सामाजिक आन्दोलन
अर्थ एवं परिभाषाएँ :
आन्दोलन का अर्थ व्यक्तियों द्वारा सामूहिक रूप से सामाजिक परिवर्तन लाना अथवा इसका विरोध करना है । इसका मुख्य प्रयोजन किसी – न – किसी सामाजिक या राजनीतिक समस्या का समाधान करना होता है । सामाजिक आन्दोलन को निम्नांकित प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है-
1.ऑक्सफोर्ड इंगलिश डिक्शनरी के अनुसार : ‘ सामाजिक आन्दोलन किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला प्रयास है । परन्तु समाजशास्त्र में यदि इस अर्थ को मान लिया जाए तो आन्दोलन को किसी अन्य सामूहिक व्यवहार से पृथक् करना कठिन हो जाएगा ।
2.हरबर्ट ब्लूमर के अनुसार : ‘ नवीन व्यवस्था की स्थापना के लिए किया गया सामूहिक प्रयास सामाजिक आन्दोलन कहा जा सकता है ।
3.एल्ड्रिज तथा मेरिल के अनुसार : ‘ सामाजिक आन्दोलन रूढ़ियों में परिवर्तन के लिए अधिक या कम मात्रा में चेतन रूप से किए गए प्रयास हैं ।
4.हॉर्टन तथा हण्ट के अनुसार : ‘ सामाजिक आन्दोलन समाज अथवा इसके सदस्यों में परिवर्तन लाने अथवा उसका विरोध करने का सामूहिक प्रयास है ।
‘ उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि सामाजिक आन्दोलन समाज में परिवर्तन लाने अथवा इसका विरोध करने का एक संगठित प्रयास है , जोकि किसी सामान्य विचारधारा पर आधारित होता है ।
सामाजिक आन्दोलन की प्रमुख विशेषताएँ :
सामाजिक आन्दोलन की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
1.संगठित योजनाओं पर आधारित : आन्दोलन का स्वरूप सामाजिक , धार्मिक तथा राजनीतिक चाहे जैसा भी हो , उसका संचालन कोई – न – कोई संगठित जन – समूह ही करता है । भारत में मँहगाई के विरुद्ध आन्दोलन अनेक संगठित राजनीतिक दल कर रहे हैं । सती प्रथा तथा बाल – विवाह के विरुद्ध आन्दोलन आर्य समाज , ब्रह्म समाज आदि संगठित संस्थाओं ने किया था ।
2.विशेष उद्देश्यों की पूर्ति : प्रत्येक आन्दोलन का कोई – न – कोई निश्चित उद्देश्य होता है . जिसकी पूर्ति करने के लिए कोई कार्यक्रम प्रस्तुत करना है । इस उद्देश्य को स्पष्ट रूप से जनता के सामने रखा जाना अनिवार्य है अन्यथा इसे जनसमर्थन नहीं मिलेगा ।
3.आन्दोलन की प्रकृति : आन्दोलन वैसे तो संगठित होता है और जिन क्षेत्रों में होता है सभी में साथ – ही – साथ आरम्भ होता है , किन्तु यदि आन्दोलन शीघ्र ही समाप्त नहीं होता है तो आन्दोलनकर्ताओं की सहानुभूति में दूसरे क्षेत्रों तथा वर्गों या संगठनों में भी आन्दोलन फैल जाता है । यह भी हो सकता है कि अन्य संगठन आन्दोलन में सक्रिय भाग न लें , किन्तु उसके प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन करते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से आन्दोलनकर्ताओं की सहायता करने लगते हैं ।
4.भावुकता पर आधारित : आन्दोलन एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है । इसमें कुशल नेतृत्व की आवश्यकता होती है । यदि नेता अपने प्रभाव या वाकपटता के कारण जनता के विचारों में भावुकता का संचार करने में सफल हो जाता है तो आदोलन एक ही क्षण में आरम्भ होता है । क्ति किसी आन्दोलन के प्रति जितने अधिक भावात्मक रूप से जुड़े होंगे उतना हा भावात्मक रूप से जुड़े होंगे उतना ही आन्दोलन संगठित होगा ।
5.प्रदर्शनों व नारों पर जोर : आन्दोलन का रूप संगठित तथा नियोजित होता ह । उसका एक केन्द्रीय संचालक मंडल होता है । इस मंडल के माध्यम से ही आन्दोलन के कार्यकताआ का निर्देश मिलते रहते हैं । आन्दोलन के कार्यकर्ता इधर – उधर बिखरे हए रहते हैं और जनसमूह का प्रभावित करके जुलूस निकालते हैं । अपनी मांगों को कपडों या गत्ते के बोर्ड पर लिखकर चलत हैं ताकि सभी को आन्दोलन का उद्देश्य मालूम हो जाए । जलस के समय जोर – जोर से नारे लगाए जाते हैं , ताकि जनता में भावुकता का संचार हो या जनता भी उत्तेजित हो ।
