साम्यवादी सरकार

साम्यवादी सरकार

2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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साम्यवादी

साम्यवादी सरकार व शक्ति का भिन्न अर्थ करते हैं। यहां शक्ति से तात्पर्य राजनीतिक शक्ति से है। उनके अनुसार सरकार पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली है, जो धनिक वर्ग की गरीब वर्गो से रक्षा का ही कार्य करती है। उनके अनुसार राजनीतिक शक्ति का आधार आर्थिक शक्ति है। जिनके हाथ में आर्थिक शक्ति होती है उसी के हाथ में राजनीतिक शक्ति भी आ जाती है। इसलिए उदार लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में पूंजीपति ही राजनीतिक शक्ति के धारक व संचालक होते हैं। उत्पादन के प्रमुख साधन व आर्थिक शक्ति, पूंजीवादी व्यवस्था में केवल कुछ लोगों के हाथ में रहती है, जो इसका प्रयोग अपने ही हितों  की  रक्षा  और  धन  की  वृद्धि  में  करते  हैं।  अतः  साम्यवादी  यह  मानते  हैं  कि  पश्चिमी  लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं  में  राजनीतिक  शक्तियों  का  प्रयोग  तथा  मौलिक  अधिकारों  के  रूप  में  उपलब्ध  सुविधाओं  का उपयोग, जनसाधारण नहीं, केवल धनिक वर्ग ही करता है। यह लोकतंत्र की मात्र औपचारिकता है, क्योंकि आर्थिक  शक्ति  युक्त  वर्गसम्पूर्ण  राजनीतिक  तंत्र  का  संचालक  व  नियंत्रक  होता  है।  अतः  उदारवादी लोकतंत्र कुछ के लिए ही अर्थ रखता है। जनसाधारण राजनीतिक प्रक्रिया में सहभागी होने के सैद्धान्तिक अवसरों से बढ़कर व्यवहार में कुछ नहीं रखते हैं। साम्यवादियों के अनुसार सǔचा लोकतंत्र तभी स्थापित हो  सकता  है  जब  आर्थिक  शक्ति  भी  सम्पूर्ण  समाज  में  निहित  हो  जिससे  राजनीतिक  शक्ति  भी  सम्पूर्ण समाज में निहित हो जाय तथा शासनतंत्र सबका, सबके लिए तथा सबके द्वारा संचालित हो सके। इसके लिए साम्यवादी इन संस्थागत व्यवस्थाओं को लोकतंत्र की पूर्व शर्तो के रूप में स्थापित करने को महत्वपूर्ण मानते हैं-

 

(1) उत्पादन तथा वितरण के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व;

(2) सम्पत्ति का समान वितरण;

(3) साम्यवादी दल का एकाधिकार।

 

 

(1)    साम्यवादी  विचारधारा  की  आधारभूत  मान्यता  है  कि  उत्पादन  व  वितरण  के  साधनों  पर  व्यक्तिगत स्वामित्व, आर्थिक शक्तियों को अन्ततः कुछ व्यक्तियों में केन्द्रित कर देता है। आर्थिक शक्ति के इस प्रकार के केन्द्रण से वर्ग-संघर्ष उत्पन्न होता है। इससे आर्थिक शक्ति युक्त वर्ग, इस शक्ति से रहित वर्ग का दमन व शोषण करने लगता है। राजनीतिक शक्ति भी इन्हीं के हाथों में केन्द्रित होने के कारण, समाज के बहुसंख्यक नागरिक अपनी राजनीतिक मान्यताओं, आदर्शो व मूल्यों के स्थान पर पूंजीपतियों द्वारा आरोपित आदर्शो  व  मूल्यों  को  मानने  व  अपनाने  के  लि  मजबूर  हो  जाते  हैं।  ऐसी  व्यवस्था  को  साम्यवादी लोकतान्त्रिक नहीं मानते हैं। इसलिये उनका कहना है कि लोकतंत्र को वास्तव में व्यावहारिक बनाने के लिए, लोकतंत्र की मान्यताओं के प्रकाशन के रास्ते में आने वाली रूकावटें दूर की जानी चाहिये। उनकी

