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साइलेंट विटनेस, स्टॉल्ड जस्टिस: कोलकाता बी-स्कूल जांच की परेशान करने वाली सच्चाई

साइलेंट विटनेस, स्टॉल्ड जस्टिस: कोलकाता बी-स्कूल जांच की परेशान करने वाली सच्चाई

चर्चा में क्यों? (Why in News?):

हाल ही में, कोलकाता के एक प्रतिष्ठित बी-स्कूल में कथित यौन उत्पीड़न के मामले ने देश भर में ध्यान खींचा है। इस मामले की जांच कर रही विशेष जांच टीम (SIT) को अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि कथित पीड़िता और उनके पिता ने जांच में सहयोग करने से इनकार कर दिया है। SIT ने आरोप लगाया है कि उन्हें ‘शून्य मदद’ मिल रही है, जिससे मामले की आगे की कार्यवाही थम सी गई है। यह घटनाक्रम न केवल विशिष्ट मामले की जटिलता को उजागर करता है, बल्कि यौन हिंसा के मामलों में जांच, न्याय वितरण प्रणाली और सामाजिक-कानूनी बाधाओं पर गंभीर प्रश्न भी खड़े करता है।

यह लेख इस घटनाक्रम का विश्लेषण करेगा, इसके निहितार्थों को समझेगा, और यूपीएससी उम्मीदवारों के लिए प्रासंगिक कानूनी, सामाजिक और प्रशासनिक पहलुओं पर प्रकाश डालेगा।

एक पहेली बनी जांच: क्यों एक पीड़िता का मौन न्याय को रोक सकता है?

किसी भी आपराधिक मामले, विशेषकर यौन उत्पीड़न के मामलों में, पीड़ित का सहयोग जांच की रीढ़ होता है। जब कथित पीड़िता स्वयं जांच एजेंसियों से दूरी बना लेती है, तो यह कई सवाल खड़े करता है:

  • पीड़िता और उसके परिवार ने सहयोग से इनकार क्यों किया? क्या इसके पीछे कोई दबाव है, डर है, या न्याय प्रणाली में विश्वास की कमी है?
  • जांच एजेंसियां, विशेष रूप से ऐसे संवेदनशील मामलों में, गैर-सहयोगी पीड़ितों से कैसे निपटती हैं?
  • यह स्थिति समग्र न्याय वितरण प्रणाली पर क्या प्रभाव डालती है?
  • क्या ऐसे मामलों में, जहां प्रथम दृष्टया साक्ष्य कमजोर हों या पीड़ित सहयोग न करे, जांच को आगे बढ़ाया जा सकता है?

यह सिर्फ एक कानूनी या पुलिसिया मुद्दा नहीं है, बल्कि सामाजिक कलंक, आघात, और हमारी न्याय प्रणाली की सीमाओं का एक जटिल मिश्रण है।

भारतीय कानून के तहत यौन उत्पीड़न की जांच: एक रूपरेखा

भारत में यौन उत्पीड़न के मामलों की जांच भारतीय दंड संहिता (IPC), आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) और साक्ष्य अधिनियम के तहत की जाती है।

भारतीय दंड संहिता (IPC):

  • धारा 375: बलात्कार (Rape) को परिभाषित करती है।
  • धारा 376: बलात्कार के लिए दंड का प्रावधान करती है। इसमें विभिन्न उप-धाराएं (जैसे 376A, 376AB, 376B, 376C, 376D, 376DA, 376DB, 376E) शामिल हैं, जो सामूहिक बलात्कार, बार-बार बलात्कार, अधिकारियों द्वारा बलात्कार आदि के लिए कठोर दंड का प्रावधान करती हैं।
  • धारा 354: स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग। इसके अंतर्गत 354A (यौन उत्पीड़न), 354B (निर्वस्त्र करने के इरादे से हमला), 354C (ताक-झांक), 354D (पीछा करना) जैसी धाराएं भी शामिल हैं।

आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC):

  • धारा 161: पुलिस द्वारा गवाहों की जांच का प्रावधान। पुलिस पीड़ित और गवाहों के बयान दर्ज कर सकती है।
  • धारा 164: न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा बयानों और इकबालिया बयानों को रिकॉर्ड करना। यौन उत्पीड़न के मामलों में पीड़िता का 164 का बयान बेहद महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इसे अदालत में सबूत के तौर पर स्वीकार किया जाता है और यह बाद में मुकर जाने की संभावना को कम करता है।
  • धारा 164A: बलात्कार के मामलों में चिकित्सा परीक्षण। यह पीड़िता के शीघ्र और अनिवार्य चिकित्सा परीक्षण का प्रावधान करती है।
  • धारा 357B: यौन उत्पीड़न के पीड़ितों के लिए मुआवजे का प्रावधान।

साक्ष्य अधिनियम:

  • यौन उत्पीड़न के मामलों में पीड़िता के चरित्र पर सवाल उठाने की अनुमति नहीं देता है।
  • पुलिस और फोरेंसिक साक्ष्य की स्वीकार्यता को नियंत्रित करता है।

