जनमत एक प्रक्रिया के रूप में
‘ जन ‘ शब्द का अर्थ
हमें यह जानना आवश्यक हो जाता है कि जन शब्द का निश्चित अभिप्राय क्या है । इस संकल्पना को स्पष्ट करने के लिए हम , एक दूसरी संज्ञा के साथ भीड़ से इसका सम्बन्ध स्थापित करते हैं । हम भीड़ शब्द का प्रयोग तब करते हैं जब हम ऐसे अनेक लोगों के बारे में बात करते हैं जो एक ही स्थान पर एकत्र हों ।
हम जन शब्द का प्रयोग ऐसे लोगों के सामान्य निकाय के बारे में करते हैं जो किसी समुदाय विशेष के हों , चाहे वह समुदाय छोटा समूह हो या बड़ा अथवा किसी राष्ट्रीय समूह के हों अथवा समूचे विश्व समूह के हों । जिसे हम विश्व जन मत कहते हैं उससे सारे संसार के लोगों के मत की प्रवृत्ति का पता चलता है । अतः जन शब्द में समीपता का भाव तो नहीं रहता लेकिन वह एक मनोवैज्ञानिक समूह अवश्य होता है । उसमें प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं होता । लोग स्थान की दृष्टि से बिखरे होते हैं । लेकिन इन लोगों में एक ही उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया करने की प्रवृत्ति होती है ।
इसका यह भी अभिप्राय है कि इसमें संचार व्यवस्था के साधन भी निहित होते हैं ताकि किसी गांव , देश या सारे संसार के भिन्न – भिन्न लोग किसी विशेष मामले के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकें तथा दूसरे लोगों की भांति ही अनुक्रिया कर सकें । जैसाकि हम आगे चलकर देखेंगे कि भीड़ , श्रोतृवद या सम्मेलन में समूह का ध्रुवण हो जाता है और वह किसी विशेष अवसर पर किसी खास आदमी के प्रभाव में आ जाता है । दूसरी ओर , जन शब्द का तात्पर्य उन लोगों से है जो अपने घरों क्लबों या बाजार में दिखलाई पड़ते हैं तथा किसी विशिष्ट मामले पर अनुक्रिया करते हैं । वे आपस में या तो संचार – व्यवस्था द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर संपर्क बनाए रखते हैं अथवा समाचार – पत्र या आकाशवाणी द्वारा संपर्क स्थापित रखते हैं । इन सभी लोगों में एक अनुभूति यह होती है कि वे यदि किसी मत से सहमति रखते हैं तो किसी दूसरे मत से असहमति प्रकट करते हैं । अतः उनमें समझौते , अपनत्व तथा पसन्द की भावना निहित रहती है चाहे व्यक्ति आपस में परिचित न हों और अलग – अलग स्थानों तथा भिन्न – भिन्न दूरियों पर रहते हों । आत्मीयता की भावना उत्पन्न करने के लिए व्यक्ति या समाचार पत्र ऐसे नेताओं के बारे में समाचार देंगे , जो विवाद के विषय बने हुए हैं । इससे दूसरे लोगों के साथ तदात्मीकरण की भावना उत्पन्न होती है और इस प्रकार समूह भावना या ‘ हम – वे ‘ भावना का निर्माण होता है ।
यदि समूह , दल , संघ , समिति या कोई ऐसा ही संस्थागत समूह बन जाता है , तो जनता पर अधिक प्रभाव पड़ता है । अतः ‘ जन ‘ उन लोगों की न्यूनाधिक रूप से व्यवस्थित समिति है जो किसी सामान्य मामले पर एक – सा मत रखते हैं । फलतः वह मामला ऐसा होता है जो समूचे समुदाय से सम्बन्ध रखता है तथा वह एक ऐसी समस्या होती है जो यदि समुदाय के सभी सदस्यों को नहीं तो अधिकांश को प्रभावित अवश्य करती है ।
मत शब्द का अर्थ
मत शब्द में एक विश्वास निहित रहता है । विश्वास कई प्रकार के होते हैं । कुछ बिना अनुनय किए स्वीकार कर लिए जाते हैं , क्योंकि उनमें स्रोत की प्रामा णिकता होती है जो हमें विश्वास दिलाती है । कुछ विश्वास प्रमाण के आधार पर होते हैं । यही ज्ञान है । हम यहाँ इनमें से किसी भी प्रकार के विश्वास का विवेचन नहीं कर रहे । हमारा सम्बन्ध यहां उन विश्वासों से है जो किसी ऐसे विवादास्पद विषय के बारे में हैं , जिस पर लोग भिन्न – भिन्न प्रकार के विश्वास रखते हैं । अतः मत वे विश्वास हैं जो किसी विवादास्पद विषय के बारे में होते हैं । हम भाव वृत्ति और मत के बीच अन्तर को भी स्पष्ट कर सकते हैं ।
