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सत्ता का एकांतवास: क्या उपराष्ट्रपति पद की महत्ता घट रही है?

सत्ता का एकांतवास: क्या उपराष्ट्रपति पद की महत्ता घट रही है?

चर्चा में क्यों? (Why in News?):** हालिया राजनीतिक परिदृश्य में, उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ की सार्वजनिक उपस्थिति और राजनीतिक दलों के साथ उनकी सहभागिता में आई कमी एक महत्वपूर्ण विषय बन गई है। समाचारों में ऐसे संकेत मिले हैं कि कई राजनीतिक दल उनके न होने पर भी ‘यथावत’ (business-as-usual) काम कर रहे हैं, और उपराष्ट्रपति एक तरह से ‘राजनीतिक निर्जन भूमि’ (political no man’s land) में अकेले रह गए हैं। यह स्थिति भारत के उपराष्ट्रपति पद की वर्तमान भूमिका और प्रभावशीलता पर गंभीर सवाल खड़े करती है। यह ब्लॉग पोस्ट, UPSC उम्मीदवारों के लिए, इस घटनाक्रम के विभिन्न पहलुओं, संवैधानिक महत्व, ऐतिहासिक संदर्भ और भविष्य के निहितार्थों का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करेगा।

उपराष्ट्रपति पद: एक संवैधानिक अवलोकन

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 63 के अनुसार, “भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा।” यह पद अत्यंत गरिमापूर्ण है और देश के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पद के रूप में इसे देखा जाता है। उपराष्ट्रपति की भूमिकाएँ मुख्य रूप से दोहरी हैं:

  • राज्यसभा के सभापति: उपराष्ट्रपति, राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं (अनुच्छेद 64)। वे सदन की कार्यवाही का संचालन करते हैं, व्यवस्था बनाए रखते हैं, और विधायी प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • कार्यवाहक राष्ट्रपति: यदि राष्ट्रपति का पद रिक्त हो जाता है (मृत्यु, त्यागपत्र, या अन्य कारणों से), तो उपराष्ट्रपति कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करते हैं (अनुच्छेद 65)।

इसके अतिरिक्त, उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उनके कार्यों का निर्वहन भी कर सकते हैं। यह पद, भले ही राष्ट्रपति की तरह कार्यकारी शक्ति का धारक न हो, फिर भी राष्ट्र के सुचारू संचालन और विधायी संतुलन के लिए आवश्यक है।

‘यथावत’ स्थिति: क्या बदला है?

जब यह कहा जाता है कि राजनीतिक दलों के लिए ‘यथावत’ स्थिति है, तो इसका तात्पर्य यह है कि उपराष्ट्रपति की सक्रिय भागीदारी या उनकी उपस्थिति के बिना भी राजनीतिक गतिविधियाँ, दलगत निर्णय और विधायी प्रक्रियाएँ सामान्य रूप से चल रही हैं। यह कई कारणों से हो सकता है:

  • पद की प्रकृति: उपराष्ट्रपति का पद, राष्ट्रपति की तरह, एक संवैधानिक और औपचारिक भूमिका निभाता है। उनकी राजनीतिक गतिविधियों में प्रत्यक्ष या सक्रिय भागीदारी सीमित होती है, ताकि वे निष्पक्षता बनाए रख सकें।
  • दलगत राजनीति से दूरी: पद पर आसीन होने के बाद, उपराष्ट्रपति से अपेक्षा की जाती है कि वे दलगत राजनीति से ऊपर उठें। हालांकि, यह व्यवहार में कितना संभव है, यह एक बहस का विषय रहा है।
  • राज्यसभा के सभापति के रूप में भूमिका: उनकी मुख्य भूमिका राज्यसभा के संचालन से जुड़ी है। यदि सदन में सामान्य कामकाज हो रहा है, तो उनकी प्रत्यक्ष ‘राजनीतिक’ अनुपस्थिति उतनी मायने नहीं रखती।
  • संवाद चैनलों का महत्व: वर्तमान डिजिटल युग में, राजनीतिक दल और नेता विभिन्न माध्यमों से लगातार जुड़े रहते हैं। इसलिए, किसी एक व्यक्ति की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति से ‘यथावत’ स्थिति पर तत्काल प्रभाव पड़ना कम हो जाता है।

