सामाजिक समस्याएं
सामाजिक समस्या का अर्थ एवं स्वरूप
समाज जिन परिस्थितियों को निन्दनीय अथवा अवांछनीय माने वे सामाजिक समस्याएँ मानी जाती हैं । सामाजिक समस्या के लिए यह भी आवश्यक है कि उसे समाज के अधिकाँश सदस्य आपत्तिजनक , निन्दनीय अथवा अवांछनीय स्वीकार करें । सामाजिक समस्या से तात्पर्य एक ऐसी स्थिति से होता है जिससे समाज का एक खंड या एक बड़ा भाग प्रभावित होता है तथा जिसके ऐसे हानिकारक परिणाम होते हैं या हो सकते हैं जिनका मात्र सामूहिक रूप से ही समाधान संभव है । भारत में अनेक प्रथायें ( Customs ) एवं रूढ़ियाँ ( Mores ) सामाजिक समस्याओं की जन्मदात्री रही हैं । जमींदारी व्यवस्था में भूमिहीन कृषकों के शोषण द्वारा निर्धनता ( Poverty ) को समस्या का जन्म हुआ है । धर्म के नाम पर देवदासी प्रथा द्वारा वेश्यावृत्ति जैसी समस्याओं का प्रचलन हुआ , लेकिन अब इन समस्याओं को ईश्वरीय देन न मानकर मानवीय अथवा सामाजिक समस्या माना जाता है जिनका निराकरण भी मानव समाज के पास ही है । सामान्य शब्दों में , सामाजिक समस्याएँ वह स्थिति है जिसे समाज का बहुत बड़ा भाग या जागरूक सुधारक वर्ग समस्या मानता हो अथवा जन – चेतना व आक्रोश की दृष्टि से वह स्थिति है जो परम्परागत सामाजिक व्यवस्था , सामाजिक मूल्यों व आदर्शों के लिए खतरे का संकेत करे ।
रिचर्ड वास्कीन के अनुसार “ सामाजिक समस्या वह सामाजिक परिस्थिति है जो समाज के क्षमताशील , समर्थ व सक्षम आलोचकों का ध्यान खींचती है तथा उन्हें यह आभास कराती है कि परिस्थिति के उपचार के लिए पुनर्व्यवस्था तथा किसी सामाजिक एवं सामूहिक क्रिया की आवश्यकता है । “
मार्टिन एच . न्यूमेयर ने लिखा है कि “ सामाजिक समस्या के तीन तत्त्व होते हैं
( 1 ) उस स्थिति का होना जो सामाजिक और व्यक्तिगत विघटन की स्थिति हो ,
( 2 ) उस स्थिति का होना जिसे जनसंख्या ( समाज ) का अधिकांश भाग सामाजिक मूल्यों के लिए खतरा मानता हो , और ( 3 ) इस प्रकार की भावना का होना जिससे ऐसी स्थिति उपयुक्त सामाजिक कार्यवाही की मांग करती हो ।
हाटेत और लेस्ले ने लिखा है कि ” सामाजिक समस्या वह स्थिति है जो बहुत से लोगों को हानिकारक रूप से प्रभावित करती है और जिसका निवारण सामूहिक क्रिया से ही हो सकता है । इन परिभाषाओं में चार मुख्य तत्त्व मिलते हैं ।
(i ) एक ऐसी स्थिति जो समाज में बहुसंख्यक लोगों को प्रभावित करती है ,
( ii ) यह प्रभाव अनुचित व हानिकारक समझा जाता है ,
( iii ) इसका निवारण सम्भव माना जाता है तथा
( iv ) निवारण सामूहिक लिया से ही सम्भव है ।
हार्टन और लेस्ले का विचार है कि सामाजिक समस्याएँ उत्पत्ति में सामाजिक है , क्योंकि वे समाज के अनेक सदस्यों को प्रभावित करती हैं . परिभाषा में सामाजिक हैं क्योंकि समाज उन्हें अनुपयुक्त मानता है तथा सुधार में सामाजिक हैं क्योंकि इनमें सामूहिक प्रयत्न पर प्रकाश डाला गया है । रोबर्ट निसबेत के अनुसार ” सामाजिक समस्या वह व्यापार – पद्धति है जिसे समाज का बड़ा भाग एक स्वीकृत प्रतिमानों का उल्लंघन मानता है । कोई मानवीय व्यवहार कितना भी कुछ व्यक्तियों या छोटे समूह के लिए प्रतिकूल व अरुचिकर ( Repugnant ) क्यों न हो उसे तब तक सामाजिक समस्या नहीं माना जायेगा जब तक उसे
