Beyond the Odisha Fire: Protecting Our Children from Unspeakable Crimes
चर्चा में क्यों? (Why in News?):
हाल ही में ओडिशा से एक झकझोर देने वाली घटना सामने आई, जहाँ 15 वर्षीय एक नाबालिग लड़की को कुछ उपद्रवियों ने आग के हवाले कर दिया, जिससे वह गंभीर रूप से घायल हो गई और उसकी हालत नाजुक बनी हुई है। यह घटना सिर्फ एक आपराधिक कृत्य नहीं, बल्कि हमारे समाज में बच्चों, विशेषकर लड़कियों की सुरक्षा से जुड़ी गहरी चिंता को उजागर करती है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमारे बच्चे, जो देश का भविष्य हैं, कब तक ऐसी अमानवीय क्रूरता का शिकार होते रहेंगे? यह लेख इस घटना को एक केस स्टडी के रूप में लेते हुए, भारत में बच्चों के खिलाफ हिंसा के व्यापक परिप्रेक्ष्य, मौजूदा कानूनी और संस्थागत ढाँचे, चुनौतियों और आगे की राह पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जो UPSC उम्मीदवारों के लिए प्रासंगिक है।
हिंसा के ऐसे मामले: एक व्यापक परिप्रेक्ष्य (Such Incidents of Violence: A Broader Perspective)
बच्चों के खिलाफ हिंसा एक वैश्विक समस्या है, और भारत भी इससे अछूता नहीं है। ओडिशा की घटना जैसी क्रूरता हमें याद दिलाती है कि यह समस्या कितनी गंभीर और बहुआयामी है। यह केवल शारीरिक चोट पहुँचाना नहीं, बल्कि बच्चे के मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक विकास को भी स्थायी रूप से क्षति पहुँचाना है।
भारत में बच्चों के खिलाफ हिंसा के प्रमुख रूप:
- शारीरिक हिंसा: मार-पीट, जलाना, प्रताड़ना, या कोई भी ऐसा कृत्य जिससे शारीरिक चोट पहुँचे।
- यौन हिंसा: यौन उत्पीड़न, दुर्व्यवहार, बलात्कार।
- भावनात्मक/मनोवैज्ञानिक हिंसा: अपमानित करना, धमकाना, उपेक्षा करना, डराना-धमकाना।
- उपेक्षा (Neglect): भोजन, वस्त्र, आश्रय, शिक्षा या चिकित्सा देखभाल जैसी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा न करना।
- बाल श्रम और तस्करी: बच्चों का शोषण, मानव तस्करी में धकेलना।
- ऑनलाइन दुर्व्यवहार: साइबर-बुलिंग, ऑनलाइन यौन शोषण।
कारण:
ऐसे जघन्य अपराधों के पीछे कई जटिल सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारण जिम्मेदार होते हैं:
- पितृसत्तात्मक सोच और लैंगिक असमानता: समाज में लड़कियों को कमतर आंकना, उनकी स्वतंत्रता और अधिकारों का हनन।
- शिक्षा और जागरूकता की कमी: समाज के बड़े तबके में बच्चों के अधिकारों और हिंसा के दुष्परिणामों के प्रति जागरूकता का अभाव।
- गरीबी और आर्थिक संकट: गरीबी अक्सर परिवारों को बच्चों को काम पर भेजने या उनकी उपेक्षा करने के लिए मजबूर करती है।
- शराब और नशीले पदार्थों का सेवन: नशे की लत आपराधिक व्यवहार को बढ़ावा दे सकती है।
- कानून का अपर्याप्त प्रवर्तन और न्यायिक देरी: दोषियों को समय पर दंड न मिलने से “दण्डमुक्ति की संस्कृति” पनपती है।
- सामाजिक उदासीनता: ऐसे मामलों में समुदाय का हस्तक्षेप न करना या उन्हें निजी मामला मानना।
- मानसिक स्वास्थ्य मुद्दे: अपराधियों में मानसिक विकारों या असामाजिक प्रवृत्तियों का होना।
- पारिवारिक कलह और हिंसा का चक्र: यदि बच्चे घर में हिंसा देखते हैं, तो वे या तो खुद हिंसा का शिकार होते हैं या भविष्य में हिंसक व्यवहार करते हैं।
“एक समाज की नैतिकता इस बात से परखी जाती है कि वह अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करता है।” – नेल्सन मंडेला
कानूनी ढाँचा: सुरक्षा कवच और उसकी सीमाएं (Legal Framework: The Protective Shield and its Limitations)
भारत ने बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई कानून और नीतियां बनाई हैं। ओडिशा की घटना के संदर्भ में, ये कानून अपराधियों को दंडित करने और पीड़ितों को न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं:
मुख्य कानून:
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भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860:
- धारा 307 (हत्या का प्रयास): यदि अपराधी का इरादा पीड़ित की हत्या करने का था, तो यह धारा लागू होती है। इसमें आजीवन कारावास तक का प्रावधान है।
- धारा 326 (खतरनाक हथियारों या साधनों द्वारा स्वेच्छा से गंभीर चोट पहुंचाना): आग जैसे खतरनाक साधनों का उपयोग कर गंभीर चोट पहुँचाने पर। इसमें आजीवन कारावास या 10 वर्ष तक की कारावास की सज़ा हो सकती है।
- धारा 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाना): मामूली चोट के मामले में।
- धारा 34 (सामान्य आशय): यदि कई व्यक्ति एक सामान्य इरादे से अपराध करते हैं, तो वे सभी समान रूप से जिम्मेदार होते हैं।
- धारा 120B (आपराधिक साजिश): यदि अपराध की योजना बनाई गई थी।
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यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012:
यह अधिनियम बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाया गया है। यदि ओडिशा की घटना में यौन उत्पीड़न का कोई पहलू था या यह घटना किसी यौन इरादे से जुड़ी थी, तो POCSO अधिनियम की संबंधित धाराएँ भी लागू होंगी। इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ हैं:
- बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों के लिए विशेष अदालतें।
- पीड़ित बच्चों के बयान दर्ज करने के लिए बाल-मित्र प्रक्रियाएँ।
- पीड़ित की पहचान गुप्त रखना।
- अपराध की रिपोर्टिंग को अनिवार्य बनाना।
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किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 (JJ Act):
यह अधिनियम बच्चों को न्याय प्रणाली के माध्यम से संभालने और उनकी देखभाल व संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए है। यदि आरोपी नाबालिग हैं, तो उनके मामलों को इस अधिनियम के तहत किशोर न्याय बोर्ड (JJB) द्वारा निपटाया जाएगा। यह अधिनियम पुनर्वास और सामाजिक एकीकरण पर जोर देता है।
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पीड़ित मुआवजा योजनाएं:
आपराधिक न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण पहलू पीड़ितों को मुआवजा प्रदान करना है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 357A के तहत, राज्य सरकारों को पीड़ित मुआवजा योजनाएँ स्थापित करनी होती हैं। राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) ने भी पीड़ितों के लिए मॉडल मुआवजा योजनाएं बनाई हैं, जिनके तहत हिंसा के पीड़ितों को वित्तीय सहायता दी जाती है।
कानूनी ढाँचे की सीमाएं:
कानूनों का अस्तित्व होना ही पर्याप्त नहीं है; उनका प्रभावी प्रवर्तन भी आवश्यक है। भारत में बच्चों के खिलाफ अपराधों के मामलों में कुछ प्रमुख सीमाएँ और चुनौतियाँ हैं:
- जांच में खामियां: पुलिस जांच में देरी, साक्ष्य संग्रह में कमी, या अनुचित प्रक्रियाएँ।
- न्यायिक देरी: मामलों का सालों तक अदालतों में लंबित रहना, जिससे न्याय मिलने में देरी होती है और पीड़ितों का मनोबल टूटता है।
- गवाहों का मुकर जाना: सामाजिक दबाव, धमकी या आर्थिक प्रलोभन के कारण गवाहों का अपने बयान से पलटना।
- पुलिस संवेदनशीलता की कमी: कई बार पुलिसकर्मी बच्चों और यौन उत्पीड़न के पीड़ितों के प्रति पर्याप्त संवेदनशील नहीं होते, जिससे पीड़ित शिकायत दर्ज कराने में हिचकते हैं।
- पुनर्वास की अपर्याप्तता: पीड़ितों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त पुनर्वास और परामर्श सेवाओं का अभाव।
- सामुदायिक समर्थन का अभाव: अक्सर समाज ऐसे मामलों को गुप्त रखने या परिवार के भीतर ही निपटाने का दबाव डालता है।
संस्थागत प्रतिक्रिया और जिम्मेदारियाँ (Institutional Response and Responsibilities)
बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में विभिन्न संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
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पुलिस की भूमिका:
- त्वरित कार्रवाई: अपराध की सूचना मिलते ही तत्काल कार्रवाई करना।
- निष्पक्ष जांच: सबूतों को इकट्ठा करना, दोषियों की पहचान करना और चार्जशीट दायर करना।
- संवेदनशीलता: पीड़ित बच्चों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और बाल-मित्र व्यवहार अपनाना।
- बाल-मित्र पुलिस स्टेशन: ऐसे स्टेशनों का निर्माण जहाँ बच्चे बिना डरे अपनी बात कह सकें।
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न्यायपालिका की भूमिका:
- त्वरित सुनवाई: बच्चों के खिलाफ अपराधों के मामलों को फास्ट-ट्रैक अदालतों में प्राथमिकता देना।
- कड़ी सजा: दोषियों को समय पर और पर्याप्त सजा देना ताकि यह एक निवारक के रूप में कार्य करे।
- पीड़ित को न्याय: पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा करना और उन्हें मुआवजा व पुनर्वास सुनिश्चित करना।
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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC):
- मानवाधिकारों के उल्लंघन की जाँच करना।
- बच्चों के अधिकारों के संरक्षण के लिए सिफारिशें देना।
- जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन करना।
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राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR):
- NCW महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर, जबकि NCPCR बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन पर स्वतः संज्ञान ले सकता है, जाँच कर सकता है और सरकारों को सिफारिशें दे सकता है।
- ये निकाय कानूनों की प्रभावशीलता का आकलन करते हैं और नीतिगत सुधारों का सुझाव देते हैं।
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राज्य सरकारें और स्थानीय प्रशासन:
- कानून-व्यवस्था बनाए रखना।
- बच्चों की सुरक्षा के लिए योजनाएँ और नीतियाँ लागू करना।
- पीड़ितों को आवश्यक सहायता और पुनर्वास सेवाएँ प्रदान करना।
- जिला बाल संरक्षण इकाइयाँ (DCPU) और चाइल्डलाइन इंडिया जैसे तंत्रों का संचालन।
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नागरिक समाज संगठन (CSOs) और गैर-सरकारी संगठन (NGOs):
- बच्चों की सुरक्षा के लिए जमीनी स्तर पर काम करना, जागरूकता फैलाना, कानूनी सहायता प्रदान करना और पीड़ितों को आश्रय व परामर्श देना।
- ये अक्सर सरकार और समुदाय के बीच सेतु का कार्य करते हैं।
सामाजिक-आर्थिक निहितार्थ (Socio-Economic Implications)
बच्चों के खिलाफ हिंसा के दूरगामी और विनाशकारी सामाजिक-आर्थिक परिणाम होते हैं, जो न केवल पीड़ित और उसके परिवार को, बल्कि पूरे समाज को प्रभावित करते हैं।
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पीड़ित पर प्रभाव:
- शारीरिक आघात: चोट, स्थायी विकलांगता, या मृत्यु।
- मानसिक और भावनात्मक आघात: PTSD (पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर), अवसाद, चिंता, आत्महत्या के विचार।
- शैक्षिक प्रभाव: स्कूल छोड़ना, सीखने में अक्षमता, एकाग्रता की कमी।
- सामाजिक बहिष्कार: समाज द्वारा कलंकित महसूस करना, अलगाव।
- भविष्य पर प्रभाव: रिश्तों में कठिनाई, व्यावसायिक अवसरों में कमी।
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परिवार पर प्रभाव:
- आर्थिक बोझ: चिकित्सा व्यय, कानूनी शुल्क, काम का छूटना।
- मानसिक तनाव और आघात: परिवार के सदस्यों में अवसाद, तनाव।
- सामाजिक बदनामी: समाज से कटाव या अपमान का अनुभव।
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समाज पर प्रभाव:
- भय और असुरक्षा का माहौल: नागरिकों, विशेषकर बच्चों और महिलाओं में असुरक्षा की भावना बढ़ती है।
- नैतिक पतन: समाज के नैतिक मूल्यों का क्षरण होता है।
- विश्वास में कमी: कानून-व्यवस्था और न्याय प्रणाली पर लोगों का भरोसा कम होता है।