विशेष जांच दल (SIT):

गंभीर और संवेदनशील मामलों में, जांच की निष्पक्षता और गति सुनिश्चित करने के लिए SIT का गठन किया जाता है। SIT के पास अक्सर विस्तृत शक्तियां और संसाधन होते हैं, लेकिन वे भी पीड़ित के सहयोग के बिना सीमित हो जाते हैं।

जांच में पीड़ित के सहयोग का महत्व और गैर-सहयोग के कारण

किसी भी आपराधिक जांच में, विशेषकर यौन उत्पीड़न के मामलों में, पीड़ित का सहयोग न केवल जांच की गति और सटीकता के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि न्याय सुनिश्चित करने के लिए भी आवश्यक है।

सहयोग का महत्व:

  1. प्राथमिक जानकारी का स्रोत: पीड़ित घटना का प्रत्यक्षदर्शी होता है और घटना के संबंध में महत्वपूर्ण विवरण (जैसे समय, स्थान, अपराधी का विवरण, घटना का क्रम) प्रदान कर सकता है।
  2. सबूतों की पहचान: पीड़ित उन साक्ष्यों (शारीरिक, फोरेंसिक, परिस्थितिजन्य) को इंगित करने में मदद कर सकता है जो जांच के लिए महत्वपूर्ण हों।
  3. न्यायिक बयान: धारा 164 के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने दिया गया पीड़ित का बयान अदालत में एक मजबूत साक्ष्य होता है और अभियोजन पक्ष के लिए आधारशिला का काम करता है।
  4. न्याय प्रक्रिया में विश्वास: पीड़ित का सक्रिय सहयोग न्याय प्रणाली में जनता के विश्वास को बढ़ाता है और दूसरों को भी ऐसे अपराधों की रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

गैर-सहयोग के संभावित कारण:

कोलकाता के मामले में पीड़िता के कथित गैर-सहयोग को समझने के लिए, हमें उन जटिल कारणों पर विचार करना होगा जो अक्सर यौन हिंसा के पीड़ितों को अपनी बात कहने से रोकते हैं:

  1. आघात और सदमा (Trauma and Shock): यौन हिंसा एक गहरा शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आघात छोड़ जाती है। पीड़ित सदमे, भय, निराशा और अवसाद से गुजरते हैं, जिससे उन्हें अपनी बात कहने में अत्यधिक कठिनाई होती है। जांच की प्रक्रिया, जिसमें बार-बार घटना को दोहराना पड़ता है, उनके आघात को फिर से जीवित कर सकती है।
  2. सामाजिक कलंक और शर्म (Social Stigma and Shame): भारतीय समाज में, यौन हिंसा की शिकार महिलाओं को अक्सर ‘कलंकित’ समझा जाता है। उन्हें दोषी ठहराया जाता है या उन पर ‘इज्जत’ खोने का आरोप लगाया जाता है। इस डर से कि उन्हें और उनके परिवार को समाज से बहिष्कार या अपमान का सामना करना पड़ेगा, कई पीड़ित चुप्पी साध लेते हैं।
  3. प्रतिशोध का डर (Fear of Retribution): अपराधी या उनके सहयोगियों से प्रतिशोध का डर एक बड़ा कारण हो सकता है। यदि अपराधी प्रभावशाली हैं, तो पीड़ित और उनके परिवार को शारीरिक नुकसान या सामाजिक/आर्थिक बहिष्कार की धमकी दी जा सकती है।
  4. न्याय प्रणाली में अविश्वास (Lack of Faith in Justice System): लंबी, जटिल और अक्सर संवेदनहीन कानूनी प्रक्रियाएं पीड़ितों को हतोत्साहित कर सकती हैं। पुलिस स्टेशनों का माहौल, क्रॉस-एग्जामिनेशन की कठोरता, और मामलों में देरी से न्याय न मिलने का डर उन्हें सहयोग करने से रोक सकता है।
  5. द्वितीयक उत्पीड़न (Secondary Victimization): जांच प्रक्रिया के दौरान, पीड़ित को अक्सर असंवेदनशील सवालों, संदेहपूर्ण व्यवहार और कभी-कभी मीडिया द्वारा निजता के उल्लंघन का सामना करना पड़ता है। इसे ‘द्वितीयक उत्पीड़न’ कहा जाता है, जो उनके दर्द को और बढ़ा देता है।
  6. पारिवारिक और सामुदायिक दबाव (Family and Community Pressure): परिवार के सदस्य, विशेषकर रूढ़िवादी समाजों में, ‘इज्जत’ बचाने या शादी की संभावनाओं को बचाने के लिए पीड़ित पर चुप रहने का दबाव डाल सकते हैं।
  7. गोपनीयता का हनन (Violation of Privacy): मीडिया द्वारा मामले का सनसनीखेज कवरेज, पीड़ित की पहचान उजागर करना, और व्यक्तिगत विवरण सार्वजनिक करना पीड़ितों को अपनी पहचान और निजता की रक्षा के लिए पीछे हटने पर मजबूर कर सकता है।
  8. अज्ञानता और जागरूकता की कमी (Ignorance and Lack of Awareness): कई पीड़ितों को अपने अधिकारों, कानूनी प्रक्रिया या उपलब्ध सहायता सेवाओं के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं होती है।

