हिमाचल पर SC का ‘अस्तित्व का संकट’ अलर्ट: विकास की कीमत और पर्यावरण की रक्षा
चर्चा में क्यों? (Why in News?):** हाल ही में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) ने हिमाचल प्रदेश राज्य को एक अत्यंत गंभीर और चिंताजनक चेतावनी दी है। न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि यदि राज्य सरकार राजस्व बढ़ाने के लिए अनियंत्रित विकास को बढ़ावा देना जारी रखती है और पर्यावरण की परवाह नहीं करती है, तो “हिमाचल हवा में गायब हो सकता है” (Himachal may vanish into thin air)। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि “राजस्व सब कुछ नहीं है” (revenue isn’t everything) और राज्य के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र (fragile ecosystem) का संरक्षण सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। यह टिप्पणी विशेष रूप से राज्य में निर्माण गतिविधियों, वनों की कटाई और अवसंरचना विकास के पर्यावरणीय प्रभावों के संबंध में आई है।
यह मामला न केवल हिमाचल प्रदेश के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारत के उन सभी पर्वतीय राज्यों के लिए एक चेतावनी है जो तीव्र विकास की दौड़ में अपने पर्यावरण को दांव पर लगा रहे हैं। UPSC परीक्षा की तैयारी करने वाले उम्मीदवारों के लिए, यह मुद्दा पर्यावरण संरक्षण, सतत विकास, आपदा प्रबंधन, शासन और सार्वजनिक नीति जैसे विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों को छूता है। इस लेख में, हम सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के पीछे के कारणों, इसके निहितार्थों, हिमाचल प्रदेश के सामने आने वाली पर्यावरणीय चुनौतियों और सतत विकास की दिशा में उठाए जाने वाले कदमों का एक विस्तृत विश्लेषण करेंगे।
हिमाचल प्रदेश: एक नाजुक स्वर्ग (Himachal Pradesh: A Fragile Paradise)
हिमाचल प्रदेश, अपनी हरी-भरी घाटियों, बर्फ से ढकी चोटियों और शांत वातावरण के लिए जाना जाता है, लाखों पर्यटकों को आकर्षित करता है और भारतीय हिमालयी क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन इसकी सुंदरता और जीवंतता के पीछे एक गहरा पर्यावरणीय संकट छिपा है। हिमालयी क्षेत्र, अपनी भूवैज्ञानिक अस्थिरता और नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र के कारण, विशेष रूप से मानव हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील है।
हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था काफी हद तक पर्यटन, जलविद्युत उत्पादन और कृषि पर निर्भर करती है। राज्य सरकारें अक्सर इन क्षेत्रों में “विकास” को बढ़ावा देने के लिए राजस्व सृजन पर ध्यान केंद्रित करती हैं, जिसमें अक्सर बड़े पैमाने पर निर्माण परियोजनाएं, सड़कें, बांध और शहरीकरण शामिल होते हैं। हालांकि विकास आवश्यक है, लेकिन जब यह अनियोजित और गैर-जिम्मेदाराना तरीके से होता है, तो इसके विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के पीछे: क्यों ‘हवा में गायब’ होने का खतरा?
सुप्रीम कोर्ट की यह तीखी टिप्पणी कोई खाली धमकी नहीं है। इसके पीछे कई गंभीर कारण हैं, जो हिमाचल प्रदेश के पारिस्थितिकी तंत्र को हो रहे नुकसान को दर्शाते हैं:
- अनियंत्रित निर्माण और वनों की कटाई: पर्यटन और आर्थिक विकास की मांग को पूरा करने के लिए, राज्य में अनगिनत होटल, रिसॉर्ट, सड़कें और अन्य निर्माण परियोजनाएं शुरू की गई हैं। इनमें से कई परियोजनाएं वन भूमि पर, संवेदनशील ढलानों पर या जल निकायों के पास बिना उचित पर्यावरण मंजूरी के बनाई गई हैं। इससे बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हुई है, जो भूस्खलन और मिट्टी के कटाव के मुख्य कारणों में से एक है।
- भूस्खलन और भूवैज्ञानिक अस्थिरता: हिमालयी क्षेत्र वैसे भी भूगर्भीय रूप से सक्रिय है। जंगलों की कटाई, पेड़ों की जड़ों द्वारा मिट्टी को बांधे रखने की क्षमता को कम करती है। इसके अलावा, अनियोजित निर्माण, जैसे कि सड़कों के लिए भारी कटाई और इमारतों का भार, ढलानों को अस्थिर कर देता है। भारी बारिश या भूकंप की स्थिति में, ये ढलान आसानी से भूस्खलन का शिकार हो जाते हैं।
