अभिवृत्ति

अभिवृत्ति 

अभिवृत्ति का स्वरूप

सामाजिक व्यवहार के निर्धारण में अभिवृत्ति की महत्वपूर्ण भूमिका अधिकांश समाज – मनोवैज्ञानिक मानते हैं । सामान्य व्यक्ति भी ऐसा विश्वास करता है कि व्यक्तियों , वस्तुओं . समूहों के प्रति उसकी स्पष्ट अभिवृत्तियाँ हैं । सुदीर्घ अवधि तक समाज मनोविज्ञान का केन्द्रीय तथा सर्वाधिक शोधपूर्ण विषय बने रहने पर भी अभिवृत्ति के स्वरूप और व्यवहार के साथ उसके सम्बन्ध का प्रश्न अभी भी पूरी तरह से सुलझ नहीं सका है । प्राय : अभिवृत्ति को एक ऐसी उन्मुखता ( Orientation ) माना जाता है जो किसी एक वस्तु या घटना के प्रति विशिष्ट रूप में विद्यमान होती है , परन्तु उसमें प्रेरणा ( Motive ) का अभाव रहता है । फिशबीन ( 1965 ) ने अभिवृत्तियों के स्वरूप पर विचार करते हुए कहा है कि इसका केन्द्रीय तत्त्व मूल्यांकन ( Evaluation ) या भावात्मक ( Affective ) तत्व है । वह कार्य की प्रवृत्ति को संज्ञान के साथ जोड़ते हैं ।

 फिशबीन तथा आजेन ( 1975 ) ने इसके स्वरूप पर पुनर्विचार करते हुए अभिवृत्ति को “ किसी वस्तु के प्रति धनात्मक या ऋणात्मक रूप से प्रतिक्रिया करने की एक अर्जित विशेषता ( Learned disposition ) ” के रूप में स्वीकार किया है ।

अभिवृत्ति के स्वरूप का वर्णन करते समय प्रायः मनोवैज्ञानिकों ने इसके तीन प्रमुख अवयवों :

 संज्ञानात्मक ( Cognitive ) ,

 भावात्मक ( Affective ) तथा

 व्यवहारात्मक ( Behavioural )

 की चर्चा की है । संज्ञानात्मक अवयव अभिवृत्ति की लक्ष्य वस्तु ( Attitude object ) के बारे में विचारों , प्रत्यक्षीकरण और विश्वासों को व्यक्त करता है । भावात्मक तत्त्व लक्ष्य – वस्तु के मूल्यांकन की तीव्रता और उससे जुड़े सांवेगिक अनुभवों की ओर इंगित करता है । व्यावहारिक अवयव लक्ष्य – वस्तु के प्रति विशेष ढंग से व्यवहार करने की प्रवृत्ति को व्यक्त करता है । ये तीनों अवयव परस्पर सम्बन्धित तथा संगठित ( Organized ) रहते हैं । जैसा कि आगे चर्चा की गई है , इन अवयवों के अन्तः सम्बन्ध अभिवृत्ति के महत्व और प्रभाव को बने रहने और बदलने में सहायक होते हैं । सामान्यत : इन तीनों के बीच सामंजस्य स्थापित रहता है परन्तु किसी भी एक अवयव में होने वाला परिवर्तन उस अवयव तक ही सीमित न रहकर अन्य अवयवों तक फैल जाता है ।

अभिवृत्ति को समझने के लिए उसे अन्य मिलते – जुलते सम्प्रत्ययों से अलग करना – 5 आवश्यक है । अभिवृत्ति भावात्मक स्थिति से जुड़ी रहने पर भी अभिप्रेरक नहीं है क्योंकि यह प्रेरित नहीं कर सकती ( मोहसिन , 1976 ) । अभिवृत्ति मूल्य ( Value ) भी नहीं है क्योंकि इसका सम्बन्ध उद्दीपक विशेष से होता है जबकि मूल्य विविध प्रकार के उद्दीपकों से जुड़े होते हैं ; और अपेक्षाकृत अधिक व्यापक होते हैं । अभिवृत्ति मत ( Opinion ) से भी भिन्न है । मत में मूल्यांकन तो रहता है , पर भाव और व्यवहार से सम्बन्ध नहीं रहता । आधुनिक समाज मनोवैज्ञानिक अभिवृत्ति को अपेक्षाकृत स्थायी मूल्यांकन के रूप में स्वीकार करते हैं । ये अभिवृत्तियाँ व्यवहार पर किस प्रकार का प्रभाव डालती हैं ? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है ।