( अ ) समाज की बड़ी संख्या में व्यक्तियों द्वारा ,
( ब ) नैतिक रूप से आपत्तिजनक एवं चेतना के लिए अरुचिकर ,
( स ) स्वीकृत नियमों से विचलन न माना जाये ।
उदाहरण के लिए , इस शताब्दी से पहले अमरीका में निर्धनता ( Poverty ) को सामाजिक समस्या नहीं माना जाता था , इसे केवल मानवीय स्थिति का एक अवश्यम्भावी अंग ही समझा जाता था परन्तु अब अमरीका और पश्चिमी सभ्यता में निर्धनता को एक सामाजिक समस्या माना जाता है । भारत में मादक द्रव्यों के सेवन ( Drug use ) को अभी हाल में ही एक सामाजिक समस्या माना गया है । इसी प्रकार बहुत से समाजों में परिवार विघटन , मानसिक विकार और मद्यपान ( जो वास्तव में मानव इतिहास में बहुत पुराने है ) को भी हाल ही में सामाजिक समस्याएँ माना गया है ।
हैरी बेडीमीअर और जैक्सन टोबी ने लिखा है कि “ सामाजिक समस्या वह परिस्थिति है जिसमें तीन अवस्थायें पायी जाती हैं –
1 ) जिसमें विफल , हताश व कुण्ठित व्यक्ति हों , क्योंकि वे अपने समाज की उपयुक्तता , सुरक्षा , पर्याप्तता व परितुष्टि सम्बन्धी स्थितियों का सामना करने में असफल रहते हैं ,
( 2 ) वे व्यक्ति अपने नैराश्य व निष्फलता का सामना करने का प्रयास करते हों और
( 3 ) इनका यह प्रयास समाज में सुविस्तृत चिन्ता व उत्सुकता उत्पन्न करे ।
सामाजिक समस्याओं का वर्गीकरण
जोन जे , केन ने सामाजिक समस्याओं को दो श्रेणियों में बांटा है :
1 . प्रकट सामाजिक समस्याएं – एक प्रकट सामाजिक समस्या एक ऐसी सामाजिक दशा है जिसके लिए राज्य या निजी एजेन्सियों अथवा दोनों के द्वारा सामूहिक रूप से उपचारात्मक प्रयत्न किए जाते हैं क्योंकि जनता को इसके प्रति जागरुक कर दिया जाता है और वह ऐसा विश्वास करने लगती है कि यह दशा समाज की मूल्य व्यवस्थाओं के अनुसार समाज के लिए खतरा है । बाल अपराध , मद्यपान , बेकारी , निर्धनता तथा जनसंख्या वृद्धि आदि इसी श्रेणी में आती हैं ।
2 . प्रत्याश्रित सामाजिक समस्याएँ – एक प्रत्याश्रित सामाजिक समस्या वह है जिसके लिए कोई उपचारात्मक सामूहिक कार्यवाही नहीं की गई हो , लेकिन जो फिर भी समाज के लिए खतरा है , कम से कम जनता किसी खण्ड या समूह अथवा कई सुयोग्य अवलोकनकर्ताओं के मस्तिष्क में । प्रत्याश्रित सामाजिक समस्या भी एक वास्तविक समस्या है , परन्तु वह उस समय तक सामाजिक समस्या के रूप में प्रतीत नहीं होती जब तक कि उसके प्रति जनता में जागरूकता पैदा नहीं की जाती और उसके निवारण के लिए कोई सामूहिक कार्यवाही नहीं की जाती । हमारे देश में अस्पृश्यता सैकड़ों वर्षों तक एक प्रत्याश्रित सामाजिक समस्या के रूप में रही है , परन्तु वर्तमान में यह एक प्रकट सामाजिक समस्या बन गई है क्योंकि इसके प्रति अब जनता में जागरूकता पाई जाती है और इसके निवारण के लिए सामूहिक प्रयत्न किए जा रहे हैं ।
व्यक्तिगत और सामाजिक समस्या में अन्तर
व्यक्तिगत और सामजिक समस्या में निम्नांकित अन्तर हैं :
1 . सम्बन्ध और प्रभाव क्षेत्र – व्यक्तिगत समस्या का सम्बन्ध और प्रभाव क्षेत्र व्यक्ति विशेष तक सीमित होता है जबकि सामाजिक समस्या का सम्बन्ध सम्पूर्ण समाज व समुदाय से है तथा सम्पूर्ण समाज या उसके एक बड़े भाग को । प्रभावित करती है ।