- मानव पूंजी का नुकसान: बच्चे देश का भविष्य हैं; उन पर हिंसा उनके विकास को बाधित करती है, जिससे दीर्घकाल में राष्ट्रीय विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- स्वास्थ्य प्रणालियों पर बोझ: पीड़ितों के इलाज और परामर्श पर सार्वजनिक स्वास्थ्य संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है।
चुनौतियाँ और अंतराल (Challenges and Gaps)
कानूनी और संस्थागत ढाँचे के बावजूद, बच्चों के खिलाफ अपराधों से निपटने में कई महत्वपूर्ण चुनौतियाँ और अंतराल मौजूद हैं:
- जांच और अभियोजन में खामियां:
- फोरेंसिक साक्ष्यों को इकट्ठा करने और संरक्षित करने में कमी।
- पुलिस कर्मियों के पास आवश्यक प्रशिक्षण और संवेदनशीलता का अभाव।
- मामलों की धीमी गति से जांच।
- न्यायिक प्रक्रिया में देरी:
- अदालतों में मुकदमों का भारी बोझ।
- जजों की कमी।
- जटिल प्रक्रियाएँ जो मामलों को लंबे समय तक खींचती हैं।
- सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएँ:
- बच्चों और परिवारों पर चुप्पी साधने का दबाव, खासकर यौन उत्पीड़न के मामलों में।
- “परिवार की इज्जत” के नाम पर मामलों को दबाना।
- लैंगिक रूढ़िवादिता और पितृसत्तात्मक मानसिकता।
- संसाधनों की कमी:
- बाल-मित्र अदालतों, पर्याप्त आश्रय गृहों और परामर्श केंद्रों का अभाव।
- पुलिस बल और न्यायपालिका में स्टाफ की कमी।
- जागरूकता कार्यक्रमों के लिए अपर्याप्त धन।
- पुनर्वास और सहायता की अपर्याप्तता:
- पीड़ितों के लिए दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक परामर्श और सामाजिक एकीकरण कार्यक्रमों की कमी।
- पीड़ितों को आर्थिक और शैक्षिक सहायता प्रदान करने में अक्षमता।
- डेटा संग्रह और विश्लेषण का अभाव:
- बच्चों के खिलाफ अपराधों पर विश्वसनीय और व्यापक डेटा की कमी, जिससे प्रभावी नीतियों के निर्माण में बाधा आती है।
- राज्य और केंद्र के बीच समन्वय का अभाव:
- योजनाओं और नीतियों के क्रियान्वयन में केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के बीच समन्वय की कमी।
आगे की राह: एक बहु-आयामी दृष्टिकोण (Way Forward: A Multi-faceted Approach)
बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और ओडिशा जैसी घटनाओं को रोकने के लिए एक समग्र, बहु-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें कानून प्रवर्तन, सामाजिक सुधार, जागरूकता और पुनर्वास शामिल हों।
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कानूनी और प्रवर्तन सुधार:
- फास्ट-ट्रैक कोर्ट: बच्चों के खिलाफ जघन्य अपराधों के लिए विशेष फास्ट-ट्रैक अदालतों की संख्या बढ़ाई जाए और उन्हें समयबद्ध तरीके से मामलों का निपटारा करने के लिए सशक्त किया जाए।
- विशेष पुलिस इकाइयाँ: बच्चों के मामलों को संभालने के लिए महिला पुलिस कर्मियों से युक्त विशेष पुलिस इकाइयाँ (जैसे एंटी-ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट) स्थापित की जाएं, जो संवेदनशील और प्रशिक्षित हों।
- फोरेंसिक क्षमता में वृद्धि: साक्ष्य संग्रह और विश्लेषण के लिए आधुनिक फोरेंसिक तकनीकों का उपयोग बढ़ाया जाए।
- सजा की दर में सुधार: अभियोजन पक्ष को मजबूत किया जाए ताकि अपराधियों को जल्द और निश्चित सजा मिले, जिससे दूसरों में डर पैदा हो।
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जागरूकता और शिक्षा:
- पाठ्यक्रम में शामिल करें: स्कूलों के पाठ्यक्रम में बच्चों के अधिकारों, लैंगिक समानता, अच्छी और बुरी स्पर्श (गुड टच-बैड टच) के बारे में शिक्षा को अनिवार्य किया जाए।
- सार्वजनिक जागरूकता अभियान: मीडिया, नुक्कड़ नाटक और सामुदायिक बैठकों के माध्यम से हिंसा के खिलाफ व्यापक जागरूकता अभियान चलाए जाएं।
- माता-पिता की भूमिका: माता-पिता को बच्चों की सुरक्षा और उनके साथ खुलकर बात करने के महत्व के बारे में शिक्षित किया जाए।
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सामुदायिक भागीदारी और रोकथाम:
- पड़ोस निगरानी समितियाँ: स्थानीय समुदायों को शामिल कर समितियाँ बनाई जाएं जो बच्चों की सुरक्षा पर ध्यान दें और किसी भी संदिग्ध गतिविधि की रिपोर्ट करें।
