सामाजिक समूहों का वर्गीकरण
( Classification of Social Groups )
समाज में विभिन्न प्रकार के समूह पाये जाते हैं । समूहों के वर्गीकरण का कोई एक आधार नहीं होता । सामाजिक समूहों के स्वरूप में काफी भिन्नता पायी जाती है अत : इसके वर्गीकरण के भी विभिन्न आधार होते हैं । सामाजिक समूहों के वर्गीकरण के सम्बन्ध में समाजशास्त्रियों के विचार अलग – अलग हैं । विभिन्न समाजशास्त्रियों ने भिन्न – भिन्न आधारों पर सामाजिक समूहों के प्रकारों को प्रस्तुत किया है । इस प्रकार सामाजिक समूहों के इतने प्रकार हो सकते हैं कि उनकी संख्या निश्चित करना मुश्किल है । यहाँ कुछ प्रमुख समाजशास्त्रियों के द्वारा दिये गये सामाजिक समूहों के वर्गीकरण को प्रस्तुत किया जा रहा है ।
मिलर द्वारा वर्गीकरण : मिलर ने समाज में लोगों के बीच सामाजिक दूरी का अनुभव किया । इस दूरी का आधार उसने हैसियत , अधिकार और आर्थिक सम्पन्नता समझा । उसके अनुसार समाज में कुछ ऐसे समूह होते है , जिनमें विभिन्न सामाजिक वर्गों के लोग सम्मिलित रहते हैं तो दूसरी ओर कुछ ऐसे भी समूह होते हैं , जिनमें एक ही वर्ग तथा हैसियत के लोग पाये जाते हैं । अत : मिलर ने सामाजिक समूहों को दो भागों में बाँटा है
( i ) उदग्र समूह ( Vertical group ) ( ii ) समतल समूह ( Horizontal group )
- उदन समूह ( Vertical group ) – उदय समूहों में सामाजिक दूरी पायी जाती है । प्रत्येक व्यक्ति एक – दूसरे से कुछ दूरी महसूस करता है । इस सामाजिक दूरी का आधार धन , शिक्षा , व्यवसाय , सत्ता इत्यादि होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि एक उदग्र समूह के अन्तर्गत विभिन्न आधारों पर लोग विभक्त रहते हैं । एक शिक्षित समूह को देखें तो पायेंगे कि उनमें सभी की आर्थिक हैसियत एक जैसी नहीं है । एक व्यावसायिक समूह में भी विभिन्न जाति और शिक्षा – स्तर के लोग जुटे हैं । अर्थात् उस एक समूह के अन्तर्गत भी कुछ उपसमूह विद्यमान होते हैं । इन उपसमूहों में कुछ की स्थिति ऊँची तथा कुछ की निम्न होती है । एक जाति के लोग अन्य जाति से अपने को ऊँचा , नीचा एवं मध्यम समझते हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि एक समूह में विभिन्न स्थिति के लोग पाये जाते हैं । इस विभाजन का सम्बन्ध सामाजिक संस्तरण से होता है । उदग्र समूह में इसी प्रकार की विशेषता पाई जाती है ।
2.समतल व क्षैतिजीय समूह ( Horizontal group ) – इस प्रकार के समूहों के सदस्यों की स्थिति समान होती है । उनमें ऊँच – नीच का भेद – भाव नहीं पाया जाता । सभी सदस्य लगभग समान हैसियत प्रतिष्ठा सत्ता एवं अधिकार के होते हैं । अर्थात् सामाजिक स्थिति में अधिक भिन्नता नहीं पाई जाती । जैसे – लेखक वर्ग , शिक्षक वर्ग , श्रमिक वर्ग इत्यादि । शिक्षक वर्ग में सभी शिक्षकों की शैक्षणिक योग्यता करीब – करीब समान होती है । श्रमिक वर्ग में सभी सदस्य मजदूर वर्ग के ही होते हैं । इन सभी समूहों में सामाजिक समानता होने के कारण ये समतल व क्षैतिजीय समूह कहलाते हैं । समतल समूह के सदस्यों में आर्थिक रूप से थोड़ा – बहुत अन्तर हो सकता है किंतु सामाजिक स्थिति में अधिक अन्तर नहीं होता। समान सामाजिक स्थिति के कारण लोग एक – दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। उदग्र समूह में ऊँचाई – नीच, हसियत आदि का भेद – भाव रहने के बावजूद उनके सदस्यों में चार सम्बन्ध विद्यमान होता है, जबकि समतल व स्वातिजीय समूह में सामाजिक स्थिति में समान रहने पर भी उनके बीच संचार को कम हो सकता है।