2 . निवारण के प्रयत्न – चूँकि व्यक्तिगत समस्या का सम्बन्ध व्यक्ति विशेष से होता है , अत : उसे हल करने का प्रयत्न भी व्यक्तिगत रूप से किया जाता है जबकि सामाजिक OTE8 समस्या के निवारण के लिए सामहिक रूप में प्रयत्न किए जाते हैं ।
3 . हानियाँ – व्यक्तिगत समस्या व्यक्ति के विकास SUND पत
सामाजिक समस्या सामाजिक विकास और प्रगति में बाध क होती है ।
4 . जन्म – व्यक्तिगत समस्या के जन्म के लिए व्यक्ति स्वयं या f कुछ व्यक्ति उत्तरदायी होते हैं और उसके परिणाम व्यक्ति विशेष को ही भुगतने होते हैं , जबकि सामाजिक समस्या को जन्म देने में समाज या समुदाय के कई लोगों का हाथ होता है और उसके परिणाम भी अनेक लोगों को भुगतने होते हैं ।
5साधन – व्यक्तिगत समस्या की स्थिति में अपने उद्देश्यों एवं आवश्यकता की पूर्ति के लिए व्यक्ति समाज द्वारा अस्वीकृत साधनों का प्रयोग करता है जबकि सामाजिक समस्याओं की स्थिति में समाज के अधिकांश व्यक्ति अनैतिक साधनों के द्वारा अपने उद्देश्यों व आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगते हैं ।
6 . परिणाम – व्यक्तिगत समस्या के दौरान व्यक्ति के व्यक्तित्व में असन्तुलन और विघटन उत्पन्न हो जाता है जबकि सामाजिक समस्याओं की स्थिति में सामाजिक संरचना और संगठन अस्त – व्यस्त लगते हैं ।
7 . अवधि – व्यक्तिगत समस्या व्यक्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है जबकि सामाजिक समस्या समाज की निरन्तरता से सम्बन्धित होने के कारण दीर्घजीवी होती है । इसके निवारण के प्रयत्न के बावजूद यह कुछ न कुछ मात्रा में अवश्य मौजूद रहती है । समस्या के आकार को प्रभावित करने वाले कारक किसी समस्या के आकार को प्रभावित करने वाला प्रथम कारक उस परिस्थिति में सम्मिलित व्यक्तियों की संख्या है । उसका द्वितीय कारक समस्या द्वारा उत्पन्न भावना की तीव्रता है । इस भावना को आवेग के नाम से जाना जाता है ।
निसबेट के अनुसार जो व्यक्ति या समूह किसी परिस्थिति को एक समस्या के रूप में परिभाषित करते हैं वे नैतिक रोष का अनुभव करते हैं । ये दो कारक परिस्थिति में सम्मिलित व्यक्तियों की संख्या तथा आवेग अनेक रूपों में पारस्परिक अन्त : क्रिया करते हैं । किसी भी परिस्थिति के आकार वाली समस्या के लिए इन दोनों की उपस्थिति आवश्यक है । इन दोनों में से यदि कोई एक कारक पाया जाता है , तो समस्या की सामाजिक प्रकृति महत्वहीन होती है । उदाहरण के रूप में , किसी समाज के लाखों – करोड़ों लोग चाहे निर्धनता के शिकार क्यों न हो , लेकिन जब तक वे अपनी इस स्थिति को अनुचित या परिवर्तनाय नहीं समझते हैं तब तक उनकी निर्धनता एक बडी सामाजिक समस्या नहीं वर्तमान भारत में प्रजातांत्रिक मूल्यों तथा समाजवादी विचारधारा के प्रसार ने लोगों को निर्धनता के प्रति जागरूक बना दिया है और वे यह अनुभव करने लगे हैं कि निर्धनता का बना रहना अनुचित है और इसे प्रयत्न द्वारा कम अथवा समाप्त किया जा सकता है । यही कारण है कि इसने आजकल बड़े आकार की समस्या का रूप ग्रहण कर लिया है । स्पष्ट है कि एक सामाजिक समस्या का आकार उस समय सबसे अधिक होता है जब लोग काफी संख्या में तीव्रता से उत्तेजित हो उठते हैं और इसलिए कोई कार्यवाही करने को प्रस्तुत हो जाते हैं । सामाजिक समस्या के विकास में सम्मिलित विभिन्न चरण किसी भी सामाजिक समस्या की उत्पत्ति में कुछ निश्चित क्रमबद्ध चरण सम्मिलित होते हैं जिनकी चर्चा विभिन्न सामाजिक वैज्ञानिकों द्वारा की गयी है ।
