जाति

 जाति

(Caste )

जाति की अवधारणा या परिभाषा के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि मुख्यत : यह लोगों का एक ऐसा सबक है जिसकी सदस्यता आनुवंशिकता पर आधारित होती है । इसे जाति – संस्तरण में एक निश्चित स्थान प्राप्त होता है एक जाति स्वयं कोई समुदाय या समाज नहीं होती , बल्कि समुदाय या समाज का एक समूह होती है जिसका समाज एक पूर्व निर्धारित स्थान होता है तथा यह एक निश्चित व्यवसाय से सम्बन्धित होती है । कुछ महत्त्वपर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार है

 हरबर्ट रिजले ( Herbert Risley ) ने जाति की परिभाषा देते हुए लिखा है , ” जाति परिवारों या परिवार के समहों संकलन है जिसका एक ही नाम होता है , जो एक काल्पनिक पूर्वज , जो मानव या देवता हो सकता है , से अपनी श – परम्परा की उत्पत्ति का दावा करता है , जो समान जन्मजात ( पुश्तैनी ) व्यवसाय को चलाता है और जिसे उन लोगों द्वारा एक सजातीय समुदाय माना जाता है जो इस तरह के निर्णय या मत देने के अधिकारी हैं ।  इस परिभाषा से 5 बातें स्पष्ट होती हैं – (i)जाति अनेक परिवारों का एक सामूहिक संगठन है , ( ii ) इसका एक नाम होता है , ( iii ) प्रत्येक जाति की एक काल्पनिक पूर्वज है , ( iv ) इसका एक निश्चित व्यवसाय होता है और ( v ) यह एक सजातीय समुदाय के रूप में जाना जाता है ।

 मजुमदार एवं मदन ( D . N . Majumdar and T . N . Madan ) के अनुसार , ” जाति एक बन्द वर्ग है ।  इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि जाति जन्म पर आधारित है । अत : व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसी में अन्त तक रहना पड़ता है । किसी भी स्थिति में जाति की सदस्यता बदली नहीं जा सकती है । इसी माने में जाति बन्द वर्ग है ।

 दत्ता ( N . K . Dutta ) ने जाति की अधिकतम विशेषताओं को समेटते हुए जाति को परिभाषित करते हुए लिखा है , ” जाति एक प्रकार का सामाजिक समूह है , जिसके सदस्य अपने जाति से बाहर विवाह नहीं करते , खान – पान पर प्रतिबन्ध , पेशे निश्चित होते हैं , संस्तरणात्मक विभाजन का पाया जाना , एक जाति से दूसरी जाति में परिवर्तन सम्भव नहीं है ।  इस परिभाषा से जाति का 6 विशेषताओं का पता चलता है – ( i ) जाति एक सामाजिक समूह है , ( ii ) जाति अन्तर्विवाही समूह है , ( iii ) जाति में खान – पान पर प्रतिबन्ध होते हैं , ( iv ) जाति का पेशा निश्चित होता है , ( v ) जातियों में ऊँच – नीच का स्तरीकरण पाया जाता है और ( vi ) जाति की सदस्यता में परिवर्तन सम्भव नहीं । इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति स्तरीकरण की अगतिशील एक ऐसी व्यवस्था है जो जन्म पर आधारित है एवं खान – पान विवाह , पेशा आदि पर प्रतिबन्ध लगाती है ।

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जाति की विशेषताएँ

( Characteristics of Caste )

_ जी . एस . घुरिए ( G . S . Ghurye ) ने जाति की 6 विशेषताओं की चर्चा की है , जिसके आधार पर जाति को समझना अधिक उपयोगी बतलाया गया है । ये विशेषताएं निम्नलिखित हैं

  समाज का खण्डनात्मक विभाजन ( Segmental Division of Society ) : जाति व्यवस्था समाज को कुछ निश्चित खण्डों में विभाजित करती है । प्रत्येक खण्ड के सदस्यों की स्थिति , पद और कार्य जन्म से निर्धारित होता है । तथा उनमें एक सामुदायिक भावना होती है । जातीय नियम का पालन नैतिक कर्तव्य होता है ।