भाववृत्तियों संवेगात्मक प्रवृत्तियां हैं जो ऐसी वस्तुओं या स्थितियों से सम्बन्धित होती हैं जोकि विवाद का विषय नहीं होतीं । इसलिए भाववृत्तियां मत से इस बात में भिन्न हैं कि वे संवेगात्मक प्रवृत्तियां है और उनकी परिस्थितियां विवाद से परे होती हैं जबकि मतों में विवादास्पद विषयों से सम्बन्धित विश्वास निहित रहते हैं । हम मत और अभिवृत्ति के बीच भी अन्तर स्पष्ट कर सकते हैं । जबकि अभिवृत्ति क्रिया करने की प्रवृत्ति है , तो मत एक विशेष प्रकार का कुछ मौखिक एवं प्रतीक रूप है । जनमत कुछ विशेष मामलों के प्रति बड़े समूह की अभिवृत्ति के निर्धारण में हमारा सहायक बनता है । किसी सार्वजनिक मामले के बारे में किसी व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके अनुकूल या प्रतिकूल हो सकता है । यह ऐसी स्थिति है जहां मत और अभिवृत्ति में समानता हो जाती है । इस प्रकार से , मत एक ऐसी मौखिक अनुक्रिया है जो किसी विवादास्पद विषय के प्रति किसी व्यक्ति की अभिबृत्ति का संकेत करती है ।
जनमत एक प्रक्रिया के रूप में
जैसाकि हम ऊपर देख आए हैं कि जनमत कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो स्थायी रह सके । फिर यह भी कि जनमत में विवादास्पद विषय निहित रहता है । विषयों में अनवरत परिवर्तन होता रहेगा और समूचे समूह के मत में भी विवाद के प्रसंग में निरन्तर परिवर्तन विद्यमान रहेगा । प्रजातंत्र में यह माना जाता है कि सभी उत्तरदायी नागरिकों को सार्वजनिक मामलों के बारे में अपनी राय अबश्य देनी चाहिए । दूसरे शब्दों में , प्रजातंत्र में लोगों का यह अधिकार भी है और कर्तव्य भी है कि वे उन सभी मामलों पर परिचर्चा करें जो सामुदायिक कल्याण से संबंधित हैं , विधान सभा के बाहर तथा उसके भीतर भी इस परिचर्चा के आधार पर कुछ ऐकमत्य उत्पन्न हो सकता है जो सार्वजनिक क्रिया का आधार बनता है । इसका अर्थ यह होता है कि बहुमत ही प्रजातंत्र में होने वाले कार्यों के कार्यक्रम का आधार – स्तंभ बनता है । इस प्रकार से प्रजातन्त्र में एक अल्पसंख्यक वर्ग बन जाएगा जो कि बहुसंख्यक वर्ग से भिन्न होगा । किन्तु इस अल्पसंख्यक वर्ग को बहुसंख्यक वर्ग के निर्णयों को मानना पड़ेगा । फिर भी , अल्पसंख्यक वर्ग को जनमत बदलने की पूरी छूट है ताकि जब बड़ी संख्या में लोग उस मत को स्वीकार करेंगे तो केवल अल्पसंख्यक मत बहुसंख्यकों का मत बन सकेगा जिसके परिणामस्वरूप कार्यक्रम की रूपरेखा बन सकेगी । अत : जनमत एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरन्तर परिवर्तनशील है , इसलिए भी कि समय – समय पर विवाद के विषय बदल सकते हैं और इसलिए भी कि समय – समय पर विशेष विषयों के सम्बन्ध में प्रभावी मत बदल सकते हैं । उदाहरणार्थ , भारतीय लोगों में मद्य – निषेध इस सामान्य मत पर आधारित है कि मद्य – पेय व्यक्ति के लिए तथा समाज के लिए भी हानिकारक हैं । यह बात केवल लोकरीति के स्तर पर मानी जाती थी । मत की दृढ़ता के फलस्वरूप , भिन्न – भिन्न विधान सभाओं ने मादक – पेयों की बिक्री तथा उनके प्रयोग को अपराध घोषित करने वाले कानून पास किए । आज मद्य निषेध की यह समस्या भारत के सभी राज्यों में विवाद का विषय बन चुकी है । यह संभव है कि यह विवाद या तो कानून के पुष्टीकरण की ओर ले जाएगा अथवा उन शक्तियों पर आधारित कानून को समाप्त करेगा जो जनमत के रूपान्तरण के लिए क्रियाशील हैं ।
