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कूटनीति में टकराव: कैसे ट्रम्प की व्यापार बयानबाजी ने खुद उनकी शांति पहल को कमजोर किया

कूटनीति में टकराव: कैसे ट्रम्प की व्यापार बयानबाजी ने खुद उनकी शांति पहल को कमजोर किया

चर्चा में क्यों? (Why in News?):**

दुनिया की निगाहें जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को कम करने के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के प्रयासों पर टिकी थीं, तब उसी समय उनके ही व्यापार संबंधी कड़े बयानों ने एक अप्रत्याशित मोड़ ले लिया। राष्ट्रपति ट्रम्प, जो अक्सर अपने ‘अमेरिका फर्स्ट’ एजेंडे के तहत अन्य देशों पर कड़े व्यापारिक रुख अपनाने के लिए जाने जाते थे, ने भारत पर व्यापार घाटे को लेकर कड़ी टिप्पणी की। यह बयानबाजी न केवल भारत के साथ द्विपक्षीय व्यापारिक संबंधों पर बल्कि एक मध्यस्थ के रूप में अमेरिका की विश्वसनीयता पर भी सवालिया निशान लगा गई, खासकर जब वे भारत-पाकिस्तान शांति प्रक्रिया में अपनी भूमिका को मजबूत करने का प्रयास कर रहे थे। यह लेख इस जटिल भू-राजनीतिक पहेली की पड़ताल करता है, जहाँ राष्ट्रपति के दो अलग-अलग कूटनीतिक और आर्थिक एजेंडे आपस में टकराते हैं, और यह समझने की कोशिश करता है कि कैसे उनकी अपनी ही व्यापारिक बयानबाजी उनकी शांति स्थापना की महत्वाकांक्षाओं को कमजोर कर सकती है।

पृष्ठभूमि: ट्रम्प की ‘अमेरिका फर्स्ट’ विदेश नीति और व्यापार कूटनीति

डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद से, अमेरिकी विदेश नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है, जिसे अक्सर ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नारे के तहत परिभाषित किया गया। इस नीति का मूलमंत्र था – अमेरिकी हितों को सर्वोपरि रखना, चाहे उसके लिए बहुपक्षीय संस्थानों को चुनौती देनी पड़े या पारंपरिक सहयोगियों के साथ संबंधों में खटास ही क्यों न आए। इस एजेंडे का एक प्रमुख स्तंभ ‘व्यापार कूटनीति’ थी, जिसमें ट्रम्प प्रशासन ने द्विपक्षीय व्यापार समझौतों को फिर से बातचीत करने, टैरिफ लगाने और व्यापार घाटे को कम करने पर जोर दिया।

  • पारंपरिक बहुपक्षवाद का त्याग: ट्रम्प ने पेरिस जलवायु समझौते, ईरान परमाणु समझौते और विश्व व्यापार संगठन (WTO) जैसे बहुपक्षीय मंचों से अमेरिका को अलग कर लिया या उनकी भूमिका पर सवाल उठाए।
  • द्विपक्षीय सौदेबाजी पर जोर: उनका मानना ​​था कि द्विपक्षीय सौदेबाजी से अमेरिका को बेहतर परिणाम मिलते हैं, भले ही इसमें अन्य देशों के साथ टकराव का जोखिम हो।
  • व्यापार घाटा एक ‘बुराई’: ट्रम्प ने बार-बार व्यापार घाटे को अमेरिका के लिए एक बड़ी आर्थिक कमजोरी के रूप में चित्रित किया और इसे कम करने को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाया।
  • टैरिफ एक ‘हथियार’: उन्होंने चीन, यूरोपीय संघ और अन्य देशों पर टैरिफ लगाकर अपनी व्यापार नीतियों को लागू करने का प्रयास किया, जिसे वे ‘हथियार’ के रूप में देखते थे।

इस ‘अमेरिका फर्स्ट’ दृष्टिकोण ने स्वाभाविक रूप से कई देशों के साथ अमेरिका के संबंधों में तनाव पैदा किया, लेकिन यह मध्यस्थता की भूमिका निभाने की अमेरिका की क्षमता को भी प्रभावित कर सकता था, खासकर जब वह खुद ही प्रमुख आर्थिक मुद्दों पर संरक्षणवादी रुख अपना रहा हो।