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अभिवृत्ति तथा व्यवहार

अभिवृत्ति और व्यवहार के बीच सम्बन्ध कैसा होता है ? क्या किसी की अभिवृत्ति जानकर उसके व्यवहार का पूर्वकथन किया जा सकता है ? इन प्रश्नों को लेकर समाज मनोवैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार के अध्ययन किये हैं । इन अध्ययनों के परिणामों की चर्चा करने से पहले यदि हम किसी साधारण व्यक्ति की प्रतिक्रिया जानें तो वह यही होगी कि ” अभिवृत्ति से व्यवहार का सही अनुमान लगाया जा सकता है । ” यही स्वाभाविक भी लगता है । परन्तु इस क्षेत्र में किये गये अध्ययनों के परिणाम चौकाने वाले हैं । विकर ( 1969 ) ने उपलब्ध अध्ययनों का विवेचन करके यह निष्कर्ष निकाला था कि अभिवृत्ति के आधार पर व्यवहार का पूर्वकथन सम्भव नहीं है । इसका व्यवहार के साथ सम्बन्ध अत्यन्त क्षीण है । फलत : अनेक मनोवैज्ञानिकों के मन में अभिवृत्ति के सम्प्रत्यय की उपादेयता संदिग्ध हो उठी है । इस स्थिति ने हमारा ध्यान उन कारणों की ओर आकर्षित किया है , जिनके कारण अभिवृत्ति और व्यवहार के बीच सम्बन्ध अस्पष्ट पाया जाता है । अभिवृत्ति और व्यवहार के मापन की कठिनाइयाँ तथा व्यवहार का अभिवृत्ति के अतिरिक्त अन्य परिवयों द्वारा प्रभावित होना इस परिस्थिति के लिए उत्तरदायी माने गये हैं । इनके अतिरिक्त शोधकर्ताओं ने निम्नांकित आधारों की ओर ध्यान आकृष्ट किया

( अ ) अभिवृत्ति की विशिष्टता ( Specificity ) :

आजिन तथा फिशबीन ( 1977 ) ने अभिवृत्ति तथा व्यवहार के बीच के सम्बन्ध का विश्लेषण करते हुए इन दोनों के बीच संवाद ( Correspondence ) की ओर ध्यान आकृष्ट किया है । अभिवृत्ति के अधिकांश अध्ययन सामान्य अभिवत्तियों जैसे धर्म राजनीतिक मुद्दों , समूहों आदि से जुड़ी व्यापक ( Global ) अभिवृत्तियों का अध्ययन करते हैं जबकि व्यवहार सदैव विशिष्ट रहता है । वैसे भी हम अपने ही व्यवहार का विश्लेषण करें तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि अभिवृत्ति के अतिरिक्त बहुत से ऐसे कारण हैं , जो किसी व्यवहार के घटित होने या न होने को तय करते हैं । आजिन ने यह पाया कि अभिवृत्ति के व्यापक मापक विशिष्ट ( Specific ) व्यवहारों से सम्बन्धित नहीं थे पर व्यापक व्यवहारों का पूर्वकथन करने में सक्षम थे । विभिन्न परिस्थितियों में किये जाने वाले व्यवहारों के आधार पर मापक बनाया जा सकता है । आजिन तथा फिशबीन ने यह भी पाया कि जब अतिविशिष्ट अभिवृत्ति का मापन किया गया तो व्यवहार से उसका धनात्मक सम्बन्ध था ।

( ब ) अभिवृत्ति की प्रबलता और उपलब्धता ( Attitude strength and accessibility ) :

प्राय : यह पाया गया है कि दृढ़ अभिवृत्तियाँ प्रत्यक्ष अनुभव तथा निहित स्वार्थ के कारण हो सकती हैं । उसके साथ ही अभिवृत्ति की सक्रियता के लिए उसका उपलब्ध रहना भी आवश्यक है । चूंकि दृढ़ अभिवृत्तियाँ हमारे मस्तिष्क में सरलता और शीघता से उपस्थिति हो जाती हैं , इसलिए वे हमारे व्यवहार को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं ( पावेल तथा फेजियो , 1984 ) । यहाँ तक कि यदि अभिवृत्ति की उपलब्धता अधिक हो तो सामान अभिवृत्तियाँ भी हमारे व्यवहार को प्रभावित करने में सफल हो जाती हैं ।