- बाढ़ और जल निकायों पर प्रभाव: निर्माण के दौरान निकलने वाले मलवे को अक्सर नदियों और नालों में बहा दिया जाता है, जिससे वे अवरुद्ध हो जाते हैं और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। बांधों का निर्माण भी स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को बदल देता है और नदी के प्राकृतिक प्रवाह को प्रभावित करता है।
- जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: जलवायु परिवर्तन के कारण चरम मौसमी घटनाएं (जैसे भारी वर्षा, अचानक बाढ़, लंबे समय तक सूखा) बढ़ रही हैं। ये घटनाएं पहले से ही संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र को और अधिक अस्थिर बनाती हैं। हिमाचल प्रदेश को ग्लेशियरों के पिघलने, बर्फबारी के पैटर्न में बदलाव और बढ़ते तापमान का भी सामना करना पड़ रहा है।
- पर्वतीय अवसंरचना का दबाव: सड़कों का चौड़ीकरण, सुरंगों का निर्माण, और अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाएं, हालांकि विकास के लिए आवश्यक हैं, लेकिन यदि वैज्ञानिक तरीके से नियोजित न हों तो वे पहाड़ों के नाजुक संतुलन को बिगाड़ सकती हैं।
जब ये सभी कारक एक साथ काम करते हैं, तो वे एक ‘फीडबैक लूप’ बनाते हैं जहाँ पर्यावरणीय गिरावट विकास को बाधित करती है, और विकास और अधिक गिरावट का कारण बनता है। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि राज्य “हवा में गायब हो सकता है”, इसी चरम पर्यावरणीय गिरावट की ओर इशारा करता है, जहाँ प्राकृतिक आपदाएं इतनी विनाशकारी हो जाती हैं कि वे पूरे क्षेत्र के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा देती हैं।
“हमारा ग्रह एक नाजुक संतुलन पर टिका है। जब हम विकास की भूख में इस संतुलन को बिगाड़ते हैं, तो हम न केवल प्रकृति को, बल्कि अपने भविष्य को भी खतरे में डालते हैं। सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी हिमाचल के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए एक आत्मनिरीक्षण का क्षण है।”
‘राजस्व सब कुछ नहीं है’: सतत विकास का तकाजा
सुप्रीम कोर्ट का यह कथन कि “राजस्व सब कुछ नहीं है”, विकास की पारंपरिक और अक्सर संकीर्ण सोच को चुनौती देता है। यह एक ऐसे विकास मॉडल की वकालत करता है जो आर्थिक लाभ के साथ-साथ पर्यावरणीय स्थिरता और सामाजिक कल्याण को भी महत्व देता है। इसे ‘सतत विकास’ (Sustainable Development) के रूप में जाना जाता है, जिसका अर्थ है “भविष्य की पीढ़ियों की अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता से समझौता किए बिना वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करना।”
सतत विकास के सिद्धांत:
- पर्यावरणीय व्यवहार्यता: विकास परियोजनाएं ऐसी होनी चाहिए जो पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाएं और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करें।
- आर्थिक व्यवहार्यता: विकास आर्थिक रूप से टिकाऊ होना चाहिए, जिससे रोजगार सृजित हो और गरीबी कम हो।
- सामाजिक व्यवहार्यता: विकास समाज के सभी वर्गों के लिए समावेशी और न्यायसंगत होना चाहिए, जिससे जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो।
हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में, सतत विकास का अर्थ है कि राजस्व सृजन के लिए ऐसे तरीकों को अपनाया जाए जो पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव न डालें। उदाहरण के लिए:
- पारिस्थितिकी-पर्यटन (Ecotourism) को बढ़ावा देना: बड़े पैमाने पर और अनियंत्रित पर्यटन के बजाय, कम प्रभाव वाले, प्रकृति-अनुकूल पर्यटन को बढ़ावा दिया जा सकता है, जिससे स्थानीय समुदायों को लाभ हो और पर्यावरण की रक्षा हो।
- नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग: सौर ऊर्जा, लघु जलविद्युत परियोजनाओं (छोटे पैमाने पर और सावधानी से नियोजित) का उपयोग, और अन्य स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों पर ध्यान केंद्रित करना।
- टिकाऊ कृषि और बागवानी: जैविक खेती, प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना, और स्थानीय फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित करना।