एक उपमा: इसे ऐसे समझें जैसे किसी बड़ी कंपनी में बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के किसी सदस्य की अनुपस्थिति, यदि वह सदस्य केवल कोरम पूरा करने के लिए मौजूद रहता हो और कोई महत्वपूर्ण निर्णय उस पर निर्भर न हो, तो कंपनी के दिन-प्रतिदिन के कामकाज पर ज्यादा असर नहीं डालती।

‘राजनीतिक निर्जन भूमि’ में उपराष्ट्रपति: विश्लेषण

यह वाक्यांश “राजनीतिक निर्जन भूमि” (political no man’s land) इस विचार को दर्शाता है कि उपराष्ट्रपति, अपनी संवैधानिक स्थिति के कारण, न तो पूरी तरह से दलगत राजनीति में सक्रिय हो सकते हैं और न ही पूरी तरह से उससे अलग रह सकते हैं। वे एक ‘निर्जन’ क्षेत्र में हैं जहाँ वे प्रभावी रूप से अपनी राजनीतिक पहचान या प्रभाव का प्रयोग उस तरह नहीं कर सकते जैसे वे सत्ता में आने से पहले करते थे।

इसके निहितार्थ:

  • प्रभावशीलता का प्रश्न: क्या उपराष्ट्रपति, अपनी वर्तमान भूमिकाओं में, राजनीतिक व्यवस्था पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं, खासकर जब वे दलगत बातचीत या विचार-विमर्श के केंद्र में न हों?
  • सार्वजनिक धारणा: यदि जनता या राजनीतिक वर्ग उपराष्ट्रपति को ‘अलग-थलग’ या ‘प्रभावहीन’ महसूस करता है, तो यह पद की गरिमा और सार्वजनिक प्रतिष्ठा को प्रभावित कर सकता है।
  • निगरानी और संतुलन की भूमिका: क्या उपराष्ट्रपति, अपने संवैधानिक अधिकार क्षेत्र से बाहर, अनौपचारिक रूप से सरकार या राजनीतिक दलों के लिए एक नैतिक मार्गदर्शक या ‘वॉचडॉग’ के रूप में कार्य कर सकते हैं? वर्तमान स्थिति में ऐसा होता दिख नहीं रहा है।

“उपराष्ट्रपति का पद एक नाजुक संतुलन का प्रतिनिधित्व करता है। एक ओर, उन्हें देश का दूसरा सर्वोच्च नागरिक होने के नाते निष्पक्ष और गरिमामय रहना होता है; दूसरी ओर, वे अक्सर सार्वजनिक जीवन में एक महत्वपूर्ण आवाज होते हैं। जब यह आवाज दब जाती है या हाशिए पर चली जाती है, तो पूरी व्यवस्था पर सवाल उठता है।”

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: उपराष्ट्रपति की भूमिका का विकास

भारत में उपराष्ट्रपति पद का इतिहास, इस भूमिका के क्रमिक विकास को दर्शाता है। शुरुआती वर्षों में, कुछ उपराष्ट्रपति, जैसे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, अपनी बौद्धिक और दार्शनिक आभा के कारण व्यापक सम्मान पाते थे और उनकी राय को महत्व दिया जाता था। वे राष्ट्र के लिए एक नैतिक दिशा-निर्देशक भी थे।