मत – निर्माण के मूलाधार
मत – निर्माण की प्रक्रिया में पहला कदम है विषय की परिभाषा बनाना । लुछ लोग या कुछ समूह हल करने के लिए कोई समस्या उठाते हैं । ये लोग समस्या को निश्चित करेंगे । हम मद्य – निषेध की समस्या का उदाहरण ले सकते हैं ,
सन् 1920 तथा 1930 में महात्मा गांधी और अनेक कांग्रेसी नेताओं ने मादक पेयों की समस्या को एक अविलम्ब हल की जाने वाली समस्या समझा और खास तौर से महात्मा गांधी जी ने इस प्रकार के उत्पाद शुल्क से प्राप्त होने वाले राजस्व को दुषित करार दिया । इस प्रकार से जो व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह किसी खास सामाजिक समस्या में रुचि रखते हैं , वे संबंधित विषय का तात्पर्य बताएंगे और जनता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए उस पर वार्ता करेंगे । अतः पहली अवस्था को प्राथमिक परिभाषा की अवस्था कहा जा सकता है ।
_ अगली अवस्था समन्वेषण की होगी । कई व्यक्ति वैयक्तिक रूप से अथवा समूहों में बैठकर इस समस्या पर विचार करना प्रारंभ करेंगे । वे यह समझने का प्रयत्न करेंगे कि किस सीमा तक यह समस्या गंभीर रूप लिये हए है । वे इस बात पर परिचर्चा कर सकते हैं कि क्या इस समस्या पर कुछ कार्यवाही करने का उपयुक्त समय आ गया है । समस्या के समाधान के बारे में भी सन्देह उत्पन्न हो सकते हैं ।
अतः इस अवस्था में विषय का सर्वाङ्गीण अध्ययन करने के प्रयत्न किए जाएंगे , तथ्यान्वेषण तथा संभावित समाधानों के लिए प्रयास किया जाएगा । कुछ बैठकों में इस समस्या पर परिचर्चा की जा सकती है । इन बैठकों की कार्यवाहियों को समाचार – पत्रों में दिया जा सकता है । इन विषयों पर समाचार – पत्र सम्पाद कीय मत प्रकाशित कर सकते हैं ।
यह अवस्था मत – निर्माण की तीसरी अवस्था की ओर अग्रसर करती है । जिस समय समस्या पर परिचर्चा की जा रही हो और तथ्यों को एकत्र किया जा रहा हो तो कुछ वैकल्पिक समाधान मिल सकेंगे । फलस्वरूप भिन्न – भिन्न समूह इस समस्या के प्रति स्वयं भी रुचि लेने लगेंगे । कुछ लोग समस्या रखने वाले मूल समूह का पक्ष लेंगे तो कुछ दूसरे लोग कहेंगे कि यह समस्या का सन्तोषप्रद हल नहीं है । यह मत विभिन्नता की अवस्था होगी । संवेगों को उभारा जा सकता है , भीड़ जैसा व्यवहार हो सकता है , समस्या के एक खास प्रकार के समाधान के पक्ष या विपक्ष में नारे लगाए जा सकते हैं । विरोधी दल भी समस्या का अध्ययन करेंगे और उन तथ्यों को इकट्ठा करेंगे जो समाधान के विरुद्ध होंगे । उदाहरण के लिए सन् 1955 तथा 1956 में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने बी . सी . जी . के टीके के बारे में अभियान को और तेज किया और बहुत बड़ी संख्या में टीके लगाए गए । मद्रास के स्वास्थ्य मंत्री ने इस विषय में बड़ी रुचि ली लेकिन श्री सी . राजगोपालाचारी ने इसका विरोध किया । मद्रास राज्य तथा बाहर के स्वास्थ्य विभागों के कुछ लोगों ने राजाजी के मत का समर्थन किया । दोनों पक्षों की ओर से तथ्य और मत उद्धत किए गए । संघर्ष की इस पहली अवस्था का महत्त्व पूर्ण लक्षण यह है कि व्यक्तियों में विवेकपूर्ण तथा संवेगात्मक दोनों प्रकार के
