सामाजिक आन्दोलन के कारक

सामाजिक आन्दोलन के कारक 

 सामाजिक आन्दोलन प्रत्येक समाज में समय – समय पर होते रहते हैं ।

इसके लिए उत्तरदायी कारकों का निम्नलिखित रूप में वर्णन किया जा सकता है 

  1. रीति – रिवाजों की प्राचीनता : प्रत्येक समाज में रीति रिवाज प्रचलित रहते हैं , किन्तु समाज गतिशील होता है । रीति रिवाज समाज के अनुसार गतिशील नहीं हों और प्राचीनता से ही चिपटे रहें तो वे समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करते हैं , इसलिए समाज का कोई न कोई वर्ग उनके विरुद्ध आन्दोलन करने का प्रयास करता है ताकि उन रीति – रिवाजों को परिवर्तित करके समाज के अनुकूल बनाया जा सके और समाज प्रगतिशील बन सके ।

  1. स्थिति और कार्य में असंतुलन : प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार ही समाज में अपना स्थान चाहता है और उसी के अनुरूप अपना कार्य करता है , किन्तु जब पद ( स्थिति ) और कार्य में असंतुलन पैदा हो जाता है तो समाज में असन्तोष की भावना की उत्पत्ति होती है और उसका परिणाम सामाजिक आन्दोलन होता है । परम्परा से आधुनिकता की ओर समाजों में अक्सर ऐसा होता है ।

  1. सांस्कृतिक विलम्बना : संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक दो तत्व होते हैं । भौतिक तत्व से अर्थ आविष्कारों तथा भौतिक उपलब्धियों से लिया जाता है , और अभौतिक तत्वों में रीति – रिवाजों , सामाजिक आदर्शों , प्रथाओं तथा सामाजिक मूल्यों को सम्मिलित किया जाता है । प्रायः हमारे भौतिक आविष्कार तीव्र गति से विकसित होते हैं , जबकि समाज के रीति – रिवाजों में इतनी तीव्र गति से परिवर्तन नहीं होता है । इस प्रकार , संस्कृति का एक पक्ष ( भौतिक पक्ष ) दूसरे पक्ष ( अभौतिक पक्ष ) से आगे बढ़ जाता है । ऑगबर्न इसको सांस्कृतिक विलम्बना कहते हैं । इस विलम्बना के कारण पिछड़े हुए वर्ग में असन्तोष उत्पन्न होता है और वह असंतुष्ट वर्ग अपनी स्थिति को उन्नत करने के लिए संगठित होकर आन्दोलन उत्पन्न करता है । भारत में स्त्रियों की स्थिति तो ऊँची हो गई थी किन्तु स्त्रियों का समाज में स्थान ऊँचा नहीं था । इस स्थिति में ऊँचा उठने के लिए स्त्रियों ने संगठित होकर आन्दोलन किया है । भारत में स्त्रियों के सुधार आन्दोलन को काफी सहायता मिली है ।

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 4.आर्थिक क्षेत्र में असन्तोष : आर्थिक क्षेत्र में असन्तोष की भावना तीव्र हो जाने से निर्धन वर्ग असन्तुष्ट होता है और आर्थिक दशा में परिवर्तन लाने के लिए आन्दोलन करता है । आर्थिक असन्तोष जीवन के अन्य सभी पहलुओं को प्रभावित करता है । भारत में श्रमिकों तथा स्त्रियों की आर्थिक दशा खराब थी अतएव उन्होंने अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए विभिन्न प्रकार के आन्दोलन किए ।

  1. शिक्षा द्वारा भौतिकवाद : आन्दोलन की गति उन्हीं स्थानों पर तीव्र होगी जिन स्थानों पर शिक्षित समाज होगा । शिक्षित समाज के व्यक्ति ही लोगों में जागृति पैदा कर सकते हैं , क्योंकि वे स्वयं भी जाग्रत होते हैं । अतएव शिक्षा द्वारा भौतिकवाद का प्रसार सामाजिक आन्दोलन का वास्तविक कारक है अर्थात यदि शिक्षित व्यक्ति बेरोजगार है अथवा किसी सरकारी नीति के विरोध में उठ खड़े हुए हैं तो ऐसी स्थिति में आन्दोलन काफी भयावह हो सकते हैं ।

