सामाजिक मानदण्ड
(NORMS)
आदश नियम समाज व समह स्वीकत व्यवहार के वे मानक ( Standard ) हैं जिनके निर्वाह की अपेक्षा समाज व समह के व्यक्तियों से की जाती है । यह एक प्रकार का अकुश या नियन्त्रण है । इसका पालन व्यक्ति सामाजिक आवश्यकताओं की पति के साधन के रूप में करते हात ह । इसका जात सरल होती है । बिना अधिक सोचे – विचारे ही मनुष्य इनके अनुसार व्यवहार करता रहा है । हम अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संस्कृति द्वारा अनुमोदित जिन तरीकों को अपनाते हैं । वे ही मोटे अर्थों में सामाजिक मानदण्ड है । सामाजिक मानदण्ड समाज में विपथगामी व्यवहार को नियंत्रित करते हैं तथा सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में सहायता पहुंचाते हैं । यदि सामाजिक मानदण्ड की सारी मर्यादाएँ नष्ट हो जायें तो घोर अव्यवस्था फैल जायेगी । समान अपनी व्यवस्था की सुदृढ़ बनाये रखने के लिए और नयी – नयी परिस्थितियों और समस्याओं का हल खोजने के लिए समय – समय पर मानदण्डों की रचना करता रहता है , इसलिए मैरिल ने कहा है कि ‘ मानव मानदण्डों ‘ का निर्माण करने वाला प्राणी है । ‘ ( Man is a norm making Animal ) सामाजिक प्रतिमान शब्द समाजशास्त्र में दर्शनशास्त्र से आया है । सामान्यतः समाज के नियमों की सामाजिक या मानदण्ड कहते हैं जिनके अनुसार समाज के सदस्य आचरण व व्यवहार करते हैं
आदर्श नियमों की विशेषताएँ
( Characteristics of Norms )
आदर्श नियमों की विशेषताओं के आधार पर इसकी प्रकति को और अधिक स्पष्ट रूप में समझा जा सकता है । ये निम्न हैं
1.. संस्कृति के अंग ( Part of the Culture ) : आदर्श नियम संस्कृति के अंग होते हैं । रॉबर्ट बीयरस्टीड ( Robert Bierstedt ) ने संस्कृति के तत्वों को दो भागों में विभाजित किया है – अभौतिक तत्व ( Non material Elements ) और भौतिक तत्व ( Material Element ) । इन्होंने अभौतिक तत्वों को दो भागों में विभाजित किया है – आदर्श नियम और विचार । व्यक्ति के व्यवहारों का संचालन के समाज स्वीकत नियम ही आदर्श नियम हैं । ये हैं – नियम , कानून , संस्कार , जनरीतियाँ , लोकाचार , प्रथाएँ , परम्पराएँ , निषेध , आदि ।
- विविधता ( Varieties ) : आदर्श नियमों में विविधता के गुण होते हैं । ये विशेष सांस्कतिक नियम के अन्तर्गत विभिन्न विकल्प प्रस्तुत करते हैं । प्रत्येक समाज के आदर्श नियम एक समान नहीं होते . उनमें विविधता होती है । एक समाज में आदर्श नियम एक ही तरह के नहीं होते । आचरण करने के अनेक आदर्श नियम हैं । अतः आदर्श नियम विविध प्रकार के होते हैं ।
3.सामाजिक नियम ( Social Rules ) : आदर्श नियम सामाजिक नियम हैं । इसमें छोटे – बड़े विभिन्न नियम व उपनियम शामिल हैं । इसके निर्वाह की अपेक्षा समाज के सभी सदस्यों से की जाती है । ये ‘ कर्तव्य – भावना ‘ से सम्बन्धित है । इसके पीछे पूरे समूह व समाज की शक्ति होती है । प्रत्येक व्यक्ति से आदर्श नियमों का पालन करने की उम्मीद की जाती है । मानव की सोच व व्यवहार आदर्श नियमों से निर्देशित व प्रभावित होते रहते हैं ।
