सामाजिक प्रक्रियाएँ, सहयोग

 

सामाजिक प्रक्रियाएँ

  (SOCIAL PROCESSES)

 जब भी एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आता है तो उनके बीच विचारों और भावनाओं का अंतःकरण होता है।  इसमें दोनों एक – दूसरे को प्रभावित करते हैं और प्रभावित होते हैं।  इसे ही सामाजिक अंतःक्रिया कहते हैं।  सामाजिक अंतर: तीन स्थिति में होता है – पहला।  व्यक्ति – व्यक्ति के बीच, दूसरा, व्यक्ति – समूह के बीच और तीसरा, समूह समूह के बीच।  तीनों स्थितियों में उनके बीच निरन्तर टाटा अन्तःक्रियाएँ होती रहती हैं।  सामाजिक अंतःक्रिया के विभिन्न स्वरूप ही सामाजिक प्रक्रियाएँ हैं। 

 जब एक व्यक्ति या समूह अन्य व्यक्ति या समूह से संपर्क स्थापित करता है तो उनके बीच अंतर: क्रिया होती है, वे एक – दूसरे को विचारों, भावनाओं और क्रियाओं से प्रभावित करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके व्यवहारों में परिवर्तन होता है।  यह परिवर्तन सहकर्मी, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता, अनुकूलन और समायोजन इत्यादि के रूप में प्रकट होता है।  अतः सामाजिक प्रक्रियाएँ।  कोई नवीन धारणा न होकर सामाजिक अन्तःक्रिया के ही विभिन्न स्वरूप है।  व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न व्यक्तियों या समूहों से संपर्क स्थापित करता है।]  इससे उनके बीच आठ अंतरःus होता है।  यह अंतर: क्रिया किसी भी रूप में हो सकती है – सहयोग, संघर्ष इत्यादि।  अंतर: क्रिया के विभिन्न स्वरूपों को ही सामाजिक प्रक्रिया के नाम से जाना जाता है।  अर्थात् सामाजिक प्रक्रिया को सामाजिक अंतःक्रिया से अलग नहीं समझा जा सकता है।  विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक प्रक्रिया को स्पष्ट किया है

मैकवर और पेज ने प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखा है।  “एक प्रक्रिया का अर्थ जो निरन्तर परिवर्तन से है, जो किसी अवस्था में पहले से विद्यमान शक्तियों की क्रियाशीलता के द्वारा एक निश्चित तरीके से होता है। इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि प्रक्रिया ऐसा परिवर्तन है, जिसमें निरन्तरता और निश्चितता विद्यमान होती है। 

 गिलिन और गिलिन (गिलिनंद गिलिन) के शब्दों में, “सामाजिक प्रक्रिया से हमारा तात्पर्य अंतःक्रिया के उन तरीकों से है जिनका अवलोकन हम तब करते हैं  रते हैं जब व्यक्तियों और समूहों के बीच संपर्क होता है और फलस्वरूप सामाजिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था स्थापित होती है, या जब किसी परिवर्तन के फलस्वरूप वर्तमान जीवन – शैली में अव्यवस्था होती है।

“लंडबर्ग और अन्य के अनुसार,” प्रक्रिया का अर्थ समान है।  विशिष्ट और पूर्वानुमान परिणाम।  की ओर ले जानेवाली संबंधित घटनाओं के सूचकांक से है।  “

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ग्रीन (ग्रीन) ने प्रक्रिया के विषय में लिखा है, “ये सामाजिक प्रक्रियाएँ सामाजिक अंतरःक्रिया के विशिष्ट रूप है।”

जे एच एच फिशर(FICHTER) ने बताया कि सामाजिक प्रक्रिया दो स्थितियों (स्थितियों) और भूमिकाओं (भूमिकाओं) के बीच ऐसी है।  अंतर: क्रिया है जिसका अंतरर्गत दो या दो अधिक व्यक्तियों का व्यवहार प्रभावित होता है।  यह दो भूमिकाओं या दो स्थितियों के बीच अंतर: केवल मात्र नहीं है।  अंत क्रिया तो सिर्फ एक प्रारम्भिक स्थिति है जो बड़ी प्रक्रिया के लिए पृष्ठभूमि तैयार करती है।  दो खिलाड़ियों के बीच भक्ति या चुनौती की बाते केवल अंतर: क्रिया है, लेकिन चुनौती स्वीकार कर खेल के मैदान में उतरकर दर्शकों के बीच अपना खेल दिखाना एक सामाजिक प्रक्रिया है।  फिक्टर ने लिखा है “सामाजिक प्रक्रिया भूमिकाओं की दो स्थितियों के बीच की कड़ी से अधिक है।”

 उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सामाजिक प्रक्रिया सामाजिक मान्यताओं में होने वाला निरन्तर और निश्चित परिवर्तन है।  इस सन्दर्भ में एक बात यह है कि सामाजिक प्रक्रिया का पर्ण रूप से स्थायी होना आवश्यक नहीं है।  परिस्थितियों में परिवर्तन होने से उनका स्वरूप में भी परिवर्तनशील हो जाता है।  उदाहरण के लिए सहयोग संघर्ष में और संघर्ष सहयोग में बदल जाता है।  मनुष्य का सामाजिक जीवन किसी – न – किसी रूप में सामाजिक प्रक्रियाओं से प्रभावित होता है।  का सामाजिक प्रक्रिया के दो प्रभावी पक्ष होते हैं (i) सामाजिक संपर्क और (ii) संचार सामाजिक संपर्क सकारात्मक या नकारात्मक कुछ भी हो सकता है।  संचार के अभाव में संपर्क अधूरा रह जाता है।  केवल संपर्क मात्र से सामाजिक प्रक्रिया पूरी तरह से नहीं होती है। 

 सामाजिक प्रक्रियाओं के प्रकार

(TYPES OF SOCIAL PROCESSES)

 सामाजिक प्रक्रियाएं व्यक्ति और समूह के जीवन में बहुत ही महत्वाकांक्षी भूमिका अदा करती हैं।  समाजशास्त्रियों ने सामाजिक प्रक्रियाओं को दो वर्गों में बाँटा है

1.संगठनकारी सहयोगी व सामाजिक प्रक्रिया (एकीकृत या साहचर्य सामाजिक प्रक्रिया)

2.पृथकतावादी व असहयोगी सामाजिक प्रक्रिया (विघटनकारी या सामाजिक सामाजिक प्रक्रिया)

संगठनकारी सामाजिक प्रक्रियाएँ ( Integrative Social Processes )

 

सहयोग

( Co-operation )

 सहयोग एक संगठनकारी सामाजिक प्रक्रिया है । सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में सहयोग देखने को मिलता है । मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति अकेला नहीं कर सकता । इसके लिए उसे अन्य लोगों के सहयोग का । आवश्यकता पड़ती है । व्यक्ति जब जन्म लेता है तब वह बिल्कल असहाय रूप में धरती पर आता है । उसे अपने भरण – पोषण के लिए अन्य लोगों पर निर्भर करना पड़ता है । परिवार के सहयोग से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का । समुचित विकास होता है । सहयोग के अभाव में सामाजिक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । आज का संसार । सहयोग के बिना नहीं टिक सकता । राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की प्रक्रिया का योगदान देखने का । मिलता है । सहयोग के नये – नये रूप सामने आये हैं । समाजशास्त्रियों ने सहयोग को स्पष्ट करने के लिए अपने – अपने शब्दों में इसकी परिभा षा दी है ।

फिक्टर ( Fichter ) के अनुसार , ” सहयोग सामाजिक प्रक्रिया का वह रूप है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति अथवा समूह मिल – जुलकर एक सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिए काम करते हैं । ‘ ‘ फिक्टर ने सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों अथवा समूहों को मिल – जुलकर कार्य करना बताया ।

 फेयर चाइल्ड ( Fair Child ) के शब्दों में , ” सहयोग एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अथवा समूह कम या अधिक संगठित होकर अपने सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सम्मिलित प्रयास करते हैं । इसमें संगठित प्रयास पर बल दिया गया है । अर्थात् सहयोग के लिए व्यक्ति अथवा समूह संगठित रूप से कार्य करते हैं ।

 मेरिल तथा एल्ड्रिज ( Merril and Eldredge ) के अनुसार “ सहयोग को सामाजिक अन्त : क्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति सामान्य लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साथ – साथ कार्य करते है । “