- पर्यावरण-अनुकूल निर्माण: निर्माण के लिए स्थानीय और टिकाऊ सामग्री का उपयोग, और पर्यावरण नियमों का कड़ाई से पालन।
- वन और जल संरक्षण: वनीकरण कार्यक्रमों को मजबूत करना, वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देना, और जल निकायों को प्रदूषण से बचाना।
हिमाचल प्रदेश के सामने चुनौतियाँ (Challenges Faced by Himachal Pradesh)
सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के बावजूद, हिमाचल प्रदेश के सामने सतत विकास को प्राप्त करने में कई चुनौतियाँ हैं:
- आर्थिक दबाव: राज्य सरकारें अक्सर अपने राजस्व घाटे को पूरा करने और रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए विकास-उन्मुख नीतियों को अपनाने के लिए मजबूर होती हैं, भले ही वे पर्यावरण के लिए हानिकारक हों।
- प्रशासनिक क्षमता और भ्रष्टाचार: पर्यावरण नियमों का प्रभावी कार्यान्वयन एक मजबूत प्रशासनिक क्षमता और भ्रष्टाचार से मुक्ति की मांग करता है, जो कई बार एक चुनौती साबित हो सकती है।
- स्थानीय प्रतिरोध: कभी-कभी, स्थानीय समुदायों में विकास की आवश्यकता के बारे में जागरूकता की कमी हो सकती है, या वे परियोजनाओं का विरोध कर सकते हैं जिनके कारण विस्थापन होता है, भले ही वे पर्यावरण के अनुकूल हों।
- जलवायु परिवर्तन की अप्रत्याशितता: बढ़ते तापमान, पिघलते ग्लेशियर और अप्रत्याशित वर्षा पैटर्न भविष्य की योजना बनाना और जोखिमों का प्रबंधन करना कठिन बना देते हैं।
- विभिन्न हितधारकों के हित: इसमें डेवलपर, स्थानीय निवासी, सरकार, पर्यटन उद्योग और पर्यावरण कार्यकर्ता जैसे विभिन्न हितधारकों के हितों का संतुलन बनाना एक जटिल कार्य है।
- कमजोर कार्यान्वयन तंत्र: पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) के नियम और अन्य पर्यावरणीय कानून अक्सर कमजोर कार्यान्वयन और निगरानी के कारण प्रभावी नहीं हो पाते हैं।
भविष्य की राह: SC की चेतावनी को कैसे मानें? (The Way Forward: How to Heed the SC’s Warning?)
सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी हिमाचल प्रदेश और अन्य हिमालयी राज्यों के लिए एक वेक-अप कॉल है। भविष्य में इस तरह के संकट से बचने के लिए, निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:
1. एक मजबूत नीतिगत ढाँचा:
- पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता: राज्य की विकास योजनाओं में पर्यावरण संरक्षण को एक मुख्यधारा के विषय के रूप में एकीकृत किया जाना चाहिए, न कि केवल एक अतिरिक्त विचार के रूप में।
- कड़े पर्यावरण नियम और उनका कार्यान्वयन: पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, और अन्य संबंधित कानूनों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिए। पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) प्रक्रियाओं को अधिक पारदर्शी और मजबूत बनाया जाना चाहिए।
- वनों की कटाई पर रोक: संवेदनशील क्षेत्रों में वनों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और बड़े पैमाने पर वनीकरण अभियान चलाए जाने चाहिए।
- टिकाऊ पर्यटन नीतियाँ: पर्यावरण पर न्यूनतम प्रभाव डालने वाले पर्यटन को बढ़ावा देना, जैसे कि इको-डेस्टिनेशन, होमस्टे और कम भीड़ वाले क्षेत्रों का विकास।
2. वैज्ञानिक और योजनाबद्ध विकास:
- जोखिम-आधारित योजना: भूस्खलन, भूकंप और बाढ़ के जोखिम वाले क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए और ऐसे क्षेत्रों में निर्माण गतिविधियों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए या अत्यंत सावधानी के साथ अनुमति दी जानी चाहिए।
- तकनीकी विशेषज्ञता का उपयोग: निर्माण परियोजनाओं में नवीनतम भूवैज्ञानिक और इंजीनियरिंग तकनीकों का उपयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
- सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा: निजी वाहनों के बजाय सार्वजनिक परिवहन के उपयोग को प्रोत्साहित करने से सड़कों पर दबाव कम होगा और प्रदूषण घटेगा।
3. सामुदायिक भागीदारी और जागरूकता:
- जन जागरूकता अभियान: स्थानीय समुदायों को पर्यावरण संरक्षण के महत्व और सतत विकास के लाभों के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए।