  1. सामाजिक वर्गों में असन्तोष : सामाज में विभिन्न वर्ग पाए जाते हैं । इन वर्गों को आयु , स्थिति , लिंग , धर्म , शिक्षा आदि के आधार पर विभाजित किया जाता है । सभी आधार पर निर्मित वर्गों में असन्तोष की भावना पनपने लगती है । स्त्रियों को पुरुष आगे नहीं बढ़ने देते , नवयुवकों को वयोवृद्धों द्वारा रोका जाता है , धनी के द्वारा निर्धनों को सताया जाता है । इस प्रकार सामाजिक वर्गों में भी असन्तोष विकसित होता है । इस असन्तोष से भी आन्दोलन को प्रोत्साहन मिलता है

  1. सामाजिक संस्थाओं के कार्यों में परिवर्तन : सामाजिक संस्थाओं के कार्य समाज व संस्कृति द्वारा निर्धारित होते हैं किन्तु जब इन संस्थाओं के कार्यों में परिवर्तन होता है और उनके कार्यों 

भारत में सामाजिक परिवर्तन : दशा एवं दिशा को दूसरी संस्थाएँ ग्रहण कर लेती हैं तो कई बार अनिश्चितता की स्थिति विकसित हो जाती है जिससे सामाजिक आन्दोलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।

  1. सामाजिक मूल्यों के प्रति उदासीनता : समाज में कुछ मान्यताएँ होती हैं । प्रत्येक व्यक्ति समाज में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार चलता है तो समाज में संगठन बना रहता है । किन्तु जब किन्हीं कारणों से समाज में प्रचलित मान्यताओं में अन्तर अथवा उदासीनता आती है तो भी समाज के एक वर्ग में असंतोष की उत्पत्ति होती है और समाज में नवीन मूल्यों की खोज में आन्दोलन प्रारंभ हो जाते हैं ।

  1. विभिन्न संस्कृतियों से सम्पर्क : जब एक संस्कृति के लोग दूसरी संस्कृति के लोगों से सम्पर्क करते हैं , तो दोनों में संस्कृति के आदान – प्रदान की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है । सांस्कृतिक आदान प्रदान के कारण नए विचारों का जन्म होता है । ये नए विचार सामाजिक आन्दोलनों को जन्म देते हैं । अधिकांशतया प्रबल संस्कृति कमजोर संस्कृति को अधिक प्रभावित करती है , जबकि स्वयं उससे कम प्रभावित होती है ।

  1. विदेशों में भ्रमण को सुविधा : विदेशों में घूमने से भी व्यक्ति को नया अनुभव या नया ज्ञान होता है । दूसरे लोगों से मिलकर उसकी संकीर्णता का अन्त होता है । विदेशों में प्रचलित रीति – रिवाजों का प्रभाव दूसरे देशों की संस्कृति में परिवर्तन लाता है और उसी से सामाजिक आन्दोलन की स्थिति का जन्म होता है । भारत में स्त्रियों की दशा में सुधार होने का कारण विदेशी संस्कृतियों का ही परिणाम है । भारत में पुरानी सामाजिक प्रथाओं को दूर करने के लिए जो समाज सुधार आन्दोलन हुए उनके नेताओं का ज्ञान विदेशों में भ्रमण करने के कारण विकसित हो

  1. प्रौद्योगिकी का प्रभाव : समाज में विभिन्न प्रकार के यन्त्रों का प्रयोग होने से भी सामाजिक आन्दोलन को प्रोत्साहन मिलता है । इन यंत्रों के कारण कल – कारखानों का विकास होता है , जिससे समाज में पूँजीपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग के बीच तनाव उत्पन्न होता है । श्रमिक वर्ग अपनी माँगों के लिए आन्दोलन करता है । प्रौद्योगिकी के कारण समाज में रहन – सहन में भी अन्तर आ जाता है । अधिक मशीनों का प्रयोग होने से उत्पादन के साधनों पर एक विशेष वर्ग का अधिकार हो जाता है । साथ ही साथ समाज में बेकारी बढ़ती है और श्रमिकों के शोषण में वृद्धि होती है जिसके कारण समाज में विभिन्न प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आन्दोलन खड़े हो जाते हैं । भारत में छात्रों का आन्दोलन इसी प्रकार के बेकारी का परिणाम है और यह बेकारी प्रौद्योगिकी की देन है ।