 ( स ) स्वचेतना ( Self attention ) :

स्वयं अपनी चेतना अभिवृत्ति व्यवहार के सम्बन्ध को प्रगाढ़ बनाती है । यहाँ स्वचेतना का मतलब है : अपने बारे में अवगत होना । सम्भवतः अपने बारे में अवगत होने के फलस्वरूप ही व्यक्ति की अभिवृत्तियाँ व्यक्ति के लिए उपलब्ध हो पाती हैं । इस प्रकार वे व्यक्ति को अपनी अभिवृत्ति का स्मरण दिलाती हैं ( विलसन तथा अन्य , 1984 ) उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अनुभव , ध्यान और संज्ञान में परिवर्तन के द्वारा अभिवृत्ति एवं व्यवहार के तालमेल को बढ़ाया जा सकता है । आजिन तथा फिशबीन ( 19801 ने उपरोक्त तत्त्वों पर विचार करते हुये यह कहा है कि व्यवहार मूलरूप से अभिवृत्ति के लक्ष्यवस्तु से जुड़े विशिष्ट व्यवहार को सम्पादित करने की इच्छा या मंतव्य ( Intention ) पर निर्भर करता है । व्यक्ति द्वारा किसी कार्य में प्रवृत्त होने की इच्छा दो तत्वों पर निर्भर करती है : उस व्यवहार विशेष के प्रति अभिवृत्ति तथा उस व्यवहार को करने के लिए प्रत्यक्षित सामाजिक दबाव ( Perceived social pressure ) जिसे आत्मपरक मानक ( Subjective norms ) की संज्ञा दी गयी है । इस सिद्धान्त को निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है । कार्य के प्रति अभिवृत्ति । कार्य व्यवहार ( Attitude ) करने की ( Behaviour ) इच्छा आत्मपरक मानक ( Intention ) ( Subjective norm )

अभिवृत्ति का निर्माण ( Attitude Formation )

 अपने दैनिक जीवन में व्यक्ति बाल्यावस्था से ही ऐसे उपस्थित और अनुपस्थित दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों तथा वस्तुओं के सम्पर्क में आता है जो अभिवृत्ति निर्माण के लिए अवसर प्रदान करते हैं और प्रेरित करते हैं । समाजीकरण की प्रक्रिया के अभिन्न अंग के रूप में व्यक्ति अपने परिवार के सदस्यों , मित्रों , अध्यापकों और संचार साधनों के संसर्ग में उपयुक्त अभिवृत्तियों को अर्जित करता है । आरंभ में जो अभिवृत्तियाँ बनती हैं , उनमें परिवर्तन आता है तथा अभिवृत्ति निर्माण की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है । अभिवृत्तियाँ कैसे बनती हैं ? इस | प्रश्न पर कई दृष्टिकोणों से विचार किया गया है । इन सैद्धान्तिक व्याख्याओं को दो मुख्य । श्रेणियों : अधिगम तथा पुनर्बलन ( Learning and reinforcement ) तथा संज्ञानात्मक ( Cognitive ) उपागमों की श्रेणी में रखा जा सकता है ।

अधिगम तथा पुनर्बलन उपागम

 अधिगम के आधार पर अभिवृत्ति के निर्माण की व्याख्या तीन मुख्य प्रक्रमों के आधार

पर की गई है । ये प्रक्रियाएँ हैं :