धारणा है कि यह रूकावटें उत्पादन व वितरण के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व की व्यवस्था करने पर ही दूर हो सकती हैं। अतः साम्यवाद की मान्यता में लोकतंत्र तब तक व्यावहारिक नहीं बन सकता है जब तक उत्पादन व वितरण के साधनों का स्वामित्व सम्पूर्ण समाज में निहित नहीं होता है।

 

 

 

उत्पादन  व  वितरण  के  साधनों  का  सामाजिक  स्वामित्व  सम्पत्ति  के  समान  वितरण  की  व्यवस्था अनिवार्य बना देता है। सम्पत्ति का बराबर वितरण होने से, सम्पत्ति संघर्ष का कारण नहीं बनता है, और समाज में असमानता को जन्म नहीं दे पाती है। आर्थिक साधनों का सम्पूर्ण समाज में निहित होना, समाज को उन बन्धनों से मुक्त करता है, जो लोकतंत्र की मान्यताओं की उपलब्धि में रूकावटें डालते हैं। आर्थिक दृष्टि से ऐसे  समानता वाले समाज में ही लोकतंत्र व्यावहारिक बनता है।

 

 

 

साम्यवादी यह मानते हैं कि आर्थिक समानता वाले समाज में कोई वर्ग या अलग-अलग हित नहीं होते हैं। इसलिए वर्गो के विशिष्ट हितों का प्रतिनिधित्व व  सुरक्षा करने के लिए अनेक  राजनीतिक दल बनने  की  परिस्थितियां  नहीं  होती  हैं।  उनका  कहना  है  कि  वर्ग-विहीन  समाज  में  राजनीतिक  दलों  की

 

आवश्यकता  ही  नहीं  रह  जाती  है।  यही  कारण है  कि  साम्यवाद, राजनीतिक  दलों  की  अनेकता  स्वीकार नहीं करता। परन्तु जन लोकतान्त्रिक व्यवस्था के मूल्यों की प्राप्ति के लिए समाज का नेतृत्व व निर्देशन होना आवश्यक है। जिससे समाज के सम्पूर्ण साधनों व शक्तियों में समन्वय रखा जा सके और साध्यों की पूर्ति की सुव्यवस्था की जा सके। इसके लिए सम्पूर्ण जनता के दल (साम्यवादी) की आवश्यकता होती है जिसे समाज के लिए राजनीतिक शक्तियों के प्रयोग, निर्देशन व नियंत्रण का एकाधिकार प्राप्त हो। यह साम्यवादी  दल  सबका  सǔचा  प्रतिनिधित्व  करता  है  और  सबके  हित  में  राजनीतिक  शक्तियों  का  प्रयोग सम्भव बनाता है। ऐसा दल शोषण व दमन का प्रतीक नहीं होता है, वरन सार्वजनिक हित की साधना का साधन रहता है। ऐसी व्यवस्था वाला समाज ही लोकतान्त्रिक कहा जा सकता है।

 

 

साम्यवादी  जगत  में  उन  सभी  औपचारिक  संस्थाओं  कोजो  उदार  लोकतान्त्रिक  व्यवस्था  वाले राज्यों  में  पाई  जाती  हैंसंविधान  में  अपनाया  जाता  है।  जैसे  संविधान  को  लिखितअचल  व  सर्वोǔ बनाया  जाता  है।  राजनीतिक  शक्तियों  का  विभाजन  व  पृथक्करण  पाया  जाता  है।  नागरिकों  को  मौलिक अधिकार  संविधान  द्वारा  प्रदान  किये  जाते  हैं  और  सरकार  का  निरंतर  उत्तरदायित्व  रहे  इसके  लिए संस्थागत  व्यवस्था  की  जाती  है।  इतना  ही  नहीं,  ‘विधि  के  शासन  का  दिखावा  भी  कानूनी  दृष्टि  से सुस्थापित किया जाता है। यह संवैधानिक व्यवस्थाएं, राजनीतिक शक्ति पर प्रभावशाली नियंत्रण लगाकर उसके दुरूपयोग पर अंकुश का काम करने वाली हैं। इसलिए यह कहा जाता है कि साम्यवादी राज्यों में ही वास्तविक लोकतंत्र है।