- स्वयंसेवी संगठन: गैर-सरकारी संगठनों और नागरिक समाज संगठनों को बच्चों की सुरक्षा के प्रयासों में सक्रिय रूप से शामिल किया जाए।
- शिकायत तंत्र को मजबूत करना: चाइल्डलाइन 1098 जैसी हेल्पलाइन को और मजबूत किया जाए और उनकी पहुंच दूरदराज के इलाकों तक बढ़ाई जाए।
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पीड़ित सहायता और पुनर्वास:
- वन-स्टॉप सेंटर (OSCs): सभी जिलों में वन-स्टॉप सेंटरों को मजबूत किया जाए, जो हिंसा से प्रभावित महिलाओं और बच्चों को चिकित्सा, कानूनी, पुलिस और मनोवैज्ञानिक सहायता एक ही छत के नीचे प्रदान करते हैं।
- मनोवैज्ञानिक परामर्श: पीड़ितों और उनके परिवारों के लिए दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक परामर्श और सहायता प्रदान की जाए।
- आर्थिक और शैक्षिक सहायता: पीड़ितों को शिक्षा जारी रखने और उनके पुनर्वास के लिए आर्थिक सहायता सुनिश्चित की जाए।
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पुलिस संवेदनशीलता और प्रशिक्षण:
- पुलिस कर्मियों को बच्चों के खिलाफ अपराधों से निपटने, सबूत इकट्ठा करने और पीड़ितों के प्रति संवेदनशील व्यवहार करने के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाए।
- महिला पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ाई जाए।
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न्यायिक सुधार:
- ई-कोर्ट और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग जैसी प्रौद्योगिकी का उपयोग कर न्यायिक प्रक्रियाओं को तेज किया जाए।
- पेंडेंसी कम करने के लिए जजों की संख्या बढ़ाई जाए।
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नैतिक शिक्षा और सामाजिक मूल्य:
- परिवारों, स्कूलों और धार्मिक संस्थानों के माध्यम से समाज में करुणा, सहानुभूति और मानवाधिकारों जैसे नैतिक मूल्यों को बढ़ावा दिया जाए।
- लैंगिक समानता को बढ़ावा देने वाली शिक्षा और कहानियों को प्रोत्साहित किया जाए।
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मीडिया की भूमिका:
- मीडिया को ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग में संवेदनशीलता और जिम्मेदारी दिखानी चाहिए, पीड़ित की पहचान उजागर न करें और सनसनीखेज रिपोर्टिंग से बचें।
- सकारात्मक कहानियों और समाधानों को भी उजागर करें।
निष्कर्ष (Conclusion)
ओडिशा की यह दुखद घटना एक दर्दनाक चेतावनी है कि भारत में बच्चों, विशेषकर लड़कियों की सुरक्षा के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। यह केवल कानून और व्यवस्था का मुद्दा नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक समस्या है जिसे सामूहिक इच्छाशक्ति और व्यापक प्रयासों से ही सुलझाया जा सकता है। सरकार, न्यायपालिका, कानून प्रवर्तन एजेंसियाँ, नागरिक समाज और प्रत्येक नागरिक को मिलकर काम करना होगा ताकि हम अपने बच्चों के लिए एक ऐसा वातावरण बना सकें जहाँ वे भयमुक्त होकर पनप सकें, सुरक्षित महसूस कर सकें और अपने सपनों को साकार कर सकें। तभी हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर पाएंगे, जहाँ हर बच्चे का भविष्य सुरक्षित और उज्ज्वल हो।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
(यहाँ 10 MCQs, उनके उत्तर और व्याख्या प्रदान करें)
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यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
- यह अधिनियम केवल यौन उत्पीड़न के मामलों से संबंधित है।
- यह पीड़ित बच्चों के बयानों को दर्ज करने के लिए बाल-मित्र प्रक्रियाएँ प्रदान करता है।
- अधिनियम के तहत पीड़ित बच्चे की पहचान को गुप्त रखना अनिवार्य है।
- यह अधिनियम केवल 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर लागू होता है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?