6.अहिंसात्मक साधनों पर बल : आन्दोलनकर्ता अहिंसात्मक साधनों का ही प्रयोग करत हैं । वे अपने प्रयास से समाचार – पत्रों , रेडियो , भाषणों द्वारा आन्दोलन का प्रचार करते हैं आर लोकमत को अपने पक्ष में करने का पूर्ण प्रयास करते हैं । अपने कार्यक्रम में कई बार हड़ताल , धरना , भूख हड़ताल , बहिष्कार , सत्याग्रह आदि साधनों का प्रयोग करके आन्दोलनकारी जनता व सरकार का ध्यान अपनी कठिनाइयों की ओर आकर्षित करते हैं ।
7.पूर्व सूचित एवं निर्धारित : आन्दोलन को प्रारम्भ करने से पूर्व ही आन्दोलन की रूपरेखा निर्धारित व निश्चित कर ली जाती है । उसके आरम्भ की निश्चित तिथि की सूचना सरकार को दे दी जाती है । यदि निश्चित व निर्धारित तिथि तक माँगों पर विचार नहीं होता है तो आन्दोलन को प्रारम्भ कर दिया जाता है । भारत में गौ – रक्षा आन्दोलन को उस समय आरम्भ किया गया सब सरकार ने धर्म संगठनों के नेताओं अथवा आचार्यों की प्रार्थनाओं पर ध्यान नहीं दिया ।
8.किसी धार्मिक या राजनीतिक संगठन का आश्रय : आन्दोलन का रूप चाहे जैसा भी क्यों न हो , किन्तु उसकी सफलता के लिए किसी धार्मिक , आर्थिक या राजनीतिक संगठन का होना आवश्यक है , क्योंकि इन संगठनों की शक्ति के सम्मुख जन – समूह तथा सरकार दोनों ही झुक सकते हैं ।
9.लोकमत को प्रभावित करने का प्रयास : आन्दोलन करने का उद्देश्य किसी कुरीति या कानून के विरुद्ध जनता का ध्यान आकर्षित करके जनमत का निर्माण करना है , ताकि उस समाज के विरोधी अथवा वर्ग विरोधी कानून या प्रथा को समाप्त कर दिया जाए । इसी उद्देश्य से समाचार – पत्रों , रेडियो , टेलीविजन या अन्य संदेशवाहन के साधनों का प्रयोग किया जाता है ।
10.प्रबुद्ध व्यक्तियों का नेतृत्व : आन्दोलन का कोई-न-कोई प्रबुद्ध व्यक्ति नेतृत्व करता है । इस नेतृत्व का कार्य व्यक्तियों का समूह भी कर सकता है । भारत में शुद्धि आन्दोलन का नेतृत्व श्री दयानंद सरस्वती जी ने किया , समाज सुधार आन्दोलनों में महात्मा गाँधी जी ने नेतृत्व किया,राष्ट्रीय आन्दोलन में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने नेतृत्व किया था l
सामाजिक आन्दोलन के कारक :
सामाजिक आन्दोलन प्रत्येक समाज में समय – समय पर होते रहते हैं । इसके लिए उत्तरदायी कारकों का निम्नलिखित रूप में वर्णन किया जा सकता है :
1.रीति – रिवाजों की प्राचीनता : प्रत्येक समाज में रीति – रिवाज प्रचलित रहते हैं , किन्त समाज गतिशील होता है । रीति – रिवाज समाज के अनुसार गतिशील नहीं हों और प्राचीनता से ही चिपटे रहें तो वे समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करते हैं , इसलिए समाज का कोई न कोई वर्ग उनके विरुद्ध आन्दोलन करने का प्रयास करता है ताकि उन रीति – रिवाजों को परिवर्तित करके । समाज के अनुकूल बनाया जा सके और समाज प्रगतिशील बन सके ।
- स्थिति व कार्य में असन्तुलन : प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार ही समाज में अपना स्थान चाहता है और उसी के अनुरूप अपना कार्य करता है , किन्तु जब पद ( स्थिति ) और कार्य में असन्तुलन पैदा हो जाता है तो समाज में असन्तोष की भावना की उत्पत्ति होती है और उसका परिणाम सामाजिक आन्दोलन होता है । परम्परा से आधुनिकता की ओर समाजों में अक्सर ऐसा होता है ।