जांच एजेंसियों के सामने चुनौतियां

जब पीड़िता या उनके परिवार जांच में सहयोग नहीं करते हैं, तो पुलिस और विशेष जांच दल (SIT) के सामने कई गंभीर चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं:

  1. साक्ष्य एकत्र करने में कठिनाई:
    • प्रथम दृष्टया साक्ष्य का अभाव: यौन उत्पीड़न के मामलों में अक्सर प्रत्यक्षदर्शी या फोरेंसिक साक्ष्य सीमित होते हैं। पीड़िता का बयान अक्सर सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य होता है। उसके बिना, परिस्थितिजन्य साक्ष्य और अन्य अप्रत्यक्ष साक्ष्यों पर निर्भर रहना पड़ता है, जो अभियोजन को कमजोर कर सकते हैं।
    • स्थान और घटनाक्रम का निर्धारण: घटना का सही स्थान, समय और विवरण पीड़िता के बिना तय करना बेहद मुश्किल हो जाता है।
    • चिकित्सा/फोरेंसिक परीक्षण: यदि पीड़िता चिकित्सा परीक्षण से इनकार करती है, तो महत्वपूर्ण शारीरिक या डीएनए साक्ष्य एकत्र नहीं किए जा सकते, जिससे जांच कमजोर हो जाती है।
  2. कानूनी बाधाएं:
    • बयान की अनुपस्थिति: CrPC की धारा 161 और 164 के तहत पीड़िता का बयान दर्ज न होना अभियोजन के लिए एक बड़ी बाधा है। अदालत में पीड़िता का बयान न होने से अभियुक्त को संदेह का लाभ मिल सकता है।
    • होस्टाइल विटनेस की समस्या: यदि पीड़िता शुरू में सहयोग करती है, लेकिन बाद में पलट जाती है (होस्टाइल हो जाती है), तो भी यह अभियोजन को कमजोर कर देता है।
  3. मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दबाव:
    • सार्वजनिक धारणा: जनता और मीडिया में यह धारणा बन सकती है कि यदि पीड़िता सहयोग नहीं कर रही है, तो शायद मामला उतना गंभीर नहीं है, जिससे पुलिस पर दबाव बढ़ता है।
    • नैतिक दुविधा: पुलिस के सामने एक नैतिक दुविधा होती है कि क्या वे पीड़िता की इच्छा के विरुद्ध जांच जारी रखें, और ऐसा करने पर पीड़िता के आघात को और बढ़ा सकते हैं।
  4. सीमित अधिकार:
    • पुलिस किसी को भी बयान देने या चिकित्सा परीक्षण कराने के लिए मजबूर नहीं कर सकती है। यदि पीड़िता सहयोग करने से इनकार करती है, तो SIT के पास बहुत कम कानूनी विकल्प बचते हैं, सिवाय इसके कि वे अन्य उपलब्ध साक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करें।
  5. संसाधनों का अपव्यय:
    • एक SIT का गठन महत्वपूर्ण संसाधनों और समय का उपयोग करता है। यदि जांच आगे नहीं बढ़ पाती है, तो यह संसाधनों का अपव्यय होता है।

“न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होता हुआ दिखना भी चाहिए।” – लॉर्ड ह्यूवर्ट। जब पीड़ित ही चुप्पी साध ले, तो न्याय की यह दृश्यता धूमिल हो जाती है।

न्याय तक पहुंच: सामाजिक-कानूनी बाधाएं और उनका प्रभाव

कोलकाता बी-स्कूल मामले ने उन गहरी सामाजिक और कानूनी बाधाओं को सामने लाया है जो यौन हिंसा के पीड़ितों के लिए न्याय तक पहुंच को जटिल बनाती हैं:

सामाजिक बाधाएं:

  1. कलंक (Stigma): जैसा कि पहले चर्चा की गई, यौन हिंसा पीड़ितों को अक्सर ‘कलंकित’ करती है। यह कलंक समाज, परिवार और यहां तक कि पीड़ित के भीतर से भी आता है, जिससे रिपोर्टिंग और सहयोग में बाधा आती है।
  2. पितृसत्तात्मक मानसिकता (Patriarchal Mindset): समाज में जड़ें जमा चुकी पितृसत्तात्मक मानसिकता अक्सर पीड़िता को दोषी ठहराती है और पुरुषों के व्यवहार को उचित ठहराती है। “उसने क्या पहना था?”, “वह वहां क्यों गई थी?”, “उसने विरोध क्यों नहीं किया?” जैसे सवाल पीड़ित के दर्द को बढ़ाते हैं।
  3. अज्ञानता और जागरूकता की कमी: यौन हिंसा, सहमति, कानूनी अधिकारों और उपलब्ध सहायता प्रणालियों के बारे में जागरूकता की कमी पीड़ितों को अलग-थलग महसूस कराती है।
  4. परिवार और समुदाय का दबाव: ‘इज्जत’ और ‘परिवार की प्रतिष्ठा’ के नाम पर पीड़ितों पर अक्सर चुप रहने का दबाव डाला जाता है। यह दबाव इतना गहरा हो सकता है कि पीड़ित न्याय की तलाश करने की बजाय खुद को बचाने के लिए पीछे हट जाए।

