उत्तराखंड में ग्लेशियर आपदा: बाढ़ का बढ़ता खतरा और भू-वैज्ञानिकों की चेतावनी!
चर्चा में क्यों? (Why in News?):** हाल ही में, उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों से ग्लेशियरों के टूटने और खिसकने की घटनाओं ने वैज्ञानिकों और सरकार की चिंता बढ़ा दी है। भू-वैज्ञानिकों द्वारा जारी की गई चेतावनियों के अनुसार, इन ग्लेशियरों के विखंडन से निचले इलाकों में अचानक बाढ़ (Flash Floods) और भूस्खलन (Landslides) का खतरा काफी बढ़ गया है। यह स्थिति न केवल स्थानीय आबादी के लिए बल्कि देश के जल संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी गंभीर चुनौतियां पेश करती है।
यह लेख इस उभरते हुए संकट की जड़ों, इसके कारणों, संभावित प्रभावों, और इससे निपटने के लिए आवश्यक रणनीतियों पर एक विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जो विशेष रूप से UPSC सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
हिमनदों का पिघलना: एक वैश्विक चिंता का स्थानीय प्रतिबिंब (Glacier Melt: A Global Concern with a Local Reflection)
ग्लेशियर, जिन्हें अक्सर “दुनिया के जल मीनार” (Water Towers of the World) कहा जाता है, पृथ्वी पर मीठे पानी के विशाल भंडार हैं। ये हिमनद न केवल पीने योग्य पानी के स्रोत हैं, बल्कि नदियाँ भी इन्हीं से पोषित होती हैं, जो लाखों लोगों के जीवन का आधार बनती हैं। हालांकि, वर्तमान में, जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के कारण ये अनमोल संसाधन तेजी से सिकुड़ रहे हैं। उत्तराखंड, हिमालय का एक हिस्सा होने के नाते, इस वैश्विक समस्या का एक प्रमुख केंद्र बन गया है।
ग्लेशियर क्या हैं? (What are Glaciers?)
ग्लेशियर बर्फ की विशाल, धीमी गति से बहने वाली नदियाँ हैं जो लंबे समय तक जमा हुई बर्फ से बनती हैं। ये पहाड़ों की चोटियों पर और घाटियों में पाए जाते हैं। हिमालय क्षेत्र में स्थित ग्लेशियर भारत की प्रमुख नदियों जैसे गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र आदि के जलस्रोत हैं।
हिमालयी ग्लेशियरों के महत्व (Importance of Himalayan Glaciers):
- जल संसाधन: ये न केवल ग्रीष्मकाल में पिघलकर नदियों को जल प्रदान करते हैं, बल्कि पूरे वर्ष मीठे पानी का एक स्थायी स्रोत सुनिश्चित करते हैं।
- पारिस्थितिकी तंत्र: ये स्थानीय जैव विविधता को बनाए रखने और एक अनूठे पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र का समर्थन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- जलवायु संतुलन: बड़े ग्लेशियर स्थानीय जलवायु को नियंत्रित करने में मदद करते हैं।
- पर्यटन और अर्थव्यवस्था: कई पर्वतीय क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था पर्यटन पर निर्भर करती है, जिसमें ग्लेशियर एक प्रमुख आकर्षण होते हैं।
उत्तराखंड में ग्लेशियरों के टूटने के कारण (Reasons for Glacier Breakage in Uttarakhand):
उत्तराखंड में ग्लेशियरों के टूटने और पिघलने के पीछे कई जटिल और परस्पर जुड़े कारक हैं। इनमें से प्रमुख कारक इस प्रकार हैं:
- जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग (Climate Change and Global Warming): यह सबसे प्रमुख कारण है। पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि के कारण ग्लेशियरों का पिघलना तेज हो गया है। ग्रीनहाउस गैसों (Greenhouse Gases) के उत्सर्जन में वृद्धि, जैसे कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) और मीथेन (CH4), वायुमंडल में गर्मी को रोकती हैं, जिससे तापमान बढ़ता है।
- वायुमंडलीय एरोसोल (Atmospheric Aerosols): जीवाश्म ईंधन के जलने और अन्य मानव गतिविधियों से निकलने वाले एरोसोल, जैसे काली धूल (Black Carbon), ग्लेशियरों की सतह पर जमा हो जाते हैं। ये एरोसोल सूर्य के प्रकाश को अधिक अवशोषित करते हैं, जिससे बर्फ तेजी से पिघलती है।
- भूगर्भीय अस्थिरता (Geological Instability): हिमालयी क्षेत्र भूकंपीय रूप से सक्रिय है। भूकंप या अन्य भूगर्भीय हलचलें ग्लेशियरों को अस्थिर कर सकती हैं, जिससे उनके टूटने की संभावना बढ़ जाती है।
- पर्वतीय गतिविधियों में वृद्धि (Increased Mountain Activities): बढ़ती पर्यटन, बुनियादी ढांचे के विकास (सड़कें, बांध निर्माण), और अन्य मानव हस्तक्षेप पर्वतीय ढलानों को कमजोर कर सकते हैं, जिससे हिमस्खलन और ग्लेशियर संबंधी आपदाओं का खतरा बढ़ जाता है।
- तापमान में मौसमी उतार-चढ़ाव (Seasonal Temperature Fluctuations): अप्रत्याशित मौसमी पैटर्न, जैसे कि असामान्य रूप से गर्म सर्दियाँ या जल्दी गर्मी की शुरुआत, ग्लेशियरों के पिघलने की प्रक्रिया को तेज कर सकती है।
“ग्लेशियर केवल बर्फ के टुकड़े नहीं हैं, वे हमारे भविष्य के लिए जल की जीवन रेखाएं हैं। उनका तेजी से सिकुड़ना हमारे लिए एक चेतावनी है।” – एक भू-वैज्ञानिक।
“ग्लेशियर टूटना” क्या है? (What is “Glacier Breakage”?):
जब ग्लेशियर की संरचना में दरारें आती हैं या उसका एक बड़ा हिस्सा टूटकर अलग हो जाता है, तो इसे ग्लेशियर टूटना या ग्लेशियर का विखंडन (Glacier Breakage or Fragmentation) कहा जाता है। यह प्रक्रिया विभिन्न कारणों से हो सकती है, जैसे:
- तापमान में वृद्धि: बर्फ का पिघलना और फिर जमना ग्लेशियर की संरचना को कमजोर कर देता है।
- भूगर्भीय तनाव: भूकंप या भूस्खलन के कारण ग्लेशियर पर दबाव बढ़ सकता है।
- पानी का जमाव: ग्लेशियर के अंदर या नीचे पानी का जमाव उसके आधार को कमजोर कर सकता है।
ग्लेशियर फटने के प्रकार (Types of Glacier-Related Disasters):
- ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOFs): जब ग्लेशियर के पिघलने से बनने वाली झीलें (Glacial Lakes) अचानक फट जाती हैं, तो वे निचले इलाकों में विनाशकारी बाढ़ लाती हैं।
- हिमस्खलन (Avalanches): बर्फ की विशाल मात्रा का तेजी से ढलान से नीचे गिरना।
- हिमनद भूस्खलन (Glacial Landslides): ग्लेशियर के साथ-साथ मिट्टी और चट्टानों का खिसकना।
उत्तराखंड में बाढ़ का बढ़ता खतरा (The Growing Threat of Floods in Uttarakhand):
उत्तराखंड, अपनी पहाड़ी स्थलाकृति के कारण, हमेशा से भूस्खलन और अचानक बाढ़ (Flash Floods) जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील रहा है। हालांकि, ग्लेशियरों के टूटने की बढ़ती घटनाओं ने इस खतरे को कई गुना बढ़ा दिया है।
संभावित प्रभाव (Potential Impacts):
- जनहानि और संपत्ति का नुकसान: अचानक आने वाली बाढ़ अपने रास्ते में आने वाले घरों, सड़कों, पुलों और अन्य बुनियादी ढांचे को नष्ट कर सकती है, जिससे बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान हो सकता है।