फूलर तथा मेयर्स के अनुसार सामाजिक समस्या के विकास में निम्नांकित तीन चरण मख्य होते हैं :
1 . जागरूकता – इस अवस्था में लोगों में यह धारणा उत्पन्न होने लगती है कि समस्या अवांछनीय है और इसका निवारण आवश्यक है । धीरे – धीरे इस तरह का अनुभव समाज के अधिकतर लोगों द्वारा होने लगता है ।
2 . नीति निर्धारण – इस अवस्था में जैसे – जैसे समाज के अधिक – से – अधिक लोग समस्या से अवगत होते हैं , वैसे – वैसे उसके संभावित निवारण के उपायों को तय करने के लिए नीति के निर्धारण के लिए बहस छिड़ जाती है । अतः इस अवस्था में समस्या के निवारण के लिए क्या कुछ किया जा सकता है , इस पर बहस छिड़ जाती है ।
3 . सुधार – इस चरण में निर्धारित नीतियों एवं समाधानों को कार्यरूप दिया जाता है । इसलिए इस चरण को कार्यान्वयन की स्थिति भी कहा जाता है ।
स्पेक्टर तथा किट्सयूस ने सामाजिक समस्या के विकास में निम्नांकित चार कारकों की भूमिका को महत्वपूर्ण बतलाया है :
1 . आन्दोलन की अवस्था
2 . तर्कसंगति एवं सहयोग की अवस्था
3 . अधिकारी तंत्र एवं उसकी प्रतिक्रिया की अवस्था
4 . आन्दोलन के पुनः उद्गमन की अवस्था
इन चारों अवस्थाओं का वर्णन निम्नांकित है :
1 . आन्दोलन की अवस्था – इस अवस्था में व्यक्ति समाज में उत्पन्न विशेष स्थिति से असंतुष्ट होकर उसके विरुद्ध आन्दोलन करता है जिनका मूल उद्देश्य उस स्थिति के प्रति अधिक से अधिक लोगों का ध्यान आकृष्ट करना होता
भारत में सा – । है ताकि स्थिति को सुधारने के लिए तुरंत कार्यवाही की जा सके । इस तरह का आन्दोलन पीड़ित व्यक्तियों द्वारा या उनके बदले सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा भी चलाया जा सकता है । जैसे बाल अपराध , बाढ़ , अकाल से पीड़ित व्यक्तियों की सामाजिक समस्या से निपटने के लिए आन्दोलन पीड़ित व्यक्तियों के बजाय सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा सुधारकों द्वारा ही अधिक चलाया जाता है । कभी – कभी इस तरह का आन्दोलन कुछ कारणों जैसे इनसे संबंधित दावों का अस्पष्ट होना , आन्दोलन करने वाले समूह का निर्बल होना आदि से विफल भी हो जाता है ।
2 . तर्कसंगति एवं सहयोग की अवस्था – जन समाज के प्रभुत्व व्यक्ति या सत्तारूढ व्यक्ति समस्या का समर्थन : करते हैं या समस्या होना मान लेते हैं तो वह समस्या तर्कसंगत बन जाती है । ऐसे व्यक्तियों को समस्या से पीडित व्यक्तियों का वैध अधिवक्ता माना जाता है । शायद यही कारण है कि समस्या के समाधान पर आयोजित सभा में इन्हें बहस के लिए सम्मिलित कर लिया जाता है । शायद यही कारण है कि किसी शैक्षिक समस्या के समाधान के लिए निर्मित शैक्षिक समितियों में छात्रों एवं शिक्षकों को प्रतिनिधित्व दे दिया जाता है ।