ग्रीन ( Green ) ने सहयोग की परिभाषा देते हुए लिखा है , ” सहयोग दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा समान रूप से इच्छित लक्ष्य तक पहुँचने तथा कोई कार्य पूरा करने का निरन्तर और सामान्य प्रयास है । ‘ ‘ ग्रीन ने बड़े ही सरल एवं संक्षिप्त रूप से सहयोग की परिभाषा दी है । इनकी परिभाषा में तीन प्रमुख बातें बताई गई है ( i ) मिल – जुलकर कार्य करना ( ii ) एक सामान्य लक्ष्य तथा ( iii ) लक्ष्यों को प्राप्त करने का निरन्तर प्रयास ।

 प्रो० डेविस ( Davis ) के अनुसार , ” एक सहयोगी समूह वह है जो एक ऐसे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मिल – जुल कर कार्य करता है जिसे सभी चाहते हैं । ” – डेविस ने भी अपनी परिभाषा में सामान्य लक्ष्य तथा मिल – जुलकर कार्य करने पर बल दिया है ।

इन परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सहयोग एक सामाजिक प्रक्रिया है , जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति अथवा समूह सामान्य लक्ष्य की पूर्ति के लिए मिल – जुलकर प्रयत्न करते है । किसी प्रक्रिया को सहयोग कहे जाने के लिए निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है ( i ) सहयोग के अन्तर्गत व्यक्तियों के बीच सामाजिक अन्तःक्रिया का होना आवश्यक होता है । ( ii ) सहयोग से समूह को शक्ति मिलती है । इससे बड़े – बड़े लक्ष्य आसानी से प्राप्त किये जा सकते है । ( iii ) सहयोग के लिए सामान्य उद्देश्य व लक्ष्य का होना जरूरी होता है । सामान्य उद्देश्य वाले लोग एकजुट होकर लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं । ( iv ) यह एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है । दनिया के हर समाज में सहयोग पाया जाता है । जिस समाज में संघर्ष एवं तनाव हमेशा बना रहता है वहाँ सहयोग पाया जाता है । ( v ) सहयोग समान इच्छा पर आधारित सामाजिक प्रक्रिया है । व्यक्ति के अन्तर्गत जबतक आन्तरिक इच्छा नहीं होगी तबतक सहयोग संभव नहीं है । ( vi ) सहयोग अपेक्षाकृत लम्बे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है । क्षणिक सहयोग सामाजिक प्रक्रिया नहीं कहला सकता । इसके लिए इसमें थोड़ी स्थिरता का होना जरूरी है । । ( vii ) सहयोग के लिए दो पक्ष का होना जरूरी है अर्थात् सहयोग छोटे स्तर ( दो व्यक्तियों के बीच ) तथा बड़े स्तर ( विभिन्न राष्ट्रों के बीच ) तक सम्भव है ।

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सहयोग की विशेषताएँ

( Characteristics of Co-operation )

विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर सहयोग की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार है

दो या दो से अधिक व्यक्ति ( Two or more persons ) सहयोग के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों अथवा समूहों का होना आवश्यक है । समाज में व्यक्ति – व्यक्ति के बीच , व्यक्ति – समूह के बीच या समूह समूह के बीच पारस्परिक सम्पर्क एवं भावनाओं और विचारों का आदान – प्रदान होता रहता है । दूसरे व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के अभाव में आदान – प्रदान नहीं हो सकता । व्यक्ति अकेले कुछ नहीं कर सकता । इसलिए व्यक्तियों और समूहों के बीच ही सहयोग होता है ।

सामान्य लक्ष्य ( Common goal ) – सहयोग का आधार सामान्य लक्ष्य होता है । सामान्य लक्ष्य के कारण ही व्यक्ति एक – दूसरे को सहयोग देते हैं । लक्ष्य ही व्यक्ति को सभी परिस्थितियों में बाँधे रहता है । सामान्य लक्ष्य के लिए व्यक्ति अथवा समूह संगठित होता है और उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास करता है । यदि सामने कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं रहता है तब वे संगठित प्रयास नहीं कर पाते । लक्ष्य के बिना व्यक्ति कार्य करने के लिए प्रेरित भी नहीं होता । अतः सहयोग के लिए व्यक्ति अथवा समूह के सामने कोई सामान्य लक्ष्य होना जरूरी है ।