- कृषि और आजीविका पर प्रभाव: बाढ़ उपजाऊ मिट्टी को बहा ले जाती है, फसलों को नष्ट कर देती है और पशुधन को नुकसान पहुंचाती है, जिससे किसानों की आजीविका गंभीर रूप से प्रभावित होती है।
- पेयजल की समस्या: बाढ़ के कारण जल स्रोत दूषित हो सकते हैं या नष्ट हो सकते हैं, जिससे स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति बाधित होती है।
- विस्थापन: प्राकृतिक आपदाओं के कारण लोगों को अपने घरों से विस्थापित होना पड़ता है, जिससे सामाजिक और आर्थिक समस्याएं पैदा होती हैं।
- पर्यावरणीय क्षति: बाढ़ जंगलों, जैव विविधता और प्राकृतिक आवासों को नुकसान पहुंचाती है।
- बुनियादी ढांचे को नुकसान: सड़कें, पुल, बिजली लाइनें और संचार नेटवर्क बुरी तरह प्रभावित हो सकते हैं, जिससे बचाव और राहत कार्यों में बाधा आती है।
- नदियों के जल स्तर में अप्रत्याशित वृद्धि: ग्लेशियर से निकलने वाली नदियाँ अचानक बड़ी मात्रा में पानी छोड़ सकती हैं, जिससे नदी के निचले इलाकों में बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।
केस स्टडी: चमोली (2021) और केदारनाथ (2013) की बाढ़
ये दोनों घटनाएं उत्तराखंड में ग्लेशियर संबंधी आपदाओं के विनाशकारी स्वरूप का स्पष्ट उदाहरण हैं। 2013 की केदारनाथ बाढ़ और 2021 की चमोली ग्लेशियर बाढ़, दोनों में ही ग्लेशियरों के टूटने या उनसे जुड़ी घटनाओं ने तबाही मचाई थी। इन घटनाओं ने अचानक बाढ़, भूस्खलन और जान-माल के भारी नुकसान के खतरे को उजागर किया। इन घटनाओं से सीख लेते हुए, भविष्य की आपदाओं से बचाव के लिए अधिक प्रभावी उपायों की आवश्यकता है।
भू-वैज्ञानिकों की चेतावनी: एक गंभीर अनुस्मारक (Geologists’ Warning: A Grave Reminder):
भू-वैज्ञानिकों की चेतावनी केवल एक अनुमान नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक अवलोकन और डेटा पर आधारित है। वे ग्लेशियरों के आकार, गति, तापमान और संरचना में हो रहे परिवर्तनों का लगातार अध्ययन कर रहे हैं। उनकी चेतावनियाँ इस ओर इशारा करती हैं कि:
- बढ़ता तापमान: ग्लेशियरों के पिघलने की दर खतरनाक रूप से बढ़ रही है।
- स्थिरता में कमी: ग्लेशियरों की आंतरिक संरचना कमजोर हो रही है, जिससे उनके टूटने की संभावना बढ़ गई है।
- झील निर्माण: ग्लेशियरों के पिघलने से बड़े पैमाने पर झीलें बन रही हैं, जिनमें GLOFs का खतरा अधिक है।
- अज्ञात जोखिम: पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसे कई ग्लेशियर और झीलें हैं जिनका अभी तक पूरी तरह से अध्ययन नहीं किया गया है, जो अप्रत्याशित खतरे पैदा कर सकते हैं।
“हम एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अब स्पष्ट और विनाशकारी हो रहे हैं। ग्लेशियरों का टूटना इस बात का संकेत है कि हमें तत्काल कार्रवाई करनी होगी।” – एक वरिष्ठ भू-वैज्ञानिक।
चुनौतियाँ (Challenges):
इस गंभीर समस्या से निपटने में कई महत्वपूर्ण चुनौतियाँ हैं:
- अत्यधिक दुर्गम क्षेत्र (Extremely Inaccessible Terrain): हिमालयी क्षेत्र की दुर्गमता के कारण ग्लेशियरों और संभावित खतरनाक क्षेत्रों की निरंतर निगरानी और अध्ययन करना अत्यंत कठिन है।
- सीमित संसाधन (Limited Resources): भू-वैज्ञानिक अनुसंधान, निगरानी तकनीक, और प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों (Early Warning Systems) के लिए पर्याप्त धन और तकनीकी संसाधनों की कमी एक बड़ी बाधा है।