- स्थानीय भागीदारी: विकास परियोजनाओं की योजना और कार्यान्वयन में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।
- पारिस्थितिकी-पर्यटन और सामुदायिक-आधारित परियोजनाएँ: स्थानीय लोगों को पर्यावरण-अनुकूल आजीविका के अवसर प्रदान करना।
4. संस्थागत तंत्र को मजबूत करना:
- पर्यवेक्षण और अनुपालन: राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और वन विभागों जैसी संस्थाओं को परियोजनाओं के अनुपालन की निगरानी के लिए सशक्त और सुसज्जित किया जाना चाहिए।
- विशेषज्ञ समितियों का गठन: संवेदनशील क्षेत्रों में बड़ी परियोजनाओं के लिए स्वतंत्र विशेषज्ञ समितियों द्वारा गहन मूल्यांकन अनिवार्य किया जाना चाहिए।
- जवाबदेही तय करना: नियमों का उल्लंघन करने वाली कंपनियों और अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।
5. जलवायु परिवर्तन अनुकूलन:
- जलवायु-लचीला बुनियादी ढांचा: ऐसी अवसंरचना का निर्माण जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना कर सके।
- शुरुआती चेतावनी प्रणाली: प्राकृतिक आपदाओं जैसे भूस्खलन और बाढ़ के लिए प्रभावी शुरुआती चेतावनी प्रणालियों का विकास और कार्यान्वयन।
UPSC परीक्षा के लिए प्रासंगिकता (Relevance for UPSC Exam)
यह मुद्दा UPSC सिविल सेवा परीक्षा के कई चरणों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है:
- प्रारंभिक परीक्षा (Prelims):
- पर्यावरण और पारिस्थितिकी (Environment & Ecology)
- आपदा प्रबंधन (Disaster Management)
- भारत की भूगोल (Indian Geography) – विशेषकर हिमालयी क्षेत्र
- भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy) – सतत विकास, पर्यटन
- शासन (Governance) – पर्यावरण कानून, नीतियां
- मुख्य परीक्षा (Mains):
- GS-I: भूगोल (Geography): हिमालय की भूवैज्ञानिक संवेदनशीलता, भूस्खलन, बाढ़, शहरीकरण का प्रभाव।
- GS-III: पर्यावरण (Environment): पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण, जैव विविधता का क्षरण, जलवायु परिवर्तन, EIA, सतत विकास।
- GS-III: आपदा प्रबंधन (Disaster Management): हिमालयी राज्यों में आपदाएँ, जोखिम न्यूनीकरण, प्रतिक्रिया तंत्र।
- GS-IV: शासन (Governance): पर्यावरण शासन, नीतियां, हितधारक प्रबंधन, नैतिक विचार (राजस्व बनाम पर्यावरण)।
- निबंध (Essay): ‘विकास की कीमत’, ‘सतत विकास की राह’, ‘मानव और प्रकृति का संतुलन’ जैसे विषयों पर निबंध लिखने के लिए इस मुद्दे से अंतर्दृष्टि प्राप्त की जा सकती है।
यह मामला दिखाता है कि कैसे आर्थिक विकास की मांग कभी-कभी पर्यावरण की रक्षा की आवश्यकता से टकरा सकती है, और सरकार व न्यायालय की भूमिका इन दोनों के बीच एक नाजुक संतुलन बनाना है। सुप्रीम कोर्ट की भूमिका यहाँ एक प्रहरी (watchdog) की है, जो सुनिश्चित करता है कि विकास की दौड़ में देश के प्राकृतिक खजाने को नुकसान न पहुंचे।
निष्कर्ष (Conclusion)
सुप्रीम कोर्ट की ‘अस्तित्व का संकट’ वाली चेतावनी हिमाचल प्रदेश के लिए एक गंभीर अनुस्मारक है कि विकास का मार्ग अंधाधुंध नहीं हो सकता। “राजस्व सब कुछ नहीं है” का मंत्र यह सिखाता है कि दीर्घकालिक स्थिरता और मानव कल्याण के लिए पर्यावरणीय अखंडता सर्वोपरि है। हिमाचल प्रदेश को अब एक ऐसे विकास मॉडल को अपनाने की आवश्यकता है जो इसके प्राकृतिक सौंदर्य और पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करते हुए आर्थिक समृद्धि भी प्रदान करे। यह न केवल राज्य के भविष्य के लिए, बल्कि उन सभी पहाड़ी क्षेत्रों के लिए भी महत्वपूर्ण है जो विकास और पर्यावरण के बीच एक कठिन संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। UPSC उम्मीदवारों के लिए, यह समझना महत्वपूर्ण है कि विकास की धारियों के पीछे छिपे पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का विश्लेषण कैसे किया जाए, जो एक सक्षम प्रशासक बनने के लिए आवश्यक है।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
1. सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के संदर्भ में, हिमाचल प्रदेश जैसे हिमालयी राज्यों के लिए निम्नलिखित में से कौन सी एक प्रमुख पर्यावरणीय चिंता है?