व्यापक हित ( Wide interest ) — सहयोग से व्यक्ति विशेष के हित की ही रक्षा नहीं होती बल्कि समूह अथवा समाज विशेष के हित की भी रक्षा होती है । सहयोग की प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति अपने हितों को पूरा करता है साथ – ही – साथ इसकी प्रेरणा से समाज को संगठित तथा व्यवस्थित बनाता है । इसका प्रभाव राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी देखने को मिलता है । इससे स्पष्ट होता है कि सहयोग की प्रक्रिया में बहुत ही व्यापक हित अन्तर्निहित होता है ।

 

विविधता ( Diversity ) — सहयोग में विविधता की विशेषता पायी जाती है । विभिन्न अवसरों तथा परिस्थितियों में सहयोग का विभिन्न स्वरूप होता है । विचारों तथा कार्यों के स्तरों में भी सहयोग पूर्णतया समान नहीं होता । सहयोग का दायरा बड़ा भी होता है और छोटा भी । यह प्रत्यक्ष भी हो सकता है और अप्रत्यक्ष भी । सहयोग का स्वरूप तत्कालीन भी हो सकता है तो दूसरी ओर दीर्घकालीन भी । इस प्रकार सहयोग के अनेक स्वरूप होते हैं ।

 

हम की भावना ( We Feeling ) — सहयोग में हम की भावना पायी जाती है । सामान्य उद्देश्यों एवं लक्ष्यों से प्रेरित कार्य करने के फलस्वरूप व्यक्तियों अथवा समूहों के बीच हम की भावना उत्पन्न हो जाती है । हम की भावना जागृत होने से सहयोग की प्रक्रिया और अधिक संगठित तथा प्रभावशाली बन जाती है ।

 

 

 संगठित प्रयास ( Organised efforts ) – सहयोग के लिए संगठित प्रयास होता है । संगठित रूप से प्रयत्न करने पर बड़े – बड़े कार्य या लक्ष्य आसानी से पूरे हो जाते है । व्यक्तियों अथवा समूहों को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संगठित प्रयास करना पड़ता है । जितना अधिक संगठन के द्वारा सहयोग होता है उतना ही समाज अधिक स्थायी एवं संगठित होता है । जबतक बहुत – से लोग एक साथ संगठित होकर प्रयत्न नहीं करते तबतक सहयोग की प्रक्रिया पूरी नहीं होती ।

निरन्तरता ( Continuity ) – सहयोग निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है । सहयोग के लिए कोई सीमित एवं निश्चित क्षेत्र नहीं होता । जीवन के हर क्षेत्र में तथा हर मौके पर सहयोग की आवश्यकता पड़ती है । समाज का स्वरूप चाहे जैमा भी हो सहयोग के बिना नहीं चल सकता । समाज सरल हो अथवा जटिल , परम्परागत हो अथवा आधुनिक , सहयोग किसी – न – किसी रूप में अवश्य पाया जाता है । समाज के विभिन्न संगठन तथा संस्थाएँ । सहयोग की निरन्तरता को बनाये रखती है ।

पारस्परिक सहायता ( Mutual help ) – सहयोग में पारस्परिक सहायता एवं साथ – साथ मिलकर करने की भावना पायी जाती है । व्यक्ति अकेला अपनी आवश्यकताओं की पर्ति नहीं कर सकता । इसके लिए सहयोग की आवश्यकता पड़ता हा सहयाग के लिए पारस्परिक सहायता अति आवश्यक है । एक व्यक्त  अथवा समूह जबतक दूसरे व्यक्ति या समूह को कानूनी सहायता प्रदान नहीं करेगा तबतक सहकारी की।  प्रक्रिया सम्भव नहीं है। 

इच्छा पर निर्भर (Inspired by will ) – सहयोग व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है । प्रत्येक व्यक्ति की अपनी – अपनी आवश्यकताएँ हैं जिनकी पूर्ति वह अपनी इच्छानुसार करता है । इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक – दूसरे के साथ परस्पर सहयोग करता है । यहाँ जिन आवश्यकताओं की पूर्ति अथवा लक्ष्यों की प्राप्ति चाहता है उनके अनुसार वह अन्य लोगों के साथ सहयोग करता है । अत : सहयोग एक ऐच्छिक भावना है । इच्छा नहीं रहने पर व्यक्ति सहयोग नहीं करता ।

 

 

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सहयोग के प्रकार या स्वरूप

(TYPES OF CO-OPERATION)