  1. यातायात व सन्देशवाहन के साधनों का विकास : वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण यातायात के साधनों का विकास हुआ है । ऐसे यन्त्र भी विकसित हुए हैं , जिनके द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक समाचार भेजे जा सकते हैं । इस व्यवस्था के कारण एक समाज की परिस्थितियों का दूसरे समाज पर प्रभाव पड़ता है । यदि किन्हीं कारणों से किसी एक समाज में आन्दोलन होता है तो दूसरे समाज पर भी उनका प्रभाव पड़ता है । इसलिए भारत के एक कोने में छात्रों का आन्दोलन होने पर दूसरे कोने तक आन्दोलन फैलने से रोका नहीं जा सकता ।

  1. प्रबुद्ध व्यक्तियों द्वारा कुरीतियों का विरोध : प्रत्येक समाज में कुछ शिक्षित एवं ज्ञानी व्यक्ति होते हैं जो समाज में फैली हुई कुरीतियों के विरुद्ध जनता का ध्यान आकर्षित करते हैं । जनता उनके विचारों से प्रभावित होती है और प्राचीन रीति – रिवाजों में परिवर्तन करने के लिए आन्दोलन करती है । राजा राममोहन राय , कबीर , नानक इत्यादि द्वारा चलाए गए समाज सुधार आन्दोलन इस श्रेणी के उदाहरण हैं । चुका था । 

 

  1. जातीय आधार पर संगठनों का निर्माण : समाज में जाति के आधार पर अनेक संगठनों का निर्माण हो जाने से सामाजिक आन्दोलन की गति तीव्र हो जाती है , क्योंकि ये संगठन अपने अपने क्षेत्रों का ही विकास करने का प्रयास करते हैं और उसी के परिणामस्वरूप विभिन्न आन्दोलनों को संगठित किया जाता है । भारतीय समाज में जातीय संघर्ष के अनेक उदाहरण मिलते हैं । पिछड़ी जातियों में हुए आन्दोलनों में जातीय संगठनों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है ।

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  1. स्त्री जगत के प्रति उदासीनता : जिन समाजों में स्त्रियों की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं , उन समाजों में स्त्रियों में उदासीनता के भाव पाए जाते हैं । स्त्री समाज में उदासीनता का एक कारण यह भी होता है कि उनको पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किए जाते हैं । इन परिस्थितियों में स्त्री समाज को अपने अधिकार के लिए आन्दोलन करना पड़ता है । भारत में हुए अनेक महिला आन्दोलन इसके उदाहरण हैं । सामाजिक आन्दोलन के कारण : यूँ तो प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन के कुछ विशिष्ट कारण होते हैं , परन्तु अध्ययन की सुविधा के लिये सामाजिक आन्दोलनों के कुछ सामान्य कारणों का वर्णन निम्नलिखित तीन दृष्टिकोणों से किया जाता है

  1. समाजशास्त्रीय स्पष्टीकरण 2. ऐतिहासिक स्पष्टीकरण और 3. मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण । 1.समाजशास्त्रीय स्पष्टीकरण : सामाजिक आन्दोलन विशेष सामाजिक परिस्थितियों की उपज होते हैं । कुछ सामाजिक कारक ही व्यक्ति को आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित करते हैं ।

  1. समाजशास्त्रीय स्पष्टीकरण के अन्तर्गत सामाजिक विघटन , सामाजिक वर्ग , स्थिति तथा सामाजिक आदर्श के आधार पर सामाजिक आन्दोलनों के कारणों की व्याख्या की जाती है :