- प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली का विकास (Development of Early Warning Systems): प्रभावी GLOF और हिमस्खलन चेतावनी प्रणाली को विकसित करना और उन्हें दूरदराज के समुदायों तक पहुंचाना एक तकनीकी और लॉजिस्टिक चुनौती है।
- जन जागरूकता और प्रशिक्षण (Public Awareness and Training): स्थानीय समुदायों को जोखिमों के बारे में शिक्षित करना और उन्हें आपातकालीन स्थितियों में प्रतिक्रिया देने के लिए प्रशिक्षित करना एक निरंतर प्रक्रिया है।
- विकास बनाम पर्यावरण संरक्षण (Development vs. Environmental Conservation): पर्वतीय क्षेत्रों में आर्थिक विकास (जैसे पर्यटन, बुनियादी ढांचा) की आवश्यकता और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाना एक जटिल मुद्दा है।
- अंतर-राज्यीय समन्वय (Inter-state Coordination): कई नदियाँ उत्तराखंड से होकर अन्य राज्यों में बहती हैं, इसलिए इन आपदाओं के प्रबंधन के लिए अंतर-राज्यीय सहयोग आवश्यक है।
- जलवायु परिवर्तन का वैश्विक स्वरूप (Global Nature of Climate Change): यह एक वैश्विक समस्या है, जिसका समाधान राष्ट्रीय प्रयासों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर भी निर्भर करता है।
भविष्य की राह: शमन और अनुकूलन (The Way Forward: Mitigation and Adaptation):
इस खतरे से निपटने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें शमन (Mitigation – कारणों को कम करना) और अनुकूलन (Adaptation – प्रभावों के साथ तालमेल बिठाना) दोनों शामिल हों।
1. शमन उपाय (Mitigation Measures):
- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी: वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करना, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों (Renewable Energy Sources) को बढ़ावा देना, और ऊर्जा दक्षता में सुधार करना।
- वन संरक्षण और वृक्षारोपण: वनों का संरक्षण और वृक्षारोपण कार्बन को अवशोषित करने में मदद करता है और मिट्टी के कटाव को रोकता है।
- सतत विकास को बढ़ावा: पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसे विकास मॉडल अपनाना जो पर्यावरण के अनुकूल हों और स्थानीय समुदायों को लाभ पहुंचाएं।
2. अनुकूलन उपाय (Adaptation Measures):
- सशक्त निगरानी और प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली:
- ग्लेशियरों और झीलों की नियमित निगरानी के लिए उपग्रह इमेजरी (Satellite Imagery), ड्रोन (Drones), और ग्राउंड-आधारित सेंसर (Ground-based Sensors) का उपयोग।
- GLOFs और हिमस्खलन के लिए स्वचालित चेतावनी प्रणालियों की स्थापना।
- चेतावनी प्रणालियों को स्थानीय समुदायों तक प्रभावी ढंग से पहुंचाने के लिए मोबाइल अलर्ट, सायरन, और अन्य माध्यमों का उपयोग।
- जोखिम-आधारित आपदा प्रबंधन (Risk-based Disaster Management):
- संभावित रूप से खतरनाक क्षेत्रों की पहचान करना और उन क्षेत्रों में निर्माण गतिविधियों को विनियमित करना।
- आपदा-लचीले बुनियादी ढांचे (Disaster-resilient Infrastructure) का निर्माण, जैसे मजबूत पुल और बांध।
- सामुदायिक भागीदारी और क्षमता निर्माण (Community Participation and Capacity Building):