 

विलियम जी0 ऐन्ड्रज ने ठीक ही लिखा है कि, ”प्रक्रियात्मक लोकतंत्र की दृष्टि से रूस का संविधान उन सभी संसदीय संस्थाओं की, जो पश्चिमी देशों में प्रचलित हैं, स्थापना करता है और  उनके  आपसी  सम्बंध्नों  को  भी  ठीक  उसी  तरह  मर्यादित  करता  है।  रूस  के  संविधान  में  कई  ऐसी व्यवस्थाएं  हैं  जो  पश्चिमी  परम्परा  के  अनुरूप  ही  शक्ति  नियंत्रण  के  मानक  व  प्रक्रियात्मक  नियमिताएं स्थापित करती हैं। रूस के संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं की सुव्यस्थित रक्षा व्यवस्था है, विभिन्न शासन सत्ताओं के पारस्परिक सम्बंधों की स्पष्ट व्याख्या है तथा सार्वजनिक नीति के निर्धारण व क्रियान्वयन का प्रक्रियात्मक अनुबन्ध है। इन सब बातों में यह पाश्चात्य लोकतान्त्रिक संविधानों से बिलकुल भी भिन्न नहीं है।

रूस  तथा  अन्य  साम्यवादी  संविधानों  में  पाई  जाने  वाली  सभी  संस्थागत  व्यवस्थाएं  लोकतंत्र  की स्थापना करती हुई दिखाई देंती हैं, परन्तु वास्तव में साम्यवादी समाजों में लोकतंत्र का अनुसरण नहीं होता है। साम्यवादी राज्यों में राजनीतिक शक्ति के धारकों पर संवैधानिक नियंत्रणों की सभी संस्थागत व्यवस्थाएं केवल औपचारिकता मात्र हैं। निष्कर्ष रूप में ऐलफ्रेड मेयर के शब्दों में यह कहा जा सकता है कि रूस का सम्पूर्ण संविधान एक धोखा है, यह क्रियान्वित नहीं होता है, और इससे राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति का  सही  चित्रण  भी  नहीं  होता  है।  साम्यवादी  राज्यों  में  न  व्यक्ति  को  स्वतंत्रता  होती  है  और  न  अपने व्यक्तित्व के विकास का मार्ग चुनने का उसे विकल्प प्राप्त रहता है। अतः साम्यवादी लोकतंत्र का विचार बहुत नया तथा अनोखा ही कहा जा सकता है।

एलेन बाल ने साम्यवादी व्यवस्थाओं के लक्षण बताते हुए, इनके आधार पर इनको उदार लोकतंत्रों से अलग पाया है। यह लक्षण हैं-

 

व्यक्तिगत तथा सामाजिक गतिविधि के सभी पहलुओं से सरकार राजनीतिक रूप से सम्बद्ध होती है।

 

एक ही दल राजनीतिक तथा विधिक रूप से प्रभावी होता है। सारी राजनीतिक सक्रियता इसी के माध्यम से गुजरती है और प्रतियोगिता, नियुक्तियों तथा विरोध के लिए दल ही एक मात्र संस्थागत आधार प्रस्तुत करता है।

 

सैद्धान्तिक  रूप  से  एक  ही  सुस्पष्ट  विचारधारा  होती  है  जो  उस  व्यवस्था  के  अन्तर्गत  सम्पूर्ण राजनीतिक सक्रियता का विनियमन करती है। यह विचारधारा सिद्धान्त के अतिरिक्त भी बहुत कुछ होती है। वह शासन तथा जोड़-तोड़ करने का उपकरण होती है।

 