- सांस्कृतिक विलम्बना : संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक दो तत्व होते हैं । भौतिक तत्व से अर्थ आविष्कारों तथा भौतिक उपलब्धियों से लिया जाता है और अभौतिक तत्वों में रीति रिवाजों , सामाजिक आदर्शों , प्रथाओं तथा सामाजिक मूल्यों को सम्मिलित किया जाता है । प्रायः हमारे भौतिक आविष्कार तीव्र गति से विकसित होते हैं , जबकि समाज के रीति – रिवाजों में इतनी तीव्र गति से परिवर्तन नहीं होता है । इस प्रकार , संस्कृति का एक पक्ष ( भौतिक पक्ष ) दूसरे पक्ष ( अभौतिक पक्ष ) से आगे बढ़ जाता है | ऑगबर्न इसको सांस्कृतिक विलम्बना कहते हैं । इस विलम्बना के कारण पिछड़े हुए वर्ग से असन्तोष उत्पन्न होता है और वह असन्तुष्ट वर्ग अपनी स्थिति को उन्नत करने के लिए संगठित होकर आन्दोलन करता है । भारत में स्त्रियों की स्थिति तो ऊँची हो गई थी किन्तु स्त्रियों का समाज में स्थान ऊँचा नहीं था । इस स्थिति में ऊँचा उठने के लिए स्त्रियों ने संगठित होकर आन्दोलन किया है । भारत में स्त्रियों के काफी सहायता मिली है । सुधार आन्दोलन को
- आर्थिक क्षेत्र में असन्तोष : आर्थिक क्षेत्र में असन्तोष की भावना तीव्र हो जाने से निर्धन वर्ग असन्तुष्ट होता है और आर्थिक दशा में परिवर्तन लाने के लिए आन्दोलन करता है । आर्थिक असन्तोष जीवन के अन्य सभी पहलुओं को प्रभावित करता है । भारत में श्रमिकों तथा स्त्रियों की आर्थिक दशा खराब थी अतएव उन्होंने अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए विभिन्न प्रकार के आन्दोलन किए ।
- शिक्षा द्वारा भौतिकवाद : आन्दोलन की गति उन्हीं स्थानों पर तीव्र होगी जिन स्थानों पर शिक्षित समाज होगा । शिक्षित समाज के व्यक्ति ही लोगों में जागृति पैदा कर सकते हैं , क्योंकि वे स्वयं भी जाग्रत होते हैं । अतएव शिक्षा द्वारा भौतिकवाद का प्रसार सामाजिक आन्दोलन का वास्तविक कारक है अर्थात् यदि शिक्षित व्यक्ति बेरोजगार है अथवा किसी सरकारी नीति के विरोध में उठ खड़े हुए हैं तो ऐसी स्थिति में आन्दोलन काफी भयावह हो सकते हैं ।
- सामाजिक वर्गों में असन्तोष : समाज में विभिन्न वर्ग पाए जाते हैं । इन वर्गों को आयु , स्थिति , लिंग , धर्म , शिक्षा आदि के आधार पर विभाजित किया जाता है । सभी आधार पर निर्मित वर्गों में असन्तोष की भावना पनपने लगती है । स्त्रियों को पुरुष आगे नहीं बढ़ने देते , नवयुवकों को वयोवृद्धों द्वारा रोका जाता है , धनी वर्ग के द्वारा निर्धनों को सताया जाता है । इस प्रकार सामाजिक वर्गों में भी असन्तोष विकसित होता है । इस असन्तोष से भी आन्दोलन को प्रोत्साहन मिलता है ।
- सामाजिक संस्थाओं के कार्यों में परिवर्तन : सामाजिक संस्थाओं के कार्य समाज व संस्कृति द्वारा निर्धारित होते हैं किन्तु जब इन संस्थाओं के कार्यों में परिवर्तन होता है और उनके कार्यो को दूसरी संस्थाएँ ग्रहण कर लेती हैं तो कई बार अनिश्चितता की स्थिति विकसित हो जाती है समाज में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार चलता है तो समाज में संगठन बना रहता है ।
- सामाजिक मूल्यों के प्रति उदासीनता : समाज में कुछ मान्यताएँ होती हैं । प्रत्येक व्यक्ति जब किन्हीं कारणों से समाज में प्राला माता उदासीनता आती है तो भी जिससे सामाजिक आन्दोलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती समाज के एक वर्ग में असन्तोष की उत्पत्ति होती है और समाज में नवीन मूल्यों की खोज में आन्दोलन प्रारम्भ हो जाते हैं ।
- विभिन्न संस्कृतियों से सम्पर्क : जब एक संस्कृति के लोग दूसरी संस्कृति के लोगों से सम्पर्क करते हैं , तो दोनों में संस्कृति के आदान – प्रदान की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है । सांस्कृतिक आदान – प्रदान के कारण नए विचारों का जन्म होता है । ये नए विचार सामाजिक आन्दोलनों को जन्म देते हैं । अधिकांशतया प्रबल संस्कृति कमजोर संस्कृति को अधिक प्रभावित करती है , जबकि स्वयं उसमें कम प्रभावित होती है ।