गिलिन और गिलिन द्वारा वर्गीकरण: गिलिन और गिलिन ने अपने वर्गीकरण में सांस्कृतिक विशेषता वाले समूह को भी सम्मिलित किया गया है। गिलिन और गिलिन के सामाजिक समूहों के वर्गीकरण का आधार रक्त – सम्बन्ध, शारीरिक विशेषता क्षेत्रीयता। स्थिरता और सांस्कृतिक विशेषता आदि भा है। ये सबके आधार पर इन्होंने छ: प्रकार के समूहों की चर्चा की है
1.रक्त – सम्बन्धी समूह, जैसे – परिवार, जाति।
- शारीरिक विशेषताओं पर आधारित समूह, जैसे – समान लिंग, जाति, प्रजाति और आयु समूह।
- क्षेत्रीय समूह, जैसे – राज्य, राष्ट्र और जनजाति।
4अस्थायी समूह, जैसे – भीड़, श्रुत समूह।
5.स्थायी समूह, जैसे – ग्रामीण, पड़ोस, कस्बे, शहर इत्यादि।
6.सांस्कृतिक समूह, जैसे – आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक इत्यादि।
लेस्टर वॉर्ड (लेस्टर ई। वार्ड) द्वारा वर्गीकरण: लेस्टर वॉर्ड ने समूह के स्वरूप पर ध्यान देते हुए इसे दो भागों में विभक्त किया –
1ऐच्छिक समूह (स्वैच्छिक समूह)
(ii) अनिवार्य समूह (गैर – स्वैच्छिक समूह)
(i) ) ऐच्छिक समूह – ये ऐसे समूह होते हैं जिनकी प्राप्ति हम अपनी इच्छा से हासिल करते हैं। इसके लिए हमारे ऊपर कोई प्रस्ताव नहीं होता है। किसी क्लब की सदस्यता, राजनीतिक दल की सदस्यता, ट्रेड यूनियन आदि जैसे समूहों की सदस्यता ऐच्छिक होती है। जिस प्रकार व्यक्ति अपनी इच्छा से इसकी नस हासिल करता है उसी प्रकार इसकी वसूली आसानी से छोड़ भी सकती है। ऐसे समूहों को हमारी इच्छा पर निर्भर है।
(ii) अनिवार्य समूह – ये ऐसे समूह होते हैं जिनकी व्यक्ति व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर नहीं करता है। इस तरह के समूहों की भर्ती प्राथमिकता: जन्म से प्राप्त होती है। उदाहरण स्वरूप परिवार, जाति समूह, प्रजाति समूह आदि की सदस्यता अनिवार्य है। व्यक्ति किस परिवार का सदस्य हो, कौन जाति का सदस्य हो या कौन प्रजाति समूह का सदस्य हो, यह बात पर निर्भर करता है कि हमारा जन्म कहां हुआ है। जिस प्रकार के व्यक्ति ऐसे समूहों की इच्छा अपनी इच्छा से हासिल नहीं करते, उसी प्रकार उन्हें अपनी इच्छा से छोड़ भी नहीं सकते। अर्थात् इसके लक्षण स्वत: प्राप्त होते हैं।
कूले द्वारा वर्गीकरण: विदेशी समाजशास्त्री कूले ने सर्वप्रथम अपनी पुस्तक ‘सोशलऑर्गनाइजेशन’ में सन् 1909 में प्राथमिक समह (प्राथमिक समूह) शब्द का प्रयोग किया। प्राथमिक समूह की अवधारणा समाजशास्त्र के अन्तर्गत बहत ही महत्त्वपूर्ण है। कूले ने इस समूह का आधार सीमित आकार, आमने – सामने का संपर्क और घनिष्ठ सम्बन्ध को बताया। ऐसे व्यक्तियों के समूह का जिनके बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध,सहयोग और सीमित आकार हो उसे प्राथमिक समूह ने कहा। आगे चलकर इससे विपरीत विशेषता रखने वाले समूह को द्वितीयक समूह (सेकंडाराब समूह) कहकर पुकारा गया।
समनर ( Sumner ) द्वारा वर्गीकरण – अमेरिकन समाजशास्त्री समनर ने समूह के सदस्यों की आपसी घनिष्ठता एवं सामाजिक दूरी के आधार पर समूहों को दो भागों में बाँटा है