भारत-पाकिस्तान संबंध: एक नाजुक संतुलन

भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध हमेशा से ही अत्यंत जटिल और तनावपूर्ण रहे हैं। ऐतिहासिक प्रतिद्वंद्विता, सीमा विवाद (विशेष रूप से कश्मीर), आतंकवाद और विभिन्न राजनीतिक व रणनीतिक हितों के कारण दोनों देशों के बीच विश्वास का गहरा अभाव रहा है। ऐसे में, किसी तीसरे पक्ष, विशेष रूप से एक वैश्विक महाशक्ति जैसे अमेरिका की मध्यस्थता या शांति प्रयासों में भूमिका हमेशा से ही महत्वपूर्ण रही है।

  • ऐतिहासिक मध्यस्थता की भूमिका: अतीत में, अमेरिका ने शिमला समझौते (1972) और ताशकंद समझौते (1966) जैसे प्रयासों में भूमिका निभाई है, हालांकि उनकी प्रभावशीलता हमेशा बहस का विषय रही है।
  • आतंकवाद का मुद्दा: भारत लगातार पाकिस्तान पर अपनी जमीन से संचालित होने वाले आतंकवादी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव बनाता रहा है, जो दोनों देशों के बीच तनाव का एक प्रमुख कारण है।
  • कश्मीर: कश्मीर घाटी का मुद्दा दोनों देशों के बीच सबसे संवेदनशील और विवादास्पद विषयों में से एक है, जिस पर भारत अपनी आंतरिक संप्रभुता का दावा करता है, जबकि पाकिस्तान इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने का प्रयास करता है।

इस नाजुक पृष्ठभूमि में, जब अमेरिकी राष्ट्रपति भारत-पाकिस्तान के बीच शांति बहाल करने की बात करते हैं, तो यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम माना जाता है। ऐसे प्रयासों की सफलता न केवल दोनों देशों के लिए, बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।

ट्रम्प का विरोधाभास: व्यापारिक ‘गुस्सा’ और शांतिपूर्ण ‘इच्छा’

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियां अक्सर विरोधाभासों से भरी रही हैं, और यह भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में उनके बयानों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। एक ओर, वे भारत के साथ व्यापार घाटे को लेकर अक्सर नाराजगी व्यक्त करते थे, भारत पर अनुचित व्यापारिक प्रथाओं का आरोप लगाते थे और भारतीय सामानों पर टैरिफ लगाने की धमकी देते थे। वहीं, दूसरी ओर, वे कश्मीर मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने की तीव्र इच्छा भी व्यक्त करते थे, और कश्मीर को ‘एक बहुत बड़ी समस्या’ बताते हुए, जिसे हल करने में वे मदद कर सकते थे, ऐसा कहते थे।

प्रमुख विरोधाभासी बयान और कूटनीतिक प्रभाव:

“मैं चाहता हूं कि भारत और पाकिस्तान के बीच एक समझौता हो। इस पर एक महान समझौता हो सकता है। मेरे पास बहुत अच्छे संबंध हैं… राष्ट्रपति [पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान] के साथ मेरे अच्छे संबंध हैं, और [भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी] के साथ भी मेरे अच्छे संबंध हैं। मुझे लगता है कि वे इस पर नियंत्रण पा लेंगे।” – डोनाल्ड ट्रम्प (2019)

यह बयान, जो कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता की उनकी मंशा को दर्शाता है, उस समय आया जब वे भारत को व्यापारिक मुद्दों पर घेर रहे थे।

  • व्यापारिक मांगें और कूटनीतिक पेशकश: ट्रम्प प्रशासन ने भारत से व्यापार घाटे को कम करने, अमेरिकी उत्पादों के लिए बाजार खोलने और बौद्धिक संपदा अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की मांग की। भारत ने भी अपनी ओर से कुछ रियायतें देने का प्रयास किया, लेकिन दोनों पक्षों के बीच महत्वपूर्ण मतभेद बने रहे।
  • ‘जीएसपी’ का निलंबन: अमेरिकी सरकार ने भारत को दी जाने वाली कुछ तरजीही व्यापार व्यवस्था (Generalized System of Preferences – GSP) के तहत प्राप्त लाभों को समाप्त कर दिया, जो भारत के लिए एक बड़ा झटका था और द्विपक्षीय व्यापारिक तनाव को बढ़ा रहा था।
  • भारत की प्रतिक्रिया: भारत ने भी जवाबी कार्रवाई के रूप में कुछ अमेरिकी उत्पादों पर आयात शुल्क बढ़ा दिया।