 प्राचीन अनुबन्धन ( Classical Conditioning ) ,

 नैमित्तिक अनुबन्धन ( Instrumental conditioning ) तथा प्रेक्षण पर आधारित अधिगम ( Observational learning ) । ( अ ) प्राचीन अनुबन्धन : स्टेट्स ( 1975 ) ने पवलाव द्वारा प्रतिपादित प्राचीन अनुबन्धन की प्रक्रिया के अनुसार अभिवृत्ति के अनुबन्धन का विचार प्रतिपादित किया है । जैसा कि मनोविज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं पवलाव ने अपने अध्ययन में यह पाया था कि जब कोई नया उद्दीपक भोजन के साथ युग्मित होता है तो बार – बार ऐसा करने पर जो अनुक्रिया स्वाभाविक उद्दीपक के साथ होती है , वह नये उद्दीपक के साथ सम्बन्धित होकर नये उद्दीपक की उपस्थिति में भी होने लगती है ( जैसे – घण्टी की ध्वनि को सुनकर लार स्राव होता है ) । स्टैट्स तथा स्टेट्स ( 1958 ) ने एक रोचक अध्ययन द्वारा अभिवृत्तियों के अनुबन्धन को प्रदर्शित किया है । इस अध्ययन में प्रयोज्यों के सामने विभिन्न राष्ट्रों के नाम एक पर्दे पर दिखाये जाते थे । नाम देखने के तुरन्त बाद प्रयोज्यों को धनात्मक , तटस्थ तथा ऋणात्मक शब्द जोर – जोर से बोलकर सुनाये जाते थे । यह क्रम 108 प्रयासों तक चला जिसमें प्रत्येक देश का नाम 18 बार आया था । इस क्रम में दो देशों के नाम के साथ हमेशा ऋणात्मक शब्द सुनाये गए । बाद में जब विभिन्न देशों के प्रति अभिवृत्ति का मापन किया गया तो धनात्मक शब्दों से जुड़े देशों के प्रति धनात्मक तथा ऋणात्मक शब्दों से जुड़े देशों के प्रति ऋणात्मक अभिवृत्तियाँ पायी गयीं । प्रयोग की अवधि में प्रयोज्यों से यह कहा गया था कि यह अध्ययन चाक्षुष तथा श्रव्य अधिगम के ऊपर किया जा रहा है ।

इस प्रयोग पर विचार करते समय संदेह पैदा होता है कि कहीं इसके परिणाम प्रयोज्य द्वारा प्रयोगकर्ता के अभीष्ट को समझकर उसके अनुसार व्यवहार करने की प्रवृत्ति को तो व्यक्त नहीं कर रहे है । बाद के अध्ययनों में इस उपकल्पना की जाँच की गयी और उनसे प्राचीन अधिगम की भूमिका की पुष्टि हुई है ( रिओर्डन तथा टिडेस्की , 1983 ) । वस्तुतः प्राचीन अनुबन्धन एक बड़ा शक्तिशाली प्रक्रम है और इसका अनुभव अनेक परिस्थितियों में किया जा सकता है । उदाहरण के लिए – घरों में माता – पिता , किसी समूह या व्यक्ति का नाम लेते हैं और उसके बारे में अच्छी या बुरी टिप्पणी करते हैं । घर में पल रहा बच्चा इसे सुनता है और बिना उस व्यक्ति या समूह के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आये उनके प्रति हूबहू वहीं अभिवृत्तियाँ विकसित कर लेता है , जो उसके माता – पिता द्वारा प्रदर्शित की गयी थीं । पूर्वाग्रहों व रूढ़ियों का विकास अधिकांशतः ऐसे ही होता है ।

 ( ब ) नैमित्तिक अनुबन्धन :

 जैसा कि स्किनर के अध्ययनों से स्पष्ट है , नैमित्तिक अनुबन्धन में प्राणी उन अनुक्रियाओं को सीखता है जिनके धनात्मक परिणाम होते हैं या जिनके कारण ऋणात्मक परिणामों में कमी आती है । माता – पिता यदि बच्चों को उनके विभिन्न प्रकार के विचारों के लिए प्रोत्साहित और पुरस्कृत करते हैं तो कुछ विचारों के लिए दण्डित भी करते हैं । प्रौढ़ होने पर व्यक्ति स्वयं यह अनुभव करता है कि उसकी कुछ अभिवृत्तियाँ धनात्मक परिणाम देती है और कुछ ऋणात्मक । यह प्रक्रिया अभिवृत्तियों के निर्माण में विशेष रूप से सहायक होती है । राजनीतिक नेताओं द्वारा विभिन्न विषयों पर व्यक्त अभिवृत्तियों में पुनर्बलन की स्पष्ट भूमिका दिखायी पड़ती है ।

( स ) प्रेक्षण अधिगम ( Observational learning ) :

मनुष्य के सामाजिक अधिगम का अधिकांश भाग परिवेश में उपस्थित माडल ( Model ) के प्रेक्षण पर आधारित होता है । बच्चे ( और बड़े भी ) केवल वही नहीं सीखते जिसके कारण पुरस्कार मिलता है . बल्कि बहत कछ ऐसे व्यवहारों और अभिवृत्तियों को भी अनुकरण और प्रेक्षण के आधार पर अर्जित कर लेते हैं जिनका पुरस्कार से स्पष्ट सम्बन्ध नहीं होता है । घर और विद्यालय में व्यक्ति केवल यह देखकर कि उसके परिवेश में विद्यमान अन्य व्यक्ति क्या कहने और करने पास परस्कार या दण्ड पाते हैं , उन व्यवहारों या प्रवृत्तियों को अर्जित कर लेते हैं । इस प्रकार अधिगम को अनुषंगिक अधिगम ( Vicarious learning ) भी कहा गया है ( बैंडूरा , 1997 ) ।