 व्यक्तियों और समूहों के बीच कई प्रकार के सहयोग मिल जाते हैं।  विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सहयोग के विभिन्न प्रकारों और स्वरूपों की चर्चा की है।  यहां कुछ प्रमुख समाजशास्त्रियों द्वारा किए गए प्रकारों और स्वरूपों का उल्लेख किया जा रहा है।  मेकाइवर और पेज ने दो प्रकार के सहयोग की चर्चा की है

 प्रत्यक्ष सहयोग (डायरेक्ट को-ऑपरेशन) – जब विभिन्न व्यक्ति या समूह एक साथ मिलकर आमने – सामने के रामबन्ध द्वारा समान कार्य करते हैं तो उसे हम प्रत्यक्ष सम्बन्ध कहते हैं।  उदाहरण के लिए नहीं।  खेल खेलना, सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेना, साथ में खेती करना इत्यादि।  खेल खेलते समय हर व्यक्ति।  एक – दूसरे के साथ प्रत्यक्ष रूप से सहयोग करता है।  उसी प्रकार जब किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में कई लोग मिलकर कोई नाटक या नाच प्रस्तुत करते हैं तो यहाँ भी उनके बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है।  कहने का तात्पर्य।  यह है कि जब समान उद्देश्यों और लक्ष्यों से प्रेरित होकर व्यक्ति और समूह एक – दूसरे को आमने – सामने के सम्बन्धों द्वारा मदद करता है तो वह प्रत्यक्ष सहयोग करेगा।  यहाँ व्यक्ति आमने – सामने की स्थिति में कार्य करता है।

 

अप्रत्यक्ष सहयोग (अप्रत्यक्ष सह – संचालन) – जब व्यक्ति या समूह अलग – अलग रहकर समान उद्देश्य के लिए भिन्न – भिन्न कार्य करते है तो उसे अप्रत्यक्ष सहयोग कहते हैं।  कहने का तात्पर्य यह है कि अप्रत्यक्ष सहयोग में लोगों का अंतरिम लक्ष्य समान होता है लेकिन वे अलग – अलग विभिन्न कार्यों को सम्पन्न करते हैं।  उदाहरण के लिए एक जूते के कारखाने को लें।  इस कारखाने में विभिन्न लोग भिन्न – भिन्न कार्यों में लगे हुए रहते हैं, तब जाकर जूता तैयार होता है।  यहाँ लोगों के बीच श्रम – विभाजन पाया जाता है।  हर व्यक्ति अपने कार्यों को कौशल से पाता है।  इस प्रकार जहाँ भी श्रम – विभाजन पाया जाता है, वह दफ्तर हो या कारखाना, सदो का उद्देश्य या लक्ष्य समान होता है लेकिन, वे विभिन्न प्रकार के कार्यों में लगे रहते हैं।  यहाँ सभी व्यक्ति एक – दूसरे को अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करते हैं।  आधुनिक समाज में श्रम – विभाजन और विशेषीकरण का अधिक प्रसार हो गया है, फलस्वरूप अप्रत्यक्ष सहयोग का महत्त्व दिनोदिन बढ़ता जा रहा है।  द्वितीयक सम्बन्ध की प्रधानता होने पर व्यक्तियों के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध कम हो जाता है।  ऐसी स्थिति में उनके बीच अप्रत्यक्ष सहयोग होता है।  अर्थात् लोग एक – दूसरे को अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करते हैं। 

 ग्रीन (ग्रीन) ने जीएम संबंधित स्थितियों के आधार पर तीन प्रकार के सहयोग का उल्लेख किया है। 

प्राथमिक सहयोग (प्राथमिक सह – संचालन) प्राथमिक सहयोग में व्यक्ति समूह के स्वार्थ को ही अपना स्वार्थ समझता है।  इसके अन्तर्गत व्यक्तिगत हित की बात नहीं सोचकर समूह – कल की बात की।  जाता है।  प्राथमिक सहयोग प्राथमिक समूहों में पाया जाता है।  इस प्रकार के सहयोग में व्यक्ति समूह के लिए अपनी बड़ी – से – बड़ी खुशी – सुविधाओं का बलिदान करता है।  परिवार में सदस्यों के बीच इस प्रकार का सहयोग पाया जाता है। 