- अन्त : समूह ( In – Group )
2.बाह्य समूह ( Out – Group )
1.अन्त : समूह ( In – Group ) – अपनी पुस्तक ‘ Folkways ‘ में समनर ने अन्त : समूह और बाह्य समूह 9 की चर्चा की है । अन्त : समूह वह समूह है , जिसके सदस्यों के बीच हम की भावना ( We feeling ) पायी जाती है । इनके सदस्य परस्पर अधीनता , दृढ़ता , वफादारी , भिन्नता , सहयोग और घनिष्ठता का अनुभव करते है । वे अपने – आपको हमेशा हम ‘ शब्द के द्वारा सम्बोधित करते हैं । यही कारण है कि इनके बीच अपनापन एवंट किता की भावना पायी जाती है । अन्त : समूह के सदस्यों में ऐसी मनोवृत्ति का विकास हो जाता है जिसके कारण व्यक्तियों से अपनत्व महसूस करते हैं और उनके लिए ‘ हम ‘ शब्द का प्रयोग करते हैं । इसकी तलना में वे अन्य लोगों से दुराव का अनुभव करते है और उनके लिए ‘ हम ‘ शब्द का प्रयोग नहीं करते । उदाहरण के लिए हमारा परिवार , हमारा कॉलेज , हमारा देश इत्यादि । यहाँ हम अपने परिवार , अपने कॉलेज और अपने देश के लोगों के साथ ज्यादा अपनापन महसूस करते हैं जो अन्य परिवार , कॉलेज और देश के लोगों के साथ नही महसस करते । अन्त : समूह के सदस्य अपने समूह के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार करते हैं । वे अपने समह को सर्वोत्तम समझते हैं . उसकी प्रशंसा करते हैं तथा गर्व महसूस करते हैं । इसी आधार पर वे अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ मानते है । अन्त समूह का आकार निश्चित नहीं होता । यह सदस्यों की ‘ हम की भावना ‘ के साथ समय , सन्दर्भ , भौगोलिक दाधि एवं परिस्थिति पर निर्भर करता है । आज जिसे हम बाह्य समूह कहकर सम्बोधित करते हैं वह कल अन्त : समह में परिवर्तित हो सकता है । इसका आकार छोटा से बड़ा तक हो सकता है । ‘ हम की भावना ‘ के आधार पर परिवार से लेकर विश्व तक को अन्त : समूह कह सकते हैं । अन्त : समूह का आधार धर्म , भाषा , जाति , वर्ग , स्थान , प्रजाति तथा राजनीतिक दृष्टिकोण आदि कुछ भी हो सकता है । इन्हीं धारणाओं के कारण समाज में समय – समय पर संघर्ष एवं दंगे होते रहते हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि अन्त समूह के सदस्यों में अपनापन होता है , किन्तु उनका व्यवहार हमेशा पक्षपातपूर्ण होता है । वे बाह्य समूहों के प्रति विपरीत धारणाएँ बना लेते है ।
2.बाह्य समूह ( Out – Group ) – बाह्य समूह के अन्तर्गत अन्त : समूह की तुलना में अपनापन और हम की भावना कम पायी जाती है । अर्थात् बाह्य समूह अन्त : समूह के विपरीत विशेषता वाला समूह होता है । जब एक समूह दूसरे समूह से दुराव महसूस करता है तो दूसरा समूह पहले वाले समूह के लिए बाह्य समूह कहलाता है । बाह्य समूह के प्रति सहानुभूति का अभाव पाया जाता है । बाह्य समूह प्रतिद्वन्द्वी एवं विरोधी होता है । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अन्त : समूह का बाह्य समूह से हमेशा संघर्ष अथवा युद्ध चलता रहता है या अन्त : समूह बाह्य समूह को पराया समझता है तथा उसके साथ सामाजिक दूरी का अनुभव करता है । बाह्य समूह के सदस्यों के प्रति लोगों का सम्बन्ध ऊपरी और औपचारिक होता है । व्यक्ति अपना सम्बन्ध सिर्फ अन्त : समूह तक ही सीमित नहीं रखता , बल्कि उसे बाह्य समूहों से भी सम्बन्ध रखना पड़ता है । इस प्रकार के सम्बन्ध दिखावे के लिए होते हैं । उनके बीच किसी प्रकार का भावनात्मक सम्बन्ध नहीं पाया जाता । बाह्य समूह और अन्त : समूह की अवधारणा तुलनात्मक है । हम जब भी किसी समूह को अन्त : या बाह्य समूह कह कर सम्बोधित करते हैं तब हमेशा दूसरे समूह का सन्दर्भ होता है । अन्तःसमूह की तरह बाह्य समूह का भी आकार निश्चित नहीं होता । प्रत्येक अन्त : समूह अन्य समूहों के लिए बाह्य समूह होता है । बाह्य समूह के आधार भिन्न हो सकते हैं । यह जाति , प्रजाति , धर्म , वर्ग , देश आदि हो सकता है । एक समान जाति , धर्म के लोगों के लिए अन्य जाति व धर्म के लोग बाह्य समूह होंगे । एक हिन्दू धर्म के मानने वाले लोगों के लिए मस्लिम , ईसाई व सिख धर्म के मानने वाले लोग बाह्य समूह के समझे जायेंगे
। इसका सम्बन्ध क्षेत्र एवं परिस्थिति से भी होता है और यह तुलनात्मक भी होता है । जैसे , भारत में कई प्रान्त हैं और क्षेत्रीयता के आधार पर इसके सदस्य अपने को अलग – अलग प्रान्त के नाते अन्य प्रान्तों के लोगों को बाह्य समूह का सदस्य समझते हैं किन्तु जब ये लोग भारत से बाहर किसी अन्य देश में पहुँचते हैं तो अपने – आप को भारतीय बताते हैं और उनके बीच अपनापन एवं हम की भावना भी पाई जाती है । अर्थात् वे विशिष्ट परिस्थितियों में एक अन्त : समूह की विशेषताओं को प्रकट करते हैं , लेकिन जब वे अपने स्वदेश लौटते हैं तो फिर क्षेत्रीयता के आधार पर अन्य क्षेत्र व प्रान्त के लोगों को बाह्य समूह का सदस्य समझते हैं । इसी प्रकार एक भाषा – भाषी भी अन्य भाषा – भाषी को बाह्य समूह का सदस्य समझते हैं । इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है । कि अन्त : समूह के सन्दर्भ में ही हम बाह्य समूहों को समझ सकते हैं ।
मेकाइवर और पेज द्वारा वर्गीकरण: मेकाइवर और पेज ने समूह का वर्गीकरण बहुत व्यापक अर्थ में किया है। में उसने सामाजिक समूह को तीन प्रमुख भागों में बाँटा है और इन तीन प्रमुख भागों के कई उप विभाग भी बताते हैं। इस दृष्टिकोण से समाज में भी बहुत तरह के समूह हैं वे सब किसी – न – किसी भाग व उप – विभाग के अन्तर्गत आ जाते हैं। मेकाइवर का वर्गीकरण इस प्रकार है
(i) क्षेत्रीय समूह
(i) नीतियाँ के प्रति चेतन समूह जिनकी कोई निश्चित संगठन नहीं होता है
iii) नीतियाँ के प्रति चेतन समूह जिनकी निश्चित संख्या होती है
(i) क्षेत्रीय समूह – क्षेत्रीय समूह वह समूह जिसका निश्चित क्षेत्र में समूह के सभी सदस्य अपना सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं। इसके सदस्यों के हित व्यापक हैं। इस प्रकार के समह में इसके क्षेत्र के अन्तर्गत ही सदस्यों के विचारों की पूर्ति की जाती है। उदाहरणस्वरूप गाँव, समुदाय, नगर राज्य और राष्ट और जनजाति इत्यादि है। गाँव एक ऐसा समूह है जिसके निश्चित क्षेत्र के अन्तर्गत ही लोगों की व्यापक भावनाओं की पूर्ति की जाती है।