यह वह संदर्भ था जिसमें ट्रम्प भारत-पाकिस्तान शांति की बात कर रहे थे। सवाल यह उठता है कि जब एक देश (अमेरिका) अपने ही एक प्रमुख व्यापारिक भागीदार (भारत) के साथ तनावपूर्ण संबंध बनाए हुए है, तो वह कैसे एक तीसरे, संवेदनशील मुद्दे (भारत-पाकिस्तान शांति) पर विश्वसनीय मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है?

व्यापार बयानबाजी ने शांति पहल को कैसे कमजोर किया? (The Undercutting Effect)

राष्ट्रपति ट्रम्प की व्यापारिक बयानबाजी ने उनकी भारत-पाकिस्तान शांति पहल को कई तरह से कमजोर किया:

  1. मध्यस्थ की विश्वसनीयता पर संदेह: जब ट्रम्प भारत पर अनुचित व्यापारिक नीतियों का आरोप लगाते थे या उन्हें धमकियां देते थे, तो यह स्वाभाविक रूप से भारत में यह धारणा बनाता था कि अमेरिका एक निष्पक्ष मध्यस्थ के बजाय एक पक्षपाती या अपने स्वार्थ साधने वाला देश है। एक ऐसे मध्यस्थ पर भरोसा करना मुश्किल हो जाता है जो खुद ही एक प्रमुख मुद्दे पर दूसरे पक्ष पर दबाव बना रहा हो।
  2. ‘अमेरिका फर्स्ट’ का एजेंडा: भारत को यह विश्वास दिलाना मुश्किल था कि ट्रम्प का भारत-पाकिस्तान शांति प्रस्ताव ‘सबके लिए अच्छा’ है, न कि केवल अमेरिका के सामरिक या आर्थिक हितों को साधने का एक तरीका। ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति के तहत, भारत को डर था कि अमेरिका अपनी व्यापारिक मांगों को पूरा करवाने के लिए भारत पर अनुचित दबाव डाल सकता है, या भारत-पाकिस्तान मुद्दे पर भी अपने आर्थिक एजेंडे को प्रभावी कर सकता है।
  3. समझौते की संभावनाओं पर प्रभाव: भारत, जो कश्मीर मुद्दे पर किसी भी बाहरी मध्यस्थता को अपनी आंतरिक संप्रभुता पर हस्तक्षेप मानता है, पहले से ही सतर्क था। जब इस मध्यस्थता के साथ व्यापारिक दबाव जुड़ गया, तो भारत के लिए इस प्रस्ताव को स्वीकार करना या इस पर गंभीरता से विचार करना और भी कठिन हो गया। उन्हें लगा कि वे एक ऐसे सौदे में फंस सकते हैं जहाँ उन्हें व्यापारिक रियायतें देनी पड़ सकती हैं, या कश्मीर पर अपनी स्थिति को कमजोर करना पड़ सकता है, वह भी ऐसे समय में जब अमेरिका खुद ही उनके साथ व्यापार में ‘कठोर’ हो रहा हो।
  4. पाकिस्तान की स्थिति: दूसरी ओर, पाकिस्तान, जो हमेशा से कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने का प्रयास करता रहा है, शायद इस स्थिति का लाभ उठाने की कोशिश करता। वे भारत पर अमेरिकी दबाव को अपनी तरफ खींचने का प्रयास कर सकते थे। हालांकि, ट्रम्प की व्यापारिक आक्रामकता का सीधा असर पाकिस्तान पर भी पड़ सकता था, जो एक अलग आर्थिक और व्यापारिक संबंध साझा करते हैं, जिससे अनिश्चितता और बढ़ जाती।
  5. क्षेत्रीय अस्थिरता में वृद्धि: जब एक प्रमुख शक्ति की कूटनीति अपने ही आर्थिक एजेंडे से प्रभावित होती है, तो यह पूरे क्षेत्र में अस्थिरता को बढ़ा सकती है। इससे अन्य देश भी अपने भू-राजनीतिक दांव-पेच को लेकर अधिक सतर्क हो जाते हैं।

