय समाज के जिन नवीन आधारों का विकास हुआ है , वे इस प्रकार हैं :
( 1 ) धर्म – निरपेक्षता या लौकिकता ( Secularism ) – धर्म निरपेक्षता का तात्पर्य सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखना और धार्मिक आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव या पक्षपात नहीं बरतना है । राज्य किसी के साथ भी धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता है और उसकी दृष्टि में सभी समान है , चाहे कोई किसी भी धर्म को मानने वाला क्यों न हो । डॉ . श्रीनिवास ने इस आधार को लौकिकीकरण ( Secularization ) का नाम दिया है । कुछ समय पूर्व तक जीवन से सम्बन्धित विभिन्न क्रियाओं के धार्मिक आधार की प्रधानता थी , परन्तु अब तार्किक आधार का महत्व बढ़ता जा रहा है । डॉ . श्रीनिवास ने लिखा है कि लौकिकीकरण में यह बात शामिल है कि जिसे पहले धार्मिक माना जाता था , वह अब वैसा नहीं माना जाता है । लौकिकीकरण का एक अन्य आवश्यक तत्व बुद्धिवाद है । बुद्धिवाद में तर्क – बुद्धि के सिद्धान्त के अनुसार सभी तर्कहीन बातों को यथासम्भव मिटाया जाता है । भारतीय समाज के शिक्षित वर्ग में लौकिकीकरण की प्रक्रिया का प्रभाव स्पष्टतः बढ़ता जा रहा है । अब यहां धर्म – निरपेक्ष प्रकार के सामाजिक मूल्य विकसित होते जा रहे हैं । अब बुद्धिजीवी वर्ग के लोग प्रत्येक क्रिया या व्यवहार पर उनकी उपयोगिता की दृष्टि से विचार करके कोई निर्णय लेते हैं । अब भारतीय समाज में पवित्र समाज ( Sacred Society ) के मूल्य कमजोर होते जा रहे हैं और तार्किकता के मूल्यों का महत्व बढ़ता जा रहा है । यहां अन्य धर्म के लोगों के बजाय हिन्दुओं पर लौकिकीकरण की प्रक्रिया का प्रभाव विशेषतः पड़ा है और वह भी नगरीय तथा पढ़े – लिखे लोगों पर अधिक ।
( 2 ) समानता एवं स्वतन्त्रता ( Equality and 38Freedom ) – जाति – व्यवस्था पर आधारित भारतीय समाज वर्तमान में समानता और स्वतन्त्रता की ओर अग्रसर भ हो रही है । परम्परागत भारतीय सामाजिक संरचना जन्म , स असमानता और विभेद पर आधारित थी . परन्तु अब जन्म , जाति , धर्म अथवा अन्य किसी आधार पर किसी के साथ कोई भेद – भाव नहीं किया जाता । राज्य की दृष्टि में सभी समान हैं , सबको बराबर अधिकार प्राप्त हैं । यहां कानन के अन्तर्गत सभी को अपने विकास की पूर्ण सुविधाएं प्रदान की गयी हैं । प्रत्येक व्यक्ति को भारतीय गणराज्य के स्वतन्त्र नागरिक के रूप में अपने र व्यक्तित्व के विकास के पूर्ण अवसर समानता के आधार पर दिये गये हैं । वर्तमान में समाजवादी विचारों के प्रसार से समानता और स्वतन्त्रता का भारतीय समाज के नवीन आधार के रूप में महत्व बढ़ता जा रहा है ।
