सामाजिक संगठन व विघटन में भेद

सामाजिक संगठन व विघटन में भेद

 ( 1 ) सामाजिक संगठन की स्थिति में समाज के व्यक्ति तथा संस्थाएँ अपने – अपने पूर्व निर्धारत पदों पर रहते हुए कार्यों को करते रहते हैं , जबकि सामाजिक विघटन की स्थिति में ये व्यक्ति व संस्थाएँ अपने – अपने पदों और कार्यों को छोड़कर पनमाने ढंग से काम करने लगती हैं ।

( 2 ) सामाजिक संगठन की स्थिति में समाज के सदस्यों में ऐकमत्य होता है , जबकि सामाजिक विघटन में इस ऐकमत्य का नितान्त अभाव होता और व्यक्तियों या समूह का सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति करन में पारस्परिक सहयोग समाप्त हो जाता है ।

( 3 ) सामाजिक संगठन की स्थिति में सामाजिक जीवन में सन्तुलन स्थापित करने वाली शक्तियाँ प्रभावपूर्ण रूप में कार्य करती हैं , अर्थात् सामाजिक नियन्त्रण के साधन उचित ढंग से व्यक्तियों के व्यवहार पर नियन्त्रण रखने में सफल होते हैं । परन्तु सामाजिक विघटन की स्थिति में यह नियन्त्रण ढीला पड़ जाता है और सन्तुलन स्थापित करने वाली शक्तियाँ अपना प्रभाव खो बैठती हैं । इसीलिए तो सामाजिक विघटन को स्थिति में सामाजिक जीवन असन्तुलित हो जाता है । मान

( 4 ) सामाजिक जीवन संगठन की स्थिति में समाज के विभिन्न व्यक्ति और व्यक्ति में , व्यक्ति व समूह में तथा समूह और समूह में एक प्रकार्यात्मक सहयोगपूर्ण सम्बन्ध बना रहता है जबकि सामाजिक विघटन की स्थिति में यह सम्बन्ध तनावपूर्ण या संघर्षपूर्ण हो जाता है या उस सीमा तक पहुँच जाता है कि समूह के स्वीकृत कार्यों को करने तथा सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति करने में बाधा उत्पन्न हो जाती है ।

 ( 5 ) अतः स्पष्ट है कि सामाजिक संगठन की स्थिति में समाज के सदस्यों की आवश्यकताओं की अधिकतम पूर्ति सम्भव होती है जबकि सामाजिक विघटन की स्थिति में प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति अति कठिनाई से होती है ।

( 6 ) सामाजिक संगठन की अवस्था प्रगति की अवस्था है जबकि सामाजिक विघटन अवनति का द्योतक है । संगठित समाज में कला , विज्ञान , शिक्षा , साहित्य , नैतिकता , दर्शन की उन्नति होती है जबकि एक विघटित समाज में बाल – अपराध , वेश्यावृत्ति , आत्महत्या , बेकारी , निर्धनता , युद्ध , वर्ग – संघर्ष आदि का कट रूप देखने को मिलता है 

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प्रमुख सामाजिक समस्याएँ एवं सामाजिक विघटन के स्वरूप

( Some Major Social Problems of India and Forms of Secial Disorganization )

जातीय विभेद और जातिवाद ( Caste Differentiations and Casteism ) भारतीय जाति – प्रथा ने हिन्दू समाज को छोटे – छोटे टुकड़ों में विभाजित कर दिया और साथ ही उनमें ऊंच – नीच का एक संस्तरण भी निर्धारित कर दिया है ।

