औद्योगीकरण

औद्योगीकरण

SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में

 औद्योगीकरण नगरीकरण का कारण और परिणाम दोनों ही हो सकता है अक्सर यह देखा जाता है कि जहाँ पर उद्योगधन्धे पनप जाते हैं और मशीनों के बड़े बड़े मिल फैक्ट्रियों में उत्पादन का कार्य होता है वहाँ पर नगरीकरण की प्रक्रिया तेजी से क्रियाशील होती है , भारत में अनेक नगरों का विकास उसी प्रकार हुआ है , इस अर्थ में औद्योगीकरण नगरीकरण का कारण होता है पर ऐसा भी होता है कि अन्य किसी कारण से नगरीकरण की प्रक्रिया सर्वप्रथम क्रियायाशील होता है और अब जब समुदाय नगर का पूर्णरूप धारण कर लेता है तो वहाँ उद्योग धन्धे का धीरेधीरे औद्योगीकरण होता है

 

अवधारणा : मशीनों द्वारा , बड़े पैमाने में उत्पादन कार्यों का सम्पादन उद्योगधन्धों का एक स्थान में विकास की प्रक्रिया को औद्यीकरण कहते हैं कुछ लेखकों का कथन है किऔद्योगीकरण का तात्पर्य बड़े पैमाने के नवीन उद्योगों का प्रारम्भ और छोटे उद्योगों का बड़े पैमाने के उद्योगों में बदलने से है

 

वास्तविक अर्थ में , ओद्योगीकरण उद्योगों के बड़े पैमाने में विकास की एक प्रक्रिया है विलबर्ट मूरे ( W.E.Moore ने औद्योगीकरण की परिभाषा अपनी पुस्तक Social Change , P – 91 में इस प्रकार की है : “ औद्योगीकरण वह शब्द है जिसका उपयोग आर्थिक वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में शक्ति के निर्जीव स्रोतों का व्यापक रूप से उपयोग करने के लिए किया जाता है ” ( Industrialization in its strict sense of the term , entails the extensive use of inanimate sources of power in the production of economic goods and services . ) अतः विल्बर्ट मूरे के अनुसार , औद्योगीकरण की प्रक्रिया का मुख्य लक्ष्य अधिक से अधिक लाभ कमाना है साथ ही औद्योगीकरण का संबंध वस्तु तथा सेवाओं दोनों से है

 

 

 भारत में औद्योगीकरण के कारण : भारत जैसे कृषि प्रधान देश में औद्योगीकरण कारणों में सर्वप्रमुख पंचवर्षीय योजनाओं का योगदान है दूसरी पंचवर्षीय योजना 1956-61 के बीच औद्योगीकरण की शुरुआत व्यापक रूप से हुई साथ ही अन्य कई कारणों को निम्नलिखित बिन्दुओं से समझा जा सकता है

 

  1. उत्पादन की नई तकनीक : उत्पादन की नवीन प्रविधियों के आविष्कार से औद्योगीकरण की दर में काफी वृद्धि हुई है कृषि में नवीन संकर बीजों एवं यंत्रीकरण के फलस्वरूप ही हरित क्रांति संभव हुई नवीन कपड़ा मिलों के आविष्कार ने औद्योगीकरण को नया रूप दिया आज सूचना क्रांति में कम्प्यूटर , इन्टरनेट के आने से विश्व में कहीं भी सूचना भेजने एवं पाने में केवल कुछ सेकेण्ड लग रहे हैं

 

  1. प्राकृतिक संसाधन : औद्योगीकरण की सबसे बड़ी आवश्यकता है प्राकृतिक संसाधन अगर देश में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता होगी तो औद्योगीकरण की गति समाप्त से

 

जाएगी भारत में लोहे , कोयले , अभ्रक आदि खनिज सम्पत्तियों के विशाल भण्डार हैं पेट्रोलियम भी संतोषप्रद है जल शक्ति के क्षेत्र में भारत संसार के सबसे धनी देशों में एक है यहाँ ऐसे वन हैं जहाँ विश्व विभिन्न बीमारियों के लिए जड़ी बूटी उपलब्ध है

 

  1. यातायात के साधन : औद्योगीकरण की प्रक्रिया में यातायात के साधनों की अवहेलना नहीं की जा सकती है कच्चे माल , मशीन तथा श्रमिकों को उत्पादन केन्द्र तक पहुँचाने में , बने हुए माल को देशविदेश के बाजारों तक ले जाने में तथा उद्योग धन्धों से सम्बन्धित सम्बन्धों को बनाये रखने में यातायात के साधनों के महत्त्व को स्वीकार करना ही पड़ता है अतः यातायात के बिना औद्योगीकरण का कोई महत्त्व नहीं है

 

  1. श्रमशक्ति की प्रचुरता : विकसित देशों की तुलना में हमारे देश में श्रमशक्ति कहीं अधिक है गाँव में ऐसे करोड़ों भूमिहीन मजदूर हैं जो वर्ष में अधिकतर बेरोजगार रहते हैं , वे कम मजदूरी पर उद्योगों में श्रमिकों के रूप में काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं इनके द्वारा किये जाने वाले औद्योगिक उत्पादन की लागत भी कम होती है यह एक ऐसी दशा है जिसके फलस्वरूप यहाँ औद्योगिक विकास सरलता से सम्भव हो सका

 

  1. आर्थिक नीतियाँ : हमारे देश में औद्योगीकरण का एक प्रमुख कारण सरकार की अधि कि और औद्योगिक नीतियाँ हैं भारत में स्वतन्त्रता के समय से ही एक मिश्रित अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन दिया गया इसमें आधारभूत उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित किया गया , जबकि अन्य उद्योगों का विकास निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया गया श्रम कल्याण एवं श्रम सुरक्षा के लिए ऐसे बहुत से कानून बनाये गये जिससे श्रमिकों के शोषण को रोका जा सके तथा उनकी कार्यकुशलता को बढ़ाया जा सके यह दशा भी औद्योगिकीकरण के विकास में सहायक सिद्ध हुई

 

  1. अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा : भारत में औद्योगीकरण के विकास का एक अन्य कारण अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में भारत द्वारा हिस्सा लेना है वर्तमान युग में कोई भी देश अपनी अर्थिक स्थिति को केवल तभी मजबूत बना सकता है जब वह दूसरे देशों से वस्तुओं का आयात करने के साथ ही स्वयं भी विभिन्न वस्तुओं का बड़ी मात्रा में उत्पादन करके उनका दूसरे देशों को निर्यात कर सके आयात और निर्यात के सन्तुलन से ही हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत बनती है स्वतंत्रता के बाद भारत ने आर्थिक क्षेत्र में जैसेजैसे अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेना शुरू किया , यहाँ औद्योगीकरण में वृद्धि होती गई

 

7.शैक्षणिक संस्थाएँ : भारत में औद्योगीकरण के कारणों में शिक्षण संस्थाओं का बड़ा महत्त्वपूर्ण भूमिका है शिक्षण संस्थाओं के द्वारा विभिन्न कोर्स जो कि आधुनिक उत्पादन से संबंधित है करोड़ों की संख्या में ऐसे विद्यार्थी हैं जो कि हसिल कर रहे हैं अतः उपर्युक्त दशाओं के साथसाथ नये आविष्कार , नगरीकरण की प्रक्रिया तथा बैंकिंग सुविधा तथा सेवा क्षेत्र का विस्तार आदि वे सहायक दशाएँ हैं जिन्होंने औद्योगीकरण के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया

 

औद्योगीकरण के फलस्वरूप सामाजिक आर्थिक परिवर्तन : आज भी भारत आधारभूत रूप में गाँवों का देश है पर आज औद्योगीकरण की प्रक्रिया भी तेजी से अपने प्रभाव का विस्तार करती जा रही है औद्योगीकरण की प्रक्रिया ने हमारे सम्पूर्ण सामाजिक संरचना में परिवर्तन ला दिया है और हमारा सामाजिक , आर्थिक , मानसिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक , धार्मिक एवं नैतिक जीवन एक नया मोड़ ले रहा है औद्योगीकरण के ये प्रभाव स्वस्थ भी हैं और अस्वस्थ भी हम संक्षेप में अब दोनों प्रकार के प्रभावों की विवेचना यहाँ करेंगे – 


  1. सामाजिक सांस्कृतिक सम्पर्कों का विस्तृत क्षेत्र : औद्योगीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव यह है कि इसके फल्स्वरूप सामाजिक सांस्कृतिक सम्पर्कों का क्षेत्र स्वतः ही बढ़ जाता है शहरों के सामाचार पत्रपत्रिका , पुस्तक , रेडियो , केवल नेटवर्क , इंटरनेट , टेलीफोन , मोबाइल आदि के माध्यम से दूसरे प्रातों या देशों के साथ सम्पर्क स्थापित करना सरल होता है ये सभी तत्व सामाजिक सांस्कृतिक सम्पर्क के क्षेत्र को विस्तृत करने में सहायक सिद्ध होते हैं

 

  1. शिक्षा प्रशिक्षण संबंधी अधिक सुविधायें : अपने बच्चों को उचित शिक्षा देने के प्रति झुकाव अधिक होता है इसलिए औद्योगीकरण के साथ साथ शिक्षा प्रशिक्षण सम्बन्धी सुविधाओं का भी विस्तार होता जाता है कुछ नगरों में नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने में शिक्षा प्रशिक्षण संबंधी सुविधाओं का भी विस्तार होता है कुछ नगरों में नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने में शिक्षा प्रशिक्षण संबंध सुविधाओं का अधिक योगदान होता हैं कम्प्यूटर तथा अनेक टेकनिकल कोर्स करके शहरों में नौकरी की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं इन्हीं सुविधाओं के कारण नगर का महत्त्व दिनप्रतिदिन बढ़ता जाता है

 

  1. व्यापार और वाणिज्य का विस्तार : नगरों के विकास के साथसाथ व्यापार और वाणिज्य की प्रगति भी निश्चित रूप में होती है क्योंकि औद्योगीकरण के साथसाथ आबादी बढ़ती है और आबादी बढ़ने से आवश्यकतायें बढ़ती हैं और उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यापार और वाणिज्य का विस्तार आवश्यक हो जाता है इसलिए औद्योगीकरण के साथसाथ नए बाजार , हाट , शॉपिक सेटर , सिनेमा , रेस्टोरेन्ट आदि का भी उद्भव होता जाता है

 

  1. यातायात संदेशवाहन की सुविधाओं में वृद्धि : नगर के विकास के साथसाथ यातायात संदेशवाहन की सुविधाओं का भी प्रसार होता जाता है क्योंकि इसके बिना नगरवासियों का जीवन सुविधाजनक नहीं हो सकता नागरिक परिस्थितियाँ यह माँग करती है कि यातायात और संदेशवाहन के साधानों को विस्तृत किया जाय इसलिए नगर के विकास के साथसाथ डाकघर , टेलीफोन , रेलवे स्टेशन , केरियर सर्विस , इन्टसेट , साइबर कैफे आदि का भी विकास होता जाता है और नगर के अंदर बस तथा टैक्सी सर्विस , ऑटो रिक्शा आदि उपलब्ध होते हैं ये सभी सुविधायें महंगी हो सकती है जो जल्दी ही नागरिक जीवन के आवश्यक अंग बन जाती हैं
  2. राजनैतिक शिक्षा ( Political Education ) : औद्योगीकरण की प्रक्रिया के साथसाथ राजनैतिक दलों की क्रियाशीलता भी बढ़ जाती है वास्तव में नगर राजनैतिक दलों का अखाड़ा होता है और वे अपनेअपने आदर्शों सिद्धांतों को फैलाने के लिए केवल अत्यन्त प्रयत्नशील रहते हैं अपितु एक राजनैतिक दल दूसरे दल को नीचा दिखाने के लिए भी भरसक प्रयत्न करता रहता है फलतः राजनैतिक दाँवपेच सीखने का अवसर नगरों में जितना मिलता है उतना गाँवों में कदापि नहीं यह इसलिए भी सम्भव होता है क्योंकि नगर में यातायात और संदेशवाहन के साधन उन्नत स्तर पर होते हैं और उनके पुस्तक पत्रिका , सामाचारपत्र , रेडियो , टीवी , पोस्टर , बैनर , स्पीकर आदि के माध्यम से अन्तरराष्ट्रीय राजनैतिक जीवन में भाग होना या कम से कम उसके सम्बन्ध में जानकारी हासिल करना हमारे लिये सम्भव होता है यह राजनैतिक शिक्षा को व्यावहारिक स्तर पर लाने में सहायक सिद्ध होता है
  3. सामाजिक सहनशीलता : औद्योगीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव यह है कि नगर निवासियों में सामाजिक सहनशीलता पर्याप्त मात्रा में पनप जाता है इसका कारण भी स्पष्ट है नगरीकरण के साथ साथ विभिन्न धर्म , सम्प्रदाय जाति , वर्ग , प्रजाति , प्रान्त तथा देश के लोग आकर बस जाते हैं और प्रत्येक को एकदूसरे के साथ मिलनेजुलने का तथा एक दूसरे को

अधिक निकट में देखने जानने का अवसर प्राप्त होता है इस प्रकार के सर्पक में एकदूसरे के प्रति सहनशीलता पनपती है

 