 ( i ) सामाजिक विघटन : 18 वीं और 19 वीं शताब्दी में ऐसी आर्थिक , राजनीतिक , सामाजिक व नैतिक दशायें पैदा हो गयी थीं , जिससे व्यक्तियों में असन्तोष और अव्यवस्था पैदा हो गयी । पुरानी सामाजिक व्यवस्था बिखरने लगी । धन का केन्द्रीकरण कुछ ही हाथों में होने लगा । जनसाधारण गरीब श्रेणी में पहुँचने लगे । इन परिस्थितियों के परिणामस्वरूप परम्परागत नेताओं से लोगों का विश्वास उठ गया , उसके स्थान पर शिक्षित नेतृत्व का विकास शुरू हुआ , सामन्तशाही का विरोध हुआ और लोकप्रिय सत्ता को समर्थन मिला तथा जन – समूहों का शासन स्थापित हुआ । इसके फलस्वरूप जन समाज का उदय हुआ , अलगाव ( Alienation ) की भावना पनपी और राजनीतिक पृथक्करण ( Political Isolation ) हुआ ।

 ( ii ) सामाजिक वर्ग : सामाजिक आन्दोलन का एक कारण वर्ग या वर्ग चेतना हो सकता है । कार्ल मार्क्स ( Karl Marks ) ने आन्दोलन को ‘ वर्ग संघर्ष ‘ का नाम दिया है । आधुनिक उत्पादन व्यवस्था के कारण समाज अलग – अलग वर्गों में विभाजित हो गया है । प्रत्येक वर्ग अपने हितों के प्रति जागरूक है । अपने हितों की पूर्ति के लिये अनेक आन्दोलन होते हैं ।

( iii ) स्थिति अथवा पद – विषमता : समाज में जब व्यक्ति यह अनुभव करते हैं कि उसका पद वह नहीं है , जो उन्हें मिलना चाहिए या उनसे कम योग्य व्यक्तियों को ऐसा पद मिल गया है , जो वास्तव में उन्हें मिलना चाहिये था तो वे निराश हो जाते हैं और आन्दोलन द्वारा ऐसी पद – व्यवस्ट ा में परिवर्तन करना चाहते हैं । लेन्सकी ( Lenski ) ने लिखा है कि पदों की विषमता व अन्तर ही वामपन्थी व दक्षिणापन्थी आन्दोलनों को जन्म देता है । रिंगर और सिल्स ( Ringer and Sills ) ने ईरान के राजनीतिक आन्दोलन के आन्दोलनकारियों में यह विशेषता पाई कि उनके 

सामाजिक पद व ऊँची शिक्षा में बड़ी आसामंजस्यता थी । लिपसेट और बेन्डिक्स ( Lipset and Bendeix ) ने भी यह निर्णय दिया है कि पद असामंजस्यता चरमवादी दृष्टिकोण की ओर समूहों को प्रेरित करती है ।

( iv ) सामाजिक आदर्श : एक आदर्श अभिमुख आन्दोलन किसी सामान्यीकृत विश्वास के नाम में आदर्शों की पुनस्थापना , संरक्षण , संशोधन या निर्माण करने का प्रयास है । किसी भी प्रकार का एक आदर्श – आर्थिक , शैक्षिक , राजनीतिक , धार्मिक- ऐसे आन्दोलनों का विषय हो सकता है । आलोचना : कुछ विद्वानों ने समाजशास्त्रीय स्पष्टीकरण की आलोचना की है । रश तथा डेनीसॉफ ( Rush and Denisoft ) कहते हैं , ‘ ‘ सामाजिक विघटन , वर्ग तथा स्थिति , सामाजिक आन्दोलन के पर्याप्त कारण नहीं हैं । ” इनसे केवल यह पता चलता है कि व्यक्ति आन्दोलनों में क्यों भाग लेते हैं , परन्तु आन्दोलन का क्या कारण है ? यह पता नहीं चलता । भारत में काफी शूद्रों में पद विषमता सैकड़ों वर्षों तक रही लेकिन उनमें किसी प्रकार के आन्दोलन के लिये भावना नहीं पनपी । इसी प्रकार अमेरीका में मार्क्स की वर्ग चेतना कोई आन्दोलन उत्पन्न नहीं कर सकी । वास्तव में , सामाजिक आन्दोलन एक जटिल प्रघटना है । सामजशास्त्रीय स्पष्टीकरण इसके केवल एक पक्ष पर ही प्रकाश डालता है ।