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इसका तात्पर्य यह है कि जाति – प्रथा द्वारा आबद्ध भारतीय समाज में असंख्य भाग एक – दूसरे से पृथक रह रह हैं और उनमें सामाजिक दूरी भी कम नहीं है । इतना ही नहीं , प्रत्येक जाति केवल अपनी ही जाति के हितों के लिए चिन्ता करती है और उन हितों की पूर्ति करने के लिए दूसरी जाति के हितों की बलि देने में भी नहीं हिचकिचाती है । जाति के नाम पर आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन बनाए जाते हैं , जाति के नाम पर अस्पताल , स्कूल तथा आश्रम खोले जाते हैं ; अयोग्य होने पर भी अपनी ही जाति के लोगों को नौकरी में नियक्त किया जाता है और जाति के नाम पर ही चुनाव लड़े जाते व वोट माँगे जाते हैं । प्रत्येक जाति अपने ही जातीय सदस्यों की चिन्ता में तन्मय है और सामाजिक दरी को और बढ़ाती ही चली जाती है । जाति – प्रथा भोजन और सामाजिक सहवास पर , पेशे के चुनाव पर और विवाह – साथी के चुनाव पर एकाधिक प्रतिबन्धों को अपने सदस्यों पर लादता है । इन प्रतिबन्धों के फलस्वरूप समाज का विभाजन और विभिन्न समहों में सामाजिक दूरी और भी स्पष्ट हा जाती है जो कि अन्ततः सामाजिक विघटन को जन्म देती है । इस विषय पर अगले एक अध्याय मन वस्तारपूर्वक ववचना करेंगा ।

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अस्पृश्यता ( Untouchability ) यद्याप कानून के द्वारा अस्पश्यता का अब अन्त कर दिया गया है और अस्पृश्यता को मानना या उस बढ़ावा देना दण्डनीय अपराध है , फिर भी यह समस्या आज भी भारतीय सामाजिक जीवन का एक गम्भीर समस्या बनी हुई है । भारत में सन 1991 की जनगणना के अस्थायी आंकड़ों के अनुसार 11 , 95 , 31 . 009 ( अथात् भारत को कल जनसंख्या का 1416 प्रतिशत ) अनसचित जातियों के सदस्यानवास करते है जिनको दशा आज भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती । गाँवों में उनका आज भी खूब आथिक शोषण होता है । उच्च जाति के महाजन और साहकार आज भी उनसे बेगार लेते हैं , वे आज भी भूमिहीन कृषि – श्रमिक बन हुए है , सबसे कम वेतन पाते हैं तथा अपने प्रकार की सामाजिक नियोग्यताओं का शिकार हा इसीलिए महात्मा गांधी ने अस्पश्यता को वर्ण – व्यवस्था पर एक काला धब्बा – सबसे बड़ा कलक – कहा है । इस सम्बन्ध में भी अगले एक अध्याय में हम विस्तारपूर्वक विवेचना करेंगे । यहाँ केवल इतना कह देना ही पर्याप्त होगा कि इस देश में जो सामाजिक असन्तुलन तथा विभाजन देखने को मिलता है , उसकी एक उल्लेखनीय अभिव्यक्ति अस्पृश्यता है । संयुक्त परिवार का विघटन Disintegration of Joint Family ) भारतीय समाज की एक आधारभूत संस्था संयुक्त परिवार प्रणाली थी । इस परिवार प्रणाली का ही आजकल विघटन आरम्भ हो गया है । इसी से भारतीय समाज में होने वाले विघटन का अनुमान लगाया जा सकता है ।

संयुक्त परिवार में सम्मिलित सम्पत्ति और सम्मिलित निवास होता है , पारस्परिक कर्तव्य – बोध तथा सामाजिक व धार्मिक कर्तव्यों के सम्बन्ध में समानता होती है । परन्तु अब इस परिवार प्रणाली का विघटन हो जाने के कारण परिवार का सम्मिलित रूप समाप्त हो गया है । अब यह अपने सदस्यों के लिए सामाजिक बीमा ( social insurance ) के रूप में कार्य नहीं कर पाता है , और न ही बूढ़ों , विधवाओं , अनाथ बच्चों को आश्रय दे पाता है ।

संयुक्त परिवार में रहते हुए पहले बच्चे उदारता , सहिष्णुता , सेवा , सहयोगिता , प्रेम , सद्भाव , आज्ञाकारिता और हिल – मिलकर रहने की कला का पाठ पढ़ते थे और परिवार में सबके लाभार्थ अपने स्वार्थों की बलि देना सीखते थे । पर अब इस परिवार प्रणाली का जैसे – जैसे विघटन होता जा रहा है वैसे – वैसे व्यक्तिवादिता का विकास होता जा रहा है और परिवार का नियन्त्रण व्यक्ति पर ढीला पड़ता जा रहा है । यह सामाजिक विघटन का ही सूचक है ।