(ii) हितों के प्रति चेतन समूह जिसका कोई निश्चित संगठन नहीं होता है (निश्चित संगठन के बिना हित के प्रति जागरूक एकता) – हिता के प्रति चेतन समूह वह समूह है, जिसका कोई निश्चित संगठन नहीं होता है। उनके सदस्य अपने अधिकारों की पूर्ति के लिए दूसरों को नुकसान पहुंच सकते हैं। उनके सदस्यों का रवैया में समानता पायी जाती है । इसके सदस्यों के पद , प्रतिष्ठा और अवसरों में अन्तर पाया जाता है । उदाहरण के लिए वर्ग , प्रजाति , समूह तथा भीड़ इत्यादि । इस प्रकार के समहों का कोई निश्चित क्षेत्र नहीं होता । इनके सदस्य व्यक्तिगत कल्याण व हितों में ज्यादा रुचि लेते हैं और इनकी पूर्ति के लिए अन्य लोगों को हानि भी पहुँचाते
( iii ) हितों के प्रति चेतन समूह जिनका निश्चित संगठन होता है ( Interest conscious unities with definite organization ) हितों के प्रति चेतन समूह वह समूह है , जिसका एक निश्चित संगठन भी होता है । इसके सदस्यों का हित सीमित होता है । इनके बीच व्यक्तिगत सम्बन्ध पाया जाता है । इस प्रकार के कुछ समूहों के सदस्यों की संख्या सीमित होती है । इनके सदस्यों में असीमित उत्तरदायित्व की भावना पायी जाती है । जैसे परिवार , क्रीड़ा – समूह तथा क्लब इत्यादि । इसके अतिरिक्त कछ समूह ऐसे होते हैं , जिसकी सदस्यता अपेक्षाकृत अधिक होती है तथा उनमें औपचारिक एवं अवैयक्तिक सम्बन्ध पाया जाता है । जैसे – राज्य , आर्थिक संघ , मजदूर संघ इत्यादि । समूहों के सदस्यों की संख्या असीमित होती है और औपचारिकता भी पायी जाती है ।
फिक्टर द्वारा वर्गीकरण : फिक्टर ने समूह का एक ऐसा सामान्य वर्गीकरण प्रस्तुत किया , जिसमें समाज के सभी प्रकार के समूहों का समावेश हो जाता है । किसी भी सामूहिक जीवन के चार आधार होते हैं
( ) सामान्य पूर्वज ( Common ancestry )
( ii ) सामान्य क्षेत्र में रहनेवाले ( Territory shared in common )
( iii ) शारीरिक समानता ( Similar bodily characteristics )
( iv ) सामान्य हित ( Common interests ) परम्परागत समाज में सामाजिक पूर्वज का प्रमुख आधार सामान्य पूर्वज था , जबकि आधुनिक युग में इसका महत्त्व बहुत ही कम हो गया है । ऐसा समूह रक्त समूह ( Blood group ) कहलाता है , जिसमें लोगों का सम्बन्ध शादी , जन्म तथा गोद लेने ( adoption ) के आधार पर होता है । जैसे परिवार , गोत्र इत्यादि । सामाजिक समूह का एक बड़ा आधार क्षेत्रीय समीपता ( Territorial Proximity ) है । समूह के लिए सदस्यों का एक सीमित क्षेत्र में रहना आवश्यक होता है । जैसे गाँव , नगर इत्यादि । शारीरिक समानता के आधार पर आधुनिक समाज में समूहों का निर्माण होता है । इस प्रकार के समूहों का महत्त्व आधुनिक युग में ज्यादा है । प्रजातीय , लिंगभेद तथा उम्र के आधार पर इस प्रकार के समूह बनते हैं , जैसे , युवक संघ , महिला संगठन इत्यादि । सामान्य हितों की पूर्ति के आधार पर भी समूहों का निर्माण होता है । इस प्रकार के समूह आधुनिक युग में समूहों से ज्यादा महत्त्व रखते हैं । समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी यह समूह ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है , क्योंकि सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लोग मिल – जुलकर सामाजिक समूह बनाते है ।
फिक्टर ने समाज के प्रकार्यों के आधार पर छ : प्रकार के समूहों की चर्चा की है