  1. पारिवारिक मूल्य संधान में परिवर्तन : नगरीकरण के साथ साथ पारिवारिक मूल्यों एवं संरचना में भी तेजी से परिवर्तन होता है नगरों में बच्चे आज पूरी तरह अपने माता पिता का सम्मान नहीं कर रहे हैं , अपनी जिद्द को ही सर्वोपरि मानते हैं , विवाह अपनी पसन्द की लकड़ी या लड़के से करते हैं , कॉलेज जाने के नाम पर रोमांस देखने को मिलता है कामकाजी लड़कियों का एफयर तो नगरों में आम बात हो गई है प्रेम विवाहों की संख्या में वृद्धि और तलाक की में वृद्धि भी नगरों में अधिक देखने की मिलती है मीडिया एवं संचार क्रांति ने युवा वर्ग की अत्यधिक प्रभावित किया है वह अपने रोल मॉडल की तरह ही बनने ( at her Social Economic effects of urbanization ) रहने की चाह में रहता है पारिवारिक कर्तव्यों की ओर उसका ध्यान नहीं है विवाह के बाद लड़की अपने पति को अलग घर में रहने के लिए प्रेरित करती है एकल परिवारों की संख्या बढ़ना तथा संयुक्त परिवारों का विघटन यहाँ लगातार बढ़ रहा है

 

  1. गन्दी बस्तियों का विकास : औद्योगीकरण के साथसाथ जब औद्योगीकरण की प्रक्रिया भी चलती रहती है तो नगर की जनसंख्या अति तीव्र गति से बढ़ती चली जाती है पर जिस अनुपात में जनसंख्या बढ़ती है उसी अनुपात में नये मकानों का निर्माण नहीं हो पाता है इसलिए नगरीकरण का एक प्रभाव गन्दी बस्तियों का विकास होता है

 

  1. सामाजिक मूल्यों तथा संबंधों में परिवर्तन : औद्योगीकरण के साथसाथ व्यक्तिवादी आदर्श पनपता है नगरों में धन तथा व्यक्तिगत गुणों का अधिक महत्त्व होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी ही चिन्ता करता है और अपने स्वार्थों की रक्षा हेतु जीजान लगा देता है उसका प्रयत्न अपने ही व्यक्ति तत्व का विकास करना तथा अधिकाधिक धन एकत्र करना है क्योंकि इन्हीं पर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा निर्भर करती है इसलिए नगरीकरण का एक प्रभाव व्यक्तिगत स्वार्थ की वेदी पर सामुदायिक स्वार्थ की बलि चढ़ा देना होता है उसी प्रकार नगरीकरण के साथसाथ व्यक्तिगत संबंध अवैयक्तिक सामाजिक संबंधों में बदल जाता है दिल्ली , कलकत्ता , मुम्बाई जैसे बड़े नगरों में तो आठदस मन्जिल वाले एक ही बिल्डिंग में रहने वाले व्यक्तियों में व्यक्तिगत संबंधों का नितान्त अभाव होता है उसी प्रकार जातिपाँति के आधार पर भेदभाव छुआछूत को भावना आदि नगरीकरण के साथसाथ दुर्बल पड़ जाते हैं और इनसे संबंधित सामाजिक मूल्य बदल जाते हैं सामाजिक दूरी का घटना नगरीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव कहा जा सकता है एक राजनैतिक दल दूसरे दल को नीचा दिखाने लगते हैं

 

 10.मनोरंजन का व्यापारीकरण : औद्योगीकरण का एक और उल्लेखनीय प्रभाव मनोरंजन के साधनों का व्यापारीकरण है अर्थात् सिनेमा , थियेटर डिस्को क्लब , खेल कूद , केवल नेटवर्क , मोबाइल , इंटरनेट आदि मनोरंजन के सभी साधनों का आयोजन व्यापारिक संस्थाओं द्वारा किया जाता है इसलिये इनमें शीलता या स्वस्थ प्रभाव का उतना ध्यान नहीं रखा जाता है जितना कि उन्हें दर्शकों के लिये अधिकाधिक आकर्षक बनाकर उनसे पैसा लेने के प्रति सचेत रहा जाता है

 

  1. दुर्घटना , बीमारी गन्दगी : नगरों में दुर्घटनायें अधिक होती हैं अधिक प्रदूषण के कारण बीमारियाँ भी अधिक होती हैं विभिन्न उद्योगों से संबंधित अलगअलग बीमारियाँ पनपती हैं इतना ही नहीं नगरों में घनी आबादी होने के कारण गन्दगी भी अधिक होती है गन्दगी के कारण भी अनेक प्रकार की बीमारियाँ नगर निवासियों की घेरती हैं लाख प्रयत्न करने – पर भी औद्योगीकरण के परिणाम स्वरूप होने वाली दुर्घटना , बीमारी तथा गंदगी की समस्या के टाला नहीं जा सकता

 

  1. सामुदायिक जीवन में अनिश्चितता : नगरों की यह एक प्रमुख समस्या है और समस्या इसलिए है कि इस अनिश्चितता के कारण नगरों की सामुदयिक भावना याहमकी भावना पनप नहीं पाती है जिसके कारण नगर के जीवन में एकरूपता पनप नहीं पाती है यहाँ कोई रात को सोता है तो कोई दिन में कोई आज रोजगार में लगा है कल बेकार है यह अनिश्चितता हर पल पर हर क्षण है सुबह घर से गया हुआ व्यक्ति शाम को घर लौटकर आयोग भी या नहीं , इसकी भी कोई निश्चितता नहीं है यह अनिश्चितता सामुदायिक जीवन को विघटित करने वाले तत्वों को जन्म देती हैं

 

13.सामाजिक विघटन : व्यक्ति तथा संस्थाओं की स्थिति कार्यों में अनिश्चितता अथवा अधिक परिवर्तनशीलता सामाजिक विघटन को उत्पन्न करती है नगरों में सामाजिक परिवर्तन की गति भी तेज होती है जिसके कारण सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है नगरों में बैंक फेल करने , विद्रोह होने , क्रांति अथवा युद्ध छिड़ने की भी सम्भावना अधिक होती है जिनके कारण भी सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है जो कि स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिए घाटक सिद्ध होती हैं

 

 14.परिवारिक विघटन : नगरों में परिवारों के सदस्यों में आपसी संबंध अधिक घनिष्ट नहीं होता है क्योंकि पढ़नेलिखने , प्रशिक्षण प्राप्त करने , नौकरी करने , मनोरंजन प्राप्त करने आदि के लिए घर के अधिकतर सदस्यों को या तो ढंग एक दूसरे हो अलग है या परिवार से बाहर ही अधिक समय व्यतीत करना पड़ता है इस कारण परिवार के सदस्यों का एक दूसरे पर नियंत्रण भी बहुत कम होता है जो कि परिवार को विघटित करने में प्रायः सहायक ही सिद्ध होता है

 

15.व्यक्तिगत विघटन : यह नगरों की एक अन्य उल्लेखनीय समस्या है व्यक्तिगत विघटन के निम्नलिखित पांच स्वरूप नगरों में देखने को मिलते हैं जिनमें से प्रत्येक स्वयं ही एक गम्भीर समस्या है ( a ) अपराध तथा बालअपराध : नगरों में निर्धनता , मकानों की समस्या , बेरोजगारी , स्त्री पुरुष के अनुपात में भेद , नशाखोरी , व्यापारिक मनोरंजन , व्यापार चक्र , प्रतिस्पर्धा , परिवार का शिथिल नियंत्रण , विद्यमान होते हैं जिनके कारण नगरों में अपराध और बालअपराध अधिक देखने को मिलने हैं ( b ) आत्महत्या : नगरों में निर्धनता , बेरोजगारी , असुखी पारिवारिक जीवन , प्रतिस्पर्धा में असफल होने पर जीवन के संबंध में घोर निराशा , रोमांस या प्रेम में असफलता , व्यापार में असफलता आदि की एक राजनैतिक दल दूसरे दल को नीचा दिखाने सम्भावनायें अधिक होती हैं और इनमें से किसी भी अवस्था में व्यक्ति इस प्रकार की एक असहनीय मानसिक उलझन में फंस सकता है , जिससे घुटकारा पाने के लिए वह आत्महत्या को ही चुन लेता है यही कारण है कि गांवों की अपेक्षा नगरों में कहीं अधिक आत्महत्यायें होती हैं ( c ) वेश्यावृत्ति : नगरों में श्रमिक वर्ग अधिक होते हैं जो कि नगरों में मकानों की समस्या तथा मंहगाई के कारण अपने बीबी बच्चों के साथ रहकर अकेले ही रहने को बाध्य होते हैं इसके लिए वेश्यालय मनोरंजन का एक अच्छा स्थान होता है नगरों में पाये जाने वाली निर्धनता तथा बेरोजगारी भी अनेक स्त्रियों को वेश्यावृत्ति को बाध्य करती हैं ( d ) नशाखोरी : मद्यपान आदि व्यक्तिगत विघटन की ही एक अभिव्यक्ति है नगरों में यह समस्या विशेष रूप से उग्र है इस समस्या का चरम रूप तब देखने को मिलता है जबकि नगरों 

 .. नतिक रूप से तटस्थ होती है में बड़ीबड़ी पार्टियों , ‘ डिनरोंमें जहाँ की समाज के उच्चस्तरीयसज्जनोंका जमघट होता है , मद्यपान को सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक और सामान्य शिष्टाचार के रूप में स्वीकार किया है शहरों में जो अपने जीवन में असफल हुए हैं , ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं होती है इसको शराब की दुकानों पर लगी भीड़ से हमें यह और अधिक स्पष्ट हो जाता है ( e ) भिक्षावृत्ति : नगरों में लोग केवल नगरों की गरीबी , भुखमारी और बेरोजगारी से तंग आकर भीख मांगते है अपितु भिक्षावृत्ति को एक व्यापारिक रूप भी देते हैं बड़ेबड़े नगरों में भिखारियों के मालिक होते हैं जिनका कि काम भिखरी बनाना , भिखारियों को भीख माँगने के तरीके सिखाना , उनके शरीर को इस भांति विकृत या जराजीर्ण कर देना होता है जिससे लोगों को दयाभाव अपनेआप उभरे 17.औद्योगीकरण के अन्य सामाजिकआर्थिक प्रभाव : पूँजीवादी अर्थ व्यावस्था का विकास राष्ट्रीय धन का असमान वितरण , आर्थिक संकट , बेकारी , औद्योगिक झगड़े , मानसिक चिन्ता और रोग , संघर्ष प्रतिस्पर्धा , सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि , श्रम विभाजान विशेषीकरणहमकी भावना का प्रभाव आदि औद्योगीकरण के अन्य प्रभाव हैं जो कि भारत में देखने को मिलते हैं

 

 

 

 

 

बड़े पैमाने पर कारखाने के उत्पादन ने मानव इतिहास के पाठ्यक्रम को गहराई से बदल दिया है। इसका प्रभाव इतना अधिक रहा है कि अब हम समाज के एक ऐसे “प्रकार” को पहचानते हैं जिस पर औद्योगिक समाज की छाप है। दुनिया में बड़ा विभाजन औद्योगीकरण और औद्योगीकृत समाजों के बीच है। औद्योगीकृत समाज औद्योगीकृत समाजों के साथ पकड़ने की सख्त कोशिश कर रहे हैं। औद्योगीकरण अपरिहार्य प्रतीत होता है। समाज के पास अब कोई विकल्प नहीं है।

 

औद्योगीकरण एक लंबे और जटिल ऐतिहासिक विकास का उपोत्पाद (परिणाम) है। आज औद्योगीकरण और औद्योगिक समाज की अवधारणाएं हर दिन शब्दावली का हिस्सा बन गई हैं। वे सामाजिक संगठन के एक नए चरण को दर्शाते हैं जिसमें मानव जीवन पर औद्योगिक उत्पादन का प्रभुत्व है। वास्तव में, औद्योगीकरण ने मानव समाज के चरित्र को मौलिक रूप से बदल दिया है।

 

औद्योगीकरण के पास वैज्ञानिक ज्ञान के स्थिर विकास, अध्ययन और उपयोग से उत्पादन की एक प्रणाली है। औद्योगीकरण वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करने के लिए उपयोग की जाने वाली तकनीक में परिवर्तन की प्रक्रिया को संदर्भित करता है। यह आर्थिक जीवन को व्यवस्थित करने का एक तरीका रहा है। इसका प्राथमिक लक्ष्य वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन की प्रति इकाई वास्तविक लागत को कम करना था। एक विश्व व्यापी प्रक्रिया के रूप में औद्योगीकरण ने सभी को बहा दिया है

तेजी से संगठनात्मक परिवर्तन में समाज। औद्योगीकरण को आधुनिक उद्योग और प्रौद्योगिकी के विकास के माध्यम से समाज के परिवर्तन के रूप में समझा जाना चाहिए और जिसके साथ दूरगामी राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन होते हैं।

 

सुश्री गोरे के अनुसार, “औद्योगीकरण एक ऐसी प्रक्रिया को संदर्भित करता है जहां हाथ के औजारों के उपयोग से वस्तुओं के उत्पादन को बिजली चालित मशीनों के उपयोग से बदल दिया जाता है”। यह कृषि, परिवहन और संचार की तकनीकों में संगत परिवर्तन लाता है और व्यापार और वित्त के संगठन में भी परिवर्तन करता है।

 

संक्षिप्त ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ सोशियोलॉजी के अनुसार, उद्योगवाद और औद्योगीकरण शब्द उत्पादन के तरीकों में एक संक्रमण को दर्शाता है जो पारंपरिक प्रणालियों की तुलना में आधुनिक समाजों की संपत्ति बनाने की क्षमता में भारी वृद्धि करता है।

 

