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सामाजिक समूह

 

 

सामाजिक समूह

( Social Group )

मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त हैं । कोई भी व्यक्ति अकेला रहकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता । इसलिए वह समूह से बाहर रहकर जीवन व्यतीत करना नहीं चाहता है । समूह के साथ व्यक्ति का अभिन्न सम्बन्ध होता है । जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति किसी – न – किसी के साथ रहता है और उनसे सम्बन्ध स्थापित कर लेता है । जब दो या दो से अधिक व्यक्ति आपस में सम्बन्ध स्थापित करते हैं तो उनके संग्रह को समूह कहते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक सम्बन्धों एवं व्यक्तियों के संग्रह से ही समूह का निर्माण होता है । प्रत्येक व्यक्ति जब एक – दूसरे पर प्रभाव डालता है तभी सामाजिक सम्बन्ध स्थापित होता है । सामाजिक सम्बन्धों से ही विभिन्न प्रकार के समूह बन जाते हैं । समाज में अनगिनत समूह एवं उप – समूह पाये जाते हैं । सामाजिक जीवन में नित नयी – नयी आवश्यकताएँ उत्पन्न होती हैं , जिनकी पूर्ति के लिए नये – नये समूहों का निर्माण होता है । समाजशास्त्र में सामाजिक समूहों का अध्ययन आवश्यक होता है । इन समूहों को भली – भाँति समझने के लिए समाजशास्त्रीय विश्लेषण आवश्यक है ।समूह से सामान्य  अभिप्राय कई वस्तुओं के एकीकरण से है जैसे – – यंत्रों का समूह , चीटियों का समूह इत्यादि , लेकिन समाजशास्त्र के अंतर्गत समूह से तात्पर्य मानव समूह ( Human Group ) या सामाजिक समूह से है । मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि व्यक्ति अपनी एक मूल प्रवृत्ति ‘ Gregarios Instinct ‘ के कारण ही समूह में रहता है । – सामान्यतः मानव प्राणियों के बीच पाये जाने वाले संबंधों से सृजित मनुष्यों का संग्रह ही समूह है । उदाहरणार्थ , विद्यार्थी – समूह , शिक्षक – समूह , श्रमिक समूह इत्यादि ।  समाजशास्त्र के अन्तर्गत समूह का अर्थ सिर्फ व्यक्तियों का संग्रह नहीं है । समूह के निर्माण के लिए दो आवश्यक तत्त्व हैं — पहला , व्यक्तियों का संग्रह और दूसरा , पारस्परिक क्रिया । जबतक पारस्परिकता एवं जागरूकता नहीं है तबतक लोगों के बीच सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता । जहाँ कहीं भी हम लोगों को इकट्ठे देखते हैं उसे समूह नहीं कह सकते । यह भीड़ कहला सकती है , श्रोतागण कहला सकते हैं , किन्तु समूह नहीं । इसका मुख्य कारण यह है कि इस प्रकार के संकलन में कोई भी व्यक्ति दूसरे को प्रभावित नहीं करता है । हम . रेलवे प्लेटफार्म पर बैठे होते हैं , रेल के डब्बे में बैठे होते हैं , कहीं मेला या दुकानों में एकत्र होते हैं किन्तु इस प्रकार के व्यक्तियों के संग्रह को समूह नहीं कह सकते । इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक समूह के लिए सिर्फ शारीरिक समीपता का होना अनिवार्य नहीं है । जब कुछ व्यक्ति आपस में सम्बन्ध स्थापित करते हैं तथा एक – दूसरे के व्यवहार को प्रभावित करते हैं तभी वह समूह सामाजिक समूह कहलाता है ।

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 सामाजिक समूह का अर्थ एवं परिभाषा

( Meaning and Definition of Social Group )

 

 अनेक समाजशास्त्रियों ने सामाजिक समूह की परिभाषा दी हैं । यहाँ कुछ प्रमुख परिभाषाओं का उल्लेख किया जा रहा है ।

