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सामाजिक व्यवस्था

 

सामाजिक व्यवस्था

( Social System)

 

सामाजिक व्यवस्था का निर्माण सामाजिक अन्तक्रियाओं एवं अन्तर्सम्बन्धों के द्वारा होता है । मानव प्राणियों के बीच होने वाले अन्तक्रियाओं एवं अन्तर्सम्बन्धों के परिणामस्वरूप विभिन्न रीति – रिवाज , कार्य – प्रणाली , समिति , संस्था , नियंत्रण के साधन आदि विकसित होते हैं । ये विभिन्न तत्त्व प्रकार्यात्मक रूप में संयुक्त रहते हैं . यही सामाजिक व्यवस्था है । आधुनिक समाजशास्त्र में व्यवस्था विश्लेषण का सर्वाधिक विस्तृत विवेचन टी पारसन्स ( T . Parsons ) ने किया है । इसकी विस्तृत व्याख्या इन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ द सोशल सिस्टम ‘ 1951( The Social System ) में किया है । पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था को परिभाषित करते हुए लिखा है , ‘ एक सामाजिक व्यवस्था एक ऐसी दशा में परस्पर अन्तक्रिया करने वाले वैयक्तिक कर्ताओं की बहुलता में निर्मित होती है जिसका कम – से – कम एक भौतिक या पर्यावरण सम्बन्धी पक्ष होता है , ऐसे कर्ता जो आशानुकूल सन्तुष्टि की प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं और एक – दूसरे के साथ तथा उनकी स्थितियों के साथ जिनके सम्बन्ध की परिभाषा और निर्णय सांस्कृतिक संरचना और सामान्य सहयोगी प्रतीकों द्वारा होती है ।  इस परिभाषा से अग्रलिखित मूल तथ्यों का पता चलता है —

( 1 ) सामाजिक व्यवस्था के लिए एक से अधिक कर्ताओं का होना है ।

( 2 ) इन कर्ताओं के बीच अन्तक्रिया की प्रक्रिया पायी जाती है ।

( 3 ) अन्तक्रिया के लिए परिस्थिति आवश्यक है । इस परिस्थिति में भौतिक एवं सामाजिक दोनों प्रकार के पर्यावरण अन्तर्निहित है ।

( 4 ) एक निश्चित लक्ष्य होंगे तथा

( 5 ) जिसकी एक सांस्कृतिक संरचना होगी ।

लूमिस का मानना है कि ( 1 ) सामाजिक व्यवस्था एकाधिक वैयक्तिक कतओिं की अन्तक्रिया से निर्मित होती है ; ( 2 ) इन कर्ताओं में अन्योन्याश्रयता के गुण होते हैं । ( 3 ) कर्ता का एक लक्ष्य होता है । उस लक्ष्य प्राप्ति की अभिलाषा में कर्ता एक – दूसरे से सम्बन्धित होते हैं और अन्तक्रिया करते हैं ।

एम – ई . जोन्स ( M . E . Jones ) के अनुसार , ” सामाजिक व्यवस्था एक स्थिति या दशा है जिसमें समाज के निर्माण करने वाली विभिन्न क्रियाशील इकाइयों एक – दूसरे के साथ तथा सम्पूर्ण समाज के साथ अर्थपूर्ण ढंग से सम्बन्धित होती है । ” इस कथन से पता चलता है कि अनेक व्यक्तियों के मान्यताप्राप्त ढंग से सम्बन्धित होते हुए अन्तक्रिया के फलस्वरूप सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होता है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर यह कहा जा सकता है , कि सामाजिक व्यवस्था का निर्माण व्यक्तियों की अन्तर्किया के फलस्वरूप होता है । ये व्यक्ति एक लक्ष्य को ध्यान में रखकर एक – दूसरे से अन्तर्किया करते हैं । साथ ही अन्तक्रिया के लिए स्थान व परिस्थिति का होना आवश्यक है । 

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सामाजिक व्यवस्था की विशेषताएँ

( Characteristics of Social System )