- मानव अस्तित्व के लिए ( For the Existence of Man ) : आदर्श नियम मानव अस्तित्व के अभिन्न अंग हैं । यह मानवीय आवश्यकताओं की पर्ति के साधन हैं । प्रत्येक आदर्श नियम का विकास व पालन किसी न किसी आवश्यकता – पूर्ति से सम्बन्धित है । फलस्वरूप यह एक बड़ी सीमा तक आन्तरिक बन चुके हैं । आर . बीयरस्टीड ( R . Bierstedt ) के शब्दों में , ” जहाँ आदर्श नियम नहीं है , वहाँ समाज भी नहीं है । ” इसका सम्बन्ध सामाजिक उपयोगिता से है ।
- जीने की विधि ( Way of Life ) : आदर्श नियम मानव के जीने की विधि है । इसका निर्माण व विकास तथ्यात्मक परिस्थितियों की आधारशिला पर होता है । इसके अनुसार आचरण करने के लिए व्यक्ति को विशेष प्रयास नहीं करने पड़ते । आदर्श नियमों की प्रकृति सरल होती है । बिना अधिक सोचे – विचारे ही मनुष्य इनके अनुसार व्यवहार करता रहता है । सामाजीकरण की प्रक्रिया के क्रम में बचपन से ही अपने समाज के आदर्श नियमों से परिचित होते रहते हैं और उसके अनुसार आचरण करना स्वाभाविक हो जाता है । फलस्वरूप यह जीने की एक विधि हो जाती है ।
- नियन्त्रण की प्रविधि ( Technique of Control ) : आदर्श नियम नियन्त्रण की एक प्रमुख प्रविधि है जिसका उल्लेख के . डेविस ( K . Davis ) ने किया है । उन्हीं के शब्दों में , ” सामाजिक आदर्श नियम एक प्रकार के नियन्त्रण हैं । मानव समाज इन्हीं नियन्त्रणों के बल पर अपने सदस्यों के व्यवहार पर इस प्रकार अंकश रखता है जिससे वे सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के रूप में कार्य करते रहें , भले ही उनकी प्राणिशास्त्रीय आवश्यकताओं में इससे बाधा पहुँचती हो । “
7.. नियम जिनका पालन करने की अपेक्षा उस समाज के सभी सदस्यों से की जाती . सामाजिक प्रतिमानों में अनेक छोटे एवं बड़े नियम और उपनियम होते हैं ।सभी समाजों में अनिवार्य रूप से पाये जात सामाजिक अस्तित्व की रक्षा ,
. पालन बाह्य दबाब के कारण नहीं बल्कि स्वाभाविक व्यवहार के अंग बन चके होते है .
8 सापेक्ष होते हैं अर्थात् सभी व्यक्तियों पर अथवा सभी परिस्थितियों में समान रूप से लागू नहीं होते । नैतिक कर्तव्य की भावना से संबंधित होते हैं , . व्यक्ति को प्रभावित करते हैं और उनसे प्रभावित भी होते हैं । लिखित एवं अलिखित दोनों प्रकार के होते सामाजिक उपयोगिता एवं आवश्यकताओं
- सामाजिक नियंत्रण सामाजिक प्रतिमान सामाजिक नियंत्रण के वे साधन हैं जो मानवीय व्यवहारों को नियंत्रित एवं व्यवस्थित करते हैं । माटोकालाकि
किंग्सले डेविस कहते हैं कि प्रत्येक समाज में दो प्रकार की व्यवस्थाएँ पायी जाती हैं –
1 . आदर्शात्मक ( Normative order ) ,
2 . यथार्थ व्यवस्था ( Factual order )
आदर्शात्मक व्यवस्था बतलाती है कि किस प्रकार का व्यवहार करन चाहिए अर्थात् आदर्शात्मक व्यवस्था : ‘ क्या होना चाहिए की व्याख्या है । दूसरे शब्दों , समाज अपने सदस्यों से जो अपेक्षाएँ रखता है वे . आदर्श व्यवस्था का रूप हैं । उदाहरण के लिए , रेलवे स्टेशन पर टिकट लेने वाले व्यक्तियों से यह दे अपेक्षा की जाती है कि वे व्यवस्था बनाये रखने के लिए लाईन में खड़े होकर टिकट लें । इसके अतिरिक्त समाज में एक – दूसरे प्रकार की वास्तविकता पायी के जाती है जो यथाथे व्यवस्था का बोध कराती है । जहाँ । आदर्श व्यवस्था किस प्रकार व्यवहार होना चाहिए , क बोध कराती है , वहीं यथाथे व्यवस्था यह बताती है त कि वास्तव में किस प्रकार का व्यवहार होता है ।यथार्थ व्यवस्था दो प्रकार की हो सकती है . ( क ) सामाजिक प्रतिमानों के अनुकूल , ( ख ) सामाजिक प्रतिमानों के प्रतिकूल । वास्तविक स्थिति में व्यक्ति मानदण्डों के अनुकूल भी व्यवहार कर सकता है और मानदण्डों के प्रतिकूल भी ।