संज्ञानात्मक उपागम ( Cognitive Approach )

सा इस उपागम को मानने वाले मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य को एक सक्रिय , सूचनाओं का संसाधन करने वाले तथा परिवेश को समझने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति के रूप में ग्रहण किया है । इस श्रेणी में अपने वाले लगभग सभी सिद्धान्त यह मानते हैं कि विसंगति ( Inconsistency ) व्यक्ति के लिए अप्रिय होती है और व्यक्ति इसे दूर करने के लिए प्रयास करता है । यह विसंगति अभिवृत्ति के संज्ञानात्मक , भावात्मक तथा व्यवहारात्मक पक्षों को लेकर होती है । यहाँ पर तीन प्रमुख संज्ञानात्मक सिद्धान्तों का उल्लेख किया जा रहा है ।

 ( अ ) सन्तुलन सिद्धान्त ( Balance theory ) :

हीडर ( 1958 ) ने इस सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हुए यह कहा कि आदमी अपनी अभिवृत्तियों तथा उन अभिवृत्तियों का अन्य व्यक्तियों के साथ सन्बन्ध के बीच संज्ञानात्मक तथा सांवेगिक संतुलन की स्थिति बनाये रखना चाहता है । उन्होंने अभिवृत्ति के संगठन को अभिवृत्ति , वस्तु ( Object ) तथा उसके साथ सम्बद्ध दो व्यक्तियों से मिलकर बनने वाले त्रिकोणात्मक सम्बन्ध के रूप में देखा । उदाहरणार्थ – ” अ ” एक व्यक्ति है और “ ब ” दूसरा व्यक्ति है । ये दोनों व्यक्ति एक अभिवृत्ति वस्तु “ क ” के प्रति कोई अभिवृत्ति रखते हैं । यहाँ ” अ ” , ” ब ” और ” क ” एक दूसरे से सम्बन्धित हैं । ये सम्बन्ध दो प्रकार के हो सकते हैं – इकाई सम्बन्ध ( Unit relations ) तथा भावात्मक सम्बन्ध ( Sentimental relations ) । इकाई सम्बन्ध का तात्पर्य है कि विभिन्न अवयव किस सीमा तक परस्पर आबद्ध हैं । भावात्मक सम्बन्ध का तात्पर्य अवयवों की पारस्परिक पसंदगी से

हीडर के अनुसार ये तीनों प्रकार के सम्बन्ध संतुलित या असंतुलित हो सकते हैं । संतलन का होना या न होना सम्बन्धों के स्वरूप पर निर्भर करता है । हम ऐसा सोचते हैं और आशा करते हैं कि यदि दो व्यक्ति एक दूसरे को पसन्द करते हैं तो वे दोनों ही किसी वस्तु को पसन्द करेंगे । दूसरी ओर यदि एक व्यक्ति जिस वस्तु को पसन्द करें और दूसरा व्यक्ति उस वस्तु को पसन्द न करे तो इससे तनाव उत्पन्न होता है , जो सारी व्यवस्था में संतुलन लाने के लिए दबाव डालता है । संतुलन को पुन : स्थापित करने के लिये दो उपाय किये जा सकते हैं या तो एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की अभिवृत्ति के अनुरूप अपनी अभिवृत्ति बना ले या वह दूसरे व्यक्ति के प्रति अपना भावात्मक सम्बन्ध बदल दें । संतुलन की स्थिति में दोनों व्यक्तियों और वस्तुओं के बीच धनात्मक सम्बन्ध होते हैं या एक धनात्मक और दूसरा ऋणात्मक होता है । इसके विपरीत असंतुलित दशा में तीनों सम्बन्ध ऋणात्मक रहते हैं या एक ऋणात्मक होता है । इन स्थितियों का उदाहरण निम्नांकित चित्र में प्रस्तुत है । ( व्यक्ति ) व्यक्ति )  ब डिशन पर – अ व्यक्ति अभिवृत्ति व्यक्ति अभिवृत्ति का लक्ष्य का लक्ष्य संतुलित स्थिति – असंतुलित स्थिति + = धनात्मक सम्बन्ध – = ऋणात्मक सम्बन्ध a + + + – ( Cut & Paste ) : चित्र – 1 हीडर द्वारा प्रस्तुत संतुलन तथा असंतुलन की स्थितियाँ हीडर का संतुलन सिद्धान्त रोचक है और इसने समाज – मनोवैज्ञानिक अध्ययनों को प्रभावित किया है । इस सिद्धान्त की कई सीमायें हैं । यह सिद्धान्त सम्बन्धों से जुड़े भावात्मक लगाव की मात्रा में अन्तर नहीं करता है और व्यक्ति की दृष्टि में विभिन्न अवयवों के महत्त्व पर ही बल देता है । यह सिद्धान्त यह भी नहीं बतलाता कि संतुलन स्थापित करने के लिए व्यक्ति क्या करता है ? वस्तुतः संतुलन सिद्धान्त के पक्ष में प्राप्त प्रमाण अस्पष्ट हैं । इन सीमाओं के बावजूद अभिवृत्ति के क्षेत्र में इस सिद्धांत ने शोध को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित किया है ।

