संविधान बनाम विलंब: राज्यपाल की शक्तियों पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला?
चर्चा में क्यों? (Why in News?):
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्यपाल की भूमिका सदैव बहस का एक केंद्रीय विषय रही है, विशेषकर जब बात राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को अनुमति देने की आती है। हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे की गंभीरता को रेखांकित करते हुए एक अभूतपूर्व कदम उठाया है। भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ 22 जुलाई को इस महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई करेगी, जिसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधेयकों को मंज़ूरी देने के लिए एक निश्चित समय-सीमा निर्धारित करने की मांग की गई है। यह सुनवाई इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कई राज्यों—जैसे पंजाब, तमिलनाडु, तेलंगाना और केरल—ने राज्यपालों द्वारा विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखने के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है, जिससे राज्य के शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में गतिरोध पैदा हो रहा है। यह मामला न केवल संवैधानिक नैतिकता और संघीय ढांचे की अखंडता से संबंधित है, बल्कि यह निर्वाचित राज्य सरकारों की विधायी प्राथमिकताओं को लागू करने की क्षमता पर भी गहरा प्रभाव डालता है।
संवैधानिक स्थिति: राज्यपाल और विधेयकों पर उनका निर्णय
भारतीय संविधान राज्यपाल को राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर महत्वपूर्ण शक्तियाँ प्रदान करता है, जिनका उल्लेख मुख्य रूप से अनुच्छेद 200 में किया गया है। यह अनुच्छेद राज्यपाल को विधेयक के संबंध में चार विकल्प देता है:
- अनुमति देना (Assent): राज्यपाल विधेयक पर अपनी अनुमति दे सकता है, जिसके बाद वह अधिनियम बन जाता है।
- अनुमति रोकना (Withholding Assent): राज्यपाल विधेयक पर अपनी अनुमति रोक सकता है। यदि ऐसा होता है, तो विधेयक समाप्त हो जाता है और कानून नहीं बनता। यह एक महत्वपूर्ण वीटो शक्ति है।
- पुनर्विचार के लिए वापस भेजना (Return for Reconsideration): यदि विधेयक धन विधेयक (Money Bill) नहीं है, तो राज्यपाल उसे राज्य विधानसभा को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है। यदि विधानसभा विधेयक को संशोधनों के साथ या बिना संशोधनों के फिर से पारित करती है और उसे राज्यपाल के पास भेजती है, तो राज्यपाल को उस पर अनुमति देनी ही होगी। यह एक प्रकार का “निलंबनकारी वीटो” (Suspensive Veto) है।
- राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित करना (Reserving for President’s Consideration): यदि राज्यपाल को लगता है कि विधेयक उच्च न्यायालय की शक्तियों को कम करता है, संविधान के प्रावधानों के खिलाफ है, या राष्ट्रीय महत्व का है, तो वह उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकता है। अनुच्छेद 201 में इस प्रक्रिया का विवरण दिया गया है।
अनुच्छेद 201 में राष्ट्रपति के लिए आरक्षित विधेयकों से संबंधित प्रावधान हैं। जब कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित होता है, तो राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति दे सकते हैं, रोक सकते हैं, या (यदि वह धन विधेयक नहीं है) राज्यपाल को निर्देश दे सकते हैं कि वह उसे राज्य विधानसभा को पुनर्विचार के लिए लौटा दे। यदि विधानसभा उसे फिर से पारित करती है, तो उसे राष्ट्रपति के पास फिर से पेश किया जाता है, लेकिन राष्ट्रपति इस पर अनुमति देने के लिए बाध्य नहीं होते।
मुख्य समस्या: समय-सीमा का अभाव
इन अनुच्छेदों में सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि संविधान राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए कोई विशिष्ट समय-सीमा निर्धारित नहीं करता है। अनुच्छेद 200 में केवल यह कहा गया है कि राज्यपाल “यथाशीघ्र” (as soon as possible) विधेयक पर कार्रवाई करेंगे, लेकिन “यथाशीघ्र” की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। इसी अस्पष्टता का लाभ उठाकर कई बार राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल तक अपने पास रोके रखते हैं, जिससे राज्य सरकारों के विधायी एजेंडे में बाधा आती है।
यह संवैधानिक मौन (constitutional silence) ही वर्तमान न्यायिक हस्तक्षेप का मूल कारण है। सर्वोच्च न्यायालय को यह तय करना है कि क्या इस “संवैधानिक मौन” को भरा जा सकता है और क्या “यथाशीघ्र” की व्याख्या एक निश्चित समय-सीमा के रूप में की जा सकती है ताकि संघीय ढांचे में उत्पन्न होने वाले गतिरोध को दूर किया जा सके।
राज्यपाल की भूमिका का विकास: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारतीय संविधान में राज्यपाल की भूमिका ब्रिटिश काल से ही विकसित होती रही है और यह संघीय ढांचे में केंद्र-राज्य संबंधों के केंद्र में रही है।