कानूनी और प्रक्रियात्मक बाधाएं:

  1. पुलिस की असंवेदनशीलता: कुछ पुलिसकर्मी यौन हिंसा के मामलों को संवेदनशीलता से नहीं संभालते हैं। उनकी पूछताछ का तरीका, लैंगिक पूर्वाग्रह या पीड़ितों के प्रति अविश्वास उन्हें और आघात पहुंचा सकता है।
  2. लंबी और जटिल न्यायिक प्रक्रिया: भारत में मामलों को निपटाने में वर्षों लग जाते हैं। इस लंबी अवधि में, पीड़ित को बार-बार अदालत में पेश होना पड़ता है, गवाही देनी पड़ती है और अपमानजनक क्रॉस-एग्जामिनेशन का सामना करना पड़ता है, जिससे वे थक जाते हैं और हार मान लेते हैं।
  3. साक्ष्य की कमी और दोषसिद्धि दर: फोरेंसिक साक्ष्य की कमी, जांच में देरी और पीड़ितों के मुकर जाने के कारण यौन हिंसा के मामलों में दोषसिद्धि दर (conviction rate) अक्सर कम होती है। यह न्याय प्रणाली में विश्वास को और कम करता है।
  4. सहायता सेवाओं का अभाव: पर्याप्त मनोवैज्ञानिक परामर्श, कानूनी सहायता और पुनर्वास सेवाओं की कमी पीड़ितों को अकेला और असहाय महसूस कराती है।
  5. गवाह संरक्षण का अभाव: हालांकि भारत में गवाह संरक्षण योजना (Witness Protection Scheme, 2018) मौजूद है, लेकिन इसकी प्रभावी कार्यप्रणाली और पीड़ितों को मिलने वाली सुरक्षा की गारंटी अक्सर सवालों के घेरे में रहती है।

प्रभाव:

  • न्याय से इनकार (Denial of Justice): सबसे सीधा प्रभाव यह है कि अपराध के दोषियों को सजा नहीं मिलती, जिससे समाज में अपराध करने वालों में भय कम होता है।
  • भय और अविश्वास का माहौल: यह अन्य संभावित पीड़ितों को भी अपराध की रिपोर्ट करने से हतोत्साहित करता है, जिससे ‘साइलेंट क्राइम’ की प्रवृत्ति बढ़ती है।
  • न्याय प्रणाली में विश्वास का क्षरण: जब न्याय नहीं मिलता, तो जनता का न्यायपालिका और कानून प्रवर्तन एजेंसियों पर से विश्वास उठ जाता है।
  • पीड़ित का स्थायी आघात: न्याय न मिलने की स्थिति में, पीड़ित का मानसिक और भावनात्मक आघात और गहरा हो जाता है, जिससे उनके सामान्य जीवन में लौटने की संभावना कम हो जाती है।

आगे की राह: एक संवेदनशील और सशक्त दृष्टिकोण

कोलकाता बी-स्कूल मामले जैसी स्थितियां हमें अपनी न्याय वितरण प्रणाली और सामाजिक दृष्टिकोण में गहरी खामियों को दूर करने की आवश्यकता की याद दिलाती हैं। न्याय सुनिश्चित करने के लिए एक बहुआयामी और संवेदनशील दृष्टिकोण की आवश्यकता है:

1. पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण (Victim-Centric Approach):

  • आघात-सूचित पुलिसिंग (Trauma-Informed Policing): पुलिस अधिकारियों को यौन हिंसा के आघात के बारे में संवेदनशील प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। पूछताछ सहानुभूतिपूर्ण होनी चाहिए, जिससे पीड़िता को बार-बार अपने आघात को फिर से जीने के लिए मजबूर न होना पड़े।
  • विशेषज्ञ सहायता: पीड़ितों को मुफ्त मनोवैज्ञानिक परामर्श, चिकित्सा सहायता और कानूनी सहायता तुरंत उपलब्ध कराई जानी चाहिए। महिला हेल्प डेस्क और विशेष महिला पुलिस अधिकारी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
  • गोपनीयता और गरिमा: जांच के हर चरण में पीड़िता की पहचान की गोपनीयता और उसकी गरिमा सुनिश्चित की जानी चाहिए। मीडिया को भी नैतिक पत्रकारिता का पालन करना चाहिए।
  • आवश्यकता-आधारित समर्थन: कुछ पीड़ितों को वित्तीय सहायता, आश्रय या रोजगार सहायता की भी आवश्यकता हो सकती है। ऐसी सहायता प्रणाली तैयार होनी चाहिए।

2. जांच और अभियोजन में सुधार:

  • वैज्ञानिक जांच पर जोर: फोरेंसिक विज्ञान का अधिकतम उपयोग किया जाना चाहिए ताकि मामले सिर्फ पीड़ित के बयान पर निर्भर न रहें। डीएनए फोरेंसिक, साइबर फोरेंसिक और अन्य वैज्ञानिक साक्ष्यों के संग्रह और विश्लेषण में विशेषज्ञता विकसित की जानी चाहिए।
  • समयबद्ध जांच: यौन उत्पीड़न के मामलों की जांच और सुनवाई के लिए सख्त समय-सीमा निर्धारित होनी चाहिए, ताकि अनावश्यक देरी से बचा जा सके।
  • जांच एजेंसियों की संवेदनशीलता: पुलिस अधिकारियों, विशेषकर जो यौन अपराधों से संबंधित मामलों को संभालते हैं, उनके लिए नियमित संवेदनशीलता और लिंग-संवेदनशीलता प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए।
  • गवाह संरक्षण: ‘गवाह संरक्षण योजना, 2018’ को प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए, विशेष रूप से ऐसे मामलों में जहां पीड़ित या गवाहों को खतरे का डर हो।

3. न्यायिक सुधार:

  • फास्ट-ट्रैक कोर्ट: यौन उत्पीड़न के मामलों के लिए अधिक फास्ट-ट्रैक कोर्ट स्थापित किए जाएं और उनका प्रभावी संचालन सुनिश्चित किया जाए।
  • न्यायाधीशों का प्रशिक्षण: न्यायाधीशों और अभियोजकों को यौन हिंसा के आघात, सहमति के मुद्दों और लैंगिक न्याय के सिद्धांतों पर नियमित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
  • पुनरावृत्ति से बचाव: पीड़िता को बार-बार अदालत में पेश होने और एक ही बयान देने की आवश्यकता को कम करने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग या अन्य तकनीकी समाधानों का उपयोग किया जाना चाहिए।

4. सामाजिक जागरूकता और शिक्षा:

  • रूढ़ियों को तोड़ना: समाज में यौन हिंसा से जुड़े कलंक, मिथकों और रूढ़ियों को चुनौती देने के लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए। शिक्षा प्रणाली में सहमति, शारीरिक स्वायत्तता और लैंगिक समानता पर जोर दिया जाना चाहिए।
  • पुरुषों की भूमिका: पुरुषों को लैंगिक समानता के समर्थक और यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई में भागीदार के रूप में शामिल करना महत्वपूर्ण है। उन्हें महिलाओं का सम्मान करना और हिंसा का विरोध करना सिखाया जाना चाहिए।
  • समुदाय आधारित पहल: स्थानीय समुदायों, धार्मिक नेताओं और नागरिक समाज संगठनों को यौन हिंसा के खिलाफ बोलने और पीड़ितों का समर्थन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

5. कानूनी ढांचा:

  • मौजूदा कानूनों की समीक्षा की जाए ताकि वे बदलती सामाजिक वास्तविकताओं के अनुकूल हों और पीड़ितों के अधिकारों को पूरी तरह से सुनिश्चित करें।
  • पीड़ितों के लिए अनिवार्य मुआवजे और पुनर्वास के प्रावधानों को मजबूत किया जाए।

“एक समाज को उसकी न्याय प्रणाली की गुणवत्ता से आंका जा सकता है, विशेषकर यह कमजोर वर्ग के प्रति कैसा व्यवहार करती है।” – महात्मा गांधी।

निष्कर्ष

कोलकाता बी-स्कूल का मामला एक दुखद अनुस्मारक है कि न्याय की राह में सिर्फ कानूनी लड़ाई ही नहीं, बल्कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक बाधाएं भी होती हैं। जब एक पीड़िता सहयोग करने से इनकार करती है, तो यह केवल जांच के लिए एक झटका नहीं होता, बल्कि यह समाज के रूप में हमारी सामूहिक विफलता को दर्शाता है कि हम उन्हें सुरक्षित और सशक्त महसूस कराने में विफल रहे हैं ताकि वे अपनी बात कह सकें।

न्याय तक पहुंच एक मौलिक अधिकार है। इसे सुनिश्चित करने के लिए, हमें न केवल अपनी कानूनी और पुलिस प्रणालियों को मजबूत करना होगा, बल्कि समाज के रूप में अपनी मानसिकता को भी बदलना होगा। हमें एक ऐसा माहौल बनाना होगा जहां पीड़ित बिना किसी डर या शर्म के अपनी कहानी साझा कर सकें, यह जानते हुए कि उन्हें समर्थन मिलेगा, और दोषियों को जवाबदेह ठहराया जाएगा। तभी हम सच्चे अर्थों में ‘न्याय’ की अवधारणा को साकार कर पाएंगे और ‘साइलेंट विटनेस’ की समस्या का समाधान कर पाएंगे।

UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)

प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs

(यहाँ 10 MCQs, उनके उत्तर और व्याख्या प्रदान करें)

1. भारतीय आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:

  1. धारा 161 पुलिस को किसी भी व्यक्ति से पूछताछ करने और उनके बयान दर्ज करने का अधिकार देती है, भले ही वह आरोपी हो या गवाह।
  2. धारा 164 के तहत दर्ज किया गया बयान न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा रिकॉर्ड किया जाता है और यह अदालत में सबूत के रूप में स्वीकार्य होता है।
  3. यौन उत्पीड़न के मामलों में, पीड़ित का मेडिकल परीक्षण CrPC की धारा 164A के तहत अनिवार्य होता है।

उपरोक्त कथनों में से कितने सही हैं?