 संस्तरण ( Hierarchy ) : जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक जाति की स्थिति एक – टसरे की तलाश नाचा हाती है । इस संस्तरण में सबसे ऊपर ब्राह्मण है और सबसनाचे अस्पृश्य जातियां हैं । इन दो लोग बीन जातिया है । इतना ही नहीं . एक जाति के अन्दर अनेक उपजातिया है तथा उनमें भी ऊंच – नीच का

व्यवसाय की आनुवंशिक प्रकृति ( Hereditary Nature of Occupation ) : व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धार जाति – व्यवसाय के आधार पर होता है । अतः एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसे उसी जाति का व्यक अपनाना होता है । इसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होती । इस प्रकार कहा जा सकता है कि जाति प्रमुख विशेषता परम्परागत व्यवसाय है ।

  अन्तर्विवाही ( Endogamous ) : जाति – व्यवस्था के अनुसार जाति के सदस्य अपनी ही जाति या उपजाति , विवाह – सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं । इस नियम का उल्लंघन करने का साहस प्राय : कोई नहीं करता । वेस्टरमार्क ने विशेषता को ‘ जाति – व्यवस्था का सारतत्व ‘ माना है । अन्तर्विवाही नियम आज भी जातियों में पाई जाती है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज में जाति – व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण का एक स्पष्ट एवं महत्त्वपूर्ण आधार रहा है ।

भोजन तथा सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध ( Restrictions on Fooding and Social IntereCHISE ) : जाति – व्यवस्था में खान – पान मेल – जोल एवं सामाजिक सम्पर्क सम्बन्धी प्रतिबन्ध है । प्रायः एक जाति के व्यकित निम्न जातियों के हाथ का भोजन नहीं स्वीकार करते । साथ ही कच्चा व पक्का भाजन सम्बन्धी अनेक प्रतिबन्ध देखे जाते है । इसी तरह सामाजिक सम्पर्क एवं मेल – जोल के सन्दर्भ में छुआछूत की भावना पाई जाती है ।

सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यताएँ ( Social and Religious Disabilities ) : जाति – व्यवस्था में चिनारों मार सावधाओं में विशेष अन्तर देखा जाता है । एक ओर उच्च जाति को जितनी सुविधाएं एवं अधिकार जीवन के क्षत्रों में प्राप्त हैं उतनी निम्न जातियों को नहीं । सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में ब्राह्मण अनेक अधिकारों से पूर्ण है । वहीं अस्पृश्य जातियों को सार्वजनिक सुविधाओं व अधिकारों तक से वंचित रखा जाता है । कर भी ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी झलक देखी जाती है ।

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प्रजाति

( Race)

प्रजाति एक जैविकीय धारणा है । प्रत्येक प्रजाति के सदस्यों की अपनी शारीरिक लक्षण होते हैं । ये लक्षण मूल रूप से वंशानुगत होते हैं । इन्हीं लक्षणों के आधार पर एक प्रजाति को दूसरी प्रजातियों से अलग कर सकते हैं । कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्न हैं

ए . एल . क्रोबर ( A . L . Kroeber ) ने प्रजाति को परिभाषित करते हुए लिखा है , ” प्रजाति एक प्रमाणित , प्राणिशास्त्रीय प्रत्यय है । यह एक समूह है जो आनुवंशिकता , वंश या प्रजातीय गुण या उपजाति के द्वारा सम्बन्धित है । “इस परिभाषा से स्पष्ट है – ( 1 ) प्रजाति प्राणिशास्त्रीय अर्थों में प्रयोग किया जाता है । ( 2 ) यह जन्म से उत्पन्न शारीरिक लक्षणों व विशेषताओं से सम्बन्धित होता है ।

 जे . बीसंज एवं एम . बीसज ( J . Biesanz and M . Biesanz ) ने लिखा है , ” प्रजाति उन व्यक्तियों का एक बड़ा समूह होता है जो जन्मजात शारीरिक लक्षणों द्वारा पहचाने जाते हैं । “इस कथन से स्पष्ट हैं – ( 1 ) प्रत्येक प्रजाति के कुछ विशिष्ट शारीरिक लक्षण होते हैं । ( 2 ) ये विशिष्ट शारीरिक लक्षण एक बड़े समूह में पाये जाने पर उस समूह को प्रजाति कहेंगे ।

