राजनीतिक समाजशास्त्र
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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एक स्वतन्त्र और स्वायत्त अनुशासन के रूप में ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ का उद्भव और अध्ययन-अध्यापन एक नूतन घटना है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद फेंज न्यूमा, सिमण्ड न्यूमा, हेन्स गर्थ, होरोविज, जेनोविटस, सी.राइट मिल्स, ग्रियर ओरलिन्स, रोज, मेकेन्जी, लिपसेट जैसे विद्वानों और चिन्तकों की रचनाओं में ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ ने एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में लोकप्रियता अर्जित की है। लेकिन आज भी यह विषय अपनी बाल्यावस्था में ही है। इसकी बाल्यावस्था के कारण ही विभिन्न भारतीय विश्वविद्यालयों में राजनीतिक समाजशास्त्र के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत अध्ययन-अध्यापन हेतु किन-किन टाॅपिक्स को शामिल किया जाये और किन-किन क्षेत्रों की गवेषणा की जाये इस बात को लेकर विद्वानों और लेखकों में गम्भीर मतभेद हैं। यहां तक कि इस विषय के नामकरण के बारे में भी आम सहमति नहीं पायी जाती है।
19वीं शताब्दी में राज्य और समाज के आपसी सम्बन्ध पर वाद-विवाद शुरू हुआ तथा 20वीं शताब्दी में, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सामाजिक विज्ञानों में विभिन्नीकरण और विशिष्टीकरण की उदित प्रवृत्ति तथा राजनीति विज्ञान में व्यवहारवादी क्रान्ति और अन्तः अनुशासनात्मक उपागम के बढ़े हुए महत्व के परिणामस्वरूप जर्मन और अमरीकी विद्वानों में राजनीतिक विज्ञान के समाजोन्मुख अध्ययन की एक नूतन प्रवृत्ति शुरू हुई। इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप राजनीतिक समस्याओं की समाजशास्त्रीय खोज एवं जांच की जाने लगी। ये खोजें एवं जांच न तो पूर्ण रूप से समाजशास्त्रीय थीं और न ही पूर्णतः राजनीतिक। अतः ऐसे अध्ययनों को ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ के नाम से पुकारा जाने लगा।
इतालवी राजनीतिक वैज्ञानिक जियोवानी सारतोरी ने सुझाव दिया था कि श्राजनीतिक समाजशास्त्रश् शब्द में एक अस्पष्टता थी क्योंकि इसे श्राजनीति के समाजशास्त्रश् के पर्याय के रूप में व्याख्या किया जा सकता है। इस अस्पष्टता के कारणए राजनीतिक समाजशास्त्र के क्षेत्र में अध्ययन की वस्तुओं और जांच के दृष्टिकोण के बारे में सटीक होना मुश्किल हो गया। इस प्रकार स्पष्टीकरण की आवश्यकता उत्पन्न हुई।
राजनीतिक समाजशास्त्र समाजशास्त्र के व्यापक ढांचे के भीतर एक उप.अनुशासन है। यह राजनीति की सामाजिक परिस्थितियों से संबंधित हैए अर्थात राजनीति कैसे समाज में अन्य घटनाओं से आकार लेती है और आकार देती है। इसे सुरक्षित रूप से राजनीति का समाजशास्त्र कहा जा सकता हैए क्योंकि राजनीति का वर्णन केवल सामाजिक कारकों के संदर्भ में किया जाता है। राजनीति एक आश्रित चर है जो समाज के अनुसार बदलता रहता है। दूसरे शब्दों मेंए समाज पहले और राजनीति दूसरे स्थान पर आती है।
एक नया विषय होने के कारण ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ की परिभाषा करना थोड़ा कठिन है। राजनीतिक समाजशास्त्र के अन्तर्गत हम सामाजिक जीवन के राजनीतिक एवं सामाजिक पहलुओं के बीच होने वाली अन्तःक्रियाओं का विश्लेषण करते हैं; अर्थात् राजनीतिक कारकों तथा सामाजिक कारकों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा इनके एक-दूसरे पर प्रभाव एवं प्रतिǔछेदन का अध्ययन करते हैं।
‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ की निम्नलिखित परिभाषाएं की जाती हैं:
”राजनीतिक समाजशास्त्र को समाज एवं राजनीतिक व्यवस्था के तथा सामाजिक संरचनाओं एवं राजनीतिक संस्थाओं के पारस्परिक अन्तःसम्बन्धों के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।“
”राजनीति विज्ञान राज्य से प्रारम्भ होता है और इस बात की जांच करता है कि यह समाज को कैसे प्रभावित करता है। राजनीतिक समाजशास्त्र समाज से प्रारम्भ होता है और इस बात की जांच करता है कि वह राज्य को कैसे प्रभावित करता है।“
”राजनीतिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध सामाजिक कारकों तथा तात्कालिक समाज में शक्ति वितरण से है। इसका सम्बन्ध सामाजिक और राजनीतिक संघर्षो से है जो शक्ति वितरण में परिवर्तन का सूचक है।“
राजनीतिक समाजशास्त्र का उपागम सामाजिक एवं राजनीतिक कारकों को समान महत्व देने के कारण, समाजशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र दोनों से भिन्न है तथा इसलिए यह एक पृथक् सामाजिक विज्ञान है। प्रो.आर.टी. जनगम के अनुसार राजनीतिक समाजशास्त्र को समाजशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र के अन्तःउर्वरक की उपज माना जा सकता है जो राजनीति को सामाजिक रूप में प्रेक्षण करते हुए, राजनीति पर समाज के प्रभाव तथा समाज पर राजनीति के प्रभाव का अध्ययन करता है।
संक्षेप, में राजनीतिक समाजशास्त्र समाज के सामाजिक आर्थिक पर्यावरण से उत्पन्न तनावों और संघर्षो का अध्ययन कराने वाला विषय है। राजनीति विज्ञान की भांति राजनीतिक समाजशास्त्र समाज में शक्ति सम्बन्धों के वितरण तथा शक्ति विभाजन का अध्ययन हैं इस दृष्टि से कतिपय विद्वान इसे राजनीति विज्ञान का उप-विषय भी कहते है।
राजनीतिक समाजशास्त्र की विषय-वस्तु
किसी भी विषय की विषय-वस्तु निर्धारित करना कठिन कार्य है। यह कठिनाई राजनीतिक समाजशास्त्र जैसे नवीन विषय में, जोकि अभी तक अपनी शैशवावस्था में है और भी अधिक है। फिर भी राजनीतिक समाजशास्त्र की परिभाषाओं से इसके अन्तर्गत अध्येय पहलुओं का पता चलता है। लिपसेट के अनुसार अगर समाजशास्त्र की दिलचस्पी का मुख्य विषय समाज का स्थायित् है तो राजनीतिक समाजशास्त्र मुख्य रूप से एक विशिष्ट संस्थागत संरचना अर्थात् राजनीतिक शासन ;च्वसपजपबंस तमहपउमद्ध से सम्बद्ध है।
बैनडिक्स तथा लिपसेट ने राजनीतिक समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में निम्नलिखित पहलुओं को सम्मिलित किया है:
- समुदायों तथा राष्ट्रों में मतदान व्यवहार (मतदान का व्यवहारात्मक अध्ययन); ऽ
- आर्थिक शक्ति का केन्द्रीयकरण तथा राजनीतिक निर्णयन कार्य;
- राजनीतिक आन्दोलनों तथा हित-समूहों की विचारधाराएँ;
- राजनीतिक दल, ऐचिछक समितियाँ, अल्पतन्त्र की समस्याएँ तथा राजनीतिक व्यवहार मनोवैज्ञानिक सहसम्बन्ध; तथा
- सरकार एवं अधिकारीतन्त्र की समस्याएँ।
- राजनैतिक समाजशास्त्र को अनेक विद्वानों ने विचारों के माध्यम से परिभाषित किया है। इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि राजनैतिक समाजशास्त्र की विषय सामग्री एवं क्षेत्र के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट निष्कर्ष निकलना कठिन है। फिर भी विद्वानों ने राजनैतिक समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धो एवं प्रक्रियाओं को स्पष्ट किया है।
- राजनैतिक समाजशास्त्र का अर्थ राजनैतिक सामाजिक सत्ता से है। सत्ता को स्पष्ट रूप से अधिकार बल, प्रभाव को राजनैतिक समाजिक सन्दर्भ में समझ सकते है।
- अनेक विद्वानों ने राजनैतिक समाजशास्त्र की विषय सामग्री तथा क्षेत्र को स्पष्ट रूप से समझने का प्रयास किया है जो निम्न है।