इसे ऐसे समझें, जैसे कोई जज किसी मामले की सुनवाई कर रहा हो, लेकिन सुनवाई से ठीक पहले उसने एक पक्ष के खिलाफ कुछ कड़े फैसले सुनाए हों। ऐसे में, दूसरे पक्ष को उस जज की निष्पक्षता पर संदेह होगा, और वह शायद मामले को किसी और बेंच में ले जाने की सोचेगा। ट्रम्प के मामले में, व्यापारिक फैसले (जैसे GSP निलंबन) ने उनकी मध्यस्थता की ‘निष्पक्षता’ पर वही संदेह पैदा किया।

UPSC के दृष्टिकोण से विश्लेषण: अंतर्राष्ट्रीय संबंध, कूटनीति और भू-अर्थशास्त्र

UPSC परीक्षा के उम्मीदवारों के लिए, यह घटनाक्रम अंतर्राष्ट्रीय संबंधों, कूटनीति, भू-अर्थशास्त्र (Geoeconomics) और विदेश नीति विश्लेषण के महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का अवसर प्रदान करता है।

1. भू-अर्थशास्त्र (Geoeconomics):

यह मामला स्पष्ट रूप से दिखाता है कि कैसे आर्थिक हित (व्यापार, टैरिफ, बाजार पहुंच) भू-राजनीतिक और कूटनीतिक पहलों को प्रभावित कर सकते हैं। ‘अमेरिका फर्स्ट’ का सिद्धांत सिर्फ एक राजनीतिक नारा नहीं था, बल्कि एक व्यावहारिक नीति थी जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए लाभ सुनिश्चित करने के लिए डिज़ाइन की गई थी, भले ही इसके लिए पारंपरिक कूटनीतिक रास्ते अपनाने हों या न हों।

  • आर्थिक शक्ति का उपयोग: अमेरिका ने टैरिफ, व्यापार समझौतों और तरजीही दर्जे को हटाकर अपनी आर्थिक शक्ति का उपयोग अन्य देशों पर दबाव बनाने के लिए किया।
  • कूटनीति पर आर्थिक प्रभाव: भारत-पाकिस्तान जैसे संवेदनशील मुद्दों पर मध्यस्थता की अमेरिका की इच्छा को भी इसके आर्थिक एजेंडे से अलग नहीं किया जा सकता था। भारत को यह सुनिश्चित करना था कि उसके आर्थिक हित सुरक्षित रहें, खासकर जब वह भू-राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण कूटनीतिक पहल में शामिल हो रहा हो।

2. विदेश नीति निर्माण में विरोधाभास:

ट्रम्प प्रशासन की विदेश नीति को अक्सर ‘अनप्रिडिक्टेबल’ (अप्रत्याशित) और ‘कंट्रोडिक्टरी’ (विरोधाभासी) के रूप में देखा जाता था। इस मामले में, राष्ट्रपति के दो प्रमुख एजेंडे – ‘व्यापार को सुरक्षित करना’ और ‘अंतर्राष्ट्रीय शांति को बढ़ावा देना’ – आपस में टकराते दिखे।

  • एजेंडा की प्राथमिकता: क्या राष्ट्रीय सुरक्षा और शांति पहल आर्थिक लाभों से अधिक महत्वपूर्ण हैं, या इसके विपरीत? यह एक सतत बहस का विषय है। ट्रम्प के मामले में, ऐसा लगता था कि आर्थिक मुद्दे अक्सर उनकी कूटनीतिक पेशकशों पर हावी हो जाते थे।
  • ‘सॉफ्ट पावर’ बनाम ‘हार्ड पावर’: व्यापार संरक्षणवाद ‘हार्ड पावर’ (आर्थिक दबाव) का एक रूप है, जबकि मध्यस्थता और शांति स्थापना ‘सॉफ्ट पावर’ (आकर्षण और प्रभाव) का। जब हार्ड पावर आक्रामक रूप से प्रयोग की जाती है, तो यह सॉफ्ट पावर को कमजोर कर देती है।