द्वितीयक सहयोग (द्वितीयक सह – संचालन) द्वितीयक सहयोग में व्यक्ति या समूह अपने स्वार्थ और हित की पूर्ति के लिए अन्य व्यक्तियों और समूहों को सहयोग करता है।  इस प्रकार के सहयोग में व्यक्ति अपने स्वार्थ से प्रेरित होकर कार्य करता है।  इसमें समूह – कल्याण की प्रधानता न होकर व्यक्ति कल्याण की प्रधानता होती है।  कोई भी व्यक्ति अलग रहकर अपने अधिकारों को पूरा नहीं कर सकता।  अत: वह अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए दूसरे व्यक्तियों को सहयोग करता है।  द्वितीयक सहयोग द्वितीयक समूह में विशेष रूप से पाया जाता है।  इस सहयोग को संतुलित सहयोग (औपचारिक सह – संचालन) भी कहते हैं।  आधुनिक समाज में इस प्रकार के सहयोग के बहुत उदाहरण हैं, जैसे विभिन्न संगठनों और दलों के बीच का सहयोग।  इस तरह के संगठनों या संस्थाओं में व्यक्ति अपने हितों की पूर्ति के लिए ही दूसरों को सहयोग करता है।  । 

तृतीयक सहयोग (तृतीयक सह – संचालन) – जब विभिन्न व्यक्ति या समूह अपने विशेषाधिकार को ध्यान में रखते हुए परिस्थिति के साथ समायोजन करते हैं तो उसे तृतीयक सहयोग कहते हैं।  यहाँ व्यक्ति परिस्थिति से अनुमोदन करने के लिए दूसरे को सहयोग करता है।  यह विशेष रूप से अवसरवादी होता है।  जब दो विभिन्न व्यक्तियों या समूहों के बीच संघर्ष से कुछ फायदा नहीं होता है तो वे आपस में प्रतिबद्धता कर लेते हैं।  कहने का तात्पर्य यह है कि संघर्ष से बचने के लिए इस प्रकार का सहयोग किया जाता है।  आये दिन तो विभिन्न संसाधनों और इकाइयों में हड़ताले होती रहती है।  इस हड़ताल और संघर्ष से बचने के लिए व्यक्तियों को अधिकारियों के साथ प्रतिबद्धता करना पड़ता है।  यहाँ यह अनुमोदन IIIk सहयोग ने कहा। 

ऑगवर्न और निमकॉफ (ओगबर्न और निमकॉफ) ने भी तीन प्रकार के सहयोग की चर्चा की है

सामान्य सहयोग (सामान्य सह – संचालन) सामान्य सहयोग में कुछ व्यक्ति मिलकर समान कार्य करते हैं।  इस प्रकार के सहयोगरत व्यक्तियों के विचारों और व्यवहारों में समानता पायी जाती है, अर्थात् जब समान रवैये और अभिरुचि के कुछ लोग मिलकर समान कार्य करते हैं तो ऐसे प्रयास को सामान्य सहयोग कहते हैं।  विशेष अवसरों पर जैसे कोई आकस्मिक हो गया हो या कोई सांस्कृतिक समारोह के अवसर पर व्यक्ति एक – दूसरे को सहयोग करता है तो ऐसे सहयोग को ही सामान्य सहयोग कहा जाता है। 

मित्रवत् सहयोग (अनुकूल सह संचालन) – मित्रवत् सहयोग में व्यक्ति आनन्द और सुख की प्राप्ति के लिए एक – दूसरे को सहयोग करता है।  इस प्रकार के सहयोग का उद्देश्य किसी विशेष अवसर पर आनन्द प्राप्त करना होता है सामूहिक नृत्य, गान, नाटक और गप – शप में भाग लेना मित्रवत् सहयोग का ही उदाहरण है।  इस तरह के कार्यक्रम में भाग लेने का मुख्य उद्देश्य आनन्द और सुखों की प्राप्ति है अर्थात इस सहयोग का दृष्टिकोण मनोरंजन करना होता है।

विभेदीकृत सहकारिता (विभेदित सह – संचालन) विभेदीकृत सहयोग में व्यक्ति समान उद्देश्य के लिए असमान कार्यों को करता है।)  कहने का मतलब यह है कि एक ही लक्ष्य की पूर्ति के लिए विभिन्न व्यक्ति।  भिन्न – भिन्न प्रकार के कार्य करते हैं।  उदाहरण स्वरूप भवन के निर्माण में लगे हुए सभी श्रमिक अलग – अलग कार्य करते हैं।  हए एक – दूसरे को सहयोग करते है।  यहाँ राजमिस्त्री, मजदूर आदि का उद्देश्य समान है किन्तु कार्य अलग – अलग है।  ।