न्यायपालिका और जन-सम्पर्क के माध्यमों पर सरकार का कठोर नियंत्रण होता है और उदारवादी लोकतंत्रों में परिभाषित नागरिक स्वतंत्रताएं कठोरतापूर्वक काट-छांट दी जाती हैं।

 

सर्वाधिकारी  शासन  प्रजातंत्रीय  आधार  उपलब्ध  करने  के  उद्देश्य  से  और  शासन  के  लिए  व्यापक जन-समर्थन प्राप्त करने के लिए जन-सक्रियता पर जोर देते हैं। जनता के भाग लेने तथा जनता की स्वीकृति से शासन का वैधीकरण हो जाता है।

 

 

इन लक्षणों से एक बात स्पष्ट होती है कि लोकतंत्र के उदारवादी दृष्टिकोण व साम्यवादी दृष्टिकोण में मूल्यों, सिद्धान्तों तथा प्रक्रियाओं में मौलिक अंतर हैं। इस कारण अगर प्रजातंत्र की सैद्धान्तिक व्याख्या, जो  बहुत  कुछ  उदारवादी  धारणा  से  प्रेरित  हैका  आधार  लेकर  देखें  तो  साम्यवादी  व्यवस्था  को लोकतांत्रिक  नहीं  कहा  जा  सकतापर  इस  निष्कर्ष  पर  यह  दोषारोपण  किया  जा  सकता  है  कि  हम उदारवादी लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं को मापदंड के रूप् में इस्तेमाल कर रहे हैं और उससे थोड़ा बहुत भी इधर-उधर हटने को अलोकतान्त्रिक मान लेते हैं। यहां तर्कसम्मत आधार का अभाव लगता है।

 

 

लोकतंत्र  के  उदारवादी  व  साम्यवादी  प्रकारों  की  चर्चा  ऊपर  की  गई  है।  इन  दोनों  प्रकारों  के  बीच  की स्थिति के भी लोकतंत्र के अनेक नाम व रूप बन गये हैं। लोकतंत्र के ऐसे रूपों में ही वे नाम व रूप आते हैं जिन्हें बुनियादी लोकतंत्र, निर्देशित लोकतंत्र या नियंत्रित लोकतंत्र की संज्ञाएं दी जातीं है। इन प्रकारों के लोकतंत्रों के रूप में हम उन नवोदित राष्ट्रों की शासन व्यवस्थाओं को ले सकते हैं जिनकी सामाजिक, आर्थिक  व  राजनीतिक  स्थिति  तथा  जिनकी  जनता  के  बौद्धिक  स्तर  के  कारण  इन  देशों  में  पश्चिमी  व साम्यवादी दोनों ही प्रकार के लोकतंत्र उपयुक्त सिद्ध नहीं होते हैं तथा जिनमें लोकतंत्र का क्रियान्वयन, जनमत की सीमित, निर्देशित अथवा नियंत्रित अभिव्यक्ति के आधार पर होता है।

 

वैसे सच तो यह है कि विकासशील  देशों  में  लोकतंत्र  अभी  तक  अस्थायित्व  के  दौर  से  गुजर  रहा  है।  इन  देशों  में  राजनीतिक प्रक्रियायें संक्रमण की अवस्था में होने के कारण, संविधानों में लोकतंत्र के आधार सुनिश्चित नहीं हो पाए हैं।  संविधानों  में  बार-बार  मौलिक  संशोधन  किये  जाते  हैं  तथा  एक  मूल्य  के  स्थान  पर  दूसरा  मूल्य अपनाया  जाता  रहा है।  इन  राज्यों  की  परिस्थितियां ही  ऐसी  हैं  कि  इनमें  कभी-कभी  विरोधी लक्ष्यों  को सामंजस्य की परिस्थिति में लाना आवश्यक हो जाता है। इन देशों में आर्थिक विकास की गति को तेज करने की आवश्यकता के साथ ही साथ राजनीतिक स्थायित्व व राजनीतिक शक्ति की वैधता के साधन भी अपनाने  आवश्यक  हैं।  एक  तरफराजनीतिक  सत्ता  की  वैधताप्रतियोगी  राजनीतिक  दलों  के  संदर्भ  में स्वतंत्र, निष्पक्ष व नियतकालिक चुनावों द्वारा होती है तो  दूसरी तरफआर्थिक विकास  की द्रुत गति के लिए सभी साधनों में समन्वय स्थापित तभी किया जा सकता है जब प्रतियोगी राजनीति पर कुछ अंकुश लगाये जाएं। इन्हीं कारणों से अनेक नवोदित राज्यों में लोकतंत्र का एक नया रूप विकसित होता हुआ दिखाई देता है।