3. कूटनीति की प्रक्रिया और विश्वसनीयता:

एक प्रभावी मध्यस्थ बनने के लिए, एक देश को विश्वसनीय, निष्पक्ष और संतुलित होना पड़ता है। ट्रम्प की व्यापारिक बयानबाजी ने इस विश्वसनीयता को गंभीर रूप से धूमिल किया।

  • विश्वास का निर्माण: कूटनीति में विश्वास का निर्माण समय और सुसंगतता से होता है। विरोधी आर्थिक नीतियों के साथ-साथ शांति स्थापित करने के प्रयास इस विश्वास को कम करते हैं।
  • ‘डील-मेकिंग’ का दृष्टिकोण: ट्रम्प का ‘डील-मेकिंग’ (सौदा करने) का दृष्टिकोण, जहाँ वे हर चीज को एक सौदे के रूप में देखते थे, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में जटिलताओं और अनिश्चितताओं को जन्म देता है।

4. भारत की कूटनीतिक चुनौती:

भारत के लिए, यह एक नाजुक संतुलन बनाने की चुनौती थी। एक ओर, उसे अमेरिका के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को प्रबंधित करना था, और दूसरी ओर, कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे पर किसी भी अमेरिकी मध्यस्थता से बचना था, या कम से कम यह सुनिश्चित करना था कि यह उसके राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध न जाए।

  • रणनीतिक स्वायत्तता: भारत ने हमेशा अपनी ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ (Strategic Autonomy) बनाए रखने पर जोर दिया है, जिसका अर्थ है कि वह अपनी विदेश नीति के निर्णय स्वतंत्र रूप से लेता है, भले ही उसके सहयोगी या प्रमुख साझेदार कोई भी हों। यह मामला इस स्वायत्तता को बनाए रखने के महत्व को और उजागर करता है।

निष्कर्ष: एक जटिल भू-राजनीतिक समीकरण

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में, अमेरिकी विदेश नीति ने कई ऐसे क्षण देखे जहाँ उनके व्यापारिक एजेंडे और कूटनीतिक पहलों के बीच तनाव स्पष्ट था। भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में, उनकी व्यापार संबंधी आक्रामकता ने उनकी शांति स्थापना की कोशिशों को वस्तुतः ‘कमजोर’ कर दिया। यह दर्शाता है कि वैश्विक मंच पर एक प्रभावी मध्यस्थ बनने के लिए, देशों को न केवल अपने हितों को संतुलित करना होता है, बल्कि अपनी नीतियों में भी सुसंगतता बनाए रखनी होती है।

जब एक देश अपने ही एक प्रमुख साझेदार के साथ व्यापारिक युद्ध में उलझा हो, तो उस देश के लिए दूसरे संवेदनशील मुद्दे पर ‘विश्वसनीय’ मध्यस्थ बनना अत्यंत कठिन हो जाता है। यह घटनाक्रम UPSC उम्मीदवारों को सिखाता है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंध केवल राजनीतिक बयानबाजी या कूटनीतिक शब्दों से नहीं चलते, बल्कि आर्थिक शक्ति, राष्ट्रीय हित और नीतियों की सुसंगतता जैसे अंतर्निहित कारक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ट्रम्प का ‘ट्रम्प बनाम ट्रम्प’ का यह द्वंद्व, वैश्विक कूटनीति की जटिलताओं और भू-अर्थशास्त्र के बढ़ते प्रभाव का एक सशक्त उदाहरण है।

UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)

प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs

1. डोनाल्ड ट्रम्प की ‘अमेरिका फर्स्ट’ विदेश नीति का एक प्रमुख पहलू क्या था?

a) बहुपक्षीय संस्थानों का मजबूत समर्थन

b) वैश्विक सहयोग के लिए वित्तीय सहायता बढ़ाना

c) अमेरिकी हितों को सर्वोपरि रखना, भले ही पारंपरिक सहयोगियों के साथ संबंध प्रभावित हों

d) मुक्त व्यापार समझौतों को बढ़ावा देना

उत्तर: c) अमेरिकी हितों को सर्वोपरि रखना, भले ही पारंपरिक सहयोगियों के साथ संबंध प्रभावित हों