शब्द के सख्त अर्थ में औद्योगीकरण आर्थिक वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में शक्ति के सजीव स्रोतों के व्यापक उपयोग पर जोर देता है। उद्योगों और संबंधित प्रौद्योगिकी के विकास की प्रक्रिया को औद्योगीकरण कहा जाता है। औद्योगीकरण प्राथमिक रूप से मानव और मशीनों के वैज्ञानिक उपयोग, तकनीकी विकास और विशेषज्ञता की तकनीक पर निर्भर करता है

 

 

और श्रम का भेदभाव। इसके लिए इंफ्रा-स्ट्रक्चरल सुविधाओं की आवश्यकता होती है औद्योगीकरण सड़क, बिजली, परिवहन और संचार की अवधि। इसमें प्रौद्योगिकी, स्वचालन, बड़े पैमाने पर उत्पादन और बड़े पैमाने पर उपभोक्तावाद का उपयोग शामिल है। यह मुक्त श्रम, निश्चित पूंजी, और पुरुषों, सामग्री, धन और मशीनों के प्रबंधन द्वारा भी चिह्नित है औद्योगीकरण वैज्ञानिक भावना है।

 

विल्बर्ट मूस के अनुसार, “यांत्रिक शक्ति के माध्यम से तैयार माल में अब सामग्री के निर्माण को उद्योग कहा जाता है और इस उद्योग की वृद्धि को हम औद्योगीकरण कहते हैं।” इसका मतलब है कि प्रौद्योगिकी का उपयोग करने की प्रवृत्ति का विकास प्रौद्योगिकी, अर्थव्यवस्था और व्यावसायिक मूल्यों का एक विन्यास है। कोई भी आधुनिक संस्था समाज के आर्थिक संगठन के प्रभाव से बची नहीं है। स्कूल, चर्च, घर, मनोरंजन संस्थान आदि मानवीय मूल्यों पर निर्मित हैं जो आधुनिक सभ्यता के भौतिक ढांचे से उत्पन्न होते हैं। औद्योगीकरण समाज मशीनों और बाजारों से अधिक को संदर्भित करता है। इसका तात्पर्य औद्योगिक विचारों और व्यावसायिक मूल्यों के प्रभुत्व वाले संबंधों के नेटवर्क से जुड़े व्यक्ति और संस्था से है।

 

 

 

 

औद्योगीकरण की पूर्व-शर्तों की अनिवार्य आवश्यकताएँ औद्योगीकरण की पूर्व-शर्तें निम्नलिखित हैं

 

 

बुनियादी कच्चे माल की उपलब्धता:- यह कोई महत्वपूर्ण आवश्यकता नहीं है क्योंकि इन्हें आयात किया जा सकता है। जापान दुनिया में स्टील ऑटोमोबाइल और भारी मशीनरी के अग्रणी निर्माता के रूप में उभरा है, व्यावहारिक रूप से लोहे, तेल या अन्य बुनियादी कच्चे माल का कोई भंडार नहीं है।

 

अवैयक्तिक ऋण की उपलब्धता :- सभी उत्पादक उद्यम उधार ली गई पूंजी पर निर्मित होते हैं। क्रेडिट और वित्तीय संस्थान जो पूंजी को उन लोगों से निकाल सकते हैं जिनके पास अधिशेष है और इसे निवेशक को उपलब्ध करा सकते हैं औद्योगीकरण विकास के लिए अवैयक्तिक ऋण का रूप महत्वपूर्ण है। अवैयक्तिक ऋण की उपलब्धता औद्योगीकरण एक कानूनी प्रणाली के अस्तित्व को मानता है जो यह सुनिश्चित करेगा कि डेबिटर्स और लेनदार एक दूसरे के प्रति अपने दायित्वों का सम्मान करें।

 

 

 

 एक प्रतिबद्ध श्रम शक्ति:- औद्योगीकरण के लिए एक प्रतिबद्ध श्रम शक्ति की आवश्यकता होती है, प्रतिबद्धता औद्योगिक समाज के मूल्यों की स्वीकृति को दर्शाती है और उनकी अभिव्यक्ति औद्योगीकरण व्यवहार श्रमिकों को औद्योगिक कार्य को एक वांछनीय व्यवसाय के रूप में स्वीकार करना होता है। प्रतिबद्धता मशीन पेसिंग के पदानुक्रम, पर्यवेक्षण, अधिकार के अत्यधिक विशिष्ट रूप और गतिशीलता की स्वीकृति की मांग करती है। श्रम को भौगोलिक रूप से मोबाइल होना आवश्यक है और औद्योगीकरण कौशल की शर्तें हैं। एक कार्यबल जो पारंपरिक विचारों के कारण एक ही स्थान, शिल्प या कौशल से बंधा हुआ है, उद्योग की मांगों को पूरा नहीं कर सकता है। चूंकि औद्योगिक तकनीक लगातार बदल रही है, श्रम शक्ति को नई तकनीक के अनुकूल होने में सक्षम होना चाहिए।

 

 

 

बड़ा विस्तारित बाजार:- उद्योग के फलने-फूलने के लिए उसके उत्पादों के लिए एक बाजार होना चाहिए। अवैयक्तिक बाजार के लिए बड़े पैमाने पर प्रस्तुतियों की मांग होनी चाहिए और ऐसा बाजार पहले उपलब्ध होना चाहिए।

 

 राजनीतिक स्थिरता :- राजनीतिक स्थिरता होने पर ही उद्योग फल-फूल सकता है। अस्थिर राजनीतिक परिस्थितियाँ व्यावसायिक उद्यम और हिंद के लिए अनिश्चितता पैदा करती हैं

यह विकास है। स्थिर राजनीति सफल औद्योगीकरण की कुंजी है। दृढ़ सरकार की नीतियां उद्योगों का समर्थन करती हैं।

 

 बुनियादी संसाधनों की गतिशीलता :- मूल संसाधनों की गतिशीलता विशेषकर श्रम और पूंजी की गतिशीलता सफल औद्योगीकरण की कुंजी है। यदि संसाधन पारंपरिक विचारों के कारण बंद हैं और इसलिए जरूरतों को पूरा करने के लिए उपलब्ध नहीं हैं, तो तेजी से औद्योगीकरण मुश्किल हो जाता है।

 

 

उद्यमशीलता की क्षमता:- औद्योगीकरण के लिए उद्यमिता सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है। डेविड मैकलेलैंड ने तर्क दिया है कि किसी भी प्रकार के भौतिक विकास के लिए आर्थिक विकास की इच्छा आवश्यक है। यह उद्यमी है जो उद्यम का परीक्षण करता है। उसे इतना महत्वपूर्ण माना जाता है कि उसे अक्सर भूमि, श्रम और पूंजी के साथ-साथ उत्पादन के कारक के रूप में गिना जाता है।

 

 

आर्थिक गतिविधि:- किसी भी प्रकार की आर्थिक गतिविधि के समृद्ध होने के लिए, व्यापक समाज द्वारा इसकी वैधता की मान्यता होनी चाहिए। औद्योगीकरण स्वयं को तभी स्थापित कर सकता है जब आधुनिक कारखाने के उत्पादन के अंतर्गत आने वाले विचारों, विश्वासों और मूल्यों पर समाज में बुनियादी सहमति हो।

 

 

 श्रम का विभेदीकरण और विशेषज्ञता:- नई तकनीक जो कुल उत्पादन प्रक्रिया के विभाजन को कई सरल चरणों में विभाजित करती है, जिनमें से प्रत्येक के लिए श्रमिकों का एक विशेष समूह औद्योगीकरण शामिल है, औद्योगिक विकास की सबसे महत्वपूर्ण तकनीकी स्थिति है। होना भी चाहिए

 

 

संस्थागत ढाँचे:-सत्ता में स्थानान्तरण और उत्पादन की सामग्री के लिए उत्तरदायित्व अति आवश्यक है। श्रम भी हस्तांतरणीय होना चाहिए। इसका अर्थ है एक श्रम बाजार की स्थापना और श्रमिकों को एक नियोक्ता से दूसरे नियोक्ता, एक कौशल स्तर से दूसरे स्तर पर जाने के लिए प्रेरित करने के लिए वित्तीय और अन्य पुरस्कारों की एक प्रणाली।

 

संविदात्मक प्रणाली निष्पक्ष और कानूनी रूप से बाध्यकारी होनी चाहिए। एकाधिकार या अन्य प्रतिस्पर्धी रणनीतियों पर प्रतिबंध होना चाहिए। साख की प्रणाली, मुद्रा का स्थिरीकरण और इसकी विनिमय दर और कुछ विश्वसनीयता या इस प्रकार आवश्यक राज्य की राजकोषीय नीतियां।

 

 

 निवेश के लिए पूंजी की उपलब्धता:- जब तक निवेश के लिए पर्याप्त पूंजी या कोष न हो औद्योगीकरण कारखानों, उपकरणों, मशीनों और श्रम निर्माण को शुरू नहीं किया जा सकता है, पूंजी निर्माण तभी हो सकता है जब पूर्व-औद्योगिक आर्थिक गतिविधि और औद्योगीकरण विशेष कृषि एक अधिशेष उपज दे सकती है। खपत साबित करने के बाद। निर्वाह आर्थिक गतिविधि अधिशेष के निर्माण के लिए उपयुक्त नहीं है। वाणिज्यिक कृषि जो भूमि और श्रम का कुशल उपयोग करती है और जिसका उद्देश्य उद्योग के विकास के लिए सबसे उपयुक्त बाजार योग्य अधिशेष का निर्माण करना है।

 

 उद्देश्य और मूल्य:- आर्थिक संगठन के इस रूप के लिए जो मूल्य सबसे अधिक है वह युक्तिकरण है। युक्तिकरण का अर्थ है दैनिक जीवन की समस्याओं के लिए तर्कसंगत और तार्किक विचार का प्रयोग। औद्योगीकरण धर्म में उत्तरोत्तर गिरावट आ रही है और विज्ञान और तर्क से प्राप्त धर्मनिरपेक्ष मूल्यों द्वारा इसका प्रतिस्थापन किया जा रहा है। लाभ के तर्कसंगत और कुशल अधिकतमकरण और लागत को कम करने के सिद्धांत के आसपास समाज का आयोजन किया जाता है। रेमंड आरोन कठोर आर्थिक गणना को नए समाज की पहचान मानते हैं।

 

मैकक्लेलैंड के अनुसार, उपलब्धि उन्मुखीकरण आर्थिक समृद्धि के पीछे मुख्य उद्देश्य है। एक बार जब आर्थिक बेहतरी की संभावना व्यापक हो जाती है तो गरीबी के प्रति असंतोष भी व्यापक हो जाता है। तब व्यक्ति स्वयं कड़ी मेहनत करेंगे। उद्यमिता एक अन्य महत्वपूर्ण मूल्य है अर्थात जोखिम उठाना जो तर्कसंगतता जैसे औद्योगिक विकास मूल्यों को प्रेरित करता है; उद्योगों के विकास के लिए वैयक्तिकता और प्रतिरूपण आवश्यक हैं। तर्कसंगत या वैज्ञानिक दृष्टिकोण पहली आवश्यकता है, धार्मिक मूल्यों या अंध विश्वास को तर्क विज्ञान से प्राप्त धर्मनिरपेक्ष मूल्यों द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए। तर्कसंगतता और अवैयक्तिकता वे आधार हैं जिन पर औद्योगिक संगठन का निर्माण होता है।

 

वर्तमान रिटर्न को अधिकतम करने की इच्छा भी औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित करने की संभावना है जिसके लिए पर्याप्त बचत और पूंजी संचय की आवश्यकता होती है।

 

आर्थिक क्षेत्र में व्यक्तिगत बेहतरी प्राप्त करने के लिए शिक्षा और कौशल का अधिग्रहण समूहों और व्यक्तियों में मौजूद होना चाहिए यदि सतत विकास को पूरा करना है

 

मैक्स वेबर का विचार था कि पूंजीवादी उद्यम पश्चिमी यूरोप में अवैयक्तिक क्रेडिट के बिना औपचारिक रूप से मुक्त मजदूरी श्रम, तर्कसंगत कानूनी प्रणाली और एक मूल्य प्रणाली के बिना नहीं आ सकता था, जो सफल आर्थिक गतिविधि को भगवान को प्रसन्न करने वाला मानता था।

 

 

राष्ट्रवाद एक अन्य मूल्य है जो आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के साथ पहचान और अर्थ की भावना प्रदान करने में एक सहसंबंधी कार्य करता है

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

एमएस गोक्स ने औद्योगीकरण की निम्नलिखित आवश्यकता की गणना की है:

 

  1. यह सांसारिकवैराग्य जो व्यक्तिगत मितव्ययिता को भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के साथ लगभग अवैयक्तिक लेकिन गहन व्यस्तता के साथ जोड़ देगा।
  2. विश्वासों का एक धर्मनिरपेक्षता जो जादुई-कर्मकांडों और व्यवहार के पारंपरिक पैटर्न को तोड़ देगा। यह कारण-प्रभाव संबंध की धारणा को बढ़ावा देने में मदद करेगा जो अनुभवजन्य ज्ञान पर आधारित है और यह कुशल प्रथाओं की स्वीकृति की सुविधा भी प्रदान करेगा।
  3. एक सार्वभौमवादी जो कबीले और रिश्तेदारी के अनन्य समूह को तोड़ देगा और व्यवहार के मानदंड प्रदान करेगा जो एक औद्योगिक समाज के द्वितीयक संबंधों के लिए अधिक अनुकूल हैं।
  4. एक मूल्य प्रणाली जो व्यक्तिगत पहल और जिम्मेदारी पर जोर देगी और बिना किसी प्रतिबंधात्मक पारिवारिक नियंत्रण के व्यक्तिगत कार्य को सक्षम करेगी
  5. एक स्तरीकरण प्रणाली आधारित