मिचेल द्वारा प्रस्तुत राजनैतिक समाजशास्त्र की विंषय वस्तु :
- मिचले ने राजनैतिक समाजशास्त्र को विषय वस्तु को निम्नलिखित भागो मे विभाजित किया है-
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- औपचारिक एवं अनौपचारिक संस्थाएं।
- सम्भान्त जन एवं उनकी सदस्यता।
- संघर्ष के आविर्भाव एवं नियमन।
- हित समूह एवं दबाब समूह।
- राजनीतिक मतों का निर्माण एवं।
- राजनीतिक संस्थाओं के रूप में राजनीतिक दलों तथा विभिन्न प्रकार की शासन पद्धतियों के अध्ययन को सम्मिलित किया है।
- उक्त चर्चित विषयों के अतिरिक्त हम राजनीतिक समाजशास्त्र के व्यापक क्षेत्र में निम्नलिखित प्रकरणों को भी सम्मिलित कर सकते हैं:
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- राजनीतिक जीवन- चुनवी प्रक्रिया, राजनीतिक संचरण, मताचरण, आदि।
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- राजनीतिक नेतृत्व- नेतृत्व और राजनीतिक संस्कृति, शक्ति और सत्ता की संरचना, आदि।
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- राजनीतिक विकास-राजनीतिक विकास की अवधारणा, सामाजिक परिवर्तन, आधुनिकीकरण और समाजीकरण के साथ इसके सम्बन्ध्ज्ञं
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- राजनीतिक संरचनाएं – सामाजिक वर्ग, जाति, अभिजन, राजनीतिक दल, हित समूह, नौकरशाही, आदि।
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- राजनीतिक प्रकार्य – राजनीतिक समाजीकरण, राजनीतिक भर्ती, हित समूहीकरण, एकीकरण और अभिनव परिवर्तन, आदि
- संक्षेप में, राजनीतिक समाजशस्त्र की विषय-वस्तु के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं, राजनीतिक समुदायों, राजनीतिक व्यवहार, प्रभाव, शक्ति एवं सत्ता, राजनीतिक आन्दोलनों एवं विभिन्न राजनीतिक प्रक्रियाओं, अभिजनों, इत्यादि विविध प्रकार के चरों को सम्मिलित किया जा सकता है।
- उपर्युक्त विवेचन से ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ ;की निम्नलिखित विशेषताएं स्पष्ट होती हैं
- ः
- राजनीतिक समाजशास्त्र राजनीतिक और सामाजिक परिवत्र्यों से समान रूप से जुड़ा है और समान
- रूप से प्रभावित होता है।
- राजनीतिक समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान नहीं है क्योंकि इसमें राजनीति विज्ञान की तरह राज्य और शासन का ही अध्ययन नहीं होता है।
- राजनीतिक समाजशास्त्र की अभिरूचि राजनीति में है, फिर भी यह राजनीति को परम्परागत दृष्टि से नहीं देखता है।
- राजनीतिक समाजशास्त्र समाजशास्त्रीय राजनीति भी नहीं है क्योंकि यह समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र दोनों में अभिरूचि रखता है।
- राजनीतिक समाजशास्त्र / राजनीति विज्ञान
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- ‘लगभग सभी प्रकार के सम्बन्धों में राजनीति विद्यमान होती है। कालेज, परिवार और क्लब में भी विशेष रूप से राजनीति के दर्शन तब होते हैं जबकि हम एक व्यक्ति या समूह को दूसरे व्यक्ति या समूह पर अपनी इǔछा या वरीयता, उनके प्रतिरोध के बावजूद, थोपते हुए पाते हैं।’ ‘समूहों या वर्गों के बीच होने वाले संघर्षो में बल और शक्ति की उपस्थिति सभी प्रकार के राजनीतिक सम्बन्धों का एक अन्तर्निहित पहलू है।’ ‘
- राजनीति सम्पूर्ण समाज में व्याप्त होती है। यह प्रत्येक सामाजिक समूह, संघ, वर्ग और व्यवसाय में फैली होती है। ‘यहां तक की गैर संगठित समुदायों, जनजातियों, संघों और परिवारों की राजनीति भी राजनीति होती है और राजनीति समाजशास्त्र की विषय-वस्तु होती है। ‘राजनीतिक समाजशास्त्र की मूल मान्यता है कि प्रत्येक प्रकार का मानवीय सम्बन्ध राजनीतिक होता है।’