(a) अत्यधिक हिमपात
(b) अनियंत्रित निर्माण और वनों की कटाई के कारण भूस्खलन का बढ़ा हुआ जोखिम
(c) औद्योगिक प्रदूषण
(d) कृषि भूमि का अत्यधिक विस्तार
उत्तर: (b)
व्याख्या: सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी सीधे तौर पर अनियंत्रित विकास, विशेष रूप से निर्माण गतिविधियों और वनों की कटाई से जुड़े पर्यावरणीय खतरों से संबंधित है, जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ता है।
2. “राजस्व सब कुछ नहीं है” कथन मुख्य रूप से किस सिद्धांत की वकालत करता है?
(a) केवल आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करना
(b) पर्यावरण संरक्षण को आर्थिक लाभ से ऊपर रखना
(c) सतत विकास, जिसमें आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय आयाम शामिल हैं
(d) राज्य के राजस्व को अधिकतम करने के लिए हर संभव प्रयास करना
उत्तर: (c)
व्याख्या: यह कथन सतत विकास के विचार को रेखांकित करता है, जो मानता है कि विकास के लिए आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय कारकों के बीच संतुलन आवश्यक है।
3. निम्नलिखित में से कौन सा कारक हिमालयी क्षेत्र की भूवैज्ञानिक अस्थिरता को बढ़ाता है?
1. वनों की कटाई
2. अनियोजित निर्माण
3. भूकंपीय गतिविधि
4. अत्यधिक वर्षा
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 3
(c) केवल 2, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (d)
व्याख्या: हिमालयी क्षेत्र स्वाभाविक रूप से भूकंपीय रूप से सक्रिय है। वनों की कटाई, अनियोजित निर्माण और अत्यधिक वर्षा जैसी मानवजनित और प्राकृतिक दोनों ही गतिविधियाँ इसकी भूवैज्ञानिक अस्थिरता को बढ़ाती हैं।
4. हिमाचल प्रदेश में अनियंत्रित पर्यटन से संबंधित निम्नलिखित में से कौन सी एक पर्यावरणीय समस्या है?
(a) मिट्टी का क्षरण
(b) जल निकायों का प्रदूषण
(c) प्लास्टिक कचरे का बढ़ना
(d) उपरोक्त सभी
उत्तर: (d)
व्याख्या: अनियंत्रित पर्यटन से पर्यटकों द्वारा छोड़े गए कचरे, निर्माण और अन्य गतिविधियों के कारण मिट्टी का क्षरण, जल निकायों का प्रदूषण और प्लास्टिक कचरे में वृद्धि जैसी कई पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
5. “पर्यावरण प्रभाव आकलन” (EIA) का मुख्य उद्देश्य क्या है?
(a) विकास परियोजनाओं के लिए सरकारी धन सुरक्षित करना
(b) यह सुनिश्चित करना कि परियोजनाएं पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाएं
(c) स्थानीय समुदायों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करना
(d) परियोजनाओं की वित्तीय व्यवहार्यता का आकलन करना
उत्तर: (b)
व्याख्या: EIA एक प्रक्रिया है जो किसी परियोजना के प्रस्तावित कार्यों से उत्पन्न होने वाले संभावित पर्यावरणीय प्रभावों का मूल्यांकन करती है, ताकि इन प्रभावों को कम करने या रोकने के उपाय किए जा सकें।
6. निम्नलिखित में से कौन सी “पारिस्थितिकी-पर्यटन” (Ecotourism) की विशेषता है?
