नेतृत्व तथा जनमत
जनमत – निर्माण में नेताओं का महत्त्वपूर्ण हाथ रहता है । वे किसी समस्या की व्याख्या करते हैं । लोगों में कुछ कुंठाएँ या कुछ उत्कंठाएँ हो सकती हैं । यह केवल नेता ही है जो इन धुंधली किन्तु सुदृढ़ भावनाओं को मुखरित करता है और क्रिस्टल की तरह निश्चित करता है । उदाहरणार्थ , जब बालगंगाधर तिलक ने यह घोषणा की कि , ” स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है , ” तो देश की सारी जनता और मुख्य रूप से पढ़े – लिखे समाज ने यह अनुभव किया कि भारत में अंग्रेजी प्रभुत्व के विरुद्ध उनकी दृढ़ भावनाओं को क्रिया में परिणत किया जा रहा है । तिलक की इस घोषणा के कारण जनमत स्वायत्त शासन के पक्ष में अधिक तीव्र हो गया । जब किसी समूह के बहुसंख्यक लोगों में अथवा किसी देश में भावनाएँ दृढ़ होती हैं , तो आन्दोलन – कर्ता जनमत – निर्माण में महत्त्वपूर्ण कार्य करता है । लोगों को उबुद्ध करने के लिए नेता प्लेटफार्म तथा प्रेस का प्रयोग भी कर सकता है । सामान्यतया , नेता किसी समस्या को सुगम बनाता है । प्रत्येक समस्या जटिल होती है और जब कोई विशेषज्ञ उसको अध्ययन करने का प्रयत्न करता है तो उसे अच्छी तरह समझने से पूर्व वह कई महीनों तक गंभीरता के साथ उस पर मनन करता है । उदाहरण के लिए , यह कहना सरल है कि किसी समय विशेष में विद्यमान शिक्षा – प्रणाली उपयुक्त नहीं है । प्लेटफार्म – वक्ता यह दर्शाने के लिए कि समय विशेष में शिक्षा – प्रणाली – उपयुक्त नहीं है , अनेक दलीलें और उदाहरण दे सकता है । इनसे जनमत में परिवर्तन का झुकाव आ सकता है ।
लेकिन जब परिवर्तन किया जाना हो , तो उस समय तक कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती , जब तक समय विशेष में शिक्षा – पद्धति की संरचना की व्यापक परीक्षा नहीं की जाती , समाज की आवश्यकताओं को नहीं आंक लिया जाता और सम्भावी परिवर्तनों , जिनसे आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके , के बारे में यथासम्भव भविष्यवाणी नहीं की जाती । जिस देश में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हों , वहां यह आरोप लगाना कि शिक्षा – प्रणाली समय की मांग पूरी नहीं कर रही है , सदैव सरल होता है । लेकिन जब लोग यथापूर्व स्थिति से पूर्णतया संतुष्ट रहते हैं , तो किसी आन्दोलनकर्ता या समाज – सुधारक के लिए लोगों में उक्त स्थिति के विरुद्ध असन्तोष पैदा करना कठिन होता है । उदाहरणार्थ जब गांधी जी ने अपने बुनियादी शिक्षा के सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने का प्रयत्न किया , तो लोगों में उनके प्रति बहुत थोड़ी अनुक्रिया हुई ( 1936 ) ।