 

सहयोग के कारण

(CAUSE OF CO-OPERATION)

 फ़िएक्टर ने सहयोग के कई कारणों पर प्रकाश डाला है।  उन्होंने बताया कि जब कुछ लोगों का समान स्वार्थ होता है तो वे स्वार्थवश एक दूसरे का सहयोग करते हैं।  दूसरा, कुछ लोग अपने समूह से इतनी घुलमिल जाते हैं कि समूह के हित में वे सबकुछ न्योछावर करने के लिए तैयार हैं जाते हैं।  जैसे सेना का जवान अपने देश के लिए सीमा पर एकजुट होकर सहयोग कर रहा है।  तीसरा, जब लोग यह महसूस करते हैं कि उनके समूह पर कोई खतरा है तो उस स्थिति में समूह के लोग आपस में सहयोग करते हैं।  जब दो राष्ट्रों के बीच युद्ध चलता है तब एक राष्ट्र के सभी लोग एक – दूसरे को सहयोग करने के लिए तत्पर रहते हैं।  अंत में फ़िएक्टर ने बताया कि सामाजिक संरचना के लिए बहुत आवश्यक होता है।  इसके बिना सामाजिक संरचना का बना रहना सम्भव नहीं हो सकता है।  मनुष्य की संस्थाएं अनन्त हैं।  इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति को एक – दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है।  इन सब कारणों से समाज के विभिन्न समूहों और लोगों के बीच सहयोग होता है। 

 

 

सहयोग के महत्त्व (IMPORTANCE OF CO-OPERATION)

 

 सहयोग सामाजिक जीवन का प्रमुख आधार है।  सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रो में सहयोग का बहुत अधिक महत्व है।  सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक आदि क्षेत्रों में सहयोग का महत्वपूर्ण स्थान है।  सहयोग के द्वारा कोई भी कार्य करने में सुविधा होती है।  आनेवाली कठिनाइयों से व्यक्ति मिल – जुलकर मुकाबला करता है।  इससे समस्या के समाधान के साथ – साथ समय की बचत भी होती है।  विभिन्न व्यक्तियों के बीच सहयोग के परिणामस्वरूप आज कई संकेतक हुए हैं, जिससे हमारा जीवन पहले की अपेक्षा अधिक सुखी और सरल हुआ है।  सहयोग से लोगों के बीच एकता की भावना उत्पन्न होती है और व्यक्ति हम की भावना से बँध जाता है।  हम की भावना से समाज का संगठन बना रहता है।  प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्थिति और स्थिति के अनुसार कार्य करते हए समूह – कल्याण का दृष्टिकोण रखता है।  हम की भावना और समूह – कल्याण से समाज के साथ – साथ देश भी शक्तिशाली होता है।  आर्थिक क्षेत्र में भी सहयोग का महत्त्व उल्लेखनीय है।  सहयोग के द्वारा ही उत्पादन का कार्य होता है।  वर्तमान युग में श्रम – विभाजन और विशेषीकरण से सहयोग के स्वरूप में परिवर्तन हो रहा है, किन्तु प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में सहयोग अनिवार्य पाया गया है।  विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहयोग की आवश्यकता पड़ती ही है।  व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास भी सहयोग का ही फल है।  बच्चा जब जन्म लेता है तब वह बिल्कुल असहाय होता है।  ऐसी स्थिति में उसे अपने माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों से सहयोग मिलता है।  जिसके फलस्वरूप वह जैवकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी के रूप में बदल जाता है।  सहयोग के अभाव में बच्चे जीवित नहीं रह सकते थे ‘जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति को दूसरे की आवश्यकता पड़ती है।  इस दौरान वह दूसरे को सहयोग देना भी सीख जाता है।  इससे स्पष्ट होता है कि मानव की प्रगति सहयोग पर ही निर्भर है।  सहयोग के बिना व्यक्ति शान्ति से काम नहीं कर पाता है।  सहयोग व्यक्तिवादिता को कम करके भाईचारे की भावना भर देता है।  विभिन्न प्रकार की एकता के बाद भी व्यक्ति सहयोग से प्रगति की ओर बढ़ता है।

 

 

 

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