औपनिवेशिक विरासत: भारत सरकार अधिनियम, 1935
स्वतंत्रता-पूर्व भारत में, भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत प्रांतों में गवर्नर की भूमिका काफी शक्तिशाली थी। वे ब्रिटिश क्राउन के एजेंट के रूप में कार्य करते थे और उन्हें विधानमंडलों द्वारा पारित कानूनों पर वीटो की व्यापक शक्तियां प्राप्त थीं। यह मॉडल एक हद तक भारत के स्वतंत्र संविधान में भी परिलक्षित हुआ, जहाँ राज्यपाल केंद्र सरकार के एक प्रतिनिधि के रूप में भी कार्य करते हैं।
संविधान सभा की बहसें
संविधान निर्माताओं ने राज्यपाल की भूमिका पर गहन विचार-विमर्श किया। एक ओर, वे एक निर्वाचित राज्यपाल चाहते थे जो लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करे। दूसरी ओर, वे एक नियुक्त राज्यपाल के पक्ष में थे जो केंद्र और राज्यों के बीच एक सेतु का काम करे और यह सुनिश्चित करे कि राज्य सरकारें संविधान के दायरे में रहें। अंततः, नियुक्त राज्यपाल का मॉडल अपनाया गया, जिसमें उन्हें राज्य प्रशासन में कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ दी गईं, लेकिन साथ ही उन्हें संवैधानिक प्रमुख के रूप में भी देखा गया, जो मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है। यह दोहरा स्वरूप ही बाद में संघर्ष का कारण बना।
आयोगों और समितियों की सिफारिशें
राज्यपाल की शक्तियों और उनके द्वारा विधेयकों को अनुमति देने में होने वाले विलंब के मुद्दे पर कई आयोगों और समितियों ने विस्तार से विचार किया है:
- सरकारिया आयोग (Sarkaria Commission, 1988):
केंद्र-राज्य संबंधों पर गठित इस आयोग ने राज्यपाल की भूमिका को लेकर विस्तृत सिफारिशें दीं। विधेयकों के संबंध में, आयोग ने सुझाव दिया कि:
- राज्यपाल को किसी विधेयक पर जितनी जल्दी हो सके निर्णय लेना चाहिए, और आदर्श रूप से उसे एक महीने के भीतर अनुमति देनी चाहिए, उसे रोक लेना चाहिए या पुनर्विचार के लिए वापस भेजना चाहिए।
- राष्ट्रपति को भी राज्य विधानसभाओं द्वारा आरक्षित विधेयकों पर “जितनी जल्दी हो सके” निर्णय लेना चाहिए, और उनके लिए भी एक समय-सीमा निर्धारित करने की आवश्यकता पर बल दिया।
- आयोग ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल को विधेयकों को केवल उन्हीं दुर्लभ मामलों में राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करना चाहिए जहाँ संविधान में स्पष्ट रूप से ऐसा करना अनिवार्य हो, या जहाँ विधेयक राष्ट्रीय महत्व के हों।
“राज्यपाल द्वारा विधेयकों को अनिर्दिष्ट काल तक रोके रखना संवैधानिक भावना के विरुद्ध है और इससे राज्य के विधायी कार्यों में बाधा आती है।” – सरकारिया आयोग
- संविधान के कामकाज की समीक्षा हेतु राष्ट्रीय आयोग (National Commission to Review the Working of the Constitution – NCRWC या वेंकटचलैया आयोग, 2002):
इस आयोग ने भी राज्यपाल की भूमिका पर प्रकाश डाला और सुझाव दिया कि:
- राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए अधिकतम चार महीने का समय दिया जाना चाहिए। यदि इस अवधि में कोई निर्णय नहीं लिया जाता है, तो विधेयक को स्वचालित रूप से पारित मान लिया जाना चाहिए (डीम्ड असेंट)। हालाँकि, यह सुझाव विवादास्पद रहा है।
- यह भी कहा गया कि यदि विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया गया है, तो राष्ट्रपति को भी एक निश्चित अवधि (जैसे छह महीने) के भीतर उस पर निर्णय लेना चाहिए।
- पूंछी आयोग (Punchhi Commission, 2010):
यह आयोग भी केंद्र-राज्य संबंधों पर केंद्रित था और इसने राज्यपाल के पद के दुरुपयोग को रोकने के उपायों पर विचार किया। विधेयकों पर इसके मुख्य सुझाव थे:
- “यथाशीघ्र” वाक्यांश की व्याख्या इस प्रकार होनी चाहिए कि राज्यपाल को विधेयक प्राप्त होने के छह महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।
- आयोग ने यह भी सुझाव दिया कि राज्यपाल को राज्य सरकार को लिखित रूप में सूचित करना चाहिए कि विधेयक को क्यों रोका गया है या राष्ट्रपति के लिए आरक्षित किया गया है।
- उसने राष्ट्रपति के लिए आरक्षित विधेयकों के संबंध में भी एक समय-सीमा का सुझाव दिया, यह भी कहा कि यदि राष्ट्रपति ने एक निश्चित अवधि (जैसे छह महीने) के भीतर कोई निर्णय नहीं लिया है, तो विधेयक को राज्य विधानसभा में वापस भेज दिया जाना चाहिए और उस पर राष्ट्रपति का विचार समाप्त माना जाना चाहिए।
इन सभी आयोगों ने एक स्वर में राज्यपाल द्वारा विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखने की प्रथा की आलोचना की है और एक निश्चित समय-सीमा निर्धारित करने की आवश्यकता पर बल दिया है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय इन्हीं सिफारिशों और संवैधानिक नैतिकता के आलोक में इस मामले पर विचार कर रहा है।
क्यों महत्वपूर्ण है यह मामला?