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 ( ब ) संज्ञानात्मक विसन्नादिता का सिद्धान्त ( Theory of Cognitive Dissonance ) :

इस सिद्धान्त का विकास लिऔन फेस्टिजर ( 1957 ) ने किया । इस सिद्धान्त की मान्यता है कि जब किसी के पास ऐसे दो संज्ञान रहते हैं जो एक दूसरे के विरुद्ध हों तो व्यक्ति संज्ञानात्मक विसन्नादिता का अनुभव करेगा । उदाहरणार्थ – यदि कोई व्यक्ति सिगरेट पीता है ; और यह भी जानता है कि सिगरेट पीने से कैंसर होता है तो ये दोनों संज्ञान एक दूसरे के विरुद्ध है ; और इनके कारण व्यक्ति विसन्नादिता का अनुभव करेगा । विसन्नादिता के फलस्वरूप व्यक्ति में मनोवैज्ञानिक तनाव उत्पन्न होता है , जो व्यक्ति को विसन्नादिता घटाने के लिए प्रेरित करता है । विसन्नादिता को कई तरह से कम किया जा सकता है : व्यक्ति दोनों संज्ञानों में से एक को बदल सकता है ; संज्ञानों के महत्त्व को बदल सकता है ; वह नये अवयवों को जुड़ा या दोनों संज्ञानों को परस्पर असम्बन्धित मान सकता है । विसन्नादिता के फलस्वरूप व्यक्ति के व्यवहार में कई तरह के परिवर्तन आते हैं । तदनुसार अभिवृत्ति में भी परिवर्तन दिखायी पड़ते हैं ।

 फेस्टिजर तथा कार्लस्मिथ ( 1959 ) ने अपने एक प्रसिद्ध अध्ययन में यह दिखाया कि किस प्रकार व्यक्ति अपनी अभिवत्ति को विसन्नादिता के आधार पर बदलने के लिए प्रेरित हाता है । इस अध्ययन में प्रयोज्यों के एक समूह को बहुत ही उबाऊ , बेमतलब और महत्त्वहीन काम करने के लिये कहा गया । जब एक निश्चित हद तक काम करने के बाद प्रयोग समाप्त होने जा रहा था और प्रयोज्य जाने को ही थे तो प्रयोगकर्ता ने प्रयोज्यों से कहा कि ” हम आपकी सहायता चाहते हैं ।

आपका काम यह है कि अभी जो और प्रयोज्य आ रहे हैं , आप उन्हें यह बतायें कि आप ने जिस प्रयोग में काम किया है वह अत्यन्त रुचिकर , आकर्षक व मजेटार है । ” आधे प्रयोज्यों से कहा गया कि यह कार्य करने के लिए आपका 20 डालर दिये जायेंगे । अन्य आधे प्रयोज्यों को 1 डालर देने की घोषणा की गयी । इस स्थिति को देखा जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति विसन्नादिता की स्थिति में है । व्यक्ति यह अनुभव कर चुका है कि प्रायोगिक कार्य वाहियात है किन्तु इस संज्ञान के ठीक उलटा उसे यह प्रतिपादित करना है कि काम अत्यन्त आकर्षक था । यहाँ इस काम के लिए परस्कार भी दिया जा रहा है । अब प्रश्न यह उठता है कि किस स्थिति में विसन्नादिता अधिक होगी और किसमें कम ? विसन्नादिता सिद्धान्त के अनुसार जब व्यक्ति 20 डालर पा रहा है तो विसन्नादिता कम होगी क्योंकि ऐसा करने के लिए उसे पर्याप्त पुरस्कार दिया जा रहा है अर्थात् अपनी अभिवृत्ति के विरुद्ध व्यवहार करने के लिये उसके पास उचित कारण नहीं हैं ।