व्याख्या: ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति का मूल अमेरिकी हितों को प्राथमिकता देना था, जिसके तहत कई पारंपरिक कूटनीतिक और व्यापारिक गठबंधनों पर सवाल उठाए गए।

2. राष्ट्रपति ट्रम्प ने भारत पर किस प्रमुख आर्थिक मुद्दे को लेकर अक्सर आलोचना की?

a) बौद्धिक संपदा अधिकारों का उल्लंघन

b) व्यापार घाटा और बाजार पहुंच

c) मुद्रा का अवमूल्यन

d) श्रम कानूनों का उल्लंघन

उत्तर: b) व्यापार घाटा और बाजार पहुंच

व्याख्या: ट्रम्प प्रशासन ने बार-बार भारत पर उसके बड़े व्यापार घाटे और अमेरिकी उत्पादों के लिए बाजार तक पर्याप्त पहुंच न देने का आरोप लगाया।

3. अमेरिकी सरकार ने भारत को तरजीही व्यापार व्यवस्था (GSP) के तहत प्राप्त लाभों को कब समाप्त किया?

a) 2017

b) 2018

c) 2019

d) 2020

उत्तर: c) 2019

व्याख्या: जून 2019 में, ट्रम्प प्रशासन ने भारत को GSP के तहत प्राप्त लाभों को समाप्त करने की घोषणा की, जिससे द्विपक्षीय व्यापारिक तनाव बढ़ा।

4. किस भू-राजनीतिक मुद्दे पर डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने की इच्छा व्यक्त की थी?

a) अफगानिस्तान की स्थिरता

b) कश्मीर विवाद

c) हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा

d) आतंकवाद का मुकाबला

उत्तर: b) कश्मीर विवाद

व्याख्या: ट्रम्प ने कई बार कश्मीर को एक ‘जटिल’ मुद्दा बताते हुए, भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने में अपनी भूमिका निभाने की पेशकश की थी।

5. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में, जब एक देश की आर्थिक नीतियां उसकी कूटनीतिक पहलों के साथ असंगत होती हैं, तो यह किस पर प्रभाव डाल सकती है?

a) केवल आर्थिक विकास पर

b) केवल राष्ट्रीय सुरक्षा पर

c) मध्यस्थ की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता पर

d) केवल द्विपक्षीय व्यापार पर

उत्तर: c) मध्यस्थ की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता पर

व्याख्या: असंगत नीतियां मध्यस्थ की निष्पक्षता और उसकी कूटनीतिक पेशकशों की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा करती हैं।

6. ‘भू-अर्थशास्त्र’ (Geoeconomics) का संबंध किससे है?

a) केवल अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धांत

b) अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में आर्थिक शक्ति और हितों का प्रभाव

c) केवल भू-राजनीतिक गठबंधनों का अध्ययन

d) केवल अंतर्राष्ट्रीय वित्त का प्रबंधन

उत्तर: b) अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में आर्थिक शक्ति और हितों का प्रभाव

व्याख्या: भू-अर्थशास्त्र यह अध्ययन करता है कि कैसे आर्थिक उपकरण और हित भू-राजनीतिक रणनीतियों और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को प्रभावित करते हैं।

7. ट्रम्प प्रशासन द्वारा भारत के GSP लाभों को समाप्त करने का मुख्य कारण क्या बताया गया था?

a) भारत का बढ़ता व्यापार घाटा और अमेरिकी उत्पादों के लिए अपर्याप्त बाजार पहुंच

b) भारत द्वारा आतंकवाद का समर्थन

c) भारत की परमाणु परीक्षण नीति

d) भारत का रूस के साथ बढ़ता सैन्य सहयोग

उत्तर: a) भारत का बढ़ता व्यापार घाटा और अमेरिकी उत्पादों के लिए अपर्याप्त बाजार पहुंच

व्याख्या: अमेरिका ने तर्क दिया था कि भारत द्वारा दी जाने वाली बाजार पहुंच और व्यापारिक नीतियां GSP के मानकों को पूरा नहीं करतीं।

