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सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप,

सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप

( Forms of Stratification )

स्तरीकरण असमानता का वह स्वरूप है जिसमें समाज के सदस्य ऊँचे – नीचे पदों या स्थितियों में विभाजित रहते हैं । स्थिति की यह ऊँचाई – नीचाई जिन आधारों से निर्धारित होती है ये ही स्तरीकरण के स्वरूप या प्रकार को भी निश्चित करते हैं । स्तरीकरण के दो मौलिक स्वरूपों का उल्लेख प्रारम्भिक समाज वैज्ञानिकों ने किया है । स्तरीकरण का एक स्वरूप प्रादर्शात्मक ( Normative ) होता है और दूसरा यथार्थवादी ( Realistic ) या वास्तविक । प्रादर्शात्मक स्तरीकरण का सम्बन्ध स्तरों की प्रकृति से है , जैसे मुक्त स्तरीकरण और प्रतिबन्धित स्तरीकरण अथवा प्रदत्त स्थिति और अजित स्थिति के आदर्श अथवा स्तरीकरण की संस्थागत मात्रा और स्वरूप । वास्तविक स्तरीकरण उन कारकों के साथ सम्बन्धित हैं जिनके आधार पर समाज के सदस्यों में स्तरीकरण होता है , जैसे आर्थिक स्तरीकरण , स्थिति सोपान कम या शक्ति स्तरीकरण । स्तरीकरण के स्वरूपों की द्विविध व्याख्या अत्यन्त प्राचीन है जिनके द्वारा समाज के सदस्यों को दो ऊँचे – नीचे समूहों में बाँटा जाता है जैसे विशिष्ट और सामान्य , श्रेष्ठजन ( Elite ) और सामान्य जन ( Masses ) , स्वाधीन और पराधीन , अमीर और गरीब , शासक और शासित तथा उत्पादक और अनुत्पादक समूह । आधुनिक युग में स्तरीकरण का त्रिवर्गीय स्वरूप प्रचलित है जिसमें उच्च वर्ग , मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग होते हैं । समाजशास्त्रियों ने मुख्य रूप से स्तरीकरण के निम्नलिखित पाँच स्वरूपों का उल्लेख किया है

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1 . दासता ( Slavery ) – दासता स्तरीकरण का वह स्वरूप है जिस में समाज दो वर्गों में विभाजित होता है जिन्हें स्वामी तथा दास कहा जाता है । किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के द्वारा प्रथा या प्रचलन के रूप में अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को दास के रूप में रखना स्तरीकरण के दासता – स्वरूप को व्यक्त करता है । दास स्वामी की सम्पत्ति होते हैं । स्वामियों में भी दास रखने की क्षमता और दासों की संख्या के आधार पर स्तरीकरण होता था । दास भी कार्य की प्रकृति के आधार पर ऊँची – नीची स्थितियों को प्राप्त करते थे । घरेलू दास और क्षेत्र दास ( Field Slaves ) में स्थिति की भिन्नता होती थी । दासता के दो प्रमुख उदाहरण मानव इतिहास में मिलते हैं । प्राचीन दासता जो यूनान और रोम के समाजों में प्रचलित थी , दासता का बहुचर्चित स्वरूप था । दासता का दूसरा स्वरूप संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिण भाग में विगत दी । शताब्दियों में प्रचलित रहा है । चीन में भी दासता घरेल दास व्यवस्था के रूप में प्रचलित रही है , किन्तु यहाँ दास को उस सीमा तक निजी सम्पत्ति के रूप में नहीं समझा जाता था जिस सीमा तक उसे रोम में समझा जाता था ।