परन्तु  सभी  विकासशील  राज्यों  में लोकतंत्र  का  यह  नया  रूप  एक  समान  नहीं  दिखाई  पड़ता  है। अनेक राज्यों में लोकतंत्र की संस्थागत व्यवस्थायें व राजनीतिक समाज के आदर्श एक ही दिशा में जाने वाले होते जा रहे हैं। इन्हीं राज्यों का लोकतंत्र समाजवादी लोकतंत्र के नाम से पुकारा जाने लगा है। इन लोकतंत्रों  में  राजनीतिक  समाजों  के  मूल्य  तो  उदारवादी  लोकतंत्रों  की  अवधारणा  के  समानस्वतंत्रता,

 

राजनीतिक समानता, सामाजिक व आर्थिक न्याय तथा लोक कल्याण की साधना के ही हैं, परन्तु साधनों की  दृष्टि  से  समाजवादी  लोकतंत्र  साम्यवादी  विचारधारा  के  समीप  लगते  हैं।  क्योंकि  इन  राज्यों  में साम्यवादी  संरचनाओं  व  संस्थागत  व्यवस्थाओं  के  प्रति  आस्था  बलवती  बनती  जा  रही  है।  इन  राज्यों  में समानता के राजनीतिक पहलू के साथ ही साथ समानता का आर्थिक पहलू भी महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रतियोगी राजनीति की छूट तब तक रहती है जब तक यह आर्थिक विकास के प्रयत्नों व आर्थिक न्याय की व्यवस्था में बाधक नहीं बने।

विकासशील  राज्यों में  आर्थिक  न्याय के  लिए  आर्थिक  विषमताओं में  कमी  के  प्रयत्न  तथा आर्थिक विकास के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए राजनीतिक स्वतंत्रताओं व प्रतियोगी राजनीति पर प्रतिबन्ध लगाना लोकतंत्र का प्रमुख लक्षण है। वास्तव में ऐसा करना लोकतंत्र को, लाखों-करोड़ों नंगे, भूखे  व  बीमार  लोगों  के  लिए  अर्थपूर्ण  बनाना  है।  उदाहरण  के  लिएभारत  में  लोकतंत्र  का  वही  रूप स्थापित  होता  जा  रहा  है।

 

26  जून  1975  में  भारत  में  संकटकाल  की  घोषणा  करके  कुछ  लोगों  की बेरोकटोक चल रही स्वतंत्रताओं को सीमित करना वास्तव में लोकतंत्र का लोप नहीं है। यह लोकतंत्र को सही रूप प्रदान करता है। अतः हम नोर्मन डी0 पांमर के एशिंयन सर्वे के फरवरी 1976 के अंक में छपे

एक लेख को उपयुक्त नहीं मान सकते हैं। पश्चिमी देशों में भारतीय राजनीति के विशेषज्ञों में से अनेक ने ऐसे ही शीर्षकों का प्रयोग करके अपने लेखों में यह बताने का प्रयास किया है कि भारत में लोकतंत्र का युग समाप्त हो गया है। इन लेखकों ने लोकतंत्र के अन्त का केवल एक ही कारण प्रमुख माना है और यह है सरकार द्वारा कुछ लोगों की मनमानी करने की स्वतंत्रता को प्रतिबन्धित करना।

 