ऑगवर्न एवं निमकॉफ ( Ogburnand Nimkoff ) के अनसार ” जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक – दूसरे से मिलते हैं और एक – दूसरे पर प्रभाव डालते हैं तो वे एक सामाजिक समह का निर्माण करते हैं । इस परिभाषा से भी स्पष्ट होता है कि समूह व्यक्तियों का संग्रह है तथा इनमें पारस्परिक सम्बन्ध भी पाया जाता है ।

 बीयरस्टीड ( Bierstedt ) के शब्दों में , ” सामाजिक समूह वह है जिसमें लोगों का एक – दूसरे से वास्तविक सम्पर्क होता है तथा एक – दूसरे के बीच सामाजिक सम्बन्ध पाया जाता है ।

 बीयरस्टीड ने भी अपनी परिभाषा में व्यक्तियों के संग्रह तथा उनके बीच पारस्परिक सम्बन्धों पर प्रकाश डाला है ।

 

मेकाइवर एवं पेज ( Maclver and Page ) के अनुसार , “ समूह से तात्पर्य व्यक्तियों के ऐसे संग्रह से है , जो एक – दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं । ‘ ‘ मेकाइवर की इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि समूह में कुछ व्यक्तियों का होना आवश्यक है तथा उन व्यक्तियों में सामाजिक सम्बन्ध होते हैं , जिससे वे एक दूसरे से बँधे रहते हैं ।

 

फिक्टर ( Fichter ) ने समूह की परिभाषा देते हुए लिखा है , ‘ समह सामाजिक व्यक्तियों का परिचित , राचत , निरन्तर सामूहिकता है , जो सामान्य लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सामाजिक आदशा , हर मान्यायो प्रीति सामाजिक आदर्शो हितों और मल्यों के पारस्परिक आदान – प्रदान का कार्य करता है । ” इस परिभाषा में फिक्टर ने समह को बहत ही अच्छे ढंग से परिभाषित किया है । उसने बताया है कि समूह व्यक्ति का ऐसा संग्रह है , जो एक – दूसरे को जानते हैं उनमें एक विशेष ढाँचा और निरन्तरता भी पायी जाती है । इसके अन्तर्गत व्यक्ति समाज के आदर्शो मल्यों एवं हितों के अनुसार परस्पर कार्य करते हैं व अपनी भूमिका निभाते हैं ।

 इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि मात्र व्यक्तियों की भीड़ को सामाजिक समूह नहीं कहा जा सकता । सामाजिक समूह के लिए उसके सदस्यों में परस्पर सामाजिक सम्बन्ध होना आवश्यक है । इनके बीच परस्पर आदान – प्रदान तथा एक – दूसरे को प्रभावित भी करना आवश्यक होता है । ‘ सामाजिक समूह ‘ तभी कह सकते हैं जबकि व्यक्तियों के बीच अन्तःप्रेरणा तथा उसका प्रभाव भी पाया जाय । उपर्युक्त विवेचना के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि जब दो या दो से अधिक व्यक्ति सामान्य हितों के लिए परस्पर सम्बन्ध स्थापित करते हैं तथा एक – दूसरे को प्रभावित करते हैं तो एक समूह का निर्माण होता है जिसे सामाजिक समूह कहा जाता है ।

 

 

सामाजिक समूह की विशेषताएँ

 ( Characteristics of Social Group )

  1. दो या दो से अधिक व्यक्ति ( Two or more persons ) – समूह की सबसे पहली विशेषता यह है कि इसमें कम – से – कम दो व्यक्तियों का रहना आवश्यक होता है । समूह का निर्माण कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं कर सकता । जब कुछ व्यक्ति मिलकर आपस में सम्बन्ध बनाते हैं तब समूह का निर्माण होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि जब दो या दो से अधिक व्यक्ति रहेंगे तभी आपस में सम्बन्ध बनाकर पारस्परिक आदान – प्रदान कर सकते है । इसके सन्दर्भ में गिलिन एवं गिलिन ने भी कहा है कि ” समूह की आधारभूत विशेषता दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्पर्क का होना है । “