उपलब्धि मानदंड पर जो व्यावसायिक गतिशीलता की अनुमति देता है

  1. अपेक्षाकृत अधिक खुली पहुंच और विषयों के व्यापक कवरेज के साथ व्यापक प्रसार वाली शिक्षा प्रणाली।
  2. एक मजबूत और केंद्रीय राजनीतिक संरचना यह सत्तावादी व्यवस्था के पतन का कारण बन सकती है और गैर-वैचारिक जन राजनीतिक दलों द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है
  3. ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों में आबादी का आंदोलन।

 

 

 

 

 

विल्बर्ट ई. मूर ने औद्योगीकरण की निम्नलिखित स्थितियों की गणना की है: –

1) मूल्य :- मूल्य परिवर्तन आर्थिक परिवर्तन के लिए सबसे बुनियादी शर्त है। मूल्य विशेष मानदंडों या संगठन और आचरण के नियमों के लिए तर्क प्रदान करते हैं।

2) संस्थान :- इसका तात्पर्य सामाजिक संरचना के प्रमुख पहलू से संबंधित मानदंडों के परिसरों से है। विवाह या आर्थिक विनिमय। संस्थाओं में सबसे प्रमुख आर्थिक संस्था है जिसमें श्रम और विनिमय की ठीक से पहचान की जा सकती है।

3) संगठन :- निर्णय लेने के लिए कुछ व्यवस्थित संरचना होनी चाहिए और प्रशासनिक संगठन भी होना चाहिए।

 

 

4) प्रेरणा :- जब तक व्यक्तिगत बेहतरी के लिए कुछ हद तक उपलब्धि, अभिविन्यास, महत्वाकांक्षा नहीं है, तब तक निरंतर विकास हासिल करना मुश्किल है।

 

 

 

औद्योगीकरण के परिणाम:

 

औद्योगीकरण की पूर्व शर्तों और परिणाम के बीच एक आवश्यक निरंतरता है। यह कार्य क्षेत्र में है कि उद्योग का प्रभाव सबसे तत्काल महसूस किया जाता है। औद्योगिक रोजगार ने मशीनों, साथी श्रमिकों और वरिष्ठों के साथ संबंधों के एक विशिष्ट पैटर्न को जन्म दिया है।

 

औद्योगीकरण का प्रभाव अनेक और व्यापक है। समाज की उन संरचनात्मक विशेषताओं के साथ शुरू करना उचित होगा जो मुख्य रूप से रूप और कार्य में आर्थिक हैं, फिर आर्थिक विकास द्वारा पुनर्व्यवस्थित आबादी की जनसांख्यिकीय और पारिस्थितिक विशेषता के लिए आगे बढ़ें और अंत में सामाजिक संगठन की कुछ उत्कृष्ट विशेषताओं पर चर्चा करें।

 

आर्थिक संरचना :

 

1) विनिमय का मौद्रिक आधार किसी भी पर्याप्त औद्योगीकरण के लिए एक प्रमुख पूर्व शर्त है। माल को चिन्हित करना होगा। मजदूरों का भुगतान होना चाहिए। सेवाओं को आर्थिक रूप से पुरस्कृत किया जाना है। इस लिहाज से वित्तीय लेन-देन बहुत आम हो गया है।

 

2) व्यावसायिक ढाँचे में परिवर्तन :- कारखाना उत्पादन के अधिकांश क्षेत्रों में कुशल श्रमिकों की अत्यधिक माँग है। जैसा कि श्रम सूक्ष्म रूप से विभेदित है और उनमें से प्रत्येक के लिए कई प्रकार के व्यवसाय अस्तित्व में आए हैं, कुशल और शिक्षित श्रमिकों की मांग है।

 

उत्पादक प्रदर्शन पर मौद्रिक मूल्य निर्धारित करके एक श्रम शक्ति तकनीकी बन जाती है।

 

कम उत्पादक से अधिक उत्पादक आर्थिक क्षेत्र में रचनात्मक प्रयास का स्थानांतरण। उत्पाद और प्रक्रिया की तकनीक में बदलाव से जुड़े नए कौशल की मांग है।

 

पारंपरिक कारीगरों को उद्योगों में श्रमिकों के लिए कम कर दिया गया है। इस हस्तांतरण से रचनात्मक कौशल का नुकसान हुआ है। मशीनीकरण ने मानव श्रम की जगह एकरसता और ऊब उत्पन्न की। कार्यकर्ता खुद को मशीन और प्रबंधन द्वारा निर्धारित गति पर दोहरावदार, लघु चक्र संचालन करता हुआ पाता है। मशीन द्वारा मनुष्य की गति मनुष्य और उसके औजारों के बीच पूर्व-औद्योगिक संबंध के स्पष्ट विपरीत है। अपने औजारों पर मनुष्य की महारत को निर्जीव मशीन का जवाब देने की आवश्यकता से बदल दिया जाता है।

 

 

 

श्रमिकों का बड़ा हिस्सा कौशल की मध्य श्रेणी में केंद्रित है। शीर्ष पर अत्यधिक कुशल श्रमिकों का एक छोटा खंड है और सबसे नीचे अकुशल लोगों की अपेक्षाकृत कम संख्या है। आधुनिकीकरण के दौरान सभी श्रेणियों के उच्च प्रशिक्षित पेशेवरों के लिए बेहतर वृद्धि हुई है। चिकित्सकों और औद्योगिक इंजीनियरों का शुरुआती उदय कभी पूरी तरह से गायब नहीं होता है, लेकिन उनकी सापेक्ष स्थिति कम हो जाती है क्योंकि कभी पेशेवर प्रकार नहीं होते हैं। विशेष रूप से संगठन के विशेषज्ञ और विभिन्न संबंधों में निम्न से लेकर आम जनता को प्रमुखता मिलती है।

 

व्यावसायिक संरचना के प्रबंधन के लिए करियर और पीढ़ियों के बीच दोनों में उच्च स्तर की श्रम गतिशीलता की आवश्यकता होती है। व्यावसायिक परिवर्तनों की एक अंतिम प्रक्रिया नौकरशाहीकरण की है, अर्थात् बड़े प्रशासनिक संगठन में विशिष्ट श्रमिकों का नियोजन जो एक बाजार में संविदात्मक विनिमय के बजाय पदानुक्रमित प्राधिकरण के माध्यम से समन्वय प्रदान करता है।

 

3) जनसांख्यिकीय और पारिस्थितिक प्रभाव:- औद्योगीकरण का प्रारंभिक प्रभाव जनसंख्या में नाटकीय वृद्धि का उत्पादन करना रहा है, जब एक समाज औद्योगीकरण करता है, मृत्यु दर में पहली कमी होती है, जिससे जनसंख्या में तेजी से वृद्धि होती है। समय के साथ, हालांकि, प्रजनन दर भी मृत्यु दर से मेल खाने के लिए गिर जाती है। यह एक हद तक अधिक प्रभाव के लिए गर्भनिरोधक तकनीक के विकास के कारण आता है, हालांकि परिवार के आकार को सीमित करने की इच्छा और जागरूकता जो ऐसा करने की क्षमता के भीतर है। उच्च उर्वरता ऐसे शहरी औद्योगिक मूल्यों के साथ असंगत है जैसे व्यक्तिवाद, गतिशीलता और आर्थिक तर्कसंगतता। किसी भी घटना में, तीव्र जनसंख्या वृद्धि का तत्काल प्रभाव आर्थिक विकास को नुकसान पहुँचा सकता है। लगता है pr

उल्लेखनीय है कि नए विकासशील क्षेत्र हैं, आधिकारिक चिंता और नई गर्भनिरोधक तकनीकों के परिणामस्वरूप गिरावट के साथ प्रजनन क्षमता।

 

औद्योगिक विकास शहरीकरण के लिए प्रमुख इनपुट प्रदान करता है। शहरों की संख्या और जनसंख्या दोनों में वृद्धि होती है। औद्योगीकरण द्वारा पेश किए गए बेहतर अवसरों के कारण कई ग्रामीण लोग जमीन से शहरों में स्थानांतरित हो गए। चूंकि शहरी अवसंरचनात्मक सुविधाएं अच्छी तरह से विकसित हैं, उद्योग शहरी क्षेत्रों में केंद्रित हैं, भले ही इन्हें श्रम आपूर्ति के स्रोतों से हटा दिया गया हो। इसके परिणामस्वरूप शहर में नौकरी चाहने वालों की भारी आमद हुई।

 

हालाँकि, औद्योगिक विकास का शहरीकरण प्रभाव तब भी होता है जब कारखाने ग्रामीण क्षेत्रों में पंक्ति सामग्री के स्रोतों के करीब स्थित होते हैं। जमशेदपुर केवल एक आदिवासी हेमलेट था जब टाटा ने वहां अपना स्टील प्लांट स्थापित करने का फैसला किया। यह अब एक हलचल भरा शहर है, जिसमें व्यावहारिक रूप से देश के हर पार्क में विषम आबादी डूबी हुई है।

 

 

 

सामाजिक-संरचनात्मक परिवर्तन:

 

1) नातेदारी और परिवार पर उद्योग का प्रभाव दूरगामी होता है। विस्तारित रिश्तेदारी समूह और दायित्व आर्थिक अधिकतमकरण में बाधा डालते हैं। गतिशीलता औद्योगिक समाज और विस्तारित में एक केंद्रीय मूल्य है। रिश्तेदारी के दायित्वों से गतिशीलता में बाधा उत्पन्न होती है। बुनियादी रिश्तेदारी समूह इतना छोटा होना चाहिए कि वह इष्टतम रूप से गतिशील हो। टैकॉट व्यक्तियों ने तर्क दिया है कि संरचनात्मक रूप से अलग-थलग एकल परिवार औद्योगिक समाज के लिए सबसे उपयुक्त है। मूर का तर्क है कि भारत में संयुक्त परिवार का अस्तित्व इसके सदस्यों के रोजगार की तलाश में प्रवास के बाद भी विस्थापित होने वाले कई लोगों के लिए औद्योगिक कार्य के प्रति कम प्रतिबद्धता के लिए जिम्मेदार कारकों में से एक है, तत्काल परिवार और परिवार के बीच बहुत कम सामाजिक ढांचा है। देशी परिवार। तब एकाकीपन, उदासीनता, अलगाव और आपराधिक आचरण की भावना होती है। नतीजतन, स्वैच्छिक संघों की संख्या में वृद्धि हुई है जिससे ये विस्थापित सदस्य संबंधित होना पसंद करते हैं।

 

2) तार्किकता का संस्थानीकरण यानी समस्या समाधान और अवैयक्तिक संबंधों पर जोर अक्सर एक प्रकार के उपकरणवाद और मौलिक मूल्य अभिविन्यास की कमी को जन्म देता है। इन परिस्थितियों में परिवार एक स्नेहपूर्ण और व्यक्तिगत संबंध के रूप में अपना महत्व बनाए रखता है।

 

3) औद्योगीकरण भेदभाव और स्तरीकरण को भी प्रभावित करता है। प्रबंधक और प्रबंधित पूंजीपति और श्रमिक आय शिक्षा और शक्ति के अंतर वाले दो चरम प्रकार के पदों का प्रतिनिधित्व करते हैं। व्यावसायिकता यानी विशिष्ट ज्ञान के कारण और वृद्धि के कारण मध्य वर्ग का भी उदय हुआ है। उत्पादन में भारी वृद्धि के माध्यम से अमीर और गरीब के बीच गोल्फ भी बढ़ गया है और कई सामाजिक, औद्योगिक और मानवीय समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। सरकार के हस्तक्षेप से श्रमिकों की पीड़ा कम हुई है और संघर्ष भी कम हुआ है।

 

4) पर्यावरण :- औद्योगीकरण के कारण होने वाले शोषण से प्रकृति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। धुआँ, ध्वनि वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण औद्योगीकरण के अपरिहार्य हानिकारक परिणाम हैं। खनिज और तेल संसाधनों के लगातार निष्कर्षण से उनके बहुत तेजी से समाप्त होने का गंभीर खतरा भी होता है। खराब हवा और प्रदूषित पानी भी कई तरह की बीमारियों को जन्म देते हैं जो लाइलाज हैं।

 

5) समुदाय पर प्रभाव:- औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप समुदाय में भारी परिवर्तन हुए। इसका बारीकी से बुना हुआ चरित्र या तो आम तौर पर या अचानक गायब हो गया। उद्योगों के विकास के लिए गतिशील होने के लिए कार्यबल की आवश्यकता होती है, इसके परिणामस्वरूप सामाजिक और भौगोलिक रूप से एक मोबाइल आबादी हुई है। औद्योगिक कार्य अपनी भूमि के कारण कृषि कार्य के रूप में सुरक्षा नहीं देता है

 

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अच्छी तरह से। श्रमिक अपनी आजीविका के स्रोतों के लिए पूरी तरह से कारखानों पर निर्भर करता है।

 

6) पारिवारिक अव्यवस्था:- औद्योगिक समाजों में तलाक और अलगाव में जबरदस्त वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप पारिवारिक अव्यवस्था हुई है। व्यक्तिवाद के विकास ने विवाह और माता-पिता के बच्चे के रिश्ते की संस्था को प्रभावित किया है।

 

7) महिलाओं की स्थिति औद्योगीकरण ने महिलाओं की स्थिति में वृद्धि की है। बाहर शिक्षा और रोजगार के अधिक अवसर के कारण। महिलाओं को अधिक शक्ति और उच्च दर्जा प्राप्त होता है। परिवार की आय में वृद्धि होती है और उपभोक्ता इकाई के रूप में आर्थिक गतिविधियों में इसकी भूमिका लगातार बढ़ रही है।