क्या राजनीतिक स्वतंत्रता को, अगर यह कुछ लोगों को ही अर्थो में प्राप्त हो तो समाज के आधारभूत मूल्यों को समाप्त करने के लिए बेरोकटोक प्रयुक्त होने देना, जिससे वे असंख्य लोगों को शोषण कर सकें, अपने हितों की पूर्ति  में  उनका  प्रयोग  कर  सकेंलोकतंत्र  कहेंगेलोकतंत्र  में  जन-सहभागिता  अत्यन्त  महत्वपूर्ण  मानी जाती  है।  श्रीमती  इन्दिरा गांधी ने 15  नवम्बर  1975  में इण्डियन  नेशनल  टेªड  यूनियन  कान्फ्रेंस  के  56वें सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए शायद ठीक ही कहा था कि स्वतंत्रता तभी वास्तविक बनती है जब यह उन बहुसंख्यक लोगों के लिए, जो अत्यधिक पीड़ित व उपेक्षित रहे हैं, कुछ राहत ला सके तथा सुविधाएं देश  के  गरीब  से  गरीब  व्यक्ति  तक  पहुंचा  सके।

 

भारत  में  पिछले  40 वर्षो  तक  तथाकथित  उदारवादी लोकतंत्र के नाम में कलंक न लगने देने के लिए संवैधानिक साधनों का, कुछ वर्गो व लोगों द्वारा खुलकर जन शोषण में प्रयोग होता रहा है और विदेशी व भारतीय विद्वान राजनीतिक व्यवस्था की लोकतान्त्रिकता की दुन्दुभी बजाते रहे, स्वतंत्रताएं बनी रहीं तथा शोषण, अन्याय व अव्यवस्था बढ़ती गई पर इन विद्वानों का कहना था कि यह सब लोकतंत्र की जड़ों का गहरा जमना है। वास्तव में, यह पश्चिमी विशेषज्ञ जिनमें माइरन वीनर भी एक हैं, भारत आकर गगनचुम्बी होटलों के वातानुकूलित कमरों से ही भारतीय लोकतंत्र का  जायजा  लेते  रहे  और  निष्कर्ष  निकालते  रहे  कि  भारत  का  लोकतंत्रएशिया  में लोकतंत्र  का  चिराग जलाये  हुए  है।  जबकि  वास्तविकताएं  कुछ  और  ही  दृश्य  उपस्थित  करती  हैं।  स्वतंत्रताराजनीतिक समानता, सामाजिक व आर्थिक न्याय तथा जन-कल्याण केवल कुछ वर्गो के कुछ लोगों के लिए, समस्त लोगों के हितों की कीमत पर सार्थक रह गया था। ऐसी अवस्था में लोकतंत्र को पटरी पर नहीं पटरी से उतरा  हुआ  ही  कहा  जा  सकता  है।  अतः  लोकतंत्र  को  सामाजवादी  दृष्टिकोण  समस्त  जनता  के  लिए स्वतंत्रता  की  व्यवस्था  करने  के  लक्ष्य  से  प्रेरितआर्थिकसामाजिक  व  राजनीतिक  समानता  की  ऐसी व्यवस्था है जिसमें सम्पूर्ण जनता के साथ न्याय हो और सबकी हित साधना हो सके।

लोकतंत्र  का  समाजवादी  दृष्टिकेाणउदारवादी  लोकतंत्र  व  साम्यवादी  लोकतंत्र  के  बीच  का  मार्ग नहीं है। यह अपने आप में एक विशिष्ट विचार है। जिसमें लोकतंत्र की सैद्धान्तिक व्यवस्था को व्यावहारिक रूप में प्राप्त करने का प्रयास निहित है। समाजवादी लोकतंत्र में राजनीतिक समानता व स्वतंत्रता पर भी बल दिया गया है तो साथ ही इसके सामाजिक व आर्थिक पक्षों के महत्व को भी आधारभूत माना गया है।

