सामाजिक स्तरीकरण
स्तरीकरण ( stratification ) शब्द भूविज्ञान से ग्रहण किया गया है तथा यह समाज में व्यक्तियों के विभिन्न स्तरों में वर्गीकरण की ओर संकेत करता है जिसके सम्बन्ध में माना जाता है कि समाज में स्तर की यह व्यवस्था ठीक उसी तरह लम्बवत् रूप में होती है जैसे धरती की परतें / तहें एक – दूसरे के ऊपर अथवा नीचे लम्बवत् रूप में व्यवस्थित रहती हैं । किन्तु इस भू – वैज्ञानिक रूपक की अपनी सीमाएँ भी हैं । जैसा कि आन्द्रे बीते ( 1985 ) कहते हैं , “ समाज में व्यक्तियों की व्यवस्था धरती पर परतों / तहों की व्यवस्था से कहीं अधिक जटिल है तथा सामाजिक परतों को नंगी आँखों से उस प्रकार नहीं देखा जा सकता जैसे कि हम भूमि की परतों को देख सकते हैं । ” जब हम सामाजिक स्तरीकरण की बात करते हैं तो एक प्रकार से समाज में व्याप्त असमानताओं पर ध्यान केन्द्रित कर रहे होते हैं । विस्तृत अर्थों में सामाजिक स्तरीकरण समाज के विभिन्न स्तरों में वर्गीकरण की बात करता है । ये स्तरव्यवस्था पदानुक्रम के आधार पर व्यवस्थित वर्गों की ओर संकेत करती है । इन वर्गों में अनेक ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विविधतायें व विषमताएँ पाई जाती हैं जिनमें जातियाँ , सत्ता वर्ग ( estate ) एवं वर्ग सबसे महत्त्वपूर्ण हैं । सन् 1960 ई . के बाद से नृजातीय ( ethnic ) एवं लैंगिक ( gender ) स्तरीकरण की ओर भी ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है ।कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं
जिसबर्ट ( Gisbert ) के शब्दों में , ‘ ‘ सामाजिक स्तरीकरण समाज का उन स्थायी समूहों अथवा श्रेणियों में विभाजन है जो कि आपस में श्रेष्ठता एवं अधीनता के सम्बन्धों द्वारा सम्बद्ध होते हैं । ” इस कथन से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण एक व्यवस्था है । इस व्यवसथा द्वारा समाज विभिन्न स्थायी समहों या श्रेणियों में विभक्त होता है । साथ ही , ये विभिन्न समूह उच्चता और अधीनता के सम्बन्धों द्वारा एक – दूसरे से बंधे रहते हैं ।
सदरलैण्ड एवं वडवर्ड ( Sutherland and Woodward ) के अनुसार , ” स्तरीकरण साधारणतया अन्त : क्रिया अथवा विभेदीकरण की एक प्रक्रिया है , जिसके द्वारा कुछ व्यक्तियों को दूसरों की तुलना में उच्च स्थिति प्राप्त हो जाती है ।इस परिभाषा से पता चलता है कि सामाजिक स्तरीकरण एक प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया द्वारा समाज विभिन्न भागों में विभाजित होता है । इस विभाजन में कुछ को उच्च स्थिति व अन्य को निम्न स्थिति प्राप्त होती है ।
पारसन्स ( T . Parsons ) ने लिखा है , ” सामाजिक स्तरीकरण से अभिप्राय किसी सामाजिक व्यवस्था में व्यक्तियों का ऊचे और नीचे के पदानुक्रम में विभाजन है । ” इस कथन से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण समाज को ऊँच व निम्न वर्ग में विभाजन की एक व्यवस्था है ।
सोरोकिन ( Sorokin ) ने लिखा है , ‘ सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एक जनसंख्या – विशेष का ऊँच – नीच के संस्तरणात्मक अध्यारोपित वर्गों में विभेदीकरण है । ” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि सामाजिक स्तरीकरण द्वारा समाज विभिन्न वर्गों में बँट जाता है । ये वर्ग एक – दूसरे के नीचे व ऊपर होते हैं । यानि इन वर्गों के बीच संस्तरण पाया जाता है ।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण एक ऐसी व्यवस्था है जिसके माध्यम से समाज अनेक समहो व वर्गों में बँट जाता है । प्रत्येक वर्ग की एक निश्चित स्थिति होती है जो एक – दूसरे की तुलना में उच्च या निम्न होता है । परन्तु , ये वर्ग व समूह एक – दूसरे से जुड़े होते हैं ।
सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएँ
( Characteristics of Social Stratification )
सार्वभौमिकता ( Universality ) : सामाजिक स्तरीकरण एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है । यह प्रत्येक समाज में किसी – न – किसी रूप में अवश्य पाया जाता रहा है । चाहे वह पिछड़ा समाज हो या सभ्य , प्राचीन समाज हो या आधुनिक सरल समाज हो या जटिल , सामाजिक स्तरीकरण का रूप देखने को मिलता ही है । यहाँ तक कि वर्गविहीन समाज होने का दावा करने वाले साम्यवादी समाजों में भी यह प्रक्रिया पायी जाती है ।
चेतन प्रक्रिया ( Conscious Process ) : सामाजिक स्तरीकरण एक चेतन प्रक्रिया है । इसका निर्माण जागरूक दशा में योजनाबद्ध रूप से किया जाता है । साधारणतया यह कार्य समाज के अभिजन वर्ग ( Elite Class ) द्वारा होता है ।
समाज का विभाजन ( Division of Society ) : सामाजिक स्तरीकरण समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित करने की व्यवस्था है । इसके द्वारा समाज अनेक उच्च से निम्न वर्गों में बँट जाता है तथा प्रत्येक वर्ग की एक निश्चित स्थिति होती है । साथ ही इस स्थिति से सम्बन्धित कार्य व सुविधाएँ भी प्राप्त होती हैं ।
क्षैतिज विभाजन ( Horizontal Division ) : सामाजिक स्तरीकरण के द्वारा समाज का क्षैतिज विभाजन होता है । क्षैतिज विभाजन का अभिप्राय उस विभाजन से है जहाँ समाज विभिन्न वर्गों में बंट जाता है तथा प्रत्येक वर्ग के लोगों की स्थिति में समानता पाई जाती है । जैसे – जातिगत स्तरीकरण के अन्तर्गत एक जाति के लोगों की स्थिति में समानता पाई जाती है ।
श्रेष्ठता एवं अधीनता के सम्बन्ध ( Relationshipof Superiorityand Subordination ) : सामाजिक स्तरीकरण समाज को उच्च एवं निम्न अनेक वर्गों में बाँटती है । लेकिन ये वर्ग एक – दूसरे से अलग नहीं होते , बल्कि सम्बन्धित होते हैं । एक के अभाव में दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती । उदाहरणस्वरूप , सामाजिक स्तरीकरण का एक रूप वर्गगत स्तरीकरण के अन्तर्गत पेशा के आधार पर उच्च एवं निम्न अनेक वर्ग हैं , परन्तु वे सामाजिक सम्बन्ध से जुड़े होते हैं । इसी तरह अर्थ के आधार पर पूंजीपति वर्ग एवं श्रमिक वर्ग हैं और वे श्रेष्ठता एवं अधीनता के सम्बन्ध से जुड़े होते हैं ।
वैयक्तिक प्रक्रिया ( Individual Process ) : ओल्सन ( Olsen ) ने इस विशेषता का उल्लेख किया है । उनका कहना है कि स्तरीकरण एक वैयक्तिक प्रक्रिया है । इस व्यवस्था के अन्तर्गत एक स्तर के व्यक्ति दूसरे स्तर के व्यक्तियों से प्रतियोगिता करने का प्रयत्न करता है एवं कभी – कभी विरोध भी । वर्ग – संघर्ष व जातीय – संघर्ष इसी व्यवस्था की देन है ।
मनोवृत्ति का निर्धारण ( Determine of Attitude ) : सामाजिक स्तरीकरण की एक विशेषता यह है कि इसके द्वारा व्यक्ति के मनोवृत्ति का निर्धारण सम्भव हो पाता है । व्यक्ति जिस जाति , वर्ग व प्रस्थिति समूह का सदस्य होता है , उसके विचार एवं मनोवृत्ति भी उसी के अनुकूल बन जाता है । यही कारण है कि दो भिन्न वर्ग के लोगों की मनोवृत्ति में भिन्नता पाई जाती है ।
अनेक आधार ( Many Bases ) : सामाजिक स्तरीकरण के अनेक आधार हैं । इनमें प्रमुख लिंग , आयु , सम्पत्ति , धर्म , शारीरिक और बौद्धिक कुशलता , प्रजाति , जाति आदि हैं । यह समाज व सामाजिक व्यवस्था पर निर्भर है कि वह स्तरीकरण में किसे मान्यता दे और किसे नहीं ।.