3 . अधिकारी तंत्र एवं उसकी प्रतिक्रिया की अवस्था – सामाजिक समस्या के विकास की इस तीसरी अवस्था में समस्या समाधान से निपटने के लिए व्यक्तियों का ध्यान सरकारी तंत्र और उनकी कार्यकुशलता पर जाता है । यदि सरकारी तंत्र अकुशल साबित हुआ तो उन्हें सफलता नहीं मिल पाती है , और समस्या एक आन्दोलन का स्वरूप धारण कर सकती है । अत : किसी सामाजिक समस्या का स्वरूप उपद्रवी होगा या नहीं , इस बात पर आधारित होता है कि सरकारी तंत्र किस सीमा तक समस्या का समाधान करने में सफल हो पाते हैं तथा किस सीमा तक वे अपने निहित स्वार्थों को समस्याओं से अलग रख पाते हैं ।
4 . आन्दोलन के पुन : उद्गमन की अवस्था – इस अवस्था में पीड़ित लोगों तथा उनके नेतागणों को यह विश्वास होने लगता है कि अधिकारियों एवं समुचित निर्णय लेने वालों द्वारा समस्या की गंभीरता को ठीक ढंग से समझा नहीं जा रहा है । फलस्वरूप उनकी भावनाएँ पुनः जागृत हो उठती हैं तथा संबद्ध सामाजिक समस्या के समाधान के लिए वे आन्दोलन करने के लिए बाध्य हो जाते हैं । स्पष्ट हुआ कि सामाजिक समस्या के विकास के कई चरण है । इन चरणों से होकर सामाजिक समस्या की उग्रता में कमी आ जाती है ।
सामाजिक समस्याएँ , सामाजिक विघटन और वैयक्तिक विघटन सामाजिक समस्याओं और सामाजिक विघटन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है । जब समाज में सामाजिक समस्या उग्र रूप धारण कर लेती हैं तो ऐसा समाज एक एकीकृत कार्यात्मक समग्र के रूप में कार्य नहीं कर पाता और उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न हो जाती है । ऐसी दशा में सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है । वैयक्तिक विघटन और सामाजिक समस्याओं के मध्य भी एक गहरा सम्बन्ध है । वैयक्तिक विघटन की अवस्था में व्यक्ति समाज के आदर्श नियमों के अनुरूप व्यवहार नहीं कर पाता । वह यह निश्चित करने में असमर्थ रहता है कि उससे क्या अपेक्षाएँ की जा रही हैं । दुविधा की स्थिति में वह अपनी भूमिकाएँ ठीक से नहीं निभा पाता । ऐसी दशा में समाज में अनेक , सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं । इस स्थिति का चित्रण करते हुए वीन्सबर्ग ने बतलाया है कि जो व्यक्ति समाज के आदर्शों के अनुरूप रहता है , वह सामाजिक दृष्टि से सामान्य व्यक्ति होता है और परिणामस्वरूप अपने आपको सामान्य समझता है परन्तु जो व्यक्ति आदर्श का उल्लंघन करते हुए भी पकड़ लिया जाता है , वह पदच्युत कहलाता है । पदच्युत व्यक्ति चाहे वह किसी भी समूह का सदस्य अथवा अकेला हो , सामाजिक समस्या का प्रतिनिधि है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सामाजिक समस्याएँ , सामाजिक विघटन और वैयक्तिक एक – दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । एक विघटित व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों को अपने व्यवहार द्वारा प्रभावित करता है जिसके फलस्वरूप सामाजिक समस्याएँ पैदा होती हैं और सामाजिक समस्याआ क उग्र रूप धारण करने पर समाज में विघटन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।