दूसरी ओर जब व्यक्ति को कम पुरस्कार दिया जा रहा है तो उचित कारण नहीं लगता और वहाँ उच्च विसन्नादिता होगी । अब प्रश्न यह उठता है कि व्यक्ति विसन्नादिता को किस तरह से दूर करेगा ? चूँकि व्यक्ति ने एक खराब काम को अच्छा घोषित किया है तो उसे बदलना तो आसान नहीं है । परन्त पहले वाले संज्ञान में परिवर्तन लाया जा सकता है । विसन्नादिता के फलस्वरूप व्यक्ति की अभिवृत्ति में परिवर्तन सम्भावित है । फेस्टिजर के अनुसार विसन्नादित जितनी ही प्रबल होगी उसे दूर करने का प्रयास भी उतना ही प्रबल होगा । प्रस्तुत उदाहरण में जैसा कि कहा जा चुका है कि एक डालर की स्थिति में विसन्नादिता अधिक होगी और फलतः अभिवृत्ति में परिवर्तन भी अधिक होगा । प्रयोग के परिणाम भी ऐसे ही प्राप्त हुए । परन्तु अधिगम और पुरस्कार के सिद्धान्त को ध्यान में रखने पर यह बात ठीक नहीं लगती । उसके अनसार अधिक परस्कार ( 20 डालर ) की स्थिति में अधिक परिवर्तन होना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं हुआ ।

 बेम ( 1967 ) ने आत्म – प्रत्यक्षीकरण के आधार पर उपर्युक्त परिणामों की व्याख्या की है । फेस्टिजर के सिद्धान्त की कठिनाई यह भी है कि विसन्नादिता तभी होती है जब परस्पर विरोधी संज्ञान सन्मुख लाये जाते हैं क्योंकि व्यक्ति उनके लिए उत्तरदायी होता है । इस सिद्धान्त ने समाज – मनोविज्ञान के शोध को विशेष रूप से प्रभावित किया है । आधुनिक अध्ययनों की रुचि विसन्नादिता के दैहिक सह सम्बन्धियों को जानने में भी है । –

अभिवृत्ति निर्माण को प्रभावित करने वाले अन्य कारक :

व्यक्ति की अभिवृत्तियों के विकास को व्यक्ति और उसके परिवेश की अनेक विशेषतायें भी प्रभावित करती हैं । इन कारकों में आवश्यकता – पूर्ति , भूमिका निर्वाह , व्यक्तित्व तथा समूह की सदस्यता आदि विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । इनपर संक्षेप में विचार कर लेना उपयुक्त होगा । म

 ( अ ) आवश्यकता – पूर्ति ( Need fulfilment ) :

 यदि पुनर्बलन सिद्धान्त को ध्यान में लाया जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति उन कार्यों को करने के लिए तत्पर रहता है जो किसी न किसी रूप में उसकी आवश्यकता की पूर्ति करते हों । काट्ज तथा अन्य ( 1963 ) ने इस पर विचार करते हुए कहा कि अभिवृत्तियाँ व्यक्ति के लिए चार प्रकार से . आवश्यकता – पूर्ति में सहायक होती हैं – सर्वप्रथम वे नैमित्तिक ( Instrumental ) रूप से हमारे लिए उपयोगी हो सकती हैं , जैसे – एक : विशेष तरह की राजनैतिक अभिवृत्ति हमें पद और प्रतिष्ठा दिला सकती है । द्वितीयः कुछ अभिवृत्तियाँ व्यक्ति में अहं की रक्षा ( Ego defense ) का कार्य करती हैं । हमारे पूर्वाग्रह इसी प्रकार के होते हैं । तृतीय : अभिवृत्तिया व्याक्त क संज्ञानों ( Cognitions ) को आपस में जोड़ती हैं और उनमें तालमेल बैठाती हैं । इस प्रकार अभिवृत्तियों का व्यक्ति के जीवन में प्रकार्यात्मक महत्त्व होता है जो इन्हें अर्जित करने के लिए आधार प्रदान करता है ।