यह मामला भारतीय संघीय व्यवस्था के लिए कई कारणों से अत्यंत महत्वपूर्ण है:
- संघीय ढांचे पर प्रभाव: राज्यपाल का पद केंद्र और राज्य के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी है। जब राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखते हैं, तो यह सीधे तौर पर राज्य की स्वायत्तता और संघवाद की भावना को कमजोर करता है। यह केंद्र सरकार को परोक्ष रूप से राज्य के विधायी कार्यों में हस्तक्षेप करने का अवसर देता है, जो संवैधानिक रूप से स्वीकार्य नहीं है।
- लोकतांत्रिक जवाबदेही: राज्य विधानसभाएं जनता द्वारा सीधे चुनी जाती हैं और वे जनता की आकांक्षाओं को कानून में बदलने का कार्य करती हैं। राज्यपाल द्वारा विधेयकों को रोकना जनता के जनादेश का अनादर माना जा सकता है। यह निर्वाचित सरकार की प्रभावशीलता पर प्रश्नचिह्न लगाता है और उसकी नीतियों को लागू करने में बाधा डालता है।
- शासन में गतिरोध: विधेयकों के लंबित रहने से राज्य के विकास कार्य, कल्याणकारी योजनाएं और प्रशासनिक सुधार रुक जाते हैं। इससे न केवल जनता को लाभ मिलने में देरी होती है, बल्कि राज्य में शासन का माहौल भी खराब होता है।
- संवैधानिक मर्यादा का परीक्षण: यह मामला संविधान में निहित शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) और संतुलन (Checks and Balances) के सिद्धांत की परीक्षा है। यदि संवैधानिक प्रावधानों में स्पष्टता नहीं है, तो क्या न्यायपालिका उसे स्पष्ट करके संवैधानिक मशीनरी को सुचारु रूप से कार्य करने में मदद कर सकती है? यह न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) और न्यायिक अतिरेक (Judicial Overreach) के बीच की नाजुक रेखा का निर्धारण भी करेगा।
- भविष्य के लिए मिसाल: सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भविष्य में राज्यपालों और राष्ट्रपति की शक्तियों की व्याख्या के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम करेगा। यह केंद्र-राज्य संबंधों को नया आयाम दे सकता है और संवैधानिक पदाधिकारियों की भूमिका को और स्पष्ट कर सकता है।
- कानूनी अनिश्चितता: विधेयकों के अनिश्चित काल तक लंबित रहने से कानूनी अनिश्चितता पैदा होती है। राज्य सरकारें निश्चित नहीं होतीं कि उनके विधायी प्रयासों का क्या होगा, जिससे नीति निर्माण और कार्यान्वयन में बाधा आती है।
संक्षेप में, यह मामला केवल प्रक्रियागत देरी का नहीं है, बल्कि यह भारत के संघीय, लोकतांत्रिक और संवैधानिक गणराज्य के मूल सिद्धांतों की रक्षा करने का भी है।
राज्यपाल के पास विधेयक लंबित होने के कारण और परिणाम
राज्यपाल के पास विधेयकों के लंबित रहने के कई कारण हो सकते हैं, जिनके दूरगामी परिणाम होते हैं:
विलंब के कारण:
- राजनीतिक मतभेद: यह सबसे प्रमुख कारण है। यदि केंद्र और राज्य में अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें हैं, तो राज्यपाल (जो केंद्र द्वारा नियुक्त होता है) अक्सर राज्य सरकार के विधेयकों को रोकने या विलंब करने के लिए एक उपकरण के रूप में कार्य कर सकता है।
- संवैधानिक वैधता पर संदेह: राज्यपाल को यह लग सकता है कि विधेयक संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है (जैसे मौलिक अधिकारों का हनन, केंद्र सूची के विषयों पर कानून बनाना, या उच्च न्यायालय की शक्तियों को प्रभावित करना)। ऐसे में, वह विधेयक को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित कर सकता है या अपनी अनुमति रोक सकता है।
- केंद्र सरकार का निर्देश/दबाव: कई बार राज्यपाल केंद्र सरकार के “निर्देश” या “सुझावों” के तहत कार्य करते हैं, जो विधेयकों पर निर्णय को प्रभावित कर सकता है। यह विशेष रूप से उन विधेयकों के लिए होता है जो केंद्र की नीतियों के खिलाफ माने जाते हैं।
- विधेयक की सामग्री पर वास्तविक चिंताएँ: कुछ मामलों में, विधेयक में वास्तविक कमियाँ या खामियाँ हो सकती हैं, जिन पर राज्यपाल को चिंता हो सकती है। वह विधेयक की गहन जांच के लिए समय ले सकते हैं, या उसे पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं।
- सुरक्षा या राष्ट्रीय हित के मुद्दे: यदि विधेयक राष्ट्रीय सुरक्षा या व्यापक राष्ट्रीय हितों को प्रभावित करता है, तो राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकते हैं, जिससे विलंब हो सकता है।
- “पॉकेट वीटो” का अनौपचारिक उपयोग: चूंकि संविधान में कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है, राज्यपाल अनिश्चित काल तक विधेयक पर कोई कार्रवाई न करके एक प्रकार के अनौपचारिक “पॉकेट वीटो” का उपयोग कर सकते हैं।
विलंब के परिणाम:
- विधायी गतिरोध: राज्य सरकारें कानून बनाने और अपनी नीतियों को लागू करने में असमर्थ हो जाती हैं, जिससे शासन में गतिरोध पैदा होता है।
- कल्याणकारी योजनाओं पर प्रभाव: यदि विधेयक महत्वपूर्ण सामाजिक या आर्थिक कल्याणकारी योजनाओं से संबंधित हैं, तो उनके लागू होने में देरी से जनता को सीधे नुकसान होता है।
- लोकतंत्र का क्षरण: निर्वाचित सरकार के जनादेश और विधायी शक्ति का अवमूल्यन होता है, जिससे जनता का लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास कम हो सकता है।
- संघवाद का उल्लंघन: यह केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव पैदा करता है और सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) की भावना को नुकसान पहुंचाता है।
- कानूनी अनिश्चितता: लंबित विधेयकों से संबंधित क्षेत्रों में कानूनी अनिश्चितता बनी रहती है, जिससे निवेशकों और नागरिकों के लिए स्पष्टता का अभाव रहता है।
- संविधान के प्रति अनादर: “यथाशीघ्र” के संवैधानिक निर्देश का पालन न करना संवैधानिक भावना और मर्यादा का उल्लंघन है।
इन परिणामों के कारण ही यह मामला अत्यंत गंभीर बन गया है और सर्वोच्च न्यायालय से अपेक्षा की जा रही है कि वह इस समस्या का एक संवैधानिक समाधान प्रदान करे।
न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता?