2.कार्य – विभाजन ( Functional Division ) – समूह में प्रत्येक सदस्य का अपना एक स्थान अथवा पद होता है और उसी के अनुरूप इसका कार्य भी निश्चित होता है । इन्ही भूमिकाओं के अनुरूप सभी सदस्य समूह के कार्यों में हिस्सा लेते हैं । एक समूह में सभी सदस्यों का कार्य बिल्कुल समान नहीं होता किन्तु वे पृथक् – पृथक कार्यों के द्वारा अपने समूह के संगठन को बनाये रखते हैं । सभी लोग अलग – अलग कार्यों को करते हुए समूह के उद्देश्यों को पूरा करते हैं । अतः समूह में एक निश्चित ढाँचा के साथ – साथ कार्यों का विभाजन भी पाया जाता है ।

  1. ऐच्छिक सदस्यता ( Voluntary Membership ) समूह की सदस्यता ऐच्छिक होती है । हमारे समाज में विभिन्न प्रकार के समूह पाये जाते हैं । इन समूहों के निर्माण का आधार भिन्न – भिन्न होता है । अब यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह किस समूह व समूहों की सदस्यता स्वीकार करेगा । व्यक्ति की जैसी रुचि होती है , वैसे ही समूह की सदस्यता ग्रहण करता है । प्रत्येक समूह के माध्यम से कुछ – न – कुछ कार्य होते रहते हैं , साथ ही वे किसी – न – किसी लक्ष्य से प्रेरित भी होते हैं । व्यक्ति विशेष की जैसी इच्छा होती है और उनका जो लक्ष्य होता है उन्हीं के अनुरूप समूह विशेष के सदस्य बनते हैं । एक व्यक्ति कितने समूह का सदस्य बनेगा इसकी संख्या सीमित नहीं होती । यह व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है । समय – समय पर अपनी आवश्यकता व इच्छानुसार व्यक्ति कुछ समूह की सदस्यता छोड़ता है और कुछ नये समूह की सदस्यता ग्रहण भी करता है ।

 4.समूह आदर्श एवं प्रतिमान ( Group Norms and Values ) — प्रत्येक समूह के अपने आदर्श एवं प्रतिमान होते है , जो सदस्यों के व्यवहार को नियंत्रित एवं निर्देशित करते हैं । इन्हीं नियमो के अनुसार समूह के सदस्यों को व्यवहार करना पड़ता है । साधारणतया ये नियम लिखित नहीं होते किन्तु सारे सदस्य अपने समूह के नियमो से परिचित रहते है ।

5 सामाजिक लक्ष्य ( Social Goals ) – प्रत्येक समूह का एक लक्ष्य होता है , जिससे प्रेरित होकर कुछ लोग आपस में बँधे रहते है जिसके परिणामस्वरूप समूह का निर्माण होता है । कुछ ऐसे भी समर होते है । जिMINDIचरधी होते हैं , किन्तु उनके सदस्यों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध होता है तथा समान नियम इत्यारिती AAMERAपमूह के सदस्यों के व्यवहारों को नियमित करते हैं । ये सारी बातें समह के लिए

6 सामान्य रुचि ( Common Interest ) – समूह की दूसरी विशेषता सामान्य रुचि व सामान्य उद्देश्य है । कल व्यक्तियों के उद्देश्य जब सामान्य होते हैं तभी वे एक – दूसरे से सम्पर्क स्थापित करते हैं । असमान सचि वाले व्यक्ति समूह का निर्माण नहीं कर सकते । इनके बीच कोई – न – कोई सामान्य रुचि , स्वार्थ व उद्देश्य का होना अनिवार्य है जो परस्पर सम्बन्ध स्थापित करे । इससे स्पष्ट होता है कि समान स्वार्थ की भावना समह के लिए । आवश्यक है ।

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  1. पारस्परिक सम्बन्ध ( Reciprocal Relation ) – जब तक व्यक्तियों के बीच पारस्परिक कर्तव्यों का बोध नहीं होता तब तक उनके बीच सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता है । समूह के सदस्यों के बीच एक – दसरे