निर्धनता ( Poverty ) -निर्धनता भारत के सामाजिक विघटन का एक अच्छा मानदण्ड है । भारत में जीवन का स्तर standard of living ) अब भी दुनिया भर में बहुत नीचा है । भारत में वर्तमान मूल्यों के अनुसार प्रति व्यक्ति वार्षिक आय सन् 1987 – 88 में केवल 3284 थी , जबकि अमेरिका में 79 . 795 रु . , स्वीडन में 46860 व जापान में 63 , 525 रु . थी । विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत विश्व के दस निर्धनतम राष्टों ( poorest nations ) में एक है । इस देश में इस समय गरीबी के स्तर के नीचे जीवन – यापन विकास करने वालो की संख्या 35 करोड़ है जिसमें से 30 करोड़ लोग ग्रामीण क्षेत्रों में हैं । निर्धनता के कारण ही इस देश की अधिकतर जनता सन्तुलित भोजन का उपभोग नहीं कर पाती है , न स्वास्थ्यदायक मकानों में रह पाती है और न ही उचित मात्रा में कपड़ों का उपभोग कर पाती है । इस देश में प्रति व्यक्ति सूती वस्त्रों का उपभोग केवल 13 . 6 मीटर प्रति वर्ष है । कानपुर , बम्बई आदि बड़े – बड़े शहरों में 73 . 9 प्रतिशत व्यक्ति एक कमरे वाले मकान में रहते हैं । निर्धनता के कारण सन्तुलित भोजन नहीं मिल पाता है और सन्तलित भोजन न मिलने से बीमारियों की संख्या बढ़ती है जिसके फलस्वरूप मृत्यु – दर में वृद्धि होती है । निर्धनता कारण जब प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति कानूनी तौर पर नहीं हो पाती है तो मैर – कानूनी तौर पर पुरा करने का प्रयत्न किया जाता है जिससे देश में अपराध को दरें बढ़ती हैं ।

निर्धनता के कारण ही स्वस लोगो के लिए उपलब्ध नहीं हो पात हा और उनके लिए शरीर – सम्भोग ही सबसे सस्ता देश में जनसख्या आधक तेजी सबढ़ता है जोकि स्वयं ही एक गाभीर समस्या है के कारण जब परिवार ऐसे मकानों में रहता है जहाँ बच्चों के खेलने – कूदने के लिए स्थान नहीं होता वस्था में बच्चे सड़कों पर खेलते हैं , बुरी संगत में पड़ जाते हैं और बाल – अपराधी बन जाते हैं । ता से नैतिक पतन भी किसी समय हो सकता है । निर्धनता के ये सभी परिणाम भारत में अति स्पष्ट में प्रगट होते हैं और इससे छुटकारा पाने के लिए अनके लोग आत्महत्या तक कर बैठते हैं । भारत में प्रतिवर्ष इस प्रकार की एकाधिक आत्महत्याओं के बारे में सुनने को मिलता है ।

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 बेरोजगारी ( Unemployment ) भारत में साम्नजिक विघटन की एक और उल्लेखनीय अभिव्यक्ति बेरोजगारी है । इस देश का रन बहा दर्भाग्य यह है कि यहाँ काम चाहने या करने वालों के लिए आवश्यक अवसर उपलब्ध नहीं हैं । गाँव में बेकारी और कम समय के लिए काम मिलना , दोनों ही मौजूद हैं और इन दोनों में बहुत कम भेद है । गाँव में बेकारी प्रायः कम समय के लिए या साल में कुछ दिनों के लिए काम मिलने के रूप में होती है ।