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप भारतीय संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है। यह सवाल उठता है कि क्या ऐसे मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप आवश्यक है और यदि हाँ, तो किस हद तक?
न्यायिक हस्तक्षेप के पक्ष में तर्क:
- संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या: संविधान के अनुच्छेद 200 में “यथाशीघ्र” शब्द की अस्पष्टता को दूर करने के लिए न्यायिक व्याख्या आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान का अंतिम व्याख्याकार है और यह सुनिश्चित करना उसका कर्तव्य है कि संवैधानिक प्रावधान प्रभावी रूप से कार्य करें।
- संवैधानिक गतिरोध को तोड़ना: जब राज्यपाल या राष्ट्रपति की निष्क्रियता के कारण राज्य का विधायी कार्य बाधित होता है, तो यह एक संवैधानिक गतिरोध की स्थिति उत्पन्न करता है। न्यायपालिका ऐसे गतिरोधों को तोड़ने के लिए हस्तक्षेप कर सकती है ताकि संवैधानिक मशीनरी सुचारु रूप से चलती रहे।
- संघीय ढांचे का संरक्षण: राज्यपाल की भूमिका केंद्र और राज्य के बीच एक सेतु की है, न कि केंद्र के एजेंट की। यदि राज्यपाल विधेयकों को मनमाने ढंग से रोकते हैं, तो यह राज्य की विधायी स्वायत्तता का उल्लंघन है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय को संरक्षित करना चाहिए।
- लोकतांत्रिक जनादेश का सम्मान: राज्य विधानसभाएं जनता के प्रत्यक्ष जनादेश का प्रतिनिधित्व करती हैं। राज्यपाल द्वारा विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखना उस जनादेश का अनादर है। न्यायालय लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए हस्तक्षेप कर सकता है।
- शक्तियों के पृथक्करण का संतुलन: हालांकि शक्तियों का पृथक्करण महत्वपूर्ण है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि एक अंग की निष्क्रियता से पूरा तंत्र बाधित हो जाए। न्यायपालिका यह सुनिश्चित कर सकती है कि प्रत्येक अंग अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का पालन करे और संतुलन बना रहे।
- पूर्व उदाहरण: अतीत में भी सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के निर्णयों में देरी के मामलों में हस्तक्षेप किया है, जैसे कि स्पीकर द्वारा दलबदल विरोधी मामलों में निर्णय लेने में देरी।
न्यायिक हस्तक्षेप के विरुद्ध/चिंताजनक तर्क (न्यायिक अतिरेक की संभावना):
- शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन: आलोचकों का तर्क है कि न्यायपालिका द्वारा राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा निर्धारित करना विधायिका या कार्यपालिका के क्षेत्र में अतिक्रमण होगा, जो शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन है।
- राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ: राज्यपाल के पास संविधान के तहत कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ हैं। न्यायिक हस्तक्षेप से इन शक्तियों का दायरा सीमित हो सकता है और राज्यपाल का पद केवल एक रबड़ स्टाम्प बन सकता है।
- राजनीतिक प्रकृति के मुद्दे: अक्सर विधेयकों को रोकने के पीछे राजनीतिक कारण होते हैं। न्यायपालिका ऐसे राजनीतिक विवादों में फंस सकती है, जिससे उसकी अपनी निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर सवाल उठ सकते हैं।
- व्यवहार्यता का मुद्दा: क्या एक निश्चित समय-सीमा निर्धारित करना हमेशा व्यावहारिक होगा? कुछ विधेयक जटिल हो सकते हैं या उनके लिए विस्तृत कानूनी या तकनीकी जांच की आवश्यकता हो सकती है।
- नए गतिरोधों का जन्म: यदि न्यायालय एक निश्चित समय-सीमा तय करता है, तो भविष्य में इसके उल्लंघन पर नए कानूनी और संवैधानिक विवाद उत्पन्न हो सकते हैं, जिससे मामलों का बोझ और बढ़ सकता है।
- संशोधन की भूमिका: कई लोग मानते हैं कि यदि समय-सीमा की आवश्यकता है, तो इसे संवैधानिक संशोधन के माध्यम से विधायिका द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए, न कि न्यायिक घोषणा द्वारा।
इन तर्कों के बीच, सर्वोच्च न्यायालय को एक नाजुक संतुलन साधना होगा। उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि संवैधानिक मशीनरी सुचारू रूप से कार्य करे, साथ ही अन्य संवैधानिक अंगों की स्वायत्तता और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का भी सम्मान हो।
विभिन्न देशों में विधायी अनुमोदन की प्रक्रिया
भारत में राज्यपाल/राष्ट्रपति द्वारा विधेयक को अनुमति देने में देरी के मुद्दे को समझने के लिए, अन्य लोकतांत्रिक देशों में इस प्रक्रिया को देखना उपयोगी हो सकता है:
- संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America):