 

8) शिक्षा पर प्रभाव:- उच्च कौशल और शिक्षा की अधिक मांग है। इस कारण साक्षरता की दर में वृद्धि हुई है। उच्च तकनीकी कौशल की भी आवश्यकता है।

 

9) लोकतंत्र:- राजनीतिक रूप से, लोकतांत्रिक सरकार की वृद्धि होती है। लोकतांत्रिक सरकार लोगों को साक्षर बनाती है और उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करती है, लोग सरकार और सरकार बनाने की प्रक्रियाओं के प्रति अधिक जिम्मेदार बनते हैं। औद्योगीकरण का सिद्धांत इस बात पर बहुत जोर देता है कि इस प्रक्रिया से जो भी परिवर्तन हुए हैं और जो पश्चिमी अनुभव पर आधारित हैं, वे विकासशील समाजों में भी होने चाहिए।

 

औद्योगीकरण एक सामूहिक, विश्वव्यापी परिघटना है। यह वैज्ञानिक ज्ञान के निरंतर विकास और उपयोग पर आधारित है। औद्योगिक क्रांति एच

जैसा कि श्रम के विभेदीकरण और विशेषज्ञता के कारण हुआ, बड़े पैमाने पर बड़े पैमाने पर उत्पादन और मशीनों के व्यय बाजार उपयोग ने गणना किए गए मुनाफे और धन का भारी निवेश किया। पूर्व शर्तें हैं: अवैयक्तिक क्रेडिट की उपलब्धता एक प्रतिबद्ध श्रम शक्ति, बड़ा विस्तारित बाजार और राजनीतिक, स्थिरता, बुनियादी संसाधनों की गतिशीलता, उद्यमशीलता की क्षमता, भेदभाव और श्रम संस्थागत संरचना की विशेषज्ञता, उद्देश्य और मूल्य।

 

परिणाम हैं: तेजी से शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, श्रम का प्रवास। तर्कसंगतता, भौतिकवाद, इस सांसारिक दृष्टिकोण जैसे मूल्यों ने पहले के अभौतिकवादी दर्शन को प्रतिस्थापित कर दिया है। उपलब्धि उन्मुखीकरण अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।

 

उद्योग का प्रभाव- जब जटिल मशीनों का उपयोग किया जाता है तो कारखाने और कार्यालय में मानव पर प्रभाव पड़ता है।

1) जैसे-जैसे संचालन की प्रोग्रामिंग मशीन के साथ अभिन्न होती गई, मशीन की गति वाले काम का व्यापक उपयोग होने लगा। इसने कार्यकर्ता के हाथ से काम का समय और गति छीन ली

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और मशीन में कोगके रूप में कार्यकर्ता की छवि को जन्म दिया।

2) उच्च गति उत्पादन प्राप्त करने के लिए, अत्यधिक विशिष्ट मशीनों का निर्माण किया गया। ताकि प्रत्येक मशीन द्वारा किए जाने वाले विभिन्न कार्यों की संख्या तेजी से सीमित हो जाए। इससे प्रत्येक कार्यकर्ता के लिए आवश्यक ज्ञान की मात्रा के साथ-साथ प्रशिक्षण की मात्रा को कम करने का प्रभाव पड़ा। सामान्य प्रक्रिया को “कार्य सरलीकरण” या नौकरी में कमी के रूप में जाना जाता है और यह स्थायी रूप से श्रमिकों के लिए अरुचिकर है क्योंकि यह दोहराए जाने वाले चरित्र को उत्पन्न करता है और तकनीकी चुनौती का परिणामी अभाव है।

3) क्रमिक चरण निर्माण:- लाइन उत्पादन और लाइन असेंबली अधिकांश औद्योगिक संसाधित की अभिन्न विशेषताएं बन जाती हैं। यह प्रमुख मानवीय परिणाम के रूप में तैयार उत्पाद से किसी भी दिए गए कार्य संचालन का अलगाव था, जिसमें पुरुषों ने अब तैयार उत्पाद को अपने स्वयं के काम के रूप में नहीं देखा और वहां अपने स्वयं के काम को जानते थे और जानते थे कि उनका अपना काम इसमें कहाँ लगा। इसने संभवतः कारीगरी की भावना और उत्पादन में गर्व को नष्ट कर दिया।

4) मशीन प्रक्रियाओं और उत्पादों का डिजाइन और उत्पादन का प्रबंधन इंजीनियर के तकनीकी कर्मचारियों और लाइन प्रबंधकों की विशेष गतिविधियां बन जाती हैं। तकनीकी और जटिल औद्योगिक ज्ञान अभिजात वर्ग के विशेषज्ञ वर्ग में केंद्रित हो गया जहां प्रशिक्षण और संचालन कार्यों ने अधिकांश औद्योगिक श्रमिकों के प्रवेश को प्रभावी ढंग से बंद कर दिया।

 

कार्यकर्ता और सामाजिक संबंध पर उद्योग का प्रभाव:-

1) उद्योग में विभिन्न कुशल व्यवसायों के कारण एक बड़ा मध्यम वर्ग विकसित हुआ है। विशिष्ट ज्ञान वाले कई व्यक्तियों ने उद्योगों में काम करना शुरू किया और उच्च स्तर तक पहुंचे।

2) उपभोग का ढाँचा:- समाज बाजार उन्मुख हो जाता है। अधिकांश सामान बाजार में उपलब्ध होने के कारण लोग उन्हें खरीदने लगे। वे व्यवहार में भौतिकवादी हो जाते हैं।

3) परिवार प्रणाली:- चूँकि व्यक्ति केवल कारखानों में काम करने के लिए शहरों में जा सकते थे, संयुक्त परिवार एकल व्यक्तियों के एकल परिवारों में विघटित हो गए।

4) मूल्य:- तर्कसंगतता और धर्मनिरपेक्षता अधिक लोकप्रिय हो गई लोगों ने उनकी पारंपरिक मान्यताओं की आलोचना की और नए पैटर्न को आसानी से अपनाया।

5) शिक्षा प्रणाली:- शिक्षा संस्था उद्योग की आवश्यकता के लिए आसानी से समायोजित हो जाती है। उद्योगों में काम करने के लिए उन्हें सक्षम करने के लिए व्यक्ति को आवश्यक कौशल प्रदान किया गया।

 

 

 

6) सामाजिक स्तरीकरण और गतिशीलता:- औद्योगिक नौकरियों के साथ बहुत से लोग जो पहले निचले स्तर पर थे उच्च पदों पर पहुंचे और इस प्रकार उच्च स्थिति में चले गए।

7) परिवर्तन के लिए तत्परता :- मास मीडिया और नई सूचनाओं के संपर्क में आने से व्यक्ति ने नई तकनीक को अपनाया और अपने पारंपरिक जीवन के तरीके को बदलने की इच्छा जताई।

 

लेकिन 1960 के दशक में, इस युग ने विकास के दूसरे चरण में प्रवेश किया जिसे हम पोस्ट इंडस्ट्रियल सोसाइटी कहते हैं या “ऑटोमेशन के युग को प्रोग्रामेबल मशीनरी कहा जाता है। इसके निहितार्थ हैं जो वास्तव में मानव मशीन संबंध में क्रांतिकारी हैं। कार्यक्रम के संचालन के लिए उत्पादन क्षमता में श्रमिकों के दो अद्वितीय योगदान और नियंत्रण एकल को समझने और प्रतिक्रिया देने के लिए दोनों को स्वचालन के माध्यम से मशीन परिसर में शामिल किया गया है। विस्तृत और इलेक्ट्रॉनिक फीड बैक उपकरणों को पूरा करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक मेमोरी से आवश्यक निर्देशों को याद करने के लिए एक मशीन को प्रोग्राम करना अब संभव है जो एक चालू प्रक्रिया से जानकारी लेते हैं और प्रक्रिया में सुधारात्मक संकेतों को फीड करके ऑपरेशन को संशोधित और मॉनिटर करने के लिए इसका उपयोग करते हैं। मशीनें वह भी कर सकती हैं जो मनुष्य अपनी शारीरिक सीमाओं के कारण करने में सक्षम नहीं है।

 

दूसरी औद्योगिक क्रांति की मूलभूत विशेषताएं इस प्रकार इसकी महान और विस्मयकारी संभावना का परिचय है कि लोगों को कई वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन से काफी हद तक समाप्त किया जा सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अधिकांश औद्योगिक रूप से उन्नत देशों में यह पहले से ही एक समस्या है।

 

श्रमिक:- श्रमिक वे व्यक्ति होते हैं जो अपने स्वयं के उपभोग के लिए और दूसरों के लिए वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन या परिवर्तन करते हैं। काम के लिए पैसे का भुगतान हमेशा उसके प्रदर्शन के साथ नहीं होता है, हालांकि टी

वह उन्नत काउंटियों में सामान्य है।

 

एक श्रमिक एक पूंजीपति द्वारा अनुबंधित किराए पर लिया गया श्रमिक है। कारखानों में मशीनों के साथ काम करने के लिए वह अपनी ऊर्जा बेचता है। वह एक निश्चित अवधि के लिए कार्य करता है, एक निश्चित अवधि के लिए दिए गए निर्देशों का पालन करता है। उसे दिए गए निर्देशों का पालन करता है और औद्योगिक उत्पादन के लिए समर्पित अपने समय के लिए मजदूरी प्राप्त करता है, उसका पूंजीपति के साथ औपचारिक संबंध होता है जो उसे नियोजित करता है।

 

मजदूरों को दैनिक मजदूरी दी जाती है। वे तब तक काम करते हैं जब तक ठेका खत्म नहीं हो जाता। ठेका खत्म होने के बाद पूंजीपति मजदूरों के लिए जिम्मेदार नहीं होता। इस प्रकार वह एक अस्थायी कर्मचारी है। पहले कार्यकर्ता बिना किसी अवकाश के लगातार 10-12 घंटे काम करता था। बाद में ट्रेड यूनियन के प्रयासों के कारण, काम का बोझ, काम के घंटे कम कर दिए गए, अवकाश शुरू कर दिया गया, साप्ताहिक अवकाश दिया जाता है, मजदूरी बढ़ा दी जाती है। कर्मचारी को वेतन भी दिया जाता है बढ़ा दिया जाता है।

 

 

 

कार्यकर्ता को काम करने की अच्छी स्थिति और काम पर सुरक्षा भी दी जाती है। सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के तहत उन्हें सामाजिक सुरक्षा भी दी जाती है।

 

कार्यकर्ता को उनके कौशल के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है- अकुशल अर्धकुशल और कुशल। कुशल श्रमिक प्रशिक्षण की लंबी अवधि लेते हैं और इसलिए उन्हें सबसे अधिक भुगतान किया जाता है, उन्हें स्थायी या अस्थायी श्रमिकों के रूप में भी वर्गीकृत किया जा सकता है, स्थायी श्रमिकों को नियमित रूप से बढ़े हुए वेतन से कुछ अतिरिक्त लाभ मिलते हैं। उन्हें सामाजिक सुरक्षा भी दी जाती है।

 

श्रमिक कैजुअल, ठेका या मौसमी भी हो सकते हैं, कारण श्रम वह श्रमिक होता है जो कुछ स्थायी श्रमिकों के स्थान पर अस्थायी रूप से काम करता है।

 

ठेका श्रमिक वह श्रमिक है जो काम करता है और ठेके की अवधि समाप्त होने पर उसे काम छोड़ना पड़ता है।

 

मौसमी कर्मचारी केवल मौसम के दौरान या मांग होने पर ही काम करते हैं।

 

श्रमिकों की मजदूरी उनकी मांग, कौशल, नौकरी और उद्योग की प्रकृति पर निर्भर करती है।

 

वे असंगठित क्षेत्र में संगठित क्षेत्र में काम करते हैं, संगठित क्षेत्र उन्हें असंगठित क्षेत्र की तुलना में अधिक वेतन दे सकता है, संगठित क्षेत्र उन्हें अधिक सुरक्षा भी दे सकता है।

 

श्रमिक पारंपरिक उद्योगों जैसे कपड़ा रेलवे जूट मिलों आदि में भी काम कर सकते हैं जहाँ तकनीक बहुत सरल है और अधिकांश श्रमिक ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन करते थे। लेकिन आज वे आधुनिक पैकेजिंग केमिकल या प्लास्टिक के कारखानों में काम कर रहे हैं जहाँ नई मशीनों का उपयोग किया जा रहा है और जिसके लिए आधुनिक उद्योगों में श्रमिकों की ओर से उच्च कौशल की भी आवश्यकता होती है कौशल उन्हें कंप्यूटर आदि के साथ प्रोग्रामरया डेटा प्रोसेसर के रूप में काम करने की आवश्यकता होती है।

 

कर्मचारियों का एक नया समूह भी कंप्यूटर के साथ काम करता है। विशेष क्षेत्र में कुशल श्रमिकों की मांग बढ़ी है। आधुनिक कार्यकर्ता ऊपर चढ़ने के लिए अंग्रेजी बोल सकता है। वह करियर के प्रति जागरूक हैं। वह अपनी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर नौकरी प्राप्त करता है। आधुनिक औद्योगिक श्रमिक इस प्रकार आम तौर पर युवा अधिक साक्षर, बेहतर शिक्षित, अधिक कुशल और बेहतर वेतन पाने वाले होते हैं।

 