2 . एस्टेट ( Estate ) – एस्टेट सामाजिक स्तरीकरण का वह स्वरूप है जो दासता के पश्चात् सामन्तवादी युग में विकसित हुआ । एस्टेट एक राजनीतिक अवधारणा भी है और एक सामाजिक स्थिति का प्रतीक शब्द भी है । राजनीतिक क्षेत्र में विशिष्ट अधिकारों से युक्त समूह को एस्टेट या जागीरदारी कहा जाता है । दूसरी ओर जागीर या एस्टेट जनसंख्या का वह भाग है जिसे स्तरीकरण में उच्च स्थान प्राप्त है और विशेष सामाजिक अधिकार और सुविधाएँ प्राप्त होती हैं । इन अधिकारों और सुविधाओं को कानूनी अभिमति प्राप्त होती है । एस्टेट व्यवस्था के अन्तर्गत सामन्तवादी समाज तीन ऊंचे – नीचे समूहों में विभाजित था । सामाजिक स्तरीकरण में प्रथम स्थान पुजारियों का था जो पूजा – पाठ करते थे । दूसरे स्थान पर भद्र पुरुष या कुलीन व्यक्ति थे जो युद्ध इत्यादि के समय सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाते थे , और तीसरे स्थान पर श्रम करने वाले सामान्य लोग थे । एस्टेट के आधार जन्म और सम्पत्ति थे । स्तरीकरण का एस्टेट स्वरूप ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त में प्रारम्भ हुआ जब अनेक दास स्वतन्त्र हो रहे थे । इन्हें कुलीन लोग अपने समूह में शामिल करने को तैयार नहीं थे । इस कुलीन की परिभाषा धन , सत्ता और सामाजिक आदतों से सम्बन्धित हो गई । कुलीन वर्ग एक प्रकार से स्वामी वर्ग बन गया और श्रम करने वाले उसके अधीन हो गए । सैनिक वृति ने उसके स्वभाव को भी आदेशात्मकता से परिपूर्ण बना दिया । विशिष्ट जीवन शैली उसकी पहचान बन गई । वह सामान्य जनता से अलग ग्रामीण क्षेत्र में रहता था पर खेती नहीं करता था । कुलीन समूह के वंशज विशेष सुविधाओं के पात्र हो गए । भारत में वह एस्टेट प्रथा के साथ जुड़ गई । यहाँ विलासी और श्रमिक समूहों का निर्माण नहीं हुआ बल्कि ग्रामीण कृषि पर आधारित स्तरीकरण का यह स्वरूप आर्थिक और सैनिक प्रकृति का था । यहाँ यूरोप का सामन्तवादी स्वरूप नहीं था , और न उसकी शोषणवादी व्यवस्था थी । एस्टेट प्रथा भी कानून पर आधारित थी । संक्षेप में एस्टेट एक प्रतिबन्धित स्तरीकरण का रूप था । स्तरीकरण के नियमों की प्रथा तथा परम्परा का समर्थन प्राप्त था और औपचारिक कानून भी इन नियमों और प्रादर्शों में सहायक थे ।

3 . जाति ( Caste ) – हिन्दुस्तान में सामाजिक जीवन और चिन्तन की दिशा जाति – प्रथा से निश्चित होती रही है । भारतीय सामाजिक संरचना के विशिष्ट लक्षणों से युक्त जाति – प्रथा स्तरीकरण का एक कठोर स्वरूप है जिसका उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता । यह प्रतिबन्धित स्तरीकरण का वह स्वरूप है जिसमें जन्म के साथ व्यक्ति की स्थिति निर्धारित हो जाती है और वह जीवनपर्यन्त उसी स्थिति में रहता है । धन का अनन्त कोष , अथवा प्रतिभा की प्रखरता उसकी स्थिति को नहीं बदल सकते । जाति के साथ धार्मिक अभिमति जुड़ गई है । जाति की व्याख्या एक कठोर वर्ग के रूप में भी की गई है और एक स्थिति समूह के रूप में भी । यद्यपि जाति प्रथा एक अपरिवर्तनीय स्थायी व्यवस्था प्रतीत होती है , फिर भी यह गतिशील तथ्य है । स्तरीकरण का यह भारतीय स्वरूप परिस्थितियों के साथ अनुकूलन है । प्रजातान्त्रिक प्रणाली के विकास ने अनेक परिवर्तन किए हैं । इसके सांस्कतिक स्वरूप में परिवर्तन हो रहा है और पद – सोपान – क्रम में भी परिवर्तन हो रहे हैं । जाति जन्मजात समूह है जिसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता । यह अन्तविवाही समूह भी है । जातियों के व्यवसाय पूर्व – निश्चित होते हैं और उन्हें नहीं जा सकता । खान – पान के प्रतिबन्धित और सामाजिक सम्पर्क या परिसीमन जाति प्रथा को अत्यन्त प्रतिबन्धित स्तरीकरण का स्वरूप बना देते हैं । न प्रतिबन्धों के कारण मध्यकाल तक पाते – पाते निम्न जातियों की निर्योग्यतामों का विकास हो गया और वे उच्च जातियों के शोषण का शिकार हो गई । उन्हें पशुओं से भी बदतर समझा जाने लगा । स्वतन्त्र भारत में प्रौद्योगीकरण , नगरी करण , लौकिकीकरण , संस्कृतिकरण , प्रजातन्त्रीकरण और पश्चिमीकरण आदि की प्रक्रियाओं ने जाति प्रथा में अनेक परिवर्तन किए हैं , किन्तु इन परिवर्तनों से जातीय स्तरीकरण का मौलिक स्वरूप नहीं बदला है । विभिन्न जातियों की स्थितियों में परिवर्तन हना है किन्तु स्थिति सोपान की निरन्तरता और जाति – सदस्यता के आधारों में परिवर्तन नहीं हुआ है । अनेकों धार्मिक और राजनीतिक विरोधों के सामने जातीय स्तरीकरण विद्यमान है ।