- स्थानीय समुदायों को जोखिमों, प्रारंभिक चेतावनी संकेतों और आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रक्रियाओं के बारे में शिक्षित करना।
- स्वयंसेवी आपदा प्रतिक्रिया टीमों का गठन और प्रशिक्षण।
- स्थानीय ज्ञान (Traditional Knowledge) का उपयोग करना।
- आपदा-प्रतिक्रिया योजना (Disaster Response Planning):
- स्पष्ट और सुव्यवस्थित आपातकालीन प्रतिक्रिया योजनाएं बनाना।
- पर्याप्त बचाव और राहत सामग्री का भंडारण।
- नियमित मॉक ड्रिल (Mock Drills) आयोजित करना।
- जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलापन बढ़ाना (Enhancing Climate Resilience):
- कृषि पद्धतियों में बदलाव लाना ताकि वे बदलती जलवायु के अनुकूल हों।
- जल संरक्षण तकनीकों को बढ़ावा देना।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग:
- ग्लेशियर अनुसंधान, निगरानी तकनीक, और आपदा प्रबंधन में सर्वोत्तम प्रथाओं (Best Practices) को साझा करने के लिए अन्य देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग करना।
- जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक समझौतों को मजबूत करना।
निष्कर्ष (Conclusion):
उत्तराखंड में ग्लेशियरों का टूटना और बाढ़ का बढ़ता खतरा एक गंभीर चेतावनी है कि हमें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को हल्के में नहीं लेना चाहिए। भू-वैज्ञानिकों द्वारा जारी की गई चेतावनियाँ हमें तुरंत और निर्णायक कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करती हैं। यह केवल सरकार या वैज्ञानिकों की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम इस समस्या के समाधान में अपना योगदान दें। शमन और अनुकूलन के उपायों के माध्यम से, हम न केवल भविष्य की आपदाओं के प्रभाव को कम कर सकते हैं, बल्कि एक सुरक्षित और स्थायी भविष्य का निर्माण भी कर सकते हैं। UPSC की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों के लिए, यह मुद्दा न केवल पर्यावरण और भूगोल से संबंधित है, बल्कि आपदा प्रबंधन, विकास, शासन और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों जैसे विभिन्न पहलुओं को भी छूता है। इस प्रकार, इस मुद्दे की गहराई से समझ परीक्षा में अच्छे प्रदर्शन के लिए महत्वपूर्ण है।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
1. **प्रश्न:** हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने का प्राथमिक कारण क्या है?
(a) भूगर्भीय गतिविधियाँ
(b) वायुमंडलीय एरोसोल का जमाव
(c) जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग
(d) अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप
**उत्तर:** (c)
**व्याख्या:** जबकि अन्य कारक भी योगदान कर सकते हैं, जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने का सबसे प्रमुख और प्राथमिक कारण हैं।
2. **प्रश्न:** “ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड” (GLOF) के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
I. यह तब होता है जब ग्लेशियर के पिघलने से बनने वाली झीलें अचानक फट जाती हैं।
II. GLOFs अक्सर निचले इलाकों में विनाशकारी बाढ़ और भूस्खलन का कारण बनती हैं।
III. GLOFs का मुख्य कारण भूकंप हैं।
उपरोक्त में से कौन से कथन सही हैं?