(a) केवल एक

(b) केवल दो

(c) सभी तीन

(d) कोई नहीं

उत्तर: (c) सभी तीन

व्याख्या:

  1. धारा 161 CrPC पुलिस को पूछताछ करने और बयान दर्ज करने का अधिकार देती है, लेकिन यह केवल गवाहों पर लागू होती है, आरोपी पर नहीं। आरोपी के बयान कुछ विशिष्ट शर्तों के तहत ही स्वीकार्य होते हैं (जैसे इकबालिया बयान जो मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए हों)। हालांकि, यह प्रश्न ‘किसी भी व्यक्ति’ के संदर्भ में है जो थोड़ा अस्पष्ट है, लेकिन सामान्यतः यह गवाहों से संबंधित है। यदि व्यक्ति पुलिस के सामने बयान देने से इनकार करता है, तो उसे मजबूर नहीं किया जा सकता।
  2. धारा 164 CrPC के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किए गए बयान अदालत में सबूत के तौर पर स्वीकार्य होते हैं, खासकर यौन अपराधों में पीड़िता के बयान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
  3. धारा 164A CrPC बलात्कार के मामलों में पीड़ित महिला का चिकित्सा परीक्षण अनिवार्य करती है, जिसे 24 घंटे के भीतर किया जाना चाहिए।

टिप्पणी: कथन 1 में थोड़ी बारीकी है। पुलिस धारा 161 के तहत आरोपी से भी पूछताछ कर सकती है, लेकिन आरोपी का बयान जो पुलिस हिरासत में दिया गया हो, वह सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं होता, सिवाय कुछ विशिष्ट परिस्थितियों के (जैसे धारा 27 साक्ष्य अधिनियम)। लेकिन ‘किसी भी व्यक्ति’ को व्यापक अर्थ में लेते हुए, कथन सही है कि पुलिस पूछताछ कर सकती है। यौन अपराधों के संदर्भ में, यह कथन मुख्यतः गवाहों और पीड़ितों के लिए है।

2. भारत में यौन हिंसा के पीड़ितों के लिए उपलब्ध कानूनी सुरक्षा उपायों के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन सा कथन सही नहीं है?

(a) भारतीय दंड संहिता की धारा 376 बलात्कार और उसके विभिन्न रूपों के लिए दंड का प्रावधान करती है।

(b) पीड़ित का चरित्र उसकी गवाही की विश्वसनीयता को निर्धारित करने के लिए अदालत में प्रासंगिक होता है।

(c) यौन उत्पीड़न के मामलों में पीड़ित की पहचान गोपनीय रखने का प्रावधान है।

(d) CrPC की धारा 357B पीड़ितों के लिए मुआवजे का प्रावधान करती है।

उत्तर: (b) पीड़ित का चरित्र उसकी गवाही की विश्वसनीयता को निर्धारित करने के लिए अदालत में प्रासंगिक होता है।

व्याख्या:

(a) IPC की धारा 376 बलात्कार और संबंधित अपराधों के लिए दंड का प्रावधान करती है, यह सही है।

(b) भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act) की धारा 155 में संशोधन के बाद (विशेषकर आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013 के बाद), बलात्कार या यौन उत्पीड़न के मामलों में पीड़ित के चरित्र या पूर्व यौन अनुभव को उसकी गवाही की विश्वसनीयता निर्धारित करने के लिए प्रासंगिक नहीं माना जा सकता है। यह कथन सही नहीं है।

(c) भारतीय दंड संहिता की धारा 228A मीडिया द्वारा बलात्कार पीड़ितों की पहचान उजागर करने पर रोक लगाती है, जिससे उनकी गोपनीयता सुनिश्चित होती है।

(d) CrPC की धारा 357B तेजाब हमले और यौन उत्पीड़न के पीड़ितों के लिए मुआवजे का प्रावधान करती है।

3. निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:

  1. भारत में ‘गवाह संरक्षण योजना, 2018’ न्याय मंत्रालय द्वारा शुरू की गई थी।
  2. यह योजना यौन उत्पीड़न के मामलों सहित सभी प्रकार के अपराधों में गवाहों को सुरक्षा प्रदान करती है।
  3. इस योजना के तहत गवाहों को सुरक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है।

उपरोक्त कथनों में से कितने सही हैं?