 4 . वर्ग ( Class ) – सामाजिक वर्ग स्तरीकरण का वह प्रकार है जो अाधुनिक युग में अधिक प्रचलित है । वर्ग ऊँची – नीची स्थिति वाले आर्थिक समूहों के रूप में समझे जा सकते हैं जिन्हें कोई धार्मिक या कानूनी अभिमति प्राप्त नहीं होती । वर्ग स्तरीकर ण का मुक्त स्वरूप है । वर्ग के सदस्य अपनी स्थिति के अनुसार अन्य समूहों को ऊंचा या नीचा समझ कर व्यवहार करते हैं । वर्ग चेतना वर्ग का विशेष लक्षण है । मार्क्स ने सामाजिक स्तरीकरण में दो वर्गों को मान्यता दी है । बुर्जुवा वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है । वह शासक भी होता है और शोषक भी । यह उच्च वर्ग होता है । सर्वहारा वर्ग श्रम करता है , शोषित और निर्धन है । मार्स वैबर ने भी सम्पत्तिवान और सम्पत्तिहीन , दो वर्गों में समाज का विभाजन किया है । वर्ग आधुनिक समाज में स्तरीकरण का विशिष्ट स्वरूप है । आर्थिक स्थिति वर्ग – निर्धारण का मुख्य प्राधार है । अतः सम्पत्ति , प्राय और व्यवसाय वर्ग की अवधारणा के साथ विशेष रूप से जुड़ गए हैं । अमरीका आदि कुछ क्षेत्रों में प्रजाति वर्ग निर्धारण में सहायक तत्त्व हो गया है । एक वर्ग के सदस्य समान जीवन शैली रखते हैं और जीवन में उन्नति के अवसर भी उनके लिए समान ही होते हैं । योग्यता , परिश्रम और आकांक्षा वर्ग – परिवर्तन के अवसर प्रदान करते हैं । अाधुनिक वर्ग स्तरीकरण में उच्च , मध्यम और निम्न , ये तीन सवे प्रचलित वर्ग हैं । प्रजातान्त्रिक देशों में वर्ग महत्त्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका अदा करते हैं । सर्वसत्तावादी संरचनामों में राजनीतिक वर्गों का विकास हो गया है ।

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5 , स्थिति समूह ( Status Groups ) – आधुनिक समाजों में उपभाग स्तरीकरण का मुख्य प्राधार बन गया है । मैक्स वेबर ने उपभोग की मात्रा को प्राधार मानकर ऊंचे – नीचे सामाजिक स्तर का निर्धारण करने का प्रयत्न किया है । अधिक खर्च करने वाले लोग उच्च स्थिति में होते हैं । संक्षेप में सामाजिक स्तरीकरण के निम्नलिखित स्वरूपों की व्याख्या की

आर्थिक स्तरीकरण ( Economic Stratification ) – धार्मिक स्तरीकरण का प्राधार धन – सम्पत्ति और आमदनी है । व्यक्ति की नाथिक स्थिति सदैव एक – सी नहीं रहती । इसमें उतार – चढ़ाव , पाने रहते हैं 12 उतार – चढ़ाव सम्पूर्ण समूह की प्रार्थिक स्थिति को भी परिवर्तित कर सकता है अगर समूह के अन्तर्गत विभिन्न वर्गों की आर्थिक स्थितियों को भी बदल सकता है । प्रत्येक समूह की औसत सम्पत्ति और प्राय अलग – अलग होती है जो समय – समय पर घटती बढ़ती है । आर्थिक स्थिति अर्थात् सम्पत्ति और आमदनी के नाधार पर समाज के विभिन्न सदस्यों और समूहों को ऊँचा – नीचा मानना आर्थिक स्तरीकरण है ।