सामाजिक मूल्य
( Social values )
समाजशास्त्र में मूल्यों का अध्ययन विशेष महत्व का विषय है । समाजशास्त्र की एक विशिष्ट शाखा ‘ मूल्यों का समाजशास्त्र ‘ है , जो मूल्यों और समाज के सम्बन्धों का अध्ययन करती है । मूल्य समाज के आधार है । मानव समाज और पशु समाज में जो अन्तर है , वह मूलतः मुल्यों पर आधारित है । मूल्य समाज को स्थायित्व प्रदान करते हैं । इनमें परिवर्तन समाज मे परिवर्तनलाताहै । समाजशास्त्र में मूल्य एक प्रकार का मानदण्ड है पर साधारण मानदण्ड को हम मूल्य नहीं कहते हैं । जो उच्चकोटि के मानदण्ड होते हैं उसे ही जॉनसन ने मूल्य कहा है । वे मानदण्ड जो समाज में एक आदर्श स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं , मूल्य कहे जाते हैं । सामाजिक मूल्य से हमें ज्ञात होता है कि कौन सा आचरण समाज के लिए ज्यादा अपेक्षित है । मूल्य के साथ हमेशा यह भाव जुड़ा होता है कि समाज के लिए सबसे अधिक जरूरी क्या है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि जो मानदण्ड समाज के लिए सबसे अधिक वांछनीय है उसे ही मूल्य कहा जाता है । उदारता , ईमानदारी , देशभक्ति , सत्यता , मानवता उपकार , दानशीलता इत्यादि मूल्य है जो सुनने में अच्छे लगते हैं , वातें करने में अच्छे लगते हैं लेकिन इनको अपने जीवन में लागू करना कठिन होता है । इस प्रकार सामाजिक मूल्य वे मानक या धारणाएं जिनके आधार पर हम किसी व्यक्ति के व्यवहार वस्तु के गुण , लक्ष्य , साधन एवं भावनाओं आदि को उचित या अनुचित , अच्छा या बुरा ठहराते हैं । मूल्य एक प्रकार से सामाजिक माप या पैमाना है जिसके आधार पर किसी वस्तु का मूल्यांकन किया जाता है ।
जब तक सामाजिक मानदण्डों के अनुकूल व्यवहार होता है तब तक ही समाज में व्यवस्था बनी रहती है , किन्तु जब समाजिक मानदण्डों का उलंघन होने लगता है तो समाज में दुर्शीय के शब्दों में अप्रतिमानता ( Anomic ) की स्थिति आ जाती है । कहने का तात्पर्य यह है कि उस समाज में सामाजिक मानदण्ड तो होते हैं किन्तु उनके निरंतर उलंघन से अप्रतिमानता की स्थिति आ जाती है जिससे अस्वस्थ समाज ( Sick Society ) का निर्माण होता है । इस प्रकार सामाजिक मानदण्ड किसी भी स्वरूप समाज की रीढ़ है । बिना सामाजिक मानदण्डों की सामाजिक ढाँचा खड़ा नहीं रह सकता ।
किंग्सले डेविस – “ सामाजिक प्रतिमान एक प्रकार के नियंत्रण है । मानव समाज इन्हीं इन्हीं नियंत्रणों के बन पर अपने सदस्यों के व्यवहार पर इस प्रकार अंकुश रखता है जिससे वे सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के रूप में कार्य करते रहें , भले ही प्राणी उनकी प्राणीशास्त्रीय आवश्यकताओं में इससे बाधा पहुंचती हों । ” •
बुड्स – सामाजिक प्रतिमान वे हैं जो मानव व्यवहार की नियंत्रित करते हैं , व्यवस्था में सहयोग देते हैं तथा किसी विशेष स्थिति में व्यवहार की भविष्यवाणी करना बनाते हैं । ‘
. किम्बाल यंग – “ सामाजिक प्रतिमान समूह की अपेक्षाएं है । “
बीरस्टीड – “ सामाजिक प्रतिमान एक प्रमापित कार्यप्रणाली का रूप है । वह कार्य संपन्न करने का तरीका है जो हमारे समाज में स्वीकृत है । ” .