कार्यकर्ता को लिंग और आयु के अनुसार भी विभाजित किया जा सकता है। यानी पुरुष और महिला श्रमिकों के साथ-साथ वयस्क और बाल श्रमिकों के पुरुष श्रमिकों को अधिक भुगतान किया जाता है, उन्हें अधिक चुनौतीपूर्ण नौकरियां दी जाती हैं और उनकी नौकरियां हस्तांतरणीय होती हैं जबकि महिला श्रमिकों को अच्छा वेतन नहीं दिया जाता है, कोई सुरक्षा या कोई कुशल नौकरी नहीं दी जाती है। ज्यादातर महिला कामगारों को उन नौकरियों में लगाया जाता है जो उनके प्राथमिक नियमों से संबंधित होती हैं, जैसे

 

 

 

खाना पकाने, नर्सिंग बच्चों की देखभाल आदि नौकरियों के लिए मशीनों या श्रमिकों के संचालन की आवश्यकता होती है। नौकरी के चयन में हमेशा लिंग जैसा होता है।

 

बाल श्रमिकों को हमेशा सबसे कम वेतन दिया जाता है। उन्हें सुरक्षित काम करने की स्थिति भी नहीं दी जाती है और उनकी नौकरी के लिए अत्यधिक लंबे समय तक काम करने की आवश्यकता होती है, बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है।

 

 

 

 

लौकिकीकरण या धर्मनिरपेक्षीकरण :       

 

        लौकिकीकरण अथवा धर्मनिरपेक्षीकरण वह प्रक्रिया है जिसके परिणामस्वरूप किसी समाज में धर्म के आधार पर सामाजिक व्यवहार में भेदभाव समाप्त किया जाता है धर्मनिरपेक्षीकरण जो बुद्धिवाद पर आधारित है , आधुनिकीकरण के लिए आवश्यक है , चूँकि प्रत्येक समाज अब आधुनिकृत होना चाहता है , इसलिए वह धर्मनिरपेक्षीकरण को आश्रय दे रहा है स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में जो भी राज्य धर्म निरपेक्ष राज्य नहीं था , आज वहाँ भी धर्मनिरपेक्षीकरण की बात की जा रही है लौकिकीकरण में धर्म की पुनर्व्याख्या , बुद्धिवाद और उदारवाद का सीधा संबंध है डॉ श्रीनिवास ने इस प्रक्रिया का विस्तृत विश्लेषण किया है

 

धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया समाज की एक मूलभूत विशेषता हो गयी है आज से कुछ दशाब्दी पूर्व भारत में जिन कृत्यों को धार्मिक तथा पवित्र समझा जाता था आज उन्हें व्यर्थ के रूढ़िवादी अतार्किक व्यवहार के रूप में देखा जाता है , एक धर्म तथा जाति का जो विशेष प्रभाव स्वीकार किया जाता रहा है , अब वह उस प्रकार से प्रभावी नहीं रहा है विभिन्न विचारकों का मत है कि भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को गति देने का क्षेय अंग्रेजी शासन को है अंग्रेजी शासन अपने साथ भारतीय सामाजिक जीवन और संस्कृति के लौकिकीकरण की प्रक्रिया भी लाया यह प्रवृति संचार साधनों के विकास और नगरों की बढ़ी हुई स्थानमूलक गतिशीलता और शिक्षा के प्रसार के साथसाथ क्रमशः और भी प्रबल हो गई दोनों महायुद्धों और महात्मा गाँधी के नागरिक अवज्ञा आन्दोलनों ने जनसाधारण के राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से सक्रिय तो किया ही , लौकिकीकरण की वृद्धि में भी योग दिया सन् 1947 के बाद भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्राप्ति का जो प्रत्यल किया है , वह वास्तव में उल्लेखनीय है

 

स्वतंत्र भारत के संविधान में यह लिखा हुआ है किभारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा कानून  की दृष्टि में भी नागरिकों में धर्म , जाति , लिंग आदि के आधार पर कोई भेद भाव नहीं होगा संसद सभा विधानसभाओं के लिये चुनाव बालिग मताधिकार के आधार पर होगा और भारतीय भूभागों का विकास निष्पक्ष योजनाबद्ध कार्यक्रमों के आधार पर सम्पादित होगा

 

 

 

धर्मनिरपेक्षीकरण का अर्थ :             शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से यह वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति के अस्तित्व , महत्त्व , पहचान या विकास का धर्म के साथ कोई संबंध नहीं जोड़ा जाता है धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रत्यक्ष संबंध तार्किक दृष्टिकोण से है इसके अन्तर्गत विश्व की व्याख्या विशुद्ध चिन्तन के रूप में प्रस्तुत की जाती है धर्मनिरपेक्षीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा परम्परागत विश्वासों तथा धारणाओं के स्थान पर तार्किक ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है प्रो श्रीनिवास ने स्पष्ट लिखा है किधर्मनिरपेक्षीकरणमें यह बात निहित है कि जिसे पहले धार्मिक माना जाता था , अब वह वैसा नहीं माना जाता है उन्होंने इसका स्पष्टीकरण देते हुए लिखा है कि , उसमें विभेदीकरण की एक प्रक्रिया भी निहित है जिसके परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न आर्थिक , राजनीतिक , कानूनी तथा नैतिक पक्ष एक दूसरे के मामले में अधिकाधिक सावधान होते जा रहे हैं इस प्रकार श्रीनिवास ने लौकिकीकरण को मात्र धर्मनिरपेक्षता के अर्थ में नहीं समझा इनके अनुसार लौकिकीकरण की दो विशेषताएँ प्रमुख हैं

 

  1. प्रथम तो यह प्रक्रिया इस भावना से सम्बन्धित है कि हम पहले जिसे धार्मिक मानते थे उसे अब धर्म की श्रेणी में नहीं रखते
  2. दूसरी विशेषता यह है कि इस प्रक्रिया के अन्तर्गत हम प्रत्येक तथ्य को तर्क बुद्धि से देखने और समझने का प्रयत्न करते हैं परम्परागत रूप से हमारे सामाजिक जीवन में इन दोनों विशेषताओं का नितान्त अभाव था कोई व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था की सार्थकता के बारे में तर्क नहीं कर सकता था क्योंकि सम्पूर्ण व्यवस्था को धर्म से मिला दिया गया था कन्साईज आक्सफोर्ड शब्दकोष में लौकिकीकरण की कई परिभाषाएँ दी गई हैं इन परिभाषाओं को लोकवाद , धार्मिक विश्वासों के प्रति संदेहवाद तथा धार्मिक शिक्षा के प्रति विरोधाभास के रूप में बतलाया गया है तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय शब्द कोष में लौकिकवाद की निम्न परिभाषा दी गई है ” ( लौकिकवाद ) सामाजिक आचारों की एक ऐसी व्यवस्था है जो इस सिद्धान्त पर आधारित है कि आचार संबंधी मापदण्ड तथा व्यवहार विशेष रूप में धर्म से हटकर वर्तमान जीवन तथा सामाजिक कल्याण पर आधारित होने चाहिये बाटर हाउस नेलौकिकीकरण की परिभाषा एक ऐसी वैचारिकी के रूप में की है जो जीवन तथा आचार व्यवहार का एक सिद्धान्त प्रस्तुत करती है , जो धर्म द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त के विरुद्ध है इसका सार भौतिकवादी है इसकी मान्यता यह है कि मानवीय कल्याण को केवल राष्ट्रीय प्रयासों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है लेकिन बेकर ने यह मानने से इंकार किया है कि लौकिकवाद एक धर्मविरोधी अवधारणा है

 

इनका कहना है किलौकिक ” ” अपवित्रया इसी प्रकार के अन्य शब्दों का पर्यायावाची नहीं है ‘ ‘

 

ब्लेकशील्ड ने बेकर के इस विचार का समर्थन किया है इन्होंने बतलाया है किलौकिकवाद धार्मिक संस्थाओं का विरोध नहीं करता नही यह विधि , राजनीतिक तथा शिक्षा संबंधी प्रक्रियाओं में धार्मिक उप्रेरणाओं का विरोधी है इसमें तो केवल मनोवृत्तियों के प्रकार्यात्मक विभाजन पर बल दिया जाता है अर्थात् विभिन्न प्रकार की सामाजिक क्रियाओं में शक्तियों का सामाजिक विभाजन ब्लेकशील्ड का कहना है कि धर्म , शिक्षा तथा विधि को एक दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिये और ही अपने क्षेत्र को सीमाओं से बाहर जाना चाहिये जिस सीमा तक धर्म अपनी ही सीमाओं के अन्दर रहता है वहाँ तक लौकिकवाद की अवधारणा धार्मिक निरपेक्ष मानी जा सकती है

 

यह तो धार्मिकता का समर्थन करता है और ही विरोध इस प्रकार लौकिकवाद सामाजिक समस्याओं के क्षेत्र में वह स्थिति है जिसमे विधि तथा शिक्षा धार्मिक संस्थाओं तथा धार्मिक उत्प्रेरणाओं को स्वतंत्र होते हैं लौकिकवाद तो एक ऐतिहासिक विकास की अवस्था है जिसमें विधि तथा शिक्षा का धर्म पर आधारित होना स्थापित हो जाता है इस प्रकार यदि लौकिकवाद की विभिन्न परिभाषाओं पर विचार किया जाय तो ऐसे अनेक विषयों की सूची बनायी जा सकती है जिनको इसके अन्तर्गत माना जाता है जैसे : वैज्ञानिक मानववाद , प्रकृतिवाद और भौतिकवाद , अजेयवाद और प्रत्यक्षवाद , बौद्धिकवाद , प्रजातंत्रवाद तथा साम्यवाद , आशावाद तथा प्रगतिवाद , नैतिक सापेक्षवाद शून्यवाद आदि

 

धर्मनिरपेक्षीकरण के आवश्यक तत्व               :

 

  1. तार्किकता : धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रत्यक्ष संबंध तार्किक दृष्टिकोण से है इसके अन्तर्गत प्रघटना की संख्या विशुद्ध रूप में की जाती है समाज में जितने भी व्यवहार तर्कहीन हैं , उन्हें इस प्रक्रिया द्वारा नकारा जाता है इसी कारण इस प्रक्रिया में रूढ़िवादी , अतार्किक , परम्परागत विश्वासों तथा धारणाओं के स्थान पर तार्किक ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है इसमें विभेदीकरण की एक प्रक्रिया भी निहित है जिसके परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न आर्थिक , राजनैतिक , कानूनी , नैतिक और सामाजिक आदि अंग एक दूसरे से अधिकाधिक स्वतंत्र होते जाते हैं

 

  1. कार्यकारण संबंध : धर्मनिरपेक्षीकरण में एक अन्य आवश्यक तत्वकार्य करणसम्बन्धों का प्रदर्शन है जिसे बुद्धिवाद से भी सम्बोधित किया जाता है प्रो श्रीनिवास के अनुसार इसके अन्तर्गत पारम्परिक विश्वासों तथा धारणाओं के स्थान पर आधुनिक ज्ञान की स्थापना निहित है धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया की यह विशेषता है कि यह पारस्परिक विश्वासों तथा तर्कहीन धारणाओं को यथासंभव नष्ट करने का प्रयत्न करती है ऐसे विचार जो पारस्परिक हैं जिन्हें कार्य कारण संबंध की कसौटी पर नहीं बक्सा जा सकता , वे अपने आप इस प्रक्रिया द्वारा समाप्त हो जाते हैं यदि उनका अस्तित्व किसी प्रकार बना भी रहता है तो उन्हें उचित जनमत का समर्थन नहीं मिल पाता है

 

  1. पवित्रताअपवित्रता की धारणा : हिन्दू धार्मिक आचरण में पवित्रता और अपवित्रता की धारणा प्रमुख रही है इसी आधार पर विभिन्न जातियों की दूरी निश्चित होती है इसी आधार पर जातियों में स्पर्श , विवाह और भोजन निषेध रहे हैं प्रत्येक हिन्दू को सामान्य जीवन में पवित्रता और अपवित्रता की धारणाएँ और कार्य जुड़े हुए हैं जैसे : दाढ़ी बनाना ब्राह्मणों के लिये अपवित्र कार्य था पिछले वर्षों में ये धारणाएँ क्षीण हुई हैं पवित्रता के नियमों का स्थान स्वास्थ्य और स्वच्छता के नियमों ने ले लिया शिक्षित ब्राह्मणों और कट्टपंथियों ने धीरेधीरे कट्टर नियमों के स्थान पर बुद्धि संगत व्याख्या को महत्त्व दिया है और पवित्रता को स्वास्थ्य नियमों का दूसरा रूप कहा है श्रीनिवास ने मैसूर की ब्राह्मण स्त्रियों का उदाहरण दिया है और कहा है कि शिक्षित स्त्रियाँ अपवित्रता के बारे में बहुत अधिक चिंतित नहीं है , परन्तु स्वास्थ्य के नियमों को महत्त्व दे रही है संयुक्त परिवार से अलग होने पर कर्मकाण्डों के इस रूढ़ रूप को छोड़ देती हैं लौकिकीकरण को प्रक्रिया से अनेक कर्मकाण्डों को त्याग दिया गया है नामकरण और अन्य कर्मकाण्ड जैसे : विधवा का मुण्डन अब प्रचलित नहीं है , संस्कारों को छोड़ने संक्षिप्त करने की प्रक्रिया के साथसाथ संस्कारों को मिला भी दिया जाता है जिससे व्यक्त जिन्दगी में समयाभाव को कम किया जा सके यथा विवाह के साथ दो दिन पूर्व उपनयन संस्कार भी हो जाता है — 