शहरों में उद्योग – धन्धों , परिवहन और काम – काज की घटा – बढ़ी के अनुसार लोगों को काम मिलता है । इस समय भारत में बेकारी के सम्बन्ध में उचित आँकड़े प्राप्त नहीं हैं , परन्तु जो कुछ भी जानकारी प्राप्त है उससे पता चलता है कि इस देश में यह समस्या वास्तव में बहुत गम्भीर है । एक अनुमान के अनुसार इस समय देश में 7 करोड़ लोग बेरोजगार हैं जोकि अगले पाँच वर्षों में बढ़कर 12 करोड़ हो जाएंगे ।

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बेकारों की संख्य में दस वटि से यह पता चलता है कि देश में रोजगार के अवसरों में इतना अधिक विकास नहीं हो पाया है कि बेकार रहने वाले सब लोगों को काम दिया जा सके । भारत में 1980 तक पंजीकृत स्तनाक बेरोजगारों की संख्या 18 लाख 89 हजार और स्नातकोत्तर बेरोजगारों की संख्या 9 लाख 34 हजार तक पहुंच गई है । यह तो सरकारी आँकड़े हैं । वास्तव में इस समय शिक्षित बेरोजगारों की संख्या 40 लाख है । इसी से बेरोजगारी की समस्या की गम्भीरता का पता चलता है । बेरोजगारी से निर्धनता बढ़ती है , स्वास्थ्य और भोजन पर बुरा प्रभाव पड़ता है , अपराध और बाल – अपराध की प्रवृत्ति जागृत होती है , वेश्यावृत्ति को भी अपनाया जा सकता है या आत्महत्या की दरें भी बढ़ सकती है ।

अपराध और बाल – अपराध ( Crime and Delinquency ) निर्धनता , बेरोजगारी तथा अपराध व बाल – अपराध एक – दूसरे से आन्तरिक रूप में सम्बन्धित हैं । यह बात भारतवर्ष के लिए विशेष रूप से सच है । धन के विरुद्ध इस देश में तेजी के साथ बढ़ रही है । इसी प्रकार यौन – अपराध की दर में भी कोई कमी नजर नहीं आ रही है । हत्या करने वालों की संख्या भी इस देश में बढ़ रही है और अब तो मामूली – से मामूली बातों में कत्ल कर दिया जाता है । अपराध की भाँति बाल – अपराधों , विशेषकर औद्योगिक केन्द्रों में , की संख्या में भी इस देश में तेजी से वृद्धि हो रही है । इस देश में इस समय कम – से – कम 89 , 797 बाल – अपराधी हैं जिनको कि अदालत के सामने विचारार्थ पेश किया गया है । इन बाल – अपराधियों में अधिकतर संख्या उनकी है जिन्होंने सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध किए हैं ।

 वेश्यावृत्ति ( Prostitution ) वेश्यावृत्ति एक और गम्भीर समस्या है जो कि भारत के नैतिक जीवन पर निरन्तर आघात करता रहती है । सन् 1956 के पहले तक वेश्यावृत्ति खुले तौर पर और आम सड़क और बाजारों में खूब अचालत थी । वैसे तो यह समस्या सभी नगरों यहाँ तक कि गाँवों तक में फैली हुई है , पर इसका प्रकोप भारत कड़े औद्योगिक केन्द्रों में बहुत ही ज्यादा है ।

औद्योगिक श्रमिकों को काम करने की दयनीय दशाओं के 18 – 9 घण्टे लगातार काम करना पड़ता है , उनके रहने के लिए नगरों में मकान उपलब्ध न होने के कारण स्त्रिया को गाँव में छोडकर स्वयं शहर में अकेले रहते हैं उन पर गाँव की भांति परिवार . या रावा नहीं होता है . साथ ही स्वस्थ मनोरंजन के अन्य कोई साधन न होन क कारण राब पीकर थकान उतारता है और शराब की दकान के पास हावश्य जाकर यौन – क्षुधा को शान्त करता है । वेश्यावृत्ति केवल वेश्याओं के ही नैतिक पतन का नहीं करती है , बल्कि उनके शरीर को खरीदने वालों को भी अनैतिकता के रास्ते में घसीट लाती है । इससे सामाजिक जीवन में घुन लग जाता है । इतना ही नहीं , भारत का गरीब श्रमिक वेश्याओं के चंगुल में फंसकर अपनी सारी कमाई का धन उन पर निछावर कर देता है तो उसमें परिवार के अन्य लोग पैसे – पैसे को मोहताज हो जाते हैं ।