यह इन दोनों का माध्यम वर्ग इसलिए नहीं है क्योंकि इसमें दोनों प्रकार के लोकतंत्रों के समन्वय के स्थान पर दोनों से अलग मूल्य, सिद्धान्त व साधन अपनाए गए हैं। उदारवादी व साम्यवादी लोकतंत्र बेमेल है। इनका  सम्मिश्रण  सम्भव  ही  नहीं  है।  अतः  लोकतंत्र  के  समाजवादी  लोकतंत्र  को  इन  दोनों  की  खिचड़ी कहना गलत होगा। समाजवादी लोकतंत्र में स्वतंत्रता व समानता के विशेष अर्थ किए गए हैं तथा यह अर्थ लोकतंत्र की भावना के अधिक अनुरूप है, क्योंकि इन्हीं अर्थों में स्वतंत्रता व समानता तथा न्याय व्यक्ति की  व्यक्तिगत  गरिमा  का  अन्तिम  उद्देश्य  प्राप्त  करा  सकता  है।

 

 

यही  राजनीति  में  जन-सहभागिता  को अर्थपूर्ण और प्रतियोगी  राजनीति की परिस्थितियां उत्पन्न करता है। अन्यथा 150 रुपये मासिक आमदनी वाले व्यक्ति की, डेढ़ लाख रुपये की मासिक आमदनी वाले व्यक्ति से, सभी स्वतंत्रताओं तथा उनके भोग की  छूट  के  बावजूद  क्या  प्रतियोगिता  हो  सकतीसमाजवादी  लोकतंत्र  इन  दोनों  में  प्रतियोगिता  को यथार्थवाद बनाने के लिए बराबर करने के स्थान पर दोनों के बीच की आर्थिक विषमता को कम से कम करने का लक्ष्य रखता है। अतः समाजवादी लोकतंत्र को सही अर्थ में समझने के लिए यह आवश्यक है कि समाजों की वास्तविकताओं की अनदेखी नहीं की जाए।

लोकतंत्र के इस दृष्टिकोण के विवेचन से यह स्पष्ट है कि दुनिया के अधिकांश राज्य लोकतंत्र के समाजवादी  ढांचे  में  सम्मिलित  नहीं  किए  जा  सकते  हैं।  वास्तव  में  लोकतन्त्र  का  यह  प्रतिमान  अत्यन्त जटिल है। सामान्य संरचनात्मक हेर-फेर से राजनीतिक व्यवस्थाएं इस विचार की मौलिक मान्यताओं से हट जाती हैं। इसलिए डाक्टर इकबाल नारायण का यह निष्कर्ष कि जो राज्य उदारवादी या साम्यवादी लोकतन्त्रों के अन्तर्गत नहीं आते वे समाजवादी लोकतन्त्र के नाम से जाने जाते हैं,“ मान्य नहीं हो सकता है। वास्तव में दुनिया के अधिकांश राज्य या तो उदारवादी लोकतंत्र या साम्यवादी लोकतन्त्र की श्रेणी में रखे  जा  सकते  हैं  तथा  शायद  भारत  जैसे  कुछ  राज्य  ही  समाजवादी  लोकतन्त्र  के  मानदण्ड  के  कुछ अनुरूप  कहे  जा  सकते  हैं।  बाकी  अनेक  विकासशील  राज्य  न  सैद्धान्तिक  दृष्टि  से  यथा  न  व्यवहार  में समाजवादी लोकतन्त्र की भावना के अनुसार प्रशासित होते हैं।

लोकतंन्त्र के विभिन्न दृष्टिकोणों के विवेचन से यह स्पष्ट है कि लोकतन्त्र की अवधारणा परिवर्तित होती गई है। क्योंकि अभी भी मानव भौतिक स्तर पर ही जीवित रहने की कोशिश में पूर्णतया सफल नहीं हो पाया है। जब सम्पूर्ण मानवता एक निश्चित जीवन स्तर प्राप्त कर लेगी तब शायद लोकतंत्र के मूल्यों का पुनः निर्धारण होने लगेगा।

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