 ई . ए . हॉबल ( E . A . Hoebel ) के शब्दों में , ” प्रजाति एक स्वाभाविक प्राणिशास्त्रीय समूह है जो विशिष्ट शारीरिक लक्षणों का स्वामी होता है । ये लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में शुद्ध रूप से मिलते रहते हैं । ”  इससे स्पष्ट होता है – ( 1 ) प्रजाति एक प्राणिशास्त्रीय समूह है । ( 2 ) एक प्रजातीय समूह विशिष्ट शारीरिक लक्षणों के मालिक होते हैं । ( 3 ) ये लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को मिलते रहते है । । उपरोक्त वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रजाति एक ऐसा वहत मानव समह है जिसके सदस्यों में कुछ समान शारीरिक विशेषताएं पाई जाती हैं । ये विशेषताएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संचरित होती रहती हैं और इसका आधार पर एक प्रजातीय समूह को दूसरों से पृथक किया जा सकता है ।

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प्रजाति की विशेषताएँ

( Characteristics of Race )

एक विशिष्ट शारीरिक प्रारूप ( A Particular Physical Type ) : एक प्रजाति के कुछ विशिष्ट शारीरिक लक्षण या विशेषताएं सामान्य होती हैं । इसका तात्पर्य यह नहीं कि एक प्रजाति के सदस्यों की सभी शारीरिक विशेषताएं एक – दूसरे बिल्कल समान होती है । सामान्य शारीरिक लक्षणों का अर्थ केवल अपनी प्रजाति के ‘ शारीरिक प्रारूप से मिलत – जुलत होता है । शारीरिक प्रारूप के आधार पर एक प्रजाति को दूसरे से अलग किया जा सकता है ।

 आनुवंशिक लक्षणों का संचरण ( Transmission of Inherited Traits ) : एक प्रजाति के शारीरिक लक्षण या विशेषताएं वंशानुक्रम की प्रक्रिया के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते रहते हैं । प्रजाति के लक्षणों को हस्तान्तरित करने में वाहकाणु ( Genes ) का बड़ा महत्त्व होता है । जिनके वाहकणुओं में साम्य है वे एक प्रजाति के होंगे ।

समूह का बड़ा आकार ( Large Size of Group ) : प्रजाति एक वृहत मानव समूह है । इसके सदस्य किसी एक छोटे से क्षेत्र में न रहकर एक विस्तृत भू – भाग में फैले हुए होते हैं । इस प्रकार सामान्य शारीरिक लक्षण या विशेषताएं एक विशाल जन – समूह में पाए जाने पर ही उस समूह को प्रजाति कहेंगे । इसके सदस्यों की संख्या करोड़ों तक हो सकती है ।

 प्रजाति अन्तर्विवाह ( Race Endogamy ) : प्रत्येक प्रजाति अपनी ही प्रजाति के सदस्यों से विवाह करने की नीति को अपनाती है । इस कारण उनकी संतानों में वही शारीरिक लक्षण पाए जाते हैं , जो उस समूह के होते हैं । अन्तर्विवाह के द्वारा प्रत्येक समूह अपनी प्रगति की बाह्य प्रभावों से रक्षा भी करता है तथा इसी नीति के द्वारा अन्य प्रजातियों से रक्त का मिश्रण होने की सम्भावना को कम करने का प्रयत्न किया जाता है ।

 स्तरीकरण ( Stratification ) : प्रजातीय भिन्नता के आधार पर समाज में ऊँच नीच का स्तरीकरण देखा जाता है । ऐसी मान्यता है कि प्रजातियों में श्रेष्ठ श्वेत प्रजाति ( कालेशियन ) है क्योंकि इसका रंग सफेद , रक्त उच्च स्तर का , उच्च मानसिक योग्यता एवं सभ्यता के प्रसारक हैं । इसके बाद पीत प्रजाति ( मंगोलॉयड ) एवं सबसे नीचे श्याम प्रजाति ( नीग्रोयॉड ) है ।

 जैविकीय धारणा ( Biological Concept )  प्रजाति एक जैविकीय धारणा है । इसे आनुवंशिकता से घनिष्ठ रूप । से सम्बद्ध माना गया है । मेरिल ( Merrill ) ने लिखा है , ” प्रजाति एक जैविकीय शब्द है जो एक वृहत मानव समूह की । शारीरिक समानताओं की ओर संकेत करता है जो आनुवंशिकता के द्वारा संचरित होती रहती है ।

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