  1. ऐतिहासिक स्पष्टीकरण : इतिहासवेत्ता सामाजिक आन्दोलन को कुछ विशिष्ट घटनाओं का परिणाम मानते हैं , इसलिए वे उसके कारणों की खोज उससे संबंधित व्यक्तियों , प्रपत्रों और गत्यात्मकता से खोजते हैं । कोई भी आन्दोलन अचानक नहीं होता । प्रत्येक आन्दोलन के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है । ऐतिहासिक अध्ययनों के द्वारा उन कारणों को खोजा जा सकता है । आलोचना : ऐतिहासिक स्पष्टीकरण सामाजिक आन्दोलन का कारण बताने में पर्याप्त नहीं है , क्योंकि यह आन्दोलनों से संबंधित निश्चित सामान्य नियमों की खोज और स्थापना में हमारी सहायता नहीं करता । ऐतिहासिक स्पष्टीकरण यह भी नहीं बता सकता कि समान परिस्थितियों में एक ही समाज में दो विभिन्न प्रकार के आन्दोलन क्यों होते हैं ।

  1. मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण : जब समाज के कुछ सदस्य सामाजिक संरचना में अपने लक्ष्यों की पूर्ति नहीं कर पाते या अपनी इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाते तो ये निराश हो जाते हैं , एक तनाव अनुभव करने लगते हैं । तनाव , निराशा आदि ; मानसिक परिस्थितियों के परिणाम हैं । निराशा और असन्तोष उन्हें समाज की वर्तमान संरचनात्मक व्यवस्था के विरुद्ध कर देते हैं । ऐसे व्यक्ति एक दूसरे से बात करने के बाद एक समूह के रूप में संगठित होने लगते हैं और आन्दोलन के प्रति उनकी निष्ठा बढ़ती जाती है । इस आन्दोलन में ही वे अपनी इच्छाओं की पूर्ति देखते हैं । आलोचना : मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण भी आन्दोलनों के कारणों को स्पष्ट नहीं कर सका है । सामाजिक आन्दोलन उसके नेताओं की मानसिक स्थिति या उनके कार्य – कलापों या सदस्यों की मानसिक स्थिति के सन्दर्भ में स्पष्ट नहीं किये जा सकते । सामाजिक आन्दोलन के लिये किसी एक कारण को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता । आन्दोलन के विकास के लिये सामाजिक विघटन , व्यक्तिगत अलगाव , सामाजिक अन्याय की अनुमति की दशायें सहायक होती हैं । आन्दोलन के लिये किसी सामाजिक संस्था या संरचना के प्रति असन्तोष , और सदस्यों में असन्तोष की स्थिति के प्रति जागरुकता होना आवश्यक है । इस स्थिति को दूर करने के लिये एक रचनात्मक विचारधारा वैचारिकी के रूप में उपस्थित रहती है । अन्त में अनेक व्यक्ति इस वैचारिकी को लागू करने के लिये उत्सुक होते हैं । इस प्रकार सामाजिक 

आन्दोलनों के कारणों की ओर देखते हुए हमें सामाजिक स्थिति की प्रकारात्मक दशा को भी देखना चाहिये जो सदस्यों को आन्दोलन करने के लिये प्रेरित करती है । सामाजिक आन्दोलन के विभिन्न चरण या अवस्थाएँ : प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन अपनी अवधि में कुछ निश्चित चरणों या अवस्थाओं से गुजरता है । हॉर्टन तथा हण्ट ने लिखा है कि , “ कोई भी दो आन्दोलन बिल्कुल एक से नहीं होते , तो भी विभिन्न आन्दोलन बहुत कुछ एक सा भी प्रकट करते हैं । ‘ ‘

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