  • डॉ. जाकिर हुसैन: एक विद्वान और प्रशासक के रूप में, उन्होंने पद की गरिमा बढ़ाई।
  • श्री वी.वी. गिरि: ट्रेड यूनियन नेता के रूप में पृष्ठभूमि वाले श्री गिरि ने भी अपने तरीके से प्रभाव डाला।
  • श्री भैरों सिंह शेखावत: ये उन उपराष्ट्रपतियों में से थे जिन्होंने पद रहते हुए भी अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखने की कोशिश की, हालांकि यह हमेशा बहस का विषय रहा।

हाल के दशकों में, यह प्रवृत्ति बढ़ी है कि उपराष्ट्रपति, विशेष रूप से राज्यसभा के सभापति के रूप में, अपनी भूमिकाओं तक सीमित हो जाते हैं। उनके सार्वजनिक बयान या राजनीतिक गतिविधियाँ अक्सर कम हो जाती हैं, या वे सीधे तौर पर उन मुद्दों पर नहीं बोलते जो अत्यंत राजनीतिक रूप से संवेदनशील हों।

क्या उपराष्ट्रपति पद की महत्ता घट रही है?

यह प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसके कई आयाम हैं:

पक्ष में तर्क (महत्ता कम होने के):

  • कम सार्वजनिक उपस्थिति: जैसा कि वर्तमान स्थिति से संकेत मिलता है, राजनीतिक दलों को उनके बिना अपने काम चलाने में कोई बाधा नहीं दिखती।
  • दलगत राजनीति से सीमित जुड़ाव: पद की निष्पक्षता बनाए रखने की आवश्यकता उन्हें दलगत बहसों से दूर रखती है, जिससे उनका प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रभाव कम हो जाता है।
  • राज्यसभा के सभापति के रूप में सीमित अधिकार: जबकि वे सदन के संचालन के लिए महत्वपूर्ण हैं, विधायी एजेंडे का निर्धारण मुख्य रूप से सरकार और सदन के नेताओं द्वारा किया जाता है।
  • मीडिया का फोकस: मीडिया का ध्यान अक्सर कार्यकारी शाखा (राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री) पर अधिक होता है, जिससे उपराष्ट्रपति की भूमिका कम चर्चा में रहती है।

विपक्ष में तर्क (महत्ता बनी रहने या बढ़ने के):

  • संविधान की संरक्षक: उपराष्ट्रपति, राज्य सभा के सभापति के रूप में, संविधान के प्रावधानों और संसदीय नियमों का पालन सुनिश्चित करते हैं। यह एक महत्वपूर्ण भूमिका है।
  • विधायी प्रक्रिया का संतुलन: वे विधायी चर्चाओं को निष्पक्ष रूप से संचालित करने और सभी आवाजों को सुने जाने का अवसर प्रदान करते हैं।
  • कार्यवाहक राष्ट्रपति की भूमिका: यह पद अचानक उत्पन्न होने वाली संवैधानिक आपात स्थितियों के लिए एक महत्वपूर्ण ‘बैकअप’ प्रदान करता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मंच पर प्रतिनिधित्व: वे विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे देश की छवि बनती है।
  • संवाद का पुल: वे सरकार और विपक्ष के बीच, या विभिन्न संवैधानिक निकायों के बीच, अनौपचारिक संवाद के माध्यम के रूप में कार्य कर सकते हैं, भले ही यह सार्वजनिक रूप से स्पष्ट न हो।

निष्कर्ष: यह कहना शायद अतिश्योक्ति होगा कि पद की ‘महत्ता’ घट गई है; बल्कि, यह कहना अधिक उचित होगा कि इसके ‘राजनीतिक प्रभाव’ का स्वरूप बदल गया है। उपराष्ट्रपति अब सीधे तौर पर राजनीतिक बहसों में भागीदार नहीं दिखते, लेकिन उनकी संवैधानिक भूमिकाएं अभी भी महत्वपूर्ण हैं।

चुनौतियाँ और अवसर

चुनौतियाँ:

  1. निष्पक्षता बनाम प्रभावशीलता: उपराष्ट्रपति को निष्पक्ष रहना है, लेकिन क्या यह निष्पक्षता उन्हें राजनीतिक रूप से अप्रभावी बना देती है? यह एक दुविधा है।
  2. दलगत पूर्वाग्रह की धारणा: यदि उपराष्ट्रपति अपने पूर्व दल के प्रति पक्षपाती प्रतीत होते हैं, तो यह पद की गरिमा को नुकसान पहुंचा सकता है और विपक्ष में अविश्वास पैदा कर सकता है।
  3. राज्यसभा के सभापति के रूप में राजनीतिकरण: अक्सर, राज्यसभा के सभापति के निर्णय दलगत राजनीति से प्रभावित होने के आरोप लगते हैं, जिससे उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं।
  4. संवैधानिक भूमिकाओं की सीमा: क्या वर्तमान संवैधानिक ढाँचा उपराष्ट्रपति को अधिक प्रभावी भूमिका निभाने की अनुमति देता है, या क्या इसमें संशोधन की आवश्यकता है?

अवसर:

  • नैतिक और बौद्धिक नेतृत्व: उपराष्ट्रपति, अपने पद का उपयोग करके, राष्ट्र को नैतिक और बौद्धिक दिशा दे सकते हैं, जैसा कि पूर्व में कुछ उपराष्ट्रपतियों ने किया है।
  • संवाद का मंच: वे विभिन्न वर्गों के लोगों, विचारकों और नीति निर्माताओं के लिए संवाद का एक ऐसा मंच प्रदान कर सकते हैं जहाँ दलगत मतभेद गौण हों।
  • संवैधानिक मूल्यों का प्रबल समर्थक: वे संविधान के सिद्धांतों, लोकतंत्र की भावना और कानून के शासन को मजबूत करने के लिए मुखर हो सकते हैं।
  • अंतर-संसदीय संवाद: वे अन्य देशों के विधायी निकायों और राजनेताओं के साथ संबंध बनाकर भारत के विदेश संबंधों को मजबूत कर सकते हैं।

“जब देश एक जटिल राजनीतिक और सामाजिक मोड़ से गुजर रहा हो, तब ऐसे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की आवाज़ का महत्व बढ़ जाता है। यह महत्वपूर्ण है कि उपराष्ट्रपति अपनी भूमिका को केवल औपचारिक न मानकर, संवैधानिक संरक्षक और राष्ट्र के नैतिक मार्गदर्शक के रूप में देखें।”

UPSC परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: क्यों यह विषय महत्वपूर्ण है?

UPSC परीक्षा, विशेष रूप से भारतीय राजनीति (GS-II) और समसामयिक मामलों के पेपरों के लिए, ऐसे मुद्दों पर गहन समझ की मांग करती है। यह घटनाक्रम हमें निम्नलिखित विषयों पर सोचने के लिए प्रेरित करता है:

  • संवैधानिक पद: विभिन्न संवैधानिक पदों की भूमिका, शक्तियाँ और सीमाएँ।
  • संसद: संसद की कार्यप्रणाली, राज्यसभा के सभापति की भूमिका और उसके विशेषाधिकार।
  • सरकार की कार्यप्रणाली: राजनीतिक दलों की भूमिका, दल-बदल कानून, और राजनीतिक व्यवस्था में निष्पक्षता का महत्व।
  • शासन: अच्छे शासन के सिद्धांत, सार्वजनिक जीवन में नैतिकता, और संवैधानिक संस्थानों की प्रभावशीलता।
  • समसामयिक मामले: वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का विश्लेषण और उसके निहितार्थ।

UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)

प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs

1. भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद के तहत उपराष्ट्रपति, राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं?

a) अनुच्छेद 63

b) अनुच्छेद 64

c) अनुच्छेद 70

d) अनुच्छेद 79

उत्तर: b) अनुच्छेद 64

व्याख्या: अनुच्छेद 64 स्पष्ट रूप से कहता है कि उपराष्ट्रपति, राज्यसभा के पदेन सभापति होंगे।