विचार भी व्याप्त रहते हैं । इन सब चर्चाओं , भाषणों , परिचर्चाओं तथा प्रचार के द्वारा अधिकांश लोग किसी एक स्थिति के पक्ष में अपना निर्णय बना लेंगे । इस प्रकार से मतैक्य हो जाएगा । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सभी लोग एक जैसा ही मत रखेंगे । यह संभव है कि इस विषय पर विधान सभा में या उससे बाहर मतदान लिया जाए । जहां तक जनमत लिया जाना हो , वहां किसी विषय के बारे में कभी भी पूर्ण समझौता नहीं हो सकता । केवल स्थितियां बदल सकती हैं । अल्पसंख्यक जिस मत के अनुयायी हैं वह एक दिन बहुसंख्यक वर्ग का मत बन सकता है तथा जो बहुसंख्यकों का मत है वह एक दिन छोड़ा जा सकता है और यह अल्पसंख्यक वर्ग का मत बन सकता है । एक दूसरा उदाहरण लीजिए , सन् 1958 में कुछ एशियाई देशों में अधिनायकवाद के पक्ष में अल्पसंख्यकों के मत में वृद्धि हुई तथा अधि नायकवादी शासनों की स्थापना हुई क्योंकि जनमत इस पक्ष में था कि असैनिक अधिकारियों से सत्ता सैनिक लोगों के हाथ में आ जाए ।
जनमत – निर्माण में अभिप्रेरण
जनमत – निर्माण में अभिप्रेरण का बहुत बड़ा हाथ रहता है । कुछ व्यक्तियों या समूहों द्वारा रखे गए नये प्रस्ताव व्यक्तियों को अनुकूल या प्रतिकूल रूप में प्रभावित करेंगे । सामान्यतया नए मत के निर्माण की आवश्यकता तब होती है जब कोई व्यक्ति इसलिए कुंठित रहता है कि उसकी अनुक्रिया करने की आभ्यासिक दशाएं परिस्थिति के अनुकूल नहीं हैं । अतः व्यक्ति यह अनुभव करता है कि नए ढंग की अनुक्रिया समूह को स्थिति का सामना करने के योग्य बनाएगी और समस्या को अधिक संतोषजनक ढंग से हल किया जा सकेगा । उदाहरण के लिए , भारत में भूमि – सुधार की समस्या तथा इससे संबंधित , खास तौर से 1955 – 59 के दौरान जनमत – निर्माण को लीजिए । क्योंकि भारत में लाखों भूमिहीन मजदूर हैं , साम्य वादी दल ने आंध्रप्रदेश के कुछ जिलों में बहुत बड़ी संख्या में लोगों को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न किया ; उन्होंने भूमिहीन श्रमिकों को यह मत बनाने में सहायता दी कि भूमि वस्तुतः भूमि जोतने वाले की है मालिक की नहीं ।
भूमिहीन श्रमिकों की बड़ी संख्या ने इस बात को स्वीकार किया और तदनुकूल कार्य किया क्योंकि यह विचार उनकी आवश्यकताओं से मेल खाता था । वे महसूस करने लगे कि जमीन का मालिक बिना काम किए लाभ उठा रहा है जबकि वे सारा काम करते हए भी निर्धनता और कष्टों में पल रहे हैं । इस प्रकार जनमत – निर्माण में दृढ़ अभिप्रेरक निहित रहते हैं । यदि ऐसे अभिप्रेरक क्रियाशील न हों तो संबंधित समस्या पर कदापि कोई मत नहीं बनेगा । हम यह भी कह सकते हैं कि व्यक्ति कौन सा पक्ष लेंगे और कौन सा नहीं , यह बात उनके अभिप्रेरकों पर निर्भर करती है । जिस आदमी के पास बहुत ज्यादा जमीन – जायदाद है वह ऐसे दल का विरोध करेगा जो भूमि में सुधार करना चाहता हो । लेकिन भूमिहीन श्रमिक तथा दूसरे भूमिहीन लोग भूमि – सुधारों के पक्ष में हो जाएंगे । अत : जनमत – निर्माण आर्थिक आदर्शों और सामाजिक न्याय पर ही निर्भर नहीं होता , बल्कि व्यक्तिगत परिस्थितियों अर्थात् हमारे भू – स्वामी होने या न होने पर भी आधारित होता है । एक दूसरा उदाहरण लीजिए , जब संपदा – कर – शुल्क , संपत्ति – शुल्क तथा ऐसे ही दूसरे कर लगाए गए थे , तो व्यावहारिक रूप से सारे देश ने इनका पक्ष लिया था क्योंकि इस कर – व्यवस्था से केवल थोड़े से धनिक वर्ग के लोग प्रभावित हुए थे । अतः जनमत उन अभिप्रेरकों पर निर्भर होता है , जो जनता की बहसंख्या पर प्रभाव डालते हों ।