84 भारत में सामाजिक परिवर्तन : दशा एवं दिशा विवाह संस्कार भी संक्षिप्त होता जा रहा है सर्वसंस्कार युक्त ब्राह्मणविवाह जिसमें पहले 5 से 7 दिन लगते थे अब एक दिन या कुछ घण्टों में ही निपटा दिया जाता है विवाह के समय निकट संबंधी ही उपस्थित रहते हैं , अन्य अतिथि केवल स्वागत समारोह में भाग लेते हैं वर वधू को ऊँचे आसन पर बिठला कर संगीत आदि सुनना , बैण्ड बजवाना , अतिथियों को जलपान कराना आदि क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण हो गयी हैं परम्परागत व्यवस्था में जैसे सप्तवादी में 7-8-9 घण्टे लग जाते थे अब बहुत जल्दी ही इन कार्यों से वर वधू को निवृत्त कर दिया जाता है

 

धर्मनिरपेक्षीकरण के उद्देश्य :

 

  1. धर्मनिरपेक्षीकरण का उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता की प्राप्ति है धर्मनिरपेक्षता से ताप्तर्य एक निश्चित प्रकार के व्यवहार से है जबकि धर्मनिरपेक्षीकरण एक प्रक्रिया है जो उस व्यवहार प्रतिमान को प्राप्त करने में मदद देती है धर्मनिरपेक्षता व्यवहार की उस दशा को कहेंगे जहाँ राज्य , नैतिकता तथा शिक्षा आदि के ऊपर धर्म का अनावश्यक प्रभाव नहीं होता अमेरिका में धर्मनिरपेक्षीकरण का अर्थ होता है कि समाज में राज्य तथा चर्च बिना एक दूसरे को प्रभावित किए हुए अपनेअपने अस्तित्व को बनाए रखें यही कारण है कि जो शिक्षण संस्थाएँ वहाँ चर्च द्वारा चलाई जाती हैं राज्य सरकार उसे अनुदान नहीं देती है भारतवर्ष में धर्मनिरेपक्षता का अर्थ पश्चिम में लिये गये अर्थ से कुछ भिन्न है यहाँ धर्म निरपेक्षता का अर्थ होता है कि राज्य किसी भी धर्म को आश्रय नहीं देता , लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि यदि कोई धार्मिक संस्था किसी शिक्षण संस्था को चलाती है तो राज्य सरकार उसे अनुदान नहीं देगी

 सांस्कृतिक विकास के लिये तथा विभिन्न सम्प्रदायों के सहअस्तित्व के लिए यदि आवश्यक हुआ तो राज्य सरकार विभिन्न धार्मिक संस्थाओं को निर्देशित कर सकती है जैसे : केन्द्र सरकार द्वारा गौहत्या पर प्रतिबन्ध है जबकि कुछ धर्म इस प्रकार के प्रतिबन्ध को अवांछनीय मानते हैं भारत में इस बात की व्यवस्था है कि कानून तथा आग्रह के माध्यम से धर्म के दोषों को दूर किया जाय जैसे : हिन्दू धर्म के विभिन्न दोष दूर किये गये इस्लाम धर्म के दोषों को भी इस प्रकार दूर किया जा अब भारत में धर्म के प्रति विद्यमान परम्परागत दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है यद्यपि मुसलमानों कापरसनल लाँअभी भी आधुनिकीकृत होना है , भारत में धर्मनिरपेक्षता के मार्ग में भारतीय समाज स्वयं बाधक रहा है हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदाय धर्म के माध्यम से अपनेअपने उद्देश्यों को पूरा करते रहे हैं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अब विभिन्न राजनीतिक दल धर्म के माध्यम से राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा कर रहे हैं , जो धर्म निरपेक्षता के मार्ग में बाधक हैं

 

सरकारी तथा विरोधी दल कोई भी पूर्ण धर्मनिरपेक्षता के लिए सक्रिय नहीं दीखता जवाहर लाल नेहरू ने 14 अगस्त , 1947 के सत्ता मिलने के समय कहा था कि इस अर्ध रात्रि के समय जब पूरा विश्व सो रहा है , भारत स्वतन्त्र जीवन के लिए जागेगा इस स्वतंत्र जीवन का आधार धर्मनिरपेक्षता होगा वह राष्ट्र अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता जो साम्प्रदायिकता तथा धर्म पर आधारित होगा भारत केवल एक धर्म निरपेक्ष तथा प्रजातांत्रिक राज्य होगा जहाँ प्रत्येक नागरिक को चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों हो , उसे समान अधिकार प्राप्त होंगे

 

  1. धर्मनिरपेक्षीकरण का दूसरा उद्देश्य धर्मनिरपेक्ष राज्य की प्राप्ति है धर्मनिरपेक्ष राज्य वह है जहाँ प्रत्येक नागरिक को समान अवसर समानता के आधार पर प्राप्त है और जहाँ समाज नागरिकों के कार्यकलापों में धर्म के आधार पर व्यवधान नहीं डालता डी स्मिथ ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की व्याख्या करते हुए लिखा है कि वह राज्य जो लोगों को धर्म के स्वतंत्रता की गारंटी देता है , प्रत्येक धर्म अनुयायी को नागरिक की मान्यता देता है वह मात्र संवैधानिक रूप से किसी विशेष धर्म से सम्बन्धित नहीं होना चाहिये और ही वह किसी धर्म विशेष को प्रगति और सकता

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ 85 – अवनति से सम्बन्धित हो धर्मनिरपेक्ष राज्य का शाब्दिक अर्थ है कि वह राज्य जो किसी धर्म विशेष में आस्था नहीं रखता है अतः धर्मनिरपेक्ष राज्य एक व्यक्ति को एक नागरिक के रूप में देखता है कि किसी विशेष धार्मिक समूह के सदस्य के रूप में धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म के आधार पर लोगों के अधिकार तथा कर्त्तव्य की व्याख्या नहीं होती भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 की धारा एक में यह घोषणा की गई है कि राज्य धर्म , प्रजाति , जाति , लिंग तथा जन्म स्थान के आधार पर लोगों में भेदभाव नहीं करेगा इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण भारत एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में प्रवतरित हुआ है जहाँ धार्मिक भेदभाव है वैसे अब धर्म का समाज में वह स्थान नहीं रहा जो पाँच दशाब्दी पूर्व था

 

 

धर्मनिरपेक्षीकरण की विशेषताएँ :

 

  1. बुद्धिवाद का विकास : धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण प्रत्येक घटना के लिये धर्म पर आश्रित रहने की बात समाप्त हो जाती है आदिम व्यक्ति प्रत्येक सामाजिक घटना का धर्म तथा अलौकिक शक्ति की देन मानता था लेकिन जैसेजैसे बुद्धिवाद का विकास हुआ कार्य कारण सम्बन्धों की व्याख्या बढ़ी और वास्तविक कारणों की जानकारी के कारण धर्म का महत्त्व कुछ कम हुआ अब प्रत्येक व्यक्ति तार्किक व्यवहार को उचित मानता है

 

  1. धार्मिकता में ह्रास : धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण धार्मिक संस्थाओं का महत्त्व अब कम हुआ है इसका कारण यह है कि धर्म के नाम पर अब उच्च या निम्न प्रस्थिति का निर्धारण नहीं होता पहले जो व्यक्ति जितने अधिक धार्मिक कर्मकाण्ड करता था उसे उतना हो अधिक सम्मान दिया जाता था लेकिन अब उसी व्यक्ति को पिछड़ा हुआ व्यक्ति कहा जाता है जो अपने कार्यों की सफलता असफलता को धर्म में ढूँढ़ता है अतः स्पष्ट है कि जैसेजैसे धर्मनिरेपक्षीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ती है धर्म का महत्त्व कम होता है , और इस प्रकार धार्मिकता में ह्रास होता है

 

  1. बढ़ता हुआ विभिन्नीकरण : पहले प्रत्येक घटना के पीछे धर्म को प्रभावी कारक मान लिया जाता था और प्रत्येक घटना की व्याख्या धर्म के ही आधार पर की जाती थी चाहे वह अपराध हो या बीमारी , मृत्यु हो या प्राकृतिक प्रकोप , लेकिन अब प्रत्येक घटना के अलगअलग और वास्तविक कारणों की खोज की जाती है जिसमें सामान्यतः धार्मिक और आध्यात्मिक शक्ति के प्रभाव को कम से कम स्वीकारा जाता है इस स्थिति के कारण विभिन्नीकरण की मात्रा बढ़ जाती है विशिष्ट प्रकार के कार्य करने वाले अलगअलग लोग होते हैं अतः उनमें दूरी स्वाभाविक है

 

  1. आधुनिकीकरण की प्राप्ति में सहायक : वर्तमान में आधुनीकरण की लहर बड़े जोरों पर थी प्रत्येक समाज अब अपने को आधुनिक कहलाना चाहता है जिसके लिये आवश्यक हो जाता है कि परम्परागत व्यवहारों में परिवर्तन लाया जाये धर्मनिरपेक्षीकरण भी परम्परागत व्यवहारों को बदलता है यथास्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में विभिन्न धर्म और धर्मवाद की भावना सूत्र फलफूल रही थी किन्तु स्वतंत्रता संग्राम से ही जो धर्मनिरपेक्षीकरण की स्वाभाविक लहर उठी उसने इस प्रयास को बहुत कम कर दिया स्वतंत्रता प्राप्त होने पर ज्यों ही भारत ने अपने को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया , यहाँ के परम्परागत व्यवहार प्रतिमानों में आमूल परिवर्तन आए वर्तमान में देश में ऐसे परिवर्तन हो रहे हैं जो सामाजिक विकास और आधुनिकीकरण के लिये आवश्यक है अतः कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्षीकरण आधुनिकीकरण में सहायक है

 

  1. समानता का विकास : प्राचीन काल में भारतवर्ष में अनेक प्रकार की सामाजिक विभिन्नताएँ पाई जाती थीं , भारत में धर्म , जाति , लिंग आदि के आधार पर विस्तृत विभेद किया जाता था एक ही प्रकार के अपराध करने पर भिन्नभिन्न धर्मों में भिन्नभिन्न दण्ड का प्रावधान था लेकिन धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण इस कार का भेदभाव स्वतः समस्त हो जाता है और सभी लोगों को समान अवसर सुलभ हो जाते हैं। – 
  2. एक वैज्ञानिक अवधारणा : धर्मनिरपेक्षीकरण एक वैज्ञानिक अवधारणा है धर्म के प्रभाव के कारण कार्यसंबंध का प्रदर्शन उचित नहीं अतः लोग अतार्किक हो जाते हैं धर्मनिरपेक्षीकरण तार्किकता पर बल देता है और उसी चीज को सही कहता है जिसमें कार्य कारण संबंधों का प्रदर्शन हो

 

  1. मानवतावादी और तटस्थ अवधारणा : धर्मनिरपेक्षीकरण एक ऐसी अवधारण है जिसमें मानव को मानव मानते हुए व्यवहार की बात कही गई है ऐसा नहीं की किसी भी काल्पनिक जैसे जाति के आधार पर मानव के साथ अमानवीय व्यवहार की बात करती हो यह प्रक्रिया मानवतावादी व्यवहार को प्रोसाहित करती है साथ ही एक तटस्थ अवधारणा है जिसमें एक तरफ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं पाया जाता तो साथ ही किसी भी धर्म को स्वीकारने की पूर्ण स्वतंत्रता भी दी गई है

 

  1. धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रकार के कारक : भारत के धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रारम्भ उस समय हुआ जब धर्म पूरे जोर से समाज को प्रभावित कर रहा था यह काल था भारत में अंग्रेजी शासन आगमन का अंग्रेजों ने भारत में अपने साम्राज्य की स्थापना नींव गहरी करने के जो प्रयत्न किये उनके परिणामस्वरूप स्वतः ही नगरीकरण , औद्योगीकरण , संस्कृतिकरण जैसी प्रक्रियाओं के साथ धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हुई अंग्रेजों ने अपने पैर जमाने और व्यापार बढ़ाने के लिये जो प्रयत्न किये उन्होंने धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया जैसे : अंग्रेजों ने बड़ेबड़े उद्योग धन्धों , बन्दरगाहों , नगरों यातायात के साधनों का विकास किया जिससे स्वतः ही धर्मसापेक्षता को ठेस पहुंची , जातिगत प्रतिबन्ध शिथिल पड़ने लगे और संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के बराबर ही धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया चलने लगी

 

 

भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रसार के निम्न कारण रहे :

 

  1. पश्चिमीकरण : भारत में धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को प्रारम्भ कर उसे आगे बढ़ाने का श्रेय पश्चिमीकरण को है पाश्चात्य संस्कृति ने भौतिकता तथा व्यक्तिवाद को इतना अधिक बढ़ावा दिया है कि उसके कारण धर्म तथा उससे सम्बन्धित व्यवहारों में ह्रास स्वाभाविक है भारतवर्ष परम्परागत देश के नाम से विख्यात रहा है परम्परा का धर्म से प्रत्यक्ष संबंध है पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने परम्परा का हनन कर उन व्यवहारों को अपनाने पर बल दिया जो तार्किक , व्यावहारिक और लाभकारी हों यही कारण है जिसने धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है

 