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- राजनीतिक समाजशास्त्र के विश्लेषण की प्राथमिक इकाइयां सामाजिक संरचनाएं और राजनीति के सामाजिक उद्भव स्रोत केन्द्र ;ैजतनबजनतमे व ि ैवबपमजल ंदक ेवबपंस वतपहपदे व ि च्वसपजपबेद्ध सामाजिक संरचनाएं दो प्रकार की होती हैं: वृहद् और लघु। इस सवाल पर कि, क्या राजनीतिक समाजशास्त्र वृहद् और लघु दोनों तरह के समुदायों का अध्ययन करता है, दो तरह के दृष्टिकोण पाये जाते हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार लघु समूह एक सुनिश्चित और सुस्थापित सामाजिक व्यवस्था के भाग होते हैं। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार वृहत्तर समूहों जैसे वाणिज्य संघ, चर्च, व्यापारिक कम्पनी अथवा ऐसी ही अन्य गैर
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- यद्यपि राजनीतिक समाजशास्त्र ‘राजनीति’ में दिलचस्पी रखता है, लेकिन यह राजनीति को एक नये दृष्टिकोण से और नये संदर्भ में देखता है। राजनीति को उस दृष्टिकोण से अलग करके देखता है जिसे परम्परावादी राजनीतिशास्त्री इसे देखते आये थे। राजनीतिक समाजशास्त्र इस मूल मान्यता पर आधारित है कि सामाजिक प्रक्रिया और राजनीतिक प्रक्रिया के बीच आकृति की एकरूपता व समरूपता विद्यमान है। राजनीतिक समाजशास्त्र ‘राजनीति’ और ‘समाज’ के मध्य अन्तःक्रिया ;प्दजमतंबजपवदद्ध का सघन अध्ययन है। यह सामाजिक संरचनाओं और राजनीतिक प्रक्रियाओं के मध्य सूत्रात्मकता ;स्पदांहमेद्ध का अध्ययन करता है। यह सामाजिक व्यवहार और राजनीतिक व्यवहार के मध्य पायी जाने वाली अन्तःक्रियात्मकता का अध्ययन है। यह हमें राजनीति को इसके सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में देखने का परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है।
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- राजनीतिक समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान नहीं है, क्योंकि यह राजनीति विज्ञान की तरह ‘राज्य और शासन का विज्ञान’ ;ैबपमदबम व ि ेजंजम ंदक ळवअमतदउमदजद्ध नहीं है। यह ‘राजनीति का समाजशास्त्र’ भी नहीं है, क्योंकि यह कवेल सामाजिक ही नहीं राजनीति से भी समान रूप से जुड़ा है।
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- सरकारी या सरकारी संगठनों के अन्दर की राजनीति सही अर्थ में राजनीतिक नहीं है। इसी दृष्टिकोण से विशद् विवेचन प्रस्तुत करते हुए ग्रीयर तथा आरलियन्स लिखते हैं कि राजनीतिक समाजशास्त्र मुख्य रूप से उस अनोखी सामाजिक संरचना जिसे ‘राज्य’ के नाम से जाना जाता है के वर्णन, विश्लेषण और समाजशास्त्रीय व्याख्या से सम्बद्ध है।
- इसके विपरीत माक्र्स, टीटस्के, गुम्पलोविज, राजेनहोफर, ओपेनहाइमर, कैटलिन, मेरियस, लासवेल जैसे राजनीतिक समाजशास्त्री सभी तरह के सम्बन्धों में का अस्तित्व पाते हैं। उनके विचारों का निचोड़ इस प्रकार है:
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- राजनीतिक समाजशास्त्र को राज्य की बंधी सीमाओं से मुक्त कर बाहर निकालता है और इस धारणा का प्रतिपादन करता है कि राजनीति केवल राज्य में नहीं बल्कि समाज के समग्र क्षेत्र में व्याप्त रहती है। राजनीतिक समाजशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में राजनीति केवल ‘राजनीतिक’ नहीं रह जाती है,