- केवल 1 और 4
- केवल 2 और 3
- केवल 1, 2 और 3
- केवल 2, 3 और 4
उत्तर: b
व्याख्या: कथन 1 गलत है क्योंकि POCSO अधिनियम यौन उत्पीड़न के साथ-साथ यौन हमला और बलात्कार जैसे अन्य यौन अपराधों से भी संबंधित है। कथन 4 गलत है क्योंकि यह अधिनियम 18 वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों पर लागू होता है। कथन 2 और 3 सही हैं, क्योंकि अधिनियम बाल-मित्र प्रक्रियाओं और पीड़ित की पहचान को गुप्त रखने पर जोर देता है।
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किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 (JJ Act) के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल हैं:
- विधि का उल्लंघन करने वाले बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करना।
- जरूरतमंद बच्चों की देखभाल और संरक्षण प्रदान करना।
- बाल-विवाह को रोकना।
- बाल श्रम पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना।
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
- केवल 1 और 2
- केवल 2 और 3
- केवल 1, 2 और 4
- 1, 2, 3 और 4
उत्तर: a
व्याख्या: JJ Act का मुख्य उद्देश्य विधि का उल्लंघन करने वाले बच्चों (Children in Conflict with Law) और देखभाल तथा संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों (Children in Need of Care and Protection) से संबंधित है। यह बाल विवाह (इसके लिए ‘बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006’ है) या बाल श्रम (इसके लिए ‘बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986’ है) को सीधे तौर पर रोकने के लिए नहीं है, हालाँकि ये मुद्दे बच्चों की देखभाल और संरक्षण से जुड़े हो सकते हैं। इसलिए, कथन 1 और 2 सही हैं।
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भारतीय दंड संहिता (IPC) की निम्नलिखित धाराओं पर विचार कीजिए, जो बच्चों के खिलाफ हिंसा से संबंधित हो सकती हैं:
- धारा 307: हत्या का प्रयास
- धारा 326: खतरनाक हथियारों या साधनों द्वारा स्वेच्छा से गंभीर चोट पहुंचाना
- धारा 354: स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल
- धारा 376: बलात्कार
उपर्युक्त में से कौन-सी धाराएँ शारीरिक हिंसा के गंभीर मामलों में लागू हो सकती हैं, जैसा कि ओडिशा घटना में वर्णित है?
- केवल 1 और 2
- केवल 1, 2 और 3
- केवल 3 और 4
- 1, 2, 3 और 4
उत्तर: a
व्याख्या: ओडिशा घटना में “आग के हवाले करने” का उल्लेख है, जो सीधे तौर पर शारीरिक हिंसा और हत्या के प्रयास से संबंधित है। धारा 307 (हत्या का प्रयास) और 326 (गंभीर चोट पहुंचाना) सीधे तौर पर इस स्थिति में लागू होती हैं। धारा 354 और 376 यौन अपराधों से संबंधित हैं, जो केवल तभी लागू होंगी जब घटना में यौन उत्पीड़न का कोई पहलू हो, जो दिए गए समाचार शीर्षक में स्पष्ट नहीं है। इसलिए, शारीरिक हिंसा के गंभीर मामलों में 1 और 2 निश्चित रूप से लागू होंगी।
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राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
- यह एक सांविधिक निकाय है।
- यह बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 के तहत स्थापित किया गया था।
- इसका उद्देश्य बच्चों के अधिकारों के संरक्षण को बढ़ावा देना और उनकी रक्षा करना है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?