2. निम्नलिखित में से कौन-सा कथन उपराष्ट्रपति के पद के संबंध में असत्य है?

a) वे भारत के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक अधिकारी हैं।

b) वे राष्ट्रपति के पद रिक्त होने पर कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर सकते हैं।

c) उन्हें राष्ट्रपति द्वारा पद की शपथ दिलाई जाती है।

d) उनकी योग्यता के लिए न्यूनतम आयु 30 वर्ष होनी चाहिए।

उत्तर: c) उन्हें राष्ट्रपति द्वारा पद की शपथ दिलाई जाती है।

व्याख्या: उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति द्वारा पद की शपथ दिलाई जाती है, न कि इसके विपरीत।

3. उपराष्ट्रपति को पद से हटाने के लिए कौन-सा प्रस्ताव लाया जा सकता है?

a) लोकसभा में साधारण बहुमत से पारित संकल्प

b) राज्यसभा में साधारण बहुमत से पारित संकल्प

c) राज्यसभा में तत्कालीन सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प, जिसे लोकसभा सहमत हो

d) लोकसभा में तत्कालीन सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प, जिसे राज्यसभा सहमत हो

उत्तर: c) राज्यसभा में तत्कालीन सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प, जिसे लोकसभा सहमत हो

व्याख्या: उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव सर्वप्रथम राज्यसभा में लाया जाता है, जहाँ तत्कालीन सदस्यों के बहुमत से पारित होने के बाद उसे लोकसभा की सहमति आवश्यक होती है।

4. भारत के पहले उपराष्ट्रपति कौन थे?

a) डॉ. जाकिर हुसैन

b) सर्वपल्ली राधाकृष्णन

c) वी.वी. गिरि

d) एम. हिदायतुल्ला

उत्तर: b) सर्वपल्ली राधाकृष्णन

व्याख्या: डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के पहले उपराष्ट्रपति थे।

5. उपराष्ट्रपति की चुनाव प्रक्रिया से संबंधित निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:

1. उपराष्ट्रपति का चुनाव संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा गठित एक निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है।

2. इस निर्वाचक मंडल में केवल निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं।

उपरोक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

a) केवल 1

b) केवल 2

c) 1 और 2 दोनों

d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: a) केवल 1

व्याख्या: उपराष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सदस्य (निर्वाचित और मनोनीत दोनों) भाग लेते हैं। इसलिए कथन 1 सही है और कथन 2 असत्य है।

6. निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य उपराष्ट्रपति का नहीं है?

a) राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन

b) राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उनके कार्यों का निर्वहन

c) लोक सभा की अध्यक्षता करना

d) किसी भी विधेयक को असंवैधानिक घोषित करना

उत्तर: c) लोक सभा की अध्यक्षता करना

व्याख्या: लोक सभा की अध्यक्षता करना अध्यक्ष का कार्य है, उपराष्ट्रपति का नहीं।

7. किसी विधेयक पर राज्यसभा और लोक सभा के बीच गतिरोध की स्थिति में, संयुक्त बैठक की अध्यक्षता कौन करता है?

a) राष्ट्रपति

b) उपराष्ट्रपति

c) लोक सभा अध्यक्ष

d) राज्यसभा का उप-सभापति

उत्तर: c) लोक सभा अध्यक्ष

व्याख्या: संयुक्त बैठक की अध्यक्षता लोक सभा अध्यक्ष करते हैं। यदि अध्यक्ष अनुपस्थित हों, तो लोक सभा के उपाध्यक्ष और फिर राज्यसभा के सभापति (उपराष्ट्रपति नहीं) अध्यक्षता करते हैं।

8. यदि उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर रहे हैं, तो उन्हें निम्नलिखित में से किसके विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं?