(a) केवल I और II
(b) केवल II और III
(c) केवल I और III
(d) I, II और III
**उत्तर:** (a)
**व्याख्या:** GLOF ग्लेशियर के पिघलने से बनी झील के फटने से होती है। यह निचले इलाकों में विनाशकारी हो सकती है। भूकंप GLOF का एक संभावित कारण हो सकता है, लेकिन यह एकमात्र या मुख्य कारण नहीं है; झील के बांध की अस्थिरता या अन्य कारक भी इसका कारण बन सकते हैं।
3. **प्रश्न:** उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में ग्लेशियर टूटने से बाढ़ का खतरा बढ़ने के पीछे निम्नलिखित में से कौन सा कारक जिम्मेदार हो सकता है?
I. बढ़ती पर्यटन गतिविधियाँ
II. काली धूल (Black Carbon) जैसे एरोसोल का जमाव
III. वनों की कटाई
IV. मौसमी तापमान में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव
सही कूट का प्रयोग करें:
(a) I, II और III
(b) II, III और IV
(c) I, III और IV
(d) I, II, III और IV
**उत्तर:** (d)
**व्याख्या:** सभी सूचीबद्ध कारक उत्तराखंड में ग्लेशियरों के पिघलने और टूटने के खतरे को बढ़ा सकते हैं।
4. **प्रश्न:** निम्नलिखित में से कौन सी तकनीक ग्लेशियरों की निगरानी के लिए सबसे प्रभावी है?
(a) केवल स्थलीय सर्वेक्षण
(b) केवल मौसम बलून
(c) उपग्रह इमेजरी और ड्रोन
(d) रेडियो तरंगों का उपयोग
**उत्तर:** (c)
**व्याख्या:** उपग्रह इमेजरी (Satellite Imagery) और ड्रोन (Drones) दूरस्थ और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में ग्लेशियरों की विस्तृत निगरानी के लिए सबसे प्रभावी तकनीकें हैं।
5. **प्रश्न:** “दुनिया के जल मीनार” (Water Towers of the World) किसे कहा जाता है?
(a) बड़े महासागर
(b) रेगिस्तान
(c) ग्लेशियर
(d) आर्द्रभूमि (Wetlands)
**उत्तर:** (c)
**व्याख्या:** ग्लेशियर, विशेष रूप से हिमालय जैसे क्षेत्रों में, दुनिया भर में बड़ी नदियों के लिए मीठे पानी का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं, इसलिए उन्हें “जल मीनार” कहा जाता है।
6. **प्रश्न:** भू-वैज्ञानिकों द्वारा जारी की गई चेतावनियों के अनुसार, ग्लेशियरों के टूटने का सीधा संबंध किससे है?
(a) समुद्री जल स्तर में वृद्धि
(b) निचले इलाकों में अचानक बाढ़ और भूस्खलन का अधिक खतरा
(c) मिट्टी के कटाव में कमी
(d) वायुमंडलीय दबाव में वृद्धि
**उत्तर:** (b)
**व्याख्या:** ग्लेशियरों के टूटने से अक्सर अचानक बाढ़ (Flash Floods) और भूस्खलन (Landslides) जैसी विनाशकारी घटनाएं होती हैं, खासकर निचले इलाकों में।
7. **प्रश्न:** उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों के पिघलने में वृद्धि के निम्नलिखित में से क्या परिणाम हो सकते हैं?
I. नदियों के जल स्तर में अचानक वृद्धि
II. पीने योग्य पानी की आपूर्ति में कमी
III. जैव विविधता का नुकसान
IV. स्थानीय जलवायु में स्थिरीकरण
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनें:
(a) I, II और III
(b) I, III और IV
(c) II, III और IV
(d) I, II, III और IV
**उत्तर:** (a)
**व्याख्या:** ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों के जल स्तर में अचानक वृद्धि हो सकती है (शुरुआत में), लेकिन लंबे समय में पीने योग्य पानी की आपूर्ति में कमी आएगी। यह जैव विविधता को भी नुकसान पहुंचाता है। स्थानीय जलवायु में स्थिरीकरण के बजाय परिवर्तन होता है।
8. **प्रश्न:** निम्नलिखित में से कौन सा अंतर्राष्ट्रीय समझौता जलवायु परिवर्तन को कम करने (शमन) के प्रयासों से संबंधित है?