अमेरिकी राष्ट्रपति के पास कांग्रेस द्वारा पारित विधेयक पर निर्णय लेने के लिए 10 दिन (रविवार को छोड़कर) का समय होता है। इस अवधि में राष्ट्रपति के पास तीन विकल्प होते हैं:
- हस्ताक्षर करना (Sign): विधेयक कानून बन जाता है।
- वीटो (Veto): विधेयक को कांग्रेस को वापस भेज दिया जाता है। कांग्रेस दो-तिहाई बहुमत से राष्ट्रपति के वीटो को ओवरराइड कर सकती है।
- निष्क्रियता (Inaction): यदि राष्ट्रपति 10 दिनों के भीतर न तो हस्ताक्षर करते हैं और न ही वीटो करते हैं, तो विधेयक स्वतः कानून बन जाता है, बशर्ते कांग्रेस उस अवधि में सत्र में हो। यदि कांग्रेस 10 दिनों के भीतर स्थगित हो जाती है और राष्ट्रपति विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं करते हैं, तो वह कानून नहीं बनता (इसे पॉकेट वीटो कहते हैं)।
यहां महत्वपूर्ण यह है कि स्पष्ट समय-सीमा मौजूद है, जो अनिश्चितकालीन देरी को रोकती है।
- यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom):
यूके में, रॉयल असेंट (राजशाही की स्वीकृति) एक औपचारिकता है। जब संसद द्वारा कोई विधेयक पारित किया जाता है, तो सम्राट उसे “रॉयल असेंट” देते हैं, जिसके बाद वह अधिनियम बन जाता है। व्यवहार में, यह प्रक्रिया लगभग तात्कालिक होती है और इसमें शायद ही कभी कोई विलंब होता है। सम्राट के पास विधेयक को रोकने या उसे पुनर्विचार के लिए वापस भेजने की वास्तविक शक्ति अब नहीं है; अंतिम रॉयल असेंट 1707 में दिया गया था।
- कनाडा (Canada):
कनाडा का संविधान ब्रिटिश मॉडल पर आधारित है, जहाँ गवर्नर-जनरल (ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि) को संसद द्वारा पारित विधेयकों पर रॉयल असेंट देना होता है। सैद्धांतिक रूप से, गवर्नर-जनरल के पास विधेयकों पर अनुमति देने, रोकने या आरक्षित करने का अधिकार होता है। हालांकि, व्यवहार में, वे कनाडा के प्रधान मंत्री और कैबिनेट की सलाह पर कार्य करते हैं, और अनुमति लगभग हमेशा दी जाती है। अनुमति के लिए कोई विशिष्ट समय-सीमा नहीं है, लेकिन सामान्य परंपरा के अनुसार यह बहुत तेजी से होता है और इसमें शायद ही कभी कोई विलंब होता है।
- ऑस्ट्रेलिया (Australia):
ऑस्ट्रेलिया में, गवर्नर-जनरल (और राज्य स्तर पर राज्यपाल) के पास विधेयक को अनुमति देने, रोकने या सम्राट के लिए आरक्षित करने की शक्ति है। यहां भी कोई निश्चित समय-सीमा नहीं है, लेकिन संवैधानिक परंपरा के अनुसार, अनुमति आमतौर पर त्वरित होती है। यदि कोई गंभीर संवैधानिक मुद्दा होता है, तो विधेयक को सम्राट के लिए आरक्षित किया जा सकता है।
इन वैश्विक उदाहरणों से पता चलता है कि कई परिपक्व लोकतंत्रों में, राज्य के प्रमुख द्वारा विधायी अनुमोदन की प्रक्रिया या तो स्पष्ट समय-सीमा के साथ होती है, या यह एक स्थापित संवैधानिक परंपरा के कारण बिना किसी विलंब के एक औपचारिकता बन गई है। भारत में “यथाशीघ्र” की अस्पष्टता और इस संबंध में परंपरा के अभाव ने ही वर्तमान संवैधानिक चुनौती को जन्म दिया है।
आगे की राह: सर्वोच्च न्यायालय से अपेक्षाएँ और संभावित परिणाम
सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के समक्ष यह एक जटिल लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न है। न्यायालय का निर्णय न केवल राज्यपाल की शक्तियों को स्पष्ट करेगा, बल्कि भारत के संघीय ढांचे के भविष्य को भी आकार देगा।
सर्वोच्च न्यायालय के संभावित निर्देश या परिणाम:
- “यथाशीघ्र” की व्याख्या: न्यायालय “यथाशीघ्र” वाक्यांश की व्याख्या एक निश्चित, उचित समय-सीमा के रूप में कर सकता है। यह समय-सीमा संख्यात्मक (जैसे 3 महीने, 6 महीने) हो सकती है, या यह एक मार्गदर्शक सिद्धांत हो सकता है कि विलंब मनमाना नहीं होना चाहिए और इसके लिए वैध कारण होने चाहिए।
“संविधान गतिहीन दस्तावेज नहीं है, बल्कि एक जीवित, विकसित होने वाला पाठ है जिसकी व्याख्या बदलते सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों के अनुरूप होनी चाहिए।” – संवैधानिक विशेषज्ञ
- समय-सीमा निर्धारित करना: न्यायालय सीधे तौर पर राज्यपाल और/या राष्ट्रपति के लिए एक विशिष्ट समय-सीमा (उदाहरण के लिए, 3 महीने) निर्धारित कर सकता है, जिसके भीतर उन्हें विधेयक पर निर्णय लेना होगा। यह सरकारों द्वारा दिए गए विभिन्न आयोगों की सिफारिशों (सरकारिया, पूंछी) पर आधारित हो सकता है।
- विधेयकों को वापस करने की शर्त: न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटाते हैं और विधानसभा उसे दोबारा पारित कर देती है, तो राज्यपाल को उस पर अनुमति देनी ही होगी (जैसा कि अनुच्छेद 200 की भावना है)।
- आरक्षण के लिए मानदंड: यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति के लिए आरक्षित किया जाता है, तो न्यायालय स्पष्ट मानदंड स्थापित कर सकता है कि ऐसे आरक्षण किन परिस्थितियों में वैध हैं, ताकि मनमाने ढंग से आरक्षण को रोका जा सके। राष्ट्रपति के लिए आरक्षित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए भी एक समय-सीमा तय की जा सकती है।