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- यह गैर राजनीतिक और सामाजिक भी हो जाती है और इस प्रकार राजनीति के गैर-राजनीतिक और सामाजिक प्रकृति के प्रकाश में राजनीतिक समाजशास्त्र उस खाई को पाटने का प्रयास है जो समाज और राज्य के बीच काफी समय से चली आ रही थी। इस प्रकार राजनीतिक समाजशास्त्र सामाजिक प्रक्रिया और राजनीतिक प्रक्रिया में तादाम्य स्थापित करने का प्रयास है।
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- राजनीति समाजशास्त्र शक्ति की दृश्यसत्ता ;च्ीमदवउमदवद व ि च्वूमतद्ध को अपना प्रमुख प्रतिपाद्य विषय मानता है और यह स्वीकार नहीं करता कि शक्ति राज्य का एकमात्र एकाधिकार है। इसके बदलेयह मानता है कि समाज के प्राथमिक और द्वितीयक समूह सम्बन्धों में शक्ति संक्रियाशील होती है।
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- राजसमाजशास्त्री की दृष्टि में शक्ति न केवल आवश्यक रूप से सामाजिक है बल्कि सम्बन्धात्मक और परिणामात्मक अथवा मापनीय भी है। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी भी शक्ति सम्बन्ध में शक्ति धारक की तुलना में शक्ति प्रेषिती कम महत्वपूर्ण नहीं है। समाजशास्त्र तार्किक-वैधिक सत्ता ;तंजपवदंस.समहमस ंनजीवतपजलद्ध के लिए अपनी सुस्पष्ट वरीयता व्यक्त करता है। तार्किक-वैधिक सत्ता सुविचारित रूप से निर्मित और व्यापक स्तर पर स्वीकृत नियमों से कठोर रूप से बंधी होती है।
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- राजनीतिक समाजशास्त्री आधुनिक समाज में न केवल असीमित शक्ति के प्रयोग को असम्भव मानता है, बल्कि यह भी स्वीकार करता है कि आधुनिक समाज में राजसत्ता कुछ हाथों में सिमटी रहती है। इसकी यह भी मान्यता है कि समाज में राजशक्ति का असमतल बंटवारा ठीक उसी तरह होता है जिस तरह से समाज में संसाधनों का बंटवारा असमतल होता है और इस असमतल बंटवारे को व्यापक जनादेश के आधार पर प्राप्त सहमति और सर्वसम्मत्ति के माध्यम में वैधिक, औचित्यपूर्ण और स्थायी बनाया जाता है। स्थायित्व प्राप्त और औचित्यपूर्ण शक्ति सम्बन्धों के इसी सामान्य प्रतिरूप की पृष्ठभूमि में राजनीतिक समाजशास्त्र कुछ नितान्त आवश्यक प्रासंगिक प्रश्नों और समस्याओं पर विचार करता है। उदाहरण के लिए, राजनीतिक समाजशास्त्र नौकरशाही का अध्ययन नीतियों को लागू करने वाले प्रकार्यो को निष्पादित करने वाले राज्य के एक अपरिहार्य यन्त्र या तन्त्र के रूप में नहीं करता बल्कि एक ऐसे
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- महत्वपूर्ण सामाजिक समूह के रूप में करता है जिसकी आधुनिक समाज की बढ़ती हुई विषमताओं के संदर्भ में एक बहुत बड़ी प्रकार्यात्मक आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में राजनीतिक समाजशास्त्र नौकरशाही को इसके विशिष्ट राजनीतिक संदर्भ में नहीं, इसके वृहत्तर सामाजिक संदर्भ में समझना चाहता है।
- संक्षेप में, राजनीतिक समाजशास्त्र इस बात की परीक्षा करने में अभिरूचि रखता है कि राजनीति सामाजिक संरचनाओं को और सामाजिक संरचनाएं राजनीति को कैसे प्रभावित करती हैं।
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- राजनीतिशास्त्र में परम्परागत रूप से राज्य-व्यवस्था का ही अध्ययन किया जाता रहा है। राज्य-व्यवस्था के अध्ययन से अभिप्राय संविधान (लिखित एवं अलिखित) के विभिन्न अनुǔछेदों, सरकार द्वारा पारित अधिनियमों तथा संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थाओं के विश्लेषण से है। इसके साथ ही, राजनीतिशास्त्र में स्थानीय समुदायों एवं समाजों के अध्ययन में रूचि की एक लम्बी परम्परा होने के कारण राज्य-व्यवस्था का अध्ययन भी इन्हीं के संदर्भ में किया जाता रहा है तथा बाह्य (अस्थानीय) राजनीतिक व्यवस्थाओं का उल्लेख यदा-कदा केवल संदर्भ के लिए ही किया जाता रहा है।