अर्थपूर्ण अन्तक्रिया ( Meaningful Interaction ) : सामाजिक व्यवस्था अर्थपूर्ण अन्तक्रियाओं की व्यवस्था है । अर्थहीन या उद्देश्यहीन अन्तक्रयाएँ सामाजिक व्यवस्था का निर्माण नहीं करती हैं । समाज में पाए जाने वाले रीति – रिवाज , कार्य के ढंग , समूह , संस्था , नियंत्रण के साधन विधि आदि की उत्पत्ति एवं विकास अर्थपूर्ण अन्तक्रियाओं का परिणाम है

प्रकार्यात्मक सम्बन्ध ( Functiongal Relation ) : सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की इकाइयों के बीच प्रकार्यात्मक सम्बन्ध पाए जाते हैं । इसके प्रत्येक इकाई के एक निश्चित कार्य होते हैं । इस प्रकार्य के आधार पर ही प्रत्येक इकाई एक – दूसरे से जुड़ जाते है जिसके चलते एक सम्बद्ध समानता का निर्माण होता है । इसी को सामाजिक व्यवस्था कहा जाता है ।

गतिशील ( Dynamic ) : सामाजिक व्यवस्था गतिशील होती है । इसका आधार अन्तक्रियात्मक सम्बन्ध है । अन्तक्रियात्मक सम्बन्धों में बदलाव आते रहते हैं । इसलिए सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन स्वाभाविक है । इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें स्थिरता नहीं होती । इसकी स्थिरता में ही गतिशीलता का अवलोकन किया जाता है ।

सांस्कृतिक व्यवस्था से सम्बन्धित ( Related with Cultural System ) : पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का उल्लेख किया है । उनके अनुसार सामाजिक व्यवस्था का आधार अन्तक्रियात्मक सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध धर्म , प्रथा , कानून , जनरीति आदि के द्वारा निर्धारित होता है । ये सब सांस्कृतिक व्यवस्था की इकाइयों हैं , इस रूप में सामाजिक व्यवस्था की सांस्कृतिक व्यवस्था से सम्बन्ध होना स्वाभाविक है ।

मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति ( Fulfilment of Human Needs ) : सामाजिक व्यवस्था की एक प्रमख विशेषता मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्ध कहा जाता है । इस व्यवस्था का एक निश्चित लक्ष्य होता है जो मानवीय होता है । दो या अधिक कर्ताओं के बीच पाए जाने वाले अनक्रियाओं का मूल आधार आवश्यकताओं का पूर्त होता है । मानवीय आवश्यकताएं अन्योन्याश्रयता की नींव हैं । इसीलिए तो पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था सर्व आवश्यकताओं का भी उल्लेख किया है । ये हैं – जैविकीय पूर्व – आवश्यकताएँ . कार्यात्मक पूर्व – आवश्यकता भर सांस्कृतिक पूर्व – आवश्यकताएँ ।

अनुकूलनता ( Adaptable ) : सामाजिक व्यवस्था में अनुकूलनता का गुण होता है । एक , समाज परिवर्तनशील है । इस क्रम में व्यवस्था भी परिवर्तित परिस्थितियों से अनुकूलन करता रहता है । दूसरा , मानवीय आवश्यकताएँ बदती रहती है । इस क्रम में सामाजिक व्यवस्था भी बदलती है और बदली परिस्थितियों से अनुकूलन करती है

सामाजिक अन्तक्रिया ( Social Interaction ) : सामाजिक व्यवस्था अन्तर्किया की प्रक्रिया पर आधारित है । पारसन्स ने लिखा है , ” सामाजिक व्यवस्था अनिवार्य रूप से अन्त : क्रियात्मक सम्बन्धों का जाल है  इसमें जब दो या अधिक कर्ताओं के बीच अन्तक्रियात्मक सम्बन्ध होते हैं , तब सामाजिक – व्यवस्था का निर्माण होता है । पारसन्स ने क्रिया को व्यवस्था के लिए भवन का पत्थर कहा है ।

 

सन्तुलन ( Equilibrium ) : सामाजिक व्यवस्था सन्तुलन की व्यवस्था है । यह अखण्ड व्यवस्था नहीं है । इसकी अनेक इकाइयाँ एवं उप – इकाइयाँ होती हैं । ये इकाइयाँ बिल्कुल पृथक् होकर कार्य नहीं करतीं , बल्कि सभी इकाइया मिलकर कार्य करती हैं । इससे सन्तुलन बना रहता है

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