 ( ब ) सूचना तथा अवधान ( Information and Attention ) :

अभिवृत्तियों का निर्माण अभिवृत्ति वस्तु ( Attitude object ) के बारे में व्यक्ति के पास पहले से प्राप्त सूचना और नई सूचना के स्वरूप और तीव्रता पर भी निर्भर करता है । सूचना या सन्देश यदि व्यक्ति के ध्यान को आकृष्ट करता है तो उसका प्रभाव अधिक पड़ता है । इस प्रसंग में सूचना की आवृत्ति लाभदायक पायी गयी है ( जायन्स , 1964 ) । उद्दीपक सामग्री को बार – बार प्रस्तुत करने से अभिवृत्ति दृढ़ होती है । वस्तुत : उद्दीपकों की आवृत्ति से उद्दीपक से जुड़ी भावनायें बराबर सक्रिय होती हैं । इसके कारण व्यक्ति की अभिवृत्ति और प्रबल हो जाती है । से

( स ) भूमिका निर्वाह ( Role playing ) :

व्यक्ति का सामाजिक जीवन भूमिकाओं के इर्द – गिर्द संचालित होता है । जब व्यक्ति किसी भूमिका को स्वीकार करता है तो वह भूमिका के अनुरूप अभिवृत्तियों को ही अर्जित करता है । गाँव से शहर में आने वाले विद्यार्थी नये वातावरण में आने के बाद प्रगतिशील विद्यार्थियों की भूमिका अपनाने लगते हैं । प्रायः यह अनुभव किया जाता है कि ऐसे व्यक्ति के व्यवहार तथा विचार में शीघ्र परिवर्तन आते हैं । ऐसे परिवर्तन काफी हद तक स्थायी रहते हैं ।

 ( द ) समूह सदस्यता ( Group membership ) :

प्रत्येक समूह की कार्य प्रणाली , व्यवहार में मानदण्ड , मूल्य और विश्वास अलग – अलग प्रकार के होते हैं । समूह के सदस्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह समूह मानदण्डों के अनुरूप आचरण करें । समूह अपने सदस्यों के कार्यों और अभिवृत्तियों को अंगीकार करने के लिए प्रेरित करता है । इस दृष्टि से यदि रूढ़ियों पर विचार किया जाय तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रत्येक समूह दूसरे समूहों के बारे में विभिन्न धारणायें और विश्वास रखता है , जिनका वास्तविक आधार नहीं होता ।

 ( य ) व्यक्तित्व ( Personality ) :

व्यक्तित्व को व्यक्ति के अन्दर विद्यमान मनोवैज्ञानिक तथा दैहिक गुणों का संगठन माना गया है । इस दृष्टि से व्यक्तित्त्व व्यवहार के सभी पक्षों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है । अभिवृत्ति भी इस प्रभाव से मुक्त नहीं होती है । व्यक्ति किस प्रकार की अभिवृत्ति अर्जित करेगा , यह व्यक्ति के व्यक्तित्त्व पर भी निर्भर करता है । एडोर्नो आदि ( 1950 ) ने अमेरिका में अभिवृत्तियों का अध्ययन करते हुए यह पाया कि जातिवादिता ( Ethnocentricism ) तथा यहूदी विरोधी अभिवृत्तियों के बीच धनात्मक सह – सम्बन्ध था । इस अध्ययन के परिणामों से जातिवादी व्यक्तित्त्व की मापनी का विकास हुआ । ऐसा प्रतीत होता है कि कठोर अनुशासन में पालन – पोषण के कारण व्यक्तियों का व्यक्तित्त्व संकुचित और परम्परावादी बन जाता है । फलतः उनकी अभिवृत्तियाँ प्रभुत्त्ववादी व्यक्तित्त्व ( Authoritarian personality ) द्वारा संचालित होती हैं । मोहसिन ( 1976 ) ने जातिवादी अभिवृत्ति एवं जाति पूर्वाग्रह के बीच धनात्मक सहसम्बन्ध प्राप्त किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि व्यक्तित्त्व का गठन व्यक्ति को कुछ विशिष्ट अभिवृत्तियों के प्रति संवेदनशील बनाता है ।

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