(a) क्योटो प्रोटोकॉल
(b) पेरिस समझौता
(c) मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल
(d) उपरोक्त सभी
**उत्तर:** (d)
**व्याख्या:** क्योटो प्रोटोकॉल, पेरिस समझौता, और मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (जो ओजोन परत के क्षरण से संबंधित है, लेकिन जलवायु परिवर्तन से भी अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है) सभी वैश्विक पर्यावरणीय मुद्दों से संबंधित हैं, जिनमें जलवायु परिवर्तन को कम करने के प्रयास शामिल हैं।
9. **प्रश्न:** आपदा प्रबंधन के दृष्टिकोण से, “अनुकूलन” (Adaptation) का क्या अर्थ है?
(a) जलवायु परिवर्तन के कारणों को समाप्त करना
(b) जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए समायोजन करना
(c) ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को पूरी तरह रोकना
(d) केवल अंतरराष्ट्रीय समझौते करना
**उत्तर:** (b)
**व्याख्या:** अनुकूलन (Adaptation) का अर्थ है कि हम जलवायु परिवर्तन के होने वाले प्रभावों के प्रति अपने समाज, अर्थव्यवस्थाओं और पारिस्थितिक तंत्र को अधिक लचीला बनाने के लिए समायोजन करते हैं।
10. **प्रश्न:** हिमालयी क्षेत्र में सतत विकास (Sustainable Development) को बढ़ावा देने में निम्नलिखित में से कौन सी रणनीति सहायक हो सकती है?
(a) अनियंत्रित पर्यटन को बढ़ावा देना
(b) पर्यावरण-अनुकूल बुनियादी ढांचे का निर्माण
(c) जीवाश्म ईंधन आधारित उद्योगों को प्रोत्साहित करना
(d) बड़े पैमाने पर वनों की कटाई
**उत्तर:** (b)
**व्याख्या:** पर्यावरण-अनुकूल बुनियादी ढांचे का निर्माण, जैसे कि नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग, जल संरक्षण, और स्थानीय सामग्रियों का उपयोग, हिमालयी क्षेत्र में सतत विकास को बढ़ावा देने में सहायक हो सकता है।
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मुख्य परीक्षा (Mains)
1. **प्रश्न:** उत्तराखंड में ग्लेशियरों के टूटने और बाढ़ के बढ़ते खतरे को जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में विश्लेषित करें। इस खतरे को कम करने और स्थानीय समुदायों की सुरक्षा के लिए आवश्यक शमन और अनुकूलन रणनीतियों पर विस्तार से चर्चा करें। (250 शब्द)
2. **प्रश्न:** “ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड” (GLOF) की अवधारणा को स्पष्ट करें और उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्यों के लिए इसके महत्व पर प्रकाश डालें। ऐसी आपदाओं के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों (Early Warning Systems) के विकास और कार्यान्वयन में आने वाली चुनौतियों और समाधानों पर एक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करें। (250 शब्द)
3. **प्रश्न:** हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों का पिघलना न केवल स्थानीय समुदायों के लिए बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। इस कथन के आलोक में, भारत की जल सुरक्षा, जैव विविधता और जलविद्युत क्षमता पर इन परिवर्तनों के संभावित प्रभावों का मूल्यांकन करें। (250 शब्द)
4. **प्रश्न:** भू-वैज्ञानिकों द्वारा जारी की गई चेतावनियों को देखते हुए, भारत को उत्तराखंड में ग्लेशियर संबंधी आपदाओं के प्रबंधन के लिए अपनी आपदा प्रतिक्रिया क्षमताओं को कैसे मजबूत करना चाहिए? इसमें प्रौद्योगिकी, सामुदायिक भागीदारी और अंतर-राज्यीय समन्वय की भूमिका का वर्णन करें। (250 शब्द)
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