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- ‘लगभग सभी प्रकार के सम्बन्धों में राजनीति विद्यमान होती है। कालेज, परिवार और क्लब में भी विशेष रूप से राजनीति के दर्शन तब होते हैं जबकि हम एक व्यक्ति या समूह को दूसरे व्यक्ति या समूह पर अपनी इǔछा या वरीयता, उनके प्रतिरोध के बावजूद, थोपते हुए पाते हैं।’ ‘समूहों या वर्गों के बीच होने वाले संघर्षो में बल और शक्ति की उपस्थिति सभी प्रकार के राजनीतिक सम्बन्धों का एक अन्तर्निहित पहलू है।’ ‘राजनीति सम्पूर्ण समाज में व्याप्त होती है। यह प्रत्येक सामाजिक समूह, संघ, वर्ग और व्यवसाय में फैली होती है। ‘यहां तक की गैर संगठित समुदायों, जनजातियों, संघों और परिवारों की राजनीति भी राजनीति होती है और राजनीति समाजशास्त्र की विषय-वस्तु होती है। ‘राजनीतिक समाजशास्त्र की मूल मान्यता है कि प्रत्येक प्रकार का मानवीय सम्बन्ध राजनीतिक होता है।
- उपागम
- राजनीतिक समाजशास्त्र में विभिन्न राजनीतिक स्थितियों, प्रक्रियाओं अथवा चरों का अध्ययन कई उपागमों
- (जैसे आदर्शात्मक, संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक, व्यवस्थात्मक, व्यवहारात्मक तथा संघर्षात्मक आदि)
- द्वारा किया जाता है तथा प्रत्येक उपागम उस विशिष्ट समस्या (जिसका कि इसके द्वारा अध्ययन किया जा रहा है) के किसी विशेष पहलू पर अधिक बल देता है। कुछ विद्वानों (जैसे डेविस तथा लुइस) ने इन उपागमों को प्रतिरूप भी कहा है।
- किसी परिस्थिति या वस्तु-स्थिति के बारे में प्रकट अथवा प्रǔछन्न मान्यताओं का संघात होता है जोकि वैज्ञानिक अध्ययन का आधार बनता है। यह एक बौद्धिक रचना ;प्दजमससमबजनंस बवदेजतनबजद्ध की प्रकृति की अवधारणा होती है जिसके द्वारा किसी सामाजिक अथवा भौतिक परिस्थिति का विश्लेषण किया जा सकता है। ये परिस्थितियाँ वास्तविक अथवा प्राक्कल्पनात्मक हो सकती हैं। इसे किसी समस्या का अध्ययन करने की विधि अथवा उपाय ;ैजतमंजमहलद्ध भी कहा जा सकता है जिसके आधार पर उस समस्या का विश्लेषण किया जा सके।
- समस्या के अध्ययन के लिए कुछ सैद्धान्तिक कल्पनाओं का निर्माण किया जाता है जिनसे अगर वास्तविक इकाई के सम्पूर्ण व्यवहार को नही ंतो कम से कम उसकी प्रमुख विशेषताओं का तो पता चल जाता है, उन्हें ही प्रतिरूप कहा जा सकता है। डेविस तथा लुइस ;क्ंअपमे – स्मूपेद्ध के शब्दों में, ”प्रतिरूप किसी इकाई के व्यवहार के बारे में आनुभविक सिद्धान्त बनाने के लिए निर्मित कुछ सैद्धान्तिक कल्पनाएँ हैं।“
- राजनीतिक समाजशास्त्र में प्रयुक्त किये जाने वाले उपागमों को, एस.पी. वर्मा के अनुसार दो श्रेणियाँ में विभाजित किया जा सकता है:
- वैधानिक-ऐतिहासिक अथवा आदर्शात्मक उपागम; तथा
- आनुभविक विश्लेषणात्मक अथवा वैज्ञानिक व्यवहारात्मक उपागम।
- प्रथम श्रेणी के उपागमों में इस मान्यता को महत्व दिया जाता है कि राजनीति का अध्ययन वैधानिक ढंग से नहीं किया जा सकता अतः इसका प्रयास ही नहीं किया जाना चाहिये। आदर्शात्मक उपागम इस श्रेणी का प्रमुख उदाहरण है जिसका प्रचलन राजनीतिशास्त्र से प्रभावित राजनीतिक समाजशास्त्रियों में रहा है। द्वितीय श्रेणी के उपागमों के साथ यह मान्यता जुड़ी हुई है कि तथ्यों पर आधारित राजनीति का विज्ञान सम्भव है तथा राजनीति विश्वासों एवं मनोवृत्तियों तक का आनुभविक एवं तटस्थ रूप से अध्ययन किया जा सकता है। संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक, व्यवस्थात्मक, व्यवहारात्मक तथा संघर्षात्मक उपागम दूसरी श्रेणी के उपागमों के प्रमुख उदाहरण हैं।