(a) केवल एक

(b) केवल दो

(c) सभी तीन

(d) कोई नहीं

उत्तर: (b) केवल दो

व्याख्या:

  1. भारत में ‘गवाह संरक्षण योजना, 2018’ को सर्वोच्च न्यायालय ने ‘महेंद्र चावला बनाम भारत संघ’ मामले में अनुमोदित किया था और यह केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा अधिसूचित की गई थी, न कि न्याय मंत्रालय द्वारा। इसलिए, कथन 1 गलत है।
  2. यह योजना सभी प्रकार के अपराधों में गवाहों को सुरक्षा प्रदान करती है, विशेषकर उन अपराधों में जहां गवाहों को खतरा हो। यह कथन सही है।
  3. योजना के तहत गवाहों को सुरक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी संबंधित राज्य/केंद्र शासित प्रदेश की सरकार की होती है। यह कथन सही है।

4. यौन हिंसा के मामलों में ‘द्वितीयक उत्पीड़न’ (Secondary Victimization) शब्द का क्या अर्थ है?

(a) पीड़ित को एक ही अपराध में दो बार शारीरिक नुकसान पहुंचाना।

(b) पुलिस, कानूनी प्रणाली या समाज द्वारा पीड़ित के साथ असंवेदनशील या अपमानजनक व्यवहार, जो उनके आघात को बढ़ाता है।

(c) अपराधी द्वारा पीड़ित को लगातार धमकी देना या परेशान करना।

(d) पीड़ित को किसी अन्य अपराध में शामिल होने के लिए मजबूर करना।

उत्तर: (b) पुलिस, कानूनी प्रणाली या समाज द्वारा पीड़ित के साथ असंवेदनशील या अपमानजनक व्यवहार, जो उनके आघात को बढ़ाता है।

व्याख्या: ‘द्वितीयक उत्पीड़न’ तब होता है जब यौन हिंसा के पीड़ित को पुलिस, कानूनी प्रणाली (जैसे अदालत में कठोर क्रॉस-एग्जामिनेशन), चिकित्सा कर्मी, मीडिया या समाज के सदस्यों द्वारा असंवेदनशील, अविश्वासी या अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ता है। यह व्यवहार उनके प्रारंभिक आघात को फिर से जीवित करता है और न्याय मांगने की उनकी इच्छा को कम कर सकता है।

5. आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 के मुख्य उद्देश्यों में शामिल थे:

  1. बलात्कार की परिभाषा को व्यापक बनाना।
  2. 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के बलात्कार के लिए कठोर दंड का प्रावधान करना।
  3. ‘पीछा करना’ (Stalking) और ‘ताक-झांक’ (Voyeurism) जैसे अपराधों को भारतीय दंड संहिता में शामिल करना।

उपरोक्त कथनों में से कितने सही हैं?

(a) केवल एक

(b) केवल दो

(c) सभी तीन

(d) कोई नहीं

उत्तर: (c) सभी तीन

व्याख्या: आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 (निर्भया अधिनियम के रूप में भी जाना जाता है) ने बलात्कार की परिभाषा को व्यापक बनाया, यौन उत्पीड़न के विभिन्न रूपों (जैसे पीछा करना, ताक-झांक, निर्वस्त्र करने का प्रयास) को अपराध बनाया, और नाबालिगों के साथ बलात्कार सहित कई यौन अपराधों के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया। यह जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति की सिफारिशों पर आधारित था।

6. भारत में विशेष जांच दल (SIT) के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:

  1. SIT का गठन केवल सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से ही किया जा सकता है।
  2. SIT को आमतौर पर विशेष रूप से जटिल, संवेदनशील या उच्च-प्रोफ़ाइल मामलों की जांच के लिए गठित किया जाता है।
  3. एक SIT के पास मौजूदा कानून प्रवर्तन एजेंसियों की तुलना में अधिक अधिकार और संसाधन होते हैं।

उपरोक्त कथनों में से कितने सही हैं?

(a) केवल एक

(b) केवल दो

(c) सभी तीन

(d) कोई नहीं

उत्तर: (a) केवल दो

व्याख्या:

  1. SIT का गठन सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों, या कभी-कभी संबंधित सरकारों (राज्य या केंद्र) द्वारा भी किया जा सकता है। इसलिए, कथन 1 गलत है।
  2. SIT का गठन विशेष रूप से जटिल, संवेदनशील, या उच्च-प्रोफ़ाइल मामलों की गहन और निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है। यह कथन सही है।
  3. एक SIT को अक्सर पर्याप्त अधिकार, विशेष शक्तियां और संसाधन दिए जाते हैं ताकि वे स्वतंत्र रूप से और प्रभावी ढंग से काम कर सकें, जो कभी-कभी सामान्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों से अधिक हो सकते हैं। यह कथन सही है।

7. भारतीय संविधान का कौन सा अनुच्छेद पीड़ितों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए राज्य का दायित्व निर्धारित करता है?

(a) अनुच्छेद 14

(b) अनुच्छेद 21

(c) अनुच्छेद 39A

(d) अनुच्छेद 44

उत्तर: (c) अनुच्छेद 39A

व्याख्या: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 39A राज्य को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देता है कि कानून प्रणाली का संचालन इस तरह से हो कि न्याय सभी के लिए सुलभ हो, और विशेष रूप से, आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण किसी भी नागरिक को न्याय से वंचित न किया जाए। यह मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए राज्य का दायित्व निर्धारित करता है।

8. यौन उत्पीड़न के मामले में, पीड़िता का बयान CrPC की किस धारा के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किया जा सकता है?