- प्रबुद्ध व्यक्तियों द्वारा कुरीतियों का विरोध : प्रत्येक समाज में कुछ शिक्षित एवं ज्ञानी व्यक्ति होते हैं जो समाज में फैली हुई कुरीतियों के विरुद्ध जनता का ध्यान आकर्षित करते हैं । जनता उनके विचारों से प्रभावित होती है और प्राचीन रीति – रिवाजों में परिवर्तन करने के लिए आन्दोलन करती है । राजा राममोहन राय , कबीर , नानक इत्यादि द्वारा चलाए गए समाज सुधार आन्दोलन इस श्रेणी के उदाहरण हैं ।
- विदेशों में भ्रमण को सुविधा : विदेशों में घूमने से भी व्यक्ति को नया अनुभव या नया ज्ञान होता है । दूसरे लोगों से मिलकर उसकी संकीर्णता का अंत होता है । विदेशों में प्रचलित रीति – रिवाजों का प्रभाव दूसरे देशों की संस्कृति में परिवर्तन लाता है और उसी से सामाजिक आन्दोलन की स्थिति का जन्म होता है । भारत में स्त्रियों की दशा में सुधार होने का कारण विदेशी संस्कृतियों का ही परिणाम है । भारत में पुरानी सामाजिक प्रथाओं को दूर करने के लिए जो समाज सुधार आन्दोलन हुए उनके नेताओं का ज्ञान विदेशों में भ्रमण करने के कारण विकसित हो
- प्रौद्योगिकी का प्रभाव : समाज में विभिन्न प्रकार के यन्त्रों का प्रयोग होने से भी सामाजिक आन्दोलन को प्रोत्साहन मिलता है । इन यन्त्रों के कारण कल – कारखानों का विकास होता है , जिससे समाज में पूँजीपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग के बीच तनाव उत्पन्न होता है । श्रमिक वर्ग अपनी माँगों के लिए आन्दोलन करता है । प्रौद्योगिकी के कारण समाज में रहन – सहन में भी अंतर आ जाता है । अधिक मशीनों का प्रयोग होने से उत्पादन के साधनों पर एक विशेष वर्ग का अधिकार हो जाता है । साथ ही साथ समाज में बेकारी बढ़ती है और श्रमिकों के शोषण में वृद्धि होती है जिसके कारण समाज में विभिन्न प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आन्दोलन खड़े हो जाते हैं । भारत में छात्रों का आन्दोलन इसी प्रकार के बेकारी का परिणाम है और यह बेकारी प्रौद्योगिकी की देन है ।
- यातायात व सन्देशवाहन के साधनों का विकास : वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण यातायात के साधनों का विकास हुआ है । ऐसे यन्त्र भी विकसित हुए हैं , जिनके द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक समाचार भेजे जा सकते हैं । इस व्यवस्था के कारण एक समाज की परिस्थितियों का दूसरे समाज पर प्रभाव पड़ता है । यदि किन्हीं कारणों से किसी एक समाज में आन्दोलन होता है तो दूसरे समाज पर भी उनका प्रभाव पड़ता है । इसलिए भारत के एक कोने में छात्रों का आन्दोलन होने पर दूसरे कोने तक आन्दोलन फैलने से रोका नहीं जा सकता ।
- जातीय आधार पर संगठनों का निर्माण : समाज में जाति के आधार पर अनेक संगठनों का निर्माण हो जाने से सामाजिक आन्दोलन की गति तीव्र हो जाती है , क्योंकि ये संगठन अपने – अपने क्षेत्रों का ही विकास करने का प्रयास करते हैं और उसी के परिणामस्वरूप विभिन्न आन्दोलनों को संगठित किया जाता है । भारतीय समाज में जातीय संघर्ष के अनेक उदाहरण मिलते हैं । पिछड़ी जातियों में हुए आन्दोलनों में जातीय संगठनों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है ।
- स्त्री जगत के प्रति उदासीनता : जिन समाजों में स्त्रियों की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं , उन समाजों में स्त्रियों में उदासीनता के भाव पाए जाते हैं । स्त्री समाज में उदासीनता का एक कारण यह भी होता है कि उनको पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किए जाते हैं । इन परिस्थितियों में स्त्री समाज को अपने अधिकार के लिए आन्दोलन करना पड़ता है । भारत में हुए अनेक महिला आन्दोलन इसके उदाहरण हैं । निष्कर्ष : उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जाता है कि समाज में सामाजिक तथा सांस्कृतिक आन्दोलनों के अनेक कारण होते हैं ।