( 3 ) वर्ग – व्यवस्था ( Class – System ) – आज भारतीय समाज में जन्म के स्थान पर उपलब्धि ( Achievement ) का महत्व स्पष्टतः दिखायी पड़ने लगा है । अब व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण उसकी योग्यता , अनुभव , आय , सम्पत्ति तथा पद के आधार पर होने लगा है । ऐसी स्थिति में जाति के बजाय वर्ग – व्यवस्था का भारतीय समाज के आधार के रूप में दिनोंदिन महत्व बढ़ रहा है । आज यहां उच्च वर्ग , मध्यम वर्ग तथा श्रमिक वर्ग के रूप में तीन वर्ग प्रमुखतः पाये जाते हैं । वर्तमान में एक ही जाति के सदस्यों में से कुछ की गणना उच्च वर्ग में , कुछ की मध्यम वर्ग में तथा शेष की श्रमिक या निम्न वर्ग में होती है । आज अपने ही वर्ग के लोगों के साथ सामाजिक सम्पर्क , खान – पान के सम्बन्ध और विवाह , आदि की ओर प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । व्यक्ति अपनी उपलब्धियों के आधार पर अब एक वर्ग से दूसरे वर्ग में पहुंच सकता है , लेकिन सिद्धान्त रूप में वर्ग परिवर्तन जितना आसान दिखता है , व्यवहार रूप में यह उतना आसान नहीं है । फिर भी नगरीय समुदायों में वर्ग – व्यवस्था का महत्व विशेषतः बढ़ता जा रहा है । ग्रामीण समाजों में जाति – व्यवस्था का आज भी काफी प्रभाव है । इतना अवश्य है कि उदीयमान आधार के रूप में आज वर्ग – व्यवस्था अधिक प्रभावी होती जा रही है । भारतीय समाज में उपर्युक्त तीन नवीन आधारों के अतिरिक्त दो प्रक्रियाएं विशेषतः चल रही हैं जो यहां की समाज – व्यवस्था को काफी कुछ अंशों में प्रभावित कर रही हैं । ये प्रक्रियाएं हैं : संस्कृतिकरण , तथा आधुनिकीकरण ।
( 4 ) संस्कृतिकरण ( Sanskritization ) – अंग्रेजों के शासनकाल में नगरों के विकास , उद्योग – धन्धों के प्रसार , यन्त्रीकरण तथा आधुनिक शिक्षा ने जाति – व्यवस्था को परिवर्तित करना प्रारम्भ किया । लोग उदारवादी , प्रजातान्त्रिक एवं वैयक्तिक समानता के दृष्टिकोण से सोचने लगे , लेकिन जाति – व्यवस्था में एक संस्तरण पाया जाता है । यहां एक जाति दूसरी जाति की तलना में ऊंची या नीची मानी जाती है । जातीय समूह के रूप में अपनी स्थिति को ऊंचा उठाने अथवा किसी उच्च जाति के त्य भवन समान प्रतिष्ठा प्राप्त करने की दृष्टि से यहां निम्न एवं मी स्तर की जातियों में किसी उच्च जाति या जातियों के जीवन के तरीके या सम्पूर्ण जीवन – विधि का अनुकरण करने की प्रवनि पायी जाती है । इस स्थिति को व्यक्त करने हेतु डॉ . एम . पर श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण नामक अवधारणा को प्रस्तावित किया । इस प्रक्रिया ने भारतीय सामाजिक संरचना से सम्बद्ध निशि समहों को भिन्न – भिन्न रूपों में प्रभावित किया है । प्रो . श्रीनि ने ‘ संस्कृतिकरण ‘ को परिभाषित करते हुए लिखा ” संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न ‘ हिट जाति या कोई जनजाति अथवा कोई अन्य समूह किसी उच्च प्राय : द्विज ‘ जाति की दिशा में अपने रीति – रिवाज , कर्मकाण्ड विचारधारा और जीवन पद्धति को बदलता है । ” आगे आपने लिखा है , ” साधारणतः ऐसे परिवर्तनों के बाद निम्न जाति जातीय संस्तरण की प्रणाली में स्थानीय समुदाय में उसे परम्परागत रूप से जो स्थिति प्राप्त है , उससे उच्च स्थिति का दावा करने लगती है । ” इस प्रक्रिया के फलस्वरूप जाति – व्यवस्था के परम्परागत ढांचे में बहुत कुछ परिवर्तन आया है । अब विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक दूरी कुछ समय पूर्व की तुलना में काफी कम हुई है । आजकल विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सामाजिक सम्पर्क और खान – पान के सम्बन्ध बढ़ते जा