(a) बड़े पैमाने पर होटल और रिसॉर्ट का निर्माण
(b) प्राकृतिक पर्यावरण पर न्यूनतम प्रभाव
(c) स्थानीय वन्यजीवों का शिकार
(d) प्रकृति से अधिकतम आर्थिक लाभ उठाना, भले ही पर्यावरण को नुकसान हो
उत्तर: (b)
व्याख्या: पारिस्थितिकी-पर्यटन प्रकृति के संरक्षण पर जोर देता है और पर्यटन गतिविधियों का पर्यावरण पर न्यूनतम नकारात्मक प्रभाव सुनिश्चित करता है।
7. हिमालयी क्षेत्रों में वनों की कटाई का एक प्रमुख अप्रत्यक्ष परिणाम क्या है?
(a) स्थानीय जलवायु का ठंडा होना
(b) भूस्खलन के जोखिम में वृद्धि
(c) पीने योग्य पानी की उपलब्धता में वृद्धि
(d) वन्यजीवों के आवास का विस्तार
उत्तर: (b)
व्याख्या: वन, विशेष रूप से पेड़, अपनी जड़ों से मिट्टी को बांधे रखते हैं, जिससे ढलान स्थिर रहती है। वनों की कटाई इस प्राकृतिक अवरोध को हटा देती है, जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।
8. भारत में “सतत विकास” के विचार को निम्नलिखित में से किसमें सबसे अच्छी तरह परिभाषित किया गया है?
(a) 20 सूत्रीय कार्यक्रम
(b) ब्रंटलैंड आयोग की रिपोर्ट
(c) राष्ट्रीय वन नीति
(d) आर्थिक उदारीकरण के एजेंडे
उत्तर: (b)
व्याख्या: ब्रंटलैंड आयोग (1987) ने अपनी ‘हमारा साझा भविष्य’ (Our Common Future) रिपोर्ट में सतत विकास को “भविष्य की पीढ़ियों की अपनी जरूरतों को पूरा करने की क्षमता से समझौता किए बिना वर्तमान की जरूरतों को पूरा करना” के रूप में परिभाषित किया था।
9. हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्यों में, निम्नलिखित में से कौन सी एक नवीकरणीय ऊर्जा का स्रोत है जिसका विवेकपूर्ण उपयोग किया जा सकता है?
(a) कोयला आधारित बिजली
(b) लघु जलविद्युत परियोजनाएँ
(c) परमाणु ऊर्जा
(d) जीवाश्म ईंधन
उत्तर: (b)
व्याख्या: लघु जलविद्युत परियोजनाएँ, यदि पर्यावरण की दृष्टि से सावधानी से नियोजित की जाएं, तो पहाड़ी क्षेत्रों के लिए नवीकरणीय ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत हो सकती हैं। कोयला, परमाणु ऊर्जा और जीवाश्म ईंधन नवीकरणीय नहीं हैं और उनके पर्यावरणीय दुष्प्रभाव होते हैं।
10. सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी किस अधिनियम के प्रवर्तन पर अधिक ध्यान केंद्रित करती है?
(a) भारतीय वन अधिनियम, 1927
(b) पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986
(c) वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972
(d) जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974
उत्तर: (b)
व्याख्या: सुप्रीम कोर्ट की चिंता व्यापक है और इसमें निर्माण, प्रदूषण, वनों की कटाई जैसे सभी पर्यावरणीय पहलुओं को शामिल किया गया है, जो मुख्य रूप से पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत आते हैं।
मुख्य परीक्षा (Mains)
1. “सुप्रीम कोर्ट की ‘हिमाचल हवा में गायब हो सकता है’ वाली चेतावनी, हिमालयी राज्यों के लिए सतत विकास के मॉडल पर पुनर्विचार करने का एक महत्वपूर्ण अवसर प्रस्तुत करती है।” इस कथन का विश्लेषण करें। विकास की आर्थिक अनिवार्यता और पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जा सकता है? (लगभग 250 शब्द)
2. हिमाचल प्रदेश जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में अनियोजित विकास के कारण उत्पन्न होने वाली प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियों का वर्णन करें। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए नीतिगत और प्रशासनिक सुधारों का सुझाव दें। (लगभग 250 शब्द)
3. “राजस्व सब कुछ नहीं है” – सुप्रीम कोर्ट के इस कथन के आलोक में, भारत में पर्यावरण शासन (Environmental Governance) की स्थिति पर एक आलोचनात्मक मूल्यांकन प्रस्तुत करें। आप पर्यावरण संरक्षण के लिए कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन को कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं? (लगभग 150 शब्द)
4. भारत के लिए, विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्रों के लिए, एक “जलवायु-लचीला” (Climate-Resilient) विकास मॉडल की आवश्यकता क्यों है? इसके मुख्य घटक क्या होने चाहिए? (लगभग 150 शब्द)