- केवल 1
- केवल 2 और 3
- केवल 1 और 3
- 1, 2 और 3
उत्तर: d
व्याख्या: NCPCR एक सांविधिक निकाय है, जिसकी स्थापना बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 के तहत की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में बच्चों के अधिकारों के संरक्षण को बढ़ावा देना और उनकी रक्षा करना है। सभी कथन सही हैं।
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अपराध पीड़ितों को मुआवजा प्रदान करने के संबंध में, आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की कौन-सी धारा राज्य सरकारों को पीड़ित मुआवजा योजनाएँ स्थापित करने का अधिकार देती है?
- धारा 154
- धारा 164
- धारा 357A
- धारा 438
उत्तर: c
व्याख्या: आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 357A राज्य सरकारों को पीड़ितों या उनके आश्रितों को मुआवजा प्रदान करने के लिए एक योजना स्थापित करने का निर्देश देती है, जिन्हें अपराध के परिणामस्वरूप नुकसान या चोट लगी है और जिन्हें पुनर्वास की आवश्यकता है।
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भारत में बच्चों के खिलाफ हिंसा के कारणों के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन-से कारक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं?
- लैंगिक असमानता
- न्यायिक प्रक्रिया में देरी
- बाल अधिकारों के प्रति जागरूकता का अभाव
- संसाधनों की प्रचुरता
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
- केवल 1 और 2
- केवल 1, 2 और 3
- केवल 3 और 4
- 1, 2, 3 और 4
उत्तर: b
व्याख्या: लैंगिक असमानता (पितृसत्तात्मक सोच), न्यायिक प्रक्रिया में देरी (दोषियों को समय पर दंड न मिलना) और बाल अधिकारों के प्रति जागरूकता का अभाव, ये सभी बच्चों के खिलाफ हिंसा के प्रमुख कारण हैं। ‘संसाधनों की प्रचुरता’ नहीं, बल्कि ‘संसाधनों की कमी’ एक चुनौती है। इसलिए, कथन 1, 2 और 3 सही हैं।
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भारत के संविधान के निम्नलिखित प्रावधानों में से कौन-से बच्चों के संरक्षण से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित हैं?
- अनुच्छेद 21A: शिक्षा का अधिकार
- अनुच्छेद 24: बाल श्रम का निषेध
- अनुच्छेद 39(f): बच्चों के स्वस्थ विकास के अवसर सुनिश्चित करना
- अनुच्छेद 45: बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान (पहले)
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
- केवल 1 और 2
- केवल 1, 2 और 3
- केवल 3 और 4
- 1, 2, 3 और 4
उत्तर: d
व्याख्या: ये सभी अनुच्छेद बच्चों के अधिकारों और संरक्षण से संबंधित हैं। अनुच्छेद 21A शिक्षा का अधिकार देता है, अनुच्छेद 24 बाल श्रम पर रोक लगाता है, अनुच्छेद 39(f) बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए राज्य के कर्तव्य को बताता है, और अनुच्छेद 45 (जो अब 6 साल से कम उम्र के बच्चों के प्रारंभिक बचपन की देखभाल और शिक्षा पर केंद्रित है, शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद 21A में चला गया है) भी बच्चों से संबंधित है। सभी कथन सही हैं।
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वन-स्टॉप सेंटर (OSCs) योजना का प्राथमिक उद्देश्य क्या है?
- बच्चों को शिक्षा प्रदान करना।
- महिलाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण देना।
- हिंसा से प्रभावित महिलाओं और बच्चों को एक ही छत के नीचे सहायता प्रदान करना।
- गरीब परिवारों को वित्तीय सहायता देना।
उत्तर: c
व्याख्या: वन-स्टॉप सेंटर (OSCs) योजना, जिसे सखी वन-स्टॉप सेंटर के नाम से भी जाना जाता है, का प्राथमिक उद्देश्य निजी और सार्वजनिक दोनों स्थानों पर हिंसा से प्रभावित महिलाओं और बच्चों (18 वर्ष से कम आयु की लड़कियों सहित) को चिकित्सा सहायता, पुलिस सहायता, कानूनी सहायता, मनोवैज्ञानिक-सामाजिक परामर्श और अस्थायी आश्रय सहित एकीकृत सहायता और सहायता प्रदान करना है।
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निम्नलिखित में से कौन सा अधिनियम भारत में मानव तस्करी और बाल श्रम दोनों को रोकने से संबंधित हो सकता है?
- अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956
- बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976
- किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015
- उपरोक्त सभी
उत्तर: d
व्याख्या:
- अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956: मुख्य रूप से मानव तस्करी, विशेषकर महिलाओं और बच्चों की व्यावसायिक यौन शोषण के लिए तस्करी को रोकने से संबंधित है।
- बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976: बंधुआ मजदूरी को समाप्त करता है, जिसमें अक्सर बच्चे शामिल होते हैं।
- किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015: देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों (जैसे तस्करी या बाल श्रम के शिकार बच्चे) के लिए प्रावधान करता है, और इसमें बच्चों के खिलाफ कुछ अपराधों को भी शामिल किया गया है।
ये सभी अधिनियम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव तस्करी और बाल श्रम को रोकने में भूमिका निभाते हैं।
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बच्चों के खिलाफ हिंसा से निपटने में निम्नलिखित में से कौन-सी संस्थाएँ/निकाय ‘बाल-मित्र’ प्रक्रियाओं पर विशेष जोर देते हैं?
- POCSO अधिनियम के तहत स्थापित विशेष अदालतें
- राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR)
- चाइल्डलाइन इंडिया (Childline India)
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC)
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
- केवल 1 और 2
- केवल 1, 2 और 3
- केवल 3 और 4
- 1, 2, 3 और 4
उत्तर: b
व्याख्या:
- POCSO अधिनियम के तहत विशेष अदालतें: POCSO अधिनियम बाल-मित्र प्रक्रियाओं, जैसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और बच्चे के अनुकूल माहौल में बयान दर्ज करने पर जोर देता है।
- NCPCR: बच्चों के अधिकारों की रक्षा करता है और उनके साथ संवेदनशील व्यवहार सुनिश्चित करने की वकालत करता है।
- चाइल्डलाइन इंडिया: यह एक 24×7 हेल्पलाइन है जो संकट में बच्चों की मदद करती है और बाल-मित्र तरीके से सहायता प्रदान करती है।
- NHRC: मानवाधिकारों की रक्षा करता है, लेकिन इसका प्राथमिक जोर ‘बाल-मित्र’ प्रक्रियाओं पर नहीं है, बल्कि मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच और सिफारिशें करना है।
इसलिए, कथन 1, 2 और 3 सीधे ‘बाल-मित्र’ प्रक्रियाओं से संबंधित हैं।
मुख्य परीक्षा (Mains)
(यहाँ 3-4 मेन्स के प्रश्न प्रदान करें)
- “ओडिशा की हालिया घटना भारत में बच्चों के खिलाफ बढ़ती हिंसा की एक दर्दनाक याद दिलाती है।” इस कथन के आलोक में, भारत में बच्चों के खिलाफ हिंसा के प्रमुख सामाजिक-आर्थिक और संस्थागत कारणों का विश्लेषण कीजिए। इन अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए आप कौन से बहु-आयामी दृष्टिकोण सुझाएंगे? (250 शब्द)
- भारत में बच्चों की सुरक्षा के लिए कानूनी और संस्थागत ढाँचे, जैसे POCSO अधिनियम, किशोर न्याय अधिनियम और विभिन्न आयोगों की प्रभावशीलता का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। इन ढाँचों के कार्यान्वयन में मौजूदा चुनौतियों और अंतरालों को दूर करने के लिए ठोस उपाय सुझाइए। (250 शब्द)
- “बच्चों के खिलाफ हिंसा केवल एक कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है, बल्कि एक गहरी सामाजिक-नैतिक चुनौती है।” इस कथन की विवेचना कीजिए और चर्चा कीजिए कि एक समाज के रूप में हम अपने बच्चों के लिए सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करने हेतु सामूहिक रूप से कैसे योगदान दे सकते हैं। विभिन्न हितधारकों (पुलिस, न्यायपालिका, नागरिक समाज, परिवार और मीडिया) की भूमिका पर प्रकाश डालिए। (250 शब्द)