  1. नगरीकरण तथा औद्योगीकरण : नगरों में रहने वाले लोग विभिन्न प्रकार के औद्योगिकीय आविष्कारों के सम्पर्क में रहने के कारण धार्मिक अंधविश्वासों से अलग होते जाते हैं जैसेजैसे नगरों में विभिन्न प्रकार के औद्योगिक संस्थान स्थापित होते जा रहे हैं , वैसेवैसे जनसंख्या का घनत्व बढ़ रहा है अब यह आवश्यक नहीं रहा कि एक स्थान पर एक ही धर्म की प्रधानता हो और उसी धर्म के अनुयायी अधिक संख्या में वहाँ निवास करें , नगरों में तथा औद्योगिक केन्दों पर विभिन्न धर्मों के अनुयायी , साथसाथ काम करते हैं तथा विचारों का आदान प्रदान करते हैं इस स्थिति के कारण धर्म विशेष की कट्टरता समाप्त होती है तथा सहअस्तित्व की भावना विकसित होती है अतः कहा जा सकता है कि नगरीकरण तथा औद्योगीकरण धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया में सहायक कारक हैं

 

  1. यातायात तथा संचार के विकसित साधन : जब यातायात के साधन विकसित नहीं थे लोग दूरदूर के स्थानों पर चाहते हुए भी नहीं जा सकते थे एक ही स्थान पर रहने के कारण वे अपनी धार्मिक भावना को कायम रखते हुए उसी के अनुरूप आचरण किया करते थे संचार के साधनों में विकास होने के कारण अन्य स्थानों तथा समाजों में क्या हो रहा है , इसकीजानकारी लोगों को नहीं हो पाती थी यह भी एक कारण था कि लोग धार्मिक कट्टरता को बनाए रखते थे लेकिन जैसे जैसे धार्मिक आचरण तथा कर्म काण्डों में परिवर्तन हो रहा है अब धर्म के आधार पर छुआछूत का भेदभाव या खानपान में भेदभाव तथा उसमें कठोरता अधिक संभव नहीं रही

 

 यदि विभिन्न धर्मों के अनुयायी ट्रेन या बस में साथसाथ सफर कर रहे हैं तो , वे चाहते हुए भी छुआछूत पूर्ण व्यवहार को कायम नहीं रख सकते क्योंकि उन्हें सभी मुसाफिरों की जाति , धर्म का भी ज्ञान नहीं होता है एक समाज धर्म विशेष के परम्परागत व्यवहार प्रतिमान में यदि कोई छूट देता है तो उसकी जानकारी अन्य समाजों को संचार के साधनों के माध्यम से हो जाती है , अतः वहाँ भी परिवर्तन की बात प्रारम्भ हो जाती है अब ग्रामीण छोटे छोटे कार्यों के लिये नगर की तरफ चल पड़ते हैं वहाँ के रहनसहन को देखकर वे प्रभावित होते हैं तथा अपने परम्परागत व्यवहार प्रतिमान ( जिस पर धर्म की प्रधानता होती है ) को छोड़ने के लिये तैयार हो जाते हैं अब ग्रामीण व्यक्ति भी उन सभी चीजों को स्वीकार करने के लिये तैयार हैं जो उनके लिये लाभकारी हैं भले ही उसका संबंध किसी अन्य धर्म से ही क्यों हो

 

  1. वर्तमान शिक्षा प्रणाली : प्राचीन शिक्षा में विद्यार्थियों को धार्मिक आधार सिखाये जाते थे शिक्षा धर्म प्रचार का माध्यम भी थी शिक्षा का प्रारूप इस प्रकार का था कि धार्मिक आचारण में तनिक भी ह्रास होने पाए जो अपने को धार्मिक नहीं कर सकते थे उनके लिये शिक्षा का प्रबन्ध नहीं था धार्मिक दृष्टि से पवित्र लोग ही शिक्षा प्राप्त कर सकते थे अपवित्र लोगों यथा शूद्र और स्पृश्यों के लिए ज्ञान प्राप्ति वर्जित थी धर्मशिक्षा का केन्द्र बिन्दु हुआ करता था ब्राह्मण जिनका प्रमुख कार्य शिक्षा देना होता था : धार्मिक कृत्यों और विधिविधानों पर अधिक बल देते थे लेकिन नवीन शिक्षा प्रणाली में धर्म का वह महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं रहा अपवित्र समझे जाने वाले लोगों के लिये विशेष शिक्षा का प्रबन्ध हुआ है उन्हें प्रोत्साहन देकर पढ़ाया जा रहा है विभिन्न जातियों तथा धर्मों के अनुयायी साथसाथ पढ़तेलिखते , खातेपीते हैं

 

इस स्थिति के कारण धार्मिक जटिलता समाप्त हुई है अब धार्मिक संस्थाओं तथा जाति विशेष द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं को अपना नाम परिवर्तन करने के लिए कहा जा रहा है , अब जिस तरह शिक्षण संस्थाओं में धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं रहा उसी प्रकार लिंग भेद पर आधारित भेदभाव भी अब समाप्त होता जा रहा है अब स्त्रियाँ भी तार्किक हो गई हैं एवं वे हर प्रकार की शिक्षा ग्रहण कर रही हैं उनका दृष्टिकोण भी विकासवादी और स्वतन्त्रतावादी हो गया है वे अपने अस्तित्व को पहचानने का प्रयत्न करने लगी हैं , वह समाज के एक आवश्यक अंग के रूप में अपने महत्त्व को आंकने लगी हैं यह सर्वविदित तथ्य है कि भारत में परम्परागत व्यवहारों का प्रचलन जिसमें धार्मिक व्यवहार प्रमुख है स्त्रियों को घर के बाहर जाने की अनुमति नहीं होती थी अतः उनका दृष्टिकोण परम्परागत होता था आधुनिक शिक्षा में उन्हें भी समान अधिकार दिया गया है जिसके कारण उनकी मनोवृत्ति परम्परागत व्यवहारों के प्रति बदल रही और उनका व्यवहार अब धर्म निरपेक्षता की तरफ अधिक हो रहा है इस प्रकार हम देखते है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली के कारण धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया तीव्र हो रही है

 

  1. धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन : विभिन्न धार्मिक तथा सामाजिक सुधारकों ने धर्म तथा उस पर आश्रित जातिपाँति के भेदभाव तथा धार्मिक पाखण्डों को गलत बतलाया इस स्थिति के कारण लोगों की धारणा धार्मिक कर्मकाण्डों के प्रति कुछ तटस्थ हुई विभिन्न धर्म के अनुयायियों को साथ साथ रहने तथा कार्य करने के लिये कहा गया मध्यकाल के भक्ति आन्दोलन ने भी इस क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया राजाराम मोहनराय , सैयद अहमद खाँ , रानाडे , स्वामी दयानन्द , गाँधी आदि के प्रयल भी धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया में सहायक सिद्ध हुए ब्रह्म समाज , आर्य समाज , प्रार्थना सभा , रामकृष्ण मिशन तथा थियोसोफिकल सोसाइटीका भी प्रयत्न धार्मिक जटिलता को दूर करने में सहायक सिद्ध हुआ अतः कहा जा सकता है सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन भी धर्मनिरपेक्षीकरण में सहायक हुआ है

 

  1. सामाजिक विधान : विभिन्न सामाजिक विधान भी धर्मनिरपेक्षीकरण को बढ़ाने में सहायक रहे हिन्दू विवाह अब धार्मिक संस्कार या धार्मिक कृत्य नहीं माना जाता क्योंकि इसके पीछे विहित धार्मिक कर्तव्यों की अवधारणा गौण होती जा रही है अब तो यह एक सामाजिक बंधन या समझौता बनता जा रहा है अतः अब अन्तरजातीय विवाह भी उचित ठहराए जा रहे हैं क्योंकि वैज्ञानिक आविष्कारों ने सभी जातियों में समान एक समूहों के होने की बात को स्पष्ट कर दिया है जिसका उद्देश्य समाज की स्वीकृत ढंग से लिंगीय संतुष्टि प्राप्त करना तथा परस्पर आर्थिक सहयोग करना बनता जा रहा है अतः स्कीम शुद्धता की बात को भी धार्मिक और इसीलिये त्याज्यनीय माना जाने लगा है

 

विभिन्न जातियों के लिये आवश्यक नहीं कि वे एक ही धर्म के अनुयायी हों विधान भी ऐसे विवाहों को उचित मानता है इसी प्रकार सन् 1955 का अस्पृष्यता निवारण अधिनियम इस बात पर बल देता है कि जिन्हें अभी तक अस्पृश्य कहा गया उनका भी विभिन्न संस्थाओं के साथ वही संबंध है जो अन्य सवर्णों का है अस्पृश्यता या धर्म के आधार पर लोगों में भेदभाव नहीं होगा चूँकि भारतीय संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर चुका है इसलिए सरकार का हर प्रयत्न धर्मनिरपेक्षीकरण को आगे बढ़ाने के लिए होगा प्रजातांत्रिक अवस्था में सरकार चलाने के लिए प्रतिनिधियों का चयन वयस्क मताधिकार होता है जिसमें धर्म और जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं बरता गया है , बल्कि सभी लोगों , ( ऐतिहासिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों ) को समान स्तर लाने के लिए उन लोगों को अतिरिक्त सुविधायें दी जा रही हैं विभिन्न प्रकार के समाज कल्याण कार्यक्रम भी सरकार द्वारा चलाए जा रहे हैं ताकि धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ाया जा सके

 

  1. राजनीतिक दल : विभिन्न राजनीतिक दल भी धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया में सहायक सिद्ध हुए हैं जैसे कांग्रेस , समाजवादी दल तथा साम्यवादी दल आदि कांग्रेस के निर्माण के समय ( 1885 ) ही उसमें कुछ नेता ऐसे थे जो धर्मनिरपेक्षीकरण को सामाजिक नीति के रूप में स्वीकार कराने के पक्ष में थे जैसेजैसे शिक्षित तथा पश्चिमीकृत लोगों की संख्या इस दल में बढ़ती गयी धर्मनिरपेक्षीकरण की माँग भी बलवती होती गयी पं नेहरू जिन्हें कांग्रेस ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अपना नेता चुना धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रबल समर्थक थे डॉ राधाकृष्णन ने पण्डित नेहरू के निधन के समय कहा था किपं नेहरू का मुख्य उद्देश्य लोगों के मस्तिष्क में से धर्म के अतार्किक तत्वों को निकालना था ताकि लोगों का सामाजिक उत्थान हो सके

SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में

INTRODUCTION TO SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2kHe1iFMwct0QNJUR_bRCw

SOCIAL CHANGE: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R32rSjP_FRX8WfdjINfujwJ

SOCIAL PROBLEMS: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R0LaTcYAYtPZO4F8ZEh79Fl

INDIAN SOCIETY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R1cT4sEGOdNGRLB7u4Ly05x

SOCIAL THOUGHT: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2OD8O3BixFBOF13rVr75zW

RURAL SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R0XA5flVouraVF5f_rEMKm_

INDIAN SOCIOLOGICAL THOUGHT: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R1UnrT9Z6yi6D16tt6ZCF9H

SOCIOLOGICAL THEORIES: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R39-po-I8ohtrHsXuKE_3Xr

SOCIAL DEMOGRAPHY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R3GyP1kUrxlcXTjIQoOWi8C

TECHNIQUES OF SOCIAL RESEARCH: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R1CmYVtxuXRKzHkNWV7QIZZ

*Sociology MCQ 1*

https://youtu.be/6tPX-e1UbnA

*SOCIOLOGY MCQ 3*

**SOCIAL THOUGHT MCQ*

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*SOCIAL RESEARCH MCQ 1*

https://youtu.be/aRF0bEhGUBI

*SOCIAL RESEARCH MCQ 2*

https://youtu.be/Ckkf90zsQhE

*SOCIAL CHANGE MCQ 1*

https://youtu.be/bEdrw6HsmgY

https://youtu.be/bZ0Ye0-xxuY

https://youtu.be/a9JBI0K7JD0

https://youtu.be/FYRngquimLU

https://youtu.be/-Mvt6_aFosk

https://youtu.be/ghWZ6cexOKQ

https://youtu.be/YrrE1M0zRP4

https://youtu.be/YPq3pMz2psw

https://youtu.be/ZC1W3hBg2YY

https://youtu.be/fyKX7Si9728

*RURAL SOCIOLOGY MCQ*

https://youtu.be/VsCxKN8icS4

*SOCIAL CHANGE MCQ 2*

https://youtu.be/Ibq-W1gtZks

*Social problems*

https://youtu.be/oQO-FT8ZUuw

*SOCIAL DEMOGRAPHY MCQ 1*

https://youtu.be/uXTQsQoLyGQ

*SOCIAL DEMOGRAPHY MCQ 2*

https://youtu.be/CKVXWC5kTH0

*SOCIOLOGICAL THEORIES MCQ*

https://youtu.be/rOCtYsIRCFw

*SOCOLOGICAL PRACTICE 1*

https://youtu.be/4fKB1AaOUgQ

*SOCOLOGICAL PRACTICE 2*

https://youtu.be/U4webXb2q00

*SOCOLOGICAL PRACTICE 3*

https://youtu.be/EpTZmWphD0k

*SOCOLOGICAL PRACTICE 4*

https://youtu.be/B55tT9y36Q4

*SOCOLOGICAL PRACTICE 5*

https://youtu.be/1cODVAv4mmI

*SOCOLOGICAL PRACTICE 6*

https://youtu.be/2Vc_BlmPBsw

*NET SOCIOLOGY QUESTIONS 1*

https://youtu.be/ZMtxLsbR12Q

**NET SOCIOLOGY QUESTIONS 2*

https://youtu.be/7d6eNp9T9Wc

*SOCIAL CHANGE MCQ*

https://youtu.be/7Vk3yBNuO34

*SOCIAL RESEARCH MCQ*

https://youtu.be/w83nDk8-k_0

*SOCIAL THOUGHT MCQ*

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