हारालाम्बोस – ” प्रत्येक संस्कृति में ऐसे निर्देश बड़ी संख्या में पाये जाते हैं जो विशिष्ट परिस्थितियों में व्यवहार को निर्देशित करते हैं । ऐसे निर्देशों को ही मानदण्ड कहते हैं ।
राबर्ट बीरस्टीड सामाजिक मानदण्डों की सामाजिक व्यवहार के नापने के पैमाने के रूप में देखा है । व्यवहार के संस्थागत एवं सांस्कृतिक तरीके को ही सामाजिक प्रतिमान या मानदण्ड कहा जाता है । ये समाज के मेरुदण्ड के समान है जिनके अभाव में कोई भी समाज व्यवस्थित रूप से खड़ा नहीं हो सकता । सरल शब्दों में , समाज में आचरण के नियम ही सामाजिक प्रतिमान कहलाते हैं ।
फिचर – समाजशास्त्रीय दृष्टि से मूल्यों को उन कसौटियों ( Criteria ) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा वह समूह या समाज व्यक्तियों , प्रतिमानों उद्देश्यों और अन्य सामाजिक – सांस्कृतिक वस्तुओं के महत्व का निर्णय करते हैं । ” इस प्रकार मूल्य सामाजिक माप या पैमाना है जिसके आधार पर किसी वस्तु का मूल्यांकन किया जाता है । समाज एवं संस्कति भिन्नता के कारण ही सामाजिक मूल्यों में भी भिन्नता पायी जाती है । उदाहरणार्थ , भारत में यौन – पवित्रता का मूल्य पाया जाता है इसलिए यहां विवाह – पूर्व एवं विवाह के बाद पति – पत्नी के अतिरिक्त यौन – संबंधों की छूट नहीं दी जाती । दूसरी ओर अनेक आदिम समाजों में विवाह से पूर्व एवं विवाह के बाहर भी यौन – संबंध रखने की छूट होती है ।
मूल्यों पर राधाकमल मकर्जी ( R . K . Mukerjee ) का कार्य बड़ा महत्वपूर्ण है । इन्होंने इस पर एक पृथक पुस्तक ‘ द सोशल स्ट्रक्चर ऑफ वैल्यूज ‘ ( The Social Structure of Values ) लिखी है , जो अपने आप में अनूठी है । का मूल्य वे सामाजिक मानदण्ड ( Social Standard ) या आदर्श ( Ideal ) या लक्ष्य ( Aims ) हैं जो मानव जीवन के अन्तःसम्बन्धों व व्यवहार को स्पष्ट करते हैं । उदाहरणस्वरूप – हिन्दू विवाह से सम्बन्धित मूल्य है अपनी जाति में विवाह होना तथा विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाना । फलस्वरूप इस मूल्य का सामाजिक प्रभाव यह होता है कि हिन्दुओं में विवाह – विच्छेद की भावना पनप नहीं पातीहै ।कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्न हैं
राधाकमल मुकर्जी ( R . K . Mukerjee ) के अनुसार , “ मूल्य समाज द्वारा मान्यताप्राप्त इच्छाएं तथा लक्ष्य हैं जिनका आन्तरीकरण सीखने या समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से होता है और जो प्रतीतिक अधिमान्यतायें , मानदण्ड तथा अभिलाषाएँ बन जाती हैं । ” मुकर्जी की इस परिभाषा से स्पष्ट होता है – ( अ ) मूल्य सार्वभौमिक मानवीय इच्छा की अभिव्यक्ति है । ( ब ) मूल्यों की सहायता से ही व्यक्ति अपने लक्ष्यों व इच्छाओं को वास्तविक रूप देने का प्रयत्न करता है । ( स ) मूल्यों को व्यक्ति समाजीकरण के द्वारा आन्तरीकरण करता है । सामाजिक जीवन , सम्बन्ध व संस्था के जो विभिन्न प्रतिमान ( Pattern) हमें देखने को मिलते हैं ,
एच . एम . जॉनसन ( H . M . Johnson ) के शब्दों में , “ मूल्य को एक धारणा या मानदण्ड के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो कि सांस्कृतिक या व्यक्तिगत हो सकते हैं । इनके द्वारा वस्तुओं की तुलना की जाती है . स्वीकार या अस्वीकार की जाती है – एक दूसरे की तुलना में उचित या अनुचित , अच्छा या बुरा , ठीक या गलत माना जाता है । ” इस परिभाषा मे ,