- संवैधानिक संशोधन की सिफारिश: न्यायालय विधायिका से इस मुद्दे पर संवैधानिक संशोधन के माध्यम से स्पष्ट प्रावधान बनाने का आग्रह कर सकता है, जिससे भविष्य में ऐसी अनिश्चितताओं से बचा जा सके।
- राज्य सरकारों को राहत: उन राज्यों के लिए न्यायालय कुछ अंतरिम राहत या विशिष्ट निर्देश जारी कर सकता है जिन्होंने इस मामले में याचिकाएं दायर की हैं, ताकि उनके लंबित विधेयकों पर कार्रवाई हो सके।
आगे की राह के लिए व्यापक उपाय:
- संवैधानिक संवाद: केंद्र और राज्यों के बीच अधिक से अधिक संवैधानिक संवाद और सहयोग की आवश्यकता है। राज्यपाल के पद को राजनीतिक उपकरण के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि एक संवैधानिक प्रहरी के रूप में।
- अनुच्छेद 200 और 201 में स्पष्टता: संसद को संविधान में संशोधन करके राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधेयक पर निर्णय लेने के लिए एक स्पष्ट और बाध्यकारी समय-सीमा निर्धारित करनी चाहिए। यह स्थायी समाधान प्रदान करेगा।
- राज्यपाल के लिए आचार संहिता: राज्यपालों के लिए एक स्पष्ट आचार संहिता विकसित की जानी चाहिए, जिसमें विधेयकों पर निर्णय लेने की प्रक्रिया और समय-सीमा शामिल हो।
- सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका: न्यायालय का निर्णय संवैधानिक मौन को भरेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि राज्यपाल का पद संविधान में निहित लोकतंत्र और संघवाद के सिद्धांतों का उल्लंघन न करे।
यह मामला भारत के संवैधानिक इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है, जो संघवाद की वास्तविक भावना को मजबूत करेगा और संवैधानिक संस्थाओं की जवाबदेही बढ़ाएगा। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय इस बात पर गहरा प्रभाव डालेगा कि भविष्य में केंद्र और राज्य एक-दूसरे के साथ कैसे बातचीत करते हैं और लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारों को अपने एजेंडे को कितनी प्रभावी ढंग से लागू करने की अनुमति दी जाती है।
निष्कर्ष
राज्यपाल द्वारा विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखने का मामला भारतीय संघवाद और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के लिए एक गंभीर चुनौती है। यह केवल प्रक्रियागत विलंब का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह निर्वाचित राज्य सरकारों के जनादेश, संवैधानिक नैतिकता और केंद्र-राज्य संबंधों में विश्वास के क्षरण का प्रतीक है। सर्वोच्च न्यायालय की पांच-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 22 जुलाई को की जाने वाली सुनवाई इस मायने में ऐतिहासिक है कि यह ‘यथाशीघ्र’ जैसे संवैधानिक वाक्यांशों की व्याख्या को स्पष्ट करेगी और संवैधानिक पदाधिकारियों की जवाबदेही तय करेगी।
यह एक नाजुक संतुलन का कार्य है। एक ओर, न्यायालय को शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का सम्मान करना होगा और राज्यपाल के संवैधानिक विवेक का अतिक्रमण करने से बचना होगा। दूसरी ओर, उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि संवैधानिक मशीनरी सुचारू रूप से कार्य करे, राज्यों की विधायी स्वायत्तता का सम्मान हो, और लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ गतिरोध का शिकार न हों। सरकारिया, वेंकटचलैया और पूंछी आयोगों की सिफारिशें, जो राज्यपाल के निर्णयों के लिए समय-सीमा निर्धारित करने का समर्थन करती हैं, इस मामले में महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु प्रदान करती हैं।
सर्वोच्च न्यायालय का अंतिम निर्णय भारत के संवैधानिक परिदृश्य को नया आयाम देगा। यह एक ऐसा निर्णय होगा जो न केवल केंद्र-राज्य संबंधों को पुनर्जीवित करेगा, बल्कि भारतीय लोकतंत्र को और अधिक मजबूत तथा उत्तरदायी बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम भी होगा। यह उम्मीद की जाती है कि न्यायालय एक ऐसा समाधान प्रदान करेगा जो संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करते हुए, संघवाद की भावना को सशक्त करेगा और भारत के विकास पथ पर आगे बढ़ने के लिए आवश्यक विधायी प्रक्रिया को गति प्रदान करेगा।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
(यहाँ 10 MCQs, उनके उत्तर और व्याख्या प्रदान करें)
- राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक के संबंध में राज्यपाल के पास निम्नलिखित में से कौन-से विकल्प उपलब्ध हैं, जैसा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 में उल्लिखित है?