परिवार समूह ( Family group ) – परिवार समूह के सदस्य पारिवारिक जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की पर्ति करते हैं । इनके अन्तर्गत यौन सम्बन्धों का नियमन , बच्चों का जन्म , उनका लालन – पालन होता है तथा इनका आपस में भावात्मक सम्बन्ध होता है । अर्थात् परिवार एक ऐसा समूह है , जो यौन , प्रजनन तथा बच्चों के लालन – पालन की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है ।
शैक्षणिक समूह ( Educational group ) – शैक्षणिक समूह वह समूह है , जिसके द्वारा हमें संस्कृति कामात कराया जाता है । यह कार्य औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों तरीकों से होता है । कछ समाज में यह कार्य परिवार के द्वारा ही होता है , लेकिन जटिल समाज में तरह – तरह के स्कूल , संस्था . वैज्ञानिक तथा सीखने के संघ होते हैं , जिनके द्वारा यह कार्य होता है । यह काम कहाँ और कैसे होता है यह उतना महत्त्व नहीं रखता . किन्तु शैक्षणिक समूहों के द्वारा ही यह आवश्यक सामाजिक कार्य पूरा होता है ।
– आर्थिक समूह ( Economic group ) वह समूह है , जिसमें भौतिक वस्तुओं का याइसके द्वारा ही लोगों की जीवन – रक्षा और जीवन को बनाये रखने का कार्य होता है । इस प्रकार आर्थिक क्रियाओं की पूर्ति के लिए तरह – तरह के व्यापारिक , औद्योगिक तथा व्यावसायिक समहो का निर्माण होता है ।
राजनीतिक समूह ( Political group ) राजनीतिक समूह वह समूह है , जो समाज में नियम एवं व्यवस्था बनाये रखने का कार्य करता है । प्रशासन – व्यवस्था एवं कानून – व्यवस्था को स्थापित करने का कार्य राजनीतिक समह के द्वारा होता है । राजनीतिक दल , कोर्ट – कचहरी , जेल , सैनिक इत्यादि सभी संगठन इसी समूह के अन्तर्गत आते है । हमारे राज्य अथवा समाज का ढाँचा व संगठन किसी भी तरह का हो , लेकिन उसके अन्तर्गत व्यवस्था बनाये रखने के लिए राजनीतिक समूह का निर्माण आवश्यक होता है ।
धार्मिक समूह ( Religious group ) धार्मिक समूह वह समूह है , जो मानव तथा ईश्वर के बीच सम्बन्ध स्थापित करने में सहयोग करता है । बड़े – बड़े धार्मिक समूहों का संगठन , धार्मिक विचारों एवं क्रियाओं के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया जाता है । आज भी धर्म सामाजिक स्तर पर विद्यमान है । धार्मिक समूहों के द्वारा अन्य प्रकार के कार्य भी होते रहते हैं , जैसे स्कूल एवं कॉलेज को चलाना अथवा अन्य सामाजिक कार्य जैसे खेल – कूद के मैदान और अन्य मनोरंजन के साधनों को प्रस्तुत करना इत्यादि । कुछ समाज में इस प्रकार के समूह के संगठन पर नियंत्रण है , पर ऐसे समाज अपवादस्वरूप है ।
मनोरंजनात्मक समूह ( Recreational group ) मनोरंजनात्मक समूह वह समूह है , जो व्यक्ति को समाजिक ढंग से मनोरंजन प्रदान करता है । मनोरंजन का तात्पर्य केवल खेल – कूद , नाटक और शारीरिक व्यायाम नहीं है । इसके अन्तर्गत तरह – तरह के क्रिया – कलाप आते हैं जिससे व्यक्ति का मनोरंजन होता है । व्यावसायिक मनोरंजन आर्थिक दृष्टि से मनोरंजनात्मक समूह बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । इसका उद्देश्य सिर्फ धन कमाना होता है । आजकल इस प्रकार के समूह का धन्धा बढ़ता जा रहा है । लेकिन समाज में कुछ ऐसे भी मनोरंजनात्मक समूह होते हैं , जिसका काम लोगों को मनोरंजन प्रदान करना तथा सौन्दर्य भावना का विस्तार करना होता है ।