(a) धारा 161

(b) धारा 164

(c) धारा 173

(d) धारा 200

उत्तर: (b) धारा 164

व्याख्या:

(a) धारा 161 पुलिस द्वारा गवाहों के बयान दर्ज करने से संबंधित है।

(b) धारा 164 न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा बयानों और इकबालिया बयानों को रिकॉर्ड करने का प्रावधान करती है। यौन उत्पीड़न के मामलों में पीड़िता का 164 का बयान बेहद महत्वपूर्ण होता है।

(c) धारा 173 पुलिस द्वारा जांच पूरी होने पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने से संबंधित है (चार्जशीट)।

(d) धारा 200 शिकायतकर्ता की जांच से संबंधित है जब कोई शिकायत सीधे मजिस्ट्रेट के पास दायर की जाती है।

9. ‘फोर्थ जनरेशन फोरेंसिक’ (Fourth Generation Forensics) शब्द का सबसे अच्छा वर्णन क्या करता है?

(a) पारंपरिक डीएनए फिंगरप्रिंटिंग तकनीकों का उपयोग।

(b) साइबर अपराधों की जांच में डिजिटल फोरेंसिक का अनुप्रयोग।

(c) अपराध स्थल पर सबूतों के त्वरित विश्लेषण के लिए पोर्टेबल उपकरणों का उपयोग।

(d) नैनो-प्रौद्योगिकी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और उन्नत डीएनए अनुक्रमण जैसी उभरती प्रौद्योगिकियों का फोरेंसिक विज्ञान में एकीकरण।

उत्तर: (d) नैनो-प्रौद्योगिकी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और उन्नत डीएनए अनुक्रमण जैसी उभरती प्रौद्योगिकियों का फोरेंसिक विज्ञान में एकीकरण।

व्याख्या: ‘फोर्थ जनरेशन फोरेंसिक’ एक विकासशील अवधारणा है जो फोरेंसिक विज्ञान में नैनो-प्रौद्योगिकी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग, उन्नत डीएनए अनुक्रमण (जैसे नेक्स्ट-जनरेशन सीक्वेंसिंग), और बड़े डेटा विश्लेषण जैसी अत्याधुनिक तकनीकों के एकीकरण को संदर्भित करती है। इसका उद्देश्य साक्ष्य विश्लेषण की गति, सटीकता और विश्वसनीयता को बढ़ाना है। पारंपरिक फोरेंसिक (उंगलियों के निशान, ब्लड ग्रुप), डीएनए क्रांति (पहली पीढ़ी), और फिर डिजिटल फोरेंसिक (दूसरी/तीसरी पीढ़ी) के बाद, यह अगली लहर का प्रतिनिधित्व करता है।

10. ‘विक्टिम कंपेंसेशन स्कीम’ (Victim Compensation Scheme) भारत में किस कानून के तहत प्रदान की जाती है?

(a) भारतीय दंड संहिता (IPC)

(b) आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC)

(c) भारतीय साक्ष्य अधिनियम

(d) किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम

उत्तर: (b) आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC)

व्याख्या: आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 357A में ‘विक्टिम कंपेंसेशन स्कीम’ का प्रावधान है, जिसे राज्य सरकारों द्वारा पीड़ितों के पुनर्वास के लिए स्थापित किया जाना है। धारा 357B और 357C आगे विशिष्ट अपराधों (जैसे यौन उत्पीड़न और तेजाब हमला) के लिए मुआवजे से संबंधित हैं।

मुख्य परीक्षा (Mains)

(यहाँ 3-4 मेन्स के प्रश्न प्रदान करें)

1. “यौन उत्पीड़न के मामलों में, पीड़ित का सहयोग जांच की रीढ़ होता है, लेकिन अक्सर सामाजिक और मनोवैज्ञानिक बाधाओं के कारण पीड़ित चुप्पी साध लेते हैं।” इस कथन के आलोक में, उन चुनौतियों का विश्लेषण करें जो जांच एजेंसियों को ऐसे मामलों में सामना करनी पड़ती हैं जहां पीड़ित सहयोग नहीं करते हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं? (15 अंक, 250 शब्द)

2. यौन हिंसा के मामलों में न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करने में भारतीय कानूनी और न्यायिक प्रणाली की प्रभावशीलता का समालोचनात्मक मूल्यांकन करें। ‘द्वितीयक उत्पीड़न’ की अवधारणा को समझाएं और बताएं कि यह न्याय प्राप्ति में कैसे बाधा डालता है। (15 अंक, 250 शब्द)

3. ‘पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण’ क्या है और यौन हिंसा के मामलों में न्याय वितरण प्रणाली को अधिक संवेदनशील और प्रभावी बनाने में यह कैसे सहायक हो सकता है? विस्तार से चर्चा करें कि पुलिस, न्यायपालिका और समाज की भूमिका इस दृष्टिकोण को अपनाने में क्या होनी चाहिए। (20 अंक, 300 शब्द)

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