अतः यदि नेता जनमत को कुछ निश्चित आधार पर लाना चाहता है , तो उसे लोगों की सामान्य भावनाओं का अध्ययन करना पड़ता है । दूसरे विषय को उसे सुगम बनाना होता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति यह समझ सके कि यह एक वास्तविक समस्या है । ” सुगमीकरण का एक सामान्य रूप तब प्रकट होता है जब उद्दीपन के एक भाग को बोधगम्य किया जाता है और शेष भाग छोड़ दिया जाता है । ऐसी एकपक्षीय अनुक्रिया इसलिए घटती है क्योंकि व्यक्ति में पूर्ण अनुक्रिया करने की क्षमता नहीं होती अथवा उसे पहला अन्तर्नोद अवशिष्ट उद्दीपन पर दृष्टिपात करने से रोकता है ” । किसी समस्या का सुगमीकरण वरणात्मक प्रत्यक्षज्ञान में निहित रहता है । यह व्याप्त मांगों तथा कुंठाओं पर भी निर्भर रहता है । जैसाकि कांट्रिल ने कहा है , ” जब मत असंरचित अवस्था में होता है , लोग संसूचन – योग्य होते हैं और किसी विश्वस्त सूत्र से व्याख्या चाहते हैं , तब मौखिक कथनों तथा कार्यक्रम की रूपरेखाओं का बहुत प्रभाव पड़ता है ” ।
जब जन – स्वास्थ्य विभाग स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के बारे में प्रचार करता है , तो किसी प्रकार का जनमत नहीं बनता । अधिकांश लोग स्वास्थ्य अधिकारियों से सहमत नहीं होंगे । लेकिन जब कभी महामारी फैलती है , तो लोग क्षुब्ध हो जाएँगे तब जनमत उभरेगा और स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों से बात की जाएगी तथा उन्हें पूरा सहयोग प्रदान किया जाएगा । इस प्रकार , जब जनमत का निर्माण किया जाता है , तो केवल नेतृत्व अपने आप में सब कुछ नहीं होता , नेतृत्व का महत्त्व केवल तभी होता है जब लोगों में कुछ उत्कंठाएँ हों । नेता ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं कर सकता । जब ऐसी स्थिति मौजूद हो , तो वह केवल उसे चालित कर सकता है । हमें एक दूसरी बात यह ध्यान में रखनी चाहिए कि जनमत को बनाने के लिए नेता अपने समूह को ही विषय का अर्थ समझाने में समर्थ हो सकता है । यदि वह बहुत स्पष्ट शब्दों में एक विशेष प्रकार का कार्यक्रम प्रस्तुत करता है , तो इसका महत्त्व सारी जनता के लिए नहीं होगा , बल्कि केवल उसके समूह के सदस्यों के लिए ही होगा । यदि नेता अपने कार्यक्रम में सारे समूह से अपील करना चाहता है , तो उसका कार्यक्रम काफी हद तक असंरचित होना चाहिए ताकि संसूचन और निर्वचन अपना पूरा पार्ट अदा कर सकें ।
जनमत – प्रमापन
जनमत के अध्ययन में जो पद्धतियां अपनाई जाती हैं , हम उनको व्यापक रूप से दो वर्गों अर्थात् गुणात्मक तथा मात्रात्मक में रख सकते हैं । जनमत में परिवर्तनों का अध्ययन करने के लिए ऐतिहासिक पद्धति होती है । इस पद्धति के प्रयोग द्वारा हम उस तरीके की खोज कर सकते हैं जिसमें वर्षों से जनमत बदलता रहा है । उदाहरण के लिए , अंग्रेजों के बारे में भारत में जनमत शून्य के बराबर ही बन पाया था कि 1757 में रॉबर्ट क्लाइव ने प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त करली । यह केवल तभी हो सका जबकि अंग्रेजी सत्ता देश के अनेक भागों में बढ़ती गई तथा जब मुसलमान शासक , हिन्दू शासक और फ्रांसीसी तथा डच और योरुप के उपनिवेशवादियों को अंग्रेजों से हार खानी पड़ी , ऐसी स्थिति में जनमत तीव्र हुआ जो 1857 के भारतीय स्वाधीनता युद्ध के रूप में परिणत हुआ ।