जाति और वर्ग में अन्तर
( Distinction between Caste and Class )
‘ ( 1 ) जाति – प्रणाली एक बन्द वर्ग है जबकि वर्ग – प्रेरणाली एक खुला या मुक्त वर्ग है । जाति में सामाजिक स्तर का निर्धारण जन्म से होता है और किसी दूसरी जाति में सम्मिलित होने का अवसर नहीं मिलता । इसके विपरीत वर्ग – व्यवस्था में मनुष्य की असमानतामों को मान्यता मिलती है । इसमें व्यक्ति को उन्नति के लिए समान अवसर दिए जाते हैं । अपनी योग्यता के बेल पर व्यक्ति एक वर्ग से दूसरे वर्ग में प्रवेश कर सकता है ।
2 जाति में व्यक्तिगत क्षमता और योग्यता की उपेक्षा की जाती है । वर्ग में स्थिति इससे बिल्कुल विपरीत होती है । अपनी योग्यता के बल पर व्यक्ति समाज के उच्च वर्ग में पहुंच सकता है ।
3.जाति को स्तरीकरण की बन्द व्यवस्था और वर्ग को खली व्यवस्था के रूप में देखा जाता है । सामान्यतः वर्गों की प्रकृति खुली हुई समझ ली जाती है परंतु वास्तव में प्रत्येक वर्ग अपने से निम्नवर्ग के सदस्य को अपने वर्ग में आने से रोकता है और साधारणतया अपने वर्ग के सदस्यों से ही संबंधों की स्थापना करता है । व्यावहारिक रूप से विभिन्न वर्गों के बीच भी वर्ग – अंतर्विवाह की नीति अपनाई जाती है । यही कारण है कि जैसे कुछ विद्वानों ने जाति और वर्ग में कोई मौलिक भेद स्वीकार नहीं किया है । फिर भी यह निश्चित है कि अपनी प्रकृति , कार्यों और निषेधों में जाति और वर्ग की एक – दूसरे से भिन्न धारणाएं हैं जिन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है
4.जाति सामाजिक स्तरीकरण का एक बंद स्वरूप है जबकि वर्ग में खुलापन है । कोई भी व्यक्ति एक जाति को छोड़कर दूसरी जाति की सदस्यता ग्रहण नहीं कर सकता । प्रत्येक जाति के नियम भी दूसरी जातियों से भिन्न होते हैं । इसके विपरीत वर्ग की सदस्यता का द्वार सभी के लिए खुला है । एक व्यक्ति अपनी संपति , योग्यता , कुशलता के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है ।
5.जाति की सदस्यता का आधार जन्म है । व्यक्ति एक बार जिस जाति में जन्म लेता है , आजीवन उसी जाति का सदस्य बना रहता है । लेकिन वर्ग की सदस्यता व्यक्ति के कार्यों और प्रयत्नों पर आधारित होती है और वह अपनी योग्यता द्वारा अपने वर्ग में परिवर्तन कर सकता है ।
6.व्यक्ति को जाति की सदस्यता प्राप्त करने का प्रयत्न करना नहीं पड़ता बल्कि यह समाज की ओर से प्रदत्त होती है । यही कारण है कि जाति में स्थिरता होती है । दसरी ओर वर्ग की सदस्यता पूर्णत : व्यक्ति के निजी प्रयत्नों का फल है और इन प्रयत्नों में परिवर्तन होने से वर्ग की सदस्यता में भी परिवर्तन हो जाता है ।
. 7.प्रत्येक जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता है और उसी के द्वारा आजीविका उपार्जित करना उस जाति के सदस्यों का नैतिक कर्त्तव्य है । लेकिन वर्ग – व्यवस्था में कोई सदस्य अपनी रूचि और साधनों के अनुसार किसी भी व्यवसाय का चुनाव कर सकता है ।
. 8.प्रत्येक जाति आवश्यक रूप से अपने सदस्यों को अपनी ही जाति के अन्तर्गत विवाह – सम्बन्ध स्थापित करने पर बाध्य करती है । इसके विपरीत वर्ग में इस प्रकार का कोई निश्चित नियम नहीं होता । इसके बावजूद एक वर्ग के सदस्य अपने वर्ग में ही विवाह सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं । 6 . वर्ग में उच्चता का आधार आर्थिक है जबकि जाति का स्तर समाज द्वारा निर्धारित होता है । जातियों के निर्माण का आधार अनेक धार्मिक तथा सांस्कृतिक विश्वास हैं । इस दृष्टिकोण से जाति पवित्रता तथा अपवित्रता सम्बन्धी बहुत से नियमों की एक व्यवस्था है । वर्ग – व्यवस्था में पवित्रता अथवा अपवित्रता सम्बन्धी किसी प्रकार के विश्वासों का समावेश नहीं होता ।
- जाति – व्यवस्था में व्यवसाय का निश्चय बहुत कुछ जन्म से हो जाता है । वर्ग – व्यवस्था में स्वेच्छानुसार व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता रहती है । ।
10.जाति की सदस्यता जन्मजात होती है । यह समाज की ओर से उसे अपने – आप प्राप्त हो जाती है । इसके विपरीत वर्ग की सदस्यता अजित की जाती है । एक वर्ग से दुसरे वर्ग में व्यक्ति अपने प्रयासों से ही प्रवेश कर पाता