1. विधेयक पर अपनी अनुमति देना।
2. विधेयक पर अपनी अनुमति रोक लेना।
3. विधेयक (यदि वह धन विधेयक नहीं है) को विधानसभा को पुनर्विचार के लिए लौटाना।
4. विधेयक को सीधे राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेजना, बिना स्वयं विचार किए।
5. विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना।
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
(a) 1, 2, 3 और 4
(b) 1, 2, 3 और 5
(c) 1, 3, 4 और 5
(d) 1, 2, 4 और 5
उत्तर: (b)
व्याख्या: अनुच्छेद 200 में राज्यपाल को चार विकल्प दिए गए हैं: अनुमति देना, अनुमति रोकना, पुनर्विचार के लिए लौटाना (धन विधेयक नहीं), और राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना। विधेयक को सीधे राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेजना, बिना स्वयं विचार किए, का प्रावधान नहीं है; राज्यपाल ही राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करते हैं। - भारत के संविधान में, राज्यपाल को किसी राज्य विधेयक पर निर्णय लेने के लिए “यथाशीघ्र” (as soon as possible) कार्रवाई करने का प्रावधान है। इस “यथाशीघ्र” शब्द की समय-सीमा के संबंध में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है?
(a) संविधान 3 महीने की एक निश्चित समय-सीमा निर्धारित करता है।
(b) संविधान 6 महीने की एक निश्चित समय-सीमा निर्धारित करता है।
(c) संविधान में “यथाशीघ्र” की कोई निश्चित समय-सीमा निर्धारित नहीं है।
(d) राष्ट्रपति, राज्यपाल की सलाह पर समय-सीमा निर्धारित कर सकते हैं।
उत्तर: (c)
व्याख्या: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 200 विधेयक पर राज्यपाल की कार्रवाई के लिए “यथाशीघ्र” वाक्यांश का उपयोग करता है, लेकिन इसके लिए कोई निश्चित समय-सीमा निर्धारित नहीं करता है। यही वर्तमान न्यायिक चुनौती का मूल कारण है। - निम्नलिखित में से किस आयोग/समिति ने राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए एक निश्चित समय-सीमा (जैसे एक महीने) की सिफारिश की थी?
(a) पंछी आयोग
(b) सरकारिया आयोग
(c) वेंकटचलैया आयोग (NCRWC)
(d) राजमन्नार समिति
उत्तर: (b)
व्याख्या: सरकारिया आयोग (1988) ने सिफारिश की थी कि राज्यपाल को एक महीने के भीतर विधेयक पर निर्णय लेना चाहिए। पंछी आयोग ने 6 महीने और वेंकटचलैया आयोग ने 4 महीने का सुझाव दिया था। - यदि राज्य विधानसभा द्वारा लौटाया गया एक साधारण विधेयक (धन विधेयक नहीं) बिना किसी संशोधन के दोबारा पारित कर दिया जाता है, तो राज्यपाल की क्या बाध्यता है?
(a) राज्यपाल उसे फिर से पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं।
(b) राज्यपाल को उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना होगा।
(c) राज्यपाल को विधेयक पर अपनी अनुमति देनी ही होगी।
(d) विधेयक स्वतः कानून बन जाता है, राज्यपाल की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती।
उत्तर: (c)
व्याख्या: अनुच्छेद 200 के प्रावधानों के अनुसार, यदि विधानसभा विधेयक को संशोधनों के साथ या बिना संशोधनों के फिर से पारित करती है और उसे राज्यपाल के पास भेजती है, तो राज्यपाल को उस पर अनुमति देनी ही होगी। - राज्यपाल किस स्थिति में राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकते हैं?
1. यदि विधेयक उच्च न्यायालय की स्थिति को खतरे में डालता है।
2. यदि विधेयक राज्य के भीतर राजनीतिक अस्थिरता पैदा करता है।
3. यदि विधेयक केंद्र के कानूनों के प्रतिकूल है।
4. यदि विधेयक राष्ट्रीय महत्व का है।
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
(a) 1, 2 और 3
(b) 1, 3 और 4
(c) 2, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (b)
व्याख्या: राज्यपाल मुख्य रूप से उन विधेयकों को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करते हैं जो उच्च न्यायालय की स्थिति को खतरे में डालते हैं (अनिवार्य रूप से), या जो संघ के कानूनों के प्रतिकूल हैं, या जो राष्ट्रीय महत्व के हैं। राजनीतिक अस्थिरता आरक्षित करने का संवैधानिक आधार नहीं है। - अनुच्छेद 111 किससे संबंधित है?
(a) राज्यपाल द्वारा विधेयकों को अनुमति देना।
(b) संसद द्वारा पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति की अनुमति।
(c) राज्य विधानसभाओं का गठन।
(d) राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति।
उत्तर: (b)
व्याख्या: अनुच्छेद 111 संसद द्वारा पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति की अनुमति से संबंधित है, जिसमें राष्ट्रपति के लिए विधेयक को अनुमति देने, रोकने या पुनर्विचार के लिए वापस भेजने के विकल्प शामिल हैं। - भारत में “पॉकेट वीटो” के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
1. यह एक ऐसी स्थिति है जहां राष्ट्रपति किसी विधेयक पर न तो अपनी अनुमति देते हैं और न ही उसे वापस लौटाते हैं, जिससे वह अनिश्चित काल तक लंबित रहता है।
2. भारतीय संविधान राष्ट्रपति को विधेयक पर निर्णय लेने के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं करता है, जो इस वीटो का आधार है।
3. राज्यपाल भी अनौपचारिक रूप से पॉकेट वीटो का प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि उनके लिए भी कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है।
ऊपर दिए गए कथनों में से कौन-से सही हैं?