8. निम्नलिखित में से कौन सा कथन ट्रम्प की विदेश नीति को सबसे सटीक रूप से वर्णित करता है?

a) सहयोग और कूटनीति पर अत्यधिक निर्भरता

b) ‘अमेरिका फर्स्ट’ के तहत संरक्षणवाद और द्विपक्षीय सौदेबाजी पर जोर

c) वैश्विक संस्थानों को मजबूत करने की प्राथमिकता

d) मानवीय सहायता पर अधिक ध्यान

उत्तर: b) ‘अमेरिका फर्स्ट’ के तहत संरक्षणवाद और द्विपक्षीय सौदेबाजी पर जोर

व्याख्या: ट्रम्प प्रशासन की पहचान टैरिफ, द्विपक्षीय सौदों और ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नारे से हुई, जो संरक्षणवादी प्रवृत्तियों को दर्शाता है।

9. जब कोई देश किसी संवेदनशील मुद्दे पर मध्यस्थता करने का दावा करता है, तो उसकी ‘विश्वसनीयता’ के लिए क्या महत्वपूर्ण है?

a) केवल सैन्य शक्ति

b) केवल आर्थिक संपन्नता

c) नीतियों में सुसंगतता और निष्पक्षता

d) केवल सांस्कृतिक प्रभाव

उत्तर: c) नीतियों में सुसंगतता और निष्पक्षता

व्याख्या: मध्यस्थ की विश्वसनीयता उसकी निष्पक्षता, संतुलन और उसके कार्यों में सुसंगतता पर निर्भर करती है।

10. भारत के दृष्टिकोण से, अमेरिका के साथ व्यापारिक तनाव के समय कश्मीर पर उसकी मध्यस्थता की पेशकश को कैसे देखा जा सकता है?

a) एक निर्विवाद अवसर के रूप में

b) अपने राष्ट्रीय हितों को खतरे में डालने वाले एक संभावित समझौते के रूप में

c) भारत की कूटनीतिक शक्ति के विस्तार के रूप में

d) पूर्णतः अस्वीकार्य कृत्य के रूप में

उत्तर: b) अपने राष्ट्रीय हितों को खतरे में डालने वाले एक संभावित समझौते के रूप में

व्याख्या: व्यापारिक दबाव के साथ मध्यस्थता की पेशकश भारत के लिए चिंता का विषय हो सकती है, क्योंकि इससे उसके राष्ट्रीय हितों पर समझौता करने का दबाव बढ़ सकता है।

मुख्य परीक्षा (Mains)

1. ‘अमेरिका फर्स्ट’ की विदेश नीति के तहत, डोनाल्ड ट्रम्प के व्यापार संबंधी संरक्षणवादी रुख ने भारत-पाकिस्तान शांति पहल में उनकी मध्यस्थता की विश्वसनीयता को कैसे प्रभावित किया? अपने उत्तर में भू-अर्थशास्त्र (Geoeconomics) के महत्व पर प्रकाश डालें। (250 शब्द, 15 अंक)

2. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में ‘सॉफ्ट पावर’ और ‘हार्ड पावर’ के बीच अक्सर एक संतुलन की आवश्यकता होती है। डोनाल्ड ट्रम्प के मामले में, उनकी व्यापारिक ‘हार्ड पावर’ (टैरिफ, GSP निलंबन) ने कैसे उनकी ‘सॉफ्ट पावर’ (शांति पहल, मध्यस्थता) को कमजोर किया? विस्तार से समझाएं। (250 शब्द, 15 अंक)

3. भारत के लिए, एक प्रमुख भू-राजनीतिक शक्ति के साथ संबंध बनाते समय ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ (Strategic Autonomy) बनाए रखना क्यों महत्वपूर्ण है? डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियों के संदर्भ में इस अवधारणा का विश्लेषण करें। (150 शब्द, 10 अंक)

4. अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता की सफलता के लिए किन कारकों का होना आवश्यक है? ट्रम्प की भारत-पाकिस्तान मध्यस्थता की कोशिशों के उदाहरण का उपयोग करके विश्लेषण करें कि कैसे आंतरिक विरोधाभास (जैसे व्यापारिक बयानबाजी) इन कारकों को क्षीण कर सकते हैं। (250 शब्द, 15 अंक)

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