भारतीय सेनाओं की भयंकर हार से सारे देश में अकर्मण्यता छा गई । सन् 1885 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई , तो नेता लोग केवल इसी बात से सन्तोष प्राप्त करने लगे कि वे भारतीयों के कुछ प्रकार के कष्टों के निवारणार्थ ब्रिटिश शासकों से प्रार्थना कर रहे हैं । दूसरे शब्दों में , यह केवल तभी संभव हो सका जबकि तिलक तथा गांधी जैसे नेताओं ने न केवल भारत के शिक्षित वर्गों में प्रत्युत नगरों तथा ग्रामों के असंख्य लोगों में भी अपना कार्य प्रारंभ किया , जिससे जनमत बदला और सन 1942 में महात्मा गांधी के ‘ भारत छोड़ो आन्दोलन के रूप में प्रचंड हो गया । इस प्रकार ऐतिहासिक पद्धति के प्रयोग द्वारा लोगों के किसी भी समूह में जनमत – परिवर्तनों का अध्ययन किया जा सकता है । इसी भांति , भारत में हरिजनोत्थान के बारे में जनमत का अध्ययन हम संविधान द्वारा तथा हरिजनों के लिए शिक्षा और समाज सेवा द्वारा हुए परिवर्तनों का विवेचन करके कर सकते हैं ।
इसी प्रकार से हम महिला – आन्दोलन के इतिहास तथा महिलाओं से संबंधित अनेक संगठनों और स्त्रियों की प्रस्थिति को प्रभावित करने वाले गत कुछ वर्षों के सामाजिक संविधान का अध्ययन करके भी समाज में महिलाओं की स्थिति के बारे में भारतीयों के जनमत में जो परिवर्तन हुए हैं उनका अध्ययन कर सकते हैं । कितनी महिलाएँ भिन्न – भिन्न कार्यों में लगी हुई हैं तथा किस प्रकार के पदों पर उनकी नियुक्ति की जा रही हैं , इन बातों का अध्ययन करके हम स्त्रियों की प्रस्थिति तथा सामाजिक , आर्थिक तथा जन – जीवन में उनकी भूमिका के बारे में बदलते हुए जनमत को समझ सकते हैं ।
मत – अध्ययन की दूसरी गुणात्मक पद्धति है , व्यक्ति अध्ययन की । समूह के कुछ व्यक्तियों से साक्षात्कार करके हम समूह में होने वाले जनमत – परिवर्तनों के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । इसे स्पष्ट करने के लिए हम बच्चों में जातीय अभिवृत्तियों के बारे में किए गए लास्के र के अध्ययन का जिक्र कर सकते हैं । लास्केर को एक व्यक्ति ने बताया कि किस प्रकार उसे बचपन में नीग्रो लोगों से घृणा करना सिखाया गया था और नीग्रो क्रूर व्यक्तियों की भांति चित्रित किए जाते थे जिनका काम आक्रमण करना तथा दूसरे लोगों को ‘ मारना ‘ बताया जाता था । उस व्यक्ति ने आगे कहा कि किस तरह से उसमें ये अभिवृत्तियाँ भरी गई थीं । उसने निश्चयपूर्वक कहा कि जब वह बड़ा हुआ और उसने इन समस्याओं के बारे में अध्ययन किया , तो नीग्रो के प्रति उसकी अभिवृत्ति बदल गई । उसने पाया कि किसी नीग्रो का उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं होता । लेकिन फिर भी नीग्रो लोगों के प्रति उसकी नापसन्दगी बनी रही । इस प्रकार के अध्ययन भारत की जनता में भी किए जा सकते हैं जिनके द्वारा हम हरिजन समस्या के सन्दर्भ में जनमत परिवर्तन का पता लगा सकते हैं अथवा हिन्दुओं की मुस्लिमों या मुस्लिमों की हिन्दुओं के प्रति अभिवृत्ति – परिवर्तनों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।
जहां ये दोनों गुणात्मक पद्धतियां लाभप्रद रही हैं , वहाँ इनकी अपनी सीमाएं भी हैं । इनसे हमें जनमत का वस्तुनिष्ठ चित्र नहीं मिलता ।