a) केवल उपराष्ट्रपति के

b) केवल राष्ट्रपति के

c) उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति दोनों के

d) इनमें से कोई नहीं

उत्तर: b) केवल राष्ट्रपति के

व्याख्या: जब उपराष्ट्रपति कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करते हैं, तो वे राष्ट्रपति के पद और शक्तियों के साथ कार्य करते हैं।

9. उपराष्ट्रपति के पद की निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए, संविधान क्या प्रावधान करता है?

a) उन्हें सरकारी पदों से आय नहीं हो सकती।

b) वे किसी भी लाभ के पद पर नहीं रह सकते।

c) वे संसद के किसी भी सदन के सदस्य नहीं रह सकते।

d) उपरोक्त सभी

उत्तर: d) उपरोक्त सभी

व्याख्या: उपराष्ट्रपति पद की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए ये सभी प्रावधान हैं। वे संसद या राज्य विधानमंडल के सदस्य नहीं रह सकते और लाभ के किसी भी पद पर नहीं रह सकते।

10. हालिया परिदृश्यों में “राजनीतिक निर्जन भूमि” (political no man’s land) वाक्यांश का प्रयोग उपराष्ट्रपति के लिए क्यों किया जा रहा है?

a) क्योंकि वे किसी भी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं हैं।

b) क्योंकि उनकी राजनीतिक गतिविधियों में प्रत्यक्ष भागीदारी सीमित है और उनका राजनीतिक प्रभाव कम माना जा रहा है।

c) क्योंकि वे राज्यसभा के सभापति के रूप में दलगत राजनीति से दूर रहते हैं।

d) उपरोक्त सभी

उत्तर: b) क्योंकि उनकी राजनीतिक गतिविधियों में प्रत्यक्ष भागीदारी सीमित है और उनका राजनीतिक प्रभाव कम माना जा रहा है।

व्याख्या: यह वाक्यांश उनकी वर्तमान स्थिति का वर्णन करता है जहाँ वे दलगत राजनीति में सीधे तौर पर सक्रिय नहीं हैं और उनका प्रभाव कम आंका जा रहा है, भले ही उनकी संवैधानिक भूमिकाएं महत्वपूर्ण हों।

मुख्य परीक्षा (Mains)

1. भारतीय संविधान में उपराष्ट्रपति का पद, राष्ट्रपति के पद से भिन्न होते हुए भी, महत्वपूर्ण संवैधानिक भूमिकाएँ निभाता है। वर्तमान संदर्भ में, उपराष्ट्रपति के पद की भूमिका की प्रभावशीलता और चुनौतियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। (250 शब्द, 15 अंक)

2. “उपराष्ट्रपति का पद निष्पक्षता और राजनीतिक प्रासंगिकता के बीच एक नाजुक संतुलन साधता है।” इस कथन के आलोक में, भारत में उपराष्ट्रपति की भूमिका के ऐतिहासिक विकास और वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करें। (150 शब्द, 10 अंक)

3. उपराष्ट्रपति, राज्यसभा के सभापति के रूप में, विधायी प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे कौन से संवैधानिक और व्यावहारिक कारक हैं जो इस भूमिका की प्रभावशीलता को प्रभावित करते हैं? (250 शब्द, 15 अंक)

4. “कुछ लोगों के अनुपस्थित होने पर भी दलों के लिए ‘यथावत’ स्थिति” तथा उपराष्ट्रपति का “राजनीतिक निर्जन भूमि” में होना, यह किस ओर संकेत करता है? इस स्थिति से निपटने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं ताकि संवैधानिक पदों की गरिमा और प्रभावशीलता बनी रहे? (250 शब्द, 15 अंक)

सफलता सिर्फ कड़ी मेहनत से नहीं, सही मार्गदर्शन से मिलती है। हमारे सभी विषयों के कम्पलीट नोट्स, G.K. बेसिक कोर्स, और करियर गाइडेंस बुक के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
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