राजनीतिक स्तरीकरण ( Political Stratification ) जनसंख्या के विस्तार और सभ्यता के विकास के कारण समाज अत्यन्त जटिल हो गए हैं । प्राचीन समाज छोटे और सरल समाज थे । अतः उस में राजनीतिक आधार पर लोग ऊंचे या नीचे न थे । राजा , मुखिया या सरदार ही सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति था और शेष सब उसके अधीन थे । आधुनिक युग में विभिन्न प्रकार की राजनीतिक संरचनाओं का विकास हो गया है जिसके अन्तर्गत राजनीतिक स्थितियों का विभाजन होने लगा है । प्रजातन्त्र में राष्ट्रपति , प्रधान मन्त्री , आदि अनेक स्थितियों का सोपान क्रम बन गया है । राजनीतिक परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं जिसके फलस्वरूप राजनीतिक स्तरीकरण भी बदल जाता है । किसी राजनीतिक संगठन के आकार के चढ़ने – घटने से स्तरीकरण भी बदल जाता है । यदि उसके सदस्यों में भिन्नता बढ़ जाती है तो स्तरीकरण में विस्तार हो जाता है और भिन्नता घट जाती है तो स्तरीकरण संकुचित हो जाता है । युद्ध , क्रान्ति अथवा विद्रोह की अवस्था में भी उलट – फेर हो जाता है । विरोधी राजनीतिक शक्तियाँ भी सामाजिक स्तरीकरण को प्रभावित करती हैं ।

व्यावसायिक स्तरीकरण ( Occupational Stratification ) सारोकिन ने दो प्रकार का व्यावसायिक स्तरीकरण बताया है । अन्त : व्यावसायिक स्तरीकरण वह होता है जिसमें एक ही व्यवसाय में लगे व्यक्तियों की स्थितियों में असमानता होती है । सबसे ऊँची स्थिति में वे लोग होते हैं जो व्यवसायों के मालिक , व्यवस्थापक प्रादि होते हैं और कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखते हैं । दूसरी स्थिति प्रवन्धकों या अन्य उच्चाधिकारियों की होती है , जो स्वयं मालिक न होते हुए भी महत्त्वपूर्ण अधिकार सम्पन्न व्यक्ति होते हैं । अन्तिम स्तर पर वेतन भोगी साधारण कर्मचारी और श्रमिक होते हैं । सामान्यतः प्रायिक , व्यावसाधिक और राजनीतिक स्तराकरण परस्पर एक – दूसरे को प्रभावित करते हैं । जो व्यक्ति एक क्षेत्र में ऊचा स्थिति पर होता है , वह अन्य क्षेत्रों में भी ऊँची स्थिति प्राप्त कर लेता है ।

4 . अन्य प्रकार ( Other Types ) – प्राधुनिक युग में शिक्षा , कला आदि के प्राधार पर समाज के

सदस्यों की स्थितियों में असमानता पा जाती है । प्रजाति भी स्तरीकरण का मुख्य स्वरूप रहा है । स्तरीकरण में जातीय स्वरूप और al स्वरूप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इस प्रकार सामाजिक स्तरीकरण अनेक स्वरूपों में प्रकट होता है । समाजशास्त्रियों के अनुसार मानवीय इतिहास के विभिन्न युगों में सामाजिक स्तरीकरण के विशिष्ट स्वरूपों का विकास हुआ है । प्राचीन काल में दास प्रथा स्तरीकरण का स्वरूप थी तो सामन्त युग में एस्टेट प्रथा का विकास हुना । भारतीय समाज में स्तरीकरण का प्रमुख स्वरूप जाति रही है और प्राधुनिक जगत में स्तरीकरण के प्रमुख स्वरूप के रूप में वर्ग प्रथा को मान्यता प्राप्त हुई है । भारत में सामाजिक स्तरीकरण के उपयुक्त स्वरूपों में से दो स्वरूप अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं अतः हम यहाँ उनकी विस्तार से विवेचना करेंगे – – 1 . जाति – प्रथा ( Caste System ) 2 . वर्ग – व्यवस्था ( Class System )

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