( 5 ) आधुनिकीकरण ( Modernization ) डॉ . योगेन्द्रसिंह आधुनिकीकरण को एक ऐसी सांस्कृतिक अवधारणा मानते हैं जिसमें तार्किक अभिवृत्ति ( Rational Attitude ) , सार्वभौम दृष्टिकोण ( Universalistic View – Point ) , परानुभूति ( Em pathy ) , वैज्ञानिक विश्वदृष्टि ( Scientific World View ) , मानवता ( Humanity ) , प्रौद्योगिक प्रगति ( Technological Advancement ) , आदि सम्मिलित हैं । डॉ . सिंह आधुनिकीकरण पर किसी एक ही जातीय समूह या सांस्कृतिक समूह का स्वामित्व नहीं वरन् सम्पूर्ण मानव समाज का अधिकार मानते हैं । डॉ . एस . सी . दुबे आधुनिकीकरण को मूल्यों से मुक्त मानते हैं । आप इसके लिए कोई एक निश्चित प्रारूप ( मॉडल ) या मार्ग भी नहीं मानते । आपने बताया है कि भारत में हमने राजनीतिक क्षेत्र में प्रजातन्त्र , धर्म – निरपेक्षता तथा समाजवाद को अपनाया है तथा पश्चिम को मॉडल माना है , वहीं हमने समतावादी समाज ( Equalitarian Society ) के लिए रूस और चीन को मॉडल माना है । ” आधुनिकीकरण के फलस्वरूप लोगों में तर्क , परानुभूति , गतिशीलता एवं सहभागिता बढ़ती है ।
डॉ . दुबे इसमें प्रमुखतः तीन बातों को सम्मिलित करते हैं :
( i ) मानव समस्याओं के हल के लिए जड़ – शक्ति का प्रयोग ।
( ii ) ऐसा व्यक्तिगत रूप से न करके सामूहिक रूप से किया जाता है , परिणामस्वरूप जटिल संगठनों का निर्माण होता है ।
( ii ) इस प्रकार के जटिल संगठना को चलाने के लिए व्यक्तित्व , समाज और संस्कृति में परिवर्तन
आवश्यक है ।
डॉ . दुबे शिक्षा को आधुनिकीकरण का एक सशक्त साधन मानते हैं , क्योंकि इससे ज्ञान की वृद्धि होती है तथा मूल्यों एवं धारणाओं में परिवर्तन आता है जो आधुनिकीकरण के उद्देश्य तक पहुंचने के लिए बहुत आवश्यक है । आज भारत में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अधिक स्वतन्त्रता की मांग की जाने लगी है । आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ही यहां अनेक प्राचीन धार्मिक मान्यताओं पर से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है और सामाजिक संस्थाओं में तीव्रता से प्रत्येक क्षेत्र में तार्किकता और कार्य – कारण सम्बन्ध का महत्व बढ़ता जा रहा है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्टतः ज्ञात होता है कि आज भारतीय समाज के परम्परागत आधारों का महत्व कम होता जा रहा है और नवीन आधार विकसित होते जा रहे हैं । यद्यपि भारत पवित्र समाज ( Sacred Society ) से धर्मनिरपेक्ष समाज _ _ _ ( Secular Society ) की ओर बढ़ रहा है , परन्तु विभिन्न समाजशास्त्रीय अध्ययनों से पता चलता है कि यहां परम्परा ( Tradition ) और आधुनिकता ( Modernity ) में कोई स्पष्ट विरोध नहीं है । यहां ये दोनों साथ – साथ चल रहे हैं । एक ही व्यक्ति की क्रियाओं या व्यवहार में कभी परम्परा का , तो कभी आधुनिकता का और कभी दोनों का ही मिश्रित रूप में प्रभाव स्पष्टतः देखा जा सकता है । इतना अवश्य है कि अनेक कारणों एवं परिवर्तनों के फलस्वरूप भारतीय समाज के परम्परागत आधार बदले हैं और कई नवीन आधार विकसित हुए हैं ।