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (d)
व्याख्या: तीनों कथन सही हैं। पॉकेट वीटो राष्ट्रपति की उस शक्ति को संदर्भित करता है जहां वह विधेयक पर कोई कार्रवाई नहीं करते। भारतीय संविधान राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों के लिए विधेयक पर निर्णय लेने हेतु कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं करता है, जिससे उन्हें अनौपचारिक रूप से “पॉकेट वीटो” का उपयोग करने की अनुमति मिलती है। - केंद्र-राज्य संबंधों पर निम्नलिखित में से किस आयोग ने “राज्यपाल को केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में नहीं, बल्कि संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करना चाहिए” पर बल दिया?
(a) पंछी आयोग
(b) सरकारिया आयोग
(c) वेंकटचलैया आयोग (NCRWC)
(d) ये सभी
उत्तर: (d)
व्याख्या: सभी प्रमुख आयोगों और समितियों ने, जो केंद्र-राज्य संबंधों और राज्यपाल की भूमिका पर केंद्रित थीं, इस बात पर जोर दिया कि राज्यपाल को केंद्र के एजेंट के बजाय एक निष्पक्ष संवैधानिक प्राधिकारी के रूप में कार्य करना चाहिए। - भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में यह प्रावधान है कि यदि राज्य विधानसभा द्वारा एक धन विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटाया जाता है और विधानसभा उसे फिर से पारित कर देती है, तो राज्यपाल को उस पर अनुमति देनी ही होगी?
(a) अनुच्छेद 200
(b) अनुच्छेद 201
(c) अनुच्छेद 110
(d) धन विधेयकों को पुनर्विचार के लिए नहीं लौटाया जा सकता।
उत्तर: (d)
व्याख्या: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्यपाल धन विधेयक को पुनर्विचार के लिए नहीं लौटा सकते। उन्हें या तो अनुमति देनी होगी या उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना होगा (हालांकि यह आम नहीं है, संवैधानिक रूप से संभव है यदि कुछ विशिष्ट स्थितियाँ हों)। इसलिए, ‘यदि धन विधेयक लौटाया जाता है’ वाला प्रश्न ही गलत है क्योंकि यह संभव नहीं है। - सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्यपालों और राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधेयकों को अनुमति देने के लिए समय-सीमा निर्धारित करने के मामले की सुनवाई किस सिद्धांत पर आधारित हो सकती है?
1. संवैधानिक नैतिकता
2. शक्तियों का पृथक्करण
3. न्यायिक सक्रियता
4. संघीय ढाँचा
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
(a) 1 और 2
(b) 1, 3 और 4
(c) 2, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (d)
व्याख्या: यह मामला इन सभी सिद्धांतों से संबंधित है। संवैधानिक नैतिकता न्यायिक व्याख्या का एक महत्वपूर्ण आधार है। शक्तियों का पृथक्करण एक ऐसी सीमा है जिसे न्यायालय को ध्यान में रखना है। न्यायिक सक्रियता न्यायालय की हस्तक्षेप की डिग्री को संदर्भित करती है। संघीय ढाँचा इस मामले का मूल केंद्र है, क्योंकि यह केंद्र-राज्य संबंधों को प्रभावित करता है।
मुख्य परीक्षा (Mains)
(यहाँ 3-4 मेन्स के प्रश्न प्रदान करें)
- “भारतीय संविधान में राज्यपाल के पद की कल्पना एक संवैधानिक प्रमुख और केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में की गई थी। हालांकि, विधेयकों पर उनके ‘वीटो’ अधिकार के मनमाने उपयोग ने संघीय संबंधों में तनाव पैदा किया है।” इस कथन के आलोक में, राज्यपाल की शक्तियों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए और इस संबंध में न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता का विश्लेषण कीजिए।
- “संवैधानिक मौन, जब शक्तियों के दुरुपयोग का मार्ग प्रशस्त करता है, तो न्यायपालिका के लिए हस्तक्षेप करना आवश्यक हो जाता है।” भारत में राज्यपाल द्वारा राज्य विधेयकों को अनुमति देने में देरी के संदर्भ में इस कथन का मूल्यांकन कीजिए। क्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय-सीमा निर्धारित करना शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होगा?
- सरकारिया आयोग, वेंकटचलैया आयोग और पंछी आयोग की प्रमुख सिफारिशों पर चर्चा कीजिए, जो राज्यपाल द्वारा विधेयकों को अनुमति देने में विलंब से संबंधित हैं। इन सिफारिशों को संवैधानिक रूप से लागू करने में क्या चुनौतियाँ हैं और इन्हें कैसे दूर किया जा सकता है?
- राज्यों में कानून बनाने की प्रक्रिया में राज्यपाल की भूमिका के महत्व पर प्रकाश डालते हुए, “यथाशीघ्र” (as soon as possible) वाक्यांश की अस्पष्टता कैसे संघीय संबंधों को प्रभावित करती है, विस्तार से समझाइए। इस मुद्दे के समाधान के लिए आप क्या संवैधानिक और राजनीतिक उपाय सुझाएंगे?