से किसी – न – किसी प्रकार का सामाजिक सम्बन्ध अवश्य पाया जाता है । समह के सदस्यों में एक – दूसरे के बीच भावनाओं , विचारों एवं क्रियाओं का आदान – प्रदान भी होता रहता है । यह एक तरफ से ही नहीं , बल्कि दोनों तरफ से होता है । अर्थात् समूह के प्रत्येक सदस्य एक – दूसरे से प्रभावित होते हैं और एक – दूसरे को प्रभावित करते

  1. समूह का ढाँचा ( Structure of the Group ) – प्रत्येक समूह का अपना एक ढाँचा होता है । अर्थात् समूह की अपनी एक निश्चित संरचना होती है । इस ढाँचा व संरचना में प्रत्येक व्यक्ति का एक पद होता है और उसके अनुसार उसका कार्य भी निश्चित होता है । इस ढाँचा व संरचना में प्रत्येक व्यक्ति का एक पद होता है और उसके अनुसार उसका कार्य भी निश्चित होता है । इसके परिणामस्वरूप समूह के सदस्यों में स्थिति तथा पद में अन्तर पाया जाता है । इन सबके द्वारा समूह का ढाँचा तैयार होता है ।
  2. समूह एक सत्ता है ( Group is an Entity ) – समूह की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी एक सत्ता होती है । इस सत्ता के सामने व्यक्ति की सत्ता गौण हो जाती है । एक व्यक्ति समूह के सामने अपने अस्तित्व को गौण मानता है । जो काम व्यक्तिगत सत्ता द्वारा नहीं हो पाता वह समूह की सत्ता द्वारा आसानी से पूरा हो जाता है । इस विशेषता के कारण ही व्यक्ति समूह के प्रति एक सत्ता के रूप में आदर का भाव रखता है । यह समूह शक्ति को भी बढ़ाता है तथा उसे स्थायित्व देने में सहायक होता है । एक मूर्त संगठन ( A concerete Organization ) – समूह एक मूर्त संगठन है । समूह व्यक्ति का संगठन है , जिसके अन्तर्गत लोगों के बीच पारस्परिक आदान – प्रदान होता है । अत : व्यक्तियों के संग्रह को देखा एवं छुआ जा सकता है । इस आधार पर समूह मूर्त होता है ।

 

10 समूह में एकता ( Unity in a Group ) – समूह के सदस्यों के बीच एकता की भावना पायी जाती है । एकता की भावना के अभाव में समूह अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकता है । एक समूह के सभी सदस्य समान हित व स्वार्थ की पूर्ति के लिए एक – दूसरे से मिल – जुलकर कार्य करते हैं । सभी सदस्यों का कार्य बँटा होता है किन्तु वे सभी असमान कार्यों को करते हए भी समान हित से प्रेरित होकर कार्य करते हैं । इस प्रकार एक समह के सदस्यों में एकता की भावना पायी जाती है । यह एकता चेतन भी हो सकती है और अचेतन भी ।

  1. अधिक स्थायित्व ( Greater Permanency ) अन्य समूहों की तुलना में सामाजिक समूह अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होता है । कुछ ऐसे समूह बनते हैं , जो तात्कालिक कार्य को पूरा करते हैं । इनके सदस्यों के बीच निकट का सम्बन्ध नहीं बन पाता । जैसे ही काम पूरा होता है वैसे ही समूह समाप्त हो जाता है । कुछ समूह ऐसे होते हैं जो अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होते हैं । इनके सदस्यों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध बना रहता है । वे समय पड़ने पर एक – दूसरे की मदद करते हैं । वे इतने अस्थिर नहीं होते हैं कि जल्द समाप्त हो जाएँ । सामाजिक समूहों का निर्माण कुछ – न – कुछ समय के लिए अवश्य होता है । अर्थात् उसके लिए कुछ अवधि अवश्य होती है ।

 

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