इन मूल्यों को व्यक्ति समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सीखता है और आंतरीकृत करता है तथा इन्हीं के अनुरूप आचरण करने की सोचता है ।समाज द्वारा मान्यता प्राप्त इच्छाएतथा लक्ष्य हैं , जिनका आंतरीकरण सीखने या समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से होता है और जो प्राकृतिक अधिमान्यताएं , मानकतथा अभिलाषाएँ बन जाती हैं । “
– सामाजिक मूल्य सामाजिक मानक हैं ।
– सामाजिक मूल्यों के बारे में समूह में एकमतता पायी जाती है ।
-. सामाजिक मूल्यों के पीछे उद्वेग भावनाएँ होती है ।
– सामाजिक मूल्य गतिशील होते हैं
मूल्यों की विशेषताएँ
( Characteristics of Values )
समाज का अस्तित्व मूल्यों पर ही आधारित है । मूल्य मानव की प्राणीशास्त्रीय प्रवृत्तियों , मूल प्रवृत्तियों , इच्छाओं व हितों में पाया जाता है । इसकी प्रकृति को निम्न विशेषताओं के माध्यम से अधिक स्पष्ट रूप में समझा जा सकता है
1 गतिशीलता एवं परिवर्तनशीलता ( Dynamicity and Changeability ) : मूल्यों में गतिशीलता और परिवर्तनशीलता का गुण पाया जाता है । सामाजिक परिवर्तन के प्रभाव में मूल्यों के रूप आवश्यकतानुसार बदलते रहते हैं । कभी – कभी नये मूल्य विकसित होते हैं , कभी – कभी प्रचलित मूल्य संशोधित होते हैं और कभी – कभी दूसरी संस्कृति के मूल्यों को अपना लिया जाता है । जैसे – स्त्री व पुरुष के बीच समानता का मूल्य आज विशिष्ट से आम होने की बात है ।
- सांस्कृतिक तत्व ( Cultural Element ) : मूल्यों का संस्कृतिविशेष से सम्बन्ध देखा जा सकता है । यही कारण है कि दो भिन्न संस्कृति के मूल्यों में भिन्नता देखने को मिलती है । जैसे – अभिवादन के ढंग से सम्बन्धित मूल्यों में दो समाजों में भिन्नता देखी जाती है । इसके बावजूद समाज में कई मूल्य ऐसे भी पाये जाते हैं जो समस्त मानव जाति पर लागू होते हैं तथा प्रभावित करते हैं । जैसे – ईमानदारी , कार्य संस्कृति , सत्य व अहिंसा आदि से जुड़े मूल्यः ।
3.सार्वभौमिकता ( Universality ) : मूल्य में सार्वभौमिकता का गुण पाया जाता है । यह विश्वव्यापी है । किसी उद्देश्य को प्राप्त करने में इसकी सहायता ली जाती है । व्यक्ति द्वारा की जाने वाली क्रियाएँ मूल्य द्वारा ही निर्धारित होती हैं । विभिन्न समाजों में मूल्यों में भिन्नता हो सकती है , जैसे भारत के हिन्दुओं में विवाह – विच्छेद को सही नहीं माना जाता , जबकि अमेरिकन समाज में इसे सही माना गया । इसके बावजूद प्रत्येक समाज की संरचना का आवश्यक अंग मूल्य है । मूल्य सामाजिक मानदण्ड है , जो सामाजिक जीवन के अन्तःसम्बन्धों को परिभाषित करने में सहायक होते हैं ।
4.प्रतीकों ( Symbols ) : मूल्यों को प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है । सभी प्रकार के पाये जाने वाले सम्बन्ध प्रतीकात्मक होते हैं । मूल्यों का अर्जन प्रतीकों के द्वारा ही सम्भव है । मुकर्जी ( Mukerjee ) ने प्रतीकों को स्पष्ट करते हुए लिखा है , “ मूल्य मानवीय सम्बन्धों के संचार एवं नियन्त्रण के वाहन हैं । ” समाज के अस्तित्व का प्रकटीकरण मूल्यों के माध्यम से ही होता है । जैसे – माता व पिता को आदर देना मूल्य है । इस मूल्य का प्रतीक माता पिता की सेवा व चरण छूना है ।
5.विभिन्नता -सामाजिक मूल्यों में विभिन्नता पायी जाती है । सामाजिक मूल्य सामाजिक कल्याण एवं सामाजिक आवश्यकताओं के लिए महत्वपूर्ण समझे जाते हैं ।