इसके फलस्वरूप पारिवारिक निर्धनता , ऋणग्रस्तता , तनाव व संघर्ष बढ़ता है । इसे अतिरक्त वेश्याओं के साथ शारीरिक सम्बन्ध करने वाले लोग शीघ्र ही अनेक प्रकार के गुप्त रोगों के शिकार हो जाते हैं और गरीबी के कारण उन लोगों को चिकित्सा किए बिना ही वे लोग अपनी पत्नी से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं और इस प्रकार इन रोगों का हस्तान्तरण न केवल पत्नी को ही बल्कि बच्चों को भी हो जाता है क्योंकि अनेक गुप्त रोग वंशानुगत होते हैं इस प्रकार वेश्यावृत्ति का कुचक्र व्यक्तिगत नैतिक पतन से लेकर पारिवारिक जीवन में विष घोलने तक चलता है । भारतवर्ष में इस कुचक्र को चलाने वाली प्रायः 20 लाख 96 हजार वेश्याएं हैं ।

 भिक्षावृत्ति ( Beggary ) भिक्षावृत्ति हमारे देश के लिए एक सदियों पराना अभिशाप है । इससे लोगों का मानसिक पतन तो होता ही है , देश के लिए भी यह स्वस्थ रूप का परिचायक नहीं है । भारत के हर प्रदेश तथा गाँवों में , प्रत्येक सड़क तथा सार्वजनिक स्थान में , मन्दिर , मस्जिद तथा रेलवे स्टेशन पर , यहाँ तक कि चलती हुई रेलगाड़ियों तक में हमें हर तरह के भिखारियों का दर्शन होता है । इनमें से अनेक तो लंगडे . लले . अन्धे तथा नाना प्रकार के रोगों से पीड़ित भिखारी होते हैं , और अनेक हट्टे – कट्टे भिखारी भी । भारतवर्ष में इन दोनों प्रकार के अलावा भिखारियों का एक और भेद भी होता है जिन्हें धार्मिक साधु कहा जाता है जोकि जनता की धार्मिक दुर्बलताओं से फायदा उठाकर उनसे पैसा या अन्य चीजें प्राप्त कर लेते हैं । इन साधुओं में अधिकतर बनावटी धार्मिक साधु होते हैं जिनका वास्तविक काम पिक्षावृत्ति के साथ – साथ लोगों को ठगना होता है । भारत में अनेक स्त्री और पुरुष इस प्रकार के भी हैं जो रात में मिलों और कारखानों में काम करते हैं तथा दिन में भीख माँगा करते हैं । अधिकतर भिखारी भिक्षावृत्ति को अपना पेशा मान लेता है और दूसरे किसी प्रकार का काम करने का इच्छुक नहीं होता है । भिखारी अपने बाल – बच्चे को भीख मांगने की कला को बचपन से ही सिखाता जाता है जिसके फलस्वरूप भिखारियों की संख्या बढ़ती जाती है और भिक्षावृत्ति का चक्र चलता ही रहता है । भिक्षावृत्ति समाज के एक अंग को निष्क्रिय बना देती है और यह अंग एकदम अनुत्पादक बना रहता है और राष्ट्रीय निर्माण कार्य में बिल्कुल भाग नहीं लेता है । इसके फलस्वरूप समाज का सन्तुलित विकास नहीं हो पाता है । इसके अतिरिक्त भारतवर्ष में शारीरिक और मानसिक दृष्टिकोण से असमर्थ लोगों की समस्या , अपराधी जन – जातियों की समस्या , आत्महत्या , कालाबाजारी तथा घूसखोरी व भ्रष्टाचार की समस्याएँ भी ऐसी हैं जोकि हर पल सामाजिक जीवन को खोखला बना रही हैं ।

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